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मरुधर और मालवे के पांच तीर्थ ।
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श्री आदिनाथ चैत्य से यह प्राचीन है। इसकी स्तंभमाला के एक स्तम्भ पर 'ॐ++++ढ़ा ' लेखाक्षर अवशेष हैं । इससे ज्ञात होता है कि महामात्य श्री नाहड़ के द्वितीय पुत्र श्री ढालजी द्वारा निर्मित यह मन्दिर हो और इसीसे अमात्य के नाम के आगे मंगल का संसूचक ॐ लगाया हो । श्रीमहावीर मन्दिर के स्तम्भों पर भी ' ॐ ना०००ढा' लिखा हुवा मिलता है। संभवतया उक्त मंत्रीपुत्रने प्राचीन श्री वीर मन्दिर का भी उद्धारकार्य करवाया हो । इस पार्श्व - नाथ मन्दिर का उद्धार विक्रमीय सत्रहवीं शताब्दी में कोरटा के ही नागोतरा गौत्रीय किसी श्रावकने करवाया था । तत्पश्चात् समय-समय पर कुछ अंशों में उद्धार - कार्य होता रहा है । इसमें पहले श्रीशान्तिनाथ भगवान की प्रतिमा मूलनायक के स्थान पर विराजमान थी । उसके विकलांग होजाने पर उसके स्थान पर श्रीपार्श्वनाथजी की प्रतिमा विराजित की गई; जिसकी प्राणप्रतिष्ठा श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने की है। श्री पार्श्वनाथजी के दोनों ओर विराजित प्रतिमा भी नूतन हैं ।
( ४ ) श्री केशरियानाथ का मन्दिर:
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विक्रम संवत् १९११ जेठ सुदि ८ के दिन प्राचीन श्री वीर मन्दिर के कोट का निर्माण-कार्य करवाते समय कहीं बाई ओर की जमीन के एक टेकरे को तोड़ते समय श्वेत वर्ण की पांच फीट प्रमाण विशालकाय श्रीआदिनाथ भगवान की पद्मासनस्थ और इतनी ही बड़ी श्रीसंभवनाथ तथा श्री शान्तिनाथजी की कायोत्सर्गस्थ मनोहर एवं सर्वांगसुन्दर अखण्डित दो प्रतिमायें निकली थीं। इन कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाओं को विक्रम संवत् ११४३ वैशाख सुदि द्वितीया गुरुवार को श्रावक रामाजरुकने बनवाईं और बृहद्गच्छीय श्रीविजय सिंह सूरिजी ने इनकी प्रतिष्ठांजनशलाका की । श्रीआदिनाथ प्रतिमा पर लेखादि नहीं है । इन प्रतिमाओं को विराजमान करने के हित कोरटा के श्रीसंघ ने श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से यह विशालकाय दिव्य एवं मनोहर मन्दिर बनवाया है। इसका प्रतिष्ठा - महोत्सव विक्रम संवत् १९५९ वैशाख सुदि पूर्णिमा को श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से ही सम्पन्न हुआ था । यह प्रतिष्ठा महोत्सव मरुधर के १५० वर्ष के इतिहास में आहोर के प्रतिष्ठोत्सव (१९५५ का ) के पश्चात् दूसरा था ।
प्रतिष्ठाप्रशस्तिः
वीरनिर्वाण सप्तति-वर्षात्पार्श्वनाथ संतानीयः । विद्याधरकुलजातो, विद्यया रत्नप्रभाचार्यः द्विधा कृतात्मा लग्ने, चैकस्मिन् कोरंट ओसियायां । वीरस्वामिप्रतिमा-मतिष्ठपदिति पप्रथेऽथ प्राचीनम्
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