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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ हैं। जिन की व्यवस्था स्वर्गीय गुरुदेव प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से संस्थापित श्री जैन पेढी करती आ रही है।
(१) श्रीमहावीर मन्दिर:कोरटा के दक्षिण में यह मन्दिर है । यह विशेषतः प्राचीन सादी शिल्पकला के लिये नमूनारूप है । श्री श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजीने वीरात् सं. ७० में इसकी प्रतिष्ठा की थी। विक्रम संवत् १७२८ में श्रावण सुदी १ के दिन श्री विजयप्रभसूरि के आज्ञावर्ती श्री जयविजय गणीने प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर नवीन दूसरी प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी । तत्सम्बन्धी एक लेख मन्दिर के मण्डप के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इस श्रीजयविजयगणीप्रतिष्ठित प्रतिमा के उत्तमांगै विकल हो जाने पर आचार्यवर्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने उपदेश से मन्दिर का पुनरुद्धार करवाकर नूतन श्री वीरप्रतिमा प्रतिष्ठित की और श्रीजयविजयगणी द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा को लेपादि से सुधरवा कर उसको मन्दिर की नव चौकी में विराजमान करवादी।
(२) श्रीआदिनाथ मन्दिर:... सन्निकटस्थ धोलागिरि की दाल जमीन पर यह मन्दिर है। इसको विक्रम की १३ शताब्दी में महामात्य नाहड़ के किसी कुटुम्बीने अपने आत्मकल्याण के लिये निर्मित किया ज्ञात होता है। इसमें (आयतन !) निर्माता की प्रतिष्ठित करवाई हुई प्रतिमा खण्डित हो जाने पर उसे हटा कर नवीन प्रतिमा वि. सं. १९०३ में देवसूरगच्छीय श्रीशान्तिसूरिजीने प्रतिष्ठित की और वही प्रतिमा अभी भी विराजित है । मूलनायकजी की प्रतिमा के दोनों ओर विराजित प्रतिमाएँ श्रीश्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा प्रतिष्ठित नूतन बिम्ब हैं।
(३) श्रीपार्श्वनाथ मन्दिरःयह जिनालय गाँव के मध्य में है। इसको कब, किसने बनाया और किस गच्छ के मुनिपुंगवने प्रतिष्ठित किया यह अज्ञात है। अनुमानतः ज्ञात होता है कि ऊपर वर्णित
१ " संवत् १७२८ वर्षे श्रावण सुदि १ दिन, भट्टारक श्रीविजयप्रभसूरीश्वरराज्ये श्रीकोरटानगरे, पंडित श्री५श्रीश्रीजयविजयगणीना उपदेशथी मु. जेतापुरा सिंग भार्या, मु. महाराय सिंग भार्या, सं. बीका, सांवरदास, को. उधरणा, मु. जेसंग, सा. गांगदास, सा. लाधा, सा. खीमा, सा. छांजर, सा. नारायण, सा. कचरा प्रमुख समस्त संघ मेला हुइने श्रीमहावीर पवासग बइसार्या छ, लिखितं गणी मणिविजयकेसरविजयेन वाहरा महवद सुत लाधा पदम लखतं, समस्त संघ नइ मांगलिकं भवति शुभं भवतु ।”
२ उत्तमांग विकल प्रतिमा को मूलनायक रखना या नहीं रखना के लिये देखिये श्रीवर्तमानाचार्य लिखित 'श्रीकोरटाजी तीर्थ का इतिहास'