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“અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૭૩
જ્યોતિર્નિબન્ધ ન
: દ્રવ્ય સહાયક : પૂ. આચાર્ય શ્રી રામચન્દ્ર-ભટૂંકર-કુંદકુંદસૂરીશ્વરજી મહારાજના શિષ્યરત્ન વર્ધમાન તપની ૧૦૦+૮૧ ઓળીના આરાધક પૂ. પંન્યાસ પ્રવર શ્રી નયભદ્રવિજયજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી સામુહિક ચાતુર્માસ આરાધના સમિતિ-સં. ૨૦૬૮ રાજેન્દ્ર ભુવન-પાલિતાણાના ચાતુર્માસ પ્રસંગે
જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૯
ઈ. ૨૦૧૩
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
001
002
003
004
005
006
007
008
009
010
011
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013
014
015
016
017
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
018
019
020
021
022
023
024
025
026
027
028
029
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
238
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84
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640
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454
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414
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288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
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(04)
210
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ
શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह - 04.
(मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ ( - भेल) ahoshrut.bs@gmail.com
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ भर्णोद्धार संवत २०५५ (६. २०१०) - सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. खा पुस्तो www.ahoshrut.org वेवसाइट परथी पए। डाउनलोड sरी शडाशे. પુસ્તકનું નામ
ईर्त्ता टीडाडार-संचा
ક્રમ
055 | श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 056 | विविध तीर्थ कल्प
057
ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | 058 सिद्धान्तलक्षगूढार्थ तत्त्वलोकः
059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
જૈન સંગીત રાગમાળા
060
061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध ( प्रबंध कोश)
062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
064 | विवेक विलास
065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ
067
068 मोहराजापराजयम्
069 | क्रियाकोश
-
070 कालिकाचार्यकथासंग्रह
071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
072 | जन्मसमुद्रजातक
073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
074
જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
ભાષા
सं
.:
सं
सं
सं
गु.
सं
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ
श्री सुदर्शनाचार्य
पू. मेघविजयजी गणि
सं/गु. श्री दामोदर गोविंदाचार्य
सं
F
सं
सं
सं
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. जिनविजयजी म.सा.
शुभ.
सं
सं/ हिं
सं.
सं.
सं/हिं
सं/हिं
शुभ.
पू. पूण्यविजयजी म.सा.
| श्री धर्म
श्री धर्मदत्त
पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
पू. चतुरविजयजी म.सा.
श्री मोहनलाल बांठिया
श्री अंबालाल प्रेमचंद
श्री वामाचरण भट्टाचार्य
श्री भगवानदास जैन
श्री भगवानदास जैन
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी
પૃષ્ઠ
296
160
164
202
48
306
322
668
516
268
456
420
638
192
428
406
308
128
532
376
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075
076
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १
081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २
જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧
જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨
082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3
O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१
084 ल्याए 125
ORS विश्वलोचन कोश
086 | Sथा रत्न छोश भाग-1
0875था रत्न छोश भाग-2
હસ્તસગ્રીવનમ્
088
089
090
એન્દ્રચતુર્વિશનિકા
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
गुभ.
शुभ,
गुभ.
गुभ.
शुभ
श्री साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
सं.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
शुभ.
शुभ.
शुभ.
शुभ,
गु४.
सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा
गुभ.
गुभ.
सं
सं.
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
374
238
194
192
254
260
238
260
114
910
436
336
230
322
114
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
304
122
208 70
310
462
512
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
Page #9
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________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
Page #10
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________________
क्रम
पुस्तक नाम
202 | आचारांग सूत्र भाग - १ नियुक्ति + टीका
203 | आचारांग सूत्र भाग - २ निर्युक्ति+ टीका
204 | आचारांग सूत्र भाग - ३ निर्युक्ति+टीका
205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग - ५ निर्युक्ति+ टीका
207 सुयगडांग सूत्र भाग - १ सटीक
208 | सुयगडांग सूत्र भाग - २ सटीक 209 सुयगडांग सूत्र भाग - ३ सटीक
210 सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक
211 सुयगडांग सूत्र भाग - ५ सटीक
212 रायपसेणिय सूत्र
213 प्राचीन तीर्थमाळा भाग १
214 धातु पारायणम्
215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग - १
216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२
217 | सिद्धम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 तार्किक रक्षा सार संग्रह
219
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 380005.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची ।
220
221
वादार्थ संग्रह भाग - १ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
| वादार्थ संग्रह भाग - २ ( षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
वादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, शाब्दबोधप्रकाशिका)
222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्त्ता / टिकाकार
भाषा
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री मलयगिरि
गुजराती
श्री बेचरदास दोशी
आ. श्री धर्मसूरि
सं./ गुजराती श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा संस्कृत
श्री हेमचंद्राचार्य
आ. श्री मुनिचंद्रसूरि
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
श्री बेचरदास दोशी
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
आ. श्री वरदराज
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
रघुनाथ शिरोमणि संस्कृत
संपादक / प्रकाशक
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री बेचरदास दोशी
श्री बेचरदास दोशी
राजकीय संस्कृत पुस्तकालय
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
पृष्ठ
285
280
315
307
361
301
263
395
386
351
260
272
530
648
510
560
427
88
78
112
228
Page #11
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________________
आनन्दाश्रमसंस्कृतग्रन्थावलिः ।
ग्रन्थाङ्कः ८५
ज्योतिर्निबन्धः ।
शूरमहाठश्री शिवराजविनिर्मितः ।
एतत्पुस्तकं वैद्योपनामक सदाशिवसूनुरङ्गनाथशास्त्रिभिः संशोधितम् ।
तच्च
बी. ए. इत्युपपदधारिणा विनायक गणेश आपटे
इत्यनेन
पुण्याख्यपत्तने
आनन्दाश्रममुद्रणालये
आयसाक्षरैर्मुद्रयित्वा प्रकाशितम् ।
शालिवाहनशकाब्दाः १८४१
ख्रिस्ताब्दाः १९१९
( अस्य सर्वेऽधिकारा राजशासनानुसारेण स्वायत्तीकृताः ) मूल्यम् एकाणकन्यूनं रूपकचतुष्टयम् । (३०१५ )
Aho! Shrutgyanam
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Aho! Shrutgyanam
Page #13
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________________
आदर्श पुस्तकोल्लेख पत्रिका
ज्योतिर्निबन्धस्यास्य शोधनार्थमादर्शपुस्तकानि यैः परहितेच्छुभिः प्रहितानि तन्नामानि पुस्तकसंज्ञाश्च प्रदर्श्यन्ते
(क.) इति संज्ञितं पुस्तकं - खेडग्रामनिवासि कै० रा. रा. नागुभाऊ वकील इत्येतेषाम् । अस्य लेखनकाल: श० १७०१.
( ख ) इति संज्ञितं पुस्तकं - पुण्यपत्तनस्थ - करंबेळकरोपाल रा. रा. गोपाळ महादेव इत्येतेषाम् ।
( ग . ) इति संज्ञितं पुस्तकं - पुण्यपत्तनस्थ वे० शा ० सं० रा. रा. राघवाचार्यरामानुज इत्येतेषाम् | त्रुटितमेतत् ।
( घ.) इति संज्ञितं पुस्तकं - पुण्यपत्तननिवासिनां वे. शा. सं. रा. रा. विनायकशास्त्री शेवगांवकर इत्येतेषाम् । काश्यां शिला
मुद्रितमेतदस्य मुद्रणकालः संवत् १८३४.
समाप्तेयमादर्श पुस्तकोल्लेख पत्रिका |
Aho! Shrutgyanam
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Aho! Shrutgyanam
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________________
श्रीशिवराजविनिर्मितज्योतिर्निबन्धस्य विषयानुकमः ।
विषयाः
पृष्ठाङ्काः
....
४३
पृष्ठाकाः विषयाः शास्त्रोपनयः
१ प्रकारान्तरम्.... .... ज्योति शास्त्रप्रशंसा ....
आयव्ययानयनम् .... दैवज्ञप्रशंसा
मासप्रकरणम् रविचारः ....
तिथिप्रकरणम् चन्द्रचारः
वारप्रकरणम् कुजचारः
योगप्रकरणम् ... ... ३८ बुधचारः
९ करणप्रकरणम् गुरुचारः
नक्षत्रप्रकरणम् शुक्रचारः
शुद्धनक्षत्रविचारः .... शनिचारः
वेधविचारः.... .... राहुचारः ...
पीडितनक्षत्रापवादः.... केतुचारः ...
मुहूर्तप्रकरणम् .... अगस्त्यचारः
उपग्रहप्रकरणम् .... सप्तर्षिचारः...
उपग्रहदोषापवादः .... ग्रहयुद्धम् ...
चन्द्रताराबलप्रकरणम् चन्द्रग्रहसमागमः .... .. २२ दुष्टतारापवादः ग्रहशृङ्गाटकम् .... .... २३ गोचरप्रकरणम् मानप्रकरणम्
पृथक्फलानि संवत्सरप्रकरणम् .... २५ गोचरापवादः प्रभवादिसंवत्सरफलानि .... २६ ग्रहदानानि राजादीनां निर्णयः.... २९ अनिष्टचन्द्रापवादः .... .... राजफलम् .... .... सौम्यक्रूरादिविचारः मन्त्रिफलम्.... ....
सूर्ये कथं क्रूरत्वादीति प्रश्नोत्तरम् ,, अग्रधान्येशफलम् .... , लग्नप्रकरणम्.... ... .... मेघेशफलम्....
वर्गप्रकरणम् .... .... रसाधिपफलम्
, अनिष्टवर्गापवादः ... .... पश्चिमधान्येशफलम् .... ३२ सिलवादीनां बलविचारः .... चानयनम्.... ....
समयलप्रशंसा ... .....
Hulululunull
" a ur v 22-22 MMMA
५१
.... ....
.... ....
५४ ५५
.
..
Aho! Shrutgyanam
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________________
विषयानुक्रमः ।
विषयाः
काः विषयाः चन्द्रबलप्रशंसा ... ... ६३ भद्रापवादः ... .... चन्द्रलग्नयोबलनिर्णयः ..., कालहोरापवादः .... लग्नस्थाप्राशस्त्यम्..... .... ६५ एचकदोषः ........ लग्नस्थचन्द्रनिषेधप्रश्नोत्तरम् .... ६६ पञ्चकापवादः . . ... तात्कालिकविचारः ... .... , संधिविचारः... .... सूक्ष्मानयना .......... उक्तानुक्तदोषापवादः । तिथ्यादिगुणप्रशंसा ... ... ६७ दो पापनादभङ्गः .... त्याज्यप्रकरणम् ...
माल्यादिविचारः . .... दोषफलप्रकरणम्
जस्तापवादः...... .... अपवादप्रशंसा ....
६८ अ.ते तीर्थयात्रानिषेधः महादोषनिरूपणम् ...... ६९ अस्यापवादः एषां लक्षणानि
, चन्द्रास्तदोपः ... .... गण्डान्तापवादः .... ७१ मलमासनिर्णयः ..... कर्तरीविचारः .... ....
मलमासे कार्याकार्याणि कर्तर्यपवादः . ... ....
क्षयमासनिर्णयः पडष्टरिष्फचन्द्रदोषः .... प्रहणनिर्णयः... ... पडष्टरिष्फचन्द्रापवादः
ग्रहणविधिः .......... संग्रहदोषः .... ....
पर्वेशसाधनम् . संग्रहापवादः.... ....
पर्वेशादिफलानि .... . अटललनदोषः ....
निजराशौ ग्रहणफलम् । अष्टमलग्नापवादः
अहो दानम्... विषनाडीदोषः ....
ब्रहणमाहात्म्यम् .... विषनाड्यपवादः
नाणे बज्यम्..... .... दुर्महूलदोषः ....
सिंहस्थगुरुनिर्णयः ... वारदोषः ..... ...
संकटे प्रत्तिः ... कुलिकाद्यपवादः
संक्रान्तिनिर्णयः .... एकालादिदोष
संक्रान्तिवाहनादिविचारः कुनांशः ....
संक्रान्तः पुण्यकालः .... नवांशापवादः ...
पुण्यकालविशेषः पागदोपनिर्णयः ...
पुण्यकालानयनम् ... ....
Aho! Shrutgyanam
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________________
श्रीशिवराजविनिर्मितज्योतिर्निबन्धस्य--
३
विषयाः
पृष्ठाङ्क:
.
.
पृष्ठाका विषयाः संक्रान्तिस्नानम्
९७ कर्णवेधः .... .... संक्रान्तिफलम्
९८ निष्क्रमणम् .... .... संक्रान्तिदानानि
भूभ्युपवेशनम् जन्मराशिनिर्णयः .... जीविकापरीक्षणम् .... नामराशिनिर्णयः ...
अन्नप्राशनम् .... जन्मगासादीनां निर्णयः
चूडाकरणम् .... व्यवस्थाविकल्पः
चौलनिषेधः .... जन्ममासप्रवृत्तिः .... क्षौरनिषेधः ... जन्मनक्षत्रविचारः ... अक्षरारम्भविधिः सिद्धान्तमीमांसाध्यायः
असरार्पणम् अस्य निर्णयः
उपनयनम् ... आधुनिकमतम् ... ... उपाकरणम् .... .... संदेहे विचारः ... ... १०३ केशान्तकर्म .... ... जातकलग्नयोः प्राधान्य. ....
विद्यारम्भः .... विचारः ... ....
अनध्यायाः ....
. १२९ शास्त्रार्थशिष्टाचारप्रामाण्य
छुरिकाबन्धनम् ... १३० विचारः ....
विवाहप्रकरणम् ..... १३१ प्रथमार्तवप्रकरणम्
कुलविचारः .... तत्र पृथक्फलानि
गोत्रप्रवरनिर्णयः .... रजस्वलाशान्तिः
१०८ वरगुणाः ......... ... १३५ गर्भाधानम् .... १०९ कन्यागुणाः ... .... पुंसवनम्
सामुद्रिकलक्षणानि ... सीमन्तोन्नयनम्
स्वस्थारिष्टानि .... जातकर्म
दैवज्ञं प्रति पृच्छा नामकमे
विवाहप्रश्नः ... ... खटारोहविधिः
११२ शुभाशुभज्ञानम् दुग्धपानविधिः
११३ राशिकूटविचारः चरयोगिनी ....
घटितभेदाः .... ... राहुलक्षणम् .... ....
वर्णविचारः .... रुद्रलक्षणम् ....
,, वश्यम् ... ....
१३२
..
.
Aho! Shrutgyanam
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________________
विषयाः
तारा:
योनिः
....
ग्रहसख्यम् गणशुद्धिः
भमेलः
नाडीविचारः
नाड्यपवादः
पुञ्जी
वर्ग:..... दूरविचार:
धिष्ण्यदूरम्
दुष्टफलपरिहारः गुणविचारः .. विवाहनिश्चयः
कन्यावरणम् विवाहकालविचारः गुरुशुक्रास्तापवादः रविगुर्वोर्बलविचारः..... बृहस्पतिशान्तिः आदित्यशान्तिः मासनिर्णयः .
तिथ्यादिशुद्धिः
जामित्रशुद्धिः
अंशशुद्धिः
लग्नशुद्धिः
लग्नगोचरम्
भावशुद्धिः गोरजःशुद्धिः घटीलक्षणं प्रतिष्ठा च वेदिकालक्षणम्
....
....
....
....
...
विषयानुक्रमः ।
पृष्ठ : विषयाः
"
""
.... १४२ गान्धर्वविवाहशुद्धिः | विवाहाङ्गादीनां शुद्धिः विवाहभेदाः १४३ दातृनिर्णयः विषकन्याज्ञानम् १४५ मूलजादीनां फलम् १४६ वैधव्यादियोगे विवाहः समानक्रियाविचारः
"
....
....
****
....
...
0000
9.99
...
....
....
....
??
"
"
....
....
99
१४७ | यमलविशेषः प्रत्युद्वाहनिषेधः भतिकूलविचारः तत्र सूतकादौ शान्तिः नववधूप्रवेशः
""
१४८ | अग्न्याधानम्
१४९ गृहारम्भप्रकरणम्
दिक्साधनम् ....
17
१५० शङ्कुन्यासः दुर्निमित्तानि .. १५१ स्तम्भः
""
आय:
19
Aho! Shrutgyanam
....
....
....
****
4440
17
1000
19
१५२ निषिद्धग्राह्यकाष्ठानि . द्वारनिर्णयः १५३ | गृहनियमः ग्रामदिनियमः वास्तुनिवेशमुहूर्तविचारः १५४ | गृहायुर्दाययोगाः १५५ | गृहप्रवेशः
""
” वास्तुपूजाविधिः १५६ सूतिकागृहनिर्माणविधिः
१५७ / शय्यालक्षणम्
1000
....
....
****
...
****
-400
...
....
BU
....
0.00
....
6660
8000
.... 17
****
****
0.00
****
....
0000
....
9400
....
पृष्ठाङ्क:
१५७
....
35
१५८
१५९
"
"
१६०
१६१
१६२
"
१६३
१६४
"
१६५
१६६
१६७
""
१६८
99
१७१
१७२
१७३
99
१७४
१७५
१७६
१७९
१८०
१८१
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________________
विषयाः
राज्याभिषेकप्रकरणम्
यात्रामकरणम् यात्रानिवृत्तिकाल: यात्रायां पञ्चाशुद्धिः
पन्था राहुः यात्रायां दोहदप्रकरणम् लग्नबलविचार: पृथग्भावफलं - तत्र रविफलम्
चन्द्रफलम् भौमफलम्
****
...
***
श्री शिवराजविनिर्मितज्योतिर्निबन्धस्य
...
160
...
...
650
...
...
प्रतिशुक्रापवादः शुक्रस्तोत्रम् प्रतिशुक्रपूजाविधानम् प्रतिशुक्रदानम्
योगप्रशंसा यात्रायां योगाः
बुधफलम्
गुरुफलम्
शुक्रफलम् शनि फलम् राहुकेतुफलम्
यात्रायां समुदायेन पृथक्फलानि यात्रायां लग्नांशफलम् यात्रायां प्रति शुक्रविचारः
....
राजयोगभङ्गः यात्रायामनिष्टयोगाः यात्रायां मनोविशुद्धिः आवश्यके यात्रा यात्रोपयोगि मिश्रकम्
...
....
...
....
...
....
...
"
१८८ श्रुतम् १९१ | अश्वेङ्गितम् १९२ | गजेङ्गितम्
""
| स्वस्थानकृत्यम् ... १९३ नानाविधमुहूर्तप्रकरणम्
तत्र सुरप्रतिष्ठा
...
....
9030
****
2006
****
0000
....
****
.....
पृष्ठाङ्काः
विषणः
१८२ | प्रयाणे कर्तव्यानि १८३ नियमाः
१८४ यात्रायां प्रस्थानविधिः
| यात्रायां शकुनाः
"
१८७ | अपशकुनाः अपशकुनविधानम्
....
99
""
""
17
....
१९४ | वस्त्रारम्भणम् १९९ | तूलिका १९६ | अलंकृतिः धननिक्षेपः १९७ विपणिः
17
सेवा १९८ | व्यभिचारः
99
""
आयुष्पुटिकर्म १९९ रससंग्रहादि ..
२०३ संन्यासः
"
Aho! Shrutgyanam
वस्त्रधारणम् ... पृथक्फलानि
वस्त्रक्षालनम् दग्धस्फुटितवस्त्रफलम्
....
....
२०४ ब्रह्मज्ञानोपदेशः
दीक्षा .... २०५ श्रुतिस्मृतिप्रारम्भः
"
नाट्यम्
....
...
****
.....
200
****
....
....
....
9000
****
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Bob
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****
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....
....
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....
....
****
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....
9846
....
५
.... 97
...
पृष्ठाङ्काः
२०७
२०८
२०९
२११
२१४
२१५
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२१६
27
27
"
२१७
२१८
२१९
२२०
"
२२१
99
२२२
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"
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"
२२३
"
"
""
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषणः राज्योपकरणादीनि पण्यविक्रयः ..... धर्मारम्भोऽभिचारथ
संधिः वेतालसिद्धिः वापीकूपाद्यारम्भः वृक्षाधिरोपः
कृषिः
वीजोप्तिः धान्यच्छेदनम् धान्यसंग्रहः बीज संग्रहः
मेथी
....
****
69.4
****
धान्यस्थापनम् धान्यनिष्क्रमणम्
9440
6404
****
●
....
SPIR
RSGO
2014
****
चौर्यम् द्रव्यार्पणम् गोविक्रयादि. अश्वविक्रयादि
नूतनाश्वपल्याणम् पक्षिकर्म स्थलाम्बुवनचारिकर्म
शत्रुबन्धन पुष्पफलोत्तारणम् औषधनिष्पादन् औषधग्रहणम्
रोगमुक्तिस्नानम् सूतिकास्नानम् शतभिषक्स्नानफलम् तैलाभ्यङ्गः
4444
....
****
****
sa
००००
१०००
[0-85
....
64.4
****
***
****
4644
***.
....
....
0000
****
....
SPOR
....
विषयानुक्रमः ।
पृष्ठाङ्क: विषय: २२३ | प्रथमत्रीभोग:
मद्यारम्भः
"
२२४ गजकर्म
बलकर्म
39
"
"
"
99
२२५ सूची ... २२६ दिव्यम् नौका
""
"
>> क्रूरम्
२२७ शस्त्रनिर्माणम्
११
33
व्यालग्रहणम्
....
धनुरभ्यासः | वैदिको बाणमन्त्रः २२८ स्मार्तो बाणमन्त्रः
9"
खड्गादिलक्षणम्
"
उपदर्शनम् शान्तिः
दीपिका शय्पादि
23
"9
27 ताम्बूलम्
दीपविधिः
स्त्रीसंभोगः नवान्नभोजनम्
शस्त्रधारणम् ...
अभ्यासः
29
$9
२२९ पात्रम्
....
मैत्री.....
Aho! Shrutgyanam
41.0
दासी
"
२३० सेतुः
सर्वकर्म रोगमुक्तिदिवसाः २३१ | दुर्गादीनां यजनम्
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****
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****
****
BIES
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****
****
14PO
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90.0
****
पृष्ठ ङ्क :
२३१
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२३२
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२३३
99
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२३५
२३६
99
२३७
55"
२३८
17
"9
59
●५०० 19
२३९
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषया:
भूषण निर्माणम् मणिधारणम्.....
शान्त्यध्यायः
तत्र गण्डजातफलम् .
गण्डदोषशान्तिः अभुक्तमूलविचार: मूलसापे जातफलम् मूलसार्प जातस्यापवादः शिशुमुखदर्शनादर्शने मूलशान्तिः आश्लेषाशान्तिः ज्येष्ठाशान्तिः एकनक्षत्रजननशान्तिः कृष्ण चतुर्दशीशान्तिः सिनीवाली शान्तिः गोत्रसवविधिः व्यतीपातादिशान्तिः.... सदन्तोत्पन शान्तिः .... धनिष्ठापञ्चकविचारः पञ्चकशान्तिः.... त्रिपुष्करयोगः
त्रिपुष्करशान्तिः
भावकाष्टकम् ....
पल्लीपतनफलम् देहाङ्गफलानि तिथिफलम्
वारफलम्
UPER
नक्षत्रफलम् .
लगफलम्
सरटपतनफलम्
श्रीशिवराजविनिर्मितज्योतिर्निबन्धस्य
eac
4064
....
....
....
www.
....
विषणः
पृष्ठ :
२३९ (पलीशब्दफलम्
| पल्लीसरटयोः शान्तिः
काकमैथुन शान्तिः कपोतशान्तिः
"
२४० | उलूकादिशान्तिः मधुजालशान्तिः
19
२४१ | अन्नशान्तिः
२४२ | अग्निशान्तिः
उल्कालक्षणम्
२४३ परिवेषणक्षम्
२४४ इन्द्रचापलक्षणम् २४५ गन्धर्वनगरलक्षणम्
२४६ प्रतिसूर्यलक्षणम्
२४७ निर्वातलक्षणम् २४८ दिग्दाहलक्षणम् रजोलक्षणम् ..
19
२५० भूकम्पलक्षणम्
११
२५३ आधानचिन्ता
२५४ जन्माध्यायः
सूतिकाध्यायः जादिज्ञानम् अनिष्टाध्यायः
२५५ | अरिष्टाध्यायः
19
| कदलीदुष्टमसशान्तिः
99
****
Aho! Shrutgyanam
....
4300
****
4806
29
२५१ अङ्गस्फुरणफलम् सद्योदृष्टिलक्षणम् २५२ | सपनाडीचक्रम्
"
११.
२६९
सस्योत्पत्तिविचारः
२७०
जातकाध्यायः -तत्र राशिभेदाः २७१ ग्रहस्वरूपभेदाध्यायः.....
२७३
२७४
२७६
२७७
२७८
२७९
२८०
0454
....
....
19
१००
ष्टाः
२५५
२५६
२५७
13
२५८
२५३
२६२
२६३
२६४
२६५
२६६
२६७
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमः ।
विषय:
पृषाङ्क:
२९८ .... ,,
.... ३००
WWWW
:: : ०.००
संभोगः
पृष्ठ ङ्क | विषयाः चन्द्रारिष्टमङ्गः .... .... २८५ प्रश्नप्रकरणम् नियतायुः .... .... .... २८६ तत्रादो शुभाशुभज्ञानम् अमितायुः .... ....
लग्नादिभावविचारः .... आयुर्दायविवरणम् ....
ग्रहबलाबलम्.... .... आयुर्दायानयनम् .... धात्वादिचिन्ता .... दशाविभागः ....
बहुप्रश्ने विशेषः .... दशाफलपाकनिर्देशः .... लाभालाभविचारः .... अन्तर्दशाफलम्
नष्टलाभविचारः .... भावविचारः ....
गर्थपृच्छा .... .... धनचिन्ता ....
विवाहपृच्छा .... सहजचिन्ता ....
विवाहे शुभाशुभम् सुहृच्चिन्ता .... सुतचिन्ता ....
गमनम् .... .... अरिचिन्ता ....
आगमनम् .... कलत्रचिन्ता ....
परचक्रागमः .... मृत्युचिन्ता ....
युद्धपृच्छा .... .... गतिज्ञानम् ....
जयपराजयौ .... .... भाग्यचिन्ता ....
संधिविग्रहो .... .... फर्मचिन्ता ....
दुर्गभङ्गः .... आयचिन्ता .... .... .... २९३ वेष्टितदुर्गभङ्गापच्छा .... ययचिन्ता ....
परदुर्गाप्तिपच्छा .... हभावफलम् .... .... ,,: आत्मदर्गप्रच्छा त्रीजातकाध्यायः
अन्यदुर्गभङ्गधृच्छा .... राजयोगाध्यायः
२९५ मन्त्रभेदपृच्छा राजयोगभङ्गः .... .... २९६ विवादः । राजयोगनिणयः .... .... २९७ सेवापुच्छा .... चन्द्रयोगः ....
आश्रयः .... म्लेच्छयोगः ....
नृपदर्शनम् राशिलग्नयोः फलम्
गौरवम् .... प्रवज्यायोगः .... २९८ पदलाभपृच्छा
Aho! Shrutgyanam
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठाङ्काः ३१६
.....
.....
श्रीशिवराजविनिर्मितज्योतिर्निबन्धस्यविषयाः
पृष्ठाङ्काः विषयाः अधिकारः ....
३११ साटिः .... .... पदनिर्वाहपृच्छा
अनयोः कः सत्यः .... स्थानप्राप्तिः ___ .... .... ,
दिनचर्या धातुवादः
धान्यनिष्पत्तिः चौर्यपृच्छा ....
सुभिक्षपृच्छा.... .... सौख्यपृच्छा ....
दुर्भिक्षम् भयपृच्छा
वृष्टिपृच्छा अग्निभयम्
| कूपपृच्छा .... नदीपूरणपृच्छा
नौका .... कालवृष्टिपृच्छा
रोगपृच्छा .... .... स्त्रीविग्रहः ....
रोगनाशकयोगः .... धृताविवाहितापृच्छा .... स्वस्थो रोगी वा .... बन्धनपृच्छा ....
क मृत्युः .... .... मृत्युयोगः .... ....
मुक्तिभविष्यति न वा मृत्युभङ्गः .... .... ३१४ | कस्माल्लोकादागतोऽयम् गतप्राप्तिपृच्छा
रोगज्ञानम् मृताप्तिपृच्छा
दोषपृच्छा .... .... हृतादिवस्तुपृच्छा .... निधिपृच्छा .... .... चोरोऽयं न वेति पृच्छा
मृगया .... कोऽयं नर इति पृच्छा बन्धमोक्षौ अस्य को देश इति पृच्छा लिखितपृच्छा मित्रप्रीतिपृच्छा ....
वार्तापृच्छा कोऽश्वो विजयीति पृच्छा हन्तुं गमनम्.... मेलकः
अभिचारः वस्तुग्रहणम् .... ....
योगसिद्धिः .... वस्तुविक्रयः .... ....
विद्याभ्यासः .... क्रयविक्रयमध्ये कस्माल्लाभः.... काव्यम् वस्तुसंग्रहणाल्लाभोऽस्ति न वा. , दीक्षा कृतसंग्रहस्य वस्तुनः कदा विक्रयः,, वर्षेऽस्मिन्कथं भविष्यति .... ३१६ भोजनम् ....
.....
....
स्वमः
Aho! Shrutgyanam
Page #24
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________________
१०
विषयाः
भुक्तियानम् वाटिका
....
20.4
अर्वपृच्छा देशभङ्गपूच्छा
आयुष्पृच्छा
....
नष्टजन्म
दुर्दिने लग्नज्ञानम् चिन्तामुष्टिकज्ञानम् फलकालनिर्णयः स्वरशास्त्रप्रशंसा
स्वरोदयः तत्कालस्वरचिन्ता वर्णस्वरचक्रम्
राशिस्वरचक्रम्
नक्षत्रस्वरचक्रम्
मासस्वरचक्रम्
द्वादशवार्षिकस्वरचक्रम्
....
ऋतुस्वरचक्रम्
वारस्वरचक्रम्
दिक्स्वरचक्रम्
राहुकालानलम् चन्द्रार्ककालानलम् रिक्त पूर्णचक्रम्
कुलाकुलचक्रम् लोहज्ञानम्
कविचक्रम् कोटचक्रम् लग्नबलम् कालबलम् asarनली भूमिः
....
2000
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....
विषयानुक्रमः ।
पृष्ठाङ्काः
विषयाः
३२३ क्षेत्रपाली
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पक्षभूमिः ३२४ कालभूमिः बिम्बभूमिः
...
....
...
...
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वारयोगिनीचक्रम् ३२७ | तिथिकालः
....
.... ३२८ | तिथियोगिनीचक्रम् ३२९ वायुभूमिः
""
३२५ कुलिकराहुचक्रम्
35
55
39
75
लग्नभूमिः
राहुभूमिः
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योगिनी
वारकालः
भूबलम् घातचक्रम् द्वितीया वातवटी तृतीया घातवटी घातचक्रम् ३३० | जाग्रत्सुषुप्तचक्रम्
39
सेनाचक्रम् द्वन्द्वयुद्धम् ३३१ छुरिकायुद्धम् ....
....
छुरिकोपास्तिः
....
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....
****
....
Aho! Shrutgyanam
मन्त्रः....
""
३३२ | व्यूहरचना
३३३ | सूक्ष्मस्वरप्रकरणम्
....
ari
तत्त्वगुणाः
३३५ प्रश्नोत्तराध्यायः
....
....
....
....
420
www.
अष्टकवर्गप्रश्नोत्तरम्. प्रलयप्रश्नोत्तरम्
....
****
08.0
6200
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****
B...
....
पृष्ठाङ्काः
३३६
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३३७
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३३९
35
37
३४०
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३४१
""
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३४२
३४३
३४४
""
""
३४६
३४७
३४८
27
29
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीशिवराजविनिर्मितज्योतिर्निबन्धस्य विषयानुक्रमः।
११
पृष्ठाङ्काः
विषयाः
"
३६३
.....
"
विषयाः
पृष्ठाङ्काः दासीजातकफलपश्नोत्तरम् .... ३४९ जन्माष्टमीनिर्णयः .... .... ३५७ स्वप्नप्रश्नोत्तरम् .... .... "
रामनवमी .... .... .... आक्षेपपरिहाराः .... .... ,, एकादशीनिणेयः .... .... ,, कवेः प्रशंसा .... .... , नित्यैकादश्युपवासविषयककर्माभावे सृष्टयुत्पत्तिविषयक
वचनानि.... .... .... " आक्षेपः .... .... .... ३५० काम्यैकादशीविषयकवचनानि ,, अस्य परिहारः .... .... ,, शिवरात्रिनिणेयः .... .... ३५९ एककाले बहुसंहारे किं कारणम् ३५१ पूर्णिमानिणेयः .... .... ३६० अस्योत्तरम् .... .... .... ., आन्दोलननिर्णयः ..... यमलयोः को ज्येष्ठस्तस्योत्तरम् ,, अक्षयतृतीयानिर्णयः.... जीवात्मनोः को भेदः .... ३५२
पर्वनिर्णयः .... .... रोगस्नानाक्षेपः .... .... ,
श्राद्धतिथिनिर्णयः .... .... अस्योत्तरम् .... ....
नवरात्रप्रतिपनिर्णयः .... रवीन्द्रोः स्थिरचरत्वविषयक
महानवमीनिर्णयः .... .... , __ आक्षेपस्तत्परिहारश्च .... "
विजयादशमीनिर्णयः.... .... वलपाकाक्षेपस्तत्परिहारश्च .... ३५३
दीपोत्सवनिर्णयः .... योगाक्षेपस्तत्परिहारश्च ....
होलिकानिर्णयः .... ....
" भूमानाक्षेपस्तत्परिहारश्च .... ,
नागपञ्चमी विधानम् .... .... ज्योतिःशास्त्रोक्तं भूमानम् .... .. पारणाहनिर्णयः ..... .... ब्रह्माण्डमानम् .... .... ३५४ चैत्रशुक्लप्रतिपदि काकपिण्डविधावैधव्यादियोगे कथं विवाहसिद्धिः .. नम् .... .... .... ३७० अस्य परिहारः ....
अवटधान्यनिक्षेपविधानम् .... ३७१ मूकबधिरयोर्मोळ्यादिसं- .... चैत्रशुद्धप्रतिपदि वायुपरीक्षा....
स्काराः .... .... ,, वत्सराधिपपूजा .......... ३७२ तिथिनिर्णयः ....
दमनकार्पणम् .... .... काललक्षणम्
पुनदेहनम् .... ........ ३७३ साधारणतिथिनिर्णयः .... ,, सापिण्ड्यादिश्राद्धप्रकरणम् .... " तिथिनियमनवाक्यानि .... ३५६ ग्रन्थसमाप्तिः .... .... ३७४
समाप्तेयं ज्योतिर्निबन्धस्य विषयानुक्रमणिका ।
.
८
-
Aho! Shrutgyanam
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________________
Aho! Shrutgyanam
Page #27
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________________
ज्योतिर्निबन्धः ।
वेदाद्यं यातमर्धेन्दुभालयुग्बिन्दु तत्पुनः । मीयनत्यन्तमङ्गाणं मनुर्यस्य नमामि तम् || १ || अभीष्टफलदो देवः सर्वज्ञः परमेश्वरः । आदधातुगणा ध्यक्षः स्थितिं मनसि नः सदा ॥ २ ॥ तिथ्यादिकालावयवस्वरूपां जगत्प्रसू-' त्यादिकहेतुभूताम् । कालत्रयज्ञानविधायिनीं तां वन्देऽहमाद्यामिह शास्त्रदेवीम् ॥ ३ ॥ नारदः— ब्रह्मऽऽचार्यो वसिष्ठोऽत्रिर्मनुः पौलस्त्यरोमशौ । मरीचिरङ्गिरा व्यासो नारदः शौनको भृगुः ॥ ४ ॥ च्यवनौ यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः । अष्टादशैते गम्भीरा ज्योतिःशास्त्रप्रयोजकाः || ५ || वराहमिहराचार्यः श्रीपतिः सत्यभास्करौ । लल्लः सूरिर्ब्रह्मगुप्तो वैद्यनाथ रेणुकः ॥ ६ ॥ एषां शास्त्राणि संवीक्ष्य सारमदाय यत्नतः । तदुक्तवचनैः कुर्वे फलग्रन्थं मनोरमम् || ७ || यथैवारोपयत्येकं श्रेयोर्थी सद्द्भुमं पथि । सत्स्वारामेषु शास्त्रेषु तथैनां विद्धि मत्कृतिम् * || ८ || गर्गः - धूर्तदुर्जनविद्वेषिकृतघ्नानां कदाचन । न प्रकायमिदं शास्त्रं रहस्यं केवलं यतः ॥ ९ ॥ तथा च भास्करः - दिव्यं ज्ञानमतीन्द्रियं यदृषिभिर्ब्राह्मं वसिष्ठादिभिः पारम्पर्यवशाद्रहस्यमवनीं नीतं प्रकाशं यतः । नैतद्वेषिदुरुक्तदुर्जनदुराचाराचिरावासिनां स्यादायुः सुकृतक्षयो मुनिकृतां सीमामिमामुज्झताम् ॥ १० ॥
इति श्रीज्योतिर्निबन्धे शास्त्रोपनयनाध्यायः ॥
अथ ज्योतिःशास्त्रप्रशंसा ||
आष्टिषेणिः - वेदेषु विद्यासु च ये प्रदिष्टा धर्मादयः कालविशेषतोऽर्थाः । ते सिद्धिमायान्त्यखिलाच येन तद्वेदनेत्रं जयतीह लोके ॥ १ ॥ मूलसूत्रे वेदेषु विद्यासु च ये प्रदिष्टा कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः । तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् || २ || नारदः - विनैतदखिलं श्रौतस्मार्त
* ग. पुस्तके—गङ्गातोयं काचकूप्यादिसंस्थं ग्राह्यं यद्वतद्वदे ( षोऽस्म ) मदीयम् (यः) ग्रन्थो यस्माव्यासवर्गादिशास्त्रपोकं तत्सं नूनमत्रास्ति नान्यत् ।। ९ ।।
१ क. म. मम । २ ख. जवनाचा । ३ ग. तो माठरोग । ४ ग. मायं प्रवक्ष्यति । ग्रन्यं ज्योतिनिबन्ध ख्यं महार: श्रीशिवो नृपः । ५ग, बेदा हि यज्ञाथमभिप्रवृत्ताः का' |
Aho! Shrutgyanam
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीशिवराजविनिर्मितोकर्म न सिध्यति । तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा रचितं पुरा ॥३॥ याज्ञवल्क्यःपुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः । वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ ४ ॥ वृद्धमनुः--वेदोपवेदवेदाङ्गमीमांसावेदसंहिताः । पुराणानि च धर्मस्य स्थानान्याहुः षडेव हि ॥ ५॥ वसिष्ठः-क्रतुक्रियार्थ श्रुतयः प्रवृत्ताः कालाश्रयास्ते क्रतवो निरुक्ताः । शास्त्रादमुष्मात्किल कालबोधो वेदाङ्गता मुख्यतरा प्रसिद्धा ॥६॥ छन्दः पादौ शब्दशास्त्रं च वक्त्रं कल्पः पाणी ज्योतिषं चक्षुषी च । शिक्षा घ्राणं श्रोत्रमुक्तं निरुक्तं वेदस्याङ्गान्याहुरेतानि पट् च ॥ ७॥ भास्करः-वेदचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्योतिषं मुख्यता चाङ्गमध्येऽस्य तेनोच्यते । संयुतोऽपीतरैः कर्णनासादिभिश्चक्षुषाऽङ्गेन हीनो न किंचित्करः ॥ ८ ॥ तस्माद्विजैरध्ययनीयमेतत्पुण्यं रहस्यं परमं च तत्त्वम् । यो ज्योतिष वेद नरः स सम्यग्धाथमोक्षं लयते यशश्च ॥९ ॥ वसिष्ठः--अध्येतव्यं ब्राह्मणरेव तस्माज्ज्योतिःशास्त्रं पुण्यमेतद्रहस्यम् । एतदद्धा सभ्यगानोति यस्मादर्थं धर्म ओक्षमयं यशश्च ॥१०॥ चतुर्विंशतिमते-गणितात्सिध्यते कालः काले तिष्ठन्ति देवताः। वरमेकाहुतिः काले नाकाले कोटिसंमिताः ॥ ११ ॥ अतातानागते काले दानहोमजपादिकम् । ऊपरे वापितं बीजं तद्वद्भवति निष्फलम् ॥ १२ ॥ मनुः-- यज्ञाध्ययनसंक्रान्तिश्राद्धपोडशकर्मणाम् । प्रयोजनं च विज्ञेयं तत्तत्कालविनिर्णयम् ॥ १३ ॥ वेदाः प्रमाण स्मृतयोऽपराणि तर्कादिशास्त्राणि तथेतिहासाः। सत्याभिधं ज्योतिषशास्त्रमेतज्ज्ञानं समस्तानि समाश्रयन्ति ॥१४॥ वराहः -- मुनिविरचितमिदमिति यच्चिरन्तनं साधुनाऽऽधुनिककृतम् । तुल्येऽर्थेऽक्षरभेदादमन्त्रके का विशेषोक्तिः ॥ १५॥ धरणिसुतदिवसवारो न शुभकृदिति पितामहेनोक्तम् । कुजदिनमनिष्टमिति वा कोऽत्र विशेषो नदेवकृते ॥ १६ ॥
आर्टिषेणिः-यथा क्षारादिसंतापहेम्नोऽधिकतरा द्युतिः। तथैव नूतनोपायैः शास्त्रं निर्मलतां व्रजेत् ॥ १७ ॥ वराहः-यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः प्राप्तिम् । व्यञ्जयति शास्त्रमेतत्तमसि द्रव्याणि दीप इव ॥१८॥ मूलसूत्रेयथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा । तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम् ॥ १९॥ व्यासः--यथा काष्ठमयः सिंहो यथा चित्रमयो नपः । तथा वेदाद्यधीतोऽपि ज्योतिशास्त्रं विना द्विजाः ॥२०॥ अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् । प्रत्यक्षं ज्योतिष शास्त्रं चन्द्रार्को यत्र साक्षिणौ ॥ २१ ॥ चूडामणौ-गारुडे भूतवादे च ज्योतिषे वैद्यके तथा । कारणं प्रत्ययस्तत्र न तु शब्दविचारणा ॥ २२ ॥ ज्योतिष ग्रहणं सारं गारुडे विषभक्षणम् । शवे घट
१ ग. मनुष्यकृताऽत्र मुख्या । २ ग. °दाः पुरागं । ३ क. ‘णं श्रुत ।
Aho! Shrutgyanam
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्योतिर्निवन्धः। वती दीक्षा कौलिके ग्रहनिग्रहौ ॥२३॥ पितामहः-पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदचिकित्सितम् । आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥ २४ ॥ ज्योतिर्विवरणे-इदमागमसिद्धत्वात्प्रत्यक्षफलदर्शनात् । मन्त्रवत्संप्रयोक्तव्यं न मीमांस्यं कथंचन ॥ २५ ।। आर्टिषेणिः- भो बुधाऽऽधुनिकविप्रनिर्मितं शास्त्रमेतदिति मा न जीगणः । केवलं तु यत एव सूरिभिर्भाषितस्य मथितार्थसंग्रहः॥ २६॥ मन्वर्थमुक्तावल्याम् - चातुर्वण्ये त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाऽऽश्रमाः पृथक् । भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदाच सिध्यति ॥ २७ ॥ पितृदेवमनुष्याणां वेदचक्षुः सनातनम् । तच्चक्षुर्योतिष शास्त्रं दिव्यं ज्ञानमतीन्द्रियम् ॥ २८ ॥ दिव्यं ज्ञानमिदं विप्रः श्रौतस्मातक्रियापरैः । वेदवत्पठितव्यं हि कर्मकालप्रकाशकम् ॥ २९ ॥
इति श्रीज्योतिर्निबन्धे ज्योतिषप्रशंसाध्यायः ॥
अथ देवज्ञप्रशंसा ॥ नारदः - त्रिस्कन्धज्ञो दर्शनीयः श्रौतस्मातक्रियापरः । निम्भिकः सत्यवादी दैवज्ञो दैवविस्थिरः ॥१॥ कौमुद्याम्-व्यक्ताङ्कः फलकालवित्सुकृतिमान्पूर्वापरस्मारकः पाटीकुट्टकबीजशास्त्रकुशलः सिद्धान्तवित्पाञ्जलः। भिन्नाभिन्नसवर्णनादिगुणने भूयो महानुद्यमी क्षुत्तृष्णादिसहः स एव गणकः श्लाघ्यो विदा संसदि ॥ २ ॥ अन्यच्च- *सत्सिद्धान्तविचारजातकफलग्रन्थादिशुद्धार्थवित्प्रश्नज्ञो गुणवान्स्थिरः पटुमतिः संशुद्धचित्तः सदा । पाटीकुट्टकबीजशास्त्रकुशलः सङ्ग्रामशास्त्रान्तगो धर्मिष्ठो गणकः स भूमिपसभायोग्यः कलाज्ञो मतः ॥३॥ वराह:अप्रदीपा यथा रात्रिरनादित्यं यथा नभः । तथाऽसांवत्सरो लोको भ्रमत्यन्ध इवाध्वनि ॥४॥ नासांवत्सरिके देशे वस्तव्यं भूतिमिच्छता । चक्षुभूतो हि यत्रैषस्तत्र पापं न विद्यते ॥ ५॥ ग्रन्थतश्चार्थतश्चैनं कृत्स्नं जानाति यो द्विजः। अग्रभुक् स भवेच्छ्राद्धे पूजितः पङ्क्तिपावनः ॥६॥ कृत्स्नाङ्गोपाङ्गकुशलं होरागणितनैष्ठिकम् । यो न पूजयते राजा स नाशमुपगच्छति ।। ७॥ वनं समाश्रिता ये च निर्ममा निष्परिग्रहाः। अपि ते परिपृच्छन्ति ज्योतिषां गतिकोविदम् ॥ ८ ॥ म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक्शास्त्रमिदं स्थितम् । ऋषिवत्तेऽपि पूज्यन्ते किं पुन
* श्लोकोऽयं ख. ग. पुस्तकयो स्ति।
१ क. °के जलनिग्रहो।
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श्रीशिवराज विनिर्मितो
दैवविद्विजः ॥ ९ ॥ चतुर्विंशतिमते - अविदित्वैव यः शास्त्रं दैवज्ञत्वं प्रपद्यते । स पङ्क्तिदूषकः पापो ज्ञेयो नक्षत्रसूचकः ॥ १० ॥ कालनिर्णये -- नक्षत्रसूचकोद्दिष्टमुपवासं करोति यः । स व्रजत्यन्धतामिस्रं सार्धमृक्षविडम्वना ॥ ११ ॥ पृथुयशाः -- नगरद्वारि लोष्टस्य यद्वत्स्यादुपयाचितम् । आदेशस्तद्वदज्ञानामज्ञैः सत्यं स मन्यते ॥ १२ ॥ श्रीधरः - न वेत्ति यो जातककर्मपद्धतिं न ब्रह्मसिद्धान्तभवानपि ग्रहान् । यात्राविवाहादिषु कालसूचको ज्ञेयोऽत्र मृत्युः खलु तत्स्वरूपधृक् ॥ १३ ॥ वराहः - न प्रतिषिद्धं गमयति वक्ति न च प्रश्नमपि पृष्टः । निगदति न च शिष्येभ्यः स कथं शास्त्रार्थविज्ज्ञेयः ॥ १४ ॥ न तत्सहस्रं करिणां वाजिनां वा चतुर्गुणम् । करोति देशकालज्ञो यदेको दैवचिन्तकः ॥ १५ ॥ : - तथा न माता हितकृन्न पिता न सुहद्गुरुः । यद्वत्सांवत्सरो राज्ञां स्वयशोधर्मवृद्धये ॥ १६ ॥ ललः - - दुःस्वप्रदुर्विचिन्तितदुष्प्रेक्षितदुष्कृतानि कर्माणि । क्षिप्रं प्रयान्ति नाशं दृष्ट्रा स्पृष्ट्वा च दैवज्ञम् ॥१७॥ वराहः श्रुत्वा तिथिं भग्रहवासरं च प्राप्नोति धर्मार्थयशांसि सौख्यम् | आरोग्यमायुर्विजयं सुतांश्च दुःस्वनाशं प्रियतां च लोके ॥ १८ ॥
भूपाल:
इति श्रीज्योतिर्निबन्धे दैवज्ञप्रशंसाध्यायः ॥
४
*अथ चाराध्यायः ॥ अथ रविचार: ।
तत्राऽऽदौ रविचारः । कश्यपः - अथातः संप्रवक्ष्यामि रविचारमनुत्तमम् । सूर्यचारवशादेव निखिलः कालनिर्णयः ॥ १ ॥ वराहः - आश्लेषार्धादक्षिणमुत्तरमयनं रवेर्धनिष्ठाद्यम् । नूनं कदाचिदासीनोक्तं पूर्वशास्त्रेषु || २ || सांप्रतम - यनं सवितुः कर्कटा (टका ) यं मृगादितश्चैतत् । उक्ताभावो विकृतिः प्रत्यक्षपरीक्षणैर्व्याक्तिः ॥ ३ ॥ सतमस्कां (स्कं ) पर्व विना त्वष्टा नामार्कमण्डलं कुरुते । स निहन्ति सप्त भूपाञ्जनांश्च शस्त्राग्निदुर्भिक्षैः ॥ ४ ॥ कश्यपः-त्रयस्त्रिशूद्राहुसुतास्तामसाख्याः प्रकीर्तिताः । तानर्कमण्डले दृष्ट्वा वर्णाकारैः फलं वदेत् ॥ ५ ॥ सूर्यमण्डलगा : पापा चन्द्रमण्डलगाः शुभाः । चन्द्रेऽप्यनिष्टाः खड्गकबन्धध्वाङ्क्षसंनिभाः ॥ ६ ॥ वराहः - तेषामुदये रूपाण्यम्भः कलुषं रजोवृतं व्योम । नगतरुशिखरावमदीं सशर्करो मारुतश्चण्डः ॥ ७ ॥ ऋतुविषशतास्तरवो दीप्ता मृगपक्षिणी दिशां दाहः । निर्घातभूमिकम्पादयो भवन्त्यत्र
* अयमध्यायो गं. पुस्तके नास्ति ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
चोत्पाताः ।। ८ ।। न पृथक्फलानि तेषां शिखिकीलकराहुदर्शनं यदि चेत् । तदुदयकारणमेषां केत्वादीनां फलं ब्रूयात् ॥ ९ ॥ यस्मिन्यस्मिन्देशे दर्शनमायान्ति सूर्यविम्बस्थाः । तस्मिंस्तस्मिन्व्यसनं महीपतीनां परिज्ञेयम् ॥ १० ॥ क्षुतृण्म्लानशरीरा मुनयोऽप्युत्सृष्टधर्म सच्चरिताः । निर्मासवालहस्ताः कृच्छ्रेण यान्ति परदेशम् ।। ११ ।। तस्कर विलुप्तचित्ताः प्रदीर्घनिःश्वासमुकुलिताक्षिपुटाः । सन्तेभ्छन्नशरीराः शोकोद्भव वाष्परूद्धदृशः || १२ || क्षामा जुगुप्समानाः स्वपतिपरचक्रपीडिता मनुजाः । स्वपतिचरितं कर्म च पुरा कृतं प्रब्रुवन्त्यन्ये ॥ १३ ॥ गर्भेष्वपि निष्पन्ना वारिमुचो न प्रभूतवारिमुचः । सरितो यान्ति तनुत्वं क्वचित्कचिज्जायते सस्यम् ॥ १४ ॥ नारदः - दण्डाकारे कबन्धे वा ध्वाङ्क्षाकारेऽथ कीलके । दृष्टेऽर्कमण्डले व्याधिभीतिचौरार्घ ( थे ) नाशनम् ॥ १५ ॥ वराहः–दण्डे नरेन्द्रमृत्युर्व्याधिभयं स्यात्कबन्धसंस्थाने । ध्वाङ्क्षे च तस्करभयं दुर्भिक्षं की कर्कस्थे ॥ १६ ॥ नारद::- छत्रध्वजपताकाद्यैराकारैस्तिमिरैर्घनैः । रविमण्डलगेधूमस्फुलिङ्गैर्जननाशनम् ॥ १७ ॥ सितरक्तपीतकृष्णैर्विमादीनामनिष्टदम् । हन्ति द्वित्रिचतुर्भिर्वा राजान्यत्वं जनक्षयम् ॥ १८ ॥ ऊर्ध्वर्भानुकरेस्ताभ्रैर्नाशयन्ति ( शं याति ) चमूपतिम् ( तिः) । पीतैर्नृपसुतं (तः ) श्वेतैः पुरोधावित्रितैर्जनैः ( नाः ) । १९ ॥ धूम्रैर्नृपं पिशङ्गेय जलदोऽधोमुखैः सदा । उदयास्तमये काले स्वास्थ्यं तैः पाण्डुसंनिभैः ॥ २० ॥ भास्करस्ताम्रसंकाशः शिशिरे कपिलोऽपि वा । कुङ्कुमाभो वसन्तत कपिलो वाऽपि शस्यते ।। २१ ।। आपाण्डुरः स्वर्णवर्णो ग्रीष्मे चित्रो जलागमे । पद्मोदराभः शरदि हेमन्ते लोहितच्छविः ।। २२ ।। हेमन्ते प्रावृषि ग्रीष्मे रोगानावृष्टिभीतिकृत् । पीताभ: कृष्णवर्णो लोहितस्तु यथाक्रमात् ॥ २३ ॥ इन्द्रचापार्धमूर्तिद्भानुर्भूपविरोधकृत् । मयूरपत्रसंकाशो द्वादशाब्दं न वर्षति ॥ २४ ॥ शशरक्तनिभे भानौ सङ्ग्रामो न चिराद्भवेत् । चन्द्रस्य सदृशो यत्र चान्यं राजानमादिशेत् ।। २५ ।। वराहः - ग्रीष्मे रक्तो भयकृद्वर्षास्वसितः करोत्यनावृष्टिम् । हेमन्ते पतिोऽर्कः करोति नचिरेण रोगभयम् ।। २६ ॥ प्रावृट्काले सद्यः करोति विमलद्युतिर्वृष्टिम् । वर्षाकाले वृष्टिं करोति सद्यः शिरीषपुष्पाभः ॥ २७ ॥ नारदः - अर्कै श्यामे कीटभयं भस्माभे शस्त्रतो भयम् । छिद्रेऽर्कमण्डले दृष्टे तदा चोरार्धनाशनम् ॥ २८ ॥ घटाकृतिः क्षुद्भयकृत्पुरहा तोरणाकृतिः । छत्राकृतिर्देशभयं खण्डभानुर्नृपान्तकृत् ॥ २९ ॥ उदयास्तमये भानोर्विद्युदुल्काशनिर्यदि । तदा
१ ख 'न्तः सन्नश ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोनृपवधो ज्ञेयस्त्वथ वा राजविग्रहः ॥३०॥ पक्षं पक्षार्धमर्केन्दुपरिवेष्टात्व(पाव)हर्निशम् । राजानमन्यं कुरुतो लोहितावृदयास्तगौ ॥ ३१ ॥ उदयास्तसमये भानुः स्थगितः शस्त्रसंनिभैः । घनैयुद्धं खरोष्ट्राद्यैर्दष्ट्रिरूपैर्भयपदः ॥ ३२ ॥ वराहः-कृष्णा रेखा सवितरि यदि हन्ति ततो नपं सचिवः । दिवसकृतः प्रतिसूर्यो जलकुदुदग्दक्षिणे स्थितोऽनिलकृत् ॥३३॥ उभयस्थः सलिलभयं नृपमुपरि हन्त्यधो जनहा ॥३४॥ वसिष्ठः-यग्रुपसूर्यकमस्यां संध्यायामर्घनाशनं प्रचुरम् । क्षितिपतिकलहः शीघं सलिलभयं वा भवेन्नूनम् ॥ ३५ ॥ वराहः-अमलवपुरवक्रमण्डलः स्फुटविपुलामलदीर्घदीधितिः । अविकृततनुवर्णचिह्नमज्जगति करोति शिवं दिवाकरः ॥ ३५॥
इति रविचारः।
अथ चन्द्रचारः। अमृतकिरणचारं खेटचारेषु सारं विपुलनिखिललोकानन्ददं सुन्दरीयम् । सदसदखिललोकाभोगदं यत्फलं तत्कथितविषमकालज्ञानदीपं प्रवच्मि ॥१॥ नित्यमधस्थस्येन्दो भिर्भानोः सितं भवत्यर्धम् । स्वच्छाययाऽन्यदसितं कुम्भस्येवाऽऽतपस्थस्य ॥ २ ॥ सलिलमये शशिनि रवेदींधितयो मूर्छितांस्तमो नैशम् । क्षपयन्ति दर्पणोदरविहिता इव मन्दिरस्यान्तः ॥ ३॥ त्यजतोऽर्कतलं शशिनः पश्चादवलम्बते यथा शौक्ल्यम् । दिनकरवशात्तथेन्दोः प्रकाशतेऽधः प्रभृत्युदयः ॥ ४ ॥ प्रतिदिवसमेवमर्कात्स्थानविशेषेण शौक्ल्यपरिवृद्धिः । भवति शशिनोऽपराहे पश्चाद्भागे घटस्येव ॥५॥ नारदः-याम्यशङ्गोन्नतश्चन्द्रः शभदो मीनमेघयोः । सौम्योन्नतोदितः श्रेष्ठो नृयुङ्मकरयोस्तथा ॥ ६॥ समोऽक्षघटयोः कर्किचापयोः शरसंनिभः । चापवत्कीटहर्योस्तु शूलवत्तौलिकन्ययोः ॥ ७ ॥ विपरीतोदितश्चेन्दर्दुभिक्षकलहप्रदः । यथोक्तोऽभ्युदितश्चन्द्रः प्रतिमासं सुभिक्षकृत् ॥८॥ वराहः-उन्नतमीषच्छृङ्ग नौसंस्थाने विशालता चोक्ता । नाविकपीडा तस्मिन्भवति शिवं सर्वलोकस्य ॥ ९॥ अर्धोन्नते च लाङ्गलमिति पीडा तदुपजीविनां तस्मिन् । प्रीतिश्च निनिमित्तं मनुजपतीनां सुभिक्षं च ॥ १० ॥ दक्षिणविषाणमोन्नतं यदा दुष्टलाङ्गलाख्यं तत् । पाण्ड्यनरेशनिधनकुदुद्योगकरं बलानां च ॥ ११ ॥ समशशिनि सुभिक्षक्षेमवृष्टयः प्रथमदिवससदृशाः
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ज्योतिर्निबन्धः ।
स्युः । । दण्डवदुदिते पीडा गवां नृपश्चग्रदण्डोऽत्र ॥ १२ ॥ कार्मुकरूपे युद्धानि भूभृतां ज्यायतो ( सो ) जयस्तेषाम् । स्थानं युगमिति याम्योत्तरायतं भूमिकन्पाय || १३ || युगमेव याम्यकोट्यां किंचित्तुङ्गं सपार्श्वशायीति । विनिहन्ति सार्थवाहान्वृष्टेश्च विनिग्रहं कुर्यात् ||१४|| अत्युच्छ्रायादेकं यदि शशिनोऽवाङ्मुखं भवेच्छ्रङ्गम् । आवर्जितमित्य सुभिक्षकारि तद्गोधनस्यापि ।। १५ ।। अव्युच्छिन्ना रेखा समं ततो मण्डले च कुण्डाख्ये । तस्मिन्माण्डलिकानां स्थानत्यागो नरपतीनाम् ॥१६॥ शृङ्गेणैकेनेन्दुं विलीनमथ वाऽप्यवाङ्मुखम् गृङ्गम् । संपूर्ण - शृङ्गं चाभिनवं दृष्ट्टैको जीविताश्येत् ||१७|| संस्थानविधिः कथितो रूपाण्यस्माद्भवन्ति चन्द्रमसः । स्वल्पो दुर्भिक्षकरो महान्सुभिक्षावहः प्रोक्तः ॥ १८ ॥ नारदः - आषाढद्वयमूलेन्द्रधिष्ण्यानां याम्यगः शशी । अग्निदस्तोयचरवनसर्प - `विनाशकृत् ॥१९॥ विशाखामित्रयोर्याभ्यपार्श्वयोः पापकृच्छशी । मध्यगः पितृदैवत्ये द्विदैवत्ये शुभोत्तरे ||२०|| कश्यपः- धातृपैतृकयो र्याम्यवर्ती दुर्भिक्षकृच्छशी । शुभदो ऽनिलधिष्ण्यस्य सौम्यगो याम्यंगोऽशुभः ॥ २१ ॥ वसिष्ठः प्रजापतेर्भं यदि पैतृभं वा भिनत्ति चन्द्रोऽन्तकरः प्रजानाम् । भानां यदा सौम्यगतस्तदानीं जनानुरागं सततं करोति ॥ २२ ॥ सदाऽऽमयाप्रीतिर (म) तीव दुःखं करोति याम्योपगतश्च भानाम् । षट् पौष्णतो द्वादश रौद्रधिष्ण्यात्सुराधिपाद्वानि नव क्रमेण ॥ २३ ॥ पूर्वापरार्धापरभागगेन्दुर्भुङ्क्तेऽखिला व्योमचरास्तथैव । पूर्वार्धभुग्भेषु पतेः प्रिया स्याद्विवाहिता मध्यमभागगेषु ॥ २४ ॥ परस्परं प्रेम तयोर्नृनार्योः परेषु भर्ता वनिताप्रियः स्यात् । जघन्यधिष्ण्यानि जलेशसार्प - रौद्रेन्द्रयाम्यानिलदैवतानि ॥ २५ ॥ अध्यर्धधिष्ण्यान्यदितिद्विदैवस्थिराणि शेषाणि समाह्वयानि । अध्यर्धधिष्ण्येऽभ्युदितः शशाङ्कः करोति धान्यं महदनाशम् ॥ २६ ॥ जघन्यभेत्यर्धमसंशयेन समार्धमन्येषु च मासि मासि । ज्ञात्वैवमेवं मणिजीवधातुमूलोर्णकर्पूररसादिकानाम् ॥ २७ ॥ अर्थ वदेज्ज्योतिपिकः प्रजानां समस्तवस्तूत्तमसंग्रहार्थे । एतानि जाघन्यसमाधिकक्षण्यत्रार्धकाण्डे विनियोजितानि ॥ २८ ॥ नोद्वाहजन्मादिषु यत्र चोक्तं तत्राभिजि विनियोजनीयम् ॥२९॥ नारदः - शुक्ले पिपीलिकाकारे हानिर्वृद्धिर्यवाकृतौ । सुभिक्षकृद्विशालेन्दुरविशालोऽर्घनाशनः । अवाङ्मुखे शस्त्रभयं कलहो दण्डसंनिभे ॥३०॥
१ ख. ज्यायेनो ज° । २ क पुस्तक एव ग्रन्थान्तरीयः पाठः- र्श्वगः पा । ३ ख "म्यगः शु |
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श्री शिवराजविनिर्मितो
चराहः- प्रत्यन्तान्कुनृपान्निहन्त्युडुपतेः शृङ्गे कुजेनाऽऽहते शस्त्रक्षुद्भयकृद्यमेन शशिजे नावृष्टिदुर्भिक्षकृत् । श्रेष्ठान्हन्ति नृपान्महेन्द्रगुरुणा शुक्रेण चाल्पान्नृपाज्यु याप्यमिदं फलं ग्रहकृतं कृष्णे यथोक्तागमः || ३१ भिन्नः सितेन मगधान्यवनान्पुलिन्दान्नेपालवङ्गमरुकच्छसुराष्ट्रमद्रान् । पाञ्चालकैकयकुलूतकपौरुषादान्हन्यादुशीनरजनानपि सप्तमासान् || ३२ || गान्धारसौवीरकसिन्धुवीरान्धान्यानि शैलान्द्रविडाधिपांश्च । द्विजांथ मासान्दश शीतरश्मिः संतापयेद्वाक्पतिना विभिन्नः ॥ ३३ ॥ उद्युक्तान्सह वाहनैर्नरपतींस्त्रगर्तकान्मालवान्कौलिन्दान्गणपुङ्गवानथ शिवीनायोध्यकान्पार्थिवान् । हन्यात्कौरव शुक्तिमत्स्यनृपतीन्सजन्यमुख्यानपि प्रालेयांशुरंसग्रहे तनुगते षण्मासमर्यादया || ३४ ॥ यौधेयान्स - चिवान्सकौरवान्प्रागीशानथ चार्जुनायनान् । हन्यादर्कजभिन्नमण्डलः शीतांशुर्दशमासपीडया || ३५ || मगधान्मथुरांश्च पीडयेद्वेणायाश्च तटं शशाङ्कजः । अपरत्र कृतं युगं वदेद्यदि भित्त्वा शशिनं विनिर्गतः || ३६ || क्षेमारोग्यसुभिक्षविनाशी शीतांशुः शिखिना यदि भिन्नः । कुर्यादायुधजीविविनाशं चौराणामधिकेन च पीडाम् ॥ ३७ ॥ उल्कया यदा शशी ग्रस्त एव हन्यते । हन्यते तदा नृपो यस्य जन्मनि स्थितः || ३८ || भस्मनिभः परुषोऽरुणमूर्तिः शीतकरः किरणैः परिहीनः । श्यामतनुः स्फटिकस्फुरणो वा क्षुत्तृडमराय (?) च चौरभयाय ३९ ॥ शुक्ले पक्षे संप्रवृद्धे विवृद्धिं ब्रह्म क्षत्रं याति वृद्धिं प्रजाश्च । हीने हानिस्तुल्यता तुल्यतायामुक्तं कृष्णे तत्फलं व्यत्ययेन ॥ ४० ॥ यदि कुमुदमृणालहारगौरस्तिथिनियमात्क्षयमेति वर्धते वा । अविकृतगतिमण्डलांशुयोगी भवति नृणां विजयाय शीतरश्मिः ॥ ४१ ॥
इति चन्द्रचारः ॥
अथ कुजचारः ।
कश्यपः - अथातः संप्रवक्ष्यामि कुजचारमनुत्तमम् । यतः शुभाशुभं तेन चारेणाखिलदेहिनाम् ॥ १ ॥ नारदः - सप्ताष्टनवमर्क्षेषु स्वोदयाद्वक्रिते कुजे । तद्वक्रमुष्णं तस्मिन्स्यात्प्रजापीडाऽग्निसंभवः || २ || दशमैकादशे ऋक्षे द्वादशे वा प्रतीपगे । वक्रमश्रुमुखं तस्मिन्सस्यवृद्धिविनाशनम् || ३ || कुजे त्रयोदशे ऋक्षे वक्रिते वा चतुर्दशे । व्यालाख्यवक्रं तस्मिन्स्यात्सस्यवृद्धि रहेर्भयम् || ४ || पञ्चदशे षोडशर्क्षे तद्वक्रं रुधिराननम् । सुभिक्षद्भयं रोगान्करोति
१ ख. कुलौत° २ . रग्गृहे ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
यदि भूमिजः ॥ ५॥ अष्टादशे सप्तदशे तदाऽसिमुशलं स्मृतम् । दस्युभिर्धनध्यान्यादि नश्येद्भौमे प्रतीपगे ॥ ६ ॥ फल्गुन्योरुदितो भौमो वैश्वदेवप्रतीपगः । अस्तगवतुरास्यः लोकत्रयविनाशकृत् ॥ ७ ॥ उदितः श्रवणे पुष्ये वक्रगो नृपहानिदः । यदिग्भेऽभ्युदितो भौमस्तदिग्भूपविनाशनम् ॥ ८ ॥ मधामध्यगतो भौमस्तस्यामेव प्रतीपगः । अवृष्टिशस्त्रभयदः पाण्डयदेशाधिपान्तकृत् ॥९॥ वसिष्ठः-अभ्युदितः पितृधिष्ण्ये तस्मिन्नेव प्रतीपगः क्षितिजः । पाण्ड्यक्षितिपतिमरणं करोति कलह क्षितीशानाम् ॥ १० ॥ यस्मिन्दिग्द्वारनक्षत्रे क्षितिजोऽभ्युदयं गतः । तदिगीशस्य भयदो यदि तस्मिन्प्रतीपगः ॥११॥ नारदः-पितृद्विदैवधातॄणां भिद्येचेद्योगतारकाः । दुर्भिक्षं मरणं घोरं करोति यदि भूमिजः ॥ १२ ॥ त्रिषूत्तरेषु रोहिण्यां नैर्ऋते श्रवणेन्दुभे । अवृष्टिदश्वरन्भौमो रोहिणीदक्षिणे स्थितः ॥ १३ ॥ वसिष्ठः-विशाखाविश्वधिष्ण्यान्तघण्णां याम्यचरः कुजः । दुर्भिक्षवृष्टिभयकृदाहवो भुवि भूभुजाम् ॥१४॥ वराहःदक्षिणतो रोहिण्याश्चरन्महीजोऽनिग्रहकृत् । धूमायन्सशिखो वा विनिहन्यात्पारियावस्थान् ॥ १५॥ नारदः-भूमिजः सर्वधिष्ण्यानामुदग्गामी शुभावहः । याम्यगोऽनिष्टफलदो भेदे भेदकरो नृणाम् ॥ १६ ॥ वसिष्ठः- मेषसिंहवृषचापसंस्थिते वक्रिते क्षितिसुतेऽथ वा शनौ । गोनराश्वगजपक्षिसमूहो नाशमेति निखिलं च दलं वा ॥ १७ ॥ वराहः-विपुलविमलमूर्तिः किंशुकाशोकवर्णः स्फुटरुचिरमयूखस्तप्तताम्रप्रभाभः । विचरति यदि मार्ग चोत्तरं मेदिनीजः शुभकृदवनिपानां हार्दिदश्च प्रजानाम् ॥ १८ ॥
इति कुजचारः॥
अथ बुधचारः। कश्यपः-अथातः संप्रवक्ष्यामि बुधचारं समासतः । उदयं न व्रजेत्सौम्यो विनोत्पातेन सर्वदा ॥१॥ आतडूवृष्टिसङ्ग्रामदुर्भिक्षानलतो भयम् ॥ नारदःवसुवैष्णवविश्वेन्दुधातृभेषु चरन्बुधः । भिनत्ति यदि तत्तारामवृष्टिव्याधिभीतिकृत ॥२॥ आदिपितृभान्तेषु दृश्यते यदि चन्द्रजः । तदा दुर्भिक्षकलहरोगानावृष्टिभीतिकृत् ॥३॥ हस्तादिषट्सु तारासु विचरन्निन्दुनन्दनः । क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं कुरुते पशुनन्दनम् ॥ ४ ॥ अहिर्बुध्न्यार्यमाग्नेययाम्यभेषु चरन्यदि । धातुक्षोभं च जन्तूनां करोति शशिनन्दनः ॥ ५॥ दस्रवारुणनैर्ऋत्यरेवतीषु
१ क. दवे प्र।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोचरन्बुधः । भिषक्तुरगवाणिज्यवृत्तीनां नाशदस्तदा ॥६॥ पूर्वात्रये चरन्सौम्यो योगतारां भिनत्ति चेत् । क्षुच्छखामयतोये भ्यो भयदः पाणिनां तदा ॥ ७ ।। याम्यामिधातृवायव्यधिष्ण्येषु प्राकृता गतिः । ऐशेन्दुसार्पपित्र्येषु ज्ञेया मिश्राहृया गतिः ॥ ८॥ संक्षिप्ता दितिभाग्यायमेज्यधिष्ण्येषु या गतिः । गतिस्तीक्ष्णाजचरणाहिर्बुध्न्येन्द्राश्विभेषु या ॥ ९॥ योगान्तिकान्त्यविश्वाम्बुमूलगस्येन्दुजस्य च । घोरा गतिहरित्वाष्ट्रवसुवारणभेषु च ॥ १० ॥ इन्द्रामिमित्रमार्तण्डभेषु पापाह्वया गतिः । प्राकृताद्यासु गतिपूदितो वाऽस्तमितोऽपि वा ॥ ११ ॥ एतावन्ति दिनान्येव दृश्यस्तावन्त्यदृश्यगः । चत्वारिंशत्क्रमात्रिंशद्द्वाविंशदिशतिर्नव ॥ १२ ॥ पश्चादशैकादशेतिदिवसैः शशिनन्दनः । प्राकृतायां गतौ सस्यशेमारोग्यसुभिक्षकृत् ॥ १३ ॥ मिश्रसंक्षिप्तयोर्मध्यफलदोऽन्यास्वनिष्टदः ॥ १४ ॥ वसिष्ठः--विकला ऋज्व्यनुवक्रा वक्रा स्युओं धनस्य गतिभेदाः। विविधफलं तासु करोत्यविकलमेवं बलीयांश्चेत् ॥ १५ ॥ शस्त्रभयाभयजननी विकला ऋज्वी च देहिनां शुभदा । अर्घविनाशनकरी त्वनुवक्रा भूपयुद्धदा वक्रा ॥ १६ ॥ नारदः-वैशाखे श्रावणे पौषेऽप्याषाढेऽभ्युदितो बुधः । जनानां पापफलदस्त्वितरेषु शुभप्रदः ॥ १७॥ वराहः-पौषे करोति डमरं माघे वातं तथा च चन्द्रसुतः । आषाढे रोगभयं वैशाखे श्रावणे च दुर्भिक्षम् ॥१८॥ आषाढमासे यदि शुक्लपक्षे सोमस्य पुत्रोऽभ्युदयं करोति । देशस्य भङ्गं त्वथ राष्ट्रभङ्गं जलस्य शोषं प्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥ १९ ॥ नारदः-इषोर्जमासयोः शस्त्रदुर्भिक्षाग्निभयप्रदः । वसिष्ठः--रुद्धानि सौम्येऽस्तमिते पुराणि यान्युद्गमे तान्युपयान्ति मोक्षम् । अन्ये तु पश्चादुदिते वदन्ति लाभं पुराणां भवतीह तज्ज्ञाः ॥ २० ॥ हेमकान्तिरथ वा शुकवर्णः स्फाटिकेन मणिना सदृशो वा । स्निग्धमूर्तिरलघुश्च हिताय व्यत्यये न शुभकृच्छशिपुत्रः ॥ २१ ॥
इति बुधचारः॥
· अथ गुरुचारः। कश्यपः---अथातः संप्रवक्ष्यामि गुरुचारमनुत्तमम् । अनेन गुरुचारेण प्रभवाद्यब्दलक्षणम् ॥१॥ वराहः--नक्षत्रेण महोदयमुपगच्छति येन देवपतिमन्त्री । तत्संज्ञं वक्तव्यं वर्ष मासक्रमेणैव ॥ २॥ वर्षाणि कार्तिकादीन्याग्नेयाद्भवयानुयोगीनि । क्रमशस्त्रिभं तु पश्चममुपान्त्यमन्त्यं च यद्वर्षम् ॥३॥ नारद:-पीडा
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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स्यात्कार्तिके वर्षे रथगोम्न्युपजीविनाम् । क्षुच्छस्त्राग्निभयं वृद्धिः पुष्पको सुम्भजीविनाम् ॥ ४ ॥ अनावृष्टिः सौम्यवर्षे मृगाखुशलभाण्डजैः । सर्वसस्यवधो व्याधिर्वैरं राज्ञां परस्परम् || ५ || निवृत्तवैराः क्षितिपा जगदानन्दकारकाः । पुष्टिकर्मरताः सर्वे पौषेऽब्देऽध्वरतत्पराः || ६ || माघेऽब्दे सततं सर्वे पितृपूजनतत्पराः । सुभिक्षं क्षेममारोग्यं वृष्टिः कर्षकसंमता ॥ ७ ॥ चोराश्च प्रबलाः स्त्रीणां दौर्भाग्यं सुजनः खलः । कचिवृष्टिः कचित्सस्यं कचिद्वृद्धिश्च फाल्गुने||८|| चैत्रेऽ ब्दे मध्यमा वृष्टिरुत्तमानं सुदुर्लभम् । सस्यार्घवृष्टयः स्वल्पा राजानः क्षेमकारिणः ॥ ९ ॥ बैशाखे धर्मनिरता राजानः सप्रजा भृशम् । निष्पत्तिः सर्वसस्यानामध्वरोद्युक्तचेतसः ॥ १० ॥ वृक्षगुल्म लतादीनां क्षेमं सस्यविनाशनम् । ज्यष्ठेऽब्दे धर्मतत्त्वज्ञाः सनृपाः पीडिताः परैः ॥ ११ ॥ कचिदृष्टिः कचिद्वृद्धिः कचित्सस्यं न च कचित् । आषाढेऽब्दे क्षितीशाः स्युरन्योन्यजयकाङ्क्षिणः ॥१२॥ अनेकसस्यसंपूर्णा सुरस्पर्धिजनाकुला । पापपाखण्डिहन्त्री भूः श्रावणेऽब्दे विराजिता ॥ १३ ॥ पूर्वसस्यस्य संपूर्तिर्नाशं यात्यपरं तु यत् । मध्यवृष्टिर्महत्सस्यं नृपाणां समरं महत् ॥ १४ ॥ अब्दे भाद्रपदे लोके क्षेमाक्षेमं क्वचित्क्वचित् । धनधान्यसुबुद्धिश्च सुभिक्षमतिवृष्टयः ॥ १५ ॥ भवन्त्याश्वयुजे वर्षे संतुष्टाः सर्वजन्तवः । सुवृष्टिः सर्वसस्यानि फलितानि भवन्ति च ॥ १६ ॥ सौम्यभागे चरन्भानां क्षेमारोग्यसुभिक्षकृत् । विपरीतं गुरुर्याम्ये मध्ये चरति मध्यमम् ॥ १७ ॥ पीताग्निश्यामहरितरक्तवर्णोऽङ्गिराः क्रमात् । व्याध्यग्निरणचोरास्त्रभयकृत्प्राणिनां तदा || १८ || अनावृष्टिं धूमनिभः करोति सुरपूजितः । दिवा दृष्टो नृपवधं त्वथवा राष्ट्रनाशनम् ॥ १९ ॥ संवत्सरः शरीरं स्यात्कृत्तिकारोहिणीत्युभे । नाभिस्त्वाषाढाद्वितयमार्द्रा हृत्कुसुमं मघा ॥ २० ॥ दुर्भिक्षाग्निमरुद्भीतिः शरीरे क्रूरपीडिते । नाभ्यां तु क्षुद्भयं पुष्पे सम्यग्ज्ञानफलक्षयः ||२१|| हृदये सस्यनिधनं शुभं स्यात्पीडिते शुभैः । मेषराशिगते जीवे त्वीतिर्मेषविनाशनम् || २३ || सस्यवृद्धिः प्रजारोग्यं वृष्टिः कर्षकसंमिता । वृषराशिगते जीवे शिशुस्त्रीपशुनाशनम् || २३ || मध्यवृष्टिः सस्यहानिर्नृपाणां समरं महत् । जनानां भीतिरीतिश्च नृपाणां दारुणं भयम् ॥ २४ ॥ विप्रपीडा मध्यवृष्टिः सस्यवृद्धिस्तृतीयभे ॥ २५ ॥ प्रभूतपयसो गावः सुजनाः सुखिनः स्त्रियः । मदोद्धताः कर्किणीज्ये सस्यवृष्टियुता धरा ॥ २६ ॥ सिंहराशिगते जीवे निःस्वा भूसुरसज्जनाः । अतिवृष्टिबलभयं नृपा युद्धे लयं ययुः २७ ॥ जीवे कन्यागते पुष्टा वृष्टिः स्वस्थाः क्षितीश्वराः । महोत्सुकाः क्षितिसुराः स्वस्थाः स्युर्निखिला जनाः ॥ २८ ॥ जीवे तुलागते
१ ख. "ष्टिर्व्या ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
सर्व धातुमूलाकुलं जगत् । तथाऽपि धात्री संकीर्णा धनधान्यसुवृष्टिभिः ॥ २९ ॥ महोद्धतानां भूपानां युद्धे जनपदक्षयः । अतुला दृष्टिरत्युग्रं डामरं कीटगे गुरौ ॥ ३० ॥ जीवे चापगते भीतिरीतिर्भूपावहं महत् । अतुला वृष्टिरत्युग्रा पीडा निःस्वाः क्षितीश्वराः ॥ ३१ ॥ अशत्रवो जना धात्री पूर्णा सस्यार्घवृष्टिभिः । वीतरोगभयाः सर्वे मकरस्थे सुरार्चिते || ३२ || सुरस्पर्धिजनैर्धात्री फलपुष्पावृष्टिभिः । संपूर्णा कुम्भगे जीवे त्वीतिरोगयुता धरा ॥ ३३ ॥ धान्यार्घवृष्टिः संपूर्णा कचित्क्षेमं कचिद्भयम् । न्यायमार्गरता भूपाः सर्वे मीनस्थिते गुरौ ॥ ३४ ॥ वसिष्ठः- कुन्देन्दुशङ्खस्फटिकमवालनीहारमुक्ताफलसंनिभाभः । एवंविधो देवगुरुर्जनानां शुभप्रदः क्लेशनिवारकश्च ॥ ३५ ॥
इति गुरुवारः ॥
अथ शुक्रचारः ।
नारद:- - सौम्यमध्यमयाम्येषु मार्गेषु त्रित्रिवीथय: । शुक्रस्य दस्रभाज्ज्ञेयाः पर्यायैश्च त्रिभिस्त्रिभिः ॥ १ ॥ नागेभैरावताश्चैव वृषभगोजरद्गवाः । मृगाजदहनाः स्युस्ता याभ्यान्ता वीथयो नव ॥ २ ॥ वसिष्ठः - अथ कथयामि नवानां वीथीनां फलानि यानि तान्यधुना || ३ || नागवीथिविचरन्भृगोः सुतः पश्चिमे दिशि च वृष्टिनाशकृत् ॥ क्षेमकृत्सुखकरो गजवीभ्यामर्घवृद्धिमतुलां करोति सः ॥ ४ ॥ शालीक्षुगोधूमयवादिसस्यसंपूर्णधात्री नितरां विभाति । ऐरावतोक्षाह्वययोश्च वीथ्योः स्थिते सिते संयति राजनाशः ॥ ४ ॥ गोवीथिगे दैत्यपुरोहिते भूर्विभाति नानाविधसस्यदृष्ट्या ( हृष्टा ) । जरद्गवायां मृगसंज्ञितायां मध्यावृष्टिर्महदाहवच ॥ ५ ॥ क्षितीशसङ्ग्रामक्षितिस्तिरी ( मतिस्तथे )तिर्वह्नेर्भयं वारिभयं जनानाम् । अजाग्निवीथ्योरतुलाग्निभीतिः किंचित्कचिद्वर्षति वासवोऽपि ॥ ६ ॥ उदग्वीभ्यां स दैत्येज्यश्वास्तगचोदितोऽपि वा । सुभिक्षकृन्मध्यवीथ्यां समः स्याद्याम्यगोऽशुभः ॥ ७ ॥ वराहः --- -भरणीपूर्वविमण्डलमृक्षचतुष्कं सुभिक्षकरमाद्यम् । वङ्गाङ्गमहिषवाह्लिककलिङ्गदेशेषु भयजनकम् ॥ ८ ॥ अत्रोदितमारोहेद्ग्रहोऽपरो यदि सितं ततो हन्यात् । भद्राश्वशूर सेनकयोधेयककोटिवर्षनृपान् ॥ ९ ॥ भचतुष्टयमाद्रद्यं द्वितीयमपि चाम्बुसस्यसंपत्त्यै । विप्राणामशुभकरं विशेषतः क्रूर चेष्टानाम् ॥ १० ॥ अन्येनात्राऽऽक्कान्ते म्लेच्छाटविकांश्च जीवगोमन्तान् । गोनर्द्वनीचशूद्रान्वैदेहांश्चानयः स्पृशति ॥११॥ विचरन्मघादिपञ्चकमुदितः सस्यप्रणाशकृच्छुक्रः । क्षुत्तस्करभयजननो नीचोन्नतिसंक
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ज्योतिर्निबन्धः। रकरश्च ॥ १२ ॥ पित्राद्येऽवष्टब्धो हन्त्यश्मकनाविकाशबरशूद्रान् । पुण्ड्रापरान्त्यमौलिकवनवासिद्रविडसामुद्रान् ॥ १३ ॥ स्वात्यायं भत्रितयं मण्डलमेतच्चतुर्थमभयकरम् । ब्रह्मक्षत्रसुभिक्षाभिवृद्धये मित्रलाभाय ॥ १४ ॥ अत्राऽऽक्रान्ते मृत्युः किरातभर्तुः पिनष्टि चेक्ष्वाकून् । प्रत्यन्तावन्त्यपुलिन्दटकणान्सौरसेनांश्च ॥ १५ ॥ ज्येष्ठाद्यं पञ्चर्स क्षुत्तस्कररोगदं प्रबाधयते । काश्मीराश्मकमत्स्यान्सचारुदेवीमवन्ती च ॥ १६ ॥ आरोहेऽत्राऽऽभीरद्रविडाम्बष्ठत्रिगर्तसौराष्ट्रान् । नाशयति सिन्धुसौवीरकांश्च काशीश्वरस्य वधः ॥१७॥ षष्ठं षण्नक्षत्रं शुभमेतन्मण्डलं धनिष्ठाद्यम् । भूरिधनगोकुलाकुलमनल्पधान्यं कचित्सभयम् ॥ १८ ॥ अत्राऽऽरोहे चूलिकगान्धारावन्तयः प्रपीड्यन्ते । वैदेहवधः प्रत्यन्तयवनेशकदासपरिवृद्धिः ॥ १९ ॥ अपरस्यां स्वात्याचं ज्येष्ठाद्यं चापि मण्डलं शुभदम् । पित्राद्यं पूर्वस्यां शेषाणि यथोक्तफलदानि ॥ २० ॥ ज्योतिष्फलोदये-याम्याष्टकेऽम्बुदद्वारं तत्रास्तं गमिते सिते । भूरिवृष्टियुता धात्री सस्यवृद्धिः प्रजायते ॥ २१ ॥ मघाद्यं पञ्चकं वायुद्वारं शुक्रेऽस्तमागते । तत्र मेघोन्नतियुता द्यौः पयो नैव मुञ्चति ॥ २२ ॥ स्वातित्रयेऽस्तमायाते धर्मद्वारं भृगोः सुते । तत्राऽऽरोग्यसुखक्षेमयुताः स्युर्धर्मिणो जनाः ॥ २३ ॥ ज्येष्ठाचं पञ्चकं धूलिद्वारं तत्रास्तमागते । अग्निक्षद्भीतिरत्यन्तं विग्रहो दारुणः सिते ॥ २४ ॥ वासवाश्चीमपर्यन्तं काश्चनद्वारमीरितम् । तत्रास्तमागते शुक्रे सस्यवृद्धिः प्रजायते ॥ २५ ॥ भिन्दनगतोऽनलर्क कूलातिक्रान्तवारिवाहाभिः । अव्यक्ततुङ्गनिम्ना समा सरिद्भिर्भवति धरित्री ॥ २६ ॥ वसिष्ठः-भिनत्ति रोहिणीचक्रं शुक्रः पैतृभतारकम् । यदा तदा भवत्येव कपालास्थिमयी धरा ॥२७॥ दृष्टः समस्तदिवसं भयदश्वाऽऽमयः सदा । दिनार्ध प्रति दृष्टश्चेत्परेषां बलभेदकृत् ॥ २८ ॥ नारदः-पूर्वस्यां दिशि जलदः शुभकृत्पितृपञ्चके । स्वातीत्रये पश्चिमायां सम्यक् शुक्रस्तथाविधः ॥ २९ ॥ विपरीते त्वनावृष्टिवृष्टिकृबुधसंयुतः । कृष्णाष्टम्यां चतुर्दश्याममायां वा यदा सितः ॥ ३० ॥ उदयास्तमयं याति तदा जलमयी क्षितिः । मिथः सप्तमराशिस्थौ पश्चात्माग्वीथिसंस्थितौ ॥ ३१ ॥ गुरुशुक्रावनावृष्टिदुर्भिक्षमरणप्रदौं । कुजज्ञजीवरविजाः शुक्रस्याग्रे सदा यदि । युद्धातिवायुदुर्भिक्षजलनाशकरास्तदा ॥ ३२ ॥ पृथक्फलानि वराहेणोक्तानि-निहन्ति शुक्रः क्षितिजेऽग्रतः प्रजा हुताशशस्त्रक्षुदवृष्टितस्करैः । चराचरं व्यक्तमथोत्तरापथं दिशो रजोल्कादहनैश्च पीडयेत् ॥ ३३ ॥ सौम्योऽस्तोदययोः पुरो भृगुसुतस्यावस्थितस्तोयकृद्रोगान्कामलपित्तजांश्च कुरुते पुष्णाति च प्रैष्मिकान् ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोहन्यात्मवजिताग्निहोत्रिकभिषग्रगोपजीव्यान्हयान्वैश्यान्गाः सह वाहनैनरपतीन्मद्नाति पश्चादिशम् ॥३४॥ बृहस्पतौ हन्ति पुरस्थिते भृगोः सितं समस्तं द्विजगोसुरालयम् । दिशं च पूर्वी करकासृजोऽम्बुदा गले गदो भूरि भवेच्च शारदम् ॥३६॥ शनैश्चरे म्लेच्छबिडालकुञ्जराः खरा महिष्योऽसितधान्यसूकराः। पुलिन्दशूद्राश्च सदक्षिणापथाः क्षयं व्रजन्त्यक्षिगदो मरुद्भवः ॥ ३६॥ प्रावृषि शुक्रः प्राच्या दिशि स्थितोऽल्पं जलं सृजति । धान्यं च भूरि कुरुते तृणं च बहु जायते तत्र ॥ ३७॥ अपरां निषेवमाणः काष्ठां शुक्रो जलं सृजति भूरि । धान्यं कुरुते चाल्पं तृणं च बहु जायते तत्र ॥ ३८ ॥ उदक्स्थो दक्षिणस्थो वा बलवान्भार्गवः सदा । विबला याम्यगाश्चान्ये सौम्यगा बलिनो ग्रहाः ॥ ३९ ॥ शिखिभयमनलाभे शस्त्रकोपश्च रक्ते कनकनिकषगोरे व्याधयो दैत्यपूज्ये । हरितकपिलरूपे श्वासकासप्रकोपाः पतति न सलिलं खाद्भस्मरूक्षासिताभे ॥ ४०॥ दधिकुसुमशशाङ्ककान्तिभृत्स्फुटविकसत्किरणो बृहत्तनुः । सुगतिरविकृतो जयान्वितः कृतयुगरूपधरः सितायः॥४१॥
इति शुक्रचारः॥
अथ शनिचारः ॥ नारदः-श्रवणानिलहस्ता भरणीभाग्यभेषु च । चरञ्शनैश्चरो नृणां सुभिक्षारोग्यसस्यकृत् ॥ १॥ जलेशसार्पमाहेन्द्रनक्षत्रेषु सुभिक्षकृत् । क्षुच्छस्त्रावृष्टिदो मूलेऽहिर्बुध्न्यान्त्यभयोर्भयम् ॥ २ ॥ वराहः-यदा विशाखासु महेन्द्रमन्त्री सुतश्च भानोर्दहनर्भयातः । तदा प्रजानामनयोऽतिघोरः पुरप्रदोभे (प्रभेदो ) गतयोर्भमेकम् ॥ ३ ॥ वसिष्ठः-अनुक्तभेष्वर्कसुतः प्रजानां चरंस्तदा मध्यमवृष्टिदः स्यात् । कीटाजपश्चाननकर्कटेषु चरञ्छनिः क्षुद्भयदः प्रजानाम् ॥ ४ ॥ दृष्टेर्भयं कुत्रचिदामयश्च तथाऽपि जीवन्ति जनाः कथंचित् । कन्यानृयुग्मे घटचापसंस्थितः स्वक्षेत्रसंस्थोऽपि शुभप्रदः स्यात् ॥ ५॥ वङ्गाडू-काश्मीरकलिङ्गगोडसौराष्ट्रदेशेष्वशुभप्रदः स्यात् ॥ ६ ॥ प्रक्षुभ्यन्ति क्षितीशाः प्रचलति वसुधा मोदते दस्युवर्गो धीभ्रंशो बुद्धिमाजां जनपदहरणं चित्रवर्षी पयोदः । चन्द्राओं मन्दरश्मी ग्रहगणसहितौ वान्ति वाताः प्रचण्डाश्चक्राकारं समस्तं भ्रमति जगदिदं मीनगे सूर्यसूनौ ॥ ७॥ पृथक्फलानि वराहेणोक्तानि—तुरगतुरङ्गोपचा
१ ख. ते सितः सि।
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ज्योतिर्निवन्धः। रफकविवनामात्यहाऽर्कजोऽश्विगतः । याम्ये नर्तकवादकगेयशक्षुद्रनैक( क ) तिहा॥ ८॥ बहुलास्थे पीड्यन्ते सौरेऽग्न्युपजीविनश्च भूपाश्च । रोहिण्यां कोशलमद्रकाशिपाञ्चालशाकटिकाः॥९॥ मृगशिरसि वत्सयाजकयजमानार्यजनमध्यदेशाश्च । रौद्रस्थे पारतरमठतैलका [ २ ] रजकचौराश्च ॥ १० ॥ आदित्ये पाञ्चनदप्रत्यन्तसुराष्ट्रसिन्धुसौवीरान् । पुष्ये घाण्टिकघौषिकयवनवणिकितवकुसुमानि ॥ ११ ॥ सार्प जलरुहसर्पाः पित्र्ये बाह्रीकचीनगान्धाराः । चूलिकपारतवैश्याः कोष्ठागाराणि वणिजश्च ॥ १२ ॥ भाग्ये रसविक्रयिणः पण्यस्त्रीकन्यका महाराष्ट्राः । आर्यम्णे (मणे) नृपगुडलवणभैक्षकाम्बूनि तक्षशिलाः ॥ १३ ॥ हस्ते नापितचाक्रिकचौरभिषक्सूचिकद्विपग्राहाः । बन्धक्यः कोशलका मालाकाराश्च पीड्यन्ते ॥ १४ ॥ चित्रास्थे प्रमदाजनलेखकचित्रज्ञचित्रभाण्डानि । स्वातौ मागधचरदूतसूतपोतप्लवनटाद्याः ॥ १५॥ ऐन्द्राग्न्याख्ये गर्तचीनकौलूतकुङ्कुमं लाक्षा । सस्यान्यथ मञ्जिष्ठा कौसुम्भं च क्षयं याति ॥ १६ ॥ मैत्रे कुलूतटङ्कणखषकाश्मीराः समन्त्रिचक्रचराः । उपतापं यान्ति जना भवति विभेदश्च मित्राणाम् ॥१७॥ ज्येष्ठासु नृपपुरोहितनृपपूज्यज्येष्ठकुलश्रेण्यः । मूले तु काशिकोशलपाञ्चालफलौषधियोधाः ॥ १८ ॥ आप्येऽङ्गवङ्गकोशलगिरिव्रजान्मागधपुण्ड्रमिथिलांश्च । उपतापं यान्ति जना वसन्ति ये ताम्रलिप्त्यां च ॥१९ ॥ वैश्वे चरमर्कपुत्रश्चरन्दशार्णान्निहन्ति यवनांश्च । उज्जयनीशवरान्पारियात्रकान्कुन्तिभोजश्च ॥ २० ॥ श्रवणे राज्याधिकृतान्विप्राय्यान्भिषक् पुरोहितकलिङ्गान् । वसुभे मगधेशजयो वृद्धिश्च जनेष्वधिकृतानाम् ॥२१॥ साजे शतभिषजि भिषक्कविशौण्डिकपद्यनीतिवार्तानाम् । आहिर्बुध्न्ये नद्यो यानकराः स्त्री हिरण्यं च॥२२॥ रेवत्यां राजभृतः क्रौञ्चद्वीपाश्रिताः शरत्सस्यम् । शबराश्च निपीड्यन्ते यवनाश्च शनैश्चरे चरति ॥ २३ ॥ अण्डजहा रविजो यदि चित्रः क्षुद्भयकृद्यदि पीतमयूखः । शस्त्रभयाय च रक्तसवर्णो भस्मनिभो बहुवैरकरश्च ॥ २४ ॥ वैडूर्यकान्तिरमलः शुभदः प्रजानां बाणातसीकुसुमवर्णनिभश्च शस्तः। यं चातिवर्णमुपगच्छति तत्सवर्ण सूर्यात्मजः क्षपयतीति मुनिप्रवादः ॥ २५ ॥ मून्य॒कं च मुखे त्रीणि गुह्ये द्वे नयने तथा । हृदये पञ्च ऋक्षाणि वामहस्ते चतुर्थकम् ॥ २६ ॥ वामपादतले त्रीणि दक्षिणे त्रीणि वै तथा । चत्वारि दक्षिणे हस्ते जन्मभाद्रविजः स्थितः ॥ २७ ॥ रोगो लाभस्तथा हानिलोभः सौख्यं च बन्धनम् । आयासश्चेष्टा यात्रा च अर्थलाभः क्रमात्फलम्
१ ख. 'शबलम । २ क. तैलिकार।
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१६
श्री शिवराजविनिर्मितो
॥ २८ ॥ वक्रकृद्रविजस्येह तद्वक्रफलमीदृशम् । करोत्येव समः साम्यं शीघ्रगो व्युत्क्रमात्फलम् ॥ २९ ॥
इति शनिचारः ॥
अथ राहुचारः ॥
वराहः -- अमृतस्वादविशेषाच्छिन्नशिरः किलासुरस्येदम् । प्राणैरपरित्यक्तं ग्रहतां यातं वदन्त्येके ||१|| इन्द्वर्कमण्डलाकृतिरसितत्वात्किल न दृश्यते गगने । अन्यत्र पर्वकालाद्वरप्रदानात्कमलयोनेः || २ || मुखपुच्छविभक्ताङ्गं भुजङ्गमाकारमुपदिशन्त्यन्ये । कथयन्त्यमूर्तमपरे तमोमयं सैंहिकेयाख्यम् ॥ ३ ॥ यदि मूर्ती भविचारी शिरोऽथवा मण्डली भवति राहुः । । भगणार्धेनान्तरितो गृह्णाति कथं नियतचारः ॥ ४ ॥ अनियतचारः स तु चेदुपलब्धिः संख्यया कथं तस्य । पुच्छाननाभिधानोऽन्तरेण कस्मान्न गृह्णाति ॥ ६ ॥ अथवा भुजगेन्द्ररूपः पुच्छेन मुखेन वा संगृह्णाति । मुखपुच्छान्तरसंस्थं स्थगयति कस्मान्न भगणार्धम् ॥ ६ ॥ राहु यदि स्याग्रस्तेऽस्तमितेऽथवोदिते चन्द्रे । तत्समगतिनाऽन्येन ग्रस्तः सूर्योऽपि दृश्येत ॥ ७ ॥ भूछायां स्वग्रहणे भास्करमर्कग्रहे प्रविशन्तीन्दुः । प्रग्रहणमतः पश्चानेन्दोर्भानोश्च पूर्वार्धे ॥ ८ ॥ वृक्षस्य स्वच्छाया यथैकपार्श्वे भवति दीर्घा च । निशिनिशि तद्वद्भूमेरावरणवशाद्दिनेशस्य ॥ ९ ॥ सूर्या - त्सप्तमराशौ यदि चोदग्दक्षिणेन नातिगतः । चन्द्रः पूर्वाभिमुखश्छायामौवीं तदा विशति ॥ १० ॥ चन्द्रोऽधस्थः स्थगयति रविमम्बुदवत्समागतः पश्चात् । प्रतिदेशमतश्चित्रं दृग्विषयाद्भास्करग्रहणम् ॥ ११ ॥ आवरणं महदिन्दोः कुण्ठविषाणस्ततोऽर्धसंछन्नः । स्वल्पं रवेर्यऽतोतस्तीक्ष्णविषाणो रविर्भवति ॥ १२ ॥ एव सुपरागकारणमुक्तभिदं दिव्यदृग्भिराचार्यैः । राहुरकारणमस्मिन्नित्युक्तः शास्त्रसद्भावः ॥ १३ ॥ योऽसावसुरो राहुस्तस्य वरो ब्रह्मणाऽयमाज्ञप्तः । आप्यायनमुपरागे दत्तहुतांशेन ते भविता ॥ १४ ॥ तस्मिन्काले सांनिध्यमस्य तेनोपचर्यते राहुः । याम्योत्तरा शशिगतिर्गणितेऽप्युपचर्यतेऽर्थेन ॥ १५ ॥ न कथंचिदपि निमित्तैर्ग्रहणं विज्ञायते निमित्तानि । अन्यस्मिन्नपि काले भवन्त्यथोत्पातरूपाणि ॥ १६ ॥ पञ्चग्रहसंयोगान्न किल ग्रहणस्य संभवो भवति । तैलं च जलेऽष्टम्यां न विचिन्त्यमिदं विपाश्चद्भिः ॥ १७ ॥ अवनत्याऽर्के ग्रासो दिग्ज्ञेया वलनयावनत्या च । तिथ्यवसानाद्वेलाकरणे कथितानि तानि मया ॥ १८ ॥ शेषो राहुचारो ग्रहणोपयोगित्वात्तत्र लिखितोऽस्ति ।
इति राहुचारः ॥
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ केतुचारः । वराहः-गार्गीयं शिखिचारं पाराशरमसितदेवलकृतं च । अन्यांच बहून्दृष्ट्वा क्रियतेऽयमनाकुलश्चारः ॥ १॥ दर्शनमस्तमयो वा न गणितविधिनाऽस्य शक्यते ज्ञातुम् । दिव्यान्तरिक्षभौमास्त्रिविधाः स्युः केतको यस्मात् ॥२॥ अहुतांशेऽनलरूपं यस्मिंस्तत्केतुरूपमेवोक्तम् । खद्योतपिशाचालयमणिरत्नादीपरित्यज्य ॥ ३॥ ध्वजशस्त्रभवनतरुतुरगकुञ्जरायेष्वथाऽऽन्तरिक्षास्ते । दिव्या नक्षत्रस्था भौमाः स्युरतोऽन्यथा शिखिनः ॥ ४॥ शतमेकाधिकमेफे सहस्रमेके वदन्ति केतूनाम् । बहुरूपमेफमेव प्राह मुनि रदः केतुम् ॥ ५ ॥ यद्येको यदि बहवः किमने बलं तु सर्वथा वाच्यम् । उदयास्तमनैः स्थानैः स्पर्शेराधूमितैवर्णैः ॥ ६ ॥ यावन्त्यहानि दृश्यो मासास्तावन्त एवफलपाकः । मासैरन्दानि चदेत्प्रथमात्पक्षत्रयात्परतः ॥ ७ ॥ ह्रस्वतनुः प्रसन्नः स्निग्धस्त्वुजुरचिरसंस्थितः शुक्लः । उदितो वाऽप्यभिदृष्टः सुभिक्षसौख्यावहः केतुः ॥ ८॥ उक्तविपरीतरूपो न शुभकरो धूमकेतुरुत्पनः । इन्द्रायुधानुकारी विशेषतो द्वित्रिशूलो वा ॥९॥ हारमणिहेमरूपाः किरणाख्याः पञ्चविंशतिः सशिखाः । प्रागपरदिशो. द्देश्या नृपतिविरोधावहा रविजाः ॥ १० ॥ शुकवदनबन्धुजीवकलाक्षाक्षतजोपमा हुताशसुताः । आग्नेय्यां दृश्यन्ते तावन्तस्तेऽपि शिखिभयदाः ॥ ११ ॥ वक्रशिखा मृत्युसुता रूक्षाः कृष्णाश्च तेऽपि तावन्तः । दृश्यन्ते याम्यायां जनमरकावेदिनस्ते च ॥ १२ ॥ दर्पणवृत्ताकारा विशिखाः किरणान्विता धरातनयाः । क्षुद्भयदा द्वाविंशतिरैशान्यामम्बुतैलनिभाः ॥ १३ ॥ शशिकिरणहिमकुन्दकुमुदकुसुमोपमाः सुताः शशिनः । उत्तरतो दृश्यन्ते त्रयः सुभिक्षावहाः शिखिनः ॥ १४ ॥ ब्रह्मसुत एक एव त्रिशिखो वणस्त्रिभिर्युगान्तकरः । अनियतदिक्संप्रभवो विज्ञेयो ब्रह्मदण्डाख्यः॥ १५ ॥ शतमभिहितमेकसमेतमेकेन विरहिताऽन्यस्मात् । कथयिष्ये केतूनां शतानि नव लक्षणैः स्पष्टैः ॥ १६ ॥ सौम्येशान्योरुदयं शुक्रसुता यान्ति चतुरशीत्याख्याः। विपुलसिततारकास्ते स्निग्धाश्च भवन्ति तीव्रफलाः ॥ १७ ॥ स्निग्धा प्रभासमेता विशिखाः षष्टिः शनैश्चराङ्गरुहाः । अतिकष्टफला दृश्याः सर्वत्रते कनकसंज्ञाः ॥ १८ ॥ विकचा नाम गुरुसुताः सितैकताराः शिखापरित्यक्ताः । पष्टिः पञ्चभिरधिका स्निग्धा याभ्याश्रिताः पापाः ॥ १९ ॥ नातिव्यक्ताः सूक्ष्मा दीर्घाः शुक्ला यथेष्टदिनभवाः । बुधजात ( स्त) स्करसंज्ञाः पापफलास्त्वेकपश्चाशात् ॥ २०॥ क्षतजा
१ क. "न फलं । २ ख. वरतनुप्र !
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श्री शिवराजविनिर्मितो
नलानुरूपास्त्रिशूलताराः कुजात्मजाः षष्टिः । नाम्ना च कौमास्ते सौम्याशा - संस्थिताः पापाः ।। २१ ।। त्रिंशत्र्यधिका राहोस्ते तामसकीलका इति ख्याताः । रविशशिगा दृश्यन्ते तेषां फलमर्कचारोक्तम् ॥ २२ ॥ विंशत्यधिकमन्यच्छतमग्नेर्विश्वरूपसंज्ञानाम् | तीव्रानलभयदानां ज्वालामालाकुलतनूनाम् || २३ ॥ श्यामारुणा विताराश्चामररूपा विकीर्णदीधितयः । अरुणाख्या वायोः सप्तसप्ततिः पापदाः पुरुषाः || २४ || पुञ्जनिकाशागणका नाम प्रजापतेरष्टौ । द्वे च शते चतुरधिके चतुरस्रा ब्रह्मसन्तानाः || २५ || कङ्का नाम वरुणजा द्वात्रिंशद्गुल्मसंस्थानाः । शशिवत्प्रभासमेतास्तीत्रफलाः केतवः प्रोक्ताः || २६ ।। षण्णवतिः कालसुताः कबन्धसंज्ञाः कबन्धसंस्थानाः । चण्डाभयप्रदाः स्युर्विरूपताराश्च ते शिखिनः ।। २७ ।। शुक्लविमलैकतारा नव विदिशां केतवः समुत्पन्नाः । एवं केतुसहस्रं विशेषमेषामतो वक्ष्ये ॥ २८ ॥ उदगायतो महान् स्निग्धमूर्तिरपरोदयी साकेतुः । सद्यः करोति मरकं सुभिक्षमप्युत्तमं कुरुते ||२९|| तलक्षणोऽस्थिकेतुः सं तु रूक्षः क्षुद्भयावहः । कथितः स्निग्धस्तादृक्प्राच्यां शस्त्राख्यो डमरमरकाय || ३० ॥ दृश्योऽमावास्यायां कपालकेतुः सधूम्ररश्मिशिखः । प्राङ्नभसोर्ध्वविचारी क्षुन्मरकारोगवृष्टिकरः ॥ ३१ ॥ प्राग्वैश्वानरमार्गे शूलाग्रः शावरूक्षताम्रार्चिः । नभसस्त्रिभागगामी रौद्र इति कपालतुल्यफलः || ३२ || अपरस्यां चलकेतुः शिखया याम्याययाऽङ्गुलोच्छ्रितया । गच्छेद्यथायथोदक् तथातथा दैर्घ्यमायाति ॥ ३३ ॥ सप्त मुनीन्संस्पृश्य ध्रुवमभिजितमेव च प्रति निवृत्तः । नभसोऽर्धमात्रमित्वा याम्येनास्तं समुपयाति ॥ ३४ ॥ हन्यात्प्रयागकूलाद्यावदवन्तीति पुष्करारण्यम् । उद्गपि च देविकामपि भूयिष्ठं मध्यदेशाख्यम् || ३५॥ अन्यानपि च स देशान्कचित्क्वचिद्धन्ति दुर्भिक्षैः । दशमासात्फलपाकोऽस्य कैश्चिदटादशे प्रोक्तः ॥ ३६ ॥ प्रागर्धरात्रदृश्यो याम्यायः श्वेतकेतुरन्यश्च । क इति युगाकृतिरपरे युगपत्तौ सप्तदिनदृश्यौ ॥ ३७ ॥ स्निग्धौ सुभिक्षभयदावथाधिकं दृश्यते कनकमयः । दश वर्षाण्युपतापं जनयति शस्त्रप्रकोपकृतम् ॥ ३८ ॥ श्वेत इति जटाकारो रूक्षः श्यामो वियत्रिभागगतिः । विनिवर्ततेऽपसव्यं त्रिभागशेषाः प्रजाः कुरुते ॥ ३९ ॥ आधूम्रया तु शिखया दर्शनमायाति कृत्तिकासंस्थः । ज्ञेयः स रश्मिकेतुः श्वेतसमानं फलं धत्ते ॥ ४० ॥ ध्रुवकेतुरनियतगतिः प्रमाणवर्णाकृतिर्भवति विष्वक् । दिव्यान्तरिक्षभौमो भवत्ययं स्निग्ध इष्टफलः ॥ ४१ ॥ सेनाङ्गेषु नृपाणां गृहतरुदेशेषु वाऽपि देशानाम् । गृहिणामुपस्करेषु च विनाशिनां दर्शनं याति ॥ ४२ ॥ कुमुद इति कुमुदकान्तिर्वारुण्यां प्राशिखामेकाम् । दृष्टः सुभिक्षमतुलं दश किल वर्षाणि स करोति ॥ ४३ ॥ सकदेकयाम
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ज्योतिर्निवन्धः।
दृश्यः सुसूक्ष्मतारोऽपरेण मणिकेतुः । ऋज्वी शिखाऽस्य श्लक्ष्णा स्तनोद्गता क्षीरधारेव ॥ ४४ ॥ उदयन्नेव सुभिक्षं चतुरो मासान्करोत्यसौ सार्धान् । प्रादु
र्भावं प्रायः करोति च क्षुद्रजन्तूनाम् ॥ ४५ ॥ जलकेतुरपि च पश्चास्निग्धशिखया परेण चोन्नतया । नवमासं स सुभिक्षं करोति शान्ति च लोकस्य ॥४६॥ जलकेतुरेकरात्रं दृश्यः प्राक् सूक्ष्मतारकः स्निग्धः । हरिलाङ्लोपमया प्रदक्षिणावर्तया शिखया ॥४७॥ यावन्तः (तः) सुमुहूर्तान्दर्शनमायाति निर्दिशेन्मासान् । तावदतुलं सुभिक्षं रूक्षः प्राणान्तिकान्रोगान् ॥ ४८ ॥ अपरेण पद्मकेतुर्मणालगोरो भवेनिशामेकाम् । सप्त करोति सुभिक्षं वर्षाण्यतिहर्षयुक्तानि ॥ ४९ ॥ आवर्त इति निशाघे सव्यशिखोरुणनिभोऽपरोऽस्निग्धः। यावत्क्षणान्स दृश्यस्तावन्मासान्सुभिक्षकरः ॥५०॥ पश्चात्संध्याकाले संव” नाम ताम्रशिखः। आक्रम्य वियञ्यंशं शूलाग्रावस्थितो रौद्रः ॥५१॥ यावत एव मुहूर्तान्दृश्यो वीणि हन्ति तावन्ति । भूपाञ्छस्त्रनिपातैरुदयक्षं चापि पीडयति ॥५२॥ ये शस्तास्तान्हित्वा केतुभिराधूमितेऽथ वा स्पृष्टे । नक्षत्रे भवति वधो येषां राज्ञां प्रवक्ष्ये तान् ॥ ५३ ॥ गगनार्धचारी ( चरः) सद्यः प्रधानदेशान्विनाशयत्यचिरात् । सकलगगनानुचारी त्रैलोक्यविनाशनः केतुः ॥ ५४॥ अश्विन्यामश्वपति भरणीषु किरातपार्थिवं हन्यात् । बहुलासु कलिङ्गेशं रोहिण्यां सूरसेनपतिम् ॥ ५५ ॥ औशीनरमपि सौम्ये जलजाञ्जीवाधिपं तथाऽऽासु । आदित्येऽश्मकनाथं पुष्ये मगधाधिपं हन्ति ॥ ५६ ॥ असिकेशं भौजङ्ग पित्र्येऽङ्ग पाण्ड्यनाथमपि भाग्ये । औज्जयिनीकमार्यम्णे सावित्रे दण्डकाधिपतिम् ॥ ५७ ॥ चित्रासु कुरुक्षेत्राधिपस्य मरणं समादिशेत्प्राज्ञः । काश्मीरककाम्बोजौ नृपती प्राभञ्जने न स्तः ॥ ५८ ॥ इक्ष्वाकुरलकनाथश्च हन्यते यदि भवेद्विशाखासु । मैत्रे पौण्ड्राधिपतिज्येष्ठास्वथ सार्वभौमवधः ॥ ५९ ॥ मूले तु मद्रकपतिर्जलदेवे काशिको मरणमेति । यौधेयकार्जुनायनशिबिचैद्या वैश्वदेवे च ॥ ६ ॥ हन्यात्कैकयनाथं पाञ्चनदं सिंहलाधिपं वङ्गम् । नैमिफ्नपं किरातं श्रवणादिषु षट्सु च क्रमशः॥६१॥ उल्काभिताडितशिखः शुभः शिखी शिवतेराभिदृष्टो यः। अशुभः स एव चौलाध्रकाणसिंहहूणचीनानाम् ॥ ६२ ॥ नम्रायतः शिखिशिखाभिमृतो युतो वा ऋक्षं च यत्स्पृशति तत्कथितांश्च देशान् । दिव्यप्रभावनिहतान्स यथा गरुत्मान्भुङ्क्ते गतो नरपतिः परभोगिभोगान् ॥ ६३ ॥ दृष्टः पोडश वासरानशुभदः कैश्चित्प्रदिष्टः शिखी सर्वारम्भफलप्रदो हि नियतं चैत्रेऽथवा
१ क. भवके' । २ क. °तरोऽभिवृष्टो' ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
माधवे । ऋक्षे यत्परिभुक्तधूमितहतं दग्धं शिखाभेदितं तत्सर्व परिवर्ज्य शुद्धमपरं पाणिग्रहे वास्तुषु ॥ ६४ ॥
इति केतुचारः ॥
अथागस्त्यचारः
बराहः-भानोर्वर्त्मविघातवृद्धशिखरो विन्ध्याचलः स्तम्भितो वातापी मुनिकुक्षिभित्सुररिपुर्जीर्णश्च येनासुरः । पीत्वा चाम्बुनिधेः पयांसि विपुला याम्या च दिग्भूषिता तस्यागस्त्यमुनेः पयोद्युतिकृतश्वारः समारभ्यते ॥ १ ॥ स्मरणादपि पापमपाकुरुते किमुत स्तुतिभिर्वरुणान्रुहः । मुनिभिः कथितोऽस्य यथाऽर्धविधिः कथयामि तथैव नरेन्द्रहितम् ॥ २ ॥ संख्याविधानात्मतिदेशमस्य विज्ञाय संदर्शनमादिशेज्ज्ञः । तच्चोज्जयिन्यामगतस्य कन्यां भागैः स्वराख्यैः स्फुटभास्करस्य || ३ || ईषत्प्रभिन्नेऽरुणरश्मिजाले नैशेऽन्धकारे दिशि दक्षिणस्याम् । सांवत्सरावेदितदिग्विभागे भूपोऽर्धमुर्व्या प्रयतः प्रयच्छेत् ॥ ४ ॥ कालोद्भवैः सुरभिभिः कुसुमैः फलैश्च रत्नैश्च सागरभवैः कनकाम्बरैश्च । धेन्वा वृषेण परमानयुतैश्च भक्ष्यैर्दध्यक्षतैः सुरभिधूपविलेपनैश्च ॥ ५ ॥ नरपतिरिदम श्रद्दधानो ददानः पविगतगददोषो निर्जितारातिपक्षः । भवति च यदि दद्यात्सप्त वर्षाणि सम्यग्जलनिधिरशनायाः स्वामितां याति भूमेः || ६ || द्विजो यथालाभमुपाहतार्घः प्रोति पुत्रान्प्रमदाथ पौत्रान् । वैश्यश्च गा भूरि धनं च शूद्रो रोगक्षयं धर्मफलं च सर्वे || ७ || रोगान्करोति पुरुषः कपिलस्त्ववृष्टिं धूम्रो गवामशुभकृत्स्फुरणो भयाय । माञ्जिष्टरागसदृशः क्षुधमाहवं च कुर्यादणुश्च पुररोधमगसत्यनामा ॥ ८ ॥ शातकुम्भसदृशः स्फटिकाभस्तर्पयन्निव महीं किरणायैः । दृश्यते यदि ततः प्रचुराना भूर्भवत्यभयरोगजनाढ्या || ९ || उल्कया विनिहतः शिखिना वा क्षुद्भयं मकरमेव स धत्ते । दृश्यते किल स भाग्यगतेऽर्के रोहिणीमुपगतेऽस्तमुपैति ॥ १० ॥
इत्यगस्त्यचारः ।
अथ सप्तर्षिचारः ।
वराह: - सैकावली विराजति ससितोत्पलमालिनी सहासेव । नाथवतीति च दिक्पै: कॉबेरी सप्तभिर्मुनिभिः ॥ १ ॥ ध्रुवनायकोपदेशान्नरिनतवोत्तरा भ्रमद्भिश्च । यैश्वारमहं तेषां कथयिष्ये वृद्धगर्गमतात् ॥ २ ॥ आसन्मघासु मुनयः
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ज्योतिर्निबन्धः। शासति पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपतौ । षड्विकपञ्चद्वि २५२६ युतः शककालस्तस्य राज्यस्य ॥३॥ वर्षसहस्रत्रितयं शतमेकं सप्ततिर्नवाग्रा च । शककालंयुतं मिश्र कलेर्गतं धर्मपुत्रात्तु ॥ ४ ॥ एकैकस्मिन्नक्षे शतं शतं ते चरन्ति वर्षाणाम् । प्रागुदयतोऽस्तविवराजूदयं तत्र संयुक्ताः ॥ ५॥ पूर्वे भागे भगवान्मरीचिरपरे स्थितो वसिष्ठोऽस्मात् । तस्याङ्गिरास्ततोऽत्रिस्तस्याऽऽसन्नः पुलस्त्यश्च ॥६॥ पुलहः क्रतुरिति भगवान्नासन्नानुक्रमेण पूर्वाद्याः । तत्र वसिष्ठं मुनिवरमुपाश्रिताऽरुन्धती साध्वी ॥ ७ ॥ उल्काशनिधूमाद्यैर्हता विवर्णा विरश्मयो हस्वाः। हन्युः स्वं स्वं वर्ग विपुलाः स्निग्धाश्च तवृद्धयै ॥ ८॥ गन्धर्वदेवदानवमन्त्रीपधिसिद्धयक्षनागानाम् । पीडाकरो मरीचिईयो विद्याधराणां च ॥९॥ शकयवनदरदपारतकाम्बोजांस्तामसान्धनोपेतान् । हन्ति वसिष्ठोऽभिहतो विवृद्धिदो रश्मिसंपन्नः ॥ १० ॥ अङ्गिरसो ज्ञानयुता धीमन्तो ब्राह्मणाश्च निर्दिष्टाः। अत्रेः कान्तारभवा जलजान्यम्भोनिधिः सरितः ॥ ११ ॥ रक्षःपिशाचदैत्या दानवभुजङ्गाः स्मृताः पुलस्त्यस्य । पुलहस्य तु मूलफलं क्रतोस्तु यज्ञाः सयज्ञकृतः॥१२॥
इति सप्तर्षिचारः।
अथ ग्रहयुद्धम् । वराहः-युद्धं यथा यदा वा भविष्यमादिश्यते त्रिकालज्ञैः । तद्विज्ञानं करणे मया कृतं सूर्यसिद्धान्ते ॥ १॥ वियति चरतां ग्रहाणामुपर्युपर्यात्मसंस्थानाम् । अतिदूरा दृग्विषये समतामिव संप्रयातानाम् ॥ २॥ आसन्नक्रमयोगा दोल्लेखांशुमर्दनासव्यैः। युद्धं चतुष्पकारं पराशरायमुनिभिरुक्तम् ॥ ३ ॥ केचित्हस्तमात्रे भवेयुद्धं बाहुमात्रे समागमः । वितस्तिमात्रमुल्लेखो भेदश्चैव निरअलः ॥ ४ ॥ भेदे वृष्टिविनाशो भेदः सुहृदां महाकुलानां च । उल्लेखे शस्त्रभयं मन्त्रिविरोधः प्रियानत्वम् ॥ ५॥ अंशुविमर्दे युद्धानि भूभुजां शस्त्ररुक्षुदपमर्दाः । युद्धे चाप्यपसव्ये भवन्ति युद्धानि भूपानाम् ॥ ६ ॥ रविराक्रन्दो मध्ये पौरः पूर्वे परे स्थितो यायी । पौरा बुधगुरुरविजा नित्यं शीतांशुराक्रन्दः ॥ ७ ॥ केतुकुजराहुशुक्रा यायिन एते ग्रहा हता हन्युः । आक्रन्दयायिपोरा जयिनो जयदाः स्ववर्गस्य ॥ ८ ॥ पोरे पोरेण हते पौराः पौरान्नृपान्विनिम्नन्ति । एवं याय्याक्रन्दो नागरयायिग्रहाश्चैव ॥ ९॥ दक्षिणदिस्थः पुरुपो वेपथुरप्राप्य
१ क. "लयातमि।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
संनिवृत्तोऽणुः | अधिरूढो विकृतो निष्प्रभो विवर्णश्च यः स जितः ॥ १० ॥ उक्तविपरीतलक्षणसंपन्नो जयगतो विनिर्दिष्टः । विपुलः स्निग्धो द्युतिमान्दक्षिणदिक्स्थोऽपि जययुक्तः ॥ ११ ॥ द्वावपि मयूखयुक्तौ विपुलौ स्निग्धौ समागमे भवतः । अत्रान्योन्यप्रीतिर्विपरीतावात्मपक्षौ ॥१२॥ युद्धं समागमो वा यद्यव्यक्तौ तु लक्षणैर्भवतः । भुवि भूभृतामपि तथा फलमव्यक्तं विनिर्देश्यम् ॥ १३॥ गुरुणा जिवन बाह्लिका यायिनो वार्तांश्च । शशिजेन सूरसेनककलिङ्गशाल्वाश्च पीडयन्ते ||१४|| सौरेणाऽऽरे विजिते जयन्ति पौराः प्रजाश्च सीदन्ति । कोष्ठागारभ्लेच्छक्षत्रियतापश्च शुक्रजिते || १५ || भौमेन हते शशिजे वृक्षसरितापसाश्मक नरेन्द्राः । उत्तरदिकस्थाः क्रतुदीक्षिताच संतापमायान्ति ॥ १६ ॥ गुरुणा बुधे जिते म्लेच्छशूद्र चौरार्थयुक्तपौरजनाः । त्रैगर्त पार्वतीयाः पीडयन्ते कम्पते च मही ॥ १७॥ रविजेन बुधे ध्वस्ते नाविकयोधाब्जधेनुगर्भिण्यः । भृगु णाऽग्निशस्त्रकोपाः सस्याम्बुदयायिविद्धसः || १८ || जीवे शुक्राभिहते कुलूतगान्धारकैकया मद्राः । शाल्वा वत्सा वङ्गा गावः सस्यानि नश्यन्ति ॥ १९ ॥ भौमेन जिते जीवे मध्यो देशो नरेश्वराः गावः । रविजेनचार्जुनाय नवसातियौधेयशिविविप्राः ॥ २० ॥ शशितनयेनापि जिते बृहस्पतौ म्लेच्छसत्यशस्त्रभृतः । उपयान्ति मध्यदेशश्च संक्षयं यच्च भक्तिफलम् ॥ २१ ॥ शुक्रे बृहस्पतिहते यायी श्रेष्ठो विनाशमुपयाति । ब्रह्मक्षत्रविरोधः सलिलं च न वासवस्त्यजति ॥ २२ ॥ कोशलक कलिङ्गवङ्गा वत्सा मत्स्याश्च मध्यदेशयुताः । महतीं व्रजन्ति पीडां नपुंसकाः सूरसेनाच || २३ || रविजेन सिते विजिते गणमुख्याः शस्त्रजीविनः क्षत्रम् । जलदाश्च निपीड्यन्ते सामान्यं भक्तिफलमन्यत् || २४ || असिते हते सिते वाऽर्घवृद्धिरहिविहगमानिनां पीडा । क्षितिजेन टडूग्णान्धोण्डूकाशिवाह्लीकदेशानाम् || २५ || सौम्येन पराभूते मन्देऽङ्गवणिग्विहङ्ग-पशुनाशः । संतायन्ते गुरुणा स्त्रीला महिषकर्षकाचापि || २६ || अयं विशेषोऽभिहितो हतानां कुजज्ञवागीशसितासितानाम् । फलं हि वाच्यं ग्रहभक्तितोऽन्यद्यथा यथा घ्नन्ति हताः स्वभक्तिः ॥ २७ ॥
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इति ग्रहयुद्धम् ॥
२२
अथ चन्द्रग्रहसमागमः ॥
वराह:
: - भानां यथासंभवमुत्तरेण यातो ग्रहाणां यदि वा शशाङ्कः । प्रदक्षिणं तच्छुभदं नृपाणां याम्येन याते न शुभं शशाङ्के ॥ १ ॥ चन्द्रमा यदि कुजस्य
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ज्योतिनिवन्धः। यात्युदक् पार्वतीयवलशालिनां जयः । क्षत्रियाः प्रमुदिताः समायिनो भूरिधान्यमुदित्ता वसुन्धरा ॥ २ ॥ उत्तरतः स्वसुतस्य शशाङ्कः पौरजयाय सुभिसकरश्च । सस्यचयं कुरुते जनहार्दी कोशचयं च नराधिपतीनाम् ॥ ३ ॥ बृहस्पतेरुत्तरगे शशाङ्के पौरद्विजक्षत्रियपण्डितानाम् । धर्मस्य देशस्य च मध्यमस्य वृद्धिः सुभिक्षं मुदिताः प्रजाश्च ॥ ४ ॥ भार्गवस्य यदि यात्युदक् शशी कोशयुक्तगजवाजिवृद्धिदः । यायिनां च विजयो धनुष्मतां सस्यसंपदपि चोत्तमा तदा ॥ ५॥ रविजस्य शशी प्रदक्षिणं यदि कुर्यात्पुरभूभृतां जयः । शकबालिकसिन्धुपल्हवाः सुखभाजो यवनैः समन्विताः ॥ ६॥ येषामुदग्गच्छति भग्रहाणां प्रालेयरश्मिनिरुपद्रवश्च । तद्रव्यपौरेतरभक्तिदेशान्पुष्णाति याम्येन निहन्ति तांश्च ॥७॥ शशिनि फलमुदस्थे यद्ग्रहस्योपदिष्टं भवति तदपसव्ये सर्वमेतत्प्रतीपम् ॥ इति शशिसमवायः कीर्तितोऽयं ग्रहाणां न खलु भवति युद्धं साकमिन्दोग्रहः ॥८॥
इति चन्द्रग्रहसमागमः ॥
अथ ग्रहशृङ्गाटकम् ॥ यस्यां दिशि दृश्यन्ते विशन्ति तारा ग्रहा रविं सर्वे । भवति भयं दिशि तस्यामायुधकोपर्धातङ्गैः ॥१।। चक्रधनुःशृङ्गगटकदण्डपुरप्रासादवज्रसंस्थानाः । क्षुदवृष्टिकरा लोके समराय च मानवेन्द्राणाम् ॥ २॥ दृश्यते यत्र खांशे ग्रहमाला दिनकरे दिनान्तगते । तत्रान्यो भवति नृपः परचक्रोपद्रवश्च महान् ॥शायस्मिन्नृक्षे कुर्यः समागमं तज्जनान्ग्रहा हन्युः । अविभेदिनः परस्परममलमयूखाः शिवास्तेपाम् ॥ ४ ॥ ग्रहसंवर्तसमागमसंमोहसमाजसंनिपाताख्याः । कोशश्चेत्येतेषामभिधास्ये लक्षणं सफलम् ॥ ५ ॥ एकः चत्वारः सह पौरैर्यायिनोऽथवा पञ्च । संवतॊ नाम भवेच्छिखिराहुयुतः स संमोहः ॥ ६॥ पौरः पौरसमेतो यायी सह यायिना समाजाख्यः । यमजीवसमाजेऽन्यो यद्यागच्छेत्तदा कोशः ॥७॥ उदितः पश्चादेकः प्राक्चान्यो यदि स संनिपाताख्यः। अविकृततनवः स्निग्धा विपुलाश्च समागमे धन्याः ॥ ८॥ समौ तु संवर्तसमागमाख्यौ संमोहकोशौ भयदौ प्रजानाम् । समाजसंज्ञे सुसमाः प्रदिष्टा चैरप्रकोपः खलु संनिपाते।। ९ ॥ वसिष्ठः-चत्वारः पञ्च वा खेटा बलिनस्त्वेकराशिगाः। राजाहवभयं दद्युरर्घमामयभीतिदाः ॥ १० ॥ यदा प्रतीपगौ खेटौ नृपसंक्षोभदौ तदा । प्रतीपगास्त्रयो यत्र युद्धवृष्टिभयपदाः ॥ ११ ॥ राजान्यत्वं च कुर्वन्ति चत्वारो यदि
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श्रीशिवराजधिनिर्मितोचक्रिताः । प्रतीपगाः पञ्च खेटा राजराष्ट्रविनाशदाः ॥ १२॥* अकः सौरिः कुजः सौरिस्तमः सौरिः कुजो गुरुः। गुरुः सौरिः समायोगो महीनाशाय जायते ॥१३॥पञ्च ग्रहा प्रन्ति चतुष्पदान्वै घट् च ग्रहा नन्ति समस्तभूपान् । सप्त ग्रहा घ्नन्ति समस्तदेशानिहन्ति चाष्टाहकूटयोगः ॥ १४ ॥ त्रिभिः क्रूरैश्चतुःसौन्यैरेकराशिस्थितैर्यदा । ग्रहसंकलितं नाम मेदिन्यां रुधिरं भवेत् ॥ १५ ॥ एकराशौ यदा यान्ति चत्वारः पञ्च खेचराः। प्लावयन्ति महीं सर्वां रुधिरेण जलेन वा ॥१६॥
इति ग्रहशृङ्गाटकम् । इति श्रीज्योतिर्निबन्धे चाराध्यायः समाप्तः ।
अथ मानप्रकरणम् । वसिष्ठः-फलानि संहितोक्तानि मानायत्तानि यत्नतः । सिद्धान्तोक्तानि तान्यादौ ब्राह्मादीनि प्रचक्ष्महे ॥ १॥ पौलिश:-ब्राह्मं दैवं मनोर्मानं पैत्रं सौरं च सावनम् । नाक्षत्रं च तथा चान्द्रं जैवं मानानि वै नव ॥२॥ एषु सावनसौरक्षचान्द्रः स्यात्सर्वकर्मणाम् । सिद्धिरत्राथ वर्षस्य फलं जैवेन गृह्यते ॥३॥ वसिष्ठः-मानं विधातुः खलु नित्यमायुःप्रमाणविज्ञानविधौ च कार्यम् । गीर्वाणमन्वोरपि मानमेवं पैत्रं च मानं शशिनः प्रवृत्तम् ।। ४ ॥ शिरोमणीखखाभ्रदन्तसागरै ४३२००० युगा ४ ग्नि ३ युग्म २ भू १ गुणैः । क्रमेण सूर्यवत्सरैः कृतादयो युगाशयः ॥५॥ सिद्धान्तसार-जलधिभि ४ श्च युगै ४ श्च चतुर्युगं शशिनगै ७१श्चतुर्युगकैर्मनुः । कृतकुभि १४ मनुभिश्च दिनं विधेरिति निशाऽब्दशतायुरथाऽऽत्मभूः ॥६॥ आर्टिषेणिः-पैतामहमहो देवं युगं खाभ्राभ्रभू १००० गुणम् । स कल्पः कथ्यते प्रास्तत्रेन्द्राः स्युश्चतुर्दश ॥७॥ शिरोमणौ-संधयः स्युमनूनां कृताब्दैः समा आदिमध्यावसानेषु तैमिश्रितैः। स्याधुगानां सहस्रं दिनं वेधसः सोऽपि कल्पो धुरात्रं तु कल्पद्वयम् ॥ ८ ॥ शतायुः शतानन्द एवं प्रदिष्टस्तदायुमहाकल्प इत्युक्तमायैः । यतोऽनादिमानेष कालस्ततोऽहं न वेदव्यत्र पद्मोद्भवा ये गतास्तान् ॥ ९ ॥ तथा वर्तमानस्य कस्याऽऽयुषोऽध कथं सार्धवर्षाष्टकं केचिदूचुः । भवत्वागमः कोऽपि नास्योपयोगो ग्रहा वर्तमानघुपातात्प्रसाध्याः ॥१०॥ यतः सृष्टिरेषां दिनादौ दिनान्ते लयस्तेषु
* चत्वारः श्लोकाः ख. पुस्तके न सन्ति ।
१ क, धुयात्म ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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सत्स्वेव तच्चारचिन्ता । अतो युज्यते कुर्वते तान्पुनर्येऽप्यसत्स्वेषु तेभ्यो महो नमोऽस्तु ॥ ११ ॥ याताः षण्मनवो युगानि भ २७ मितान्यन्यद्युगाङ्घित्रयं नन्दाद्रीन्दुगुणास्तथा शकनृपस्यान्ते कलेर्वत्सराः । गोद्रीन्द्रद्रिकृताङ्कन्द खनगगोचन्द्राः शकाब्दान्विताः सर्वे संकलिताः पितामहदिने स्युर्वर्तमाने गताः ॥ १२ ॥ सिद्धान्तसारे स्वयंभूः स्वरोचिर्मनुश्चोत्तमाख्यस्ततस्तामसोवापश्च । स वैवस्वतः ः पञ्च सावर्णिरेवं रुचिर्भूतिरुक्ताविमौ दैवविद्भिः ॥ १३ ॥ मार्कण्डेयःशतं हि तस्य वर्षाणां परमित्यभिधीयते । पञ्चाशद्भिस्तथा वर्षेः परार्थमिति कीर्त्यते ॥ १४ ॥ प्रथमं तत्परार्ध तु यातं तन्मुनिसत्तम । यस्यान्तेऽभून्महाकल्पः पाद्म इत्यभिधीयते || १५ || द्वितीयस्य परार्धस्य वर्तमानस्य वै द्विज । वाराह इति कल्पोऽयं प्रथमः परिकल्पितः || १६ || + नारदः - ग्रहाणां निखिलश्वारो गृह्यते सौरमानतः । वृद्धेर्विधानं स्त्रीगर्भ सावनेनैव गृह्यते ॥ १७ ॥ प्रवर्षणं मेघगर्भ नाक्षत्रेण च गृह्यते । यात्रोद्वाहव्रतक्षौरतिथिवर्षेशनिर्णयः ॥ १८ ॥ पर्ववास्तूपवासादि कृत्स्नं चान्द्रेण गृह्यते । गृह्यते गुरुमानेन प्रभवाग्रब्दलक्षणम् ॥ १९ ॥
इति मानप्रकरणम् ।
अथ संवत्सरप्रकरणम् ।
ज्योतिष्प्रकाशे—शाककालं भजेत्पष्ट्या शेषं स्याव्यावहारिकः । प्रमाथिपूर्वकोऽब्दस्तु तुषारकरमानजः ॥ १ ॥ नन्दात्पष्टिगुणैर्युक्तः ३१७९ शालिवाहनक: शकः । कलेर्गतेन हीनोऽसौ तेनाङ्केन शको भवेत् ।। २ ।। तथा च विक्रमः शाको वेदवेदाभ्रपावकैः ३०४४ | बाणराममहीतुल्य १३५ मन्तरं शकयोर्मतम् || ३ || शाके कङ्गाग्निभूतुल्ये १३६१ माघादौ प्रभवो भवेत् । कभ्रभूक्ष्माङ्ग ६११०१ वर्गोऽब्दभोगोऽब्दादिर्बृहस्पतेः ॥ ४ ॥ श्रीपतिः - शकेन्द्रकाल: पृथगाकृतिघ्नः २२ शशाङ्कनन्दाश्वियुः ४२९१ समेतः । शराद्रिवस्विन्दु१८७५ हृतः सलब्धः षष्ट्याऽऽतशेषे प्रभवादयोऽब्दाः ॥ ५ ॥ नारदः - युगं स्यात्पञ्चभिर्वर्षैर्युगानि द्वादशैव ते । तेषामीशाः क्रमाज्ज्ञेया विष्णुर्देवपुरोहितः ॥६॥ बराहः - विष्णुः सुरेज्यो बलभिद्भुताशस्त्वष्टोत्तराप्रोष्ठपदाधिपश्च । क्रमाद्युगेशाः पितृविश्वसोमशक्रानलाख्याश्विभगाः प्रदिष्टाः ॥ ७ ॥ संवत्सरोऽभिः परिवत्सरोऽर्क
+ श्लोकत्रयं ग. पुस्तके नास्ति ।
१ ग. 'रुक्तोऽन्तिमो' ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोइदाधिपः शीतमयूखमाली । प्रजाधिपश्चाप्यनुवत्सरः स्यादुद्वत्सरः शैलसुताप. तिश्च ॥ ८ ॥ वृष्टिः समाऽऽद्ये प्रमुख द्वितीये प्रभूततोया कथिता तृतीये । पश्चाज्जलं मुञ्चति यच्चतुर्थ स्वल्पोदकं पञ्चममब्दमुक्तम् ॥ ९॥ चत्वारि मुख्यानि युगानि तेषां विविन्द्रजीवानलदैवतानि । चत्वारि मध्यानि च मध्यमानि चत्वारि चान्त्यान्यधमानि विद्यात् ॥ १० ॥ आद्यं धनिष्ठांशमभिप्रवृत्तो माघे यदा यात्युदयं सुरेज्यः । षष्टयब्दपूर्वः प्रभवः स नाना प्रपद्यते भूतहितस्तदाऽब्दः ॥११॥ पैतामहसिद्धान्ते-प्रमाथी प्रथम वर्ष कल्पादौ ब्रह्मणः स्मृतम् । तदाऽपि षष्टिहच्छाके शेपं चान्द्रोऽत्र वत्सरः ॥ १२ ॥ व्यावहारिकसंज्ञोऽयं कालः स्मृत्यादिकर्मसु । योज्यः सर्वत्र तत्रापि जैवो वा नर्मदोत्तरे ॥१३॥ आर्टिषेणिः-स्मरेत्सर्वत्र कर्मादौ चान्द्रं संवत्सरं सदा । नान्यं यस्माद्वत्सरादौ प्रवृत्तिस्तस्य कीर्तिता ॥ १४ ॥ नारदः-प्रभवो विभवः शुक्लः प्रमोदोऽथ प्रजापतिः। अङ्गिराः श्रीमुखो भावो युवा धाता तथैव च ॥ १५॥ ईश्वरो बहुधान्यश्च प्रमाथी विक्रमो वृषः । चित्रभानुः सुभानुश्च तारणः पार्थिवो व्ययः ॥ १६ ॥ सर्वजित्सर्वधारी च विरोधी विकृतिः खरः। नन्दनो विजयश्चैव जयो मन्मथदुर्मुखी ॥ १७ ॥ हेमलम्बो विलम्बश्च विकारी शार्वरी प्लवः । शुभकृच्छोभनः क्रोधी विश्वावसुपराभवौ ॥१८॥ प्लवङ्गः कीलकः सौम्यः साधारण ( णो) विरोधकृत् । परिधावी प्रमादी स्यादानन्दो राक्षसोऽनल: ॥ १९ ॥ पिङ्गलः कालयुक्तश्च सिद्धार्थो रौद्रदुमती । दुन्दुभी रुधिरोद्गारी रक्ताक्षी क्रोधनः क्षयः॥२०॥
' इति संवत्सरनामानि ।
अथ प्रभवादिसंवत्सरफलानि । कचिवृद्धिः कचिद्धानिः कचिदीतिः कचिद्गदः । तथाऽपि मोदते लोकः प्रभवाब्दे विमत्सरः॥१॥ आन्वीक्षिक्यां च निरताः सप्रजाः स्युः क्षितीश्वराः । कर्षकाभिमता वृष्टिविभवाब्दे विवैरिणः ॥ २ ॥ सकलत्रात्मजान्सम्यग्लालयन्त्यखिला जनाः। अमरस्पर्धिनः शुक्लवत्सरे विगतारयः ॥३॥ इतिव्याध्यदि. लोकाः क्षितीशाः कलहोत्सुकाः। प्रमोदाब्दे प्रमोदन्ते तथाऽपि निखिला जनाः ॥ ४ ॥ कीशाः कचिन्न व्रजन्तः स्वाधीना ह्यर्घवृष्टयः । एवं तैर्मोदते होकः प्रजापतिशरद्यतः ॥५॥ अतिथिस्वजनैः साधमन्नं बोभुज्यते मधु ।
१ ख. घ. स्यादीद।
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ज्योतिर्निवन्धः। पेपीयते कामिनीभिरङ्गिारोब्दे निरन्तरम् ॥६॥ श्रीमुखाब्दे दुग्धपूर्णगोकर्णवलयेव भूः । सस्यपीताम्बरा वारिगात्रोतुङ्गपयोधरा ॥ ७ ॥ स्यु भुजो भूभुजेभ्यः प्रभञ्जनथुजः परे । भावाब्दे भ्रमणाब्दौघाः शान्ता भ्रमणलोचनाः ॥ ८॥ युवानो निखिला लोकाः क्षितिश्चापि फलोत्कटा । यूनोऽजस्रं रमयति युवाब्दे युवतीजनः ॥९॥ धात्री धात्रीव लोकानामभया च फलप्रदा। धात्रब्दे धरणीनाथाः परस्परजयोत्सुकाः॥ १० ॥ ईश्वराब्दे स्थिराः क्ष्मेशा जगदानन्दिनी मही । अध्वरे निरता विप्राः स्वस्वमार्गरताः परे ॥११॥ बहुधान्याब्दे बहुभिर्धान्यैः पूर्णाऽखिला धरा । गावः प्रभूतपयसो राजानः स्युर्विवैरिणः ॥ १२ ॥ बलाहका न मुञ्चन्ति कुत्रचित्प्रचुरं पयः । प्रमाथ्यब्दे वीतरागास्तथापि सुखिनो जनाः ॥१३॥ स्रवन्तोऽविरतं स्वच्छं सवन्ति प्रचुरं पयः । विक्रमाब्देऽखिलाः क्ष्मेशा विक्रमाक्रान्तभूमयः ॥ १४ ॥ विविधैरन्नपानाचैहृष्टपुष्टाङ्गतसः । मदोन्मत्ताः खिला लोका वषाब्दे वपसंनिभाः ॥ १५॥ चित्रिता वसुधा चित्रपुष्पवृष्टिफलादिभिः । चित्रभानुशरच्चैषा भाति चित्राङ्गना यथा ॥ १६ ॥ भजन्ते भेषजं भुक्त्वा भूमिं भूरिफलान्विताम् । सुभानुवत्सरे भूमिर्मीमभूपाजिविग्रहा ॥ १७ ॥ प्रतरन्त्युडुपोपायैः सरितोऽर्थाय संततम् । तारणाब्दे त्वतुलिता ह्यर्थवन्तो हि जन्तवः ॥ १८ ॥ पतन्ति करकोपेताः पयोधारा निरन्तरम् । पापादपेतमनसः पार्थिवादे तु पार्थिवाः ॥ १९ ॥ दीप्यते वसुधा वीरभटवारणवाजिभिः । व्यपेतव्याधयः सर्वे व्ययाब्दे तु व्ययान्विताः ॥२०॥ गीर्वाणपूर्वगीर्वाणगर्वनिर्भरचेतसः । सर्वजिद्वत्सरे सर्व उर्वीशा नन्ति भूमिपान् ॥ २१॥ सर्वधारिणि वर्षेऽस्मिअगदानन्दिनी धरा । प्रशान्तवैरा राजानः प्रजापालनतत्पराः॥ २२ ॥ विरोधं सततं कुर्वन्त्यन्योन्यं भूमिपाः प्रजाः । विरोधिकृद्वत्सरे भूर्भूरिवारिधरैर्वृता ॥ २३ ॥ विकृतिः प्रकृतिं याति प्रकृतिर्विकृति तथा । तथाऽपि मोदते लोकश्चास्मिन्विकृतिवत्सरे ॥ २४ ॥ खराब्दे सततं सम्यग् वर्धन्ते पशवः प्रजाः । राजानो विलयं यान्ति परस्परविरोधिनः ॥ २५ ॥ आनन्ददा धराऽजस्रं प्रजाभ्यः फलसंचयैः । नन्दनाब्दे स्वहानिः स्यात्कोशधान्यविनाशैतः ॥२६॥ नश्यते वारिधाराभिः पूर्वकृष्यखिलं फलम् । राजभिश्चावरं सर्व विजयाब्दे जयेच्छुभिः ॥ २७ ॥ शैलोद्यानवनारामफलैरतुलिता मही । जेगीयते वेणुनादैर्जयाब्दे कर्णहार्यलम् ॥ २८ ॥ मन्मथाब्देऽखिला लोकास्तत्केलिरसलो
१ क. 'ब्देनपा । २ ख. घ. 'रोधतः ३ क. °शकृत्
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श्री शिवराजविनिर्मितो
पाः । शालीयवगोधूमैर्नयनाभिनवा घरा ।। २९ ।। दुर्मुखान्देऽग्निरोगाः स्युः प्रचुरानं तथेतयः । राजानः सप्रजास्तुष्टा निःस्वास्ते द्विजसत्तमाः || ३० ॥ हेमलम्बे नृपाः सर्वे परस्परविरोधिनः । प्रजापीडा त्वनर्घत्वं तथाऽपि सुखिनो जनाः ॥ ३१ ॥ विलम्बिवत्सरे राजविग्रहो भूरिवृष्टयः । आतङ्क-पीडितो लोकः प्रभूतं चापरं फलम् ॥ ३२ ॥ विकारिणो विकार्यब्दे पित्तरोगादिभिर्नराः । देवो वर्षति संपूर्ण समुद्ररसनक्षितौ ॥ ३३ ॥ शार्वरीवत्सरे सर्वसस्यवृद्धिरनतमा । राजानो विलयं यान्ति परस्परजयेच्छया ॥ ३४ ॥ चलिताचलसंकाशैः पयोदैरावृतं नभः । दीप्यन्ते सततं भूपाः प्लवाब्दे प्लवगा जनाः ॥ ३५ ॥ राजते पृथिवी सर्वा सततं विविधोत्सवैः । शुभकुद्वत्सरे वृद्धिः प्रजानां पशुभिः सह ॥ ३६ ॥ शोभने बत्सरे सर्वसस्यानामतिवृद्धयः । नृपाणां स्नेहमन्योन्यं प्रजानां च परस्परम् || ३७ ॥ अपि सन्तीतयः क्रोधिन्यब्दे सस्यसमृद्धयः । - दम्पत्योर्वैरमन्योन्यं प्रजानां च परस्परम् ॥ ३८ ॥ सम्यग्विश्वावसावब्दे मध्यसस्यार्घदृष्टयः । प्रचुरं घोररोगाश्च नृपा लोभाकुलीकृताः ॥ ३९ ॥ पराभवाब्दे राजानः प्राप्नुवन्ति पराभवम् । आमयः क्षुद्रधान्यानि प्रभूतानि सुवृष्टयः ॥ ४० ॥ लवङ्गाब्दे सस्यहानिश्चिररोगार्दिता जनाः । मध्यवृष्टिः क्षितीशानां विरोधश्व परस्परम् ॥ ४१ ॥ प्रचुराः पैंत्तरोगाः स्युर्मध्यदृष्टिरहेर्भयम् । कीलकान्दे स्वीतिभयं प्रजाक्षोभः परस्परम् ॥ ४२ ॥ अतिवृष्टिररोगत्वं प्रजाः स्युः स्वस्थचेतसः । सौम्येऽब्दे सततं सर्वे शान्तवैराः क्षितीश्वराः ॥ ४३ ॥ साधारणाब्दे राजानः सुखिनो गतमत्सराः । मजाथ पशवः सर्वे दृष्टिः कर्षकसंमता ॥ ४४ ॥ विरोधकृद्वत्सरे तु परस्परविरोधिनः । राजानो मध्यमा वृष्टिः प्रजाः स्वस्था निरन्तरम् ।। ४५ ।। अनर्थामयरोगेभ्यो भीतिरीतिर्निरन्तरम् । परिधाविनि वर्षे तु नृणां वृष्टिश्च मध्यमा ॥ ४६ ॥ नृपक्रोधो भवत्युग्रः प्रजापीडा त्वनर्घता । तथाऽपि दुःखं नाऽऽमोति प्रमादिवत्सरे जन : || ४७ ॥ आनन्दवत्सरे सर्व जन्तवः पशवः सदा । आनन्दयन्ति चान्योन्यमन्यथा तु कचित्कचित् ॥ ४८ ॥ अनन्ता मध्यफलदा तदधी शाहवोऽन्वहम् । निष्कृपा राक्षसाब्दे तु राक्षसा इव जन्तवः ॥ ४९ ॥ अनलाब्देऽनलभयं मध्यवृष्टिरनर्घता । नृपसंक्षोभ संभूता भूरिभीकरभूमयः ॥ ५० ॥ पिङ्गलाब्दे तु सततं दिक्पूरितघनस्वनाम् । भूभुजः स्वभुजाक्रान्तां भुञ्जते भूसतीं शुभाम् ॥ ५१ ॥ अतिवृष्टिः कालयुक्तवत्सरे सुखिनो जनाः । सन्तीतयोऽपि सस्थानि संपूर्णान्यन्यथा द्रुमाः ।। ५२ ।। सिद्धार्थिवत्सरे
१ क. "चोर"
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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भूषा अन्योन्यस्नेहकाङ्क्षिणः । संपूर्ण सस्याम्बुसुधां दुदुहुर्गा यथा तथा ॥ ५३ ॥ अन्योन्यनृपसंक्षोभ चौरव्याघ्रादिभिर्भयम् । मध्यवृष्टिरनर्घत्वं रौद्राब्दे नैव गौर्जरे ॥ ५४ ॥ दुर्मत्यब्दे दुर्मतयो भवन्त्यखिलभूमिपाः । तथाऽपि सुखिनो लोकाः सङ्ग्रामे निर्जितारयः || ५५ || सर्वसस्येन संपूर्णा धात्री दुन्दुभिवत्सरे । राजभिः पाल्यते पूर्वदेशश्चौरविनाशनम् || ५६ || आहवे निहताः सर्वे भूपा रोगैस्तथा जनाः । तथाऽपि ते प्रजीवन्ति रुधिरोद्गारिवत्सरे ॥ ५७ ॥ रक्ताक्षिवत्सरे सस्यवृद्धिर्वृष्टिरनुत्तमा । प्रेक्षन्ते सर्वदाऽन्योन्यं राजानो रक्तलोचनाः ॥ ५८ ॥ क्रोधनान्दे मध्यदृष्टिः पूर्वसस्यं न तु कचित् । संपूर्णमितरत्सर्व सर्वे क्रोधपरा जनाः || ५९ ॥ कार्पासगन्धतैलेक्षुमधु सस्यविनाशनम् । क्षीयमाणाश्वापि नरा जीवन्ति क्षयवत्सरे || ६० || आनन्दादिर्भवेद्ब्रह्मा भावादिर्विष्णुरुच्यते । जयादिर्जायते रुद्रो विंशत्या च क्रमाद्भवेत् ॥ ६१ ॥
इति संवत्सरफलम् |
अथ राजादीनां निर्णयः ।
रत्नावल्याम् – दर्शप्रतिपत्सन्धौ चैत्रादौ यो भवेद्वारः । सोऽब्दप उक्तस्त्वपरैः प्रतिपदि मध्याह्नकाले यः ॥ १ ॥ बहुभिः कीर्तितो राजा रवेरुदयकालिकः । तत्र भूपद्वयं वृद्धौ भूपाभावस्तिथिक्षये || २ || चैत्रसितप्रतिपदि यो वारोऽकदये स वर्षेशः । उदयद्वितये पूर्वो नोदययुगलेऽपि पूर्वः स्यात् || ३ || दर्शा - न्तेऽनयेऽपि च स पूर्वराजस्तदागमविरोधः । यस्माच्चैत्रसितादेरुदयाद्भानोः प्रवृत्तिरब्दादेः || ४ || ब्रह्मगुप्तः -- चैत्रसितादेरुदयाद्भानोर्दिनमासयुगकल्पाः । सृष्ट्यादौ लङ्कायां समं प्रवृत्ता दिनेऽर्कस्य ॥ ५ ॥ गर्गः - अमाप्रतिपदोः सन्धिर्मध्याह्नापूर्वतो यदि । तदा तद्दिनपो राजा परतश्चेत्परो भवेत् || ६ || ज्योतिष्फलोदयेचैत्रस्य शुक्लप्रतिपत्तिथौ यो घारः स उक्तो नृपतिस्तदाब्दे । मेषप्रवेशः किल भास्करस्य यस्मिन्दिने स्यात्स तु राजमन्त्री ॥ ७ ॥ कर्कप्रवेशे दिनपः स उक्तो सस्यस्य नाथो मुनिभिः पुराणै: । आर्द्राप्रवेशे दिननाथ उक्तो मेघाधिपः प्राक्तनविप्रवर्यैः ॥ ८ ॥ तुलाप्रवेशेऽहनि यस्य वारो रसाधिपोऽयं नियतं प्रदिष्टः । चापप्रवेशे दिवसाधिनाथो धान्याधिपो वै कथितो मुनीन्द्रैः ॥ ९ ॥ चैत्रादिमेषचापार्द्रातुलाकर्कदिनेश्वराः । नृपमन्त्रिधान्यतोयर ससस्याधिपेश्वराः
॥ १० ॥
इति राजादिनिर्णयः ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
अथ राजफलम् ।
सूर्यस्य राज्ये जलहीनता स्यात्पयोधराणां महती च पीडा । जनस्य चोराः फलपुष्पमल्पं भवेत्तरूणां कलहो नृपाणाम् || १ || सोमस्य राज्येऽखिललोकगेहे कल्याणकार्याणि गवां विवृद्धिः । वृष्टिः प्रभूता वहुसस्यसंपत्सौख्यं जनो विन्दति रोगहीनः || २ || भौमस्य राज्येऽग्निभयं धरित्री सस्येन हीना क्वचि देव वृष्टिः । चौराः प्रभूता मनुजेश्वराणां स्याद्विग्रहोऽन्योन्यजयाय नूनम् ॥ ३ ॥ बुधस्य राज्ये धनधान्यसंकुलं महीतलं वृष्टिरनुत्तमा च । जना विवाहोत्सवय - ज्ञकाङ्क्षिणः सुभिक्षमस्मिन्बहुवातवृष्टिः || ४ || जीवस्य राज्ये कनकाम्बुधारावृष्टिश्च गावो बहुदुग्धयुक्ताः । विप्राः सदा यज्ञमहोत्सवेन प्रहृष्टचित्ताः फलपुष्पसंपत् ॥ ५ ॥ शुक्रस्य राज्ये सरितस्तडागा वाप्यश्च कूपाः परिपूर्णतोयाः । प्रभूतधान्यं फलिताच वृक्षा गावः सुदुग्धाः सुखिनश्च लोकाः || ६ || मन्दस्य राज्ये सकृदेव वृष्टिर्जने गदवोरकृता च पीडा । नृपा विनाशं युधि संप्रयान्ति दुर्भिक्षमुग्रं फलपुष्पहानिः ॥ ७ ॥
३०
अथ मन्त्रिफलम् ।
सूर्ये प्रधाने ज्वलिता धरत्री क्षुधाभिभूतं जगदल्पसस्यम् । महता रोगभयं जनानां युद्धं नृपाणामतुलं न वृष्टिः ॥ १ ॥ सोमे प्रधानेऽभ्युदयं व्रजन्ति प्रजा महीशा बहुधा च वृष्टिः । शालीक्षुगोधूमगवां विवृद्धिर्यज्ञक्रियायां निरता द्विजाः स्युः || २ || भौमे प्रधाने काचदेव वृष्टिर्धान्यं मह ज्वलन - कोपः । स्यात्तस्कराणामनयोऽतिघोरः प्रजेश्वरा युद्धविधायिनः स्युः ॥ ३॥ gr प्रधाने कमलेक्षुदुग्धगोधूमसंपत्प्रचुरा च वृष्टिः । कीलालधान्यानि पचेलिमानि नरेश्वराणामपि कोशवृद्धिः || ४ || जीवे प्रधाने मुदिताश्च सर्वे लोकाः सुभिक्षं प्रचुरं विलोक्य | अनर्घता स्याद्वहुसस्यसंपन्महीरुहाणामतुला च वृद्धिः ॥ ५ ॥ शुक्रे प्रधाने प्रचुराम्बुवर्षी सुराधिनाथः सुखिनश्च सर्वे । गावो यथा कामदुघा नृपाणामतीव सौख्यं प्रचुरं च धान्यम् || ६ || मन्दे प्रधाने ऽखिललोकपीडा वह्नेर्भर्थं धान्यविनाशनं च । रोगाभिभूता जनता न पश्येत्सौख्यं तथाऽस्मिन्न तिहीनवृष्टिः ॥ ७ ॥
अथाग्रधान्येशफलम् ।
खण्डा वृष्टिः सस्यहानिर्जनानां व्याधिर्युद्धं भूभुजां दारुणं च । चोरक्रीडा
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ज्योतिर्निबन्धः। दृश्यते सस्यनाथः सूर्यो यस्मिंस्तत्र गोदुग्धनाशः ॥ १ ॥ सस्यं समर्घ प्रचुराम्बुवृष्टिः सर्वाणि धान्यानि पचेलिमानि । जनाश्च सर्वे सुखसंप्रयुक्ताः सस्याधिपो यत्र निशाकरः स्यात् ॥ २ ॥ रोगाभिभूतं जगदस्ति सर्व महर्घधान्यानि न वारि भूरि । वह्नभयं तस्करजं कचित्स्यात्सस्याधिनाथे धरणीतनूजे ॥३॥ मही च सर्वा सलिलेन पूर्णा भयं विनष्टं च सुखी जनः स्यात् । नवानि धान्यानि फलैर्युतानि सस्याधिनाथो यदि चन्द्रजः स्यात् ॥ ४ ॥ आनन्दयुक्ता जनता पयोदाः सुदृष्टियुक्ताः फलपुष्पसंपत् । धान्यानि सर्वाणि शुभानि यत्र सस्याधिनाथः सुरराजमन्त्री ॥ ५ ॥ रोगमुक्ता निर्भयाः सर्वलोकाः पच्यन्ते वा सर्वधान्यानि नूनम् । वृक्षाः शश्वत्पुष्पिता भूरिवृष्टिः सस्याधीशो यत्र दैत्येन्द्रमन्त्री ॥ ६॥ धान्यक्षयः कोशविहीनता स्यानरेश्वराणामपि मन्दवृष्टिः । हुताशभीतिः प्रचुरामयः स्यात्सस्याधिनाथोऽर्कसुतो यदा स्यात् ॥ ७ ॥
-~--
____अथ मेघेशफलम् । दिव्यभ्रजालं पिहितार्कमिन्द्रः क्वचिज्जलं वर्षति मूषकतिः । महीरुहाः पुष्पफलैर्विहीना मेघाधिपो यत्र. दिवाकरः स्यात् ॥ १॥ नदीतडागादिषु भूरितोयमतीव धान्यं प्रबला जनाश्च । शालीक्षुगोवारिचराभिवृद्धिर्मेघाधिपो यत्र निशाकरः स्यात् ॥ २॥ वातः प्रचण्डोऽग्निभयं जनानामवृष्टिभीत्याकुलितं च धान्यम् । व्याधिप्रकोपोपहताश्च सर्वे मेघाधिपो यत्र धरातनूजः॥३॥ कृषीश्वराभीष्टकृदम्बुवृष्टिर्मही लतापुष्पफलैः प्रपूर्णा । अस्त्यामयः कापि कलिनुपाणां मेघाधिपो यत्र हिमांशुपुत्रः ॥ ४ ॥ पश्चाजलं भूरि महेश्वराणामन्योन्यमैत्री कलहः कचित्स्यात् । धर्मक्रियायां निरता जनाः स्युर्मेधाधिपो यत्र सुरेन्द्रमन्त्री ॥ ५॥ नित्योत्सवानन्दितमानसानां गहे द्विजानां धनधान्यसंपत् । गीर्वाणनाथो बहुवृष्टिकर्ता मेघाधिपो यत्र च भार्गवः स्यात् ॥ ६ ॥ न कापि वृष्टिधरणीश्वराणां कोशोऽल्पकः शीतभयं क्वचिच्च । अभूरि धान्यं प्रचुरामयश्च मेघाधिपो यत्र रवेः सुतः स्यात् ॥ ७ ॥
अथ रसाधिपफलम् । कार्पासतैलेक्षुगुडादिकानां महर्घता शीतभयं जनानाम् । वापीतडागादिषु तुच्छमम्बु रसाधिनाथो दिनकृयदा स्यात् ॥ १॥ गावो बहुक्षीरमभिस्रवन्त्यो
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
वत्सोत्सुकाः सस्यभुजोऽतिपुष्टाः । यज्ञक्रियायां निरताच विमा रसाधिनाथो हिमकृद्यदा स्यात् ॥ २ ॥ सुवर्णरूप्यादि निगूढभावं प्रयाति कीलालमतीव तुच्छम् । मध्वाज्यपूगादि महर्षयुक्तं रसाधिनाथो यदि भूमिजः स्यात् ॥ ३ ॥ जम्बूमधूकामलका पुष्पलतानिकुञ्जायभिवृद्धियुक्तम् । कासारवापीतडधान्यसंपद्रसाधिपे स्याद्रजनीशपुत्रे || ४ || चामीकरं स्यात्सुलभं तथाऽऽज्यं कौशेयकार्पासगुडाम्बराणि । सुखेन लभ्यान्यतिवारिवृष्टिर्यदा सुरेज्यो रसनायकः स्यात् ॥ ५ ॥ गवां विवृद्धिर्लवणेक्षुलाक्षाकांस्यातसी वस्त्रघृतादिकानाम् । समfascia जलस्य वृष्टी रसाधिपो यत्र च दैत्यमन्त्री || ६ || नीलीगजोर्णापटलोहजातं समर्घतामेति रसा महार्घाः । बलारिरल्पं सलिलं ददाति रसाधिनार्थोऽर्कसुतो यदा स्यात् ॥ ७ ॥
३२
अथ पश्चिमधान्येशफलम् ।
नृपा मिथो विग्रहकारिणः स्युर्धान्यस्य तोयस्य च नैव वृद्धिः । स जनानां ज्वरजा च पीडा धान्याधिपो यत्र दिवाकरः स्यात् || १ || सुभिक्षसंदर्शनजातहर्षाः प्रजेश्वराः कोशविवृद्धियुक्ताः । गावो बहुक्षीरदुधा भवन्ति धान्याधिपो यत्र निशाकरः स्यात् ॥ २ ॥ वह्नेर्भयं व्याधिभयं कचिच्च पयोविहीना जलदा मही स्यात् । फलैर्न पूर्णा विदुषां विरोधो धान्याधिपो यत्र धरातनूजः ॥ ३ ॥ गोधूमशालीक्षुयवादिकानां विद्वज्जनानामपि वृद्धिरस्ति । वेदाभ्यासरता द्विजेन्द्रा धान्याधिपो यत्र हिमांशुपुत्रः ॥ ४ ॥ यज्ञक्रियायां निरता द्विजाः स्युर्गावो बहुक्षीरयुता महिष्यः । सुभिक्षद्वर्षति देवनाथो धान्याधिपो यत्र सुरेन्द्रमन्त्री ॥ ५ ॥ गृहे गृहे मङ्गलयज्ञकार्य महीरुहाणां फलपुष्पसंपत् । सुभिक्षमुच्चैर्बहु वर्षतीन्द्रो धान्याधिपो यत्र भृगोः सुतः स्यात् ॥ ६ ॥ शचीपतिर्वर्षति नैव तोयं व्याधेर्भयं चास्ति सुभिक्षमल्पम् । भ्रमन्ति लोकाः परितो भयार्ता धान्याधिपो यत्र च सौरिरस्ति ॥ ७ ॥
