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श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि : एक महान साहित्य-सेवी। “A good book is the precious life blood of a master spirit embalmed and treasured up for life beyond life.”
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिने इस महाकोष की रचना करने में अपना जीवन ही समाप्त कर दिया। उन्होंने यह सत्प्रयत्न ऐसे समय में किया था जब विश्व को ऐसे महाकोष की बड़ी ही आवश्यकता थी । वास्तव में उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना कर साहित्यिक महारथियों में अपना नाम अमर कर लिया है।
आचार्यश्री का दूसरा ग्रन्थ 'सहबुहि कोष' है। इस में अकारादिक्रम से प्राकृत शब्दों का संग्रह किया गया है और उसके संस्कृत-अनुवाद के साथ उसका अर्थ हिन्दी में दिया गया है। किन्तु अभिधान राजेन्द्र कोष की तरह शब्दों पर व्याख्या नहीं की हुई है। यह ग्रन्थ बड़े काम का है, परन्तु दुःख है कि यह अभी अप्रकाशित ही है ।
इस प्रकार उत्तमोत्तम ग्रन्थों की रचना कर आचार्यश्रीने जैन धर्मानुयाइयों पर तथा इतर जनों पर भी पूर्ण उपकार किया है।
आचार्यश्रीने जैनदर्शन और विश्व की जो साहित्य-सेवा की है वह सदैव चिरस्मणीय रहेगी । उनके मानस में यह बात अच्छी तरह घर कर गई थी कि जैन संस्कृति सत्साहित्य द्वारा ही जीवित रह सकती है और उन्होंने अपना जीवन इस दिशा में मोड़ दिया और उन्हें आशातीत सफलता प्राप्त हुई। उनके जीवनरूपी तराजू के दोनों पलड़े बराबर थे । उन्होंने अपनी आत्मा को उन्नत बनाने में भी कुछ उठा न रक्खा और जैनदर्शन को अनुप्राणित करने में भी अपना सारा जीवन ही लगा दिया । वे दूरदर्शी थे। उन पर यह प्रकट हो चुका था कि आगे चलकर जैनदर्शन की महत्ता तभी बनी रह सकती है, जब कि उसके मूल तत्वों को लेकर सत्साहित्य का विकास हो और अच्छे ग्रन्थों की रचना हो । उन्होंने केवल सोचा ही नहीं वरन् एक लगन और निष्ठा के साथ इस पुनीत कार्य को करके दिखा दिया । उन्हें अपने प्रयास से आशा से भी अधिक सफलता प्राप्त हुई और उनका यह प्रयास मूर्तरूप होकर ही रहा। यहां के जैन और जैनेतर की तो बात ही क्या विदेशी विद्वान् भी उनके इस सत्प्रयास की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते ।