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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ रुका नहीं। इस पर दोनों में बड़ा भयकर विवाद खड़ा हो गया और स्थिति ऐसी बन गई कि अब आपने व्यसनी आरै लज्जाहीन ऐसे श्रीपूज्य का त्याग करना ही सर्वथा हितकारी समझा। तुरंत आप उपरोक्त श्रीपूज्य के संग को त्याग कर आहोर (मारवाड़) आ गये, जहाँ आपके गुरु श्रीमद् विजयप्रमोदसूरिजी महाराज चातुर्मास विराजमान थे। सूरिजी और आहोर के श्रीसंघ ने जब आपके आहोर आने के कारण को और बने हुये प्रसंग के वृत्तान्त को सुना तो वे आपके साहस, आपकी त्यागभावना, सरल जीवन और उच्च आदर्श पर अति ही मुग्ध हुये और आपका सन्मानपूर्वक स्वागत ही नहीं किया, आपको सर्वप्रकार योग्य एवं विद्वान् समझ कर शुभमुहूर्त में सूरिपद प्रदान करके आपको स्वतन्त्र श्रीपूज्य स्वीकृत किया ।
चातुर्मास के पश्चात् आपने आहोर से विहार किया और मालव-प्रदेश की ओर प्रयाण किया। तपशीलता, क्रियाशीलता और सरल साध्वाचार को देख कर मार्ग के ग्राम, नगरों के जैन
. संघ अचम्मित होते थे। आप के विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान से जनता जावरा में क्रियोद्धार में एक नवजीवन जाग्रत होने लगा । आप जहां भी गये, वहां
... नवविचार, नवचैतन्य और साधु-आचार का आपने विशुद्ध चित्र अंक्ति किया । जन-सागर आप की ओर अभिमुख हो रहा था। इस प्रकार तप-तेज, व्याख्यान-रस से जैन-जगत को प्लावित करते हुये आप जावरा पधारे ।
___ श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिने जब आप की बढ़ती हुई प्रसिद्धि एवं कीर्ति-सौरभ की चर्चायें श्रवित की, वे बहुत ही घबराये और अतिशय लज्जित हुये । परन्तु अब क्या था ! ज्ञानरत्न हाथ से निर्गत हो गया था। उन्होंने आप को पुनः लौट आने के लिये अपने अनुचर भेज कर कहलाया और पदादि के प्रलोभन देकर बहुत ही आकर्षित किया; परन्तु आपको तो ज्ञान का क्षितिज पार करना था, आप कैसे लोभ में आते !
आप जब जावरा पहुंचे तो जावरा की जनता ने आप का भारी स्वागत किया और धरणेन्द्रसूरिजी के विरोधी समाचार और आदेश-संदेशों की तनिक भी परवाह नहीं की। इतना ही नहीं आप का चातुर्मास भी उस वर्ष (वि. सं. १९२४ ) जावरा में ही हुआ। धरणेन्द्रसूरि के पक्षवर्ती सेवक और कुछ लोगों ने चातुर्मास में विघ्न उत्पन्न करने के कई प्रयास किये; परन्तु सर्व निष्फल गये । अंत में थकित हो कर धरणेन्द्रसूरिने आप से लिखित नियमों पर मेल करना स्वीकृत किया । इस पर आपने यतिवर्ग के जीवन को आदर्श बनानेवाली, उनके नष्ट हुये प्रभाव को स्थापित करनेवाली और उनमें संगठन पैदा करनेवाली नौ नियमों की एक आगमोक्त ' समाचारी' रच कर भेजी। धरणेन्द्रसूरिजीने उसको भी स्वीकृत किया और साथ में आपका आचार्य होना भी स्वीकार किया। इस प्रकार यह पारस्परिक