अथ विश्वानयनम् ।
रामनिघ्ने शके सप्तभक्ते मुहुर्द्वनशेषं शरैः संयुतं कारयेत् । पूर्ववदृष्टिरन्नं च शीतं तृणं चाऽऽतपो मारुतो जन्तुवृद्धिक्षयौ विग्रहः ॥ १ ॥ शाके च वेदगुणिते सप्तभिर्भागमाहरेत् । शेषं तु द्विगुणीकृत्य रूपं चैव तु मिश्रितम् ॥ २ ॥ क्षुधा
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ज्योतिर्निबन्धः।
तृपा तथा निद्रा आलस्योद्यम एव च । शान्तिः क्रोधस्तथा दण्डो भेद इष्टस्तथैव च ॥ ३ ॥ ततस्तु रसनिष्पत्तिः फलनिष्पत्तिरेव च । उत्साहः सर्वलोकानां ज्ञातव्यो निश्चितं बुधैः॥ ४॥
अथ प्रकारान्तरम् ॥ शाकः सागरताडितो नवहतो लब्धं निधाय कचिच्छेपं दसहतं शशाङ्कसहित क्षुत्तृट् सुषुप्तिः क्रमात् । आलस्यं तत उद्यमश्च कथितः शान्तिस्तथा क्रोधयुग्दण्डो मैत्रमथोत्सवश्च गदितः पापं च पुण्यं तथा ॥१॥शकाब्दं वसुभिनिघ्नं नवभिर्भागमाहरेत् । शेषं तु द्विगुणीकृत्य त्रिभिर्युक्तं च कारयेत् ॥ २॥ उग्रं रसः फलोत्पत्तिव्याधिश्च व्याधिनाशनम् । सदाचारोऽप्यनाचारो मरणं जन्म एव च ॥३॥ देशोपद्रवः स्वास्थ्यं च चौरकुलभयं तथा । चौरोपशमनं चाग्निभयं सान्यं क्रमेण च ॥ ४ ॥ त्रिघ्नः शाकः सप्तभक्तावशिष्टं द्विघ्नं युक्तं पञ्चभिः स्यात्क्रमेण । आपो धान्यं कक्षशीतोष्णवायुर्वद्धिाशो विग्रहो लब्धतोऽपि ॥५॥ शाका गुरुयुग्राशियुक्तं तेन शकात्फलम् । तत्संख्याको भवेद्धर्मः पापं तन्न्यूनविंशतिः ॥६॥
अथाऽऽयव्ययानयनम् ॥ रवेरङ्गानि ६ चन्द्रस्य तिथयो १५ ष्टौ ८ कुजस्य च । स्यात्यष्टि १७ गुरोरेकोनविंशति १९ रथो भूगोः ॥ १॥ एकविंशतिराख्याता २१ मन्दस्य दशसंमिताः । राहोदश १२ वर्षाणि दशायाः कथितानि च ॥ २ ॥ स्वस्वामिवर्षाधिपवत्सरैक्यं त्रि ३ नं शरा ५ व्यं तिथि १५ भक्तशेषम् । आयोत्थलब्धिस्त्रिगुणार्थयुक्ता तिथ्याप्त १५ शेषो व्ययसंज्ञकः स्यात् ॥ ३॥
इति संवत्सरादिप्रकरणम् ।
अथ मासप्रकरणम् । श्रीपतिः--मधुस्तथा माधवसंज्ञकश्च शुक्रः शुचिश्चाथ नभोनभस्यौ । तथेष अर्जश्च सहःसहस्यौ तपस्तपस्याबिति ते क्रमेण ॥ १ ॥ नारदः- यस्मिन्मासे
१ क. "विहाय ।
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३४
श्री शिवराजविनिर्मितो
पौर्णमासी येन धिष्ण्येन संयुता । तन्नक्षत्राहृयो मासः पौर्णमासी तदाह्वया ॥ २ ॥ तत्पक्षौ दैवपित्र्याख्यौ शुक्लकृष्णौ तु तावुभौ । शुभेऽशुभे कर्मणि च प्रशस्तौ भवतः सदा || ३ || ज्योतिष्प्रकाशे - चान्द्रो दर्शावधिर्मासः सावनः खत्रिवासरैः । सौरोऽर्कराशिभोगेन नाक्षत्रो विधुभभ्रमात् ॥ ४ ॥ वसिष्ठः— सावनं स्याद्दिनं भानोरुदयादुदयं भवेत् । तदेव भूदिनं वारस्तदेशार्कोदियादितः ॥ ५ ॥ भास्करः – वेश्चक्रभोगोऽर्कवर्ष प्रदिष्टं रात्रं तु देवासुराणां तदेव । रवीन्द्रोर्युतेः संयुतिर्यावदन्या विधोर्मास एतच्च पित्र्यं युरात्रम् ॥ ६ ॥ गर्गः - पौर्णमास्यवसानः स्यान्मासो दैवऋतुस्तथा । दर्शान्तो मानुषो होतो विन्ध्यादुत्तरयाम्यगी ||७|| परिशिष्टे – इन्द्राग्नी यत्र हूयेते मासादिः स प्रकीर्तितः । अग्नीषोमो तथा मध्यं मासान्तः पितृसोमकौं || ८ || आष्टिषेण:-- दर्शान्तो वैदिको मासो राकान्तः स्मार्त उच्यते । पौराणो हरिघस्रान्तः सौर उत्पत्तिपूर्वकः ॥ ९ ॥ विवाहादौ स्मृतः सौरो यज्ञादौ सावनः स्मृतः । वार्षिके पितृकार्ये च मासश्चान्द्रो विधीयते ॥१०॥ स्कान्दे – सौरमाभ्युदये मासं चान्द्रं तु पितृकर्मणि । यज्ञे सावनमित्याहुरा सर्वतेषु च ॥ ११ ॥ |पतामहः- -आयुर्दायविभागश्च प्रायश्चित्तक्रिया तथा । सावनेनैव कर्तव्या शत्रूणामप्युपासनम् ॥ १२॥ यथा पाण्डवैः कौरवाणाम् । शिरांमणौवर्षायनर्तुयुगपूर्वकमत्र सौरान्मनात्तथा च तिथयस्तु हिमांशुमानात् । यत्कृच्छ्रसूतकचिकित्सितवासराद्यं तत्सावनौद्यघटिकादिकमार्क्षमानात् ॥१३॥ ज्योतिष्प्रकाशे— तुलादिसंक्रमात्पट्टे गोलौ स्तो दक्षिणोत्तरौ । तथा ककिंमृगान्पद्वे याम्यसौम्यायने क्रमात् ॥ १४ ॥ श्रीपतिः - मृगादिराशिद्वय भानुभोगात्पद् चर्तवः स्युः शिशिरो वसन्तः । ग्रीष्मश्च वर्षाऽथ शरच्च तद्वद्धेमन्तनामा कथितोऽत्र षष्ठः ॥ १५॥ गृहप्रवेशत्रिदशप्रतिष्ठा विवाहचौलव्रतबन्धपूर्वम् । सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्गर्हितं तत्खलु दक्षिणे स्यात् ॥ १६ ॥
1
इति मासप्रकरणम् ।
अथ तिथिप्रकरणम् ।
संहिताप्रदीपे -- सर्वत्र कार्येषु शुभाशुभेषु पृच्छन्ति लोकास्तिथिमेव पूर्वम् । न कापि योगं करणं ग्रहान्वा तस्मात्तिथेर्मुख्यतरत्वमिष्टम् || १ || अर्काद्विनिसृतः प्राचीं यद्यात्यहरहः शशी । तच्चान्द्रमान शैस्तु ज्ञेया द्वादशभिस्तिथिः ॥ २ ॥ क्रमातिथीशा ब्रह्माग्री विरिश्चिर्विष्णुशैलजे । विनायकयमौ नागचन्द्रौ स्कन्दोऽर्क
१६. "स्तदेशा' । २.क. 'न्मासानया । ३ . ख. ग. "नाव" ।
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ज्योतिर्निबन्धः। वासवौ ॥ ३ ॥ महेशो वसवो नागदुर्गे दण्डधरादयः । शिवो विश्वे हरिरवी कामः शर्वकली ततः ॥ ४ ॥ शिवो विश्वे दर्शसंज्ञतिथीशाः पितरः स्मृताः । कामोमयोः केचिदूचुरधिपस्तु धनाधिपः ॥ ५॥ ज्योतिष्प्रकाशे-स्वस्वदेवप्रतिष्ठायां मन्त्रसंग्रहणे तथा । पवित्रदमनारोपे ग्राह्या तत्तत्तिथिर्बुधैः ॥ ६ ॥ श्रीपतिः- नन्दा च भद्रा च जया च रिक्ता पूर्णेति सर्वास्तिथयः क्रमात्स्युः। कनिष्ठमध्येष्टफलास्तु शुक्ले कृष्णे भवन्त्युत्तममध्यहीनाः ॥ ७॥ वृद्धिः सुमङ्गलपदा च बला खला च लक्ष्मीवती त्वथ यशा परतश्च मित्रा । तद्वद्धला सुमहती तिथिरुग्रकर्मा स्याद्धर्मिणी प्रतिपदादि तथैव नन्दा ॥ ८ ॥ क्रमाधशोवत्यपराजयोग्रा सौम्याह्वया पञ्चदशी तिथिश्च । फलानि नाम्ना सदृशानि तासां महर्षिभिनूनमुदाहृतानि ॥ ९॥ दैवज्ञवल्लभे--ज्ञानाप्तिदे कर्मणि पौष्टिके च ध्रुवे च शस्ता प्रतिपत्पादिष्टा । व्यायामशिल्पौषधमङ्गलेषु यात्राविवाहादिषु च द्वितीया ॥ १०॥ बीजोप्तिदास्यासवसंप्रयोगे ज्ञेया तृतीयोग्रविधौ चतुर्थी । माङ्गल्यकृत्येषु च पञ्चमी स्यात्षष्ठी ध्रुवे कर्मणि न प्रयाणे ॥ ११ ॥ ध्रुषं प्रयाणाभरणादिकेषु स्यात्सप्तमीष्टाऽखिलमङ्गलेषु । सेनासु यन्त्रादिषु चाष्टमीष्टा पापोग्रसिद्धौ नवमी वरिष्ठा ।। १२ ॥ दशम्यभीष्टा गमने प्रवेशमाङ्गल्यकर्मस्विह पौष्टिके च । एकादशी मङ्गलसिद्धये च ध्रुवक्रियायां च महानसे च ॥ १३ ॥ ध्रुवे सपाणिग्रहणे निधाने स्याद्वादशी सिद्धिकरी न याने । त्रयोदशी कर्मणि मङ्गलाये क्षिमे च सौभाग्यविधौ ध्रुवे च ॥ १४ ॥ चतुर्दशी सिद्धिकदुग्रकार्ये नं तु प्रयाणे न खलु प्रवेशे । माङ्गल्ययज्ञादिषु पौर्णमासी दर्शो न शस्तः पितृकर्म मुक्त्वा ॥ १५ ॥ नारदः-अष्टमी द्वादशी षष्टी चतुर्थी च चतुर्दशी । तिथयः पक्षरन्ध्राख्या दुष्टास्ता अतिनिन्दिताः ॥ १६॥ चतुर्थमनुरन्ध्रान्तत्त्वसंज्ञास्तु नाडिकाः । त्याज्या दुष्टासु तिथिषु पञ्चस्वपि च सर्वदा ॥१७॥ अमावास्यां च नवमीं त्यक्त्वा विषमसंज्ञिताः। तिथयः सुप्रशस्ताः स्युर्मध्यमा प्रतिपत्सिता ॥१८॥ दर्शे षष्ठयां प्रतिपदि द्वादश्यां प्रतिपर्वसु । नवम्यां च न कुर्वीत कदाचिद्दन्तधावनम् ॥ १९ ॥ षष्ठयां तैलं तथाऽष्टभ्यां मांसं क्षौरं तिथौ कलेः । पूर्णिमादर्शयो रीसेवनं परिवर्जयेत् ॥ २० ॥ व्यतीपाते च संक्रान्तावेकादश्यां च पर्वसु । अर्कभौमदिने षष्ठयां नाभ्यङ्गो न च वैधृतौ ॥ २१॥ यः करोति दशम्यां च स्नानमामलकैः सह । पुत्रहानिर्भवेत्तस्य द्वितीयायां न संशयः ॥२२॥ अर्थपुत्रक्षयस्तस्य द्वितीयायां न संशयः । अमायां च नवम्यां च सप्तम्यां च कुल
१ क. ख. घ. स्वस्य दे° । २ क 'म्यादया । ३ क. सुयात्रादि' ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोक्षयः॥ २३॥ वसिष्ठः- चतुर्दश्यष्टमी कृष्णा त्वमावास्या च पूर्णिमा । पुण्यानि पञ्च पर्वाणि संक्रान्तिदिवसश्च यः॥२४॥ श्रीपतिः-एकान्तरा दिनकरे तिथयो द्वितीयापूर्वान्त्यचाधटयोर्घटकोक्षयोश्च । काजयोमिथुनकन्यकयोश्च कीटहयोस्तुलामकरयोश्च भवन्ति दग्धाः ॥२५॥ मासदग्धासु तिथिषु कृतं यन्मङ्गलादिकम् । तत्सर्व नाशमायाति ग्रीष्मे कुसरितो यथा ॥२६॥ श्रीपतिःआद्याश्चतस्त्रः क्रियपूर्वकाणामेषां चतुर्णामिह पञ्चमी स्यात् । परा परेषां परतस्तथैव सङ्करराशेरशुभा तिथिः स्यात् ।। २७॥ एकस्मिन्वासरे तिस्रस्तिथयः सा क्षया तिथिः । तिथिरित्रयेऽप्येका त्वधिका द्वेऽतिनिन्दिते ॥ २८ ॥ गर्गः---- सूर्योदये यथा तारा विलयं यान्ति खस्थिताः । तथा शुभानि कर्माणि क्षयवृद्धितिथौ ध्रुवम् ॥ २९ ॥ दोषद्वयमिदं जातु गुणैरन्यैर्न हन्यते । तथाऽपि सबले भानी लाभस्थे वा तथा विधौ ॥ ३० ॥ नारदः-तिथेः पञ्चदश भागाः क्रमात्पतिपदादयः । क्षणसंज्ञास्तदर्धानि तासामर्धप्रमाणतः ॥ ३१ ॥ भूषाल:कूष्माण्डं बृहती क्षारं मूलकं पनसं फलम् । धात्रीं शिरःकपालान्त्रनखचमतिलानि च ॥ ३२ ॥ क्षुरकर्माङ्गनासेवा प्रतिपत्प्रभृति: त्यजेत् । उप्रलोकगतिप्रेप्सुरायुष्कामश्च मानवः ॥ ३३॥
इति तिथिप्रकरणम् ।
अथ वारप्रकरणम् । श्रीपतिः-सूर्यादितः शिवशिवागुहविष्णुकेन्द्रकालाः क्रमेण पतयः कथिता ग्रहाणाम् । वह्नयन्बुभूमिहरिशक्रशचीविरिश्चिस्तेषां पुनर्मुनिवरैः प्रतिदेवताश्च॥१॥ राहोरधिपतिः कालः प्रत्यधीशो भुजङ्गमः । तथा केतोश्चित्रगुप्तः स्वयम्भूक्रषिभिः स्मृतः ॥ २ ॥ रविः स्थिरः शीतकरश्वरश्च महीज उग्रः शशिजश्च मित्रः । लघुः सुरेज्यो भृगुजो मृदुश्च शनिश्च तीक्ष्णः कथितो मुनीन्द्रः ॥ ३ ॥ पुंग्रहा जीवसूर्यारा बुधमन्दौ नपुंसकौ । स्त्रीखगौ चन्द्रशुक्रौ च सजलौ तौ च कीर्तितौ ॥ ४ ॥ जीवशुक्रौ तु विप्रेशौ क्षत्रियेशौ कुजोष्णगू । ज्ञः शूद्राणां विशां चन्द्रो ह्यन्त्यज़ानां शनिः स्मृतः ॥ ५ ॥ नारद:-नृपाभिषेकमाङ्गल्यसेवायानास्त्रकर्म यत् । औषधाहवधान्यादि विधेयं भानुवासरे ॥ ६ ॥ शङ्खमुक्ताम्बुरजतवृक्षेक्षुस्त्रीविभूपणम् । पुष्पगीतक्रतुक्षीरकृषिकर्मेन्दुवासरे ॥ ७ ॥ विषाग्निवन्धनस्तेयसंधि
१ ख. 'नपतौति । घ. नपतौदिवसादि । २ क. स्तुि । ३ क. पझषयो', ४ क. योश्चमिथुनावलयोगेन्द्रकोप्यौस्तु ।
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ज्योतिनिबन्धः । विग्रहकर्षणम् । धात्वाकरप्रवालादिकर्म भूमिजवासरे ॥ ८॥ नृत्यशिल्पकलागीतलिपिभूरससंग्रहम् । विवादधातु संग्रामकर्म कुर्याद्विदोऽहनि ॥ ९ ॥ यज्ञपौष्टिकमाङ्गल्यस्वर्णवस्त्रादिभूषणम् । वृक्षगुल्मलतायानकर्म देवेज्यवासरे ॥१०॥ नृत्यगीतादिवादित्रस्वर्णस्त्रीरत्नभूपणम् । भूपण्योत्सवगोधान्यवाजिकर्म भृगोदिने ॥ ११ ॥ त्रपुसीसायसाश्मादि विषपापासवानृतम् । स्थिरकाखिलं वास्तुसंग्रहः सौरिवासरे ॥ १२॥ रक्तवर्णो रविश्चन्द्रो गौरो भौमस्तु लोहितः । दूर्वावर्णो बुधो जीवः पीतः श्वेतस्तु भार्गवः ॥ १३ ॥ कृष्णः सौरिः स्ववारेषु स्वस्ववर्णक्रियाः शुभाः । यस्मिन्वारे तु यत्प्रोक्तं तद्धोरावर्गयोः शुभम् ॥१४॥ श्रीपतिः - सोमसौम्यगुरुशुक्रवासराः सर्वकर्मसु भवन्ति सिद्धिदाः । भानुभौमशनिवासरेषु तु प्रोक्तमेव खलु कर्म सिध्यति ॥ १५ ॥ गर्गः-ग्रहस्योपचयस्थस्य वारे कार्य प्रसिध्यति । नैवापचयसंस्थस्य यत्नादपि कृतं नरैः ॥ १६॥ श्रीपतिः-वारप्रवृत्तिं मुनयो वदन्ति सूर्योदयाद्रावणराजधान्याम् । ऊर्च तथाऽधोऽप्यपरत्र तस्माच्चरार्धदेशान्तरनाडिकाभिः ॥ १७ ॥ चरार्धदेशान्तरयोर्वियोगयोगोत्थयाऽऽनीय पलैश्च सम्यक् । सूर्योदयादूर्ध्वमृणे धनेऽधो वारप्रवृत्ति मुनयो वदन्ति ॥ १८ ॥ महेश्वरः-होरेशा रविवर्जितोदयलवाः पञ्चेन्दुभिभाजिता नाड्यो दस्रहता हृताश्च विपयरेवं हि कैश्चित्स्मृताः । प्रोक्तोऽयं गणनाक्रमो दिनपतेोरेश्वराणां बुधैर्तिण्डास्फुजिदिन्दुपुत्रहिमकृत्सोरेज्यपृथ्वीसुताः ॥ १९ ॥ आर्टिषणिः-वारप्रवृत्तेर्या याता नाड्यः सूर्योदयादपि । द्विघ्नाः पञ्च हृता होराः स्ववारात्पूर्ववत्क्रमात् ॥ २०॥ माण्डव्यः-लाक्षाकोसम्भमाञ्जिठरागेऽकः स्वर्णकाचयोः । भौमश्चन्द्रश्च मुक्ताब्जे शनिलॊहाश्मनोमतः ॥ २१ ॥ गर्गः--लाक्षाकौसुम्भमाजिष्ठरागे काञ्चनभूषणे । प्रशस्तौ भौममार्तण्डौ रविजो लोहकर्मणि ॥ २२ ॥ नारद:-अभ्यक्तो भानुवारे यः स नरः क्लेशवान्भवेत् । ऋक्षेशे कान्तिमान्भौमे व्याधिः सौभाग्यमिन्दुजे । जीवे नैव्यं सिते हानिर्मन्दे सर्वसमृद्धिता ॥ २३ ॥ यस्य खेटस्य यत्कर्म वारे प्रोक्तं विधीयते ॥ २४ ॥ तल्लग्ने तस्य होरायां तस्य तत्कर्म सर्वदा । भूपालः-वारस्त्रिघ्नोऽत्र हृच्छेपेऽस्यैकः स्यादर्धयामकः । मैन्दवारोत्तरे भागे कुलिको येकको निशि ॥ २५ ॥ युपतेभीमजीवाभ्यां संख्या या द्विगुणा भवेत् । तत्क्षणे कण्टको जीवकुलिकोऽन्यो
१ क. सैकः स्या' ख. प. सैकेस्या । २ क. मन्देवारोत्त' ख. मन्दवारोत्तो भौमे ग. मन्देवेलोत ३ ग. व्येयको।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोविकुर्निशि ॥ २६ ॥ उद्वेगाऽमृतनामा च रोगा लाभा शुभा वला । कलिर्नामानि वेलानां होरावत्सूर्यतः क्रमात् ॥ २७ ॥
इति वारप्रकरणम् ।
अथ योगप्रकरणम् । नारद:-योगेशा यमविष्ण्विन्दुधातृजीवनिशाकराः । इन्द्रतोयाहिवयर्कभूमिरुद्राङ्गतोयपाः ॥ १ ॥ गणेशरुद्रधनदत्वष्टमित्रषडाननाः । सावित्री कमला गौरी नासत्यौ पितरो दितिः ॥ २॥ सवैधतिय॑तीपातो महापातावुभौ सदा। परिघस्य तु पूर्वार्ध सर्वकार्येषु गर्हितम् ॥ ३॥ विष्कम्भे घटिकास्तिस्रो नव व्याघातवज्रयोः । गण्डातिगण्डयोः पट् च शूले पञ्च न शोभनाः॥४॥ नारदःलिखेदूर्ध्वगतामेकां तिर्यग्रेखास्त्रयोदश । तत्र खार्जुरिके चक्रे कथितं मूर्ध्नि भं न्यसेत् ॥५॥ भान्येकरेखागतयोः सूर्याचन्द्रमसोर्मिथः । एकार्गलो दृष्टिपातश्चाभिजिवर्जितानि वै ॥६॥ गण्डे मूलं मृगं शूले विष्कम्भे च तथाऽश्विनीम् । मैत्रं पेटकेऽन्तिमे त्वाष्ट्र व्याघाते दितिभं न्यसेत् ॥ ७॥ वने पुष्यं व्यतीपाते सार्प च परिघे मघाम् । एकार्गलं पतङ्गन्द्वोरेकरेखास्थयोयसेत् ॥ ८॥ साध्यहर्षणशूलान्त्यगण्डपातान्तसंस्थितम् । धिष्ण्यं चण्डायुधं शैवं शुभकार्ये विवर्जयेत् ॥९॥ लल्लः-विंशतिर्दियुतोत्पत्तौ भ्रमणे चैकविंशतिः। पतने दश नाड्यस्तु पतिते सप्त नाडिकाः ॥ १०॥ फलं लक्षघ्नमुत्पत्तौ भ्रमणे कोटिरुच्यते । पतने दश कोट्यस्तु पतिते दानमक्षयम् ॥ ११ ॥ सर्वेषां पुण्यकालानां व्यतीपातो विशिष्यते । तत्राणुमात्रं यद्दत्तं तदनन्तफलप्रदम् ॥ १२ ॥ विनाडीभिदशमी रहितं घटिकाद्वयम् । योगप्रकरणे योगाः क्रमात्ते सप्तविंशतिः ॥ १३ ॥
इति योगप्रकरणम् ।
अथ करणप्रकरणम् । नारदः-इन्द्रः प्रजापतिर्मित्रस्त्वर्यमा भूर्हरिप्रिया । कीनाशः कलिरुद्राख्यौ तिथ्यधैशास्त्वहिमरुत् ॥ १॥ बवादिवणिगन्तानि शुभानि करणानि षट् । परीता विपरीता वा विष्टिर्नेष्टा तु मङ्गले ॥२॥ स्थिराणि मध्यमान्येषां नेष्टे नागचतुष्पदे । रत्नकोशे-कुर्याद्ववे शुभचरस्थिरपौष्टिकानि धर्मक्रिया द्विज
१ ग. षष्ठेन्ति । २ क. ख. घ. 'र्गलः प.। ३ ग. 'नि शुभकर्मसु । अशुभेषु स्थिराण्येव वि,
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ज्योतिर्निवन्धः। हितानि च बालवाख्ये । सिध्यन्ति मित्रचरणानि च कौलवाख्ये सौभाग्यसंश्रयगृहाणि च तैतिलाख्ये ॥३॥ कृषिबीजगृहाश्रयजानि गरे वणिजे ध्रुवकार्यवणिग्युतयः । न हि विष्टिकृतं विदधाति शुभं परघातविषादिषु सिद्धिकरम् ॥ ४ ॥ कार्य पौष्टिकमौषधानि शकुनी मूलानि मन्त्रास्तथा गोकार्याणि चतुष्पदे द्विजपितूनुद्दिश्य कार्याणि च । नागे चैव सुदारुणानि हरणं सौभाग्यकर्माण्यतः किंस्तुघ्ने शुभपुष्टिवृद्धिकरणं माङ्गल्यकर्माणि च ॥ ५॥ वसिष्ठः-- वधबन्धविषाग्न्यस्त्रच्छेदनोच्चाटनादि यत् । तुरङ्गमहिषोष्ट्रादिकर्म विष्टयां च सिध्यति ॥ ६ ॥ श्रीपतिः- जलशिखिशशिरक्षाशर्वकीनाशवायुत्रिदशपतिककुप्सु प्रोक्तमास्यं हि विष्टेः । नियतमृषिभिराशासंख्ययामः क्रमेण स्फुटमिह परिहार्य मङ्गलेष्वेतदेव ॥ ७॥ दैवज्ञवल्लभे मन्वा १४ ष्ट ८ मुनि ७ तिथ्य १५ ब्धि ४ दिग्रु १० द्र ११ त्रि ३ मितासु च । तिथिष्वायाति पूर्वादेर्निन्द्याऽग्रे पृष्ठतः शुभा ॥ ८॥ नारदः-मुखे पञ्च गले त्वेका वक्षस्येकादश स्मृताः । नाभौ चतस्रः षट् श्रोणौ तिस्रः पुच्छाख्यनाडिकाः ॥ ९ ॥ दैवज्ञवल्लभे-मुखे कार्यहानिर्गले प्राणनाशो हृदि द्रव्यनाशः कलिर्नाभिदेशे । कटावर्थविध्वंसनं पुच्छभागे जयश्चेति भद्राशरीरे फलं स्यात् ॥ १ ॥ भृगुः-पृथिव्यां यानि कर्माणि शोभनान्यशुभानि च । तानि सर्वाणि सिध्यन्ति विष्टिपुच्छे न संशयः ॥ ११ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-चतुर्युकादशीरात्रौ शुक्ले पूर्णाष्टमीदिवा । भद्रा त्रिदशमीरात्री कृष्णे ह्यद्रिमनौ तिथौ ॥ १२ ॥ सप्तर्षयः-क्रमायाताऽक्रमायाता भद्रा त्याज्या सदा बुधैः । तस्या वक्त्रे मतिर्मध्ये हानिः पुच्छे जयो भवेत ॥ १३ ॥ आर्टिषेणिः-भानि सार्धाब्धयः सूर्याः सार्धगोजाः क्रमोत्क्रमात् । क्रमाद्भद्रासु पुच्छं स्यादाभ्यो नाडीत्रयं परम् ॥ १४ ॥ भद्राङ्गन्यासघटिकाः पष्टितिथिभोगपक्षे न्यूनाधिकत्वे न्यूनाधिका ज्ञेयाः । श्रीपतिः-दैत्येन्द्रः समरेऽमरेषु विजितेष्वीशः क्रुधा दृष्टवान्सा कोपात्किल निर्गता खरमुखी लागूलिनी च त्रिपात् । विष्टिः सप्तभुजा मृगेन्द्रगलका क्षामोदरी प्रेतगा दैत्यत्री मुदितैः सुरैस्तु किरणप्रान्ते नियुक्ता सदा ॥ १५ ॥ उद्बद्धोद्भटतरपिण्डिकाऽतिकृष्णा दंष्ट्रोग्रा पृथुहनुगल्लदीर्घनासा । कार्यनी हुतवहलक्षमुद्गिरन्ती विश्वान्तः पतति समन्ततोऽत्र विष्टिः ॥ १६ ॥
इति करणप्रकरणम् ।
१. भवृष्टि । २ ध. 'छोऽध्यादि ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
अथ नक्षत्रप्रकरणम् ।
ज्योतिष्प्रकाशे – भेशा दस्रयमौ वह्निकेन्द्रीशादितयो गुरुः । भुजङ्गपितृयोन्याख्यार्यमार्कत्वष्टृवायवः ॥ १ ॥ वह्नीन्द्रौ मित्रशक्रौ च रक्षोऽन्यो विश्ववैष्णवम् । वस्वम्बुपाजपादाहिर्बुध्न्यपूपाभिधाः क्रमात् || २ || नारदः – वस्त्रोपन - यनक्षौरसीमन्ताभरणक्रियाः । स्थापनाऽश्वेभयानास्त्र कृषिविद्यादयोऽश्विमे ॥ ३॥ वापीकूपतडागादिविषशस्त्रोग्रदारुणम् । विलप्रवेशगणितनिक्षेपा याम्यमे शुभाः || ४ || अग्न्याधानास्त्रशस्त्रोग्रसन्धिविग्रहदारुणाः । सङ्ग्रामौपधवादित्रक्रियाः शस्ताच वह्नि || ५ || सीमन्तोन्नयनोद्वाहवस्त्रभूषास्थिरक्रियाः । गजवास्त्वभिषेकाच प्रतिष्ठा ब्रह्मभे शुभाः || ६ || प्रतिष्ठाभूषणोद्वाहसीमन्तोन्नयनक्रियाः । क्षौरवास्तु गजाश्वोष्टृयात्राः शस्ता चन्द्रभे || ७ || ध्वजतोरणसङ्ग्रामप्राकारास्त्रक्रियाः शुभाः । संधिविग्रहवैतानरसाढ्या रौद्रभे शुभाः ॥ ८ ॥ प्रतिष्ठायानसीमन्तवस्त्रवास्तूपनायनम् | क्षौराश्वकर्मादिति विधेयं धान्यभूषणम् ॥ ९ ॥ यात्राप्रतिष्ठासीमन्तव्रतवन्धप्रवेशनम् । करग्रहं विना सर्व कर्म देवेज्यभे शुभम ॥ १० ॥ अनृतव्यसनद्यूतक्रोधास्त्रविषदाहकम् । विवदरसवाणिज्यकर्म कgजभे शुभम् || ११ || कृषिवाणिज्यगोधान्यरणोपकरणादिकम् । विवाहनृत्यगीताद्यं निखिलं कर्म पैतृभे || १२ || विवादविपशस्त्राग्निदारुणोग्राहवादिकम् | पूर्वात्रयेऽखिलं कर्म कर्तव्यं मांसविक्रयः ॥ १३ ॥ वस्त्राभिषेकसीमन्तविवाहव्रतवन्धनम् । प्रवेशस्थापनाश्वेभवास्तुकर्मोत्तरात्रये ॥ १४ ॥ प्रतिष्ठोद्वाहसीमन्तयानं वस्त्रोपनायनम् | क्षौरवास्त्वभिषेकाश्च भूषणं कर्म भानुभे ॥ १५ ॥ प्रवेशवस्त्रसीमन्तप्रतिष्ठाव्रतबन्धनम् । त्वाष्ट्र वास्तुविद्याथ क्षौरभूषणकर्म यत् ।। १६ ।। प्रतिष्ठोपनयोद्वाहवस्त्रसीमन्तभूषणम् । विवाहाश्वेभकृष्यादि क्षौर कर्म समीरभे ।। १७ ।। वस्त्रभूषणवाणिज्य वसुधान्यादिसंग्रहम् । इन्द्रानि नृत्यगीतशिल्पलेखनकर्म च ॥ १८ ॥ प्रवेशस्थापनोद्वाहव्रतबन्धाष्टमङ्गलम् । वस्त्रभूषणवास्त्वर्थो मित्रभे संधिविग्रहौ || १९ ॥ क्षौरास्त्रशस्त्र वाणिज्यगोमहिष्यम्बु कर्म यत् । इन्द्रभे नृत्यगीताद्यं शिल्पलोहाश्मलेखनम् || २० || विवाहकृषिवा णिज्यदारुणाहवभेषजम् । निर्ऋतौ नृत्यशिल्पास्त्रसंधिविग्रहलेखनम् || २१ | प्रतिष्ठाक्षौरसीमन्तयानोपनयनौषधम् । पुरारामगृहारम्भं विष्णुभे पट्टवन्धनम् ॥ २२ ॥ वस्त्रोपनयनक्षौरप्रतिष्ठायानभेषजम् । वसुभे वास्तुसीमन्तप्रवेशाश्वेभ भूषणम् || २३ || प्रवेशस्थापन क्षौर मौञ्जीवन्धनभेषजम् । अश्वाभरणसीमन्तवास्तुकर्म जलेशभे || २४ || विवाहव्रतवन्धाश्च प्रतिष्ठायानभूषणम् । प्रवेशव . १ व "वाहर' ।
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ज्योतिनिबन्धः।
स्त्रसीमन्तक्षौरभेषजमन्त्यभे ॥ २५ ॥ आर्टिपेणिः -- ध्रुवं स्थिरं स्मृतं ब्राह्म व्युत्तरा रविवासरः । चरं चलं त्रयं कर्णात्स्वात्यादित्यं च चन्द्रमाः ॥ २६ ॥ क्रूरमुग्रं मघा यान्यं पूर्वात्रितयकं कुजः । मिश्रं साधारणं प्रोक्तं विशाखाकृचिके बुधः ॥ २७ ॥ लघु क्षिप्रं च हस्ताविन्यभिजिद्गुरुभं गुरुः । मृदु मैत्रं मृगश्चित्राऽनुराधा रेवती सितः ॥ २८ ॥ दारुणं तीक्ष्णमाश्लेपा ज्येष्ठाऽऽर्दा मूलमर्कजः । नक्षत्रेवेषु कमाणि नामतुल्यानि कारयेत् ॥ २९ ॥ भूपाल:-- ध्रुवभैः शान्तिपोष्टयाख्यं गृहग्रामद्रुमादिकम् । बीजौषधाभिषेकादि ध्रुवकर्म प्रशस्यते ॥ ३०॥ चरे तु गजगोश्वादिदमनं सेतुबन्धनम् । प्रयाणारामकार्य च चरकर्म हितावहम् ॥ ३१ ॥ क्रूरः विषमद्यादि बन्धनोच्चाटनादि च । शत्रुप्रहारशस्त्रादि कुर्यादुग्रं च सिद्धये ॥ ३२ ॥ मिश्रक्षयोः प्रकुर्वीत यत्क्रूरैर्दारुणैः स्मृतम् । अग्निकार्य वृषोत्सर्ग मिश्रकर्म शुभावहम् ॥ ३३ ॥ मित्रः मित्रकायाणि गृहग्राममवेशनम् । रतिभूषावस्त्रगीतमङ्गलादि प्रशस्यते ॥ ३४॥ तीक्ष्णतारासु बेतालभूतमन्त्राभिचारिकम् । विघातरौद्रसंत्रासतीक्ष्णकर्म हितं भवेत् ॥ ३५ ॥ नारदः-पूर्वत्रयाग्निमूलाहिद्विदैवत्यमघान्तकम् । अधोमुखं तु नवकं भानां तत्र विधीयते ॥ ३६॥ विलप्रवेशगणितभूतद्यूतविलेखनम् । खननं शिल्पकूपादिनिक्षेपोद्धरणादि यत् ॥ ३७॥ मित्रेन्द्रत्वाष्ट्रहस्तेन्द्रादित्यान्त्याश्विनवायुभम् । तियङ्मुखास्यं नवकं भानां तत्र विधीयते ॥ ३८ ॥ हलप्रवाहगमनं गन्त्रीयन्त्रखरोष्टकम् । खरगोरथनौयानलुलायहयकर्म च ॥३९॥ ब्रह्मविष्णुमहेशार्यवसुपाश्युत्तरात्रयम् । ऊर्ध्वास्यं नवकं मानां तेषु कर्म विधीयते ॥४०॥ पुरहस्येगृहारामवारणध्वजकमे च । प्रासादवेदिकोद्यानपाकाराय च सिद्धये ॥४शालल:-क्षिपचरध्रुवमृदौ देवा स्थापनं सदा कार्यम् । वास्तुनिवेशो मृदुभिर्धवैश्च कार्यो विवाहोऽपि ॥४२॥ क्षिपचरैः प्रस्थानं प्रवेशनं स्यात्तु मृदभिश्च । क्रूरोअभेषु शस्त्रक्षाराग्निविषप्रयोगश्च ॥ ध्रुवमृदुभिः क्षिप्रचरैर्धिष्ण्यैरपि भेषजं कार्यम् । वस्त्रालंकारविधिः स्नानं च तथा नवान्नं च ॥ ४४ ॥ क्रूरोग्रस्थिरमृदुषु क्षिप्रेषु चैव धिष्ण्येषु । वृक्षाणामारोपश्छेदनमथ तक्षणं चैव ॥४५॥ आरोग्रमेषु कुयाव्द्यालग्रहणं रिपुप्रशमनं च । वन्धनवधसंत्रासं हननानि च पाशजालं च ॥ ४६॥ शस्त्राणामपि करणं विधारणं विक्रयं तथा दानम् । संस्कारश्चापि तथा कर्मसु संयोजनं वाऽपि ॥ ४७ ॥ रत्नकोशे-आाऽऽश्लेषा मूलं मघाभरण्योरिनदेवतविशाखे । यात्रावस्त्रापरणं क्षुरकर्म च वर्जयेदेषु ॥ ४८ ॥
१ध. मित्रान्त्ये वाष्ट्रसेन्दादित्येन्दाश्चि ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
तीक्ष्णेषु पशून्गमयेद्दत्तमृणं ध्रुवेषु संग्राह्यम् । पशुपोषणं विधेयं चरेषु दीक्षाग्रतं मृदुषु ॥ ४९ ॥ श्रीपतिः - अन्धकं तदनु मन्दलोचनं मध्यलोचनमतः सुलोचनम् । रोहिणीप्रभृतिभं चतुर्विधं नूनमत्र गणयेत्पुनःपुनः ॥ ५० ॥ देवज्ञवमे --- अन्धे सद्यो वस्तु नष्टं हृतं यल्लभ्यं दूरान्मन्दनेत्रे च कष्टात् । श्राव्यं द्रव्यं मध्यनेत्रे सुनेत्रे नैव श्राव्यं नैव लभ्यं कदाचित् ॥ ५१ ॥ भूपालः - तद्यात्यन्धैर्दिशं पूर्वी केकरैर्दक्षिणां पुनः । पश्चिमी चिपिटैर्धिष्ण्यै दिव्यदृष्टिभिरुत्तराम् ॥ ५२ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - पुष्यः परकृतं हन्ति न तु पुष्यकृतं परः । दोषं यद्यष्टमोऽपीन्दुः पुण्यः सर्वार्थसाधकः ।। ५३ ।। उलः - ग्रहरहितः सहितो वा प्रत्यरिनैधनविष करो वाऽपि । पाणिग्रहणं मुक्त्वा पुष्यः सर्वार्थसिद्धिकरः ॥ ५४ ॥ श्रीपतिः - सिंहो यथा सर्वचतुष्पदानां तथैव पुष्यो बलवानुडूनाम् । चन्द्रे विरुद्धेऽप्यथ गोचरे वा सिध्यन्ति कार्याणि कृतानि पुष्ये ।। ५५ ।। ग्रहेण विद्धोऽप्यशुभान्विaise विरुद्धतारोऽपि विलोमगोऽपि । करोत्यवश्यं सकलार्थसिद्धिं विहाय पाणिग्रहमेव पुष्यः ॥ ५६ ॥ ललः– शिखिशिखिरसशरगुणशशिकृतगुणरसविषययमलयमविषयाः शैशिशशिकृतयुगगुण शिवयुगगुणदहनजलधिशतयमलाः ||५७||यमलरदाः साभिजितास्तारासंख्येयमाश्विनादीनाम् । तारामितैरहोभिर्मासैरब्दैश्व फलपाकः || ५८ || ३ | ३| ६ | ५ | ३ । १ । ४।३ । ६ । ५ । २ । १ ५ । १ । १ । ४ । ४ | ३ | ११ | ४ | ३ | ३ | ४ | १०० । २ । २ । ३२ ॥ श्रीपतिःतुरगमुखसदृक्षं योनिरूपं क्षुराभं शकटसममथैणस्योत्तमाङ्गेन्न तुल्यम् । मणिगृहशरचक्राभानि शालोपमं भं शयनसदृशमन्यच्चात्र पर्यङ्करूपम् ॥ ५९ ॥ हस्ताकारमतश्च मौक्तिकसमं चान्यत्प्रवालोपमं धिष्ण्यं तोरणवत्स्थितं मणिनिभं सत्कुण्डलाभं परम् । क्रुध्यत्केसरिविक्रमेण सदृशं शय्यासमानं परं चान्यद्दन्तिविलासवत्स्थितेंमितः शृङ्गाटकव्यक्ति च ॥ ६० ॥ त्रिविक्रमाभं च मृदङ्गरूपं वृत्तं ततोऽन्यद्यमद्वयाभम् । पर्यङ्कन्तुल्यं मुरजानुकारमित्येवमश्वादिभचक्ररूपम् ॥ ६१ ॥ रत्नकोशे - हुतवहदेवं पूर्वास्तिस्रोऽपि विषगणस्य भानि स्युः । स्तिस्रस्तथोत्तरा नृपगणस्य पुष्यश्च विज्ञेयः ॥ ६२ ॥ हस्तोऽभिजिदश्विन्यः पुनर्वसुश्चेति वणिजां स्युः । पत्र्यं पौष्णं मैत्रं प्राजापत्यं च कर्षकजनस्य ॥ ६३ ॥ सेवकजनस्य चित्रा सौम्येन्द्रवासवं च चत्वारि । मूलं रौद्रं स्वाती वारुणमपि चोग्रजातीनाम् ॥ ६४ ॥ चाण्डालानां भरणी सार्प चेन्द्राग्निविष्णुदैवं च । सप्तानां जातीनामेभ्यः सदसत्फलं ज्ञेयम् ॥ ६५ ॥ उमायामले - उल्काभि
१ क स च । २. 'मविधि । ३ व 'शशिक । ४ . नि
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ज्योतिर्निवन्धः।
घातेन तमोविभूत्या वक्रातिचारेण सुतो धरित्र्याः । केतुर्गतिस्पर्शनधूमनैश्च वारेण पीडां कुरुतेऽर्कपुत्रः ॥ ६६ ॥ नारदः--या दृश्यते दीप्ततारा सा गणे योगतारका । विषवृक्षोऽश्विभो याम्ये धिष्ण्ये चाऽऽमलकस्तरुः ॥ ६७ ॥ उदुम्बरो वह्निधिष्ण्ये कमे जम्बद्रमो भवेत् । इन्दभात्खदिरो जातः कलिवृक्षस्तु रुद्रभात् ॥ ६८ ॥ संभूतोऽदितिभाशः पिप्पलः पुष्यसंभवः । स्वात्यादर्जुनो जातो द्विदैवत्याद्विकङ्कतः ॥६९॥ मित्रभाद्धकुलो जातो लक्ष्मीः पौरंदरक्षजा । मूलात्सर्जवृक्षश्च बकुलो वारिधिष्ण्यजः ।। ७० ॥ पनसो वैश्वभाज्जातो स्वर्कक्षस्तु विष्णुभात् । वसुधिष्ण्याच्छमी जाता कदम्बो वारुणर्मजः ॥ ७१ ॥ अजैकपाच्चूतवृक्षोऽहिर्बुध्न्यात्पिचुमन्दकः । मधुवृक्षः पौष्णधिष्ण्याद्विष्णुवृक्षं प्रपूजयेत् ॥ ७२ ॥ अरियोनिश्चारिवक्षः पीडनीयः प्रयत्नतः । ज्योतिष्प्रकाशेयस्मिन्भे यच्च कर्मोक्तं कार्य तस्योदये च तत् । वारोक्तं तस्य होरायां लग्नोक्तं तन्नवांशके ॥७३॥
इति नक्षत्रप्रकरणम् ।
अथ शुद्धनक्षत्रविचारः। संहिताप्रदीपे-सर्वत्र कार्येषु हि शोभनेषु नक्षत्रशुद्धिं मृगयन्ति पूर्वम् । यत्कर्म यस्मिन्करणीयमुक्तं तत्तत्र देयं विदुषा विदित्वा ॥ १ ॥ विद्धं व्योमचरैर्विभिनमपि यल्लत्ताहतं राहुणा युक्तं क्रूरयुतं विमुक्तमथ यद्भोग्यं तथोपग्रहैः । दुष्टं यद्ग्रहणोपगं पशुपतेश्चण्डायुधेनाऽऽहतं चोत्पातग्रहयुद्धपीडितमथो यद्भूमितं केतुना ॥ २॥ पश्चात्संध्यागतं चोक्त्वाऽभिहतं पापदूषितम् । यच्चैकार्गलविद्धं तत्पीडितं में विनिर्दिशेत् ॥ ३॥ श्रीपति:-क्रूरैर्युक्तं क्रूरगन्तव्यमृक्षं क्रूराक्रान्तं क्रूरविद्धं च नेष्टम् । यच्चोत्पातैर्दिव्यभौमान्तरिक्षैदृष्टं तद्वत्क्रूरलत्ताहतं च ॥ ४ ॥ संहिताप्रदीपे-दोपैरमीभिर्यदुपद्रुतं तत्तावन्न दृष्टं शुभकर्मणीष्टम् । यावन भुक्त्वा शशिना विमुक्तं ततो भवेन्मङ्गलकर्मणीष्टम् ॥ ५॥ इत्थं भदोपे तुहिनांशुभागैर्विशुद्धिरेषा किल सद्भिरुक्ता । सा वर्तमाने किमुत व्यतीते न भूयसामत्र मतैक्यमस्ति ॥ ६॥ यथैकचाण्डालधृतैकहस्तः स्नातोऽपि नूनं न विशुद्धिमेति । तथैव पापग्रहयोगदुष्टधिष्ण्यं न शस्तं शशिनाऽपि भुक्तम् ॥ ७॥ स्पृष्ट्वा गते तु चाण्डाले शुद्धिराप्लवनाद्यथा । तथा भुक्त्वा गते क्रूरे चन्द्रभोगो विशोधनम् ॥ ८ ॥ यथा शरीरं परिपीडयन्गदः प्रयाति नाशं प्रहितमहोपधैः । तथैव
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१५. केतो' । २ ख. 'प्णधित यं प्र' ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोपापग्रहयोगदूषितं विनाशमायाति मृगाङ्कभोगतः ॥ ९ ॥ यथा विषं योगमवाप्य भेषजैनणां भवेद्भुक्तमलं सुखावहम् । तथेन्दुसंभोगमवाप्य तारकं शुभग्रहयुक्रमपि प्रजायते ॥१०॥ संहिताप्रदीपे-इत्थं मिथो भिन्नमतं वचोभिर्विसंवदन्ति व्यवहारदक्षाः । प्रशाम्यते थेन च यश्च दोपस्तं पूर्वशास्त्रानुमतेन वक्ष्ये ॥११॥ पश्चात्संध्यासंस्थित खेटयुद्धोत्पातैदुष्टं धूमितं केतुना च । उल्कापातादुष्टमुल्काहतं वा भिन्नं चैषां चन्द्रभोगेण शुद्धिः ॥ १२ ॥ सक्रूरचन्द्रयोगेण शुद्धमुत्पातदूषितम् । सूर्ययुक्तं सदा शुद्धं धिष्ण्यभोग विना विधोः ॥ १३ ॥ नक्षत्रमर्केण समन्वितं यत्तदंशुघातात्समुपैति पीडाम् । तेनोज्झितं स्याद्विमलं नितान्तं कृशानुतापादिव जातरूपम् ॥ १४ ॥ राहुमुक्तं त्रिभिोंगेः शुद्धं पड्भिर्ग्रहोपगम् । चतुर्भिः शनिभोगेन दुष्टं द्वाभ्यां कुजेन च ॥ १५॥ द्वाभ्यां धरित्रीतनयेन दुष्टं त्रिभिः सराहुग्रहणोपयातम् । पद्भिश्चतुर्भिः शनिभोगदुष्टं शुद्धं भवेत्तत्तु हिमांशुभोगः ॥ १६ ॥ कक्री खगश्चेत्पुनरेति दग्धं तत्पूर्वमृशं न हि धूमितं स्यात् । तदप्यतिक्रन्य यदेति पूर्व सङ्करदोषेऽपि विनाऽस्ति तस्य ॥ १७ ॥ पक्षान्तरेण ग्रहणद्वयं स्यायदा तदाऽऽद्यग्रहणोपभङ्गम् । पश्चाविरुद्धं भवति द्वितीयं ग्रहोपगं शुध्यति भोगषट्रात् ॥ १८ ॥ एकस्मिन्नपि धिष्ण्ये भिन्ने राशौ खलग्रहे शशिनि । तच्चन्द्रः कुर्याद्विवाहयात्रादिकं सर्वम् ॥ १९॥
इति नक्षत्रशुद्धिः ।
अथ वेधविचारः । लल:-चक्रे सप्तशलाकाख्ये वेधः सर्वसु कर्मसु | त्याज्य एव विवाहे च तथैव पश्चरेखजः ॥ १॥ हैमेन लोहदण्डेन दुःखं तुल्यं हि ताडनात् । तथैव सदसद्विद्धो दोषोऽशुभस्तयोः समः ॥ २ ॥ ●रविमुक्तं दग्धं क्रूरयुतं ज्वलितधूमित पुरतः। एकशलाकाग्रुचरं सवेधमक्षं विजानीयात् ॥ ३॥ माण्डव्यः-विद्धे दग्धे ज्वलिते सधूमिते चापि चन्द्रः । यात्राप्रवेशमङ्ग लविवाहकर्माणि नेष्यन्ते ॥ ४ ॥ धिष्ण्यं सौम्यग्रहैर्विद्धं पादमात्रं परित्यजेत् । क्रूरैस्तु सकलं त्याज्यमिति वेधविनिश्चयः ॥ ५ ॥ वैद्यनाथ:-वेधमाद्यं तयोरट्यारन्योन्यं द्वितृतीययोः। क्रूरैरपि त्यजेत्पादं केचिदूचुर्महर्षयः ॥६॥ विवाहवृन्दावने-विश्लेपमायाति यथाऽसुभिः स्वैरेणः शरेणैकदिशि क्षतोऽपि । तथाऽङ्घ्रिधादपि तारकाणां नरस्य नश्येद्धलसस्यसंपत् ॥ ७ ॥ संहिताप्रीपे -- तत्रैकरेखास्थितखेचरं यद्विद्धं तदाहुः खचरेण धिष्ण्यम् । केचिद्विचिन्वन्ति च पादवेधं सम
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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स्वमेवाशुभमाहुरन्ये ॥ ८॥ यथा शरेणावयवैकदेशे विद्धे तु तन्न क्षमतामुपैति । तथैव धिष्ण्यं खचरेण विद्धं न शोभनं शोभनकर्मणि स्यात् ॥ ९ ॥ पटस्य देशेऽल्पतरेऽपि दग्धे दग्धः पटो यद्वदिति प्रसिद्धिः । तथैव पादे हि नभश्वरेण किद्धे भवेद्विद्धमशेषमृक्षम् ॥ १० ॥ नक्षत्रवेधे यदि पादवेधस्तदङ्घ्रिवेधाद्घटिकासु वेधः । नाडीव्यधे स्याद्विघटीषु चैनं भानां तदा क्वापि न चास्ति वेधः ॥ ११ ॥ छिद्येत शाखा यदि काचिदर्भवेत्तदानीं किमशेषनाशः । एवं स एवाशुभदो ग्रहेण यो विध्यतेऽन्ये चरणाः शुभाः स्युः ॥ १२ ॥ पादे विद्धे चेदनिष्टं भवेद्धं तत्संयोगाद्राशिरेवाशुभः स्यात् । तेनाप्येवं योगतो राशिचक्रं माङ्गल्यं तत्कर्म कार्य कथं स्यात् ॥ १३ ॥ अत्रैवमृक्षं यदसद्गृहेण विद्धं न शस्तं सकलं तु यावत् । प्रागुक्तसंख्यार्धहिमांशुभोगस्ततो विचिन्त्यः खलु पादवेधः ॥ १४ ॥ प्रागुक्तसंख्यार्धमेतत् | भौमस्य १ | शनेः २ । राहो ः १ | केतोश्च १ । यथा शरेणावयवे विभिन्ने नरोऽक्षमः सन्पटुरौषधैः स्यात् । हित्वा तथैवावयवं तथेन्दुभोगाछुभं भं चरणस्तु दुष्टः || १५ || धिष्ण्ये शुभेन शुचरेण विद्धे विद्धस्तु पादः परिवर्जनीयः । शेषं शुभं विद्धि विनेन्दुभोगं समस्तमेवाशुभकर्म विद्धम् ॥ १६ ॥ एका लोपग्रह भैरवास्त्रैर्लताहतं भं सदसद्ग्रहेण । तस्यापि पादं परिहार्य दुष्टं शेषेषु सत्कर्म कृतं हितं स्यात् ॥ १७ ॥ त्नकोशे - विषप्रदग्धेन हतस्य पत्रिणा मृगस्य मांसं सुखदं क्षतादृते । यथा तथाऽत्रायुडुपाद एवं प्रदूषितोऽन्यत्रितयं शुभावहम् ॥ १८ ॥ राजमार्तण्ड : - यस्मिन्पादे ग्रहस्तिष्ठेच्छुभो वा यदि वाऽशुभः । तेनाङ्घ्रिणा भपादो यो विद्धो नेष्टः परे शुभाः ॥ १२ ॥ लल्ल - बालग्रहदृष्टिपाताद्यद्वलक्ष्यं भिनत्ति धानुष्कः । समपादगतचैवं वेधेनाङ्घ्रि प्रदूषयति ॥ २० ॥ इति नक्षत्रवेधः ।
अथ पीडित नक्षत्रापवादः ।
कश्यपः
:- रव्यङ्गारकभास्करिभोगापन्नं विधूमितं शिखिना । ग्रह भिन्नं ग्रहयुद्धं सोपप्लुतमुल्क याऽभिहतम् || १ || ग्रहणगतं चैव तथा पश्चात्संध्यागतं च विद्धर्क्षम् । त्रिविधोत्पातैर्दुष्टं पीडितमृक्षं विजानीयात् ॥ २ ॥ फलप्रदीपे - तत्सूर्येन्द्रो - भोगात्कर्मण्यत्वं प्रयाति भूयोऽपि । धिष्ण्यं कर्म विशुद्धं तापनिकषात्सुवर्णमिव ||३|| यदूतिं भं खचरेण येन तदग्रतो वा सुरराजमन्त्री | शुक्रो यदा वा यदि रौहिणेयस्तदा विशुद्धं किल धूमितं स्यात् || ४ || ज्योतिष्प्रकाशे-दोषैर्मुक्तं तु
१ . शुभंस्था' । २६ निकल्नु ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
नक्षत्रं कर्मयोग्यं च तद्भवेत् । भानुना शशिना वाऽपि भुक्तं सौम्यग्रहैरपि ॥५॥ इति पीडितनक्षत्रापवादः ।
अथ मुहूर्तप्रकरणम् ।
भूपाल : -- दिवा क्षणा: स्यू रुद्राहिमित्राः पितृवसूदकम् | विश्वेऽभिजिब्रह्मशक्रेन्द्राग्निकोणेशपाशिनः ॥ १ ॥ अर्थमा भग इत्येते रात्रेरीशा जयादितः । दश भेशा रुद्रहीना हरीनत्वष्टृवायवः || २ || यस्मिन्भे यच्च कर्मोक्तं तत्तन्नाथमुहूर्तकैः । दिक्शूलाद्यं चिन्तनीयं तद्वद्दण्ड पारिघः ॥ ३ ॥ श्रीपतिः--अर्य - म्णोऽर्के तुहिन किरणे राक्षसब्राह्मसंज्ञौ पित्राग्नेयौ क्षितिसुतदिने चन्द्रपुत्रेऽभिजिच्च । पित्र्यब्राह्म्यौ भृगुसुतदिने राक्षसाप्यौ च जीवे भौजङ्गेशौ सवितृतनये वर्ज -
मुहूर्ती ॥ ४ ॥ नारदः - पौराणिका रौद्रसितमैत्रचारभटाः क्षणाः । सावित्रश्वाथ वैराजो गान्धर्वश्वाष्टमोऽभिजित् ॥ ५ ॥ रौहिणो बलसंज्ञश्च विज्ञेयो नैर्ऋतस्तथा । इन्द्रो जलेश्वरः पञ्चदशमो भगसंज्ञकः ॥ ६ ॥ रुद्रगान्धर्वयक्षेशाश्चारुणो मारुतोऽनलः । रक्षो धाता तथा सौम्यः पद्मजो वाक्पतिस्तथा ||७|| पूषा हरिर्वायुनिर्फमुहूर्ता रात्रिसंज्ञिताः । क्षणोऽत्र दिनमानस्य रात्रेश्च शरभू १५लवः ।। ८ ।। लल:-- श्वेतो मैत्रो विराजच सावित्रश्चाभिजित्तथा । बलश्च विजचैव मुहूर्ताः कार्यसाधकाः || ९ || नारदः - अष्टमो योऽभिजित्संज्ञः स एव कुतुपः स्मृतः । तस्मिन्काले शुभा यात्रा विना यान्यां बुधैः स्मृता ॥ १० ॥ यात्रानृपाभिषेकावुद्वाहोऽन्यच्च माङ्गल्यम् । सर्व शुभदं ज्ञेयं कृतं मुहूर्तेऽभिजित्संज्ञे ॥ ११ ॥ विष्टिव्यतीपातकृतान्दो पानुत्पातखचरभवान् । मध्याह्नगतो दिनकृत्सर्वानपनीय शुभकृत्स्यात् ॥ १२ ॥ यत्कार्य नक्षत्रे तद्दैवत्यासु तिथिषु तत्कार्यम् । करणमुहूर्तेष्वपि तत्सिद्धिकरं देवतासदृशम् ॥ १३ ॥ गर्ग : - ईत्संध्यामतिक्रान्तः किंचिदुद्भिन्नतारकः । विजयो नाम योगोऽसौ सर्वकार्यार्थ - साधकः ॥ १४ ॥
इति मुहूर्तप्रकरणम् ।
अथोपग्रहप्रकरणम् |
लल्ल:--
ल:-- विद्युत्पञ्चममे क्षितेच चलनं स्यात्सप्तमे सूर्यभाच्छुलाष्टमभे शनिव दशमे केतुस्तथाऽष्टादशे । दण्डः पञ्चदशे चतुर्दश इह प्रोक्तो निपातो बुधैस्तुल्याः कालविदां गणे निगदिता कोनविंशेऽर्कभात् ॥ १ ॥ दैवज्ञ :- क्रमशो मोहनिर्घाती
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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अकम्पो वज्र एव च । परिवेषश्च विज्ञेयो नक्षत्रा देकविंशतेः ॥ २ ॥ एतेष्विन्दुसमेतेषु कुर्यात्कर्म न शोभनम् | दहनात्रं विषैः साध्यं यत्तत्सिद्धिमुपैति च ॥ ३ ॥ नारदः – त्रयोदश स्युर्मिलने संख्यया तिथिवारयोः । क्रकचो नाम योगोऽयं मङ्गलेष्वपि गर्हितः ॥ ४ ॥ वसिष्ठ: - भानुना सप्तमी युक्ता बुधेन प्रतिपद्युता । संवर्तकस्तदा योगो निन्दितः सर्वकर्मसु ||५|| श्रीपतिः--आनन्दः कालदण्डो धूम्राख्योऽथ प्रजापतिः सौम्यः । ध्वाङ्क्षोऽथ ध्वजनामा श्रीवज्रमुद्गरौ छत्रम् || ६ || मित्रं मानसनामा पद्माख्यो लुम्बकस्तथोत्पातः । मृत्युः काणः सिद्धः शुभामृतौ मुसलमथ गदाख्यश्च ।। ७ ।। मातङ्गराक्षसचरस्थिरवृद्धा इमे योगाः । अष्टाविंशतिसंख्याः संज्ञासदृशं फलं दद्युः ॥ ८ ॥ क्रमात्स्युरेते रविवासरेऽविभाद्विधौ मृगाद्भूमिसुते भुजङ्गात् । हस्तादुधे देवगुरौ च मैत्रतः सिताद्धि वैश्वाद्रविजाद्धि वारुणात् ।। ९ ।। क्रमोत्क्रमालत्तयन्ति सूर्यपूर्णेन्दुपूर्वकाः । धिष्ण्यमक कृतित्र्यद्रिरसेष्वष्टाटू संमितम् ।। १० । माण्डव्यः -- हस्तोत्तरात्रयं मूलं धनिष्ठारेवतीद्वयम् । पुण्यप्रतिपदष्टम्यौ नवमी च शुभा वौ ॥ ११ ॥ भरणी भास्करे देया विशाखात्रित्तयं मघा । सप्तमी द्वादशी पष्ठयेकादशी च चतुर्दशी ॥ १२ ॥ द्वितीया नवमी पुष्यः श्रवणो रोहिणी मृगः । अनुराधा शुभा ज्ञेया दिने कुमुदिनीपतेः || १३ || आषाढाद्वितयं चित्रा विशाखा न शुभा भवेत् । सप्तम्येकादशी सोमे द्वादशी च त्रयोदशी || १४ || रेवती मूलमात्राभद्राऽश्विनी मृगः । त्रयोदश्यष्टमी षष्ठी तृतीयाऽभिमता कुजे ॥ १५ ॥ वर्जयेदुत्तराषाढां धनिष्ठात्रितयं कुजे । आर्द्रा प्रतिपदं चैकादशीं च दशमी तथा ॥ १६ ॥ श्रवणो रोहिणी पुण्योऽनुराधामृगकृत्तिकाः । द्वितीया द्वादशी सप्तम्यपि सिद्धिदा बुधे ।। १७ ।। न शुभाय बुधे मूलधनिष्ठारेवतीत्रयम् । तियः सचतुर्दश्यः प्रतिपन्नवमी जया || १८ || अदिते विशाखा च रेवतीद्वितयं करः । भाग्यमैत्रेज्य पूर्णेकादशी च गुरौ शुभा ॥ १९ ॥ कृत्तिकोत्तर - फाल्गुन्यो रोहिणीत्रयमष्टमी । पष्ठी शतभिषग्भद्रा चतुर्थी चाशुभा गुरौ ||२०|| पुनर्वसुश्च सावित्रं वैश्वं पौष्णद्वयं तथा । शुभा त्रयोदशी नन्दानुराधाभाग्यभं भृगौ ॥ २१ ॥ पुष्यादित्रितयं ज्येष्ठा रोहिणी शुक्रवासरे । द्वितीया सप्तमी रिक्ता तृतीया नेष्टदा सदा ॥ २२ ॥ पूर्वाफाल्गुनिरोहिण्यौ स्वाती शतभिपङ्मघा । श्रवणश्चाष्टमी रिक्ता तिथिः स्यात्सिद्धये शनौ ।। २३ ।। रेवतीमुत्तराषाढामुत्तराफाल्गुनीयम् । षष्ठीं च सप्तमी पूर्ण मन्दवारे विवर्जयेत् ॥ २४ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे -- शुक्रवारे तिथिर्नन्दा बुधे भद्रा कुजे जया । मन्दे रिक्ता गुरौ १. 'ण्डोऽथ धू २ क ण्यकम कु' ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
पूर्णा सिद्धियोगाः प्रकीर्तिताः ।। २५ । सुधासिद्धी रवौ हस्तो बुधे मैत्र कुजेsश्विनी । शनौ ब्राह्मं सिते पौष्णं गुरौ पुष्यो विधौ मृगः ॥ २६ ॥ मृत्यु योगोऽनुराधार्के वैश्वं चन्द्रे गुरौ मृगः । शुक्रे सार्प शनौ हस्तो ज्ञेऽश्विनी वारुणं कुजे ।। २७ ।। मघाद्विदैवतं शैवं मूलं कार्शानवद्वयम् । हस्तथेत्यर्कवा - रादौ यमघण्टाः प्रकीर्तिताः ॥ २८ ॥ गुरुपुष्यो विवाहे च प्रयाणे शनिहिणी । भौमाश्विनी प्रवेशे च गृहारम्भे न शोभना ॥ २९ ॥ गर्गः - चतुर्थी चोत्तरायुक्ता मघायुक्ता तु पञ्चमी । तृतीययाऽनुराधा च नवया सह कृत्तिका ॥ ३० ॥ अष्टम्या रोहिणी युक्ता योगो ज्वालामुखाभिधः | त्याज्योऽयं शुभकार्येषु गृह्यते त्वशुभे पुनः ॥ ३१ ॥ नारदः- - आदित्यभौमयोर्नन्दा भद्रा शुक्रशशाङ्कयोः । जया सौम्ये गुरौ रिक्ता शनौ पूर्णेति नो शुभाः ॥ ३२ ॥ एकादश्यामिन्दुवारो द्वादश्यामर्कवासरः । षष्ठयां बृहस्पतेर्वारस्तृतीया बुधवासरे ॥ ३३ ॥ अष्टमी शुक्रवारे तु नवमी शनिवासरे । पञ्चमी भौमवारे च दग्धयोगः प्रकीर्तितः ॥ ३४ ॥ दग्धयोगाश्च विज्ञेयाः पङ्गुयोगाभिधा अमी । विशाखादिचतुर्वर्गमर्कनारादिषु क्रमात् ॥ ३५ ॥ उत्पातमृत्युकाणाख्यसिद्धियोगाः प्रकीर्तिताः । सूर्यभात्सार्पपित्र्यर्क्षत्वष्ट्रमित्रान्त्यभेषु च । सविष्णुभेषु क्रमशो दस्रभाच्चन्द्रसंयुते || ३६ || धिष्ण्ये तावतिथे ह्यत्र दुष्टयोगः पतत्यसौ । चण्डीशचण्डायुधाख्यस्तस्मिन्नेवाऽऽचरेच्छुभम् ॥ ३७ ॥
इत्युपग्रहप्रकरणम् ।
अथोपग्रहदोषापवादः ।
गर्ग:- यावदंशस्थिते सूर्ये तावदंशे निशाकरे | वर्जयेत्सूर्यजो दोषः शेषं कर्म शुभं भवेत् ॥ १ ॥ पूर्वाह्णे दण्डदोपः स्यादपराह्णे तु मोधक: । उल्का स्यादर्धरात्रे तु कम्पोsहारात्रदूषकः || २ || || कम्पोल्कादण्डमोघानां स्वरमासदशतत्रः ।। ७|१२|१०|६ ।। आदितो घटिकास्तेषु व्यपनीयाः पराः शुभाः ॥ ३ ॥ उपग्रहेषु लत्तायां तथा चण्डायुधादिषु । ग्रहोऽस्ति यत्प्रमाणांशे विद्धोऽशस्तत्प्रमाणकः ॥४॥ वसिष्ठः चण्डीशचण्डायुधपादवेधः खार्जूरचक्रे समपाददोषः । शुभोऽथ यात्रादिषु सूर्यचन्द्र वलान्वितौ वा शुभवीक्षितौ वा ||५|| राजमार्तण्डे-ध्वाङ्क्षेन्द्रादिषु मुद्गरेषु घटिकास्त्याज्यास्तु पञ्चाऽऽदिमाः पद्मलुम्बकयोश्चत उदिता धू सदैका पुनः || ६ || गर्गः - उत्पाते यमघण्टे च काणे च क्रकचे शुभे । तिथौ दग्धे च पापे च प्राग्यामात्परतः शुभम् ॥ ७ ॥ रनकोशे - वारर्क्षतिथि
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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योगैस्तु यात्रामैव न कारयेत् । विवाहादीनि कुर्वीत गर्गादीनामिदं वचः ॥ ८ ॥ नारदः- तिथिवारोद्भवा नेष्टा योगा वारर्क्षसंभवाः । हूणवङ्गखशेभ्योऽन्यदेशेष्वतिशुभप्रदाः || ९ || शौनकः - खशेषु हूणेषु च रिष्टयोगाः पट्काष्टकाद्या न विचिन्तनीयाः । वारर्क्ष योगास्तिथिवारजाता वङ्गे तु योज्या न तु चान्यदेशे ॥ १० ॥ सौराष्ट्रशाल्वेषु च लत्तितं भं कलिङ्गवङ्गादिषु पातितं च । उपग्रहाख्यं कुरुवाह्लिकेषु त्यजेत्तु सर्वत्र सर्वेधमृक्षम् ॥ ११ ॥ गर्गः - यमघण्टे त्यजेदष्टौ मृत्यौ द्वादश नाडिकाः । अन्येषु दुष्टयोगेषु मध्याह्नात्परतः शुभम् || १२ ||: क्रकचा मृत्युयोगाच दग्धायाश्च तथा परे । चन्द्रे शुभे प्रणश्यन्ति वृक्षा वज्रहता इव ॥ १३ ॥
इत्युपग्रहापवादः ।
अथ चन्द्रताराबलप्रकरणम् ।
नारद: - शुक्लपक्षाद्य दिवसे चन्द्रो यस्य शुभप्रदः । स पक्षस्तस्य शुभदः कृष्णपक्षेऽन्यथा शुभः || १ || ज्योतिष्प्रकाशे - कृष्णाष्टम्यूर्ध्वतो ग्रात्यं दशाहं तारकाचलम् । परतोऽञ्जवलं ग्राह्यं सर्वमङ्गलकर्मसु ॥ २ ॥ बुद्धिवेदाङ्गनागामितास्ताराः शुभमदाः । शेषा निन्द्योऽथ पक्षादौ शस्ता शस्ते विधौ शुभम् ॥ ३ ॥ कश्यपः - जन्मसंपद्विपत्क्षेमपापा तारा सुसाधिका । कष्टा मैत्राऽतिमैत्रा च संज्ञातुल्यफलप्रदा || ४ || ज्योतिष्प्रकाशे - गणयेज्जन्मभान्चन्द्रं जन्मधिष्ण्याच्च तारकम् ।. जन्मराशेः शशाङ्काद्वा गणयेद्वेधकं ग्रहम् ।। ५ ।। तारावलेन हीनोऽपि चन्द्रः शुक्ले बली शुभः । शुभं तारावलं कृष्णे यदि चन्द्रोऽप्यनिष्टदः ॥ ६ ॥ पक्षे सिते चन्द्रबलं प्रधानं ताराबलं तत्र न चिन्तनीयम् । सुस्थे गृहस्थे सबले च पत्यौ प्रधानता नास्ति यतोऽङ्गनानाम् ॥ ७ ॥ न कृष्णपक्षे शशिनः प्रभावस्तारावलं तत्र भवेत्प्रधानम् । देशान्तरस्थे विकले च पत्यौ स्त्री सर्वकार्याणि न किं करोति || ८ || अत्रापि तारापतिवीर्यमेव वदन्ति पक्षद्वितयेऽन्तिमे तत् | केचिच्च ताराबलयुक्तमिन्दोर्बलं सदाऽऽदेयमिति ब्रुवन्ति ॥ ९ ॥ कृष्णेऽपि पक्षे विधुana भवेत्प्रधानं न तु तारकायाः । दुःस्थः कृशो वा पतिरेव यद्वत्सर्वाणि Shararia || १० || विहाय ताराबलमोपवीशः पक्षद्वयेऽपीष्टफलं न गच्छेत् । अप्राप्य जायानुमतं हि लोके न कार्यसिद्धौ पुरुषः समर्थः ॥ ११ ॥ वसिष्ठ माण्डव्यमतादिहेत्थं बलावलं तारकशीतभान्वोः । विचारितं सम्यगमी तदर्थाः श्लोकास्तदीयाः सुरसंहितायाम् || १२ || तिश्रयः पञ्च शुक्रायाचन्द्र१ . च स्याप्यप' । २क. स्वाः स्युस्ते ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
स्तारायुतो बली । तनुत्वाद्वर्तमानोऽपि प्रौढस्त्रीको यथा पतिः || १३ || परसचन्द्रमा एव यावत्कृष्णाष्टमीदलम् । प्रौढत्वात्पुरुषो यद्वत्स्वतन्त्रः स्याद्विना स्त्रियम् ॥ १४ ॥ कृष्णाष्टम्यूर्ध्वतो यावद्दिनं पैत्रं निशाकरः । क्षीणत्वादुर्बलत्वेन प्रधानं तारकाबलम् ॥ १५ ॥ विकलाङ्गे यथा पत्यौ कार्येषु प्रभवः स्त्रियः । एवं चन्द्रे च विकले तारा बलवती भवेत् ॥ १६ ॥ गर्गः - जन्माद्यं दशमं कर्म संघातं षोडशं स्मृतम् । अष्टादशं सामुदायं त्रयोविंशं विनाशकम् ॥ १७ ॥ मानसं पञ्चविंशाख्यं षड्भानीति नृणां जगुः । नव भानि नृपाणां तु देशजात्यभिषेकजैः ॥ १८ ॥ अभिषेकेऽभिषेकर्क्ष देशभं जन्मभागतः । जातिभं जातिनक्षत्रं पापैर्युक्तं न शोभनम् ॥ १९ ॥ वराहः - निरुपद्रुतभो निरामयः सुखभाङ् नष्टरिपुर्धनान्वितः । षडुपद्रुतभो विनश्यति त्रिभिरन्यैश्च सहावनीश्वरः ॥ २० ॥ केत्वककिंयुतं भौमवक्रभेदेन दूषितम् । हतमुल्कोपरागाभ्यां स्वभावान्यत्वमागतम् ॥२१॥ पीडिते जन्म मृत्युः कर्मनाशश्च कर्मणि । संघाते बन्धुपीडा स्यात्सामुदाये सुखक्षयः || २२ || वैनाशिके: देहनाशो मनस्तापस्तु मानसे । कुलदेशश्रियां नाशो जातिदेशाभिषेकभे ॥ २३ ॥ व्यवनः - यस्य जन्मर्क्षमासाद्य रविसंक्रमणं भवेत् । तन्मासाभ्यन्तरे तस्य वैरक्लेशधनक्षयाः ॥ २४ ॥ शाकल्यः -- जन्मर्क्षयुक्ता यदि जन्ममासे यस्य ध्रुवं जन्मतिथिर्भवेच्च । भवन्ति तद्वत्सरमेव यावन्नै - रुज्यसन्मानसुखानि तस्य ॥ २५ ॥ वृद्धगर्गः - कृतान्तवक्रयोर्वा यस्य जन्मदिनं भवेत् । ऋक्षयोगेण संजातं विघ्नं तस्य पदे पदे ॥ २६ ॥ जन्मधिष्ण्ये यदि स्यातां वारौ भौमशनैश्वरौ । मासः स कल्मषो नाम मनोदुःखमदायकः ॥ २७ ॥ नारदः - चन्द्रस्य द्वादशावस्था राशौ राशौ यथा क्रमात् । यात्रोद्वाहादिर्केयषु संज्ञातुल्यफलप्रदाः ॥ २८ ॥ षष्टिनं चन्द्रनक्षत्रं तत्काल - घटिकान्वितम् | वेदनमिषुवेदाप्तमवस्था भानुभाजिताः ॥ २९ ॥ एतच्च षष्टिघटिकाभिप्रायेणोक्तम् । श्रीपतिः - प्रवासनष्टाख्यमृताजयाख्याहास्यारतिक्रीडितसुप्रभुक्ताः। ज्वराह्वया कम्पितसुस्थिरे च द्विषट्कसंख्या हिमगोरवस्थाः || ३० ॥ लल्लः– जन्माधानप्रत्यरिनैधननक्षत्रयुक्तदिवसेषु । प्रवसेन्मनुजो मोहात्प्राणात्ययमाप्नुयान्नियतम् ॥ ३१ ॥
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इति चन्द्रताराबलप्रकरणम् ।
अथ दुष्टतारापवादः ।
ज्योतिः सागरे - शशिनि परिस्फुट किरणे स्वतु भवने स्वकीयवर्गे वा । क्षौरादिकेsपि कार्ये तारादोषो न दोषाय ।। १ ।। शुभदः स्वशुभोच्चगृहे भवति
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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यदीन्दुः कलावशेषोऽपि । ताराऽप्यशुभा शुभदा भवति तदानीं न संदेहः ॥ २ ॥ राजमार्तण्डे - सौम्यसुहृन्निजभवने चन्द्रे तुङ्गे त्रिकोणसंस्थे च । अणुतामपि संप्राप्ते तारादौष्टयं न दोपाय ॥ ३ ॥ च्यवनः - तगरुसरोरुहपत्रै रजनीसिद्धार्थलोध्रसंयुक्तैः । स्नानं जन्मर्क्षगते रविसंक्रान्तौ नृणां शुभदम् ॥ ४ ॥ अस्यार्थः- यस्य वै जन्मनक्षत्रं भौमादियुक्तं भवति । तस्य सर्वोषधिस्नानं गुरुविप्रसुरार्चनम् | सौरारयोर्दिने मुक्ता देया धिष्ण्ये तु काञ्चनम् ॥ ५ ॥ वाग्भटः-सुरामांसी वचा कुष्ठं शैलेयं रजनीद्वयम् । सटा चम्पकमुस्तं च सर्वोषधिगणः स्मृतः ॥ ६ ॥ गर्गः - विपदि प्रत्यरे चैव नैधने च यथाक्रमम् । प्रथमान्त्यतृतीयाः स्युर्वर्जनीयाः प्रयत्नतः ॥ ७ ॥ विपसारे गुडं दद्याच्छाकं द्यात्रिजन्मसु । प्रत्यरे लवणं दद्यान्नैधने तिलकाञ्चने ॥ ८ ॥ इतिः दुष्टतारापवादः ।
अथ गोचरप्रकरणम् ।
भूपाल:- फलं न गोचरं दत्ते शुभोऽपि ग्रहवेधतः । ग्रहवेधविधानं तद्ययनोक्तं प्रकाश्यते ॥ १ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - गणयेज्जन्मभाच्चन्द्रं जन्मधिष्ण्याच्च तारकम् । जन्मराशेः शशाङ्काद्वा गणयेद्वेधकं ग्रहम् ॥ २ ॥ कश्यपः - हिमाद्रिविन्ध्ययोर्मध्ये वैधजं तद्ग्रहालयात् ॥ ३ ॥ वैद्यनाथः - जन्मभाद्गणयेच्चन्द्रं जन्मभाद्वेधकं ग्रहम् । स तु वैर्धक्रमो युक्तः कथितः शौनकादिभिः ॥ ४ ॥ चन्द्रमित्युपलक्षणम् । नारद:- - शुभोऽक जन्मतस्त्रयायदशषट्सु न विध्यते । जन्मतो नवपञ्चाम्बुव्ययणैर्व्याकिंभिर्ग्रहैः ॥ ५ ॥ विध्यते जन्मतो नेन्दुर्द्यनाद्यायतुदि
त्रिषु । स्वेष्वष्टान्त्याम्बुधर्मस्थेर्विबुधैर्जन्मतः शुभः ॥ ६ ॥ ययारिषु कुजः श्रेष्ठो जन्मराशेर्न विध्यते । अन्त्येष्वग्रहैः सौरिपि सूर्येण संमतः ॥ ७ ॥ ज्ञः खान्ध्यर्यष्टखायेषु जन्मतश्चेन्न विध्यते । धीत्र्यङ्कन ट्रान्त्यखेटैर्हि जन्मतो वीक्षितः शुभः ॥ ८ ॥ जन्मतः स्वायगोऽध्यस्तेष्वन्त्याष्टखलजत्रिगैः । जन्मराशेर्गुरुः श्रेष्ठो ग्रहैर्यदि न विध्यते ॥ ९ ॥ जन्मभादासुताष्टाङ्कान्त्यायेविष्टो न विध्यते । जन्मभान्मृत्युसप्ताद्यखाङ्केष्वायरिपुत्रिगैः ॥ १० ॥ शार्ङ्ग • धरः- राहुकेतुफलं सर्वं मन्दवत्कथितं बुधैः । विलोsर्कयुतो मन्दचन्द्रयुक्तो बुधस्तथा ॥ ११ ॥ भूपाल:- यादृशेन ग्रहेणेन्दुर्युतः सोऽपि तथाविधः । यतो वृत्तिसमायोगाद्विकारो वदनस्य तु ॥ १२ ॥ नारद:- न ददाति
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१. लंगो । २. घग्रहो । ३ ग. गैव्यक्तिभि । ४ व अथा । ५ क. ख. य. 'रप्यसूर्येणजन्मतः ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोशुभं किंचिद्गोचरे वेधसंयुतः । तस्माद्वेधं विचार्याथ कथ्यते तच्छुभाशुभम् ॥ १३ ॥ वामवेधविधानेन शोभनस्त्वशुभोऽपि च । अतस्तान्द्विविधान्वेधान्विचाथि वदेवलम् ।। १४ ॥ अज्ञात्वा द्विविधान्वेधान् यो ग्रहज्ञो वलं वदेत् । स मृषावचनाभापी हास्यं याति नरैः सदा ॥ १५ ॥ सौन्येक्षितोऽनिष्टफलः शुभदः पापीक्षितः । निष्फलौ तौ ग्रहौ स्वेन शत्रुणा च विलोकितौ ॥ १६ ॥ नीचराशिगतः स्वस्य शत्रोः क्षेत्रगतोऽपि वा । शुभाशुभफलं नैव दद्यादस्तं गतोऽपि वा ॥ १७ ॥ दैवज्ञवलमे-क्षोणीपालविलोकने दिनकरो धात्रीसुतः सङ्गारे यात्रायां भृगुनन्दनोऽतिबलवाञ्छस्त्रावबोधे बुधः । गीवाणेशगुरुविवाहसमये दीक्षाविधौ भास्करिः प्रारम्भेऽखिलकर्मणां निगदितः सद्भिनिशानायकः ॥ १८ ॥ श्रीपतिः-विवाहचर्या मृगयां च साहसं सुदूरयानं गज-- वाजिवाहनम् । गृहे परेषां गमनं च वर्जयेद्ग्रहेषु राजा विषमस्थितेषु ॥ १९ ॥ आर्टिपेणि:-नाऽऽत्मक्षेत्रं पीडयन्ति विषमस्था अपि ग्रहाः । तद्वद्धर्मरतं वालमास्मॉ सत्यवादिनम् ॥ २० ॥ बादरायणः-गोचरे वा विलग्ने वा ये ग्रहा नेष्टसूचकाः । पूजयेत्तान्प्रयत्नेन पूजिताः स्युः शुभप्रदाः ॥ २१ ॥ ज्योतिप्रकाशे-सत्तारया शशी शस्तो ग्लोवीर्यादर्कसंक्रमः । भौमादयोऽवीर्येण दुष्टा अपि शुभप्रदाः ॥ २२ ॥ ग्रहणे ग्रहसंक्रान्ती वर्षादावुत्सवेऽयने । यादृग्विधो विधः पुंसां तादृग्विधफलं भवेत् ॥ २३ ॥ प्रवेशकाले भौमाकों शक्रेज्यौ राशिमध्यगौ । निर्गच्छतो शनीन्दू च सर्वदा फलदो बुधः ॥ २४ ॥ ऋक्षसन्धिगता ये च राशिसन्धिगता ग्रहाः । दास्ते फलमेष्यस्य गतस्य तु विलोमगाः ॥ २५ ॥ ज्योतिःसागर-भानदेदाति गन्तव्यराशेः पञ्चदिनं फलम् । चन्द्रो नाडीत्रयं भौमो दिनान्यष्टौ बधो व्यहम् ॥ २६ ॥ साधमासं गुरुः शक्रश्चतदिनमथाकेजः । मासपटक फलं राहुः केतुमासत्रयं तथा ॥ २७ ॥ रत्नकोशे:पक्ष दशाहं च तथा त्रिपक्षं मासत्रिभागं खलु मासपदकम् । भौमादिखेटास्त्वविचारवका दयः फलं पूर्वगृहे यदुक्तम् ॥ २८ ॥ त्रयोदशार्किः क्षितिजश्च सप्तयहं बुधः पञ्च दिनानि शुक्रः। वक्री गुरुः पूर्वफलप्रदः स्यादेकादशाहानि गुरुराहः ॥ २९ ॥ मासं शनीज्यौ कुजमार्गचौ तु पक्षं दशाहानि च सोमसूनः । ददाति वक्री फलमाधराशेः केपांचिदेवं न मतं वहनाम् ॥ ३० ॥ विलोमगत्या यदि वाऽतिगत्या प्रयाति यो राशिमतीत्यमेष्यम् । हित्वा तदीयं गगनेचरोऽसौ दद्यात्फलं पूर्वगृहे यदुक्ताम् ॥ ३१ ॥ यावन्ति यो वक्रगतिर्दिनानि भवेत्स बके यदि वातिचारे । दशांशतुल्यानि फलानि तेषां दद्यात्फलं पूर्वगृहे यदुक्तम् ॥ ३२ ॥ वनातिचारेण गृहान्तरेऽपि स्थितो ग्रहः पूर्वफलपदः स्यात् । देशा
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ज्योतिर्निवन्धः। न्तरं कार्यवशागतोऽपि तद्देशधर्म न जहाति मर्त्यः ॥ ३३ ॥ यदा ग्रहोऽयं समुपैति राशिं तदा तदीयं स फलं ददाति । पीतादिवर्णेन समन्वितोऽपि वर्णः सितस्तन्मयतामुपैति ॥ ३४ ॥ यथा प्रदेशेषु शुभाशुभेषु गच्छञ्जलौघः सदसत्त्वमेति । स्थानप्रभावाद्युचर स्तथैव शुभाशुभं राशिफलं ददाति ॥ ३५॥ शुभाशुभस्थानभवं ग्रहाणां शुभाशुभत्वं न निसर्गसिद्धम् । स्थितिं यदा यत्र गुणे करोति मजेत्तदा तत्प्रकृतिं हि मर्त्यः ॥ ३६॥ इत्यादिसामान्यवचोभिरेतेने निश्चयः स्यादितरेतरघ्नैः । फलाप्तिराद्यादुत वर्तमानादिति भ्रमोऽपेतविरोघिवाक्यात ॥ ३७॥ निश्चयवाक्यम्-यस्मिन्गहे स्थितो दीपस्तत्र द्योतं करोति वै। एवं ग्रहोऽपि यत्र स्यात्तत्रैव फलदः स्मृतः ॥ ३८ ॥ गर्गः-चारातिचारवक्रेण यो यत्रावस्थितो ग्रहः । स तद्राशिफलं दद्याद्गोचरे: बलसाधने ॥ ३९ ॥ वसिष्ठः-ग्रहा राज्यं प्रयच्छन्ति ग्रहा राज्यं हरन्ति च । ग्रहैस्तु व्याप्तं सकलं त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ४० ॥ ज्योतिष्प्रकाशे---सर्वे लागताः श्रेष्ठा गोचरे लाभदा मताः । आयुःप्रदा विलग्नाच जातके कारकास्तथा ॥ ४१॥ गर्ग:द्वादशाष्टमजन्मस्थः शनिरङ्गारको गुरुः । कुर्वन्ति प्राणसंदेहं देशत्यागं धनक्षयम् ॥ ४२॥
अथ पृथक्फलानि । ललः-स्थानं जन्मनि नाशयेदिनकरः कुर्याद्वितीये भयं दुश्चिक्ये श्रियमातनोति हिबुके मानक्षयं गच्छति । दैन्यं पञ्चमगः करोति रिपुहा पष्ठोऽध्वदः सप्तमः पीडामष्टमगः करोति वपुषः पुण्यक्षयं धर्मगः ॥ १ ॥ कर्मसिद्धिजनकस्तु कर्मगो वित्तलाभकृदयायसस्थितः । द्रव्यनाशजनितां महापदं यच्छति व्ययगतो दिवाकरः ॥२॥ जन्मन्यन्नं दिशति हिमगर्वित्तनाशं द्वितीये दद्याद्रव्यं सहजभवने कुक्षिरोगं चतुर्थे । कार्यभ्रंशं तनयगृहगो वित्तलाभं च पष्ठे यूने द्रव्यं युवतिसहितं मृत्यु संस्थोऽपमृत्युम् ॥ ३ ॥ नृपभयं कुरुते नवमः शशी दशमधामगतस्तु महत्सुखम् । विविधमायगतः कुरुते धनं व्ययगतस्तु रुजं च धनक्षयम् ॥ ४॥ ज्योतिष्प्रकाशे-शुक्लपक्षे द्वितीयस्तु चन्द्रो वित्तसुखप्रदः । पञ्चमो वरवस्त्राप्तिं कुर्याद्भोगं च पुष्यमः ॥ ५ ॥ श्रीपति:-करोति जन्मन्यरिजं भयं कुजो धनेऽर्थनाशं सहजे धनं ध्रुवम् । सुखेऽरिभीति तनयेऽर्थसंक्षयं रिपौ स्वलब्धि धनविप्लवं रमरे ॥ ६ ॥ भयं महच्छत्रुकृतं गृहेऽष्टमे शरीरपीडां नवमे पदे शुचम् । अनेक शो लाभगृहे धनागमं व्यये धराजः कुरुते पनक्षयम् ॥ ७ ॥ बन्धं बुधो दिशति जन्मगतोऽर्थगोऽर्थ दुश्चिक्यगो रिपुभयं जलगो धनाप्तिम् । धीस्थो वपुर्विलयतां स्थितिदो रिपुस्थः पीडां परां कुसुमका
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श्रीशिवराजविनिर्मितोभुकधामसंस्थः ॥ ८ ॥ अष्टमे शशिसुते धनलब्धिधर्मगे च महती तनुपीडा । कर्मगे सुखमुपान्त्यगतेऽर्थो द्वादशे भवति वित्तविनाशः॥९॥ गुरुभयं जन्मगृहे ददाति धने धनं क्लेशभयं तृतीये । सुखेऽर्थनाशं तनये सुखानि रिपो शुचं भूपतिमानमस्ते ॥ १० ॥ जीवोऽष्टमे मृत्युसमानरोगं सुखानि धर्मे दशमेऽतिदैन्यम् । धनाम्बरस्थानकलब्धिमाये तनोश्च पीडां वितनोति रिष्फे ॥ ११ ॥ जन्मन्यरिक्षयकरो भृगुजोऽर्थदः स्वे दुःश्चिक्यगः सुखकरो धनदश्चतुर्थः । सत्पुत्रदस्तनयगोरिंगतोऽरिवृद्धिं शोकमदो मदनगो निधनेऽर्थदाता ॥ १२ ॥ जनयति विविधाम्बराणि धर्मे न शुभकरो दशमस्थितस्तु शुक्रः। धननिचयकरः स लाभसंस्थो व्ययभवनेऽपि धनागमं करोति ॥ १३॥ सर्वभ्रंशं विधत्ते दिनकरतनयो जन्मराशि प्रपन्नो वित्तक्लेशं द्वितीये धनहरणकृतं वित्तलाभ तृतीये । पाताले शत्रुवद्धिं सुतभवनगतः पुत्रभृत्यार्थनाशं षष्ठस्थानेऽर्थलाभ जनयति मदने दोषसंघातमार्किः ॥ १४ ॥ शरीरपीडां निधने च धर्मे धनक्षयं कर्मणि दीर्मनस्यम् । उपान्त्यगो वित्तमनर्थमन्त्ये शनिदेदातीत्यवदवसिष्ठः ॥ १५॥ ज्योतिष्पकाशे-हानि नैव्यं धनं रोगं शोकं वित्तं कलिं व्यसुम् । पापं वैरं सुखं हानिं राहुः कुर्यात्स्वजन्मभात् ॥ १६ ॥ रोगं वैरं सुखं भीति शुचं वित्तं गतिं पदम् । पापं शोकं यशो वैरं जन्मभात्कुरुते शिखी ॥ १७ ॥
इति गोचरप्रकरणम् ।
अथ गोचरापवादः । माण्डव्यः-गोचरपीडायामपि राशिलिभिः शुभग्रहैदृष्टः । पीडां न करोति तदा क्रूरैरेवं विपर्यासः ॥ १ ॥ मार्तण्ड:- यादृशेन शशाङ्केन ग्रहः संचरते नृणाम् । तादृशं फलमानोति शुभं वा यदि वाऽशुभम् ॥ २॥ ज्योतिष्प्रकाशेयथोक्तमोपधिस्थानं ग्रहविप्रार्चनं तथा । ग्रहानुद्दिश्य होमो वा त्रिधा शान्तिबुधैः स्मृता ॥ ३ ॥ श्रीपतिः-देवब्राह्मणवन्दनाद्गुरुवचःसंपादनात्प्रत्यहं साधूनामपि भाषणाच्छ्रतिरवश्रेयःकथाकर्णनात् । होमादध्वरदर्शनाच्छुचिमनोभावाजपाद्दानतो नो कुर्वन्ति कदाचिदेव पुरुषस्यैवं ग्रहाः पीडनम् ॥ ४ ॥ मनःशिलैलासुरदारुकुङ्कुमैरुशीरयष्टीमधुपद्मकान्वितैः । सताम्रपुष्पैर्विषमस्थिते रवौ शुभप्रदं स्नानमुदाहृतं बुधैः ॥ ५॥ पञ्चगव्यगजदानविमित्रैः शङशुक्तिकुमुदस्फटिकैश्च । शीतरश्मिकृतवैकृतहन्तृ स्नानमेतदुदितं नृपतीनाम् ॥ ६ ॥ विल्वचन्दनबलारुणपुष्पैर्हिड लूकफलिनीवकुलैश्च । स्नानमद्भिरिह मांसियुताभिभी
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ज्योतिर्निबन्धः। मदोषविनिवारणमाहुः ॥ ७ ॥ गोमयाक्षतफलैः सरोचनैः क्षौद्रशुक्तिभवमूलहेमभिः । स्नानमुक्तमिदमत्र भूभुजां वोधनाशुभविनाशनं बुधैः ॥ ८ ॥ मिश्रबन्धुमधुकेन च स्फुटं वैकृतं गुरुकृतं निकुन्तति ॥९॥ एलया च शिलया समन्वितैर्वारिभिः सफलमूलकुङ्कुमैः । स्नानतो भृगुसुतोपपादितं दुःखमेति विलयं न संशयः ॥ १० ॥ असिततिलाञ्जनलोध्रबलाभिः शतकुसुमाधनलाजयुताभिः । रचितनये कथितं विषमस्थे दुरितहृदाप्लवनं मुनिमुख्यैः ॥ ११ ॥ दर्भगर्भतिलपत्रकमुस्ताहस्तिदानमृगनाभिपयोभिः । स्नानमातिमिह कृन्तति राहो. साजमूत्रमिदमेव च केतोः ॥ १२ ॥ सप्रियङ्गुरजनीद्वयमांसीकुष्ठलाजसितसर्षपखण्डैः । वारिभिः सह वचैः सह लोधैः स्नानमत्ति निखिलग्रहपीडाः॥१३॥ धार्य तुष्टयै विद्रुमं भौमभान्वो रौप्यं शुक्रेन्द्रोश्च हेमेन्दुजस्य । मुक्ता सूरेर्लाहमर्कात्मजस्य लाजावर्तः शेषयोः कीर्तितश्च ॥ १४ ॥ भूपाल:-माणिक्यमर्के मुक्ताऽब्जे प्रवालं भूमिजे हितम् । बुधे गारुत्मतं जीवे पुष्परागं भृगौ पविम् ॥ १५ ॥ शनी नीलं सैंहिकेये गोमेदं धारयेद्बुधः । केतौ वैडूर्यममलं विषमे तुष्टिकार. कम् ॥१६॥श्रीपतिः-सदौषधैर्याति गदो विनाशं यथा यथा दुष्टबलानि मन्त्रैः । तथोदितस्नानविधानतोऽपि. ग्रहाशुभं नाशमुपैत्यवश्यम् ॥ १७ ॥ अनपत्या च या नारी दुर्भगा वाऽपि या भवेत् । स्नानैरेभियेदा स्नाता सौभाग्यारोग्यभागिनी ॥ १८ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-धेनुः शवो वृषः स्वर्ण वस्त्रमश्वश्च गौरयः । छागो वै दक्षिणा प्रोक्ता सर्वेभ्योऽन्नं च हेम वा ॥ १९ ॥ गुडानं क्षीरिकासारो दुग्धान्नं दधिभक्तकम् । घृतान्नं कृशरं मापं चित्रानं सूर्यतः क्रमात् ॥२०॥ ललः-न भवति शरीरपीडा यस्य विना शान्तिभिर्भयं पीडा । तस्य शरीरविपत्तिं पाकान्ते देवलः प्राह ॥ २१ ॥ गर्ग:-स्नानमङ्गलहोमैश्च घोरमप्येति मार्दवम् । नैवमापच्यते दैवं निहतं शान्तिकर्मभिः ॥ २२ ॥ लल:-जन्मादिकपीडायां दिनमेकमुपोषितोऽनलं जुहुयात् । सावित्र्या क्षीरतरोः. समिद्भिरमरद्विजानुरतः ॥ २३ ॥
___ अथ ग्रहदानानि । - कौसुम्भवस्त्रं गुडहेमतानं माणिक्यगोधूममसूरिकाब्जम् । सवत्सगोदानमिति प्रणीतं दुष्टाय सूर्याय वदन्ति दानम् ॥ २४ ॥ घृतकलशं सितवस्त्रं युगस्थवृपभं सुवर्ण च । रजतं च संप्रदद्याचन्द्रारिष्टस्य प्रशमाय ॥ २५ ॥ आरक्तवस्त्रं गुडहेमदानं प्रवालगोधूममसूरिकाश्च । वपः सुताम्रः करवीरपुष्पं दुष्टाय भौमाय वदन्ति दानम् ॥ २६ ॥ नीलं वस्त्रं मुद्दानं बुधाय रत्नं पाचिर्दासिका हेम
१ क. मृतमा । २ क. माण ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोसर्पिः । कास्यं दन्तः कुञ्जरस्याथ मेपो रौप्यं सर्व पुप्पजात्यादिकं च ॥२७॥ अश्वः सुवर्ण शुभपीतवस्त्रं सपीतधान्यं लवणं सुपुष्पम् । सशर्करं तद्रजनीप्रयुक्तं दुष्टाय शान्त्यै गुरवे प्रणीतम् ॥ २८ ॥ चित्रवस्त्रमपि दानवार्चिते दुष्टगे मुनिवरैः परिणीतम् । तण्डुला घृतसुवर्णरूप्यकं वनक परिमला शवला गौः॥२९॥ नीलकं महिषी वस्त्रं कृष्णं लोहं सदक्षिणम् । तैलमापकुलित्थाश्च शनेष्टियप्रशान्तये ॥ ३० ॥ राहोर्दानं बुधैर्मेपो गोमेदो लोहकम्बलौ । सौवर्ण नागरूपं च सतिलं ताभ्रभाजनम् ॥ ३१ ॥ केतौ वैडूर्यकं शस्त्रं तैलं मृगमदं तथा । ऊर्णा तिलैश्च संयुक्तां दद्यात्क्लेशापनुत्तये ॥ ३२ ॥ नवग्रहहोमस्तु स्वशाखोक्तो ग्राह्यः।
इति गोचरापवादः।
अथानिष्ट चन्दापवादः । गर्गः-अनिष्टस्थानसंस्थोऽपि गोचरे शुभदः शशी । सौम्यक्षगोऽधिमित्रेण गुरुणा च विलोकितः ॥ १ ॥ वैद्यनाथ:-निपिद्धस्थानसंस्थोऽपि शुभमित्रगृहांशके । स्थितोऽधिमित्रसंदृष्टश्चन्द्रमाः शुभदः स्मृतः ॥ २ ॥ ज्योतिःसागरेअनिष्टस्थानगोऽपीन्दुर्लग्नाद्राशेश्च शोमनः । भवेत्सौम्यांशगः स्वामिमित्रेण वलिनेक्षितः ॥ ३ ॥ स्वोच्चेऽथवा स्वभवने स्फुटरश्मिजालः सौन्यालये हितगृहे शुभवर्गयोगे । जामित्रवेधयुतिपूर्वकदोपरााशं हित्वा ददाति बहुशः सुखमेव चन्द्रः॥ ४ ॥ प्राप्तोदयः प्राप्तवलैश्च सौम्यैर्विलोकितो वा शुभराशिसंस्थः। निहन्त्यनिष्टं सकलं स्वकीयं फलं विधत्ते शुभमेव चन्द्रः ॥ ५ ॥ ज्योतिप्रकाशे-यात्रादावशुभे चन्द्रे यदि पक्षवलं भवेत् । तदा फलं शुभं कर्यात्तथा लग्नाच्छुभेक्षितः॥६॥ वैद्यनाथ:-ऋक्षं दग्धं तिथिं रिक्ता चन्द्रमष्टमगं तथा । तत्सर्वं नाशयेत्तारा षट्चतुर्नवमी ध्रुवम्।।७॥वसिष्ठः- उशीरं च शिरीपं च चन्दनं पद्मकं तथा । शखे न्यस्तमिदं स्नानं चन्द्रदोषनिवारणम् ॥ ८ ॥ दानखण्डेशुक्लाक्षतैः पूरयित्वा पात्रं वेणुमयं शुभम् । तस्योपरि पयःपूर्ण कांस्यपात्रं समौक्तिकम् ॥ ९॥ सरौप्यं शुक्लगन्धाद्यैर्वस्त्रयुग्मेण संयुतम् । दद्याज्ज्योतिर्विदे तच्च चन्द्रारिष्टप्रशान्तये ॥१०॥ गदिता दक्षिणा तत्र शङ्वो मौक्तिकगर्भितः । घृतदीपश्चतुर्वत्तिः कुम्भो वा पयसान्वितः ॥ ११ घतकुम्भः सितं वस्त्रं सितो वा वृषभस्ततः । सुवर्ण रजतं वाऽपि चन्द्रारिष्टप्रशान्तये ॥ १२ ॥
इत्यनिष्टचन्द्रापवादः ।
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ज्योतिर्निवन्धः।
अथ सौम्यरादिविचारः। होरामकरन्दे--क्रूरग्रहाः कुजदिवाकरसूर्यसूनुक्षीणेन्दवः शशिसुतः सहितस्तु सैः स्यात् । पूर्णेन्दुजीवभृगुजाः शुभसंज्ञिताः स्युस्तैः संयुतस्तुहिनरश्मिसुतोऽपि सौम्यः ॥ १ ॥ सप्तवर्गे स्थितो यस्य तस्य स्यात्केवलः समः । मिश्रवर्गात्रितश्वान्द्रिराधिक्यफलदो मतः ॥ २ ॥ जातकोत्तमे-क्षीणेन्द्रकोर्किौमाः स्युः पापास्तैः संयुतो बुधः । राहुकेतू पापतरी पापः पापान्वितस्तथा ॥३॥ जातकतिलके-सौम्यः सपापस्त्वशुभः पापः सौम्ययुतः शुभः । पापी युतावत्यशुभी सौन्यावतिशुभौ युती ॥ ४ ॥ चन्द्रेण संयुताः सर्वे सर्वत्रैव बलोस्कटाः । भार्थोत्तरस्था अबलाः क्रमात्पायुयुक्षवः ॥ ५ ॥ अर्केणास्तंगता यद्वत्तेन मुक्ताः क्रमाच्छुभाः । सौम्याः पापोज्झिताश्चैव सौभ्ययोगे शुभं वदेत ॥६॥ गाये:-तिथिभागान्तरस्थौ यौ ग्रहो तो योगसंज्ञितौ । तत्तुल्यांशैः फलं पूर्ण न्यूनं न्यूनाधिकैर्भवेत् ॥ ७॥ ललः-योगा यथोक्तफलदाः कलार्धभागेफसंस्थितानां च । अप्राप्तातीतानामिच्छामानं फलं भवति ॥८॥ज्योतिष्प्रकाशेयोगो ग्रहान्तरं यत्र तिथिभागाधिकं भवेत् । न योगफलमित्याहुरनुपातस्तदन्यथा ॥ ९ ॥ ज्योतिर्विवरणे-शुभाशुभत्वं घुसदा यदुक्तं योगतो बुधैः । तत्फलादेशविषयं न स्वभावविमोचकम् ॥ १० ॥
इति सौम्यक्रूरादिविचारः।
अथ सूर्ये कथं क्रूरत्वादीति प्रश्नोत्तरम् । आदित्यपुराणे--कालात्मा सर्वदेवात्मा भूतात्मा विश्वतोमुखः । जगद्योनिः सहस्राक्षः कथं क्रूरत्वमागतः ॥ १ ॥ अस्योत्तर--- छायापुत्रो महारौद्रो मातुदुःश्वेन दुःखितः । शशाप पितरं क्रोधात्तेनाको क्रूरतां गतः ॥२॥ रुद्रयामले - काश्यपेयो रविः केन हेतुना क्षत्रियोऽभवत् । इत्येतच्छ्रोतुमिच्छामि ब्रूहि शंकर ते नमः ॥ ३॥ शण्वपणे विशालाक्षि सृष्टवादावसृजद्विधिः । कमेकालप्रबोधार्थ भचक्रं खेचरैः सह ॥४॥ तत्रार्को ग्रहमादीनां स्वामित्वे केन योजितः । तेनोच्यते स राजन्यः प्रभुत्वं तद्विना न हि ॥ ५॥
इति सूर्ये क्रूरत्वादिप्रश्नोत्तरम् ।
अथ लग्नप्रकरणम् । श्रीपतिः--विरोधमभिषेकं च राज्ञां साहसकर्म च । धात्वाकरादिसंबन्ध मेष
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श्रीशिवराजविनिर्मितो -
लग्ने साधयेत् ॥ १ ॥ वृोदये विवाहथ ध्रुवं वेश्मप्रवेशनम् । कुमारीवरणं दानं क्षेत्रारम्भादि चेष्यते ॥ २ ॥ कलाविज्ञानसंबन्धं वृषलग्नोदितं च यत् । विभूषणादिकं कर्म कर्तव्यं मिथुनोदये || ३ || वापीकूपतडागादिवारिबन्धनमोक्षणे । पौष्टिकं कर्म यत्किंचित्सर्व सिध्यति कर्किणि ॥ ४ ॥ वणिक्पथाद्यं पण्यं च कर्षणं नृपसेवनम् | परयोगथ मेषोक्तं तच्च कण्ठीरवे हितम् ॥ ५ ॥ औषधं शिल्पविज्ञानं भूषणादि चरं स्थिरम् । कर्तव्याः पौष्टिकारम्भाः कन्यालग्ने प्रसिद्धये || ६ || कृषिकर्म वणिक्सेवा यात्राकर्म तुलोदये | प्रसिध्यन्ति हि सर्वाणि तुलाभाण्डाश्रितानि च ॥ ७ ॥ साहसं दारुणोयं च राजसेवाभिषेचनम् । चौर्यकर्म स्थिरारम्भाः कर्तव्या वृश्चिकोदये ॥ ८ ॥ प्रस्थानपौष्टिकोद्वाहाः सवाहनपरिग्रहाः । चापलग्ने प्रसिद्धाः स्युश्चरकर्मप्रसिद्धये ॥ ९ ॥ क्षेत्राश्रयाण्य
यात्रा बन्धमोक्षौ च वारिणाम् । दासीचतुष्पदोष्ट्रादि कर्तव्यं मकरोदये ॥ १० ॥ नौचौर्योदकयानं च कर्म ध्रुवचरं तथा । वीजसंग्रहणोप्ती च कर्तव्यं कलशोदये ।। ११ ।। विद्यालंकारशिल्पादि कृष्यम्बुपशुकर्म च । यात्रोद्वाहाभिषेकाद्यं कार्यं मनोद बुधैः ॥ १२ ॥ नारद:- मेषादिषु विलग्नेषु शुद्धेष्वेतत्मसिध्यति । क्रूरग्रहेक्षित संयुक्तेषूग्रमेव हि ॥ १३ ॥ गोयुग्मकर्किकन्यान्त्यतुलाचापधराः शुभाः । शुभग्रहास्पदत्वात्सप्तेतराः पापराशयः || १४ || सौम्योग्रतैषां राशीनां प्रकृत्या न भवत्यसौ । योगेन सौम्यपापैश्च खेचरैवक्षितेन वा ॥ १५ ॥ सौम्याश्रितत्वात्क्रूरोऽपि स राशिः शोभनः स्मृतः । सौभ्योऽपि राशिः क्रूरः स्यात्क्रूरग्रहतो यदि ॥ १६ ॥ ग्रहयोगावलोकाभ्यां राशिर्धत्ते ग्रहोद्भवम् । फलं ताभ्यां विहीनोऽसौ स्वभावमुपसर्पति ॥ १७ ॥ आदी संपूर्णफलदं मध्ये मध्यफलप्रदम् । अन्त्ये तुच्छफलं लग्नं सर्वस्मिन्नेवमेव हि ॥ १८ ॥ दैवज्ञवल्लभे--लग्ने शुभेsपि यशः क्रूरः स्यानेष्टसिद्धिदः । लग्ने क्रूरेऽपि सौम्योऽशः शुभदोंऽशो वली यतः ॥ १९ ॥ स चन्द्रराशेरशुभो नवांशः प्रोक्तः स पापस्य च लग्नसंस्थः । केन्द्रत्रिकोणेषु गुरुः सितो वा भवेत्तदाऽसावंशुभोऽपि शस्तः || २० || विवाहपटले---सचन्द्रसक्रूरनवांशकं यलनं हरत्यायुरिति ब्रुवन्ति । धीधर्मकेन्द्रो भृगुजोsraज्यो लग्नं तदेवाऽऽयुरतीव धत्ते ॥ २१ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - प्रोच्यते लग्नसंस्थोऽसौ ग्रहो य उदितांशगः । द्वितीयोऽनुदितांशस्थः सर्वराशिष्वयं क्रमः ॥ २२ ॥ पटलसारे – लग्नांशतुल्या विज्ञेया भावा द्वादश ते पुनः । तिथ्यंशेन युतास्तेषु प्राक्पराः सन्धयः क्रमात् || २३ || विश्वेश्वरः - गतैष्यभावफलदः संधेरूनाधिको ग्रहः । भावतुल्यं फलं पूर्ण धत्तेऽन्यत्रानुपाततः ।। २४ ।। भाव -
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ज्योतिर्निबन्धः। संधिस्थितः खेटः सर्वत्र विफलः स्मृतः। एवं भावविधि ज्ञात्वा जन्मोद्वाहगमादिषु ॥ २५॥ ज्योतिष्प्रकाशे-चरस्थिरद्विस्वभावा मेषाद्या राशयः क्रमात् । क्रूरकर्मणि सक्रूराः शुभे ग्राह्याः शुभान्विताः ॥२६॥ कश्यपः-स्वामियुक्तो वीक्षितो वा बुधजीवेक्षितस्तथा । बलवान्संभवेद्राशिदृष्टो युक्तोऽपि नापरैः ॥२७॥ वसिष्ठः-पृष्ठोदये वृषो मेपः कर्किचापमृगास्तथा । शेषः शीर्षोदये राशिर्मीनः स्यादुभयोदयः ॥ २८ ॥ कुम्भमीनौ तथा सिंहश्चत्वारो बलिनो दिने । धनुर्मूगो च मेषाद्याश्चत्वारस्तु निशाबलाः ॥२९॥ वराहः-मेपवृषधन्विसिंहाश्चतुष्पदा मकरपूर्वभागश्च । कीटः कर्कटराशिः सरीसृपो वृश्चिकः कथितः ॥ ३० ॥ मकरस्य पश्चिमाई कुम्भो मीनश्च जलचराः ख्याताः । मिथुनतुलाधरकन्या द्विपदाख्या धन्विपूर्वभागश्च ॥ ३१ ॥ स्वरशास्त्रे-कुम्भान्त्यो द्विनिशौ पङ्गु तुलाली मृगधन्विनौ । बधिरौ सिंहगोमेषा अन्धाः स्त्रीमृगकर्कटाः ॥ ३२ ॥ अन्धे शून्यं भ्रमः पङ्गो बधिरे हानिरत्र चेत् । यदि तुष्टो भवेदंशः सौम्यो वै तत्पलं न हि ॥ ३३ ॥ घटान्त्योभनृयुङ्भेषकन्याकीटतुलाहयाः । कुलीरमृगसिंहाः स्युश्चैत्राद्याः शून्यराशयः ॥ ३४ ॥ तुलामृगौ प्रतिपदि तृतीयायां मृगार्कौ । पञ्चम्यां बुधराशी द्वौ सप्तभ्यां चापचन्द्रभे ॥ ३५ ॥ नवम्यां हरिकीटो द्वावेकादश्यां गुरोगृहे । त्रयोदश्यां मेपवृषौ दिनदग्धाश्च राशयः ॥ ३६ ॥ मासदग्धाह्वयान्राशीन्दिनदग्धांश्च वर्जयेत् । सत्यसूरिः-जन्मक्षादथवा जन्मलग्नाद्रन्ध्रेशभांशगाः । शुभं भावफलंघ्नन्ति ग्रहाः पुष्णन्ति चाशुभम् ॥ ३७॥ जन्मभाव्ययभांशस्था जन्मलनाच्च खेचराः । भवन्ति व्ययदाः शत्रुभांशस्थाः शत्रुकारिणः ॥ ३८ ॥ श्रीपतिः-अशुभोऽपि शुभांशस्थो दर्शने स्याच्छुभप्रदः । सामृतं किं विषं भुक्तं न शुभाय प्रजायते ॥ ३९ ॥ वैद्यनाथ:-विलग्नस्थोऽष्टमो राशिजन्मलग्नात्स्वजन्मभात् । न शुभः सर्वकार्येषु लग्नाच्चन्द्रस्तथाऽष्टमः ॥४०॥ वराहः-स्वगृहत्रिकोणतुङ्गादिभसंस्थितमित्रभवनभावगतः । चेष्टादिबलयुतो वा यत्नाद्योज्यः शुभे स्थाने । ४१ ॥ नेष्टः शुभो विलग्ने नीचारिगृहोपगस्तु शत्रुदिने । क्रूरोऽपि सुहृद्दिवसे स्वोच्चगतः शुभफलो लग्ने ॥ ४२ ॥ भृगुः-लग्नेशेऽस्तं गते रोगो रन्ध्र मृत्युर्व्यये व्ययः । शत्रौ शत्रुभयं घोरं नीचे भङ्गोरिजं भयम् ॥ ४३ ॥ यवनः-ऋक्षसंधिगताः खेटा राशिसंधिगतास्तथा । एष्यराशेः फलं दद्युर्विपरीतं तु वक्रगाः ॥ ४४ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-पायो व्ययाष्टगाः सौम्या नेष्टा वृद्धि विना खलाः । लग्नेशोऽष्टारिगो लुप्तश्चन्द्रो लग्नारिरन्ध्रगः ॥४५॥ त्याज्यो
१ क. त्यौयुनिशःप । ख. भांशोदिनिशःप ।
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श्री शिवराजविनिर्मिती
est मन्दः षष्ठे शुक्रेन्दुलग्नपाः । रन्ध्रेऽब्जात्पञ्च पापास्ते विवाहे पापकर्तरी ॥ ४६ ॥ चन्द्रनेत्रयुगसप्तदितथा सूर्यपटुवसुनन्दरुद्रकाः । रामवाणमितभानि जन्मभाद्धातलग्नमिति संत्यजेद्बुधः ॥ ४७ ॥
इति लग्नबलप्रकरणम् ।
अथ षड्वर्गप्रकरणम् ।
ज्योतिष्प्रकाशे गृहं होरा च दृकाणी नवांशो द्वादशांशकः । त्रिंशांशश्चेति षडुर्गः स सौम्यग्रहणः शुभः ॥ १ ॥ भौमः शुक्रो बुधः सोमो रविः सौम्यो भृगुः कुजः । गुरुर्मन्दः शनिर्जीवो मेषादीनामधीश्वराः || २ || भास्करः- होरेशे विषमेऽर्केन्द्रोः समभे चन्द्रसूर्ययोः । स्वपञ्चनवमेशाः स्युर्हकाणा भवने त्रयः ॥३॥ सिंहाजधन्विनोऽजायाः कर्काद्याः कलिर्झपः । तुलायास्तौलियुवकुन्भा मृगाया मृगगोवलाः ॥ ४ ॥ भागास्त्रमा दशहृता लब्धा थुक्तनवांशकाः । द्विभैः पञ्चहृतैर्भागैः स्वस्थानाद्द्वादशांशकाः ॥ ५ ॥ भागाः पञ्चविभावक्षास्त्रिंशांशा विषमे गृहे । कुजाकयज्ञशुक्राणां व्यस्तास्ते समभे तथा ॥ ६ ॥ व्यासः - पड्वर्ग पञ्चवर्गे च चतुर्वर्ग शुभावहम् । त्रिवर्ग वाऽपि सद्योगे व्येकवर्ग तनुं त्यजेत् ॥ ७ ॥
इति षड्वर्गशुद्धिः ।
अथानिष्टवर्गापवादः ।
वसिष्ठः -- इष्टश्च वेदाहिबलोपपनैश्चतुर्भिरप्यभ्वर गैर्वि लग्नम् | अनिष्टषड्वर्गमपीमाहुः स्वेरीक्षितं गौतमगालवाद्याः || १ || माण्डव्य:- - पड्वर्गं पञ्चवर्गे च चतुवर्ग शुभावहम् | लग्नं नन्द्यादियोगेषु त्रिवर्गमपि शस्यते ॥ २ ॥ शुभवर्गैः शुभं लग्नं नेतरैश्चापि तत्र तु । स्वमित्रजः शुभः प्रोक्तो वर्गः शत्रुभवो न सन् ॥ ३ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - जातिशक्राम्बुदव्यालत्यष्टिजिनभानवः । घनेन्द्रोत्कृत्तिनागांशा मेषादेः कार्यकारकाः ॥ ४ ॥ अत्यष्टिर्मनवचैव जिनाथ मुनयस्तथा । मेषसिंहाश्वपूर्वाणां पुष्फलांशाः प्रकीर्तिताः ॥ ५ ॥
Į
इत्यनिष्टवर्गापवादः ।
१. 'टपोमन्दात् । २ व. नैश्वराः । ३ व. भुक्तान । ४ व वैश्विमाक्षा ॥ ५. घ. 'हुः स्वैशेक्षि' । ६ घ 'त्यष्टजि । ७ ख सिंहाश्वषु । घ. सिंहवपु
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ तिथ्यादीनां बलविचारः ।
संहितापदीपे - शास्त्रार्थतत्त्वं प्रविचार्य पूर्व सांवत्सराणां धुरमुद्दिधीर्षुः । समादिशन्सत्सु महत्त्वमेति लोके न विद्यालवलिप्तचिह्नेः ॥ १ ॥ लगं तिथिव्योमचरः शशाङ्कने नक्षत्रयोगौ करणं तथैव । एतानि लोकव्यवहारसिद्ध शास्त्रार्थशोध्यानि पदानि सप्त || २ || लग्नेन्दुतिभ्युद्गमतारकाणां दोषा गुणाश्रभिहिता बुधैर्ये । विचार्य तेषां लघुतां गुरुत्वं विनिर्णयं शास्त्रपदानि (नि ) धास्ये || ३ || तिथिः शरीरं मन इन्दुवीर्यं विलग्नमात्माऽवयवास्तु भाद्याः । शुद्धे शरीरे त्वपरेऽविचिन्त्यं न क्वापि कुडयेन विनाऽपि चित्रम् ॥ ४ ॥ सर्वत्र कार्येषु शुभाशुभेषु पृच्छन्ति लोकास्तिथिमेव पूर्वम् । न कापि योगं करणं ग्रह वा तस्मात्तिथेर्मुख्यतरत्वमिष्टम् || ५ || ज्योतिर्विवरणे - तिथेः प्रशंसा या प्रोक्ता सदैव पितृकर्मणि । ज्ञेया बुधैस्तथोद्वाहमयाणादिषु चाल्पता ।। ६ ।। वारर्क्षच - न्द्रोदयशुद्धिलाभे तिथिः सदोषोऽपि भवेददोषः । सौन्दर्यकान्त्यादिगुणैः सरोजं सकण्टकत्वेऽपि यतो गुणाढ्यम् ॥ ७ ॥ विशुद्धमृक्षं सबलं च लग्नं यथा प्रयत्नेन विलोकयन्ति । तथा न योगं करणं तिथिं वा दोषो गुणो वाऽपि तिथेर्यतोऽल्पः || ८ || इत्थं विरोधे वचसां मिथस्तु किं तु प्रमाणं कतरन्मृषेति । नाऽऽयाति वक्तुं मुनिभाषितत्वात्प्रामाण्यमेषां विषयावदोधात् ॥ ९ ॥ गुणस्य दोषस्य च तारतम्यं विचारणीयं विदुषा प्रयत्नात् । कश्चिद्गुणो दोषशतं निहन्ति दोषो गुणानामपि हन्ति लक्षम् ॥ १० ॥ पूर्वापराभ्यां सहितस्तिथिभ्य निहन्ति दर्शो निचयं गुणानाम् । तमेव हित्वाऽमृतसिद्धियोगस्तिथेरशेषानपि हन्ति दोषान् ॥ ११ ॥ स्यातामुभौ दोषगुणौ महान्तौ यदा तदा हीनतरो गुणः स्यात् । पुण्ये कृते पातकिताऽधिकेऽपि नापैति पापं हि जनापवादः ॥ १२ ॥ ज्योति:सागरे - लग्नं जीवो मनश्चन्द्रः शरीरं च तिथिस्ततः । जीवे पुष्टे फलं पुष्टं नष्टे नष्टं विदुर्बुधाः ॥ १३ ॥ गर्गः - लग्नं केनापि दोषेण दूषितं चेत्तदा गुणाः । सर्वे दुष्टाः स्युरात्मानं विना यद्वत्कलेवरम् ॥ १४ ॥ संहिताप्रदीपे - केनापि दोषेण तनौ प्रदुष्टे दुष्यन्ति तिथ्यब्जवलर्क्षवाराः । सौवर्णकान्त्यादिगुणो मुखस्य नासाविहीनस्य भवत्यसारः ॥ १५ ॥ लल:- न तिथिं न च नक्षत्रं न योगं नैन्दवं बलम् | लग्नमेकं प्रशंसन्ति गर्गनारदकश्यपाः ॥ १६ ॥ ज्योतिर्विवरणेलग्नaff विना यत्र यत्कर्म क्रियते बुधैः । तत्फलं विलयं याति ग्रीष्मे कुसरितो यथा ॥ १७ ॥ शुष्कमा दहत्येधो महादीप्तो यथाऽनलः । तिथ्यादीनां फलं तद्बल्लग्नदोषो विनिर्दहेत् । यथा निर्वाणतां याति दीपः स्नेहक्षयात्तथा ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
लग्नवीर्यक्षयादेव तिथ्यादेः सदसत्फलम् ॥ १९ ॥ मन्त्रौषधवशाद्यद्वद्भक्षितं जीर्यते विषम् । तद्वद्ग्रहबलेनैव जीर्यते दोपसंचयः ॥ २० ॥ ज्योतिष्प्रकाशे– न लिप्यते यथाऽम्भोभिस्तत्रस्थं पद्मिनीदलम् । तथा तिथ्यादिजैर्दोषैर्लग्नं खेटबलान्वितम् ॥ २१ ॥ संहिताप्रदीपे - - नक्षत्रलग्नतिथयः प्रथमार्धवीर्या वारश्व योगसहितो बलवानशेषः । ऋक्षं दिवा निशि तिथिर्विवलत्वमेति तिथ्यर्धमंत्र तिथिवत्परिचिन्तनीयम् ॥ २२ ॥ वृद्धगर्गः - तिथिरेकगुणः प्रोक्तो बलेन द्विगुणः क्षणः । चतुर्गुणं तु नक्षत्रं वारश्राष्टगुणः स्मृतः || २३ || चन्द्रः शतगुणो लग्नं सहस्रगुणमुच्यते । लग्नाद्धोरादयो भेदा बलिनः स्युर्यथोत्तरम् ॥ २४ ॥ राजमार्तण्ड : - तिथिरेकगुणा प्रोक्ता नक्षत्रं च चतुर्गुणम् । वारश्वाष्टगुणश्चैव चन्द्रः शतगुणः स्मृतः || २५ || लग्नं कोटिगुणं विद्याद्ग्रहवीर्यसमन्वितम् । तस्मात्सर्वेषु कार्येषु लग्नवीर्यं विलोकयेत् ॥ २६ ॥ ज्योतिः सागरे - लग्नं पुष्पसमं ज्ञेयमंशः फलसमस्तथा । नष्टे पुष्पे फलं नास्ति तस्माल्लग्ने प्रधानता || २७ ॥ तिथ्या - दिकानामिति तारतम्यं शास्त्रार्थतत्त्वं मुनिभिः प्रदिष्टम् । तथैव लोकव्यवहारदृष्टं मतं बहूनामपि चिन्तनीयम् ॥ २८ ॥
इति तिथ्यादीनां बलविचारः ।
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अथ लग्नबलप्रशंसा ।
संहिताप्रदीपे - प्रायेण कार्याणि करोति लोको बलेन चन्द्रस्य तथोदयस्य । चन्द्रस्य कीदृक्कियतां ग्रहाणां लग्ने वलं चेति तदुक्तिरेषा ॥ १ ॥ प्राधान्यमत्रो - दयशीतभान्वोः स्थितं द्वयोरेव जगत्प्रसिद्धम् । तत्रापि केचिद्वलवद्विलग्नं व्याचक्षते शैतकरं तथाऽन्ये ॥ २ ॥ यदा विलग्नं गुणवर्जितं स्यात्तदा बलीयानपि किं मृगाङ्कः । यतो नितान्तं गुणवानपीह दैवेन हीनः पुरुषो न किंचित् ॥३॥ दोषैर्महद्भिर्निहतं विलग्नं निहन्ति वीर्यं शिशिरत्विषोऽपि । चित्तं हि दुःखोपहतं नराणां शरीरमानोति सुखं न किंचित् ॥ ४ ॥ बलेन लग्नस्य बली शशाङ्को बलेन हीने सति दुर्बलः स्यात् । यतो हृषीकं मनसा समेतमर्थ न गृह्णाति न तेन हीनम् ॥ ५ ॥ यो लग्नदोषोपहतो मुहूर्तस्तत्रेन्दुवीर्यादि कथं विचिन्त्यम् । विषाम्बुसिद्धस्य किमोदनस्य शुद्धं भवत्येकमपीह सिक्थम् ॥ ६ ॥
इति लग्नबलप्रशंसा |
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ चन्द्रबलप्रशंसा |
शार्ङ्गविवाहपटले- लग्नं देहोऽङ्गानि पड़र्गकाच प्राणश्चन्द्रो धातवः खेचरेन्द्राः । प्राणे नष्टे देहधात्वङ्गनाशस्तस्मात्सर्वत्रेन्दुवीर्य प्रधानम् ॥ १ ॥ संहिताप्रदीपे - आदौ हि चन्द्रस्य बलं विचिन्त्यं लग्नस्य पश्चादथ सप्तवर्गः । किं चन्द्रवीर्येण विनेतराणि कुर्वन्ति सत्यायुषि लक्षणानि ॥ २ ॥ श्रीपतिः- आधारमिन्दोर्बलमुक्तमार्यैराधेयमन्यद्द्महजं च वीर्यम् । आधारशक्तौ परिनिष्ठितायामाधेयवस्तूनि हि वीर्यवन्ति ||३|| अमृतकिरणवीर्याद्वीर्यमाश्रित्य सर्वे विदधति फलमेते खेचराः साध्वसाधु । निजनिजविषयेषु व्याप्रियन्ते यथाऽमी फलमिह मनसैवा1 धिष्ठितानीन्द्रियाणि ॥ ४ ॥
इति चन्द्रबलप्रशंसा |
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अथ चन्द्रलग्नयोर्बलनिर्णयः ।
इत्थं विवादे विदुषां बहूनां परस्परं भिन्नमतं वचोभिः । प्राधान्यमस्येति न वक्तुमेति शास्त्राणि विज्ञाय पुरातनानि ॥ १ ॥ संहिताप्रदीपे - प्रायेण सर्वत्र विलोकयन्ति चान्द्रं बलं गोचरतो विशुद्धम् । लोकेषु यच्चन्द्रबलं प्रधानं शास्त्रेषु मुख्यं खलु लग्नमेव ॥ २ ॥ यत्रोदितं लग्नबलं प्रधानं विलोक्यमिन्दोरपि तत्र वीर्ये । दुष्टं फलं स्यादुभयोरभावे लग्नाब्जयोरन्यतमस्य मध्यम् ||३|| अत्राऽऽह् माण्डव्यमुनिर्विशेषं प्रायेण चन्द्रस्य वलं विलोक्यम् । समुत्सुके कर्मणि लग्नवीर्य तात्कालिकादप्यनयोरभावे ॥ ४ ॥ यदुक्तं कैश्चिदाचार्यैः प्राधान्यं शीतगोर्बले । लग्ने न सदसद्यस्मान्नैतद्गर्गादिसंमतम् ॥ ५ ॥ गर्गः - कल्पादावसृजत्स्रष्टा भचक्रं ग्रहसंयुतम् । मूर्तिमत्संनिबद्धं तद्राशिचक्रे त्वमूर्तके ॥ जातकतिलके - - अमूर्तिराशिचक्रस्य स्थिरत्वं युज्यते पुनः । ज्योतिश्चक्रस्य मूर्तस्य स्थिरत्वे नैव कारणम् ॥ ७ ॥ सोमसिद्धान्ते - नित्योऽमूर्तो ह्यनाद्यन्तः कालो द्वादशधा भवेत् । स्वयं स्वाङ्गविभागेन राशयस्तेऽत्र कल्पिताः || ८ || ज्योतिर्विवरणे - अनित्यं मूर्तिमत्सर्वममूर्त नित्यमुच्यते । तस्मादल्पफलं मूर्त परं भूरिफलप्रदम् ॥ ९ ॥ अमूर्तमूर्तयोः कास्ति साम्यं नित्यादिभेदतः । तस्माल्लने प्रधानत्वं त्रिस्कन्धज्ञैः किल स्मृतम् ॥ १० ॥ पितामहः – ज्योतिःशास्त्रफलं सर्व लग्नाधीनं बुधैः स्मृतम् । स्फुटखेटाश्रयं तत्तु तस्मात्प्राधान्यमेतयोः ॥ ११ ॥ प्रधानं चिन्तयेपूर्व ततोऽङ्गं च तयोर्यदि । मुख्याभावेऽङ्गनाशः स्यात्सर्वत्रैवं विनिश्वयः ॥१२॥ ज्योतिर्विवरणे--चन्द्रः प्राण इति प्रोक्तं यद्वच्च फलनिर्णयः । तल्लग्नवीर्यमीमांसाविषयं न तु गोचरम् || १३|| संहिताप्रदीपे - इत्थं पुराणमुनिनिर्मित संहितार्थान्बुध्द्धो
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श्रीशिवराजविनिर्मितोदितं किल बलाबलमुद्गमेन्दोः । चन्द्रात्तनुर्बलवतीति हि शास्त्रतत्त्वं प्रायोऽभिधेयमधिगम्य मतं बहूनाम् ॥ १४ ॥ पश्चादिभिः सत्फलदेविलग्नं पुष्टं भवेन्मध्यफलं चतुर्भिः । द्वाभ्यां त्रिभिर्वाऽप्यथ हीनमेव न कापि देयं विदुपा कदाचित् ॥१५॥ कश्यपः-- पञ्चभिरिष्टैरिष्टं पुष्टमनिष्टैरनिष्टमादेश्यम् । स्थानादिवलसमृद्धश्चतुर्मिरपि पठ्यते यवनैः ॥ १६ ॥ दैवज्ञवल्लभे—संपूर्णफलदं चाऽऽदौ मध्ये मध्यफलप्रदम् । अन्ते तुच्छफलं लग्नं यदि वर्गोत्तमं न चेत ॥ १७ ॥ संहिताप्रदीपेअन्त्ये स्मृतं तुच्छफलं विलग्नं न चेत्षडादिग्रहवीर्ययुक्तम् । वर्गोत्तमांशोपगतं गुणैर्वा प्रोटैस्तदा पुष्टफलप्रदं स्यात् ॥१८॥ असत्फलस्थानगतो ग्रहः स्याच्छुभप्रदः सौन्यसितेज्यमित्रैः । बलान्वितो दुष्टयुतो न पापैर्गत्यन्तराभाव इदं विचिन्त्यम् ॥ १९ ॥ बादरायणः-निषिद्धभवनस्थोऽपि लग्नात्पादो न दोषकृत् । वुधभागवजीवैस्तु दृष्टः केन्द्रत्रिकोणगैः ॥ २० ॥ गर्गः-उच्चस्वगेहमित्रस्था उदिताः फलदा ग्रहाः । अस्तंगताश्च नीचारिराशिस्था विफलाः स्मृताः ॥२१॥ शौनकः-नीचस्था ग्रहविजिताः शिख्यभिभूता विरश्मयो ह्रस्वाः । भुजगा इव मन्त्रहता न स्युः कार्यक्षमा लग्ने ॥ २२ ॥ माठरः-लग्ने चन्द्रबलं बीजं फलपाककरा ग्रहाः । बीजे पुष्टे फलाप्तिः स्यात्तस्माद्धीजमिहेष्यते ॥ २३ ।। लल्ल:सौन्यभावगतो मृदुता क्रूरोपि याति संयोगात् । न हि चन्द्रकराश्लिष्टात्सूर्यमणेः संभवति वह्निः ॥ २४ ॥ क्रूरांशगतः सौम्यो न शुभं दातुं क्षमः प्रयुक्तोऽ पि । न तु चन्द्रकान्तस्तावत्सूर्यकरालिङ्गितः स्रवति ॥२५॥ न सकलगुणसंपल्लभ्यतेऽल्परहोभिर्वहुतरगुणयुक्तं योजयेन्मङ्गलेषु । प्रभवति न हि दोषो भूरिभावे गुणानां सलिलमिव हि वह्नौ संप्रदीप्लेन्धनस्य ॥ २६ ॥ गुणशतमपि दोषः कश्चिदेकोऽपि वृद्धः क्षपयति यदि नान्यस्तद्विरोधी गुणोऽस्ति । घटमिव परिपूर्ण पञ्चगव्यस्य शक्त्या मलिनयति सुराया विन्दुरेकोऽपि सर्वम् ॥ २७ ॥ श्रीपतिः- उच्चादिस्थोऽपि नो हन्ति फलं भावकृतं ग्रहः । अनिष्टं कुरुते पापी नीचादिस्थस्त्वशोभनम् ॥ २८ ॥ गर्ग:-योकभावगौ तुल्यशुभाशुभफलौ ग्रहौ । स्यात्तदा निष्फलो भावो यो बली स फलप्रदः ॥ २९ ॥ सप्तर्षिमते-- तोयालयादिभिक्षा यथा भूरिफलमदाः । तथा स्थानादिवीर्याढ्या लग्ने कार्यक्षमा ग्रहाः ॥ ३० ॥ लल्ल:---फलं वारस्य संपूर्ण स्वहोरायां जगुव॒धाः । तथा लग्नफलं चांशे संपूर्ण मिश्रमन्यथा ॥ ३१॥ माण्डव्यः--लग्नं सर्वगुणोपेतं दिनरल्न लभ्यते । ततो गुणाधिक देयं दोपाल्पं बहु संमतम् ।। ३२ ॥
इति चन्द्रलग्नयोबलनिर्णयः ।
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ज्योतिर्निबन्धः । अथ लग्नांशयोर्विचारः ।
ज्योतिर्विवरणे- केचिल्लग्नं प्रशंसन्ति ग्रहवीर्येण संयुतम् । केचिलमनवांश च केचिचन्द्रमसो बलम् ॥ १ ॥ लग्नं देहो विधुजीवो मनोशः कर्मणः फलम् । ग्रहवीर्ये ततो दे दृढे प्राणादिचिन्तना || २ || पितामहः - ज्योतिःशास्त्रफलं सर्व लग्नाधीनं बुधैः स्मृतम् । स्फुटखेटाश्रयं तत्तु तस्मात्प्राधान्यमेतयोः ॥ ३ ॥ भृगुः - गुणयुक्तं यदा लग्नं नवांशो दुर्बलो भवेत् । शुभं नैव विरुध्येत शुभस्वाम्यवलोकनात् || ४ || नवांशो गुणवान्यत्र लग्नं वलविवर्जितम् । तदा न मङ्गलं कार्य यतो मुख्यं तनोर्बलम् ॥ ५ ॥ प्रधानं चिन्तयेत्पूर्वं ततोऽङ्गं च तयोर्यदि । मुख्याभावेऽङ्गनाशः स्यात्सर्वत्रैवं विनिर्णयः || ६ || माठरः- - शुद्धौ लग्नाशयोः पूर्ण पादोनं केवलं तयोः । अंशशुद्ध फलं त्वर्धमभावे निष्फलं तयोः ॥ ७ ॥ प्रश्नशास्त्रे - - इन्दुः सर्वत्र बीजाभो लग्नं तु कुसुमप्रभम् । फलेन सदृशोंऽशश्च भावः स्वादुफलः स्मृतः ॥ ८ ॥ ज्योतिर्विवरणे - चन्द्रः प्राण इति प्रोक्तं यद्वचः फलनिर्णये । तल्लग्नवीर्यमीमांसाविषयं तु न गोचरम् ॥ ९ ॥ इति लग्नांशयोर्विचारः ।
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अथ लग्नस्थार्कप्राशस्त्यम् ।
अशुभोऽपि रविः शस्तो लग्नगः केचिदूचिरे । इति तद्धेतुना केन ब्रूहि शास्त्रानुसारतः ॥ १ ॥ यथोपाधिवशेनैव सन्मणिर्भाति तद्विधः । बाह्येऽथाssभ्यन्तरे तस्य निर्मलत्वं न मुञ्चति ॥ २ ॥ तथा शापपग्रहाद्यैर्दोषैर्व्याप्तोऽपि भास्करः । न जहाति गुणं व्यालावृतचन्दनवृक्षवत् || ३ || ललः – कुर्यान्मङ्गलपौष्टिकानि नृपतेर्यात्राभिषेकौ तथा सेवाभेषजधर्मवर्त्मक नकग्रावोग्रकर्माणि च । विद्याज्ञानचरव्रतानि हवनं शिल्पं रणं साहसं क्षिप्रालंकरणे दिने दिनकृतो लग्नस्थt a al || ४ || बृहस्पतिः - अर्कोदयः प्रशस्तः स्याद्विमराजन्ययोः - सदा । चन्द्रोदयोऽङ्गनानां च वणिजां जलजीविनाम् ॥ ५ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - वर्णस्यापित केन्द्रे लग्नजन्मभयोस्तथा । सिध्यन्ति सर्वकार्याणि सबले च विशेषतः || ६ || कूर्मयामले - यात्रायामुदये भानोरस्ते चोद्वाहपूर्वकम् । विदध्यात्सर्वकर्माणि मध्याह्ने भृगुरब्रवीत् ॥ ७ ॥ मौजी पटले - शुभगो बलवान्भानुर्लगो दशमस्तथा । सर्वशाखाधिपो यस्मात्सर्वेषां व्रतबन्धने ॥ ८ ॥
इति लग्नस्थार्कप्राशस्त्यम् ।
१ यो । २. " ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ लग्नस्थचन्द्रनिषेधप्रश्नोत्तरम् । ज्योतिष्प्रकाशे-चन्द्रः सौन्यतरस्तद्वत्फलपाककरो ग्रहः। कथं तर्हि विलग्नस्थो निन्द्यः पाणिग्रहादिषु ॥१॥ गुरुभार्यानुगामित्वात्क्षयित्वं प्राप्तवान्विधुः । तेन मृतौ निषिद्धः स्याद्यतः संसर्गजा रुजः ॥२॥ आयुर्वेदशास्त्रे-यक्ष्मा कुष्ठं ज्वरचैव स्फोटको नयनामयः । संश्रयात्संचरन्त्यन्यं चन्द्रदोपो यथा तनुम् ॥३॥
इति लग्नस्थचन्द्रनिषेधः।
अथ तात्कालिक विचारः। भूपाल:- अहोरात्रस्य मध्ये तु समानं वत्सरो व्रजेत् । तन्मध्यमासतिथ्यक्षबारयोगादिकं भवेत् ॥ १॥ चैत्रे चैत्रादयो मासा मासे मासेऽप्ययं क्रमः । पञ्चपञ्चघटीसंख्या मासानां परिकल्पना ॥ २ ॥ तत्र त्रिंशद्दिनानि स्युः पलैस्तु दशभिर्दिनम् । यस्मिन्काले तु यो मासस्तस्मिन्मासे तु या तिथिः ॥३॥ तस्यां चरक्षयोगादि स्वकार्याय विलोकयेत् । तात्कालिकमिदं सर्व सर्वकार्येषु योजयेत् ॥ ४॥ संहिताप्रदीपे---सप्ताश्चिनिना दिनयातनाड्यः षष्टया विहत्याऽऽसफलं वियोज्यम् । वारे तिथौ भे च युतौ च ते स्युस्तात्कालिका वारतिथीन्दुसूर्याः ॥५॥ ज्योतिष्प्रकाशे-गताब्धिहतिर्यातघटीतिथ्यंशसंयुता । दिक्व्याप्तादि] लवादिन्दुः षड्गुणोऽष्टघटीयुतः ॥ ३ ॥भूपाल:-संवत्सरमहोरात्रं ये जानन्ति मनीषिणः । तेपां तिथ्युदयज्ञानमिदं मनसि वर्तते ॥ ७॥
इति तात्कालिकविचारः।
अथ सूक्ष्मनियनम् । शिरोमणौ-सूक्ष्म प्रवक्ष्येऽथ मुनिप्रणीतं विवाहयात्रादिफलमसिद्धयै । अध्यर्धभोगानि पडत्र तज्ज्ञाः प्रोचुर्विशाखादितिभध्रुवाणि ॥ १॥ पौलिश:-- भरण्याा तथाऽऽश्लेपा मारुतं शाक्रवारुणे । पडैतान्यर्धभोगानि संपूर्णानीतराणि च ॥२॥ भमानत्रिलवो द्विघ्नः स्वस्मृत्यंशयतो हतः । भसंख्यया फलैः स्थूलं महीनं सूक्ष्मतामियात् ॥ ३॥ एवं विश्वक्षेपर्यन्तं पौणे शून्यमुखान्त्यतः। कर्णान्तं प्राग्वदत्रस्थमुपान्त्ये श्रवणद्वये ॥ ४ ॥ वैश्वक्षस्य चतुर्थांशस्तथा पञ्चदशांशकः । श्रवणस्य च तत्तुल्या अभिजिद्भोगनाडिकाः ॥ ५ ॥
इति सूक्ष्मानयनम् ।
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१ क, ध्यभा । २ क.
संज्ञाः ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
अथ तिथ्यादिगुणप्रशंसा। पितामहः-मासशुद्धौ सुखं भोगो धनारोग्यं च सत्तिथौ । कार्यसिद्धिः सुनक्षत्रे करणे शोभने धनम् ॥ १ ॥ इष्टावाप्तिः शुभे योगे वाञ्छिताप्तिः शुभे विधौ । शुभे वारे सर्वसंपत्सौमनस्यं शुभे क्षणे ॥२॥ लग्ने शुस्ते महानन्दः स्वेशवीर्ये समुन्नतिः । लग्ने सग्रहवीर्ये स्युः सर्वे समुदिता गुणाः ॥ ३॥ ललःसिद्धौ यात्रां प्रकुर्वीतामृतयोगे गृहादिकम् । अन्धभे स्थापयेदव्यं काणे चौर्यविधिक्रिया ॥४॥
इति तिथ्यादिविचाराध्यायः।
अथ त्याज्यप्रकरणम् । ज्योतिष्प्रकाशे-जन्माधिपविलग्नेशचन्द्रभार्गवमन्त्रिणाम् । विरश्मित्वं जन्ममासो जन्मभंजन्मवासरः॥१॥दुनिमित्तं मनोभङ्गः क्षयमासाधिमासको । मृतजातकयोश्चैव सूतकं ग्रहणस्य च ॥२॥ ज्वरोत्पत्ती रजो मातृपित्रोः क्षयदिनं तथा। गण्डान्तत्रितयं कालः संधिर्भस्य तिथेस्तनोः ॥३॥ क्रान्तिपातो व्यतीपातो वैधृतिः परिघार्थकम् । भानोः संक्रान्तिभोगश्च कुलिकवार्धयामकः ॥ ४ ॥ क्रूरैमुक्त युतं भोग्यं सराहुशिखिधूमितम् । थिष्ण्यं ग्रहणगं पापविद्धं सौम्यैश्च पादतः ॥ ५॥ विष्टिः क्रूरयुतं लग्नं लग्नेशो रिपुमत्युगः । जन्मतो दुःस्थितचन्द्रो लग्नस्थो निधनोपगः ॥६॥ जन्मभाजन्मलग्नाञ्च लग्नलग्नांशकाष्टमौ । पापयोर्मध्यगं लग्नं क्षीणेन्दुः कुलवांशकः ॥७॥ क्रूरवारे पापहोरादुष्टयोगा ग्रहोद्भवाः । तिथिवृद्धिक्षयौ भानां नाडिका विषसंज्ञिताः ॥८॥ एते दोषाः समाख्याताः शुभकर्मणि गर्हिताः । दशारिष्टोद्भवाश्चान्ये गोचरस्थास्तथा परे ॥९॥ लत्तैकार्गलचण्डास्त्रकालवेलाश्च पञ्चकम् । मृत्युयोगोपग्रहाद्याः स्वे स्वे देशेऽतिनिन्दिताः ॥१०॥ माण्डव्यः-सिंहस्थिते सुरगुरावधिमासके.च ज्येष्ठे तथाऽऽद्यतनयस्य च कन्यकायाः । कुर्वीत नास्तगतनीचगयोर्विलग्नजन्मेशयोश्च निखिलान्यपि मङ्गलानि ॥ ११ ॥
इति त्याज्यप्रकरणम् ।
अथ दोषफलप्रकरणम् । वसिष्ठः-फुलिके मरणं विद्याद्वार्हस्पत्येऽर्थनाशनम् । यामार्धे नाशमामोति
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
कालवेला भयप्रदा || १ || माण्डव्यः-२ - सर्वमङ्गलविध्वंसी याने सर्वापहारकः । व्याकुली कुलिकेऽभ्यङ्गे भोजनेऽन्नं विषायते ॥ २ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे – कुलिha भवेन्मृत्युर्यामार्धेन यशःक्षयः । विष्टया भ्रंशोऽर्कसंक्रान्त्या वैरं पातेन बन्धनम् ।। ३ ।। कश्यपः-वत्सरायनमासर्तु संधिदैन्यप्रदः शुभे । तिथिध मनस्ताप सिंधौ महद्भयम् ॥ ४ ॥ योगसंधौ श्रमस्ती लग्नसंधौ सुखक्षयः । तिथिलग्नभगण्डान्ते कार्यनाशः क्षतिमृतिः ॥ ५ ॥ निषिद्धचरणे रोगो निन्द्ययोगे कलिर्भवेत् । वैधृतौ व्यतिपाते च हानिर्वा मृत्युरेव वा ॥ ६ ॥ मिथ्याभिदूषणं दुष्टयोगे तिथिभवारजे । चण्डायुधेऽखजं दुःखं वैरमेकार्गले महत् ॥ ७ ॥ लत्तायां वाहनात्पातः कलिर्दग्धतिथौ भवेत् । विषनाड्यां विपाद्भीतिरपमृत्युरथापि वा ॥ ८ ॥ विघ्नं स्यात्पापकर्तर्यां समांशे मरणं ध्रुवम् । पापविद्धे च नक्षत्रे व्याधिः शोको धनक्षयः ॥ ९ ॥ धूमि मे भवेयाधिर्दग्धे कार्य न सिध्यति । ज्वलिते मृत्युरेव स्याद्विद्धे विघ्नं समादिशेत् ॥ १० ॥ रजोत्पत्तौ मृतिं विद्याद्रोगं पित्रोः क्षयेऽहनि । परिघे रोधवन्धौ च व्यतीपाते कुलक्षयः ॥ ११ ॥ वैधृतौ जीवहानिः स्याद्ग्रहणक्षे पराभवः । क्षीणेन्दौ दीर्घरोगश्च पापहोरा विरोधकृत् ।। १२ ।। तिथिक्षये मानहानिस्तिथिवृद्ध पराद्भयम् । अस्तं गते लग्नपतौ व्याधिराधिर्धनक्षयः || १३ || लग्ने क्रूरयुते नाशश्राष्टमे च तनुक्षयः । चतुर्थे जायते वैरं जन्मतो व्ययगे व्ययः ॥ १४ ॥ दुष्टस्थानस्थिते चन्द्रे राशेर्लग्नात्सुखक्षयः । मृत्युयोगे कालयोगे कर्तु - र्नाशः प्रजायते ॥ १५ ॥ जन्मर्क्षे सुखहानिः स्यात्कलिर्जन्मतिथावपि । जन्ममासे भयं घोरं जन्मलग्नं शुभावहम् || १६ || गात्रभङ्गः क्षये मासे विग्रहस्त्वधिमासके । व्यसनं गोचरोत्थे च दशारिष्टे च बन्धनम् ॥ १७ ॥ षष्ठो लग्नाधिपो नूनं स्वयमेव रिपुर्भवेत् । अष्टमो मृत्युकृच्चैव व्ययगो व्ययकारकः ॥१८॥ ब्रह्मर्षिः - परिवेषं दिग्धूमं दिग्दाहं दुर्दिनं च नीहारम् । निर्घातं ग्रहयुद्धं प्रतिमायां स्वेदनं महीकम्पम् ॥ १२ ॥ रात्रौ सुरेन्द्रचापं संध्यायामासुरं शिवारावम् । उल्कापतनं दिवसे देशादेर्नाशनं जगदुः || २० ||
इति दोषफलाध्यायः ।
अथापवादप्रशंसा |
फलप्रदीपे - कृते गुणाः स्युर्बलिनः कलौ तु दोषाः समा मध्ययुगद्वयेऽपि । अतोऽपवादेन विना न दोषा गुणैः समं यान्ति युगे चतुर्थे ॥ १ ॥ ज्योति
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ज्योतिर्निवन्धः। विवरणे--न दोषाः कार्यहन्तारो ह्यपवादरपोहिताः । दिव्ये सत्यरतं नूनं न हि दग्धुं क्षमोऽनलः ॥ २ ॥ बृहस्पतिः--गुणो वा यदि वा दोषो दुर्बलो नष्टता व्रजेत् । स एव पुनरुत्कृष्टवीर्यवान्स्वफलप्रदः॥ ३ ॥ माण्डव्यः-दोषाणां च गुणानां च तारतम्यं विचार्यते । बलाबलविभागेन पश्चात्कालं समादिशेत् ॥४॥ गर्गः--यत्सामान्यं विशेषेण वाध्यते ततिलुप्यति । यत्र नास्ति विशेषत्वं तत्र सामान्यमाचरेत् ॥५॥ ज्योतिर्विवेके-श्रूयते च महान्दोषः श्रूयते च महत्फलम् । फलं तत्र परित्याज्यं दोषो हि बलवान्भवेत् ॥६॥ बृहस्पतिः-दोषाश्च गणिताः सर्वे गुणेभ्यो वहवः कलौ । तथापि दोषा नश्यन्ति स्वापवादैर्गुणैरपि ॥ ७॥ दोषाश्च स्वापवादैस्तु ह्यशुभाः शुभतां ययुः । यथा पापा ययुः सर्वे प्रायश्चित्तैरभावताम् ॥ ८ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे- यथाऽग्निर्मेघधाराभिस्तूलराशिस्तु मारुतैः । सदाचारेण पापानि व्याधयस्तु सदौषधः॥९॥ तथा दोषा विनश्यन्ति ह्यपवादेर्यथोदितैः । बलिभिर्वा गुणैः प्रौद्वैस्तद्विना स्वफलं ददुः ॥१०॥
इत्यपवादप्रशंसा ।
अथ महादोषनिरूपणम् । नारद:-- पञ्चाङ्ग-शुद्धिरहितो दोपस्त्वाद्यः प्रकीर्तितः । उदयास्तशुद्धिरहितो द्वितीयः सूर्यसंक्रमः ॥१॥ तृतीयः पापपड्वर्गो भृगुः षष्ठः कुजोऽष्टमः । गण्डान्तं कर्तरी रिष्फः षडष्टेन्दुश्च सग्रहः ॥ २ ॥ दंपत्योरष्टमं लग्नं राशेविषघटी तथा । दुर्मुहूर्तो गरदोपः खाजूंरिकसमाध्रिभम् ॥ ३॥ ग्रहणोत्पातभं क्रूरविद्धर्श क्रूरसंयुतम् । कुनवांशो महापातो वैधृतिश्चैकविंशतिः ॥ ४ ॥ फलप्रदीपे-महादोषा विवाहे च वैधव्यं भङ्ग आहवे । विद्यारम्भे च मूर्खत्वं यात्रायां मार्गरो. धनम् ॥ ५॥ व्रते च कर्मबाह्यत्वं रोगश्च क्षुरकर्मसु । नवान्नप्राशने भैक्ष्यं गृहारम्भे सुखक्षयः ॥ ६॥ दैन्यं गेहप्रवेशे च वन्ध्यात्वं गर्भशोभने । कृषिकर्मणि वैफल्यं ग्रामकार्य नृपोऽपरः ॥७॥ राज्यनाशः प्रतिष्ठायामग्न्याधानेऽग्निनाशनम् । पट्टाभिषेके दारिद्यं हानिर्वाणिज्यकर्मणि ॥८॥ विरोधः स्वामिसेवायां हरणं च विधूपणे । दारिद्यं मरणं हानि सर्वकार्ये विदुर्बुधाः ॥९॥ ज्योतिश्चिन्तामणौ-महादोषे कृतं कर्म महादोपकरं भवेत् । तस्माच्छुभेषु कार्येषु महादोपान्परित्यजेत् ॥१०॥
एषां लक्षणानि । नारद:--तिथिवारक्षयोगाणां करणस्य च मेलनम् । पञ्चाङ्गमस्य शुद्धिस्तु
१ य. 'पोदिताः
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
I
पञ्चाङ्ग शुद्धिरीरिता ॥ ११ ॥ यस्मिन्पञ्चाङ्गदोषोऽस्ति तस्मिनं निरर्थकम् त्यजेत्पश्चेष्टिकं वाऽपि विषसंयुक्तदुग्धवत् ॥ १२ ॥ पञ्चाङ्गापवादः -३ :- योगस्य हेम करणस्य च धान्यमिन्दोः शङ्खं च तण्डुलमणी तिथिवारयोश्च । ताराबलाय लवणं वसु गां च राशेर्दद्याद्विजाय कनकं शुचि नाडिकायाः ॥ १३ ॥ लग्नलग्नांशको स्वस्वपतिना वीक्षितौ युतौ । नचेद्वाऽन्योन्यपतिना शुभमित्रेण वा तथा || १४ || वरस्य मृत्युः स्यात्ताभ्यां सप्तसप्तोदयांशकौ । एवं तौ न युतौ मृत्युर्वध्वा कर ॥ १५ ॥ कश्यपः - त्रिप्रकारेण सा शुद्धिर्न चेलनं च निन्दितम् । अपि पञ्चेष्टकं लग्नमनेकगुणसंयुतम् ॥ १६॥ त्यजेद्यथा शुना घ्रातं. तथा हव्यं घृतप्लुतम् ॥ नारदः - त्याज्याः सूर्यस्य संक्रान्तेः पूर्वतः परतः सदा । विवाहादिषु कार्येषु नाड्यः षोडश षोडश ॥ १७ ॥ कश्यपः - यत्कृतं मङ्गलं तत्र नाशमायात्यसंशयम् || १८ || सापवादः षड्वर्गः षड्वर्गप्रकरणस्थो ज्ञेयः । नारद:- भृगुपष्टाइयो दोषो लग्नात्पष्टगते सिते । उच्चगे शुभसंयुक्ते तलनं सर्वदा त्यजेत् ॥ १९ ॥ कश्यपः- नीचगे तत्तुरीये वा शत्रुक्षेत्रगतेऽपि वा । भृगुषष्टादयो दोषो नास्ति तत्र न संशयः ॥ २० ॥ नारदः - कुजाष्टमो महादोषो लग्नादष्टमगे कुजे । शुभययुतं लग्नं त्यजेत्तत्तङ्गगे यदि ॥ २१ ॥ कश्यपः - अस्तगे नीचगे भौमे शत्रुक्षेत्रगतेऽपि वा । कुजाष्टमोद्भवो दोषो न किंचिदपि विद्यते ॥ २२ ॥ गण्डान्तविचारः -पूर्णानन्दाख्ययोस्तिथ्योः संधिर्नाडीद्वयं सदा । गण्डान्तं मृत्युदं जन्मयात्रोद्वाहत्रतादिषु ||२३|| कुलीरसिंहयोः कीटचापयोमनमेषयोः । गण्डान्तमन्तराले स्याद्घटिका मृतिप्रदम् ॥ २४ ॥ सार्पेन्द्र पौष्णभेष्वन्त्यषोडशांशाभसंधयः । तदग्रभेष्वाद्यपादा भानां गण्डान्तसंज्ञिताः ॥ २५ ॥ उग्रं च संधित्रितयं गण्डान्तत्रितयं महत् । मृत्युप्रदं जन्मयानविवाहस्थापनादिषु ॥२६॥ सूर्यसिद्धान्ते- सार्पेन्द्र पौष्णधिष्ण्यानामन्त्य पादाभसंधयः । तदग्रभेषु पादार्धं गण्डान्तं नाम कीर्त्यते ।। २७ ।। रत्नकोशे - आद्यः पितृमूलाश्विषु पौष्णेन्द्रभुजङ्गभेषु चान्त्यभवः । षोडशभागो नेष्टस्तावत्कालस्तु गण्डान्तः ॥ २८ ॥ मूलाश्विनीमघानां प्रथमांशे संस्थिता तु यमदंष्ट्रा । भुजगेन्द्र रेवतीनामन्त्ये सेवापरा घोरा ॥ २९ ॥ लल्लः- -अन्त्यः सार्धेन्द्र पौष्णानामाद्यः पित्राश्विमूलजः । जन्मोद्वाहप्रयाणेच मृत्यवेऽमी षडंशकाः ॥ ३० ॥ ज्योति: सागरे - अश्विनीपौष्णमूलादौ त्रिवेदनवनाडिकाः ३ । ४ । ९ । रेवतीशाक्रसार्पान्ति मासशक्रशिवास्त्यजेत् १२ । १४ । ११ ॥ ३१ ॥ राजमार्तण्ड: - - यामं यवनाधिपतिस्तदर्धभागं च मारिः प्राह । दण्डप्रमितं गण्डं पूर्व परतोऽङ्गिरामीशः ॥ ३२ ॥ मूले
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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मधाश्विचरणे प्रथमे च नूनं पौष्णेन्द्रयोश्च फणिनश्चरणे चतुर्थे । मातुः पितुः स्ववपुषोऽपि करोति नाशं जातो यदा निशि दिनेऽप्यथ संध्ययोश्च ॥ ३३ ॥ रत्नमालायां -- पौष्णाश्विन्योः सार्वपित्राख्ययोश्च यच्च ज्येष्ठामूलयोरन्तरालम् । गण्डान्तं स्याच्चतुर्नाडिकं हि यात्राजन्मोद्वाहकालेष्वनिष्टम् ||३४|| ज्योतिर्विवरणेइह सर्वत्र कालादेरपकर्षो य ईरितः । स एव दोषाधिकताकथनार्थस्तु केवलम् ॥ ३५ ॥ गर्गः -- मघायाः प्रथमे पादे मूलस्य प्रथमे तथा । रेवत्याश्च चतुर्थेऽशे विवाहः प्राणनाशनः || ३६ || भिन्नवाक्यव्यवस्थावचनं ज्योतिः सागरे - कथयति वराहमिहिरो विलोक्य वाक्यानि गण्डविषये च । गण्डं दण्डप्रमितं पूर्व पश्चात्तयोर्मध्यात् ॥ ३७ ॥
अथ गण्डान्तापवादः ।
च्यवनः - तिथ्यादीनां संधिदोषं तथा गण्डान्तसंज्ञितम् । हन्ति लाभगतश्चन्द्रः केन्द्रगा वा शुभग्रहाः ॥ १ ॥
इति गण्डान्तापवादः ।
अथ कर्तरीविचारः ।
ज्योतिः सागरे-पापमध्यगते चन्द्रे पापसंपर्कगेऽपि वा । शुभकर्म न कर्तव्यं तथा लग्ने कदाचन ॥ १ ॥ भवति यदा तुहिनांशुः क्रूरद्वयमध्यगो विलग्ने वा । यात्रादीनि तदानीं नोपदिशेदिष्टकर्माणि ॥ २ ॥ भास्करव्यवहारे – क्रूरयोः सौम्ययोर्वाऽन्तर्लनं वा यदि वा शशी । विवाहे कर्तरी ज्ञेया शुभकूरान्तरे तथा ॥ ३ ॥ फलप्रदीपे -- क्रूरयोः कर्तरी नेष्टा महाविघ्नप्रदा ध्रुवम् । सौम्ययोर्नातिदुष्टा स्यान्मध्यमा पापसौम्ययोः ॥ ४ ॥ ललः -- क्रूर योरितरयोश्च कर्तरी नो शुभा तनुशशाङ्कयोर्न तत् । लग्नमाह शुभयोश्च कर्तरी पापयोश्च शुभमध्यवर्तिनी ॥ ५ ॥ नारदः- लग्नाभिमुखयोः पापग्रहयोऋजुवक्रयोः । सा कर्तरीति विज्ञेया दंपत्योर्मलकर्तरी ||६|| कर्तरीदोपदुष्टं यद्धनं तत्परिवर्जयेत् । अपि सौम्यग्रहैर्युक्तं गुणैः सर्वैः समन्वितम् ॥ ७ ॥
अथ कर्तर्यपवादः ।
विधौ धनोपमे शुभग्रहेऽथ चान्त्यगे गुरौ । न कर्तरी भवत्यो जगाद बादरायणः ॥ १ ॥ क्रूरद्वयस्यान्तरगं विलनं मृतिमदं चन्द्रमसं च रोगदम् । शुभै स्थैरथ वाऽन्त्य गुरौ न कर्तरी स्यादिह भार्गवा विदुः || २ || बृहस्पतिः - लग्नद्विरिप्फगौ क्रूरौ त्रयमेतत्समागम् । तदा कर्तरिजो दोषो
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
नान्यथा भावजं फलम् ॥३॥ राजमार्तण्डे--लग्नस्य पृष्ठाग्रगयोरसाश्चोः सा कर्तरी स्यादृजुवक्रगत्योः । तावेव शीघ्रौ यदि वक्रचारौ न कर्तरी चेति वदन्ति गााः ।। ४ । व्यये मार्गगतिः क्रूरो वक्री क्रूरो धने यदि । तौ च लग्नाशतुल्यौ चेत्तदा घोराख्यकर्तरी ॥ ५ ॥ महाविघ्नप्रदा ज्ञेया विवा शुभकर्मणि। इति सत्यपि लग्नं चेच्छुभान्यं नैव दोपकृत् ॥ ६ ॥ क्रूरकर्तरिसंयुक्तं लग्नं चन्द्रं न च त्यजेत् । केन्द्रत्रिकोणसंस्थेषु गुरुभार्गववित्सु च ॥ ७ ॥ बादरायगः-न हि कर्तरिजो दोषः सौम्ययोर्यदि जायते । शुभग्रहयुतं लग्नं क्रूरयो ऽस्ति कर्तरी । ८ ॥ पापयोः कर्तरीकोंर्नीचराशिगृहस्थयोः । यदा चास्तगयोवाऽपि कर्तरी नैव दोषदा ॥ ९ ॥ वसिष्ठः- एकार्गलोपग्रहपातलत्ताजामित्रकर्तर्युदयादिदोपाः । नश्यन्ति चन्द्रार्कवलोपपन्ने लग्ने यथाऽर्काभ्युदयेऽन्धकारः ॥१०॥
इति कतर्यपवादः ।
अथ षडष्टरिष्फचन्द्रदोषः । नारदः-पडष्टरिष्फगे चन्द्रे लग्नाद्दोषः स्वसंज्ञकः । तल्लग्नं वर्जयेद्यत्नाजीवशुक्रसमन्वितम् ॥ १॥ उच्चगे नीचगे वाऽपि मित्रगे शत्रुराशिगे । अपि सर्वगुणोपेतं दंपत्योमृत्युदं यतः ॥२॥
अथ षडष्टरिष्फचन्द्रापवादः। .. मुहूर्तदर्पणे-कवी गुरौ वा बलिनि स्थिते तनौ शुभेन दृष्टः शुभवर्गगः शशी। विवर्धमानः शुभकृच्च नो शुभं करोति तिष्ठन्नपि वाऽष्टरिष्फयोः ॥ १ ॥
अथ संग्रहदोषः।। नारदः-शशाङ्के ग्रहसंयुक्ते दोषः संग्रहसंज्ञकः । तस्मिन्संग्रहदोषे तु विवाह नैव कारयेत् ॥ १॥ मुहूर्तदर्पणे--थूपाद्भयं रिपुभयं व्यसनं प्रवासं वित्तक्षयं विदरणं च शुभक्रियासु । कर्तुः करोति शशभृत्क्रमशोऽर्कपूर्वैरेवं ग्रहैः सह विशन्नुडुमेकराशौ ॥ २ ॥ दारियं रविणा कुजेन मरणं सौम्येन न स्युः प्रजा दौर्भाग्यं गुरुणा सितेन सहिते चन्द्रे च सापत्नकम् । प्रव्रज्याऽर्कसुतेन सेन्दुजगुरौ वाञ्छन्ति केचिच्छुभं ब्याद्यैर्मृत्युरसद्ग्रहैः शशियुतैर्दीर्घप्रवासः शुभैः ॥३॥ नारदः-प्रव्रज्या सूर्यपुत्रेण राहुणा कलहः सदा । केतुना संयुते चन्द्रे नित्यं कष्टदरिद्रता ॥ ४॥ स्वक्षेत्रगः स्वोच्चगोः वा मित्रक्षेत्रगतो यदि । पापद्वययुतश्चन्द्रः करोति मरणं तयोः ॥ ५ ॥
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ संग्रहापवादः ।
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गुरु: स्वकीयवर्गस्थो बलवान्कण्टक स्थितः । पश्यन्स क्रूरशीतांशुं तं दोषं विलय नयेत् ॥ १ ॥ नारदः- शुभग्रहयुते चन्द्रे स्वोच्चस्थे मित्रराशिगे । दोषाय न भवेनं पत्योः प्रेयसे सदा || २ || संग्रहे प्रोक्तनक्षत्रे विवाहो नैव शोभनः । राशिभेदे न दोषः स्यादेकतारास्वपीन्द्र सः || ३ || एकस्मिन्नपि धिष्ण्ये भिन्ने राशी खलग्रहे शशिनि । तच्चन्द्र कुर्याद्विवाहयात्रादिकं सर्वम् ॥ ४ ॥ बृह - स्पतिः - विधौ शुभेरते सौम्यैर्दृष्टे वर्गे निजे सताम् । सक्रूरे दुस्थितं दोपं व्यपोहति विधुस्तदा ॥ ५ ॥
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अथमलग्नदोषः |
3
शाकल्यसंहितायां - शान्तिकं पौष्टिकं विद्यादानभोजनपूर्वकम् । जीवितेच्छुने कुजातु मे स्वभात् ॥ १ ॥ फलप्रदीपे - त्यजन्ति वै नैधनभं तथैके दशकं चोभयमेव चान्ये । तस्मात्स्वजन्मर्क्षविलग्नयोश्च लग्नांशकौ नैवनगौ विवज्य ॥ २ ॥ वसिष्ठः - यस्याष्टलने तदधीश्वरे वा राशौ तदंशेऽथ विलन गे वा । स मृत्युमानोति तदा मनोजस्त्रिनेत्रभालाम्वकवह्निनेव || ३ || नारदःदंपत्योर्द्वादशं गं राशिर्वा यदि लग्नगः । अर्थहानिस्तयोरस्मात्तदंशस्वामिनं त्यजेत् ॥ ४ ॥ जन्मराश्युद्गमो नैव जन्मलग्नोदयः शुभः । तयोरुपचयस्थानं यदि लग्नगतं शुभम् || ५ || कश्यपः- दुष्टं स्वजन्मलग्नं तज्जन्मराशिरनिष्टदः | लग्नगानि तयोः स्थानाच्छुभान्युपचयानि वै ॥ ६ ॥ वसिष्ठ: - जन्मोदयक्ष निधनं विल तदीश्वरेणापगतेऽथवा स्यात् । कृतो विवाहो भयमृत्युकारी त्रातुं विधाताऽपि न तान्समर्थः ॥ ७ ॥ तस्मात्स्वजन्मक्षनवांशयोश्च लगांशको नैधनगो विवयः ॥ ८ ॥
अथाष्टमलग्नापवादः ।
वसिष्ठ: - जन्मे शाष्टमल शौ मिथो भित्रे व्यवस्थितौ । जन्मराश्यष्टमस्थोस्थदोषो नश्यति भावः ॥ १ ॥ दोपवित्र - अन्योन्यमित्रे यदि जन्मरन्ध्रराशीश्वरौ चेदपि चैकदेशः । जन्मतो रन्धविलग्नदोषो नश्येत्तदा द्वादशतुर्यहोरा ॥ २ ॥ चूडामणौ - लग्नं चालिवृपं त्याज्यमष्टमं शुभकर्मसु । तत्राप्येकेशताऽस्त्येव ततः शस्तं न दोषकृत् || ३ || न दोषोऽमलग्नस्य यदि जम्मेशर
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१ . भतरेस | २ . इच्छितं । ३. व. शंखा । ४ क.. 'रेगोप° । ५ क. खक । ६ ख तनश" ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
पी | सुहृदो चेत्तदा कार्य मङ्गलं मुनयो विदुः ॥ ४ ॥ बृहस्पतिः - चतुर्थी द्वादशं लग्नं शस्तं यदि गुणान्वितम् । अष्टमं तु न कर्तव्यं यदि सर्वगुणान्वि - तम् ॥ ५ ॥ अयं निषेधो जन्मेशरन्त्रपौ वैरिणौ यदा । परस्परं ततो मित्रे तदा दुष्टफलं न हि || ६ || मुहूर्तदर्पणे - स्वकीयजन्माष्टमराशिपत्योर्मैत्र्यां न जन्माष्टमराशिदोपः । जन्मेश कर्मेश्वरमित्रभावः क्षिणोति वैनाशिकदोषमुग्रम् ॥ ७ ॥
अथ विषनाडीदोषः ।
तिथीपुनागाद्रिगिरीशवारिधिगजाद्रिदिक् पावकदिक् च भास्कराः । मुनीभसंख्याः प्रथमातिथेः क्रमात्परं विषाख्यं घटिकाचतुष्टयम् ॥ ८ ॥ विंशच्चतुर्द्वादशदिक् च शैला वाणाच तत्त्वानि यथाक्रमेण । सूर्यादिवारेषु भवत्यनन्तरं नाड्यो विषाख्यं घटिकाचतुष्टयम् ॥ ९ ॥ नारदः - खमार्गणा ५० वेदपक्षाः २४ खरामा ३० व्योमसागराः ४० । वार्धिचन्द्रा १४ रूपदस्राः २१ खरामा ३० व्योमवाहवः २० ॥ १० ॥ द्विरामाः ३२ खाग्नयः ३० शून्यदस्रा २० कुञ्जरभूमयः १८ । रूपपक्षा २१ व्योमदस्रा २० वेदचन्द्रा १४ चतुर्दश १४ ॥ ११ ॥ शून्यचन्द्रा १० वेदचन्द्राः १४ षडक्षा ५६ वेदवाहवः २४ | शून्यदस्राः २० शून्यचन्द्राः १० पूर्णचन्द्रा १० गजेन्दवः १८ ॥ १२ ॥ तर्कचन्द्रा १६ वेदपक्षाः १४ खरामा ३० श्रविभात्क्रमात् । आभ्यः पराः स्युर्घटिकाश्रुतस्रो विषसंज्ञिताः । विवाहादिषु कार्येषु विषनाडीस्तु वर्जयेत् ॥ १३ ॥ फलप्रदीपे - यात्राविवाहादिषु मङ्गलेषु सर्वेषु नूनं विपनाडिकाय । कुर्वन्ति कर्तुमरणं हि शीघ्रं कृतप्रमाणायुष एव धोत्रा || १४ || विपघटिकोक्त ध्रुवका नक्षत्रगतैष्य योगसंगुणिताः । खरसहृताः स्पष्टाः स्युस्ताभ्यो घटिकाचतुष्टयं च तथा || १५ || अन्यथा पञ्चपञ्चाशद्भोगपक्षे मूलस्य विपघटिकाभाव एव । अथ विषनाड्यपवादः ।
फलप्रदीपे-विषनाड्युत्थितं दोषं हन्ति सौम्यर्क्षगः शशी । मित्रदृष्टोऽथ वा स्वीयवर्गस्थो लग्नगोऽपि वा ॥ १ ॥ बृहस्पतिः - चन्द्रो विषघटीदोषं हन्ति केन्द्र - कोणगः । लग्नं विना शुभैर्दृष्टः केन्द्रे वा लयपस्तथा ॥ २ ॥ अथ दुर्मुहूर्तदोषः ।
नारद:- - भास्करादिषु वारेषु ये मुहूर्ताश्च निन्दिताः । अपि सर्वगुणोपेतास्ते वर्ज्याः सर्वमङ्ग || १ || एतत्सर्व मुहूर्तप्रकरणस्थं ज्ञेयम् ।
१ . धात्री ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ वारदोषः ।
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महेश्वरः- मार्तण्डोदयतः स्मृता दिनपतेर्यामार्धनाया ग्रहा मार्तण्डात्मजभोग उत्तरलवस्तज्ज्ञैः शुभे कर्मणि । त्याज्योऽसौ कुलिकोऽथ सूर्यदिवसादन्यैश्च शक्रार्कदिग्वस्वङ्गान्धियमैः स्मृताः कुरहिते रात्रौ तु तिथ्यंशकैः ॥ १ ॥ दीपकेदशेन्द्र व नागसूर्यौ हिमांशौ दशर्त कुजे वेदनागौ च सौम्ये । गुरौ इयङ्गभूपा भृगौ दशौ नृपार्काश्विनो मन्दवारे च कालः ॥ २ ॥ एतेऽपि सत्कमणि वर्जनीया दिवा निशायामपि षोडशांशाः । नृपांशकं पञ्चदशांश वा नान्यो- गुणः कश्चिदपाकरोति ॥ ३ ॥ रत्नकोशे - ये वारास्ते नागा दिवा यथोक्तास्तथैव ते रात्रौ । कालः कुलिको ज्ञेयः सरोजशङ्खोक्तवेलायाम् ॥ ४॥ छायाघटीचतुर्भागो नाड्यर्धमुदयः स्मृतः । वेलानाडीत्रिभागस्तु शेषः कालः 'प्रकीर्तितः ॥ ५ ॥ छायोदयस्तु वेला कालचेति प्रकीर्तितो मुनिभिः । कुलिकचतुरङ्गोऽयं ज्ञेयः स्वयशोर्थिना विदुषा ॥ ६ ॥ महतीं पीडां क्लेशं मृत्युसमामापदं तथा मृत्युम् । कुलिकः करोति नियतं चतुर्विधोऽयं यथोद्दिष्टः ॥ ७ ॥ चूडारत्ने - वेदाद्रिद्विशरीष्टाग्निरसा यामार्थकाः क्रमात् । आदित्यादौ शुभे त्याज्या दिवैव न तु निश्यपि || ८ || संहिताप्रदीपे - यथा दिवार्धमहरा न शस्तास्तथैव रात्रीवपि केचिदूचुः । व्येको निशायां शुभदोऽय वज्यों दिवार्धयामस्तु मतं बहूनाम् ॥९॥ श्रीपतिः - अहनि निशि गजांशः स्वो दिनेशादिकानां भवति तु गुरुभौमज्ञार्किकाले क्रमेण । प्रभवति यमघण्टः कण्टकः कालवेलाकुलिक इति विरुद्धस्तत्परार्धं निषिद्धम् ॥ १० ॥
अथ कुलिकापवादः ।
बृहस्पतिः - वारेशे सबलेः वाऽपि बलाढ्ये लग्नगे शुभे । कुलिकोदयदोषस्तु विनश्यति न संशयः ॥ ९१ ॥ वाराधीशे बलोपेते विधौ वा वलसंयुते । अर्थप्रहरसंभूतो दोषो वै नात्र विद्यते ॥ २ ॥ शुभे केन्द्रगते चन्द्रे शुभांशे वा शुभेक्षिते । लग्नगे सबले वाऽपि कुलिकस्तु विलीयते ॥ ३ ॥ अर्धमहरपूर्वार्ध मेध्यं तु यमघण्टके | कुलिकान्त्यघटीं त्यक्त्वा शेषेषु शुभमाचरेत् ॥ ४ ॥ नारदः- - मुहूर्तपापपड़र्गकुनवांशग्रहोत्थिताः । ये दोषास्तान्निहन्त्येव यत्रैकादशगः शशी ॥ ५ ॥ दुर्लदुर्मुहूर्तोत्था दुर्निमित्तांशजातयः । ते सर्वे विलयं यान्ति केन्द्रस्थाने बृहस्पतौ ॥ ६ ॥
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अथैकार्गलादिदोषः ।
एकार्गलः समाङ्घ्रिश्चेत्तत्र लग्नं विवर्जयेत् । अपि शुक्रेज्यसंयुक्तं विषसंयुक्त१ क. 'राष्ट्रामि । २ ख. घ. 'त्रावितिके' । ३ क. ख. 'लेकेन्द्रे' । ४ ख. मध्येतु ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोदुग्धवत् ॥ १ ॥ ग्रहणोत्पातभं त्याज्यं मङ्गलेषु ऋतुत्रयम् । यावच्च रविणा भुक्त्वा मुक्तभं दग्धकाष्ठवत् ॥ २ ॥ एतत्सर्वं नक्षत्रप्रकरणस्थं ज्ञेयम् । .
