Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Kunvarji Anandji Shah
Publisher: Kunvarji Anandji Shah Bhavnagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायी महेन्द्र श्री माला ॥ ॐ अहं ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्र. द्वितीय विनाग. ___ अध्ययन २१ (१६ थी ३६) (मूलगाथा-मन्वयार्थ तथा कथा सहित गुजराती भाषांतर) भाषान्तर कर्ता-शास्त्री जेठालाल हरिभाइ-भावनगर. गुरुणीजी श्री शिवश्रीजी तथा गुरुणीजी श्री हेतश्रीजी तथा गरुणीजी श्री लाभश्रीजीना उपदेशथी विविध स्थान निवासी __ श्राविकावर्ग विगेरेनी आर्थिक सहायथी प्रयत्नपूर्वक छपावी प्रसिद्ध करनार शाह. कुंवरजी आणंदजी. श्री जैन धर्म प्रसारक सभाना प्रमुख-भावनगर. बीर संवत् २४५२ विक्रम संवत् १९८१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। ॐ अह ॥ प्रस्तावना. जबूद्वीपना मा भरतक्षेत्रमा आ अवसार्पणाने विष तथाभकारना जगतना स्वभावने अनुसरी ऋषभादिक चोबीश नीर्थकगे धया छे. तेमा छेल्ला चोवीशमा तीर्थकर श्री वर्धमान ( महावीर ) स्वामी थया छे. तेमना तीर्थमां गौतमादिक अग्यार गणधरो धया है. तेमने तीर्थकर नामगोत्र कर्मने अनुसरी श्रीवर्धमान स्वामीए 4 उप्पन्ने वा धुवे वा विममेवा"श्रा अगा पद प्राप्या. ते उपरथी ते दरेक गणधरे द्वादशांगीनी रचना करी. तेनां नाम श्रा प्रमाणे छे---आचागंग १, सूत्रकृतांग २, स्थानांग ३, समवायांग ४, विवाहप्रज्ञप्ति एटले भगवती ५, ज्ञाताधर्मकथा ६, उपासकदशा ७, मंतकृत दशा ८, अनुसरोपपातिकदशा ६, प्रभव्याकरण १०, विपाकश्रुत ११ भने दृष्टिवाद १२. (श्रा छेल्ला दृष्टिवादमा चौद पूर्वनो समावेश धाय छे. ) या सिवाय बाकीनं गवाय श्रुत कहेवाय छे. तेमां पया कालिक श्रुत भने उत्कालिक श्रुत एम बं विभाग छे. तेमां जे श्रुत असज्झाय न होय तो दिवस अने रात्रिनी पहेली अने छेल्ली ए वे पोरसीमा ज भगाय छे. ते श्रुत काटे एटले काळवेळाए ज भणातुं होकाथी कालिक कहेवाय छे. तथा जे श्रुत काळवेळा भने पांच प्रकारना प्रसज्झाय सिवाय सर्व काळे भयााय छ, ते उत्कालिक कहेवाय छे. तेमां दशकालिक १, कल्प्याकल्प्य २, क्षुल्लकल्पश्रुत ३, महाकल्पश्रुत ४, भोपपातिक ५, राजप्रश्नीय ६, जीवाभिगम ७, प्रज्ञापना ८, महाप्रज्ञापना ह, नंदी १०, अनुयोगद्वार ११, देवेंद्रस्तव १२, तंदुलवैचारिक १३, चंद्रावेध्यक १४, प्रमादाप्रमान १५, पौरुषीमंडळ १६, मंडलमवेश १७, गणिविद्या १८, विद्याचरण विनिश्चय १६, Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ध्यानविभक्ति २०, मरणविभक्ति २१, आत्मविशुद्धि २२, संलेखनाश्रुत २३, वीतरागश्रुत २४, विहारकल्प २५, चरणविधि | २६, भातुरप्रत्याख्यान २७, भने सातत्यारूपात २८. का गीत सध्यो (सूत्रो) उत्कालिक कहेवाय छे. तथा उत्तराध्ययन १, दशाश्रुतस्कंध २, बृहत्कल्प ३, व्यवहार ४, ऋषिभाषित ५, निशीथ ६, महानिशीथ ७, जंबद्वीपप्रज्ञप्ति ८, सूरप्रज्ञप्ति २, चंद्रप्राप्ति १०, द्वीपसागर प्राप्ति ११, क्षुद्रका विमानप्रविभक्ति १२, महती विमानप्रविभरिक १३, अंगचूलिका १४, वर्गचूलिका १५, विवाहचूलिका १६, अरुणोपपात १७, वरुणोपपात १८, गरुडोपपात १६, धरणोपपात २०, वैश्रमणोपपात २१, वेलंधरोपपात २२, देवेंद्रोपपात २३, उत्थानश्रुत २४, समुत्थानश्रुत २५, नागपरिज्ञावनिका २६, * निरयावलिका कल्पिका २७, कल्पावतंसिका २८ पुष्पिका २९, पुष्पचूलिका ३०, वृष्णिदशा ३२, आशीविप भावना ३२, दृष्टिविष भावना ३३, चारण भावना ३४, महास्वप्न भावना ३५, श्रने तैजस निसर्ग ३६. श्रा विगेरे कालिकात कहेवाय छे. तेमां आ उत्तराध्ययन सूत्र कातिकमा प्रथम ज गययाव्युवे. श्रा सूत्रमा छत्रीश श्रध्ययनो छे. ते अर्थथी श्री वर्द्धमान स्वामीए पोताना अवसान समये सोळ पहोरनी देशना पापी ते वखते प्ररूप्या छे. ते देशनामां प्रभुए पंचावन अध्ययन पुण्यफळ विपाकमां अने पंचावन अध्ययन पापफळ विपाकनां कयां छे. त्यारपडी पूलथा विना उत्तराध्ययनना छत्रीश अध्ययन प्रकाश्यां छे तेथी ते पृष्ठ व्याकरण कहेवाय छे. छेवट मरदेवा मातार्नु प्रधान नामर्नु अध्ययन प्ररूपतां अंतर्मुहन्तनुं शैलेशीकरण करी प्रभु मोक्षपद पाम्या छे. भा उपरथी स्पष्ट जागी शकाय हे के भगवानना मुहाथीभंत समये या सूत्रनो अर्थ प्ररूपेलो होवाथी तेमां अनेक धर्म विषयोनां तत्व * मा पीना पांच नाम निरयावलिकाना ज विभागरूप के. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होवा जोहए. अने तेज प्रमाणे के एसआ सूत्र साधत बांचतां निश्चय थाय छे. दरेक अध्ययनो सूत्ररूपे रखनार श्रीसुधर्मास्वामीए उत्तरोत्तर सहेतुक करां छे, ते पण टीकाकारे स्पष्ट रीते वताब्यु छे. जो के श्रासुत्र उपर वादीवेताळ श्रीशांतिसूगिए मोटी टीका करेली द्वे, भने त्यारपछी घणा प्राचार्योप भिन्न भिन्न टीकामो करेली के, तो पण भा भाषांतर करवी वखते श्रीलक्ष्मीवल्लभ गणिकृत लक्ष्मीवल्लभी टीका अने महोपाध्याय श्रीभात्रविजयजी कृत टीकानो प्राधारलीधो छे. बन्ने टीकाकारोए मूळ सूत्रनो अर्थ विस्तारथी समजाव्यो छे; तेमज कथाभाग पण लक्ष्मीबल्लभी टीका करतां भावविजयजीनी टीकामां वधारे विस्तारथी प्राप्यो है. आ सूत्रना भाषांतरमा सामान्य बोधवाळाने अति विस्तार बांचता कंटाळा न आवे तेमज अति संशित वाचतां अपेक्षा न रहे तेटमा माटे तेमनी बनेनी रुचिने अनुसरी बन्ने दीकामांथी जोइनो विभाग लीधो छे. परंतु मूळ सूत्रनो अर्थ तो संपूर्ण दंडान्वयनी रीते सूचना पद मूकीने ज श्याप्यो छे. वधारे सरळसाने माटे मूळ सूत्रनी गाथाओ उपर दंडान्वय प्रमाणे भांकडा लख्या हे, तेथी सामान्य बोधवाळा साधु साध्वी विगेरेने जीवविचारादिक प्रकार यानी जेम साळताथी श्रा सूचना अर्थनुं ज्ञान थइ शके तेम छ, अने तेथी लेभोने ज ा ग्रंथ विशेष उपयोगी छे. संस्कृतना अभ्यासीओने माटे तो श्रीलक्ष्मीवल्लभी * विगेरे टीकाोज योग्य छे. श्रा ग्रंथ श्रावी रीतनो पावना माटे प्रथम गुरुणीजी श्रीशिवश्रीजीए साध्वीजी श्रीलाभश्रीजीने भळामण की हती, भने तेभोश्रीना तथा तेमनी मुख्य शिष्या साध्वीजी श्रीतिलकधीजीना उपदेशथी सो रुपीयानी सहाय प्रथमधीज मळी हती, तेमज गुरुग्णीजी श्रीहतश्रीजी तथा तेमनी मुख्य शिष्या साध्वीजी श्रीउत्तमश्रीजीमा उपदेशथी धारसो रुपीयानी सहाय मळी हती. ते उपरथी साध्वीजी जाभश्रीजीए भा सभाना शास्त्री जेठालाल हरिभाई पासे पोतानी देखरेख नीचे या ग्रंथ काम शरु कराव्यु. अने बीजी बंधारे सहाय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेळववा प्रयत्न कर्यो. जेना परिणामे धारेली सहाय मळी छे. ते सहायकोनां नाम ग्रंथनी पाडळ बताक्वामां श्राव्यां छे. आ ग्रंथना कुत्रीशे अध्ययनोमां नीचे प्रमाणे विषयो प्रापेक्षा के: अध्ययन १ पान १-धर्मर्नु मूळ विनय होवाथी प्रथम विनय नामर्नु अध्ययन प्राप्यु छे. नेमां विनीत भने अविनीतर्नु स्वरूप, विनीतना गुण अने अविनीतना दोष, अश्वना दृष्टांत सहित तथा कथा सहित बतावबामां आवेल छे. तथा विनयना प्रसंगमा साधुनी भिक्षाटनादिक क्रिया, गुरुनो विनय साचबवानी रीत ए विगेरे आपवामा अाब्युं छे. अन्यकरपा, २९..-विजयवंत सादुए परीषहो पण सहन करवा जोइए, तेथी बीजा अध्ययनमां बाबीशे परीषहोर्नु स्वरूप सविस्तर अाप्यु छे. दरेक परीषह स्पष्ट गते समजी शकाय तंटला माटे ते उपर एक एक कथा प्रापी . उपगंत प्रसंगने स्लीघे क्रोध उपर तथा ज्ञान उपर एम थे कथायी अधिक श्रापी छे. अध्ययन ३ पाk ६८-परीपह सहन करवानुं कारण ए छे जे श्रा चतुर्गतिरूप संसारमा टन करता प्राणीयोने मनुष्यभव, धर्म श्रवणनी इच्छा, धर्मपर श्रद्धा अने संयमने विपे वीर्य, श्रा चार वस्तु अति दुर्लभ छे. तेथी चतुरंगीय नामर्नु त्रीजें अध्ययन प्राप्यु हे. तेमां मनुष्यभवनी दुर्लभता उपर चोल्लक विगेरे दश दृष्टांतो ने श्रद्धाना अंश उपर भाठ निन्हबोनी कथा श्रापी छे. ते चारे भंग | जेने प्राप्त धया होय तेने स्वर्ग ने मोक्षमा सुखनी प्राप्ति बताकी छे. अध्ययन ४ पान १०४-चार अंगनी प्राप्ति थया छतां प्रमादनो त्याग करी अप्रमाद सेत्रवानी आवश्यकता होवाथी प्रमादाप्रमाद नामनं चोथु अध्ययन का छे. तेमां जीवित कोइ पण प्रकारे सांधी शकातुं नथी आने वृद्धावस्था आवेथी धन, खी, पुत्र विगेरे कोई lin Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण शरणमूत थतुं नथी. तेथी मोहनिद्रानो त्याग करी अपनत्तपणे भाक्थी आनृत रहे. ए विगेरे उपदेश आप्यो छे. अध्ययन ५ पान १२३---मरण पर्यंत अप्रमादी रहेवार्नु छे तेथी या अध्ययनमां मग्णना भेद बनान्या छे. तेमां मूळ सूत्रमा ज्ञानीनोनुं सकाम मरण अने अज्ञानीनु अकाम मरण एवा ने मुख्य विभाग बतान्या के. अने टीकाकार महाराजे सतर प्रकारनां मरण पण संक्षेपथी कह्यां छे. तेमां प्राणीहिंसा मृपावाद विगेरेमा प्रवृत्त थइ, कामभोगमां श्रासक्त थइ, वृद्धावस्थामां व्याधिग्रस्त थान, करेला कर्मनो पश्चात्ताप करतो प्राणी दुर्गतिमा नाय हे, र विगरे बाळ मरमानो व्याख्यामा जणायु छ. तथा गृहस्थाश्रममा रहीने पण जो सदाचार पूर्वक सदरात पाळे छे तेश्रो स्वर्गादिक गतिने पामै के, ए विगेरे बाळपंडित मरणनी व्याख्यामां बतायुके, पाने जेनो गृह, | धन, स्त्री विगेरेनो सर्वथा त्याग करी केवळ आत्मकार्य साधवामां ज तत्पर रहे थे तेश्रो मोक्षादिक गतिने पामे छे, ए विगैरे पंडित मारणनी व्याख्यामा देखाड्युं छे. इत्यादि उत्तम उपदेश मा अध्ययनर्मा नाप्यो छे. अध्ययन ६ पाहुँ १३४-पंडितमरगा, विद्या अने चारित्रवाळा साधुमोनु ज थतुं होबाधी भा अध्ययनमा निर्मथ स्वरूप यताव्युं छे. तेमा विद्याहीन पुरुष घणुं दुःख पामे छे, तेथी स्त्री, पुत्र, धनादिक उपरना मोहरूप अविद्यानो त्याग करवो, माता, पिता, स्त्री, पुत्र विगेरे कोइ पण दुःखयी मुकाववा समर्थ नथी, तेथी ते सर्वना स्नेहपाशनो त्याग करवो, हिंसादिक पांच श्राश्रवनो त्याग करवो, विविध भाषानुं के शास्त्रनुं ज्ञान छतां तेने क्रियामां न मकाय तो ते पण अविद्याज छ, शरीर अने कामभोगने विषे जे मासक्ति ते पण अविधाले, ते सर्व जाणी तेनो त्याग कग अपनत्तपणे संयमर्नु पालन करी विचर के बेथी सर्व दुःखथी मुक्त थवाय इत्यादि बताव्यु छे. -- Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अध्ययन ७ पार्नु १४०--रसगृद्धिको त्याग कर्यां विना निर्मथपणुं प्राप्त थतुं नथी, तेथी रसगृद्धिनो त्याग करवानुं स्वरूप सहेलाइथी समजाववा माटे सूत्रकार महाराजे उरभ्र (घेटो), कागदी, भाम्रफळ भने वेपार ए चार दृष्टांत आपी रसगृद्धिथी थता दोष भने तेना त्याग करवाया था गुजराबर बतायाधे, तेथी मा अध्ययननुं नाम औरभ्रीय राख्यु धे. तेमां कामभोगादिकनी गृद्धिवाळाने बाळक अने तेनो त्याग करनारने पंडित कही पंडित थवानो उपदेश प्राप्यो छे. | अध्ययन - पार्नु १५१–रसगृद्धिनो त्याग निर्लोभीधी थइ शके छे, तेथी निर्लोभतार्नु स्वरूप बसाववा माटे सूत्रकार सुधर्मास्वामी मूळसूत्रमा ज कपिल मुनिना चरित्र द्वारा उपदेश भापे छे. तेमां कपिलमुनिए पोते पांच सो चोरोने प्रसिबोध करवा माटे ध्रुवागीति छंद बोली सादी भाषामां ज धर्मर्नु रहस्य समजावी तेमने प्रतिबोधी दीशा पापी छे. ए विगैरे हकीकत रसवाळी पापी छे. अध्ययन है पातुं १६०-झोभ रहित प्राणी इंद्रादिकथी पण पूजाय छे एबुं जगाववा माटे नमिराजर्षितुं चरित्र भापतां बीजा त्रण प्रत्येकबुद्धोनी कथा पण टीकाकार महाराजे कही छ भने त्यारपछी मूळ सूत्रमा संबंध मेळववा माटे नमि राजर्षिनु चरित्र प्राप्यु छ. दीदा लीधा पछीजें तेमनु चरित्र सुत्रमा जमावे छे. तेमां इंद्रे ग्राहाणना वेषे भावी तेमनी राग द्वेषनो त्याग, धर्मनी स्थिरता भने संयमपरनी दृढता विगैरे संबंधी परिक्षा करी, छेवट तेमने संयममां दृढ जाणी प्रत्यक्ष बद तेमनी स्तुति की इंद्र स्वर्गे गया छे विगेरे हकीकत पापी छे. ___ अध्ययन १० पार्नु १९८-नमि राजर्षिना चरित्रथी संयममां निश्चळता राखवायूँ कह्यु, से निश्चळता उपदेशथी ज प्राप्त थाइ || शके छे. तेथी श्री महावीरस्वामीए श्री गौतम गणधरने उद्देशी भा द्रमपन्न नाममुं अध्ययन कां छे. तेमां वृजनां नवां पत्रो जूनां पत्रोनी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीर्णता ओइ तेमनी हांसी करे छे, सेमने जन पत्रो शिलामय भाप ले के-"अमे पण तमारी जेवा एक वखत हता, अने समे पण | काळे करीने अमारी जेबा जीर्ण यशो,” विगेरे रूपक कयु छे. पट्टी आयुष्य अने यौवननु अनित्यपणु, मनुष्यभवनी दुर्लभता, ते प्रसंगे | पृथ्वीकायादिकथी प्रारंभी पंचेंद्रिय तिर्यंच भने देव तथा नारकोनी कायस्थितिनो मोटो काळ, मनुष्यभव मळ्या इता भार्यक्षेत्र, अविका इंद्रियपणुं, धर्मश्रवण, श्रद्धा विगैरेनी दुर्लभता बताबी छे. त्यारपछी वृद्धावस्थामां इंद्रियोनी शिथिलता थइ केवी स्थिति थाय के ते सर्व बसाव्यु छे. छेवटे संसारको त्याग करी संयम अंगीकार करनारने समय मात्र पण प्रमाद नहीं करवा अने संयममां द्रढ रहेवा उपदेश माप्यो छे, तथा गौतम गणधस्नु मोजगमन क{ छे. अध्ययन ११ पान २१३-उपदेश पण विवेकीने ज भापी शकायचे, प्रने विवेक बहुश्रुतनी सेवाथी प्राप्त थाय छे. तेथी या अध्ययनमा बहुश्रुतनी सेवा करवानें कहे. तेमा प्रथम प्रबहुश्रुत भने बहुतनं लक्षगग कही पछी ते बन्नेनी प्राप्ति शाधी थाय छे ? तेनां कारगो बताव्यां हे, तेमां बहुश्रुतपणाचें मूळ कारण विनय भने अबहुश्रुतपणाचें मूळ कारण प्रविनय होवाथी विनय भने अविनय शाथी प्राप्त थाय छे ? तेनां कारयो षताब्या छे. तेमां भविनीतना क्रोधादिक चौद स्थानो भने बिनीतनां नम्रतादिक पंदर स्थानो बताव्यां छे. त्यारपछी बहुश्रुतनो आचार कही तेने सुशिक्षित प्रश्वादिकनी उपमा पापी प्रशंसा करी छे. तेमां छेक्टे वासुदेव, चक्रवती, इंद्र, मेरु, स्वयंभूरमण समुद्र विगेरेनी उपमा प्रापी के. ते जाणवा योग्य छे. अध्ययन १२ पार्नु २२२-बहुश्रुते पण सप करवामां यत्न कावानो छ, तेथी तपसमृद्धि नामना मा अध्ययनमा हरिकेशबळ मुनिनी कथा कही तपर्नु माहात्म्य बताव्यु ले. तेमां से मुनि पारणाने दिवसे भिक्षा माटे अटन करता एक ब्राह्मणना यज्ञमा गया हता. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यां ब्राह्मणोए मुनिनी हांसी करी भिसानो निषेध कर्यो. ते वस्वते तिदुक नामना ते मुनिना भक्त यच्चे मुनिना शरीरमा प्रवेश करी घणी रीते समजाववा पूर्वक भिक्षानी याचना की, तोपण ब्राह्मणोए भिक्षा पापी नहीं. परंतु उलटा ते पुरोहितना विद्यार्थीमोए मुनिनी कदर्थना करी तेथी यो तेमने शिक्षा करी, ते जोइ भय पामेलो पुरोहित पोतानी भार्या भद्रा के जे राजपुत्री हती अने ते मुनिना प्रभावने सारी गते जागती हती तेना कहेवाथी मुनिने शरणे गयो. मुनिए तेने भावयनन स्वरूप बतावी उपदेश पापी धर्म पमाडयो. विगेरे हकीकत घगा विस्तारथी पापी धर्म, रहस्य बताव्युले. अध्ययन १३ पान २४२-तप पण नियागा रहित करवानो के, तेथी नियाणानो दोष बताक्वा माटे चित्र भने संभूत मुनिनी l कथा आपी छे. तेमा भनमानि नपर्ने निया की नहादन नागना चक्रवर्ती थया भने चित्रमुनिए निया फयु नहीं तेथी तेगो महेभ्य पुत्र थइ जातिस्मरण ज्ञान पामी चारित्र प्रदा कयु. पली चक्रवर्तीने पगा संगीत पूर्वक नाटक जोतां जातिस्माण थयु, तेथी पोताना पूर्व जन्मना माइनी शोध करवा दोढ लोकवाळी समस्या पूर्ण करवा हमेशा आघोषणा कराववा भाग्या. छेवट ते मुनि मळ्या. तेमने चक्रवतीए भोग भोगवबा घणी विनंति करी, परंतु ते मुनिए भोग तो अंगीकार न कर्या, पण चक्रीने धर्मविषे घणो उपदेश प्राप्यो, समद्धिनी तुच्छता, संसारनी अनित्यता, कर्मना उदयनी उपसा विगेरे बतावी घणी रीते समजाव्या, तोपगा चक्रवर्ती पूर्वभवना नियागावाला होवाने लीधे प्रतिबोध पाम्या नहीं. छेवट ते मरीने नाके गया भने मुनि मोशे गया. अामा बन्नेनो संवाद घणो बोधदायक छे. अध्ययन १४ पान २७५ मा अध्ययनमां पण नियाणा रहितनो गुण बतावबा माटे नलिनीगुल्म नामना विमानमाथी च्यत्रीने छ जीवो जूदे जदे ठेकाणे उत्पन्न थया छे. इधुकार राजा १, तेनी राणी कमलावती २, तेनो पुरोहित भग ३, तेनी पत्नी यशा १, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा वे पुगेदितना पुत्रो ५-६. प्रामां प्रथम चे पुत्रोने प्रतिबोध थयो, पढ़ी तेमना मातपिताने थयो भने त्यारपछी राजाराणीने प्रतेबोध थयो. ते वखते पुरोहित तथा तेनी स्त्रीए पुत्रोने घणी गते संसारना झोभमा नांखवा प्रयत्न कर्यो, तो पण तेस्रोए बिलकुल कामभोगनी all इच्छा करी नहीं. ते विषेनो तेमनो संवाद घणो बोधदायक के. छेक्ट ते चारे जगाए दीक्षा लीधी, ते वखते समतुं धन मालिक्रीविनान थवाथी तेने लेवा माटे राजा तैयार थयो, त्यारे राणीए गजाने पुरोहिते वमेला धनने महमा करवानो निषेध करी धर्मनो एपदेश प्रापी प्रतिबोध पमाञ्यो छे. या विषय पण घयो उत्तम बोध श्रापनार छे. वेत्रट राजा भने गणीए पण दीक्षा लीधी. नंते ते छए जीवो मुक्तिने पाम्या. अध्ययन १५ पार्नु २६३.--नियागा रहितपणुं प्राये करीने साधुने ज संभवे हो, तेथी या सभिक्षु नामना अध्ययनमा भिन्तुना गुणो कह्या छ. तेमां रागद्वेष रहित थर, आक्रोश वधादिकने सहन करी, कोइ पण वस्तुपर मूली न रास्त्री, अंत प्रांत भोजन, शय्या, श्रासन विगेरेने सेवी, शीतोष्णादिक परिसहो सहन करी, निरविचार व्रतोर्नु पालन करी, प्रशंसादिकमां आसक्ति रहित थइ, कपायादिको त्याग करी, पंचेंद्रियोना विषयथी निवस थइ, विदामंत्रादिकवडे भाजीविकाने नहीं करी, पूर्वना भने पन्द्रीना परिचयनो त्याग करी, || मिक्षादिक मळवाथी अथवा न मळवाथी हर्ष शोकनो त्याग करी, जे काइ मळे तेनाथी ज संतोष मानी. तथा ज्ञान दर्शन भने चारित्रमांक लीन थइ जे विचरे ते ज साधु कद्देवाय छे. ए विगेरे साधुना प्राचारो बताच्या छे. विभाग बीजो. अध्ययन १६ पार्नु १-साधुना गुग्यो ब्रह्मचर्यथी ज स्थिर रही शके छ, तेथी आ ब्रह्मचर्यगुप्ति नामर्नु अध्ययन कयं दे. तेमां Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्यनां स्थानो सांभळीने साधुना संयमनी उत्तरोत्तर वृद्धि थाय के, आश्रवनो निरोध भने संवरनी प्राप्ति थायले, मन समाधिमां रहे के, मन वचन अने कायानी गुप्ति सचवाय छ, जितेंद्रियपगुं प्राप्त थाय छ, तथा सदा अप्रमत्सपणं प्राप्त थाय ते. ते घतावीने ब्रह्मचर्यनां | दश स्थानो कयां छे. स्त्री पशु भने नपुंसक रहित उपाश्रयमा रहेQ १, एकली स्त्रीनी साथे अथवा स्त्री संबंधी कथा करवी नहीं २, स्त्रीनी साये एक श्रासनपर बैसधैं नहीं ३, स्त्रीना अवयवो जोवा नहीं ४, भीतविगैरेनी ग्रोथाणे रही खीना क्रीडादिकना शब्दो सांभळवा नहीं ५, दीपा लीधा पहेला खी साथे करेली क्रीडानुं स्मरण करवू नहीं ६, घी 'विगेरे जेमाथी नीतरतुं होय एवो गरिष्ठ भ्राहार करबो नहीं ७, तुधानी शांति थाय तेथी वधारे आहार करवो नहीं ८, शरीरनी, प्राभूषा करवी नहीं है, तथा शब्दादिक पांचे विषयोमा प्रवृत्ति करवी नहीं १०, आ दश स्थानोने प्रथम संक्षेपथी अने पछी विस्तारथी कही ब्रह्मचर्यमां द्रढ थवानो उपदेश करी छेन्ट तेनो महिमा यताव्यो छे. अध्ययन १७ पार्नु १३–ब्रह्मचर्यनी समाधिनां स्थानो पापस्थानकोने वजवाथी जपाळी शकाय हे, जे पापस्थानोने वर्जतो नथी ते पापश्रमण्य कहेवाय छे, तेथी आ अध्ययन पापश्रमशीय नामनें कडं छे. तेमा ' श्रुतनो अभ्यास करावनार प्राचार्यादिक पण भूतकाळ भने भविष्यकाळ संबंधी काइ पण जाग्रता नथी भने वर्तमानकाळ संबंधी तेश्रो जेटलुं जाणे के तेटलु नहीं भगोला पण जाणे हे, तेधोनी जेम नहीं भगोनाने पण वसति, अन्न, पान, वस्त्र विगेरे मळे छे.' था प्रमाणे जे प्रमादी साधु बोले के भने मनोहर आहार की प्रमादने लीधे निद्रादिकने सेवे छे, प्राचार्यादिकनी वैयावन करतो नथी, एकेंद्रियादिक जीवोनी विराधनामा प्रवर्ने छ, विधिप्रमाणे पडिलेहणादिक क्रिया करतो नथी, वळी चालतां ईयासमिति साचवे नहीं, क्रोधाधिक कपायोनो त्याग करे नहीं, गुरुनो दोष कहेवामा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पर थाय, ज्ञान नहीं छलां जेनी तेनी साथे वादविवाद करवामां प्रवर्ते, कारण विना पण घी दूध विगेरे विकृति वारंवार खाचा करे, व्रत पञ्चख्खाण कर नहीं, परपाखंडीनो साथे प्रसंग वघारे, रागी श्रावकोना घरनी भिक्षा ग्रहण करे, आवा कुशीळीया अने पासस्थादिकनी जेवा आचरणा करनार साधुओ केवळ वेषविहंधक ज छे. तेवाने कदापि साधु कही शकाय नहीं. विगेरे हकीकत विस्तारथी आपी द्वे. अध्ययन १८ पान १८-पापस्थानोनो त्याग पण भोगनो त्याग करवाथी ज थाय छे. तेथी पा अध्ययनमा संवत राजानी कथा | भापीछे. तेमां ते राजा मोटा सैन्यना परिवार सहित शिकार करवा गयो छे. त्यां एक मुनिने ध्यानमा रहेला जोइ तेने पोताना पाप संबंधी भय उत्पन्न थयो. तेथी संग मुनिने बंदना करी. ध्यानमा रहला मुनि काइ पया बोल्या नहीं, त्यारे तो ते वधारे भयभीत थइ बारवार खसावा लाग्यो, छेवट मुनिनु ध्वान पूर्णः धयु, त्यारे मुनेए तेने का के-" हे राजा ! माराथी सने जरा पण्य भय नथी, परंतु आ निरपगधी मृगादिक जीवोने तं अभयदान प्रापनार था." एम कही मुनिए तेने संसारनी अनित्यता, जीवितनी चपळता, धनमुनादिकनी अशरगाता, विष जेबा भोगनी परिणामे विरसता विगैरे संबंधी घयो असरकारक उपदेश प्राप्यो. तेथी वैगग्य पामी राजाए सर्व भोगनो त्याग करी दीक्षा लीधी. अनुक्रमे गीतार्थ थ गलनी प्राज्ञाथी एकाकीपणे विचरखा लाग्या, एकदा ते गर्षिने कोइ क्षत्रिय मुनिनो समागम थयो, ते चखते से क्षत्रिय मुनिए ते राजर्षिना वैराग्यनी परीक्षा की. पछी क्रियावादी, प्रक्रियावादी, विनयवादी अने अज्ञानवादी ए चार एकतिवादीना मिथ्यावाद बतावी तेनापर सारु विवेचन कर्य, पछी दे ज क्षत्रिय मुनिए ते राजर्पिने चारित्रमा स्थिर करवा माटे पोलानो || ज प्राचार बताव्यो छे, तेमां संजय राजर्षिय बच्चे केटालाक प्रश्नो कर्या छ भने क्षत्रिय मुनिए तेना उत्तर प्राप्या छे, तेना प्रसंगोपात भरतचक्रवती विगेरे महापुरुषोनी कथाओ कही संजय राजर्षिने चारित्रमा दृढ कया है. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १६ पार्नु ६४–सांसारिक भोगऋद्धिनो त्याग करती वखते शगैरनी शुश्रूषा पण वर्जवानी छे, ते घाबत मृगापुत्रना | पृष्टांतथी बतावी श्रापेल छे. तेमा ते मृगापुन दोगुंदुक देवनी जेम भोग भोगवतो पोताना महेलमा रह्यो हतो, तेवामा एकदा मार्गमा जता मुनिने जोइ जातिस्मरण थवाथी वैराग्य पामी मातापिता पासे आवी चारित्र लेवानी आज्ञा मागी, ते वखते तेथे नारक तियंचनां दुःखो, कामभोगनी तुच्छता अने परिणामे रिसता, शुश्रुषा कर्या छतां शरीरनी अपवित्रता अनित्यता भने असारता, जन्म जरादिकनां दुःखो विगेरे विषयो दृष्टांत सहित समजाव्या छ. तेना जवाबमां तेना मातापिताप नेनापरना मोहने लीधे दीक्षानो निषेध करवा माटे चारिबन दुष्कापणुं अगावतां पांचे महाव्रतो अने छठा रात्रिभोजन प्रतनी दुष्करता आने वावीश परीषदोनी दुःसहता विगेरे बताबेल छ, तथा चारित्रनुं पालन केबुं दुष्कर के ? ने दृष्टांत सहित सविस्तर समजाव्यु छे. तो पण कामभोगमां लुब्ध नहीं थयेला अने चारिखना कष्टथी भय नहीं पामेला मृगापुत्रे चार गतिवाळा संसारमा अनंतीवार नारकादिक दुःखोनो पोतानो अनुभव कही देखाड्यो छे के जे बांचवाथी बांचनारने पण वैगग्य उत्पन्न थाय तेम हे. पल्ली तेणे दीप्ता स्लीधा बाद भिक्षाचर्यान स्वरूप, चारित्रना प्राचार अने छेक्ट तेमन मोजगमन विगैरे बताव्यु छे. | अध्ययन २. पार्नु ११३--'संसारमा मारो रक्षाक कोइ नथी, हु एकलोज छं' एवा अनाथपपानी भावना विना शरीग्नी शुश्रपानो त्याग थइ शकतो नधी, तेथी मा महानिथीय नामना अध्ययनमा अनाथता सिद्ध की छे. तेमां श्रेणिक गजा एकदा उद्यानमा गया छे, त्यां तेयो युवान वयवाळा, कोमळ शरीवाळा अने मनोहर सौंदर्यवाळा एक मुनिने 'जोइ दीक्षा लेवार्नु कारण पूछ'छे, तेना अवाबमा ते मुनिर कधु के-"मारो कोइ नाथ न होवाधी नाथ मेळववा माद में दीक्षा लीधी छे.” ते सांभळी आश्चर्य पामेला राजाए का। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के-"हुं तमारो नाथ थाई, तमो इच्छा प्रमागो भोग भोगवो." पटले मुनिए कह्य के-“हे राजा ! तमे तमारा ज नाथ नथी, तो बीजाना नाथ शी रीते थशो ? " हाई अर्व बधन सांझी अत्यंत विस्मय मिला राजाए पोतानो सैन्य, कोष, परिवार विगेरे वै. | भव यताबी पोतार्नु नाथपणुं सिद्ध कयु, त्यारे मुनिए पण पोतानी गृहस्थाश्रमनी श्रेष्ट समृद्धिन तथा माता, पिता, पत्नी, मित्र विगेरेनुं वर्णन करी नेत्रनी असह्य वेदना यह ते वखते कोइ पण काम लाग्यु नहीं, कोजए नाथपणुं बताव्यु नहीं, एम कहः अनाथपगुं सिद्ध कर्यु छे. श्रा विषय घगो विस्तारथी असरकारक वर्णन्यो छे. पछी नेत्रनी वेदना दूर थाय तो सर्वस्वनो त्याग करी चारित्र लेवानी दृढ़ | धारणा करतां वेदना दूर थइ अने चारित्र लीधुं त्यारे हवे पोताना आत्मानो तथा सर्व प्राणी मात्रनो हुँ नाथ थयो ©, इत्यादिक कही तथा नाथता भने अनाथतार्नु स्वरूप समजावी राजाने सारो उपदेश को चे. पछी राजा प्रसन्न थइ मुनिने खमावी तेनी स्तुति करी पोताने स्थाने गया अने मुनि पण अन्यत्र विचर्या. अध्ययन २१ पानं १२६---प्रनाथपयानो विचार एकांत चर्या विना थइ शकतो नथी, तेथी आ भध्ययनमा समुद्रपाळना दृष्टांतवडे एकांसचर्या वर्णवी छे. तेमां ते समुद्रपाळ पालित नामना श्रावकनो पुब हतो. तेनो जन्म समुद्रमा थयो इतो, तेथी तेनु नाम समुद्रपाळ पायं तु. ते सकळ कळामां निपुण थह युवावस्था पाम्यो, त्यारे ते रुपिणी नामनी कन्याने परण्यो. तेगीनी साथे दोगुंदक देवनी जेम निरंतर ते भोगविलासमा मग्न रहेतो हतो, एकदा पोताना महेलनी बारीमां बेठेलो ते समुद्रपाळ वध्यस्थाने लइ अदाता एक चोरने जोइ वैराग्य पाम्यो. तेथी तरत तेणे माता पितानी रजा लइ चारित्र ग्रहण कयु. पछी तेणे पोताना श्रात्माने शिक्षा प्रापी के-" हे जीव ! महाक्लेश कारक, भयकारक भने महामोह कारक स्वजनादिकना संगनो त्याग करी चारित्रधर्मपर रुचि करी व्रत तथा शीजन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालन करी परीघहोने सहन कर." श्रागते अहिंसादिक पांच महाव्रतो संबंधी, समय प्रमाणे प्रतिलेखनादिक क्रिया संबंधी, बिहार सर्वधी, मयंकर शब्दादिकयी त्रास नहीं पामवा संबंधी, रागद्वेषना त्याग संबंधी, उपसर्गाने सहन करवा संबंधी, कयायना त्याग संबंधी तथा असंयममा रति अने संयममा प्ररसिनो त्याग करवा संबंधी अनेक प्रकारे उपदेश प्राप्यो छे. छेवट निरतिघार चारिखनुं पालन करी ते | महात्मा समुद्रपाल मुनि मुक्तिपद पाम्याछे. अध्ययन २२ पान १३२ --एकांतचर्या धीरज विना पाळी शकाती नी तेथा स्थनमिना दृष्टांतवडे चारित्रने विषे धृति राखदानो | उपदेश प्राप्यो छे. तेमां प्रथम श्रीनेमिनाथर्नु परिख प्रापता ते भगवाने राजीमतीने परणवा जतां ज मार्गमा पशुपरनी दयाने लीधे परयावानो निषेध करी पाला वळी वर्षीदान प्रापी दीक्षा ग्रहण करी. पछी भगवानने केवळज्ञान थयुं त्यारे राजीमतीए तथा प्रभुना भाइ रथनेमि विगेरे घणा जनोए दीपा लीधी. एकड़ा प्रमुने वांदी पाछा पावतो मार्गमा दृष्टि थवाथी राजीमती एक गुफामा पेठी, भने भीनां थयेला वस्त्र सुकबवा लागी. ते वखते ते ज गुफामा प्रथम भावीने रहेला स्थनेमिए तेणीने जोइ. एटले चारित्रना परिणामयी भ्रष्ट थइ तेणे तेणीनी पासे भोगनी प्रार्थना करी. ते वखते भयभीत थयेली राजीमतीए वस्त्र पहेरी लइ धोरम राखी रथनेमिने उपदेश प्राप्यो के“ तमे रूपमा कुबेर जेवा, नलकूबर जेवा के इंद्र जेवा हो पण हुं तमने कदापि इच्छीश नहीं. अगंधन कुळमां जन्मेला नाग अग्रिमां प्रवेश करवानें कबूल करे के पग वमेलुं विष पार्छ चूसी लेता नथी. हे कामांध ! तमारा थशने शिकार हे के जे तमे वमेलाने खावा इ. इच्छो छो. माटे पावा असंयम जीवित करतां पंडित मरो मरवू सारं छे. स्त्रीश्योने जोइ श्रावी नीच अभिलाषा करवाधी तमारुं चित्त अस्थिर थशे, भने तेथी करीने तमारं चारित्र नष्ट थशे.” इत्यादिक उपदेशथी रथनेमिने प्रतिबोध थयो, तेथी पोताना पापनी अालोचना करी RA Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर चारिखमा दृढ थइ, खप गतिथी गप्प थइने तेमगो इंद्रियोने जीती. वेवट ते बन्ने केवळी थइ मोक्ष पाम्या. अध्ययन २३ पान १५४-संयममा धुति राखतो ब्रता कोइने तेमा शंका उत्पन्न थाय, तो श्रीपार्श्वनाथना संतानीया श्रीकेशीकुमारे श्रीगौतमस्वामीने विनयथी प्रश्न पूही पोताना शिष्योनो संदेह दूर कर्यो हतो, ते प्रमाणे अन्य मुमुक्षुए पण शंका समाधान करी संयम मार्गमा प्रवर्तवं, ते संबंधी प्रा अध्ययनमा घणी समजया फेवी बोधदायक हकिकत भापी छे. तेमां प्रथम श्रीपार्श्वनाथनुं चरित्र प्रापी तेमना कमागत शिष्य श्रुत तथा भवधिज्ञानवाळा श्रीकेशीकुमार पेताना परिवार सहित एकदा श्रावस्ती नगरीना उद्यानमा समवसर्या हे, ते जवखते त्यां बीजा उद्यानमां श्रीगौसमस्वामी पण समवसर्या. ते बनेना शिष्यो गोचरीए गया ते वखते परस्पाना वेपमा तथा महायतमां सफावत जोइ मनमा शंका पाम्या के-"श्रमे तथा श्रा मुनियो एक ज मोवामार्गमा प्रवां बीए, अमारो ने तेमनो धर्म एक ज छे, छतां महाबतमां अने वेषमा श्रावो सफावत होवान शुं कारण हशे?" आ प्रमाणे श्रयेली शंका तेमणे पोतपोताना गुरु पासे अइने पूछी. तेथी तेमने बोध करवा माटे ते बन्ने गगाधरो एक ठेकाणे पोतपोताना परिवार सहित एकठा थया. ते वखते त्या बीजा अन्य तीर्थना साधुनो अने घणा गृहस्थीमो पण पाव्या, तथा यस किन्नर अने राक्षसो विगेरे पण घणा आल्या, तेथी ते एक मोटी सभा थइ गह. प्रथम श्रीकेशीकुमारे श्रीगौतमस्वामीने प्रश्न कयों के.---" श्रीपार्श्वनाथ स्वामीए चार महाप्रतवाळो साधुधर्म कयो के. अने श्री वर्धमानस्वामीए पांचमहावतवालो साधुधर्म कयो .तेमज श्रीपार्श्वनाथ स्वामीए सचेल एटले वखवाळो भने श्रीवर्धमान स्वामीए अचेल एटाने व रहित धर्म कहो छ. आ बने तीर्थकगे मोज्ञरूप एक ज कार्य साधवा माटे प्रवशा छे, छतां तेमना मार्गमां प्राची भिन्नता छ, तेनुं शुं कात्या " तेना जवाबमां श्रीगौतमस्वामीए का के- मध्यना बावीश तीर्थेकरोना साधुभो ऋजुप्राज्ञ होवाथी घोथा अपरिग्रह महानतमां ज ब्रह्म * Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K पर्यनो समावेश की ले छे अने आ चोवीशमा तीर्थकरना साधुनो कन-जड होवाथी तेवो समावेश करी शके नहीं, तथी तेमने ब्रह्मचर्य भने अपरिग्रह ए वे व्रत जुदां पाढी पांच महावतो कयां छे. वळी ग जरीते जुम्राज्ञने सचेल धर्म कह्यो छे एटले के तेश्रो गमे तेजा वस्त्रादिक राखी शके छे अने वजडने तो अचेल धर्म करो चे एटले तेस्रो प्रमाणोपेत ज वस्त्रादिक गरी शके छे. ते तेमनी तथाप्रकारनी योग्यता जोइ ते ते प्रमाणे अनुज्ञा प्रापी छे." श्रा रीते के प्रमोना उत्तरथी साधुनोनी शंका दूर करी पछी फेशीकुमारे पाभ्यंतर शत्रुने जीतबा संबंधी, स्नेहपाशने छेदवा संबंधी, तृष्णारूपी लताने उखेडवा संबंधी, कषायरूपी अग्निने बुझववा संबंधी, मनरूपी अश्वनो निग्रह कावा संबंधी, उन्मार्गनो त्याग करी सन्मार्गमा प्रवर्तधा संबंधी, विगेरे घणा प्रश्नो कर्या, तेमना यथार्थ उत्तर श्रीगौतमस्वामीए आप्या. त्यारपळी श्रीकेशीकुमारे परिवार सहित श्रीगौतमस्वामी पासे पांच महात्रतवाळो धर्म अंगीकार कर्या, विगेरे हकीकत बहु बोधदायक प्रापेली छे. अध्ययन २४ पान १८४.--शंकानुं निवारण करवामां भाषासमितिरूप वागयोगनी जरुर छे, तेथी आ भध्ययनमां पांच समिति भने त्रण गुप्तिरूप आठ प्रवचनमातानं स्वरूप प्राप्यं छे. भाभाठमांज सर्व द्वादशांगरूप प्रवचननो समावेश थाय के तेथी ते तेनी मातारूप कहेवाय छे. नहीं था आठेनुं स्वरूप, तेनो उपयोग भने छेक्टे ते पाळवाथी चतुं फल सर्व हकीकत विस्तारथी पापी छे. अध्ययन २५ पान १६६—जे ब्रह्मचर्यना गुणमा दृढ होय ते ज अष्ट प्रवचममातानु पालन करी शके छे, तेथी मा यशिय नामना ] अध्ययनमा जयघोष अने विजयघोषनी कथाद्वारा ब्रह्मचर्यना गुण बताच्या छ. मा बन्ने ब्राह्मणो हता अने भाइयो हता, तेमा जयघोपे वैराग्य पामी दीक्षा ग्रहण करी छे. पछी केटलेक काळे पोताना भाइ विजयघोषने प्रतिबोध करवा माटे ते जयघोष मुनि वाणासी नगरीमा पधार्या. ते वखते विजयघोपे यज्ञ प्रारंभ्यो हतो, त्या भिशा माटे जयघोष मुनि गया. तेमने नहीं ओळखयाथी ते विप्रे भिजा प्रापी नहीं, +-+ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने कह्यु के-" जेनो वेदने जागनारा होय, यज्ञना अर्थी होय, द्विज होय, ज्योतिप भने अंगशास्त्रने जायानार होय, धर्मना पारगामी होय ने जेमो पोसाने सथा बीजाने संसारसमुद्रथी तारवामां समर्थ होय, तेमने ज नहीं भिका आपवामां आवे छे." ने संभटी | जयघोष मुनिए तेनो उपकार करवा माटे का के.- वेदना, यन्नना. नक्षत्रना श्रेने धर्मना मुखने जागानो नथी, तथा स्व-पग्नो | उद्धार करवामां कोण समर्थ छ ? ते पण तु जाणतो नथी. जो कहाच आणतो हो नो कहे." ते सांभळी उत्तर प्रापवामां असमर्थ एवा ते प्रामगो बे हाथ जोडी विनयथी मुनिने ज तेनो उत्तर प्रापवा विनंते करी. त्यारे मुनिए विस्तारथी ते सर्वना उत्तर प्राप्या. तेमां ब्राह्मण- लक्षाण प्रापतां प्रसंगने लोधे साधु, ब्राह्मगा, मुनि, तापस, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र विगेरेनां लक्षणो पण प्राप्यां हे, सर्व ते सांभळी विजयघोषे वैराग्य पामी जयघोष मुनि पासे दीक्षा लीधी. अनुक्रमे बने मोक्ष पाम्या. अध्ययन २६ पान २०५–ब्रह्मचर्यना गुण यतिमा अ होय छ भने यतिए अवश्य साधु सामाचारी पाळबानी छ, तेथी मा अध्ययनमा साधु सामाचारी बतावी छे, ते दश प्रकारनी छे-पावश्यकी१, नैपेधिकी २, आपच्छना ३, प्रतिपृच्छना ४, छंदना ५, इच्छाकार ६, मिथ्याकार ७, तथाकार ८, अभ्युत्थान ९ भने उपसंपदा १०. या दशेनो अर्थ तथा तेनो उपयोग करवानां स्थानों पर बताव्यां छे. त्याम्पछी श्रोधसामाचारी कही छे. तेर्मा प्रथम पोरसी भने पादोनपोरसी विगेरे काळमान जागवानो उपाय नथा गत्रिना काळमान जागवानो उपाय बतावी रात्रि दिवलनी पाठ पोरसीमा कइ का पोरसीए कयु कयुं कार्य कग्वु ? ने बाबत घतावता पडिलेडण, स्वाध्याय, गोचरी विगेरे क्रियाओनो नियमित काळ बसायो छे. पछी विस्तारथी दिवस पाने गत्रिनुं कृत्य बतावता पडिलेहण, स्वाध्याय, आहार, कायोत्सर्ग श्रने प्रतिक्रमयानो विधि सविस्तर को छे. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यननी अध्ययन २१९-साधुनी सामाचारी प्रशनगाथीज पाली शकारा के तेथी मा अध्ययनमा ते वात दृढ करवा I माटे गर्ग नामना आचार्यनुं दृष्टांत प्राप्यु छे. तेमां ते सूरि विचार छ के-"म कोइ पुरुष गाडीमां वृषभादिकने जोडी पसगाम | अवा नीकळे, तेनी गाडीने जोडेला बळद जो गळीया होय तो ते पुरुष ते बळदने मारकट करी बेवट खेदने ज पामेवे, ए जगते अविनीत शिष्योने वारंवार शिक्षा प्रापता छतां ते कदापि विनीत थता नथी भने उलटा असमाधिन कारण थाय छे. तेथी मार मा अविनीत शिष्योने छोडी अन्यत्र जइ आत्मकार्य साधबुं सारं है." एम विचारी गर्ग मुनि श्रविनीत शिष्योनो त्याग करी अन्यत्र जइ समाधिपूर्वक संयममार्गमां विचरवा लाग्या. अही गळीया बळद विषेनु दृष्टांत घणुं विस्तारथी श्वाप्यु चे अने पछी अविनीत शिष्य उपर तेनो सपनय पण ए अ प्रमाणे उतार्यो छे. अध्ययन २८ पान २२३-शठतानो त्याग करवाथी मोक्ष सुलभ थाय दे, एम जणायवा माटे भा 'मोक्षमार्ग गति' नामर्नु अध्ययन का छे. तेमा मोशमार्गनां ज्ञान, दर्शन, चारित्र भने तप ए चार कारयो कयां छे. तेमां पया मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव अने केवल ए पांच प्रकारे ज्ञान का छे, ज्ञाननो विषय द्रव्य, गुण अने पर्याय तथा ते द्रव्यादिकनां लक्षणो, अने तेना भेद प्रभेद विगेरे आप्या ले. ए ज रीते दर्शननी व्याख्यामां जीव, अजीव, बंध, पुण्य, पाप विगेरे नब तत्त्वोनुं श्रद्धानरूप स्वरूप, निसर्गरुचि, उपदेशरुचि विगेरे समफितना दश भेदो, ते दशेनी विस्तारपूर्वक व्याख्या, परमार्थसंस्तव बिगेरे समकितनां लिंग, समकितनुं माहात्म्य, निःशंकिसादिक समकितना पाठ आचार, ए विगैरे विषयो वयाच्या छे. चारित्रनी व्याख्यामा सामायिक विगेरे चारित्रना पांच प्रकार, तेनुं स्वरूप अने तेनो अर्थ विगैरे बताव्यु छे. तथा तपनी व्याख्यामा छ प्रकारनो बाह्य श्रने छ प्रकारनो भाभ्यंतर एम बार प्रकारनो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते वरच्या सलाई, बिल्याच मान पावधि वस्तग्न सप वताब्यो हे. अध्ययन २६ पार्नु २३२-वीतराग थया विना मोशंभार्गनी प्राप्ति थइ शकती नथी, तेथी सम्यक्त्वपराक्रम नामर्नु ा अध्ययन प्राप्युहे. तेमां संवेग, निर्वेद, धर्मश्रद्धा विगैरे तोतेर (७३) द्वारो कयां छे. ते दरेकनो शब्दार्थ, विस्तरार्थ भने फळ बिगेरे विस्तारथी आपेज रे. तेनां नाम मात्र लखवाथी पण अहीं वधारे विस्तार यह जाय तेम छे तेथी बांधनारने न्याथी जवांचवानी भलामण करवी योग्य लागे हे. तेमां बीजी पण धगी बाबतो वर्गाची हे. अध्ययन ३० पार्नु २६३-तप विना वीतराग एटले कर्मरहित थवातुं नी तेथी आ अध्ययन तपोमार्गगति नामे च्याप्यु छे. तेमा कर्म खपाववा माटे भावरहित थ जोइए, जेम कोइ तळावमाथी पाणी काढी नांख होय तो प्रथम तेमा जळ भाववानां द्वारो बंध कायां जोइय, अने त्यारपछी अंदर रहेला जलने शोषणा करवानो उपाय करवी जोइए, तेम जीवरूपी तळावमा जळनी जेम भरेला कों स्वपाववा माटे प्रथम महाप्रतादिकबडे हिंसादिक द्वारो कंधवा भने पछी तपबडे अंदग्नां कर्मोनू शोषण करी शकाय हे. प्रा प्रमाणे अध्ययननो प्रारंभ करी पदी अनशनाविक छ प्रकारनो बाह्य तप प्राप्यो छे तथा तेना प्रतिभेदो पण सविस्तर प्राप्या छे, अने त्यारपछी प्रायश्चित्तादिक छ प्रकारनो थाभ्यंतर तप प्राप्यो छे. केवट तपर्नु फळ यताब्यु छे. अध्ययन ३१ पातुं २७-चारित्र विना तप सफळ थतो नथी, तेथी आचरणविधि नामना अध्ययनमा संयममा प्रवृत्ति अने असंयमथी निवृत्ति करवा उपदेश प्राप्यो हे. ते प्रसंग त्रण दंड, त्रण गास्त्र अने त्रण शल्यनो त्याग; दिव्य, तियेच अने मनुष्ये करेला उपसर्गोनुं सहन, चार विकथा, चार कषाय, चार संज्ञा अने बे दुनिनो त्यागः पांच महाव्रत, पांच इंद्रियोना विषय, कायिक्यादिक पांच Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया, छ लेश्या, पृधिव्यादिक छ काय भने प्राहार करवाना कारणने विषे यातना, संसृष्टादिक सास प्रकाग्ना पिडायमह ने सात भय, आठ मद, नव ब्रह्मचर्यगुप्ति, दश प्रकारनो साधुधर्म, श्रावकनी अग्यार प्रतिमा, मिथुनी बार प्रतिमा, तेर प्रकारनी क्रिया, चौद प्रकारना जीव, पदर प्रकारना परमाधार्मिक, सूत्रकृतांगना सोळ अध्ययन, सत्तर प्रकारे संयम, अदार प्रकारर्नु ब्रह्मचर्य, प्रोगग्रीश ज्ञाताध्ययन, असमाधिना वीश स्थानो, एकवोश प्रकारनी शबळांक्रया. बावीश परीपह, वेवीश अध्ययनवालु सुयगडांग, चोवीश देवो, पचीश भावना, दशाकल्पव्यवहारना छब्बीश उद्देशा, साधुना सत्तावीश गुगा, याचारांगना अठ्ठावीश अध्ययन, पापश्रुतना ओगयात्रीश प्रसंगो, मोहना त्रीश म्यानको, सिद्धना एकत्रीश अतिशयो, बत्रीश योगनो संग्रह तथा तेत्रोश आशातना, श्राटला विपयो जीधा छे. तेमां उपादेयर्नु ग्रहया भने हेयनो त्याग कग्वा उपदेश आप्यो छे, तथा ते प्रमाणे वर्तनार मोन्सने पामे छ एम तेनुं फळ पण बताव्यु छे. __ अध्ययन ३२ पार्नु २८७--प्रमादनो त्याग करवाथी ज चारित्र पाळी शकाय हे. तेथी मा प्रमादस्थान नामर्नु मध्ययन प्राप्यु छे. तेमां अविरति, कषाय विगेरे प्रमादना स्थानो तजवा लायक छ, ज्ञान, दर्शन भने चारित्र प्रादरवा लायक छे. तेनो उपाय सद्गुर्वादिकनी सेवा, पासत्यादिकनो त्याग, स्वाध्याय भने धृति विगैरे छे. श्रावो उपाय प्राप्त कावा माटे एपणीय आहार, तत्त्वज्ञ शिष्य अने रूयादिक रहित उपाश्रय सेववानी जरूर छे. ज्ञानादिकलो प्रतिबंध करनार श्रने दुःखना हेतुरूप मोहादिकनी उत्पत्ति अने तेनो जय शी गैते धाय 'ए विगैरेनो विस्तारथी उपदेश प्राप्यो छे. राग, द्वेष भने मोहनो नाश करवाना उपाय बतावतां दुग्धादिक विकृतिना त्यागपूर्वक मल्पाहार करवानो उपदेश प्राप्यो छे. स्त्रीसंगथी धता दोष भने ते वर्जवाथी थता गण देखाड्या छे, इंद्रियोना विषयोनो त्याग बताथवा माटे पांचे विषयोर्नु पृथक् पृथक् स्वरूप अने तेथी थता दोषो विस्तारथी पाप्या छे. आ विषयना उपदेशमा गग, द्वेष, मोह भने कषायन स्वरूप Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भने तेथी थता दोषो बताया छे. छेवट आ सर्व प्रमादनां स्थानोथी रहित थयेलो जीव मोशने पामे छे. एम फही अध्ययननी समाप्ति करी छे. ___अध्ययन ३३ पार्नु ३१०-प्रमाद सेवबाथी कर्मबंध थाय छे, तेथी आ कर्मप्रकृति नामना अध्ययनमा कर्मर्नु स्वरूप बताव्यु छे. तेमा प्रथम ज्ञानावरणीयादिक पाठ कर्म अने ते दरेकनी उत्तरप्रकृति प्रभेद सहित कही छे, पछी कर्मना प्रदेशाग्र, क्षेत्र, काळ अने भाव विस्ताग्थी वर्णव्या छे. अध्ययन ३४ पार्नु ३१६ –कर्मनी स्थिति लेश्याने प्राधीन होवाथी आ अध्ययनमा लेश्या स्वरूप का छे. तेमां प्रथम लेश्यानां नाम कही पछी अनुक्रमे तेना वर्ग, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति भने प्रायुष्य बताव्यां छे. तेमां चारे गतिना मोवान श्राश्री लेश्यानी स्थिति विस्तारथा कही छ.. अध्ययन ३५ पार्नु ३२८-शुभ लेश्या गुणवानं साधुने अहोई शके ले नेथी श्रा अनगारमार्गगति नामना अध्ययनमा साधुना गुणो बताब्या छे. तेमां प्रथम पंच महावतो पाळवानं काय छे. पनी कामगगने जागृत करनार मनोहर उपाश्रयमा रहेवानो निषेध कर्यो छे, अने स्मशान तथा शून्यगृह वा स्थानमा रहेबानं कां छे. घर कराववा विगेरे कार्यमां त्रस अने स्थावर जीवोनी हिंसा होबाथी बिलकुल प्रवृत्ति करवी नहीं. जीवहिंसाना कारणथी ज पचन-पाचन क्रियामां, अग्नि सळगाववामां आने क्रय-विक्रय करवामां नहीं प्रदर्ती शुद्ध भिकाचर्याथी ज निर्वाह करवो, गास्वनी वांछानो त्याग करी शुक्लध्यानमः ज रहे, विगेरे उपदेश चाप्यो छे. अध्ययन ३६ पार्नु ३३३-साधुगुण सेवबामा जीवाजीनु स्वरूप जाणवु श्रावश्यक दे, तेथी या जीवाजीवविभक्ति नामना Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 अध्ययनमां जीव अने अजीव एवा ये विभाग बतावतां प्रथम लोक भने अलोक नामना बे विभाग बताव्या छे. पद्धी अजीवनी द्रव्य क्षेत्र, काल अने भावथी प्ररूपणा करी छे. तेमां द्रव्यथी अजीवनी प्रसपणा करतां रूपी अजीव द्रव्यना चार प्रकार अने अरूपी अजीब द्रव्यना दश प्रकार सविस्तर बताव्या छे. तथा भावधी प्ररूपणा करतां स्कंध अने परमाणुना वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थान ए पांच प्रकारना परिणाम प्रभेद सहित कया छे. त्यारपछी जीवनी प्ररूपणा करी छे. तेमां प्रथम संसारी अने सिद्ध एम जीवना प्रकार कही पछी सिद्धना पंदर मेद, तेमनी अवगाहना, क्षेत्र, तेमने रहेवार्नु स्थान, सिद्धशिलानुं स्वरूप, सिद्धोनी अवगाहना विगेरे वताब्युं छे. पती संसारी जीवर्नुस्वरूप कहेतां तेमना वस भने स्थावर एम बे मेद बताव्या के. पली सूक्ष्म अने बादर, तेमज पर्याप्त अने अपर्याप्त पृथ्वीकाय, अपकाय भने वनस्पतिकाय एत्रण भेद स्थावरना बतावी तेमना पण भेद प्रभेद विगेरे बसान्या छे. तेमां ते दरेकनी द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावथी प्ररूपणा करी छे. त्यारपछी तेजस्काय, वायुकाय (गतित्रस) भने उदार पटले स्थूळ एम ऋण प्रकारना उस बताव्या छे. तेउवाउना पण सूचम बादर, पर्याप्त भने अपर्याप्त भेड़ो बताधी तेमना पण भेड़, प्रभेद बतावतां द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावथी प्ररूपया करी छे. ते प्रसंगे तेमनुं दरेकर्नु प्रायुष्य, | कायस्थिति, अंतर अने वर्णादिक पृथक पृथक स्वरूप बताव्युं छे. पछी द्वींद्रिय विगेरे उदार त्रसकाय सूक्ष्म नहीं होवाथी तेमना पर्याप्त भने अपर्याप्त ए बेज भेद बताच्या छे. तेमां हींद्रिय, त्रींद्रिय अने चतुरिंद्रियन भायुष्य, स्थिति, अंतर विगेरे बतान्यु छे. पंचेद्रियनी प्ररूपणामां नारकी तिर्यंच मनुष्य भने देव ए चारेना भेद, प्रमेद, आयुष्य, कायस्थिति भने वर्यादिक पृथक् पृथक् षताब्यु छे. या सर्व जीवाजीवर्नु स्वरूप बतावी उपदेश आयो छेके-या स्वरूप जाणीने मुनिए संयमने विषे रति करबी, अने घणा वर्षी सुधी चारित्र पर्यायर्नु पालन करी ठेवट संलेखना करवी." इत्यादिक उपदेश भापी प्रसंगने लीधे संलेखनानो विधि बसाव्यो छे, त्यारपछी कंदादिक पांच अशुभ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनानो त्याग करवा कहुं छे, छेक्ट या छत्रीश अध्ययननी प्ररूपया करी श्रीवर्धमान स्वामी मोक्षे गया एम कही था मंथनी समाप्ति करी छे. श्रा सूत्रमा चारित्रधर्म संबंधी घणां तत्त्वो बसाल्यांके, पण देशविरति धर्म बताव्यो नथी. तेथी पा सूत्र चारित्रवान मुनिने ज भण्वा गणवा योग्य छे. पा सूत्रनो समावेश कथानुयोगमा होवाथी रसिक कथाओ सहित धर्मोपदेश प्राप्यो छे. टीकाकार महागजे पण प्रसंगोपात रसिक कथाओ सहेली भाषामां नापीछे, तेथी बांचनार तथा सांभळनारने आनंद साये धनुं ज्ञान आपे एवं आ सूत्र छे. आ सूचना श्रमे वे विभाग कर्या छे. पहेलामा १५ घने बीजामा २१ अध्ययन प्रापेला छे. बीजो विभाग पहेला करतां मोटो थयो छे. आवटे या सूत्रनां छत्रीश अध्ययनो उपर छत्रीश सज्झायो छे. ते पया पापीछे. ते दरेके कंठे करवा जेवी हे त्यारपछी मदद करनारनां नाम अमर राखी या विभाग संपूर्ण कयों के प्राशा के उत्तम जीवो पार्नु पठन पाठनादिक करी पा सूत्र छपावधानो अमारो प्रयास मफळ करशे अने भावा ज्ञानोद्धारा कार्यमा व्यय करीने चंचल लक्ष्मीचें फळ ग्रहण करशे. ____ बने विभागना मुफो सुधारवामां यथाशक्ति प्रयास कों हे छतां दृष्टिदोप के मतिमांधादिकना कारण्थी कांइ स्वनना जोवामां आने, ते शिष्टजनोए सुधारीने बांचवा भने अमने लखी जग्गाववा नम्र विज्ञप्ति छे. इति शम्. संवत १९८१ दीपोत्सवी. श्री जैन धर्म प्रसारक सभा. श्री महावीर निर्वाण कल्यायाक. भावनगर. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बने विभागमा आवेली कथाओनी अनुक्रमाणिका. क . अध्ययन १ तुं. १० शीत परीषह उपर भद्रबाहस्वामीना शिष्योनी कथा .... १ अविनीत कूलयालक मुनिनी कथा. ११ उष्ण परीपह उपर अरहनक मुनिनी कथा. .... २ चंडरुद्राचार्यनी कमा. .... १२ दंशमशक परीषह उपर श्रमणभद्र मुनिनी कथा. .... ३ क्रोधने निष्फळ करवा उपर कुलपुत्रनी कथा. १३ अचेल परिवह उपर सोमदेव ऋषिनी कथा. ४ प्रियाप्रिय उपर रागद्वेष न करवा विषेत्रण मांत्रिकोनी कथा १४ अरति परीषह उपर पुरोहितपुत्र अने राजपुत्रनी कथा १५ वी परीषह उपर श्रीस्थूळभद्रनी कथा .... ५ आत्मदमन उपर बे चोरनायकनी कथा. १६ चर्या परीषह उपर संगमाचार्यनी कथा .... ६ आत्मदमन उपर सेचनक हाथीनी कथा. १७ नैषेधिकी परीषह उपर कुरुदत्त साधुनी कथा. ७ गुरुनो उपधात करनार कुशिप्यनी कथा. १८ शय्या परीषह उपर सोमदत्त अने सोमदेव मुनिनी कथा.... अध्ययन २ जु. १९ क्रोध उपर क्षपक साधुनी कथा ८ क्षुधा परीपह उपर पिता पुत्र साधुनी कथा. २० आक्रोश परीषह उपर अर्जुनमाळी मुनिनी कथा. ६ तृषा परीपह उपर धनशर्मा साधुनी कथा. .... २६ । २१ वध परीषह उपर स्कंदकाचार्यना शिष्योनी कथा. .... Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ यांचा परीषह उपर बळभद्र मुनिनी कथा. ___ .... ५. ३५ मनुष्यभबनी दुर्लभता उपर चोथु धूत दृष्टांत. .... ७४ २३ अलाभ परीषह उपर दंढणकुमार मुनिनी कथा. .... ५२ ३६ ,, पांचमुं रत्न दृष्टांत ... .... २४ रोग परीषह उपर काळवैशिकनी कथा..... ३७ , छटुं स्वप्न दृष्टांत....... .... २५ तृणस्पर्श परीषह उपर भद्रर्षिनी कथा. ..... सातमु चक्र ( राधावेष) दृष्टांत. २६ मळ परीषह उपर सुनंद श्रावकनी कथा.... ३६ , आठमु चर्मदृष्टांत..... ... २७ सत्कार परीषह उपर साधु तथा श्रावकनी कथा. , नवमुं युग (धोतरानुं ) दृष्टांत.... २८ प्रज्ञा परीषह उपर सागराचार्यनी कथा.... .... ५८ , दशमुं परमाणु दृष्टांत. २९ अज्ञान परिषह उपर आभीर साधुनी कथा. श्रद्धानी दुर्लभता उपर पहेला निन्हव जमालिनी कथा. ३० ज्ञान परीषह उपर स्थूळभद्रनी कथा. .... बीमा निन्हव तिष्यगुप्तनी कथा... ३१ दर्शन परीषह उपर आर्य आषाढ सुरिनी कथा. .... ६३ ., त्रीजा निन्हव अव्यक्तवादीनी कथा. अध्ययन ३ जु. चोथा निन्हव अश्वमित्रनी कथा. ३२ मनुष्य भवनी दुर्लभता उपर पहेलु चोल्छक दृष्टांत...... ६६ पांचमा निन्हव गंगदेवनी कथा.... ३३ , बीजुं पाशक दृष्टांत.... .... ... , छठा निन्हव रोहगुप्तनी कवा. ... त्रीजु घान्य दृष्टांत.... र सातमा निन्दन गोष्ठामाहिलनी कथा. .. भाग Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अहानी दुर्लभता उपर आठमा निन्हव दिगंबर ६० प्रमाद अने अप्रमाद उपर वणिकनी चे स्वीओनी कथा.१२२ शिवभूतिनी कथा. अध्ययन ५मुं. अध्ययन ४ थु. ६१ अर्थदंड अने अनर्थदंड उपर पशुपाळनी कथा ५० जरावस्था पामेलाने काइपण शरण नथी ते उपर अट्टन- ६२ दुःशीळीया उपर दमकनी कथा .... मलनी कथा .... .... .... ....१०४ । अध्ययन ६ ई. ५१ द्रव्यमा लोभ उपर चोरनी कथा .... ...१०६ ६३ विद्या रहित द्रमक पुरुषनी कथा .... १२ पापकर्मनी प्रशंसा उपर चोरनी कथा .... ....१०७ अध्ययन ७मुं. १३ बंधुमोहना त्याग उपर आभीरीबंचक श्रेष्ठीनी कथा....१०८ ६४ चेटार्नु दृष्टांत .... ... ५४ धन आ भवमा रक्षणकर्ता नथी ते उपर पुरोहितपुत्रनी कथा१०९ ५५ नष्टदीपक धातुवादीनी कथा .... ....११० ६५ कागिणी तथा आम्रनु दृष्टांत । ५६ द्रव्यथी जागता उपर अगडदत्त राजपुत्रनी कथा ....११. ६६ त्रण वणिकपुत्रनी कथा .... ५७ लाभ थाय त्यांसुधी देह धारण करवा उपर मंडिक अध्ययन मुं. चोरनी कथा .... .... .... ...१८६७ कपिलमुनिनी कया ...११८६७ कापलमानना कया ५८ शिक्षित अने अशिक्षित एवा बे अश्वोनी कथा ....१२० अध्ययन है मुं. ५९ शीधपणे विवेक पामी न शकाय ते उपर ब्राह्मणीनी कथा. १२१ । ६८ प्रत्येकबुद्ध करकंडुनी कथा ..... .... Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ बीजा प्रत्येकबुद्ध हिसुखरामानी कथा ..... बीजो विभाग–अध्ययन १८. | ७० त्रीमा प्रत्येकबुद्ध नमिराजानी कथा .... ....१६८ | ७७ संयतमुनि अने क्षत्रियमुनिनी कथामां अंतर्गत भरत ७१ चोया प्रत्येकबुद्ध नगतिराभानी कथा .... १९० । चक्रीनी कथा .... .... अध्ययन १. सं. ७E सगर चक्रवर्तीनी कथा .... ७२ गौतमस्वामीनी कया .... .... ....१६८ | ७६ मघवा चक्रवर्तीनी कथा अध्ययन १२ सुं. ८० सनत्कुमार चक्रीनी कथा .... Hal ३ हरिकेश गुणिनी का. .... *८१ श्री शांतिनाथनी कथा ..... ८२ श्री कुंथुनाथनी कथा ___ अध्ययन १३ श्रृं. ८३ श्री अरनाथनी कथा ७४ चित्र संभूत मुनिनी कथा .... ....२४३ ८४ महापदम चक्रीनी कथा .... || ७५ अलंकारोने भाररूप कहेवा माटे श्रेष्ठीपुत्रनी वहुनुं ८५ हरिषेण चकीनी कथा दृष्टांत ८६ जयचकीनी कथा अध्ययन १४. ८७ दशार्णभद्र राजानी कथा .... ७६ हपुकार रामा विगरे छ जीवनी कथा .... ८८ उदायन रामानी कथा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ काशीराजनी कथा ९० विजयराजानी कथा ६१ महाबळ राजानी कथा २ मृगापुत्रनी कथा. ९३ अनाथ मुनिनी कथा. अध्ययन १६ मुं. .... .... ९४ समुद्रपाळनी कथा. अध्ययन २० मुं. 144 अध्ययन २१ मुं. ९५ श्री नेमिनाथनी कथा. *** अध्ययन २२ मुं pend riel .... 4044 1941 134 .... το ६० ६१ ६४ ...११३ ....१२६ .... १३३ ! अध्ययन २३ मुं. ९६ श्री पार्श्वनाथनी कथा. .... ६७ श्री केशिकुमार कने गोतमस्वामीना भोत्तर अध्ययन २५ मुं. ९८ जयघोष तथा विजयघोषनी कथा. अध्ययन २७ मुं. ६९ वर्ग आचार्यनी कथा. 1 .... www .... ११९ . १७२ www. 100 १६६ .....२१९ अध्ययन ११-१५-१६-१७-२४-२६-२६-२६-३०-३१-३२-३३ ३४-३५-३६ ब पंदर अध्ययनमां कृपा भाग बिल्कुक नभी. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५) भाइ रामभाइ भीखाभाइ१०) भाइ सोमचंद अमृतलाल अमदाबाद. १०) शा. जेचंद छगन भावनगर. ५) शा. मोनजी काळीदास भावनगर. ५) सुखलाल काळीदास लींबडी. ५) चाणसमाना एक श्रावकना. भावनगर. १०६) बाइ दीवाळी तथा मोतीबाई तथा हेमबाइ-बोरा हठीसंग झवेरचंदनी विधवा. ६२) बाइ संतोफ - नरोत्तमदास भाणजीनी धर्मपत्नी. १५ ) बाइ चंदन - दामाभाइ त्रिभोवनदासनी धर्मपत्नी. ५१) बाइ चंदन - कापडीया मोतीचंद गिरधरनी धर्मपत्नी. ५०) बाइ प्रेमकोर हथ्यु पोताना पुत्र लीलाधर ब्रजलाल्ना स्मरणार्थे. - ५०) बाइ समरथ - हरगोविंद डाह्याभाहनी धर्मपत्नी. ५१) साध्वी उत्तमश्रीना उपदेशधी शाह खाते. ४० ) श्राविका समुदायना नवा उपाश्रयना ज्ञानपंचमीना आव्या ते. ४०) बेन समुहकमचंद उकानी पुत्री. ३०) बाइ चक्कु - दामोदर नेमचंदनी धर्मपत्नी. २५) बाइ कुंवर - अमरचंद जसराजनी विधवा. २५) बाइ संतोक तथा सांकळी - मोतीभाइ जूठानी धर्मपत्नी. २५) बाद अंबा - रतननी वीरजीनी विधवा. २५) बाइ जडाव - अमृतलाल पुरुषोत्तमनी विषवा. २५) बाइ माणेक - आणंदजी पुरुषोत्तमनी विधवा. २५) वेन चंदन-दशेठ रायचंद हीराचंदनी पुत्री. २५) बाइ मोघो जेठालाल त्रिकमनीनी विधवा. २५) दानशाळानी श्राविकाना ज्ञानस्त्राताना. २५) बाँइ सांकळी - झवेर पीतांबरनी विधवा. २५) बाइ समरथ. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रा ग्रंथ छपाववामां सहायकोनां नाम. H४३५) भावनगरनी श्राविका समुदायमा अक्षयनिधि सप, स्वर्ग- | १०१) तपस्वी प्रमोदविजयजीना उपदेशयी शा. नरोत्तमदास स्वस्तिक तप अने जिनतपना. माणजी. भावनगर. ४००) पूज्य गुरुणीनी श्री तमीजी तथा उसमीनाना उपदे- ०१) तपस्वीप्रमोदविजयजीना उपदेशथी हरिचंदभार मीठा., शभी कीकाभाइ प्रेमचंदभाइए आप्या ते. सुरत. १०१) तपस्वी प्रमोदविजयजीना उपदेशथी उसमशी माणेकचंद., ३००) पूज्य गुरुणीजी श्री शिवश्रीजी तथा तिलकनीजीना उप- | १००) शा. हरिलाल जूठाभाइ. भ्रांगध्रा. देशथी बेन कमु-चुनीभाइ डाह्याभाइनी पुत्रीए आध्या ५०) तपस्वी प्रमोदविजय जीना उप. मणिलाल हेमचंद-भावनगर. ते. सुरत. ५०) भाइ परमाणंद कुंवरजीभाइ पोतानी मातुश्री बाइ। २००) पूज्य गुरुणीभी श्री शिवश्रीजी तथा तिलफश्रीनीना उप- रूपाळीना स्मरणार्थे. भावनगर. देशथी ज्ञान खाताना. ५१) तपस्वी प्रमोदविजयजीना उपभोगीलाल लल्लुभाइ पटणी, १५१) तपस्वी प्रमोदविजयजीना उपदेशथी मूळजी हंसरामनी | ५०) शा. अमृतलाल मोकमचंद अमदावाद. [भावनगर. कंपनी खाते. भावनगर. २५) पटणी चुनीलाल उजमशी भावनगर. १५१) शेठ नागरदास पुरुषोत्तम. राणपुर. ) शेठ छोटालाल आणंदनी भावनगर. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५) बाइ पुरी-वोरा खोडीदास रणछोड़नी विधवा. २५) बाइ मोंधी-हीरालाल अमृतलालनी धर्मपत्नी २५) वाइ सूरन लल्लुभाइ आणंदजीनी विधवा, २५) बाइ दीवाळी-माणेकचंद जेचंदनी धर्मपत्नी. २५) बाइ मणि-वर्धमान मनजीनी धर्मपत्नी. २१) बाइ हेम-झवेर भाइनंदनी विघवा. २१) बाइ मणि-पुरुषोत्तमनी दीकरी. २०) बाइ वेणी-प्रेमचंद त्रीभोवनदासनी विधया. २०) बाइ राम-हठीसंग ओघवजीनी विधवा. २०) बाइ सूरज-नेमचंद गिरधरनी धर्मपत्नी. २०) बाइ गुलाब-हरगोविंद वेलचंदनी विधवा. १५) बाइ हरव-गिरधर गोविंदमीनी विधवा. १५) बाइ पोती-सोमचंद ओधवभीनी विधवा. १५) बाइ उजम-गीगाभाइ भाणाभाइनी विधवा. १५) बाइ चंचळ-बाबु ममनभाइनी धर्मपत्नी. १५) बाइ मोघी-जमनादास प्रेमजीनी दीकरी. १५) बाइ पातळी-शेठ नरशी मूळजीनी धर्मपत्नी. १५) बाइ कस्तुर-फतेहचंद झवेरभाइनी धर्मपत्नी. १५) बाइ जडी-लल्लु त्रिकमनी विधवा. १५) बाइ रंभा-जूठाभाइ सांकळचंदनी पुत्री. १४) बाह धोळी-वकील परभुदास मोतीचंदनी विधवा. १२) बाइ देवकुर-माणे कचंद गोरधननी धर्मपत्नी. ११) बाइ जडी-त्रिभुवन हरखचंदनी धर्मपत्नी. १०) वाइ हेम-लक्ष्मीचंद दयाळनी विधवा. १०) बाइ मणि-नानचंद इरिचंदनी धर्मपत्नी. १०) बाइ संतोक-मूळभी हंसराजनी धर्मपत्नी. १०) भाइ भूपतभाइ-प्रेमचंद त्रिभोवनदासना पुत्र. १०) बेन गुणी-त्रिभोवनदास भाणनीनी पुत्री. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०) बाइ कडवी - चुनीलाल मोनजीनी विषया: १०) बाइ हरी - जमनादास डुंगरशीनी विषया १०) बाह, अजवाळी - वजपाळ करशननी पुत्री. १०) बाइ हेम - हीरालाल लक्ष्मीचंदनी धर्मपत्नी. १०) बाह्र नाथी - बोरा गोरधन हरखचंदनी धर्मपत्नी. १०) बाद हरकोर - मूळचंद शामजीनी माता. १०) बाइ मंछा - झवेरचंद जूठाभाइनी धर्मपत्नी. १०) बाइ मणि - नानचंद खोडीदासनी धर्मपत्नी. १०) बाइ अजवाळी - अमृतलाल भीखाभाइनी विषयां. १०) बाइ रतन - भीखा कुंवरजीनी विषवा. १०) बाइ सांकळी - प्रभुदास त्रिकमनी विधवा. १०) बाइ हरकोर - जलाल परमानंदनी विषया (१०) बाइ अनोप - उत्तमचंद गिरधरनी विधवा. १० ॥ बाइ मोती - तलकचंद गीगामाइनी धर्मपत्नी. १०) बाइ कीली - गोपाळजी गीगामाइनी धर्मपत्नी. १०) भाइ कस्तुर-अमरचंद हरजीवननी धर्मपत्नी. १०) बाइ रंभा १०) बाइ माकु झवेरचंद मगनलालनी धर्मपत्नी. १०) बाह दीवाळी - खुबचंद डाह्यानी धर्मपत्नी. १०) बाइ नवल - मूळचंद काळानी विधवा. १०) बाइ सांकळी तथा मणि. ५) बाइ झरमर - पटणी चुनिलाल उजमशीनी विधवा. १। बाइ हरकोर - मानचंद वेलचंदनी विधवा. ५) बाइ हेम - गिरधर हीराचंदनी विषंषा. ५॥ बाइ जडी--न्यालचंद लक्ष्मीचंदनी धर्मपत्नी. ५) बेन जया-प्रेमचंद त्रिभुवनदासनी पुत्री. ५) बेन रमा - प्रेमचंद त्रीभुवनदासनी पुत्री. ५) बाइ अमृत - अमरचंद रामचंदनी धर्मपत्नी. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५) बाइ मांकु-रामचंद पुरुषोत्तमनी विना १) बाइ अजवाळी--डाबालाल हरिचंदनी धर्मपत्नी. ५। बाइ ओतम-हठीसंग आणंदजीनी पुत्री५) बाइ नंदु-संघवी दामोदर नेमचंदनी धर्मपत्नी. ५) बाइ हरकोर-भगवान करशननी विधवा. ५) दाइ वीवाळी-भीलोटा बकोर शामजीनी विषया. ५) बाइ हरफोर-मगनलाल हंसराजनी धर्मपत्नी. ५) बाइ चंचळ-जीवराज फतेचदनी विषया. ५) बाइ चंदन--जसराज वेलचंदनी धर्मपत्नी. ५) बाइ मणि-वेलचंद धनजीनी धर्मपत्नी. ५) बाइ मणि-शेठ कस्तुर दीपचंदनी पुत्री. ५) बाइ हरकोर-मूलचंद करशननी धर्मपत्नी. ५) बाइ समरथ-हरजीवन करशननी धर्मपत्नी. ५) बाइ गोमती-वीरचंद हेमचंदनी विषवा. 4) बार नादि-गोपाळजी डाह्यानी विषया. ५) बाइ रतन-नानचंद कुंवरजीनी धर्मपत्नी. ५) बाइ उनम-प्रभुभाइ रामचंदनी धर्मपत्नी. ५) बाइ पार्वती-मगनलाल बेचरनी विषवा. ५) वाइ कंकु-मानचंद मोतीचंदनी विधवा. ५) बाइ पुरी-मगनलाल कुंवरजीनी विधवा. ५) बाइ हेम-व्होरा दामोदर ताराचंदनी धर्मपत्नी. ५) बाइ चंदन-गोरधन त्रिभुवननी धर्मपत्नी. ५) बाइ साकळी-जगजीवन मोतीचंदनी धर्मपली. ५) बाइ चंचळ-विठ्ठलदास जीवराजनी धर्मपत्नी. ५) बाइ पुनी-केशवलाल लल्लुनी धर्मपत्नी. ५) बाइ कस्तुर-प्रभुदास दीपचंदनी धर्मपत्नी. ५) बाइ मोती-आणंदमी लश्करनी विषवा. ५) बाइसंतोक-लचंद दलीचंदनी विधवा. FORa Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ५) बाइ दीवाळी-कपाशी कीलाभाइ गांडाभाइनी विधवा. ५) बाइ मोधी-नामचंद अमरचंदनी विधवा. ५| बाइ दीवाळी-मोतीमाइ गगलनी विधवा. ५, कई अनोप-भगवान करमवदनी धर्मपत्नो. ५) चाइ अंबा-मनोर माधानी विधवा. १) बाइ रळीयात-दुर्लभ मूळचंदनी धर्मपत्नी. ५) बाइ संतोक-नरोत्तम शामजीनी धर्मपत्नी. ५) बाइ अचरत-मगनलाल छगनलालनी विधवा. ५) बाइ कस्तुर-कानजी मोतीनी धर्मपत्नी. ५) बाइ रंभा भगवान गोपाळजीनी धर्मपत्नी. ५) बाइ शशी-पुरुषोत्तम जगजीवननी धर्मपत्नी. ५) बाइ मोंघी नथु खुशालनी विषया. ५) बाइ गोमती-हरखचंद वालजीनी विघवा. १) बाइ कमळा-देवचंद भाइचंदनी धर्मपत्नी ५) बाइ हेम-जगजीवन शवचंदनी विधवा. ५) बाइ माकु-मगन काळीदासनी धर्मपत्नी. ५) बाइ रुपाळी-जुठाभाइ त्रिभुवननी धर्मपत्नी. १) बाइ लखमी-गांधी शंभु गोकळनी विधवा. ५) बाइ रूखी-खुबचंद वीरचंदनी धर्मपत्नी. ५) बाइ टबल-भाइचंदभाइ दामोदरनी विधवा. ५) बाइ संतोक-मनसुख कचराभाइनी विधवा. १। बाइ संतोक-माणेकचंद खुशालनी विधवा. ५। बाइ अढी-छोटालाल हाउनी विधवा. ५) बाइ संतोक-ओधवजी तेमपाळनी धर्मपत्नी. २१ बाइ वाली-फुलचंद मीठानी धर्मपत्नी. ५) बाइ लेरी-गोपाळजी जूठाभाइनी विधवा. ५। बाइ झमक-पुरुषोत्तम माणेकचंदनी विधवा. ५) बाइ हरख-छगनभाह देवचंदनी विधवा. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५) बाइ दीयाळी-भाइचंद जसराजनी विधया. ५) बाइ जडी-त्रिभोवन हठीसंगनी विधया. २ बाइ पीसी-हानीवन वदनी विषया. ५) बाइ कंकु-वोरा मानचंद करशननी विधवा, ५) बाइ अजवाळी-मगन सुंदरजीनी विधवा. ५) बाइ हरकोर-बोरा चुनीलाल सांकळचंदनी धर्मपन्नी. ५) बाइ संतोक-मोहन ताराचंदनी विधवा. ५) बाद गोमती-योभण भाणनीनी विधवा. ५) बेन जया-चुनीलाल जूठाभाइनी पुत्री. .. ५) नाइ चंचळ-फुलचंद वखतचंदनी धर्मपत्नी. ५) बाइ हरकोर-मूळचंद चतुर्भुननी धर्मपत्नी. ५) याइ जसी. ५) बाइ ओतम-प्रेमचंद गांडानी धर्मपत्नी. गोघा. १५१) साध्वी कंचनश्रीनीना उपदेशथी बाइ रामबा-करमचंद वीरचंदनी विधवा. ५०) बाइ चंदन-छोटामाइ जीवनभाइनः पुत्री. २५) बाइ अजवाळी केशवलाल रतनजीनी विधवा. २५) बाइ पार्वती-कुंवरजी नथुनी धर्मपत्नी. २५) वाइ उनम-जीवन जेचंदनी विधवा. १०) बाद संतोक-नरोत्तम हकुनी धर्मपत्नी. १०) बाइ मणि-वीट्ठल मोतीनी विधवा. १०) बाइ उनम-फुलचंद कीकानी विधवा. १) बाइ हरकोर-नानचंद गांडाना दीकरानी बह. ५) घाइ पार्वती-धर्मचंद मगनलालनी धर्मपत्नी, ५) बाइ मणि--धर्मचंद मगनलालनी धर्मपत्नी. ५) बाइ वीजी-बील धर्मचंदनी धर्मपत्नी. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५) याइ भीवी-परमानंद लालचंदनी विधवा. । ३०) माह प द कालापानी धर्मपत्नी. ५) भाइ ओतम-शामनी मूळचंदनी विधवा. २५) बाइ चंचळ-चुनीलाल दीपचंदनी विधवा. ३) बाइ नंदु-सोनी होराचंद छगननी विधवां, २१) बाइ मेना-मणिलाल सांकळचंदनी विधवा. ५) बाइ दीवाळी-जीवराज कीकानी विषवा. २५) बाइ चंदन-सांकळा वखतचंदनी पुत्री. चाइ अंबा-उका पुरुषोत्तमनी धर्मपत्नी-कोळीयाक. २५) बाइ समरथ-मनसुखराम नानचंदनी धर्मपत्नी. १) बाइ संतोक-गुलाबचंद भाइचंदनी धर्मपत्नी-सहसलीयुं. २१) बाइ मोती-मोहनभाइ मनसुखरामनी धर्मपत्नी. ५) बाइ कडवी-जीवन गोरधननी धर्मपत्नी. २५) बाइ इच्छा-आत्माराम नाथाभाइनी विधवा चंपाश्रीना उ. ५) बाइ मणि-वीरचंदभाइनी पुत्री. २५) बाइ हरकोर-वाडीलालनी विधवा. अमदावाद. २०) बेन गंगा-भोगीलाल मोहनलालनी विधवा. ५१) साध्वी चंपाश्रीना उपदेशथी ज्ञानखाताना. १८) बाई आधार-मोतीलाल काळीदासनी माताजी. | ५०) बाइ जामद-शेठ चमनलाल भगभाइनी विधवा चंपाश्रीनाउ० १५) बाइ हरकोर-बाडीलाल मोहकमचंदनी धर्मपत्नी. ३५) बाइ सोमी दोलत नगीनदासनी धर्मपत्नी आणंदश्रीना उ०1 ) बाइ जासुद-चुनीलाल गोकळनी धर्मपत्नी. ३५) साथ्वीजी मणिश्रीना उपदेशथी ज्ञानखाताना. ) बाइ चंपा-प्रेमचंद केवळभाइनी धर्मपत्नी. ३०) वाइ पुंजी-फुदी. मोह फम लल्लुनी विधवा. १०) बाइ सांकळी-अमृतलाल धर्मचंदनी विधवा. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०) बाइ पुतळी-बालाभाइ जेचंदनी विधवा. १०) बाइ रतन-मगन घेलानी धर्मपत्नी. १०) बाइ मणि-मगन घेलानी धर्मपत्नी. १.) बाइ चंपा-मुरचंद दोलतनी पुत्री. १०) बाइ न्यालकोर-बाडीलाल नगीनदासनी धर्मपानी१०) बाइ सुभी-अमृतलाल मोहकमचंदनी धर्मपत्नी. १०) बाइ मीवी-बाडीलाल काळीदासनी विधवा. १०) बाइ जाभुद-साराभाइ हठीसंगनी धर्मपत्नी. १०) बाइ रूखी-छोटालाल चुनीलालनी धर्मपत्नी. ५) बाइ चंदन-नेमचंद नगीननी माता. ५) बाइ मणि-जेचंदभाइ मनसुखनी धर्मपत्नी. ५) बाइ चंद्रा-रतीलाल त्रिकमनी विधवा. ५) बाइ नासुद-सकळचंद मगुभाइनी विषवा. ५) बाइ घेली-चुनीलाल अमीचंदनी विधना.. ५) बाइ चंचळ-मोहनलाल हरिलालनी विधवा. १) पाड़ अंबा-तनमन काळीदासमी धर्मपत्नी. १) बाइ माकोर-तनमन काळीदासनी धर्मपत्नी. ५) बाइ शशी-मोहन तनमनभाइनी धर्मपत्नी. ५) बाइ जसी-नेमचंद तनमनभाइनी धर्मपत्नी. ५) बाइ चंपा-भोगीलाल तनमनभाइनी धर्मपत्नी. १) बाइ सुरज-त्रिकममाइ नागरदासनी माता. ५) बाइ हरकोर-चमनभाइ लल्लुनी माता. ५) बाइ मणि-डाह्याभाइ दोलतनी विषवा. ५) वाइ चंदन- छोटालाल चकुभाइनी विधवा. ५) बाइ चंचळ-वाडीलाल गुलाबपंदनी विषवा. ५) बाइ जसी-सांकळचंद लल्लमाइनी धर्मपत्नी. १५१) बाइ केसर-शा. नगीनदास करमचंदनी धर्मपत्नी-पाटव ५१) पूज्य गुरुजी श्री शिव श्रीजीना तथा तिलकधीजीना उप देशचीन रतन-कल्याणचंद सौभाग्यचंदनी पुत्री पुरत. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S ११) साध्वी तिलक श्रीजीन्स उपदेशधी बाइ मणिकोर - शेठ. कल्याणचंद सौभाग्यचंदनी पुत्री . -सुरत. १०) बाइ गटाबीबी - लक्ष्मीचंद्र हनुमानसंगनी विधवा-कलकत्ता. ११) बाइ गुलाब - रामचंद जेठाभाइनी विधवा. २९) बाह दीवाळी - अमरचंद कानजीनी विधवा - मांगरोळ. ४०) बाइ समरथ - जेचंदभाइ माणेकचंदनी धर्मपत्नी - लींबडी. ३१ ॥ साध्धी विकश्रीजीला देवी रामपुरावा ज्ञानखाजन १५) बाइ दीवाळी - ताराचंद नथुभाइनी धर्मपत्नी चढवाय. १०) बाइ मणि- अमरशी ताराचंदनी विधवा. २५) साध्वी चंपाश्रीना उपदेशथी बार चंदन- महेसाणा. ५) बाइ संतोक- मूळत्री गारनी पुत्री - कच्छ मांडवी. २५) बाइ मोंघी - लक्ष्मीचंद भगवाननी धर्मपत्नी- बोटाद . १०) बाइ मोंघी - नरोत्तम सूरचंदनी विषया-भोळाद. १०) बाइ जडाव - खीमचंद जीवननी धर्मपत्नी - पालीवाया. . Te 37 २५) साध्वी दोलत श्री मीना उपदेशथी गांडालाल डाह्याभाइ - पाली १०) बाइ नेमी - लल्लुभाइ पदमशीनी धर्मपत्नी-वळा. [ताया. ५) बाइ मणि- छगनलाल अमरचंदनी धर्मपत्नी - खमात. २५) क्षमाश्रीजीना उ० बाइ लक्ष्मी, धरमशी गणनीनी वि० वीरमगाम २५) साध्वी आनंदजीना उपदेशथी ज्ञानखाताना - वांकानेर. २५ बाइ जेकोर दोशी लल्लुभाइ जगभौवननी धर्मपत्नी- गोधा. १००) बाइ मणि-चुनीलाल वीरचंदनी धर्मपत्नी - राधनपुर. २५) बाइ संतोक- शा. बकोरं उनमशीनी विधवा. २९) बाइ मणि- हीरालाल यकोरनी धर्मपत्नी. २५) बाई रूपाळी- मणिलाल बकोरनी धर्मपत्नी. २५) बाइ मधी - मणिलाल बहोरनी धर्मपत्नी. २५) चाइ परसन - जे संगभाइ मोहनलालनी धर्मपत्नी. १०) बाइ तारा-रामलालनी पुत्री. ५) बाइ समरथ - रामचंद शेठनी विधवा " 32 "" ا 19 19 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तराध्ययनसूत्र नाषांतर. - - - विभाग पीजो. अथ ब्रह्मचर्यगुप्ति नामर्नु सोळमुं अध्ययन. १६. पंदरमा अध्ययनमा साधुना गुणो कह्या. ते गुणो तो जे ब्रह्मचर्यमा स्थिर होय तेने ज तत्वथी संभवे छे भने ब्रह्म| चर्य पण ब्रह्मगुप्तिने जाणवाथी ज पाळी शकाय छे. तेथी पा अध्ययनमा ते ब्रह्मगुप्तिमोर्नु ज स्वरूप कहे छे. ए संबंधी | आवेला मा अध्ययन- प्रथम सूत्र ा प्रमाणे सुअं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिट्ठाणा पासत्ता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुर्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरिजा ॥१॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . अर्थ-श्री सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छ के-(पाउस) हे आयुष्मान् ! (मे) में ( सुभं ) समिळy छ, के (तेणं भगवया ) ते एटले शातकुळरूपी समुद्रने विकास करवामां चंद्र समान भगवान श्री वर्धमान जिनेश्वरे ( एवं ) आ प्रमाणे ( अक्खायं ) कहुं छे. शुं कर्बु छ ? ते ज कहे छे—( इह ) आ जिनप्रवचनने विषे ( खलु ) निश्चे (परेहिं भगवंतेहिं ) भगवंत एटले पूज्य एवा स्थविर एटले गणधरादिके ( दस ) दश (बंभचेरसमाहिट्ठाणा ) ब्रह्मचर्यनी समाधिना स्थानो ( पपत्ता ) कह्यां छे. तात्पर्य ए छे के-श्रा बाबत स्थविरो पोतानी बुद्धिथी कई छ एम नधी, परंतु भगवान श्री सावधेमानस्वामीए पण श्राज प्रमाणे का छेते में सांभळ्य छे. तेथी या बाबतमा अनास्था-अश्रद्धा करशि नहीं. हवे ब्रह्मचर्यनां स्थानो केवां छ? ते कहे छे(जे) जे ब्रह्मचर्यनां स्थानोने ( भिक्खू ) साधु जे ते ( सोचा) सूत्रथी समिळीने तथा (निसम्म ) अर्थथी धारीने ( संजमबहुले) बहुल एटले उत्तरोत्तर स्थाननी प्राप्तिवडे घणो छ संयम जेने एवो थाय छे, तेथी करीने ज (संबरबहुले ) घणो के संबर एटले भाश्रवद्वारनो निरोध जेने एवो थाय छे, तेथी करीने ज ( समाहिबहुले ) घणी छे समाधि एटले मननी स्वस्थता जेने एवो थाय छे, तथा (गुत्ते ) मन, वचन अने कायावडे गुप्त थाय छे, तेथी करीने ज (गुतिदिए ) गुप्त छे-वश छे इंद्रियो जेनी एवो थाय छे, अने तेथी करीने ज (गुत्तमयारी) नव गुप्तिने सेववाथी गुप्त एवा ब्रह्मचर्यन आचरण करवाना स्वभाववाळो थइने ( सया) सदा (अप्पमत्ते) प्रमाद रहित थयो सतो (विहरिजा ) विहार करे छे-विचरे के. कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभवेरसमाहिट्ठाणा पामत्ता ? जे भिक्खू सोच्चा निसम्म Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +1++***-+) 14********* संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुर्त्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमते विहरिजा ॥ २ ॥ अर्थ — जंबुस्वामी गुरु महाराज सुधर्मास्वामीने पूछे के के - हे स्वामी ! ( थेरेहिं भगवंतेहिं ) स्थविर भगवंतोए ( कपरे खलु ते ) कया निश्चे ते ( दस ) दश ( बंभचेरसमाहिद्वाया ) ब्रह्मचर्यनी समाधिनां स्थानो ( पत्ता ) कहेलां छे ? के (जे ) जे स्थानोने (भिक्खू ) साधु ( सोचा ) सूत्रथी सांभळीने तथा ( निसम्म ) अर्थथी अवधारीने ( संजमबहुले ) घणा संयमवाळ ( संवरबहुल ) या संवश्वाळी ( समाबिहुले ) घणी समाधित्राको ( गुत्ते ) प्रण गुतिथी गुस ( गुर्सिदिए ) इंद्रियांनी गुप्तिवाळो तथा ( गुसबंभयारी ) नव गुप्ति युक्त ब्रह्मचर्यं प्राचरण करवाना स्वभाववाळो थाने (सया ) सदा ( अप्पमत्ते ) प्रमाद रहित (विहरिजा) विचरे छे २. श्री सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने उत्तर आवे छे के इमे खलु ते रे भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिट्टाणा पहाता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुतिदिए गुत्तभयारी सपा अप्पमत्ते विहरिजा ॥ ३ ॥ अर्थ-स्थावर भगवंतोष मा निश्चे ते दश ब्रह्मचर्यनी समाधिनां स्थानों कलां छे, के जे स्थानोने सांभळीने साधु सदा श्रप्रमतपणे विचरे थे. ( मध्यना शब्दोनो अर्थ उपर प्रमाणे समजी लेवो. ) ३. इवे से ब्रह्मचर्यनी समाधिनां दश स्थानो बतावे बे. 14*****... Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं जहा-विवित्ताई सपणासणाई सेविजा से निग्गंथे, नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई | सेवित्ता हवइ से निग्गंथे । तं कहमिति चे ? आयरिआह-निग्गंथस्स खल्लु इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई | सयणासणाई सेवमाणस्स बंभयारिस्त बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पाजज्जा, || भेमं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालिअंवा रोगायक हविजा, केवलिपहाताओ वा धम्माओ भंसिजा, तम्हा नो इस्थिपसुपंडमसत्ताइंसपणासणाईसयित्ता इचइसे निगथे ॥ ४ ॥ अर्थ—(तं जहा ) ते आ प्रमाणे-(विवित्ताई) विविक्त एटले स्त्री, पशु अने नपुंसक रहित एवां (सयणासणाई ) शय्या, श्रासन अने उपलक्षणी स्थानोने ( सेविजा ) जे सेवे, (से) ते (निग्गंथे ) निग्रंथ एटले साधु कहेवाय छे. आ प्रमाणे अन्धयचडे करा. हवे अल्पमतिवाळा शिष्यने सारी रीते चोध थवा माटे श्राज अर्थने व्यतिरेकवडे कहे छे.-( इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई ) स्त्री, पशु अने नपुंसक सहित एवां ( सयणासणाई ) शय्या, आसन अने स्थानने ( सेवित्ता) जे सेव | | नार होय (से) ते (निगंथे) निग्रंथ ( नो हवह ) न होय एटले न कहेवाय. ा प्रमाणे गुरुनु बचन सांभळी शिष्य कहे थे के-(तं कई ) आ तमे का ते शी रीते ? ( इति चे ) श्रा प्रमाणे जो शिष्य शंका करे तो (आयरिपाइ ) आचाये कहे के के-( खलु ) निश्चे ( इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई) स्त्री, पशु अने नपुंसक सहित एवां शयन, आसन भने स्थानने ( सेवमाणस्स ) सेवता एवा ( बंभयारिस्स) अने ब्रह्मचारी एवा पण (निग्गंधस्स ) निग्रंथना (पंभचेरे ) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनचर्यने विषे वीजा मनुष्योने ( संका वा ) शैका थाय, एटले के पाया प्रकारना शयन, प्रासनने सेवनार मा साधु ब्रह्मचारी हशे के नहीं होय ? एम बीजाओने शंका थाय छे. अथवा तो साधुने पोताने ज पोताना प्रमचर्यने विषे शंका थाय छे. पटले के भी विगेरेना दर्शनशी तेनापर गाढ अनुराग-प्रीति उत्पम थाय के अने नेथी करीने समय जिनेश्वरनो उपदेश वीसरी जइ प्रावी भावना थाय ले के-- “सत्यं वच्मि हितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारङ्गलोचना ॥". "हु सत्य कहुं छु, हित कहुंछु अने पारंवार सारने एटले तत्त्वने कहुं हुं के आ भसार संसारमा मृगलोचना (स्त्री) |ज सारभूत छे." श्रावां रागीजनोना बचननी भावना भावतां मिथ्यात्वना उदयथी कदाच " स्वीसेवनमा जे दोष तीर्थकरोए कम्मो के | ते दोष सत्य नहीं होय " ए प्रमाणे तेने पोताने ज शंका उत्पन थाय. अथवा (कंखा वा ) कांक्षा उत्पन्न थाय एटले | स्त्रीविषयनी इच्छा उत्पन्न थाय. ते या प्रमाणे. __" प्रियादर्शनमेवास्तु, किमन्यैर्दर्शनान्तरैः । निर्वाणं प्राप्यते येन, सरागेणापि चेतसा ॥" "अमारे मियानुं दर्शन ज हो, वीजा ( योद्धादिक) दर्शनोए करीने शुं फळ छे ? कारण के जे प्रियाना दर्शनवडे करीने सरागी चित्ते पण निर्वाण पमाय चे." १ मोक्ष. बीना पक्षमा सुख. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न - - - आवां नास्तिकोनां दर्शननी अभिलाषा थवाधी स्वीनी इच्छा थाय छे. ( वितिगिच्छा वा ) अथवा "आवी चारित्रनी , कष्टकारी क्रिया करवाथी तेनु काइ फळ मळशे के नहीं ?" भावी फळ श्राश्री शंका थाय छे. तेथी आ "स्त्री विगेरेनु सेवचु | जसा थे." एम धारे छ. ए प्रमाणे विचिकित्सा एसपनोसंह (सपनिमा उत्पन्न वाय.(मेवा लभेजा) अथवा मेद एटले चारित्रना किनाशने पामे छे. (उम्मायं वा पाउणिजा) अथवा उन्मादने एटले कामनी आतुरताने पराधीनताने पामे छे. (दीहकालिनं वा रोगायक हविक्षा) अथवा लारो काळ पहोंचे एवा रोग एटले दाहज्वरादिक * अने आतंक एटले तत्काळ मरण करनारा शूळ विगेरे व्याधियो शरीरने विषे उत्पम थाय छे. कामी मनुष्योना शरीरमा | कामनी दश अवस्थामो थाय छे ते आ प्रमाणे "प्रथमे जायते चिन्ता, द्वितीये द्रष्टुमिच्छति । तृतीये दीर्घनिःश्वासा, चतुर्थे ज्वरमादिशेत् ॥ पश्चमे दह्यते गात्रं, षष्ठे भक्तं न रोचते । सप्तमे च भवेत्कम्प, उन्मादश्वाष्टमे तथा ।। नवमे प्राणसंदेहो, दशमे जीवितं त्यजेत् । कामिना मदनोद्धेगा, दश संजायन्ते ह्यमी ।।" "कामीजनाने स्त्रीना दर्शनधी श्रा दश कामनी अवस्थाओ उत्पन्न थाय छे. प्रथम तेने मळवा विपनी चिंता-वि- || | चार थाय छ १, पछी ते स्त्रीने जोबानी इच्छा थाय छ २, पछी तेना विरहने लीधे दीर्घ निःश्वास मुके थे ३, पछी तेने | परिणामे ज्वर मावे छे ४, पछी शरीर वळया लागे छे ५, पछी भोजनपर अरुचि थाय छे ६, पछी शरीरे कंप थाय छे ७, पछी उन्माद थाय छे ८, पछी प्राणना संदेहमा भावी पडे छ । भने छेचट जीवितनो त्याग पण कोइक करे छे १०." - - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (केवलिपणत्तामओ वा धम्माओ भंसिजा ) अथवा तो केवळी भगवाने प्ररूपेला चारित्रधर्म थकी भ्रष्ट थाय छे. - केमके कोइक जीव क्लिष्ट कर्मना उदयथी धर्मभ्रष्ट पण थाय छे. ( तम्हा) तेथी करीने ( इस्थिपसुपंडगसंससाई) स्त्री, पशु | अने नपुंसकना संबंधवाळा (सयणासणाई) शयन, आसन भने स्थानने ( सेवित्ता) जे सेवनार होय (से) ते (निगंथे) | निग्रंथ ( नो हवइ ) न होय-न कहेवाय. आ ब्रह्मचर्यतुं पहेलुं समाधेिस्थान कहुं १, ४. ___ इवे बीजुं समाधिस्थान कहे छ.-- जो इत्थीणं कहं कहित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहमिति चे ? आयरियाह-निगंथस्स खलु इत्थीणं कह कहेमाणस्स बंभयारिम्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिज्जा, भेअं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालिअंवा रोगायक हविजा केवलिपपत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीणं कहं कहिज्जा ॥२-५॥ अर्थ- इत्थीणं ) एकली स्त्रीभोनी पासे अथवा स्त्री संबंधी ( कह ) कथाने ( कहिता) जे कहेनार होय (से) ते (निग्गंथे ) निग्रंथ ( णो हवइ ) न होय, एटले के केवळ स्त्रीओनी पासे ज धर्मोपदेश करवो नहीं. अथवा स्त्रीम्रोनी जाति | कुळ, वेप अने रूप विगरे संबंधी, तथा पद्मिनी, चित्रणी, हस्तिनी अने शंखिनी तथा मुग्धा, मध्या अने प्रौढा तथा कर्णाः | || टक आदि देशमा उत्पन्न थयेली स्त्रीश्रो आची आवी होय छे इत्यादिक स्त्री संबंधी कथा करवी नहीं. जो करे तो ते साधु न Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहेवाय. (तं कह ) तमे कहूं ते शी रीते ? ( इति चे) एम जो शिष्य शंका करे तो (आयरियाह ) आचार्य कहे के के(खलु) निचे ( इत्थीणं ) एकली स्त्रीमो पासे कथा करता अथवा स्त्री संबंधी ( कहं कहेमाणस्स ) कथाने कहेता एवा (निग्गंधस्स ) साधुने (बंभचारिस ) ब्रह्मचारी छतों पण अंमधेरे ) ब्रह्मचर्यने विषे ( संका वा) हुँ पा स्त्रीने से, के | न सेवू ? इत्यादिक शंका उत्पन्न थाय छे. इत्यादिक सर्व उपर बताव्या प्रमाणे हानि थाय छे. ते पाठनो अर्थ उपर प्रमाणे अहीं पण करवो. छेवटमा ( तम्हा खलु निग्गथे) ते कारण माटे निश्चे साधुए (नो इत्थीणं कहं कहिजा) एकली स्त्रीIT श्रोनी पासे कथा करवी नहीं अथवा स्त्री संबंधी कथा कहेवी नहीं. मा ब्रह्मचर्यनुं बीजं समाधिस्थान की. २. ५. ___ हवे त्रीजुं समाधिस्थान कहे छे. __णो इथाहिं सद्धिं सन्निसिज्जागए विहरित्ता हवइ से निग्गंथे । तं कहमिति चे ? आयरिIS आह-निग्गंथस्स खलु इत्थीहिं सद्धिं सन्निसिज्जागयस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिज्जा, भेअं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हविजा, केवलिपामत्ताओ वा धम्माओ भलिज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे स्थाहिं सद्धिं सन्निसिज्जागए विहरिजा ॥ ३-६ ॥ __ अर्ध (इत्थीहिं सहिं ) खीमोनी साथे ( समिसिजागए ) एक आसन पर रह्यो धको ( बिहरिना) स्थिति करनार Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -साथे बेसनार जे होय ( से ) ते (निग्गंथे) साधु (णो हवह ) न होय-न कहेवाय. अहीं संप्रदाय एवो ले के-जे आसन | उपर प्रथम स्त्री बेहेली होय, ते आमन उपरथी ने सीना उखा पछी बे घडी जाय त्यारे ज ते साधुने चेसवा योग्य थाय छे. (तं कहं ) ते शी रीते ? ( इति चे) एम जो शिष्य शंका करे तो (आयरियाह ) आचार्य कहे छे. ( खलु )निश्वे (इत्थीहिं सद्धिं ) स्त्रीमोनी साथे ( सनिमिजागयस्स) एक आसन पर रहेला-बेठेला (निग्गंथस्स) साधुने (बंभयारिस्स ) ब्रह्मचारी छतो पण ( बंभचेरे संका वा) ब्रह्मचर्यने विषे शंका उत्पन्न थाय. विगैरे पाळावानो अर्थ पूर्वनी जेम जाखी लेवो. | छेवट ( तम्हा खबु ) ते कारण माटे निश्चे (निग्गथे) साधु ( इत्थीहिं सद्धि ) स्त्रीओनी साथे ( सन्निसिजागए) एक | आसन पर रह्यो थको ( नो विहरिजा ) न विचरे-न बेसे. या त्रीजुं समाधि स्थान कयु. ३-६, हवे चोथु समाधिस्थान कहे थे णो इत्थीणं इंदिआई मणोहराई मणोरमाई आलोएत्ता निज्झाएत्ता भवति से निग्गंथे । तं कहमिति चे ? आयरिआह-निग्गंथस्स खल्ल इत्थीणं इंदिआई मणोहराई मणोरमाइं आलोएमा णस्त निज्झाएमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा जाव केवलिपामत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खल्लु नो निग्गंथे इत्थीणं दिआई जाव निज्झाएजा ॥४-७॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( इत्थीणं) स्त्रीमोना ( इंदिभाई ) नेत्रादिक इंद्रियोने. केवा इंद्रियोने ? (मणोहराई ) मनोहर एटले जोवा || | मात्रथी ज मनने आकर्षण करनारा तथा ( मणोरमाई ) मनोरम एटले दर्शन कर्या पछी चिंतव्या थका मनने आनंद प्राप- | नारा एवा इंद्रियोने (आलोएसा) काइक जोइने तथा (निज्झाएत्ता) अत्यंत जोइने अथवा निध्याता एटले जोया पछी "अहो । ते स्वीना नेत्रनी सुंदरता भने नासिकानी सरळता केवी के ? इत्यादिक विचार करनार जे होय (से) ते ॥ (निग्गंधे ) साधु ( णो भवति ) न होय (तं कई ) ते केवी रीते ? ( इति चे) एम जो शिष्य शंका करे तो (आयरि आह) आचार्य कहे छे--( खलु ) निशे ( इत्थीणं) स्त्रीभोनां (इंदिभाई मणोहराई मणोरमाई ) जोवाथी मननुं आकपण करनार अने जोया पछी मनने आनंद प्रापनार इंद्रियोने (आलोएमाणस्स ) कांइक जोता एवा अने (निज्झाएमाशास्स) प्रत्यंत जोता एवा अथवा ध्यान करता एवा (निग्गंथस्स) साधुने (भयारिस्स ) ब्रह्मचारी छता पण (भचेरे संका वा) ब्रह्मचर्यने विषे शंकादिक दोष उत्पन्न थाय इत्यादिक पूर्वनी जैम जाणवू. छेवट (तम्हा खलु ) ते कारण माटे निचे (निग्गंथे ) साधु (इत्थीणं) स्त्रीओना ( इंदिआई जाव ) मनोहर भने मनोरम एवां इंद्रियोने यावत् (नो निउझाएजा ) न जुए-न ध्यान करे. मा चोथु समाधिस्थान थयु. ४-७. हचे पाचप्नु समाधिस्थान कहे छे.-. णो निग्गंथे इत्थीणं कुटुंतरंसि वा, दूसंतरंसि वा, भिर्तितरंसि वा, कुइअसई वा, रुइअसई Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा, गीअसई वा, हसिअसई वा, थणिअसई वा, कंदिअसई वा, विलविअसहं वा सुणित्ता हवइ * से निम्गथे । तं कहमिति चे ? आयरिआह-निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कुटुंतरंसि वा जाव विलवि. । असई वा सुणमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा जाव केवलिपहाताओ वा धम्माओ | भैसिज्जा, तम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीणं कुर्वातरंसि वा जाव सुणमाणो विहरेजा ॥ ५-८॥ ___ अर्थ-(निग्गंथे ) साधु ( कुइंत्तरंसि वा ) पथ्थर अने माटी विगेरेथी बनावेला कुड्य-भीतने आंतरे-ओथे रहीने, अथवा (संतरसि वा) दूष्य एटले यसना पडदाने आंतरे रहीने अथवा ( भित्तितरसि वा) पाकी इंट अने चूना विगेरेथी बनावेली भीतने आंतरे रहीने (इशी मीशोना ( जुनअसई वा) कूजित शब्द एटले संभोग समये कोयल विगेरे पक्षीनी | जेवा थता शब्दने अथवा (रुअसई वा) रतिकलहादिकमा थता रुदित शब्दने अथवा (गीअसई वा) पंचम विगरे मीतना | शब्दने अथवा ( हसिमसई वा ) हसवाना शब्दने अथवा ( थाणअसदं वा ) रति समयमा थयेला मेघनी गर्जना जेवा ॥ शन्दने अथवा ( कंदिअसई वा) पतिना विरइने लीधे करेला श्रानंदना शब्दने अथवा ( चिलविसई वा) भर्ताना गुणो संभारी संभारीने करेला बिलापना शब्दने (सुणित्ता ) सांभळनार जे होघ (से ) ते (निम्गंथे ) साधु (नो || इवइ ) न होय-न कहेवाय, (तं कह ) ते केवी रीते ? ( इति चे ) एम जो शिष्य शंका करे तो (आयरिाह ) भाचार्य कहे छे-(खलु ) निथे (कुईतरंसि वा) प्रथम कहेला कुख्य विगैरेने तिरे रहाने (इस्थीणं ) स्त्रीओना पूर्वे कहेला कृजित | Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | विगेरे यावत (पिलविसई पा) विलापना शब्दने (सुसामाणस्स ) सांभळता (निग्गंथस्स) साधुने (मयारिस्स)। मलधारी असा पच बिभरे) ब्रह्मचर्य विपे (संका वा) शंका विगेरे दोषी उत्पन्न थाय, यावद केवळीए प्ररूपेला । | धर्मथकी भ्रष्ट थाय. ( तम्हा) ते कारण माटे (खल ) निथे (निग्गथे ) साधु ( कुटुंतरसि वा) कुड्य विगेरेने प्रांतरे | रहीने ( इत्थीणं ) स्त्रीमोना कृजित विगैरे शब्दने यावत् विलापना शब्दने (सुणमाणो) सांभळतो थको ( नो विहरेजा ) न 10 विचरेन रहे. कारण के स्त्रीओना कामोद्दीपक शब्दने जे सांभळे ते साधु कहेवाय नहीं आ पांचमु समाधिस्थान कहां. ५-८. ___हवे छह समाधिस्थान कहे . नो निग्गथे इत्थीणं पुव्वरयं पुवकीलिअं अणुसरित्ता भवइ, तं कहमिति चे? आयरिआहनिग्गंधस्स खलु इत्थीणं पुवरयं पुबकीलिअं अणुसरेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा | कंखा वा जाव धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थाणं पुवरयं पुष्वकीलिअं| अणुसरेज्जा ॥६-९॥ ___अर्थ-(निग्गंथे ) साधु ( इत्थीणं ) स्त्रीनो संबंधी एटले स्त्रीमोनी साथे ( पुन्धरयं ) पूर्वे एटले गृहस्थावस्थाने विषे जे रत एटले संभोग को होय तेने तथा (पुन्वकीलिअं) पूर्वे-गृहस्थावस्थाने विषे लीयो साथे जे द्यूतादिक क्रीडा करी होय तेने (अणुसरिता) स्मरण करनार (नो भवइ) न थाय अर्थात् जो ते स्मरण करे तो ते साधु न कहेवाय. | Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तं कई ) ते केवी रीते ? ( इति चे ) एम जो शिष्य शंका को तो (आयरिआइ) प्राचार्य कई छ.-(खल ) निवे (इत्थीणं) सीओ संबंधी (प्रवरयं ) पूर्वे रत कर्य होय-काम सेवन कर्य होय तेने तथा (पुबकीलिअं) पूर्वे काम HH | क्रीडा करी होय तेने ( अगुसरेमाणस्स ) स्मरण करनार (निग्गंधस्स ) साधुने (मयारिस्स । ब्रह्मचारी का पण (घंभचेरे ) ब्रह्मचर्यने विषे ( संका वा ) शंका विगरे दोषो धाव यावत् (धम्माओ भंसिज्जा) धर्मथी भ्रष्ट थाय. ( तम्हा * खलु) ते कारण माटे निश्चे ( निग्गंथे ) साधु ( इत्थीणं ) खीओ संबंधी ( पुन्वरयं) पूर्वे करेला संभोगने तथा (पुत्रकीलिअं) पूर्वे करेली छूतादिक क्रीडाने ( नो अणुसरेजा ) स्मरण न करे. श्रा छठं समाधिस्थान कटुं. ६-६. हवे सातमु समाधिस्थान कहे छ.-- जो पणीअं आहारमाहारित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहमिति चे ! आयरिआह-निग्गंथस्त खल्नु पणीअं पाणभोअणं आहारमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा जाव केवलिपमत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे पणीअं आहारमाहरेजा ॥ ७-१० ॥ ___ अर्थ--(पणीअं) प्रणीत एटले जेमांधी पी विगेरेना विंदु झरता होय तेवा भने उपलक्षण थी शरीरना धातुओने पुष्ट | करे तेवा (आहारं ) आहारने (आदारित्ता ) शादार करनार-भोजन करनार (णो हवइ ) जे न होय ( से ) ते (निगंधे) | निग्रंथ कद्देवाय. शेष सूत्रनो अर्थ प्रसिद्ध छे. मा सातमु समाधिस्थान की. ७-१०. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे अाठमुं समाधिस्थान कहे छ नो भइमायाए पाणभोअणं आहारइत्ता हवा से निग्गंथे, तं कहमिति चे ? आयरिआह-नि|| गथस्स खलु अइमायाए पाणभाअणं आहारेमाणस्त बंभयारिस्त बंभचेरे संका वा कंखा वा जाव धम्माओ भंसिजा, तम्हा खलु नो निग्गंधे अइमायाए पाणभोअणं भुजिजा ॥ ८-११ ।। अर्थ-(श्रइमायाए ) अतिमात्रा वडे एटले पुरुषनो आहार बत्रीश कवळ प्रमाण अने स्त्रीनो भट्ठावीश कवळ प्रमा| ण करो छ, तेथी अधिक प्रमाणडे ( पाणभोसणं) पान भोजनने (आहारहत्ता) श्राहार करनार (नो हवा) जेन |* होय ( से ) ते (निग्गंधे ) निग्रंथ कहेवाय छे. शेष सूत्रनो अर्थ प्रसिद्ध छे, मा आठमुं समाधिस्थान थयु-११. हवे नवमुं समाधिस्थान कहे छे. नो विभूसाणुबाई हवई से निगंथे, तं कहमिति चे ? आयरिआह-विभूसावत्तिए खलु विभूसियसरीरे इस्थिजणस्स अहिलसणिजे हवइ, तओ णं तस्स इथिजणेणं अभिलसिज्जमाणस्त बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा जाव धम्माओ भीसज्जा, सम्हा खलु नो निग्गथे विभूसाणुवाई सिआ ॥ १-१२॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(विभूसाणुवाई ) विभूषानुपाती एटले शरीरने साफ राखी शोभा करनार (नो हबई ) जे न होय (से) ते ( निग्गंथे ) निग्रंथ कहेवाय छे. (तं कई ) ते एम केम ? ( इति चे ) एम जो शिष्य शंका करे तो (आयरिाह ) प्राचार्य महाराज कहे छ के-(विभूसावत्तिए ) विभूषा करवाना स्वभाववाळो ( खलु ) निश्चे ( विभूसियसरीरे) स्नाना दिक बडे विभूति की हे शरीर से पनो साधु ( इस्विजणस्स ) स्त्रीजनने ( अहिलसणि जे ) अभिलाष करवा लायक * एटले प्रार्थना करवा लायक ( हवइ ) थाय छे. ( तो णं ) तेथी करीने ( इत्थिजणेणं ) स्वीजने ( अभिलसिञ्जमाणस्स) || अभिलाष कराता (भयारिस्स ) ब्रह्मचारी एवा ( तस्स ) तेना (भचेरे ) ब्रह्मचर्यने विपे ( संका वा ) शंका थाय, अथवा (खा वा)कांचा थाय, इत्यादि (जाव) यावत ( धम्माभो भसिजा ) धर्मथी भ्रष्ट थाय. (म्हाते कारण | माटे ( खलु ) निचे (निग्गंधे ) निग्रंथ (विभूमाणुवाई ) शरीरनी विभूषा करनार (नो मिश्रा) न थाय. मानवमुं | समाधिस्थान कझुं. ६-१२. ___ हवे दशभु समाधिस्थान कहे छे. नो सहरूवरसगंधफासाणुवाई हवइ से निग्गंथे, तं कहमिति चे ? आयरिआह-निग्गंधरस खल्लु सदरूवरसगंधफासाणुवाइस्ल बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समु. प्पजिजा, भेअं वा लभेजा, उम्मादं वा पाउणिज्जा, दीहकालिअं वा रोगायक हविज्जा, केवलि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमत्ताओ वा धम्माओ भसिज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंध सहरूवरसगंधफासाणुवाई हवइ से निगंथे, दसमे बंभचेर समाहिदाणे हवइ ॥ १०-१३ ॥ ___अर्थ-( सद्दवरसगंधफासाणुवाई ) शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्श तेने अनुसरनार ( नो हवइ ) जे न होय (से ) ते (निग्गथे ) निथ कहेवाय छे. अर्थात् हसवं आवे तेवा शब्द, स्त्रीनुं स्वरूप, मधुरादिक रस, चंदनादिकनो गंघ | अने सुखकारक कोमळ शरीरनो स्पशे ए पांचे विषयोनो उपभोग करे नहीं. (तं कई) ते केवी रीते ? ( इति चे) एम जो शिष्य शंका करे तो (आयरिआइ) प्राचार्य कहे छे के-( खलु ) निश्चे ( सदरूवरसगंधफासाणुवाइस्स ) शन्द, रूप, || रस. गंध अने स्पर्शनो उपभोग करनार (बंभयारिस्स) ब्रह्मचारी एवा (निर्गथस्स) निग्रंथने (बंभचेर ) ब्रह्मचयन विषे ( संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुपजिजा) शंका, के कांक्षा के विचिकित्सा उत्पन्न थवानो संभव के. (भेनं वा लभेआ) अथवा चारित्रना विनाशने पामे. ( उम्मादं वा पाउणिजा) अथवा उन्माइने पामे. (दीहकालिभं वा रोगायक हविजा ) अथवा दीर्घकाळ सुधी पहोंचे तेवा ज्वरादिक रोगो ने तत्काळ मृत्यु करनारा शूलादिक आतंको तेने उत्पन्न थाय छे. ( केवलिपछताओ वा धम्मामो मसिजा ) अथवा केवळी भगवाने प्ररूपेला धमेथी भ्रष्ट धाय छे. (सम्हा खलु । ते कारण माटे निश्च (निग्गंथे ) जे साधु ( सहरूवरसगंधफासाणुवाई ) शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्शने भोगवनार (नो हवइ ) न होय (से) ते (निग्गंथे) निग्रंथ कहेवाय छे. (दसमे चंभचेरसमाहिहाणे हवइ ) मा दश प्रमचयेर्नु समाधिस्थान कडई. १०-१३. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवंति इत्थ सिलोगा, तं जहाअर्थ-(इत्थ) अहीं एटले उपर कहला विषय उपर (सिलोगा) श्लोको (भवंति ) छे. (तं जहा) से या प्रमाणे.- | जं विवित्तमणाई, रहि थीजणेण ये । भचेरस्स रक्खट्ठा, आलयं तु निसेवैए ॥ १॥ अर्थ-(जं) जे उपाश्रय ( विवित्तं ) विविक्त एटले एकांतमा रहला होय अर्थात् स्त्री आदिकना रहेबासी रहित होय, तथा जे ( अणाइस ) अनाकीर्ण एटले कांइ पण प्रयोजनवडे ज्या स्त्री विगरे आवता न होय अथवा जे उपाश्रय गृहस्थीमोना घरथी दूर होय, तथा ( थीजणेण य ) समय विना वंदन श्रवणादिक निमित्त जता श्रावता स्त्रीजनवडे अने च शब्द छ माटे पशु अने नपुंसकवडे (रहिअं) रहित होय तेवा (आलयं तु) पालयने एटले उपाश्रयने साधु (बंभचेरस्स) ब्रह्मचर्यना ( रकखट्टा ) रक्षणने माटे ( निसेवए ) सेवे एटले तेवा उपाश्रयमा साधुए रहेवू योग्य छे. १. मणपल्हायजणणिं, कामरागविवणिं । बंभचेररओ भिक्ख, थीकहं तु विवजए ॥ २ ॥ अर्थ-( बंभचेररओ ) ब्रह्मचर्य ने विषे रक्त-मासक्त एयो ( भिक्खू ) साधु ( मणपन्हायजणणि ) चित्तने आद्| लाद उत्पन्न करनारी तथा ( कामरागवियणिं ) कामरागने एटले विषयाभिलापने वधारनारी (थीकहं तु ) एवी स्त्री| कथाने ( विवजए ) वर्जे-त्याग करे. २. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समं च संथैवं थीहिं, संकटं च अभिक्खणं । बंभचेररओ भिक्खू, निचसो परिवज्जए॥३॥ अर्थ--(भचेररओ गिल्प ) बानीने विमे रम्त पलो साध ( श्रीहिं) स्त्री मोनी ( समं च ) साधे ( संथवं ) संस्तबने एटले एक आसन पर बेसीने परिचय करवो तेने ( च ) तथा (अमिक्खणं) वारंवार ( संकहं ) ते स्त्रीमोनी साथे कथाने (निचसो ) सर्वदा (परिवजए ) पर्जे, ३. अंगपञ्चंगसंठाणं, चारल्लविअपेहिमं । बंभचेररओ थीणं, चैक्खुगिज्झं विर्वजए ॥४॥ अर्थ-(भचेररमो ) ब्रह्मचर्यने विषे रक्त एवो साधु ( थीणं ) स्त्रीओ संबंधी (अंगपञ्चंगसंठाणं ) मस्तकादिक | Fll अंगो भने स्तनादिक उपांगोना संस्थानने एटले पाकारने तथा ( चारुनविअपहिथं ) मनोहर उन्नपित-वचन अने प्रेषित एटले कटाक्षपूर्वक जोवू तेने ( चखुगिज्झं) चक्षुए ग्रहण कयुं सतुं एटले नेप्रवडे जोवामां आवे तो तेने ( विवजए ) व. एटले के नेत्र होचाने लीधे रूपनुं जोवू अवश्य थाय ज छे. परंतु नजरे पटे के तरत त्यांधी दृष्टि खेंची लेवी, पण रागना शथी वारंवार तेनी सन्मुख जोया करवू नहीं. कह्यु के के "अशक्यं रूपमद्रष्टुं, चक्षुर्गोचरमागतम् । रागद्वेषौ तु यो तत्र, तौ बुधः परिवर्जयेत् ॥ " नेत्रना विषयमा भावेलुं रूप न जोवू ए तो अशक्य छ, परंतु ते जोवामा जे राग के द्वेष थाय थे, तेनो परिते त्याग करवानो के."४. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुइअं इअं गीअं, हेसिअं थणिअकंदिअं । बंभचेररओ थीणं, सोअगिज्झं विवेज ॥ ५ ॥ 1 अर्थ - ( वंभरओ) ब्रह्मचयेने विषे रक्त एवो साधु (धीर्य ) श्री संबंधी ( कुहथं ) कूजित शब्दने, तथा (रु) रुदितना शब्दने, तथा ( भी ) गीतना शब्दने, तथा हसि ) हसवाना शब्दने, तथा ( थत्रि ) स्वनित शब्दने, तथा (कंदि) कंदित शब्द ने ( सोभगिनं ) श्रोत्रवडे ग्रहण थाय संभळाय तो तेने ( विवजय ) वर्जे. सहीं कूजित विगेरेनो अर्थ उपर आठमा सूत्रमां को छे. ते ज जायचो. ५. ६ ॥ हार्स किड रेई दप्प, सहसावन्तासिआणि अ । बंभेचेररओ श्रीणं, नोणुचिंते कयाइव ॥ अर्थ - (बंभररो) ब्रह्मचर्य मां रक्त एवो साधु ( थीं ) स्त्री संबंधी पूर्वे करेला ( द्वारा ) हास्यने द्यूतादिकक्रीडाने, (रई) स्त्रीना अंगना संगधी उत्पन्न थयेली प्रीतिने, (दप्पं ) मानवी उत्पन्न धयेला गर्वने वत्तासिश्राणि श्र ) तथा सहसा एटले एकदम पाळधी आवीने पोताना हाथवडे स्त्रीनां नेत्रो टांकी दीर्घा गेरे स्त्रीने त्रास माडनारी चेष्टाने ( कयाइवि ) कदापि ( न अणुचिंते ) चितये नहीं संभारे नहीं. ६. पेण त्तपाणं चे, विप्पं भयविवडणं । बंभंचेररभो भिक्खू, निवसो पेरिवज्जए (किड ) ( सहसा - होय ए वि ॥ ७ ॥ अर्थ -- (र) ब्रह्मचर्यने विषे रक्त एवो ( भिख्खू ) साधु ( परिणयं ) प्रणीत एटले जेमांधी घृतादिक रस रतो होय एवा (भतपा ) भक्तने एटले थाहारने तथा पानने एटले द्राक्ष, खजुर घने साकर विगेरेथी मिश्रित पाणीने Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (च) तथा (खिप्पं ) शीघ्रपणे ( मयक्विटणे ) कामने वृद्धि पमाडनार बीजा कोइ पण पदार्थने ( निचतो ) निरंतर * ( परिवजए ) वर्जे. ७. धम्मलद्धं मिों काले, जत्तत्थं पंणिहाणवं । नाईमत्तं तु भुजिजा, बंभचेररओ सया ॥८॥ । अर्थ-(पणिहाणवं ) प्रणिधानवान एटले चित्तनी स्वस्थताए करीने युक्त एवो साधु (जत्तत्थं ) यात्राने माटे एटले । संयमना निर्वाहने माटे ज-परंतु रूपादिकने माटे नहीं तथा ( काले ) समये (धम्मलद्धं ) धर्मना हेतुथी ज प्राप्त थयेलो परंतु कपटादिक करीने प्रहल करेलो न होय तेवों तथा मिश्र) प्रमाणीपत एवो ज पाहार करे. (तु) परंतु (बंभचेररो) । ब्रह्मचर्यमा रक्त एवो साधु ( सया ) निरंतर (अइमत्तं) अधिक प्रमाणवाळा आहारनुं ( न सुंजिजा ) भोजन करे नहीं. ८. विभूसं परिवजिजा, सरीरपरिमंडणं । बंभचेररओ भिख्खू, सिंगारत्थं न धारए ॥९॥ ___ अर्थ—(बंभचेररो) ब्रह्मचर्यने विषे रक्त एवो ( भिख ) साधु (विभूसं) वस्त्रादिकाडे शरीरनी शोभाने (परिवजिजा ) वर्जे, तथा ( सिंगारस्थं ) शोभाने माटे (सरीरपरिमंडणं ) नख केशादिकना संस्कार रूप शरीरना मंडननेशोमाने (न धारए ) धारण न करे. ६. सहे रूवे अ गंधे अ, रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निचसो परिर्वजए ॥ १० ॥ __अर्थ-ब्रह्मचर्यमा रक्त एवो साधु ( सहे ) कर्णने सुख आपनारा शब्द, (रूवे अ ) नेत्रने प्रीति उपजावनार रूप | तथा ( गंधे अ) नासिकाने खुशकारक गंध तथा ( रसे) मधुरादिक रस ( तहेव य ) तथा वळी (फासे) त्वचाने प्रीति Joke--COK Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनार स्पर्श (पंचविहे ) ए पांच प्रकारना (कामगुणे ) इच्छाकाम अने मदनकामने उपकार करनार होवाथी कामगुणोने (निच्चसो ) निरंतर ( परिवजए ) वर्जे. १०. प्रथम ब्रह्मचर्यना दरेक समाधिस्थानमा " शंका धाय अथवा कांक्षा धाय " इत्यादि कह्यु हतु, तेने ज दृष्टोतवडे स्पष्ट करे छे. आलो थी जोगाइलो, धीकहा ये मणोरमा । संधवो चे नारीणं, तासिं इंदिअदरिसणं ॥११॥ | | कइअं सेइ गीअं, हैसिअंगुन्जालिआणि ॐ । पणिभशपाणं च, अइमायं पाणभोअणं ॥१२॥ गैत्तभूसणमि, च, कामभोगा दैजया । नरस्सत्तर्गवेसिस्स, विसं तालउड जहा ॥ १३ ॥ अर्थ-( थीजणाइयो ) स्त्रीजनवडे व्याप्त-सहित एवो (बालश्रो) उपाश्रय, ( 2 ) तथा ( मणोरमा ) मनने ! रमणीय लागे तेवी ( थीकहा ) स्त्री संबंधी कथा अथवा स्त्रीनी साथे कथा फरवी ते, ( चेव ) तथा निश्वे ( नारीणं) स्त्रीोनो (संथवो ) संस्तव एटले तेमनी साथे एक बासनपर बेसी परिचय करवो ते, तथा ( तासिं ) ते स्त्रीमोना से ( इंदिप्रदरिसणं ) नेत्र स्तन विगेरे इंद्रियोने-अंगोपांगने रागथी जोषां ते, तथा ते सी संबंधी पूर्वे करेला (कूइअं) कूजित, ( रुइअं) रुदित, ( गीअं) गीत, ( हसिध) हास्य अने (अत्तासिश्राणि अ) स्त्री साथे मोगलां [ भोगनां ] श्रासनो ए सर्वर्नु स्मरण करवू ते, तथा (पणिभं) प्रणीत एखू (मत्तपाणं च) भक्त पान, तथा (अहमायं पाय मोअणं) प्रमाथी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक पान भोजन लघु त, तथा (इ8 च ) इष्ट ए, पण ( गत्तभूसणं ) गात्रभूषण एटले शरीरनी शोभा करवी ते, (य) तथा (दुञ्जया) दुःखे करीने जीती शकाय एवा ( कामभोगा) काम एटले रूप अने शब्द तथा भोग एटले रस, गंध अने स्पर्श, आ सर्वे ( अत्तगवेसिस्स ) आत्मानी एटले ब्रह्मचर्यरूप जीवितनी गवेषणा करनार (नरस्स ) पुरुपने | तथा उपलक्षणथी स्त्रीने पण ( तालउडं विसं जहा ) तालपुट विष समान छ, एटले के आ सर्वे ब्रह्मचर्यनो घात करनारा के तेथी त्याग करवा योग्य छे. जेम तालपुट विप मुखमा नाखवाथी ताळवानो स्पर्श थाय के तरत ज ते मनुष्यना ।। जीवितने हरे छे, तेम आ सर्वे पण सेभ्याथका ब्रह्मचर्यरूपी जीवितने शंका कांक्षादिक दोपो उत्पन्न करीने तत्काळ हणे, छे. ११-१२-१३. हो पा विषयने समाप्त करे छे.दुजए कामभोगे अ, निश्चसो परिवज्जए। सँकट्ठाणाणि सव्वाणि, वेजिज्जा पणिहाणवं ॥१४॥ . अर्थ-(पणिहाण ) प्रणिधानवान एटले चित्तनी एकाग्रतावाळो साधु ( दुअए ) दुःखे करीने जीती शकाय एवा ( कामभोगे ) काम तथा भोगने (निच्चसो) निरंतर ( परिवजए ) चर्जे. (अ) तथा ( सव्वाणि) सर्व एटले दशे (संकद्वाणाणि ) पूर्ये कहेलो शंकानां स्थानोने ( वजिजा) वर्जे. १४. वळी तेने वर्जनारो शु करे ? ते कहे छे. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्माराम चरे भिक्खू , धितिम धम्मसारही । धम्मारामरए देते, भैरसमाहिए ॥१५॥ अर्थ (धितिम ) धृतिमान एटले धैर्यवडे युक्त, तथा ( धम्मसारही ) धर्मसारथि एटले चीजानीने पण धर्ममार्गमा प्रवर्तावनार, तथा (धम्मासमरए) धर्मने विषे सर्वथा रमण करनारा साधुनोने विषे रक्त एटले तेवा साधुओनी साथे रहेनार, तथा (दंते) इंद्रियोनुं दमन करनार, तथा (बंभचेरसमाहिए ) ब्रह्मचर्यने विषे सावधान एचो ( भिवखू ) साधु (धम्मारामे ) धर्मरूप आराम-उद्यानने विष ( चरे ) विचरे, दुःखना संताप थी तपेला प्राणीओने धर्म ज सुखना हेतुरूप थे, माटे अहीं धर्मने माराम जेचो को छे. १५. हवे ब्रह्मचर्यनो महिमा वताचे छ.देवदाणवगंधव्वा, जक्खरबल सकिन्नरा । बभयारि नमसंति, दुकरं जे करंति ते ॥ १६॥ अर्थ-( दुकरं ) दुःखे करीने पाचरी शकाय एवा ब्रह्मचर्यने (जे )जे ( करति ) करे छे-पाळे छे, (ते) ते * (वभयारि ) ब्रह्मचारी मुनिने ( देवदायगंधव्वा ) देव, दानव, गांधर्व, ( जक्खरक्खसकिनारा) यक्ष, राक्षस अने किनर तथा उपलक्षण थी सर्व जातिना देदो ( नमसंति ) नमस्कार करे छे. १६. हो मा अध्ययनना अर्थने समाप्त करे छे. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** ऐस धम्मे धुवे तिए, सासए जिंगदेसिए । सिद्धा सिज्झति चाणं, सिज्झिस्संति तैहावेरे त्ति" बेमि ॥ १७ ॥ अर्थ - ( जिणदेसिए) जिनेश्वरे कहेलो ( एस ) आ ( धम्मे ) ब्रह्मचर्यरूप धर्म ( धुत्रे ) ध्रुव के एटले परतीर्थिको खंडन न करी शकाय तेवो होवाथी प्रमाणवडे प्रतिष्ठा पामेलो छे, तथा भा ब्रह्मचर्य धर्म ( शिवए) नित्य हे एले काळमां विनश्वर है, तथा (सास) शाश्वत छे एटले असे काळमां फळ आपनार के, अथवा आ त्रणे विशेषणोनो अर्थ एक ज करवो. (च ) तथा ( अ ) या ब्रह्मचर्यरूप धर्मवडे ( सिद्धा) अतीत काळमां घणाअनंत जीवो सिद्धिपदने पाम्या छे, तथा (सिज्झति ) वर्तमान काळे पण महाविदेहमां घणा जीवो सिद्ध थाय द्वे अथवा अध्ययन प्ररूपणा करवाना अवसरनी अपेक्षाए वर्तमान काळे या क्षेत्रमा पण सिद्ध थाय छे, (ता) तथा ( अवरे ) for घणा जीवो ( सिज्झिस्संति) अनंत एवा आगामी काळमां सिद्धिपद पामशे. (त्ति बेमि ) ए प्रमाणे हूं कहुं हुं. एटले हे जंबू ! जे प्रमाणे भगवान् वर्धमानस्वामी पासे में सांभळ्युं छे ते प्रमाणे हुं हुं हुं एम सुधर्मास्वामरि जंबूस्वामीने क. १७. ॥ इति षोडशमध्ययनम् १६ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पापश्रमणीय नामनुं सत्तरमुं अध्ययन. १७. सोळमा अध्ययनमा ब्रह्मचर्यनां समाधिस्थानो कन्या, ते वो पापस्थानो वर्जयाथी ज पाळी शकाय छ, भने पापस्यानो सेववाणी जमण होनाय ने देषी पापश्रमणर्नु स्वरूप मा अध्ययनमा बताव्युं छे. मा संबंधी प्राप्त थयेला मा भध्ययन- प्रथम सूत्र कहे छे. 'जे केइ उ पैठवईए निअंठे, धम्म सुणित्ता विणओववामे । सुंदुल्लहं लेहि बोहिलाभ, विहरिज पैच्छा य अहासुहं तु ॥१॥ अर्थ-(जे केइ उ ) जे कोइ (निमंठे ) निग्रंथे प्रथम ( धम्म सुणिता) चारित्ररूप धर्मने सांभळीने (विणोववर्ष) ज्ञानादिक-विनयने पाम्या सता (सुदुल्लहं ) अत्यंत दुर्लभ एवा (चोदिलाभं ) जिनधर्मनी प्राप्तिरूप बोधिलाभने एटले समकितने (लहिउँ ) पामीने (पचईए ) प्रव्रज्या लीधी होय, अने ( पच्छा य) पछीथी ( जहासुदं तु) जेम सुख उपजे तेम ज (विहरिज) विचरे एटले के प्रथम सिंहपणे प्रव्रज्या लइ पछीथी शियाळनी जेम निद्रादिक प्रमादने वश थइ विचरे. १. तेवा प्रमादी साधुने गुरु विगेरे भणवानी प्रेरणा करे त्यारे ते शुं बोले । ते पताचे छ. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिज्जा देढा पाउरणं मे अस्थि, उप्पज्जइ भोत्तुं तहेव पाउं । जाणामि 'जट्टइ आउसो ति, कि नाम काहामि सुएण भैते ॥२॥ अर्थ—" (मे ) मारे ( दढा) का पहले वाण, माता बारे जलादिका उएनव रहित ( सिजा ) वसति-उपाश्रय भने ( पाउरणं) शीत विगेरेना उपद्रवनो नाश करनार प्रावरण-वस्त्रादिक पण ( अस्थि ) छे, (तहेव ) तथा ( भोत्तुं) खावा माटे अशन भने (पाउं) पीवाने माटे पाणी पण ( उप्पाइ ) उत्पन्न थाय छे एटले मळे छे. तथा (भाउसो) हे भायुप्यमान् गुरु ! ( जं) जे वर्तमान काळे ( चट्टइ ) वर्ते छे, ते बधु (जाणामि ) हुं जाणुं छु. (ति) तेथी करीने (भंते ) हे भगवान् ! (सुएण) श्रुत भणवायडे करीने (किं नाम ) शुं (काहामि ) करूं ? शामाटे प्रयास करूं ? " महीं ते प्रमादी शिष्यनो एवो अभिप्राय छे के-" तमे पण श्रुतनो अभ्यास करो छो, ने तमे पण अतीत के भावी काइ पण जाणता नधी, परंतु मात्र वर्तमान काळे वर्तता पदार्थोने ज जाणो छो, एटलुं तो श्रमे पण भण्या चिना ज जाणीए बीए. तथा क्सति, वस्त्र, अशन अने पाणी विगरे तमारी ज जेम अमे पण सुखे करीने पामीए बीए. तो हृदय, क बाने शोपण करनारा अभ्यासवडे शुं फळ छे ? " या प्रमाणे जे बोले ते पापश्रमण कहेवाय छे. एवो पछीनी गाथानो 1 संबंध नहीं पण सिंहावलोकनना न्यायथी जाणवो. २.. जे केई पवईए, निद्दालीले पैगामसो । भोच्चा पैञ्चा सुहं सुअइ, पावसमणे त्ति वुचई ॥३॥ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(जे केई ) जे कोइ ( पवईए ) प्रव्रज्या लीधेलो साधु ( निहासीले ) निद्रा लेवाना स्वभावयाळो होय अने ( पगामसो) अत्यंत ( भाचा ) दही भात विगेरेनो आहार करी तथा (पेच्चा ) तनादिकर्नु पान करी ( सुई) सुखे करीने (सुअइ ) काइ पण क्रियानी अपेक्षा रहित थइने सुवे छे, ते (पावसनणे ति) पापश्रमण छ एम (चुच्चई ) कहेवाय छे. ३. आयरिअउवज्झाएहिं, सुंअं विणयं चै गाहए । ते चेव खिसई बाले, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥१॥ ___ अर्थ-- (आयरिश्रउवज्झाएहि ) जे प्राचार्य के उपाध्याये ( सुम्भं ) श्रुत एटले आगम (च ) अने ( विणयं) विनय (गाहए ) ग्रहण कराव्यो होय एटले शीखव्यो होय ( ते चेच ) तेमनी ज ( बाले ) जे विवेक रहित बाळक (खिसई ) खिंसा-निंदा करे छे, ते ( पावसमणे त्ति ) पापश्रमण छ एम (बुचई ) कहेबाय छे. ४. आयरिअउवज्झायाणं, सम्म नी परितप्पई । अप्पडिपूअए थद्धे, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ ५॥ अर्थ-जे साधु ( आयरिश्रउवज्झायाणं ) प्राचार्य के उपाध्यायनी ( सम्म ) सम्यक् प्रकारे ( नो परितप्पई ) वैयाबच्च विगैरेनी चिंता न करे, तथा जे साधु ( अप्पडिपूलए) अप्रतिपूजक एटले जिनेंद्रादिकनी यथायोग्य [ भाव ] पूजा करवामा विमुख होय, अथवा कोइ सनिए उपकार कर्यों होय तोपण तेनो प्रत्युपकार करवाथी विमुख होय, तथा जे साधु (थद्धे ) स्तब्ध एटले गर्विष्ठ होय, ते ( पावसमणे ति पुचई ) पापश्रमण छ एम कहेवाय छे. ५. आ रीते विनय रहितने पापश्रमण कह्यो. हवे चारित्र रहितने पापश्रमण कहे छे. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्महमाणे पाणाणि, बीआणि हरिआणि औ। संजए संजयमन्नमाणे, पावसमणे त्ति वुचई ॥६॥ अर्थ-(पाणाणि ) द्वीन्द्रियादिक प्राणीमोनु, तथा ( बीआणि) शाल्यादिक बीजोर्नु (अ) तथा ( हरिभाणि ) धरो | विगेरे तण-वनस्पतिर्नु तथा उपलवणथी सर्व एकेन्द्रियोन ( संमद्दमाणे) मर्दन करतो अने तेथी करीने (असंजए) संयमचारित्र रहित एवो छतां पण जे (संजयमन्त्रमाणे ) पोताने 'हुँ साधु छ' एम मानतो होय, ते ( पावसमणे चि वृद्ध ) पापश्रमण छ एम कहेवाय छे. आवा साधु संविग्न पाचिक पण कहेवातो नथी. ६. संथारं फैलगं पीढं, निसिज पायकंधलं । अप्पमजिअ आरुहइ, पावसमणे ति वुचई ॥ ७॥ अर्थ-जे साधु ( संथारं ) कंचलादिक संथाराने, ( फलगं) काष्ठमय पाटपाटलाने, (पीढं ) पीठने एटले आसनने, (निसिजं ) निषद्याने एटले स्वाध्याय भूमिने तथा ( पायकवलं ) पादकंबल एटले पादपोंछनने ( अप्पमजिस ) प्रमार्जन कर्या विना तथा उपलक्षणथी पडिलेहण कर्या विना (आरुहइ) ते पर आरुढ थाय एटले ते वस्तुप्रोने बापरे, तो ते ( पावसमणे त्ति बुचई ) पापश्रमण के एम कहेवाय छे. ७. देवदवस्स चरई, पेमत्ते अ अॅभिक्खणं । उल्लंघणे अचंडे अं, पावसमणे ति वुचई ॥८॥ अर्थ-आहारादिकने माटे ज्यारे जाय त्यारे जे साधु ( दवदवस ) शीघ्र शीघ्र एटले पृथ्वीपर धबधन करतो (चरई ) चाले एटले हर्यासमितिने साचवे नहीं, (म) तथा जे (अभिक्खणं ) वारंवार ( पमने ) प्रमादी थाय एटले Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... पांच समिति रहित थाय, (अ) तथा जे ( उल्लंपणे ) अज्ञानीग्रोने उल्लंघन करे एटले तेमनो तिरस्कार करे, अथवा | हास्यादिक अविनय करनारा बालकोने बीबडानी पोताना पाचारद राघन करे, (श्र) तथा जे ( चंडे ) मनमा क्रोधवडे | धमघमतो रहे, ते ( पावसमणे त्ति वुचई ) पापश्रमण छ एम कहेवाय छे. ८.. पंडिले हेइ पमत्ते, अवउज्झइ पायकंबलं । पंडिलेहणाअणाउत्ते, पावसमणे ति वुबई ॥ ९॥ अर्थ-वस्त्र पात्रादिक पोताना उपकरणने जे साधु (पमत्ते ) प्रमादी सतो (पडिलेहेइ ) पडिलेहे एटले चिन विना || तेनी प्रतिलेखना करे, तथा जे साधु (पायकंबलं ) पादोंबनने अथवा पात्र अने कंबलने ( अवउज्झइ ) ज्या त्या तजे | एटले प्रमार्जन अने प्रतिलेखन कर्या बिनाना स्थानमा मुके. अहीं पात्र अने कंवलना ग्रहणबडे सर्व उपधिनुं ग्रहण करी | लेवू. तथा जे साधु (पडिलेहणाअणाउत्ते ) पोतानी सर्व उपधिनी पडिलेहणने विषे अनायुक्त एटले आळसु-उपयोग | रहित होय, ते ( पावसमणे ति बुचई ) पापश्रमण छ एम कवाय छे. ६. | पडिलेहेइ पमत्ते, जं किंचि हु णिसामिया । गुरुपरिभावए निच्चं, पविसमणे चि बुचई ॥१०॥ अर्थ-(पमत्ते ) प्रमादी एवो जे साधु (जं किंचि हु) जे काह विकथादिकने (णिसामिश्रा) सांभळीने एटले सांभळतो सांभळतो ( पडिलेहेइ ) पडिलेहणा करे, एटले पडिलेहण करती वखते जो कोइ वात करतुं होय तो तेमा चित्त राखे, पण | * "गुरुं परिभबई " इति प्रत्यन्तर पाठः Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिलेहणमा चित्त राखे नहीं. तथा (निच्चं ) निरंतर ( गुरुपरिभावए ) गुरुनो पराभव करनार होय अथवा (गुरुं परि भवई ) गुरुनो पराभव करे, एटले के दोषयुक्त पडिलेहणादिक करता तेने जोइ गुरुमहाराज तेने शिक्षा प्रापे त्यारे ते Til सामु बोले के-" त्यारे तमे ज करो." अथवा " तमे ज अमने भावी रीते शीखव्यु छ, तेथी ते तमारो ज दोष छे." || * एवो जवाब आपे, ते ( पावसमणे त्ति वुचई ) पापश्रमण छ एम कहेवाय छे. १०. गडसाई मुदी, थैरे, जुद्धे अणिमाहे । असंविभागी चिअत्ते, पावसमणे त्ति वुचई ॥ ११ ॥ ___ अर्थ तथा जे साधु (बहुमाई ) घणो माया-कपटवाळो होय, तथा जे (पमुहरी ) वाचाळ होय तथा ( थद्धे ) || गर्विष्ठ होय, तथा ( लुद्धे ) लोभी होय, तथा ( अणिग्गहे ) मन तथा इंद्रियोने वश राखनार न होय-तेने वश होय तथा (असंविभागी) गुरु, ग्लान विगेरेनो संविभाग करनार न होय, तथा जे (अचिभत्ते ) गुर्वादिकने विषे प्रीतिवाळो न होय, ते ( पावसमणे ति बुच्चई ) पापश्रमण के एम कहेवाय छे. ११. | विवायं च उदीरेइ, अधम्मे अत्तपाहा । वुग्गहे कलहे रत्ते, पावसमणे ति बुंचई ॥ १२ ॥ अर्थ-(च) तथा जे ( विवाय ) विवादने एटले वागीना कलहने ( उदीरेइ ) उदीरणा करे एटले सामो माणस ! | शांत होय तोपण वेना मर्मने प्रगट करी कलहनी वृद्धि करे, तथा जे (अधम्मे ) अधर्मी एटले असदाचारमा रक्त होय, तथा जे ( अत्तपणहा ) आमप्रझाहा-श्राप्त एटले सरोध करनार छोपाथी आलोक अने परलोकने विष हितकारक एवी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञाने एटले स्वपरनी सद्बुद्धिने कुतर्कवडे हणनार होव अर्थात् तस्वबुद्धिने हणनार होय, तथा जे (चुग्गहे ) ब्युद्ग्रहने | विषे एटले दंडादिक युद्धने विष रक्त होय तथा जे (कलहे ) वाणी संबंधी नेशने विषे (रसे) रक्त होय, ते ( पावस मणे ति चुचई ) पापश्रमण छ एम कहेवाय छे. १२. | अथिरासणे कुंकुइए, जत्थ तत्य निसीअई । ओलगम्नि पाउचे, त्यसपणे दि वुच्चई ॥ १३ ॥ ___ अर्थ--तथा जे साधु (अथिरासणे ) आसनपर स्थिर रहे नहीं, तथा जे ( कुक्कुइए ) हास्य विकथादिक करी भांडनी जेयी चेष्टा करे, तथा जे (जत्थ तत्व ) ज्या त्या सचित्त पृथ्व्यादिक उपर (निसीअई ) से, तथा जे (आसण म्मि) भासनने चिपे ( अशाउत्ते ) उपयोगवाळो न होय, ते ( पावसमणे ति वुच्चई) पापश्रमण के एम कहेवाय छे. १३. संसरखपाओ सुअइ, सिंजं ने पंडिलेहइ । संथारए अणाउत्ते, पावसमणे त्ति बुचई ॥ १४ ॥ अर्थ--तथा जे ( ससरक्सपाओ) सरजस्कपाइ एटले धूळधी खरडायला पगबाळोज--पगनी प्रमार्जना कर्या विनाज (सुअइ ) संथारामा शयन करे, तथा जे (सिझं ) शव्याने एटले वसति-उपाश्रयने (न पडिलेहइ ) सम्यक् प्रकारे न पडिलेहे, तथा जे ( संथारए ) कालादिक संथारामा सुतो सतो ( प्रणाउने ) अनायुक्त होय एटले “ कुकुडिपायपसारण" "कुकडीनी जेम पग उचो राखी सुर्बु " इत्यादि आगमना अर्थनो उपयोग न राखे अथवा पोरसी भणाव्या विना प्रविधिए | शयन करे, ते ( पावसमणे सि वुच्चई ) पापश्रमण के एम कहेवाव छे. १४. iik Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे तपना विषयमा पापश्रमण केवा होय ? ते कहे छ.दुद्धदही विंगईओ, औहारेइ अभिक्खणं । अरए अंतवोकम्मे, पार्वतमणे ति बुश्चई ॥ १५॥ अर्थ-तथा जे (दुदही) द्ध,दही अने उपलचणथी बीजी पण (विगईओ)विकार करनार होवाथी विकृतिभोने (प्रमिक्खणं) वारंवार कारण विना पण (आहारेइ) आहार करे-खाय (अ) अने तेथी करीने ज (तवोकम्मे) अनशनादिक पहियाने विहे ( अ निवारको न होन-लासक्त न होय, ते (पावसमणे ति बुचई ) पापश्रमण छ एम कहेवाय छे. १५. अत्यंतम्मि अ सूरसिम, आंहारेइ अंभिक्खणं । चोइओ पंडिचोएइ, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ १६ ॥ ___ अर्थ-(अ) तथा जे साधु ( सूरम्मि ) सूर्य (अस्थतम्मि) अस्त पामे सते-अस्त समय लगभग (अभिक्खन) वारंवार 10 (आहारेइ ) आहार करे, तथा ( चोइओ) जो कोई गीतार्थ गुर्वादिक तेने प्रेरणा करे के-“हे आयुष्मान् ! केम प्राप्रमाणे केवळ आहारमांज तत्पर रहो छो? फरीथी भावी धर्मसामग्री मळवी दुर्लभ छ, माटे प्रावी सामग्री पामीने तो तपमा उद्यम करवो योग्य छे." मा प्रमाणे प्रेरणा कों सतो ( पडिचोएइ ) सामी प्रेरणा करे-सामु बोले के-" तमे उपदेश भापवामा ज डाहा छो, परंतु पोते तो करता नथी, नहीं तो आबु जाणता छतां तमे केम उत्कृष्ट तप करता नथी?" प्रा प्रमाणे सामो | जवाब आपे, ते ( पायसमणे ति वुचई ) पापश्रमण के एम कहेवाय छे. १६. ओयरिभपरिचाई, परपासंडसेवए । गाँणंगणिए दुभए, पावसमणे ति वुच्चई ॥ १७ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 1% अर्थ- - तथा जे (आयरिशपरिचाई ) आचार्यनो त्याग करनार होय, एटले " था गुरु तो तप ज करावे छे बने कांह सारो आहार आयो होय तो ते पण ग्लानादिक साधुओने अपावी दे छे. " या प्रमाणे विचारी आहारपरनी अति लोलुपताने लीधे नत्याग करे) पर पाखंडीओनी सेवा करे छे एटले निरंतर आहारमांज श्रासक्त रहेनारा बौद्धादिकनो सेवक थाय छे, तथा जे ( गाणंगणिए ) गायंगणिक-छ मासनी अंदर ज एक गच्छमांथी बीजा गच्छमां जाय थे, अने तेथी करीने ज ( दुग्भूए) दुर्भूत - दुराचारे करीने निंदाने पात्र थयो होय के ते ( पावसमत बुचई) पापश्रमण के एम कद्देवाय छे. १७. संयं गेहं परिचज्ज, पर गेहंसि वावरे । निमित्तण ये वैवहरइ, पावसमणे ति खई ॥ १८ ॥ अर्थ - तथा जे साधु ( सयं गेहं ) दीक्षा समये पोताना घरनो ( परिचज ) त्याग करीने पछी ( परगेहंसि ) श्राहारादिकना लोभधी बीजाना - गृहस्थीना घरने दिषे ( वावरे ) व्यापार करे- तेना घरना कामकाज करे, (य) तथा (निमिषेण ) शुभाशुभ निमित्तशास्त्र कहेबावडे ( बeers ) व्यवहार करे - द्रव्य उपार्जन करे, ते ( पावसमये ति बुचई) पापश्रमण के एम कद्देवाय ले, १८. पाइपिंड जेमेइ, नेच्छ्इ सामुदाणियं । गिहिनिसिज्जं चे बाँहेइ, पक्सिमणे त्ति, बुंच्चई ॥ १९ ॥ अर्थ - तथा जे (सपाइपिंडं ) बंधु विगेरे पोताना संबंध भो प्रीतिथी आपला पिंडने - आहारने (जेमेइ) जमे, तथा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सामुदाणि) घर घरी आणली सामुदायिक भिक्षाने (नेच्या इच्छे नहीं, (च) तथा (गिहिनिसिहं ) गृहस्थीना पलंग विगेरे आसनपर (वाइ) सुखशीलीयापणाथी बेसे, ते (पारसमले चि चुचई) पापश्रमण छे एम कषाय छे. १६ः | हवे मा अध्ययनको उपसंहार करता उपर कईला दोषने सेववाथी अने त्याग करवाथी जे फळ थाय छे ते ।। बतावे छे. एश्रारिसे पंचकुसीलसंवुडे, रूबंधरे णिपवराण हिटिमे। अयंसि लोए विसमेव गरेहिए, ने "से इह ने पैरथलोए ॥२०॥ अर्थ- (एारिसे ) पावा प्रकारनो (पंचकुसीलसंवुडे ) प्रोसनो, पासत्थो, कुशीळीयो, संसत्तो अने महाछंदो ए पांच प्रचारना कुशीठीयानी जेवा संघृत एटले संघर रहित-भजितेंद्रिय, तथा ( स्वधरे ) साधुना रूपने-वेपने धारण । करनार तथा ( मुणिपवराण ) उत्तम मुनिओनी ( हिटिमे) चे वर्तनार एटले अत्यंत जघन्य एवा संयमस्थानने विषे रहेला, तथा (ऋयंसि लोए) श्रालाकने विषे(चिस मेव) विषनी जम (गरहिए ) गहों करवा लायक एटले विषनी जेम ।। निंद्य होवाथी त्याग करवा लायक छ, ( से ) तेवा साधु (इहं ) आलोकने विषे सामान्य जनोए पण (न) वखाणवा लायक नथी, अने ( परस्थलोए ) परलोकने विषे पण ( नेव ) वखाणया लायक नथी. २०. जो वैजए ऐए या उदोसे, से सुव्वए 'होई मुंणीण मज्झे । अयंसि लीए अंमयं व पंईए, औराहए लोगमिण तहाँ 'परं त्ति बेमि ॥ २१ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानमा तत्पर थयेला अने ( तबोधणे ) सपरूपी धनराळा (अणगारे ) एक अणगार-अनि (धम्मज्माणं) धर्मध्यानने || (झियायह ) ध्यावे छे-ध्यान करता हता. ४. अफोवमंडसि, झायइ झविआसवे । तस्साए मिए पासं, वहेइ से नेराहिवे ॥५॥ अर्थ-(झविपासवे ) चय कर्या छे हिंसादिक पाश्रवो जेणे एवा ते मुनि (अष्फोवमंडसि ) अफोव एटले वृचा| दिकवडे व्याप्त एवा नागवल्ली विगेरेना मंडपने विष ( झायह) धर्मध्यान करता इता. (तस्स ) ते मुनिनी (पास) पासे (आगए ) आधीने रहेला (मिए ) मृगोने (से, ते ( नराहिवे ) राजा ( वझेइ ) हणतो हतो. ५.. अह औसगओ राया, खिप्पागम्म सो तहिं । हए मिए उ पासित्ता, अणगारं तत्थ पोसई ॥६॥ ___अर्थ-(अह ) त्यारपछी ( ासगो ) अश्वपर चढेलो (सो) ते संजय नामनो ( राया ) राजा (खिप्पं) शीघपणे (तहिं ) ते लतामंडपमा ( भागम्म ) भावीने (हए ) हणेला (मिए उ) मृगोने ( पासित्ता) जोइने (तत्य ) त्यां रहेला (अणगारं ) एक मुनिने पण ( पासई ) जोतो हवा. ६. ते वखते ते राजाए शुं कर्यु ? ते कहे छे.अह गया तत्थ संभंतो, अणेगारो मैणाहओ । मैए उ मंदपुरणं, रेसगिद्धेण धण्णुणा ॥७॥ __ अर्थ-(अह हवे (तस्थ ) ते सुनिने जोपाथी ( संभंतो) संभ्रांत थयेलो एटले भय पामेलो ( रापा) राजा विचार Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन '.. करवा लाग्यो के-( रसगिद्धण) मांसना रसमा लुब्ध थयेला अने (घण्णुणा ) घात-हिंसा करवाना स्वभाववाळा (मए उ) में ( मंदपुरोणं ) मंद पुण्यवाळाए-पापीए । अणगारो) प्रा मुनि ( मणाहयो) मनाक् अहतः-जराक न हण्या, एटले हमणांज माराथी तेओ हणाइ जात. कारण के तेनी पासे ज रहेलो आ सृग हणायो छे, तेथी आ मुनिने हणावामा जराक ज छेड़े रही गपुं छे. ७. | आसं विसजइत्ता णं, अणगारस्स सो निवो । विणएणं वंदँए पाए, भगवं एत्थ "मे खेमे ॥८॥ अर्थ-एम विचार करीने पछी (आसं ) अश्वने (विसज्जइत्ता णं ) तजीने एटले अश्वपरथी नीचे उतरीने ( सो ! निवो ) ते राजाए ( विणएक) विनयवडे ( अणगारस्स) ते मुनिना ( पाए ) पादने (वैदए ) वंदना करी भने कार्य के A ( भगवं ) हे भगवान ! ( एत्थ) आ मृगना वधने विपे (मे) मने एटले मारा अपराधने ( खमे ) आप क्षमा करो.. 1 अह मोणेणे सो भयवं, अणगारो झाणमस्सियो ।रायाणं न पंडिमतेइ, तओ रीया भयदओ ॥९॥ kil अर्ध-(श्रह ) त्यारपछी एटले राजाए मुनिने वंदना कर्या पछी ( मोणेण ) मौनवडे करीने (झारणमस्सिभो)। धर्मध्यानने आश्रित थयेला ( सो ते ( भयवं ) ज्ञानना अतिशयवाळा भगवान ( अशगारो ) मुनिए । रायाणं) राजाने | (न पडिमतेइ ) काइ पण प्रत्युत्तर प्राप्यो नहीं, (तो) तेथी करीने ( राया ) राजा ( भयओ) भयद्रुत एटले । अत्यंत भयभीत थयो. ६. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - (जो ) जे साधु (सया उ ) सदैव हमेशां (एए) श्र पूर्व कहेला ( दोसे) दोषोने ( वजए ) बर्जे थे, (से) ते (मृणी मज्झे ) सुनियो मध्ये ( सुन्वए) सुव्रत एटले बखायवा लायक व्रतवाळा ( होई) होय के एटले बखणाय है. तथा वे (असि लोए) श्री लोकने विषे ( श्रमयं व) अमृतनी जेम (पूईए) लोकोए पूजित एवा छता (इ) मालोक ( तदा ) तथा ( परं लोगं ) परलोकने ( माराइए ) ) राधे छे-साधे छे. (त्ति बेमि ) ए प्रमाणे हुं हुं हुं. २१. इति सप्तदशमध्ययनम्. १७. अथ संयतीय नामनुं अढारमुं अध्ययन. १८ सत्तरमा अध्ययनमां पापस्थानको वर्जवानुं हुं, ते वर्जनुं संजय राजानी जेम भोग-समृद्धिनो त्याग करवाथी थाय . ए संबंधी प्राप्त थयेला आ अढारमा अध्ययननुं प्रथम सूत्र कहे थे. कंपिल्ले नैयरे या, दिलबलवाहणे । नामेणं संजए नामं, मिर्गव्वं त्रनिग्गए ॥ १ ॥ अर्थ - (कंपिल्ले ) कॉपील्य नामना (नयरे ) नगरमां (उदिमबलवाहणे ) बळ एटले चतुरंग सैन्य अने शिविका विगेरे वाहन जेना उदय पामेला छे एटले पुष्कळ छे एवो ( राया ) राजा ( संजए ) संजय (नामे ) नामे (नाम) प्रसिद्ध इसो, ते एकदा (मिगधं ) मृगया करवा माटे ( उवनिग्गए) नगरमांथी बहार नीकळ्यो. १. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से राजा केवी रीते नीकळ्यो ? अने तेणे शुं कर्यु १ ते कहे छे.-- हेयाणीए गयाणीए, रहाणीए तहेव य । पायत्ताणीए महया, सवओ परिवारिए ॥२॥ अर्थ ते राजा ( महया ) मोटा ( हयाणीए ) अश्वना सैन्यवडे ( गयाणीए ) हाथीना सैन्यवडे ( रहाणीए ) रथना सैन्यवडे (तहेब य) तथा वळी (पायवाणीए ) पदातिना सैन्यवडे ( सव्वओ) चौतरफथी ( परिवारिए ) परिवरेलो Fill नगर बहार नीकळ्यो . २. मिए छभित्ता हेयगओ, कपिलेलुजाणकेसरे । भीएँ संते मिए तत्थ, वहेइ रेसमुच्छिए ॥३॥ 4 अर्थ--( रसमुच्छिए ) मांसना रसमा लुब्ध थयेलो ते राजा ( हयगयो) अश्वपर पारूढ थयो थको (कंपिन्लु| जाणकेसरे ) कांपीय नगरना केसर नामना उद्यानमा रहेला (मिए) मृगोने (छुभित्ता) प्रेरणा करीने एटले ते मृगोनी पाछळ पोतानो अश्व दोडाचीने ( तत्थ ) त्यां (भीए ) भय पामेला एटले त्रास पामेला अने (संवे) श्रांत थयेला एटले | ग्लानि पामेला ( मिए ) ते मृगोने (बहेइ ) हसतो हवो. ३. ते खते त्या शुं थयुं ? ते कहे छे.-- श्रह केसरम्मि उजाणे, अणगारे तेवोधणे । सज्झायज्झाणसंजुत्ते, धम्मज्झाणं झियायइ ॥ १ ॥ अर्थ-(अह ) ते वखते ( केसरम्मि ) ते केसर नामना ( उआणे ) उद्यानमा (सज्झायज्माणसंजुत्ते) स्वाध्याय tandomote Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - ध्यानमा तत्पर थयेला अने ( तबोधणे ) तपरूपी धनवाळा ( असगारे ) एक अणगार-मुनि ( धम्मज्मास ) धर्मध्यानने (शिवायह) धावे के-ध्यान करता हता. ४, अफोवमंडसि, झायइ झविआसवे । तस्सागए मिप पास, वैहेइ से नराहिवे ॥५॥ अर्थ-(प्रविमासचे )य कर्या छ हिंसादिक याश्रयो बेचे एवा ते मुनि (अफोरमंडसि) अकोव एटले वृक्षादिकवडे व्याप्त एवा नागवली विगेरेना मंडपने विषे ( ग्रामह । धर्मध्यान करता इता. ( वस्स) ते मुनिनी (पास) पासे (आगर) आर्याने रहेला (मिए) मृगोने (से) ते ( नरावि ) राजा (घ) हणतो इतो. ५. . अह ऑलगनो गया, बिपमागम्म सो तहि । हए मिए उ पालित्ता, अणगार सत्य पोसई ॥६॥ अर्थ-(अह) स्वारसची (मासमो) अश्वपर चटेलो (सो) ते संजय नामनो ( राया) राजा ( खिप्पं ) शीघपणे (तदि) से लतामंडपमा मागम्म) भात्रीने (हए ) इणेला (मिए उ) मृमोने (पासिचा) जोड़ने (वत्थ ) यां रहेला (अणगारं ) एक मुनिने पम (पासई ) जोतो यो. ६. ते वखते ते राजाए शु कयु ! ते कहे छे.अह सपा तत्व संभंतो, अर्णगारो मणाहओ । मए उ मैदपुमेणं, रेसगिद्धेण घेण्णुणा ॥ ७॥ ___ अर्थ- अह इचे (तस्थ ) ते मुनिने जोवायी (संभंतो) संभ्रांत येलो एटले भय पामेलो ( राया) राजा विचार Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य.१८ भाषांतर राम्पयन ॥१९॥ करवा लाग्यो के-( रसमिद्धेश) मांसना रसमा लुब्ध थयेला अने (घण्णा ) घात-हिंसा करवाना स्वभावकाळा (मए उ) में ( मंदपुशेख ) मंद पुण्यवाळाए-पापीए । अणगारो ) पानि ( मसाहो) मनाक् महतः-जराक न हण्या, | एटले दमाज मारायी तो हगाइ जात. कारण के सेनी पासे ज रहेलो वा मृग इलायो चे, तेथी मा मुनिने हखात्रामा जराक जछेड़े रही गयुं छे. ७. भासं विलज्जयः , अणमारहा सानिधो : विएणं बंदए पाए, भगवं एत्य "मे खमे ॥८॥ अर्थ-एम विचार करीने पछी (भास) अश्वने (विसजाइचा मे) जीने एटले अश्वपरधी नीचे उतरीने (सो निवो) ते राजाए ( विसाएक) विनयवड़े ( अमागारस्स ) ते मुनिना ( पाए ) पादने ( वंदए ) वंदना करी अने कार्यु के (भगवं ) हे भगवान! ( एत्थ) मा मृगना चधने विषे (मे) मने एटले मारा अपराधने ( खमे) आप चमा करो... अह मोणेणे सो भयवं, अणगारो झाणमस्सिमो राियाण नै पेडिमतेइ, ओ रीया भयाओ ॥९॥ । अर्थ-(अह) त्यारपछी एटले राजाए मुनिन वंदना कर्या पछी ( मोरोच) मौनवडे करीने (झायमस्सियो) धर्मध्यानने आश्रित धयेला (सो ते ( भवच ) मानना अतिशयवाला भगवान ( मशगारो ) मुनिए । राधाणं) राजाने (न पडिमतेइ ) कांड पण प्रत्युचर प्राप्यो नहीं, (तो) तेथी करीने ( राया ) राजा (भयाओ) मयद्भुत एटले अत्यंत भयभीत थयो, ६. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटले फरीथी सजा पा प्रमाणे बोल्यो.संजओ अहेमस्तीति, भयवं वांहराहि मे। कुरो तेर्पण अणगारे, दहिज नरकोडिओ ॥ १० ॥ ___ अर्थ-(भय ) हे भगवान ! ( अहं ) हुं ( संजभो ) संजय नामनो राजा ( अस्सि ) छु, कोइ नीच जातिनों। मनुष्यं नथी, (इति) ए कारण माटे ( मे ) मारी साथे ( वाहराहि) समे बोलो. कारण के (कृद्धो) क्रोध पामेला | (अणगारे ) मुनि ( एण ) तेजवडे एटले पोतानी तेजोलेश्यावडे ( नरकोडिओ) करोडो मनुष्योने (दहिज्ज) बाळी शके । छे. तेथी हुँ भयभीत थयो छु. १०. ___ पाप्रमाणे राजाए कह्यु, त्यारे मुनि ध्यानधी निवृत्त थइने बोच्या के.अभओ पत्थिंवा तुन्भ, अभयदाया भवाहिअ । णिच्चे जीवलोगम्मि, कि हिंसाए पैसज्जास ? ॥११॥ अर्थ-(पस्थिवा ) " हे राजा ! ( तुम्भं ) तने ( अभो) अभय छे." अर्थात् तने कोइ पाळतुं नथी. मा प्रमाणे | राजाने धीरज पापीने पछी मुनि तेने उपदेश आपे के के-“हे राजा ! ( अभयदाया ) तुं अभयदान आपनार ( भवाहि अ) था. जेम तने मृत्युनो भय लागे छे तेम सर्व प्राणीमोने मृत्युनो भय होय छे, तेथी (अणिचे) मा अनित्य एवा (जीवलोगम्मि ) जीवलोकने विषे ( हिंसाए) प्राणीमोनी हिंसा करवामां तुं (कि) केम ( पसअसि) पासक थाय छे ? आ हिंसा नरकनो हेतु होवाथी करवा योग्य नथी. ११. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जया सव्वं परिचज, गंतवमसस्स ते । अनिच्चे जीवलोगाम्मि, "कि रजम्मि पैसज्जसि ? ॥१२॥ अधे--(जया) ज्यारे ( सध्वं ) खजानो, अंतःपुर विगैरे सर्वनो ( परिचज ) त्याग करीने (अनसस्स ) अवश एटले पराधीन एवा (ते) तारे अवश्य (गंतव्य) परभवमा जवानु ज छे, तो (अनिच्चे) या अनित्य एवा ( जीवलोगम्मि) जीवलोकने विषे ( रजम्मि ) राज्य उपर ( किं) केम तुं ( पसअसि ) आसक्त थाय छ ? १२. वळी संसारनी अनित्यताने ज बतावे छे.जीवि चेव वं च, विजुसंपायचंचलं। जत्थ त मुंज्झसी रायं, पेञ्चत्थं नावबुज्झसे ॥ १३ ॥ | अर्थ-(रायं ) हे राजा! (जत्थ ) जे जीवित अने रूपने विषे (ते ) तुं ( मुझसी ) मोह पामे के, ते ( जीवि चेत्र ) जीवित-प्रायुध्य अने (रूवं च ) रूप एटले शरीरनुं सौंदर्य (विजुसंपायचंचलं) पीजळीना चमकारा जेवू चंचळ के, तथा तुं (पेञ्चत्थं ) परलोकना कार्यने ( नावयुझसे ) जाणतो नथी. १३. दाराणि अ सुआ चेव, मित्ता य तह बंधवा । जीवंतमपुँजीवंति, मयं नाणुञ्चति अ॥ १४ ॥ अर्थ-हे राजा ! ( दाराणि भ) स्वीओ, तथा ( सुग्रा चेत्र ) पुत्रो, तथा (मित्ता य) मित्रो, ( तह ) तथा (बंधवा) बंधु विगेरे शातिजनो ए सर्वे ( जीवंतं ) जीवतानी (अणुजीवंति ) पाबळ जीवे छे एटले जीवता एका धनवाननी पाछळ पोताना उदरनिर्वाहने करे छे-तेनुं धन तेओ भोगवे छे, परंतु ( मयं) ते पुरुष ज्यारे मरी जाय छे त्यारे (नाणुध Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | यति अ) तेनी पाछळ मरता नथी-जता नथी, तो सहायभूत तो क्याथी ज थाय, माटे तेवा कृतमीओने विष भादर | करवो योग्य नथी. १४. निहरति मयं पुत्ता, पिअरं परमक्खिआ । पिअरोऽवि तहा पुत्ते. बंधू रीयं तवं चरे ॥ १५ ॥ अर्थ-(पुत्ता) पुत्रो ( परमदुक्खिा ) अत्यंत दु:खी थया छतां पण (मयं ) मरी गयेला (पिअरं ) पिताने (निहरंति ) घर बहार काढे छ, (तहा) तथा (पिरोऽवि) पिताओ पण (पुत्ते ) मरी गयेला पुत्रोने बर बहार काढे छे, तथा ( बंधू ) बंधुओ पण मरी गयेला बंधुओने घर बहार काढे छ -घरमा राखता नथी तेथी करीने (रावं ) हे राजा! तुं ( तवं ) तपर्नु (चरे) आचरण कर-सेवन कर. १५. तओ तेणऽजिए देबे, दारे अ परिरविखए । कोलंतन्ने नैरा रोयं, इंट्रतुद्रा अलंकिआ ॥ १६ ॥ अर्थ-(तो ) त्यारपछी एटले घरनी बहार काढया पछी ( राय ) हे राजा ! (तेण ) ते पित्रादिके के पुत्रादिके (अजिए ) उपार्जन करेला अने (परिरक्खिए ) समस्त प्रकारे चोर भने अग्नि विगेरे थकी रक्षण करेला (दबे ) द्रव्ये नंद करे छे. (अ) तथा (दारे) तेनी स्त्री साथे ( अन्ने नरा)चीजा मनुष्यो (हद्वतडा) दृष्ट | एटले बहारथी रोमांचित थयेला, तथा तुष्ट एटले हृदयमा अानंद पामेला, तथा (अलंकिपा) अलंकारोबडे विभूषित थया थका (कीलंति ) क्रीडा करे छे. पोते ज्यांसुधी जीवे छे, त्यांसुधी धन उपार्जन करी तेनुं प्राणनी जेम रक्षण करे के, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । तथा स्त्री- पण तेवीज रीते रक्षण करे छ, परंतु मरी गया पछी तेना धन अने स्त्रीवडे बीजामो ज क्रीडा करीने आनंद मेळवे छे. १६. ____ मरेशा काम्पसन सुधार छेते नाहे के - | तेणावि जै कयं कैम्मं, सुहं वा जइ वाऽसुहं । कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छइ उ पैरं भवं ॥१७॥ अर्थ—( तेणावि ) ते मरनार माणसे पण (जं) जे (सुई वा ) शुभ (जहवा) अथवा (असुई ) अशुभ (कर्म) कर्म ( कयं ) कयु होय, (तेण उ) ते ज ( कम्मुणा ) कर्मे करीने (संजुत्तो) युक्त एवो ते (परं भवं) पर भवने विषे ( गच्छइ ) जाय छे. अर्थात् जीवनी साथे बीजु कोइ पण जतुं नथी. मात्र एक पोते करेलुं शुभाशुभ कर्म ज जाय छ। | तेथी हे राजा ! तपनुं आचरण कर." १७. | सोऊण तस्स सो धम्म, अणगारस्स अंतिए । महयासंवेगनिव्वेअं, समावालो नराहिवो ॥ १८ ॥ ____ अर्थ-या प्रमाणे ( तस्स ) ते ( अणगारस्स ) मुनिनी (अंतिए) समीपे ( धम्म ) धर्मने ( सोऊण ) सांभळीने | ( सो) ते ( नराहियों ) संजय राजा ( महयासंवेगनिन्वेनं ) मोटा संवेगने एटले मोक्षना अभिलाषने अने निवेदने एटले संसारथी उद्वेगपणाने ( समावसो ) पाम्यो. १८. संजओ चइ रेज, निवखंतो जिणसासणे । गेहभालिस्स भगवओ, अणगारस्स अंतिए ॥१९॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-त्यारपछी ( संजभो ) ते संजय नामना राजाए तरतज (रअं) राज्यनो ( चइउं ) त्याग करीने (भगवो) भगवान ( गहराशिरण ही ईमानि मारणा ( अणगारस्स ) मुनिनी (अंतिए ) पासे ( जिणसासणे) जिनशासनने विषे एटले वीतरागना धर्मने विषे ज (निकलतो) दीक्षा ग्रहण करी. १६. अहीं वृद्धसंप्रदाय या प्रमाणे छे-ते संजय नामना राजर्षि गर्दमालि नामना प्राचार्यना शिष्य धया, पछी भागमनो अभ्यास करी ते गीतार्थ थया, अने साधुना समग्र आचार विचारमा निपुण थया, एटले गुरुनी आज्ञाथी ते राजर्षि | एकाकी विहार करता कोइ गामा अाव्या. ते गाममा तेने एक त्रिय मुनि मळ्या. ते क्षत्रिय मुनि पूर्व जन्ममा वैमानिक | देव हता, त्याथी चवीने कोइ क्षत्रियना कुलमा उत्पन्न थयेला हता. त्यां कोइ निमित्तने लइने तेने जातिस्मरण ज्ञान थयु हतुं, तेथी वैराग्य उत्पन थवाने लीधे राज्यनो त्याग करी तेणे दीक्षा ग्रहण करी हती. तेनुं नाम ठरावेलुं न होवाथी क्षत्रिय | मुनिना नामथी ते प्रसिद्ध थया हता. ते जातिस्मरण ज्ञानवाळा चत्रिय मुनिए संजय नामना राजर्षिने जोइ तेमना झाननी | परीक्षा करवा माटे या प्रमाणे को.--- | चिच्चा रेटुंछ पैवइए, खत्तिए परिभासई । जहा ते दीसई हवं, पसन्न "ते तहा मेणो ॥ २० ॥ अर्थ-( रखें ) राष्ट्रनो एटले देशनो अथवा राज्यनो (चिचा त्याग करीने ( पन्चइए ) प्रवज्याने पामेला (ससिए) * रज इति वा पाठः Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORE क्षत्रिय मुनिए ( परिभासई ) संजय राजर्पिने कमु के-(जहा ) "जेम (ते) तमारु (रूवं ) बाह्य रूप-श्राकार प्रसन्न सुंदर (दीसई ) देखाय के, ( तहा) तेम (ते) तमार (मणो) मन पण ( पसनं) प्रसन्न के एम जणाय छे. कारण के अंदर पसुपता पततः हाय को बहारथी पावा प्रकारनी चित्तप्रसन्नता देखाय नहीं. २०. किनामे किंगोते, कॅम्सट्राए के माहणे । कह पंडिअरसी बुद्धे, केहं "विणीए त्ति धुच्चसी ॥ २१ ॥ ___ अर्थ-(किंनामे ) तमारूं नाम शुं छे ? तथा ( किंगोत्ते ) तमारूं गोत्र शुं छे ? (व ) अथवा (कस्सद्वाए ) कया | प्रयोजनने माटे (माहणे) तमे माहण थया छो एटले प्रव्रज्या लीधी छ ? तथा (बुद्धे ) आचार्यादिकनी ( कहं ) केवी रीते 1. (पडिअरसी) सेवा करो लो ! तथा (कह) केवी रीते (विणीए त्ति) 'तमे विनीत छो' एम (वुचसी) कहेवाओ छो ?"२१. आ प्रमाणे क्षत्रिय मुनिए पूछथु, त्यारे संजय राजर्षि तेमने प्रत्युत्तर आपे के केसंजयो नाम नामेणं, तहा गोतेण गोअमो । गद्दाली ममायरिआ, विजाचरणपारगा ।। २२ ॥ ___अर्थ--" (नामेणं ) नामे करीने हुँ ( संजयो नाम ) संजय नामनो छु, ( तहा ) तथा ( गोत्तण ) गोत्रवडे हुं | ( गोअमो) गौतम गोत्री छु, तथा (विजाचरणपारगा) विद्या एटले श्रुत अने चरण एटले चारित्रना पारगामी एवा । ( गभाली) गर्दभालि नामना ( मम ) मारा ( पायरिआ) आचार्य एटले गुरु थे. भावार्थ मा प्रमाणे थे.-गर्दमालि नामना प्राचार्य मने जीहिसाथी निवृत्त कर्यो, तेनी निवृत्तिमा मने तेश्रोए मुक्तिरूप फळ बतायुं, तेथी मुक्ति मेळववाने Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माटे हुं माहण-साधु थयो छ, जे प्रमाणे ते गुरुए मने उपदेश प्राप्यो छे-समजाव्यो छे ते प्रमाणे हुँ तेमनी सेवा करु छ, अने तेमना उपदेशनु सेवन करवाथी हुँ विनीत कहेबाउं छं. २२." ____श्रा प्रमाणे संजय राजर्षिर्नु वचन समिळी ते क्षत्रिय मुनिनुं चित्त तेमनापर आकर्षायु, तेथी ते क्षत्रिय मुनि चोल्या केकिरिअं अकिरिअं विणयं, आमाणं च महामुणी। एएहिं चउहि ठाणेहि, मेॲम्मे किंभासति ॥२३॥ * __अर्थ- (महाणी ) हे महामुनि संजय ! ( किरिअं) क्रिया, ( किरिअं) प्रक्रिया, (विणयं) विनय (च) | अने ( अमा) अज्ञान ! पार्टि ! नहिं )नार (ठाणेहिं ) स्थानोबडे ( मेले ) मेयज्ञ-मेय एटले जीवादि | ज्ञेय वस्तुने जाणनाराओ ( किंपभासति ) कुत्सित एटले असत्य-मिथ्या बोले छे. अहीं केटलाक अन्यमतिमो प्रस्तिक्रिया | सहित जीवनुं लक्षण माने छे एटले के वस्तुनी जे सचा तेज जीव एम माने के, ते क्रियावादी कहेवाय छे. १. केटलाक प्रक्रियावादी छे, तेश्रो जीवादिक पदार्थोने नास्तिरूपे एटले नीज ए प्रमाणे माने छे. २. केटलाएक विनयवादी छे, तेश्रो नाना, मोटा, उंच, नीच सर्वने नमस्कारादिक विनय करवो तेने ज धर्म माने छे. ३. तथा केटलाएक अज्ञानवादी छे, तेश्रो सर्व पदार्थोने नहीं जाणचा तेज सारं माने छे. ४. श्रा चारे मतवाला एकांतवादी होवाथी मिथ्यात्वी के तेओ, ए, एकातपणे मानवु युक्तियुक्त नथी, तेथी तेमनु भापित मिथ्या छे. कारणके अस्तिक्रिया एटले सत्ता अर्थात् वस्तुर्नु होवापणुं, ते तो दरेक वस्तुमा छे, तेथी अजीव पण जीव कहेवाशे. १. एकांतपणे नास्तिपणुं मानवाथी प्रात्मानुं पण नास्तिपणुं थशे, भने तेथी करीने जीव, अजीव विगेरे सर्व पदार्थो नास्तिपणाए करीने सरखा ज कद्देवाशे. २. सब ठेकाणे तुन्य विनय क Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - E-Nandne. *029->****************** +indi- साथी निर्गुणनो पण विनय करवो पडशे अने निर्गुणना विनयनें तो अशुभ फळ क[ छ, गुणीने विषेज विनय करवायी शुभ फल प्राप्त थाय छे, तेथी एकांत विनय पण सारो नथी. ३. तथा प्रज्ञान तो मुक्तिना साधनभूत छ ज नहीं, केमके मुक्तिनुं कारण तो ज्ञान ज कह्यु छ, हेय अने उपादेय पदार्थो ज्ञानी ज जाणी शकाय छे, अने ज्ञानविना हिताहित पण | जाणी शकातुं नी, तेथी अज्ञानवादीओ पण मिथ्याभाषी ज छे. ४. आ चारे प्रकारना पाखंडीमोना कुल त्रणसो ने प्रेसठ | भेदो थाय छे. तेमा क्रियावादीोना १-० भेदोले, प्रक्रियावादीयोना ४ छे, विनयवादीोना ३२ छ भने भज्ञानवादी| ओना ६७ भेदो छे. आनो विस्तार अन्य ग्रंथमाथी जाणी लेयो. २३. ___ए चारे प्रकारना वादीओ- मिथ्याभाषित हुँ मारी युद्धिी ज कहेतो मथी, परंतु भगवानना बचनी कहुं छु. | ईइ पाउकरे बुद्धे, नायए पैरिनिव्वुडे । विजाचरणसंपन्ने, सच्चे सच्चपरक्कमे ॥ २४ ॥ अर्थ-(इइ) मा क्रियावादी विगेरेने (बुद्धे ) तत्चने जाणनारा, (परिनिव्वुडे ) कपायरूपी अग्नि बुझावाथी शीतळ थयेला, (विजाचरणसंपने) क्षायिक ज्ञान अने क्षायिक चारित्रबडे युक्त, (सच्चे) सत्य वचनवाळा भने (सच्चपरकमे) सत्य वीर्यवाळा (नायए) ज्ञातक एटले ज्ञातपुत्र श्री महावीरस्वामीए मिथ्याभाषीपणे (पाउकरे) प्रगट कर्या छ-कला छे. २४. ते क्रियावादी विगेरेनुं फळ कहे छ,पैडति नैरए घोरे, 'जे नैरा पावकारिणो । दिवं च गई मैच्छंति, चरित्ता धम्ममारिअं ॥२५॥ ++++ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ (जे नरा ) जे मनुष्यो । पावकारिणो) नहीं प्रस्तावने लीधे पाप एटले असत्प्ररूपणा, तेने करवाना स्वभा| बवाळा होय छे, तेश्रो ( घोरे) भयंकर एवा ( नरए नरकना (पति) प. . (च) अने ( आरिमं) आर्य एटले सत्प्ररूपणारूप उत्तम (धम्मं ) धर्मन ( चरित्ता) भाचरण करीने एटले भाचरण करनारा मनुष्यो (दिवं ) देव संबंधी अथवा सर्व गतिमा प्रधान एवी सिद्धि नामनी ( गई ) गतिने ( गच्छति ) पामे छे. तेथी हे राजर्षि ! तमारे असत्प्ररूपखानो त्याग करी सत्प्ररूपणामा ज प्रवर्तवू. २५, ते क्रियावादी विगेरे पापकारी केम कहेवाय ? ते उपर कहे छे.-- मायाबुइअमेअंतु, मुसाभासा निरस्थिआ। संजममाणो वि अहं, वैसामि इरिआमि अ ॥२६॥ __ अर्थ-(ए) या क्रियावादी विगेरेनुं वचन ( मायाबु तु ) मायावडे एटले शठतावडे ज कहेलं होय छे, सेथी ] || तेभोनी ( मुसाभासा) मृषा भाषा (निरत्थिा ) निरर्थक-अर्थ विनानी छे. ते कारण माटे हे संजय पुनि ! ( संजममाणो | वि) ते पाखंडीमोनी असत्प्ररूपणारूप पापथकी निवृत्ति पाम्यो सतो ज ( अहं ) हुं ( वसामि ) निरवद्य-दोषरहित उपाअयादिकमां वसुं छु. अहीं संजय राजर्षिन स्थिर करवा माटे "हुं वसुं छु" एम पोतार्नु ज दृष्टांत पापीने कटुं छे. एटले के जेम हुं असत्प्ररूपणाथी निवृत्त थयो ढुं तेम तमारे पण निवृत्त थवं. कारण के जे साधु पोते साधुमार्गमा रहेलो होय ते चीजाने पण साधुमार्गमा स्थापन करी शक के. (अ) तथा बळी हं (इस्मि.मि) गोचर्यादिकने विषे इयांसमितिवडे चाल छु. २५० Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न हवे संजय राजर्षि क्षत्रियमुनिने पूछे छे के-" तमे ते पाखंडीओना यचनथी केवी रीते निवृत्त थया ?" तेनो ते जवाब आपे छ.-- से 'ते विईआ भज्झं, मिच्छादिट्ठी अणारिआ। विजमाणे परे लोए, सम्म औरणामि अप्पयं ॥२७॥ अर्थ-(से सो ) ते सर्व पाखंडीअो ( मज्झं ) मारा (विदा) जाणेला छे, के तेत्रो (मिच्छादिट्ठी) मिथ्यादृष्टि छे अने तेथी करीने (प्रणारिमा) अनार्य एटले पशुहिंसादिक अनार्य कर्म करनारा छे. तेवा प्रकारना तेमने शी रीते जाण्या? ते उपर कहे छे.---( परे लोए ) परलोक (विजमाणे ) विधमान सते (अप्पयं) मारा आत्माने ( सम्म जाणामि ) हुं सम्पक प्रकारे जाणुं छु. मारो आत्मा परलोकथी एटले बीआ भवमाथी अहीं मान्यो छे एम हुं जातिस्मरण ज्ञानथी ज छ. तेथी परलोक पण छे अने प्रात्मा पण छे एम सारी रीते जाणवाथी तेनी ना पाडनारा पाखंडीओना मिथ्यावचनथी हुँ निवृत्त थयो छु, माटे तमे पण निवृत्त थाो. २७. तमारो आत्मा परभवथी अहीं श्राव्यो के एम तमे शी रीते जाणो को ? ते उपर कहे छे.अहमालि महापाणे, जुइमं वैरिससओवमे। जा स पाली महापाली, दिव्या वैरिससओवमा ॥२८॥ अर्थ-(अहं ) हुँ ( महापाणे ) महाप्राण नामना पांचमा ब्रह्मदेवलोकना एक विमानने विषे ( जुइमं ) द्युतिमान एटले तेजस्वी अने ( वरिससोचमे ) सो वर्षनी आयुष्यवाळा मनुष्यनी उपमावाळो (आसि) हतो. एटले के जेम Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान काळे यही सो वर्षनी आपुष्यवाळो मनुष्य पूर्ण आयुष्यवाको कद्देवाय छे, तेम हूं. पण त्या पूर्ण मायुष्यवानो देव हतो. तेमा ( या ) जे (पाली) पालि भने (महापाली) महापालि एवी (परिससश्रोत्रमा ) सो सो वर्षे एक एक केशनो उद्धार करीए एवी उपमावाळी ये प्रकारना ( दिव्याः दीव्य-देवभव संबंधी स्थिति छ, तेमाथी (सा.) ते महापालि नामनी भारी दीन्य स्थिति हती. एटले दश सागरोपमनी स्थिति इती.. अहीं पालि एटले. पाळना जेची पाळ. जंमधाळ जळने धारण करी राखे के तेमा पालि पण जीवित रूपी जळने धारणा करी राखे छे, श्र | भवस्थिति कहेवाय छे. तेमां पालि एटले पल्योपमनी स्थिति भने महापालि एटले सागसेपमनी स्थिति जाणवी. २८. * (पालाना दृष्टांत पन्योपमनी स्थिति कही छे ते पालि समजबी.) से चुए बंभलोआओ, भाणुस्सं भवमार्गओं। अप्पणो अपरेसिं च, आउं जाणे जहा तेहा ।। २६ ।। अर्थ-(से) ते ई (बंभलोपात्रो ) प्रश्नदेवलोक थक्री (चुए) पथ्यो थको (माणुस्स ) मनुष्य संबंधी ( भवं ) 9 भवने (आगो ) पाम्यो छु. तथा ( अप्पणो ) पोतार्नु (च) अने (अपरेसि ) वीजा जीवोनुं (जहा) जे प्रकार | ( पाउं) आयुष्य होय (तहा) ते प्रकारे ( जाणे ) हु जाणुं छ. जेनुं जे प्रकारे-जेटलुं श्रायुष्य होय तेनुं तेज प्रकारे-तेटलु हुँ जाणुं छु, पण विपरीतपणे जाणतो नधी. २६. ____ा प्रमाणे चत्रिय मुनिए पूछया विना पण प्रसंगी पोनानो पञ्चात कझो, हवे उपदेश भापवाने माटे कहे छ. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाणारइं च छंदं च, परिवज्जिज्न संजए। अणट्ठा जे असंवत्था, इंइ विजामणुसंचरे ॥ ३०॥ | अर्ध-(संजए ) साधु ( नाणारुई च ) अनेक प्रकारनी रुचिने एटले क्रियावादी विगैरेना मतवाली इच्छाने बजे, तथा (छदं च ) भनेक प्रकारना पोतानी मतिए कल्पना करेला अभिप्रायने (परिवजिज) चनें, तथा (जे) जे (अण्डा) प्रयोजन विनाना व्यापारी होय (अ) अने जे ( सन्वत्या) हिंसादिक चीजा सर्व कार्यों होय ते सर्वने पण । वर्जे, अथवा (सब्यस्था) सर्वत्र एटले सर्व क्षेत्रादिकने विषे जे प्रयोजन विनाना व्यापारी होय तेने वर्जे. (इइ) श्रा E (विजां) सम्यक् ज्ञान रूप विद्याने (अणुसंचरे) लक्ष्य करीने एटले भाश्रीने हे राजर्षि ! तमारे संयममार्गमा चालवू. हुँ पसा वी विद्याने ज अंगीकार करी संयममार्गमा चालुं हुं, माटे तमारे पण ते ज प्रमाणे चालवू. ३०. - फरीची क्षत्रियमुनि पोतानो ज भाचार बतावे छे.पंडिकमामि पसिणाणं, परमंतेहि वा पुणो । अहो उठ्ठिए अहोरायं, ईइ विजा तवं घेरे ॥ ३१ ॥ अर्थ-हे राजर्षि ! ९ ( पसिणाणं) शुभाशुभने जणाकनारा अंगुष्ठप्रश्नादिकथी ( पडिकमामि) निवृत्ति पाम्यो छु, (वा पुणो) तथा वळी (परमंतेहिं) परना एटले गृहस्थीमोना मंत्रोथकी एटले गृहकार्योना विचारोथी पण हुँ नित्ति | | पाम्यो छु. (महो) भाश्चर्य के के भा प्रमाणे (अहोरायं) दिवस ने रात ( उदिए ) धर्म प्रत्ये उघमवाळा कोइक ज र महात्मा होय छे. (इइ ) ए प्रमाणे (विजा) जाणता एवा वमे ( तवं चरे) तपर्नु ज आचरण करो. पण प्रश्नादिकनुं Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवन न करो. ३१. हवे संजय नामना राजर्षिए पूछयुं के - " तमे श्रायुष्यने शी रीते जाणो को १ " तेनो उत्तर चत्रियधुनि आपे बे. - "जं च मे पुच्छसी काले, सम्मं सुद्वेण चेअसा । ताई पाउकरे बुद्धे, तं" नाणं जिसालणे ||३२|| अर्थ – (सम्मं ) सम्यक् प्रकारे ( सुद्धेा ) शुद्ध-निर्मळ ( वेश्यमा ) चित्तवाळा तमे ( मे ) मने ( जं च ) जे ( काले ) काळना विषयवालं आयुष्य (पुच्छसी ) पूछो हो, (ताई) ते आयुष्यने ( बुद्धे ) श्री महावीरस्वामी अथवा श्रुतज्ञानीए (पाठकरे ) प्रगट कर्यु के, तेथी करीने हुं जाखं छं. ( तं ) वे (नाणं) ज्ञान ( जिणसास ) जिनशासनने विषे ज छे, बीजा बौद्धादिकना शासनमां नथी. तेथी तमारे जिनशासनने विषेज उद्यम करबो के जेथी हुं जिनशासनमा रह्यो थको तेना प्रसादथी जेम जाएं हुं तेम तमे पा जाणी शकशो. ३२. फरीथी उपदेश आपे छे. किंरिश्रं रोए धीरो, अकिरिअं पैरिवजए । दिट्ठीये दिट्टिसंपन्ने, धम्मं र सुदुच्चरं ॥ ३३ ॥ अर्थ - ( धीरो) धीर एवो साधु ( किरिमं ) क्रियाने एटले जीवसत्ताने - जीवना होवापरणाने ( रोए ) पोताना श्रात्मा प्रत्ये रुचावे - खात्री करावे, तथा बीजाओने पण तेनी रुचि उपजावे. अथवा क्रिया एटले मोक्षमार्गनी साधनभूत १ संजयने बदले संयत नाम पण केटलीक बार आवे छे. +++++++++000 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रतिक्रमण, प्रतिलेखना आदि सम्यक् ज्ञानसहित सम्यक अनुष्ठानरूप क्रियाने रुचावे-तेनापर रुचि करावे, तथा (अकिरिश्र) जीवना नास्तिपणारूप अक्रियाने शथवा मिथ्यात्वीयोए कल्पेली अज्ञानकष्टरूप प्रक्रियाने (परिवञ्जए ) सर्वथा वर्जे, तेथी धीर एवा साधु (दिडीए) सम्यग्दर्शनवडे करीने (दिद्विसंपन्ने ) सम्यक् ज्ञान सहित थाय. हे राजर्षि ! तमे पण सम्यग्दर्शने करीने सम्यक् ज्ञान सहित थइने (सुदुच्चरं ) अत्यंत दुष्कर एवा (धर्म) चारित्र धर्मने (घर) | | अंगीकार करो. ३३. ___ फरीथी क्षत्रियमुनि ज संजय राजर्पिने महापुरुषना दृष्टांतवडे स्थिर करवा माटे कहे छे.-- ऐ पुलपयं सोचा, अस्थधम्मोवसोहिअं। भैरहो वि भारहं वासं, चिंचा कामाई पैवए ॥३४॥ अर्ध-(अस्थधम्मोक्सोहिश्र ) जे प्रार्थना कराय ते अर्थ एटले स्वर्ग भने मोक्ष, तथा धर्म एटले ते स्वर्ग अने मोक्ष मेळघवाना कारणभूत जिनभाषित धर्म, ते यमेवडे शोभतुं एवं (ए) प्रा ( पुणपयं । पुण्यपद-उत्तम उपदेश ( सोचा) सांभळीने ( भरहो वि ) भरतचक्रीए पण ( भारह वासं) भरतक्षेत्रने तथा (कामाई) कामभोगने (चिच्चा ) वजीने ( पच्चए ) प्रव्रज्या लीची हती. अहीं " पुणपयं" ना अर्थ पा प्रमाणे करवा.-पुण्य एटले पवित्र-कलंक रहित दूषण रहित एवं पद एटले जिनेश्वरे कहेलुं सूत्र, अथवा पुण्य एटले पुण्यना कारणभूत पद एटले क्रियावादी विगेरे मत उपर रुचिनो त्याग करी शुद्ध धर्मनो प्ररूपणा करनार सूत्र. अथवा पूर्ण एटले संपूर्ण एवं पद एटले ज्ञान, तेने सांभळीने भरत चक्री के जे. सर्व राजाओमा मुख्य हता, वेणे पण मा चारित्रधर्मरूपी मार्गनोज पाश्रय कर्यो हसो, तेथी करीने वमारे पण Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ जिनभाषित मार्गनोज ग्राश्रय करवो योग्य छे. भरत पक्रानी संक्षिम कथा. - इंद्रनी प्राज्ञाथी कुबेरे अयोध्या नामनी नगरी बनावी. तेमां श्रीऋषभदेव स्वामी रहेता हता. तेमणे चारित्र ग्रहण कर्य, त्यारे तेमना ज्येष्ठ पुत्र श्रीभरत चक्रवर्ती तेमा रहेता हता. ते चक्रीने चौद रत्नो अने नव निधिओ हता, वत्रीश हजार राजानो तेनी सेवा करता हता, चोराशी लाख अश्व, रथ अने हाथीओ तेना सैन्यमा हता, छन्नु करोड पत्तियो (पदाति) हता अने छन्नु करोड गामोना ते अधिपति हता, ते अत्रीश हजार देशोनुं पालन करता हता, अडताळीश हजार पत्तनोना स्वामी हता, वहोंतेर हजार पुरना अधीश्वर हता, नव्वाणु हजार द्रोणमुखनुं ते रक्षण करता हता अने सोळ हजार यक्षो निरंतर तेनी सेवा करता हता. या प्रमाणे छ खंड भरतक्षेत्रनुं ते अखंड रीते राज्य करता हता, तथा चौसठ हजार |T अंतःपुरनी स्वीश्रो साथे क्रीडा करता ते पूर्वना पुण्यरूपी वृचना पुष्पसदृश सुखने भोगवता हता. अष्टापद पर्वत उपर श्री ऋषभदेव स्वामीना निर्वाणने स्थाने तेमणे एक चैत्य करावी तेनी अंदर चोवीशे दीर्थंकरोनी पोतपोताना शरीरना प्रमाण | अने वर्णवाळी प्रतिमाओ स्थापन करी हती तथा निरंतर तेमनी वंदना अर्चा करता इता. तेमज अति प्रीतिथी निरंतर साधर्मिकवात्सल्य करता हता. श्रा रीते ते भरतचक्रीए छ लाख पूर्व व्यतीत कर्या. एकदा प्रातःकाळे अभ्यंगन, उद्वर्तन अने स्नान करी भरतचक्री सर्व वस्त्र भलंकार धारण करी आदर्शभवनमा गमा. * त्यां अरिसामा पोता शरीर जोता तेणे एक श्रोगळी मुद्रिका रहित होपाथी शोभा विनानी जोह, तेथी तेणे बीजी आंग MG . Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FRANA सीमांधी पण मुद्रिका काढी नांखी त्यारे ते पण शोमा रहिस जोइ. पछी धीमे धीमे एक एक अलंकार उतारतां छेवटे || | सेणे समग्र अलंकारो उतार्या. त्यारे तेथे पोतानुं शरीर कमळ विनाना सरोवरनी जेव॒ तद्दन शोभा रहित जोयुं. ते जोइ चक्रीए विचार्य के-"अहो !मा शरीर मात्र प्रागंतुक पदार्थो बडे ज शोभे थे, परंतु ते स्वभावथी तो कोइ पण सुंदर | नथी. मा शरीर स्नानादिक बडे संस्कार करी वन आभूषणो विगेरे पहेरावीए तोज ते शोभे के, भावा असार देइने । मूढ लोको सुंदर माने थे. वळी मनोहर अब, जळ, पुष्प, गंध, वस्त्र विगेरे उत्तम वस्तुभो पण स्त्रीना संगधी ब्रह्मचर्यनी जेम या अशुचि शरीरना संगथी नाश पामे छे-अपवित्र थाय छे. तो मोटुं श्राश्चर्य छे के पंडितो पण बाळकनी जेम वि-1 येक रहित थह आवा प्रसार शरीरने माटे अनेक प्रकारनो पाप कर्मो करे छे! परंतु मोतने आपनारु भा मनुष्यपणुं पामीने || घृतवडे चिंतामणिनी जेम शरीरने अर्थे कराता पापो वडे मारे तो आ मनुष्यपणुं हारी जq योग्य नथी." इत्यादि शुभ ध्यान करता अधिक अधिक संवेगने पामेला ते चक्री मोक्षरूपी महेलनी नीसरणी समान क्षपकोणपर आरूढ थया. तरत ज चार घातीकर्मनो क्षय करी भाव चारित्रने पामी मज्ञानरूपी अंधकारनो नाश करवामां सूर्यसमान केवळज्ञानने पाम्या. ते वखते शक्र इंद्रे आधी चक्रीने कयुं के—“हे पूज्य ! द्रव्यलिंगने अंगीकार करो, जेथी अमे दीचामहोत्सव तथा केवळज्ञाननो महोत्सव करीए." ते सांभळी तेमणे पोताना मस्तकपर पंचमुष्टि लोच करी शासनदेवताए अापेलो साधुवेष भंगीकार कर्यो. पछी वादळांमांथी सूर्यनी जेम ते राजर्षि घर बहार नीकळ्या. तेमने व्रत अंगीकार करेला जोड १ इंद्रे पोतेम साधु वेष आप्यो एम पण प्रत्यंतरमां छे. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वीजा दश हजार राजाओए पण संसारनी वासना क्षीण थवाथी तेमनी साथेज दीक्षा ग्रहण करी. पछी इंद्रादिक देवो मनो हान संबंधी महोत्सव करी पोतपोताने स्थाने गया. भगवान राजर्षि भव्यप्राणीओने बोध करता पृथ्वीपर | विचरवा लाग्या. भरतराजा कुमार अवस्थामां सीत्तोतेर लाख पूर्व रसा, एक हजार वर्ष मांडलिक राजापणे रह्या, एक हजारे पोछा एवा छ लाख पूर्व चक्रवर्तीपणामा रह्या अने एक लाख पूर्व केवळीपणायुक्त दीक्षापर्यायमा रखा. ए रीते कुल चोराशी | HI|लाख पूर्वनुं भायुष्य भोगवी भरतराजर्षि सर्व कर्मनो क्षय करी मोक्षपद पाम्या, इति भरतचक्री कथा. | संगरो वि सौगरंतं, भैरहवासं नैराहिवो । इस्सरिअं केवलं हिची, दयाए परिनिव्वु, ॥ ३५ ॥ ___ अर्थ-तथा ( सगरो ) सगर नामना ( नराहिवो ) नराधिप एटले चक्रवर्ती (वि ) पण ( सागरतं ) पूर्वादिक त्रण दिशामा सागर पर्यंत अने उत्तरदिशामा हिमवानपर्वत पर्यंत ( मरहवासं ) छ खंड भरतक्षेत्रने तथा ( केवलं ) | परिपूर्ण ( इस्सरिमं ) भैश्चर्यने ( हिचा ) तजीने ( दयाए) दयाधर्मवडे (परिनिषुए ) निर्वृति-मोच पाम्या. ३५. सगर चक्रीनी संक्षिप्त कथा. अयोध्या नामनी नगरीमा इक्ष्वाकु वंशमा जितशत्रु नामे राजा हता. तेने विजया नामनी राणी हती. ते राजाने ++COX* Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K+0100 सुमित्र नामे नानो भाइ युवराज हतो, तेने यशोमती नामनी पत्नी हती. जितशत्रु राजानी राणी विजयाने एकदा चौद स्वप्नथ सूचित पुत्र उत्पन्न थयो, तेनुं अजित नाम पाडधुं. ते तीर्थंकर थया. सुमित्र युवराजनी पत्नी यशोमतीए पण चौद स्वप्नथी सूचित पुत्र प्रसव्यो. तेनुं सगर नाम पाढ. ते चक्रवर्ती थया. ते बन्ने कुमार युवावस्थाने पाम्या त्यारे तेमना मातापिता महोत्सवपूर्वक तेमने राजकन्याओ परखावी. केटलेक काळे जितशत्रुराजाए पोताना राज्यपर जितने स्थापन कर्या ने सगरने युवराज पदवी भाषी पछी जितशत्रु राजाए नाना भाइ सुमित्र सहित दीचा अंगीकार करी. अजित राजाए केटलो का राज्य उजा करी वली वा माटे सगरने राज्यपर स्थापन करी पोते चारित्र ग्रहण कर्यु. अनुक्रमे सगर राजाने राज्य करतो तेना राज्यमां चौद रत्नो उत्पन्न थयां, ते बडे छ खंड भरत क्षेत्र ने साधी ते चक्रवर्ती थया. ते चकीने साठ हजार पुत्रो थया. तेश्रोमा सर्वथी मोटो पुत्र जन्हु नामे हतो. एकदा जन्हुकुमारे सगर चीने कोक प्रकारे संतुष्ट कर्या, तेथी चक्रीए जन्दुकुमारने कर्छु के- " जे तारी इच्छा होय ते माग. जन्हुए मायुं के" हे पिता ! आपनी आज्ञाथी सर्व भाइयो सहित हूं चौड़े रत्नो अने सर्व सैन्य साथै लइ पृथ्वीपर पर्यटन करूं एत्री मारी इच्छा छे." ते तेनी इच्छा सगरचक्रीए मान्य करी. शुभ मुहूर्ते माहश्र सहित जन्हुकुमारे रत्नो अने सैन्यसाथै लइ प्रयाण शरु कर्यु. अनुक्रमे अनेक देशोमां फरतो करतो ते पद पर्वत पासे आयो. त्यां पर्वतनी नीचे सर्व सैन्य मूकी पोते भाइओ ने परिवार सहित पर्वतपर चडयो. त्यां भरतचक्रीय करावेलु मणिसुवर्णमय ने כג Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सो स्तूभथी परिवरेलु चैत्य जोयु, तेनी अंदर रहेली चोशेि तीर्थकरोनी प्रतिमानोने जाइ तेने विधिपूर्वक वंदना करी. पछी जन्दुकुमारे मंत्रीओने पूछयु के-"कया पुण्यवंत पुरुषे या अविरमणीय जिनभवन कराव्यु छ ?" मंत्रीए कई | के--" हे कुमार ! तमारा पूर्वर पर नास्ता नीए का यत्व कापy छे." ते सांभळी जन्हुकुमारे कयु के-" श्रावो | भष्टापद जेत्रो बीजो कोइ पर्वत होय तो त्या पापणे पण पावू चैत्य करावीए." एम कही ते कुमारे तेको पर्वत शोषवा माटे चारे दिशामा पोताना पुरुषो मोकल्या. तेश्रो समग्र पृथ्वीपर भ्रमण करी पाछा पाव्या भने कुमारने कयु के-"हे स्वामी ! आयो पर्वत कोइ पण ठेकाणे नथी." ___त्यारे जन्हुकुमारे कयु के-"जो श्रावो बीजो पर्वत न होय तो पापणे या तीर्थनी ज रक्षा करीए, कारण के श्रा क्षेत्रमा काळना क्रमे करीने भविष्यमा लोको लोभी अने शठ थशे, तेथी तो या तीर्थनो विनाश करनारा थशे. माटे नवु करावया करता जूनानु पालन करवू एज मोटुं श्रेयकारक छे." एम कही सर्व माइओ सहित जन्हुकुमार दंडरत्न लइ ते वडे. पर्वतनी चौतरफ खाइ खोदया लाग्यो. ते वखते ते दंडरत्ने हजार योजन पृथ्वीने भेदी पाताळमां ज्या नागकुमारनां भवनो हतो तेमने पण भेदी नोख्या. ते उपद्रवथी भय पामेला सर्व नागकुमारो शरणनी गवेषणा करतां नागराज ज्वलनमम पासे गया, अने तेनी पासे पोताना भवनना उपद्रवनो वृत्तांत कह्यो. ते सांभळी ज्वलनप्रभ पण एकदम संभ्रांत थइ उभो थयो अने अवधिज्ञानवडे ते स्वरूप जागी क्रोधथी धमधमतो सगर राजाना पुत्रो पास प्राव्यो. तेणे तेओने कड्यु के-" हे राजपुत्रो ! तमे दंडरनवडे. पृथ्वीने विदारतां ममारा भवनोमां उपद्रव कयों, ते तमे अवि Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | चायं काम कयुं छे." ते सांभळी नागराजना कोपने शांत करवा माटे जन्हुकुमारे तेने कधु के-" हे नागराज! मारा पर प्रसन थाभो, कोपने सहरी ल्यो, भने अमारो पा एक अपराध क्षमा करो. अमोए भा कार्य तमारा भवनोने उपद्रव करवा माटे कर्यु नथी, परंतु भा भष्टापद तीर्थनी रक्षा करवा माटे तेनी फरती खाइ खोदी छे. हवे फरीथी अमे मा कार्य | नहीं करीए." ते सांभळी शांत थयेलो ज्वलनप्रभ पोताने स्थाने गयो. पछी जन्दुकुमारे पोताना भाइओने कर्पु के-"जो के पा खाइने कोइ अोळंगे तेम नथी, तो पण ते पाणी विना शोभती नथी, तेथी मा खाइने जळथी भरी दाए." एन ही वरताकडे मालदीमा वाहने वाली ते खाइमा नाख्यो भने जळवडे ते खाइ मरी दीधी. ते जळ नागकुमारना भवनोमां पण पहोंच्यु. ते जळना प्रवाहही त्रास पामेला नागकुमारना * देवो भने देवीभो पामतेम नासवा लाग्यां. तेमने तेवी स्थितिवाळा जोइ ज्वलनप्रम अवधिज्ञानना उपयोगी सगरना पुत्रोनुं आ कार्य जाणी अति क्रोध पाम्यो, वेथी तेणे विचार कर्यो के-"अहो ! आजन्हु विगेरे कुमारो महापापी छ, तेमनो एकबार अपराध तो में माफ कर्यो, तोपण तेभोए फरीथी मा मोटो उपद्रव कर्यो, माटे हवे तेमना अविनयर्नु फळ देखाई." एम विचारी ज्वलनप्रभे तेमनो विनाश करवा माटे मोटा दृष्टिविष सर्पो मोकल्या. तेभोए खाइना जळमाथी * महार नीकळी ते कुमारो सान जो\ एटले तरत ज ते सर्वे सगर राजाना पुत्रो भस्मसात् थइ गया. ते जोइ समग्र सैन्यमा हाहाकार थह रझो. तेमनो शोक दूर करवा मारे मुख्य मंत्रीए तेमने कह्यु के-“श्रा कुमारो तीर्थनी रक्षा करता हता, तेमां अवश्य भाविपचाने लीधे तेश्रोनी प्रावी मरण अवस्था थइ छे, परंतु क्षेत्रओ सद्गतिने ज पाम्या हशे, तो हवे शोक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || शामाटे करो छो ? हवे तो भापणे शीघ्रपणे आपणा स्वामी पासे जq योग्य छे." आ प्रमाणे मंत्रानुं वचन सर्व सैन्ये । अंगीकार कयु. पछी त्यांची शीघ्र प्रयाण करी अनुक्रमे ते सैन्य अयोध्यापुरीमी समीपे भावी पहोंच्युं. त्यां सामंत राजाओए अने मंत्रीमोए परस्पर विचार कर्यो के-" सर्व कुमारोना अकस्मात विनाशनो वृत्तांत आपणे चक्री पासे शी रीते | कही शफशुं ? ते सर्व कुमारो बळी मुचा अने आपसो अक्षत शरीरवाळा पाछा भाज्या, ए वात पमा भापणने अत्यंत लक्षा उपजावे तेवी छे. तेथी भाषणे सर्वे अमिन प्रवेश नीर. "लासमा यो विचार करता हता, तेवामा तेमनी पासे एक वृद्ध ब्राह्मण भाच्यो, तेणे ते सामंतो अने मंत्रीमो विगेरेने कछु के--" हे वीर पुरुषो । तमे शा माटे माम माकुळ -व्याकुळ थया छो? खेदने मूकी घो. आ संसारमा सुख के दुःख प्राप्त थर्बु ते काइ अद्भुत एटले नवाइनुं नथी. भा संसारमा कर्मने वश थयेला जीवो अनादिकाळी सुख दुःख पाम्याज करे छे. माटे तमे शोकनो त्याग करो. सगर राजा पाने कुमारोना विनाशनो घृतांत हुं ज कहीश." ते समिळी सामंतादिके ते ब्रामणनुं वचन अंर्गाकार कयु. त्यारपछी से ब्राह्मण कोइ मरी गयेला बाळकनुं माड, उपाडी " हा हा ! हुं लुटायो." एम बोलतो चक्रवर्तीना | सभावार पासे गयो. चक्रीए तेना विलापनो शब्द सांभळी तेने सभामा बोलाच्यो, अने पूछथु के-“हे ब्राह्मण ! तारुं गुं | अने कोणे लुंटथु छ ?" ब्रामण बोल्यो के—“हे देव ! मारे एक ज पुत्र हतो, ते सर्पढंश थवाथी मरण पाम्पो. ते दुःखी हुँ विलाप कर छु. माटे हे दयाना सागर ! तमे एने जीवाडो." त्यारे चक्रवर्तीए बैद्यो भने मांत्रिकोने बोलावी ते बाळकने साजो करवा कपुं. तेश्रोए राजपुत्रोनु मरण सांभळ्यूं हतुं तेथी तेमाथी एक वैधे कद्दु के–“हे देव ! जेना घरमा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **%epk*** आज सुधी एक पण मनुष्यतुं मरण थयुं न होय तेने घेरथी राख मंगावां, एटले आ बाळकने अमे जीवतो करीशुं," ते सांभळी राजाए पोताना सेवकाने नगरीमा तेकी राख लावदा मोनम्या. तेसो पानी की घेर घर फरी फरीने पाला || आव्या अने तेमणे राजाने का के-हे स्वामी! अमे दरेक घेर जइ तेवी राख मागी, त्यारे दरेक धरना माषसोए । जवाब आप्यो के-श्रा घरमा अमारी माता मरी गई छे, पिता मरी गया छे, बंधु मरी गयो छे, बहेन मरी गइ थे, स्त्री || | मरी मइ छ, भर्तार मरी गयो छे, विगैरे अनेकना मरण थयार्नु जणाव्युं. कोइ पण एवं घर न नीकम्प्यु के ज्यां मनुष्योना मरण थयां न होय." ते सांभळी राजार ब्राह्मण ने कह्यु के-" हे विप्र ! भा प्रमाणे ज्यारे दरेक घेर अनेकना मरण नीपजे छ त्यारे कोनो शोक करको ? माटे हे ब्रामण ! तुं शोक मूकी दे, रुदन न कर, आत्महित चितवन कर, तुं पण काळे करीने मरण पामीश." त्यारे विन फरीथी चोल्यो के–“हे देव ! आप जे कहो छो ते ई पण जाणुं छु, परंतु हमणां तो पुत्र रहित थवाथी मारा कुळनो क्षय थयो छे, तेथी.