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सरस्वतीपुत्र श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि । दौलतसिंह लोढ़ा · अरविंद ' बी. ए. सरस्वती विहार-भीलवाड़ा संसार पर भिन्न २ विचारक, ज्ञानी, विद्वान् एवं अनुभवप्रधान व्यक्तियोंने अपने २ हाष्टकोण से विचार करके यह अंत में सबने एक मतसे स्थिर कर दिया है कि संसार असार है, यह अशाश्वत है, यहाँ जो जन्मता, उत्पन्न होता है वह भी अशाश्वत है; फलतः संसार में आसक्ति रखना मूर्खता, अज्ञता तथा मिथ्या विचार है । इतना सामने सदा रहने पर भी यह आत्मा मायावी देह में प्रविष्ट हो कर, सांसारिक आकर्षणों में उलझ कर, तेरा-मेरा के चक्र में फंस कर, भौतिक पदार्थों से प्राप्त होनेवाले सुख-सुविधा से मोहित हो कर, सुष्ठ-मिष्ठ के फेर में, स्वजन-परिजन-कलत्र-पुत्र-स्त्री-मित्र के मोह-ममत्व में सदा अपनी अमरता, शाश्वतता को भूल कर उत्पात करता रहा है । जब २ संसार में विकट रण, पारस्परिक द्वन्द्व, परस्पर विग्रह, चौरी, मैथुन, स्वार्थ, संहार, छल-कपट-पाखण्ड आदि दुःखद कुकृत्यों का सार्वत्रिक प्रावस्य हुआ है विचारक, ज्ञानी एवं विद्वानोंने अपनी आहुति दे कर तथा अपना सर्वस्व देकर भी जग का त्राण प्राणार्पण करके किया है, ऐसा कथा, पुराण, इतिहास से सिद्ध होता है । श्रीमद् राजेन्द्रसूरि संसार के ऐसे ही विचारक, ज्ञानी एवं विद्वानों में और भारत में वीसवीं शताब्दी में उत्पन्न हुये प्रसिद्ध सुधारक महाव्यक्तियों में एक अग्रणी, तपस्वी, कर्मठ, श्रमशील, त्यागी, विद्वान् साधु हो गये हैं। ऐसे महाविद्वान् मुनिपति का विशाल दृष्टिकोण एवं व्यापक क्षेत्र में स्मरण-उत्सव का आयोजन प्रेरणादायी, उपयोगी और नव विचार एवं भाव देनेवाला ही रहेगा इसमें कोई विचार-वैभिन्य नहीं। मैं श्रद्धा के पुष्प आपके अति संक्षिप्त जीवन वृत्त को रच कर भेंट करता हूँ, वह मेरे स्नेही पाठकों को स्वीकार्य होगा और उत्सव के अवसर पर श्रद्धाञ्जली रूप में स्वीकृत होगा ऐसी आशा है।
वीरमाता राजस्थान भूमि के — भरतपुर ' नाम के प्रसिद्ध नगर में निवास करनेवाले जैन उपकेशज्ञातीय पारख (परीक्षक) गौत्रीय कुल में वि. सं. १८८३ पौष शुक्ला ७ (सप्तमी)
गुरुवार तदनुसार दिसम्बर ३ सन् १८२७ को आप का जन्म वंश-परिचय हुआ था। पिता ऋषभदास और माता केसरबाई आपको अल्पायु
में ही छोड़ कर मृत्यु को प्राप्त हो गये थे। आपका शिक्षण आपके ज्येष्ठ भ्राता माणिकलालने करवाया था। गंगाबाई ज्येष्ठा और प्रेमबाई नाम की कनिष्ठा