अथ कुनवांशः ।। तुलामिथुनकन्यांशा धनुरन्त्यार्धसंयुताः । एते नवांशाः शुभदा यदि नान्त्यांशकाः खलु ॥ १॥ अन्त्यांशास्तेऽपि शुभदा यदि वर्गोत्तमाह्वयाः। अन्ये नवांशा न ग्राह्या यतस्ते कुनवांशकाः ॥ २ ॥ कुनवांशकलग्नं यत्त्याज्यं सर्वगुणान्वितम् । एते. नवांशा विवाहे । यस्मिन्यस्मिन्कार्ये ये नवांशा उक्तास्तेभ्योऽन्ये तस्मिंस्तस्मिन्कार्ये कुनांशा इति ज्ञेयम् ।
अथ नवांशापवादः। लग्नदोपांशदोपा ये दोषाः पड़र्गजाश्च ये । हन्ति ताल्लँग्नगो जीवो मेघसंघभिवानिलः ॥१॥
अथ पातदोषनिर्णयः। संहिताप्रदीपे-ब्रह्मणोऽन्ते ध्रुवस्याऽऽदौ प्रायः पातस्य संभवः । स तु मङ्गलकार्याणि विनाशयति निश्चितम् ॥ १ ॥ भीमपरक्रमे-वैधतिव्यतिपातौ यौ क्रान्तिसाम्येऽर्कचन्द्रयोः । सत्कारम्भणं तत्र मरणं व्यसनं विदुः ॥२॥ मार्तण्डे --एष्यो धनं क्षपयति व्यतिपातयोगो मृत्यु ददाति नचिरादथ वर्तमानः । संतापशोकगदविनगदान्यतीतस्तरमादिनत्रयमपि प्रजहीत विद्वान् ॥३॥ संहिताप्रदीप-त्यजन्ति केचित्तिथिमृक्षमके वारं तथा पातविदुष्टमन्ये । माङ्गल्यकार्येषु न शोभनं स्यादिनत्रयं केचिदपि वन्ति ॥४॥ शार्ङ्गधरः-विश्प्रदग्धेन हतस्य पत्रिणा मृगस्य मांसं शुभदं क्षताहते । यथा तथैव व्यतिपातयोगे क्षणोऽत्र दृष्टो न तिथिने वारः ॥ ५॥ ज्योतिर्विवरणे-नो भं तिथिं च वारं च त्यजेत्पातविदूषितम् । त्यजेत्क्रान्त्यन्तरं यावत्तदोपस्तावदेव हि ॥६॥ ग्रहप्रदीपेमानक्यखण्डादयमान्तरेऽल्पे शुभानि कायाणि निहन्ति पातः । स्नाने जपे होमविधौ च दाने करोत्यनन्तं फलमेव कर्तुः ॥ ७॥
इति श्रीज्योतिर्निवन्ध एकविंशतिदोपाध्यायः ।
अथ भद्रपवादः। गर्ग:-क्रमायाताऽक्रमायाता भद्रा त्याज्या प्रयत्नतः । गुणस्नी भ्रंशदा यरमान गुणैरपि हन्यते ॥ १ ॥ तथाऽप्युत्मक कार्येषु पराधीनेषु संकटे । भद्रायां विपरीतायां न दोषः कार्यसाधने ॥ २ ॥ ब्रह्मयामले-दिवा भद्रा यदा
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ज्योतिर्निबन्धः।
৩৩ रात्रौ रात्रौ भद्रा यदा दिवा । न त्याज्या शुभकार्येषु माहुरेवं पुरातनाः ॥३॥ बृहस्पति:--विष्टिस्तु सर्वदा त्याज्या क्रमेणैवाऽऽगता तु या । अक्रमेणाऽऽगता भद्रा सर्वकार्येषु शोभना ॥ ४ । भाधवीये-विष्टियंदाऽहानि तिथेरपरार्थजाता पूर्वार्धजा निशि तदा शुभदा च पुच्छे । तत्कालभरपि निजोदययामबाह्या ग्राह्या शमे बलिनि लग्नपतो निजांशे ॥ ५ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-दिवा सर्पमुखी भद्रा रात्रौ वृश्चिकपुच्छिका । वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्पस्य वदने विषम् ॥ ६ ॥ स्वकालजा महामारी कल्याणी भिन्नकालजा । महामारी दहेत्सर्वं कल्याणी मङ्गलपदा ॥ ७ ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन शुभकार्ये विषं त्यजेत् । मानार्धतोऽत्र विज्ञेयं मुखं पुच्छं बुधैः सदा ॥ ८॥ भूपाल:-कीटकुम्भद्ये भूस्था कोजिद्वितये धुंगा । कन्याचापद्वये चन्द्रे भद्रा पातालवासिनी ॥ ९॥ कन्यातुलामकरधन्विष नागलोके मेपालिवैणिकवृषेषु सुरालये स्यात् । पाठीनसिंहघटकर्कटकेषु मत्ये चन्द्रे वदन्ति मुनयस्त्रिविधां च विष्टिम् ॥ १० ॥ रुद्रयामले..--दाने वाऽन्नाशने चैव घातपातादिकर्मसु । खराश्वप्रसवे भद्रा भद्राऽन्यत्र न शस्यते ॥ ११ ॥ रत्नकोशे-धन्या त्वधोमुखी भद्रा महामारी खरानना । कालरात्रिर्महारौद्री विष्टिश्चाकुलपुत्रिणी ॥ १२॥ भैरवी च महाकाली दैत्यानां च क्षयंकरी । द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ॥ १३ ॥ न तु व्याधिर्भवेत्तस्य रोगी रोगात्प्रमुच्यते । ग्रहाः सर्वेऽनुकूलाः स्युस्तस्य विघ्नं न जायते ॥ १४ ॥ रणे राजकुले द्यूते सर्वत्र विजयी भवेत् । सर्वार्थसिद्धयस्तस्य भवन्त्यत्र न संशयः ॥ १५ ॥ ललः- कराली नन्दिनी रौद्री सुमुखी दुर्मुखी तथा । त्रिशिरा वैष्णवी हंसीत्यष्टावतासु विष्टयः ॥ १६ ॥ शुक्लपक्षादितो ज्ञेया नामसंज्ञा यथोदिताः । स्तोतव्याः पूजनीयास्ता नरैस्तदोषशान्तये ॥ १७ ॥
इति भद्रापवादः।
अथ कालहोरापवादः । गर्ग:- क्रूरवारे क्रूर होरा न शस्ता इति मङ्गले । नातिदुष्टा शुभे वारे रात्रौ स्वल्पफला मता ॥ १॥ वैद्यनाथ:-न लग्नं सचतुर्वर्ग दृश्यते कालहोस्या । अपि पवर्गसंशुद्धं कलिकेन विहन्यते ॥ २॥
अथ पञ्चकदोषः। ब्रह्मयामले- गततिथियुतलगं पञ्चधा कर्मभूमौ तिथिरविदशनागाम्भोधि
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श्रीशिवराजविनिर्मितीयुक्तं क्रमेण । नवहृतामिपुशेष शोषने वर्जनीयं रुगनलनुपचौर२ मृत्युदं पञ्चक स्यात् ॥ १॥ ज्योतिश्चिन्तामणौ---तिथिवारभलग्नाङ्कने रसा ६ ग्न्य ३ ब्जा १ ष्ट ८ वेद ४ युक् । नन्दा ९ तः पञ्चशेषे रुग्वह्निराटचोरमृत्युकृत् ॥ २ ॥ यद्वा गताहलग्नाङ्कः सदा मृत्युर्दिवाऽनिराट् । रुक्चौरौ निशि शेपैक्य नवाप्ते नागपञ्चकम् ॥ ३॥ संक्रान्तिमाद्भवति येष्टविलग्नसंख्या मासादियाततिथिभिः सहिताङ्कभक्ता । स्याच्छेपके खलु शुभे कुसुमैः क्रमेण मृत्य्वग्निभूमिपतितस्कररोगभीतिः॥४॥
अथ पञ्चकापवादः। रवौ रोगं कुजे वह्नि शनी च नृपपञ्चकम् । वयं पुनः कुजे चोरं बुधवारे च मृत्युदम् ॥ १ ॥ सदाऽर्कवारे त्यज रोगपञ्चकं सोमे नृपस्याऽऽरदिनेऽग्निपञ्चकम् । गुरौ तु चोरस्य सुगौ मृतिप्रदं बुधे शलो पञ्चकदुष्टता न हि ॥२॥ ज्योतिष्प्रकाशे-रोगं चोरं त्यजेद्रात्रौ दिवा राजाग्निपञ्चकम् । उभयोः संध्ययोमृत्युमन्यकाले न निन्दितम् ॥ ३॥ नागमृत्यू सदा त्याज्ये संध्ययोवालिकैर्जनः । तत्रापि यत्र लग्नं चेद्धलाढयं तच्च निष्फलम् ॥ ४ ॥ बृहस्पतीन्दुभीमा
शक्रवारेषु पञ्चकम् । चोरे नाग्निरुजो मृत्युसंज्ञितं वर्जयेच्छुभे ॥ ५ ॥ नृपाख्यं नृपसेवायां गृहे गोपेऽग्निपञ्चकम् । याने चोरं व्रते रोगं त्यजेन्मृत्यु करग्रहे ॥६॥
इति पञ्चकापवादः।
अथ संधिविचारः। शौनकः-स्यात्संधिकालो वर्षादेः पष्टचंशो मुनिभिः स्मृतः । अवसाने प्रवृत्तौ च तावन्मित्रफलं भवेत् ॥ १॥ अब्दायनर्तुसंधौ दिनमेकं वर्जयेच्छुभे कार्ये । संध्यायां तिथिगण्डान्ते धिष्ण्ये नाडिद्वयं संधिः ॥ २ ॥ सिद्धान्तशिरोमणौ-शशितनुविकलाभ्यश्चन्द्रभुक्त्येन्दुभान्वोर्गतिविवर कलाभिभूय एताभिरेव । पृथगथ गतियुत्या नाडिकासंधिराप्ता भतिथिकरणयोगानां फलं तत्र मिश्रम् ॥ ३ ॥ बृहस्पति:- प्राकृतोऽब्दो गुरोरब्दः सौराब्दस्त्रिविधाः समाः। तेषामादौ तथा चान्त्ये व्यहं चैव शभे त्यजेत् ॥ ४॥ च्यवनः-तिथ्यादीनां संधिदोषं तथा गण्डान्तसंज्ञकम् । हन्ति लाभगतश्चन्द्रः केन्द्रगा वा शुभग्रहाः॥५॥
इति संधिविचारः।
१ क. हिके ज° । २ क. चोरेनग्नि । ध. चौरैशाग्नि' । ३ व. भवति क°।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथोक्तानुक्तदोषाणामपवादः ।
नारद:-अनुक्ताः स्वल्पदोषाः स्युर्विद्युन्नीहारवृष्टयः । प्रत्यर्कपरिवेषेन्द्रचापाबुरगर्जनाः || १ || लत्तोपग्रहपाताख्या मासद्ग्धादया तिथिः । दग्धलग्नान्धबधिरपगुसंज्ञाश्च राशयः ॥ २ ॥ एवमाद्या यतस्तेषां व्यवस्था क्रियतेऽधुना । अकालजा भवन्त्येता विद्युन्नीहारवृष्टयः || ३ || प्रत्यर्क परिवेषेन्द्रचापाभ्रध्वनयो यदि । दोषाय मङ्गले नूनमदोषायैव कालजाः ॥ ४ ॥ सौराष्ट्रशाल्वदेशेषु पतितं भमुपग्रहम् । बाह्लिके कुरुदेशे चान्यस्मिन्देशे न दूषणम् ॥ ५ ॥ तिथयो मासद्ग्धाख्या दग्धलग्नानि तान्यपि । मध्यदेशे विवर्ज्यानि न दुष्याणीतरेषु तु || ६ || पङ्ग्वन्धकाणलग्नानि मासशून्याश्च राशयः । गौडमागधयोस्त्याज्या अन्यदेशे न गर्हिताः || ७ || माण्डव्य:- ये दोषा ग्रहयोगदृष्टिजनिता ये मासपक्षोद्भवा ये जामित्रमुहूर्तवारविहिता येऽकीकिवक्रः कृताः । ये चैव ग्रहलत्तयैव विहिता ये दुष्टत्तोत्थितास्वान्हत्वा शुभदौ सुरासुरगुरू केन्द्र त्रिकोणस्थितौ ॥ ८ ॥ लग्नांशदोषा ग्रहजातदोषा वर्गोद्भवास्तिथ्युडुयोगजाताः । केन्द्रत्रिकोणेषु सितज्ञजीवैर्नश्यन्ति सिंहैरिव नागयूथम् ॥ ९ ॥ उल्कानिपातपरिवेषशिवाशनीनां विद्युद्विकालघनगर्जितदुर्दिनानाम् । नीहारवृष्टिकुचलप्रतिभास्कराणां दोषो विनश्यति सितेज्ययुते विलग्ने || १० || उत्पातपातपरिघप्रतिसूर्यविम्वोत्थाकालष्टिघनगर्जितमारुतानि । दिग्धूमदाहपरिवेषकुकम्पचापदोषाः क्षयं ययुरमर्त्यगुरौ विलग्ने ॥ ११ ॥ वसिष्ठः - ये लग्नदोषाः कुनवांशदोषाः पापैः कृता दृष्टिनिपातदोषाः | लग्ने गुरुस्तान्विमली करोति फलं यथाऽम्भः कतकद्रुमस्य ॥ १२ ॥ नक्षत्रदोषं कुनवांशदोषं गण्डान्तदोषं पञ्चमुहूर्तदोषम् । विरुद्धपञ्चांशविलग्नदोषं निशाकरो लाभगतो निहन्ति १३ ॥ लः - लग्ने गुरुः सौम्ययुगीक्षितो वा लग्नाधिपो लाभगतो यथा स्यात् । कालाख्यहोरा तु यदा शुभा चेद्भवेच दोपस्य तदा हि भङ्गः ॥ १४ ॥ बृहस्पतिः - गुरुः सर्वगुणोपेतो लग्नात्केन्द्रे स्ववर्गगः । दोषाणां लक्षहन्ता स्याल्लग्नस्थः सर्वदोपहा ।। १५ ।। शुक्रो दशसहस्राणि बुधो दशशतानि च । लक्षमेकं च दोषाणां गुरुः केन्द्रे व्यपोहति ॥ १५॥ केन्द्रगो वा त्रिकोणे वा ज्ञो वा शुक्रोऽथवा गुरुः । सर्वदोपान्हरत्येव पापं विष्णोः स्मृतिर्यथा || १७ || स्वोच्चे स्ववर्गे सद्भावे शुभः पापोऽपि वा भवेत् । उदितो दोपविच्छेत्ता हरिरेको यथा गजान् ॥ १८ ॥ आग्नेयाख्यगृहेष्वेको विक्रमायारिगो वली | स्वतुङ्गङ्गः स्ववर्गस्थो दोपसंयविनाशनः ।। १९ ।। तिथिभग्रहवा
१ ख. "घुपाति" ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोरादौ ये दोपाश्चोदिताः परैः। ते सर्वे नाशमायान्ति जीवशुक्रेक्षणोदये ॥२०॥ नारद:-गुरुरेकोऽपि केन्द्रस्थः सकलं दोपसंचयम् । विनाशयति धर्माशुरुदितस्तिमिरं यथा ॥ २१ ॥ एकोऽपि लग्नगः काव्यो गुरुवा यदि वा बुधः । नाशयत्यखिलान्दोषांस्तूलराशिमिवानलः ॥ २२ ॥ गुरुरेकोऽपि केन्द्रस्थः शुक्रो वा यदि वा बुधः । दोषसंघं निहन्त्येव केसरीवेभसंहतिम् ॥ २३ ॥ नाशयत्यखिलान्दोपान्यत्रैकादशगो रविः । गङ्गायां स्नानतो भक्त्या सर्वपापमिवाचिरात् ॥ २४॥ लग्नलग्नांशनाथी द्वौ वाऽऽयगौ वापि केन्द्रगौ । राशि निहन्ति दोपाणामिन्धनानीव पावकः ॥ २५ ॥ उक्तानुक्ताश्च ये दोपास्तान्निहन्ति बली गुरुः । केन्द्रत्रिकोणगो वाऽपि शुक्रो विष्णुर्यथाऽसुरान् ॥ २६ ॥ बृहस्पति:लग्नाधिपो यदा केन्द्रे लग्नादुपचयेऽथवा । शुभो वाऽप्यथवा क्रूरस्तदा दोषा लयं ययुः ॥ २७ ॥ यस्य दोषस्य यः कर्ता स्ववर्गे स्वोच्चगोऽपि वा । शुभदृष्टः स एकस्थं दोपं संहरति स्फुटम् ॥ २८ ॥ नारदः-परित्यज्य महादोपाञ्शेषयोगुणदोपयोः । गुणाधिकः स्वल्पदोपः सकलो मङ्गलप्रदः ॥ २९ ॥ दोपो न प्रभवत्येको गुणानां परिसंचये । एको यथा तोयविन्दुरुदर्चिषि हुताशने ॥३०॥ एवं संचिन्त्य गणितशास्त्रोक्तं लग्नमानयेत् । तल्लनं जलयन्त्रेण दद्याज्यौतिषिकोत्तमः ॥ ३१॥
इत्युक्तानुक्तदोपापवादः।
अथ दोषापवादाङ्गः। सामान्येनोदिता दोषा भङ्गास्तेषां तु तद्विदैः । यदि ते बलहीनाश्चेत्यध्वंसाभावतां ययुः ॥ १॥ जन्माज्जन्मलग्नादपवादकरो ग्रहः । तत्काले यदि दुस्थाने दोपभङ्गलमो न सः ॥ २ ॥
इति श्रीज्योतिर्निवन्धे दोषापवादाध्यायः ।
अथ मोठ्यादिविचारः । वृत्तशते-बालः शुक्रो दिवसदशकं पञ्चकं चैव वृद्धः पश्चादह्नां त्रितयमुदितः पक्षमैन्यां क्रमेण । जीवो वृद्धः शिशुरपि सदा पक्षमन्यः शिशु तो वृद्धौ प्रोक्तो दिवसदशकं चापरैः सप्तरात्रम् ॥ १॥ माण्डव्यः-त्यजेद्दशाहं शिशुवृद्धयोश्च सितेज्ययोश्चेति वदन्ति गर्गाः। कालांशतुल्यानि दिनादि चैके सप्ताहमन्ये त्वरे
१ व. बा : लमं पश्यति चेत्सयो योग ऽयं दोषनाशन ॥' ! २ क. न्तिगाग्र्याः ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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त्रिरात्रम् || २ || संहिताप्रदीपे - स्यात्सप्तरात्रं गुरुशुक्रयोश्च बालत्वमहा दशकं च वार्ध्यम् । वृद्धौ सितेज्यावशुभौ शिशुत्वे शस्तौ यतस्तावुपचीयमानौ || ३ || कालनिर्णये -- वापीकूपतडागयानगमनं चौलं प्रतिष्ठां व्रतं विद्यामन्दिरकर्णवेधनमदुर्ग व सेवनम् | तीर्थस्नानविवाहशान्तिवनं मन्त्राग्निदेवेक्षणं देवेज्ये च जिजीविषुः परिहरेदस्तं गते भार्गवे ॥ ४ ॥ ब्रह्मपुराणे - यथा रवेर्मण्डलमेति काव्यो विनष्टतेजा गुरुरप्यथैवम् । कालस्य दीक्षाव्रततीर्थयात्रायज्ञोत्सवानांच विनाशकृत्स्यात् ॥ ५ ॥ रत्नकोशे - अस्तमिते भृगुतनये नारी म्रियते बृहस्पती पुरुषः । पत्योः सह मरणं हृदिते केती करग्रहणे ॥ ६ ॥ नष्टे चन्द्रे तथा शुक्रे नष्टे चैव बृहस्पतौ । मङ्गलानि तथोद्वाहं त्वरितोऽपि न कारयेत् ॥ ७ ॥ अथास्तापवादः ।
गर्गः - नित्ययाने गृहे जीर्णे प्राशने परिधानके । वधूप्रवेशमाङ्गल्ये न मौढ्यं गुरुशुक्रयः ॥ १ ॥ भृगुः - उपाकर्मोपसर्जनं पवित्रं दमनार्पणम् । अवरोहः समेहन्तः सर्पाणां बलिरष्टका || २ || ईशानस्य बलिर्विष्णोः शयनं परिवर्तनम् । कुर्याच्छुक्रस्य च गुरोमन्येऽपीति विनिश्वयः ॥ ३ ॥ धर्मप्रदीपे - गोदावय गयायां च श्रीशैले ग्रहणद्वये । अयने विषुवे चैव चातुर्मास्यव्रतेषु च ॥ ४ ॥ उत्सवेषु च सर्वेषु सीमन्तक्रतुकर्मसु । सुरासुरेज्ययोश्चैव मौज्यदोषो न विद्यते ॥ ५ ॥ कालनिर्णये नष्टे शुक्रे तथा जीवे सिंहस्थे च बृहस्पतौ । कार्या चैव स्वदेवार्चा प्रत्यब्दं कुलधर्मतः ॥ ६ ॥ कालविवेकेन शुक्रदोषो न सुरेज्यदोषस्ताराबलं चन्द्रबलं न योज्यम् । उद्वाहिताया नवकन्यकाया दीपोत्सवो मङ्गलशोभनानि ॥ ७ ॥ मत्स्यपुराणे - मोढ्येऽपि च प्रकर्तव्या मिश्रजातिक्रियाः शुभाः । सुरेज्य शुक्रयोर्वर्णक्रियाथौलादिका न च || ८ || संहिता सारे - यदास्तमायाति गुरुर्भृगुर्वा वायै च बालत्वमकीर्णजातेः । चौलादिकार्याणि शुभानि न स्युः संकीर्णजातेश्च शुभावहानि ॥ ९ ॥ गर्गः - गुरुभार्गवयोरस्तदोषो जातिचतुष्टये | नैव संकरजातीनां शिशुत्वं वार्धकं तथा ॥ १० ॥
अथ तीर्थयात्रानिषेधः ।
बाले वा यदि वा वृद्धे शुक्रे चास्तमुपागते । मलमास इवैतानि वर्जयेदेवदर्शनम् || १ || व्यासः - अधिमासे च जन्म नष्टयोर्गुरुशुक्रयोः । तीर्थयात्रा न कर्तव्या गयां गोदावरी विना ॥ २ ॥
१ क. ख. ग्रहणम् ।
११
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अस्यापवादः। भृगुः-मलमासेऽप्यनाटत्तं तीर्थस्नानं विवर्जयेत् । अनादिदेवतां द्रष्टुं शुचिः स्यान्नष्टभार्गवे ॥ १ ॥ तीर्थखण्डे-गुरुशुक्रास्तादिदोषः प्रोक्तो यस्तीर्थयातृणाम् । अपूर्वथायिनामेव न त्वसौ पूर्वगामिनाम् ॥२॥ पितृखण्डे-शुक्रस्यास्तमने चैव देवेज्यस्य तथैव च । प्रेतकार्य प्रदुध्येत प्रथमं वत्सरं विना ॥३॥ माण्डव्यःमलिने जन्ममासे वा मौढ्ये वा गुरुशक्रयोः । तीर्थयात्रा न कर्तव्या गयां गोदावरीं विना ॥ ४॥ गारुडे--न कुर्याद्गुरुशुक्रास्ते पुष्ये स्वापे मलिल्लुचे । विलम्बितं प्रेतकार्य गयां मोदावरी बिना ॥ ५॥ गुरुभार्गवमान्ये च पुष्ये स्वापे मलिम्लुचे । प्रेतकार्य न कुर्वीत गयां गोदावरी विना ॥ ६॥ मेधातिथिःअस्तं गते गुरौ शुक्रे पुष्याषाढाधिमासके । प्रेतकार्य न कुर्वीत गयां गोदावरी विना ॥७॥ प्रेतमञ्ज--प्रेतकार्याणि सर्वाणि व्रतस्नानजपादिकम् । वयं शुक्रेज्ययोरस्ते गयां गोदावरी विना ॥ ८ ॥
इति गुरुशुक्रयोमौढ्यादिविचारः ।
अथ प्रसन्जाश्चन्द्रास्त शेषः । वृद्धत्वमिन्दोस्त्रिदिनं दिनार्थ बालवणस्तत्वमयं च । अस्ते विधौ मृत्युमुपति कन्या पालेऽन्यसत्ता विधवा च वृद्धौ ॥ १ ॥
अथ मलमासनिर्णयः । सिद्धान्तशिरोमणौ--असंक्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुटः स्याद्विसंक्रान्तिमासः क्षयाख्यः कदाचित । क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यातदा वर्षमध्येऽधिमासद्वयं च ॥१॥ पितामहः-अष्टाधिमासाः स्युनित्यं प्रोच्यन्ते फाल्गुनादयः। सौम्यपौषौ क्षयौ नित्यं भवेतामिति निश्चितम् ॥२॥ क्षयो वाऽप्यधिमासो वा स्यादूजे इति निश्चितम् । न क्षयो नाघिमासः स्यान्मायो वै परिकीर्तितः ॥ ३ ॥ पञ्च मासास्तु वैशाखादधिमासा व्यवस्थिताः । भवन्ति चाष्टभिवर्ष वर्षाऽङ्कनिशाकरैः॥ ४ ॥ तथैव फाल्गुनश्चैत्र आश्विनः कार्तिकोऽधिकाः। एते किन्द्रः १४१ शराङ्गै ६५ वी कदाचिद्गोकुवत्सरैः १९ ॥ ५॥ मार्गपौषो क्षयौ स्याला कदाचित्कार्तिको भवेत् । अधिमासस्तदा ज्येष्ठो भवेन्नित्यं
यो यदा ॥ ६॥ क्षयात्मागधिमासः स्यान्नित्यं भाद्रपदनये । आश्विनोर्जी रादा स्यातामादौ भाद्रपदः सकृत् ॥ ७॥ पौलिशसिद्धान्ते- स्फुटगत्या यथा चन्द्रो रविमण्डलनेमिगः । तदूर्व संक्रमो भानोर्मासः स स्यान्मलिम्लुचः ॥४॥
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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८३ कालनिर्णये—संक्रमो यदि भवेद्रस्ततो मण्डलाद्वहिरनिर्गते विधौ । उच्यते स रविसंक्रमो बुधैः शुद्धमास इतरो मलिम्लुचः ॥ ९ ॥ ललः - बदा शशी याति गभस्तिमण्डलं दिवाकरः संक्रमणं करोत्यनु । विवाहयज्ञोत्सवनाशहेतुस्तदाऽधिमासः कथितः स्वयंभुवा ॥ १० ॥ रत्नमालायां श्रीपतिः - सवितृमण्डलमेति यदा शशी तदनु संक्रमणं कुरुते रविः । मखमहोत्सवनाशकरस्तदा मुनिवरैः कथितोऽ'धिकमासकः ॥ ११ ॥ शार्ङ्गपटले - चन्द्रार्कयोस्तु विम्बैक्यं प्रतिपद्दर्शसंधिषु । तिथ्यन्तात्तदुभयतो रसनाड्योऽर्कमण्डलम् ॥ १२ ॥ तन्मण्डलाच्छशी गच्छेततः सूर्यस्य संक्रमः । मासोऽसौ मलिनः प्रोक्तस्तत्तद्धीनोऽधिकः स्मृतः ॥ १३ ॥ पितामहः - प्रतिपद्दर्शसंघौ तु विम्वैक्यं सूर्यचन्द्रयोः । जवान्तराप्तं पष्टिनं नाडिका अर्कमण्डलम् ॥ १४ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे – दर्शान्त एकैः कथितोऽत्र मासः परैः प्रदिष्ट रविमण्डलान्तः । मतद्वये चेद्रविक्रमः स्यात्स एव पूर्वस्य न चापरस्य ||१५|| रत्नकोशे - प्रायशो न शुभचैव ज्येष्ठश्चाऽऽवाद एव च । मध्यमौ चैनवैशाखावधिकोऽन्यः सुभिक्षकृत् ॥ १६ ॥
अथ मलमासे कार्याकार्याणि ।
कश्यपः--१ - शुद्धे दैवानि कर्माणि कर्तव्यानि शुभानि च । मलिनेऽन्यानि चोक्तानि मासि पैत्राणि चोभयोः ॥ १ ॥ गर्गः - अग्न्याधेयं प्रतिष्ठां च यज्ञदानव्रतानि च । देवव्रतवृपोत्सर्गचूडाकरणमेखलाः ॥ २ ॥ गमनं देवतीर्थानां विवाहमभिषेचनम् । यानं च गृहकर्माणि मलमासे विवर्जयेत् ॥३॥ सूर्यप्रदीपे-अवश्यकर्म मासाख्यं मलमासमृताव्दिकम् | तीर्थेभच्छाययोः श्राद्धं मद्यानङ्गपितृक्रियाम् ॥ ४ ॥ कुर्यान्मलिम्लुचे वर्षमध्ये चेत्स तदाऽधिकः । तत्र स्यान्मा - सिकं मृत्युमासात्स द्वादशो यदि ॥ ५ ॥ प्रेतक्रियां समाप्यात्र कुर्वीताभ्युदयं तदा । श्यामाकाप्रयणं कृच्छ्रेऽनस्यावर्ण्यमतोऽन्यथा || ६ || काम्यारम्भं वृषोत्सर्ग पर्वोत्सवमुपाकृतिम् । मेखलाचौलमाङ्गल्याग्न्याधानोद्यापनक्रियाः ॥ ७ ॥ वेदव्रतमहादानाभिषेकान्वर्धमानकम् । इष्टं पूर्त तथा यस्य विध्यलोपो ऽन्यदा कृत्तौ ॥ ८ ॥ तत्सर्वमष्टकाद्यन्यदधिमासे विवर्जयेत् । सूतकेऽपि च कर्तव्यं स्नानायं राहुदर्शने ॥ ९ ॥ पराशरस्मृती - गर्भे वार्धुषिके भृत्ये प्रेतकर्मणि मासिके । सपिण्डीकरणे नित्ये नाधिमासं विवर्जयेत् ॥ १० ॥ कात्यायनस्मृतौ -- गर्भाधानादिका अन्नप्राशनान्ता मलिम्लुचे | आकर्णवेधाः स्युः क्रिया नान्या इत्याह भास्करः || ११ || आधानानन्तरं चान्वारम्भणीं चेष्टिमेव च । स्थालीपाकं च नो कुर्यात्पाकयज्ञान्मलिम्लुचे || १२ || स्मृतिरत्नावल्यां प्रवृत्तं मलमा
१ क मवान ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
सात्प्राग्यत्काम्यम समापितम् । आगते मलमासेऽपि तत्समाप्यम संशयम् ॥ १३ ॥ कालवियेके--चीर्णव्रतानामनिषिद्धकाल आकाङ्क्षितं तत्परिपूर्णभावम् । व्रतोप वासादिफलाप्तिहेतौ निषिद्धकालेऽपि समाप्यमेतत् ॥ १४ ॥ मनुस्मृती - तीर्थश्राद्धं दर्शश्राद्धं प्रेतश्राद्धं सपिण्डनम् । चन्द्रसूर्यग्रहस्नानं मलमासे विधीयते ।। १५ ।। इत्यधिमासनिर्णयः ः ।
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अथ क्षयमासनिर्णयः ।
वृत्त शते - यत्र मासि रविसंक्रमद्वयं तत्र मासयुगलं क्षयाह्वयम् । व्योमरामदिवसैर्भवेच्छुभे यज्ञकर्मणि च वर्जयेत्तु तत् ॥ १ ॥ सिद्धान्तशिरोमणौ - गतोऽन्ध्यनिन्दैर्मिते शाककाले ९७४ तिथी १११५ भविष्यत्यथाङ्गाक्षसूर्यैः १२५६ । गजाद्यग्निभूमि १३७८ स्तथा प्रायशोऽयं कुवेदेन्दुवषैः १४१ कचिहोकुभिश्च १९ ।। २ ।। स्मृतिरत्नावल्याम् - एक एव यदा मास: संक्रान्तिद्वयसंयुतः । मासद्वयगतं श्राद्धं तस्मिन्नेव प्रशस्यते ॥ ३ ॥ बृहत्कालनिर्णये तिथ्यर्थे प्रथमे पूर्वो द्वितीयेऽर्थे तथोत्तरः । मासाविति बुधैज्ञेयौ क्षयमासस्य मध्यगौ || ४ || एतज्जन्ममासादिज्ञानार्थविषयम् । अन्यत्रापि स्वकालसंभवे योज्यम् । कालनिर्णये-यस्मिन्राशौ गते सूर्ये विपत्तिः स्याद्विजन्मनः । तद्राशावेव कर्तव्यं प्रत्यब्दं तु मृतेऽहनि ॥ ५ ॥ फलप्रदीपे - क्षयमासो भवेद्यस्मिंस्तस्मिन्वर्षेऽथ विग्रहः । दुर्भिक्षं वाऽथवा पीडां राष्ट्रभङ्गं करोति वै || ६ || पक्षस्य मध्ये द्वितिथी विनष्टे महाहवं रौरवविग्रहं च । पक्षे विनष्टे नृपतिर्विनश्येन्मासक्षये म्लेच्छवती वसुन्धरा ।। ७ ।।
इति क्षयमासनिर्णयः ।
अथ ग्रहणनिर्णयः ।
विश्वरूपनिर्णये— दिवा चन्द्रग्रहो रात्रौ सूर्यपर्व न पुण्यदम् । संधिस्थं पुण्यद ज्ञेयं यावद्दर्शनगोचरः || १ || मेघच्छन्ने ग्रहे स्नानाद्यधिकारो न विद्यते । इति यत्कीर्तितं तच निर्मूलत्वादुपेक्षितम् ॥ २ ॥ यथा वृक्षादिभिन्छने स्नानाद्यं क्रियते हे | घराच्छादिते तद्वत्स्नानादौ नैव बाधकम् || ३ || स्पर्शमुक्तिनिमित्तं हि स्नानं च गणितागते । काले कुर्वीत सूर्येन्द्रो मेंघाच्छादितयोर्ग्रहे ॥ ४ ॥ यावन्मुक्तं वेर्विम्बं विधोर्वाऽपि न दृश्यते । तावन्न क्रियते स्नानं मौक्तिकं मनुरब्रवीत् || ५ || ग्रस्तोदिते ग्रहेग्रस्तं दृष्ट्रा स्नानं समाचरेत् । ग्रस्तास्ते मौक्तिकं स्नानं वा (क्तं दृष्ट्वा रविं विधुम् ॥ ६ ॥
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ज्योतिर्निबन्धः।
अथ ग्रहणविधिः । स्पर्शे स्नानं जपं कुर्यान्मध्ये होमं सुरार्चनम् । मुच्यमाने सदा दान विमुक्तौ स्नानमाचरेत् ॥ १॥ सूर्योदये-स्पर्शे स्नानं भवेद्धोमो ग्रस्तयोर्मुच्यमानयोः । दानं स्यान्मुक्तयोः स्नानं ग्रहे चन्द्रार्कयोवधिः ॥२॥ चतुर्विंशतिमते--- मुक्तौ यस्तु न कुर्वीत स्नानं ग्रहणसूतके । स सूतकी भवेत्तावद्यावत्स्यादपरो ग्रहः ॥ ३ ॥ सूर्यग्रहे तु नाश्नीयात्पूर्व यामचतुष्टयम् । चन्द्रग्रहे तु यामांस्त्रीबालवृद्धातुरविना ।। ४॥ सेवासूर्योदये-नाद्याच्चतुस्त्रीन्माग्यामाब्रवीन्दुग्रहयामयोः। ग्रहकाले च नाश्नीयात्स्नात्वाऽश्नीयाच मुक्तयोः ।। ५ ।। ग्रस्तास्तेऽन्यादिने दृष्टाऽश्नीयावृद्धातुरैर्विना । वेधो वृद्धातुरस्त्यर्भपुत्रिणां यामयुग्मकम् ॥ ६ । चिन्तामणौ-सायाह्ने सङ्गवेऽश्नीयाच्छारदे संगवादधः । मध्याह्ने परतोऽश्नीयान्नोपवासो रविग्रहे ॥ ७ ॥ सेवासूर्योदये-- सूतकादिदोषोऽत्र दानहोमजपादिषु । ग्रस्ते स्नायादुदक्याऽपि तीर्थादुद्धृतवारिणा ॥ ८॥ स्मृतिमहार्णवे-दशम्यां विनिवृत्तायां पाककर्म समारभेत् । श्राद्धे सूर्योदयादूर्ध्वं मुक्तयोः शशिसूर्ययोः ॥९॥ स्मृतिचन्द्रिकायां--स्मार्तकर्मपारित्यागी राहोरन्यत्र सतके । श्रौतकर्मणि तत्कालं स्नातः शुद्धिमवाप्नुयात् ॥ १० ॥ मन्वर्थमुक्तावल्याम्-अन्नं पक्कमिह त्याज्यं स्नानं सवसनं ग्रहे । वारितक्रारनालादि तिलैदर्भेनं दुष्यति ॥ ११ ॥ धर्मप्रदीपेआरनालं पयस्तकं दधि स्नेहाज्यपाचितम् । मणिकस्थोदकं चैव न दुष्येद्राहुसूतके ॥ १२ ॥ मेधातिथि:-सूतकेऽपि च संप्राप्ते यदि स्याद्राहुसूतकम् । न सूतकं भवेत्तावद्यावद्राहुन मुञ्चति ॥ १३ ॥ सेवासूर्योदये-त्रयोदश्यास्तु माङ्गल्ये दिनानां नवकं त्यजेत् । खण्डग्रहे ग्रहदिनं तथा पूर्वापरं दिनम् ॥ १४ ॥ नारदः-उत्पातग्रहणादूर्व सप्ताहमखिलग्रहे । नाखिले त्रिदिनं नेष्टं नेष्टं तद्भमृतुत्रयम् ॥ १५ ॥ कालविशेषेण वर्जनीयदिनान्याह-*ग्रस्तास्ते त्रिदिनं पूर्व पश्चाद्यस्तोदिते तथा । संध्यायां त्रिदिनं नेष्टं निःशेषे सप्तसप्त च ॥ १६ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-खग्राससर्वपादोनखण्डाझ्यल्पे तु वासराः । गजाश्वेष्वाब्धिरामाब्जा नेष्टाः प्राक्तद्दलग्रहे ॥ १७ ॥ ज्योतिःसागरे-एकरात्रं परित्यज्य कुयोत्पाणिग्रहं ग्रहे । सप्तरात्रं प्रयाणं च त्रिरात्रं व्रतबन्धनम् ॥ १८ ॥ एतद्वचनमावश्यकविषयम् । कालविवेके-प्रागेकाहं व्यहं पश्चात्तदिनं ग्रहणस्य च । त्यजेद्गत्यन्तराभावे सर्वग्रासेऽपि कर्मणाम् ।। १९ ॥ * सर्वग्रासे तु सप्ताहमर्धग्रासे दिनत्रयम् । दित्रिएकाङ्गुलग्रासे दिनमेकं तु वर्जयेत् । घ. पुस्तके ।
१ क. 'म्यांतुववृ । ख. म्यांवाविव ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ पर्वेशसाधनम् । * दिग्बाणभूमियुक्शाको दस्रघ्नः पञ्चसंयुतः । नगतष्टो भवेत्पर्वपतिह्मादिको गतः ॥ १॥ रविगुणिते शककाले माससमेतेऽक्षिसागरविभक्त । यल्लभ्यन्ते भगणाः शेषे मुनिभाजिते च पर्वेशाः ॥२॥
अथ पर्वशादिफलानि । वाराह्यां--पण्मासोत्तरवृद्धया पर्वेशाः सप्त देवताः क्रमशः। ब्रह्मशीन्द्रकुबेरा वरुणानियमाश्च विज्ञेयाः ॥ १ ॥ ब्राह्मे द्विजपशुवद्धिः क्षेमारोग्याणि सस्यसंपच्च । तद्वत्सौम्ये तस्मिन्पीडा विदुपामवाष्टिश्च ॥ २ ॥ ऐन्द्रे भूपविरोधः शारदसस्यक्षयो न च क्षेमम् । कौबेरेऽर्थपतीनामर्थविनाशः सभिक्षं च ॥३॥ वारुणमवनीशानामन्येपां क्षेमसस्यवृद्धिकरम् । आग्नेयं मित्राख्यं सस्यारोग्याभयाम्बुकरम् ॥ ४॥ यान्यं करोत्यवृष्टिं दुर्भिक्षं संक्षयं च लोकानाम् । यदतः परं तदशुभं भुन्मारकावृष्टिदं पर्व ॥ ५॥ पूर्वाहे वाऽपराहे वा वेलाहीनं तदु. च्यते । मध्याह्ने परवेलायां त्रयो वेलागुणाः फलम् ॥ ६ ॥ वेलाहीने पर्वणि गर्भविपत्तिश्च शस्त्रकोपश्च । अतिबेले कुसुमफलक्षयो भयं सस्यनाशश्च ॥ ७ ॥ हीनातिरिक्तकाले फलमुक्तं पूर्वशास्त्रदृष्टत्वात् । स्फुटगणितविदा कालः कथंचिदपि नान्यथा भवति ॥ ८ ॥ यद्येकस्मिन्मासे ग्रहणं रविसोमयोस्तदा क्षितिपाः । स्ववलक्षोः संक्षयमायान्त्यतिशस्त्रकोपश्च ॥ ९ ॥ ग्रस्तावुदितास्तमिती शारदधान्यावनीश्वरक्षयदौ । सर्वग्रस्तो दुर्भिक्षमरक(ण)दौ पापसंदृष्टौ ॥ १० ॥ अर्योंदितोपरत्तो नैकृतिकान्हन्ति यज्ञांश्च । अग्न्युपजीविगुणाधिकविप्राथमिणो युगाभ्युदितः ॥ ११ ॥ कर्षकपाखण्डवणिक्षत्रियबलनायकान्द्वितीयेऽशे । कारूकशूद्रम्लेच्छान्खतृतीयेऽशे समन्त्रिगणान् ॥१२॥ मध्याह्ने नरपतिमध्यदेशहाऽशोधनश्च धान्यार्घः । तृणभुगमात्यान्तःपुरवैश्यानः पञ्चमे खांशे ॥ १३ ॥ स्त्रीशूद्रान्पष्ठेऽशे दस्युप्रत्यन्तहाऽस्तमयकाले । यस्मिन्खांशे मोक्षस्तत्प्रोक्तानां शिवं भवति ॥ १४॥ द्विजनपतीनुदगयने विट्शूद्रान्दक्षिणायने हन्ति । राहुरुदगादिष्टः प्रदक्षिणं हन्ति विप्रादीन् ॥ १५ ॥ म्लेच्छान्विदिस्थितो यायिनश्च हन्या ताशसक्तांश्च । सलिलचरदन्तिघाती याम्येनोदग्गवामशभः ॥ १६ ॥ पूर्वेण सलिलपूर्णां करोति वसुधां समागतो दैत्यः । पश्चात्कर्षकसेवकवीजविनाशाय निर्दिष्टः॥ २७ ॥ पाञ्चालकलिङ्ग-शूरसेनाः काम्बोजोगकिरातशस्त्रवार्ताः । जीवन्ति च ये हुताशवृत्या ते पीडामुपयान्ति
* श्लोकद्वयं कपुस्तकाद-यत्र नास्ति. १ क. नामशुभम' । २ गत. स्तौसुभि ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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पथे ॥ १८ ॥ गोपाः पशवोऽथ गोमिनो मनुजा ये च महत्त्वमागताः । ते पीडामुपयान्ति भास्करे ग्रस्ते शीतकरेऽपि वा वृषे ॥ १९ ॥ मिथुने प्रवराङ्गना नृपा नृपमात्रा बलिनः कलाविदः । यमुनातटाः सवाहिका मत्स्याः सुाजनैः समन्विताः || २० || आभीराञ्छवरान्सपलवान्मल्लान्मत्स्यकुरुछकानपि । पाञ्चालान्विकलां पीडयत्यन्नं चापि निहन्ति कर्कटस्थ ॥ २१ ॥ सिंहे पुलिन्दगणमेकलसत्त्वयुक्तान्राजोपमान्नरपतीन्त्र नगोचरांश्च । षष्ठे तु सस्यकविलेखक रोयसक्तान्हन्त्यस्मक त्रिपुरशालितांच दोषान् ।। २२ ।। तुलाधरेऽवन्त्यपरान्त्यसाधून्वणिग्दशार्णान्मरुकच्छपांथ । अहिन्यथोदुम्वरमद्रचोलान्डुमासयौधेयविषायुधीयान् ॥ २३ ॥ धन्विन्यमात्यवरवाजिविदेहमल्लान्पाञ्चालवेद्यवणिजो विषमायुधज्ञान् । हन्यान्मृगे तु झपमन्त्रिकुलानि नीचान्मन्त्रौषधीषु कुशलान्स्थविरायुधीयान् || २४ || कुम्भेऽन्तर्गिरिजान्सपश्चिमजनान्भारोद्वहांस्तस्करानाभीरान्दरदार्यसिंहपुरकान्हन्यात्तथा वर्बरान् । मीने सागरकूलसागरजलद्रव्याणि मान्याञ्जनान्माज्ञान्यार्युपजीविनश्च भफलं कूर्मोपदेशाद्वदेत् ॥ २५ ॥ गर्गः-ज्येष्ठा ब्राह्मं तथा मैत्रं प्राग्वैश्वं वासवं तथा । वैष्णवं वैश्वदेवं च पुरुहूतस्य मण्डलम् || २६ || मण्डलेऽस्मिन्समुत्पन्नं ग्रहणं जगतः शुभम् । आनन्दं सर्वजन्तूनां विदधाति विशेषतः || २७ ॥ तिष्यमाजपदं चैव याम्यं भाग्यं च पैतृकम् । ऐन्द्राग्निदेवतं चैव सप्तैतान्यनलो गणः ||२८|| अनले मण्डले दृष्टं ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः । राज्ञां भयकरं विद्यात्मजानां बहुदोषकृत् ॥ २९ ॥ आहिर्बुध्न्यं तथा पौष्णं मूलमाप्यं च शाङ्करम् । वारुणं सार्पदैवत्यं वारुणं मण्डलं स्मृतम् ॥ ३० ॥ एतस्मिन्नुपरागः स्यान्मण्डले रविसोमयोः । दुर्भिक्षमैथ नाशथ प्रजानामिति निश्चयः || ३१ || ऋक्षाणि चार्यमादीनि चत्वारि च पुनर्वसुः । सौम्यं चैवाश्विदैवत्यं वायव्यं मण्डलं स्मृतम् ॥ ३२ ॥ समरस्य भयं चैव दुर्भिक्षं कुरुतेऽचिरात् । व्याधिशस्त्रादिकोपश्च मण्डलेऽस्मिन्नुपप्लवः ॥ ३३ ॥ कश्यपः -- आग्नेये कारयेच्छान्ति कुर्यात्सर्वत्र वारुणे । वायव्ये शान्तिरिष्येत माहेन्द्रे न तु कारयेत् ॥ ३४ ॥ होरायां गृह्यते यस्य नक्षत्रे वा निशाकरः । प्राणसंदेहमानोति स वा मरणमृच्छति || ३५ ॥ यस्य त्रिजन्मनक्षत्रे ग्रस्येते शशिभास्करौ । तजातानां भवेत्पीडा ये (ते) नराः शान्तिवर्जिताः || ३६ || वराहः - - सव्यापसव्यलेहग्रसननिरोधावमर्दनारोहाः | आघातं मध्यतमस्तमोऽन्त्य इति ते दश ग्रासाः ॥ ३७ ॥ सव्यगते तमसि जगज्जलप्लुतं भवति मुदितमभयं च । अप
१ क. ख °षसंस्थे । २ ख. मूलंपापंच व मूलयाम्यंच । ३खव. 'मपना । ४ ख लुते । ५६. गुह्येते ।
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श्रीशिवराजावनिर्मितो
सव्ये नरपतितस्करावमदैः प्रजानाशः ॥ ३८ ॥ जिह्वोपलेढि परितस्तिमिरनुदो मण्डलं यदि स लेहः । प्रमुदितसमस्तभूपाः प्रभूततोया च तत्र मही ।। ३९ ।। ग्रसनमिति यदा त्र्यंशः पादो वा गृद्यतेऽथवाऽप्यर्धम् । स्फीतनृपवित्तहानिः पीडा च स्फीतदेशानाम् ।। ४० ।। पर्यन्तेषु गृहीत्वा मध्ये पिण्डीकृतं तमस्तिष्ठेत् । स निरोधो विज्ञेयः प्रमोदकृत्सर्वभूतानाम् ॥ ४१ ॥ अवमर्दनमिति निःशेषमेव संछाद्य यदि चिरं तिष्ठेत् । हन्यात्प्रधानदेशान्प्रधानभूपांश्च तिमिरमयः ॥ ४२ ॥ वृत्ते ग्रहे यदि तमस्तत्क्षममाहृत्य दृश्यते भूयः । आरोहणमित्यन्योन्यमर्दनैर्भयकरं राज्ञाम् || ४३ || दर्पण इवैकदेशे सवाष्पनिश्वासमारुतोपहतः । दृश्येताऽऽघातं तत्सुवृष्टिवृद्धयावहं जगतः ॥ ४४ ॥ मध्ये तमः प्रविष्टं वितमस्कं मण्डलं च यदि परतः । तन्मध्यदेशनाशं करोति कुक्ष्यामयं भयं चैव ॥ ४५ ॥ पर्यन्तेष्वतिवहलं स्वच्छं मध्ये तमस्तमोऽन्त्याख्ये । सस्यानामीतिभयं भयमस्मिंस्तस्कराणां च || ४६ || श्वेते क्षेमसुभिक्षं ब्राह्मणपीडां च निर्दिशेद्राहौ । अग्निभयमनलवर्णे पीडा च हुताशवृत्तीनाम् ॥ ४७ ॥ हरिते रोगोल्वणता सस्यानामीतिभिश्च विध्वंसः । कपिले शीघ्रगसत्वम्लेच्छध्वंसोऽथ दुर्भिक्षम् ॥ ४८ ॥ अरुणकिरणानुरूपे दुर्भिक्षावृष्टो विहगपीडा । आधूम्रे च क्षेमं सुभिक्षमादिशेन्मन्दवृष्टिं च ॥ ४९ ॥ कापोतारुणकपिले श्यामाभे क्षुद्भयं विनिर्देश्यम् । शूद्राणां व्याधिकरः कापोतः कृष्णवर्णच || ५० || विमलकमणिपीताभो वैश्यध्वंसी भवेत्सुभिक्षाय | सार्चिष्मत्यग्निभयं गैरिकरूपे तु युद्धानि ॥ ५१ ॥ दूर्वाकाण्डश्यामे हारिद्रे चापि निर्दिशेन्मरणम् । अशनिभयसंप्रदायी पाटलकुसुमोपमो राहुः || ५२ || पांसुविलोहितरूपः क्षत्रध्वंसाय भवति वृष्टेश्च । वालरविकमलसुरचापभृच्छत्रकोपाय || ५३ || पश्यन्यस्तं सौम्यो घृतमधुतैलक्षयाय राज्ञां च । भौमः समरविमर्दं शिखिकोपं तस्करभयं च ॥ ५४ ॥ शुक्रः सस्यविमर्द नानाक्लेशांश्च जनयति धरित्र्याम् । रविजः करोत्यवृष्टिं दुर्भिक्षं तस्करभयं च ॥ ५५ ॥ यदशुभमवलोकनाद्यमुक्तं ग्रहजनितं ग्रहणे प्रमोक्षणे वा । सुरपतिगुरुणाऽवलोकिते तत्क्षयमुपयाति जलैरिवाग्निरिद्धः ॥ ५६ ॥ ग्रस्ते क्रमानिमित्तैः पुनग्रह मासपटू परिवृद्धया । पवनोल्कापात रजःक्षितिकम्पतमोशनिनिपातः ॥५७॥ आवन्तिका जनपदाः कावेरीनर्मदातटाश्रयिणः । दृप्ताव मनुजपतयः पीड्यन्ते क्षिति ग्रस्ते || ५८ || अन्तर्वेदीं शरयूं नेपाल पूर्व सागरं शोणम्। स्त्रीनृपयोधकुमारासह विद्वद्भिर्बुध हन्ति ।। ५९ ।। ग्रहणोपगते जीवे विद्वन्नृपमन्त्रिहयगजध्वंसः । सिन्धुतटवासिनामप्युदग्दिशं संश्रितानां च ॥ ६० ॥ भृगुतनये राहुगते
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६. "मान्नमित्रैः पु° ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
दशार्णका: कैकयाः सयौधेयाः । आर्यावर्ताः शिवयः स्त्रीसचिवगणाच पीड्यते ।। ६१ ।। सौरे मरुभवपुष्करसौराष्ट्रधातवोऽम्बुदान्त्यजनाः । गोमन्तपारियात्राश्रिताश्च नाशं व्रजन्त्याशु || ६२ ।। कार्तिक्यामनलोपजीविमगधान्प्राच्याधिपान्कौशलान्कल्माषानथ शूरसेनसहितान्काशींच संतापयेत् । हन्याच्चाऽऽशु कलिङ्गदेशनृपतिं सामात्यभृत्यं तमो दृष्टं क्षत्रियतापदं जनयति क्षेमं सुभिक्षान्वितम् ॥ ६३ ॥ काश्मीरकान्कोशलकान्स पुण्ड्रान्मृगांच हन्यादपरान्तकांच | ये सोमपास्तांश्च निहन्ति सौम्ये सुवृष्टिकृत्क्षेमसुभिक्षच्च ॥ ६४ ॥ पौषे द्विजक्षत्रजनोपरोधाः ससैन्धवाख्याः कुकुरा विदेहाः । ध्वंसं व्रजन्त्यत्र च मन्दवृष्टिं भयं च विद्यादसुभिक्षयुक्तम् ॥ ६५ ॥ माघे तु मातृपितृभक्तवसिष्ठ - गोत्रान्स्वाध्यायधर्मनिरतान्करिणस्तुरङ्गान् । वङ्गाङ्गकाशिमनुजांच दुनोति राहुर्वृष्टिं च कर्षकजनानुमतां करोति ॥ ६६ ॥ पीडाकरं फाल्गुनमास पर्व वङ्गाश्मकावन्तकमेकलानाम् । नृत्यज्ञसस्यप्रचुराङ्गनानां धनुर्धरक्षत्रतपस्विनां च ॥ ६७ ॥ चैत्रे तु चित्रकरलेखकमेयसक्तरूपोपजीविनिगमज्ञहिरण्यपण्यान् । पुण्ड्रोण्डूकैकयजनानथ वाऽश्मकांच तापः स्पृशत्यमरपोऽत्र विचित्रवर्षी ॥ ६८ ॥ वैशाखमासग्रहणे विनाशमायान्ति कार्पासतिलाः समुद्राः । इक्ष्वाकुयोधेयशकाः कलिङ्गनः सोपद्रवाः किं तु सुभिक्षमत्र ॥ ६९ ॥ ज्येष्ठे नरेन्द्रद्विजराजपत्न्यः सस्यानि वृष्टिश्च महागणाr | पध्वंसमायान्ति नराश्व सौम्याः शाल्वैः समेताच निपादसंघाः ॥ ७० ॥ आपाढपर्वण्युडुपानवप्रनदीप्रवाहान्फलमूलवातीन् । गान्धारकाश्मीर पुलिन्दचीनान्हन्ता वदेन्मेङ्गलवर्षमस्मिन् ॥ ७१ ॥ काश्मीरान्स पुलिन्दचीनयवनान्हन्यात्कुरुक्षेत्र जान्गान्धारानपि मध्यदेशसहितादृष्ट ग्रहः श्रावणे । काम्बोजैकशफांश्च शारदमपि त्यक्त्वा यथोक्तानिमानन्यत्र प्रचुरान्नहृष्टमनुजैर्धात्रीं करोत्यावृताम् ॥ ७२ ॥ कलिङ्गवङ्गान्म गधान्सुराष्ट्रान्स्लेच्छान्सुवीरान्दरदाश्मकां । स्त्रीणां च गर्भानसुरो निहन्ति सुभिक्षकृद्भाद्रपदे ऽभ्युपेतः ॥ ७३ ॥ काम्बोजचीनयवनान्सह शल्यद्भिर्वाह्लीकसिन्धुतटवासिजनांश्च हन्यात् । आनर्तपौण्ड्र भिषजश्च तथा किरातान्दृष्टोऽसुरोऽश्वयुजि भूरिसुभिक्षच्च ॥ ७४ ॥ नुकुक्षिपायुभेदाद्विध्वंसं छर्दनं च जरणं च । मध्यान्तयोश्च विदरणमिति दश शशिसूर्ययोर्मोक्षाः || ७५ || आग्नेय्यामथ गमनं दक्षिणहनुभेदसंज्ञितं शशिनः । सस्यविमर्दों मुखरुङ नृपपीडा स्यात्सुवृष्टिश्च ॥ ७६ ॥ पूर्वोत्तरेण वामो हनुभेदो नृपकुमारभयदायी । मुखरोगः शस्त्रभयं तस्मिन्वियात्सुभिक्षं च ॥ ७७ ॥
१२
१ ख. घ. मण्डल ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
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दक्षिणकुक्षिविभेदो दक्षिणपार्श्वेन यदि भवेन्मोक्षः । पीडा नृपपुत्राणामभियोज्या दक्षिणा रिपत्रः ॥ ७८ ॥ वामस्तु कुक्षिभेदो यरपार्श्वमास्थितो राहुः । स्त्रीणां गर्भविपत्तिः सस्यानि च तत्र मध्यानि ॥ ७९ ॥ नैऋतवायव्यस्थे दक्षिणवा तु पायुभेदौ द्वौ । गुरुगल्पा वृष्टिर्द्वयोस्तु राज्ञीक्षयो वामे ॥ ८० ॥ पूर्वेण प्रग्रहणं कृत्वा मागेव चापसर्पेद्यत् । संछर्दनमिति तत्क्षेमसस्यहार्दिपदं जगतः ॥ ८१ ॥ प्राक्मग्रहणं यस्मिन्पश्चादपसर्पणं तु तज्जरणम् । 'क्षुच्छस्त्रभयोद्विग्ना न शरणमुपयान्ति तत्र जनाः || ८२ ॥ मध्ये यदि प्रकाशः प्रथमं तन्मध्यविदरणं नाम । अन्तःप्रकोपदं स्यात्सुभिक्षदं नरतिवृष्टिकरम् ॥८३॥ पर्यन्तेषु विमलता बहुलं मध्ये तमोऽन्तदरणाख्यम् । मध्याख्यदेशनाशः शारदसस्यक्षयश्चास्मिन् ।। ८४ ॥ एते सर्वे मोक्षा वक्तव्या भास्करेऽपि किं त्वत्र । पूर्वा दिक् शशिनि यथा तथा रवौ पश्चिमा कल्प्या || ८५ || नारदः - दशैव ग्रासभेदाः स्युर्मोक्षभेदास्तथा दश । न शक्ता वेदितुं देवाः किं पुनस्तान्नराधमाः ॥ ८६ ॥ मुक्तेः सप्ताहान्तः पांशुनिपातोऽन्नसंक्षयं कुरुते । नीहारो रोग`भयं भूकम्पः प्रवरनृपमृत्युम् ॥ ८७ ॥ उल्का मन्त्रिविनाशं नानावर्णा घनाव भयमतुलम् । स्तनितं गर्भविपत्तिं विद्युन्नृपदंष्ट्रिपरिपीडाम् ॥ ८८ ॥ परिवेषो
पीडां दिग्दाहो नृपभयं च साग्निभयम् । रुक्षो वायुः प्रबलचौरस - मुत्थं भयं दत्ते ॥ ८९ ॥ निर्घातः सुरचापं दण्ड क्षुद्भयं सपरिचक्रम् । ग्रहयुद्धे नृपयुद्धं केतुश्च तंदैव संदृष्टः ॥ ९० ॥ अधिकृतसलिलनिपातैः सप्ताहान्तः सुभिक्षमादेश्यम् । यच्चाशुभं ग्रहणजं तत्सर्वं नाशमुपयाति ॥ ९९ ॥ सोमग्रहे निवृचे पक्षान्ते यदि भवेद्ग्रहोऽर्कस्य । तत्रानयः प्रजानां दंपत्योर्वैरमन्योन्यम् ॥ ९२ ॥ अर्कग्रहात्तु शशिनो ग्रहणं यदि दृश्यते ततो विप्राः । नैकक्रतुफलभाजो भवन्ति मुदिताः प्रजाचैव ॥ ९३ ॥ इति पर्वेशादिफलानि ।
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अथ निजराशौ ग्रहणफलम् |
माण्डव्य:- निजराशेर्ग्रहण दिने त्रिपदशैकादशे शुभो राहुः । अपरे राहु माहुर्जन्ममशुभं परं शशिवत् ॥ १ ॥ भृगुः कष्टतरं जन्मभगं ग्रहणं पुंसां तथाऽष्टसप्तान्त्यम् । उपचयगं शुभदं स्यान्मध्यफले द्वित्रिकोणचन्धुगतम् ॥ २ ॥ फल • प्रदीपे - ग्रहणं जन्मनक्षत्रे जायते चन्द्रसूर्ययोः । यस्य तस्याशुभं हानिवैरं रोगः
१. 'ग्रह' व 'ग्रहणं ।
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ज्योतिर्निवन्धः।
९१ पराभवः ॥ ३॥ कालनिर्णये- यस्मिन्राशी तफ्नशशिनोः सैंहिकेयोपमर्दस्तद्राशीनां भवति विषयग्रामपुंसां विनाशः । तस्माच्छान्ति मुनिभिरुदितां तत्पटालोकपूर्वी कुर्यादानादिभिरिह नृणां नाशमायात्यनिष्टम् ॥ ४ ॥
अथ दानम् । सुवर्णनिर्मितं नागं सतिलं ताम्रभाजनम् । सदक्षिणं सवस्त्रं च श्रोत्रियाय निवेदयेत् ॥ १ सोवर्ण राजतं वाऽपि विम्बंकृत्वा स्वशक्तितः । उपरागोद्भवलेशच्छिदे विप्राय कल्पयेत् ॥२॥ दानमन्त्रस्तु-तमोमय महाभीम सोमसूर्यविमर्दन । हेमनागप्रदानेन मम शान्तिप्रदो भव ॥ ३ ॥ स्कन्दपुराणे-गोदानं भूभिदानं च स्वर्णदानं विशेषतः । ग्रहणक्लेशनाशाय दैवज्ञाय समर्पयेत् ॥ ४॥
अथ ग्रहणमाहात्म्यम् । दानखण्डे-सर्व भूमिसमं दानं सर्वे ब्रह्मसमा द्विजाः । सर्वं गङ्गासमं तोयं ग्रहणे नात्र संशयः ॥ १ ॥ इन्दोर्लक्षगुणं पुण्यं रवेर्दशगुणं भवेत् । गङ्गादितीर्थसंप्राप्तौ प्रोक्तं कोटिगुणं भवेत् ॥२॥ गङ्गायां पुण्यतीर्थे वा ग्रहणे स्नानमुत्तमम् । कूपे वाप्यां तडागे वा तथैवोद्धृतवारिणा ॥३॥
अथ ग्रहणे वय॑म् । हारीतस्मृती- सर्वेषामेव वर्णानां सूतकं राहुदर्शने । सचैलं तु भवेत्स्नानं शतमन्नं विवर्जयेत् ॥ १ ॥ निबन्धसारे-दर्श पातेऽर्कसंक्रान्तावुपाकर्मण्युपप्लवे । न स्नायादुष्णतोयेनास्पृश्यस्पर्शेऽत्यये तथा ॥२॥ आदित्येऽहनि संक्रान्ती ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः । पारणं चोपवासं च न कुर्यात्पुत्रवान्गृही ॥ ३ ॥ स्मृतिरत्नावल्याम् अन्त्येष्टयां शवचाण्डालस्पर्शने खरकाकयोः । राहग्रस्ते विमुक्ते वा कुर्यात्स्नानममन्त्रकम् ॥ ४ ॥ चतुर्विंशतिमते-ग्रहे पर्युपितं चान्नं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । पीत्वा तथोदकं विप्रः पादकृच्छं समाचरेत् ॥ ५॥ पराशर:-नवश्राद्धे च यच्छेषं ग्रहपर्युषितं तथा । दंपत्योर्मुक्तशेषं च भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥ ६॥ व्रतवाक्यसंग्रहे-चन्द्रसूर्यग्रहे यस्तु स्नानं दानं शिवार्चनम् । न करोति पितुः श्राद्धं स नरः पतितो भवेत् ॥ ७॥चतुर्वर्गचिन्तामणौछेद्यं न पत्रं तृणदारुपुष्पं कार्य न केशाम्बरपीडनं च । दन्ता न शोध्याः परुषं न वाच्यं भोज्यं च वय मदनो न सेव्यः॥८॥ वाह्यं न वाजिद्विरदादि किंचिद्दोह्यो न गोजामहिषीसमूहः । यात्रां न कुर्याच्छयनं च तद्वद्ग्रहे निशा-- भर्तुरहर्पतेश्च ॥ ९ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-न च्छेद्यं तृणपुष्पादि न केशाम्बरपीडनम् ।
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९२
श्रीशिवराजविनिर्मितीन भोगदोहयात्रादि न निद्रा भोजनं ग्रहे ॥१. ॥ पैतामहसिद्धान्तेसर्वैः पटस्थितं वीक्ष्यं खस्थं तैलाम्बुदर्पणे । गुर्विण्या ग्रहणं जातु नावलोक्यं पटं विना ॥११॥
इति सूर्येन्दुग्रहणनिर्णयः ।
अथ सिंहस्थगुरुनिर्णयः। . ब्रह्मपुराणे---यस्मिन्दिने सुरगुरुः सिंहराशिगतो भवेत् । तस्मिस्तु गौतमीस्नानं कोटिजन्माघनाशनम् ॥ १ ॥ ब्रह्माण्डपुराणे-तीर्थानि नद्यश्च सरः समद्राः क्षेत्राण्यरण्यानि तथाऽऽश्रमाश्च । वसन्ति सर्वाणि च वर्षमेकं गोदातटे सिंहगते सुरेज्ये ॥२॥ ब्रह्मवैवर्ते-अश्वमेधफलं चैव लक्षगोदानजं फलम् । प्राप्नोति स्नानमात्रेण गोदायां सिंहगे गुरौ ॥३॥ कालनिर्णये-शान्तिकं पौष्टिकं यात्रां प्रतिष्ठोद्वाहपूर्वकम् । न कुर्यात्सर्वमाङ्गल्यं सिंहसंस्थे बृहस्पतौ ॥ ४ ॥ माण्डव्यः-इष्टापूर्त च चौलादिसंस्कारा वास्तुकर्म च । अन्यानि शुभकर्माणि न कुर्यात्सिंहगे गुरौ॥५॥होराप्रकाशे-रविक्षेत्रगते जीवे जीवक्षेत्रगते गुरौ । नकुर्याच्छुभकर्माणि व्रतोद्वाहमुखानि च ॥६॥रविक्षेत्रं तु पैत्रé गुरुक्षेत्रं च रेवती। मिथ:क्षेत्रगतौ तौ च नश्येतां किल मङ्गलम् ॥ ७ ॥ गर्गः-भागीरथ्युत्तरे तीरे गोदावर्याश्च दक्षिणे । व्रतोद्वाहादिकर्मादि सिंहसंस्थे न दुष्यति ॥८॥ शौनकीयपटलेवरलाभातिकालाभ्यां दुर्भिक्षादेशविप्लवात् । विवाहोऽदक्षिणे तीरे भागीरथ्याश्च दक्षिणे ॥९॥ गोदावर्युत्तरे तीरे भागीरथ्याश्च दक्षिणे । विवाहादि न कुर्वांत सिंहसंस्थे च वाक्पतौ ॥ १० ॥ सिंहे गुरौ सिंहनवांशकोर्ध्व गोदावरीदक्षिणकूलजातैः । उद्वाहकालात्ययदोपभीतैः कार्यों विवाहश्च्यवनो ब्रांति ॥ ११ ॥ कालनिर्गये-सिंहस्थिते सुरगुरावधिमासके च ज्येष्ठे तथाऽऽद्यतनयस्य कुमारिकायाः । कुर्वीत नाकंगतनीचगयोर्विलग्नजन्मेशयोश्च निखिलान्यपि मङ्गलानि ॥ १२ ॥ भृगुः-सीमन्तजातकादीनि प्राशनान्तानि च क्रमात् । कर्तव्यानि न दोषोऽस्ति पश्चाननगते गुरौ ॥ १३ ॥ कल्पतरौ-नष्टे शुक्रे तथा जीवे सिंहस्थे च बृहस्पतौ । कुर्याचैत्रे स्वदेव्यर्चा प्रत्यब्दं कुलधर्मतः ॥ १४ ॥ ब्रह्मपुराणेस्नानं जपस्तपो होमः पितॄणां तर्पणादिकम् । गौतभ्यामक्षयं विद्यात्सिंहयाते बृहस्पतौ ॥ १५ ॥ यात्राविधाने - स्वेष्टदेव्यर्चनं गेहे विधायाभ्युदयं व्रजेत् । तीर्थ दृष्ट्वा स्तुति स्नानं क्षौरं मृद्भूतिगोमयः ॥ १६ ॥ शुद्धिः कृच्छोपवासादिनाननित्यं च वाक्पतेः । गङ्गायाश्चार्चनं श्राद्धं पिण्डदानं द्विजार्चनम् ॥ १७ ॥
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ज्योतिर्निबन्धः।
अथ संकटे प्रवृत्तिमाह। वृद्धगर्गः-वृत्रशत्रुसचिवेऽपि सिंहगे मेषगे च तपने करग्रहम् । या लभेत भवतीह साऽबला सौख्यमेति सुभगत्वमक्षयम् ॥ १ ॥ अन्यच्च-सिंहस्थे देवगुरौ मेषस्थे यदि भक्त्सहस्रांशुः । मङ्गलकार्यं कुर्यादिति नारदपराशरौ वदतः ॥ २ ॥ शौनकः---मेषस्थे दिवसकरे सिंहस्थे वज्रपाणिसचिवे च । यस्याः परिणयनमसौ साध्वी सुखसंपदोपेता ॥ ३ ॥ कारिकानिबन्धे-अतीव दुष्टे सुरराजपूज्ये सिंहस्थिते वा द्विजपुङ्गवानाम् । व्रतस्य बन्धः खलु मासि चैत्रे कृतश्चिरायुःसुखसंपदे स्यात् ॥ ४ ॥ मौजीपटले-जन्मभाडुष्टगे सिंहे नीचे वा शत्रुगे गुरौ । मौजीबन्धः शुभः प्रोक्तश्चैत्रे मीनगते रवी ॥ ५ ॥ ज्योतिर्विवरणे काश्यपः-हरिनीचारिभागेऽपि व्रतोद्वाहादि मङ्गलम् । न निषिद्धं यदि स्वोच्चे स्वभे वा संस्थितो गुरुः ॥ ६ ॥ भगुः-सिंहेऽपि भगदेवत्ये गुरौ पुत्रवती भवेत् । अत्यन्तं सुभगा साध्वी धनधान्यसमन्विता ॥ ७ ॥ सप्तर्षिपटले-मघां त्यक्त्वा यदा गच्छेत्फल्गुनी च बृहस्पतिः। पुत्रिणी धनिनी कन्या सौभाग्यं सुखमेधते ॥ ८॥
इति सिंहस्थगुरुनिर्णयः।
अथ संक्रान्तिनिर्णयः । सूर्ये घोरा विधौ ध्वाङ्क्षी भौमवारे महोदरी । बुधे मन्दाकिनी ज्ञेया मन्दाख्या देवमन्त्रिणि ॥ १ ॥ मिश्राभिधा कवेवारे राक्षसी स्यादिनात्मजे । केचिदाहुरिने ध्वाङ्क्षी घोराऽऽरेऽब्जे महोदरी ॥२॥ उग्रक्षिपचरैर्मित्रध्रुवमिश्राख्यदारुणैः । धिष्ण्यैः संक्रान्तिरर्कस्य घोराद्या क्रमशो भवेत् ॥३॥ घोरा सुखाय शूद्राणां विशां ध्वाङ्क्षी शुभप्रदा । महोदरौं च चोराणां राज्ञां मन्दाकिनी मता ॥ ४ ॥ विप्राणां शुभदा मन्दा पशूनां मिश्रका मुदे । चाण्डालशौण्डिकादिनां स्यादानन्दाय राक्षसी ॥ ५ ॥ पूर्वाह्ने पीडयेद्भूपान्मध्याह्ने तु द्विजोत्तमान् । विशोऽपराह्नेऽस्तमये शद्रानुषसि गोपकान् ॥ ६॥ तिनो हन्ति संध्यायां पिशाचान् रजनीमुखे । अर्धरात्रे रात्रिचरान्परतो नटनर्तकान् ॥ ७ ॥ दिवा चेन्मेषसंक्रान्तिरनर्धकलहप्रदा । रात्रौ सुभिक्षमतुलं संध्ययोदृष्टिरुत्तमा ॥ ८ ॥ मृगकर्काजगोमीनसंक्रान्तिर्निशि सौख्यदा । शेषेषु सप्तसु दिवा व्यत्ययादशुभं भवेत् ॥ ९ ॥ संक्रान्तिर्जायते यत्र भास्करे भूसुते शनौ । तत्र
१ क. ख. कर्मादिगो ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
मासि भयं घोरं दुर्भिक्षावृष्टिगोचरम् ॥ १० ॥ स्यादुत्थितश्च किंस्तुघ्ने शकुनौ कौलवे रविः । संक्रान्तिस्तैतिले नागे प्रसुप्तस्य चतुष्पदे ॥ ११ ॥ निविष्टश्च गरे विष्टयां वत्रे वणिजबालवे । वृष्टयः क्रमादिष्टमनिष्टं मध्यमं फलम् ॥ १२ ॥ राजमार्तण्डे-दुर्भिक्षं रोगबाहुल्यमूर्ध्वः संक्रमते रविः । सुप्तः करोति कल्याणमुपविष्टः समं फलम् ॥ १३ ॥ मेषं याति दिवा सूर्यो रात्रौ संक्रमते तुलाम् । तदा नन्दन्ति राजानो जनाश्च विविधोत्सवैः ॥ १४ ॥ प्रद्योतनस्य संक्रान्तिर्यादृशेनेन्दुना भवेत् । तन्मासि तादृशं प्राहुः शुभाशुभफलं नृणाम् ॥ १५ ॥ पन्था भोजनमग्भर्मित्राणां दर्शनं तथा । फलानि सप्त संक्रान्तेर्विद्यावस्त्रधनागमाः ॥ १६ ॥ यां तिथि समनुप्राप्य तुलां गच्छति भास्करः । तस्यामेवार्कसंक्रान्तिर्यावन्मेषं शुभप्रदा ॥ १७ ॥ न्यूनातिचारे दुर्भिक्षं राष्ट्रभङ्गो जनक्षयः । समसप्तेकमर्केन्द्रोः संक्रमे च महर्घता ॥ १८ ॥ संक्रान्तिऋक्षं तिथिवारम धान्याक्षराढ्यं त्रिहृतं च शेषम् । एकेन वृद्धिं युगलेन साम्यं शून्येन हानिं मुनयो वदन्ति ॥ १९ ॥ यत्र मासि कुजाकर्किवारेषु रविसंक्रमः । दुर्भिक्षं जायते तत्र राज्ञां च कलहो मिथः || २० || सिंहो व्याघ्रो वराहश्च खरकुञ्जरमाहिषाः । अश्वोष्ट्रमेपवृषभा नृयानं वाहनं बवात् ॥ २१ ॥ मतान्तरे-गजो वाजिर्वृषो मेषः खरोष्ट्रहरयः क्रमात् । ववादौ वाहनं प्रोक्तं स्थिरेषु वृषभो रविः॥२२॥ खशबाह्लीकवङ्गेषु संक्रान्तिर्धिष्ण्यवाहना । अन्यदेशेषु तिथ्यर्धवाहनं नारदोऽब्रवीत् || २३ || बत्रे गरे गजारूढो बालचे वणिजे वृषे । किंस्तुघ्ने शकुनौ कौले वाजिरूढस्तु संक्रमे || २४ || व्याघ्रे विष्टयां चतुष्पादे माहिषे नागतैतिले गजे लक्ष्मीर्वृषे स्वस्थं विडुरं वाजिवाहने || २५ || माहिषे मारणं व्याघ्रे वाहने निश्चितं फलम् । गर्गादिभाषितं चैव कुर्याच्छान्ति तु बुद्धिमान् ॥ २६ ॥ गर्ग:तन्त्री खङ्गः सितः केतुः कुन्तः पद्मं धनुस्तुला । पाशचक्रमलातं च कुलिशं चाऽऽयुधं रवेः ॥ २७ ॥ नारदः - भृशुण्डीभिन्दिपालासिदण्डकोदण्डतोमरान् । कुन्तपाशाङ्कशास्त्रे षून्विभर्ति करणेविनः ॥ २८ ॥ अन्नं च पायसं भैक्षमपूपं च पयोदधि | चित्रानं गुडमध्वाज्यं शर्करा ववतो रवेः ॥ २९ ॥ नटक्षत्रियविप्राणां विट्शूद्रयतियोषिताम् । प्रधानान्त्यजपाखण्डिक्कीवानां संक्षयो बवात् || ३० || श्वेतं रक्तं चित्रं पीतं नीलं च कम्बलं क्रमशः | पट्टमजिनं क्षौमं वल्कलमसितं ववासनम् || ३१ || कस्तूरिका चन्दनकुङ्कुमं मृगोरोचनं यावक ओतुधर्मः । निशाञ्जनं चागरुरिन्दुरेभिर्विलेपनं संक्रमणे बवाच्च ॥ ३२ ॥ पुन्नागजातीवकुलानि मल्लिका जपा च नीलोत्पलमर्कमाधवी । सचम्पकं पाटलिपुष्प
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५. व. 'तमम' । २ व 'हनस्य द्ववादित । ३ व संभश्यम' :
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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चतुरं वादिपुष्पाणि च धारणानि ॥ ३३ ॥ प्रवालमुक्तारजतं मणिस्तथा गोमेदकं नीलसुवर्णसीसम् | कांस्यं तथा पित्तलताम्रलोहं ववादिकानामिह भूषणानि ॥ ३४ ॥ आयुधं वाहनाहारौ यज्जातीयनरस्य यत् । विनाश जायते तस्य वस्त्रादीनां महता ॥ ३५ ॥ यदन्नं संक्रमे प्रोक्तं तदन्नैः प्रीणयेद्रविम् । आयुधं यच्च तद्राज्ञा पूजनीयं जयार्थिना ॥ ३६ ॥ अथ संक्रान्तिवाहनादिविचारः ।
*मुहूर्तचूडामणौ-बवे सिंहगा देवजातिर्निविष्टा भृशुण्ड्यायुधा शुभ्रवस्त्राऽनअक्ष्या । सुवाला च कस्तूरिकालिप्तभाला गले वर्यपुन्नागमालां दधाना ॥ १ ॥ बालवे भिन्दिपालायुधा कुङ्कुमालिप्तभाला निविष्ठा कुमारी तथा । जातीपुष्पं च पीतांशुकं विभ्रती पायसं चात्ति शार्दूलका भौतिका ॥ २ ॥ कौलवे कोलगा व्यालजातिर्हरिद्वर्णवासा विकेशा सुभेक्षाशिनी । चन्दनालिप्तभालाऽसिहस्तोर्ध्वगा बाकुलां पुष्पमालां करे विभ्रती ॥ ३ ॥ तैतिले पक्षिजातिः खरस्था भवेत्केतकीपुष्पमाला च दण्डायुधा । मृत्तिकालिप्तभाला च पीताम्बराऽपूपभक्ष्या च सुप्ता वयोमध्यमा ॥ ४ ॥ गरे निविष्टा सुधनुर्धरित्री प्रौढा पशुर्वारणवाहना च । सुरक्तवस्त्राऽति पयो विरोचनाश्चिता युता विल्वकपुष्पमालया || ५ || सतोमरा माहिषगा प्रगल्भा श्यामाम्बरा स्याद्वणिजे निविष्टा । दधिप्रिया -यावलिप्तभाला मृगी घृताकमलपुष्पमाला || ६ || विष्टयां वृद्धा विप्रजातिनिविष्टा वाजिस्था स्यादोतुधर्माव्यभाला। दूर्वामालाच्या विचित्रान्नभक्ष्या हस्ते कुन्ताख्यायुधा कृष्णवस्त्रा ॥ ७ ॥ स्यात्क्षत्रिया कुकुरगाऽतिवृद्धा पाशायुधा रात्रिविलिप्तभाला । विचित्रवस्त्रा शकुनौ सपद्मा चोर्ध्वस्थिता सद्गुडराशिभक्ष्या ॥ ८ ॥ चतुष्पदे मेषगताऽतिवन्ध्या सकम्बला कज्जललिप्तभाला । वैश्या च सुप्ता मधु भक्षमाणाऽङ्कुशायुधा मल्लिकया समेता || ९ || अस्त्रं दधाना वृष'वाहना च सुप्ता सुपुत्रा सितवस्त्रयुक्ता । सपाटला शूद्रभवाऽऽज्यभक्ष्या विलिप्तभालाऽगरुणा हि नागे ॥ १० ॥ वाणायुधा कुक्कुटगोर्ध्वगा सा कृष्णाम्बरा संकरजेन्दुलिप्ता । प्रव्रज्ययाऽऽट्या जपया समेता किंस्तुनके चाति सुशर्करां च ॥ ११ ॥ तिथ्यर्धजानि संक्रान्तिवाहनानि यथाक्रमात् । भयो निवाहनं बड़वाह विषये खशे ॥ १२ ॥
अथ पुण्यकालः ।
संक्रान्तिसमयः सूक्ष्मो दुर्लक्ष्यः पिक्षिणैः । तस्य योगाद्धश्रोत्रंश* इतो बाद लोकाः करान्स ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
नाड्यस्तु कीर्तिताः ॥ १ ॥ अर्वाक्षोडश नाड्यस्तु परतचैव षोडश । पुण्यकालोऽर्कसंक्रान्तेः स्नानदानादिकर्मसु ॥ २ ॥ त्रिंशत्कर्कटसंक्रान्तौ पूर्वतः पुण्यनाडिका: । मकरे तूत्तराः पुण्याचत्वारिंशच्च नाडिकाः || ३ || आसन्नं संक्रमे पुण्यं दिनार्थे स्नानदानयोः । नाड्यः संनिहितास्तत्र तास्ताः पुण्यतमाः स्मृताः ॥ ४ ॥ संपूर्णे चार्धरात्रे चेद्यदि संक्रमते रविः । तदा दिनद्वयं पुण्यं मुक्त्वा कर्कट ।। ५ ।। स्थिरे विष्णुपदं ककिंदक्षिणायनमादितः । मृगे सौम्यायनं यङ्गे षडशीतिमुखं पुरः || ६ || घटेऽजे विषुवं मध्ये पुण्यदानाद्यनन्तकम् । प्रागर्धरात्रात्पूर्वेद्युः पुण्यं पश्चात्परं दिनम् ॥ ७ ॥ अहः संक्रमणे कृत्स्नमहः पुण्यं प्रकीर्तितम् । रात्रौ संक्रमणे भानोर्व्यवस्था सर्वसंक्रमे ॥८॥ सूर्यास्तमनसंध्यायां यदि सौम्यायनं भवेत् । तदहः पुण्यकालः स्यात्परतश्चेत्परेहान ॥ ९ सूर्यस्योदयसंध्यायां यदि याम्यायनं भवेत् । तदोदयादहः पुण्यं पूर्वतः पूर्वतो यदि ॥ १० ॥ यद्यर्धरात्र एव स्यात्संपूर्णः संक्रमो रवेः । तदा दिनद्वयं पुण्यं परतश्चेत्परेऽहनि ॥ ११॥ मनुस्मृतौ — ग्रहणोद्वाहसंक्रान्तियात्रार्तिप्रसवेषु च । स्नानदानादिकं कार्य रात्रावपि न दुष्यति ॥ १२ ॥ ग्रहणेऽयनसंक्रान्तौ विवाहे पुत्रजन्मनि । काम्यत्रते च मरणे रात्रौ स्नानाद्यमुत्तमम् ॥१३॥ अर्धास्तमनात्संध्या स्याद्यटिकात्रय संमिता । तथैवार्धोदयात्प्रातर्घटिकात्रय संमिता ॥ १४ ॥ प्रागर्धरात्रात्पूर्वाहो विषुवद्विष्णुपादयोः । पडशीतिमुखे चैवं परतथेत्परेऽहनि । पश्चात्पराहः संक्रान्तिः षडशीतौ विपर्ययात् ॥ १५ ॥ कालविवेके— निशः प्राक्प्रहरात्पूर्वं यदि सौम्यायनं भवेत् । तदा तस्मिन्दिने पुण्यं परतश्चेत्परेऽहनि ॥ १६ ॥ यादृशेनेन्दुना भानोः संक्रान्तिस्तादृशं फलम् । नरः मानोति तद्राशौ शीतांशोः साध्वसाधु वा ॥ १७ ॥ रविसंक्रमणे पुण्ये यो न स्नातीह मानवः । सप्तजन्मान्तरं रोगी दुःखभानिर्धनो भवेत् ॥ १८ ॥ स्मृतिचन्द्रिकायां-संक्रान्त्यां यानि दत्तानि हव्यकव्यानि मानवैः । तानि तस्य ददात्यर्कः सप्तजन्मसु निश्चितम् ॥ १९ ॥ भारते - दत्तानि यानि दानानि हव्यकव्यानि संक्रमे । अपमिव समुद्रस्य तेषामन्तो न विद्यते ॥ २० ॥ आदित्यपुराणे - शतमिन्दुक्षये दानमुपरागे त्वनन्तकम् । षडशीत्यां सहस्रं तु विषुवत्यां तथैव च ॥२१॥ विषुवे शतसाहस्रं कोटिघ्नं दक्षिणायने । शतकोटिगुणं पुण्यं जायते तूत्तरायणे ॥ २२ ॥
* घ. पुस्तके नायं श्लोकः ।
१. दाना । २. विष्णुपयांत
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ पुण्यकालविशेषः ।
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निरंशः सविता यत्र तद्दिने स्नानमाचरेत् । दानं चाप्यक्षयं प्रोक्तं रहस्यं मुनिभिः स्मृतम् ॥ १ ॥ पुण्यं बहुतरं सूर्ये निरंशे मुनयो विदुः । अंशकं प्राप्य दानानि नैव गृह्णाति भास्करः ।। २ ।। नारदः - - आक्रान्तगतयो राज्योरन्तराल महर्पतेः । विज्ञेयं विम्वमध्यं तदहः सम्यङ्महत्फलम् ॥ ३ ॥ कालनिर्णय —— कर्केऽतीतं मृगे पूर्वे रात्रौ चैव कदाचन । सौरव्रतं न कुर्वीत यदीच्छेत्सुतजीवितम् ॥ ४ ॥ यस्मिन्दिने निरंशः स्यात्संस्कृतोऽर्थोऽयनांशकैः । तद्दिनं च महत्पुण्यं रहस्यं मुनिभिः स्मृतम् ॥ ५ ॥ संक्रान्त्युत्तरभो - गिन्यो यदि स्युर्यामिनीमुखे । तदा पूर्वदिनं पुण्यं स्नानदानादिकर्मसु ॥ ६ ॥ * संपूर्ण चार्धरात्रे चेद्यदा संक्रमते रविः । तदा दिनद्वयं पुण्यं स्नानदानादिकर्मसु ॥ ७ ॥ कार्मुकं च परित्यज्य मृगं याति दिवाकरः । प्रदोषे चार्धरात्रे वा तदा भोगः परेऽहनि ॥ ८ ॥
अथ पुण्यकालानयनम् ।
सिद्धान्तशिरोमणौ- षष्टिनबिम्बं ग्रहयुक्तिभक्तं संक्रान्तिनाड्योऽखिलधर्मकृत्ये । वेस्तु ताः पुण्यतमा हः स्वसंक्रान्तिगो मित्रफलं विधत्ते ॥ १ ॥ भानोर्गतिः स्वदशभागयुक्तार्दिता स्याद्विम्बं विधोस्त्रिगुणिता युगशैलभक्ताः । व्यङ्घ्रीषवः सचरणा ऋतवस्त्रिभागयुक्ताद्रयो नव कुजास्त्रिलवाधिकाक्षाः ॥ २ ॥ बिम्बकलाः - रवेः ३३, इन्दो: ३३, भौमस्य ४ । ४५, ज्ञस्य ६ । १५, गुरोः ७ । २०, कवेः ९ । ०, शनेः ५ । २० । ग्रहसंक्रान्तौ प्राकृतः पुण्यकाल उभयत्र । २० १६, चं० १ । १३, मं० ४, बु० ३, बृ० ४, शु० ४, श० ६, रा० ८, के० ८ । होलिकाग्रहणभानुकायने प्रेतदाहमिति पञ्चकं स्मृतम् । तत्परेऽहनि करोति मृत्युकृत्सर्वकर्मसु विगर्हिता ( तं ) बुधैः ॥ ३ ॥ 1 गर्गः - यस्य जन्मक्षमासाद्य रविसंक्रमणं भवेत् । तन्मासाभ्यन्तरे तस्य वैरक्लेशधनक्षयाः || ४ || तगरसरोरुहपत्र रजनीसिद्धार्थलोधसंयुक्तः । स्नानं जन्मक्षगते रविसंक्रमणे नृणां शुभदम् ॥ ५ ॥
अथ संक्रान्तिस्नानम् ।
देवीपुराणे - कुक्कुमं रोचनामसीमुराचन्दनवालकम् । हरिद्राचन्द्रसंयुक्तं मेषे
पचभिदं चतुर्थ चरणम्यस्थासेन पूर्वमुकम् (श्लो० ३८ )
१ ख. ग्रहावर्स' । व. ग्रहस्व । २ क. 'तार्थताऽस्य बिम्ब ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितीस्नानं महाफलम् ॥ १ ॥ कुङ्कुमैलासुसिद्धार्थरोचनाघनसारकः । सितगोमूत्रसंयुक्तैर्वृषे स्नानं सुखार्थदम् ॥ २ ॥ उशीरं पद्मकं कुष्ठं रोचनाग्रन्थिपर्णकम् । कुङ्कुमागरुसंयुक्तं मिथुने राज्यदं मतम् ॥ ३॥ रोचना वालकं मुस्ता मुरा शैलेयचन्दनम् । हरिद्राकुष्ठसंयुक्तं कर्किसंक्रमणे शुभम् ॥ ४॥ पत्रकं रोचकं मुस्ता मांसीत्वगथ चन्दनम् । सिंहे स्नानं सुराध्यक्ष राज्यायुःपुत्रवर्धनम् ॥५॥ हरिद्रा वालक कुष्ठमांसी चन्दनरोचना । कन्यास्नानं प्रकर्तव्यं रतिसंतानवर्धनम् ॥ ६ ॥ रोचना तगरुः कुष्ठं पद्मकोशीरपत्रकम् । हरिद्रावालसंयुक्तं तुलायां स्नानमुत्तमम् ॥ ७ ॥ प्रियगुस्फटिकामांसीपत्रक रोचनाऽगरुः । मुस्ताकुष्ठसमं स्नानं वृश्चिके राज्यदं मतम् ॥ ८ ॥ प्रवालमौक्तिकं कुष्ठं रोचना धनपद्मकम् । सुरामांसीसमं स्नानं धनुःसंक्रमणे शुभम् ॥९॥ रोचनावालक कुष्ठं पद्मकोशीरपत्रकम् । हरिद्रावालसंयुक्तं मकरे सर्वकामदम् ॥ १० ॥ ग्रन्थिपर्ण तथैला च केसरं जातिपत्रकम् । रोचनासहितं स्नानं कुम्भे पुत्रायुराज्यदम् ॥ ११ ॥ कर्पूरं फलसूक्ष्मैलामांसीचन्दनपद्मकम् । वालकं सघनोशीरत्व, मीने सुखावहम् ॥ १२ ॥ द्वादशैते समाख्याताः स्नानतः स्युः सुरार्चिताः । अलक्ष्मीनाशनां धन्या महापातकनाशनाः (१) ॥ १३ ॥
_____ अथ संक्रान्तिफलम् ।। संक्रान्तेर्ग्रहण वा जन्मन्युभयपार्श्वयोः । नेष्टं ततः षट् च शुभाः पर्यायेण पुनः पुनः ॥ १॥ वसिष्ठ:--हानिश्चेदर्कसंक्रान्तिर्जन्मपूर्वक्षतस्त्रिषु । अर्थलाभस्तथा षट्सु शेषेष्वेवमुपप्लवे ॥ २ ॥ त्रिकं षट्कं त्रिकं षट्कं त्रिकं षट्कं पुनः पुनः । पन्था भोगो व्यथा वस्त्रं हानिश्च विपुलं धनम् ॥ ३ ॥ दर्शान्तसूर्यमुक्तानिर्जीवाख्यं च भत्रयम् । एकादशर्स विंशद्भ मङ्गले निधनप्रदम् ॥ ४॥ तिलोपरि लिखेच्चक्रं त्रिकोणं त्रित्रिशूलकम् । तत्र हेम विनिक्षिप्य दद्यादोषापनुत्तये ॥ ५ ॥ वसिष्ठः-शूलदोषापनुत्त्यर्थं निर्जीवस्यापनुत्तये । स्वर्णशूलं द्विजे दद्यात्तिलवस्त्रसमन्वितम् ॥ ६॥ पूर्वसंक्रान्तिनक्षत्रात्परसंक्रान्तिभं यदि । द्वित्रिसंख्यासमर्प स्यात्तुर्यपञ्चमहर्घता । षष्ठे लोका भ्रमन्तीह गृहीत्वा खपरं करे ॥ ७॥
अथ दानानि । सौम्यायने नूतनभाण्डदानं गोग्रासमन्नं तिलपात्रमर्थम् । गुडाज्यतैलोर्णसुवर्णभूर्षि गोवस्त्रवानिप्रभृतींश्च दद्यात् ॥ १॥ फलभोजनपाथेयरूपालोकनदी
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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पकैः । नत्यर्धजपमालार्कस्नानैः सूर्य व्रतैर्यजेत् ॥ २ ॥ तत्र भाण्डमन्त्रः -रविसंक्रमसंभूते संक्रान्ते पापहारिणि । नमस्ते सवितुः प्रतियै भाण्डानि प्रददाम्यहम् ॥ ३ ॥
इति सूर्य संक्रान्तिनिर्णयः । अथ जन्मराशिनिर्णयः ।
विवाहे सर्वमाङ्गल्ये यात्रादौ ग्रहगोचरे । जन्मराशेः प्रधानत्वं नामराशिं नः चिन्तयेत् ॥ १ ॥ देशे ग्रामे ग्रहे युद्धे सेवायां व्यवहारके | नामराशेः प्रधानत्वं जन्मराशिं न चिन्तयेत् || २ || काकिण्यां वर्गशुद्धौ च वादे द्यूते ज्वरोदये । मन्त्रे पुनर्भूवरणे नामराशेः प्रधानता ॥ ३ ॥ राजमार्तण्डः – विवाहघटनं चैव लग्नजं ग्रहजे फलम् । नामभाच्चिन्तयेत्सर्वं जन्म न ज्ञायते यदा ॥ ४ ॥ दीपिकायां - जन्म न ज्ञायते येषां तेषां नाम्नो गवेष्यते । चक्रेऽवकहडे भांशे तन्नाडी कैश्चिदग्निभात् ॥ ५ ॥ यदा स्त्रीजन्मसंपत्तिर्वरजन्म न लभ्यते । स्त्रियाः.. स्याज्जन्मतः शुद्धिर्नाम्नो मेलक्रिया तदा ॥ ६ ॥ पटलसारे - जन्मज्ञानेऽपि चैकस्य .. द्वयोर्नाम्नोर्भमेलकः । चिन्त्यस्तत्रैव जन्मक्षद्वीक्ष्यं लग्नेन्दुजं बलम् ॥ ७ ॥
इति जन्मराशिनिर्णयः ।
अथ नामविचारः ।
स्वरशास्त्रे - प्रसुप्तो येन जागर्ति येनाऽऽगच्छति शब्दितः । तन्नान्नथाssदिमो वर्णो ग्राह्यस्तस्माद्भनिर्णयः ॥ १ ॥ न प्रोक्ता ङञणा वर्णां नामादौ सन्ति ते नहि । चेद्भवन्ति तथा ज्ञेया गजडास्ते यथाक्रमम् ॥ २ ॥ खषौ सशौ aaौ चैव ज्ञेयाविति परस्परम् । संयोगाक्षरजे नाम्नि ग्राह्यं तत्राऽऽदिमाक्षरम् ॥३॥ बहूनि यस्य नामानि नरस्य स्युः कथंचन । तस्य पश्चाद्भवं नाम ग्राह्यं स्वरविशारदैः || ४ || यवनमतं-- यत्र स्थितः शीतकरों नराणां स्याज्जन्मराशिं तमुदाहरन्ति । यथायथा येषु खगा विलग्नाः स्थिता न ते सप्त कुतो भवन्ति ॥ ५ ॥ अतोऽष्टराशिर्मनुजोऽत्र सर्वः प्रोक्तानि तेभ्यश्च शुभाशुभानि । फलानि तेषां तु वियोगयोगाद्यदष्टवर्गोत्थफलं स्फुटं स्यात् || ६ || भौमादौ लग्नभं योज्यं राजकार्येऽर्कभं तथा। चन्द्रभं सर्वकार्येषु सङ्ग्रामादौ च भौमभम् ॥ ७ ॥
१. क. 'तैर्व्रजे ' । २ ख. व. शार्ङ्गवरः । ३ क. 'वाघ' ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
विद्याभ्यासे बुधर्क्ष च विवाहे गुरुभं स्मृतम् । शुक्रयुग्भं प्रयाणे च दीक्षायां शनिभं बुधैः ॥ ८ ॥
इति नामविचारः ।
अथ जन्ममासादीनां निर्णयः ।
श्रीपति:- जन्ममासि न च जन्मथे तथा नैव जन्मदिवसेऽपि कारयेत् । आद्यगर्भदुहितुः सुतस्य वा ज्येष्ठमासि न तु जातु मङ्गलम् ॥ १ ॥ शार्ङ्गधरः – जन्मर्क्षे सति दारिद्र्यं वैरं जन्मतिथावपि । जन्ममासे च दौर्भाग्यं जन्मलग्नं शुभावहम् ॥ २ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-केचिच्चान्द्रं वर्जयन्ति जन्ममासं महर्षयः । मङ्गले सावन केचित्सौरमासं तु केचन ॥ ३ ॥ दर्शान्तो वैदिको मासो राकान्तः स्मार्त उच्यते । पौराणो हरिघस्राद्यः सौर उत्पत्तिपूर्वकः ॥ ४ ॥ तत्तत्कर्मणि स एव 1 पासो ग्राह्यः ।
अथ व्यवस्थाविकल्पः ।
दोषापवादे -- तपतीकृष्णयोर्मध्ये मासान्द्रः प्रकीर्तितः । कृष्णाया दक्षिणे तीरे जन्मतो जन्ममासकः ॥ १ ॥ अन्येषु सर्वदेशेषु सौरो व्रतविवाहयोः । अन्नाशादिषु सर्वत्र ग्राह्यो मासस्तु जन्मतः || २ || अर्धभोगजन्मभे विवाहकर्म शर्मदम् । मध्यदेशयाम्ययोर्जगाद बादरायणः ॥ ३ ॥
अथ जन्ममासप्रवृत्तिः ।
गृहकौमुद्यां - जन्ममासि विपरीतपक्षके वासरे दिननिशोर्विपर्यये । जन्मभ दलपर्यये तथा मङ्गलानि सकलानि कारयेत् || १ || भोजमार्तण्डे - जन्म - मासि तियाँ भे च विपरीतदले सति । कार्ये मङ्गलमित्याहुर्गर्गभार्गवशीनकाः || २ || जन्ममासि निषेधेऽपि दिनानि दश वर्जयेत् । आरभ्य जन्मदिवसाच्छुभाः स्युस्तिथयः परे || ३ || संकीर्णत्वेऽपि कालस्य जन्ममासाद्युपस्थिते ( तौ ) । सद्यो विधाय तत्पूजां शुभं कुर्यादशङ्कितः ॥ ४ ॥ अथ जन्मनक्षत्रविचारः ।
जन्मनक्षत्रगश्चन्द्रः प्रशस्तः सर्वकर्मसु । क्षौरभेषजउद्वाहकर्तनेषु च तं त्यजेत् ॥ १ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - जन्मभं कृषिनृपाभिषेचने भूषणे नगरगेहकर्मणि । आधिपत्यभुजि मौञ्जिबन्धने पुंविवाह उदितं शुभं बुधैः ॥ २ ॥
१ ख च यः । रत्नमालायां – जन्म° ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
१०१ विवाहे जन्मभं स्त्रीणां वर्जनीयं प्रयत्नतः । नैव पुंसामिह प्राहुर्योतिनेयविदो बुधाः ॥ ३ ॥ नारद:-पट्टबन्धनचोलान्नप्राशने चोपनायने । शुभदं जन्मनक्षत्रमशुभं त्वन्यकर्मणि ॥ ४ ॥ चूडाबन्धनशब्देन केशवन्धो न तु क्षौरकर्म । राजमार्तण्ड:-वसन्तसमये दद्यादब्दे गोष्टमेऽष्टमे । मेखलां जन्ममासेऽपि जन्मभे वा तिथी तथा ॥ ५ ॥ जन्मकालोत्थिता त्याज्या शुभे चान्द्रमसी कला । नेतरेत्याहराचायों वराहमिहिरादयः॥ ६ ॥ + शार्ङ्गधरः-- मेधावी मेखलादाने जन्ममासेऽथ जन्मभे ॥ ७॥ वराहः-जन्मोदये जन्मान तारकासु मासेऽथ वा जन्मदिनेऽथ भे वा । व्रतेन विप्रो न बहुश्रुतोऽपि विद्याविशेषैः प्रथितः पृथिव्याम् ॥ ८ ॥ भगु:-वेदार्थपालनपरः खलु जन्ममासे ऋक्षेऽथ जन्मान वहुक्रतुमान्वटः स्यात् । इति । विवाहेऽपि फलं तथा-जन्मभे जन्मलग्ने वा मासे वा तारकेऽह्नि वा । जन्मांशकेऽपि वोढायाः सुखमाहर्मनीश्वराः ॥९॥ वसिष्ठः-जन्मः जन्ममासे वा ऊढा कन्या पतिव्रता॥१०॥ भृगुःजन्ममासेऽथ जन्मः जन्मलग्नेऽथ जन्मनि । उद्वाहेषु च नारीणां प्रतिष्ठा महती भवेत ॥ ११॥ यवनः-जन्ममासेऽथ पुत्राढया धनाढया जन्मभोदये । जन्मभे वा भवेदूढा वृद्धा संततिवर्धिनी ॥ १२ ॥ भागुरि:-जन्मोदये जन्मानि तारकासु मासे तथा जन्मनि जन्मभे वा । ऊढाऽङ्गना नैकविधानि धत्ते सौख्यानि भोगं खलु बान्धवानाम् ॥ १३ ॥ अतो बहुवाक्यपर्यालोचनया ज्येष्ठापत्यस्यैव जन्ममासादिवर्जनमुक्तम् । अत एव नारदः-न जन्ममासे जन्मः न जन्मदिवसेऽपि च । नाऽऽद्यगर्भसुतस्याथ दुहितुर्वा करग्रहः ॥ १४ ॥ माण्डव्यःज्येष्ठे ज्येष्ठस्य गर्भस्य मासं चान्द्रं परित्यजेत् । दर्शावसानमखिलं सर्वमङ्गलकर्मसु ॥ १५ ॥ ज्येष्ठे न ज्येष्ठयोः कार्य ननार्योः पाणिपीडनम् । तयोरेकतरे ज्येष्ठे ज्येष्ठमासेऽपि कारयेत् ॥ १६ ॥ विवाहे स्थूलसूक्ष्माभ्यां जन्मज्ञे यदि जायते । तत्त्याज्यं यदि चेद्भिन्नं तज्जन्मर्के शुभावहम् ॥ १७ ॥
इति जन्मनक्षत्रविचारः।
अथ सिद्धान्तमीमांसाध्यायः । ज्योतिर्विवरणे- श्रौतस्मानि कर्माणि पुराणोक्तानि यानि च । ज्योतिपोक्ते स्फुटे काले कुर्युस्तत्फलकाक्षिणः ॥ १॥ विवाहे जातके प्रश्ने यात्रा
. १ ख. घ. 'निव प्रा। + इतः परं त्रयोदशश्लोकपर्यन्त ग्रन्थो घ. पुस्तके नाऽस्ति ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
वस्तुव्रतादिषु । ज्योतिःशास्त्रफलं सर्वे प्रस्फुटं बुचराश्रयम् ॥ २ ॥ तत्तु सम्यक्प्रकारेण प्रवक्तुं नैव शक्यते । सिद्धान्तानां तु सर्वेषां साम्यं नास्ति मिथो यतः || ३ || स्वयंभूरिनो रोमशः पौलिशाख्यो वसिष्टश्च सिद्धान्तवक्कार एते । महान्तोऽत्र पाराशराख्यश्च तद्वद्ववैरुच्यते सांप्रतं चाऽऽर्य - संज्ञः ॥ ४ ॥
अथास्य निर्णयः ।
योगा ग्रहाणां ग्रहणं रवीन्द्रोस्तिथेस्तु बीजं विधुदर्शनं च । नित्योदयास्तौ खलुखेटभानां युतिश्च तेषां खचरोदयास्तौ ॥ १ ॥ प्रत्यक्षसमया ह्येते येन पक्षेण, यत्र वै । स्फुटं दृक्तुल्यतां यान्ति तेन सर्वविनिश्चयः ॥ २ ॥ ज्योतिर्विवरणेयात्रोद्वाहप्रभृतिषु फलं स्पष्टखेटाश्रयं यत्तस्मात्तत्साधन इह बुधैर्भाषितेऽपि क्वचित्ते । स्पष्टा न स्युः परमपुरुषांशाविराल्लक्ष्यचारास्तस्मात्साध्या बहुविधमतैर्नैकपक्षाभिमानः ॥ ३ ॥ यस्मिन्देशे यत्र काले येन दृग्गणितैक्यकम् । दृश्यते तेन पक्षेण कुर्यात्तिध्यादिनिर्णयम् ॥ ४ ॥ तथा च पीयूषतरङ्गिण्याम् । अस्त्युच्चावचता क्षितेरत इमे स्वस्थानसंस्था ग्रहाः कापि कापि भवन्ति दूरनिकटे दृक्च-क्रचारादपि । दृश्यन्ते न समास्ततो बहुविधोक्तानां मतानां भवेद्यः सिद्धान्तदृगैक्यतः स्वनगरे तेनाखिलं साधयेत् ॥ ५ ॥ सौरभाध्ये -संसाध्य स्पष्टतरं श्रीजं नलिकादियन्त्रेभ्यः । तत्संस्कृतास्तु सर्वे पक्षाः साम्यं भजन्त्येव ॥ ६॥ ब्रह्मसिद्धान्तभाष्ये—–ध्यानग्रहोपदेशाद्वीजं ज्ञात्वा सुदैवज्ञः । तत्संस्कृतग्रहेभ्यः कर्तव्यौ निर्णयादेशौ ॥ ७ ॥
अथ सामान्यत आधुनिकमतमुच्यते ।
सान्ये सौरः क्षये ब्रह्मा तिथिवृद्धौ पराशरः । सर्वकर्मसु कः श्रेयान्वि धर्मे तु योऽधिकः ॥ १ ॥ हासत्वाच्च तिथेर्भुक्तेः शीघ्रत्वात्कालनिर्णयः । कपक्षेणान्यथाऽऽर्येण निर्णयोऽत्र विधीयते ॥ २ ॥ ज्योतिर्विवरणे - पितामहा
२
दर्यः पुण्याः क्रियाकालविनिर्णयः । स्मृतिरार्यभटो न स्यात्तस्माच्च तदुपे - क्षितः (?) || ३ || ज्योतिःशास्त्रमिदं पुण्यं प्राहुर्नयविदो बुधाः । स्वतः प्रामाण्यमस्यास्ति सत्यं प्रत्यक्षतो यतः ॥ ४ ॥ आर्षेयं पौरुषं वाऽपि शास्त्रं दृक्सिद्धिमाश्रयेत् । यथोत्तमाज्जघन्याद्वा प्राप्तं रत्नं हितं भवेत् ॥ ५ ॥
१. 'थार्थेन साम्येऽर्केण वि । २ क. नटो |
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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किं तेनापि सुवर्णेन कर्णधातं करोति यत् । तथा किं तेन शास्त्रेण यन्न प्रत्यक्षतः स्फुटम् ॥ ६ ॥
इति सिद्धान्तमीमांसाध्यायः ।
अथ संदेहे विचारः ।
1
संहिताप्रदीपे - एकार्थरूढानि वचांसि यानि मिथो विरुद्धार्थपराणि सन्ति । न तानि मिथ्या मुनिभाषितत्वाद्विद्वान्विदध्याद्विषयव्यवस्थाम् ॥ १ ॥ ज्योति त्रिवरणे—स्थविरत्वे च बालत्वे शुक्रगुवर्न सान्यता | पक्षकालांशदिक्सप्तपञ्चत्रिदिवसैर्मता || २ || सप्ताहं त्र्यहमेकाहं वर्ज्य ग्रहणतः शुभे । गण्डान्तं पादवस्वधिद्विनाडिकमिति स्मृतम् || ३ || पाते त्र्यहमथैकाहं वर्जयेत्स्थितिनाडिकाः । श्राद्धे त्रिदिनमेाहं निरंशेऽर्केऽष्ट नाडिकाः || ४ || जन्ममासि तिथौ भे च विपरीतदलादिकम् । कृष्णपक्षे दशाहं च पक्षार्थी पञ्चकं द्वयहम् ॥ ५ ॥ केचि - द्वदन्ति जन्म व्रतोद्वाहादिके शुभम् । अशुभं केचिदाचार्याः प्राहुश्चन्द्रमसं तथा ||६|| कालहोरा त्रिधा प्रोक्ता लग्नहोरा द्विधा तथा । त्रिप्रकारस्तु द्रेष्काणो द्विभेदस्तु नवांशकः ॥ ७ ॥ द्विविधः कुलिकः प्रोक्तो: वामवेधस्तथैव च । एते चान्ये विकल्पाः स्युः कीर्तिता मुनिसत्तमैः || ८ || तत्संदेहनिरासार्थं व्यवस्था क्रियतेऽधुना । यतो वाक्यानि सर्वाणि प्रमाणान्येव नो मृषा ॥ ९ ॥ ज्योतिर्विवरणे - दीर्घव्यापी विवाहादौ योज्यो मध्यो गमादिषु । आशुकार्ये पराधीने लघुपक्षोऽपि शोभनः ॥ १० ॥ संकीर्णत्वेऽपि कालस्य लग्ने ग्रहबलान्विते । चित्तोसाहे नृपाज्ञायां जघन्योऽपि शुभायते ॥ ११ ॥ तिथ्यंशं वा नृपांश वा कुलिकं सर्वथा त्यजेत् । श्राद्धे त्र्यहं प्रयाणादावेकाहं करपीडने ॥ १२ ॥ त्र्यहं पाते विवाहादौ यात्रादौ तद्दिनं त्यजेत् । अन्येषु स्वल्पकार्येषु विवर्ज्यास्तिथिनाडिका : ॥ १३ ॥ समस्तः कृष्णपक्षस्तु त्याज्यो मौञ्जीनिबन्धने । दलं जन्मफलादेशे 'विवाहादौ च पञ्चकम् || १४ || अनन्यगतिकत्वे च सर्वकार्येऽपि च द्वयहम् । संभवे सकलं त्याज्यं लघुपक्षमसंभवे ॥ १५ ॥ जातके कालहोरा च ग्राह्या तन्वर्कसंभवा । अन्येषु सर्वकार्येषु तिस्रो ग्राह्या यथासुखम् ॥१६॥ गर्गः - समस्तगुणदोषाणां विकल्पा ये प्रकीर्तिताः । प्रमाणमेव ते सर्वे नोपेक्ष्या हेतुभि - बुधैः ॥ १७ ॥ विकल्पोक्तगुणो ग्राह्यो दोषस्त्याज्यः प्रयत्नतः । युगपद्गुणदोषौ चेत्तदा मिश्रफलं भवेत् || १८ || ज्योतिर्विवरणे - दीर्घव्यापिनि काले तु स्वल्प
--
१. द्वानि पदानि स
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श्रीशिवराजविनिर्मितोकालः पुनः स्मृतः । स एवोत्कृष्टफलदो ज्ञेयो नेवाऽऽयबाधकः ॥ १९ ॥ न्यायमीमांसायां--न हिंस्यात्सर्वभूतानि व्यापकोऽयं निषेधकः । न जातु ब्राह्मण हन्यादुत्कृष्टधर्मसूचकम् ॥२०॥तथातथाऽत्र विज्ञेया विकल्पेष्वखिलेष्वपि । व्यवस्था प्रोक्तदोषाणां फलनिर्देशकैबुधैः ॥ २१॥ ज्योतिष्प्रकाशे--बहुव्यापकमाचार्यैः सामान्यं समुदाहृतम् । अल्पव्यापी विशेषस्तु स एव बलवानिह ॥ २२ ॥ यद्विशेषेण सामान्यं हन्यते तद्विलुप्यते । नास्ति यत्र विशेषत्वं सामान्यं तत्र संश्रयेत् ॥ २३ ॥
इति संदेहे विचारः।
अथ जातकलग्नयोः प्राधान्यविचारः। संहिताप्रदीपे -प्रायेण वारक्षतिथीन्दुवीर्यैर्माङ्गल्यकर्माणि समाचरन्ति । विवाहमेकं तु विलनशुद्धया महत्त्वमस्यैव हि शोभनेषु ॥ १ ॥ सुखानि दुःखानि च सर्वदेहिनां भवन्ति पूर्वाचरितैः स्वकर्मभिः । विलग्नशुद्धिः किमितीह मृग्यते न केनचित्पूर्वकृतं निवार्यते ॥२॥ यज्जातकेन प्रसवेन दृष्टं तावत्प्रमाणं किमिहोदयेन। लग्नप्रमाणं यदि जातकं किं न निश्चयोऽस्मादद्वयमप्याकिंचित् ॥३॥ सर्वाणि कार्याणि शुभाशुभानि करोतु दैवात्तु फलस्य सिद्धिः । संपद्यते तस्य तथोदयाय शुद्धिर्यथा यस्य सदैव संपत् ॥ ४॥ नारदें:-स्वस्थे नरे:सुखासीने यावत्स्यन्दति लोचनम् । तस्य त्रिंशत्तमो भागनुटिरित्यभिधीयते ॥ ५॥ त्रुटेः सहस्रभागोऽथ लग्नकालः स उच्यते । ब्रह्मापि:तं न जानाति किं पुनः प्राकृतो जनः॥६॥ स कालोऽप्यन्यकालो वा पूर्वकर्मवशाद्भवेत् । निमित्तमात्रं दैवज्ञस्तद्वशान शुभाशुभम् ॥ ७॥ संहिताप्रदीऐ-इत्युक्तिरेषाऽऽगमनिन्दकानां न श्रद्दधेया(?) विदुपा कदाचित् । शास्त्राणि पूर्व रचितानि यानि महर्षिभिस्तानि कथं मृषा स्युः॥ ८॥ यथा पुराणागमसंहिताः स्युर्धर्मादिसिद्धयै बहवः प्रकाराः। प्रकारभेदोऽयमपीति किंचिद्वदन्ति पृच्छा जननादयादि (देः)॥९॥न देशकालव्यवसायवर्ज भवेत्फलाप्तिः सति चापि दैवे । तथा फले सत्यपि जातकस्य भवेत्फलाप्तिस्तिथिभोदयायैः ॥ १०॥ यद्यत्फलं जन्मनि जातकोक्तं विरोधिना तस्य फलेन युक्ता । निहन्ति लग्नेन्दुविशुद्धिराद्यं फलाविरोधेऽपि फलद्वयाप्तिः ॥ ११ ॥ यथाऽऽप्तवाक्यादपहाय दुष्टं मार्ग गतः साधु यथा सुखी स्यात् । तथा विरुद्धेऽपि च जातकोक्ते फले शुभाप्तिस्तनुभादिवीर्यात् ॥ १२ ॥ यत्पूर्वजन्मनि कृतं सदसच्च कर्म होरा तदीयफलपाकमिह व्यनक्ति । यज्जात
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ज्योतिर्निवन्धः। कोदितफलादपर सदादि तत्प्रत्ययः शकुनलग्ननिमित्तभायैः ॥ १३ ॥ श्रेष्ठं फलं शस्तदशाविपाके संशोधिते मध्यममष्टवर्गे । तिथीन्दुलग्नादिवले कनिष्ठं माङ्गल्यकार्येष्विति गर्ग आह ॥ १४॥ ज्योतिष्पक शे-दुष्टं जन्मफलं यत्र कर्मलग्नं शुभं भवेत् । मिश्रं तत्र समादेश्यं बुधमृत्युफलं विना ॥१५॥ प्रस्तुतस्य विरोधेन प्राभ्यः सर्वोऽप्यपक्रमः । वीणायां वाद्यमानायां वेदोद्गारो न जायते ॥१६॥ यथा तथैव दैवज्ञा जनाश्च स्वार्थमोहिताः। कर्मलने प्रवर्तन्ते जन्मप्रनपराङ्मुखाः ॥ १७ ॥ ज्योतिर्विवरणे-प्रमाणं जन्मकालोत्थं फलं सर्वत्र सर्वदा। कर्मलमफलं तत्र तदधीनं समादिशेत् ॥ १८ ॥ जन्मजे कर्मने वाऽपि फले दुष्टे 4कुर्वते । कार्यान्ते दुःखमायान्ति शकुन्ता इव पाशगाः ॥ १९ ॥ दैवं जन्मफलं ज्ञेयं कर्माङ्ग फलमुद्यमः । उभयोः सानुकूलत्वे सर्व सिध्यति नान्यथा ॥ २० ॥ केचिदैवात्स्वभावाच्च कालात्पुरुषकारतः । तथेदं जातकं सम्यग्भाव्यज्ञानप्रकाशकम् ॥ २१ ॥
इति जन्मलग्नकर्मलग्नयोः प्राधान्यविचारः।
अथ शास्त्रार्थशिष्टाचारमामाण्यविचारः । शास्त्रार्थादलवाञ्छिष्टाचारोऽत्र बहुसंमतम् । शिष्टाचारस्य कालेन विलुप्ताः श्रुतयो यतः ॥ १ ॥ श्रीपतिः-न शास्त्रदृष्टया विदुषा कदाचिदुल्लङ्घनीयाः कुलदेशधर्माः । मूलं हि तेषां च्युतवेदशाखाभूयानधर्मः स्थितिभनन्दोपः ॥२॥ कारिकायां--प्रमाणं ग्रामवचनं विवाहादौ तथाऽत्यये । यतः परम्परायातं धर्म विदन्ति ते खलु ॥ ३ ॥ गृह्यसूत्रे-ग्रामवचनं च कुर्युरिति सकलवृद्धाः स्त्रियः पूर्व पुरुषानुष्ठीयमानं परम्परायातं सदाचारं स्मरन्ति । संहिताप्रदीपे-शास्त्रोत्थितोऽर्थोऽपि न च प्रमाणं स्त्रीशद्रगोपा अपि यं वदन्ति । यथा हि भाण्डोत्कषणेन रात्रौ भवेत्पशूनां किल मूर्ध्नि पीडा ॥ ४ ॥ स्मृत्यन्तरे-- सोऽनुष्ठेयो भवेद्धर्मो यो लोकश्रुतिसंमत्तः । शास्त्रशिष्टविरुद्धस्तु धर्मस्त्याज्यो चुधैः सदा ॥ ५ ॥ कुलस्य देशस्य च चित्तवृत्तिर्न खण्डनीया विदुषा कदाचित् । यो लोकशास्त्रानमतः स धर्मो लोको बलीयाननयोविरोधे ॥ ६ ॥ न्यायमीमांसाया भट्टाचार्यैरुक्तं-तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नासावृषिर्यस्य मतं न भिन्नम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं. गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः
१ख वोऽप्ययः कमात् । य. वो पजन्मनः । २ घ. प्रवर्तते । ३ क. 'यंत्र वचः प्रयाणम् ।
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श्रीशिवराजविनिर्मिती॥ ७ ॥ लोकविद्विष्टमस्वयं धर्ममन्याचरेन तु । शिष्टाचारविरुद्धत्त्वादातिथ्ये गोवधो यथा ॥८॥
इति शास्त्रार्थशिष्टाचारमामाण्यविचारः। .
अथ प्रथमार्तवप्रकरणम् । नारद:-अमारिक्ताष्टमीषष्ठीद्वादशीप्रतिपत्स्वपि । परिघस्य तु पूर्वार्धे व्यतीपाते च वैधृतौ ॥ १ ॥ संध्यासूपप्लवे विष्टयामशुभं प्रथमार्तवम् । एकार्गले मृतिं विद्यात्संध्याकाले तु पुंश्चली ॥२॥ आद्यौँ तुभगा नारी मतिपत्स रजस्वला । द्वितीया भाग्यजननी तृतीयायां सुतान्विता ॥ ३ ॥ चतुर्थ्यां विधवा नारी पञ्चम्यां धनदायिनी । षष्ठयां च क्लेशभाक् चैव सप्तम्यां धनवधिनी ॥ ४ ॥ अष्टम्यां राक्षसी नारी नवम्यां पापवर्धिनी । दशम्यां प्रीतिकरी स्यादेकादश्यां सुतान्विता ॥ ५॥ द्वादश्यां दुर्भगा नारी त्रयोदश्यों हिरण्यदा । चतुदश्यां पुंश्चली स्यात्पौर्णमास्यां सुपुत्रिका ॥ ६ ॥ यदि भद्रा न जायेत दर्शे स्याचौरिका ध्रुवम् । आदित्ये विधवा नारी सोमे चैव मृतप्रजा ॥७॥ अङ्गारे चाऽऽत्महानिश्च बुधे कन्यां प्रसयते । पुत्रिणी गुरुवारे च कन्यों शुक्रे प्रसूयते । शनौ तु पुंश्चली नारी प्रथमती विदुर्बुधाः ॥ ८ ॥ त्रयस्त्रीणि त्रिकं त्रीणि पश्चकं सप्तकं त्रिकम् । उत्तराषाढामारभ्य प्रथमं त्वृतुलक्षणम् ॥ ९॥.
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अथ पृथकूफलानि । साहिता धनपुत्राभ्यामश्विन्यां चेद्रजस्वला । दोषयुक्ता भरण्यां तु कृत्ति' कायां सुपुत्रिणी ॥ १ ॥ रोहिण्यां धनसंयुक्ता मृगे स्यात्सुतशालिनी ।
आर्द्रायां भर्तृनिरता निर्वैरा च भवेत्सती ॥ २ ॥ पतिव्रता पुनर्वसौ पुष्ये च व्यालभद्वये । पूर्वाद्वये च युवती मारिका च करद्वये ॥ ३ ॥ स्वातीद्वये धनवती विधवा स्यात्परद्वये । मूलद्वये नित्ययुक्ता सुभगा स्यात्परद्वये ॥४॥ धनिष्ठायां स्वैरिणी च सती शतभिषग्व्ये । आहिर्बुध्न्यद्वये नारी सुभगा भर्तृतत्परा ॥ ५॥ पूर्वाह्न चाशुभं स्यादशममपरतो मध्यमं मध्यभागे रात्रौ चैव द्विषट्के शुभमिति कथयन्त्युत्तराषाढभादौ । सप्तस्वार्द्रादिषु स्यादशुभमिति वदन्त्येव हस्तादिकेषु मैत्रादी भर्तृहीना प्रथमरजसि यद्भावि तत्सर्वमुक्तम् ॥ ६ ॥ रोहिण्याग्निमित्रामरपतिदिनकृत्सौम्यभाग्याहिर्बुध्न्यपौष्ठाद्याप्याश्रविष्ठार्यमनिऋतिमघावारुणेष्वङ्गनायाः। माङ्गल्यं सर्वसौख्यं भवति नवरजोदर्शने त्वन्यथात्वं
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ज्योतिर्निबन्धः।
१०७ मेष्वन्येष्वेव दीना पतिविरहवती सर्वसौभाग्यहीना ॥ ७ ॥ आद्यौं दुर्भगा नारी विष्कम्भे चेद्रजस्वलां । बन्ध्या चैवातिगण्डे च शूले शूलवती भवेत् ॥ ८ ॥ गण्डे तु पुंश्चली नारी व्याघाते चाऽऽत्मघातिनी । वजे च स्वैरिणी प्रोक्ता पाते. च पतिघातिनी ॥ ९ ॥ परिघे मृतवन्ध्या च वैधृतौ पतिमारिणी । शेषाः शुभावहा. योगा यथानामफलप्रदाः ॥ १० ॥ पुत्रवती शुभं प्राप्ता पूर्वाह्न तु रजस्वला. । मध्याह्न तु शुभप्राप्तिः स्वैरिणी चापराह्नके ॥ ११ ॥ संध्ययोरुभयोर्वेश्या निशायां विधवा तथा । पूर्वरात्रौ च वन्ध्या स्यादुर्भगा. सर्वसंधिषु ॥ १२ ॥ बवे पुष्पवती नारी वन्ध्या वा विधवा भवेत् । वालवे पुत्रिणी नारी कौलवे प्रमदा भवेत् ॥ १३ ॥ तैतिले संमतवती गरे नारी विनश्यति । नष्टप्रजा वणिक्संज्ञे विष्टयां वन्ध्या धनोज्झिता ॥ १४ ॥ शकुनौ च चतुष्पादे नारी वैधव्यमाप्नुयात् । नागे न रमते. नारी किंस्तुघ्ने विधवा. भवेत् ॥ १५॥ प्रथम? मधौ नारी विधवा भवति ध्रुवम् । वैशाखे 'धनपुत्राढ्या ज्येष्ठे रोगान्विता भवेत् ॥१६॥आषाढे च मृतापत्या श्रावणे च धनान्विता। भाद्रे तु दुर्भगा नारी आश्विने च तपस्विनी ॥ १७॥ ऊर्जेऽप्यायुष्मती नारी मार्गशीर्षे बहप्रजा। पुष्ये तु पुंश्चली नारी माघेः पुत्रसुतान्विता ॥ १८ ॥ फाल्गुने श्रीमती साध्वी क्रमान्मासफलं स्मृतम् । आत्मन्नी भ्रूणहा मेष वृषे पुत्रवती भवेत् । द्वन्द्वे कन्याप्रसूरी मृतापत्या च कर्किणि ॥ १९ ॥ सिंहे वैधव्यमायाति कन्यायां स्त्रीप्रसूर्भवेत् । तुलायां बहुपुत्राच्या दुष्टकर्मरताऽलिनि ॥ २०॥ चापे पुत्रधनान्या स्यान्मकरे सुखिनी भवेत् । सकृत्प्रजावती कुम्भे मीने चाल्पप्रजा भवेत् ॥ २१ ॥ सुभगा श्वेतवस्त्रा च रोगिणी रक्तवाससा । नीलाम्बरधरां नारी विधवा प्रथमातवे ॥ २२ ॥ भोगिनी पीतवस्त्रा च दृढवस्त्रा पतिव्रता । दुर्भगा शीर्णवत्रा च सुभगा चारुवत्रिणी ॥ २३ ॥ देवस्थाने पितृस्थाने निन्द्यस्थानेऽन्यवेश्मनि । पुष्पवत्याः फलं न स्यान्मार्गे चाण्डालवेश्मनि॥ २४ ॥ प्रथमतौं फलं स्त्रीणामुच्यते रजसा तु तत् । सुभगा पुत्रसंयुक्ता शुक्लवर्णे सदातवे ॥२५॥ शशशोणितसंकाशे यद्वा रक्तकसंनिभे । पुत्रकन्याप्रसूतिः स्यानीले तु स्यान्मृतप्रजा ॥ २६ ॥ कबुरे म्रियते सा च पिङ्गले च मृतप्रजा । कृष्णे तु विधवा नारी रजस्येवं विनिर्दिशेत ॥ २७ ॥ शोणिते विन्दुमात्रे तु स्वैरिणी चाल्पशोणिता । वरा मधुसवा स्यात्तु दुर्भगा बहुशोणिता ॥ २८ ॥ रक्ते रक्तो भवेत्पुत्रः कृष्णे च बहुपुत्रिका । पिच्छिले च. भवेद्वन्ध्या काकवन्ध्या च
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१०८
श्रीशिवराजविनिर्मितोपाण्डुरे ॥ २९ ॥ पीते च स्वैरिणी प्रोक्ता गुञ्जाभे सुभगा भवेत् । सिन्दुराभे भवेत्कन्या रजःशोणितलक्षणम् ॥३०॥ गुरुशुक्र युते लग्ने प्रेक्षिते चात्र पुष्पजे। निद्यं फलं समस्तं तु नाशमेति शुभं भवेत् ॥ ३१ ॥ आरोग्यसोभाग्यवती च सोन्यवर्गेषु सा पुष्पवती च कन्या । दुःखामयानर्थविवादशीला वर्गेध्वसौम्येषु च दुर्मतिः स्यात् ॥ ३२ ॥ पुष्पं दृष्टं निन्दिते भे यदि स्याच्छान्ति कुर्यादङ्गनानां च पूर्वम् । तत्संयोगं वल्लभा वर्जयेयुर्यावद्भूयः शस्तभे चैव दृष्टम् ॥ ३३ ॥ शेषं विवाहवत्सर्वे पुष्पे लग्नादि चिन्तयेत् ॥ ३४ ॥ अलंकृतामार्तवसंयुतां च गेहे शुभे दीपयुते निवेशयेत् । तिलान्गुडापूपयुतं च पूगं स्त्रीभिश्च दद्याद्विजमत्र पूजयेत् ॥ ३५॥ आरोपयेदिमां तत्र पादुके शोभने ततः । पुण्याई वाचयित्वा तु ब्राह्मणान्पूजयेत्सुधीः ।। ३६ ॥ त्रिरात्रं तु सकृद्भुक्त्वा स्मृतिमोक्तैर्वतैर्युता । चतुर्थे संगवेऽतीते स्नात्वा स्त्री धर्ममाचरेत् ॥ ३७ ॥
इति प्रथमरजोदर्शनफलम् ।
अथ रजस्वलाशान्तिः । निन्धर्मतिथिवारादौ यत्र पुष्पं प्रदृश्यते । शान्ति समाचरेत्तत्र वक्ष्यमाणों शुभाप्तये ॥ १॥ गोमयेनोपलिप्ते तु स्थण्डिले समलंकृते । ग्रहाणां मण्डलं तत्र तवर्णेन कारयेत् ॥ २ ॥ मण्डलस्येशदिग्भागे ब्रीहिराशिं विनिक्षिपेत् । भाराचलप्रमाणं तु वस्त्रेण परिवेष्टयेत् ॥ ३॥ तस्योपरि न्यसेत्पभ्र दले कायष्टवर्गकम् । स्वराणां विन्यसेत्तत्र द्वे द्वे कोणे यथाक्रमम् ॥ ४ ॥ कर्णिकायां न्यसेद्वीजं हृल्लेखामन्त्रसंयुतम् । तस्योपरि न्यसेत्कुम्भ वस्त्रेण परिवेष्टितम् ॥ ५ ॥ गुडूचीबिल्वापामार्गपत्रपालाशसर्षपान् । दूर्वापल्लवसंयुक्तां सर्वौषधिशतावरोम् ॥ ६ ॥ सहदेवी विष्णुकान्तां हरिद्राचूर्णसंयुताम् । पञ्चपल्लवसंयुक्ते पञ्चरत्नसमन्विते ॥ ७ ॥ तस्मिन्कुम्भे समावेश्य इन्द्राणी मन्त्रमेव च । सवस्त्रप्रतिमां चैव तस्मिन्नावाहयेत्सुधीः ॥ ८ ॥ सर्वान्देवान्समभ्यर्च्य ापचारैश्च शोभनैः । आपोहिष्ठादिभिर्मन्त्रैरब्लिङ्गैमन्त्रयेत्ततः ॥९॥ समुद्रज्येष्ठां त्र्यम्बकं च विष्णुं रुद्रंजपेत्पनः । नमस्कार ततः कृत्वा ह्याचार्य सम्यगचेयेत् ॥ १०॥ ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्यात्तत्कुम्भेनाभिषेचयेत् । सवस्त्रप्रतिमां गां च ह्याचार्याय निवेदयेत् ॥ ११॥ प्रच्छादनपट दद्याततः शान्ति प्रयच्छति । यावच्छान्ति, प्रकुर्वीत तावत्ता नावलोकयेत् ॥१२॥ नारदः-निन्द्य
१ क. 'क्षितं शन पुजम् ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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क्षेतिथिवारेषु यस्याः पुष्पं प्रदृश्यते । तत्र शान्ति प्रकुर्वीत घृतदूर्वा तिलाक्षतैः ॥ १३ ॥ प्रत्येकमष्टशतं [तु] गायत्र्या जुहुयात्ततः । स्वर्णगोभूतिलान्दद्यासर्वदोषापनुत्तये । भर्ता तत्राभिगमनं वर्जयेच्छुभदर्शनात् ॥ १४ ॥ इति रजस्वलाशान्तिः ।
अथ गर्भाधानम् ।
नारद:
-- रजोदर्शनतोऽस्पृश्या नार्यो दिनचतुष्टयम् । ततः शुद्धाः क्रियास्वेताः सर्ववर्णेष्वयं विधिः ।। १ ।। वसिष्ठः - पौष्णद्वये दुष्टभसापपैयशक्रद्वये नैधनजन्मभेषु । उत्पातपापग्रहदूषितेषु न कार्यमाधानमनिष्टलग्ने || २ || उपप्लवे वैधृतिपातयोथ विष्टयां दिवा पारिघपूर्वभागे । संध्यासु सर्वास्वपि मातृपित्रोर्मृतेऽह्नि पत्नीगमनं विवर्ज्यम् || ३ || दिनेषु युग्मेषु च वक्ष्यमाणयोगैः सुतार्थी स्वसतीमुपेयात् । दिनेष्वयुग्मेषु च कन्यकार्थी हित्वा च गण्डांस्तिथिलग्नभागान् || ४ || ओजर्क्षाशे लग्नगे वीर्ययुक्ते जीवेन्द्रकै राजराश्यंशसंस्थैः । पुंजन्म स्याद्वयत्यये कन्यका स्यान्मित्रैः षण्ढो द्वयङ्ग- गैर्द्वित्रिजन्म || ५ || ओजांशकक्षद्विपमसंस्थः पुंजन्मकारी रविसूनुरेकः । विचार्य कार्यं पुरुषो ग्रहाणां वाच्योऽथ पुत्रस्त्वथ कन्यका वा || ६ || चन्द्रार्कशुक्रक्षितिजैः स्ववर्गगैर्बृहस्पतौ धर्मविलग्नपुत्रगे । योगेष्वपत्यं भवतीति निश्चयादमी च योगा विफला विजीविनाम् ॥ ७ ॥
इति गर्भाधानम् ।
अथ पुंसवनम् ।
नारद::- प्रसिद्धविषये गर्भे तृतीये वाऽथ मासि च । कुर्यात्पुंसवनं कर्म सीमन्तं च यथा तथा ॥ १ ॥ जातूकर्ण्य :- द्वितीये वा तृतीये वा मासि पुंसवनं भवेत् । व्यक्ते गर्भे भवेत्कार्य सीमन्तेन सहाथवा || २ || मासप्राधान्येन विहितत्वात्सु - गुरुशुक्रमाँढ्ये मलमासेऽपि कर्तव्यम् । तदाह बृहस्पतिः -- मासप्रयुक्तकार्येषु मूढत्वं गुरुशुक्रयोः । न दोषकृत्तदा मासो लक्षणैर्बलवानिति ॥ ३ ॥ यमः --गर्भे वार्धुषिके भृत्ये श्राद्धकर्मणि मासिके । सपिण्डीकरणे नित्ये नाधिमासं विवर्जयेत् ॥ ४ ॥ वराहः --- -- हस्तो मूल: श्रवणः पुनर्वसुर्मृगशिरस्तथा पुष्यः । पुंसंज्ञ
१ ख. च. 'त्र्यविष्णु ं ॥ २ क. 'नेषुयु' । ३ क. विवीजिनाम् ।
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११०
श्रीशिवराजविनिर्मितो
केषु कार्येष्वेतानि शुभानि धिष्ण्यानि ॥ ५ ॥ कारिकायां - पुंनक्षत्राणि चैतानि तिष्यो हस्तः पुनर्वसुः । अभिजित्प्रोष्ठपाञ्चैव अनूराधाश्वियुक्श्रुतिः ||६|| वसिष्ठः-सार्पाचतुष्कं वसुवारिरुद्रत्वाष्ट्रत्रयं विश्वयमान्त्यशक्राः । खीलिङ्गन्ताराः श्रवणेन्दुमूलतारा न पुंसः पुरुषाः परे स्युः ॥ ७ ॥ बृहस्पतिः -- कुलीरं मिथुनं कन्यां हित्वा शेषाः शुभावहाः । अनुक्तमपि राशौ तु शुभं स्याच्छुभवीक्षिते ॥ ८ ॥ कन्यायां न प्रशंसन्ति शुभदृष्टे युतेऽपि वा ॥ ९ ॥ नृसिंह: - रिक्तां च पर्व नवर्मी त्यक्त्वा. पुंसवने शुभाः ॥ १० ॥ वसिष्ठः - अष्टमस्थानगाः सर्वे नेष्टाः स्युस्ते शुभावहाः । एवं. सम्यङ् निरीक्ष्यैव कुर्यात्पुंसवन क्रियाः ॥ ११ ॥ बृहस्पतिः - गुरुशुक्रबुधेन्दूनां द्रेष्काणदिवसांशकाः । तेषामुदयहोरा च पुंसवेऽतिशुभावहा ।। १२ ।। कारिकायांत - तृतीये गर्भसंस्कारो मासि पुंसवनं भवेत् । आद्यगर्भो न विज्ञातस्तृतीये मासि वै यदि । चतुर्थे मासि कर्तव्यमाद्यगर्भे स्मृतो विधिः ।। १३ ।। इति पुंसवनम् ।
अथ सीमन्तोन्नयनम् ।
नारद: -- चतुर्थे मासि षष्ठे वाऽप्यष्टमे वा तदीश्वरे । बलोपपन्ने दंपत्योश्चन्द्रताराबलान्विते ॥ १ ॥ कार्ष्णाजिनि :- गर्भलम्भनमारभ्य यावता प्रसवस्तदा ॥ सीमन्तोन्नयनं कुर्याच्छङ्कस्य वचनं यथा ॥ २ ॥ मासश्चात्र सौरसावनयोरन्यतरो गृह्यते । कालविधाने-चतुर्थषष्ठाष्टममासभाजि सौरेण गर्भे प्रथमं विधेयम् । सीमन्तकर्म द्विजभामिनीनां मासेऽष्टमे विष्णुवलिं च कुर्यात् ॥ ३॥ वसिष्ठः - चतुर्थे सावने मासि षष्ठे वाऽप्यथवाऽष्टमे ॥ ४ ॥ नारदः - अरिक्तापर्वदिवसे कुजजीवा -- 'कवासरे । तीक्ष्णमिश्रोग्रवज्येषु पुंलग्ने पुंनवांशके ॥ ५ ॥ शुद्धेऽष्टमे जन्मलग्नात्तयोर्लग्ने न नैधने । शुभग्रहयुते दृष्टे पापखेटयुतेक्षिते ॥ ६ ॥ पचेष्टिके चतुर्भिर्वा इष्टेऽर्केन्द्रीज्यपूजकैः । स्त्रीणां तु प्रथमे गर्भे सीमन्तोन्नयनं शुभम् ||७|| कारिकायां - पुंनक्षत्रे सिते पक्षे त्वन्वाधानादि पूर्ववत् । पुंनक्षत्राणि चैतानि तिष्यो हस्तः पुनर्वसुः ॥ ८ ॥ अभिजित्प्रोष्ठपाच्चैव ह्यनुराधाश्वयुक् तथा । ऋक्षस्य मध्यमे पादद्वये कर्मेदमिष्यते ॥ ९ ॥ नारद:-: :- शुभग्रहेषु धीधर्म केन्द्रेष्वरिभवत्रिषु । पापेषु सत्सु चन्द्रेऽन्त्यनिधनाद्यरिवर्जिते ॥ १० ॥ क्रूर ग्रहाणामेकोऽपि लग्नाद-न्त्यात्मजाष्टगः । सीमन्तिनीं वा तद्गर्भं बली हन्ति न संशयः ॥ ११ ॥ नृसिंहः -
* श्लोकद्वयं खषपुस्तकयोर्नास्ति ।
१ ६. विष्टिव ं । २ ख. 'इषेर्केद्विजपू'
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ज्योतिर्निबन्धः। लग्नादष्टमराशीशः केन्द्रगः शुभवी क्षितः । यद्यदष्टमभस्योक्तं दोषमाशु व्यपोहति ॥ १२ ॥ वसिष्ठः---मासे मासे मासपादिग्रहाणां शान्ति कुर्याच्छान्तिवाक्यैर्जपैश्च । होमर्दानैः सज्जनानां च वाक्यैर्गर्भ सम्यग्रक्षयेत्पुत्रकामी ॥१३॥ दीपिकायां ---चतुर्थाधष्टपर्यन्तं मासि पुनामभे सकृत् । सीमन्तोन्नयनं स्त्रीणां गर्भस्य प्रतिगर्भकम् ॥ १४ ॥ हारीत:--सकृत्संस्कृतसंस्काराः सीमन्तेन द्विजैः स्त्रियः । यं यं गर्भ प्रसूयन्ते स सर्वः संस्कृतो भवेत् ॥ १५ ॥
इति सीमन्तोन्नयनम् ।
अथ जातकर्म । तस्मिञ्जन्ममुहूर्तेऽपि सूतकान्तेऽथवा शिशोः । जातकर्म च कर्तव्यं पितृपूजनपूर्वकम् ॥१॥ वसिष्ठः-संतमे देवान्सपितृद्विजांश्च सुवर्णगोभूतिलधान्यवस्त्रैः। गुडाज्यरोप्यैर्लवणैश्च होमै रक्षोन्नमन्त्रैः सह जातकर्म ॥२॥ अतीतकार्याण्यखिलानि तानि कार्याणि सौम्यायनगे दिनेशे । सिते गुरौ वाऽप्यथ दृश्यमाने तदुक्तपञ्चाङ्गदिनेऽप्यखण्डे ॥३॥ क्षिप्रैश्चरैध्रुवैर्मिौदिशे प्रथमेऽह्नि वा । केन्द्र गुरौ भृगौ कार्य जातकर्म सनातनम् ॥ ४ ॥ वसिष्ठः-जातमात्रकुमारस्य मुखमस्यावलोकयेत् । पिता ऋणाद्विमुच्येत पुत्रस्य मुखदर्शनात् ॥ ५॥ जाते पुत्रे पितुः स्नानं सचैलं च विधीयते ॥६॥ तच्च शीतोदकेन कार्यम् । जाबालि:कुर्यान्नैमित्तिकं स्नानं शीताद्भिः काम्यमेव च ॥७॥ एतद्रात्रावपि कार्यम् । वसिष्ठः-पुत्रजन्मनि यज्ञे च तथा संक्रमणे रवेः । राहोश्च दर्शने स्नानं प्रशस्तं नान्यथा निशि ॥ ८॥ सूतके च समुत्पन्ने पुत्रजन्म यदा भवेत् । कर्तुस्तात्कालिकी शुद्धिः पूर्वाशौचेन शुध्यति ॥९॥ वसिष्ठः-श्रुत्वा जातं पिता पुत्रं सचैलं स्नानमाचरेत् । उत्तराभिमुखो भूत्वा नद्यां वा देवखातके ॥ १० ॥ रात्रावुदकादिगमनाशक्तौ विशेषमाह सांख्यायन:-दिवा यदाहृतं तोयं कृत्वा स्वर्णयुतं तु तत् । रात्रिस्नाने तु संप्राप्ते स्नायादनलसंनिधौ ॥ ११ ॥
इति जातकर्म ।
अथ नामकर्म । नारदः-सूतकान्ते नामकर्म विधेयं स्वकुलोचितम् । नाम पूर्व प्रशस्तं स्यान्मङ्गलैः सुसमाक्षरैः ॥१॥ व्यासः-नामधेयं दशम्यां तु केचिदिच्छन्ति सूरयः । द्वादश्यामाहुरन्ये तु मासे पूर्णे तथा परे ॥ २ ॥ अष्टादशेऽहनि तथा
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११२
श्री शिवराजविनिर्मितो --
वदन्त्यन्ये मनीषिणः ||२|| बृहस्पतिः - द्वादशे दिवसे वाऽपि जन्मतो दिवसे शुभे । पोडशे विंशतौ चैव द्वाविंशे वर्णतः क्रमात् ॥ ३ ॥ प्राप्तकालेऽपि विशेषमाह गर्गः - व्यतीपाते च संक्रान्तौ ग्रहणे वैधृतावपि । श्राद्धं विना शुभं नैव प्राप्तकालेऽपि मानवः || ४ || अमासंक्रान्तिविष्ट्यादौ प्राप्तकालेऽपि नाऽऽचरेत् ॥ ५ ॥ अत्राहनीति दिवसविधाने नामकर्माणि गुरुशुक्रयोर्मूढता नास्ति । बृहस्पतिःयस्यां क्रियायां सर्वोक्तः कालो मासैर्दिनैरपि । तस्यां न दोषो मूढत्वं वक्रं वा ( मौढयं वा वक्रत्वं ) जीवशुक्रयोः ॥ ६ ॥ पूर्वाह्नः श्रेष्ठ इत्युक्तो मध्याह्नो मध्यमः स्मृतः । अपराह्णं च रात्रिं च वर्जयेन्नामकर्मणि ॥ ७ ॥ नारदः - देशकालोपघाताद्यैः कालातिक्रमणं यदि । अनस्तगे भृगावीज्ये तत्कार्य चोत्तरायणे ॥ ८ ॥ चरस्थिरमृदुक्षिमनक्षत्रे शुभवासरे । चन्द्रताराबलोपेते दिवसेऽपि शिशोः पितुः || ९ || नृसिंहः – सायाह्ने दुष्टयोगे च शनिभूमिजवारयोः । रिक्ता पर्वाटमी विष्टिः किंस्तुघ्नं च विशेषतः ॥ १० ॥ एतैर्दोषैर्युते काले रात्रावपि न कारयेत् । छिद्रां पूर्णिमां नवमीं हित्वा शेषाः शुभावहाः ॥ ११ ॥ शकुन्यादीनि विष्टिं च नामकर्मणि वर्जयेत् । शुभनक्षत्रयोगेषु शुभेषु शुभमीरितम् ॥ १२ ॥ बृहस्पतिः - शुभवारे च षड्वर्गे शुभानां नामसंपदे । राशयश्च स्थिराः श्रेष्ठा द्विस्वभावाः शुभैर्युताः || १३ || नृसिंहः - लग्नाद्वययाष्टमे सर्वे न शुभा नामकर्मणि । केन्द्रत्रिकोणगाः सौम्या व्यये सर्वे त्वशोभनाः ॥ १४ ॥ शुभलग्ने शुभांशे च नैधने शुद्धिसंयुते । लग्ने त्वनैधने सौम्यैः संयुते वा निरीक्षिते ॥ १५ ॥ संग्रहकारः – देवालयगजाश्वानां वृक्षाणां वापीकूपयोः । सर्वोपकरणानां च चिह्नानां योषितां नृणाम् ॥ १६ ॥ काव्यादीनां कवीनां च पश्वादीनां विशेषतः । राजप्रसादसंज्ञानां नामकर्म विशिष्यते ||१७|| गर्गः - मासनाम गुरोर्नाम दद्याद्वालस्य वै पिता । कृष्णोऽनन्तो ऽच्युतश्चक्री बैकुण्ठोऽथ जनार्दनः || १८ || उपेन्द्रो यज्ञपुरुषो वासुदेवस्तथा हरिः । योगीशः पुण्डरीकाक्षो मासनामान्यनुक्रमात् ॥ १९ ॥ इति नामकर्म ।
अथ खट्वारोहविधिः ।
बृहस्पतिः -- खट्टारोहस्तु कर्तव्यो दशमे द्वादशेऽपि वा । पोडशे दिवसे वापि द्वाविंशे दिवसेऽपि वा || १ || भविष्ये - अभीष्टपुण्यदिवसे चन्द्रताराबलान्विते | मृदुधुवक्षिप्रभे तु माता वा कुलयोषितः || २ || योगशायिहरिं स्मृत्वा प्राक्शीर्ष
१ क. "शेऽन्त्य' ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
११३ विन्यसेच्छिशुम् ॥ ३ ॥ करत्रये वैष्णवरोहिणीषु दितिद्वये चाऽऽश्विनकध्रुवेषु । कुर्याच्छिशूनां नृपतेश्च तद्वदान्दोलनं वै सुखिनो भवन्ति ॥ ४ ॥ * त्रयोदशस्तु कन्याया न नक्षत्रविचारणा । अन्यस्मिन्दिवसे चेत्स्यात्तिर्यगास्ये प्रशस्यते ॥५॥
इति खटारोहणविधिः।
अथ दुग्धपानविधिः। नृसिंहः-एकत्रिंशे दिने चैव पयः शवेन पाययेत् । अन्नप्राशननक्षत्रे दिवसोदयराशिषु ॥१॥ नक्षत्रे मासि संपूर्णे जातः तु विशेषतः । मासान्ते दुग्धपानं स्यात्पश्चात्काले सुशोभने ॥ २॥ उत्तरात्रयहस्ताश्च त्वाष्ट्रवैष्णववासवाः । पौष्णाश्चिन्यौ मघा स्वातिर्वारुणादितिजीवभम् ॥ ३ ॥ रोहिण्यैन्दवमैत्राश्च दुग्धपाने शिशोः शुभाः । षष्ठी रिक्ताऽष्टमी दर्शवा विष्टिः स्थिराणि च॥४॥ वास्त्वशुभयोगाश्च कृष्णे चान्त्यत्रिकं विना । अधोमुखानि वानि मीनाजालिगृहाणि च ॥ ५॥ जीवशुक्रेन्दुसौभ्यानां वारवर्गे क्षणाः शुभाः । शुभानां राशयः श्रेष्ठा: विशेषाच्छुभकर्मणि ॥ ६॥ आया ११ रि ६ भ्रातृगाः ३ पापा विशेषेण शिशोः शुभाः । पूर्वाह्ने चापि मध्याह्न कुर्याद्राशि विवर्जयेत् ॥ ७॥ योगिनीराहुरुद्रादिमुखं चैव विवजयेत् ॥ ८॥ योगिनीलक्षणं तु प्रागेवोक्तम् ।
अथ चरयोगिनी। इन्द्रवायुयमशूलपाशिना बार्हिषश्रवणरक्षसां क्रमात् । अर्धयाममनुवासरादितो दिक्षु संभ्रमति योगिनी चरा ॥ १॥
अथ राहुलक्षणम् । गुरुभान्वोर्वसेत्याच्यामिन्दौ शुक्रे च दक्षिणे । कालराहुः कुजे प्रत्यगुत्तरे बुधमन्दयोः ॥१॥
अथ रुद्रलक्षणम् । हरिसोमवह्निराक्षसयमवरुणानिलहरालयेष्वेवम् । उदयादि भ्रमति सदा घटिकारुद्रो महाप्रबलः ॥ १॥
इति दुग्धपानम् ।
* पथमिदं व पुस्तके । १ घ. वरेवतीषु । २ क. व. “न्दोलितावै ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ कर्णवेधविधिः। गर्गः-* मासे षष्ठे सप्तमे वाऽष्टमेऽपि द्वादशेऽपि वा । कर्णवेध प्रशंसन्ति पुष्ट्यायुःश्रीविवृद्धये ॥ १॥ बृहस्पतिः-जन्मतो दशमे वाऽह्नि द्वादशे वाऽथ पोडशे । सप्तमे मासि वा कुर्यादष्टमे मासि वा पुनः ॥ २॥ गर्ग:-कार्तिके पौषमासे वा चैत्रे वा फाल्गुनेऽपि वा । कर्णवेधं प्रशंसन्ति शुक्लपक्षे शुभे दिने ॥३॥ अगस्त्यः-द्वयोश्च संध्ययोलग्ने न कुर्यात्कर्णवेधनम् । रात्रावपि तथा लग्ने नक्षतिथिसंधिषु । कर्णवेधं न कुर्वीत कुयोञ्चेच्छेदनं भवेत् ॥ ४ ॥ नृसिंहः-- एकादश्यष्टमीपर्वरिक्ता वाः शुभावहाः । शिष्टाश्च तिथयः सर्वाः कृष्णे चान्त्यत्रिक विना ॥५॥ शकुन्यादीनि विष्टिं च विशेषेण विवजयेत् । शुभयोगेषु सर्वेषु कर्णवेधः शुभावहः ॥ ६॥ कर्णद्वयादितिक्षिप्रमृदुभिस्त्र्यायगैः शुभैः ।गुरौ लग्नेऽथ केऽप्याहुरुत्तरासु श्रुतिव्यधम् ॥७॥ वेध्यौ कर्णावदन्तस्य विषमेऽब्देऽपि वा शिशोः । शुक्लपक्षे शुभे वारे चत्रे पौषोर्जफाल्गुने ॥ ८ ॥ बृहन्नारद:-वृषभे मिथुने मीने कुलीरे कन्यकासु च । तुलाचापे च कुर्वीत कर्णवेधं शुभर्धये ॥९॥ मेषश्च मकरश्चैव मध्यमौ गुरुचोदितौ । सिंहवृश्चिककुम्भाश्च ह्यधमत्वाद्विवर्जिताः ॥ १० ॥ बृहस्पतिः-मन्दाराकौशवाराः स्युर्वयोः कर्णस्य वेबने । गुरुशुक्रेन्दुजेन्दूनां पूज्या वारांशकोदयाः ॥ ११॥ वागीशशुक्रेन्दुजवासरेषु शस्तः शिशूनामपि कर्णवेधः । वदन्ति तज्ज्ञाः सरवीन्दुभौममन्दे कृते त्रुध्यति कर्णयुग्मम् ॥ १२ ॥ रन्ध्रारिव्ययगो नेष्टो गुरुः शेषेषु शोभनः । चतुरस्रगतः सौम्यो नेष्टः शेषेषु शोभनः ॥ १३ ॥ सप्ताष्टमगतः शुक्रो न शुभोऽन्यत्र शोभनः । चन्द्रो द्वित्रिसुतस्त्रीषु धर्मकर्मगतः शुभः ॥ १४ ॥ त्रिषडायगताः पापाः शुभाः कर्णस्य वेधने । अष्टमस्थानगाः सर्वे नेष्टाः कर्णस्य वेधने । कर्णवेधे त्रिलाभस्थी क्रूरौ नेष्टौ शुभाशुभौ ॥ १५ ॥ संग्रहे--शिशोरजातदन्तस्य मातुरुत्सङ्गसर्पिणः । सूचिको वेधयेत्को सूच्या द्विगुणसूत्रया ॥ १६ ॥ शातकुम्भमयी सूची वेधने तु शुभप्रदा । राजती वाऽऽयसी वाऽपि यथाविभवतः शुभा ॥ १७ ॥ सुभूमौ प्राङ्गणे रम्ये शुचौ देशेऽम्बरे रवौ । संनिधौ वेधयेत्कर्णी स्त्रीपुंसोर्वामदक्षिणी ॥ १८॥ शुक्लसूत्रसमायुक्तताम्रसूच्याऽथ वेधयेत् । वेधात्तृतीये नक्षत्रे क्षालयेदुष्णवारिणा ॥ १९ ॥ देवल:-कर्णरन्ध्र रविच्छाया न विशेदग्रजन्मनः । तं
* मासे षष्ठे सप्तमे वाऽटमे वा वेध्यौ कौँ द्वादशे षोडशे वा । मध्ये नाह्नः पूर्वभागे न रात्रौ नक्षत्रे [ च ] दे तिथी वर्जनीये !! घपुस्तके ।
१ क.
पुण्यो।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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दृष्ट्वा विलयं यान्ति पुण्यौघाश्च पुरातनाः ॥ २० ॥ शङ्खः - अङ्गुष्ठमात्र सुषिरौ कर्णौ न भवतो यदि । तस्मै श्राद्धं न दातव्यं यदि चेदासुरं व्रजेत् ॥ २१ ॥ इति कर्णवेधविधिः ।
अथ निष्क्रमणम् ।
बृहस्पतिः - अथ निष्क्रमणं नाम गृहात्प्रथमनिर्गमः । अकृतायां क्रियायां स्यादायुःश्रीनाशनं शिशोः । कृते संपद्विवृद्धिः स्यादायुर्वर्धनमेव च ॥ १ ॥ यमः तृतीये मासि कर्तव्यमहः सूर्यस्य दर्शनम् । चतुर्थे मासि कर्तव्यमनेश्चन्द्रस्य दर्शनम् । उपनिष्क्रमणं कुर्याच्चतुर्थे मासि सावने ॥ २ ॥ संग्रहे - चत्वार्यर्यम्णविश्वक्षत्तिस्रोऽहिर्बुध्न्यधाद्विदुः । मैत्रमादित्यपुष्यौ च रोहिणी च शुभावहाः || ३ || पूर्वपादाः शुभाः प्रोक्ताः कृष्णे चान्त्यत्रिकं विना । रिक्ताषष्ट्यटमी दर्शद्वादशीय विवर्जयेत् ॥ ४ ॥ वयस्त्विशुभयोगाः स्युर्विष्टिश्च शकुनादि च । वृषालिमेषा वर्ज्याः स्युस्तथैवाधोमुखानि च ॥ ५ ॥ सतां तु वारवर्गाच शुभदास्तूदयास्तथा । चान्द्रं सर्व विवर्ज्यं स्यात्सर्वेऽशस्ता विनाशदाः ॥ ६ ॥ केन्द्रत्रिकोणगाः सौम्याः पापाः षष्टास्त्रिलाभगाः । उपनिष्क्रमणे शस्ताः शिशोरायुष्प्रवर्धनाः ।। ७ ।। कारिकायां चतुर्थ मासि पुण्य शुक्ले निष्क्रमणं भवेत् । स्नातं स्वलङ्कृतं चाभिहृतं स्वस्त्ययनं शिशुम् ॥ ८ ॥ आदाय गेहान्निष्क्रम्य गच्छेयुर्देवतालयम् । अभ्यर्च्य देवतां सम्यगाशिषो वाचयेदथ || ९ || दत्त्वा प्रदक्षिणं गेहमानयन्ति ततः स्वकम् । मातृस्वसृगृहं गत्वा मातुलादेर्गृहं नयेत् ॥ १० ॥ तदाशीर्वचनायैः स्याद्दीर्घायुरभिनन्दितः । जयन्तस्य मतेनायं लिखितः शिशुनिष्क्रमः ॥ ११ ॥
इति निष्क्रमणम् ।
अथ भूम्युपवेशनम् ।
पद्मपुराणे--पञ्चमे च तथा मासि भूमौ तमुपवेशयेत् । तत्र सर्वग्रहाः शस्ता भौमोऽप्यत्र विशेषतः ॥ १ ॥ तिथिं विवर्जयेद्रिक्तां शस्तान्याशृणु भामिनि । उत्तरात्रितयं सौम्यं पुष्यर्क्ष शक्रदैवतम् || २ || प्राजापत्यं च हस्तश्च शस्तमाश्विनमित्रभम् । वराहं पूजयेद्देवं पृथिवीं च तथा द्विजः ॥ ३ ॥ पूजनं पूर्ववत्कृत्वा गुरुदेवद्विजन्मनाम् | भूभागमुपलिप्याथ तत्र कृत्वा तु मण्डलम् । शङ्खपुण्याह
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श्रीशिवराजविनिर्मितोशब्देन भूमौ तमुपवेशयेत् ॥ ४ ॥ तत्र मन्त्रः-ईनं वसुधे देवि सदा सर्वगतं शुभे । आयुष्प्रमाणं सकलं निक्षिपस्व हरिप्रिये ॥ ५ ॥
इति भूभ्युपवेशनम् ।
अथ जीविकापरीक्षणम्। मुहूर्तचिन्तामणौ-तस्मिन्काले स्थापयेत्तत्पुरस्ताद्वस्त्रं शस्त्रं पुस्तकं लेखनीयम् । स्वर्ण रौप्यं यच्च गृह्णाति वालस्तैराजीवैस्तस्य वृत्तिः प्रदिष्टा ॥ १॥
अथान्नप्राशनम् । नारद:--पष्ठे मास्यष्टमे वाऽपि पुंसां स्त्रीणां तु पञ्चमे । सप्तमे मासि का कार्य नवान्नप्राशनं शुभम् ॥१॥रिक्तादिनत्रयं नन्दा द्वादशीपष्टमीममाम् । त्यक्त्वाऽन्यतिथयः श्रेष्ठाः प्राशने शुभवासरे ॥२॥ विधिरत्ने-बालानभोजनविधी गुरुशक्रमौढ्यं मासप्रयुक्तमशुभं त्वधिमासदोषः । नास्त्येव सावनविधाविह मासि षष्ठे युग्मे च मासि परतः शुभचन्द्रपक्षे ॥ ३॥ नारदः-चरस्थिरमृदुक्षिप्रनक्षत्रेषु न नैधने । दशमे शुद्धिसंयुक्ते शुभलग्ने शुभांशके ॥ ४॥ ज्योतिर्विवरणे-जन्मः श्रीक्षयं विद्यात्कमर्स चापि सौख्यकृत् । आधानः च बालानां भोजनं रोगनाशनम् ॥ ५॥ विधिरत्ने-अन्नप्राशनकार्ये तु जन्मभं मृत्युदं भवेत् । शुभं कर्मक्षमाधाने विवाहे चान्नभोजने ॥ ६॥ वसिष्ठः-चौलानभक्तो व्रतबन्धने च राज्ञोऽभिषेके खलु जन्मधिष्ण्यम् । शुभं त्वनिष्टं सततं विवाहसीमन्तयात्रादिष मङ्गलेषु ॥ ७ ॥ वृद्धनारदः-बुधशुक्रगुरूणां तु वारा बालानभोजने । चन्द्रवारं प्रशंसन्ति कृष्णे चान्त्यत्रिक विना ॥ ८॥ मिष्टान्नमरजीवनिशाकराभ्यां शुक्रेण वाग्मी रविणा दरिद्री । कुजेन रोगी शशिजेन भोगी क्षीणायुरादित्यसुतेऽति कुर्यात् ॥ ९॥ अकोङ्गारकमन्दानां वाराश्चापि शुभप्रदाः । यदा वाराधिपस्तिठेत्स्वोचमित्रगृहे तदा ॥ १० ॥ गुरुणा बलिना वाऽपि वीक्षितश्च बलान्वितः। जीवसौम्यसितानां तु द्रेष्काणदिवसांशकाः ॥ ११ ॥ बालानप्राशने शस्ता न चन्द्राकांकजासृजाम् ॥ १२ ॥ मदनमहार्णवे-गोश्चकुन्भास्तुला कन्या सिंहकर्किमृगा यमः । एताश्च राशयः शस्ता न मेषझपवृश्चिकाः ॥ १३ ॥ नारदः- पूर्वाह्ने सौम्यखेटेन संयुक्त वीक्षितेऽथवा । त्रिषष्ठलाभगैः क्रूरैः केन्द्रधीधर्मगैः परः ॥१४॥ अन्त्यारिनिधनस्थन चन्द्रेण प्राशनं शुभम् । अन्नप्राशनं लग्नस्थे क्षीणेन्दौ वा स्वनीचगे। नित्ये भोक्तुश्च दारिद्यं रिष्फषष्ठाष्टगेऽपि वा ॥१५॥ श्रीपतिः
१ ख. य. गोश्च कु.
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ज्योतिर्निबन्धः।
११७ रवी लग्ने कुष्ठी धरणितनये पित्तगदभाक् शनौ वातव्याधिः कुशशशिनि भिक्षाटनकरः । बुधे ज्ञानी भोगी युशनसि चिरायुः सुरगुरौ विधौ पूर्णे यज्वा भवति च नरः सत्रद इह ॥ १६ ॥ कण्टकान्त्यनिधनत्रिकोणगास्तत्फलं ददति यत्तनावमी । षष्ठ इन्दुरशुभस्तथाऽष्टमः केन्द्रकोणगतसौरिरन्नहत् ॥ १७ ॥
इत्यन्नप्राशनम् ।
अथ चूडाकरणम् । नारदः-पञ्चमे वा तृतीयेऽन्दे स्वकुलाचारतोऽपि वा । बालानां जन्मतः कार्य चौलमावत्सरत्रयात् ॥ १॥ मघादिपञ्चके चौलं हित्वा क्षीणविधुं मधुम् । क्रूरवारं निशां रिक्ता षष्ठी संध्यां च जन्मभम् ॥२॥ षड्गुरुशिष्यः-आयेऽब्दे कुर्वते केचित्पञ्चमेऽन्ये द्वितीयके । उपनीत्या सहवेति विकल्पाः कुलधर्मतः ॥३॥ आचार्य:-तृतीये पञ्चमेऽब्दे वा चौलको प्रशस्यते । प्राग्वा समे सप्तमे वा सहोपनयनेन च ॥ ४ ॥ वृद्धनारदः-जन्मतस्तु तृतीयेऽब्दे श्रेष्ठमिच्छन्ति पण्डिताः । पञ्चमे सप्तमे वर्षे जन्मतो मध्यमं भवेत् । अधर्म गर्भतः स्याद्वा दशमैकादशेऽपि वा ॥ ५ ॥ नारदः-सौम्यायने नास्तगयोरसुरासुरमन्त्रिणोः । अपर्वरिक्तातिथिषु शुक्रेज्यज्ञेन्दुवासरे ॥ ६ ॥ बृहस्पति:-सोमवारः सिते पक्षे कृष्णपक्षेऽतिगहितः । बुधवारः शुभः प्रोक्तः पापग्रहयुते बुधे ।। ७ ॥ पापग्रहाणां वारादौ विप्राणां तु शुभो रविः । क्षत्रियाणां क्षमासुनुर्विट्शूद्राणां शनिः शुभः ॥ ८॥ नारदः- दस्रादितीज्यचन्द्रेन्द्रपूषभानि शुभान्यतः । चौलकर्मणि हस्तक्षत्रिीणि त्रीणि च विष्णुभात् ॥ ९ ॥ श्रीपतिः-षट्कृत्तिकः पञ्चमघस्त्रिमैत्रो ब्राह्माष्टको यश्चतुरुत्तरश्च । क्षौरी स वर्ष चतुराननोऽपि न प्राणितीति प्रकटः प्रवादः ॥ १० ॥ बृहस्पति:-संपदि क्षेमभे मैत्रे साधके भेऽतिमित्रभे । चौलकर्म प्रशस्तं स्याच्छोभनांशगते विधौ ॥ ११ ॥ आयशो विपदि त्याज्यः प्रत्यरे चरमोंऽशकः । वधे त्याज्यस्तृतीयोऽशः शेषांशा अपि शोभनाः ॥ १२॥ नारदः-अष्टमे शुद्धिसंयुक्ते शुभलग्ने शुभांशके । न नैधने भे शीतांशी षष्ठाष्टान्त्य६। ८।१२ । विवर्जिते ॥ १३ ॥ धन २ त्रिकोण ९ । ५ केन्द्रस्थैः १ । ४ । ७। १० शुभैस्च्यायारि ३। ११ । ६ गैः परैः। चौलानप्राशने शस्ताः सौम्या रन्ध्रव्ययोपगाः ॥ १४ ॥ वसिष्ठः-वृपभश्च कुलीरश्च यमकन्यातुलाधराः । मकरश्चैव मीनश्च क्षुरकर्मणि वर्जिताः ॥ १५॥ मेषे दुःखं मृगेन्द्रे च
१ क. केन्द्रेषु शु
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
वृश्चिके व्यसनं महत् । राजवाधा च धनुषि शुभयुक्ते न दुष्यति ॥ १६ ॥ विशेपस्तु जलैघोरैः पीड्यते मरणान्वितः । क्षौरी मर्त्यो घटे लग्ने शुभयुक्ते प्रश-स्यते ॥ १७ ॥ गर्गः - आत्मराश्युदये षष्ठे द्वादशे निधने तथा । शत्रुक्षेत्रे च मीने च क्षौरं नैव च कारयेत् || १८ || बृहस्पतिः - अष्टमस्था ग्रहाः सर्वे नेष्टाः शुक्रविवर्जिताः | शुक्रस्तु निधने क्षौरे सर्वसंपत्प्रदः शिशोः ॥ १९॥ अष्टमग्रहस्यापवादः । बृहस्पतिः – लग्नादष्टमराशीशः केन्द्रगः शुभवीक्षितः । यस्याप्यष्टमगस्योक्तं दोषमाशु व्यपोहति ॥ २० ॥ स्वांशगः स्वोच्चगो वाऽपि स्वक्षेत्रोपचयर्क्षगः । अष्टमस्थानदोषोऽयं विनश्यति न संशयः ॥ २१ ॥ बृहन्नारदःलग्नाष्टमेशयोमैत्र्ये लग्नेशे बलसंयुते । अस्तगे निधनेशे वा निधनेऽपि शुभो ग्रहः ॥ २२ ॥ बसिट:- जामित्रे भास्करे क्षौरे मृत्युः स्याद्भूमिजे तथा । शुक्रे सौख्यविनाशः स्यान्मन्दभाग्यं शनैश्वरे || २३ || त्रिकोणकण्टके वाऽपि सत्कfred विधौ । गुरुर्खाऽतिबलः प्रोक्तः क्षौरयोगः शुभावहः ॥ २४ ॥ लग्नेदुराशिगौ द्वौ द्वौ भावनाथयुतेक्षितौ । भवेत्कश्चित्प्रभ्रष्टः स्याच्चूडायोगोऽयमुत्तमः ॥ २५ ॥ मीने शुक्रे च लग्नस्थे भवे भानौ चतुष्टये । गुरौ यातेऽथवा योगः शुभदः क्षुरकर्मणि ॥ २६ ॥ यमे कर्किणि सिंहे च सहिते भृगुजे बुधे । मानौ भवे व्यये चापि योगः क्षौरे शुभावहः ॥ २७ ॥ भवव्ययोदये भानुबुधशुक्रा यदा. स्थिताः । चन्द्रे शुभांशके केन्द्रे चूडायोगः शुभावहः ॥ २८ ॥ अनिष्टस्थानगो यः स्याद्ग्रहो लग्नेशवीक्षितः । गुरुणा बलिना दृष्टो यदीष्टस्थानगो भवेत् ॥ २९॥ नारद: - अभ्यक्ते संध्ययोर्नान्ते निशि भोक्तुर्नचाऽऽहवे । नोत्कटे भूषिते नैव याने न नवमेऽह्नि च ॥ ३० ॥ क्षौरकर्म महीशानां पञ्चमे पञ्चमेऽहनि । कर्तव्यं क्षौरनक्षत्रेऽप्यथ वाऽस्योद येष्टदम् ॥ ३१ ॥ नृपविमाज्ञया यज्ञे मरणे बन्धमोक्षणे । उद्वाहेऽखिल वारर्क्षतिथिषु क्षौरमिष्टदम् ॥ ३२ ॥
इति चूडाकरणम् ।
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अथ चौलनिषेधः ।
षष्ठेऽब्दे पोडशे वर्षे विवाहाब्दे तथैव च । अन्तर्वत्न्यां तु जायायां नेष्यते केशवापनम् ॥ १ ॥ चूडाकर्म न कर्तव्यं यस्य माताऽस्ति गुर्विणी । यदि मूढात्मा तदा गर्भस्य नाशनम् || २ || परिशिष्टे -- माता कुमारमादायेत्युक्तं कात्यायनादिभिः । सा चेद्यदि सगर्भा स्यात्तदा चौलं न कारयेत् ॥ ३ ॥ गर्ग:- उक्तकालातिक्रमे च जनित्री यस्य गर्भिणी । ऊर्ध्वं मासात्पञ्चमतचौलं
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ज्योतिनिबन्धः।
११९ कार्य व्रत तथा ॥ ४ ॥ पुत्रचूडामणी माता यदि सा गर्भिणी भवेत् । शस्त्रेण मृत्युमाप्नोति तस्मात्क्षौरं विवर्जयेत् ॥ ५॥ नारद:-सूनोर्मातरि गर्भिण्यां चूडाकर्म न कारयेत् । पश्चाब्दात्मागथो तु गर्भिण्यामपि कारयेत् ॥ ६॥ यदि गर्भविपत्तिः स्याच्छिशोर्वा मरणं भवेत् । सहोपनीत्या कुर्याच्च तदा दोषो न विद्यते ॥ ७ ॥ मेधातिथिः-चौले च व्रतबन्धे च विवाहे यज्ञकर्मणि । भार्या रजस्वला यस्य प्रायस्तस्य न शोभनम् ॥ ८ ॥ वधूवरान्यतरयोर्जननी चेद्रजस्वला । तस्याः शुद्धौ पर कार्य माङ्गल्यं गुरुरब्रवीत् ॥ ९॥ मनुस्मृतौ-- उद्वाहव्रतचूडासु माता यदि रजस्वला । तदा न मङ्गलं कार्य शुद्धी कार्य शुभेच्छुभिः॥१०॥ गर्ग:-यस्योद्वाहादिमाङ्गल्यं माता तस्य रजस्वला । तदा न तत्प्रकर्तव्यमायुःक्षयकरं यतः ॥ ११ ॥ बृहस्पतिः-वैधव्यं च विवाहे स्याजडत्वं व्रतबन्धने। चूडायां च शिशोर्मृत्युर्विघ्नं यात्राप्रवेशयोः ॥ १२ ॥ रजस्वलाविषयमेतत् । कारिकानिबन्धे-सूतिकोदक्ययोः शुद्धयै गां दद्याद्धेमपूर्विकाम् । प्राप्ते कर्माण शुद्धा स्यादितरस्मिन्न शुध्यति ॥ १३ ॥ अलाभे सुमुहूर्तस्य रजोदोषे तु संस्थिते । श्रियं संपूज्य तत्कुर्याद्वृत्रहत्याभयंकरीम् ॥ १४ ॥ हैमी माषमितां पद्मां श्रीसूक्तविधिनाऽर्चयेत् । प्रत्यूचं पायसं हुत्वाऽभिषिच्य शुभमाचरेत् ॥ १५ ॥ गर्ग:-न गुरौ सिंहराशिस्थे सिंहांशकगतेऽपि वा । क्षौरकर्म प्रकुर्वीत विवाहं गृहकर्म वा ॥ १६ ॥ नर्मदोत्तरदेशस्थे सिंहस्थे देवमन्त्रिणि । शुभकर्म न कुर्वीत निषेधो नास्ति दक्षिणे ॥ १७ ॥
इति चौलनिषेधः।
अथ क्षौरनिषेधः । उदन्वतोऽम्भसि स्नानं नखकेशनिकृन्तनम् । नान्तर्वत्न्याः पतिः कुर्यादप्रजो भवति ध्रुवम् ॥ १॥ स्मृत्यन्तरे-सिन्धुस्नानं द्रुभच्छेदं वपनं प्रेतवाहनम् । विदेशगमनं चैव न कुर्याद्गर्भिणीपतिः ॥ २ ॥ शौरं नैमित्तिकं कुर्यान्निषेधे सत्यपि ध्रुवम् । पित्रोः प्रेतविधानं च दोषस्तत्र न विद्यते ॥ ३ ॥ गङ्गायां भास्करक्षेत्रे मातापित्रोदंतेऽहनि । आधाने सोमपाने च षट्सु क्षौरं विधीयते ॥ ४॥ पञ्चाशद्धायनात्पूर्व क्षौरं नैमित्तिकं विना । न कुर्यात्तत्तदूर्ध्वं तु स्वेच्छया वपनं चरेत् ॥ ५॥ मुण्डनस्य निषेधेऽपि कर्तव्यं च विधीयते । छेदनं दृषदा वाऽपि न क्षरेण कदाचन ॥ ६॥ राजा योगी पुरन्ध्री च माता
१ क. ख. रमन्नं न कुन
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
पित्रोश्च जीवतोः । मुण्डनं सर्वतीर्थेषु न कुर्यादुर्विणीपतिः ॥ ७ ॥ अन्तरस्यां तुजायायां तीर्थे क्षौरं न कारयेत् । प्रेतवाहादिकं चैव सीमन्तोन्नयनादनु ॥८॥ बृहस्पतिः - राजकार्ये नियुक्तानां नराणां भूपसेविनाम् । श्मश्रुलोमनखच्छेदे नास्ति कालविशोधनम् ॥ ९ ॥
इति क्षौरनिषेधः ।
अथाक्षरारम्भविधिः ।
श्रीधरीये-उदग्गते भास्वति पञ्चमेऽब्दे प्राप्तेऽक्षरस्वीकरणं शिशूनाम् । सर स्वतीं विघ्नविनायकं च गुडौदनाद्यैरभिपूज्य कुर्यात् ॥ १ ॥ विधिरने-वालस्य पञ्चमे वर्षे प्राप्ते भानौ मृगादिके । आरभेताक्षरविधिं शुभे काले यथोदिते ॥ २ ॥ बृहस्पतिः - द्वितीयजन्मतः पूर्वमारभेताक्षरान्सुधीः ॥ ३ ॥ नृसिंहः- अक्षरस्वीकृतिः मोक्ता प्राप्ते पञ्चमहायने । उत्तरायणगे सूर्ये कुम्भमासं विवर्जयेत् ||४|| विश्वामित्र:-प्राप्ते तु पञ्चमे वर्षे त्वसुप्ते च जनार्दने । विद्यारम्भस्तु कर्तव्यो यथोक्तविधिवासरे ॥ ५ || आषाढशुक्लद्वादश्यां शयनं कुरुते हरिः । निद्रां त्यजति कार्तिक्यां तयोः संपूज्यते हरिः ॥ ६ ॥ हस्तादित्यसमीरमित्र पुरुजि - त्पौष्णाश्विचित्रांयुतेष्वारार्त्त्यशदिनोदयादिरहिते चांशस्थिते चोभये । पक्षे पूर्ण - निशाकरे प्रतिपदं रिक्तां विहायाष्टमीं षष्ठमिष्टमशुद्धभाजि भवने प्रोक्ताऽक्षरस्वीकृतिः ॥ ७ ॥
इत्यक्षरारम्भविधिः |
अथाङ्कुरार्पणम् ।
नारदः - कर्तव्यं मङ्गलेष्वादौ मङ्गलायाङ्कुरार्पणम् । नवमे सप्तमे वाऽपि पञ्चमे दिवसेऽपि वा ॥ १ ॥ तृतीये वीजनक्षत्रे शुभवारे शुभोदये । सम्यग्गृहाण्यलंकृत्य वितानध्वजतोरणैः ॥ २ ॥ आशिषो वाचनं कुर्यात्पुण्यं पुण्याङ्गनादिभिः । सहः वादित्रनृत्याद्यैर्गत्वा प्रागुत्तरां दिशम् ॥ ३ ॥ तत्र मृत्सि - कतां श्लक्ष्णां गृहीत्वा पुनरागतः । मृन्मयेष्वथ वा वैणवेषु पात्रेषु पूरयेत् । अनेकवीजसंयुक्तं तोयपुष्पोपशोभितम् ॥ ४ ॥
इत्यङ्करार्पणम् ।
१. व. 'त्राच्युते' |
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ज्योतिर्निवन्धः ।
अथोपनयनम् ।
अथोपनयनं वक्ष्येद्विजानां शुभकाङ्क्षिणाम् । त्यजेत्तत्र महादोषांस्त्याज्यप्रकरणोदितान् ॥ १ ॥ ज्योतिर्विदुक्तसमये कुमारमुखदर्शनम् । तत्त्पनय पाहुयाज्ञिकास्तत्त्वदर्शिनः || २ || जाताधिकाराज्जन्मादावष्टमेऽब्दे भवेदिदम् । कुमाराधिकृतेश्वापि न स्त्रीणामिदमुच्यते || ३ || वैवाहिक विधिः स्त्रीणामौपनायनिकः स्मृतः । पतिसेवा गुरौ वासो गृहस्थाग्निपरिक्रिया ॥ ४ ॥ नारद:आधानादष्टमे वर्षे जन्मतो वाऽग्रजन्मनाम् । राज्ञामेकादशे मौजीबन्धनं द्वादशे विशाम् || ५ || अत्राऽऽचार्यः स्मृतिरूपेणाऽऽहं - गर्भावादे पञ्चमे सप्तमेऽपि वा । द्विजत्वं प्राप्नुयाद्विमो वर्षे त्वेकादशे नृपः । वैश्यश्व द्वादशे वर्षे विप्राणां षोडशावधि ॥ ६॥ यस्मिन्वर्षे गर्भो भूत्वा शेते स गर्भ इति हरदत्तः । गर्भसहचरितो गर्भशब्देनोच्यत इति भारुचिः । सोऽष्टमो यस्येति बहुव्रीहिः । पष्ठीसमासस्य पूरणप्रत्ययान्तेन निषेधात् । जन्मतः पञ्चमे वर्षे वेदशास्त्रविशारदः । उपनीतो यतः श्रीमान्कार्य तत्रोपनायनम् ॥ ७ ॥ * संग्रहे— ब्रह्मवर्चसमोजश्च विद्याऽऽयुः श्रीर्यशः सुखम् । विमादेरुपनीतस्य पञ्चमादन्दतः फलम् || ८ || नृपजातिजिना १६ । १८ । २४ दान्तं नातिकालस्तत: परम् । पातित्यं स्यादग्रजादेवत्यस्तोमो विशोधनम् ॥ ९ ॥ अग्रजा बाहुजा वैश्याः स्वावधेरूर्ध्वमब्दतः । अकृतोपनयाः सर्वे वृषला इव ते स्मृताः ॥ १० ॥ नारद: - बालस्य बलहीनोऽपि शान्त्या जीवो बलप्रदः । यथोक्तवत्सरे कार्यमनुक्ते नोपनायनम् || ११ || बृहस्पतिः - झपचापकुलीरस्थो जीवोऽप्यशुभगोचरः । अतिशोभनतां दद्याद्विवाहोपनयादिषु || १२ || व्रते जन्मत्रिखारिस्थो जीवोऽपीष्टोऽर्त्तनात्सकृत् । शुभोऽतिकाले तुर्याष्टव्ययस्था द्विगुणार्चनात् ॥ १३ ॥ अशुभ ग्रहाः सर्वे शुभगोचरगा अपि । शान्तिभावाच्छमं नैव यान्त्यब्दः कालमृत्युक्त् ॥ १४ ॥ तस्माद्गृहेभ्यः कालत्वाद्वली संवत्सरः स्मृतः । शान्तिर्ग्रहाणां कर्तव्या न तु संवत्सरस्य सा ॥ १५ ॥ संग्रहे - व्रतकाले तु संप्राप्ते यस्य शुद्धिर्न लभ्यते । कृत्वाऽच शक्तितः पश्वाद्विधेयं मञ्जिबन्धनम् ॥ १६ ॥ शुद्धिर्न विद्यते यस्य वर्षे प्राप्तेष्टमे यदि । चैत्रे मीनगते भानौ
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* घपुस्तक इदमधिकम् । विष्णुः षष्ठे तु धनकामस्य विद्याकामस्य सप्तमे । अष्टमे सर्वकामस्य नवमे कान्तिमिच्छतः ॥ मनुः - ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यै विप्रस्य पञ्चमे । सप्तमे चाष्टमे वर्षे नवमे दशमे तथा । एकादशे द्वादशे षा ह्युपनेया द्विजातयः । ब्रह्मवर्चसमायुष्यं तेजोपायं तथैन्द्रियम् । पशून्कामयमाना वै प्राप्नुवन्ति यथाक्रमम् ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितीसस्योपनयनं शुभम् ॥ १७ ॥ जन्मभाडुष्टी सिंह नीचे वा शत्रुभे गुरौ । मौजीवन्धः शुभः प्रोक्तश्चैत्रे मीनगते रवौ ॥ १८ ॥ हरिनीचारिभागेऽपि व्रतोद्वाहादि मङ्गलम् । न निषिद्धं यदि स्वोच्चे स्वभे वा संस्थितो गुरुः ॥ १९ ॥ गोचरेऽपि सुराचार्यो वेदवर्णेश्वरोऽथवा । अशुभोऽपि शुभो ज्ञेयो यदि स्वोच्चे स्वभे स्थितः ॥ २० ॥ मुख्यकालस्तु बलवान्व्रते गोचरशुद्धितः । यतो निषिद्धवर्षस्य शान्तिनों दृश्यते कचित् ॥ २१ ॥ मीनस्थे पद्मिनीमित्रे नीचेरिभे च वाक्पतौ । व्रतादिषु निरोधः स्याद्विन्ध्यस्योत्तरवासिनाम् ॥ २२ ॥ नारदः-दृश्यमाने गुरौ शुक्रे शाखेशे चोत्तरायणे। वेदानामधिपा जीवशुक्रभौमबुधाः क्रमात् ॥ २३ ॥ शरद्ग्रीष्मवसन्तेषु व्युत्क्रमात्तु द्विजन्मनाम् । मुख्य साधारणं तेषां तपोमासादिपञ्चसु ॥ २४ ३३ वसिष्ठःवसन्तश्चैत्रवैशाखौ ग्रीष्मः शुक्रः शुचिस्तथा । इपोजों च शरत्त्विन्द्रमासाः श्रौतादिकर्मणि ॥ २५॥ नारदः-स्वकुलाचारधर्मज्ञो माघमासेऽथ फाल्गुने । विधिज्ञश्वार्थश्चैित्रे वेदवेदाङ्गपारगः ॥ २६ ॥ वैशाखे धनवान्वेदशास्त्रविद्याविशारदः। उपनीतः कलाढ्यश्च ज्येष्ठे विधिविदां वरः ॥ २७ ॥ गर्ग:----ज्येष्ठे मासे विशेषेण सर्वज्येष्ठस्य चैव हि । उपनीतस्य च शिशोर्जडत्वं मृत्युरेव च ॥ २८॥ संग्रहकारः-विवाहे चोपनयने जन्ममासं विवर्जयेत् । विशेषाजन्मपक्षं तु वसिष्ठायैरुदाहृतम् ॥ २९ ॥ नारदः-शुक्लपक्षे द्वितीया च तृतीया पञ्चमी तथा। त्रयोदशी च दशमी सप्तमी व्रतबन्धने ॥ ३० ॥ श्रेष्ठा त्वेकादशी षष्ठी द्वादश्येतास्तु मध्यमाः। एकां चतुर्थी संत्यक्त्वा ( ज्य) कृष्णपक्षेऽपि मध्यमाः। आपञ्चम्यस्तु तिथयः पराः स्युरतिनिन्दिताः ॥ ३१ ॥ ज्योतिर्नसिंहःतृतीया पञ्चमी पष्ठी द्वितीया चापि सप्तमी । पक्षयोरुभयोश्चैव विशेषेण सुपूजिताः ॥ ३२ ॥ धर्मकामौ सिते पक्षे कृष्णे च प्रथमा तथा । कृष्णत्रयोदशी केचिदिच्छन्ति मुनयस्तथा । द्वादश्येकादशी चैव मध्यमे च प्रचक्षते ॥ ३३ ॥ बृहस्पतिरपि-शुक्लपक्षे शुभः प्रोक्तः कृष्णे चान्त्यत्रिकं विना॥३४॥ संग्रहकार:-चन्द्र जीवे च वेदेशे वणशे च बलान्विते । कृष्णपक्षे व्रतं शस्तं द्वित्रिपञ्चमिते तिथौ ॥ ३५ ॥ कृष्णे कामद्वये देशे शुभा मौञ्जीति यद्वचः । तत्पुनःप्राप्तसंस्कारविषय संकटाहते ॥ ३६॥ अजिनं मेखला दण्डो भैक्ष्यचर्याव्रतानि । निवर्तन्ते द्विजातीनां पुनःसंस्कारकर्माण ॥ ३७ ॥ प्रदोषे निश्यनध्याये मन्दे कृष्णे गलग्रहे । मधुं विना चोपनीतः पुनःसंस्कारमर्हति ॥ ३८ ॥ यो न मन्त्रः स्वशाखोक्तः संस्कृतो नाधिकारिणा । नासौ द्विजत्वमामोति पुनःसंस्करणं विना ॥ ३९ ॥ व्रतं शुक्ले त्रिपञ्चाङ्गदशेशार्कमिते तिथौ । देयं द्विसप्तकामेषु
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ज्योतिर्निबन्धः।
१२३ कुमारे वयसाधिके ॥ ४० ॥ कृष्णे भूनेत्रवह्नीपुतियो स्वेशे बले सति । संकटादौ व्रतं कार्यमिति प्राह बृहस्पतिः ॥४१॥ नारदः-आचार्यसौम्यकाव्यानां वाराः शस्ताः शशीनयोः । बारौ तौ मध्यफलदावितरौ. निन्दितौ व्रते ॥ ४२ ॥ सर्वेषां जीवशुक्रज्ञवाराः: शस्ता व्रते तथा । चन्द्राकौं मध्यमौ ज्ञेयो सामबाहुजयोः कुजः ॥ ४३ ॥ वारौ मन्दारयोज्यौ कृष्णे वयाँ निशापतिः । अस्तंगतस्य सौम्यस्य वारो वयों द्विजन्मनि ॥४४॥ त्रिधा विभज्य दिवसं तत्राऽऽदौ कर्म दैविकम् । द्वितीये मानुषं कार्य तृतीयेऽशे च पैतकम् ॥४५॥ चतुर्दशीद्वयं चैव प्रतिपच्चाष्टमी तथा । पक्षयोरुभयोरेवमनध्यायाष्टकं विदुः ॥ ४६॥ पूर्वापरतिथिभ्यां तु तदुक्तं मौञ्जिबन्धने । त्याज्या अन्येऽप्यनध्यायाः परित्यक्तास्तु केवलाः ॥४७॥ अष्टकासु च सर्वासु युग्ममन्वन्तरादिषु । अनध्यायं प्रकुर्वीत तथा सोपपदास्वपि ॥४८॥ अयने विषुवे चैव सूतके मृतके तथा । तात्कालिकेऽप्यनध्याये प्रदोषेऽध्ययनं त्यजेत ॥४९॥ ज्ञेयो गलग्रहः कब्धी कामाद्रिभ्यां तिथित्रये। मौञ्जीबन्धे च विद्यायां षष्ठी विद्यासु न व्रते ॥ ५० ॥ तृतीया प्रहरान्न्यूना द्वादशी प्रहरद्वयात् । षष्ठी रात्रे: साधयामात्प्रदोषो जायते तदा ॥ ५१ ॥ कारिकानिबन्धे-अनध्यायस्य पूर्वेधुरनध्यायात्परेऽहनि । व्रतबन्धं विसर्ग च विद्यारम्भं न कारयेत् ॥ ५२ ॥ रोमसंहितायां-व्रतस्य पूर्वेधुरनिष्टकालो ह्यनिष्टकारी यजुषां बटूनाम् । तदह्नि दौष्टयं खलु सामगानामाथर्वणानामपरेऽह्नि दौष्टयम् ॥ ५३ ॥ तद्दिनगतैष्य-- दिवसाशुद्धानध्यायकमणि माहुः। बचबटूपनीत्यां कात्यायनशौनकात्रेया: ॥५४॥ वेदव्रतोपनयने स्वाध्यायाध्ययने तथा । न दोषो यजुषां सोपपदास्व-- ध्ययनेषु च ॥ ५५ ॥ मारम्भे सर्वविद्यानामनध्यायं विवर्जयेत् । नष्टं बुधं च विबलं लग्नं क्षीणं विधुं तथा ॥५६।। मनुः-या चैत्रवैशाखसिता तृतीया माघेडपि सप्तम्यथ फाल्गुनस्य । कृष्णद्वितीयोपनये प्रशस्ताः प्रोक्ता भरद्वाजमुनीन्द्रवर्यैः ॥ ५७ ॥ एतन्नित्यानध्यायविषयम् । अन्यथा माघे पञ्चम्यादिनिषेधः प्रसज्येत । माघस्याऽऽद्या द्वादशी च द्वितीया वा कृष्णा फाल्गुनस्य द्वितीया । चैत्रे वैशाखे [च ] शुद्धा तृतीया ज्येष्ठे वा: शुक्लपक्षद्वितीया ॥ ५८ ॥ नान्दीश्राद्धे कृते चेत्स्यादनध्यायस्त्वकालिकः । तदोपनयनं कार्य विद्यारम्भं न कारयेत् ॥ ५९ ॥ नारदः--श्रेष्ठान्यर्कत्रयांत्येज्यचन्द्रादित्युत्तराणि च । विष्णुत्रयाश्विमित्राब्जयोनिभान्युपनायने ॥ ६० ॥ जन्मभादशमं कर्म संघातच षोडशम् । अष्टादशं सामुदायं त्रयोविंशं
१ क. 'घातं चैव षो।
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श्रीशिवराजविनिर्मिती
विनाशभम् । मानसं पञ्चविंशक्षै नाऽऽचरेच्छुभमेषु तु ॥ ६१ ॥ संग्रह - पूर्वा ह्रस्तत्रयाद्यैशश्रुतिमूलेषु बढ्वृचाम् । यजुषां पौष्णमैत्रार्कादित्यपुष्यमृदुध्रुवैः॥ ६२॥ सामगानां हरीशार्कवसु पुष्योत्तराश्विभैः । धनिष्ठादितिमैत्रार्के विन्दुपौष्णेष्वथर्वणाम् ॥ ६३ ॥ नारदः – स्वनीचगे तदंशे वा स्वारिभे वा तदेशके । गुरौ भृगौ वा शाखेशे कलाशीलविवर्जितः ॥ ६४ ॥ स्वाधिशत्रुगृहस्थे वा तदंशे वाऽथवा व्रती । शाखेशे वा गुरौ शुक्रे महापातककुद्भवेत् ॥ ६५ ॥ स्वोच्च संस्थे तदंशे वा स्वराशौ वा त्रिकोषसे । शाखेशे वा गुरौ शुक्रे केन्द्रगे वा त्रिकोणने । अतीव धनवचैव वेदवेदाङ्गपारगः ॥ ६६ ॥ परमोच्चगते जीवे शाखेशे asथवा सिते । व्रती शिशुर्धनाढ्यश्च वेदशास्त्रविशारदः ।। ६७ ।। मित्रराशिगते जीवे तर्दशे वा स्वशाखपे । शुक्रे वा चारसंयुक्ते तदा तत्र व्रती शिशुः || ६८ || स्वाधिमित्रगृहस्थे वा तस्योवस्थे तदंशके । गुरौ भृगौ वा शाखेशे विद्याधनसमन्वितः ॥ ६९ ॥ शाखाधिपतिवास्थ शाखाधिपबलं शिशोः । शाखाधिपतिलग्नं च दुर्लभं त्रितयं व्रते ॥ ७० ॥ तस्माद्वेदांशगे चन्द्रे व्रती विद्याविशारदः । पापांशगे स्वांशगे वा दरिद्रो नित्यदुःखितः ॥ ७१ ॥ वाकुण्ठ:: श्रुतिमान्वक्ता जडः क्रूरोऽर्थवान्गुणी | क्रूरः पूज्यः खरः प्रेष्यो धीमान्मेषाद्भ
दुः ॥ ७२ ॥ ख्याद्यशैः क्रमात्क्रूरो जडः पापरतः पटुः । यज्वा च दीक्षितो मूर्खः षड्वर्गेणापि तत्फलम् ॥ ७३ ॥ नारदः - श्रवणादितिनक्षत्रे कर्येशस्थे निशाकरे । तदा व्रती वेदशास्त्रधनधान्यसमृद्धिमान् ॥ ७४ ॥ शुभलग्ने शुभांशे च नैधने शुद्धिसंयुते । लग्ने त्वनैधने सौम्यैः संयुक्ते वा निरीक्षिते ॥ ७५ ॥ इष्टैर्जीवार्कचन्द्राद्यैः पञ्चभिर्बलिभिर्ग्रहैः । स्थानादिवलसंपूर्णेऋतुर्भिर्वा शुभान्वितैः ।। ७६ ।। ईक्षिते वाऽत्रैकविंशन्महादोषविवर्जिते । राशयः सकलाः श्रेष्ठाः शुभग्रहयुतेक्षिताः ॥ ७७ ॥ शुभा नवांशा न तथा ग्राह्यास्ते. शुभराशयः । न कदाचित्कर्कटांशः शुभेक्षितयुतोऽपि वा ॥ ७८ ॥ तस्माद्भो-. मिथुनान्त्याश्वतुला कन्यांशकाः शुभाः । एवंविधे लग्नगते नवांशे व्रतमीरितम् ॥ ७९ ॥ त्रिषडायगतैः पापैः पडष्टान्त्यविवर्जितैः । शुभैः षष्ठाष्टलग्नान्त्यव -- जितेन हिमांशुना ॥ ८० ॥ संग्रह - केन्द्रस्थितैरिनाद्यैर्नृपसेवी विक्रियोऽखवृ-विश्व | वेदाभ्यासी यज्वा क्रतुकर्ता हीनसेवको भवति ॥ ८१ ॥ सिते त्रिकोणगे चन्द्रे शुक्रांशे लग्नगे गुरौ । उपनीतो भवेद्विप्रो वेदशास्त्रार्थपारगः ॥ ८२ ॥ चन्द्रकरास्तनौ नेष्टाः सर्वे रन्ध्रे व्यये कविः । सितेन्दुलग्नपाः षष्ठे मौञ्जीविद्यादिकर्मसु ॥ ८३ ॥ रविः खायगतः ९० । ११ श्रेयान् व्ययाष्टतनुगः १२/८/१ शशी । कुजार्किराहुशिखिनस्त्रिषडायगताः शुभाः ॥ ८४ ॥ अनिष्ठस्थानगो
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ज्योतिर्निबन्धः। स्यत्र ग्रहः कोऽपि न दोषकृत् । शुभदृष्टः शुभो यस्मात्सौम्यवर्गे यदि स्थितः
॥ ८५ ॥ व्ययस्थोऽर्कः कुजार्किभ्यां दृष्टो विद्या हरेरटोः। शुभदृष्टो न दोषाय लथेन्दुर्गुरुरब्रवीत् ।। ८६ ॥ श्रीपतिः-त्रिषट्खगोऽस्त्रिधनास्तकर्मगश्चन्द्रनिषष्ठाः शनिराहुभौमाः । सर्वे च लाभे द्वित्रिकोणकेन्द्रगाः शुभाः शुभाः स्युव्रतबन्धकाले ॥ ८७ ॥ रन्ध्रान्त्यारिगतः शक्रो लग्नेशो वा पडष्टगः । चन्द्रो लग्नारिरन्ध्रस्थों बटोः प्राणापहारकः ।। ८८ ॥ शुक्रश्च सर्वभावस्थः सर्वसंपत्समद्धिदः । षष्ठाष्टमस्मरान्मुक्त्वा शिशोर्लग्नाद्विजन्मनः ॥८९॥ मौजीबन्धे विशेषेण प्राग्लग्नं पञ्चम तथा । भाव्यं क्रूरग्रहर्मुक्तं भृगुराह तथाऽष्टमम् ॥ ९० ॥ मौजीपटले--शुभदो बलवान् भानुर्लग्नगो दशमस्तथा। सर्वशाखाधिपो यस्मात्सर्वेषां व्रतबन्धने ॥९१॥ सर्वशाखाधिपो भानुः केचिदूचुमहर्षयः । तस्माद्गत्यन्तराभावे लग्नस्थोऽर्कः प्रशस्यते ॥ ९२ ॥ नारदः-स्वोच्चसंस्थोऽपि शीतांशुतिनो यदि लग्नगः । तं करोति शिशुं निःस्व सततं क्षयरोगिणम् ॥९३ ॥ ब्रहस्पतिः-चन्द्रोदयेऽभिशस्तः स्यात्क्षयरोगी सितेतरे । सिते पक्षे भवेद्यज्वा स्वभे तुङ्गे विशेषतः ॥१४॥ लग्ने हिमांशुदि शुक्लपक्षे स्तम्भप्रतिष्ठाव्रतबन्धकाले । आयुःसहस्रं हि निकेतनानां नृणां संहावृत्तिविवृद्धिहेतुः ॥ ९५ ॥ संग्रहे-लग्नस्थितेषु रन्धेषु पापेषु मरणं बटोः। सौख्यं स्यात्रिषडायेषु जडत्वमितरेषु च ॥ ९६ ॥ अरन्ध्रारिगताः श्रेष्ठाः शुलाः सर्वत्रगा व्रते । व्ययेऽपि न शुभः शुक्रस्तथाऽब्जोऽर्यष्टलग्नगः॥९७॥ अनिष्टस्थानगोऽप्यत्र ग्रहः कोऽपि न दौषकृत् । सद्वर्गे शुभदृष्टो वा स्वोच्चे स्वस्थे विशेषतः ।। ९८ ॥ स्फूर्जितं केन्द्रगे भानौ व्रतिनो वंशनाशनम् । कूजितं केन्द्रगे भौमे शिष्याचार्यविनाशनम् ॥ ९९ ॥ करोति रुदितं केन्द्रसंस्थे मन्देऽतुलान्गदान् । लग्नाकेन्द्रगते राँही रन्ध्र मातविनाशनम् ॥ १०० ॥ उग्रकेन्द्रगते केती वृत्तवित्तविनाशनम् । पञ्चदोषेतरल्लग्नं शुभदं चोपनायने ॥ १०१ ॥ विद्या प्राप्तां नाशयेतां मन्दभौमौ द्वितीयगौ । अन्योन्यमथवा दृष्टौ द्वादशस्थौ तु बन्धदौ ॥ १०२ ॥ यथोक्तसमयालाभे योगान्वच्मि शुभप्रदान् । द्विजन्मकालसंभूतान्वसिष्ठाङ्गिरसोक्तितः ॥ १०३ ॥ जीवे केन्द्र त्रिकोणे वा भानौ शुक्रेऽथवा व्यये । धने झै चोपनीतस्तु वेदविद्याविशारदः ।। १०४ ॥ लग्नार्थभ्रातृगे शुक्रे जीवे कोणार्थकण्टके । त्रिषडेकादशे क्रूर व्रती भवति धार्मिकः ॥ १०५ ॥ गुरौ केन्द्रे भषे भानौ चन्द्रे शुभनवांशगे । शुभग्रहदशायुक्ते चिरायुर्धनवान्भवेत् ॥ १०६ ॥ भृगौ मीने वृष वाऽपि जीवे केन्द्रत्रिकोणगे । कर्किचापझषस्थेऽ
१ क. °सहोवृ । २ क. चारवि । ३ च. ही वृत्त वित्ताय । ४ ख. ग. केद्धानी
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श्रीशिवराजविनिर्मितोस्मिन्नती वेदार्थविद्भवेत् ॥ १०७ ॥ दशमायोदये याताः: शुक्रभानुयुधाः क्रमात् । चन्द्रे शुभांशगे शुद्धे रन्ध्रे विद्यार्थवान्बटुः ॥ १०८ ॥. बुधार्किशुक्राः कर्मायलग्नगाः क्रमशो यदि । जीवशुक्रबुधाः केन्द्रे बलिनोऽर्केन्दुवेदपाः॥१०९॥ उपनीतस्तदा शिष्यो दीर्घायुर्यज्ञकृद्भवेत् । एकोदरप्रसूतानामेकस्मिन्मण्डपेऽहनि । एकलग्नेऽपि भिन्नांशे व्रतं महति संकटे ॥ ११० ॥ वसन्तसमये दद्यादब्दे गर्भाष्टमेऽष्टमे । मेखला जन्ममासेऽपि जन्मभे च तिथौ तथा ॥११॥ विधिनाऽन्यायसामीप्यनयनं तूपनायनम् । एतत्प्रधानं सावित्रीवाचनं वाऽन्यदङ्गकम् । ११२।। मुहूर्तसमये प्रैषः स्वसूत्रोक्तो विधीयते । पुनरंशे शुभे ब्रूयाद्गायत्रीं सति संभवे. ॥११३ ॥ भाष्यकारैः स्मृतेर्वाक्यान्मुख्यत्वं गुरुदर्शने । उक्त तस्मान्मुहूर्तोऽस्य युक्त एव न संशयः ॥ ११४ ॥
इत्युपनयनम् ।
अथोपाकरणम् । प्रयोगपारिजाते--अध्यायानामुपाकर्म श्रावण्यां श्रवणेन तु । तेन्मासे हस्तयुक्तायां पञ्चम्यां वा तदिष्यते ॥ १॥ अवृष्टयौषधयस्तस्मिन्मासे तु न भवन्ति चेत् । तदा भाद्रपदे मासि श्रवणेन तु कारयेत् ॥ २ ॥ इदमत्र गृह्यम्अथातोऽध्यायोपाकरणमोषधीनां प्रादुर्भावे श्रवणेन श्रावणस्य पञ्चम्या हस्तेन वेति । अस्यार्थः- अध्ययनमध्यायस्तस्योपाकरणं प्रारम्भो येन कर्मणा तदध्यायोपाकरणम् । अतःशब्दो हेत्वर्थः । यस्माद्ब्रह्मयज्ञो नित्योऽतोऽध्यायोपाकरणं ब्रम इति । तस्य कालमाह -ओषधीनामिति । श्रावणमासस्य श्रवणेन कर्तव्यम् । ओषधीनां प्रादुर्भाव इति वचनं यदा श्रावणे प्रादुर्भावो न स्यात् तदा भाद्रपदे श्रवणेन कर्तव्यमित्येवमर्थम् । वृष्टयपकर्षे कर्मापकर्षशछैच नास्ति । यदा भाद्रपदादुत्कर्षो भवति तदाऽपि कर्मोत्कर्षशङ्का नैव कार्या। तद्वार्षिकमित्याचक्षत इतिवक्ष्यमाणसमाख्याबलात् । वर्षासुः क्रियत इति वार्षिकम् । श्रावणभाद्रपदौ हि मासौ वर्षतुः । श्रावणे प्रादुर्भावाभावे कर्माकरणशकाऽप्यनेनैव निरस्ता। श्रवणेनेति श्रवणेन युक्ते काल इत्यर्थः । 'नक्षत्रेण युक्तः काल' इत्यनेनाण् । 'लुबविशेषे' इति तस्य लुप् । 'नक्षत्रे च लुपि' इति सप्तम्यर्थे तृतीया । नक्षत्रशब्देषु सर्वत्रैवं योज्यम् । पञ्चम्यामित्यत्रापि श्रावणस्येति संबध्यते । मध्यगतस्य विशेषाभावात्मयोजनवत्त्वाच्च । श्रावणस्य मासस्य
१ ख. तस्मात्संग्रहयु।
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ज्योसिनिबन्धः।
१२७ पञ्चमी यदा हस्तेन युज्यते तदा वेत्यर्थः । एवं कालत्रयमुक्त मपति । पत्रभगवान् – अथातः श्रावणे पासे श्रवणर्फयुते दिमे । श्रावण्यां श्रावणे मासि पञ्चम्याँ हस्तसंयुते ॥ ३ ॥ दिवसे विदधीतैतदुपाकर्म यथोदितम् । अध्यायोपाकृति कुर्यात्तत्रौपासनवह्निना ॥ ४ ॥ अत्रोक्तश्रवणनक्षत्रे काशीखण्डे विशेषमाह ज्यासः--धनिष्ठासंयुते कुर्याच्छावणे कर्म यद्भवेत् । तत्कर्म सफलं ज्ञेयमुपाकरणसेंज्ञितम् ॥ ५ ॥ श्रवणेन तु यत्कर्म तूत्तराषाढसंयुतम् । संवत्सरकतोऽध्यायस्तत्क्षणादेव नश्यति ॥६॥ तत्र विरोधमाह गार्ग्य:--पर्वण्यौदयिके कुर्युः श्रावणे तैत्तिरीयकाः। बचाः श्रवणे कुर्युग्रहसंक्रान्तिवर्जिते ॥ इति ॥७॥ अत्र कालविरोधमाह बृहन्मनुः-अत्रार्धरात्रादवाक्चेद्ग्रहः संक्रममे (ए) व वा। नोपाकर्म तदा कुर्याच्छावण्यां श्रवणेन वा ॥ इति ॥ ४॥ कात्यायनोऽपि-- अर्धरात्रादधस्ताच्चेसंक्रान्तिग्रहणे तदा । उपाकर्म न कुर्वीत परतश्चेन्न दोषकत् ॥९॥ भृगुस्तु-प्रेते राजाने राष्ट्र वा परचक्रादिपीडिते । अनुप्तबीजेऽनावृष्टयां भोपाकुर्याद्विचक्षणः ॥ इति ॥ १० ॥ वसिष्ठोऽपि-अनुप्तबीजे नृपतौ विनष्टे शभे मृते राष्ट्रसमाकुले च । उत्सर्जनोपाकरणे न कार्ये ग्रस्तेन्दुसूर्ये गुरुरस्तयाते ॥ ११ ॥ गुरावित्यर्थः । यत्तु वचनं वेदोपाकरणे प्राप्ते कुलीरे संस्थिते रवौ । उपाकर्म न कर्तव्यं कर्तव्यं सिंहयुक्तके । कर्कटे संस्थिते भानावुपाकुर्यात्तु दक्षिणे ॥ १२॥ एतत्सर्व विचार्य श्रावणभाद्रपदयोरन्यत्तरस्मिन्मासे कर्तव्यम् । तदुक्तं स्मृत्यर्थसारे-श्रवण आदौ घटिकाचतुष्टयमभिजिन्नक्षत्रांशं( शो )वयं (?) वा । श्रवणखण्डे सति-धनिष्ठासंयुतं ग्राह्यं नोत्तराषाढसंयुतम् । इस्तनक्षत्रं प्रयोगपर्याप्तं ग्राह्यम् । सूतकादिविघ्नसंभव ओषध्युत्पत्त्यभावेऽपि च । श्रावणभाद्रपदयोरेकस्मिन्दिने ग्रहसंक्रान्तिवर्जिते कार्यम् । कर्मणो न लोपो नोत्कर्षश्चेति । यत्तुं सायणीयकारवचनं-श्रावणस्य तु मासस्य पूर्णिमायां द्विजन्मनाम् । आषाढयां प्रौष्ठपद्यां वा वेदोपाकरणं स्मृतम् ॥ इति ॥१३ ॥ तदेतच्छाखान्तरविषयम् । तद्वार्षिकमित्याचक्षत इति गृह्योक्तसमाख्याबलात् । शुक्रे मूढेऽप्युपाकृत्य विद्यावित्तविनाशनस् । आयुःक्षयमवाप्नोति तस्मात्कर्म विवर्जयेत् ॥ १४ ॥ कश्यपोऽपि-गुरुशुक्रतिरोधाने वर्जयेच्छृतिचोदितान् । इत्याह भगवानत्रिः श्रवणं तु विशेषतः ॥ १५ ॥ इत्येतत्पथमोपाकर्मविषयम् । तथोक्तं संग्रहे -गुरुभार्गवयोौढये वक्रे वा वार्धकेऽपि वा । तथाऽधिमाससंस्पर्शे मलमासादिषु द्विजः ॥ १६ ॥ प्रथमोपाकृतिर्न स्यात्कृतं कर्म विनाशकृत् ।। इति ॥ १७॥ स्मृतिसारसमुच्चयेऽपि-यज्ञोपवीतं कतेव्यं श्रावणे गुरुशक्रयोः ।
१ क. ख. स्पिन्दिने का । २ च. 'युःक्षेपम ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोमौढयेऽपि वार्धके वाल्ये नित्यकर्म प्रचोदितम् ॥ १८ ॥ स्मृतिभास्करेऽपि-~ चण्डांशोर्म डलं प्राप्तौ यदा शुक्रबृहस्पती । सर्वकर्मनिवृत्तिः स्यान्नित्यं नैमित्तिकं विना ॥ १९॥ स्मृत्यन्तरेऽपि - नित्ये नैमित्तिके जप्ये होमयज्ञक्रियासु च । उपाकर्मणि चोत्सर्गे ग्रहवेधो न विद्यते ॥ २० ॥ एतदधिमासे कर्तव्यमित्याह चन्द्रिकायां ज्योतिष्पराशरः-उपाकर्म तथोत्सर्गप्रसवाहोत्सवाब्दिकाः । मासवृद्धौ परे कार्या वर्जयित्वा तु पैतृकम् ॥२१॥ उत्तरे मासि कार्यमित्यर्थः । प्रसवाहोत्सवशब्देन जातेष्टिरेव गृह्यते । एतच्च मध्याह्नादूर्ध्वमेव कर्तव्यम् । तथाचोक्तं हेमाद्रौउपाकर्मापराह्ने स्यादुत्सर्गः प्रातरेव च।।इति ॥२२॥गोभिलोऽपि-अध्यायानामुपाकर्म कुर्यात्कालेऽपराह्निके । पूर्वाह्ने तु विसर्गः स्यादिति वेदविदो विदुः॥इति॥२३॥
इत्युपाकरणम् ।
अथ केशान्तकर्म । केशान्तं षोडशे वर्षे कुर्याच्चौलोक्तभादिके । गुरुशुद्धि विना काले व्रतोते व्रतमोक्षणम् ॥ १॥ अथवा बननक्षत्रवारलग्नेषु शस्यते । गुरोर्गेहान्निवृत्ताना समावर्तनमण्डनम् ॥२॥ नारदः- अथोत्तरायणे शुक्रजीवयोदृश्यमानयोः । द्विजातीनां गुरोर्गेहान्निवृत्तानां यतात्मनाम् ॥ ३ ॥ चित्रोत्तरादितीज्यान्त्यहरिमित्रविधातृषु । भेष्वन्दुज्ञार्यशुक्रवारलग्नांशकेष्वपि ॥ ४ ॥ अथवा वस्त्रनक्षत्रवारलग्नांशकेषु च । प्रतिपत्परिक्तामा अष्टमी च दिनक्षयम् । हित्वाऽन्यदिवसे कार्य समावर्तनमण्डनम् ॥ ५ ॥
इति केशान्तकर्म ।
अथ विद्यारम्भः । विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाऽऽयुः प्रवर्धते । विद्यया सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ १ ॥ द्वितीयजन्मतः पूर्वमक्षराभ्यासमारभेत् । मौञ्जीबन्धनतः पश्चाद्वेदारम्भः प्रशस्यते ॥ २ ॥ कन्या सबले सौम्ये योगे सारस्वताभिधे । गणेशं गिरमभ्यर्च्य सर्वा विद्याः समारभेत् ॥ ३ ॥ बृहस्पतिमतं चैव तदभावेऽधुनोच्यते । सौम्यायने प्रदोषादि चिन्तयेदव्रतबन्धवत् ॥ ४ ॥ मघायाम्यध्रुवानीन्द्रद्वीशानिन्दुकुजार्कजान् । अनध्यायं तदाद्यन्तं त्यक्त्वा विद्या समारभेत्॥५॥ आदित्यादिषु वारेषु विद्यारम्भे फलं क्रमात् । आयुर्जाड्यं मृतिर्मेधा सुधीः प्रज्ञा तनुक्षयः ॥ ६ ।। हस्तत्रिके त्रिके कर्णात्पूर्वासु मृगपञ्चके । मूलाश्विमैत्रपौष्णेषु
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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सुखसंस्कारमि(इ) ष्यते || ७ || शुक्लपक्षे शुभाः सर्वे विद्यारम्भे दिनं तथा । विहायार्थं त्रिभागं वा परं कृष्णेऽपि शस्यते ॥ ८ ॥ यदा चन्द्रो बुधांशस्थो बुधजीवसितेक्षितः । निषिद्धेऽपि च मासादौ विद्या शस्तेति केचन ॥ ९॥ aartaar वर्ज्या विद्यारम्भेऽभौमयोः । लव सुविद्याप्तिः स्थिरे जाड्यं चरे भ्रमः ॥ १० ॥ बृहस्पतिः - प्रथमा च द्वितीया च तृतीया पञ्चमी तथा । दशमी द्वादशी चैव एकादश्यस्तु पूजिताः ॥ ११ ॥ त्रयोदशी सप्तमी च कदाचिच्छुभ तिथी । यदा चन्द्रो बुधांशस्थो बुधजीवसितेक्षितः ॥ १२ ॥ त्रिषडायगताः पापास्त्रिकोणे कण्टके शुभाः । विद्यारम्भे शुभाः प्रोक्ताः सक्रूरं पञ्चमं त्यजेत् || १३ || विशेषादबुधवर्गेषु बुधदृष्टे बुधोदये । बुधवारे च होरायां विद्या शस्तोदिते विदि ॥ १४ ॥ एषु सर्वेषु शस्तेषु शुभं स्यादितरेषु च । अपवादो न चेत्तत्र योगान्वक्ष्याम्यभीष्टदान् ||१५|| हस्ते बुधशके युक्ता यदि भान्विन्दुसोमजाः । सोमवारे रवौ लग्ने योगः सारस्वतो भवेत् ॥ १६॥ अत्युच्चस्थे बुधे लग्नेऽपार्थो नाऽऽद्यत्रिभागके । भनौ तत्सौम्यवारे च योगो वागीश्वराह्वयः ।। १७ ।। हस्ते बुधांशकस्थौ चेद्बुधेन्दू लग्नगौ यदा । बुधवारे च होरायां योगः सारस्वताभिधः || १८ || इन्द्वर्कज्ञदिने वारे नाथ बुधांशके । हस्तक्षे च गता ह्येते योगः सारस्वताह्वयः ।। १९ । बुधोत्तमे गुरोरंशे केन्द्रगा ज्ञार्कभार्गवाः । त्रयोदश्यां यमे लग्ने योगः सारस्वताह्वयः ॥ २० ॥ कर्किणः पञ्चमे भागे गुबुदयगे सति । गुरोवरे च होरायां विद्यायोगोऽयमुत्तमः ||२१|| प्रारम्भे सर्वविद्यानामनध्यायं विवर्जयेत् । नष्टं बुधं च विबलं लग्नं क्षीणं विधुं तथा ।। २२ ।।
इति विद्यारम्भः ।
अथानध्यायाः ।
प्रतिपत्पूर्णिमामा च चतुर्दश्यष्टमी तथा । अनध्यायाः सोपपदा युगमन्वादयस्तथा ।। १ ।। नारदः - अयने विषुवे चैव शयने बोधने हरेः । अनध्यायस्तु कर्तव्यो मन्वादिषु युगादिषु ॥ २ ॥ कार्तिके शुलनवमी त्वादिः कृतयुगस्य च । त्रेतादिर्माधवे शुक्ला तृतीया पुण्यसंज्ञिता || ३ || कृष्णा पञ्चदशी माघे द्वापारादिरुदाहृता । कल्पादिः स्यात्कृष्णपक्षे नभस्ये च त्रयोदशी || ४ || द्वादश्यूर्जे शुक्लपक्षे नवम्याश्वयुजे सिते । चैत्रे भाद्रपदे चैव तृतीया शुक्रसंज्ञिता ॥ ५ ॥ एकादशी सिता पौषेयाषाढे दशमी सिता । माघे च सप्तमी शुक्ला नमस्येs
१७
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१३०
श्री शिवराजविनिर्मितो
सिताष्टमी || ६ || श्रावणे मास्यमावास्या फाल्गुने मासि पूर्णिमा | आषाढे कार्तिके मासि चैत्रे ज्येष्ठे च पूर्णिमा । मन्वादयः स्नानदानश्राद्धेष्वत्यन्तपुण्यदाः ||७|| संग्रहे- मार्गशीर्षे तथा पौषे माघमासे तथैव च । तिस्रोऽष्टकाः समाख्याताः कृष्णपक्षे तु सूरिभिः ।। ८ ।। सिता ज्येष्ठे द्वितीया तु आश्विने दशमी सिता । चतुर्थी द्वादशी माघ एताः सप्तपदाः स्मृताः || ९ || चातुर्मास्यद्वितीया गर्गेणेोक्ताः-शुचावूर्जे तपस्ये च द्वितीया च विधुक्षये । चातुर्मास्यद्वितीयास्ताः प्रवदन्ति महर्षयः ॥ १० ॥
इत्यनध्यायाः ।
अथ च्छुरिकाबन्धनम् 1
नारदः- - छुरिकाबन्धनं वक्ष्ये नृपाणां प्राकरग्रहात् । विवाहोक्तेषु मासेषु शुक्लपक्षेऽप्यनस्तगे ॥ १ ॥ जीवे शुक्रे च भूपुत्रे चन्द्रताराबलान्विते । मौजीबन्धर्क्षतिथिषु कुजवर्जितवासरे ॥ २ ॥ संग्रहे- शूद्राणां राजपुत्राणां मौजीभावे
बन्धनम् । मौञ्जबन्धोक्ततिथ्यादी कार्य भौमदिनं विना ॥ ३ ॥ नारदः'धनत्रिकोण केन्द्रस्यैः शुभैख्यायारिगैः परैः । छुरिकाबन्धनं कार्यमर्चयित्वा सुरापिन् ॥ ४ ॥ अर्चयेच्छुरिकां सम्यग्देवतानां च संनिधौ । ततः सुलग्ये बनीयात्कयां लक्षणसंयुताम् ॥ ५ ॥ तस्यास्तु लक्षणं वक्ष्ये यदुक्तं ब्रह्मणा पुरा । संमितं छुरिकायामं विस्तारेणैव ताडयेत् || ६ || भाजितं गजसंख्यैश्च अङ्गुलान्प (ली: परिकल्पयेत् । शेषं चैव फलं वक्ष्ये ध्वजाये धनवान्भवेत् ॥७॥॥ धूमाये मरणं सिंहे जयः श्वायेऽतिरोगिता | धनलाभो हृषेऽत्यन्तं दुःखी भवति गर्दभे ॥ ८ ॥ गजायेऽत्यन्तसंप्रीतिर्ध्वाङ्क्षे वित्तविनाशनम् । आयामार्धाग्रविस्तारप्रमाणेनैव ताडयेत् ॥ ९ ॥ तच्छेदखण्डान्यायाः स्युर्ध्वजाये रिपुना
नम् । खड़पुत्रियोर्मानं गणयेत्स्वाङ्गुलेन तु ॥ १० ॥ मानाङ्गुलेषु पर्यायानेकादशमितांस्त्यजेत् । स्वामिनोऽङ्गुलिभिर्गुण्यं शस्त्रं मुष्टिं विहाय तु ॥ ११ ॥
मानं विभजेद्रुद्रैः शेषाङ्कस्य फलं क्रमात् । पुत्रलाभः शत्रुवृद्धिः स्त्रीलाभो मनं शुभम् ॥ १२ ॥ अर्थहानिश्वार्थवृद्धिः प्रीतिः सिद्धिर्जयः क्षितिः । स्थितो ध्वजे वृषाये वा प्रष्टा चेत्पूर्वतो वणी || १३ || सिंहे गजे मध्यभागे त्वन्त्यभागे वाकयोः । धूमगर्दभयोनैव व्रणं श्रेयोऽन्त्य भागजम् ॥ १४ ॥
इति च्छुरिकाबन्धनम् |
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ज्योतिर्निबन्धः।
१३१ अथ विवाहप्रकरणम् । वराहः-स्त्रीरत्नभोगोऽस्ति नरस्य यस्य निःस्वोऽपि मा प्रत्यवनीश्वरोऽसौ । राज्यस्य सारोऽशनमङ्गनाश्च तृष्णानलोद्दीपनदारु शेषम् ॥ १ ॥रत्नहेमाद्यलंकारा भोगा मृगमदादयः । व्यर्थीः सर्वे न राजन्ते हाणि स्त्रियमन्तरा ॥२॥ नारदः-सर्वाश्रमाणामाश्रयो गृहस्थाश्रम उत्तमः। यतस्तदपि योषायां शीलवत्यां स्थितस्ततः ॥३॥ तस्याः सच्छीललब्धिस्तु सुलग्नवशतः खलु । पितामहोक्तां संवीक्ष्य लग्नशुद्धिं प्रवच्म्यहम् ॥ ४ ॥ शौनक:--प्रमदाफलस्य सदसज्जातकविहितस्य यदि न नाशोऽस्ति । तत्किमनेन बहुना पुनरप्युद्वाहलमेन ॥५॥ अथ तु विलग्नाधीना सिद्धिनियमेन भवति दंपत्योः । प्राक्सुकृतसंचयफलं तच्च नृणां चैव वक्तव्यम् ॥ ६॥ येन तु यत्प्राप्तव्यं तस्य विधानं सुरेश इन्द्रोऽपि । यः साक्षानीतिज्ञः सोऽपि न शक्तोऽन्यथा कर्तुम् ॥ ७ ॥ ननु जन्मकाले शुभाशुभफलं गदितं तचेत्प्रमाणं ततो यदि अन्मफलमशुभमस्ति तत्कथं विवाहलग्नेन शुभं भवति चेद्विवाहलग्नप्राबल्यं तज्जातकादीनामानर्थक्यप्रसङ्गः । सत्यं यजातके फलमुक्तं तस्य विवाहे तत्कालग्रहवशेनाऽऽधिक्यं न्यूनता च भवति । तथाचोक्तं बृहज्जातके-पाकस्वामिनि लग्नगे सुहृदि वा वर्गेऽथ सौम्येऽपि वा प्रारब्धा शुभदा दश। त्रिदशपड्लाभेषु वा पाकपे । मित्रोच्चोपचयत्रिकोणमदने पाकेश्वरस्य स्थितश्चन्द्रः सत्फलबोधनानि कुरुते पापानि चातोऽन्यथा ॥ ८॥ अत्र जन्मफलं शुभमपि दशाप्रवेशकालचन्द्रस्य स्थानवशाच्छुभतरमुक्तम् । पापदृष्टतत्कालचन्द्रवशाजन्मफलं दुष्टमशुभतरमुक्तम् । एवं जन्मफलमशुभमपि विवाहलग्नवशाच्छुभम् । शुभं तु जन्मफलं विवाहलग्नशुभग्रहसंस्थानवशादतीव शुभमिति सर्वमनवद्यम् ।।
इति लग्नप्रामाण्यम् ।
अथ विवाहे कुलविचारः। सापिण्डयं गोत्रशुद्धिं च शीलं सामुद्रिकाणि च । जातकादिभमेलं च वीक्ष्य वाग्दानतः पुरा ॥१॥ तत्र कुलपरीक्षा मिताक्षरायां--वध्वा वरस्य वा तात: कूटस्थाद्यदि सप्तमः । पञ्चमी चेत्तयोर्माता तत्सापिण्डयं निवर्तते ॥ २ ॥ मनुःलेपभाजश्चतुर्थाद्याः पित्राद्याः पिण्डमागिनः । पिण्डदः सक्षमस्तेषां सापिण्डयं साप्तपौरुषम् ॥ ३॥ संतानं भिद्यते यस्मात्पूर्वजादुभयत्र च । तमादाय गणये
१ क. घ. गणेद्धी।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोद्धीमान्वरं यावच्च कन्यकाम् ॥ ४ ॥ धर्मप्रदीपे-असपिण्डां च पितृतः सप्तमात्पुरुषात्परम् । मातृतः पञ्चमादूर्ध्वमसमानार्पगोत्रजाम् ॥ ५ ।। स्मृतिचन्द्रिकायां निर्णयवचनं-मूलगोत्रादन्यगोत्रामुद्रध्दष्टमोऽष्टमीम् । अन्यगोत्रादन्यगोत्रां षष्ठः पष्ठी समुद्हेत् ॥ ६॥ तृतीयां वा चतुर्थी वा पक्षयोरुभयोरपि । विवाहयेन्मनुः प्राह पाराशर्योऽगिरा यमः ॥ ७ ॥ मातुलस्य सुतामूढां मातृगोत्रां तथैव च । समानमवरामूढां परित्यज्य प्रपालयेत् ॥ ८ ॥ पश्चमात्सप्तमार्था मातृतः पितृतस्तथा । उभयोमातृतश्चैव षष्ठः षष्ठी समुद्हेत् ॥ ९॥ लिङ्गपुराणे--वाक्संबन्धकृतानां तु स्नेहसंबन्धभागिनाम् । विवाहोऽत्र न कर्तव्यो लोकगर्दा प्रसज्यते ॥ १० ॥ स्मृतिमहार्णवे-या दुष्पतीतसंबन्धा मातृगोत्रद्वये च या । सगोत्रा च सपिण्डा च वा सोदाहकर्मणि ॥१०॥
इति विवाहे कुलविचारः।
अथ गोत्रप्रवरनिर्णयः । समानप्रवरां कन्यां सपिण्डां चैकगोत्रजाम् । नैव तां वरयेत्याज्ञो मातृवत्परिकीर्तिता ॥ १ ॥ एक एव ऋपियंत्र प्रवरेष्वनुवर्तते । तावत्समानगोत्रत्वमृते भृग्वङ्गिरोगणात् ॥ २॥ प्रवरमञ्जर्या-पञ्चानां त्रिषु सामान्यादविवाहस्त्रिषु द्वयोः । श्रग्वाङ्गिरोगणेष्वेवं शेपेष्वेकोऽपि वारयेत् ॥ ३ ॥ समानप्रवरी भिन्नो मातगोत्रे वरस्य च । विवाहो नैव कर्तव्यः सा कन्या भगिनी भवेत् ॥ ४ ॥ प्रवरप्रदीपे-पैत्रे प्रवरभिन्नत्वं चिन्तनीयं न मातृके । केवलं मातृर्क गोत्रं वयं कात्यायनोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥ गोत्रं मातुरपुत्राया वर्जयेत्प्रवरान तु । सपुत्रायास्तु नो गोत्रं प्रवरांश्च न चिन्तयेत् ॥ ६ ॥ प्रयोगघारिजाते-असमानार्षगोत्रजामिति । ऋषेरिदमा प्रवरगोत्रप्रवर्तकस्य मुनेावर्तको मुनिगण इत्यर्थः । तद्यथा गोत्रप्रवर्तकस्य भारद्वाजस्य व्यावर्तकावङ्गिरोबृहस्पती । अत एवाऽऽङ्गिरसबार्हस्पत्यभारद्वाजगात्रामति प्रयुञ्जते । एवमन्यत्राप्युदाहार्यम् । गोत्रं तु वंशपरम्परामसिद्धम् । यस्या वध्या वरेण सह प्रवरैक्यं गोत्रैक्यं वा नास्ति सा वधूर्विवाहमर्हति । कचिद्गोत्रभेदेऽपि प्रवरैक्यमस्ति । याज्ञवल्क्यबाधूलमौनमौकानां भिन्नगोत्राणां भार्गक्वैतहव्यावेतसेति प्रवरैक्यादतस्तत्र विवाहप्रसक्तौ तद्व्यवच्छेदायासमानार्षामित्युक्तम् । कचित्प्रवरभेदेऽपि गोत्रैक्यम् । तद्यथा-आङ्गिरसाम्बरीषयौवनाश्वेति । मान्धात्राम्बरीषयौवनाश्वति ।
१ के. वर्षेधि' । २ घ. साचेत ।
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ज्योतिर्निबन्धः !
