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गुरुदेवरचित सिद्धम प्राकृत टीका साध्वीजी श्री हेतश्रीजी
जिन महाविभूति की अर्द्ध शताब्दी मनाई जा रही है, वह उनके किये यशस्वी शुभ कार्य के अनुरूप ही हैं । यद्यपि विश्व में उनकी कृतियाँ साहित्य के क्षेत्र में सदा ही अमर बनी रहेंगी, तथापि हमारा कर्तव्य है कि उपकारी पुरुषों के उपकार का कुछ बदला अपनी श्रद्धाभक्ति के सुमनों को अर्पण कर अन्तःकरण से उनके कार्य के प्रति श्रद्धांजलि के साथ उनके निर्मलतम अलौकिक यशोगुण का गायन करें ।
परम पुनीत प्रातःस्मरणीय महान् ज्योतिर्धर गुरुदेव प्रभु ~ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की कृतियों में से ‘श्री अभिधान राजेन्द्र कोष' तो सर्वत्र ही विद्वभोग्य सिद्ध हुआ है; परन्तु आपने प्राकृत व्याकरण पर जो टीका रची है उसीका इसमें परिचय कराया जा रहा है । समर्थ कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचंद्राचार्यने सिद्धराज - जयसिंह की प्रार्थना को स्वीकार कर जिस सिद्ध हैम व्याकरण की रचना की है, उसमें सात अध्याय तो पाणिनी की भांति संस्कृत विषय को ही लेकर बनाएँ गये हैं । ८ वाँ अध्याय, पाणिनी ने जिस तरह से वैदिक प्रक्रिया को लेकर बनाया है, उसी तरह से जिनेश्वर भगवानप्रणीत आगमों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये प्राकृत की पूरी २ आवश्यकता समझी जाकर प्राकृत व्याकरण की रचनाएँ समय-समय पर होती रही हैं । उन में से ' सिद्धहैम' ही एक ऐसी व्याकरण है जो प्राकृत ज्ञान के लिये पर्याप्त कही जा सकती है । अन्य व्याकरणों की अपेक्षा सिद्धहैम व्याकरण कई बातों में अपनी विशेषता रखती है । कहा है
भ्रातः ! संवृणु पाणिनीयलपितं कातन्त्रकन्या वृथा, मा कार्षीः कटु शाकटायनवचः शूद्रेण चान्द्रेण किम् १ | किं कण्ठाभरणादिभिर्जठरयत्यात्मानमन्यैरपि ।
श्रूयते यदि तावदर्थ मधुरा श्रीसिद्ध मोक्तयः ॥ १ ॥
व्याकरणों में शाकटायन व्याकरण को आजकल प्राचीन मानी जाती हैं। इसके रचयिता शाकटायनमुनि एक जैनाचार्य ही थे । यद्यपि वर्तमान समय में पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन अधिक मात्रा में प्रचलित है, तथापि पाणिनीने अपनी व्याकरण में प्राचीनतम व्याकरण रचयिताओं का सादर नाम सूचित किया है । जैसे ' त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्य ८ । ४ । ५० ( १२ )