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उपकारी गुरुदेव श्रीराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । यह देश महापुरुषों की परम्परा का देश है, यहाँ पर एक न एक महापुरुष समयसमय पर होते रहते हैं।
हाँ तो मैं आज जिस महापुरुष की झाँकी आपको दिखला रहा हूँ वे हैं हमारे पूजनीय गुरुदेव प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । ये बीसवीं शताब्दी में जैन-धर्म के एक महान् आचार्य हो चुके हैं। आपका बचपन का जीवनकाल भी क्रांतिमय रहा है । आप विद्यार्जन में, व्यापार में, व्यवसाय में, व्यवहारादि में परम कुशल थे।
सांसारिक सुख को आपने तृणवत् समझा और आपकी इच्छा यही रहती थी कि मैं कब अकिंचन बन कर समाज की सेवा करूँ और धर्म का वास्तविक मर्म समझू । निदान आपने सांसारिक बंधनों को त्यागा और त्यागी बने, विद्याभ्यास किया और विद्वान बने । उस समय यद्यपि अनेक आचार्य, साधु, यति इत्यादि जैन धर्म का प्रचार करते थे; किन्तु आपको उनके आचारों और व्यवहारों से सन्तोष न था। जिस धर्ममार्ग में चलकर प्राचीन जैन महर्षियोंने उत्कृष्ट आचार पालकर शुद्ध शाश्वत धर्म की देशना दी थी, वही समार्ग आपको भी रुचिकर था । आपने अध्ययन कर अनवरत सत्य की गवेषणा की और जो सिद्धान्त सत्य शाश्वत सिद्ध हुआ उसीका पालन किया और प्रचार भी।
आपकी इस निर्भीकताने उस समय के साधुओं और तथाकथित यतियों को जिनका आचार-व्यवहार उत्तम न था; जो धर्म की आड़ में ढकोसलों को प्रोत्साहन देते थे-हिला दिया । इस कारण आपको अनेक कष्ट सहने पड़े; किन्तु महापुरुष कष्टों की परवा नहीं करता, जो सत्य होता है उसीको सिद्ध करता है।
आपका जीवन परमोत्तम जीवन था। आपने अपने जीवन को साधनामय जीवन बना दिया । उत्कृष्ट तपस्या, उग्र विहार और आत्म-चिंतन कर आपने इन्द्रियों के विषय-विकारों को भस्मसात् कर दिया। शरीर-कष्ट की कभी भी चिंता-विचारणा नहीं की। करते भी कैसे ! आप समझते थे कि शरीर का सड़न-पड़न और विध्वंसन है, जितनी साधना करनी हो कर ही लेना हितावह है।
जैनधर्म निष्कलंक और परम श्रेष्ठ धर्म है। इसमें शैथिल्य को तनिकमात्र भी स्थान नहीं है । परन्तु समय-समय पर कालवशात् जब शिथिलता आई, तब-तब ऐसे महान् तेजस्वी आचार्य होते रहे हैं जिन्होंने प्राचीन शुद्ध परिपाटि को समझ कर तथा उसको जीवन में ढाल कर समाज को सत्य का दर्शन कराया। ऐसे ही श्रमणाचार्यों में परम श्रद्धेय गुरुदेव श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज भी हैं।
विदेशी शासन में भारतीय सभ्यता गतिविहीन होगई थी। देश की जनता बाबाचार