१३३
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अत्राऽऽङ्गिरसमान्धातृप्रवरभेदेऽपि यौवनाश्वगोत्रमेकम् । अतस्तत्र विवाहो मा भूदित्यसमान गोत्रग्रहणम् । अत्र विशेषमाह सूत्रकारः - एक एव ऋषिर्यावत्यवरेवनुवर्तते । तावत्समान गोत्रत्वमन्यत्र भृग्वङ्गिरसां गणात् इति ||७|| गोत्रप्रवर्तकाः प्राधान्येनाष्टौ मुनयः । ते च - अगस्त्याष्टमाः सप्तर्षयः । तथा च बौधायनःविश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतमः । अत्रिर्वसिष्ठः कश्यप इत्येते सप्तर्षयः । सप्तानामृषीणामगस्त्याष्टमानां यदपत्यं तद्गोत्रमित्याचक्षत इति । अत्र संग्रहकारस्वष्ट|दश गणानाह—जामदग्न्यो वीतहव्यो वैन्यो गृत्समदाह्वयः । वाध्यश्वो गौतमाख्यश्च भरद्वाजाह्वयः कपिः ||८|| हरितो मौद्गलः कण्वो विरूपो विष्णुवृयः ( कः ) | अत्रिविश्वामित्रकौ च वसिष्ठः कश्यपाह्वयः । अगस्त्यश्रुति मुनयो ह्यष्टादश गणाः स्मृताः ॥ ९ ॥ जामदग्न्यः - जामदग्न्यश्च वत्सश्च श्रीवत्सश्चानवाह्वयः । आप्तवानौर्व सार्वेण जीवन्तो देवरातकः । शीतशायनशाखाख्यो वैरोहित्यो वटाह्वयः ।। १० ।। मण्डः प्राचीनयोग्यः स्यादार्ष्टिषेणस्त्वरूपकः । एतानि भार्गवाख्यानि दशसप्तोत्तराणि च | जामदग्न्यगणे तस्मिन्न विवाहः परस्परम् ॥। ११ ॥ वीतहव्यः - वीतहव्ययस्कमौनमोकवाधूलसंज्ञकाः । सावेदश्च षडेतानि भार्गवाख्यान्वये गणः । वीतहव्यस्य वाऽन्योन्यं न कार्य पाणिपीडनम् ।। १२ ।। वैन्यः - वैन्यः पार्थश्च गोत्रे द्वे भवतो भार्गवादयः । एष वैन्यगणस्तत्र अन्योन्यं न करग्रहः ॥ १३ ॥ गृत्समदः - उभे गोत्रे गृत्समदः शौनको भार्गवालयः । गणो गृत्समदस्तस्मिन्नान्योन्यं पाणिपीडनम् ॥ १४ ॥ वाध्यश्वः-द्वे वाध्यश्वो मित्रयुग्मो गोत्रे भार्गवनामकः । वाभ्रयश्वस्य गणस्तस्मि
द्वाहो न परस्परम् || १५ || जामदग्न्यादयः पञ्च गणा भृगुगणाः स्मृताः । न चैतेषां गणानां तु विवाहः स्यात्परस्परम् ॥ १६ ॥ गौतमः - गौतमो यस्य औतथ्यः कक्षीवानौशिजस्तथा । वृहदुक्थो वामदेवो गोत्राणीमानि सप्त च । गौतमस्य गणस्तस्मिन्विवाहो न परस्परम् || १७ || भारद्वाजः --- भारद्वाजः कुशः कनिवैश्य ऊर्जयमः कृतः । शैशिरः शीरशुङ्गश्च वदनश्व बृहस्पतिः ॥ १८ ॥ सर्वस्तम्बः कपिनतिवचसो गार्ग्य सैन्य कौ । भारद्वाजगणः सप्तदशगोत्रमिति स्मृतम् । तस्मिन्परस्परं कार्यं न कन्यापाणिपीडनम् ॥ १९ ॥ कपिः कपिश्च महदक्षयो रुक्षीयस्त्रीणि केवलम् । अयं कपिगणोऽन्योन्यं तस्मिन्न हि करग्रहः || २० || हरित:- हरितो यौवनाश्वश्व मान्धाता कुत्सना - मकः । पिङ्गलः शङ्खदर्थौ च भीमश्च गवनायकः ॥ २१ ॥ अम्बरीषो दशै१ व. “मित्रः क्रौञ्चव ं । २ व. वर्णिीं । ३. स्वनूप' । ४६. वैन्या वयोश्च । ५. नचव ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
तानि हरितस्य गणः स्मृतः । तस्मिन्परस्परं पाणिग्रहणं न हि शोभनम् ॥ २२ ॥ मौल्य:- मौद्गल्यतार्क्ष्य भार्म्याश्वास्त्रीणि गोत्राण्यमूनि हि । मौद्गल्यस्य गणस्तत्र न मिथः पाणिपीडनम् ॥ २३ ॥ कण्यः - कण्वोऽजमीढ इत्येते गोत्रे कण्वगणः स्मृतः । तस्मिन्परस्परं पाणिग्रहणं न शुभं मतम् ॥ २४ ॥ विरूपः- विरूपोऽष्टादंष्ट्रिनामा पृषदश्वश्च मौद्गलः । चत्वारीमानि गोत्राणि विश्वरूपगण: स्मृतः 1 परस्परं विवाहोऽस्मिन्न विधेय इतीरितः ॥ २५ ॥ विष्णुवृद्धः - विष्णुवृद्धः पौरुकुत्स्यस्त्रसदस्युः कतस्तथा । माषणो भद्रणाख्यश्च वादरायणसंज्ञकः ॥ २६ ॥ सत्यकामौपमित्यौ च गविः सात्यकिंतालुकी । नितुन्दश्चेति गोत्राणि त्रयोदशमितानि च ॥ २७ ॥ विष्णुवृद्धगणस्तस्मिन्न विवाहः परस्परम् | गौतमस्य गणा ह्यष्टौ यस्तथाऽऽङ्गिरसो गणः ! तथाऽप्येषां गणानां तु विवाहः स्यात्परस्परम् ॥ २८ ॥ अत्रिः - तदेतद्गोत्रनवकमत्रिः स्यान्नर्चनानसः । श्यावाश्वो धामरन्ध्रश्च गविष्ठिरधनञ्जय || २९ || सुमङ्गल स्तिथिवर्जिवापश्चात्रिगणो ह्ययम् । आत्रेयाख्ये विवाहोऽस्मिन्न विधेयो मिथः शुभम् ॥ ३० ॥ विश्वामित्रःविश्वामित्रो देवरातो मनुस्तन्तुश्च औलकिः । वालकिश्चिकितोलको याज्ञवल्किश्च नारदः॥३१॥ बृहदग्निः कालववौ शवली बहुलोहितौ । शालङ्कायनवावर्ण्य कामकायनपूरणौ ||३२|| शालवातोऽग्निदेवश्च मदनः कौशिकौष्टकौ । आज्यो मधुच्छन्दसश्च देवश्रवधनञ्जयौ ॥ ३३ ॥ शुङ्गः कतः शैशिनश्च वारिधारोऽघमर्षणः । सूनुः पनश्च धूम्राख्यो जठरस्त्वेकहव्यकः ॥ ३४ ॥ अष्टात्रिंशच्च गोत्राणि विश्वामित्रगणः स्मृतः । एतस्मिन्नपि चान्योन्यं न कुर्यात्पाणिपीडनम् ॥ ३५ ॥ कश्यपः- कश्यपो रेभरौभौ च शाण्डिल्यो देवलोहितः । सांकृतिः पूतिमाषश्च वत्सरो नैध्रुवो दश । गोत्राणि कश्यपगणस्तत्रान्योन्यं न दोर्ग्रहः || ३६ || वसिष्ठः-वसिष्ठ इन्द्रप्रमदस्त्वाभरद्वसुसंकृतिः । कौण्डिन्यः पूतिमाषश्च गौरवीतिः पराशरः || ३७ || मैत्रावरुणसक्थिश्च उपमन्युगणः स्मृतः । एकादश वसिष्ठस्य गोत्रस्यास्मिन्न दोर्ग्रहः ॥ ३८ || अगस्त्यः - त्रीण्यगस्त्यो वीतवाहो दाढर्चच्युत इति स्मृतः । एषोऽगस्त्यगणस्तस्मिन्न विवाहः परस्परम् ॥ ३९ ॥ जमदग्निगणस्यापि विश्वामित्रगणस्य च । न देवरातगोत्रेण विवाहः स्यात्परस्परम् ॥४०॥ भरद्वाजगणस्यापि विश्वामित्रगणस्य च । कतरौशिरशुङ्गैश्व नान्योन्यं पाणिपीडनम् ॥ ४१ ॥ काश्यपेयगणस्यापि विश्वामित्रगणस्य च । संकृतिपूतिमाषाभ्यां विवाहो न परस्परम् ॥ ४२ ॥ आत्रेयस्य गणस्यापि विश्वामित्रगणस्य च । धनञ्जयाख्यगोत्रेण नान्योन्यं पाणिपीडनम् ॥ ४३ ॥ भरद्वाजगणस्यापि
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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तथा कपिराणस्य च । विवाहो न विधेयः स्यादन्योन्यं तु कदाचन ॥ ४४ ॥ मलस्य गणस्यापि विरूपस्य गणस्य च । परस्परं न कुर्वीत पाणिपीडनसक्रियाम् ॥ ४६ ॥ अनाप्तृयोराकुलयः श्वातयो राजचारयः । सरवावाहिजा - श्चैव वाहवस्तदनन्तरम् || ४७ ॥ तथाचाशुशयः प्रोक्ताः सैरन्थ्यो राजसेवकाः । स्वापलिङ्गश्च लौगाक्षिस्तथैव शरवन्दकाः ॥ ४८ ॥ एते त्रयोदश प्रातर्वसिष्ठा निशि कश्यपाः । गायत्रीयोनिसंबन्धावङ्गीकृत्य प्रवर्तकाः ॥ ४९ ॥ अहर्वसिgri रात्रौ कश्यपत्वमपि स्वयम् । तेषां गोत्रत्रयं मुक्त्वा वासिष्ठं काश्यपं तथा । सर्वत्रापि विवाह्याः स्युरिति वेदविदो विदुः ॥ ५० ॥ यत्तु स्मृत्यन्तरं - सावित्रीं यस्य यो दद्यात्तत्कन्यां न विवाहयेत् । तद्गोत्रे तत्कुले वाऽपि विवाहो नैव दोषकृत् ॥ ५१ ॥ इति तत्स्वगोत्र ( त्रा) ज्ञातृविषयम् । गुरोः सगोत्रत्रप्रवरा नोद्वाह्याः क्षत्रवैश्ययोः । स्वगोत्रा ( स्या ) नभिज्ञैश्व विप्रेराचार्यगोत्रजाः ॥ ५२ ॥ द्वयामुष्यायणकाः सर्वे दत्तकक्रीतकादयः । गोत्रद्वयेऽप्यनुद्वाहः शुङ्गशैशिरयोस्तथा ॥ ५३ ॥ असंप्रज्ञातबन्धूनामाचार्यप्रवराः स्मृताः । पक्षे चास्मिन्विवाहोप सगोत्रैः सह नेष्यते ॥ ५४ ॥ येऽत्र समवरां विवहेयुस्तेषां निष्कृतिरुच्यते । संग्रहे - सगोत्रां समानप्रवरां कामतः परिणीय प्रजामुत्पाद्य गुरुतल्पगतव्रतं चरेत् । प्रजां चाण्डालेषु निक्षिपेत् । अकामतस्त्वब्दकृच्छ्रं प्रजाया भारद्वाजगोत्रान्तर्भावः । प्रजानुत्पादे चान्द्रायणम् । विवाहमात्रे कृच्छ्रं चरेत् । सर्वत्र व्रतान्तेऽष्टोत्तरशतं समिधां होमः । परित्यक्तां वां जननीवद्रक्षेदिति । इति गोत्रप्रवरनिर्णयः ।
अथ वरगुणाः ।
कुलं शीलं वपुर्विद्या वयो वित्तं सनाथता । गुणाः सप्त वरे यस्मिंस्तस्मै कन्या प्रदीयते ॥ १ ॥ ब्राह्मणस्य कुलं ग्राह्यं न वेदाः सपदक्रमाः । कन्यादाने तथा श्राद्धेन विद्या तत्र कारणम् ॥ २ ॥ कारिका निबन्धे – अन्धो मूकः क्रियाहीनश्रापस्मारी नपुंसकः । दूरस्थः पतितः कुष्ठी दीर्घरोगी वरो न सन् ॥ ३ ॥ नात्यासन्ने नातिदूरे नात्याढ्ये नातिदुर्बले । वृत्तिहीने च मूर्खे च षट्सु कन्या न दीयते ॥ ४ ॥ मूर्खनिर्धनदूरस्थशूरमोक्षाभिलाषिणाम् । त्रिगुणाधिकवर्षाणां न देया जातु कन्यका || ५ || यस्याप्स प्लवते वीजं हादि मूत्रं च फेनिलम् ।
१. 'नाप्नुयो ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोपुमान्स्याल्लक्षणरेतैर्विपरीतस्तु पण्डकः ॥ ६ ॥ अपरीक्ष्य वरं कन्यां निर्गुणाय ददाति यः । कुलं तस्यैव तच्छोकसंतप्तोर्वी निकृन्तति ॥ ७॥
इति वरगुणाः।
अथ कन्यागुणाः । वधू सुलक्षणोपेतां प्रसन्नाख्यां कुलोद्भवाम् । कन्यका वरयेद्रूपवतीमव्यङ्गविग्रहाम् ॥१॥अपुत्रा ह्यक्रिया त्याज्या निश्छेदा रोमशीर्षका । दुर्भगा त्वथापस्मारी कुष्ठी कृत्या कुलस्त्रियः ॥२॥ कारिकानिबन्धे-ज्योतिःसागरेच-भुजगविहङ्गमभीपणपादपनाम्नी लकाररेफान्ता । ऋक्षनदीनदसंज्ञा न विवाह्या कन्यका सद्भिः॥ ३॥ अत्रान्तशब्देनोपान्तो लक्षितः। धन्या पर्वतपुष्पाख्या पुष्पनाम्नी च कन्यका । अतिदीर्घा च कपिला वा कृष्णाऽतिरोमशा ॥४॥ ठान्तं भीषणमाख्यातं नद्याप्यं वारुणं नदः। पक्षिद्वीशं तरुर्मुलं सापश्लेिपाक्षकं मघा ॥ ५ ॥ इति केचिन्मतं प्रोक्तं परैः प्रोक्तमथोच्यते । भुजङ्गादिप्रसिद्धार्थनाम्नी कन्यां विवर्जयेत् ॥ ६॥
इति कन्यागुणाः।
अथ सामुद्रिकलक्षणानि । अर्चितं वचनमुन्नतं मनो निर्विशेषसुखदं दृशां वपुः । अस्ति चेदथ पराङ्मुखी मतिर्लक्षणैः किमपरैर्नृयोषिताम् ॥ १॥ मनसश्चक्षुषो यस्मिन्वरे यस्यां च योषिति । संतोषो जायते तत्र नान्यत्किंचिद्विचिन्तयेत् ॥ २ ॥ तत्रापि किंचिदुच्यते-पञ्चदीर्घ चतुर्हस्वं पञ्चसूक्ष्म पडुन्नतम् । सप्तरक्तं त्रिगम्भीरं त्रिविस्तीर्ण प्रशस्यते ॥ ३ ॥ हनुलोचनबाहुनासिकाः स्तनयोरन्तरमत्र पश्चमम् । इति दीर्घमिदं तु पञ्चकं न भवत्येव नृणामभूभृताम् ॥४॥ नाभिः स्वरः सत्त्वमिति प्रशस्तं गम्भीरमेतत्रितयं नराणाम् । उरो ललाटं वदनं च पंसां विस्तीर्णमेतत्रितयं प्रशस्तम् ॥ ५॥ वक्षोऽथ कक्षाद्वयनासिकास्यकृकाटिकाश्चेति षडुनतानि । हस्वाणि चत्वार्यथ लिङ्गपष्ठे ग्रीवा च जधे च हितप्रदानि ॥६॥ नेत्रान्तपादकरताल्वधरोष्ठजिह्वा रक्ता नखाश्च खलु सप्त सुखावहानि । सूक्ष्माणि पञ्च दशनाङ्गुलिपर्वकोशाः साकं त्वचा कररुहाश्च न दुःखितानाम् ॥ ७ ॥ यवोऽङ्गुष्ठोदरे यस्य यशस्वी च नरो भवेत् । अनामिक्या मूलजा स्यादेखा
१ घ.निश्छन्दो । २ घ. रीषष्टी।
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ज्योतिर्निबन्धः।
१३७ यस्य स पुण्यवान् ॥ ८॥ उरोविशालो धनवान्हनी शीर्षेऽपराजितः । बहुपुत्रः कटिस्थूलो विशाल चरणो धनी ॥ ९ ॥ चक्षुःस्नेहे च सौभाग्यं दन्तस्नेहेन भोजनम् । वपुःस्नेहेन सौभाग्यं पादस्नेहेन वाहनम् ॥ १० ॥ उलूकाक्षाश्च काकाक्षा मण्डूकाक्षाश्च ये नराः । अल्परोमकपोलाश्च ते सर्वे पापबुद्वयः ॥११॥ विस्वराः काकनादाश्च केकरा वक्रनासिकाः । शिराला रोमशा हस्वोत्तरोष्ठास्ते हि पापिनः ॥ १२ ॥ पितृशीलोत्तमा कन्या मातृशीलो वरस्तथा । समपृष्ठस्तुल्यरूपो विवाहः सुखदो भवेत् ॥ १३ ॥ शङ्खपम यवच्छत्रमालामत्स्यब्वजादयः। पादे पाणी भवन्त्येव राज्ञा तद्योषितां तथा ॥ १४ ॥ व्यास:मार्जारपिङ्गला नारी विषकन्येति कीर्तिता । सुवर्णपिङ्गला नारी नातिदुष्टा परे जगुः ॥ १५ ॥ कृष्णजिला चः लन्बोष्ठी पिङ्गाक्षी घर्घरस्वरा । त्याज्या यस्याश्च पादौ च कुचावोष्ठों च रोमशौ ॥ १६ ॥ विरलाङ्गुलिदन्ता च कुचगण्डबृहत्त्वचा । कृष्णतालुः परित्याज्या व्यङ्गाङ्गी पितृमातृतः ॥ १७ ॥ कनिष्ठाऽनामिका यस्याः पादे मध्यामिका तथा । भूमि न स्पृशते सा स्त्री विज्ञेया व्यभिचारिणी ॥ १८ ॥ पादप्रदेशिनी यस्या अङ्गुष्ठं समतिक्रमेत् । न सा भर्तृगृहे तिष्ठेत्स्वच्छन्दा कामचारिणी ॥ १९ ॥ उदरे श्वशुरं हन्ति ललाटे हन्ति देवरम् । स्फिचौ पति लम्बमाने धनं कूर्मोदरी हरेत् ॥ २० ॥ पृष्ठावर्ता पति हन्ति नाभ्यावर्ता पतिव्रता । कट्यावर्ता तु स्वच्छन्दा स्कन्धावर्ताऽर्थभागिनी ॥ २१ ॥ सुखचारा सुवेषा च मृदङ्गी चारुभाषिणी । प्रशस्ता सुगतिः कन्या या च दृङ्मनसोः प्रिया ॥ २२ ।। मण्डूककुक्षिका नारी न्यग्रोधपरिमण्डला। एक जनयते पुत्रं स तु राजा भविष्यति ॥२३॥ वराह:-मध्याजुलीया मणिबन्धनोत्था रेखा गता पाणितलेऽङ्गानानाम् । उध्वं गता पाणितलेऽथवा या पुंसोऽथवा राज्यसुखाय सा स्यात् ।। २४ । कनिष्ठिकामूलभवा गता या प्रादेशिनीमध्यमिकान्तरालम् । करोति रेखा परमायुषं तं प्रमाणहीनाऽर्थत उनमायुः ॥ २५ ॥ कलत्रकान्तयोः संख्यां जीविताख्यकनिष्ठयोः । मध्यं विचिन्तयेदक्षे वामहस्ते नरस्त्रियोः ॥ २६ ॥ अङ्गुष्ठमूले प्रसवस्य रेखाः पुत्रा बृहत्यः प्रमदाश्च तन्व्यः । अच्छिन्नदीर्घाश्च चिरायुपः स्युः स्वल्पायुपश्छिन्नलघुप्रमाणाः ॥ २७ ॥ अरेखं बहुरेखं वा येषां पाणितलं नृणाम् । ते स्युरल्पायुषो निःस्वा दुःखिता नात्र संशयः ॥ २८ ॥ केशसंपल्लवा रेखा कुर्याच्छि. नायुपः क्षयम् । मणिबन्धोन्मुखा वृद्धयै विपदेऽङ्गुष्ठसंमुखा ।। २९ ॥ मत्स्यः करतले यस्य स नरो बढुकोशवान् । भाग्यरेखा सुतीक्ष्णाग्रा शुभा छत्राकृति
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श्रीशिवराजविनिर्मितोस्तथा ॥३०॥ मिलद्भयुग्मिका कामा लन्बोष्ठी शूर्पकर्णिका । वक्रास्यनासिका चातिमौना त्याज्याऽतिभीषणा ॥ ३१॥ श्लिष्टान्यङ्गुलिमध्यानि द्रव्यसंचयहे. तवे । तानि चेच्छिद्रयुक्तानि त्यागशीलकराणि च ॥३२॥ यस्याः केशांशुकस्पशान्म्लायन्ति कुसुमस्रजः । स्नानाम्भसि विपद्यन्वे बहवः क्षुद्रजन्तवः॥३३॥ धीयन्ते मत्कुणास्तल्पे तथा यूकाश्च वाससि । चौर्यान्नमक्षिणी शौचहीना त्याच्या नितम्बिनी ॥ ३४ ॥
इति सामुद्रिकलक्षणानि ।
अथ प्रसङ्गेन स्वस्थारिष्टानि । पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमादिशेत् । आयुहीननराणां च लक्षणैः किं प्रयोजनम् ॥ १॥ स्वप्नो निमित्तं शकुनः स्वकर्म शारीरमागन्तुकमद्भुतानि । दोषाभिचारग्रहचारकालाः काम्यानि दैवं विविध फलानि ॥२॥ फलं यदि प्राक्तनमेव तत्कि कृप्याद्युपायेषु परः प्रयत्नः । श्रुतिः स्मृतिश्चापि न वा निषेधविद्यात्मके कर्मणि किं निषण्णा ॥३॥ अरुन्धती ध्रुवं चैव विष्णोस्त्रीणि पदानि च । आयुहींना न पश्यन्ति चतुर्थे मातृमण्डलम् ॥ ४ ॥ देहेऽप्यरुन्धती जिह्वा ध्रुवो नासाग्रमुच्यते । भ्रुवोर्विष्णोः पदं मध्यं तारका मातृमण्डलम् ॥ ५ ॥ आकीर्णश्रवणो यस्तु न घोषं शृणुयात्तथा । नभोमन्दाकिनीमिन्दोश्छायां नेक्षेद्गतायुषः ॥ ६॥ हकारः शीतलो यस्य सकारोऽग्निसमप्रभः । लक्षणं त्वीदृशं दृष्टं तस्याऽऽयुः स्यात्समार्धकम् ॥ ७ ॥ स्थूलो वाऽपि कृशोऽकस्मादरिद्रो वा धनी भवेत् । यो मुक्त्वा न धृति लेभे स याति यममन्दिरम् ॥ ८ ॥ पांसुपकादिषु न्यस्तं खण्डं यस्य पदं भवेत् । पुरतः पृष्ठतो वाऽपि सोऽष्टो मासान्न जीवति ॥ ९ ॥ संसृज्यते न सलिलैनलिनीदलबत्तनुः । स्नानमाचरतो यस्य पण्मासान्न स जीनति ॥ १० ॥ स्नानान्बुलिप्तमात्रस्य यस्योरः माक् प्रशुष्यति। गानेष्वाट्टैषु सर्वेषु सोऽधमासं न जीवति ॥ ११ ॥ जलादशोदिपु च्छायां विकृतां यः प्रपश्यति । संस्विद्यते ललाटं वा तस्य मृत्युरुपस्थितः॥ १२ ॥ न मान्त्यङ्गलयस्तिस्रो मुखे यस्य स नश्यति । उर्व तियेगधो दृष्टियस्य स्यात्सोऽपि मृत्युभाक् ॥ १३ ॥ नयनान्ते विनिष्पीड्य यस्तु तेजो न पश्यति । मयूरचन्द्रिकाकारं स सप्ताहाद्विपद्यते ॥ १४ ॥ गन्धर्वनगरं पश्येद्दिवा नक्षत्रमण्डलम्। परचेत्रेषु चाऽऽत्मानं न पश्येन स जीवति ॥१५॥ सरटः कङ्ककाकाया गोधाद्या यदि मध्यमाः । जीवाः शीर्षे पतस्येव तदा जीवितसंक्षयः ॥ १६ ॥
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ज्योतिर्निबन्धः।
१३९ कपोतः प्रविशेद्यस्य गृहं घूको गृहोपरि । शब्दं कुर्यात्स नश्येच्च यः पश्येत्काकमैथुनम् ।। १७ ॥ स्वप्ने मुण्डितमात्मानं षण्मासायुर्निरीक्षते । कर्णनासाकरादीनां छेदनं पङ्कमज्जनम् ॥ १८ ॥ पतनं दन्तकेशानां पकमांसस्य भक्षणम् । खरोष्ट्रमहिपैर्यानं तैलाभ्यङ्गं च मृत्यवे ॥ १९ ॥
___ इति स्वस्थारिष्टानि ।
अथ दैवज्ञं प्रति पृच्छा। पुण्येह्नि लक्षणोपेतं सुखासीनं सुचेतनम् । प्रणम्य देववत्पृच्छेदैवज्ञं भक्तिपूर्वकम् ॥ १ ॥ ताम्बूलफलपुष्पायैः पूर्णाञ्जलिरुपागतः । कर्ता निवेद्य दंपत्योजन्मराशि स्वजन्मभम् ॥ २ ॥ पुण्यैर्निमित्तशकुनैः प्रश्नकाले तु मङ्गलम् । दंपत्योरशुभैस्तैस्तु विरुद्धं सर्वथा भवेत् ॥ ३ ॥ सप्तर्षयः-पृथक्समयनिमितान्यवलोक्य च शास्त्रमार्गविदा । प्राक् सुकृतदुष्कृतभवं फलमिह वाच्यं प्रयत्नेन ॥ ४ ॥ ललः- प्रश्ने यदि शुभशकुनस्तदा शुभं कन्यकावरयोः । अशुभेषु भवत्य शुभं शकुनेषु न संशयस्तत्र ॥ ५ ॥ शौनकः-जन्मसमये यदुक्तं शुभाशुभं दिव्यद्दम्भिराचार्यैः । पृच्छापरिणयनाभ्यां तदेव युक्त्या प्रयोक्तव्यम् ॥ ६॥
तत्राऽऽदौ विवाहपृच्छा। व्ययेशो यदि लग्नस्थो लग्नेशो व्ययगो भवेत् । तदा विवाहपृच्छार्या विवाहो भवति ध्रुवम् ॥ १॥ लग्ने स्थिरे पापगुते नृनार्योरुद्वाहसिद्धिर्न भवेकदाचित् । जीवेन दृष्टोऽथ शशी त्रिपञ्चसप्तायखस्थः कुरुते विवाहम् ॥ २ ॥ चन्द्रो लग्नपतिवाऽपि कन्यालाभाय कामगः । द्यूनपो लग्नगः शीघ्र कन्यालाभाय जायते ॥ ३ ॥ कर्कतुलाधरवृषभाः शुक्रेन्दुयुप्ता निरीक्षिप्ता वाऽपि । संपृच्छतां नराणां कन्यालाभोऽस्ति नियमेन ॥ ४ ॥ युग्मलग्नेऽब्जशुक्राभ्यां कन्याप्तिस्तद्युतेक्षिते । तथा वराप्तिः पुंलग्ने पुंग्रहैर्वोजगेऽर्कजे(?) ॥ ५॥ कृष्णपक्षे प्रश्नलग्नाद्युग्मराशौ शशी यदि । पापदृष्टोऽथवा रन्धे न संबन्धो भवेत्तदा ॥६॥
इति विवाहपृच्छा।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ शुभाशुभज्ञानम् । पृच्छा विलग्ने यदि राशिसंस्थे दाक्षायणीशे मरणं वरस्य । वर्षेऽष्टमे स्यादथ लग्नगेऽब्जे धरासुते सप्तमगे च शीघ्रम् ॥ १ ॥ क्षीणेन्दुभौमार्किदिवाकराणामेकोऽपि लग्ने मरणाय खेटः । भवेद्धृवं वत्सरपञ्चकेन क्रूरग्रहे सप्तमगे वरस्य ॥ २ ॥ सप्तमगोऽर्कः कन्यां मृतप्रजां पुंश्चलीं करोत्युदये । कथितं यचोद्वाहे योज्यं तत्प्रश्नकालेऽपि ॥ ३ ॥ शौनकः-ऋरग्रहो विलग्ने सप्तमसंस्थो यदि भवेत्क्रूरः । सप्तभिरब्दैमरणं शशिभौमौ सप्तभिर्मासैः ॥ ४ ॥ पृच्छाविलग्नसंस्थौ गुरुसौम्या दीर्घजीविनी करतः । पञ्चमसंस्थौ पुत्राञ्जामित्रे गोधन विपुलम् ॥ ५ ॥ नारदः-- पृच्छकस्य भवेल्लग्नादिन्दुः षष्ठाष्टगोऽपि वा । दंपत्योर्मरणं वाच्यमष्टमाब्दान्तरे यदि ॥६॥ यदि लग्नगतः क्रूरस्तस्मात्सप्तमगः कुजः । विज्ञेयं भर्तमरणं सप्तमाब्दान्तरे तदा ॥ ७॥ यदि लग्नगतश्चन्द्रस्तस्मात्सप्तमगः कुजः। विवाहात्परतो भता त्वष्टमाव्दे न जीवति ॥ ८ ॥ लग्नात्पञ्चमगः पापः शत्रुदृष्टः स्वनीचगः । मृतपुत्रा तदा कन्या कुलटा का न संशयः ॥९॥ विवाहे जन्मपृच्छोक्ता जन्मन्युद्वाहप्रश्नजाः । जन्मोद्वाहोदिताः प्रश्ने योगा योज्या धिया बुधैः ॥ १० ॥ विपाङ्गनामूलजादिजन्मोत्थं च शुभाशुभम् । विलोकनीयमत्रैव तत्तत्प्रकरणोदितम् ॥ ११ ॥ शौनकः-एतबुवा शास्त्रं मन्दमतियः प्रयच्छति विवाहम् । अयशोवुधौ स मजति तस्माद्विज्ञाय वै दद्यात् ॥ १२ ॥
इति शुभाशुभज्ञानम् । ।
अथ राशिकूदविचारः। अथ भक्टे लग्नस्योपेक्षा ज्योतिष्प्रकाशे-जन्मलग्नात्फलं सर्वमायुर्दायदशादिकम् । कीर्तितं मुनिभिस्तत्तु भमेलेऽनादृतं कथम् ॥ १॥ विवाहबृन्दावने-जन्मलग्नमिदमङ्गसङ्गिनां मेनिरे मन इतीन्दुमन्दिरम् । सौहृदं हि मनसोर्न देहयोर्मेलकस्तदयमिन्दुगेहयोः ॥ २॥
इति भकूटे लग्नानादरः।
अथ घदितभेदाः। वृहस्पति:- दंपत्योर्जन्मताराभ्यां नामाभ्यामथापि वा । भमेलं चिन्तयेत्याज्ञः
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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सुखसंतानवृद्धये || १ || पटलसारे-यद्भकूटं विपक्षाभ्यां सगुणं स्यात्तदुत्तमम् । एकेन मध्यमं हीनं केऽप्याहुस्तदभावतः || २ || वर्णश्च वश्यं च मिथश्च तारा योनिश्च मैत्री खगयोर्गणश्च । भमेलको नाडिकशुद्धिरेते यथोत्तरं स्युर्वलिनोऽष्ट भेदाः ३ || एतदष्टभेदं षट्त्रिंशद्गुणं सद्राशिकूटं ज्ञेयम् । वर्णश्च वश्यं वरदूरतारा योनिर्गुणः खेटसुहृत्त्वमेव । राशिव नाडी नवभेदकं स्यादसद्भकूटे च विलोकनीयम् ॥ ४ ॥ असद्राशिकूटे नवभेदं पञ्चचत्वारिंशद्गुणं ज्ञेयम् । पुनरन्येषां मतं विप्राणां दशकूटं स्यात्क्षत्रियाणां तथाष्टकम् । वैश्यानामपि षड्भेदं शूद्राणां च चतुष्टयम् ॥ ५ ॥ वर्णो वश्यं नृदूरं च वल्लभत्वं च तारकाः। योनिर्मित्रं गणो राशिर्नाडिकेति क्रमाद्दश ॥ ६ ॥ तत्र दूरद्वयं हित्वा कूटं भेदाटकं भवेत् । तारादिषट्कं पड्भेदं परं योनिचतुष्टयम् ॥ ७ ॥ तत्रापि मुख्यभेदानाह - नाडीमैत्रे वर्णगणौ राशिभे वश्ययोनिके । वर्णेष्वीक्ष्यं तु मुख्यत्वाच्छेषाणां दूरवर्गकौ ॥ ८ ॥
इति राशि भेदाः ।
अथ वर्णविचारः ||
स्वराशिसंख्या दंपत्योर्वेदाप्ता शेषतः फलम् । उत्तमं स्यान्नृशेषेऽल्पे मध्यं तुल्येऽधिकेऽधमम् || १ || मीनालिकर्कटा विप्रा नृपाः सिंहाजधन्विनः । कन्यानक्रदृषा वैश्याः शूद्रा युग्मतुलाघटाः || २ || वरे वर्णाधिके प्रीतिरुत्तमा स्त्री वरानुगा । समवर्णे मिथः सख्यं हीने स्नेहो न जायते ॥ ३ ॥
अथ वश्यम् ||
तत्र राशिस्वरूपं - मत्स्यो घटी नृयुगलं सगदं सवीणं चापी नरोऽश्वजघनो मकरो मृगास्यः | तौली ससस्यदना लवगा च कन्या शेषाः स्वनामसदृशाः समसंचराः स्युः ॥ १ ॥ सर्वे वश्या नृजातेस्तु भक्ष्यस्थाने जलोद्भवाः । सिंह हित्वाऽथ सिंहस्य वश्यास्ते वृश्चिकं विना || २ || मुहू दर्पण - अलिमृगपती तौलीन्द्व वधूमलिधन्विनौ वणिगधिपतिं वीणामीनों मृगं युवतीन्दुभे । पुनरनिमिषं मेषोपान्त्यामजं मकरं क्रमात्पदपरिमितान्राशीन्वश्यानजादिषु मन्वते || ३ || गर्गः – सिंहाली कर्कजूकाँ च कन्या वृश्चिककार्मुकौ । तुला मीनयम क्रः कन्याकर्कटको तिमिः || ४ || भेषकुम्भावजो नक्रो मेषादेर्वश्राशयः । एतानि वश्यकूटानि दंपत्योः शुभसंपदे ॥ ५ ॥
१ क. ग. वर्णको ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ. ताराः । वरभागणयेद्यावत्कन्यः कन्यभादपि । वरभं नवहच्छेषं ताराः सन्तिः परस्परम् ॥१॥ शुभदा जन्मतारा स्याद्वयोरेकर्भवर्जिता । निन्यास्त्रिपञ्चसप्त स्युः शेषाः श्रेष्ठा भकूटके ॥ २ ॥.
अथ योनिः। वारुणाश्विनयोरश्वयोनिर्याभ्यान्त्ययोगजः । पुष्यकृत्तिकयोमपः सर्पो रोहिणिसौम्ययोः ॥ १ ॥ मूलाईयोः शुनो योनिर्बिडालो दितिसार्पयोः । मघाभगक्षयोराखुरयमोपान्त्ययोः पशः ॥२॥ चित्राविशाखयोव्याघ्रो.महिषः स्वातिहस्तयोः । कर्णाप्ययोर्वानरश्च ज्येष्ठानूराधयोगः ॥ ३ ॥ विश्वाभिजितोर्वभ्रुः सिंहोऽजाध्रिधनिष्ठयोः । पशुपालकयोक्ष्यिं दंपत्योनेपभूत्ययोः ॥ ४ ॥ गोव्याघ्रमश्वमहिषं श्वैणं गजसिंहमाखुमार्जारम् । अहिबभ्रु वानराज महत्त्यजेत्पुस्त्रियो(रम् ॥ ५॥ महद्वैरं सदा त्याज्यं लोकतोऽन्यच्च चिन्तयेत् । तद्ग्रन्था-- न्तरतो ज्ञेयं न लोकव्यवहारतः ॥ ६॥ तद्यथा, गर्गसंहितायाम्-एकयोनिषु कलहो गजयोः सिंहयोः शुनोः । महवरेऽपि समता महिषस्य कपेस्तथा ॥७॥ केचित्स्वभावतः क्रूराः केचिच्छान्तास्तथा समाः । योनिसत्त्वा भजन्त्यत्र स्वस्वशीलं तथा मिथः ॥८॥ सद्भकूटे योनिवरं मृत्युदं च परित्यजेत् । तत्र चेद्यहयोः सख्यं नातिदुष्टं विदर्बुधाः ॥ ९ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-आग्नेयं मृत्युभं पूफा तथोपान्त्यद्वयं पृथक् । मैत्रोऽप्याभिजिदेषु स्त्री योनिः शेषेषु ना स्मृतः ॥ १० ॥ सदसद्राशिकूटेऽपि योनिवैरं न दोषकृत् । यदि स्यादबलायोनिः पुंसो योनि-- बलीयसी ॥ ११ ॥ योनिवैरं सदा त्याज्यं स्त्रीपुंसोभिन्नलिङ्गयोः । एकलिङ्ग:जयोः प्रोक्तं मध्यमं नातिदोपदम् ॥ १२ ॥
अथ ग्रहसख्यम् । भौमः शुक्रो बुधश्चन्द्रो. भानुसौन्यौ भृगुः कुजः । गुरुमन्दः शनिर्जीवो मेंषादीनामधीश्वराः ॥ १॥ यवनसंहितायां-मित्राण्याद्गुरु ज्यौ ज्ञसितौ च विमानवः । व्यारा व्यर्केन्दवो व्यर्कचंद्रारास्तु परेऽरयः ॥ २॥ सत्यमतं-शत्रू मन्दसितौ समश्च शशिजो मित्राणि शेषा रवेस्तीक्ष्णांशुर्हिमरश्मिजश्च सुहृदौ शेषाः समाः शीतगोः । जीवेन्दूष्णकराः कुजस्य सुहृदो ज्ञोऽरिः सितार्की समौ मित्रे
१ क. चंद्रतरा।
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ज्योतिनिबन्धः। सूर्यसितौ बुधस्य हिसगुः शत्रुः समाश्चापरे ॥ ३ ॥ सूरेः सौम्यसितावरी रविसुतौ मध्यौ परे चान्यथा सौभ्यार्की सुहृदौ समौ कुजगुरू शुक्रस्य शेषावरी । शुक्रज्ञौ सुहृदौ समः सुरगुरुः सौरस्य चान्येऽरयस्तत्कालेन दशायबन्धुसहजस्वान्त्येषु मित्रं स्थिताः ॥ ४ ॥ यथेशयोमिथो भावो दंपत्योस्तादृशो भवेत् । दुष्टं कूटं शुभं मैच्या सद्भावैरपि शस्यते ॥ ५॥ ज्योतिष्प्रकाशे- राशीशी 'सुहृदा स्यातां जन्मकाले चदा तदा । ग्रहवैरेऽपि कर्तव्यं भकूटं मुनयो जगुः ॥ ६॥ विवाहवृन्दावने-आपावकेन्द्रद्वयगा: प्रसूतौ तत्कालमित्राणि मिथ: खपान्थाः । न्यूनामपि स्वीनरभुत्यराज्ञां तत्कालसंख्यां विशिनाष्टि मैत्रीम् ॥७॥
___अथ गणशुद्धिः । देमरामदमंदेदेराराममदरादराः। देराराममदेराराममदति गणत्रयम् ॥१॥ 'पटलसारे-स्वगणे चोत्तमा प्रीतिर्मध्यमा देवमर्त्ययोः। असुरासुरयोवैरं मृत्युर्मानुषरक्षसोः ॥ २ ॥ रक्षोगणा यदा नारी नरो नरगणो भवेत् । तदोद्वाहो न कर्तव्यो यस्माद्वैधव्यदो ध्रुवम् ॥ ३ ॥ वरस्तीत्रगणश्चापि कन्या च नृगणा भवेत् । दुष्टकूटे गुणाढ्येऽपि तत्र मृत्युर्न संशयः ॥ ४ ॥ वराहपटले-रक्षोगणो यदि नरो नृगणा कुमारी सदाशिकूटखगमैत्रभयोनिशुद्धिः । यद्यस्ति तत्र भयदं करपीडनं स्याद्वामभ्रुवां खलु यदा नदि नाडियोगः ॥ ५॥ सद्भकूटं योनिशुद्धिग्रहसख्यं गुणत्रयम् । एवेकतमसद्भावे कन्या रक्षोगणा शुभा ॥६॥
अथ भमेलः। एकराशौ पृथग्धिष्ण्ये पृथग्राशौ तथैकभे । एकांशेऽपि कृतोद्वाहः श्रेष्ठो मध्योऽधमः क्रमात् ॥ १ ॥ एकराशौ शुभोद्वाह एकमांशे मृतिप्रदः । यदि स्याद्भिन्ननक्षत्रं शुभदः शौनकोऽब्रवीत् ॥ २॥ दंपत्योरेकराशिः स्याद्भिन्नमृक्षं यदा तदा । गणदौष्टयेऽप्येकनाडयां विवाहः शुभदः स्मृतः ॥ ३ ॥ नाडीगणों नैकराशौ चिन्त्यौ भिन्नभयोर्यथा । कृत्तिकाकभयोःशस्वात्योः पूभाजलेशयोः ॥ ४ ॥ एकमे भिन्ननक्षत्रे न नाडीगणदुष्टता । वह्निभब्राह्मवत्प्रीतिः शतताराजपादवत् ॥ ५॥ व्यवहितराश्योक्षं यद्येकं जायते तत्र । नाडीदोषो वाच्यो मरणकरः सोऽपि दंपत्योः ॥ ६ ॥ एकराशौ द्विनक्षत्रे पुंस्तारा प्रथमा भवेत् । अतीव शोभना प्रोक्ता स्त्रीतारा चेद्विनश्यति ॥ ७ ॥ भवनद्वययुक्तः पूर्व पुंसां शुभावहम् । पश्चाद्भागं तथा स्त्रीणां व्यत्ययस्तु विनाशकृत् ॥ ८ ॥ तत्र वय॑नक्षत्राण्युच्यन्ते गर्गेण ---- एकगशौ द्विनक्षत्रे कृत्तिकायाम्यतारके ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
धनिष्ठाशततारे च पुण्याश्लेषे च वर्जयेत् ॥ ९ ॥ पृथग्राशावक प्रवृत्तिमाह विवाहवृन्दाबने-नक्षत्रमेकं यदि भिन्नराश्योर भिन्नराश्योर्यदि भिन्नमृक्षम् । प्रीतिस्तदानीं निविडा नृनायथेत्कृत्तिकारोहिणिवन्न नाडी ॥ १० ॥ वैद्यनाथ:एकभे च पृथग्राशौ पृथग्भे चैकराशिके । अंशान्न दूरता त्याज्या कन्यादूरं शुभावहम् || ११ || भीमः - राशियुग्मे चैकराशौ भयोरैक्ये युगे तथा । पुमंशः पुरतः श्रेयान्प्रतीपस्तु न मे मतः ॥ १२ ॥ कालार्णवः - सद्भकूटे तथाऽन्यस्मि - शाद्वा राशितोऽथवा । संभवे वरदूरत्वं त्याज्यस्तत्राधिको गुणः ॥ १३ ॥ बृहस्पतिः -- एकराशौ पृथग्विण्ये पृथग्राशौ तथैकभे । गणनाडीं नृदूरत्वं ग्रहवैरं न चिन्तयेत् ॥ १४ ॥ वराहः - भमेलं चिन्तयेत्प्रीत्यै दंपत्योस्तत्र निर्णयः । तयोर्भराश्योरेकत्वे स्वान्तैक्यात्सा गरीयसी ॥। १५ ।। द्विर्द्वादशं नृदूरत्वं नाडीगणभयोनिता । न चिन्त्या खगवैरं च राशिकूटोत्तमं द्वयोः ॥ १६ ॥ एकनक्षत्रे विशेषमाह भृगुः -- रोहिण्यार्द्रामधेन्द्राग्निविष्य श्रवण पौष्णभम् । उत्तरा प्रोष्ट - पाञ्चैव नक्षत्रैक्येऽपि शोभना || १७ || विधिरत्ने - रोहिण्यार्द्रा मधेन्द्रानितिष्यश्रवणपौष्णभम् | आहिर्बुध्न्यं तथाऽष्टौ च शुभं भवति नान्यथा ।। १८ ।। कालनिर्णये-विशाखिकार्द्राश्रवणप्रजेशतिष्यान्त्यतत्पूर्वमघाः प्रशस्ताः । स्त्रीपुंसतारैक्यपरिग्रहे तु शेषा विवर्ज्या इति संगिरन्ते ॥ १९ ॥ अजैकपान्मित्रवसुद्दिदैवप्रभञ्जनान्त्यार्कभुजङ्गमानि । मुकुन्दनीवान्तकभानि नूनं शुभानि योषिन्नरजन्मभैक्ये ॥ २० ॥ दंपत्योरेकनक्षत्रे भिन्नपादे शुभावहम् । दंपत्योरे - कपादे तु वर्षान्ते मरणं ध्रुवम् ॥ २१ ॥ अथैकांशकचेऽपि प्रवृत्तिमाह --- पराशरः प्राह नवांशभेदादेर्क्षराश्योरपि सौमनस्यम् । एकांशकत्वेऽपि वसिष्ठशिष्यो नैकत्र पिण्डे किल नाडिवेधः || २२ || नाग्निर्दहत्यात्मतनुं तथाहि द्रष्टा स्वदृष्टे - नहि दर्शनीयः | एकांशकत्वेऽपि समप्रभावान्न भर्तृभार्याव्यवहारसिद्धिः ||२३|| ज्योतिष्प्रकाशे—केचिन्नेच्छन्ति चैकांशं केचिदिच्छन्ति मेलकम् । तत्राप्यङ्घ्रर्घीसान्यं त्यजेन्नो भिन्ननाडिकम् ॥ २४ ॥ एकराशौ महाप्रीतिश्चतुर्थदशमे सुखम् । तृतीयैकादशे वित्तं सुप्रजाः समसप्तके ॥ २५ ॥ समसप्तकेऽप्यशुभदौ सिंह पाणिपीडने कथितौ ||२६|| अन्यच्च - मकरे कर्कटे चैव कुम्भे सिंहे तथैव च । परस्परं सप्तमे च वैधव्यं तु विनिर्दिशेत् ॥ २७ ॥ निर्धनत्वं वियोग वा मेले द्विर्द्वादशे भवेत् । त्रिकोणे त्वनपत्यत्वमपमृत्युः षडष्टके || २८ || योनिनाडीगणानां च शुद्धया तद्राशिकूटकम् । युक्तं श्रेष्ठं गुणाभावे खेटमैत्र्या भवेच्छुभम् ॥ २९ ॥ गर्गः-न खेटमैत्रं नो राश्यं न वर्णो न च तारकाः । सद्भकूटे परा प्रीतिर्न सा वज्रेण भिद्यते ॥ ३० ॥ सदाशिकूटं ग्रहमैत्रयुक्तं शुभं भवेद्य
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ज्योतिर्निबन्धः। यपि योनिवरम् । योनौ गणे चेत्त्वनुकूलता स्याच्छुभो विवाहो ह्यपि खेटचरम् ॥ ३१ ॥ ग्रहमैत्रं शुभा तारा राशिवश्यं त्रिभिः शुभम् । षडष्टकं बुधाः प्राहुभ्यां द्वयकत्रिकोणकम् ॥ ३२ ॥ शार्ङ्गधरः-मीनालिभ्यां युते कोटे कुम्भे मिथुनसंयुते । मकरे कन्यकायुक्ते न कुर्यान्नबपञ्चकम् ॥ ३३॥ वरवध्वोमातृपित्रोर्जीवतोस्तद्विनाशकृत् । त्रिकोणं मीनकोटाद्यं न स्यादन्यत्र दूषणम् ॥ ३४ ॥ वैद्यनाथः-द्विषष्ठाभ्यां समो राशिर्विषमोऽष्टव्ययान्वितः । शुभो विलोमतो नेष्ठः सिंहोऽपीष्टो बलान्वितः ॥ ३५ ॥ संहितादीपक-यदा तु कन्याभवनं द्वितीयं षट्पञ्चमं स्यात्पुरुषस्य राशेः । तद्राशिनाथी सुहृदौ समौ वा सुहृत्समौ वा तदतीव शस्तम् ॥ ३६॥ द्विादशेऽप्यदोषः स्यादंशकादूरतः स्त्रियाः । धृत्यंशोऽत्यष्टिकांशो वा पुंसोंऽशः कन्यकांशकात् ॥ ३७ ।। म भोगारिभावं हरेत्सद्भकूटं तथा खेटमैत्रीविरुद्धं भकूटम् । सदा नाशयत्येकनाडीसमाजो भकूटादिकान्सप्त भेदान्प्रशस्तान् ॥ ३८ ॥ भेशारिभावे गणवृत्त्यभावे नाडीसमोऽजेऽपि कृतो विवाहः। भवेत्सुतप्रीतिसुखायुराप्त्यै सदाशिकूटे जगुरेवगन्ये ॥३९॥ श्रृंयमाणगुणमात्रलाभे नाडीसमाजे सति वोद्धव्यम् । मित्रत्वाभावेऽपि शुभं षट्काष्टकम् । नारद:-मित्रषट्काष्टक मेक्कन्ययोर्घटमीनयोः । चापोक्षयोयुकीटभयोः कुम्भकुलीरयोः । पश्चास्यमृगयोः स्त्रीणां जन्मराशेः शुभावहम् ।। ४० ॥ कश्यपः-नृराशितोऽष्टमे षष्ठे पञ्चमे नवमे तथा। द्वादशे च द्वितीये व विवाहः पुत्रपौत्रदः ॥४१॥ नृयुक्तुलाश्वकुम्भालिसिंहाः कुर्वन्ति मित्रताम् । स्वपष्ठभवनेऽस्तोऽपि स्वाष्टभिः प्रीतिमुत्तमाम् ॥४२॥ वसिष्ठः-नृयुक्तुलामेषघटाश्वसिंहाः कुर्वन्त्यजत्रं खलु मित्रभावम् । स्वषष्ठसंख्याभवनैश्च तेऽपि स्वस्वाष्टसंख्याभवनैस्तथैव ॥४३॥श्रीधरोये-मेषेण कन्या धनुषा ककुमास्तौल्या मीनः कुम्भभृता कुलीरः । सिंहेन नक्रो नृयुगेण कोर्पिः पट्काष्टके चापि शुभाय योगः ॥ ४४ ॥ संग्रहेऽपि – कन्याजवृश्चिकतुलाकर्कटमकराः शुभावहाः प्रोक्ताः । स्वैश्वैरष्टमभवनैस्तेऽप्येभिर्विदधाति प्रीतिम् ॥ ४५ ॥
अथ नाडीविचारः । अश्विन्याा शतभिषक्फल्गुनी चोत्तरा तथा । पूर्वा भाद्रपदा मूलं ज्येष्ठा हस्तः पुनर्वसुः ॥ १ ॥ पूर्वा फल्गुनिका चित्रा धनिष्ठा भरणी मृगः । पूर्वाषाढाऽनुराधा च पुष्योऽहिर्बुध्न्यमेव च ॥२॥ कृत्तिका रोहिणी स्वाती मघाऽऽश्लेषा च रेवती । श्रवणश्चोत्तराषाढा विशाखा चैकनाडिकाः ॥ ३ ॥ रत्नकोशे - आद्यनाडीव्यधे भर्ता मध्यनाडीव्यथै दयम् । षष्ठनाडीव्यधे कन्या भ्रियते नात्र
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श्रीशिवराजविनिर्मितो -
संशयः || ४ || समासन्नं व्यधे शीघ्रं दूरवेधे चिरेण तु । व्यधान्तरभमानेन वर्षे दुष्टं जायते ॥ ५ ॥ एतन्मुख्यत्वाड्राह्मणविषयम् । जठरे निर्धनत्वं च गर्भे मरणमेव च । पृष्ठे दौर्भाग्यमाप्नोति यस्मात्तां परिवर्जयेत् ।। ६ ।। एतक्षत्रियादिविषयममुख्यत्वात् । तथाचेोकं नाडीमैत्रे वर्णगणौ राशिभे
योनि । वर्णेष्वक्ष्यं तु मुख्यत्वाच्छेषाणां दूरवर्गकौ ॥ ७ ॥ ज्योतिष्प्र काशे--निधनं मध्यमनाड्यां दंपत्योर्नैव पार्श्वयोर्नाड्योः । केऽप्याहुर्मध्यगस्ते ( ध्यायाः ) पादविभेदे न दोपाय ॥ ८ ॥ करग्रहे पृष्ठनाड्यौ [वि] निन्द्ये इति यद्वचः । तत्क्षचियादिविषयं गौतम्या याम्यतस्तथा ।। ९ बुध'वल्लभे नारद:-' - चतुखिद्वयङ्घ्रिभोत्थायाः कन्यायाः क्रमशोऽश्विभात् । वह्निभादिन्दुभान्नाडी त्रिचतुःपञ्चपर्वसु ॥ १० ॥ जाङ्गले तु चतुर्माला पाञ्चाले पञ्चमालिका । त्रिमालाऽन्येषु देशेषु विवाहे मुनिसंगतम् ॥ ११ ॥ वृद्धगर्ग : - एकनाडीस्थिता यत्र गुरुर्मन्त्राश्च देवताः । तत्र द्वेषं रुजं मृत्युं क्रमेण फलमादिशेत् ॥ १२ ॥ प्रभुः पण्याङ्गना मित्रं देशो ग्रामः पुरं गृहम् । एकनाडीस्थितं भव्यं विरुद्धं वैधवर्जितम् ॥ १३ ॥
अथ नाड्यपवादः ।
ज्योतिश्चिन्तामणी - रोहिण्यार्द्रा मृगेन्द्राग्निपुण्यश्रवण पौष्णभम् । अहिर्बुध्न्यक्षमेतेषां नाडीदोषो न विद्यते ॥ १ ॥ एतद्वितीयादौ संकीर्णविषयम् । बुधव- ग्रहवैरं दुष्टकूटे सन्मेले योनिवैरकम् | त्याज्यं वैरं राशिवरे तारादौष्ट्यं पडष्टके || २ || गणवैरं वल्लभत्वाद्वर्गाद्वयक त्रिकोणकम् । स्त्रीदूराद्दुष्टकूटश्च मैत्राः सर्वे गुणाः शुभाः ॥ ३ ॥ न वर्णवर्गो न गणो नः योनिर्द्विर्द्वादशे चैव पडष्टके वा । वरेऽपि दूरे नवपञ्चमे वा मैत्री यदि स्याच्छुभदो विवाहः || ४ || अथ पुञ्जी ।
रत्नमालायां षट् पौष्णो द्वादश शांकराच्च पौरन्दरागानि नव क्रमेण । पूर्वार्धमध्यापरभागख चिरंतनज्योतिषिकैः स्मृतानि ॥ १ ॥ पूर्वभागयुजि भे पतिः प्रियो योषितामपरभागयोगिनि । स्त्री नृणां भवति मध्ययोगिनि प्रेम नूनमुभयोः परस्परम् ॥ २ ॥
* त्रियविषयन् । वासेः- आये कनाडी कुरुते वियोग मध्येकनाडी उभयोर्विनाशम् । अन्ते च दाविती च दुःखं तसिंव तिस्रःपरिवर्जनीयाः । नाडी कुटं कन्यका कण्ठसूत्रं यस्मि पीडितेः पूर्वमेव मया वर्ज्याः सर्वदेशेषु कश्चिाख ग्राह्या गौतमीयाम्यभागे । अथ मुख्य वपुस्तक इदमधिकम् ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
अथ वर्गः। वर्गेशास्ताऱ्यामार्जारसिंहश्वसर्पमूषकाः । मृगश्च शशकस्तत्र स्ववर्गात्पञ्चपो रिपुः ॥१॥
. अथ दूरविचारः । स्त्रीराशेर्वरयं दूरं कन्यादूरं शुभावहम् । व्यस्तं नृदूरमशभं वश्यत्वात्तदपीष्टदम् ॥ १ ॥ शौनकः-वर्गवैरं योनिवैरं गणवैरं नृदूरकम् । दुष्टकूटफलं सर्व ग्रहमैत्रेण नश्यति ॥ २ ॥
अथ धिष्ण्यदूरम् । नारदः-स्त्रीधिष्ण्यादाधनवके स्त्रीदूरमतिनिन्दितम् । द्वितीये मध्यमं श्रेष्ठं तृतीये नवके नृभम् ॥ १॥
अथ दुष्टफलपरिहारः । । राजमार्तण्डे--पडष्टके गोमिथुनं प्रदद्यात्कांस्यं सरौप्यं नवपञ्चमे (के) च । देयं च वस्त्रं कनकाश्वयुक्तं द्विादशे ब्राह्मणभोजनं च ॥ १ ॥ ज्योतिप्रकाशे-निषिद्धमेलके शान्ति कृत्वा दानं यथोदितम् । दत्त्वोद्वाहं प्रकुर्वीत प्रशस्तशकुनादिषु ॥ २॥ विवाहदीपिकायाम् --- आजौ जिता संधिलब्धा प्रीत्या दत्ता तथाऽध्वरे । स्वयमेवाऽऽगता कन्या नैवाऽऽस्तां शुद्धिमेलकौ ॥ ३ ॥ बहूनामेकजातानां कन्यकानां करग्रहे । ज्येष्ठाया मेलकं वीक्ष्य लघ्वीनां नैव. चिन्तयेत् ॥ ४ ॥ आसुरादिविवाहेषु राशिकूटं न चिन्तयेत् । तथाः व्यङ्गातिवृद्धानां दुभंगाणां पुनर्भुवाम् ॥ ५॥
अथ गुणविचारः ।। एको गुणः सदृग्वणे तथा वर्णोत्तमे वरे । हीने वरेऽधिके शून्यं केऽयाहुः सदृशे दलम् ॥ १॥ सख्यं वैरं तु भक्ष्यं च वश्यमाहुस्त्रिधा बुधाः । वैरे भक्ष्य गुणाभावों द्वयोः सख्ये गुणद्वयम् ॥ २ ॥ वश्यवैरे गुणश्चैको वश्यभक्ष्ये गुणार्थकम् । एकतो लभ्यते तारा शुभा चैवाशुभाऽन्यतः ॥ ३ ॥ तदा सार्थो गुणश्चैकस्ताराशुद्धौ मिथस्त्रयः । उभयोर्न शुभा तारा तदा शून्यं समादिशेत् ॥ ४ ॥ अष्टविंशतिताराणां योनयश्च चतुर्दश । तत्र वैरं महद्वैरं सत्त्वानां स्वस्वभावतः ॥ ५॥ मैत्रं वै चातिमैत्रं च विवाहे सत्त्वसादृशम् । महावैरे च वैरे च स्वभावे च यथाक्रमम् ॥ ६॥ मैत्रे चैवातिमैत्रे च खेन्दुद्वित्रिचतुर्गुणाः । ग्रहमैत्रं सप्तभेदं गुणाः पञ्च प्रकीर्तिताः ॥ ७॥ तत्रैकाधिपतित्वे च मित्रत्वे गुणपञ्चकम् ।
१ व. सिंहाश्वस।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
चत्वारः सममित्रत्वे द्वयोः साम्ये त्रयो गुणाः ॥ ८ ॥ मित्रवैरे गुणश्चैकः समवैरे गुणार्धकम् | परस्परं खेटवैरे गुणशून्यं विनिर्दिशेत् || ९ || अद्भे सममित्रादौ व्येको ग्राह्यो यथोदितः । गुणभेदः सप्तविधो गुणाः षट्ममिता मताः ॥ १० ॥ षड् गुणा गुणसादृश्ये षड् गुणाः सुरमानुषे । देवराक्षसयोः शून्यं शून्यं च नररक्षसोः ॥ ११ ॥ नार्या देवो नरः पुंसस्तत्र पञ्च गुणाः स्मृताः । पुंसो रक्षोगणो यत्र नार्या देवोऽथवा नरः || १२ || गुणवानपि तत्रैको गुणो ग्राह्योऽन्यथा नहि । सद्भकूटत्रयं प्रोक्तं दुष्टकूटत्रयं तथा ॥ १३ ॥ सप्तमं चैकराश्याख्यं गुणस्तेषामथोच्यते । शून्यमेकांशके चैकराशौ सप्तैव भिन्नभे || १४ || एकश्यृक्षके सप्त भिन्नराश्यैकभे शराः । सद्भकूटेऽबलादूरे सप्त चापि नृदूरके || १५ || सद्भमैत्रेषु ते सप्त मैत्रहीने तु षड्गुणाः । दुष्टकूटे च मित्राख्ये स्त्रीदूरेऽब्धिमिता गुणाः ॥ १६ ॥ नदूरे दुष्टकूटे च मित्रसंज्ञे गुणान्विते । एको गुणोऽन्यथा शून्यं शून्यं निन्ये तु दुष्टभे ॥ १७ ॥ वाक्यान्तरे शुभं यत्र ग्राह्यं स्यात्तद्गुणेषु खम् । नाडीदोषे गुणाभावः पूर्वाचार्यैरुदाहृतः ॥ १८ ॥ पृष्ठनाङ्यंशभेदादिग्राह्यपक्षेऽपि खं गुणाः । गुणवैरे च भक्ष्ये च तथा योन्यां च वैरके ॥ १९ ॥ नैव ग्राह्या गुणास्तत्र शून्यं चैव विदुर्बुधाः । गुणैः षोडशभिर्निन्द्यं मध्यमा विंशतेस्तथा ॥ २० ॥ श्रेष्ठं त्रिंशद्गुणं यावत्परतस्तूत्तमोत्तमम् । सद्भकूट इति ज्ञेयं दुष्टकूटेऽथ कथ्यते ॥ २१ ॥ निन्यं गुणैर्विंशतिभिर्मध्यमं पञ्चभिस्तथा । तत्परैः पञ्चभिः श्रेष्ठं ततः श्रेष्ठतरं गुणैः ॥ २२ ॥ इति राशिकूटविचारः ।
I
अथ निश्चयः ।
पुण्याहे च विवाह चित्रावस्वश्विविष्णुभे । लब्ध्वा चन्द्रबलं कुर्यान्निश्चयं सत्यया गिरा ॥ १ ॥ शुभलग्नेऽग्निसांनिध्ये स्नातां पुण्यामरोगिणीम् । तत्कालोपस्थिते कन्यां पिता तुभ्यं प्रयच्छति ॥ २ ॥ यदि त्वं पतितो न स्या दशदोषविवर्जितः । तुभ्यं कन्यां प्रदास्यामि द्विजदेवाग्निसंनिधौ ॥ ३ ॥ तुभ्यं कन्या. थिने वाचा कन्यादानं प्रयच्छति । तन्निश्चयार्थ मद्दत्तं गृह्यतां साक्षताफलम् || ४ || निश्चये प्राङ्मुखायाऽऽदौ वरपित्रे ददाति च । फलं कन्यापिता दद्यात्ततो वरपिता तथा । वाग्दाने वरणे मौड्यं न त्यजेद्गुरुशुक्रयोः ॥ ५ ॥
इति निश्चयः ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
अथ कन्यावरणम् । पश्चाङ्गशुद्धिदिवसे चन्द्रताराबलान्विते । विवाहभस्योदये वा कन्यावरणमाम्वयैः ॥ १॥ विश्वक्षेपूर्णात्रयकर्णयुग्मस्वात्यग्निमैत्रैश्च विवाहभैर्वा । प्रत्यङ्मुखः सन्वरयेत्कुमारी फलादिभिः प्राग्वदनीं सुवेषाम् ॥२॥धीधर्मकेन्द्रगैः सौम्यैः पापैः शत्रुत्रिलाभगैः । कन्याया वरणं कार्य जीवे चोपचयस्थिते ॥३॥ कन्याप्रदानमपरे विवाहतुल्यं वदन्ति कालज्ञाः । लग्नं विना वसिष्ठः पाह मुनिनारदश्चैवम् ॥४॥ नारदः-भूषणैःफल (पुष्प)ताम्बूलफलगन्धाक्षतादिभिः । शुक्लाम्बरैगीतवाद्यैर्विप्राशीर्वचनैः सह ॥ ५॥ कारयेत्कन्यकागेहे वरः प्रणवपूवकम् । तदा कुर्यात्पिता तस्याः प्रदानं प्रीतिपूर्वकम् ॥ ६ ॥ कुलशीलवयोरूपवित्तविद्यायुताय च । वराय रूपसंपन्नां दद्यात्कन्यां यवीयसीम् ॥ ७॥ संपूज्य संपार्थ्य च तां शचीदेवीं गुणाश्रयाम् । त्रैलोक्यसुन्दरीं दिव्यगन्धमाल्याम्बरान्विताम् ॥ ८ ॥ सर्वलक्षणसंयुक्तां सर्वाभरणभूषिताम् । अनर्घ्यमणिमालाभिर्भासयन्तीं दिगन्तरान् ॥ ९॥विलासिनीसहस्राद्यैः सेव्यमानामहर्निशम् । एवंविधां कुमारी तां पूजान्ते प्रार्थयेदिति ॥१०॥ देवेन्द्राणि नमस्तुभ्यं देवेन्द्रप्रियभामिनि । विवाहभाग्यमारोग्यं पुत्रलाभं च देहि मे ॥ ११॥ श्वेताम्बरं नारिकेलं भक्ष्यायफलमर्पयेत् । प्रदाने यदुकूलादि कर्णकण्ठादिभूषणम् ।। १२ ॥ उभे वा युगपत्कार्ये तत्र तद्वस्त्रमण्डने । आदौ संपादयेत्पश्चाद्विन्यसेत्फलमञ्जलौ ॥ १३ ॥ हरिद्रामधुपुष्पाणि गुडजीरकतण्डुलाः । धान्यकं मुद्रिकावल्ली सौभाग्याष्टकमुच्यते ॥ १४ ॥ लग्नशब्दो विवाहे स्यादरणं फललग्नयोः । पाणिपीडनशब्दस्तु कन्यादाने करग्रहे ॥ १५॥ विवाहढेषु यः प्रोक्तो मयाऽङ्घ्रिक्षालनोत्सवः । कन्याया वरणात्पूर्व देशाचारः स केवलम् ॥ १६ ॥
इति कन्यावरणम् ।
अथ विवाहकालविचारः। नारदः--युग्मेऽब्दे जन्मतः स्त्रीणां प्रीतिदं पाणिपीडनम् । एतत्पुंसामयुग्मेऽन्दे व्यत्यये नाशनं तयोः॥१॥ संवर्त:-अष्टवर्षा भवेद्गौरी नवमे रोहिणी भवेत् । दशमे कन्यका मोक्ता द्वादशे वृषली मता ॥२॥ गौरी ददन्नाकपृष्ठं वैकुण्ठं रोहिणीं ददत् । कन्यां ददद्ब्रह्मलोकं रौरवं तु रजस्वलाम् ॥ ३॥
इति विवाहकालः ।
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श्रीशिवराजदिनिर्मितों
अथ गुरुशुक्रास्तापवादः ।
लल्लः– अस्तमिते भृगुतनये नारी म्रियते बृहस्पती पुरुषः । दंपत्योः सह मरणं पाणिग्रहणोदितौ ॥ १ ॥ अगस्त्यः - एको मूढो भवेदन्त्यः स्वोच्चमित्रांशको यदि । स्वराशिमूर्तिगश्चैव मूढदोषो विनश्यति ॥ २ ॥ बृहस्पतिः -- यद्येकस्यापि मूढत्वे शुभकर्म न दोषकृत् । तयोर्मूढत्वमेवोक्तं दोषदं गुरुशुक्रयोः ||३|| द्विजन्मादिशुभे कार्ये शुक्रमोढ्यं न दोषदम् । त्रैवर्णिकानामेवोक्तं दोषदं गुरुशुक्रयोः ॥ ४ ॥ क्षत्रियाणां विशेषेण भृत्यानां राजसेविनाम् । मौढ्यदोषं न पश्येत्तु दीक्षणामेव कारयेत् || ५ || अतिपातिषु कार्येषु राज्ञां तत्कर्मकारिणाम् । विवाहादीनि कार्याणि मोठ्येऽपि गुरुशुक्रयोः ॥ ६ ॥ शान्ति कृत्वा तयोस्तद्वच्छुक्रदेवेन्द्रमन्त्रिणोः । होमैर्दीप पर्वाऽपि तयोरुदितमन्त्रकैः ॥ ७ ॥ यदा जीवसित चक्रे परस्परनिरीक्षकौ । समयस्थौ तदा दोषो मूढत्वादतिरि च्यते ॥ ८ ॥ संग्रहे – समदृष्टिर्गुरोः शुक्रे नर्मदोत्तरतो भवेत् । नर्मदायास्यभागे तु समदृष्टिर्न विद्यते ॥ ९ ॥
इति गुरुशुक्रास्तापवादः ।
१५०
अथ रविगुर्योर्बलविचारः ।
नारद:- विवाहे बलमावश्यं दंपत्योर्गुरु सूर्ययोः । तत्पूजा यत्नतः कार्या दुर्बलदयोस्तयोः ||१|| गर्ग :- स्त्रीणां गुरुवलं श्रेष्ठं पुरुषाणां रवेर्बलम् । तयोचन्द्रबलं श्रेष्ठमिति गर्गेण निश्चितम् || २ || जन्मत्रिदशमारिस्थः पूजया शुभदो गुरुः । विवाहेऽथ चतुर्थाष्टद्वादशस्थो मृतिमदः ॥ ३ ॥ बृहस्पतिः -- झपचापकुलीरस्थजीवोऽप्यशुभगोचरः । अतिशोभनतां दद्याद्विवाहोपनयादिषु || ४ || सर्वत्रापि शुभं दद्याद्वादशाब्दात्परं गुरुः । पञ्चषष्ठाब्दयोरेव शुभगोचरता मता ||५|| सप्ताब्दात्पञ्चवर्षेषु स्वोच्चस्वर्क्षगतो यदि । अशुभोऽपि शुभं दद्याच्छुभदक्षेषु किं पुनः || ६ || रजस्वला यदा कन्या गुरुशुद्धिं न चिन्तयेत् । अष्टमेऽपिकर्तव्यो विवाहत्रिगुणार्चनात् ॥ ७ ॥ अर्कगुर्बलं गौर्या रोहिण्यर्कवला स्मृता । कन्या चन्द्रबला प्रोक्ता वृषली लग्नतोबला ॥ ८ ॥ केचिदाहुर्गुरोः शुद्धिर्नान्वेष्या गणकोत्तमैः । विवाहे त्वन्त्यजादीनां चाण्डालानां च पुल्कसाम् ॥ ९ ॥ चारेऽतिचारे वक्रे वा यस्मिन् संस्थितो गुरुः । शुद्धिं कुर्यात्स तत्रैव योषितां करपीडने ॥ १० ॥ कन्योद्वाहे गुरुदिने गुरुः पूज्यो द्विजातिभिः । पुत्रोद्वाहे व्रतत्वाच्च शूद्राद्यैः पूज्यते कचित् ॥ ११ ॥ वसिष्ठः - यत्रार्कवरपि नैधनान्त्य
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ज्योतिर्निवन्धः।
१५१ जन्मादिदुःस्थानगयो यो । एकस्य पूजामपि तत्र कृत्वा पाणिग्रहं कार्यमतः सुसम्यक् ॥ १२ ॥
अत्रापेक्षितबृहस्पतिशान्तिरभिधीयते । तत्र शोनकः-कन्यकोद्वाहकाले तु आनुकूल्यं न विद्यते । ब्राह्मणस्योपनयने गुरोविधिरुदाहृतः॥१॥ सुवर्णेन गुरुं कृत्वा पीतवस्त्रेण वेष्टयेत् । ऐशाने धवलं कुम्भं धान्योपरि निधाय च ॥२॥ दमनं मधुपुष्पं च तथा पालाशसर्पपान् । मांसी गुडूच्यपामार्गविडङ्गी शङ्गिनी वचा ॥ ३ ॥ सहदेवी हरिक्रान्ता सापधी शतावरी । कृत्वाऽऽज्यभागपर्यन्तं स्वशाखोक्तविधानतः ॥ ४ ॥ गृह्योक्तमण्डलेऽभ्यर्च्य पीतपुष्पाक्षतादिभिः । देवपूजोत्तरे काले ततः कुम्भानुमन्त्रणम् ॥ ५ ॥ अश्वत्थसमिधश्चाऽऽज्यं पायसं सर्पिरन्वितम् । यवव्रीहितिलाः साज्या मन्त्रेणैव बृहस्पतेः॥६॥ अष्टोत्तरशतं सर्व होमशेष समापयेत् । दारपुत्रसमेतस्य अभिषेकं समाचरेत् ॥ ७॥ कुम्भाभिमन्त्रणोक्तैश्च समुद्रज्येष्ठमन्त्रतः । प्रतिमां कुम्भवस्त्रं च ह्याचार्याय प्रदापयेत् । ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाच्छुभदः स्यान्न संशयः ॥ ८॥
इति शौनकोक्तबृहस्पतिशान्तिविधिः।
अथाऽऽदित्यशान्तिः। शौनकः-ब्राह्मणस्योपनयने नानुकूलो भवेद्रविः । तस्य शान्ति प्रवक्ष्यामि मन्त्रौषधिविधानतः ॥१॥ अत्रोपनयनग्रहणं विवाहादीनामप्युपलक्षणम् । उपनयनात्पूर्वद्युः कृत्वा पुण्याहवाचनम् । गृहस्येशानदिग्भागे गोमयेनोपलेपयेत् ।२॥ कुङ्कमेनोल्लिखेत्पझमष्टपत्रं सकेसरम् । सुवर्णेन रविं कृत्वा द्विभुजं पद्मधारिणम् ॥३॥ कृत्वाऽऽज्यभागपर्यन्तं तत्र कृत्वा तु पूर्ववत् । स्वशाखोक्तविधानेन ह्याचार्यो होममाचरेत् ॥ ४ ॥ आकृष्णेनेतिमन्त्रेण समिदाज्यचरूजुहेत् । अष्टोत्तरसहस्रं वा शतमष्टोत्तरं तु वा ॥ ५॥ तिलवीहीश्च हुत्वाऽथ होमशेषं समापयेत् । दारपुत्रसमेतस्य ह्यभिषेकं समाचरेत् ॥ ६॥ कुम्भाभिमन्त्रणोक्तैश्च समुद्रज्येष्ठमन्त्रकैः । ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्यादन्येभ्यश्च स्वशक्तितः ॥ ७ ॥ प्रतिमां वस्त्रकुम्भं च ह्याचार्याय प्रदापयेत् । एवं यः पूजयेत्सूर्य सर्वदोषोऽस्य नश्यति ॥ ८॥
इत्यादित्यशान्तिः।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो-
अथ मासनिर्णयः ।
माघ फाल्गुन वैशाखज्येष्ठमासाः शुभावहाः । विवाहे मार्गशीर्षोऽपि देवलस्य मतेन च ॥ १ ॥ नारदः - माघफाल्गुनवैशाखन्येष्ठमासाः शुभप्रदाः । मध्यमः कार्तिको मार्गशीर्षो वै निन्दिताः परे || २ || न कदाचिदशर्क्षेषु भानोराद्राप्रवेशनात् । विवाहं दैवतानां च प्रतिष्ठां चोपनायनम् ॥ ३ ॥ पौषेऽपि मकरस्थेऽर्के चैत्रे मेषगते रवौ | आषाढे मिथुनादित्ये केऽप्याहुः करपीडनम् ॥ ४ ॥ चान्द्रो देवो मानुषो वा सौरो देशानुसारतः । शुचिः शुक्लनवम्यन्तो ग्राह्यो लग्ने च कार्तिकः ॥ ५ ॥ ज्येष्ठे न ज्येष्ठयोः कार्यं नृनार्योः पाणिपीडनम् । तयो - रेकतरे ज्येष्ठे ज्येष्ठमासेऽपि कारयेत् || ६ || नारदः— - अप्रबुद्धो हृषीकेशो यावत्तावन्न मङ्गलम् । उत्सवे वासुदेवस्य दिवसे नान्यमङ्गलम् ॥ ७ ॥ न जन्ममासे जन्मर्क्षे न जन्मदिवसेऽपि च । नाऽऽद्यगर्भसुतस्याथ दुहितु करग्रहः ॥ ८ ॥ नैवोद्वाहो ज्येष्ठपुत्रीपुत्रयोश्च परस्परम् । ज्येष्ठमासे तयोरेको ज्येष्ठः श्रेष्टश्व नान्यथा ॥ ९ ॥ शुक्ते तु सुभगा मान्या कृष्णपक्षेऽनृतप्रिया । दिवा भर्तुः प्रिया रात्रौ पित्रर्चनरता च सा ॥ १० ॥
इति मासनिर्णयः ।
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अथ तिथ्यादिशुद्धिः ।
नारदः - मासान्ते पञ्च दिवसांस्त्यजेद्रिक्तामथाष्टमम् । विष्टिं च परिघस्यार्धं व्यतीपातं च वैधृतिम् || १ || विधिरने - पञ्चदश्यष्टमी रिक्ता वर्ज्या - श्वान्याः शुभावहाः । केचित्कृष्णाष्टमीं प्राहुर्विवाहेषु वयोत्यये ॥ २ ॥ नारदः पौष्णधात्र्युत्तरामैत्रमरुच्चन्द्रार्कपैतृभैः । समूल भैरविद्धैस्तैः स्त्रीकरग्रह इष्यते ॥ ३ ॥ गर्गः - मघायाः प्रथमे पादे मूलस्य प्रथमे तथा । रेवत्याश्च चतुर्थाशे विवाहः प्राणनाशनः || ४ || लग्न लाभावे ज्ञेयम् । भगर्क्ष सर्वसौभाग्यकरं स्त्रीणां विशेषतः । कुतस्तर्हि वराहाद्यैर्गर्हितं पाणिपीडनम् ॥ ५ ॥ ज्योतिष्प्र• काशे - कीर्तितो मुनिभिः सर्वैः पुष्यः सर्वार्थसाधकः । इति सत्यपि चोद्वाहे निन्दितः केन हेतुना ॥ ६ || अनयोरुत्तरं वृन्दावने - प्राचेतसः प्राह शुभं भगक्ष सीता तदूढा न सुखं सिषेवे । पुष्यस्तु पुष्यत्यतिकाममेव प्रजापतेराप स शापमस्मात् ॥ ७ ॥ वेधादिसर्वनक्षत्रशुद्धिस्तत्तत्प्रकरणस्था ज्ञातव्या । इति तिथ्यादिशुद्धिः ।
१. हे विषुवत्य
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ज्योतिर्निबन्धः।
. १५३ अथ जामित्रशुद्धिः। नारद:-जामित्रशुद्धथैकविंशन्महादोषविवर्जनम् । एकविंशतिदोषाणां नामरूपफलानि च ॥१॥ तत्रैकविंशतिर्दोषा दोषाध्याय उक्ताः । विवाहे मुख्यत्वाज्जामित्रशुद्धिरत्रोच्यते । क्रूरो वा यदि वा सौम्यो लग्नाचन्द्राच खेचरः । एकोऽपि यदि जामित्रे समांशे शोकदो भवेत् ॥२॥ विधवा ससपत्न्यांद्वन्ध्या जामित्रगं फलम् । दुष्टाऽमान्या दुर्भगा वा वेश्या गर्भस्त्रवा क्रमात् ॥ ३ ॥ जामित्रं न प्रशंसन्ति गर्गदेवलकश्यपाः । यदि ते बलहीनाः स्युः प्रध्वंसाभावतां ययुः ॥ ४ ॥ जामित्रगा यदि खगा उशना बुधो वा गीर्वाणनाथसितपक्षगशीतरश्मी । कन्याविवाहसमये परिहत्य दोषं पुत्रान्वितं शुभकराः सुखमाशु दद्युः ॥ ५॥ लग्नाच्छीतकराद्ग्रहा धुनगता नेष्टा विवाहे स्मृताः कैश्चित्त्वाचनवांशकादिषु शरैस्तुल्ये नवांशे स्थिताः । लग्मत्रिकोणसहजायगतं च ( तश्च )रदिर्जामित्रदोषगणनां भृगुराशु हन्यात् । धीधर्मकण्टकगतः स्फुरदंशुजालो जीवोऽतिजीवयति लग्नगुणान्स धत्ते ॥ ६॥ वसिष्ठः-लग्नेन्दुजामित्रघनप्रचारनीहारविद्युत्परिवेषजांश्च । दोषानशेपानमृताख्ययोगो निहन्ति लोभो गुणवृन्दमेकः ॥७॥ एकार्गलोपग्रहपातलत्ताजामित्रकर्तर्युदयादिदोषाः । नश्यन्ति चन्द्रार्कबलोपपन्ने लग्ने यथाऽर्काभ्युदयेऽन्धकारः ॥ ८॥
इति जामित्रशुद्धिः।
अथांशशुद्धिः । तुलामिथुनकन्यांशा धन्वंशोऽपि शुभप्रदः । विवाहेऽस्तगतस्यांशो वयंः पापेन्दुयुक्तथा ॥ १ ॥ तनुपेऽस्तंगते नाशो दंपत्योरंशपे तथा । सरेंडशे च हानिः स्यादंशे चन्द्रयुते मृतिः ॥२॥ धनुः सिंहश्च मेषादिपकन्ये मृगादिके । कुम्भमीनौ तुलाद्ये च काद्यौ मीनवृश्चिकौ ॥३॥ वर्गोत्तमादृते देयाश्चरमे न नवांशकाः । चरलग्ने चरांशे च तुलामकरगे विधौ ॥ ४ ॥ चरमांशोऽपि गोमेषहरितौलिघटेषु च । सवलेषु च सद्योगे देय इत्यपरे जगुः ॥ ५ ॥
इत्यंशशुद्धिः ।
अथ लगशुद्धिः । सुखनं तुर्यमुद्दाहे द्वादशं वित्तनाशकृत् । जन्मभाजन्मलग्नाञ्च मृत्युदं लग्न
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१५४
श्री शिवराजविनिर्मितो
मष्टमम् ॥ १ ॥ चतुर्थ सगुणं देयं द्वादशं च गुणाधिकम् । सगुणं चाष्टमं लग्नं त्याज्यमंशस्तथाऽष्टमः ॥ २ ॥ जन्मर्क्षजन्मलग्नाभ्यां रन्ध्रेशाष्टौ च यौ । विलग्नसंस्थितानेतांस्तद्राश्यंशानपि त्यजेत् || ३ || नारदः - चतुर्थमभिजिल्लग्नमुदयर्क्षात्तु सप्तमम् । गोधूलिकं तदुभयं विवाहे पुत्रपौत्रदम् ॥ ४ ॥ प्राच्यानां च कलिङ्गानां मुख्यं साधारणं स्मृतम् । अभिजित्सर्वदेशेषु मुख्यं दोषविनाशकृत् || ५ || मध्यंदिनगते भानौ मुहूर्तोऽभिजिदाह्वयः । नाशयत्यखिलं दोषं पिनाकी त्रिपुरं यथा ॥ ६ ॥ मध्यंदिनगते भानौ सकलं दोषसंचयम् । करोति नाशमभिजित्तू संघमिवानलः ॥ ७ ॥
इति लग्नशुद्धिः ।
अथ लग्नगोचरम् ।
आषष्टतः खनवमायगताश्च सौम्याः शस्ताः षडायसहजाष्टमभेषु पापा: । पाणिग्रहे त्रिसुखलाभधनेषु चन्द्रः षष्ठः सितो निधनगो न शुभो महीजः ॥ १ ॥ रन्ध्रे कुजे सौम्यखगे च मृत्युः षष्ठाष्टगे लग्नपतौ च मृत्युः । तृतीयगे देवरगा च शुक्रे ऽप्याहरन्ते शुभदौ सितेज्यौ || २ || त्रिकोण सप्तमाम्बरव्ययोपगो विलशतः । हिमद्युतिः शुभर्क्षगः शुभेक्षितश्च शोभनः ॥ ३ ॥ नेष्टौ षष्ठाष्टमी लग्नादंशनाथविलग्नपौ । तथा द्रेष्काणनाथथ चन्द्रश्च मरणप्रदः || ४ || नातिदुष्टाः शुभा द्यूने तथा लग्नेश्वरो व्यये । द्रेष्काणेशस्तथा रन्ध्रे क्षीणेन्दुर्मध्यमे धने ॥५॥ निधनचतुष्टयसंस्थे पापद्वयमध्यगे क्षपानाथे । निधनं प्रयाति नियतं देवैरपि रक्षिता कन्या || ६ || वैरिवारे शुभः खेटो लग्नगोऽप्यशुभायते । मित्रवारे तु पापेऽपि शुभदः स्यान्न संशयः ||७|| अरिनीचर्क्षगे शुक्रे श्वश्वाऽर्केश्वशुरेण च । कलत्रेंऽशे च पत्या हि स्याद्विरोधो मृगीदृशाम् ||८|| पञ्चभिरिष्टैरिष्टं पुष्टमनिष्ठैरानमांदेश्यम् । स्थानादिवलसमृद्धैश्चतुर्भिरपि पठ्यते यवनैः ॥ ९ ॥ नारदः- धनत्रिबन्धुतनयाधर्माज्ञायेषु चन्द्रमाः । करोति सुतसौभाग्यभोगयुक्तां विवाहिताम् ॥ १० ॥ वसिष्ठः---मृत्युनैःस्व्यं बहुविधधनं भातृहानिः प्रजानां व्याधिर्मान्यैरतिशयधनं भ्रातृहानिश्विरायुः । श्रेयोहानिर्भवति हृदयव्याधिरर्थागमत्वं भानौ स्त्रीणामतिशयरुजा लग्नभावादिसंस्थे ॥ ११ ॥ नाशः संपद्बहुविधयशो बन्धुवृद्धिः प्रजाप्तिः शस्त्रान्मृत्युर्भवति च चिरादीर्घसापत्न्यबाधा । प्रवज्यात्वं दुहितृजनितृत्वं धनं
१.क. घ. 'था दृकाण । २ क.. 'ये । वृक्कणे ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
१५५ भोगभाक्त्वं दास्यं स्त्रीणां तुहिनकिरणे लग्नभावादिसंस्थे ॥ १२ ॥ मृत्युः शोको बहुविधधनं भ्रातृवैरं कुबुद्धिलक्ष्मीप्राप्तिर्भवति मरणं चोभयोर्वेशनाशः । स्त्रीणां द्वेष्यं (पो) व्यसननिरतिः पुत्रपौत्रार्थसिद्धिर्भीतिर्भूमेर्वलाने तनये लग्नभावादिसंस्थे ॥ १३ ॥ प्रीतिर्बुद्धिः सुगुणनिरतिर्वन्धुपूजा सुताप्तिर्निर्वपक्षं तनयरहितत्वं तनुत्यागचिन्ता । धर्मे बुद्धिर्भवति धरणीलाभ्रम (प्राप्तिर) त्यन्तवृद्धिर्हानिः स्त्रीणां हिमकरसुते लग्नभावादिसंस्थे || १४ || लक्ष्मीप्राप्तिर्भवति सुयशःप्रीतिरन्योन्यवृद्धिरिष्टावाप्तिर्वहुविधभयं चाऽऽश्रमाणां विरक्तिः । पापासक्तिः सुकृतनिरतिर्भूरिलाभः सुरेज्ये स्त्रीणां सौख्यं रिपुकृतभयं लग्नभावादिसंस्थे ॥ १५ ॥ भोगावाप्तिर्विविधविभवः स्वैरवृत्तिर्महत्त्वं द्युम्नाधिक्यं भवति निधनं सर्वनाशो व्ययित्वम् । तथ्यप्रीतिर्बहुविधगुणः सर्वसंपत्समृद्धिरस्वं स्त्रीणामुशनसि तथा लग्नभावादिसंस्थे || १६ || स्वच्छन्दत्वं कदशनरतिर्वल्लभत्वं विशीलं व्याधिः सुश्रीर्मृतिरथ सुखं गर्भपातप्रवृत्तिः । द्यूतासक्तिर्भवति रविजे वैभवं वक्ररोगः स्वर्भानौ वा शिखिनि च तथा लग्नभावादिसंस्थे ॥ १७ ॥
इति लग्नगोचरम् ।
अथ भावशुद्धिः ।
लग्नांशतुल्या विज्ञेया भावा द्वादश ते पुनः । तिथ्यंशेन युतास्ते स्युः प्राक्पराः संघयः क्रमात् ॥ १ ॥ भावतुल्ये ग्रहे पूर्ण न्यूनं न्यूनाधिके फलम् । अफलं संधिषु ज्ञेयं त्रैराशिकमथान्तरे || २ || ग्राह्या न भावोत्थगुणा विलग्ने त्याज्याश्च दोषा जगदुः स्विदेके । लग्नांशकेभ्योऽभ्यधिकोऽपि धीस्थः शक्रोऽरिगः स्यान्न तु सूर्यजस्तु || ३ || सप्तमस्थो यदा चन्द्रो भवेद्भावफलाष्टमः । न तदा दीयते लग्नं शुभैः सर्वग्रहैरपि ॥ ४ ॥ एतत्स्थूलं भावानयनं सूक्ष्मं तु जातक - पद्धतेरवगन्तव्यम् ।
इति भावशुद्धिः ।
अथ गोरजःशुद्धिः ।
घटीलग्नं यदा नास्ति तदा गोधूलिकं स्मृतम् । शूद्रादीनां बुधाः प्राहुर्न द्विजानां कदाचन ॥ १ ॥ महादोषान्परित्यज्य प्रोक्तधिष्ण्यादिकेषु च । कारयेद्गोरजो यावत्तावल्लग्नं शुभावहम् || २ || कुलिकं क्रान्तिसाम्यं च मूर्ती षष्ठा
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
ष्टगः शशी । पञ्च गोधूलिके त्याज्या अन्ये दीपाः शुभावहाः || ३ || मन्दवारे न कर्तव्यं बुधैर्लनं निशामुखे । गुरोवरेऽपि कर्तव्यमस्तं याते दिवाकरे || ४ || क्रूरमुक्तं च भोग्यं च भं विद्धं कुदिनादिकम् । लग्नं क्रूरयुतं चां संध्यालग्ने न चिन्तयेत् || ५ || ग्रहालँग्नादिभावस्थाञ्जामित्रं नैव चिन्तयेत् । द्विजानामपि संध्यायामशशुद्धिं विलोकयेत् || ६ || लग्नशुद्धिर्यदा न स्याद्यौवने समुपस्थिते । तदा वै सर्ववर्णानां लग्नं गोधूलिकं शुभम् || ७ || दिनान्ते सूर्यविम्बार्थे पूर्वभेऽत्र घटदलम् । कालागंले च वेलायां धात्रोद्वाहाय निर्मिता( तम् ) || ८ || अनागतेऽर्केऽर्कदिने शनौ च त्रिभागनष्टे शशिशुक्रयोश्च । सूर्यार्धविम्बे शुभदं च जीवे लग्नं कुजे ज्ञे च मुखं रजन्याः ॥ ९ ॥ भानोः कुङ्कुम संकाशाद्यावत्ताराप्रकाशनम् । यावच्च गोरजो व्योम्नि तावलनं स्मृतं परैः || १० || कालं हित्वा सर्वदेशे लग्ने शस्तोऽभिजित्क्षणः । अम्भोधिमथनोत्पन्नां यतोऽत्र कमलां हरिः । उद्ववाह तदोघं तल्लग्नं गोधूलिकं स्मृतम् ॥ ११ ॥ astigगरजो नेष्टं तनौ कामेऽष्टमे कुजे । रिपौ शुक्रे गुरोर्वारे न चैतद्बहुसंमतम् ।। १२ ।।
इति गोरजः शुद्धिः ।
अथ घटीलक्षणं प्रतिष्ठा च ।
नारद: - एवं संचिन्त्य गणितशास्त्रोक्तं लग्नमानयेत् । तलनं जलयन्त्रेण दद्याज्ज्यौतिषिकोत्तमः || १ || पङ्गुलमितोत्सेधं द्वादशाङ्गुलमायतम् । कुर्या - त्कपालवत्ताम्रपात्रं तद्दशभिः पलैः ॥ २ ॥ पूर्णे षष्ट्या जलपलैः पष्टिर्मज्जति वासरात् । माषमात्रत्र्यंशयुतस्वर्णवृत्तशलाकया || ३ || चतुर्भिरङ्गुलैरायतया विद्धमतिस्फुटम् । ताम्रपात्रे जलैः पूर्णे मृत्पात्रे वाऽथवा शुभे ॥ ४ ॥ गन्धपुष्पाक्षतैः सार्द्रैरलंकृत्य प्रयत्नतः । तण्डुलस्थे स्वर्णयुते वस्त्रयुग्मेण वेष्टिते ॥ ५ ॥ मण्डलार्धोदयं वीक्ष्य रवेस्तत्र विनिक्षिपेत् । मन्त्रेणानेन पूर्वोक्तलक्षणं यन्त्रमुत्तमम् || ६ || एकान्तपक्षेऽनिलवर्जितेऽस्मिन्दध्यक्षतैः पूजितमण्डले च । कुण्डे च पूर्णे घटिका प्रवाह्या सूर्यार्ध विवेदितेऽस्त वा ॥ ७ ॥ मुख्यं त्वमसि यन्त्राणां ब्रह्मणा निर्मितं पुरा । भावभावाय दंपत्योः कालसाधनकारणम् ॥ ८ ॥ संस्तुत्यैवं घटी तोये यां दिशं प्रति गच्छति । पूर्वाशादिफलं कुर्यात्स्थिता मध्ये धनप्रदा ॥ ९ ॥ सौभाग्यं निर्धनं ( निःस्वता ) नार्या
१ क्र. 'दा यछ' |
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ज्योतिर्निबन्धः। अपमृत्युरुजान्विता । भर्तृप्रिया च वेश्या च मान्या वित्तसुतान्विता ॥ १०॥ उत्तरेशानपूर्वासु घटी पूर्णा शुभप्रदा । दिक्षु शेषासु कन्याया मग्ना वैधव्यदायिनी ॥ ११ ॥ अथवा साधयेत्कालं द्वाशाङ्गुलशङ्खना । व्यासत्रिगुणपरिधिः परिधेः सममायतम् ॥ १२॥ व्यासाब्ध्यंशोऽङ्गलं प्रोक्तमिति शङ्कप्रमाणकम् । अन्ययन्त्रप्रयोगा ये दुर्लभाः कालसाधने ॥ १३ ॥ एवं सुलग्ने दंपत्योः कारयेत्सन्यगीक्षणम् ॥ १४ ॥
इति घटिकालक्षणं प्रतिष्ठा च ।
अथ वेदिकालक्षणम् । केचिदूचुर्ध्वजायेन रचयेद्धरिणाऽथवा । करोच्छ्रितां सप्तहस्तदीर्घा वा पञ्चविस्तृताम् ॥ १ ॥ नारदः-हस्तोच्छ्रितां चतुर्हस्तैश्चतुरस्रां समन्ततः । स्तम्भैश्चतुर्भिः सुश्लक्ष्णैर्वामभागे स्वसद्मनः॥२॥ समण्डपां चतुर्दिक्षु सोपानरतिशोभिताम् । प्रागुदक्प्रवणां रम्भास्तम्भहंसशुकादिभिः॥३॥ विचित्रितां चित्रकुम्भैविविधैस्तोरणाङ्कुरैः । शृङ्गारपुष्पनिकरैर्वर्णकैः समलंकृताम् ॥ ४ ॥ विपाशीर्वचनैः पुण्यस्त्रीभिर्दीपैर्मनोरमाम् ॥५॥ वादित्रनृत्यगीताद्यैर्हदयानन्दिनीं शुभाम् । एवंविधां तामारोहेन्मिथुनं साग्निवेदिकाम् ॥६॥
इति वेदिकालक्षणम् ।
अथ गान्धर्वविवाहशुद्धिः। पुनर्भूवरणं प्रोक्तं शूद्रादीनां शुभाप्तये । पट्टे शुद्धे विवाहः सुवेलायां वलेऽधिके ॥ १॥ न शुक्रास्तादिकं चिन्त्यं शुद्धिवेधादिकं तथा । पुनर्भुवां संवरणे न मासतिथिशोधनम् ॥ २ ॥ त्रीण्यक्षमकादि कुलक्षयश्च पूर्वादिलक्ष्मीमतिदुर्वलत्वे । सौभाग्यवन्ध्या विधवा च नारी पुत्रप्रसूतिर्धनपट्टकाले ॥ ३॥ सूर्यभात्रिपटे शुद्धे धिष्ण्यं शाकं तिथिर्मितम् । आकृतिविकृतिविश्वं गन्धर्वादों विचिन्तयेत् ॥ ४ ॥ पञ्च पाणिग्रहे दोषा वर्जनीयाः प्रयत्नतः । दारियं मृतिवैधव्ये पौंश्चल्यमनपत्यता ॥५॥
इति गान्धर्वविवाहशुद्धिः।
१ ग. ब. 'येद्वरिं'।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
अथ बिवाहाङ्गादीनां शुद्धिः ।
दलनं कण्डनं चैव व्यञ्जनं मोदकानि च । यवारमण्डपो वेदी कुङ्कुमं वर्णक तथा ॥ १ ॥ कार्य विवाहाङ्गमिदं विवाहभैर्युञ्जन्ति नात्रेन्दुबलावलं बुधाः । षष्ठे तृतीये नवमेऽह्नि लग्नतः पूर्व न वर्णो न यवारमण्डपौ ॥ २ ॥ व्रते देवप्रतिष्ठायां विवाहे पुरुषस्त्रियोः । तैलं तन्मन्त्रतो धार्य विमलं प्राङ्मुखस्वकैः ॥ ३ ॥ रजनिजनितरागा मालिनी पूर्ववत्रा प्रथमरजनियामेऽलंकृताभ्योऽङ्गनाम्यः । शिरसि विमलतैलं धारयेत्तत्कुमारी निशि सुललितगीतैर्नागवल्लीदलेन ॥ ४ ॥ रजकी तैलमादाय कन्यकामभिषिञ्चति । निशायाः प्रथमे यामे नागवल्लीदलेन तु ॥ ५ ॥ घटाकारमृदा देवी निर्मिता वसुंधा शची । वरणानन्तरं पूज्या यावत्पाणिग्रहो भवेत् || ६ || शचीं संपूज्य विधिवत्ततस्तैलाभिषेचनम् । कन्यायाश्च तदुच्छिष्टतैलेनापि वरस्य च ॥ ७ ॥ सुमुहूर्तो यदा न स्याल्लनापूर्व तदा निशि । तैलं कृत्वा ततः कार्यं वरणं लग्नवासरे ॥ ८ ॥ रक्षार्थ दक्षिणे हस्ते बीयात्कङ्कणं तयोः । बन्धनं कन्यकापूर्व वरपूर्व विमोचनम्॥९॥ केन्यकासूत्रकार्पासं पञ्चकेनैव निर्मितम् । त्रिगुणं कुङ्कुमाक्तं च तन्मन्त्रेण निबन्धयेत् || १० || आदौ स्त्रीवरणं दानं तैलं वेदिथ मण्डपः । वृद्धिः केलवणं लोणं गौरिण्याः पाणिपीडनम् ॥ ११ ॥ देशे देशे य आचारः स्थाने स्थाने च या स्थितिः । तथैवं व्यवहर्तव्यं पारम्पर्यवशादिभिः ॥ १२ ॥ अङ्गानि वरणादीनि प्रधानं पाणिपीडनम् । तस्माल्लनदिने सर्वे वरणाद्यं तु कारयेत् ॥ १३ ॥ इति विवाहाङ्गादीनां शुद्धिः ।
१५८
अथ विवाहभेदाः ।
ब्राह्म विवाह आहूय दीयते : शक्त्यलंकृता । देवो विवाहः कन्याया ऋत्विजे दानमुच्यते ॥ १ ॥ आर्षो गोमिथुने दत्ते कन्यादानं यदा तदा । प्राजापत्यः सह धर्मे चरतामिति दानतः || २ || आसुरो द्रविणादानाद्गान्धर्वः समयान्मिथः । राक्षसो युद्धहरणात्पैशाचः कन्यकालात् || ३ || अतो निन्द्यो विवाहोऽयं द्रविणादानभेदतः । आसुरः प्रोच्यते तेन तेषां शस्तोऽणुरत्रिजः ॥४॥ रत्नमालायां – प्राजापत्यब्राह्म दैवार्षसंज्ञाः कालेपूक्तेष्वेव कार्या विवाहाः । गान्धवख्याssसुरो राक्षसश्च पैशाचो वा सर्वकाले विधेयाः ॥ ५ ॥
इति विवाहभेदाः ।
१ क. 'सुधास्तनी । २ क. द्विचन्द्रिसू । ३ क. अतः शकाव. ।
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ज्योतिर्निवन्धः।
१५९ अथ दातृनिर्णयः । पिता पितामहो भ्राता पितृव्यो गोत्रजो गुरुः । मातामहो मातुलो वा कन्यादा बान्धवाः क्रमात ॥ १॥ याज्ञवल्क्यः--पिता पितामहो भ्राता स्वकुलो जननी तथा । कन्यापदः पूर्वनाशे प्रकृतिस्थः परः परः ॥ २ ॥ यदाऽत्र नैव कश्चित्स्यात्कन्या राजानमात्रजेत् । पित्रायभावे कर्तव्यः कन्यायाश्च स्वयंवरः ॥ ३ ॥ बलादुद्वाहिता कन्या देयाऽन्यस्मै वराय च । सुसमस्तगुणा कन्या कस्मै देयेति संशयः ॥ ४ ॥ तदा स्वयंबरं कुर्यादपणं सपणं तु वा । महादोपे सुविज्ञाते पूर्व सप्तपदीविधेः । मरणादौ समुत्पन्ने देयाऽन्यस्मै न दोषभाक् । ॥५॥ अपत्नीकैस्तु धर्मार्थ कौशी हैमी च राजती । ताम्री विप्रादिभिभार्या धार्या हैमीऽथवाऽखिलैः ॥ ६ ॥
इति दातृनिर्णयः।
अथ विषकन्यकाज्ञानम् । जातकोत्तमे-इलात्मजः सूर्यसुतो दिनेशो भद्रा तिथिर्वारुणमग्निधिष्ण्यम् । सार्प च योगे भवतीह कन्या विषाङ्गना सा परिवर्जनीया ॥१॥ यवन:-- भद्रा तिथिर्यदाऽऽश्लेषा शतभि[प] क् कृत्तिका तथा । मन्दाररविवारेषु विषकन्या प्रजायते ॥ २ ॥ द्वादशी वारुणं सूर्यो विशाखा सप्तमी कुजः । मन्दाश्लेषा द्वितीया च विषकन्या प्रसूयते ॥३॥ त्रैलोक्यप्रकाशे-रिपुक्षेत्रस्थितौ द्वौ तु लग्ने यत्र शुभग्रहौ । क्रूरश्चैकस्तदा जाता भवेत्स्त्री विषकन्यका ॥ ४ ॥ योगजातके - लग्ने सौरी रवेः पुत्रो धर्मस्थो धरणीसुतः । अस्मिन्योगे तु जाता स्त्री सा भवेद्विषकन्यका ॥ ५॥
इति विषकन्याज्ञानम् ।
अथ मूलजादीनां फलम् । गर्ग:-मूलजा श्वशुरं हन्ति सार्पजा च तदङ्गनाम् । ज्येष्ठाजा तु पतिज्येष्ठं देवरं तु द्विदैवजा ॥१॥ वृद्धनारदः-कन्यका देवरं हन्ति विशाखायां समुद्भवा। पैत्रगण्डोद्भवा कन्या श्वशुरनीति केचन ॥ २॥ न हन्ति देवरं कन्या तुला. मिश्रद्विदैवजा । तदन्त्यपादजा त्याज्या दुष्टा वृश्चिकपुच्छजा ॥ ३॥ कश्यपपटले-पत्न्यग्रजामग्रजं वा हन्ति ज्येष्ठसंजः पुमान् । तथा भार्यास्वसारं च
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श्रीशिवराजविनिर्मितोशालकं च द्विदैवजः ॥ ४ ॥ व्यालजा श्वशुरं हन्ति मूलजा स्त्री तथा नरः । हन्ति सार्पोद्भवा कन्या पुमांश्च श्वशुरं स्त्रियम् ॥ ५ ॥ मूलान्त्यपादजी श्रेष्ठौ तथाऽऽश्लेषाद्यपादो । द्वीशान्त्यपादो दुष्टो तद्वज्ज्येष्ठान्त्यपादजो ॥६॥ ज्योतिःसंग्रहे-ऊढायाः पितरं हन्ति मातरं च यथाक्रमम् । यदि वा पादसंख्याब्दैमूलसार्पोद्भवः पुमान् ॥ ७ ॥ मूलजां नोदहेज्जीवत्पितृको व्यालजां तथा । कन्यां जीवन्मातकस्तु न निषेधोऽयमन्यथा ॥ ८॥ नारदः-सुतः सुता वा नियतं श्वशुरं हन्ति मूलजः । तदन्त्यपादजो नापि हन्त्याश्लेषाद्यपादजः ॥९॥ वरयेन्न वरं मूलजातं पितरि जीवति । तथैव विद्यमानायां मातरि व्यालजं नरम् ॥१०॥ तिथ्यंशे पञ्चमे जातौ श्वशुरनौ नरस्त्रियौ । श्वश्रूघ्नौ चाष्टमे मूलस्यैवं व्यस्त तु सार्पथे ॥ ११ ॥ मूलव्यालभवो दोषो विवाहे य उदाहृतः । स मौजीवन्धनादूर्ध्वं पुंसां नैवेति केचन ॥ १२ ॥ वसिष्ठः-मूले साऐं विशाखायामैन्द्रभे चोद्भवः पुमान् । न दोपकृद्विवाहेषु स्त्रियः सर्वत्र गर्हिताः ॥ १३ ॥ अस्यापवादो जातकोत्तमे–मूलसार्पोद्भवं दौष्टयं न स्यान्मित्रादयो ग्रहाः। उक्तस्थानस्थिताः सौन्यदृष्टाश्च बलिनो यदि ॥ १४ ॥ भावे भावाधिपे चैव चन्द्रे च बलशालिनि । उक्तदोषा विनश्यन्ति शुभग्रहयुतेक्षिते ॥ १५ ॥ जन्मलग्नात्पितृस्थानं १० मातुः ४ भार्यायाः ७ भर्तुः ७ श्वशुरस्य ४ श्वश्रूस्थानं १० ज्येष्ठदेवरशालकस्थानम् (?)।
इति मूलजादीनां फलम् ।
अथ वैधव्यादियोगे विवाहः। वैधव्यादिषु योगेषु जन्मकाले मृगीदृशाम् । ब्रूहि वैवाहिकं कर्म कथं तासां विधीयते ॥१॥ अस्य परिहारः संहितासारे-अवैधव्यकरैयोगैर्विवाहपटलोदितैः । वरायाऽऽयुष्मते देया कन्या वैधव्ययोगजा ॥ २ ॥ प्रारब्धानामनारब्धकर्मणां विरतियथा । आत्मज्ञानात्तथा दोषा नन्दाद्यैर्विलयं ययुः॥३॥ व्रतखण्डे सावि ज्यादिव्रतानीह भक्त्या कुर्वन्ति याः स्त्रियः । सौभाग्यं सुभगत्वं च भवेत्तासां सुसंततिः ॥ ४ ॥ पुराणान्तरे-बालवैधव्ययोगेऽपि कुन्भद्रुप्रतिमादिभिः । कृत्वा लग्नं रहः पश्चात्कन्योद्वाह्यति वा परे ॥५॥ यथैव रससंस्कारात्तानं काश्चनतां व्रजेत् । तथा दुष्टफला कन्या विमला स्याद्विधानतः ॥ ६॥
इति वैधव्यादियोगे विवाहः ।
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ज्योतिनिवन्धः ।
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अथ समानक्रियाविचारः। एकमातृजयोरेकवत्सरे पुरुषस्त्रियोः । एकक्रिया न कर्तव्या क्रियाभेदो विधीयते ॥१॥ नारदः-पुत्रोद्वाहात्परं पुत्रीविवाहो न चतुत्रये । न तयोर्चतमुद्वाहान्मङ्गले नान्यमङ्गलम् ॥ २॥ विवाहश्चैकजन्यानां षण्मासाभ्यन्तरे यदि । असंशयं त्रिभिवेस्तत्रैका विधवा भवेत् ॥ ३ ॥ संहितादीपके--ऊर्व विवाहातनयस्य नैव कार्यों विवाहो दुहितुः समाधम् । अप्राप्य कन्यां श्वशुरालयं तु वधूः प्रवेश्या स्वगृहं न चाऽऽदौ ॥ ४ ॥ कात्यायनः-कुले ऋतुत्रयादर्वाङ् मण्डनान्न तु मुण्डनम् । प्रवेशानिर्गमो नेष्टो न कुर्यान्मङ्गलत्रयम् ॥ ५॥ पुत्रोद्वाहाचैव पुत्रीविवाहस्तु ऋतुत्रये । अब्दान्तरान्मुण्डनं च नैकदा मुण्डनद्वयम् ॥ ६ ॥ मातृयज्ञक्रियापूर्व ज्येष्ठं कृत्वा तु मङ्गलम् । ऋतुत्रयं पुनर्यावन्न कुर्योल्लघुमङ्गलम् ॥ ७॥ कुर्वन्ति मुनयः केचिदन्यस्मिन्वत्सरे लघु । लघु वा गुरु वा कार्य प्राप्तं नैयमिकं तु यत् ॥ ८ ॥ पुत्रोद्वाहः प्रवेशाख्यः कन्योद्वाहस्तु निर्गमः । मुण्डनं चौलमित्युक्तं व्रतोद्वाही तु मङ्गलम् ॥ ९ ॥ चौलं मुण्डनमेवोक्तं वर्जयेद्वरणात्परम् । मौजी चोभयतः कार्या ततो मौजी न मुण्डनम् ॥१०॥ अभिन्ने वत्सरे यस्य तदहस्तत्र भेदयेत् । अभेदेऽपि दिनस्यापि न कुर्यादेकमण्डपे ।।११।। अथ देशकालभयादौ प्रवृतिमाह कपर्दिकायाम् ---उद्वाह्य पुत्री न पिता विदध्यास्पुत्रान्तरस्योद्वहनं हि जातु । यावच्चतुर्थीदिनमत्र सर्व समाप्य चान्योहनं विदध्यात् ॥ १२ ॥ स्मृतिसारावल्यां-स्वसयो भ्रातयुगे भ्रातृस्वसयुगे तथा । एकस्मिन्मण्डपे चैव न कुर्यान्मङ्गलद्वयम् ।। १३ ॥ पुत्रीपरिणयादूर्व योवहिनचतुष्टयम् । पुज्यन्तरस्य कुर्वीत नोद्वाहमिति सूरयः ॥ १४ ॥ एतद्वचनद्वयं भिन्नमातृकविषयम् । तथाचोक्तम् -एकोदरप्रसूतानामेकस्मिन्वासरे पुनः । विवाहं नैव कुर्वीत मण्डनोपरि मुण्डनम् ॥ १५ ॥ ज्योतिर्विवरणे - एकोदरयोर्वरयोरेकदिनोद्वाहतो भवेन्नाशः । नद्यन्तर एकदिने केऽप्याहुः संकटे च शुभम् ॥ १६॥ न प्रतिषिद्धं लग्नं संप्राप्ते संकटे महति । एकोदरसंभवयोरेकाहे चिन्नमण्डपे काले ॥ १७ ॥ प्रवृत्तिमात्रमेतत् । शाङ्गबर:-ऊर्व विवाहाच्छुभदो नरस्य नारीविवाहो न ऋतुत्रये स्यात् । नारी विवाहात्तदहेऽपि शस्तं नरस्य पाणिग्रहमेवमायाः ॥ १८ ॥ एकोदरीकरतलग्रहणं यदि स्यादेकोदरस्थवरयोः कुलनाशनं च। एकाब्दिके तु विधवा भवतीति कन्या नद्यन्तरेऽपि शुभदं पृथुशैलरोधे।।१९।। संहितासारावल्या-फाल्गुने चैत्रमासे तु पुत्रोट्टाहोपनायने । मेदादब्दस्य कुर्वीत न ऋतुत्रयलधनम् ॥ २० ॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ यमलविशेषः ।
एकस्मिन्वत्सरे चैकवासरे मण्डपे तथा । कर्तव्यं मङ्गलं स्वस्रोर्भ्रात्रोर्यमलजातयोः ॥ १ ॥ मेधातिथि: - पृथङ्मातृजयोः कार्यो विवाहचैकवासरे । एकस्मिन्मण्डपे कार्यः पृथग्वेदिकयोस्तथा ॥ २ ॥ पुष्पपट्टिकयोः कार्य दर्शनं न शिरस्थयोः । भगिनीभ्यामुभाभ्यां च यावत्सप्तपदी भवेत् ॥ ३ ॥
इति समानक्रियाविचारः ।
१६२
अथ प्रत्युद्वाहनिषेधः ।
नारद:-- - प्रत्युद्वाहो नैव कार्यो नैकस्मै दुहितृद्वयम् । नचैकजन्ययोः पुंसोरेकजन्ये तु कन्यके । नैत्रं कदाचिदुद्वाहो नैकदा मुण्डनद्वयम् ॥ १ ॥ अन्यच्च --- एकजन्ये तु कन्ये द्वे पुत्रयोकजन्ययोः । न पुत्रीद्वयमेकस्मै प्रदद्यात्तु कदाचन ॥ २ ॥
इति प्रत्युद्वाहनिषेधः ।
अथ प्रतिकूलविचारः ।
गर्गः कृतेऽपि निश्चये पञ्चान्मृत्युर्मर्त्यस्य कस्यचित् । तदा न मङ्गल कुर्यात्कृते वैधव्यमाप्नुयात् ॥ १ ॥ मेधातिथिः - वधूवरार्थं घटिते सुनिश्चिते वरस्य गेहे त्वथ कन्यकायाः । मृतिर्भवेत्तन्मनुजस्य कस्यचित्तदा न कार्य खल जातु मङ्गलम् || २ || अत्र मङ्गलशब्देन विवाहः । स्मृतिचन्द्रिकायां -- कृते वाङ्निश्चयेऽपि स्यान्मृत्युर्मर्त्यस्य गोत्रिणः । तदा न मङ्गलं कार्य नारी - वैधव्यदं ध्रुवम् ॥ ३ ॥ भृगुः - वाग्दानानन्तरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः । दोद्वाहो नैव कार्य: स्वपक्षक्षयदो यतः ॥ ४ ॥ वृद्धशौनकः - वरवध्वोः पिता माता पितृव्यश्च सहोदरः । एतेषां प्रतिकूलं चेन्महाविघ्नपदं भवेत् ॥ ५ ॥ पिता मातामहचैव माता चैव पितामही । पितृव्यस्त्रीसुतौ भ्राता भगिनी वा विवाहिता || ६ || एभिरेव विपन्नैश्व प्रतिकूलं बुधः स्मृतम् । अन्यैरपि विपन्नैस्तु केचिदूचुर्न तद्भवेत् ॥ ७ ॥ माण्डव्यः - वाग्दानानन्तरं माता पिता भ्राता विपद्यते । विवाहो नैव कर्तव्यः स्वयं स्वहितमिच्छता ॥ ८ ॥ अथ संकटादौ प्रवृत्तिमाह मेवातिथिः – वाग्दानानन्तरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः । तदा
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ज्योतिर्निबन्धः ।
संवत्सरादूर्ध्वं विवाहः शुभदो : भवेत् ॥ ९ ॥ स्मृतिरत्नावल्यां- पितुरब्दमिहाशौचं तदर्थं मातुरेव च । मासत्रयं तु भार्यायास्तदर्थं भ्रातृपुत्रयोः ॥ १० ॥ अन्येषां तु सपिण्डानामाशौचं माससंमितम् । तदा तु शान्तिकं कृत्वा ततो लग्नं विधी - यते ।। ११ ।। ज्योतिष्प्रकाशे - प्रतिकूलेऽपि कर्तव्यो विवाहो मासमन्तरा । शान्ति विधाय गां दत्त्वा वाग्दानादि चरेत्पुनः || १२ || स्मृत्यन्तरे — प्रतिकूले न कर्तव्यं लग्नं यावदृतुत्रयम् । प्रतिकूलेऽपि केऽप्याहुः कर्तव्यं बहुवि ॥ १३ ॥ प्रतिकूले सपिण्डस्य मासमेकं विवर्जयेत् । विवाहं तु ततः पश्चात्तयोरेव विधीयते ॥ १४ ॥ ज्येोतिःसागरे - दुर्भिक्षे राष्ट्रभङ्गे च पित्रोर्वा प्राणसंशये । प्रौढायामपि कन्यायां नाऽऽनुकूल्यं प्रतीक्ष्यते ॥ १५ ॥ मेधातिथि: - पुरुषत्रयपर्यन्तं प्रतिकूलं स्वगोत्रिणाम् । प्रवेशनिर्गमौ तद्वत्तथा मण्डमुण्ड ॥ १६ ॥ प्रेतकर्माण्यनिर्वर्त्य चरेनाभ्युदयक्रियाम् । आचतुर्थे ततः पुंसि पञ्चमे तु शुभं भवेत् ॥ १७ ॥ स्मृत्यन्तरेऽपि - दीर्घरोगाभिभूतस्य दूरदेशस्थितस्य च । उदासवतिनश्चैव प्रतिकूलं न विद्यते ॥ १८ ॥ संकटे समनुप्राप्ते याज्ञवल्क्येन योगिना । शान्तिरुक्ता गणेशस्य कृत्वा तां शुभमाचरेत् ॥ १९ ॥ अकृत्वा शान्तिकं यस्तु निषेधे सति दारुणे । करोति हि शुभं गर्वाद्विघ्नस्तस्य पदे पदे ॥ २० ॥ प्रतिकूलविधानं च शान्तिका (कमला) करे द्रष्टव्यम् ।
इति प्रतिकूलविचारः ।
१६३
अथ सूतकादौ शान्तिः ।
संकटे समनुप्राप्ते सूतके समुपागते। कूष्माण्डीभिर्धृतं हुत्वा गां च दयात्पयस्विनीम् || १ || चूडोपनयनोद्वाहप्रतिष्ठादिकमाचरेत् । यदैव सूतकप्राप्तिस्तदैवाभ्युदयक्रियाम् ॥ २ ॥ कृत्वा नाभिं वर्धयित्वा काले मङ्गलमारभेत् । अनारम्भेऽप्यवार्यत्वादनुज्ञा विष्णुनोदिता || ३ || अनारब्धविशुद्धयर्थं कूष्माण्डैर्जुहुयाद्घृतम् । गां दद्यात्पञ्चगव्याशी ततः शुध्यति सूतकी ॥ ४ ॥ कौमुद्यांविवाहोत्सव यज्ञादावारब्धे सूतकं यदि । साङ्ग तत्कर्म कर्तव्यमन्नदानादिकं परैः || ५ || प्रारम्भो वरणं यज्ञे संकल्पो व्रतसत्रयोः । नान्दीश्राद्धं विवाहादौ श्राद्धे पापरिक्रिया || ६ || एकविंशत्यहर्यज्ञे विवाहे दशवासरे । त्र्यहे चूडोपनयने नान्दीश्राद्धं विधीयते ॥ ७ ॥ देशान्तरे विवाहचेन्मध्येऽद्रिर्वा महानदी । गव्यूतित्रयपर्यन्तं स्वगृहे देवतार्चनम् ॥ ८ ॥ गर्गः - ज्वरस्योत्पादनं यस्य शुभं तस्य न कारयेत् । दोषनिर्गमनात्पश्चात्स्वस्थो धर्म समाचरेत् ॥९॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
केचिदूचुर्गृहस्थस्य कस्यचिदारुणो ज्वरः । तावन्मङ्गलकृत्यं च न कार्य निश्चिर्त बुधैः ॥ १० ॥
इति सूतकादौ शान्तिः ।
१६४
अथ नववधूप्रवेशः ।
aari कार्य पञ्चमे सप्तमे दिने । नवमे च शुभे वारे सुलग्ने शशिनों बले ॥ १ ॥ एतलग्नान्तरमिति ज्ञेयम् । नारदः - आरभ्योद्वाहदिवसात्षष्ठे estan दिने । वधूप्रवेशः संपत्त्यै दशमेऽथ समे दिने ॥ २ ॥ एतद्युग्मदिनप्रवेशः षोडशदिवसादर्वाक् द्रष्टव्यः । तदूर्ध्वं विषमे मासे संवत्सरे वा कार्यः । वृद्धनारदः - समे वर्षे समे मासि यदि नारी गृहं व्रजेत् । आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी मरणं व्रजेत् || ३ || संग्रह - विवाहमारभ्य वधूप्रवेशो युग्मे तथा षोडशवासरान्तात् । तदूर्ध्वमब्दे युजि पञ्चमान्तादतः परस्तान्नियमो न चास्ति || ४ || भास्करव्यवहारे – रात्रौ विवाह शस्तः सन्मुहूर्ते स्थिरोदये । वधूप्रवेशो नैवात्र प्रतिशुक्राद्भयं विदुः ॥ ५ ॥ ऋक्षैर्वैवाहिकैः शुद्धैर्देपत्योश्च शुभप्रदम् । वधूप्रवेशनं कार्य पञ्चमे यकृतं यदि ॥ ६ ॥ धान्यहानिः सुखं नाशो भोगो वैरं ततः शुभम् । प्रथमाब्दात्फलं ज्ञेयं क्रमाद्वध्वाः प्रवेशने ॥ ७ ॥ मार्गफाल्गुवैशाखे शुकपक्षे शुभे दिने । गुर्वादित्यविशुद्धौ स्यान्नित्यं पत्नीद्विरागमः ॥ ८ ॥ संमुखस्तु सुखं हन्ति दक्षिणे हानिकारकः । पृष्ठतो वामतश्चैव शुक्रः प्रोक्तः शुभावहः ॥ ९ ॥ मूलपुष्यमृदुस्वातिस्थिराश्विश्रुतिवासवे । पितृभे च करे नारी प्रविष्टा पुत्रिणी भवेत् ॥ १० ॥ देवतोत्थापनं कार्य समे तु दिवसे शुभैः । षष्ठं च विषमं नेष्टं मुक्त्वा पञ्चमसप्तमम् ॥ ११ ॥ नैकस्मिन्वासरे कार्यों गृहोद्वा कथंचन । नवीनमन्दिरे कन्यां नवोढां न प्रवेशयेत् ॥ १२ ॥ क्षयदर्शी शीतस्मानं सीमानदीविलङ्घनम् । आमश्राद्धगमो नास्ति प्रानिवीतं तु केचन (१) ॥ १३ ॥ शेषं सर्व नवगृहप्रवेशप्रकरणस्थं ज्ञेयम् । इति नववधूप्रदेशः ।
इति ज्योतिर्निबन्धे विवाहमकरणम् ।
अथाग्न्याधानप्रकरणम् ।
अग्न्याधानं दारकाले विधेयं कैश्चित्प्रोक्तं तच्च दायाद (घ) काले । शक्राग्न्यों में
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. ज्योतिर्निबन्धः।
१६५ शक्रभे कृत्तिकायां सौम्ये ब्राह्मे पुष्यपोष्णोत्तरासु ॥ १॥ कर्किनक्रघटमीनविलग्ने वांऽऽशके तनुगतेऽथ तदीये । लग्नगे कुमुदिनीदायिते वा नाशमति जनितोऽपि हुताशः ॥२॥ केन्द्रझेपचयत्रिकोणभगताः सूर्यारजीवेन्दवः शेपाथोपचयस्थिता यदि तदाऽग्न्याधानमुक्तं शुभम् । चन्द्रे नैधनगे म्रियेत युवती भौमे पुमानष्टमे शेषैर्मृत्युगतै रुजा च सहितोऽग्न्याधानकर्ता भवेत् ॥ ३ ॥ नो कुर्याद्भुतभुक्परिग्रहमिह क्ष्मापुत्रजीवेन्दुभिर्नीचस्थैर्विजित रिपोर्भवनगरस्तं गतैर्वा द्विजः । चापस्थे तनुगे गुरौ क्रियगते सप्ताम्बरस्थे कुले शीतांशी त्रिपडायगे दिनकरे वा स्यात्तदा दीक्षितः ॥ ४ ॥ अग्न्याधानं न कुर्वीत कर्किननत्रये विधौ । लग्नगे धनगे पापे तथा रन्ध्रे ग्रहान्विते ॥ ५॥
इत्यग्न्याधानप्रकरणम् ।
अथ गृहारम्भप्रकरणम् । मत्स्यपुराणे-गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिध्यन्ति गृहं विना । यतस्तस्माद्गृहारम्भप्रवेशसमयं ब्रुवे ॥१॥ श्रीपतिः-आयव्ययशिकचन्द्रताराबलानि शास्त्रादवगम्य सम्यक् । आयुधनारोग्ययशोभिवद्धय गहं गहस्थोऽपि विधापयीत ॥ २॥ नारदः-निर्माणे पत्तनग्रामगृहादीनां समासतः । क्षेत्रमादौ परीक्षेत गन्धवर्णरसप्लवैः ॥ ३ ॥ वसिष्ट:-- श्वेता शस्ता द्विजेन्द्राणां रक्ता भूमिर्महीभुजाम् । विशां पीता च शूद्राणां कृष्णाऽन्येषां च मिश्रिता ॥ ४ ॥ नारद:मधुपेरान्नपिशितगन्धवर्णानुपूर्वकम् । मधुरं कटुकं तिक्तं कषायश्च रसाः क्रमात् ॥ ५ ॥ अत्यन्तवृद्धिदं नृणामीशानप्रागुदवप्लवम् । अन्यदिक्षु प्लवस्तेषां शश्वदत्यन्तहानिदः ॥ ६॥ भृगुः-उदगादिप्लवमिष्टं विप्रादीनां प्रदक्षिणेनैव । विप्रः सर्वत्र वसेदनुवर्णमथेष्टमन्येषाम् ॥ ७ ।' वास्तुशास्त्रे-मनसश्चक्षुषो यत्र संतोषो जायते भुवि । तस्यां कार्य गृहं सर्वैरिति गर्गादिसंमतम् ॥ ८ ॥ ललः-गृहमध्ये हस्तमितं खात्वा श्वभ्रं प्रपूरितं च पुनः। यद्यूनमनिष्टं तत्समे समं धन्यमधिकं यत् ॥ ९॥ अवटमथवाऽम्बुपूर्ण पदशतमित्वा गतस्य यदि नोनम् । तद्धन्यं यत्र भवेत्पलानि पांस्वादिकं चतुःषष्टिः ॥ १० ॥ रत्नकोशे-आमे वा मृत्पात्रे श्वभ्रस्थे दीपवर्तिरभ्यधिकम् । ज्वलति दिशि यस्य शस्ता सा भूमिस्तस्य वर्णस्य ॥ ११ ॥ नारद:-तथा निशादौ तत्कृत्वा पानीयेन प्रपूरयेत् । प्रातदृष्टे जले वृद्धिः समं पङ्के व्रणे क्षयः ॥ १२ ॥ माण्डव्यः-जलान्तं प्रस्तरान्तं वा पुरुषान्तमथापि वा । क्षेत्रं संशोध्य चोद्धृत्य शल्यं सदनमारभेत् ॥ १३ ॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
शल्यज्ञानं - यस्मिन्भागे सौम्या गृहस्य तद्रव्यमादिशेत्तत्र । पापा यस्मिन्भागे तस्मिञ्छल्यं विनिर्देश्यम् ॥ १४ ॥ स्मृत्वेष्टदेवतां प्रष्टुर्वचनस्याऽऽयमक्षरम् । गृहीत्वा तु ततः शल्याशल्यं सम्यग्विचार्यते ॥ १५ ॥ अकचटतपेया वर्णाः पूर्वादिमध्यान्ताः । शल्यकरा इह नान्ये शल्यगृहे निवसतां नाशः ॥ १६ ॥ पृच्छायां यदि अः प्राच्यां नरशल्यं तदा भवेत् । सार्धहस्तप्रमाणेन तच्च मानुषमृत्युकृत् ॥ १७ ॥ आग्नेय्यां दिशि कः प्रश्ने खरशल्यं करद्वये । राजदण्डो भवेत्तत्र भयं नैव निवर्तते ॥ १८ ॥ याम्यायां दिशि चः प्रश्ने कुर्यादाकटि संस्थितम् । नरशल्यं गृहेशस्य मरणं चिररोगतः ॥ १९ ॥ नैर्ऋत्यां दिशि टः प्रश्ने सार्ध - हस्तादधस्तले । शुनोऽस्थि जायते तच्च बालानां जनयेन्मृतिम् ॥ २० ॥ तः प्रश्ने पश्चिमायां तु शिशोः शल्यं प्रजायते । सार्धहस्ते गृहस्वामी न तिष्ठति सदा गृहे ॥ २१ ॥ वायव्यां दिशि पः प्रश्ने तुषाङ्गाराचतुष्करे । कुर्व मित्रनाशं च दुःस्वप्नदर्शनं सदा || २२ || उदीच्यां दिशि यः प्रश्ने विप्रशल्यं कटेरधः । तच्छीघ्रं निर्धनत्वाय कुबेरसदृशस्य हि || २३ || ऐशान्यां दिशि हः प्रश्ने गोशल्यं सार्धहस्ततः । तद्बोधनस्य नाशाय जायते गृहमेधिनः ||२४|| पया मध्यमे कोष्ठे वक्षोमात्रे भवेदधः । नृकपालं कचा भस्म लोहं तत्कुलनाशकृत् ।। २५ ।।
इति शल्यज्ञान पूर्विका भूमिशुद्धिः ।
अथ दिसाधनम् ।
मत्स्यपुराणे - कपिशीर्षप्रमाणैश्च ग्रावभिः पूरयेद्दृढम् । खातं तत्तु समं कृत्वा ततः प्राचीं प्रसाधयेत्॥१॥ वृद्धनारदः - प्रासादे सदनेऽलिन्दे द्वारे कुण्डे विशेषतः । दिङ्मूढे कुलनाशः स्यात्तस्मात्संसाधयेद्दिशः॥२॥वास्तुशास्त्रे - प्रथमं सुसमे क्षेत्रे प्राचीं संसाधयेत्स्फुटम् । सिद्धान्तोक्तप्रकारेण ततो निष्पादयेद्गृहम् || ३ || स्फुटकारणे-ध्रुवलम्बकरेखाया रेखान्तः सौम्ययाम्यहरितौ स्तः । तन्मत्स्यपुच्छमुखतः पश्चिमपूर्वाभिधे विद्यात् ॥ ४ ॥ शिरोमणी - वृत्तेऽम्भः सुसमीकृतक्षितिगते केन्द्रस्थशङ्कोः क्रमाद्भागं यत्र विशत्यपैति च यवस्तत्रापरेऽङ्घौ दिशौ । तत्कालोपमजीवयोस्तु विवराद्भात्कर्णमित्याहताल्लुम्बज्याप्तमिताङ्गुलैरय नदि
इन्द्री स्फुटा चालिता ॥ ५ ॥
इति दिकसाधनम् ।
१. 'पसह । २ ख. व. 'शिसः प्र° ३ ख. घ. यः प्रम ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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अथ शकन्यासः। - शिल्पशास्त्रे-भाद्रत्रये शिरः प्राच्या याम्यां मार्गशिरत्रये । फाल्गुनत्रितये पश्चादुदग्ज्येष्ठत्रये तथा ॥ १॥ वास्तोः शिरसि पुच्छे च याम्यकुक्षौ च पृष्ठतः। आयुष्कामः खनेन्नैव वामकुक्षौ खनिः शुभा ॥ २ ॥ वास्तुक्षेत्रप्रमाणं च कल्पयित्वाऽस्य वामके । कुक्षौ खातं विधायाऽऽदो ग्रावाभिः पूरयेत्ततः ॥३॥ नारद:-- नभस्यादिषु मासेषु त्रिषु त्रिषु यथाक्रमम् । पूर्वादिदिशिरा वामपार्श्वशायी प्रदक्षिणम् ॥ ४ ॥ वास्त्वायामदलं नाभिस्तस्मादब्ध्यङ्गुलत्रयम् । कुक्षिस्तस्मिन्न्यसेच्छडु पुत्रपौत्रप्रवर्धनम् ॥ ५ ॥ लल:-त्यजेद्दश शिरोभागे ह्यग्नेः सप्तदशाशकान् । मध्ये कुक्षि विजानीयात्तत्र शकुं प्रतिष्ठयेत् ॥ ६॥ अस्थिरस्य शिरो यत्र वास्तोस्तद्गणयेत्करौ । दैर्ध्य वा विस्तृतिं तत्र कृत्वाऽष्टाश्विमितांशकान् ॥७॥ राजमार्तण्डे-ऊर्ध्व भागत्रयं त्यक्त्वा ह्यधोभागद्वयं तथा । मध्ये नाभिं विजानीयादिति प्राह पराशरः ॥ ८ ॥ यदा वामपार्थेन पूर्वशिराः शेते तदा पश्चिमे पुच्छं दक्षिणे क्रोडमुत्तरे पृष्ठमेवं सर्वत्र । चतुर्विंशत्रयोविंशत्पोडशद्वादशाङ्गुन्लैः । विप्रादीनां शकुमानं स्वर्णवस्त्राद्यलंकृतम् ॥९॥ खदिरार्जुनशालोत्थं युगं यत्र तरूद्भवम् । रक्तचन्दनपालाशरक्तशालविशालजम् ॥ १० ॥ नीपकारञ्जकुटजवैणवं बिल्ववृक्षजम् । शर्छ त्रिधा विभज्याऽऽद्यं चतुरस्रं ततः परम् ॥ ११ ॥ अष्टास्रं च तृतीयांशमनस्रमृदुमत्रणम् । एवंलक्षणसंयुक्तं परिकल्प्यं शुभे दिने।॥१२॥
इति शङ्खन्यासः।
अथ दुनिमित्तानि । वराह:-कृष्णां प्ररूढवीजां गोध्युषितां ब्राह्मणैः प्रशस्तां च । गत्वा महीं गृहपतिः काले सांवत्सरोदिते[तु शुभे]॥१॥भक्ष्यै नाकारैर्दध्यक्षतसुरभिकुसुमधूपैश्च । दैवतपूजां कृत्वा स्वपतीनभ्यर्च्य विप्रांश्च ॥ २ ॥ लल:-कुर्यात्सूत्रनिपातं मध्यागुल्याऽथवा प्रदेशिन्या । अङ्गष्ठेन वा मणिकेन कक्षान्तरजातमुक्ताभिः ॥३॥ भृगुः-विप्रः शीर्ष नृपो वक्षो वैश्यश्वोरू परः पदौ । स्पृष्ट्वा रेखां गृहारम्भे कुर्या. दनेः प्रदक्षिणाम् ॥ ४ ॥ विश्वकर्मणि-सूत्रच्छेदे मृतिः कीलेऽवाङ्मुखे व्याधिपीडनम् । गृहेशस्थपतीनां च स्मृतिलोपतनुक्षयाः ॥ ५ ॥ कुम्भे करच्युते मृत्युरुपसर्गोपवर्जिते । स्कन्धभ्रष्टे शिरोरोगो भग्ने दुर्वचने वधः ॥ ६ ॥
इति दुर्निमित्तानि ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ स्तम्भः । ब्रह्मशम्भुः-सूत्रभित्तिशिलान्यासं स्तम्भस्याऽऽरोपणं सदा । पूर्वदक्षिणयोमध्ये कुर्यादित्याह कश्यपः ॥ १॥ शाङ्गधरः—प्रासादेषु च हर्थेषु गेहेष्वन्येषु सर्वदा । आग्नेय्यां प्रथमं स्तम्भं स्थापयेद्विधिना ततः ॥२॥ वराहः--दक्षिणपूर्वे कोणे कृत्वा पूजां शिलां न्यसेत्प्रथमाम् । शेषाः प्रदक्षिणेन स्तम्भाश्चैवं प्रतिष्ठाप्याः ॥ ३॥ अग्निर्वसति वै काठे तदिशि प्रथमं सदा । न्यसेत्काष्ठमयं स्तम्भं काष्ठकृत्येष्वयं विधिः ॥ ४ ॥ छत्रस्नग्गन्धयुतः कृतधूपविलेपनः समुत्थाप्यः । स्तम्भस्तथैव कार्यो द्वारोच्छायः प्रयत्नेन ॥ ५॥ उत्पल:-स्तम्भोपरि यदा घूककाकगृध्रादिपक्षिणः । व्यालादयश्च तिष्ठन्ति तदा कर्तुर्न शोभनम् ॥६॥ तस्मात्स्तभोपरि च्छत्रं शाखां फलवतीं तु वा । धारयेदथवा वस्त्रं बुध्ने रत्नानि निक्षिपेत् ॥ ७॥
इति स्तम्भः।
अथाऽऽयाः। नारदः---ध्वजो धूयोऽथ सिंहः श्वा सौरभेयः खरो गजः । उष्टश्चेति क्रमेणैतदायाष्टकमुदाहृतम् ॥ १॥ दैवज्ञवल्लभः--पूर्वादितः स्युर्ध्वजधूमसिंहश्वगोखराख्यद्विरदाः क्रमेण। उष्ट्रस्तथाऽऽयाः स्वपदे विधेयाश्चत्वार एषां विषमाः प्रशस्ताः ॥२॥ ध्वजः पदे केसरिणो विधेयो ध्वजो मृगारिश्च पदे गजस्य । पदे गजस्य ध्वजकेसरीमा वृषस्तु नान्यत्र पदात्स्वकीयात् ॥ ३॥ गर्गः-सर्वद्वारे ध्वजो देयः पश्चिमास्यं विना हरिः । प्राङ्मुखे दक्षिणस्यैव गजः पूर्वमुखे वृषः ॥४॥ वास्तुप्रीपे - खेटकपटकोटेषु वृषः सिंहो गजः शुभः । वापीकूपतडागादौ गजो देयो विचक्षणैः ॥ ५॥ आसने योजयेत्सिहं शयने चैव कुञ्जरम् । वृषं भोजनपात्रे च दद्याच्छत्रादिषु ध्वजम् ॥ ६॥ महानसेऽग्निशालायां गृहे चाग्न्युपजीवनम् । धूमं दद्यात्तथा श्वानं यवनान्त्यजकगृहे ॥ ७ ॥ खरो वेश्यागृहे योज्यो ध्वाङ्गः पक्षिपतेगृहे । वृष सिंह गर्ज दद्यात्मासादे पुरमन्दिरे ॥ ८॥ शिल्पशास्त्रे - वस्त्रजे धर्मशालायां कुम्भे स्तन्भे ध्वजे ध्वजः । गोगजो भूगृहे चैव साधारणगृहे शुभौ ॥९॥गाने शस्त्रे रथे सिंहो भाण्डागारे शुभो गजः। धान्यान्बुस्नानगोश्वेभशालायां वृषभः शुभः॥ १०॥ नाद्य(व्य)भोगोद्वाहवेद्या गजसिंहबूपाः शुभाः । सर्वे स्वाभि. मुखाः श्रेष्ठा मध्यगेहे पराङ्मुखाः॥११॥ ध्वजे परास्यं विप्राणां राज्ञां सिंहेऽप्यु
१ च, यंत्रेश”।
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दङ्मुखम्। गजे शूद्रस्य याम्याशं वृषे पूर्वमुखं विशः || १२ || गर्गः - कीर्तिः शोको जयो वैरं धनं निर्धनता सुखम् । रोगश्चेति गृहारम्भे ध्वजादीनां फलं क्रमात् ॥ १३ ॥ ज्योतिष्फलोदये - अग्रजानां ध्वजायः स्यादध्वञ्जकुञ्जरगोमृगाः । क्षत्रस्य ध्वजसिंहेभा वैश्यस्य शुभदाः स्मृताः ॥ १४ ॥ ध्वजो मृगादिः शूद्राणां सर्वेषां वृषभः शुभः । हीनजातेः समा देयाः सूक्ष्मकृत्येऽङ्गुलात्मकः || १५ || कर्कवृश्चिकमीनानां ध्वजायः शुभदो मतः । वृषभायः शुभः प्रोक्तो मेपसिंह धनुर्भूताम् ॥ १६ ॥ तुलामिथुनकुम्भानां गजायो वाञ्छितप्रदः । वृषकन्यामृगाणां च सिंहायः शुभ भवेत् ॥ १७ ॥ वादरायणः - विस्तारगुणितं दैर्ध्य गृहक्षेत्रफलं भवेत् । तत्पृथग्वसुभिर्भक्तं शेषमायो ध्वजादिकः || १८ || अष्टनिने क्षेत्रफले भहते शेषमत्र भम् । मेषभक्ते व्ययः शेषमायादल्पो व्ययः शुभः ॥ १९ ॥ भूपाल:शान्तिः पद्यातहर्षः कन्तिः श्रीश्वाविसंज्ञकाः । व्ययनामान्यथाशेपाः क्रमादिन्द्रो यो नृपः ॥ २० ॥ गर्गः - गृहनामाक्षर क्षेत्रफलव्यययुतीर्हरेत् । त्रिभिः शेषांशको ज्ञेयो मध्यमत्र मृतिप्रदः ।। २१ ।। निजभागृहभं यावद्गृहभानिजभं तथा । वेदनं विभजेच्छेलैः क्रमाच्छेषं धनव्ययौ ॥ २२ ॥ ज्योतिः सागरे - तारा स्यात्समभस्वामिधिष्ण्यैक्यं नवभाजितम् । उद्वाहवद्वाशिकूटं विचार्य स्वामिगेहयोः॥ २३ ॥ गर्गः-अश्विन्यादित्रयं मेपे सिंहे प्रोक्तं मात्रयम् । मूलादित्रितयं चापे शेषभेषु द्वयं द्वयम् ॥ २४ ॥ वृत्तश - कार्या धिष्ण्यगृहेगृहे गृहयोरुद्वावत्कल्पना नीडं यद्विषमायगं शशिवले तारावले संयुतम् । कार्य तच्छुभदं करैर्यदि गुणाः सर्वेऽपि न स्युस्तदा कुर्याज्ज्योतिषिकोऽङ्गुलादिकमिह क्षिप्त्वा विहायथवा || २५ || इष्टायनक्षत्रानयने लालुगिदैवज्ञस्य सूत्र - व्येष्टहता द्विवा -
शशिनो १५२ त्यष्टा १७ युतास्तेऽपि च व्येष्टायहतैकनाग ८१ सहिताः पण्मूर्छनाभि २१६ ताः । शेषं क्षेत्रफलं भवेदभिमतं स्वेष्टायनक्षत्रजं स्याद्देर्य तदपीविस्तृतहृतं यदतं विस्तृतिः ॥ २६ ॥ मेङ्गनाथदेवज्ञस्य सूत्रम्--- इष्टात्पष्टिधाते य आयस्तेनोनितेष्टकः । त्रिध्वाहतागाश्वियुते चेष्टायभं भवेत् || २७ || रत्नकाशे - क्षेत्रफले गजगुणिते खयम २० भाजिते भवत्यायुः । आयुषि पञ्चैव क्रमान्महाभूतविश्लेषः || २८ || बादरायणः - - द्वारादेकं द्वितयं वेदा वसवः प्रदक्षिणं दिक्षु । शालादिकाङ्कयोगः सैको वेश्म ध्रुवादि भवेत् ॥ २९ ॥ ध्रुवं धान्यं जयं नन्दं खरं फान्तं मनोरमम् । सुमुखं दुर्मुखं क्रूरं सुपक्षं धनदं क्षयम् ॥ २० ॥ आक्रन्दं विपुलं चैव विजयं चेति षोडश ।
१ घ. अनुभ' । २ घ. 'रोति' । ३ व 'अमम । ४ व स्वर्णपक्ष ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
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गृहनामाक्षराण्यष्ट गोभवार्कमनुत्रये ॥ ३१ ॥ शेषे त्रीणि नगे वेदाः शिष्टाङ्के-वक्षरद्वयम् । चतुर्भिर्गुणितं क्षेत्रफलं पोडशभिर्भजेत् । शेषं ध्रुवादिकं ज्ञेयं सद्मनाम यथाक्रमम् ॥ ३२ ॥ ब्रह्मशंभु :- श्रीधन्यं विजयो वृद्धिः पुष्टिः सन्मान्यता यशः । गोत्रवृद्धिः समस्तर्धिर्नवानां क्रमतः फलम् ॥ ३३ ॥ आयासो मनसः शोकः कलहो व्याधिपीडनम् । भयं ज्ञातेर्मृतिर्नाशः सप्तानामधमं फलम् ||३४|| चिन्तामणौ-भूर्भूद्र द्वौ कृता वेदा अष्टावष्टौ गुरुलघुः । स्थाप्यः सद्ममुखाच्छालालघुस्थानेऽष्ट वेश्मसु || ३५ || नारदः - गुरोरधो लघुः स्थाप्यः पुरस्तादूर्ध्ववन्यसेत् । गुरुभिः पूरयेत्पश्चात्सर्वलैब्धविधिर्विधिः ॥ ३६ ॥ कुर्याल्लघुपदेऽलिन्दं गृहद्वारात्प्रदक्षिणम् । मुखादिगेष्वलिन्देषु गृहभेदास्तु षोडश ॥ ३७ ॥ ग्रन्थविस्तरभीत्याऽत्र नन्द्यावर्तादिकानि च । घातविस्मरकारीणि नोक्तान्यत्र गृहाणि च ॥ ३८ ॥ वास्तुप्रदीपे - गृहेषु कर्महस्तेन मानं स्वामिकरेण वा । देवादीनां तु येषु कर्महस्तेन केवलम् ॥ ३९ ॥ कर्महस्तचतुर्विंशत्यडुलो मुनिभिः स्मृतः । धातुजो देशदैवत्यो यद्वा यज्ञीयवृक्षकः ॥ ४० ॥ दैवज्ञवल्लभः- - न हस्तपातेन गुणान्वितं स्याद्यदा तदा तद्गुणितोक्तयुक्त्या । दत्त्वाऽथ हित्वा यदि चाङ्गुलानि प्रसाधयेत्क्षेत्रफलं शुभाय ॥ ४१ ॥ रत्नकोशे - करमानेन सर्वे न यदि स्युस्ततोऽङ्गुलयवादि । दत्त्वाऽथवा विहाय क्षेत्रफलं साधयेद्गणितवत्।।४२।। वास्तुतन्त्रे यवोदरैरष्टभिरङ्गुलं स्याग्रद्वा करोऽङ्गुष्ठकवृत्तखण्डम् । कर्तुः कराब्ध्यश्विलवोन्मितं वा ग्राह्यं किलैष्वन्यतमं गृहेऽत्र ॥ ४३ ॥ क्षेत्रस्य चतुरस्त्रस्य समस्याप्यसमस्य च । फलं प्रसाधयेत्प्राग्वद्वृत्ताये आय उच्यते ॥ ४४ ॥ श्रीधराचार्य : - वृत्तव्यासस्य कृतेर्मूलं परिधिर्भवेद्दशगुणायाः । व्यासार्ध वर्गवर्गात्क्षेत्रफलं दशगुणान्मूलम् ॥ ४५ ॥ लीलावत्यां - व्यासस्य वर्गे भनवाग्निनिघ्ने सूक्ष्मं फलं पञ्चसहस्र ५००० भक्ते । रुद्राहते शक्रं १४ हृतेऽथवा स्यात्स्थूलं फलं संव्यवहारयोग्यम् ॥ ४६ ॥ रत्नकोशे - विस्तारषोडशांशः सचतुर्हस्तो भवेद्द्भृहेष्वायः । द्वादश वा गृहमाने भूमौ भूमौ समस्तानाम् ॥ ४७ ॥ व्यासस्य षोडशांशः सर्वेषां सद्मनां भवति । पक्केष्टकाकृतानां दारुमयाणां तु नै कल्प्योऽसौ ॥ ४८ ॥ व्यासगृहाणि च विद्याद्विमादीनामुदग्दिशाद्यानि । विशतां यथा भवनं भवन्ति तान्येव दक्षिणतः ॥ ४९ ॥ दैवज्ञवल्लभे- अलिन्दनिर्व्यूहविनिर्गमाद्याचतुर्दिशं ये गृहभूषणाय । आयादिकं तेषु न चिन्तनीयं
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१७०
१ क. 'टिःसन्यासता । २ व. ख. व. तानां मध्यमं । ३ क. लघ्ववधि । ४ व ।। ३७ ॥ अथइस्तलक्षणं-ग्र । ५. लंगूहाय । ६ क. कहते । ७ व गृहोच्छ्रायः ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
१७१ वास्तुपरिग्रहाः स्युः ॥ ५० ॥ क्षेत्रे पादतले पीठे भित्तौ स्तम्भतलोच्छ्रये । द्वारादौ चैकमेवाऽऽयं यथैवोक्तं निवेशयेत् ॥ ५१ ॥ वसिष्ठः-एकादशयवादूर्ध्वं यावत्खत्रिंशहस्तकम् । यावदायादिकं चिन्त्यं तदूर्ध्वं नैव चिन्तयेत् ॥ ५२ ॥ चिन्तामणौ-यत्र दैर्ध्य गृहादीनां द्वात्रिंशद्धस्ततोऽधिकम् । न तत्र चिन्तयेद्धीमानगणनायां व्ययाधिकान् ॥ ५३॥ राजमार्तण्डे-आयव्ययौ मासशुद्धिं चिन्तयेन्न तृणगृहे । शिलान्यासादि नो कुर्यात्तथाऽगारे पुरातने ॥ ५४ ॥
इत्यायादिनिर्णयः।
अथ निषिद्धग्राह्यकाष्ठानि । व्यासः-अन्यवेश्मस्थितं दारु नैवान्यस्मिन्प्रयोजयेत् । न तत्र वसते कर्ता वसन्नपि न जीवति ॥१॥ समरङ्गण–इष्टकालोष्टपाषाणमृत्तिका जीर्णमायसम् । तृणं पत्रं बुधैः प्रोक्तं दारु नूत्नं गृहाय वै ॥ २॥ शार्ङ्गधरः-नूतने नूतनं काष्ठं जीर्णे जीर्ण प्रशस्यते । जीर्णे च नतनं श्रेष्ठं नो जीर्ण नतने शुभम् ॥३॥ वास्तुशास्त्रे-श्रीपर्णी रोहिणी शाकं सर्जश्व सरलाः शुभाः। पतङ्गलोध्रशालाख्यास्तालार्जुनकशिशपाः ॥ ४ ॥ चन्दनाशोकबदरीमधूकाश्च कदम्बकाः । प्रशस्ताश्च शमीनिम्बबिल्ववर्ज गृहान्तिके ॥ ५॥ गृहे दारुगुणयुक्ते गृहकमाणि (ति ) युज्यते । गृहे काष्ठं समं श्रेष्ठमलिन्दे विषमं शुभम् ॥ ६ ॥ नारदःप्लक्षोदुम्बरचूताख्या निम्बस्नुहिविभीतकाः । दग्धाः कण्टकिनो वृक्षा वटाश्वत्थकपित्थकाः ॥ ७ ॥ अगस्तिशिगृतालाख्यास्तिन्तिणीकाश्च निन्दिताः । अन्ये च गृहनिर्माण योजनीयाः समा द्रुमाः ॥८॥ बराहः-पितवनमार्गसुरालयवल्मीकोद्यानतापसाश्रमजाः । चैत्यसरित्संगमसंभवाश्च घटतोयसिक्ताश्च ॥ ९ ॥ कुञ्जानुजातवल्लीनिपीडिता वज्रमारुतोपहताः । स्वपतितहस्तिनिपीडितशुष्काग्निप्लुष्टमधुनिलयाः ॥ १० ॥ तरवो वर्जयितव्याः शुभदाः स्युः स्निग्धपत्रकुसुमफलाः । सुरदारुचन्दनसमा मधूकतरवः शुभा द्विजातीनाम् ॥ ११॥ क्षत्रस्यारिष्टास्त्वश्वत्थखदिरबिल्वा वृद्धिकराः । वैश्यानां जीवखदिरकसिन्धूकचन्दनाश्च शुभफलदाः ॥ १२ ॥ तिन्दुककेसरसर्जार्जुनोत्थशालाश्च शूद्राणाम् । सर्वेषां वा शस्ताः सर्वे वृक्षाश्च निन्दिता ये च ॥ १३ ॥ वृक्षच्छेदने प्रार्थना-यानीह भूतानि वसन्ति तानि बलिं गृहीत्वा विधिवत्प्रयुक्तम् । अन्यत्र वासं परिकल्पयन्तु क्षमन्तु तान्यद्य नमोऽस्तु तेभ्यः ॥ १४ ॥
इति निषिद्धग्राह्यकाष्ठानि ।
१ घ. वरात्रिंश।
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१७२
श्रीशिवराजविनिर्मितोअथ द्वारनिर्णयः ।
नारदः-नभस्यादिषु मासेषु त्रिषु त्रिषु पथाक्रमम् । पूर्वादिदिशिरो वास्तु कुर्यात्तदिङ्मुखं गृहम् ॥ १ ॥ प्रतिकूलमुखं गेहं दुःखशोकभयप्रदम् । सर्वतोमुखगेहानामेप दोषो न विद्यते ॥ २ ॥ आयामेषु चतुर्दिक्षु प्रागादिषु च सत्स्वपि । अष्टावष्टौ प्रतिदिशं द्वाराणि स्युर्यथाक्रमात् ॥ ३ ॥ प्रदक्षिणक्रमात्तेपाममूनि च फलानि वै । हानिनिःस्वत्वमाप्तिनपपूजा महद्धनम् ॥ ४॥ अतिचौर्यमतिक्रोधो भीतिर्दिशि शचीपतेः । निवः बन्धनं भीतिराप्तिधनवर्धनम् ॥५॥ अनातकं व्याधियं निःस्वत्वं दक्षिणादिशि । पुत्रहानिः शत्रुद्धिलक्ष्मीप्राप्तिर्धनागमः ॥६॥ सौभाग्यमतिदौर्भाग्यं दुःखं शोकश्च पश्चिमे । कलत्रहानिर्निःस्वत्वं हानिर्धान्यधनागमः।७॥ संपवृद्धिर्महाभीतिरामयो दिशि शीतगोः॥ एवं गृहादिषु द्वारं विस्ताराद्विगुणोच्छ्रितम् ॥ ८ ॥ इति प्रदक्षिणद्वारफलमीशानकोणतः । मूलद्वारस्य चोक्तानि सान्यत्रैतानि योजयेत् । पश्चिमे दक्षिणे वाऽपि कपाद स्थापयेद्गृहे ॥ ९ ॥ मणडव्यः-नवभागं गृहं कुर्यात्पश्चभागं तु दक्षिणे । त्रिभागं वामतः कृत्वा शेषे द्वारं प्रकल्पयेत् ॥ १० ॥ वराहः-दर्ये नवांशाः पदमत्र सव्याद्वारं शुभं प्रात्रिचतुर्थभागे । चतुर्थषष्ठे दिशि दक्षिणस्यां पश्चाच्चतुष्पञ्चमके तथोदक् ॥ ११॥ ज्योतिष्फलोदये-कुलीरालिझषाणां च पूर्वद्वारं शुभावहम् । कन्यामकरयुग्माणां दक्षिणद्वारमिष्टदम् ॥ १२ ॥ तुलाकुम्भवृपाणां च पश्चिमाभिमुखं स्मृतम् । सौभ्यद्वारं शुभाय स्यान्मेषसिंहधनु - ताम् ॥ १३ ॥ मार्गतरुकोणकूपस्तम्भभ्रमविद्धमशुभं द्वारम् । सोच्छायाद्द्विगुणं त्यक्त्वा भूमि न दोषाय ॥ १४ ॥ च्यवनः-स्वयमुद्घाटिते रोगः पिहिते च कुलक्षयः । मानाधिके न दिग्भ्रान्तिरे नीचे सुखक्षयः ॥ १५ ॥ शार्ङ्गधर:-द्वारस्योपरि पद्द्वारं द्वारं द्वारस्य संमुखम् । न कार्य व्ययदं ग्रञ्च संकटं तद्दरिद्रकृत् ॥१६॥ वराहः-याम्यादिष्वशुभफला जातास्तरवः प्रदक्षिणेनैते । उदगादिषु प्रशस्ताः प्लक्षवटोदुम्बराश्वत्थाः ॥ १७ ॥ आसमाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोश्थ नाशाय । फलिनः प्रजाक्षयकरा दारूण्यपि वर्जयेत्तेषाम्॥१८॥ छिन्द्याद्यदि न तरूंस्तांस्तदन्तरे पूजितान्न्यसेदन्यान् । पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसाञ्छमीप्लक्षान् ॥ १९ ॥ संवर्षयेद्यदि गृहं ततः समन्ताद्धि वर्धयेत्तुल्यम् ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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एकदेशे न दोषः प्रागथ वाऽप्युत्तरे कुर्यात् ॥ २० ॥ वास्तुशास्त्रे - द्वारं चतुर्विधं प्रोक्तं वास्तुसंक्रान्तिभावजम् । कृत्वा चान्यतमं मुख्यं गवाक्षाद्यैः पराणि च ॥ २१ ॥ बहुद्वारेवलिन्देषु न द्वारनियमः स्मृतः । तथोपसदने जीर्णे द्वारे संधारणेऽपि च ॥ २२ ॥ रत्नकोशे - अल्पदोषं गुणज्येष्ठं दोपाय न भवेद्गृ॒हम् । आयव्ययौ प्रयत्नेन विरुद्धं भं च वर्जयेत् ॥ २३ ॥ कनिक्रहरिकुम्भगते पूर्वपश्चिममुखानि गृहाणि । तौलिमेपवृपवृश्चिकयाते दक्षिणोत्तरमुखाणि गृहाणि ॥ २४ ॥
इति द्वारनिर्णयः ।
अथ गृहनियमः ।
नारद: - स्नानागारं दिशि माच्या माग्नेय्यां पचनालयम् । याम्यायां शयना - गारं नैर्ऋत्यां वस्त्रमन्दिरम् ॥ १ ॥ मतीच्यां भोजनगृहं वायव्यां पशुमन्दिरम् । भाण्डकोशं तूत्तरस्यामीशान्यां देवमन्दिरम् ||२|| अन्यच्च - देव कुट्टनसंस्थानक्षीरपानाद्यशालिकाः । शय्यामूत्रास्त्रतद्विद्याभोजना मङ्गलाश्रयाः ॥ ३ ॥ धान्यस्त्रीभोगवित्तं च (संपत्ति) शृङ्गारायतनानि च । ऐशान्यादिक्रमात्तेषां गृहनिर्माण कं शुभम् ॥ ४ ॥ लल:- - पूर्वस्यां श्रीभवनं याम्यायां रतिगृहं विधातव्यम् । भोजनभवनं पश्चादुत्तरतश्चापि धनभवनम् ॥ ५ ॥ ऐशान्यां देवगृहं महानसं चापि कार्यमाय्याम् । नैर्ऋत्यां भाण्डोपस्करार्थभवनानि मारुत्याम् ॥ ६ ॥ प्राच्यादिस्थे सलिले सुतहानिः शिखिभयं रिपुभयं च । स्त्रीकलहः स्त्रीष्टयं नैः स्वयं चिन्ताऽऽत्मजविवृद्धिः॥ ७ ॥ नात्युच्छ्रितं नातिनीचं कुड्योत्सेधं यथारुचि । गृहोपरिगृहादीनामेवं सर्व विचिन्तयेत् ॥ ८ ॥
इति गृहनियमः ।
अथ ग्रामदिनियमः ।
व्यवहारसारे – अलिमीनाङ्गनाः कर्किर्धनुस्तौलिः क्रियो घटः । पूर्वतो न सेन्मध्ये युग्मं सिंहो वृषो मृगः ॥ १ ॥ भूपाल:- वर्गेशास्तार्क्ष्यमार्जारसिंहाश्वाः सर्वमूषकाः । इभेणौ पूर्वतस्तेषां स्ववर्गात्पञ्चमो रिपुः ॥ २ ॥ स्वं वर्गे द्विगुणं कृत्वा परवर्गे नियोजयेत् । अष्टभिस्तु हरेद्भागं योऽधिकः स ऋणी भवेत् ||३|| ज्योतिःसागरे-द्वारं सपञ्चधर्मस्य मीनादेरप्रदक्षिणम् । केऽप्याहुरथ वर्गाणां स्वस्थाने शुभदं गृहम् ॥ ४ ॥ एकभे सप्तमे ग्राभे वैरं हा निस्त्रिषष्ठगे | तुर्याष्टा
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श्री शिवराजविनिर्मितो
दशे रोगः शेषस्थाने भवेत्सुखम् ॥ ५ ॥ पञ्चमो नवमो ग्रामो द्वितीयो वा यदा भवेत् । दशमैकादशौ श्रेष्ठौ मनुष्याणां शुभावहौ || ६ || चतुर्थस्त्वष्टमो ग्रामोद्वादशो वा यदा भवेत् । यत्रैवोत्पद्यते ह्यर्थस्तत्रैव विलयं व्रजेत् ॥ ७ ॥ जन्मराशिस्थितो ग्रामस्त्रिषट्सप्ताष्टमो भवेत् । स्वकीयार्थविनाशाय संतापोऽस्ति पदे पदे || ८ || भवनपुरग्रामाणां ये कोणास्तेषु निवसतां दोषाः । श्वपचादयोऽन्त्यजाद्यास्तेष्वेव विवृद्धिमायान्ति ॥ ९ ॥
इति ग्रामदिनियमः ।
अथ वास्तुनिवेश मुहूर्तविचारः ।
रत्नमालायां कर्मसिद्धिसुखायूंषि निमित्तशकुनादिभिः । ज्ञात्वा प्रष्टुगृहारम्भे कीर्तयेत्समयं बुधः ॥ १ ॥ ललः -- कालनरस्य यदङ्गं सौम्यग्रहवीक्षितं युतं वाऽपि । तच्चेत्स्पृशति प्रष्टा तदाऽस्य निर्माणमादेश्यम् ॥ २ ॥ बादरायणःवैशाखे फाल्गुने पौषे श्रावणे मार्गशीर्षके । सूत्रारम्भः शिलान्यासः स्तम्भारम्भः प्रशस्यते ॥ ३ ॥ ज्योतिस्तत्त्वे - पूर्वापरास्यं तु नभोन्त्यपौषे याम्योत्तरास्यं सहसि द्वितीये । कार्यं गृहं जीवबुधर्क्षगार्क नीचास्तगौ जीवसितौ च हित्वा ॥ ४ रत्नमालायाम् - आषाढचैत्राश्वयुजोर्जमाघज्येष्ठेषु समौष्ठपदेषु नूनम् । निकेतनानां घटनं नृपाणां योगेश्वराचार्यमते निषिद्धम् ॥ ५ ॥ दैवज्ञवल्लभे - शोको धान्यं पञ्चता निष्पशुत्वं स्वाप्तिनैः स्वयं संगरे भृत्यनाशः । स्वश्रीप्राप्तिं वह्निभीतिं च लक्ष्मीं कुर्युत्राद्या गृहारम्भकाले ॥ ६ ॥ नारदः - सौम्यफाल्गुन वैशाखमाघश्रावणकार्तिकाः । मासाः स्युर्गृहनिर्माणे पुत्रपौत्रधनप्रदाः ॥ ७ ॥ वृद्धनारदः - आरम्भं च समाप्तिं वा प्रासादपुरसद्मनाम् । उत्थिते केशवे कुर्यान्न प्रसुप्ते कदाचन ॥ ८ ॥ विश्वंभरशास्त्रे - शस्तं पशुगृहं ज्येष्ठेऽप्याश्विने धान्यनीडकम् | पानीयशालिका माघे चैत्रे धारागृहं तथा ॥ ९ ॥ गर्गः - त्र्युत्तरामृगरोहिण्यां पुष्ये मैत्रेये । धनिष्ठाद्वितये पौष्णे गृहारम्भः प्रशस्यते || १० || रत्नकोशेपुष्यध्रुवमृदुहस्तस्वातीधनिष्टासु वारुणे चैव । सूत्रारम्भादिविधिः कर्तव्यश्वोक्तगुणग्ने ||११|| नारदः - मृदुध्रुवक्षिप्रभेषु रिक्तामार्कारवर्जिते । दिने शुद्धेऽष्टमे लग्ने शुभे शङ्कं विनिक्षिपेत् ॥ १२ ॥ सूर्याङ्गारकवारांशा वैश्वानरभयप्रदाः । इतरग्रहवारांशाः सर्वकामार्थसिद्धिदाः ॥ १३ ॥ शार्ङ्गधरः- मृदुधुवकरस्वातीपुष्यवासववारुणैः । सूत्रारम्भो गृहादीनां स्थाप्यः स्तम्भो न पञ्चकें ॥ १४ ॥ माण्डव्य:पञ्चकेषु च धिष्ण्येषु न कुर्यात्स्तम्भमुच्छ्रयम् । क्षेत्रसूत्रशिलान्यासप्राकारादि
