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गुरुदेव की विशेषता
मुनिराज श्री लक्ष्मीविजयजी अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्तते, प्रवर्तयत्यन्यजनश्च निस्पृहः । स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परम् ॥ १॥
-विश्व के प्रत्येक धर्म में गुरुपद का महत्व बड़ा भारी माना गया है । वस्तु का यथार्थ ज्ञान गुरु के द्वारा ही जाना जा सकता है । इसके बिना मानव अपने जीवन में वास्तविक सफलता की ओर कदापि आगे नहीं बढ़ सकता ।
आधुनिक गुरुपद का जो महत्व जनता में घटता सा जारहा है उसका मुख्य कारण यही है कि गुरुजन अपने गुरुपद के उत्तरदायित्व को ठीक तरह से निभाने में कटिबद्ध नहीं दिखाई देते। लोक-जीवन में गुरुपद द्वारा अनेक प्रकार की धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, राजकीय सेवाएँ यथासमय पर होती रही हैं । उसीके फलस्वरूप आज भी हमारे साहित्य में अनेक प्रकार की मननीय, आचरणीय एवं जीवनविकास की शिक्षाएँ यत्र-तत्र सर्वत्र उपलब्ध होती रहती ही हैं।
भारत सदा से त्याग और वैराग्य का केन्द्रस्थान रहा है । जितनी भी विभूतियाँ आजतक संसार में पूज्य, वन्दनीय एवं स्मरणीय बनी हैं, उनके जीवन में नैसर्गिक अध्यात्मवाद कूट-कूट कर भरा था । अन्य धर्मों की अपेक्षा त्याग और वैराग्य की जो भूमिका जैन धर्म में दिखाई देती है, वह अन्यत्र उस रूप में विकसित न हो सकी । अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर प्रभु और उनके शासन में गणधर भगवन्त एवं महान् सुविहित पूर्वाचार्य चिरस्मरणीय बने हैं।
उन्हीं में से २० वीं शताब्दी के जैनाचार्यों में से श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय सर्वतन्त्रस्वतन्त्र सुविहितशिरोमणि श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज भी एक हैं।
अपनी गुरुपद की विशेषता से वे सदा के लिये संसार में अमर एवं अमिट बनकर जनता के लिये मागदर्शक बन चुके हैं। वही व्यक्ति वास्तव में गुरु बनने की क्षमता रख सकते हैं, जिनका जीवन सांसारिक प्रवृत्तियों से निवृत्त हो जाता है और वे सदा ही मानसिक, वाचिक, कायिक अशुभ प्रवृत्तियों का निग्रह कर शुभ योग में ही सदा तल्लीन रहते हैं। इसी तरह से अपने अनुयायी को भी निःस्पृहभाव से जिनोपदिष्ट शुभ मार्ग में बढ़ाने के लिये सदा कटिबद्ध रहते हैं।
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