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श्री अमिधान राजेन्द्र कोश और उसके कर्ता। क्या स्थिति थी उन्होंने इस संसार को क्या २ अमोघ उपदेश देकर आराधना के मार्ग पर लगाया क्योंकि वे इस आरे के आद्यतीर्थंकर थे। खूब अच्छा विवेचन किया है। इस तरह अनेकों विषयों पर इस दूसरे भाग में विवेचन किया गया है। पाठकों को दूसरा भाग देखने से अच्छी तरह मालूम हो ही जायमा। दूसरे भाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हैं । उन कथाओं या उपकथाओं का भी शब्द के अर्थ के साथ ही संकलन कर दिया है जिससे कोई विषय अधूरा न रह जाय ।
अभिधान राजेन्द्र कोष का तीसरा भाग। तीसरे भाग के प्रारंभ में आभार प्रदर्शन किया है । उसके पश्चात् तीसरे भाग की संस्कृत भाषा में संशोधक महानुभावोंने प्रस्तावना लिखी है । उपाध्याय श्री मोहनविजयजी महाराज जो कि शांत, विद्वान् और गंभीर मुनि हुए हैं उन्होंने अपने गुरु श्रीमद्विजयं. राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के गुणों पर मुग्ध होकर गुरु-अष्टक निर्माण किये हैं। वे तीन अष्टक यहां दिये गये हैं।
तीसरे भाग का प्रारंभ 'ए' अक्षर से किया गया है और ' छोह ' शब्द पर इस तीसरे भाग को समाप्त किया है । इस भाग में १३६३ पृष्ठ हैं।
'ए' यह अक्षर केवल संबोधन, अनुनय, अनुराग आदि में ही काम आता है इस पर अन्य कोई शब्द नहीं है । इसी प्रकार 'ओ' अक्षर भी प्राकृत भाषा में नहीं होता है। इसी तरह 'अं' और अः इन पर भी कोई शब्द नहीं है; अतएव इनके भी इस कोष में कोई शब्द नहीं दिये गये हैं। - केवल मात्र ए, ओ, क, ख, ग, घ, च, छ इन आठ अक्षरों के शब्दों पर ही इस भाग में विवेचन किया गया है। इस भाग के कुछ कुछ मुख्य विषय यहां दिये जा रहे हैं:
'एगल्लविहा' (एकलविहारी) इस शब्द पर एकलविहारी साधु को क्या क्या दोष लगते हैं, अशिवादी कारण से एकाकी होने में दोषाभाव, एकलविहारी को प्रायश्चित आदि का वर्णन किया है।
__'ओगरणा ' ( अवगाहना ) शब्द पर अवगाहना के भेद, औदारिक, वैक्रिय, आहा. रक, तैजस और कार्मण इन पांच शरीरों के क्षेत्र का मान दिया है। कौन २ सी गति में कितनी २ जीव की अवगाहना हो सकती हैं उसका संपूर्ण विवेचन इस कोष में किया है।
'ओसटिपणी ' ( अवसर्पिणी ) इस शब्द पर अवसर्पिणी शब्द की व्युत्पत्ति और अवसर्पिणी कितने काल को कहते है, सुषमसुषमा आरे से लेकर दुषमादुषमा पर्यन्त छः