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गुरुदेव
साध्वीजी श्री पुष्पाश्रीजी जिस प्रकार देखने को नयन, सुनने को कान और खाने के लिए मुख की महती आवश्यकता है, वैसे ही हमे योग्य प्रकार के मार्ग-दर्शन करानेवाले की अत्यन्त आवश्यकता है। योग्य मार्ग-दर्शक के बिना हमारी गाड़ी कर्मों के बीहड़तम मार्ग से नाना प्रकार के समविषम स्थलों से बच कर निश्चित लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकती और मध्य में ही भटकती रहती है । जो आध्यात्मिक उन्नति का योग्य मार्ग दिखलाते हैं उन्हें हम गुरु कहते हैं । गुरु की महिमा अपार है । श्री यशोविजयजी श्रीपाल रास में लिखते हैं किः
___ "प्रत्यक्ष उपकार गुरु तणो, परोक्ष उपकार श्री जिनराय ।" आचार्यवर्य श्री हेमचन्द्रसूरि फरमाते हैं किः
"पंचमहाव्रतधरा धीरा, भैक्षमात्रोपजीविनः ।
सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरखो मताः ॥" अर्थात् पाँच महाव्रतों को धारण करने में धीर, शुद्ध भिक्षा पर ही निर्भर, समता में ही रहनेवाले और धर्मका उपदेश देनेवाले जो हैं, उनको गुरु कहा गया हैं।
गत उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में हमारी समाज को जो असह्य दुःख उठाना पड़ा है उसका मूल कारण योग्य गुरु का न मिलना ही है। योग्य गुरु के अभाव में यति लोग निरंकुश और अशिष्टाचारी हो गये थे, जिससे जैन समाज संत्रस्त हो गया था। जहाँ आत्मकल्याणकर मागों का ही सदा उपदेश दिया जाता है, वहीं यदि गुरुवर्ग भौतिकवाद की चमकदमक में आसक्त होकर विलास-नाट्य करें तो भक्त अवश्य ही पतित हो जायगा । व्यवहार में भी कहा जाता है कि यदि 'बाड़ ही खेत को खाने लगे' और 'रक्षक ही भक्षक बन जाय' तो कहो कौन रक्षा कर सकता है ! गत शताब्दी में यतिसमाज के अत्याचार अपनी चरम सीमा पर जा चुके थे और वे अध्यात्मवाद से पराङ्मुख हो भौतिकवाद की रंगीन रंगभूमि की
ओर बढ़ कर अवनतावस्था को प्राप्त हो गये थे। ऐसे संकट के समय में समाज (संघ) का योग्य प्रकार से नेतृत्व करनेवाले एक धीर, वीर, गंभीर, महान् क्रान्तिकारी एवं विचारक धर्मशासक महारथी की महती आवश्यकता थी जो समय आने पर पूरी हुई । यतिसमाज में से