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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समारभेत् ॥ १५ ॥ रत्नमालायां- पुष्यध्रुवमृदुस्वातीहस्तवासववारुणैः । प्रथमो वेश्मनां तत्र प्रारम्भः सद्भिरिष्यते ॥ १६ ॥ व्यवहारसारे - शिलान्यासः प्रकर्तव्यो गृहाणां श्रवणे मृगे । पौष्णे हस्ते च रोहिण्यां पुष्याश्विन्युत्तरात्रये ||१७|| वास्तुप्रदीपे - अधोमुखभर्विदधीत खातं शिलास्तथैवोर्ध्वमुखैश्व पट्टम् । तिर्यखेर्द्वारकपाटयानं गृहप्रवेशो मृदुभिर्ध्रुवैस्तु ॥ १८ ॥ अधोमुखैश्च नक्षत्रैः कर्तव्यं भूमिशोधनम् । मृदुधुत्रैः शुभं कुड्यमित्युक्तं विश्वकर्मणा ||१९|| सूत्रशङ्कुशिलाद्वारतुलाच्छादनपूर्वकम् । कार्य शस्तं प्रतिष्ठतेर्यथासंभवमादिके ॥ २० ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-पातादिकान्महादोपान्हित्वा मोक्तेऽत्र भादिके । कर्त्तव्यं शिल्पनिर्माणं योगैरायुष्मदैः शुभैः ॥२१॥ दैवज्ञलमे-राशौ द्वय स्थिरे लग्ने शुभयुक्ते विलोकिते । निर्माणं भवनस्या॒ऽऽहुः शस्तं कर्मस्थितैः शुभैः ॥ २२ ॥ त्रिषडायगतैः क्रूरैः शुभैः केन्द्रत्रिकोणः । शुभदं गृहनिर्माणं क्रूरो मृत्युकरोऽष्टमः ॥ २३ ॥ रत्नमालायांशुद्धकेन्द्र निधनस्थिरोदये सौम्यवर्गमनुजोद्गमेऽपि च । संनिवेश उदितो हि वास्तुनः सूरिभिर्न तु चरोदये कचित् ॥ २४ ॥ चक्रे सप्तशलाकाख्ये कृत्तिका - द्यानि विन्यसेत् । ऋक्षं चन्द्रस्य वास्तोव पुरः पृष्ठे च नो शुभम् ।। २५ ।। ब्रह्मशंभुः–धनलाभः प्रवासः स्यादायुश्वोरभयं क्रमात् । दत्तेऽग्रवामपृष्ठस्थो गृहकर्तु - र्निशाकरः ॥ २६ ॥ रवौ गृहस्थो गृहिणीं शशाङ्के सिते धनं देवगुरौ च सौख्यम् । विनाशमायाति बलेन होने नीचस्थिते वाऽस्तमुपागते वा ॥ २७ ॥ रत्नमालाटीकायाम्-अस्तदोषोऽत्र नो ग्रात्यः प्रतिदैवसि (ति) को बुधैः । नास्तदोषः सदा भानोमैत्रे चेन्दोर्न नीचता ॥ २८ ॥ विशाखायाश्चतुर्थेऽशे यावत्तिष्ठति शीतगुः । तावनीचगतो ज्ञेयः परतो नैव दोषभाक् ॥ २९ ॥ एकोऽपि परभागस्थः खस्मरस्थः समान्तरे । धामान्य हस्तगं कुर्याद्वर्णनाथे च दुर्बले ॥ ३० ॥ लल्लः– मित्रस्वोच्चगृहांशस्थैस्तद्वंश्याश्चिरमासते । स्वगैरन्त्यगतैरन्यैनीच गैश्वापि निर्धनः ॥ ३१ ॥ वृद्धनारद: - चरलग्ने चरांशे वा रिक्तामारार्कवासरे । लग्नान्याष्टारिंगे चन्द्रे रन्ध्रे क्रूरे प्रभोः क्षयः ॥ ३२ ॥ स्वरशास्त्रे - त्रिवेदान्धित्रिवेदाव्धिद्वित्रिभेष्वर्कतैः शशी । श्रीऋद्धिः संस्थितिर्व्याधिनैः स्वयं श्रीः श्रीमृतिर्वृपे ॥ ३३ ॥ इति वास्तुनिवेशमुहूर्तविचारः ।
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अथ गृहायुदययोगाः ।
बादरायणः - लग्ने जीवे सुखे शुक्रो बुधः कामे रिपो रविः । रविजः सहजे
१. 'तः क्रमात् । श्री ।
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१७६
श्रीशिवराजविनिर्मितो
नूनं शतायुः स्यात्तदा गृहम् ॥ १ ॥ जीवे बन्धौ विधौ व्योनि लाभगौ भानुभूमिजौ । प्रारम्भे यस्य तस्याऽऽयुः समाशीतिः सह श्रिया ॥ २ ॥ दैवज्ञयलभेव्योम्न चन्द्रः सुखे जीवो लाभे भौमशनैश्वरौ । यस्य धाम्नः समाशीतिस्तस्य सार्धं स्थितिः श्रिया || ३ || रत्नमालायां - स्वोच्चवर्तिनि मृगौ विलक्षगे देवमत्रिणि रसातलेऽथवा । स्वोच्चगे रविसुतेऽथवाऽऽयगे स्यात्स्थितिश्च सुचिरं सह श्रिया || ४ || स्वर्क्षगे हिमगौ लग्ने सुरेज्ये केन्द्रसंस्थिते । धनधान्यसुखारोग्य
धाम चिरं भवेत् ॥ ५ ॥ भूपाल:- भृगुर्लने बुधो व्योम्नि लाभेऽर्कः केन्द्रगो गुरुः | यस्याऽऽरम्भेऽस्ति तस्याऽऽयुर्वत्सराणां शतद्वयम् ||६|| स्वोच्चगो भार्गवो लग्ने गुरुः स्वोच्चगतः सुखे । शनिः स्वोच्चगतो लाभे सश्रीका वसतिश्विरम् ॥७॥ लल्लः - शशधर सुरगुरुभृगुजेष्वनस्तगेषु प्रभौ च लग्नभयोः । स्वक्षेत्रोच्चांशगतैः खचरैः श्रीसौख्यदा भवति ॥ ८ ॥
इति गृहायुर्दाययोगाः ।
अथ गृहप्रवेशः ।
श्रीपतिः- अथ प्रवेश नवमन्दिरस्य यात्रानिवृत्तावथ भूपतीनाम् । सौम्यायने पूर्वदिने विधेयं वास्त्वचनं भूतवलिश्च सम्यक् ॥ १ ॥ व्यवहारतत्त्वे - सौम्यायने श्रावणमार्गपाये जन्मलग्नोपचयोदयांशे । वामं गते गृहवास्तुपूजां कृत्वा विशेद्वेश्म भकूटशुद्धम् || २ || नारदः -- प्रवेशो मध्यमो ज्ञेयः सौम्यकार्तिकमासयोः । माघफाल्गुन वैशाखज्येष्ठमासेषु शोभनः || ३ || शुभः प्रवेशो देवेज्य - शुक्रयोर्दृश्यमानयोः । वस्विज्यवारुणस्वाती दस्त्रमैत्रस्थिरोडुषु ॥ ४ ॥ लःयामुखं गृहद्वारं तद्द्वार गृहं विशेत् । सूर्यारवारी रिक्तामाकयोगानपि वर्जयेत् ॥ ५ ॥ नारदः - व्यर्कारवारे तिथिषु रिक्तामावर्जितेषु च । दिवा वा यदि वा रात्रौ प्रवेशो मङ्गलप्रदः ॥ ६ ॥ रात्रौ विशेषमाह वसिष्ठ: - दिवा प्रवेशः शुभदः सुपुत्रपौत्राभिवृद्धयै निशि भास्करेन्द्वोः । बलेन मत्स्यध्वजवासरस्य रात्रिं विना सूर्यतिथेश्च रात्रिम् ||७||दह्यतेऽत्र विशतां च मन्दिरं वह्निनेन्द्रशिखिवह्निभयोश्च । ब्रह्मभूमिसुतवासरे च तच्छीतरश्मिदिवसे तु वृद्धिदम् || ८ || चन्द्रजार्यसितवासरेषु तु श्रीकरं सुतमहार्थलाभदम् । सूर्यसूनुदिवसे स्थिरप्रदं किं तु चोरभयमत्र विद्यते ॥ ९ ॥ शार्ङ्गधरः - पुष्ये मैत्रे मृगे स्वात्यां ध्रुवे त्वाष्ट्रेऽर्कपू । वासवे वारुणे शस्तं गृहग्रामप्रवेशनम् ॥ १० ॥ प्रविशेनूतनं ह ध्रुवमैत्रैः सुखाप्तये । पुष्यस्वातियुतैस्तैश्च जीर्ण तु वासवये ॥ ११ ॥
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ज्योतिर्निबन्धः ।
१७७
ज्योतिष्प्रकाशे –गृहारम्भोदितैर्मासैर्धिष्ण्यैवरैिविंशेद्गृहम् । विशेत्सौम्यायने ह रंतु सर्वदा ॥ १२ ॥ राजमार्तण्डे प्रवेशो नूतने गेहे अपूर्व इति कथ्यते । सपूर्वस्तु प्रयाणान्ते पूर्वापूर्वोऽन्य उच्यते ॥ १३ ॥ ज्योतिष्प्रकाशेअपूर्वसंज्ञं प्रथमं प्रवेशं यात्रारसाने च सपूर्वमेतम् । द्वन्द्वाह्वयं चाभिभयादिजातं गृहप्रवेशे त्रिविधं वदन्ति ॥ १४ ॥ अपूर्वः प्रवेशो गृहारम्भधिष्ण्ये विधेयः करो मध्यमति केचित् । सपूर्वः स्थिरैमित्र मेरेव शुद्धैरतोऽन्योऽश्विमूलच्युतारम्भधिष्ण्यैः ॥ १५ ॥ वृत्तशते - भूपानां मृदुभिर्धवैः प्रविशनं यात्रानिवृत्तौ शुभं स्याद्भूयो गमनं चरर्क्षलघु भैरुयैर्मतिर्भूपतेः । तीक्ष्णैर्भूपकुमारकस्य नृपतेः पत्या विशाखा froये हव्यभुजो गृहे प्रविशतां संदते वह्निना ॥ १६ ॥ रत्नकोशे - पुष्ये धनिष्ठामृदुवारुणेषु स्वायंभुवर्क्षे त्रिषु नोत्तरासु । अक्षीणचन्द्रे शुभदो नृपस्य तिथावरिक्ते च गृहप्रवेशः ॥ १७ ॥ वैद्यनाथ: - त्र्युत्तरे रोहिणी - युग्मे रेवत्या वासवये । पुष्ये त्वाष्टद्वये मैत्रे प्रवेशोऽत्र मतः करे ।। १८ । रत्नमालायां -- पुष्ये धनिष्ठामृदुवायुमूल स्थिराश्विनीविष्णुजलेशहस्ते । एषु प्रवेशे बहुपुत्रपौत्रैश्वरं वसेद्भूरिसमागमैश्च ॥ १९ ॥ रत्नकोशे - सर्वग्रहैर्विमुक्तं प्रवेश शस्यते प्रयत्नेन । कैश्चित्सौम्यसमेतं शुभप्रदं कीर्तितं मुनिभिः ॥ २० ॥ भूपाल:- मेषे यानं घटे व्याधिर्धान्यहानिर्मृगे गृहम् । विशतां कर्कटे नाशः शेषलग्नेषु शोभनम् ॥ २१ ॥ दैवबलमे - निन्दिता अपि शुभांशसमेतास्तौलिमेपमकराः सकुलीराः । कर्तुरौपचयगाथ विलग्ने राशयः शुभफलाश्च भवन्ति ॥२२॥ लल्ल:- व्याधिहा धनहा चैव वित्तदो बन्धुनाशकृत् । पुत्रहा शत्रुहा स्त्रीघ्नः प्राणहा पिटकमः || २३ || सिद्धिदो धनदश्चैव भवेत्तज्जन्मराशिंगः | लग्नस्थः क्रमशो राशिर्जन्म लग्नात्प्रवेश ॥ २४ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - भूर्वेदपञ्चकं त्रित्रिः प्रवेशें कलशेऽर्कभात् । मृतिर्गतिर्धनं श्रीः स्याद्वैरं सुस्थिरता सुखम् ॥ २५ ॥ अयोच्यतेऽर्कपूर्वाणां पूर्वाचार्यैरुदाहृतम् । फलं लग्नादिसंस्थानां गृहारम्भमवेशयोः ॥ २६ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - सौदामिन्यादिभिर्म कुर्याद्भानुर्विलनगः । धनेन कार्यवाहुल्यं सहजे श्री सुखोदयम् ॥ २७ ॥ सुखसंस्थः सुहद्वैरं सुतपीड सुतस्थितः । षष्ठः कुर्यात्सुखारोग्यं कान्तां वैरं च सप्तगः ॥ २८ ॥ रन्ध्रस्थोऽकों मृर्ति कुर्याद्धर्मे धर्मक्षयं रविः । खस्यो मध्यः सुखं कुर्यादायगी व्ययगः क्षतिम् ॥ २९ ॥ आपण्मासादिधुर्लने नाशं कुर्याज्जलादिभिः । धनस्थोऽर्थे तृतीयस्यः सौभाग्यं वेश्मगः सुखम् ॥ ३० ॥ धीस्थो धियं कुश भ्रान्ति पष्ठः
1
१ . मिमं कु' ।
२३
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१७८
श्रीशिवराजविनिर्मितोक्षीणोऽरिभङ्गकृत् । कामगस्तनुते भोगाञ्छिद्रस्थो मृत्युमाशु च ॥ ३१ ॥ अक्षीणो नवमः सौख्यं दद्यात्वस्थः पदं तथा । लाभगो रत्नवस्त्राप्तिं दारिद्यं व्ययगः शशी ॥ ३२ ॥ सद्मनाशं कुजः कुर्याल्लग्नगो ज्वलनादिना । दृयोगं स्वेऽथ भूलाभं सहजेऽरिभयं सुखे ॥ ३३ ॥ विषशत्रुभयं पुत्रे यशोवृद्धि रिपी कुजः । भार्यानाशं स्मरे कुर्याद्रन्ध्रे शस्त्रात्कुलक्षयः ॥ ३४ ॥ विघ्नं धर्मस्थितः कुर्यात्कर्मनाशं च कर्मगः । लाभगोऽम्बरहेमाप्तिं राजदण्डं व्यये कुजः ॥ ३५॥ आरोग्यं लग्नगे सौम्ये कोशेऽर्थः सहजे सुरवम् । सुखे भोगः सुते विद्या रिपो शत्रुक्षयो भवेत् ॥ ३६॥ द्यूने सौभाग्यमायासो रन्ध्रे धर्मे महद्यशः । खगे शे राजसन्मानो लाभे द्रव्यं व्यये व्ययः ॥ ३७॥ आयुर्धनं तनौ जीवे धने श्रीरनुजे सुखम् । सुखे स्थैर्य चिरं पुत्रे पुत्रवृद्धिर्यशो रिपौ ॥ ३८ ॥ स्मरे भोगोऽष्टमे मध्यो धर्मगः सिद्धिदो गुरुः । व्योम्नि राज्यं धनं लाभे व्यये भवति सिद्धिदः ॥ ३९ ॥ लग्ने शुक्रो निधिं दद्यात्कोशे वित्तमथानुजे । मानोन्नति सुखे स्थैर्य वंशवृद्धिं सुते स्थितः ॥ ४० ॥ रिपो मध्योऽस्तगः कुर्यात्स्त्रीलाभ मध्यमोऽष्टमः। तपस्यन्नं पदे राज्यं लाभे श्रीः सव्ययो व्यये ॥ ४१ ॥ गृहभङ्गस्तनौ मन्दे नृपकोपाकादिभिः । धने बन्धुजनाद्धानिः सहजस्थे धनागमः ॥ ४२ ॥ सुखे सीमोद्भवं वैरं पुत्रे पुत्रात्पराभवः । षष्ठे शत्रुजनाध्वंसः कलत्रे दारदूषणम् ॥ ४३ ॥ छिद्रेऽस्त्रादिभयं घोरं धर्म प्रीतिः कुकर्मणि । मध्ये मन्दो गृहं शून्यं श्रीराये व्यसनं व्यये ॥ ४४ ॥ अहेवासोऽङ्गगे राही केतो भूतादिभिगृहे । शेषभावफलं ज्ञेयं राहु केत्वोरिनारवत् ॥ ४५ ॥ जामित्रशुद्धिमुद्दाहे व्रते भाव्यं तु पश्चमम् । याञायामष्टमं तद्वत्पातालं च प्रवेशने ॥ ४६ ॥ चतुर्दशी चतुर्थी च नवमी च तथाऽष्टमी । षष्ठी च द्वादशी चैव शुभकार्ये न शोभनाः ॥ ४७ ॥ भूताङ्कतत्त्वशकाङ्कदशनाड्यः क्रमेण तु । तासां वाः शुभे कार्ये शेषनाड्यः शुभाय हि ॥ ४८ ॥ बृहन्मार्तण्डे-केन्द्रत्रिकोणगृहगैबुधजीवशुक्रैः पापैश्च मुक्तिनिधनव्ययकर्मगैश्च । ग्राम्ये स्थिरेऽप्युपचये स्वभजन्मलग्ने लग्नाच्छशी ह्यपचये प्रविशेत्स्ववेश्म ।। ४९ ॥ श्रीपतिः त्रिकोणकेन्द्रगैः शुभरकण्टकाष्टमान्त्यगैः । असद्ग्रहैः स्थिरोदये गृहं विशेद्धले विधौ ॥ ५० ॥ केन्द्रच्छिद्रव्ययैः शुद्धैः क्रूरैः षट्च्यायगगुरौ । लग्ने भृगौ च केन्द्रे वा स्थिरग्राम्योदये विशेत् ॥ ५१ ॥ रत्नमालायांकृत्वा विप्रान्सजलकलशं चाग्रतो वामतोऽ: स्नातः स्रग्वी विमलवसनो मङ्गलैवेदघोषः । व्यस्तैर्यात्राकथितशकुनै
१ घ. दृग्योगं स्वोच्चभ् ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
१७९ रिमार्गेण राजा: हयं पुष्पप्रकररचितं तोरणाढ्यं विशेच्च ॥ ५२ ॥ वास्तुशास्त्रेलनात्मागादितो दिक्षु द्वौ द्वौ राशी नियोजितौ । एकमेकं न्यसेत्कोणे सूर्य वामे विचिन्तयेत् ॥ ५३ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-रन्ध्रात्पुत्राद्धनादायात्पञ्चस्व स्थिते क्रमात् । पूर्वाशाभिमुखं गेहं विशेद्वामो भवेद्यतः ॥ ५४ ॥ विवाहे व्रतबन्धेऽनप्राशने चाभिषेचने । सीमन्तेऽप्यरिगश्चन्द्रो नेष्टः शेषेष्वगर्हितः॥ ५५ ॥ ज्योतिपार्णवे-केन्द्रत्रिकोणद्विपदेषु पापाः कुर्वन्ति भीतिं बहुधा क्षतिं च । हानि व्ययस्था मरणं मृतिस्था रोगं स्वदेशाद्गमनं च मूर्ती ॥५६॥ लाभारिविक्रमगता धनकीर्तिदाः खलाः सौभ्यास्त्रिकोणधनविक्रमकेन्द्रलाभगाः । सौख्यार्थलाभजनसख्यसदन्नमानदाः षष्ठे शुभः शुभकरोऽन्यमते न मध्यः ॥ ५७ ॥ श्रीपतिःततो नृपो विप्रसुहृत्पुरोधसः शिल्पज्ञभूगोलविदश्च भागिनः । धनैश्च रत्नैः पशुभिः समर्चयेत्सदाऽन्धदीनान्पुरवासिनस्तथा ॥ ५८ ॥ कश्यपः-एवं यः प्रविशेद्राजा योगे दैवज्ञकीर्तिते । काले शास्त्रोक्तविधिना शरीरं सुखमश्नुते ॥ ५९ ॥ नारदः-अकपाटमनाच्छन्नमदत्तबलिभोजनम् । गृहं न प्रविशदेवं विपदामाकरं हि तत् ।। ६० ॥
इति गृहप्रवेशः ।
अथ वास्तुपूजाविधानम् । अकृत्वा वास्तुपूजां यः प्रविशेन्नवमन्दिरम् । रोगान्नानाविधान्क्लेशानश्नुते सर्वसंकटान् ॥ १ ॥ वास्तुपूजाविधि वक्ष्ये नववास्तुप्रवेशने । हस्तमात्रा लिखेद्रेखा दशपूर्वा दशोत्तराः ॥ २ ॥ गृहमध्ये तण्डुलोपर्येकाशीतिपदं भवेत् ।। पश्चोत्तरान्वक्ष्यमाणांश्चत्वारिंश ४५ त्सुरान्यसेत् ॥ ३॥ द्वात्रिंश ३२ द्वाह्यतः पूज्यास्तत्रान्तःस्थास्त्रयोदश १३ ॥ तेषां स्थानानि नामानि वक्ष्यामि क्रमशोऽधुना ॥४॥ ईशानकोणतो बाह्या द्वात्रिंश ३२ त्रिदशा अमी । कृपीटयोनिः पर्जन्यो जयन्तः पाकशासनः ॥ ५॥ सूर्यसत्यौ भृशाकाशौ वायुः पूषा च नैर्ऋतः । गृहक्षतो दण्डधरो गन्धर्वो भूगुराजकः ॥६॥ मृगः पितृगणाधीशस्ततो दौवारिकाह्वयः । सुग्रीवः पुष्पदन्तश्च जलाधीशस्तथाऽसुरः ॥ ७ ॥ शेषः पापश्च रोगश्च भोगिमुख्यो निशाचरः । सोमः सर्पो दित्यदिती द्वात्रिंशत्रिदशा अमी ॥ ८ ॥ अथेशानादिकोणस्थाश्चत्वारस्तत्समीपगाः । आपः सावित्रसंज्ञश्च जो रुद्रः क्रमादमी ॥ ९ ॥ मध्ये नवपदो ब्रह्मा तस्याष्टौ
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श्री शिवराजविनिर्मितो
च समीपगाः । एकान्तराः स्युः प्रागायाः परितो ब्रह्मणः स्मृताः ॥ १० ॥ अर्यमा सविता चैत्र विवस्वान्वसुधाधिपः । मित्रोऽथ राजयक्ष्मा च तथा पृथ्वीधरः क्रमात् ॥ ११ ॥ आपवत्सोऽष्टमः पञ्चचत्वारिंशत्सुरा अमी । आपश्चैवाऽऽपवत्सश्च पर्जन्योऽग्निर्दितिः क्रमात् || १२ || पदिकानां च वर्गोऽयमेवं कोणेष्वशेषतः । तम्मध्ये विंशतिर्बाह्या द्विपदास्ते तु सर्वदा ॥ १३ ॥ अर्यमा च विवस्वांश्च मित्रः पृथ्वीधरादयः । ब्रह्मणः परितो दिक्षु चत्वारस्त्रिपदाः स्मृताः ॥ १४ ॥ ब्रह्माणं च तथैकद्वित्रिपदानर्चयेत्सुरान् । वास्तुमन्त्रेण वास्तुज्ञो दूर्वादध्यक्षतादिभिः ॥ १५ ॥ ब्रह्ममन्त्रेण वा श्वेतवस्त्रयुग्मं प्रदापयेत् । आवाहनादिसर्वोपचारांथ क्रमशस्तथा ॥ १६ ॥ नैवेद्यं विविधानेन वाद्यैः सह समर्पयेत् । ताम्बूलं च ततः कर्ता प्रार्थयेद्वास्तुपुरुषम् ॥ १७ ॥ ॐ वास्तुपुरुष नमस्तेऽस्तु भूशय्याभिरत प्रभो । महं धनधान्यादिसमृद्धं कुरु सर्वदा ॥ १८ ॥ इति प्रार्थ्य यथाशक्त्या (क्ति) दक्षिणामर्चकाय च । दद्यात्तत्रैव विप्रेभ्यो भोजनं य स्वशक्तितः ॥ १९ ॥ अनेन विधिना सम्यग्वास्तुपूजां करोति यः | आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धान्यं लभेम्वरः ॥ २० ॥ वराहः - किमपि किल भूतमभवद्रुन्धानं रोदसी शरीरेण । तदमरगणेन सहसा विनिगृह्याधोमुखं न्यस्तम् || २१|| येन च यत्र गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितं तु तत्रैव । तस्य समयं विधाता वास्तुरिति
कल्पयामास ।। २२ ॥
इति वास्तुपूजाविधानम् ।
अथ सूतिकागृहनिर्माणविधिः ।
गर्ग:--वारेऽनुकूले राशौ तु दग्धदोपादिवर्जिते । स्वानुकूल दिशि प्रोक्तं सूतिकाभवनं बुधैः || १ || रत्नकोशे - आसन्नप्रसवे मासि कुर्याच्चैव विशेषतः । तद्वत्प्रसवकाले स्यादिति शास्त्रेषु निश्चयः ॥ २ ॥ लः- पुनर्वसौ नृपादीनां कर्तव्यं सूतिकागृहम् । श्रवणाभिजितोर्मध्ये प्रवेशं तत्र कारयेत् ॥३॥ वसिष्ठःअथातः संप्रवक्ष्यामि सूतिकागृहवेशनम् । मासे तु नवमे प्राप्ते पूर्वपक्षे शुभे दिने । प्रसूतिसंभवे काले सद्य एव प्रवेशयेत् ॥ ४ ॥ गर्ग :- रोहिण्यै - देवपौष्ण्येषु स्वातीवारुणयोरपि । पुनर्वसौ पुण्यहस्तधनिष्ठायुत्तरासु च ॥५॥ मैत्रे त्वा तथाऽश्विन्यां सूतिकागारवेशनम् । स्मृत्यर्थनाशौ मृत्युश्च वृद्धिः पुष्ट्या युरीप्सितम् || ६ || मृत्युश्च मरणं पित्रोर्मरणं तु ततस्त्रिषु । मेषादिकमशो विद्यात्सूतिकागारवेशनम् ॥ ७ ॥ गृहेऽनुकूले राशौ तु रिष्फषष्ठाष्टवर्जिते ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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सर्वे चाथ शुभाः केन्द्रे पापाश्च त्रिषडायगाः । शुभांशे शुभदृष्टौ तु सूतिकावेशनं शुभम् ॥ ८ ॥ विष्णुधर्मे पुष्करः - प्रविशेत्सूतिकासंज्ञं कृतरक्षं समन्ततः । सुभूमौ निर्मितं सम्यग्वास्तुविद्याविशारदैः || ९ || प्राग्द्वारमुत्तरद्वारमथवा सुदृढं शुभम् । देवानां ब्राह्मणानां च गवां कृत्वा च पूजनम् ॥ १० ॥ विप्रपुण्याहशब्देन शङ्खवेणुरवेण च । प्रसूता बहवस्तत्र तथा क्लेशक्षमाश्च याः || ११ || विश्वसनीया विप्राश्च प्रविशेयुः स्त्रियश्च तत् । तथाऽनुलेपनैर्धूपैस्तथैवमुपचारयेत् || १२ || आहारैश्व विहारैश्व प्रसवाय सुखं द्विजाः । एरण्डमूलचूर्णन सघृतेन तथा वृतम् | सुखप्रसवनार्थाय पश्चात्कीये तु तत्क्षिपेत् ॥ १३ ॥ इति सूतिकागृहनिर्माणविधिः ।
अथ प्रसङ्गेन शय्यालक्षणम् ।
तत्राङ्गुलमानं - पराणुरेणुवालाग्रलिक्षायुका यथाक्रमम् । एकैकमष्टगुणितं यवमर्थ्यं प्रकल्पितम् || १ || श्रेष्ठमष्टयवं सप्तयवं मध्यममङ्गुलम् । हीनं षड्यंवमेतेषु यथायोग्यं नियोजयेत् || २ || स्वामिहस्तप्रमाणस्य दलार्घार्धत्रिभागकम् । कर्तुरेवाङ्गुलं तस्याः प्रशस्तं मानकर्मणि ॥ ३ ॥ शिल्पशास्त्रे - सपञ्चाशीतिपर्वाणि दैर्येण परिकल्पयेत् । सैकषष्टचैव विस्तृत्या मञ्चकः पञ्चविंशतिः ॥४॥ एवं शय्या विधातव्या सर्वेषां शयनोचिता । चतुरशीतिपर्वाणि केचिद्दैर्घ्य प्रचक्षते ॥ ५ ॥ ष्टयङ्गुलानि विस्तारं मञ्चकं हस्तसंमितम् । नैवात्राऽऽयविशुद्धिः स्यात्तस्मादन्यैरुपेक्षितम् || ६ || चतुरशीतिकं मानं शय्यायास्तु शतत्रयम् । भूभृतां सुखभोगाप्त्यै कीर्तितं विश्वकर्मणा || ७ || आयशुद्धा तथा कार्या यथा गोहरिकुञ्जराः । तथैव दोलिकामानं यथाशोभं विधीयते ||८|| अस्य विवरणम्३८४ एतान्यङ्गलानि शय्यामानम् । अस्या हस्ताः १६ । तत्रोर्ध्वगान्नमानं सार्धहस्तत्रयम्। उभयोर्गात्रयोः सप्त ७ हस्ताः । तिर्यग्गात्रस्यैकस्य मानं सार्धहस्तद्वयम् २ । द्वयोर्मानं पञ्चहस्तकम् ५ । एकस्य मञ्चकस्योर्ध्वमानं हस्तः १ । चतुर्णां हस्तचत्. टयम् ४ | एवं षोडशहस्ता शय्या राज्ञां सुखभोगप्रदा भवति । गात्रन्यस्तपटस्यात्र संख्या व्याप्ता खकुद्विके । शेषे तद्देवता ब्रह्मा विष्णू रुद्रोऽन्तिमो न सन् ॥ ९ ॥ मानाधिक्ये दरिद्रं स्यान्मानहीने सुखक्षयः । अज्ञात्वा कुरुते शिल्पं शिल्पी दोषमवाप्नुयात् ॥ १० ॥
इति शय्यालक्षणम् ।
१ च. 'त्कार्येषु निक्षि' ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोअथ शयनविधिः ।
शुचिर्लक्ष्मीनृपञ्चास्यं स्मृत्वाऽगस्त्यशिराः स्वपेत् । न प्रतीच्युत्तर शिरा न नग्नो नाऽऽर्द्वपात्स्वपेत् || १ || धान्यगोगुरुदेवाग्निफलकोपरि न स्वपेत् । नहि क्षताजिनकुशकूलच्छायासु पांसुषु ॥ २ ॥ वराहः - धान्यगोगुरुहुताशसुगणां न स्वपेदुपरि नाप्यनुवंशम् | नोत्तरापराशिरा न च नग्नो नैव चाऽऽर्द्धचरणः श्रियमिच्छन् || ३ || स्वगृहे प्राक्शिराः शेते श्वाशुर्ये दक्षिणाशिराः । प्रत्यक्शिराः प्रवासे तु न कदाचिदुदक्शराः || ४ || सुतल्पे वैदिकैस्तार्क्ष्यमन्त्रैः संरक्ष्य च स्मरेत् । संकटेऽपि च याम्याङ्घ्रिः स्वपेत्सुग्रीवमुच्चरन् ॥ ५ ॥ माधवोऽगस्तिरास्तीकः कपिलो मुचकुन्दकः । स्मृत्वैताच्छ्रीनृसिंहाद्धिं स्मरनुच्छीर्षकं स्वपेत् ॥ ६ ॥ इति शयनविधिः ।
इति ज्योतिर्निबन्धे गृहारम्भप्रकरणम् ।
अथ राज्याभिषेकप्रकरणम् ।
यसिष्ठः- आधानजन्मेशदशाधिनाथरवीन्दु सौम्ये ज्यसितैर्बलिष्ठैः । उत्पातदोपादिकवर्जितेषु धराधिपानामभिषेकमाहुः || १ || भूपाभिषेचनं ज्येष्ठाश्रुतिक्षिप्रमृदुभ्रुवैः । रिक्ताक्रूरोज्झितैः शस्तं स्थिरोपचयकृत्तनौ ॥२॥ मूलत्रिकोणस्वगृहोचमित्रगृहस्थितैर्वाऽथ तदंशसंस्थैः । शुभे विलग्ने सततं ग्रहेन्द्रा दिशन्ति लक्ष्मीं विपुलां च कीर्तिम् || ३ || स्वनीच वैरिगृहगैस्तदंशैर स्तंगतैर्वक्रमुपागतैर्वा । पापोदये शोकभयं विकीर्ति दिशन्ति राज्ञां भृशमम्बराटाः || ४ || शीर्षोदये चोपचये गृहे वा स्वजन्मलग्नादथ लग्नगेऽपि । शुभैर्ग्रहैर्युक्तनिरीक्षितैर्वा पदं स्थिरं स्यात्सततं हि राज्ञाम् ॥ ५ ॥ रिक्ताव ( याम) मायामथ भौमवारे वर्ज्येषु वारेषु दिनेषु चैवम् । बलेर्दिने ऋक्षनिशेशयोश्च न नैधने मे त्वभिषेक इष्टः ॥ ६ ॥ पापग्रहैः स्वान्त्यगतैश्च निःस्वो रोगी विलग्नोपगतैर्भवेत्सः । पदच्युतः सप्तचतुर्थगैस्तै: पुत्र-स्थितैः सर्वसुखैर्विहीनः॥७॥ भ्रष्टोत्सुकः कर्मगतैरनायुर्मृत्युस्थितैवर्ययुतैः सपापैः। नूनं व्ययाष्टारिगतः शशाङ्कः क्षितीश्वरं हन्ति तदा वली चेत् ॥ ८ ॥ त्रिकोणकेन्द्रत्रिधनाय संस्थैत्रिपष्टलाभारिगतैश्व पापैः । पष्ठाष्टलग्नव्ययवर्जितेन चन्द्रेण राज्ञां शुभदोऽभिषेकः ।। ९ ।। यस्याभिषेके सुरराजमन्त्री लग्ने त्रिकोणे यदि वा भवेत्सः । षष्ठे कुजः कर्मगतश्च शुक्रः स मोदते विक्रमराज्यलक्ष्म्या ॥ १० ॥
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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दुश्चिक्मलाभारिगताविनाक खस्थोऽमरेज्यो यदि बन्धुगो ज्ञः । यस्यात्र योगे क्रियतेऽभिषेकश्विरायुषस्तस्य पदं स्थिरं स्यात् ॥ ११ ॥
इति राज्याभिषेकप्रकरणम् ।
अथ यात्राप्रकरणम् ।
नारद:- अथो यात्रा यथा नृणामभीष्टफलसिद्धये । स्यात्तथा तां प्रवक्ष्यामि सम्यग्विज्ञातजन्मनाम् || १ || अज्ञातजन्मनां नृणां फलाप्तिर्घुणवर्णवत् । प्रश्नोदयनिमित्ताद्यैस्तेषामपि फलोदयः || २ || यात्राविधानं कथयाम्यथातः सर्वैरुपेतस्य गुणैजिंगीपोः । अतर्किते जन्मनि तस्य" याने फलाप्तिरुक्ता घुणवर्णतुल्या ॥ ३ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे—ज्ञात्वाऽऽयुः कार्यसिद्धिं च निवृत्त्यादि ततो वदेत् | यात्रायाः समयं सम्यग्दृष्ट्रा जन्मदशादिकम् ॥ ४ ॥ गर्ग :-- सद्दशायां शुभा यात्रा यष्टवर्गे शुभा समा । न्यूना तत्काललग्नादौ तिध्यादावधमा मता ॥। ५ ।। रत्नमालायाम्–अज्ञातजन्मनोऽप्यन्यैर्यानं योज्यमिति स्मृतम् । प्रश्नोदयनिमित्ताद्यैर्विज्ञाते सदसत्फले || ६ || विद्वज्जनवल मे - संप्रेर्यमाणो ह्यवशः शरीरी सदैवेन शुभाशुभेन । ज्योतिर्विदः संनिधिमेत्य तस्मात्मनोऽप्यतो जन्मैसमः फलेन ॥ ७ ॥ भूप लक्लने - सुभूमौ फलहस्तः सन्सुवेषः सुवचा नृपः । पृच्छेच्छुभं तदा वाच्यमन्यथा न शुभावहम् || ८ || माण्डव्यः – हस्तास्यस्तनकण्ठोष्ठनासागण्डकटिश्रुती: । अङ्गुष्ठाङ्घयं स गुह्यानि स्पृशन्पृच्छेच्छुभं चदेत् ।। ९ ।। भृगुः-याताऽर्कपृष्ठतः पाणिग्रहो गम्यः पुरः स्थितः । आक्रन्दोऽकत्सिप्तमस्थस्तत्रत्याः शक्तितस्तु ते ॥ १० ॥ श्रीपतिः - जन्मराशिरुत जन्मविलग्नं तत्पती उदयगौ यदि वाऽस्तः । त्र्यायकर्मरिपुभान्युत ताभ्यां शत्रुक्षयमहि तदानीम् ॥ ११ ॥ इदमप्यरिसंभवं यदाऽऽस्ते हिबुके वा विजयस्तथाऽपि यातुः । शिरसोदयमेति यश्च राशिर्जयकृत्सोऽप्युदये तथेष्टवर्गः ॥ १२ ॥ करोति राशि - र्गमनं फलं च चरो विल शुभदृष्टियुक्तः । स्थिरोदये स्यागमनं न यातुः शुभं शुभैर्दृष्टयुतेऽत्र वाच्यम् || १३ || द्विमूर्तिशात्रुदयं प्रपन्ने क्रूर ग्रहैर्युक्त निरीक्षिते च । प्रयाति यद्यप्यधस्तदानीं निवर्तते शत्रुजनाभिभूतः ॥ १४ ॥ ज्योतिप्रकाशे - वाच्यं सभायां सदिति भाव यद्यप्यसत्फलम् । भूभुजे मन्त्रिणे वाऽपि कथनीयं रहः स्फुटम् ॥ १५ ॥ भूपाल: - दीप्तः स्वोच्चे स्वभे स्वस्थो
१ क- नफले लिने ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
मुपितोऽयुतो ग्रहः । नीचो दीने मित्रभे तु हृष्टः पीडायुतौ जितः || १६ || रिपुराशिगतस्तप्तः स्त्रांशे सौम्येक्षितो वली । प्रवृद्धवीर्यः सोचाभिमुखो नीचादिनिर्गतः ॥ १७ ॥ जन्मपो लग्नपथैव यात्रेशः स्वदशाधिपः । चिन्तनीयो नृपो यस्मात्तद्रलेन बलान्वितः ॥ १८ ॥ कश्यपः - त्रिकोणोच्चैः शुभैः श्रेष्ठा यात्रा मध्या स्वमित्रभे । नीचेऽरिभेऽधमा प्रोक्ता श्रेष्ठाऽरिव्यसनेऽथवा ॥ १९ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे – चरे शीर्षोदये यानं शुभस्वामियुतेक्षिते । पूर्णनाड्यां तथा ज्ञेयं विपरीतं न शोभनम् ॥ २० ॥
इति यात्रायां शुभाशुभम् ।
अथ यात्रानिवृत्तिकालः ।
बादरायणः - उद्गतकलासमूहं परमायुस्ताडितं समुद्धृत्य । मण्डलकलाभिराप्तो वर्षादिरथाऽयुषः कालः || १ || रत्नावस्थां षष्टिः षष्टिरथाष्टौ विंशतिरेकाधिकं च वर्षाणाम् । त्रिंशदधिकं च शतं विंशत्या समधिकं चैव || २ || उदयोपगतराशेस्त कलाकृत्यलिप्तिकां गुणयेत् । छायाङ्गुलैः पृथकंस्थां हृत्त्वा मुनिभिः शेषम् (?) || ३ || ग्रहगुणकारो ज्ञेयो दैवविदा पञ्चविशतिः सैका । मनवोऽष्टौ त्रितयं भावाश्च सूर्यादितो ज्ञेयाः ॥ ४ ॥ गुणायित्वैवं प्राग्वद्धृत्वा सौम्यस्य यदि भवेदुदयः । कार्यप्राप्तिः प्रष्टुर्वक्तव्या नेतरे भवति ॥ ५ ॥ गुणकारैक्यविभक्तः शेषोऽर्कादेर्विशोधयेद्गुणकान् । यस्य न शुध्यति लग्नं न ज्ञेयस्तद्वशात्कालः ||६|| भौमदिवाकरवे दिवसाः पक्षाच भृगुशशिनोः । गुर्ववशेषे मासा ऋतवः सौम्ये शनैश्वरेऽब्दाः स्युः ॥ ७ ॥ पृथुवशाः - ग्रहः सर्वोत्तमबल लगाद्यस्मिन्गृहे स्थितः । मासैस्तत्तस्य संख्या के र्निवृतिं यातुरादिशेत् ॥ ८ ॥ चरांशस्थ ग्रहे तस्मिन्कालनेनं विनिर्दिशेत् । द्विगुणं स्थिरभागस्थे त्रिगुणं द्वयात्मकांशके ॥ ९ ॥ गर्ग : - यातुर्विलग्रजामित्रभवनाधिपतिर्यदा । करोति वक्रामावृत्तिं कालं तं ब्रुवते परे ॥ १० ॥ इति यात्रानिवृत्तिकालः ।
अथ यात्रायां पञ्चाङ्गशुद्धिः ।
श्रीपतिः - निहन्त्युलूको निशि का िकाकोsप्युलूकं हरिमप्सु नक्रः । स्थले मृगारिर्मकरं यतोऽतो देशस्य कालस्य बलं विचिन्त्यम् ॥ १ ॥
* श्लोकोऽयं ख. व पुस्तकयोर्नस्ति ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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गर्गः श्रेष्ठाः सिंहाजचापेऽर्के मध्या ज्ञाकशिनो भगे । मीनकक्र्यालि दीर्घा मार्गेऽर्कः पृष्ठतः शुभः || २ || लल्लः - अथ भवति विजयसमयश्चैत्रे ज्येष्ठे च मार्गशीर्षे च । सद्योऽरिव्यसनेऽपि च महीपतेः शक्तियुक्तस्य || ३ || भृगुः - याने सूर्यो - दये चारा हनिबलक्षयम् । रोगं सौख्यं श्रियं भोगान्सैन्यनाशं क्रमात्फलम् ॥ ४ ॥ ललुः – उपचयकरे ग्रहदिने सिद्धिः क्रूरेऽपि यायिनां भवति । सौम्येऽप्यनुपचयस्थे न भवति यात्रा शुभा यातुः || ५ || ज्योतिष्प्रकाशे-जलयात्रा शुभा सोमे युद्धयात्रा शुभा वौ । पशोर्यानं बुधे त्याज्यं सौमे लोम न चालयेत् || ६ || रत्नकोशे - एकादशी द्वितीया त्रयोदशी पूर्णिमा तृतीया च । श्रेष्ठा प्रतिपदशमी सप्तमी पञ्चमी याने || ७ || बृहस्पतिः - सर्वाः स्युस्तिथयः शस्ताः शुक्ले त्वाद्यद्वयं विना । कृष्णे स्वन्त्यत्रयं चैव षष्ठीं रिक्तां परित्यजेत् ॥ ८ नारद: - पष्ट्यष्टमद्वादशीषु रिक्तामावर्जितासु च । यात्रा शुक्ले प्रतिपदि निधनायाधनाय च ॥ ९ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - श्रुत्यादित्यान्त्ययुग्मार्क - मृगमैत्रैर्गतिः शुभा । मध्यमा वारुणं ज्येष्ठात्रयं भाग्यं स्थिरैर्भवेत् ॥ १० ॥ चित्रात्रयाज पादार्द्राय माग्निपितृसाभम् । रिक्तामाद्वादशीः षष्ठी जन्मभं गमने त्यजेत् ॥ ११ ॥ रत्नमालायां - हस्तेन्दुमैत्रश्रवणाश्वितिष्यपौष्णश्रविष्ठाश्च पुनर्वसुश्च । श्रेष्ठानि धिष्ण्यानि नव प्रयाणे त्यक्त्वा त्रिपञ्चादिसप्तताराः ॥ १२॥ दैवज्ञवलमे - आर्द्राविशाखा बहु लाजयाम्यचित्रामयास्वातिभुजङ्गमानि । प्रोक्तानि याने न शुभप्रदानि शेषाणि नेष्टानि न निन्दितानि || १३ || शूलं ज्येष्ठेन्दुमन्दाः प्राक् प्रत्यग्ब्राह्मार्कभार्गवाः । याम्येऽन्त्यपञ्चधिष्ण्येज्या ज्ञारार्यमभमुत्तरे ॥ १४ ॥ चन्द्रे मन्दे न च माचीं न गच्छेद्दक्षिणां गुरौ । न प्रतीचीं ral शुक्रे बुधे भीमे न चोत्तराम् || १५ || ज्योतिष्प्रकाशे - नोल्लङ्घ्या वायुवह्रिस्था रेखाः सप्तारिकेऽग्निभात् । यदि लग्नविशुद्धिः स्यान्न दुष्टं परिघादिकम् ॥ १६ ॥ गर्गः - प्रागादि सप्त सप्त स्युः कृत्तिकादीनि भानि तु । तत्राग्न्यनिलदिग्रेखा परिघाख्यां न लङ्घयेत् ॥ १७ ॥ श्रीपतिः - प्रयोजनेष्वात्ययिकेषु भूपतिर्विलङ्घ्य रेखामपि पारिधीं व्रजेत् । विहाय दिक्शूलसमायानुडून्यदि स्वग्लिप्रविशुद्धिराप्यते ॥ १८ ॥ नारदः प्रेय्यां पूर्वदिग्धिण्ण्यैर्विदिशचैवमेव हि । दिग्राशयः स्युः क्रमशो मेषाद्याश्च पुनः पुनः ।। १९ ।। व्यासः -- - ध्रुवैर्मिश्रर्न पूर्वाह्णे वासरा न तीक्ष्णभैः । नापराधे तथा क्षिषैवर्दन्ति गमनं शुभम् || २० || मृदुभिर्नरजन्यादौ निशामध्ये वरोग्रभैः । न चरैः शर्वरीशेषे कुर्वीत गमनं
C
-
१. 'शे कर्णा ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोसुधीः ॥ २१ ॥ गर्गः-पुष्ये मैत्रे करेऽश्विन्या सर्वाशागमनं शुभम् । सर्वकाले हिता यात्रा हस्ते पुष्ये मृगे श्रुतौ ॥ २२ ॥ त्याज्यप्रकरणे दोषा ये प्रोक्तास्तान्विवर्जयेत् । भद्रा याने परित्याज्या क्षणाश्च निन्दितायाः ॥ २३ ॥ बादरायणः-मध्याह्न सर्वदा ज्ञेयो मुहूर्तोऽभिजिदादयः । तस्मिन्यानं सर्वदिक्षु शुभं याम्यदिशं विना ॥२४॥रत्नकोशे-अभिजित्संज्ञे धिष्ण्ये श्रवणापाढान्तरे भवति । तस्मिंश्च संप्रपातः सर्वार्थान्साधयेन्नित्यम् ॥२५॥ ज्योतिष्प्रकाशे-भद्राकुलिकपाताया दोषास्त्याज्याः प्रयत्नतः । लब्ध्वा चन्द्रबलं शुद्धे धिष्ण्ये लग्ने गमः शुभः ॥ २६ ॥ क्रान्तिपाते भवेन्मृत्युः कुलिके च महद्भयम् । यामार्धे सति शोकः स्याद्भद्रायां भङ्गमादिशेत् ।। २७ ॥ व्यसनं मरणं चापि व्यतीपाते च वैधृतौ । दिनक्षये युद्धौ वा संक्रमे च पराभवः ॥ २८ ॥ हानिः क्रूरयुते भे स्याद्भयं दग्धे च धूमिते । यातुश्चन्द्रबलाभावे यात्रा शस्ताऽप्यनर्थदा ॥ २९ ॥ यात्राशिरोमणौऋते चन्द्रबले पुंसां यात्रा शस्ताऽप्यनर्थदा । व्याख्या गम्भीरशास्त्राणां संप्रदायं विना यथा ॥ ३० ॥ कलहः सूतिकाशीचे रोगः स्याद्राहुसूतके । तिथिदोषेण संतुष्टिारदोषे मनश्चलम् ॥ ३१ ॥ गर्ग:-रवीन्द्वयनयोर्यानमनुकूलं शुभप्रदम् । तदभावे दिवा रात्री यायाद्यातुर्वधोऽन्यथा ॥ ३२ ॥ पूउआनंदपवाईदिक्ष प्रतिपदादितः । योगिनी संमुखा त्याज्या याने वा दक्षिणे सदा ॥ ३३ ॥ प्राच्यां याने कुजे लाभो मन्देन्द्रोदक्षिणे सुखम् । ज्ञे गुरौ पश्चिमे सिद्धिः शुक्रेऽके चोत्तरे शुभम् ॥ ३४ ॥ रत्नावल्यां-तिथ्यां यात्रासिद्धिः करणे न सुखं धनं मुहूर्तवशात् । नक्षत्रेणावश्यं यातुरथाऽऽयुस्तथा वित्तम् ॥ ३५॥ वारेण सौमनस्यं शुभेन चन्द्रेण मित्रसंप्राप्तिः । सर्वे गुणाः समुदिता लग्नेनैकेन लभ्यन्ते ॥ ३६॥ यात्राप्रदीपे-लग्नदोषे तु संप्राप्ते ये कुर्वन्ति प्रयाणकम् । प्रत्यावृत्तिभवेत्तेषां यदा खे पुष्यदर्शनम् ॥ ३७ ॥ रविभादिनभं नगहृदङ्गगुणविडालाडलद्विनगैः । तन्नक्षत्रे यानं विवय॑मिति देवलः प्राहः । वा यात्रा युद्धे रोगारम्भे च मङ्गले नैव ॥ ३८ ॥ तथा च-रत्नकोशे-दिनकरकरप्रतप्तां मकरादावुत्तरां च पूर्वी च । यायाच्च कर्कटादौ याम्यामाशां प्रतीची च ॥३९॥ नक्षत्रसमुच्चये-यात्रीयन्त्रहलप्रवाहसमरे चौर्ये च संधौ तथा कूपारामतडागबन्धनविधौ पापर्धिदुर्गग्रहे । अश्वेभोष्टरथादिरोहणकृतौ त्याज्यं संदेवाऽऽडलं तेनान्यत्र शुभेषु मङ्गलविधौ दोषो न तस्य कचित् ।। ४० ॥ बादरायणः-तिथयः पक्षगुणिताः सप्तभिर्भाजितास्तथा । स्युारा वह्निगुणिता वसुभिश्चैव भाजिताः॥४१॥
१ क. गायुद्धह।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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चतुर्गुणानि भान्यङ्गभाजितानि यथाक्रमम् । पीडा स्यात्प्रथने शून्येमध्ये शून्ये महद्भयम् ॥ ४२ ॥ अन्त्ये शून्ये तु मरणं त्रिशून्यरहितं शुभम् । तिथिवासरनक्षत्रमं कैकं स्थापयेत्रिधा ॥ ४३ ॥ अस्मिन्पक्षे वारे शून्यं नाऽऽयात्येव । पक्षान्तरं-तिथिवासरऋक्षाणां योगं कृत्वा त्रिधा लिखेत् । द्वित्रिवेदैः संगुणितं सप्ताष्टरसभाजितम् ॥ ४४ ॥
अथ पन्था राहुः ।
धर्मे शशिनस्तदादि तु फलं वैरं जयो भङ्गता लाभश्चेति तथाऽर्थतः क्षयसमत्वे लाभवस्त्रागमौ । तद्वत्कामगते रवौ भयधने सौख्यं जयः कीर्तितो मोक्षेऽर्के मृतिलाभनिष्फलसमत्वे राहुपन्था इति ॥ १ ॥ इति यात्रायां पञ्चाङ्ग-शुद्धिः ।
अथ यात्रायां दोहदप्रकरणम् ।
तिथिवारर्क्षचन्द्रेभ्यो लग्नं कोटिगुणं स्मृतम् । तस्मान्निषिद्धतिध्यादेर्दोषः स्वल्पतरो मतः ॥ १ ॥ तथाऽपि निन्यतिथ्यादौ कृत्वा दोहदकं विधिम् । केवलं लग्नवीर्येण गतो राजा क्षितिं जयेत् ॥ २ ॥ तिथिष्वर्कजलं प्राश्यं तण्डुलोदकसर्पिषी । हविष्यं दधि सस्वर्ण तिलाम्भोवीजपूरकम् ||३|| माषा विश्वभरामूत्रं पिष्टकं तिलपिष्टकम् । कन्दो मूलं तथा शाकं शस्तवृक्षदलानि च ॥ ४ ॥ मज्जिकां पायसं साज्यं सौवीरं कथितं पयः । दधि क्षीरमतं च वारेष्वद्यातिलौदनम् ॥ ५ ॥ क्रमद्दत्रगुणाः ३२ षष्टिः ६० खाङ्काः ९० खाक्षाः ५० खसागराः ४० । खाष्टौ ८० खागाः ७० परे प्राहुर्मन्दादेर्भोगनाडिकाः || ६ || अर्कादौ धारयेद्भाले कुङ्कुमं चन्दनं मृदम् । यवान्दार्धं घृतं तैलं वारशूलापनुत्तये ॥ ७ ॥ ताम्बूलं चन्दनं मृच्च पुष्पं दधि घृतं खलम् । वारशूलहराण्यक - द्दानाद्धारणतोऽदनात् ॥ ८ ॥ बृहस्पतिः - सूर्यवारे घृतं प्राश्यं सोमवारे पयस्तथा | गुडमङ्गरवारे च बुधवारे तिलानपि ॥ ९ ॥ गुरुवारे दधि प्राश्यं शुक्रवारे यवानपि । माषान्भुक्त्वा शनैर्वारे शूले गच्छन्न दोषकृत् ॥ १० ॥ भक्ष्यान्भुक्तोदितान्कृत्वा यात्रायोगेण गच्छता । प्रियं वदन्वेवरे शय्यामध्युष्य शीतगोः ॥ ११ ॥ गयावृत्तो धरासूनोर्वारे ज्ञस्य तु हारधृक् । भस्मधृग्जीववारे स्याच्छित्त्वा यष्टिं भृगोर्दिने || १२ || कलही मन्दवारे च यातुः कृत्यान्यमी
१ । क. केदलं । २ व 'मागु' । ३ ख. घ. खला । वा' ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो(नु ) क्रमात् । भत्यैश्च तिलकैः कृत्यैर्वारदोषो विलीयते ॥ १३॥ दैवज्ञवलभेस्विन्नाः स्युः साक्षता माषास्तण्डुलास्तिलसंयुताः । दधि गोपार्षतं मांसं मृग. मांसमसृक्ततः ॥ १४ ॥ विलापनं पायसं च वैहङ्गं पिशितं तथा । तिलौदनं पष्टिकानं षष्टिकानं प्रियङ्गवः ॥ १५॥ चित्रान्नममलं यावं कुलित्था मधुसपिषी । मूलाम्बु सक्तवः शालिः शाकं मांसं बिडालजम् ॥ १६ ॥ आज यथे. ष्टमांसं च सक्तवो माषमिश्रिताः । अश्विन्यादिषु धिष्ण्येषु प्राश्यं वाञ्छितसिद्धये ॥ १७ ॥ नारदः-कुल्मापांश्च तिलानं च दधि क्षौद्रं पयः स्मृतम् । मृगमांसं च तत्सारं पायसं चापर्क मृगम् ॥ १८ ॥ शशमांसं च षष्टिक्यं प्रियङ्गुकमपूपकम् । चित्राणुजफलं कूर्मश्वाविद्गोधां च शल्यकम् ॥ १९ ॥ हविष्यं कृसरानं च मुद्ान्नं यवषिष्टकम् । मत्स्यानं चित्रितान्नं च दध्यन्नं दस्रभात्क्रमात् ॥ २० ॥ ज्योतिश्चिन्तामणौ-यमाग्न्यजपदा ह्या पैत्रत्वाष्ट्रत्रये गतिः । त्याज्याऽद्रिविश्वभूपेन्द्रेन्द्रेशभूपेन्द्रजिष्णवः ॥ ७ । १३ । १६ । १४ । १४ । ११ । १६ । १४ । १४ ॥ २१ ॥ ज्योतिःसागरे-विवर्जयेत्त्वाष्ट्रयमोरगाणामधं द्वितीयं गमने जयेच्छुः । पूर्वार्धमाग्नेयमघाद्विदैवं स्वातीमतेनोशनसः प्रशस्तम् ॥ २२ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-खास्ताम्बुलग्नगे सूर्ये भुक्त्वा यायाघृतं तिलान् । क्षीरं च शर्करां शीघ्र कार्याप्त्यै पूर्वतः क्रमात् ॥ २३ ॥ बृहन्नारद:-गच्छेत्याची घृतं पाश्य दक्षिणाशां तिलौदनम् । प्रतीची मत्स्यमांसानि शुभार्थी क्षीरमुत्तराम् ॥ २४ ॥ बृहस्पति:-अभक्ष्यालभ्यभक्ष्या ये स्मृत्वा स्पृष्टाऽथ तान्द्रजेत् । दत्त्वा वा सिद्धिमामोति दुष्टभादिषु भूपतिः ॥ २५ ॥ उक्तभक्ष्यैश्च नक्षत्रतिथितिथयर्धवारजाः। शुभाशुभग्रहोत्थाश्च सर्वे दोषाः शमं ययुः ॥ २६ ॥
इति यात्रायां दोहदप्रकरणम् ।
अथ लग्नबलविचारः। दैवज्ञवल्लभे-शीर्णोदये यातुरभीष्टसिद्धिः पृष्ठोदये वाञ्छितकार्यनाशः । यातव्यकाष्ठामुखमिष्टदं स्यादनिष्टदं दिक्प्रतिलोमलग्नम् ॥ १ ॥ जन्मोदये सिद्धिकरं प्रयाणं न जन्मराशेरुदये नृपस्य । स्थानान्नयोथोपचयोदयेषु शुभं फलं स्यादितरेषु नाशः ॥२॥ जन्मक्षेलमाष्टमराशिलग्ने षष्ठोदये शत्रुभलग्नतो
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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वा । तद्राशिनाथैरथवोदयस्थैः करोति यानं विषभक्षणं वा ॥३॥ रत्नमालायां— चक्रः पन्था मीनलग्नेंऽशके वा कार्यासिद्धिः स्यानिवृत्तिश्च तत्र । नेष्टः कुम्भोऽप्युगर्मेऽशस्थितो वा लग्ने चाप्येंशे च नौयानमिष्टम् ॥ ४ ॥ गर्गः - दिवा दिनबले लग्ने रात्रौ रात्रिबले तथा । गन्तव्यं वा चरेद्वयङ्गे शुभयुक्ते स्थिरेऽपि वा ।। ५ ।। दैवज्ञवल्लभे- शुभग्रहैर्जन्मनि संयुता ये ये चार्कतः सौभ्ययुता द्वितीयाः । ते राशयो लग्नगताः प्रशस्ता ये क्रूरयुक्ता न शुभावहास्ते । ६॥ सौम्योऽपि यो जन्मनि नेष्टदाता स्थानं न लग्ने शुभकारि तस्य । पापोऽपि यः शस्तफलं तदीयं स्थानं विलग्ने शुभदं प्रयातुः ॥ ७ ॥ शस्तं न कीटालिवृषोदयेषु यानं तदंशेष्वथ वा प्रयातु: । लग्नानि शस्तानि शुभग्रहाणां यन्नौप्रयाणं जलभोदये तत् ।। ८ ।। चतुष्पदा द्वयङ्घ्रिवशा विसिंहाः सरीसृपाचाम्बुचराच भक्ष्याः । सिंहस्य वश्या विसरीसृपाः स्युरूह्यं जनोक्तं व्यवहारोऽन्यत् ॥ ९ ॥ स्थलाम्बुसंभूतसरीसृपाख्या भवन्ति वय्या बलिनां स्वकानाम् । समा संस्था विषमा भजन्ते वश्या रजन्यां विषमाः समानाम् ॥ १० ॥ स्याद्विद्विषो जन्मगृहोदयाम्यां लग्नेऽष्टमे शत्रुवधः प्रयातुः । वधः प्रयातुस्त्वरिभे प्रसूतौ रन्ध्रारिभे क्रूरशुभान्विते च ॥ ११ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - सौम्यक्रूरेषु ये खेटास्तत्कालोपचयावहाः । तेषां वारांशवर्गाः स्युर्याने योज्यास्तनावपि ।। १२ ।। रत्नमालायांमूर्तिः कोशो धन्विनो वाहनानि मित्रं शत्रुर्माग आयुर्मदश्च । व्यापार प्राप्तिर - प्राप्तिरेवं लग्नाद्भावा द्वादशैते विचिन्त्याः ॥ १३ ॥ नन्ति क्रूरास्त्र्यायवर्जे हि भावान्निर्व्यापारं निर्हतः सूर्यभौमौ । सौम्याः पुष्णन्त्येव हित्वाऽरिभावं शुक्रवास्तं मृत्युमूर्तिस्तथेन्दुः ॥ १४ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - सर्वत्रगाः शुभाः सौम्याः पापास्त्र्यायारिकर्मगाः । चन्द्रो नेष्टस्तनौ रन्ध्रे याने खार्किः सितोऽस्तगः ।। १५ ।। धनीधर्मगं सूर्य शुभमिच्छन्ति केचन । प्रयाणे तद्वदक्रूरं प्रशस्तं सर्वगं बुधम् ॥ १६ ॥ केचिदूचुर्व्यये चन्द्रं रिष्फे रन्ध्रे गुरुं त्यजेत् । षष्ठे शुक्रे च यात्रायां दिगीशे केन्द्रगे शुभम् ॥ १७ ॥ राज्यश्रीजयधीमानलाभारोग्यफलोदयान् । पुष्णन्ति घ्नन्ति सूर्याद्याः सदसद्भावगाः क्रमात् || १८ || लग्नपो मृत्युपो याने रन्ध्रास्तारिव्ययोपगः । केऽप्याहुर्भयदो धर्मे शेषस्थाने यशोर्थदः ।। १९ ॥ रत्नकोशे-स्वोच्चगते विजिते रिपौ बलवति लग्नाधिपे कृतागमः । निर्जित्य सार्वभौमं समुपैति गृहं समग्रबलम् ॥ २० ॥ माण्डव्यः - जन्मराशिं त्यजेल्लग्ने तथा भं नष्टवक्रिणोः । अष्टमं तत्पतिं जन्मलग्नं लग्ने यदागमः ॥ २१ ॥ प्रसूतौ
१ ख. तत्त्यजेज्जन्मल' । २ घ 'मपतिर्ल' । ३ क. ' यदोदयः ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोबलहीनो यो यो विरोधी दशापतेः । सांप्रतं विवलश्चासौ लग्ने सौम्योऽपि नेष्टदः ॥ २२ ॥ बलवाञ्जन्मकाले यो दशापालस्य यः सुहृत् । फलदः सांप्रतं खेटो मूर्ती पापोऽप्यभीष्टदः ॥ २३ ॥ दैवज्ञवल्लम-जन्मक्षजन्मलग्नपयोः शत्रुलग्नगः स सौम्योऽपि । कुरुते नृणां विपत्ति क्रूरोऽपि शुभस्तयोमित्रम् ॥ २४ ॥ जन्मःजन्मलग्नेशरिपुः सौम्योऽपि लग्नगः । विनाशदो भवेन्मित्रं तयोः पापोऽप्यभीष्टदः ॥२५॥ वसिष्टः-न तानकारकाख्यो यो जन्मलग्नभयोर्भवेत् । सौम्योऽपि स विलग्नस्थो याने यातुर्विरोधकृत् ॥ २६ ॥ अथ यात्रोपयोगित्वावशिवर्धकरक्षकनापकतानकादीनां लक्ष्मोच्यते-सूर्याद्वितीयमक्षं वेशिस्थानं प्रकीर्तितं यवनः। तच्चेष्टग्रहयुक्ते जन्मनि चेष्टासु च विलग्नम् ॥ २७ ॥ वेशिर्विलग्नोपगतो यियासोविनाऽपि यत्नात्कुरुते फलाप्तिम् । शुभग्रहर्जन्मानि संयुता ये ते राशयो लग्नगताः प्रशस्ताः ॥ २८ ।। यश्चापि पणफरस्थः स भवति रक्षोपगो यस्य । तस्येति ग्रहस्य कारको भवति । यो यस्य च दशस्थस्तस्यहि वश्योपगो ग्रहो ज्ञेयः ॥२९॥ जन्मसमये शशाङ्कगदुपचयसंस्था ग्रहाः केचित् । ते सर्वे तानसंज्ञाः क्रूरा अपि चात्र सौम्यसमाः ॥ ३० ॥ जन्मन्युपचयसंस्थाः परस्परं खेचरा ये च । ते नापका मुनीन्द्रैस्तानसमानाः स्मृता नूनम् ॥ ३१॥ लग्नस्थः सुखसंस्थो दशमस्थश्चापि कारकः प्रोक्तः । एकादशेऽपि केचिद्वाञ्छन्त्यायोः प्रसवकाले ॥३२॥ तुङ्गसुहत्वगृहां स्थिता ग्रहाः कारकाः समाख्याताः । अन्यस्मादशमस्थः स कारकश्चापि निर्दिष्टः ॥ ३३ ॥ अत्र कारको वर्धकः । स्वोच्चत्रिकोणसंस्था अपि केन्द्रगता ग्रहाश्चिन्त्याः । ज्ञेया नापकसंज्ञानुपतायकसंज्ञिता भाग्ये ॥ ३४॥ यवनः-स्वक्षेत्रे रजनिकरो बुधभवने भार्गवो बुधः स्वगृहे । सौरश्चैव तुलायां नापकविधिरेष निर्दिष्टः ॥ ३५ ॥ रक्षका वधकाश्चैव ये स्युर्जन्मनि नापकाः । तान्पापानपि निःशङ्को यात्रालग्ने नियोजयेत् ॥ ३६॥ अशस्तोऽपि भवेच्छस्तः शस्तोऽपि विफालायते | ग्रहो राशिश्च लग्नस्थो रक्षकादिप्रभेदतः ॥ ३७॥ राज्यं श्रियं सैन्यसुखं प्रियशब्दं सुभाग्यताम् । जयं हानि भास्कराया दद्युः सद्भवनं ग्रहाः ॥ ३८ ॥ सौरिस्थानगते सूर्ये शुभो लग्नगतः कुजः । बुधकोणार्कशुक्राणां बुधस्थानस्थितः सितः ॥ ३९ ॥ मन्दः सूर्यग्रहे शस्तः शशी सर्वत्रगः शुभः । चन्द्रास्फुजित्स्थानगतो गुरु व शुभो भवेत् ॥ ४० ॥ एकोऽपि केन्द्रगो वक्री क्रूरः सौम्योऽथवा ग्रहः । वर्गो वा तस्य लग्नस्थो भवेद्यातुर्विनाशदः॥४१॥ ज्योतिष्प्रकाशे-केन्द्रे वक्री मृतिं कुर्यात्तस्य वर्गोदितं तथा । सुखेऽस्तजन्मभेऽङ्गे च भङ्गः पापयुतेक्षिते ॥ ४२ ।। बादरायणः-जन्मपौ केन्द्रगौ ग्राह्यौ तयोः
१ ख. विशेषक।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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शत्रुर्विग्नगः । सौम्योऽपि नाशकद्याने सुहृत्पापोऽपि कार्यकृत् ॥ ४३ ॥ श्रीपतिः - विशाखा कृत्तिकाऽऽप्यानि श्रवणो भाग्यमीज्यभम् । रेवती याम्यमाश्लेषा जननक्षणि सूर्यतः ॥ ४४ ॥ उत्पाताभिहतं यस्य क्रूरग्रहनिपीडितम् । जन्मभं सोऽनुकूलोऽपि न शस्तो लग्नगो ग्रहः ।। ४५ ।। वृद्धनारदः - यदेवोदयसंस्थस्य ग्रहस्य कथितं फलम् । तदेव तस्य वारेऽपि वर्गे वाऽपि विलन || ४६ ॥ दिगीश्वरो ललाटस्थो यदि वा दिग्बलान्वितः । बधबन्धप्रदो यातुः केन्द्रगः सुजयार्थदः ॥ ४७ ॥ नारदः- दिगीशाः सूर्यशुक्रारराह्नाकन्दुजसूरयः । दिगीश्वरे ललाटस्थे यातुर्न पुनरागमः ॥ ४८ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - ललाटेऽर्कस्तनौ प्राच्यां वह्नौ लाभान्त्यगो भृगुः । याने याम्ये खगो भौमो नैऋत्य गोष्ठोः || ४९ || प्रतीच्यां सप्तमो मन्दो वायौ चन्द्रः सुतारिगः । gst बुधः सौम्य गुरुरीशे धनत्रः || ५० || वसिष्ठः - राशीनेकं द्वाविनाक्रान्तराशेर (शेः) प्रादक्षिण्यं दिग्विदिक्षु क्रमेण । यद्दिग्राशौ लग्नगे संमुखत्वं तद्दिग्यातुर्मृत्युदस्तदिगीशः ॥ ५१ ॥ रत्नकोशे - लालाटेऽग्निभयं करोति दिनकृत्कोशक्षयं लोहितः शत्रूणां विजयं शशाङ्कतनयः सेवाविमर्दे गुरुः । मृत्युं भास्करनन्दनो नरपतेर्व्याधिं तथा aिrisarन्येव समस्तखेचरफलान्येकः सितो यच्छति ॥ ५२ ॥ दैवज्ञवल्लभे केन्द्रोपचयगौ शस्तौ जन्मराशिविलग्नपौ । बलिनौ यद्यपि क्रूरौ तज्ज्ञैः सौम्यसमौ स्मृतौ ॥ ५३ ॥ सौम्योऽपि न शुभं धत्ते रिपोर्वारे विलग्नगः । वारे मित्रस्य पापोऽपि भवेच्छुभफलमदः || ५४ ॥ रत्नमालायां - यात्रादिगीशादपि पञ्चमेऽन्यो गृहे ग्रहो वीर्ययुतोऽधितिष्ठेत् । समुद्यताशाकथितानि भुक्त्वा फलानि वीर्यान्नयति स्वकाष्ठाम् ॥ ५५ ॥ परस्परं त्रिकोreat मन्दारौ भास्कराद्धपौ । शुक्रारौ नयतः स्वाशां विनाश्योक्तं फलं वलात् ॥ ५६ ॥ गर्गः-साम्नो जीवसितौ नाथौ दण्डस्य कुजभास्करौ | चन्द्रो दानस्य भेदस्य राहुकेतुबुधार्कजाः || ५७ ॥ यान्ति सामादयः सिद्धिं केन्द्रोपचयसंस्थितैः । स्वनाथैवसंयुक्तस्तद्द्वारेव तदंशकैः ॥ ५८ ॥
इति लग्नबलविचारः ।
अथ पृथग्भावफलम् ।
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अथ रविफलम् ।
बृहस्पतिः - अर्कोौंदये च संतापं शोकं विघ्नं लभेत्ततः । कोशार्थमानहा भानुद्वितीये बलनाशनः ॥ १ ॥ हेमानं विक्रमं दद्यात्तृतीये भूमिदो रविः । वैराग्यं बन्धुविद्वेषं कुर्यात्पातालगो रविः ॥ २॥ पञ्चमो मन्त्रिविद्वेषं कुर्याद्वा दुर्मतिं रविः ।
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१९२
श्री शिवराजविनिर्मितो
षष्ठोऽक वाञ्छितं दद्याच्छत्रुनाशं करोति वै ॥ ३ ॥ सप्तमः स्त्रीविरोधं च कुर्या दर्भक्षयं रविः । मृत्युभावगतो दद्यान्नानारोगान्दिवाकरः || ४ || धर्महा नवमो यातुर्धनदश्व दिवाकरः ||५|| दशमोऽभिमतान्दद्यात्समानं चैव भास्करः । लाभगो बहुलाभांश्च रत्नाद्यर्थान्ददेद्रविः । व्ययगो व्ययकृद्भानुरन्यायांश्च प्रयच्छति ॥६॥
अथ चन्द्रफलम् ।
इन्दुर्लनगतो दद्याच्छोकं कलहमेव च । स्त्रीराज्यपुत्रधर्मार्थान्दद्यात्सोमो द्वितीयः ॥ १ ॥ धनरत्नाङ्गन्ना दद्याद्यातुरिन्दुस्तृतीयगः । बन्धुगो बन्धुदवन्द्रः कृशो बन्धुविनाशनः || २ || पञ्चमोऽर्थमदश्चन्द्रः पुत्रशोककरः कृशः । षष्ठो मित्रान्रिपून्कुर्याद्दुःखितानपि शीतगुः ॥ ३ ॥ सप्तमो धनभूमिस्त्रीलाभदोऽणुर्विनाशकृत् । अष्टमे शोकदन्द्रो ह्यपमृत्युं करोति वा ॥ ४ ॥ निवृत्तिमाशु धर्मेषु तनुते महतीं श्रियम् । दशमोऽब्जोऽर्थहा क्षीण वर्धनो राज्यवृद्धिदः || ५ || लाभे त्वैश्वर्यदश्चन्द्रः सख्यवित्तयशःप्रदः । क्लेशं वाऽर्थव्ययं कुर्याद्भयं द्वादशगः शशी || ६ || अपूर्ण: शोकदन्द्रो लग्ने क्षीणस्तथा रिपौ । कर्किगोऽजस्थितः पुष्टो निजदुष्टफलापहः || ७ || सूर्यो राजभयं करोति शशिना युक्तोऽर्थहानिं भृगुः स्थानभ्रंशकरो गुरुः शशिसुतः संतापदोषं महत् । मृत्युं सूर्यसुतो ददाति नियतं शस्त्रात्तथा भूसुतस्तस्माच्चन्द्रयुतिं विहाय मतिमान्यात्रां प्रकुर्यात्सदा || ८ ||
अथ भौमफलम् ।
रुधिरो रुधिरात्सर्पाच्छाद्वा लग्नगो भयम् । कुरुतेऽथ द्वितीयस्थः सैन्यभेदं च भूमिजः ॥ १ ॥ तृतीये धनरत्नस्त्रीवस्त्राणि कुरुते कुजः । चतुर्थे बन्धुहानिः स्याच्छवाधां च भूमिजः || २ || शत्रुपीडा सुतस्थाने सुतापदचलासुतः । शत्रूणां नाशदः षष्ठः शीघ्रं जयकरः कुजः ॥ ३ ॥ सप्तमोऽर्थक्षयं रोगान्करोति धरणीसुतः । वह्वर्थनाशरोगैश्व मृत्युदो मृत्युगः कुजः ॥ ४ ॥ धर्मगो धर्मविच्छेत्ता यात्रायां धरणीसुतः । दशमेऽतीव शस्तः स्यादभीष्टफलदः कुजः || ५ || महाविभवदो भौमो भवगो भोगसौख्यदः । भूसुतो व्रणकुद्यातुर्द्वादशोऽविनाशदः || ६॥
१. 'तः षष्ठो नि ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ बुधफलम् ।
सुखार्थ कीर्तिदः सौम्यो जयदवोदये स्थितः । धनगो धनदश्वान्द्रिः प्रयातुविजयप्रदः ॥ १ ॥ तृतीपगे बुधे कामालभेतोत्कटतामियात् । चतुर्थे शयनान्नाfarai बुधः || २ || पश्च मे पुत्रवित्तार्धं दत्त्वा विजयदो बुधः । शत्रूणां वध्यतां दद्यात्पष्ठे किंचिदुजं च वित् || ३ || वराङ्गना बुधो दद्यात्ससमस्थ धनं तथा । मृत्युगचन्द्रजो दद्यादायुरर्थं यशः श्रियम् ॥ ४ ॥ धर्मस्थोऽपि बुधो यातुर्धर्मायुः पुष्टिवृद्धिदः । ईप्सितार्थप्रदो यातुः कर्मगचन्द्रनन्दनः ॥ ५ ॥ विद्यार्थीप्तिमयत्नेन दयादायगतो बुधः । द्वादशे धनहा लुप्त धनदोदितो बुधः ॥ ६ ॥
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अथ गुरुफलम् ।
लग्नगोsala संपयै भवेज्जीवो जयाय च । द्वितीयो धनलाभाय भवेच्च श्रीविवृद्धये ॥१॥ तृतीयस्थो गुरुर्योधांस्तनुते चारिजं श्रमम् । राज्यसंमानदो जीवतुर्थस्थो बलप्रदः || २ || यातुरीप्सितदो जीवः पञ्चमो राज्यवृद्धिदः । प्रयातुर्वशगं कुर्यादरातिं षष्ठगोऽङ्गिराः || ३ || सप्तमः शत्रुवित्त स्त्री कीर्तिराष्ट्रप्रदो गुरुः । अष्टमस्थो गुरुर्याः प्राणहा धनहा भवेत् ॥ ४ ॥ नवमे धर्मकीर्त्यर्थराज्यमानप्रदो गुरुः । दशमस्थोऽर्थ कीर्तिश्रीप्रदाताऽमरपूजितः || ५ || एकादशगतो जीवः प्रदद्यादखिलां श्रियम् । प्रयाणे देवपूज्यः स्याद्वादशे सुखदुःखदः ॥ ६ ॥
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अथ शुक्रफलम् ।
लग्ने शुक्रो विलासत्रीपूर्वी दद्याच्छ्रियं भृशम् । द्वितीये भृगुजो दवायातुरर्थं श्रियं सुतान् ॥ १ ॥ तृतीयस्थे सिते याताऽन्वसीदति कदाचन । चतुर्थगः सितो दयाहून यशः ॥ २ ॥ पञ्चमे स्थानमानायान्दद्यादर्थान्भृगोः सुतः । षष्ठगे शत्रवो यान्ति वश्यतां दुर्मदाः सिते || ३ || शुक्रे सप्तमगे याता स्वराज्यात्मच्युतो भवेत् । अष्टमस्थे सिते याता साधयेदीप्सितं द्रुतम् ॥ ४॥ पञ्चमे साधयेत्कामान्याता शुक्रे धनान्यपि । दशमस्थे भृगौ याता प्रभूतं धनमाप्नुयात् ॥ ५ ॥ एकादशे धनं दद्याधातुः शुक्रो गतो जयम् । द्वादशस्थः सितोदयादभीष्टं पुनराहरेत् ॥ ६ ॥
अथ शनिफलम् ।
वधं बन्धः सूनुर्यातुर्दद्याद्विग्नगः । घनगो धनहानि च शचं कुर्याद्रवेः सुतः || १ || तृतीयगो रिपून्हन्याच्छानः कुर्याद्धनादिकम् । चतुर्थगो विनाशाय बन्धूनां स्थाननाशनः || २ || पञ्चमेऽविनाशाय गतो रवितो भवेत् । षष्ठे
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१९४
श्रीशिवराजविनिर्मितो
शत्रुविनाशाय भवेद्यातुरिनात्मजः || ३ || उत्साहभङ्गदः कामे स्त्रीप्रसादकरो यमः । त्रिषाग्निशस्त्रजं कोपं नेत्ररोगं च मृत्युगः ॥ ४ ॥ कुर्यान्नवमगः सौरिः सुखधर्मविनाशनम् । न निवृत्तिकरः खस्थो यमः कर्म विनाशयेत् ॥ ५ ॥ एकादशगतो मन्दो यातुर्विजयवित्तदः । द्वादशेऽनर्थदो यातुः शीघ्रं दिनकरात्मजः || ६ ||
अथ राहुकेतुफलम् ।
राहुकेत्वोर्भावफलं शनिवद्दशमं विना । खस्थौ तौ शुभदौ ज्ञेया षष्ठे शीघ्रफलप्रदौ ॥ १ ॥ श्रीपतिः–त्रिकर्मायोपगो राहुः प्रयाणे सत्फलप्रदः । केतुर्या - तव्यकाष्ठायां संनताग्रशुभप्रदः || २ || बृहस्पतिः - एवं भावफलं प्रोक्तं यातुर्यात्रोदयक्षतः । अनर्थप्रोक्तभावेऽपि किंचिद्दद्युः शुभग्रहाः || ३ || तानद्य संभवक्ष्यामि यथा प्रोक्तं स्वयंभुवा । शुभवर्गे शुभदृष्टा मित्रदृष्टा: शुभप्रदाः ॥ ४ ॥ स्वकीयाष्टकवर्गे ये बहुलर्क्षगता ग्रहाः । ते चाऽप्यशुभभावस्था अपि शोभनदाः स्मृताः ॥ ५ । यातुंरायार्थपुत्रर्क्षत्रिधर्मदशमस्थितः । शुभदः शुभदांशेषु भव
निशाकरः || ६ || भृगुः - इष्टः पञ्चभिरिष्टं स्यात्तथाऽनिष्टैरशोभनम् । स्थानादिबलसंपन्नैश्चतुर्भिरपि खेचरैः ॥ ७ ॥ रत्नमालायाम् - अस्तं गता ग्रहजिता रिपुदृष्टा नीचस्थिता विरुचयोऽरिगृहं प्रयाताः । रूक्षाणवश्व किमपि स्वफलं विलग्ने दातुं क्षमाः खलु भवन्ति न खेचरेन्द्राः ॥ ८ ॥ इति यात्रायां पृथग्भावफलम् ।
अथ यात्रायां समुदायेन पृथक्फलानि । राहुभीमदिवाकरेन्दुरविजाः संस्थिता लग्नगाः क्षुच्छत्राग्निविपज्वरारिजभयं रोगांच नानाविधान् 1 जीवः सोमसुतस्तथैव भृगुजो यात्रोदयस्थो नृणां सा यात्रा धनधान्यभोगसुखदा पुण्यः कृतैर्लभ्यते ॥ १ ॥ कोशस्थाने नराणामसुरगुरुgat धर्मकामार्थलाभं पुत्रोत्पत्तिं च जीवो धनसुखमतुलं शत्रुपक्षक्षयं च । मन्दो बन्धं च दीर्घ क्षितिसुतमरणं नाशहानिं च भानुचन्द्रः कुर्यान्नरेन्द्रं प्रियजनसहितं मित्रसंयुक्तभूतम् || २ || प्रस्थाने भूमिपस्य क्षितिसुतसहितो भानुजो भानुरेवं शुक्र चन्द्रात्मजो वा सुरगुरुरथवा शीतरश्मिश्च राहुः । भ्रातृस्थाने गताः स्युर्वेरगजतुरगान्माध्ये सर्वार्थसिद्धिं जित्वा शत्रूनशेषान्वितरति च सुखं गोकुले गोपवेषः ॥ ३ ॥ बन्धुस्थानगतो ददाति विपुलान्भोगान्भृगोरात्मजो जीवः शत्रुविनाशमृच्छवि महालाभं करोतीन्दुजः | हानिं बन्धुगतः करोति रविजो बुद्धि१. ख. व. तुरन्त्यत्रिकोणारिव्योमकाम मुखथ । २ क. ख. संधुक° ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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क्षयं चन्द्रमा राहुर्भूमिसुतस्तथेोष्ण किरणः कुर्वन्ति दुःखं महत् ॥ ४ ॥ कुर्यादर्थस्य सिद्धिं सुतभवनगतो वाक्पतिः शत्रुनाशं शुक्रः शीतांशुपुत्रः सुरपतिसदृशं युद्धकाले करोति । सूर्यचन्द्रश्च भौमो दिनकरतनयः सिंहिकानन्दनाख्यः सर्वे ते पञ्चमस्था विविधभयकराः पार्थिवानां रणे च ॥ ५ ॥ शत्रुस्थाने नराणां दिनकरतनयो भूमिपुत्रोऽथवाऽर्कः शीतांशुर्देत्यमन्त्री रजनिकरसुतः सैंहिकेयोऽथ जीवः । कुर्वन्त्येवार्थलाभं परवलमथनं सिध्यते सर्वकार्यमित्येवं भूमिपानां भवति च गमने धर्मकामार्थसिद्धिः ॥ ६ ॥ नाशं शुक्रदिवाकरार्कतनया राहुस्तथा भूमिजः क्षिप्रं शत्रुवशं नयन्ति पथिकं स्थाने स्थिताः सप्तमे । सौम्यो मित्रसमागमं सुरगुरुः स्त्रीवित्तलाभं नृणां चन्द्रोऽभीष्टसुखं ददाति च धनं यात्रासु जामित्रगः ॥ ७ ॥ आरोग्यं चन्द्रपुत्रों जनयति भृगुजः सर्वकार्यार्थसिद्धि जीवो रक्षत्यशेषं सतभित्र जननी यातृकं नैधनस्थः । चन्द्रार्कौ द्वौ तमो वा जनयति नियतं शत्रुपक्षस्य वृद्धिं भौमश्चार्कात्मजो वा जनयति सततं तस्कराणां भयं च ॥ ८ ॥ शुक्रोऽतिसौख्यं नवमो बुधश्च जीवो यशः श्रीधनधान्यलाभम् । चन्द्रार्कसौरा नवमाः सभौमाः कुर्वन्त्यनेकान्पुरुषस्य दोषान् ॥ ९ ॥ कर्मस्थाने स्थितोऽर्कः प्रचुरभयकरः पुष्टिदः शीतरश्मिजीवः सङ्ग्रामकाले भवति शुभकरः सर्वकार्यप्रदो ज्ञः । शुक्रः साम्राज्यलक्ष्मीं वितरति च महीनन्दनः प्राज्यकीर्ति राहुर्वैरानुवृत्तिं जनयति सततं दीर्घरोगं तथाऽऽर्किः ॥ १० ॥ शशिबुधगुरुशुक्राश्चार्कराह्नाकिंभौमा व्रजति हि नरनाथे क्षिप्रमेकादशस्था: । द्रुत मह रिपुवर्ग घ्नन्ति नूनं प्रयातुर्विचरतु मृगराजो यूथमध्ये यथा सः ॥ ११ ॥ रविसुतकुजसूर्या बुद्धिनाशं नराणां जनयति कुमुदेशो व्याधिपीडां तमश्च । सुरुगुरुबुधशुक्रा द्वादशस्था नराणां नियतमरिसमूहं कुर्वते नष्टवीर्यम् ॥ १२ ॥ इति यात्रायां समुदायेन पृथक्फलानि ।
अथ यात्रायां लग्नांशफलम् ।
योगयात्रायां - दिनकृद्दिवसे तथांशके यात्रालग्नगतेऽथवा रवौ । संतापयति स्मरातुरं वेश्येवार्थविवर्जितं नरम् ॥ १ ॥ उदये शशिनोंऽशकेऽह्नि वा भवति गतो नचिरेण दुर्मनाः । प्रमदाभित्र यातयौवनां रत्यर्थं समवाप्य कर्कशाम् ॥ २ ॥ भौमोदयेंऽशेऽहनि वाऽस्य यात्रा करोति बन्धं धनमर्थनाशम् । संसेविता पापपराङ्मुखेन मनोभवार्तेन पराङ्गनेव || ३ || बुधस्य लग्नांशकवासरेषु
१. वो जयश्री |
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श्रीशिवराजविनिर्मितोयात्रा नरं पीणयति प्रकामम् । भावानुरक्ता प्रमदाङ्गनेव विदग्धचेष्टामदनाभितप्ता ॥ ४॥ गुरोविलग्नांशदिनेषु यात्रा हितानुबन्धेप्सितकामदा च । जायेव भक्ता मनसोऽनुकूला कुलाभिवृद्धथै रतिदा हिता च ॥ ५॥ यात्रा भृगोरंशदिनोदयेषु प्रीणाति कामैर्विविधैर्थियासुम् । विलासिनी कामवशेन यातं भोगैरनेकैमदनातुरेव ॥६॥ धुलग्भागेषु शनैश्च यात्रा प्राणच्छिदादीन्नचिनोति दोषान् । अन्यत्र सक्ता वनितेव मोहानिषेविता मन्मथमोहितेन ॥ ७ ॥
इति यात्रायां लग्नांशफलम् ।
अथ यात्रायां प्रतिशुक्रविचारः। . ज्योतिष्प्रकाशे-न कुर्यात्संमुखे शुक्रे यात्रां राजा कदाचन । करोति चेत्तदा नूनं बहुधाऽर्थक्षयो भवेत् ॥१॥ रत्नमालायाम्-उदयति दिशि यस्यां याति यत्र भ्रमाद्वा विचरति च भचक्रे येषु दिग्द्वारभेषु । त्रिविधमिह सितस्य प्रोच्यते संमुखत्वं मुनिभिरुदय एव त्यज्यते तत्र यत्नात् ॥ २॥ वसिष्ठः-प्रतिशुक्र प्रतिबुधं प्रतिभौमं गतो नृपः । बलेन शक्रतुल्योऽपि हतसैन्यो निवर्तते ॥ ३ ॥ संमुखे चन्द्रजे यत्र मार्गमध्योदिते यदि । यावदस्तंगते तस्मिंस्तावत्तत्रैव संवसेत् ॥ ४ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-संमुखं वर्जयेच्छ– विदेशगमने सदा। प्रतिग्रामप्रवेशे च कुलदेव्यर्चने तथा ।। ५॥ संमुखे भृगुजे बालापत्याया म्रियतेऽर्भकम् । गर्भस्रावस्तु गर्भिण्या नवोढायाश्च वन्ध्यता ॥ ६॥ वामे शुक्रे नवोदायाः सुख हानिश्च दक्षिणे । धनं धान्यं च पृष्ठस्थे सर्वनाशः पुरःस्थिते ॥ ७ ॥
इति यात्रायां प्रतिशुक्रविचारः।
अथ प्रतिशुकापवादः। नवोढायास्तु वन्ध्यत्वं यदुक्तं संमुखे भृगौ। तदत्र विबुधैज्ञेयं केवलं तु द्विरागमे ॥१॥ ललः-स्वभवनपुरप्रवेशे देशानां विग्रहे तथोद्वाहे । नववध्वा गृहगमने प्रतिशुक्रविचारणा नास्ति ।। २ ॥ एकग्रामे पुरे वाऽपि दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे । उदाहे तीर्थयात्रायां प्रतिशको न विद्यते ॥ ३ ॥ भीमपराक्रमे-एकनामे चतुःशाले दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे । स्वामिना नीयमानानां प्रतिशुक्रो न विद्यते ॥ ४ ॥ मत्स्यपुराणे-चतुःशालं चतारमलिन्दैः सर्वतो युतम् । नाम्ना तत्सर्वतोभद्रं न तत्र प्रतिशुक्रता ॥ ५ ॥ वसिष्ठः-कश्यपेषु वसिष्टेषु भृग्वत्र्यङ्गिरसेषु च । भरद्वाजेषु वात्स्येषु प्रतिशक्रो न विद्यते ॥ ६॥ गर्ग:-पोष्णादिवह्निभायौ यावत्तिष्ठति चन्द्रमाः । ताबदन्धो भवेच्छुक्रः प्रवेशे निर्गमे शुभे ॥ ७ ॥ रेवत्याद्य
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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शिपादे च यावत्तिष्ठति चद्रमाः । तावच्छुको भवेदन्धः संमुखं गमनं शुभम् ॥ ८ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - अत्युत्सुकेषु यावत्प्राक्कपालस्थो भृगुर्भवेत् । तावत्पाशिदिशं गच्छेत्प्राचीं प्रत्यस्थितस्तथा ॥ ९ ॥
इति प्रतिशुक्रापवादः ।
अथ शुक्रस्तोत्रम् |
वसिष्ठः-दैत्यमन्त्री दिवादश चोशना भार्गवः कविः । श्वेतोऽथ मण्डली काव्यो विधिमान्निरृतिस्तथा ॥ १ ॥ एतानि भृगुनामानि यः कीर्तयति नित्यशः । प्रतिशुक्रो न तस्यास्ति लक्ष्मीमायुश्च विन्दति ॥ २ ॥ महाभारतेनमस्ते सर्वलोकेश नमस्ते भृगुनन्दन । कवे सर्वार्थसिद्ध्यर्थं गृहाणार्ध्यं नमोऽस्तु ते || ३ || दत्त्वेत्ययै प्रयत्नेन प्रार्थयेच्चैव भक्तितः । अनेनैव च मन्त्रेण प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः ॥ ४ ॥
इति शुक्रस्तोत्रम् ।
अथ प्रतिशुकपूजाविधानम् ।
वसिष्ठः- इदमर्थमनुक्तत्वाच्छाखे पैतामहे क्वचित् । तस्मात्संमुखदोषोऽस्ति प्रतिशुक्रस्य सर्वदा || १ || तोपशमनार्थाय शान्ति वक्ष्ये समासतः । कृत्वा शान्ति प्रयत्नेन पश्चात्सर्वे समाचरेत् || २ || प्रतिशुक्रे प्रदातव्या वेनवो हेमसंयुताः । अनाहं कुजे दद्यादेमवस्त्रसमन्वितम् ||३|| कृष्णां गां सूर्यतनये सुवर्ण लोहमुत्तमम् । प्रभूतं काञ्चनं दद्याद्यायात्सोमसुतं प्रति || ४ || पट्टवस्त्रयुगं जीवे दद्यात्काञ्चनसंयुतम् । पूजिता गच्छतां कुर्युः संमुखा अपि सत्फलम् ।। ५ ।। भृगोर्लने भृगोर्वर्गे भृगुवारे भृगूदये । उपोप्य भृगुवारेऽपि यावच्छुक्रोदयं व्रती ॥६॥ राजतेन सुशुद्धेन कारयेत्प्रतिमां भृगोः । लिखेदष्टदलं पद्मं कांस्यपात्रे च तण्डुलैः || ७ || शुक्र सूक्ष्मान्वरेर्वेष्ट्य प्रतिमां तत्र पूजयेत् । शुक्लपुष्पाक्षतैर्गन्धमुक्ताहारैर्विचित्रितैः ॥ ८ ॥ उपचाराणि कार्याणि शुक्रं ते अन्यदित्यृचा | तन्मन्त्रेण जपं कुर्यात्सम्यगष्टोत्तरं शतम् || ९ || कर्मान्तेऽनेन मन्त्रेण भक्त्या चायें प्रदापयेत् । श्वेतगन्धाक्षतैः पुष्पैः क्षीरमिश्रेण वारिणा ॥ १० ॥ त्वत्पूजयाsनया शुक्र ते संमुखसमुद्भवम् । दोषं विनाशय क्षिप्रं रक्ष मां तेजसां निधे ॥ ११ ॥ इति प्रार्थ्य प्रयत्नेन प्रतिमा भूषणान्विता । दैवज्ञायैव दातव्या
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श्रीशिवराजविनिर्मितोश्वेताश्वसहितेन च ॥१२॥ शिष्टेभ्यो दक्षिणां दद्यायथावित्तानुसारतः । ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्स्वयं भुञ्जीत बन्धुभिः ॥ १३ ॥ एवं यः कुरुते सम्यक्पतिशुक्रप्रपूजनम् । न तस्य संमुखो दोषो विजयी चार्थवान्भवेत् ॥ १४ ॥ इतरेषां ग्रहाणां च पूजां कृत्वा प्रयत्नतः । तत्तत्संमुखजो दोषस्तत्क्षणादेव नश्यति ॥१५॥
इति प्रतिशुक्रपूजाविधानम् ।
अथ प्रतिशुक्रदानम् । सितमश्वं सितं वस्त्रं तारमौक्तिकहेमयुक् । दत्त्वा द्विजावये यायात्प्रतिशुक्रेऽप्यशकिन्तः ॥१॥ विधाय राजतं शुक्रं शुचिमुक्ताफलान्वितम् । महाश्वेन समायुक्तं सामगाय निवेदयेत् ॥ २॥ एवं शुक्रोदये कुर्वन्यात्रादिषु च भारत । सर्वान्कामानवामोति विष्णुलोके महीयते ॥ ३ ॥ अतिसंकटे विधानं केषांचि. न्मते-वृषात्पञ्चकमादाय स्वसीमायां ततो व्रजेत् । प्रतिशुक्रेऽपि संपूज्य सानुकूले जले क्षिपेत् ॥ ४॥
इति प्रतिशुक्रदानम् ।
अथ योगप्रशंसा। बृहस्पतिः-एवं कथितकालोऽयं दुर्लभो यातुरञ्जसा । स्वल्पकालो यतस्तस्माद्योगान्वक्ष्याम्यभीष्टदान् ॥ १ ॥ नारदः-पश्चाङ्गशुद्धिरहिते दिवसेऽपि फलप्रदा । यात्रा योगैर्विचित्रांस्तान्योगान्वक्ष्येऽधुना ततः॥२॥ रत्नावल्याम्आत्ययिककार्ययाने देवेन निपीडिते च यातव्यम् । केवलविलग्नयोगादपि याता सिद्धिमानोति ॥३॥ श्रीपतिः -तिथौ क्षणे भे करणे च वारे योगे विलग्ने हिमगौ नृपाणाम् । पापेऽपि यात्रा शुभदाऽत्र योगैर्यतस्ततस्तान्कियतोऽपि वक्ष्ये ॥ ४ ॥ ललः -यातव्ये व्यसनगते ह्यनिष्टदेवे च भूपतिस्त्वरया । लग्नैरभीष्टकल्पव्रजति तिथौ भेषु चरमेषु ॥ ५ ॥ दैवज्ञवल्लभेसुधांशुतिथ्युद्गमवारधिष्ण्यक्षणषु पापेष्वपि भूपतीनाम् । अभीष्टसिद्धौ कथयामि यात्रां प्रयोजनेष्वात्ययिकेषु सत्सु ॥६॥ ज्योतिःसागरे--योगः फलं क्षितीशानां द्विजानां भगुणैर्भवेत् । शकुनैधारचौराणामितरेषां मुहूर्ततः॥७॥
१ घ. तव्यं व्य ।
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ज्योतिनिबन्धः।
.१९९ माठरः--योगश्च प्रोक्तकालश्च याने तुल्यफलावुभौ । योगो वा प्राप्तकालो वा न्यूनाङ्गो न फलप्रदः॥८॥ भूपालवलुभे- यथा योगाद्विषं पथ्यं मध्वाज्यमृदितं भवेत् । तथा योगात्फलं दद्युस्त्यक्त्वा खेटाः स्वकं फलम् ॥९॥ ज्यातिष्प्रकाशे -निन्द्यातथ्यसंवारेषु पातवैधृतिविष्टिषु । ग्रहयोगं प्रशंसन्ति वसिष्ठात्रिपराशराः ॥१०॥ तिथ्यादावेव यत्साध्यं तद्योगेन प्रसिध्यति । अतः सर्वप्रयत्नेन ग्रहयोगान्विचिन्तयेत् ॥ ११ ॥ तस्माद्विवाहयात्रायामाधाने जातके तथा । ग्रहयोगात्फलं वाच्यं सर्वमेकत्र दुर्लभम् ॥ १२ ॥ निषेकप्रसवप्रश्नविवाहगमनादिषु । ग्रहयोगोद्भवं सत्यं फलमन्यत्र पुष्कलम् ॥ १३ ॥ पक्षाश्वमेधयात्रायां-न तिथिं न च नक्षत्रं न योगं नन्दवं बलम् । न तारा वधति विष्टिं व्यतीपातादिकं तथा ॥ १४॥ योगमेकं प्रशंसन्ति वसिष्ठात्रिपराशराः । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन याने योगान्विलोकयेत् ॥ १५॥ वसिष्ठः-उक्त्वा साधारणां यात्रां युद्धयात्रां ब्रवीमि वाम् । व्रजन्ति ये नृपाः सूक्ष्मलग्ने ते जयिनः सदा ॥१६॥
इति योगप्रशंसा।
अथ यात्रायां योगाः। रत्नमालायाम्-एकेनापि ज्ञा(?) स्फुजिद्वाक्पतीनां योगःप्रोक्तः केन्द्रधर्मात्मजेषु । द्वाभ्यामेषां चाधियोगाभिधानो नूनं सवरेव योगांधियोगः ॥ १॥ योगेन ये नृपतयोरिपुरं व्रजन्ति क्षेमेण ते गमनमागमनं च कुर्युः । क्षेमं यशो रिपुविनासमथाधियोगे योगाधियोगगमने च जयेद्धरित्रीम् ॥ २ ॥ योगयात्रायो-सौम्यश्च पापैश्च चतुष्टयस्थैः कृच्छ्रेण संसिद्धिमुपति नूनम् । प्रयाति यातप्रतियातचक्रेनदीव धात्रीधरकन्धरेषु ॥ ३ ॥ रत्नमालायाम्-उदयादिनभस्तलगर्दिनकृद्यमशीतकरैः। न भवन्त्यरयोऽभिमुखा हरिणा इव केसरिणः ॥ ४ ॥ रत्नमालायांयमज्ञशुक्रेज्यमहोसुतेषु त्रिबन्धुलग्नास्तरिपुस्थितेषु । विलीयते चरिचमू रणाग्रे लाक्षेव वह्नी नपतर्गतस्य ॥ ५॥ शशिान चतुर्थे सावदि सितेऽस्ते जयति गतोऽरीन्हरिरिव युद्धे ॥ ६ ॥ दैवज्ञवलभे-जे सितेन सहितेऽस्तगे विधौ बन्धुगे प्रवसता महीभुजा । संगरेण रिपुणा विकीर्यते तूलराशिरिव मातरिश्वना ॥७॥ लग्नेऽर्के सप्तमे चन्द्रे वित्त सौम्ये गतो नृपः । सयोऽरिपृतनां हन्ति पूतनामिव
१ घ. चातियो १२ घ. गातियो ।
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२००.
श्रीशिवराजविनिर्मितोकेशवः ॥ ८ ॥ योगयात्रायां-शुक्रवाक्पतिविदां धन एकः सप्तमे शशिनि लग्नगतेऽर्के । निर्गतो नरपतिर्न कृतार्थो वैनतेयवदरीन्विनिगृह्य ॥ ९ ॥ रत्नमालायां-त्रिकोणकेन्द्रेषु भवन्ति सौम्या दुश्चिक्यलाभारिगताश्च पापाः । यस्य प्रयाणे तमुपैति रागाद्विपक्षलक्ष्मीरभिसारिकेव ॥१०॥ गुरुलग्ने रविः षष्ठे रन्ध्रे नेन्दुश्च गच्छतः । यस्य तस्यारिसेनाग्रे खलमैत्रीव न स्थिता ॥११॥ लल्लू:-गुरुरुदये रिपुराशिगतोऽर्को यदि निधने न च शीतमयूखः । भवति गतोऽत्र वशी च नरेन्द्रो रिपुवनिताननतामरसानाम् ॥ १२ ॥ श्रीपतिःव्यायारिषु यमारौ चेच्छक्तिभाजः शुभग्रहाः । प्रयाणे नपतेर्यस्य हस्तस्था तस्य मेदिनी ॥ १३ ॥ रत्नकोशे - मूर्तिवित्तसह नेषु संस्थिताः शुक्रचन्द्रसुततिग्मरश्मयः । यस्य यानसमये रणानले तस्य यान्ति शलभा इवारयः ॥१४॥ रत्नमालायां--प्रयाति यो विलग्नगे गुरौ मृतिस्थिते विधौ । सितेरिगे स शास्त्यरीन्दिवस्पतियथा सुरान् ॥ १५॥ दैवज्ञवल्लभे-गुरौ विलग्ने भूगुजेऽस्तसंस्थे चन्द्रेऽटमे हन्ति गतोऽरिसेनाम् । वृष्टिं यथा दक्षिणमार्गचारी हस्वो यथा रूक्षतनुश्च शुक्रः ॥ १६ ॥ बृहद्यात्रायां-चन्द्रजे कवियुते सुखस्थिते कामगे शशिनि भूपतिर्गतः । घातयत्यरिबलं रणाङ्गगे तोयवेग इव सैकतं बलात् ॥ १७ ॥ दैवज्ञवलभे- दृष्टे शुभैस्तनुनभोहिबुकारिगे ज्ञे त्यक्तव्ययस्मरतनुष्वशुभेषु याता । शौर्योत्थकीर्तिसुधया भुवनालयस्य दिग्भित्तिचक्रमखिलं धवली करोति ॥१८॥ रत्नमालायां-एकान्तरस्थे भृगुजात्कुजाद्वा सौम्ये स्थिते सूर्यसुताद्गुरोर्वा । प्रध्वस्यतेऽरिन चिरोद्गतस्य वेषाधिको भत्य इवेश्वरस्य ॥१९॥ श्रीपतिःमध्यगे शशिनि सौम्ययुक्तयोबन्धुवर्तिनि च भूपतिर्गतः । वासवस्य ककुभं यमस्य वा वासवान्तक इव क्षमो भवेत् ॥ २०॥ यात्राशिरोमणो-यो याति जीवे तनुगे महीशः क्रूरैः स्थितैयॊन्यथवाऽऽयसंस्थितः । तस्याग्रतः संयति वैरिसेना प्रीतिः खलानामिव न स्थिरा स्यात् ॥ २१॥ ललः - त्रिषण्नवान्त्येशवली शशाश्वान्द्रिर्बली यस्य गुरुश्च केन्द्र । तस्यारियोषाभरणैः प्रियाणि प्रियाप्रियाणां जनयन्ति सैन्ये ॥ २२॥ राजमार्तण्डे-व्यायारिदुश्चिक्यगतो यमारौ बलान्विता भार्गवजीवसौम्याः। यस्य प्रयाणे विलयं प्रयान्ति तस्य द्विषः सबरसो यथाऽप्सु ॥ २३ ॥ फलप्रदीपे-लाभविक्रमसुखस्थिते कवी कण्टकस्थगुरुणा निरीक्षिसे । द्यूनरन्ध्रनववर्जितैः खलैः स्याद्गतोऽभिमतसिद्धिभाङ्नृपः ॥ २४ ॥ ज्योतिःसागरे-सौम्यग्रहैः केन्द्रतपःसुखस्थैः क्रूरै
१ घ. 'ध्र चेन्दु ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
खिलाभारिगतैर्गता ये । कोपानलः शान्तिमुपैति तेषां विरोधिनारीनयनाम्बुपातैः || २५ || योगयात्रायाम् एकोऽपि जीवार्ककुजार्कजानां स्वोचे बिलने स्वगृहे पदन्दुः । यातस्य यान्त्यत्र परे प्रणाशं महाकुलानीव कुटुम्बभेदैः ||२६|| रत्नाक्यां–लग्नाच्चतुर्थो बलवाञ्छशाङ्कने योगाद्विना चन्द्रबलेन याता । लब्ध्वाऽपि पृथ्वी बहुरत्नपूर्णां क्षिप्रं क्षयं याति बली शशाङ्कः ॥ २७ ॥ पापास्तृतीये हिबुके सितज्ञौ जीवो विलग्ने मृगलाञ्छनोऽस्ति । यस्योहमे तस्य वलं रिपूणां यथा कृतघ्नेष्विव याति नाशम् ।। २८ ।। वराहः - चन्द्रेऽस्तगे देवगुरौ लिने झशुक्रषोः कर्मणि लाभगेऽर्के । सौरारयोर्भ्रातृगयोश्व याता नृपः स्वभृत्यानिव शास्ति शत्रून् ।। २९ ।। राजमार्तण्डे - रविकुजयुतेऽरिभे गतानां जलसहजोपगतैः सितार्कजीवैः । परवलमुपयाति नाशमाशु श्रुतमधनस्य कुटुम्बचिन्तयैव ॥ ३० ॥ योगयात्रायां - स्वोच्चोपगैर्जीवकुजार्क जाकैरेभिस्त्रिभिर्वा कथितैकलने । राज्ञः प्रणाशं समुपैति शत्रुः सौख्यं द्विभार्यस्य यथाऽधनस्य ॥ ३१ ॥ योगार्णवे - लग्नायधर्मानुजखारिगेषु शुक्रेन्दुजीवार्ककुजार्कजेषु । सार्केन्दुजे चारिवलं प्रयाति कलत्रहीनालयवद्विनाशम् ॥ ३२ ॥ योगयात्रायां -- गुरौ विलग्ने यदि वा शशाङ्के षष्ठे रवौ कर्मगतेऽर्कपुत्रे । सितज्ञयोर्वन्धुसुतस्थयोश्व यात्रा जनित्रीच हितानि धत्ते ॥ ३३ ॥ पत्यौ गिरां लग्नगते च शेपैरेकादशार्थोपगतैर्ययासोः । विदार्यते शत्रुबलं समन्ताद्धर्मो यथा हेतुशतैर्युगेऽन्त्ये ॥ ३४ ॥ सूर्यादयोऽरिमदनाम्बरशत्रुलग्नबन्धायगाः सुरगुरोर्दिवसच यस्य । यानेऽरिसैन्यमुपगच्छति तस्य नाशं दुष्टप्रतिग्रहवशादिव तीर्थपुण्यम् ॥ ३५ ॥ ऋक्षे गुरुज्ञौ बुधभार्गवी वा यदा प्रविष्टौ युगपत्समेतौ । अर्थानवाप्रोति यथा विचित्राञ्छात्रः सुकामान्गुरुपूजयेव || ३६ || वराहः - नक्षत्रमेकं युगपन्निविष्टौ यदा धरित्रीतनयामरेज्यौ । कुर्यात्तदन्तं द्विषतां बलानां यथैनसां विम अयाच्यवृत्या ॥ ३७ ॥ योगयात्रायांसिंहाजतौलिमिथुना मृगकर्कटौ च स्वशान्विता भवति यस्य शनिश्च लाभे । तत्सनिकाः परवलं क्षपयन्ति यातुर्मूर्खस्य चित्तमिव चारणचाटुवृक्षाः || ३८ || शुक्रांशादूर्ध्वमधः स्थिते यमारयोस्तत्र गतस्य भूपतेः । प्रयाति नाश समरे द्विषां बलं यथाऽर्थिभावोपगतस्य गौरवम् ।। ३९ ।। लल:- क्षितितनयतान्नवशकाद्यदि शतमे भृगुजोऽथवा गुरुः । शतगुणमपि हन्त्यरेबलं विषमिव कायमसृक्पथं गतम् ||४०|| बृहस्पतिः - लग्ने केन्द्रे गुरौ याते चाऽऽपोक्किमे निशाकरे । शुक्रे कर्मगते योगो यात्रायां कार्यसिद्धिकृत् ॥ ४१ ॥ बलयुक्ते गुरौ शुक्रे व लग्नकेन्द्र | निशाकरोदये यातुर्यात्रायोगोऽयमुत्तमः ॥ ४२ ॥ तृतीयेऽर्के गुरौ लग्ने रिपोर्वारे यमेऽपि वा । हिबुकस्थे सुते ज्ञे वा खेऽब्जे
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श्री शिवराजविनिर्मितो
यात्राऽर्थलाभदा ॥ ४३ ॥ आयारिभ्रातृलग्नस्था अब्जाराकेंन्द्रमन्त्रिणः । क्रमात्सितेऽनुकूले च यात्रा सर्वार्थसिद्धिदा || ४४ || लग्ने वा सप्तमे चन्द्रे जीवज्ञभृगुबोधने | यदि स्थिता शुभा यात्रा यातुरिष्टार्थसिद्धिदां ॥ ४५ ॥ त्रिपन्नवान्त्यगे चन्द्रे विबले सबले बुधे । गुरौ केन्द्रे तदा याता श्रियमायुश्च विन्दति ॥ ४६ ॥ कुजजीवार्कशुक्रज्ञास्त्रिसुतार्थाष्टसप्तगाः । यदि यात्रा शुभा यातुः सर्वसंपत्समृद्धिदा ॥ ४७ ॥ * लग्नत्रितोयगा जीवरविशुक्राः क्रमादिमे । कुजो यदि यमो वाऽपि यात्रायोगः शुभावहः ॥ ४८ ॥ अर्कवर्ज्या ग्रहाः सर्वे पञ्चराशौ यदि स्थिताः। निरन्तरग्रहैर्योगो यात्रायां स्वार्थसिद्धिदः ।। ४९ ।। एकान्तरे ग्रहाः सर्वे षड्ाशिषु यदि स्थिताः । शुक्रश्च पृष्ठतो यातुर्यात्रा सर्वार्थदा भवेत् ॥ ५० ॥ चन्द्रे ज्ञसितयोर्मध्ये जलगे लग्नगेऽपि वा । प्रयाता श्रियमाप्नोति जित्वाऽरीन्सबलानपि ॥ ५१ ॥ शुक्रज्ञौ जलगौ चन्द्रः स्मरगो यदि गच्छति । यात्राऽपि शुभदा लग्नं यदि पश्येत्सुरार्चितः ।। ५२ ।। एकान्तरगतौ भौमामरेज्यौ केन्द्रगौ यदा । तदा यातुः शुभा यात्रा लग्ने शुभदृशा युते ॥ ५३ ॥ + यदा सितगुरू तारामेकां यातौ तदा गतः । अभिप्रेतमवाप्याऽऽशु सुखी यायात्स्वमन्दिरम् ||५४ || बुधजीवी aart वा तारामेकां गतौ यदा । तदाऽभ्युपैति क्षेमेण स्वगृहं प्राप्य चेप्सितान् || ५५ || मन्दारार्कामराचार्येष्वेकः स्वोच्चे तु लग्नगः । कर्कटस्थे निशानाथे यात्रा नॄणां फलप्रदा || ५६ || चन्द्रात्स्मरारिरन्ध्रेषु शुभा यदि गता ग्रहाः । यातुर्यात्रा शुभा राज्ञो रिपुनी विजयावहा || ५७ || चन्द्रस्य द्वादशे कश्चिद्रविवर्ज ग्रहः शुभः । द्वितीये चोभयत्रापि यात्रायोगास्त्रयः शुभाः ॥ ५८ ॥ अङ्गिराः–लग्नचन्द्रर्क्षयोः षष्ठराशीशौ यदि लग्नगौ । तदा नाऽऽगमनं नृणां तुल्यं स्याद्विषभक्षणैः ॥ ५९ ॥ नारदः - व्यापारशत्रुमूर्तिस्थश्चन्द्रमन्ददिवाकरैः । रणे गतस्य भूपस्य जयलक्ष्मीर्वितन्यते ॥ ६० ॥ लग्ने शुक्रेऽथवा लाभे चन्द्रे बन्धुस्थिते सदा । गतो राजा रिपून्हन्ति पुण्यराशिमिवानृतम् ||६१॥ स्वोच्चसंस्थे सिते केन्द्रे स्वोच्चे चन्द्रे च लाभगे । गतो राजा रिपून्हन्ति प्रज्वलद्वह्नयणुर्यथा ॥ ६२॥ स्वोच्चस्थे लग्नगे जीवे चन्द्रे वाऽऽयगते यदि । गतो राजा रिपून्हति पिनाकी त्रिपुरं यथा ॥ ६३ ॥ मस्तकोदयगे शुक्रे लग्नस्थे लाभगे गुरौ । गतो राजा रिपून्हन्ति कुमारस्तारकं यथा ॥ ६४ ॥ शुभैः केन्द्रत्रिकोणस्थै चन्द्रेऽथवा रवौ । शत्रून्हन्ति गतो राजा ब्रह्मद्वेषो यथा कुलम् ॥ ६५ ॥ स्वक्षेत्र शुभे केन्द्रे त्रिकोणायगते गतः । विनाशयत्यरीन्राजा शान्तिर्दुष्टभयं यथा ॥ ६६ ॥ इन्दौ
;
* श्लोकद्वयं वपुस्तके नास्ति । + इतः परं नव श्लोका वपुस्तके न सन्ति ।
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०
१६ दा । ४५ ।। वरानवा ।
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ज्योतिर्निबन्धः। खस्थे गुरौ केन्द्रे सबले च विशेषतः । नृपो हन्ति रिपून्सर्वान्कर्म ज्ञानोदयो यथा ॥६७॥ वर्गोत्तमगते शुक्रे जीवे वापि विलग्नगे । रसत्यागो यथा पापं हन्ति शत्रून्गतो नृपः ॥ ६८ ॥ जन्मेशो वाऽपि लग्नेशो यात्रालग्नेश्वरोऽपि वा। पूर्णेन्दुर्वा दिगीशो वा केन्द्रे गन्ता श्रियं लभेत् ॥ ६९॥ बृहद्यात्रायां-यद्वविद्याध्ययनं द्रव्यलोभाद्भस्मीकुर्यात्पुण्यराशि गुरुं च । वेशिस्थानं लग्नगं यानकाले शत्रून्हत्वाऽभ्यति गेहं कृतार्थः ॥ ७० ॥ ये जातकोक्तक्षितिपालयोगैर्महीभृतो यान्ति रिपूविजेतुम् । तेषां प्रकोपाग्निरुपैति शान्ति विद्वेषियोषाश्रुजलप्रवाहैः ॥ ७१ ।। बृहज्जातके-वक्रार्कजार्कगुरुभिः सकलैत्रिभिर्वा स्वोच्चेषु षोडश नृपाः कथितैकलग्ने । द्वघेकाश्रितेषु च तथैकतमे विलग्ने स्वक्षेत्रगे शशिनि षोडश भूमिपाः स्युः ॥ ७२ ॥ पितामहः-वर्गोत्तमगते लग्ने केन्द्रे वा चन्द्रवर्जिते । चतुराद्यै ग्रहैदृष्टे नृपा द्वाविंशतिः स्मृताः ॥७३॥ मेषादौ राशौ स्थितैर्निरूप्यमाणे वेदाङ्गन्यमाः २६४ । एवं विलग्नेऽपि २६४ । उभयम् ५२८ । आद्याः सर्वे ५६० । अन्येऽपि जातकोक्ता विलोक्याः । नारद:-ये नपा यान्त्यरीओतुं तेषां यौगैर्नृपात्यैः । उपैति शान्ति कोपानिः शत्रुयोषाश्रुवारिभिः ॥ ७४ ॥
इति यात्रायां योगाः।
अथ राजयोगभङ्गः। ज्योतिर्विवरणे-ये योगा ग्रहलग्नाभ्यां चोक्तास्ते चोत्तमोत्तमाः । केवलं धुचरैमध्या जघन्या विबलैश्च तैः॥१॥ ज्योतिष्प्रकाशे-विवलग्रहयोगेण यः प्रयाति स संगरे । ब्रीडां प्रामोति किंचिज्ज्ञो यथा सदसि भूभृतः ॥ २॥ जातकेपञ्चभिर्नीचगैः खेटेरस्तं यातैरथापि वा । प्रयान्ति विलयं योगा भूभुजां ये प्रकीर्तिताः ॥३॥ परनीचगते चन्द्रे क्षीणे योगे महीपतिः । नाशमायाति राजेव दैवज्ञप्रतिलोमगः ॥ ४॥ त्रिविधे तु महोत्पाते त्रिशङ्खनृपभोदये । राजयोगा लयं यान्ति दम्भे कर्मफलं यथा ॥५॥ जातकोत्तमे-केमद्रुमेण यो याता यात्रा स्यात्तस्य निष्फला । राजयोगा लयं यान्ति क्षिप्रं भिक्षोर्विलासवत् ॥ ६॥ ज्योतिष्प्रकाशे-न केमद्रुमजो याता सम्यग्यात्राफलं लभेत् । बिरक्तिं संगते यान्ति वृद्धे मुग्धामनोरथाः ॥ ७॥
इति राजयोगभङ्गः ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ यात्रायामनिष्टयोगाः ।
रत्नावल्यां-जन्मोदयर्क्षे हिबुकास्तसंस्थं यस्याशुभैर्दृष्टयुतं न सौम्यैः । सशाण्डिलीं प्राप्य यथा गरुत्मान्दैन्यं गतोऽभ्येति हतस्वपक्षः ॥ १ ॥ श्रीपतिः - यदीयजन्मोदयगे सुखास्तगे खलग्रहैर्दृष्टयुते न शोभनैः । स गोग्रहे पार्थजितः सुयोधनो यथा तथाऽभ्येति गृहं त्रयान्वितः ||२|| दैवज्ञवल्लभे-लग्ने विवीर्यैर्विवलैव सौम्यः शून्येषु सर्वेष्वपि कण्टकेषु । कृतमयाणो भ्रमति क्षितीशो यष्ट्या विहीनोऽन्ध इवाकृतार्थः ॥ ३ ॥ रत्नकोशे - शून्येषु केन्द्रेष्ववले च लग्ने सौम्यग्र हैवीर्यविवर्जितैश्च । दत्ता गयायामिव जारजातैः पिण्डाः पितॄणां क्षितिपा भ्रमन्ति || ४ || केन्द्रत्रिकोणेषु शुभाः प्रशस्तास्तेष्वेव पापा न शुभमदाः स्युः । पापोऽपि कामं बलवान्नियोज्यः शून्यं हि केन्द्रं न शुभाय वाच्यम् ॥ ५ ॥ लल्लः - क्रूरग्रहयुते लग्ने क्रूरेणैव निरीक्षिते । योगानामधमो योगः सर्वकार्यार्थनाशकः ॥६॥ बादरायणः-नष्टस्य वक्रस्य तनुः शुभस्य क्रूरस्य वा हन्ति शुभं प्रयातुः । यथाजस्त्री पतिताऽमला वा श्रेयोहरा दास्यविधौ न युक्ता ॥ ७ ॥ इति यात्रायामनिष्टयोगाः ।
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अथ यात्रायां मनोविशुद्धयादि ।
च्यवन:
श्रीपतिः- शकुननिमित्तमनोभिरनिन्द्यैरु इयविशुद्धिमिह प्रतिपद्य। रिपुविषयं प्रति यो विजिगीषुर्व्रजति तमेत्यचिराद्विजयश्रीः ॥ १ ॥ शकुनो वक्ष्यमाणः । निमितमङ्गस्फुरणादि । मनश्चित्तम् । उदयशुद्धिर्लग्नशुद्धिः । रत्नावल्यां- शुभाशुभानि सर्वाणि निमित्तानि स्युरेकतः । एकतश्च मनो यातुस्तद्विशुद्धिरिष्यते ॥ २ ॥ - एकयैव मनः शुद्धया यत्कर्म क्रियते बुधैः । तत्सर्वं सिद्धिमाप्नोति तद्विना निष्फलं भवेत् || ३ || श्रीपतिः - निमित्तराशिरेकतो नृणां मनस्तथैकतः । अतो यियासतां नृणां मनोविशुद्धिरिष्यते ॥ ४ ॥ भृगुः - चित्तोत्साहो निमित्तं च सुस्वनः शकुनस्तथा । एतान्येव विलोक्यानि यात्राकाले विशेषतः ॥ ५ ॥ ब्रह्मयामले चित्तोत्साहो निमित्तं च शुभलग्नं बलं तथा । यस्यैतान्यनुकूलानि तस्य सिद्धिः करे स्थिता || ६ || दैवज्ञवल्लभे- स्यन्दनं दक्षिणे पार्श्वे विपृष्ठं उदये हितम् । वामपार्श्वे तु नारीणां मनसश्चानुकूलता ॥ ७ ॥ इति यात्रायां मनोविशुद्धयादि ।
१ क. '४६६० । २ क. 'ये स्थित० ।
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ज्योतिर्निवन्धः।
अथाऽऽवश्यके यात्रा। रत्नकोशे-कार्येषु पराधीनेष्वनेकसाधारणेषु सर्वेषु । प्रायेण गमनमिष्टं सदैव न सूक्ष्मचिन्ताऽस्ति ॥ १॥ बृहद्यात्रायाम्-अवश्यमेव यातव्यं कार्येष्वात्ययिकेषु च । सौम्योदये विलग्ने च कार्यसिद्धिं विनिर्दिशेत् ॥ २ ॥ रत्नावल्याम्-आवश्यके तथा याने सौम्येऽस्ते निधनेऽथवा । ब्रजेदस्तोदय वा मध्याह्ने वाऽविशङ्कितः ॥ ३ ॥ पूर्वाह्ने नोत्तरां गच्छेन्मध्याह्ने पूर्वतो व्रजेत् । अपराह्ने व्रजेधाम्यां मध्यरात्रे न पश्चिमे ॥ ४ ॥ न तस्याङ्गारको विष्टिर्न शनैश्चरजं भयम् । व्यतीपातो न दुष्येत यस्यार्को दक्षिणे स्थितः ॥ ५॥ पृष्ठतो वा रविं कृत्वा गच्छेद्दक्षिणतस्तथा । उत्तानपादपुत्रस्य शेखरे चोर्ध्वसंस्थिते ॥६॥ ज्योतिप्रकाशे--आवश्यकगमे मूर्ती सौम्येऽस्ते निधनेऽथवा । व्रजेत्सूर्योदयेऽस्ते वा मध्याह्ने कार्यसिद्धये ॥ ७ ॥ यात्रासारे-उषः प्रशस्यते गर्गः शकुनं च बृहस्पतिः। अङ्गिरा मनउत्साहं विप्रवाक्यं जनार्दनः ॥ ८ ॥ अष्टौ पादा बुधे स्युर्नव धरणिसुते सप्त जीवे पदानि ज्ञेयान्येकादश· शशिशनिभृगुजे सार्धचत्वारि पादाः । तस्मिन्काले मुहूर्तः सकलगुणयुतः सर्वकार्यार्थसिद्धयै नास्मिन्पश्चाङ्गशुद्धिं न च खचरवलं भाषितं गर्गमुख्यैः ॥९॥ बृहस्पति:- कृतनृपमुनितिथिपक्षद्वादशरुद्रामुलानि ४ । १६।७।१५। २ ॥ १२ ॥ ११ वै कैश्चित् । सिद्धा छाया क्रमशो रव्यादिषु सर्वकार्यसिद्धिकरी ॥१०॥
इत्यावश्यके यात्रा।
अथ यात्रोपयोगि मिश्रकम् । रत्नकोशे-रक्तासिताद्या हि यथाऽम्बरस्य वर्णाः सितस्यैव भवन्ति सम्यक् । विलग्नतिथ्यादिगुणास्तथैव विशुद्धदोषस्य भवन्ति यातुः ॥ १॥ योगयात्रायांगुणान्वितस्यैव गुणान्करोति यात्रा शुभसंग्रहलग्नयोगा। व्या, सदोषस्य गुणान्विताऽपि वीणेव शब्दाश्रयवर्जितस्य ॥२॥ श्रीपतिः-गुणैः समस्तैरपि संप्रयुक्ता कन्येव यात्रा विगुणाय दत्ता । करोत्यकीर्ति सुखवित्तहानि यात्रान्तरज्ञानजडस्य दातुः ॥ ३ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे--दैवी च मानुषी यस्मिन्संपत्तस्य गमादिकम् । तपोविद्यान्विते पात्रे दानवत्सफलं भवेत् ॥ ४ ॥ असंतुष्टे शठे धूर्ते प्रत्ययं पश्यतां तथा । ज्योतिषोक्तफलादेशो व्यर्थो दैवोज्झिते जने ॥५॥ बृहद्यात्रायां प्रकृतिविशुद्धा छाया मनोविशुद्धिर्जनानुकूल्यं च । औत्पातिकं च न स्यात्संपदैवी स्मृता पुंसाम् ॥६॥ मित्राणि कोशदण्डौ भृत्यामात्यो स्वजन्मदो
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श्रीशिवराजविनिर्मितोदुर्गम् । संपधेषां तेषां विज्ञेया मानुषी सा तु ॥ ७ ॥ यात्रा विशुद्धाऽपि समं प्रवृत्ता यात्रानुरूपाणि फलानि धत्ते । जगत्युदीर्णाऽपि हि कौशिकस्य भा भानवी नैव तमः प्रमार्टि ॥ ८ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-यथोपाधिवशेनैव भिन्ना स्यात्स्फटिकद्युतिः । तथा यात्राऽनुरूपैषा भिनं यात्राफलं भवेत् ॥ ९॥ यादृशी वचनव्यक्तिस्तादृशी वदने भवेत् । यथा तथा स्मृता यात्रा बुधैर्देवोद्यमानुगा ॥१०॥ यात्रा शुद्धाऽपि सर्वेषां न समं तनुते फलम् । ज्योत्स्नावद्विरहार्तानां शुषेऽन्येषां सुखावहा ॥ ११ ॥ सुमुहूर्तेऽपि नो कार्य कुमुहूर्तेऽपि शोभनम् । कुत्रचिद्दश्यते किंचित्कारणं ब्रहि शास्त्रतः ॥ १२ ॥ गर्ग:-तिथिवारक्षेलग्नादेयेदुक्तं सदसत्फलम् । तत्सर्व जातकाधीनं न स्वतः फलदक्षम(दं मत)म् ॥ १३ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-यत्र जन्मफलं शस्तं दृष्टं तात्कालिकं भवेत् । कार्य सिध्यति कृच्छ्रेण सिद्धौ सौख्यार्थसंपदाम् (दः)॥१४॥ कर्मकालफलं शस्तं दुष्टं स्याजन्मजं फलम् । कार्य भूत्वाऽपि तत्पश्चाद्विघ्नं त(घ्नस्त )त्र प्रजायते ॥ १५॥ शुभयोरुभयोः शस्तं फलं संपूर्णमाप्यते । द्वयोर्मध्यमयोर्मध्यमशुभं च जघन्ययोः ॥ १६ ॥ बृहद्यात्रायां-यात्रादौ सदसस्पार्फ कारकादि शुभं स्फुटम् । ततो यात्रां वदेद्राज्ञां यशोलाभसुखाप्तये ॥१७॥ भूपालवल्लभे--प्रवरासदृशा पाकेऽष्टवर्गे मध्यमा शुभे । न्यूना तत्कालदिवसा चन्द्रलनबलादिना ॥ १८ ॥ विद्वज्जनवल्लभे-जन्मसमयोत्थफलतो यात्राकालोत्थितं न बलवत् । यात्राकालोत्थं च प्रश्नफलं दुर्बलमुशन्ति ॥ १९ ॥ एषां तु फलविरोधे विमृश्य सम्यग्बलाबलं स्वधिया । पौर्वापर्य फलयोर्वाऽऽप्यत्वं वा फलं वाच्यम् ॥२०॥ ज्योतिष्प्रकाशे-एके: वदन्ति यात्रोत्थफलात्मश्नफलं लघु । अनयोर्बलवत्सर्वैरुक्तं जन्मफलं स्फुटम् ॥ २१॥ फलग्रन्थेषु या यात्रा मोक्ता सा शुभकर्मसु । सङ्ग्रामे स्वरशास्त्रोक्तैर्जययोगैः फलप्रदा ॥२२॥ यात्रारत्नावल्याम्-आक्षेपशीलः परुषाभिभाषी परापवादी परदारगामी । लुब्धोऽसहायो व्यसनी कृतघ्नः स्थितिप्रभेत्ता करशीर्णराष्ट्रः ॥ २३ ॥ विसम्भहा क्रोधपरो नृशंसः क्षुद्रः प्रमादी न बहुश्रुतश्च । दिव्यान्तारक्षक्षितिजैविकारैर्निपीडितो यश्च स दैवहीनः ॥२४॥ बृहद्यात्रायाम्-अदैवलक्ष्मान्यगुणेन राज्ञा तादृग्विधोऽरिस्त्वनुयुक्तमात्रः । तरुघुणैर्जग्ध इवाल्पवीर्यो महानपि क्षिप्रमुपैति भङ्गम् ॥२५॥ यस्मिन्देशे पुरे गेहे त्रिविधोत्पातपूर्वकम् । दृश्यते तत्र भङ्गः स्यादित्युक्तं ब्रह्मयामले ॥ २६ ॥रत्नमालायाम्--उद्वाहमङ्गलोत्सवकल्याणाभ्युदयसूतिकाशीचे । असमाप्ते तु न यात्रां कुर्वीत जिजीविषुः पुरुषः ॥ २७ ॥ मङ्गलं पुत्रानप्राश
१ ख. योर्याप्य'।
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ज्योतिर्निबन्धः। नादि । उत्सवः कौमुदीप्रभृतिः। कल्याणाभ्युदयो रोगमुक्तस्य शुभकृत्यम् । गर्गःप्रवेशानिर्गमश्चैव निर्गमाच प्रवेशनम् । नवमे जातु नो कुर्याद्धिष्ण्ये वारे तिथागपि ॥ २८ ॥ भृगुः-प्रवेशनिर्गमौ स्यातामेकस्मिन्दिवसे यदि । तदा प्रादेशिक कार्य चिन्तयेन तु यात्रिकम् ॥ २९ ॥ दवज्ञवलुभे-यायान्नाकालसंभूतर्विद्युद्गजितवर्षणैः । त्रिविधैरपि चोत्पातैदृष्टैरासप्तरात्रतः ॥ ३० ॥ रत्नमालायां-सौदामिनीवर्षणगर्जितेषु नाकालजेषु प्रवसेनरेन्द्रः । आसप्तरात्राद्भुतदर्शनेषु दिव्यानरिक्षक्षितिजेषु चैवम् ॥ ३१॥ .
इति यात्रोपयोगि मिश्रकम् ।
अथ प्रयाणे कर्तव्यानि । रत्नमालायां-दुत्वा वह्नि देवताश्च प्रणम्य श्रद्धायुक्तः स्वस्ति वाच्य द्विजे: न्द्रान् । ध्यायन्नाशाविरं हृष्टचेताः क्षोणीपालो निर्विकल्पं प्रयायात् ।। १ ॥ ललः-हुत्वाऽनलं नमस्कृत्य देवताः स्वस्ति वाच्य विमांश्च । ध्यायन्दिगीशमविलम्बितं व्रजेद्भूपतिः सुमनाः ॥ २॥ रत्नमालायां-स्वनिकेतात्सुरभवनात्मधानादाश्रयाद्गुरुगृहाद्वा । यायात्कृताग्निकार्यः प्राश्य हविष्यं द्विजानुमतम् ॥ ३ ॥ वैन्यं पृथु हैहयमर्जुनं च शाकुन्तलेयं भरतं नलं च । रामं च यो वै स्मरति प्रयाणे तस्यार्थलाभो विजयश्च सिद्धिः ॥४॥ तिथ्यादिकालावयवाविलग्नं सूर्यादिखेटाः कुलदेवताश्च । भूतानि विघ्नेश्वरविप्रकेशाः कुर्वन्तु कल्याणमिह प्रयाणे ॥५॥ बृहद्यात्रायाम्-अथ शङवेणुवीणादुन्दुभिनिर्घोषवर्धितोत्साहः । ध्वजचामरातपत्रः सिताङ्गरागाम्बरोष्णीषः ॥ ६ ॥ रत्नकोशे-पाची गजेन यायाच्छुचिर्बपञ्छाकुनं सूक्तम् । याम्यां च कृष्णवासा रथेन विधिवज्जपन्दौगम् ॥ ७ ॥ मानस्तोकं पित्वा दिशं प्रतीची हयेन निर्यायात् । अप्रतिरथं च जप्त्वा यायात्सौम्यां नृयानेन ॥ ८॥ बृहस्पतिः- शुक्लमाल्याम्बरः शुद्धो मुक्तादिसितभूषणः । वारेशसमवर्णो वा बालग्रहसमोऽपि वा ॥ ९ ॥ दृष्ट्वाऽष्टौ मङ्गलान्गच्छेन्नृपतिमङ्गलां गिरम् । श्रुत्वा तूर्यजशब्दांश्च निजधाम्नः पुरादपि ॥ १० ॥ पूर्णकुम्भं ध्वजं छत्रं दीपं शङ्ख च चामरम् । हिरण्यं शस्त्रमादित्यं प्रामङ्गलमष्टकम् ॥ ११ ॥ दधिर्वाक्षतागन्धहेमरुक्ममणींस्तथा । दृष्टास्पृष्टा व्रजेद्राजा दक्षिणेनाघ्रिणा ततः ॥ १२ ॥ गर्गः-नत्वेष्टदेवतां विप्रान्दैचतं च दिगीश्वरम् । सम्यक्संपूज्य दैवज्ञं श्रद्धायुक्तो नृपो व्रजेत् ॥ १३ ॥
१५. जप्त्वादि ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
बृहस्पतिः - दैवज्ञं पूजयित्वा तु विदुषः पूज्य शक्तितः । प्रदक्षिणानिमान्कृत्वा तिष्ठन्ध्यायेदुमापतिम् ॥ १४ ॥ कश्यपः - यात्रासमये बृद्धानुपरागे[वा ] ग्रहस्य वैषम्ये । गोभूहिरण्यवस्त्रैः संपूज्य श्रद्धया च दैवज्ञम् ॥ १५ ॥ चिन्तामणौ - कुलीनः सत्यवादी च जितवर्गस्तु भाग्यवान् । संतोषी चारुवेषश्च श्रौतस्मार्तोक्तकर्मकृत् ॥ १६ ॥ प्रगल्भो देशकालज्ञः स्वस्थारिष्टादिहेतुवित् । त्रिस्कन्धाभ्यासनिरतो राज्ञां सांवत्सरो मतः ।। १७ ।। भूपाल वलभे- गजाश्वरथपत्तीनां लक्षणेषु विशारदः । युद्धव्यूहादिकुशलः शास्त्रज्ञानाभिचारवित् ॥ १८ ॥ चतुरङ्गेण सैन्येन यत्कार्य नैव सिध्यति । तत्साधयति दैवज्ञो हेलयैव नृपेप्सितम् ॥ १९ ॥ जयार्णवे - तथा न माता हितकृन्न पिता न सुहृद्गुरुः । यथा सांवत्सरो राज्ञां स्वयशोधर्मद्धये ॥ २० ॥ यः पूजयति दैवज्ञं स्वधर्मरतमग्रजम् । तस्य श्रीर्विजयः कीर्तिविरं राज्यं च नन्दति ॥ २१ ॥ लल:- श्रद्धायुक्तः शुचिः स्नातः प्रसन्नेन्द्रि यमानसः । पूजितो बन्धुवर्गेण यात्रा तस्य फलमदा || २२ || बृहद्यात्रायां - स्नातो मुक्तोऽनुलिप्तश्च सर्वालङ्कारभूषितः । शुक्लाम्बरधरः श्रीमानध्वगः सुखमेधते ॥ २३ ॥ मक्षिकाकचसिकतानुविद्धं दुर्गन्धि क्षयका यच्च दग्धं । स्वस्विन्नं सुचिरं मनोनुकूलं स्वाद्वन्नं बहु च जयाय यानकाले ॥ २४ ॥ फलप्रदीपे -- विप्रान्प्रदक्षिणीकृत्य पूजयित्वा तु शक्तितः । दैवज्ञं देवताश्चैव बद्धान्मोच्य सुखं व्रजेत् ॥ २५ ॥ उलः - ताम्रपात्रे तिलान्कृत्वा सघृतान्हेमसंयुतान् । निवेद्य विप्रमुख्याय दैवज्ञाय ततो व्रजेत् ।। २६ ।। गर्गः - मुहूर्तसमये प्राप्ते हंसचाराङ्घ्रिणा व्रजेत् । दैवज्ञामात्यविमाद्य पुरोगैः स्वजनंवृतः ॥ २७ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - ततो निरीक्ष्य वै सम्यक्शकुनांश्च शुभाशुभान् । तथैव सदसच्छब्दान्निमित्तानि च वै व्रजेत् ॥ २८ ॥
इति प्रयाणे कर्तव्यानि ।
अथ नियमाः ।
ज्योतिष्प्रकाशे -- संतोष्य स्वाङ्गनां विप्राञ्जप्त्वाऽप्रतिरथादिकम् । शुचिः शुक्लाम्बरोष्णीषो नत्वेष्टं सुमना व्रजेत् ॥ १ ॥ गर्गः - क्रोधं क्षौरं रतिं वान्ति तैलाभ्यङ्गाश्रमोक्षणे । द्यूतं मांसं गुडं तैलं याने मद्यं परित्यजेत् ॥ २ ॥ रत्नकोशे-कालीयकं हिङ्गुलकः कुङ्कुमं रक्तचन्दनम् । पीतं रक्तं च वसनं यातुनष्टं निरीक्षणात् ॥ ३ ॥ बृहयात्रायां कटुतैलगुडक्षारपकमांसाशनं तथा ।
१ ग. 'भिधानवि' । २ ग. 'म् । सुखि' ।
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- ज्योतिर्निबन्धः।
२०९ भुक्त्वा यो याति मोहेन व्याधितः सन्निवर्तते ॥ ४ ॥ लल:-प्रस्थानकाले मनुजो वर्जयेन्मैथुनं सदा । वपनं छेदनं. चैव तैलाभ्यङ्गाश्रुमोक्षणे ॥ ५ ॥ प्रमत्तो व्याधितो भीतः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः। अध्वानं न प्रपद्यत क्लीबवेषस्तथैव च ॥६॥ रत्नावल्यां-स्वकीयां परकीयां वा स्त्रियं पुरुषमेव च । ताडयित्वा तु यो गच्छेत्तदन्तं तस्य जीवितम् ॥७॥ भूपालवल्लभे-ब्राह्मणान्नावमन्येत कोप. येन निजाङ्गनाम् । यात्रां कृत्वा गृहं नैव सिद्धिकामो विशेत्पुनः ॥८॥ लल्लः–यात्रायां प्रस्थितो यश्च ब्राह्मणानवमन्यते । तदन्तं. जीवितं तस्य नासौ प्रतिनिवर्तते ॥ ९॥ बृहद्यात्रायां-यस्तु संप्रस्थितो यात्रां स्वभाा नाभिनन्दति । भार्या वा नाभिनन्देत नास्य प्रतिनिवर्तनम् ॥ १० ॥ यात्राकाले तु संप्राप्ते मैथुनं यो निषेवते । रोगातः क्षीणकोशश्च स निवर्तेत वा न वा ॥११॥ रत्नावल्यां-कृत्वा तु मैथनं रात्री प्रभाते योऽभिगच्छति । नासौ फलमवाप्नोति कृच्छ्रेणापि निवर्तते ॥ १२॥ यस्तु संप्रस्थितो यात्रां निवर्तेत पुनर्ग्रहम् । कामाद्वा यदि वा मोहान्न स सिद्धिमवाप्नुयात् ॥ १३ ॥ लल्लः-न कुयोत्स्वगृहे गच्छन्प्रस्थानं तु कदाचन । भूतिकामस्तु कुर्वीत गृहानिष्क्रम्य दूरतः ॥ १४ ॥ भृगुः-त्रिरात्रं वर्जयेत्क्षीरं पश्चाहं क्षुरकर्म च । तदहश्चावशेषाणि सप्ताहं मैथुनं त्यजेत् ॥ १५ ॥ बादरायणः-यावबजति चाध्वानं यावत्कार्य न सिध्यति । यावद्वा न निवर्तेत तावद्वयं हि मैथुनम् ॥ १६॥ रत्नावल्यां-योधानामविरोधेन यवसादनमेव च । पञ्चरात्रोषितः सेनां पुनभद्रेण योजयेत् ॥ १७ ॥ क्रोशो वा यदि वाऽप्यधं प्रथमेऽहनि शस्यते । द्वितीये योजनं गत्वा निवसेत महीपतिः ॥ १८ ॥ तृतीये योजनं साधं वसेदाक्रम्य दूरतः । ततः परं यथेष्टं तु यायान्मार्गे महीपतिः ॥ १९ ॥ बृहद्यात्रायां-स्निग्धा स्थिरा सुरभिगुल्मलता सुगन्धा शस्ता प्रदक्षिणजला च निवासभूमिः । नेटा विपर्ययगुणा कचशर्करास्थिवल्मीककीटकविभीतकसंकुला च ॥२०॥
इति प्रयाणे नियमाः।
अथ यात्रायां प्रस्थानविधिः । रत्नकोशे--कार्यवशात्स्वयमगमे भूभर्तुः केचिदाचार्याः । छत्रायुधाद्यमिष्टं वैजयिक निर्गमे कुर्यात् ॥१॥श्रीपतिः-अपेक्ष्य कार्य स्वयमप्रयाणे महीभृतां निर्गममाहुरार्याः। छत्रायुधाचं मनसस्त्वभीष्टं प्रचालयेद्वैजयिकं जयाथों ॥ २ ॥
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२१०
श्रीशिवराजविनिर्मितीगन्धपुष्पान्वितं कृत्वा निर्गमे पूर्वमातृकम् । शुचौ देशे निदध्यात्तु यस्मिन्बाधा न विद्यते ॥ ३ ॥ छत्रशस्त्राक्षमालाग्निकमण्डल्वजिनाम्बरम् । विप्राणां ब्रह्मसूत्रं च निर्गमे कार्यसाधनम् ॥ ४॥ वरयष्टिध्वजेभाश्वेश्छत्रवाद्यायुधांशुकैः । दोलाथरथसंनाहनिर्गमो भूभृतां हितः ॥ ५ ॥ गर्ग:- यानवाहनसंनाहकार्योपकरणानि च । निर्गमे तु प्रशंसन्ति पश्चाद्गच्छेद्यथासुखम् ॥ ६॥ छत्रायं ध्वजमक्षसूत्रवलयं यज्ञोपवीतं द्विजैवश्यश्च स्वकदेहवस्त्रतुरगाः क्षत्रस्य खड्गो धनुः । ग्रामोपान्तनदीतटामरगृहोद्याने सुवापीतटे प्रस्थानं सुबुधैः प्रयाणसमये कार्य सदा मानवः ॥७॥ यस्य लोकस्य यद्वस्तु स्वाभीष्टं वसनादिकम् । मुहूर्तसाधनायैव प्रचाल्यं तन्मुदान्वितैः ॥ ८॥ स्वशरीरेण यः कश्चिनिगच्छेच्छूद्धयाऽन्वितः। तस्य यात्राफलं सर्वं संपूर्ण पथि सिध्यति ॥ ९॥ प्रस्थानं चालयेद्वाऽपि गृहात्माकारतोऽपि च । क्रोशा) वा तदर्थं वा चत्वारिंशत्करावधि ॥१०॥ गृहागृहान्तरं गर्ग आह सीमान्तरं भृगुः । शरक्षेपाद्भरद्वाजो वसिष्ठो नगराबहिः॥ ११ ॥ अथ प्रस्थाने स्थितो राजा प्रास्थानिकं वा वस्तु यावदिनानि महर्त नापेक्षते तदुच्यते रत्नमालायां--वसेन चैकत्र दश क्षितीशो दिनानि नो सप्त च माण्डलीकः । यः प्राकृतः सोऽपि च पश्चरात्रं भद्रेण यात्रा परतः प्रयोज्या ॥ १२ ॥ समन्ततः पोडश योजनानि भुङ्क्ते महामाण्डलिकाभिधानः। भूपालसंज्ञः शतयोजनानि स सार्वभौमः सकलां धरित्रीम् ॥ १३ ॥ ज्योतिष्प्रकाशस्वष्टं वस्त्रादि सुस्थाने शुचि प्रास्थानिकं न्यसेत् । प्रस्थानं पञ्चवेदत्रिद्विदिनं पूर्वतः क्रमात् ॥ १४ ॥ प्राच्यां दिनानि मुनयः प्रवदन्ति सप्त याम्यामतीव शुभदानि दिनानि पञ्च । त्रीण्येव पश्चिमदिशि क्षितिनायकानां प्रास्थानिकेषु दिवसद्वयमुत्तरस्याम् ॥ १५ ॥ एकत्राध्युषितस्य जगुर्यात्रामत्रात्रिगौतमच्यवनाः । पञ्चत्रिसप्तदिवसा भूयो भद्रेण संयोज्याः ॥१६॥ ज्योतिष्प्रकाशे-कार्यान्तरवशात्प्राप्तः परदेशगतस्य चेत् । यानमन्यत्र तत्स्थानात्सुमुहूर्ते तदा व्रजेत् ॥१७॥ रनावल्यांश्रवणे तदहः पुष्ये पौष्णे वसुभे विनिर्गतोऽन्येद्युः । मृगमैत्रयोस्तृतीये हस्ते यायाचतुर्थः ॥ १८ ॥ अथ राजा कार्यवशादेकत्र प्रदेशे दशदिनानि वसेत् । माण्डलिकः [सप्त] दिनानि । अन्यो जनः पञ्च दिनानि तिष्ठेत्मास्थानिक वा स्थापयेत् । तदाऽन्येन सुमुहूर्तेन यात्रां कुर्यात् । न शुभं तेनैव मुहूर्तेनेत्यर्थः । अथ काश्चि. दाह-अयुक्तमेतत्सतिभाति नूनं होराविदां युक्तिमतां बहूनाम् । यात्रासमाप्तिः खलु वाञ्छितार्थफलस्य सिद्धौ नियतं प्रदिष्टा ॥ १९ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-प्रस्थानेऽपि कृते नेयान्महादोषान्विते दिने । गर्गयोगं विना कालवृष्टयादौ वाऽद्भुते
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ज्योतिर्निवन्धः।
२११ तथा ॥ २० ॥ जन्मः वाऽष्टमे चन्द्रे वारे भौमे शनैश्चरे । प्रस्थितोऽपि न वै गच्छेदत्यन्तं गर्हिते दिने ॥ २१ ॥
इति यात्रायां प्रस्थानविधिः।
.. अथ यात्रायां शकुनाः । तिथिधिष्ण्यं च वारश्च लग्नं ग्रहबलं तथा । पञ्चानामपि सर्वेषां शकुनो दण्डनायकः ॥ १॥ वसन्तराज:-चूडामणिज्योतिषशास्त्रहोरास्वरोदयाद्यैर्विषमैर्जनस्य । जडीकृतस्यौषधमेतदुक्तं स्फुटं चमत्कारिरसातिरेकम् ॥२॥ नक्षत्रवारैस्तिथिभिश्च लग्नैः कार्य न किंचिच्छकुने विरुद्धे । दोषेऽपि तेषां शकुनेऽनुकूले सदैव सिध्यन्ति समीहितार्थाः ॥ ३ ॥ रत्नकोशे-नक्षत्रस्य मुहूर्तस्य तिथेश्च करणस्य च । लग्नस्य ग्रहवीर्यस्य शकुनो दण्डनायकः ॥ ४ ॥ वसन्तराज:-लोकेऽमुना शाकुनसंज्ञकेन ज्ञानेन विज्ञाय समस्तकार्यम् । नापायकूपे पतति प्रसर्पञ्छास्त्रं हि दिव्या दृगतीन्द्रियेषु ॥ ५॥ पूर्वजन्मकृतकर्मणः फलं पाकमेति नियमेन देहिनाम् । तत्प्रकाशयति देवचोदितः प्रस्थितस्य शकुनस्थितस्य च ॥ ६॥ बृहद्यात्रायाम्अन्यजन्मान्तरकृतं कर्म पुंसां शुभाशुभम् । यत्तस्य शकुनः पाकं निवेदयति गच्छतः ॥ ७ ।। गर्गः-तत्रापशकुने शीघ्र कार्य परिहरेद्वधः । शुभे तु शकुने नूनं स्वाभीष्टं च समारभेत् ॥८॥ वसन्तराज :- नन्ववश्यमुपभुज्यते नृभिः प्राक्तनस्य निजकर्मणः फलम् । तेन किं शकुनसंविदा जनो यत्र दैवमतिवर्तितुं क्षमः ॥ ९॥ ज्योतिष्प्रकाशे-नैतदेवं हि तत्पाकोऽकाले नैव व्यवस्थितः । तद्विना भ्युज्यते नैव सोऽप्युपायानुगः स्मृतः ॥ १०॥ सर्पवह्निविषकण्टकादिकान्येन देवशरणोऽपि मानवः । दूरतस्त्यजति पौरुषं सदा तेन तत्स्फुरति दैवतोऽधिकम् ॥ ११ ॥ पौरुषेण हृदयेप्सितां गतिं प्राप्नुवन्ति पुरुषाः सुमेधसः। यान्ति देवशरणा लयं यथा पादयोज्वलति दावपावके ॥ १२ ॥ दैवमेव यदि कारणं भवेन्नीतिशास्त्रमुपयुज्यते कथम् । यदलेन सुधियो महोद्यमाः पालयन्ति जगती क्षितीश्वराः ॥ १३ ॥ पूर्वजन्मजनितं पुराविदः कर्म दैवमिति संप्रचक्षते । उद्यमेन तदुपार्जितं तदा देवमुद्यमवशं न तत्कथम् ॥ १४ ॥ वेत्ति मामयमयं न वेत्ति मां मन्यते यदवमन्यतेऽथवा । यत्नवानयमपेक्षतेऽन्वयं नेदृशेषु शकुनो विशिष्यते ॥ १५ ॥ ज्योतिष्यकाशे-बहूनां बजतां पुंसां शकुनस्य फलं कथम् । स्वयं प्रोक्तं यतस्तेषां प्राकमाणि पृथक्पृथक् ॥ १६ ॥ वसन्तराजः-एकत्र सार्थे बजतां बहूनां यो यादृशं पश्यति दैवयोगात् । श्यामादिकानां शकुनेन तादृक्फलं
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२१२
श्रीशिवराजविनिर्मितो
नरो विन्दति निर्विकल्पम् ॥ १७ ॥ शकुनसंग्रहे - एकत्र साथै व्रजतां बहूनां तुल्येऽपि जाते शकुने फलानि । नानाप्रकाराणि भवन्ति येन तं हंसचारं प्रविचारयामः ॥ १८ ॥ वसन्तराज ::- भवेदिडायां परिपूरितायां सर्वोऽपि वामः शकुनः प्रशस्तः । स्यात्पिङ्गलायां परिपूरितायां सर्वोऽप्यसव्यः शकुनः प्रशस्तः ||१९|| साधारणे कर्मणि च प्रवेशे शुभग्रहे नष्टविलोकने च । व्याधौ सरिदुर्गभयादिकेषु शस्तः प्रयाणाद्विपरीतभावः || २० || नद्युत्तारे भये युद्धे प्रवेशे नष्टवीक्षणे । शकुना व्यस्तगाः शस्ता नृपालोके प्रयाणवत् ॥ २१ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे - शुद्धे शान्तः शुभाय स्याद्दीप्तां भीतिहरोऽशुभे । द्वावप्यशस्तौ व्यत्यासादस्तिनास्तिफलौ यतः ॥। २२ ।। वसन्तराज:- दग्धा दिगुक्ता दिननाथमुक्ता विवस्वदाता भवति प्रदीता । सा धूमिता यां सविता प्रयातः शेषा दिगन्ताः किल पञ्च शान्ताः ॥२३॥ दग्धा दिशी ज्वलितादिगैन्द्री धूमान्विता चानलदिक्प्रभाते । प्रत्येकमेवं महराष्ट्रकेन भुङ्क्ते दिशोऽष्टौ सविता क्रमेण ॥ २४ ॥ दग्धेषु दग्धं ज्वलितं ज्वलत्सु फलं ज्वलिष्यत्यथ धूमितेषु । शेषेषु शान्तेषु सदा नराणां सिध्यन्ति कार्याणि सुखेन सम्यक् ॥ २५ ॥ प्रवर्तको यो गमनस्य पूर्व स एव पश्चात्प्रतिषेधकश्चेत् । मृत्युं रिपुभ्यो डमरुं रुजं च गन्तुस्तदाऽऽन्यांच करोत्यनर्थान् ॥ २६ ॥ वरं श्रयेदुर्जनकृष्णसर्पों वरं क्षिपेत्सिंहमुखे स्वमङ्गम् । वरं तरेद्वारिनिधिं भुजाभ्यां नोल्लङ्घयेद्दुः शकुनं कदापि ॥ २७ ॥ दध्याज्यदूर्वाक्षतपूर्णकुम्भाः सिद्धान्नसिद्धार्थकचन्दनानि । आदर्शशङ्खामिपमीनमद्यगोरोचना गोमयमुद्धृतं गौः ॥ २८ ॥ भारद्वाजः - राजविप्रो सुहृद्वेश्या सपुत्रा स्त्री कुमारिका | अभिरूपो नरोऽस्त्री वा गजो बाजी वृषः सितः ||२९|| रज्ज्वा धृताऽन्यवर्णा गौः सवत्सा च विशेषतः । उद्धृतं गोमयं मीनो मृत्तिका चोद्धृता तथा ॥ ३० ॥ रजको धौतवस्त्रश्च वेश्या तौर्यत्रिकध्वनिः । जयमङ्गलशब्दश्व शान्तिपाठः प्रदीपकः ||३१|| दीपो वा प्रज्वलद्वह्निः पूर्णकुम्भो नृपासनम् । मद्यं मांसं च रुचिरं भक्ष्याणि च फलानि च ॥ ३२ ॥ इक्षवो मधु ताम्बूलं वस्त्रालंकरणानि च । रौप्यं ताम्रं मणिः स्वर्ण द्रव्यं दर्पणमक्षताः ॥ ३३ ॥ वितानं चामरं छत्रं दूर्वा वर्धापनं ध्वजः । दोला चारुरथो वृद्धः पुत्रपौत्रार्थ - युक् शुचिः ॥ ३४ ॥ चन्दनानि सुगन्धीनि तथा पुष्पाणि रोचना । घृतं दधि पयः पेयं सिद्धमन्नं वचः शुभम् || ३५ || दैवज्ञः स्वगुरुर्देवश्चित्तोत्साहकराणि च । दृष्ट्टैतानि नरो यायात्सर्वाल्लभते हि सः || ३६ || भोगाद्भोगान्तरं यावच्छकुनाच्छकुनान्तरम् । तावत्पूर्वफलं ज्ञेयं गमनागमनान्तरम् || ३७ || प्रापय गच्छ विसर्जय निर्गच्छ विमुञ्च याहीति । सिद्धिकराः खल्वेते प्रमोदजयजी -
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ज्योतिर्निबन्धः।
२१३ वशब्दाश्च ॥ ३८ ॥ माण्डव्यः-यात्रोत्थितस्य शस्तं स्याज्जयमङ्गलपूर्वकम् । वाक्यं चान्यत्तथा सर्व चित्तोत्साहकरं हितम् ॥ ३९ ॥ सितकुसुमचन्दनांशुकगन्धाम्बुरुहातपत्ररत्नानि । चन्द्रांशुनिकरगौराः स्तनतटपरिसर्पिणो हाराः॥४०॥ दधिमधुधृतसिद्धार्थाः पिञ्जरतिलपिष्टरोचनादर्शाः । पूर्णोत्सङ्गप्रमदावेश्यायोपित्कुमार्यश्च ॥ ४१ ॥ हयहेपितगीतरवास्तदादिवृषभेभगर्जितनिनादाः । मुनिनृपदैवतकीर्तनमङ्गलपुण्याहशब्दाश्च ॥ ४२ ॥ एवंविधास्तथाऽन्ये श्रोत्रसुखाः सामवेदऋग्यजुषाम् । सिद्धिकरा यातूणां तत्कालमुपस्थिताः सर्वे ॥ ४३ ॥ संमुखं सिद्धिदं नृणां शवं रोदनवर्जितम् । वामभागे क्षुतं चापि सर्वकार्येषु सिद्धिदम् ॥ ४४ ॥ जलार्थी रिक्तकुम्भस्तु पथिकेन सह व्रजेत् । निवर्तते, यथा पूर्णः कृतार्थः पथिकस्तथा ॥ ४५ ॥ दृष्टा कुरङ्ग शशि १ वाण ५ लाभं पष्ठश्चतुर्थः प्रियसंगमाय। सप्त ७ तृतीये ३ श्रूयते च वार्ता वसु ८ द्वितीये २ गमने च मृत्युः ॥ ४६॥ श्रीपतिः-छुच्छुका भवनगोधिका रला पिङ्गला कपिवधूश्च पोतकी । शूकरी पुरुषसंज्ञिता शिवा वामतः खलु यियासतां जयः ॥ ४७ ॥ ऋक्षो भासश्छिक्करो वानरः श्वा श्रीकण्ठाख्यः पिप्पलाख्यो रुरुश्च । ये स्त्रीसंज्ञा दक्षिणाः स्युः प्रशस्ताः प्रोक्ताः पूर्वैः सूरिभिस्ते प्रयाणे ॥४८॥ भारद्वाजो नाकुलश्चाषसंज्ञश्छागो वहीं दृष्टमात्रः शुभः स्यात् । गोधा सर्पः शाशको जाहकश्च याने दृष्टः कृकलासोऽपि नेष्टः॥४९॥जाहिकाहिशशिसूकरगोधाकीर्तनं शभमुदाहृतमार्यैः । नो रुतं न च विलोकनमेषामन्यथा गदितमृक्षकपीनाम् ॥ ५० ॥ हंसस्य दर्शनं शब्दस्तन्नामश्रवणं शुभम् । वामो राजशुको याने प्रपठन्सर्वसिद्धिदः॥ ५१ ॥ पुरो व्रजन्तः शुभदाश्चकोरा लावतित्तिराः । पुरस्तान्न शुभः श्येनः काकारिदक्षिणः शुभः ॥ ५२ ॥ अवामः कुक्कुटः शस्तो वृश्चिको वामगः शुभः । गणेशो वामगो नेष्टो द्रोणः शस्तः प्रदक्षिणः ॥ ५३ ॥ अजाऽजवच्च शकुने गोवच्च महिषी स्मृता । छुच्छन्दरीमूषिकोष्टा नखिनो वामतः शुभाः॥५४॥ पृष्ठे वामे शुभा पल्ली याने नेष्टाऽग्रयाम्यगा । मार्ग बध्नाति सूत्रेण ऊर्णनाभो न शोभनः ॥५५॥ सिद्धान्नपिष्टाफलमांसवस्त्रो लाभाय यक्षोऽभिमुखः सदैव । धुन्वञ्छिरःकर्णकलेवराणि यात्रानिषेधं कपिलः करोति ।। ५६॥ श्वा वामोऽभिमुखः शस्तो भृङ्गो वामगतः शुभः । मार्जारस्याऽऽरवं युद्धं दर्शनं च न शोभनम् ॥ ५७ ॥ भूमेः प्रदेश शिरसा स्पृशञ्छ्ा यदि वीक्षते । ध्रुवं महानिधानं च तत्रास्तीति निगद्यते ॥ ५८ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-प्रदक्षिणगतैः काकैर्मृगराजर्गमः शुभः । खरशब्दः शुभो वामे पृष्ठे चापि यियासताम् ॥ ५९॥ भूपाः शस्त्र
१ ग. °सःशीकरो।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोयुताः समानमनुजा गौः पद्मनाथेऽङ्गाना युक्ता पूर्णघटेन शीतकिरणे श्वा ब्रह्मचारी मृगः । सौम्ये शस्त्रयुता नराः क्षितिसुते देवाचिते ब्राह्मणाः शुक्रे सुन्दरिबालिकाहयमृगा मन्दे चराः कौरवाः । स्थाने वीर्ययुतार्कशीतकिरणादीनां वदेदादिमं पश्चाज्ज्ञः शकुनान्प्रयाणसमये भूपादिकानां नृणाम् ॥ ६० ॥
इति यात्रायां शकुनाः।
अथापशकुनाः। तृणतैलारिकासभस्मचर्मतुषौषधम् । सामुद्रं गुडपङ्काहिमत्तं वान्तं बुभुक्षितम् ॥१॥ क्लीवास्थिव्याधिताभ्यक्ततक्रमुण्डेन्धनान्तकाः । काषायिमुक्तकेशाश्च याने दृष्टा न शोभनाः ।।२॥ कुटुम्बकलहो गेहज्वलनं स्त्री रजस्वला। संन्यासी गुर्विणी वन्ध्या धूमाङ्गारा न शोभनाः ॥ ३ ॥ कृष्णधान्यानि विष्ठा च जटिलः पतितः खलः । व्यङ्गाः खञ्जाश्च ननाश्च याने दृष्टा न शोभनाः॥४॥ युद्धं मार्जारयोर्नेष्टं याने महिषयोस्तथा । क्षतं सर्वत्र विघ्नाय मरणायैव गोक्षुतम् ॥ ५॥ द्वारघातो दृशा सङ्गः स्खलनं पाणिपादयोः । रोदनं न शुभं याने वाहनस्य पलायनम् ॥६॥ नारदः-यात्रासिद्धिर्भवेद्दष्टे शवे रोदनवर्जिते । प्रवेशे रोदनयुतः शवः शिवप्रदस्तथा ॥७॥ सर्वदिक्षु क्षुतं नेष्टं गोक्षुतं निधनप्रदम् । अफलं यद्धालबद्धरोगिपीनसिकः कृतम् ॥८॥ भिन्नं रिक्तं न सद्भाण्ड केशपाशार्गलायसम् । अश्मावस्करपिण्याकं दुर्वाक्यं पथि हानिदम् ॥ ९ ॥ खरोष्ट्रमाहिषारूढो याने दृष्टो न शोभनः । सर्व शुभं दक्षिणतः कार्य निन्यं तु वामतः ॥ १० ॥ मार्गस्तिष्ठति निवर्त गभ्यारोहेति मूढ दुर्बुद्धे । यातुर्नेच्छन्ति बुधाः क्षुतकाकृष्टभीतशब्दाश्च । तैलावसक्तगात्रा नग्नाश्च विमुक्तकेशाश्च ॥११॥ वागुरिमत्स्यवन्धकशशमहिषा बन्धनादिकृताः । रक्ताम्बरमाल्यधरास्तुषभस्मकपायकेशनिचयाश्च ॥ १२ ॥ जडकुब्जमूकबधिरा व्याधितमलिनाम्बरा विकृतवेषाः । भिन्नाचाराश्च नरा दृष्टा यातुन सिद्धिकराः ॥१३ ॥ गर्गः- शव• मद्यौषधस्नेहलवणोपानही गुडः । निर्गमे न प्रशंसन्ति यद्वाऽप्युपहतं भवेत् ॥ १४ ॥ श्वकाकनकुलव्यालशिखिमार्जारमूषकैः । खण्डिते नेष्यते किंचिद्यायिनः पूर्वनिर्गमे ॥ १५ ॥ उद्धूलितपुरोवक्षो भेकस्तस्करभीतिकृत् । दक्षिणाङ्गं स्पृशञ्छस्तो वामाङ्गं च स्पृशन्न सन् ॥ १६ ॥
इत्यपशकुनाः। ---.
