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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ (६) खर्परतस्करप्रबन्ध-(पद्य) परदुःखभंजक महाराजा विक्रमादित्य के शासनकाल में खर्पर नामक एक चोर अवन्ति और उसके निकटवर्ती प्रदेश की प्रजा को निजाधम कृत्यों से परेशान करता था । उसे येनकेन प्रकारेण परास्त करने का प्रयत्न राजा
और राजकर्मचारियोंने किये परन्तु वे सब विफल ही रहे । अन्त में स्वयं विक्रमने महाभगीरथ प्रयत्नों से उसे परास्त कर ही दिया। बस इसी बात का वर्णन स्वर्गीय श्रीगुरुदेवने संस्कृत के करीब ८०० विविध श्लोकों में प्रन्थित किया है।
(७) श्री कल्पसूत्रवालावबोध-रचना संवत् १९४०। सुपररॉयल अष्ट पेजी साइज । पृष्ठसंख्या ४७५। मूल्य ४ रुपये । मालवा, मारवाड़ और गुजरात निवासी जैन श्री संघों की प्रार्थना से परमपूज्य शासनरक्षक गुरुदेवने यह सरस एवं सुन्दर भाषा टीका निर्मित की है। वर्तमान में जितने भी कल्पसूत्र के भाषान्तर प्रकाशित हैं उन सब से यह अधिक सुगम और प्रासादशैली में रचित है।
(८) श्री गच्छाचार पयन्ना-वृत्ति-भाषान्तर:-क्राउन अष्ट पेजी साइज । पृष्ठसंख्मा ३८१ । प्रकाशक श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य-समिति, आहोर (राजस्थान)। मूल्य मात्र दो रुपये । यह ग्रन्थ तीन अधिकारों (१ आचार्यस्वरूप । २ यतिस्वरूप । ३ साध्वीस्वरूप निरूपण ) में विभाजित हो कर १३७ प्राकृत गाथाप्रमाण है। इस पर विक्रम सं. १६३४ में श्री आनन्दविमलसूरीश्वरचरणरेणु श्री विजयविमल गणीने ५८५० श्लोकप्रमाण टीका बनाई है। उसी टीका का परमपूज्य गुरुदेवने वि. सं. १९४४ के पौष महीने में भाषान्तर किया है । भाषान्तर में कहीं कहीं टीका से भी अधिक विवेचन किया गया है। जिसका स्पष्टीकरण गुरुदेवने मंगलाचरण में ही कर दिया है । यह ग्रन्थ श्रमण और श्रमणी-संघ के समस्त आचार-विचारों का मुख्य विवेचक है। प्रत्येक साधु व साध्वी को एक बार इसे वाचना ही चाहिये।
(९) पर्यषणाष्टाह्निका-व्याख्यान भाषान्तर ( पत्राकार ) सुपररॉयल बारा पेजी । पृष्ठसंख्या ११८ । मूल्य १० आना । रचना सं० १९२७ । खरतरगच्छीय श्रीक्षमाकल्याणजी वाचकप्रणीत संस्कृत व्याख्यान का यह भाषान्तर मालवी-मारवाड़ी भाषा मिश्रित है। गुरुदेवने संस्कृत भाषानभिज्ञों के हितार्थ यह अनुवाद सरल भाषा में तैयार किया है जो मूल-संस्कृतसह मुद्रित हुवा है।
(१०) प्राकृत शब्द रूपावली-प्राकृत भाषा हमारे प्राचीन काल की लोक(जन) भाषा रही है । परम पावन श्रीतीर्थकर भगवान् इसी भाषा में देशना देते थे । आजकल यह
१-गच्छाचारप्रकीर्णस्य टीकां लोकसुभाषया । कुर्ववृत्यनुसारेण चाधिका कुत्रचित्यपि ॥ २ ॥