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युगप्रवर्तक श्रीराजेन्द्रसूरिजी ।
निहालचंद फोजमलजी जैन. सेक्रेट्री - राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय,
खुड़ाला
सदी का युग और भौतिकवाद का उत्थान । समाज का धार्मिक जीवन पाखंडता के नेतृत्व में श्वासोश्वास ले रहा था और लोगों का आकर्षण त्याग तथा आत्मकल्याण से हटकर विलास और भौतिक विकास की ओर बढ़ रहा था। मानव विज्ञान की सहायता से प्रकृति के आँगन में अनेक प्रयोग करने लगा । फलस्वरूप मानवने भौतिक सुख में खूब वृद्धि की । वह धर्म और तपस्या से हट गया । धर्म का स्थान धीरे २ विलासिता ले रही थी । युग के प्रभाव से कोई अछूता नहीं रहा। क्या राजनीतिज्ञ, क्या साधु, क्या संत, क्या राजा, क्या रंक समाज का हर अंग, हर पहलू वैज्ञानिक विकास से प्रभावित हो गया। हमारे जैन साधु भी इस भौतिकवाद से अछूते नहीं रहे ।
बागडोर साधुओं से निकलकर
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मुगल वंश के ह्रास के साथ ही साथ जैन शासन की यतियों के हाथों में आने लगी थी । यति लोगों का ध्यान जनता कल्याण की ओर न लगकर, भोली-भाली जनता पर हमेशा के लिये प्रभाव कायम रखने के लिये गया । उन्हें समाज के कुछ स्वार्थी तत्वों का बड़ा सहारा मिला । जैन इतिहास में यह पहला पहला अवसर था, जबकि जैन शासन के कर्णधार जो कि त्याग, सेवा और तपस्या की दिव्यमूर्ति के रूप में विश्व-विख्यात थे, जिन्हें जिन्दगी के वैलासिक पहलू से वैराग्य था, वे ही अब विलासवाद और भौतिकवाद के कर्णधार बन गये । वे लोगों को सच्चे मार्ग से हटाकर अन्धविश्वास के अंधकूप में ढकेलने लगे । भोले-भाले लोग उनके प्रभाव में पड़ कर कठपुतली की तरह नाचते थे और उनकी उपासना का एक मात्र लक्ष्य वीतराग प्रभु से हट कर अन्य मिथ्यात्वी देवी-देवताओं, भूतों और प्रेतों की ओर गया। लोग प्रभु के बताये हुए सिद्धान्तों से दूर भटक गये ।
जैन इतिहास त्याग और सेवा के उदाहरणों से भरा पड़ा है । जब कभी भी समाज के व्यवहारिक पहलू में विलासिता का जोर होता है, मानव की आत्मा चारों ओर ठोकरे खाकर निराश हो जाती है और उस समय कोई न कोई महापुरुष जन्म लेकर त्याग, बलिदान, सेवा के बल से लोगों की आत्मा को शान्ति देता है और उनकी भटकी हुई निराश आत्मा का नेतृत्व कर उनको आत्मकल्याण का मार्ग दिखाता है ।
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