हुं अति दुःखी छु, श्राप अनाथना नाथ छो भने दुःखीना । तथा आपनो प्रताप अस्खलित छ, तेथी मारा पुत्रने जीवाडी मने मनुष्यनी भिचा आपो." राजाए क" हे भद्र ! आनो प्रतिकार अशक्य छे. जेमां मंत्र : तंत्र, औषध के पराक्रम चाली शकता नथी एवा अदृश्य विधातारूप शत्रु उपर कयो विद्वान पराक्रम करी शके ? माटे हे विप्र! तुं शोक मूकी दे. परलोक हित कर. जे मूर्ख होय ते ज मरेलानो के नष्ट थयेलानो शोक करे. " ब्रामण वोल्यो-" हे महाराजा.! आप कहो छो ते सत्य छ, के पुत्रना मरणधी पण तेना पिताए शोक करवो नहीं. तो आपने पण असंभषित एवा शोकनुं कारण थ छे, तेथी आय पण शोक करशो ********* Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं. " ते सांमळी संभ्रांत चित्ते राजाए पूछ के-" हे विप्र ! मारे केवा प्रकारनुं शोकनुं कारण थयुं छे ? " बानो फघु के--" हे देव ! आफ्ना साठ हजार कुमारो एकी वखते काळधर्म पाम्पा छे." श्रा वचन सांभळी चक्री जाण यज्रर्थी इणायो होय तम तत्काळ चेतना रहित थइ सिंहासनपरथी पृथ्वीपर पडी [ | मूर्छित थया. सेवकोए शीतोपचार करी चक्रीनी मूळ दूर करी, त्यारे चक्री खुल्ले कंठे रुदन करी आ प्रमाणे बिलाप | करवा लाग्या के-." हा पुत्रो ! हा हृदयबल्लभो ! हा बंधुओने यहाला : हा शुभ स्वभाववाळा ! हा विनववंत | पुत्रो! हा समग्र गुणोना निघान पुत्रो ! मने अनाथने मृकी तमे केम गया ? तमारा विरहथी पीडायेला मने एकवार | तमारुं दर्शन आपो. हा निर्दय पापी विधाता ! एकी वखते सर्व पुत्रोतो संहार करता तारा शा मनोरथ पूर्ण थया । हा | कठोर हृदय ! पुत्रोना मरणना असह्य दुःखथी ताप पाम्या छतां तारा सेंकडो ककड़ा केम नथी थता ?" या प्रमाणे | | विलाप करता चक्रीने ते ज ब्राह्मणे कड्यु के-" हे स्वामी ! तमे हमणां जमने उपदेश करता हता अने तमे ज केम शोक करो छो? कर्जा छ के-बीजार्नु दुःख जोह संसारनी असारता सुखे करीने कही शकाय छे, परंतु ज्यारे पोताना ज पंधुजनोना विनाशनुं दुःख पोताने प्राप्त थाय त्यारे तेनी सर्व धीरता चाली जाय छे. हे देव ! एक पुत्रनुं मरण पण | दुःसह छ, तो एकी साथे साठ हजार पुत्रोना मरणतुं शुं कहे? तोपण सत्पुरुषो ज व्यसनने-दुःखने सहन करे के, पृथ्वी ज वनपातने सहन करे . माटे धैयर्नु अवलंबन करी शोकने दर करो. विलाप करवाथी शं फळ छ ? कर्पु के के Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ * शोक करवाथी काइ रक्षण धतुं नथी, परंतु उलटो फर्ममंच बाय छ, सेयी करीने संसारचं स्वरूप जाणनार पंडितो कदापि - शोक करता नथी." श्रायां वचनोपडे ते ब्राह्मणे राजाने शांत कर्या. ते वखते पेला मंत्री अने सामंतोए पण शोक करता | करता राजसभामा प्रवेश कयों. तेमने राजाए पुत्रोमो वृत्तांत पूछयो, एटले तेश्रोए जे रीते बन्युं हतुं तेवी रीते सर्व स्वरूप | यथार्थ कही बताव्युं अने प्रधान पुरुषोए राजाने धीरज श्रापी, एटले राजा अनुक्रमे उचित कार्यमा प्रवृत्त थया. एकदा अष्टापद पासेना गाममा वसनारा लोकोए भावी चक्रीने प्रणाम करी विज्ञप्ति करी के—हे देव ! आपना कुमारोए अष्टापदनी रक्षा माटे जे गंगानो प्रवाह पाण्यो छे ते प्रवाह खाइथी बहार नीकळी वीने नजीकना गामोने उपद्रव करे छे. तेथी आप ते उपद्रवनुं निवारण करो. कारण के आप सिवाय बीजा कोइनी तेवी शक्ति नथी." ते सांभळी चक्रीए पोताना पौत्र भगीरथने कछु के-" हे वत्स ! नागराजनी आज्ञा लइ दंडरत्नबडे खेंचीने गंगाना प्रवाहने समुद्रमा लइ जा." श्राप्रमाणे पितामहनी आज्ञा अंगीकार करी भगीरथ अष्टापद पासे गयो. त्या तेणे अठ्ठम तप करी नागराजनी आराधना करी, त्यारे ते नागराजे प्रत्यक्ष थइ तेने कयु के--" हे वत्स ! हुं तने शुं करी आपुं ?" भगीरथे प्रणामपूर्वक विज्ञप्ति करी के-" आपनी अनुज्ञा होय तो हुँ आ गंगाना प्रवाहने समुद्रमा लइ जाउं. कारण के महीना लोकोने तेनो महा उपद्रव छ." ते सांभळी नागराजे तेने कयु के-" निर्भयपणे तुं तारूं इच्छित कर. हुं भरतखंडमा रहेनारा नागोने तने उपद्रव करतां अटकावीश." एम कही ते नागराज पोताने स्थाने गया. भगीरथे पळिदान अने पुष्पा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिकवडे सर्व नागोनी पूजा करी. त्यारथी लोकमां नागपूजा करवानी प्रवृत्ति थइ. पछी भगीरथे दंडरत्नवडे गंगाने खेंची घणा पर्वतो अने अरण्योने ओळंगी पूर्व समुद्रमा उतारी. जे ठेकाणे गंगा अने सागरनो संगम थयो ते स्थळे गंगासागर नामनु तीर्थ थयु. प्रथम जन्हुकुमारे गंगा नदी आणी तेथी तेनुं नाम जान्हवी कहेवाय छे भने पछी भगीरथे समुद्रमा पहोंचाडी तेथी तनुं नाना पानीएपी पर कडेवार थे. छी बाणोथी पूजातो भगीरथ अयोध्यामा श्राव्यो. तेना कार्यथी | प्रसन्न थयेला चक्रीए तेनुं बहुमान करी तेने राज्यपर स्थापन कर्यो, भने पोते श्री अजितनाथ स्वामी पासे दीक्षा ग्रहण || करी. सत्य प्रतिज्ञाचाळा सगर राजपिए दुस्तष तप करी विज्ञान प्राप्त कर्यु, कने अनुक्रमे बोंतेर लाख पूर्वनें कुल आयुष्य ||.. भोगवी छेक्ट कर्मनो क्षय करी मोक्षे गया. एकदा भगरिथ राजाए कोई ज्ञानी मुनिने पूछा के-" हे भगवान ! जन्हु विगेरे साठ हजार भाइओ एकी वखते मरण पाम्या तेनुं शुं कारण ? ते कृपा करीने कहो." त्यारे मुनि पोल्या के-" हे राजा समिळो.__एकदा कोइ मोटो संघ संमेतशिखरनी यात्रा करवा जतो हतो. ते मार्गमा मोटा अरण्यने श्रोळंगी पासेना गाममा | आव्यो. ते गाममा सर्वे नार्य लोको रहेता हता, तेथी सेओए संघने घणो उपद्रव कर्यो भने दुर्वचनो बोली तेमनां चख, अने धन विगरे सये लूटी लीधुं. श्रावू महापाप करी ते मामना सर्व लोकोए ते संबंधी अशुभ कर्म बांध्यु. ते वखते त्यां एक भद्रिक परिणामवाळो कुंभार रहेतो हतो, तेणे गामना सर्व लोकोने कथु के-"आ यात्रालु लोकांने तमे उपद्रव H + : Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30*XUN न करो. बीजा कोइ पण निरपराधी जनने उपद्रव करवामां महा पाप छे तो श्रा धार्मिक जनोने उपद्रव करवामां केटलं न पाप लागे ? तेथी करीने जो कदाच आ संघनी योग्य भक्ति करवानी हमारी शक्ति न होय तो भले भक्ति न करो, पण उपद्रव शा माटे करो को ? " या प्रमाणे कही ते कुंभारे गामलोकोने वार्या, तोपण ते ओए संघने लुंयो पछी संघ महाकडे त्यांधी छूटीने यागळ गयो. एकदा ते नामना रही कोई साबले गालेन नगरां जह चोरी करी. तेनी शोध करतो कोटवाळ तेने पगले पगले ते गाम सुधी श्राव्यो पछी राजानी श्रज्ञाथी ते कोटवाळे ते गामना दरवाजा बंध करी चोतरफ अग्नि की ते श्राखुं ग्राम बाळी नांख्यं. तेमां साठ हजार माणसो बळी गया. मात्र ते एक कुंभार ज ते दिवसे बहारगाम गयो हतो तेथी वे बच्यो. ते साठ हजार जीवो विराट देशना अंतिम (छेडे रहेला) गाममां कोद्रव नामना धान्यरूपे उत्पन्न थया. ते कोद्रानो एक मोटो ढंग कर्यो हतो, तेटलामां त्यां एक मोटो हाथी श्रव्यो, तेना चरणना मर्दनथी ते सर्वे एक वखते मरण पाया. पछी विविध प्रकारनी अति दुःखवा की मोनिओमां चिरकाळ सुधी तेमये परिभ्रमण कर्यु. छेवटे कांक सुकृत उपार्जन कर्पु तेथी ते सर्वे सगर चक्रीना पुत्रोपणे उत्पन्न थया. ते साठे हजार पुत्रो पूर्वनुं कर्म कांइक बाकी रहेनुं होवाथी तेवा प्रकारनुं श्राकस्मिक मरण पाम्या. पेलो कुंभार पण ते भवनुं आयुष्य पूर्ण थये मरीने कोह नगरमा समृद्धिवाळो वणिक थयो. त्यां सुकृत करी मरण पाने चीजा भवमां राजा थयो त्यो राज्य भोगदी शुभकर्मना उदयथी मुनिधर्म अंगीकार करी शुद्ध चारित्र पाळी स्वर्गे १ अरण्यमा मातृवाहक जातिना जीवपणे उत्पन्न थया. एम प्रत्यंतरमां छे. **193 ***0930+ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयो. त्यांची आयुष्य पूर्ण थये चवीने हे भगीरथ राजा ! तमे अहीं जन्हुना पुत्र थया छो." श्रा प्रमाणे ज्ञानी मुनिना मुखथी सर्व वृत्तांत सांभळी भगीरथ राजा श्रावक धर्म अंगीकार करी पोताने स्थाने गयो. इति सगर पक्री कथा. चइत्ता भारह वासं, चकवट्टी महिडिओ। पव्वजम वगओ, मघवं नाम महायसो ॥ ३६॥ । अर्थ-(महिडिओ ) चौद रस्नी, नव निधान, चक्रिय लब्धि विगरे मोटी ऋद्धिवाळा अने ( महायसो ) मोटा यशवाळा (मघवं नाम ) मघवा नामना ( चकवट्टी) त्रीजा चक्रवर्तीए ( भारई शसं ) छ खंड भरतक्षेत्रनो (चहत्ता) त्याग करी ( पयजं) प्रव्रज्याने ( अम्भुवगो ) अंगीकार करी. ३६. __मघवा चक्रीनी संचित कथा.- आ ज भरतक्षेत्रमा श्रावस्ती नामनी नगरीमां लक्ष्मीवडे समुद्रनो विजय करनार समुद्रविजय नामे राजा हतो. तेने भद्रा नामनी राणी हती. एकदा रात्रिने छल्ले पहारे ते राणीए चौद महास्वप्नो जोयां. जोहने तरत ज जागी गयली राणीए हर्षथी ते वृत्तांत राजाने कह्यो. राजाए कह्यु के-" हे देवी ! आ स्वप्नोथी तुं चक्रवर्ती पुत्रने प्रसवीश," अनुक्रमे गर्भ समय पूर्ण थये राणीए पुत्र प्रसन्यो. राजाए मोटा उत्सवपूर्वक तेनुं मघवा नाम पाड्यु. ते अनुक्रमे युवावस्था पाम्यो त्यारे समुद्रविजय राजाए तेने राज्यपर स्थापन को. ते मघवा राजा राज्य करता हता तेवामां तेनी श्रायुधशालामा 1 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - lavde. चक्ररत्न उत्पन्न थयु. तेवडे ते छ खंड भरतक्षेत्र साधी वीजा चक्रवर्ती थया. पछी घणा काळ सुधी राज्यऋद्धिने | भोगवता तेने एकदा संसारपरथी वैराग्य उत्पम थयो. तेथी तेणे विचार कर्यों के–“श्रा सर्वे रमणीय पदार्थो कर्म- | बंधना हेतु छे तथा अस्थिर छ. विद्युत्ना विलासनी जेम क्षणमा नाश पामनारा छे. तेथी मारे हचे प्रात्मकार्य साधवामां | उद्यम करवो योग्य छे." इत्यादि विचार करी पोताना पुत्रने राज्यपर स्थापन करी मघवा चक्रीए प्रव्रज्या ग्रहण करी. | अनुक्रमे चारित्रनु पालन करी उग्र तप तपी कुल पांच लाख वर्षनुं आयुष्य पूर्ण करी ते राजर्षि सनत्कुमार नामना त्रीजा देवलोकमां देव थया. ___ इति मघवा चक्रीनी कथा. सणंकुमारो मेणुस्सिदो, चकवट्टी माहिडिओ । पुत्तं रंजे ठेवित्ता णं, सो वि राया तवं चरे ॥३७॥ अर्थ-(महिडिओ ) मोटी ऋद्धिवाळो अने ( मणुस्सिदो) मनुष्योनो इंद्र एवो ( सर्णकुमारो ) सनत्कुमार नामनो ( चक्कचट्टी) चक्रवर्ती थयो हतो. ( सो वि राया ) ते चक्रीए पण (पुत्तं) पुत्रने (रजे) राज्यपर ( उवित्ता णं) स्थापन | करी ( तवं ) तपY-चारित्रनुं (चरे) आचरण कर्यु हतुं. ३७. सनत्कुमार चक्रीनी संक्षिप्त कथा. भा ज भरतक्षेत्रमा कुरुजंगल नामना देशमा हस्तिनापुर नामर्नु नगर छे. तेमां अश्वसेन नामे राजा हतो. तेने | Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहदेवी नामनी राणी हती. तेणीए एकदा रात्रिने छल्ले पहोरे चौद महास्वप्नो जोयाते जोइ राणीए राजाने कर्यु, त्यारे राजाए तेणीने चक्रवर्ती पुत्रनो जन्म थशे एम कही आनंदित करी. अनुक्रमे समय पूर्ण थये राखीए श्रेष्ठ पुत्र | प्रसन्यो. राजाए महोत्सवपूर्वक तेनुं सनत्कुमार नाम पाडयुं. ते कुमार अनुक्रमे कल्पवृक्षना अंकुरानी जेम वृद्धि पामवा | लाग्यो. ते कुमारनी साथे रमनारी महेंद्रसिंह नामनो तेने मित्र हतो. ते चन्ने कलाचार्य पासे साथे ज सवे कळाओ शील्या. अनुक्रमे सनरगुशार गुवावस्था पो. एकदा वसंत ऋतुमा अनेक राजपुत्रो भने नगरना जनो सहित सनत्कुमार क्रीडा करवा माटे उद्यानमा गयो. त्यां अश्वक्रीडा करती वखते सर्वे राजपुत्रो पोतपोताना अश्वपर आरूढ था अश्वक्रीडा करया लाग्या. ते वखते सनत्कुमार पण पोताना जलधिकल्लोल नामना अश्वपर आरूढ थयो. पछी सर्व कुमारोए पोतपोताना अश्वो दोडाच्या. तेमा विपरीत शिक्षापाको सनत्कुमारनो श्रश्व एटलो बधो वेगथी दोड्यो के जेथी चीजा सर्व कुमारोना अश्वो पाछळ रही गया. थोडा समयमा ज कुमार अश्व सहित अदृश्य थयो, ते वनांत सांभळी राजा परिवार सहित तेनी पाछळ चाल्यो. परंतु ते वखते सखत वायु वावा लाग्यो, तेथी अत्यंत धूळ उडचाने लीधे मार्गमा कुमारना अश्वना पगला पण लोपा गयां तेथी राजा | थाकीने निराश थइ पालो वळयो. त्यारपछी सनत्कुमारनी शोध माटे राजानी आज्ञा लइ महेंद्रसिंह एकलो ज चाल्यो. उन्मार्गे चालतां एक मोटा अरण्यमा आव्यो. त्या एक वर्ष सुधी ते चोतरफ भम्यो. सेवामा एकदा तेणे एक मोटुं सरोवर जोयं. तेमा रहेला कमळोना Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधी ते आनंद पाम्यो. ते वखते थोडेक दर मधुर गीत अने येणुनो शब्द तेना सांभळवामां आव्यो. तेथी महेंद्रसिंह ते | शब्दने अनुसारे आगळ गयो. तो त्यां केटलीक तरुणा मीओनी मध्यामा रहेला सनत्कुमारने तेणे जोयो. ते जोइ मनमा | आश्चर्य पामी महेंद्रसिंहे विचार कर्यो के-"शुं पाहुं जोर छु ते भ्रांति के के सत्य छ ?" आ प्रमाणे ते विचार करतो हतो, तेटलामा तेणे बंदीजनोनी प्राप्रमाणे वाणी सांभळी.-" हे कुरुवंशना अलंकार ! सौभाग्यवडे कामदेवने जीतनार ! अश्वसेन राजाना पुत्र ! हे सनत्कुमार ! तमे चिरकाळ जय पामो." श्रा प्रमाणे सांभळी महेंद्रसिंहे निश्चय कयों के सनत्कुमार ज छे." पछी ते महेंद्रसिंह धीमे धीमे सनत्कुमारनी सन्मुख चाल्यो. पोताना मित्रने सामे आवतो जोइ सनत्कुमार | पण हर्षथी तत्काळ उभो थइ तेनी सन्मुख चाल्यो. पासे श्रावता महेंद्रसिंह कुमारना पगर्मा पड्यो, सनत्कुमारे तेने उभो । करी गाढ आलिंगन कयु, बन्ने मित्रो अत्यंत हर्पित थया. पछी विद्याधरे श्रापेला श्रासन उपर ते बन्ने बेठा, अने विद्याधरो तेमनी पासे सन्मुख बैठा. पछी जेना नेत्रोमांथी आनंदना अश्रु झरतां हां एवा सनत्कुमार मित्रने पूछथु के-" हे मित्र ! तुं एकलो आ अटवीमा शी रीते पायो ? अने हुं अहीं र्छ एम ते शी रीते जाण्युं ! मारा विरहमा मारा मातापिता हूं करे छे ?" या प्रमाणे कुमारना पूछवाथी महेंद्रसिंहे सर्व वृत्तांत कुमारने कह्यो, पछी स्नान भोजन करी बन्ने मित्रो आनंदी बेठा. ते वखते महेंद्रसिंहे कुमारने पूछ| के-" हे कुमार ! ज्यारे तमने ते अश्व हरी गयो त्यारे तमे क्यां गया? क्या रह्या ? अने प्रावी समृद्धि शी रीते पाम्या ?" ते कहो. ते सांभळी सनत्कुमारे विचायु के-" मारे मारा मुखथी ज मारु Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र कहे योग्य नथी. " एम विचारी पोते परणेली विद्याधरनी पुत्री विपुलमती नामनी प्रियाने तेथे संज्ञा करी ते | कद्देशे ' एम सिसा कायु अने पोते इ सहयो. । त्यारपछी विपुलमती प्रज्ञप्ति विद्याना बळयी कुमारनुं वृत्तांत जाणी महेंद्रसिंहने कहेबा लागी के-" ते वखते तमारा * देखतांज कुमारने ते अश्व एक मोटा वनमा लइ गयो, रात दिवस निरंतर चालतो ते अश्व बीजे दिवसे मध्यान्ह समय सुधी चाल्यो. ते वखते भूख अने तरसने लीधे तथा थाकने लीधे ते अश्वना मुखमाथी जिन्ह। बहार नीकळी गइ. तस्त ज ते पृथ्वीपर पड्यो अने मृत्यु पाम्यो. त्यारपछी कुमार तेनापरथी उतरी पगबडे ज चालवा लाग्या. अत्यंत उषा लागवाथी जळने माटे । चौतरफ भमवा लाग्या. लांबा मार्गना श्रमधी तेम ज शरीरना कोमळपणाथी चालचामां पण ते अशक्त थया. तेवामां थोडे दूर एक सप्तच्छद वृक्ष तेना जोवामां आव्यो, त्यां महाकष्टथी पहोंची तेनी छायामां बेठा, अने अांखे अंधारा श्रावचाथी त्यांज पडी | गया. आ अबसरे कुमारना पुण्यप्रभावधी वनमा रहेनारा फोह यो शीतळ जळ लावी कुमारना सर्व अंगे जळ छोटी तेने सचेतन कर्या, पछी कुमारे ते जळचं पान करी यक्षने पूछयु के---"तमे कोण छो? अने आ जल तमे क्याथी लान्या ?" यचे जवाब प्राप्यो के-"हुँ या वनमा रहेनार यक्ष छ. श्रा जळ हुं मानस सरोवरमांथी लाव्यो छु, " कुमारे कछु-"जो तमे मने ते सरोवर देखाडो तो हूं तेमां स्नान करी शांत थाउं." ते सांभळी ते यक्ष कुमारने पोताना इस्ततळमा राखी मानस | सरोवरे लइ गयो. त्यां असिताक्ष नामे एक यत्त रहेतो हतो. ते कुमारनो पूर्वभवनो चैरी इतो. तेथी कुमारने जोइ ते यक्ष | १ भावविजयजीनी टीकामा बकुलमती नाम आवे छे. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 = क्रोध पाम्यो. तेणे कुमारने कष्टमां नाखवा माटे प्रथम मोटा वृक्षोने पण उखेडी नाखे एवो वायु विकुच्र्यो, अने कुमार उपर एक मोटुं वृक्ष उपाडीने नाख्युं, ते वृक्षने कुमारे प्रावतां ज मुठी मारीने दूर फेंकी दी . पछी यचे धूळवडे श्राखं विश्व र अंधकारमय करी दीधं. भयंकर अटहासने सकता, धमाडा जेवा श्याम शरीरशळा, जाज्वल्यमान ज्वाळावडे विकराळ। मुखवाळा अने भयंकर प्राकृतिवाळा पिशाचो बिकुा. तेनाथी पण कुमार भय पाम्या नहीं, त्यारे ते अधम यचे नागपाशथी तमारा मित्रने बांधी लीधा. ते नागपाशने तरत ज कुमारे जीर्ण रज्जुने जेम हाथी तोडी नाखे तेम तोडी नख्या. पछी यक्ष हाथना प्रहारबडे कुमारने मारचा श्राव्यो, सेने कुमारे एक मुठी मारी पाडी दीधो. तरत ज यचे सावधान थइ अत्यंत क्रोधथी कुमारने लोहना मुद्गरचडे प्रहार को. ते प्रहारथी छदायेला वृक्षनी जेम आर्यपुत्र पृथ्वीपर पडी गया. तेनापर ते पापी यक्षे मोटो पर्वत उपाडीने नोख्यो. तेनाथी कुमारर्नु शरीर अत्यंत पीडाबाथी ते मूळ पाम्या. थोडा वखत पछी सावधान थइ कुमार ते यमनी साथे बाहुयुद्ध करवा लाग्या, तेमां कुमारे हाथरूपी मुद्गरथी ते यक्षने एवो प्रहार कर्यो || के ते यक्ष तत्काळ प्रचंड चायुथी हणायेला वृचनी जेम पृथ्वीपर पडी गयो अने जाणे मृत्यु पाम्यो होय तेम चेष्टा रहित थइ गयो, परंतु देव होवाथी ते मरण पाम्यो नहीं. पछी बृम पाडीने ते यक्ष एवी रीते नाशी गयो के फरीथी कोइ पण खत ते देखायो ज नहीं. ते वखते जे विद्याधरो कौतुकथी तेमनु युद्ध जाता हता. तेोए कुमारना मस्तक उपर पुष्पवृष्टि करी अने बोल्या के"श्रा कुमारे यक्षनो पराभव कर्यो." त्यारपछी कुमारे इच्छा प्रमाणे ते सरोवरमा क्रीडापूर्वक स्नान कयु. त्यांथी बहार Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीकळी कुमार आगळ चाल्या. तेटलामा थोडे दूर जतां तेज वनमा रहेली विद्याधरोनी पाठ पुत्रीमो तेना जोवामा भावी. ते | | कन्याओए पण कुमारने स्नेहयुक्त दृष्टिबडे जोया. ते बखते कुमारे विचार्य के-" था कन्याओ भहीं क्याथी आची हशे? तेमनो वृत्तांत हुँ पूछी जोउं. " एम विचारी कुमार तेमनी पासे गया अने मधुर वाणीथी तेमने पूछयु के-" हे पाळाओ! तमे यांनी यावीबो : अनेक शून्य अरण्यमा कम रही छो?" तेओ बोली के--" हे भाग्यशाली ! अहीं पासे जा मियसंगमा नामनी अमारी नगरी छे. तमे पण त्यां चालो." एम कही दासीए कुमारने मार्ग बताव्यो, ते मार्गे कुमार * नगरीमा भया. त्यां कंचुकी पुरुषो कुमारने राजमंदिरमा लइ मया. ते नगरीमा भानुवेग नामे राजा छे. तेथे कुमारने जोइ उभा थइ आसन आपी तेनो सत्कार कर्यो. पछी राजाए कुमारने कयु के-" हे भाग्यवंत ! तमे मा मारी पाठ कन्याना | पति थाश्रो. कारण के पहेला यहीं एक अचिमाली नामना मनि शान्या हता. तेमणे मने कांत के-"असिताक्ष** | नामना यक्षनो जे पराभव करशे ते पा पाठे कन्याओनो स्वामी थशे. माटे तमे श्रा कन्याओने परणो." ते सांभळी | | कुमारे तेनुं वचन अंगीकार कयें, एटले राजाए मोटा उत्सवपूर्वक पोतानी आठे पुत्रीो साथे तेना लग्न का तेज रात्रिए हाथे बधिला कंकण सहित कुमार ते पाठे प्रियायोनी साथे शयनगृहमा पर्वक उपर सुता हता त्यांथी तेने उपाडी पेला यक्षे दूर फेंकी दीधा. प्रातःकाळे कुमार जागीने जुए छे तो तेणे पोताने अरण्यमा पृथ्वीपर पडेलो जोयो. तेथी आश्चर्य पामी कुमारे विचार्यु के--" या सर्व विवाहादिक सत्य के असत्य छे?" एम विचारता हाथपर दृष्टि नांखी तो हाथे कंकण बांधेलं जोयुं. पछी खेद पामी कुमार ते ज मारण्यमां भागळ घान्या. केटलेक दूर गया त्यारे तेणे एक पर्वतना Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शिखरपर मणिमय स्तंभवाळो एक मनोहर प्रासाद जोयो. ते जोइ कुमारे विचार्यु के---" आ पण कोइ माया ज हशे." एम विचारी कुमार ते तरफ चान्या. पासे जतां कुमारे ते महेलमा करुणवरे रोती कोई स्त्रीनो शब्द सांभळ्यो, पछी कुमार ते महेलमा पेठा, अने अनुकमे सातमे माळ पहोंच्या. त्यां तेणे एक कन्याने रोती जोइ. ते कन्या रोती रोती बोलती | हती के-"कुरुवंशरूपी आकाशतळमां चंद्र समान हे सनत्कुमार ! आ भवमा तमे मारा पति न थया तो भावता भवमा मारा भर्ता थजो." एम वारंवार बोलती ते रुदन करती हत्ती. कुमारने जोइ तेणीए रोतो रोतां ज तेने प्रासन प्राप्युः | कुमारे तेनी उपर बेसी ते कन्याने पूछधु के-" हे भद्रे! सनत्कुमारनी साथे तारे शो संबंध के के जेथी तुं तेनुं आ प्रमाणे स्मरण करे छ?" त्यार त बोली के- कुमार मारा मनोरण मात्रथी न भर्ता छे. ते एवी रीते के-“साकेतपुरमां सरथ नामे राजा छ भने तेने चंद्रयशा नामनी राणी छे. तेनी कुक्षिथी उत्पन्न थयेली हुँ मुनंदा नामनी तेमनी पुत्री छं. हुं युवावस्थाने पामी त्यारे मारा पिताए मारे माटे अनेक राजपुत्रोनां चित्रो दुतो मारफत मंगावी मने देखाड्या. परंतु कोइ पण राजपुत्र तरफ मारु मन आकर्षायुं नहीं. एकदा सनत्कुमारनुं चित्र दूते लावीने मने देखाडयु. ते जोइ मारुं चित्त श्रानंद पाम्यु. मने तेनापर अत्यंत मोह थवाथी तेनु ज ध्यान धरती हूं मारे घेर रहेली हती. तेटलामां मने कोइ विद्याधर कुमार हरीने अहीं लाग्यो, अने भने प्रही विद्यार्थी विकुर्वेला महेलमा मूकी पोते कोहक ठेकाणे गयो छे." या प्रमाणे ते कन्याए पोतानो वृत्तांत कयो, तेटलामा तेने उपाडी लावनार अशनिवेग विद्याधरनो पुत्र वज्रवेग त्यां आव्यो. तेणं कुमारने जोइ क्रोध पामी तेने पाकाशमा उछाळ्या. ते जोइ ते कन्या हाहाकार करती मूर्छा खाइ पृथ्वीपर पड़ी, तेटलामा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनत्कुमारे भाकाशमांधी गाया व्यावी विद्याधर पुमान एक मुठीमा प्रहारथी ज मरणने शरण कर्यो. पछी कुमारे ते कन्याने पोतानो वृत्तांत कही तेनुं पाणिग्रहण कयु. ते सुनंदा भागळ जता सनत्कुमारनुं स्त्रीरत्न थइ. ___त्यारपछी त्यां ते वज्रवेगनी बहेन संध्यावळी भाची. तेणी प्रथम तो पोताना भाइने मारेलो जोइ कुमारपर अत्यंत कोप पामी, पण पछी तरत ज तेने निमित्तियान कहेलुं वचन याद माथु के-" तारा भाइनो जे वध करशे, ते तारो | पति थशे." आ वचन स्मरणमां पाश्चाथी शांत थयेली तेणीए कुमारने विज्ञप्ति करी के-" हे स्वामी ! हुँ | अहीं तमारी साथे लग्न करवा श्रावी छं, माटे मने अंगीकार करो." त्यारे कुमार तेणीने पण त्यांज परण्या.. श्रा अवसरे कुमारनी पासे वे विद्याधर राजाओ भाव्या तेओ कुमारने प्रणाम करी कयु के-" हे देव ! अशनिवेग विद्याधरे विद्याना बळी पोताना पुत्रनुं मरण जाण्युं के तेथी ते तमारी साथे युद्ध करचा आवे छे. या वृत्तांत तमने जणाचवा माटे चंद्रवेग अने भानुवेग नामना विद्याधरो पोताना पुत्रो हरिश्चंद्र अने चंद्रवेग नामना अमने बेने तमारी पासे मोकल्या छे अने आ कवच तथा रथ तेमणे मोकल्या छे. तथा ते बन्ने भाइओ चंद्रवेग भने भानुवेग के जे तमारा ससरा थाय छे तो पण मोटा सैन्य सहित हमणां ज तमारी सेवा करवा माटे नहीं आवे के. " आ प्रमाणे तेओ वात करता हता तेटलामां ते चंद्रवेग अने भानुवेग पण सैन्य सहित श्रावी पोंच्या. पछी संध्यावळीए पोताना पति सनत्कुमारने प्रज्ञप्ति नामनी महाविद्या आपी. त्यारपछी चंद्रवेग भने भानुवेग सहित सनत्कुमार संग्राम करवा चान्यो, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न सेटलामां ते शनिवेग मोहुं सैन्य लइ तेनी सन्मुख आव्यो. तेनी साधे प्रथम चंद्रवेग अने भानुवेग युद्ध करवा लाग्या. म चिरकाळ युद्ध करी अशनिवेगनुं सैन्य भांग्युं, त्यारे अशनिवेग गोते युद्ध करवा लाग्यो. तेनी सामे सनत्कुमारे पोते युद्ध कर्यु. मां शनिवेगे प्रथम कुमार उपर महोरग शस्त्र मूक्युं तेने कुमारे गरुडाख बडे कापी नांख्युं. फरीथी प्रश नवेगे आग्नेय शस्त्र मूक्युं तेने कुमारे वारुणास्त्र बडे कापी नांख्युं. फरीथी तेथे वायवा मूक्युं तेने कुमारे शैलास्त्र वडे कापी नांख्युं. पछी अशनिवेग धनुष लद्द कुमार उपर बाणोनी वृष्टि करवा लाग्यो, त्यारे कुमारे अर्धचंद्र बारा मूकी तेना धनुषनी प्रत्यंचा ज कापी नांखी. त्यारपछी हाथमां खड्ग लइ ते अशनिवेश कुमार तरफ दोडयो, तेना आवतांनी साथे ज तमारा मित्रे तेनो हाथ कापी नांख्यो. तोषण क्रोधथी बंध थयेलो ते अशनिवेग कुमार सामे दौडयो त्यारे विद्या आपला चक्रवडे आर्यपुत्रे तेनुं मस्तक छेदी नांख्युं. ते वखते ते विद्याधर राजानी सर्व राज्यलक्ष्मी प्रतिवामुदेवनी लक्ष्मी जेम वासुदेव पासे जाय तेम मारा पतिने प्राप्त थइ. श्श्रा प्रमाणे अशनिवेगने हणी चंद्रवेग अने भानुवेग सहित सनत्कुमार आकाश मार्गे रथमां बेसी ते महेलमा श्रध्या. जय मेळवीने वेला पोताना पतिने जोह हर्षित थयेली सुनंदा अने संध्यावळीचे तेनुं स्वागत कर्यु पछी ते बन्ने प्रियाभने साधे लह मारा पति चंद्रवेगादिक सहित वैताढ्य पर्वतपर आन्या. त्यां सर्व विद्याधरोए मळी कुमारनो महाराज्याभिषेक कर्यो, त्यां विद्याधर राजाश्रोथी सेवाता तमारा मित्र केटलोक बखत सुखे रह्या. एकदा मारा पिता चंद्रवेगे कुमारने विज्ञप्ति करी के " स्वामी सनत्कुमार ! पहेलां अर्चिमाळी नामना ज्ञानी Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मुनिए मने कह्यु हतुं के-तारी सो कन्याने तथा भानुवेगनी पाठ कन्याने जे परणशे ते सनत्कुमार अवश्य चोथा चक्रवर्ती थशे. ते भाजथी एक महिने मानससरोवरे आवशे. तापर्थी अने श्रमथी व्याकुळ थयेला तेने असिताच नामनो पूर्व भवनो वेरी यक्ष जोशे. " पाटलुं सांभळी कुमारे चंद्रवेगने पूछयु के-" ते यच मारो पूर्व भवनो वैरी शी रोते थयो छ ? ते तमे जाणता हो तो कहो." त्यारे चंद्रवेगे मुनिना मुखथी तेनो पूर्व भव सांभळ्यो हतो, तेथी तेणे आ | प्रमाणे तेनो पूर्व भव करो. आ भरत क्षेत्रमा कांचनपुर नामर्नु नगर छ. तमा पराक्रमवडे पृथ्वीन आक्रमण करनार विक्रमयशा नामे राजा हतो. ते राजाने विश्वमा मनोहर एवी पांच सो राणीमा हती. ते नगरमां नागदत्त नामे एक धनवान सार्थवाह हतो. * तेने रूप, लावण्य, सौभाग्य अने यौवनना गुणोपंड देवांगनानो पण पराभव करनारी विष्णुश्री नामनी भार्या हती. एकदा राजाए ते मनोहर स्त्रीने जोइ कामातुर थवाथी तेणीनु हरण करी तेणीने पोताना अंतःपुरमा राखी. पोतानी नियान हरण कयें जाणी वियोगी व्याकुळ थयेलो नागदत्त रात्रिदिवस चिंता करवाथी उन्मत्त थइ प्रलाप करवा लाग्यो के" हा चंद्रमुखी ! तुं क्यां गइ ? मने दर्शन आप." इत्यादिक बोलतो ते नगरमा भमवा लाग्यो. विक्रमयशा राजा समग्र लोकापवादनो त्याग करी निर्लज पणे ते विष्णुश्रीनी साधे क्रीडा करवा लाग्यो. तेमा एवो लीन थइ गयो के पोताना अंतःपुरमा रहेली पांचसो राणीश्रोमाथी कोइर्नु नाम पण लेतो नहोतो. एकदा ते सर्व राणीमोए विचार करी काइ कार्मणार्दिक करी ते विष्णुश्रीने मारी नांखी. तेणीना मरणथी राजा अत्यंत शोकातुर थयो, ते पण नागदत्तनी बेम उन्मस Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | थयो, तेथी विष्णुश्रीना शरीरने अग्निदाह करवा दीधो नहीं. तेथी मंत्रीओए विचार करी राजानी दृष्टि चूकावी ते विष्णु श्रीतुं शरीर त्यांची उपड़ावी एक अरण्यमा नकाच्यु. तेनुं शरीर नहीं जोवाथी राजाए अन्न जळनो त्याग कर्यो. ते जोइ | मंत्रीयोए विचायु के-"आ राजा ! विष्णुश्रीन शरीर जोया विना मरण पामशे." एम विचारी राजाने धनमा लइ जह ताए तनु शरीर बताव्यू. ते वखते ते शरीरमांथी दगधी पाणी नीकळतुं हतं. पाखा शरीरमां कांडा पड़ी गया हता, गांध : | पक्षीओए तेना स्तन ठोली नांख्या हता, कागडाऔए तेनां नत्रो काढी नांख्यां हता, शीयाळोए तेनां प्रांतरडा खेंची काइयां इला, भरे जावे तरी हामीले परपती हती. आq विष्णुश्रीन बीभत्स शरीर जोइ राजाए विचार कर्यो के | "अहो ! आ असार संसारमा कांह पण सारवाळी वस्तु देखाती नथी. में मा विष्णुश्रीना शरीरने चरकाळ सुधी साररूप मान्युं हतुं ते मारी मूढताने धिक्कार छ. रे जीव ! जेने माटे ते कुळ, शीर, यश, लजाए सर्वनो त्याग कर्यो, तेनी आज आधी दशा थइ, ते हे उन्मत्त ! तुं जो. प्रिया मानीने जेने एक क्षणवार पण में मारा शरीरथी दूर करी नहोती तेने पण जोइने भत्यारे मारु शरीर जाणे टाढ चडी होय तेम कंपे छ. हवे आ पापरूपी पंकथी मलिन थयेला मारा माl माने धर्मक्रियारूपी जळवडे मारे निर्मळ करवो योग्य छे." या प्रमाणे विचार करी वैराग्य पामी राजाए राज्य, देश, | अंतःपुर अने स्वजनवर्ग ए सर्वनो त्याग करी सुव्रत नामना प्राचार्य पासे जैनी दीक्षा ग्रहण करी. पछी उपवास, छट्ट, | अहम विगेरे विचित्र तपवंड आत्माने भावता ते राजर्षि छेवटे संलेखना करी आयुष्यने चये सनत्कुमार नामना त्रीजा देवलोकमां देव थया. त्यांथी आयुष्य पूर्ण थये चवीने रत्नपुर नामना नगरमां जिनधर्म नामे श्रेष्टीपुत्र थयो. ते नान्या Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** * वस्थाथीज श्रावकधर्मनुं पालन करतो हतो. ___ अहीं नागदत्त सार्थवाहे विष्णुश्री पत्नीना विरहथी दुःख पामी प्रतिध्यानथी मरण पामी अनेक वार तिर्यंच योनिमा भ्रमण कयु. पछी सिंहपुर नामना नगरमा ते अग्निशर्मा नामनो ब्राह्मण थयो. एकदा पुण्यनी अाशाथी ते त्रिदंडी Tथयो. यछी द्विमासादिकनो तप करतो ते फरतो फरतो एकदा रत्नपुर नगरे आव्यो. त्या ते वखते नरवाहन नामे राजा BI हतो, ते त्रिदंडीनो भक्त इतो. ती या तपस्वी छ एम जागी राजा पोताने घेर तेने पारणं करया लइ गयो. ते वखते त्या दैवयोगे जिनधर्म आवेलो हतो तेने ते त्रिदंडीए जोयो. तेने जोतां ज तत्काळ पूर्वभवना वेरने लीघे ते त्रिदंडी तेना | पर अत्यंत क्रोध पाम्यो. पली शिडीए ग़जाने को के—" हे राजा ! अत्यंत उष्ण पायसनी भरेलो थाळ या श्रेष्ठीनी | पीठयर मूकी मने जमाडो तो हुँ जमुं." ते सांमजी राजाए कड्यु-" हे पूज्य ! वीजा कोइ माणसनी पीठपर थाळ मूकीने * | तमने हुं जमाईं, पण आ श्रेष्टीने माटे तमे भाग्रह न करो. " ते सांभळी क्रोध पामेला त्रिदंडीए फरीधी कयु के " श्रानी ज पीठपर थाळ मूकीने जमीश, नहीं तो नहीं जमाश नहीं, धीजे ठेकाणे जइश." ते सांभळी राजा तेनो भक्त । हतो, तेथी तेणे तेनुं वचन अंगीकार कयु. पछी राजानी आज्ञा थवाथी जिनधर्म श्रेष्ठीए पोतानी पीठ तेनी पासे घरी, T] एटले ते तापस तेनापर अत्यंत उष्ण पायसनो थाळ मुकी खावा लाग्यो. ते विशुद्ध बुद्धियाळा श्रावके पण ते थाळनो ताय शांतिथी सहन कयों, अने ‘ा पोताना ज कर्मनो विपाक--उदय छे' एम विचारी पोते समभावमा रझो. ज्यारे ते | त्रिदंडी जमी रह्यो त्यारे राजाना सेवकोए श्रेष्ठीनी पीठपरथी ते थाळ लइ लीधो-उपाइयो, तेनी साथे ते श्रेष्टीनी पीठनी l Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ***** स्वचा, रुधिर ने मांस पण उखडी गय. त्यारपत्री शेठ पोताने घेर गयो. त्यां स्वजनो तथा नगरजनोनो यथायोग्य सत्कार करी ते सर्वने खमाबी जिनधर्मे तत्काळ गुरु पासे जह जैनी दीक्षा ग्रहण करी. पछी नगर बहार जइ पर्वतना शिखरपर चडी ते मुनि अनशन करी पंदर दिवस सुधी पूर्वदिशा सन्मुख कार्योत्सर्गे उभा रह्या. ए रीते एक एक पखवाडीयुं अनुक्रमे बीजी ण दिशामां कायोत्सर्गे रखा. ते वखते तेनी पीठनुं मांस कागडा, शीयाळ विगेरे खावा लाग्या, तेनी dia वेदना सहन करी मरण पामीने सौधर्म देवलोकमां इंद्र थया. ते तापस पण मरण पामी पोते करेला श्रभियोग्य कर्मवडे तेज इंद्रनुं वाहन ऐरावण हाथी थयो. त्यांची चवीने ते त्रिदंडीनो जीव मनुष्य भने तिर्यंचोमां भ्रमण करी हाल श्रताच नामनो यक्ष थयो छे, अने इंद्र पण त्यांची चयी हस्तिनापुरमा सनत्कुमार नामे चक्री थया छे. आ प्रमाणे ते मुनिना कवाथी में तमाशे पूर्वभव तमने कयो तथा असिताक्ष यक्षना वैरनुं कारण पण क. तो हे स्वामी सनत्कुमार ! मानुवेगनी आठ कन्या तमे परण्या छो. हवे मारी सो कन्याभोने परणी मने कृतार्थ क. " आ प्रमाणे चंद्रवेगनुं वचन सांभळी कुमारे तेनी मागणी अंगीकार करी. एटले मारा पिता चंद्रवेग कुमारने लइ पोताना नगरमा श्राव्या. त्यां तमारा मित्र हूं विगेरे सो कन्यायोने परण्या त्यांथी कुमार सो पत्नीओने लइ यहीं श्राव्या कुल एक सोने दश प्रिया साथै भोग भोगववा लाग्या. त्यारपछी भाजे कुमारे कथुं के - " श्रमे यक्षने जे ठेकाणे जीयो इतो त्यां श्राजे जनुं छे. " एम कही ते श्रमने सर्वने लह अहीं श्राव्या. अहीं रहेला कुमार नाटक जोता हता तेलामा हे महेंद्रसिंह ! तमे श्रहीं श्रावी पहोंच्या एटले तमने कुमारनो तथा अमारो मेळाप थयो. " *40/- 60/-*+****05 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ प्रमाणे विपुलमसीए महेंद्रसिंहने कुमारनो सर्व वृत्तांत फह्यो, तेटलामा सनत्कुमार जागृत थया. पछी महेंद्रसिंहने साथे लइ कुमार सर्व विद्याधरो अने परिवार सहित वैताब्य पर्वतपर गया. त्यां अवसर पामीने महेंद्रसिंहे कुमारने विज्ञप्ति करी के" हे कुमार ! तमारा मातपिता तमारा विरहथी महाकप्टे काळ निर्गमन करे छे. माटे नेमना दर्शन माटे प्रसम्म पहने त्यां | पधारोमा प्रमाणे मित्रनं वचन सांभळतांज कुमार मातापितानां दर्शन करवामां उत्कंठित थयो. तेथी तरतज सर्व नियामो अने मित्र सहित कुमार अनेक विद्याधरोने साथे लइ संख्याबंध विमानोरडे आकाशमा सेंकडो सूर्योने देखाडतो चान्यो. | प्राकाश मार्गे अनेक हस्ती अने अश्वादिकपर आरूढ थइ इंद्रनी करता देवोनी जेम अनेक विद्याधर राजाश्री पोतपोताना सैन्य सहित कुमारनी करता चालता हता. ते वखते वाजिनोना शब्दबडे आकाश शब्दमय थइ रह्यु हतुं. पा रीते मोटा || || उत्सव सहित कुमार हस्तिनापुरमा आध्या. त्यां पोताना दर्शनी कुमारे मातापिताने तथा पुरजनोने अत्यंत आनंद प्राप्पो. | कुमारनी श्रावी असाधारण समृद्धि जोइ अश्वसेन राजा वाणीथी कही न शकाय तवो हर्षे अने विस्मय पाम्वा. पछी राजाना पूछवाथी महेंद्रसिंह कुमारनो अने पोतानो सर्व वृत्तांत कही राजा विगेरे सर्वने आचर्य पमाच्या. त्यारपछी अश्वसेन राजाए कुमारने पोताना राज्यपर स्थापन कर्या अने महेंद्रसिंहने नेना सेनापतिर्नु पद प्राप्यु. पछी राजाए पोते श्री धर्मनाथ स्वामीना तीर्थना स्थविर मुनिनी पासे वैराग्यथी चारित्र ग्रहण करी पोतानो जन्म कृतार्थ कर्यो. __अनुक्रमे सनत्कुमार राजा राज्य करता हता ते बखते तेने चक्र विगेरे चौद रत्नो प्राप्त थया. त्यास्पछी चक्रना मार्गने अनुसरीने भरतक्षेत्रना छ खंड साधी तथा नव निधान प्राप्त करी एक हजार वर्षे सनत्कुमार पोताना पुरमा पाछा माया. MaraNPN-COTip-rAXIROri Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पछी ज्यारे ते राजा पुरप्रवेश करता हता ते वखते सौधर्म इंद्रे अवधिज्ञानथी जाण्यु के पूर्व भवमां आ राजा अहींज * मारे स्थाने मारी जेवाज इंद्र हता." एम विचारी तेमनापर अत्यंत स्नेह थवाथी इंद्रे कुचेरने भाज्ञा करी के-"भा चोथा | चक्रवर्ती मारा मित्र छे, तेथी त्यां जइने तेनो राज्याभिषेक करा." ा प्रमाणे कही इंद्रे चक्रवर्तीने आपका माटे धनदन बे al चामर, छत्र, हार, मुगट, ये कुंडळ, सिंहासन, पादपीठ, वे देवदृष्य बस्त्रो अने चे पादुका एटली चीजो श्रापी, तथा रंभा . अने तिलोत्तमा विगेरे अप्सराश्रोने धनदनी माथे मोकली. ते सर्व लइ धनद हस्तिनापुर गयो, अने चक्रीनी पासे पोताने * है| इंद्रे करेली आज्ञा निवेदन करी. पछी चक्रीनी अनुमति लइ घनदे एक योजन विस्तारवाळी माणिक्यनी पीठ विकुर्वी, तेना पर मणिमय मंडप कर्यो, तेनी वच्चे मणिना पादपीठ सहित सिंहासन मृत्यु, देवो पासे क्षीरसागरनुं जळ मंगाव्युं, पछी | बहुमान पूर्वक चक्रीने ते सिंहासनपर बेसाडी इंद्रे मोकलेली सर्व वस्तु तेनी पासे भेट मूकी, अने क्षीरसागरना जळवडे | सर्व देवोए तेनो चक्रवर्तीपणानो अभिषेक कर्यो. ते वखते देवताओ मंगळवाजित्रोना शब्द करवा लाग्या, किन्नरां मिथुनो मंगळ गीतो गाया लाग्या अने रंभा तथा तिलोत्तमा विगेरे अप्सराओ नाटक करवा लागी. पछी चक्रीने दीव्य वस्त्र, आभू विलेपनादिकवडे शणगारी हस्तीपर बेसाडी नगरमा प्रवेश कराव्यो. पछी रत्नादिकनी धृष्टिवडे पोतानी मलकानगरी जेवं ते पुर करी धनद चक्रीनी रजा लइ स्वर्गे गयो. त्यारपछी सर्व राजाओए बार वर्ष सुधी तेनो चक्रवर्तीपणानो | महोत्सव कों, सनत्कुमार चक्री न्यायवडे प्रजार्नु पालन करवा लाग्या अने मनोहर प्रियाभो साथे पांच इंद्रियोना मुख | भोगवता तेणे घणा वर्षांने दिवसनी जेम व्यतीत कर्या. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स एकदा शुभ समाना रदेला इंद्र सोमानिन नामनुं नाटक करावता हता, ते वखते ईशान देवलोकमाथी संगम || नामनो देव सुधर्मा सभामां आव्यो. तेनी रूपकातिवडे सर्व देवोनी कांति ढंकाइ जह झाखी पडी गइ. पछी ज्यारे ते देव | त्यांथी गयो त्यारे सर्व देवोए आश्चर्य पामी शक इंद्रने पूछघु के-“ हे स्वामी ! आ देवचं रूप अने तेज सर्व देवोना रूप Ka अने तेजना गर्वने हरण कर तेवु कम छ ?" इंद्रे कयु के–“छा देवे पूर्वभवमां प्राचाम्लवर्धमान नामनो तप को हतो, |1| | तेथी तेर्नु रूप अने तेज उत्कृष्ट छे." फरी देवोए पूछयु के-"त्रण भुवनमां बीजो परा कोई उत्कृष्ट रूप अने तेजवानो छ ?" इंद्रे कयुं—“भरतक्षेत्रमा हस्तिनापुरने विषे सनत्कुमार चक्री छे, तेनुं रूप अने तेज देवोधी पण अधिक छे." आवा इंद्रना वचनपर श्रद्धा नहीं थवाथी विजय अने वैजयंत नामना चे देवो तेना रूपने जोवा माटे विप्रनुं रूप लइ चक्रीना महेल पासे श्राव्या. ते वखते चक्रीए स्नान करवानुं प्रारंभ्यु हतुं, तोपण द्वारपानी विनंतिथी राजाए ते परदेशी ब्राह्मणोने पोतानी पासे बोलाच्या. ते बखते इंद्रना कया करतां पण तेनुं अधिक रूप जोइ ते देवो विस्मय पाम्या, अने | वोन्या के-"अहो ! आ राजानुं तेज सूर्यथी पण अधिक छे. आना जे जे अंग उपर दृष्टि स्थापन करीए बीए ते ते | अंगमां जाणे चोंटी गइ होय तेम ते दृष्टि महाकष्टे खेंची शकाय छे. इंद्रे आना रूपन जे वर्णन कर्यु ते जरा पण मिथ्या नथी. आपणे तेना वचनपर अश्रद्धा करी हती पण आजे भानुं रूप जोवाथी अापणे कृतार्थ थया लीए अने इंद्रना वचनो सत्य हता एवी प्रतीति थह छे." पछी चक्रीए तेमने पूछयु के-“हे विप्रो ! नमे शा कारणथी अहीं भाव्या छो ?" त्यारे वेो बोल्या के-" हे महाराजा! जगतमा प्रापना रूप अने तेजनी प्रशंसा सांभळी अमे ते जोवा माटे ज अही Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ छ, अ अ तमारुं रूप जेबुं सांभळ तेवुं ज बलके तेथी पण अधिक अत्यारे प्रत्यक्ष जोइए बीए. " ते सांभळी राजाए रूपना गर्दथी क के - " हे उत्तम ब्राह्मणो । अत्यारे स्नान वखते तमे मारुं रूप जुओ को तेमां शी शोभा होय ? परंतु स्नानादिक करी वस्त्र आभूषण धारण करी जे बखते हुं सभामा बेठों होउं ते वखते तमारे मारुं रूप बराबर जोयुं. " एम कही ते विप्रोने बीजे ठेकाणे मोकली पोते स्नान करी वस्त्रालंकारवडे शरीर शणगारी सभामां जह सिंहासनपर बेठा पछी गजाए ते विप्रोने बोलाव्या. तेथोए भावी राजानुं रूप जोयुं तो प्रथमना करतां घणुं ज निस्तेज जोयुं, तेथी तेयो खेद पामी विचारखा लाग्या के - " अहो मनुष्यनुं रूपादिक सर्व प्रति चंचळ छे. " तेमने खेदयुक्त जोड़ राजाए पूछ के " पहेला मने जोहने तमे हर्ष पाम्या हता अने अत्यारे तमारुं मुख श्याम केम देखाथ के ? " त्यारे तेश्रो बोल्या के- -" हे राजा ! अमे देवो बीए. इंद्रे वर्णन करेला तमारा रूप उपर श्रद्धा नहीं थवाथी तेनी परीक्षा करवा माटे श्रन्या बीए, पहलां स्नान करती वखते तमारुं रूप इंद्रे कहेलाथी पण अधिक जोइ श्रमे हर्ष पाम्बा हता, परंतु त्यारे तेवुं नथी तेथी खेदयुक्त थया छीए. आटला अन्य काळमां ज तमारा शरीरमां व्याधिश्ररूपी राक्षसो उत्पन्न थया छे, तेथी तमारुं रूप, लावण्य अने कांति विगेरे झांखां पड़ी गयां छे. " श्रा प्रमाणे कही ते देवो तत्काळ श्रदृश्य थइ गया. चक्रीए पोताना शरीरपर दृष्टि नांखी तो धूळथी ढंकायेला सूर्यनी जेम तेथे पोतानुं शरीर निस्तेज जोयुं. ते वखते तेथे विचार कर्मों के — " जे शरीरने विविध प्रकारना व्याधिश्रो बाधा करे छे, तेवा शरीर उपर पंडितोए शी श्रद्धा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राखी ? जे रूपादिक गुणो व्याधियी भय पाम्या होय तेम नाशी जाय छ, ते रूपादिकनो गर्व डायो माणस केम करे ? जे विषयो निरंतर सेवाता छतां पण क्षणवारमा जाणे रोष पाम्या होय तेम नष्ट थह जाय छे, ते विषयोपर बुद्धिमान जनो शो मोह राख ? जे परिग्रहथी वैराग्य अने विनय विगेरे गुणो नाश पामे छे तेवा परिग्रह उपर पंडितोनो भाग्रह क्याथी होय ? तेथी करीने आज काल नाश पामनारा प्रा शरारादिक उपरनी भमतानो त्याग करी शाश्वत सुख भापनार ॐ चारित्रनो हुं स्वीकार करूं." इत्यादिक विचार करी चक्रीए पोताना राज्यपर पोताना पुत्रने स्थापन करी विनयंधर मूरिनी पासे दीक्षा ग्रहण करी. चक्रीउपरना गाढ स्नेहने लीधे सर्व रस्नो, सर्व राणीयो, सर्वे राजाओ, सर्व निधियो, सर्व यक्षो अने सर्व प्रधानो || तेनी पाछळ छ मास सुधी फर्या अने कहेया लाग्या के-" हे स्वामी अपराध विना तमे अमने फेम तजो छो?" ते सां- [] भळीने राजर्षिए सिंहावलोकननी जेम पाछळ दृष्टि करीने तेमनी सन्मुख जोयुं पण नहीं. छेवट थाकीने ते सर्वे पोतपोताने l स्थाने गया. उग्र तपस्या करता एवा ते राजर्षि अहने पारणे गोचरी गया. त्यांची चणा भने बकरीना दूधनी छाश तेमने | मळी. ए रीते निरंतर छटने पारणे अंतप्रति-नीरस आहार करवाथी तेमना शरीरमां-कंड १, कुक्षिपीडा २, नेत्रपीडा ३, कास ४, श्वास ५, ज्वर ६ अने अरचि ७ ए सात व्याधियो उत्सम थया. तेने तेणे सातसो वर्ष सुधी सहन कर्या, ए रीते बीजा पण सर्व परीपहोने सहन करता, तीव्र तप करता भने कोइ साथ बातो मात्र पण नहीं करता ते राजदिने मलौषधि १, आमपौषधि २, शकृदोषधि ३, मूत्रापघि ४, कफाषधि ५, सबै पधि ६ अने संमिन्नश्रोत ७ए नामनी सात लधियो प्राप्त Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थ. तोपण ते महर्षिए पोताना व्याधिनी कांदयण चिकित्सा करी नहीं. एकदा शक इंद्रे सुधर्मा सभामा सर्व देवो समक्ष को के - " अहो ! श्रा सनत्कुमार महर्षिं धैर्य मेरुपर्वतथी पण अधिक छे के जे चक्रवतींनी लक्ष्मीनो त्याग करी उग्र तप करे छे. रोगरूपी अत्रिने बुझक्वामां मेघनी माळा समान अनेक लब्धि पाया तो पण कायाने विषे तद्दन निस्पृह थयेला ते मुनि पोताना व्याधिनी चिकित्सा पण करता नथी. " श्रवा इंद्रना चचनपर श्रद्धा नहीं थवाथी प्रथमना ज वे देवो वैद्यनुं रूप करी ते राजर्षि पासे याच्या अने योन्या के " हे साधु ! जो आपनी अनुज्ञा होय तो श्रमे धर्मवैद्यो थीए ते तमारा व्याधिनी चिकित्सा करीए. " आ प्रमाणे तेमणे मुनिनी सन्मुख वने वारंवार कहां, त्यारे मुनिए कछु के-" तमे कर्मरोगनी चिकित्सा करो छो के शरीरना रोगनी चिकित्सा करो को ? " त्यारे तेस्रो बोल्या के-" हे मुनिराज ! श्रमे शरीरमा रोगनी चिकित्सा करीए छीए. " ते सांभळी मुनिए पामा ( खरज-खस ) थी सडी गयेली पोतानी एक आगळीने पोतानुं थुंक चोपडी सुवर्ण जेवा वर्णवाळी बनावी तेमने देखाडी क ुएं के " शरीरना रोगने तो हुं पोते पण या प्रमाणे चिकित्सा करी शकुं हुं, पण ते करवानी मारी इच्छा नथी. तेथी जो तमे कर्मरोगनी चिकित्सा करी शकता हो तो ने करो. " ते जोइ श्राचर्य पामी तेश्रो बोन्या के " कर्मरूपी व्याघिनो नाश करवामां तो हे मुनि ! तमे ज समर्थ छो. " एम कही चक्रीमुनिने नमस्कार करी तेयो फरीथी बोन्या के"लब्धि पाया छतां धीर एव सनत्कुमार राजर्षि पोताना व्याधिनी पण चिकित्सा करता नथी इत्यादिक इंद्रे करेली अपनी प्रशंसा सांभळीने अमे के जे प्रथम तमारुं रूप जोवा चाव्या हता ते ज देवो अपना सच्चनी परीक्षा करवा अत्यारे 170300 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण आध्या छीए. अने अमे तमारं धैर्य मेरुपर्वत जेवू अचळ स्पष्टपणे जोयु छ." मा प्रमाणे कही सेमनी स्तुति करी ते देवो भदृश्य थया. ___ सनत्कुमार राजर्षि कुमार अवस्थामा पचास हजार वर्ष रह्या, मांडलिकपणामां पचास हजार वर्ष रह्या, लाख वर्ष चक्रवर्तीपणामा रह्या अने लाख वर्ष चारित्रपर्यायमा रखा. ए प्रमाणे कुल प्रण लाख वपर्नु मायुष्य पूर्ण करी छेक्ट है। समेतशिखरपर जइ अनशन ग्रहण करी आपने ये रे महाति, मन मार नामना वीजा देव लोकमां देव थया. त्यांथी । चवी महाविदेह क्षेत्रमा मनुष्य जन्म धारण करी मोचे जशे. इति सनत्कुमार चक्री कथा. चइत्ता भारहं वात, चवही महिडिओ। संती संतिकरो लोए, पत्तो गईम गुत्तरं ॥ ३८ ॥ अर्थ-(महिडिओ ) मोटी समृद्धिवाळा, ( चक्कवडी ) चक्रवर्ती, (लोए) लोकने विषे (संति करो ) शांतिने | करनार ( सती) शांतिनाथ स्वामी ( भारई वासं ) भरतक्षेत्रनो-चेना राज्यनो ( चहत्ता) त्याग करो (अणुत्तरं गई ) अनुसर गातन एटले मुक्तिने (पत्तो) पाम्या छ. श्री शांतिनाथनी कथा. श्रा ज जंयुद्वीपना भरनक्षेत्रने विष रत्नपुर नामनुं पुर छे. त्यां श्रीषेण नामे राजा हतो. ते समग्र गुणोनी निधि | Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हतो. ते राजाने अभिनंदिता अने शिविनंदिता नामनी वे राणीयो हती. तेमां अभिनंदितानी कृषिमाधी उत्पन्न थरेला, इंदुषेण अने बिंदुषण नामना वैन पुत्री इता. ते श्रीषण राजाए विमळयोध नामना गुरु पासे धर्मोपदेश सांभळी समकित सहित श्रावक धर्म अंगीकार को इतो. ते रत्नपुर नगरमा सत्यबुद्धिवाला सत्यकि नामे एक उपाध्याय हसा. तेने जंयुका नामनी प्रिया इती भने तेमने सत्यभामा नामनी पुत्री हती. आ भवसर मगध देशमा अचळ नामना गाममा वेद अने वेदांगना पारने पामेलो धरणिजट नामनो प्रसिद्ध ब्राह्मण हतो. सेने यशोभद्रा नामनी पत्नी इत। अने तना कुषिथी उत्पन्न थयला नंदीभूति अने श्रीभूति नामना चे पुत्र हता, सथा ते ब्रामणने कपिला नामनी दासी साथै चिरकाळ क्रीडा करता तेणीना कुक्षिथी उत्पम येलो कपिल नामे बीजो पुत्र पण इतो. ते हीन कुळनो होगाथी धरणिजट विप्र पोताना कुळवंत वे पुत्रोने ज निरंतर वेदाभ्यास करावतो हतो. परंतु IT कपिल बुडिमान हतो तेथी तेमने भणतां सांभळीने ज पोते पण सर्व भणी जतो हतो. ए रीते सांभळी सांभळीने ज ते कपिल |* सर्व विधामा कुशळ थयो. पड़ी ते गामा दासीपुत्र होबाथी पोताने मान मरशे नहीं एम धारी ते कपिल ते गाममाथी नोकळी ने र झोपवीतने धारण करी उत्तम प्रशारण तरीके पोतानी ओळखाण श्रापतो पृथ्वीपर विचरया लाग्यो. अनुक्रमे ते रत्नपुरमा || गयो, स्यां फरता फरतां सत्यकि अमखमी पास गयो. सत्यकिए तेने पूरयु के-"तुं कोण छ भने क्याथी भावे छ?" ते बोन्यो के-"प्रचळ गामा धरणिजट नामे ब्राह्मण छ, तेनो हुं कपिल नामनो पुत्र झु. कौतुकथी पृथ्वीने जोतो जोतो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ही भाग्यो छं." पछी ते सत्यकि पासे भणनारा विद्यार्थीनो बेदना विषयनी शंकाओं सत्यकिने पूछया लाग्या. ते | सर्वना जवाब कपिले भापी तेमना संशयो दूर कर्या. ते सांमळी तेनी उत्तम विद्वत्ताथी सुशी थयेला सत्यकिर पोतानी पुत्री all सत्यभामाने तेनी साथे परणावी भने छात्रोन भणायवानुं काम पण तेने ज सोप्युं. ते कपिल पण सत्यभामानी साधे निरंतर | सुख भोगववा लाग्यो भने लोकोमा मान्य थवाथी तेओए आपेला द्रव्यवडे ते थोडा काळमां ज समृद्धिवाळो थयो. ___ एकदा वर्षाऋतुमा कपिल कोइ ठेकाणे नाटक जोइ त्यांधी पाछो घर तरफ चळ्या. ते वखते वरसाद वरसवा लाग्यो. मार्गमा घणो अंधकार होवाथी तथा निर्जनपणुं होबाथी ते कपिल वस्खोने काखमा नांखी नन थइ पोताने घर गयो. धरना द्वार पासे प्रावी लुगडा पहेरी ते घरमा गयो. तेना पखो भीजायां हशे एम धारी सत्यभामा बोजा वखो लावी. तेणीने कपिले कयुं के—" हे प्रिया ! विद्याशक्तिथी मारो यत्रो भीजायां नथी, तेथी बीजां वस्त्रोनी जरुर नथी." ते वखते विजळीना प्रकाशथी सत्यभामाए तेन वस्त्रो सुको जोयां पण शरीर भीनुं जोयु. तेथी तेणीए विचा' के"विद्यावडे जे वस्रोतुं रक्षण करे, ते शरीरनुं रक्षण केम न करे ? तेथी खरेखर मा मार्गमा नग्न ज आव्या के. आ उपरथी ते शुद्ध ब्राह्मण होवा न जोइए. कारण के कुलिननी आवी बुद्धि कदापि थाय ज नहीं. वळी या वेद भणेला छे, ते तो सारी बुद्धिने लीधे सांभळी सांभळीने भण्या जणाय छे." श्रा प्रमाणे विचार थवाधी ते सत्यभामानो स्नेह तेनापरथी उतरी गयो. तेथी मन विना मात्र व्यवहारथी तेनी साथे सरखाइथी वर्तवा लागी. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकदा धरणिजट ब्राह्मण दैवयोगे दरिद्रताने पाम्यो. ते कपिलनी समृद्धि सांभळी घननी आशाथी त्यां श्राव्यो. कपिले स्नान, भोजन विगेरेवडे तेनी भक्ति करी. " अन्य अतिथि पण पंडितोने पूजवा योग्य है, तो पितानी भक्ति करवी तेमां शुं आर्य ? " भोजन वखते कit for करीने कपिल पितानी साधे भोजन करवा बेठो नहीं, तेथी तेमज बीजा पण आचार विचारमां पिता ने पुत्र बच्चे मोटो तफावत जोवाथी शंका पामेली सत्यभामाए एकांतमां श्वशुरने पूछ के - " हे पूज्य पिता! तमने ब्रह्महत्याना सोगन आने के पुत्र माता बने पिता ए बन्ने पक्ष शुद्ध छे के केम १ ते सत्य कहो.” ते सांभळी योगनथी भय पामता तेणे सत्य इकित कही. पछी कपिले पितानो सरकार करी तेने विदाय कर्या एटले ते पोताने गा गया. त्यापल्ली सत्यभामा श्रीषेण राजा पासे जड़ने कछु के-" हे देव ! मारा स्वामी दैवयोगे अकुलीन जणाया छे, तेथी मने तेनाथ मुक्त करावो, के जेथी हुं दीक्षा ग्रहण करूं. " ते सांभळी राजाए कपिलने वेलावीक के - “ आ तारी स्त्री ताराधी विरक्त थर के अने ते धर्मकर्म करवा इच्छे थे, तेथी तेने तुं छोडी दे. या विरक्त थयेलीथी राने शुं भोगनुं सुख भळे तेम छे ? " त्यारे कपिल बोल्यो के - " हे देव ! ते मारी भार्या छे, तेने हुं छोडीश नहीं, तेना विना हुं जीवित धारण करवा समर्थ नथी. " ते सांभळी सत्यभामा बोली के " जो वे मने नहीं छोडे तो हुं आपघात करीरा." त्यारे राजाए कपिलने कझुं के " हे कपिल ! भानुं फोगट मरण न थाओ, एटला माटे केटलो समय धर्मक्रियामां तत्पर यह मारे घेर तेने मारी पुत्री तरिके रहेवा दे." ते सांभळी बळात्कारे लs जवामां असमर्थ एवा कपिले राजानुं वचन Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्य कयु. राजाए सत्यहृदयवाळी सत्यभामाने पोतानी बन्ने राणीयो पासे राखी. त्यां स्वच्छ मनवाळी ते दुस्तप तप करती रही. . एकटा अनंतमनिका नामनी मनोहर वेश्याने जोइ राजाना यने पुत्रो इंदुषण अने बिंदुषेण तेणीने विषे आसक्त थया. ते वेश्यानी इच्छा राखता ते बने भाइओ छतां पण परस्पर इाथी युद्ध करवा लाम्या. तेमनुं युद्ध जोवाने के तेमने युद्धथी । निवर्तन करवाने असमर्थ थयला श्रीपेण राजा लजाने लीध विषमिश्रित कमळने संघी मरण पाम्यो. तेज प्रमाणे अभिनं- 18 दिता अने शिखिनंदिताए पण पोताना प्राणनो त्याग कर्यो, एटले कपिलथी भय पामती सत्यभामाए पण तेमना ज || मार्गनो आश्रय कर्यो. श्रा रीते चार जणा मरण पामीने तेसो अत्यंत सरळ आशयवाला होबाथी आ जंबुद्धीपना उत्तरकुरु | क्षेत्रने विषे युगलीया थया. तेमां श्रीपेण राजा अने अभिनंदितानुं एक युगल थयु, तथा शिखिनंदिता भने सत्यभामानुं चीजें || | युगल थयु. (शिखिनंदितानो जीव पुरुष थयो.) ते सर्वेनुं शरीर त्रण कोश उंचं हतुं, तेमो त्रण पन्योपमना आयुष्यवाळा हता, अने चोथे दिवसे आहार करनारा हता. तोए त्यां केवळ सखमय समय निर्गमन को. ( भव बीजा.) ही श्रीपेण राजाना बन्ने कुमारो युद्ध करता हता. तेवामां त्या विमानमा साने कोइ विद्याधर अाब्यो, तेणे तेमने | का के-हे राजपुत्रो ! तमो अज्ञानपणाने लीधे तमारी बहेनने ज भोगवना तैयार थइ फोगट युद्ध न करो, हूं तमारा हितच्छु छु, माटे हुं कहुं ते तमे सामळोः आज जंयूद्वीपमा महाविदेह चेत्रने विषे पुष्कलावती नामे विजय छे. तेमां रहेला वैताक्ष्य पर्वतनी उत्तरश्रणिमा आदित्याभ नामर्नु श्रेष्ठ पुर छे. तेमा सुकुंडली नामे राजा थे, तेने अजितसना नामनी प्रिया छे. तेमनो हुँ मणिकुं Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च न · 11 **--* डली नामनो पुत्र चुं. एकदा हुं श्राकाश मार्गे थहने पुंडरीकिणी नगरीमा गयो. त्यां श्रमितयशा नामना तीर्थकरने में भक्तिथी वंदना करी. पछी में प्रभुने पूछ के - " हुं विद्याधर शा पुण्यथी थयो ? " त्यारे तीर्थकर महाराज अमृत जेवी मधुर वाणीथी बोल्या के. पुष्करवरीपना पश्चिम भागमां शीतोदा नदीने दक्षिण कांठे सलिलावती नामना विजयमां वीतशोका नामनी श्रेष्ठ नगरी . त्यां कामदेवनी जेधा रूपवाळो रत्नध्वज नामे चक्रवर्ती हतो. तेने हेममालिनी अने कनकश्री नामनी प्रियाओ हवी. तेमां पहेलीए पद्मा नामनी पुश्री प्रसवी अने बीजीए कनकलता तथा पद्मलता नामनी ने पुत्रीने जन्म श्रप्यो. लक्ष्मीनी जेवा अद्वितीय रूपवाळी पद्माए युवावस्थामां पण अजितसेना नामनी आर्या पासे दीक्षा ग्रहण करी. ते पद्मा साध्वी उपवास विगेरे दुष्कर तप करवा लागी तेणीए एकदा कोइ वैश्याने माटे युद्ध करता ये राजपुत्राने जोह विचार कर्मो के — "अहो ! या वेश्यानुं सौभाग्य श्रद्भूत छे, के जेने माटे श्रावा कामदेव जेवा रूपवाळा वे राजकुमारो युद्ध करे छे. तो जो था मारा तपनुं कां फळ होय तो तेना प्रभावथी आवता जन्ममां हूं पण यावा ज सौभाग्यवाळी थाउं " आ प्रमाणे ते पद्मा सावए नियाणुं कर्यु पछी आयुष्यने छेडे ते नियायानी आलोचना कर्या विना अनशन करी काळधर्म पामी सौधर्म देवलोकमां देवी थड़. "भव तेनी जे कनकश्री नामनी विमाता हती, तेथे त्यांथी मरी संसारमा केटलाक भव का जन्मथी पूर्वना जन्ममां कांडक दानपुण्य क. तेना प्रभावथी तुं आ भत्रमा मणिकुंडली नामनो विद्याधर थयो छ. हवे ते कनकश्रीनी वे पुत्रओ जे कनकलता ने पद्मलता हती ते संसारमा केटलाक भयो भभी पूर्वभवमां विविध प्रकारनुं शुभ SA Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कर्म करी आ जंबूद्वीपना भरतक्षेत्रमा रत्नपुर नामना नगरमा श्रीपेण राजाना इंदुषेण अने विंदुषण नामना वे पुत्रो धया के. ते अवसरे पद्मा साधीनो जीव सौधर्म देवलोकधी चवीने ते ज रत्नपुरमा गणिका थयो छ, भने तेणीने ज माटे हमणां | इंदुषण अने बिंदुपेण परस्पर युद्ध कर छे." * ा प्रमाणे तीर्थकरना मुखथी आपणा सर्वेना पूर्वभवोने सांभळी हुँ तमने युद्धथी निवर्तन करवा अही आग्यो छु. माटे तमे बोध पामो अने बहेनने माटे थइने युद्ध न करो. हुं तमारा पूर्वभवनी माता अने आ वेश्या तमारी पूर्वभवनी | यहेन छे नो मोहनो त्याग करो अने तमारा था दुष्कृत्यथी सजा पामी तमारा मातापिता पण विषप्रयोगों मृत्यु पाम्या छे | तेनो ख्याल करी मा पापनी शुद्धि माटे तमे चारित्र व्रत ग्रहण करो." श्रा प्रमाणे ते मणिकुंडली नामना विद्याधरना मुखथी पोताना पूर्वभवोर्नु वृत्तांत सांभळी इंदुषेण अने पिंदुपेण बोल्या | के-" हे विद्याधर मित्र ! तमे अमने ठीक प्रतिबोध को." एम कही ते बने भाइओए चार हजार राजाओ सहित धर्मचि गुरुनी पासे चारित्र ग्रहण कर्यु. त्या निरतिचार चारित्र पाळी उग्र तप करी ते बन्ने बुद्धिमान मोक्षपद पाम्या. ___ नहीं श्रीपेण विगेरे चारे युगलीयाओ आयुष्य पूर्ण करी सौधर्म देवलोका गया. ( ए बीजो भव ). आज जंबूद्वीपना भरत क्षेत्रमा वैताढन्य पर्वत उपर श्रीरथनूपुरचक्रवाल नामर्नु नगर छे. तेमा महा बळवान अर्ककीर्ति नामना खेचर राजा हतो. तेने चंद्रने रोहिणीना जेवी ज्योतिर्माला नामनी प्रिया हती. ते अर्ककीर्ति राजाने स्वयंप्रभा नामनी बहेन हती. तेणीने पोतनपुरनो राजा अथळनो नानो भाइ त्रिपृष्ठ नामनो पहेलो वासुदेव परण्यो इतो. एकदा Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपेण राजानो जीव प्रथम स्वर्गथी चवीने श्रीपने चिये मुक्ताफळनी जेम ज्योतिर्मालानी कुक्षिमा अवतो. ते वखते तेणाए । स्थानमा अमित (घणा) तेजवाळो सूर्य जोयो. अनुक्रमे समय पूर्ण थये तेखीए श्रेष्ठ लक्षणवाळा पुत्रने जन्म प्राप्यो. उमता । सूर्यनी जेघा तेजवाळा ते पुत्रनुं नाम राजाए स्वजने अनुसारे अमिततेजा पाडयु. पछी सत्यभामानो जीव स्वगेथी चवीन अर्ककीर्तिनी प्रिया ज्योतिर्मालानी कुचिथी सुतारा नामनी पुत्री थइ. अभिनंदितानो जीव स्वर्गथी चवी त्रिपृष्ठ वासुदेवना राणी स्वयंप्रमानी कुक्षिमा पुत्रपणे उत्पन्न थयो. तेनुं नाम श्रीविजय पाडयं. तथा शिखिनंदितानो जीव स्वर्गथी चीन स्वयंप्रभानी कृतिमा पुत्रीपणे उत्पन्न थयो. तेनु नाम त्रिपृष्ठ वासुदेवे ज्योतिष्प्रभा पाडयु. ते कपिलनो जीव संसारमा ममीने चमरचंचा नामनी नगरीमा अशानियोष नामनो विद्याधर राजा थयो. अकीर्तिए पोतानी सुतारा पुत्रीने [] | त्रिपृष्ठना पुत्र श्रीविजयनी साथे परणावी. तथा त्रिपृष्ठे पण पोतानी पुत्री ज्योतिष्प्रभाने आनंदथी अमिततेजा साथे परणावी. एकदा अभिनंदन अने जगन्नंदन नामना चारणमुनिनी पासे धर्मदेशना सांभळी अर्ककीर्ति राजाए पोताना राज्यपर अमिततेजाने स्थापन करी मुक्तिना सरल मार्गरूप प्रव्रज्याने अंगीकार करी. त्यारपछी विद्याधर राजाश्रोना मुगटबड़े नमस्कार करातो महावळवान अमिततेजा राज्य- पालन करवा लाग्यो. अहीं पोतनपुरना राजा त्रिपृष्ठ वासुदेव पण मरण पाम्या, त्यारे कळभद्र अचळे वैराग्य पामी राज्यपर श्रीविजयने स्थापन करी पोते प्रवज्या ग्रहण करी. एकदा पोतानी बहेन सुतारा अने श्रीविजयने जोवानी उत्कंठा थवाथी अमिततेजा पोतनपुर गयो. ते वखते ते Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B4408410801041 पुरमा उंचा तोरणो थने ध्वजो बाँधलां इतता नदेखाई प्रेमज राजकुळ विशेषे करीने हर्ष पामेलु देखातुं इतुं, ते जोइ अमिततेजा विस्मय पाम्यो. तेने आकाशमांथी उतरतो जोइ श्रीविजय राजा हर्षथी देनी सन्मुख उभो थयो . परस्पर साळा बनेची एवा ते बनेर अन्योन्य गाढ आलिंगन कर्पु, पछी ते बन्ने सिंहासनपर बैठा. त्यारे श्रमि ततेजाए श्रीविजयने पृथुं के – “ आजे शा निमिसे उत्सव के ? " त्यारे श्री विजय बोल्यो के - जथी आठमा दिवस उपर अहीं एक नैमित्तिक आव्यो हतो. तेने में व्याववानुं कारण पूछयुं, त्यारे ते बोल्यो के"हे प्रभु! हुं निमित्त कद्देवा माटे याच्यो छु. ते तमे सावधान चित्ते सांभळो. आजथी सातमे दिवसे मध्यान्ह समये पोतनपुरना राजा उपर उग्र बीजळीनो पात थशे. " श्रनुं तेनुं कटुक वचन सांभळी क्रोध पामेला मुख्य मंत्रीए तेने कह के – “ ते वखते तारा माथापर शुं पडशे ? " त्यारे दैवज्ञ बोल्यो हे मंत्रीश्वर ! शास्त्रदृष्टिए में जेतुं जोयुं तेधुं कहां छे, तेमां मारापरशा माटे कोप करो छो ! ते दिवसे मारा मस्तक उपर तो सुवर्ण श्रने रत्ननी वृष्टि पडशे. " आ प्रमाणे ते दैवज्ञे धुं, त्यारे में तेने पूछ के - " हे देवज्ञ ! बाबु निमित्त तमे क्यांथी शीख्या हो ?” त्यारे ते बोन्यो के --" ज्यारे अचळ स्वामी दीक्षा ग्रहण करी त्यारे मारा पिता साथे में पण बाल्यावस्था छतां दीक्षा लोधी हती, त्यां "" अष्टांग महानिमित्त अभ्यास कर्यो हतो. पनी हुं युवान थयो त्यारे बिहारना क्रमे हुं पद्मिनीखंड नामना पुरमी गयो. त्यां हिरण्यलोमिका नामनी मारी फुड़ रहे थे. तेणी धाम्यावस्थामां ज तेनी पुत्री चंद्रयशा मुने आप हती. परंतु में तो प्रब्रज्या लोधी तेथी देखीने हुं परण्यो नहोतो. अत्यारे तेणीने युवावस्थावाळी जोइ हुं अत्यंत मोह पाम्पो अने 150/- * Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेणीना माइना कहेबाथी हुँ ब्रानो त्याग करी तेणीने परण्यो. पछी धननी इच्छाथी में निमित्त विद्यारडे जोयुं तो आप महा वृत्तांत मारा जाणवामां आव्यू. तेमा मने घणो द्रव्यलाभ थशे एम जाणी ९ श्रा वृत्तांत आपने कहेवा ही प्राव्यो | छु. हवे जेम उचित लाग तेम करो," । आ प्रमाणे निमित्तियानुं वचन सांभळी सर्व जनो विचारमा पउद्या के 'श्रा वाचत शो उपाय करयो ? तेमा एक मंत्री बोन्यो के-" समुद्रमा वीजळी पडती नथी, तेथी सात दिवस सुधी स्वामी नावां आरूढ थइ समुद्रमा ज रहे तो विध दूर थाय." ते सांभळी बीजो मंत्री बोल्यो के-"जो के समुद्रना जळमां वीजळी पडे नहीं, परंतु वहाणमां कदाच वीजळी | पडे तो तेने कोण रोकी शके १ तेथी वैताढ्य पर्वतनी गुफामा जइने सात दिवस स्वामीए रहे, एम मने ठीक लागे छे." | * ते सांभळी त्रीजो मंत्री बोन्यो के-"श्रा उपाय पण मने सारो लागतो नथी. कारण के जे अवश्य थवा, होय ते गमे ते स्थाने पण थह शके छे. तेथी हुँ तो एम धारूं छु के-आपणे सर्वेए सर्च उपद्रवोने नाश करनार तप करचो योग्य छ, कारण के तपवडे निकाचित कर्म पण क्षीण थाय छे." ते सांभळी चौथो मंत्री चोन्यो के-"आ नैमित्तिके पोतनपुरना स्वामी उपर वीजळीनो पात कह्यो थे, परंतु श्रीविजय स्वामीना उपर कहो नथी. तेथी सात दिवस सुधी आपणे पोतनपुरनो स्वामी बीजो करीए, तेम करवाथी चीजळी तेना पर पडशे अने श्रीविजय स्वामी अचत रहेशे." भावू तेनुं वचन सांभळी दैवज्ञे अने बीजा सर्व मंत्रीओए तेम करवान पसंद कयु. अने तेना मतिज्ञाननी प्रशंसा करी. त्यारे में कयु के" मारा प्राण बचात्रवानी खातर हुँ बीजाना प्राणनो घात करावीश नहीं. कारण के सर्वने पोताना प्राण प्रिय होय छे." Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते सांभळी विचार करी मंत्रीओ मोन्या के – “हे स्वामी ! ए विचार आप मुकी द्यो. श्रमे घनद यचनी प्रतिमानो राज्याभिषेक करशुं तेम करवाथी देवना माहात्म्यने लीधे जो उपद्रव नहीं थाय तो सर्व सारुं ज थे, अने जो तेनापर बीजळी पढशे तो पण आपने जीवहिंसानुं पाप लागशे नहीं, अने यचनी प्रतिमा बीजी सारी पण करावी शकाशे. " अ प्रमाणे तेमनुं युक्तियुक्त वचन सांभळी में ते अंगीकार कर्पु. पछी हुं ( अंतःपुर सहित ) जिन चैत्यमा जह पौषध ग्रहण करी दर्मना संथारा पर शुमध्याने रह्यो, अने राज्यपर अभिषेक करेला यक्षनी प्रतिमाने सर्व पुग्जनो सेवा लाग्या अनुक्रमे दिवसो जतां सातमे दिवसे मध्यान्ह वखते आकाशमां गर्जना करतो मेघ घडी आयो भने वडवाश जेवो प्रचंड विद्युदंड तत्काळ यक्षनी मूर्तिपर पहयो. ते वखते प्रसन्न थयेला सर्व जनोए दैवज्ञना मस्तकपर रत्ननी वृष्टि करी. पछी हुं पण पौषघ पारी चैत्य बहार नोकळ्यो, एटले प्रजाजनोए मने फरीधी राज्याभिषेक कर्यो में पण प्रसन्न थइ ते नैमित्तिकने पद्मिनीखंड नामनुं पुर इनाममा आापी विदाय कर्यो. कारण के तेथे मriपर घ उपकार कर्यो हतो. पडी में धनदयक्षनी नवी उत्तम प्रतिमा करावी स्थापन करी. या रीते मारी उपरनुं विघ्न शांत थयुं, ते प्रसंगने लइने पुरजनो या उत्सव करे छं. " श्रप्रमाणे उत्सवनुं वृतांत सांभळी व्यमिततेजा पर आनंद पाम्बो. पछी पोतानी बहेन सुतारानो दिव्य वस्त्र तथा आभूषणोथी सत्कार करी ते पोताने घेर गयो. एकदा श्रीविजय राजा सुतारा देवी सहित क्रीडा करया माटे ज्योतिर्वन नामना उद्यानमा गयो. ते वखते कपिलनो Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - न 平 जीव के जे प्रशनिषोप नामनो विद्याधर राजा थयो हतो, ते आकाश मार्गे जतो इतो, तेथे पोताना पूर्वभवनी स्त्री सुताराने जाई. पूर्वभवना संस्कारने लीये दर ते अत्यंत आक गयो, तेथी वेशीनुं हरण करवा माटे तेथे तेनी पासे विद्यावडे सुवर्णनो मृग विकुर्वने मूकयां. तने श्रति मनोहर जाइ सुताराए प्रियने के- हे स्वामी मने क्रीडा करवा माटे या मृग लावी आपो." ते सांभळी तेने पकडवा माटे दोडतो राजा दूर गयो, त्यारे एकली पडेली सुताराने ते अधम अशनिघोष हरी गयो तथा श्रीविजय राजाने हा माटे तेथे प्रतारणी नामनी विद्याने आदेश कर्यो, एटले तेगो सुताशनुं रूप धारण करी उंचे स्वरे बूम पाडी के" हे प्रिय ! मने कुक्कुट सर्प डस्यो छे. जलदी भावीने मारुं रचख करो. " ते सांभळी अत्यंत श्राकुळ व्याकुळ थयेलो राजा तेखीनी पासे श्राव्यो, वेटलामां तो ते पृथ्वीपर पडी राजाना देखतां न मरण पामी. ते जोइ राजा पण मूर्द्धा खाइ पृथ्वीपर पडयो. तेवामां तेना सेवको भावी देने चंदनरस छोटी सावधान कर्यो. " राजा चेतना पानी विलाप करना लाग्यो के- हाप्रिया ! वारी आशी दशा थह ? हुं आजे सुवर्णना हरायी ठगायो, अन्यथा हुं समीपे होउं तो शेषनाग पण तने करडबा समर्थ नथी. हे प्रिया ! तारा विना हुं क्षयवार पण जीवी शकुं तेम नथी. शुं पाणी बिना मादलु जीवी शके ? तारा वियोगधी उत्पन्न थयेला दुःखने हुं सहन करना शक्तिपान नथी, तेथी हे जीवितेश्वरी ! शीघ्रपणे तारी पाकळ आ मारा प्राणो चान्या जाओ. " श्रा प्रमाणे कही सेवको पास चिता करावी मोहथी मूढ थयेलो राजा प्रिया सहित ते चितामा पेठो, तेमां जेटलामां अनि सळगाव्यो, तेवामां त्यांचे विद्याधरो Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमा व्या. तेमांधी एक अधार पाणी मंत्री चितामा छांट एटले तरत ज वे प्रतारणी विद्या अट्टहास करी शीघ्र नाशी गई. ते जोइ राजाए विचार कर्यो के " स्त्री कोण ? मारी कांता क्यां गइ ! अने ते अनि क्यां गयो ? विचारी राजा ते विद्याधर पुरुषोने पूछ के - " आ शुं ? " त्यारे तेथोए राजाने नमस्कार करी क -" असे अमि ततेजा राजाना सेवको बीए. अमे अरिहंतने नमचा मांटे नीकच्या छीए. या तरफ भावतां मार्गमां अमे मा प्रमाणे वाखी सांभळी के--" हा ! बंधु अमिततेजा ! हा ! प्राणनाथ श्रीविजय | मने सुताराने आ विद्याधर पकी मूकावो. " श्रावी वाणी सांभळतां ज श्रमे ते तरफ दोडया, तो अमे तमारी प्रिया ने अमारा स्वामीनी बहेन सुताराने अशनिघोषे हर कराती जाह, तेणीने मूकावचा माटे थमे युद्ध करना सज्ज थह बोन्या के - "हे दुष्ट ! उभो रहे, उभी रहे." वेटलामां सुताराए अमने कछु के- -"समे हमयां ज्योतिर्वनमां जाओो. त्यां प्रतारणी विद्याथी चेतराता मारा पति श्रीविजय राजानुं रक्षण करो.” ते सांगळी तरत ज अमे महीं भाष्या, चितामां मंत्रलं पाणी छांटी अनि बुझायो अनं प्रवारणी विद्याने नसाडी दीधी. " या प्रमाणे सुताराने हरम करेली जाणी श्रीविजय राजा खेद पाम्यो पछी तेने धीरज थापी पेला विद्याधरी देने श्राग्रह पूर्वक बैताढ्य पर्वतपर लड़ गया. तेने जोड़ अमिततेजा एकदम उभो थयो, धने तेनो घादरसत्कार करी स्वानुं कारण पू. त्यारं श्रीविजयना कहेवाथी ते बन्ने विद्याधरोए सुताराना हरण संबंधी सर्व वृत्तांत कही संभाव्यो. ते सांभळी श्रमिततेजा अस्वंत क्रोध पामी बोल्यो के "समारी प्रिया भने मारी बहेन ने हरी जड़ने ते अशनिघोष केटलं जीवशे ?" £. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स. एम कही तेणे श्रीविजयने शतावरणी, धनी मने मोचनी ए त्रय महाविद्यामो मापी. पछी सैन्य सहित पोताना पचिसो पुत्रार्थी परित्ररेला श्रीविजयने अमिततेजाए, सुताराने लावषा माटे अशनिघोष साथे लडाइ करवा मोकल्या. श्रीविजय राजा विधापना चावट कार ने माछादन करता शीघ्रपणे चमरचंचा नगरी पासे जा पहोंच्या. भहीं अमिततेजा अशनिघोषने घणी विद्यावाळो जाणी परविद्याना बळने नाश करनारी महाज्वाळा नामनी महाविद्या साधवा माटे पोताना सहस्ररश्मि नामना पुत्रने साथे लइ हिमवंत गिरि उपर गयो. त्यां सहस्ररश्मिधी रक्षण करातो ते महा पराक्रमी अमिततंजा एक मासना उपवासनो नियम लइ विद्या साधवा वेठो. ____ अहीं चमरचंचा नगरी पासे आने श्रीविजय राजाए पोताना इतने अशनिघोष पासे मोकन्यो. तेणे जइ तेने कर्यु | के–'ह राजा ! प्रतारणी विधावडे श्रीविजय राजाने छतरी तेनी प्रिया सुताराने हरण करता वीरमानी एवा तने शुं| कोइपण लजा आवी नहीं ? अथवा तो हीन पराक्रमवाळाने छळ ज बळ होय छे. परंतु सूर्य समान श्रीविजय राजा छतो अंधकार जेबा तारी शक्ति शी रीत स्फुरायमान थवानी छ ? माटे हवे श्रीविजय राजाने नमस्कार करी तेनी प्रिया सुतारा तेने पाछी सोप. अन्यथा तारा प्राण सहित ते राजा पोतानी प्रियाने ग्रहण करशे." ते सांभळी क्रोध पामी अशनिपोष बोल्यो के-“रे दूत ! तुं अत्यंत धृष्ट अने उद्धत छ, तें कहूं ते जाण्युं. जो मंदबुद्धिवाळो श्रीविजय महीं मान्यो छे तो तेथी शुं थयुं ? ते विचारो मारा पराक्रमना एक अंशने पण सहन करी शकचानो नथी. शुं सूर्यना प्रकाशनो एक लेश पथ | घुबड सहन करी शके ? माटे ते श्रीविजय जेम भाथ्यो तेम ज पाछो चाल्यो जाय तो ठीक छ, अन्यथा सुताराने तो पामशे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं, पण उलटी विशेष विगोपना पामशे." मा प्रमाणे तेनां वचन सांभळी ते दूत श्रीविजय राजा पासे भाव्यो, भने * तेणे सर्व वृत्तांत तेने करो. ते सांभळी अत्यंत क्रोध पामेला श्रीविजय राजाए युद्धने माटे सर्व सैन्य सज्ज कयं. ते जाणी अशनिपोषे सैन्य सहित पोताना अश्वघोष विगेरे पुत्रोने युद्ध करवा मोकन्या. रणसंग्रामना वाजत्रोना शब्दथी भाकाश पूर्ण थयु, अने यो सैन्यो बच्चे महा घोर युद्ध प्रवत्यू. ते वखते ते युद्ध जोवा माटे देवताओ आकाशमा भावी उमा रह्या, तेमने केटलाक वीरोए बाणोनो मंडप करी जोवामां विघ्न कर्य. केटलाक बीरोए बडांनी जेम शभोने भालामा परोची उंचा कयो । | केटलाक सुभटोए दंडवडे पर्वतनी जेषा हाथीओना दांत भांगी नांख्या, केटलाक योद्धाश्रोए घडानी जेम रथोने मुद्गरपडे मर्दन कर्या, केटलाके परिघयडे शत्रुओने चणानी जेम कुट्या, केटलाके खगवडे कोळानी जेम शत्रुओने फाडी नाल्या, | केटलाके गदावडे नाळीयेरनी जेम शत्रुना मस्तको भेदी नांख्यां, केटलाक वीरो आयुध खुटी जबाथी शत्रुना हाथीना दांत उखेडी तेवडे प्रहार करवा लाग्या, अने केटलाक महाबळबान योद्धामो द्वंद्वयुद्ध करवा लाग्या, ए रीते हमेशां शस्त्र, अस्त्र, मंत्र भने मायावडे युद्ध करतां ते बो सैन्यानो लगभग एक मास थवा प्रायो, ते वखते श्रीविजयना सुभटोए प्रशनिघोषना पुत्रोनो पराजय को. स्वारे अशनिघोष राजा पोते युद्ध करवा पान्यो. अने इचुने जेम वळद भांगी नांखे तेम तेसो अमिततेजाना पुत्रोने भांगी नांख्या-हराव्या, त्यारे श्रीविजय राजा पोते युद्धमा उत्तर्यो. ते बझे महा पराक्रमी परस्परना | प्रहारोने छेतरता चिरकाळ सुधी युद्ध करवा लाग्या. ते जोइ देवो पण भाचर्य पाम्या. छेवटे श्रीविजय राजाए खड्ग बडे Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | शत्रुना ये काटा कर्या, त्यारे ते ने अशनिपोषरूप थया. श्रीविजये ते यमेना चार ककडा कर्या, स्यारे चार अशनिपोष थिया. फरीथी ते चारेना श्रीविजये मजे ककडा कर्या, त्यारे पाठ भशनिघोष थया. भाप्रमाणे श्रीविजय प्रशनिघोषना जेटला ककडा करतो तेटला प्रशनिघोष थवा लान्या. तेथी श्रीविजय राजा हवे शंकर! एम विचारमा मृढ बनी गयो. वेटलामा विद्या सिद्ध करीने अमिततेजा पोते प्रावी पहोंच्यो. सिंहनी जेबो तेने भावतो जोइ हाथीनी जेम अशनिपोष तत्काळ नाशी गयो. तेने पकडी लाववा माटे अमिततेजाए | महाज्वाळा नामनी विद्याने हुकम कर्यो, एटले पाखा विश्वने जीतनारी ते विद्या अशनिघोषनी पाछळ दोडी. नासता अशनिपोषे कोई पण ठेकाणे शरण जोयुं नहीं, तेथी ते अत्यंत आकुळ व्याकुळ थइ दक्षिण भरतार्धमां गयो. त्यां ममता तेणे सीमनग पर्वत उपर बळदय सनिने जीया. ते मुनिने तत्काळ केवळशान उत्पन थयु हतुं अने तेनी चौतरफ देवतामो | परिवरला हता. भेटले ते शनिधोषे ते केवळीनं जशरण कर्य. त्यारे महाज्वाळा विद्या तेनो त्याग करी पाछी भावी ॥ भने तेपीए सर्व वृत्तांत अमिततेजाने कझो. ते सांभळी अमिततेजा अने श्रीविजय ए बने अत्यंत हर्ष पाम्या. त्यारपछी मुताराने लाववा माटे मारीच नामना दूतने मोकली ते बन्ने राजा सैन्य सहित विमानमां सी सीमनग पर्वत उपर गया, भने त्यां बन्नेए भक्तिथी चळ बळदेव केवळीने वंदना करी. मारीच विद्याधर पण चमरचंचा नगरीमा गयो, अने तेणे अशनिपोषनी माने कर्जा के-" सुताराने लइ जवा माटे मने अमिततेजा राजाए नही मोकन्यो के." पछी तेनी माना कहेवाथी सुताराने लइ से मारीच पण सीमनग पर्वतपर भाष्यो, भने तेणे श्रीविजय तथा अमिततेजाने सुतारा सौंपी. से बखते || Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशनिघोषे हर्षथी श्रीविजय अने अमिततेजाने समाव्या. पछी तेमनी पासे अचळ केवळीए धर्मदेशना पापी. देशनाने अंते अशनिघोष राजाए महर्षिने का के—'हे प्रभु! में दुष्ट अभिप्रायी आ सुतारार्नु हरण कयु || न होतुं, परंतु प्रतारणी नामनी विद्याने साधी हुंधर तरफ जता हतो, तेवामा ज्योतिर्वनने विषे आ सुताराने में श्री विजय राजानी पासे रहेली जोइ, ते वखते कोइ पण कारणथी तेणीना उपर मारो अत्यंत राग थयो के जेथी तेश्शीने छोडीने ९ आगळ जवा असमर्थ बन्या. परंतु श्रीविजयनी पासे रहेली होवाथी हुँ तेणीने हरी शक्यो नहीं. तेपी प्रतारखी | विधावडे श्रीविजयने छेतरी तेने छुटो पाडी दूर मोकलीने में तेणीनुं हरण कयु. पछः पाप रहित अने आकुळ व्याकुळ || थयेली तेने में मारी मातानी पासे मुकी. वाणीथी पण में तेने अनुचित वचन का नथी. तो हे भगवान! भाने विष मारो प्रेम शाथी थयो ? ते कहो." __त्यारे मुनि तेमनी पासे तेमना पूर्वभवनी श्रीषेण विगैरे सर्वनी कथा कहीने बोल्या के-"श्रीषेण, सत्यभामा, अभिनंदिता अने शिखिनंदिता मरीने युगलिया थया, त्यांथी मरीने देव थया, अने त्यांची चवीने श्रीषेणनो जीव ा अमिततेजा थयो छे अने शिखिनंदितानो जीव पानी पत्नी ज्योतिष्प्रभा थयो के. जे अभिनंदीतानो जीव इतो ते चवीने श्री श्रीविजय भयो के अने सत्यभामानो जीव चवीने सेनी भार्या मुतारा थयो छे. तथा कपिलनो जीव चिरकाट सुधी तिथंच योनिमा ममी कोइ सापसनो पुत्र धर्मिल नामे धर्मिष्ठ थयो. ते बाल्यावस्थाथी ज तीन अज्ञानतप करतो हतो. एकदा प्रा. काशमा जता मोटी समृद्धिनाळा कोई विद्याधरने जोइ तेणे नियाj कर्यु के--" मारा तपनो जो प्रभाव होय तो इं Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायो विद्याधर थाउं." मा प्रमाणे निया' करवाथी ते तापस कुमार मरीने तुं अशानिधोष श्रयो छे. पूर्वभवना संबंधथी सुताराने विषे तारा स्नह थयो के कारण के मह भने पैरना संस्कार सेंकडो भव सुधी चाले छे." प्राप्रमाणे केवळीना मुख्थी पोताना पूर्वभवना वृत्तांत सांभळी अमिततेजा विगैरे सर्वे मनमा विस्मय पाम्या. पछी अमिततेजाए भगवानने पूछथु के-“हे पूज्य हुं भव्य छु के नहीं ?" मुनि बोल्या के–“श्रा भवी नवमे भवे श्रा ज भरतक्षेत्रमा तमे शांतिनाथ नामना पांचमा चक्रवर्ती ने सोळमा तीर्थकर यशो. ते भवे आ श्रीविजय तमारो मोटो पुत्र | तथा प्रथम गणधर थशे." ते सांभळीने ते बने राजाओए श्रावकधर्म अंगीकार कयों. त्यारपछी अशनिघोष मुनिन कडं | के-" सन्मार्गने देखाडनार सद्गुरु विना मूढ पथिक अरण्यमा जेम भटके तेम हुँ भा संसारमा चिरकाळ सुधी भटक्यो । छु. मोटा भाग्ये भाज सिद्धिपुरीना मार्गने देखाडनारा तमने में जोया छे. तो हे प्रभु ! मारापर प्रसन्न थइ मने साधुधर्म || श्रापो." ते सांभळी मुनिए तेने चारित्र आपवानी अनुशा श्रापी, एटजे ते बुद्धिमान अशनिघोषे पोताना पुत्र अश्वघोषने | अमिततेजाना उत्संगा स्थापन करी कहां के—“आ मारा पुत्रने तमे पोताना पुत्रनी जेम राखजो." ए प्रमाणे कही अचळ स्वामीनी पासे तेणे दीक्षा ग्रहण करी. पछी श्रीविजय अने अमिततेजा ऋषिने बंदना करी परिवार सहित पोताने में स्थाने गया. बीजा जनो पण हर्ष पामी पोतपोताने स्थाने गया. खेचरेंद्र अमिततेजाए तथा नरेंद्र श्रीविजये श्राद्धधर्मर्नु पालन करता अने जिनशासननी प्रभावना करता घणो काळ निर्गमन कर्यो. एकदा श्रीविजय अने अमिततेजा साथै मळीने मेरुपर्वतपर शाश्वत जिनेश्वरीने वांदवा गया. त्यां जिनप्रतिमानोने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बांदी एक सुवर्णनी शिलापर ध्यानमा बेठेला विपुलमति भने महामति नामना ये चारण मुनिभोने नम्पा. ते वसते ते महर्षिोए देशनामा सर्व अनित्यता देखाडी. ते सांभळी ते बने राजाभोए पूछथु के-" हे प्रभु! अमारं आयुष्य केटलं शेष छे ? " मुनिश्रोए तेमने कह्यु के-" तमारुं आयुष्य आजधी छवीश दिवसर्नु शेष छे." ते सांभळी ते बसे धर्मकृत्वमा उत्सुक थइ पोतपोताने धेर गया, त्यां जिनचैत्योमा अष्टादिका महोत्सव करी, दीनादिकने दान आपी, पोतपोताना पुत्रोने राज्यपर स्थापन करी, अभिनंदन अने जगन्नंदन नामना गुरु पासे दीक्षा ग्रहण करी, हर्षथी पादपोपगमन नामर्नु अनशन ग्रहण Call कर्य. ते वखते श्रीविजये पोताथी अधिक ऋद्धिवाला पोताना पितार्नु स्मरण करी निया' कर्यु के-"ा तपना प्रभावधी श्रावता भवमा हुँ मारा पिता जेवो थाउं." पछी मायुष्य पूर्ण थये अमिततेजा अने श्रीविजय मुनि कालधर्म पामी प्राणत नामना स्वर्गमा चीश सागरोपमना आयुष्यवाळा उत्तम देवो थया. ___ आ ज जंबूद्वीपना पूर्व महाविदेह क्षेत्रने विषे रमणीय नामना विजयमां शुभा नामनी श्रेष्ठ पुरी छे. तेमां गुणरूपी रत्नोबडे परिपूर्ण स्तिमितसागर नामनो राजा हतो. तेने सुंदर रूपयाळी वसुंधरा अने अनुद्वरा नामनी ये प्रियामो all हती. प्राणत नामना स्वर्गथी अमिततेजानो जीव चवीने वसंधरा देवीनीकृतिमा पत्रपयो अवतो. ते वखते सखे मतेली ते | कमळना सरग्दा मुखवाळी वसुंधराए स्वप्नमा पोताना मुखमा प्रवेश करता हाथी, वृषभ, चंद्र अने सरोबर ए चार पदार्थों जोया. तरत ज जागृत थयेली तेणीए तेर्नु फळ राजाने पूछयु, त्यारे राजाए कमु के-'हे प्रिया ! पा स्वप्नोबडे तारो पुत्र बळदेव थशे." ते सांभळी हर्ष पामेली राणीए गर्भ धारण कर्यो. अनुक्रमे समय पूर्ण धये तेणीए शुभलघणवाळा, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भने श्वेतवर्णवाला पुत्रने जन्म भाप्यो. राजाए महोत्सवपूर्वक तेनुं अपराजित नाम पाडयुं. पछी श्रीविजयनो जीव पश प्राण तकल्पमांधी चवी अनुद्धरा राशीनी कुधिमा भक्तों . वे वखते सिंह, लक्ष्मी, सूर्य, कुम, समुद्र, रत्नराशि अने निघूम अग्नि ए सात पदार्थो राणीए स्वप्नमा पोताना मुखमा प्रवेश करता जोया. तरत ज जागृत थइने राणीए राजाने स्वप्नोर्नु | फळ पूछयु, त्यारे राजाए कहुं के -" हे प्रिया ! श्रा स्वप्नोथी तारो पुत्र वासुदेव थशे." पछी अनुक्रमे समय पूर्ण थये राणीए श्याम वर्णवाको मनोहर पुत्र प्रसध्यो, तेनं नाम राजाए महोत्सव पूर्वक अनंतवीर्य पाडथु. ते बन्ने भाइयो अनुक्रमे धृद्धि पामता निरंतर प्रेमपूर्वक साथे ज क्रीडा करवा लाग्या. योग्य समये गुरु पासेथी सर्व कळाओ शील्या. पछी यसंग्रहाद मामलनी जेन गोहर गाडे भूमिका गोला ते बन्ने भाइयो भमरीनी ओम युवतिमोनी दृष्टिने मोह पमाडवा लाग्या. एकदा स्तिमितसागर राजा मचक्रीडा करवा नगरीनी बहार गयो. त्या उद्यानमा रहेला स्वयंप्रभ नामना मुनिने जोइ तेणे तेमने बंदना करी, पछी मुनिनी पासे बेसी तेमनी देशना सांभळी राजा प्रतिबोध पाम्यो. एटले पोताना राज्यपर अनंतचीयेने स्थापन करी ते मुनिनी पासे तेयो दीक्षा ग्रहण करी. ते राजर्षिए मनोहर चारित्रनु पालन कयु. परंतु लेवट प्रतनी कहिक विराधना करी, तेथी ते काळधर्म पामी घमर नामनो असुरेंद्र थयो. उत्तम पराक्रमबालो अनंतवीर्य राजा पोताना मोटामाइ सहित इंद्रनी जेम साम्राज्य भोगनका लाग्यो. एकदा कोई Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याधरनी साथे ते बन्ने भाइओने मित्राइ थइ. तेमने ते विद्याधरे सर्व विद्यानो पापी, पछी ते विद्याधर वैताढय पर्वतपर गयो. अनंतवीर्यनी पासे किराती अने वर्षरी नामनी चे दासीश्रो हती, ते गीत नाट्यादिकनी कळावडे जगतना चित्तने हरण करती हत्ती, एकदा सभामा ते बने भाइभो पासे ते दासीमो नाट्य करती हती, ते यखते नारद त्यो आवी चड्या. परतुं ते बरे भाइभोनुं चित्त नाटक जोवामां तन्मय थयुं हतु, तेथी तेमणे नारदमुं मन्मान कयु नहीं, एटले नारद मनमा | क्रोध पामी त्यांची नीकळी वैताढय पर्वतएर गया. त्या सर्व विद्याधरनो राजा दमितारि नामे प्रतिवासुदेव इतो, तेनी पासे नारद गया. तेने जोइ दमितारि राजाए उमा थइ श्रादरपूर्वक सिंहासनपर बेसाध्या, नारदे सिंहासनपर बेसी तेने | आशीर्वाद प्राप्यो. तेने राजार पूर्ण के-है पूज्य । सो समग्र पृथ्वीपर स्वेच्छाए अटन करो छो, तेथी कांइपण अद्भुत जोयुं होय तो ते कहो." ते सांभळी नारदे हर्ष पामी कह्यु के–'हे राजा ! हुं शुभापुरीमा अनंतवीर्य राजानी पासे || गयो इतो. त्यां किराती अने चर्बरी नामनी चे दासीओनुं नाटक में जोयुं, तेवू नाटक देवाने पण दुर्लभ छ, ते दासीयो विना हे राजा ! भा तमारु समग्र राज्य घी बिनाना भोजननी जेवं तुच्छ लागे छे." श्रा प्रमाणे कही कलिप्रिय नारद आकाशमार्गे पोताने स्थाने गया. ___ स्यारपछी दमितारि राजाए पोतानो दूत अनंतवीर्य राजा पासे मोकन्यो. ते दूते शुभापुरीमा जह मोटाभाइ सहित अनंतवीर्यने नमस्कार करी कर्यु के-" हे राजा! आ अर्ध विजयमा जे कोइ उत्तम पदार्थ होय ते सर्व दमितारि राजाने ज योग्य छे. तेथी तमारी पासे जे से दासीओ नाट्य करवामां कुशळ छे, तेमने दमितारि राजा पासे मोकलो. " ते Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - = || सांभळी राजाए कह्यु के-" हे दत! तुं हमणां जा. हुं कांइक विचार करीने ते पभे दासीभाने शीघ्रपणे मोकलीश." ते सांभळी दृत त्यांची गयो, त्यारे ते बने भाइओए विचार कर्यो के-"श्रा दमितारि राजा विधाशक्तिथी पापणापर | हुकम चलावे छे, तेथी आपणे पण विद्यावर मित्रे खाली सई विधामो साधी हेवा वळवान थइए." मा प्रमाणे ते यो भाइयो विचार करता हता, ते ज वखते प्रज्ञप्ति विगेरे सर्व विद्यादेवीओ तेमनी पासे आधीने बोली के-" तमे जेने | | साधया इच्छो छो ते अमे सर्व विद्यादेवीमो जाते ज तमारी पासे श्रावी छीए. पूर्वभवमा तमे अमन साधी छे, तेथी अत्यारे | * साधवानी जरुर नथी. मात्र अमने तमारा शरीरमा प्रवेश करवानी अनुज्ञा पापो." ते सांभळी ते यो भाइओए तेमने भनुज्ञा पापी, एटले ते सर्व विद्यादेवीभोए तेमना शरीरमा प्रवेश कर्यो, पछी ते बने भाइयोए हर्ष पामी तेमनी श्रेष्ठ पूजा करी. ____ एवा अवसरे दमितारि राजाए फरीथी दूत मोकन्यो, तणे प्रावी ते बने भाइअोने कयु के-" दासीओने मोकलपार्नु | कहीने पमा तमे मोकली नहीं. तेथी एम जणाय छे के--तमने तमारा प्राणो करतां पण ते दासीओ वधारे प्रिय छे. हजु पण जो तमने तमारा प्राण वहाला होय तो ते दासीओने शीघ्र मोकलो, नहीं तो क्रोध पामेला स्वामी तमारा प्राणोने ] हरण करशे." ते सांभळी ते बन्ने भाइयो बोल्या के-" स्वामीने तो घणा धनवडे पण संतुष्ट करवा जोइए, तो जो मात्र आ ये दासीओथी ज तेने संतोष थतो होय, तो ते दासीोने काले सवारे ज तमे लइने जाश्रो. " आ प्रमाणे कही तेमणे दूतने प्रसन्न कर्यो. पछी ते दुत तेमणे आपला उतारामा गयो. पछी बुद्धिमान ते बन्ने भाइमो राज्यनो भार मंत्रीोने सोपी प्रात:काळे विद्यावडे ते दासीयोनुं रूप धारण करी दतनी पासे गया, अन तेने कर्यु के-"मने अनंतबीय भने **-•YOTak Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** तेना मोटाभाइए तमारी पासे मोकली छे. " पछी ते दूत तेमने लइ वर्ष सहित वैतादच पर्वतपर गयो भने दमितारि राजाने ते बन्नेनी भेट करी हाथ जोडी बोन्यो के " हे स्वामी ! अपराजित ने अनंतवीर्य ए बने आपनी आज्ञाने आधीन ज . तेथीमा दासीओ आपने भेट तरीके मोकली छे. " ते सांभळी प्रसन्न थह दमितारि राजाए ते बोने करवानी आज्ञा करी. एटले तेमणे पूर्वरंग विगेरेना अनुक्रमे समग्र विश्वने मोह पाडे ते रसिक नाट्य करी बतान्युं तेमनुं श्रद्भुत नाट्य जोइ दमितारि राजाए वे बने दासीश्रीने जण जगवना साररूप मानी पडी दमितारि राजाए रूपलक्ष्मीवडे समग्र विश्वने जीतनारी पोतानी कनकश्री नामनी पुत्रीने नाट्य शीखववा माटे ते बजे दासीओने सोंपी, त्यारे ते मायावी दासीओ अनंतवीर्यना रूपादिक गुणोनुं अद्भुत गायन गाती सती ते कनकथीने नाटय शीखवचा लागी. एकदा ते राजकन्याए तेमने पूछधुं के – “ तमे हमेशां जेना गुणो गाओ छो ते कोण छे ? " ते सांभळी मायाथी वेटी थयेला अपराजिते कधुं के " ते शुभापुरीनो राजा थे, येनुं रूप कामदेवना रूपनो तिरस्कार करे ते छे, कोइप शत्रुभी पराभव न पामे तेत्रो महा पराक्रमी छे, ते अपराजितनों नानो भाइ छे, तेनुं नाम अनंतवीर्य थे, वथमां पण ते युवान के, तेना गुण अमे गाइए छीए, जे युवतिए तेने जोयो नधी, तेनो जन्म पृथा ज छे." ते सांभळी कनकश्रीनुं शरीर रोमांचथी उल्लास पाम्, ते मनथी अनंतवीर्यपर आसक्त थह अने ' ते प्रियने हुं क्यारे जोश ?' एम ते चिरकाळ सुधी विचारमां ज रही. तेणीना इंमिताकारथी तेखीनुं मन जायी अपरा जिसे पूछयुं के " हे मृगाक्षी ! विश्वना अलंकाररूप अनंतवीर्यने शुं तुं जोवाने इच्छे छे ? " कनकश्री मोली के " मने तेनुं दर्शन क्याथी थाय ? मंद भाग्यवाळा प्राणी 2084 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रोने चिंतामणि रत्न दुर्लभ ज होय छे." अपराजिते कयु--" हे कमलना सरखा नेत्रवाळी ! तुं शोक न कर. तारे माटे - हुं विद्याथी ते युवानने ना मोटाभाइ सहित अहीं लावी मा." ते सांभळीने हर्षथी गद्गद् वाशीए कनकश्री बोली के " हे कळावाळी ! सारं वचन सफळ कर." ते सांभळी ते बो थिद्यायडे पोतपोतानुं मूळ स्वरूप धारण करी प्रगट थया. * सपछी अपराजिते तेणीने को के--" हे पुण्यशाळी ! आ न अनंतवीर्य छे. में तने तेना रूपादिक जेवां कह्यां थे, तेषां ज के के नहीं ? तेनी तुं पोते न खात्री कर." ते म्यांमाही ते बहुर गन्गा गह गिए रहित दृष्टिवडे अनंतवीर्यनी सामु जोइ | ब रही. त्यारपछी ते दमितारिनी पुत्री कामदेवथी पीडा पामी, तेथी लजानो त्याग करी तथा मानने दूर करी बोली के| " हे मनोहर ! आजसुधी में घपणा युवानो जोया चे, परंतु वमारा विना कोइने विष मारु मन मानंद पाम्युं नथी. तो हवे l मारापर प्रसन्न थइने शीघ्रपणे मारं पाणिग्रहण करो अने मारापर अनुग्रह करो. तमारी जेवा सत्पुरुषो अनुरागी जननी उपेक्षा करे ज नहीं." ते सांभळी अनंतवीर्ये कडं के-“हे मुंदरी ! जो तारी तेवी इच्छा छे तो चाल. आपणे शुभापुरीमा जइए." त्यारे ते पोली के--" हे कांत ! हुं तमारी साथे भावीश ज. परंतु मारो पिता तमने अनर्थ करशे." अनंतवीर्य का-" हे भीरु ! तेमाथी तारे जरापण भय राखवो नहीं." एम कही तेणे सरत ज विद्यावडे विमान विकुयु. समां ते बन्ने भाइओ साथे कनकश्री हर्षथी बेठी. पछी विमानने चलावी अनंतवीर्य उंचे स्वरे या प्रमाणे बोल्यो के-हुअनंतवीर्य दमितारिनी आ पुत्रीने हरी जाउं छु. जे कोइ शूरमानी होय तेणे पोतानुं बळ देखाडबुं." ते सांभळी क्रोध पामेला दमितारि राजा तेने इणवा माटे पोताना सुभटो मोकन्या. ते वखते ते पन्ने भाइयो Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पासे एक चक्ररत्न सिवाय बीजां सर्व रत्नो प्रगट ( उत्पन्न ) थयां. पछी महारथी एका ते चळदेव अने वासुदेवे क्रोधी । | शस्त्रांनी वृष्टि करनारा ते दमितारिना सुभटोनो शीघ्र पराजय को. त्यारे सैन्यबडे आकाशने ढांकतो अने नेजस्वी शस्त्रो| चडे वीजीना उद्योतने करतो दमितारि राजा पोते युद्ध करवा चाल्यो. तेने आयतो जोइ कनकधी अत्यंत भय पामी. ||| तेने धीरज आपी बळदेव सहित बासुदेव तेनी साथे युद्ध करवा पाछा चळ्या. पछी चासुदेवे तेना सैन्यथी यमा सैन्य | || विद्यावडे विकुर्वीने ते दमितारिना सुभटो साथे युद्ध शरु कयु. अनुक्रमे दमितारिना सैन्ये अनंतवीर्यना सैन्यनो पराभव | * को. ते जोह वासदये गुजरूपी नाटकनी नांदीनो जाले नाद होय एवो पंचजन्य शंखनो नाद को. ते नाद सांभळतां ज| दमितारिना सर्व सुभटो भय पामी नाशी गया. त्यारे दमितारिए पोते अनंतवीर्य साथे चिरकाळ पुद्ध कर्यु. छेवट अनंत- | | वीर्यने दुर्जय जाणी दमितारिए चक्ररत्ननु स्मरण कयुं, एटज्ञे जाणे बीजो सूर्य होय एवं तेजस्वी ते चक्र दमितारिना | || हाथमा प्राप्त थयु. तरत ज तेणे ते चक्र अनंतवीर्य उपर मुकधु. तेथी अनंतवीर्य छातीमा ते चक्रना तुंयनो आघात थवाथी | मूर्छा खाइ पृथ्वीपर पड्यो, परंतु एक क्षणवारमा ज पाछो स्वस्थ थइ ते ज चक्र हाथमा लइ तेणे दमितारि उपर मृत्यु, तेनाथी ते प्रतिवासुदेव प्राण रहित थइ गयो. ते वखते आकाशमा रहेला देवोए वासुदेवना मस्तक उपर पुष्पवृष्टि करीने | कधु के-" हे जनो ! श्रा अनंतचीय वासुदेव के अने तेना मोटा भाइ वळदेव थे, तेमनी तमे सर्वे सेवा करो." ते सांभळी सर्व विद्याधरो वासुदेवने नम्या. 18 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *****-**O** →→******••*OK¬» स्थापछी विद्याधर राजाओोथी परिवरेला वासुदेव नामनो पर्वत आयो, ने चळदेव पोतानी पुरी तरफ चाल्या. मार्गमां कनकगिरि के" हे स्वामी ! या पर्वतपर जिनेश्वरोनां चैत्यो के, तेमने बांदीने आगळ चालो.” ते सांभळी वासुदेव सर्व परिवार सहित ते पर्वतपर उत त्यां चैत्योमा जिनप्रतिमाओ ने वंदन करी ते सर्व बहार नीकळ्या, तेवामां कोइ स्थाने तत्काळ उत्पन्न थयेला केवळ ज्ञानवाळा कीर्तिघर नामना सुनिने जोया. ते केवळीने नमस्कार करी वासुदेवे परिवार सहित धर्मदेशना सांभळी. देशनाने ते कनकश्रीए केवळीने पूछ के "हे सारे बंधुओनो चिर ने मारा पितानो घात कया कर्मने लीधे भयो ? ते कृपा करीने कहो. "त्यारे मुनिराज बोल्या के- प्रभु धातकीखंडना भरत क्षेत्रमां शंस्त्र नामनुं गाम के तेमां श्रीदत्ता नामनी प्रति दुःखी, गरीब अने अन्यना घरमा कामकाज करीने याजीविका करनारी एक स्त्री हती. एकदा ते श्रीपर्वत उपर गइ. त्यां सत्ययशा नामना सुनिने जोइ तेमने चंदना क. मुनि तेणीने धर्माशिष आपी. पछी तेणीए सुनिने कछु के- " हे पूज्य हुं अत्यंत दुःखी स्थितित्राळी हुं, तो एव धर्म बतावो के जेथी थालोक भने परलोकमां हुं सुखी थाउं. " त्यारे साधुए तखीने धर्मचक्रवाळ नामनो तप करवा १ आ तपमा प्रथम अम करी, पारणं करी, पछी एकांतर साडीश उपवास करवा अने वट अम करवो. आ तपमां कुल बाशी दिवस थाय छे. बीजी रीत एवी छे के प्रथम छड करी पछी एकांतर साठ उपवास करवा आ रीते करवाथी कुल १२३ दिवस थाय छे. →****03+ ***03 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t कम्यु. ते तप अंगीकार करीने ते पोताने घेर गइ. ते तपना प्रभावी तेणीने पारणा नेदिवसे सारं भोजन मळया लाम्यु. एकदा पोताना घरनी भीतनो थोडो माग पडी गयो, तेमांधी घग्गुं सुवर्ण नीकळ्थु, ते जोइ श्रीदचा आनंद पामी. पछी तपने छेडे तेणीए पेला द्रव्यचडे मोटा उत्सव पूर्वक उत्तम उद्यापन का, ते दिवसे मासक्षपमणने पारणे कोह मनि त्यांना तेमने तेणीए भक्तिथी आहार पाणी वहोराव्यां, पछी मुनि श्राहार करी रह्या त्यारे ते श्रीदत्ता ते मुनिनी पासे गइ. तेमना मुखथी धर्मोपदेश सांभळी तेणीए श्राद्धधर्म अंगीकार को. त्यारपछी एकदा तेणीए विचार को के-"मा धर्मथी मने काइ फळ थशे के नहीं ?"श्रा रीते धर्मने विषे विचिकित्सा करी तेनी आलोचना कर्या विना ज मरण पामीने * हे वत्सा कनकधी ! ते श्रीदत्ता तुं ज मारा पुत्र दमितारिनी पुत्री थह छे. ते विचिकित्सान पा फळ तने प्राप्त थयुं छे. कारण के धर्मनी थोडी पण विराधना घणुं दुःख मापे छे." आ प्रमाणे केवळीना मुखथी पोतानो पूर्वभत्र सांभळी कनकधी वैराग्य पामी, तेथी तेणे वासुदेवने कथु के-"हे महामाग्यवान् ! हुं संसारथी भय पामुं छु, माटे मने व्रत ग्रहण करवानी आज्ञा आपो." ते सांभळी विस्मय पामी अनंतवीर्ये कह्यु के–" हे कल्याणी ! हमणां तो तुं शुभापुरीमा चाल. पछी त्यां श्रीस्वयंप्रभ जिनेश्वरनी पासे मोटा उत्सव पूर्वक दीक्षा ग्रहण करजे. " आ प्रमाणे कद्दी ते वासुदेव तेणीने साथे लइ मुनिने भक्तिथी प्रणाम करी परिवार सहित शुभापुरीए गया. ते वखते त्या प्रथमधी प्रतिवासुदेवे मोकलेला विद्याधर राजाओनी साथे वासुदेवना पुत्रने युद्ध करता जोइ महा वळवान बळभद्र तेमनी सन्मुख दोध्या, अने पोताना सीर (हळ ) नामना हथियारने चोतरफ भमाडवा लाग्या. te-Daoke-ok--- ADDHcker-2 -- Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | तेनाथी भय पामेला दमितारिना सुभटो तत्काळ जूदी जूदी दिशाओमां नाशी गया. पछी अनंतवीर्य पोताने घर गया. | स्या सर्व राजाओए मळी वासुदेवनो राज्याभिषेक कर्यो. ___ एकदा श्रीस्वयंप्रभ जिनेश्वर शुभापुरीए पधार्या. ते सांभळी वासुदेव मोटा भाई सहित कनकश्रीने साथै लइ तीर्थकरने बांदवा गया. त्यां जइ प्रभुने चांदी तणे धर्मदेशना सांभळी. पछी हरिनी आज्ञा लइ कनकश्रीए महोत्सव पूर्वक जिनेश्वर पासे दीक्षा ग्रहण सही, पने अनुक्रमे निरनिदार बारित्रनु पालन करी तथा उग्र तप करी सर्व कर्मनो क्षय करी मोक्षे गइ. समकितवडे शासननो उद्योत करता ते वासुदेव अने बळदवे चिरकाळ सुधी राज्य भोगव्यु. चोराशी लाख पूर्वन आयुष्य पूर्ण करी वासुदेव उग्रकर्मन योगे पहेली नरक पृथ्वीमा उत्पन थया. त्यां तेनुं आयुष्य ताळीश हजार वर्षनुं हतुं. तेटलो काळ छेदन भेदनादिक दुःसह पीडा तेणे भोगत्री. ते वखते तेना पूर्वभवना पिता के जे चमरेंद्र थया इता, तेणे तेनी पास आवी कर्मनुं फळ शांतिथी भोगववा उपदेश अाप्यो. वासुदेवना मरणथी शोकमग्न थयेला बलदेवे पोताना पुत्रने राज्यपर स्थापन करी सोळ हजार राजाश्रो सहित जयधर नामना गणधरनी पासे दीक्षा ग्रहण करी अने अनुक्रमे दीवानुं पालन करी उग्र तप करी ते बळदेव मुनि आयुष्यने अंते काळधर्म पामी अच्युतेंद्र थया. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ जंबूद्वीपना भरतक्षेत्रने विषे वैताब्य पर्वत उपर गगनवल्लभ नामर्नु नगर छे. तेमा खेचर राजा मेघवाहन राज्य || करतो हतो. तेनी प्रियानी कृक्षिमा अनंतवीर्यनो और नरकमांधी पुत्रपरले उत्पम था. तेनु नाम मेघनाद पाडधु. ते | युवावस्थाने पाम्यो त्यारे मेघवाहने तेने राज्यपर स्थापन को. मेघनाद राजाए अनुक्रमे वैतादचनी बने श्रेणिभो साधीने | पोताने आधीन करी. पछी तेणे देशोना विभाग करीने पोताना पुत्राने ते वर्हेची प्राप्या. एकदा ते मेघनाद मेरुपर्वतपर | नंदनवनमा रहेला शाबत चत्योने वांदवा गया. त्यां अच्यतेंद्र पण भाव्या हता. तेण अवधिज्ञानथी मेघनादने श्रोळखी हपंथी प्रतिबोध कर्यो. ते वखते त्यां अमरगुरु नामना चारणमुनि पधार्या. तेमनी पासे ते खेचराधीश मेघनादे त्यांज दीक्षा ग्रहण करी. ते मेघनाद मुनि तीव्र वतनुं पालन करी परीघहो सहन करी अंते अनशनवडे काळधर्म पामी अच्युत | देवलोकमां इंद्रना सामानिक देव थया. आज जंबूद्वीपना पूर्व महाविदेहक्षेत्रना भूषणरूप मंगलावती नामनी विजयमा रत्नसंचया नामनी नगरी के. तेमा विश्वना जीयोन क्षेमकुशळ करनार क्षेमकर नामे राजा हतो. तेने सद्गुणोबडे शोभती रत्नमाळा नामनी प्रिया हती. अन्यदा बाचीश सागरोपमनुं आयुष्य पूर्ण करी अच्युन देवलोकथी चवीने अपराजितनो जीव रत्नमाळानी कुतिमा | अवतो. ते वजते रात्रिमा सुखे मतेली तेखीए चौद महास्वप्ना जोया, तथा पंदर बज्रनुं स्वप्न जोयं. तरतज जागृत | थयेली राणीए ते वृत्तांत राजाने करो. राजाए तेणीने कछु के-." हे प्रिया ! तारे चक्रवर्ती पुत्र थशे." ते सांभळी राणी हर्ष पामी, अने ते दिवसथी तेणीए गर्भ धारण कर्यो. अनुक्रमे समय पूर्ण थये रत्नमाळाए त्रण जगतने मनोहर एवा पुत्रने Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्यो. राजाए महोत्सवपूर्वक तेनुं पंदरमा स्वप्नने अनुसारे वज्रायुध नाम पाडगुं. अनुक्रमे ते युवावस्थाने पाम्यो त्यारे । | मोटा उत्सवी लक्ष्मीवती नामनी राजपुत्रीने परण्यो. त्यारपछी अनंतवीर्यनो जीव अच्युत कन्पथी चवीने लक्ष्मीचती || देवीनी कुहिमा अवतर्यो, भने समय पूर्ण थये तेणीए पुत्ररत्नने जन्म प्राप्यो. पिताए तेनुं नाम महोत्सवपूर्वक सहलायुध पाडयुं. ते कुमार पण अनुक्रमे वृद्धि पामी समग्र कळाप्रोनो अभ्यास करी कामदेवना क्रीडोद्यान समान यौवनने पाम्यो. एकदा क्षेमकर राजा पुत्र सहित सभामा बेठा हता, समये ईशानकल्पना इंद्रे पोतानी सभामां वज्रायुधना | समकितनी अति श्लाघा करी, ते उपर श्रद्धा न थवाथी चित्रचूल नामनो एक मिथ्यात्वी देव विवाद करवा माटे क्षेमकर | राजानी सभामा श्राव्यो. त्या ते देव मिथ्यात्वनो आश्रय करी बोल्यो के--" पुण्य, पाप, परभव, आत्मा विगेरे काइपण छे नहीं." ते सांभळी अवधिज्ञानवाळा वज्रायुधे तेने हर्षधी कह्यु के–“हे देव ! तुं ज अवधिज्ञानवडे तारो पूर्वभव जो. | ते भयमा ते आवा देवसंपत्तिना कारणरूप धर्मकर्म कयु हतु, तेनुं ज फळ तने मळ्युं छे, ते तुं ज प्रत्यक्ष जो. आ प्रमाणे पुण्य अने पूर्वभव सिद्ध थवाथी जीव तो सिद्ध थाय ज छे. केमके ते विना परभवमा कोण जाय ? अने सुखदुःख कोण पामे? आम छतां तुं पुण्य पापादिकनो अभाव केम कहे छे ?" मा प्रमाणे बनायुधनुं वचन सांभळी चित्रचूल देव बोल्यो के-" हे कुमार ! मने कोई प्रकारे बोध थाय तेम नहोत, छतां तमे श्रेष्ठ युक्तिपूर्वक मने तखनो बोध पमाड्यो ते बहु सारं कयुं. तो हवे मारापर प्रसन्न घइने मने मिथ्यामतिने शीघ्र बोधिरत्न आपो. केमके इर्ष्याथी पण सत्पुरुषनुं करेलु दर्शन Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्फळ थतुं नथी." त्यारे वज्रायुधे ते देवने समकितनो बोध कर्यो. तेथी प्रसन्न थइ ते देवे निःस्पृह एया पण ते वज्रायुधने दिव्य आभूषणो भाप्यो, पछी ईशानेंद्रनी सभामा जह तेणे इंछने कयु के-" हे स्वामी ! तमे वज्रायुधना समकितनी श्लाघा * करी ते युक्त ज छे." एकदा लोकांतिक देवोए आवी मंकर प्रभुने तीर्थ प्रवर्ताववानो बोध कर्यो, एटले ते प्रभुए वार्षिक दान प्राप्यु, तथा वज्रायुधने राज्य आयु. पछी वज्रायुधे तथा देवोए प्रभुनो दीवामहोत्सव कयों. प्रभु पण चारित्र ग्रहण करी Fall अनुक्रमे केवळज्ञान पाम्या. प्रभुना केवळज्ञाननी वार्ता सांभळी बजायुध राजा सर्व परिवार सहिन प्रभु पासे जइ देशन्ना का सांभळी धेरै आव्या. ते वखते श्रायुधशासाना रक्षक राजाना पात श्रावी चक्ररत्ननो उत्पत्ति कही. तथा ते ज वखते बीजां पण सर्व रत्नो उत्पन्न थयां पछी बज्रायुध राजाए मोटा उत्सवपूर्वक चक्ररत्ननी पूजा करी. त्यारपछी चक्ररत्नने अनुसरी तेणे मंगलावती विजयना छए खंड साध्या अने अखंड श्राज्ञापाळा ते चक्रीए चिरकाळ सुधी छ खंडनु राज्य भोगव्यु. ____एकदा क्षेमंकर जिनेश्वर रत्नसंचया नगरीना उद्यानां समवसर्या. तेना खबर उद्यानपाळोए चक्रीने आप्या. ते * सांभळी चक्रीए तेओने हर्षथी साडाबार करोड सुवर्णतुं प्रीतिदान प्राप्यु, पछी ते चक्री परिवार सहित जिनेश्वर पासे | जइ तेमने वांदी तेमना मुखथी धर्मदेशना सांभळी वैराग्य पामी तत्काळ घेर मान्या अने तेणे श्रादरपूर्वक सहस्रायुधने | राज्यपर स्थापन कर्यो. पछी चार हजार पोतानी राणीमो, चार हजार राजाओ अने सातसो पुत्रो सहिए लोकोए पूजेला वज्रायुधे क्षेमंकर प्रभुनी पासे जइ चारित्र ग्रहण कयु, अने तीन तप करता पृथ्वीपर विचरखा लाग्या. केटलोक काळ गया Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . | पछी सहस्त्रायुध राजाए पण पोताना पुत्रने राज्यपर स्थापन करी पिहिताश्रव नामना गणधरनी पासे चारित्र ग्रहण , कर्यु. ते सहस्रायुध राजर्षि श्रुतना पारगामी थइ पृथ्वीपर विचरता एकदा वज्रायुध राजर्षिने मळ्या. त्यारपछी स्वाध्याय || ध्यानमा तत्पर अने शुभ अंतःकरणवाळा ते बझे पितापुत्र चिरकाळ सुधी साथ ज विचर्या. एकदा ते चोए ईसत्याग्भार नामना पर्वतपर चड़ी पादपोपगम नामर्नु अनशन ग्रहण कर्यु, अने आयुष्य पूर्ण थये श्रीजा ग्रेवेयकमां पचीश सागरोपमना | श्रायुष्यवाळा देदीप्यमान देवो थया. आ जंबूद्वीपमा पूर्व महाविदेहने विषे पुष्कलावती नामनी विजयमा मोटी समृद्धिवाळी पुंडरीकिणी नामनी नगरी * छे. तेमां शत्रु राजामोना तेजरूपी अमिने घुझावचामा अद्वितीय मेघ समान अने अद्भुत पराक्रमवाळो घनरथ नामे राजा हतो. महादेवने गंगा अने गौरीनी जेम ते राजाने प्रीतिमती अने मनोरमा नामनी बे प्रियायो हत्ती. हचे बजायुधनो जीव प्रैवेयकथी चवीने प्रीतिमती देवीनी कृषिमा अवतयों. ते वखते तेणीए स्वप्नमा पोताना मुखमा प्रवेश करतो चीजळीवाको, * गर्जना करतो अने अमृतवृष्टिने वरसावतो मेघ जोयो तरत ज जागृत थइने तेणीए ते स्वप्न- फळ राजाने पूछर्थ, त्यारे तेणे कछु के-“हे प्रिया ! मेधनी जेम पृथ्वीना संतापने दूर करनार एवो पुत्र तारे थशे." त्यारपछी सहस्रायुधनो जीव पण अवेयकथी चवीने मनोरमा देवीना उदरमा अवतो. ते बखते तेणीए स्वप्नमां मनोहर रथ जोह पतिने तेनुं फळ पूछयु, त्यारे राजाए कर्यु के-" हे निया ! तारो पुत्र महारथी थशे." पछी समय पूर्ण थये ते वझे राणीओए अद्भुत पुत्रोने जन्म प्राप्यो. ते पुत्रो जाणे के क्रीडा करवाना मिषथी मनुष्यभवमा आवेला इंद्र भने उपेंद्र होय तेवा शोमवा हता. पछी राणी Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ओना स्वप्नने अनुसार राजाए पहेलानुं मेघरथ अने बीजार्नु दृढरथ नाम पाडधुं. ते बस्ने पुत्रो मेरुनी जेम ते नृपकुळने | शोभावता हता अने बाळ कल्पवृक्षनी जेम वृद्धि पामता हता, अनुक्रमे रत्नवडे सुवर्णनी जेम अने वसंत ऋतुबडे उधाननी || जेम यौवनबडे ते बन्नेनु रूप अत्यंत शोभा पाम्युं. आ अवसरे सुमंदिर नामना नगरमां जितशत्रु नामना राजाने जाणे त्रण भुवननी लक्ष्मी हरण करीने आणी होय एवी वण पुत्रीओ हती. तेमां पहेलीनु नाम प्रियमित्रा, वीजी- मनोरमा अने बीजीनाम सुमति हतुं. तेमांधी पहेली ये पुत्रीओ राजाए मेघरथने आयी अने एक नानी पुत्री दृढरथ कुमारने आपी. देवीओनी साथे देवोनी जेम ते प्रियाम्रो लाने लिषयसुण भोगना रो यो युभारए अशी काळ व्यतीत कर्यो. एकदा लोकांतिक देवोए प्रावी श्रीधनरथ राजाने बोध कयों, एटले तेखे वार्षिक दान प्राप्यु अने बन्ने कुमारीने अनु. क्रमे राज्य तथा युवराज पदवी प्रापी. पछी चारित्र ग्रहण करी केवळज्ञान पामी भव्य जीवोने प्रतिबोध करता श्रीषनरथ तीर्थकर पृथ्वीपर विचरवा लाग्या. ___ नमता एवा राजाभोना मस्तकपरथी पडता पुष्पोपडे जेना चरणकमळ पूजाता हता, एषा मेघरथ राजा स्वर्गने इंद्रनी बेम पृथ्वीन शासन करवा लाग्या. एकदा ते राजा पौषधशाळामा पौषध ग्रहण करीने रहेला हता, तेवामा कोइएक पारापत (पारेषु ) भयथी व्याकुळ थइ राजाना उत्संगा प्रावीने पडघु, ते पक्षीए मनुष्यनी भाषा बोली राजानु शरण Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " - - * माग्यु. त्यारे राजाए तेने कर्दा के-" तुं कोइना तरफथी भय पामीश नहीं. हुं तारुं रक्षण करशि." ते सांभळी ते पारापत || तेना उत्संगमा सुखे रह्यु. तेटलामा तेनी पाछळ सर्पनी पाछळ गरुडनी जेम एक श्येन पक्षी आव्युं, ते मनुष्यभाषाए बोल्यूं के-" हे देव ! आ मारुं भोजन छे, तेने तमे मूकी यो." राजाए तेने जवाब थाप्यों के–“हे श्येन ! श्रा मारे आशरे आवेलाने हुं आपीश नहीं. कारणके चत्रियो प्राणति पण शरणे आवेलाने मृकता नथी. वळी विवेकी एवा तारे प्रमाणे परना प्राणनो नाश करी गोलाला प्रागनी नसली पोल सभी जेम तने तार जीवित इष्ट ||| छे, तेम बीजाने पण पोतार्नु जीवित इष्ट ज होय छे, तेथी करीने जेम तुं तारा आत्मानी रक्षा करे छे तेम अन्यना श्रात्मानी पण रचा कर. तेमज आ पक्षीने खावाथी तने मात्र क्षणिक तृप्ति ज थशे अने । श्रा पक्षीना तो आखा जीवितनो नाश थशे. चीजो आहार करवाथी पण जुधानी व्यथानो नाश थइ शके छे, परंतु प्राणीवध करवाथी जे नरकनी व्यथा प्राप्त थाय छ, तेनो चिरकाळे पण नाश थतो नथी. तेथी करीने हे बुद्धिमान् ! प्राणीहिंसानो त्याग करी धर्मनो आश्रय कर, के जेथी आलोक अने परलोकमा उत्तम सुख प्राप्त थाय. " ते सांभळी श्येन | राजाने को के_हे स्वामी! या कपोत माराथी भय पामीने तमारे शरणे प्राव्यो छ. तो क्षुधानी पीडाथी पीडित थयेलो हुँ कोने शरणे जाउं? ते कहो. तेथी जेम तमे तेनुं रक्षण करो छो तेम माकं पण रक्षण करो. प्राणीश्रोने धर्म अधर्मनो विचार सुखी अवस्थामा ज थइ शके छे. याकी भूख्यो प्राणी शुं पाप न करे ? ए तमे शुं सांभब्युं नथी ? वळी हे राजा! वीजा भोजनथी मने तृप्ति थती नथी, केमके हुँ निरंतर तत्काळ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हणेला प्राणीना मांसना स्वादमांज आसक्त छ, तेथी करीने हे देव! चुधानी पीडाथी मरता एवा मने आ पक्षी पापी दो, कारण के महात्मा पुरुषो सर्व प्राणीमो उपर कृपालु होय छे." ते सांभळी राजाए तेने कह्यु के-" हे श्येन ! मा कपोतना शरीरमां जेटलं मांस छे, तेटलुं मांस हुँ तने मारा शरीरमाथी कापी प्रा', तुं फोगट क्षुधाथी मर नहीं. " ते सांभळी श्येन पचीए तेम करवानी हा कही. त्यारे राजाए बाजवा मंगावी एक छाबडामां पारापतने मूक्युं अने जीजा छाबडामा पोतानुं मांस कापी कापीने नांखवा मांडधु. जेम जेम राजाए पोतानुं मांस कापी कापीने नांख्यु, तेम तेम ते पारापतर्नु वजन वधवा लाग्यु. तेथी थाकीने छेचट शुभमतिवाला राजाए पोतानुं श्राखुं शरीर ते छावडामां मूक्युं, ते बखते हाहाकार करता मुख्य मंत्रीओ गद्गद् स्वरे राजाने कद्देवा लाग्या के-" हे पृथ्वीपति ! श्रा शरीरबडे श्राखी पृथ्वीनुं रक्षण करवानु छे, तो ते शरीरने एक पक्षीना रक्षणने माटे कम फोगट तजो छो ? बळी आ एक पक्षीनो भार आटलो बधो कोइ रीते | संभवतो नथी, परंतु आ कोइ मायावी सुर के असुर होवो जोहए." ा प्रमाणे ते मंत्री बोलता हता, तेटलामा तरत । ज त्यां दिव्य अलंकारवडे शोभतो कोइ देव प्रगट थइ हाथ जोडी राजा प्रत्ये बोल्यो के-" हे राजा ! ईशान इंद्रे योतानी सभामा तमारी स्तुति करी के-"अहो ! मेघरथ राजाने देवतानो पण धर्मथी चलायमान करवा समर्थ नथी." आवी | प्रशंसा सांभळी माराथी ते सहन थइ नहीं. तेथी था बे पक्षीओ चिरकाळथी युद्ध करता हता तेमना शरीरनो आश्रय करीने में प्रा तमारी परीक्षा करी छे. तो हे महासत्त्वयाळा राजा ! तमने धन्य छे के जेथी तमे परप्राणीनी रक्षा करवामां तमारा प्रिय प्राणोने पण तृण समान गणो छो."एम कही राजानुं शरीर साजु बनावी ते देव स्वर्ग मयो, ते स जोइ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मंत्री विगेरे सर्व अत्यंत विस्मय पाम्या, छाने ते ओए राजाने पूछयूँ के - " हे स्वामी ! आ देव कोण हतो ? मने आ पक्षीओने पहेलेथी शुं वैर हर्तु ? ते कहो. " त्यारे अवधिज्ञानथी जाणीने राजाए कनुं के " या भवथी पहेलां पांचमे भवे हुं अपराजित नामनो चळराम हतो ने श्रा दृढरथ अनंतवीर्य नामनो वासुदेव हतो. ख दमितारि नामना प्रतिवासुदेवने मार्यो हतो. ते संसारमा भ्रमण करी कांदक अज्ञानकष्टने ली आ देव यो छे. तथा जंबूद्वीपना ऐवत क्षेत्रमां पदमिनीखंड नामना नगरमां सागरदत्त नामना इभ्यने धन अने नंदन नामना बे पुत्रो हता. ते बन्ने भाइयो एकदा बेपारने माटे नागपुर नामना पुरमां गया, त्यां जेम वे गीध पत्तीओ मांसना पिंढने जुए तेम तेम एक रत्न जोयुं, ते रत्न लेवानी इच्छाथी ते बन्ने माइश्रो छूतां परस्पर युद्ध करवा लाग्या. कारण के एक पदार्थनी जे ने अभिलाष ते ज वैरनुं कारण छे. ते बन्ने माओ नदीने कांठे युद्ध करता करता नदीमां पड्या भने मरीने महा अवमां ओ आ पारापत अने श्येन थया छे. पूर्वभवना वेरने ली श्रा भवमां पण तेयो युद्ध करता हता. तेमने जोइ पेला देवे तेमनो आश्रय करी मारी परीक्षा करी थे. " श्रा प्रमाणे राजानुं वचन सांभळी ते पक्षीओ पण तत्काळ जातिस्मरण पामी पोतानी भाषाथी बोन्या के – “ हे राजा ! पूर्वrani रत्ननी जेम अमारो मनुष्य भव पण अमे लोभथी हारी गया छीए, तो हवे मारी योग्यता प्रमाणे श्रम धर्म मा अनुग्रह करो. " राजाए अवधिज्ञानवडे तेमनो अभिप्राय जाणी तेमने अनशन ग्रहण करवानुं कधुं. ते तेमणे भावथी अंगीकार कर्यु, धने अनुक्रमे मरीने ते बन्ने भवनपति देव थया. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकदा मेपरथ राजा अट्ठम तपकरी प्रतिमाए रखा हता. ते वखते 'तमने नमस्कार हो' एम बोली ईशानेंद्रे मेघरथने हप-10 थी नमस्कार कर्या, ते जोइ इंद्रनी मागीओए लेने के---"देवाली गोल विश्चने वंद्य छो, छतां तमे कोने नमस्कार कर्या?" त्यारे इंद्रे का के—" पुंडरीकिणी नगरीमा मेघरथ नामना राजा प्रतिमाए रहेला छे,ते जिनेश्वर थाना छे. तेमने जोड़ में | भक्तिथी नमस्कार कर्या छे. मेरुनी जेम निश्चळ अने ध्यानमा रहेला महा सचवाला तेने चलायवा माटे इंद्रोसहित देवताभो | मने असुरो पण शक्तिमान नथी." या प्रमाणे ते राजानी ग्रंशसा सुरूपा भने अतिरूपा नामनी तेनी बे पट्टराणीम्रोए सहन करी नहीं. तेथी ते देवीओ राजाने क्षोभ पमाडवा माटे त्या आधी. पछी तेमणे कामरूपी वृदोनी नीक समान घणी स्त्रीमो विकुर्वीने ते राजाने अनुकूल उपसर्गो करवा भारंभ्या. तेमां कोई चतुर खी कटाक्षरूपी बाणोपडे तेने वींधवा लागी, कोइ स्त्री लजानो त्याग करी भृकुटिना विलास करवा लागी. पुष्ट-मोटा स्तनबाली कोइ खी पोताना केशपास बांधवाना शि मिषथी हाथ उंचा करी सुवर्णना कुंम जेवा पोताना कुचकुंभ देखाडवा लागी, श्रेष्ठ कटिभागवाळी कोइ स्त्री त्रिवळीए करीने | मनोहर एवा उदरने देखाडवा लागी, कोइ खी वापीना जेवी उंडी पोतानी नाभिने वारंवार प्रगट करवा लागी, कोइक खी | "था मारा नितंब उपर नखक्षत थयेला होबाथी त्यां कटीमेखला (कंटोरो) घसावाथी बह बाधा थाय छे." एम माया -कपटथी बोलती पोताना नितंबने प्रगट करया लागी, कोइ स्त्री " हे सखी ! मने भहीं भमरी काडी गइ." एवो मिष l करी पहेरेलु वस्त्र उचुं करी साथर्नु मूळ देखाडवा लागी, कोइ स्त्री शृंगार रसरूपी सूचना पुष्पो जे° उजळ स्मित करवा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागी, कोइ स्त्री विकाररूपी भंकराने मेघ समान गीतो गावा लागी, कोइ स्त्री पतिना संयोग भने वियोगनी कथा कहवा लागी, कोइ सी पोतानी अनुभवली कामक्रीडार्नु पर्शन करवा लागी भने केटलीक स्त्रीमो तेनी. पास जा कहेवा लागी डा के-“हे स्वामी ! ममने प्रिय वचन कहो, मनोहर दृष्टिथी अमारी सामु जुनो अने अमारा कंठमा तमारा हाथ स्थापन करो." या प्रमाणे ते स्त्रीओए भाखी रात्रि सुधी राजाने क्षोभ पमाडवा माटे घणी कुचेष्टाओ करी, पस्तुं तेथी तो उलटुं गणीधी वाडवाग्निनी जेम अधिक देदीप्यमान थयु. मेरु पर्वतने विषे वायुनी जेम ते राजाने विषे विकुवेली ते सर्व स्त्रीमो निष्फळ धइ. तेथी ते रूपाने सहरी ते बन्ने देवीओ राजाने नमस्कार करी स्वर्ग गइ. श्रा प्रमाणे गविना वृत्तांतथी राजाने संसारपरथी अधिक चैराग्य थयो. पछी अनुपम क्षमावाला ते राजा प्रतिमाने पारी | पोताने घेर गया. त्यां एकदा धनरथ तीर्थकर समवसर्या. तमने वांदवा माटे मेघरथ राजा पोताना नाना भाइ सहित उद्यानमा गया. त्यां* | प्रभुना मुखी वैराग्यनी माता एटले वैराग्यने उत्पन्न करनारी देशना सांभळी ते राजा पोताने घेर श्राव्या, अने तेणे नाना || भाइने कहा के---" हे बंधु ! मारे दीक्षा ग्रहण करत्री छे, तेथी तुं पा राज्य ग्रहण कर." त्यारे ते बोल्यो के-" हे ज्येष्ठ बंधु ! मने संसारपर जरा पण प्रीति नथी, तेथी तमारी साथेज ९ पण दीक्षा लेवानो छु." ते सांभी राजाए पोताना | पुत्रने राज्यपर स्थापन कर्यो, पछी नाना भाइ दृढरथ सहित, सात सो पोताना पुत्रो सहित अने चार हजार राजाश्रो सहित ते मेघरथे तीर्थकर पासे जइ प्रव्रज्या अंगीकार करी. पछी अन्यार अंगनो अभ्यास करी मेवरथ राजर्पि पृथ्वीपर | Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचरवा लाग्या. आर्जवताए करीने युक्त ते राजर्षिए अरिहंत अने सिद्धनी सेवा मादि वीश स्थानकोना आराधनवडे तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन कयु. साधुओमा सिंह समान ते राजर्षिए सिंहनिक्रीडित नामनो तप फर्यो, एक लाख पूर्व सुधी * उग्र चरित्रनु पालन कयु, पछी भंवरतिलक नामना गिरिपर आरोहण कर अनशन ग्रहण करी आयुषने क्षये सर्वार्थसिद्ध नामना विमानमा ते देव थया. तेना भाइ दृढरथ मुनि पण केटलोक काळ गया पछी अनशन करी तेज विमानमां देव धया । या जंबुद्वीपना भरत क्षेत्रमा मोटी समृद्धिवडे इंद्रनी नगरी जेवू श्रीहस्तिनापुर नामर्नु पुर छे. अलका नगरीमा कुचेरनी जेम ते नगरमा विश्वसन नामें राजा हता. अग्निने स्वाहानी जेम ते राजाने अचिरा नामनी प्रिया हती. ते रूपबड़े इंद्राणीने पण जीतनारी अने शोररूपी अलंकारने धारण करनारी हती. एकदा मेघरथनो जीव सर्वार्थसिद्धथी चवीने | कमळने विप हंसनी जेम अचिरादेवींनी कुक्षिमा अवतो. ते चखते सुखे सुतेली ते देवीए श्रेष्ठ आकारने धारण करनारा चाँद शुभ स्वप्नो पोताना मुखगां प्रवेश करता जोया. तत्काळ जागृत थइ देवीए राजाने ते स्वप्नोनुं फळ पूछy, त्यारे राजाए कज्यु के-" हे प्रिया ! या स्वप्नोथी तने तीर्थकर के चक्रवर्ती पुत्र थशे." पछी प्रभु गर्भमां भाव्या पहेला अनेक शांतिना कर्मवडे पण जे रोगो तथा मरकी चिंगरे उपद्रवो शांत थया नहोता ते प्रभुना प्रभावथी आखा कुरुदेशमां शांत । थइ गया. अनुक्रमे गर्भनो समय पूर्ण थयो त्यारे मध्यरात्रि समये अचिरादेवीए सुखे करीने सुवर्ण जेवा वर्णवाळा अनेक मृगना लांछनवाळा पुत्रने जन्म प्राप्यो. ते वखते त्रणे भुवनमा उद्योत थयो भने नारकीरोने पण क्षण्वार सुख थयु, 'सर्व | * काळे सर्व तीर्थंकरोना सर्व कल्याणकोमा अा प्रमाणे थाय ज छे.' Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते वखते भासन फंपवाया जिनेश्वरको जन्म जाली पण दिगानीलोए शीघ्रपणे त्या आची इतिकर्मी कया. पछी | श्रासन कंपवावडे अवधिज्ञानना उपयोगथी परिहंतनो जन्म जाणी शक इंद्र परिवार सहित स्वामी पासे पाव्या. जिनेश्वरने । नमस्कार करी, जिनेश्वरनी माताने पोतानुं नाम जणाची, तेणीने अवस्वापिनी निद्रा भापी, तेणीनी पासे प्रभुनुं विकुलुं । बीजुं प्रतिबिंब स्थापन करी इंद्रे पोताना पांच रूप काँ. एक रूपवडे जिनेश्वरने पोताना हाथमां लइ, चे रूपयडे चामरने धारण करी, एक रूपबडे प्रभुपर छत्र राखी, तथा एक रूपवडे प्रभुनी भामळ बजने उछाळी ते इंद्र चणचारमा मेरुपर्वतना शिखरपर रहेली अतिपांडुकबला नामनी शिलापर श्राव्या. त्यां शक्र इंद्र पोताना उत्संगमां प्रभुने राखी सिंहासनपर बेठा. ते बखते वीजा वेसठ इंद्रो पण आसन कंपवाथी जिनेश्वरनो जन्म जाणी पीतपोताना परिवार सहित अाव्या. तेमाथी प्रथम श्रच्युतेंद्रे तीर्थनां जळवडे तीर्थकरने अभिषेक कर्यो, अने त्यारपछी अनुक्रमे बीजा सर्व इंद्रोए अभिषेक कर्यो. स्थार. पछी ईशानेंद्रना उत्संगमां प्रभुने स्थापन करी शकई द्रे प्रभुनी चारे बाजुमां चार घृपभो विका, तेमना शींगडामाथी | नीकळेला जळवडे तेमणे प्रभुनु स्नात्र कयु, भने पछी चंदन, पुष्प अने अलंकारवडे प्रभुनी पूजा करी तेमनी स्तुति करी. त्यारपछी जिनेश्वरने प्रथमनी जेम लइ शक्रइंद्रे अचिरा देवीनी पासे जइ मुक्या, श्रने अवस्वापिनी निद्रा तथा प्रभुनुं प्रतिप्रिंय हर्ग लोधु. पछी प्रभुना विनोदने माटे तेमनी उपर उंचे श्रीदामगंडक अने श्रोशीका उपर रेशमी वस्र अने वे कुंडळ मूक्या. पछी “जिनेश्वर अने जिनश्वरनी मातार्नु कोइ पण अशुभ चिंतवन करशे, तेनुं मस्तक प्रार्जकनी मंजरीनी जेम सात प्रकारे भेदाइ जशे." ए प्रमाणे देवताओ पासे आघोषणा करावी तथा कुबेर पासे सुवर्य भने रत्ननी धृष्टि करावी शकइंद्र Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 503+******+******+***** नंदीश्वर द्वीप उपर गया. त्यां परिहंतोनां शाश्वत चेत्पोमां शक्रइंद्र तथा वीजा पण सर्व इंद्रो अष्टाटिका महोत्सव करी पोतपोताने स्थाने गया. हस्तिनापुरम अचिरादेवी जाग्या अपने पुत्रने जोयो त्यारे तेनी दासीओए विश्वसेन राजा पासे जह पुत्रजन्मनी वधामणी व्यापी ते सांभळी राजाए तेमने पुष्कळ प्रीतिदान श्रापी मोटो जन्मोत्सव कर्यो. पछी " या पुत्र गर्भमां हतो त्यारे रोगादिक उपद्रवोनी शांति थइ हती. " एम धारी राजाए तेनुं शांति नाम पाडछु पछी शक्रद्रे अंगुठामां संक्रमाबेला अमृतनुं पान करता अनुपम तेज भने रूपवाळा ते जगत्पति वृद्धि पामचा लाग्या मातापिता ते पुत्रने जोवाथी, आलिंगन करवाथ अ मस्तकपर सुंघवाथी जाये ब्रह्मानंदम मन थया होय तेनुं सुख अनुभववा लाग्या. देवाने पण प्रिय लागे तेवा ते कुमारना मन्मन आलाप सांभळी जाणे अमृतपान करता होय तेम मातापिता अत्यंत आनंद पामवा लाग्या. अनुक्रमे स्वामी मनोहर पगलां भरवावडे जाये जंगम कल्पवृक्ष होय तेम राजमंदिरना आंगणाने शोभाववा लाग्या. चाळकर्ता रूप धारण करीने श्रावेला देवोनी साथै प्रभु मनोहर बाळक्रीडा करता हता. ' बाल्यावस्थामां एबी क्रीडा शोभे ज छे, ' अनुक्रमे पोताना शरीरनो संबंध करवाथी यौवनने शोभावता प्रश्च चाळीश धनुष उंचा थया सता समग्र विश्वने आनंद श्रापवा लाग्या. त्यारपछी मातापितानी श्रज्ञाने लीधे जिनेश्वर यशोमती आदि राजकन्याभोने परण्या ते कन्याओ तेवा पतिने पामी पोताना श्रात्माने धन्य मानवा लागी प्रभु पचीश हजार वर्षना थया त्यारे राजाए प्रभुने राज्य आपी पोते Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 = प्रात्मकार्य साध्यु. त्यारपछी ते शांतिनाथ नामना राजा नीतिथी राज्यर्नु पालन करता सता स्त्रीयो साथे उत्तम भोग भोग| ववा लाग्या. ' भोगफळ आपनारं निकाचित कर्म एज रीते चीय थाय छे.' __एकदा दृढरथनो जीव सर्वार्थसिद्ध विमानथी चवीने यशोमती राणीनी कुक्षिमा अवतो. ते घखते यशोमतीए स्वममा | चक्र जोयु. ते स्वानुं फळ पूछवाधी जगत्पतिए कह्यु के–“हे देवी! तने उत्तम पुत्र थशे." त्यारपछी समय पूर्ण थये राणीए शुभ लक्षणयाळा पुत्रने जन्म प्राप्यो. स्वामीए स्वप्नने अनुसारे तेनुं चक्रायुध नाम पाडयु. ते कुमार अनुक्रमे वृद्धि पामी युवावस्थाने थाम्यो, त्यारे स्वयंवर तरिके प्रायेली घणी राजपुत्रीओने ते परण्यो. श्री शांतिनाथ राजाने राज्य करता पचीश हजार वर्ष व्यतीत थया त्यारे एकदा श्रायुधशाळामां चक्ररत्न प्रगट थयु. ते वखते चक्रनी पूजा करी पछी ते चक्रने मार्गे अनुसरी प्रभुए लीला मात्रमा ज छखंड भरत क्षेत्र साधी लीधुं. बत्रीश हजार राजामोथी जेमना चरणकमळ सेवाता हता एवा श्रीशांतिनाथ चक्री शत्रुप्रोनी शांति करी हस्तिनापुरमा आया. पछी देवोए अने सर्व राजाश्रोए मळीने चार वर्ष सुधी तेमने चक्रवर्तीपणानो अभिषेक कर्यो. पछी अंतःपुरनी स्वीओनी जेम चक्रवर्तीनी लक्ष्मीने भोगवता प्रभुए पचीस हजार वर्ष व्यतीत कर्या. ते बखते लोकांतिक देवोए भावी प्रभुने कर्यु के-“हे स्वामी! धर्मतीर्थ प्रवर्तावो." स्यारपछी प्रभुए वार्षिक दान दीधं अने राज्यने विषे चक्रायुद्धने स्थापन करी सर्वार्थ नामनी शिचीकामा येसी सुरेंद्रो, असुरेंद्रो अने नरेंद्रोए जेमनो दीक्षा महोत्सव को छे एवा प्रभुए सहस्त्राप्रवन नामना वनमा आवी शिविकाथी उतरी ईशान दिशाए रही वखाभूषणनो त्याग करी हजार राजाओ साथे दीक्षा अंगीकार Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -203 करी. तेज बखते प्रभुने मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न धर्यु पछी वायुनी जेम अप्रतिबंधपणे प्रभु पृथ्वीपर विचरखा लाग्या. अनुक्रमे एक वर्षे फरीथी प्रभु तेज सहस्रात्रवनमा पधार्या. त्यां शुक्लध्यानना भाश्रयथी प्रभुने केवळ ज्ञान प्राप्त थयुं. ते बस रानो कंप व केवळ ज्ञान जागी सर्व सुरेंद्रो तथा सुरेंद्र पोतपोताना परिवार सहित प्रावी मनोहर श्रेण प्राकारबाळूं समवसरण रच्युं तेमां पूर्वद्वारे प्रवेश करी पूर्वाभिमुखे सिंहासनपर प्रभु बिराज्या. ते वखते व्यंतरोए प्रभुना ज माहात्म्यथी बीजी त्रय दिशाए प्रश्नां त्रण रूप चिकुर्या उद्यानपाळोए चक्रायुध राजा पासे जड़ प्रभुना केवळज्ञाननी वधामणी आपी. तेओने पुष्कळ प्रीतिदान श्रापी चक्रायुध राजा अत्यंत उत्सुकताथी प्रभु पासे सर्व परिवार सहित या. त्यां विधिपूर्वक प्रभुने वांदी तेथे एक चिने स्वामीनी मधुर देशना सांभळी. देशनाने ते प्रभुने नमस्कार करी चक्रायुध राजाए कह्युं के " हे स्वाभी ! करुणारूपी अमृतना सागर समान आपना दर्शन मने आजे थय ते मारुं ग्रहो भाग्य छे. या छळनी गवेषणा करनार संसाररूपी राजसथी हुं अत्यंत मय पाम्यो लुं तेथी मने दीक्षारूपी रक्षा आपने मारापर अनुग्रह करो. " श्रा प्रमाणे तेथे विज्ञप्ति करी त्यारे प्रभु तेने अनुमति आपी, एटले राजाए पोताना राज्यपर पोताना पुत्रने स्थापन करी पात्रीश राजाओं सहित जिनेश्वर पासे आवीने दीक्षा अंगीकार करी. ते छत्रीश मुनिओने श्री शांतिनाथे गणधरो कर्या. ओए त्रिपदीने अनुसारे द्वादशांगी रवी ते वखते बीजा पण धरणा जनाए दीक्षा ग्रहण करी केला श्राद्धधर्म अंगीकार कर्यो. ए प्रमाणे जिनेश्वरे चार प्रकारना तीर्थनी स्थापना करी. त्यार पछी आकाशमां १ समवायांग सुवमां श्री शांतिनाथना नेव गणधरो का ने आवश्यक आदि घणा ग्रंथोमां छत्रीश कहेला छे. सत्य बात शनीगम्य. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यनी जेम कुमत-मिथ्यात्वरूपी अंधकारनो नाश करता भने भव्य प्राणीमोरूपी कमळोने विकस्वर करता स्वामी चिरकाळ | | मुधी पृथ्वीपर विचर्या. ___श्री शांतिनाथ स्वामीने बासठ हजार साधुओ, एकसठ हजार भने छ सो साध्वीओ, बे लाख ने नेवु हजार श्रावको Hi तथा ऋण लाख ने त्राणुं हजार श्राविकामो, एटलो गुणना सागर समान चतुर्विध संघनो परिवार थयो, ते चार दिशामा चार प्रकारना धर्मनी प्रभावना करनार हतो. दीक्षाना दिवसथी पचीश हजार वर्ष गया त्यारे भगवान विहारना क्रमे || संमेतशिखरपर पधार्या. त्यां भगवाने नव सो साधुश्री सहित अनशन ग्रहण कयु, अने एक मासे शांतिनाथ स्वामी सिद्धि पदने पाम्या. पचीश हजार वर्ष कुमारपणामां, पाश हजार मांडलिकपणामां, पचीश हजार चक्रवर्तीपणामां अने पचीश | हजार वर्ष चारित्रमा ए रीते परिपूर्ण एक लाख वर्षतुं प्रभुनु प्रायुष्य हतुं. त्रण जगतना दुःखने शांत करनार श्री शांति| नाथना निर्वाणनो महिमा सुरेंद्रोए अने असुरेंद्रोए आवीने कर्यो. अनुक्रमे केवळज्ञान पामेला श्री चक्रायुद्ध गणधर पण सिद्धिवधूने वर्या. इति श्रीशांतिनाथ चरित्र. इक्खागरायवसभो, कुंथ नाम नैराहियो । विक्खायकित्ती भयवं, पेत्तो गैइम[त्तरं ॥ ३९ ॥ अर्थ-(इक्खागरायवसभो) इक्ष्वाकु वंशना राजाभोमां वृषभ समान (कुंथू) कुथु (नाम) नामना (नराहियो) चक्रवर्ती Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *&£&*• →→**←→←→ 1-1 राजा थया, ते (विक्खायकित्ती) विख्यात है कीर्ति जेनी एवा (भय) भगवान एटले तीर्थकर थइने (अणुत्तरं गई ) अनुत्तर गतिने एटले मोक्षने ( पत्तो ) पाम्या. २६. श्री कुंथुनाथनुं संक्षिप्त चरित्र. या जंबूद्वीपने विषे पूर्वमहाविदेह क्षेत्रमां आवर्त नामना विजयमां खड्‌ग नामनी नगरी छे. तेमां सिंहावह नामे राजा हतो. ते एकदा चैराग्य पामी श्रीसंवराचार्यनी पासे दीक्षा ग्रहण करी. जिनसेवादिक वीश स्थानकोनी सेवाथी तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन कर्यु. चिरकाळ सुधी पवित्र चारित्रनुं अतिचार रहित पालन करी ते अनशन ग्रहण करी आयुष्यने छेडे काळधर्म यामीने सर्वार्थसिद्ध विमानमां देव थया. जंबूद्वीपना भरतक्षेत्रमां हस्तिनापुर नामनुं पुर छे. तेमां सूर नामे राजा हतो अने तेने श्री नामनी प्रिया हती. एकदा ते सिंहावन जीव सर्वार्थसिद्ध विमानमाथी चव श्रीदेवींनी कुक्षिमां अवय- ते वखते राणी चौद शुभ स्वमो जोय. अनुक्रमे ते देवीए छागना चिन्हबाळा अने कांचन जेवा ववाळा पुत्रने जन्म आप्यो. ते वखते आसनकंपथी जिनेश्वरनो जन्म जाणी छप्पन दिकुमारी श्रोए श्री सूतिकर्म कर्यु पछी सर्व इंद्रोए आवी मेरुपर्वत पर लड़ जर प्रभुनो जन्माभिषेक कर्यो. पीर राजाए पण पुत्रजन्मनो महोत्सव कर्यो. पछी श्रा प्रभु गर्भमां श्राव्या त्यारे राजाना सर्व शत्रुओं कुंथु जेवा एटले अल्पसत्ववाळा थइ गया, तथा माताए स्वममां कुस्थ एटले पृथ्वीपर रहेला रत्नना स्तूपने (संचयने - ढगलाने) जोयो हतो, तेथी महोत्सव पूर्वक राजाए तेमनुं कुंथु नाम पाडधुं. अनुक्रमे सर्व उत्तम गुणोना आधाररूप ते भगवान वृद्धि DKC6*-- Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामी युवावस्था पाम्या, त्यारे राजाए तेमने धणी राजकन्यानो परणावी, तथा तेमने राज्य सौंपी पोते दीक्षा ग्रहण करी. कुंथुराजा राज्य करता हता तेवामा एकदा आयुधशाळामा चक्ररत्न उत्पन्न थयु. तेनी पूजा करी तेना मार्गने अनुसरी कुंथुराजाए भरतना छ खंड साध्या. पछी स्त्रीरत्ननी जेम चक्रवतीनी लक्ष्मी तेणे चिरकाळ सुधी भोगवी. एकदा लोकांतिक देवोए तीर्थ प्रबर्ताववा बोध करेला कुंथुस्वामीए पोताना पुत्रने राज्य सोपी वार्षिक दान दइ देवेंद्रो अने नरेंद्रोना करेला उत्सव सहित शिविकामां आरूढ थइ सहस्राम्रचना जइ हजार राजाओ सहित चारित्र ग्रहण कर्य. ते ज वखते तेमने मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न थयु. पछी ते प्रभु भारंड पक्षीनी जेम अप्रमत्तपणे पृथ्वीपर विहार करी सोळ वर्षे फरीथी ते ज सहसाम्रबनमा आध्या. त्यां घानीकोनो क्षय भता लामीले देवालान प्रा यु. एटले सर्व इंद्रोए प्राची समवसरण रच्यु, तेमा पूर्व सन्मुख सिंहासनपर बेसी पांतीश धनुपनी कायाचाळा प्रभुए पत्रिीश गुणवाळी मधुर वाणीवडे देशना देवानो प्रारंभ कर्यो, ते देशना सांभळी घणा जनाए प्रभु पाते प्रव्रज्या ग्रहण करी. तेमांधी श्रीजिनेश्वरे पात्रीश गणधरो स्थापन कर्या. भगवा*नना परिवारमा साठ हजार मुनिश्री. साठ हजार ने छसो साध्वीश्रो. एक लाख ने ओगणाएंशी हजार था |लाख ने एकाशी हजार श्राविकाओ मा प्रमाणे प्रभुने चतुर्विध संघ थयो. कुंथुनाथ प्रभुर्नु कुल आयुष्य पंचाणु हजार वर्षेनुं | ना हतुं. तेमां कुमार अवस्थामां, मांडलिकपणामां, चक्रवर्तीपणामां अने चारित्र पर्यायमा समान अशे एटले के पोणी चोवीश || हजार वर्षों दरेकमा पसार कर्या. छेवट हजार मुनिओ सहित समेतशैलपर जइ एक मासना अनशनवडे प्रभु मोक्षे गया. पछी देवेंद्रोए प्राची प्रभुना निर्वाण कन्याणकनो महोत्सव कों, इति कुंथुनाथ कथा. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरतं चइत्ता गं, भैरह नरेवरीसरो । अॅरो वि अयं पत्तो, पैत्तो गईमणुत्तरं ॥१०॥ अर्थ-( सागरते ) समुद्रपर्यंत मर्यादावाळा ( भरहं ) भरतक्षेत्रने ( चइता णं ) तजीने ( अरो वि ) अर नामना ( नरवरीसरो) नरेश्वर चक्रवर्ती (अयं ) रजना एटले कर्मना भावने (पत्तो) पाम्या सता (अणुत्तरं गई ) अनुत्तर गतिने एटले मोक्ष गतिने ( पचो ) पाम्या छे. ४०. ___अरनाथनी संक्षिप्त कथा. __आ जंबूद्वीपना पूर्वमहाविदेह क्षेत्रमा वत्स नामना विजयमा मुसीमा नामनी परी छे, तेमां निःसीम पराक्रमबानो * धनपति नामे राजा हतो. तेणे एकदा संवर मानना मुनि पासे दीदा प्रहरी करी. अरिहंत श्रादि वीश स्थानोना सेवनबडे | तेमणे जिननामकर्म उपार्जन कयु. चिरकाळ सुधी तीन तप करी उत्तम वतन पालन करी छवट अनशनवडे काळ धौ पामी नवमा ग्रेवेयकने विषे ते राजर्षि श्रेष्ठ देवपणे उत्पन्न थया. आ जंबूद्वीपना भरतक्षेत्रमा हस्तिनापुर नगरने विप जेनुं दर्शन लोकोंने अानंद आपना छे एवो सुदर्शन नाने राजा हतो. तेन देवीना जेवी सुंदर देवी नामनी राणी हती, एकदा ते धनपतिनो जीव नवमा अवेयकथी चवीने देवीनी कुक्षिमा अवतों. ते बखते देवीए चौद महास्यमो जीया. अनुक्रमे त्रण ज्ञानने धारण करनार गर्भ पण वृद्धि पामवा लान्या. समय पूर्ण थये नंदावना चिन्हवाळा अने कांचनवर्णवाळा पुत्रने देवीए जन्म आयो, ते जासी दिक्कुमारीओए श्रावी तेनुं सूतिकर्म कएँ, भने देवेंद्रोए भावी मेरुपर्वतपर लइ जइ जन्मोत्सव कर्यो, प्रभू माताए स्वममा रत्नना भर-चक्रना भारा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ khadka दीठा हता, तेने मनुसरीने राजाए महोत्सवपूर्वक पर नाम पाहपुं. ते प्रभु अनुक्रमे वृद्धि पामी श्रीश धनुषनी कायावाळा पा युवावस्था पाम्या. ते वखते राजाए तेमने घणी राजकन्याओ परणाबी. एकदा पितानी आज्ञाधी प्रमुए राज्यधुरा अंगीकार करी. पछी चक्रादिक रत्नो उत्पन्न थवाथी तेमणे भरतना छे खंड साधी प्रासक्ति रहितपणे जेम योगी भोजन करे तेम चक्रवर्तीनी लक्ष्मीने भोगवी. एकदा लोकांतिक देवोए तीर्थ प्रवर्तावचा बोध को त्यारे ते प्रभुए संवत्सरी दान प्राप्युं. पछी पुत्रने विषे राज्यनुं स्थापन करी शित्रिकामा प्रारूढ थइ सुर, असुर अने मनुष्योना परिवार सहित सहसाम्रबनमां गया. ते बखते तेमने चोधुं मनःपर्यव ज्ञान प्राप्त थयुं. पछी सिंहनी जेम भय रहित पृथ्वीपर विचरता प्रभु अनुक्रमे त्रण वर्षे फरीथी ते ज सहसाम्रवनमां आव्या. त्यां प्रभुने केवलज्ञानरूपी सूर्यनो उदय ययो, एटले सर्व देवेंद्रोए प्राची समवसरण रन्युं. तेमां पूर्वाभिमुखे सिंहासनपर बेसी एक योजन विस्तारवाळा सर्व भाषाने अनुसरनारी वाणावडे जिनेश्वरे धर्मनो उपदेश याप्यो. ते सांभळी अनेक मनुष्योए जिनेंद्र पासे चारित्र ग्रहण कयु. तेमांधी स्वामीए तेत्रीश गणधरो स्थाप्या.मरनाथस्वामीने कुल पचास हजार साधुनो साठ हजार साध्वीओ, एक लाख चोराशी हजार श्रावको श्रने त्रण लाख ने बोतेर हजार श्रावि. काओनो परिवार थयो. ा प्रमाणे भव्य प्राणीमोनो अनुग्रह करवा माटे पृथ्वीपर विचरता प्रभुने गुणरूपी मणिमोनो निधानरूप चतुर्विध संघ थयो. कुमारपणां श्रादिक चार स्थानोमा थइने समान भागे भगवंते कुल चोराशी हजार वर्षेनु | आयुष्य व्यतीत कर्यु छवटे पोतानो निर्वाण समय जाणी प्रभु संमेतशैल पर्वतपर जइ हजार साधुओ सहित अनशन करी HT १ मारपणामा, मंडलिकपणामां, नकवीपणामां ने चारित्रपर्मामा . Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक मासे मोक्षपद पाया. ते चखते सर्व देवेंद्रो भावी प्रभुना निर्वाण कन्यानी महिमा कयों. इति श्री अरनाथ कथा. चता भारहं वा चक्की महिडीओ | चईता उत्तमे भोष, महापडमो तवं चैरे ॥ ४१ ॥ अर्थ - ( मारहं वासं ) भरत क्षेत्रनो ( चइता ) त्याग करी तथा ( उत्तमे भोए) उत्तम भोगोने ( चइत्ता ) वजी ( महापमो ) महापद्म नामना (महिडीओ) मोटी ऋद्धिवशळा ( चक्काट्टी ) चक्रवर्तीए पण ( तवं चरे ) तपनुं श्राचरण कर्यु - घरित्र ग्रहण कर्यु. ४१ महापद्म चीनी संक्षिप्त कथा. श्री जंबूद्वीपना भरत क्षेत्रने विषे श्रीहस्तिनापुर नामनुं पुर छे. तेमां इक्ष्वाकु वंशरूपी सरोवरमा पद्म समान पद् मोत्तर नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने ज्वाळा नामनी जिनधर्मने विषे रक्त राखी इती. तेणीने सिंहना स्वप्नथी after at विष्णु नामे एक पुत्र थयो, तथा बीजो लक्ष्मीना घररूप महापद्म नामे पुत्र थयो बीजो पुत्र गर्भमां काव्यो त्यारे तेनी माता चौद महास्वप्नो जायां हर्ता. ते बम कुमारी अनुक्रमे वृद्धि पामी कळाचार्य पासे समग्र कळानो समूह fit अनुपम शोमाना मित्र समान बीजी वयने एटले युवावस्थाने पाम्या, तेमां महापद्मकुमार पधारे पराक्रमी द्रोपाथी पमोचर राजाएं देने युबराज पदवी आपी. कारण के ब्राह्मणोमां जे बुद्धिमान होय भने चत्रियोमर्श के अपने 12 ****-•**•1. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीते एक से ज प्रशंसा थे. अवसरे उज्जयिनी नगरीमा श्रीवर्मा नामे राजा राज्य करतो हतो. देने वितंडाबाद करवामां चतुर भने नास्तिक एवो नमुचि नामनो प्रधान इतो. एकदा ते नगरीनी बहार उद्यानमा मुनिसुव्रत स्वामीना शिष्य सुव्रत नामना सूरिराज पधार्या तेमने नमवा माटे जता लोकोंने जोइ प्रासाद उपर बेठेला राजाए ' या लोको क्या जाय के ? एम नचिने पूछयुं त्यारे नमुचिए जबात्र आप्यो के" हे देव ! आजे नगरीनी बहार उद्यानमा कोइ साधु आवेला के, नवा माटे तेना भक्तजनो जाय छे." ते सांभळी राजाए कयुं के " त्यारे आपये पण त्यां जहए. " त्यारे नमुचि बोल्यो के " जो जनुं होष तो चालो जइए. परतुं त्यां आपे तो मध्यस्थ ज रहेनुं हुं ज ते सर्व पाखंडीभोने वादमां जीती " त्यारे राजा ' बहु सारुं ' एम कही मंत्री सहित उद्यानमा गया. या नमुचिए सुनिने कधुं के " जो तमे धर्मने जाणता हो तो कहो. " ते सांभळी ' मा कोइ नीच माणुस थे. ' एम जाणी आचार्य महाराज मौन रह्या, त्यारे ते प्रथम मंत्री जिनशासननी निंदा करतो आचार्यने उद्देशीने बोल्यो के-" आ तो बळदीया जेवो थे, तेने धर्मनी शी खबर पडे ?" ते सांभळी गुरु चोन्या के - " जो तारा मुखमां खरज भावती होय तो अमे कांहक बोलीए. " था प्रमाणे गुरु बोल्या त्यारे तेमना एक क्षुल्लक साधुए गुरुने कथं के" हे पूज्य ! या घृष्टनी साधे भापने जाते बोलधुं योग्य नथी, सेन हुं ज जीतीश. ते पोतानो जे पच बोलवो होय ते भले बोले. " ते सांभळी नमुचि क्रोधथी बोल्यो के-“ जेभो वेदधर्मथी बरा होय पाने शौचधर्मथी रहित होष तेमने देशम वसबा देवा ज योग्य नथी. ए मारो पक्ष के. " ते सांभळी क्षुल्लक साधुए क के लड़श. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अहो ! वेदमा पाणीनो घडो (पाणीया), चूलो, सावरणी, घंटी भने सारणीयो ए पांच शूना एटले प्राणीमोना रष-] स्थानो कहेला छे. तथा जेभो आ पांच शूनाने सेवनारा होय तेज वेदवाय कंहवाय छ, अमे तो ते पाचथी रहित छीए, तो | कम घेदवाह्य कहेवाइए ? तथा अत्यंत अशौच तो मैथुन कडेवाय छे, ते मैथुननी जे सेवा करे तेने अशुचि कहेलो छ, भने । || अमे तो ते मै पुनथी विराति पामेला छीए, तेथी अमे अशुचि केम कहेवाइए ? " पा रीते ते मंत्रीने भुलके निरुत्तर कर्यो, | तथी ते मंत्री साधुओ उपर मोढुं वैर धारण करी राजा सहित धेर गयो. पछी रात्रीए मुनिने हणवा माटे क्रोधी मंघ । lथयेलो ते नमुचि उद्यानमा गयो, त्या जेटलामा ते दुष्ट नमुचि मुनिने हणवा जाय छे, तेटलामा मुनि उपर मक्तिवाळी देवीए |* तने स्तभित कर्यो. प्रातःकाळे तेवी स्थितिमा तेने जोइ सर्वे नगरना जनो तथा राजा पण विस्मय पाम्या. पछी सरि पासेथी धर्मनुं श्रवण करी ते सर्वे उपशमने पाम्या. सर्व लोकोए नमुचिनी अत्यंत निंदा करी, तेथी ते बहुज ला पाम्यो. | देवीए तेने मुक्त कर्यो एटले ते त्यांथी नीकळीने हस्तिनापुरमा गयो. त्यां ते महापद्म युवराजने मळयो, भने पूर्वना पुण्यथी । तेनो मंत्री थयो. अहीं हस्तिनापुरना राज्यना सीमाडामा दुर्गम एवा दुर्ग (किल्ला) नो पाश्रय करीने रहेलो सिंइनी बेवा उत्कट पराक्रमवाळो सिंहयळ नामनो राजा हतो. ते वारंवार पद्मोत्तर राजाना देशमा धाड पाडीने पोताना दुर्गमा पेसी जतो इतो. तेथी तेने कोइ पकडी शकतो नहोतो. एकदा क्रोध पामेला पोतर राजाए नसुचिने पूछयु के-"मा सिंहवळने प. कडवानो कोड पण उपाय तुं जामो के ?" त्यारे नमुचिए हा कही. पछी महापचनी माज्ञायी ते नमुचि शीघ्रपणे सैन्य Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथे त्यां जइ तेना दुर्गने मांगी तेने बांधीने लइ भाग्यो. ते जोइ हर्ष पामेला महापये नमुचिने का के-" तारी इच्छामा आवे ते माग." नमुचिए कह्यु-" हे स्वामी ! समय भाये हुं मागीश." मा प्रमागमे तेना वचनने महापये अंगीकार कर्यु. पछी महापो चिरकाळ सुधी युवराज पदवीनुं पालन कयु. एकदा महापद्मनी माता ज्वाळादेवीए जैनरथ कराग्यो. ते वसते तेनी सपत्नी लक्ष्मी के जे मिथ्यादृष्टि हती तेणे ब्रह्म- | | रथ कराव्यो. पछी ते लक्ष्मीए राजाने कधु के-"पा मारा ब्रह्मरथन नगरमा पहेलो भमाडो." ते जाणी ज्वाळादेवीए राजाने कहां के " जो मारो जैनरथ नगरमा पहलो नहीं भने तो हु प्रशन करीश," सांभळी वझे राणीओने क्लेश न थाय एवा हेतुथी राजाए बनी रथयात्रानो निषेध कर्यो. सेथी ज्याळादेवीने महा दुःख था. ते जाणी महापने अत्यंत | लातुर थइ विचायु के-" मारी जेबो पुत्र छतां जेम जुस माणसनी लक्ष्मी पृथ्वीमा विलय पामे तैम मारी मातानी इच्छा * मनमा ज लय पामी जाय, भने जे पुत्र शक्तिमान छतां मातानां शुभ मनोरथने पूर्ण न करे, ते सत्पुत्रपणानुं अभिमान शी रीते करी शके १ वळी पिताए पण मारी मातार्नु काइपण विशेष मान राख्यु नहीं. बीजी राणीयो समान ज गणी. तेथी मानी एवा मारे मान विना अहीं रहे योग्य नथी. " एम विचारी रात्रिए सर्व लाको सुता हता, त्यारे ते पोताना | पुरमाथी नीकळी स्वेच्छाए पृथ्वीपर भ्रमण करतो एक अरण्यमा तापसोना श्राश्रममा गयो. त्यां तापसोए तेनो सारो सत्कार कर्यो, तेथी ते महापम पोताना घरनी जेम मुखे करीने त्यां ज रह्यो. मा पचसरे चंपा नामनी नगरीमा जनमेजय नामे राजा इसो. तेने काळ नामना राजाए लडाइमा हरायो, तेथी Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते नाशी गयो. त्यारे काठ राजाना सैनिकोए चंपानगरी मांगी, ते वखते सर्व लोको सर्व दिशाओमां नाशी गया. अंतःपुरनी स्त्रीमो पण कोह रक्षक नहीं होवाथी पाकुळ व्याकुल थइ. वेमा चंपापतिनी राणी नागवती पोतानी पुत्री | मदनावळीने साथे लइ नाशीने ते ज तापसना माश्रममा भावी के ज्यो महापद्म रहेलो हतो. त्या महापम अने मदनाने | परस्पर दर्शन थता लाने मंद करनारो परस्पर राग-प्रेम थयो. ते जाणी नागवतीए मदनावळीने कर्यु के-" हे पुत्री ! ते पुरुषने जोड़ तेनापर तुं राग लेम करे ले ? तुं चक्रवर्तीनी मुख्य स्त्री थवानी छे एवं ज्ञानीनुं वचन शुं तुं भूली गइ के जेयी भावी रीते उत्सुक थाय के ?"श्रा जारीते कुलपतिए पण मदनावळीने कवृं, तो पण 'पा बन्ने परस्पर रागी थवाधीन काइक उपद्रव करशे' एम धारी कुलपतिए पद्मने करघु के-" तुं तारी इच्छा होय त्यां जा." ते सांभळी मना काइक दुःख पामी पन त्याथी नीकळी गयो. 'प्रियजननो वियोग मोटा पुरुषोने पण दुखदायक होय छे.' पछी पो विचार कों के-"हुँ चक्रवर्ती थवानो छु, तेथी भा मारी ज स्त्री थशे, तो हुँ क्यारे प्रा भरतक्षेत्रने साधी देने परणीश ? तथा । अरिहंतनां चैत्योवडे समग्र पृथ्वीने भूषित करी मारी मातानो रथयात्रानो मनोरथ हुं क्यारे पूर्ण करीश ? " मा प्रमाणे मनोरथरूपी रथपर भारूढ थयेलो ते राजपुत्र फरतो फरतो श्रीसिंधुनंदन नामना पुरना उपवनमा गयो. ते वखते ते उद्यानमा उजाणी करना माटे नगरना जनो आवेला इता तथा स्त्रीभो पण आवेली हती. तेवामा ते पुरना महासेन नामना राजानो पसहस्ती पालान स्तंभने उखेडी नगरमा तोफान करी ते उद्यानमा भाष्यो भने जाणे रोगी व्याकुल थयो होय तेम ते नगरनी स्त्रीभो सन्मुख दोख्यो, तेने भावतो जोर भयभीत थयेली श्रीमो नासबाने शक्तिमान नहीं होवाची बुम पाडवा Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन . || *****@*****»*→>***< Adke लागी के - " से कोई नहीं वीर पुरुष होय ते अमायं रचण करो.” म प्रमाणे तेमनी बूम सांगळी पद्मकुमार एकदम हाथी तरफ गयो भने तेथे तेनी तर्जना करी. त्यारे ते हाथी पण पाछो बळी कुमार तरफ दोडयो. तेने आवतो अटकावणा माटे कुमारे तेनी सन्मुख पोतानुं उत्तरीय वस्त्र फेंक्युं ते वस्त्रने मनुष्य घारी क्रोधांध थयेलो हाथी तेनापर दंखप्रहार करवा लाग्यो. तेवामां त्यां स्त्रीोनो कोळाहळ सांभळी पुरजनो एकठा थया हता तथा महासेन राजा पण सामंतो ने मंत्रीभो सहित आनी पाँच्यो हतो. तेथी ते राजाए उंचा हाथ करी कुमारने कछु के- " हे वीर ! यमराजनी जेवा क्रोध पामेला हाथीथी तुं शीघ्र पाछो हरी जा. " ते यांनी पदमारे धुं के- 64 हे महाराजा ! एक चरणवार स्वस्थ चिते जुआ. इमां ज आ मदोन्मत्त हाथीने त्रीनी जेम हुं वश करी लउं कुं." एम कही कुमारे एकज झुठीना प्रहारथी ते हाथीनुं सुख नमावी दीधुं, एटले ते हाथी वखने राजी कुमारने पकढवा उंचो थयो, तेटलामां वीजळीनी जेम फलंग मारी कुमार तेनापर डी गयो, भने ते चिरकाळ सुधी हाथ, पगना अंगुठा अने वचनरूपी अंकुशवडे ते हाथीने अत्यंत खेद पमाडयो, एक नाना हाथीना बच्चानी जेम ते मत हाथीने क्रीडा करावता ते कुमारने जोइ सर्व लोको तथा राजा पण अत्यंत माश्वर्य पाया. या रीते से हाथीने वश करी कुमारे तेना मागतने सोंप्यो, अने पोते पर्वतपरथी सिंहनी जेम हाथीपरथी नीचे उत ते कुमारनुं रूप ने पराक्रम जोह राजाए तेने श्रेष्ठ कुळनो पुत्र जाएयो, तेथी तेने बहुमानपूर्वक पोताने त्यां लह गयो. त्यां तेर्नु मोढुं गौरव करी राजाए तेने पोतानी सो कन्याओ परथावी. 'भावो जमाइ अगराप पुण्यवडे ज प्राप्त थाय 'पी ते राजपुत्री साथै स्वेच्छाए क्रीडा करता छतां पण ते कुमार मदनावळीने भूली गयो नहीं. 'कदाच ममरो CO*•»***<-»jok+-+X @ ** Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लविंगलवाना पुप्पोनो भोग करे तो पण झुं ते कमलिनीने भूले ? न ज भूले.' एकदा पद्मकुमार रात्रिए सुखे सुतो इवो, सेवामा वेगवती नामनी विद्याधरीए तेनुं हरण कयु. ते जाग्यो त्यारे | तेणे पोतानी मूठी दृढ रीते गांधीने “अरे!कश छ :" म तेनहो गई. बाले से बोली के-" हे वीर ! तमारु | में हरण कर्यु छ, पण तेनुं कारण सांभको, क्रोधन करो. पैताढ्य पर्वत उपर सूरोदय नामर्नु श्रेष्ठ नगर छे. तेमा इंद्रधनु a नामे राजा राज्य करे छे. तेने श्रीकांता नामनी प्रिया छे. तेमने जयचंद्रा नामनी मनोहर पुत्री छे. ते पुत्रीने योग्य पति नहीं मळवाथी ते पुरुषद्वेषिणी थइ छ. 'जो स्त्रीओने पोताथी हीन पति मळे तो ते अत्यंत दुःखदायक छ. ' पछी में मरतक्षेत्रना समग्र राजाभोना स्वरूपो चीत्री चीत्रीने तेणीने बताव्या, परंतु तेणीने कोइ पण रुच्यो नहीं. एकदा में तमारु स्वरूप आळेखीने तेने बताच्यु, ते जोइ भयस्कांत मणि जेम लोढार्नु भाकर्षण करे तेम तमारा स्वरुपे तेणीना मनन | पाकर्षण कयु. पछी तमारी प्राप्ति दुर्लभ जाणीने तेणीए प्रतिज्ञा करी के-"जो आ पति मने नहीं मळे तो हूं भग्निमां FI प्रवेश करीश." भावी तेणीनी प्रतिज्ञा में शीघ्रपणे तेणीना मातापिताने कही, तेथी पानंद पामीने तेस्रोए तमने लाववा * मने मोकली. ते कन्याने धीरज पवा माटे में तेनी पासे प्रतिज्ञा करी के-"जो ते पदमकुमारने न लावू तो अमिमा | प्रवेश करूं." एम कहीने हु अहीं भावी भने ते पद्मिनीने आनंद पमाडवा माटे प्रभाकर (सूर्य) समान तमने हु लइ जाउं छु. तमे ज तेणीना अने मारा जीवितरूप छो, तेथी तमे प्रसन्न थानो." मा प्रमाणे ते वेगवतीना मुखथी हकीकत सभिळी कुमारे तेनी इच्छा प्रमाणे करवानी मनुझा पापी, एटले ते तेने सूरोदय पुरमा लइ गइ. प्रातःकाळे सूर्यनी जेम ते Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 कुमारनी इंद्रधनु राजाए पूजा करी. त्यारपची " जे विधाताए भाने उत्पन्न कर्यो के तेनी हुं अनृण ( देवा रहित ) केवी रीते थाउं ? " एम विचार करती जयचंद्राने ते कुमार विधिथी परण्यो. श्रा अवसरे ते जयचंद्राना मामाना पुत्री गगाधर अने महीधर नामना विद्याधरो के जेओ महाविद्यावाळा हता *|| अने जयचंद्राने परणवा इच्छता इता, तेश्रोए पद्मनी साथे परणेली तेणीने सांमळी, तेथी तेश्रो क्रोध पामी युद्ध करवा ॥ तैयार थइ सर्व सैन्य सहित सूरोदय पुरमा प्राध्या. ते जाणी महा पराक्रमी पदमकुमार पण विद्याधरना सैन्य सहित पुर | बहार नीकळी तेमना सैन्य साथे युद्ध करवा लाग्यो. युद्ध करता पद्मकुमारनी सन्मुख कोइ पण रथी, अश्ववार, हस्तीस्वार के पदाति रही शक्यो नहीं. नैर्ऋत दिशाना वायुवडे वादळांनी जेम पद्मकुमारवडे चोतरफ पोतानुं सैन्य वीखरायेखें जोइ ते बने खेचरो नाशी गया. त्यारपछी पद्मकुमारने त्यां ज चक्र विगेरे रत्नो उत्पन्न थयां, तेने अनुसारे तेणे भरतना छ खंड लीला मात्रथी साधी लीधा. एक स्त्रीरत्न विना सर्व चक्रीनी संपदाने ते पाम्यो, तो पमा मदनावळी विना ते सर्व संपत्तिने पद्मराजा निम्सार मानवा लाग्यो. एकदा पद्म चक्री क्रीडाथी फरता करता ते तापसना भाश्रममा प्राच्या. त्यां तापसोए फळ, पुष्पादिकपडे सेनो सारो सत्कार कर्यो. तेवामा जनमेजय राजा पण फरतो फरतो त्यां ज भावी चहयो. तेणे हर्षथी पोतानी मदनावळी पुत्रीने पद्मचक्री साथे परणावी. स्यारपछी संपूर्ण चक्रवर्तीनी लक्ष्मीने धारण करता पद्मचक्रीए पोवाना नगरमा जा हर्षयी मातापिताने नमस्कार Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्या. तेने भावी समृद्धिवाळो जोइ तथा तेनुं अद्भुत चरित्र सांभळी तेना मातापिता पण अत्यंत हर्ष पाया. श्रा अवसरे श्री सुव्रतस्वामीना शिष्य सुव्रत नामना आचार्य विहारना क्रमथी ते नगरनी बहार घ्याव्या. तेमनुं श्रागमन सांभळी पद्मोसर राजा परिवार सहित तेमनी पासे गया. गुरुने वांदी तेमना मुखथी मोहरूपी हिमनो नाश करवामां सूर्यनी प्रभा जेवी धर्मदेशना सांभळी राजाए हाथ जोडी कशुं के " हे पूज्य ! हुं मारा पुत्रने राज्यपर स्थापन करी व्रत चारित्र ग्रहण करवा हीं सुधीर कृपा करवी. " ते सांभळी सूरिए क के - " हे राजा शुभकार्यमां विलंब करो नहीं. " आ प्रमाणे गुरुनुं वचन अंगीकार करी राजा नगरमा गया. त्वां मंत्रीओ अने सामंतो विगेरे सर्व परिवारने तथा विष्णु नामना मोटा पुत्रने बोलावी पद्मोत्तर राजाए कछु के- “ श्री सुव्रत नामना आचार्य पासेथी संसारनी असा रता सांभळीने आलो काळ में व्रत विना निष्फळ गुमाव्यो एम हुं मानुं खुं. तेथी आजे ज हुं ते पूज्य गुरुनी पासे व्रतनो स्वीकार करीश, तेथी आ मारा राज्यपर महा पराक्रमी एवा विष्णुकुमारने हूं स्थापन करूं . " ते सांभळी तत्काळ विष्णुकुमारे नत्रताथी कके" हे पिता ! किंपाकना फळ जेवा था भोगोवडे मारे सर्यु पापकर्मनो नाश करवा माटे हुं पण तमारी साथै ज दीक्षा ग्रहण करीश. " ते सांभळी राजाए पद्मने बोलावी आग्रहथी कछु के-" हे पुत्र ! भ्रा राज्य तुं ग्रहण कर. " त्यारे पद्मे कहां के " हे प्रभु! आ प्रभावबाळा मारा मोटा भाइ विष्णुने राज्याभिषेक करो ने हुं तो तेनुं युवराज अंगीकार करीश. " ते सांभळी राजाए कहूं- " हे कुशळ पुत्र ! तेने तो प्रथम ज में राज्य लेवानुं कं, परंतु ते ग्रहण करवा इच्छतो नथी. पण मारी साथे दीक्षा लेवा इच्छे थे. " ते सांभळी पद्म कांड मोज्यो नहीं, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HF ***4-280** एटले राजाए वेनो राज्याभिषेक कर्यो. पछी मोटा उत्सवपूर्वक सुबत भाचार्यनी पासे जइ पत्मोत्तर राजाए विष्णुकुमार * सहित दीक्षा ग्रहण करी. त्यारपछी पद्म चक्रीए माताना हर्षने माटे जैनरथने आखा नगरमा फेरव्यो. तेने सर्व पौरजनोए पूज्यो. ते चक्रीए | पोताना वंशनी जेम जिनशासननी उन्नति करी, तेथी घणा भव्य प्राणीमओए जैनधर्म अंगीकार कर्यो. जैनधर्मना परम भक्त चक्रीए दरेक गाम.नगर, पुर अने आकर विगेरे स्थळे उंचां करोडो जिनचैत्यो कराच्या ___केटलेक काळे पद्मोत्तर राजपि केवळज्ञान पामो मोक्ष गया, मने विष्णुकुमार मुनि उग्र तपस्या करी अनेक लब्धियो पाम्या, तेथी ते पोतानु शरीर मेरुनी जेवू (लाख योजन) उंचु-मोटुं करवा शक्तिमान हता, गरुडनी जेम आकाशमा उडी | शकता हता, देवनी जेम अनेक रूप विक: शकता ता अने कामदेवी पण अधिक पोतानुं शरीर रूपवान करी शकता । हता. इत्यादिक अनेक शक्तिमो ( लब्धियो ) तेने प्राप्त थइ हती. परंतु योगीजनोने कारण विना लब्धिोनो उपयोग करता नथी. . एकदा सुव्रत नामना आचार्य महाराज पोताना मोटा परिवार सहित हस्तिनापुरमा वर्षाचोमासु रहेवा भाव्या. ते जायो । पूर्वनुं वेर लेवाना हेतुथी नमुचिए चक्रीने विनंति करी के--" हे स्वामी ! तमे मने पूर्वे जे वरदान प्राप्यु हतु, ते आज हुँ मागु छु." त्यारे राजाए तेने कयु के-" तारी जे इच्छा होय ते खुशीथी मागी ले. " मा प्रमाणे राजाए कबु, त्यारे तेथे माग्यु के-" हे स्वामी ! मारे यज्ञ करवो छे, तेथी ते यज्ञ संपूर्ण थाय त्यांसुधी मने वमारुं राज्य पापो." से सांभळी * * Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सत्य प्रतिज्ञाबाळा राजाए ते नमपिने राज्यपर स्थापन कर्यो, भने पोते शुद्ध हृदयवाला था मंतःपुरमा जइने रखा. ___ त्यारपछी बगलानी जेवा मायावी ते नमुचिए पुरनी बहार जइ यज्ञपाटकमां कपटी यानी दीक्षा लीधी. तेनो राज्याभाभिषेक थयेलो होवाथी ते निमित्ते समग्र प्रजा तेनी पासे आयी. तथा जैन मुनियो बिना बीजा सर्वे लिंगीओ (धर्मगुरुत्रो) तेनी पामे वर्धापन करवाहमा ल्या. खते " सर्व लिंगीओ मारी पासे भाव्या छे, परंतु जैन साधुभो अान्या | नथी." एम इाथी बोलता नमुचिए वे जैन साधुमोनो मोटो अपराध गण्यो. पछी सुव्रताचार्यने बोलावी ते अनार्य | | नमचिए कप के---"जे वसते जे नवो राजा थाय ते वखते सर्व लिंगीओए तेनी पासे जर्बु जोइए, कारणके राजा तपावन नोर्नु पण रक्षण करे छे, तेथी तपस्वीओ राजा पासे जाय छे. श्रावी दनियानी स्थिति छे.छतां तमे वो गर्विष्ट छो, लोकमर्यादाथी रहित छो अने मारी निंदा करनारा छो, तेथी मारी पासे श्राव्या नथी, माटे तमारे मारा राज्यमा रहेवू नहीं. चीजे ठेकाणे जाओ. जो कदाच तमारामांथी कोडपण मारा राज्यनी हदमा रहेशे. तो ते शठनो हुँ अवश्य वध कराश. तमारी जचा लोकविरोधी अने राजविरोधीने कोण वसवा दे!" या प्रमाणे तेनु बचन सांभळी सनि बोल्या क-"श्रमारो आचार नहीं होवाथी अमे तमारी पासे श्राव्या नथी, परंतु तमारा अभिषेक बाबत अमे काइपण निंदा करता नथी." ते सांभळी दुष्ट बुद्धिवाळो नमुचि क्रोधथी चोन्यो के–“ घणु कहेवाथी सयु. भाजथी सात दिवस पछी जो तमन काइन | हुँ प्रही जोइश, तो अवश्य चोरनी जेम मारो घात करीश." ‘ा प्रमाणे तेनी उन माना सांभळी प्राचार्य महाराज पोताने उपाश्रये पाव्या. पछी सर्व मनिभाने एकत्र करी सर्व Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्तांत कही पूछ' के-"हवे आपणे शु करवू ?" हे सांभी नि पोम्पा के छ हजार वर्षया दुस्तप तपस्या करे थे, से विष्णुकुमार मुनि हालमा मेरुपर्वत उपर छे. ते पथराजाना मोटा माइ होवाथी तेनी चाचीवहे भा नमार्च शांत | थशे. माटे ते विष्णुकुमार ऋषिने बोलाववा तेवी लब्धिवाळा कोइ सुनिने भहींची मापख मोकलीए." ते सांमळी एक मुनि चोल्या के-"आकाश मार्गे मेरुपर्वतपर जवानी मारी शक्ति के, पण त्यांथी पाछा भाववानी शक्ति नी. तेथी जो मार कार्य होय तो मने आज्ञा आपो." त्यारे गुरु महाराज बोन्या के-"विष्णुकुमार ज तमने अहीं लावशे, माटे तमे त्यांजाओ.” ते | सांभळी ते मुनि तत्काळ त्यांथी आकाशमा उडी चणवारमा विष्णुकुमार पास गया. तेने भावता जोह विष्णुकुमार मुनिए | विचार्य के--" अवश्य कोइक संघर्नु मोटुं कार्य होचु जोइए, अन्यथा वर्षाकाळमा मा साधु अहीं केम पावे?" या प्रमा- | णे ते विचार करता इता, तेटलामा ते मुनिए श्रावी तेमने नमस्कार का, अने प्रावधानुं प्रयोजन कह्यं ते सांभळी तत्काळ | विष्णुमुनि ते साधुने लइ हस्तिनापुरमा प्राच्या, अने तेमणे गुरुने नमस्कार कर्या. पछी घणा साधुओने साथे लइ विष्णु मुनि नमुचि पासे गया. त्यां एक नमुचि विना चीजा सर्व सामंत राजामओए अने मंत्रीमो विगेरेए तेमने नमस्कार कर्या. | पछी विष्णुमुनिए प्रथम धर्मोपदेश आपी नमुचिने कह्यु के-"ज्या सुधी वर्षाकाळ छे त्या सुधी पा सर्व साधुनोने श्रा नगरमा बसवा पापो. आ चुनियो पोते ज एक ठेकाणे वधारे वस्त्रत रहेता नथी; परंतु वर्षाऋतुमा पृथ्वी जीवाकुल | होवाथी साधुओ विचरता नथी. भा मोटा नगरमा भिक्षावृत्तिथी भाजीविका करनारा अमारी जेवा घणा भिक्षुओ बसे, 17 तेथी हे कुशल नमुचि । वमने झुं नुकसान के ? पहेलो तो भरतादिक मोटा राजामो पण मनिमोने नमता हवा. तमे तेवू Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न करता हो तो भले, पण तेमने काढी शामाट मृको छो" मा प्रमाणे विष्खुकुमारर्नु वचन समिळी नसुचि क्रोषयी रोम्यो। के-" वारंवार कहेबाथी शुं फळ छे ! जो पांच दिवस पछी समने कोइने पण हुँ जोहश तो तेनो अवश्य हुं निग्रह करीश." विष्णुमुनिए कg-"पा मुनिमोने पुरनी बहार उद्यानमा बसवानी छुट आपो." त्यारे कोध पामेलो नलुचि पथ्थर जेबा कठोर वचनथी बोल्यो---"पुर के उद्यान तो दूर रहो, परंतु मारा समग्न राज्यमा पण सर्वथा प्रकारे ए अधम पाखंडी श्वेतमिचुओने रहेवानुं नधी. तेथी करीने जो तमने तमारु जीवित प्रिय होय तो माई राज्य शीघ्रपणे मूकी दो." भाषां तेना कठोर वचनथी विष्णुकुमारने काइक क्रोध भाव्यो, तेथी ते बोन्या के-“हे नमुचि! अमने मात्र प्रख पग. लांज पृथ्वी आपो, तो मां पण अमे रही शकशुं." ते सांमळी तत्काळ नमुचि बोन्यो के-" बहु सारं. समने ऋण पगला पृथ्वी पापी. परंतु तेटली जग्याथी बहार जो कोह पण रहेशे, तो तेने हुं तत्काळ हणी नांखीश." पावं तेनुं वचन कबुल करी कोप पामेला विष्णुकुमारे 4क्रियलब्धिथी पोतानुं शरीर वधारवा मांडयु. तेमा मुगट, कुंडर भने माल्य सहित वज्र, धनुष भने खगने धारण कर्या. प्रलय काळना वायुनी जेम मोटा भयंकर फूत्कार मूकवा लाग्या, पगना पछाडवावडे समग्र पृथ्वीने कंपाववा लाग्या, समुद्रने उछाळवा लाग्या, पर्वतोना शिखरोने पाडवा लाग्या, घात्रीफळना समूहनी जेम चंद्र, सूर्य, नक्षत्रादिक ज्योतिश्चक्रने दुर खसेडवा लाग्या, विविध प्रकारनौ रूपोबडे सुर, असुर भने मनुष्योने दोभ पमाडवा लाम्या, ए रीते अनुपम शक्तिवाळा ते मुनि अनुक्रमे वृद्धि पामीने मेरुपर्वत जेवढा पया. पण जगतनो जय फरतामा समर्थ एवा. ते विष्णु मुनि. ते दुष्ट बसावने- पृथ्वीर: पाडीने एक सय पूर्व समुद्रने काटे. मने पीजो | Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर पश्चिम समुद्ने कोठे राखी उभा रखा. ते बखते त्र जगतनों सोम जोई शक इंद्रे ते मुनिने शांत करवा मप्सराओ मोकली एटले तेश्रो भावाने मुनिना कर्ण पासे मधुर स्वरे या प्रमाणे कडेवा लागी के-“ हे पूजा धर्मरूपी वृक्षमा अग्नि समान क्रोध पोनाने अने परने दाह करनार छ, आ भवमा स्वार्थनो नाश करे | ले अने परभवमां दुर्गति पामे छे, तेथी करीने काइ पण विनाश नहीं करनार शांतरसरूपी अमृतनुं पान करो. " आ प्रमाणेना अर्थवाळा गायनने मुनिनी पासे गावा लागी प्रथा खेनने 86 कथा पारेः मृत्य करवा लागी. भा वातनी खबर थता महापद्म चक्री पण शंका अने भयी श्राकुळ व्याकुळ थइ परिवार सहित मुनिनी पासे पायी पृथ्वीतळ सुधी मस्तक नमावी तेमने वंदना करी बोन्या के-"पा मारा अधम मंत्रीए श्रीसंघनी आशातना करी, सेना खबर मने कोहए आप्या नहीं, तेथी कांड पण जाणवामा श्राव्यु नहोतं. हे पूज्य ! पोताने अने परने अनुताप करनारा पा पापी मंत्रीना क्रोधने लीधे प्रस्थ जगतना जीवो प्राणसंकटमा प्रावी पड्या छे. तेमनुं रक्षण करो. भा प्रमाणे वीजा राजाओ, देवो, असुरो तथा समग्र संघ ए सर्वे ते मुनिने विविध प्रकारनां वचनोबडे शांति पमाडवा लाम्या. ते वखते सर्वनां मस्त कोबडे स्पर्श करायेला पोताना पग जोइने विष्णुमुनिए विचार कयों के..." आ पूज्य सकळ संघ, पद्म राजा अने देवो विगैरे सर्व भय पाम्या जणाय छे, अने तेथी करीने मारो कोष दूर करवा माटे तेश्रो वारंवार मने सांत्वन करे छे, तो मारे मा संघ मानवा लायक छ भने पनि राजा विगेरे सर्वे पण अनुकंपा करवा लायक के." श्रा प्रमाणे विचारी ते मुनि शरीरवचिनो संकोच करी पूर्वनी अवस्थावाळा थया. त्यारथी से मुनि जगतमा त्रिविक्रम नाम Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ 4-10-*+++ ** थ. अनुक्रमे चंद्रनी जेम वृद्धि पामतो ते कुमार समग्र कळामां निपुण थयो भने पंदर धनुषना देहमानवाळो ते युवावस्थाने पाम्यो. एकदा पिता तेने राज्यपर स्थापन कर्यो. स्पारपछी केटलेक दिवसे तेने चक्रादिक चौद रत्नो उत्पन्न धय, एटले चक्र अनुसरी तेणे छ खंड भरत क्षेत्र पोताने वश क. सर्व राजाओ मळी तेना चक्रवर्तीपणानो अभिषेक कर्यो. त्यारपछी चिरकाळ सुधी ते भोग भोगव्या. एकदा लघुकमी होवाथी संसारथी विरक्त थयेला तेथे विचार कर्मों के " मने पूर्वना थी मोदी समृद्धि प्राप्त थड़ छे, तेथी फरीने पण पुण्य उपार्जन करवानो उथम करू. कारण के नबुं उपार्जन कर्या विना मूळ धन क्षय पामवाथी दरिद्रता प्राप्त थाय छे." इत्यादि विचार करी पुत्रने राज्यपर स्थापन करी पोते सद्गुरु पासे दीक्षा ग्रहण करी. अनुक्रमे उग्र तपरूपी श्रग्निवड कर्मरूपी घासने भस्म करी नांख्युं कुल दश हजार वर्षं पूर्ण - युष्य भोगवी श्रीहरिषेण चक्री मुनि वार्तीकर्मनो क्षय करी केवळज्ञान प्राप्त करी महानंदपदने - मोचने पाम्या. इति हरिषेण चक्री कथा. अनिओ रायसहस्सेहिं, सुपरिचाइ देमं चरे । जयनामो जिनेक्खायं, तो गेमणुत्तरं ॥ ४३ ॥ अर्थ - ( रायसहस्सेहिं ) हजार राजाओ वडे ( श्रभिमो ) भन्वित एटले सहित तथा ( सुपरिवाइ ) सम्यक् प्रकार राज्यादिकनो त्याग करनार ( जयनामो ) जय नामना चक्रवर्तण (जिनक्खा ) जिनेश्वरे कहेला ( द ) इंद्रम भने नोमिना दमनरूप चारित्रनुं (चरे ) श्राचरण कर्यु तथा (अणुतरं गई ) अनुसार गतिने एटले मोचलिने (पती) पाम्पा. ४३. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +11+**+ प्रसिद्ध थया पत्री संघना निष्णुमुनिए चने की दोघो पी पद्मचक्रीए से भभ्रम मंत्रीने देशनिकाल क. या प्रमाणे संघनुं कार्य करी महामुनिविष्णुकुमार आलोचना बने प्रतिक्रमण करी चिरकाळ तपस्या करी केवळ ज्ञान पामी अनुक्रम मोक्ष गया. at are farara सुधी मांटी समृद्धि भोगवी, छेत्रट राज्यनो त्याग करी दश हजार वर्षसुधी तीव्र व्रतनुं पालन कयूँ. मोठा पराक्रमवाळा ते महापद्म महाराजानुं कुल श्रीश हजार वर्षनुं आयुष्य हतुं श्रने तेनी काया बीश धनुषनी हती. अनुक्रमे ते महामुनिघातिकर्मनो क्षय करी केवळ ज्ञान पामी सिद्धिपदने पाम्या. इति महापद्म चीनी कथा. ऐगछतं साहित्ता, महिं मौणनिसूरणो । हरिणो मणुसिंह दो, पत्तो गईमणुत्तरं ॥ ४२ ॥ अर्थ - (एग ) एक छत्रवाळी (महि ) पृथ्वीने ( पसाहित्ता ) साधीने एटले वश करीने ( मायनिवरणो ) शत्रुना मानो - गर्वनो नाश करनार (हरिसेणो ) हरिषेण नामना (मरिंदो ) मनुष्येन्द्र- चक्रवतीं राजा ( अगुत्तरं गई ) अनुत्तर गतिने एटले मोचने (पशो ) पाम्या ४२. हरिषेण चीनी संक्षिप्त कथा. जंबूदीपना भरत क्षेत्रने विषे कांपील्य नामनुं नगर छे. तेमां महाहरि नामे राजा हतो. तेने मेरा नामनी राखी इती. तेगीनी कुक्षिथी चौद महास्त्रम वडे सूचित विश्वने भानंद पमाडनार ने देवनी जेवी कांतिवाळो हरिषेण नामे पुत्र Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय धक्रीनी संक्षिप्त कथाभाज जंबूद्वीपना भरतचेत्रमा संपत्तिना गृहरूप राजगृह नामे नगर ले. तेमां यशरूपी अमृतना समुद्ररूप समुद्रविजय नामे राजा इतो. तेने पवित्र लावण्यवाळी, शीलरूपी अलंकारने धारण करनारी भने मनोहर गुहागिना वा | (किल्ला) समान वप्रा नामनी प्रिया हती. तेमने चौद महास्वप्नोए सूचवन करेलो जय नामे पुत्र थयो. ते शरीरनी लक्ष्मीवडे जयन्तना रूपने जीतनार हतो. ते यमुना नदी अमृत समान जल पीने' अनुक्रमे युवावस्थान पाम्यो. तेनुं शरीर पार धनुप उंचु थयुं ते वसते तेणे पितार्नु राज्य धारण कयु. पछी चक्र विगेरे रत्नो उत्पा थयो त्यारे तेणे भर. तना छ खंड साधी स्त्रीरत्ननी जेम चक्रीनी लक्ष्मी चिरकाळ सुधी भोगवी. एकदा संमार उपर वैराग्य थवाथी सेगे | विचार कर्यो के " सुचिरमपि उषित्वा स्यात् प्रियेविप्रयोगः, सुचिरमपि चरित्वा नास्ति भोगेषु तृप्तिः । सुचिरमपि सृपुष्टं याति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिन्त्यो धर्म एक: सहायः ॥" __ "चिरकाळ सुधी साधे रह्या छतां प्रियजनोनो वियोग थायज छ, चिरकार मुधी भोगच्या छतां भोगोने विषे कृति थती ज नथी, चिरकाळ सुधी सारी रीते पुष्ट-पोषण कर्या छत्ता शरीर नाश पामे ज छे. ( अर्थात जीवने कोइ पण सहाय १ रामगृह पासे यमुना नदी होवार्थी आम कत्युं छे. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूत यतुं नथी. ) तेथी करीने चिरकाळ सुधी सहायरूप थनारो एक धर्म ज चितपत्रा (करवा ) योग्य छे. " . ____ा प्रमाणे विचारवडे तीव्र वैराग्य पामी पुत्रने राज्य सौंपी ते जपचक्रीए संवेगी गुरु पासे चारित्र ग्रहण कयु. अनुक्रमे तपरूपी वायुरडे कर्मरूपी मेघनो नाश करी केवळज्ञान पामी जयचक्रीमुनि कुल त्रण हजार वर्षतुं मायुष्य पूर्ण करी मोक्षे गया. इति जयचक्री कथा. दसम्मरजं मुंइग्रं, चइत्ता णं मुंणी चर । दसामभदो निक्खंतो, सक्खं सेकेण चोईओ ॥४४॥ ___ अर्थ-(सक्खं साक्षात् ( सकेण ) शक इंद्रे ( चोइश्रो ) अधिक संपत्ति देखाडवावडे प्रेरणा करायेला एवा ( दस-1 समद्दो ) दशार्णभद्र राजा ( मुइ ) मुदित एटले समृद्धिवाला ( दसरजं) दशार्ण देशना राज्यनो (चहत्ता ) त्याग करीने (निक्खंतो) घरथी बहार नीकळपा सता तथा(सणी) मुनि थया सता ( चरे) विचरता हवा. दशार्णभद्र राजानी संक्षिप्त कथा. आज भरतक्षेत्रने विषे दशार्ण नामना देशमा दशार्णपुर नामे नगर छे. तेमा मद्रपणानी खाणरूप दशार्णभद्र नामे राजा हतो. शुद्ध आत्मावाळो ते राजारूपी हंस सत्पुरुषोना चितरूपी कमलोमा वसतो हतो अने ते राजाना चिसमा मिनेचरेकहेलो धर्म वसतो हतो. तेना अंतःपुरमा मनोहर रूपवाळी पाचसो राणीयो हती. तेनी प्रातिनी चिंताबडे-इच्छावडे Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज देवतामो निद्रा लेता नथी, एम तक कराय छे. ते राजाने समुद्रना जळनी जेम पाखी पृथ्वीने ढांकी दे नेटली मोटी सेना | हती तो पण महान जेवो गंभीर ने गला मर्यादा उल्लंघन करतो नहोतो. ... ए समये वराड देशमा धान्यना समूहथी भरेलुं धान्यपुर नामर्नु पुर हतुं. तेमा कोइ धनवान महत्त्वर पुत्र रहेतो हतो. | तेने एक स्त्री हती, ते कुलटा हती. ते नेनो स्वामी ज्यारे बहार जतो त्यारे एक संन्यासी साथे इच्छापूर्वक क्रीडा करती || | हती. एकदा ते. नगरमा कोई नटोए पात्री नाटक प्रारंभ्युं, तेमां एक जुबान नट स्त्रीनो वेष पहेरी नृत्य करतो हतो. तेने ते || दंम जाणवामा निपुण एवी कुलटाए कोइक रीते पुरुष छ एम जाणी लीधो. तेथी तेनापर ते अत्यंत भासक्त थइ. ' कुलटा | || स्त्रीने वायुनी जेम क्यांह पण प्रतिबंध होतो नथी के स्थिरता होती नथी. तेने तो जे कोह यवान अने पुरुष होय ते प्रिय लागे छ. ' सेथी ते कुलटाए लज्ज.नो त्याग करी गुप्त रीते तेना नायकने कड्यु के-" जो आ तमारो L नट ते ज वेपने धारण करी मारी साधे क्रीडा करे तो हुँ तमने उत्तम किंमती मनोहर वस्त्र पक्षीश तरीके आपुं." ते सांभळी नटाधियनिए हर्पथी तेनुं वचन अंगीकार कयु. प्राये करीने नट लोको कुशीळीया ज होय छे. तेभा पण स्वीओए ज|| प्रार्थना करी एटले तो पछी कहेवू ज शुं ? पछी ते नटना स्वामीए तेणीने कह्यु के-" आ नट हमणां ज तारी साथे | आवे, परंतु तारु घर क्या छ ? " त्यारे तेणीए पोतार्नु घर तेने देखाउथु, पछी ते कुलटाए घेर जइ ते नटने माटे खीर सातैयार करी, तटलामा ते नट पण स्त्रीवेषेज तेणीने घेर भाष्यो. तेने ते कलटाए प्रथम भोजन कर पासे मोटो थाळ मूकी तेमा खीर, घी अने खोड पीरसी. जेटलामा ते नटे खावानो प्रारंभ कर्यो, तेटलामा तेणीना जार Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3D संन्यासीए द्वार पासे पापी क{ के-" हे प्रिया ! द्वार उघार." ते सांभळी व्याकुळ थयेली कुलटाए धीमेथी नटने कई | के–“मा तल भरेला घरमां दूर खूणामा जइने तुं घेसी जा." त्यारे ते नट पण त्यां जा छुपाइ गयो. पछी तेणीए * द्वार उधायुं, एटले ते संन्यासी घरमा आव्यो. त्यां खौरनो पीरसेलो थाळ जोह तेणे पूछयु के-'भा गुंछ ?' से | मायाथी बोली के-भूखी थइ छ, ती खावा पेसा हती त्या तमे प्राव्या." ते सांमळी संन्यासी बोन्यो के "हुँ भूख्यो छु, माटे या तो हुँ ज खाइश." एम कही ते संन्यासी बलात्कारे साचा बेठो, तेटलामां घरना स्वामीए प्रावी | *'द्वार उघाड.' एम कडं. घरधणीने आन्यो जाणी हवे क्यो जाउं ?' एम संन्यासीए तेणीने पूछ', त्यारे ते बोली | के-“आ तल भरेला घरमा जइ संताइ जाओ, पण तेमां दर जशो नहीं. केमके तेना खूखामा सर्प रहेलो छे. तेथी जीवि तनी इच्छावाळा तमारे आधा ज नहीं." ते सांभळी बहु सारं कही ते संन्यासी जार पण ते ज घरमा पेठो. त्यारपछी 11 ते कुलटाए तरत ज द्वार उघाडयुं, सरळ प्रकृतिवाळो तेनो स्वामी वरमा आव्यो. तेणे पण ऐलो थाळ पीरसेलो जोइ पूछt | | के-“श्रा थाळमा खीर केम पीरसी छे ?" त्यारे ते घोली के-"हुँ भूखी थइ छु, तेथी खावा बेसती हती." ते | सांभळीने ते बोल्यो के—" मारे पार्छ कार्य माटे जq छ, सेथी हुँ ज जमी लउं." त्यारे ते बोली के-" आजे पाठम छ, तेथी स्नान कर्या बिना शी रीते खाशो?" त्यारे ते चोन्यो—“ हे प्रिया ! तें स्नान कयु छे एटले में पण स्नान कर्य एम जायी ले." सांभळी ते बोली. भापणो एवो धर्म नधी, माटे तमे एमन करो. भाषणे शिवधर्मी ? छीए, तेथी स्नान कर्या विना भोजन थइ शके नहीं. "पा प्रमाणे तेणीना कया छतां पण ते स्नान कर्या विना ज Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पलात्कार जमवा घठो. अही तलना घरमा छुपायला नटे विचार कयों के---" हुं अहीं भूख्यो शा माटे बेसी रहुं ?"एम विचारी तलने के हाथवडे मसळीने तथा फुकी कुंकीने ते खावा लाग्यो. ते वखते पेला संन्यासीए तेनी फुको सांभळी विचार्यु के-“महीं सर्प फुफाड़ा मारतो जणायक रथी परनो खाली भोजन करवामां व्यग्र छ, तेटलामा हुँते न जाणे तेम यहार नीकळी । जाउं." एम विचारी ते शीघ्रपणे घरमांथी नीकळी नासी गयो. ते जोइ ‘मारा पण श्रा समय छे. ' एम धारी नट पम्प * तेनी पाछळ नाठो. तेमने नीकळता जोइ गृहस्वामीए स्वच्छ हृदयी पोतानी स्त्रीने पूछथु के--"पा बे वी पुरुष गया ते | कोण छे ?" त्यारे तात्कालिक धुद्धिवाळी ते कुलटा बोली के-" में नमने प्रथम ज कह्यु हतु के स्नान कर्या विना * भोजन न करो. में निरंतर सेवा करीन आपणा घरमा पार्वती अने शंकरने राख्या हता, ते प्रत्यारे तमारुं स्नान रहित भोजन | जोइने यो नासी गयो. ते सांभळी " में आ बहु खोटुं कयु." एम पश्चाताप करी तेणे प्रियाने क-..." हे प्रिया! मा देवो फरीथी शी रीते पाछा पापणे घर भावे ? " ते सांभळी- जो पा मारा पति परदेश जाय, तो हुं स्वेच्छाए क्रीडा | करी शकुं." एम विचारी पतिनी वैरिणी एवी ते स्वेच्छाचारी कुलटाए कहां के—“जो नमे सारा उद्यमधी न्यायोपार्जित घणा द्रव्यक्डे पार्वती अने शंकरनी पूजा करो, तो तेश्रो पाछा मापणे घर आये." श्रा प्रमाणे प्रियानुं वचन अंगीकार करी ते महत्तरपुत्र वधारे द्रव्य मेळववा माटे दशार्ण देशमा गयो. 'धर्मना छळथी चतुर माणस पण छेत्तराय, तो बीजाचं शू कहे ?" त्यां कोइना क्षेत्रमा ते काम करवा रह्यो. तेमां तेणे फेटलाक दिवसे दस गदीयाचा सुवर्ण उपार्जन कं. वेटला मन्प Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || द्रव्यथी लेने संतोष थयो नहीं. तोपण तेने प्रियानु स्मरण थतां ते घर तरफ जवा नोकळ्यो. मध्यान्ह समये कोई ठेकाणे | वनमा एक वृक्षनी नीचे ते विश्रांति लेवा पेठो. या प्रससरे दशार्णभद्र राजा विपरीत शिक्षावाळा अबधी हरण कराइने । फरतो फरतो पाणीनी शोध करतो ते वृक्ष पासे भाग्यो. तेने जोइ "श्रा अतिथिसत्कारने लायक कोई महापुरुष छे." एम विचारी ते महत्तरपुत्रे राजाने प्रावकार आपी जळ माधुं. राजा पण ते जळगें पान करी अश्वपरथी पर्याणने नीचे उतारी क्षणधार विश्रांति लेवा बेठो. पछी स्वस्थ थयेला राजाए 'तुं कोण ले ?' एम तेने पूछयु, त्यारे ते पोतानो सर्व वृत्तांत कहो. ते सांभळी बुद्धिमान गजाए विचार कयों के पानी खी अवश्य कुलटा ले, तेथीज तेणीए पाने छेतर्यो | छ. परंतु आधामिकर| जोह मने मनमा आश्चर्य थाय छ, के जे द्रव्य रहित छतां पण द्रव्यने उपार्जन करी पाताना दवनी पूजा करवा इच्छे छे. कुशळ पुरुषो द्रव्य छनां पण तेनो व्यसनादिकमा दुरुपयोग करे छ, अन पा मुग्ध छतां पण धमेने माटे धन उपार्जन करवा क्लेश सहन करे छे. तथी श्रा धार्मिक पुरुषना हुशा प्रत्युपकार करूं ?" आ प्रमाणे राजा विचार करतो हतो, तेटलामा अश्वना पगलाने मनुसरतुं तेनुं सैन्य आवी पहोंच्युं. पछी राजा ते उपकारी पुरुषने साथे लइ पोताना नगरमा गयो, त्यां तेनो भोजनादिकवडे सारो सत्कार कर्यो.. ते बखते वनपाळक पुरुषोए श्रावी राजाने वधामणी भापी के-" हे देव ! आजे आपणा उद्यानमा छल्ला तीर्थंकर महावीरस्वामी समयसयों छे." आ प्रमाणे कर्णने अमृत समान तेमनु वचन सांभळी राजाना शरीरमा रोमांचरूपी कंचुक व्याप्त थया, अने तरत ज आसनपरथी उभा थइ तेणे जिनेंद्रनी दिशा तरक पृथ्वी सुधी मस्तक नमावी प्रधुने नमन कयु. पछी ते उद्यानपालकोने घणु प्रीतिदान यापी सत्पुरुषोमा अग्रेसर एवा ते श्रेष्ट राजाए विचार को के-या परदेशी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fil पुरुष तथाप्रकारना विवेक रहित छता पण पोताना देवने सर्व संपत्तिवडे पूजवा इच्छे छे, तो सर्व सामग्रीचडे सहित अमारी || जेवा विवेकी पुरुषोए विशेषे करीने अरिहंतनी पूजा करत्री योग्य छे." "श्रा प्रमाणे विचारी राजाए हाथी विपरेना अधिकारीओने बोलावी आज्ञा आपी के-" प्रातःकाळे जगद्गुरुने चांदवा जर्बु छे, तेथी सर्व सैन्य विगैरेनी उंचामा | उची शोभा थाय तेम करजा." आ प्रमाणे आज्ञा श्रापीने पछी श्राखा नगरमा श्राघोषणा करावी के-"प्रभात काळे सर्वज्ञने । बौदवा जवा माटे सर्व सामंतो, मंत्रीश्रो अने पुरजनोए पण श्रेष्ठ सामग्री तैयार करवी, ने ते सहित राजा साथे यादवार श्राव." पछी राजाए पोताना सेवको पासे नगरना मार्गों तृण, छाग, राख विगेरे कचरो कढावी साफ कराव्या, तेमा चंदन मिश्रित जळ छंटावी पुष्पना समूहोवडे विचित्र रचना करावी, ठेकाणे ठेकाणे जाणे लक्ष्मीने क्रीडा करवानी होचोळा| खाट होय तेवी बंदनमाळाओ-तोरणनी श्रेणीमो-बंधाची. तनापर जाणे कलंक रहित चंद्रो मकथा होय तेवा कराना कळशो |* * मूकाच्या. ते वखते ठेकाणे ठेकाणे करेला सुगंधी धूपना धूमाडाने लीधे जाणे अकाळे मेघ चड्यो होय तेम ते नगरमा || देखावा लाग्युं अने माणिक्यनां तोरणो बधायवाची जाणे इंद्रधनुषने धारण कयु होय एवं प्राकाश जणाचा || लाग्यु. मंगळना हेतुरूप करोडो ध्वजारोचडे भाम्बु नगर शोभितुं करायुं भने स्थाने स्थाने मनोहर मौचाओ मंडाववाथी ते नगर विमाननी जेम शोभवा लाग्यं. राजानी प्राज्ञाथी जल्ल, मल्ल अने नः विगेरे जनो स्थाने स्थाने पोतपोतानी कळाओ देखाडवा लाग्या. भा रीते राजार अधिकारीयो पासे साताव स्वर्गना नगर जेवू पोतार्नु नगर बनायुं. त्यारपछी प्रातःकाळे राजाए स्नान कर्य, चंदनवडे शरीने विलेपन कयु, चे देवदप्प बनो धारण को, शरीरे देदीप्यमान । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T H *+++****** अलंकारो पर्या पक्षी "त्यार सुधी कोइए न बांधा होय एवी रीत हुं भजे प्रश्ने वांदीश. " एम अभिमानयुक्त विचार करी राजा पट्टहस्तीवर भारूढ थयो, तैना मस्तकपर पूर्णचंद्र जेधुं उज्वल छत्र धारण करवामां आव्युं, चारे बाजु फीयनी जेवा उज्वळ चार चामरो तेने बींझावा लाग्या तेनी फरता हजारो सामंत राज श्र श्रेष्ठ शणगार धारण करी पोत पोताना हाथीप्रोपर आरूढ थह जेम इंद्रने सामानिक देवो वींटाइ वळे तेम वींटाइ गया. त्यापही ते श्रेष्ठ राजाए हाथीने पगवडे प्रेरणा करी एटले ते हाथी जाये के ' मारा चालवार्थी पृथ्वी भांगी जशे एम धारतो होय तेम धीमे धीमे चाल्यो. ते वखते मणिना भ्राभूषणोथी शणगारेला टीना इजा arपीओ जाये चलता होय तेम चाल्या. तेनी पाळ सूर्यना अश्वोना जाये सहोदर होय तेवा भने धणा आभूषणोथी शणगारेला एवा लाखो अश्वो शोभामां वृद्धि करता चान्या. तेनी पाछळ घोडा जोडेला, मनोहर लक्ष्मीवाळा जाणे सूर्यना ज रथ दोय एत्रा हजारो रथो चाल्या. तेमनी पाळळ विषविनो नाश करनारा, विविध आयुधने धारण करनारा तथा अति पराक्रमवाळा करोडो पचिओ' चाल्या. तेमनी पाखळ पांच सो राणीना मीयानाओ जाखे देवीयो सहित विमानो होय तेम चान्या. ते वखते शब्द करती घुघरीधोना अवाजथी दिशाने वाचाळ करता एवा भने आकाश सुधी उंचा एवा पांच वर्णना हजारो ध्वजो साथे चालता शोभी रखा हता. भा, मेरी विगेरे लाखो वाजित्रो एक साधे वागता इता, तेथी भाखुं जगत शब्दमय थयुं होय एम जखातुं इतुं. मंगलपाठको १. चालता सीपाइओ. -- Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | हर्षथी मांगलिक बचनो बोलता हता, अने गवयाओ कर्णने अमृत समान संगीत गाता हता. अप्सराबोनी जेची वेश्याओ राजानी वागळ पगले पगले भगवानना गुणोना गायन सहित नृत्य करती चालती हती. मा रीते मोटी ऋद्धिवडे भव्यजनोना मनने आनंद आपतो, सद्भावरूपी अमृतवडे पुण्यरूपी वृक्षोने सींचतो, कल्पका वृतनी जेम याचकोने अत्यंत दान यापतो अने अहंकारथी पोताने उत्कृष्ट संपत्तिनुं स्थान मानतो ते दशार्णभद्र राजा सर्व परिवार, पुरजनो अने ते महत्तरपुत्र सहित समवसरणनी समीपे जह पहोंच्यो. त्यां हस्तीपरथी उतरी छत्र, चामरादिक राजचिन्होनो त्याग करी सर्व परिवार सहित जिनेश्वरने त्रण प्रदक्षिणा करी विधिपूर्वक भगवानने नम्यो. पछी हर्षथी गद्गद् वागीण, मोटा वर्शवाळा स्लोबोबड़े जिनाधीनी स्तुति करीने ते जनाधीश ( राजा ) योग्यस्थाने वेठो. आ वखते अवधिज्ञानवडे दशार्णभद्रनो तेवो गर्वमय अभिप्राय जाणी शक इंद्रे विचार कर्यो के-"अहो ! दशाणेभद्रनी प्रभुविषे अनुपम भक्ति ले, परंतु आ बाबतमा गर्व करवो तेने योग्य नधी. केमके त्रणे भुवनवडे पण भगवाननी | संपूर्ण भाक्त थइ शके तेम नथी. " आ प्रमाणे विचार करी संपत्तिना अधिकपणाथी उत्पन्न थयेला तेना मानने हरवा माटे तथा तेने बोध करवा माटे शक इंद्रे औरावण नामना देवने आज्ञा करी, तेधी तेणे उज्यलपणाथी अने उंचाइथी कैलास पर्वतनो पण पराभव करे एवा चोसठ हजार हाथीप्रो विकुा. एक एक हाथीने पांच सो ने चार बार मुख विकुळ, दरेक मुखे भाठ पाठ दांत विकुा , दरेक दांत आठ आठ मनोहर वावो विकुर्ची, दरेक वावमा आठ आठ कमळो विकुया, दरेक कमळने एक एक लाख पत्रो विकृया, दरेक पत्रमा बत्रीशबद्ध नाटक विकुन्यु. तेम ज ते दरेक कमळनी Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यनीकाका चार मुखवाळा प्रासादो विकुर्व्या. ते सर्व प्रासादोमां इंद्र आठ आठ पट्टराणीयो सहित बेसीने ते सर्व नाटको जोबा लाग्या. आ रीते करवाथी दरेक हाथीने कुल ५१२ मुख, तेना ४०६६ दाँत, तेनापर ३२७६८ दावो, तेमां २६२१४४ कमळो, तेटला ज प्रासादो अने हैद्रो, नेनाणी पाठ गुणी घटले २०६७१५२ इंद्राणीओ तथा २६२१४०००००० कमळना पत्रो ने सेटला ज बत्रीशबद्ध नाटको हर्ता, थाटलो एक हाथीनो विस्तार हतो, तेवा चौसठ हजार हाथवडे आकाशने व्याप्त करतो इंद्र शीघ्रपणे जिनेश्वरना समवसरण आयो. तेथे हाथी उपर बेसीने ज जिनेश्वरने प्रदक्षिणा करी अने पोताना शरीरनी कांतिवडे सूर्यनो पण पराभव करनार ते इंद्रे प्रभुने वंदना करी. आवा प्रकारनी इंद्रनी समृद्धि जोह बुद्धिमान दशार्णभद्र राजाए विचार कर्यो के - " अहो ! तुच्छपणाने ली में मारी संपत्तिनो वृथा गर्व कर्यो. आ इंद्रनी यावी संपदा पासे मारी संपदा कह गणवरीमां छे! सूर्यनी कांति पासे पतंगीयाना बच्चानी कांति केटलीक होय १ तेथी हुं धारुं हुं के नीच जनोने तुच्छ संपत्तिथी पण मद प्राप्त थाय छे. केमके देडकाओ कादवा जळ पामीने पण अत्यंत आनंदधी नाद करे छे. आ इंद्रे पण याची समृद्धि पुण्यना प्रभावधी ज मेळवी छे, जो धरान सिवाय संपत्ति मळती होय तो सर्व प्राण याने यावी ज संपत्ति केम न मळे ? तेथी हमे मारे ते विषेनो खेद न करतां निर्मळ धर्मनो ज माश्रय करवो योग्य छे, अने तेम करवाथी मारो गर्व पण कृतार्थ थशे." या प्रमाणे विचार करी दशार्णभद्र राजाए वे हाथ जोडी नम्रताधी जिनेश्वरने विज्ञप्ति करी के " हे प्रश्च ! हुं संसारपरथी उद्वेग पाम्यो लुं, तेथी मने दीक्षा आपी मारापर अनुग्रह करो." या प्रमाणे कद्दीने ते राजाए पोताने हाथे ज मस्तकपरना केशनो लोच कर्मों, पछी Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वतना अर्थी एवा ते राजाने विश्ववत्सल प्रभुए पोते ज दीचा पापी. तेनी पाछळ तत्काळ ते महत्तर पुत्रे पण दीक्षा ग्रहण | | करी. 'सत्पुरुषोनो संग कल्याण श्रापबामा कामदुधा सदृश छे.' त्यारपछी ते राजर्षिने प्रणाम करी शक्र इंद्रे कयुं के ! -" हे मुनि ! तमे आदी मोटी समृद्धिनो सहसा त्याग कर्वो, माटे तमने धन्य छे. हे सत्य प्रतिज्ञावाळा ! मोटा साम्राज्यनी* त्याग करी व्रत अंगीकार करवाथी तमे तमारी प्रतिज्ञा पण सत्य करी छे. केमके जिनेश्वरनी अर्चा करवी ते त्र्यपूजा के अने जे चारित्र ग्रहण करखं ते भावपूजा छ, द्रव्यपूजा करनार करता भावपूजा करनारने अत्यंत अधिक मानेली छे, तेथी तमे भावपूजा करीने मने जीती लीधो छे. मागी बीजी रही मति .. पर व्रत लेवानी मारी शक्ति नथी." आ प्रमाणे ते राजर्षिनी स्तुति करी शक इंद्र स्वर्गे गयो अने ते राजर्षि उग्र तय करी सर्व कर्मनो क्षय करी मुक्तिपुरीमा गया. इति श्रीदशार्णभद्र राजर्षि कथा. नेमी नमेहि अप्पाणं, सैक्खं सक्केण चोईओ । चईऊण गेंहं वइदेही, सोमाले पविदिओ॥ १५॥ अर्थ-(बइदेही ) विदेह देशना स्वामी (नमी) नमि नामना राजा (सक्ख ) साक्षात् ( सकेण ) शक्र इंद्रे (चोइओ) | प्रेर्या सता एटले ज्ञानचर्याने विष परीक्षा कर्या सता (अप्पाणं ) पोताना प्रात्माने ( नमेहि ) नीतिमा स्थापन करता हवा एटले जरा पण कषाय करता न हवा, तथा ( गेहं ) गृहवासनो ( चइऊण ) त्याग करीने ( सामने ) साधुपणामां-चारित्र धर्मने विषे ( पजुडिओ) स्थिर थया एटले उद्यमवंत थया. ४५. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करकंडु कलिंगेसु, पंचोलेसु अ दुम्मुहो । नमिरीया विदेहेसु, गंधारेमु अ नगई ॥ ४६॥ एंए नरिंदवसहा, निखंता जिणसालो पुते हे देशोग, सासपो पटिआ॥ ४७ ॥ अर्थ-(कलिंगेसु ) कलिंग देशमा ( करकंड) करकंडु राजा हता, (पंचालेसु म) तथा पांचाळ देशमा (दुम्सुहो) | द्विमुख राजा इता, तथा ( विदेहेसु ) विदेह देशमा ( नमिराया ) नमि राजा हता, (गंधारेसुप) तथा गंधार देशमा (नग्गई ) नग्गति नामना राजा हता. (एए) ए चारे ( नरिंदवसहा ) श्रेष्ठ राजाभो (पुत्ते ) पोतपोताना पुत्रोने (रजे) राज्य उपर ( ठवेऊणं) स्थापन करीने (जिणसासणे) जिनशासनने विषे ज (निक्खंता) प्रव्रज्या लेता हवा, तथा ( सामने ) साधुधर्मने विषे ( पञ्जवडिआ) स्थिर थया-उधमपंत थया. ४६-४७. (आ चारे प्रत्येकबुद्धनी कथा प्रथम एटले नवमा अध्ययनमा कही गया छीए, तेथी श्रही लखता नथी. ) सोवीररायवसहो, चइत्तौण मुणी चेरे । उदायणो पर्वइओ, पत्तो गईमणुत्तरं ॥ ४८ ॥ अर्थ-( सोचीररायक्सहो । सौवीर देशने विषे राजवृषभ एटले श्रेष्ठ राजा ( उदायणो ) उदायन नामना हता. ते ( चइताण ) राज्यने तजीने (मुणी) मुनि थया सता ( चरे) विचरता हवा. तेथी (पबहनो) प्रवजित थया सता (अणुत्तरं गई ) अनुत्तर गतिने एटले मोक्ष गतिने ( पत्तो ) पामता हवा. ४८. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उदायन राजानी संक्षिप्त कथा. भा ज जंबूद्वीपना भातक्षेत्रमा सिंधमौवी नामनो देश छे, तेमा सार्थक नामवाळं वीन भय नामर्नु नगर छे. तेमा || उदायन नामे राजा राज्य करतो इतो. ते राजा सुकृतना उदयने करनार हतो तथा स्वाभाविक एवा शौर्य, धैर्य अने औदार्यादिक गुणोवडे विराजित इतो. ते वीतमय विगेरे त्रणसो ने प्रेसठ पुरनो तथा सिंधुसौचीर विगैरे सोळ देशोनो | पालक हतो. ते महासेन विगेरे दश महा पराक्रमी राजाओथी सेवातो हतो. ए रीते ते उदायन राजा लक्ष्मीए करीने जाणे बीजो इंद्र होय तेम काळ निर्गमन करतो हतो. तेने चेटक राजानी पुत्री प्रभावती नामनी प्रिया हती. ते निरंतर पोताना मनमा पतिनी जेम श्रीजैनधर्मने धारण करती हती. ते राजाने प्रभावतीनी कुचिथी उत्पन्न थयेलो अभिची नामनो युवराज पुत्र हतो, अने ते राजानी बहेननगे पुत्र केशी नामनो इतो. ते बने कुमार साथे क्रीडा करता हता. श्रा समये चंपा नामनी पुरीमा मोटो धनवान कमारनदीनामनो एक सोनी हतो, तेन मन निरंतर स्त्राप्रोमांज आसक्त हतुं. कोइपण ठेकाणे कोइ पण सुंदर कन्याने ते जोतो तो तेणीने ते पांच सो सानामहोर आपीने परणतो हतो. ए रीते ते पांच सो स्त्री मोने परण्यो हतो, तो पण तेने तृप्ति थइ नहोती. 'प्राये करीने स्त्री धन, आयुष्य अने भोजनने विपे प्राणीमो अतृप्त ज रहे छे. 'आ मारी स्वीओ चीजा कोइ पुरुषने मळी न जाओ.' एम विचारी ने सोनी एक स्तंभना महेल उपर सर्व प्रियासोने राखी तेमनी माथे रात्रि दिवस विलास करतो हतो. .. आ अवसरे समुद्रनी मध्ये रहेला पंचरील नामना द्वीपमा विद्युन्माली नामनो महर्धिक व्यंतर हतो, ते एकदा पोतानी प्रिया हासा अने प्रहासा नामनी देवीओ सहित इंद्रनी आज्ञाथी नंदीश्वर द्वीपे जतो हसो. त्यां मार्गमा ज आयुष्य । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . न % 3D4 पूर्ण थता ते चवी गपो. एटले ते प्रियायोगकार पारिपार कर्यो के-" आपणे कोइ स्त्रीलुब्ध पुरुषने लोभ पमा-11] | डीए, जेथी ते मरण पामीने आपणो पति थाय." एम विचारी ते बन्ने देवीमो पृथ्वीपर सर्वत्र जोका लागी, तेटलामां : महेलना उपरना भागमा पांच सो स्त्रीनो साथै रमत्ता ते सोनीने जोयो. तेने जोइ 'श्रा ज आपणने योग्य छे.' एम निश्चय करी ते देवीओए जमतने मोह पमाडे एवं दिव्य रूप तेने बताव्यु, ते जोइ अत्यंत मोह पामीने तेणे तेमने पूछy के-“ तमे कोण छो?" ते सांभळी विलास-हावभाव सहित ते बने बोली के-"श्रमे मोटी समृद्धिचाळी हासा भने ग्रहासा नामनी * देवीओ छीए. जो तमे अपने वांछता हो तो पंचशैल नामना द्वीप उपर आवजो. " एम कही बजिळीना चमकारानी जेम * ते बन्ने देवीओ तत्काळ अदृश्य थइ-श्राकाशे उडी गइ. ते जोइ शून्य मनवाळो थयेलो ते सोनी चिरकाळ सुधी तेज दिशा सामुं जोह रह्यो. पछी तेणे विचार कर्यो के--"श्रा पांच सो स्त्रीमोथी मारे शुं फळ छे. नेत्रना जेवी ते वे विना श्रा आखें | - विश्व मने शून्य भासे छे. रत्न जेवू तेमनुं रूप जोइने आ काच जेवी स्वीओने विष कोण रंजन थाय ? तेथी ते बे देवीओने || माटे ज हुं शीघ्र प्रयास करूं." ा प्रमाणे विचार करी ते सोनीए राजसभामां जई घणुं धन भेट करी राजानी भाज्ञा मेळ- * वीने आखा नगरमा आघोपणा कराची के-"जे कोइ श्रेष्ठ नाविक कुमारनंदी सोनीने पंचशैल द्वीप उपर लइ जशे, तो | तेन ते कुमारनंदी कोटि द्रव्य श्रापशे." श्रावी आघोषणा सांभळी एक अति धृद्ध नाविक के जे जीववानी स्पृहावाको नहोतो तेणे ते पडह अंगीकार करी भातुं पाणी भरीने वहाण तैयार कयु. पछी पोताना पुत्रोने ते कोटि द्रव्य आपी ते वृद्ध * नाविक कुमारनंदीने लइ चहाणमा चड्यो. केटलेक दिवसे ते वहाण समुद्रमा घणे दूर गयुं, त्यारे ते वृद्ध नाविक कुमारनं Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <-->**04 190++*-* 4 दीने कांके - " भागळ दूर तुं काइ देखे थे ? " तेणे क- " कांइक का का देखाय छे. " नाविके कछु –“ ते समुद्रने कांठे रहेला पर्वतना नितंब मां उगेलो वटवृक्ष थे. मा आप वहाण अवश्य ते वट वृक्षनी नीचे जशे ते वखते तुं कूदीने ते वृक्षपर चडी जजे. रात्रिए ते पर्वतपर भारंडपीओ बसे थे, तेश्रो प्रातःकाले चरवा माटे पंचशैल पर्वतपर जाय छे, ते पक्षीओ सुइ जाय त्यारे कोइ पण पक्षीना त्रण पगमाथी बच्चेना पगे एक बखवडे तुं तारा शरीरने बांधीने पढ्यो रहेजे. प्रातःकाळे ते पक्षीओ उडशे. ते तने पंचशैल पर्वतपर लइ जशे. हुं वृद्ध होवाथी ते वटवृक्ष पकडी शकीश नहीं. परंतु वडनी गळ मोटा श्रावर्त है, तेमां था वहाण पडशे, तेथी तेमां वहाण सहित मारो विनाश थशे, तेथी तुं पण जो व्यग्रताने लीघे ते वटवृक्षनं ग्रहण नहीं करे तो तुं पण मारी साथे ज मरण पामीश" या प्रमाणे ते नाविक कहेतो हतो, तेटलामां ते बहाण ते वटवृक्षनी नीचे पहाँच्युं. एटले तरत ज ते सोनी वटवृदने वळगी गयो. पछी नाविकना कहेवा प्रमाणे करी ते पंचशैल पर्वत पर पहोंच्यो भोगमां उत्कंठित थयेला सेने यावेलो जोड़ ते देवीयोए तेने कछु के66 'आ मनुष्यना शरीरवडे तं अमारी साथै भोग भोगवा लायक नथी. कान पण वींधावानी व्यथाने सहन करे छे तो ज ते अलंकार पहेरी शके के भने दाहादिकने सहन करे छे तो ज सुवर्ण पण मणिने पामी शके छे. माटे तुं पण तारे धेर जह दीन, हीन विगेरेने घणुं दान थापी अग्निप्रवेशनुं कष्ट सहन करी नीयाणुं करीने श्रा द्वीपनी लक्ष्मीनो अने अमारो पण स्वामी था. मोटा लाभने माटे कांइक कष्ट पण सहन करतुं जोइए. " ते सांभळी ते रागवाळा सोनीए कछु के- “हुं अहीं थी मारे बेर शी रीते जइ शकुं ? " ते सांभळी तर ते देवीओए ते कामांध सोनीने उपाडीने चंपापुरीमां मूकी दीघो. तेने जोड नगरजनोए पूछ के - " हे कुमार Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . HEI नंदी' तुं शी रीते पालो प्राथ्यो ? त्यां तें शुं आश्चर्य जायु ?" त्यारे ते सोनी "अहो! ते हासा अने प्रहासा क्यां गइ?" ए प्रमाणे वारंवार बोलवा लाग्यो. त्यारपछी ते मूर्ख इंगिनीमरणवडे मरवा तैयार थयो. तेने तेना मित्र नागिल नामना श्रावके कडु के*il "हे मित्र ! सिंहने घास खावू अयोग्य छ, तेम तारे भाधु कुपुरुषने लायक कार्य करवु योग्य नथी. वळी अत्यंत तुच्छ भोगने माटे आ दुर्लभ मनुष्य भवने तुं हारी न जा. जो कदाच तने भोगनी इच्छा होय तोपण तुं कन्पवृचनी जेम इष्ट वस्तुने अाफ्नार | 4 धर्मनुंज आचरण कर." आग मित्रना लपदेशने पण ते उन्मने गणकार्यों नहीं. तेथी तेणे पगधी मस्तक पर्यंत आलु शरीर पकरीनी लीडीओथी ढांकी दीधुं. पछी तेमा अग्नि सळगावी ते बन्ने देवीपोर्नु ज स्मरण करी मरण पामी ते विद्युन्मा- || ली नामनो देव थयो. या प्रमाणे इंगिनीमरणथी मरण पामेला तेने जोइ नागिल श्रावक वैराग्य पाम्यो, अने "अहो! मूढ पुरुषो भोगने माटे केटलं कष्ट भोगवे छे!" इत्यादि विचार करतो ते नागिल दीक्षा ग्रहण करी शुभ ध्याने मरण ।। पामी अच्युत नामना स्वर्गमां देव थयो. त्यांची तेणे अवधिज्ञानवडे पोताना पूर्वभवना मित्रने जोयो. एकदा नंदीश्वर द्वीपनी यात्रानो महोत्सव प्राप्त थयो. ते वखते पटह यगाडवा काम ते विद्युन्मालीने करवानुं हतुं । तोपण ते पटह चगाइचाने इच्छतो नहोतो, तेथी ते आम तेम नाशी जवा लाग्यो, तोपण बळात्कारे पटह तेना कंठमां श्रावीने वळगी गयो. ते वखते हासा अने प्रहासाए तेने कयु के–“जे अमारो स्वामी होय तेणे अवश्य पटह वगाडवानो ज के, माटे तमे केम नाशी जाश्रो छो?" ते सांभळी विद्युन्माली व्यंतर शांत थयो भने शक इंद्रनी आगळ पटह वगाउतो नंदीश्वर द्वीपपर गयो, त्यां मा नागिल श्रावकदेव पण श्राव्यो हतो, तेसो तेने जोयो. तेथी ते आपकदेव जेम जेम ते व्यत Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ all रनी पासे जवा लाग्यो, तम वेन तेज सहन नहीं यथाथी ते व्यंजर दूर दूर नासवा लाग्यो. त्यार ते श्रावक देवे पोताना मा तेज संहरीने तेने कयु के--" तुं मने जाणे छ ?" ते बोन्यो के- " इंद्रादिक देवोने कोण न जाणे ? " ते सांभळी ते श्राद्धदेवे पोतार्नु पूर्व भवन रूप देखाही तेने कमु के-"हुँ नागिल नामनो तारो पूर्वभवनो मित्र छु. ते वखते तारुं कुमरण | जोइ में वैराग्यथी दीक्षा ग्रहण करी हती, तेथी हुँ याची लक्ष्मी पाम्यो ढुं. ते वखते में तने निषेष कर्यो छतां सुं वाळमर*णवडे मरण पामी आधुं कुदेवपणुं पाम्यो छे. परंतु जो ते ते वखते जिनधर्म अंगीकार को होत, तो मारी जेम तुं पण अावी स्वर्गलक्ष्मी पाम्यो होत." या प्रमाणे तेनुं वचन सांभळी प्रतिबोध पामी ते विद्युन्माली बोल्यो के–“गयेली बायतनो शोक करवाथी शुं फळ छे ? हवे काइक तेवू कहो, के जेथी परभवमा मने शुभ फळ प्राप्त थाय." त्यारे श्राद्धदेवे तेने | कायु के-"श्री महावीर स्वामीनी प्रतिमा तुं बनाव. तेथी जतने वीजा भवमा बोधिरत्न-समकित सुलभ थशे. अरिहंतनी प्रतिमा | करनारने दारिद्य, दुर्गति अने दुःख प्राप्त थतां नथी अने स्वर्ग तथा मोचना सुखने मापनार धर्म प्राप्त थाय छे." या प्रमाणे ते | श्राद्धदेवनो उपदेश अंगीकार करी ते विद्युन्माली देव क्षत्रियकुंड नामना गाममा श्रीमहावीरस्वामी पास गयो. त्यां शरीरपर अलंकारो धारण करेला, विकार रहित, सुंदर आकृति वाळा, सद्गुणना निधानरूप अने, भावयतिपणुं साधता होवाथी गृहस्थाश्रममा पण कायोत्सर्गे रहेला श्रीवर्धमान स्वामीने जोइ तेणे प्रणाम को. त्यारपछी ते देव तस्त ज महाहिमवान पर्वतपर गयो, अने त्यांथी तेणे प्रात्यंत सुगंघयडे विश्वने आनंद आपे तेवु गोशीर्ष चंदननु काष्ठ ग्रहण कर्यु. ते वडे जेवू जोयुं हतुं तेवू प्रभुनुं प्रतिबिंब चनावी जेम हारने दाभडामा नखे तेम ते प्रतिमाने एक काष्ठना संपुटमा स्थापन करी. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || पीते विद्युन्माली देवे समुद्रमां दृष्टि करी तो त्यां उत्पातने लीधे छ मासथी धाम तेम अथडातुं एक वहाथ जोयुं. मां बेठेला यात्रिक लोको श्राकुळ व्याकुळ थयेला हता. आवी स्थिति जोइ ते देवे तरत ज उत्पातनुं हरण करी सांयात्रिक लोकोने प्रत्यक्ष थइ तेमने ते काष्ठसंपुट यापी कयुं के " हे लोको 1 या संपुटमां देवाधिदेवनी चंदनमय प्रतिमा स्थापन करेली छे. याने तमारे वीतभय नामना पचनमा लड् जह त्यांना राजाने श्रापी कहेतुं के " श्रा संपुट हर्षथी देवाधिदेवनुं नाम लेवाथी भेदाय तेम छे. " तमारो छ मासनो उत्पाद में इरण कर्यो छे, तेथी आटलं मारुं कार्य तमारे करवानुं छे. " आ प्रमाणे देवनुं वचन ते सांयात्रिकोए हर्षथी अंगीकार कर्यु पछी विद्युन्माली देव तत्काळ अदृश्य थयो. अनुक्रमे ते सांयात्रिको समुद्रनो पार पामी वीतभय वचनमां गया. त्यां तापसना धर्ममां भक्तिवाळा उदायन राजानी पासे ते संपुट लइ गया, अने देवे कहे वृत्तांत पण तेथोए राजाने जणाच्यं ते सांभळी वया ब्राह्मणो अने योगीयो विगेरे त्यां एकठा थया. तेमांथी केटलाक बोल्या के-" वेद ने सृष्टिना रचनार होवाथी ब्रह्मा च देवाधिदेव थे, तेथी तेना नामथी या संपुट भेदी शकाशे. " एम कही तेथोए ब्रह्मानुं नाम लइ ते संपुटनी बच्चे तीक्ष्ण कुठार नांख्यो, परंतु शास्त्र भूली जवाथी जेम पंडित स्खलना पामे तेम ते कुठार स्खलना पाम्यो. पछी बीजा केटलाक बोल्या के- “ जे देव युगने अंते जगतने पोताना उदरमां धारण करे छे, तथा दुनियाना शत्रुरूप दैत्योनो जे विनाश करे छे, ते विष्णु ज देवाधिदेव छे. " एम कहीं तेनुं नाम लह तेओए पण कुठार चलाव्यो, परंतु ते पण निष्फळ थयो, पछी बीजा केटलाक बोन्या के-“ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिदेव Mil ब्रह्मा अने विष्णु पण जेना अंशरूप छ, जे पोतानी मेळे उत्पन्न धयेला छे भने जे सर्व विश्वनुं कारण छे ते महादेव ज देवा । कही तेनं नाम लहतेशोए पण ते पटपर कालो प्रहार को. परंत सिंहना पुच्छवडे पर्ववना तटनी। जेम ते कुडाग के संयुट भेद नहीं. त्यारपछी ते सर्वे पिलखा थइने विचार करवा लाग्या. तेटलामा ते वृत्तांत सांभळी प्रभावती राणी पण कौतुकथी त्या श्रावी. तेणीए विधि प्रमाणे ते संपुटनी पूजा करी अमृत जेवी मधुर वाणीथी कडं । के-" जेणे राग द्वेष अने मोहनो सर्वधा विनाश कर्यो छे, तथा जे अष्ट महाप्रातिहार्योवडे युक्त छे, ते देवाधिदेव सर्वज्ञ L जिनेश्वर मने दर्शन पो." आ प्रमाणे कही ते राणीए कुठारवडे ते संपुटनो जराक स्पर्श कर्यो के तरत ज सूर्यना | किरण वडे कमळनी जेम ते संपुट विकास पाम्यु-उपडी गयुं, एटले तेमाथी समुद्रमांथी लक्ष्मीनी जेम नहीं करमायेला पूष्पनी माळाने धारण करती अने सर्व अंगे मनोहर एवी श्री महावीरस्वामीनी मूर्ति प्रगट थइ. तेने जोइ प्रभावती राणी वचनथी । न कहीं शकाय तेवा हर्पने पामी. पछी भक्तिवडे ते प्रतिमानी पूजा करी रसिक स्तवनोवडे तेनी स्तुति करी. या प्रमाणे प्रत्यक्ष आश्चर्य थवाथी लोकोमा जैनधर्मनी महा प्रभावना थइ भने उदायन राजा पण जैनशासनमा कांइक रुचिवाळो थयो. तेथी ते राजाए अन्तःपुरमा ज मनोहर चैत्य करावी महोत्सव पूर्वक तेमां ते सर्वज्ञनी प्रतिमा स्थापन करी. पछी हमेशा प्रभावती राणी भक्तिथी तेनी त्रिकाळ पूजा करवा लागी, अने पूजाने अंते ते राणी प्रभुनी पासे नृत्य करती, ते बखते राजा पोते वीणा वगाडतो हतो. एकदा प्रभावती राणी विधिपूर्वक प्रभुनी पूजा करी तेनी पासे नृत्य करवा लागी. ते वखते राजाए नेशीनु मस्तक Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IS जायें नहीं रोधी व्यग्र थयेला राजाना हाथमाथी चीणानी कंवा नीचे पडी गइ. ते वखते नृत्यमां भंग धवाथी कोपायमान * थयेली राणीए राजाने कर्दा के-" शुं मारा नृत्यमा काइपण दोष आव्यो के जेथी तमे वीणा वगाडवानो त्याग कर्यो ?" | ते सांभळी राजाए काइपण प्रत्युत्तर साप्यो नहीं. त्यारे राजाने आग्रहथी पूछयु, एटले राजाए तेणीने सत्य हकीकतनी ते सांभळी महा सत्वयाळी राणी बोली के-" हे स्वामी ! ई चिरकाळथी श्रावकधर्मनुं सेवन करूं छु, तेथी मारे त्युनो | भय नथी, तो आ शल्प आयुष्यने सचचनारा निमित्तथी तमे शामाटे खेद पामो छो ? " ा प्रमाणे कही तेणीए राजाने शांत कर्यो. एकदा प्रभावती राणीए स्नान करी पूजाने माटे वस्त्रो लापवानुं दासीने कडं, त्यारे ते दासी संभ्रमी-उतावळथी वह वनने बदले रातो वस्त्र लावी. ते जोइ कोष पामेली राणीए कछु के-" जिनेश्वरनी पूजा करवा माटे चैत्यमा मारे । जबुं छे, ते वखते पा राता वस्त्रो मने केम श्रापे छ !" एम कही राणीए दासी उपर पोताना हाथमा रहेला दर्पणनो प्रहार कर्यो, ते तेणीने मर्मस्थानमा लागवाथी ते तत्काळ मरण पामी. ते जोइ पश्चात्ताप करती राणीए विचार कयों के "श्रा | निरपराधी दासीनो घात करवाथी मारा व्रतनो मंग थयो. तेथी हवे अनशन ग्रहण करीने पा पापनो हुँ नाश करूं.* कारण के व्रतनो भंग थवाथी विवेकी माणसे जीव योग्य नथी." या प्रमाणे विचारी राणीए पोतानो अभिप्राय राजाने कझो. ते सांभळी राजाए कमु के-" हे देवी! मारुं जीवित तारे साधीन छे, तेथी हुँ तने अनुमति प्रापतो नथी." ते सांभळी देवीए कर्यु के-“हे स्वामी ! ते वखतना दुनिमिचधी तमे मारं अन्य आयुष्य जाणो छो, छतां मारा स्वार्थनो वमे Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनाश केम करो छो ?" त्यारे राजाए कह्यु के-" हे प्रिया! जो तुं देवपणुं पामीने मने सारी रीते जैनधर्ममा प्रतिबोध पमाडे, तो हुँ तने रजा आपुं." ते सांभळी राजानुं वचन अंगीकार करी प्रभावती राणी अनशन ग्रहण करी स्वर्गे गइ. "श्राद्धधर्मनी आराधना करनारने या स्वर्गप्राप्तिरूप फळ मळे ते तो प्रासंगिक फळ छे, मुख्य फळ तो तेनुं मोक्ष छे." त्यारपछी देवदत्ता नामनी कुब्जा दासी निरंतर भक्तिपूर्वक ते जिनप्रतिमानी पूजा करवा लागी. हब वे प्रभावती देव स्वमादिकवडे राजाने प्रतिबोध करवा लाग्यो परंतु ते राजाए तापसनी भक्तिनो त्याग कर्यो नहीं. त्यारे ते देव एकदा तापसन रूप लइ राजानी पासे काव्यो. अने तेने मनोहर अमृतफळ पाप्या. तेनो स्वाद लइ आनंद पामेला राजाए तेने पूछथु के-" हे पूज्य ! बायां फळो क्या थाय छे" १ तेणे कमु के-“हे राजा ! आ नगरथी थोडे दूर अमारो आश्रम थे, त्यां आत्रां फळी घणां थाय छे." ते सांभळी राजाए विचार कयों के-" एक चखत तृप्ति थाय त्यां सुधी आशं फलो खाउं तो ठीक." एम बिचारी ते तापसनी माथे ज राजा तेना आश्रममा गयो. त्यां मनोहर फळो जोइ | राजा ते लेवा गयो, तेटलामा त्यां रहेला बीजा मायावी तापसो आक्रोश सहित बोन्या के-"अरे! तुं कोण के ? केम अहीं श्राव्यो ?" इत्यादिक कही क्रोधी राजाने मारवा दोड्या, ते जोइ राजा भय पाम्यो, अने "भा तापसोनो परिचय करवो सारो नथी." एम विचारी तसोना मारथी वचवा माटे एकदम नाठो. मार्गमा कोइ उद्यानमा मुनिओने लाइने राजा तेमने शरणे गयो, अने बोन्यो के–“हे पूज्यो ! आ पापी तापसोथी मारुं रक्षण करो." मुनियो बोल्या के-“हे राजा! तमे भय पामशो नहीं." मा प्रमाणे मुनि ओर कयु के वरत ज जाणे लज्जा पाम्या होय तेम ते तापसो पाछा वली पोताने Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |- न PAKohlke-t o -inke स्थाने चाल्या गया, त्यारपछी निर्भय थयेला वीतभय नगरना स्वामीने मुनियोए अमृत जेवा वचनोबडे जैनधर्मनो उपदेश पाप्यो. ते सांभळी प्राबिधि पामी राजाए श्रावकधर्म अंगीकार कर्यो. 'देवनो कोलो उपाय प्रातःकाळना मेघनी गर्जनानी जेम निष्फळ थलो नथी.' पछी ते देव तत्काळ प्रगट थइ राजाने धर्ममा स्थिर करी स्वर्गे गयो. राजाए पण तरत ज पोताने सभामां बेठेलो जोयो. त्यारपछी ते राजा निरंतर नवी नवी पूजाओबडे मोटा वैभवथी ते प्रतिमानी पूजा करवा लाग्यो.. आ अवसरे गांधार नामनो कोइ श्रावक चारित्र ग्रहण करवानी इच्छा थवाथी बिनेश्वरना कल्याणकोनां सर्व स्थानो वांदवा नौकळ्यो. अनुक्रमे वैतादय पर्वतपर रहेली शाश्वती प्रतिमाओने वांदवानी इच्छा थवाथी तेणे उपवास करी शासनदेवीनी आराधना करी. तेथी तुष्टमान थयेली देवीए तेने ते प्रतिमामोना दर्शन कराव्यां, अने सकळ वांछितनी सिद्धि करनार सो गुटिकाओ तेने आपी. त्यांथी पाछा फरेला ते श्रावके देवनी आपेली ते चंदननी प्रतिमा सांभळी, तेथी सेने वांदवा माटे ते वीतभय पत्तनमा आयो. त्यां ते दैवयोगे मांदो पडयो. ते वखते ते कुब्जा दासीए पितानी जेम तेनी सारी भक्ति करी. केटलेक दिवसे ते श्रावक सारो थयो, त्यारे ते सर्व गुटिकाप्रो कुब्जा दासीने आपी तेणे दीक्षा ग्रहण करी. पछी दासीए | हर्ष पामी विचाओँ के-"आ गुटिकाना प्रभावथी हुँ सुंदर प्राकृतिवाळी अने सुवर्ण जवा वर्णवाळी थाउं." एम विचारी तेणीए एक गोली खाधी. तत्काळ ते देवी जेवी मनोहर थइ गइ. तेथी ते सुवर्णगुलिका नामथी प्रसिद्ध थइ. एकदा तेणीए विचार कर्यो के-"पा मारूं रूप पति विना अरण्यना पुष्पनी जेम निष्फळ छे. पा राजा तो मारा पिता समान होबाथी तेनापर मने राग थतो नथी, तेथी मोटी समृद्धिवाळो चंडप्रद्योत राजा मारा भर्ता थाओ." एम विचारी वेणीए Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक गुटिका खाधी. तेना प्रभावथी देवीए चंडप्रद्योत राजा पासे जइ सुवर्णगुलिकाना रूपनुं वर्णन कयु. ते सांभळी प्रधोत राजाए तेणीने बोलावी लावदा माटे पोताना एक दूतने वीतभय पत्तनमा मोकन्यो. ते दृते जइ तेणीने राजानो संदेशो कयो, त्यारे ते बोली के—" जो मने लइ जवी होय तो प्रद्योत राजा पोते मने सेडवा आवे, कारण के में तेमने कोइ पण चवते जोया नथी. "श्रा प्रमाणे तेणीनं वचन दूते जइ प्रद्योत राजाने को. त्यार ते राजा पण अनलगिरि नामना गंधहस्तीपर मारूढ थइ रात्रिने खते वीतभयपत्तनमा प्राची तेणीने मळ्या, तेने जोइ सुवर्णगुलिका तेनापर आसक्त थइ अने बोली के--" हे राजा ! जो मा प्रसुनी प्रतिमा तमे साथे लइ च्यो, तो हुँ तमारी साथे आg." ते सांभळी प्रद्योते कमु के--" आने ठेकाणे बीजी एवीज प्रतिमा मूकवी जोइए, माटे ने लइने हुं आयु ." एम कही ते अवंतीपति तत्काळ अवंती नगरीमा गया, अने तेना जेबी ज नवी वारप्रभुनी प्रतिमा भरावी कपिल नामना महर्षि पासे तेनी प्रतिष्ठा | कराची फरीथी गंधहस्ती पर आरूढ थइ रात्रिने समय बीतमयपत्तनमा प्राव्यो. हस्तीन नगर बहार मूकी ते नवी प्रतिमाने लइ प्रद्योत राजा राजमहेलमा गयो. त्या नवी प्रतिमा मूकी भागळनी प्रतिमाने लइ सुवर्णगुलिका सहित ते प्रद्योत राजा इस्तीपर आरूढ थइ एकदम अवंती नगरीमा श्राव्यो. ते चखते ते गंधहस्तीए वीतभय पत्तननी यहार विष्टा तथा मूत्र कयों हतां, तेना गंधथी ते पत्तनना सर्व हस्तीयोनो मद नाश पाम्यो. प्रातःकाळे बकरा जेबा थह गयेला ते हाथीओने जोइ भयभ्रांत थयेला महाचतोए ते हकीकत राजाने कही. त्यारे राजाए पोताना सेवकोने तेनो निर्णय करवा हुकम कर्यो, एटले तेश्रोए अवंतीना मार्गमा हाथीनां पगला जोइ पाछा भावी राजाने कयु के-" खरेखर अनलगिरि हस्तीपर प्रारूढ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | थह घंडप्रद्योत राजा राटी पाव्यो दोस्रो जोडा. केमके नेना विना बोजा कोइ पासे गंधहस्ती छ एम सांभळ्यु नथी. ते | हस्तीना ज गंधथी आपणा हाथीभो सर्वे मदरहित थइ गया छे." या प्रमाणे तेस्रो वात करे चे, तेटलामा कोइ कंचुकीए आवी राजाने कयु-"आपणा महेलमा आजे सुवर्णगुलिका दासी नथी." ते सांभळी राजाए कयु के-'ते राजा पोते प्रावी | सुवर्णगुलिका दासीने हरी गयो जणाय थे, तेमा आपणने काइ हरकत नथी. परंतु ते प्रभुनी प्रतिमा के के नथी ? तेनी तपास करो."सेवकोए स्थळदृष्टिए जोड़ने का के-"प्रतिमा तोते काय छे." पछी पूजाने समये राजा पोते चैत्यमांगयो, त्यां | करमाइ गयेला पुष्पनी माळा जोइ खेद पामी राजाए विचार्य के-“जे मूळ प्रतिमा हती तेने स्थाने आ वीजी प्रतिमा मूकी छे, I तेम न होय तो आ पुष्यो कदापि करमाय नहीं." त्यारपछी राजाए पोतानो दूत प्रयोत राजा पासे मोकन्यो. तेणे जइ || प्रद्योतने कयु के-" श्री उदायन राजा मारा मुखबडे तमने कहेवराये छ के-चोरनी जेम दासीने अने प्रतिमाने लइ जतां तमने ला केम आवी नहीं ? अथवा दासीपर आसक्त थयेला तमारी आवी चेष्टा होय ते योग्य ज छे. तोपण कार्या-* कार्यने जाणनारा मारे दासीयूँ कोइ पण प्रयोजन नथी. मात्र मारी प्रतिमार्नु ज हुँ कुशळ इच्छुछु. माटे ते शीघ्रपणे मोकली |* आपो. जो ते प्रतिमाने नहीं पापो तो श्रीउदायन राजा प्रलयकाळना उकळता समुद्र जेवी सेना सहित अहीं श्रावशे. | एम तमारे नक्की जाणवु. " ते सांभळी क्रोध पामेलो चंड प्रद्योत राजा बोल्यो के--" हे दूत ! खरेखर तुं निर्लज छ, के जेथी मारी पासे पण भावां वचन बोले छे. रत्नरूप प्रतिमा अने दासीनं हरण करतां मने लजा शानी ? गमे ते प्रकारे | रत्नने पोतार्नु करर्बु एम शुं ते सांभळ्यु नथी ? दार्साने के प्रतिमाने पाछी पापवा माटे हुँ हरी लाव्यो नथी, छतां तेने Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ok ****-04 ग्रहण करवा जो तारो स्वामी इच्छा करशे, तो ते अवश्य मारा हाथथी मरण पामशे, माटे तेने यहीं आववानो प्रयास करवो निष्फळ छे, छतां आवशे तो मने ते जीती शकवानो नथी. हाथी अति वळवान होय तो पण कांड पर्वतने चलावी शकतो नथी, " श्रा प्रमाणे तेनां वचनों दूते जइ उदायन राजाने कलां. ते सांभळी राजाए तत्काळ यात्रानी मेरी वगडावी. ते बखते जेष्ट मास हतो तोपण उदायन राजाए सर्व सैन्य अने दश मुकूटबद्ध राजाओ सहित अती तरफ प्रयाण कर्यु. अनुक्रमे सैन्यवडे पृथ्वीने अने धूळवडे दिशाओने याच्छादन करतो राजा निर्जळ प्रदेशवाळी मरुभूमिमां प्राव्यो. त्यां जळ विना समग्र सैन्य कंठप्रारण थह गर्छु. ते वखते राजाए प्रभावती देवलुं स्मरण कर्यु, एटले तत्काळ ते देवे भावी ण सरोवर जळथी भरी दीघां. तेमांथी शीतळ जळपान करी सर्व सैन्य स्वस्थ थयुं. अन्न विना जीवा शकाय छे, पण जळ विना जीवी शकातुं नथी. " पछी राजानी रजा लक्ष् ते देव स्वस्थाने गयो अने उदायन राजा पण अनुक्रमे अवंती पहोच्यो. तेणे प्रद्योतने दूतद्वारा कहेवरायुं के " घणा मनुष्योनो विनाश करवाथी शुं फळ छे ! आपणा बन्नेनुं परस्पर युद्ध हो. तेमां पण दमे रथ, अश्व के हस्तीपर आरूढ थइने के वाहन विनाज जे रीते युद्ध करवा इच्छता हो, ते कहो, के जेथी हुं पण ते ज श्रमाणे युद्धमां उत्तरं. " ते सांभळीने प्रद्यो कछु के- “ रथमां बेसीने श्रापणुं युद्ध थाओ " आ वचन दूतना कवाथी जाथी उदायन राजा रथमां श्रारूढ थयो. अहीं प्रद्योत राजाए विचार कयों के – “ रथमां बेसीने हुं उदायन राजाने जीती शकश नहीं. " एम विचारी अनलगिरीने सज करी तेनापर बेसीने अवंतीस्वामी युद्धमां आव्यो. तेने गजारूढ जोड़ उदायन राजाए कछु के---" हे पापी ! तुं तारी प्रतिज्ञानो लोप करी हाथीपर चडीने श्रन्यो Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ, तो पण हूं तने छोडीश नहीं." एम कही बुद्धिमान उदायन पोताना रथने गोळ मंडळरूपे भमाडवा लाग्यो. अने प्रद्योत पण पोताना हाथीने स्थनी पाछळ पाछळ भमाडवा लाग्यो, तेमां ते गंधहस्ती चालता चालतां जे जे पग उंचो करतो हतो ते ते पगने उदायन राजा तीक्ष्ण बाणोवडे वींधवा लाग्यो. सर्व पगो वींधाई * जबाथी ते हस्ती नीचे पडयो के तरत ज बळवान उदायने ते राजाने हाथीपरथी नीचे पाडी बांधी लीधो. पछी ते प्रद्योतना कपाळमा 'पा मारी दासीनो पति छे' एवा अचरो लखी हर्षधी ते दिव्य प्रतिमा लेवा गयो. प्रतिमानी नमस्कारपूर्वक पूजा करीन तने उपाडवानो घणो उद्यम कर्यो, पण ते प्रतिमा जरा पण चलायमान थइ नहीं. ते घरखते आकाशवाणी थइ के-चीतभय पचन धूळनी वृष्टिथी स्थळरूप थइ जबार्नु छ, तेथी हे राजा ! हुं त्यां श्रावीश नहीं." ते सांभळी उदायन राजा पाछो फरी प्रद्योत राजाने साथे ज लइ पोताना देश तरफ चान्यो. मार्गमा जतां वर्षाकाळ पाव्यो, तेथी प्रयाण न थइ शकबाने लीधे राजाए त्यो ज सैन्यनो पडाव नोख्यो. ते वखते चौतरफ धूळनो किल्लो करी ते दशे , राजाओ तेनी रक्षा करवा लाग्या. त्या वेपार करवा माटे घणा वेपारीओ पण पाबीने रखा. ते शियिरनुं नाम कोई पूछतं । त्यारे लोको तेने दशपुर कहेता हता. उदायन राजा हमेशा चंडप्रद्योत राजाने पोतानी साथे ज भोजनादिक करावतो हतो. तेवामां पर्युषणा पर्व भाव्यु, त्यारे उदायन राजाए ते दिवसे उपवास कर्यो. तेथी राजाची आज्ञाथी रसोइयाए प्रद्योतने "भाजे तमारे शुं भोजन करवू छ ? ” एम पूछ्युं, ते सांमळी तेणे विचार कर्यो के-" कोइ दिवस मने भोजनादिक माटे पूज्यं नथी, अने पाजे ज पूछ्यु, माटे जरुर मने आजे विषादिक खवरावी मारी नखिचो हशे." एम विचारी तेणे रसोइयाने पूछ्यु के-" तुं मने TAAICIALI Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माम पूरे हे ?" सोइयाग यहां के-" आजे सांवत्सरिक पर्व होवार्थी अमारा स्वामीए परिवार सहित उपवास कर्यो छे. तेथी आजे मात्र तमे ज जमवाना होवाथी तमने पूछु छु." ते सांभळी भवंतीपतिए कह्यु के-"ते मने भाजे वार्षिक पर्व संमारी प्राप्यु ते बहु ठीक थयु. मारे पण भाजे उपवास छे. केमके मारा मातापिता पण श्रावक हता." आईं प्रद्योतनुं | बचन रसोइयाए उदायन राजाने क{. ते सांभळी तेणे कयु के--" ते केवो श्रावक छ ? ते ९ जाणुं , परंतु ते मायावी श्रावक पण बंधनमा हशे त्यासुधी मारु पर्युषणा पर्वन अतिक्रमण शुद्ध थशे नहीं. " एम कही तेणे प्रद्योतने छोडी मूक्यो. यन राजाए तेना कपाळना भचरो ढांकवा माटे तेने कपाळे पर श्रोने ते पट्टबंध लक्ष्मीना (शोभाना) स्थानरूप थयो. पछी उदायन राजा तेने ते देश पापी वर्षाकाळ उता पछी पोताना वीतभयपत्रने गयो. पारने माटे आचेला वणिग्जनो त्यो ज रह्या, तेथी त्यां दशपुर नामर्नु नगर थयु. ____एकदा उदायन राजा पोषध करीने पौषधशाळामा रह्या हता, त्यां रात्रिए धर्मजागरण करता तेने विचार धयो के" ते नगर, गाम, आकर अने द्रोण विगेरे धन्य छे के जेने जगद्गुरु श्री वर्धमानस्वामी पोताना चरणवडे पवित्र करे छे. ] जेश्रो वीरप्रभुनी वासी सांभळी श्रावकधर्मने अने चारित्रने ग्रहण करे छे ते राजाओने पण धन्यवाद घटे छे. जो कदाच | प्रभु पोताना चरणकमळवडे श्रा वीतभयपत्तनने पवित्र करे तो हुं तेमनी पासे दीक्षा ग्रहण करी कृतार्थे थाउं." आवा तेना विचारने जाणी श्रीवीरप्रभु चंपानगरीथी विहार करी वीतभयपचनना उद्यानमा समवसर्या. प्रमर्नु आगमन सांभळी हर्ष पामेला उदायन राजाए प्रभु पासे आवी वंदना करीने देशना सांभळी. पछी मा प्रमाणे विनंति करी के Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हे पूज्य ! मारा पुत्रने राज्य सोंपी हुँ दीक्षा लेबा आपनी पासे अावं, त्यांसुधी आप कृपा करीने सही ज रहेजो,” स्वा- | मीए कडं—“आ बाबतमा प्रमाद करवो नहीं." ते सांभळी राजा स्वामीने नमी घेर आवी विचार करवा लाग्यो के"जो हुं मारा अभीचि नामना पुत्रने राज्य आपीश तो ते राज्यमा मूर्छा पामशे अने तेथी ते चिरकाळ सुधी भवभ्रमण | करशे. तेथी करीने प्रारंभमां मनोहर अने परिणामे भयंकर एवं श्रा विषफळनी जेवु राज्य हुं मारा पुत्रने नहीं श्रा'. " एम | I विचारी तेणे पोतानी व्हेनना पुत्र केशिने राज्यपर स्थापन कर्यो अने केशिए करेला उत्सवपूर्वक राजाए प्रभुपासे दीक्षा | के ग्रहण करी. पली एक सपवासी भीने मासञ्चपण पर्यंतना दुस्तप तपवडे ते राजर्षि कर्मनुं अने कायानुं शोषण करीने | विवरवा लाग्या. एकदा अंतनांत आहार करवाथी तेमना शरीरमा अनेक रोग उत्पन्न थया. ते वखते तेने वैद्योए ते रोगर्नु । औषध दही छ एम कडं. तेथी ते राजर्षि गोकुळमां विचरवा लाग्या. केमके त्यां निर्दोष दहींनी भिक्षा सुलभ होय छे. ___ एकदा उदायन राजर्षि विहारना क्रमे वीतभयपत्तनमा गया. ते वखते अकारण शत्रुरूप मंत्रीओए केशिराजाने कहाँ के--" हे राजा! आ तमारा मामा परिपहोथी पराभव पाम्या छे, तेथी राज्य लेवानी इच्छाथी ग्रहीं श्राव्या के तेनो तमारे विश्वास करवो नही." ते सांभळी कशि राजा बोल्यो के-" ते राज्यना स्वामी पोतानुं राज्य ले, तो तेमा मारे शु ! शेठ पोतानुं धन ग्रहण करे, तेमां चाणोतरने कोप शानो ?" ते सांभळी प्रधानो बोल्या के-" या क्षत्रियोनो धर्म नथी. केमके क्षत्रियो तो पिता पासेथी पण बळात्कारे राज्य लइ ले छे. तेथी तमे तेने राज्य पाछु आपो ते योग्य नहीं. एवी रीते कोइ पण पार्छ श्रापेज नहीं." ते सांभळी केशिए तेमने पूछयु के-" त्यारे मारे शुं करवू ? " Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुष्टोए जवाब आयो के - " तेने कोहनी मारफत विष अपावो. " या प्रमाणे मंत्रीयांना भरमाववाथी ते मंदबुद्धिवाळा शिए मनुं वचन अंगीकार कर्यु. पछी केशिराजाए कोइ आमिरी पासे ते राजर्षिने विषमिश्रित दहीं अपा. परंतु देवी माथी विषने हरी लीधुं अनेक के- " हे मुनि ! विषमिश्रित दहीं तमने मळशे, माटे तमे दहींनो त्याग करो. " त्यारे तेथे दहींनो त्याग कर्यो एटले दहीं विना तेनो व्याधि बघवा लाग्यो. तेथी मुनिए फ़री दहीं लेवा मांड. मां विषयं ते देवीए हरी पूर्वनी जेम दहींनो निषेध कर्यो, जीजीवार पण देवीए विष हरी लीधुं, अने ते सुनिनी भक्तिमा लीन थयेली होवाथी ते तेनी पाछळ ज भमवा लागी. एकदा देवी प्रमादमां रही, ते वखते सुनिए दहीं खाधुं. " जे थवानुं होय ते कोइ पण प्रकारे थाय ज छे. " त्यारपछी सुनिए पोताना अंगनी व्याकुळता जोइ विषभचण थयानुं जाणी तत्काळ समताभावमां रही अनशन ग्रहण कर्यु. त्रीश दिवस सुधी अनशन पाळी समाधिमा रही केवळज्ञान पामी ते राजर्षि मोघे गया. ते उदायन राजर्षि मुक्ति पाम्या पछी देवी सेनी पासे यावी अने मुनिने काळधर्म पाम्या जोइ ते मनमां अत्यंत क्रोध पामी. तेथी धूळनी वृष्टि करीने ते देवीए वीतभयपत्तनने स्थळरूप बनावी दीधुं. मात्र एक कुंभार के जे मुनिनो शय्यावर Bharat निरपराधी तो तेने ते देवी त्यांथी सिनपल्लीमां लइ गह, ते ज मात्र एक जीवतो रह्यो, त्यां तेना नामथी ते देव कुंभकारकृत नामनुं नगर बसाच्युं. देवनी शक्तिथी चुं न थाय ? अहीं जे चखते उदायन राजाए केशिने राज्यपर स्थापन कर्यो, ते वखते मनमां खेद पामेला अभीचिए विचार कर्यो के Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -A पन • -ሀ **** (→→3/00 66 हुं प्रभावतीनी कुचिमांथी उत्पन्न थयो छु, नीतिवाळो हुं भने भक्तिमान पण हुं; छतां राजाए केशिने राज्य आप्युं, ते मारा पितre fast छत योग्य कर्यु नथी. "भाणेजने घरमां लाघवो नहीं " एम लोकमां पण कद्देवत छे ते सत्य के पुत्रने छोडी भागे राज्य आप सपने के कोर व पण नहीं ? तेम ज तेने केम अपशुकन पण थयां नहीं ? अथवा तो मारा पिता प्रभु के तेथी तेथे पोवानी इच्छा प्रमाणे करें, तो भले कर्षु, परंतु हूँ उदायन राजानो पुत्र थड़ने मारे केशिनी सेवा करवी ते योग्य नथी." एम विचारी ते अभीचि नगरमाथी नीकळी चंपानगरीमां पोतानी मासीना पुत्र कृषिक राजा पासे गयो. त्यां कृमिक राजाए तेनो सारो सत्कार कर्यो, तेथी ते मोटी समृडिने पाम्यो. तेणे चिरकाळ सुधी अतिचार रहित श्राद्धधर्मनुं पालन कर्यु, परंतु पिताना तिरस्कारनुं स्मरण थवार्थी तेनापरना वैरनो तेथे त्याग क नहीं. ते श्रभीचि घणा वर्षो सुधी श्रावकधर्मने पाळी पितापरना बैरनी आलोचना कर्या बिना एक पचनुं अनशन करी काळधर्म पायो ने सुरकुमारने विषे एक पल्योपमना आयुष्यवाळो ते महर्द्धिक थयो. त्यांथी श्रायुष्यने क्षये व्यवी महाविदेहमाँ जन्म पामी ते अभीचिनो जीव सिद्धिपदने पामशे. इति श्री उदायन राजर्षि कथा. hta कासीराया, सेओसच्चपरक्कमे । कामभोगे परिचज, पहणे कैम्ममहावणं ॥ ४९ ॥ अर्थ - (तत्र ) तेज प्रमाणे (सेयोच्चपरकमे ) अत्यंत प्रशंसा करवा लायक एवा सत्यने विषे एटले चारित्रने विषे पराक्रमवाळा ( कासीराया ) काशी देशना नंदन राजाए ( कामभोगे ) कामभोगनो ( परिचज ) त्याग करीने (कम्म Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | महावणं) कर्मरूपी महावननो ( पहणे ) नाश कयों. ४६. काशीराजनी कथा. वाराणसी नगरीमा अग्निशिस्त्र नामे राजा हतो. तेने जयंती नामनी प्रिया हती. तेनी कुचिथी सातमो चळदेव | पुत्र उत्पन थयो. तेनुं नंदन नाम पाइधुं. त्यारपछी ते ज राजानी शेषवती नामनी बीजी राणीथी दत्त नामनो वासुदेव पुत्र उत्पन्न थयो. भवसरे राजाए दत्तने राज्य प्राप्युं. तेणे नंदननी सहायथी त्रण खंड भरत साध्यु. चिरकाळ सुधी ध्वीश धनुषनी कायावाळा बने भाइप्रोप राज्यलक्ष्मी भोगवी, अनुक्रमे छप्पन हजार वर्षतुं आयुष्य पूर्ण करी दच वासुदेव पांचमी नरकपृथ्वीमा गयो. तेना मरण पछी वैराग्य पामेला नंदने दीक्षा ग्रहण करी. छेत्रट केवळज्ञान प्राप्त करी पांसठ हजार | वर्षतुं आयुष्य भोगवी नंदन मुनि मोक्षपद पाम्या. इति काशीराजकशा. तहेव विजओ रोया, आणट्ठाकित्ति पंचए । रंजं तु गुणसमिद्धं, पेयहित्तु महायसो ॥ ५० ॥ अर्थ-( तहेव ) तेमज वळी ( आणद्वाकित्ति ) नाश पामी के अपकीर्ति जेनी अथवा 'श्राणहा' एटले प्राध्यान रहित अने 'कित्ति' कीर्तिवाळो तथा ( महायसो ) महा यशस्वी एवो ( विजो) विजय नामनो ( राया) राजा बीजो बळदेव ( गुणसमिद्धं तु ) गुणे करीने समृद्धिवाळा एवा पण ( रजं) राज्यनो (पयहित) त्याग करीने ( पचए ) प्रत्रजित Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थयो. अहीं गुणे करीने समृद्धिवा राज्य क मा गुण एटले स्वामी, अमात्य, मित्र, कोश, राष्ट्र, दुर्ग अने सैन्य-ए । सप्तांग राज्य जाणवू अथवा गुण एटले कामभोग जाणचा. ५०. विजयराानी कथा. द्वारका नगरीमा ब्रह्मराजनो पुत्र सुभद्रानी कुक्षिथी उत्पन्न थयेलो विजय नामनो बीजो मळदेव इनो. तेनो नानो | भाइ द्विपृष्ठ वासुदेव हतो. ते बोतेर लाख वर्षनुं आयुष्य पूर्ण करी मरण पामी नरके गयो, त्यारे विजये वैराग्यथी दीक्षा अंगीकार करी, अनुक्रमे केवळज्ञान उत्पन्न करी पंचोतेर लाख वर्षतुं आयुष्य पूर्ण करी विजयमुनि मोक्षपद पाम्या. मा वमेनुं | देहमान सीत्तेर धनुष्य हतुं. इति विजयराजकथा. तहेवुग्गं तवं किच्चा, अवविखत्तेण चेअसा । महब्बलो रायरिसी, आदाय सिरसा सिरीं ॥५१॥ ___ अर्थ-( तहेव ) तथा वळी ( महबलो ) महाबळ नामना ( रायरिसी) राजर्षि (सिरसा ) मस्तकवडे (सिरी) चारित्रलक्ष्मीने (प्रादाय ) ग्रहण करी एटले माथा साटे अर्थात् जीवितनी अपेक्षा रहितपणे चारित्रलक्ष्मी ग्रहण करीने (अव्वरिखचेण ) व्यग्रता रहित-स्थिर (पेसा) चित्तबडे ( उग्गं ) उग्र (त) तप (किचा) करीने त्रीजे भवे मोक्ष पाम्या. (ए अन्याहार के) ५१. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावळ राजानी कथा. हाज भरतक्षेत्र हल्लिन र नालनः नारने विषे अतुल बळवाळो घळ नामे राजा हतो. तेने देदीप्यमान कातिवाळी | प्रभावती नामनी राणी हती. एकदा रात्रे सुख सुतेली ते राणीए स्वप्नमां सिंह जोयो. तत्काळ जागृत थइ हर्ष पामीने तेणीए राजाने ते स्वप्न कही तेनुं फळ पूछधुं. राजाए कह्यु-"या स्वप्नथी तन प्रापणा कुकरूपी समुद्रनो उदास करवामां चंद्र समान पुत्र थशे." ते सांभळी हर्ष पामेली राणीए गर्भ धारण कयों. अनुक्रमे समय पूर्ण थये राखीए शुभ लक्षणोवडे संपूर्ण पुत्र प्रसव्यो. त्यारे बळराजाए हर्षथी मोटो उत्सव करी तेनुं महायळ नाम पाडयुं. पांच धात्रीोधी | लालन पालन करातो ते कुमार कळाना सम्हने प्राप्त करी मनोहर युवावस्थाने पाम्यो. त्यारे राजाए तेने जामो पाठे *ओनी लक्ष्मी होय तेवी आठ राजकन्यायो महोत्सवी एक दिवसे परणावी. पछी राजाए कुमारने तथा बहुओने घणी समृद्धि प्रापी. तेथी ते कुमार सद्गुणपडे मनोहर एवी ते आठे प्रियाओ साथे इच्छा प्रमाणे कामभोग भोगववा लाग्यो. एकदा ते नगरना उद्यानमां पांचसो शिष्योना परिवार सहित श्री विमलनाथ तीर्थकरनी पट्टपरंपरामा धयेला धर्मघोष नामना भाचार्य महाराज पधार्या. तेमनुं आगमन सांभळी आनंद पामेलो महावळ कुमार गुरु पासे गयो. तेमने वंदना करी कर्मरूपी मळने धोवामां जळसमान धर्मदेशना सांभळी. तेथी ते कुमार मंदभाग्यवाळा प्राणीप्रोने दुर्लभ एको वैराग्य पाम्यो. एटले तेणे गुरुने प्रणाम करी विज्ञप्ति करी के-" हे पूज्य ! रोगी माणसने जीवाडे तेवा औषधनी जेम मने या धर्म रुच्यो छे, तेथी हुं मारा मातापितानी रजा लइ दीक्षा लेवा माटे ग्रही आवं, त्यांसुधी भाप मारापर ऊपर Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करी नहीं ज रहेजो." ते सांभळी प्राचार्य महाराजे कधु के-" हे राजकुमार! तमारो विचार योग्य छे. माटे आ बाबसमां विलंब करवो नहीं. " पछी हमारे घर जड़ मातापिताने प्रणाम करी कयु के---"धर्मघोष गुरुनी धर्मदेशना सांभळी पानंद पाम्यो छु. तेथी आप पूज्योनी भनुज्ञाथी हुँ तेमनी पासे दोचा लेवा इच्छु ए. वहाण मळ्या पछी कयो * माणस समुद्रमा डुबतो रहे ?" मा प्रमाणे कुमारनु वचन सांभळी प्रभावती राणी पृथ्वीपर मूर्खा खाइने पडी गइ. पछी | शीतोपचारथी सावधान थइ सती ते रुदन करती बोली के-" हे पुत्र ! अमे तारा वियोगने सहन करवा शक्तिमान नथी. तेथी ज्यांसुधी अमे जीवीए छीए त्यांसुधी तुं गृहस्थाश्रममा ज रहे. पछी दीक्षा ग्रहण करजे." कुमारे कधू-"मा जगतमा सर्व संयोगो स्वप्ननी जेवा चणिक अने असत् छ, तथा मनुष्यतुं आयुष्य वायुथी हलता दर्भना अग्रभागपर रहेला जळना बिंदु जेवू चंचळ छे. तेथी हुँ नधी जाणतो के पहेलु कोण जशे ? माटे मने आजे ज प्रव्रज्या लेवानी आज्ञा आपो, " माताए कह्यु" हे वत्स! आ तारुं यौवन वयवाळं शरीर अति मनोहर अने कोमळ छे, माटे हमणां सुख भोगव अने पछी वृद्धावस्थामा दीक्षा ग्रहण करजे." कुमारे कयु-" हे माता! आ शरीर रोगोथी व्याप्त थे, अशुचिथी * भरेलुं छे, मळथी मलिन छे, अने कारागृहनी जेवू असार छे. आवा शरीरथी मनुष्यने शुं सुख के ? वळी शरीरमा शक्ति होय त्यारे ज चारित्र लेवू योग्य छ, वृद्धावस्थामां शरीर अशक्त बाथी चारित्र घरावर पाळी शकातुं नथी, अथवा ते वस्त्रते मन न होय तो पण ब्रत जेधुंज छे, माटे युवावस्थामाज दीक्षा सफळ थाय छे." प्रमावती माता बोली-"समग्र | गुणना स्थानरूप आ आठ स्त्रीमोनी साथे हममा तुं भोग भोगव. हमो प्रत लेवाथी शुं?" महाबळ कुमार बोन्यो Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " कष्टधी साधी शकाय तेवा, अज्ञानी जनोए संवेला, दुःखना अनुबंधवाळा अने विषफळनी उपमावाळा भोगोधी झुं फळ छ ? बळी मोक्षने आपनारा मा मनुष्य भवने कयो डायो माणस भोगने माटे हारी जाय ? एक कोडीने माटे रत्नने कोण || | गुमावे?" माता बोली-" है पुत्र ! आ वंश परंपराधी भाषेला न्यनो भोगवटो कर, या पण पुण्यरूपी वृक्षर्नु ज मा फळ छ." कुमारे कडुं--" हे माता ! जे धन क्षणवारमा गोत्रिओ, घोर भने अग्नि विगेरेने आधीन थाय छे, ते धनधी । मने लोभ केम पमाडो छो? वळी अनंत सुखने पापनारो धर्म परभवमा पण साधे श्रावे छे, अने धन तो तेनाथी विपरीत छे, तेनी तुल्यता शी रीसे थइ शके ?" माताए कह्यु-" हे पुत्र ! चारित्र तो अमिनी ज्वाळानु पान करवा जेवू दुष्कर छे, ते तुं सुकुमार अंगवाळो शी रीते पाळी शकीश ? " कुमार हसीने बोन्यो-" हे माता ! एवं शू चोलो छो ? कायरी पुरुषोने ज व्रत दुष्कर होय छे. जे वीर पुरुषो होय ते तो प्राणनो नाश थाय तोपण पोतानी प्रतिज्ञानुं पालन करे छे. तेवा परलोकना अर्थाने ते व्रत काइपण दुष्कर नथी. तो हे पूज्य मातुश्री ! मारापरना मोहनो त्याग करी भने चारित्र लेवानी | आज्ञा आपो. बीजो पण कोई धर्मर्नु आचरण करवा इच्छतो होय तेने उत्साह आपवो जोइए, तो पोताना पुत्रने उत्साह श्रापवो तेमा शुं कहेछु ?" भा प्रमाणे उत्कट वैराग्यने पामेला ते कुमारने तेना माता पिता समजावी शक्या नहीं, एटले निरुपाय थइ तेने व्रत लेवानी आशा पापी. त्यारपछी ते महावळ कुमारने तीर्थना जळवडे अभिषेक कर्यो, चंद्रिकानी जेवा चंदनना द्रव्यवडे तेना शरीरने विलेपन कये, अश्वना मुखना फीण जेवा उज्वळ ये देवबुष्य वस्रो तेने पहेराव्यां, पगी मस्तक पर्यंत मणिमय प्राभूषणोबडे तेने Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | शणगारवामां आव्यो, विकस्वर कमळनी जेवू श्वेत छत्र तेना मस्तकपर धारण करवामां आव्यू, बन्ने बाजु उछळता जळतरं. | गोनी जेवा चपळ चामरो चीझाया लाग्या, ए रीते हजार मनुष्योए वइन करेली शिबिकार्मा ते कुमार ठो. तेनी पाछळ बळराजा सर्व सैन्य सहित चाल्यो. ते वखते मेरी विगेरे वाजित्रोना नादवडे मेघगर्जनानी भ्रांतिथी क्रीडामयूरो पण नृत्य | करवा लाग्या. "जे ना यौवनवाळो छत्ता मनोहर राज्यलक्ष्मीनो त्याग करी दीक्षा ग्रहण करे छे, ते आ महाबळ कुमारनो जन्म कृतार्थ छ." इत्यादिक अनेक प्रकारे सर्व लोको तेनी प्रशंसा करवा लाग्या. पा रीते चिंतामणिनी जेम अर्थीओने वांछित दान आयतो महाबळ कुमार नगरनी बहार नीकळी श्राचार्ये पवित्र करेला उद्यानमा आयो. ___पछी कुमार शिविकामांथी नीचे उतो. तेने पागळ करीने राजा तथा राणी गुरुपासे जइ हाथ जोडी बोल्या के| "पा अमारो प्रिय पुत्र विरक्त थयो छे, तेथी आपनी पासे दीक्षा ग्रहण करवा पाव्यो छे, तेथी अमे पण आपने शिष्यरूप | भिक्षा मापीए छीए."ते सांभळी गुरुए 'बह सारूं' एम का, एटले ते कुमारे ईशान खूणामां जइ सर्व प्रलंकारोने जाणे | विकार होय तेम दूर कर्या. ते अलंकारोने ग्रहण करती प्रभावती राणी मुक्ताफळ जेवा अश्रुना बिंदुसोने मूकती बोली के " हे वत्स ! तुं कदापि धर्मकार्यमा प्रमाद करीश नहीं, अने उत्तम मंत्रनी जेम निरंतर गुरुमहाराजनी आराधना करजे." पछी गुरुमहाराजने नमस्कार करी राणी सहित राजा पोताने घर गया, महाबळ कुमारे जाते पोताना केशनो पंचमुष्टि लोच कर्यो, धने धर्मघोष गुरुने भक्तिवडे नमस्कार करी विज्ञप्ति करी के-“हे पूज्य ! संसारसागरमां डूबता मने दीचारूपी | नाव आपो." त्यारे सूरिमहाराजे तेने विधिपूर्वक दीक्षा आपी. महा बुद्धिमान ते महावळ मूनिए तीन व्रतर्नु पालन करता Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | चौद पूर्वनो अभ्यास कर्यो. बार सुधी अति उन्न तावारी पट रकः मासर्नु अनशन करी पांचमा देवलोकमा ते देव । थयो. त्यां दश सागरोपमनुं आयुष्य पूर्ण करी त्यांची च्यची वाणिज नामना गाममा सुदर्शन नामे श्रेष्ठ श्रेष्ठी थयो. त्या | || समकित दर्शनवडे पवित्र आत्मावाळा ते सुदर्शन श्रेष्ठीए चिरकाळ सुधी श्रावकधर्मनुं पालन क. ___एकदा ते गाममां श्री महावीर स्वामी समवसर्या. ते सांभळी श्रेष्ठी अत्यंत आनंद पाम्यो. पछी जिनेश्वर पासे जा | मा तेमने बंदना करी तेमनी पासे धर्म सांभळी प्रतिबोध पामी विरक्त थवेला सुदर्शन श्रेष्ठीए अर्थीजनोने वांछित द्रव्य पापी | प्रभु पासे दीक्षा ग्रहण करी. पछी ते श्रेष्ठीमुनि सर्व पूर्वनो अभ्यास करी उग्र तप करी प्रति सर्व कर्मनो क्षय करी मोचपद पाम्या. इति महाबलर्षि कथा. या प्रमाणे महापुरुषोना दृष्टांतवडे ज्ञानपूर्वक क्रियानुं फळ बतावी हवे उपदेश आपे छकह धीरे आहेऊहि, उम्मत्तो व्य मेहि चरे । एए विसेसमादाय, सूरा देढपरक्कमा ॥ ५२ ।। ___ अर्थ---(सरा ) शूरवीर अने ( दढपरकमा ) दृढ पराक्रमवाळा ( एए ) प्रा भरतादिक महापुरुषोए ( विसेस ) अन्य | दर्शनो करता जैन दर्शनमा उत्तमतारूप विशेष छ एम (आदाय ) ग्रहण करीने जाणीने तेनो ज पाश्रय कर्यो छे, माटे | (धीरे) धीर पुरुष (अहेऊहिं ) क्रिया, अक्रिया, विनय श्रने अज्ञानरूप कुहेतुपडे ( उम्मत्तो ब ) उन्मत्तनी जेम ( कई ) केम ( महिं ) पृथ्वीपर ( चरे । विचरे ? सत्तत्त्वनो अपलाप करी असत्प्ररूपणानुं प्रतिपादन करी पृथ्वीपर केम विचरे ! Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOK OK नज विचरे. तेथी करीने धीर पुरुषे था जिनशासनने विषे ज दृढ चित्त कर, ए उपदेश छे. ५२. अचंत्तनिआणखमा, सच्चा 'मे भासिआ ई । तरिंसु तरंगें, तैरिस्सति प्रयागया ॥ ५३ ॥ अर्थ - जिनशासन ज आश्रय करवा लायक छे ए प्रमाणे ( मे ) में जे ( सच्चा ) सत्य ( वई ) वाणी ( भासिया ) कही छे, ते वाणीवडे ज ( अचंतनिभाखमा ) अत्यंत निदान - कर्ममनुं शोधन, तेने विषे समर्थ एवा पूर्वना जनो ( श्रतरिंसु ) या संसारसमुद्रने तरी गया छे, वर्तमान काळना ( एगे ) केटलाक जनो ( सरंति) महाविदेहमाँ संसारसमुद्रने तरे, (अणागया ) अनागत काळमां अनेक जनो ( तरिस्संति) संसारसमुद्रने तरी जशे महीं निदाननी व्युत्पत्ति याप्रमाणे छे – नितरां दीयते शोध्यते पवित्रीक्रियते भात्मानेनेति निदान ३५ शोधने इत्यस्वरूपम् ॥ ५३ ॥ तेथी करीने + कहं धीरे अहेऊहिं, अन्वाणं पेरिआवसे । सव्व संगविणिम्मुक्के, सिद्धे हेवइ नीरँए "त्ति बेमि ॥५४॥ अर्थ – ( धीरे ) धीर एवो साधु ( श्रद्देऊहिं ) अहेतुवडे एटले क्रियावादी विगेरे कुमतिश्रोना वचननी युक्तिवडे (भत्तां) पोताना आत्माने ( क ) केम ( परियावसे) वासित करे ? एटले कुत्सित हेतुना स्थान केम वास करावे ? न ज करावे. श्रते करवाथी शुं फळ थाय ? ते कहे थे - ( सम्बसंगविणिम्के ) द्रव्य अने माव एम सर्व संगधी विनिर्मुक्त एटले धन धान्यादिक द्रव्य भने क्रियावादादिक भावसंगथी रहित, तथा ( नीरए) कर्मरूपी रजधी रहित थयो थको ( सिद्धे ) सिद्ध Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (हवा) थाय छे-सिद्धपणाने पामे छे. या प्रमाणे उपदेश भापीने ते क्षत्रियमुनि पृथ्वीपर विचरखा लाग्या, भने संयतमुनि पण निरतिचार पारिननु पालन करी मोक्षपदने पाम्या. (त्तिबेमि) एम ई कहूंछ, एम सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने कह्यु. ५४. | इत्यष्ठादशमध्ययनम् १८. अथ मृगापुत्रीय नामनुं ओगणीशमुं अध्ययन. १६ अढारमा अध्ययनमा भोगनी ऋद्धिनो त्याग करवानुं कड्यं. ते त्याग अपातेकर्मपणार्थी एटले शरीरना शुश्रूषा-सेवा न करवाथी थाय छे. तेथी आ अध्ययनमा मृगापुत्रना दृष्टांतवडे अप्रतिकर्मताने कहे थेसुग्गीवे नयरे रंम्मे, काणणुज्जाणलोहिए । रोया बेलभद्द त्ति, मिआ तस्सग्गेमाहिसी ॥१॥ अर्थ-(काणणुाणसोहिए ) कानन एटले मोटा वृक्षोवाळा वनो अने उद्यान एटले क्रीडा करवाना बगीचाओवडे | शोभित तथा ( रम्मे ) मनोहर एवा (सुग्गीवे ) सुग्रीव नामना ( नयरे) नगरने विषे (बलभद्द ति) वळभद्र एवा नामनो ( राया ) राजा हतो. (तस्स ) ते राजाने ( मिश्रा ) मृगा नामनी ( अग्गमाहिसी) पट्टराणी हती. १. तेसि पुत्ते बेलसिरी, मित्रापुत्ते ति विस्सुए । अम्मोपिऊण दइए, जुवराया देमीसरे ॥२॥ अर्थ-(नेसि ) ते नळभद्र राजा तथा मृगा राणीने (पलसिरी ) बळश्री नामे (पुत्ते) पुत्र इतो, एटले तेना माता Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिताए तेनुं नाम बळश्री पाडयुं हतं, तथा (मित्रापुत्ते ति) लोकमां मृगापुत्र एवा नामे (विस्सुए) प्रसिद्ध हतो, एटले लोकोए मृगा राणीनो पुत्र होवाथी तेनुं मृगापुत्र नाम पाडयुं हतुं. ते पुत्र ( अम्मापिऊण ) मातापिताने (दइए) अत्यंत वल्लभ हतो, तथा ( जुबराया ) युवराज पदवीने पामेलो हतो. पिता जीवा छतां राजने योग्य जे कुमार होय ते युवराज कहेवाय छे. तथा ते कुमार ( दमीसरे ) दमी एटले इंद्रियोने दमन करनारा साधुनोनो ईश्वर-स्वामी हतो. अहीं आ कुमार साधुनो स्वामी थवानो छ माटे भावीने विषे भूतकाळनो निर्देश करीने आ विशेषण प्राप्यु छ, अथवा द्रव्यनिषेपाने पाश्रीने या विशेषण प्राप्यं २.२ नंदणे सो उ पासाए, कीलए सह इंस्थिहिं । देवी दोगुंदंगो चेवे, निच्च मुइमाणसो ॥ ३ ॥ अर्थ-(उ) तु पुनः ( सो ) ते कुमार (निचं ) निरंतर । मुइअमाणसो) हर्ष पाम्युं छे मन जेर्नु एवो सतो | ( नंदणे ) वास्तुशास्त्रमा कहेला लक्षणवाळो होबाथी समृद्धिवाळा नंदन नामना ( पासाए) प्रासादने विषे ( दोगुंदगो) दोगुंदक जातिना ( देवो चर) देवोनी जेम ( इथिहिं ) स्त्रीओनी ( सह) साथे (कीलए) क्रीडा करतो हतो. निरंतर || भोगमा ज तत्पर रहेता त्रायस्त्रिंश देवोने पण दोगुंदक कहे छे. ३. मणिरयणकुट्टिमतले, पासायालोअणे ठिओ। आलोएइ नयरस्स, चउक्कतिगचच्चरे ॥ ४ ॥ अर्थ-ते कुमार एकदा ( मणिरयणकुड्डिमतले ) मणि अने रत्नोथी जडेलु छ तळीयुं जेनुं एवा (पासायालोअणे) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रासादना गवाक्षमा (ठिमओ) बेठो थको (नयरस्स) नगरना ( चउकतिगचछरे) चतुष्क, त्रिक अने चत्वरोने ||TI ( पालोएइ ) जोतो हतो. चतुष्क एटले चार मार्ग एकठा थता हाय ते स्थान, त्रिक एटल प्रण मार्ग एकठा थता होय ते जा स्थान अने चत्वर एटले बजार-चौटुं तेने जोतो हतो. ४. ते वखते शुं थयु ? ते कहे छ अह तेत्थ अइच्छंतं, पासई समणसंजयं । तवेनियमसंजमधर, सीलें गुणआगरं ॥५॥ अर्थ-(अह ) ते वखते ( तत्थ ) त्यां त्रिकादिक मार्गने विषे ( अइच्छंत) गमन करता, ( तवनियमसंजमधरं ) | उपवासादि तप, द्रव्यादिकना अभिग्रहरूप नियम अने सतर प्रकारना संयमने धारण करनारा, तेथी करीनेज (सीलहूं) शीळ एटले भढार हजार शीलांगे करीने सहित, अने तेथी करीने ज ( गुणागरं ) ज्ञानादिक गुणोनी खाणरूप एवा । (समणसंजयं ) संयत साधुने तेणे ( पासई ) जोया. ५. से देहेइ मिश्रापुत्ते, दिट्टीएं अणिमिसाए उ । केह मन्नेरिसं रूवं, दि?पुढवं मेए पुरा ॥ ६ ॥ . अर्ध-(मिश्रापुत्ते ) ते मृगापुत्र (प्रणिमिसाए उ ) निमेष रहित एवी ज ( दिवोए ) दृष्टिवडे ( तं ) ते मुनिने (देहा) जोतो हवो. जोइने तेणे विचार कर्यो के ( मझे ) हुँ मार्नु छं के ( एरिसं ) आर्बु (रूवं ) रूप (मए ) में (पुरा) पूर्व जन्ममा (कहं ) क्यांक (दिपुब्बं ) प्रथम जोयेलु छ ? एम विचारतां तेने हर्ष थयो. ६. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणम्मि सोहणे । मोहं गयस्स संतस्स, जाईसरणं समुप्पन्नं ॥७॥ न || अर्थ-( तस्स ) ते ( साहुस्स ) साधुना (दरिसणे ) दर्शन थये सते ( सोहणे ) शोभन एटले प्रशस्त एना | ( अज्झवसाणम्मि) अध्यवसायने विपे एटले मनना परिणामने विषे अर्थात् पायोपशमिक भावने विषे वर्तता में भावु रूप क्या जोयं छे! एघु चितवन करता (मोई) मूर्खाने ( गयस्स संतस्स ) पाम्या सता ते मृगापुत्रने (बाईसरणं) जातिस्मरण ज्ञान ( समुप्पमं ) उत्पन्न थथु, एटले के प्रथम साधुनुं दर्शन थ\, पछी मनना शुभ परिणाम थया, पछी ते संबंधी ऊहा पोह फरता मूर्छा प्राची अने ते मूळ वळी एटले जातिस्मरण ज्ञान थयु. ७. KI ते जातिस्मरण ज्ञान केबुं होय छे । वे कहे थे.--- oil देवलोगचुओ संतो, माणुस्सं भवोगओ । सन्निनाणे समुप्पन्ने, जोतिस्सरणं पुराणयं ॥ ८॥ अर्थ (देवलोगचुओ संतो) हुं देवलोकथी चव्यो सतो ( माणुस्सं ) मनुष्य संबंधी ( म ) भवने विषे (भागमो) आयो . प्रमाणे (सभिनाणे ) संज्ञीज्ञान एटले गर्मज पंचेंद्रियने थतुं ज्ञान ते ( समुप्पो ) उत्पन्न थये सते (पुराणयं ) पूर्वभवर्नु ( जातिस्सरणं) जातिस्मरण ज्ञान कहेवाय छे. ८. आईसरणे समुप्पो, मिआपुत्ते महिड्डिए । सरह पोरोणिभं जाई, सामणं च पुरीकडं ॥ ९ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **++OK+-+ अर्थ -- ( जाईसर ) जातिस्मरण ज्ञान (समुप्यसे ) उत्पन्न थये सते चमडे युक्त एवो (ये) शृधापुत्र ( पोराणि) पूर्वनी ( जाई ) भवां करेला - पाळेला ( सामर्थ) चारित्रने ( सरह ) स्मरण करतो इवो. ६. त्यापकी ते शुं कर्यु ? ते कहे छे. - विसएस अरजंतो, रज्जतो संजमम्मि अ । यस्मापिअरं उवागम्म, इमं वैयणवी ॥ १० ॥ अर्थ - ( बिसएस) विषयाने विषे ( अरज्जंतो ) रागी नहीं थतो ( अ ) अने ( संजमम्मि ) संयमने विषे ( रतो ) रामी थतो एवो ते मृगापुत्र ( अम्मापिश्वरं ) माता पिता पासे ( उवागम्म ) आवीने ( इमं ) भा प्रमाणे (वय) वचन ( श्रब्बवी ) बोल्यो. १०. जे वचन बोल्यो, ते कहे छे.. ( महिडिए) महा ऋद्धिवाको एटले राजलजातिने भवने (च) तथा (पुराकडं ) पूर्व आणि मे पंच महाव्वयाणि, नरपसु दुक्खं च तिरिर्वखजोणिम् । निर्विण्णकामो हिं' मर्हण्णवाओ, अणुजाणह फैवइस्सामि अम्मो ! ॥ ११ ॥ अर्थ - - (मे) में (पंच ) पांच (महब्वयासि ) महात्रतो पूर्व भवमां (सुधाणि ) सांभळ्या घे. तथा (नरपसु ) नरकने विषे ( दुक्खं ) जे दुःख (च ) अने ( तिरिक्खजोशिसु ) तिर्यच योनिने विषे पण जे दुःख ते में सांभळ्युं के ***+**** ja এ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा अनुभव्यु छ, तथा उपलक्षणथी देव भने मनुष्यन विष ने दुःख छ ते पण में सांभळयूं छ. तेथी करीने ( महा|| वायो ) महार्णव थकी एटले संसाररूपी समुद्रयकी (निविणकामो) नाश पाम्यो छे अमिलाप जेनो एवो (म्हि ) 1 | थयो छै. तो ( अम्मो ) हे माता! ( अणुजाणह) मने अनुज्ञा आपो. ( पव्वइस्सामि) हुं प्रव्रज्या ग्रहण करीश. ११. कदाच मातापिता भोग भोगववानुं कहेश एम धारी तेनो निषेध करवा कहे थे.