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मरुधर और मालवे के पांच तीर्थ व्याख्यान-वाचस्पति श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि शिष्य मुनि देवेन्द्रविजय साहित्यप्रेमी'
बीसवीं शताब्दी भारतीय इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसमें अनेक धर्मप्रचारक और राष्ट्रीय नेता पैदा हुये हैं। धर्मोद्धारकों में परम पूज्य प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का विशिष्ट और गौरवशाली स्थान है । आपने अपनी सर्वतोमुखी शास्त्र-सम्मत्त विविध प्रवृत्तियों से जैन समाज का बड़ा ही गौरव बढ़ाया है । आपने जहाँ क्रियोद्धार कर श्रमण संघ को वास्तविक प्रकार से चारित्र-पालन का मार्ग पुनः दिखलाया, वहाँ साहित्य-निर्माण कार्य भी महत्वपूर्ण प्रकारों से सम्पन्न किया और प्राचीन तीर्थों का उद्धार कार्य मी । आपने जिन प्राचीन तीथों और चैत्यों की सेवा की हैं, उनका यहाँ इस लघु लेख में परिचय देना ही हमारा ध्येय है। १ श्रीकोरटाजीतीर्थः
___ कोरंटनगर, कनकापुर, कोरंटपुर, कणयापुर और कोरंटी आदि नामों से इस तीर्थ का प्राचीन जैन साहित्य में उल्लेख मिलता है । उपकेशगच्छ-पट्टावली के अनुसार श्री महावीर देव के महापरिनिर्वाण के पश्चात् ७० वें वर्ष में श्री पार्श्वनाथसंतानीय श्री स्वयंप्रभसूरीश पट्टा. लंकार उपकेशवंश-संस्थापक श्रीरत्नप्रभसूरिजीने ओसिया और यहाँ एक ही लग्न में श्रीमहावीर देव की प्रतिमा स्थापित की थी। इस नगर से श्रीरत्नप्रभसूरि के शासनकाल में ही श्रीकनकप्रभसूरि से उपकेशगच्छ में से कोरंटगच्छ की उत्पत्ति हुई थी। श्रीकनकप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि के गुरुभाई थे । कोरंटगच्छ में अनेक महाप्रभाविक जैनाचार्य हुये हैं। वि. सं. १५२५ के लगभग कोरंट तपा नामक एक शाखा भी निकली थी। कई शताब्दियों तक यह नगर जनधन और सब प्रकार से उन्नन और समृद्ध रहा है । वर्तमान में इसके खण्डहर देख कर भी विश्वास किया जा सकता है और उल्लेख तो मिलते ही हैं।
यह प्राचीन समृद्ध नगर ५०० सौ घरों के एक लघु ग्राम के रूप में आज एरणपुरा स्टेशन से १२ मील दूर पश्चिम की ओर विद्यमान है। इसका वर्तमान नाम कोरटा है। अभी यहाँ जैनों के ५० घर और उनमें लगभग २५० मनुष्य हैं तथा चार जिनेन्द्र मन्दिर
१ उक्त पट्टावली में यह संवत् लिखा हुआ मिलता है; परन्तु इतिहासज्ञों के समक्ष यह अमी मान्य नहीं हो सका है। -संपादक