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथापशकुनविधानम् ।
अष्टिषेणिः - बिम्बे विधाय शान्त्यर्थं श्रोत्रियाय निवेदयेत् । दुर्दिने गर्जिते दृष्ट्यां सूर्याचन्द्रमसोर्द्वयोः ॥ १ ॥ दुःस्वप्रदुर्निमित्तापशकुना विलयं ययुः । स्नानदानजपैः पुण्यैरित्याह भगवान्भृगुः || २ || यदाऽपशकुनं पश्येद्विपरीतमु पस्थितम् । सघृतं काञ्चनं दत्त्वा निर्विशङ्कः सुखं व्रजेत् ॥ ३ ॥ वसन्तराज:जाते विरुद्धे शकुनेऽध्वनीनो विवृत्य कृत्वा करपादशौचम् | आचम्य च क्षीरतरोरधस्तात्तिष्ठन्मपथ्येच्छकुनान्तराणि ||४|| विरुद्धे शकुने पूर्वे प्राणायामाष्टकं चरेत् । द्वितीये द्विगुणान्कुर्यात्तृतीये न व्रजेत्कचित् ॥ ५ ॥ नारदः - आदौ विरुद्धशकुनं दृष्ट्वा यायीष्टदेवताम् । स्मृत्वा द्वितीये विप्राणां कृत्वा पूजां निवर्तयेत् ॥ ६ ॥ वाराणस्यां दक्षिणे भागे कुक्कुटो नाम वै द्विजः । तस्य स्मरणमात्रेणाशकुनः शकुनो भवेत् ॥ ७ ॥ अविमुक्तचरणयुगुलं दक्षिणामूर्तेश्च कुक्कुटचतुष्टयम् । स्मरणादपि वाराणस्या निहन्ति दुःस्वप्रमथ शकुनं च ॥ ८ ॥ बृहद्यात्रायाम् अपि प्रहीणस्य समस्तलक्षणैः क्रियाविहीनस्य निकृष्टजन्मनः । प्रदक्षिणीकृत्य शशाङ्कशेखरं प्रयास्यतः कस्य न सिद्धिरिष्यते ॥ ९ ॥ श्रीपतिःआद्ये विरुद्धे शशुने प्रतीक्ष्य प्राणान्नृपः पञ्च च पट् च यायात् । अष्टौ द्वितीये द्विगुणस्तृतीये व्याहृत्य नूनं गृहमभ्युपेयात् ।। १० ।।
इत्यपशकुनविधानम् ।
२१५
अथ क्षुतम् ।
अथ क्षुताख्यं शकुनं क्रमेण महाप्रभावं परिभावयामः । त्रस्यन्ति यस्माच्छकुनाः समस्ता मृगाधिनाथादिव वन्यसत्त्वाः ॥ १ ॥ क्षुतं निषिद्धं सर्वत्र गोक्षुतं निधनप्रदम् । वामे पृष्ठे शुभं तच्च दक्षिणेऽग्रे न शोभनम् ||२|| प्रतियामं तु पूर्वादौ क्रमात्क्षुतफलं विदुः । विघ्नः शोकः क्षतिलाभो भोज्यं वार्ता कलिः सुखम् || ३ || इन्दिरा मरणं सिद्धिः पीडा भोगाः सुखासुखे । निष्फलं चोपविष्टस्य पूर्वतः क्षुतजं फलम् ॥ ४ ॥ मागन्यपुंसः परतस्तत्रैव च पुनः पुनः । हठात्कफाच्छिशोवृद्धात्क्षुतं जातं वृथा जगुः || ५ || स्वमस्याऽऽयन्तयोः शस्तं क्षुतं नो भोजनाग्रतः । भोजनान्ते यदि भवेद्भोज्यलाभः परेऽहनि ॥ ६॥ अन्तर्वत्नी कुमारी च किंनरी मद्यकारिका । बुरुडी चर्मकारी च निन्द्यमासां
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श्री शिवराजविनिर्मितो -
क्षुतं सदा ॥ ७ ॥ प्रयोजने यत्र कृतेऽपि जातं क्षुतं क्षणात्तद्विनिहन्त्यवश्यम् । कार्योत्सुको नापि मनागपीदं तस्मादवेक्ष्यं न विचक्षणेन ॥ ८ ॥
इति क्षतम् ।
अथाश्वेङ्गितम् ।
मुहुर्मुहुर्मूत्रमलं करोति न ताड्यमानोऽप्यनुलोमयायी । अकार्य भीतोऽश्रुविलोचनश्च शिवं न भर्तुस्तुरगोऽभिधत्ते || १ | आरोहति क्षितिपतौ विनयोपपन्ने यात्रानुगोऽन्यतुरगं प्रति हेषितश्च । वक्त्रेण वा स्पृशति दक्षिणमात्मपार्श्व योऽश्वः स भर्तुरचिरात्प्रतनोति लक्ष्मीम् ॥ २ ॥
इत्यश्वेङ्गितम् ।
अथ गजेङ्गितम् ।
भूमौ न्यस्तकरः स्तब्धकर्णो मुकुलितेक्षणः । भीतः श्वसन्गजो याने भङ्गकृत्स्खलितस्तथा ॥ १ ॥ अनुलोमगतिर्दृप्तो वक्त्रमुन्नम्य याति च । वल्मीकस्थान गुल्मादिमथनः सिद्धिदो गजः ॥ २ ॥ प्रशस्तैः शकुनैः कार्य कृत्वाऽभ्येति गृहं तथा । अकृतार्थोऽपशकुनैर्मिश्रैर्मिश्रफलं भवेत् ॥ ३ ॥ इति गजेङ्गितम् ।
अथ स्वस्थानकृत्यम् |
प्राकारयन्त्रहरणपरिखातोयधान्येन्धनाढ्यं दुर्गं कृत्वाऽतिगृहं द्विपतुरगभिषक्शिल्पविप्राभ्युपेतम् | लुब्धत्रस्ताहितारिप्रकुपितकुभृताज्ञानशीलविहीनं युक्तं शूराप्तवृद्धैः परविषयमियान्मन्त्रपाणिर्नरेन्द्रः ॥ १ ॥ नारदः - परस्त्रीद्विजदेवांश्च न स्पृशेद्धि गजाश्वकान् । हन्यात्परपुरं प्राप्तो नार्तान्भीतान्निरायुधान् ॥ २ ॥ इति शूरमहाठ श्रीशिवदास विनिर्मिते । ज्योतिर्निवन्सर्वस्त्रे यात्राप्रकरणं स्फुटम् ।
१. पञ्च ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ नानाविधमुहूर्तप्रकरणम् । तत्र सुरप्रतिष्ठा ।
नारद: - श्रीमदं सर्वगीर्वाणस्थापनं चोत्तरायणे । गीर्वाणपूर्व गीर्वाणमन्त्रिणोदृश्यमानयोः | ॥ १ ॥ विचैत्रेष्वेव मासेषु माघादिषु च पञ्चसु । शुक्लपक्षेषु कृष्णेषु तदादिष्वष्टसु स्मृतम् || २ || वसिष्ठः - मासे तपस्ये तपसि प्रतिष्ठा धनायुरारोग्यकरी च कर्तुः । चैत्रे महारुम्भयदा च शुक्ले समाधवे पुत्रधनमदात्री || ३ || आषाढमासादिचतुष्टये च कलत्र संतानविनाशदा च । ऊर्जे च कर्तुर्निधनप्रदा द्राक् सौम्ये सपौषेऽखिलदुःखदा सा ॥ ४ ॥ वलक्षपक्षः शुभदः समस्तः सदैव तत्राऽऽयदिनं विहाय । अन्त्यं त्रिभागं परिहृत्य कृष्णपक्षोऽपि शस्तः खलु पक्षयो ||५|| रिक्ताममां त्यक्तदिनेषु निन्ययोगेषु वैनाशिकवर्जितेषु । दिने महादोषविदूषिते च शशाङ्कन्तारावलसंयुतेऽपि || ६ || देवस्य यस्योहुतिथी प्रशस्ते संस्थापने कर्मणि वासरथ । कर्तुर्दिनेशस्य बलं सदैव ग्रामाधिपग्रामबलं विचार्यम् ||७|| * हस्तत्रये मित्रहरित्रये च पौष्णद्वयादित्यसुरेज्यभेषु । तित्रोत्तराधातृशशा
भेषु सर्वामरस्थापनमुत्तमं तत् ॥ ८ ॥ कीर्तिप्रदं क्षेमकरं कृशानोभयप्रदं वुद्धिकरं नराणाम् । लक्ष्मीकरं सुस्थिरदं त्विनादिवारेषु संस्थापनमामनन्ति ॥ ९ ॥ नारदः-चन्द्रतारावलोपेते पूर्वाह्णे शोभने दिने । शुभे लग्ने शुभांशे च कर्तुर्न निधनोदये || १० || राशयः सकलाः श्रेष्ठाः शुभग्रहयुतेक्षिताः । शुभग्रहयुते लग्ने शुभग्रहनिरीक्षिते ॥ ११ ॥ राशिस्वभावजं हित्वा फलं ग्रहजमाश्रयेत् । अनिष्टफलदः सोऽपि प्रशस्तफलदः शशी ||१२|| सौम्यगोऽधिमित्रेण गुरुणा
विलोकितः । पचे शुभे लग्ने नैधने शुद्धिसंस्थिते || १३|| वसिष्ठः - पञ्चेष्टिके जीवशशाङ्कसूर्यमुख्यैः सौम्यनवांशयुक्ते । लग्ने स्थिरे चोभयराशिलभे नवांश चोभयभेऽस्थिरे वा || १४ || चरोदये लग्नगते न कार्ये संस्थापनं नैव चरांशकेऽपि । चरोऽपि मुख्यः सतुलांशकश्च सदा मृदुत्वात्सुरसंनिवेशे ॥ १५ ॥ बृत्तराते-आदित्यश्रुतिवासवध्रुवमृदुक्षिमैः सुरस्थापनं कार्य रिक्त - तिथिं कुंजस्य दिवसं पक्षं च हित्वा सितम् । स्थाप्योऽर्कश्च हरौ शिवश्च मिथुने कन्याविलने हरिः क्षुद्राख्यावर मे द्विमूर्तिभवने देव्यः स्थिरक्षेऽखिलाः ॥ १६ ॥ नारदः–लग्नस्थाः सूर्यचन्द्रारराहुकेत्यर्कसूनवः । कर्तुर्मृत्युप्रदायान्ये धनधान्य
२१७
* गपुस्तकेऽधिकोऽयं श्लोक : - तेजोवृद्धिक्षेम कृद्वह्निदग्धाशांतीकारासु सन्नादृढाच । चन्द्रार्क स्थापना स्थानितान्तं सूर्यादीनां वासरेषु प्रतिष्ठा ।
१. कुजादिवस प
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श्रीशिवराजविनिर्मितोसुखप्रदाः ॥ १७ ॥ द्वितीये नेष्टदाः पापाः शुभाश्चन्द्रश्च वित्तदाः। तृतीये निखिलाः खेटाः पुत्रपौत्रसुखप्रदाः ॥ १८ ॥ चतुर्थे सुखदाः सौम्याः क्रराश्चन्द्रश्च दुःखदाः । ग्लानिदाः पञ्चमे क्रूराः सौम्याः पुत्रसुखप्रदाः ॥ १९ ॥ पूर्णः क्षीणः शशी तत्र पुत्रदः पुत्रनाशदः । षष्ठे शुभाः शत्रुदाः स्युः पापाः शत्रुक्षयप्रदाः ॥ २० ॥ पूर्णः क्षीणोऽपि वा चन्द्रः षष्ठेऽखिलरिपुक्षयम् । करोति कर्तुरचिरादायुष्पुत्रधनप्रदः ॥ २१ ॥ व्याधिदाः सप्तमे पापाः मौन्याः सौम्यफलपदाः । अष्टमस्थानगाः सर्वे कर्तुमृत्युप्रदा ग्रहाः ॥ २२ ॥ धर्मे पापा घ्नन्ति सौम्याः शुभदाः शुभदः शशी । भङ्गन्दाः कर्मदाः पापाः सौम्याश्चन्द्रश्च कीर्तिदाः ॥ २३ ॥ लाभस्थानगताः सर्वे भूरिलाभप्रदा ग्रहाः । व्ययस्थानगताः शश्वद्धहुव्ययकरा ग्रहाः ॥ २४ ॥ गुणाधिकतरे लग्ने दोषात्यल्पतरे यदि । सुराणां स्थापनं तत्र कतुरिष्टार्थसिद्धिदम् ।। २५ ॥ हन्त्यर्थहीना कर्तारं मन्त्रहीना तु ऋत्विजम् । स्त्रियं लक्षणहीना तु न प्रतिष्ठासमो रिपुः ।। २६ ॥ संग्रहे-रन्ध्रान्त्यवर्जितैः सौम्यैः पापैः षट्व्यायगैः शुभैः । प्रतिष्ठा वारिगोऽपीन्दुः शुभोऽ. सौ लग्नगो न सन् ॥ २७ ॥ श्रीपतिः-रोहिण्युत्तरपौष्णवैष्णवकरादित्यश्विनीवासवानूराधैन्दवजीवभेषु कथितं विष्णोः प्रतिष्ठापनम् । पुष्यश्रुत्यभिजित्सुरेश्वरकयोर्वित्ताधिपस्कन्दयोमैत्रे तिग्मरुचेः करे निक्रतिभे दुर्गादिकानां स्मृतम् ।। २८॥ गणपरिवृढरक्षोयक्षभूतासुराणां प्रमथफणिसरस्वत्यादिकानां च पोष्णे । श्रवासि सुगतनाम्नो वास लोकपानां निगदितमाखिलानां स्थापनं च स्थिरेषु ॥२१ ॥ सप्तर्षयो यत्र वसन्ति धिष्ण्ये कार्या प्रतिष्ठा खलु तत्र तेषाम् । श्रीव्यासवाल्मीकियटोद्भवाख्यतद्देवतावाक्यनिभग्रहाणाम् ॥ ३० ॥ बलान्विते गुरौ भौमे सबले सुतधर्मगे । गुरौ लाभगते स्थाप्यः शंकरः शंकरो भवेत् ॥ ३१ ॥ जीवे चतुष्टयस्थे विष्णोः केन्द्रे बुधे गुरौ हिबुके । कार्या विधिवत्प्रतिष्ठा कुमारयक्षेन्दुसूर्याणाम् ॥ ३२ ॥ शुक्रे लग्ने नवम्यां तु स्वबलेन्दौ कुजे खगे । बृहस्पतौ च सबले देवीनां स्थापनं हितम् ॥ ३३ ॥ शनौ बलान्विते वीर्यहीनौ भौमशशाडूजी । मृगे मेषे रवौ वेन्दो मूर्ति जिनवती न्यसेत् ॥३४॥ केन्द्रारिरिपुधर्मस्था जीवभौमशनैश्चराः । प्रासादभेदं कुर्वन्ति कर्तुर्दुःखामयप्रदाः ।। ३५ ॥
इति सुरप्रतिष्ठा ।
अथ वस्त्रधारणम् । धार्य वस्त्रं नवं श्वेतं रोहिण्यां हस्तपञ्चके । वासवे दितिभेऽश्चिन्यां पुष्ये पोष्णोत्तरात्रये ॥ १ ॥ रचौ जीर्ण विधौ स्तोकं जलाई दुःखदं कुजे । बुधे
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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धनं गुरौ ज्ञानं शुक्रे सौख्यं शनौ मलम् ||२|| हेम रक्ताम्बरं रौप्यं रक्तदन्ताश्च विद्रुमम् । धारयेद्वासवेऽश्विन्यां रेवत्यां हस्तपञ्चके || ३ || पुष्यादित्यध्रुवैर्धिष्ण्यैः स्वर्णरक्ताम्बरादिकम् । नवं न भूषणं धार्यं नार्या दयितुरायुषे ॥ ४ ॥ श्रीपतिः - पौष्णाश्विनी वसुकरादिषु पञ्चकेषु कौसुम्भहेममणिविद्रुमकाचशङ्खाः । नार्या घृताः सुतसुखार्थकरा भवन्ति ब्राह्मोत्तरादितिगुरुष्वसुखाय भर्तुः ॥ ५ ॥ ज्योतिःशास्त्रे - शङ्खादिवररत्नानि पुष्यादित्युत्तरासु च । रोहिण्यां नैत्रयुञ्जीत भर्तुर्जीवनकाङ्क्षिणी ॥ ६ ॥ माञ्जिष्ठेऽर्कः कुजः स्वर्णे काचे रौप्याब्जयोविधुः । शस्तोऽथ वसनं मध्यत्र्यंशेऽग्न्यादिहतं न सत् ॥ ७ ॥ व्यासः - भरण्यार्द्रा तथाऽऽश्लेषा वह्नेर्भत्रितयं तथा । जिजीविषुर्न कुर्वीत प्रीत्या चाम्बरधारणम् ॥ ८ ॥ शुभैः केन्द्रत्रिकोणस्थैः पापैस्त्रयारिगैः शुभैः । अक्षीणाब्जे दुकूलादिवस्त्रसंधारणं मतम् || ९ || लब्धं राजप्रसादेन विप्रादेशात्करग्रहे । प्रीत्याऽऽतं चोत्सवे वस्त्रं धार्यं निन्द्येऽपि भादिके ॥ १० ॥
अथ पृथक्फलानि ।
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1
रत्नमालायां – वस्त्रप्राप्तिस्तदभिहरणं वह्निदाहोऽर्थसिद्धी राज्ञो भीतिर्मृतिरथ धनं प्राप्तिरर्थागमश्च । शोको मृत्युर्नरपतिभयं संपदः कर्मसिद्धिरिष्टावाप्तिः सदशनमथो वल्लभत्वं जनानाम् || १ || मित्राप्तिरम्बरहृतिः सलिलप्लुतिश्च रोगोऽथ मिष्टमशनं नयनामयश्च । धान्यं विषोद्भवभयं जलभर्धनं च रत्नाप्तिरम्बरधृतः फलमश्विभात्स्यात् || २ || निवसन्त्यमरा हि वस्त्रकोणे मनुजाः पार्श्वदशान्त्यमध्ययोश्च । अपरेऽपि च रक्षसां त्रयोंऽशाः शयने चासनपादुकासु चैवम् ॥३॥ भोगप्राप्तिर्देवतांशे नरांशे मित्राप्तिः स्याद्राक्षसांशे च मृत्युः । प्रान्ते सर्वाशेष्वनिष्टं फलं स्याज्जुष्टं वस्त्रे नूतने साध्वसाधु ॥ ४ ॥ छत्रस्वस्तिकवर्धमान कलशश्रीवत्समात्स्यध्वजाम्भो जादर्श सुतोरणैश्च सदृश छेदोऽशुभांशैः शुभः । काकोलूकखरोष्ट्यानफणिभृगोमायुभिः शोभने भाग्येऽथाऽऽश करोति शोकमरणं दग्धाकृति
ससि ॥ ५ ॥ कज्जल कर्दमगोमयलिप्ते वाससि दग्धवति स्फुटिते वा । चिन्त्यमिदं नवधा विहितेऽस्मिन्छ्रेष्ठकनिष्टफलानि सुधीभिः ॥ ६ ॥ विप्रादेशादुद्वाहे वा क्ष्मापालेन भीत्या दत्तम् । भे बारे कनिष्ठेऽप्याहुनूनं नूतनवस्त्रं धायेम् ॥ ७ ॥
इति वस्त्रधारणम् ।
१ ध सां नवांशाः ।
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२२०
श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ वस्त्रक्षालनम् । वस्त्रहेमाद्यलंकारधारणोक्तश्च भादिकैः । तत्संग्रहणनिर्माणं विदध्यात्क्षालनादिकम् ॥ १॥ शनी सोमसुते श्राद्धे पष्ठयमावास्ययोस्तथा । वस्त्राणां क्षालनं चैव दहत्यासप्तमं कुलम् ॥ २॥
अथ दग्धस्फुटितवस्त्रफलम् । प्राग्जन्मोपार्जितं कर्म सदसच्च शुभाशुभम् । विपाकं व्यञ्जयत्येव वर्ष वयादिदूषितम् ॥ १ ॥ वस्त्रकोणे सुरा भोगा नराः पाददशेऽसुराः । रक्षेशारत्वपरे मृत्युः पादशय्यासनेष्वपि ॥ २ ॥ अग्निदग्धं नवं वस्त्रं खण्डितं गोवपादिभिः । मपीगोमयपङ्कगसृग्लिप्तं कण्टकपाटितम् ॥ ३ ॥ तीर्थधोतं तु तद्वस्त्रं द्विगुणं धारयेद्यथा । प्रागन्त्याञ्चलमूर्धस्थं पश्चादाद्याञ्चलं त्वधः ॥ ४॥ मध्ये त्र्यंशे च मध्ये च कोष्ठेचोर्ध्वाधरे मृतिः । प्राच्यां तत्र भवेल्लक्ष्मीराग्नेय्यामग्निजं भयम् ॥ ५ ॥ याम्यायां जायते व्याधिनैर्ऋत्यां पुत्रवर्धनम् । वारुण्यां धनसंप्राप्तिवायच्यां वस्खलब्धये ॥ ६ ॥ उदीच्यां तु महोद्वेग ऐशान्यां धर्मवृद्धिकृत् । नवधैतत्फलं ज्ञेयं कोष्ठसंधौ फलद्वयम् ॥ ७ ॥ ध्वजपद्माङ्कुशच्छत्रचन्द्रदीपाकृतिः शुभा । निन्द्या त्रिकोणसूर्यादिक्रव्यादविकृताकृतिः ॥ ८ ॥ कोष्ठे शुभे शुभं चिह्नमतीव फलदं भवेत् । निन्ये निन्यं तथा दुष्टमन्यथा मध्यम फलम् ॥ ९ ॥ षण्मासाभ्यन्तरे वस्त्रे प्रथमाच्छादनात्परम् । एतत्फलं विजानीयादस्ति नाऽऽद्यदिने फलम् ॥ १० ॥ वर्षादावतुमासेन पक्षाहोभ्यां फलं वदेत । एकायङ्गुलमानेन निन्द्यं षट्पर्वतोऽधिकम् ॥ ११ ॥ वधे धूमावलीढस्य बिरन्ध्रस्याल्पकं फलम् । धार्य चाणुतरं दग्धं पेटिकायां समृद्धये ॥ १२॥ वारंवारं यस्य वस्त्रं दूषितं दहनादिभिः । तस्य विघ्नो भवेदाशु तत्त्याज्यं शुभमिच्छता ॥ १३ ॥ दग्धमानं त्यजेद्वस्त्रं स्नात्वा विघ्नेश्वरं यजेत् । ब्राह्मणान्मोजयेत्पश्चात्सुखी स्यादवशङ्कितः ॥ १४ ॥ स्वयं खण्डीकृतं वस्त्रं मञ्जिष्ठादिसु. रञ्जितम् । दुर्लभं नित्यधोतं च जीर्ण दग्धं न संत्यजेत् ॥ १५॥ न दोषो रक्तरो स्यादौर्णकौशेयपट्टजे । भूषणे हेम्नि रत्नादौ नित्यधौतेऽतिदुर्लभे ॥१६॥ बृहस्पतिः-मपीगोमयताम्बूलपङ्काग्न्याधादिदूपितम् । तद्वासस्त्रिगुणीकृत्य प्रारम्भे सूर्ध्वपश्चिमे ॥ १७ ॥ अधोवसानं प्राच्यां तु भूमौ संत्यज्य तत्पुनः । मेपादिग्रहचक्रेऽपि यत्र वस्त्रवतो ग्रहात् ॥ १८ ॥ द्वादशाष्टमपष्टेषु यदि पापग्रहेण तु ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
२२१
दृष्टे तु वृश्चिके तस्य नाशमारः शुभप्रदः ॥ १९ ॥ अन्यत्र सद्ग्रहैः सार्धच्छिन्नं शोभनदं भवेत् । मध्यमे सर्वनाशः स्यादन्तेष्वपि न शोभनम् || २० || वस्त्रस्य जन्मराशेस्तु भावैर्भावफलैरपि । शुभाशुभफलस्यार्धच्छेदे तद्वत्फलं वदेत् ॥ २१॥ यद्वस्त्रं त्वशुभाकारं देयं तद्ब्राह्मणाय च । दैवतेभ्यो द्विजेभ्यो वा तद्दोषस्य प्रशान्तये ॥ २२ ॥ क्षौमादिकमहार्येषु त्रिषडाब्दादधः फलम् | कम्बलादिषु सर्वेषु त्रिभिर्वर्षेरधः फलम् || २३ || एवं शय्यासनादौ तु कौतुके वाहनेऽपि च । राशिचक्रोक्तमार्गेण शुभाशुभफलं भवेत् ॥ २४ ॥ नवभागीकृते वस्त्रे चत्वारस्तु त्रिकोणकाः । कर्णवर्तिद्वयं द्वौ च लवौ मध्यं तथैककम् ॥ २५ ॥ चत्वारो देवताभागा द्वौ भागौ देवनायकौ । उभौ तु मानुषौ लाभमेको भागव राक्षसः || २६ || पङ्काञ्जनादिभिहितं कुदितं मूपकादिभिः । तूणितं पाटितं दग्धं दृष्टा वस्त्रं विचारयेत् || २७ || उत्तमं दैवते भागे दानवे रोगसंभवः । मध्यमे मानुषे लाभो राक्षसे मरणं पुनः || २८ ॥
अथ वस्त्रारम्भणम् ।
सुदिने वस्त्रनिर्माणं ग्रहणं च शुभोदये । सचन्द्रकव्ययं रन्धधनं क्रूरयुतं न सत् ॥ १ ॥
अथ तूलिका ।
तूलिका चोपधानानि वितानादि विधीयते । वस्त्र सुदिने शुद्धे रन्ध्रान्त्यकेन्द्रगैः शुभैः ॥ १ ॥
अथालंकृतिः ।
बादरायणः - इस्तानुराधगुरुपूपधनिष्ठयुक्तचित्रोत्तरात्रय पुनर्व सुरोहिणीषु । लग्ने स्थिरे रविसितेन्दुजजीववारे हेमादिधारणविधिः कथितो नराणाम् ॥ १ ॥ हारीत: - पौष्णव सुतुरङ्गेषु रोहिण्यामुत्तरायणे । पतिजीवितमिच्छन्ती नैव हेमादिकं स्पृशेत् ॥ २ ॥ व्यासः - चित्राविशाखापवनानुराधावस्वश्विनीभास्कररेवतीषु | आदित्यशुक्रेन्दुजजीववारे लग्ने स्थिरे स्त्री कनकादि दध्यात् || ३ || पूनर्वसूत्तरापुष्य रोहिण्यकश्विनीषु च । पतिजीवितमिच्छन्ती नैव स्त्री कनकं वहेत् || ४ || हेमरत्नाद्यलंकारघटनं धारणं तथा । स्वाङ्गभाव शुभैर्युक्ते चित्तो
१. कुर्द |
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२२२
श्रीशिवराजविनिर्मितोत्साहेऽष्टमेऽमले ॥ ५ ॥ लब्धं राजप्रसादेन विप्रादेशात्करग्रहे । पीत्याऽऽसं चोत्सके धार्य भूषणं निन्द्यभादिके ॥६॥
अथ धननिक्षेपः। साधारणोग्रतीक्ष्णेषु स्वात्यां द्रव्यं न लभ्यते । दत्तं प्रयुक्तं निक्षिप्तं नष्टं चेत्याह नारदः ॥ १ ॥ मूदुपुष्याश्विनीपोष्णादित्यद्वीशश्रुतित्रयम् । निधाने संग्रहे वृद्धौ भूयात्स्थापनमन्धभे ॥२॥ द्रव्यादिस्थापने लग्नं सुखं च स्वं शुभान्वितम् । भव्यं पापग्रहैमुक्तं धिष्ण्यमन्धमधोमुखम् ॥ ३॥ स्थापने तु धनादीनां पातालं शुभसंयुतम् । हितप्रदं विशेषेण पापयुक्तं हि हानिकृत् ॥ ४ ॥धनकेन्द्रत्रिकोणस्थैः सौम्यैः पापोज्झिते व्यये। मञ्जूषायां वसनादौ द्रव्यादेर्धारणं शुभम् ॥५॥
अथ विपणिः । विपणिः स्यात्तनौ खेन्दुसिते पापैर्व्ययोज्झितैः । द्रव्यकर्मायमूर्तिस्थैः शुभैः कुम्भोदयं विना ॥१॥
अथ सेवा। रोहिण्युत्तरपोष्णेषु वसुवारुणयोरपि । सेवयेत्स्वामिनं भृत्यः शुभराश्युदये सदा ॥ १॥ दशायगे कुजेऽर्के वा सुलग्ने योनिवश्यताम् । विद्यायुधाभ्यां सुरतः सेवकः प्रभुमाश्रयेत् ॥ २॥
अथ व्यभिचारः। - सक्रूरे क्रूरलग्नस्थे चन्द्रे वलिनि बोयने । रिष्टयोगेषु कर्तव्यो व्यभिचारोऽरिनैधने ॥ १॥
अथाऽऽयुष्पष्टिकर्भ। पूर्णेन्दुसुखगे खेऽके जीवे लग्ने गुरोदिने । श्रीमन्त्यायुष्यकार्याण्यभिषेको वा नृपस्य च ॥१॥
__ अथ रससंग्रहादि। लग्नेऽब्जे तद्दिने केन्द्र गुरौ स्याद्रससंग्रहः। वापीकूपतडागादिसेवोद्यानादि शस्यते ॥१॥
अथ संन्यासः । तत्र मौजीनक्षत्राणि ग्राह्याणि । मुमुक्षुः प्रव्रजेत्पापे विवले व्यष्टमे विधौ । धर्मे खे वा गुरौ लग्ने भे स्थिरेऽज्यवासरे ॥ १ ॥ त्रिपडेकादशे सौरे व्यये षष्ठे च भार्गवे । सबले धर्मगे जीवे केन्द्र दीक्षा विरक्तिकृत् ॥ २ ॥
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ज्योतिनिबन्धः।
२२३ अथ ब्रह्मज्ञानोपदेशः । शीतांशौ बुधराशिस्थे शुभेषूदयवर्तिषु । ज्ञानस्य ग्रहणं कार्य हित्वा पापग्रहोदयम् ॥१॥
अथ दीक्षा। मृदुध्रुवचरक्षिारेऽर्के धर्मसत्क्रिया । कार्या विद्योक्तभैर्दीक्षा स्वदेवतिथिभेषु च ॥ १॥ वीर्यहीनः खलैर्धर्मस्थितैः कर्मणि मन्त्रिणि । सुस्थिरे च शुभा दीक्षा प्रव्रज्यायोगसंभवैः ॥२॥
अथ श्रुतिस्मृतिप्रारम्भः । । श्रुतिस्मृतिपुराणादिप्रोक्तानां धर्मकर्मणाम् । गुरुज्ञलग्नवर्गेषु प्रारम्भस्तद्रले सति ॥१॥
अथ शिल्पविद्यारम्भः । लग्नकर्मगते सौम्ये जीवे वाऽमृतदीधितौ । तयोर्वर्गस्थितौ शिल्पविद्यारम्भः प्रशस्यते ॥१॥
अथ नाट्यम् । हस्तः पुष्यो वासवं चानुराधा ज्येष्ठा पोष्णं वारुणं व्युत्तराश्च । पूर्वाचार्यः कीर्तितश्चन्द्रवृत्त्या नृत्यारम्भे शोभनोऽयं भवर्गः ॥१॥ बुधे विलग्ने शशिनि ज्ञराशौ गुरुचीक्षिते । हिबुकस्थैः शुभैर्नाट्यप्रारम्भः सद्भिरिष्यते ॥ २ ॥ वाद्ययन्त्राणि कार्याणि शिल्पभैश्चाश्वभैरपि । संगीतमभ्यसेत्प्राज्ञः सबले झे त्रये विधौ ॥३॥
अथ राज्योपकरणादीनि । वाद्याद्याघातयन्त्रागि राज्योपकरणानि च । कुर्यात्पट्टाभिषेकोक्तर्यात्रायोगैर्नयावहैः । कुर्याद्वस्खालयं तत्र प्रवेशं तु प्रवेशभैः ॥ १॥
अथ पण्यक्रयविक्रयः ।। भाद्रद्वयं त्रिदशमं त्रिदिवाकरेषु मूलानिलोत्तरतुरङ्गमरेवतीषु । सारङ्गपाणिरजनीकरमित्रभेषु लाभः सदैव भवति क्रयविक्रयाभ्याम् ॥ १ ॥ दशमैकादशे लग्ने वित्तकेन्द्रत्रिकोणकैः । शुभैः पण्यस्य कर्मोक्तं वर्जयित्वा घटोदयम् ॥ २॥
अथ धर्मारम्भोऽभिचारश्च ।। मृदुध्रुवचरक्षिारैर्भर्धर्मसत्क्रिया । हिबुकेऽर्के गुरौ लग्ने धर्मारम्भी रखेदिने । माङ्गल्यमभिचारश्च खस्थे सूर्ये गुरूदये ॥१॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ संधिः ।
तैतिले करणे भाग्ये मैत्रे पुष्येऽष्टमीदिने । द्वादश्यां शुक्रदृष्टे लग्ने संधिविधीयते ॥ १ ॥
२२४
अथ वेतालसिद्धिः । पैत्रेशयाम्यमूलेन्द्रभेषु शुद्धेऽष्टमेऽपि च । वेतालसिद्धिः पाताले भृगौ ज्ञे
घटलग्न ॥ १ ॥
अथवापीकूपायारम्भः ।
चित्रास्त्रातिपुनर्वसु मृगशिरोमूलाश्विनी रोहिणीहस्ताः पुण्यवनिष्ठकं शतभिष मित्रोत्तरा रेवती । एतेषु श्रवणान्वितेषु मकरे लग्ने च कुम्भे झषे वापीकूपजलाशयादिखननं शस्तं प्रशस्ते दिने ॥ १ ॥ रेवतीरोहिणीमैत्र पूर्वाषाढोत्तरात्रये । सौम्यवारुणपुष्येषु तोयारम्भः शुभावहः || २ || सर्वतोयाश्रयारम्भः कर्तव्यो विबलैः खलैः | लग्नस्थे ज्ञेऽथवा जीवे लग्नभेऽब्जे सिते खगे ॥ ३ ॥ ध्रुववासवयुग्मार्क पुष्यमंत्रमयासु च । वापीकूपतडागादिवारिबन्धनमोक्षणम् ॥ ४ ॥ *भूतिं पुष्टिं पुत्रहानिं पुरन्ध्रीनाशं मृत्युं संपदः शस्त्रवाधाम् । किंचित्सौख्यं दिक्षु पूर्वा कुर्यात्कूपो मध्ये वास्तुनोऽर्थक्षयं च ॥ ५ ॥ वृद्धवसिष्ठः - ऐश्वर्य पुत्रहा - निश्व स्त्रीभङ्गने निधनं भवेत् । संपच्छत्रुभयं सौख्यं पुष्टिः प्राच्यादितः क्रमात् || ६ || कूपे कृते मध्यमे तु धनहानिच वास्तुनः । तस्मात्सम्यग्विचायैवं कूपं कुर्याच्च बुद्धिमान् ॥ ७ ॥
अथ वृक्षाधिपः ।
लतागुल्मवृक्षरोपो हस्तपुष्याश्विनी धुवैः । विशाखादुमूलवारुणैश्च प्रशस्यते ॥ १ ॥ गुरौ केन्द्रे विपाके खे विधौ वारिविधूदये । शुभयुक्तेक्षिते बन्धौ सद्वारे वा शुभोदये ॥ २ ॥
अथ कृषिः ।
मैत्राश्विनीगुरुकरादितिधातृमूलशाक्रोत्तरा पितृशशाङ्कविशाखपौष्णम् । शस्तं प्रवर्तनविधौ कथितं हलस्य बीजप्रवापणविरोपणसंग्रहेषु ॥ १ ॥ चन्द्रे शुभे शुभतिथौ शुभवारयोगे वारे गुरौ शशिजशुक्रगभस्तिसोमे । लग्ने वृषे मिथुन के झषकन्यकायां शस्तं कृषिप्रकरणं प्रवपेच धान्यम् || २ || दशम्येकादशी चैव तृतीया च त्रयोदशी । सप्तमी पञ्चमी चैत्र प्रतिपच्च सुखावहा || ३ || हन्त्यष्टमी
* श्लोकत्रयं पुस्तक एव ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
२२५
बलीवर्दानवमी सस्यघातिनी । चतुर्थी कीटजननी पतिं हन्ति चतुर्दशी ॥ ४ ॥ वौ वृहस्पतौ चन्द्रे शुक्रे चैव विशेषतः । बुधार्कभूमिपुत्राथ न भवन्ति फलप्रदाः || ५ || शस्तासु चन्द्रतारासु शुचिः शुक्लेन वाससा । स्नात्वा गन्धैश्व पुष्पैश्च पूजयित्वा विधानतः || ६ || पृथिवीं ग्रहसंयुक्तां पूजयित्वा प्रजापतिम् । अग्निं प्रदक्षिणीकृत्य दीयते च प्रदक्षिणम् ॥ ७ ॥ शुकौ वृषौ नियोक्तव्यौ नवीनैव युतेन वा । हेमनिर्वृष्टफालाग्रं छिन्नरेखं न कारयेत् ॥ ८ ॥ उत्तराभिमुखो भूत्वा क्षीरेणाय प्रदापयेत् । विवलं छिन्नलाङ्गलं कपिलं वृषभं त्यजेत् ||९|| Terate कार्य निरनिषकर्षकः । हलादिभिः क्षेमं कुदैर्न शुभं वदेत् ||१०|| वृषभा यदि युध्येरंस्तस्य विघ्नः सदा भवेत् । तस्मात्सर्वप्रकारेण निर्विघ्नं कारयेत्सदा ॥११॥ एका जयकरी रेषा तृतीया चार्थवृद्धिदा । पञ्चमी च भवेदेखा बहुसस्यफलप्रदा || १२ || अत उर्ध्व न कर्तव्या महादोषस्ततो भवेत् । स्मर्तव्या वसवः शुक्रः पृथू रामः सचन्द्रमाः || १३ ॥ पराशरो हली चैव सर्वविघ्नोपशान्तये । हले प्रवाह्यमाणे तु कूर्म उत्पद्यते यदि ॥ १४ ॥ गृहिणी म्रिय
तस्य ततोsar भयं वदेत् । ईषाभङ्गने यदा क्रष्टुः संशयो जीवितस्य च ।। १५ ।। सुतनाशो युगे भने समाने म्रियते शिशुः । योक्त्रच्छेदे तु व्यासङ्गः सस्यहानिश्च जायते || १६ || हले प्रवाह्यमाणे तु गौरेकः प्रपतेद्यदि । प्रपतेद्युक्तमात्रस्तु बन्धनं च प्रयच्छति ॥ १७ ॥ ज्वरातिसारयोगेण कृषिभङगं विनिर्दिशेत् । मवहेद्युक्तमात्रस्तु ततो गौः खनते यदि || १८ || न वेद युक्तमात्रस्तु तदा सस्यं चतुर्गुणम् । सबलेऽब्जे सिते पापैर्विबलैर्लनगे गुरौ ॥ १९ ॥ सहिने जल चन्द्रे कृषिकर्म शुभावहम् । त्रित्रित्रिपञ्चरामेषुत्रित्रिभान्यर्कभुक्तभात् । अशुभं च शुभं ज्ञेयं कृषिकर्मण्यनुक्रमात् ॥ २० ॥ नारदः - हलभृद्वृषनाशाय भत्रयं सूर्यभुक्तभात् । अवृद्धये त्र्यं लक्ष्म्यै सोम्यपार्श्वे च पञ्चकम् ॥ २१ ॥ शूलTest नवकं मरणायान्यपञ्चकम् । श्रियै पुच्छद्वयं श्रेष्ठं स्याच्चक्रे लाङ्गले शुभम् ।। २२ ।।
अथ बीजोप्तिः ।
रोहिणीरेवती हस्तपुष्यमै त्रोत्तरासु च । बीजं तु दापयेत्तस्माद्यदीच्छेत्सस्य संपदः ॥ १ ॥ मूषकाणां भयं भौमे मन्दे शलभकीटयोः । न वपेच्च तिथौ रिक्ते होने सोमे विशेषतः || २ || वृषलनेऽथवा मीने कन्यायां मिथुनेऽथवा । वापयेत्सर्वसस्यानि यदीच्छेत्सस्यसंपदः ॥ ३ श्रीपतिः - मूर्ध्नि त्रीणिगले त्रयं च जठरे धिष्ण्यानि च द्वादश स्यात्पुच्छ्रे च चतुष्टयं वहिरतो भानां स्थितं पञ्चकम् ।
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२२६
श्रीशिवराजविनिर्मितोकीटः कज्जलमन्नवृद्धिरधिका निस्तण्डुलत्वं क्रमात्स्यादीतिप्रभवं भयं न फणितो बीजोप्तिकालेऽर्कभात् ॥ ४ ॥ नारदः-भवेद्भत्रितयं मूर्ध्नि धान्यनाशाय राहुभात् । गले त्रयं कजलाय वृद्धयै च द्वादशोदरे ॥ ५ ॥ निस्तण्डुलत्वं लागले भचतुष्टयमीरितम् । नाभौ बहिः पञ्चकं च बीजोप्ताविति चिन्तयेत् ॥६॥ कुर्वीत रेखात्रयमूर्ध्वगामि पश्चात्रिभिस्तत्सहितं त्रिशूलैः । पतिर्यगन्यद्वितयं विदिक्स्थं बीजोप्तिचक्रं स्मृतमेतदायः ॥ ७ ॥ मूर्त्यर्कयुक्तं सगतागतं भं न शोभनं कोणगतानि सन्ति । तिर्यस्थितं मध्यफलं भषट्कं फलं न यच्छन्ति नवापराणि ॥ ८ ॥ न व्यतिपाते विष्टयां वैधृतिशूलादिदुष्टयोगेषु । दर्श रिक्तां हित्वा बीजोप्तिः सस्यवृद्धये भवति ॥ ९ ॥ स्नातैर्विगतक्रोधैवृद्धः शुभवाग्भिरव्यग्रैः । शकुननिमित्तवले सति वृपैरकृष्णैवपेरीजम् ॥ १० ॥ बीजोप्तिलग्नगे चन्द्रे तहिने च विशेषतः । गुरौ केन्द्रे शुभैर्युक्ते दृष्टयोः कर्मलग्नयोः ॥ ११ ॥ त्वं वै वसुंधरे देवि सितपुष्पफलप्रदे । नमस्ते मे शुभं कृत्वा कृषिवृद्धिकरी शुभे ॥ १२ ॥ रोहन्तु सर्वसस्यानि काले देवः प्रवर्षतु । कर्षकस्तु वदेदेवं धनधान्येन युज्यते ॥ १३ ॥
इति चीजोप्तिः।
अथ धान्यच्छेदनम् । धान्यानां लवनं कुर्याद्गुरौ शुक्रे च सर्वदा । रिक्तावर्जे तु शेषाश्च तिथयः स्युः शुभावहाः ॥ १॥ रेवतीहस्तमूलेषु श्रवणे भाग्यमैत्रयोः । पितृदेवे तथा सौम्ये धान्यच्छेदे भृगूदये ॥ २ ॥ अनुराधा तथा ज्येष्ठा रेवती धान्यकर्तने । केवले सिंहलग्ने च तथैव च गुरूदये ॥३॥ धान्यानां लवनं कुर्यात्तथा लग्नेन्दुसंगमे । सर्वेषामपि वृक्षाणां प्राह श्रेष्ठतमं मुनिः ॥ ४॥ सपत्रौ मापमुद्गौ च यवधान्ये सकञ्चुके । छिन्द्यात्तिलं च निष्पन्नमेतत्पाराशरं मतम् ॥५॥
अथ धान्यसंग्रहः । रोहिण्युत्तरपुष्येषु भरणीशक्रनैऋते । पौष्णार्काश्विविशाखास हरिमित्रपुनर्वसौ ॥१॥ चित्रासु च मघायां च जीवार्केन्दुभृगोर्दिने । अरिक्तायां तिथौ चैव सस्यानां संग्रहो हितः ॥२॥ रोहिण्यामघाहस्तरेवतीश्रवणेषु च। मन्ददृष्टिस्थिरे लग्ने धान्यसंग्रह इष्यते ॥ ३॥
अथ बीजसंग्रहः । हस्तचित्रादितिस्वातीरेवतीश्रवणद्वये । स्थिरे लग्ने गुरोवारे बीजं धार्य
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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शुक्रयोः ॥ १ ॥ माधे वा फाल्गुने वाऽपि सर्ववीजानि संग्रहेत् । शोषयेत्ता - पयेद्रौद्रं रात्रापनिपातयेत् || २ || दीपानिधूमसंस्पृष्टं दृष्ट्या चोपहतं च यत् । वर्जनीयं सदा वीजं कुरुण्डेनान्वितं च यत् ॥ ३ ॥
अथ मेथी ।
रोहिणी रेवती मूलं स्वाती हस्तो मृगस्तथा । आषाढोत्तरयुक्ता च तथा भाद्रपदा मा || १ || वेधने सर्ववीजानां तथा शालप्रवेशने । दुःखदा धनदा चैवानुराधोत्तरफल्गुनी ॥ २ ॥ वटव सप्तपर्णश्च गम्भारी शाल्मली तथा । औदुम्बरी तथा धात्री या चान्या क्षीरवाहिनी || ३ || स्त्रीनाम्नी कर्षकैर्नित्यं मेथी कार्या फलप्रदा ॥ ४ ॥
अथ धान्यस्थापनम् ।
यमादितिमघाज्येष्ठात्र्युत्तरासु च कारयेत् । मीनलने शुभे ऋक्षे निधने क्रूरवर्जिते । निक्षेप्यं कोष्टके धान्यं गर्गों वदति सर्वदा ॥ १ ॥ अथ धान्यनिष्क्रमणम् ।
त्रिषूत्तरेषु रोहिण्यां धनिष्ठावारुणेषु च । एतेषु षट्सु विज्ञेयं धान्यनिष्क्रमणं बुधैः ॥ १ ॥
अथ चौर्यम् ।
मिश्रोग्रदारुणैर्धिष्ण्यैर्लग्ने क्रूरग्रहस्य च । भौमे खे ज्ञे तनौ चौर्य शकुनस्य बले सति ॥ १ ॥ चौर्यं मन्दारयोर्वारे लग्ने क्रूरग्रहस्य च । शकुनस्य बले कुर्याल्लिग्ने दशमगे कुजे ॥ २॥
अथ द्रव्यार्पणम् ।
चरैः श्विरे लग्ने धे धर्मसुताष्टमे । व्यवहारादिना द्रव्यप्रयोगो मुनिभिः स्मृतः ॥ १ ॥ साधारणोग्रतीक्ष्णेषु स्वात्यां द्रव्यं न लभ्यते । दत्तं प्रयुक्तं निक्षिप्तं नष्टं चेत्याह नारदः ॥ २ ॥ भरण्यां संग्रहं कुर्यात्पिञ्चके ज्ञे त्रिपुष्करे । ऋणकर्म चरैः क्षिप्रैर्ऋणच्छेदः कुजे हितः ॥ ३ ॥ चम्पके पञ्चगुणितं त्रिगुणं च त्रिपुष्करे । यमले द्विगुणं प्रोक्तं हानिवृद्धयादिकं बुधैः || ४ || ऋणं भौमे न कुर्वीत न देयं बुधवासरे । ऋणच्छेदं कुजे कुर्यात्संचयं सोमनन्दने || ५ || हस्तेऽर्कवारे संक्रान्तौ यदृणं स्यात्कुलेषु तत् । वृद्धियोगे तथा ज्ञेयमृणच्छेदं तु कारयेत् || ६ || धनादिस्थापने क्रूरास्त्र्यायारिस्थाः खगो रविः । विरन्ध्रान्त्ये शुभाः सौम्याः कृष्णेsort धनगो न सन् ॥ ७ ॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितोअथ गोक्रयविक्रयादि ।
आदित्यद्विवसुद्र्यन्त्यार्केन्द्रद्वीशैः क्रयादि गोः । दर्शभूताष्टमीचित्राध्रुवकर्णार्कभाद्यसत् || १ || सोमार्किवैधृतौ पाते लग्ने पञ्चानने बुधे । भद्रासंक्रान्तिरिक्तासु पशुकर्म विवर्जयेत् || २ || शुभग्रहोदये शुद्धे नैधने स्वर्क्षयोनिषु । रक्षावृद्धिक्रिया शस्ता पशूनां मुनिभिः स्मृता || ३ || नेन्दो मन्दे सिंहलग्ने पशोनिवेशने । सोमे लग्ने बुधे गावो न चाल्यास्तुरगाः शनौः ॥ ४ ॥ पूर्वात्रयामृतमयूखहुताशनेषु चेन्द्राग्निवाजिवसुधारणशांकरेषु । एतेषु गोमहिषदन्तिरङ्गमादि नानाप्रकार पशुजा । तिगतिः प्रशस्ता ॥ ५ ॥ नासत्यपौष्णकरपुष्यशिवाजपादमूलाप्यसौम्यबहुलावसुमित्रभेषु । वृद्ध्यै गवां हि दधिमन्थनमेषु कुर्या - दिक्ताद्विपश्चमदिनार्किकुजेन्दु हित्वा ।। ६ ।। अथाश्वकर्म |
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आदित्ये वासवे पौष्णद्वये स्वात्यां करे मृगे । अरिक्ते ज्ञत्रयाक वाजिकर्माखिलं हितम् ॥ १ ॥ नारदः - विविष्णुचरभे क्षिप्रे मृदुभे स्थिरभेषु च । वाजि - कर्माखिलं कार्य सूर्यबारे विशेषतः ॥ २ ॥ गुरुशुक्रयुते लग्ने सबै त्रिषडायगैः । चन्द्रे सप्तद्विवन्धुस्थे कर्म शुभं भवेत् ॥ ३ ॥ घृतार्द्रचणकक्षी र तृणमुद्गादिभक्षणे | अन्नप्राशनवदृक्षं स्नानं सौम्यग्रहोदये ॥ ४ ॥ अश्वकार्ये च कल्याणं पुंनामक्षश्विवारुणे । आरोहणं च केन्द्रस्थैः शुभेऽर्के दृद्धिगैः परः ॥ ५ ॥ चौलोक्तं क्षुरकर्मादी भेषजे भेषजोदितम् । गर्भाधानोक्तमश्वानां मैथुने तु विलोकयेत् || ६ | गृहारम्भोदिते काले हयशाला विधीयते । शिक्षा विद्योक्तकाले च भूषणं भूषणोदिते ॥ ७ ॥ चर्मकर्मादिकं सर्व जययोगे शुभोदये । एवं खरोष्ट्रादिकार्य पूर्वाह्णे वाहनादिकम् || ८ || महिष्याजाविकं कार्यं तावत्काले विशेषतः । शनेर्वारे च केन्द्रस्थे वासरोष्ट्रशुनां तथा ॥ ९ ॥ चक्रेऽश्वः शिरपञ्चके सुखकरः पृष्ठे च दिग्लाभदः पुच्छे द्वे गृहिणीविनाशनकरः पादेऽब्धिभङ्गो भवेत् । नाशं चोदरपञ्चभित्र कुरुते चाऽऽस्ये द्विलाभो भवेद्वेहे चाऽऽनयरोहणे फलमिदं सूर्यर्क्षतो वा क्रमात् ॥ १० ॥
अथ नूतनाश्वपल्याणम् ।
अश्वाकारं लिखेच्चक्रमश्विन्याः साभिजिन्न्यसेत् । मुखे वेदाः ४ शीणि त्रीणि ३ पृष्ठे सिन्धव ७ एव च ॥ १ ॥ पृष्ठे चत्वारि ४ दीयन्ते द्वौ द्वौ २ पादे च षड् ६ हार्द | जन्मधिष्ण्यं मुखे देयं गणयेद्दिनऋक्षतः || २ || मुखे च धनसंपत्तिः शीणि लाभस्तुरङ्गमे । पृष्ठे च श्रियमाप्नोति पुच्छे लक्ष्मीर्विनश्यति ॥३॥
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ज्योतिर्निबन्धः।
२२९ चरणे भयमानोति हृदि सौख्यादिवर्धनम् । पल्याणे रोहणे चैव फलं प्रोक्तं शुभाशुभम् ॥ ४ ॥
अथ पक्षिकर्म। पक्षिद्रेष्काणगे चन्द्रे लग्ने वा शुभसंयुते । पक्षिकर्म शुभं प्रोक्तं बुधे मन्दे बलान्विते ॥ १॥ तुलामध्यान्तसिंहाद्याः कुम्भायाः पक्षिणः स्मृताः। शुभस्वामियुता दृष्टा भवन्ति बलिनस्तु ते ॥ २ ॥
अथ स्थलाम्बुवनचारिकर्म । स्वयोनिभे तनौ शुद्धे शुभस्वामियुतेक्षिते । सर्व कर्म शुभं प्रोक्तं स्थलाम्बुवनचारिणाम् ॥१॥
अथ शत्रुबन्धनम् । मन्दभौमदिने लग्ने द्रेष्काणे शृङ्खलान्विते । बन्धनं वृद्धियोगे वा कार्य वृद्धि स्वरोदये ॥ १ ॥ मीनकर्कटयोरन्त्यौ वृश्चिकस्याऽऽद्यमध्यमौ । सर्वे चत्वार एवैते द्रेष्काणा निगडाश्च ते ॥२॥
___अथ पुष्पफलोत्तारणम् । द्रेष्काणः कर्कटावस्तु फलपुष्पयुतः स्मृतः । शुभस्वामियुते चास्मिंस्तदुत्तारणजं शुभम् ॥ १॥
अथौषधनिष्पादनम् । मन्दारवर्जिते वारे चरक्षिप्रमृदुध्रुवैः । सूर्यसौम्यैः केन्द्रगतैर्भेषजोत्पादनं हितम् ॥ १॥ रसक्रिया सुधायोगे शुद्धौ चूर्णादिकं तथा । तैलाज्यगुटिकाः क्षिपचरैः सौम्यार्कवासरे ॥२। लग्नं तुर्य शुभस्वामियुतं दृष्टं शुभावहम् । निर्माण वर्धमानेन्दौ भेषजानां शुभा क्रिया ॥ ३ ॥
अथौषधग्रहणम् । पुष्टिदं गर्भवृद्धयादिज्वरादिहरणं परम् । एवं विविधमाचार्यश्चिकित्सनमिहोच्यते ॥ १ ॥ मूलानुराधवसुतिष्यपुनर्वसौ च पोष्णाश्विनीश्रवणशाक्रसमीरणेषु । वारेषु चाङ्गिरसितेन्दुदिनेषु शस्तं भैषज्यभक्षणमिदं नियतं नराणाम्॥२॥ सौम्यग्रहबले शुद्ध व्ययादिबून धने । आयुर्योगे जातकोक्ते सेव्यं सर्व सदौ
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२३०
श्रीशिवराजविनिर्मितोषधम् ॥ ३ ॥ लग्नं वैद्यो द्युनं व्याधिमध्यं रोगी खौषधम् । शुभयुक्तं च रागनं पापयुग्रोगवृद्धिकृत् ॥ ४ ॥ पश्च कर्माणि कुर्वीत प्रोक्तभद्रोत्तरासु च । वमनं रेचनं मुक्तिरूधिःपार्श्वभैरुत ॥५॥ रक्तस्रावं कुजे कुर्यात्तद्धोरायामथापि वा । कुजे केन्द्रेऽथवा मन्दे रवौ वा विखलेऽष्टमे ॥ ६ ॥ अग्निभात्तुर्यतुर्यक्ष जया रिक्ताऽष्टमं शिरः। वारस्ताक्चरं लग्नमणरोगादिघातने ।। ७ ।व्रणक्रिया कुजे सूर्ये केन्द्रगे तद्दिनेऽष्टमे । शुद्धे पष्ठे च सक्रूरे चरलग्ने युवस्वरे॥८॥
अथ रोगमुक्तिस्नानम् । हस्तः पुष्यस्तथा ज्येष्ठा श्रवणं च मृगस्तथा । शुभान्येतानि ऋक्षाणि स्नाने रोगगतस्य च ॥ १॥ श्रीपतिः-इन्दोर्यारे भार्गवे च ध्रुवेषु सापादित्ये स्वातियुक्तेषु भेषु । पित्र्ये चान्त्ये चैव कर्यात्कदाचिन्नैव स्नानं रोगमुक्तस्य जन्तोः ॥२॥ अर्कार्किौमेज्यदिनेषु शस्तं लग्ने स्थिरे केन्द्रगते च जीवे । कार्यस्थिरत्वं कुरुतेऽर्थसिद्धिं स्नात्वा तु रोगी भवति ह्यरोगः ॥ ३ ॥ प्रतिपच्च द्वितीया च दशमी च त्रयोदशी । स्नायाद्रोगविमुक्तस्तु शुभयोस्तारचन्द्रयोः ॥ ४ ॥ लग्ने चरे सूर्यकुजार्किवारे जयासु रिक्तासु सिते च पक्षे । मृतित्रिभायारिगतैश्च पापैः स्नानं हितं रोगविमुक्तजन्तोः ॥ ५॥ रोगाभ्यङ्गे चरं लग्नं शुभं व्यन्त्याः शुभाशुभाः । केन्द्राष्टकोणगाः पापाः साब्जान्दुष्टफलान्विदुः ॥ ६ ॥ वैधृतौ व्यतीपाते च भद्रायां धिष्ण्यसंक्रमे । रोगमुक्तो नरः स्नायात्कुवारक्षतिथिष्वपि ॥ ७ ॥ घुनं पापयुतं शस्तं दशमं च शुभान्वितम् । सौम्यक्रूरयुतं रन्धं रोगस्नानेऽरिभं तथा ॥ ८ ॥ रक्तस्रावे शुभं स्नानं सुधायोगे शुभोदये । बुधमन्ददिने पापरहितेऽनिष्टभोदये ॥९॥
अथ सूतिकास्नानम् । मघामूलविशाखााचित्रादितियमद्वये । ज्येष्ठासार्पजलेशः नैव स्नायात्रसूतिका ॥ १॥ शुभग्रहयुते लग्ने पञ्चमे पापवर्जिते । परित्यज्य महादोषान्सूतिकास्नानमुत्तमम् ॥ २॥
अथ शतभिषक्स्नानफलम् । स्नानं कुर्वन्ति या नार्यश्चन्द्रे शतभिषग्गते । सप्तजन्म भवेयुस्ता विधवा दर्भगा ध्रुवम् ॥ १॥ रोहिणीगुरुपुनर्वसूत्तरे या विभर्ति नववस्त्रभूषणम् । सप्तजन्म न च विन्दते पतिं स्नानमाचरति भे च वारुणे ॥ २ ॥ हठाच्छतभिपक्रस्नानं नारीणां यदि जायते । पूजयेत्स्वामिनं तत्र आत्मने सर्वसत्कूतम् ॥३॥
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२३१
ज्योतिर्निवन्धः।
अथ प्रसङ्गेन तैलायङ्गः । सप्तम्यां न स्पृशेत्तैलं नवम्यां प्रतिपत्तिथौ । चतुर्दश्यामथाष्टम्यां षष्ठ्यां चैव विशेषतः॥१॥ चतुर्दश्यष्टमी चैव पौर्णमास्यर्कसंक्रमः । तैलस्नानं न कुर्वीत सुतबन्धुधनक्षयः ॥ २ ॥ सोमे कीर्तिः प्रसरति क्षितौ रोहिणेये हिरण्यं देवाचार्ये तरणितनये वर्धते नित्यमायुः । तैलाभ्यङ्गात्तनयमरणं दृश्यते सूर्यवारे भौमे मृत्युः प्रभवतितरां भार्गवे वित्तनाशः ॥३॥ दशैं स्नानं न कुर्वीत मातापित्रोस्तु जीवतोः । नवम्यां च नचेत्तत्र निमित्तान्तरसंभवः ॥ ४ ॥ प्रतिपद्यनपत्यः स्यात्ततीयायामपत्नीकः । दशभ्यामधनः स्नाने सर्व हन्ति त्रयोदशी ॥५॥ अयं निषेधो ब्राह्मणव्यतिरिक्तविषयः । तदुक्तं भास्करव्यवहारे-त्रयोदश्यां द्वितीयायां दशम्यां च विशेषतः । शूद्रविक्षत्रियाः स्नानं नाऽऽचरेयुः कथंचन ।। ६॥ पुत्रजन्माने संक्रान्तौ सिद्धिजन्मदिने तथा । नित्यस्नाने च कर्तव्ये तिथिदोषो न विद्यते ॥ ७॥ सूर्यशुक्रारवारेषु निषिद्धासु तिथिष्वपि । उत्सवे यदि वा स्नाने पकतैलं न दुष्यति ॥ ८ ॥ रचौ पुष्पं गुरौ दूर्वा भौमवारे च मृत्तिका। शुक्रे च गोमयं क्षेप्यं तेले स्नानं सुखावहम् ॥ ९॥
अथ प्रथमस्त्रीभोगः । द्विपदाप्ये तनौ सौम्यदृष्टे युक्ते तनौ शुभे । प्रथमाभिगमः श्रेष्ठश्चन्द्रे चोपचयस्थिते ॥ १॥ यात्रोक्ते समये यानं प्रवेशोक्ते प्रवेशनम् । विवाहोक्ते नवो भोगः शेषं स्त्रीणां शुभोदये ॥ २॥
अथ मद्यारम्भः । मद्यारम्भणमाचार्यैरुक्तं पैरेंशसापभे । मूलवारुणयाभ्यश्च त्रिपूर्वाशक्रभैः शुभम् ॥ १ ॥ सुधायोगे सुधारम्भः कर्तव्यो मनुजोदये । शुक्रे चन्द्रे च केन्द्रस्थे तत्पानं च शनेर्दिने ॥ २॥
अथ व्यालग्रहणम् । व्यालाद्यग्रहणं कार्य क्रूरलग्ने च तद्दिने । हित्वा कालादिकं राहो केन्द्रगे वा शनौ कुजे ॥ १ ॥ यमाग्निसार्पमूलामघादीशेषु नश्यति । सर्पदष्टस्तथाऽर्कादौ याम्येष्वर्कोदयात् क्रमात् ॥ २ ॥
अथ गजकर्म। स्वाष्ट्रभे वैष्णवेऽश्चिन्यां वारुणे वसुभेऽन्तिमे । दन्तिनां शुभदं कर्म पुष्ये हस्ते च कीर्तितम् ॥ १ ॥ पौष्णाश्विनीपवनवारुणशीतरश्मिचित्रादितिश्रवणपाणि
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श्रीशिवराजविनिर्मितोसुरेज्यवित्ते । वारेषु सूर्यशशिसूनुसितेज्यकानामारोहणं गजतुरङ्गारथेषु शस्तम् ॥२॥ व्ययाष्टरहितैः सौम्यैः क्रूरैश्च त्रिषडायगैः । जन्माभिषेकयात्रोक्तैनपयोगैर्गजक्रिया ॥ ३ ॥ न कुर्यादन्तिदन्तानां छेदं गुरुगृहे रवी । हेरौ सुप्ते सिते पक्षे रात्रौ भौमार्कवासरे ॥ ४ ॥ पल्याणं च तनुत्राणं जययोगे शुभोदये । भेषजं भेषजे काले गजबन्धः शनेर्दिने ॥ ५॥
__अथ बलकर्म । जयापूर्णाकंसद्वारे भाशे शीर्पोदये शुभैः । ससूर्यः केन्द्रमैरिन्दोवले कार्या बलक्रिया ॥१॥
अथ नृपदर्शनम् । श्रुतित्रयमृदुक्षिपध्रुवैः कार्य नृपेक्षणम् । योगैर्यात्राभिषेकोक्तैः स्वायकेन्द्रगतैः शुभैः ॥ १॥
अथ शान्तिः । मृदुध्रुवचरक्षिप्रैः कार्य शान्तिकपौष्टिकम् । अभद्रारार्किरिक्तासु शुद्धधर्मोदये शुभम् ॥ १॥
___ अथ दीपिकाशम्यादि। हस्तादितिब्रह्मगुरूत्तरेषु पोष्णाश्विमूलेन्दुजचित्रभेषु। वारेषु जीवेन्दुसितेन्दुजानां शय्यासनारम्भ (म्भो) हितप्रदः स्यात् ॥ १॥ दीपिकाचामरच्छत्रदोलाशय्यासनादिकम् । सुधासिद्धयादि सद्योगैरायुर्योगैजेयः शुभैः ॥ २ ॥
अथ सूची। अदितिर्वासवं चित्रा मैत्रमैन्दवमश्विनी । सूचीकर्म तनुत्राणं शुभयुक्तेक्षिते तनौ ॥१॥
अथ दिव्यम् । नाष्टमेऽर्के विधौ जीवे शुक्रे नष्टे मलिम्लुचे । दिव्यं मन्दारयोवारे स्थिरलग्ने खलोदये ॥१॥
अथ नाका। भाग्यवारुणमैत्राश्विपुंभेषु घटनं तरेः । चालनं च शुभे लगे सद्वारे दोषवजिते ॥१॥
१ क. रवौ सु । २ क. शस्ता । ३ क. निमूर्धन्यु ।
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ज्योतिनिबन्धः।
२३३
अथ क्रूरम् । कृष्णपक्षे सदोपत्रे मिश्ररुग्रेश्च दारुणैः । सिध्यन्ति क्रूरकर्माणि क्रूरवारे तथोदये ॥१॥
अथ शस्त्रनिर्माणम् । क्रूरैस्तीक्ष्णश्च मित्रैश्च शस्त्रकर्माणि कारयेत् । शनीज्याकरिवारेषु पुंयोगैश्व विशेषतः ॥ १ ॥ ब्राह्मे पुण्ये श्रुतौ दाने मैत्रे इंग्विन्दुवासरे । नन्दापूातियों मृत्युर्बुधवारे पराजयः ॥ २ ॥ स्वातौ पौष्णे वसुद्वन्द्वे कोशपत्नीविनाशनम् । चित्रोत्तरा सुतं हन्यान्मगार्कादितिभे भयम् ॥३॥ कृत्तिकायां विशाखायां भौमचारे जयातिथौ । तदिने घटितं शस्त्रं सङ्ग्रामे जयदायकम् ॥ ४ ॥
अथ शस्त्रधारणम् । संनाहकन्तखङ्गादिधारणं सवितुर्वले । मिश्रोग्रक्रूरभैः पुंभैययोगैः स्वरोदितैः ॥ १॥
अथान्यासः । हस्तत्रये श्रुती दो पुष्यादित्याग्निभोत्तरे । जन्मभे सर्वशस्त्राणामभ्यासः सद्भिरुच्यते ॥ १ ॥ ज्ञेज्यभीमार्कवारेषु तद्धोरातद्विलग्नके । सबलैः केन्द्रगैरेषिस्तथोपचयगैः शुभैः ॥ २ ॥ नपावलोकनं शस्त्रधारणं मृत्यसंग्रहः । शुभदं स्था वमृदुलघुश्रवणवासवैः ॥३॥
अथ धनु यासः । हस्तत्रये श्रुतौ पुष्ये दस्रादित्याग्निभोत्तरे। जन्मभे च धनुर्वेदाभ्यासारम्भः प्रा. स्यते ॥ १॥ जीवाराज्ञवारेषु तद्विलग्ने जयासु च । शुभवृद्धिकर ज्यमन्दाक: केन्द्रगैः शुभैः ॥ २ ॥ धनुश्चक्रं कृते शस्त्रं त्रेतायां खड्गचर्मके । द्वापरे च गदाच्छूरी मल्लयुद्धं कलौ वरम् ॥ ३ ॥ इषुब्रह्मा गुणो विष्णुधनुर्देवो महेश्वरः । एतेपां स्मरणादेव सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४ ॥ शाङ्ग बांशं दारवीयं तृणराजोद्भवं धनुः । मुष्टिः शुक्रोदरा नागा वजा लग्ना प्रपूर्विका ॥ ५॥ भग्नपृष्ठं तथा वक्रं वलि नोन्नतपूर्वकम् । अतिदीर्घात्यपर्वाणं वर्जयेदिषमीदृशम् ॥ ६॥ गाण्डीवं वतुलं ज्ञेयं वैष्णवं स्यात्रियम्बकम् । पिनाकं दारवं ज्ञेयं शाङ्ग स्पाइक्रशृङ्गाजम् ॥७॥ यस्यांसौ पतितौ पुरश्च विततं शिष्यश्चितं(?) मस्त पादौ स्थानरतो त्रिकं विनमितं मुष्टी शुभौ द्वावपि । दृष्टिलक्ष्यगता न रिक्तमुदरं पाठो ऋज
१ क. ख. 'कुम्भ
।
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२३४
श्रीशिवराजविनिर्मितोसंस्थितौ नासा सायकचुम्बिनी यदि भवेत्याप्तं तदा सौष्ठवम् ॥ ८ ॥ सुवृत्तः सुदृढो दीर्घः सुक्लिष्टो गुप्तहीरकः । स्निग्धः श्लक्ष्णः सुस्वरश्च गुणस्याष्टौ गुणाः स्मृताः ॥ ९ ॥ आकर्ण पूरयेद्वाणं बाणाग्रं च निरीक्षयेत् । विद्धं तत्तु विजानीयाद्यदि बाहुन कम्पते ॥ १० ॥ आकर्ण पूरयित्वा तु सर्वत्राणेन सायकम् । पाचप्रवर्तितं किंचिन्न शृणोति न पश्यति ॥ ११ ॥ यथा योगीश्वरो लक्ष्यं विहायान्यान्न पश्यति । तद्वच्छ्न्येतराक्षो वा चक्षुभ्यां लक्ष्यमानयेत् ॥ १२ ॥ लक्ष्ये चैकमना भूत्वा वेधने कृतनिश्चयः । चेदेवं सायकं मुश्चेद्विद्धं लक्ष्यं न संशयः ॥ १३ ॥ दृष्टिर्मुष्टौ शरांग्रे च मनो बुद्धिश्च हुंकृतिः । स्युर्यदैतानि युगपल्लक्ष्यवेधस्तदा भवेत् ॥ १४ ॥ मध्याह्नसमये चैव वहत्यतिसमीरणे । संमुखे चैव सूर्यस्य न कुर्याद्वाणमोचनम् ॥ १५ ॥ श्रमं धनुषि ये नित्यं न कुर्वन्ति धनुर्धराः । लक्ष्यवेधः कुतस्तेषां सङ्ग्रामे च कुतो जयः॥ १६॥
___ अथ वैदिको बाणमन्त्रः। धन्वनागा इत्यादि सर्वाः प्रदिशो जयेमेत्यन्तम । अयं नो अग्निरित्यादि शत्रूञ्जयत्वित्यन्तम् ।
अथ स्मातों बाणमन्त्रः । मुष्टिं त्यक्त्वाऽस्त्रपर्वाङ्को हस्तानः शेषमष्टहृत् । आयः स्याद्विषमो मध्यं स मेऽरिजयदो हरिः ॥ १७ ॥
अथ खड्गादिलक्षणम् । पञ्चाशदअलः श्रेष्ठो हीनस्तन्मानतोऽधमः । अनयोरन्तरे मध्यं खड्गं प्राहुमहर्पयः ॥ १ ॥ ह्रस्वं कण्ठे छिन्नवंशं स्फुटितं विस्वनं जगुः । न दृङ्मनोनुकूलं च तन्निन्यं शुभमन्यथा ॥ २ ॥ गोजिह्वावंशपत्राब्जकरवीरदलाकृति । सूच्यग्रसदृशं श्रेष्ठं स्यादतोऽन्यदशोभनम् ॥ ३ ॥ रम्भाक्षारतक्रयुतः पायितो दिनपोपितः । शितः सम्यक् कुण्ठतां स न गच्छति शिलास्वपि ॥४॥ एकादशकरः कुन्तो नवहस्तस्तु शाबलः । सप्तहस्तो भवेद्भल्लः क्षेपणी पञ्चहस्तका ॥५॥ त्रिशूलमष्टहस्तं च शल्यशूलं त्रिहस्तकम् । सार्धहस्तत्रयासङ्गि मुशलं बहेकं तथा ॥ ६ ॥ तरुवारी पदिशं च दीर्घकं नारसिंहकम् । कात्यायनं वाणकं च ज्ञातव्यं खड्गविद्भुधैः ॥ ७॥
१ घ. 'मुष्टिः श° । २ घ. °राग्रं ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
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अथ च्छुरिकाश्रमविधिः। तिथ्यादिके शुभे ताराचन्द्रलग्नबलान्विते । काले श्रमक्रिया शस्ता त्यक्त्वाऽनध्यायवासरम् ॥ १ ॥ रुद्रहस्तमिता दैर्ये विस्तारे नवदण्डका । सगैरिकतला वृद्धौ श्रमभूमिः प्रशस्यते ॥ २ ॥ तत्र संस्थाप्य वेतालं सुमुहूर्ते विलग्नके । कटिस्थच्छुरिकाहस्तः प्रसारितकरः परः ॥३॥ किंचिदानतपूर्वार्धे भूतचण्डान्तकं शुभम् । सरोपाक्षं लोहिताक्षं धावन्तमिव संस्मरेत् ॥४॥ गुरूपदिष्टमार्गेण वेतालमतमभ्यसेत् । गुरुद्रोहाभृङ्गिमतं शिष्टर्नेहोररीकृतम् ॥ ५ ॥
अथ ताम्बूलम् । हस्तत्रये दितिद्वन्द्वे मृगे मूले शुभान्विते । ज्ञार्केज्यान्त्यवृषे लग्ने कार्य ताम्बूलभक्षणम् ॥ १ ॥ पुष्योत्तरादितिदिवाकरवाजिपोष्णमूलानुराधवसुवासववैष्णवेषु । वारेषु सौरिधरणीधरवारवर्ज ताम्बूलनूतनफलाद्यशनं शुभाय ॥ २ ॥ यन्मुखं वेदविभ्रष्टं ताम्बूलरसवर्जितम् । सुभाषितपरिभ्रष्टं तन्मुखं बिलमब्रवीत् ॥ ३ ॥ सुपूगं च सुपर्ण च सुधया च समन्वितम् । दत्त्वा स द्विजराजेभ्यस्ताम्बूलं भक्षयेत्ततः ॥ ४ ॥ सुताम्बूलं च यो दद्याद्राह्मणाय विशेषतः । कन्दर्पसदृशो रूपे नीरोगो जायते नरः ॥ ५॥ क्रमुकात्तृप्यते ब्रह्मा विष्णुस्तृप्यति पर्णतः । चूर्णादीशस्तु तृप्येत ताम्बूलदानमक्षयम् ॥ ६ ॥ताम्बूलं श्रीकर भद्रं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् । अस्य प्रदानात्सकला मम सन्तु मनोरथाः॥७॥ एकपूगं सदा श्रेष्ठं द्विपूगं निष्फलं भवेत् । अतिश्रेष्ठं त्रिपूगं च ह्यधिकं नैव दृश्यते ॥८॥ द्वात्रिंशत्पर्णकं चैव दद्यात्सर्वं महीभुजे । चतुर्विंशतिपर्ण च सामन्तानामनुस्मृतम् ॥ ९ ॥ दशाष्टपर्णकं देयं जामातॄणां विशेषतः । द्वादशपर्ण विदुषे वधूनां दशपर्णकम् ॥ १० ॥ अष्टपणं च सर्वेषां सामान्ये तुर्यपर्णकम् । त्रिपर्ण तु न दातव्यमेकपर्ण तथैव च ॥ ११ ॥ षट्पर्ण चैव दातव्यं रिपूगां च विशेषतः । एकद्वित्रिचतुःपञ्चपड्भिः पूगीफलैः क्रमात् ॥ १२ ॥ लाभालाभौ सुखं दुःखमायुमरणमेव च । पर्णमूले भवेद्वयाधिः पर्णाग्रे पापसंभवः ॥ १३ ॥ चूर्णपर्ण हरत्यायुः शिरा बुद्धिविनाशिनी । ऊर्चाग्रं विटकं धार्यं पर्णमेकं तथैव च ॥१४॥ अङ्गुष्ठचूर्णलेपं च चर्वितं धनदायकम् । पणाग्रं पर्णमूलं च चूर्णपर्ण द्विपर्णकम् ॥ १५॥ अनिधाय मुखे पर्ण पूगं खादति यो नरः । सप्तजन्मदरिद्रत्वमन्ते विष्णुं न विन्दति॥१६॥ तर्जन्या चूर्णमादाय ताम्बूलं न तु खादयेत् । यदि वा
१ क धंधूत । २ व. 'टैर्न शरणीकृ । ३ क. 'लंचय । १ घ. 'पंबन्धूनां । ५ प. पूर्ण।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
खादयेन्मूढो रौरवं नरकं व्रजेत् || १७|| कनिष्ठानाभिकामध्यातर्जन्यङ्गुष्ठयोगतः । शोको हानिस्तथा मृत्युरनैश्वर्यायुषी तथा || १८ || वामहस्तेन ताम्बूलं स्त्रीहस्तेन तथैव च। यदि वा खादयेन्मूढस्तस्य लक्ष्मीर्विनश्यति ||१९|| अङ्गुष्ठेन तु लेपचेत्सर्वसिद्धिप्रदायकः । जयस्त्रीवस्त्रलाभादि भविष्यति न संशयः || २० || दिवा खदिरसारेण ताम्बूलं तु सुशोभितम् । रात्रौ खदिरसारेण शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ॥ २१ ॥ ताम्बूलं कटुतिक्तमुष्णमधुरं क्षारं कषायान्वितं वातघ्नं कृमिनाशनं कफहरं कामानिसंदीपनम् । वक्रस्याऽऽभरणं विशुद्धिकरणं दुर्गन्धिनिर्नाशनं ताम्बूलस्य सखे त्रयोदश गुणाः स्वर्गेऽपि ते दुर्लभाः ॥ २२ ॥ प्रातःकाले फलाधिक्यं चूर्णाधिक्यं तु मध्यतः । निशि पर्णाधिकं भक्षेत्तस्य लक्ष्मीर्विवर्धते ॥२३॥ क्रमुकसारं त्रिवारं च द्विवारं पर्णसारकम् । खदिरेण सकं च द्युत्क्षिपेत्सर्वदा बुधः ।। २४ ।।
अथ दीपविधिः ।
सूर्यास्ते चैव संदीप्यो यावत्सूर्योदयो भवेत् । तावद्दीपस्तु संदीप्य आयुरारोग्यसंपदे ॥ १ ॥ पूर्वप्रदीपे पशुवर्धनं च याम्यमदीपे गृहनाशनं च । प्रत्यक्प्रदीपे पशुधान्यवृद्धिरुदक्मदीपे बहुराज्यता च ॥ २ ॥ एकदीपः सदा श्रेष्ठो द्वितये राज्यसंपदः । त्रितये हानिरोगों च दारिद्र्यं हीनदीपतः || ३ || घृतेन दीप: संदीप्यो देवब्राह्मणतृप्तिदः । अलाभे तिलतैलेन सदा कुर्वीत वै द्विजः ॥ ४ ॥ उरुवूकस्य तैलेन यस्तु दीपं प्रदीपयेत् । पतितः: पितरस्तस्य यावदाभूतसंप्लवम् ॥ ५ ॥ दीपे मलोभिते पुंसा कूष्माण्डच्छेदने स्त्रिया | अचिरेणैव कालेन वंशच्छेदो भविष्यति ॥ ६ ॥ मुखोद्भवेन वातेन हस्तसंभवनात्तथा । कञ्चुकोत्थेन मरुता दीपं नैव निवारयेत् ॥ ७ ॥ विसृजेति समुच्चार्य लोपयेद्दीपमञ्चलात् । तावच तूष्णीं स्थातव्यं यावच्छेषं प्रशाम्यति ।। ८ ।। ज्योतिर्विरहितं पात्रं घर्मलिप्तं च कञ्चुकम् । पादुकोपानहौ ट्रांस्पृष्ट्राऽऽचम्य विशुध्यति || ९ || दीपेनाऽऽत्मतनुच्छाया भर्तुर्बुपरि चेत्पतेत् । तौ दंपती दरिद्रत्वमाप्नुवन्ति विनिश्चितम् ॥ १० ॥ अथ स्त्रीसंभोगः ।
कुहू पूर्णेन्दुसंक्रान्तिचतुर्दश्यष्टमीषु च । नरचाण्डालयोनिः स्यात्तैलस्त्रीमांससेवनात् ।। १ ।। विष्णुपुराणे - चतुर्दश्यष्टमी चैव ह्यमावास्या च पूर्णिमा । पर्वा - येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च ।। २ ।। तैलस्त्रीमांससंभोगी पर्वस्त्रेतेषु वै पुमान् । विण्मूत्रभोजनं नाम नरकं प्रतिपद्यते ॥ ३ ॥ कामशास्त्रे - पक्षान्निदाघे १. दीपप्रदीपनं पुंसां ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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हेमन्ते नित्यमन्यषु त्र्यहात् । स्त्रियं कामयमानस्य जायते न बलक्षयः ॥ ४ ॥ इदं वात्स्यायने प्रोक्तं वाग्भटोक्तमथोच्यते । त्र्यहाद्वसन्तशरदो: पक्षाद्वर्षनिदावयोः ॥ ५ ॥ सेवेत कामतः कामं हेमन्ते शिशिरे बली । एतद्विधानं केऽप्याहुः सुगर्भाधानहेतवे ॥ ६ ॥ अव्यङ्गो रूपवान्पुष्टो गर्भः स्यान्नान्यथा यतः । आयुर्वेदविदः प्राज्ञा ऊचिरे वेगधारणात् । शुक्रविण्मूत्रपूari ( र्णानां ) देहधातुपरिक्षयम् ॥ ७ ॥ व्रती योगी मिताशी च रोगी व्यायामकृत्तथा । न सेवेत स्त्रियं तेषां बीजरोधो न बाधकः ॥ ८ ॥ आचारसारे - यथाकामं स्त्रियं गच्छेच्छक्तः कामी युवा गृही । श्यामां कान्तां विशेषेण सुखसंभोग हेतुतः || ९ || नीतिशास्त्रे - अनिषिद्धं सुखं भोगं कलाभ्यासं धनार्जनम् । धर्म सत्यं च यो जह्यात्स वै मूढोऽथवा पशुः ॥ १० ॥ दीपे प्रदीप्ते संभोगं करोति मनुजो यदि । यावज्जन्म दरिद्रत्वं लभते नात्र संशयः ॥११॥ अप्रजा यदि या नारी पतिसङ्ग समा ( नचाss) चरेत् । आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत् ॥ १२ ॥ पादलग्नतनुचैव च्छिष्टं ताडनं तथा । कोपो रोषश्च निर्भस संयोगे न च दोषभाक् ॥ १३ ॥ कञ्चुकेन समं नारी भर्तृसङ्ग समाचरेत् । त्रिभिर्वर्षैश्च मध्ये वा विधवा भवति ध्रुवम् ॥ १४ ॥ तद्वत्पत्रभिलकर्णा दानं वा मैथुनं चरेत् । पञ्चमे सप्तमे वर्षे वैधव्यमिह जायते ।। १५ ।। कामातुरेण या भर्त्रा संयोगं यदि याचिता । निवारयति सा नारी वालरण्डा भवेत्सदा ॥ १६ ॥ ऋतुस्नातां तु यो भार्या संनिधौ नोपगच्छति । घोरायां भ्रूणहत्यायां पितृभिः सह गच्छति ॥ १७ ॥ कुङ्कुमं चाञ्जनं चैव ताम्बूलं सिन्दूरं तथा । धातवस्त्रं च कुसुमं संयोगे च शुभावहम् || १८ || नमस्कृत्य भर्तृपादौ पञ्चाच्छयां समाविशेत् । सा नारी सुखमाप्नोति न भवेदुःखभा गिनी ॥ १९ ॥ गलत्ताम्बूलवदनां नग्नामाक्रन्दतीं तदा । दुर्मुखां च क्षुधायुक्तां संयोगे परिवर्जयेत् ॥ २० ॥ दक्षकर्णे च मूत्रे तु पुरीषे वामकर्णके । धारये
सूत्रं तु मैथुने पत्रीतवान् ॥ २१ ॥ भत्रुच्छिष्टं सदा भोज्यमन्त्रं ताम्बूलमेव च । उच्छिष्टं न तु भुञ्जीत गृहस्थो ह्यधरं विना ॥ २२ ॥
अथ नवान्नभोजनम् ।
पुष्याश्विनी कमल योनिशशाङ्कपौष्णहस्तादिपञ्चभगणेषु गुणान्वितेषु । वारे गुरुशभृगुशीत शुभास्कराणां नव्यान्न भोजनमभीष्टकरं नराणाम् ॥ १ ॥
अथ पात्रम् । सुभोज्यान्नसुधासिद्धौ घटयेद्वा समाहरेत् । तत्रान्नप्राशने प्रोक्ते काले भाजनमाचरेत् ॥ १ ॥
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२३८
श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ मैत्री। भार्गवेऽस्ते गुरौ लग्ने मन्देऽस्ते भार्गवोदये । रिपो मन्दे सिते लग्ने त्रयो योगाः सुमित्रदाः ॥ १॥
अथ दासी। दासीदासादिधृत्यानां कुर्यात्संग्रहणं बुधः । स्थिर लग्ने शुभैदृष्टे मन्दवारे विशेपतः ॥१॥
___अथ सेतुः। ___ स्वातीयुक्ते मन्दवारे वृषलग्ने शुभेक्षिते । सेतूनां बन्धनं कुर्याद्धृवभे वाऽर्किजीवयोः॥१॥
अथ सर्वकर्म। महादोषान्परित्यज्य प्रोक्ते धिष्ण्ये तिथौ दिने । शुभकर्माणि कुर्वीत सुलग्ने च विशेषतः॥१॥ मदध्रुवैः स्थिरं कर्म चरक्षिप्रैश्चरं तथा । मिर्मिश्रं च तीक्ष्णोग्रैरुदग्रं चैव तद्गुणैः ॥ २ ॥ रौद्रसापेन्द्रयाम्यामित्रिपूर्वा न शुभावहाः । शेषास्ताराः शुभाख्याः स्युः सर्वकर्मसु शोभनाः ॥ ३ ॥ मृध्रुवचरक्षिप्रैः सद्वारे सत्तिथौ तदा । ससौम्यैः स्वस्य कृत्ये तु योज्यं नूतनसाधनम् ॥ ४॥ धातुलोहाश्ममृत्काष्ठनिर्मितं यत्क्रियार्थतः। साधनं तद्बुधाःपाहुस्तृणपर्णादिकं तथा॥ ५॥ सर्वे ग्रहाः शुभे कार्ये रन्ध्रगा न शुभावहाः। द्वादशे मध्यमा ज्ञेया लगेशोटारिगो न सन् ॥ ६ ॥ पापेन्दू लग्नगौ त्याज्यौ सर्वेषु शुभकर्मसु । अक्षीणं कार्कगोजस्थं केऽप्याहुर्लग्नगं शुभम् ॥ ७ ॥ व्रतान्नोद्वाहसीमन्तगृहारम्भाभिषेचने । त्याज्योरिभावगश्चन्द्रः शेषकर्मसु शोभनः ॥ ८ ॥
अथ रोगमुक्तिदिवसाः। वसिष्ठः-पूर्वात्रये स्वातिभुजंगरौद्रसुरेश्वरषु च यस्य रोगः । स्याद्रक्षितुं देवचिकित्सकोऽपि क्षितावशक्तः खलु रोगिणं तम् ॥१॥ कृच्छ्रात्स्फुटं प्राणिति मैत्रपाष्णवश्वेषु मासाच्छशिनश्च धिष्ण्ये । रोगस्य मुक्तिः पितृदैवधिष्ण्ये वारे भवेद्विशतिभिस्तु नूनम् ॥२॥ पक्षाद्विदेवेन्द्रकरेषु भेषु मूलाश्विनाग्नित्रितये नवाहात् । तोयेशचित्रान्त कविष्णुभेषु नरुज्यमेकादशभिर्दिनैश्च ॥ ३ ॥ पुष्ये त्वहिर्बुध्न्यपुनर्वसौ च ब्राह्मार्यमर्केषु च सप्तरात्रात् । ऋक्षेशरूपं कनकेन कृत्वा तल्लि. ङ्गमन्त्रैश्च सुगन्धिपुष्पैः ॥ ४ ॥ वस्त्राक्षतैर्गुग्गुलधूपदीपैनैवेद्यताम्बूलफलैश्च सम्यक् । पूजां च कृत्वाऽऽमयनाशनाय द्विजाय दद्यादतुलं शिवाय ॥ ५ ॥
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ज्योतिर्निबन्धः।
२३९ अथ दुर्गादीनां यजनम् । साधारणे दारुणभे तथोग्रे रिक्तातिथौ सूर्यकुजाकिंवारे । दुर्गादिकानां यजनं प्रशस्त क्षेत्राधिपस्यापि सुरासवाद्यैः ॥ १॥
___ अथ भूषणनिर्माणम् । क्षिप्राबलचलमृदुभे रिक्तामावर्जितेषु दिवसेषु । निखिलेषु च वारेषु त्रिपुकरे भूषणं कार्यम् ॥१॥
अथ मणिधारणम् । क्षिप्रमृदुध्रुवचरभे शशिसितयोर्वासरेपु तल्लग्ने । मुक्ताफलरजतमयं भूषणमखिलं सवज्रकं धार्यम् ॥ १॥ इति शूरमहाठश्रीशिवराजविनिर्मिते । ज्योतिर्निबन्धसर्वस्वे लग्नाध्यायः समर्थितः ॥
अथ शान्त्यध्यायः।
तत्राऽऽदी गण्डजातफलम् । शौनकीयसूत्र-पुत्रो यदि पितुर्गण्डे दिवा चैव प्रजायते । कन्यकाजननं रात्री मातृगण्डे तथैव च ॥१॥ संध्ययोर्धनगण्डे च प्रसूतिर्यदि जायते । विनाशो जायते शीघ्रं मध्यमं तद्विपर्यये ॥२॥ यवनः-यत्र गण्डं करयुतं महादोषकरं भवेत् । शुभग्रहसमायोग ईपच्छुभकरं भवेत् ॥३॥ दिनक्षये व्यतीपाते व्याघाते विष्टिवैधतौ । शूले गण्डातिगण्डे च परिघे यमघण्टके ॥ ४ ॥ ब्रह्मदण्डे मृत्युयोगे प्राप्ते गण्डदिने शिशुः । जातो हन्ति कुलं सर्व तस्मात्कुर्वीत शान्तिकम् ॥ ५॥ धनगण्डे दरिद्रोऽपि शान्ति कुर्यात्स्वशक्तितः। अन्यथा नाशमामोति चामुक्तः विशेषतः ॥६॥ माण्डव्यः-जातो न जीवति नरो मातुरपथ्यो भवेत्स्वकुलहन्ता । यदि जीवति गण्डान्ते बहुगजतुरगो भवेद्भूपः ॥ ७ ॥ गर्ग:--नाक्षत्रं मातरं हन्ति तिथिजं पितरं तथा । लग्नोत्थं जातक हन्ति तस्माद्गण्डान्तमुत्सृजेत् ॥ ८ ॥ बादरायणः-दिवाजं पितरं हन्ति रात्रि मातरं तथा। संध्ययोर्जातमात्मानं गण्डज नो निरामयम् ॥ ९ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-संध्यारात्रिदिवाभागे धिष्ण्यगण्डोद्भवः शिशुः । आत्मानं मातरं तातं ध्रुवं हन्ति यथाक्रमम् ॥ १०॥ मातरं तातमात्मानं तिथिगण्डान्तजस्तथा। लग्नगण्डान्तजस्तद्वत्तातमात्मान(न) मातरम् ॥ ११ ॥ सर्वेषां गण्डजातानां परित्यागो विधी
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श्री शिवराजविनिर्मितो
यते । अथवाऽदर्शनं तस्य मासषट्कं न कारयेत् ॥ १२ ॥ राजमार्तण्डे गण्डप्रसूतं पुरुषं शुभमाहुरपश्यताम् । अन्ये तु होमपूर्वेण दानेन दर्शनं शुभम् ॥ १३ ॥ प्रश्नप्रदीपे – विवाहादौ भवेन्मृत्युर्जात के कुलनाशनम् । यात्रायां सर्वनाशश्च कार्यनाशोऽन्यकर्मणि ॥ १४ ॥
इति गण्डजातफलम् ।
अथ गण्डदोपशान्तिः ।
तत्र राजमार्तण्डे ब्रह्मपुराणोक्तं - कांस्यपात्रं प्रकुर्वीत पलैः पोडशभिर्बुधः । अष्टभिर्वा चतुर्भिर्वा द्वाभ्यां वा शोभनं समम् ॥ १ ॥ तन्मध्ये स्थापयेदेवं नवनीतप्रपूरितम् । राजतं चन्द्रमभ्यर्च्य सितपुष्पसहस्रकैः || २ || दैवज्ञः सोपवास शुक्लाम्बरधरः शुचिः । सोमोऽहमिति संचिन्त्य कुर्यादेवमतन्द्रितः ॥ ३ ॥ जपेत्साहस्रिकं मन्त्रं श्रद्दधानः समाहितः । दद्याद्वै दक्षिणामिष्टां गण्डदोषोपशान्तये || ४ || शुद्धं चामीकरं दद्यात्ताम्रपात्रं तिलान्वितम् । गण्डदोपोपशान्त्यर्थे ज्योतिर्वेदविदे शुचिः ॥ ५ ॥ ॐ अमृतात्मने नमः । अयं मन्त्रः । कुङ्कुमं चन्दनं कुठं गोरोचनमथापि वा । घृतपूर्णेषु कुम्भेषु चतुर्षु प्रक्षिपेक्रमात् || ६ || सहस्राक्षेण मन्त्रेण वालकं स्नापयेत्ततः । पितृयुक्तं दिवाजातं मातृयुक्तं च रात्रिजम् ॥ ७ ॥ स्नापयेत्पितृमातृभ्यां संध्ययोरुभयोरपि । कांस्यपात्रं घृतैः पूर्ण गण्डदोषोपशान्तये ॥ ८ ॥ सक्षीरं मौक्तिकं शङ्ख श्वेतवस्त्रयुगं शुभम् । यजुर्वेदविदे दद्याद्दण्डदोपापनुत्तये ॥ ९ ॥ दद्याद्धेनुं हिरण्यं च ग्रहांश्चापि प्रपूजयेत् । आयुर्वेदकरं जप्त्वा कुर्याद्राह्मणतर्पणम् ॥१०॥ ॐसहस्राक्षेण शतशारदेनेत्यादिवचानाम् ।
इति गण्डदोषशान्तिः ।
अथाभुक्तमूलविचारः ।
तत्र व्यवन:- - अभुक्तमूलसंभवं परित्यजेच्च बालकम् । समाष्टकं पिताऽथवा न तन्मुखं विलोकयेत् ॥ १ ॥ वृद्धवसिष्ठः – ज्येष्ठान्ते घटिका चैका मूलादौ घटिकाद्वयम् । अभुक्तमूलमित्याहुस्तत्र जातं त्यजेच्छिशुम् ॥ २ ॥ बृहस्पतिःज्येष्ठान्त्यघटिका तु मूलादौ घटिकाधकम् । तयोरन्तर्गता नाडी भुक्तं
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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मूलमुच्यते ॥३॥ अभुक्तमूलं गण्डान्तं नाडिकानां चतुष्टयम् । तच्चैन्द्रान्त्यघटीद्वन्द्वं मूलाधं द्वन्द्वमेव च ॥ ४॥
इत्यभुक्तमूलविचारः।
अथ मूलसार्पजातफलम् । कात्यायनसूत्रे-~~मूलस्य प्रथमेंऽशे जातः पितुनिष्टो द्वितीये मातुस्तृतीये च धनस्य चतुर्थे कुलशेषकावह आत्मनः पुण्यभागी स्यादिति । वसिष्ठः --जातापत्यं पितरमथवाऽऽत्मानमाये च पादे युग्मे धात्री हरति च धनं भ्रातरं वा सतीये । पादे तुर्ये शुभमतितरां राज्यसाम्राज्यलक्ष्मी मूले जातं वितरति तथा काद्रवेये पतीपम् ॥ १॥ ब्रह्मपुराणे-मूलांशे प्रथमे मातुर्द्वितीये च पितुस्तथा । तृतीये धनधान्यस्य नाशस्तुर्ये धनागमः॥ २ ॥ रत्नमालायां-तदाद्यपादके पिता विपद्यते जनन्यथो । धनक्षयस्तृतीयके चतुर्थके शुभावहः ॥ ३ ॥ गर्गः-गृह क्षेत्र धनं धान्यं गृहोपकरणादिकम् । पशुवस्त्रादिकं चेति धनमित्युच्यते बुधैः ॥ ४ ॥ जयार्णवे-मूले सप्त ७ घटीषु मूलहननं स्तम्भेऽष्ट ८ सौख्यक्षयस्त्वग्दिर १० बन्धुविनाशनं च विटपे रुदै ११ हतो मातुलः । पत्रेऽकैः १२ सुकृती तु बाण ५ कसमे मन्त्री फले सागरै ४ राजा वह्नि ३ शिखाल्पमायुरिति सन्मूलाध्रिपे स्यात्कलम् ॥ ५ ॥ मूलं स्तम्भस्त्वचा शाखा पत्रं पुष्पं फलं शिखा । तत्राङ्गाष्टदशेशार्कपश्चाब्ध्यग्निघटीफलम् ॥ ६॥ मूले स्वामिविनाशः स्तम्भे हानिस्त्वचि च सहजनाशः । जननीनाशः स्कन्धे दले मङ्गलकृनृपप्रियः पुष्पे ॥ ७॥ सचिवः फले शिखायां मृत्युमवाप्नोति भूपो वा । हासर्धिन्यूनाधिकपष्टया स्यादत्र नाडिकामानम् ।।८॥ भूपालबल्लभे-मूलस्य घटिकान्यासो मूनि पञ्च नृपो भवेत् । मुखे सप्त मृतिः पित्रोः स्कन्धे वेदो महाबलः॥९॥ बातोरष्टौ घली पाण्योस्तिस्रो हस्तान्विती भवेत् । हृदि खेटा भूपमन्त्री नाभौ वे ब्रह्मविद्भवेत् ॥ १० ॥ गुह्ये देशेऽतिकामी स्याज्जानुनोः षण्महामतिः । पादयोः षण्मृतिस्तस्येत्युक्तवान्कमलासनः ॥ ११ ॥ सहदेव:-मूर्धा वक्त्रं तथा बाहू हन्नाभी च कटिद्वयम् । गुह्यं पादौ दशस्थानं कटयां पटू क्रमात्फलम् ॥ १२ ॥ मूर्ध्नि घातो मुखे क्षेमं भृत्यमातुल योः करौ । हृदये शुभसौख्यं च नाभ्यां स्वामिविघातकः ॥ १३ ॥ करद्वये मातहन्ता गुह्ये तस्कर एव च । पादयोर्धनहानिः स्यान्मूलचक्रफलं विदुः ॥ १४ ॥ मूर्थिन
१ व. नाविभष' । २ घ. 'धे चेन्तु । ३ य. 'माडीमटिकाम् ।
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श्री शिवराजविनिर्मितो
पञ्च सुराज्याप्तिर्मुखे सप्त पितृक्षयः । नेत्रे द्वे जननीनाशो ग्रीवायां त्रिषु लम्पटः ॥ १५ ॥ स्कन्धे वेदा गुरोर्भक्तो हस्तेऽष्टौ च बली भवेत् । हृद्येकादशभिश्चाऽऽत्मघाती संजायते नरः || १६ || स्त्रीवान्नाभौ भ्रमी षड्भिर्गुदे नव तपोधनः । पादे पञ्च धनं हन्ति सार्पादेतत्फलं क्रमात् ॥ १७ ॥ रुद्रयामले - फलं पुष्पं दलं शाखा त्वग्लता स्कन्ध एव च । सावल्या दशाक्षाङ्कस्वरविश्वार्कसागराः || १८ || नाडिकास्तद्भवे वाले फलं कुर्युर्यथाक्रमम् । श्रीः श्री राजभयं हानिमतृपित्रात्मसंक्षयः ॥ १९ ॥ भास्करूपवहारे -- सार्पाशे प्रथमे राज्यं द्वितीये च धनक्षयः । तृतीये जननीनाशश्चतुर्थे मरणं पितुः ॥ २० ॥
इति मूलसार्पजातफलम् ।
अथ मूलसार्वजातस्यापवादः ।
बादरायणः- - सार्पनैर्ऋतगण्डान्त विषकन्यादियोगजाः । न स्युरुक्तफला लग्ने यदि तद्भङ्गदाः खगाः ॥ १ ॥ सारावल्यां - गण्डान्तमूलजाता विषकन्याख्या भवन्ति नोक्तफलाः । यदि जन्मलग्नखेटास्तद्दोषस्यापहन्तारः ॥ २ ॥ यवनः - मूलसार्पादिजो दोषः स्यादपश्यति लमपे | सक्रूरेजे च विबले शुभहशिविवर्जिते || ३ || ब्रह्मर्षिसंहितायां - पितरं हन्ति मूलाद्यपादेऽन्यत्र च मातरम् । पितृमातृग्रह नस्तोययोजसमराशि || ४ || बृहज्जात के दिवार्कशुको पितृमातृसंज्ञितो शनैश्वरेन्द्र निशि तद्विपर्ययात् । पितृव्यमातृष्वसृसंज्ञितौ च तावथोजयुग्मक्षगतौ तयोः शुभौ ॥ ५ ॥ कूर्मयामले - आद्यः षष्ठस्त्रयोविंशो द्वितीयो नवमोऽष्टमः । अष्टाविंशश्च मूलस्य मुहूर्ता दुःखदा जनौ ॥ ६ ॥ पातालेज्ये फ (व्यये) मार्गे स्वर्गे भावाश्विमायके । पौषश्रवोजचैत्रेषु स्थितिर्मूलस्य भूतले ||७|| रवियुक्ताश्विनी सौम्यादित्यहस्तादिकत्रयम् । मैत्रं च रेवती ज्येष्ठा तदा मूलं न दोषकृत् ॥ ८ ॥ तृतीया दशमी षष्ठी शनिभौमसमन्विता । शुका चतुर्दशी मूले जातः संहरते कुलम् ॥ ९ ॥
इति मूलसार्पजातस्यापवादः ।
अथ शिशुमुखदर्शनादर्शने ।
रुद्रयामले-शाक्रे पक्षे च गण्डान्तमूलयोर्यत्राष्टकम् । मासानां नवकं सा त्यजेत्संदर्शनं शिशोः ॥ १ ॥ भुक्तमूलनं बालं पण्मासं नावलोकयेत् । ततः
१. भाषाश्विवातके । व. भाषाविमा |
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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संदर्शनं कुर्याद्विधिवच्छान्तिपूर्वकम् ॥ २ ॥ भुक्तमूलभवं बाल दिनानि सप्तविंशतिः । पित्रा नाssलोकनं कार्य ततः शान्तिं समाचरेत् || ३ || गण्डान्तमूलसार्पेन्द्र पातवैधृतिदर्शने । पौत्रोपरागजे शान्तिं कुर्यात्तत्तद्दिने बुधः ॥ ४ ॥ एतददृष्टपूर्वशिशोर्वेदितव्यम् । सद्वारे सत्तिथौ भे च गुरुपुष्यादिके शुभे । सुलग्नेऽब्जबलं लब्ध्वा मूलायुत्थभयच्छिदे ॥ ५ ॥ विधेयं शान्तिकं यच्च यथावित्तानुसारतः । काले दर्शनयोग्ये वा मासान्ते द्वादशेऽह्नि वा ॥ ६ ॥ उत्पलाचार्यवती - मूलायुत्थं दुष्टफलं परित्यागाद्विलीयते । शिशोरदर्शनाद्वाऽपि दानहोम पैरपि ॥ ७ ॥
इति शिशुमुखदर्शनादर्शने ।
अथ मूलशान्तिः ।
1
रत्नमालायां शतौषधीमूलमृदम्बुरत्नैः सबीजगर्भेः कलशैः समन्त्रैः । कुर्या - ज्जनित्रीपितृबालकानां स्नानं शुभार्थी सह होमदानैः ॥ १ ॥ पुराणे - बर्हिः शिखा १ हरिक्रान्ता २ सहदेवी ३ पुनर्नवा ४ । शरपुङ्खा ५ वराही च ६ काकजङ्घा ७ सुलक्ष्मणा ८ || २ || तुम्बिका ९ चैव कर्कन्धू: १० कर्पूरी ११ कारवल्लिका १२ । कर्कोटी चैव १३ चक्राङ्का १४ श्वेतार्को १५ व्याघ्रपत्रिका १६ ॥ ३ ॥ रुदन्ती १७ चाश्वगन्धा च १८ मुसली १९ गिरिकर्णिका २० । इन्द्रवारु २१ व्यपामार्गः २२ शङ्खपुष्पी २३ कुमारिका २४ ४ ॥ शल्लकी २५ चाथ गन्धारी २६ निर्गुण्डी २७ वेददारिका २८ | वटः २९ शमी ३० तथा लक्षः ३१ पालाशो ३२ ऽश्वत्थ ३३ एव च ॥ ५ ॥ चूत ३४ श्रोदुम्बरो ३५ जम्बू ३६ र्नन्दिवृक्षोऽ ३७ थ वेतसः १८ । पुंनागो ३९ थार्जुनो ४० शोको ४१ बकुलो ४२ ऽश्मन्तकस्तथा ४३ ॥ ६ ॥ शाल ४४ स्ताल ४५ स्तमालश्च ४६ पाटल: ४७ शतपत्रिका ४८ । मधूकश्च ४९ शिरीषश्च ५० श्रीवृक्षो ५१ बृहतीद्वयम् ५२ । ५३ || ७ || बला ५४ चातिबला ५५ चैव पाठा ५६ नागवला ५७ तथा । जाती ५८ बकुलकश्चैव ५९ केतकी ६० कदली ६१ तथा ॥ ८ ॥ मातुलिङ्गी ६२ जयन्ती च ६३ यावनी ६४ पुण्डिका ६५ तथा । द्रोणपुष्पी ६६ तथा कुम्भी ६७ श्रीपर्णी ६८ मदन६९ स्तथा ॥ ९ ॥ चम्पकः ७० पद्मकश्चैव ७१ तथा काञ्चनपुष्पिका ७२ । सिद्धेश्वरी च ७३ बदरी ७४ राजवृक्षो ७५ धवस्तथा ७६ || १० || कुन्दश्च ७७
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
मुचुकुन्दश्व ७८ गोजिह्वा ७९ क्षीरकन्दुका ८० । दाडिमी ८१ बीजपूरी च ८२ ब्राह्मी ८३ चामलकी ८४ तथा ॥ ११ ॥ भृङ्गराजो ८५ योमुखी ८६ च मत्स्याक्षी ८७ चाटरूपिका ८८ । तरङ्गिणी ८९ गुडूची च ९० निशाखा ९१ शतमूलिका ९२ ||१२|| बाकुची ९३ काकजया च ९४ बर्बरी ९५ तुलसी ९६ तथा । कुशः ९७ काश ९८ मूलं ९९ तथा सर्पपमूलकम् १०० ॥ १३ ॥ अलाभे चोक्तवृक्षाणां सद्वृक्षाणां समाहरेत् । एवं मूलशतं ग्राह्यं ततः कुम्भे विनिक्षिपेत् ॥ १४ ॥ अश्वस्थानाद्द्वजस्थानाद्वल्मीकात्सङ्गन्माद्धदात् । राजद्वाराच्च गोष्टाच्च मृद् ग्राह्या कुम्भके क्षिपेत् ॥ १५॥
मौक्तिक वैदूर्य पुष्परागेन्द्रनीलकम् । पञ्चरत्नमिदं प्रोक्तं मन्त्रैः कुम्भे विनिक्षिपेत् ॥ १६ ॥ गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः समाहरेत् । पञ्चगव्यमिदं कुम्भे क्षिपेजमदान्वितम् ॥ १७ ॥ रजतं काञ्चनं ताम्रं विद्रुमं तीर्थवारि च । निक्षिपेद्धेममूलं च दशाष्टयवनिर्मितम् ॥ १८ ॥ देवदारुं च शैलेयं पद्मं नीलोत्पलं तथा । वचां लोधं प्रियङ्कं च जैलं च श्वेतसर्षपान् ॥ १९ ॥ धात्रीफलं च तरुं निशामांसीं पुनस्तथा । उशीरं चन्दनं कुठं शतच्छिद्रे घटे क्षिपेत् ॥ २० ॥ वंशपात्रोपरिन्यस्तशतच्छिद्रघटोदकैः । पितृमातृशिशूनां तन्मन्त्रैः स्नानं तु कारयेत् ॥ २१ ॥ मूलरूपं विधातव्यं श्यामं कुणपवाहनम् । खड्गखेटधरं चोग्रे द्विभुजं च वृकाननम् || २२ || स्थापयेत्तं ग्रहांचैव वस्त्रगन्धादिभिर्यजेत् । चरुं च श्रपयेत्तत्र नैर्ऋतं दुष्टचारिणम् ॥ २३ ॥ जुहुयादाज्यभागान्तं पायसं नैर्ऋतं ततः । पुष्यस्नानोक्तमन्त्रैश्व स्नापयेदंपती शिशुम् ॥ २४ ॥ प्रच्छादनोर्णवस्त्रादि दद्याद्धेनुं च काञ्चनम् | दानान्ते होमयेद्विप्रः सर्वमूलानि तत्र च ॥ २५॥ साविसौम्य ऋतमन्त्रैर्होमश्च शक्तितो दानम् । स्नानं कुम्भाम्भोभिर्द्विजभोज्यं शान्तिकृद्भवति ॥ २६ ॥
इति मूलशान्तिः ।
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अथाऽऽश्लेषाशान्तिः ।
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आश्लेषायां तु जातानां शान्तिं वक्ष्याम्यतः परम् । जातस्य द्वादशाहे च शान्ति होमं समाचरेत् ॥ १ ॥ असंभवे तु जन्म अन्यस्मिन्वा शुभे दिने । स्नानाभ्यङ्गादिभिस्तस्मिन्परयेत्तु द्विजोत्तमान् ॥ २ ॥ विभवे पञ्च कुम्भास्तु द्वयं वा तदलाभतः | देवतास्थापने चैकमेकं रुद्राभिमन्त्रिणे ॥ ३ ॥ नागप्रति
१ क. जलजेश्वे
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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कृतिं कुर्यात्सौवर्णी पलमानतः । अथवा शक्तितः कुर्याद्वितशाठ्यं विवर्ज - येत् ॥ ४ ॥ मूले यत्तु विधानं स्यात्तत्समं सर्पदैवते । कद्रुद्राय प्रचेतस इति मन्त्रो विशेषतः || ५ || नैवेद्यं ह्यामिषं चास्ति पूजादानकृतिः समा । अयुतं हवनं ह्यत्र तिलैः साज्यैः प्रधानतः । ब्रह्मवृक्षस्य समिधः शतमष्टोत्तरं शुभाः || ६ || शुभा इति द्वादशाङ्गुलयुताः साग्रा अवक्राः सत्वचोऽत्रणाः । अन्यत्सर्वं मूलविधानवत् ।।
इत्याश्लेषाशान्तिः ।
अथ वृद्धगायोंक्ता ज्येष्ठाशान्तिः ।
नारद: - ज्येष्ठान्त्यपादजो ज्येष्ठं हन्ति बालो न बालिका । न बालिका तु मूलर्क्षे मातरं पितरं तथा ॥ १ ॥ ज्येष्ठोत्पन्ना नरा नार्यो घ्नन्ति चन्द्रे बलोज्झिते । कुलवृद्धं पितुर्मातुः पक्षजं तु दिवा निशि || २ || ज्येष्ठाद्यपादजो वृद्धं बन्धुवर्ग द्वितीयजः । धनं तृतीयजो हन्ति तथाऽऽत्मानं चतुर्थजः ॥ ३ ॥ ज्येष्ठान्त्यपादजातस्य पितुः स्वस्य विनाशनम् । जायते नात्र संदेहो दशाहाभ्यन्तरे यतः || ४ || ज्येष्ठ कन्यका जाता हन्ति शीघ्रं तथाऽग्रजम् । तस्माच्छान्ति प्रवक्ष्यामि गण्डदोषप्रशान्तये ॥ ५ ॥ सुदिने शुभनक्षत्रे चन्द्रताराबलान्विते । सूतकान्तेऽथवा कुर्याज्ज्येष्ठाशान्ति विधानतः ॥ ६ ॥ कर्षमात्रसुवर्णेन कर्षार्धेनाथ पादतः । तद्विधानं प्रकुर्वीत वितशाठ्यं न कारयेत् ॥ ७ ॥ वज्राङ्कुशधरं देवमैरावतगजान्वितम् । कुर्याच्छचीपतिं रम्यं देवेन्द्रं सुरनायकम् ॥ ८ ॥ शालितण्डुलसंपूर्णकुम्भस्योपरि पूजयेत् । इन्द्रायेन्दो मरुत्वत इति मन्त्रेण वाग्यतः ॥ ९ ॥ गन्धपुष्पैर्धूपदीपैर्नानाभक्ष्यसमन्वितैः । पूजयेद्विधिना विप्रो लोकपालगणान्वि तम् ॥ १० ॥ रक्तवस्त्रद्वयोपेतं पूजयेत्सुरनायकम् । तत्र संस्थापयेत्कुम्भांश्चतुर्दिक्षु विशेषतः ॥ ११ ॥ तन्मध्ये स्थापयेत्कुम्भं शतच्छिद्रसमन्वितम् । पुण्योदकसमायुक्तान्ववयुग्मेण वेष्टितान् ॥ १२ ॥ कुम्भेषु विन्यसेद्धीमान्पञ्चगव्यं समन्त्रकम् । पञ्चामृतं पञ्चरत्नं मृत्तिकाः पञ्चसंख्यकाः ॥ १३ ॥ पञ्चवृक्षकषायांश्च पञ्च पल्लवकांस्तथा । सुवर्णकुशदूर्वाश्च शतौषधीर्विनिक्षिपेत् ॥ १४ ॥ पूजयेद्द्वारुणैर्मन्त्रैः कुम्भान्धीमान्प्रयत्नतः । त्वं नो अग्ने जपेदादौ स त्वं नोऽपि द्वितीयकम् ॥ १५ ॥ समुद्रज्येष्ठामन्त्रेणेमं मे गङ्गे चतुर्थकम् । पूजयेद्वस्रपुष्पाद्यैश्चतुरः कलशानपि ॥ १६ ॥ जपं कुर्यात्प्रयत्नेन मन्त्रैरेभिर्द्विजोत्तमः । आनोभद्राजपं चाऽऽदौ भद्रा अग्ने द्वितीयकम् ॥ १७ ॥ तृतीयं पौरुषं सूक्तं कद्रुद्राय
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श्रीशिवराजविनिर्मितोचतुर्थकम् । आचार्यों मूलमन्त्रेण जपं कुर्याद्विशेषतः ॥ १८ ॥ इन्द्रसूक्तं रुद्रज मृत्युंजयजपं ततः । इत्थं संपूज्य देवेशं वरुणं कुम्भसंस्थितम् ॥ १९ ॥ सुसंकल्पविधानेन होमकर्म ततश्चरेत् । समिद्भिर्ब्रह्मवृक्षस्य शतमष्टोत्तरं तथा ॥२०॥ सर्पिषा चरुणा चैव मूलमन्त्रेण वाग्यतः । हुनेज्जाप्यं च तेनैव यत इन्द्र भयेति च ॥ २१॥ तिलान्व्याहृतिभिर्तुत्वा शतमष्टोत्तरं पृथक् । भार्याशिशुसमोपेतं यजमानं विशेषतः ॥ २२ ॥ अभिषेकं प्रकुति सूक्तैर्वारुणसंज्ञकैः । समुद्रज्येष्ठादिमन्त्ररिमं मे वरुणस्तथा ॥ २३ ॥ घोषशान्त्यादिभिर्मन्त्रैरभिषेकं समाचरेत् । अभिषेकनिवृत्तौ तु यजमानः समाहितः ॥ २४ ॥ शुक्लाम्बराणि धृत्वाऽथ कुर्यादाज्यावलोकनम् । रूपंरूपेतिमन्त्रेण चित्रं तच्चक्षुरेव च ॥ २५ ॥ देवतापुरतः स्थित्वा धूपदीपनिवेदनम् । दद्यादाचमनं सम्यक्ताम्बूलार्ध्य तथैव च ॥ २६ ॥ नमस्ते सुरनाथाय नमस्तुभ्यं शचीपते । गृहाणाऱ्या मया दत्तं गण्डदोषप्रशान्तये ॥ २७ ॥ आचार्याय च गां दद्यात्सुशीलां च पयस्विनीम् । रक्तवर्णा वस्त्रयुतां सालंकारसंयुताम् ॥ २८ ॥ वस्त्रयुग्म विधानं च यथाविभवसारतः । यक्षगन्धर्वसिद्धैश्च पूजितोऽसि शचीपते ॥२९॥ दानेनानेन देवेश गण्डदोषं विनाशय । अष्टोत्तरशतसंख्यं कुर्याद्राह्मणभोजनम् ॥ ३० ॥ तेभ्योऽपि दक्षिणां दत्त्वा प्रणिपत्य क्षमापयेत् । इमां कृत्वा ज्येष्ठाशान्ति यथाविध्युक्तमार्गतः ॥ ३१ ॥ ज्येष्ठानक्षत्रसंभूतगण्डदोषप्रशान्तये । अज्ञानाद्वा यथाज्ञानाद्वैकल्याद्वा धनस्य च । यन्यूनमतिरिक्तं वा तत्सर्व क्षन्तुमर्हसि ॥ ३२॥
इति वृद्धगाग्र्योक्ता ज्येष्ठाशान्तिः।
अथैकनक्षत्रजननशान्तिः । समानभे यदा देवि पितापुत्रौ च सोदरौ । भगिन्यौ वा स्वबन्धू वा तदा पूर्वस्य नाशनम् ॥ १॥ एकस्मिन्नेव नक्षत्रे पुत्रयोः पितपुत्रयोः । प्रसूतयोस्तयोमत्युभवेदेकस्य निश्चयः ॥ २ ॥ विधानं तत्र कर्तव्यं जन्मनक्षत्रपूजनम् । नक्षत्रदेवता पूज्या त्वधिप्रत्यधिपूर्वकम् ॥ ३ ॥ यदृक्षस्य च यद्रव्यं दक्षिणाविधिमन्त्रकम् । तस्य तच्च विधातव्यमृतदैवततुष्टये ॥ ४ ॥ गृह्योक्तेन विधानेन हवनं तत्र कारयेत् । भक्त्या हरिहरौ देवौ स्वर्णरूप्यमयौ शुभौ ॥ ५ ॥ तत्र मूर्तिदानमन्त्रः-विविधस्यास्य विश्वस्य पितरौ विश्वतोमुखौ । पीयेतां मूर्तिदानेन देवी हरिहरावुभौ ॥ ६॥ दानं होमविधेः पश्चादानादन्वभिषेचनम्।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
२४७
अभिषेचनपूर्वाऽत्र विप्रपूजा स्मृता शिवे ॥ ७ ॥ ततोऽभिगम्य गोविन्दशूलि - नोश्व निकेतनम् । तूर्याणां च निनादेन जयघोषेण पार्वति ॥ ८ ॥ पूजाविधिं समाप्यैवं सर्वोपस्करसंयुतम् । प्रार्थयेद्देवदेवेशौ लक्ष्मीशैलसुतेश्वरौ ॥ ९ ॥ दण्डवत्प्रणिपातेन वन्दनीयौ पुनःपुनः । ततः स्वगृहमागत्य ब्राह्मणान्भोजयेत्सुधीः ॥ १० ॥ तोषयेदक्षिणादानैर्यथाशक्ति वरानने । एवं कृते विधाने विघ्ननाशो भवेद्ध्रुवम् । तुष्टिदं पुष्टिदं नृणां विधानं तत्र सुन्दरि ॥ ११ ॥
तु
इत्येकनक्षत्रजननशान्तिः ।
अथ कृष्णचतुर्दशीशान्तिः ।
मन्दरस्थं सुखासीनं गर्ग वरमुनिं शुभम् । नमस्कृत्य तु पमच्छ शौनको मुनिपुंगवः || १ || शान्तिकर्माणि सर्वाणि त्वत्तो जानाम्यहं पुरा । अधुना श्रोतुमिच्छामि कृष्णपक्षचतुर्दशीम् || २ || दिवा वा यदि वा रात्रौ प्रसूतेः किं फलं वद । कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां प्रसूतेः षड्विधं फलम् ॥ ३ ॥ चतुर्दशीं च षड्भागां कुर्यादादौ शुभं स्मृतम् । द्वितीये पितरं हन्ति तृतीये मातरं तथा ॥ ४ ॥ चतुर्थे मातुलं हन्ति पञ्चमे वंशनाशनम् । षष्ठे तु धनहानिः स्यादात्मनो वंशनाशनम् ।। ५ ।। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन शान्ति कुर्याद्विधानतः । आचार्य वरयेद्धीमान्पुत्रदारसमन्वितम् || ६ || स्वकर्मनिरतं शान्तं श्रोत्रियं वेदपारगम् । सर्वालंकारसंयुक्तं सर्वलक्षणसंयुतम् ॥ ७ ॥ ब्राह्मणानृत्विजश्चैव स्वस्तिवाचनपूर्वकम् । रुद्रोऽधिदेवता तस्याः कर्षमात्रसुवर्णतः ||८|| तदर्धार्धेन वा कुर्याद्वित्तशाठ्यं न कारयेत् । प्रतिमां कारयेच्छं भोः सर्वलक्षणसंयुताम् । वृषभे च समासीनं वरदाभयपाणिनम् ॥। ९ ॥ शुद्धस्फटिकसंकाशं श्वेतमाल्याम्बरान्वितम् | त्र्यम्बकेण च मन्त्रेण पूजां कुर्याद्विधानतः ॥ १० ॥ स्थापयेच्चतुरः कुम्भांश्चतुर्दिक्षु यथाक्रमम् । पुण्यतीर्थजलोपेतान्धान्यस्योपरि विन्यसेत् ॥ ११ ॥ तन्मध्ये स्थापयेत्कुम्भं शतच्छिद्रसमन्वितम् । पञ्चमृत्पञ्चरत्नानि पञ्चत्वक्पञ्च पल्लवान् ॥ १२ ॥ पञ्चधान्यं सुवर्णं च तत्तन्मन्त्रैर्विनिक्षिपेत् । शतौषधानि निक्षिप्य श्वेतवस्त्रैश्च वेष्टयेत् ||१३|| सर्वे समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः । आयान्तु यजमानस्य दुरितक्षयकारकाः || १४ || शेषं मूलशान्तिवत् ॥
इति कृष्णचतुर्दशीशान्तिः ।
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२४८
श्रीशिवराजविनिर्मिती--
अथ सिनीवालीशान्तिः । सिनीवाल्यां प्रसूता स्याग्रस्य भार्या पशुस्तथा । गजाश्वमहिषी (पि) चैव शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ।। १ ।। ये सन्ति सकलाश्चान्ये स्वप्रसादोपजीविनः । वर्जयेत्तानशेषांस्तु पशुपक्षिमृगादिकान् ।। २ ।। कुहूप्रसूतिरत्यर्थं सर्वदोषकरी मता । यस्य प्रसूतिरेतस्यां तस्याऽऽयुर्धनवर्धनम् ॥३॥ सर्वगण्डसमस्तत्र दोषस्तु प्रबलो भवेत् । शान्ति विना विशेषेण परित्यागो विधीयते ॥४॥ परित्यागात्तत्र शान्ति कुर्याद्धीमान्विचक्षणः । तत्फलं तत्क्षणार्धेन पुनरेवानुपालनम् ॥ ५॥ न त्यजेत्पण्डितो मोहादादज्ञानतोऽपि वा। तद्योगो नाशयत्किचित्तत्स्त्री वा नाशमश्रुते ॥ ६॥ कल्पोक्तशान्तिः कर्तव्या शीघ्र दोषापनुत्तये । रुद्रः शक्रश्च पितरः पूज्याः स्युर्देवताः क्रमात् ।। ७ । कर्षमात्रसुवर्णेन तदर्थार्धन वा पुनः । अथवा शक्तितः कुर्याद्वित्तशाठयं न कारयेत् ॥८॥प्रतिमां कारयेच्छंभोश्चतुर्भुजसमन्विताम्। त्रिशूलखड्गवरदाभयहस्तां यथाक्रमात् ॥९॥श्वेतवर्णी श्वेतपुष्पा श्वेताम्बरवृपस्थिताम् । व्यम्बकेण च मन्त्रेण पूनां कुर्याद्यथाविधि ॥ १० ॥ इन्द्रश्चतुर्भुजो वस्त्रा
कुशचापः सुसायकः। रक्तवर्णो गजारूढो यत इन्द्रेति मन्त्रतः ॥११॥ पितरः कृष्णवर्णाश्च चतुर्हस्ता विमानगाः । यष्टयक्षसूत्रकमण्डल्वभयश्चैिव धारिणः ॥ १२ ॥ ये सत्या इति मन्त्रेण पूजां कुर्यादनन्तरम् । आग्नेयीं दिशमारभ्य कुम्भान्कोणेषु विन्यसेत् ॥ १३ ॥ कल्पोक्त शान्तिः कर्तव्या कुर्याच्छीघ्रं स्वशक्तितः । गोदानं वस्त्रदानं च सुवर्ण चोवरां शुभाम् ॥ १४ ॥ दशदानानि चोक्तानि क्षीरमाज्यं गुडस्तथा । आज्यावेक्षणमेतानि तत्तन्मन्त्रैश्व कारयेत् ॥१५ समिदाज्यचरोमिं तिलमाषैश्च सर्षपैः । अश्वत्थप्लक्षपालाशसमिद्भिः खादिरैः शुभैः ॥१६॥ अष्टोत्तरशतं मुख्यं प्रत्येकं जुहुयाद्विजः । व्यम्बकेणेति मन्त्रेण तिलान्व्याहृतिभिः पुमान् ॥ १७ ॥ चतुर्भिः कलशैर्युक्तं बृहत्कुम्भसमन्वितम् । शान्तिवत्कलशे कार्यमभिषेकं च कारयेत् ॥ १८ ॥ पितृमातृशिशूनां च ह्यभिषेकं तु वारुणैः । शंकरस्याभिषेकं च कुर्याद्राह्मणभोजनम् ॥ १९॥ अन्येषां चैव सर्वेषां ब्राह्मणानां च तर्पणम् । तथा शक्त्यनुसारेण द्विजवाचनपूर्वकम् ॥२०॥
इति सिनीवालीशान्तिः।
अथ गोप्रसवविधिरुच्यते।। गर्गः-प्रणिपत्य रविं वक्ष्ये प्रायश्चित्तमनुस्मरन् । सर्वारिष्टविनाशाय यदुक्तं शान्तिसागरे ॥१॥ पित्ररिष्टे सुतारिष्टे मारिष्टे तथैव च । प्रायश्चित्तं तदा
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ज्योतिर्निबन्धः ।
२४९
कुर्यात्तत्तद्दोषस्य शान्तये || २ || पूषाश्विनां गुरोः सार्पमघाचित्रेन्द्रमूलभे । एषु ऋक्षेषु जातस्य कुर्याद्भोजननं तथा || ३ || जन्म वा त्रिजन्म शुभे वारे शुभे दिने । कृत्वाऽभ्यङ्गादिकं सर्व गृहालंकारपूर्वकम् ॥ ४ ॥ गोमयेनोपलिप्याथ गृहस्येशानकोणके । पङ्कजं कर्णिकायुक्तं रजोभिः श्वेतवर्णः ॥ ५ ॥ ब्रीहींस्तत्र विनिक्षिप्य यथावित्तानुसारतः । नवशूर्पं तु तन्मध्ये रक्तवस्त्रं मसौरयेत् || ६ || स्नापयित्वा शिशुं तत्र पुनः सूत्रेण वेष्टयेत् । प्राङ्मस्तकमवाक्पादं तिलगर्भगतं शिशुम् || ७ || गौमुखं दर्शयित्वा तु पुनर्जातं तु गोमुखात् । विष्णुयोनिमिति सूक्तेन गव्येन स्नापयेच्छिशुम् || ८ || गवामङ्गेषु विप्रेण गवामङ्गेषु संस्पृशेत् । विष्णोः श्रेष्ठेति मन्त्रेण गौः प्रसूतं तु बालकम् ॥ ९ ॥ साचास्तं समादाय पश्चान्मात्रे ददत्पिता । माता जघन्यभागस्थं शिशुमानीय तन्मुखात् || १० || ततः पित्रे तदा दद्यात्ततो मात्रे प्रदापयेत् । वस्त्रे स्थाप्य पितास्याथ पुत्रस्य मुखमीक्षयेत् ॥ ११ ॥ गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिश्च संयुतम् | आपोहिष्ठादिभिर्मन्त्रैरभिषिचेत्ततः शिशुम् ||१२|| मूर्ध्नि चाऽऽघ्राय तत्पुत्रं तन्मन्त्रेण तदा पिता । अङ्गादङ्गात्संभवसि हृदयादभिजायसे || १३ || आत्मा वै पुत्रनामाऽसि स जीव शरदां शतम् । मूर्ध्नि त्रिवारमाघ्राय तं शिशुं स्थापयेत्ततः || १४ || पुण्याहं वाचयेत्पश्चाद्ब्राह्मणैर्वेदपारगैः । दरिद्रायाथ विप्राय तां गां चाभ्यर्च्य दापयेत् ॥ १५ ॥ गोवस्त्रस्वर्णधान्यादि दद्यादर्घादितः क्रमात् । यथाशक्ति धनं दद्याद्ब्राह्मणेभ्यस्तदा पिता ।। १६ ।। ततो होमं प्रकुर्वीत स्वस्वशाखोक्तमार्गतः । उल्लेखनादिकं कृत्वा चाऽऽज्यभागान्तमाचरेत् ।। १७ ।। होमस्येशानदिग्भागे धान्योपरि घटं शुभम् । पञ्चगव्यं घटे स्थाप्य तिलांस्तत्र वि निक्षिपेत् ॥ १८ ॥ क्षीरद्रुमकपायांश्च पञ्चरत्नानि निक्षिपेत् । वस्त्रयुग्मेण संस्थाप्य गन्धादिभिरथार्चयेत् ।। १९ ।। विष्णुं वरुणमभ्यर्च्य प्रतिमां च विधानतः । यत इन्द्रादिभिर्मन्त्रैः कुम्भं स्पृष्ट्वाऽभिमन्त्रयेत् ॥ २० ॥ दधिमध्याज्ययुक्तेन होमं कुर्याद्विधानतः । आपो हि ष्ठेति तिसृभिरप्सु मे सोम इत्यथ ॥ २२ ॥ तद्वष्णोः परमं पदमश्रीभ्यां ते च सूक्ततः । ऋग्भिराभिः प्रत्युवं वाऽष्टाविंशतिसंख्यया ।। २२ ।। अशक्तश्चाष्टसंख्यं वा दधिमध्वाज्यसंयुतम् । आदित्यादिग्रहाणां च होमं कुर्यात्समन्त्रकम् ।। २३ ।।
1
इति गोप्रविधिः ।
३२
१- व. ड्रोभोजनं । २.क. "साम' । २ ख. गोमूत्रं ।
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२५०
श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ व्यतीपातादिशान्तिः। अथातः संप्रवक्ष्यामि शान्ति शौनक उत्तमाम् । वैधृतौ च व्यतीपाते महादोषोऽभिजायते ॥१॥ कुमारजन्मकाले तु व्यतीपातश्च वैधृतिः । संक्रान्तिश्च रस्तत्र जातो दारिद्यकारकः॥ २ ॥ दरिद्राणां महादुःखं सर्वनाशकरो भवेत्। शान्तिवा पुष्कला कार्या तत्र दोषो न कश्चन ॥ ३ ॥ गोमुखप्रसवं कुर्याच्छान्ति कुर्याच यत्नतः । जपाभिषेकदानश्च होमाद्यपि विशेषतः ॥ ४॥ नवग्रहमखं कुर्यात्तस्य दोषप्रशान्तये । प्रथमं गोमुखाजन्म ततः शान्ति समाचरेत्॥ ५॥
इति व्यतीपातादिशान्तिः।।
अथ सदन्नोत्पन्नशान्तिः। पुष्कर उवाच-कथयस्व मुनिश्रेष्ठ महर्षे भार्गव प्रभो । शुभाशुभं च तच्छान्ति वद जन्मफलं शिशोः ॥ १ ॥ भार्गव उवाच-उपरि प्रथमं यस्य जायन्ते च शिशोर्द्विजाः। दन्तेवा सह यस्य स्याज्जन्म तद्वालकं न सत ॥२॥ मातरं पितरं खादेदात्मानं वाऽपि मातुलान् । सदन्तं बालकं विद्याद्राक्षसं स्वकुलान्तकम् ॥ ३ ॥ यदि दन्तैः समं जन्म यदि वा दशनाः शिशोः। स्युमेध्ये सप्तमासानां कुलनाशस्तदा ध्रुवम् ॥ ४ ॥ अष्टमासादिमासेषु दन्तोत्थानं शुभावहम् । अथ तद्दोषनाशाय विधानं शृणु सत्तम ॥ ५॥ प्रथमं पूजयेत्तत्र देवदेवं च केशवम् । अग्निं संस्थाप्य जुहुयाद्धृतेन चरुणा पृथक् ॥ ६ ॥ देवदेवं केशवं च वहिं सोमं समीरणम् । धातारं च विधातारं कुलदेवं नव ग्रहान् ॥ ७॥ यजेत्तल्लिङ्ग जैमन्त्रैर्नानामन्त्रैरथापि वा । यथाशक्ति सहस्रं वा शतं वाऽप्यष्टविंशतिः ॥ ८ ॥ ऋत्विग्भ्यो दक्षिगा देया ततः स्नानं शिशोर्मतम् । भद्रासने निवेश्यैनं मृद्भिः सर्वोषधैः फलैः ॥९॥ सर्वैमनोरथैर्गन्धैः स्नापयेत्तीर्थवारिणा । तदनु ब्राह्मगा भोज्याः सुवासिन्यः सुहृद्गणाः ॥ १० ॥ विष्णुधर्मोत्तरे-गजपृष्ठगतं बालं नौस्थं वा स्नापयेद्गुरुः । तदभावे काश्चनेन निर्मिते च वरासने ॥ ११ ॥ सर्वोषधैः सर्वगन्धैर्बोजैः पुष्पैः फलैः शुभैः । पञ्चगव्यैश्च रत्नश्च च्छत्रं शिरसि धारयेत् ॥ १२ ॥ विप्रभोज्यं ततः कुर्याच्छक्या दद्याच्च दक्षिणाम् । अकालदन्तजे दोषे शान्तिरेवं विधीयते ॥ १३ ॥ चुम्बकुमारं त्रिवारं प्रायचित्तमिदं स्मृतम् । मृदं वाऽङ्गारकान्भक्तं दधि सीधु मुख क्षिपेत् ॥ १४ ॥ नौकामारोहयेद्भाल सह धाच्याऽथवाऽग्रजम् । स्वर्ण दयाविना भोज्याः सर्पिषा
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ज्योतिर्निबन्धः।
२५१ पायसेन च ॥ १५॥ नागार्जुनसंहितायां-सदन्तं बालकं दद्याद्रामणाय सदक्षिणम् । वत्सस्य मधुलाजानां प्राङ्मुखं दधिदीपयोः ॥ १६ ॥
इति सदन्तोत्पन्नशान्तिः।
* अथ धनिष्ठापञ्चकविचारः । दैवज्ञवलभे-कुर्यान्न दारुतृणसंग्रहमन्तकाशायानं मृतस्य दहनं गृहगोपनं च । शय्यावितानमिह वासवपञ्चके च केचिद्वदन्ति परतो वसुदैवतार्धात् ॥१॥ रत्नमालायां-वासवोत्तरदलादिपञ्चके याम्यदिग्गमनगेहगोपने । प्रेतदाहतणकाष्ठसंग्रहं शय्यकावितननं च वर्जयेत् ॥ २ ॥ ज्योतिःसागरे-छेदनं संग्रहं चैव काष्ठादीनां न कारयेत् । श्रवणादौ बुधः षट्के न गच्छेद्दक्षिणां दिशम् ॥ ३ ॥ अग्निदाहो भयं रोगो राजपीडा धनक्षयः । संग्रहे तृणकाष्ठानां कृते वस्वादिपञ्चके ॥४॥ रजमार्तण्डे-गृहार्थ तृणकाष्टादिसंग्रहादग्निभीः कलिः । रोगो दण्डोऽर्थहानिः स्यात्क्रमाद्वस्वादिपञ्चके ॥ ५॥ गर्ग:-धनिष्ठापञ्चके चन्द्रे सूर्ये पैत्रादिपञ्चके । छेदनादि न कर्तव्यं ग्रहार्थ तृणकाष्ठयोः ॥ ६ ॥ पूर्वार्ध नातिदोषाय दारुतक्षणसंग्रहे । यानगोपनशय्यासु संपूर्ण वासवं त्यजेत् ॥ ७ ॥ केऽप्याहुः संकटे घोरे पश्चके पश्च नाडिकाः । त्याज्याः क्रमात्ततीयाद्यन्यन्त्यपादावसानगाः ॥ ८॥
इति धनिष्ठापञ्चकविचारः।
अथ पञ्चकशान्तिः । गरुडपुराणे-श्रीकृष्ण उवाच । प्रेतदाहो न कर्तव्यः कुम्भमीनगते विधौ । न जलं दीयते तेषामशुभं जायते भृशम् ॥ १॥ पञ्चकाभ्यन्तरे नैव कार्या प्रेतादिकी क्रिया । पुनर्मृत्युभयं तस्मात्पञ्चकानन्तरं शुभा ॥ २ ॥ कारिकायांसद्यो दाहादिक कार्य पञ्चकर्शमृतस्य च । वक्ष्यमाणविधानेन प्रायश्चित्तपुरःसरम् ॥ ३ ॥ चत्वारः पुत्तला दर्भमयाः शवसमीपतः । तन्मन्त्रैमन्त्रिताः स्थाप्यास्ततो दाहस्तु तैः सह ॥ ४ ॥ सूतकान्ते तु पुत्रायैः कार्य शान्तिकमुक्तवत् । कांस्यपात्रं घृतं दद्यात्कुर्याद्राह्मणभोजनम् ॥ ५ ॥ प्रेतमञ्ज-- पञ्चके तु मृतो योऽसौ गति न लभते नरः। तिलान्गां च हिरण्यं च तस्योद्देशे घृतं ददेत् ॥ ६ ॥ तेन विघ्नः शमं याति स प्रेतो लभते गतिम् । विधानं यो न कुर्वीत विघ्नस्तस्य पदे पदे ॥ ७ ॥ वासवे मरणं यस्य गहे याति पुनर्मतिः । तद्दोपशान्तये देयं वस्त्रस्वर्णादिकं. द्विजे ॥ ८ ॥ शतोडुनि गुडं दद्यान्मृतदुः
* इतः परं पलीपतनफलकथनात् पूर्वग्रन्थः खपुस्तके नास्ति ।
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२५२
श्रीशिवराजविनिर्मितो
खोपशान्तये । अजपादे नरो यस्तु पञ्चत्वमुपगच्छति ॥ ९ ॥ काञ्चनं वेदविप्राय दद्यात्तत्कुलशान्तये । उत्तराभाद्रनक्षत्रे मृतिः स्याद्यस्य कस्यचित् ॥१०॥ गोद्वयं सतिलं दद्याद्धनहानिप्रशान्तये । अन्तिमे मरणं यस्य गृहे यदि पुनम॒तिः । सुवर्णदक्षिणां दद्यात्कृष्णवस्त्रमथापि वा ॥ ११ ॥
इति पञ्चकशान्तिः।
अथ त्रिपुष्करयोगः। भूषालवल्लभे-रविमन्दभौमवारे भद्रा तिथिस्त्रिपादके धिष्ण्ये । योगस्त्रिपुष्कराख्यस्त्रिपादके यमलनामा स्यात् ॥ १॥ रत्नकोशे-गुरुभौममन्दवारे भद्रायां विषमपाद: । योगस्त्रिपुष्करोऽयं त्रिगुणफलो यमलभे द्विगुणः ॥ २ ॥ गर्ग:पञ्चभे पञ्चगुणितं त्रिगुणं च त्रिपुष्करे । यमले द्विगुणं सर्व हानिवृद्धयादिकं भवेत् ॥ ३ ॥ तिथिर्भद्रा त्रिपादर्स जीवार्कारैत्रिपुष्करः । योगस्त्रिगुणफलदो वृद्धा नष्टे हृते मृते ॥ ४ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे-नष्टं दृष्टं मृतं घातं कलहो डिम्भ एव च । उपागतश्च योऽत्र स्यात्रिदिनं सोऽनुवर्तते ॥ ५॥
इति त्रिपुष्करयोगः।
अथ त्रिपुष्करशान्तिः। त्रिपुष्करे त्रयः कार्याः पुत्तला द्वौ द्विपुष्करे । मृतस्य च समीपे तु स्थाप्याः पिष्टमयास्ततः ॥ १॥ कार्यो दाहस्तु तत्साध सूतकान्ते तु शान्तिकम् । कृत्वा गाश्च हिरण्यं च दद्यादानं च शक्तितः ॥२॥ प्रेतखण्डे-त्रिपुष्करमते दद्याद्गोत्रयं मूल्यमेव च । द्विपुष्करे च गोयुग्मं ततो दाहो न दोषकृत् ॥ ३ ॥
__इति त्रिपुष्करशान्तिः।
अथ भावकाष्टकम् । वैशाखे कृष्णपक्षे स्यादष्टमी तिथिरुत्तमा । नवमी दशमी तद्वत्तिथिरेकादशी तथा ॥ १ ॥ द्वादशी तत्परा चैव भूतामा च विशेषतः । ज्येष्ठस्याऽऽद्या शुभा तद्वद्भूतमातमहोत्सवः। सुतकं विद्यते चात्र लोकस्य सकलस्य च ॥२॥ धनिष्ठापञ्चकं यद्वर्जनीयं शुभेप्सुभिः । तथैवाष्टासु तिथिषु वर्जनीयं प्रयत्नतः ॥ ३ ॥ विवाहमङ्गलादीनि कुर्यात्कर्माणि मानवः । श्राद्धादिसकलं कार्य नात्र कार्या विचारणा ॥४॥
इति भावकाष्टकम् ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
* अथ पल्लीपतनफलम् |
पल्लीस्पर्शफलं वक्ष्ये यदुक्तं ब्रह्मणा पुरा । ब्रह्मस्थाने भवेद्राज्यं भाल ऐश्वर्यवर्धनम् || १ || कर्णयोर्भूषणावाप्तिर्नोत्रयोः प्रियदर्शनम् । नासिकायां सुगन्धाप्तिर्मुखे मिष्टान्नभोजनम् || २ || कपोलयोर्भवेत्सौख्यं हनुदेशे महद्भयम् । ग्रीवायां विग्रहचैव कण्ठे वा व्यजनागमः || ३ || कलिर्वशे सुखं पृष्ठे दक्षे वामे गदादिभीः । दक्षांसे विजयो नित्यं वामांसे शत्रुजं भयम् ॥ ४ ॥ इष्टलाभो भुजे द कूपरे मणिबन्ध । दक्षे करतले द्रव्यं तत्पृष्ठे सव्ययो भवेत् ॥ ५ ॥ वामे भुजे कूर्परे च मणिबन्धे धनक्षयः । वामे करतले हानिस्तत्पृष्ठे चार्थनधृता ।। ६ ।। हृदये राजसन्मानः सौभाग्यं दक्षिणे स्तने । दक्षपार्श्वे च भोगाप्तिः स्तने वामे यशोभयम् ||७|| वामपार्श्वे भवेत्पीडा वामकुक्षौ शिशोस्तथा । दक्षकुक्षौ सुतावाप्तिरुदरे च विशेषतः || ७ || वस्त्राप्तिर्दक्षकव्यां च वामकव्यां सुखक्षयः । नाभ्यां मनोरथावाप्तिर्वस्तो गर्भच्युतिर्भवेत् ॥ ८ ॥ गुझे मृत्युर्गुदे रोगो दक्षोरौ प्रीतिवर्धनम् । वामोरौ मृत्युतो दुःखं दक्षजानौ सुवाहनम् ॥ ९ ॥ पशुहानिर्वामजानौ दक्षिणे जघने सुखम् । क्लेशः स्याद्वामजङ्घायां स्फिजि दक्षेऽर्थवृद्धिकृत् ॥ १० ॥ स्फिज वामे स्त्रीवियोगो दक्षे गुल्फे मियागमः । उपप्लवो *काकमैथुनशान्तिपर्यन्तं खपुस्तकग्रन्थश्चैत्रम् —
२५३
अथ पल्लीपतनफलम् |
अथातः संप्रवक्ष्यामि शृणु शौनक यत्नतः । पल्लयाः प्रपतने चैव सरटस्य मरोह ॥ १ ॥ पल्ली च प्रथमे यामे मस्तके सुखदायिनी । मुखे मिष्टान्नभोजी स्यात्पादयोर्मरणं ध्रुवम् ॥ २ ॥ मध्याह्ने पतिता पल्ली दक्षिणे सुखसंपदः । वामाङ्गे कुरुते व्याधिं ब्रह्मद्वारे च वस्त्रदा ॥ ३ ॥ पल्ली तृतीययामे तु पृष्ठावासाच्च रोगदा । करे च कुरुते व्याधिं ब्रह्मद्वारे च वस्त्रदा || ४ || संध्ययोः पतिता पल्ली मस्तके स्वामिमृत्युदा | करे तु दक्षिणे व्याधिं पादे हानिकरी तथा ॥ ५ ॥ अथ देहाङ्गफलानि ।
कपोले कुरुते सौख्यं जङ्घायां क्लेशदायिनी । शीर्षे राज्यश्रियः प्राप्तिल - लाटे धनवर्धनम् ॥ १ ॥ कर्णयोर्भूषणप्राप्तिर्नोत्रयोर्भयवर्धनम् । नासिकायां च सौभाग्यं मुखे मिष्टान्न भोजनम् ॥ २ ॥ कण्ठे नित्यं श्रियः प्राप्तिः स्कन्धयोर्विजयो भवेत् । धनलाभो बाहुयुग्मे करयोः सुखसंपदः || ३ || स्तनयुग्मे तु सौभाग्यं हृदये सौख्यवर्धनम् । पृष्ठे नित्यं महाभाग्यं गुह्ये मृत्युसमागमः || ४ || कटियुग्मे वस्त्रलाभः पार्श्वयोर्भयदर्शनम् । जघनेऽर्थक्षयो नित्यं गुदे रोगभयं तथा ॥ ५ ॥ ऊरुयुग्मे वाहनाप्तिर्जानुयुग्मेऽर्थसंग्रहः । निरुद्यमो जङ्घयोश्च
१ घ. "ज्यं स्थानलाभो ललाटके || १ || क. | २ क. व्यञ्जना ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोवामगुल्फे पादयोर्गमनं भवेत् ॥ ११ ॥ पुरोभागे च दुर्वार्ता नष्टवार्ता च पृष्ठतः। वामे हानिर्धनं दक्षे परितो भ्रमणं क्षतिः ॥ १२॥ वामदक्षविभागेन यत्फलं कथितं नृणाम् । विपर्ययेण तत्स्त्रीणां ज्ञेयं शेषं द्वयोः समम् ॥ १३॥ इत्थं पल्लथा: प्रपातस्य फलं ज्ञेयं विचक्षणैः । एतदेव फलं विद्यात्सरटस्य प्ररोहणे ॥१४॥ पल्लयाः प्ररोहणे चैव पतने सरटस्य तु । तयोः फलस्य व्यत्यासात्तद्वदेव प्रजायते ॥ १५ ॥ पल्लयाः प्ररोहणं रात्रौ सरटस्य प्रपातनम् । नातिदष्टफलं विद्याव्याधिमग्रं विपर्यये ॥ १६ ॥ पतनानन्तरं तस्य रोहणं यदि जायते । पतने फलमत्कष्टं रोहणेऽल्पफलं भवेत ॥ १७॥ मत्ययोगे च जन्मः विष्टयां पाते च वैधतौ । चन्द्रेऽष्टमे च क्रूरे च लग्ने विन्नः प्रजायते ॥ १८ ॥ अङ्गं दक्षिणमारुह्य वामेनोत्तरति स्फुटम् । तदा हानिकरा ज्ञेया व्यत्ययेन तु लाभदा ॥१९॥ चरणादृर्ध्वगा भूयः सद्यो रोहति शीर्षकम् । प्राज्यं राज्यं तदा दत्ते पल्ली श्वेता विशेषतः ॥ २०॥ चिन्तिताभ्यधिक लाभं स्थिता भोज नभाजने । पादाड. लीषु संपाताद्धानिश्च महती भवेत् ॥ २१ ॥ शीर्षस्योपरि पतिता शुभाय पल्ली सिता च यदि नान्या । सितगृहगोधा स्पर्शे सर्वेष्वङ्गेषु शोभना ज्ञेया ॥ २२॥ म (क) केटिका गृहगोधा दक्षाङ्ग समारोहति पुंसाम् । वामाङ्गे तु स्त्रीणां राज्यं पादयोभ्रमणं भवेत् ॥ ६॥ एवं पल्लीप्रपातस्य फलं ज्ञेयं विचक्षणैः । एवं तदेव हि फलं विद्यात्सरटरोहणे ॥७॥ पल्लयाः प्रपतने चैव सरटस्य प्ररोहणे। पल्लयाः प्ररोहणे चैव सरटपतने तथा ॥८॥ यद्वत्फलं च संप्रोक्तं तद्वदेव प्रजायते । पल्याः प्ररोहणं रात्रौ पतनं सरटस्य च ॥९॥ निधनार्थाय हि भवेव्याधिपीडा विपर्यात् । पतनानन्तरं यस्य रोहणं यदि जायते ॥१०॥ पतने फलमुत्कृष्टं रोहणे निष्फलं भवेत् । आरोहणं चोर्चवक्रमधोवकं प्रपातनम् ॥११॥ भवेदादौ सुशीघ्रण तत्फलं जायते ध्रुवम् । स्थानात्स्थानफलं युक्तं गर्गेण कथितं पुरा ॥१२॥
अथ तिथिफलम् । प्रतिपद्रोगसंप्राप्तिद्धितीया राज्यमेव च । तृतीया च भवेल्लाभश्चतुर्थी रोग एव च ॥ १ ॥ पञ्चमी च तथा षष्ठी सप्तमी च धनागमः । अष्टमी नवमी चैव दशमी मरणं ध्रुवम् ॥२॥ एकादशी पुत्रलाभो द्वादशी धनलाभदा। त्रयोदशी चतुर्दशी पौर्णमासी धनागमः ॥३॥
अथ वारफलम् । वयः सोमे बुधगुरुशुक्राचार्याः सदा शुभाः । शेषाः. सर्वेऽशुभाः प्रोक्ता वाराणां फलमादिशेत् ॥ १॥
____ अथ नक्षत्रफलम् । अश्चिन्यां क्षेममारोग्यं भरणी रोगकारिणी । कृत्तिका धनलाभश्च रोहिण्या च मृगे धनम् ॥ १॥ आद्रा तु मृत्युदा चैव. पुष्यादिती च लाभदे । आश्लेषा
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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दत्ते भृगुर्वदति ॥ २३ ॥ पल्लीसरटयोर्वाऽपि युग्मम शुभे पतेत् । दंपत्योर्जायते प्रीतिर्निन्द्यभागे वियोगिता ॥ २४ ॥
अथ सरटपतन फलम् |
नाशः शीर्षे मुखे हानिः पृष्ठे लाभो भयं हृदि । दक्षे रोगः शुभं वामे सरटस्य प्रपातनात् || १ || हंसाया उत्तमा जीवाः कोपाविष्टास्तु राज्यदाः | सरटाशीर्षे पतिता विदाः स्मृताः || २ || गोधा कुक्कुटसर टोलूका ध्वाङ्क्षाः कपोतका वाऽपि । निष्कारणं नरस्य मस्तकचटितौ क्षतिं कुर्युः ॥ ३ ॥ पल्लीसरगोधाद्याः शकृन्मूत्रं च कुर्वते । शरीरे यस्य तस्याऽऽशु दुःखं चैव महद्भयम् ॥ ४ ॥ कृकलासः पतेद्यस्य मूर्ध्नि तद्विघ्नशान्तये | मृत्तसंजीवन विद्यां जन्मण्डितमस्तकः ॥ ५ ॥
अथ पल्लीशब्दफलम् ।
वित्तं ब्रह्मणि कार्यसिद्धिरतुला शक्रे हुताशे भयं याम्ये मित्रवधः क्षयश्च निर्ऋतौ लाभः समुद्रालये । वायव्यां वरवस्त्रमनमतुलं सौम्येऽर्थलाभो वं चैशान्यां गृहगोधिकाऽर्थजननी त्रासस्त्वधः शब्दिता ॥ १ ॥
मरणं प्रोक्तं मघा तु क्षेमदा भवेत् || २ || पूर्वा तु मरणं चैव उत्तरा हस्त एव च । चित्रा स्वातिश्व शुभदा विशाखा धननाशनम् || ३ || अनुराधा राज्यदा स्याज्ज्येष्ठायां कष्टमेवच । मूले चैव तथा राज्यं पूर्वाषाढा तथा शुभा ॥ ४ ॥ उत्तरा रोगमायाति ह्यभिजिद्धनसंपदः । श्रवणे पुत्रलाभश्च धनिष्ठा राज्यमेव च ॥ चारुणे धनहानिः स्याद्रोगो दुःखं भयं तथा । पूर्वोत्तरा रेवतीषु हानिश्चैव प्रजायते॥ ६ ॥ अथ लग्नफलम् ।
मेषे च शुभदा भोक्ता वृषे हानिस्तथैव च । मिथुने रोगसंप्राप्तिः कर्के कलह एव च ।। १ ।। सिंहे स्यात्फललाभाय कन्यायां तु धनक्षयः । तुलायां धनलाभश्च धनलाभश्च वृश्चिके ||२|| धने ज्ञानमवामोति मकरे वस्त्रलाभदा । कुम्भे हानिश्च विज्ञेया मीने शोकः प्रजायते ॥ ३ ॥ नैधने चैव जन्मर्क्षे [ संप्रोक्ता ] विषनाडिका । क्रूरलग्ने लग्नफलमिति प्रोक्तं शुभाशुभम् ॥ ४ ॥
अथ पल्लीसरटशान्तिः ।
मृत्युयोगे दग्धदिने क्रूरेऽह्नि यमकण्टके । चन्द्रेऽष्टमे नैधने च जन्म विषनाडिका ॥ १ ॥ क्रूरग्रहे क्रूर लग्ने क्रूरैर्यदि निरीक्षिते । अष्टमस्थे क्रूरयुते विष्टिवैधृतिसंयुते । स्पर्शमात्रे तयाः सद्यः सचैल स्नानमाचरेत् || २ || दुर्निमित्ते तयोर्जाते निष्फलं जायते ध्रुवम् । पञ्चगव्यं प्राशयित्वा कुर्यादाज्यावलोकनम् ॥ ३ ॥ अशक्तो वाऽपि शक्तो वा यदीच्छेदात्मनः शुभम् । पुण्याहवाचनं कृत्वा शान्तिकर्म समाचरेत् ||४|| प्रतिरूपं सुवर्णेन कुर्याद्वित्तानुसारतः । रक्तवस्त्रेण संवेष्टय गन्धपुष्पैः
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ पल्लीसरटयोः शान्तिः। पल्लीसरटयोः स्पर्शे सचैल स्नानमाचरेत् । पञ्चगव्यं प्राशयित्वा कुर्यादाज्यावलोकनम् ।। १ ।। शक्ते वाऽप्यथवाऽशक्ते यदीच्छेदात्मनः सुखम् । पुण्याइवाचनं कृत्वा शान्तिकर्म समारभेत् ॥ २ ॥ प्रतिरूपं सुवर्णेन कुर्याद्वित्तानुसारतः । रक्तवस्त्रेण संवेष्टय गन्धपुष्पैः प्रपूजयेत् ॥ ३॥ तदने मृन्मयं रम्यं कलशं जलपूरितम् । वस्त्रमाल्यैरलंकृत्य स्थापयेत्तण्डुलोपरि ॥ ४॥ पञ्चामृतं पञ्चगव्यं पञ्चरत्नानि शक्तितः । पञ्चवृक्षकषायानि(णि)निक्षिप्याऽऽवाहये. चतः ॥ ५ ॥ पूजयेद्गन्धपुष्पायैर्लोकपालान्क्रमेण च । अग्निसंस्थापनं कृत्वा होमकर्म समारभेत् ॥ ६ ॥ मृत्युंजयेन मन्त्रेण चैधोभिः खादिरैः शुभैः। तिलैव्याहृतिभिहोममष्टोत्तरसहस्रकम् ॥ ७॥ अष्टोत्तरशतं वापि कुर्याद्वित्तानुसारतः । अभिषेकं ततः कृत्वा यजमानस्य च द्विजैः ॥ ८॥ पुण्यवारुणसूक्तश्च दोषशान्त्यै द्विजोत्तमः । धौताम्बराणि धृत्वाऽथ स्वर्णवस्त्रातिलान्हरेत् ॥९॥ ब्राह्मणान्भोजयेदित्थं शान्तिकर्म करोति यः । तस्याऽऽयुर्विजयो लक्ष्मीः कीर्तिवृद्धिः शुभं भवेत् ।। १० । पल्लीसरटयोः शान्तिः कथिता भृगुणा पुरा । शौनकाय मुनीन्द्राय लोकानुग्रहकारिणे ॥ ११ ॥
इति पल्लीसरटयोः शान्तिः । प्रपूजयेत् ॥ ५ ॥ तस्याने मृन्मयं रम्यं कलशं जलपूरितम् । वस्त्रमाल्यैरलंकृत्य स्थापयेत्तण्डुलोपरि ॥ ६ ॥ पञ्चामृतं पश्चगव्यं पञ्चपल्लवसंयुतम् । पञ्चवृक्षकषायाणि निक्षपेत्कलशोत्तमे ॥७॥ पूजयेद्गन्धपुष्पाद्यर्लोकपालान्क्रमेण तु । स्वेन स्वनैव मन्त्रेण मृत्तिकादि विनिक्षिपेत् ॥ ८ ॥ इन्द्रादिलोकपालांश्च तत्तन्मन्त्रैस्तु पूजयेत् । अग्निस्थापनकं कृत्वा होमं कृत्वा ततः परम् ॥ ९ ॥ मृत्युंजयेति मन्त्रेण चैधोभिः खादिरैः शुभैः । तिलैयाहृतिभिर्होममष्टोत्तरसहस्रकम् ॥१०॥ अष्टोत्तरशतं वाऽपि कृत्वा सम्यक् समाचरेत् । यमायेति च मन्त्रेण जपं होमादि कारयेत् ॥ ११ ॥ अभिषेकं ततः कुर्यात्सुरास्त्वांमन्त्रवारुणैः । द्यौः शान्त्यादिशुभमन्त्रैः पुराणोक्तक्रमेण तु ॥ १२ ॥ इत्थं कृत्वाऽभिषेकं च विधानाद्यर्चनं ततः । धौताम्बराणि धृत्वाऽथ कुयोनीराजनाविधिम् ॥ १३ ॥ स्वर्णदानं वस्त्रदानं तिलदानं स्वशक्तितः । दोषोपशमनार्थाय कुयांदाज्यावलोकनम् ॥ १४ ॥ अभिषेकं शंकराय ततोऽश्वत्थप्रदक्षिणम् । अतःपरं प्रवक्ष्यामि कुर्याद्राह्मणभोजनम् ॥ १५ ॥ एतद्विधानं यः कुर्याद्गण्डदोषो विनश्यति । एवं कृत्वा विधानेन सौभाग्यारोग्यसंपदः ॥१६॥ सौभाग्यशान्तिमानोति सत्यं सत्यं न संशयः । कथितं वृद्धगर्गेण पल्लीदोषनिवृत्तये ॥ १७ ॥ कपोतपल्लीकलासकाकाः शीषस्थिताश्चेन्निधनाय नूनम् । स्थानाहिस्तत्क्षण एव गच्छेदासांसि दद्याद्विजपुंगवेभ्यः ॥ १८ ॥
इति पल्लीसरटशान्तिः।
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ज्योतिर्निबन्धः।
२५७ अथ काकमैथुनशान्तिः। नारदः-उत्पाता विविधा लोके दिव्यभौमान्तरिक्षजाः । तेषां नामानि शान्ति च सम्यग्वक्ष्ये पृथक्पृथक् ॥ १॥ दिवा वा यदि वा रात्री यः पश्येत्काकमैथुनम् । स नरो मृत्युमामोति यदि वा स्थाननाशनम् ॥ २ ॥ यदा काकयुगं दृष्टं विदधीतावत्सरम् । पितृदेवद्विजान्भक्त्या प्रत्यहं चाभिवादनम् ॥३॥ जितेन्द्रियः शुद्धमनाः सत्यधर्मपरायणः। तद्दोषशमनार्थाय शान्तिकर्म समाचरेत् ॥ ४ ॥ स्वगृह्योक्तविधानेन तत्र स्थाप्य हुताशनम् । मुखान्ते समिदाज्यानै नेदष्टोत्तरं शतम् ॥ ५॥ प्रतिमन्त्रं त्र्यम्बकेण ह्यपमृत्युद्वयेन च । व्याहतिभित्रीहितिलै पाद्यन्तं प्रकल्पयेत् ॥ ६॥ पूर्णाहुति च जुहुयात्को शुचिरलंकृतः । स्वर्ण शृङ्गी रौप्यखुरी कृष्णधेनुः पयस्विनी ॥ ७ ॥ वस्त्रालंकारसहिता निष्कद्वादशसंयुता । तदर्धेन तदर्धेन तदर्धार्थेन वा युता ॥ ८॥ तथा वित्तानुसारेण तन्यूनाधिककल्पना । आचार्याय श्रोत्रियाय तां गां दद्यात्कुटुम्बिने ॥९॥ ब्राह्मणेभ्यो विशिष्टेभ्यो यथाशक्ति च दक्षिणाम् । ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाच्छान्तिवाचनपूर्वकम् । एवं यः कुरुते सम्यक् स तदोपात्प्रमुच्यते ॥ १०॥
इति काकमैथुनशान्तिः।
अथ कपोतशान्तिः। आरोहेत गृहं यस्य प्रविशेधा कपोतकः । स्थानहानिर्भवेत्तस्य यद्वाऽनर्थपरम्परा ॥ १॥ दोषाय धनिनां गेहे दरिद्राणां शिवाय च । तस्य शान्ति प्रकुर्वीत जपहोमविधानतः ॥ २ ॥ ब्राह्मणान्वरयेत्तत्र स्वस्तिवाचनपूर्वकम् । षोडश द्वादशाष्टौ वा श्रौतस्मातक्रियापरान् ॥ ३ ॥ देवाः कपोत इत्यादिऋग्भिः स्यात्पश्चभिर्जपः । कुण्डं कृत्वा प्रयत्नेन स्वगृह्योक्तविधानतः ॥ ४ ॥ ऐशान्यां स्थापयेद्वहिं मुखान्तेऽष्टोत्तर शतम् । प्रत्येक समिदाज्यान्नैः प्रतिपणवपूर्वकम् ॥५॥ यत इन्द्र भयामहे स्वस्तिदाघोरमन्त्रकैः । निभिर्मन्नैश्च जुहुयात्तिलाव्याहृतिभिस्ततः ॥ ६॥ जपादींश्च ततो भक्त्या कुर्यात्पूर्णाहुतिं स्वयम् । विप्रेभ्यो दक्षिणां दद्याद् घोपशान्ति ततो जपेत् ॥ ७ ॥ ब्राह्मणान्मोजयेत्पश्चारस्वयं सञ्जीत बन्धभिः । एवं यः कुरुते सम्यगुक्तदोपात्प्रमुच्यते ॥ ८ ॥ पिङ्गलस्य स्वरे ऽयेवं मधुवल्मीकयोरपि । संपूर्णमन्दिरे हानिः शून्यसमान्य
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श्रीशिवराजविनिर्मितोमङ्गलम् ॥ ९॥ प्राकारे च पुरद्वारे प्रासादायेषु वीथिषु । तत्फलं ग्रामपस्यैवं सीम्नि सीमाधिपस्य च । शान्तिकाखिलं कार्य पूर्वोक्तेन क्रमेण तु ॥ १० ॥
इति कपोतशान्तिः।
(+ अथोलूकादिशान्तिः। उलूक [ इष्टो ] दृष्टो नेष्टो गृहमागतो भवति । रटमानोऽपि दक्षिणे च मरणाय भवति भूतानाम् ॥ १॥ दिवान्धोऽपि यदा पक्षी यं हि ग्रामं समाविशेत् । निर्जनं कुरुते ग्रामं मरणं भूभृतामपि ॥ २ ॥ तदा शान्तिः प्रकर्तव्या यथोक्ता सार्वकामिकी । अनिमित्तेषु सर्वेषु ह्यादौ रुद्रं प्रपूजयेत् ॥३॥ प्रदद्याद्गां च वस्त्राणि घृतं सद्यः प्रदापयेत् । तुण्डं रूप्यमयं कार्य चञ्चुर्लाहमयी तथा ॥ ४ ॥ उ ( औ ) दुम्बरास्तथा पादाश्चत्वारोऽथ क्रमेण तु । कांस्यौ पक्षौ प्रकर्तव्यो सर्वावयवसंयुतौ ॥ ५ ॥ हैरण्यं धर्मराजं च सर्वावयवसंयुतम् । होमस्थलादुत्तरतः स्थापयेत्स्थण्डिले शुभे ॥ ६॥ प्रतिष्ठा तत्र कर्तव्या वेदोक्तमन्त्रपूर्वकम् । रुद्राध्यायं ततः पश्चाच्छान्त्यध्यायं तथैव च ॥ ७ ॥ काकाध्यायेन सर्वेण पूजा कायों च पक्षिणः । कलशं स्थापयेत्तत्र सर्वोषधिसमन्वितम् ॥ ८ ॥ शान्त्यध्यायं जपेत्तत्र वह्निस्थापनपूर्वकम् । ततो होमं प्रकुर्वीत पायसेन क्रमेण तु ॥ ९ ॥ आदौ तु चक्षुषी दद्यात्पश्चात्पायसकेन तु । प्रथमा तु ह्युलूकाय दिवान्धाय तथाऽपरा ॥ १० ॥ तृतीया द्रुदुशब्दाय चतुर्थी चिरजीविने । ततः स्विष्टकृतं दद्यात्पश्चात्कर्म समापयेत् ॥ ११ ॥ अभिषेकं ततः कुर्याद्गीतवादित्रनिःस्वनैः । पश्चाद्दानानि व दद्यात्तथा वित्तानुसारतः ॥ १२ ॥ प्रभूतं कनकं दद्यात्तिलांश्चैव तु वाससी । सप्तधान्यं प्रदातव्यं लोहदण्डः क्रमेण तु । वित्तशाठयं न कुर्वीत शान्तिमिच्छन्कदाऽपि हि । अन्नहींनं दहेद्राष्ट्र मन्त्रहीनं तु ऋत्विजः । यजमानमदाक्षिण्यं नास्ति यज्ञसमो रिपुः ॥ १३ ॥ श्येनगृध्रमवेशेऽपि शान्तिरेव कीर्तता ॥ १४ ॥ दिवान्धस्याऽऽहुतिं तत्र वर्जयेच्च यथाक्रमम् । अरण्यवासिने तत्र गृध्रायाऽऽहुतिरुच्यते ॥ १५ ॥ श्येनाय वयसां राज्ञे प्रदद्याच्च यथाक्रमम् । विधानं च प्रकुर्वीत कल्याणं चोपपद्यते ॥ १६॥
इत्युलूकादिशान्तिः।
+ धनुचिह्नित ग्रन्थोऽयं खपुस्तकस्थः ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
२५९ अथ मधुबालशान्तिः। मधुनालं गृहे यस्य दृश्यते पुरुषस्य च । मरणं तस्य जानीयात्कुलान्तो वा भवेदतः ॥ १॥ तत्र शान्तिः प्रकर्तव्या साध्वी वै वायुदैवता । वायुं च पूजयेत्तत्र ऋग्जपं तु यथायथम् ॥ २॥ होमं तत्र प्रकुर्वीत श्रपयित्वा तथा हविः । अभिषेकं प्रकुर्वीत शान्त्यध्यायेन सर्वदा ॥ ३ ॥ ततो वह्नि प्रतिष्ठाप्य चरुश्रपणपूर्वकम् । आदौ च चक्षुषी दद्यात्पश्चान्मधुमतीस्तथा ॥४॥ वसन्तेन मधुना च षडचं चरुणा जपेत् । ततः स्विष्टकृतं दद्यात्पश्चात्कमे समापयेत् ॥५॥ दानानि तत्र दद्याच मधुकुम्भं सदक्षिणम् । क्षोमवस्त्रं प्रदातव्यं तिलांश्चैव क्रमेण तु । ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चादेवं कर्म समापयेत् ॥ ६॥
इति मधुजालशान्तिः।
अथानशान्तिः। एवमन्नस्य विकृतौ शान्ति कृत्वा प्रयत्नतः । तदा सर्वमवाप्नोति आरण्यं प्राप्नुयात्तु यः ॥१॥ अनिष्टं नाशमायाति बैन्द्रीशान्तिविधानतः । उपसर्गाः क्षयं यान्ति शक्रस्य प्रीणनात्ततः ॥ २॥
इत्यन्नशान्तिः।
अथानिशान्तिः। भृगुरुवाच-क्षि(हि)माग्निर्दहते राष्ट्र तत्र शान्ति च कारयेत् । वक्ष्यमाणविधानेन त्वं तदेकमनाः शृणु ॥ १ ॥ भवनाधारदहने कुम्भप्रज्वलने तथा । अङ्गवस्त्रस्य दहने देशभङ्गं समादिशेत् ।। २ ॥ पैशाचाग्निश्चैव सप्तसप्ताचिर्मेषवाहनः । वेदोक्तेनैव मन्त्रेण ह्यग्न्युत्तारं तु कारयेत् ॥ ३॥ होमकुण्डा [च्च] पूर्वे तु स्थायो वै स्थण्डिले शुभे । रक्तवस्त्रसमाच्छन्नो मन्त्रेणाग्निमेषेण तु ॥ ४ ॥ कलशस्तत्र संस्थाप्यः सर्वौषधिसमन्वितः । जपस्तत्र प्रकर्तव्यो रुद्रजाप्यपुरःसरः।।५।। त्वामने वय[ ]मग्ने त्वंपुरीष्यति(?)। इत्यपि मध्वायज्ञेनरक्षसो तनूपाअग्ने आसि(?) ॥६॥ अथातो वैश्वानरं च ब्राह्मणं च जपेत्ततः। सोमाय रुद्राद्वले द्यावापृथिवी अथर्वणं जपेत् ॥ ७ ॥ जपान्ते सुसमिद्धं च वह्निं कृत्वा यथाक्रमम् । होमस्तत्र प्रकर्तव्यो हविर्धानपुरःसरः ।। ८ ॥ लोहितैस्तण्डुलैश्चैव चरुश्रपणपूर्वकम् । आदौ चाग्निमुखे दद्यात्पश्चाच्चाऽऽज्याहुतीर्ददेत् ॥ ९ ॥ उशिक्पावको अरतित्वा
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२६०
श्रीशिवराजविनिर्मितो
मग्ने अङ्गिरास्तथा । अग्निर्ज्योतिस्तृतीया तु चतुर्थी त्वामग्ने तथा ॥ १० ॥ प्रथमनिर्मूर्धातु होमं पूर्व तु कारयेत् । आज्यहोमं विधायैवं चरुहोमं ततः परम्॥ ११ ॥ कफे(?) स्वाहेति वाऽऽद्यं तु आधायेति द्वितीयकम् । तृतीयं हव्यवाहति चतुर्थ जातवेदसे || १२ || ततः स्विष्टकृतं दद्यात्पश्चात्कर्म समापयेत् । अभिषेकस्ततः कार्यो मन्त्रैर्वरुणदेवतैः ॥ १३ ॥ शान्त्यध्यायं पठेत्पश्चादभिषिञ्श्चेत्ततो नृपम् । तत दक्षिणां दद्यात्कृष्णां गां काञ्चनं महीम् । तिलाः कृष्णाः मदातव्या भृंगो वचनं तथा ॥ १४ ॥
इत्यग्निशान्तिः । )
अथ शिथिलीजननशान्तिः ।
नारद: --- उत्पाता निखिला नृणामगम्यागमसूचकाः । तथाऽपि सद्यः फलद शिथिलीजननं महत् ॥ १ ॥ शिथिलीजनने ग्रामे सेतौ वा देवतालये । तत्फलं ग्रामपस्यैव सीनि सीमाधिपस्य च ॥ २ ॥ शिथिलीजनने हानि: सर्वस्थानेषु दिक्षु च । तद्दोषप्रशमायैव शान्तिकर्म समाचरेत् ॥ ३ ॥ स्वर्णेन मृत्युप्रतिमां कृत्वा वित्तानुसारतः । रक्तवर्ण यमं दण्डधरं महिषवाहनम् || ४ || नववस्त्रेण संवेष्ट्य तण्डुलोपरि पूजयेत् । तल्लिङ्गेन्न च मन्त्रेण नैवेद्यान्तं यथाविधि ॥ ५ ॥ पूर्णकुम्भं तदैशान्यां रक्तवस्त्रेण वेष्टितम् । पञ्चत्वक्पल्लवैर्युक्तं जलमन्त्रैः समर्चयेत् || ६ || अग्निसंस्थापनं प्राच्यां स्वगृह्येोक्तविधानतः । प्रत्येकमष्टोत्तरशतमघोरेणैव होमयेत् ।। ७ ।। मन्त्रेण समिदाज्यान्नैः शेषं पूर्ववदाचरेत् । द्विजाय प्रतिमां दद्यात्सर्वदोषापनुत्तये || ८ || जलमन्त्रेण संप्रोक्ष्य तत्स्थानं कुम्भवारिभिः । एवं यः कुरुते सम्यक्स तद्दोषात्प्रमुच्यते ॥ ९ ॥
इति शिथिलीजननशान्तिः ।
अथेन्द्रलुप्तशान्तिः ।
श्रीरनिर्वन्धुनाशश्च वित्तहानिर्महद्यशः । बन्धुलाभः पुत्रहानिः स्त्रीचिन्ता महती गदः ॥ १ ॥ पूर्वादीनि फलान्येषामिन्द्रलुप्ते च मस्तके | दन्तच्छेदे काकहृते सरदीपतनेऽपि च ॥ २ ॥ पञ्चत्वम्पल्लवस्वर्णपञ्चामृतफलोदकैः । अभ्यङ्गमन्त्रितैर्मन्त्रैः स्नानाद्दोषं विमुञ्चति || ३ || एवमेवाग्निदाहेपि मस्तके मल
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ज्योतिर्निबन्धः ।
२६१
दूषिते । आशिषो वाचनं कृत्वा ब्राह्मणान्भोजयेच्छुचिः ॥ ४॥ लाभदा कुड्यगोधाऽत्र शुभदा व्यत्यये व्ययः ॥ ५ ॥
इतीन्द्रलुप्तशान्तिः ।
अथ नानाविधोत्पातशान्तिः ।
नारदः – देवता यत्र नृत्यन्ति पतन्ति प्रज्वलन्ति वा । मुहू रुदन्ति गायन्ति पस्वियन्ति हसन्ति च ॥ १ ॥ वमन्त्यग्निं तथा धूमं स्नेहं रक्तं पयो जलम् । अधोमुखाश्च तिष्ठन्ति स्थानात्स्थानं व्रजन्ति वा ॥ २ ॥ एवमाद्याच दृश्यन्ते विकाराः प्रतिमासु च । गन्धर्वनगरं चैव दिवा नक्षत्रदर्शनम् ॥ ३ ॥ महोल्कापतनं काष्ठतृणरक्तमवर्षणम् । गन्धर्वगेहं दिग्धूमं भूमिकम्पं दिवा निशि ॥४॥अनग्नौ च स्फुलिङ्गाः स्युर्ज्वलनं च विनेन्धनम् । निशीन्द्रचापं मण्डूकः शिखरे श्वेतवायसः || ५ || दृश्यन्ते विस्फुलिङ्गाश्च गोगजाश्वोष्टगात्रतः । जन्तवो द्वित्रिशिरसो जायन्ते वा वियोनिषु ॥ ६ ॥ मतिसूर्याश्चतसृषु स्युर्दिक्षु युगपद्रवेः । जम्बूक ग्रामसंवेशः केतूनां च प्रदर्शनम् ॥ ७ ॥ काकानामाकुलं रात्रौ कपोतानां दिवा यदि । अकाले पुष्पिता वृक्षा दृश्यन्ते फलिता यदि ॥ ८ ॥ कार्य तच्छेदनं तत्र ततः शान्तिर्मनीषिभिः । एवमाद्या महोत्पाता बहवः स्थाननाशदाः ॥ ९ ॥ केचिन्मृत्युप्रदाः केचिच्छत्रुभ्यश्च भयमदाः । मध्याद्भयं यशो मृत्युः क्षयः कीर्तिः सुखासुखम् ॥ १० ॥ ऐश्वर्यं धनहानिच मधुच्छत्रं च वल्मि (ल्मी) कम् । देवालये स्वगृहे वा शान्यां पूर्वतोऽपि वा ॥ ११ ॥ कुण्डं लक्षणसंयुक्तं कल्पयेन्मेखलायुतम् । गृह्योक्तविधिना तत्र स्थापयेच्च हुताशनम् || १२ || जुहुयादाज्यभागान्तं पृथगष्टोत्तरं शतम् । यत इन्द्र भयामहे स्वस्तिदाघोरमन्त्रकैः । समिदाज्यचरुत्रीहितिलैर्व्याहृतिभिस्तथा ॥ १३ ॥ कोटिहोमं तदर्थं वा लक्षहोममथापि वा । तथा वित्तानुसारेण तन्न्यूनाधिककल्पना ॥ १४ ॥ एकविंशतिरात्रं वा पक्षं पक्षार्धमेव वा । पञ्चरात्रं त्रिरात्रं वा होमकर्म समारभेत् ।। १५ ।। दक्षिणां च ततो दद्यादाचार्याय कुटुम्बिने । गणेशक्षेत्रपालार्कदुर्गाक्षोण्यङ्गदेवताः ॥ १६ ॥ तासां प्रीत्यै जपः कार्यः शेषं पूर्ववदाचरेत् । ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्यात्पोडशभ्यः स्वशक्तितः ॥ १७ ॥
इति नानाविधोत्पातशान्तिः ।
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२६२
श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथोल्कालक्षणम् । नारदः-स्वर्गच्युतानां रूपाणि यान्युल्कास्तानि वै भुवि । धिष्ण्योल्काविद्युदशनिस्ताराः पञ्चविधाः स्मृताः ॥ १॥ सम्यक् पञ्चविधानं च वक्ष्यते लक्षणं फलम् । पाचयन्ति त्रिभिः पर्धिष्ण्योल्काशनिसंज्ञिताः ॥ २॥ विद्युत्षड्भिरहोभिश्च तारा तद्वत्फलप्रदा । फलपाककरी तारा विष्ण्याख्याऽर्धफलप्रदा ॥३॥ उल्काविद्युदशन्याख्याः संपूर्णफलदा नृणाम् । अश्वेभोष्ट्रपशुनृषु वृक्षक्षोणीषु च क्रमात् ॥४॥ विदारयन्ति(न्ती) पतिता स्वनेन महताऽशनिः । जनथित्री च संत्रासं विद्युद्वयोम्नि ततः स्फुटम् ॥ ५॥ वक्रा विशाला ज्वलिता पतन्ती वनराजिषु । धिष्ण्या सपुच्छा पतति ज्वलिताङ्गारसंनिभा ॥६॥हस्तद्वयप्रमणा सा दृश्यतेऽतिसमीपतः। ताराब्जतनुवच्छुक्ला हस्तदीघोम्बुजारुणा ॥७॥ ऊ यात्यथवा तिर्यगधो वा गमनान्तरे। उल्का शिरोविशाला तु पतन्ती वर्धते त(येत्त) नूम् ।।८॥ दीर्घपुच्छा भवेत्तस्या भेदाः स्युर्वहवस्तथा । पीडाथोष्ट्राहिगोमायुखरगोगजदष्टिकाः॥९॥ कपिगोधाधूमनिभा विविधाः पापदा नृणाम् । अश्वेभचन्द्ररजतवृषहंसध्वजोपमाः॥१०॥ वज्रशवस्वस्तिकाब्जरूपाः शिवसुखाप्रदाः। निपतन्ती स्वराद्वह्नौ(?) राजराष्ट्रक्षयाय च।।११॥यद्यम्बरे निपतति लोकस्याप्यतिविभ्रमम् । यद्यर्केन्दू संस्पृशति तत्तद्भूमिप्रकम्पनम् ॥ १२ ॥ परचक्रागमभयं जनानां क्षुद्भयं जलात् । अर्केन्द्रोरपसव्योल्का पौरेतरविनाशदा ॥ १३ ॥ उदयास्तमयेऽर्केन्द्रोः परतोल्का शुभप्रदा । सितरक्ता सिता पीता सोल्का हन्ति द्विजादितः ॥ १४ ॥ सितोदितोभये पार्थे पुच्छे दिक्षु दिनादिषु । पतितोल्का ऋक्षनिभा विप्रादीनामनिष्टदा ॥ १५ ॥ तारा कुम्भनिभा स्निग्धा भूभुजां तु शुभप्रदा । नीला श्यामाऽरुणा चाग्निवर्णाऽशुभभयप्रदा ॥ १६ ॥ संध्यायां वह्निपीडा च दलिता राज्यनाशनम् । नक्षत्रग्रहभेदे च तद्वर्णानामनिष्टदा ॥१७॥ चरधिष्ण्येषु पतिता स्त्रीणां चोल्का भयप्रदा । क्षिप्रभेषु विशां पीडा भूपतीनां स्थिरेषु च ॥ १८ ॥ मृदुभेषु द्विजातीनां दारूणां दारुणेषु च । उग्रभेषु च शूद्राणां परेषां मिश्रभेषु च ॥ १९ ॥ राज्यराष्ट्रविनाशाय प्रासादप्रतिमासु च । गृहे तत्स्वामिनां पीडा नृपाणां पर्वतेषु च ॥२०॥ दिक्षु तत्तद्दिगीशानां कर्षकाणां स्थलेषु च । प्राकारे परिखे वाऽपि द्वारि तत्पौ(त्पु)रमध्यमे ॥ २१ ॥ परचक्रागमभयं राज्यपौरजनक्षयः । गोष्ठे गोस्वामिनां पीडा शिल्पकानां जलेषु च ॥ २२ ॥ राजहन्त्री तन्तुनिभा इन्द्रध्वजसमाऽथवा । प्रतीपगा राजपत्नी तीर्थगा च चमूपतिम् ॥ २३ ॥ अधोमुखी नृपं हन्ति ब्राह्मणानूर्ध्वगा तथा । वृक्षोपमा पुच्छनिभा जनसंक्षोभकारिणी ॥ २४ ॥ प्रसर्पिणी या सर्पव
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ज्योतिर्निवन्धः । त्साऽङ्गनानामनिष्टदा । वर्तुलोल्का पुरं हन्ति च्छत्राकारा पुरोहितम् ॥ २५ ॥ वंशगुल्मलताकारा राष्ट्रविद्रावणी तथा । सूकरव्यालसदृशा खण्डाकारा च पापदा । इन्द्रचापनिभा राज्यं खे नता हन्ति तोयदम् ॥ २६ ॥
इत्युल्कालक्षणम् ।
अथ परिवेषलक्षणम् । नारदः-किरणा चायुनिहता मूर्छिता मण्डलीकृताः । नानावर्णाकृतयस्ते परिवेषाः शशीनयोः ॥ १॥ ते रक्तनीलपाण्डुरकपोताभ्राभकापिलाः । सपीतशुक्लवर्णाश्च प्रागादिदिक्षु वृष्टिदाः ॥ २ ॥ मुहुर्मुहुः प्रलीयन्ते न संपूर्णफलप्रदाः। शुभास्त्वविकलाः स्निग्धाः क्षीरतलाम्बुसंनिभाः ॥ ३॥ चापशृङ्गाटकपृथुक्षतजारुणभाः शुभाः । अनेकवृत्तवर्णश्च परिवेपो नपान्तकृत् ॥ ४ ॥ अशोकपुष्पसंकाशो धूमाभः कलहप्रियः । मयूरपत्रसंकाशः पीतवर्णोऽतिवृष्टिकृत् ॥ ५॥ अहर्निशं प्रतिदिनं चन्द्रार्कावरुणौ यदा । परिविष्टौ नृपवधं कुरुतो लोहितौ यदा ॥ ६ ॥ द्विमण्डलश्चमूनाथनृपनो यस्त्रिमण्डलः । परिवेषगतः सौरिः क्षुद्रधान्यविनाशकृत् ॥ ७ ॥ रणकृभूमिजो जीवः सर्वेषामामयप्रदः । ज्ञः सस्यहानिदः शुक्रा नृपाणां कलहप्रदः ॥८॥ परिवेषगतः केतुर्दुर्भिक्षकलहप्रदः। पीडां नृपवधं राहुर्गर्भच्छेदं करोति च ॥ ९॥ द्वौ ग्रहौ परिवेषस्थौ क्षितीशकलहप्रदौ । कुर्वन्ति कलहानर्थे परिवेषगतात्रयः ॥१०॥ चत्वारः परिवेषस्था नृपस्य मरणप्रदाः। परिवेषगताः पञ्च जलप्रलयदा ग्रहाः ॥ ११ ॥ एवं वक्रग्रहास्तेषामेवं फलनिरूपणम् । नपहानिः कुजातीनां परिवेषे पृथक् फलम् ॥ १२ ॥ परिवषेऽपि धिष्ण्यानां फलमेवं द्वयोस्त्रिषु । परिवेषो द्विजादीनां नेष्टः प्रतिपदादिषु ॥ १३ ॥ पश्चन्यादिषु तिसृषु ह्यशुभो नृपतेस्तदा । अष्टम्यां युवराजस्य परिवेषोऽप्यनिष्टदः ॥ १४ ॥ ततस्तिसृषु तिथिषु नपाणामशुभप्रदः। पुरोहितस्य द्वादश्यां विनाशाय भवेदसौ ॥१५॥ सैन्यक्षोभस्त्रयोदश्यां नृपरोधो ह्यथापि वा । राजपत्न्याश्चतुर्दश्यं परिवेषो गदप्रदः॥१६॥ परिवेषः पञ्चदश्यां क्षितीशानामनिष्टदः। परिवेपस्य मध्ये वा बाह्ये रेखा भवेद्यदि॥१७॥स्थायिनां मध्यमा नेष्टा यायिनां पार्श्वसंस्थिता । प्रावड़तौ च शरदि परिवेषो जलप्रदः ॥ १८ ॥ प्रायेणान्येषु ऋतुषु तदुक्तफलदायिनः ॥ १९ ॥
इति परिवेषलक्षणम् ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो---
अथेन्द्रचापलक्षणम् ।
नानावर्णाशवो भानोः सा वायुविघट्टिताः । सद्वयोनि चापसंस्थानमिन्द्रचापं प्रचक्षते ॥ १ ॥ अथवा शेषनागेन्द्रदीर्घनिश्वास संभवम् । विदिक्षुजं दिक्षुजं च तद्दिङ्नृपविनाशनम् || २ || पीतपाटलनीलैव वह्निशस्त्रास्त्रभीतिदम् । वृक्षजं व्याधिजं चापं भूमिजं सस्यनाशनम् || ३ || अवृष्टिदं जनोद्भूतं वल्मीके युद्धभीतिदम् । अवृष्टौ वृष्टिदं त्वैन्द्रयां दिशि दृष्टाव वृष्टिदम् ॥ ४ ॥ सदैव वृष्टिदं पचादिशोरितरयोस्तथा । रात्राविन्द्रधनुः प्राच्यां नृपहानिर्भवेद्यदि ॥ ५ ॥ याभ्यां सेनापतिं हन्ति पश्चिमे नायकोत्तमम् । मन्त्रिणं सौम्यदिग्भागे सचिवं कोणसंभवम् || ६ || रात्राविन्द्रधनुः शुक्रवर्णाभं विमपूर्वकम् । हन्ति यदिग्भवं स्पष्टं तद्दिगशिनृपोत्तमम् ॥ ७ ॥ अवनगाढमच्छिन्नं प्रतिकूलं धनुर्द्वयम् । नृपान्तकयदि भवेदानुकूल्यं च तच्छुभम् ॥ ८ ॥
इतीन्द्रचापलक्षणम् ।
२६४
अथ गन्धर्वनगरलक्षणम् ।
नारद: – गन्धर्वनगरं दिक्षु दृश्यतेऽनिष्टदं क्रमात् । भूभुजां च चमूनाथसेनापतिपुरोधसाम् || १ || सितरक्तपीतकृष्णं विप्रादीनामनिष्टदम् । रात्रौ गन्धर्वनगरं धराधीशविनाशनम् ॥ २ ॥ इन्द्रचापानिधूमाभं सर्वेषामशुभप्रदम् । चित्रवर्णं चित्ररूपमाकारध्वजतोरणम् । दृश्यते चेन्महायुद्धमन्योन्यं धरणीभुजाम् ॥ ३ ॥
इति गन्धर्वनगरलक्षणम् ।
अथ प्रतिसूर्यलक्षणम् ।
नारद: - प्रतिसूर्यः सूर्यनिभः स्निग्धः पार्श्वे शुभप्रदः । वैदूर्यसदृशः स्वच्छः शुक्लो वाऽपि सुभिक्षकृत् || १ || पीताभी व्याधिदः कृष्णो मृत्युदो युद्धदोऽरुणः । माला चेत्प्रतिसूर्याणां शश्वचोरभयप्रदा ॥ २ ॥ जलदोदकुमतिसूर्यो भानोर्याम्येऽनिलप्रदः । उभयस्थोऽम्बुभयदो नृपहोपयेधो नृहा || ३ || यदा भवन्ति तीक्ष्णांशोः प्रतिसूर्याः समन्ततः । जगद्विनाशमाझोति तथा शीतद्युतेरपि ॥ ४ ॥ इति प्रतिसूर्यलक्षणम् ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ निर्घातलक्षणम् ।
नारद: - वायुनाऽभिहतो वानस्पति क्षिती । यदा दीप्तः स्वगुरुतः' स निर्वातोऽतिदोषकृत् ॥ १ ॥ निवोदये नेटः क्षितीशानां विनाशकः । आयामाला पौरजन शूद्राणां चैव हानिदः || २ || आमध्याह्नात्तु विप्राणां नेष्टो राजोपजीविनाम् । तृतीययामे वैश्यानां जलजानामनिष्टः || ३ || चतुर्थे चार्थनाशाय संध्यायां हन्ति संकरान् । आये यामे सस्यहानिर्द्वितीये तु पिशाचकान् || ४ || हन्त्यर्धरात्रे तुरगांस्तृतीये शिल्पि लेखकान् । चतुर्थ पामे निर्वातः पतन्हन्ति तरूञ्जनान् || ५ || भीमजर्जर शब्दः स यत्र तत्र दिगीश्वरम् ॥ ६ ॥ इति निर्घातलक्षणम् ।
अथ दिग्दाहलक्षणम् ।
नारद: – दिग्दाहः पीतवर्णवेशितीयानां भयप्रदः । देशनाशायात्रिर्णोऽरुनिलदः ॥ १ ॥ धूम्रः सस्यविनाशाय कृष्णः शस्त्रभयप्रदः । प्राग्दाहः क्षत्रियाणां च नरेशानामनिष्टः || २ || आग्नेय्यां युवराजस्य शिल्पिनामशुभप्रदः । पीडां व्रजन्ति यान्यायां मूर्खवैश्यनराधमाः || ३ || नैर्ऋत्यां दिशि चोराश्च पुनर्भूप्रमदागणाः । प्रतीच्यां कृषिकारथ वायव्यां पशुजातयः ॥ ४ ॥ सौम्ये विमदिगीशाथ वैश्याः पाखण्डिनोऽखिलाः । निर्मलं स्वमृक्षगणं प्रदक्षिणगतोऽनिलः || ५ || दिग्दाहः स्वर्णवर्णाभो लोकानां मङ्गलप्रदः || ६ || इति दिग्दाहलक्षणम् ।
२६५
अथ रजोलक्षणम् ।
नारद: -- सितेन रजसा बना दिग्ग्रामवनपर्वताः । यदा तदा भवन्त्येते निधनं यान्ति भूमिपाः || १ || धूमः समुद्भवेयस्यां तस्यां दिशि विनाशनम् । तत्रतत्रस्थजन्तूनां हानिदः शस्त्रकोषः || २ || मन्त्रिजनपदानां च व्याविदं चासितं रजः । अकोंदये विजृम्भेत गगनं स्थगयेदपि || ३ || दिनद्वयं च त्रिदिनमत्युग्रभयदं रजः । रजो भवेदे करावं नृपं हन्ति निरन्तरम् || ४ || परचक्रागमो न स्याद्विरात्रं सततं यदि । क्षामं डमरमात स्त्रिरात्रं सततं यदि ||५|| ईतिर्दुभिक्षमतुलं यदि रात्रिचतुष्टयम् । निरन्तरं पञ्चरात्रं महाराजविनाशनम् । ऋतावन्यत्र शिशिरात्संपूर्ण फलदं रजः || ६ |
इति रजोलक्षणम् ।
३४
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२६६
श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ भूकम्पलक्षणम् । भूभारखिन्ननागेन्द्रशेषविश्रामसंभवः । भूकम्पः सोऽपि जगतामशुभाय भवेत्तदा ॥ १ ॥ यामक्रमेण भूकम्पो द्विजातीनामनिष्टदः । अनिष्टदः क्षितीशानां संध्ययोरुभयोरपि ॥२॥ अर्यमाद्यानि चत्वारि दरेन्द्रदितिभानि च । वायव्यमण्डलं त्वेतदस्मिन्कम्पो भवेद्यदि ॥ ३ ॥ नपसस्यवाणिग्वेश्याशिल्पिवृष्टिविनाशनः । पुष्यद्विदैवभरणीपितृभाग्याजपाग्निभम् ॥ ४ ॥ आग्नेयमण्डलं त्वेतदस्मिन्कम्पो भवेद्यदि । नपवृष्टयर्वनाशाय हन्ति शाबरढङ्कणान् ॥ ५॥ आभि. निद्धातृवैश्वेन्द्रवसुवैष्णवमित्रभम् । वासवं मण्डलं त्वेतदस्मिन्कम्पो भवेद्यदि।।६।। राजनाशाय कोपाय हन्ति गुर्जरदर्दुरान् । मूलाहिर्बुध्न्यवरुणपोष्णाप्यााहिभानि च ॥ ७ ॥ वारुणं मण्डलं त्वेतदस्मिन्कम्पो भवेद्यदि । राजनाशकरो हन्ति पौण्डूचीनपुलिन्दकान् ॥ ८॥ प्रायेण निखिलोत्पाताः क्षितीशानामनिष्टदाः । पद्भिर्मासैश्च भूकम्पो द्वाभ्यां दाहः फलप्रदः । अनुक्तं पश्चभिर्मासैस्तदानीं फलदं रजः ॥९॥
इति भूकम्पलक्षणम् ।
--
-
अथ कदलीदुष्टप्रसवशानिमः। उमोवाच --प्रथमः प्रसवो देव रम्भाया दृश्यते यदा । दक्षिणाभिमुखी दृष्टो विदधाति फलं स किम् । भूपाले वा कृषाणे वा फलं कस्मिंस्तु जायते॥१॥ श्रीमहेश्वर उवाच-यदा याम्यमुखा देवि कदली तु प्रसूयते । तदा ग्रामपते शं विदधाति न संशयः ॥ २ ॥ एवं विघ्ने समुत्पन्ने विधानं तत्र कारयेत् । सूतकी चोपचर्या सा कदली हितमिच्छता ॥ ३ ॥ दर्शे तु जागरं कार्य होमं कुर्यात्ततः परन् । कदलैहवनं कार्यमन्यैर्वा समुदाहृतैः ॥ ४ ॥ सहस्रं प्रयतो वाग्मी जपञ्छान्तीरनेकशः । विष्णुस्तु देवता तत्र तल्लिङ्गो मन्त्र उच्यते ॥५॥ विप्रेभ्यः सप्त धान्यानि देयानि विधिवत्ततः । दद्यात्तां कदली राजा विपर्याय धीमो ॥ ६ ॥ एवं कृते विधाने च विघ्नशान्तिस्तु जायते । पूजिते विप्रवर्ये च को सुखमवाप्नुयात् ॥ ७॥
इति कदलीदुष्टप्रसवशान्तिः।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथाङ्गस्फुरणफलम् ।
मूर्ध्नि स्फुरत्याशु पृथिव्यावाप्तिः स्थानप्रवृद्धिश्व ललाटदेशे । भ्रूघाणमध्ये प्रियसंगमः स्यान्नासाक्षिमध्ये च सहायलाभः ॥ १ ॥ दृगन्तमध्यस्फुरणेऽथ संपत्सोत्कण्ठता स्यात्स्फुरिते गर्थे । जयो दृशोऽधःस्फुरणे रणे स्यात्मियश्रुतिः प्रस्फुरिते च कर्णे || २ || योषित्समृद्धिः स्फुरिते च गण्डे घ्राणे तु सौख्यं हि भवेत्सदैव । भोज्येष्टसङ्गावधरोष्ठयोश्च स्कन्धे गले भोगविवृद्धिलाभौ || ३ || स्पन्दो भुजस्येष्टसमागमाय स्पन्दः करे स्याद्भविणाप्तिहेतुः । स्पन्दश्च पृष्टस्य पराजयाय स्पन्दो जयायोरसि मानवानाम् || ४ || पार्श्वप्रकम्पे भवति प्रमोदः स्तनप्रकम्पे विषयस्य लाभः । कटिप्रकम्पेऽपि बलप्रमोदो नाभिप्रकम्पे निजदेशनाशः ।। ५ ।। धनर्धिरत्र प्रभवेत्प्रकम्पे दुःखं धनान्तो हृदयस्य चान्ते । स्फिक्या ( चः ) प्रकम्पे धनवाहनाप्तिर्वराङ्गकम्पे वरयोषिदाप्तिः ।। ६ ।। मुष्कप्रकम्पे तनयस्य जन्म बस्तौ प्रकम्पे युवतिप्रवृद्धिः । दोषः प्रकम्पे पुनरूरुपृष्ठ उरःपुरः स्यात्समुदायलाभः ॥ ७ ॥ स्याज्जानुकम्पेऽरिवरेण संधिर्जङ्घाप्रकम्पेऽपि च लाभनाशः | स्थानाप्तिरूर्ध्व चरणस्य कम्पे यात्रा सलाभाऽङ्घ्रितलकम् || ८ || पुंसां यदा दक्षिणदेहभागे स्त्रीणां तु वामावयवेषु जातः । स्पन्दः फलानि प्रदिशत्यवश्यं निहन्ति चोक्ताङ्गविपर्ययेण ॥। ९ ॥ व्रणपिटक - तिलकलाञ्छन मत्स्यादयस्त्वेवमुपदिष्टाः । कण्डूयनं नरपति (ते) दक्षिणपादे जयायेति || १० || चिन्तामणौ— अङ्गस्फुरणवज्ज्ञेयमावतीनां फलं : बुधैः । बह्वावर्त - शिराः प्रायो निःस्वश्वाल्पायुरन्यथा ॥ ११ ॥ आवर्ता वामभागे तु स्त्रीणां संहारवृत्तयः । न शुभास्तु शुभा भाले दक्षिणाङ्गे तु सृष्टितः ॥ १२ ॥
इत्यङ्ग-स्फुरणफलम् ।
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अथ सोवृष्टिलक्षणम् ।
वर्षा शशिन्या राशिगे लग्नगेऽपि वा । केन्द्रगे वा शुक्लपक्षे चातिवृष्टिः शुभेक्षते ॥ १ ॥ अल्पवृष्टिः पापदृष्टे मावृट्काले चिराद्भवेत् । चन्द्रवद्भार्गवे सर्वमेवंविधगुणान्विते ॥ २ ॥ प्रावृषीन्दुः सितात्सप्तराशिगः शुभवीक्षितः । मन्दात्रिकोण सप्तस्थो यदि वा वृष्टिकृद्भवेत् || ३ || सद्योवृष्टिकरः शुक्रो यदा बुधसमीपगः । तयोर्मध्यगते भानौ तदा वृष्टिविनाशनम् ॥ ४ ॥ मघादिपञ्चधिष्ण्यस्थः पूर्वे स्वातित्रये परे । प्रवर्षणं भृगुः कुर्याद्विपरीते न वर्षणम् ॥ ५ ॥
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श्री शिवराजविनिर्मितो
पुरतः पृष्ठतो मानोग्रहा यदि सभीपगाः । तदा वृष्टिं प्रकुर्वन्ति नचेत्ते प्रतिलोमगाः ||६|| वसिष्टः-अग्रगाः पृष्ठगा वाऽपि खेटाः संनिहिता खेः । तदा वृष्टिं प्रकुर्वन्ति न चेन चादिराशिगाः ॥ ७ ॥ सौम्यमार्गगतः शुक्रो वृष्टिकृन्न तु याम्यगः । उदयास्तेषु वृष्टिः स्याद्भानोरार्द्राप्रवेशनं ॥ ८ ॥ विपत्तिः सस्यहानिः स्यादहन्याप्रवेशने । संध्ययोः सस्यवृद्धिः स्यात्सर्वसंपन्नृणां निशि ॥९॥ स्तोकवृष्टिरनघः(र्थः) स्यादवृष्टिः सस्यसंपदः । आर्द्रादये प्रथिने चेद्भवेदीतिर्न संशयः ॥ १० ॥ चन्द्रेज्ये ज्ञेऽथवा शुक्रे केन्द्रे त्वतिर्विनश्यति । पूर्वापाठां गतो भानुर्जीमूतैः परिवे ष्टितः || ११|| वत्यार्द्रादिमूलान्तं प्रत्यक्षं प्रत्यहं तथा । वृष्टिश्वेत्पौष्ण तस्माद्दशक्षेषु न वर्षति || १२ || सिंहे भिन्ने कुतो वृष्टिरभिन्ने कर्कटे कुतः । कन्योदये प्रभिन्ने चेत्सर्वदा वृष्टिरुत्तमा || १३ || अहिर्बुध्न्ये पूर्वसस्यं परसस्या च रेवती । भरणी सर्वसस्या च सर्वनाशाय चाश्विनी || १४ || वष्टि:- दस्रादिकर्क्षद्वयगे दिनेशे वृष्टिर्भवेत्क्षेमकरी जनानम् । वर्क्षसंस्थे यदि वृष्टिरीतिर्ब्राह्मय त्वतुलं सुभिक्षम् ॥ १५॥ कश्यपः: -आर्द्राप्रवेशे वृष्टिः स्यात्सार्थमा समर्पणम् ॥ १६ ॥ वसिष्टः- प्रवेशकाले यदि रौद्रभस्य वृष्टिर्भवेदीतिरनर्घता च । शेषेषु पादत्रितयेषु भीतिरत्यल्पवृष्टिर्महती गदा वा ॥ १७ ॥ नारदः - गुरोः सप्तमराशिस्थः प्रत्यग्रो भृगुजो यदा । तदाऽतिवर्पणं भूरि प्रावृट्काले बलोज्झिते || १८ || आसन्नम (न्ना द्य) कशशिनोः परिवेषगतोत्तरां । विपुला पूर्णमण्डूकस्वना वृष्टिर्भवेत्तदा ॥ १९ ॥ यदा प्रत्युद्गता मैवाः स्वसझोपारी संस्थिताः । पतन्ति दक्षिणस्था वा भवेद्दृष्टिस्तदाऽचिरात् ॥ २० ॥ नखैलिखन्तों मार्जाराचावनिसंयुता । रथ्यायां सेतुबन्धाः स्वलानां वृष्टिहेतवः ॥ २१ ॥ पिपीलिकाश्रेष्यच्छिन्ना खद्योता बहवस्तदा । द्रुमाधिरोहः सर्पाणां प्रतीन्दुर्दृष्टिसूचकाः || २२ || उदयास्तमये काले विवकोऽथवा शशी । मधुवर्णोऽतिवायुश्चेदतिवृष्टिर्भवेत्सदा ॥ २३ ॥ बरह:- आईद्रव्यं स्पृशति यदि वा वारि तत्संज्ञकं वा तोयासो भवति यदि वा तोयकार्योन्मुखो वा । प्रष्टा वाच्यः सलिलमचिरादस्ति निःसंशयेन पृच्छाकाले सलिलमिति वा श्रूयते यत्र शब्दः || २४ || विरसमुदकं गोनेत्राभं वियद्विमला दिशो लवणविकृतिः काकाण्डाभं यदा च भवेन्नभः । पवनविगमः पोष्णूयन्ते झपाः स्थलगामिनो रसनमसकृन्मण्डूकानां जलागमहेतवः || २५ || गिरयोऽञ्जनचूर्णसंनिभा यदि वा बापनिरुद्धकन्दराः । कृकवाकुविलोचनोपमाः परिवेषाः शशिनव वृष्टिः || २६ || प्रायो ग्रहाणामुदयास्तकाले समागमे मण्डलसंक्रमे च । पक्षक्षये तीक्ष्णकरायनान्ते वृष्टिगते नियमेन चाद्रम् ॥ २७ ॥ समागमे १६. 'नाम् प्रवक्षं । २ रू. दिलापूर्ण ।
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ज्योतिर्निवन्धः ।
२६९
पतति जलं इशुक्रयो जीवयोर्गुरुसितयोश्च संगमे । यमारयोः पवनहुताशजं भयं ह्यदृष्टयोरसहितयोश्च सद्ग्रहैः ।। २८ ।।
इति सयोवृष्टिलक्षणम् ।
अथ सप्तनाडीचक्रम् |
वि
क्र | रो | मृ । आ पु | पु | आ | म | पू | उ ह चि स्वा म । ज्ये | मू | पू | उ | अथ | ध श | | उ | रे | अ भ./ अथातः संप्रवक्ष्यामि यचक्रं सप्तनाडिकम् । येन विज्ञातमात्रेण वृष्टिं जानन्ति साधकाः || १ | कृत्तिकादि लिखेद्धानि साभिजिति (न्ति) क्रमेण च । सप्तनाडीव्यधस्तत्र कर्तव्यः पन्नगाकृतिः || २ || ताराचतुष्के वेधेन नाज्येकैका प्रजायते । तासां नामान्यहं वक्ष्ये तथा चैव फलानि च ॥ ३ ॥ कृत्तिका च विशाखा च मैत्राख्यं भरणी तथा । ऊर्ध्वाख्या शनिनाडी सा चण्डवाताभिधा मता || ४ || रोहिणी स्वातिज्र्ज्येष्ठ। विर्द्वितीया नाडिका मता । आदित्यप्रभवा नाडी वायुनानी तथैव च ॥ ५॥ सौम्यं चित्रा तथा मूलं पौष्ण चतुर्थकम् । तृतीयाऽङ्गारका नाडी दहनाख्या तथैव च ॥ ६ ॥ रौद्रं हस्तस्तथा पूर्वाषाढा भाद्रपदोत्तरा । चतुर्थी जीवनाडी सा सौम्यनाडी प्रकीर्तिता ॥ ७ ॥ पुनर्वसूत्तरा फल्गुन्युत्तराषाढतारका | पूर्वी भद्रा च शुक्रेशा पञ्चमी नीरनाडिका ॥ ८ ॥ पुण्यश्च फल्गुनी पूर्वा अभिजिच्छततारका । षष्टी नाडी च विज्ञेया बुधेशा जलनाडिका || ९ || आश्लेषा च मघा कर्णो घनिष्ठाभं तथैव च । अमृताख्या हिसा चान्द्री सप्तमी सा रसातला || १० || मध्यमार्गस्थिता सौम्या नाडी तस्याग्रपृष्ठतः । सौन्ययान्यगतं ज्ञेयं नाडिकानां त्रिकं त्रिकम् ॥ ११ ॥ क्रूरा यान्यगता नाड्यः सौभ्याः सौम्यदिगाश्रिताः । मध्यनाडी च मध्यस्था ग्रहरूपफलप्रदा || १२ || एकनाडीगता यावा ग्रहाः क्रूराः शुभा यदि । ततो नाडीफलं वाच्यं शुभं वा यदि वाऽशुभम् || १३ || ग्रहाः कुर्युर्महावातं महावाता - ख्यनाडिकाः । वायुनाडीगता वायुं दहन्यां दागा यदि || १४ || सौन्यनाडीगता मध्या नीरस्था मेघवाहकाः । जलायां वृष्टिदा चन्द्रनाडीगास्तेऽतिवृष्टिदाः || १५ || एकोऽप्येतत्फलं धत्ते खनाडीसंस्थितो ग्रहः । भूसुतः सर्वनाडीषु धत्ते नाडीभवं फलम् ॥ १६ ॥ प्रावृट्काले समायाते रौद्रावृक्षगते रवौ । नाडीने समायोगे जलयोगान्वदाम्यहम् ॥ १७ ॥ यत्र नाडीस्थितश्चन्द्रस्त
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२७०
श्रीशिवराजविनिर्मितोत्रस्थाः खेचरा यदि । क्रूरसौम्यविमिश्राश्च तद्दिने वृष्टिरुत्तमा ॥ १८ ॥ एकः तु समायोगो जायते यदि खेचरैः। तत्र काले महावृष्टिवित्तस्यांशगः शशी ॥१९॥ केवलैः सौम्यपापैर्वा ग्रहैर्विद्धो यदा शशी । तदाऽतितुच्छं पानीयं दुर्दिनं भवति ध्रुवम् ॥ २० ॥ यस्य ग्रहस्य नाडीस्थचन्द्रमास्तद्ग्रहेण च । दृष्टो युक्तः करोत्यम्बु यदि क्षीणो न जायते ॥२१॥ पीयूषनाडीगश्चन्द्रस्तत्र खेटाः शुभाशुभाः। त्रिचतुष्पश्च पानीयं दिनान्येकत्रिसप्तकम् ॥ २२ ॥ एवं जलाख्य नाडीस्थे चन्द्रे मिश्रग्रहान्विते । दिनादिवसाः पश्च दिनानि जायते जलम् ॥ २३ ॥ नीरनाडीस्थिते चन्द्रे तत्रस्थैः पूर्ववद्ग्रहैः । याम दिनार्धकं त्रीणि दिनानि जायते जलम् ॥ २४ ॥ अमृतादित्रये यत्र भवन्ति सर्वखेचराः । तत्र वृष्टिः क्रमाज्ज्ञेया धृत्यर्करसवासरः ॥ २५ ॥ सौम्यनाडीगताः सर्वे वृष्टिदास्ते दिनत्रयम् । शेषनाडी महावाता दुष्टवृष्टिप्रदा ग्रहाः ॥ २६ ॥ निजेला जलदा नाडी भवेद्योगे शुभाधिके । क्रूराधिकसमो योगो जलदाऽप्यम्बुदाहिका ॥२७॥ याम्यनाडीस्थिताः क्रूरा अनावृष्टिप्रसूचकाः । शुभयुक्ता जलांशस्थास्त्वतिवृष्टिप्रदा ग्रहाः ॥ २८ ॥ एकनाडीसमारूढी चन्द्रमोधरणीसुतौ । यदि तत्र भवेज्जीवस्तदा जलमयी मही ॥ २९ ॥ बुधशुक्रौ यदैकत्र गुरुणा च समन्वितौ । चन्द्रयोगे तदा काले जायते वृष्टिरुत्तमा ॥ ३० ॥ जलयोगे समायाते तदा चन्द्रसितौ ग्रहौ । कूरेदृष्टौ युतौ वाऽपि तदा मेघोऽल्पवृष्टिदः ॥३१॥ उदयास्तमये मार्गे वक्रे युक्तौ च ( क्ताश्च ) संक्रमे । जलनाडीगताः खेटा महावृष्टिप्रदा मताः ॥३२॥
इति सप्तनाडीचक्रम् ।
अथ सस्योत्पत्तिविचारः । . वृश्चिकवृषप्रवेशे भानोर्ये बादरायणप्रोक्ताः। ग्रीष्मशरत्सस्यानां सदसद्योगाः कृतास्त इमे ॥ १॥ भानोरलिप्रवेशे केन्द्रैस्तस्माच्छुभग्रहाक्रान्तः । बलवद्भिः सौम्यैर्वा निरीक्षितैष्मिका वृद्धिः ॥ २॥ अष्टमराशिगतेऽर्के गुरुशशिनोः कुम्भसिंहसंस्थितयोः । सिंहघटस्थितयोर्वा निष्पत्तिग्रीष्मसस्यस्य ॥ ३ ॥ अर्कात्सिते द्वितीये बुधेऽथवा युगपदेव संस्थितयोः । व्ययगतयोर्वा तद्वन्निष्पत्तिरतीव गुरुदृष्टया ॥ ४ ॥ शुभमध्येऽलिनि सूर्याद्गुरुशशिनोः सप्तमे परा संपन् । अल्पादिस्थे सवितरि गुरौ द्वितीयेऽर्धनिष्पत्तिः ॥ ५॥ लाभहिबुकार्थयुक्तैः सूर्यादलिगात्सितेन्दुशशिपुत्रैः । सस्यस्य परा संपत्कर्मणि जीवेऽथवा चाऽऽद्या ॥६॥
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ज्योतिनिबन्धः।
२७१ कुम्भे गुरुवि शशी सूर्योलिमुखे कुजार्कजौ मकरे। निष्पत्तिरास्ति महती पश्चात्परचक्ररोगभयम् ॥ ७॥ मध्ये पापग्रहयोः सूर्यः सस्यं विनाशयत्यलिगः । पापः सप्तमराशौ जातं जातं विनाशयति ॥ ८ ॥ अर्थस्थाने क्रूरः सौम्यैरनीक्षितः प्रथमजातम् । सस्यं निहन्ति पश्चादुप्तं निष्पादयेद्व्यक्तम् ॥ ९ ॥ जामित्रकेन्द्रसंस्थौ क्रूरौ सूर्यस्य वृश्चिकस्थस्य । सस्यविपत्तिं कुरुतः सौम्यैदृष्टौ न सर्वत्र ।। १० ॥ वृश्चिकसंस्थादर्कात्सप्तमषष्ठापगौ यदा क्रूरौ । भवति तदा निष्पत्तिः सस्यानामपरिहानिः ॥ ११ ॥ विधिनाऽनेनैव रविवृषप्रवेशे शरत्समुत्थानाम् । विज्ञेयः सस्यानां नाशाय शिवाय वा तज्ज्ञैः ॥१२॥ त्रिषु मेषादिपु सूर्यः सौम्ययुतो वीक्षितोऽपि वा विचरन् । ग्रेष्मिकसस्यं कुरुते समर्घमुभयोपयोगं च ॥१३॥ कार्मुकमृगघटसंस्थः शारदसस्यस्य तद्वदेव रविः । संग्रहकाले ज्ञेयो विपर्ययः क्रूरदृग्योगात् ॥ १४ ॥
इति सस्योत्पत्तिविचारः। इति शूरमहाउश्रीशिवराजविनिर्मिते । ज्योतिर्निबन्धसर्वस्वे
शान्त्युत्पाताः समीरिताः॥
अथ जातकाध्यायः ।
तत्र राशिभेदाः। अथानुभवसंसिद्धं कथ्यते जन्मजं फलम् । गर्गानुकृतशास्त्रानुसारं प्रीतिकरं विदाम् ॥ १ ॥ होरामकरन्दे-निजानि भाग्यान्यवगन्तुमुच्चैरापत्पयोराशिमपि प्रतर्तुम् । द्रव्यं तथोपायितुं जनानां होरां विना नान्य इहास्त्युपायः ॥ २ ॥ वर्णावली या लिखिता विधात्रा ललाटपट्टे भुवि मानवानाम् । होरादृशा निर्मलया यथावत्तां दैवविद्वाचयतीह नान्यः ॥३॥ यदन्यजन्मन्यशुभं शुभं वा कर्मार्जितं तस्य विपक्तिमेतत् । व्यनक्ति शास्त्रं हि दशाक्रमेण घटादिजातं तमसीव दीपः ॥ ४ ॥ लघुजातके - यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः प्राप्तिम् । व्यञ्जयति शास्त्रमेतत्तमसि द्रव्याणि दीप इव ॥ ५॥ यवनजातकेया पूर्वकर्मप्रभवस्य धात्री धात्रा ललाटे लिखिता प्रशस्तिः। तां शास्त्रमेतत्मकटी विधत्ते दीपो यथा वस्तु घनेऽन्धकारे ॥ ६ ॥ बृहज्जातके - मत्स्यो घटी नृयुगलं सगदं सवीणं चापी नरोऽश्वजवनो मकरो मृगास्यः । तौली च सस्यदहना प्लवगा च कन्या शेषाः स्वनामसदृशाः समसंचराः स्युः ॥ ७ ॥ लघुजातके-अरुणसितहरितपाटलपाण्डुविचित्राः सितेतरपिशङ्गौ । पिङ्गलकबुरवभ्रुकमलिना रुचयो यथासंख्यम् ॥ ८॥ शीर्षमुखबाहुहृदयोदराणि कटिबस्तिगु.