-- अम्मताय ! मैए भोगा, भुत्ता विसफलोवमा । पच्छा कडुअविवागा, अणुबंधदुहावहा ॥ १२॥ अर्थ-(अम्मताय) हे माता पिता ! (मए) में (विसफलोवमा) विषना फळनी उपमाघाळा एटले विषना फळ जेवा E ( भोगा ) कामभोगो पूर्वे ( भुत्ता) भोगव्या छे. ते भोगो पहेला भोगने समये मधुर लागे छे, परंतु (पच्छा ) भोगव्या पछी ( कडुअविवागा ) कटुक त्रिपाकवाळा एटले परिणामे कडवां फळ आपनारा छे, तथा (अणुबंधदुहावहा) निरंतर दुःखने वहन करनारा-आपनारा छे. १२. इमं सरीरं अणिचं, असुइ असुइसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं ॥ १३ ॥ _ अर्थ हे माता पिता ( इमं सरीरं ) श्रा शरीर ( अणिचं ) अनित्य छे, ( असुइ ) अशुचि एटले अपवित्र छ, (असुइसंभव) अपवित्र एवा शुक्र अने शोणितथी उत्पन्न थनारं छे, ( असासयावासं ) अनित्य निवासबाटु MS एटले तेमां जीवनो निवास पण अनित्य छ, सथा ( इथं) मा शरीर (दुक्खकेसाण ) दुःखना हेतुरूप जे क्लेशो एटले Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ज्वरादिक रोगो तेमनु अथवा दुःख एटले जन्म, जरा, मृत्यु विगैरे अने क्लेशो एटले धनहानि, स्वजन| पितरोग विगेरे, (मास) माजन एटले स्थान छे. १३ । अंसासए सरीरॉम्मि, रई नोवलभामि है। पच्छा पुरा ये चइव्वे, फेणबुब्बुअसन्निभे ॥१४॥ अर्थ तेथी करीने हे माता पिता ! ( पच्छा) भोग भोगव्या पछी (य) अथवा ( पुरा) भोग भोगव्या पहेला (चहअल्बे) त्याग करवा लायक तथा (फेब्यअसमिय) पाणीना फीणना परपीटा जेवा (असासए * (सरीरम्मि) मा शरीरने विषे ( ई ) हुँ (रई) प्रीतिने (न उवलभामि ) पामतो नथी. १४. __ माणुसत्ते असारैम्मि, वाहीरोगाणे पालेए । जरामरणघस्थाम्मि, खणं पि न रमामि है ॥१५॥ __ अर्थ-वळी हे माता पिता ! (बाहीरांमाण ) व्याधि एटले अगाध पीडाना हेतुरूप कुठादिक भने रोग एटले वात, पित्त अने कफथी उत्पन्न थता ज्यरादिक तेमना ( आलए) स्थानरूप, तथा ( जरामरणपत्थम्मि) जरा भने मरणवडे अस्त-व्याप्त एवा मा ( असारम्मि ) सार रहित ( माणुसत्ते ) मनुष्य भवने विपे ( खणं पि) क्षणवार पण (ई) (न रमामि ) आनंद पामतो नथी. १५. जम्म दुवैखं जरा दुखं, रोगा य मरणाणि । अहा दुक्खो हुँ संसारो, जत्थे कीसंति जैतुणो॥१६॥ अर्थ (जम्म ) जन्म थयो ते ( दुक्खं ) दुःख छ, ( जरा ) वृद्धावस्था थाय ते ( दुक्खं ) दुःख छ, (रोगा य) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोगो, तथा ( मरणाणि अ) मरण पण दुःख ज छ, (अहो ) अहो ! (हु) निश्चे ( संसारो ) संसार ज (दुक्खो) दुःखरूप छ, के ( जत्थ )जे संसारमा (जंतुणो) जंतुभो ( कीसंति ) क्लेश पामे छे. १६. खितं वत्थु हिरमं च, पुत्तदारं च बंधवे । चैइत्ता णं इमं देह, गंतव्वमवंसस्स में" ॥ १७॥ व अर्थ (खित्तं ) क्षेत्रने, ( वत्थु ) वास्तु एटले घर, हाट विगेरेने, (हिरणं च ) सुवर्णने, तथा (पुचदारं च ) पुत्र, | स्त्री विगेरेने तथा (बंधवे ; भाइ, काका विगरे बांधवोने, तथा ( इमं ) आ (देहं ) देहने पण ( चहत्ता एं) तजीने (अवसस्स ) परवश एवा ( मे ) मारे (गंतव्वं ) परभवने विष जवानुं छे. १७. जहा किंपागफलाणं, परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरी ॥ १८॥ अर्थ-(जहा ) जेम (किंपागफलाणं) किंपाकना फळखावानुं (परिणाम) परिणामो ( न सुंदरो ) सारु नथी, ( एवं ) एज प्रमाणे ( मुत्ताण ) भोगव्या एवा ( भोगाणं) कामभोगनुं ( परिणामो) परिणाम पण (न सुंदरो) सारं नथी. । किंपाकना फळो जोवामा मनोहर होय छ अने खाता अति स्वादिष्ठ लागे छे, तेज रीते विषयो पण जोवामा मनोहर अने मोगवतो पण सुखकारक लागे छे, परंतु परिणामे किंपाकना फळनी जेम मरण तथा नरकादिक गतिने श्रापे छे. १८. ___आ प्रमाणे भोगादिकनी असारता कही. हवे चे दृष्टांतवडे पोतानो अभिप्राय प्रगट करे छेअद्धाणं जो महंतं तु, अपाहिज्जो पैवजई । गच्छंतो सो दुही होइ, छुहातण्हाहिं पीडिएं ॥ १९ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- जो ) जे मनुष्य र महत ) गोटा-सांसद प्रद्धाणं ) मार्ग प्रत्ये ( अपाहिजो ) भाता विना ( पवई)। Pall गमन करे छे, अने तेवी रीते ( गच्छंतो सो) जतो एवो ते (छुहातण्डाहि) क्षुधा अने वृषावडे (पीडिए) पीडा पाम्यो सतो | (दुही होइ ) दुःखी थाय छे. १६. * एवं धम्म अकाऊँणं, जो गच्छद पर भवं । गच्छंतो सो दुही 'होइ, वाहिरोगेहि पीडिए ॥ २० ॥ ___अर्थ- ( एवं ) एज प्रमाणे एटले धर्मरूपी भाता विनाना मार्गे जता पुरुषनी जेम (जो ) जे पुरुष ( धर्म ) धर्मने || ( अकाऊ ) नहीं करीने ( परं भवं ) पर भव प्रत्ये (गच्छह ) जाय छे, तो ( गच्छंतो ) जतो एयो (सो) ते पुरुष ( वाहिशेगेहि) च्याधि श्रने रोगोवडे ( पीडिएपीडा पाम्यो सतो (दही) दःखी (होड) थाय छे. २०. श्रद्धाणं जो भैहंतं तु, संपाहिजो पैवज्जइ । गच्छंतो सो सुही 'होइ, छहातहाविवजिओ ॥ २१ ॥ अर्थ--(जो ) जे पुरुष ( महंत तु ) मोटा-लांबा एवा ( अहाणं) मार्ग प्रत्ये ( सपाहिलो) माता सहित (पवज्जइ)| गति करे थे, तो ( गच्छंतो सो) जतो एवो ते ( छुण्हातण्हाविवजिओ) क्षुधा ने तृषाथी रहित एवो सतो ( सुही) सुखी ( होइ ) थाय छे. २१. एवं धम्में पि काऊणं, जो गच्छंह परे भैवं । गच्छंतो सो सुही होई, अप्पकम्मे अवेअणे ॥ २२ ॥ ___ अर्थ-( एवं ) एज प्रमाणे ( धम्म पि ) धर्मने पण (काऊणं) करीने ( जो ) जे प्राणी ( परं मर्व ) पर भव प्रत्येक Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। (गच्छह ) जाय छे, तो ( गच्छंतो ) जतो एवो (सो) ते प्राणी (अप्पकम्मे) कर्म रहित-अप अशुभ कर्मवाळो भने (अवेअणे) वेदना रहित एटले असातावेदनीय रहित भो मतो ( सुट्टी होमी भाग . २२.. जहा गेहे पलितम्मि, तस्स गेहस्स जो पह । सारभंडाई नीणइ, असारं अवउज्झइ ॥ २३॥ | अर्थ-(जहा ) जेम ( गेहे ) कोइ घर ( पलित्तम्मि) अग्निवडे बळया मांड्ये सते ( तस्स ) ते ( गेहस्स ) घरनो (जो ) जे ( पह) स्वामी होय ते (सारभंडाई) सारमत एटले महा मन्यवाळां मांडो एटले वस्त्राभरणादिक किंमती वस्त| ओने ( नीणेइ ) यहार काढे छ, अने (असारं ) असार एवा भांडोने (अवउज्झइ ) तजी दे छे-जता करे छे. २३. एवं लोए पलित्तम्मि, जराए मरणेणे यें । अप्पाणं तारइस्सामि, तुन्भेहिं अणुमनिओ ॥ २४ ॥ ___ अर्थ-( एवं ) ते ज प्रमाणे ( लोए ) पा लोक ( जराए ) जरावस्थावडे ( 4 ) तथा ( मरणेण ) मरणवडे ( पलि. तम्मि ) वळते सते एटले आकुळ व्याकुळ थये सते ( तुम्भेहिं ) तमारा वडे (अणुमभित्रो) आज्ञा अपायो एवो हु (अप्पाणं) सारभूत मारा आत्माने ( तारहस्सामि ) तारीश एटले संसारमांधी बहार काढीश अने असार एवा कामभोगादिकनो त्याग करीश. तेथी मने तमे आज्ञा आपो. २४. हवे वीश गाथावडे मातापिता जवाब आपे छे-- त बितम्मापिअरो, सामान (त्त ! दुश्चरं । गुणाणं तु संहस्साई, धीरेअब्बाई भिक्खुणो ॥ २५ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *9*@***O**- •*03•-• अर्थ - हवे ( अम्मापरो ) माता पिठा ( तं) ते मृगापुत्रने ( चिंति ) कहेता हवा, के (पुत्त ) हे पुत्र ! ( सामक्षं ) साधुधर्म (दुच्चरं दुःखे यावरी शकाय तेवो के, केमके ( गुणास तु ) गुणांना ( सहस्साई ) सहस्रोने हजारो गुखोने ( भिक्खुणो ) भिक्षुर (भाई) चार करवाना २५. समया सव्वभू, सत्तुमत्तेसु वा जैगे । पाणाइवायविरई, जावज्जीवाई दुक्करं ॥ २६ ॥ अर्थ- हे पुत्र ! (सम्बधूपसु ) सर्व जीवोने विषे (वा) अथवा ( जगे ) जगतमां ( सत्तु मित्तेसु) शत्रु भने मित्र उपर ( समया) समता धारण करवानी छे, तथा ( जावजीवाए ) जावजीव पर्यंत ( पाखाइवाइ विरई ) प्राणातिपाव - जीवहिंसानी विरति धारण करवानी छे, ते ( दुकरं ) श्रति दुष्कर . २६. निच्चकालप्पमत्तेणं, मुसावायविवजणं । भासिअव्वं हिंअं सच्चं, निचाउत्तेण दुक्करं ॥ २७ ॥ 1 अर्थ -- बळी हे पुत्र ! (नवकालमत्तेयं) निरंतर श्रप्रमत्तपणे ( मुसावायचित्र ) मृषावादनुं पय वर्जन करवानुं छे, तथा (हि) जीवोने हितकारक एवं (सचं ) सत्यवचन ज ( मासिश्रव्वं ) बोलवानुं थे, तथा ( निच्चा उत्तेय ) निरंतर आयुक्तपणा करीने एटले तेवा सत्यताना उपयोगे करीने सहित रहेधानुं छे, ते ( दुकरे ) दुष्कर . २७. दंत सोहणमाइस्स, अदिष्ास्स विवजणं । अणवजेसणिजस्स, गिव्हणा अवि दुकरं ॥ २८ ॥ अर्थ - पुत्र (दंतसोहण माइस्स ) दांतने शोधवानी - खोतरवानी सळी विगेरे ( अदिष्टस्स) मदत वस्तुने (विव 1 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अ) वर्जवानी छे. दखनी सळी जेवी चीज पण कोहना दीघा विना ग्रहण करवानी नथी. तथा ( श्रणव जेसखिस्स ) दीघेली वस्तु पण निर्दोष अने एषणीय वस्तुनुं ज (गिण्हणा ) ग्रहण करवानं क्रे, (अवि) ते पण (दुकरं ) दुष्कर थे. २८. विरेई अबभचेरस्स, कामभोगरसपणुणी । उग्गं महत्वयं बैभं, धारअन्त्रं सुदुक्करं ॥ २९ ॥ अर्थ- हे पुत्र 1 ( कामभोगरसष्णुणा ) कामभोगना रसने जाणनार एवा तारे ( अवभचेरस्स) सत्रह्मचर्यनी एटले Agra ( fort ) विरति करवी ते अति दुष्कर थे, तथा ( उग्गं ) उग्र एवं (बंभ ) ब्रह्मचर्यरूप ( महव्वयं ) महात्रत ( धारेवं ) धारण करवानुं छे, ते ( सुदुक्करं ) अति दुष्कर छे. २६. rovar, पेरिग्गहविवजणा । सव्वारंभपरिचाओ, निम्ममत्तं सुदुकरं ॥ ३० ॥ अर्थ-( घणघन्नपेसवज्गेसु ) धन, धान्य धने नोकरवर्गने विषे ( परिग्गहविवञ्जणा ) परिग्रहनो एटले ए सर्वनो त्याग करवानो छे, तथा ( सव्वारंभपरिचाओ ) सर्व प्रकारना आरंभनो त्याग करवानो छे, तथा ( निम्ममत्तं ) ममता रहितपणे रद्देवानुं छे, ते सर्व ( सुदुकरं ) अति दुष्कर छे. ३०. Various far आहारे, राई भाअणवजणा । संनिहिसंचओ चैवें, वैजेअन्वो सुदुक्करं ॥ ३१ ॥ I अर्थ – हे पुत्र ! बळी ( चउम्बिहे वि ) चारे प्रकारना ( श्राहारे) आहारने विषे ( राईभोवणा ) रात्रिभोजननुं वर्जन करवानुं छे, (देव) तथा ( संनिहिसंचओ) घी, गोळ विगेरे उचित काळथी वधारे वखत राखवा, ते संनिधि कहे Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाय छे, तेनो संचय एटले संग्रह ( वञ्जमध्वो ) वर्जवानो छे एटले पास एवी कोई चीज राखी शकाती नथी, ते पण ( स. दुक्करं ) अति दुष्कर छे. ३१. ____ा प्रमाणे छ व्रतनी दुष्करता कही. हवे परीषहोनी दुष्करता कहे छे. छुहा तपहा य सीउण्हं, दंसमसगवेक्षणा । अहसा दुबवसिजाय, तणकासा जल्लमेव य ॥ ३२ ॥ ____ अर्थ-वळी ह पुत्र ! ( छुहा ) क्षुधा, ( तण्हा य ) तृषा, तथा ( सीउण्हं ) शीत, उष्ण, (दसमसगवेषणा ) दंश अने मच्छरनी वेदना सहन करवानी छ, तथा ( अकोसा ) आक्रोश एटले बीजानां दुर्वचनो दुक्खसिजाय) दुःखशय्या | एटले उपाश्रयनु दुःख, तथा ( तसफासा ) संथाराने विषे तणना स्पर्शनुं दुःख, (य) अने (जनमेव ) मळनो परीषह, ए सर्व सहन करवानुं छे. ते अति दुष्कर छे. ३२. तालणा तेजणा चेवे, वैहबंधपरीसहा । देख भिक्खायरिया, जायणा य अलाभया ॥ ३३ ॥ __अर्थ--(तालणा) हस्तादिवडे कोइ ताडन करे तो ते सहन करवानुं छे, ( तज्जणा ) आंगळी आदिक वडे तर्जना | करे तो ते सहन करवानी छ, (चेव ) तथा (वहधपरीसहा) वध एटले यष्टि विगेरेना मार भने दोरडा आ- Hall दिकना बंधनरूप परीषहो सहन करवाना थे, ते दुष्कर के, वळी (मिक्खायरिया ) भिवाचयो करवी ते पण (दुक्खं) | दुःखरूपये तथा (जायणा य) याचना करवी अने तेमां पण (भलामया) लाभ न घाय ते सहन कर, अति दुष्कर छे. ३३. ~ - Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कावोआ जो इमा वित्ती, केसलोओ अ दारुणो। दुक्खं बंभवयं धोरं धारेउं में महंप्पणा ॥३२॥ ___ अर्थ-वळी हे पुत्र ! साधु धर्मने विषे (जा) जे (इमा) श्रा (कावोमा) कपोत संबंधी (विसी) वृत्ति छ, ते प्रति दुष्कर छे. जेम कपोत एटले पारेवा निरंतर शंका सहित ज भक्ष्य ग्रहण करवामा प्रवर्ते छ, अने खाधा पछी काइ पण साथै राखता नथी, | तेज प्रमाणे साधुभो पण आहारना दोषनी शंकायाला सता ज पाहार ग्रहण करवा प्रवर्ते छ, अने पाहार कर्या पछी काइ पण संचय करता नथी-राखी मूकता नथी ते (अ) तथा साधुने (केसलोमो) केशनो लोच करवो पडे के ते (दारुणो) भयंकर छे, (अ) तथा (महप्पणा) महात्मा एटले उत्तम साधुए ( घोरं ) अल्प सत्ववाळाने भयंकर एवं (बंभवयं ) ब्रह्मचर्यमा पारेसारण करई हे पा (टुरत प्रति दुःखरूप छे. उपर २६ मी गाथामां ब्रह्मवतने दुष्कर कह्यु हतुं अने अहीं फरीथी तेने ज दुष्कर कडं ते तेनु अति दुष्करपणुं जणाववा को छे. ३४. । हवे ते व्रतादिकनी दुष्करतानो उपसंहार करे -समाप्त करे छे.| सुहोइओ तुमं पुत्ती!, सुकुमौलो असुमजिओ।न हुसि पहूं तुमं पुत्ता !, सोमालमणुंपालिआ।३५। अर्थ-(पुत्ता) हे पुत्र ! (तुम) तु (सुहोइयो) सुखने उचित थे-सुखनो भोक्ता के. (सुकुमालो) अति सुकुमाल छ (अ) | तथा (सुमञ्जिभो) सारी रीते अभ्यंगनादि पूर्वक स्नान करनारो छे, तथा उपलक्षणथी सर्व अलंकारवडे अलंकृत रहनारो छे, वेपी (पुत्ता) हे पुत्र ! (तुम) तुं (सामय) चारित्रने (अशुपालिमा) पाय्याने (हु) निधे (पह) समर्थ (न सि) नथी. ३५, Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CO*••******@ समर्थपणाने ज दृष्टांतवडे सिद्ध करे छे. - जोवज्जीवमविसामो गुणाणं तु मह भरो। गरुओ लोहेभारु व्व, जो पुत्ता ! होई दुव्वैो ॥ ३६ ॥ " अर्थ – (पुत्ता) हे पुत्र ! ( जो ) जे ( गुणाणं तु ) चारित्रना मळ ने उत्तर गुणोनो ( महभरो ) मोटो भार छे, ते (लोहमारु =) लोढाना भारनी जेम (गरुओ) मोटो - अत्यंत ( दुव्वहो होह ) दुर्बह छे - वहन करवो अशक्य छे, केमके ते गुणोनो भार ( जावज्जीवं ) जावजीव पर्यंत ( विसामो ) विश्रांति रहित थे. जो कदाच बीजो कोइ भार वहन न करी शकाय तो ते कोइ ठेकाखे नीचे उतारी बीसामो लह शकाय छे. परंतु चारित्रना गुणनो भार तो कदी पण उतारातो नधी. ते तो जीवित पर्यंत वहन करवानो ज छे. ३३. आगासे गंगेसोउव्व, पेडिसोउव्व दुसरो । बाहीहिं साँगरो चैव तरिअव्बो गुणीदही ॥३७॥ अर्थ - ( यागासे) आकाशर्मा रहेली (गंगसोउ व्त्र ) गंगा नदीनो प्रवाह जेम दुस्तर छे-दुःखे तरी शकाय तेबो तथा (डिसो ) बीजी नदीओनो प्रतिश्रोत एटले सामो प्रवाह - सामे पूरे तर ते जेम (दुत्तरो ) दुस्तर होय छे, (चैत्र) तथा ( बाहाहिं ) बे हाथवडे (सागरी) समुद्र तरबो दुष्कर थे, तेम ( गुणादही ) ज्ञानादिक गुणोनो समुद्र (तरिभो ) तवानो के एटले ते तस्यो अति दुष्कर छे. ३७. आकवले चैव निरस्ताए उ संजमे । असिधारागमणं चेवें, दुकेरं चरिउं तो ॥३८॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--(चेव* ) जेम ( वालुपाकवले ) चेछना कोळीया नीरस छे, तेम (संजमे) संयम (निरस्साए उ) नीरस स्वाद | रहित छे. (चेव) तथा जेम (असिधारागमणं) खगनी धारपर गमन करवं दुष्कर छे, तेम ( सवो) चारित्ररूपी तप ( चरिउं) आचर, ते (दुक्कर) दुष्कर छे. ३८. ही वेगंततिद्वीप, नैरिले पुत! दुसरे । जवा लोहमया चेर्व, चावेयवा सुंदुक्करं ॥३९॥ अर्थ--(पुत्त ) हे पुत्र ! ( दुश्चरे ) दुःखे करीने आचरी शकाय तेवा (चरिते ) चारित्रमाने विष (अही व) सर्पनी जेम ( एर्गतदिट्ठीए) एकांत-निश्चय दृष्टिवडे चालवानुं छे, जेम सर्प एकाग्र दृष्टिए चाल्यो जाय छे, माई अवलं | जोतो नथी, तेम साधुए पण मोक्ष प्रत्ये ज एकाग्र दृष्टि राखीने चारित्रमार्गमा चालवानुं छे, तेथी ते चारित्रमार्ग दुःखे करीने . आचरी शकाय तेयो छे. (चव ) तथा जेम ( लोहमया) लोहमय एटले लोढाना ( जवा ) जव (चावेयव्या) चाववा ते (सुदुकरं ) अति दुष्कर छे, तेम चारित्र पण पाळचं ते अति दुष्कर छे. ३६. जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउं होइ सुदक्करं । तह देकरं करेउ 'जे, तारु समणत्तणं ॥ ४० ॥ । अर्थ (जहा ) जेम ( दित्ता ) देदीप्यमान एची ( अग्गिसिहा) अग्निनी ज्वाला ( पाउं ) पीवी ते ( सुदुक्कर) अति दुष्कर ( होइ ) छे, (वह) तेम (तारुमे) युवावस्थामा (समणत्तणं ) चारित्र ( करेउं) पाळ, ते ( दुकरं ) अति | दुष्कर छे. (जे) 'जे' शब्द पादपूर्ति माटे छे. ४०० * 'च' पादपूर्ति माटे छे, अने 'इव' उपमाना अर्थमा छे, ए न रीते सर्वत्र जाणवू. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +10/- 2018-0 जहा दुक्ख भैरेउं जे होई वायरल कुत्थलो | तेहा दुकरं कैरेउं "जे, कीवेणं संमणत्तणं ॥ ४१ ॥ अर्थ - (जहा ) जैम (कुत्थलो ) बनो कोथळा ( वायरस ) वायुथी ( मरेउं ) भरवो ते (दुक्त्रं ) दुःखरूप एटले दुष्कर ( होइ जे ) छे, ( तहा ) तेम ( कीवेां ) स रहित प्राणीए ( समणचणं ) चारित्र ( करेडं ) पाळं से ( दुकरं जे ) दुष्कर छे. ४१. जहा तुलाए तोलेडं, दुक्करं मंदेरो 'गिरी । तँहा निहुअनीसंकं, दुक्करं समणत्तणं ॥ ४२ ॥ अर्थ - ( जहा ) जैम (मंदरो) मेरु ( गिरी ) पर्वत ( तुलाए ) त्राजवावडे ( तोलेउं ) तोळवो ते ( दुकरं ) दुष्कर छे, (सहा) तेम ( समणत्तणं ) श्रमणपथुं एटले चारित्र शरीरखडे पाळनुं ( निहुअनीकं ) निवळपणे धने निःशंकपणे ( हुकर्र ) दुष्कर . ४२. जहा भुजाहिं तैरिडं, दुक्कर रेयणायरो | तेहा अणुवसंतेणं, दुक्करं देमसायरो ॥ ४३ ॥ अर्थ -- ( जहा ) जैम (रथायरो ) रत्नाकर एटले समुद्र (भुजाहिं ) वे भुजावडे (तरिउं) तरवो (दुकरं ) दुष्कर a. ( तहा) तेम (वसंतेयं) अनुपशांत एटले उपशमने नहीं पामेला अर्थात् कषायवाळा पुरुषे ( दमसायरो ) दम एटले चरित्ररूपी सागर सरदो (दुकरं ) दुष्कर छे. ४३. भुंजे माणुस भए, पंचलक्खणए तुमं । भुतभोगी तओ जाया ! पंच्छा धम्मं चरिस्ससि ॥४४॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-तेथी करीने (जाया ) हे पुत्र ! (तुमं ) तुं (भाणुस्सए ) मनुष्य संबंधी (पंचलक्खणए ) पांच प्रकारना ( भोए) भोगीने (भुंज ) भोगव, (तो पच्छा ) त्यास भुचमोमी ) मोगस्या के मांग जेमी एवो थइने एटले भोग भोगवीने (धम्म ) चारित्र धर्मनुं ( चरिस्ससि ) आचरण करजे. ४४. श्रा प्रमाणे मातापिताए का त्यारे मृगापुढे तेमने जे कहुं ते एकत्रीश गाथावडे कहें छ.सो वितम्मापिरो!, एवमेअं जहाकुँडं । इह लोए निर्पिवासस्स, नस्थि किंचि वि दुक्करं ॥ ४५ ॥ अर्थ-( सो ) ते मृगापुत्र (बिति) कहे छे के ( अम्मापिअरो) हे मातापिता ! (एवमेअं) ए एमज छे, जेम तमे कहो || || छो ते तेमन छ ( जहाफुडं ) प्रगटपणे प्रव्रज्या दुष्कर के ए बात सत्य छे. परंतु (इह लोए ) आ लोकने विषे (निप्पि- 17 वासस्स ) तृष्णा रहित एटले निःस्पृह एवा पुरुषने (किंचि वि) काइपण (दुकरं) दुष्कर ( नस्थि) नथी. कयु छ के| "नि:स्पृहस्य तृणं जगत्" निस्पृहने आखं जगत तृण समान छे. जे स्पृहावाको होय तेने परिग्रहनो त्याग करचो दुष्कर के, परंतु निःस्पृहने तो साधुधर्म सुकर ज छे. हुं निःस्पृह छ तेथी मारे साधुधर्म पाळयो सुकर छे. १५. निःस्पृह थवानुं कारण कहे छे.सारीरणाणसा चैव, वेणाओ अणंतसो । मए सोढाओ भीमाओ, असई दुक्खभयाणि अँ॥४६॥ मर्थ-हे माता पिता ! (मए) में (अणंतसो) अनंतवार (चेव) निचे ( सारीरमाणसा) शरीर भने मन Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंधी (मामा) भयंकर ( वेश्रणाओ ) वेदनाओ ( स ) तथा (असई) वारंवार ( दुःखभयासि ) दुःखने उत्पन्न करनारा भयो अथवा दुःख भने भयो ( सोढाओ ) सहन कर्या क्रे. ४६. जरामरण तारे, चाउरते भैयागरे । मैंए सोढणि भीमणि, जंम्माणि मरणाणि अं ॥ ४७ ॥ अर्थ - ( जरामरणकंतारे ) जरा अने मरणरूपी गाढ अरण्यवाळा, तथा ( चाउरंते ) देव, मनुष्य, तिर्यच भने नरक ए चार अवयववाळा, तथा ( भयामरे ) भयनी खायरूप था संसारने विषे (मए) में ( भीमाणि) भयंकर एवा ( जम्मास ) जन्मो ( अ ) अने ( मरणाणि ) मरणो ( सोद्वाणि ) सहन कर्ता ले ४७. जहा ईहं अर्गेणी उपहो, ऐत्तोऽणतगुणा तहिं । नरएस वेणा उन्हा, अंसाया बेईआ मेरे ॥४८॥ अर्थ -- (इ) मनुष्य लोकमां (जहा) जेवो ( अगणी ) अनि (उण्हो) उष्ण के, (एतो) तेथी - ते करतां ( तर्हि ) ते (नरएस) नरको विषे ( अनंतगुण) अनंत गुणी (उराहा) उष्ण (भसाया श्रमाता - दुःख उपजावनारी ( वेणा ) वेदना (मए में (बेइया) अनुभवी छे. नरकमां बादर अग्निनो अभाव छे, परंतु ते पृथ्वीनो स्पर्श ज तेत्रा प्रकारनो उष्ण थे. अर्थात् तेनी वेदना अग्निनी वेदना तुन्य छे. ४८. अहा ईह इमं सीओ, ऐत्तोऽर्तगुणा तेहिं । नरएस वेभैया सीओ, अंसाया वेईआ मऐं ॥ ४६ ॥ अर्थ - ( इहं ) श्रा मनुष्य लोकमां (जहा ) जेवुं (सं) मा (सीअं) शीत के, ( एतो) तेनाथी पण ( तर्हि ) १८ ******0*••*03 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 4 ते ( नरएमु ) नरकोमा ( मतगुणा ) अनंतगुणी ( असाया ) असावा-दुःख उपजावनारी (सामा) शीत (वेभणा) वेदना (मए) में ( वेडमा ! भनुभवी . ४६. कंदतो कंकुंभीसु, उड्डपाओ अहोसिरो । हुआसणे जेलंतम्मि, पैकपुब्बो अणंतसो ॥ ५० ॥ अर्थ-( देतो ) आक्रंद करतो, ( उपाभो ) उंचा पगवाळो अने (अहोसिरो) नीचे मस्तकवाळो एवो हु (कंदु- ।। कुंमीसु ) लोढानी कुंभीने विषे ( जलंतम्मि) देदीप्यमान (हुआसणे) अग्निमा (मतसो) अनंतवार ( पचपुब्दो) | पूर्वे पकावायो हतो. ५०.. महादग्गिसंकासे, मरुम्मि वैइरवालए । कैलंबवालआए में, दर्दूपुव्वो अणंतसो ॥ ५१ ॥ ___अर्थ-( महादयग्गिसंकासे ) महा दावानळनी जेया तथा ( मरुम्मि) मरुदेशनी रेती जेवा (वहरवालुए ) वज्रवा| लुका नदीने कांठे (भ) भने ( कलंबवालुभाए ) कलंबवालुका नदीने कांठे (अणंतसो) अनंतीवार ( दहपुवो ) ई । पूर्वे नरकमां बळ्यो छु-भुजायो छु. ५१. . रसंतो कंदुकुंभीसु, उड्डे बद्धो अंबंधयो । करवर्तकरकयाईहिं, छिन्न(वो अणंततो ॥ ५२ ॥ ___ अर्थ-हे माता पिता ! ( रसंतो) आनंद करतो (प्रबंधवो) बंधु रहित एवो ई (कंदुकुंभीसु ) कंदुकुंभीने विषे । ( उडं) उंचे पचनी शाखामा (बद्धो ) बंधायो सतो ( करवचकरकाईहिं ) करवत भने क्रकच नामनी नानी करवत बडे Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** (असो) अनंतीवार (छिनपुरुषो) पूर्वे छेदायो हुं हुं नाशी जड़ न शकुं तेटला माटे मने उंचो बांधी कंदुकुंभी मां नांखी कपडे फडानी प्रेम भने अनंतबार छेद्यो थे-वेर्यो थे. ५२. अइतिक्कंटयाइणे, तुंगे सिंबैलिपायवे । खेविअं पासवद्वेणं, कैड्ढोकड्डाहिं दुक्करं ॥ ५३ ॥ अर्थ – ( अइप्तिक्खकंटयाइये ) अति तीक्ष्ण कांटाए करीने व्याप्त अने ( तुंगे) उंचा एवा (सिंबलिपायवे ) शेवलि - शान्मलि वृक्ष उपर ( पासबद्धेणं ) पाशथी बंधायेला में ( कड्डोकङ्ग्राहिं) परमाधामीए करेला आकर्षण अ अपकर्षणवडे (दुकरं ) दुःखे सहन थह शके तेो ( खेविनं ) खेद अनुभव्यो छे एटले पूर्वे उपार्जन करेला कर्मनुं फळ भोगव्युं छे. ५३. महाजतेसु उच्छूव, आरसंतो सुमेरेवं । पीलिओमि सकम्मेहिं, पावकम्मो अनंतसो ॥ ५४ ॥ अर्थ – (सुमेरचं ) श्रत्यंत भयानक ( भारतो ) चाकंद करतो अने ( पावकम्मो ) पाप कर्मवाळो हुं ( सकम्मेहिं ) मारा पोताना कर्मे करीने ( अतसो ) अनंतीवार ( महाजंतेसु ) महा मंत्रोने विषे (उच्छू व ) शेरडीनी जेम (पीलि ओमि) पीला हुं. ५४. तो कोलेसुणएहि, सामेहिं सेबलेहि । पीडिओ फालिओ छिन्नो, विष्फुरंतो अगसो ॥५५॥ अर्थ - ( कूयंती ) आनंद करता एवा भने ( कोलसुण एहिं ) झुंड भने तराना रूपने धारण करता ( सामेहिं ) *••*O*••*O* Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्याम नामना (अ) तथा ( सबलेहि ) शबल नामना परमाधामीओए (अणेगसो) अनेकवार ( पाडिओ) पुर्वापर पाडी नांख्यो छे, तथा ( फालिओ) जीर्ण वस्त्रनी जेम फाल्यो छे अने (विप्फुरतो) तडफडता एवा मने (छिनो) अनेकबार छेद्यो मेद्यो छे. ५५. असीहि अयसिवण्णाहि, भल्लीहि पहिसेहि छिन्नो भिन्नो विभिन्नो अ, उववपणो पावकम्मुणा ॥५६॥ अर्थ-(पावकम्मुणा ) पापकर्मे करीने ( उववालो ) मा उत्पल भरेलो भागसिम्यादि । अतसीपुष्पनी जेवा श्याम वर्णवाळा (असीहिं ) खगोवडे, तथा ( भल्लीहिं ) भालाओवडे ( अ ) तथा (पट्टिसेहि ) पदिश नामना शस्त्रवडे अनेकवार (छिन्नो) छेदायो छु, तथा (मिनो ) भेदायो छु, ( अ ) अने ( विभिन्नो) विशेष मेदायो छु एटले सूक्ष्म ककडा करायो छु. ५६. | अवसो लोहरहे जुत्तो, जलंते सेमिलाजुए । चोइओ तोत्तजोत्तेहिं, रोझो वा जह पौडिओ ॥ ५७ ॥ ___ अर्थ-कोइ वखत परमाधामीए ( जलते ) अग्निवडे जाज्वन्यमान अने ( समिलाजुए ) झुसरी अने जोतरे करीने । सहित एवा ( लोहरहे ) लोढाना रथने विषे ( अवसो) पराधीन एवा मने ( जुत्तो) जोड्यो छे. पछी ( तोत्तजोत्तेहिं ) परोणा अने राशवडे-नासिकाए बांधला दोरडाबडे (चोइओ) मने हांकवामां आव्यो के अने पछी ( रोज्झो वा) रोझ | नामना पशुनी (जह ) जेम ( पाडियो) मने पाडी दीधो छ एटले लाकडी विगेरेपी कुटीने मने पृथ्वीपर पाडी दीधो छ. ५७. ।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआसणे जलंतम्मि, चिआसु महिसो विव । दड्रो पक्को अ अबसो, पावकम्मेहि पाविओ ॥५८॥ अर्थ-हे मातापिता ! ( पावकम्मेहिं । पाप कमें करीने (पाविभो ) व्याप्त अथवा नरकने पामेला एवा अने (अवसो) पराधीन एवा मने ( चिमासु ) परमाधामीए रचेली चिताने विष (महिसो विव) पाडानी जेम ( जलंताम्म ) जाज्वल्यमान एका (हुआसणे) अनिमा ( दड्डो ) बाळवामां आव्या छ. (अ) अने ( पक्की ) रांधवामां पाब्यो छे. ५८. बँला संडासतुंडेहि, लोहेतुंडेहि पविखंहिं । विलुचो बिलवंतोऽह, ढंकगिद्धेहिँणतसो ॥ ५९ ॥ अर्थ--(संडासतुंडेहिं ) सांडसी जेवा मुखवाळा अने (लोहडेहिं ) लोढाना एटले बज्र जेवा मुखवाळा ( ढंकगिद्धेहि ) परमाधामीए विकुर्वेला ढंक अने गीध (पविखहि ) पक्षीभीए (विलवंतोऽहं ) विलाप करता एका मने (पणंतसो) अनंतीवार ( चला) बळात्कारे (विलुत्तो) विविध प्रकारे छेद्यो छे. ५६. तपहाकिलंतो धावतो, पत्तो वेअरणिं नई । जलं पाहं ति चिंततो, खुरधाराहि विवोइओ ॥६॥ ___ अर्थ-(तएहाकिलंतो) तृपाबडे व्याप्त थयेलो हुँ (घावतो दोडतो दोडतो (वेअरणिं) वैतरणी (नई) नदीए (पत्तो) गयो. त्या (जलं) जळने (पाह) हुं पीउं (ति) एम (चिंततो) विचार करतो हतो तेटलामा (खुरधाराहि) क्षुरनी धारावडे (वि-पत्र वाइनो) हुँ हणायो. वैतरणी नदीना जळना तरंगो क्षुरनी धारा जेबा के तेथी पाणी पीवानो विचार करतां जहुं तेनायी || छेदायो. ६०. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपहाभितत्तो संपचो, असिपत्तं महावणं । असिपत्तेहिं पडतेहि, छिन्नपुठवो अणेगसो ॥ ६१ ॥ ___ अर्थ-(उपहाभितत्तो) वज्रवालुकादिकना वापथी तपेलो एवो हुँ (असिप) खड्न जेवा पत्रवाळा वृक्षो होबाथी असिपत्र नामना (महावणं) महा बना (संगनो) माहे माहे. प्राप्त थयो-गयो, तो त्या वृचोपरथी (पडतेहिं) पडतां एवां (अ. सिपशेहि) खड्ग जेवा तीक्ष्ण धारवाळा पांदडांनावडे (अगसो) अनेक बार (छिनपुब्बो) पूर्वे छेदायो छु. ६१. मुम्गरेहि मुसंढीहि, सूलेहि मुसलेहि अ। गयासं भग्गगत्तेहि, पैत्तं दुक्खमणंतसो ॥ २ ॥ अर्थ (भग्गगतेहि) गात्रने एटले शरीरने भांगी नांखनारा (मुग्गरेहि) मुद्गरवडे, तथा (मुसंढीडि)मुसंडी नामना शस्त्रवडे, तथा (मलेहि) त्रिशूळवडे, (अ) तथा (मुसलेहि) मुशळवडे (गया) रक्षणनी आशा रहितपणे में (अयंतसो) अनंतीवार (दुक्खं) दुःख (पत्त) प्राप्त कयु छे. ६२. | खुरेहि तिक्खधाराहि, छरिआहिं कैप्पणीहि । कपिओ फालिओ छिन्नी, कित्तो अं अणेगसो ॥६३॥ | . अर्थ--(तिखधाराहि) तीक्ष्ण धास्त्राळा (खुरेहि) शुर नामना मस्तक मुंडवाना शस्त्रवडे, तथा (छुरिश्राहिं) छुरिका बडे, (अ) तथा (कप्पणीहि) कातरवडे (अगसो) अनेक वार (कप्पियो) हुँ कपायो छु, तथा (फालिभो) वखनी जेम फडायो छु, तथा (छिमओ) छेदायो छु, (अ) तथा (उकित्तो) चामडी दूर करवा वडे उतरडायो छु. ६३. ... पासेहिं कूडजालेहि, मिओ वा अवसो अहं । वाहिओ बद्धरुद्धो अ, बहुसो चेवे विवाइओ ॥६४॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-हे माता पिता ! (मिओ वा) मृगनी जेम (श्रवसो) पराधीन एवो (अहं) हुँ (पासेहिं) पाशवडे तथा (कूडजालेहि) ले कपटयुक्त जाळबड़े (बहुसां) पणीवार (वाहिनी) ठगायो छु, (वरुद्धो अ) तथा बंधनवडे बंधायो हुँ भने बहार | जइ न शकुं तेम रंधायो छु (चेव) तथा (विवाइमओ) विनाश करायो ९. ६४. गैलेहि मगरजालेहिं, मच्छो वा अवसो अहं । उल्लिओ फालिओ गहियो, मारिओ अ अणंतसो॥६५॥ ___अर्थ--(अचसो) पराधीन एको (ह) हुँ (मच्छो वा) मत्स्यनी जेम (गलेहि) बडिशवडे एटले मत्स्यना गळाने वींधे | तेवी मांस युक्त सोयवडे, तथा (मगरजालेहि पसायरानीए बिलामधरवड श्रने तैमण करेली तेने पकड़वानी जाळवडे | (मतसो) अनंती वार (उजिओ) विधायो छु, (फालिमो) लाकडानी जेम चीरायो छु, (गहिरो) ग्रहण करायो छ भने (मा | | रिभो भ) मरायो-कुटायो छु. ६५. विदेसएहि जालेहि, लिप्याहि सेउणो विव । गहिओ लग्गो अबछो अ, भारिओ अ अणंतसो।६६ अर्थ--(सउणो विव) पक्षीनी जेभ हुँ (विदंसएहि) विशेषे करीने दंश करनारा श्येनादिक पक्षीप्रोवडे, तथा (जालेहिं ) जाळवडे, तथा (लिप्पाहि) वज्रलेपादिक लेपवडे अनुक्रमे (अणंतसो) अनंतीवार (गहिनी) ग्रहण करायो छु (लम्गो. *म) तथा लेप बडे आश्लेष करायो हुँ ( बद्धो अ) तथा जाळवडे बंधायो छ भने ( मारिओ अ) सर्ववडे मरायो दु. ६६. | कुहाडपरसुमाईहि, वड्डइहिं दुमो विव । कुहिमो फोलिओ छिन्नो, तच्छिओ भ अणंतसो ॥६॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - (दुमो विव) वृचनी जेम हुं (कुहाडपरसुमाईहिं) कुहाडा ने परशु बिगेरे वडे, (बहिं) परमाधामीए विकुर्वेला सुथारोथी (तसो ) भनंतीवार ( कुडियो ) कुदायो एटले सूक्ष्म ककडा करायो छु ( फालिओ ) फडायो ( ) छेदाय हुं ( तच्छिश्रो अ ) तथा छोलायो छु. ६७, चंडमुट्टिमाइहिं, कुमारहिं अयं पे व । ताडिओ कुंहिओ भिन्नो, चुपिणओ अ अनंतसो ॥६८॥ अर्थ - (कुमारेहिं) लुहारोए घण विगेरेवडे ( अयं पिव) लोढाने कुठे तेम मने परमाधामीओए (चबेडमुट्टिमाई हिं) चपेटा एटले लात ने मुठी विगेरेवडे ( अतओ ) अनंतीवार ( वाडिओ ) ताडना करी छे ( कुट्टियो ) कुट्यो छे (मिनो ) भेद्यो छे ( चुटिओ अ ) तथा चूर्णरूप कर्यो छे. ६८. तत्तई तंबेलोहाई, तैउआणि ससिगाणि अ । पाइयो कलकलंताई, ओरसंतो सुभेवं ॥ ६९ ॥ अर्थ--(सुमेरवं) अति भयंकर (चारसंतो ) आकंद करता एवा मने परमाधामीओए विकुर्वेला (ताई) तपावेला अने ( कलकलंताई ) कलकल शब्द करता एटले अत्यंत उकाळेला - खदखदता ( तंचलोहाई ) तांबा, लोढा ( तउभाणि ) कधीर (सीसगाणि अ ) अने सीसानो रस ( पाइओ) अनेकवार पायो छे. ६६. तु पिआई मंसाई, खंडाई सोलगाणि अ । खाईओमि समसाई, अग्गिवलाई अर्थ – “ ( तुइं ) तने ( मंसाई ) मांस ( पिश्राइं ) बहु प्रिय इतुं, " ए प्रमाणे मने परमाधामी सो ॥ ७० ॥ पूर्वभवनुं स्मरण Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *****++**++++** करावी पछी ( समं साई ) मारा पोताना ज मांसने ( खंडाई ) ककडारूप करी ( सोलगारीि अ ) शेकी तथा ( श्रग्गिवमाई ) श्रनिनी जेवा वर्णवाळु करी (रोगसो अनेकवार ( खाइओभि ) मने खवरात्र्युं छे. ७०. तुहं पि सुरा सीहू, मेरओ अ महूणि अ । पाँइचोमि जलतीओ, वैसाओ हिराणि अ ॥ ७१ ॥ अर्थ - " ( तुइं ) तने (सुरा ) सुरा - चंद्रहास नामनी मदिरा, तथा (सीहू ) सीधु-ताड वृचधी बनेली मदिरा - ताडी तथा ( मेरो अ ) मेरक- लोटनी बनेली मदिरा, तथा ( मणि थ ) मधु - पुष्पनी बनेली मदिरा ( पिया ) पूर्वभव बहु प्रिय हती. " ए प्रमाणे स्मरण करावीने मने परमाधार्मीओए ( जलती ) जाज्वल्यमान एटले तपावेली ( बसाओ ) मारी पोतानी ज चरबी ( रुद्दिराणि अ ) तथा रुधिर ( पाइप्रोमि ) पायां के. ७१. निच्च भीएण तत्थेणं, दुहिएणं वैहिपण य । परमा दुहसंबद्धा, वेणा वेईया ए ॥ ७२ ॥ अर्थ – हे माता पिता ! (निचं ) निरंतर (भीएण) भय पामेला, (तत्थे ) त्रास पामेला, ( दुहिए ) दुःखी थयेला (बहिए य) तथा व्यथा पामेला एटले सर्व अंगे कंपता एवा (मए) में नरकने विषे ( दुहसंबद्धा ) दुःखना संबंधचाळी (परमा) उत्कृष्टा ( वेणा ) वेदना ( बेहया ) वेदी - अनुभवी छे. ७२. तिब्वै चंडप्प गाढाओ, घोराओ इदुस्सहा । महाभयाओ भीमाओ, नरपसुं वेईआ मेप ॥ ७३ ॥ * 'पजिओमि' इत्यपि पाठः Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . a अर्थ-दे मातापिता ! (मए) में (नरएसुं ) मरकने विषे (तिब्वचंडष्पगाढायो ) तीव्र-मधिक रसवाळी, चंडकही न शकाय तेवी उत्कट, प्रगाढ-घणी स्थितिवाळी, ( घोराओ) पोर-जे सांभळवाथी पण शरीर कंपे तेवी भय मापनारी, ( अइदुस्सहा) अत्यंत दुःसह, तेथी करीने ज ( महाभयानो) महा भय मापनारी तथा (भीमाशो) भीम-सांभळी | थकी पण भय आपनारी एवी घेदनाओ अनेकवार ( वेइभा ) वेदी छे-अनुभवी छे. मा तीन विगेरे सर्व विशेषणो नरकनी । वेदनानी कर्कशता सूचननारा एक ज अर्थवा ___वळी ते तीवादिक वेदना केवी छे! वे कहे थेजारिसों माणुसे लोए, ताया ! दीसंति वेअणा । एतो अणतगुणिआ, नेरएसुं दुक्खवेअणा ॥७॥ मर्थ-(ताया ) हे पिता ! ( माणुसे लोए ) मा मनुष्यलोकमां (जारिसा ) बेवा प्रकारनी ( वेभमा ) शीतोष्णादि वेदना (दीसंति ) जोवामां आवे छे, ( एसो) सेनाथी (अपंवगुणिमा) अनंतगुणी (नरएK) नरकने विषे ( दुस्सवे- * अणा) दुःखनी चेदनाश्रो छे. ७४. ___ केवळ नरकने विषेज में दुःखवेदना अनुभवी छे एटलुंज नहीं, परंतु सर्व गतिने विषे पण अनुभवी छे. ते उपर कहे . संवभवेसु असाया, वेण्णा वेईआ मए । निमेसंतरमित्तं पि, जे साया नैत्थि वेमणा ॥ ७५ ॥ अर्थ-के मातापिता ! (मए) में (सब्वभवेसु ) सर्व त्रस भने स्थावर भवोने विषे (असाया वेभषा) साता Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदना ( बेइमा) कनुमवी . ( जं) जे कारक माटे (निमेसंदररामचं पि) निमेषनुं प्रतिरुं पडे तेटलो वखत पण (साया) साता (वेणा ) वेदना (नत्थि) वेदीज नथी. विषयसंबंधी सुख पण इर्ष्यादिक भनेक दुःखोवडे व्याप्त होवाथी तथा परिणामे कटुक होवाथी दुःखरूप ज . आा आखा प्रकरणनो अभिप्राय ए छे जे — में भाषा प्रकारनां दुःखो अनुमन्यां थे, तेथी हुं ती सुखने योग्य के सुकुमाळ केम होइ शकुं ? जेथे भावी वेदना सहन करी छे, तेने दीचा दुष्कर शी रीते होय ? तेथ मारे दीक्षा ग्रहण करबी ए ज योग्य थे, ७५. या प्रमाणे कहीने मृगापुत्र मौन रह्या. ते वखते तं तेऽस्मापिअरो, छंदेणं पुर्त्ते ! पेव्वया । नवरं पुण सामण्णे, दुक्खं निप्पंडिकम्मया ॥ ७६ ॥ 1 ', अर्थ - ( अम्मापि ) माता पिता ( तं) ते मृगापुत्रने ( बिंति ) कहता हवा, के (पुत ) हे पुत्र 1 (छंदेशां) तारी इच्छाप्रमाणे ( पण्यया) तुं प्रव्रज्या ग्रहण कर. ( पुणे ) परंतु (नवरं ) विशेष कहेवानुं ए के जे - ( सामो) चारित्रने विषे ( निप्पडिकम्मया ) निःप्रतिकर्मता एटले रोगादिक उत्पन्न भया छवां पण तेनो प्रतिकार- औषघादिक उपाय करवानो नथी, ए ( दुक्ख ) प्रति दुःख छे. ७६. श्राप्रमाणे मातापिताए कसुं, त्यारे - सोवितेऽस्मापिरो !, एवमं जहाफुडं परिकेम्मं को कुणइ, अरण्णे मिअपक्खिणं ? ॥७७॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P ****@K••£T*«-*<~+> यन • ८|| अर्थ-- (सो) ते मृगापुत्र ( बिंति ) कहे छे के ( अम्मा) हे माता पिता ! (ए) या तमे कर्त्तुं ते ( एवं ) एजप्रमाणे (जद्दाफु ) सत्यज ले. परंतु ( अरो ) भरायने त्रिषे ( मिश्रपक्खिां ) मृग एटले पशु अने पचना (परिकम्मं ) प्रतिकारने एटले चिकित्साने (को कुखइ ) कोण करे छे ? वनमा रहेता पशुपक्षीओ व्याधिथी पीडाय त्यारे तेमने कोइ पण चिकित्सा करतुं नथी. ७७, तेथी करीने भूयो अरहोवा, जहा उचरई मिंगो । एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ॥ ७८ ॥ अर्थ - ( जहा उ ) जेम ( अर) अरण्यने विषे (महे) मृग (भूक) एक खेच्छाए करीने (चरई ) विवरे थे, ( एवं ) एज प्रमाणे हुं पण ( संजमेण ) सतर प्रकाशना संयमवडे ( तवेख य ) तथा चार प्रकारना तपवडे ( धम्मं ) चारित्र धर्मनुं ( चरिस्सामि ) भाचरण करतो विचर.श. ७८. जया मिस्स ऑयंको महारण्णम्मि जायई । अच्छंतं रुक्खमूलम्मि, को गं तहि तिगिच्छई ॥ ७६ ॥ अर्थ - ( जया ) ज्यारे ( मद्दारयम्मि ) मोटा अरण्यम ( भिमक्स ) मृगने ( आर्यको ) भातंक - रोग ( जायई ) उत्पन्न थाय थे, ( ताहे ) त्यारे ( रुक्खमूलम्मि ) वृक्षना मूळने विषे ( अच्छे ) रहेला एवा तेने ) को वैद्य ( तिगिद्धई ) चिकित्सा करे छे १ ७६. ( को Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को वो से ओसहं देई ?, को वा से पुच्छई सुहं ?।'को वो से तपाणं च, आहरित्तू पंगामए १८० अर्थ (वा) अथवा (को ) कोण (से) वेने (मोसई ) औषध (देह ) आपे छ ? (वा) अथवा (को) कोग (से) तेने ( सुहं ) सुख साता ( एमई) पूले ले १० वा) अशमा (को) कोण (से) तेन ( मत्चपाच) मात पाथी माहार (बाहरित ) लावीने (पणामए ) आपे छे ? कोइ ज नहीं. ८०. | त्यारे तेनो निर्वाह शी रीते थतो हशे । ते उपर कहे छे.| जया य से सुही होइ, तयों गच्छद गोअरं । भैतपाणस्स अट्रोए, वल्लराणि संराणि अ ॥१॥ __ अर्थ-(जया य)मने ज्यारे (से) ते मृग (सुही) सुखी एटले रोग रहित (होइ) होय छे-थाय छे, (तया) त्यारे चरवाने स्थाने (गच्छद) जाय छे, थने त्यां (भत्तपाणस्स) भोजन पाणीने (भट्ठाए) अर्थे ( बलराणि ; लीला घासना स्थानोने ( सराणि अ ) तथा सरोवरोने शोधे छे. ८१. * खाइत्ता पाणि पाउं, वैल्लरेहि सरहि अ। मिगचारिअंचरित्ता गं, गच्छई मिअचारिओं ॥ २॥ अर्थ-हे मातापिता ! ते व्याधि रहित मृग (मिगचारिश्रं ) मृगनी चर्यावडे एटले मृगने खावा पीवानी विधि (चरित्ता शं) चरीने ( बल्लरेहिं ) लीला घासना प्रदेशथी ( सरेहि अ ) तथा सरोवरथी (खाइत्ता) खाइने अने ( पाणिभं पाउं) पाणी पीने (मिचारियं) मृगने विश्रांति लेवानी भूमि प्रत्ये ( गच्छई) जाय छ, ८२. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा प्रमाणे दृष्टांत कहीने इवे वे माथावडे उपसंहार करे - न एवं समुट्टि भिस्खू, ऐवमेव अणेगगो। मिगचारिअंचरित्ता णं, उड्डे पक्वमई दिसि ॥ ८३ ॥ ___ अर्थ-(एवं) ए ज प्रमाणे (समुट्टिते) चारित्रनी क्रिया पाळवामां उद्यमवंत थयेलो एटले मृगनी जेम रोगनी उत्पति सते पण चिकित्सा नहीं करनार तथा (एयमेव) ए ज प्रमाणे एटले भृगनी जेम (अणेगगो) अनेक ठेकाणे अनियमित रीते रहेनार (मिवस्) साधु (मिगचारि) मृगना जेबी चर्यान (परिचा णं) आचरण करीने-पाळीने सर्व कर्मनो नाश करी TI (उचं दिसिं) ऊर्ध्व दिशा प्रत्ये एटले मोक्ष प्रत्ये (पक्काई) जाय छे. ८३. मृगचर्याने ज स्पष्ट करे छ. जहा मिए एग अणेगचारी, अणेगवासे धुंबगोअरे अ। एवं मुणी गोअरिअं 'पविटे, 'नी हीलए 'नो वि अविसइज्जा ॥ ८४ ॥ अर्थ-(जहा मिए)जेम मृग (एग) एकलो-सहाय रहित, तथा (अणेगचारी) अनियत विहार करनार, तथा (अणे-|| गवासे) अनेक स्थाने निवास करनार (म) तथा (धुवगोअरे) निश्चित गोचरवाळो एटले निरंतर गोचरमा ज मळेली वस्तुनो पाहार करनार होय छे, (एवं) एजीते (मुखी) मुनि पण वेवा ज विशेषणवालो (गोअरिअं) गोचरीने विषे (पविद्वे) गयो || थको (नो हीलए) कोइनी हीलना न करे एटले कदम्बादिक मळे तो ते भमनी के तेना आपनारनी निंदा न करे (विम) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज बनी ( नो बिमाइला ) जिया न करे एटले आहारनी प्राप्ति न थाय तो ते प्रसंगे पण पोतानी के परनी निंदा || न करे. ८४. आ प्रमाणे मृगचर्यानुं स्वरूप कहीने मृगापुत्रे जे कलु, तथा मातापिताए जे कयुं, भने पछी मृगापुत्रे जे कयं ते हो। कहे थेI भिगचारिअं चरिस्सामि, एवं पुत्ता जहासुहं । अम्मापिईहिंडणुमाओ, जंहाइ उवहिं तओ ॥४५॥ अर्थ-(मिगचारिअं) "शरीरनी चिकित्सा न करवी ए आदि मृगचर्याने (चरिस्सामि) ९ पाचरीश." ए प्रमाणे : । मृगापुत्रे कयु, त्यारे मातापिताए जवाब भाप्यो के-(पुत्ता) " हे पुत्र ! (एवं) जो एवी तारी इच्छा के तो (जहासुई) जेम || सुख उपजे सेम तुं कर." ए प्रमाणे (मम्मापिईदि) मातापिताए (अणुमायो) अनुज्ञा पापी. (तमो) त्यारे ते मृगापुत्रे (उर्हि) सर्व परिग्रहनो (जहाइ) त्याग कर्यो. ८५. ____ उपर कहेला अर्थने ज विस्तारथी कहे छे.मिभचारित्रं चैरिस्सामि, सव्वदुक्खविमोक्वणिं। तुम्भेहिं सेमणुण्णाओ, गच्छ पुत्त ! जहासुहं । ___ अर्थ-मृगापुत्रे कह्यु के-हे मातापिता ! (तुन्भेहि) तमोए (समणुपाओ) अनुज्ञा प्राप्यो एवो हुँ (सम्बदुक्खविमोक्खणि) सर्व दुःखनो नाश करनारी (मिभचारि) मृगचर्याने-दीचाने (चरिस्सामि ) आचरीश." त्यारे मातापिताए Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — (पुत) पुत्र (जहासुरं ) जम सुख उपजे तेम (गच्छ ) तुं जा - मृगचर्यानुं श्राचरण कर. ८. हे I एवं से अम्मा पिअरो, ऋणुमाणित्ता ण बेहुविहं । मत्तं छिंदई ताहे, महानागु व कंचुअं ॥८७॥ अर्थ - ( एवं ) या प्रमाणे ( स ) ते मृगापुत्र ( अम्मापरो) मातापितानी (अणुपाणिचा ख) अनुज्ञा लइने (वाहे) ते खते (महानागु) मोटो सर्प (x) जेम (कंचु) कांचळीनो त्याग करे तुम (बहुवि) घणा प्रकारना (ममत्तं) ममत्वने (दई) छेदतो हवो - त्याग करतो वो आ गाथावडे आभ्यंतर उपधिनो त्याग को.८७. हा उपधिनो त्याग कछे छे. - ईड्डी वित्तं च मित्ते अ, पुत दारं व नायओ । रेणुअं व पंडे लग्गंग निष्धुणित्ता ण निगो ८८ अर्थ - (पडे) रखने चिपे (लग्ग) लागेली-चोटेली (रेणुअं व) रजनी जेम (हड्डी) समृद्धिने, (वित्तं च ) धनने तथा (मित्र) मित्रोने तथा पुत्त) पुत्रोने तथा ( दारं च) स्त्रीओने तथा (नायओ) ज्ञातिने (निष्धुषिता ) तजीने ( निभाओ ) मृगापुत्र गृह बहार नीकळ्या. १८. ते त्यापकी ते मृगापुत्र वा थया १ अने तेने केवुं फळ प्राप्त थयुं ? ते कहे छे. - पंचमहव्वयजुत्तो, पंचहिं समिओ तिगुत्तिगुत्तो अ । सभितर बाहिरए, तवोवहाणम्मि उज्जुत्तो ॥ ८९ ॥ अर्थ - (पंचमहायनुतो) पांच महाव्रतोथी युक्त, तथा (पंचा) पांच समितिबडे (समियो) सहित, तथा (विगुत्ति Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nok-ke-ke-ka- A Tो गुतो भ) प्रण गुमिवडे गुप्त, तथा ( समितरयाहिरए ) आभ्यंतर सहित बाल एका (तवोवहाणम्मि) तप संबंधी उपधानने विषे-कर्शव्यने विषे (उज्जुत्तो) उद्यमवंत थया. ८६. निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो । समो में सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु श्र ॥ ९ ॥ अर्थ--तथा (निम्ममो) ममता रहित, (निरहंकारी) अहंकार रहित, (निस्संगों) बाह्य अने आभ्यंतर संग रहित, (चत्त गारवो) त्रण मारव रहित, (अ) तथा (सम्पभूए सु) सर्व प्राणीमोने विषे एटले (तसेसु) त्रस प्राणीश्रोने विषे (थावरेसु अ) अने स्थावर प्राणीओने विषे (समो) समान परिणामवाळा थया. ६.. लाभालाभे सुहे दुक्खे, आविए मेरणे तहा । समो निंदापसंसासु, संमो माणावमाणो ॥ ९१ ॥ - अर्थ--(लाभालाभ) लाभ अने अलाभने विष, (मुहे) सुख अने (दुक्खे) दुःखने विषे, (जीविए) जीवित अने (मरणे) मरणने विषे, (तहा) तथा (निंदापससासु) निंदा अने प्रसंसाने विषे ( समो) समान, तथा (माणावमाणमो) मान अने अपमानने विषे (समो) समान थया. ६१. गारवेसु कैसाएस, दंडसलभएसु अ । निअत्तो हाससोगामो, अनिबाणो अंबंधणो॥ १२॥ अर्थ--(गारवेसु) त्रण गारव थकी (निअत्तो) निवृत्त थया, तथा (कसाएसु) चार कपायथी निवृत्त थया, तथा (दंडसनभएसु अत्रण दंड, त्रण शल्य भने सात भयथी निवृत्त थथा, तथा (हाससोगायो) हास्य भने शोकथी निवृत्त थया, tta Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वथा (अनित्राणो) नियाणा रहित थया, तथा (अपंधणो) राग द्वेषना बंधन रहित थया. ६२. अणिस्सियो इह लोए, परलोए अणिस्तिो । वासीचंदणकप्पो अ, असणे अणसणे तहा ॥९३॥ | अर्थ--(इह लोए) पा लोकने विषे पण (अणिस्सिओ) कोइनी निश्रा एटले सहाय रहित, तथा { परलोए ) परलोकने विषे पण ( अणिस्सिो ) निश्रा रहित अर्थात् प्रा लोकमा राज्यादिकनी अने परलोकमां स्वर्गसुखनी वांछ। रहित थया. Ltil (वासीचंदणकप्पो श्री तथा वासी अने चंदनने विषे समान एटले कोइ पुरुष वासलावडे छेदे अथवा कोड कोइ माणस चंदनवडे पूजा करे ते बनेने विषे समान दृष्टिवाला थयां, तिहा) अया असणे, माहारने विषे अने (अणसणे) अनशनने विषे पण समान एटले आहार करवामां अने नहीं करवामां अथवा आहार मळे के न मळे तोपण ते बीमा समान दृष्टिवाळा धया, ६३. | अप्पसत्थेहिं दारोहिं, सबओ पिहिआसवो। भज्झप्पज्झाण जोगेहि, पसत्थदमसासणो ॥९॥ अर्थ-(अप्पसत्थेहि ) अप्रशस्त एटले कर्म उपार्जन करवाना हेतुरूप हिंसादिक ( दारेहिं ) द्वारोधी निवृत्त थया, तेथी करीने ज (सयो) चोतरफथी (पिहिमासरो) रंध्या छे श्राश्रय एटले पापन्यापारी जेणे एवा थया, तथा ( अज्मप्पज्झाणजोगेडिं) मात्माने विषे शुभ ध्यानना व्यापारोबढे (पसत्थदमसासणो) प्रशस्त छे दम एटले उपशम भने । | शासन एटले सर्वजनो सिद्धांत जेने एषा थया. अर्थात् उपशमवाळा भने शासनना आराधक थया. ६४. एवं नाणेण चरणेणं, दसणेण तवेण य । भावणाहि अ सुद्धाहिं, सम्मं भावितु अप्पयं ॥ ९५ ॥ PATAR Hb Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(एवं) एज प्रमाणे (नाणेण) मति, भूत विगैरे ज्ञानवडे, (चरोणं) यथाख्यात नामना चारित्रपडे, (दंसपेण ) शुद्ध समकितवडे, (तवेण य ) तथा पार प्रकारना तपवडे (अ) तथा (सुद्धाहिं ) शुद्ध एटले नियाणादिक दोषरहित एषा (नाशाह ) महारत्त संबंधी पचीश भावनावडे अथवा अनित्यादिक बार भावनावडे ( अप्प) पोताना | ME भारमाने ( सम्मं ) सम्यक् प्रकारे ( भाविसु । भाषीने एटले निर्मळ करीने-६५ | बहुप्राणि उ वासाणि, सामलमणुपालिका । मासिएण उ भत्तेणं, सिद्धि पत्तो अणुत्तरं ।। ९६ ॥ अर्थ (बहुभाणि उ) घणा (वासाणि ) वर्षों सुधी (सामां) चारित्रने (अशुपालिमा ) पाळीने ( मासिएण उ ) एक मासना ( मत्तणं ) अनशनवडे (अणुचरं । सर्वोत्कृष्ट एवी (सिद्धिं ) सिद्धिने (पचो) पाम्या. ६६ । हवे अध्ययननो उपसंहार करता उपदेश आपे छे.--- एवं करति सबुद्धा, पंडिआ पविअक्खणा । विणिमहति भोगेसु, मिआपुने जहा मिसी ।। ९७ ॥ अर्थ-(संबुद्धा ) सम्यक् प्रकारे तत्वना जाण, तथा (पंडिआ) पंडित एटले हेय भने उपादेय जायनारा, तथा (पविभक्खणा) अति विचक्षण एवा पुरुषो ( एवं ) उपर कमा प्रमाणे (करंति) करे छे, तेथी ( भोगेसु) भोग थकी (विणिमति ) पाछा वळे छे (जहा ) जेम (मिसी) ऋषि (मित्रापुत्ते ) मृमापुत्र भोगधी निवृत्त थइ चारित्र प्रहस्य | करी मो गया तेम. ६७. मीजी रीते उपदेश आपे छे. そりゃーただいたいいポート Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापभावस्स महाजसस्स, मिश्रापुस्तस्स निसम्म भासिय। तवप्पहाणं चरि च उत्तम, गप्पहाणं च तिलोअंविस्सुअं ॥ ९८ ॥ अर्थ---(महापभावस्स) मोटा प्रभावबाळा, तथा (महाजसस्सः मोटा यशवाळा (मिश्रापुत्तम्स) मृगापुत्रना (भासिभ) |.. संसारनु असारपणुं विगेरे जणावनारा वचनने (निसम्म) सांभळीने (च) तथा (तवप्पहाणं) तप के प्रधान-मुख्य जेमा एवं तथा (उत्तम उत्तम एवं, तथा (गइपहाणं च) मोक्षरूप गतिए करीने प्रधान एवं. तथा ( तिलोअविस्सुअं) प्रण जगतमा । | प्रसिद्ध एवं (चरिअं) ते मृगापुत्रनुं चरित्र सांभळीने-६८. विआणिा दुक्खविवड्डणं धणं, ममत्तबंधं च महब्भयावहं । सुहावह धम्मधुरं अणुत्तरं, धारेह निवाणगुणावहं महं ॥ ९९ ॥ त्ति बेमि ॥ __ अर्थ--तथा (धणं) धन (दुक्खविधगुण) दुःखने वधारनार छे, (च) तथा (ममत्तघ) ममत्वनुं बंधन छ भने (महन्भयावह) : महा भयने वहन करनार छ एम (विआणिमा) जाणीने (सुहावई) सुखने पापनार, (अणुत्तर) सर्वोत्कृष्ट, (निम्बाणगुणा| वह) मोक्ष प्राप्त करायनारा गुण जे अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने वीर्य तेने धारण करनार थामो तथा (मई) मोटी एत्री : (धम्मधुर) धर्मधुराने (धारेह) धारण करो. (सि बेमि) ए प्रमाणे सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहेता हवा. ६६. इति एकोनविंशतितममध्ययनम् ॥ १६ ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ महानिर्ग्रन्धीय नामर्नु वीशमुं अध्ययन. २० मोगणीशमा अध्ययनमा निःप्रतिकर्मपणुं एटले शरीरनी सारवार न करवी एम का. ते मनाथपणा विना पाळी || शकाय नहीं. तेथी आ चीशमा अध्ययनमा अनेक प्रकारलं मनाथप कड़े के. श्रा संबंधी प्रावेला भा अध्ययनर्नु प्रथम सूत्र कहे छे.-- सिद्धाण नमोकिंचा, संजयाणं च भाओ। अथधम्मगई तच्चं, अणुसिटिं सुंणेह मे ॥१॥ अर्थ-(सिद्धाण ) तीर्थकररादिक पंदर प्रकारना सिद्धीने ( संजयाणं च ) तथा संयतोने एटले प्राचार्य, उपाध्याय | भने साधुओने (भावमओ) भायी (नमोकिया) नमस्कार करीने (अत्यधम्मगई) प्रार्थना करवा लायक धर्मशान ले जेने | एवी अने (तच ) सत्य एवी ( मे ) माराथी कहेवाती एवी (अणुसिद्धि) शिक्षाने-उपदेशने (मुणे) तमे समिळो. १. - मा सूत्रमा धर्मकथानुयोग होवाथी धर्मकथाना द्वारवडे ज उपदेश आपे छे.पभूअरयणो गया, सेणिओ मंगहाहियो। विहारजत्तं निजाओ, मंडिकुंच्छिसि चैइए ॥२॥ अर्थ (पभूअरयणो ) गज अश्वादिक अथवा वैड्डुर्यादिक या नोवाळो (मगहाहिवो ) मगध देशनो अधिपत्ति (सेणियो) श्रेणिक नामनो ( राया ) राजा एकदा (विहारजतं ) विहार यात्राए एटले प्रश्नक्रीडा करवा माटे नगरथी (निजामी ) नीकळ्या थको ( मंदिकुच्छिसि ) मैडितकाचे नामना ( चेहए ) चैत्यने विषे-वनने विषे गयो. २. । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [@*«-»* ̄*«~»»«<~**@***@****i*-*E ते उद्यान के हतुं १ से कहे छे.-- नाणादुमलाइ, नाणापक्खिनिसेवि । माणाकुसुमसंछ, उज्जाणं नंदणोवमं ॥ ३ ॥ अर्थ—(नाणादुमलयाइं) विविध प्रकारना वृक्षो भने लाभोवडे व्यास, (नायापक्खिनिसेविर्भ) विविध पक्षी भए सेवेल्लुं तथा ( नाम्णाकुसुमसंनं ) विविध जातिना पुष्पो सहित एवं ( उखायं ) ते उद्यान ( नंदयोगमं ) नंदन बननी जेतुं हतुं. ३. तत्थ सो पोसई साहु, संजयं सुसमाहिअं । निसन्नं रक्खमूलम्मि, सुकुमालं सुहोश्रं ॥ ४ ॥ अर्थ - (तत्थ) ते उद्यानमा ( सो ) ते श्रेणिक राजाए ( संजयं ) सम्यक् प्रकारे यतना करता, ( सुसमाहिश्रं ) सारी समाधिवाळा, (रुक्खमूलम्मि) वृचना मूळमां (निसं) बेठेला, ( सुकुमालं ) प्रति कोमळ अने (सुहोइभं) सुखने एटले सुख भोग योग्य एवा एक साहुं ) साधुने ( पासई ) जोया. ४. तस्स रूवं तु पासित्ता, राइणो तम्मि संजए । अचंतं परमो आसि, अउलो रूविम्हओ ॥ ५ ॥ अर्थ – (तस्स) से सुनिनुं ( रूवं तु ) रूप (पासित्ता) जोहने (राइयो) श्रेणिक राजाने ( तम्मि संजए ) ते सुनिने विषे ( अ ) अत्यंत ( परमो ) उत्कृष्ट ( भउलो ) अतुल - कोइनी उपमा न भपाय एवो ( रूवविम्हभो ) रूपना विषयवाळो विस्मय (आसि ) थयो. ५ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _*+******+******+0 ते विस्मयने ज बसावे थे. अहो ! वो ! अहो । रूवं !, अहो ! अज्जस्त सोमया ! | श्रहो ! मुत्ती!, अहो ! भोगे असंगया ! ॥ ६ ॥ अहो ! खंती ! अर्थ - राजा विचार करे छे के - ( अहो ) अहो ! या मुनिना शरीरनो ( वो) वर्ण (अहो रूवं ) महो एनुं रूप ! ( अहो ) अहो ! ( अजस्स ) आ आर्यनी - पूज्यनी (सोममा) चंद्रमा फैली सैन्या-तुरा ! ( अहो खंती ) अहो 1 आनी क्षमा ! ( अहो मुती ) अहो ! आनी मुक्ति – निर्लोभता ! ( अहो भोगे असंगया ) अहो ! मोगने विषे आनी निःस्पृहता 1 सर्व अति आश्चर्यकारक छे. ६. तस्से पाऐ उ वंदिती, काऊंण ये पयो हिणं । नाँइदूरमणासने, पंजली पडिपुच्छ ॥ ७ ॥ अर्थ - एम विचारी ( तस्स ) ते सुनिना ( पाए उ ) पादने ( वंदिता ) वंदन करीने (य) तथा ( पयाहिसं ) प्रदक्षिणा (काऊ ) करीने (नाइदूरं ) अति दूर नहीं तेमज (अण्णासो ) अति समीपे नहीं एवी रीते बेसीने (पंजली ) हाथ जोडी (पडिपुच्छर ) राजाए प्रश्न कर्यो. ७. तरुणोऽसि जी ! पेवइओ, भोगकालाम्मि संजया ! | उडिओऽसि सामो, एअट्ठ सुगमि तो ॥८॥ ** ते इति वा पाठः 403 **+++ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- अर्थ-(ओ) हे आर्य ! ( तरुणोऽसि ) तमे युवान छो, ( संजया ) हे मुनि ! (भोगकालम्मि ) भोग भोगवयाने समये ( पन हो ) तमे प्रवज्या लीधी छे, (सामी) चारित्रने विषे ( उवाहिनोऽसि ) उद्यमवंत थया छो. (एमई) श्रा भर्थने एटले आ युवावस्थामांगमा लेगाना कारोबा) या (ने) तमारी पासे ( सुखामि ) ९ सोमलं| सांभळया इच्छु छु, अने पछी तमे वीजुं जे कहेशो ते पण सांभळीश. ८, हवे ते मुनि जवाब पापे छे.-- अणाहोमि महाराय !, नाहो मज्झ ने विजई । अणुकंपगं सुहि वा "वि, कंची नाभिसममहं ॥९॥ अर्थ-( महाराय ) हे महाराजा ! ( अशाहोमि ) हुं अनाथ छु. ( मज्झ ) मारो कोइ (नाहो) नाथ (न विजइ ) || नथी. (वा) अथवा (अणुकंपगं) दयाने चितवनार (कंची ) कोइ (सुहि) सुहद्-मित्रने (बि) पण ( नामिसभेमहं ) ई पाम्यो नथी. या कारणथी में प्रव्रज्या लीधी थे. ६. आ प्रमाणे मुनिए कयुं त्यारेतमो सो पहसिमो रोया, सेणिओ मगहाहियो । एवं ते इंडिमंतस्स, कह नाहो ने विजेई ॥१०॥ अर्ध-तो ) ते बखते ( सो ) ते ( मगहाहिनी ) मगध देशनो भधिपति ( सेणिमो ) श्रेशिक (राया ) राजा (पहसिओ) हस्यो के-(एवं ) आ प्रकारे (इट्टिमंतरल) दिवाळा एचा (ते ) तमारो (नाहो) नाप ( कहं ) केम (न विआई) नथी ? अहीं सर्वत्र वे काळनी अपेघाए वर्तमानकाळ लखेलो छे. ११. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो व्रत अंगीकार करवामा अनाथता ज कारण होय तोहोमि नाही भयंताणं, भोगे भुंजाहि संजया !। मित्तलाईपरिवुडो, माणुस्सं खु सुदुल्लहं ॥११॥ अर्थ-( भयंताणं ) पूज्य एवा आयनो हुँ ( माहो) नाथ ( होमि ) धाउं. ( संजया) हे मुनि ! (मित्चनाईपरि* वुडो) मित्र अने ज्ञातिथी परियर्या थका ( भोगे) मोगौने (झुंजाहि ) भोगवो. कारण के ( माणुस्सं ) मनुष्यपणुं पामर्दू (खु) खरेखर (सुदुल्लहं ) अत्यंत दुर्लभ छे. ११. * ते सांभळी मुनि शेल्या. अप्पणा वि अंगाहोऽसि, सेणिया! मगहाहिवा! अप्पणा अंगाहो संतो, कहं नाहीभविससि ? ॥१२॥ ___अर्थ-( मगहाहिवा ) हे मगधना अधिपति ( सेणिया) श्रेणिक राजा ! (अप्पणा वि ) तमे पोते ज ( अणा|| होऽसि ) अनाथ-~नाथ रहित छो. (अप्पणा ) तेथी पोते ज ( अणाहो संतो ) अनाथ सता ( कहं ) केवी रीते मारा (नाहो ) नाथ ( भविस्ससि ) थशो ? १२. til एवं वुत्ता नरिंदो सो, सुसंभंतो सुविम्हिओ । वैयणं अस्सुअपुब्वं, साहुणा विम्हयं निओ ॥१३॥ ____ अर्थ-( एवं ) मा प्रमाणे ( साहुणा ) मुनिए ( अस्सुअपुज्य ) पूर्वे नहीं सांभळेला (ययणं ) वचन प्रत्ये ( चुत्तो) E कहेवायो एत्रो (सो) ते ( नरिंदो) श्रेणिक राजा (सुसंभंतो) अत्यंत संभ्रांत अने ( सुविम्हिो ) अत्यंत विस्मित थइ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (विम्हयं निभो) पाश्चर्य पाम्यो, प्रथम ते मुनिना रूपादिक जोइने राजा आश्चर्य पाम्यो हतो, ते फरीथी आधु अपूर्व वचन | समिळी वधारे पाश्चये पाम्यो. १३, ___ पछी राजा पा प्रमाणे चे गाथावडे बोल्यो.आसा हत्थी मणुस्सा 'मे, पुरं अंतेउरं च मे। आमि माणुसे भोएँ, श्रीणाइस्सरिअं "मे ॥१४ अर्थ हे मुनि ! (मे) मारे (पासा) घणा अश्वो छ, वथा ( हत्थी ) हाथीयो छे, तथा ( मणुस्सा ) मनुष्योसेवको भने स्वजनादिक छे, (च) तथा (मे) मारे (पुरं) नगर के, तथा ( अंतेउरं ) राणीप्रोनो समूह थे, तथा हुँ ( माणुसे ) मनुष्य संबंधी ( भोए) कामभोगोने (मुंजामि ) भोगवं छु, (च) तथा ( मे ) मारे ( भागाइस्सरियं)। मस्खलित शासनरूप आज्ञा अने अश्वर्य एटले समृद्धि-स्वामीपणुं छे. मारा राज्यमां कोई पण मारी श्राज्ञानो भंग करतुं नथी. १... ऐरिसे संपैयग्गमि, सव्वकामसमप्पिए । केहं अणाहो भवइ, मा हुँ भंते ! मुसंवैए ॥ १५ ॥ अर्थ (एरिसे) पावा प्रकारनी (सव्यकामसमप्पिए) सर्व मनवांछितने पूर्ण करनार (संपयम्गम्मि ) संपदानो * प्रकर्ष-मोटी समृद्धि सते ( कई ) केवी रीते हुँ (अणाहो) अनाथ ( भवइ ) थाउं ? कारण के हुं सर्व संपचिनो नाथ छु. (हु ) तेथी करीने ( मंते) हे पूज्य ! आप (मुसं) मृषा ( मा वए) न बोलो. १५, Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *@**«*••*O***O*•»**•*@*••*O*••***-•*,03 त्यारे मुनि मा प्रमाणे बोल्या. तुम जाणे अणाहस्स, अत्थं पोत्थं च पेत्थिवा ! । जहा अणाही हेवेइ, सैणाहो व नैशहिवा ! ॥१६॥ - अर्थ - ( पत्थिवा ) है राजा ! (तुम) तमे ( श्राहस्त ) अनाथ शब्दना ( अत्थं ) अर्थने ( पोत्थं च ) तथा प्रोत्थानने एटले कया अभिप्रायधी में अनाथ शब्द को तेनी मूळ उत्पत्तिने ( ण जाखे ) तमे जाणता नधी, के ( जहा ) जे प्रकारे ( अणाहो ) अनाथ ( व ) के ( सखाहो ) सनाथ ( हत्र) होय, ते प्रकारे ( नराहिबा ) हे नराधिप । तमे जाणता नथी. १६. सुह में महाराय !, अव्वक्खित्तेण चेंजेंसा। जहा अप्पासो भवति, हा मे अ वत्तिअं ॥१७॥ अर्थ - ( महाराय ) हे महाराजा 1 ( जहा ) जे प्रकारे मनुष्य ( अगाहो ) अनाथ ( भवति ) थाय छे, ( अ ) अने (जहा) जे प्रकारे (मैं) में ते अनाथपणुं (पति) प्रवर्ताव्यं एटले प्ररूप्युं- कयुं क्रे, ते प्रकारे ( मे ) कद्देता एवा मारा थकी तमे ( अक्खित्ते ) श्रव्याक्षिप्त- स्थिर ( चेअसा ) चित्तवडे ( सुणे ) सांभळो. १७. प्रमाणे कहने पछी मुनि पोतानी कथा कहेवा लाग्या . --- कोसंबी नाम नैयरी, पुराणपुरभेणी । तैत्थ श्रासी पिओ मैज्झ, पेभूअधणसंचओ ॥ १८ ॥ अर्थ - ( पुराणपुरवणी ) जूनां नगशेने भेदनारी एटले जूनां नगरोथी पण अधिक शोभावाळी ( कोसंबी नाम ) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - न । कौशांबी नामनी (नयरी) नगरी के. (तत्थ) तेमा (पभूअधणसंचओ) घणा धननो संचय-संग्रह करनार धनसंचय नामे (मज्झं) मारो ( पिना) पिता ( प्रासी ) हतो. प्राये करीने जूनां नगरोमा वसनारा लोको चतुर, धनवान, घणा अनुभवी | अने विवेकी होय छे एवं रहस्य जणाववा माटे जूना नगरने भेदनारी भा नगरी कही छे. १८. पेढमे वैए महाराय!, अउला मे अच्छिवेअणा । अहोस्था विउलो दोहो, सेठवगत्तेसु पत्थिवा!॥१९॥ अर्थ-(पक्षाना ) हे महाराज हो गए ) पहली वयमा एटले युवावस्थामा ( मे ) मने एकदा ( अउला ) का अतुल एवी (अच्छिवेप्रणा ) नेत्रनी पीडा (अहोत्था) थइ. तेथी (पत्थिवा ) हे राजा! ( सम्बगत्तेसु) मारा सर्व * अवयवोने विपे ( विउलो) विपुल-मोटो ( दाहो ) दाह थवा लाग्यो. १६. * सत्थं जहा परमतिकावं, सरीरविवरंतरे। आँवीलिज्ज अरी कुद्धो, एवं मे अच्छिवेअणा ॥२०॥ । अर्थ-( जहा ) जेम कोइ । कुद्धो अरी ) क्रोध पामेलो शत्रु ( सरीरविवरंतरे ) कर्ण, नासिका विगैरे शरीरना विवरोनी मध्ये (परमतिक्खं ) अत्यंत तीक्ष्ण ( सत्यं ) शस्त्रने (आवीलिज ) गाढ रीते नाखे अने तेथी जेवी वेदना थाय (एवं ) एवी असह्य ( मे ) मने ( मच्छिवेणा ) नेत्रनी पीडा थी हती, २०. ति में अंतरिच्छं च, उत्तिमंगं च पीई । इंदासणीसमा घोरा, वेणा परमदारुणा ॥ २१ ॥ मर्थ-( मे ) मारा ( तिअं) कटिभागने, तथा (अंतरिच्छं) खान, पान, रमण विगेरे अंदरनी इच्छाने, तथा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (उसिमंगं च ) मस्तकने ते ( इंदासणीसमा ) इंद्रना बज्र जेवी अति दाह उत्पन्न करनारी (घोरा) भयंकर एटले गीजाने पण भय उत्पन्न करनारी अने (परमदारुणा, पोताने अत्यंत दुःख उत्पन्न करनारी ( वेपणा ) वेदना (पीडई) पीडा करवा लागी. २१.. उर्वद्विश्रा में आयरिआ, विजामंततिगिच्छगा । अबीआ सत्यकुसला, मतमूलविसारया ॥ २२ ॥ अर्थ-ते वखते ( मे ) मने-मारी पासे (शायरिया ) आचार्यों एटले घेद्यो ( उवडिया ) प्राप्त थया एटले मारी चिकित्सा करवा आन्या. ते वैद्यो (विजामंततिगिच्छगा) विद्या अने मंत्रबडे चिकित्सा करनारा हता, तथा ( भबीमा) अद्वितीय एटले तेमनी जेवा बीजा कोइ निपुण नहोता, अथवा (अधीमा) सारी रीते भणेला इता, तेथी ज (सत्थकसला) शास्त्रने विषे कुशळ हता, तथा ( मंतमूलविसारया ) देव अधिष्ठित्त मंत्री अने जडीबुट्टी आदि मूळीयांमां विचचण हता, एटले मंत्र अने मूळना गुणोने जागनारा हता. २२. 'ते मे तिगिच्छं कुँवंति, चाउप्पायं जहोहि । ने यं दुक्खा विमोअंति, एसौ मज्झै अोहया ॥२३॥ ___ अर्थ-(ते ) ते वैधो ( जहाहि ) जेम हित थाय तेम ( चाउप्पायं ) चार प्रकारे ( मे ) मारी ( तिगिच्छं) चिकित्सा (कुन्बति ) करवा लाग्या. अहीं चैद्य, औषध, रोगी अने सारवार करनार, अथवा वमन, विरेचन, मदैन भने *अधीआ इति वा पाठः Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वेदन-परसेवो श्रावे तेवू, अथवा अंजन, बंधन, लेपन अने मर्दन ए रीसे शास्त्रमा कहेली चार चार प्रकारनी चिकित्सा जाणवी. ए रीते गुरुपरंपरा प्रमाणे चिकित्सा करवा लाग्या, (य) तोपण तेोए मने (दुक्खा ) दुःखथी (न विमोभंति) मुक्त कर्यो नहीं-मुक्त करी शक्या नहीं. (एमा ) प ज ( मज्झ) मारी ( अण्णाहया ) अनाथता छे. २३. पिओ में संव्वसारं पि, दिजाहि ममै कारणा। नं यं दुखा विमोएंइ, एसौ मज्झै अगाहया ॥२४॥ ___ अर्थ (मे) मारा (पिया) पिताए (मम कारणा) मारे कारणे ते वैद्योने ( सव्यसारं पि) घरनो सर्व सार-सर्व धनादिक सार वस्तु ( दिजाहि ) आपी. ( य ) तोपण तेणे मने ( दुक्खा ) दुःखथी ( न विमोएड) मुक्त कयों नहीं. ( एसा ) ए. ( मज्झ ) मारी (प्रणाहया) अनाथता छे. अर्थात् सर्वस्व आपीने पण मारा पिता मारुं दुःख दूर करी शक्या नहीं, ए ज | मारी अनाथता छ. २४, माया वि मे महाराय ! पुत्तसोगदुहट्ठिआ। न य दुक्खों विमोएइ, एंसा मज्झ अंणाहया ॥२५॥ ___अर्ध--( महाराय ) हे महाराजा! (पुत्तसोगदुहट्ठिा ) पुत्रना शोकल्पी दुःखमा रहेली अथवा ( दुहट्ठिा ) दुःखे all करीने पीडायेली ( मे ) मारी ( माया वि) माता पण ( दुक्खा ) दुःखी मने ( न य विमोएइ ) मूकावी शकी नहीं, || P3 ( एसा मज्झ प्रणाहया) ए ज मारी अनाथता के. २५. * दुहट्टिआ इति दा. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भायरो मे महाराय !, संगा जिट्रेकणिट्ठगा । न य दुक्खा विमोअंति, ऐसा मज्झं अण्णाहया॥२६॥ | अर्थ-( महाराय ) हे महाराजा ! ( जिट्ठकाणडगा ) मोटा अने नाना (सगा ) सहोदर ( मे ) मारा ( भायरो)। भाइभो मने ( दुक्खा) दुःखथी (न य विमोअंति) मूकावी शक्या नहीं, (एसा मज्झ प्रणाहया ) ए मारी अनायता छ. २६. भैणिओ मे महाराय ! सगी जिट्रकणिट्रगा। न य दक्खा विमोअंति, एसो मज्झ अग्णाहया ॥२७॥ अर्थ-( महाराय ) हे महाराजा 1 (जिटुकणिडगा ) मोटी अने नानी ( सगा ) सहोदरी ( मे ) मारी (भइणियो) बहनो मने ( दुक्खा ) दुःखथी ( न य विमोति ) मूकाची न शकी, (एसाईमझ प्रणाहया ) ए मारी श्रनाथता छे. २७. भारिया में महाराय ! अणुरत्ता अणुव्वया । असुपुरोहिं नरणेहि, उरं मे परिसिंचद ॥२८॥ ____ अर्थ-( महाराय ) हे महाराजा! ( अणुरत्ता) प्रीतिवाळी अने (अणुब्बया ) पतिव्रता एवी (मे) मारी ( भारिया ) भार्या ( अंसुपुलहिं ) अश्रुबडे पूर्ण एवा (नयणेहि ) नेत्रोवडे ( मे उरं ) मास उसस्थळने ( परिसिंचा) सिंचती हती. परंतु ते पण मने दुःखथी मूकावी शकी नहीं. ए मारी अनाथता छे. २८. अन्नं पाणं च पहाणं च, गधेमल्लविलेवणं । मए णायमणायं वा, सा बाला नोभुजह ॥२९॥ अर्थ-(सा बाला ) ते मारी भार्या ( मए ) में ( णायं ) जाण्यु ( अणायं वा ) के न जाण्यं तेम एटले मारा Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणता के न जाणता (अनं ) अन, (पाणं च ) पाणी, तथा ( एहाणं च ) स्नान, तथा ( गंधमनविलेषणं) गंध, पुष्पमाला अने बिलेपन एमार्नु कोइ पण (न उवझुंजइ ) भोगवती नहोती, मारा दुःखथी सर्व भोगो सेणार पण तज्या हता. २६. खणं पि मे महाराय !, पालओ वि ने फिई। ने ये दुक्खा विमोएँइ, ऐसा मैज्झ अणाहया ॥३०॥ ____ अर्थ-( महाराय ) हे महाराजा ! ( खणं पि) एक क्षणवार पण ( मे ) मारी ( पासमो वि ) पासेथी-समीप भागथी जरा पण ( न फिट्टई ) दूर जती नहोती, (य) तोपण ते मने ( दुक्खा ) दुःखथी ( न विमोएइ) मूकाची शकी नहीं, ( एसा मज्झ अणाहया ) आ मारी अनाथता छ. ३०. तओ एवमोहंसु, दुख्खमा है पुणो पुणो। वेअणा अणुभविउं जे, संसारम्मि अणंतए ॥३१॥ ___ अर्थ-( तो ) त्यारपछी एटले सर्व उपायो निष्फळ थया पछी (ह) हु ( एवं ) भा प्रमाणे ( आहंसु ) बोल्यो के–(हु) निश्चे ( जे )"जे ( वेणा ) वेदना ( अणुभविउं ) अनुभववाने (दुक्खमा) दुःसह छे, ते वेदना (अणंMall तए ) मा भनेत एचा ( संसारम्मि ) संसारने विषे ( पुखो पुणो ) वारंवार में भोगवी छे. ३१. तेथी करीनेसेइं च जेइ मुञ्चिज्जा, बेअणा विउँला ईओ। खंतो दंतो निरारंभो, पव्वए अणमारिअं ॥ ३२ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-- ( जइ ) जो ( सई च) एक धार हुँ । इनो) आ ( विउला ) मोटी (वेप्रणा) वेदनापी (मुच्चिमा) मूकाउं, तो हुं ( खंतो ) क्षमायाळो, (दंतो) इंद्रिय अने नोइंद्रियना दमनबानो अने (निरारंभो ) सर्व सावध आरंम रहित एवो थइने ( अणगारिअं) साधुपणाने-चारित्रने ( पचए) अंगीकार करीश के जेथी संसारनो ज नाश थवाथी | कोइ बखत पण फगने वेदना प्राप्त थशे ज नहीं." ३२. ऐवं च चिंतइत्ताणं, पसुत्तोमि नराहिवा !। परिअतंतीइ राईए, बेअणा मे वयं गया ॥ ३३ ॥ अर्थ- ( नराहिबा ) हे नराधिप ! केवळ या प्रमाणे बोलीने ज नहीं, परंतु ( एवं च ) ए प्रमाणे (नितइत्ताणं) मनमा चितवन करीने ( पमुत्तोमि ) हुँ सुइ गयो, तेवामा ( राईण ) रात्रि ( परिअत्तीइ ) अतिक्रमण धा एटले जेम जेम रात्रि जवा लागी तेम तेम ( मे ) मारी ( वेश्रणा ) वेदना (खयं गया ) क्षय पामी. ३३. तओ केल्ले पैभायम्मि, आपुच्छित्ता ण बैंधवे । खंतो दंतो निरारंभो, पव्वइभो भणगारिअं ॥३॥ अर्ध- (तो) स्यारपछी एटले वेदनानो क्षय थया पछी ( कल्ले ) रोग रहित थयेला में (पभायम्मि) प्रातःकाळने विपे ज ( बंधवे ) बांधवाने (आपुच्छित्ता ण ) पूछीन एटले तेमनी रजा लइने (खंतो) क्षमावान, (दंतो) इंद्रियोना दमनवाळो अने ( निरारंभो ) आरंभ रहित थइ ( अणमारिमं ) चारित्रने ( पाइओ) अंगीकार कयु. ३४. तो हैं नाही जाओ, अप्पणो अ पैरस्स य । सव्वेसिं चे भूपाणं, तेसाणं थावराण य ॥३५॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ***COK अर्थ (- ( तत्रो ) त्यार पछी एटले दीक्षा ग्रहण कर्या पछी ( इं ) हूं ( अप्पयो ) पोतानो एटले मारो भने ( परस्स य ) परनो एटले बीजानो ( नाहो जाओ ) योग चेम करनारो नाथ थयो धुं. ए प्रमाणे ( सम्देसिं चेव ) सर्व बाज ( तसा ) ब्रूस ( थावराण य ) अने स्थावर ( भूभाणं ) प्राणीयोनो हुं नाथ थयो लुं. ३५. दीक्षा ग्रहण कर्या पछी क्रेम नाथ धया ? पहेलां केम न थया ? ते उपर कहे छे. - अप्पा नई वेअंरणी, अप्प मे कूडसामली । अप्पाँ कामदुहा घेणूं, अप्पी 'मे नंदेणं वैणं ॥ ३६ ॥ अर्थ -- हे राजा ! (अप्पा) मारो आत्मा ज (वेअरणी) नरकमा रहेली वैतरणी नामनी ( नई ) नदीरूप छे, ( मे ) मारो (अप्पा) आत्मा ज ( कूडसामली) पुत्र के ( अप्पा ) मारो धात्मा ज ( कामदुहा धे ) कामदुधा गाय छे, तथा ( मे) मारो (अप्पा) आत्मा ज ( नंदणं वर्ण) नंदन वनरूप के. अर्थात् स्वर्ग नरकादिक श्रापनार श्रात्मा ज छे. ३६. अप्पा कता विकता य, दुहीण य सुहौणय । अप्पा भित्तममित्तं च, दुप्पटुत्र सुपट्टियो ॥ ३७ ॥ अर्थ - हे महाराजा ! (अप्पा) आत्मा ज ( दुहारा य) दुःखनो अने ( सुहाण य) सुखनो (कत्ता ) कर्ता करनार ( विकत्ता ) विकर्ता एटले नाश करनार पण खे, तथा (अप्पा) आत्मा ज ( मितं ) मित्र (अमितं च ) ने अमित्र पण तथा आत्मा ज ( दुप्पट्ट ) दुःप्रस्थित एटले दुराचारी भने ( सुपट्टियो ) सुप्रस्थित एटले सदाचारी थे. तेमां दुराचारी सतो समग्र दुःखनो हेतु होवाथी वैतरणी नदी आदि जेवो श्रने सदाचारी सतो समग्र सुखनो हेतु होवाथी Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामधेनु सदृश छे. तेथी करीने प्रव्रज्याने विषे ज सदाचारीपणुं होवाथी तथा स्वपरर्नु योग क्षेम करवापर्यु होवाथी हुँ | नाथरूप थयो छु. ३७. फरीथी बीजे प्रकारे अनाथपणुं कहे छे.. ईमा हुँ अन्ना वि अंणाहया निवा !, तमेगचिंचो निहुमो सुणाहि। नियंठधम्म लैहिआण वी जंहा, "सीदंति एंगे बहु कायरा नैरा ॥३८॥ अर्थ (निला ) हे राजा! (इमा ) पा एटले इमणा हुँ कहीश ते (हु) निचे (अत्रा वि) वीजी पण (अगाइया) अनाथता छ, (तं ) तंने तमे (एमचित्तो) एकाग्र चित्तवाळा भने (निहुओ) निश्चळ एका सता (सुणाहि) सामळो. ( जहा ) ते ए के ( एगे) केटलाएक (बहु कायरा) घणा कायर (नस) मनुष्यो (निअंठधम्म ) साधुधर्मने (लहियाण वी) पामीने पण (सीदति ) सीदाय छे--साधुना आचार पाळवामां शिथिल थाय छे. तेश्रो सौदाता थका पोतार्नु भने परनु रक्षण करवा समर्थ थता नथी, तेथी तेमनी श्रासीदन नामनी नीजी अनाथता जाणवी. ३८. तेज बताये - जो पव्वश्त्ता ण महन्वयाई, सम्मं च नो फाँसयई पमाया । श्रेणिग्गहप्पा ये रसेसे गिद्धे, न मैलओ छिदइ बंधणं से ॥ ३९ ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-हे राजा ! (जो ) जे मनुष्य (पचहत्ता ण) प्रव्रज्या ग्रहण करीने पछी (पमाया) प्रमादथी ( महब्बयाई) पांच मारताने ( वाप र प्रकारे (जो कासयई) सेवतो नी, (से) ते मनुष्य (अणिग्गहप्पा) नथी वश कर्यो आत्मा जेणे एवो (य) तथा ( रसेसु ) मधुरादिक रसने विषे ( गिद्धे ) गृद्धिवानो सतो ( बंधणं ) संसारना कारणरूप रागद्वेषना | लक्षणवाळा कर्मबंधनने (मूलयो) मुळथी (न छिदइ) छेदी शकतो नयी-सर्वथा प्रकारे रागद्वेषने निवारी शकतो नथी. ३६. ओउत्तया जैस्स य नस्थि काई, इरिआइ भासाइ तहेसणाएं। आयाणनिक्खेव दंगंछणाए, मैं धीरजायं अणुंजाइ मंग्गं ॥४०॥ अर्थ (जस्स य ) वळी जे साधुने ( इरिआइ) र्याने विषे एटले गमनागमननी समितिने विषे, तथा ( भासाइ ) भाषासमितिने विषे, ( तहा एसणाए ) तथा एषणा-आहार ग्रहण करवानी समितिने विषे, तथा ( आयाणनिक्खेच ) उपगरण आदि वस्तु लेवा अने मूकवानी समितिने विषे, तथा (दुगंछणाए ) परिष्ठापनानी समितिने विषे ( काई ) काइ पण (उत्तया ) उपयोग ( नत्थि) नथी, ते साधु (धीरजायं ) धीरयात एटले धीर पुरुषोए पामेला ( मग ) मोक्षमार्गने (न अणुजाइ) पामतो नथी. ४०, चिरं पि से मुंडरुई भवित्ता, अथिरख्वए तवनिअमेहि भेटे। चिरं पि अप्पाण किलेसँइत्ता, ने पारए होई हु संपराए ॥ ११ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(से) ते पूर्वे कहेलो पंच समिति रहित साध्वाभास (अथिरब्वए) अस्थिर व्रतवाळो तथा ( तवनिममेहि ) अनशनादिक तप अने अभिग्रहादिक नियमी (भडे) भ्रष्ट-रहित एवो सतो (चिरं पि) चिरकाळ सुधी (मुंडरुई) मात्र मंटनने विषे ज-सोचने विषे ज रुचिवालो ( भविता) थइने (चिरं पि) चिरकाळ सुधी (अप्पाणं) पोताना भास्माने (किलेसहता ) क्लेश पमाडीने ( संपराए ) संसारनी ( पारए) पारगामी ( न होइ हु ) थतो ज नथी. ४१. पोल्लेव मुट्ठी जहँ से असारे, अंयंतिए कूडकहावणे वा ।। राँढामणी वरिपगारे, अमेहषय होई जागसु ॥ ४२ ॥ अर्थ-(से) ते मुंडरुचिवाळो द्रव्यसाधु (पोनेन । पोली ज (मुट्ठी जह ) मुठीनी जेम (असारे) असार छ*अंताकरणमा धर्म नहीं होवाथी खाली मुठीनी जेवो सार रहित ज छे, तथा ( कूडकहावो वा) कूट कार्षापमा-खोटा रुपीयानी जेम (अयंतिए) अनियंत्रित एटले अनादर करवा लायक-उपेक्षा करवा लायक छ. (इ) कारण के (वेरुलिशप्पगासे ) वैडूर्य मणिनी जेवा प्रकाशवाळो छा पण (राढामणी) काचमणि (जाणए ) मखिनी परीक्षा जायनारामोने विषे (अमइग्धए होइ ) अमहाय थाय छ-मूल्यवान धतो नथी. ४२. कुसीललिंगं देह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय हइत्ता। असंजए संजयलप्पमाणो, विणिधायमार्गच्छद से चिरं" पि ॥ १३ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I मर्थ-(से ) साधुना आचार रहित एवो ते (कुसीललिगं ) पामत्यादिक कुशीळीयाना लिंगने (धारइत्ता) धारण || करीने तथा (जीविय ) आजीविकाने माटे (इसिज्मयं ) ऋषिध्वजने एटले रजोहरणने अने मुखपत्रिकाने (बहत्ता) वृद्धि पमाडीने एटले मा वेष ज मुख्प छ एम कहीने ( असंजए ) संयमी नहीं छता पण (संजयलप्पमाणो) 'हु संयमी छ' एम बोलतो सतो (इह) आ संसारमा (चिरं पि) चिरकाळ सुधी (विणिचार्य) विविध प्रकारनी पीडाने (भागच्छद) | पामे छे. ४३. तेनुं कारण बतावे छे. विस पिविता जह कोलकूड, हणाइ संस्थं जह कुंग्गहीअं । एमेव धम्मो विसओववन्नो, होइ वेआल इवाविवन्नो ॥ ४४ ॥ अर्थ-(जह ) जेम (कालकूडं ) काळकूट नामर्नु ( विसं ) विष (पिवित्चा ) पीधुं सतुं प्राशने (हणाइ ) हो छ, तथा (जह) जेम (सत्य) शख (कुम्गही) खराब रीते एटले विपरीतपणे ग्रहण कर्य सतुं पोताने ज इसे के, (एमेव) एज प्रमाणे (धम्मो ) धर्म पण (विसोवनो) शब्दादिक विषयोची युक्त सतो भारमाने (हखाइ) हखे छे. कोनी जेम ? ते कहे थे-(भविवो ) मंत्रादिकवडे नहीं वश करेलो (वेमाल इव ) वेवाल-पिशाच जेम उलटो हणनार थाप छतेम.४४, Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो लक्खणं सुविण पैउंजमाणे, निमित्तकोऊहलसंपगाढे । कुहेडविजासवदारजीवी, न गच्छई सरणं ताम्म काले ॥ १५ ॥ अर्थ---(जो)जे साधु (लक्खणं ) स्त्रीपुरुषना लक्षाना शास्त्रनो तथा ( सुविख) स्वमशाखनो एटले स्वमना शुभाशुम फळ कद्देनारा शास्त्रनो (पउंजमाणे) उपयोग करतो होय, तथा जे साधु (निमिचकोऊहलसंपगाढे) भूकंपादिक निमिच कहे अने कौतुक एटले पुत्रादिक थवा माटे जे स्नानादिक बतावधू, तेमा मासक्त होय, तथा जे साधु (कहेडविजासबदारजीवी) कुइटक विधा एटले खोटा आश्चर्य बतावनारा मंत्र तंत्रादिकनी विद्या, ते ज कर्मबंधनो हेतु होवाथी पाश्रवद्वार कहेवाय छे, ते कूहेटक विद्यारूपी भाश्रवद्वारवडे आजीविका करवाना स्वभाववाळो होय, ते साधु (तम्मि काले) ते लक्षणादिकनो उपयोग करवाथी बंधायेला कर्मना उदयकाळे एटले नरकादिका दुःख भोगवती वखते (सरणं ) ते * | दुःखयी रपण करनार कोइ पण शरणने ( न गच्छई ) पामतो नथी. ४५. आज अर्थने विस्तारथी कहे छे. तमतमेणेव उसे असीले, सया देही विपरिआसवेड। संधीवइ नरगतिरिक्खजोणी, मोण विरहित्तु अंसाहुरूवे ॥ १६ ॥ अर्थ-(मसाले ) कुशीळीयो एयो ( से ) ते द्रव्य साधु ( वर्मतमोव उ ) अत्यंत अज्ञानवडे करीने ज (सपा) सदा Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (दुही) दुःखी थयों सतो (विपरियास उबेइ ) तच्चने विषे विपरीतपणाने पामे के, तथा (असाहुरूवे ) असाधुरूप एवो ते द्रव्यसाधु ( मोगं) चारित्रनी (विराहिच ) विराधना करीने (नरगतिरिक्खजोखी) नरक बने तिर्यचनी योनि प्रत्ये (संपधावइ ) निरंतर दोडे छे-जाय छे. अर्थात् चारित्रनी विराधनाथी दुर्गतिनो भनुबंध-वारंवार संबंध थाय के. ४६. शी रीते चारित्रनी विराधना कर छ ? अथवा शो रीत नरक मने तिर्यग्गति प्रत्ये दोडे बे? हे कई छे. उद्देसिअं कीअगडं निआगं, न मुँचई किंचि अणेसणिज । अग्गी विवा सबभक्खी भविता, ईओ चुओ गच्छेइ कह पौवं ॥ ४७ ॥ मर्थ–जे साधु ( उद्देसिधे ) प्रौदेशिक एटले साधुने उद्देशीने करेलो, ( कीअगडं ) क्रीत एटले साधुने माटे खरीदा करेलो, भाहत एटले साधुनी सन्मुख आणेलो, (निार्ग ) नित्यकं एटले हमेशा एक ज गृहस्थने घेरथी लीघेलो-एको । (किंचि ) कोइ पण-कोइपण रीते ( अणेसणिज ) अनेषणीय एटले साधुने न कन्ये एवो जे आहार तेने (न मुंबई) मूके नहीं-तजे नहीं, ते ( भग्गी विवा ) अमिनी जेम ( सध्यभक्खी ) सर्वने भक्षण करनारो ( भविचा ) थाने (हमओ) | आ मनुष्य भवथी (चुमो) चन्यो थको मरण पाम्यो थको (पाचं ) पाप (कङ्घ) करीने, दुर्गतिमा ( गच्छा) जाय थे. ४७० - Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ने 'तं अरी कंठछित्ता केरोति, जं से करे अप्पणिआ दैरप्पा । से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते, पैच्छाणुतावेण देयाविहूणो ॥ १८ ॥ अर्थ-(से ) तेवा पापी साधुने ( अप्पणिमा) पोतानी जा (दुरप्पा ) दुरारमता-दुष्टता (जं) जे अनथेने (करे ) करे छे, (तं ) तेवा अनर्थने (कंठचित्ता) कंठने छेदनार (अरी ) शत्रु पण ( न करोति ) करी शकतो नथी. (तु) वळी ( दयाविहूणो) दया रहित एवो ( से ) ते साधु ( मचुमुई ) मृत्युना समयने (पत्ते ) पामे छे त्यारे ( पच्छाणुतावेसा) पश्चात्तापे करीने ( नाहिई ) 'हा : में बहु दुष्कृत का !'ए प्रमाणे कदी पोतानी दुष्टताने जाणशे. केमके दुष्टता अनर्थनुं कारण छ भने पश्चाचापर्नु पण कारण छे. परंतु पर्छ। जापयुं काम पावशे नहीं. तेथी पहेलेथी ज तेने जाणीने तेनो त्याग | करवो उचित . ४८. जे कोइ मरण समये पण मोहने लीधे पोतानी दुरात्मताने जाणे नहीं, तो तेनुं शुं थाय ? ते कहे छ. निरद्विा नगई उ तस्स, जे उत्तिम, विवजासमेई । इमे वि से नैत्थि 'परे वि 'लोए, हओ वि से झिज्झइ तत्थ 'लोए ॥ ४६॥ . अर्थ-(जे) जे द्रव्यसाधु ( उत्तिम8 ) उत्तमार्थे एटले अंत समयनी आराधनाने विषे पण ( विक्जासं एइ) विषयोसने पामे के एटले दुरात्माने पण सुंदरपणे माने छे, (तस्स ) तेनी ( नम्गरूई ) नाग्न्यरुचि एटले चारित्रनी रुचि Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( निरट्टिमा उ ) निरर्थक ज छे. (से) तेवा साधुने (इमे वि) आलोक पण नथी अने ( परे वि लोए) परलोक पण ( नत्थि ) नथी. ( तत्थ ) ते उभय लोकनो अभाव सते ( लोए) जगतने विषे ( दुइओ वि) आलोक भने परलोकना भावने ली बने प्रकारे (से) ते साधु ( झिज्झइ ) चीण थाय छे -सुखथी भ्रष्ट धाय छे. धने आलोकमां तथा परलोकम संपत्तिवाळा जीवाने जोहने 'बने लोकथी भ्रष्ट थयेला मने धिकार थे.' एम पश्चाताप करतो सतो विशेष वीण थाय छे. ४६० त्यारपछी ते जे प्रकारे पश्चात्ताप पामे छे, ते बतावे छे. ― एमेव छंदकुसीलरूवे, मंग्गं विरोहित्तु जिणुत्तभाणं । कुररीविव भोगरसा गिद्धा, निरंसोआ परितात्रमेइ ॥ ५० ॥ अर्थ - ( एमेव ) ए ज रीते एटले महाव्रतनी विराधनादिक प्रकारे करीने ( महानंदकुसीलरूवे ) यथा छंद एटले इच्छाप्रमाणे वर्तनार भने कुशीलरूप एटले दृष्ट शीळना स्वभाववाळो साधु ( जिशुसमा ) जिनेश्वरोना ( मग्गं ) मार्गनी ( विराहित् ) विराधना करीने ( मोगरसाणुगिद्धा ) भोगना - जिव्हाने स्वाद आपनार मांसना रसम लुन्ध थयेली भने ( निश्ठ्ठसोमा ) निरर्थक शोकवाळी ( कुररी चिवा ) पक्षिखीनी जेम ( परितावं एह ) पश्चात्तापने पामे छे. जेम मांसमां लुब्ध यहने जेणे मुखमां मांसनी पेशी नांखी छे एवी पचिणी बीजा मोटा पक्षीश्रोथी विपत्ति पामे छे त्यारे ते शोक करे थे, अने से वखते तेने कांइपर आपत्तिनो प्रतिकार सूझतो नथी, तेम भोगरसमां लुब्ध थयेलो साधु पख मालोक अने परलोकना Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कष्ट प्राप्त थाय त्यारे शोक करे छे, पण ते स्वपरनुं रचमा करवामां असमर्थ होवाथी अनाथ थे. ५०. हवे जे करवा लायक थे, ते कहे छे.- सोच्चारण मेहांव सुभासिअं ईम, अणुसासणं नाणगुणोववेअं । मे कुसीला जहाय सव्वं, महानिअंठाण वैए पंणं ॥ ५१ ॥ अर्थ - (मेहानि ) हे बुद्धिमान् राजा ( सुभासिचं ) सारी रीते कहेला भने ( नाणगुखोववेथं ) ज्ञानमुखे करीने सहित एवा (इमं ) ( अनुसास) उपदेशनां वचनो ( सोचाय ) सांभळीने ( कुसीलाख ) कुशीळीयाना (स) सर्व ( मग्गं ) मार्गने ( जहाय ) तजीने, तमे ( महानिभंठाण ) महा निर्बंथना (पदे) मार्गे ( वय ) चालो. ५२. ( आ उपदेश सर्वने माटे थे; मात्र राजा माटे नथी. ) तेम करवाथी शुं फळ धाय १ ते कहे थे. - चरितमायारगुणन्निए तो अणुत्तरं संजम पालिआणं । 