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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रय और द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी और अमावस्या तथा पूर्णिमा को उपवास करुंगा। आपने इसी कार्य को सम्पन्न करने के हेतु सं. १९३३ का वर्षावास जालोर में ही किया । यथासमय आपने योग्य व्यक्तियों की एक समिति बनाई और उन्हें वास्तविक न्याय की प्राप्ति हेतु जोधपुर-नरेश यशवंतसिंहजी के पास भेजे ।
कार्यवाही के अन्त में राजा यशवंतसिंहजीने अपना न्याय इस प्रकार घोषित किया 'जालोरगढ ( स्वर्णगिरि ) के मन्दिर जैनों के हैं। इसलिये उनका मन न दुखाते हुये शीघ्र ही मन्दिर उन्हें सौंप दिये जाय और इस निमित्त उनके गुरु श्रीराजेन्द्ररिजी जो अभी तक आठ महिनों से तपस्या कर रहे हैं, उन्हें जल्दी से पारणा करवा कर दो दिन में मुझे सूचना दी जाय।' ___ इस प्रकार गुरुदेव अपने साधनामय संकल्प को पूरा कर विजयी हुए।
गुरुदेव की आज्ञा से मन्दिरों का जीर्णोद्धार प्रारंभ हुआ और वि. सं. १९३३ के माघ सु. १ रविवार को महामहोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा-कार्य करवा कर गुरुदेवने नौ (९) उपवास का पारणा करके अन्यत्र विहार किया। इस प्रतिष्ठा का परिचायक लेख श्री अष्टापदावतारचौमुखमन्दिर में लगा हुवा है
" संवच्छुमे त्रयस्त्रिंशन्नन्दक विक्रमादरे । माघमासे सिते पक्षे, चन्द्रे प्रतिपदातिथौ ॥१॥ जालंधरे गढे श्रीमान, श्रीयशस्वन्तसिंहराट् । तेजसा घुमणिः साक्षात् , खंडयामास यो रिपुन् ॥ २॥ विजयसिंहश्च किल्लादार धर्मा महाबली ।। तस्मिन्नवसरे संधैर्जीर्णोद्धारश्च कारितः ॥ ३ ॥ चैत्यं चतुर्मुखं सूरिराजेन्द्रेण प्रतिष्ठितम् ।। एवं श्रीपार्श्वचैत्येऽपि, प्रतिष्ठा कारिता परा ।। ४ ॥ ओशवंशे निहालस्य, चोधरी कानुगस्य च । सुत प्रतापमल्लेन प्रतिमा स्थापिता शुभा ॥ ५ ॥
श्रीऋषभजिनप्रसादात् उल्लिखितम् ॥ इस समय भी श्री विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज अपने उपदेश से इन प्राचीन तीर्थकरप जिनमन्दिरों का उद्धार-कार्य करवाते रहते हैं एवं इसके हेतु सहस्रों रुपयों की सहायता करवाई है।