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२७२
श्रीशिवराजविनिर्मितो
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ह्यसंज्ञानि । ऊरू जानू जङ्घे चरणाविति राशयोऽजाद्याः ॥ ९ ॥ पुंस्त्रीक्रूराक्रूरचरस्थिरद्विस्वभावसंज्ञाश्च । अजवपमिथुन कुलीराः पञ्चमनवमैः सहेन्द्रायाः || १० || चत्वारः सिंहतः कुम्भो युग्मं शीदिया इमे । शेषाः पृष्ठोदया ज्ञेया मीन एवोभयोदयः ॥ ११ ॥ जातकतिल - निशावला गोजधनुर्मृगयुग्माख्यकर्कणः । त एव मिथुनं मुक्त्वा ग्रहाः पृष्ठोदयाभिधाः || १२ || मेपायाच त्वारः सन्विमकराः क्षपावला ज्ञेयाः । पृष्ठोदया विमिथुनाः शिरसाऽन्ये शुभयतो मीनः ॥ १३ ॥ सिंहन्यातुलकुम्भवृथिका क्लाह्वयाः । शीर्षोदयाः सयुमास्ते मीन एवोयोदयः ॥ १४ ॥ लघुजातके - अजनुपभमृगाङ्गनाक र्किमीनवणिजकेविनाच्चाः । दश १० शिल्प ३ ष्टाविंशति २८ तिथी १५ न्द्रिय ५ त्रिधन २७ विंशेषु २० ॥ १५ ॥ जातकोत्तने - उ छतः समं नीवं प्रोक्तांशैः परनीचता । इह कार्यः सायनांशैः खेचरैः फलनिर्णयः ॥ १६ ॥ स्वामिनो मेषपूर्वाणां भीमः शुक्रो बुधः शशी । सूर्यो बुधः सितो भौमो गुरुर्मन्दः शनिर्गुरुः ॥ १७ ॥ सपञ्चनवमो मेष मेषादिर्मकरस्तथा । नकादिः कर्कटायथ कर्कितौली तुलादिकः || १८ || जातकतिलके - वृक्कुम्भालिसिंहाया वृवादिषु नवांशकाः । इत्येतन्मतमेवात्र प्रमाणं फलदर्शनात् ||१९|| नवांशराश्योरेकत्वे शुभो वर्गोत्तमाभिः । तत्स्थो ग्रहो नरं कुर्यात्स्वफलेन तिविश्रुतम् ॥ २० ॥ स्वगृहोच्च त्रिकोणानामेकमे भागकल्पना | स्वबुद्धया कैविदुक्ता या न सा पूर्वभाषिता ॥ २१ ॥ गृहं होरात्रिभागच नवांशो द्वादशांशकः । त्रिंशांशचेति षड्वर्गः शुभः स्वस्य शुभस्य च ।। २२ ।। क्रूरमित्रभवो मध्यो मिश्रमिकल तैः । सौम्यः स्वमित्रजः श्रेो रिपुकुरभवोऽशुभः ॥ २३ ॥ राश्यन्त परमोच्चत्वं प्रोग्रहविस्तथा । दिग्भानिपिण्डतिथ्यनवः परमोच्चता ॥ २४ ॥ जातकतिलके - कर्मलाभारिदुविक्या अत्र चोपचयाभिवाः । चतुर्थो दशमचात्र चतुरस्राभिधो मतः || २५ || अष्टमे चतुरस्रत्वं युक्तियुक्तं न दृश्यते । ताजिकेन ततथोक्ता दशमे चतुरस्रता || २६ || जामित्रं सप्तमं धूनं त्रिकोणं नवपञ्चकम् । दशमस्य तथा संज्ञा खाद्यमेपूरणास्पदाः || २७ ॥ व्ययस्य शुभरिष्फान्तास्त्रित्रिकोणं तपः शुभे । लग्नतुर्यास्तखं केन्द्रं कण्टकं च चतुष्टयम् ॥ २८ ॥ केन्द्रात्परं पणफरं तस्मादापोक्लिमं मतम् । तेषु खेटाः फलं दद्युः पूर्णाद्याङ्घ्रिफलं क्रमात् ॥ २९ ॥ लघुजातके --- नृचतुष्पदकीटाप्या बलिनः प्राग्दक्षिणापरोतरगाः । संध्याद्युरात्रिवलिनः कीटा नृचतुष्पदाः साध्याः || २० || अधिप
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ज्योतिर्निबन्धः ।
२७३
युतो दृष्टो वा बुवजीवनिरीक्षितश्च यो राशिः । स भवति बलवान्न यदा युक्तो दृष्टोऽपि वा शेषैः ॥ ३१ ॥ जातकतिल के - तनुर्धनं भ्रातृबन्धू पुत्रोऽरिः पत्न्यथो मृतिः । धर्मकर्मायव्ययाख्या भावाश्चिन्त्यास्तनोः क्रमात् ॥ ३२ ॥ कन्याद्या इह चत्वारो दीर्घा हस्वा झषादयः । कुलीरसिंहमकरकुम्भाः स्यू राशयः समाः ||३३|| इति राशिभेदाः ।
अथ ग्रहस्वरूपभेदाध्यायः ।
कालात्माऽक मनश्चन्द्रः सत्त्वं भौमो बुधो गिरः । जीवो ज्ञानं सुखं शुक्रो मदनो दुःखकर्मजः ॥ १ ॥ आत्मादयो जन्मखगैर्बलिभिर्बलिनो नृणाम् । विवला विवलैस्तेषु शनिर्व्यस्तफलप्रदः || २ || मधुपिङ्गलदृक् सूर्यो रक्तश्यामोऽल्पमूर्धजः । कौसुम्भवासाः पित्तास्थिसारः स्याच्चतुरस्रकः || ३ || सुदृङ् मधुरवाक् प्रांशू रक्तसारः सिताम्बरः । गौरो वृत्तः कृशः प्राज्ञो बहुवातकफः शशी ॥ ४ ॥ पिङ्गाक्षस्तरुणो हिंस्रो रक्तगौरोऽरुणाम्बरः । ह्रस्वस्वरोऽपटुर्मजात्तिसारः कुजलः || ५ || पालाशवासास्त्वक्सारः क्लिष्टवाग्बहुहास्यकृत् । दूर्वाश्यामस्त्रिदोषात्मा वृत्तोऽति निपुणो बुधः || ६ || मेदःसारो बृहत्कायः पिङ्गकेशेक्षणः सुधीः । क्षमी कफात्मा धर्मज्ञो गौरः पीताम्बरो गुरुः ॥ ७ ॥ शुक्रसारः सुखी कान्तः सुरवातकफात्मकः । कृष्टलम्वासितकचः श्यामो रक्ताम्बरो भृगुः ॥ ८ ॥ दीर्घोऽनिलात्मा दुर्दन्तः स्नायुसारोऽलसः कृशः । रोमशो मलिनो मूर्खः शनिः कृष्णोऽसिताम्बरः ॥ ९ ॥ रूपाणि स्वगृहस्थानामेतान्यथ पुनश्च ते । मित्रस्वयुक्तराशीशवलानुगुणतद्गुणैः ॥ १० ॥ क्षीणेन्द्र - कर्किभौमाः स्युः पापाः सौम्योऽपि तद्युतः । राहुकेतू पापतरौ पापः पापयुतस्तथा ॥ ११ ॥ रविशुक्रकुजा राहुशनिचन्द्रज्ञसूरयः । प्रागादीशा अथैतेषां तदाशाचारिणो गृहाः || १२ || जीवार्काीरा नरा ज्ञार्को क्लीवा चन्द्रसितौ स्त्रियौ । सत्त्वं गुर्विन्द्विनाः शुक्रज्ञौ रजोऽसृक्शनी तमः ॥ १३ ॥ लघुजातके --- दशमतृतीये नवपञ्चमे चतुर्थाष्टमे कलत्रं च । पश्यन्ति पादवृद्धया फलानि चैवं प्रयच्छन्ति ॥ १४ ॥ ताजिके - तृतीयैकादशे तुर्यदशमे नवपञ्चमे । पादवृद्धया पिवन्त्येषु पूर्ण चाssर्थ्यारसूरयः ।। १५ ।। युक्ताः परस्परं पूर्ण तद्वत्पश्यन्ति खेचराः । सर्वेऽपि सप्तमं चेति पूर्णदृक् ताजिकादिता ||१६|| जीवो बुधेज्यौ शुक्रज्ञौ व्यर्का व्यारा विविध्विना ( 2 ) । वीन्दि नाराद्रनादीनां (?) मित्राण्यन्ये तु
१ ख. 'स्वण्डोsप' । २ व. विवाध्वना । विद्धि तारा इना' |
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२७४
श्री शिवराजविनिर्मितो
शत्रवः ॥ १७ ॥ स्फुटो मित्रारिभावोऽयं सर्वैरुक्तो महर्षिभिः । नवो लोकप्रसिद्धस्तु न प्रत्यक्षफलो यतः ॥ १८ ॥ जातकतिल के - - होराशास्त्रेषु सर्वेषु
ज्ञसित गुरुः शुभः । जीवस्य ज्ञसितौ शत्रू यदि तद्युज्यते कथम् ॥ १९ ॥ अशुभो ज्ञो रविक्षेत्रे रविः क्लेशकरो ज्ञभे । यदि मित्रगृहस्थौ स्तः कथमत्राशुभं फलम् || २० || इत्यादि बहुधा चैतद्युक्तियुक्तं न दृश्यते । अधिमित्रारियुक्तिथ नेपा पूर्वभाषिता ॥ २१ ॥ उघुजातके - बलवान्मित्रस्वगृहोचनवांशके (शे) ष्वीक्षितः शुभैश्वापि । चन्द्रसित स्त्रीक्षेत्रे पुरुषक्षेत्रोपगाः शेषाः || २२ || अहनि सितार्कसुरेज्या युनिशं ज्ञो नक्तमिन्दुकुजसौराः । स्वदिनादिष्वशुभशुभा बहुलेतरपक्षयोर्बलिनः || २३ || प्राच्याद्या जीवबुधौ सूर्यारौ भास्करिः शशाङ्कसितौ । उदगयने शशिसूयौं वक्रेऽन्ये स्निग्धविपुलाश्च ॥ २४ ॥ मन्दारसौम्य वाक्पतिसितचन्द्रार्का यथोत्तरं बलिनः । नैसर्गिकबलमेतङ्गलसाम्येऽस्मादधिकचिन्ता ।। २५ ।। जातक तिलके - युक्तो दृष्टोऽशुभैः खेटो बली मित्रैश्च तैः परम् । पापैः क्लेशकरस्तैस्तु मित्रैः स क्लेशदैन्यकृत् ।। २६ ।। चन्द्रेण संयुताः सर्वे सर्वत्रैव बलोत्कटाः । भार्थान्तरस्था अबलाः क्रमात्पापैर्युताः समाः २७ ।। अर्केणास्तंगतास्तद्वत्तेन मुक्ताः क्रमाच्छुभाः । सौम्याः पापोज्झि ताश्चैवं सौम्यायोगे शुभं भवेत् ॥ २८ ॥
इति ग्रहस्वरूपभेदाध्यायः ।
अथाssधानचिन्ता |
चन्द्रे तूपचयर्क्षस्थे खीणां कुजनिरीक्षिते । यद्रजो दृश्यते तत्स्याद्गर्भग्रहणयोग्यकम् ॥ १ ॥ पुंसामुपचयस्थोऽब्जो गुरुणा यदि दृश्यते । स्त्रीपुंसोच तदा योगं चन्द्रे नैवान्यथाः तयोः ॥ २ ॥ शुक्रार्कौ बलिनौ स्वाशे पुंसामुपचयस्थितौ । यदा स्त्रीणां कुजेन्दू वा तदा स्याद्गर्भसंभवः ॥ ३ ॥ वराहः - आधानेऽस्वगृहं यत्तच्छीलो मैथुने पुमान्भवति । स्वावासमसद्युतवीक्षितं विदग्धं शुभैरस्तम् ॥ ४ ॥ जातकतिलके-शुक्रार्क भौमशनिभिः स्वांशोपचयगैस्तथा । त्रिकोगलग्नगे वेज्ये सवले गर्भसंभवः || ५ || स्त्रीपुंसस्तु मनोभावो यथा गर्भस्तथा रते । पुंसोऽकद्रोगदौ द्यूने मन्दारौ चेन्द्रतः स्त्रियाः ॥ ६ ॥ मन्दारमध्यगे सूर्ये पुंसो मृत्युर्विधौ स्त्रियाः । मन्देनाऽऽरेण चाब्जेऽर्के दृष्टे युक्ते मृतिस्तयोः ॥ ७ ॥ शनीन्दू पितृमात्राख्यौ निश्यद्धि रविभार्गव । ओजयुग्मगी स्वक्षस्थितौ च
१. "द्रे |
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ज्योतिर्निबन्धः ।
२७५
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शुभदौ तयोः ॥ ८ ॥ होरामकरन्दे – क्रूरान्तरस्थौ युगपत्पृथग्वा विलग्नचन्द्रौ भवतो निषेके । शुभग्रहालोकनवर्जितौ चेत्तदा सगर्भैव विपद्यते स्त्री ॥ ९ ॥ इन्दुतो यदि विलग्नतोऽथवा बन्धुगैर शुभदेः कुजेऽष्टमे । बन्धुरिष्फगतयोः कुजार्कयोः स्यात्कृशे शंशिनि पूर्ववन्मृतिः ॥ १० ॥ गर्गः - शनियुक्तेक्षितः शुक्रः पञ्चमस्थो निशाकरात् । सपापः कर्मगो वा भवेन्मातुरनिष्टदः ॥ ११ ॥ चन्द्रात्रिकोणगो मन्दः कुर्यान्मातृवधं निशि । भृगुपुत्रात्तथैवाऽऽरो दिवसे पापवीक्षितः ॥ १२ ॥ मृगाङ्कजातके - क्षीणेऽजे पापसंयुक्ते मातुर्मृत्युरिने पितुः । पापैदृष्टे भवेदव्याधिर्मित्रैर्मिश्रं शुभैः शुभम् ॥ १३ ॥ गर्गः - केशो मातुः सुखास्तस्यैः पाषैव चन्द्रसंयुतैः । मरणं जायते क्रूरैः शशाङ्कात्सप्तमस्थितैः ॥ १४ ॥ होरा प्रदीपे - सूर्यात्समराशौ यदि युक्तौ सूर्यलोहितौ प्रसवे | सौम्य निधनं कुर्या एव पितुः ॥ १५ ॥ चन्द्रादष्टमराशौ नवमे वा सप्तमेऽपि वा पापाः । सर्वेऽन्यतमे हन्युर्वालं जातं सह जनन्या ॥ १६ ॥ बादरायणजातकेरुधिरसहितस्तु सौरवरभवने रात्रिजन्मनि नरस्य । कथयति पितरमनीतं परदेशे नात्र संदेहः || १७ || यत्रस्थस्तत्र स्यात्स्वपुत्ररुधिराङ्गसंयुतः सूर्यः । प्राग्जन्मनो निवृत्तं कथयति पितरं प्रसूतस्य ॥ १८ ॥ होरा प्रदीपे - जन्माष्टषष्ठका - मद्वादशभवनस्थितेषु पापेषु । माता सुतेन सार्धं म्रियते नैवात्र संदेहः ॥ १९ ॥ बादरायणः - जीवति मातारं म्रियते सूनुः षष्ठान्त्यगेषु पापेषु । जन्माष्टसप्तमेषु जीवति सून म्रयेत तन्माता ||२०|| होरामकरन्दे - स्मरतनुगतयोर्दिनकर कुजयोः । भवति हि निधनं प्रहरणजनितम् ॥ २१ ॥ जातकतिलके - कललाण्डकशाखास्थित्वग्रोमोद्गमचेतनाः । क्षुतृषा चाष्टमे मासि निर्गमोद्वेगितागमः ||२२|| शुक्रारेज्यार्किसोमार्कज्ञलग्नेशेन्द्विनाः क्रमात् । मासेशा बलवत्खेटाः स रजोदोहदः स्त्रियाः ॥ २३ ॥ होरामकरन्दे – विक्रमशालिनि मासपतौ स्याद्गर्भविवृद्धिरथोच्चगते वा । नीचगते कलुवेऽस्तगते वा पापयुते खलु गर्भनिपातः ||२४|| जातकोत्तमे प्रागुलग्नस्थौ मन्दभौम निषेके नारीगर्भस्रावहेतू भवेताम् | तत्संस्थे हिमांश या स्त्रीणां जायते गर्भपातः ॥ २५ ॥ जातकतिलकेओज विषमांशस्थैर्लभेज्यार्केन्दुभिः पुमान् । समे समांशकैः स्त्री स्यादाधाने प्रसवेऽपि वा ।। २६ ।। गुर्वकवोजभांशस्थौ गुर्वक पुंजनुःकरौ । शुक्रेद्वाराः समक्ष बलिनः खीजनुःकराः ॥ २७ ॥ गुर्वयोर्धनुर्युग्मभांशके बुधदृष्टयोः । पुंद्रयं स्यात्सिताराब्जैस्तद्वत्स्त्रीझगैः स्त्रियाँ || २८ || लभं विनोजभावस्थे दे पुंजन्म जायते । वली वा नृखगः केन्द्रे नृदृष्टयावलोsन्यथा ॥ २९ ॥ ओजेब्ज१ व. 'जे कुल ० ।
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२७६
श्री शिवराजविनिर्मितो
लग्ने चन्द्रज्ञौ वा समाजगौ । ओजांशे शुक्रलग्नार्काः क्लीवजन्मकरास्तथा || ३० || समजभस्थौ लग्नार्काविन्योन्यं यदि पश्यतः । ज्ञार्की वा रविhatar agent मतौ ॥ ३१ ॥ लग्ने धन्वंशके दृष्टे बलिना ज्ञेन वाऽर्किणा । सर्वैर्धन्वंशगैः खेटैर्गर्भख्यधिकजन्तुकः || ३२ || जातकोत्तमे - भौमदृक्काणगे चन्द्रे सौम्यैरायधनस्थितैः | सूर्यस्तद्वेष्टितस्तद्वत्पापलने विनिर्दिशेत् ॥ ३३ ॥ अशुभैर्द्वादशर्क्षस्थैः शुभदृष्टिविवर्जितैः । आधान मरणं योषितः प्रवदेद्बुधः ॥ ३४ ॥ इत्याधानचिन्ता |
अथ जन्माध्यायः ।
आधानकालविज्ञाने योगानुक्तान्विचिन्तयेत् । प्रश्नतः सूतिकालाद्वा युक्त्या तत्फलसंविदः ।। १ ।। होरामकरन्दे - निषेकतो धूनगृहं स्वयं वा जन्मक्षमेतन्न मतं बहूनाम् । द्विषट्कभागे शशभृद्धि यस्मिंस्तस्मिन्प्रसूतिः पुरतो मृगाङ्के ॥ २ ॥ प्रश्ने यद्भे शशी तस्मात्पञ्चमं जन्म वदेत् । इत्याह भगवान्गर्गः सप्तमं बादरायणः || ३ || तत्काले चन्द्रमा यस्मिन्द्वादशांशे व्ययस्थितः । पुरस्ताद्वाशिगे चन्द्रे प्रसवं तस्य निर्दिशेत् ॥ ॥ जातकोत्तमे - गर्भाधाने चरे भानौ दशमे मासि सूयते । स्थिरे चैकादशे मासि द्वादशे द्विस्वभाव ।। ५ ।। आधा प्रश्नकाले वा शन्यंशे सप्तमे शनौ । त्रिभिरब्दैः प्रसूतिः स्याच्चन्द्रे वास्तेऽर्क - वत्सरैः ।। ६ ।। वृद्धयवनः - यो यस्य मासस्य भवेद्धि नाथः संयोगमेतं तु यदा प्रयाति । अर्वाग्विधाने स तदाऽस्य जन्म वीर्येण हीनो यदि वाऽऽत्मजेन ||७|| गर्गः - बलहीने हैः सर्वैर्नवपञ्चमगे बधे । द्विगुणाङ्घ्रि शिरोहस्तो भवत्ये कोदरस्तथा || ८ || चतुष्पदर्क्षगे सूर्ये द्विस्वभावर्क्षगैः परैः । सबलैर्यमला स्यातामेककोशाभिवेष्टितौ ॥ ९ ॥ यवनजातके - शनैश्वरे मूर्तिगते शशाङ्कजे व्ययस्थिते नीचगते प्रभाकरे | विलोमजन्म प्रवदन्ति भूमिजे सभार्गवे नालविवर्जितश्व ॥ १० ॥ होरामकरन्दे-सदन्तौ सौम्यभांशस्थौ कुरुतो मन्दभूमिजौ । कर्कलने विधुः कुब्जं सूते मन्दारवीक्षितः ॥ ११ ॥ वराहः - कुलीरालिझपान्तस्यैः पापैचन्द्रे वृषोपगे । मूकः पापेक्षिते सौम्यैर्दृष्टे गीः स्पाचिरेण तु ॥ १२ ॥ जातकतिलक - सिंहाजधनुरन्तस्यैः पापैर्दृष्टे वृषे विधौ । मूकः स्याच्छुभदृष्टे तु चिरेण लभते गिरम् || १३ || पापैः सिंहाजधन्वंशे जडस्तलनगे विधौ । मीनलग्नेऽर्कमन्दारैर्दृष्टः पशुः शुभैर्विना ॥ १४ ॥ मन्देन्द्विनेक्षिते लग्ने मृगाङ्क वामनो
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ज्योतिर्निबन्धः ।
भवेत् । धीधर्मलग्नदृक्काणैः सपापैरभुजाङ्घ्रिः || १५ || सिंहलग्नस्थितार्केन्द्रोः कुज सूर्यजदृष्टयोः । अन्धः शुभाशुभैर्दृष्टौ तौ चेहदलोचनः || १६ || व्ययेऽब्जे वामनेत्रोनो दक्षिणाक्षिवियुग्रवौ । पापैः स्युरशुभा योगाः शुभाः शुभखगेक्षणात् ॥ १७ ॥
इति जन्माध्यायः ।
२७७
अथ सूतिकाध्यायः ।
जातकतिलके - - शीर्षोदये जन्मलग्ने मूर्ध्नोत्तानः प्रसूयते । पृष्टोदयेऽन्यथाऽङ्विभ्यां हस्ताभ्यामुभयोदये || १ || वक्रिते लग्नभांशेऽशे लग्नस्थे विग्रहो भवेत् । सक्लेशं व्यस्तगं जन्म शुभदृष्टे तनौ सुखम् || २ || चन्द्रो नावेक्षते लग्नं परोक्षः स्यात्पिता जनौ । खाद्भष्टे चरभे सूर्ये तस्मिलग्ने विदेशः || ३ || लग्ने मन्दे कुजेsस्ते वा चन्द्रे वा ज्ञसितान्तरे । परोक्षस्य पितुर्जन्म सम्यग्योगेऽन्यथाऽन्तरे ॥ ४ ॥ सारावयां - धुनिशोरर्कसितयोः कुजेन संदृष्टयोः पितुरभावः । चरराशौ परदेशे युक्तेक्षितयोस्तु तत्र मृतः ॥ ५ ॥ जातकतिलके - सिंहगोजंतनौ सौरः सार्को वा नालवेष्टितः | लग्नांशलक्षितेऽङ्गे स्यात्कालपूरुषपाठतः || ६ || यदि क्रूरर्क्षगौ पापौ सूर्याद्धर्मसुतास्तगौ । वद्धः स्थिरादिभस्थेऽर्के पिता स्वविषयादिषु ॥ ७ ॥ सारावल्यां- कुजसौरयोस्त्रिकोणे चन्द्रेऽस्तगते विसृज्यते मात्रा । दृष्टे सुरेन्द्रगुरुणा सुखान्विते दीर्घजीवी च ॥ ८ ॥ म्रियते पापैर्दृष्टे शशिनि विलग्ने कुजेऽस्तगे युक्तः । लग्नास्तलाभगतयोर्वसुधासुतमन्दयोरेवम् ॥ ९ ॥ जातकतिलके - क्रूरैः सुखास्तगैर्मातुः क्लेशः स्यादिन्दुसंयुतैः । चन्द्रात्सुखास्तगैः क्रूरैः क्लेशः क्षीणात्तथा मृतिः ॥ १० ॥ बृहज्जातके-न लग्नमिन्दुं च गुरुर्निरी - क्षते न वा शशाकं रविणा समागतम् । सपापकोऽर्केण युतोऽथवा शशी परेण जातं प्रवदन्ति निश्चयात् ॥ ११ ॥ जातकोत्तमे - गुरुदृष्टे तनौ वाऽब्जे गुरुवगोंज्झितेऽपि वा । सपापार्कयुते वेन्द जारजातः प्रसूयते ॥ १२ ॥ गर्गः - गुरुक्षेत्रगते चन्द्रे तद्युक्ते वाऽन्यराशिगे । तद्दृकाणे तदंशे वा न परैर्जातमादिशेत् ॥ १३ ॥ लघुजातके – अदृढं नवमथ दग्धं चित्रं सुदृढं मनोरमं जीर्णम् । गृहमर्काद्यैवयाप्रतिवेश्मनि संनिकृष्टैश्च ॥ १४ ॥ गुरुरुच्चे दशमस्थो द्वित्रिभूमिकं करोति गृहम् । धनुषि सवले त्रिशाल विशालमन्येषु यमलेषु || १५ || बृहज्जातके - मन्दशे शशिनि हिबुके मन्ददृष्टेऽब्जगे वा तद्युक्ते वा तमसि शयनं नीचसंस्थैश्च भूमौ ॥१६॥
१. 'नो आयातेच' । २ व 'जननो' ३ . काष्ठापु ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
२७८
यद्वद्वाशिर्वजति हरिजं गर्भमोक्षश्च तद्वत्पापैश्चन्द्रात्स्मरसुखगतैः केशमा हुर्जनन्याः ॥ १७ ॥ होर।प्रकाशे - जीवो यदा बन्धुगतः स्वभागेगो नभस्थलस्थो भृगुनन्दनस्तथा । चन्द्रोऽस्तगो मूर्तिगतः शनैश्वरस्तदा वृतं वस्त्रवरैस्तु मन्दिरम् ।। १८ ।। लघुजातके-——-द्वारवास्तुनि केन्द्रोपगाद्ग्रहादसति वा विलक्षत् । दीपोऽर्कादुदयाद्वति॑िरिन्दुतः स्नेहनिर्देशः ॥ १९ ॥ गर्गः –— कुजदृष्टे बलिन्यर्के दीपाः स्युर्बहवो जनः । सबलैर्व्यय गैरन्यैग्रहै ज्योतिस्तृणैर्भवेत् ॥ २० ॥ जातकतिलके - लग्नोक्तदिशि खट्वायाः शिरोङ्गानि धिया ततः । लग्नं पश्यन्ति ये खेटास्तद्वस्त्रास्तरणं व्रजेत् ॥ २१ ॥ लघुजातके - षट्त्रिनवान्त्याः पादाः खद्वाङ्गान्यन्तरालभवनानि । जनितत्त्वं यमलर्क्षे क्रूरैस्ततुल्य उपघातः || २२ ॥ लग्नाब्जान्तर्गतैः खेटैस्तुल्याः स्युरुपसूतिकाः । दृश्यचक्रार्धगैर्वाद्या गृहान्तस्था अदृश्यगैः ॥ २३ ॥ शुभैस्तैः सूतिका रम्याः क्रूरै रूपादिनाऽन्यथा । तत्तद्ग्रहबलोत्कर्षप्रभावा वहवः स्मृताः ॥ २४ ॥ लघुजातके - अर्कादिताम्रमणिहेम शुक्तिरजतादि मौक्तिकं लोहम् । वक्तव्यं बलवद्भिः स्वस्थाने हेम जीवेऽपि ॥ २५ ॥ जातकसारे – दीपाम्ब्वग्न्यन्नभूपादिशय्यावस्कर बालकम् । सूतिकास्थानमर्कादिदिग्भागे कथयेज्जनैः || २६ || रिक्तं भाण्डं सपापेऽजे पूर्णेऽब्जे मौक्तिकादिकम् । ताम्बूलादि सिते जीवे देवे शास्त्रं वदेदगी || २७ ॥ भर्तृपित्रादिखेटेषु यो बली तद्गृहे जनिः । एकर्क्षगैर्न दृष्टौ चेलमेन्दू विजने तदा ॥ २८ ॥ जातकतिलके - लग्नायनवमांशेंऽशो यादृग्वा सवलो ग्रहः । तद्वन्मूर्तिर्भवेद्वर्णचन्द्रयुक्तांशनाथवत् ॥ २९ ॥ त्रिंशांशे यस्य भानुः स्यात्तद्वत्सत्त्वादिभिर्युतः । ससतारसरातायाः(?) स्मृताः सूर्यादितो गुणाः ॥ २९ ॥ क्रूरसौम्ययुतङ्ग कालपुरुषवकृशम् | सबलेऽर्के समः पित्रा जननीसदृशो विधौ ॥ ३१ ॥ जातकोत्तमे — अत्र जातिं कुलं देशं बुद्ध्वा वर्णादिकं वदेत् । दृश्यो भागोऽत्र वामाङ्गमदृश्यो विद्धि दक्षिणम् ॥ ३२ ॥
इति सूतिकाध्यायः ।
अथ व्रणादिज्ञानम् ।
बृहज्जातके - कं दृक्श्रोत्रनसाकपोलहनवो वस्त्रं च होरादयस्ते कण्ठांसकबाहुपार्श्वहृदयं क्रोडं च नाभिस्ततः । वस्तिः शिश्नगुदे ततश्च वृषणावूरू ततो जानुनी जङ्घाङ्घ्रीत्युभयत्र वाममुदितैर्दृकाण भागैस्त्रिधा ॥ १ ॥ तस्मिन्पापयुते त्रणः
१. 'तो' । २. 'जन्तु' ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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शुभयुते दृष्टे च लक्ष्माऽऽदिशेत्स्वक्षशस्थिरसंयुते तु सहजः स्यादन्यथाऽऽगन्तुकः । मन्देऽश्मानिलजोऽग्निशस्त्रविषजो भौमे ज्ञपापे कुजः सूर्ये काष्ठवतुष्पदादणुविधौ शृङ्ग्यब्जजोऽन्यैः शुभम् ॥ २ ॥ जातकतिल के - - यदा ज्ञाद्यास्त्रयः खेटाः शुभाः क्रूराश्च तेष्वपि । यो वली स्वदशायां स तिष्ठेत्पापो व्रणादिकृत् ||३|| लग्नात्षष्ठो व्रणस्तद्वद्व्रणकृच्चाथ षष्ठकम् । कालाङ्गरीत्या यत्राङ्गे तत्र वा तद्विघो व्रणः ॥ ४ ॥ शुभस्तु षष्ठोऽसौ कुर्याद्वा तिलकं मशम् । लक्ष्मकृच्छुभयुक्तथेच्छुभाश्वाप्यत्र दुष्फलाः ॥ ५ ॥ कालपुरुषतुल्येऽङ्गे यत्र स्यातां च संगतौ । चन्द्राक तत्र लक्ष्मापि मशकाद्यमिहाऽऽदिशेत् || ६ || इति व्रणादिज्ञानम् |
अथानिष्टाध्यायः ।
होरामकरन्दे–वंशोत्सादकरः शशाङ्कभृगुजः क्रूरैः स्वसप्ताम्बुगैः शिल्पी केन्द्रगताfर्कणा बुधयुतस्यंशे तनौ वीक्षिते । अन्त्ये देवगुरौ दिनेश्वरसुतस्यांशे च दासीसुतो नीचः कामगयोः खरांशुशशिनोः सौरेण संदृष्टयोः ॥ १ ॥ सारावल्याम्-उदये दिनकरपुत्रे मन्दे त्रिकोणे कुजे च सोन्मादः । क्षीणे शशिनि ससौरे जीवे वा व्ययगृहे जातः ॥ २ ॥ जातक तिल के - चन्द्रेऽलिकर्कटांशस्थे सपापे गुह्यरुग्भवेत् । हीनाङ्गो वेशिगे मन्दे कर्मगेऽब्जे कुजेऽस्तगे || ३ || मन्दारयुतदृष्टेऽब्जे चापमध्यनवांशगे । मृगवीनाजकर्येशे स्थिते वा कुष्ठवान्भवेत् ॥ ४ ॥ गर्ग:- क्रूरयुक्तेक्षितो लग्नात्पञ्चमो नवमोऽथवा । गोकलिमृगाख्यश्वेद्राशिः स्यात्कुष्टवांस्तदा || ५ || जातक तिलके - पापयोर्मध्यगे चन्द्रे रखौ मकरराशिगे । श्वासगुल्मक्षयप्लीहविद्रधिव्याधिपीडितः ॥ ६ ॥ अन्योन्यक्षेत्रगौ स्यातामथवा भवनांशगौ | चन्द्राक चेता जातः क्षयरोगी भवेन्नरः || ७ || व्ययारिधनमृत्युस्थाः स्वेच्छयाऽऽकिंकुजेन्द्विनाः । अन्धं कुर्युर्बली तेषु यस्तत्प्रकृतिदोषतः ॥ ८ ॥ धीधर्मायतृतीयस्थाः पापाः सौम्यारवीक्षिताः । कर्णघातक रास्ते तु द्यूनस्था दन्तदूषिणः ॥ ९ ॥ सारावल्यांमध्ये पापग्रहयोश्चन्द्रे मदनस्थितेऽर्कजे जन्तोः । श्वासक्षयविद्रधिना गुल्मलीहादिपीडितस्य भवः ॥ १० ॥ बृहज्जातके – उदयत्युडुपेऽसुरास्यगे स पिशाचोऽशुभ योत्रिकोणयोः । सोपप्लवमण्डले रवौ चेदुदयस्थे नयनापवर्जितः ॥ ११ ॥ होरामकरन्दे – मन्दारवर्गे भृगुस्तसंस्थे कुजा किं परदारगः स्यात् । तथैव सेन्द्र कुजसूर्यजौ चेज्जा
१. 'शोपाद' ।
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२८०
श्रीशिवराजविनिर्मितो
यापती तो कुलटौ भवेताम् ॥ १२ ॥ बृहस्पतिः - पञ्चमे नवमे द्यूने समेतौ सितभास्करौ । यस्य स्यातां भवेद्भार्या तस्यैकाङ्गविवर्जिता ॥ १३ ॥ वराहः --- लग्नाद्व्ययारिगतयोः शशितिग्मरश्म्योः पत्न्या सहैकनयनस्य वदन्ति जन्म । द्यून - स्थयोर्नवमपञ्चमसंस्थयोर्वा शुक्रार्कयोर्विकलदारमुशन्ति जातम् ॥ १४ ॥ सारावल्याम्-भौमे कलत्रसंस्थे नित्यं वियुतो भवेत्स्त्रिया पुरुषः । म्रियते वा शनिदृष्टे योषिदवश्यं न दृष्टेऽन्यैः || १५ || लग्नस्थे रवितनये गण्डान्ते भार्गवे कलत्रस्थे | वन्ध्यापतिस्तथा स्याद्यदि न सुतर्क्ष शुभैर्दृष्टम् ॥ १६ ॥ बादरायणः - व्ययरन्धलग्नसंस्थैः क्रूरैः क्षीणे क्षपाकरे धीस्थे । स्त्रीहीनो भवति नरः पुत्रैश्व विवर्जितो नूनम् ॥ १७ ॥ जातकतिलके - पातकी स्याद्विलग्नस्थे गुरौ ग्रूनगते शनौ । सोन्मादो लग्नगे जीवे द्यूनस्थे भूसुते भवेत् ।। १८ ।। पापैर्दृष्टे गोजचापे लग्ने विकृतदन्तवान् । चापे गव्यशुभ वा खल्वाटः पापवीक्षिते ॥ १९ ॥ धधर्मगे रवौ पापदृष्टे स्याददृडेक्षणः । तद्च्छनौ बहुव्याधिहीनाङ्गस्तु कुजे भवेत् ॥ २० ॥ व्ययपुत्रार्थधर्मस्थैः पापैर्बन्धनभाग्भवेत् । धनुर्वृषाजल तु बन्धनं तच्च रज्जुजम् ।। २१ ।। युग्मकन्यातुलाकुम्भे लग्नस्थे निगडोद्भवम् । कर्किसिंहझषे दुर्गे रोधः स्याद्भूगृहेऽलिनि ॥ २२ ॥ मन्दारैः शुभादृष्टैः कर्कस्थैर्नृतको भवेत् । ग्रहेणैकेन स श्रेष्टो द्वाभ्यां मध्योऽघमस्त्रिभिः ॥ २३ ॥
इत्यनिष्टाध्यायः ।
अथारिष्टाध्यायः ।
जातकतिलके - पापेक्षिते शुभैष्टे पापभांशगते विधौ । रन्धारिगे मृतिः सद्यः शुभदृष्टे समाष्टकृत् ।। १ ।। शुभपापेक्षिते तस्मिन्मृतिर्वर्षचतुष्टयात् । एवं शुभाशुभक्षशे तद्दृष्टे चानुपाततः ॥ २ ॥ स पापेक्षिते मासाच्चन्द्रे रन्धारि मृतिः । शुभे तच्छुभै वक्रिपापेक्षितेऽथवा ॥ ३ ॥ होरामकरन्दे - निधनरिपु र पुगृहस्थः पापदृष्टः शशाङ्को झटिति निधनकारी सौम्यदृष्टोऽष्टवर्षात् । अशुभशुभसमानालोकनाब्दैश्चतुर्भिर्भवति खलु विमिश्रश्वानुपातो विधेयः ॥ ४ ॥ षष्ठाष्टमगताः सौम्याः क्रूरैर्वक्रिभिरीक्षिताः । शुभदृष्टिविहीनास्ते मासेनान्तकराः स्मृताः ॥५॥ होराप्रदीपे-वर्षाद्यनान्मासात्सोऽजोऽष्टारिगो मृतिं कुर्यात् । एकादिपादवृद्धया दृष्टः पापैः क्रमाद्बलिभिः || ६ || संध्यायां भान्तगैः क्रूरैर्होरायां शशिनो मृतिः । चन्द्रे केन्द्रेऽन्यकेन्द्रेषु सपापेषु तथा शिशोः ॥ ७ ॥ होरामकरन्दे — त्रिकोणरन्धास्तमनुव्ययेषु चन्द्रे सपापे म्रियते प्रसूतः । वीर्यान्वितै जीवबुधास्फु
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ज्योतिनिबन्धः।
२८१
जिद्भिर्नाऽऽलोकितश्चेन्न युतोऽथवा स्यात् ॥ ८ ॥ सारावल्या-क्षीणशरीरश्चन्द्रो लग्नस्थः क्रूरवीक्षितः कुरुते । स्वर्गगमनं हि पुंसां कुलीरगोजान्परित्यज्य ॥९॥ होराप्रदीप – अस्ते विधौ सपापे लग्ने रन्ध्रे कुजेऽत्र जातस्य । मात्रा सहैव मरणं तद्वत्सूर्येण शस्त्रेण ॥ १० ॥ बादरायणः-लग्ने वा चन्द्रे वा पापा बलिनस्त्रिकोणरन्धेषु । सौम्यैरमिश्रदृष्टाः सयो मरणाय निर्दिष्टाः ॥ ११ ॥ सारावल्यां-धूनगतेर्के लग्ने यमे कजे वा विपर्यये वाऽपि । अन्यतरेण युतेऽब्जे शुभैरदृष्टे शिशुम्रियते ॥ १२ ॥ होरामकर दे-क्रूराश्चक्रस्य पूर्वार्धे पश्चार्धे च शुभग्रहाः । प्रसूतिनिधनायैव कुलीरालिसमुद्गमे ॥ १३ ॥ जातकतिलके-क्षीणचन्द्रे व्ययगते पापैस्तनुमृतिस्थितैः । केन्द्रबायैः शुभैर्मृत्युलेग्नेऽब्जे वाऽस्तगैः शुभैः ॥ १४ ॥ केन्द्रमृत्युगतैः पापैः क्षीणेऽब्जे लग्नगे मृतिः। सुखास्ताष्टगते वाऽब्जे क्रूरान्तस्थेऽथवा भवेत् ॥ १५ ॥ चन्द्रे लग्नपतौ वाऽपि विबले क्रूरसंयुते । क्रूरेक्षिते शुभैदृष्टे तद्वत्रेक्षिते मृतिः ॥ १६ ॥ वक्री शनिः कुजसंस्थः केन्द्रादिनिधनस्थितः। कुजेन बलिना दृष्टो यदि वर्पद्वयान्मृतिः ॥ १७ ॥ जीवेऽष्टमे कुजसंस्थे मन्दारेन्द्विनवीक्षिते । शुभदृष्टे मृतिस्व्यब्दैवभिः सेन्द्विने शनौ ॥ १८ ॥ शत्रभरिनाक्यारासादष्टमगैर्मृतिः । ज्ञे वाऽरिंभे चतुर्वररिदृष्टेऽरिरन्ध्रभे ॥१९॥ रन्ध्रारिव्ययगे शुक्रे सर्वपापेक्षितेऽरिभे । षभिरब्दै तिर्वोत्पापे चैविधेऽष्टमे ॥२०॥ मन्दोऽस्तगः कुजोऽम्बुस्थो मृगालितनुगः शशी । युक्तः सौम्येषु केन्द्रेषु मृत्यु रिष्फगैः शुभैः ॥ २१ ॥ होरामकरन्दे-क्रूरयुक्तस्तु होरेशः पञ्चतामेव यच्छति । मासेन जन्मपस्तद्वच्छिद्रे सौम्यैर्न वीक्षितः ॥ २२ ॥ गर्ग:-रिपुव्ययगतैः पापैरथवा धनमत्युगैः । लग्ने वा पापमध्यस्थे तद्वद् द्यूनेऽपि वा मतिः ॥ २३ ॥ जातकतिलके --पापलंगेऽर्के व्योमस्थे बहुपापेक्षिते मृतिः । यदृक्षे केतुरुदितस्तज्जो मासद्वयात्तथा ॥ २४॥ पाशाहिपक्षनिगडा काणा लग्नगा यदि । स्वराः स्वाधिपा दृष्टा मृत्युवस्तु सप्तभिः ॥ २५ ॥ रिष्फारिरन्ध्रगैः सौम्यैः पापैः केन्द्रत्रिकोणगैः। सूर्योदये मतिः सद्यो लग्नेऽब्जे वास्तगैः शुभैः ।। २६ ॥ चन्द्राधिष्ठितराशीशे लग्नेशे वाऽकसंगुते । रन्ध्रारिव्ययगे मृत्युवर्भप्रमितः शिशोः ॥ २७॥ साकोरेऽब्जे शुभहले नवमऽब्जे सतस्थिते । मृत्या सेन्दिने शुक्रे गुरुदृष्टपथातिगे ॥ २८ ॥ लग्नादकांद्विधोः पापा बलिनोऽष्टत्रिकोणगाः । शुभैने युक्ता नो दृष्टाः सद्योमृत्युकराः शिशोः ॥ २९ ॥ जीवन्द्विनहरेकस्थैः शुक्रार्केन्दुकुजैस्तथा । मन्देन्द्विनारैरथवा मृत्युवस्तु सप्तभिः ॥ ३० ॥ पापदृष्टः शनिलग्ने हन्ति पोडशभिर्दिनः । मासेन पापसंयुक्तः केवलोऽब्देन बालकम् ॥ ३१ ॥ सेन्छिनो ज्ञः शुभादृष्टो हन्त्येकादशहायनैः । पापयुक्तेक्षितचन्द्रो हन्त्य
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२८२
श्रीशिवराजविनिर्मितो
मायां समाद्वयात् ॥ ३२ ॥ लग्नान्मन्दाररविभिः शत्रुभे सप्तमे विधौ । क्षीणेन दृष्टे गुरुणा मृत्युवस्तु सप्तभिः ॥ ३३ ॥ मृगालिगोऽसितो ज्ञो वा सुखस्थोऽसृग्यमेक्षितः । मृत्युरन्ध्राधिपो वाऽस्ते क्षीणेऽब्जे पापलग्नगे ॥ ३४ ॥ पापे लग्नाधिपेऽब्जाशे क्रूरैदृष्टे व्यये विधौ । मृत्यू राही तनौ दृश्यः शुभैः पापैरदृश्यगैः ॥ ३५॥ सुखेऽब्जे कर्मगैः पापैः खेऽब्जे वा सुखगैः खलः । शुभैरापोक्तिमैः केन्द्रश्चन्द्रपापयुतमृतिः ॥ ३६ ॥ होराप्रदीपे-मासैः षोडशभिईन्यात्स्वयंशे लग्नगोऽर्कजः । अब्दद्वादशभिः पादृष्टो विगतरश्मिभिः ॥ ३७॥ मन्दो लग्ने स्वांशे यावति च प्रथमतः शुभायोगे । तावद्भिरेव वर्मत्युकरो भवति जातस्य ॥ ३८ ॥ कर्मस्मरजलतनुगाः क्रूराः सौम्यावलोकनवियुक्ताः । मासै
दशसंख्यैः कुर्वन्ति शिशुं विगतजीवम् ॥ ३९ ॥ सारावल्यां- राहुः सप्तमभवने शशिसूर्यनिरीक्षितो न शुभदृष्टः । दशभिर्दाभ्यां सहितैरन्दैर्जातं तु नाशयति ॥ ४० ॥ क्षीणं यदा शशाङ्क पश्येद्राहुः समागतं क्रूरैः । मारयति तदा दिवसैनिाजैः कतिपयैरेव ॥ ४१ ॥ राहुश्चतुष्टयस्थो मरणाय निरीक्षितो भवति पापैः । वर्षैर्वदन्ति दशभिः षोडशभिः केचिदाचार्याः ॥ ४२ ॥ होरामकरन्दे-आदावभ्युदितः केतुर्निर्घातोल्कानिला अनु । रौद्रे सापे मुहूर्ते वा जातो याति यमालयम् ॥ ४३ ॥ सारावल्पां-घटसिंहवृश्चिकोदयकृतस्थितिजीवितं हरति राहुः । पापैर्निरीक्ष्यमाणः सप्तमितैर्निश्चितं वर्षेः ॥ ४४ ॥ होरामकरन्दे-नागनन्दयमलनयनः पक्षदः समीरः क्षोण्या वेदैर्दहननयन गचन्द्रः खदत्रैः । मेषादीनां शशिधरकरैजन्मकालेऽब्जयुक्तैर्भागैर्दिभिर्भवति मरणं वत्सरैर्भागतुल्यैः ।। ८ । ९ । २२ । २२ । ५।१।४। २३ । १८ । २० । २१ । १० ॥४५॥ यवनः-द्वादशस्थो यदा सौरिजन्मसंस्थश्च भूसुतः। चतुर्थः सैंहिकेयश्चेद्दश मासान्न जीवति ॥ ४६ ॥ द्वादशस्थो रवि मस्तनुस्थौ शशिसूर्यजौ । सौम्यैनं दृश्यते लग्नं स याति यममन्दिरम् ॥ ४७ ॥ षष्ठेऽष्टमे तनौ वाऽपि भौमो बुधयुतो यदि । तस्करक्रूरकर्मत्वात्वञ्जपादं करोति वा ॥४८॥ लग्नभावे यदा राहुः केन्द्र स्यादणुरत्रिजः । शिशोर्मृत्युर्भवेत्सद्यः क्रूरदृष्टो विशेषतः ॥ ४९ ॥ पातालस्थो यदा राहुश्चन्द्रः षष्ठोऽष्टमोऽपि वा । पापदृष्टो विशेषेण सद्यः पाणहरः शिशोः ॥ ५० ॥ जन्मलग्ने यदा राहुः षष्ठो भवति चन्द्रमाः । जातो मृत्युमवामोति क्रूरदृष्टयाऽपमत्युना ॥ ५१ ॥ शनिक्षेत्रे यदा भानुर्भानुक्षेत्रे यदा शनिः । बालो विंशतिमे वर्षे म्रियते दुष्टभावगौ ॥ ५२ ॥ षष्ठेऽष्टमे वा शीतांशुबुंधयुक्तो यदा भवेत् । अश्वदोषाद्भवेन्मृत्युर्यद्वा व्याघ्रविदारणात् ॥ ५३ ॥ दशमार्किगृहे भानुर्माना साध शिशोमतिः । भौमे
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ज्योतिर्निबन्धः।
२८३ शत्रुगृहे खस्थे पित्रा सार्धं तथा: मृतिः ॥ ५४ ॥ बादरायणः-वक्रशनैश्चरमध्ये होरायुक्तो निशाकरो हन्यात् । जननीमपत्यसहितां सौम्यैर्न निरीक्षितः सद्यः ॥ ५५ ॥ पापग्रहमध्यगतश्चन्द्रो होरागतोऽष्टमे सूर्यः । शस्त्रविदारितगर्भस्तत्र विशल्या भवेन्नारी ॥ ५६ ॥ पश्यन्ति यदा सौम्या होरास्थं पापमध्यगं चन्द्रम् । न भवति मातविनाशो गर्भविनाशो न संदेहः ॥ ५७ ॥ प्रसवसमयेऽष्टमस्थो निशाकरः पापवीक्षितः क्षीणः । गर्भविपत्तिं कुर्यात्सक्रूरो मातरं हन्यात् ॥ ५८ ॥ क्षीणस्तु वक्रसहितो होरायां चन्द्रमा भवति । जामित्रे वा युगपत्सद्यो जातस्य मरणकारी ॥ ५९ ॥ होरायां वा निधने रिष्फे वा क्रूरखेचराः सर्वे । क्षीणनिशाकरदृष्टाः सद्यो निधनं शिशोः कुर्युः ॥ ६० ॥ पञ्चमनवमव्ययगे निधने वा सप्तमे सहिताः। रुधिरनिशाकरसौराः सौम्यस्त्यक्ताः शिशु हन्यः॥६॥ सूर्यादष्टमराशौ भवतः शनिलोहितौ प्रसवकाले । सौम्यदृष्टौ मरणं सद्यः कुर्यातां पितुर्योरम् ॥ ६२ ॥ वृद्धयवनः-पापग्रहावेक्षणसंगमाद्यैश्चन्द्रोऽदितः सद्भिरवीक्षितश्च । करोति मातुः स्तनपानहानि प्रीणाति राशीश्वरजः स्वभावैः ॥६३ ॥ सारावल्यां-तीव्रफलराजयोगा यवनाधैर्ये विनिर्मितास्तेषु । वक्तव्यं दैवविदा खलकुलजातस्य रिष्टमिति ॥ ६४ ॥ लग्नाधिपे पापयुतेऽस्तसंस्थे राहुश्च केन्द्रे मृतिमेति तद्वत् । क्रूरैः सुतस्थैरपि केन्द्रसंस्थैम्रियेत जातः सगदोऽथवा स्यात् ॥ ६५ ॥ पापातियुक्तदृष्टोऽपि पापः पाके मृतिप्रदः । अतिनीचारिसंस्थोऽपि शुभदृष्टिविवर्जितः ॥ ६६ ॥ लग्नस्थितो भावसमोऽरिदृष्टः पापोऽष्टषष्ठोऽपि निहन्ति पाके । पोपेऽष्टमे स्याद्विधवाऽपि नारी द्वित्रिव्ययास्तोपगतैश्च दुष्टैः ॥ ६७ ॥ जातकतिलके-योगकरणखेटेषु वली जन्मनि यद्गृहे । तद्गतोऽब्जो बली हन्ति पापदृष्टोऽब्ज(ष्टस्तु)मध्यमः ॥ ६८ ॥ लग्नं वा जन्मभं चन्द्रः प्राप्तो हन्ति तथाविधः । अनुक्तविधियोगेषु प्रौढेऽप्येष विधिर्मषा ॥ ६९ ॥ शेषेष्वनुक्तविधिषु चिरात्तत्तद्दशासु वा । विबलस्य सपापस्य दशायां वा मतिभवेत् ॥ ७० ॥ अर्कश्चन्द्रः कुजः सौरिलग्ने तिष्ठति पञ्चमे । पितरं मातरं हन्ति भ्रातरं च शिशु क्रमात् ॥ ७१ ॥ ताताम्बिकामातुलसोदराश्च मातामही मातृपिता च सूनुः । सूर्यादिखेटाः खलु पञ्चमस्था निघ्नन्ति सर्वे क्रमशः प्रसूतौ ॥ ७२ ॥
इत्यरिष्टाध्यायः।
१ घ. पाकेऽ।
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२८४
श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ चन्द्रारिष्टमङ्गः। जातकतिलके-कृष्णपक्षे ह्यदृश्यश्च दृश्यः पूर्णः सिते निशि । शुभाशुभेक्षितश्वन्द्रो न हन्ति रिपुरन्ध्रगः॥ १ ॥ गर्ग:-रात्री जातः सिते पक्षे दिवा जातः सितेतरे । चन्द्रारिष्टं न तस्य स्यापितृवत्तः स रक्षति ॥ २॥ आपूर्यमाणमूर्तिश्वेच्चन्द्रः सर्वग्रहेक्षितः । अरिष्टहारी पूर्णो वा सुहृद्भावेऽसितेक्षितः ॥ ३ ॥ जात. कतिलके-परमोच्चगतो रिष्टं शुक्रदृष्टः शशी हरेत् । क्षीणोऽपि शुभवर्गस्थो हरेद्वा शुभवीक्षितः ॥ ४ ॥ षष्ठसप्ताष्टमाञ्चन्द्राद्विपापा बलिनः शुभाः। प्रन्ति रिष्टं शुभैयुक्तास्तदंशस्थो विधुस्तथा ॥ ५ ॥ शुभद्वादशभागस्थः पूर्यमाणतनुः शशी। रिष्टहच्छुभभस्थो वा लग्नेशेनैव वीक्षितः ॥६॥ क्रूरवर्गस्थितश्चन्द्रो रिष्टहद्वर्गपेक्षितः । जन्मभेशो बली दृष्टः शुभैमित्रश्च रिष्टहृत् ॥ ७ ॥ लग्नस्थो जन्मराशीशो रिष्टहन्निखिलक्षितः । लग्नेशाद्द्वादशे षट्विसुखस्वाये शुभेक्षितः ॥ ८॥ ज्ञसितो द्वादशे चन्द्राल्लाभे क्रूरो गुरुश्च खे।रिष्टनो जन्मभेशो वा शुभदृष्टो बलोत्कटः॥९॥ होराप्रकाशे-आये तृतीये पष्ठे वा तुलाघटझषाश्रितः । यदि केतुर्भवेल्लग्नात्तदा रिष्टं न जायते ॥ १० ॥ सारावल्यां--सर्वैर्गगनभ्रमणदृष्टश्चन्द्रो विनाशयति रिष्टम् । आपूर्यमाणमूर्तिर्यथा नृपः स्वन्तया दृष्टः ॥ ११ ॥ चन्द्रः संपूर्णतनुः शुक्रेण निरीक्षितः सुहृद्भागे। कष्टहराणां श्रेष्ठो वातहराणां यथा बस्तिः ॥१२॥ परमोच्चे शिशिरतनु गुतनयनिरीक्षितो हरति रिष्टम् । जलमिव महातिसारं जातीफलवल्कलकथितम् ॥ १३ ॥ सप्ताष्टमषष्ठस्थाः शशिनः सौम्या हरन्ति कष्टफलम् । पापरमिश्रचाराः कल्याणघृतं यथोन्मादम् ॥ १४ ॥ दृष्टः शुभैः समस्तैस्तेषां व्यंशे शशी: हरति रिष्टम् । लवणश्रुतिपूरणवन्नयनभवं दारुणं शूलम् ॥ १५॥ आपूर्यमाणमूर्तिदशभागे शुभस्य यदि चन्द्रः । रिष्टं नयति विनाशं तक्राभ्यासो यथा गुदजान् ।। १६ ।। सौभ्यक्षेत्रे चन्द्रो होरापतिना विलोकितो हन्ति । रिष्टं न वीक्षितोऽन्यैः कुलागन्ना कुलमिवान्यगता ॥ १७ ॥ क्रूरभवने शशाङ्को भवने शनिरीक्षितस्तदनुव । रक्षति शिशुं प्रजातं कृपण इव धनं प्रयत्नेन ॥ १८ ॥ जन्माधिपतिर्बलवान्सुहृद्भिरभिवीक्षितः शुभैर्भङ्गम् । रिष्ट्रस्य करोति सदाऽभीरुरिव प्राप्तसङ्ग्रामः ॥ १९ ॥ जन्माधिपतिर्लग्ने सर्वेषां गोचरे पतितः । हन्ति निशाकररिष्टं यथैव शूलं कुवेराक्षः ॥ २० ॥ स्वोच्चस्थः स्वगृहेऽथवाऽपि सुहृदां वर्गेऽथ सौम्येऽपि वा संपूर्णः शुभवीक्षितः शशधरो वर्गे स्वकीयेऽथवा । शत्रूणामवलोकने न पतितः पापैरयुक्तेक्षितो रिष्टं हन्ति सुदुस्तरं दिनपतिः पालेयराशिं यथा ॥ २१ ॥ शशिनि गते बुधसितयोराये क्रूरेषु
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२८५
ज्योतिर्निवन्धः। वाक्पती गगने । त्वरितं चातुर्थिक इव नश्यति मुनिकुसुमरसनस्यैः ॥ २२ ॥ लग्नेश्वरात्तु चन्द्रः त्रिदशायहिबुकेषु शुभदृष्टः । मारयति चन्द्ररिष्टं सिंह इव महागजं क्रुद्धः ॥ २३ ॥ होरामकरन्दे-दस्रभेऽनलभे पुष्ये शीतरश्मिस्त्रिपुष्करे । वर्गोत्तमे वा पूर्णाङ्गः स्वीयारष्टापहः स्मृतः॥ २४ ॥ द्वितीये वा तृतीये वा पादे पुष्यस्य चन्द्रमाः । रोहिणीष द्वितीये स्यात्कष्टशान्त्यै शुभेक्षितः ॥ २५ ॥ होराप्रकाशे-रिष्टं घ्नन्ति त्रिकोणस्थाः शुक्रज्ञेज्याः परस्परम् । निरन्तरमहश्येऽर्थे बलिनो वाऽखिलग्रहाः ॥ २६ ॥ भद्राभरे व्यतीपाते गण्डान्ते वैधृती तथा । संध्यायामपि जातस्य रिष्टं जातु न जायते ॥ २७॥
इति चन्द्रारिष्टभङ्गः।
अथ सर्वारिष्टभङ्गः। जातकतिलके-गुरुदीप्तो बली केन्द्रे विशेषाल्लग्नगो हरेत् । पापदृष्टोऽखिलं रिष्टं तद्वज्ज्ञसितलग्नपाः ॥१॥ लग्नं शुभगृहं पापा विबलाः सबलाः शभाः । नन्ति रिष्टं त्रिषष्ठाये राहुर्वाऽपि शुभेक्षितः ॥ २॥ शुभैः सद्वर्गगेष्टाः पापास्तु शुभवर्गगाः । रिष्टनाः प्रकृतिस्था वा सर्वे शीर्षोदयलंगाः॥३॥ शुभस्तत्कालविजयी रिष्टहच्छुभवीक्षितः । सप्तर्षीणां समुदये तत्काले कुम्भजस्य च ॥४॥ परिविष्टो गगनगैः क्रूरैरपि विलोकितः । कष्टं हरति राहा कर्किगोजविलग्नगः ॥ ५॥ परस्परं चतुर्थस्था ग्रहाः सर्वे सराहवः । रिष्टं हरन्ति वा तद्वदेकभस्थाः शुभांशगाः॥६॥ होरामकरन्दे-मृदुर्विवस्वान्विरजस्कमम्बरं बलाहकाः स्निग्धरुचो दिवौकसः । शस्ता मुहूर्ता यदि सुप्रशस्ताः पापं तदा याति विनाशमाशु ॥७॥ जीवज्ञास्फुजितामेकः कण्टके पूर्णविक्रमः । रिष्टहत्संभवेत्केन्द्रे क्रूरोऽपि परमोच्चगः ॥ ८॥ राहुँस्त्रिषष्ठलाभे लग्नात्सौम्यैर्निरीक्षितः सद्यः । नाशयति सर्वदुरितं मारुत इव तूलसंघातम् ॥ ९॥ शीर्णोदयेषु राशिषु सर्वे गगनाधिवासिनः सूतौ । प्रकृतिस्था वा रिष्टं विलीयते घृतमिवाग्निस्थम् ॥ १०॥ यत्रतिभङ्गपरैः सरोजदामभिः स्वयं कुरुते । भञ्जनकष्टमनिष्टं समनटदेशे यथा करभः ॥ ११॥ बहवो यदि शुभफलदा योगास्तत्रापि भज्यते रिष्टम् । सोत्रिकोण इन्दौ यथा हि यात्राऽमरेन्द्रस्य ॥ १२ ॥ लग्नपगरुशुक्रविदामेंकोऽपि यदि केन्द्रमाश्रितो बलवान् । रिष्टं नश्यति सद्यो यथा मृगाङ्कः क्षयव्याधिम् ॥ १३ ॥ होरामकरन्दे-लग्नेश्वरोऽतिबलवाञ्छुभवन्धुदृष्टो रिष्टं
१ घ. हकास्तिग्मरु । २ घ. 'हुविष ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोहरत्यहिमरश्मिरिवान्धकारम् । निःशेषखेचरदृशां यदि सोऽपि पात्रं जातो गतोऽगभवनं निधनं निहन्ति ॥ १४ ॥ मित्रक्षेत्रगताः पापास्त्रिकोणस्थाः शुभग्रहाः । नाशं नयन्ति पापानि श्रुतिपाठादिवाकुलम् ॥ १५॥ मेषगः कर्किगश्चन्द्रो ग्रस्तोऽपि शुभवीक्षितः । केन्द्रगो दुरितं हन्ति चण्डानिल इवाम्बुदम् ॥ १६ ॥ सौम्यद्वयान्तरगतः संपूर्णः स्निग्धमण्डलश्चन्द्रः । निःशेष रिष्टहन्ताऽऽशु (नो) भुजंगलोकस्य गरुड इव ॥ १७ ॥
इति सर्वारिष्टभङ्गः।
अथ नियतायुः। गर्गः-दीर्घायुषोऽपि ये योगाः प्रोक्ता जन्मविधौ मया । बलं ततस्तथा ज्ञेयाश्छेदकारिष्टभङ्गन्दाः ॥ १॥ होरमकरन्दे-चतुष्टये पूर्णबलः शुभश्चेद्वयोमौकसां मृत्युपदं विहीनम् । त्रिंशत्तदायुः कथितं मुनीन्द्रर्दशाधिकं तद्यदि सौम्यदृष्टः ॥ २ ॥ कुलीरलग्ने वचसामधीशः केन्द्रे कविस्तत्र भवेच्छतायुः । गुरुः स्वराशौ निजक्कगश्चेत्सप्ताधिका विंशतिरायुरत्रं ॥३॥ शुभस्थिताः शुभखगा निजकेन्द्रयाते चन्द्रे तनौ बलिनि जीवति वर्षषष्टिः । सौम्यास्त्रिकोणभवनेषु गुरौ स्वतुङ्गे लग्ने स्थिते स्फुटमिहाऽऽयुरशीतियुक्तम् ॥ ४ ॥ होराप्रदीपे-लग्ने सनिधने शून्ये चन्द्रे वीर्याश्रिते गुरौ । शुभस्थानस्थितैः शेषेर्जन्म विद्याच्छतायुषाम् ॥ ५॥ योगजातके-जीवे लग्ने शुभे केन्द्रे निधने ग्रहवर्जिते । लग्नचन्द्रौ न दृष्टौ चेत्पापैर्जीवति सप्ततिम् ॥६॥ सौम्याः खेऽस्ते स्वभे चन्द्रे लग्ने जातोऽत्र षष्टिकः । गुरो भगौ च केन्द्रस्थे जीवेद्वर्षशतं नरः॥ ७ ॥ होराप्रकाशे-केन्द्रत्रिकोणनिधनेषु न यस्य पापा लग्नाधिपः सुरगुरुश्च चतुष्टयस्थः । भुङ्क्ते शुभानि विविधानि सुपुण्यकर्मा जीवेच्च वत्सरशतं स विमुक्तरोगः ॥ ८ ॥ बादरायणःमृगवदनपश्चिमार्धे भूनन्दनचन्द्रसंयुते लग्ने। केन्द्रगते सुरपूज्ये जीवति जातोऽष्टवर्षशतम् ॥९॥ स्वोच्चे लग्ने भगुजे सौम्थैदृष्टेऽष्टमेऽपि चन्द्रमसि । सुरमन्त्रिणि केन्द्रगते जातः शतजीवितो भवति ॥ १० ॥ निधनोपगते सौम्यग्रहे शुभनिरीक्षिते । चन्द्रोऽपि यद्यनिष्टः स्याच्छतायुः केन्द्रगे गुरौ ॥ ११ ॥
इति नियतायुः ।
१ घ. 'त्र ।। ३ ।। स्वभेस्थि । २ ख. नेसूर्यच ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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अथ परमायुः । यवनजातके - अनिमिषपरमांशके विलग्ने शशितनये गवि पश्चवर्गलिप्ते । भवति परमायुषः प्रमाणं यदि सहिताः सकलाः स्वतुङ्गभेषु ॥१॥ होराप्रदोपेधनुषोऽन्तगते लग्ने परमोच्चगतैहैः समस्तैश्च । गवि पश्चवर्गलिप्ते सौम्ये परमायुरामोति ॥२॥ बादरायणः-एकादशधामगतः शशभृत्केन्द्रोपगतौ च गुरुशुक्रौ । विंशतिशतं समानां जीवयुतो नरपतिर्जातः॥ ३ ॥
इति परमायुः।
अथामितायुः । गर्गः-जीवेन्दुर्किगो लग्ने केन्द्र भृगुसुतेन्दुजौ । क्रमारिलाभगाः क्रूराः कुर्युजन्मामितायुषाम् ॥ १॥ जातकतिलके तुलालग्नस्थिते शुक्रे स्वोच्चस्थगुरुभौमयोः । अश्विनीसहितेऽब्जे स्यादमितायुर्महीपतिः ॥ २॥ कर्किलग्ने सगुर्विन्दी केन्द्रस्थबुधशुक्रयोः । त्रिषडायगतैः शेषैरमितायुः क्रमं विना ।। ३ ।। शुद्धे रन्ध्रे सिते केन्द्रे कर्किलग्ने गुरौ विधौ । बतायुः ककिंलग्नेऽब्जे शेषैर्याति शुभसंगैः ॥ ४ ॥ परमोच्चगतैश्चन्द्रशुक्रारैर्लग्नगे गुरौ । मेषगोधनुरंशस्थैरविज्ञेज्यश्चिरायुषः ॥ ५ ॥
__ इत्यमितायुः।
अथाऽऽयुर्दायविवरणम् । जातकतिलके -सूर्योदयैः स्वाङ्गगुणैर्वर्षमेकमिह स्मृतम् । परमायुमनुष्याणां खार्काः कश्चिद्वदेच्छतम् ॥ १॥ दन्तेन्दवोऽब्दा नागस्य वाहस्य यमवह्नयः । शरपक्षाः खरोष्ट्रस्य जिनो गोर्महिषस्य च । शुनो द्वादश मेषादेः परमायू रसेन्दवः ॥ २ ॥ माण्डव्यः-प्रासादकूपसरसीषु सहस्रमेकमायुयुगं पुरवरेषु महत्सु विद्यात् । ग्रामेषु चायुतमुदीरितमुत्तमेषु वृक्षेषु पञ्च च शतानि हि कीर्तितानि ॥३॥ ज्योतिर्विवरणे-सपञ्चदिवसाः पूर्णयमचन्द्रमिताः समाः। परमायुर्मनुष्याणां केचिदूचू रदेन्दवः ॥ ४॥ सत्त्वाद्यायुर्मनुष्यायुर्दायवत्साध्यमेव तत् । निघ्नन्स्वेनाऽऽयुषा तेन खाप्तिं प्रस्फुटं भवेत् ।। ५॥ एवमायुर्बुधैः प्रोक्तं योगजं चाऽत्र कल्पयेत् । देवयोन्यवताराणामायुरग्रं (प्रयं) कचिद्भवेत् ॥ ६॥ अग्रं
१ क. निनागोम ।
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२८८
श्रीशिवराजविनिर्मितो---
(ग्र्यं) स्वायुस्तुरीयांशं प्रोच्यतेऽथ युगान्तरे । पूर्वपूर्वमिदं ज्ञेयं दिग्घ्नं दिग्घ्नं यथोत्तरम् ॥ ७ ॥
इत्यायुर्दायविवरणम् ।
अथाऽऽयुर्दायानयनम् ।
जातकतिलके—सायनांशस्य लग्नस्य राशींस्त्यक्त्वा लवादिकम् । सूर्यनन्दै१२ । ९ । तं तत्स्याग्रस्याऽऽयुर्दिनादिकम् || १ || खेन्दुगोक्षाग्निकेन्द्राङ्गराशीन्सूर्यादिषु त्यजेत् । सायनांशेषु तच्छेषं षड्याल्पं भगणात्त्यजेत् || २ || स्ववर्ष - गुणितं तत्स्यादायुर्मासादिकं स्फुटम् । व्ययभावस्थपापस्य व्ययपापान्तरंशकैः || आयुर्निघ्नं रिष्फलग्नान्तराशार्धहृतं स्फुटम् ॥ ३ ॥ ताजिकसारे - भान्ते प्रोक्तं परं तुङ्गपरमायुः समा रवेः । गोब्जा अब्जस्य तत्त्वाब्दा भौमगुर्वोः शरक्षमाः || ४ || विदः सूर्याः सितस्येन्दुयमा मन्दस्य खाश्विनाः । १९ । २५ । १५ । १२ । २१ । २० ।। सलग्नार्कादिदायैक्यं ज्ञेयमायुरिदं स्फुटम् | जन्मारिष्टै - दशारिष्टैन्यूनं तत्राऽऽदिशेन्मृतिम् ॥ ५ ॥
इत्यायुर्दायानयनम् ।
अथ दशाविभागः ।
यस्य यावद्ग्रहस्याऽऽयुर्दशा स्यात्तत्र तावती । जन्तोर्जातस्य तत्राऽऽद्या लग्नस्याऽऽयुर्मिता दशा || १ || लग्नकेन्द्रादिगानां स्युस्तत्र आपोक्तिमावधि । दशाक्रमेण खेटानां तेष्वल्पांशस्य पूर्वगाः || २ || तत्तद्ग्रहस्थितानां स्युस्तत्तदग्रगता दशाः । न वला बलवत्खेटदशाः प्राक्पश्चिमा ध्रुवम् ॥ ३ ॥ इति दशाविभागः ।
अथ दशाफलपाकनिर्देशः ।
दशा लग्नस्य शरैः श्रेष्ठा समाऽधमा । व्युत्क्रमाद्विस्वभावस्य स्थिरस्योनेष्टमध्यमा || १ || बलानुरूपमत्रापि लग्नेशस्य दशाफलम् । संयोज्य धीमालँग्नस्य दशायाः फलमादिशेत् || २ || संक्षिप्तजातके - मित्रोच्चस्वगृहांशोपगतानां शोभना दशाः सर्वाः । स्वोच्चाभिलाषिणामपि ननु कथितं तद्विपर्ययस्थानाम् || ३ || गर्गः - यद्यद्रव्यं गुणाभ्छायाः स्वभावाः प्रकृतिः स्थितिः । यस्य
१. युर्लग्नं रि० । २. श्रस्येष्टा स । ३. स्थिरेऽनिष्ट' ।
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ज्योतिर्निवन्धः।
२८९
यस्य ग्रहस्योक्तं तत्तयोज्यं दशास्वपि ॥ ४ ॥ दशायां सबलस्यार्थलाभमारोग्यमादिशेत् । विबलस्य रुजं हानि मिश्रं समबलस्य च ॥ ५ ॥ जातकतिलकेयस्य ग्रहस्य यदव्यं कर्माऽऽजीवं च यस्य यत् । अभावदृष्टियोगोत्थं फलं तत्स्वदशासु च ॥ ६ ॥ दिग्बलायोनिजं देशं नीत्वा दद्याद्धनं सुखम् । नीचस्थः स्वप्रचिन्तायै राज्यायफलपाककृत् ॥ ७ ॥ बालभावे पितुः स्यातां लाभालाभौ दशोद्भवौ । सुखक्लेशौ स्वयं भुङ्क्ते तारुण्ये त्वखिलं फलम् ॥ ८ ॥
इति दशाफलपाकनिर्देशः ।
अथान्तर्दशाविभागः। दशाधिपत्रिकोणस्थस्तृतीयांशं तथाविधम् । चतुरस्रगतः पादं सप्तमः सप्तमांशकम् ॥ १॥ ते चेदन्तर्दशादाया बहवोऽप्येकभावगाः । तद्भावनिकटः पूर्व दद्यात्ता दूरगस्तथा ॥२॥ एवं लग्नदशायां च लग्नमन्तर्दशा निजम् । दद्याद्ग्रहदशायां च दद्युरन्तर्दशा ग्रहाः ॥३॥ न्यसेद्रूपं दशेशस्य ततस्त्वन्तर्दशा भवेत् । स्वान्स्वानंशान्क्रमेणोक्तान्यथालाभं च वक्ति सः ॥ ४॥ अन्योन्यच्छेदघातोत्यो गुणकाख्यः प्रजायते । गुणकोऽसौ पृथक्छदर्भक्तो लब्धैक्यजो हरः॥ ५॥ दशाप्रमाणं वर्षाद्यं गुणकघ्नं हरोद्धृतम् । लब्धं दशापतेराया वर्षाद्यन्तर्दशा भवेत् ॥ ६ ॥ तदेकादिगानां सा पृथगन्तर्दशांऽशकैः । विहिताऽन्तर्दशायाः स्युर्मानान्यंशक्रमात्ततः ॥ ७॥ दशाधिपस्यैकगृहे बाणेन्द्रशान्तरस्थितः । तदन्तेऽन्यान्तर्दशाभूतं तद्दशायां च तद्बलम् ॥ ८ ॥
इत्यन्तर्दशाविभागः।
अथान्तर्दशाफलम् । दशेशान्तर्दशानाथमित्रारित्वाच्छुभाशुभम् । फलं तयोबलवतः प्रौढमन्यस्य हीयते ॥ १॥ नष्टस्यान्तर्दशा दैन्यं कुर्यानीचस्य नीचताम् । लग्नजन्मेशयोः शत्रोः शत्रुभीतिं सुखक्षयम् ॥ २॥ क्रूरस्यान्तर्दशा क्रूरदशायां विशती नृणाम् । तयोर्विशेषाच्छत्रुत्वे प्राणसंदेहकारिणी ॥ ३ ॥ मन्दारान्तर्दशे मृत्यौ दशयोः कुजमन्दयोः । परस्परं त्रिकोणस्थौ तौ चेत्तत्र विशेषतः ॥ ४ ॥ मत्युदाऽन्तर्दशा लगदशायां लग्नपारिजा। रिष्टं पूर्ण समांशत्वे दशेशान्तर्दशेशयोः ॥ ५ ॥ अन्त
१ य. स्वपतीताये । २ क. 'स्थस्तु ।
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२९०
श्रीशिवराजविनिर्मितोदशेशो बलवाञ्छुभयोगेक्षणादिभिः । दशेशे विवले चात्र क्लेशाय न तु मृत्यवे ॥ ६॥
इत्यन्तर्दशाफलम् ।
अथ भावविचारः। जातकतिलके-स्वस्वामिना सुसंदृष्टो भावः सर्वोऽपि सत्कलः । क्रूरेक्षितः कष्टफलो निष्फलो दृष्टिवर्जितः॥१॥ सर्वग्रहेक्षितो भावो ग्रहो वा मङ्गलपदः। क्षमः स्यात्स्वफलं दातुं लग्नेन्दू राज्यदौ तथा ।। २ ॥ पद्धतौ-पुष्णन्ति सौम्या रिपुराशिवर्ज घ्नन्तीतरेऽष्टव्ययशत्रुवर्जम् । सूर्यादिका नात्र मृतिव्ययस्थाः पापाः प्रदुष्टा इतरे तु किंचित् ॥३॥ उच्चस्थः स्वगृहस्थो वा मन्दो राज्यप्रदो भवेत् । वृषकर्कटमेषस्थो राहुरारोग्यकृत्ततः ॥ ४ ॥ लग्नगे कर्किगे चन्द्रे धनी स्यादन्यराशिषु । विकलाङ्गो जडो दीनः कृष्णपक्षे विशेषतः ॥ ५ ॥
अथ धनचिन्ता। शुभा धनस्थिताः कुर्युर्वाग्मिनं मिष्टभोजनम् । क्रूराः प्रोक्तविरोधेन कदनं बहुभाषिणम् ॥ १॥
अथ सहजचिन्ता। सहजे सर्वपापाढ्ये पापः भ्रातरो न हि । नाशयेत्सहजं जातं मन्दो भीमेक्षितोऽनुजम् ॥ १॥ नवांशा भ्रातृभावस्था यावन्तोऽब्जकुजेक्षिताः । तत्संख्याः सहजा ज्ञेया दृष्टा अन्यैस्तु योषितः ॥ २॥
अथ सुहृश्चिन्ता । जीवेक्षिते शुभं शुक्रेऽजारदृष्टे सुहृत्क्षयः । सुखे क्रूरयुते मातुः क्लेशकृत्सुशुभे शुभम् ॥१॥
अथ सुलचिन्ता। पुत्रभावोपभुक्तांशतुल्याः संख्याः शुभांशके । द्विघ्नाः शुभेक्षिते क्लिष्टाः पापाशे पापवीक्षिते ॥ १॥ ताजिकतिलके -पापः पश्चमे राशौ पापैवेलिभिरन्विते । सौम्यग्रहैरसंदृष्टे पुत्राभावो भवेन्नृणाम् ॥ २ ॥ पुत्रमावे कुजः पुत्रं जातं जातं विनाश येत । गुरुशुक्रेक्षितस्त्वाचं न च सर्वग्रहेक्षितः ॥ ३॥ लग्नादशमगे चन्द्रे भार्गवे सप्तमे स्थिते । अशुभेषु सुखस्थेषु वंशच्छेदोऽस्य जायते ॥ ४ ॥
१ क. °म् । मूर्तादि य. म् । मू गदि ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
२९१ अथारिचिन्ता। शनिदृष्टेऽरिभावस्थे कुजे स्युर्वहवोऽरयः । शुभयुक्तेक्षिते त्वल्पास्ते च क्षेत्रग्रहोन्मिताः ॥१॥
अथ कलवचिन्ता। घूनेशान्यतमेंऽशे स्याद्यावन्तो धूनपक्षकाः । तावत्यः स्युः स्त्रियो नृणामेकैवाऽऽर्किकुजांशके ॥ १॥ शनैश्वरे विलग्नस्थे भसंधिस्थे सितेऽस्तगे । पुत्रभावे शुभैर्युक्ते जातो वन्ध्यापतिर्भवेत् ॥ २ ॥ पापर्खे पापसंयुक्ते कलत्रे पापसंयुते । विभार्यो मृतदारो वा शुक्रेन्द्विज्यबुधैः शुभम् ॥३॥ लग्नान्त्यमन्दगैः पापैः क्षीणे धीस्थे निशाकरे । पुत्रजायाविहीनस्य जायते जन्म निश्चितम् ॥ ४ ॥
___ अथ मृत्युचिन्ता। स्वोच्चे स्वोच्चनवांशे च शुभवर्गे च नीचभे । नीचांशे क्रूरपड्वर्गे मित्रभे सुहृदंशके ॥ १॥ वर्गोत्तमेरिभेऽयंशे स्वः द्वादशधा क्रमात् । निर्याणं ग्रहयोगाख्यं कथ्यते यवनोदितम् ॥ २ ॥ भुक्तितोऽनिप्रवेशेन जनहीतः प्रमादतः। वनाग्निना दम्भकृत्याद्दीपनेन विषादनात् ॥ ३ ॥ बन्धान्निशितलोहाच रक्तकोपात्तथैव च । कफात्कासात्स्यपराधान्मृत्युसृत्युगते रवौ ॥ ४ ॥ जलभवेशाद्धस्ताभिघातांदशनिपाततः। स्त्रीहस्तात्पित्तकफतो दोपत्रयभवामयात् ॥ ५॥ ज्वरावृदयरोगाच्च पशुपादाभिघाततः । गुदरोगाच्छृङ्गघातात्क्षयाच्चन्द्रेऽष्टमे मृतिः ॥ ६॥ सङ्ग्रामाद्गोग्रहणतः स्वहस्तानिनशस्त्रतः । द्विजशापादश्मघाताकाष्ठात्कूपात्प्रमादतः ॥ ७॥ भृगुपाताद्गुप्तरोगाद्विषभक्षणतस्तथा । चौरमहरणाद्भौमे मृत्युः स्यान्मृत्युभावगे ॥ ८ ॥ ज्वरात्कफविकारेभ्यो वातरोगाव्रणेन च । महाभयेन प्रियजवियोगाद्वदनामयात् ।। ९ ॥ नेत्ररोगात्पायुरोगाद्वन्धनेनोदरामयात् । पादत्रणाद्धधे मृत्युमत्युभावगते क्रमात् ॥ १० ॥ नानारोगैमलरोगात्कर्णरोगात्तथैव च । स्वजनाच विषूचीतोऽतिसारानिजभृत्यतः ॥ ११ ॥ रक्तकोपात्तुरगतः स्वकेशान्मूर्ध्नि कोपतः । बहुभापणतो मृत्युर्जीवे स्यान्मृत्युभावगे ।। १२ ।। तृषया मुखरोगाच्च दन्तदुःखात्रिदोषतः । विषूच्या वनसत्त्वेन भुजगाद्विषभक्षणात् ॥ १३ ॥ लूतया विषकण्टेन सुरतोत्थरकोपतः । बहदु:खाद्भवेन्मृत्युम॒त्युभावगते सिते ॥१४॥ बुभुक्षया लङ्घनेन तथा प्रायोपवेशनात् । बन्धुवगोदरिकरात्क्षयेण पथदद्रुतः ॥ १५ ॥ पिटकैव्रणकोपेन हयपाताभिघा
१ घ. °तादिषनि । २ व त् ॥ ५ ॥ जट राइगुरो ।
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२९२
श्रीशिवराजविनिर्मितोततः । हस्तितः खरतो मृत्युमन्दे स्यान्मृत्युभावगे ॥ १६॥ चरभे परदेशे स्यान्मृत्युभे स्वगृहे स्थिरे । द्वयङ्ग पथि मृतिश्थाथ संग्रहे भावजं फलम् ॥१७॥ खेऽर्के सुखे कुजे मृत्युभवेच्छैलाग्रपातजः । धीधर्मस्थौ शुभादृष्टौ क्रूरौ चेद्वन्धनान्मतिः ॥ १८ ॥ कन्यास्थौ पापदृष्टों चेत्सूर्येन्दू स्वजनान्मृतिः । पापयोर्मध्यगे चन्द्रे कुजसंस्थेऽग्निशस्त्रतः ॥ १९ ॥ मृत्युः सुखे कुजेऽके वा खे शनौ शूलभेदतः । भौमे क्षीणेन्दु दृष्टेऽस्ते यन्त्रोत्पीडनया मृतिः ॥ २० ॥
अथ गतिज्ञानम् । । पापत्र्यंशे मृत्युभावे वह्निना दह्यते शवम् । शुभयुक्तक्षिते तस्मिन्दुक्काणे शोष्यते च तत् ॥ १ ॥ सर्पव्यंशे शवं गृध्रशृगालाद्यैस्तु भुज्यते । शुभत्र्यंशे क्लिश्यते तत्पापयुक्ते तु शोप्यते ॥ २॥ शुक्रेन्दू पितृलोकेशौ शनिज्ञौ नरकाधिपौ । तिर्यग्लोकस्य सूर्यारी स्वर्गस्याधिपतिगुरुः ॥ ३ ॥ रवीन्द्रोर्बलवान्यस्य दृक्काणे तस्य लोकतः । आगतः प्राग्जनों चासौ तुङ्गादिस्थस्य तत्समः ॥ ४ ॥ मृत्युशात्रवभावस्थात्रिंशयोर्यो बली जनौ । तन्नाथस्य व्रजेल्लोकं मृत्योर्जन्तुरसंशयम् ॥ ५॥ केन्द्रारिमृत्युगो जीवः स्वोच्चस्थो यस्य जन्मनि । शेषा ग्रहाश्चेदबलास्तस्य मोक्षो मृतस्य हि ॥ ६ ॥ चक्रावसानलग्नस्थो गुरुः शुभनवांशगः। यस्य जन्मान शेषाश्चेदवलाः स विमुच्यते ॥ ७ ॥ एवमुक्तास्तु ये योगाः स्वर्गादिगतिकारकाः । मत्युकालेऽपि जन्तोस्ते तथा स्युस्तत्फलप्रदाः॥८॥
अथ भाग्यचिन्ता । लग्नाद्विधोर्वा नवमं भाग्यस्थानं भवेत्ततः । भाग्यं हि चिन्त्यते नृणां तत्तत्पतिबलाबलात् ॥ १॥ स्वस्वामिना युक्तदृष्टं स्वदेशे फलदायकम् । तदन्ययुक्तदृष्टं तत्परदेशे फलप्रदम् ॥ २ ॥ गुरुभोग्ये भवेन्मन्त्री महाभाग्योऽखिले. क्षिते । अबलेऽपि शुभे खेटे भाग्यस्थे धार्मिकोत्तमः ॥ ३ ॥ शनिः कुजोऽथ वा द्वौ वा भाग्ये पूर्णेन्दुसंयुते । सर्वे वा स्वोच्चगे भाग्ये भवन्ति नृपजन्मनि ॥ ४ ॥ भाग्ये रवीन्द्वोः स्वल्पायुः कुजेन्द्रोर्मातुरन्तकृत् । हीनः पितृभ्यां व्रणितो द्वेष्यो हिंस्रः कुजेन्द्विनैः ॥ ५ ॥ गर्गः-अदृश्येऽर्धे भाग्यनाथे गते जन्म यदा भवेत् । लग्नपे च विशेषेण यावज्जीवं समृद्धिमान् ॥ ६॥
अथ कर्मचिन्ता। अर्थाप्तिः पितृतो मातुः शत्रोमित्रात्सहोत्थतः । स्त्रिया भृत्यादिनायैः स्याल्लग्नेन्द्रोः कर्मगैः क्रमात् ॥ १॥ यावन्तो लग्नतश्चन्द्राद्ग्रहाः कर्मस्थितास्तु ते ।
५१. शुभदृष्टौ ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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तत्तत्फलप्रदाः सर्वे स्वदशायां विशेषतः || २ || हेमौषधादिभिः सूर्ये कृषियोपाश्रयैर्विधौ । धात्वस्त्र साहसैभौमे ज्ञे कलाकाव्य लेखनैः || ३ || धर्मक्रियादिभिर्जीवे पशुरत्नादिभिः सिते । नीचशिल्पादिभिर्मन्दे वृत्तिरस्य स्वनाथवत् ||४||
अथाऽऽयचिन्ता |
आयेशेऽर्के नृपाल्लाभस्तत्स्थे पश्यति वा तथा । चन्द्रे स्त्र्यम्बुहरिमायं धनं भौमेऽस्साहसैः ॥ १ ॥ काव्यलेखनजं ज्ञे स्यात्स्वर्णयज्ञाश्वजं गुरौ । शुक्रे गानगमस्त्रीजं शनौ ग्रामादिकर्मजम् || २ || सारावल्यां - होरागतैरथाऽऽयगृहस्थितैस्तैर्विचिन्तयेद्द्रव्यम् । बलसंयुतैर्ग्रहेन्द्रैरनेकधा दृष्टमाचार्यैः ॥ ३ ॥
अथ व्ययचिन्ता |
क्षीणेऽब्जे वा रवौ रिष्फे धनं पुसां नृपो हरेत् । बहुधाऽर्थक्षयो भौमे दृष्टेऽ न्येषु सद्यः ॥ १ ॥
अथ ग्रहभावफलम् ।
जातकोत्तमे—लग्नेऽर्केऽल्पकचः शूरो मेषे तिमिरलोचनः । स्फोटाक्षः कर्कटे सिंहे निशान्धो निर्धनो घटे || १ || मुखरुग्विक्रमी नित्योद्विनो वितनयोऽरिहा | स्त्रीजितोऽन्धोऽर्थवान्मान्यो धनी पापी धनादिगे || २ || लग्ने चन्द्रे जडो जातः क्षीणेन्दो रोगवान्भवेत् । कर्कटे रूपवान्मेषे पुत्रवान्वृषभेऽर्थवान् ॥ ३ ॥ धनादिगे धनी स्वार्थपरो भोक्ता सुपुत्रवान् । रोगभाक्कामुकोऽल्पायुर्दाता श्रीमान्सुखी विदृक् || ४ || लग्ने भौमे नरोऽल्पायुः क्षमी स्वर्क्षे मृगेऽर्थवान् । धनादिस्थे कदम्नाशी शूरो यानोज्झितोऽप्रजः || ५ || पूज्यो दु:खी व्यसुर्मानी शूरः श्रीमान् बली क्रमात् । दीर्घायुर्मतिमान् भूरिसहजो वाहनादियुक् || ६ || विद्वान्वादिजितो धर्मी चिरंजीवी धनान्वितः । सकलारम्भको भोगी प्राज्ञो लग्नादि बुधे || ७ || दीर्घजीवी महाभोगी कृपणो वाहनार्थयुक् । मन्त्रज्ञः स्त्रीजितो वक्ता दीर्घायुः सर्वशास्त्रवित् ॥ ८ ॥ राजमान्यो धनी दीनो गुरौ लग्नादिभागे । बह्वायुः सर्वभोगाढ्यः स्वार्थनिष्ठो यशोर्थभाक् ॥ ९ ॥ मन्त्रवेत्ता वधूद्वेषी सुभगः परमायुषी । सुखी मानी घनी कान्ताजीवी लग्नादिगे कौ ॥ १० ॥ गतायुगे मन्दे घटे नक्रे महानृपः । कुम्भे तु मण्डलाधीशमीने पुराधिपः ॥ ११ ॥ भ्रमी दाताऽमी मूर्खः शूरो नीचो व्रणार्दितः ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोद्वेषी ग्रामेश्वरो भोगी पातकी स्वादिगे शनौ ॥ १२ ॥ रोगी निःस्वः सुधीदुःखी दुर्भगः श्रीयुतोऽशुचिः । गतायुर्विकलो मानी धनी पापी ततः क्रमात् ॥ १३ ॥ विगतायुः खलः शूरो दुःखी मूर्योऽर्थवान्भ्रमी । क्षताङ्गो दुर्भगः श्रेष्ठः ख्यातो भ्रष्टः शिखी क्रमात् ॥ १४॥ अल्पायुर्विधवा मान्या द्वेष्या वन्ध्या कुलाधिका । पतित्यक्ता च विधवा धूर्ता साध्वी धनान्विता ॥ १५॥ सरोगा स्याद्रवौ मन्दे कुजे लग्नादिभावगे । दीर्घायुः सधना श्रेष्ठा भोगिनी पुत्रिणी खला ॥ १६ ॥ भर्तुः प्रिया सती साध्वी सुभगा धनगर्विता । दुष्टा लग्नाच्छभैरत्र चन्द्रे त्वष्टगते व्यसः॥ १७ ॥ विधवा मलिना धन्या सुखहीना मृतप्रजा । सती पत्युज्झिता वन्ध्या दुर्भगा बहुभाषिणी ॥१८॥ सुभगा कर्कशा राही केतौ त्वन्तादिभावगे । केचिन्मतमिदं ज्ञेयं यतश्च स्वीफलं नृवत् ॥ १९ ॥
इति ग्रहभावफलम् ।
अथ स्त्रीजातकाध्यायः । लघुजातके-स्त्रीपुंसोर्जन्मफलं तुल्यं किंचित्त चन्द्रलग्नस्थम् । तद्वलयोर्वपुराकृति[कृती]श्च(च) सौभाग्यमस्तमये ॥ १॥ गर्गः-वैधव्यं निधने चिन्त्यं शरीरं जन्मलग्नभात् । सप्तमे पतिसौभाग्यं पञ्चमे प्रसवस्तथा ॥२॥ वराहः-पुंसो जन्मफलं यन्न घटति वनितासु पतिषु तत्तासाम्। वक्तव्यं राज्याचं वृषणविनाशादिवापायम् ॥ ३ ॥ जातकतिलके-लग्नेन्द्रोः समभे जाता स्वोचिताकारशीलभाक् ।
ओजभेषु रुषाकारा दुःशीला दुःखिता वधूः ॥ ४ ॥ लग्नेऽब्जे वा युते दृष्टे शुभैः सच्छीलभूषणा । दुःशीला निर्गुणा पापैर्लनेन्द्रोर्युतदृष्टयोः॥ ५॥ शुभैरदृष्टे विवले यूनभे ग्रहवर्जिते । जाताया इह कान्ताया भवेत्सा पुरुषाकृतिः ॥ ६॥ प्रवासी चरभे छूने स्वगृहस्थः स्थिरे पतिः । व्यङ्ग चिरप्रवासी च क्लीवोऽस्ते बुधमन्दयोः ॥ ७ ॥ कुजेऽस्ते विधवा बाल्ये पतित्यक्ताऽस्तगे रवौ । वृद्धत्वं याति कन्यैव पापदृष्टेऽस्तगे शनी ॥ ८ ॥ विधवा यूनगैः क्रूरैः पुनर्भूस्तैर्युताऽन्वितैः । नीचैय॑यस्थैरशुभैर्दवत्ता च स्मरातुरा ॥ ९॥ द्यूनगे विबले क्रूरे शुभग्रहयुतेक्षिते । जायते स्वपति त्यक्त्वा पुनरन्यकुटुम्विनी ॥ १० ॥ द्यूने शक्रे गहेशे वा सुरूप: सुभगः पतिः । वोधे तु निपुणो विद्वांश्चन्द्रे कान्ततरो मृदुः ॥ ११ ॥ ऐणे तु कर्मकृतीक्ष्णो गुणी जैथे जितेन्द्रियः । स्त्रीलोलोऽकर्मकृत् कोजे मन्दे मूर्यो जरन्नपि ॥ १२ ॥ क्रूरेऽष्टमस्थे वैधव्यं शुभदृष्टिविवर्जिते । यस्यांशे निधनाधीशस्तद्दशायां विनिर्दिशेत् ।। १३ ॥ शुभो धनगतो यस्याः क्रूरो निधनगोऽपि
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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वा । मृत्युगस्य दशायां सा म्रियते विधवैव सा || १४ || कन्यालिवृषसिंहस्थे शशाङ्केऽल्पसुता वधूः । पापेऽस्ते नवमस्थे स्यात्प्रव्रज्यां यात्यसंशयम् ।। १५ ।। बलिनो ज्ञेज्यशुक्राराः समभं जन्मसंज्ञकम् | स्यात्तदाऽनेकशास्त्रज्ञा ख्याता स्त्री ब्रह्मवादिनी ॥ १६ ॥ पापद्वयमध्यगते चन्द्रे लग्ने च कन्यका जाता । निजपितृकुलं समस्तं श्वशुरकुलं हन्ति निःशेषम् ॥ १७ ॥ बादरायणः -- उन्मृष्टा स्याज्ञान भौमे विधवा नवोढेव । कन्यैव पापदृष्टे भानुसुते याति वैधव्यम् ॥ १८ ॥ लग्ने सौरी रविः पुत्रे धर्मस्थो धरणीसुतः । अस्मिन्योगे प्रजाता स्त्री सा भवेद्विषकन्यका ॥ १९ ॥ रिपुक्षेत्रगतौ द्वौ तु लग्ने यत्र शुभग्रहौ । क्रूरचैकस्तदा जाता भवेत्स्त्री विषकन्यका ॥ २० ॥ यवनः - भद्रातिथिर्यदाssश्लेषा शतभिषक् कृत्तिकाऽथवा । मन्दाररविवाराश्च विषकन्या बुधैर्मता ||२१|| गर्गः - द्वादशी वारुणं सूर्यो विशाखा सप्तमी कुजे । मन्दे श्लेषा द्वितीया च विषयोगास्त्रयो मताः ॥ २२ ॥ त्रैलोक्यप्रकाशे - व्ययाष्टगे कुजे क्रूरयुते राहौ च लग्नगे | रण्डाऽथ लग्नगे सूर्ये भौमे वा दुर्भगा शनौ ॥ २३ ॥ मूर्ती राखर्कभौमेषु रण्डा भवति कामिनी । एषु शुक्रद्वितीयेषु पतिमन्यं चिकीर्षति ॥ २४ ॥ रन्ध्रगौ सूर्यमन्दौ चेद्विलग्नान्निजराशिगौ । वन्ध्याऽथ चन्द्रमाः सौम्यः काकवन्ध्या तदा भवेत् ||२५|| मृतापत्या च शुक्रेज्यों सारौ गर्भस्रवा भवेत् । तस्माज्जन्मनि चिन्तायां रन्धं भव्यं ग्रहोतिम् ॥ २६ ॥ अस्यापवादः - लग्नाद्विधोर्वा यदि जन्मकाले शुभग्रहो वा मदनाधिपश्च । धूनस्थितो हन्त्यनपत्यदोषं वैधव्यदोषं च विषाङ्गनाख्यम् ॥ २७ ॥
-
इति स्त्रीजातकाध्यायः ॥
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अथ राजयोगाध्यायः ।
जातकतिलके – वर्गोत्तमांशगे लग्ने चन्द्रे वा चतुरादिभिः । अर्धचन्द्रैर्बलिभिः खेटैर्दृष्टो भूपो भवेध्वम् || १ || स्वोच्चगार्केज्यमन्दारैः सकलैरथ वा त्रिभिः । तदेकतमयुग्लग्नं स्वर्क्षे चन्द्रे तथा नृपः || २ || लग्ने शनौ कुजे स्वोच्चे चापे चन्द्रार्कयोर्नृपः । चापे रवौ कुजे सेन्दौ मृगलने गते नृपः || ३ || मीनलग शुक्रे कन्यालग्ने बुधे तथा । चापे चन्द्रयुते जीवे भौमः स्वोच्चे भवेन्नृपः ॥ ४ ॥ मृगसिंहघटस्थेषु भौमभास्करसौरिषु । मीनलनगते चन्द्रे जातो भवति भूपतिः॥५॥ मेपलगते भौमे गुरौ स्वोच्चगते नृपः । कुलीरलग्नगे जीवे भौमे मेषगते
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श्रीशिवराजविनिर्मितोनृपः ॥ ६ ॥ गुरौ कुलीरलग्नस्थे भास्करे मेषराशिगे । लाभस्थैश्चन्द्रशुक्रज्ञभूपो विक्रमवान्भवेत ॥ ७ ॥ बुधे कन्याविलग्नस्थे कुजशन्योः सुखस्थयोः । कलत्रस्थे सजीवेऽब्जे कर्मस्थे भार्गवे नृपः ॥ ८ ॥ अपि दासकुलोद्भूतो योगैरुक्तैरिमैनृपः । नृपजा वक्ष्यमाणैः स्युरन्यजास्तु नपोपमाः॥९॥ एकोऽपि बलवानखेटो भूपकृत्परमोच्चगः । केन्द्रादिशुभभावस्थो विशेषात्रय उच्चगाः ॥ १० ॥ लग्नस्थयोर्भीमशन्योः सुखस्थेऽब्जेऽस्तगे गुरौ । कर्मगेर्के बुधे लाभे शुक्रे धर्मस्थिते नृपः ॥ ११ ॥ लघुजातके-एकोऽपि नृपतिजन्मप्रदो ग्रहः स्वोच्चगः सुहृदृष्टः । बलिभिः केन्द्रोपगतेस्त्रिप्रभृतिभिरवनिपालभवः ॥ १२ ॥ वर्गोत्तमगतचन्द्रे चतुराद्यैर्वीक्षिते विलग्ने वा । नपजन्म भवति राज्यं नपतियोगे बलवति दशायाम् ॥ १३ ॥ सासवल्याम्-एक एव ग्रहः स्वोच्चे वर्गोत्तमगतो यदि । बलवामित्रसंदृष्टः कुरुते स महीपतिम् ॥ १४ ॥ केन्द्रे विलग्ननाथः सुहृद्भिरभिवीक्षितो यदा विहगैः । लग्नस्थितैश्च सौम्यभूपतिरिह जायते नियतम् ॥ १५ ॥ मृगसिंहौ परित्यज्य स्थितो लग्ने बृहस्पतिः । करोत्यवश्यं नृपतिं ववश्वपरिवारितम् ॥ १६ ॥ न्यूनोऽपि कुमुदवन्धुनपकुलजं पार्थिवं करोत्युच्चैः। किंपुनरखण्डमण्डलकरतः प्रकटितदिगन्तः ॥ १७ ॥ जातकोत्तमे-जन्मेशो वा विलग्नेशः केन्द्रस्थः पूर्णविक्रमः । संपूर्णों वा शशी तद्वत्कुरुते पृथिवीश्वरम् ॥ १८ ॥ देवमन्त्री कुटुम्बस्थो भार्गवेण समन्वितः । जनयेद्वसुधापालं निर्जितारातिमण्डलम् ॥ १९ ॥ यवनः--धने व्यये यदा लग्ने सप्तमे भवने ग्रहः । छत्रयोगस्तदा नीचकुलोऽपि नुपतिर्भवेत् ॥ २० ॥ त्रिभिश्छत्रं महाछनं पञ्चभिश्वातिसंज्ञकम् । सप्तभिस्तुर्यपङ्क्त्यन्तग्रहश्छत्रादिनिर्णयः ॥२१॥
इति राजयोगाध्यायः।
अथ राजयोगभङ्गः। - अवर्गोत्तमगे लग्ने हैदृष्टे न भूपतिः । त्रिशङ्कभोदयोत्पातव्यतीपातैश्च जन्मतः ॥१॥ जीवेऽर्के गतिनीचस्थे त्रिभिरर्कगतैहैः । क्रूरे कर्मगते चैव कुम्भलग्ने च नो नृपः ॥ २ ॥ चन्द्रे परमनीचस्थे शुक्रेऽर्के वा न भूपतिः । केमद्रुमे च शून्येषु कण्टकेष्वर्कने तनौ ॥ ३ ॥
इति राजयोगभङ्गः।
१ . °श्चाभितं । २ र्ययुक्तानाय ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
अथ राजयोगनिर्णयः। राजयोगैर्द्विजो विद्वान्क्षत्रियो नृपतिर्भवेत् । वैश्यो लक्षेश्वरः शूद्रो रामसेवापरः शुचिः ॥ १॥
अथ चन्द्रयोगः। विनाऽर्क व्ययगै चन्द्रादनका नुनफा खगैः । व्ययस्वगैर्दुरुधराऽन्यथा केमहुमो भवेत् ॥ १॥ प्रभुः सुवेषो नीरोगः ख्यातिशीलः सुखान्वितः । निवृत्तथानफायोगे भोगी वाग्मी धनी भवेत् ।। २ ॥ भूपो भूपसमो वा स्यात्सधनः ख्यातिधर्मवान् । आत्मार्जितधनः कान्तः सुनफायां सुखी गुणी ।। ३ । धनचाहनसौख्याप्तिस्त्यागी वान्छितभोगभाक् । ख्यातो दुरुधरायोगे वाग्ग्मी सद्भत्यशक्तिमान् ॥ ४ ॥ बलवद्ग्रहजैरेतैर्योगैः पूर्णे निशाकरे । यथोक्तफलभाजः स्युनृपाश्च नृपवंशजाः॥५॥ मलिनो दुःखितो नीचो निःस्वः प्रेष्यः खलो भवेत । केमद्रुमे नृपोत्थोऽपि लोकविद्विष्टवृत्तिभाक् ॥ ६ ।। अनफादित्रये भूपो भूपवंशभवो भवेत् । इतरो धनवान्केमद्रुमजो निर्धनोऽशुचिः ॥ ७ ॥ केमद्रुमफलाभाषश्चन्द्रे सर्वग्रहेक्षिते । सग्रहेऽब्जेऽथवा केन्द्रे केमद्रुमफलाल्पता ॥ ८ ॥ सारावल्यांकुमुद्गहनबन्धौ वीक्ष्यमाणे समस्तैर्गगनगृहनिवासैर्दीर्घजीवी विनाश्य । फलमशुभसमुत्थं यच्च केमद्रुमस्थं भवति मनुजनाथः सार्वभौमो जितारिः ॥ ९ ॥ हित्वेन्दु धनगैरकादेशिस्थानं बुधैर्मतम् । यच्चेष्टग्रहसंयुक्तं योज्यं यानेऽर्थसिद्धिदम् ॥ १० ॥
अथ म्लेच्छयोगः। मूर्ती सप्तमगाः क्रूराः सचन्द्रा वा पदस्थिताः । रक्षोभे जायते म्लेच्छो धर्मे पापत्रयान्विते ॥ १॥ शनिराहुकुजा धर्मे यदा लग्ने स्मरे पदे । सचन्द्रा वा पृथक् प्रोक्ता भावेषु म्लेच्छतां व्रजेत् ॥ २ ॥
___अथ राशिल मयोः फलम् । अस्थिरविभूति मित्रं चलमटनं स्खलितनियममपि घरभे । स्थिरभे तद्विपरीतं क्षमान्वितं दीर्घसूत्रं च ॥१॥ द्विशरीरे त्यागयुतं कृतज्ञमुत्साहिनं विविधचेष्टम्। ग्रामारण्यजलोद्भवराशिषु जातास्तथाशीलाः ॥ २॥ रागी सुखी कवि/मा. चोषी मानी यतिधनी। गुणग्राही ग्रही धर्मी कुटिलो मेश्राशितः ॥३॥ तस्करभोक्तृविचक्षणधनिनुपतिनपुंसकाययदरिद्राः । खलपापोप्रोत्कृष्टा मेषादीनां नवांशभवाः ॥ ४॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ प्रव्रज्यायोगः। बराह:-चतुरादिभिरेकस्थैः प्रवज्यां स्वां ग्रहः करोति वली । बहुभिवीयः प्रथमा वीर्याधिकस्यैव ॥ १॥ तापसवृद्धश्रावकरक्तपटाजीविभिक्षुचरकाणाम् । निर्ग्रन्थानां चार्कात्पराजितैः प्रच्युतैबलिभिः ॥ २॥ दिनकरलुप्तमयूखैरदीक्षिता भक्तिवादिनस्तेषाम् । याचितदीक्षा बलिभिः पराजितैरन्यदृष्टैा ॥ ३॥ जात. कोत्तमे-वन्याशी शिवभक्तश्वोपासको योगविद्यतिः । विष्णुभक्तश्च दिग्वासाः प्रव्रज्या भानुतः क्रमात् ॥ ४ ॥ अन्पच्च-ज्ञानवान्वीतरागी चोपासको विवरा— श्रमी । तीर्थकृच्छ्राद्धकृद्यज्ञी दुस्तपस्वी क्रमाद्रवेः ॥ ५॥
इति शूरमहाठश्रीशिवदासविनिर्मिते । ज्योतिर्निवन्धसर्वस्वे संपूर्ण जातकं स्फुटम् ॥ १ ॥
अथ नानाविधप्रश्नप्रकरणम् । .. तत्राऽऽदौ शुभाशुभज्ञानम् । ग्रहभावफलोत्पातशकुनस्वरवर्णनम् । पृच्छाजातकमाचार्यैरधिकाराष्टकं मतम् ॥ १ ॥ अधिकारेषु सर्वेषु प्रश्नतन्त्रं शिरःस्थितम् । यस्माच्छुभाशुभं सर्व सद्यःप्रत्ययकारकम् ॥ २ ॥ संपूज्य खचरान्साङ्गान्दैवज्ञं स्वक्रियापरम् । श्रद्धायुक्तः पूर्णपाणिः पृच्छेदव्याकुलः पुमान् ॥ ३ ॥ कर्मणा येन येनेह प्रेरितोऽभ्येति प्रच्छकः । जन्मपृच्छारम्भलग्नेयुक्त्या तस्य फलं वदेत् ॥ ४ ॥ क्षुद्रपाखण्डधूर्तेषु श्रद्धाहीनोपहासके । ज्ञानं न तथ्यतामति यदि शंभुः स्वयं वदेत् ॥५॥ भक्तार्तदीनवदने दैवज्ञो नाऽऽदिशेद्यदि । विफलं भवति ज्ञानं तस्मात्तेभ्यः सदा वदेत् ॥ ६॥ स्वस्थचित्तं सकृत्पृच्छेदातः पूर्वाह्न एव तत् । सत्यं स्यादपराहे तु मध्यं रात्रौ तु निष्फलम् ॥७॥ प्राची प्रतीची माहेशी कौबेरी दिक् सुखप्रदा । अवाची राक्षसी दुष्टा शून्याऽऽग्नेयी च मारुती ॥ ८ ॥ अङ्गुष्ठकणेवदनस्तनहस्तकेशकव्यंसपादतलगुह्याशरासि गण्डम् । ओष्ठं च संस्पृशति क्ति शुमानि यद्वा प्रष्टा तदा कलयति ध्रुवभिष्टसिद्धिम् ॥ ९ ॥ अधीतगणितो यः स्याज्जातकेषु कृतश्रमः । सोऽधिकारी भवेदत्र प्रश्नशास्त्रे निराकुलः ॥१०॥ पूर्णनाडीस्थितः पृच्छेच्छुभं स्यादन्यथा क्षतिः । श्वासप्रवेशे संपूर्ण निगमेऽल्पफलं वदेत ॥११॥ सौम्ये विलग्ने यदि वाऽस्य वर्गे शीर्पोदये सिद्धिमपैति कार्यम् । अतो विपर्यस्तमसिद्धिहेतुः कृच्छ्रेण संसिद्धिकरं विमिश्रम् ॥ १२ ॥
१ क. “यः सत्युपका० ।
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ज्योतिर्निवन्धः।
२९९ प्रश्नवर्णा रसैनिघ्ना गजाढ्याः सप्तभाजिताः । शेषे सौम्योदये शस्तं नेष्टं पापोदये वदेत् ॥ १३ ॥ दूतोक्तवर्णसंख्याङ्को द्विगुणो भाज्यते त्रिभिः । यद्येकः शेषतां याति तच्छुभं नान्यथा पुनः ॥ १४ ॥
इति शुभाशुभज्ञानम् ।
. अथ लग्नादिक्षावविचारः।। रूपलक्षणवर्णानां क्लेशदुःखसुखायुषाम् । वय.प्रमाणं जानानां तनुस्थाने नियोजयेत् ॥ १ ॥ मणिमुक्ताफलस्वर्णरत्नधातुकदम्बकम् । क्रयाणकानि सर्वाणि धनस्थाने नियोजयेत् ॥२॥ भगिनीभ्रातृभृत्यानां दासकर्मकृतामपि । कुर्वीत वीक्षणं विद्वान्सम्यग्दुश्चिक्यवेश्मानि ॥३॥ वाटिकाग्रामगेहादिवृद्धिस्थानं गमागमौ । प्रवेशं मातरं क्षेत्रं विधिमन्त्राषधं सुखे ॥ ४ ॥ गर्भापत्यविनेयानां मन्त्रसंधानयोरपि । विद्याबुद्धिप्रधानानां सुतस्थानाद्विनिर्णयः ॥ ५॥ महिष्यारियुग्युद्धगवाक्षक्रूरकर्मणाम् । मातुलात्तकलङ्कानां रिपुस्थानाद्विनिर्णयः ॥ ६॥ वाणिज्यं व्यवहारं च विवादं चौरकर्म च । गमागमं कलत्राद्यं पश्येत्प्राज्ञः कलत्रतः ॥ ७॥ नद्युत्तारेऽध्ववैषम्ये दुर्गे शात्रवसंकटे । नष्टे दृष्टे रणे व्याधौ छिद्रे छिद्रं निरीक्षयेत् ॥ ८ ॥ वापीकूपतडागादिप्रपादेवगृहाणि च । दीक्षायात्रां मठं धर्म गुरुं धर्मे निरीक्षयेत् ॥ ९॥ राज्यं मुद्रां पदं स्थानं पुण्यं मानं पितुः स्थितम् । वृष्टयादिव्योमवृत्तान्तं व्योमस्थाने निरीक्षयेत् ॥ १०॥ सस्यकाश्चनकन्यानां गजयानाश्ववाससाम् । लाभे विद्यार्थयोलाभ लक्षयेत्क्रयविक्रयौ ॥ ११ ॥ त्यागे भागे विवाहेषु दानेषु कृषिकर्मणि । युद्धे व्ययेषु सर्वेषु विद्धि विद्वन्व्ययं व्ययात् ॥ १२ ॥ यो यो भावः स्वामिदृष्टो युतो वा सौम्यैवों स्यात्तस्य तस्यास्ति वृद्धिः। पापैरेवं तस्य भावस्य हानिर्निर्देष्टव्या प्रश्नतो जन्मतो वा ॥ १३ ॥ यत्र दृक्पटकसद्भावस्तत्र पूर्णफलं वदेत् । चन्द्रदृष्टया विशेषेण तद्विनाऽल्पधिया पुनः ॥ १४ ॥ चन्द्रदृष्टिं विनाऽन्यस्य शुभस्य यदि दृग् भवेत् । शुभं प्रयोजनं किंचिदन्यदुत्पद्यते तदा ॥ १५ ॥ लग्नं लग्नेश्वरः पश्येद्भावं पश्यति भावपः । तावुभौ भावगौ स्यातां तदा तत्सिद्धिमादिशेत् ॥ १६ ॥ संपूर्ण सवलैः खेदैः शुभं चाशुभमल्पकम् । विबलैरशुभं पूर्ण नान्यद्व्यस्तं व्ययाष्टमे ॥ १७॥ केन्द्रे सर्वग्रहाः पुष्टात्रैकालिक
१ व. °लान्त फलंनानारी ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोफलप्रदाः । कार्य पणफराद्भावि:ज्ञेयमापोक्लिमाद्गतम् ॥१८॥ पृच्छालग्नेषु सर्वेषु लग्नाधिपवलावलात् । समस्तं फलमादेश्यं स्थानदृष्टिप्रभावतः ॥ १९ ॥
इति लग्नादिभावविचारः।
अथ ग्रहबलाबलम् । उच्चस्वराशिमित्रस्थः शुभदृष्टियुतोदितः । बली स्यात्पापयुग्दृष्टो नष्टो नीचारिंगोऽफलः ॥ १॥ क्रूरदृष्टो युतो वापि क्रूराक्रान्तो विरश्मिकः । स विनष्टो ग्रहो ज्ञेयो विपरीतस्तु पुष्टिमान् ॥ २ ॥ लग्ननाथे विनष्टे स्याद्विनष्टावयवो नरः।
जोवर्णाधिकं नष्टं ब्रूयादिदमशन्तिः ॥३॥ यदि लग्नेश्वरः षष्ठः स्वयमेव रिपुर्भवेत् । रन्धेशो मृत्युकारी स्याद्वादशस्थो व्ययप्रदः ॥ ४॥ भावप्रान्तगतः खेटः परभावफलप्रदः । आसीनोऽन्त्यघटी यावद्विवाहादौ फलप्रदः ॥ ५॥
__ अथ धात्वादिचिन्ता। धातुर्मूलं जीव इत्योजराशौ युग्मे विद्यादेतदेव प्रतीपम् । लने योऽशस्तत्क्र. मागण्यमेवं संक्षेपोऽयं विस्तरात्तत्प्रभेदः ॥१॥ ऊर्ध्वदृष्टया भवेज्जीवो ह्यधोदृष्टया च मूलकम् । समावलोकनाद्धातुं मिश्र मिश्रदृशा वदेत् ॥ २॥
अथ बहुप्रश्ने विशेषः । लग्नादाद्यात्तुरीयात्तु द्वितीया सप्तमात्परा । चतुर्थी दशमाञ्चिन्ता पञ्चम्यादि ततो भवेत् ॥१॥ ततोऽपि पञ्चमात्पश्चाद्रन्ध्राल्लाभाद्यथाक्रमम् । षण्नवान्त्याच्च पृच्छेव पूच्छा द्वादश संस्मृताः ॥२॥ धनादिभावं लग्नं स्यात्तस्मादपि धनादितः । शतं वेदाब्धिसहित प्रश्नानामिह जायते ॥ ३ ॥ भद्रार्धयामकुलिकव्यदीपातेषु वैधृतौ । क्रान्तिसाम्ये संक्रमणे ग्रहणे चेन सिद्धये ॥ ४ ॥
अथ लाभालाभविचारः। लग्नलाभपती लग्ने लाभे वा लग्नलाभपौ । लग्ने लाभाधिपो वा स्याल्लाभे लाभाधिपो भवेत् ॥ १ ॥ एकोऽपि हि यदा योगस्तदा लाभः सुनिश्चितम् । चन्द्रयुक्तो विशेषेण पूर्णमायुश्च यच्छति ॥ २॥ लग्नलाभपयोदृष्टिाभे लाभकरी मता। लाभः सर्वखगैर्दृष्टो लाभः पूर्णो भवेत्तदा ॥ ३ ॥ धनादिसर्वलाभेषु वाच्यमेवं यथा तथा । निष्फलाः कथिता योगा यदि चन्द्रो न पश्यति ॥४॥ तिर्यग्योनौ गते लग्ने द्वितृबीयगतेऽथवा । शुभग्रहेण युक्तश्चेत्पशुलाभस्तदा भवेत् ॥ ५॥ केन्द्रगो यदि लग्नेशः शुभो दृष्टः शुभैरपि । लग्नपो वा त्रिकोण
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ज्योतिर्निबन्धः। स्थश्चन्द्रोऽत्र क्षेमकारकः ॥ ६ ॥ लग्नगो यदि कर्मेशो दृष्टो लग्नाधिपेन तु। नृपाल्लाभस्तदा वाच्यश्चन्द्रदृष्टो विशेषतः ॥ ७॥ चन्द्रो लग्नपतिर्वाऽपि धनपस्याग्रगो भवेत् । तदा न धनलाभः स्याद्धनहानिध्रुवं भवेत् ॥ ८ ॥धने लाभपतिर्लग्ने वित्तपो धनलाभकृत् । धने शुक्रेन्दुगुरवो धनेशो वाऽतिलब्धये ॥ ९॥ त्रिपञ्चलाभास्तमयेषु सौम्या लाभप्रदा नेष्टफलाश्च पापाः । धटोऽथ कन्या मिथुनो घटश्च नराशयस्तेषु शुभं वदन्ति ॥ १० ॥ इन्दुं द्विसप्तनवमायारपुत्रिसंस्थं पश्येद्गुरुः शुभफलं प्रमदाकृतः स्यात् । लग्नत्रिधर्मसुतनैधनगास्तु पापाः कायार्थनाशमयदाः शुभदाः शुभाः स्युः ॥ ११ ॥ लाभे लाभेशसंदृष्टे लाभे शुक्रे गुरौ विधौ । लाभो भवति तत्कालं स्वस्यान्यस्य श्रिया सह ॥ १२ ॥ चरे लग्ने शुभैर्युक्ते लाभे चन्द्रे बलाधिके । त्रिकोणकेन्द्रगैः सौम्यैर्लाभो भवति निश्चितम् ॥ १३ ॥ मेषे लाभो वृषे लाभो मिथुने लाभ इष्यते । नास्ति कर्काटके लाभः सिंहे लाभस्तु शीतलः ॥ १४ ॥ कन्यायां च घटे लाभो न लाभो वृश्चिके मतः । धनुषि स्यादाशु लाभो मृगे कार्य तु शीतलम् । कुपुत्रस्तु भवेकुम्भे मीने लाभः शुभो भवेत् ॥ १५॥
अर्थ नष्टलाभविचारः । राशिकाणांशाश्वला हितं निश्चला मतिभ्रंशम् । उभयशरीराः पातं दिशन्त्यमी द्रव्यजातस्य ॥ १ ॥ वृषसिंहवृश्चिकघवृद्धिस्थानं गमागमौ न स्तः । न मृतं न चापि नष्टं न रोगशान्तिन चाभिभवः ॥ २ ॥ तद्विपरीतं तु चरर्द्विशरीरैमिश्रितं फलं वाच्यम् । लग्नेन्द्रोर्वक्तव्यं शुभदृष्टया शोभनमतोऽन्यत् ॥३॥ होरास्थितः पूर्णतनुः शशाङ्को जीवेन दृष्टो यदि वा सितेन | क्षिप्रं प्रनष्टस्य करोति लब्धि लाभोपयातो बलवाञ्छूभश्च ॥ ४ ॥ पूर्णः शशी लग्नगतः शुभो वा शीर्पोदये सौम्यनिरीक्षितश्च । तदाऽऽशु नष्टस्य करोति लाभं तथैव पूर्वोदितलाभयोगैः॥ ५॥ स्थिरोदये स्थिरांशे वा वर्गोत्तमगतेऽपि वा। स्थितं तत्रैव तद्रव्यं स्वकीयेनैक चोरितम् ॥ ६॥ यस्मिन्राशौ भवेच्चन्द्रस्तद्राशेरधिपेन चेत् । दृश्यते चन्द्रमाः प्रश्ने नष्टं च लभ्यते तदा ॥ ७॥ चन्द्रे करयुते नष्ट वक्रिणि यूनपे तथा । न लभ्यतेऽस्तपे नष्टे चौर्येशोऽपि मरिष्यति ॥ ८ ॥ सक्रूरे यूनपः केन्द्रे चोराप्तिः सशुभोऽन्यथा । सूर्यलुप्तो धनेशश्चेचोराप्तिन हृतं धनम् ॥ ९॥ लग्नपे धूनमायाते नष्टं कष्टेन लभ्यते । घुनपे लग्नमायाते स्वयं चोरः प्रयच्छति ॥ १०॥ विधौ व्ययगते वस्तु हृतं भुक्तं तु तस्करैः । स्थिरेऽस्तपे स्थितं
१ क. 'नेलग्नप।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोतत्र ग्रामान्तरगमश्चरे ॥ ११ ॥ उच्चगो यदि सप्तेशः स्वामी चौरः स्ववेश्मगः । चौरस्यापि वयोजातिरूपं सप्तेश्वरावदेत् ॥ १२ ॥ नीतं चौरिकया वस्तु धृतं चौरेण कुत्रचित् । कीटमर्कटमीनेषु चतुर्थे जलसंनिधौ ॥ १३ ॥ मेप. सिंहहये भूमौ हयस्यैव विनिर्दिशेत् । नृयुग्मे च तुलाकुम्भे नानाकारे गृहे भुवि ॥ १४ ॥ क्षेत्रमध्ये तु कन्यायां मकरे वृश्चिके भुवि । वृषभच्छागयोगेंहे यद्वा तत्स्थग्रहाद्वदेत् ॥ १५ ॥ सूर्ये गृहेशशय्यायां चन्द्रे तोयसमीपतः । दग्धस्थाने कुने ज्ञे तु चित्रगेहे गुरौं तथा ॥ १६ ॥ देवालये भृगौ क्रीडागृहे मन्दे मलाश्रये । लग्नाचन्द्रो भवेद्यत्र तत्र चौरगृहं वदेत् ॥ १७ ॥ चौरः खेटस्तु तद्राशिं त्यक्त्वा याति द्वितीयकम् । तदानीं नगराञ्चौरो निर्गतो वर्त्म चांशकात् ॥ १८ ॥ ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रोऽथ स्वजनाङ्गना । भ्राता पुत्रोऽथ भृत्यश्च दासः स्यान्मूषकोऽप्यभूः ॥ १९ ॥ पूर्वराशिं यदा वक्री समागच्छति लग्नपः । तदा ग्रामान्तराञ्चौरः स्वयमेवाऽऽगमिष्यति ॥ २०॥ मेषादिषु क्रमाचौरनामैषां राशिसादृशम् । मेपे वषे च दिक्पूर्वा आग्नेयी मिथुने स्मृता ॥ २१ ॥ दक्षिणा कर्कटे ज्ञेया सिंहेऽप्येवं विजानता । कन्यायां नैर्ऋती ज्ञेया पश्चिमा घटवृश्चिके ॥ २२ ॥ मारुती धनुषि ज्ञेया उत्तरा मगकुम्भयोः । मीनराशी तथैशानी दिशालक्षणमीदृशम् ॥ २३ ॥ चरे दूरं विजानीयात्स्थिरे गृहगतं वदेत् । द्विशरीरे भवेद्बाह्ये गृहं त्रिविधमादिशेत् ॥ २४ ॥ चरे वै गृहकोणेषु स्थिरे मृन्मयभाजने । द्विशरीरे भवेत्क्षेत्रे स्थिरे गृहगतं वदेत् ॥ २५ ॥ मेषेऽरण्ये वृषे क्षेत्रे युग्मे ग्रामेऽथ कर्कटे । नद्यां सिंहे तडागे च कन्यायां तु निजे गृहे ॥ २६ ॥ घटेऽन्तरिक्षेऽलौ वह्नौ चापे क्षेत्रे मृगे जले । कुम्भे भूमिगतं मीने पथि नष्टादिकं वदेत् ॥ २७ ॥ कुमारिकां बालशशी बुधश्च वृद्धां शनिः सूर्यगुरू प्रसूताम् । स्त्रीः कर्कशा भौमसितो व्यधत्त एवं वयः स्यात्पुरुषेषु चैवम् ॥२८॥ विस्मृतं यन्मया वस्तु तत्प्राप्तिं यदि पृच्छति। वस्तुस्थानं तृतीयं तु ग्राहकः सुखवेश्मकः ॥ २९ ॥ धातुवादे रणे चौर्ये परस्वहरणेऽपि वा । शुभपापसमायोगाल्लग्नस्यैवं विचारणा ॥ ३० ॥ चन्द्रलग्नपती षष्ठे बलिनौ ऋणलाभदौ । लाभयोगे तु लाभः स्यादन्यो लाभस्तु लाभतः॥३१॥
इति नष्टलाभविचारः।
अथ गर्भपृच्छा। स्नाता योषिद्यदा पृच्छेद्यत्र स्यादष्टमाधिपः । अङ्ग दिनानि तावन्ति यदि
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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च्छिद्रात्रे ततः ॥ १ ॥ लग्ने पुत्राधिपः पुत्रे लग्नेशो यदि संस्थितः । भावी पुत्रस्तदा मने वक्तव्यमिति निश्चितम् || २ || पुत्रेश्वरो यदा लग्ने पुत्रपश्वेन्दुना युतः । भृगुभूमिसुतौ पश्येच्चन्द्रो गर्भे सुतां वदेत् ॥ ३ ॥ लग्ने शुभे शुभे पुत्रे लाभे पुत्रे स्वगे गुरौ । प्रश्ने समुदितं वाच्यं सुतो गर्भेऽन्यथाऽन्यथा ॥ ४ ॥ पञ्चमे सुभगे गर्भो गर्भस्थो नीरुजस्तथा । सोपद्रवः सपापे तु गर्भस्रावोऽथवा मृतिः || ५ || लग्नं विना चरे राशौ विषमे पुत्रकृच्छनिः । समे स्त्री राहुरेवं चैज्जातमृत्युकरो मतः || ६ || सपापश्चन्द्रमाछिद्रे षष्ठे वा शुभदृग्विना । राहुश्चतुष्टये वा स्यात्सद्योमृत्युकरो मतः ॥ ७ ॥ गर्भग्रन्थिः शनौ राहौ कुजे गर्भस्त्रिमासिकः । वातग्रन्थि शनीन्दुभ्यां राबिन्दुभ्यां जलोदरम् || ८ || चन्द्राहष्टेऽधमैर्युक्ते क्रूरदृष्टे च पञ्चमे । नीचस्थेऽस्तमिते गर्भे नैवापत्यं प्रजायते ॥ ९ ॥ चन्द्रो वा यदि वा लग्ने पञ्चमे भवने स्थितः । सौम्येक्षितो यदाऽवश्यं गर्भिणीति तदा वदेत् ॥१०॥ हरिवृषवृश्चिककन्यापञ्चमगाश्चन्द्रतो विलग्नाद्वा । पृच्छाकाले वाच्यं स्वल्पापत्या भवेद्योषित् ॥ ११ ॥ वर्गे लग्नगते पुंग्रहदृष्टे बलान्विते पुरुषः । युग्मे स्त्री ग्रहदृष्टे स्त्रीबुधयुक्ते तु गर्भयुता ॥ १२ ॥ प्रसूता वाsप्रसूता वा षष्ठेशः पुत्रपोऽथवा । ज्ञगुरू व्योम्नि शुक्रो वा प्रसूता सा न चान्यथा || १३ || सुतेशलग्नाधिपती स्त्रीपुंभे स्त्रीसुतनदौ । सूर्यनाड्यां सुतश्चन्द्रे सुता वस्तु संक्रमे ॥ १४ ॥ लग्नचक्रे तु चत्वारि ग्रहयुग्माणि चेत्तदा । यमलं जायते तत्र चरे त्रीणि स्वपक्षतः || १५ || लग्नात्पुत्राद्भृगुर्यत्र तावन्मासान्गतान्वदेत् । यद्वा भुक्तांशका लभे गतमासास्तु तत्समाः ॥ १६ ॥ यावत्संख्ये द्वादशांशे शीतरश्मिर्व्यवस्थितः । तत्संख्यो यस्ततो राशिर्जन्मेन्दौ तद्गतं वदेत् ॥ १७ ॥ शनौ द्यूने जनित्र्यन्दैश्चन्द्रे कामेऽर्कवत्सरैः । पञ्चमः सप्तमो वा स्यात्तद्राशिचन्द्रतः शिशोः || १८ || दिवाल दिनस्वामी दिने जन्म निशापतिः । निशालग्ने निशि ज्ञेयं सायं जन्मान्यथा ध्रुवम् ॥ १९ ॥ वीक्षितं यमवक्राभ्यां पञ्चमं परवल्लभा । सेन्दुरर्कः सपापश्चेत्तथैवेज्यो न पश्यति ॥ २० ॥ इति गर्भपृच्छा ।
अथ विवाहपृच्छा ।
लग्नादिन्दुस्तृतीयास्तपञ्चकर्मायगो यदि । गुरुणा वीक्षितस्तर्हि भवेत्संवन्धकारकः ।। १ ।। तुलानृषकुलीरेषु संयुतेष्वीक्षितेषु च । निशानायकशुक्राभ्यां कन्यालाभो भवेद्ध्रुवम् || २ || व्ययेशो यदि लग्नस्थो लग्नेशो व्ययगो भवेत् । तदा विवाहकर्ता स्याद्वराप्तिर्विषमे शनौ ॥ ३ ॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ विवाहे शुभाशुभम् । यदि लग्नगतः क्रूरस्तस्मात्सप्तमगः कुजः । विज्ञेयं भर्तृमरणं सप्तमाब्दान्तरे यदि ॥१॥ लग्नात्पश्चमगः क्रूरः शत्रुदृष्टः स्वनीचगः । मतपुत्रा तदा नारी कुलटा वा न संशयः ॥२ ॥ यदि लग्नगतश्चन्द्रस्तस्मात्सप्तमगः कुजः । मासेऽष्टमे व्यतीते तु भवेन्मृत्युवरस्य च ॥ ३॥ आयुर्लग्ने सुते पुत्रान्यूने वित्तं गुरुर्बुधः । ददातीह विवाहोक्तं योज्यं स्त्रीजातकोदितम् ॥ ४ ॥
__अथ संभोगः। अस्ते रविसितवरैः परजायां स्वां गुरों वेश्याम् । चन्द्रे च वयः शशिवत्प्रव- . देत्सोरेऽन्त्यजातीनाम् ॥ १ ॥ सप्तमे वाऽष्टमे शुक्रे रतं स्वाभाविकं भवेत् । बुधेन गुरुणा वाऽपि शुक्रे युक्ते महत्सुखम् ॥ २ ॥ सचन्द्रे सुरता योषित्सकुजे कलहरे भवेत् । कटिशूलः ससौरे स्यात्सार्के मिथ्या रतं गतम् ॥ ३॥ सराहो तामसो भोगः सकेतौ कलहैर्युतः । लग्ने जीवे द्यूने चन्द्रे तुर्ये या क्रीडनं महत् ॥ ४ ॥ सुखद्यूनगतैः क्रूरैः सुरतं प्रेतवद्भवेत् । स्त्रीलाभयोगैः संभोगो भविष्यति नचान्यथा ॥५॥
अथ गमनम् । चरलग्ने चरभागे मध्याद्भटे प्रवासचिन्ता स्यात् । भ्रष्टः सप्तमभवनात्पुननिवृत्तो यदि न.चक्री स्यात् ॥ १॥ स्थित्वा विदिक्षु गमनं पृच्छति गन्ता चरोदये शुद्धे । ब्रूयाद्यात्रासिद्धिं शिवं तथा चार्थलाभं च ॥२॥ उदयगते चरराशौ गुरुबुधभास्करेषु चकतमः । गमनमुपदिशन्ति पुंसां निवतेनं वक्रसंस्थितो वाऽपि ॥ ३ ॥ स्थिरराशिस्थे चन्द्रे स्थिरोदये गन्तुमिच्छतो गमनम् । नास्तीति वक्ति शास्त्रं तथा चरे स्थातुकामस्य ॥४॥ सुखे व्योम्नि स्थिते सौम्ये तदा न गमनं भवेत् । तत्रैव गमनं पापे वक्री खेटो यदा न हि ॥ ५ ॥ भाग्यपो लग्नपो वा स्याच्चन्द्रगो वा विशेषतः । चन्द्रलग्नेश्वरौ भाग्ये गमस्तत्राप्यचिन्तितः ॥ ६॥ चन्द्रो लग्नपतिर्वाऽपि केन्द्रे खेरैः सहाग्रतः। सिद्धेऽपि गमने प्रष्टुर्गमनं नेति निश्चितम् ॥ ७ ॥ शुभे मूर्ती शुभं देहे दशमे कार्यसिद्धिकृत् । सप्तमे तु शुभैर्युक्ते गतो यत्र शुभं ततः ॥ ८॥ चतुर्थे सशुभे कृत्वा कार्य स्वागमनं भवेत् । अत्राशुभेषु तद्धानिर्मिश्रौमिश्रफलं भवेत् ॥ ९॥ स्थिरोदये जीवशनैश्चरेक्षिते गमागमा नैव वदेच्च पृष्ठतः । त्रिपञ्चषष्ठा रिपुसंगमाय पापाश्चतुर्था विनिवर्तनाय ॥ १० ॥ ग्रहः सर्वोत्तमबलो लग्नाद्यस्मिन्गृहे स्थितः । मासे
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ज्योतिर्निवन्धः।
३०५ स्तत्तुल्यसंख्याकैनिवृत्ति यातुरादिशेत् ॥ ११ ॥ चरांशस्थे ग्रहे तस्मिन्कालमेवं विनिर्दिशेत् । द्विगुणं स्थिरभागस्थे त्रिगुणं व्यात्मकांशके ॥१२॥ चन्द्रो याति यदा लग्ने जीवो वाऽप्यथवा कविः । सूर्यो वाऽस्तं तु लग्नेशो लग्नाशं वा तदाऽऽगमः ॥ १३ ॥ सप्तमे शीतगौ शुक्रे मार्गेऽपि गच्छतां नृणाम् । स्त्रीसंभोगो भवेस्नेहान्मिथुनादिषु मूर्तिषु ॥ १४ ॥ गमनप्रश्ने नवमस्थाने गते द्यूनपे भवेद्गमनम् । लग्नाज्जामित्रपतिः कालेनाऽऽप्नोति यावता वक्रम् । अयनवृत्तिरथवा विनिवृत्तिस्तेन कालेन ॥ १५ ॥
इति गमनपृच्छा।
अथाऽऽगमनम् । द्वितीये वा तृतीये वा विलग्नादथवा सुखात् । सौम्यः करोति नष्टाप्ति चाssगर्म च प्रवासिनः ॥ १॥ ब्रह्मयामले--प्रश्नाक्षराणि षड्नानि शशियुक्तानि सप्तभिः । हरेच्छेपात्फलं प्रष्टुः प्रस्थानं १ पथ २ आगमः ३ । गृहागमः ४ सिद्धि ५ रोगौ ६ मृत्युः स्या ७ कलमीदृशम् ॥ २॥ लग्नात्सौम्यो हिबुके शीघ्रागमनं चरे लग्ने । धनसुतसहजारिस्थाः सौम्याः शीघ्रागमाय निर्दिष्टाः ॥३॥ अकृतार्थः समभ्येति धनेशो यदि वक्रितः। वक्राभिलाषिणि स्थायी प्रोषितः परिकीर्तितः ॥ ४॥ दूरगतस्याऽऽगमनं सुतधनसहजस्थितैफेहर्विलग्नात्(?) । सौम्यैनष्टप्राप्तिर्लघ्वागमनं गुरुसिताभ्याम्॥५॥जामित्रेऽप्यथवा षष्ठे ग्रहः केन्द्रे च वाक्पतिः। प्रोषितागमनं विद्यात्रिकोणे ज्ञे सितेऽपि वा ॥६॥ अष्टमस्थे निशानाथे कण्टकैः पापवर्जितैः । प्रवासी सुखमायाति सौम्यैर्लाभसमन्वितः ॥ ७॥ केन्द्रादाद्वितीये खचरो यदा याति तदाऽऽगमः । गन्तुकामं ग्रह दृष्टा वाच्यमेतन्न चान्यथा ॥८॥ केन्द्राचन्द्रोऽग्रिमं याति तदाऽऽगन्ता तु मागेगः । नायं सप्तमकेन्द्रे स्यादग्रिमादग्रिमं तथा ॥९॥ मार्गस्थं पथिकं ब्रूते घने चन्द्रो व्यवस्थितः । मार्गनाथः परेऽर्धे चेत्पथिकागमनं तदा ॥ १०॥ चरलग्ने चरांशे वा चतुर्थे चन्द्रमाः स्थितः । ब्रूते प्रवासिनं व्यक्तं समायातं स्ववेश्मानि ॥ ११॥ गृहप्राप्तः प्रवासी स्याचतुर्थे स्वामिसंयुते । शुभयुक्ते दिनान्येवं भुक्तं भोग्यं च तद्वशात् ।। १२ ॥ शनिः सपापो दशमे विदेचे पथिकः सरुक् । पापा रन्ध्र रुजं कुर्युः सचन्द्रास्ते मृतिप्रदाः ॥ १३ ॥ पृष्ठोदये पापनिरीक्षिते वा पापास्तृतीये रिपुकेन्द्रगा वा । सौम्यैनं दृष्टा वधवन्धदाः स्युनष्टा विनष्टा मुषिताथ
१ ५. ननि ।
३९
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
वा स्युः ॥ १४ ॥ मन्दः पापसमेतो लग्नानवमे त्वशुभसंदृष्टः । रोगार्तः परदेशेऽष्टमगो वा मृत्युकर एव || १५ || सप्तमे यदि वा षष्ठे खेचरः कण्टके गुरौ । प्रवासी सुखमायाति ज्ञे शुक्रे वा तृतीयगे || १६ || गृहमागतो न यदासौ किं बद्धः किं नु हत इति प्रश्ने | मूर्ती क्रूरो यदि तन्निहतो बद्धोऽथवा पुरुषः ||१७|| सप्तमगोष्टो वा चेत्कूरस्तद्धतोऽथ बद्धो वा । मूर्ती समेऽपि च [यदा ] यद्वा लग्नेऽष्टमे च भवेत् || १८ || ग्रहो विलायत मे ग्रहे स्यात्तेनाऽऽहता द्वादश राशयस्तु । तावद्दिनान्यागमनस्य विद्यान्निवर्तनं वक्रगते ग्रहे च ॥ १९ ॥ गुरौ लग्नेऽथवा शुक्रे शत्रुतस्करसंकटे । न प्रहारोऽथवा हानिर्वक्तव्या पथि गच्छतः ॥ २० ॥ न विश्रामश्चरे लग्ने द्वौ विश्राम स्थिरात्मके । विश्रामत्रितयं प्रोक्तं द्विस्वभावे विचक्षणैः ॥ २१॥
इत्यागमनपृच्छा ।
अथ परचक्रागमः ।
नाऽऽगच्छति परचक्रं यदाऽर्कचन्द्रौ चतुर्थभवनस्थौ । गुरुबुधशुक्रा हिबुके यदा तदा शीघ्रमायाति ॥ १ ॥ सुतशत्रुगतेः पापैः शत्रुर्मार्गान्निवर्तते । चतुर्थगैरपि प्राप्तः शत्रुर्भग्नो निवर्तते || २ || झपालिकुम्भकर्कटा रसातले यदि स्थिताः । रिपोः पराजयस्ता चतुष्पदैः पलायनम् || ३ || मेषधनुः सिंहहृषा यद्युदयस्था भवन्ति हि वा । विनिवर्तते तदाऽरिग्रहसहिता वा वियुक्ता वा || ४ || लग्नादेवं स्मरस्थाने निवृत्तिः स्यात्प्रवासिनः । शुभयुक्तेक्षिते तन्न प्रवासोऽस्ति कर्मणि ॥ ५ ॥ द्वितीये वा तृतीये वा गुरुशुक्रौ यदा तदा । तदाऽऽश्वागच्छते सेना प्रवासो वा न संशयः || ६ || नवमे तु यदा पापाः पञ्चमे तु शुभाः स्थिताः रिपुरायाति देशस्थः कुरुते च पराभवम् || ७ || आयाति द्यूनपे वक्रे राशिचक्रे तु निश्चितम् । सीमान्तं धिष्ण्यचक्रे च मार्गे बक्रागमो ध्रुवम् ॥ ८ ॥ स्थिरे लग्नमागते द्विरात्मके तु चन्द्रमाः । निवर्तते रिपुस्तदा सुदूरमागतोऽपि सन् ||९|| चरे शशी लग्नगतो द्विदेहः पथोऽर्धमागत्य निवर्ततेारः । विपर्यये चाऽऽगमनं हि शत्रोः पराजयः स्यादशुभेक्षिते तु || १० || स्थिरे चन्द्रवरं लग्नं यदि चेत्स्यात्परागमः । लग्नं स्थिरं चरे चन्द्रस्तदा नास्ति परागमः ॥ ११ ॥ चरगौ स्थिरगङ्गराशिगी तनुशीतगू । आगमो नाऽऽगमः शत्रोः क्रमान्मार्गान्निवर्तनम् ॥ १२ ॥ बली क्रूरो यदा लने मार्गे स्याद्गच्छतो मृतिः । यद्दृष्टौ धर्म
५ क. 'रोनय' ।
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ज्योतिर्निबन्धः । लग्नेशावन्यस्याऽऽगमकारकौ ॥ १३ ॥ स्थिरराशौ यद्युदये शनिः स्थिरे स्यात्तदाऽऽयातुः । उदये रविर्गुरुवा चरराशौ स्यात्तदाऽऽशु गमः॥१४॥ द्विशरीरगते लग्ने चरराशिगते विधौ । पन्थानमर्धमागत्य स्वयं शत्रुर्निवर्तते ॥ १५॥ चन्द्रोऽविष्ठितभं लग्नाद्यावत्संख्ये स्थितो भवेत् । रिपुरायाति तावद्भिर्दिनैर्मध्ये खगो न चेत् ॥ १६॥
इति परचक्रागमः।
अथ युद्धपृच्छा। युद्धं भावि न [वा] चेत्पश्ने लग्नेशसप्तमाधीशौ । शत्रू स्यातां तु तदा युद्धं भवतीति वक्तव्यम् ॥ १॥ लग्नं लग्नस्य पूर्व वा यदि पापसमाश्रितम् । तदा घोरं भवेयुद्धं पापो वेक्षेत पापकम् ॥ २॥ लग्नास्तनाथयोोगे रणं दीर्घ समादिशेत् । मन्दे वक्रे स्वल्पबले केन्द्रेऽल्पं बहुभिर्दिनैः॥ ३ ॥ स्वगृहोचस्थे तु कुजे महारणं दशमगे भवति । लग्नस्थे मध्यतरं द्यूनस्थे सअनि प्रचुरम् ॥ ४ ॥ लग्नघूनपती पापो पापांशस्थौ तु युद्धदो । तावेव कलितो केन्द्रे षष्ठपो वा तथाविधः ॥ ५॥ कर्त- यदि चन्द्राकौं संहारः सैन्ययोर्द्वयोः । निकटे निकटं युद्धं दूरे दूरं च प्रच्छके ॥ ६॥ सिंहादि मकरान्तं हि सूर्यक्षेत्रमुदाहृतम् । कुम्भाधाः कर्किपर्यन्ताश्चन्द्रक्षेत्रं विदुर्बुधाः ॥ ७॥
इति युद्धपृच्छा।
अथ जयपराजयौ। लग्नं च दशमं वाऽस्तं सौम्याढ्यं स्थायिनो जयः । तृतीये नवमे षष्ठे पापाश्वेद्यायिनो जयः॥१॥ उदयचतुर्थः क्रूरैः सप्तमदशमास्थितैः सौम्यैः । विजयो भवति हि युद्धे द्यूनोदयगैः शुभैश्चापि ॥२॥ सौम्यास्तृतीयभवनाद्धर्माद्वा यायिनः शुभैः शुभदाः । व्ययदशमा ये पापाः पुरस्य नेष्टाः शुभा यातुः ॥ ३ ॥ लग्नेशे धूनगेऽन्त्ये वा भवेत्प्रष्टः पराजयः। लग्नेशे वाऽस्तपे षष्ठे शत्रोरेव पराजयः॥ ४॥ लग्ने शशिनि कुजेऽस्ते विलोमतो वा तयोनाशः । स्वएतौ लग्ने प्रष्टस्तुर्थेशेऽस्ते रिपोः सहायबलम् ॥ ५॥ लग्ने क्रूरे भ्रष्टुर्विजयोऽस्ते च विद्विषो विजयः । लग्नेशेऽस्ते यायी निबध्यते लग्नगेऽस्तपे स्थायी ॥ ६ ॥ विवाहे शत्रुहनने रणे संकटके तथा । क्रूरे मूर्ती जयो शेयः क्रूरदृष्ट्या पराजयः ॥ ७ ॥ उभयोः को विजयीति प्रश्ने लाभे तथा धर्मे । बुधगुरुशक्रादित्याः स्थाने विजयं समा
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३०८
श्रीशिवराजविनिर्मितो
मोति || ८ || चन्द्रसौम्यान्तरगता राशयस्तु समा यदि । तदा बहुतरं सैन्यं शत्रोः स्यादन्यथाऽल्पकम् ॥ ९ ॥ क्रूराक्रान्तानि यावन्ति मध्ये भानीन्दुलग्नयोः । तावन्तः प्राणिनो वध्या द्वित्रिघ्नाः स्वांशकादिकैः ॥ १० ॥ ज्ञेयो लग्नपतिर्यायी पौरो जायापतिः स्मृताः । वक्री व्यावर्तकः भोक्तो मार्गी मार्गगतिस्तयोः ॥ ११ ॥ द्यूने पापो धनं दत्त्वा यायिनोः पुरपः सुखी । शुभैः कर्मगतैदेवा धनं यायी व्रजेद्गृहम् || १२ || लग्नादेकादशेऽप्येको गुरुज्ञसितभानुषु । नागरस्य जयं ब्रूते नवमे लाभमुत्तमम् || १३ || सूर्ये चन्द्रे च सूर्यांशे संस्थिते स्थायिनां जयः । चन्द्रे सूर्ये च चन्द्रांशे संस्थिते यायिनां जयः ॥ १४॥ सूर्ये सूर्याशसंयुक्ते चन्द्रे चन्द्रांशसंस्थिते । एवं योगे भवेत्संधियुद्धमेव विषये ॥ १५ ॥
इति जयपराजयौ ।
अथ संधिविग्रहौ ।
नृराशिसंस्था उदये शुभाः स्युर्व्ययायसंस्थाच यदा भवन्ति । तदाऽशुसंध प्रवदेनृपाणां पापैर्द्विदेहोपगतैर्विरोधम् || १ || केन्द्रोपगता: सौम्याः सौम्यैर्दृष्टा नृलग्नगाः प्रीतिम् । कुर्वन्ति पापदृष्टाः पापास्तेष्वेव विपरीतम् ||२|| संधिं कुर्या - त्सुहृद्द्द्दष्टिर्लग्नेशास्तपयोर्मिथः । पृच्छायां लग्नगे क्रूरे संधिर्जातोऽपि नश्यति ॥ ३॥ लग्नं विना विधुः केन्द्रे त्रिकोणे वा बलान्वितः । संधिकृद्वेषिणोर्यद्वा पदे लग्ने - श्वरो बली || ४ || नृभे त्रिषट्तपोरिष्फे संधिकृत्स्याच्छुभग्रहः । द्यूने लग्नपशत्रुत्वे संधिर्विश्लिष्यते स्वयम् || ५ || पुत्रगेहे तदीशो वा साधनं सवलं ध्रुवम् । आयेऽपि सबले संधिर्विबले विग्रहो भवेत् || ६ ||
इति संधिविग्रहौ ।
अथ दुर्गभङ्गः ।
सबले दुर्बले वाऽपि क्रूरलग्नगते ग्रहे । न भवेत्कोटभङ्गोऽत्र शुभे व्यस्त भवक्रिते ॥ १ ॥ द्यूने लग्ने यदा पापाः संस्थितो लग्नपो व्यये । षष्ठे धनेऽथवा छिद्रे दुर्गभङ्गस्तदा न हि || २ || लग्ने भौमोऽथवा राहुः क्रूरो रन्ध्रे न भङ्गकृत् । यदि सप्तमगो राहुदुर्गभङ्गो भवेद्धवम् ॥ ३ ॥
इति दुर्गभङ्गः ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ वेष्टितदुर्गभङ्गपृच्छा |
वेष्टितं वा न वा प्रश्ने धने रिष्फे सपापके । तदा तद्वेष्टितं दुर्गे वाच्यं ग्रामादिकं परैः ॥ १ ॥ दुर्ग वैरिजनैस्तु वेष्टितमिति प्रश्ने द्वितीयान्त्यगैः पापैर्वेष्टितमस्ति किं तु न गतं त्वेकादशभ्रातृगैः । एवं स्यात्सभयं तथाऽम्बुखगतैः पापैरतीतं भयं यातं नेति च केन्द्रगैः खलखगेदुर्ग गृहीतं परैः ॥ २ ॥ लग्ने मध्येऽस्ते वा पितृभज्येष्ठे यदा भवतः ! दुर्गस्थानां विजयं सौख्यं शुभदृग्युते विशेषेण ||३|| शुभोऽम्बुनाथस्तनुपं बलान्वितः स्वोच्चस्थितः स्नेहशा प्रपश्येत् । दुर्गस्थितानां च शुभं तथैवं चेत्सप्तमं स्याच्छुभदं हि शत्रोः ॥ ४ ॥ धने लाभे यदि क्रूरावेष्टितः सभटो गडः । सुखे द्यूने यदा पापाः स्वयमुद्वेष्टितः परैः ॥ ५ ॥ मृत्युनाथः सभौमश्चेदसंख्याता सृतास्तथा । कण्टके सूर्यपुत्रद्धद्धाः स्युर्वहवो जनाः || ६ || लाभव्योमसुतस्थौ चेद्गुरुशुक्रौ तदा परः । त्यक्त्वा याति स्वकं देशं स्वास्थ्यं तत्कोटवासिनाम् || ७ || लग्नेशः शुभदः केन्द्रे कोटस्थानां शुभप्रदः | लग्ने पैत्रेन्द्रतिष्यश्चेत्कोटस्थैर्बाध्यते परः || ८ || वेष्टितोऽपि गडः प्रश्ने ग्रहीतुं शक्यते यदा । पापः केन्द्रगतथेत्स्यात्कोटोऽसौ गृह्यते तदा ॥ ९ ॥ लग्नपापान्तरा भागा यावन्तस्तावता दिनैः । मासैर्वर्षैश्वरादिस्थे लग्ने तद्गृह्यते स्फुटम् || १० || देशकालानुमानेन दिनाद्यं तत्र चेद्बुधे | द्रोहात्खण्ड्याः शनौ भौमे युद्धाद्वा विपादितः ॥ ११ ॥
इति वेष्टितदुर्गभङ्गःपृच्छा ।
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अथ परदुर्गाप्तिपृच्छा |
परदुर्गं यदाऽस्माभिर्गृह्यते तत्र लग्नपे । सत्रले दुर्बलेऽस्तेशे लग्ने क्रूरयुतेऽपि च ॥ १ ॥ यायिनां जयदैयोगैर्यद्वा मध्यगतैः खलैः | लग्नक्रूरान्तरांशौक्तकाले तत्कोटमाप्यते ॥ २ ॥
अथाऽऽत्मदुर्गपुच्छा ।
आत्मदुर्ग परः किं नु गृह्यते तत्र लग्नपे । सबले लग्नपे क्रूरे स्थायिनां बलमा ( आ ) गते ॥ १ ॥ तदा दुर्गे न यात्येव द्यूने क्रूरग्रहो यदि । विवले लग्नपे याविले दुर्गे प्रयच्छति ॥ २ ॥
१. किंतु ।
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३१०
श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथान्यदुर्गभङ्गपृच्छा। दुर्गमन्यत्तथा चान्ये ग्राहकास्तत्र चाऽऽदिमम् । वचनं तत्स्वपक्षोत्र ज्ञात्वा पूर्वोक्तवद्वदेत् ॥ १॥
इत्यन्यदुर्गभङ्गपृच्छा।
अथ मन्त्रभेदपृच्छा। लग्नमध्यगतैः सौम्यै ने षष्ठेऽथवा गृहे । भेदे विचिन्त्यमानेऽत्र शीघं भेदः प्रसिध्यति ॥ १ ॥ शुभे लाभादियोगेऽपि भेदे सिद्धिरुदाहृता । तथा बलिनि लग्नेशे सप्तमे विवले ध्रुवम् ॥ २॥ भेदस्य शत्रुराशियस्तेनासौ भिद्यते द्रुतम् । सखिवश्यादिराशियस्तद्वारा भिद्यतेऽथवा ॥ ३ ॥
__ अथ विवादः । विवादे मरणे युद्धे लग्ने पापो जयावहः । न सौभ्यः सौम्यदृक् शस्ता पापा दृष्टिन शोभना ॥१॥ लग्ने करे जयी वादी प्रतिवादी तथाऽस्तगे । उभयत्रापि चेत्क्रूरो दीर्घरोषः प्रजायते ॥ २॥ वलवल्लग्ननाथेन घनपो हन्यते रणे । बलवान्यूनपो हन्याल्लग्ननाथं सुनिश्चितम् ॥ ३॥ लग्नं द्यूनं मुक्त्वा परस्परं क्रूरयोः सकलदृष्टौ । वादान्ते वादियुगं छुरिकाभ्यां प्रहरति तदैव ॥ ४॥ विवादे शत्रुसंघाते द्यूने युद्धे प्रमोपणे । पुरवातेऽभिचारे च ज्ञेयमेव जयादिकम् ॥ ५ ॥
अथ सेवापृच्छा। स्वामिचित्तं शुभदृष्टमपि लग्नपसप्तमौ । शुभस्वामीन्दुयुग्दृष्टौ शुभं व्यस्तेऽन्यथा भवेत् ॥१॥ यदा पृष्ठोदये लग्ने चूने शीर्षोदयो भवेत् । सेव्यसेवकयोवैरं ब्रूयात्प्रीतिविपर्यये ॥ २॥ धननाशो धने पापे विभ्रमः सप्तमे तथा । मरणं मृत्युयोगे स्यात्सौम्ये संपत्सुखं महत् ॥ ३॥ सेव्यसेवकयोः प्रीतिः प्रश्ने युग्मतुलालिनि । लग्ने प्रीतिस्तयोर्वाच्या कन्यालग्ने च मध्यमा ॥ ४ ॥ द्वितीयद्यूनरन्ध्रेषु सौम्याः प्रीत्यर्थसौख्यदाः । पापा भवन्ति तेष्वेव सेव्यसेवकविघ्नदाः॥ ५॥ यदा लग्नपतिलग्ने जायेशः सप्तमे यदि । तदा प्रीतियोर्वाच्या समानैव परस्परम् ॥ ६ ॥
अथाऽऽश्रयः । भवति स आश्रयणीयः प्रश्ने धनसप्ताष्टमेषु चेत्पापाः । हिबुकेऽपि तस्य नाशं कुर्युः सौम्याः सुखं दधुः ॥ १॥ एष स्वामी भव्योऽन्यो वा स्थानं यदि प्रश्ने । लग्नपतौ मकबूले स्वामी भव्योऽस्तपे तथाऽन्येशः ॥२॥ अन्येशो
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ज्योतिर्निवन्धः।
३११ भविता वा ममेति केन्द्रे यदा विलग्नेशः । पष्ठान्त्यपमुथशिलगस्तदाऽन्यनाथो न हि प्रष्टुः ॥ ३ ॥ केन्द्रस्थे लग्नपे क्रूरदृष्टया क्रूरनिरीक्षिते । षष्ठे वाऽन्यः पतिर्न स्याद्वक्री चेदपरं वदेत् ॥ ४ ॥
अथ नृपदर्शनम् । नृपदर्शनं भवेन्नो पृच्छायां लग्नपस्य सवितुर्वा । गगने चरमुथशिलतो दशमस्थित्याऽथं दृष्टया वा ॥ १ ॥ दशमस्वामी लग्ने पश्यति लग्नाधिपं नृपाल्लाभः । राज्ञश्चित्तं कीहक् तत्रापि विचिन्तयेदेवम् ॥ २ ॥ अमात्यस्नेहपृच्छायां योगो लग्नास्तनाथयोः । स्नेहपृष्टया दिशेत्प्रीतिं वैरं वैरदृशा पुनः ॥ ३ ॥
अथ गौरवम् । नृपतेगौरवलामो मे स्यादिति लग्नपापपत्योश्च । स्नेहदृशा शीघ्रं स्याद्रिपुदृष्टया बहुदिनैरेव ॥१॥ आयेशे केन्द्रस्थे शशियुतदृष्टे च फलमस्ति । स्थिरराशौ परिपूर्ण चरेऽल्पमधं भवेन्मिश्रे ॥२॥ मन्दे क्रूरोपहते भूत्वा चाऽऽशप्रणाशमुपयाति । क्रूराच्छुद्धे सशुभेऽप्यधिकतरा प्राप्तिरेव स्यात् ॥ ३ ॥
अथ पदलाअपृच्छा। स्वस्थावस्थे नभोनाथे तुङ्गादिस्थे शुभेक्षिते । धनकेन्द्रत्रिकोणस्थे राज्यादिपदलब्धयः ॥१॥ लग्ननाथोऽभ्रनाथेन तुङ्गादिस्थेन वीक्षितः । करोत्येव पदप्राप्तिं लग्ने लग्नाधिपोऽथवा ॥ २ ॥ स्थिरोदये पदप्राप्तिः शुभस्वामियुतेक्षिते । इत्थमेव पदस्थाने सा स्वल्पा किं तु वृश्चिके ॥३॥ पदेशश्चेत्पदं पश्येत्पदं चैव स्थिरं भवेत् । मध्यपे सशुभे राज्यं राज्यभ्रंशः सपापके ॥ ४ ॥ सूर्येऽम्बरे गुरौ लग्ने चन्द्रे कामेऽथवा सुखे । न लभेत्सद्य एवार्थाबाज्यं खेऽर्के तनौ गुरौ ॥ ५॥ लग्ननाथनभोनाथी चन्द्रायोम्नि पदमदौ । राजयोगेषु सर्वेषु पदप्राप्तिस्तु निश्चितम् ॥ ६॥ वेशादियोगत्रितये सुनफादित्रये तथा । पदमाप्तिर्भवेच्छीर्णोदये लग्ने शुभान्विते ॥ ७ ॥ सप्तमे चाष्टमे शुक्रे पदलाभः स्वभावतः । शुभयुक्त पदं प्रीत्या सपापे विग्रहादिभिः ॥ ८ ॥
अथाधिकारः । पदस्थाने यदा चन्द्रः शुभो वा सरविर्भवेत् । पदेशो वा विलग्नेशी मुद्राप्राप्तिस्तदैव हि ॥ १॥ पदप्राप्तिकरैर्योगमुद्रामाप्तिः प्रजायते । सिंहोदयेऽर्कसंदृष्टे साम्राज्यं प्रच्छको वदेत् ॥ २ ॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ पदनिर्वाह पृच्छा |
राज्यं स्थिरं चलं वा प्रश्ने तनुपखेशयोर्मुथ शिलिनि । यदि मन्दः स्यात्केन्द्रे तत्स्थिरमन्यथा चलं भवति || १ || लग्नेशे निजनीचाधिपकृतमुथशिले स्वनीचधिया | राज्यभ्रंशः शेषैस्तद्दिशि देशं समुद्रसं कुरुते ॥ २ ॥ तुङ्गे सौम्यो - थवा पापो लग्ने धर्मे त्रिकोणगे । निर्वाहप्राप्तिरादेश्या नीचे नष्टे खपे च्युतिः ॥ ३ ॥
३१२
अथ स्थानप्राप्तिः ।
सबले दशमे सौम्ये सहजे वाऽपि केन्द्रगे । स्थानाप्तिव्यमकामस्थौ शुभौ वा श्रीविलग्नगौ ॥ १ ॥
अथ धातुवादः ।
लग्नेशाज्जायते धातुः संप्तमो धातुवादकृत् । चन्द्रार्कौ लाभकर्तारौ घना - त्सिद्धिस्तु तलात् ।। १ ।। सौम्याः केन्द्रे च बलिनो लाभे वाऽपि समाश्रिताः । धातुवादी विजानाति धातुवादं च नान्यथा || २ || लग्ने पापः शुभः प्रोक्तः पापदृष्टिर्न शोभना । शुभदृष्टिः शुभा प्रोक्ता शुभयोगो न शोभनः ॥ ३ ॥ लग्ने रिष्फे रिपौ छिद्रे लग्नपः शुभदृग्विना । हानिं भ्रंशं बन्धनं च मृत्युं कुर्याद्यथाक्रमम् ।। ४ ।। अरिष्टाल्लाभतश्रौर्याद्यात्रायोगैर्वदेत्सुधीः । वादिनो मरणं लाभो धनहानिः पलायनम् ॥ ५॥
अथ चौर्यपृच्छा |
चौरागमनपृच्छायां लग्ने पापस्तु सिद्धिकृत् । न शुभा हक् शुभो मूर्ती न शुभः शुभदृक् शुभा ॥ १ ॥ मेषे वर्गोत्तमे ने बुधयुक्ते विशेषतः | चौयँसिद्धिर्भवेद यदि वाऽऽरयुतेक्षिते ॥ २ ॥ रणचौर्यादिहननधातुवादादिकर्मसु । शुभपापसमायोगादसिद्धिः सिद्धिरुच्यते || ३ ||
अथ सौख्यपृच्छा |
यदा क्रूरग्रहो लग्ने नीचः शत्रुगृहे स्थितः । तदा तस्य शुभं वाच्यं ग्रहराश्यनुरूपतः ॥ १ ॥ भूतं द्वादशतश्चिन्त्यं वर्तमानं तु लग्नतः । भविष्यं तु धनस्थानात्सम्यक्रूरतेक्षणात् ॥ २ ॥
अथ भयपृच्छा । उत्पन्नभीतेर्भविता विनाशो न वेति पृष्टे तनुपो विलग्नम् | पश्येत्तदा नैव
१. पोधा ।
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३१३
ज्योतिर्निबन्धः। भयं न पश्येद्भयं भवेत्क्रूरयुते विशेषात् ॥ १ ॥ भयमर्को लग्नगतः सौरो व्याधि धरासुतो घातम् । मरणं वैफल्यं वा चन्द्रः कुरुते विलग्नस्थः ॥ २ ॥
अयामिभयम् । सर्पानिशस्त्रवन्तं दृक्काणं वीक्षते रविबलवान् । भौमो वा मध्याह्ने बयानयमग्निसंभूतम् ।। १ ॥
अथ नीपूरणपृच्छा। राशीश्वरो द्वितीये दुश्चिक्ये वा शुभग्रहोपगते । भवतीह नदीपूरः सप्तविंशे दिने वाच्यम् ॥१॥
अथ कालवृष्टिपृच्छा। अम्बरगं शुभयुग्मं वृष्टयै प्रभवेद्विवाहादौ । लग्ने शुभत्रयस्य तु योगे महती भवेद्वृष्टिः ॥ १॥
अथ स्त्रीविग्रहः । पीयूषांशौ पापयुक्तेक्षिते वा स्त्रीभिः सार्ध विग्रहः कीर्तनीयः । पार्यद्वा मन्मथस्थानयातैस्तैरेवाम्बुस्थानगैर्वा स वाच्यः ॥ १॥
अथ धृताविवाहितापृच्छा। ऋरिते च चतुर्थे स्यात्परिणीता नितम्बिनी । सप्तमे रिते च स्यान्तैव हि कुटुम्बिनी ।। १॥ उभये सौम्यतां प्राप्ते द्वे स्तो धृतविवाहिते । उभये क्रूरता प्राप्ते न धृता न विवाहिता ॥ २ ॥ लग्नलग्नेशचन्द्राश्च निर्दोषा स्त्री चरसंगाः । अदृष्टपुरुषा साध्वी परैर्भुक्ता चरखंगाः ॥३॥
अथ बन्धनपृच्छा। सौरे दृक्काणे वा भुजंगपरिवेष्टितेऽथवा लग्ने । शशिसौराभ्यां दृष्टे बन्धनमिति वाच्यमादेशे ॥ १ ॥ पापक्षेत्रेषु यमे त्रिकोणचतुरस्रसप्तमेषु गते । क्रूरैनिरीक्ष्यमाणे बद्धोऽस्तीत्यादिशेक्षिप्रम् ॥ २ ॥
अथ मृत्युयोगः। स्मरे व्यये धने क्रूरो लग्ने मृत्यो रिपो शशी । सद्योमृत्युकरो योगः क्रूरे वा चन्द्रपार्श्वगे ॥ १॥ लग्ने रवौ स्मरे चन्द्रे भवेद्योगोऽयमेव हि । एतेषु रोगिणो मृत्युः सद्यः स्यात्तस्य चा(दथवा)ऽऽपदः ॥२॥ लग्नपो मृत्युपश्चापि मृत्यौ स्यातामुभी यदि । स्थितौ इकाण एकस्मिन्सदा मृत्युं ध्रुवं वदेत् ॥ ३ ॥ छिद्रलग्ने
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३१४
श्री शिवराजविनिर्मितो-
श्वरौ छिद्रे सचन्द्रौ मृत्युकारकौ । सपापे रिपुभे मृत्यौ चन्द्रे मृत्युस्तथा खले ॥ ४ ॥ वर्गोलमगते मूर्ती मतीशे चन्द्रसंयुते । वित्ते भौमेऽथवा राहो दिने ह्यसितो वधः ॥ ५ ॥
अथ मृत्युभङ्गः ।
उदिते लग्नपे वाऽपि च्छिद्रपेऽस्तमुपागते। मृत्यु योगेऽपि नो मृत्युर्वाच्यो मृत्युरतोऽन्यथा ।। १ ।।
अथ गतप्राप्तिपृच्छा |
सप्तमस्थे यदा पापे बद्धा ह्यानीयते गतः । सौम्येऽस्तगे च न प्राप्तिः शुक्रे प्राप्तिस्तथा चिरात् || १ || लग्नपः केन्द्रनाथेन योगकृद्गतलब्धये । अस्तं गतोऽस्तपो लग्ननाथदृष्टस्तथाऽऽप्ये ॥ २ ॥
अथ मृताप्तिपृच्छा |
पापसंबन्धगे चन्द्रे लब्धिः सौम्ययुते न हि । स चेद्वक्री विनष्टो वा तदाऽसौ लभ्यते मृतः ॥ १ ॥
अथ हृतनष्टविस्मृतिस्थापितवस्तुप्राप्तिपृच्छा ।
वस्तु मे वदति नेति पृच्छति द्यूनलग्नपतियोगतोऽर्पयेत् । एतयोर्यदि परस्तु संचरेदन्यहस्तवशतस्तदेष्यति || १ || लग्नपेऽस्तयुजि प्रच्छकस्तदा द्यूनपे तनुगतेऽर्थवान्परः । क्रूरसौम्य खगयोगतस्तयोः साध्वसाधुपरिकल्पना तयोः ॥ २ ॥ अथ चोरो भवति न वेति पृच्छा ।
एष चोरो न वेति स्यात्यने लोकश्रुतोरिव । चन्द्रो मुथशिलः क्रूरैः सत्यं चोरोऽन्यथा न हि ।। १ ॥ अनेनैव कदा चौर्य कृतं नो वेति लग्नपः । इन्दुर्वा मुशरीफ: स्यात्कस्यचित्तेन तत्कृतम् ॥ २ ॥
अथ कोऽयं नर इति पृच्छा ।
कोऽयं नरश्चेदिति पृच्छते तदा मध्ये स्वरांशौ खचरः स तत्रजः । उच्चे महाविश्रुत एवमन्यवर्गेऽन्यथा हीननरः पुमांश्व ॥ १ ॥
अथास्य को देश इति पृच्छा ।
व्योम्न स्थितोऽर्कतो यस्यां दिशि तद्विषयोद्भवः । न चेत्तत्र ग्रहो मध्यपतेः प्राग्वदिशं वदेत् ॥ १ ॥
१ क. 'वमूत्परी : फी स्था । च वसुसरीफ: स्था ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
३१५ अथ मित्रप्रीतिपृच्छा। मित्रेण सह प्रीतिर्भविता लग्नेश्वरायपत्योच । प्रियदृष्ट्या मुशिलतः प्रीतिर्वाऽन्योन्यगृहयानात् ॥ १॥
अथ कोऽश्वो विजयीति पृच्छा। बबश्वानां मध्ये को विजयी लग्नलाभगगनेषु । होरेश्वरे परे था तद्वर्णात्तजयो वाच्यः॥१॥ अस्याभावे होरालग्नपतिभ्यां ततश्चिन्त्यम् । चन्द्रस्तद्राश्यविपरशाच मातिं वदेत्प्रष्टः ॥२॥
__ अथ मेलकः । घूननाथः स्थितः केन्द्रे तस्मिन्ग्रामे मिलिष्यति । अन्यग्रामे पणफरे न मेल: स्यादपोक्लिमे ॥१॥
अथ वस्तुग्रहणम् । गृह्णाम्यहमिदं वस्तु सति प्रश्ने त्वमूदृशि । बलशालि विलग्नं चेगृह्यते तत्क्रयाणकम् ॥ १॥ तस्मात्क्रयाणकाल्लाभः प्रष्टर्भवति निश्चितम् । विक्रेताऽऽयपतिः क्रेता लग्नेशस्तबलात्पुनः ॥ २॥
अथ वस्तुविक्रयः । विक्रीणाम्यमुकं वस्तु प्रश्न एवंविधे सति । आयस्थाने बलवति विक्रेतव्यं सुलाभकृत् ॥ १॥
अथ क्रयविक्रयमध्ये कस्माल्लाभः । बलवल्लग्नलग्नेशे गृह्यते वस्तु लाभकृत् । बलवल्लाभलाभेशे विक्रयो लॉकन्मतः ॥ १॥ मूर्तिं पश्यति मूर्तीशे क्रेतव्यं विक्रयोऽन्यथा । बलहीने धनेशे तु समर्घ व्यत्ययेऽन्यथा ॥२॥
अथ वस्तुसंग्रहणाल्लाभोऽस्ति न वेति पृच्छा। वस्तुसंग्रहणं कुर्याल्लाभयोगे महत्यपि । गुरुस्तद्वस्तुतो लाभो भविष्यत्यन्यथा न हि ॥ १॥
अथ कृतसंग्रहस्य वस्तुनः कदा विक्रयः। संपूर्णो लाभयोगश्चेत्प्रश्नकाले यदा तदा । शीघ्रं तद्विक्रयं कुर्यादन्यथा वस्तु रक्षयेत् ॥ १॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितोअथ वर्षेऽस्मिन्कथं स्यात् ।
सम वा मह वा वर्षेऽस्मिन्किं भविष्यति । तनुद्वये तदधिषे पुष्टापुष्टे समं वदेत् || १ || लग्ने लग्नेश्वरे पुष्टे विक्रयः क्रियते तदा । द्यूने द्यूनेश्वरे धान्यसंग्रहो ह्युभये द्वयम् ॥ २ ॥
३१६
अथ साटिः ।
द्यूनलपती मित्रे मित्रसाटिरिहेष्यते । वैरभावे तयोः साटिवैरित्वं कपटेन च ॥ १ ॥
अथानयोः कः सत्यः ।
विक्रेता सत्यवादी स्यात्सौम्यलग्ने तथा धने । क्रेता सत्य इनेन्दू चेच्छुभदृष्टौ सुशोभनौ ॥ १ ॥
सबले लाभलाभेशे मह
मिश्र के समम् ॥ १ ॥
अथ दिनचर्या ।
स्यात्क्रयाणकम् । अवले लाभलाभेशे सम
अथ धान्यनिष्पत्तिः ।
प्रश्ने धान्यस्य निष्पत्तौ चतुर्थे सद्ग्रहा यदि । केन्द्रे वा धान्यनिष्पत्तिः पापैर्धान्यक्षतिर्भवेत् ।। १ ॥
अथ सुभिक्षपृच्छा ।
स्वस्वामिशुभयुक्तेषु दृष्टेषु च चतुर्ष्वपि । केन्द्रेषु च सुभिक्षं स्यादुर्भिक्षं क्रूरखेचरैः ॥ १ ॥ यत्केन्द्रं विवलं तत्र दुर्भिक्षं तद्दिशि ध्रुवम् । मह क्रूरमध्यस्थं मिश्रं मिश्रैर्युतेक्षितम् ॥ २ ॥
अथ दुर्भिक्षम् ।
केन्द्रस्थौ राहुमन्दौ चेच्चतुर्थे वा विशेषतः । शुष्कलशे तदा वाच्यं दुर्भिक्षं निश्वयादिति ॥ १ ॥
अथ वृष्टिपृच्छा ।
कुम्भकर्कटगोमीनमकरालितुलाधराः । सजला राशयः प्रोक्ता निर्जला: शेषराशयः || १ || रविभौमार्कजाः शुष्काः सजलौ चन्द्रभार्गव । बुधवाचस्पती ज्ञेयौ सजलौ जलराशिगी ॥ २ ॥ सौम्या जलराशिस्थास्तृतीयधन केन्द्रगाः सिते पक्षे । चन्द्रे वा लग्नगते दलराशिस्थे वदेदृष्टिम् || ३ || जललग्नेऽम्बुखेटेश्व
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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युक्ते भीमयुते तथा । विद्युद्गर्जनसंयुक्ता वृष्टिः सौरयुतेऽपि च ॥ ४ ॥ लग्ने चरे शुभे द्विस्थे जलं मासात्स्थिरे पुनः । चतुर्विंशद्दिनैर्यङ्ग दिनैः षड्विंशता भवेत् || ५ || चरलग्ने खगाः सर्वे तदा सार्धदिनाज्जलम् । शुष्के शुष्कग्रहैर्युक्ते नाम्भो मिश्रग्रहैश्चिरात् || ६ || लग्ने सुखे धुने व्योम्नि शुभस्वामियुतेक्षिते । आषाढादिषु मासेषु वृष्टिः स्यादन्यथा न हि ॥ ७ ॥ सजलो विजलेनाऽऽढ्यः पूर्वमम्भोऽन्यथोपरि । विजलः सजलेनाऽऽढ्यो नाम्भः पूर्व परं बहु ॥ ८ ॥ प्रावृष्यब्जः सितादस्ते शुभदृष्टोऽम्बुत्तदा । शनैस्त्रिकोणगो वाऽपि सोमो जलकरो भवेत् ॥ ९ ॥ जलार्थपृच्छासमये रौद्यां प्राच्यामथापि वा । सुस्वरं कुरुते काकः सुवृष्टिर्जायते तदा ॥ १० ॥ आद्रव्यं पूर्णकुम्भं तोयार्द्राङ्गं च प्रच्छकम् | तोयासन्नं तोयशब्दं श्रुत्वा दृष्ट्रा जलं वदेत् ॥ ११ ॥ अथ कूपपृच्छा ।
लग्ने सुखेऽम्बुखेटश्वेत्ससौम्योऽम्भस्तदा वहु । पापैः शुष्कर्क्षगैर्नाम्बु कूपवाप्यादिके स्फुटम् ॥ १ ॥ सुखे वाऽब्जसितौ तोयं सुस्वादु निकटं वदेत् | लग्नाम्बुस्थितखेटेषु बलिनः स्वादु चाऽऽदिशेत् ॥ २ ॥ तथाऽर्कतो नरैरष्टवेदाशाङ्काद्रिपञ्चभिः । कुनेत्रैर्जलमन्यत्र करैरम्बु विधोः शिरः || ३ |
अथ नौका |
मृत्युर्धरणकं नौश्च फलेन सदृशं त्रयम् । म्रियते येन योगेन तेन योगेन मुच्यते ||१|| क्षेमेण नौः समायाति मृत्युयोगे समागते । आमयावी च म्रियते बद्धः शीघ्रेण मुच्यते ॥ २ ॥ नेक्षते लग्नपो लग्नं मृत्युपो नेक्षते मृतिम् । यानपात्रस्य वक्तव्यं निश्चितं मज्जनं तदा || ३ || तावुभौ सप्तमे चेद्वा तदा तज्जलगामि च । पाषाः सुखाष्टमेऽङ्गशेऽस्तं गते नौपतेर्मृतिः ॥ ४ ॥ लग्नेशचन्द्रनार्थं च चन्द्रं वा मृत्युपो यदि । पश्येत्क्रूरदृशा नावा समं नश्यति नौपतिः ॥ ५ ॥ मार्गाद्वयावृत्य नौरेति लग्नपे तद्भवेऽनृजौ । रन्ध्रे सौम्ये तरी सार्था समेतीन्दौ चरे द्रुतम् || ६ || मिथो रिपुदृशेक्षेतां लग्नेशशशिराशिपौ । तत्रान्योन्यविरोधेन व्यवहारो विनश्यति ॥ ७ ॥
अथ रोगपृच्छा ।
शुभग्रहाः सौम्यनिरीक्षिताः स्युर्विलग्नसप्ताष्टमपञ्चमस्थाः । त्रिषदशाये चं निशाकरः स्याच्छुभं वदेद्रोगनिपीडितानाम् ॥ १ ॥ स्थिरलग्ने यदा जीवः शुभो
१. त्यागेक्षते ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोवा केन्द्रकोणगः । रोगप्रश्ने वदेत्स्वस्थं व्यस्तं दृष्टोदये खलैः ॥ २॥ चरलग्ने चतुर्थे वा चन्द्रः षष्ठाष्टमेऽम्बरे । कुजे स्याद्रोगिणो मृत्युः पापैर्लग्नाष्टसप्तमे ॥३॥ लग्नात्षष्ठाष्टमे चन्द्रे रिपुदृष्टया खलेक्षिते । युक्ते वा स्यान्मृतिस्तस्मिन्सौम्यदृष्टिविवर्जिते ॥ ४ ॥ लग्नाधिपे बलयुते विवले मृतीशे तो चेत्तनौ भवत एव सुखी तदा स्यात् । यदा मतीशस्तनुभागमेति तदाऽऽतुरो याति यमालयं हि ॥ ५ ॥ लग्ने छिद्रे शशी पापो द्वितीये सप्तमे व्यये । सद्योमृत्युकरो योगश्चन्द्रो वा क्रूरमध्यगः ॥ ६ ॥ लग्नं वेद्यो द्युनं रोगो मध्यं रोगी खमौषधम् । तद्धलादलमादेश्यं सौम्यैः क्रूरैयुतेऽन्यथा ॥ ७॥
___ अथ रोगनाशकयोगः। मान्यात्प्रवर्तते मान्य क्रूरे सप्तमसंस्थिते । सप्तमे त्वथवा सौम्ये स रोगी नौषधं भिषक् ॥ १॥ वैद्यौपध्योबलाधिक्ये बलत्वे रोगरोगिणोः। रोगी जीवति निर्विघ्नं विपरीते विपर्ययः ॥२॥ वैद्यस्य रोगिणो मैत्रं मैत्रमौषधरोगयोः । व्याधेरुपशमो वाच्यः प्रकोपस्तद्विपर्यये ॥ ३ ॥ लग्नस्वाभिबलत्वे च केन्द्रसौभ्यग्रहेऽपि वा । उच्चस्थे च :त्रिकोणे च रोगी जीवति मानवः ॥४॥ रोगप्रश्ने क्रूरो लग्ने रोगोऽधिको वैद्यात् । तत्रैव यदि शुभः स्याद्भूरिगुणं भवति वैद्योक्तम् ॥५॥दशमें क्रूरो यदिचेद्रोगो वर्धेत भेषजैस्तत्र । तत्रैव शुभः स्वीयेभैषज्यै रोगनाशकरः ॥ ६॥
अथ स्वस्थो रोगी वा। नीरुजः सरुजो वेति चन्द्रो वा लग्नपो रिपौ। षष्ठेशसहितो वापि रोगयुक्तो न चान्यथा ॥ १ ॥ षष्ठे चरे स्थितो रोगी संचरन्गृहमध्यतः । उपविष्टः स्थिरे द्वयङ्गे सुप्तो दुःखी सुखी गृहे ॥ २ ॥
अथ व मृत्युः । छिद्रे चरे स्थिरे व्यङ्गो परे स्वे पथि च व्यसुः । शुभे वाऽर्के चरे रन्ध्र तीर्थे वा केन्द्रगैः शुभैः ॥१॥
__ अथ मुक्तिभविष्यति न वा। शुक्रेन्दू पितृलोकेशौ शनिज्ञौ नरकाधिपौ । तिर्यग्लोकस्य सूर्यारौ स्वर्गस्याधिपतिर्गुरुः ॥ १॥ केन्द्रारिमृत्युगो जीवः स्वोच्चस्थो वा स्वराशिगः । पृच्छायां मृत्युकाले वा तस्य मोक्षो मृतस्य हि ॥२॥ पृच्छायां सप्तमस्थश्चेद्ग्रहो वा मृतिशत्रुगः । बलवान्यदि तल्लोकं मृतो जन्तुरवाप्नुयात् ॥३॥
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ज्योतिर्निबन्धः। . अथ कस्माल्लोकादागतोऽयम् । रवीन्द्रोर्बलवान्यस्य दृक्काणे तस्य लोकतः। आगतोऽस्तीति वक्तव्यं प्रश्नलग्नाच्च जन्मतः ॥१॥
अथ रोगज्ञानम् । रोगप्रश्नेऽष्टमस्थाने ग्रहयोगाद्रुजं वदेत् । चन्द्रशुक्रावतीसारं वातं शनिभुजगमौ ॥ १॥ भौमार्को रुधिरोद्रेकं शुक्रभौमौ बलक्षयम् । सक्रूरेज्ये त्रिदोषः स्यात्सग्रहार्को तु चित्ररुक् ॥ २ ॥ राबर्को कुष्ठरोगश्च कम्पः पापयुते शनी । रक्तपित्तं तु सूर्येन्दू श्लेष्माजीर्णकरो बुधः ॥ ३ ॥ संनिपातकरो जीवः सेन्दुः पापद्वयं गतः । अस्तंगते कुजे छिद्रे बयाल्लिङ्गादिदूषणम् ॥ ४ ॥ स्त्रीनिमित्तं कृते प्रश्ने वाच्यं तद्योनिदूषणम् । कुजार्को सप्तमे पा कुजे मान्धं वुधे भ्रमम् ॥५॥ शिरोव्याधि गुरौ शुक्रे कर्फ वायुं शनित्रिके । रन्ध्रेकाधैर्युते दृष्टे व्याधि तद्धातुतो वदेत् ॥ ६॥
अथ दोषपृच्छा। छिद्रे व्यये रवौ दोषो यक्षिणीक्षेत्रपालजः । जलमातृभवश्चन्द्रे डाकिनीजः कुने तथा ॥१॥ बुधे भौतो गुरौ पैत्रः खेचरासुरजः सिते । कुलदेवीकृतो मन्दे राही प्रेतकृतस्तथा ॥ २ ॥ छिद्रे क्रूरग्रहेर्युक्ते कर्मणः स्त्रीनरोद्भवात् । शुभपापयुते दोषः स्त्रीणामेवान्यथा नृणाम् ॥ ३॥ विवलग्रहजो दोषः साध्योऽसाध्योऽन्यथा मतः । ज्ञेयोऽत्र कर्मजो दोशे रन्ध्रेऽन्त्ये च बलोज्झिते ॥४॥ स्वीयसंबन्धभावोत्थं शेषभावोत्थतः परम् । यदि स्यात्पैतृको दोषस्तदा तन्मूत्युरुच्यते ॥ ५॥ मृत्युपे शनिसंयुक्ते मातङ्गैस्तु हतो नरः । धर्माधिपोऽथ धर्मे वा गुरुस्तीर्थपथे मृतिः ॥ ६ ॥ क्रूरेऽष्टमेऽभिचागच्च सूर्यात्साम्बुशस्त्रतः । अग्निना कण्ठपाशेन पशुगुप्तिविषादिभिः ॥७॥ शल्यज्ञानं तु वास्तुप्रकरणे लिखितमस्ति ।
_____ अथनिधिपृच्छा। सुखस्थाने यदा चन्द्रः सौम्यो वा बलसंयुतः । निधीशो वाऽपि लग्नेशो निधिरस्ति सुखप्रदः ॥ १ ॥ जीवेन्दू केन्द्रगौ स्यातां सुखे वा जीवभार्गवौ । निधिरस्ति भवेल्लाभः कृते यत्नेऽत्र वत्सरे ॥ २॥ चन्द्रज्ञगुरुशुक्राणामेकोऽपि यदि वेश्मगः । स्वीयं वा परकीयं वा सदसद्धलवन्निधिम् ॥ ३ ॥ यद्येते चेत्स्थिरा रन्ध्र लभ्यते पैतृकं धनम् । यावत्संख्यासु खे खेटास्तावत्संख्या निर्भवेत् ॥ ४ ॥ यथा भूमिगतं द्रव्यं परहस्तगतं तथा । तद्वदेव परिज्ञेयं
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
विस्मृतं पैतृकं धनम् ||५|| धनं भूमिमध्येऽस्ति नो वेति पृष्ठे विलग्ने शुभे सौम्यहऽस्ति तस्मिन् । यदि क्रूरदृष्टे खनित्वा तु नीतं बहु स्वल्पमस्तीति वाच्यं हि तस्मात् || ६ || निधीशोऽभ्यन्तरे राशौ गृहमध्ये निधिः स्थितः । बाह्यराशौ बहिःष्ठः स्याज्ज्ञेयो वा फणिचक्रतः ॥ ७ ॥ अगौ लग्ने चोरवाघा भूतबाधा शनौ व्यये । राजबाधा पापग्ने स्वस्थयोः शनिभौमयोः || ८ || व्यारावष्टमे लोष्टं तुषाद्यं वा व्यये शनौ । राहौ वा विवले मन्दे लग्नगेऽङ्गारकान्वदेत् ॥९॥ केन्द्रकोणेषु पापेषु रिक्तकुम्भस्य दर्शनम् । स्वोच्च शशिनि केन्द्रस्थे सौम्ये वा प्रतिमासु च ॥ १० ॥ अथाहिवलयं वक्ष्ये स्फुटज्ञानकरं निधेः । तत्रैवौदयिकौ कार्यौ चरौ तात्कालिक ततः ॥ ११ ॥ गतक्षन्धिहतिर्यातघटीतिथ्यंशसंयुता । द्विघ्ना त्र्याप्ता लवादिन्दुः षड्गुणोऽष्टघटीयुतः ॥ १२ ॥ चन्द्रवत्साधयेत्सूर्य चन्द्रभे यदिचेदुभौ । निधिरस्ति तदा सत्यं क्रूरेऽब्जे च न लभ्यते || १३ ॥ सूर्य चेत्तदा शल्यं वदेत्तौ चेत्स्वधिष्ण्यगौ । निधिः शल्ययुतोऽस्तीति व्यस्तगौ शून्यमादिशेत् ॥ १४ ॥ सशुक्रेऽब्जे निधिप्राप्तिः पूर्णे पूर्णो निधिर्विधौ । यन्त्रेन्दुः स्यान्निधिस्तत्र क्षीणे चन्द्रेऽल्पकं धनम् ॥ १५ ॥ स्वर्ण रौप्यं च ताम्रं च रत्नं कांस्यायसी पु । नागं चन्द्राद्वदेत्तद्भास्करादिग्रहैः क्रमात् ॥। १६ ।। हेमराजतताम्रारपाषाणं मृन्मयायसम् । सूर्यादिग्रहगे चन्द्रे द्रव्यभाण्डं विनिर्दिशेत् ॥ १७ ॥ अश्विन्यादित्रये काष्ठं लोहमार्द्रादिपञ्चके । ताम्रमाप्यचतुष्के स्यादस्थि पौष्णाजपादयोः || १८ || भुक्तराश्यंशमानेन भूमानं काम्बिकैः (कथितं ) करैः । नीचे निम्नं परेऽम्बुस्थमूर्ध्वस्थे तु विधौ ॥ १९ ॥ दत्रात्रयं पञ्च रौद्रात्पूर्वाषाढाचतुष्टयम् । पौष्णाजपादभे चन्द्रः शेषेषु स्याद्रविः प्रभुः ||२०|| सहस्रलक्षकोट्यादि गुणयेद्ग्रहसंख्यया । दायवत्साधयेत्संख्यां राशिमानेन वा धिया ।। २१ ।।
अथ मृगया ।
बलहीने युने पापैर्युद्धयोगैर्जयान्वितैः । पापैरिष्टकरैयोंगेः सिद्धिः स्यान्मृगयादि || १ || तस्मिन्नहनि यो वारस्तिथियुक्तो विरूपकः । वर्गितो दलितो भाप्तः शेषं वध्यमितिर्भवेत् ॥ २ ॥ द्यूनलग्नपयोर्योगे सिद्धिः सौम्येऽत्र लग्नपे । पापे धूनेश्वरे ज्ञारौ पापक्षशेऽन्यथा न हि ॥ ३ ॥ क्रूरयोनैरनिष्टैश्च मृगयासिद्धिरिष्यते । द्यूने क्रूरैर्वल भ्रष्टैर्युद्धयोगैर्बलप्रदः ॥ ४ ॥ दर्शविष्टिव्यतीपात - क्रूरपञ्चाङ्गिके तिथौ । कथिता मृगयासिद्धिः क्रूरयोगैः परैरपि ।। ५ ।। भौमौ मृगयाधीशौ तन्वीशौ मृगयाच्युतिः । शुभे लग्गपतौ सिद्धिः क्रूरे धूनपतौ सति ॥ ६ ॥
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ज्योतिर्निबन्धः। पापाद्धि जलजासिद्धिर्जलक्षेत्रे जलग्रहः । लग्नास्तभावगैयोंगबहुष्टिफलपदैः ॥ ७॥ क्रूराक्रान्तानि यावन्ति मध्ये भानीन्दुलग्नयोः । तावन्तः माणिनो वध्या द्वित्रिघ्नाः स्वशिचक्रयोः ॥ ८ ॥
अथ बन्धमोक्षौ। सौर दृक्कोणे वा भुजंगपरिवेष्टितेऽथवा लग्ने । शशिसौराभ्यां दृष्टं बन्धनमा स्तीति सप्तमाष्टंगते ॥ १॥ ग्रूने लग्ने भवेत्पापस्तदा बद्धो भवेन्नरः । लमाष्टमगतः पापस्तदा मारित एव सः॥२॥ ने लग्ने भवेत्क्रूरश्छिद्रे लग्नेऽथवा भवेत् । मुच्यते पुरुषो बद्धो मूर्ती पापः शुभागमः ॥ ३ ॥ निधनारिष्ठयोगैश्च क्षिसं बद्धो विमुच्यते । चतुर्थे धनपो दीर्घ बन्धनं कुरुते दृढम् ॥ ४ ॥ लग्ने सप्ताष्टये क्रूरास्तदा बद्धोऽपि मुच्यते । द्वितीये बन्धनं पापे व्ययगे मरणं भवेत् ॥५॥ मुक्तिप्रश्ने यदा केन्द्रे केन्देशाः स्युन मोक्षदाः । तस्मिन्वर्षेऽयं लग्नेशे व्यये बद्धः पलत्यसौ ( लायते)॥ ६ ॥ लग्नेशेऽस्तमितेऽम्बुस्थे कुजदृष्टे भवेन्मृतिः। गुप्त्यां मृतिविधी केन्द्रे मन्दयक्त निरीक्षिते ॥ ७॥ दीर्घपीडा च भामेन युग्दृष्टे बन्धताडने । त्रिधर्मेशे व्यये लनस्वामियोगात्पलायनम् ॥८॥ मेषे घटे च शीघ्र स्यात्कर्के नक्रे सुकटताः। स्थिरे चिराद्विधी लग्ने द्वयङ्गे मोक्षोऽस्य योगतः ॥ ९॥ यावच्छको बली लग्ने तावच्चोरो बलाधिकः । अस्तं गते तनी शुक्रे बन्धमोक्षादिसंशयः ॥ १०॥ चरोदये शुभे शीघ्रं मोक्षयोगैस्तु लाभदैः । स्थिरे मोक्षो विलम्बेन बन्धः शुक्रे स्थिरे स्थिरः ॥ ११॥ अचिरेण घरे मन्द दीर्घकालेन तु स्थिरे । मध्यमेम द्विमूर्तिस्थो मोचयेद्वन्धनं स्थिरम् ॥ १२ ॥
अथ लिखितपृच्छा। पूर्णः शुभैर्युतश्चन्द्रो वीक्षितो वा शुभा लिपिः । क्षीणः पापयुतो वाऽपि चन्द्रो वार्ता त्वशोभना ॥ १॥ प्राप्तो न वा पृच्छति लेखवाहकस्तदा विलमाधिपतिः शशी वा । अस्तेऽथवा तत्पतिना सुयोगे प्राप्तस्तथैकक्षगतौ युतिः स्यात् ॥ २॥ सवरज्ञयते चन्द्रे ससौरे वाऽमृते लिपिः। शुभी सेज्ये कलि। सारे नेपाज्ञाऽर्कागोः प्रियम् ।। ३ ॥ लेखोत्तरं ग्राहकादेष्यतीति प्रश्नेऽस्तपाम्यूसरिफा शशी स्यात् । लग्नाधिपो वाऽपि च तौ तु केन्द्राद्वितीयगो वा पथि बर्तते सः ॥ ४ ॥ शशिलग्नेशयोोंगे ये मध्यांशास्तु तत्समैः । क्षणवासरमासा
१२. संश्रयः । २ . भाप्लेज्ये' । ३ घ. नृपजा
।
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३२२
श्रीशिवराजविनिर्मितोब्दैर्यक्त्या तस्याऽऽगमं वदेत् ॥ ५॥ बुधाब्जयोः खेशयोगात्करे लेखश्चटी(खः पति ) ष्यति । नान्यथा केन्द्रगे चन्द्रे स्थिरभेऽन्यादरं वदेत् ॥६॥ सौम्यैर्योगं बुधः प्राप्य शुभा वार्ताऽन्यथा खलैः । तस्मिन्मूर्त्यादिभावस्थे वार्ता तदनुयायिनाम् ॥ ७॥
अथ वार्तापृच्छा। चन्द्रो लग्नपति र्वाऽपि यदि केन्द्रे शुभान्वितः । किंवदन्ती तदा सत्या स्यादसत्या विपर्यये ॥ १॥ शुभा शुभान्विते सत्या तथा दुष्टा खलान्विते । लग्ने तदीश्वरे शुक्रे स्यात्सत्याऽग्रे जनश्रुतिः ॥२॥
अथ हन्तुं गमनम्। रिपुं हन्तुं गमिष्येऽद्य लग्ने क्रूरयुते जयः । लग्नेन्दू स्वेशदृष्टौ वा जयः प्रष्टुर्न चान्यथा ॥१॥ स्वस्वामिना स्नेहदृशाऽवलोकितस्तदा रिपुर्निगृहीतोऽपि मुच्यते । चेत्क्रूरदृष्टया युधि नश्यतेऽसौ यदैको तौ विधृतः पलायते ॥२॥ मूर्ती सुखे च चन्द्रे चरभस्थे चेत्पराभवः प्रष्टुः । सशुभेऽब्जे संतोषः सङ्करे निःसृतो ध्रियते ॥३॥
__ अथाभिचारः। वलवल्लग्नपे सिद्धिरभिचारेऽस्य जायते । गुरौ लग्ने रवौ खस्थ इन्द्रजालं प्रसिध्यति ॥१॥
___ अथ योगसिद्धिः । लग्ने वा दशमे सूर्यो यद्वा सौम्यग्रहो भवेत् । योगसिद्धिस्तदा वाच्या प्रव्रज्यायोगतोऽथवा ॥१॥
___ अथ विद्यान्यासः। सौम्यैः केन्द्रत्रिकोणायस्थितैः शीर्षोदयो भवेत् । विद्याप्तिरथ वेतालसिद्धियोगैर्जयावहैः ॥१॥
अथ काव्यम् । लग्नेशचन्द्रपुत्रेशाः प्रबन्धे ज्ञानकाव्ययोः । कारणं तदलं प्रश्ने ज्ञात्वा तेभः फलं वदेत् ॥ १॥
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ दीक्षा |
एकराशिगताः खेटाश्चतुराद्या यदा तदा । बलवद्ग्रहजा दीक्षा नृणां वाच्याऽत्र युक्तितः ।। १ ।। सूर्यादिभिर्ग्रहैर्दृष्टः पददो दशमे गुरुः । पृच्छायां जन्मकाले वा धर्मे धर्मप्रदो भवेत् || २ ॥
३२३
अथ स्वमः ।
शुभयोगैः शुभः स्वनो दुःस्वमः पापयोगतः । अनिष्टारिष्टयोगैश्व स्वमो दुःखफलप्रदः ॥ १ ॥ शुभैः केन्द्रत्रिकोणस्थैर्विशुद्धे चाष्टमे सति शस्ताः स्युर्दुर्निमित्तानि च स्फुटम् || २ || अथ भोजनम् ।
दुःस्वमा अपि
स्थिरे विलग्ने सकृदेव भोजनं द्विदेहके द्वीश्वरभे बहूनि । विलग्नतुर्यादिचतुष्ट्रयस्थे लग्नस्य वीर्येण रसस्तु वाच्यः ॥ १ ॥ चन्द्रः स्वनाथदृष्टस्तदा शुभं नेक्षितस्तदा कष्टम् । चन्द्रो यस्य मुथशिलस्तस्य विशेषं वदेद्भुक्तौ ॥ २ ॥ लग्ने राहौ मन्दे रविदृष्टे भोजनाभावः । सूर्यादृष्टे सायं कदन्नमपि नीचगेऽरिगृहे ॥ ३ ॥ पृच्छायां यो वली भावो लग्नाद्यस्तस्य भावतः । स्वीयादिसदने वाच्यं भावि भूतं च भोजनम् ॥ ४ ॥ लाभे वेश्मनि लग्ने च शुभदृष्टे सुभोजनम् | जीवे लग्ने भृग वाऽपि स्वगृहेऽन्यगृहे धिया || ५ || चन्द्रे लग्ने सुखे वाऽपि क्षीराक्तं मधुरं शुभम् । कालहोराधिपो लग्ने स्वेच्छया शीघ्रभोजनम् || ६ || सूर्यात्तितं चन्द्रालवणं भौमात्कटूष्णमांसयुतम् । बुधगुरुशुक्रर्मधुरं क्रीडायुक्तं शनेः कदन्नं च ॥ ७ ॥ सबलः पश्यतां (ति) लग्नं करोति रससंग्रहम् । भोजने लग्नसंस्थानामथवा केन्द्रगामिणाम् || ८ || क्रूरैः सौम्यर्क्षगैः श्रेष्ठं विपरीतं स्ववेश्मनि । बलयुक्ते रवौ तीक्ष्णं क्षारं चन्द्रे शुभैः शुभम् ॥ ९ ॥ क्रूरैः क्रूरो रसो वाच्यो मिश्रैर्मिश्रं रसायनम् । मिश्रर्मिंश्रो रसो ज्ञेयः शत्रुभैर्विरसैर्युतम् ॥ १० ॥ अथ भुक्तियानम् ।
1
प्रश्नेऽस्मिन्भुक्तियाने तु भौमो वाऽऽकिंः शशीयुतः । तदा भुक्तौ न गन्तव्यं ससौम्येऽब्जे तु गम्यताम् ॥ १ ॥
अथ वाटिका ।
लाभो वाटिकयाsनया मम भवेत्प्रभे विलग्ने शुभे तद्भावाश्च सहायिनः खलखगे चौरस्तु वक्रेऽन्यगः । सौम्यैस्त्वष्टमगैः शुभं तु दशमे सौम्ये शुभे पादपाः
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૨૪
श्री शिवराजविनिमितो
श्रेष्ठाः सत्फलदायिनः स्वपतिना दृष्टेऽन्यथा तद्विना ॥ १ ॥ स्वेशोदयाद्वयोलभ्यं दुमा नश्यन्ति खे कुजे । शुभेऽम्बुगे बहुफलास्तद्वद्वेशात्फलं वदेत् ॥ २ ॥
अथापृच्छा |
सबले दुर्बले लग्ने स्यात्समर्ध महर्धकम् । दिनायें शुभष्टेऽजे यह व्यत्यser || १ || तिलोद्रवकङ्गूणां चणकश्यामवस्तुषु । शनिः स्वामी रसे - विन्दुः स्वगन्धाम्भसां रविः || २ || शुक्रस्तु पूर्वसस्यानां विदलानां प्रभुबुधः । यवसर्षपगोधूमशालीक्षूणां प्रभुर्गुरुः ॥ ३ ॥ अरुणानां प्रभुर्भीमस्ततो यस्यास्ति संक्रमः । तल्लग्नं सबलांशोऽपि तत्तद्वस्तु समर्थकम् ॥ ४ ॥ पूर्वात्रिवारे तुर्यसमर्थं सूर्य संक्रमात् । पूर्वात्रितयपञ्चर्क्षे तुर्यवारे महर्घकम् ॥ ५ ॥ मासक्षत्पूर्णिमा हीना समा बा यदि वाऽधिका । समर्थं च समत्वं च महर्षे च विनिदिशेत् ॥ ६ ॥
अथ देशभङ्गपृच्छा |
यदि केन्द्रताः क्रूरास्तदा सर्वत्र विद्रुतम् । सौम्यावेत्सर्वतः क्षेमं विशेषः कूर्मचक्रतः || १ || मायस्यां दिशि क्रूरो मन्दी राहुर्यतोऽथवा । तत्र दुर्भिक्षतो भङ्गो ख्याराब्जैः परागमात् ॥ २ ॥ सस्वामिभागृहे ग्रामे स्वदेशे नृपर्क्षतः । मध्याद्दिक्षु शनिर्यत्र तत्र दुर्भिक्षविद्वरे ( देत् ) ॥ ३॥
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अथाऽऽयुष्पृच्छा ।
आयुष्मश्चे मृत्युयोगे प्रनुर्मृत्युं समादिशेत् । तद्भङ्गे सति कष्टं स्याज्जातकोक्तं च कल्पयेत् ॥ १ ॥ उद्गतकलासमूहं परमायुस्ताडितं समुद्धृत्य । मण्डलकलाभिराप्तो वर्षादिरिहाऽऽयुषः कालः ॥ २ ॥ शङ्खेष्टकाकपालोर्वीछत्रध्वजादिकं विधोः । स्वर्णलोहितधात्वादि क्षितिसूनोरुदाहृतम् ॥ ३ ॥ वैकृतं तु गुरुहारका - चान्तं चन्द्रजस्य तु । पीतं धातुमणिजातप्रमुखं कथितं गुरोः ॥ ४ ॥ वैदूर्यस्फ टिकाम्भोजरजताद्यं विदुर्भृगोः । सीसाञ्जनेन्द्रनीलाख्यं पूर्ववत्कथितं शनेः ॥ ५ ॥ राहोरपि शनिप्रोक्तं यस्य राहुरधिष्ठितः । देशकालाकृतिद्रव्य जातिवर्णमुखग्रहैः । युक्त्या विचार्य वक्तव्यं पौनःपुन्येन हौरिकैः ॥ ६ ॥
१ क. विड्वरम् । २ ख. 'त् ॥ २ ॥ खण्डेऽग्निभावत् ॥ २ ॥ ! खण्डेऽपिभादुपदेयामे । ३ क. विङ्क् ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ नष्टजन्म |
लग्नत्रिकोणराशीनां जन्मराशिर्बलाधिकः । शीर्षादि संस्पृशन्प्रष्टा पृच्छेत्तद्राशिमादिशेत् || १ || गुरुर्लने पितोत्पन्नो राहुकेतू तु शात्रवः । शनिर्लने पूर्वमित्रं तन्मृत्युः शस्त्रतः पुरा ॥ २ ॥ बुधे तोयात्कुजे त्वाजौ मृत्युः शुक्रेरितः पितुः ॥ ३ ॥
अथ दुर्दिने लग्नज्ञानम् ।
रमंशुर्बुगुशंचन्द्रा वर्गेशाः प्रश्नवर्णतः । लग्नं तत्र ग्रहादीनामोजे चौजं समे समम् ॥ १ ॥ तल्लग्नाद्ग्रहयोगैश्च पूर्वोक्तः फलमादिशेत् । प्रच्छकोच्चारिताङ्केभ्यो लग्नांशांस्तत्र कल्पयेत् ॥ २ ॥
३२५
अथ चिन्तामुष्टिकज्ञानम् ।
कुजाक धातुसंज्ञौ तु मूलसंज्ञौ शशीनजौ । जीवाख्यौ जीवशुक्रौ च योनिtria बुधः ॥ १ ॥ यलग्नं यस्य खेटस्य तस्मादारभ्य यावति । योनिग्रहो भवेत्तस्मात्ततो योनिविनिर्णयः || २ || लग्नोदितनवांशे वा चन्द्रे वाऽप्येवमेव हि । केन्द्रगैर्वा योनिका मुष्टिश्व कथ्यते ॥ ३ ॥ चन्द्रार्कौ मृत्युलोकेश ज्या स्वर्गाधिपौ मतौ । स्मृताः पाताललोकेशाः सौरारभृगुराहवः ॥ ४ ॥ अथ फलकालनिर्णयः ।
1
लग्नेशो वीक्षते लग्नं कार्येशः कार्यमीक्षते । कार्यसिद्धिर्भवेदिन्दुः कार्यमेति तदा स्फुटम् || १ || लग्नेशो वीक्षते कार्य कार्येशो लग्नमीक्षते । तदा कार्यस्य संसिद्धिरिन्दुर्लनं यदेति च ॥ २ ॥ कार्यकार्येशमध्यांशास्तान्पितैर्वर्षमासकैः । दिनैर्दण्डैर्यथायोग्यं योज्याः कार्यस्य सिद्धये || ३ || अयनक्षणदिवसतुमासः पक्षः समार्कतो ज्ञेयः । लग्ननवशपतुल्यः कालो लग्नोदितांशसमसंख्यः ॥ ४ ॥
इति शूरमहाठ श्रीशिवराजविनिर्मिते । ज्योतिर्निबन्धसर्वस्वे प्रश्नाध्यायः समीरितः ॥
अथ स्वरशास्त्रसारम् । तत्राssaौ स्वरशास्त्रप्रशंसा ।
विलोक्य स्वरशास्त्राणि शिवोक्तानाममानपि । स्वानुभूत्याऽत्र तत्सारं बुवे
१ क. 'घुथुसच' ।
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३२६
श्रीशिवराजविनिर्मितोभूपालवल्लभे ॥१॥ त्रिस्तनी गौर्यथा निन्द्या त्रिपदं यद्वदासनम् । विप्रहीना यथा वर्णास्त्रयः स्कन्धाः स्वरैर्विना ॥ २ ॥ चतुरङ्गेण सैन्येन यत्कार्य नैव सिध्यति । तत्साधयति दैवज्ञो हेलयैव नृपेप्सितम् ॥ ३॥ जयचर्यायांपत्त्यश्वरथभूपालैः संपूर्णा यदि वाहिनी । तथापि भङ्गमायाति नृपो हीन: स्वरोदये ॥४॥ पुष्पैरपि न योद्धव्यं यावद्धीनः स्वरोदये । स्वरोदयबले प्राप्ते योद्धन्यं शस्त्रकोटिभिः ॥ ५॥ जयार्णवे—यस्यैकोऽपि गृहे नास्ति स्वरशास्त्रस्य पारगः । रम्भास्तम्भोपमं राज्यं निश्चितं तस्य भूपतेः ॥ ६ ॥ जयायां-स्वरशास्त्रे कृताभ्यासः सत्यवादी जितेन्द्रियः । तस्याऽऽदेशस्य यः कर्ता जयश्रीस्तं नृपं भजेत् ॥ ७ ॥ विजयभैरवे-ग्रहज्ञः शकुनज्ञश्च स्वरज्ञो मन्त्रपारगः । केरलज्ञस्तथा प्रोक्तं भूभृतां रत्नपञ्चकम् ॥ ८॥ भूपालवल्लभे-सर्वत एवाऽऽत्मानं गोपाये[दि]ति श्रुतिः प्राह । तद्रक्षणं विन[वै]तच्छास्त्रं स्यात्कथं सुकरम् ॥ ९॥ मानवीये धर्मशास्त्रे-प्रजानां रक्षणं राज्ञां परमो धर्म इष्यते । दुष्टान्न निर्जित्य कथं स संभवितुमर्हति ॥ १० ॥ भूपालवल्लभे- सप्ताङ्गानां नृपो मूलं सर्वधमार्थपालकः । अतः संरक्षिते राज्ञि तत्सर्वं रक्षितं भवेत् ॥११॥ पुराणसारे-ये वर्णाश्च स्वधर्मेषु निरतास्तान्नृपस्तु यः । पालयेत्तं च यो रक्षेद्युद्धे राज्ञः फलं भवेत् ॥१२॥ नीतिशास्त्रे-निषिद्धाऽपि क्षितीशाज्ञा पालनीया द्विजैरपि । न दूषणं भवेत्तेषां विष्ण्वंशो भूपतिर्यतः ॥ १३ ॥ भूपालवल्लभे-यत्किंचिदुच्यते पुण्ये शास्त्रे - स्मिन्नाभिचारिकम् । तत्पापमपि नो पापं येन धर्मोऽभिरक्ष्यते ॥ १४ ॥ आज्ञासिद्धमिदं शास्त्रं भवान्यै शम्भुनोदितम् । न देयं पापलुब्धाय देयं स्वाचारवर्तिने ॥ १५॥ उपरोधाद्भयाल्लोभाद्यो ददाति दुरात्मने । स याति नरकं घोरं शिवाज्ञेति सनातनी ॥ १६ ॥ जयाणवे-स्वरचक्राणि चक्राणि भूबलानि बलानि च । एतैरङ्गः क्रमाच्छ दर्बलं वीक्ष्य घातयेत् ॥ १७॥ बलादिस्वरचक्राणि भद्रादीनि पराणि च । भूबलानि प्रसिद्धानि घातादीनि बलानि च ॥ १८ ॥ जयार्णवे-अभङ्गे चाप्यभेदे च स्थानसैन्याधिके रिपो । दुःसाध्ये दुर्जये कार्य मन्त्रयन्त्रादिकं बलम् ॥ १९॥
इति स्वरशास्त्रप्रशंसा।
१ क. दि मेदिनी । २ क. °स्य कोविदः । ३ क. “देशं च यः कुर्याजयी ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
३२७
अथ स्वरोदयः । लाभालाभौ सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा । जयः पराजयश्चेति सर्व ज्ञेयं स्वरोदये ॥ १॥ शत्रुपराभवे-अकछडधभवा नन्दातिथित्रये भानुभौमयोः क्षेत्रे । उदिता अन्त्यात्सप्तः क्रियगोयुग्मांशषट्के स्युः ॥ २ ॥ इखजंढनमशा भद्रात्रितये बुधचन्द्रयोः क्षेत्रे । आदित्यात्पञ्चसु मिथुनान्त्ये कर्कटे सिंहे ॥ ३ ॥ उगझतपयषा जयात्रितये गुरुगृहे भवन्त्युदिताः । अर्यमधिष्ण्यात्पञ्चसु कन्यायां तुलिनि वृश्चिकत्रिलवे ॥ ४ ॥ एघटथफरसा वर्णा रिक्तात्रितये गृहे भृगोरुदिताः । मैत्रात्पश्चसु वृश्चिकशेषे चापे मृगस्य लवषट्के ॥ ५ ॥ ओचंठदबलहवर्णाः पूर्णातिथित्रये गृहेऽर्कतनयस्य । उदिताः श्रुतिपश्चके मृगशेषे कुम्भभे च झषे ॥ ६॥ भूपालवल्लभे-द्वादशाब्दादिनाड्यन्ताः स्वस्थानेषु स्वकालतः । * उदयन्ति स्वभोगेन तथैकादशधा स्वराः ॥ ७ ॥ कूर्मयामले-प्राच्यादिदिक्षु मध्ये च नन्दादितिथिषु क्रमात् । आदयो ह्युदयन्त्यस्मात्पञ्चम्यामस्तगामिनः ॥ ८ ॥ तिथिभुक्तघटीसंख्या षष्टिना भगुणोद्धृता ३२७ । लब्धं पञ्चहतं शेषं स्वरस्तत्कालजो भवेत् ॥९॥ शत्रुपराभवे-उदितस्वरस्य नाम्नः पञ्चावस्थाः क्रमात्स्वतिथिभोगात् । बालकुमारप्रौढस्थविरास्तमिताश्च विज्ञेयाः ॥ १० ॥ रुद्रयामले-स्वनामाद्यक्षरं यत्र कोष्ठे तस्मादनक्रमात् । बालस्वरः कुमारश्च तरुणः स्थविरो मृतः ॥ ११ ॥ किंचिल्लाभकरो बालः कुमारस्त्वर्धलाभदः । युवा सर्वार्थदः प्रोक्तो वृद्ध हानिमृते क्षयः॥ १२ ॥ जयचर्यायां-युद्धे वादे चं यात्रायां नष्टे दृष्टे रुजान्विते । बालस्वरो भवेढुष्टो विवाहादौ भवेच्छुभः ॥ १३ ॥ सर्वेषु शुभकार्येषु यात्राकाले विशेषतः । कुमारः कुरुते वृद्धि सङ्ग्रामे सक्षतो जयः ॥ १४ ॥ शुभाशुभेषु कार्येषु मन्त्रयन्त्रादिसाधने । सर्वसिद्धिं युवा दत्ते याने युद्धे विशेषतः ॥ १५ ॥ दाने देवाचेने दीक्षाविधी मन्त्रप्रकल्पने । वृद्धस्वरो भवेद्भव्यो रणे भङ्गो भयं गमे ॥ १६ ॥ विवाहादि शुभं सर्व सङ्ग्रामाद्यशुभं तथा । न कर्तव्यं नरैः किंचिज्जाते मृत्युस्वरोदये ॥ १७ ।। भूपालवल्लभे-यो यस्य पञ्चमस्थाने स स्वरो मरणप्रदः। तृतीये सर्वसिद्धिः स्याच्छेषे मध्यफलोदयः ॥ १८ ॥ मृत्युहीनस्वरे नाम्नि जयो नाम्नि स्वराधिके । समनाम्नि भवेत्साम्यं
* जयचयार्यो' उदयान्तेस।
१ घ. 'जउठ । २ ख. ध. मात° | ३ ख. °के ॥ ५॥ आचकवल° । ४ प. चढबल । ५ क. वहृतं । ६ ख. ‘मेसंस्कृतो । ७ ब, गोद्गमे । ८ क. घ. त्युदने ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
संधिर्जयपराजयौ ॥ १९ ॥ रुद्रयामले – शत्रोर्मृत्युस्वरे प्राप्ते यूनि प्राप्ते स्वकी - यके । तत्काले कुर्वतां युद्धं विजयो जायते ध्रुवम् ॥ २० ॥ वर्णस्वरवले सर्व कर्तव्यं च शुभाशुभम् । सिद्धिदं सर्वकार्येषु युद्धकाले विशेषतः ॥ २१ ॥ जयार्णवे – तिथिर्वारश्च नक्षत्रं पूर्ववद्यत्मसाधनम् । वर्णस्वरो भवेद्यत्र तत्तस्याधः स्थितं कुरु || २२ || जयचर्याय - यस्य नामादिमो वर्णस्तिथिवार संयुतः । तद्दिनं वर्जयेत्तस्य हानिमृत्युकरं यतः || २३ ||
1
इति स्वरोदयः ।
३२८
अथ तत्कालस्वरचिन्ता ।
ब्रह्मयामले * प्रच्छकस्तदिदं पश्यस्थित्वा वा तत्र पृच्छति । हानित्युर्भयं भङ्गो जायते नात्र संशयः || १ || तिध्यादावुदयं याति तिथिस्वराघटत्वरः । बालस्वरादिकं प्रश्ने फलं तस्य वदाम्यहम् || २ || बालोदये यदा पृच्छा लाभार्थे स्वल्पदा भवेत् । रुजार्ते विररोगः स्याद्गमे हानिः क्षयो रणे || ३ || कुमारोदयवेलायां लाभो भवति पुष्कलः । रुजो नाशो जयो युद्धे यात्रा सर्वत्र सिद्धिदा ॥ ४ ॥ युवोदये लभेद्राज्यं क्लेशच्छेदय तत्क्षणात् । सङ्ग्रामे भङ्गमायाति यात्रायां न निवर्तते ||५|| मृतोदये तु मृत्युः स्यात्सङ्ग्रा मादौ विशेषतः । ओजस्वरा नरा नार्यो युग्माः स्वोदयतः फलम् ॥ ६ ॥ गर्भार्थे पुंस्वरे पुत्रः कन्या कन्यास्वरोदये । युग्मे युग्मं क्षयो नष्टे मातुर्मृत्युश्व संक्रमे ॥ ७ ॥ रुद्रयामले एकपक्षाक्षरे चैकः स्वरश्रेद्योधयोर्द्वयोः । ह्रस्वो गौरो जयी शुक्ले कृष्णो दीर्घो जयी परे ॥ ८ ॥ + एकस्वरोदये यायी स्थायी यूनि कुमारके । सङ्ग्रामादौ जयी बालो बालवृद्धातिस्वरे || ९ || नरपतिजयचर्यायां- पञ्चाणेड: (ओ) स्वरा: ( रा ) [ स्ते ] कछवभवमुखेष्वङगञव्यञ्जनेषु स्युर्नन्दादेस्तिथेस्ते तिथिकपिलवतोऽप्यन्तरा भोगभाजः । नाम्नो बालः कुमारो युवसजरमृताः स्वादिवर्णस्वरात्ते सिद्धयुत्कर्षो युवान्तोपचय इतरयोर्युद्विमृतानि ॥ १० ॥ बालकुमारयोर्मध्यमं ज्ञेयम् ।
-
* पृच्छतिष्पृच्छकःस्थास्नुःस्वरस्य, स्तमितांदिशम् । इतिजयचर्या । + योधयोः सर्वभेदैक्स्वरेयूनि कुमारको । यायीजयी तथा स्थायी बालवृद्धातिमस्वरे । इतिजयचर्यानाम् । श्लोकोऽयं कपुस्तक एवं नान्यत्रं । मुद्रितनयचर्या पुस्तके तु नेयम् ।
1
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ज्योतिर्निबन्धः।
३२९
राशिस्वरचक्रम् ।
वर्णस्वर चक्रम् । || ३ | उ | ए | ओ काख | ग घ च । छ| ज झ ट ठ ।
मे.९ | मि. ३ क. ९ | व.६ / म. ३ । |व.९ | क. ९ तु. ९ | ध. ९ | कुं. ९ |मि.६ / सिं. ९ | १.३ म. ६ | मी.९ | |अ इ उ ए | ओ.
