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गुरुदेवद्वारा कृत प्रतिष्ठायें
साध्वीश्री श्रीमहेन्द्र श्रीजी। जैनागम-शास्त्र-प्रकरण और चरित्र-ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर शाश्वत जिनमन्दिरों और अशाश्वत मन्दिरों का समुल्लेख बहुलता से प्राप्त है। जिनके द्वारा हम यह भली प्रकार समझ सकते हैं कि चैत्य-निर्माण की परम्परा प्राचीनकाल से आज तक अबाध गति से प्रचलित है इसमें किसी प्रकार की शंका को स्थान नहीं है ।
आद्य तीर्थंकर श्रीआदिनाथ भगवान् के समय उनके ज्येष्ठ पुत्र भरतराज श्रीभरतचक्रवतीने अपने राज्यकाल में श्रीअष्टापद नामक पर्वत पर एक सिंहनिषधा नामक परम मनोहर मन्दिर बनवा कर उसमें प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के चौवीस तीर्थंकरों की अपने-अपने वर्ण
और शरीरप्रमाण प्रतिमाएँ आत्मकल्याणार्थ संस्थापित की थीं, ऐसा उल्लेख चरितानुयोगीय शास्त्रों में प्राप्त है।
इस आत्मोत्थानकर प्राचीनतम परम्परा को अनेक राजा, महाराजा, सेठ, साहूकारों ने अपनाया है, जिसका प्रमाण सूत्र, ग्रन्थों से और पुरातत्व -विशारदों की शोध-खोज से प्राप्त अनेक खण्डिताखण्डित जिनप्रतिमा, आयागपट्ट और अनेक ध्वन्सावशेषों से प्राप्त होता है।
वास्तव में हमारे जीवन को भौतिकवाद की विषाक्त वासना से अध्यात्मवाद की सुमनोरम धरा पर लाने के लिये आत्मसाधनार्थ जिनप्रतिमाओं की महती आवश्यकता है। तभी तो शास्त्रकारोंने 'जिणसारिक्खा जिणपडिमा' कही है। महर्षि आर्द्रकुमार का उद्धार जिनप्रतिमा को देखने पर ही हुवा है और सय्यम्भवसूरि को भी तो वीतराग की प्रतिमा से ही बोध हुवा था । इस बात को लक्ष्य में रख कर हमारे पूर्वाचायों के उपदेश से हमारे पूर्वजोंने अनेक स्थानों पर निजलक्ष्मी का सद्व्यय कर अनेक विशालकाय एवं स्थापत्य-कला के ज्वलंत नमूनारूप चैत्य बनवाये और साधारण भी । इस मंगलमय कल्याणकारी चैत्य-परम्परा को अनेक सम-विषम परिस्थितियों से बचाकर सुरक्षित रखने में श्रमण संघ के नेतृत्व में अनेक राजा अमात्यादि श्रीमंतवर्गने और साधारण वर्गने नहीं भूलने योग्य योग दिया है, जिसके फलस्वरूप आज भारत की यह गौरवमयी परम्परा हमारा कल्याण कर रही है ।
१ मथुरा के कंकाली टीले से और अन्य स्थानों से ऐसी अनेक जिनप्रतिमा और अन्य वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं, जो दो हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन हैं।