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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ पथ का ही भान कराया। आशा है जो लोग त्रिस्तुतिक मत को गुरुदेव द्वारा संस्थापित कहते-कहाते और लिखते-लिखाते हैं; वे निम्नांकित प्रमाण-पाठों को देखें और सोचसमझ कर स्वयं निर्णय करने की उदारता दिखावें ।
ये कुछ सनातन त्रिस्तुतिक सिद्धान्त समर्थक शास्त्रपाठ हैं, जिन से यह आर्य सनातन सत्य सिद्धान्त शास्त्र और पूर्वाचार्य सम्मत है भली प्रकार सिद्ध होता है।
(१) चतुर्दशशतग्रन्थनिर्माता श्रीयाकिनी महत्तरासूनु श्रीमद् हरिभद्राचार्य-रचित 'पंचाशक ' प्रन्थ पर नवांगसूत्रवृत्तिकारश्रीमदभयदेवसूरिकृत टीका में तृतीय पंचाशक की टीका में लिखा है कि:
" सम्पूर्णा-परिपूर्णा सा च प्रसिद्धदण्डकैः पञ्चभिः, स्तुतित्रयेण प्रणिधानपाठेन च भवति, चतुर्थस्तुतिकिलार्वाचीनेति । किमित्याह उत्कृष्यत इत्युत्कर्षा उत्कृष्टा । इदं चव्याख्यानमेके " तिण्णि वा कड्डइ जाव थुइयो तिसि लोगिया । ताव तत्थ अणुणायं, कारणेण परेण वि" इत्येतां कल्पभाष्यगाथां, 'पणिहाण मुत्तसुत्तिए' इति वचनमाश्रित्य कुर्वन्ति ।"
(२) “ व्यवहारभाष्ये स्तुतित्रयस्य कथनात् चतुर्थस्तुतिरर्वाचीना इति गूढाभि सन्धिः !, किं च नायं गूढाभिसन्धिः किन्तु स्तुतित्रयमेव प्राचीनं प्रकटमेव भाष्ये प्रतीयते । कथमिति ! चेद् द्वितीयभेदव्याख्यानावसरे ‘निस्सकई' इति भाष्यगाथायां ' चेइये सवेहि थुइ तिण्णि' इति स्तुतित्रयस्यैव ग्रहणात् , एवं भाष्यद्वयपर्यालोचनया स्तुतित्रयस्यैव प्राचीन त्वम् , तुरीयस्तुतेरर्वाचीनत्वमिति । "
श्रीपञ्चाशक टीप्पन (३) " तथाहि श्रीकल्पभाष्ये निस्सकड़मनिस्सकड़े' इत्यादि गच्छप्रतिबद्धेऽनिश्रा. कृते च तद्विपरीते चैत्ये सर्वत्र तिस्रः स्तुतयो दीयन्तेऽत्र प्रति चैत्यं स्तुतित्रये दीयमाने वलाया अतिक्रमो भवति भूयांसि वा चैत्यानि ततो वेलां चैत्यानि वा ज्ञात्वा प्रतिचैत्यमेकैकापि स्तुतितिव्येति ॥"
महामहोपाध्यायश्री यशोविजयजीकृत प्रतिमाशतक टीका (४) “इरिया तस्सुत्तरीय, अन्नत्थुस्सग्ग लोगस्स ।
खमासमणं च कहणं, धरणीयल जाणु दाहिणयं ॥ १-कितने ही लोग किल' शब्द का निश्चयार्थवाची अर्थ नहीं मानते। पूर्वाचार्यों से निर्मित जिन शास्त्रों में 'किल' का अर्थ निश्चय, सत्य, आप्तोपदेश लिखा है उनके नाम ये हैं। स्याद्वादमंजरी की २६ वीं कारिका की टीका । द्रव्यानुयोगतर्कगा। दशवकालिकसूत्र बृहबृत्ति प्रथमाध्ययन टीका। 'किलेति निश्चितम्' वीर भक्तामर काव्य में यह अर्थ किया है। यह काव्य 'काव्यसंग्रह' (प्र. भा.) के पृष्ठ १ से ९२ तक मुद्रित है। मुद्रक श्री आगमोदय समिति है।