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श्री गुरुदेव के चमत्कारी संस्मरण । [ आचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी ]
आयावयाही चयसोगमलं, कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं । छिंदाहि दोसं विणएज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥ ४ ॥
- दशवैकालिक सूत्र के द्वितीय अध्ययन में कहा है कि साधुओ ! यदि सांसारिक दुःखो से छुटकारा पाना हो तो आतापना लो, सुकुमारिता को छोड़ो, चित्तसे विषय-वासनाओं को हटा दो, वैर-विरोध और प्रेम-राग को अलग कर दो। इस प्रकार की साधना करते रहने से सर्व दुःखों का अन्त हो कर अक्षय सुख प्राप्त होगा ।
आयावयति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउड़ा ।
वासासु पडिलीणा, संजया सुसमाहिआ ।। १२ ॥
- दशवैकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन में कहा है कि जो साधु ग्रीष्मकाल में आतापना लेते हैं, शीतकाल में उघाड़े शरीर नदी, तालाब या जंगल के किनारे खड़े रह कर कायोत्सर्ग ध्यान करते हैं और वर्षाकाल में स्थिरवास करके विविध तपस्या और स्वाध्यायध्यान से इन्द्रियों का दमन करते हैं, वे साधु अपने संयमधर्म एवं ज्ञानादि गुणों की भले प्रकार सुरक्षा कर सकते हैं ।
सिद्धांतोक्त इस आज्ञा के अनुसार प्रातःस्मरणीय - श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने क्रियोद्धार करने के पश्चात् ऐसे घोर अभिग्रह धारण किये जिनकी पूर्ति में आपको कभी चार, कभी छः, कभी सात दिन तक निराहार रहना पड़ता था । इसी प्रकार प्रति चातुर्मास में एकान्तर चोविहार उपवास, तीनों चातुर्मासी चतुर्दशी का बेला, संवत्सरी एवं दीपमालिका का तेला, बड़े कल्प का बेला, प्रतिमास की सुदि १० का एकासना, चैत्री और आश्विनी नवपद ओलियों के आप आयंबिल - तप आचरण करते थे । यह तपश्चरण - क्रिया आपकी जीवन पर्यंत रही थी। आपने मांगीतुंगी - पर्वत के बिहड़ स्थानों में छः मास कायो - त्सर्ग में रह कर आठ-आठ उपवासों की तपस्या से सूरिमंत्र का जाप किया था जो सामान्य व्यक्तियों के लिये बड़ा कठिन काम था । कवि मिश्रीमलजी वकीलने स्वरचित हिन्दी - पद्यमय जीवनी में आपका एक प्रसंग चित्रित किया है कि
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