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___ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ सम्यग्दर्शन का लक्षण ही यह है कि वीतराग अर्हन्त प्रभु हमारे देव हैं। जीवन पर्यन्त पंच महाव्रतधारी निग्रन्थ हमारे गुरु हैं और जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा हुवा मार्ग हमारा धर्म । इस प्रकार देव, गुरु और धर्म के प्रति अनन्य भक्ति ही सन्मार्ग का प्रथम सोपान है।
मैं फिर यह निवेदन करूंगा कि आज सभी सम्प्रदायों में समन्वय करने का युग है; परन्तु समन्वय के नाम पर विकृतियों का समन्वय नहीं किया जा सकता।
'सत्वेषु मैत्री' ... सब प्राणियों में मैत्री हमारा नारा है; परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि हम पापियों के पाप से, दोषियों के दोष से भी मैत्री करें।
चोरों को दण्ड देने से जैसे राजा का प्रजा के प्रति समान भावरूप प्रेम के पंथ में कोई बाधा नहीं पहुंचती बल्कि सर्व हित की साधना ही कहलाती है । उसी प्रकार विकृतियों को दूर करने से समभाव की अवहेलना नहीं है-उल्टी पुष्टि ही होती है।
घर का कूड़ा-करकट साफ़ करना घर का अपमान नहीं-सम्मान ही है। उसी प्रकार अपने प्रेमियों की विकृति को दूर करना एक पवित्र कर्तव्य ही समझना चाहिये । परन्तु वह विकृति हम तभी दूर कर सकते हैं जब हम स्वयं सुसंस्कृत, सदाचारी और सुशील हो । जो झाडू कचरे से भरा है वह सफाई के काम का नहीं है। इस लिये हम अपने सम्यक्त्वी उपासकों से यह प्रार्थना करते हैं कि उस प्रातःस्मरणीय स्वर्गस्थ आत्मा के जन्म एवं निर्वाण-उत्सव के प्रसंग पर यह संकल्प करें कि अपने विकारों को हम धोयें और फिर मंगल भावनाओं का प्रचार करने के लिये आगे आवें । किसी भी संप्रदाय के मूल पुरुष का उद्देश्य यही होता है कि वह प्रचलित शिथिलताओं को दूर करके सामूहिक रूप से सद्भावना और सदाचार को पोषण देता है।
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने तो कोई नई सम्प्रदाय भी नहीं बनाई । जो उपासक जैन धर्म की संयम-प्रधानता को गौण करते थे उन्हें सावधान किया और मानवता के मूल्य को देवताओं से भी अधिक बताया। इसलिये हमें जैन धर्म के त्यागभाव की कीमत अधिक से अधिक बढाना चाहिये । यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि हम जिस वस्तु का मूल्य करते हैं उसी तरफ दुनियां झुकती है। क्यों कि यश की इच्छा प्रत्येक छद्मस्त में न्यूनाधिक रूप से रहती ही है । इसलिये अगर हम त्याग का मूल्य करेंगे तो जनता त्याग की तरफ झुकेगी
और भोग का मूल्य करेंगे तो भोग की तरफ़ झुकेगी। राजेन्द्र-स्मृति का सार यही है कि हम त्याग-भाव की स्तुति करें, जिससे जनसाधारण के मन की प्रवृत्ति उसी ओर बढ़े।