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गुरुदेव-साहित्य-परिचय । भारत के महान् ज्योतिर्धर कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरीश प्रणीत 'श्री सिद्धहेमशब्दानुशासन ' के अष्टमाध्याय ( प्राकृत ) की यह अष्टादशशत श्लोकप्रमाण व्यावति नामक टीका स्वर्गीय गुरुदेवने विक्रम संवत् १९६१ में मध्यभारतस्थ कुक्षी में रह कर निर्मित की है । व्याकरणशास्त्र के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि प्रायः आज तक अनेक महर्षियोंने व्याकरणशास्त्र पर विविध प्रकार के टीका-ग्रन्थों का निर्माण किया है पर वे सब गद्य संस्कृत में है; परन्तु प्रस्तुत टीका पद्यमय है । पद्यात्मक होते हुये भी सरल, सुन्दर
और सुबोध है । इसकी रचना स्व. श्री दीपविजयजी ( श्री भूपेन्द्रसूरिजी ) और श्री यतीन्द्र विजयजी ( वर्तमानाचार्य श्री यतीन्द्रसूरिजी ) इन दोनों मुनिप्रवरों की विनम्र प्रार्थना से हुई है। यह बात इसकी प्रशस्ति के तृतीय, पंचम और षष्ठ पद्य से ध्वनित होती है। यह श्री अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग में मुद्रित हो चुकी है।
श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी:-सुपररॉयल ८ पेजी साइज । पृष्ठ संख्या ३९१ । सचित्र रेशमी जिल्द । मूल्य ३॥) रुपये । प्रकाशक-श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय, खुडाला ( राजस्थान )। पंचम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामीपणीत परम मंगलकारी श्री कल्पसूत्र की यह विस्तृत टीका है। श्रीकल्पसूत्र पर इतनी सरल एवं विस्तृत और रोचक टीका दूसरी नहीं है । यद्यपि इस परमकल्याणकारी सूत्र पर अनेक मुनिपुंगवोंने टीकाएं बनायी हैं; परन्तु उन सब में यह टीका जितनी विशाल, अति सरल और अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण है, उतनी दूसरी कम है। यह ग्रन्थ नौ व्याख्यानों में विभक्त है। साहित्य-मनीषियों के 'गचं कवीनां निकषं वदन्ति' को सम्पूर्ण रूप से यहाँ इस रचना में चरितार्थ किया गया है। इसकी रचना विक्रम संवत् १९५४ में रतलाम (मालवा) में रहकर गुरुदेव के करकमलों से सम्पन्न हुई है।
(५) अक्षयतृतीयाकथा-भगवान् श्रीआदिनाथ को दीक्षा धारण करते ही पूर्वभवोपार्जित अंतराय कर्म का उदय होने से एक वर्ष पर्यन्त निराहार ही रहना पड़ा था। पश्चात् भगवानने गजपुर (हस्तिनापुर ) में अपने पौत्र सोमप्रम के पुत्र श्रेयांसकुमार के हाथों से इक्षुरस से पारना किया था। इसका वर्णन इस लघुकथा में आलेखित है। यह स्वतंत्र मुद्रित न हो कर श्रीअभिधान राजेन्द्र कोष प्रथम भाग के पृष्ठ १३३ पर ' अक्खयतइया ' शब्द पर मुद्रित है।
१-दीपविजयमुनिना वा यतीन्द्रविजयेन शिष्ययुग्मेन । विज्ञप्तः पद्यमयी प्राकृतविवृतिं विधातुमहम् ॥ ३ ॥ अतएव विक्रमाब्दे भूरसनवविधुमिते (१९६१) दशम्यां तु । विजयाख्यां चातुर्मास्येऽहं कुकसीनगरे ॥५॥ हेमचन्द्रसंरचितप्राकृतसूत्रार्थबोधिनी विवृतिम् । पद्यमयीं सच्छन्दोवृन्दै रम्यामकार्षमिमाम् ॥६॥
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