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दिशा-परिवर्तन साध्वीजी श्री मानश्रीजीचरणरेणु-श्री उत्तमश्रीजी ___ जब गुरुदेव प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने विरक्त मन हो श्रमणधर्म में प्रवेश किया, तब हमारी त्यागी यति-समाज में शैथिल्य का साम्राज्य छाया हुआ था। यति-संघ त्याग के मार्ग से च्युत हो कर भोग के प्रलोभन से इतस्ततः भटक गया था । जहाँ आत्म-साधना के मार्गों का आश्रय किया जाता है, वहाँ जादू-मंत्रों आदि का प्रचार जोरसोर से बढ़ गया था । जहाँ ' तिन्नाणं तारयाणं' की मंगलमय साधना होती थी, वहाँ छलकपट-प्रपंच के जाल बिछ रहे थे । जहाँ तक संयम-साधना में सहायक हो, वहां तक ही श्वेत मानोपेत और जीर्णप्राय वस्त्र रखने की शास्त्रीय आज्ञा है, वहां रंगविरंगे भांति-भांति के मनमोहक एवं नयनाभिराम बहुमूल्य दूशालों और अन्य प्रकार की वस्तुओं का सजीव-अजीव के भेदों के संकोच के बिना संग्रह होने लगा था । जहाँ स्वाध्याय-ध्यान, पठन-पाठन और आत्म-चिंतन के लिये ही समय का प्रत्येक पल लगाने की जिनाज्ञा है, वहाँ निंदा और वाक्चातुर्य के बल अनेक प्रकार के छलकपट पूर्ण होते जा रहे थे ।
___ भक्तवर्ग योग्य नेतृत्व के बिना सत्पथ से दूर हटता जा रहा था। ऐसी स्थिति गुरुदेव के लिये कदापि सह्य नहीं थी । गुरुदेवने त्यागी यतिमंडल को इस तथाकथित भयावह मार्ग को त्याग करने का और आत्मश्रेयष्कर सत्पथ की ओर बढ़ने का जब आह्वान दिया, तब उन्हें ऐसी कठोरतम परिस्थिति से प्रसारित होना पड़ा कि जिसे भुक्तभोगी ही जान सकता है। आते हुए परिषहों को धीरतापूर्वक सहते हुये भी आपने विरक्त संघ को शैथिल्य के गर्त से निकाल कर अंतमें मुविशुद्ध मार्ग की ओर अग्रसर किया। और कहीं वे पुनः सुमार्ग से च्युत न हो जाय इस वस्तु को लक्ष्य में रख कर नव नियम ( समाचारीकलमें ) भी बनाए जिनको तात्कालिक यति श्रीपूज्य ( श्रीपूजक !) धरणेन्द्रसूरि से स्वीकृत करवा कर यतिवर्ग में प्रच. लित करवाया । भली प्रकार ज्ञात होता है कि आप को कार्य से मतलब था न कि कीर्तिकमला से । वे ९ नियम ( कलमें ) विक्रम संवत् १९२४ माघ सुदि ७ को श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि की सहीके साथ स्वीकृत हो कर नियमरूप में कार्यान्वित हुये थे।
'स्वस्ति श्रीपार्श्वजिनं प्रणम्य श्री श्री कालंद्रीनयरतो भ. श्री श्री विजयधरणेन्द्रसूरि यस्सपरिकरा श्री जावरानयरे सुश्रावक पुन्यप्रभावक श्री देवगुरुभक्तिकारक सविसरसावधान बहुबुद्धिनिधान संघनायक संघमुख्य समस्त संघ श्री पंचसरावका जोग्य धर्मलाभपूर्वकं लिखितं यथाकार्य,