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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ को जीवन का प्रमुख अंग मानकर धर्म को भूल बैठी थी। चारों ओर अंग्रेजियत का ही बोलबाला था। भारतवासी अपनी परम्परा से घृणा करने लग गये थे और गौरों को ही अपना प्रभु मानने लग गये थे । इसके पहले लगभग सात सौ वर्ष पर्यन्त यवनों का शासन इस देश पर रहा। उन्होंने भी यहाँ की सभ्यता को और संस्कृति को मिटाने में कसर न रक्खी थी। भारत की जमीन पर भले ही विदेशियोंने शासन कर लिया हो, लेकिन आत्मा पर नहीं कर सके-महात्माओं पर नहीं कर सके । यहाँ के महर्षियोंने तो नित्य भारतीय संस्कृति का ही पंचार किया, फिर चाहे किसीका भी शासन रहा हो ।
इस बीसवीं शताब्दी में जब सारे देश में शिथिलाचार फैला हुआ था, जैन-शासन भी इससे अछूता नहीं रहा । इसके भी तो यतियों और अनुयायियों में शिथिलाचार बढ़ गया था । यतिवर्ग का प्रभुत्व देश की जैन जनता पर छाया हुआ था। यति लोग लोभी और शिथिलाचारी बन गये थे।
यद्यपि गुरुदेव प्रभु श्रीराजेन्द्रसूरिजी महाराजने भी प्रथम यतिदीक्षा ही ग्रहण की थी; किन्तु उससे आपको सन्तोष न हुआ और जैसे-जैसे आप का ज्ञान बढ़ता गया वैसे-वैसे आचार-व्यवहारों में आगमोक्त पद्धति से विपरीत जो प्रवृत्तियाँ घुस गयी थीं उनका त्याग करते हुये आप सर्वगुणसम्पन्न शुद्ध जैनाचार पालन करनेवाले आचार्य बने । जैन समाजने आपके त्यागमय जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर लाभ उठाया। आपका ही प्रताप है कि आज जो भारत से यति-प्रथा का लोप -सा हो गया है, यदि मुझे सच कहने दिया जाय तो कहूँगा कि यदि इस महामानव का जन्म नहीं हुआ होता तो हम जैन लोग वीतराग की साधना से दूर कहीं के कहीं भटक जाकर अविरतिभोगासक्त देवि-देवताओं के फंद में फंस जाते।
__ साहित्य के क्षेत्र में भी आप जैसा महान् पण्डित जैन समाज में आपके पश्चात् दृष्टिगोचर नहीं होता है। आपने ६१ ग्रन्थों की रचना की है । आपकी सर्वश्रेष्ठ रचना ' अभिधान राजेन्द्र कोष ' है जिसकी प्रशंसा सारे संसार के विद्वानोंने मुक्तकण्ठ से की है।।
__ कहने का तात्पर्य यह है कि आपने सर्वतोमुखी विकास किया था और अपना सारा जीवन समाज-सेवा एवं साहित्य की सेवा में ही बिताया है।