बा. कु. यु. व. म.
धन | प फ ब । भम | य र ल । व श ष स | ह. बाकु | यु | व | म ।
Fr||Bhol
नक्षत्रस्वरचक्रम् ।
मासस्वरचक्रम् ।
| अ. । इ. | उ. | ए. | ओ. | रे. | पु. | उ. | अनु. | श्र. | अ. पु. ह. | ज्ये. ध.
भ. | आ. चि. मू. श. कृ.रो. | म. स्वा. पू. पू. म. आ.| पू. वि. | उ..
अ. इ. | उ. ए. | ओ. मा. | आश्वि. | चै. | ज्ये. माघ मार्गः श्रा. | पौ. | का. फा. व. | आषा. | ०० ० २ । २ । २ २ २
४३ | ४३/४३ ४३ ३८ ३८ । ३८|३८ ३८
द्वादशवार्षिकस्परचक्रम् ।
ऋतुस्वरचक्रम् ।
munmame
| अ. इ. उ. | ए. ओ. ।
म. प्र. ख. | शो. रा. | | १२ | १२ १२ १२ १२ व. १ | १/१ १
।
१ मा.१११ | १ | १ | १ | दि. २/२ | २ | २ | २ | घ.४३/४३ ४३ | ४३ | ४३ । प.३८/३८३८३८ ।३८ । बा. कु.यु. वृ. | मृ.
४२
अ. ई. उ. ए. | ओ. |व. श्री. वा. श. । हेमन्त
।४८/३६ । २४ १२ ग्री | वा. | श. | हेमं. शिशिर |१२ २४ । ३६ । ४८
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३३०
वारस्वरचक्रम् |
अ इ उ ए
र. मं. चं. बु. गु.
मे. मि.
सि.
क.
वृ.
कर्क
श्री शिवराजविनिर्मितो
ध.
मी.
शु. श.
वृष
ओ
तुल
म.
कुं.
*
दिक्स्वरचक्रम् |
पू. अ. नन्दा
| १।६।११
श्री.
उ. ए
म. ओ.
द. इ.
रिक्ता
भद्रा
पूर्णा ४/९/१४ ५।१०।१५ २२७ १२
श्री.
श्री.
प. उ
जया श्री. ३।८।१३
अ
इ उ ए
आ अ
उ ए
१ २ ३ ४ ५ ६ ७
८ ९ १० ११
४३
४९ | ५४ ६०
५ | १० | १६ | २१ | २७ ३२ | ३८ २७ | ५४ २१ ४९ | १६ | ४३ | १० १६ | ३२ | ४८ ५ | २१ | ३८ | ५४ | १० | २७ | ४३
३८
५ | ३२
०
इति वर्णस्वरादिचक्रोद्धारः ।
आ अ | इ | उ ए | ओ
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०
अथ राहुकालानलम् |
अथातः संप्रवक्ष्यामि ख्याता या ब्रह्मयामले । राहुकालानली यात्रा सद्यःप्रत्ययकारिणी || १ || ग्रहयोगवशात्रात्रा ज्योतिःशास्त्रेषु भाषिता । सा यात्रा शुभकार्येषु फलं नैव तु संगरे ॥ २ ॥ जयचर्यायां-यस्य च्छायाप्रभावेण च्छाद्येते शशिभास्करौ । तस्य राहोः प्रभावं च वक्ष्येऽहं रणकर्मणि ॥ ३॥ केचिन्मूर्खा वदन्त्येवं ग्रहो राहुरकारणम् । यतो वर्षे दिने लग्नेऽप्याधिपत्यं न दृश्यते || ४ || वेदागमपुराणेषु ख्यातो राहुः खगेश्वरः । तस्य माहात्म्यमज्ञात्वा मिथ्या जल्पति मूढवीः || ५ || दुष्टरिष्टेषु सर्वषु जातकादिषु गण्यते । सद्यःप्रत्ययदो राहुर्जये स्यादेककारणम् || ६ || यत्र धिष्ण्ये स्थितो राहुर्मुखं तन्मृतिपक्षगम् । गुदं ततः पञ्चदशे जीबाङ्गे संस्थितं तु तत् ॥ ७ ॥ राहुभुक्तानि
* एतच्चक्रनामादिकं नोप किंतु यथास्थानं तत्संस्थापितं शोधकैः सूक्ष्वदर्शिभिर्यथायथमवगन्तव्यम् ।
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ज्योतिर्निवन्धः।
३३१ धिष्ण्याने जीवपक्षे त्रयोदश । त्रयोदशैव भोग्यानि मृतपक्षः प्रकीर्तितः॥८॥ *जयार्णवे-जीवो ग्लावमृते हंसोऽथवा द्वौ जीवपक्षगौ । तदा यात्रा शुभा ज्ञेया वैपरीत्ये तु हानिदा ॥९॥ चन्द्रे वदनगे यायी नश्येत्स्थायी गुदस्थिते । जीवपक्षे जयी यायी मृत्युगे स्थायिनो जयः ॥१०॥ ब्रह्मयामले-जीवपक्षगते चन्द्रे कार्य स्यादमृतोपमम् । मृतपक्षे मृतं ज्ञेयं यतश्चन्द्रबले बलम् ॥ ११॥ ज्योतिष्प्रकाशे-नन्दषट्कं भूपषट्कं त्रिकमन्त्यं गपे न सत् । राहुभाच्छेपधिष्ण्यानि दशाङ्गे नो शुभानि च ॥ १२ ॥ जयभैरवे-युद्धकाले यदा शीघ्र यात्रायोगो न लभ्यते । उत्पाद्यते तदा शीघ्रं तत्कालेन्दुदिवाकरौ ॥ १३ ॥ जयचर्यायाम्-इष्टा नाड्यो हता धिष्ण्यैः षष्टिभागातशेषके । अश्विन्यादीन्दुभुक्तेन युक्ते तत्कालचन्द्रमाः ॥ १४ ॥ यथा चन्द्रस्तथा सूर्यः कर्तव्यश्चेष्टकालिकः । यतोऽहोरात्रमध्ये तो भ्रमन्तौ धिष्ण्यमण्डले ॥ १५ ॥
इति राहुकालानलम् ।
अथ चन्द्रार्ककालानलम् । सिंहात्षट्कं रविक्षेत्रं चन्द्रक्षेत्रं घटादिकम् । चन्द्रक्षेत्रे चन्द्रसूर्यों स्थायिनो जायते वधः ॥ १॥ स्वक्षेत्रगौ चन्द्रसूर्यों संधियुद्धं विपर्यये । कर्तयां यदि चन्द्राकौं संहारः सैन्ययोर्द्वयोः ॥ २ ॥ चन्द्रसूर्यौ रविक्षेत्रे यातुर्भङ्गोऽन्यथा जयः । यात्रायां युद्धकाले च चान्द्रस्थौ स्थायिनां शुभम् ॥ ३ ॥
इति चन्द्रार्ककालानलम् ।
अथ रिक्तपूर्णचक्रम् । भानुभाद्भानुसंक्रान्ते रिक्तः पूर्णो विधुः क्रमात् । चन्द्रे रिक्ते जयी पौरः पूर्णे यायी जयी ममे ॥१॥
इति रिक्तपूर्णचक्रम् ।
अथ कुलाकुलचक्रम् । जयचर्यायां--द्वितीया दशमी षष्ठी कुलाकुलाः प्रकीर्तिताः । विषमा अकुलाः सर्वाः शेषाश्च तिथयः कुलाः ॥ १॥ रविश्चन्द्रो गुरुर्मन्दश्चत्वारो ह्यकुला मताः । भौमशुक्रौ कुलाख्यौ च बुधवारः कुलाकुलः ॥२॥ वारुणा भिजिम्यूलं कुला. * जीवपक्षे क्षपानाथे मृतपक्षे रवौ तथा । तरिम-काले शुभा यात्रा विपरीता तु हानिदा ॥ इति जयचर्याय म् ।
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३३२
श्री शिवराजविनिर्मितो
कुमुदीरितम् | कुसमधिष्ण्यानि शेषभान्यकुलानि च ॥ ३ ॥ तिथ वारे च नक्षत्रे ह्यकुले यायिनो जयः । कुलाख्ये स्थायिनो नूनं संधिश्चैव कुलाकुले ॥ ४ ॥
कुलाकुलम्
२ १०
६
बु.
आ. अ.
मू. श.
१
VM S
अकुलम्
७ १३
९
११
र. च. बृ. श.
१५
अ० कृ० पृ० पु० आ० पू० ६० स्वा० अ०
उ० श्र० उ०
इति कुलाकुलचक्रम् |
४
८
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कुलम्
१२
१४
मं. शु.
भ० रो० पु
म०
उ० चि० वि० ज्ये० पू०
पू० भा०
ध० रे०
अथ लोहज्ञानम् ।
दस्रादिसप्तकेऽरण्ये पुष्यात्षष्ठे पुरान्तिके । चित्रादिसप्तके तोये क्षेत्रे वैश्वाच्चतुष्टये ॥ १ ॥ लोहं वर्षति मार्गेषु पूर्वा ( ) भाद्रपदात्रये । तिथिः पञ्चगुणा कार्या दिनभेन समन्विता ॥ ॥ त्रिभिर्भक्ता शेषमेकं जले लोहं विनिर्दिशेत् । द्वाभ्यां ग्रामे तथाssकाशे शेषं शून्यं यदा भवेत् || ३ || ब्रह्मयामले - तिथिः पञ्चगुणा भाढ्या त्र्याप्ता रूपादिशेषके । लोहं जले स्थले व्योम्नि ब्रूयान्नष्टस्थितिस्तदा ॥ ४ ॥ तिथेः प्राग्घटिकाः पञ्चदशोर्ध्वं वीक्षते शिवा । दश वामे दिशो दक्षे दशधाऽग्रे तिथिः क्रमात् || ५ || सहदेवमते - ऊर्ध्वदृक्तिथयः पादे दश वामभुजे दश । दक्षे च दश योगिन्यास्तिथिनाड्यस्तु संमुखम् || ६ || यत्रास्ति भैरवी दृष्टिस्तत्र लोहं प्रवर्षति । एतत्सर्वं प्रविज्ञाय तत्तत्स्थानं विवर्जयेत् ॥ ७ ॥ तिथिः पञ्चगुणा मासयुक्ता वसुभिरुद्धृता । शेषसंमितदिग्भागं गृह्णीयाद्ग्रामगेहयोः || ८ || तिथिर्द्विघ्ना भयुक् त्र्याप्ता शेषैके चलनं न हि । द्वाभ्यामर्थपथं
१ क. नि मासधि ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
३३३ यानं शत्रोः शून्येनं सत्वरम् ॥ ९॥ सूर्यभादिनभे सप्तभक्तेऽप्येकादिलब्धितः। द्वयोर्युतिर्भवेन्मन्दा रौद्री वक्रा स्थिरा क्रमात् ॥ १० ॥ तिथिः पञ्चगुणा कार्या दिनभं तत्र विन्यसेत् । वह्निभिस्तु हरेद्भागं शेषे यात्रां विनिर्दिशेत् ॥ ११ ॥ एकेनार्धपथं यावद्द्वाभ्यां सीमावधेरतः । पूर्णेन पुरपर्यन्तं गमनं वाच्यते ध्रुवम् ॥१२॥ वह्निभादिनभं वह्निभिहच्छू(हृतं शू)न्यादिशेषके । घातादनुविलम्बश्च लग्ने मार्ग इति क्रमात् ॥१३॥ भूपालवल्लभे-द्वितीयो दशमः षष्ठश्चतुर्थो द्वादशोऽष्टमः । राशयश्च तथा चन्द्रों युद्धे विजयदायकाः ॥ १४ ॥ एकादशे तृतीये वा चन्द्रे राशौ क्षतं विदः । नवपञ्चमजन्मस्थः सप्तमो भगन्दायकः ।। १५॥ वारे शुक्रशचन्द्राणां होरावेला तनौ जयी । अग्राह्या त्वथ जीवाभौमार्किणां च पश्चिमः ॥ १६ ॥ तिथिनक्षत्रवाराणामैक्यं वेदसमन्वितम् । अष्टभिस्तु हरेद्भागं खण्डः शेषदिशि स्मृतः ॥ १७॥
इति लोहज्ञानम् ।
अथ कविचक्रम् । कविचक्रं प्रकर्तव्यं चतुरस्रं त्रिनाडिकम् । वह्निभाचित्रिधिष्ण्यानि प्रवेशे रुद्रकोणतः॥१॥ निर्गमे त्रीणि धिष्ण्यानि कविचक्रमिदं भवेत् । सौम्याः प्रवेशभे चक्रात्तद्दिशि स्यात्प्रवेशनम् ॥२॥ सौम्ये चक्रान्निर्गमः तदिशो निर्गमः शभः । निर्गमःस्थिते क्रूरे क्रूरखेटैबहिः स्थितैः । निशीथे वेष्टकान्सुप्तानिहन्युः पौरवासिनः ॥ ३ ॥ जयचर्यायां- हीनसैन्यः सदा स्थायी यायी सैन्याधिकस्तथा । चतुरस्रं त्रिनाडीक * स्थानमादीशतो न्यसेत् ॥४॥ यदि नामोज्झिते स्थाने शत्रुसैन्यं व्यवस्थितम् । तत्र चक्रं समालेख्यं सेनाध्यक्षःपूर्वकम् ॥५॥ + क्रूरे शीघ्र प्रवेशः यत्र तत्र विशेद्रणम् । वक्रस्थे निर्गमे सौम्ये तदिशा निगमं कुरु ॥ ६ ॥ प्रवेशः प्रवेशश्च निगमे निगमस्तथा । भूबलं पृष्ठतः कृत्वा प्रोक्तः कविरणे जयः ॥ ७॥ कृत्तिकादिरयं न्यासः प्रोक्तो बहुमतान्मया । केऽप्याहुः पुरभात्केचिदुर्गभाचार्कभात्परे ॥ ८ ॥
इति कविचक्रम् ।
अथ कोटचक्रम् । सूर्यचन्द्रभगर्भस्थे स्थानाप्तिर्विजयो भवेत् । चन्द्रभात्स्थानभं गर्भे वेष्टनं
* जयचर्यायां-कविचकं लिखेगुवि । प्रवेशनिर्गमे भानि स्था० । त्रीणित्रीणि प्रवेशे च ईशादौ विदिशि क्रमात् । निर्गमे च चतुष्कं च पूर्वाशादिक्रमेण च ॥ ईशादौ बाह्यतो मध्यं मध्याद्वाह्यं तु पूर्वतः । प्रवेशो बाह्यतः कोणे मध्यादिक्षु विपर्ययः ।। इति जयचर्यायाम् ।
१ घ. 'न्द्राबुद्देऽमीज । २ घ. र्यभाच्चन्द्रमा गर्ने स्था।
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३३४
श्रीशिवराजविनिर्मितोग्रामदुर्गयोः॥ १॥ स्थानभाच्छत्रुभं मध्ये शत्रुभङ्गः प्रजायते । चन्द्रभाच्छत्रुभङ्गः शत्रोर्भवति बन्धनम् ॥ २॥ ग्रामभात्कोटभात्स्वामिधिष्ण्याद्वा क्रूरखेचराः। भङ्ग गर्भस्थिताः कुयुः सौम्या गर्भे जयप्रदाः॥३॥ भूपालवल्लभेक्रूरा गर्ने पुरं घ्नन्ति प्राकारे खण्डिकारकाः । बहिष्टा वेष्टके सैन्ये मृत्युदा नात्र संशयः ॥ ४ ॥ मध्ये क्रूरा बहिः सौम्या गृह्यते निश्चितं पुरम् । सौम्या मध्ये बहिः क्रूरा दुःसाध्यं दुर्गमच्यते ॥ ५॥ प्राकारे संस्थिताः क्रूरा मध्ये सौम्या ग्रहा यदि । दुर्गभङ्ग समुत्पन्ने भङ्गमायान्ति वेष्टकाः ॥ ६॥ प्राकारे खेचराः सौम्या मध्ये क्रूरचतुष्टयम् । भेदाद्भङ्गो भवेत्तत्र विना युद्धेन गृह्यते ॥७॥ वक्रगाः पुरमध्यस्था यदि स्युः करखेचराः । पुरं मुक्त्वा पलायन्ते दुर्गस्था नात्र संशयः ॥ ८॥ दुर्गमध्ये गते सूर्ये जलशोषः प्रजायते । चन्द्रे भङ्गः कुजे दाहो बुधे बुद्धिः शुभाया ॥९॥ गुरौ सुभिक्षं सबलं बलं शुक्रे शनी रुजः । राहौ भङ्गो भयं भेदः केतौ विषभयं प्रभोः ॥ १० ॥
आ०
आ०
पुष्य
आ.
उ०म० अ०र० उ०
ह.चि.स्वा. वि. द०॥
पू०भा०
प० पा० उ. पा० अभि श्र०
वा०
प.
इति कविचक्रम् । एतदेव कोटचक्रम् ।
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ज्योतिर्निवन्धः।
३३५
अथ लग्नबलम् । लग्नस्थितेन चन्द्रेण यात्रायां वैरिभिर्भवेत् । युद्धे भङ्गो विवाहे तु वैधव्यं जायते ध्रुवम् ॥ १॥ यत्र लग्नस्थितः सूर्यश्चन्द्रमा सिंहिकासुतः । केतुर्मन्दश्च भौमश्च तस्य मृत्युन संशयः ॥ २ ॥ ज्ञेन शुक्रेण जीवेन यदा युक्ता भवन्ति ते । तदाऽसौ सक्षतो जीवेद्रणे रोगे तु मूर्छितः ॥ ३ ॥ यथा दुष्टफलाः क्रूरास्तथा सौम्याः शुभप्रदाः । सर्वकालमिदं ज्ञेयं युद्धकाले विशेषतः ॥ ४ ॥ द्वौ यदा वैकनक्षत्रौ समानाक्षरनायकौ । हस्वो गौरो जयी शुक्ल कृष्णे कृष्णोऽतिदीर्घकः ॥ ५॥
इति लग्नबलम् ।
अथ कालबलम् । जयार्णवे-अवर्गाष्टकं ज्ञेयं पूर्वाद्याशास्वनुक्रमात् । स्ववर्गात्पश्चमस्थाने खण्डिर्भङ्गस्तु जायते ॥ १॥ दुर्गवर्गस्य ये भक्ष्यास्तावनामाक्षरा नराः । तदुर्गे ते रणे त्याज्या न कार्या दुर्गनायकाः ॥२॥ ग्रहाश्चन्द्रेण ये यान्ति दिशन्त्यर्केण संगरे(रम्)। भूबलं पृष्ठतः कृत्वा स जयी स्यान्न संशयः ॥३॥ गरुडौतुहरिश्वाहिमूषकैणशशाः क्रमात् । वर्गशास्तेऽर्फवारादौ भङ्गमायान्ति संगरे ॥ ४ ॥ तिथिमोगादिके कार्या पृष्ठतो वाहनाभिधा । भभोगाधिकतस्तद्वत्पुरतो जयदा गमे ॥ ५॥
इति कालबलम् ।
अथ वडवानली भूमिः। जयार्णवे-एकतः सर्ववीयर्याणि भूवलं चैकतः स्मृतम् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन जयार्थी भूबलं श्रयेत् ॥ १॥ जयचर्यायां मासाख्या चतुरङ्गाख्ये दिनाख्या कविसंगरे । मासाख्या कोटसङ्ग्रामे सूक्ष्माख्या खलके रणे ॥ २॥ आदि. यामले-कल्पादावभवद्युद्धममरासुरयोमहत् । तत्र भग्नाः सुराश्चोग्रं तपश्चक्रुर्जयार्थिनः ॥ ३ ॥ तेन शस्त्रास्त्रभृदुद्रो निर्गतो वडवानलात् । तद्धलं कथयामास देवेभ्यः शत्रुविच्छिदे ॥ ४ ॥ द्वित्रिवेदैः पृथग्युक्ता तिथिभक्ता गः क्रमात् । पात्रवृ(दृ)कार्तिके त्यक्ता राज्ञां भूर्वडवानली ॥५॥ इयं पृष्ठस्थिता यस्य जयश्रीस्तस्य संमुखी । भङ्गः पाशश्च घातश्च तन्मुखानां क्रमाद्रणे ॥६॥ रसाघाते दिशः पाते नखाः काले जिनाः पले । वर्तमाना तिथिर्योज्या गजाप्ता तद्दिशो मता ॥ ७ ॥ पलादली भवेत्कालः कालात्पातो बलान्वितः । पाताच बलवान्धा
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श्रीशिवराजविनिर्मितोतस्तस्मात्तान्परिवर्जयेत् ॥ ८ ॥ घातः पातं ग्रसत्युग्रं पलः कालं निकृन्तति । घातकालस्थयोस्तस्माल्लोहपातात्त्वधःस्थिते ॥ ९ ॥
इति वडवानली भूमिः। तत्र मन्त्र:-पश्चवक्त्रं दशभुजं त्रिनेनं शूलधारिणम् । जटाधरं वृषारूढं ध्यायेद्रुद्रं जयप्रदम् ॥ १ ॥ चैत्रात्संहारमार्गेण पूर्वादिदिक्चतुष्टये । दक्षे पृष्ठे जयो युद्ध जयो विष्णुविनिर्मते ॥ २॥
अथ क्षेत्रपाली। विलोमं पूर्वतो मासाश्चैत्राद्या दिक्चतुष्टये । महरा[:]न्स(स)व्यमार्गेणमासस्थानादि गण्यते ॥१॥ चतुरङ्ग कवौ कोटे जयदा पृष्ठदक्षिणे । क्षेत्रपाली महाभूमिभूपालानां जयोत्कटा ॥२॥
अथ पक्षभूमिः। पूर्वोत्तरदिशोः शुक्ले कृष्णेऽन्तकजलाशये । जयदा पक्षभागेण गौरी काली क्रमेण च ॥१॥
__ अथ कालभूमिः। पूर्वाह्ने पावके कोणे पराढे वायुगोचरे । इयं गुयाभिधा भूमिर्जयदा पृष्ठदक्षिणे ॥१॥
अथ बिम्बभूमिः। जयचर्यायां-पराह्नः पूर्वदिग्भागे ततः सव्येन मन्दगः। यत्र स्यात्तत्र कालः स्यात्पाशस्तस्य तु संमुखः ॥ १॥ दक्षिणस्थः शुभः कालः पाशो वामदिगाश्रितः । यात्रायां समरे श्रेष्ठस्ततोऽन्यत्र न शोभनः ॥ २ ॥ भूपालवल्लभे-पूर्वस्यां दिनपं कृत्वा पृष्ठे वारान्यसेत्क्रमात् । यत्र मन्दस्तत्र कालस्तन्मुखो भङ्गमाप्नुयात् ॥ ३ ॥ अज्ञातभूबलो योधः शीघ्रं सङ्ग्रामकर्मणि । जयमुद्रां समासाद्य युद्धं कुर्वञ्जयी भवेत् ॥ ४॥ जिह्वाग्रं विन्यसेत्तालौ पृष्ठे कृत्वा समीरणम् । दामागुष्ठं क्षिपेन्मुष्टौ जयमुद्राऽभिधीयते ॥ ५॥ दक्षपृष्ठे रवेषिम्बं जयदं समराङ्गणे । चन्द्रबिम्ब तथा रात्रौ पुरो वामे च शोभनम् ॥ ६ ॥
अथ लगभूमिः। सूर्यराश्यादितः सन्ये लग्नं तत्कालसंभवम् । पृष्ठदक्षिणगं कृत्वा जयो युद्धे न संशयः ॥ १॥
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ज्योतिर्निवन्धः।
अथ राहुभमिः। इन्द्रवायुयभे रुद्रे तोयानिशशिराक्षसे । यामामुदितो राहुभमत्येव दिगष्टके ॥१॥ सर्वेषां भूबलानां च राहुभूः प्रवरा स्मृता । तस्यां स्थित्वा विशेषेण चतुरङ्ग जयो भवेत् ॥ २॥ रविः सोमः कुजः सौम्यो गुरुः शुक्र: शनिस्तमः । ऐन्द्रादीशानपर्यन्तमर्धयामोदयाः क्रमाद ।। ३॥ अर्बयामोदयः खेटः स्थाप्यः प्राच्या ततः शनिः । यत्राऽऽस्ते तदिशि ज्ञेयं बुधैः कुलिकजं तमः ॥ ४॥ संमुखी वामसंस्था वा यस्यैषा राहुमण्डली । पराजयो भवेत्तस्य बादद्यूतरणादिषु ॥ ५ ॥
कुलिकराहुचक्रम् । इ. पू. आ. | रा. ३२ सू. ४ | चं. ८
उ. श. २८
-
-
शु. २४ गु.२० बु. १६
-
वा.
प. इति राहुभूमिः।
अथ योगिनी। घुउआनंदपवाइदिक्षु प्रागादितः क्रमात् । योगिनी संमुखा त्याज्या सा तु यामाधभुक्तितः॥१॥ भ्रमत्येपा तु भयदा दक्षपृष्ठस्थिता सदा । मागुत्तरादिनात्ये पमतोयानिलेश्वरे । सूर्यादिषु च वारेषु पर्यटन्वारयोगिनी ॥२॥
इति योगिनी ।
अथ वारकालः। झन्धर्फ जीवभौमेषु मध्ये कॉलः प्रकीर्तितः । बाह्ये शुक्रन्दुसौम्येषु वर्जनीया सदा रणे ॥ १॥
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३३८
रा.
वा.
उ. चं.
वा.
श्री शिवराजविनिर्मितो --
श.
३०१८
उ. २।१०
वारयोगिनीचक्रम् |
tro
७/१५
पू
सू.
शु.
प.
इति वारकालः ।
अथ तिथिकालः ।
मध्यवाक्रमादिक्षु वामं प्रतिपदादिषु । वर्तमानतिथौ कालं वर्जयेदाश्र
ये ॥ १ ॥
तिथियोगिनीचकम् ।
पू.
१९
"
६।१४
मं.
प.
इति तिथिकालः ।
गु. द.
बु.
आ.
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बेड
३।११
५।१३ द.
आ
४।१२
奇
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ज्योतिर्निवन्धः ।
अथ वायुशूमिः। दक्षपृष्ठस्थितो वायुर्जयदो भवति ध्रुवम् । वामाङ्गे भयदः प्रोक्तः सर्वयुद्धेषु सर्वदा ॥१॥
इति वायुभूमिः।
अथ भूबलम् । युद्धार्णवे-युद्धकाले यदा चन्द्रः स्थायी जयति निश्चितम् । यदा सूर्यप्रवाहस्तु यायी विजयते ध्रुवम् ॥ १॥ पार्थिवे सक्षतं युद्धं संधिर्भवति वारुणे। विजयो वह्नितत्त्वेन वायो भङ्गो मृतिस्तु खे ॥२॥ पूर्णनाडीगतं पृष्ठे शून्यमङ्गं तदग्रतः। शून्यस्थानकृतः शत्रुम्रियते नात्र संशयः ॥३॥ पूर्वोत्तरदिशोश्चन्द्रो भानौ पश्चिमयाम्ययोः । स्थितस्तत्र जयी युद्धे स्थायी यायी क्रमेण च ॥ ४ ॥ एतेषां भूबलानां तु भूरिमेलापको बली । प्रागुक्तं यद्दिने सर्वं तद्वद्रात्रौ प्रकल्पयेत् ॥ ५॥
इति भूबलम् ।
अथ घातचक्रम् । जयर्यायां-नराकारं लिखेच्चक्रमष्टावयवसंयुतम् । येन विज्ञातमात्रेण ज्ञायते घातनिर्णयः ॥ १ ॥ मुखैकं मस्तके त्रीणि हस्ते पादे चतुश्चतुः । हृदि पञ्च त्रिकं कण्ठे साभिजिद्भानि विन्यसेत् ॥ २॥ कृत्वा योधभमादौ तु मुखे शिरसि वामयोः । हस्ताभ्योर्हदये दक्षकराभ्योगणयेत्क्रमात् ॥३॥ यत्राङ्ग भानुभौमार्किराहवो धिष्ण्यसंस्थिताः । तत्र घातं विजानीयाञ्चन्द्रयोगे विशेषतः ॥४॥ ग्रहमुक्तिप्रमाणेन नवांशकक्रमेण वा । प्रहरो जायते तत्र चक्रे त्रिगुणसंख्यया ॥ ५॥ निजभोच्चेऽर्धघातं च पादोनं मैत्रभे ग्रहे । उदासीने. भवेत्सर्वं द्विगुणं शत्रुभे वदेत् ॥ ६॥ एकोऽप्यनेकघातांश्च करोति भूबलोज्झिते । भूबलस्थे भटे खेटाः स्थिता वातं न कुर्वते ॥ ७ ॥ क्रूराघातं न कुर्वन्ति पृष्ठदक्षिणगे रवौ । संमुखा वामगा ये ते योधाङ्ग घातकारकाः ॥ ८॥ दक्षिणाङ्ग गताः क्रूराः सौम्या वामाङ्गसंस्थिताः । शिरश्छेदेऽपि संजाते कवन्धं संमुखं व्रजेत् ॥ ९॥ यस्य वामाङ्गगाः क्रूराः सौम्यखेटास्तु दक्षिणे । स मृत्यु नूनमायाति यद्यपि स्यान्महाभटः ॥१०॥
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३४०
श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ द्वितीया घातवटी। भूपालवल्लभे-नामधिष्ण्यं मुखे दद्याद्वे नेत्रे त्रीणि मूर्धनि । वेदा बालोः पञ्च हाद पृथक् चत्वारि पादयोः ॥ १ ॥ मुखं नेत्रं शिरो वामहस्तो वामपदं च हृत् । यान्यहस्तस्तथा पादः क्रमाद्योन्दुयुक्खलाः ॥२॥ तत्र घातो विनिर्देश्यो घातायातस्तु केतुतः। यत्राङ्ग विबलाः सौम्यास्तत्र घातेऽपि जीवति ॥ ३॥ ऊर्ध्वदृष्टी कुजादित्यावधोदृष्टी तमाशनी । समदृष्टी जीवचन्द्रौ तिर्यग्दृष्टी ज्ञभार्गवौ ॥ ४ ॥ दृष्टिभावाद्भवेद्घातो भुक्तांशाङ्गुलसंमितः । भोग्यांशाङ्गुलविस्तारस्त्रिगुणो वक्रगाद्ग्रहात् ॥ ५॥ देहस्थं कुलनक्षत्रमकुलं बाह्यसंस्थितम् । देहस्थपापघातेन स्वल्पनापि मृतिभवेत् ॥ ६ ॥
___अथ तृतीया घातवटी। विजयलताया-नराकारचक्रे मुखे योधधिष्ण्यं न्यसेन्मस्तके त्रीणि चत्वारि वामे । करेऽङ्घौ च पञ्चोदरे हृयथोऽत्रयं कण्ठके बाहुपादेऽष्ट सव्ये ॥१॥ सपापेन्दयुक्ते वदेद्घातमङ्ग सुधीः खेटभुक्तांशतुल्याङ्गुलं तु । भवेन्नैव घातो बलात्खेटभूमे टस्य स्थितस्यापि वक्ष्येऽग्रतस्ताम् ॥ २ ॥ रुद्रयामले ---रविनक्षत्रतः शीर्षे त्रयं चैकं मुखे स्थितम् । करयोः पादयोरष्टौ हृदये पश्चकं ततः ॥३॥ त्रयं कण्ठे ततस्तत्र विन्यसेद्ग्रहसंहतिम् । यत्र चन्द्रस्तत्र घातः पादयुक्ते महान्भवेत् ॥ ४ ॥ उदितांशकतुल्या स्याद्घाते तत्रागुलपमा । संपूर्णार्धाधिका भेदा इह शेयास्तु पूर्ववत् ॥ ५ ॥ सहदेवमते-गततिथ्याऽऽह लग्नैक्यं जन्मभादिनभान्वि. तम् । नवाप्तं शेषसंख्यस्य घातं खेटस्य चाऽऽदिशेत् ॥ ६॥ शिरस्याग्निर्मुखे चन्द्रो वामकक्षासु भूमिजः । ज्ञो वामकुक्षौ पृष्ठे च बातोर्घातपतिगुरुः ॥ ७ ॥ कट्यो; पादयोः शुक्रो दक्षकक्षासु वक्षसि । शनि भ्युदरे राहुर्मणिबन्धाग्रयोः शिखी ।। ८॥ स्वरसारे-जन्मभात्सप्तगो. भानुर्नेष्टो द्विदशे कुजः । चतुर्थे दशमे मन्दस्त्रिकोणे गुः शिखी मृतौ ॥ ९ ॥ मुखशीर्पोदरे भानुभौंमो हृद्भुजनाभिषु । राहुस्कन्धे च कक्षायां पृष्ठे वक्षसि मन्दगः ॥ १० ॥ केतुर्दण्डे त्रिधा हन्ति चन्द्रादाने विशेषतः । अथेन्दोः पापयुक्तस्य घातो चाच्योऽत्र जन्मतः ॥ ११ ॥ भाले भुजे हृदि क्रोडे पृष्ठे कटयां करे ततः । बस्तौ पांसुलिके संधौ गुह्येऽशे च क्रमेण तु ॥ १२ ॥
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ज्योतिर्निवन्धः।
घातचक्रम् ।
२
योधाभात्- नाममात्
सूर्यभात्मुखे १ हृदये ५ मुखे १वामपा. ४||शिर० ३ हदये ५ शिरसि २ कण्ठे ३|| नेत्र० २ हृदये ५||मुखे १/कण्टे ३ वामकरे ४ द० क० ४ || शिर० ३ द० क. ४ || वामक० ४ द० २०४ वामच०४ द० च०४||वामह०४ द० पा०४ वामपा०४ द०पा०४
इति घातचक्रम् ।
अथ जाग्रत्सुषुप्तचक्रम् । वसुवाणरसाम्भोधिसप्तचन्द्राग्निवाहवः । वर्गाकैक्यं नगैर्भक्तं जयः शेषेध धिको भवेत् ॥ १ ॥ दस्रादितुर्यतुर्यः नन्दा पूर्णेन्दुभार्गवौं । एतल्लग्नसमायोगे बालयोगः प्रजायते ॥ २॥ याभ्यादितुर्यतुयर्वे भद्राभौमार्कचन्द्रजाः । एतल्लग्नसमायोगे युवयोगः प्रजायते ॥ ३ ॥ कुमारे सुशुभं कार्य शुभे कार्ये विधीयते । युवाख्ये तु विवादश्च द्यूतमद्यादिकर्म च ॥ ४ ॥ वृद्धयोगे प्रकुर्वीत ऋणरोगारिघातनम् । द्यूतोगदारुणं कर्म वाले ग्रामप्रवेशनम् ॥ ५ ॥ न नष्टं दृश्यते वस्तु रोगग्रस्तो न जीवति । ऋणं न दीयते तस्य परद्रव्यं तु गृह्यते ॥ ६ ॥ ज्योतिष्प्रकाशे---वृद्धयोगे मृत्युयोगे पातोपग्रहविष्टिषु । उग्रकमास्तजन्मस्थे चन्द्रे तीक्ष्णोग्रामिश्रभे ॥ ७ ॥ भूपालवल्लभे-बहिर्वामपदे पाणी शीर्षे याम्यकरे पदे । बहिरेकैकशः कुर्यात्सूताख्ये नृचतुष्टये ॥ ८ ॥ बहिर्नास्ति पदे याति बन्धनं वामपाणिगे । शीर्षे मृत्युर्याभ्यकरे युद्धं चन्द्रेऽरिभाद्भवेत् ॥ ९ ॥
इति जाग्रत्सुषुप्तचक्रम् ।।
अथ सेनाचक्रम् । सेनाचक्रं प्रवक्ष्यामि यदुक्तं रुद्रयामले । तत्रैकं के पापयोगाद्भङ्गछत्रपताकयोः ॥ १ ॥ कर्णे द्वे हेरचाराणां नेत्रे द्वे स्वरवेदिनाम् । एकं घ्राणे प्रभोर्भङ्गो जिह्वायां भूश्च मन्त्रिणाम् ॥ २ ॥ मान्त्रिकाणां रदेष्वब्धिः पृष्ठे वाद्यभृतां द्वयम् ।
१ क. ख. . 'त्रैकपादयोर्योगा' । २ क. कर्णाग्रहेरचा ख. कर्णाग्रेहरचापानांने ।
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३४२
श्री शिवराजविनिर्मितो
स्कन्धयोर्द्धे मतङ्गानां रथानां भुजयोर्द्वयम् || ३ || धन्विनामङ्गुलीषु द्विर्वाहिनां हृदये द्वयम् । खड्गिनामुदरे रूपं गुह्ये सेनापतेस्तथ || ४ || पादयोर्द्विः पदा'तीनां रोम्णि भूरुषकर्तॄणाम् । एवं क्रूरा यदङ्गन्स्थास्तदङ्गं हन्यते परैः ॥ ५ ॥ यदङ्गसंस्थिताः सौम्यास्तदङ्गं जयमाप्नुयात् । यदङ्गे सकलाः पापास्तदङ्ग मृत्युमेति च ॥ ६ ॥ अग्निभातुर्यतुर्यर्क्षे जयांरिक्तांशमङ्गन्गुः । एतल्लग्नसमायोगे वृद्धयोगः प्रजायते ॥ ७ ॥ मिश्र मिश्र फलं सौम्या भङ्गदाः स्युर्यदाऽस्तगाः । शिरोक्षिघ्राणगे मन्दे राज्ञा शस्त्रेण वध्यते ॥ ८ ॥ अत्रैव चेत्तमः केतू राज्ञो बन्धनकारकौ । सक्षतं बन्धनं भौमस्तथैवार्कः पलायनम् ॥ ९ ॥ मूर्ध्नि प्रस्थानभं देयं सेनाचक्रे तदा बुधैः । युद्धकालेऽपि केऽप्याहुर्वीक्ष्य तात्कालिकैग्रहैः || १० || स्थानेऽर्कस्य रथैर्भङ्गस्तथा रथपदातिभिः । राहोर्गजैः शनैरश्वैः केतोः सर्वैश्च जायते ॥ ११ ॥
शिरसि १ कर्णयोः २
नेत्रयोः २
घ्राणे १ जिह्वायां १ दन्तेषु ४ पृष्ठे २ स्कन्धयोः २
सेनाचक्रम् |
छत्रध्वजादीनाम् भुजयोः २ रथानाम्
धन्विनाम्
अङ्गुल्योः २ हृदये २
उदरे
गुह्ये
चरणे रोणि १
हेरचाराणाम्
स्वरविदाम् प्रभोर्भङ्गः
सचिवानाम् मान्त्रिकाणाम्
वाद्यभृताम्
गजानाम्
इति सेनाचक्रम् ।
अश्वानाम् खड्गिनाम्
सेनापतेः
पदातीनाम्
उपकरणानाम्
अथ द्वन्द्वयुद्धम् ।
समरसिंहे - द्वन्द्वं दुर्गे कविश्वातुर युद्धं चतुर्विधम् । प्राधान्यमेषां द्वन्द्वस्य युद्धस्येति तदुच्यते ॥ १ ॥ दुर्गे भीताः कव सुप्ता निर्वैराचातुरङ्गके । हन्यन्ते तत्रयं निन्यं द्वन्द्वमेवोत्तमं विदुः ॥ २ ॥ स्वामिविप्रसुहागे गोभूस्त्रीस्वयशोहृतौ । येषां नास्त्रग्रहो भानुस्तांस्तान्दृष्टाऽर्कमीक्षते ॥ ३ ॥ वैरं सुहृद्धनं पानो विपदः स्त्री यशः सुहृत् । अङ्कस्य कारणान्यष्टौ निर्णयोऽत्रैव कल्पते ॥ ४ ॥ साकूतं वीक्षणं हासः स्पर्शनं वा तदिङ्गितम् । युद्धस्य कारणं तस्मिन्सद्यो द्वन्द्वेन युध्यते ॥ ५ ॥ शब्दो द्विधा ध्वनिः स्पष्टो जातोऽसौ लोपलम्भनात् । १ . था । ४ । एदोरब्धि प° । २ क रिक्काशमंज्ञगुः ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
३४३ तत्र पक्षोऽवधियुद्धे भसंख्यानि दिनानि च ॥ ६॥ अक्षराणां मानहानिः शब्दो मासे रणेऽवधिः । वत्तिर्भोजनमानश्च वारेण षष्टिवासराः ॥ ७ ॥ ताम्बूलहनने केशच्छेदने च कशाहतौ । उपानत्तलपादादिधाते कालस्त्रिमासिकः ॥ ८ ॥ बिरुदच्छत्रचामरवारणे माश्चतुष्टयम् । ऋणदासीभृत्यशस्त्रहरणे मासपञ्चकम् ॥२॥ पङ्क्तिगेहारामहतो न्यूनः पाण्मासिकोऽवधिः। षण्मासात्पथमे सूडे प्रतिसूडे तु वत्सरः ॥१०॥ शस्त्रे पतद्ग्रहे वादे पीठे न्यासे त्रिवत्सराः । अज्ञानाद्भुञ्जते वित्तमवधिदेशवार्षिकः ॥ ११ ॥ स्त्रीहतौ वृत्तिहरणे विरुदे चान्वयागते । नैवावधिः कापि राज्ञामतस्ते पूर्ववैरिणः ॥ १२॥ वर्षाणां विंशतिभूमेर्भागवृद्धिरुदीरिता । स्त्रीबालानामशक्तानां त्रिंशदन्दा मतोऽवधिः ॥ १३ ॥ जले नक्रो वने सिंहः काकोऽह्नि निशि कौशिकः । बली तद्वद्धलं देशात्कालात्तस्मात्स्वरं श्रयेत् ॥१४॥ अबलस्य बलोपायो मणिमन्त्रौषधादिकः । यतो द्यूतं च युद्धं च जायते न विना बलात् ॥ १५॥ भीतं व्यस्त्रं पलायन्तं विश्वस्तं शरणागतम् । रिपुं शक्तोऽपि नो हन्यात्तथा कूटविषाग्निभिः ॥ १५ ॥
इति द्वन्द्वयुद्धम् ।
अथ च्छुरिकायुद्धम् । षष्ठाङ्गुष्ठात्म (डङ्गुलमं) भृतितो ज्ञातव्याश्छुरिका नव । बाली कुमारी चामुण्डा कालिका महाकालिका ॥१॥ भैरवी योगिनी चैव वैष्णवी शान्तिकारिका । पुनस्तिथ्यअन्लादूर्ध्व ज्ञातव्याः प्रथमादितः ॥२॥ पञ्चाङ्गाला वा कटिका द्विगुणा यमदष्ट्रिका । चण्डा पवित्रिका टोणा व्यङग्लोषू प्रकीर्तिता ॥३॥ चतुर्विंशार्धाङ्गुलकं कोपा गुप्ती च दीर्घकम् । अत ऊर्ध्वं च यच्छस्त्रं तज्ज्ञेयं खड्गवद्भुधैः॥ ४॥ हीना वंशहरीतक्योः स्फुटिता विष्णुना कृता । न दृङ्मनोनुकूला च निन्द्या शस्त्री परा शुभा ॥ ५॥ शस्त्रागुलं षट्समेतं सप्तहृच्छेषकोऽधिपः । शस्त्रस्वामीशयोरं मृत्युकार्यन्यथा शुभम् ॥६॥ लक्षणसमुच्चयेस्वनाम्नोक्त विधानेन शस्यां जीवकलां न्यसेत् । स्वाभिधानं तु नत्यन्तं स्मरेयुद्धे जयाय वै ॥ ७ ॥ मुष्टिं विहाय सर्वोपयोगित्वाद्गणितोदितः । अङ्गुन्लैगुणयेद्यद्वा स्वाम्यङ्गुष्ठान्त्यपर्वणा ॥८॥ कर्तुर्दक्षिणहस्तस्य मध्याया मध्यपचणः । प्रमाणमङ्गलस्योक्तं शस्त्रमूल्यादिकर्मसु ॥ ९॥ नाकारणं विवृणुयान्मूल्यं देशं च नो वदेत् । नेक्षेताऽऽस्यं लययेन स्पृशेन्नैवाशुचिर्नरः ॥ १० ॥ कणिते मरणं कोशात्प्रवर्ते स्यात्पराजयः । ज्वलिते विजयः कोशाधुद्धं निर्ग
१ ख. घ. शेणी अङ्गल्यौ देष । २ क. विशयः ख, घ. विषयः ।
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३४४
श्रीशिवराजविनिर्मितोच्छति स्वयम् ॥ ११ ॥ न च्छेद्योऽसौ विनिष्पन्नो निकपैः कारयेत्समम् । मूले छिन्ने प्रभोमत्युश्छिन्नेऽग्रे संततेम॒तिः ॥ १२ ॥ समरसिंह-रक्तपानाच्छियः प्राप्तिः सुताप्तिर्वतपानतः । जलपानाद्भवेद्वित्तं सिद्धिरश्वोष्ट्रदुग्धतः ॥ १३ ॥ झपपित्तमृगाजाश्वदुग्धै स्तैलयुतैदृढा । अर्कदुग्धं मेष शृङ्ग मपीयुक्तं तथा पुनः ॥ १४ ॥ पारावताखुशकृता छुरिकां प्रविलेपयेत् । ततस्तैलेन मथिता तैलपीता भवेढ्ढा ॥ १५ ॥ रम्भाक्षारे तक्रयुते पायिता या दिनोषिता । शिता सम्य
कुण्ठिता सा न गच्छति शिलास्वपि ॥ १६ ॥ छुरिकाख्ये न्यसेदकोजन्मभाद्वाऽष्टाविंशतिः। एकमग्रेऽहिवलना धृतिरस्त्रे नवान्तरे॥ १७ ॥ पापग्रहोऽथवा चन्द्रः पापयुक्तोऽथवा बुधः । यत्राऽऽस्ते तत्र घातः स्याद्ग्रहभुक्ताङ्गुलप्रमः ॥ १८ ॥
अथ च्छुरिकोपास्तिः । अथोपास्तिककल्पेऽत्र कछुरिकाया जयाय वै । परितोष्य गुरुं मन्त्रं गृह्णीयाचत्प्रसादतः ॥ १॥ शुचिर्भूत्वा प्रतिदिनं त्रिसंध्यं तं समभ्यसेत् । अर्चयेद्गन्धपुष्पाद्यैायन्भगवतीं पराम् ॥ २॥ आर्भटया शशिखण्डमण्डितजटाजूटां भुशुण्डस्रजं बन्धूकप्रसुनारुणाम्बरधरां प्रेतासनाध्यासिनीम् । तां ध्यायेत्सुचतुर्भुजां त्रिनयनामापीनतुङ्ग-स्तनी मध्ये निम्नवलित्रयान्तितर्नु रौद्री कृपाणेश्वरीम् ॥३॥
अथ मन्त्रः । अस्य श्रीछुरिकामन्त्रस्य शंभुक्रषिर्गायत्री छन्दः श्रीभगवती देवता छीं बीजं छौं शक्तिर्जयार्थे जपे विनियोगः । ॐ छ् हृदयाय नमः । ॐ ड्रीं शिरसे स्वाहा । ॐ छं शिखायै वषट् । ॐ ... कवचाय हुम् । ॐ छौं नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ छः अस्त्राय फट् । इति कृत्वा ध्यात्वा मन्त्रमयुतं जपेत् । तिलाज्येन सहस्रं जुहुयात् । सिद्धो भवति । ॐ छ छी छं हैं छौं छः । नमो भगवत्यै कात्यायन्यै छुरिकायै नमः । अथ वा । ॐ i छी छू , छौं छुः । पडक्षरो मन्त्रः।
इति च्छुरिकायुद्धम् ।
अथ व्यूहरचना। रत्नकोशे-दण्डोरगी रविसुतस्य रवैश्व चक्र शुक्रस्य पसरटौ गरुडो बुधस्य । व्यूही च सूचिमकरौ धरणीसुतस्य श्येनो गुरोः शिशिरगोरपि मण्ड
१ क. रविम ।
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ज्योतिर्निवन्धः।
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लाख्यः॥१॥रुद्रयामले-स्वानुकूलग्रहव्यूहः कर्तव्यो युद्ध कर्मणि । रिपूणां प्रतिकूलस्य कार्यो व्यूहो ग्रहस्य वा ॥ २ ॥ भूपालवल्लभे-बलाकापतिबद्वयूहो बलाकाख्यः कृतोरणे । काकव्यूहः काकसंघो बलाकाव्यूहभञ्जकः ॥३॥ तावुभावपि भज्येते श्येनव्यूहेन निश्चितम् । एको रथोऽग्रे कर्तव्यः पश्चाविरदसप्तकम् ॥ ४ ॥ त्रिंशदश्वाः खड्गिशतं पार्थे कुन्तधरास्तथा । मध्येऽष्टौ रथिनस्त्रिं. शदश्वाः पश्चाद्गजद्वयम् ॥ ५॥ ततः सर्वगतं सर्वं श्येनव्यूहः स उच्यते । अग्रे द्वौ पृष्ठगाश्चान्ये क्रौश्चव्यूहः स उच्यते ॥ ६ ॥ बलाककाको क्रौञ्चेन क्रौञ्चः श्यनेन भज्यते । अग्रे रथद्वयं पश्चाद्गजाः सप्त व्यवस्थिताः ॥७॥ तत्पृष्ठे विंशतिरिभाः पश्चाशद्वाजिवाहकाः । सप्त सप्त रथाः पार्चे गजौ द्वौ द्वौ ततः स्थिती॥८॥ तत्प्रमाणे रथैर्वेदी बहिस्तद्गजाः स्थिताः । मध्ये पदातयो वाहाः पार्श्वयोश्च तुरङ्गमाः॥९॥ विज्ञेयः शकटव्यूहो न भेद्यस्त्रिदशैरपि । अग्रे रयत्रयं पृष्ठे गजाकारो गजबजः ॥ १० ॥ स्यन्दनाः पश्च पश्चैव पार्थकोणचतुष्टये । मध्यं प्रपूरयेदश्चाङ्गुलगजमालिका ॥ ११ ॥ मध्ये खड्गिधनुष्मन्तः पार्थयो रथिनो गजाः । पृष्ठतः सकला सेना सिंहव्यूहः स जायते ॥ १२ ॥ शकटव्यूहकालेन सूचीव्यूहेन भिद्यते । पमव्यूहस्तु सिंहेन सूचीकाकेन भिद्यते ॥ १३ ॥ गजषोडशकं मध्ये वृत्ताकारेण कल्पयेत् । बाह्यतो रथिभिर्वेष्टयं तद्वाह्ये कुन्तधारको(काः)॥१४॥ शरचापधरा बाह्ये खड्गचर्मधरास्ततः। बाह्यतोऽश्वैः समावेष्टय पङ्क्तित्रितयतः क्रमात् ॥ १५॥ पुनःपुनः प्रकुर्वीत यावद्भवति वाहिनी । चक्रव्यूहः स विज्ञेयो दुर्भेयस्त्रिदशैरपि ॥ १६ ॥ अन्तरे रथमेकैकं स्थानपृष्ठेषु कल्पयेत् । तदन्तरे गजान्पश्च नवाश्चान्स्थापयेत्ततः ॥ १७ ॥ ततः पत्ती
पञ्चदश पत्रे पत्रे प्रकल्पयेत् । तन्मध्ये स्यन्दनान्सप्त गजांश्चैव त्रयोदश॥१८॥ एकोनविंशतिहयान्पदातिश्चाष्टविंशतिः । गजैरश्वैः पूरणीया पममध्यस्थकर्णिका ॥ १९ ॥ तन्मध्ये गजमारूढश्चमूपो वाऽथवा नृपः । अन्तरे द्रोणिकायां तु रथद्विरदवाजिनः ॥ २०॥त्रयस्त्रयश्च सर्वत्र त्रयस्त्रिंशत्पदातयः। पद्मव्यूहः स विज्ञेयः पनाकारकृतो यदा ॥ २१ ॥ रथं गज हयं पत्ति मालाकारेण विन्यसेत् । पुनः पुनः श्रेणिबन्धान्मालाव्यूहः स उच्यते ॥ २२ ॥ चतुर्दिक्षु रथौ द्वौ द्वौ तत्पृष्टे द्विरदा दश । चतुर्विंशतिरश्वाश्च त्रिंशत् खड्गधरास्तथा ॥ २३ ॥ शरचापधराश्चैव दश वा खेटधारिणः। तेषां पृष्ठे कुन्तधरा यन्त्रधरास्तथैव च ॥ २४ ॥ वेद्याकाराः पूरणीया गजैरवैः पदातिभिः । अग्रे नृपः स विज्ञेयो व्यूहः पुष्करणीति च ॥२५॥ सर्पाकारं रथेनाश्वैः पूरयेसैनिकैरपि । सर्पव्यूहः स विज्ञेयः
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श्रीशिवराजविनिर्मितोकृतान्तो युद्धकर्मणि ॥२६॥ सप्तधा स्युः सप्त रथा गजवाजिपदातयः। रथभाश्वपत्तयश्च सप्त सप्तगुणाः क्रमात् ।। २७॥ अधोऽधः कल्पयेदेवमग्निव्यूहः स उच्यते । सर्वोत्तमोऽयं व्यूहानामग्निवनाशकारकः ॥ २८ ॥ चतुरेखान्तिां सेनां वेद्याकारां प्रकल्पयेत् । रथैहयैर्गजैः षभिः क्रमेणैव चतुर्दिशः ॥ २९ ॥ ततश्चतुर्पु द्वारेषु रथी द्वौ द्वौ तथा गजौ । अश्वावपि पदाती च चतुर्दिक्षु प्रकल्पयेत् ॥ ३० ॥ तन्मध्ये नृपतिस्तिष्ठेद्वेद्याकारेऽन्तरे सुधीः । विज्ञेयः खलकव्यूहः खलको द्वारवस्थितौ ॥ ३१ ॥ सौपर्णः श्येनवत्कार्यस्तत्संख्या द्विगुणा पुनः । शकटोऽमिश्चक्रसंज्ञो व्यूहेषु बलवत्तराः ॥ ३२ ॥ दण्डाकरो भवेद्दण्डो मकरो मकराकृतिः। सूचीव्यूहः समः सूच्याः स्वनामसदृशाः परे ॥ ३३ ॥ ।
इति व्यूहरचना।
अथ सूक्ष्मस्वरप्रकरणम् । पवनविजये-न तिथिनं च नक्षत्रं न वारो नैन्दवं बलम् । सर्वसिद्धिकरं ज्ञानं कथयस्व महेश्वर ॥ १ ॥ शृणु पार्वति देहस्थं रहस्यं ज्ञानमुत्तमम् । येन विज्ञातमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रजायते ॥ २ ॥ कन्दादूर्ध्वमधस्तिर्यग्व्याप्य देहं समन्ततः । चक्रवत्तु भ्रमन्त्येता नाडयः प्राणसमाश्रिताः ॥ ३ ॥ योगरहस्ये - इडा वामा विधोर्नाडी पिङ्गला दक्षिणा रये । सुषुम्णा मध्यगा वह्नस्तिस्रो हंसस्वरू. पकाः ॥ ४ ॥ जयार्णवे-एकैकस्य कलाः पञ्च क्रमेणैवोदयन्ति च । पृथिवी सलिलं तेजो वायुराकाशमेव च ॥५।। ऊध्र्वमग्निरधश्चाऽऽपस्तियेगस्ति प्रभञ्जनः। धरामध्ये विजानीयान्नमः सर्वत्र संस्थितम् ॥ ६ ॥ अष्टाङ्गुन्लो वहेद्वायुरनलश्चतुरखुलः । षोडशाङ्गुलमानस्तु पृथिवी द्वादशाङ्गला ॥ ७॥ स्वरोदये-रक्तं तेजो मही पीता नीलो वायुर्जलं सितम् । कृष्णवर्ण नभो ज्ञेयं चन्द्रः कृष्णो रविः सितः ॥ ८॥ वायुश्चापाकृतिस्तेजस्त्रिकोणं वर्तुलं जलम् । चतुरस्रा मही ज्ञेया निराकारं नभः सदा ॥ ९॥ तीक्ष्णं तेजः कटुर्वायुर्वारुणं मधुरं मतम् । कषाया भूः खमस्वादं क्षारा भूवोऽऽम्लको मरुत् ॥ १० ॥ जले वायौ जीवचिन्ता मूलचिन्ता भुवि स्मृता । धातुचिन्ताऽग्नितत्त्वे च शून्यं खे तव्ये द्वयम् ॥ ११ ॥ अप्सु शीघ्रं भवेल्लाभः पृथिव्यां बहुभिर्दिनः । वायौ भङ्गोऽनले हानिराकाशे निष्फलं सदा ॥ १२ ॥ चरं तोये स्थिरं भूम्यां मरणोच्चाटनेऽनिले । तेजसा मिश्रमग्रं च न किंचित्खे विधीयते ॥ १३ ॥ पृथ्वीजलाभ्यां तु सुतः कन्यका तु प्रभञ्जने । तेजसा गर्भपातः स्यानभसा च
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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नपुंसकम् ॥ १४ ॥ गर्भप्रश्ने यदा दूतः पूर्णे पुत्रः प्रजायते । शून्ये कन्या युगे युग्मं गर्भपातस्तु संक्रमे || १५ || अन्तर्वत्न्याः सुतं सूर्ये वदेच्चन्द्रे तु कन्यकाम् | अशून्ये शून्यके स्थाने शून्ये चा तपनं वदेत् ॥ १६ ॥ योधद्वये कृतम पूर्णस्थे प्रथमो जयी | रिक्तेऽन्योऽथ विधौ स्थायी जयी यायी रखौ भवेत् ॥ १७ ॥ पृथ्वीतत्त्वे सकृयुद्धं संधिर्भवति वारुणे । विजयो वह्नितत्त्वेन वाय भङ्गनेऽम्बरे मृतिः ॥ १८ ॥ पूर्वोत्तर दिशोचन्द्रे भानौ पश्चिमयाम्ययोः । स्थितस्तत्र जयी युद्धे स्थायी यायी क्रमेण च ॥ १९ ॥ शुभकार्ये शुभचन्द्रः क्रूरकार्ये रविः शुभः । वाहनाद्यथ पादेन गच्छत्सिद्धिमवाप्नुयात् || २० || यात्रादाने विवाहे च वस्त्रालंकारभूषणे । सुहृन्मेले प्रवेशे च स्थिरकार्ये शुभादिषु ॥ २१ ॥ गृहप्रवेश स्वामिदर्शने बीजवापने । देवतायाः प्रतिष्ठासु शान्तिके पौष्टि तथा || २२ | आरामेऽथ तडागादौ निधिनिक्षेपसंग्रहे । भार्यास्नेहे च कर्तव्या वामा सर्वत्र पूजिता || २३ || विद्यारम्भेषु दीक्षायां सेवावाणिज्यकर्षणे । शस्त्राभ्यासे विवादे च द्यूते खेटकचौर्य के ॥ २४ ॥ सङ्ग्रामे भेषजे जाये विषभूतानिलग्रहे । क्रयविक्रयपण्येषु स्नानभोजन मैथुने ॥ २५ ॥ वाहने गजवाहादिरथयन्त्रादिशिल्पके । लिपिलेखकवाहादौ मन्त्रदीक्षाभिचारके || २६ ॥ विग्रहोद्धारदानेषु सूर्यः सर्वत्र पूजितः । उदये जायते चन्द्रः सूर्योऽस्ते शुभकतदा । सर्वत्र सर्वकार्येषु जीवः शस्तोऽन्यथा न सन् ॥ २७ ॥ समरसिंहेपूर्ण नाडीगतं पृष्ठे शून्यमङ्गं तदग्रतः । शून्यस्थानगतः शत्रुः क्रियते नात्र संशयः ॥ २८ ॥ प्रश्ने प्रारम्भणे वाऽपि कार्याणां वामनासिका । पूर्णत्रायोः . प्रवेशश्च तदा सिद्धिर्न चान्यथा ॥ २९ ॥
इति सूक्ष्मस्वरप्रकरणम् ।
अथ तत्त्वगुणाः ।
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उमामहेश्वरसंवादे – अस्थि मांसं त्वचा मेदस्तथा रोम च पञ्चमम् । क्षितेः पञ्च गुणाः प्रोक्ता ज्ञातव्यास्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १ ॥ क्षुधा तृषा तथा निद्रा व्याधिरालस्यमेव च । तेजसस्तु गुणाः पञ्च सामान्यास्ते प्रकीर्तिताः ॥ २ ॥ धावनं चनं चैव कुञ्चनं च प्रसारणम् । निरोधश्चेति विज्ञेया वायोः पञ्च गुणा बुधैः ॥ ३ ॥ रागद्वेगौ तथा लज्जा भयं मोहस्तथैव च । व्योम पञ्चगुणं प्रोक्तं देहस्थं सर्वदा बुधैः ॥ ४ ॥ मूत्रं श्लेष्मा च रक्तं च शुक्रं स्वेदश्च पञ्चमः । आपः पञ्चगुणाः प्रोक्ता ज्ञातव्यास्तत्त्वदर्शिभिः || ५ || वश्यमाकर्षणं पुष्टिं
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श्रीशिवराजविनिर्मितोशान्ति कुर्वन्ति पूरके । कुम्भके स्तम्भनं कुर्याद्भयरक्षाविवर्धनम् ॥ ६ ॥ रेचके मारणं कुर्याद्विपमोच्चाटनं तथा । आश्लेष्मान्तं च रुद्धेन नसा ज्ञानं कथं भवेत् ॥७॥ मुखनासाक्षीणि कौँ द्वथङ्गुलीभिनिरोधयेत् । तत्त्वोदयमिदं ज्ञेयं पण्मुखीकरणं प्रिये ॥८॥ क्षणं वामे क्षणं दक्षे यदा वहति मारुतः। विषुवेण समो ज्ञेयः सर्वकार्यविनाशकः ॥९॥ व्यवहारे खले वादे विषदाने च कर्मणि । कुपितः स्वामिचौराद्याः पूर्वस्थाः स्युर्भयंकराः ॥ १० ॥ लग्नःतिथियोगःभक्तेस्तत्त्वं धरादिकम् । याने लाभः सुखं कीर्तिभङ्गो हानिः फलं क्रमात् ॥ ११ ॥ इति शूरमहाठश्रीशिवदासविनिर्मिते । ज्योतिर्निबन्धसर्वस्वे स्वरशास्त्रविचारणा ॥
अथ प्रश्नोत्तराध्यायः। तत्राऽऽदौ भिन्नमतयोः किं प्रमाणमिति प्रश्नः-नैकस्मिन्समये सर्वशास्त्रोक्तं शुभमाप्यते । संहितास्वरशास्त्राचं भेदैभिन्नं यतः स्मृतम् ॥ १॥ अस्योत्तरं-तेष्वेकमररीकृत्य तदधिष्ठानदेवताम् । समाराध्य ततः कुर्यात्कर्माभीष्टप्रसिद्धये ॥२॥ सुगन्धैर्भूर्जपत्रादौ कार्य भेदयुतं लिखेत् । सदेवं तत्समभ्यर्च्य कादौ धृत्वेष्टमारभेत् ॥ ३॥ तिथ्यादिग्रहदिमासदेवताः प्रागुदीरिताः । भूचक्रस्वरपूर्वाणां ज्ञेयाः स्वाभिजनेश्वराः ॥ ४ ॥ एवं दोपे समुत्पन्ने विधानं क्रियते बुधैः । स एवोपशमं याति तथा रोगः सदौपधैः ॥ ५ ॥ तदुक्तं यामले रौद्रे तन्मयाऽत्र गुरोर्मुखात् । श्रुतं प्रकाशित तच्च दृष्टमाधुनिकैः स्फुटम् ॥ ६ ॥ ज्योतिर्विवरणेग्रहयोगोद्भवं शस्तं दुष्टं चापि फलं कचित् । न नश्यति यथोष्णत्वं रवेः शैत्यमनुष्णगोः ॥ ७ ॥ संहितोक्तं शुभं मुख्यं युद्धादौ स्वरशास्त्रजम् । शकुनायं परे पाहुः कार्ये साधारणे सदा ॥ ८ ॥
अथाष्टकवर्गप्रश्नोत्तरम् । अष्टवर्गफलमेव जातके नास्य किं परिणयेऽपि मुख्यता । सत्यमुद्वहनजन्मशास्त्रयोरन्यथा मुनिभिरेव संस्मृतम् ॥ १॥ क्रूरमष्टममनिष्टमिष्टदं सप्तमं शुभमुशन्ति जन्मनि । नेयमुद्वहनरीतिरित्यसावत्र गोचरपथो रथोद्धतः ॥ २ ॥
अथ प्रलयप्रश्नोत्तरम् । सिद्धान्तशिरोमणौ-वृद्धिर्विधेहि भुवः समन्तात्स्यं द्योजनं भूभवभूतिपूर्वः ।
५ ख. घ. पूर्णानांशे' । २ घ. ने स्वर!: । ३ घ. के तस्य ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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ब्राह्मे लये योजनमात्रवृद्धेर्नाशो भुवः प्राकृतिकेऽखिलायाः || १ || दिने दिने म्रियते हि भूतैर्देनंदिनं तत्प्रलयं वदन्ति । ब्राह्मं लयं ब्रह्मदिनान्तकाले भूतानि तनुं व्रजन्ति || २ || ब्रह्मात्यये यत्प्रकृतिं प्रयान्ति सर्वाण्यतः प्राकृतिकं कृतीन्द्राः । लीनान्यतः कर्मपुटान्तरत्वात्पृथक्रियन्ते प्रकृतेर्विकारैः || ३ || ज्ञानाग्निदग्धाखिल पुण्यपापा मनः समाधाय हरौ परेशे । सद्योगिनो यान्त्यनिवृत्तिमस्मदात्यन्तिके चेति लयश्चतुर्धा ॥ ४ ॥
अथ दासीजातकफलप्रश्नोत्तरम् ।
शुभलक्षणसंयुक्ता दास्यो दासाश्व कुञ्जराः । तिष्ठन्ति सदने येषां तेषां श्रीर्वर्श्वतेऽन्वहम् ॥ १ ॥ जातकोत्तमे दासीदा सोद्भवः कचिद्राजलक्षणलक्षितः । जायते राजयोगेन भर्तुस्तत्फलमादिशेत् || २ || चरादिस्थितलन्दू जन्मनि ग्रहजं फलम् । प्रसादोत्थं च क्कुर्यातां स्वोमिनोऽन्यस्य भाववत् ॥ ३ ॥ यस्या दा ( स्मादा ) स्याथ पादौ द्वौ भूम्यां वै सुप्रतिष्ठितौ ॥ ४ ॥ अथ स्वमप्रश्नोत्तरम् ।
निद्रादुष्टमनोजन्यं स्वप्नमाहू रतान्वितम् । तत्फलं सदसत्केन हेतुना कीर्तितं बुधैः || १ || निद्रायां निश्चलीभूते चित्तेऽभीष्टं प्रविश्य तत् । भाव्यं सूचयति स्पद्मः सद्यः प्रत्यक्षतो यतः || २ || निवृत्तानि यदाऽक्षाणि विषयेभ्यो मनः पुनः । न निवर्तेत वीक्ष्यन्ते तदा स्वमाः शरीरिभिः ॥ ३ ॥
अथाऽऽक्षेपपरिहाराः ।
अयोच्यन्ते विदां प्रीत्यै कियन्तः परिहारकाः । आक्षेपाणां समालोक्य नानाशास्त्राणि यत्नतः ॥ १ ॥ तत्र प्रथमं सज्जनं दुर्जन यो दृष्टान्तः - अतिजातस्य या मूर्तिः शशिनः सज्जनस्य हि । कसा वै रात्रिजातस्य तमसो दुर्जनस्य च ॥ २ ॥ जानन्ति हि गुणान्वक्तुं तद्विधा ये च तादृशम् । वेत्ति विश्वंभरा भारं गिरीणां गरिमाश्रयम् ॥ ३ ॥ +
अथ प्रसङ्गेन कवेः प्रशंसा |
प्रसन्नाः कान्तिहारिण्यो नानाश्लेपविचक्षणाः । भवन्ति कस्यचित्पुण्यैर्मुखे बाच गृहे स्त्रियः ॥ १ ॥ किं कवेस्तेन काव्येन किं काण्डेन धनुष्मतः । परस्य *अस्योत्तरार्धो न दृश्यते । + चम्पूग्रन्थे -- उत्फुल्लगलै। लापः क्रियते दुर्मुखैर्मुहुः । जानाति हि पुनः सम्यक् कविरेव कवेः श्रमम् । इदंपद्यं खवपुस्तकयोः ।
५. 'मला नास्य नो वदेत् ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोहृदये लग्नं न घूर्णयति यच्छिरः ॥ २ ॥ रोहणं सूक्तिरत्नानां वन्दे वृन्दे विपश्चिताम् । यन्मध्ये पतितो नीचः काचोऽप्युच्चैर्मणीयते ॥ ३ ॥ अप्रगल्भाः पदन्यासे जननीरागहेतवः । सन्त्येके बहुलालापाः कवयो बालका इव ॥४॥ वाचः काठिन्यमायान्ति भङ्गश्लेषविशेषतः । नोद्वेगस्तत्र कर्तव्यो यस्मान्नैको रसः कवेः ॥ ५॥ काव्यस्याऽऽम्रफलस्यापि कोमलस्येतरस्य च । बन्धच्छायाचिशेषेण रसोऽप्यन्यादृशो भवेत् ॥ ६ ॥ ग्रन्थे मदीये लिखितानि यानि मुदे गुरूणां सकलानि तानि । लोकप्रसिद्धं जगतीतलेऽस्मिन्पिण्डस्य मातुः स्खलितं सुखाय ॥७॥ ग्रहचन्द्रिकायाम-अहो पूर्वमुत्प्रेक्ष्य कंचिद्विशेष स्वमत्या स्वकाव्ये तु ये नो वदन्ति । ग्रहज्ञानगर्वान्वितास्तत्र कस्माद्वथा नूतनं शास्त्रमुत्पादयन्ति ॥८॥ अथान्यः-स्वर्णे यदि सुगन्धित्वं चन्द्रश्चन्दनकोटरे। द्राक्षाफलानि चेदिक्षी राशि वस्तुविवेकिता ॥ ९ ॥ प्रियायां धर्मतात्पर्य प्रभुत्वे च कृपालुता । विद्वत्सु च सदाचारो निस्पृहत्वं तपस्विनि ॥ १० ॥ संपत्तौ यदि दातृत्वं विद्यायां चेन्निगर्वता । आक्षेपपरिहारौ चेच्छास्त्रे किं स्यादतः परम् ॥ ११ ॥ आक्षेपो द्विविधः प्रोक्तो निर्मूलश्च समूलकः । बालाद्यैः प्रथमो ज्ञेयः कार्यकारणतः परः ॥ १२ ॥ खपुष्पं कच्छपीदुग्धं शशशृङ्गादिकारणम् । य । पृच्छति पिशाचोऽसौ वक्तां वा नितरां ततः ॥ १३ ॥
अथ कर्माभावे सृष्टयुत्पत्तिविषयक आक्षेपः । कल्पादौ कर्मशेषाणां सर्मनं चेत्करोति कः । तर्हि किं प्रथमे कल्पे कर्माभावे कथं सृजिः ॥१॥
. अथास्य परिहारः। कर्माभावेऽपि सृष्टचर्षयुत्तमाधममध्यमाः । जीवाः स्वावयवेभ्यस्तु तद्विधेभ्यो विनिर्मिताः ॥ १॥ यतो व्यवहृतिलोंके वर्णैः संकरजातिभिः । पशुभिः पक्षिभिः सम्यक् भवत्येभिर्विना न तु ॥ २ ॥ पद्मपुराणे-त्वमेको जगतां कर्ता गोप्ता हर्ता स्वयं प्रभुः । नान्यः कतुमकर्तुं वाऽन्यथाकर्तुं स्वयं प्रभुः ॥ ३ ॥ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । जगद्योनिस्त्वमेकोऽसि स्वेच्छया कर्तुमर्हसि ॥ ४ ॥ विश्वभरशास्त्रे-निर्मिता मानसाः पुत्राः सनकाद्या महर्षयः । तथैव प्रथमे कल्पे जीवाः सर्वे स्वयंभुवा ॥ ५ ॥ अन्यथा मन्दबुद्धीनां प्रतिभाति दुरात्मता । कुतर्कज्ञानमुष्टानां तन्मतं नोपपत्तिमत् ॥ ६॥
१ . धनेच्छपि २ ख. घ. काचमढधीर्भवेत् ।
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ज्योतिर्निबन्धः।
३५१ मुरेश्वरवार्तिके-अनादिभावरूपं यद्विज्ञानेन विलीयते । तदज्ञानमिति प्राज्ञा लक्षणं संप्रचक्षते ॥ ७ ॥ अथाऽऽह वाजसनीये-ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्देश्यः पद्यां शद्रो अजायत ॥ ८॥ विश्वंभरशास्त्रेअनन्यपूर्वके कल्पे स्वयंभूश्चतुराननः । सटा प्रजापतिः पूर्व देवान्दैत्यांश्च राक्षसान् ॥ ९ ॥ स्वमुखाब्राह्मणाजज्ञे क्षत्रियान्याहुतस्तथा । ऊरुद्वयात्ततो जज्ञे वैश्याञ्छद्रांश्च पादतः ॥१०॥ ब्रह्मपुराणे-चातुर्वर्ण्यसमुद्भूताः प्रतिलोमानुलोमजाः । तेभ्यश्च ये सुता जाता ये चान्ये तत्समुद्भवाः ॥ ११ ॥ वर्णान्यवर्णप्रभवा ज्ञेयास्ते वर्णसंकराः । जाता ये व्रात्यवर्गेभ्यो मिश्रवर्गाः प्रकीर्तिताः॥ १२ ॥
इति कर्माभावे सृष्टद्युत्पत्तिविषयकाक्षेपपरिहारः ।
अथैकस्मिन्काले बहुसंहारे किं कारणमित्याक्षेपः । एकस्मिन्दिवसे क्षेत्रे बहूनां युगपत्कुतः । संहारो जायते तन्मे कारणं ब्रूहि शास्त्रतः ॥१॥
अथास्योत्तरम् । जयाणवे - केचित्कूर्मादिवेधेन योगिनीचक्रतः परे । स्वामिदौष्टयवशादन्ये माहुरेके स्वकर्मणा ॥ १ ॥ एकयोदक्यया नार्या यथा प्लवनसंस्थिताः । निमज्जन्ति जले तद्वद्राज्ञो दौस्थ्येन विग्रहः ॥ २ ॥ उत्कृष्टपापभारेण खिन्ना भूर्योगिनीगणम् । क्रोधेन प्रेरयत्युग्रं जनध्वंसस्तदा भवेत् ॥ ३ ॥ शुष्ककाष्ठाश्रयादादै दावाग्नी यात्यभावताम् । तथा पापाश्रयात्कापि पुण्यवानपि नश्यति ॥ ४ ॥ पुनराक्षेपः-क्षेत्रेशादिवशेन स्याद्यदि चेन्मरणं नृणाम् । तर्हि तत्रापि तन्मध्ये जीवन्ति कतिचित्कथम् ॥ ५ ॥ अस्योत्तरं पुराणसारे-उत्कृष्टपापिनः सत्यभयेऽपि विलयं ययुः । महाविघ्नाम्बुधौ मनाः पुण्यभाजस्तरन्ति वै ॥ ६ ॥
अथ यमलयोः को ज्येष्ठ इत्याक्षेपस्तस्योत्तरं च । ज्योतिर्विधरणे-पूर्वशास्त्रानुसारेण भ्रात्रोर्यमलजातयोः । ज्येष्ठत्वं च लघुत्वं च वच्मि संसारहेतवे ॥ १ ॥ एके तु जन्मसमयात्मवदन्त्याधानतस्त्वपरे । ज्येष्ठत्वं च लघुत्वं च केचित्साम्यं तयोरुभयोः ॥२॥ बीजप्रक्षेपतो भाति कनीयान्पूर्वसंभवः । पश्चाज्जातस्तथा ज्यायान्मानपात्रस्थधान्यवत् ॥ ३ ॥
१ क. दौस्थ्यव।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोवयोन्मानं यतः कालात्तस्माद्यस्य जनिः पुरा । स ज्येष्ठोऽन्यो लयुग्मे नाऽऽधानस्य प्रमाणतः ॥ ४ ॥ इत्यादिवचनैरत्र निश्चयो नैव जायते । महाभागवते प्रोक्तो मया तस्मात्प्रकाश्यते ॥ ५॥ तृतीयस्कन्धे-प्रजापति नीम तयोरकार्षीयः प्राक्स्वदेहाद्यमयोरजायत । तं वे हिरण्यकशिपुं विदुः प्रजा यं तं हिरण्याक्षमस्त साऽग्रतः ॥६॥ अस्य स्पष्टता सप्तमस्कन्धे-यज्ञान्ते तो दितेः पुत्रौ दैत्यदानववन्दितौ । हिरण्यकशिपुज्येष्ठो हिरण्याक्षोऽनुजस्ततः ॥ ७ ।। । अथ जीवात्मनोः को भेद इत्याक्षेपपरिहारः।
चैतन्यांशोऽज्ञता माया जीव इत्यभिधीयते । यथाऽग्न्यंशो ज्वलत्काष्ठम - गार इति भण्यते ॥१॥ अग्निरङ्गारतां हित्वा यथा काष्ठत्वमात्रजेत् । तथा जीववसंत्यागाच्चैतन्यं ब्रह्म केवलम् ॥ २ ॥ चैतन्यं मायया युक्तं जीव इत्यभिधीयते । उपाधिरहितं तच ब्रह्मेति प्रोच्यते बुधैः ॥ ३ ॥ मायाशबलितं चैतन्यं जीवः । निरुपाधिकं चैतन्यं ब्रह्म ।
__अथ रोगस्नानाक्षेपः। स्नानं रोगविमुक्तस्य कल्याणाभ्युदयं विदुः । तत्कथं दोषदुष्टेऽह्नि कथितं पूर्वसूरिभिः ॥ १॥
अथास्योत्तरम् । स्वकर्मणः शुभे काले गर्हिते गर्हितस्य च । सिद्धिः प्रत्यक्षतो नूनं दृश्यते हानिरन्यथा ॥ १ ॥ यस्मिन्काले तु यत्कर्म कीर्तितं तिथिभादितः । शुभं चैवाशुभं मिश्रं तत्तथैव फलायते ॥ २ ॥ ज्योतिःशास्त्रमिदं ब्राह्मं दिव्यं ज्ञानमतीन्द्रियम् । प्रत्यक्षफलदं सिद्धं त्रिकालज्ञानकारणम् ।। ३॥ अस्याऽऽगमप्रमाणस्य शास्त्रस्य फलगौरवम् । जानन्ति मुनयस्तस्मात्तैरुक्तं यत्तु तत्स्फुटम् ॥४॥ अत्र प्रधानं दोषस्य निवृत्तिस्त्वन्यदङ्गकम् । मुख्यं कृत्वोक्ततिथ्यादौ साहचर्यात्परं व्रजेत् ॥ ५॥ यथोत्सवविवाहादौ वस्त्रालंकारधारणम् । वपनं व्रतदीक्षादी रुक्स्नाने शान्तिकं तथा ।। ६॥
अथ रवीन्दोः स्थिरचरत्वविषयक आक्षेपस्तत्परिहारश्च । रविः स्थिरः कथं त्यक्तो गृहीतोऽब्जश्वरः कथम् । गृहारम्भे प्रवेशे च हेतु जानासि चेद्वद ॥१॥ स्थिरत्वं च चरत्वं च न स्तः स्वाभाविके तयोः । युभु. क्तिवशतः प्रोक्ता संज्ञा गोलार्थकोविदः ॥ २ ॥ बृहस्पतिसंहितायां -विशाखाक
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ज्योतिर्निबन्धः। त्तिके तारे मृदुतीक्ष्णे च मिश्रिते । पापवारयुते क्रूरे ते स्तः सौम्ये शुभेऽहनि ॥ ३ ॥ तथा लल्लोक्तितो भानुः सौम्यभागस्थितो वली । स्थिरे शस्तस्तथा ज्ञेयो यात्रापुष्टयादिकर्मसु ॥ ४ ॥
अथ फलपाकाक्षेपस्तत्परिहारश्च । संहितास्वरशास्त्रादौ लग्नसंग्रहभेदतः । प्रकारैर्बहुभिः प्रोक्तः कर्मकालः पुरातनैः ॥ १ ॥ तेष्वेकः कस्यचित्कालः शुभोऽपि विफलो भवेत् । फलदः कस्यचित्सोऽपि स्फुटं तत्कारणं वद ॥२॥ ज्योतिष्प्रकाशे-कार्यसिद्धयै मुहूर्ता ये प्रोक्तास्ते यस्य जन्मान । सानुकूलाः सदा तस्य फलदाः स्युन चान्यथा ॥३॥ विनाऽदित्यं ग्रहाः सर्वे दिवसं कर्तुमक्षमाः । न फलन्ति मुहूर्तानि तथेशानुग्रह विना ॥४॥
अथ योगाक्षेपस्तत्परिहारश्च । मोघाः स्युः शिखिना दग्धवीजवद्योगाः केपि शरीरधारिणः । दृढफलोदयाः परे पर्णाकीर्णहुताशराशिवत् ॥ १॥ यथा मृगजले बुद्धिर्जलमस्तीति वै पुनः । शुक्तौ रौप्यं तथा ज्ञानमिह ज्ञेयो नयो मुधा ॥२॥
अथ भूमानाक्षेपस्तत्परिहारश्च । पृथ्वीमानं पुराणेषु यत्प्रोक्तं तेन साम्यता । ज्योतिःशास्त्रे कथं नास्ति तन्मे निःसंशयं वद ॥१॥ बह्वकैः साधनं कष्टं स्वल्पाबैस्तु सुखावहम् । तेनापवर्तितं मानं धरित्र्याः केचिदूचिरे ॥ २ ॥ अन्ये बदन्ति कृतिनो धर्मादीनां युगे युगे। क्षीणत्वं स्यात्तथा भूमिः स्वतः संकोचताभियात् ।। ३ ॥ सैव पृथ्वीति वै सत्यं साधनार्थ दिवौकसाम् । भूमानं कल्पितं प्राज्ञैः सूर्येन्द्रोम्बिवद्गृहे ॥ ४ ॥
अथ भूमानम् । पुराणेषु क्षितेर्मानं कोटिनाङ्गेषु योजनम् । पट्कोट्यूनं च केऽप्याहुर्मानं कोटिमितं परे ॥ १॥
अथ ज्योतिःशास्त्रोक्तं भूमानम् । सिद्धान्तशिरोमणौ-प्रोक्तो योजनसंख्यया कुपरिधिः सप्ताङ्गनन्दाब्धय४९६७. स्तव्यासः कुभुजंगसायकभुवः १५८१ सिद्धांशके २४ नाधिकः । पृष्ठक्षेत्रफलं तथा युगगुणत्रिंशच्छराष्टाद्रयो ७८५३०३४ भूमेः कन्दुकजालवत्कुपरिवि. ासाहतेः प्रस्फुटन् ॥ १॥ निरक्षदेशाक्षितिषोडशांशे भवेदवन्तीगणितेन
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३५४
श्री शिवराजविनिर्मितो
यस्मात् । तदन्तरं पोडशसं गुणं स्याद्भूमानमस्माद्बहु किं तदुक्तम् || २ || शृङ्गोन्नतिग्रहयुतिग्रहणोदयास्तच्छायादिकं परिधिना घटतेऽमुना हि । नान्येन तेन [च]गुरूक्कमही प्रमाणप्रामाण्यमन्वययुजा व्यतिरेककेण || ३ || लङ्कनवन्त्योरन्तरयोजनानि ३१० | २६ । १५ एतत्पोडश गुणितं जातं भूमानं ४९६७ तत्क्षेत्रफलं लक्षाः ७८ सहस्राणि ५२ योजनानि २४ ॥
अथ प्रसङ्गेन ब्रह्माण्डमानम् ।
सिद्धान्तशिरोमणी --कोटिनैर्नख नन्द पट्कन खभूभूभृद्ध जंगेन्दुभिज्योतिःशास्त्रविदो वदन्ति नभसः कक्षामिमां योजनैः । तद्ब्रह्माण्डकटाहसंपुटतटे केचिज्जगुर्वेष्टनं केचित्प्रोचुरदृश्यदृश्यकगिरिं पौराणिकाः सूरयः ॥ १ ॥ अन्त्यं १८ शङ्कुः ७१ निखर्व: २० अब्जं ६९ कोटि: २० ॥
* अथ वैधव्यादियोगे कथं विवाहसिद्धिरित्याक्षेपः । वैधव्यादिषु योगेषु जन्मकाले मृगीदृशाम् । ब्रूहि वैवाहिकं कर्म कथं तासां विधीयते ॥ १ ॥
अथास्य परिहारः ।
संहितासारे-अवैधव्यकरैर्योगैर्विवाहपटलोदितैः । वरायाऽऽयुष्मते देया कन्या वैधव्ययोगजा || १ || प्रारब्धानामनाख्धकर्मणां विरतिर्यथा । आत्मज्ञानात्तथा दोषा नन्दाद्यैर्विलयं ययुः ॥ २ ॥ व्रतखण्डे - सावित्र्यादिवतानीह भक्त्या कुर्वन्ति याः स्त्रियः । सौभाग्यं सुभगत्वं च भवेत्तासां सुसंततिः ॥ ३ ॥ पुराणान्तरे - बालवैधव्ययोगेऽपि कुम्भद्रुमतिमादिभिः । कृत्वा लग्नं रहः पश्चात्कन्योद्वाह्येति चापरेः ॥ ४ ॥ यथा गर्गः स्वकन्याया वत्सरेण गान्धार्या मेषेणेत्याह । अस्मिन्युगे भास्करो लीलावत्या मणिकेन । अत्र दृष्टान्तः - यथेन्धनस्य संस्कारात्ताम्रं काञ्चनतामियात् । तथा दुष्टफला कन्या विमला स्याद्विधानतः॥५॥ अथ मूकबधिरयोज्यादिसंस्काराः ।
मूकाद्या व्रतमोक्षान्तैः संस्कारैस्तु यथोचितैः । संस्कार्यास्तत्र मन्त्रोक्तिः कर्तव्या गुरुणा सकृत् ॥ १ ॥
इति ज्योतिर्निबन्धसारे सामान्यत आक्षेपपरिहाराः ।
धनुन्थो पुस्तकस्थः ।
१. 'निं ३७० । २६ । २१. नं ४१६ । ३. श्यकंपिरिवरं पो ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ तिथिनिर्णयः ।
तत्र व्यासः - द्विधा त्रिधा चतुर्धा वा पञ्चधा दिवसः स्मृतः । तत्र मध्याहृतः पूर्व पूर्वाह्नः परतः परः ॥ १ ॥ घुमानस्य त्रिभागेण भास्करोदयतः क्रमात् । पूर्वाह्णचैव मध्याह्नो ह्यपराह्नः स्मृतो बुधैः ॥ २ ॥ मनुस्मृती - पूर्वाह्नः 1 प्रहरः सार्धो मध्याह्नः महरस्तथा । आतृतीयोऽपराह्नः स्यात्सायाह्नश्च ततः परम् || ३ || मुहूर्तत्रितयं प्रातस्तावानेव तु संगवः । मध्याह्नत्रिमुहूर्तः स्यादपराह्नोऽपि तादृशः || ४ || सायाह्नस्त्रिमुहूर्तोऽथ क्षणोऽह्नः पञ्चभूलवः । आवर्त - नोऽत्र मध्याह्नः पूर्वाह्नः गवो मतः ॥ ५ ॥ स्कन्दपुराणे – उदयात्माक्तनी संध्या घटकाद्वयमुच्यते । सायं संध्या त्रिघटिका अस्तादुपरि भानुतः || ६ ॥ त्रिमुहूर्तः प्रदोषः स्याद्रावस्तं गते ततः । महानिशा निशीथस्य मध्यस्थं घटि - काद्वयम् || ७ || आचारसारे - नाडिकाः षट् च पञ्चाशत्मातस्त्वेकाधिकोऽरुणः । उपःकालोऽष्टपञ्चाशच्छेपः सूर्योदयः स्मृतः ॥ ८ ॥ निशीन्दूदयतो राका पूर्णिमाऽनुमतिर्दिवा | दृष्टचन्द्रा सिनीवाली त्वमा नष्टेन्दुका कुहूः ॥ ९ ॥ अथ काललक्षणम् ।
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कर्मप्रदीपे - कर्मणो यस्य यः कालस्तत्कालव्यापिनी: तिथिः । तथा कर्माणि कुर्वीत हासवृद्धी न कारणम् ॥ १ सूर्योदये-जन्मान्ताभ्यङ्गन्यानाब्धिस्नानदन्तमृजासु च । तिथिस्तात्कालिकी ज्ञेया पारणे लेखने तथा ॥ २ ॥ कालविवेके—मध्याह्वव्यापिनी या स्यादेकभक्तं सदा तिथिः । दिनार्थसमये यस्मादेकभक्तं बुधैः स्मृतम् || ३ | कालनिर्णने – खत्र दर्पस्तथा हिंसा त्रिविधं तिथिलक्षणम् । खर्वदप परौ पूज्यौ हिंसा स्यात्पूर्वकालिकी ॥ ४ ॥ खर्वो नाम तिथेः साम्यं दर्षो वृद्धिः प्रकीर्तितः । क्षयो हिंसाऽथ तद्वैधे कार्य एष र्णयः ॥ ५ ॥ व्रतोपवासनियमे घटिकेका यदा भवेत् । सा तिथिः सकला ज्ञेया पित्रर्थे चाऽऽपराह्निकी || ६ || नागो द्वादशनाडीभिर्दिक्पञ्चदशभिस्तथा । भूतोऽष्टादशनाडीभिर्दूषयत्युत्तरां तिथिम् ॥ ७ ॥ द्वादशनाडीभिः स्कन्दषष्ठीविपयम् | पञ्चदशभिर्नारायणवल्यादिविषयम् । अष्टादशभिरिति दर्शश्राद्धविषयम् । तिथ्यादौ तु भवेद्यावद्धासो वृद्धिः परेऽहनि । तावद्ग्राह्यः स पूर्वेद्युरहष्टोऽपि स्वकर्मणि ॥ ८ ॥
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अथ साधारणतिथिनिर्णयः ।
चिन्तामणी - द्वितीया त्रिमुहूर्तेन नवमी याममात्रतः । दशमी घटिकार्धेन
१. हिंसा त्रि ।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोदूषयत्युत्तरां तिथिम् ॥ १॥ नागो द्वादशनाडीभिः सूर्यश्चैव तु सप्तभिः । कामोऽष्टादशनाडीभिर्दूषयत्युत्तरां तिथिम् ॥ २॥ स्कन्दपुराणे-प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या तिथि क्तवते सदा । एकादशीं विना सर्वाः शुक्ले कृष्णे समाः स्मृताः ॥ ३ ॥ भविष्योत्तरपुराणे-मुहूर्तोनदिनं नक्तं प्रवदन्ति मनीषिणः । नक्षत्रदर्शनानक्तमहं मन्ये गणाधिप ॥४॥ प्रदोषव्यापिनी न स्यादिवा नक्तं विधीयते । तिथौ सास्तमये नक्तं सदैवार्कदिने दिवा॥५॥ आत्मनो द्विगुणा छाया मन्दीभवति भास्करे । तन्नक्तं नक्तमित्याहुन नक्तं निशि भोजनम् ॥६॥ एवं ज्ञात्वा ततो विद्वान्सायाह्ने तु भुजिक्रियाम् । कुर्यान्नक्तवती नक्तं फलं भवति निश्चितम् ॥ ७॥ दीपिकायां-नक्षत्रदर्शनान्नक्तं गृहस्थस्य बुधैः स्मृतम् । यतेर्दिनाष्टमे भागे तस्य रात्रौ निषिध्यते ॥ ८॥ कालादर्श-उदये सोपवासस्य नक्तस्यास्तमये तिथिः। मध्याह्ने दृश्यते या तु सैकमक्ते त्वयाचिते ॥९॥ उपवासे तिथिस्त्याज्या सशल्या फलकाक्षिभिः । तथा विहीनशल्याऽपि वृद्धिं याति यदग्रतः॥१०॥
इति साधारणतिथिनिर्णयः ।
अथ तिथिनियमनवाक्यानि । युग्मानियुगभूतानां षण्मुन्योर्वसुरन्ध्रयोः । रुद्रेण द्वादशी युक्ता चतुर्दश्या च पूर्णिमा ॥ १ ॥ प्रतिपद्यप्यमावास्या तिथेयुग्मं महाफलम् । एतद्वन्यस्तं महादोषं हन्ति पुण्यं पुराकृतम् ॥ २॥ पक्षतिस्तिलकाशोककरवीरव्रते हिता। सद्वितीया तथा भ्रातृद्वितीया प्रतिपद्युता ॥ ३ ॥ ब्रह्मवैवर्ते-रम्भाख्यां वर्जयित्वा तु तृतीया द्विजसत्तम । अन्येषु सर्वकार्येषु गणयुक्ता प्रशस्यते ॥ ४ ॥ चतुर्थीसहिता या तु सा तृतीया फलप्रदा । अवैधव्यकरी स्त्रीणां पुत्रपौत्रप्रदायिनी ॥ ५॥ गणनाथवते ग्राह्या तृतीयासहिता सटर । चतुर्थी त्वन्यदेवस्य व्रते ग्राह्या परान्विता ॥ ६॥ षष्ठीयुक्ता सदा कार्या पश्चमी नागपूजने । स्कन्दषष्ठी तु कर्तव्या पञ्चम्या सहिता बुधैः ॥ ७ ॥ भविष्यपुराणे-- कृष्णाष्टमी स्कन्दषष्ठी शिवरात्रिचतुर्दशी । एताः पूर्वयुताः कार्यास्तिथ्यन्ते पारणं भवेत् ॥ ८॥ सप्तमी नाष्टमीयुक्ता न सप्तम्या युताऽष्टमी । सर्वेषु व्रतकल्पेषु न दुर्गा दशमीगुता ॥ ९॥ शुक्लपक्षेऽष्टमी चैत्र शुक्लपक्षे चतुर्दशी। पूर्वविद्धा न कर्तव्या कर्तव्या परसंयुता ॥ १० ॥ कृष्णपक्षेऽष्टमी चैव कृष्णपक्षे चतुर्दशी । पूर्वविद्धा तु कर्तव्या परविद्धा न कर्हिचित् ॥ ११ ॥ अष्टमी नवमीविद्धा नवम्या चाष्टमी तथा । अर्धनारीश्वरं प्राप्य उमामाहेश्वरी तिथिः ॥ १२ ॥
१२. सोमवारस्य ।
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ज्योतिर्निवन्धः।
३५७ अथ जन्माष्टमीनिर्णयः । सनत्कुमार उवाच-श्रावणस्य तु मासस्य कृष्णाष्टम्यां नराधिप । रोहिणी यदि लायेत जयन्ती नाम सा तिथिः ॥१॥ व्यास:-अर्धरात्रे तु रोहिण्यां यदा कृष्णाष्टमी भवेत्। तस्यामभ्यर्चनं शौरेर्हन्ति पापं त्रिजन्मजम् ॥ २ ॥ विष्णुरहस्ये-प्राजापत्यक्षेसंयुक्ता कृष्णा नभसि चाष्टमी । मुहूर्तमपि लभ्येत सेवोपोष्या महाफला ॥ ३ ॥ व्यासः-जन्माष्टमी रोहिणी च शिवरात्रिस्तथैव च । पूर्वविद्धैव कर्तव्या तिथिमान्ते च पारणम् ॥ ४ ॥ रोहिणीसहिता कार्या पूर्वा वा यदि वा परा । रोहिणीसहिता पूर्वा तदन्ते पारणं भवेत् ॥ ५॥ जयन्ती शिवरात्रिश्च कार्ये भद्राजयान्विते । कृत्वोपवासं तिथ्यन्ते तदा कुर्यात्तु पारणम् ॥६॥ नारद:-कार्या विद्धाऽपि सप्तम्या रोहिणीसहिताऽष्टमी । तत्रोपवासं कुर्वीत तिथिभान्ते च पारणम् ॥ ७ ॥ व्यासः-तिथ्युक्षयोर्यदा छेदो नक्षत्रान्तमथापि वा । अर्धरात्रेऽथवा कुर्यात्पारणं त्वपरेऽहनि ॥८॥ पारणं तिथिभान्ते च कुर्यादेकस्य वा क्षये । अतोऽन्यथा पारणायां व्रतभङ्गमवाप्नुयात्॥९॥ याः काश्चित्तिथयः प्रोक्ताः पुण्या नक्षत्रयोगतः । ऋक्षान्ते पारणं कुर्याद्विना श्रवणरोहिणी(ण्यौ)॥१०॥ एतत्संभवाभिप्रायम् । विष्णुरहस्ये-मुहूर्तेनापि संयुक्ता संपूर्णा साऽष्टमी भवेत् । किं पुनर्नवीयुक्ता कुलकोट्याश्च मुक्तिदा ॥ ११ ॥ व्यासः-दिनद्वयेऽप्यर्धरात्रे योगस्तिथिभयोर्यदा । तदा परदिने कार्य जयन्तीव्रतमुत्तमम् ॥ १२ ॥ स्कन्दपुराणे-उदये चाष्टमी किंचिन्नवमी सकला यदि । लभ्यते वुधसंयुक्ता प्राजापत्यसंसंयुता । अपि वर्षशतेनापि लभ्यते वा न वा विभो ॥१३॥ पद्मपुराणे-प्रेतयोनिगणानां तु प्रेतत्वं नाशितं नरैः । यैः कृता श्रावणे मासि त्वष्टमी रोहिणीयुता ॥ १४ ॥ किं पुनर्बुधवारेण सोमेनापि विशेषतः । किं पुनर्नवमीयुक्ता कुलकोट्याश्च मुक्तिदा ॥ १५ ॥ सूर्योदये-सर्वथा सप्तमीयुक्ता संत्याज्या सर्ववैष्णवैः । उपोष्या नवमीयुक्ता तदुक्तं पुष्करे स्फुटम् ॥ १६ ॥ वर्जनीया प्रयत्नेन सप्तमीसंयुताऽष्टमी । सऋक्षाऽपि न कर्तव्या सशल्या सा प्रकीर्तिता ॥ १७ ॥ अत्र निर्णयः-अर्धरात्रे तु योगोऽयं रोहिण्या भवति कचित् । तामेवोपवसेन्नान्यामर्धरात्रोपयोगतः ॥ १८ ॥ अष्टम्यां रोहिणीयोगो मध्यरात्रे दिनद्वये । तदोत्तरैव कर्तव्या न पूर्वेत्येष निर्णयः ॥ १९ ॥ जयन्ती वुधवारेण सोमवारेण वा पुनः । लभ्यते दैवयोगेन तामुपोष्य महाफलम् ॥ २० ॥
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३५८.
श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ रामनवमी । ब्रह्मवैवर्ते-नवमी चाष्टमीविद्धा त्याज्या रामपरायणैः । उपोपणं नवम्यां तु दशम्यामेव पारणम् ॥ १ ॥ श्रीरामजन्मनवमी संपूर्णफलदा सदा । खण्डा चेत्परविद्धवादितियुक्ता विशेषतः ॥ २ ॥ अष्टभ्या नवमी विद्धा कर्तव्या फलकाक्षिभिः । सदुर्गा वा सनन्दा वा कर्तव्या दशमी सदा ॥ ३ ॥
अथैकादशीनिर्णयः । तत्र नित्यैकादश्युपवासविषयाणि वचनानि । ऋष्यशृङ्गः-एकादशी न लभ्येत सकला द्वादशी भवेत् । उपोष्या दशमीविद्धा ऋषिरुद्दालकोऽब्रवीत् ॥ १॥ भविष्यपुराणे-एकादशी दशायुक्ता परतोऽपि न वर्तते । यतिभिर्गहिभिश्चैव सैवोपाप्या क्षये तिथिः ॥ २ ॥ ऋष्यशृङ्गःपारणाहे न लभ्येत द्वादशी सकलाऽपि चेत् । तदानी दशमीविद्धामुपोष्यकादशी तिथिम् ॥ ३ ॥ हारीत:-त्रयोदश्यां यदा न स्याद्वादशी घटिकाद्वयम् । दशम्येकादशीमिश्रा सैवोपोष्या सदा तिथिः ॥ ४॥ विष्णुरहस्थे---दशमीशेषसंयुक्ता उपोष्यैकादशी सदा । यदा स्यान्न त्रयोदश्यां मुहूत द्वादशी तिथिः॥५॥ भविष्यपुराणे-विद्धाऽप्येकादशी ग्राह्या परतो द्वादशी न चेत् । द्वादश द्वादशी हन्ति त्रयोदश्यां तु पारणम् ॥६॥ विद्धाऽप्यविद्धा विज्ञेया परतो द्वादशी न चेत् । अविद्धाऽपि तथा विद्धा पस्तो द्वादशी यदि ॥ ७ ॥ वराहपुरागे – संपूर्णकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा । सर्वेरेवोत्तरा कार्या परतो द्वादशी यदि ॥ ८ ॥ ब्रह्मवैवर्ते-द्वादश्यामुपवासस्तु द्वादश्यामेव पारणम् । वजुली वैष्णवैः कार्या हत्यायुतविनाशनी ॥९॥
अथ काम्यैकादशीवचनानि। कालनिये-प्रातर्वेधः कृतयुगे त्रेतायामरुणोदये । द्वापरे तु उपःकाले कलौ सूर्योदये स्मृतः ॥ १ ॥ गरुडपुराणे-उदयालाग्यदा विष मुहूर्तद्वयसंयुता । संपूर्णैकादशी नाम तत्रैवोपवसेद्गृही ॥ २ ॥ पुनः प्रभातसमये घटिकैका यदा भवेत् । तत्रोपवासो विहितश्चतुर्थाश्रमवासिनाम् ॥ ३॥ कर्मपुराणे--संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा । उत्तरां तु यतिः कुर्यात्पूर्वामुपवसेद्गृहीं ।। ४ ।। विष्णुरहस्ये-दशमीशेषसंयुक्तामुपोष्यकादशी किल । संवत्सरकृतेनेह नरो धर्मेण मुच्यते ॥ ५॥ वराहः- यदि दैवात्तु संसिध्येदेकादश्यां तिथित्रयम् । तत्र
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ज्योतिर्निवन्धः
३५९ ऋतुशतं पुण्यं द्वादशीपारणं भवेत्॥६॥ब्रह्मवैवर्ते-दशमीशेपसंयुक्तां यः करोति स मूढधीः । एकादशीफलं तस्य न स्याद्वादशवार्षिकम् ॥ ७॥ पितामहः-एकादशी यदा वत्स दिनक्षयतिथिर्भवेत् । तत्रोपोष्या द्वादशी स्यात्रयोदश्यां तु पारणम् ॥ ८॥ एतत्युत्रवद्गहिविषयम् । एकादशीदिनक्षय उवासं करोति यः तस्य पुण्यानि नश्यन्ति मघायां पिण्डदो यथा ॥९॥ मत्स्यः --दिनक्षयेऽर्कसंक्रान्तौ ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः । उपवासं न कुर्वीत पुत्रपौत्रसमन्वितः ॥ १० ॥ नारदः-रविवारेऽर्कसंक्रान्तावासितैकादशीदिने । दर्शे पाते कृते श्राद्धे पुत्री नोपवसेद्गही ।। ११ ।। भारो-संक्रान्त्यामुपवासेन पारणेन युधिष्ठिर । एकादश्यां तु कृष्णायां ज्येष्ठपुत्रो विनश्यति ॥ १२ ॥ वायुपुराणे-उपवासनिषेधे तु भक्ष्यं किंचित्पकल्पयेत् । न दुष्यत्युपवासेन उपवासफलं लभेत् ।। १३ ॥ उदयव्यापिनी ग्राह्या श्रवणद्वादशी वुधैः । शुक्ले पूर्वा परा कृष्णे व्रते ग्राह्या त्रयोदशी ॥१४ ॥ आभाकापी सिते पक्षे मैत्रश्रुत्यन्त्यरोहिणी । संयोगे नैव भोक्तव्यं द्वादश द्वादशीर्हरेत् ॥ १५ ॥ मैत्रलं च कृते त्याज्यं त्रेतायां रेवतीं त्यजेत् । द्वापारे रोहिणी त्याज्या कलौ च श्रवणं त्यजेत् ॥ १६ ॥
अथ शिवरात्रिनिर्णयः। स्कन्दपुराणे-निशि भ्रमन्ति भूतानिःशक्तयः शूलधतः । अतस्तस्यां चतुर्दश्यां सत्यां तत्पूजनं भवेत् ॥ १ ॥ प्रदोपव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रिः शिवप्रियः । रात्री जागरणं यस्मात्तस्मात्तां समुपोषयेत् ॥२॥ कालनिर्णये-माघासिते भूतदिनं हि राजन्नुपैति योगं यदि पञ्चदश्या । जयाप्रयुक्तां न त जातु कुर्याच्छिवस्य रात्रि प्रियकृच्छि वस्य ॥ ३ ॥ स्मृतिसंग्रहे उपोभ्यास्तिथयः सर्वाः सर्वत्र व्रतचारिभिः । तिथ्यन्ते पारणं कुर्याद्विना शिवचतुर्दशीम् ॥ ४ ॥ उपोषणं चतुर्दश्यां चतुदश्यां तु पारणम् । कृतैः सुकृतलक्षध प्राप्यते वा न वा नरैः ॥ ५ ॥ त्रयोदशी दिनास्तान्ता प्रदोषे च चतुदेशी । त्रिवर्गप्राप्तये कार्या गृहस्थैः शिवतोपिणी ॥ ६॥ माघे चतुर्दशी कृष्णा या भवेद्रजनीमुखे । तद्दिने ह्यपवासः स्यात्तिथ्यन्ते पारणं भवेत् ॥ ७॥ त्रयोदश्या युता कार्या शिवरात्रिचतुर्दशी । पारणाहे चतुर्दश्यां यद्यस्तं याति नो रविः ॥ ८ ॥ व्यासः--त्रयोदशी यदा देवि दिनभुक्तिप्रमाणतः । जागरे शिवरात्रिः स्यानिशि पूर्णा चतुर्दशी ॥ ९ ॥ शिवरात्रिः परा कार्या यदि रात्री त्रयोदशी । अन्यथा तु भवेत्पूर्वा परमा चेद्भुजिक्षमा ॥१०॥ तिथ्यन्ते चैव भान्ते घ पारणं यत्र चोदितम् । यामत्रयोर्ध्वगामिन्यां प्रातरेव हि पारणम् ॥११॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ पूर्णिमा निर्णयः ।
भूतविद्धान कर्तव्या पूर्णिमा च कदाचन । वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठाः सावित्रीव्रतमुत्तमम् ॥ १ ॥ रामकौतुके-पूर्वा दूर्वा शिवपुत्रा सावित्री श्रावणी वटः । रम्भा दुर्गा बृहज्जन्म रोहिण्यग्रवलिः स्मरः || २ || बृहदशून्यशयनी द्वितीया । श्रावणी पौर्णमासी च संगवस्पृग्यदा भवेत् । तदैवौदयिकी ग्राह्या नान्यदोदयगा क्वचित् || ३ || कारिकायाम् - उपाकर्मक्रियां कुर्यात्मातर्युक्ते तु कर्मणि । श्रुतिद्वययुता कार्या नोत्तराषाढसंयुता || ४ || पवित्रारोपणादौ तु पूर्वा पूर्णा प्रशस्यते । परोपाकर्मणि ग्राह्या ग्रहसंक्रान्तिवर्जिता ।। ५ ।। गर्गः - अर्धरात्रात्पुरस्ताच्चेत्संक्रान्तिग्रहणं भवेत् । उपाकर्म न कर्तव्यं परत्वेन दोषकृत् ||६|| वेदोपाकरणे प्राप्ते कुलीरे संस्थिते रवौ । गर्गः प्राह प्रकर्तव्यं कर्तव्यं सिंहसंस्थिते ।। ७ ।। उत्सर्गोपाकृतेर्यश्च प्रारम्भः प्रथमो बुधैः । न कर्तव्योऽस्त शुक्रे वाले वृद्धे तथा गुरौ ||८|| कात्यायनः - ग्रहसंक्रान्तिरहिताः श्रुतिपर्वकराः क्रमात् । परविद्धा उपादेया ऋग्यजुःसामशाखिनाम् ||९|| विश्वरूपे - मध्याह्नव्यापिनी या च भाद्रे शुक्लचतुर्दशी । सैवानन्तत्रते ग्राह्या पूर्वायुक्ता विशेषतः १० ॥ चतुर्दश्युत्तरा शुक्ला पूर्वा कृष्णा चतुर्दशी । उदये द्विमुहूर्ताऽपि ग्राह्याऽनन्तवते तिथि: ॥ ११ ॥ स्कन्दपुराणे - जयायोगेन यः कुर्याद्विक्तायां पूजनं हरे: । वर्षपूजाफलं तस्य बाष्कलेयाय गच्छाते ॥ १२ ॥ अतो मुहूर्तमात्राऽपि पूर्णिमायां चतुर्दशी । तस्यामभ्यर्चनं कुर्यादनन्तस्य विशेषतः || १३ || कालादर्श - प्रतिपद्यावत्सरादौ प्रतिपच्च बलेस्तथा । पूर्वविद्धा न कर्तव्या कर्तव्या परसंयुता ॥१४॥ वसिष्ठः-नन्दां संवत्सरादौ तु दर्शविद्धां न कारयेत् । वलेः प्रतिपदं चैव सर्वश्रेयोविनाशिनीम् ॥ १५ ॥ कालनिर्णये - द्वे शुक्ले द्वे च कृष्णे च युगादी कवयो विदुः । शुक्ले पूर्वाह्निके ग्राह्ये कृष्णे चैवाऽऽपराह्निके ॥ १६ ॥ * (हेमाद्रौ पितामहः–चैत्रे मासि जगद्ब्रह्मा समर्ज प्रथमेऽहनि । शुक्ले पक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति ॥ १७ ॥ अथाऽऽन्दोलननिर्णयः ।
३६०
चैत्रशुक्ल तृतीयायां गौरीमीश्वरसंयुताम् । मुहूर्तमात्रसत्त्वेऽपि दिने गौरीवतं परे ॥ १ ॥ मात्स्ये – वसन्तमासमासाद्य तृतीयायां जनप्रिये । सौभाग्याय सदा स्त्रीभिः कार्य पुत्रसुप्सुभिः || २ || देवीपुर णे- तृतीयायां मधोः शुक्ले पूजयेदेवि शंकरम् । कुङ्कुमागरुकर्पूरमणिवस्त्रसुगन्धकैः ॥ ३ ॥ गन्धधूपदीपैथ दमनेन विशेषतः । आन्दोलयेत्ततो वत्स शिवोमातुष्टये सदा || ४ ||
* धनुश्वितिग्रन्थ व पुस्तकस्थः ।
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ज्योतिनिवन्धः।
अथाक्षयतृतीयानिर्णयः।) प्रचेताः--तृतीयाऽहये शुक्ला मध्याह्न प्राप्य माधवे । प्रथमैव तदा कार्या निष्फला तु परा स्मृता ॥१॥ रोहिणीबुधसंयुक्ता तृतीया माधवे यदि । विशेषफलदा सा तु स्नानदानजपादिषु ॥२॥ नारदीये-गौरी विनायकोपेता जायते यदि भूपते । विनापि रोहिणीयोगात्पुण्यं कोटिगुणं भवेत् ॥३॥ गरुडपुराणे प्रेतरूपाः पितरश्चण्डशर्माणं मायूचुः-बैशाखस्य तृतीयां यः पूर्वविद्धां करोति वै । हव्यं देवा न गृहन्ति कव्यं च पितरस्तथा ॥ ४ ॥ नारद:पूर्वविद्धादिने दत्तं पितृणां नोपतिष्ठति । नैव गृह्णाति वैकुण्ठः पूजां तद्दिनसंभवाम् ॥ ५॥ देवीपुराणे-----भद्राग्निऋक्षसंयुक्तं यदि कुर्याद्युगादिकम् । रुदन्ति पितरस्तस्य निराशाः पितरो गताः ॥ ६॥ भद्रायाः फलमेकं तु तृतीया सकला भवेत् । द्वितीयासहिता कार्या रविपर्वसमं फलम् ॥ ७ ॥ भद्रातिथौ न कर्तन्या यागाचैव युगादिषु । चतुर्थीसहिता युक्ता रोहिण्या मनुरबवीत् ॥ ८॥ तृतीयायां तु वैशाखे रोहिण्यक्ष प्रपूजयेत् । उदकुम्भप्रदानेन ब्रह्मलोके महीयते ॥ ९॥ जया भद्रातिथिर्मिश्रा प्राजापत्यःसंयुता । उदकान्नं च मे दत्तं यज्ञकोटिफलं लभेत् ॥१०॥ देवीपुराणे-सिंहस्थे चोत्तमा सूर्ये युदिते कलशोद्भवे । मुहूर्ते रोहिणी पूर्वा पूज्या सुखसुताप्तये ॥ ११ ॥ कन्यागते तु या सूर्ये पूजयेदमृतोद्भवम् । विषकन्या भवेत्सा तु तथैव घटजोदये ॥१२॥ श्रावणे चैव भाद्रेऽपि घटजो नोदयेद्यदि । शुक्ले वा कृष्णपक्षे वा पूजयेदमृतोद्भवम् ॥ १३ ॥ ब्रह्माण्डपुराणे-दूर्वाष्टमी मेघपूजा पवित्रारोपणं हरेः । अगस्तेरुदयादूर्ध्वं निष्फलं जायते ध्रुवम् ॥ १४ ॥ दूर्वा चेद्रोहिणीयुक्ता सैव जन्माटमी भवेत् । विरूढापाशनात्स्त्रीणां नोपवासस्तु लुप्यते ॥ १५ ॥ चिन्तामणौमैत्रविद्धा सदा कार्या ज्येष्ठा कामप्रदायिनी । मूलविद्धा न कर्तव्या ज्येष्ठा कामविनाशिनी ॥ १६ ॥ मूलविद्धा कृता ज्येष्ठा पुरा दुर्योधनेन हि । आयु:क्षयं गताः सर्वे तस्मात्ता परिवर्जयेत् ॥ १७ ॥ व्यास:---मधोः श्रावणमासस्य या शुक्ला च चतुर्दशी । सावित्रीव्यापिनी ग्राधा नान्या शुक्ला कदाचन ॥१८॥ पवित्रारोपणं विनाच्छावणे न भवेद्यदि । कार्तिक्यवधि शुक्लार्के कर्तव्यमिति नारदः ॥ १९ ॥ वैशाखे दमनारोपः स्यान्मधौ विघ्नतो यदि । पवित्रदमनारोपे पूर्वोक्तास्तिथिदेवताः ॥२०॥
____ अथ पर्वनिर्णयः। सत्राह्रो द्विधा विभागो ग्राह्यः । कात्यायनः-तिथेः परस्था घटिकास्तु याः
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श्रीशिवराजविनिर्मितोस्युयूंनास्तथैवाभ्यधिकास्तु तासाम् । अर्ध वियोज्यं च तथा प्रयोज्यं हासे च वृद्धौ प्रथमे दिने तत् ॥ १॥ पर्वणो यश्चतुर्थांश आयाः प्रतिपदस्त्रयः । यागकालः स विज्ञेयः प्रातरुक्तो मनीषिभिः ॥२॥ अपराह्नेऽथवा रात्रौ यदि पर्व समाप्यते । उपोष्य तस्मिन्नहनि श्वोभूते याग इष्यते ॥ ३ ॥ उपोष्येत्यन्वाधानादिकर्म । त्रिमुहूर्ता द्वितीया चेत्प्रतिपद्यापराह्निकी । अन्वाधानं चतुर्दश्यां परतः सोमदर्शनात् ॥ ४॥ पूर्वाह्ने वाऽथ मध्याह्ने यदि पर्व समाप्यते । उपोष्य तत्र पूर्वेद्युस्तदहाग इष्यते ॥ ५॥ पञ्चमी यत्र संपूर्णा द्वितीया क्षयगामिनी । चरुरिष्टिरमावास्या भूते कव्यादिकी क्रिया ॥६॥ यागकालात्तिथि<धषट्कला यदि दृश्यते । पर्व तत्रोत्तरं ग्राह्यं हीने पूर्व प्रकल्पयेत् ॥ ७ ॥ शातातपःयस्मादह्नस्तृतीयेऽह्नि परे चन्द्रोदयो भवेत् । चन्द्रक्षयः स विज्ञेयः श्रौते च श्राद्धकर्मणि ॥ ८॥ संधिश्चेत्संगवादूर्ध्व प्राक् चैवाऽऽवर्तनाद्रवेः । पौर्णमासीति विज्ञेया सद्यःकालविधौ तिथिः ॥९॥
अथ श्राद्धतिथिनिर्णयः । * ( भृगुः-मलमासमृतानां तु यच्छ्राद्धं प्रतिवत्सरम् । मलमासे तु तत्कार्य नान्येषां तु कदाचन ॥१॥ अतो मलमासमृतानां कादाचित्कं प्रत्याब्दिकं मलमासेऽपि(एव) कार्य श्रा(श)द्धमासमृतानां च प्रथमाब्दिकं तत्र कार्य द्वितीयाब्दादिकं तु शुद्धमास इति ।) मत्स्यपुराणे-पितृभ्यश्च तिथेमूलं सुरेभ्यः प्रातरेव च । प्रदत्तो(सं) ब्रह्मणा पूर्व विधिमेनं न लङ्घयेत ॥२॥ याज्ञवल्क्यः-पूर्वाह्ने दैविकं श्राद्धमपराहे तु पार्वणम् । एकोद्दिष्टं तु मध्याह्ने प्रातवृद्धिनिमित्तकम् ॥ ३॥ गर्ग:-अह्नः पञ्चदशो भागो मुहूर्त इति कथ्यते । अष्टमः कुतुपस्तत्र श्राद्धारम्भः प्रशस्यते ॥४॥ श्राद्धकल्पे-श्राद्धकालस्तु सर्वेषां कुतुपात्क्षणपश्चकम् । दर्शश्राद्धे तु साग्नीनां सायाह्नो वाऽप्यसंभवे ॥ ५॥ पितामहः-सिनीवाली द्विजैः कार्या साग्निकैः पितृकर्मणि । द्विजैरनग्निकैः शूद्रैः स्त्रीभिः कार्या कुहूः सदा॥६॥ चन्द्रिकायां-तिथिक्षये सिनीवाली तिथिटद्धौ कुहूः स्मृता । साम्येऽपि च कुहूज्ञैया दर्शश्राद्धादिकर्मसु ॥७॥ दक्षः-अपराहे त्वमा ग्राह्या श्राद्धकर्मणि सर्वदा । तस्मिन्नमा यदा न स्यात्तदा मध्यदिने मता ॥ ८॥ यो यस्य विहितः कालः श्राद्धस्यात्र स्वयंभुवा । तत्कालव्यापिनी या स्यात्सैव ग्राह्या तिथिबुधैः ॥९॥ दिनद्वयेऽपि संपूर्णा स्वकालव्यापिनी भवेत् । तदा पूर्वा पितृश्राद्ध
* धनुश्चिह्नितग्रन्थो व. पुस्तकस्थः । १ ख. कालतिथिधष' । घ. कालतिथईवेष ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
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मातृश्राद्धे परा स्मृता ॥ १० ॥ असंपूर्णापराह्ना तु यायिनी चेद्दिनद्वये । तदा संपूर्ण कुतुपव्यापिनी गृह्यते तिथिः ॥ ११ ॥ हारीत: - अपराह्नद्वये चामा यदि स्यात्तत्र याऽधिका । सा ग्राह्या यदि तुल्या स्यादये वृद्धौ परा स्मृता ॥ १२ ॥ निर्णयवचनं श्राद्धे पराह्नगा ग्राह्या नचेत्सायाह्नगा तिथिः । द्व्यपराह्नस्पृगाद्या तु पैतृके मातृके परा ॥ १३ ॥ अनल्पकालवर्तिन्यां तिथौ कर्म विधीयते । साम्ये पूर्वा परा वाऽपि क्षये पूर्वा च या परा ॥ १४ ॥ पितामह: -दर्श च पौर्णमासं च पित्रोः सांवत्सरं दिनम् । पूर्वविद्धमकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते ॥ १५ ॥ स्वकर्मकालपर्याप्ता तिथिर्न स्याद्यदा तदा । तिथौ सत्यां प्रकुर्वीत प्रारम्भं वा समापनम् ॥ १६ ॥
इति श्राद्धतिथिनिर्णयः ।
+ ( अथ नवरात्रप्रतिपन्निर्णयः ।
aat नीराजनं कार्य प्रतिपद्याश्विने सिते । प्रारम्भो नवरात्रस्य हित्वा चित्रां च वैधृतिम् ॥ १ ॥ वैधृतिस्तु तथा चित्रा समग्रा प्रतिपदिने । प्रभाते प्रतिपन्नास्ति यदा कुर्यात्तदैव हि ॥ २ ॥ चित्रावैधृतियोगस्तु भवेद्यामत्रयं यदि । प्रातरेव तदा कार्य नवरात्रं सदा बुधैः ॥ ३ ॥ आद्यास्तु नाडिकास्त्याज्याः षोडश द्वादशाथवा । देवीपूजा प्रकर्तव्या शुद्धसंततिकाङ्क्षिभिः ॥ ४ ॥ वृद्धौ समाप्तिरष्टम्यां क्षयेऽमाप्रतिपन्निशि । प्रारम्भो नवरात्रस्य नवरात्रमथार्थवत् ॥ ५॥ ) अथ महानवमीनिर्णयः ।
मदनपारिजाते - सप्तमी स्वल्पसंयुक्ता त्याज्येषस्य सिताष्टमी । स्तोकाऽपि सा तिथिः पुण्या यस्यां सूर्योदयो भवेत् ॥ १ ॥ यदा सूर्योदये न स्यान्नवमी वा viser | तदाष्टमीं प्रकुर्वीत सप्तम्या सहितां नृप ॥ २ ॥ बलिदाने कृतेऽष्टम्यां पुत्रभङ्गो भवेध्वम् । नवम्यां तु कृतं राज्ञा देशे राष्ट्रे सुखावहम् ॥ ३ ॥ कालनिर्णये-नन्दायां ज्वलितो वह्निः पूर्णायां पशुपातनम् । भद्रायां गोधनक्रीडा तत्र राज्यं विनश्यति ॥ ४ ॥ सूर्योदये- अश्वयुक्शुक्ल नवमी ह्यष्टमी मूलसंयुता । सा महानवमी तस्यां जगन्मातरमर्चयेत् ॥ ५ ॥
इति महानवमीनिर्णयः ।
+ धनुश्चिह्नितग्रन्थो ख. घ. पुस्तकस्थः ॥
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
अथ विजयादशमीनिर्णयः । विश्वरूपनिर्णये---आश्विनस्य सिते पक्षे सीमातिक्रमणोत्सवः । विजयाय मुहूर्तोऽयं कर्तव्यो विजये क्षणे॥१॥ नवन्या सहिता कार्या दशम्याश्वयुजः सिता। एकादश्या युता जातु न कार्या जयकातिभिः ॥२॥ पुराणे-नवमीशेपयुक्तायां दशम्यां विजयोत्सवम् । कुरु राम त्वमित्युक्तं वसिष्टेन महात्मना ॥३॥ कालोत्तरेया पूर्णा नवमीयुक्ता तस्यां पूज्याऽपराजिता । ददाति विजयं सौख्यं यात्रायां सर्वदिक्षु च ॥ ४ ॥ आश्विनस्य सिते पक्षे दशभ्यां सर्वराशिषु । सायंकाले शुभा यात्रा दिवा वा विजयक्षणे ॥ ५॥ एकादशो मुहूर्तो विजयः । चिन्ता. मणौ-आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां तारकोदये । स कालो विजयो ज्ञेयः सर्वकाथिसिद्धये ॥६॥ रत्नकोशे-पित्संध्यामतिक्रान्तः किंचिदद्भिन्नतारकः । विजयो नाम कालोऽयं सर्वकार्यार्थसिद्धये ॥ ७ ॥ इषस्य दशमी शुक्लां पूर्वविद्धां न कारयेत् । श्रवणेनापि संयुक्तां राज्ञां पट्टाभिषेचने ॥ ८॥ सूर्योदये यदा राजन्दृश्यते दशमी तिथिः । आश्विने मासि शुक्ले तु विजयां तां विदुर्बुधाः ॥९॥ तथा च स्कन्दपुराणे--- मार्तण्डस्योदये पुण्या वर्तते दशमी तिथिः । आश्विने शुक्लपक्षे तु सा भवेज्जयदा नृणाम् ॥ १० ॥ निपिद्धमपि कर्तव्यं तैलाभ्यञ्जनमादरात् । अश्वानामपि कर्तव्यं तैलस्नानं नदीजले ॥ ११ ॥ तूर्यघोषसमायुक्तान्पुरं प्रावेशयेद्धयान् । पुष्पमालापरीतांस्तान्हयांश्चन्दनभूषितान् ॥ १२ ॥ चामरैर्वीज्यमानांश्च साधुशब्देश्च लालितान् । राजद्वारि समाविष्टान्त्रीभिर्नीराजितान्हयान ॥१३॥ संपूज्य विधिवदाजा नमस्कुर्यात्प्रयत्नतः। भक्ष्यं भोज्यं स्वहस्तेन भोजयेत्तुरगान्नृपः ॥ १४ ॥ वाहाधिकारिणः सर्वान्दानमानस्तु तोषयेत् । तथैव बारणानराजा पूजयेच्चक्रमेलकान् ॥१५॥ नाममन्त्रेण विधिवचतुर्थ्यन्तेन मन्त्रवित् । कृताभ्यङ्गो महाघोषस्तूयाणां शुभलब्धये ॥ १६ ॥ ततश्च पूजयेद्देवान्गन्धपुष्पादिकैरलम् । आहूय ब्राह्मणान्सवोन्वाचयेत्स्वस्ति मङ्गलम् ॥ १७ ॥ ततस्तुरगमारुह्य तूर्यघोपसमन्वितः । बन्दिभिः स्तूयमानस्तु समानशकुनर्बजेत् ॥ १८ ॥ ज्योतिःशास्त्रोदितां काष्ठां सुहृद्भिः परिवारितः । संप्राप्तस्तु शमीवृक्षमश्मन्तकमथापि वा ॥ १९ ॥ अवतीय नृपो वाहाद्वेगात्सह पुरोधसा । संनिघण्णः शमीमूलं विदध्यात्स्वस्तिवाचनम् ॥ २० ॥ कार्योदेशाज्जनैः साकं प्रयोगं कुशलैर्वदन् । ततः प्रोक्ष्य शमीमूले भूमिं भूमिपतिध्रुवम् ॥ २१॥ उत्कृत्य मृत्तिकां तत्र प्रक्षिपेत्तण्डुलाञ्छुभान् । सपूगं हेम शक्त्या तु ह्यभावे रौप्यमुत्तमम् । ततः प्रदक्षिणं कुर्यात्तस्य वृक्षस्य
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ज्योतिर्निवन्धः। भूपतिः ॥२२॥ तत्र मन्त्रः- शमी शमयते पापं शमी शत्रुविनाशिनी। परिव्यर्जुनवाणानां रामस्य प्रियवादिनी ॥ २३ ॥ करिष्यमाणा या यात्रा यथाकालं सुखं मया । तत्र निर्विघ्नकी त्वं भव श्रीरामपूजिते ॥ २४ ॥ अश्मन्तक महावृक्ष महादोषनिवारण । इष्टानां दर्शनं देहि शत्रूणां च विनाशनम् ॥ २५ ॥ ततः शमीतरोर्वाऽश्मन्तकस्य वोभयोः पत्राणि गृहीत्वा तस्यां मृदि तण्डुलहे. मानि प्रक्षिप्य गोलकं कृत्वा सर्वकार्यसिद्धयर्थं गृह्णाति । ततो वृक्षं नमस्कृत्य दिग्लिङ्गमन्त्रैः प्राचीपूर्वक]दिग्जयं गृहीतखड्गः करोति । एवं त्रिचतुःपादक्रमेण तुलितासिर्दिग्विजयं कृत्वा शत्रवो जिता इति ब्रूयात् । इन्द्रादीन्देवान्विप्रांश्च नमस्कृत्य स्वपुरं प्रविशेत् । ततः सविप्रः स महाद्वारसमीपे पुण्यस्त्रीभि. नीराजितो द्वारि न्यस्तेषु मञ्चकेषु तूलिकोपरि तण्डुलैः कृतमूर्तिषु शत्रुषु पादं कृत्वा लब्धविप्रानुज्ञो निषण्णो भूत्वा द्रव्यवस्वताम्बूलादि सर्व दद्यात् । एवं कृत्वा विसाऽऽशु सर्वान्पौरान्निजालयान् । प्रतिवर्ष कृते चैवं सर्वकार्यपरो भवेत् ॥ २६ ॥ एवं सर्वेषु पौरेषु विधिरेष सनातनः । निष्पादितो यथाधर्म विदधाति सुखं श्रियम् ॥ २७ ॥ एवं कृते विधाने च तुष्टिदे पुष्टिदे नृणाम् । सर्वपरिजनैः सार्धं विजयं प्राप्नुयान्नृपः ॥ २८ ॥
इति विजयादशमीनिर्णयः।
अथ दीपोत्सवनिर्णयः। आश्विनस्यासिते पक्षे लक्ष्मीनिंद्रां विमुञ्चति । सा च दीपावली प्रोक्ता सर्वकल्याणरूपिणी ॥ १ ॥ इषासितचतुर्दश्यामिन्दुक्षयतिथावपि । ऊर्जादौ स्वातिसंयुक्ते तदा दीपावली भवेत् ॥ २ ॥ तैले लक्ष्मीर्जले गङ्गा दीपावलितिथौ वसेत् । अलक्ष्मीपरिहारार्थ तैलाभ्यङ्गं तु कारयेत् ॥ ३ ॥ * ( स्मृतिदर्पणे-चतुर्दशी याऽऽश्वयुजस्य कृष्णा स्वात्यायुक्ता च भवेत्प्रभाते । स्नानं समभ्यज्य नरैस्तु कार्य सुगन्धितैलेन विभूतिकामैः॥ ४ ॥) भविष्योत्तरे-आश्विनस्यासिते पक्षे चतुर्दश्यां विधूदये। स्नातव्यं तिलतैलेन नरैर्नरकभीरुभिः ॥५॥ + ( सर्वज्ञनारायणः-तथा कृष्णचतुर्दश्यामाश्चिनेऽर्कोदयात्पुरा । यामिन्यां पश्चिमे यामे तैलाभ्यङ्गो विशिष्यते ॥ ६ ॥ कालादर्शे--मृगाड़ोदयवेलायां त्रयोदश्यां यदा भवेत् । दर्शे वा मङ्गलस्नानं दुःखशोकफलप्रदम् ॥७॥ हेमाद्रौ-त्रयोदशी यदा प्रातः क्षयं याति चतुर्दशी। रात्रिशेषे त्वमावास्या तदाऽभ्यङ्ग त्रयोदशी।।८॥
* धनुश्चिह्नितग्रन्थो घ. पुस्तकस्थः । + धनुश्चिह्नितग्रन्थो ध. पुस्तके।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोअमावास्याचतुर्दश्योः प्रदोपे दीपदानतः । यममार्गान्धकारेभ्यो मुच्यते कार्तिके नरः॥९॥ ज्योतिषे- तुलासंस्थे सहस्रांशौ प्रदोषे भूतदर्शयोः । उल्काहस्ता नराः कुर्यः पितृणां मार्गदर्शनम् ॥ १०॥ ब्राह्मे-अपराहे प्रकर्तव्यं श्राद्धं पितृपरायणैः । प्रदोपसमये राजन्कर्तव्या दीपमालिका ॥ ११ ॥) अपामार्ग भ्रामयित्वा संकुर्याद्यमतर्पणम् । नरकाय प्रदातव्यो दीपः संपूज्य देवताः ॥ १२ ॥ अमायामाश्विने मासि पितृकर्म विधाय च । दीपदानं ततः कुर्यात्प्रदोषे च तथोल्मकम् ॥ १३ ॥ नीराजनं द्वितीयेऽह्नि प्रातःकाले विधीयते । द्वितीयायां स्वसा भ्रातुर्विदध्यान्मङ्गलोत्सवम् ॥१४॥ उषस्यभ्यञ्जनं दीपं स्नात्वा नीराजनं ततः । कुर्यात्संलग्नमेतच्च दीपोत्सवदिनत्रयम् ॥ १५ ॥ आश्विने मासि भूतादितिथयः कीर्तितास्त्रयः। दीपदानादिकृत्येषु ग्राह्या मध्याह्नकालिकाः॥१६॥ यदि स्युः संगवादग्गिताच तिथयस्त्रयः । दीपदानादिकृत्येपु कर्तव्याः पर्वसंयुताः ॥ १७ ॥ कालनिर्णये-वत्सरादौ वसन्तादौ बलिराज्ये तथैव च । प्रतिपत्पूर्वविद्धा नो कर्तव्या तु कथंचन ॥१८॥ वसिष्ठः-मुहूर्त वर्तते दर्शो माङ्गल्यं तद्दिने भवेत् । वित्तापत्यकलत्रादि तत्सर्वं नश्यति ध्रुवम् ॥ १९ ॥ आश्विने मासि दर्शान्ते नारीनीराजनं यदि । नारीणां तत्र वैधव्यं प्रजानां मरणं तथा ॥ २०॥ कार्तिके शुक्लपक्षादी नारीनीराजनं भवेत् । पातीराजनं कार्य सायं मङ्गलमालिका ॥ २१ ॥ अथचेत्प्रतिपत्स्वल्पा द्वितीयायां यदा भवेत् । द्वितीयायां तदा कार्या सायं मङ्गलमालिका ॥ २२ ॥ नन्दायामुदयेऽभ्यङ्गं कृत्वा नीराजनं ततः । सुवेपः सत्कथागीतैर्दानैश्च दिवसं नयेत् ॥ २३ ॥ रत्नावल्या-कार्तिक शुक्लपक्षादौ विधानद्वितयं हितम् । नारीनीराजनं प्रातः सायं मङ्गलमालिका ॥ २४ ॥ दीपविधानम्--आश्विने कृष्णपक्षे तु द्वादशीमुख्यपश्चतु । तिथिपूक्तः पूर्वरात्रे नृणां नीराजनाविधिः ॥२५॥ कृताभ्यङ्गमहोत्साहाः कृतमाल्यानुलेपनाः। शुचिवस्त्राः शुभाचाराः करे गृहीतदीपिकाः॥२६॥ नीराजयेयुर्देवांस्तु विप्रान्गाश्च तुरङ्गमान् । ज्येष्ठाञ्छ्रेष्ठाञ्जघन्यांश्च मातृमुख्याश्च योषितः । राजानं सचिवं चापि राजपुत्रानपि ध्रुवम् ॥ २७ ॥ नीराजनमन्त्रःदापोत्सवे महापुण्ये बलिराज्यं प्रवर्तते । भूयाच्छुभकरं नृणां कृतनीराजनान्मया ॥ २८ ॥ विरोचनसुतो धीमान्परमं दैवकारणम् । बलिर्भूयात्सुखायात्र सर्वेषां प्राणिनामपि ॥ २९ ॥ सुभिक्षमायुरारोग्यं नित्योद्योगपरा जनाः। भवनित्वह महोत्साहा रात्रौ नीराजनान्मया ॥ ३० ॥ एवं विधानं कर्तव्यं रात्रौ नीराजनात्मकम् । नित्याभ्यङ्गपरैः पुंभिर्हृष्टैः पुष्टैर्महोत्सवैः ॥ ३१ ॥
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ज्योतिर्निवन्धः। श्रीभारते- यो याद्देशानुभावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर । हर्षदैन्यादिरूपेण तद्वद्वर्ष प्रयाति हि ॥३२॥ कार्तिके शुक्लपक्षाये विधानद्वितयं तिथौ । नारीनीराजनं प्रातः सायं मङ्गलमालिका ॥ ३३ ॥ प्रातःसायाह्नयोः कार्य सपताकं महार्चनम् । पुष्पाणां प्रकरं योषाः कुर्युश्चत्वरभूमिषु ॥ ३४ ॥ दधिदूर्वाक्षतापुष्पप्रकरं चन्दनं तथा । प्रकीर्य सद्मनो द्वारे तोरणैश्च सुसंस्कृते ।। ३५ ॥ उपचाराञ्छुभाचारान्कुर्याद्वलिदिने सुधीः । मातृष्वसृसुतादिभ्यो देयं वस्त्रादिभूषणम् ॥ ३६ ॥ ब्राह्मणेभ्यो धनं गाश्च गोभ्यश्चैव तृणं जलम् । भक्ष्यं भोज्यं च सर्वेभ्यः प्राणिभ्यो भूतिमिच्छता ॥ ३७ ॥ देयं बहुतरं सम्यग्विष्णुसंतोषकारकम् । द्यूतक्रीडां ततः कुर्याद्राह्मणप्रमुखो जनः ॥ ३८ ॥ कुर्यात्ताम्बूलदानं च मिथः प्रीतिविवर्धनम् । ततो रात्रौ समभ्यर्च्य पुष्पैः शंकरवल्लभाम् । दीपैर्नीराजयेदन्नैस्तोषयेप्रयतो नृपः ॥ ३९ ॥ ततः प्रभाते विमले भगिनी भ्रातृमन्दिरम् । गत्वा निमन्त्रयेद्भातृञ्जनकं जननी तथा । आनीय सकलान्हष्टाञ्छुभं स्वमन्दिरं प्रति ॥ ४० ॥ अभ्यङ्गं कारयेद्यत्नाच्छुभैोज्यैश्च भोजयेत् । पित्रादिसर्वबन्धुभ्यो दद्याद्वस्त्रादि भूरिशः । तैश्च ताभ्यः प्रदातव्यं वस्त्रालंकारभूषणम्॥४१॥
अथ होलिकानिर्णयः । भविष्यपुराणे-दर्वासा उवाच । तपस्ये पौर्णमास्यां तु रजन्यां होलिकोत्सवः । न कर्तव्यो दिवा विष्टयां रिक्तायां प्रतिपद्यपि ॥१॥ विद्याविनोदे-नन्दायां मरणं घोरं भद्रायां देशनाशनम् । दुर्भिक्षं च चतुर्दश्यां करोत्येव हुताशनी ॥ २ ॥ नारद:--प्रतिपद्भूतभद्रासु याऽर्चिता होलिका दिवा । संवत्सरं च तद्राष्टं पुरं हन्ति च साऽद्भुतम् ॥ ३ ॥ प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदा । तस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे ॥ ४॥ होलिकाशान्तिकं कर्म जनारोग्योत्सवाय च । त्यक्त्वा भद्रां निशीथेऽपि ज्वाल्या भद्राऽग्निदाहकृत् ॥५॥ प्रदोषव्यापिनी न स्यात्तदा पूर्वदिने भवेत् । भद्रामुखं वर्जयित्वा होलिकायाः प्रदीपनम् ॥ ६॥ विद्याविनोदे-यामत्रयोध्वंयुक्ता चेत्फाल्गुनी तु भवेत्तिथिः । भद्रामुखं परित्यज्य कार्या होला मनीषिभिः ॥ ७ ॥ कालविवेकेप्रहरद्वयात्परतः फाल्गुनी पूर्णिमा यदि । होलिका तु तदा पूज्या रात्री भद्राविशेषतः॥८॥ तपस्ये मासि राकायां निशि चन्द्रोदयेऽग्नितः । प्रदक्षिणं प्रकुर्वीत होलिकायाः प्रदीपनम् ॥ ९॥ चन्द्रोदये यदा न स्यात्पूर्णिमा
१ घ. 'दृशेनभाने।
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श्रीशिवराजविनिर्मितोफाल्गुनी तदा । पूर्वेद्युमध्यगे चन्द्रे विधेयं होलिकार्चनम् ॥ १० ॥ माधवेअसत्यामपि पूर्णायां वृद्धित्वे होलिकार्चनम् । क्रियमाणं च नन्दायां शान्तिर्भचति नो क्षये ॥ ११ ॥ फाल्गुने मासि संप्राप्ते शुक्लपक्षे सुखास्पदे । पञ्चमीप्रमुखास्ताः स्युस्तिथयोऽनन्तपुण्यदाः ॥ १२ ॥ दश स्युः शोभनास्तासु काष्ठस्तेयं विधीयते । अपत्यैर्वाऽथ वृद्धा युवभिर्वा दिनात्यये । प्राप्तायां पूर्णिमायां तु कुर्यात्तत्काष्ठदीपनम् ॥ १३ ॥ चिन्तामणी- चण्डालसूतिकागेहाच्छिशुहारितवह्निना । भद्रामुखं परित्यज्य होलाया दीपनं शुभम् ॥ १४ ॥ स्नात्वा राजा शुचिर्भूत्वा स्वस्तिवाचनतत्परः । दत्त्वा दानानि भूरीणि दीपयेद्धोलिकाचि. तिम् । ग्रामादहिश्च मध्ये वा तूर्यनादसमन्वितम् ॥ १५ ॥ तत्र दीपनमन्त्रःदीपयाम्यद्य ते घोरां चितिं राक्षससत्तमे । हिताय सर्वजगतां प्रीतये पार्वतीपतेः ॥ १६ ॥ ततोऽभ्युक्ष्य चितिं सर्वी साज्येन पयसा सुधीः । गन्धपुष्पैः समभ्यर्च्य कृत्वा चैव प्रदक्षिणम् ॥ १७ ॥ नारिकेलादिदिव्यानि बीजपूरफलानि च । द्राक्षेक्षुकदलादीनि फलानि च समर्पयेत् ॥ १८ ॥ अर्चयित्वाऽक्षतै रक्तैः कुकुमेन सुसंस्कृतैः । गीर्वाद्यैस्तथा नित्य रात्रिः सा नीयते नरैः ॥ १९ ॥ तमानं त्रिः परिक्रम्य शब्दै लिङ्गभगाङ्कितैः । तेन शब्देन सा पापा राक्षसी क्षयमाप्नुयात् ॥ २०॥ भूतिवन्दनमन्त्रः--वन्दिताऽसि सुरेन्द्रेण ब्रह्माच्युतशिवादिभिः । अतस्त्वं पाहि मां विनाविभूते भूतिदा भव ॥ २१ ॥ सायाह्ने होलिकां कुर्यात्पूर्वाह्ने क्रीडनं गवाम् । दीपं दद्यात्प्रदोपे तु एप धर्मः सनातनः ॥ २२ ॥ द्वितीया च तृतीया च चतुर्थी पञ्चमी तथा । पष्ठी च सप्तमी चैव सेचने तिथयः स्मृताः॥ २३ ॥ प्रतारणकनिपुणा हासो. त्सवरसेप्सवः । सिन्दूरोद्भूलनं कुर्युरन्यद्रविणसंपदा ॥ २४ ॥ पलाशकुसुमोद्भूतशुभवारिप्रसेचनम् । विधीयते मिथो लोके वसन्तप्रीतये ध्रुवम् ॥ २५ ॥ जलेन वाऽथ तैलेन दध्ना च पयसाऽपि वा । इक्षूणां च रसेनैव वसन्तस्य प्रसेचनम् ॥ २६ ॥ आदौ देवेषु कर्तव्यं ततो विप्रेषु बन्धुषु । कर्तव्यं भूमिपालेन सुखसंभोगवृद्धये ॥ २७ ।। निर्लजा मानरहिता गतेा गतसाध्वसाः क्रीडेयुः सकला लोका वसन्तस्योत्सवं प्रति ॥ २८ ॥ निवृत्ते चोत्सवे तस्मिन्गुरुप्रमुखतो द्विजान् । संपूजयेन्महीपालो वस्त्रालंकारभूषणैः ।। २९ ॥
इति होलिकानिर्णयः।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
अथ नागपञ्चमीविधानम् ।
भविष्योत्तरे - श्रावणे मासि पञ्चम्यां सिते पक्षे विधीयते । विधानं नागदेवानां शीषष्ट्यास्ततः परम् || १ || नागास्तु मृन्मया ज्ञेया आलेख्याः कुङ्कुमेन वा । चन्दनेनाथवा लेख्यास्तदभावे हरिद्रया || २ || आलेख्याः सदने स्वेन स्वस्मिन्स्वस्मिन्मनीषिभिः । मृन्मयास्तु विधातव्यास्ते पूज्याः पुरवासिभिः || ३ || कर्तारो नापितास्तेषां यत्रकुत्राऽऽस्पदे शुभे । गङ्गावारिणि सुस्नातैर्द्विजाद्यैः पुरवासिभिः ॥ ४ ॥ संस्नाप्य पयसा पूर्व मन्त्रैस्तलिङ्गकैर्ध्रुवम् । दध्ना वा सर्पिषा चैव मधुना सितया तथा ॥ ५ ॥ ततो गङ्गाजलेनैव ततो गन्धं समर्पयेत् । पूजयेत्कुसुमैर्दिव्यैरपामार्गेण दुर्वया || ६ || बिल्वपत्रैश्च बहुभिर्दशाङ्गेनैव धूपयेत् । दीपेनी राजयेत्पश्चान्नैवेद्यं तु समर्पयेत् ॥ ७ ॥ ताम्बूलं क्रमुकैर्युक्तं सकर्पूरं मदान्वितम् । ततथ प्रार्थयेन्नागान्वासुकिप्रमुखान्नव ॥ ८ ॥ नमामि वासुकिं नागं नौमि तं तक्षकं विभुम् । नमामि शङ्खनागेन्द्रं कुमुदं प्रणमाम्यहम् ॥ ९ ॥ अनन्तं भुजगश्रेष्ठं नौमि कर्कोटकं विभुम् । पद्मं नमामि नागेन्द्रं पुण्डरीकं नमाम्यहम् ॥ १० ॥ नमामि पुलिकं नागं नागलोकनिकेतनम् । इति संप्रणमन्नागान् गृह्णन्नामानि सर्वशः || ११|| सर्वश इति नवानाम् । आरोपय पवित्राणि वस्त्राणि विविधानि च । ततः प्रदक्षिणीकृत्य व्रजेदायतनं निजम् ॥ १२ ॥ ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्तत्पत्नीश्च यथाविधि । सायंकाले तु भुञ्जीत गृहस्वामी विशेषतः || १३ ॥
अथ पारणाहनिर्णयः ।
पारणा यदा राजन्स्वल्पा चेद्वादशी भवेत् । अद्भिस्तु पारणं कुर्यात्पुनर्भुञ्जन्न दोषभाक् ॥ १ ॥ आमध्याह्नानि कर्माणि प्रातरेव विधाय च । स्वल्पायामपि भद्रायां पारयेद्र विदर्शने || २ || त्रयोदशीगतं श्राद्धं द्वादश्यामेव कारयेत् । स्वल्पायामपि तत्प्रातः सर्व कुर्वन्न दुष्यति || ३ || एतद्वैष्णवविषयम् । अद्भिस्तु पारणं कृत्वा न श्राद्धं कर्तुमर्हति । वैश्वदेवादिकं कर्म श्राद्धात्पचाद्यतः स्मृतम् || ४ || वसिष्ठ: - एकादशीगतं श्राद्धं कृत्वा शेषान्नमाहरेत् । आघ्रायाशनसिद्धिः स्यादुपवासो न दुष्यति ॥ ५ ॥ एकादश्यां त्रयोदश्यां यच्छ्राद्धं प्रतिवत्सरम् । द्वादश्य वैष्णवैः कार्यं स्मार्तेरेव मृतेऽहनि ।। ६ ।। आनुकूल्येनोपवासं कृत्वा श्राद्धं क्षयेऽहनि । यः कुर्यात्पितरस्तस्मै वरं दद्युर्यथेप्सितम् ॥ ७ ॥
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३७०
श्रीशिवराजविनिर्मितोअथ चैत्रशुक्लपतिपदि काकपिण्डविधानम् । गर्गसंहितायां-फाल्गुने मासि दर्शस्य मध्यरात्रे पुराहिः । धन्वन्तराणां संवीक्ष्य पञ्चाशत्तरुसंनिधौ ॥ १॥ भूमिं संशोध्य यत्नेन निखनेत्कुद्दलादिभिः । कण्टकास्थिशरावाणि खण्डकानि बहिः क्षिपेत् ॥ २ ॥ प्रसिञ्चेत्तु ततस्तोयैः सरस्यादिभवैरपि । ततः स मार्जयित्वा च धूपयेथूपसंचयैः। आलिप्य चन्दनैर्दिव्यैः पुष्पाणि विकिरेत्ततः ॥३॥ महाफणिमहाभोगदृढाचारकृतालये । प्रसन्ना भव मातस्त्वं कुरु चाद्य जनप्रियम् ॥ ४ ॥ इत्यनेन मन्त्रेण गन्धपुष्पादि निधाय पृथ्वि त्वया धृता लोकेति प्रातःकालविधि पठन्पूर्वाभिमुखो निषण्णो वर्तेत । प्रातरेवारुणोदयवेलायां दथ्योदनपिण्डपञ्चकं सव्यञ्जनं पूर्वादिक्रमेणोत्तरपर्यन्तं निदध्यात् । दधिक्राव्णो अकारिषमिति स्तोकं दधि पिण्डोपरि निधापयेत् । ततो दिक्रमेणेन्द्रयमवरुणकुबेरेभ्यश्चतुरः पिण्डांस्तल्लिङ्गकर्मन्त्रैश्चतुझं समर्पयेत् । नमोन्तमुच्चार्य ततश्च पञ्चमं पिण्डं ब्रह्मणे समर्पयेत् । ततस्तां सपिण्डभूमि प्रणिपत्य धन्वन्तरसप्तकं भूम्यन्तरं संत्रजेत् । तदनन्तरं काकागमनं निरीक्षेत् । यस्मादिग्विभागादागच्छति वायसः कंचि. त्पिण्डं गृह्णाति साशडूं निःशहू वा निर्भयः सन्निति तदवलोकनीयम् । शब्दायमानो वा मौनी ग्रासमात्रं परिगृह्यान्यं काकं पश्यति किंवा न पश्यति यां यां चेष्टां कुरुते तदनुरूपं फलमादिशेत् । तच्चाऽऽह-यतो दिविभागादागच्छति तस्मिन्दिग्विभागे दुर्भिक्षं सूचयति । यदिग्देशस्थं पिण्डमश्नाति तस्मिन्देशे सुभिक्षं सूचयति । अन्यान्समाहृय तैः सह पिण्डमश्नाति तदाऽत्यन्तं सभिक्षं सूचयति । मौनेनात्ति तदा सुभिक्षे सति पुनर्दस्युभयमादिशति । साशङ्क समश्नाति तदा तस्मिन्नेव देशे सुभिक्षं सूचयति स्थाने स्थाने च दुर्भिक्षमादिशति । अपरेण गृहीतमन्नं बलादाहृत्य भक्षयति तदा राजभयमादिशति । तेष्वेव काकेषु विशेषोऽस्ति । शुभ्रकण्ठः काको ब्राह्मणस्तस्य फलं त्रिभिर्मासैः । मयूरपिच्छवर्णाभकण्ठः क्षत्रियस्तस्य फलं षड्भिर्मासैः । शिखाकारं मस्तकं यस्य स वैश्यस्तत्फलं नवभिर्मासैरादेष्टव्यम् । कृष्णकण्ठः काकः शूद्रस्तस्य फलं वर्षेण भवति । पञ्चानां पिण्डानां मध्ये ब्रह्मस्थानगतं पिण्डं गृह्णाति तदा सर्वदेशे सुभिक्षं जायते । यस्य वर्णस्य काको मध्यपिण्डं गृह्णाति तस्यैव वर्णस्य क्षेमं विदधाति । पिण्डं गृहीत्वा यां दिशं गच्छति स्वमाससंख्यया महर्घ विदधाति । तद्दोपशमनाय तत्काल एवं विधानं कार्यम् । पायसं शर्करापूपकारिकाः क्षीरपष्टिकाः। एवमादीनि चान्नानि निक्षिपेत्काकभुक्तये॥५॥ आदिशब्देन
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ज्योतिर्निवन्धः। घृतमांसम् । उद्दिष्टं च पिण्डमात्रं न गृह्णाति तदा सर्वदेशे जनमारं दिशति । तदा सर्वैरन्नैर्नरमूर्तिं कृत्वा काकेभ्यो भूतेभ्यः श्वभ्यश्च दद्यात् । श्वचाण्डालपतितभूतवायसग्रहराक्षसभैरववेतालपिशाचेभ्यो बलिं विदधे, इति तत्र मन्त्रः। एवं कृते विधाने च विघ्ना नश्यन्ति तत्क्षणात् । नन्दते जगतीलोको नात्र कार्या विचारणा ॥६॥
अथावटधान्यनिक्षेपविधानम् । फाल्गुनस्यामावास्यायां दिनात्यये ग्रामात्पूर्वोत्तरे समस्थले भूमिशुद्धिं विधाय: वर्तमानधान्यसंख्ययाऽवटान्कृत्वा तेष्ववटेषु गोमयेन संमार्जनं कृत्वा गन्धपुष्पादिकानुपचारान्विदध्यात् । एकस्मिन्नेकस्मिन्नवटे शतं कणानिक्षिपेत् । द्वादशद्वादशैकैकस्य धान्यस्य कर्तव्याः । एकद्वित्रिचतुरङ्गुलं वाऽवटान्तरं कार्यमेवं धान्यमिता अवटपङ्क्तयो भवन्ति । ततः कोणेषु निक्षिप्तेषु मासादिदेवताः पोडशोपचारैरुपचार्याः । ततश्चार्किपत्रैरवटमुखान्याच्छाद्य प्रदक्षिणं कृत्वा गृहान्गच्छेत् । पश्चात्मातःकाल उत्थाय कृतस्नानादिकः समागत्य पुनस्तेषामवटानामर्चनं कृत्वाऽर्कपत्राणि निःसारयेत् । ततोऽवटगर्भानवलोकयेत् । तत्र धान्यकणानां न्यूनाधिक्यं यस्मिन्यस्मिन्मासावटे दृश्यते तस्मिन्तस्मिन्मासि तस्य तस्य धान्यस्य न्यूनाधिकता ज्ञातव्या । यस्मिन्मासि यस्य धान्यस्य न्यूनता भवति तस्य मासस्याधिदेवताप्रीतये ब्राह्मणतर्पणं कुर्यात् । एकस्य कस्यचिद्राह्मणस्य द्वारदेशे शक्त्या धान्यराशिं दद्यात् । तस्याप्यभावे स्वेस्वे द्वारदेशे देहलीसमीप उभयतः सर्वधान्यपूजां कृत्वा मासपर्यन्तं समागतेभ्यो भिक्षुकेभ्यः स्तोकं स्तोकं देयम् । एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते॥
इत्यवटधान्यनिक्षेपविधानम् ।
अथ चैत्रशुद्धप्रतिपदि वायुपरीक्षा । चैत्रे माति ग्रामादहिः पूर्वपश्चिमे वा दक्षिणोत्तरे वा समस्थले देशे संमार्जनं कृत्वा तस्य संमार्जितस्य मण्डलस्य चतुर्दिक्षु चतस्रः पताकाः समुच्छ्रिताः कार्याः । तासां मध्ये स्थण्डिलं कृत्वाऽग्निमुखपुरःसरं गणपतिदुर्गाक्षेत्राधिपतिपूर्वकमष्टलोकपालप्रीतये साज्येन पायसेन हवनं कुर्यान्मन्त्रैस्तल्लिङ्गकैः प्रत्येकमष्टोत्तरशतं तथैव स्विष्टकृतम् । ततो हवने कृते वायुप्रार्थनं कुर्यात् । तत्र प्रार्थनामन्त्रः--एह्यात्मन्सर्वभूतानां कुरङ्गपतिवाहन । समादिश फलं चास्मिन्व
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श्रीशिवराजविनिर्मितो
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त्सरे हि सदागते ।। इत्यावाह्य पवनं प्रणम्य क्षणमात्रं तिष्ठेत् । यावत्सूर्यदर्शनं केपांचिन्मत उदयात्षोडश पलानि प्रतीक्षेत् । ततस्तु यदिग्विभागाद्वायुरेति तदवलोक्यम् । सुभिक्षं जनमारः स्यात्सुराज्यं धनमूढता । बहुतोयं जयं हर्षे संतोषं तनुते क्रमात् ॥ अन्यच्च - पूर्ववायुर्धनोत्कर्षं वह्निवायुर्जनक्षयम् । दक्षिणः पशुनाशं च नैर्ऋतो धान्यहानिकृत् || पश्चिम मेघवृद्धिं च वायव्यस्वीतिमादिशेत् । उत्तरो धनलाभाय रुद्रवायुर्धनप्रदः || अनयोर्द्वयोर्वचनयोर्मध्ये द्वितीयवचनस्यार्थः प्रायेण घटते । सार्धपौरुषमानेन पताकोच्छ्राय इष्यते । तासां कम्पाद्विजानीयात्फलमेतन्महीपतिः || होमधूमशिखायां च प्रेक्षणीयः प्रभञ्जनः । एवं कृत्वा महीनाथो न कुत्रापि च सीदति ॥ इति गगक्तवायुपरीक्षा |
अथ वत्सराधिपपूजा |
चैत्रशुक्लप्रतिपद्दनवारो नृपो हि सः । तस्य पूजा विधातव्या पताकातोरणादिभिः || १ || प्रतिगृह ध्वजाकर्म (जोच्छ्रायः) शक्त्या ब्राह्मणतर्पणम् । निरीक्षणं च कर्तव्यं शकुनानां शुभेप्सुभिः ॥ २ ॥ रघुवंशे महाकाव्ये श्रीमद्भागवते तथा । सप्तशत्यां स्तुतौ देव्या उपश्रुतिकृतौ तथा । कर्तव्या शकुनेच्छा च समाफलविशुद्धये ॥ ३ ॥
अथ दमनकार्पणम् ।
भविष्योत्तरे–चैत्रे मार्क्सि सिते पक्षे चतुर्थी नवमी तथा । दशमी द्वादशी चैव तथैव च त्रयोदशी ॥ १ ॥ चतुर्दशी पञ्चदशी श्रेष्ठा दमनकार्पणे । चतुर्थी गणनाथस्य दुर्गाया नवमी तथा ॥ २ ॥ विष्णोस्तु नवमी पुण्या तथैव द्वादशी शुभा । त्रयोदशीश्वरस्यैव श्रेष्ठाऽरण्यनिवासिनः || ३ || भैरवस्यैकवीराया ज्ञेया भूता फलप्रदा । पूर्णिमा सर्वदेवानां पुण्या दमनकार्पणे || ४ || कारुहस्तागतः श्रेष्ठः प्रोक्तो दमनको बुधैः । आनीय मन्दिरं स्नात्वा कृत्वा गन्धादिपूजनम् अर्पयेत्सर्वदेवेभ्यो यथाकालं यथातिथि ॥ ५ ॥ धान्यमावाहनं पूजां तथैव च विसर्जनम् । कृत्वाऽर्पयेद्दमनकं देवेभ्यः सुसमाहितः ॥ ६ ॥ * ( द्वादश्यां चैत्रमासस्य शुक्लायां दमनोत्सवः । बौधायनादिभिः प्रोक्तः कर्तव्यः प्रतिवत्सरम् ॥ ७ ॥ पारणाहे न लभ्येत द्वादशी घटिकाऽपि चेत् । तदा त्रयोदशी ग्राह्या
* धनुश्विहितग्रन्थो वपुस्तकस्थः ।
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ज्योतिर्निबन्धः ।
३७३
पवित्रदमनार्पणे ॥ ८ ॥ हरौ न दमनारोपः स्यान्मधौ विघ्नतो यदि । वैशास्त्रे श्रावणे वाऽपि तत्तिथौ स्यात्तदर्पणम् ॥ ९ ॥ )
इति दमनकार्पणम् ।
अथ पुनर्दहनम् ।
चतुर्दशी तिथिर्नन्दा भद्रा शुक्रारवासरौ । सितेज्ययोरस्तमयं द्वङ्घ्रिभं विषमाङ्घ्रिभम् ॥१॥ शुक्लपक्षं च संत्यज्य पुनर्दहनमुत्तमम् । वसूत्तरार्धतः पञ्चनक्षत्रेषु त्रिजन्मसु ॥ २ ॥ पौष्णब्रह्मर्क्षयोः पौनर्दहनात्कुलनाशनम् । दिनोतरार्धे तत्कर्तुश्चन्द्रताराबलान्विते || ३ || पापग्रहे बलयुते शुक्रे लग्नांशवर्जिते । पुनर्दाहो मया प्रोक्तः श्राद्धकालमथो ब्रुवे || ४ ||
अथ सपिण्डादिश्राद्धप्रकरणम् ।
सपिण्डीकरणं कार्यं वत्सरे वाऽर्धवत्सरे । त्रिमासे वा त्रिपक्षे वा मासि वा द्वादशे वा || १ || ष्वेव कालेष्वेतानि एकोद्दिष्टानि षोडश । कृत्तिकासु च नन्दायां भृगोर्वारे त्रिजन्मसु ॥ २ ॥ पिण्डदानं न कर्तव्यं कुलक्षयकरं यतः । त्रिजन्मसु त्रिपाद्धेषु नन्दायां भृगुवासरे || ३ || धातृपौष्णभयोः श्राद्धं न कर्तव्यं कुलक्षयात् । सकृन्महालये काम्ये न्यूनश्राद्धेऽखिलेषु च ॥ ४ ॥ अतीतविषये चैत्रमेतत्सर्वं विचिन्तयेत् । नभस्ये मासि संप्राप्ते कृष्णपक्षे समागते ॥ ५ ॥ तत्र श्राद्धं प्रकुर्वीत सकृद्वा चेदशक्तिमान् । विशिष्टदिवसे कर्तुश्चन्द्रताराबलान्विते ॥ ६ ॥ नन्दाः स्युस्तिथयो निन्द्या भूतानां शस्त्रघातिनाम् । द्वितीया मध्यमा ज्ञेया तृतीया भरणीयुता ॥ ७ ॥ पूज्या यदि चतुर्थी वा श्रीप्रदा पितृकर्मणि । आनन्दयोगः पञ्चम्यां याम्यर्क्षस्थे निशाकरे ॥ ८ ॥ भोजयेद्यः पितॄंस्तत्र पुत्रपौत्रधनं भवेत् । यशस्करी सप्तमी स्यादमी भोगदायिनी ॥ ९ ॥ श्राद्धकर्तुश्च नवमी सर्वकामफलप्रदा । सूर्ये कन्यागते चन्द्रे रौद्रनक्षत्रगे यदा । सप्तम्यां वा तथाऽष्टम्यां नवम्यां वा तिथौ
ते ॥ १० ॥ योगोऽयं पितृकल्याणः पितॄन्योऽस्मिन्समर्चयेत् । इह संपदमनाति पश्चात्स्वर्गमवाप्नुयात् ॥ ११ ॥ दशम्यां पुष्यनक्षत्रे संयोगोऽमृतसंज्ञकः । अर्चयेद्यः पितॄंस्तत्र नित्यतृप्तास्तु तस्य ते ॥ १२ ॥ सर्वसंपत्प्रदा कर्तुर्द्वादशी तिथिरुत्तमा । त्रयोदशीचतुर्दश्योहनिर्धनकलत्रयोः ॥ १३ ॥ अनन्तपुण्यफलदा गजच्छाया त्रयोदशी । श्राद्धकर्मण्यमावास्या पक्षाफलप्रदा ॥ १४ ॥
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३७४
श्रीशिवराजविनिर्मितो-ज्योतिर्निबन्धः।
* ( अमावास्याव्यतीपातपौर्णमास्यष्टकासु च । विद्वाञ्छ्राद्धमकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते ॥१५॥ विभक्ता वाऽविभक्ता वा कुर्युः श्राद्धं पृथक्सुताः । मघासु च ततोऽन्यत्र नाधिकारः पृथग्विना ॥१६॥ संग्रहे-जातमात्रोऽपि दौहित्रो विद्यमानेऽपि मातुले। कुर्यान्मातामहश्राद्ध प्रतिपद्याश्विने सिते ॥१७॥) दस्रद्वये पुष्यचतुष्टये च हस्तत्रये मैत्रचतुष्टये च । सौम्यद्वये च श्रवणत्रये च श्राद्धप्रदाता धनपुत्रवान्स्यात् ।। १८॥
इति सपिण्डयादिश्राद्धप्रकरणम् । इति शूरमहाठश्रीशिवराजविनिर्मिते । ज्योतिर्निबन्धसर्वस्वे तिथ्यादीनां विनिर्णयः ॥१॥ ज्योतिर्निबन्धे न्यूनं यद्वयस्तं च कथितं पुनः । पूरितं तद्यथास्थाने व्यस्तं त्यक्तं च विष्णुना ॥२॥ जातकं स्वरशास्त्रं च प्रश्नाख्यानं यथा तथा । लिखितं ग्रन्थविस्ता(स्त)रभयेनाज्ञानतो न हि ॥ ३॥ इति ज्योतिर्निबन्धः संपूर्णः ।
श्रीशिवार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।
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* धनुश्निहितग्रन्यो व. पुस्तके ।
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