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श्रीपद विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ आरों को बहुत ही सुंदर ढंग से वर्णन किया है । मनुष्यादिकों के स्वरूप का वर्णन उनकी भवस्थिति, जगत की व्यवस्था आदि का वर्णन अच्छी तरह समझाया है ।
कम्म' (कर्म) इस शब्द पर कर्म के संबंध में जैन और जैनेतर सब की मान्यतायें अच्छे रूप में प्रदर्शित की हैं । जगत के वैचित्र्य से भी कर्म की सिद्धि, जीव के साथ कर्म का संबंध, कर्म का अनादित्व, जगत की विचित्रता में कर्म ही कारण हैं, ईश्वरादि नहीं है इसका विश्लेषणदृष्टि से अच्छा विवेचन किया है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय आदि कर्मों पर विशद विवेचन किया है । इस तरह इस शब्द में ३७ विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
'किईकम्म ' (कृतिकर्म ) इस शब्द पर कृतिकर्म में साधुओं की अपेक्षा से साध्वियों का विशेष, यथोचित वंदना न करने में दोष आदि बताया है । कृतिकर्म किसको करना चाहिये और किसको नहीं करना चाहिये इस का विवेचन । सुसाधु के वंदना पर गुण का विचार आदि २१ विषयों पर खूब प्रकाश डाला है ।
'किरिया' (क्रिया ) शब्द पर क्रिया का स्वरूप, क्रिया का निक्षेप, क्रिया के भेद, ज्ञानावरणीयादि कर्म को बांधता हुआ जीव कितनी क्रियाओं से इनको समाप्त करता है । श्रमणोपासक की क्रिया का कथन, अनायुक्त में जाते हुए अनगार की क्रिया का निरूपण आदि १८ विषयों पर बहुत शुद्ध विस्तार लिखा है।
केवलणाण' (केवलज्ञान ) शब्द पर केवलज्ञान का अर्थ, केवलज्ञान की उत्पत्ति, सिद्धि, भेद, सिद्ध का स्वरूप, किस प्रकारका केवलज्ञान होता है इसका निरूपण । राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, भक्तकथा करनेवाले के लिये केवलज्ञान और केवलदर्शन का प्रतिबंध है इत्यादि विषय बहुत ही मार्मिक रूप में प्रदर्शित किया है।
'गोयचरिया' (गौचरी ) शब्द पर जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक मुनियों की भिक्षाविधि, भिक्षाटन में विधि, आचार्य की आज्ञा, मार्ग में किस तरह विवेकपूर्वक जाना, तीर्थकर और उत्पन्न केवलज्ञानदर्शनवाले भिक्षा के लिये भ्रमण नहीं करते, आचार्य भिक्षा के लिये नहीं जाते, साध्वियों की भिक्षा का प्रकार इत्यादि विषय बहुत अच्छी तरह समझा कर दिये हैं।
__ 'चारित ' ( चारित्र ) शब्द पर सामायिकादि पांच चारित्रों का सुंदर वर्णन, चारित्र की प्राप्ति किस तरह होती है इसका प्रतिपादन, चारित्र से हीन ज्ञान अथवा दर्शन मोक्ष का साधन नहीं होता है, किन २ कषायों के उदय से चारित्र की प्राप्ति नहीं होती है और