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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक ग्रंथ आप की भगिनियाँ थीं । माता-पिता के अभाव में आप का शिक्षण जैसा चाहिये वैसा नहीं बन सका और आप को व्यवसाय में लगना पड़ा । व्यवसाय में आप का मन नहीं लगता था। झूठ, कपट एवं ऊँचा-नीचा करना-कराना आप के स्वभाव को तनिक भी नही रुचता था । धीरे-धीरे आप के मानस में वैराग्य-भाव घर कर रहा था । माता-पिता के अभाव में जो शिशु एवं अबोध बालक को सहन करना होता है वह आपको भी करना पड़ा और संसार की
असारता का आपने भलीभांति दर्शन कर लिया। निदान आपने अपने ज्येष्ठ भ्राता को एक दिन अपने निश्चय से विदित कर भी दिया।
- वि.सं. १९०२ में अनुक्रम से विहार करते २ श्रीमद् प्रमोदसूरिजी महाराज वहाँ पधारे । सरिजी के व्याख्यानों का प्रवण आप भी करने जाया करते थे। वैसे आप की आयु उस
समय १९ वर्ष की थी। आप बड़े कुशाग्रबुद्धि और समझदार थे। यतिदीक्षा व शिक्षा आप के मस्तिष्क में जो वैराग्य अंकुरित हो रहा था उसको सूरिजी
के व्याख्यानों एवं उनकी जीवनचर्या से गहरा पोषण ही नहीं मिला, एक दृढ एवं स्वस्थ दिशा भी प्राप्त हुई और आप में अंकुरित होता हुआ वैराग्य भाव पल्लवित हो उठा। निदान ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा ले कर आपने श्रीप्रमोदसूरिजी को अपने भाव कहे और उनके ज्येष्ठ गुरुमाता श्रीहेमविजयजी के करकमलों से वि. सं. '१९०३ वै. शुक्ला ५ शुक्रवार को आपने यतिदीक्षा ग्रहण की और रत्नविजय आप का नाम रक्खा गया ।
श्रीमद प्रमोदसूरिजी के अध्यापकस्त्र में आपने जैनधर्म का अध्ययन प्रारंभ किया। प्रखर प्रतिभासंपन्न तो आप थे ही और वैसे ही रूपवान् और परिश्रमी भी थे। इन विशेषताओं के ऊपर आप में विनय और नम्रता के गुण भी पूर्णरूप से थे । आप को सूरिजी के हृदयहार शिष्य बनने में कुछ भी समय और कठिनाई नहीं हुई । सूरजीने बड़े प्रेम एवं गुरुभाव से आप को संस्कृत और प्राकृत भाषा का अध्ययन प्रारंभ करवाया और प्रारंभिक जैन पुस्तक और ग्रंथों का स्तुत्य अभ्यास करा दिया। तत्पश्चात् आप को खरतरगच्छीय श्रीमद् सागरचन्द्रजी के पास में ऊँचा शिक्षण लेने के लिये भेज दिया गया । श्रीमद् सागरचन्द्रजी उस समय के जैनागमों के ज्ञाताओं में एवं संस्कृत-प्राकृत के विद्वानों में अग्रगण्य माने जाते थे। आपने उक्त यतिवर्य की निश्रा में रह कर कुछ वर्षों में ही छन्द, व्याकरण, ज्योतिष, न्याय, निरुक्त और अलंकार तथा संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में रचित जैन धर्म के प्रमुख एवं प्रारंभिक ग्रंथों का अच्छा अध्ययन कर लिया। तत्पश्चात् आपको तपगच्छीय श्रीमद् पूज्यश्री देवेन्द्रसूरिजी की सेवा में जैनागम और शास्त्रों का अध्ययन करने को भेजा गया। १ पृ० ११८ पर यति-दीक्षा का संवत् १९०४' मुद्रित हुआ है, वहां सं. १९०३ होना चाहिए। संपादक.