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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
साहित्य-वाटिका की रम्य स्थली पर मोद-प्रमोद में विचरण करने वाले कविने भक्तिरस की सुन्दर रचना द्वारा आत्मविभूति को जगाने का कितना सरल साधन दिखाया है । अवधू आतम ज्ञान में रहना, किसीकुं कुछ नहीं कहना ।
आतम ध्यान रमणता संगी, जाने सब मत जंगी ।
परम मात्र लहे न घट अंतर, देखे देखे पक्ष दुरंगी ||
और भी आगे चलकर कविने परमात्मा के साथ किस प्रकार प्रेम प्रगट किया है । प्रभु के साथ लाड़ - लड़ाने की कितनी उत्सुकता - भावुकता दिखाई है ।
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श्री शान्तिजी पिऊ मारा,
हो ।
शान्ति-सुख - सिरदार प्रेमे पाया प्रीतड़ी पिऊ मोरा, प्रीतिनी रीति अपार हो ||
परमात्मा को अपना पतिदेव मानकर आप उनकी नायिका का स्थान ले रहे हैं । प्यारे सज्जनो ! प्रभु-भक्ति में कितना प्रेम उनकी आत्मा में उमड़ता रहता था । इन पंक्तियों से स्पष्ट मालूम होता है कि उनका हृदय प्रभु को रिझाने में तल्लीन रहता था । किसी प्रकार की शंका न रखते हुए ईश्वर को पिऊके संबोधन से पुकारा है। आनन्दघनजीने भी तो इसी प्रकार प्रभु - स्तवना की है । पाठकगण उनके गीत का भी रसपान करें ।
निशदिन जोऊं तारी वाटड़ी, घर आवो रे ढोला || निश० ।
मुझ सरिखी तुझ लाख है, मेरे तूंही ममोला || निश० ॥
आनंदघनजी ' ढोला ' शब्द से ईश्वर को संबोधित करके उसको पतिदेव मानकर आप नायिका बन जाते हैं । यह प्रियतम प्रीतम की बुलाने की कितनी विह्वलताभरी रीति है । गुरुदेव के काव्यग्रन्थों में यति, गति, ताल, स्वर, यमक, दमक अद्भुत ढंग से सच्चे हुये दिखाई देते हैं । भांडवपुर के तीर्थपति श्री महावीर प्रभु के चैत्यवंदन से यही बात प्रगट होती है ।
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वर्द्धमान जिनेसर, नमत सुरेसर अति अलवेसर तीर्थपति, सुख-सम्पति-दाता, जगत- विख्याता, सर्व विज्ञाता, शुद्ध यति ।