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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ १-श्रीअभिधान राजेन्द्र कोष-( सप्तभागात्मक पाइय विश्वकोष ) आकार बड़ा, रॉयल चौ पेजी, श्रीअभिवान राजेन्द्र प्रचारक संस्था, रतलामने अखिल भारतीय श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघ द्वारा प्रदत्त द्रव्य-सहायता से मुद्रित कर प्रकाशित किया है। इस कोष का संपादन इसके निर्माता पूज्यवर की आज्ञानुसार स्वर्गीय श्रीमद्दीपविजयजी (श्री विजयभूपेन्द्रसूरिजी ) और मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी( वर्तमानाचार्य श्रीयतीन्द्रसूरिजी )ने किया है। यह महा ग्रन्थराज बृहदाकार सात जिल्दों में विभक्त है। सातों भागों की समुचित पृष्ठ. संख्या दस सहस्र ( १०००० ) से भी अधिक है। यह प्राकृत शब्दों का महासागर है। जैनों का प्रायः ऐसा कोई भी पारिभाषिक या इतर शब्द नहीं की जो इस शब्द महार्णव में नहीं होगा। इसका संदर्भ इस प्रकार है। सर्वप्रथम वर्णानुक्रम से प्राकृत शब्द, उसका संस्कृत में अनुवाद, लिंगनिर्देश और उसका अर्थ जो जैनागमों तथा ग्रन्थों में प्राप्त है, भिन्न-भिन्न रीति से दिखलाया है। विस्तृत विवेचित शब्दों पर पाठकों की सुगमता के लिये अधिकार सूचियां भी आलेखित हैं; जिससे वाचन में सुविधा होती है ।
यह महान् विश्व कोष जर्मन, जापान, रूस, फ्रांस, इंग्लैंड और अमेरिका के विख्यात पुस्तकालयों को सुशोभित कर जैन सिद्धान्त रहस्य के जिज्ञासु विद्वानों को सच्चे मानवधर्म का परम ज्ञान दिखला रहा है । विश्व के ख्यातिप्राप्त कतिपय विद्वानों ने इसके निर्माणकर्ता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुये इस को प्रमाणित किया है। संस्था के कार्यालय में कितने ही प्रशंसापत्र विद्यमान हैं, जिनमें से एक ही पाठकों के लिये यहाँ उद्धृत किया जाता है।
प्रोफेसर सर जॉर्ज गियर्सन के. सी. आई. ई. केम्बरली (इंग्लैड़) ता. २२ दि. १९२४ के पत्र में लिखते हैं किः
" इस विराट् ग्रंथराज का मुद्रणकार्य अब सम्पन्न होने आया है, इस बात के लिये में आपका अभिनंदन करता हूं। मुझे मेरे जैन प्राकृत के अध्ययन में इस ग्रंथ का बहुत सहाय हुआ है और जिस ग्रंथ के साथ इसकी तुलना मैं कर सकू ऐसा केवल एक मात्र ग्रंथ मुझे ज्ञात है और वह राजा राधाकांतदेव का प्रसिद्ध संस्कृत शब्दकल्पद्रुम कोष है।"
(२) पाइय सद्दम्बुही (प्राकृत शब्दाम्बुधि ) कोष:-यह कोष भी स्व. गुरुदेवने ही बनाया है । इसमें प्रथम वर्णानुकम से प्राकृत शब्द, उसका संस्कृतानुवाद, पश्चात् लिंगनिर्देश और हिन्दी में अर्थ है । इसमें प्राकृत के प्रायः सहस्रों शब्दों का संग्रह है । परन्तु इसमें अभिधान राजेन्द्र कोष की तरह शब्दों पर विस्तृत व्याख्याएँ नहीं हैं । (अप्रकाशित)
(३)-प्राकतव्याकरण (व्याकृति ) टीका-१२ वी १३ वीं शताब्दी में हुये