1 निरासवे संखंविआण कॅम्मं, उवेह ठाणं विउलुत्तमं ध्रुवं ॥ ५२ ॥ अर्थ --- ( तथो ) ते महानिर्ग्रथना मार्गे जवाथी (चरितमाया र गुणनिए ) चारित्राचार एटले चारित्रनुं सेवन भने गुण एटले ज्ञान, शीळ विगेरे गुणो, तेथे करीने सहित, तथा ( निरासबे ) आश्रव रहित एवो साधु ( अनुचरं ) सर्वोचम (103.03403 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - एवा ( संजम ) सतर प्रकारना संघमने ( पालिश्राणं ) पाळीने तथा ( कम्मं ) आठ प्रकारना कर्मने (संखविभाख) खपाबीने ( विउलुत्तम) विशाळ, उत्तम अने (धुर्व ) निश्चळ एवा ( ठाणं ) मोक्षस्थानने ( उबेइ) पामे छे. ५२. हवे मुनि पोतानु कहे, समाप्त करे - एग्गेदं वि महातवोभयो, महापुरी पहाणे महागसे। महानियंठिजमिण महासुअं, से कोहए मेहया वित्थरेणं ॥ ५३ ॥ __ अर्थ-(एव ) या प्रमाणे ( उम्मदसे वि ) कर्मरूपी शत्रु प्रत्ये उग्र-भयंकर, तथा दांत एटले इंद्रियो अने मनने | दमन करनार, तथा ( महातवोधणे) महा तपरूपी धनवाळा, तथा ( महापइसे ) महा प्रतिज्ञावाळा एटले दृढ व्रतवाळा, तथा ( महायसे) महा यशवाळा एवा (से) ते ( महामुणी) महामुनिए ( महानिपंठिजं) महानिग्रंथीय एटले साधुओने हितकारक ( इणं) श्रा ( महासुमं ) उपर कहेलु महाश्रुत ( महया ) मोटा (चित्यरेणं) विस्तारथी ( काहए ) || कर्यु के. ५३. त्यार पछी.| तुट्ठो अ सेणिओ गया, इणमुदाछु कयंजली । अणाहत्तं जहाभूयं, मुंह मे उचदंसिभं ॥ ५४ ॥ अर्थ-( तुट्ठो अ ) सुष्टमान थयेला ( सेणिो राया ) श्रेणिक राजा ( कयंजली) हाथ जोडीने (इखं उदाहु) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ प्रमाणे बोल्या के~~~हे महामुनि ! ( जहाभूयं ) यथार्थ - सत्य एवं ( प्रवाहचं ) अनाथपणुं तमे ( मे ) मने ( सुहु ) सार्क ( उपसि ) देखाड़धुं छे- समजाव्युं छे. ५४. तुम्भं सुद्धं खु म ैस्सजम्मं, लॉभा सुद्धा ये तुमे महेसी । भे संणाहा यं सर्वधवा य, जं "भे ठिओं मँग्गि जिणुत्तमाणं ॥ ५५ ॥ अर्थ – ( महेसी ) हे महर्षि ! (तु) तमाशे (मस्मलम् ) मनुष्य भव ( सुलद्धं खु) सारो प्राप्त थयेलो ज - सफळ ज ; (य) तथा (तुमे ) तमने ( लाभा ) रूप, वर्ण, विद्या विगेरे लाभो (सुद्धा) सारा प्राप्त थयेला वे, (य) तथा ( तुठभे ) तमे ज ( साहा ) सनाथ - आत्माना नाथ होवाथी नाथ सहित को, (य) तथा (सबंधवा ) तमे ज ज्ञाति कुटुंबादिक बंधु सहित छो० (अं) कारण के ( भे) तमे ( जिणुत्तमाणं ) जिनेश्वरना ( मग्गि) मार्गने विषे (ठिया ) रहेला छो. ५५० सिंणाही अणाहाणं, सव्वभूआण संजया । खामेमि 'ते महाभाग !, इच्छामु अणुसासिउं ॥ ५६ ॥ अर्थ - ( संजया ) हे मुनीश्वर ! ( तं) तमे ( अणादाणं ) नाथ रहित एवा ( सव्वभूमाण ) त्रस भने स्थावर सर्व प्राणीओना ( गाहो ) नाथ (सि) छो. ( महाभाग ) हे महा भाग्यवान! (ते) तमने हुँ ( खामेमि ) खमायुं हुं. में प्रथम तमारो मारुं सनाथपणुं कहीने जे अपराध कर्मो तेनी हुं चमा मागुं हुं भने ( प्रणुसासिउं ) मारा श्रात्माने अनुशा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ सन करवा ( इच्छामु ) इच्छु छु, एटले तमे मने शिवा-उपदेश भापो, एम इच्छं छु. हुं तमारी माझामा छु. ५६. . ___ फरीथी विशेषे करीने क्षमा मागे छ.पुच्छिऊण भए तुम्भं, झोणविग्यो उ जो कओ। निमंतिआ य भोगेहिं, 'तं सव्वं मैरिसेह "मे॥५७॥ अर्थ-हे महर्षि । ( मए ) में ( तुम्भं ) तमने (पुच्छिऊण ) दीचा लेवान कारण पूछीने ( जो ) बे (मागविग्यो उ) तमारा ध्यानमा विन ( कमओ) करेल छ, (य) तथा ( भोगेहिं ) भोगोवरे-भोग भोगववा (निमंतिमा ) तमने में निर्मप्रण कर्यु छ, (तं सो) ते सर्व (म) मारा अपराधने ( मारसह ) घमा करो. ५७, हवे मा अध्ययनने समाप्त करता कहे छ. एवं थुणित्ताण से रायसीहो,-पुणगारसीहं परमाइ भत्तिए । संओरोहो संपरिअणो संबंधवो, धम्माणुरत्तो विमलेण चेसा ॥ ५८ ॥ अर्थ-( एवं ) मा प्रकारे ( स ) ते (रायसीहो ) राजाभोना मध्यमा सिंह समान श्रेणिक राजा (भखगारसीहं ) मुनिओने विष सिंह समान एवा ते मुनिने (परमाइ भसिए) उत्कृष्ट मक्तिवडे (पुणिचाए ) स्तवीने-स्तुति करीने * (समारोहो) अंतापुर सहित, तथा (सपरिभयो) परिवार सहित, तथा (सबंधयो ) बंधुजन सहित (विमलेन चेप्रसा) निर्मळ चित्तवडे (धम्माणुरचो) धर्मने विषे अनुरक्त-रागी थयो. ५८, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊससिअरोमकूवो, काऊँण य पयाहिणं । अभिवंदित्ता सिरेसा, अंतिजातो नराहियो ॥ ५९ ॥ अर्थ - (ऊससिभ रोमकुषो ) सुनिना दर्शनथी तथा सेना वाक्य श्रवण करवायी विकस्वर थया के रोमकूप एटले रोमांच जेना एवो ( नराहियो ) नराधिप पटले श्रेणिक राजा ( एयाहिखं ) ते मुनिने प्रदक्षिणा ( काऊथ य ) करीने तथा (सिरसा) मस्तकपडे ( अभिनंदिता ) तेमना चरखने वांदीने (अविजातो ) अतियातः एटले पोताने स्थाने गयो. ५६. अशे व गुणसमिद्धो, सिधुत्तिद्युसो सिटक्रिभो । विग इव विमुको, विरह सुहं विगयमोहो र्त्ति' बेमि ॥ ६० ॥ अर्थ – (वि) भेणिक राजानी अपेक्षाएं इतर - बीजा एटले वे महर्षि पण ( गुणसमिद्धो ) मुनिना सच्चावीश गुणे करीने सहित, तथा ( तिगुतिगुत्तो ) मन, वचन अने काया ए त्रण गुप्तिथी गुप्त, तथा ( सिदंडविरो म ) मन, वचन अने कायाना ऋण दंडे करीने एटले अशुभ व्यापारे करीने रहित, तथा ( चिह्नग इव ) पक्षीनी जेम ( विप्पनुको ) कोइ पण ठेकाणे प्रतिबंध रहित एटले परिग्रह रहित, तथा अनुक्रमे ( विगयमोहो ) मोह रहित एटले मोहनीय कर्मनो चय करवायी केवळशानवाला थया सता (वसुइं ) पृथ्वीपर ( विहरह) विचरखा लाग्या. (ति बेमि ) एम हुं हुं हुं. ए प्रमा सुधर्मास्वामी, जंबूस्वामीने कधुं. ६०. ॥ इति विंशतितममध्ययनम् ॥ २० ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 h अथ समुद्रपालाय नामनु एकाश, अध्ययन. २१. वीशमा अध्ययनमा अनाथपणुं कटुं. तेनो विचार विविक्त-एकांत चर्यावडे थइ शके छे, मेथी मा एकाशमा अध्ययनमा समुद्रपाळना दृष्टांते करीने विविक्त चर्या कहे छे.चपाए पालिए नाम, सावए आसि वाणिए। महावीरस्स भंगवओ, सीसे सो उ महप्पणो ॥१॥ अर्थ-(चंपाए ) चंपा नगरीमा (पालिए नाम) पालित नामनो (सावए ) श्रावक एटले देशविरदिने धारख करतो (वाणिए ) वणिक (मासि)हतो. (सोउ)ते (महप्पणो) महात्मा (महावीरस्स) श्रीमहावीर ( भगवमो) ail भगवाननो (सीसे) शिप्य हतो. महावीरस्वामीए तेने प्रतिबोध करी श्रावक कयों हतो तेथी तेमनो ते शिष्य कहेवाय ले. १. निग्गंथे पावयणे, सावए से विकोविए । पोएण वैवहरते, पिहुंडं नगरमागए ॥२॥ ___ अर्थ-( निग्गथे ) साधुना एटले वीतरागना ( पावयणे ) सिद्धांतमा (विकोविए ) अत्यंत पंडित एवो (से) ते (सावर ) पालित श्रावक एकदा (पोरण) वहाणवडे ( ववहरते ) बेपार करतो सतो (पिहुंडं ) पिहुंड नामना (नगर) नगरने विषे (आगए ) भाष्यो. चंपा नगरीथी वहासमां बेसीने वेपारने माटे पिहुंड नगरे भाष्यो२. पिहुंडे वैवहरंतस्स, वाणिओ देह धूअरं । तं ससत्तं पइगिज्झ, संदेसमह पस्थिओ ॥ ३ ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-पिडुंडे ) पिहुंड नगरमा ( ववहरंतस्स) वेपार करता एवा ते पालितने तेना गुगथी रंजन घरेला कोर RAI ( वाणिभो ) वणिके ( मरं ) पोतानी पुत्री (देह ) पापी-परणावी. (मह) त्यारपछी त्यो केटलोक बखत रहीने I ( सस) गर्भवती ययेली (तं) वेणीने (पदगिज्झ ) साये लइ ते पालित (सदेस ) पोताना देश तरफ | (पत्थिमो) चान्यो. ३.. बह पालिमस्स घरणी, समुम्मि पसबई । अह दारए तहिं जाए, समुंहपालो चि" नामए ॥४॥ अर्थ-(अह) त्यारपछी (पालिमस्स) पालितनी (धरणी) खीने ( समुहम्मि) समुद्रने विषे ज ( पसवई ) El प्रसव थयो. ( अह) तेथी (वहिं ) त्या समुद्रमा (दारए) पुत्र ( जाए) उत्पम थये सते (सहयालो त्ति) समुद्रपाळ एवं (नामए) तेनु नाम पाडयु. ४. खेमेण आंगए पं, सावए वोणिए धेरै । संबड्डए घेरे तस्स, दारेए से सुहोइए ॥५॥ अर्थ-(वासिर । ते वसिक ( सावए ) श्रावक ( खेमेश) म कुशळताथी (च) चंपा नगरीमा (परं ) पोताने घेर (आगए ) श्रावे सते ( सुहोइए ) सुखने उचितं एवो (से) ते (दारए) बाळक-समुद्रपाळ (वस्स घरे) ते पालितने घेर ( संवए) वृद्धि पामवा लाग्यो. ५. पावैचर को अ, निखिए नीइकोविए । जोवणेण यं संपन्ने, सुरुवे पिअंदेसणे ॥ ६ ॥ +- - - - Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . च. अर्थ-( अ ) तथा ते समुद्रपाळ ( बावरि ) बहोतेर ( कलाओ) कळाओने (सिषिसए ) शीरयो सतो (नीइन| कोविए) नीतिमा निपुण थयो एटले लोकनीति अने धर्मनीतिमां चतुर थयों, (य) तथा (जोवोगा ) युवावस्थाए | करीने ( सुरूचे ) सारा रूपनाको अने (पिदंसणे ) मनोहर दर्शनवाळो ( संपने ) थयो. ६. तस्स रूवई भज, विआ आणेइ विणि । पासाए कीलए रमे, 'देवो दोगुंदगो जहा॥७॥ अर्थ ( तस्स ) ते समुद्रपाळनो ( पिया) पिता ( रूववई ) रूपवाळी (रूविणि) रूपिणी नामनी (म) भार्यानेकन्याने समुद्रपाल माटे (आणेइ) लाग्यो भने ते रूपिणी नामनी कन्या साथे समुद्रपाम्ने परणाच्यो पछी ते (रम्मे) मनोहर (पासाए सादने विक (दोमुंद मो) दोगुंदका मातिना ( देवो )देवनी (जहा) जेम ( कोलए ) इच्छा प्रमाणे तेणीनी साथे क्रीडा करवा लाग्यो. ७. ___ अह अन्नया कयाइ, पासायालोमणे टिओ। वज्झमंडणसोभाग, वझं पासह वज्झंग ॥८॥ अर्थ-(अह ) त्यारपछी (अन्नया) एकदा ( कयाइ) कदाचित (पासायालोथरचे ) प्रासादना मालोकनमा एटले गोखमा (ठिो) घेठेला एवा ते समुद्रपाळे ( वज्झमंडण सोभागं ) रातुं चंदन भने करवीरना पुष्पनी माळा विगेरे | वध्यना भूषणोथी शीमावेला तथा (वज्झगं) वध्यभूमि तरफ लइ जवाता एक (वह) वध्यने-चोरने (पासइ) बोयो. ८. 'त पासिउँण संवेग, समुदपालो इमब्बवी ।अहो असुहाण कम्माणं, निजाणं पावैगं इमं ॥९॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(तं ) ते वध्यने ( पासिंऊण ) जारे लोइने (शंदे ) जराग्या परेको (दवालो ) समुद्रपाळ (इ) मा प्रमाये (अब्बवी ) योन्यो के (अहो) अहो ! (सुहाण ) मशुम (कम्मा ) कोनो ( इम) भा (पावगं ) मशुम | ( निशाणं ) निर्याण-अवसानं एटले उदय केवो आश्चर्यकारक छ ! के जेथी मा विचारो वधने माटे या प्रमाणे ला जवाय छे. ९. संबुब्धो सो तहिं भयवे, परमं संगमागओ। आपुच्छऽमापिअरो, पवए अणगारिअं ॥१०॥ अर्थ-( सो) ते समुद्रपाक ( भयत्रं ) भगवान-पूज्य ( तहिं ) ते गवाक्षमा ज ( संबुद्धो ) बोध पाम्या सता तया ( परमं ) अत्यंत ( संवेग ) वैराग्यने ( श्रागमो) पाम्या सता ( अम्मापिअरो) मातापिताने ( आपुच्छ) पूछीने-तेमनी रजा लइने ( अणगारिश्र ) अनगारपणाने-चारित्रने ( पच्चए ) अंगीकार करता हवा. १०, प्रवज्या लइने तेणे जे रीते आत्माने शिक्षा प्रापी तथा जे रीते प्रवृनि करी ते कहे छे. जैहित्तु सँगं च महाकिलेसं, महंतमोहं कैसिणं भयावह । परिआयधम्म चऽभिरोयइज्जा, क्याणि सीलीणि परीसंहे अ॥११॥ अर्थ-ते विचारे के के-हे प्रात्मा ! ( महाकिलेसं ) महा क्लेशकारक, तथा ( महतमोह ) महामोहवाळा, तथा | (कसिणं ) समग्र अथवा कृष्णलेश्यानुं कारण होवाथी कृष्णा, तथा ( भयावह ) भयदायक एवा (संगं च ) स्वजनाविक Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंधने ( जहित ) तजीने (परिभायधम् च ) पर्याय धर्मने विषे-चारित्रधर्मने विषे (अभिरोयइज्जा ) तुं रुचिवालो था, एटले के ( वयाणि ) मूळगुणरूपी पांच महाव्रतोने विषे, तथा (सीलाणि ) पिंडविशुद्ध्यादिक उचरगुयोरूपी शीळने | विषे, (अ) तथा ( परीसहे ) बावीश परीषहो सहन करवाने विषे रुचिवालो था.११. त्यारपछी ने करवानुं छे ते कहे छे. अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च । पेडिवजिआ पंच महब्बयाई, चरिज धम्मं जिणदेसिमं विऊँ ॥ १२॥ अर्थ-(अहिंस) अहिंसा, ( सर्च च ) सत्य, तथा ( अतेणगं च ) अचौर्य, तथा ( ततो य ) त्यारपछी (ब) * ब्रह्मचर्य, (अपरिग्गई च) तथा अपरिग्रह, ए (पंच) पांच (महन्बयाई ) महाव्रतीने (पडिवजिमा) अंगीकार करीने हे आरमा! (बिऊ ) विद्वान एको त (जिनदेसि ) जिनेश्वरे कहेला (धम्म) धर्मर्नु (चरिज) आचरण-सेवन कर. १२, सव्वहिं भूएहि वाणुकंपी, बँतिक्खमे संजयवंभयारी। सार्वजजोगं परिवज्जयंतो, चरेज भिक्खू सुसमाहिइंदिए ॥ १३ ॥ मथ-( सव्वेहि ) सर्व (भूएहि ) पाथीभोने विषे (दयाणुकंपी) हितोपदेशरूप अने रचषरूप दयाए करीने Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकंपाना स्वभाववालो, तथा ( खंतिक्खमे ) शांतिए करीत्रे नीजाना वर्वचनादिकने मान करनार, तथा (संजय) साधुना आचारने पाळनार, तथा (भयारी ) ब्रह्मचर्यने धारण करनार एवो (मिक्खू ) भिक्षुरूप तुं हे प्रात्मा ! ( सावजजोग) सावध योगने ( परिवजयंतो) वर्जतो-त्याग करतो सतो (सुसमाहिहदिए ) सारी रीते वश करी के इंद्रियो बेणे एवो KI (चरेञ्ज ) चारित्रमार्गने विषे विचर-विहार कर. १३. कालेण कॉलं विहरिज रेंटे, बलाबलं जाणिव अर्पणो अ। सीहो व सहेण में संतसिजा, क्यजोग सुच्चा णे असभमाहुँ ॥ १४ ॥ अर्थ-हे आत्मा ! ( कालेण ) पौरुषी-पोरसी आदिक काळे ( कालं ) काळने उचित एवी पडिलेडणादिक क्रियाने | करीने (अ) तथा (अप्पणो) पोताना (बलाबलं ) बळावळने एटले उपसर्गादिकने सहन करवापणुं अने नहीं सहन करवापशुं तेने ( जाणिभ) जाणीने (रटे) देशने विषे तथा उपलक्षमाथी प्रामादिकने विषे ( विहरिज) तुं विचर, जेम संयमयोगनी हानि न थाय तेम विहार करतो तथा ( सीहो व ) सिंहनी जेम ( सद्देण) भयानक शब्दवडे-शन्द सांभळीने (न संतसिञ्जा) बास पामीश नहीं, तथा ( क्यजोग ) अशुभ एवा वचनयोगने (सुच्चा) सांभळीने पण (असम्भ असभ्य वचन-अयोग्य वचन (ण आडु) चोलीश नहीं. १४. त्पारे करवू ? ते कहे छे. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवेहमाणो उ परिव्वएज्जा, पिमप्पि सव्य तितिक्खएजा। ने सव्व सव्वत्थऽभिरोअइजा, न यौवि शं गैरहं च संजए ॥ १५ ॥ अर्थ-(उ) तु पुनः बळी ( उवेहमाणो) परना कहेला अशुभ बचननी उपेक्षा करता सता तारे (परिवएजा) विघरवं. तथा ( पिनं अप्पियं ) लोकोना प्रिय के भप्रिय ( सध्व ) सर्व वचनोने (तितिक्खएन्जा ) सहन करा, तथा *(सब , सर्व वस्तुने कितने सम्वन्ध , सब ठेकाणे ( अभिरोअइजा ) रुचि-इच्छा करवी नहीं. (यादि ) तथा बळी * (पूर्व) लोकोनी करेली पूजाने-स्तुतिने ( गरहे च) अने निंदाने ( संजए ) संयमवाळा तारे (न) इच्छवी नहीं-तेना पर तारे रागद्वेष करवो नहीं. १५. मही कोइने शंका थाय के-भिक्षुने पण आवो अन्यथा भाव होय ? के जेथी प्रोत्माने आ प्रमाणे शिक्षा प्रापवी पडे ? ते उपर कहे छे. अणेग छंदो मिहे माणवेहि, जे भावओ संपकरेइ भिक्खू । भयभेरवा तत्थं उइंति भीमा, दिव्वा मणुस्सा अवा तिरिच्छा ॥ १६ ॥ भर्थ-(मिह ) आ जगतने विषे ( माणवेहिं ) मनुष्योने ( अमोग ) अनेक ( चंदा ) अभिप्रायो-इच्छाभो पाय छे. | के (जे) जे अभिप्रायोने ( मिक्खू ) कर्मने वश रहेलो साधु पण ( भावओ ) भावथी -मनथी ( संपकरेइ ) अत्यंत करे के. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तत्थ ) ते साधुपणाने विषे ( भयमेखा ) भय उत्पन्न करवावडे करीने भयंकर काने ( भीमा ) अति रौद्र एवा (दिव्या) देवसंबंधी, (मगुस्सा ) मनुष्यंसंबंधी ( अदुवा ) अथवा ( तिरिन्छा ) तिर्यचसंबंधी उपसर्गों (उइंति ) उदयमां आवे छे -- उत्पन्न थाय छे. (१६. तथा - परी सहा दुव्विसहा मोगे, सीदति जानेकाद । से तत्थं पत्ते ने हिज भिक्खूं, संगामतीसे व नागराया ॥ १७ ॥ अर्थ -- ( दुब्बिसह ) दुःखे करीने सहने यह शंके ठेवा ( अगे ) अनेक ( परीसंहां ) परीषहो पण उत्पन्न थाय थे, के ( जत्था ) जे उपसर्गो अने परीषहो उत्पन्न थये सते ( बैहुकायरा ) घणा कॉयर ( नरा ) मनुष्यो ( सीदति ) सीदाय एटले चारित्र पाळवामी शिथिल थाय छे. ( से ) हवे (तत्थ ) ते उपसर्ग अने परीषहोने विषे ( पत्ते ) प्राप्त धयेलो अथवा उपसर्गो ने परीपही प्राप्त थये सत्ते ( भिक्खू ) साधु थयेलों तु ( संगामसी से ) संग्रमिना मोखरामा प्राप्त थयेला ( नागरीया इव ) हाथीनी जेम ( न वहिन ) व्यथा पामोश नहीं-संवधी चलायमान यश नहीं. १७. सीतोसिणा समसा य फांसा, आयको विविंहा फुंसंति देहः । 'अक्कुक्कुओ तर्थऽहियांसज्जा, रेयाइं खेवेज्जे पुरेकडाई ॥ १८ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - ( सीतोसिया ) शीत, उष्ण, ( दंसमसा य) दंश, मशक, ( फासा ) वृखादिकना स्पर्शो, तथा ( विविधा ) विविध प्रकारना (आयंका ) व्याधिश्रो विगेर सर्व परीषा ( देई) द्वारा शरीरने (फुसांत ) स्पर्श करे थे- पीडा उपजावे . ( तत्थ ) ते शीवादिक परीषदोनो स्पर्श थये सते (अकुक्कुप्रो आनंद कर्या बिना ज तारे ( अहियासएञ्जा ) ते परीषहोने सहन करवा. एम करवाथी तुं ( पुरेकडाई ) पूर्वे करेला ( रमाई ) कर्मरूपी रजने ( खेबेअ) दम करी शकीश. १८. पहा रोग च तेहेब दोस, मोहं च भिक्खू सययं विक्खणो । मेरुं व्त्र वारणे अकंपमाणो, पैंरीसहे आपणुत्ते हेजा ॥ १९ ॥ अर्थ - (सययं ) निरंतर ( विभक्खणो ) विश्ववथ एटले तच्वना विचारमां तत्पर एवो ( भिक्खू ) साधु (रागं च ) रागने ( तहेव ) तथा ( दोसं ) द्वेषने ( मोहं च ) तथा मोहने ( पहाय ) तजीने ( वाण ) वायुवडे ( मेरु ब्व ) मेरु पर्वतन जेम परीषहोवडे ( अकंपमाणो ) नहीं कंपतो सतो तथा ( श्रयगुते ) काचवानी जेम आत्माने एटले इंद्रियोने गुप्त करतो सतो ( परीस) परीषहोने ( सहेजा ) सहन करे छे. १६. एनावर महेसी, न यावि अं गरिहं च संजए । 'से उज्जुभावं पेडिवज्ज संजए, निव्वाणमग्गं विरेष उवे ॥ २० ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(अणुभए ) अनुनत एटले अभिमान रहित भने (नावणए ) नावनत एटले दीनता रहित एवाजे (महेसी) महर्षि (पूर्व) पूजानो-स्तुतिनो (गरिहं च) तथा गानो-निंदानो (न यावि संजए) संग न ज करे एटले स्तुति भने निंदानो प्रसंग न करे, अर्थात् साधु पोतानी स्तुति सांभळी हर्ष न करे भने निंदा सांभळी दुःख न पामे. (से) ते (संजए) साधु (उजुभावं सरळताने (पडिवज) अंगीकार करीने (विरए) पापथी विराम पाम्या सता (निवासमग्ग) मोक्षमार्गने (उवेइ) पामे छे. २०. वळी वे साधु केवा थइने शुं करे छे ? ते कहे छे. अरइरइसहे पेहीणसंथवे, विए आयाहिए पहाणवं । परमट्टपएहि चिटुंई, छिन्नसोए अममे अंकिंचणे ॥ २१ ॥ अर्थ-( अरइरइसहे ) संयममा परति भने भसंयममा रति तेने सहन करनार एटले नाश करनार, तथा ( पहीणसंथवे ) नाश पाम्यो छे संस्तव एटले पूर्वनो भने पछीनो गृहस्थ साथेनो परिचय जेनो एवा, तथा (विरए ) पापकियाथी । निवृत्त थयेला, तथा (आयहिए ) भात्मा अने सर्व जीवोने हितकारक, तथा (पहाणवं ) प्रधान एटले संयमवाळा, तथा । (छिन्नसोए ) नाश कर्यो छे शोक अथवा मिथ्यात्वादिक श्रोतस जेथे एवा, ए ज कारण माटे ( अममे ) ममता रहित अने ए ज कारण माटे (अकिंचणे) परिग्रह रहित एषां ते साधु (परमडुपरहि ) परमार्थना-मोचनां स्थानोने विषे (चिट्ठई) रहे छे-हेता हवा. २१. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | विवित्तलयणाणि भज्ज ताई, निरूवलेवाइँ असपडाई । इसीहि चिलाइँ महायसेहि, कायेण फासेज परीसहाई ॥ २२ ॥ अर्थ-(साई ) छकाय जीवनी रक्षा करनार ते समुद्रपालित मुनि ( निरूवलेवाई ) द्रव्यथी छाण विगेरेना लेप रहित । अन भावथी राम एटले ममतारूपी लेप रहित, तथा ( असंथडाई) भ्रसंस्कृत एटले शालि विगेरे बीजना संघट्टा रहित, तथा ( महायसेहिं ) महा यशवाळा ( इसीहिं ) मुनिओए (चिमाई ) सेवेला एवा ( विवित्तलयणाणि ) विविक्त एटले । | स्त्री, पशु, पंडक रहित एवां पालय एटले उपाश्रयने ( महज ) सेवता हवा, तथा ( कायेण ) कायावडे (परीसहाई ) परीषदोने ( फासज ) स्पर्श एटले सहन करता हवा. २२. स्यारपछी ते केवा थया? ते कई छ. सं नाणनाणोवगए महेसी. अणुत्तरं चरिउ धम्मसंचयं । अणुत्तरेनाणधर जसंसी, ओभोसई सूरिइ वैतलिक्खे ॥ २३ ॥ अर्थ-( नामानाणोवगए ) ज्ञान एटले श्रुतज्ञान, तेणे करीने जे ज्ञान एटले सम्यक् प्रकारे क्रियाना समूहनुं जाणवू, तेणे करीने सहित अर्थात् श्रुतज्ञान भने क्रियाना ज्ञाने करीने सहित एवा (स ) ते समुद्रपाळ नामना ( महेसी ) महर्षि (अणुत्तरं ) सर्वोत्तम ( धम्मसंचयं ) धर्मना समूहने एटले चायाँदिक देश अकारना चारित्रधर्मने ( चरिउं) सेवीने Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + (अणुत्तरेनाणाधरे ) सर्वोत्तम ज्ञान ज केवळज्ञान तन धारण करनारा तथा (जर्ससी) यशस्वी यया संता ( अंतालिक्खे)। पाकाशने विष ( सरिए व) सर्यनी जेम ( श्रोभासई) प्रकाशता हवा-शोभता हवा. २३. हवे उपसंहार-समाप्त करवा पूर्वक तेनुं ज फळ कहे छे. दुविहं खंवऊण य पुम्मपावं, निरंगणे सवओ विपमुक्के । तरित्ता समुदं व महाभंवोह, समुद्दपालो अर्पणागमं गएँ त्ति बेमि ॥ २४ ॥ .. __ अर्थ-(य) तथा ( दुविहं ) घाती अने भवोपग्राहि-अघाती एम चे प्रकारना (पृामपावं ) शुम अने अशुभ al प्रकृतिरूप कर्मने ( खवेऊण ) खपावीने-क्षय करीने (निरंगणे ) निरंगन-गपुं छे अंगन एटले चालवू जेनाथी एटले | संयममा निश्चळ तथा ( सवओ ) सर्वथी एटले बाह्य अने भाभ्यंतर परिग्रहथी (विप्पमुक्के) रहित एवा ( समुद्दपालो ) समुद्रपाळ मुनि ( समुदं व ) समुद्नी जेवा ( महाभवोहं ) मोटा स्वर्गादिक भवना समूहने ( तरिचा) सरीने ( अपुरणागर्म) जेनाथी पार्छ श्राववानु नधी एका अपुनरागमने एटले मोक्षने ( गए ) पाम्या. (ति नेमि ) एम ई कहूं छु, ए प्रमाणे | सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने कयु. २४. इति एकविंशमध्ययनम् ॥ २१ ॥ - --- ------ - Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अथ रथनेमाय नामर्नु बावीशमुं अध्ययन. २२ एकवीशमा अध्ययनमा विविक्तचर्या कही, ते धैर्यवतने सुखेथी पाळी शकाय छ, छतां कदाचिन् कोइक प्रकारे मनना MH परिणाम धर्मथी भ्रष्ट थाय ते वस्खते रथनेमिनी जेम चारित्रने विषे धृति करवी, एम जणाववा माटे आ अध्ययन रब्यु के. तेनुं आ प्रथम सूत्र छे.सोरियपुरम्मि नयरे, आसि राया महिथिए । वसुदेव त्ति नामेणं, रायलक्खणसंजुए ॥ १ ॥ अर्थ--(सोरियपुरम्मि) शौर्यपुर नामना ( नयरे ) नगरमा ( महिड्डिए ) मोटी शूद्धिवाळा तथा ( रायलक्खखसंजुए) हाथ पगना तळीयामा चक्र, स्वस्तिक, अंकुश विगेरे अथवा भौदार्य, धैर्य, गांभीर्य विगेरे राजानां लक्षणोबडे युक्त ॥ (वसुदेव त्ति नामेणं ) वसुदेव एवा नामे (राया) राजा (आसि) हता. जो के शौर्यपुरमा समुद्रविजय विगेरे दश दशा), दश भाइयो हता, तेमा वसुदेव सौथी नाना इता, तोपण वसुदेवना पुत्र कृष्ण थया छे तेथी नहीं वसुदेवनुं वर्णन कर्य छ. १. | तस्स भन्जा दुवे ऑसि, रोहिणी देई तहा । तासि दोण्हं पि 'दो पुत्ता, अॅट्ठा रामकेसवा ॥२॥ अर्थ-( सस्स ) ते वसुदेवने (रोहिणी ) रोहिणी नामनी (तहा) तथा (दिवई) देवकी नामनी ( दुवे ) ने ( भना) IS|| भायों (भासि ) हती. जो के वसुदेवने बहोतेर हजार सीओ हती. तोपख भहीं चेनी ज जरूर होवापी वे ज लखी के. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***++++++-- (तासिं) ते ( दोपहं पि) बने भाषाओने ( अट्टा ) अत्यंत इष्ट-लम एवा ( रामकेसवा ) बळराम भने केशव - कृष्ण नामना ( दो पुत्ता) वे पुत्रो ध्या. राम अने केशव प्रथम उत्पन्न थया छता तथा श्रीनेमिनाथना विवाहाहिक कार्यमा तेमनी जरुर छे तेथी तेमने प्रथम लख्या घे. २. सोरियपुरराम्भ नैयरे, आसि गया हिडिए । सहज नामं, रोयलक्खणसंजुए ॥ ३ ॥ अर्थ - ( सोरियपुरराम्म ) शौर्यपुर नामना (नयरे ) नगरमा ( महिडिए) मोटी ऋद्धिवाळा अनं (शयलक्खय संजुए) राजानां लक्षणोए करीने युक्त एवा ( समुहविजए नाम ) समुद्रविजय नामना ( राया ) राजा ( असि ) हता. महीं वसुदेव ने समुद्रविजय साथै ज रहेता हता एवं जग्यावचा माटे फरीधी शौयेपुर लख्युं छे. ३. तेस्स भैज्जा सिवा नीम, तीसे' पुत्ते महायसे । भयवं अरिट्ठनेमि त्ति, लोगंना हे दैमीसरे ॥ ४ ॥ अर्थ - (तस्स) ते समुद्रविजयने ( सिवा नाम ) शिवा नामनी (भजा ) मार्या हती. (तीसे ) ते शिवादेवीना (पुते ) पुत्र ( भयवं ) भगवान ( अरिनेमि त्ति ) श्रीश्ररिष्टनेमि एवा नामना ( महायसे ) महा यशवाळा, (लोगना हे ) त्रण लोकना नाथ अने (दमीसरे ) मुनिधोना स्वामी हता. ४ ( हुवे पछी धवाना होवाथी ते अपेक्षाए दमीश्वरनुं विशेषण प्राप्यं . ) काही प्रसंगने लीधे श्रीनेमिनाथनुं चरित्र संक्षेपथी कहे छे. २१ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज भरतक्षेत्रमा अचळपुर नामर्नु पुर छे. तेमा विक्रमधन ना राजा हतो. तेने धारिणी नामनी राखी हती. तेमने धन नामनो पुत्र हसो. ते सर्व कळाना समूहने पामीने अनुक्रमे युवावस्था पाम्यो, त्यारे ते कुमुमपुरना राजा Is सिंहनी धनवती नामनी कन्याने परण्यो. लक्ष्मीनी साथै विष्णुनी जेम ते धनवतीनी साथे क्रीडा करतो ते धनकुमार ॥ एकदा ग्रीष्म ऋतुमा मध्याह्न समये क्रीडा करवा माटे उद्यानमा गयो. त्यां तेणे पृथ्वीपर मूर्छित थयेला एक मुनिने जोया.| ते मुनिनु तारधु उपाथी सुकाइ गयुं हतं, तपबडे तेनुं शरीर अति कृश हतुं, अने गुणवडे तो ते शांतरसना समुद्र हता. तेमनी भावी स्थिति जोइ ते बस्ने दंपतीए तेमनी पासे जब शीतळ उपचार करी शीघ्रपणे तेमने स्वस्थ कर्या. पछी विनयथी | मुनिने वंदना करी धनकुमारे तेमने पूछयु के-" हे भगवान् ! आपनी भावी अवस्था केम थइ ?" सुनिए जवाब माप्यो के-" हुँ मुनिचंद्र नामनो साधु . मोटा गच्छनी साथे विहार करतां सार्थथी भ्रष्ट थयो, तेथी पा वनमो दिशा नहीं सझवाथी आमतेम भ्रमण करवा लाग्यो. अनुक्रमे क्षुधा अने तृषाथी पीडा पाम्यो, चालता चालता थाकी गयो, अने प्रा ग्रीष्म ऋतुना तापथी अकळाइ गयो, तेथी अहीं मूर्छा आववाथी पड़ी गयो हतो. तेटलामा तमारा आववाथी, ने तमे करेला उपचारथी हु चेतना पाम्यो छु. तेथी धर्ममा सहाय आपनारा तमने धर्मलाभ हो. वळी हे महानुभाव ! जेम प्रतिमा विना देवालय शोभतुं नथी, तेम धर्म विना आ मनुष्यमव शोमतो नथी, तेथी बुद्धिमान पुरुषोए निरंतर धर्ममा उद्यम करवो योग्य छे." मा प्रमाणे कहीने मुनिए ते दंपतीनी पासे समकित सहित श्रावकधर्मनो उपदेश प्राप्यो. ते सांमळी प्रतिबोधन पामी ते बीए ते मुनि पासे श्रावकधर्म अंगीकार को. पछी मुनिने निमंत्रण करी पोताने घेर लइ जइ तेमने अन्न पाणी | Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाराच्या, अने धर्म शीखवा माटे मुनिने थोडा दिवस त्यां ज राख्या. मुनिए पण केटलाक दिवस त्यां रही तेमने धर्ममा दृढ करी अन्यत्र विहार कर्यो. ते दंपती पण परस्परना प्रेमनी जेम अखंडपणे श्राद्धधर्मर्नु पालन करवा लाग्या. अनुक्रमे ते धनकुमारने तेना पिताए | राज्यपर स्थापन कों, एटले ते धनराजा नीतिथी राज्यनुं पालन करतो श्रावकधमेनु सेवन करवा लाग्यो. एकदा वसुंधर : नामना मुनि त्यां पधार्या. तेमने धनराजा पोतानी धनवती प्रिया सहित चांदवा गयो. विधिपूर्वक मुनिने चांदी तेमना । मुखथी संसारसमुद्रने तरवामा नाल गमान धर्मदेशना सांभली ने गला संसारथी विरक्त थयो. एटले तेसो पोताना पुत्रने राज्यपर स्थापन करी पोतानी प्रिया सहित तेज गुरुनी पासे दीक्षा ग्रहण करी. अनुक्रमे शास्त्रनो अभ्यास करी धनराजर्षि | गीतार्थ थया. पछी आचार्यपद प्राप्त करी धर्मदेशनावडे भव्य प्रासीमोनो उपकार करी छवट अनशन ग्रहण करी ते धनराजर्षि धनवती साधी सहित काळधर्म पामी सौधर्म देवलोका इंद्रना सामानिक देव थया. आज भरतक्षेत्रमा वैताढय पर्वतनी उत्तरणिने विष सूरतेज नामर्नु नगर छे. तेमा सूर नाम विद्याधर राजा हतो. तेने विद्युन्मती नामनी प्रिया हती. धननो जीव सौधर्ममाथी चवीने विद्युन्मतीनी कुचिमां अवतो. पछी समय पूर्ण थयो त्यारे वे राणीए शुभ लक्षणवाळो पुत्र प्रसव्यो. राजाए महोत्सवपूर्वक तेनुं चित्रगति नाम पाड्यु. अनुक्रमे वृद्धि पामतो ते कुमार गुरु पासेधी समग्र कळाोने ग्रहण करी युवावस्थाने पाम्यो. हवे ते ज वैताढ्य पर्वत उपर दक्षिण श्रेणिमा शिवमंदिर नामर्नु नगर छे. तेमा अनंगसिंह नामनो राजा हतो. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2020% --- तेने चंद्रनी प्रभा जेवा उज्वळ गुणवाळी शशिप्रभा नामनी प्रिया हती. तेणीनी कुतिमा धनवतीनो जीव स्वर्गथी चवीने भवतयों. अनुक्रमे शशिप्रभाए उत्तम रूपवाळी पुत्रीने जन्म प्राप्यो, तेना पिताए तेनुं रत्नवती नाम पाडधुं. अनुक्रमे वृद्धि पामती ते कन्या समग्र कळामा निपुण थ६ युवावस्याचे पामी. एकदा राजाए कोइ ज्ञानी मुनिने पूछ्यू के–“भा मारी पत्रीनो पति कोण थशे?" मनिए का के- हे राजा! जे तारा हाथमाधी दिच्य खड्ने हरमा करी लेश, तथा जेना उपर नित्य चैत्यने विषे पुष्पवृष्टि थशे, ते नररत्न तमारी कन्याने परणशे." ते सांभळी राजाए विचायु के-"जे मारा हाथमाथी खङ्गने खंचवी ले तेवो महा बळवान मारो जमाइ थशे." एम विचारीने ते पोताना मनमा घणो हर्प पाम्यो. आज भरतक्षेत्रने विषे चऋपुर नामर्नु नगर छे. तेमां सुग्रीव नामे राजा हतो. तेने यशस्विनी अने भद्रा नामनी ने राणीओ हती. तेमा पहेली राणीने सुमित्र नामे पुत्र थयो, ते जैनधर्ममा रक्त, गुणवान अने सजनोरूपी कमळोने हर्ष आपवामा सूर्यनी जेयो सज्ज-तैयार इतो. बीजी राणीने पद्म नामनो पुत्र थयो, ते कपटनुं घर अने गुण रहित हतो. एकदा भद्राए विचायु के-ज्यां सुधी आ सुमित्र हयात छे, त्या सुधी मारा पुत्रने स्वप्नमां पण राज्य मळg दुर्लभ छे." एम विचारी तेखीए गुप्त रीते सुमित्रने उग्र विष प्राप्यु. तेथी सुमित्र मूछो पाम्यो. ते जोइ राजा अत्यंत व्याकुळ धयो अने | तत्काळ मंत्रादिकवडे तेना उपाय कराववा लाग्यो. परंतु कुमारने कोइपण रीते जरा पण चेतना आवी नहीं, त्यारे सर्व परिवार अने पुरना जनो सहित राजा पुत्रना गुणोने संभारी संभारीने शोक करवा लाग्यो. 'भा कुमारने भद्राए विष प्राप्यु एम लोकोना जाणवामी श्राव, तेथी लोको तेणीनी निंदा करवा लाग्या. ते जाणी भद्रा त्यांथी नाशी गइ. 'लसबनी Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधनी जेम पापीर्नु पाप छार्नु रही शकतुं नथी.' ____ा अवसरे दैवयोगे ते चित्रगति विद्याधर राजपुत्र आकाशमार्गे त्यांची नीकन्यो. तेणे राजा अने लोकाने विलाप करता जोर विषतुं जनांन जाणी, तेपनी पाशे शानी मंत्रित जळघडे ते सुमित्रकुमारने अभिषेक कर्यो, तेधी तत्काळ सुमिन्न । चेतना पाम्यो अने राजादिक सर्वने शोकातुर जोइ 'आ बधुं शुं छे?' एम तेथे पूछ्युं, स्यारे राजाए कह्यु के-“हे वत्स! तारी विमाताए तने विष आप्यु हतु, ते या निष्कारण बंधुए शमन कर्यु ले." ते सांभळी सुमित्रे ते विद्याधरकृमारने | हाथ जोडी कथु के- “हे भाइ ! तमा नाम अने वंश कहीने अमारा कान पवित्र करो. कारण के तमारी जेवा उपकारीनुं नामादिक सांभब्युं होय तो तेथी पण घणुं पुण्य प्राप्त थाय छे. " ते सांभळी चित्रगतिनी साथे ज भावेला तेना मित्र चित्रगतिनुं नाम, कुळ विगेरे कड्युं, ते सांभळी सुमित्र हर्ष पामी बोल्यो के--" अहो ! विष अने विषना आपनारे मारा उपर घणो उपकार कों, के जेथी वादला विनाना अमृतना वरसादनी जेम मने अकस्मान् तमारा दर्शन थयां जीवित्तने आप- || नार तथा पाळमृत्युथी उत्पन्न थती दुर्गतिथी रक्षण करनार तमारो हु शी रीते प्रत्युपकार करी शकुं? जगतना लोको मे पनो शो प्रत्युषकार करी शके ? " भावां तेनां वचनो सांभळी चित्रगति तेना गुणोथी आनंद पाम्यो. पछी मित्रपणाने पामेला ते सुमित्र पासे विद्याधरकुमारे पोताना नगर तरफ जवानी रजा मागी. त्यारे मुमित्र तेने का के-" हे मित्र ! मुयशा नामना केवळी भगवान बिहारना क्रमथी पाज काल नहीं पधारवाना छ, तेमने वंदना करीने पछी तमे जाओ, एम हुं इच्छु छं." आ प्रमाणे सुमित्रना कहेवाथी चित्रगति त्यां रोकायो. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजे दिवसे सुमित्र अन चित्रगति उद्यानमां गया. त्यां देवोथी परिवरेला अने सुवर्णकमळपर बेठेला ते केवळीने जोया. तेमने हर्षथी वंदना करी ते बने मित्रो तेमनी पासे बेठा. सुग्रीव राजा पण ते वृत्तांत सांभळी हर्षथी परिवार अने | पुरजनो सहित मुनिनी पासे पाव्यो भने विधिपूर्वक केवळीने बंदना करी योग्य स्थाने बेठो. ते वखते जगतने हितकारक |एवा मनीश्वरे तेमने धर्मोपदेश श्राप्यो.ते समिठी आनंद पामेला चित्रगतिए गरुने कां के-"भगवान ! या मिना | प्रसादी श्रापनी धर्मदेशना सांभळी ९ प्रतिबोध पाम्यो छु, तेथी हे प्रभु! आपनी पासे समकित सहित श्रापकधर्मने हुँ ग्रहण करुं छु." एम कही धर्ममा वीर्यना उनासवाला भने पापकर्मी विराम पारेला ते विद्याधरकुमारे देशविरति अंगीकार करी. त्यारपछी सुग्रीव राजाए हाथ जोडी मुनीश्वरने पूछ्युं के-" हे प्रभु ! मारा पुत्रने विप प्रापीने तं मारी राणी क्यो । sil गइ ? " मुनि बोम्या के-" ते नहींथी नाशीने एक अरण्यमा गइ. त्यां चोरोए तेनां भाभरणो उतारी लइ तने पती पतिने सौंपी. पल्लीपतिए धन लइ कोइ वेपारीने वेचाती आपी. कोइ वखत लाग मळवाथी वेपारी पासेथी नाशीने ते पर एयमा गइ. त्यां दावानल बडे बळीने पहेली नरके गइ. 'पापीनी सद्गति क्याथी होय १ ' पछी पहेली नरकमाथी नीक|ळीने ते कोइक चंडाळनी स्त्री थशे. त्या सपत्नी साथे कजीओ थतां सपत्नीथी हणाइने त्रीजी नरकमा जशे. त्यांची नीकlळीने ते तिर्यंच गतिमा अनेक दुःखो पामशे." पा प्रमाणे सांभळी वैराग्य पामेला राजाए गुरुने कथु के-"जेने माटे * तेणीए मार्बु कृत्य कर्य, ते तेणीनो पुत्र तो अहीज छ, परंतु ते पोते ज नरकमा गइ. तो पावा असार संसारने धिक्कार छे." Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा प्रमाणे कही ते राजाए सुमित्रने राज्य सौंपी तेज केवळीनी पासे दीक्षा ग्रहण करी. पछी सुमित्र मित्रसहित पो. ताना नगरमा गयो, अने पोताना नाना भाइ पड़ने केटलाक गाम आप्या. परंतु ते निर्बुद्धि एकलो क्याइ पण जतो रसो. पछी एकदा चित्रगति विद्याधरकुमार मुमित्रराजानी रजा ला पोताना नगरमा गयो. परंतु मित्रनी जेम धर्मकार्यने ते कदापि विसरतो नहोतो. एकदा सुमित्रनी बहेन के जे कलिंग देशना राजानी प्रिया हती, तेने अनंगासिंहनों पुत्र भने रत्नवतीनो भाइ कमळ हरी गयो. ते सांभळीने सुमित्र राजा व्याकुल थयो. ते वृत्तांत विद्याधरना मुखथी चित्रगतिना जाणवामा भाव्यो, त्यारे ते | बोल्यो के-" मारा मिनी बहेनने हुँ शीघ्रपणे शोधीने लइ आधीश. " पछी विद्याना प्रभावथी तेणीने कमळे हरण करी छ एम जाणी ते महा बळवान चित्रगति सत्काळ शिवमंदिर पुरमा गयो. त्यां तेणे कमळनी साथे विग्रह करी तेनो निग्रह IT कर्यो. ते जाणी कमळनो पिता अमंगसिंह क्रोध पामी सिंहनी जेम चित्रगति उपर धस्या. बनेनु परस्पर भयंकर युद्ध थयु. । तेमा चित्रगतिने दुर्जय जाणी अनंगसिंहे पोताना दिव्य खादं स्मरण कर्यु, एटले तरत ज ज्वाळानी श्रेणिथी व्यात अनेक शत्रुना मदनो नाश करनार देवर्नु सापेलं खगरत्न तेना हाथमा प्राप्त थयु. पछी अनंगासिंहे चित्रगतिने कछु के-"है | मूर्ख ! शा माटे फोगट मरवा इच्छे छ ? अहींथी जतो रहे. नहीं तो आ खगथी हमण ज तुं मरणने शरण थहश." से 12 सांभळी चित्रगति बोल्यो के.-"पा लोढाना खड्गधी तुं जे मद करे छे तेज प्रगटपणे तारुं बळहीनपणु पूचवे छे. "ए। प्रमाणे कही तेणे विद्याथी तत्काळ तमस्काय जेवू गाढ अंधकार विकुव्यु, तेथी कोइपण मनुष्य पोताना हाथमा रहेली वस्तुने Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण जोइ शकतो नहोतो. आषा गाढ अंधकारमा ते चित्रगति तत्काळ अनंगसिंह पासे जइ तेना हाथमाधी ते खड्ग खंचवी लइ सथा सुमित्रनी बहेनने लइ जतो रह्यो, पछी एक क्षणवारमा अंधकारनो नाश थयो, ते बखते अनंगसिंहे पोताना हाथमा खगरत्न जोयु नहीं, तेम ज पासे रहेला शत्रुने पण जोयो नहीं. तेथी ते क्षणवार खेद करवा लाग्यो, तेटलामा ज्ञानीनुं वचन याद श्राववाथी ते संतुष्ट थयो भने 'आनी वधारे खात्री शाश्वत चैत्यमा थशे' एम विचारी अनंगसिंह पाताने स्थाने गयो. चित्रगतिए सुमित्रने अखंड शीळवाळी तेनी बहेन सौंपी. ते ज वखते बहनना हरणना दुःखथी विरक्त थयेला सुमित्रे पोताना पुत्रने राज्य सौंपी मुयशा नामना मुनि पासे दीक्षा ग्रहण करी. चित्रगति पोसाने स्थाने गयो. __हवे सुमित्रराजर्षि कोइक न्यून नव पूर्वनो अभ्यास करी गुरुनी आज्ञाथी एकाकी विहार करता मगध देशमां गया. त्यां कोई गामनी बहार ते कायोत्सर्गे रखा. तेवामां त्यां तमनो सापत्न भाइ पा आव्यो. तेणे मुनिने श्रोळखी क्रोध पामी तरत ज तेना हृदयमा तीक्ष्ण घाण मायु. परंतु मुनिए तेनापर जरापण क्रोध नहीं करतां विचायु के-" मारो जा दोष के के जेथी ते वखते आ मारा भाइने में राज्य आप्यु नहीं, तेथी हमणां हुं आने तथा बीजा सत्रे प्राणीओने खमा छु." या प्रमाणे विचारी अनशन ग्रहण करी ते मुमित्रराजर्षि शुभ ध्यानधी मरण पामी ब्रह्मलोक नामना पांचमा देवलोकमां इंद्रनो सामानिक देव थयो, अने पन ते ज रात्रे सर्पडशथी मरण पामी तमस्तमा नामनी सातमी नरके गयो. चित्रगति सुमित्रना मरणथी अत्यंत शोकातुर थयो। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकदा चित्रगति यात्रामहोत्सव करवा सिद्धायतनमा गयो. त्या पीजा पण घणा विद्याधरो एकठा थया हता. ते वखते हैं अनंगसिंह पण पोतानी कन्या रत्नवती सहित आव्यो. त्या चित्रगति भक्तिथी जिनप्रतिमानी पूजा करी स्तुति करवा लाग्यो. ते वखते सुमित्र देव पण मित्रने जोवा माटे त्यां मान्यो भने चित्रगतिना मस्तकपर तेणे विचित्र पुष्पोनी वृष्टि करी. || ते जोइ अनंगसिंहे तेने पोतानी पुत्रीनो थनार पनि जाएयो. ते बखते सुमित्र देवे पण प्रत्यक्ष थइ ‘मने हुँ भोळखे छे ? एम चित्रगतिन पूछ्यु. त्यारे ' तमे मइडिंक देव छो' एम चित्रगति पोल्यो, त्यारे तेनी ओळखाणने माटे देवे पोतार्नु पूर्व | भवनुं स्वरूप बताव्यु. तरत ज अानंदथी तेने आलिंगन करी चित्रगतिए कयु के-“हे महाभाग्यवान ! तमारा प्रसादधीज | मने था धर्म प्राप्त थयो छे." देवे कयुं-" ते बखते मारु विष उतारी मने जीवित प्रायवाची श्रा देवनी लक्ष्मी पण तमे जा मने पापी छ, नहीं तो ते ज वखते मारुं कुमरण थयाथी मारी आ गति क्याथी थात ?" श्राप्रमाणे परम्परना उपकारोने जा कहता ते बभेने जोइ सूरचक्री विगेरे सर्व विद्याधरोहर्ष पाम्या. ते वखते चित्रगति रत्नवतीना नेत्रमार्गे थइने तेणीना हृदयमा पेठो अने तेनी स्पर्धाथी ज कामदेवे पण त्यां ज पोतानुं स्थान कर्यु. कामग्रहधी व्याकुळ थयेली तेणीए तत्काळ लज्जारूपी वस्खनो त्याग करी विविध प्रकारनी चेष्टावडे पोतानो भाव प्रगट कर्यो. तेणीने कामातुर जोइ अनंगसिंहे विचाओँ के-"आ महा मनवाळाए मारा खगनी जेम था मारी । पुत्री- मन पण हरण कर्यु छ, तेथी आने अहीं ज हुं मारी कन्या आपुं. फोगट काळक्षेप शा माटे करवो ? परंतु भा धर्मने स्थाने भावु व्यावहारिक कार्य करवु योग्य नथी." ए प्रमाणे विचारी ते पोताने घेर गयो. चित्रगति पण मित्रदेवने वि. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |दाय करी पिता सहित पोताने घेर गयो. | पछी अनंगसिंहे पोतानी पुत्री भापवा माटे पोताना मंत्रीने मोकन्यो. लेणे परचकी पाये जर प्रणाम पूर्वक कहा के" हे स्वामी ! या चित्रगति अने मारा स्वामीनी पुत्री रत्नवती ए बने अधिक गुणवान छ, तथी ते यमेना परस्पर संबंधथी ते आनंद पामो." ते सांभळी सूरचक्रीए ते अंगीकार कयु. पछी मोटा उत्सवथी ते चमेना विवाह थया. चित्रगति तेणीनी साथे यथावसरे धर्म अने सांसारिक सुख भोगववा लाग्यो, एकदा मरराजा चित्रगतिने राज्य सोपी चारित्र ग्रहण करी अनुक्रमे मोक्षे गया. त्यारपछी आश्चर्यकारक विद्या भने पळनी समृद्धिवाळा चित्रगति राजाए चिरकाळ सुधी विद्याधरचक्रीनुं पद अनुभन्यू. एकदा पोताना सामंत राजाना चे पुत्रो राज्यने माटे परस्पर युद्ध करीने मरण पाम्या, ते जोइ चित्रगतिन परम वैराग्य | थयो. तेथी पोताना पुत्रने राज्य सौंपी ते चित्रगति राजाए प्रिया सहित दमचर नामना मुनि पासे प्रव्रज्या ग्रहण करी. अनुक्रमे चिरकाळ सुधी विहार करी छेवट अनशनवडे काळ करी रत्नवत्ती सहित ते चोथा देवलाकमां देव थया. पश्चिम महाविदेह क्षेत्रमा पथ नामनी विजयमा सिंहपुर नामे पुर छे. तेमा हरिनंदी नाम राजा हतो. तेने यथार्थ नामवाळी प्रियदर्शना नामनी राणी हती. वेनी कुधिमा चित्रगतिनो जीव स्वर्गथी चवीने उतर्यो. खाणनी पृथ्वी रत्नने | प्रसवे तेम तेणीए समय पूर्ण थये पुत्र प्रसव्यो, सेनुं नाम राजाए अपराजित पाडयु. अनुक्रमे दि पामतो ते कुमार समग्र कलाने ग्रहण करी युवावस्था पाम्यो. तेने सचिवनो पुत्र विमलबोध नामनो मित्र हतो. एकदा ते बसे कुमारोनुं वक्रगति Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाळा असे हरण कयु, तेथी वेओ एक मोटा वनमा भावी पहोंच्या. त्या अपराजित कुमारे मंत्रीपुत्री कधू के-" मापसे । । अश्वथी हरण करला नहीं भाव्या ते ठीक थयु, केमके भापये पितानी माझाने भाधीन होवाथी तेमनी भासा विना बहार जन प्रापणे देशांतर जोई शकत नहीं. अने तेश्रो भापणी उपरना प्रेमी भापखने माझा भापत नहीं. हवे तो भापणा मातपिता आपणा विरहने सहेजे सहन करशे ज, तेथी भापणे इवे पर नहीं जा पृथ्वीपर फरीने कौतुक जोडुं." ते सांभळी मंत्रीपुत्र तेना | मसने संमति आपी. तेटलामा ' रक्षण करो. रवण करो." एवी वाणी बोलतो एक पुरुष त्यां भाभ्यो. भयभीत थयेला H! तेने राजकुमारे 'तुं कोइथी भय पार्माश नहीं. ' एम कडं, तेटलामा त्यां हाथमा सङ्ग धारण करनार केटलाक योद्धाओ Mil पाव्या. तेो बोल्या के-" या अमारा नगरनो चोर छ, तेने अमे हणशुं, माटे हे पथिको ! तमे भहींथी चान्या जानो. " ते सांभळी कुमारे कमु के-" मारा आश्रितने इणवा पण शक्तिमान नधी, तो बीजानी शक्ति क्याथी होय ?" आव कुमारनुं वचन सांभळी ते सुभटो तेने ज मारवा दोड्या. एटले कुमार खड्ग खेंची ते सर्वने नसाडी मुक्या. तेस्रोए जइ पोताना स्वामी कोशळा नगरीना राजाने ते वृत्तांत करो. त्यारे राजाए पोतार्नु समग्र सैन्य मोकल्यु. तेनो पण कुमारे पराजय कर्यो. त्यारपछी राजा चतुरंग सैन्य सहित अाग्यो, त्यारे कुमारे मंत्रीपुत्रने ते चोर सोप्यो अने पोते युद्ध करवा तैयार धयो. पछी एक हाथीना दांतपर पग दइ तेनापर चडी तेना मावतने हणी ते कुमार भयंकर युद्ध करवा लाग्यो. ते वखते ते राजाना कोई मंत्रीए ते कुमारने प्रथम जोयेलो होबाथी ओळसीने राजाने कर्म्यु, त्यारे राजाए सैन्यने युद्धथी निवारी कुमारने कj के-" अहो बस्स ! शुं तुं मारा मित्र हरिनंदिक Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजानो पुत्र छे ! हे वीर ! आवा पराक्रमथी तें सारा पिताने लजम्यो नथी. तुं आजे मारो अतिथि थयो ते सां भने तने जे में जोयो ते पण घणुं सारूं धर्म " मा प्रमाणे कही पोताना हाथीपण कुमारने बेसाडी राजाए देने भालिंगन . पछी मंत्रीपुत्र सहित तेने पोताने घेर लइ जइ पोतानी कनकमाला नामनी पुत्रीने तेनी साधे परगावी. त्यां ते केटलाक दिवस सुखे रो. " एकदा कुमार मित्रसहित प्रयाणमां विघ्नना भयथी राजानी रजा लोधा विना ज रात्रिने समये त्यांधी नोकळी गयो. जतां जतां एक मोटा अरण्यमां से आव्यो. तेटलामां तेथे ' हा ! हा ! या पृथ्वी वीरपुरुष रहित ज छे' एम करुणस्वरवा रुदन सांभळ्. तेथी ते वीरकुमार शब्दने अनुसारे ते तरफ गयो, आगळ जत तेथे एक जाज्वल्यमान श्रग्निना कुंडनी पासे रहेली कोई स्त्रीने तथा तेनी पासे खड्ग खेंचीने उभेला एक पुरुषने जोयो. ते कुमारने जोड़ ते स्री बोली के'जो वहीं कोइपण वीरपुरुष होय तो ते या अधम विद्याधरथी मारुं रक्षण करो. " ते सांभळी कुमारे तेनी पासे जड़ कांके -- "अरे दुष्ट गर्ववाळा ! युद्धने माटे तैयार था. अबळा उपर चळतो गर्व शुं करे छे ? " ते सांभळी ते विद्याधर बोल्थो के - "तुं पण परलोकमां या स्त्रीनो सथवारो था. " एम बोली उद्धत एवो ते युद्ध करना तैयार भयो. प्रथम ते बने वीरो चिरकाळ सुधी खड्गबडे युद्ध कर्यु. पक्षी बाहुयुद्ध कर्यु. तेमां ते विद्याधरे ते कुमारने नागपाशवडे बांध्या, तेन कुमारे जी रज्जुने हाथीनी जेम तत्काळ तोडी नांख्या. पछी विद्याधरे अपराजित उपर विद्यामंत्रित शखोवडे वया प्रहारो कर्या. परंतु पुण्यशाळी ते कुमारने ते प्रहारो कांईपण करी शक्या नहीं. छेषट सूर्योदय वखते कुमारे विद्याधरना मस्तकपर Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***** खङ्गो प्रहार कर्यो, तेथी तत्काळ ते मूर्च्छित यह पृथ्वीपर पड्यो. कुमारे तेने स्वस्थ करी फरी युद्ध करवा कछु, ते बखते ते खेचर मोज्यो के --" हे महाभुज । तें मने जीती लीधो ते ठीक कर्यु छे. हे मित्र ! मारा वखनी गांठे मणि भने मूळिका बांधली. ते मणिना जळवडे मूळिकाने घतीने मारा प्रहारपर लगाड. " ते सांभळी कुमारे ते प्रमाणे कर्तुं, एटले ते खेचर साजो थयो पछी अपराजितना पूछवाथी ते विद्याधरे पोतानुं वृत्तांत या प्रमाणे क. - या कन्या असे नाना विद्यावानी पुत्री थे, धेनुं नाम रत्नमाळा थे, तने कोइ ज्ञानीए कां हतुं के "तारो भर्ता अपराजित थशे." त्यारपछी एकदा में तेना विवाह माटे प्रार्थना करी, त्यारे ते बीए मने कळुंके - " मारा भर्तार अपराजित थशे अथवा मारा देवने अग्नि बाळशे." ते सांभळी मने तेनापर क्रोध चड्यो, हुं श्रीषेण नामना विद्याधरराजानो सूरकांत नामनो पुत्र हुं. पछी में आने माटे धहने घणी दुःसाध्य विद्याश्रो साधी, अने आनी घ प्रकारे याचना करी, परंतु तेी मारुं मान्य राख्णुं नहीं. त्यारे ' यानी अमिदाहनी प्रतिज्ञा पूर्ण थाओ.' एम घारीने क्रोधधी माने लाव अग्निमांनांखवा तैयार भयो, तेवामां आना भने मारा पुण्यनी प्रेरणाथी तमे अहीं भाई। पहोंच्या अने माराथी धनुं रक्षण कर्यु, तेम ज स्त्रीहत्याने सीधे थती दुर्गतिथी मारुं पण रक्षण करें. परंतु हे परोपकारी तमे कोण छो ? वे कहो. " या प्रमाणे तेना पूछत्राची मंत्रीपुत्रे ते राजकुमारतुं नाम विगेरे कझुं. ते सांभळी रत्नमाळा चितनां ययं। मानंद पामी अने कामदेवना बाना विषयने पामी, अर्थात् कामातुर थइ. तेवानां रत्नमाळाना मातपिता पण तेथीने शोधता शोषता ૧૪ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्या भाच्या, अने तमना पछयाथी मंत्रीपुत्रे तेमने सर्व वृत्तांत कहो. ते सांभळी अमृतसेन राजा अने तेनी राणी हर्ष पाम्या भने तरत ज तेमणे पोतानी पुत्री राजकुमारने परणाची. पछी कुमारना कहेवाथी राजाए सूरकांतने अभयदान आप्यु, सरकांते पण ते मणि भने मूलिका तथा वेष बदलवानी गुटिकाओ भाग्रहथी राजकुमारने श्रापया मांडी, परंतु ते नि:स्पृह | कुमारे कांह पण लीधु नहीं, त्यारे तेणे ते सर्व वस्तु मंत्रीपुत्रने आपी.पछी कुमारे अमृतसेनने कयु के-"हु मारा नगरमा | जाउं त्यारे आ तमारी पुत्रीने लावतो." एम कही कुमार त्यांथी आगळ चाल्यो, अने कुमारनुं स्मरण करता ते खेचरो पोवपोताने स्थाने गया. आगळ चालवां अपराजितकुमार एक मोटा करण्यमां गया. त्या तृषातुर थवाथी तेने आम्रवृक्षनी नीचे चेसाडी || मंत्रीपुत्र जळ लेवा गयो. थोडीवारे मंत्रीपुत्र जळ लाने पाली भाग्यो, त्यारे ते स्थाने ते कुमारने जोयो नहीं, तेथी अत्यंत * शोकातुर थइ तेने चोतरफ शोधचा लाग्यो, परंतु सेनो पत्तो नहीं लागवाथी ते मंत्रीपुत्र शोकथी मूर्खा पाम्यो. थोडीवारे सावधान थइ अत्यंत विलाप करी काइक धैर्यने पकडी से मंत्रीपुत्र फरीथी कुमारने शोधवा लाग्यो. अनुक्रमे फरतो फरतो ते नंदिपुरना उद्यानमा भाची उत्कंठापूर्वक वेठो. वेटलामा त्यो बे विद्याधरोए श्रावी तेने को के-" हे भद्र । अहीं भुवनभानु नामे प्रसिद्ध विद्याधरराजा छे. तेने कमलिनी अने कुमुदिनी नामनी चे पुत्रीम्रो छे. ते बभेनो पति | तमारो मित्र अपराजित थशे एम ज्ञानीए कर्पु हाँ, तेथी सेने लाववा माटे अमने अमारा स्वामए माझा पापी. एटले * अमे ते भरण्यमा तमने बसने जोया, तेटलामा तमे जळ लेवा दूर गया, अने अमे तमारा मित्रने हरीने अमारा स्वामी । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासे गया. त्या मुवनभानुश ने भासनपर साह पातानी पुत्रांनो परणवानी प्रार्थना करी, परंतु तमारा वियोगना शोकथी कुमार कोइपण बोल्या नहीं. ते जाणी तमने लाववा माटे अमारा स्वामीए अमने भाज्ञा करी, तेथी मे तमने मही रहेला जोया ते बहुं सारं थयु. माटे हे भाग्यवान ! क्रीडावडे वनमा महेल करीने रहेला अमारा स्वामी पासे तमे चालो."ते की सांभळी मंत्रीपुत्र हर्पधी तेमनी साथे त्यो गयो. पछी कुमार ते वो कन्याओने हर्षथी परएयो, भने केटलोक काळ त्या रयो. * पछी प्रथमनी जेम सुवनभानुनी रजा लइ ते बने मित्रो त्यांची नीकळी श्रीमंदिर नामना नगरमा गया. त्या सरकांत विद्याधरे आपेला मणिना प्रभावी पूर्ण मनोरथवाळा ते बन्ने सुखेथी रह्या. एकदा ते नगरमा लोकोनो कोलाहल समिळी कुमारे 'पा शेनो कोळाहळ छे ।' एम भित्रने पूछ\, त्यारे तेणे तपास करी कुमारने का के-"मा नगरमा सुमभ नामे राजा छे. तेने कोइए छळ कपटथी शस्त्रवडे प्रहार को छे. ते राजाने राज्य भोगवे तेवो एक पण पुत्र नथी. तेथी| नगरना लोको शोकथी श्रा कोलाहल करे छे." ते समिळी कुमार बोल्यो के-" कोइ शत्रुए घा को हशे." एम कही है। कुमार दुःखी थयो होय तेम खेद करवा लाग्यो. हवे ते सुप्रभ राजाने अनेक उपायो कर्या छतां शांति थह नहीं, त्यारे कामलता नामनी गणिकाए एकासमा सचिवाने कयु के--" या पापणा नगरमा कोइ परदेशी पुरुष तेना मित्र सहित रहेलो छे. ते काइपण उद्यम करतो नथी, तोपण तेना सर्व मनोरथो सिद्ध थाय छे. तेनी पासे काइपण चमत्कारी औषध होवू जोइए." ते सांभळी मंत्रीमो आदरपूर्वक ते कुमारने राजा पासे लइ गया. त्यां जद दयाल कुमारे मित्र पासेथी मणि भने मूलिका लइ मणिना जळमा मूलिकाने घसी तेना Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रहार उपर ते लमाडी. तरत ज राजानुं शरीरं सञ्ज थयु, एटले राजाए कुमारने पछयु के--" हे भाग्यवान ! कारण विना बंधुरूप तुं क्याथी आवे छे?" ते सांभळी तेना मित्र कुमारनो घृतांत कझो, त्यारे राजाए फरीधी कह्यु के-"अहो ! तुं तो मारा मित्रनो पुत्र छे. घणुंज ठीक थयुं के योताने ज घेर तुं प्राप्यो छे." एम कही राजाए पोतानी रंभा नामनी पुत्री तेने परणावी. पछी त्या घणा काळ सुधी रहीने प्रथमनी जेम कुमार मित्र सहित त्यांची नोकळी गयो. अनुक्रमे चालतो ते अपराजित कुमार मित्र सहित कुंडपुर नगरना उद्यानमा आयो. त्या सुवर्णकमळपर बेठेला | केवळीने जौह तेमने भक्तिथी बंदना करी योग्य स्थाने चेसी देशना सांभळी. पछी कुमारे हाथ जोडी केवळीने पूद्युं के --" हे भगवान् ! हुं भव्य छु? के अभव्य छ ?" मुनीश्वरे कमु-" तुं भव्य छे, अने भा ज जंबूद्वीपना भरतक्षेत्रने विषे श्रा भवथी पांचमे भवे तुंबावीशमो तीर्थकर थइश. तथा प्रा तारो मित्र ते वखते तारो गणधर थशे." था प्रमाणे सांभळी ते बन्ने मित्रोए आनंद पामी चिरकाळ सुधी ते केवळीनी भक्ति करी. पछी मुनिए त्यांथी विहार कर्यो त्यारे ते मित्रो प्रामादिकमां बइ चैत्योने नमवा लाग्या. आ अवसरे जनोने आनंद करनारा श्री जनानंद नामना नगरमा जितशत्रु नामे राजा हतो. तेने धारिणी नामनी राणी हती. तेणीनी कुचिमा रत्नवतीनो जीव स्वर्गयी चवीने अवतो. समय पूर्ण थये राणीए पुत्रीने जन्म आपो. तेनुं पीतिमती नाम पाडयुं. अनुक्रमे वृद्धि पामती ते कन्या समग्र कळाने ग्रहण करी यौवनवयने पामी. तेणीनी पासे विद्वान पण मूर्ख जेत्रो लागतो हतो, तेथी ते कोइपण पुरुषनी उपर जरापण रंजित थती नहोती. एकदा राजाए तेणीने पूछ्र्यु Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के-"तने कयो पति इष्ट छ ?" त्यारे ते चोली के- दादमां में जीरे, सेनाले गति बाओ." भावी तेनी इच्छाने अंगीकार करी राजाए स्वयंवर मंडप कराग्यो, अने सर्व राजाओने दूतद्वारा बोलाव्या, तेमा पुत्रना वियोगथी दुःखी थता एक हरिनंदी राजा विना बीजा सर्वे राजामो पोतपोताना कुमारो सहित श्राव्या. ते सर्वे मंडपमा आची मांचामो उपर अनुक्रमे बेठा. ते खते दैवयोगे भ्रमण करतो अपराजित कुमार पण मित्र सहित त्या भाग्यो, भने 'आपखने कोइ अोळखो नहीं' एम धारी गुटिकाना प्रयोगथी सामान्य रूप धारण करी ते मंडपमा गयो. पछी मनोहर पखादिक धारण | करी सखीको अने दासीपोथी परिबरेली प्रीतिमती कन्या जाणे के बीजी लक्ष्मी होय तेम ते मंडपमा प्रात्री. मालती नामनी तेनी सखी आंगळीघडे राजायो अने राजकुमारोने देखाडनी बोली के-" हे सख। ! आ सर्वे खेचरो तथा भूचरो तने वस्वा माटे नहीं आव्या छे, तेमाथी जे तने इष्ट होय तेने तुं घर." ते सांभळी प्रीतिमती जे जे राजा के राजकुमार उपर पोतानी दृष्टि नाखती, तेना तेना उपर कामदेव पण पोताना बाणो नाखतो हतो. पछी ते कन्याए मधुर स्वरे पूर्वपच कर्यो, ते सांभळीने 'शुं श्रा साक्षात् सरस्वती देवी ज ले ?' एम माणसोए तर्क कर्यो. तेणीना प्रश्ननो जवाब प्रापवा कोइपण राजकुमार समर्थ थयो नहीं, तेथी सर्वे विलखा थइने पृथ्वी सामुं-नीचुं ज जोया लाग्या, अने परस्पर कद्देवा लाग्या के--"श्रा कन्याए रूपे करीने ज अमारं मन हरी लोधुं छे, तेथी मन विना अमे शी रीते उत्तर श्रापी शकीए ?" त्यारपछी जितशत्रु राजाए विचार कर्यो के-"श्रा सर्व राजाप्रोमां मारी पुत्रीने लायक वर नी, तो हवे शुं थशे ?" श्रा प्रमाणे विचार करता राजाने जोइ एक बुद्धिमान मंत्रीए कड्यु के-"हे स्वामी खेद न करो. पृथ्वीपर घणां रत्नो होय Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tryi of+ |हे. माटे राजा, राजपुत्र के बीजो कोइपण मा कन्याने वादमा जीतशे ते तेनो पति थशे एम अही सर्वत्र प्राघोषणा | करावो." ते सांभळी राजाए ते प्रमाणे कयु, स्यारे पराजित कुमार प्रीसियसी पासे पाव्यो. तेने कुत्सित वेषवाळो जोपा छता पण पूर्वना प्रेमने लीधे प्रीतिमती हर्ष पामी पूर्वपक्ष बोली, एटले तरत ज अपराजिते तेनो उत्तर प्राप्यो. ते सांभळी तत्काळ तेना कंठमां कन्याए वरमाला आरोपण करी. ते जोह सर्व राजाओ क्रोध पामी सुभटोने युद्ध करवा मस्टे तैयार | | करवा लाग्या, अने बोल्या के.--" अमे राजाओ तो आ वाणीथी ज शूरो सामान्य मनुष्य आ कन्याने शी गते परणी जाय ? " एम बोली तओए युद्ध भारंभ्यु. ते वखते कुमार कोई मावतने मारी तेना हाथीपर चड़ी जइ युद्ध करवा लाग्यो. वळी कोई स्थीने मारी तेना रथमा बेसी युद्ध करवा लाग्यो. ए ज प्रमाणे ते कुमारे वणवार अश्ववार थइ, पति थइ, रथी थइ भने निषादी थइ युद्ध करी सर्वनो पराजय कर्यो, पछी “शास्त्रबडे स्वीथी जीताया अने शस्त्रवडे भानाथी जीताया" || एम विचारी ला पामेला ते सर्व राजामो फरीथी एकत्र थइ युद्ध करवा आल्या. ते वखते कुमार सोमप्रभ राजाना हाथी * पर चडी गयो. तेने ते राजाए तेना तिलकादिक चिन्होथी ओळखी हर्ष पामी कछु के–“ हे महापराक्रमी भाणेज ! बहु | सारं ययुं के में तने ओळख्यो." एम कही वे राजाए तेने आलिंगन कर्युः पछी सोमप्रभ राजाए ते कुमारनो वृत्तांत है। सर्वन कह्यो, ते सांभळी सर्व राजाभो युद्धधी निवृत्त थया, अने कुमारे पण पोतार्नु मूळ स्वरूप प्रगट कर्यु. पछी जितशत्रु १ हाथी स्वार. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा महोत्सवपूर्वक तेने श्रीतिमती साथै परथान्यो, भने सर्व राजाओने सत्कारपूर्वक विदाय कर्मा- पक्षी अपराजित कुमार प्रीतिथी प्रीतिमती साथे क्रीडा करतो सुरोधी वज प्रो. 66 एकदा हरिनंदी राजानो दूत त्यां आव्यो. आलिंगन करी कुमारे मातापितानी कुशळता पूछी. त्यारे दूत बोल्यो केकुमार ! मात्र देहने धारण करवाथी तेश्रो कुशल थे; परंतु तमे प्रवास कर्यो त्यारथी तेमनां नेत्रोमा पाणी सुका नथी. तमारुं या वृत्तांत सांभळीने मातापिताय तुमने बोलाववा माटे मने मोकल्यो छे, तो हवे तेमने तमारुं दर्शन भापी श्रानंद पमाडो, " ते सांभळी मातापिताने मळवा उत्सुक थयेलो कुमार तरत ज ससरानी रजा लइ प्रीतिमतीने साथ राखी मित्र सहित चाल्यो. ते कुमार प्रथम जे जे राजानी कन्याओं परथ्यो इतो, ते ते राजाओ पोतपोतानी पुत्रीभोने लइने थी तेनी पासे श्राव्या. एटले सैन्य सहित भूचर भने खेचर राजाओ ने पोतानी प्रियाओथी शोभतो ते कुमार अनु क्रमे सिंहपुर पहोंच्यो. ते बखते हरिनंदी राजा हर्षथी तेनी सन्मुख श्रान्यो, कुमारे तेने विनयथी नमस्कार कर्या भने राजाए देने प्रीतिथी आलिंगन कर्यु. माताए पथ ते नमसा एवा कुमारने पोताना हाथवडे स्पर्श कर्यो. पछी सर्व ओ पण सासु ससराने पगे लागी. त्याश्पछी विमलबोध मित्रे राजा तथा राखी पासे कुमारनो सर्व वृत्तांत को, ते सांभ ळीने ते बने अति हर्ष पाग्या. पछी शहरमा प्रवेश करी कुमारे सर्व खेचर अने भूचर राजाओ ने सत्कार पूर्वक विदाय कर्या. अन्यदा हरिनंदी राजा अपराजित कुमारने राज्य सोंपी प्रवज्या ग्रहण करी तेनुं आराधन करीने मोचे गया. पी अपराजित राजाए जिनेश्वरोनां चैत्यो बडे पृथ्वीने शणगारी चिरकाळ सुधी राज्यनुं पालन कर्यु. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकदा अपराजित राजा उद्यानमा क्रीडा करवा गया. त्या तेणे मित्रो अने स्त्रीमोथी परिवरेला कोइ महेभ्यने जोयो, तेनी पासे मनोहर संगीत थातुं हर्नु, तथा ते अर्थीयोने इच्छित दान आपतो हतो. तेने जोइ राजाए "भा कोण छे ?" एम पोताना सेवकोने पूज्यु, त्यारे तेमो बोल्या के-" हे स्वामी ! आ समुद्रपाल नामना सार्थवाहनो अनंगदेव नामनो पुत्र छे." ते सांभळी राजाए विचार कर्यो के-"अहो ! मारा राज्यमा वणिको पण भाषा उदार भने समृद्धिवाळा छ, तेथी मने पण धन्य छे." एम विचारी राजा पोताने घेर गयो. पछी पीजे ज दिवसे राजाना प्रासाद पासे थइने घणा मनुष्योथी वहन करातुं एक शव नीकळ्यु. ते जोह राजाए 'आ कोण मरी गयुं ?' एम पोताना सेवकोने पूछ। त्यारे तेत्रो बोल्या के-" हे स्वामी ! कालेज आपे जे अनंगदेवने उद्यानमा क्रीडा करतो जोयो हतो तेज विसूचिकाना च्याधिथी अकस्मात् मरण पाम्यो छे." ते सांभळी—“अहो ! संध्याकाळना रंगनी जेम मा विश्वमा सर्व पदार्थ अनित्य छे." एम विचारी राजा अत्यंत वैराग्य पाम्यो. तेवामा प्रथम कुंडपुर नगरमा ते राजाए जे केवळीने जोया इता, ]] ते केवळी ज्ञानथी तेने दीक्षा योग्य जाणी त्यो पधार्या. तेमनी पासे जइ धर्मदेशना सांभळी प्रतिबोध पामी अपराजित | राजाए पोताना पुत्रने राज्यपर स्थापन करी प्रीतिमती प्रने विमळबांध सहित दीक्षा ग्रहण करी. भने चिरकाळ सुधी तीव्र तप करी ते त्रणे काळधर्म पामीने अग्यारमा देवलोकर्मा इंद्रना सामानिक देव थया. आ ज भरतक्षेत्रमा श्रीहस्तिनापुर नामना नगरमा श्रीषेण नामे राजा हतो. तेने श्रीमती नामनी रायी हती. | तेमनी कुक्षिमा अपराजितनो जीव अवतो. से वखते राणीए स्वप्नमा शंख जेबो उज्वळ पूर्ण चंद्र जोयो, समय पूपे थये Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | राणीए पुत्रने जन्म प्राप्यो, तेनुं नाम शंख राखधामा प्राव्युं. पांच धात्रीभोवडे पालन करानो ते कुमार वृद्धि पानी भनु क्रमे सर्व कळाओमां निपुण थयो. ___ एज रीते विमळबोधनो जीव पण स्वर्गथी चवी श्रीपेण राजाना मंत्री गुणनिधिनी पुत्र मतिप्रभ नामे थयो. ते शंखकुमारनो मित्र थयो, ते असे मित्रो अनुक्रमे मनोहर युवावस्थाने पाम्या. एकदा श्रीपेण राजा पासे प्रजाजनोए प्राधी कह्यु के-“हे देव ! तमारा देशना सीमाडामा एक महा दुर्गम दुर्ग के. तेमा समरकेतु नामनो पल्लीपति रहे थे, ते निरंतर अभने लंटे के भने हेरान करे छे. तेथी तमे अमारं रक्षण करो." ते | सांमळी राजा तत्काळ त्यां जवा उत्सुक थया ते वखने शंखकुमारे नम्रताथी विज्ञप्ति करी के-" हे पिता ! सर्पना पश्चा | उपर गरुडना उद्यमनी जेम ते पञ्चीपति उपर समारो श्रा उद्यम योग्य नी. तेथी तेनो जय करवा माटे मने आज्ञा - आपो." ते सांभळी राजाए तेने श्राज्ञा पापी, एटले शंखकुमार सैन्य सहित पनी तरफ चाल्यो. तेने भावतो जाणी पलीपति दुर्गनो त्याग करी कोइ गाढ बनमा पेठो. ते जाणी बुद्धिमान कुमारे पण एक सामंतने ते दुर्गमा प्रवेश कराथ्यो, अने। पोते दुर्गनी बहार सैन्य सहित कोइ गुप्त स्थाने छुपाइने रह्यो. ते वात नहीं जाणता पच्चीपतिए तत्काल आवी ते दुर्गने रुंधी लीधो, तेटलामा कुमारे पण प्रगट भइ पोताना सैन्यथी तेने घेरी लीधी, पछी दुर्गा पेठेला सामंतना सैन्ये अंदरथी श्रने कुमारना सैन्ये बहारथी एम बने बाजुची मध्यमा रहेला पनीपतिनी उपर प्रहारो कयो. एटले कह दिशामा नासी जयूं ए नहीं सूझबाथी व्याकुळ थयेलो पल्लीपनि पोताना कंटपर कुठार राखी कुमारने शरणे जा हाथ जोडीने बोन्यो के Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " हे बुद्धिमान् ! मारी मायाना जाळने तोडनार तमे एक ज छो. माटे हुं तमारो दास छु मारुं सर्वस्व ग्रहण करी मारावर प्रसन्न था, " पछी तेथे जेटलुं धन लोकोनुं लुंटयुं हतुं तेटलुं लहू तेना स्वामीओने आपी कुमार पनीपतिने साधे लह पोताना नगर तरफ चाल्यो मांस समये कोठे सैन्यान नांखी कुमार रह्यो हतो, तेवामा कोइनुं रुदन सांभळी कुमार हाथमा खड्ग लह ते शब्दने अनुसारे ते तरफ चान्यो. केटलेक दूर गयो, तेटलामां एक वृद्ध स्त्रीने रुदन करती जोइ कुमारे तेने रोवानुं कारण पूछयुं, हमारे ते बोली के " अंगदेशमां चंपा नामनी नगरी थे. तेमां जितारि नामे राजा छे. सेने कीर्तिमती नामनी प्रियाने विषे उत्पन्न धयेली यशोमती नामनी पुत्री थे. ते समग्र कळामां कुशल भने युवावस्थाने पामेली . ते पोताने योग्य वर नहीं जोवार्थी कोइ पण ठेकाणे रामवाळी थती नथी. एकदा श्रीषेण राजाना पुत्र शंखकुमारना गुणां सांभळी 'मारा पति शंख ज हो ' एम तेणीए प्रतिज्ञा करी. आवी तेनी प्रतिज्ञा जाणी जितारि राजा gst योग्य वरने विषे रागवाळी यह छे. " एम विचारी अत्यंत हर्ष पाम्या. पछी एकदा मणिशेखर नामना खेचरे ते कन्यानी याचना करी त्यारे जितारि राजाए तेने उत्तर भाप्यो के" आ मारी कन्या शंखकुमार सिवाय बीजा पतिने वरचा इच्छती नथी. तेथी सेवी इच्छावाळी ते कन्या बीजे केम आपी शकाय ? " ते सांभळी ए खेचर क्रोध पाम्यो, एटले एकदा ते ते कन्यानुं हरण कर्यु. ते वखते हुं तेथीनी पासे इती तेथी तेथीनी साधे मारुं पण हरण कर्यु- हुं ते कन्यानी धात्री . मार्गमां मनं महीं तनी दहने ते खेचर ते कन्याने लइने क्यांइक जतो रह्यो छे, तेथी हे वीर ! हुं रुदन करूं के ते कन्यानुं हवे शुं थशे ? " 14 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 1 या प्रमाणे सांभळी शंखकुमारे ते वृद्धाने कधुं के " हे माता ! तमे धीरज राखो हमयां ज हुं ते खेचरने जीती कन्याने लड़ भाई कुं. एम कहीं वनमां भमतो भमतो कुमार प्रातःकाळ यहां एक पर्वतपर गयो. त्यां “हे मूढ ! मने शंख ज परखशे, तुं फोगट क्लेश शा माटे करे छे ? " एम विद्याधरने कहेती ते कन्याने तेथे जोइ, ते बए शंखकुमारने जोयो. एटले हसीने खेचर बोल्यो के-" हे जड ! तं जेने बरवाने इच्छे छे, ते पोते ज मरवानी इच्छाथी नहीं मान्यो थे, जो, याने तारी आशा सहित हणीने हमयां ज हुं यमराजने घेर मोकलुं हुं भने तने हर्षथी बळात्कारे मारे घेर लक्ष् जाउँ हुं." आ प्रमाणे तेनुं वचन सांभळी शंखकुमारे तेने कां के "रे दुष्ट ! उठ, तैयार था, तारा मस्तकनी साधे तारी श्री दुष्ट इच्छानुं हुं हरण करुं छं. " ते सांभळी खेचर तेनी साथे खङ्गवडे युद्ध करवा लाग्यो. तेमां कुमारने दुर्जय जाणी विद्याधिष्ठित शस्त्रोनो प्रहार करवा लाग्यो. परंतु ते शस्त्रो पुण्यशाळी कुमार उपर प्रहार करवाने समर्थ थमा नहीं. ए रीते युद्ध करीने थाकी गयेला विद्याधर पासेथी तेनुं ज धनुष खुचची लइने कुमारे तेनावडे तेने बाण मार्य, तेथी ते मूर्द्धा खाइ पृथ्वीपर पढ्यो. ते जोइ कुमारे तेने उपचार करी सञ्ज कर्मों ने फरीथी युद्ध करवानों तेने उत्साह आप्यो त्यारे ते प्रसन्न थइने कुमार प्रत्ये बोल्यो के " हे वीर ! अत्यार सुधी मने कोइए जीत्यो नथी, आजे तें मने जीत्यो थे, से बहु सारुं ययुं छे, हुं तारुं पराक्रम जोड़ तारो दास भयो कुं. माटे मारो या अपराध तुं क्षमा कर. ते सांभळी कुमारे तेने कधुं के " हे खेचर! तारी भक्तिथी हुं प्रसन्न थयो छु, तेथी तारी जे इच्छा होय ते कहे. " त्यारे ते बोध्यो के " हे पुण्यवान कुमार ! शाश्वत चैत्याने वांदवा तथा मारापर अनुग्रह करना तुं मारी साधे वैताढ्य "" Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . । पर्वतपर चाल." ते सांभळी कुमारे तेनुं वचन अंगीकार कयु. ते बखते शंखकुमारने सर्व गुणोवडे उत्कृष्ट जोइ 'दु श्रेष्ठ | ना वरने वरी छ' एम विचारी यशोमती कन्या अत्यंत हर्ष पामी. तेटलामा त्यात माणशेखाना विद्य द्याधर सेवको श्राव्या. - तेमांधी के विद्याधरोने मोकली कुमारे पोताना सैन्यने पोताना नगर तरफ जा कहेबराव्यु, अने बीजा विद्याधरने मोकली पेली वृद्ध धात्रीने बोलाची ते धात्री, कन्या अने खेचर सहित शंखकुमार वैताढय पर्वतार गयो. त्यां तेमणे शाश्वत चैत्योमा रहेला जिनेश्वरोनी प्रणामपूर्वक पूजा करी. पछी मणिशेखरे कुमारने पोताना नगरमा लइ जह तेनी घणी भक्ति करी. वीजा पण खेचरोए कुमारना पराक्रमथी खुर्शा थइ तेने पोतपोतानी कन्यायो पापी. त्यारे कुमारे तेमने कां के-श्रा यशोमतीने प्रथम परण्या पछी हुँ तमारी कन्याओने परणीश." त्यारपछी मणि शेखर विगेरे विद्याधरो | पोतपोसानी कन्याश्रो सहित यशोमतीने अने कुमारने लइ चंपानगरीए प्राध्या. ते सर्वने प्रावता जाणी जितारि राजा Hal तेमनी सन्मुख प्राची महोत्सवपूर्वक तेमने पोताने घेर लइ गयो. पछी त्या शंखकुमार यशोमतीने तथा चीजी विद्याधर कन्याओने हर्षथी विधिपूर्वक परयो भने भक्तिी श्रीवासुपूज्य स्वामीना चैत्यनी यात्रा करी. पछी सर्व विद्याधरोने विदाय करी शंखकुमार केटलाक दिवस चंपानगरीमा रही सर्व प्रियामो सहित हस्तिनापुरमा आयो. ____एकदा श्रीषेण राजाए शंखने राज्यपर स्थापन करी दीपा ग्रहण करी. शंखराजा पण इंद्रनी जेम मोटा राज्यर्नु पालन करवा लाग्यो. केटलेक काळे श्रीषेण राजर्षिने केवळज्ञान उत्पन्न थयु. एकदा विहारना क्रमथी ते केवळी हस्तिनापुरमा पधार्या. तेमनुं आगमन सांभळी शंखराजा परिवार सहित मुनीश्वरने वांदवा पाव्या. केवळीना मुलथी धर्मदेशना Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सांभळी शंख राजा वैराग्य पाम्या. एटले पोताना पुत्रने राज्यपर स्थापन करी ते केवळी पासे दीक्षा ग्रहमा करी. तेनी | साथे मतिप्रभ मंत्रीए तथा यशोमती राणीए पण दीक्षा ग्रहण करी. अनुक्रमे शंख राजर्षि श्रुतना पारगामी थया, भने दुस्तप तपबडे अई भक्ति विगेरे स्थानकोनु सेवन करी तीर्थकर नामकर्म उपार्जन कयु. छेक्ट यशोमती साच्ची अने 11 मंत्रीमुनि सहित शंखराजर्षि अनशन करी अपराजित विमानमां देवपणे उत्पन्न थया. श्रा ज भरतक्षेत्रने विषे शीर्थपुर नामना नगरमां दशाईना मोटा भाइ समुद्गविजय नामे राजा हता. तेने सर्व प्राणीमोनुं कल्याण करनारी शिवा नामनी राणी हती. देवायु पूर्ण थता योग्य समये अपराजित नामना स्वमेथी चवीने | शंख राजानो जीव शिवादेवीना गर्भमा अवतो. ते वखते सुखे सुतेली देवीए चौंद महास्वप्नो तथा रिष्टरत्नमय नेमिचक्र जोइ जागृत था राजाने ते वृत्तांत कह्यो. एटले राजाए प्रातःकाळे स्वप्नपाठकोने बोलागी ते स्वप्नोर्नु फळ पूछयु, त्यारे तेओए कह्यु के-" तमारे चक्री के धर्मचक्री पुत्र थशे." पछी समय पूर्ण थये राणीए उत्तम पुत्रने जन्म आयो. | ते वखते दिक्कुमारीओए आची सूतिकर्म का, इंद्रोए वी मेरुपर्वतपर तेनो स्नात्रमहोत्सव कर्यो. पछी राजाए पण हर्षथी पोताना नगरमा जन्मनो महोत्सव कयों, भगवान गर्भमा आन्या त्यारे माताए स्वप्नमा रिष्टनेमि जोयो हतो, तेथी राजाए तेनुं अरिष्टनेमि नाम पाडयु. इंद्रे आदेश करेली धात्रीमोथी लालन पालन कराता भगवान जगतना हर्षनी साथे वृद्धि पामी आठ वर्षना थया. मा अवसरे यशोमतीनो जीव वर्गमाथी । चवीने उग्रसेन राजानी धारिणी नामनी राणीनी कुत्तियी पुत्रीपो उत्पन्न थवो. तेनुं राजीमती नाम पाडगुं. ते पण Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमे वृद्धि पामी कलाना समूहने ग्रहण करी पवित्र युवावस्थाने पामी. मही मथुरापुरीमा वसुदेवना पुत्र कृष्णे जरासंध नामना राजाना जमाइ कसने हएयो, त्यारे सर्वे यादवो कोध : पामेला जरासंधना भयथी निमितियाना वचनवडे पश्चिम समुद्ने कांठ-जइने रह्या. त्या कृष्ण वासुदेव कुबरनी भाराधना करी, तेथी ते देवे समुद्र मध्ये नव योजन पहोळी अने बार योजन लांची द्वारकापुरी बनावी आपी. लकानगरीनी शंका करावती ते सुवर्णमय नगरीने विषे बळराम, श्री कृष्ण, दशाई अने वीजा सर्व यादवो मुखेथी रसा. अनुक्रमे प्रतिवासुदेव जरासंधने हगी तथा भरतार्धने साधी राम अने कृष्ण बरदेव अने वासुदेव थइ उत्तम राज्य भोगवा न नेमिनाथ पण इच्छा प्रमाणे क्रीडा करता पवित्र युवावस्थाने पाम्या. पण तेमो भोगने विषे | पराङ्मुख ज इता. हवे सूत्रकार महाराजा भगवानना रूपादिक वर्णन करे छ.सो रिटुनेमिनामो उ, लक्खणस्सरसंजुओ । अट्टसहस्सलक्खणधरो, गोभमो कालगच्छवी ॥५॥ अर्थ-(सो) ते ( रिट्ठनेमिनामो उ) अरिष्टनेमि नामना भगवान ( लक्खणस्सरसंजुभो ) माधुर्य, लावण्य विगैरे स्वरना लक्षणों सहित हता, तथा ( मसहस्सलक्खणधरो) हस्त पाद विगेरे स्थाने शंख, चक्र, गदा स्वस्तिक विगेरे एक हजार ने आठ लक्षणोने धारण करनारा हता तथा ( गोप्रमो) गौतम गोत्री हवा, तथा ( कालगच्छवी) श्याम कातिवाळा हता,५. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैजरिसहसंघयणो, समचउरंसो झसोदरो । तैस्स राइमई कन्नं, मन्नं जाएह केसवो ॥६॥ अर्ध- तथा ( वारिसहसंघयणो ) वजर्षभनाराच संघयणवाळा हता, तथा ( समचउरसो ) समचतुरस्र संस्थानवाला | | हता, (झसौदरो) मरस्पना जेवा उदरवाळा हता. ( तस्स) ते नेमिनाथनी ( भज) भार्या करवा माटे (फेसवो) वासुदेवे ( राइमई ) राजीमती नामनी ( कम्न) कन्यानी तना पिता पास ( जाएइ ) याचना कशे. ६. से राजीमती कन्या कवी हती ते कहे छे.-- अह सा रायवरकामा, सुसीला चारपहिणी । सव्वलक्खणसंपन्ना, विज्जुसोआमणिप्पहा ॥७॥ अर्थ-(मह) हचे (सा) ते ( रायवरकमा ) उग्रसेन राजानी श्रेष्ठ कन्या ( सुसीला ) सारा शीळवाळी हती, तथा ( चारपहिणी ) मनोहर जोनारी-दृष्टिवाळी हती, तथा ( सम्बलक्खणसंपमा) सर्व शुभ लक्षणोए करीने युक्त हती, || तथा (विज्जुसोमामणि पहा ) विद्युत् एटले विशेष कातिवाळी सौदामिनी एटले वीजळीनी जेपी प्रभाषाळी-कातिवाळी इती, ७, राजीमतीनी याचना करवानो जे प्रसंग प्राप्त थयो तेनी हकीकत आ प्रमाणे - एकदा श्रनिोमनाथ प्रभु क्रीडा करता वासुदेवनी प्रायुधशालामा गया, त्यां वासुदेव- शाङ्गे नामर्नु धनुष लेवा लाग्या. ते वखते तेना आरचकोए कहुं के–“ हे कुमार' मा धनुपने घडाववा विष्णु विना बीजा कोइ समर्थ नथी. YON Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | तेथी आने ग्रहण करवानो अाग्रह मूकी यो." ते सांभ प्राए काइक हसी से धनुष पोताना हाथमां लीg, अने तरत || नेतरनी सोटीनी जेम अनायासे ज वाळीने तेनापर प्रत्यंचा चडाबी, पछी इंद्रधनुष जेबा ते धनुषवडे शोभता मेघ जेवा ते * नेमिनाथे तेनो टंकार करी तेनी गर्जनायडे समग्र विश्व पूरी दीधुं. पछी धनुषने मूकी कांतिघडे देदीप्यमान चक्रने हाथमा ला कुंभारना चक्रनी जेम तेने प्रांगळीना अग्रभागबडे भमाडधु. पछी चक्रनो त्याग करी जेने ग्रहण करतां वासुदेवने पण घणो प्रयास थतो हतो एवी गदाने प्रभुए लाकडीनी जेम ग्रहण करीने फेरवी, पछी तेने पण तजी प्रभुए पांचजन्य नामनो शंख लइ पोताना मुख पासे राख्यो, ते वखते ते शंख विकस्वर काळा कमळनी पासे रहेला राजहंसनी जेम शोभवा लाग्यो. पछी स्वामीए ते शंख बगाइयो, तेना शब्दथी समग्र विश्व बधिर थह गर्यु, सर्व पर्वतो कंपवा लाग्या, पृथ्वी पण चळाचळ थइ, समुद्रो क्षोम पाम्या अने वीरो मूर्छा खाइ पृथ्वीपर पडया. घणु कहेवाथी शुं? ते शब्दथी देवो पण त्रास | पाम्या. सिंहना नादी हाथीनी जेम ते शंखनादथी वासुदेवे पण क्षोभ पामी विचार कर्यो के-" कया चळवाने आ शंख वगाडयो ? हुं ज्यारे शंख चगाडं छु त्यारे सामान्य मनुष्यो ज पोम पामे छ, परतुं आ नादवडे तो मने पण अत्यंत चोम थयो छे. तो शुं इंद्र, चकरी के बीजो कोह वासुदेव श्राच्या छ ? जो एमज होय तो हुँ पा राज्य, रक्षण शी रीते करी | शकीश ?" आ प्रमाणे सभामां बेठेला वासुदेव विचार करता हता, तेटलामा आयुधशाळाना रक्षकोए भात्री सर्व वृत्तांत कहो. ते सांभळी शंकाथी आकुळ व्याकुळ थयेला विष्णुए बळरामने कह्यु के-"जेनी क्रीडाथी पण या प्रमाहो पाखा विश्वने क्षोभ थयो, ते अरिष्टनेमि आपणुं राज्य ग्रहण करे, तो तेने कोण निषेध करी शके ?" ते सांभळी वळदेव बोल्या Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -" हे भाइ ! तमे खोटी शंका न करो. पूर्वना तीर्थंकरोए श्र श्रवणा भाइनो वृत्तांत एवो को छ के - यादववंशरूपी समुद्रनो उल्लास करवामां चंद्र समान बावीशमा तीर्थंकर श्री अरिने राज्यलक्ष्मीने भोगच्या विना ज दीक्षा ग्रहण करशे. वळी अत्यारे पथ समुद्रविजय विगेरे सर्वे तेने घणी प्रार्थना करे छे, तोपण ते बुद्धिमान एक कन्याने पण परणता नथी, तो ते श्रीनेमि शुं या राज्यने ग्रहण करे ? " या प्रमाणे बळरामे कक्षा छतां हरिना हृदयमाथी शंका गइ नहीं. एकदा श्रीमकुमार उद्यानमां क्रीडा करवा गया हता. कृष्ण साधे हता. त्यां कृष्ण वासुदेवे तेने कछु के-" हे भाइ ! आपणे आपण चटनी परीक्षा करवा माठे द्वंद्वयुद्ध करीए "नेमिकुमारे क के " सामान्य माणसने उचित एवं द्वंद्वयुद्ध आप कर योग्य नथी. परंतु वळनी परीक्षा तो मात्र बाहु वाळवाथी पण थह शके छे. " आनुं तेनुं वचन अंगीकार करी हरिए पोतानो बाहु लांबो कर्योतेने प्रभुए कमळना नाळनी जेम तत्काळ नमावी दीधो भने पोतानो वज्र जेवो बाहुलांगो कर्यो. तेने वाळवा माटे वासुदेवे पोतानुं सर्व बळ वापर्यं, तोपण ते शाखापर लटकेला बाळकनी जेम ते हार गाइ गया. ते खते हरिए विचार कर्यो के "जेने राज्य लेवानी इच्छा होय, ते आटलं बधुं वळ तां भाटलो विलंब करे ज नहीं. " एम विचारी राज्यना अपहारनी चिंता दूर करी वासुदेव पोताने घेर गया. एकदा समुद्रविजये श्रीकृष्णने कछु के-" सर्वे कुमारो पोतपोतानी स्त्रीओ साथै क्रीडा करे थे, पण नेमकुमार तो ते सर्व विलक्षण के, तेथी अमने अत्यंत खेद थाय छे. तो हे वत्स ! कोइप उपायथी था नेमिकुमार विवाह करे एवं कर." आधुं समुद्र विजयनुं वचन अंगीकार करी श्रीकृष्णे कामदेवना दिव्य शस्त्ररूप सत्यभामा अने रुक्मिश्री विगेरे Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . पोतानी प्रियामाने ते कार्य माटे श्राझा करी. ते वखते विश्वमा जनोने उत्सवना कारणरूप वसंतोत्सव पण प्रवर्ततो हतो, I तेथी सत्यभामा विगेरे स्वीओ उद्यानमा क्रीडा करवा गइ, तमनी साथे विष्णुना आग्रहथी श्रीनेमिनाथ पण कामविकार रहित ज ते स्त्रीओनी साथे ऋतुने उचित एवी क्रीडाबडे रमवा लाग्या. वसंतऋतु पीत्या पछी ग्रीष्मऋतु आव्यो. त्यारे पण वासुदेवना आग्रहथी भगवान तेनी प्रियाओनी साथे क्रीडापर्वत उपर क्रीडा करवा लाम्या. त्या विश्वना अलंकाररूप | निर्विकार जगद्गुरु श्रीनेमिनाथ कृष्णना आग्रहथी जळकोडादिक काडा करवा लाग्या. पछी एकदा वासुदेवनी प्रियाए | | अवसर जोइ प्रीति, नम्रता अने हास्य सहित नेमिकुमारने कयु के-" हे दियर ! तमारूं रूप इंद्रथी पण अधिक छ, तमारु शरीर सदा आरोग्य अने सौभाग्यादिक गुणे करीने युक्त छे, अने आ तमारी युवावस्था इंद्राणीने पण कामातुर बनाये तेवी छ, तो योग्य कन्याने परणीने ते सर्व सफळ करो. मा तमारु रूपादिक सर्वे भोग विना भवकेशि वृक्षनी जेम निष्फळ के. केमके स्त्री विना भोग शा कामना ? स्त्री ज भोगनुं स्थान थे, स्त्री विना स्नानादिक शरीरनी शुश्रूषा थती नथी, खी til रहित एवा पृरुपने निर्धननी जेम मनवांछित भोजन क्याथी मळे १ जेम खाण विना रत्न न होय तेम स्त्री बिना पुत्र पण होता नथी. भिचुकना धननी जेम स्त्री रहितना अभने अतिथि पण खातो नथी. युवति विना युवाननी रात्रि पण शी रीते जाय ! जुओ, चक्रवाकनी रात्रि चक्रवाकी विना वर्ष जेवडी थाय छे. योग्य स्त्रीना संयोग विना कोइपण पुरुष शोभतो * नथी. जुभो, रात्रि विनाना चंद्रने कांति क्याथी होय ? तेथी हे गुणसागर ! कोइयण कन्यानुं पाणिग्रहण करी दशार्हादिक सर्व यादवोनुं मनवांछित पूर्ण करो. जन्मी ज प्रारंभीने स्वच्छंदपणे फरनारा सढि जेम गाडीनी सुंसरी बहन न करी TRACK Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शके तेम जन्मथी आरंभीने स्वेच्छाए फरनारा तमे पण बघूनो निर्वाह करी शको तेम नहीं होय, तेथी ज विवाइने अंगीकार करता नथी एम हुं धारुं हुं. जो ए ज कारण होय तो ते पण अयुक्त छे. केमके तमारा भाइ बासुदेव जेम अमारो ( १६ हजारो ) निर्वाह करे छे, तेम तेनो पण निर्वाह करशे. समग्र पृथ्वीनो भार धारण करनार शेषनागने कोइ लवानो भार वीजतो नथी. वही निर्वाणनी प्राप्ति नहीं थवाना भयथी जो भोगनो त्याग करता हो, तो ते पण खोटुं छे. केमके ऋषभादिक जिनेश्वरो भोग भोगवीने पण सिद्ध थया के. धृष्टण्णाधी मंगा थयेला तमे जवाब आप के न भायो; परंतु विवाह अंगीकार कर्या विना श्रमाराधी तमे छुटी शकशो नहीं. " या प्रमाणे ते कृष्णनी प्रियाओ प्रार्थना करती हती. ते वखते बळराम भने कृष्ण विगरेए आवीने तेज प्रमाणे प्रार्थना करी बंधुश्री मनोहर वचनो वडे अत्यंत आग्रह कर्यो, त्यारे भाविभावने विचारता स्वामी विवाहनी संमति आपी थी हर्ष पामता वासुदेवे समुद्रविजय पासे जह से वृत्तांत को, पटले ते पण अत्यंत हर्षित थया, अने तेणे कृष्णने क के - " हे महाबुद्धिमान 1 तुं ज नेमिकुमार माटे योग्य कन्यानी शोध कर." त्यारे वासुदेव पोते योग्य कन्वानी शोध करवा लाग्या, तेटलामां सत्यभामाए तेने कछु के-" हे प्रिय ! कमळना सरखा नेत्रपाळी मारी बेन राजीमती ज नेमकुमारने योग्य थे. " ते सांभळी श्रीकृष्ण हर्ष पानी पोते ज उग्रसेन राजाने घेर गया. वासुदेवने पोताने घेर श्रावेला जोइ उग्रसेन वर्ष पासी, उभा थह आसन आपी हाथ जोडीने बोल्या के" आजे स्वामीए जाते अहीं श्राववानो प्रयास शा माटे कर्यो ? पोताना सेवकने मोकली मने ज क्रेम न बोलायो ? आ मारुं घर, धन, शरीर अने पुत्री विगेरे सर्व आपनुं ज Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के एम आप जाणजा. हे स्वामी ! आपनी जे इच्छा होय ते कहो. " कृष्णे का के..." हे राजा ! मारा भाइ नमीकुमारने आ तमारी रानीमती पुत्री आपो." या प्रमाणे हरिए राज़ीमतीनी याचना करी ते जाखी पाताने धन्य मानता उग्रसेन राजाए जे कडं, ते सुत्रकार ज कहे छे -- अहाहै जणओ नीले, वासुदेवं महिड्डिअं । इहागच्छउँ कुमारो, जो "से कन्नं दैलामेहं ।। ८॥ ___ अर्थ--(अह ) याचना कर्या पछी (हीसे) ते राजीनतीनः । जसलाई) पिताट ( महिड्डिनं ) मोटी ऋद्धिबाळा । वासुदेवं ) वासुदेवने (आह) कयु के-(कुमारो) नेमिकुमार (इह आगच्छउ) अही श्रावे, (जा) जेथी (से) तेने ( अहं ) हुं | ( क ) मारी कन्या (दलामि) आपु. ८. श्रा प्रमाणे उग्रसेन राजाए कछु, एटले बझे कुळमा वर्धापन थयां, अने जोशीए बतावेलुं विवाहनुं लग्न नजीक आव्यु, ते बखते जे थयु, ते कहे छे. सव्वोसहिहिं पहविओ, कयकोउअमंगलो । दिवजुमलपरिहिश्रो, भूसणेहिं विभूसिओ ॥ ६ ॥ __ अर्थ—(सच्चोसहिहिं ) सर्व औषधिोए करीने (एहवित्रो) नेमिकुमारने स्नान करान्यु-अभिषेक को तथा ( कयकोउमंगलो) कौतुक अने मंगळ करवामां श्रायु तथा (दिग्वजुमलपरिहिनो) मनोहर ने देवदृष्य वस्त्र धारण कराव्या, तथा (भूसोहिं) प्राभूषणो वडे ( विभूसियो) विभूषित कर्या. ६. पछी. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैत्तं च गंधेत्थि, वासुदेवैस्स जिगं । आरूढो सोहई अहिअं, सिरे' चूडामणी जहाँ ॥ १० ॥ अर्थ - (वासुदेवस्स) वासुदेवना (जिगं ) अत्यंत प्रशस्त (मत्तं च) अनं मदोन्मत एवा ( संहत्थि ) गंधहस्ती उपर (चारूढो) आरुढ थयेला ते नेमिकुमार (सिरे) मस्तकपर (चूडामणी) चूडामणेि – मुकुट ( जहा जेम शोभे तेम (अहिचं) अधिक ( सोहई ) शांभवा लाग्या. १०. ग्रह ऊँसिएण तेण, चामराहि अ सोहिओ । सारचक्केण ये सो, सेव्वओ परिवरिओ ॥ ११ ॥ अर्थ - (मह) त्यापछी (ऊसिएण ) माथे धारण करेला (छत्तेग) छत्रवडे ( चामराहि अ ) तथा वझाता एवा चामरो पडे (सोहि श्रो) शोभता (य) तथा (दसारचकेण ) समुद्रविजयादिक दश दशाहोना समूहोबडे (सो) ते नेमिकुमार (सii) चोतरफथी (परिवारियो) परिवरेला. ११. चतुरंगिणीर से ए, रइखाएं जहक्क मं । तुडित्राणं सन्निनाएणं, दिव्वेणं वणंफुसे ॥ १२ ॥ अर्थ – (हक) अनुक्रमे (रआए) गोठवेली (चतुरंगिणीए) चतुरंगी ( सेणाए ) सेनावडे, तथा (दिव्येणं) दिव्य अ ( गयjफुसे ) आकाशने स्पर्श करता एवा ( तुडिआ ) वाजित्रोना ( सन्भिनाए ) गाढ शब्दबडे जाताएआरसीए डीए, जुत्ती उत्तमाएँ । निभगाओ भवणाओ, निजाओ वेहिगो ॥ १३ ॥ - तथा ( एवारिसीए) आवा प्रकारनी उपर कही तेवी (हड्डीए) समृद्धिए करीने (अ) तथा (उत्तमाए ) उत्तम एवी अर्थ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जुचीए) दीप्तिवडे करीने शोभता एवा (वहिपुंगषो) यादवोने विषे श्रेष्ठ एवा नेमिकुमार (निमगायो) पोताना (मवणामो) । परथकी (निाओ) नीकन्या भने मंडपना समीप देशमा श्राव्या. १३. ते वखते पोताना घरनी पारीमा बेठेली राजीमती कन्या नेमिकुमारने भावता जोह वचनधी न कही शकाय तेवा । भानंदने पामी या प्रमाणे विचाग्वा लागी -."ईला वेगापिनीमार छ ? के सूर्य छ । के कामदेव के ? के इंद्र छ ? के मनुष्यमा देहनो श्राश्रय करीने पावलो मारा ज पुण्यनो समूह छ ? जे बुद्धिमान विधाताए आ मारा पतिने बनान्या छ, से महात्मानो हुं शो प्रत्युपकार करी शकीश ?" मा रीते विचारता तेशीने श्रीनेमिना दर्शनथी उत्पन्न थयेला हर्षवडे " हुं कोण छु ? श्रा शुं धाय छे ? आ कयो समय के ? अने हुं कयां रहेली छु?" इत्यादिक काइपण खबर रही नहीं. तेटलामा राजीमतीनुं जमां नेत्र फरक्यु, तेथी मनमा उद्वेग पामी तेणीए सरत ज ते वात पोतानी सखीयोन कही. त्यारे सखीनो बोली के-“हे मोटा प्राशयवाळी ! तारं पाप हणाइ जाओ. पाटली पृथ्वी सुधी प्रावेला आ नेमिकुमार हवे पाछा नहीं रळे. " राजीमती अधीरी थइने गोली के-"मारा भाग्यपरथी जाणुं छु के-मा मारा नाथ नहीं | सुधी भान्या छे, तोपण ते पाछा ज जशे अने मारं पाणिग्रहण करशे नहीं. " भ्रा अक्सरे जे थयुं ते सूत्रकार ज बतावे के.अहे सो सत्य निर्जतो, दिस्स पणे भयहए । वौडेहिं पंजरेहिं च, सन्निरुद्धे सुखिए ॥१४॥ अर्थ- (अह । हये ( सो ) ते अरिष्टनेमि ( तत्थ ) त्यो एटले मंडपनी समीपे (निअंतो ) गया सता ( वाडेहिं ) Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाडाभोवडे (पंजरेहिं च ) भने पांजराभोवडे एटले चाडामोमा अने पांजरामोमा ( साविरुद्ध ) रुधला एटसे पूरेला, एज कारणथी (सुदुविखए ) अत्यंत दु:खी थेती अने (भयहुए) भयथी त्रास पामेला एचा ( पाणे) प्राणीमोने (दिस्स ) जोइन. १४ जीविधेतं तु संपत्ते, मंसट्रा भक्खिअवए । पासित्ता से महापण्णे, सारहिं पडिपुच्छइ ॥ १५ ॥ अर्थ-(जीवितं तु ) जीवितना अंतने एटले मरण अवस्थाने ( संपत्ते ) पामेला, तथा ( मंसट्ठा ) मांसने माटे । एटले प्राणीप्रोने खावाथी खानारनां शरीरमा मांसनी पुष्टी धाय छे एटला माटे ( भक्खिभब्बए ) अविवेकी जनोए भक्षण करवा लायक एवा ते प्राणीोने (पासित्ता ) जोइने एटले हृदयमा धारण करीने ( महापण्णे से ) महा बुद्धिमान एटले अयधिज्ञानवाला ते भगवान ( सारहि ) सारथिने एटले महायतने (पडिपुच्छइ) पूलता हवा. १५. कस्स अट्ठा ईमे पाणा, एए सव्वे सुहेसिणो । डिहिं पंजेरेहिं च, सन्निरुद्धे अ अच्छहि ॥ १६ ॥ अर्थ--(कस्स अट्ठा ) शाने अर्थे एटले शा कारणथी (एए सब्बे ) श्रा सर्वे ( सुहेसिणो) सुखना अभिलापीमुख्ने इच्छनारा ( इमे पाणा )श्रा प्राणीमो ( वाडेहिं ) बाडामोरडे (पंजरेहिं च ) भने पोजराओवडे ( समिरुद्ध भ) संध्या सता (भच्छहि ) रहेला छे ? १६. आ प्रमाणे भगवाने पूछयुं त्यारे Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *•*•*•***«*@*••*0*→→€‹••*•»«»»««•* ̈*••** सौरही तओ भइ, एऐ भंदा उ पाणिणो । तुभं विवाहकज्जम्मि, भुंजावेउं बैहुं जैणं ॥ १७ ॥ अर्थ - (अ) दवे (तम्रो ) त्यारपछी ( सारही ) सारथिए ( भगइ ) कथुं के (एए) आ ( मद्दा उ ) उत्तम जातिना ज ( पाणियो) प्राणीओने ( तुम्भं ) तमारा ( विवाहकज्जम्मि ) विवाहना कार्यमा ( चहुं जयं ) घणा जनोने एटले यादवोने (भुंजावे ) खबराववा माटे रुंध्या बे. १७. या प्रमाणे सारथिए कं, त्यारे प्रभुए शुं कर्तुं ? ते कहे . -- सोऊण तरस वर्येणं, बहुपाणविणासणं । चिंतेइ से महापणे, साळुंको से जिएहि उ ॥ १८ ॥ अर्थ --(बहुपायविद्यालयं ) घ्या प्राणीओने विनाश करनारुं ( तस्स ) ते सारथिनुं ( वयं ) वचन ( सोऊथ ) सांभळीने ( महापणे ) महा बुद्धिमान भने ( जिएहि उ ) जीधोने विषे ( साणुकोसे ) करुणावाळा ( से ) ते भगवान ( चिंते ) विचार करवा लाग्या अथवा ( जिए हिम्रो ) एवो पाठ राखी जीवने विषे हितकारक एवा प्रभु विचारखा लाग्या एम अर्थ करवो. १८. जैदि मज्झ कारणा एऍ, हम्मंति सुबहू जिआ । नें में एअं तु निस्सेस, परेलोप भैविस्स ॥१९॥ अर्थ - (जदि) जो (मज्झ ) मारा ( कारणा ) कारणथी (एए) श्रा (सुबहू ) घणा (जिला ) जीवो (इम्मंति) हगाशे, तो (एथं तु) आ जीवहिंसा (मे) मने (परलोए) परलोकमां (निस्सेस) कल्याणकारक ( न भविस्सर) नहीं थाय. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वभवोमा परलोक भीरूपणानो घणो अभ्यास होगाथी अहीं भा प्रमाणे-'मने परलोकमां कन्यायकारक नहीं थाय' एम को के. अन्यथा भगवान चरम देहधारी अने अतिशय ज्ञानवाळा होबाथी भावो विचार थाय ज नहीं. १९. त्यारपछी जिनेश्वरनो अभिप्राय जाणीने सारथिए ते सर्व जीवोने पांजरामाथी अने वाडाश्रोमांथी छोडाव्या, से वखते | प्रमुए हर्ष पामीने जे कयं ते कहे .* सो कुंडलाण जुअलं, सुत्तमं च महायमो। आहरणाणि अ सम्बॉणि, साहिस्स पणामए ॥२०॥ अर्थ-(महाययो ) मोटा यशाळा ( सो ) ते प्रभुए ( कुंडलाण ) कुंडळनुं ( जुअल ) युगल-चे कुंडळी ( मुत्तगं च ) तथा कटिसूत्र-कंदोरो (अ) तथा ( सब्वाणि ) सर्व चीजों अंगोपांगना (माहरणाणि) आभूषणो ( सारहिस्स) | सारथिने (पणामए) आप्यो-प्रीतिदान को. २०, __त्यारपछी करुणारसना समुद्ररूप अने ममग्र जीवोना हितकारक प्रभु वक्र ग्रहनी जेम तत्काळ त्यांथी पाछा वळवा. ते वखते शिवाराणी अने समुद्रविजय राजा प्रभुनी पासे प्राची मेधनी जेम नेत्रमाथी प्रश्रुनी धाराने मृकता सता बोल्या के ..." हे वन्म ! अंगीकार करेला विवाहनो त्याग करवाथी अमारा हर्षरूपी वृदने तु केम मुळथी उखडी नाखे छ ? भने मा कृष्णादिक यादवोने केम खेद पमाडे छ ? या कृष्णे तारे माटे उग्रसेन राजा पासे जाते जाने तेनी पुत्री मागी लीधी | थे, ते हवे शी गते तेने पोतानुं मूख देखाड़ी शकशे ? जीवता मरेला जेबी राजीमवी कन्यानुं पण हवे शुं थशे । चंद्र विना Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राविनी जैम पति मिना खी शोभती नथी. तेथी । विवाह करीने अमने बहुनु मुख देखाड, अने अमारी आ प्रथम प्रार्थना सफळ कर." ते सांभळी भगवान् योन्या के-" हे पूज्यो! पाको आग्रह तमे मूकी धो. प्रियजनने हितकार्यमा ज प्रेरणा करती योग्य थे. जे स्त्रीनुं पाणिपीडन ज प्राणीपीडनरूप छे, अने जेनामा आसक्त थयेला प्राणी तत्काळ दुर्गतिने पामे के, तेवी खीओनो संग मारी जेवा मुमुक्षुने योग्य नथी. कारण के पंडिस पुरुषो परलोकना हितने माटे ज यल करे छे, परंतु मात्र प्रारंभा ज सुंदर अने परिणामे दारुण एवा काईने माटे यत्न करता नथी. " प्रा प्रमाणे भगवान् कहेता हता, ते ज चखते आसन कंपवाथी योग्य अवसर जाणीने लोकांतिक देवोए त्यो आवी भगवानने 'तीर्थ प्रवर्तावो' एम कयु. तथा ते देवोए समुद्रविजय विगैरे सर्वेने कहा के-" तमे सर्व पुण्यवंतो आवा हर्षने स्थाने खेद केम करो को ? आ भगवान् दीक्षा ग्रहण करी केवळज्ञान पामी चिरकाळ सुधी तीर्थने प्रवनावी त्रण जगतने आनंद प्रापवाना छे." या प्रमाणे देवानुं वचन सांभळी सर्व खुशी थया. पछी घेर जइ भगवान सांवत्मरिक दान देवा लाग्या. अहीं श्रीनेमिकुमारने पाला वळेला जोइ राजीमती अत्यंत शोकातुर थइ मुच्चो पामीने पृथ्वीपर पडी गइ. तेने तेनी * सखीओए शीतळ उपचार करी चेतना पमाडी, त्यारे ते जाणे दुःखना उद्गार काढती होय तेम विलाप करवा लागी के-“हे नाथ ! कोइपण दोष विना अकस्मात् आपने विषे रक्त एवी जे हु तेनो त्याग करी तमे क्यां गया? तमारी जेबाने भक्तजननी उपेक्षा करवी योग्य नथी. महापुरुषो पोतानो अाश्रित जन सदोष होय तोपण तेने तजता नथी. चंद्र कदापि कलंकने तजतो नथी, अने समुद्र बउवानळने तजतो नथी. एम छता पण हे प्रभु ! जो तमारे मने तजबी हती, Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ £03-**03+++++** -43 तो वो स्वीकार करी मारी विडंबना शामाटे करी ? अथवा तो मारो ज दोष छे के जेथी दुर्लभ एवा पण तमारे विषे में राग कयों. कामडी हंसने विषे जे राग करे तेमां कागडीनो ज दोष छे. हे नाथ ! तमे मारो स्वीकार करीने मने मूकी दीधी, तेथी मारुं रूप, फळाकुशळता, लावएप, यौवन ने कुछ विगेरे सर्व निष्फळ थयुं. हे कांत ! तमारा त्रियोगनी व्यथाथी जाणे मारा प्राण नीकळी जता होय, जागे मार्क हृदय फाटी जतुं होय अन जाणे मारुं शरीर बळी जतुं होय एवी हु थइ . हे स्वामी ! तमे जे प्रकारे पशुओने विषे दयाळु थया, ते ज रीते मारापर दयालु थाओ. तमारी जेवा महात्माने पंक्तिभेद करवो योग्य नथी. हे प्रभु ! तमारे विषे रागी थयेली मने एक ज वार दृष्टिवडे अने वाणीवडे प्रसन्न करो. स्वाद कर्या विना मीठा के कडवा फळने कोण जाणी शके ? अथवा तो सिद्धिरूपी चहुने वरवा उत्सुक थयेला तमारा मानने इंद्राणी पण हरण करी शकती नथी, तो हुं मनुष्यरूपी कीटिका तो कह गणतरीमां होउं १ " आ प्रमाणे विलाप करती राजीमतीने सखीओए क के - " हे सखी ! रोइश नहीं. ते नीरस ने महा कठोर के, तेने जया दे. बीजा घणा यदुकुमारो मनोहर रूपवाळा छे, तेमांथी कोइ योग्यने वरजे. " ते सांभळी पोताना कान बे हाथवडे ढांकी दहने राजीमती बोली के--" हे सखीयो ! तमे सामान्य जनने उचित एवं पण उत्तमने अनुचित एवं वचन केम बोलो यो ? जो कदाच रात्रिए सूर्यनो उदय धाय, के अन्ति शीतळ धाय, तोपण श्रीनेमिने मूकीने बीजा बरने हुं नहीं वरुं. जो विवाह विषे मारा हाथपर नेमिनो हाथ नथी थयो तो दीक्षा ग्रहण करती वखते माहा मस्तकपर तेनो हाथ थशे. " ते सांभळी सखीश्रो बोली के--" हे शुभ श्राशयवाळी ! दारो आ विचार अति उत्तम के. " पछी ते सती Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोली के - - " हे सखीओ ! आजे भने स्वप्न श्रन्यं हतुं. तेमां कोइ पुरुष ऐरावण हाथीपर चडीने मारे घेर आयो, भने तत्काळ पाछोरी मेरुपर्वतपर चडी गयो. त्यां रहीने ते लोकोने चार अमृतफळ देवा लाग्यो. तेनी पासे में पण फळर्न याचना करी त्यारे मने पण ते फळ श्राप्यां. " ते सांभळी सखीओए कझुं." हे सखी ! तुं खेद न कर. हे पाप रहित ! तारा विघ्ननाश पाया था स्वप्न जो के प्रारंभमां कटुक लागे छे, परंतु तेनुं परिणाम यति शुभ छे. " त्यारपछी राजीमती एक नेमिनाथनुं ज ध्यान करती घरमा रही. प्रभु पथ व्रत लेवा तैयार थया. पछी जे प्रकारे प्रभु दीक्षा ग्रहण करी, ते सूत्रकार ज क छे.- परिणामो अकओ, देवाय जैहोइअं संमोहणा । सेविड्डीइ सैपरिसा, निक्खमणं तस्स काउं जे | २१ | अ- (मपरिणामो अ ) श्री अरिष्टनेमिए व्रत लेवा माटे मननो परिणाम ( कओ ) कर्यो. एटले ( देवाय ) चार निकायना देवो (जहांइथं ) उचितता प्रमाणे ( सविङ्कीए ) सर्व ऋद्धि सहित तथा ( सपरिसा) पोतपोताना परिवार सहित] ( तस्स ) ते नेमिनाथनो ( निक्खमणं ) दीक्षानो उत्सव ( काउं जे ) करवा माटे ( समोइला ) स्वर्गथी उतर्या. २१. देवस्परिडो, सीआरयणं तेओ समारूढो । निक्खमि बारयाओ, रेवययम्मिठिमी भयवं ॥ अर्थ -- ( तओ ) त्यारपछी ( देवमणस्तपरिवुडो ) देवो अने मनुष्योथी परिवरेला भने ( सीधारयणं ) शिविका Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपर ( समारूढो ) भारुढ थयेला ( भयवं ) भगवान ( पारयाओ) द्वारका नगरीथी (निक्समिश्र ) नीकळीने (रेव- || ययम्मि । वतकपर्वतपर ( तियो ) ग्या-गया २२. उज्जाणं संपत्तो, ओइण्णो उत्तिमाओ सीआओ। साहस्तीइ परिवुडो, अह निखमई उ चित्ताहि ॥२३॥ अर्थ--त्या ( उज्जाणं) सहसाम्रवन नामना उद्यानमा ( संपसो) प्रभु प्राव थया. त्यां उत्तिमाओ ) उत्तम (सीआओ) शिविकाथकी (ोइण्णा ) नीचे उतर्या. ( अह ) पछी ( साइस्सीइ ) हजार प्रधान पुरुषोथी ( परिवुडो) परिवर्या सता (चित्ताहि ) चित्रा नक्षत्रमा प्रभु ( निक्खमई उ ) दीक्षा ग्रहण करता हवा--पंच महाव्रत उचरता हवा. भा प्रभुना पांचे कल्याणको चित्रा नक्षत्रमा ज थया छे. २३. अह सो सुगंधगंधिए, तुरिअं मउअकुंचिए। संयमेव लुचई केसे, पंचमुट्ठीहि समाहिओ ॥ २४ ॥ ___ अर्थ--(अह ) त्यारपछी ( समाहियो ) सर्व सावध योगनो त्याग करवायी जान, दर्शन अने चारित्रने विषे समा- | | धिवाळा ( सो ) ते प्रभुए (सुगंधगंधिए ) स्वभावथी ज सुरभि गंधवाळा तथा ( मउअकुंचिए) कोमल अने कुटिल एवा। ॐा (केसे) केशोनो ( पंचमुट्ठीहिं) पांच मुठीवडे ( सयमेव ) पोते ज ( तुरि अं) शीघ्र (लुचई) लोच कर्यो. २४. वासुदेवो ये णें भगइ,लत्तकेसं जिइंदिअं। इच्छिअमणोरहं तुरिश्र, पावसूतै दमीसरा! ॥ २५ ॥ अर्थ---( वासुदेवो ) वासुदेव (य) तथा घळभद्र अने समुद्रविजय विगेरे यादवो ( लुत्तकेसं ) जेणे केशनो लोच Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hi एवा तथा (जिइंदिश्रं ) जेणे इंद्रियोने जीती छे एवा ( ) ते नेमिनाथने ( भगइ ) कहेता दवा के - ( दमीसर ) मुनीश्वर ! (तं) तमे ( इच्छिणार ) वांछित मनोरथने ( तुरिअं ) शीघ्रपणे ( पात्रे ) पामो. २५. नाणेणं दंसणेणं च चरित्रेण तवेण य । खंतीष मुत्तीए, वड्ढमाणो भवाहि अ ॥ २६ ॥ एवं ते राजकेराव, पैसारा व बहुजणा। अरिदुनेमिं वंदिता, अगया बारगाउरिं ॥ २७ ॥ अर्थ-वळी हे स्वामी ( नाणें ) ज्ञानवडे, ( दंसणेणं च ) दर्शनवडे, ( चरित्रेण ) चारित्रवडे, (तत्रेय य ) सपवडे, ( खंतीए ) दामावडे, तथा (सुत्तीए) मुक्तिवडे एटले निर्लोभतावडे ( वह्नमाणो ) वृद्धि पामनारा ( मचाहि अ ) तमे था. २६. ( एवं ) ए प्रकारे कही ( ते ) ते ( रामकेसवा ) चळराम, वासुदेव ( दसारा य ) दशाहों तथा ( बहुजणा ) बीजा घणा जनो ( रिट्टनेमि ) श्री अरिष्टनेमिने ( वंदित्ता) बांदीने ( वारगाउरि ) द्वारका नगरीमा ( अइमया ) पेठा - आव्या. २७. ते वखते प्रभुना संगमनी आशा नष्ट थवाथी राजीमती केवी थह ? ते कहे थे. - सोऊण रायवरकन्ना, पैव्वज्जं सौ जिंगस्स उ । नीहासा य निरौणंदा, सोगेण उ समुच्छया ||२८|| अर्थ - ( रायबरका ) उग्रसेन राजानी श्रेष्ठ कन्या ( सा ) ते राजीमती ( जिणस्स उ ) जिनेश्वरनी (पत्रअं ) *****£****** £nK«»*** Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा ( सोऊण ) सांभळीने ( नीहासा य ) हास्य रहित तथा (निराणंदा ) आनंद रहित थइ सती ( सोगेण उ ) शोके | Mall करीने ( समुच्छया ) व्यास यइ. २८, राईमई विचितेइ, घिरत्थु मैम जीविजा देषि परिश्चधा, सेब पव्वइमम ॥ २९ ॥ अर्थ-त्यारपछी ( राईमई ) राजीमसी ( विचिंतेइ ) चिंतववा लागी, के--( मम ) मारा ( जीविनं ) जीक्तिने (घिरत्यु ) धिक्कार हो, के ( जा) जे ( है ) हुं ( तेण ) ते नेमिनाथवडे ( परिश्चत्ता ) त्याग कराइ छु. तेथी हवे ( मम)] मारे ( पन्बाउं ) प्रवज्या लेवी ते ज ( सेनं ) कल्याणकारक छे के जेथी अन्य जन्ममां पण आधु दुःख प्राप्त न थाय. तेम। जज ' सतीनो पतिने अनुसरे छ, ' ए वचन पण सत्य थाय. २६. अहीं श्री अरिष्टनेमिनो भाइ रथनेमि राजीमतीने विषे आसक्त थवाथी हमेशा तेणीने फळ, पुष्प अने अलंकार विगेरे है मोकलसो हतो. परंतु राजीमती तो पोताना मना एम समजती के-" पा रथनेमि पोताना भाइना स्नेह थी आ सर्व | मने मोकलाचे छे." एम धारी ते सर्व अंगीकार करती हती. स्यनेमि तो ते वस्तु ग्रहण करवाथी राजीमतीने पोतानी | उपर रागवाळी जमानतो हतो. "कामी जनोने कमळानी व्याधिवाळानी जेम सर्व विपरीत ज भासे छे." एकदा रथनेमिए राजीमतीने कह्यु के-" हे सुंदर नेत्रवाळी ! तुं खेद पामीश नहीं. जो कदाच राग रहित नेमीए तारो त्याग कर्यो, तेथी शुं थयुं ? परंतु हवे तुं मने पतिरूपे अंगीकार कर, अने तारुं धौवन कृतार्थ कर. मालतीने भ्रमरनी जेम हुँ तारी अत्यंत इच्छा करुं छु. " ते सांभळी राजीमती बोली-"जो के नेमिनाथे मारो त्याग कयों छे, तोपण हुँ तेनी शिष्या Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थवानी छु, तेथी पातमारी प्रार्थना नकामी छे." या प्रमाणे तेणीए निषेध कर्या छतां स्थनेमिए तेणीने विषे स्पृहानो त्याग कयों नहीं. तेथीपीपी एकदा कानमालेले सती दाजीमतीने कर्जा के-'हे मृगाक्षी ! शुष्क काठमां भमरीनी जेम तुं राग रहित नमिने विष प्रासक्त थइने शामाटे फोगट तारा अात्माने संताप पमाडे छ ! जो तुं मारो स्वीकार करे तो हुँ जन्म पर्यंत तारो दास थइने रहुं. माटे तुं मारी साथे भोग भोगा. भोग विना मनुष्यनो जन्म निष्फळ छ एम पंडितो कहे छे." प्रा प्रमाणे तेनु वचन सांभळी तेने बोध करवा राजीमतीए प्रथम दृधनुं पान करी पछी मदनफळ ( मीढोळ) सुंधीने एक थाळमा तेनुं वमन करी तेने कर्जा के-"आ ध तमे पीओ." रथनेमिए कह्यु-"शुं हुं श्वान छ ? के जेथी | वमन- पान करु ?" त्यारे हसीने राजीमतीए कह्यु-"शुं तमे एटलं समजो छो ?" ते बोल्यो-एक बाळक पण आ | बात समजी शके थे, तो हुँ केम न ममजु?" ते सांभळी राजीमती बोली के-" तो नेमिनाथे वमेली मने तमे भोगववा इच्छो छो, तेथी तमे श्वान तुल्य ज छो." या प्रमाणे तेणीनुं वचन सांभळी रथनेमि तेणीनी इच्छानो त्याग करी पोताने घर गया, अने ते सती पण उग्र तप करवा लागी. ___ आ तरफ श्रीनेमिनाथ छयस्थ अवस्थाए चोपन दिवस सुधी अन्य अन्य ग्रामादिकमा विचरी फरीथी रैवताचळ पर्वत पर आच्या, त्यां प्रभु अहम तप करी ध्यानमा मग्न थया. ते वखते तेमने केवळज्ञान प्राप्त थयु. तस्त ज आसन कंपवार्थी सर्व इंद्रो देवो सहित उत्सव करवा त्यां अान्या, देवोए मनोहर समवसरमा रच्यु. तेने विषे चार मूर्तिवाळा प्रभुए वेसी १ एक बाजु पोते ने त्रण बाजु त्रण प्रतिबिंब देवकृत होय छे. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** featmi | धर्मदेशना प्रारंभी. ते बखते उद्यानपालकना मुखथी प्रभुने ज्ञान उत्पन्न थयु जाणी बळभद्र, श्रीकृष्ण, राजीमती, दशाई । विगेरे यादयो भने वीजा सर्व मनुष्यो रैवतक पर्वत पर जइ प्रभुने चांदी यथायोग्य स्थाने बेसी धर्मदेशना सांभळवा लाग्या. | Fधर्मदेशना सांभळी प्रतियोध पामेला घणा राजाओए, अन्य जनोए अने स्वीश्रोए प्रच पासे प्रव्रज्या ग्रहण करी अने। । केटलाके श्रावकनां व्रतो अंगीकार कया. दीक्षा लीधेला मुनिश्रोमांथी वरदत्त विगेरे अढार गणधरो थया. तेमणे स्वामी * पासेथी त्रिपदी पामीने द्वादशांगीनी रचना करी. त्यारपछी स्थनेमिए पण वैराग्य पामो स्वामी पासे प्रव्रज्या लीधी, तथा * राजीमतीए पण घणी कन्याश्रो सहित दीक्षा लीधी. ते ज बात सूत्रकार पण कहे छे.* अंह सा भमरेसंनिभे, कुचफणगपलाहिए । संयमेव लुचई केसे, घिइमंता ववस्सिा ॥ ३० ॥ al अर्थ-( अह ) त्यारपछी (धिइमंता ) धैर्यवाळी अने । ववस्सिा ) चारित्रधर्म प्रत्ये उद्यमवाळी ( सा ) ते राजी मतीए ( भमरसंनिभे भ्रमर जेवा श्याम अने ( कुञ्चफणगपसाहिए ) कूर्च एटले कांचकी अने फणक एटले दांतीयावडे संस्कार करेला ( केसे ) केशोनो ( सयमेव ) पोते ज ( लुचई ) लोच कर्यो. ३०. । वासुदेवो ये णं भणइ, लुत्तकेस जिंइंदिरं । संसारसायरं घोरं, तर काँमे ! लैंडं लहुं ॥ ३१ ॥ अर्थ-( वासुदेवो ) वासुदेव (प ) तथा घळभद्र विगेरे सर्वेए ( लुत्केसं ) जेणे केशनो लोच को छ, भने * Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | (जिइंदियं ) जेणे इंद्रियो जीती छे एवी (णं ) ते राजीमतीने ( भणइ ) कयु के-( कामे ) हे कन्या ! (घोरं ) भयंकर एवा श्रा ( संसारसायरं ) संसारसागरने तुं ( लई लई) शीघ्र शीघ्र ( तर) तरी जा. ३१. | सा पवइआ संती, पव्वावेसी तेहिं बहुं । सयर्ण परिअणं चेव, सीलवंता बहुस्सुआ ॥ ३२ ॥ In अर्थ-(सीलवता ) शीळवती अने (बहुस्सुमा । घणा श्रुतज्ञानवाळी ( सा) ते राजीमतीए ( पवइश्रा संती) IRI दीक्षा ग्रहण करी संती एटले दीचा लीधा पछी ( तर्हि ) ते द्वारका नगरीमा ( बहुं ) घणी (सयणं ) स्वजननी खीओने I ( परिभणं चेव ) तथा परिजननी खीओने ( पव्वाचेसी ) दीक्षा असावी. ३२. गिरि च रेवयं अंती, बासेणोल्ला उ अंतरा। वासंते अंधयारम्मि, अंतो लयणस्स सा ठिआ ॥३३॥ ME ___ अर्थ--एकदा प्रभूने वांदवा माटे ( रेवयं ) रैवतक नामना ( गिरि च) गिरि तरफ (जंती ) जती (अंतरा), मार्गमा ( वासंते ) वरसाद बरसते सते अने ( संधयाराम्मि ) चोतरफ अंधकार थये सते ( वासण उल्ला ) वरसादबडं आई थयेली एटले भीजायेला सर्व वस्त्रवाळी (सा) ते राजीमती ( लयवस्स अंतो) एक गुफा मध्ये (ठिना) रही. अथवा | अंधकारवाळी गुफामा जइने रही. ३३. चीवराई विसारंती, जहाजाय ति पासिआ। रहनेमी भग्गचित्तो, पच्छा दिवो अ तीई वि ॥३४॥ अर्थ-ते गुफामा ( चीवराई ) वस्रोने ( विसारंती ) सुकववा माटे प्रसारती एवी राजीमती ते वखते ( जहाजाय ) Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अंधगवणिहणो) अंधकवृष्णिाना कुळमा (सि) उत्पन थयेलो छ, तेथी आपणा (कुले ) कुळमा प्रापये ( गंधणा) गंधन जातिना सर्पतुल्य ( मा होमो) न थइए. गंधन जातिना सो वमेला विषने मंत्रथी भाकर्षण कराय त्यारे भमिपाकतना भयथी पार्छ चूसी ले के परंतु भगधन जातिना सर्प तो अग्निमा प्रवेश करे के पण वमेलं विष पाछु चूसी लेता नथी. | तेथी करीने (निहुओ) व्रता स्थिर थइने तुं ( संजमं) संयमर्नु (घर) आचरण कर-सेवन कर. ४४. ई त काँहिसि भावं, जो जा दिच्छसि नारीओ। वाँयाविद्ध व हेडो, अट्रिअप्पा भविस्ससि ॥४५॥ ___ अर्थ हे साधु ! (जा जा) जे जे (नारीमो) स्त्रीमोने (दिच्छसि ) तुं जोदश भने जोइने तेने विपे (जइ) जो (त) तुं ( भावं ) अभिलाषाने ( काहिसि ) करीश, तो (वायाविद्धो) वायुथी प्रेरायेली (हडो) हड नामनी वनस्पति एटले | शेवाळनी (ब्ध ) जेम तुं (अद्विअप्पा) अस्थिर चित्तवाको ( भविस्ससि ) थइ जइश. ४५. गोवालो भंडवालो वा, जहा तेहव्वणिस्सरो । एवं अॅणिस्सरो तं पि, सामस्स भविस्ससि ॥४६॥ ___ अर्थ-( जहा ) जेम ( गोवालो ) गोवाळ-पारकी गायोने पगार लइने चारनार (वा) अथवा ( भंडवालो) पगार ! लाने कोइना करीयाणानुं रक्षण करनार ( तद्दव्वणिस्ससे ) ते द्रव्य एटले गाय अथवा करीयाणानो अनीश्वर छे-स्वामी नथी. ( एवं) ए ज प्रमाणे (तं पि ) तु पण ( सामयस्स) चारित्रनो (अणिस्सरो) अनीश्वर ( भविस्सासि ) थइश. | गोवाळ के भांडपासक जेम गायनो के भांडनो स्वामी नहीं होवाथी तेना फळने भोगवनार थतो नैथी, तेम तुं पस चारि Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनो वेषमात्र धारण करवाथी-द्रव्यधर्मनो ज पाळक होवाथी मात्र उदरपूर्तिना फळने ज भोगवनार थइश, परंतु भावधमर्नु फळ जे मोक्ष तेनो भोक्ता थइश नहीं. ४६. मा प्रमाणे राजीमतीए कहा, त्यारे स्थनेमिए शुं कयं १ ते कहे छे.तीसे सो वयंणं सोचा, संजयाइ सुभासि । अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपैडिवाइओ ॥ १७॥ __ अर्थ-( जहा ) जेम ( अंकुसेण ) कहे ( नागो दगी न लाने ले देम ( तीसे ) ते ( संजयाइ )। 1. राजीमती साध्वीनुं ( सुभासिध) सुभाषित ( वयणं ) वचन ( सोचा ) सामळीने ( सो) ते रथनेमि ( घम्मे ) धर्ममार्गमा || (संपडिवाइयो) स्थिर थयो. ४७० मेणगुत्तो वयंगुत्तो, कायगुत्तो जिइंदियो। साम निश्चलं फासे, जावजीवं दढेव्वओ ॥ १८ ॥ अर्थ-(मणगुत्तो) मनवडे गुप्त एटले मनगुप्तिवाळो, ( वयगुतो ) वचनवडे गुप्त एटले वचनगुप्तिवाळो, (कायगुत्तो) कायावडे गुप्त एटले कायगुप्तिवाळो तथा ( जिइंदिनी) जितेंद्रिय भने (दढन्वयओ) व्रतन विषे दृढ थइने (जावजीवं) जीवित र पर्यत (निश्चलं ) निश्चळ एवा (साममं) चारित्रने (फासे ) पाळवा लाग्यो. ४८. . . उग्गं तवं चरित्ताणं, जोया दु िवि केवली । सव्वं कम्म खेवित्ता णं, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ॥४९॥ || . अर्थ--( उग्गं) उग्र ( तवं ) सप ( चरितार्थ ) करीने ( दणि वि) राजीमती अने रथनेमि ए चने (केवली) | केवळज्ञानी (भाया ) थया अने अनुक्रमे ( सव्वं ) सर्व (कम्मं ) कमैने (खवित्ता णं) खपावीने (अणुत्तर) सरों Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम एवा (सिद्धि ) सिद्धिस्थानने ( पत्ता ) पाम्या. ४६. एवं केरिति संबुद्धा, पंडिआ पॅविअक्खणा । विणिचति भोगेसु, जहा से पुरिसुँत्तमुर्त्ति' बेमि ॥५०॥ अर्थ - (संबुद्धा) सम्यक् प्रकारे बोधवाळा, (पंडिया ) तत्त्वबुद्धिवाळा अने ( पविश्वखखा ) विवेकी एवा पुरुषो ( एवं ) प्रमाणे ( करिति ) करे छे, तथा ( से ) ते (पुरिमुत्तमो ) पुरुषोमां उत्तम एवा रथनेमिनी (जहा) जेम (भोगेसु) भोग थकी (विशति ) पाछा करे छे. ( ति बेमि ) ए प्रमाये हुं हुं हुं, एम सुधर्मास्वामीए जंबुस्वामीने कर्छु. ५० भगवान नेमिनाथ पण पृथ्वीसळपर विहार करता सवा जेम कमळोने सूर्य विकस्वर करे तेम भव्य प्राणीधोने प्रतिबोध करता हता. ते दश धनुष उंचा हता, तेने शंखनुं चिन्ह (लंकन) हतुं, मेघ जेवा श्याम हता, दश प्रकारना धर्मनी उपदेश आपी दश दिशाभने पवित्र करता हता. तेना परिवारमा अढार हजार साधु, चाळीश हजार साध्वीश्रो, एक लाख ने गोतेर हजार श्रावको तथा त्रय लाख छत्रीश हजार श्राविकाओ हवी. ते प्रभु केवळ ज्ञान थया पछी चोपन दिवस ओछा एवा सातसो वर्ष सुधी पृथ्वीपर विचर्या. शेवट उज्जयंत गिरि उपर पांचसो छत्रीश साधुम्रो सहित अनशन ग्रहण क. कुल एक हजार वर्ष आयुष्य पूर्ण करी ते साधुयो सहित एक मासे अरिष्टनेमि प्रभु निर्वाणपदने पाया. ते वखते समग्र परिवार सहित देवेंद्रो भात्री तेमनो निर्वाण उत्सव कर्यो. इति श्री श्ररिष्टनेमिजिन चरितम्. ॥ इति द्वाविशमध्ययनम् ।। २२. **«-•**@}+--***• •£@ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अथ केशिगौतमीय नामनुं त्रेवीशमुं अध्ययन. २३ ____ कोइक प्रकारे चारित्रनी शिथिळता थाय तो रथनेमिनी जेम धर्ममा ज धृति करची, एम वावीशमा अध्ययनमा क[. हचे बीजाना मननी शंका पण केशी अने गौतमनी जेम दूर करवी एम श्रा अध्ययनमा कहेवाशे. ते विषतुं प्रा प्रथम सूत्र के.जिणे पासि त्ति नामेणं, अरहा लोगपूइए । संबुद्धप्पा य सव्वण्णू, धम्मतित्थयरे जिणे ॥१॥ अर्थ-( जिणे ) सतदेखने जीतनार (पासि नि) पार्थ एका (नामेणं ) नामना ( अरहा ) पूजाने लायक तीर्थंकर, एज कारण माटे ( लोगहए ) लोकोए पूजेला तथा ( संबुद्धप्या य ) तत्वना ज्ञानवाळा, तथा ( सव्वण्णू ) सर्वज्ञ, तथा ( धम्मतित्थयरे ) धर्मतीर्थने करनारा तथा । जिणे) सर्व कर्मने जीतनारा हता. १. अही प्रसंगे प्राप्त थयेटु श्रीपाश्रुनाथर्नु संक्षिप्त चरित्र कहे छे. आज भरतक्षेत्रमा पोतनपुर नामर्नु नगर छे. तेमा अरविंद नामे राजा हतो. तेने सकल शाखनो पारगामी अने, जिनधर्ममा तत्पर विश्वभूति नामे पुरोहित हतो, तेने अनुन्द्वरा नामनी मार्या इती. ते पुरोहितने कमठ अने मरूभूति | नामना ये पुत्रो हता. ते नभेने अनुक्रमे वरुणा अने वसुंधरा नामनी भाभो हती. एकदा विश्वभूति पुरोहित बने पुत्रो उपर घरनो भार स्थापन करी अनशन ग्रहण करी स्वर्गे गयो. तेनी भार्या अनुद्धरा पण पतिना वियोगथी शोक अने तपबडे शरीरतुं शोषण करी मृत्यु पामी. बझे भाइभोए मातापितानी उत्तरक्रिया करी. पछी राजाए मोटा पुत्र कमठने पुरोहित Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदे स्थापन कर्यो मरुभूति व्रत लेवानी इच्छाथी विषयोधी विमुख यह अत्यंत धर्मकर्ममां तत्पर थयो. " एकदा नवा यौवनवाळी अने मनोहर आकृतिवाळी नानाभानी प्रिया वसुंधराने जोड़ कमठ तेखीनापर भासक्त थयो. तेथी स्वभावथी ज परस्त्रीमा लंपट एवो ते कमठ कामदेवरूपी युचना दोहद समान मधुर वचनोवडे तेणीनी साधे arat करा लाग्यो. एकदा ते तेणीने कधुं के - " हे मुग्धा ! भोग विना फोगट या युवावस्थाने केम गुमावे छे ! जो मारो नानो भाइ सच्च रहित होवाथी तने सेवतो नथी, तो हे मनोहर ! मारी साथे क्रीडा कर. एम कही पोताना उत्संगमां तेणीने आदरपूर्वक बेसाडी, एटले प्रथमथी ज मोगने इच्छती वसुंधरा तेनुं वचन अंगीकार कर्यु. पछी ते बजे विवेक, मर्यादा अञ्जानो त्याग करी एकांतमां पशुक्रिया सेवना लाग्या. केटलेक काळे कमठनी स्त्री वरुणाए तेमनो आ अनाचार जाणी इर्ष्याने लीचे ते सर्व वृत्तांत मरुभूतिने कह्यो. ते सांभळी " श्रसंभावित वातने प्रत्यक्ष जोया बिना सत्य केम मानवी ? " एम मनमां विचार करतो मरुभूति कमठ पासे जह बोल्यो के-" हे भाइ ! हुं कांह कार्यने माटे परगाम जाउं छं. " एम कही गाम बहार जड़ भिक्षुकनो वेष लद्द रात्रि घेर यावी स्वर फेरवीने कमठने क के -" हुं दूर देशी छु, मने रात्रिदासो रहेवा माटे कांइक स्थान आपो. " ते सांभळी परमार्थने नहीं जाता कमठे तेने पोताना घरनी पासेना एक ओरडामा रहेवानुं कथं, एटले ते बन्ने कामांधनी दुष्ट चेष्टा जोवानी इच्छाथी ते तेमां खोटी निद्राए सुतो. पछी " मरुभूति बहारगाम गयो छे एम धारी वसुंधरा ने कमठ निःशंकपणे क्रीडा करवा लाग्या. ते मरुभूतिए साक्षात् जोयुं. भावो तेमनो दुराचार जोवाने असमर्थ छतां लोकापवादथी भय पामतो मरुभूति तेनो प्रतिकार "2 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्या विना शीघ्रपणे त्यांची नीकळी गयो. पछी काइक विचार करी मरुभूतिए ते सर्व धृत्तांत अरविंद राजा पासे जाने करो. राजाए पण क्रोध पाभी कमठने नगर पहार काही भूकवा माटे आरचकोने हुकम कर्यो. एटले आरक्षकाए तेने गधेडापर बेसाडी चोतरफ फेरवी विडंबनापूर्वक नगरमाथी काढी मुक्यो. तेत्री विडंबनाथी वैराग्य पामी बनमा बह ते कमठ तापसत्रत ग्रहण करी उग्र याळतप करवा लाग्यो. श्रा वृत्तांत जाणी पश्चात्ताप पामेला मरुभूतिए विचार कर्यो के"मने धिक्कार छ के में राजानी पासे धरनुं छिद्र उघाई की मांटाभाइने विडंबना पमाडी. 'घरनुं दुश्चरित्र प्रगट करवू नहीं.' ए नीतिनुं वचन पण क्रोधथी भंध धयेला मने स्मरणमा रह्यु नहीं, तो हजु पण मोटाभाइ पासे जइ मा मारा अपराधने हुँ खमा." एम चिचारी बनमा जइ ते भोटाभाइना पगमा पज्यो. ते वसते ते दुष्ट बुद्धिवाळा भने दुष्कर्ममा ज तत्पर एचा कमठे विचायु के-आण जे मारी विडंबना करी छे ते मने मृत्यु करतां पण अधिक दुःखकारक छे." एम विचारी महाक्रोधथी एक मोटी शिला उपाडी नानामाइना मस्तकपर मारी, तेथी तत्काळ ते मरुभूति मरण पामी आर्तध्यानने लीधे विंध्याचळनी अटवीमा यूथनो स्वामी हाथी थयो.. एकदा अरविंद राजा पोतानी प्रियाओ साथै शरदऋतुमा अगाशीने विषे कीडा करतो हतो. ते वखते आकाशा बादको चडी आल्या. ते साथे इंद्रधनुष, गर्जना पने वीजळीना चमकारा पण थवा लान्या. ते सर्व जोइ " अहो ! श्रा अतीव रमणीय छे." एम राजाए तेनी प्रशंसा करी. थोडीवारमा ते वादळा सर्व प्राकाशमां व्यापी गयां अने पाछा तरत ज वायुना झपाटाथी वीखराइ गया. ते जोह राजाए विचायु के-“जेम आ वादळां क्षणवारमा देखाइने वीस्वरराइ akti Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * il गया-नाश पाम्या, ते ज रीते आ जगसना सर्व पदार्थो विनश्चर छ, तेमा प्रीति करवी फोगट छे." मा प्रमाणे विचारता ! ज राजाने अवधिज्ञान प्राप्त थयु. तरत ज सेणे पोताना राज्यपर पोताना पुत्रने स्थापन करी सद्गुरुनी पासे चारित्र | अंगीकार कयु. अनुक्रमे ते राजर्षि श्रुतना पारगामी थइ विहार करता एकदा सागरदत्त नामना सार्थवाहनी साथे अष्टापद पर्वत तरफ चाल्या. तेमने नमस्कार करी मार्थवाहे पूछधु के-" हे प्रभु ! आपने क्या जवू के ?" राजर्षि बोल्या के–“ अमारे तीर्थयात्रा करवा जव॑ छे. " फरीथी सार्थवाहे पूछथु के–“आपनो कयो धर्म छे ? " त्यारे मुनिए तेने विचार सदिय जैमः कसोते शांभी सार्थवाहे श्रावकधर्म अंगीकार को. अनुक्रमे चालतो ते साथे ज्या मरुभूति हाथी रहेतो हतो ते अटवीमां पहोच्यो अने त्यां भोजननो अवसर थवाथी एक सरोवरने कांठे पड़ाव नांख्यो. तेवामा ते मरुभूति हाथी पोतानी घणी हाथणीयो सहित ते तळावमां पाणी पीचा आव्यो. त्या पाणी पी हाथणीओ साथे || क्रीडा करी तळाक्नी पाळपर चड्यो. त्यांची चारे दिशा तरफ दृष्टि नोखता तेणे ते सार्थ जोयो. तरत ज क्रोधथी | | यमराजनी जेम ते हाथी सार्थने हवा तेनी तरफ दोड्यो, तेने पात्रतो जोइ भय पामेलो सार्थ तत्काळ नाठो. ते वखते । | राजर्षिए अवधिज्ञानथी तेने बोध करवा लायक जाणी तेना आववाना मार्गमा ज पर्वतनी जेम स्थिर उभा रही कायोत्सगे * | कर्यो. ते हाथी पण दोडतो तेनी पासे भान्यो, पण मुनिने जोइ शांत थह गयो अने तेमनी पासे उभो रधो. ते बखते राजर्षिए कायोत्सर्ग पारी तेनो उपकार करवा माटे को के-“हे हाथी ! तारा मरुभूतिना भवने केम संभारतो नथी ? हे बुद्धिमान् । | मने-अरविंद राजाने शुं तुं ओळखतो नथी ? अने पूर्व भवमा अंगीकार करेला श्रावकधर्मने शुं तु भूली गयो ?" मा *-**- -*-* Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणे सुनिनुं वचन सांभळी ते हाथीने जातिस्मरण ज्ञान थयुं, तेधी तेथे पोतानी सुंट उंची करी मस्तक पृथ्वी पर नमावी gita नमस्कार कर्या. पछी सुनिए कहेला श्रावक धर्मने अंगीकार करी शांत थयेलो हाथी पोताने स्थाने गयो. या अति अद्भुत देखाव जोइ प्रथम नासी गयेला सार्थजनोपाळा यावी, सनिने नमी श्रावकधर्म पाम्या ने सार्थपति प जिनधर्ममा अति थयो पछी अष्टापद तीर्थे जह देवोने वांदी राजर्षिए अन्यत्र विहार कर्यो. ते हाथी पण मुनिनी जेम समितिपूर्वक चालतो, षष्ठादिक तप करतो, सुकां पदिst विगेरेथी पारशुं करतो, सूर्यना किरणोधी तपेलं सरोवरनुं पाणी पीत अने हाथणीश्रो साथै क्रीडानो त्याग करी शुभ भावना भावतो रहेवा लाग्यो. कम तापस पोताना भाइने हणीने शांत थयो नहीं. तेथी भार्तध्यानथी मरण पामी विंध्याचळनी अटवीमां ज कुक्कुट जावनो उत्कट सर्प थयो. एकदा वनमां भ्रमतां तेणे मरुभूति हाथीने सूर्यना तापथी तपेलुं जळ पीवा माटे सरोवरमां प्रवेश करतो जोयो. ते बखते ते हाथी दैवयोगे तेना पंकमा खुंची गयो, तेथी ते जरा पथ आगळ पाछळ चाली शक्यो नहीं. ते जोइ ते सर्वे उडी तेना कुंभस्थळ उपर डंश कर्यो, तेना विषनो आवेश थवाथी पोतानो अंतसमय जाखी ते हाथीए तत्काळ अनशन ग्रहण क ने ते वेदनाने सहन करतो तथा पंचनमस्कारनुं ध्यान करतो मरण पामी सत्तर सागरोपमना जघन्य युवाको सहस्रार नामना आठमा देवलोकमां देव थयो, अनुक्रमे कुकुट नाग पण मरीने पांचमी नरकमां सतर सागरोपमना उत्कृष्ट आयुष्यवाको नारकी थयो. आज जंबूद्वीपमा पूर्वमहाविदेह क्षेत्रमां सुकच्छ नामना विजयमां वैतादथ पर्वत उपर तिलकः नामनी नगरी छे. तेमां Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | विद्युद्गति नामनो विद्याधर राजा हतो. तेने कनकनी जेबी कातिवाळी कनकतिलका नामनी राणी इती. एकदा ते | मरुभूति हाथीनो जीव आठमा स्वर्गमाथी चवी तेमनो पुत्र थयो. तेनुं नाम किरणवेग पाडणूं, अनुक्रमे वृद्धि पामतो ते । कुमार समग्र कळाओमां निपुण थइ यौवनवयने पाम्यो. एकदा तेना पिताए तेने राज्यपर स्थापन करी दीक्षा ग्रहण करी, एटले ते किरणवेग राजा न्यायथी राज्यनुं प्रतिषालन करवा लाग्यो. एकदा सुरगुरु नामना गुरुना मुखथी धर्मदेशना सांभळी किरणवेग राजाए प्रवज्या ग्रहण करी. अनुक्रमे गीतार्थ थइ एकाकी बिहारनो अभिग्रह धारण करी ते मुनि आकाशमार्गे पुष्करार्थ द्वीपमां गया. त्यां कनकगिरि नामना पर्वतनी पासे कायोत्सर्गे रह्या. भहीं कुक्कुट सर्पनो जीव नरकमांथी नीकळी ते ज कनकगिरि पर्वतना वनमा प्रतिविषवाळो सर्प थयो. तेणे पर्वतनी पासे ममतां ध्यानमा रहेला ते मुनिने जोया. तेथी पूर्वभवना वेरथी क्रोध पामी ते मुनिना सर्व अंगोपर डंख मार्या. ते वखते | ते किरणवेग मुनिए अनशन ग्रहण करी विचार्यु के--" आ सर्प मारा असावावेदनी कर्मनो क्षय करावनार होवाथी मारो मित्ररूप छे." इत्यादि शुभ भावना भावी काळधर्म पामी बारमा अच्युत देवलोकना जंबूद्रुमावर्त नामना विमानमा बावीश सागरोपमना आयुष्यवाळा श्रेष्ठ देव थया. पेलो सर्प पण ते पर्वत पासे भमतो हतो, तेवामा दावानळ लागवाथी तेमा चळी जइ मरण पामी फरीथी पांचमी नरकमा उत्कृष्ट स्थितिवाको नारकी थयो. माज जंबूद्वीपना पश्चिम महाविदेहक्षेत्रने विषे सुगंधि नामनी विजयमा शुभंकरा नामनी नगरी छे. तेमां महापराक्रमी वज्रवीर्य नामे राजा हतो, वेने जाणे चीजी लक्ष्मी ज होय देवी लक्ष्मीवती नामनी प्रिया हती. एकदा किरणवेग मुनिनो Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रास जी स्वर्गथी चवी वज्रनाभ नामे तेमवो कुत्र थोक दिएदो के कुमार सर्व कळायाने ग्रहण करी पवित्र यौवनयने पाम्यो. त्यारे तेने राज्य सोपी वज्रवीर्ये दीक्षा ग्रहण करी. पछी वज्रनाभ राजाए चिरकाळ सुधी राज्यनुं पालन कर्यु. एकदा वैराग्य पामी चक्रायुध नामना पुत्रने राज्यपर स्थापन करी बज्रनाभे क्षेमंकर नामना तीर्थकर पाते दीचा ग्रहण करी, अनुक्रमे तीव्र तपस्या करता अने परीषहोने सहन करता ते मुनि श्राकाशगमनादिक अनेक लब्धि पाया. गुरुनी आज्ञाथी एकाकी बिहार करता से मुनि एकदा श्राकाशमार्गे सुकच्छ्र नामना विजयमां गया. त्यां विहारना क्रमधी एकदा भयंकर अरण्यमां रहेला ज्वलनाद्रि नामना पर्वतपर गया. तेटलामां सूर्य अस्त पाम्बो. तेथी ते पर्वतनी कोह गुफाको रह्या. प्रातःकाळे सूर्योदय थयो त्यारे इर्यासमिति पूर्वक बिहार करवा लाग्या. आवा अवसरे ते सर्पनो जीव नरकमांथी उधरी भवमां अटन करी ते ज गिरिनी पासे कुरंगक नामे भिन्न थयो. ते एकदा मृगयाने माटे नीकळ्यो, तेवामां ते ज सुनिने तेथे प्रथम जोया. तेथी 'मा अपशुकन थया' एम धारी पूर्वभवना वेरने लीघे तेथे ते मुनिने तीच्या बाय मा. तरत ज ते महामुनि ' नमोऽईद्रथः ' एम बोलता बाणना प्रहारथी पीडा पानी पृथ्वीपर बेसी गया भने तत्काळ अनशन ग्रहण कर्यु.पी सर्व जीवाने खमावी शुभध्यानथी काळधर्म पामी ते मुनि मध्यम ग्रैवेयकमा ललितांग नामे देव धया. अहीं एक ज प्रहारथी मरण पामेला मुनिने जो कुरंगक भिन्न पोताने महाबळवान मानी आनंद पाम्यो अन्यदा ते भिल्ल पण मरण पामी सातमी नरकमां रौरव नामना नरकावासमा नारकी थयो. आज जंबूद्वीपना पूर्व महाविदेद्दने विषे पुराणपुर नामनुं नगर छे. तेमां कुलिशवाहु नामे राजा हतो. तेने Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदर्शना नामनी प्रिया इती. एकदा वजनाभनो जीव अवेयकी चवी चौद महा स्वप्नोथी सूचित तेमनो पुत्र थयो- तेर्नु नाम सुवर्णयाहु पाड्यु. ते अनुक्रमे वृद्धि पामी पूर्वभवना अभ्यासथी समग्र कळायो ग्रहण करी युवावस्थाने पाम्यो. त्यारे राजाए तेने राज्यपर स्थापन करी पोते दीक्षा ग्रहण करी. पछी सुवर्णबाहु राजा दया सहित पृथ्वीन रचण करवा लाग्यो. एकदा राजा अश्वकीडा करवा नगर बहार गयो. त्यां विपरीत शिक्षाचाळो भश्व तेने हरण करी दर वनमा लइ गयो. त्यां एक सरोवर जोइ तृपातुर थयेलो अश्व पोवानी मेळे ज उभो रखो. एटले राजाए अश्वपरर्थी उतरी ते प्रश्चने || नवरावी पाणी पाइ पोते पण स्नान करी जळपान कयु. पछी ते सरोवरने कोठे पणवार विश्राम लइ आगळ चालतां राजाए एक तपोवन जोयुं. तेमा प्रवेश करता राजानुं जमणु नेत्र फरक्यु, त्यारे तेणे विचार्य के-"अहीं मने काइक लाम थवो जोइए." एम बिचारी आगळ चालतां राजाए त्यां पृचोने पाणी पाती एक मनोहर मुनिकन्याने तेनी सखी | माथे जोइ. तेधी वृक्षने अांतरे उभो रही तेणीने एकदृष्टिए जोतो राजा विचार करया लाग्यो के-“श्रा कन्याने या विधाताए पोताना सर्व प्रयत्नथी रची जणाय छे. या कन्या विकारोनो तो उपाध्याय छे, अप्सराप्रोमा पण भावु रूप नथी, परंतु आतुं आ रूप क्या ? अने आईं नीच जातिने उचित कर्म क्या ?" ए प्रमाणे राजा विचार करतो हतो, तेवामां वेणीना श्वासना सुगंधमां मोह पामेलो कोइ भ्रमर तेणीनी पासे फरवा लाग्यो. ते वखते तेणीए भय पामी सखीने कधु के-हे सखी! आ भ्रमरधी मासे रक्षण कर, रक्षण कर." ते सांभळी सखीए हास्यथी ऋयु के-" सुवर्णबाहु विना कोण तारुं रक्षण करवा समर्थ छ ?" ते सांभळी अवसर जोइ " सुवर्णबाहु पृथ्वीनुं रक्षण करते सते तुमने कोण २८ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 उपद्रव करे छ ?" एम बोलतो राजा तत्काळ प्रगट थयो. तेने अकसात् भावेलो जोइ ते बने स्त्रीमो सणवार तो क्षोभ पामी. पछी धीरजने धारण करी सखी बोली के-" सुवर्षक: रक्षण करते सते स.ससे उसमय करना कोई पण समर्थ - नथी. परंतु प्रा मारी मुग्धा सखी पोतानी पासे आवता भ्रमरने जोइ भय पामीने 'मारुं रक्षण कर, रक्षण कर.' एम | चोली छे. हे महापुरुष ! कामदेवना जेवा रूपवाळा तमे कोण छो? ते कहो. " ते सांभळी राजाए पोते ज पोतानी ओळखाण आपची अयोग्य धारी कयु के-" हुं सुवर्णबाहुनो वशयी सेवक छु, अने राजानी आज्ञाधी पाश्रमनो उपद्रव * दूर करवा आव्यो छु. परंतु हे भद्रे ! आ कमळना सरखा नेत्रवाळी कन्या अनुचित काम करवावडे क्लेश केम पामे छे ?" त्यारे सखीए कयु के-"पा रत्नपुरना राना विद्याधरेंद्रनी प्रिया रत्नावळीनी कुत्तिथी उत्पन्न थयेली पद्मा | | नामनी कन्या छे. या कन्यानो जन्म थयो, ते ज वखते तेना पिता मरण पाम्या, त्यारे तेना पुत्रो राज्यने माटे परस्पर युद्ध करवा लाग्या. ते बखते रत्नावळी राणी श्रा बाळाने लइ नहीं पोताना भाह गालब नामना कुळपतिनी पासे प्राचीने | रही छे. तेथी तापसोए लालन पालन कराती आ कन्या नहीं ज वृद्धि पामीने अनुक्रमे युवावस्थाने पामी छे. अहीं मुनिकन्याओना सहवासथी ते आयुज कर्म करतां शीखेली छे. एकदा कोइ ज्ञानी साधु महाराज अहीं आया हता. तेने कुळपतिए 'आ कन्यानो वर कोण थशे ? ' एम पूछयुं त्यारे साधुए कह्यु के-" सुवर्णवाहु नामना चक्रवर्ती भश्वर्थी हरण कराइने जाते ज नहीं भावी मा कन्याने परखशे." आ प्रमाणे नी हकीकत सांभळी सुवर्णबाहु राजाए हर्ष पामी विचायु के-"श्रा अश्वे मारा उपर उपकार कर्यो, के Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेथी नहीं लावी पानी मने संगम कराव्यो." पछी राजाए तेणीने पूछथु के–“हे भद्रे ! कुळपति क्या ? तेमने जोवा ।। माटे हुं अत्यंत उत्सुक छु." सखीए का के-"अहीं आवेला साधुण भाजे अहींथी विहार को छे, तेमनी साथे गया छे, थंटेक दूर सुधी जइ तेने चांदी हमणां पाछा आवशे." आम बात चाले छे एटलामां अश्वना पगलाने अनुसरी || राजानुं सैन्य प्राश्रम पासे अस्वी पहोंच्युं. ते जोइ ते बने कन्याओए 'श्रा सुवर्णबाहु राजा पोते ज छ' एम जाणी लीधु. कपतिना प्रावतां सुपी श्रापमानी शी अवस्था थशे?' एम शंका करती. सखी तेणीने महाकष्टथी पाश्रममा || | लइ गइ, पछी ते नंदा नामनी तेनी सखीए आश्रममा आवेला गालबमुनिने तथा रत्नावळीने भानंदथी सुवर्णबाहु राजानी सर्व बात कही बतावी. ते सांभळी हर्ष पामेला गालबमुनि रत्नावळी, पद्मा अने नंदा सहित राजानी पास आव्या. राजाए पण मुनिनुं बहुमान कर्यु. पछी मुनिए राजाने कह्यु के–“हे राजा ! ज्ञानीए आ पद्माना पति तमने कह्या छे, तेथी आ मारी भाणेजने तमे परणो. " ते सांभळी अत्यंत हर्ष पामेला राजाए गांधर्वविधिथी तेणीनुं | पाणिग्रहण कयु. ते वखते त्यां विमानोवडे आकाशने पाच्छादन करतो पद्मोत्तर नामनो विद्याधर राजा के जे पमानो सापत्न भाइ थतो हतो, ते आव्यो, रत्नावळीना कहेबाथी तेणे सुवर्णवाहु जाने नमस्कार करी कह्यु के-" हे देव ! तमारो वृत्तांत सांभळीने हुँ तमारी सेवा करवा श्राव्यो छु, हे स्वामी ! तमे जाते पधारीने वेताहय पर्वतपर रहेला मारा रत्नपुर नगरने पवित्र करो. " आई तेनुं वचन अंगीकार करी रत्नावळी अने कुछपतिनी रजा लइ राजा परिवार सहित तेना - ---- Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानमा बेठो. ते वखते पत्मा पण मामानी तथा मातानी रजा लइ पतिनी पाछळ चाली. पछी पद्मोत्तर पद्मा सहित ते राजाने तत्काळ ऐसा पर्वतपर पोलान नमरमा ला गया. त्या दिव्य रत्नना प्रासादमा ते सुवर्णबाहु राजाने उतारो आपीने सेवकनी जेम स्नान भोजनादिकवडे तेनो योग्य सत्कार का पिछी सुवर्णबाहुए त्यां रही पोताना पुण्यप्रभावी यन्ने श्रणिसाम्राज्य प्राप्त कयु अने घी विद्याधर कन्याोर्नु पाणिग्रहण कयु. पछी पद्मा विगेरे प्रियामो सहित ते राजा पोताना नगरमा आव्यो. त्या अनुक्रमे चक्रादिक रत्नो उत्पन्न थयो, तेनाथी छ खंड साधी सुवर्णबाहु राजा चक्रवती | थया मने छ खंडनुं चिरकाळ राज्य कर्यु. | एकदा सुवर्णबाहु राजा पोतानी प्रियाभो सहित प्रासादनी उपर क्रीडा करता हता, ते वखते आकाशमां देवोने जता | | श्रावता जोइ राजा विस्मय याम्या. माणसोने पूछवाथी जगन्नाथ तीर्थकरन आगमन सांभळी चक्रीए त्या जइ जिनेश्वरने || बांदी तेमना मुखी मोइनो नाश करनारी देशना सांभळी. पछी चक्रवर्ती पोताने स्थाने याव्या अने धर्मचक्री पण भव्य | प्राणीने प्रबोध करता पृथ्वीपर विचरवा लाग्या. एकदा जिनेश्वरनी पासे पावेला देवीने संभारता चक्रवतीने विचार थयो के-"श्रावा देवो में पूर्वे क्याइ पण जोया छ." मा प्रमाणे उहापोह करता तेमने जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयुं अने तेणे पोताना पूर्वभवो जोया. तेथी मोक्षरूपी वृक्षना वीज समान वैराग्य तेमने प्राप्त थयो. एटले दीक्षा लेबानी इच्छाथी राज्यपर स्थापन कर्यो, तेवामां तेज जगनाथ तीर्थकर बिहार करता करता त्यां ज पधार्या तेमनी | पासे सुवर्णबाडु चक्रीए दीक्षा ग्रहण करी. ते अनुक्रमे गीतार्थ थइ दुस्तप तप करया लाग्या. तेमां जिनसेवा भादिक Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकोना परवडे तगए सीकर लाकर्म उपार्ज का. एकदा विहारना क्रमे क्षीरपन नामनी अटवीमां क्षीरमहागिरि नामना पर्वतपर चड़ी सूर्यनी सन्मुख दृष्टि राखी तेयो कायोत्सर्गे रह्या. ते अवसरे कुरंगकनो जीव नरकमाथी मीकळी ते ज वनमा सिंह थयो हतो, ते दैवयोगे भमतो भमतो त्या आची चडयो. अने ते मुनींद्रने जोह पूर्वना बैरने लीधे तेनापर | अत्यंत क्रोध पामी ते राक्षसनी जेम तेमना तरफ दोड्यो. ते सिंहने आवतो जोइ मुनीश्वरे तत्काळ अनशन ग्रहण कयु. जातेवामां ते सिंह मोटी फाळ मारी मुनिना शरीरपर पडयो, एटले ते मुनि काळधर्म पामी दशमा देवलोकमां महाप्रभ नामना विमानने विष वीश सागरोपमना आयुष्यबाळा देव थया. ते सिंह पण मरीने चोधी नरकमा नारकीपणे उत्पन थयो. त्या दश सागरोपम सुधी विविध प्रकारनी वेदनाओने | अनुभवी त्यांची नीकली चिरकाल सुधी तिर्यचनी योनिमां भ्रमण करी ते सिंहनो जीव कोइक गाममां ब्रामणनो पुत्र थयो. | तेनो जन्म थया पछी तरत ज तेना मातापिता विगेरे सर्व मरण पाम्या. तेने कठ नामे बोलावी लोकोए दयाथी सेने उछेरी मोटो कर्यो. ते अत्यंत दरिद्री युवावस्थाने पाम्यो, त्यारे माणसोनी निंदाने सांभळतो ते महा कष्टधी भोजन पण पामवा लाग्यो. एकदा दानभोगादिक करता धनिकोने जोइ तेने विचार थयो के-" मा लोकोए पूर्वजन्ममां दुष्कर तप कर्यो हशे, कारण के बीज विना अन्नप्राप्ति न थाय तेम तप विना लक्ष्मी प्राप्त थाय नहीं. तेथी हुँ पण तप करूं." एम विचारी वैराग्य | पामेला कठे वापसनी दीक्षा ग्रहण करी अने कंदादिकनुं भोजन करी ते पंचाग्नि आदिक अज्ञानकष्ट करवा लाग्यो. भा ज भरतक्षेत्रमा वाराणसी नामनी नगरी छे. ते नित्यसखीनी जेम पासे रहेली गंगानदीय सेवाय छे. अलका Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरीनी जेवी ते नगरीनी चौतरफ जाणे चैत्ररथ नामर्नु वन प्राचीने रघु होय तेम मनोहर उद्यान रहेलुं छे. ते नगरीना या किल्लाने विशाक अने मोटा माणिक्यरत्नना कांगरामो छे, ते जाणे दिशारूपी लक्ष्मीना प्रयास बिनाना नित्यना आदर्श ।। - होय तेवा शोभे छे. ते नगरीमा रहेला त्योना शिखरो उपर रहेला सुवर्थना कळशोने अतिधिनी जम आचेला जाणी मूर्य पोताना किरणोबडे पूजे छे. ते नगरीमा धनिकना मनोहर महेलो जाणे पुण्यना उदयी पामया लायक देवोना विमानो होय तेवा शोभे छे, देवताओ भोजनने माटे ज्यारे मागे छे न्यारे ज सुधा ( अमृत ) ने पामे छ, परंतु या नगरीना सर्व गृहो तो प्राये करीने सुधा ( चूना थी लीपायेला ज छे ए आश्चर्य छे. ते नगरीमा दुकानानी श्रेणि अगणित करीयाखाना समूहबडे सांकडी छतो पण कुत्रिकापमानी श्रेणिनी जेम विशाळ होय तेम शोभे छे. विश्वने उल्लंघन करे तेत्री ते नगरानी लक्ष्मी जोइने परितो मानता हता के-" रोहणाचळ पर्वत उपर हवे मात्र यथर ज रहा हशे अने समुद्रमा केवळ जळ ज रघु हशे." ते नगरीमा कार्तिकस्वामीनी जेवा पराक्रमवाळा अश्वसेन नामे राजा हता, ते जाणे के इंद्रे आवीने पृथ्वीपर वाम कयों होय तेम शोभता हता. ते राजाने वामा नामनी राणी इती. ते गुणना समूहवडे सुंदर, शीलादिक गुणवडे शोमती अने अश्वसेन राजाने तेना प्राण करतां पण अधिक प्रिय हती. एकदा सुवर्णबाहुनो जीव त्रण ज्ञान सहित प्राथत नामना दशमा देवलोकी चची वामादेवीनी कुक्षीमा भक्तों . ते वखते सुखे सुतेली ते मनोहर मुखबाळीए हस्ती विगेरे चौद महा! स्वमोने पोताना मुखमा प्रवेश करता जोया. पछी तत्काळ जागेली नेणीने अनुक्रमे इंद्रे, राजाए अने पछी ज्योतिषीमोए Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **1******++193+%७*****103 ते स्वमनुं फळ कांके - " हे देवी! या महा स्वप्रोथी तमारो पुत्र जगत्पति थशे. " ते सांभळी हर्ष पामेली बामादेवीए सुखे गर्भ धारण कर्यो, अने काळ संपूर्ण थये श्याम कांतिवाळा तथा सर्वना चिन्हवाळा मनोहर पुत्रने जन्म आयो, ते बखते श्रासनकंपथी प्रभुनो जन्म जाणीने छप्पन दिक्कुमारीओए आवी सूतिकर्म कर्यु, अने शक्र इंद्र विगेरे सर्व इंद्रोए ज्ञानी प्रो जन्म जाणी मेरुपर्वतपर लड़ जड़ प्रभुनो जन्मोत्सव कर्यो पछी जाये श्रमृतनुं पान कर्यु होय तेम आनंद पामेला अश्वसेन राजाए कारागृहमांथी केहीने मुक्त करी पुत्रजन्मनो महोत्सव कर्यो. प्रभु गर्भमां हता त्यारे तेनी माता अंधारी रात्रिमां पण पोतानी पासे थइने जता सर्पने जोइ तत्काळ ते वात पतिने कही हती, तेनुं स्मरण करी अश्वसेन राजा ने पुत्रनुं पार्श्व नाम पाडधुं. इंद्रे आदेश करेली पांच धात्रीभोथी पालन कराता प्रभु बाळकनुं रूप धारण करीने वेला देवोनी साथे क्रीडा करवा लाग्या. इंद्रे अंगुठामा मूकेला अमृतनुं पान करता प्रभु अनुक्रमे वृद्धि पामी यौवनयने पाम्या. ते वखते प्रभुनुं शरीर नव हाथनुं थयुं. - अकदा अश्वसेन राजा सभाम बेठा हता, ते वखते द्वारपाळनी रजाथी कोइ पुरुषे सभामां आवी राजाने कछु केस्वामी ! या भरत क्षेत्रमां कुशस्थळ नामनुं नगर छे. तेमां प्रसेनजित् नामे राजा में तेने प्रभावती नामनी युवावस्थाने पामेली मनोहर पुत्री छे. खरेखर विधातार आखा जगतनो सार लहने ज तेने बनावी लागे छे. कारण के चंद्र तेना मुखना दासपणाने पामे थे, मृग तेथीना नेत्रोनो दास के, मयूर तेना केशपाशनो दास के अने अमृतरस तेना वाक्यरसनो दास छे, अरिसो तेना कपोळनी शोभाने पामतो नथी, सुवर्णकंद तेना अधरनी उपमा पामता नथी, सेना 66 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंठनी सुंदरता मेळवामा पांचजन्य शंख पण योग्य नधी, ना स्तननी लक्ष्मी ग्रहण करवामां सुवर्णनो कळश पण चतुर नथी, तेनी भुजलतानी लक्ष्मी मेळववा कमळ नाळ पण ममर्थ नथी, तेना इस्तनी कांतिना लेशने पण पलको पामी शकता नथी, तेनी कटिनी शोभा ग्रहण करवामां वज्र पण मूर्ख छ, तेनी नाभिनुं सदृशपणुं शीखवामां आवर्त पण समर्थ नथी, तेना जघननी तुलना त्याला रेतीले बालो कालिख पर शक्तिमान नधी, तेना साधम्नी सुंदरता मेळव-* वामां रंभा पण अटकी जाय छ, मृगलीनी जंघा पण तेनी जंघानी शोभा ग्रहण करवामा सफळ उद्यमवाळी नथी, तेना || || | चरणकमळनी लक्ष्मीने अरविंद पण पामी शके तेम नथी, सुवर्ण पण तेना शरीरनी कांतिना कोइपण अंशने पामतुं |* | नथी भने तेना लावण्य गुणने जोइ अप्सराभी पण रसवाली थती नथी. आवी मनोहर ते कन्याने जोइ योग्य वरनी प्राप्ति माटे तेना पिताए घणा कुमारी शोध्या, परंतु कोइ पण तेने योग्य मळ्यो नथी. एकदा ते प्रभावती सखीभो साधे | । उद्यानमा गइ हती. त्यां किन्नरीओथी गयातुं था गीत तेणीना सांभळवामा अाव्यु के-" रूप, लावण्य अने तेजबहे देवोनो पण तिरस्कार करनार प्रथसेन राजाना पुत्र श्रीपार्थकुमार चिरकाळ सुधी जय पामो." अावा अर्धवाळु गीत सांभळी ते प्रभावती श्रीपार्श्वकुमारपर प्रीतिवाळी थह नेधी ते ला भने क्रीडानो त्याग करी मात्र ते गीतने ज वारंवार || सांभळवा लागी. ते जोइ तेनी सखीओए तेने श्रीपाईने विषे रामवाळी जाणी. केमके पाणीमा रहेला तेलनी जेम रागीमा रहेलो राग छानो रही शकतो नथी. पछी ते किमरीमो गइ त्यारे ते प्रभावती तेमनी सन्मुख आकाशमां जो जरही. ते बखते | सखीनो तेने महा महेनते घेर लइ गइ. परंतु तेने कोइपण ठेकाणे सुख प्राप्त थयुं नहीं. कामदेवरूपी अपस्मारना व्याधिथी Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवश थयेली ते काइपण जाणती नहोती, मात्र जेम योगिनी परब्रह्मनु ध्यान करे तेम एक श्रीपार्श्वर्नु ज मना ध्यान करवा लागी. सखीयोना मुखथी तेने श्रीपार्श्वने विष प्रीतिवाळी जाणी तेना मातापिता हर्ष पाम्या भने " पुत्रीनो राग योग्य स्थाने छ" एम कहबा लाग्या. पली तेना मातापिता बोल्या के-“श्रा पुत्रीने श्रीपार्श्व पासे स्वयंवरा तरीके मोकलीने आपणे तेने आनंद पमाडशुं." श्रा वृत्तांत अनेक देशोना अधिपति ययन नामना महा पळवान राजाए पोतानी समामा | पोताना चरपुरुषोना मुखी सांभळ्यो. ते वखते ते योन्यो के-"ते प्रसेनजित् राजा मने मूकीने पार्श्वकुमारने पोतानी पुत्री केम आपशे ? जो ते पोते जमने नहीं आप तो हुँ चलात्कार देने ग्रहण करीश." आ प्रमाणे कहीने तत्काळ पवननी जेला वेगवाला ते यवन राजाए सैन्य सहित प्राची कुशस्थळने चौतरफथी संध्यु छ. तेथी रात्रिना प्रारंभमांचौडाइ गयेला कमळमां । भ्रमरनी जेम कोइपण मनुष्यनो नगरमा प्रवेश के निर्गम थइ शकतो नथी. या वृत्तांत मापने जणाका माटे पुरुषोत्तम E] नामना मने मंत्रीपुत्रने प्रसेनजिद राजाए मोकल्यो छे, ते ९ रात्रिने समये गुप्त रीते नगर बहार नीकळी अहीं आन्यो कुं. | तो हवे जे करवा लायक होय ते आप करो. प्रसेनजित् राजा आपने शरणे छे." आ प्रमाणे तेनुं वचन सांभळी अश्वसेन राजानां नेनो क्रोधथी रक्त थयां अने ते दुष्ट यवन राजाने शिक्षा करवा र माटे तेणे तत्काळ प्रयाणनी भेरी वगडावी. ते भेरीनो शब्द सांभळी 'आ अकस्मात् शुं छे?' एम विचार करता श्रीपार्श्वकुमार पिता पासे आवी कह्यु के--" हे पिता ! देवो के असुरो मध्ये कया मळवाने आफ्नो अपराध को ले के जेथी आपने पोताने आ प्रयास करवो पडे छ ?" ते सांभळी अश्वसेन राजाए आवेला पुरुषने आगळीवडे देखाडी कह्यु के Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 कृशानुं रक्षण करता बने जाने जीवा जनुं छे. " ते सांभळी पार्श्वकुमारे कछु के-" घासने विवे परशुनी जेम ते मनुष्यरूपी कीटने विषे सुरासुरने जीतनारा आपे आ उद्यम करो योग्य नथी, तेथी आप मने ज श्रज्ञा आपने आप था महलने ज शोभावो. हुं पण तेना गर्वनो नाश करी शकीश. " ते सांभळी पुत्रतुं बळ त्रण जगत करतां अधिक छे एम जाणता राजाए तेनुं वचन अंगीकार कर्तुं अने सैन्य सहित तेने जवानी रजा आपी. श्रीपार्श्वकुमार सैन्य सहित चान्या, त्यारे पहेला प्रयाणमांज इंद्रना सारथि मातलिए आवी रथमाथी उतरी प्रभुने नमस्कार करी विनंति करी के "हे प्रभु ! क्रीडावडे पण संग्राममा उद्यमवंत धयेला आपने जाणीने शक्रइंद्रे भक्तिधी आ रथ अपने माटे मोकल्यो छे, तेनो स्वीकार करो. " ते सांभळी विविध प्रकारनां शस्त्रोथी भरेला अने पृथ्वीने नहीं स्पर्श करता ते रथ उपर आरूढ थह सूर्यनी जेम प्रभु आकाशमार्गे चाल्या. पाछळ पृथ्वी पर चाली आवती सेनापरनी कृपाने ली नाना प्रयाणोवडे चालता प्रभु अनुक्रमे केटलेक दिवसे कुशस्थळ नगर पासे यात्री पहोंच्या. त्यां एक उद्यानम देवो करेला प्रासादमां प्रभु सुखेथी रह्या. पक्षी प्रभुए एक दूत यवनराजा पासे मोकल्यो. वेणे जड़ यवनराजाने क के" हे राजा ! श्रीपार्श्वनाथ तमने आज्ञा करे छे के था प्रसेनजित राजा श्रमारा पिताने शरणे रह्या छे. तेथी तेना नगरनो रोध की द्यो. कारण के पिता पोते ज यहीं आवता हता, तेमने या कारणथी ज निषेध करीने हुं अहीं भाग्यो हुं, तेथी जो तुमने सुखनी इच्छा होय तो तमे तमारे स्थान जता रहो. " श्रावुं दृतनुं वचन सांभळी क्रोध पामेलो यवन बन्यो के“रे दूत 1 तुं आशुं बोले छे ? मारी पासे अश्वसेन के पार्श्वक गणतरीमा थे ? तो ते पार्श्व न पोताने स्थाने जाय धने *****•»**** Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोताना शरीरनुं रक्षण करे. तुं दूत के तेथी तने जीवतो मुकुंछु. अरे! तुं पण जलदी महीथी जतो रहे." ते सांभळी दूते फरीथी कयु के-“हे राजा ! अमारा स्वामी दयाल छे, तेथी कुशस्थळना राजानी जेम तारुं पण रक्षण इच्छे छ, भने || तेथी करीने ज मने तारी पासे बोध करवा मोकन्यो छे, तो हे जड ! बोध पाम, अने अमारा स्वामीने इंद्रो पण जीती शके | तेम नथी, एम तुं नकी जाण. जेम सिंहनी साधे हरमा, सूर्यनी साथे अंधकार, अग्निनी साथे पतंगीयु, समुद्रनी साथे कीडी, गरुडनी साथे सर्प, वजनी साथे पर्वत अने हाथीनी साथे घेटो युद्ध करवा शक्तिमान नथी, तेम तुं पण श्रीपार्श्वनी साधे युद्ध करवा शक्तिमान नथी. तेथी हे यवन ! तुं तेमनी आज्ञा अंगीकार कर." या प्रमाणे दूत बोल्यो त्यारे यवनना सैनिको | तेनी साथे विपरीतपणे बोलवा लाग्या अने तेने मारवा तैयार थया. तेवामां तेना मंत्रीए कह्यु के-" अरे मूढ सैनिको ! तमे श्रीपार्श्वप्रभुना दूतने मारया इच्छो छो ते तो पोताना ज स्वामीने गळे पकडी अनर्थरूपी कुवामां नाखवा जे, करो छो इंद्रो | पण जेनी आज्ञाने मरतकपर मुगटनी जेम चडाचे छे, तेना दूतने मारतो ते तो दूर रहो; परन्तु तेनी हीलना पण दुःस्व पापनारी | छे." या प्रमाणे कही ते सुभटीने निवारी पछी मंत्रीए सामवचनथी ते दूतने कयु के-“हे भद्र! आमनो था एक अपराध | समे माफ करजो अने प्रभुने आ वात कडेशो नहीं. श्रीपार्श्वप्रभुना चरणकमळने वांदवा माटे अमे हमणांज आवाए लीए." TER आ प्रमाणे समजावी ते दूतने मंत्रीए विदाय को. पछी पोताना स्वामीना हितने इच्छता मंत्रीए राजाने कयु के-" हे देव ! भविष्यनो विचार कर्या विना सिंहनी केशवाळीने खेंचवा जेवू पा विपरीत परिणामबाळं कार्य केम करो छो! इंद्रो पण जे पार्श्वप्रभुना पत्तिो छ तेनी साथे तमाएं युद्ध शी रीते होई शके ? तेथी हजु पण कंठपर कुठार धारण करीने तमे Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथनो आश्रय करो, तेमनी पासे तमारा अपराधनी क्षमा मागो भने तेमनी आज्ञा अंगीकार करो. जो भालोक अने परलोक संबंधी सुखनी इच्छा होय तो तमारे मा कार्य कर उचित छ." आयु मंत्रीजें वचन सांभळी यवनराजा बोल्यो । के-" हे मंत्री ! मे मने ठीक बोध कर्यो." एम कही पोताना कंठपर परशु राखी परिवार सहित ते यवनराजा श्रीपाच- | प्रभु पास गयो, त्यां प्रतिहार द्वारा रजा लइ सभामां जइ प्रभुने नमस्कार कर्या. प्रभुए तेना कंठपरथी कुठार मुकावी दीघो, त्यारे फरीथी नमस्कार करी यवन राजा बोल्यो के-" हे नाथ : तमे सर्वने सहन करनार छो, तेथी मारो भा अपराध क्षमा करो, मने गा मालाने आमदान मागो गो माराणा प्रान्न थइ मारी लक्ष्मीने ग्रहण करो." श्रीपाश्वनाथे कयु के-" हे कुशळ राजा ! तमारु कल्याण थायो, तमा राज्य तमे भोगवो, भय पामशो नहीं अने फरीथी आयु कार्य करशो नहीं." श्रा प्रमाणे भगवानना वचननो तेणे अंगीकार कर्यो, एटले जिनेश्वरे तेनुं बहुमान कयु. ते वखते तरत ज कुशस्थळ पुरनो | रोध दूर थयो. पछी प्रभुनी प्राज्ञाथी ते पुरुषोत्तमे पुरमा जइ प्रसेनजित् राजाने ते वार्ता कही प्रसब कर्यो. त्यारपछी भेटनी जेम प्रभावती फन्याने साथे लइ प्रसेनजित राजा प्रभु पासे श्राव्या. अने तेमने विज्ञप्ति करी के" हे जगत्पति ! जेम तमे वहीं भावीने मारापर अनुग्रह कयों तेम आ मारी पुत्रीतुं पाणिग्रहण करी मारापर अनुग्रह करो. पा मारी पुत्री तमारापर चिरकाळधी रागवाळी छे. ते बीजा वरने इच्छती नथी, वळी स्वभावी ज तमे कृपालु छो माटे | श्रानापर विशेष कृपादान थानो." ते सांभळी स्वामी बोन्या के-“हे राजा! ९ मारा पितानी आन्नाथी तमारं रक्षण करवा श्राव्यो छु, पण तमारी पुत्रीने परणवा भान्यो नथी, तेथी आ वार्ता फरी करशो नहीं." ते सांभळी प्रसेनजिते Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार्य के " या पार्श्वनाथ मारा वचनथी मानशे नहीं. तेथी अश्वसेन राजा पासे ज आग्रह करी हुं या बात तेने मनाबीश. " पछी स्वामी प्रसेनजित् साथै यवन राजानी मित्राह करावी ते यवन राजाने रजा थापी, पछी प्रभु प्रसेजितने रजा श्रापीत्यारे तेथे कां के – " हे स्वामी 1 मारे अश्वसेन राजाने नसवा माटे आपनी साधे भावनुं छे. " प्रभुए 6 बहु सारं ' कधुं एटले प्रसेनजित् राजा प्रभावतीने साथै लइ प्रभुनी साधे ज चाल्यो. अनुक्रमे वाराणसी नगरीए जह पिताने प्रणाम कर श्रीपार्श्वनाथ पोताना महेलमां गया, त्यारे प्रभावती सहित प्रसेनजित् राजाए अश्वसेन राजा पासे जह तेमने प्रणाम कर्या, तर ज अश्वसेने उभा थह तेने गाढ आलिंगन करी पूछ के " तमे कुशळ हो ? अहीं सुधी जाते केम आर्यु ! " प्रसेनजिते कां - " तमे जेनुं रक्षण करनार हो, तेने अकुशल क्यांथी होय ? हे महाराजा ! हुं जाते यहीं आव्यो छु, ते तमारी पासे कांइक याचना करवा आव्यो हुं. ते ए के ― हे देव ! आ मारी प्रभावती नामनी पुत्रीने श्रीपार्श्वनाथने माटे अंगीकार करो. हे स्वामी ! आ मारी याचना तुमारी पासे निष्फळ न थाओ, ' अश्वसेने कछु के66 आ कुमार सदा भक्वासथी विरक्त छे, तोपय तमारी प्रसन्नता माटे बळात्कारे पण देने परणावीश. "एम कही अश्वसेन राजा तेने साधे लह श्री पार्श्वकुमार पासे गया, अने कछु के- हे वत्स ! या राजानी या पुत्रीने तुं परण. हे दाक्षिणपना समुद्र ! जो के तुं बाल्यावस्थाथी ज संसारने विषे विरक्त थे, तोपण श्र मारुं वचन तारे मानवुं पडशे. " आ प्रमाणे पि ताना अति श्रथी पार्श्वनाथे भोगफळ कर्मने भोगवया माटे प्रभावतीनुं पाणिग्रहण कर्यु पछी क्रीडापर्वत, नदी, वाब अने उद्यानादिकमां प्रभावतीनी साथे क्रीडा करता प्रभु केटलाक दिवसो निर्गमन कर्या. २९ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - एकदा पार्श्वनाथ पोताना महेलना गवाक्षमा बेठा बेठा नगरीने जोता हता. ते चखते घणा लोकोने पुष्पादिक पूजासामग्रीने लइ नगर बहार जता जोया. तेथी कुमारे सेवकोने पछयु के-"आजे कयो उत्सव के के जेथी मा लोको शीघ्रताथी नगर बहार जाय छे ?" त्यारे कोइ सेवक बोल्यो के-" हे स्वामी! भाजे उत्सव काइपण नथी, परंतु भाजे नगर पहार उद्यानमा कठ नामनो एक महातपस्वी तापस पावेलो के. नेनी पूजा करका माटे पा लोको जाय छे." ते सांभळी स्वामी पण ते ण ते कौतक जोवा माटे परिवार सहित उद्यानमा गया. त्या ते कठ तापस पंचाग्नि तप करतो इतो. ते बखते | Hi अधिज्ञानवडे प्रभुए अग्निना कुंडमां नांखला एक लाकडानी पोलमां एक सर्पने बळतो. जोई दयालु होवाथी कम्युं के "अहो ! आ तास तप करे छे, तोपण अज्ञानता होवाथी दयागुण तो छ ज नहीं. नेत्र विना मुखनी जेम दया विना धर्म शा कामनो ? दया रहित पुरुषोनो कायक्लेश पण पशुनी जेम वृथा छे." ते सांभळी कठ बोल्यो के—" हे राजपुत्र! |* | तमारी जेवा क्षत्रियो तो हाथीने शिक्षा आयवी ए विगेरे कार्यमा ज पंडित होय छे, धर्ममां तो अमे मुनिश्रो ज पंडित छोए." ते सांभळी पभुए पोताना सेवको पासे ते कुंडमाथी सळगतुं लाकडं बहार कहाची यतनापूर्वक तेने चीरान्युं, एटले तेमांथी एक मोटो सर्प नीकलथो. ते सर्प श्रमिनी ज्वालाथी व्याकळ थयेलो हतो, तोपण प्रभुनु दर्शन थता ते अंतःकरणमा अत्यंत प्रसन्न थयो. तेने प्रभुए पोताना सेवको पासे परलोकना भातारूप प्रत्याख्यान अपाच्युं अने पंचनमस्कार संभळाच्या. ! प्रभु पोते तेनी सन्मुख कृपादृष्टिथी जोइ रखा, तेथी ते सर्पे पण सावधानपणे ते सर्व अंत:करणथी अंगीकार कर्यु. भा रीते धर्मना प्रभावी ते सर्प मरीने धरणेंद्र थयो. भावु आश्चर्य जोइ लोको प्रवनी स्तुति करवा लाम्या के-"अहो ! भा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामीनुं ज्ञान तो अद्भुत जणाय " या लोकी सहित प्रभु पोताने स्थाने गया. या सर्व जोइ शठ मनवाळो कठ अत्यंत ला पाम्यो, अने वधारे अज्ञान तप करवा लाग्यो. " तेवाओने सन्मार्गनी प्रीति क्याथी होय ?" अनुक्रमे ते कठ तापस भरण पामी अज्ञानतपना प्रभावथी मेघकुमार ( स्तनितकुमार ने विष मेघमाळी नामनो भवनपति देव थयो । एकदा श्रीपार्श्वनाथ स्वामी वसंत ऋतुमा क्रीडा करवा माटे उद्याना गया. त्यां एक प्रासादनी भींत उपर श्रीनेमि| नाथना चरित्रनुं चित्र चितरेखें जोइ विचायु के-" अहो ! श्रीनेमिनाथने धन्य छे के जेणे कुमार अवस्थामा ज अत्यंत रागवाळी राजीमती कन्यानो त्याग करी दीक्षा ग्रहण करी हती. तो हुँ पा हवे सर्व संगनो त्याग कर." मा प्रमाणे प्रभुए | विचार कर्यों के सरत ज लोकांतिक देवोए आवी "हे स्वामी ! तीर्थ प्रवर्तावो.” एम विज्ञप्ति करी. पछी कुरेरे पूरेला ||di धनवडे वार्षिक दान पापी प्रभुए दीक्षा माटे मातापितानी माज्ञा लीपी. पछी अश्वसेन विगेरे राजाओए भने शक्र विगेरे इंद्रोए एकठा थ६ श्रीपार्षप्रभुने दीक्षाभिषेक कर्यो. पछी देवोए पहन करेली शिविकामां आरूढ थइ प्रभुए देवदुंदुभिना नाद सहितं पाश्रमपद नामना वनमा जइ, शिक्षिकामाथी नीचे उतरी, वस्त्र भने आभूषणोनो त्याग करी मस्तकपर पंचमुष्टि लोच कर्यो भने पछी इंद्रे आपलं देवप्य डाचा खभापर धारण करी त्रीश वर्षनी वयवाळा स्वामीए प्रणसो पुरुषो सहित अवम तप करी सर्वविरति अंगीकार करी. ते वखते स्वामीने चोपुं मनःपर्यव ज्ञान प्राप्त थयुं. पछी स्वामी भारंड पचीनी जैम प्रमाद रहित थह पृथ्वीपर विचरचा लाग्या. सर्व इंद्रो स्वामीनो दीक्षामहोत्सव पूर्ण करी नंदीश्वर द्वीपे जा त्यां अष्टान्हिका उत्सव करी पोसपोताने स्थाने गया. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *****¥*••*•*O? एकदा श्री पार्श्वनाथ स्वामी विहारना ऋमथी नगरनी नजीक रहेला एक तापसना श्राश्रममां याव्या. ते वखते सूर्य स्पाभ्यो. तेथी त्यां एक कुवाने कांठे रहेला पटवृक्षनी नीचे प्रभु नासिका उपर दृष्टि राखी प्रतिमाए उमा रह्या. एवा अवसरे ते मेघमाळी नामनो अमुर अवधिज्ञानवडे पोताना पूर्वभवनो वृत्तांत जाणी तथा ते वेरनुं कारण संभारी क्रोधथी तो ने उपसर्ग करवा ते स्थाने श्राव्यो. तेथे अंकुशनी जेवा तीक्ष्ण नखवाळा, भयंकर रूपवाळा अने पुंछडाना पछाडी पर्वतो पण कंपे वा घणा सिंहो विकुर्व्या. वेनाथी भगवान कांह पण भय पाम्या नहीं. त्यारे तेथे अत्यंत भयंकर पर्वत जेवढा हाथी ओ विकुर्व्या. तैनाथी पण प्रभु चलायमान थया नहीं. त्यारे तेथे मोटा फुंफाडा मारता भने यमराजना दस्तदंड जेवा प्रचंड दृष्टिविष सर्वे विकर्व्या. तेमज ना कडे स्वस्थतानो नाश करनारा अनेक वीडीयो, आपत्ति करनारा भल्लूक अने शूकर विगेरे श्वापदो तथा ज्वाळानी जेवा भयंकर मुखबाळा अने मुंडनी माळाने धारण करनार तने विकुर्व्या. ते सर्व पण प्रभुने saraथी चलायमान करवा समर्थ थया नहीं. " तीक्ष्ण मुखवाळी कीडीओ माकड विगेरे पण शुं वज्रने भेदी शके ? " त्यारपछी अत्यंत क्रोध पामेला ते मेघमाळीए गजव अने वीजळीवडे दिशामा व्यापी गयेला मेघोनी श्रेणि श्राकाशमां विकुर्वी. " आ मारा पूर्वभवना शत्रुने आ मेघना जळ्थी डुबावीने मारी नांखुं." एम विचारी ते वृष्टि वरसाववा लाग्यो. प्रथम सृष्टि जेवी पछी शळ जेवी अने पछी स्तंभ जेवी धारा वरसाची बरसावीने तेणे आखी पृथ्वी एक समुद्रमय करी दीधी, ते वखते अनुक्रमे प्रभुना कंठ सुधी ते जळ पहोंच्युं एटले प्रभु कंठ सुधी पाणीमां डूब गया. तेथी तेमनुं मुख पद्मद्रद्दमां रहेला कमळनी जेम शोभवा लाग्धुं पछी जेटलार्मा ते जळ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 प्रभुनी नासिका सुश्री पच्युं वरन कंप्यं. तरत ज अवधिज्ञानथी प्रभुनो वृतांत जाणी ते पोतानी प्रियाओ सहित त्यां भावी प्रभुने भक्तिथी नम्यो. पछी प्रभुना बने पगनी नीचे मोटा नाळवालं कमळ मूकी ते धरणें★ पोताना शरीरखडे प्रभुनी पीठ भने बने पडखां ढांकी तेमना मस्तकपर पोताना सात फणानुं छत्र कर्यु. तेथी त्यां रहेला प्रभु सुखे करीने ध्यानमा मग्न थया. ते वखते ते धरणेंद्रनी इंद्राणीओ प्रभु पासे नृत्य करवा लागी, तथा वेणु, वीणा अने मृदंग विगेरेना शब्दधी सर्व दिशाओंने व्याप्त करी. श्रवखते भक्ति करनारा धरणेंद्र उपर तथा द्वेष करनारा ते असुर उपर समताना निधानरूप स्वामी तो समान दृष्टिवाळा ज हता. परंतु द्वेषथी अधिकाधिक वृष्टि करता ते कठ नामना असुरने जोह नागेंद्रने तेनापर क्रोध थयो, अने तेथी तेथे तिरस्कार सहित ते असुरने कछु के- “ रे दुष्ट ! पोताना ज उपद्रवने माटे आशुं आरंभ्युं छे ? हुं दयाळु प्रभुनो सेवक हुँ, छतां हवे द्वारा अपराधने हुं सहन करीश नहीं. या स्वामी ते ते तने पापमांथी मुक्त करवा माठे वळतो सर्प काढीने बताच्यो, तेमां तेमणे तारुं शुं य क ? हे पापी ! कारण विनाना जगतना मित्ररूप आ भगवाननी उपर तुं विना कारणे द्वेष करे छे, तेथी हवे तुं नथी एम समन. " आ धरणेंद्रनुं वचन सांभळी मेघमाळीए नीचे दृष्टि करी अने ते प्रकारे धरणेंद्रथी सेवावा प्रभुने जोया तरत ज ते भय पामी विचारका लाग्यो के " मारी जेटली शक्ति हती तेटली वधी पर्वतने विषे ससलानी जेम श्रा प्रभुने विषे निष्फळ यह. बळी भगवान एक ज मुष्टिथी वजने पण चूर्ण करी शके तेवा बळवान छे, छतां क्षमा गुणे परंतु नागेंद्रथी तो मारे भय राखवानो ज छे. हुं विश्वना नाथनो बैरी थयो, तेथी मारे बीजुं करीने सर्व सहन करे छे, कोइ पण शरण छे नहीं. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | तेथी या करुणाना सागरनु ज शरण करूं." ए प्रमाणे विचारी मेघन सहरी लइ प्रभुनी पासे आत्री “ मारो अपराध क्षमा करो" एम नमस्कार पूर्वक कही ते असुर पोताने स्थाने गयो. नागेंद्र पण प्रभुने उपसर्ग रहित थयेला जाणी तेमने प्रणाम | I करी पोताने स्थाने गयो भने प्रभुए पण प्रातःकाळ थये त्यांधी अन्यत्र विहार कर्यो. प्रभु छद्मस्थ अवस्थाए चोराशी दिवस विहार करी फरीथी तेज आश्रमना उद्यानमा आव्या. त्यां ध्यानमा रहेला * प्रभुने केवळज्ञान प्राप्त थयुं. ते वखते इंद्रादिक देवोए भावी समवसरण रच्यु. त्यां पूर्व दिशा तरफना सिंहासनपर | प्रभु पूर्वाभिमुखे बेठा अने बीजी त्रण दिशानोमा ब्यंतरदेवोए प्रभुना त्रण प्रतिबिंब रच्या. पछी सर्व सुर, असुर भने मनुः प्यो आवीने योग्य स्थाने बेठा. एक एक योजन सुधीना विस्तारवाळी वाणीवडे स्वामीए देशनानो पारंम कर्यो. श्रीपार्श्व नाथ स्वामीना केवळज्ञाननो वृत्तांत उद्यानपालकना मुखथी जाणीने श्री अश्वसेन राजा अत्यंत हर्ष पामी प्रभुना दर्शन माटे * अत्यत उत्सुक थइ वामादेवी सहित त्यां श्राव्या अने प्रभुनी स्तुति तथा नमस्कार करी शुद्ध बुद्धिथी धर्मदेशना सांभळया बेठा. जगदीश्वरनी ते देशना सांभळी घणा पुरुषो तथा स्त्रीरोए प्रतिबोध पामी दीक्षा ग्रहण करी भने केटलाके श्रावकधर्म | अंगीकार कर्यो. तेमाथी आर्यदत्त विगैरे दश गणधरो थया. तेश्रोए स्वामी पासेथी त्रिपदी ग्रहण करी तत्काळ द्वादशांगी रची. ते वसते अश्वसेन राजाए हस्तीसेन नामना पुत्रने राज्यपर स्थापन करी वामादेवी अने प्रभावती सहित प्रभुनी पासे दीचा ग्रहण करी. पद्मावती, पार्थ यच, बैरोख्या अने धरणेंद्रे सर्वदा जेमर्नु सानिध्य कयु छ एषा श्रीपार्श्वनाथ प्रभु पृथ्वीपर विचरखा लाग्या. ते प्रभुना तीर्थमा समग्र गुणोथी शोभता सोळ हजार साधुओ, पाउत्रीश हजार साध्वीओ, एक Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाख ने पोसठ हजार श्रावको अने त्रस्य लाख ने सतावीश हबार श्राविकामोनो परिवार थयो. चोराशी दिवसे न्यून एवार सीतेर वर्ष सुधी केवळी पर्याय विचरता एवा प्रभुनो ए प्रमाणे चतुर्विध संघ थयो. छेवट प्रभु तेत्रीश मुनिमओ सहित संमेताद्रि पर्वतपर जइ अनशन ग्रहण करी कायोत्सर्गे रह्या. एक मासर्नु अनशन पूर्ण करी कुल सो वर्षनुं आयुष्य मोगवी ते | तेवीश साधुओ सहित भगवान भवोषणाही चार प्रभाती कर्मनो चय की मोन्नपद पाम्या. ते वृत्तांत अवधिज्ञानधी जाणी सर्व इंद्रोए आवी भगवानना निर्वाणनो महोत्सव को. इति श्रीपार्श्वनाथर्नु संक्षिप्त चरित्र, श्रा प्रमाणे श्रीपार्श्वनाथर्नु चरित्र कही हवे प्रस्तुत कहे थे.तस्स लोगप्पईवस्स, श्रासि सीसे महायसे । केसी कुमारसमणे, विजाचरणपारगे ॥ २॥ अर्थ-( लोगप्पईवस्स ) लोकने विष प्रदीप समान ( तस्स ) ते श्रीपार्श्वनाथ स्वामीने ( महायसे ) मोटा यशवाळा | अने (कुमारसमणे) कुमार अवस्थामा ज साधु थयेला एचा (केसी) केशी नामना (सीसे) शिष्य (मासि) हता, ते (विजाचरणपारगे) ज्ञान भने चारित्रना पारगामी हता. अहीं आ केशीकुमारने श्रीपार्श्वनाथना शिष्य कह्या, ते तेमना संतानमा थयेला जाणवा, परंतु तेमना साक्षात् शिष्य नहीं. केमके ते प्रभुना जो हस्तदीक्षित शिष्य होय तो श्रीमहावीर स्वामीना तीर्थनी प्रवृत्ति थइ त्यां सुधी ते होई शक नहीं. २. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहिनाणसुए बुद्धे, सीससंघसमाउले । गामाणुगामं रीयंते, सावत्थिं नगरिमागए ॥३॥ अर्थ-(ओहिनाणसुए ) अवधिज्ञान अने श्रुतज्ञानवडे ( बुद्धे ) तत्त्वना जाण अर्थात् मति, श्रुत अने अवधिज्ञानबाळा तथा ( सीससंघसमाउले) शिष्यना समूहबडे परिवरेला एवा ते केशीकुमार (गामाणुगाम) एक गामथी बीजे गाम ( रीयंते ) विहार करता अनुक्रमे ( सापत्थि) श्रावस्ति नामनी ( नगरि ) नगरीने विषे (मागए ) पाव्या. ३. तिदुभं नाम उजाणं, तम्मी नयेरमंडले । फाँसुए सिर्जसंथार, तत्थं कासमुवागए ॥ ४॥ अर्ध-(तम्मी) ते श्रावस्ति नगरीना (नयरमंडले) नगर बहारना प्रदेशमा (तिदु नाम) तिंदुक नामर्नु (उजाणं) । उद्यान हत, ( तत्थ ) ते उद्यानमा ( फासुए ) प्रासुक एटले स्वाभाविक अने श्रागंतुक जीवोथी रहित एवा (सिञ्जसंथारे) || शय्यासंस्तारकने विषे ( वासं उवागए ) वासने पामता हवा-निवासस्थानने करता हवा. शय्या एटले वसति-उपाश्रय, तेने विषे जे शिला फलकादिक संस्तारक, तेने विषे निवास कयों. आ अबसरे जे थयुं ते कहे छे.अह तेणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिणे। भयवं बद्धमाणु ति, सव्वलोगम्मि विस्सुए ॥५॥ अर्थ-(अह ) हवे ( तेणेव ) ते ज ( कालेणं) काळे (धम्मतित्थयरे ) धर्मरूपी तीर्थने करनारा (जिये) रायदेषने जीतनारा ( भयवं ) भगवान ( बद्धमाणु सि ) वर्धमान एवा नामे ( सवतोगम्मि ) सर्व लोकने विषे ( विस्सुए) Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्रुत एटले प्रसिद्ध हता. ५. तस्स लोगप्पईवस्स, आसि सीसे महायसे । भयवं गोअमे नीम, विजोचरणपारगे ॥६॥ अर्थ-( लोगप्पईवस्स ) लोकने विष प्रदीप समान एया (तस्स ) ते वर्धमान स्वामीने (महायसे ) मोटा यशवाळा | ( भयवं) भगवान ( गोअमे नाम) गौतम नामना ( सीसे ) शिष्य (आसि ) हता, ते (विजाचरणपारगे ) ज्ञान अने चारित्रना पारगामी हता. ६. बारसंगविऊ बुद्धे, सीससंघसमाउले । गामाणुगाम रीअंते, से वि सावत्थिमागए ॥७॥ अर्थ-( वारसंगचिऊ ) द्वादशांगीने आणनारा, ( बुद्धे ) तचने जाणनारा, (सीससंघसमाउले) शिष्पना समूहबडे सहित तथा ( गामाणुगाम) एक गामथी बीजे गाम ( रीते) विहार करता एवा (से चि) ते गौतपस्वामी पण (सावत्थि ) श्रावस्ति नगरी प्रत्ये ( आगए) श्राच्या. ७. कोट्ठगं नाम उजाणं, तम्मी नयेरमंडले । फाँसुए सिंजसंथारे, तत्थ बोसमुंवागए ॥ ८॥ अर्थ--( तम्मी ) ते श्रावस्ति नगरीना (नयरमंडले ) नगरना बहारना प्रदेशमा (कोडगं नाम ) कोष्टक नामनुं (उआण) उद्यान हतुं, (तत्थ) ते उद्यानमा (फासुए) प्रासुक एचा (सिजसंथारे ) शय्यासंस्तारकने विषे (वास उवागए ) वासने पामता हवा-रहेता हवा. ८. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +-+PANCY त्यारपछी धुं थयुं ? ते कहे छ.-- केसी कुमारसमणे, गोश्रमे अ महायसे । उभओ तथं विहरिसु, अल्लीणा सुसमाहिआ॥९॥ अर्थ- ( केसी ) केशी नामना ( कुमारसमणे ) कुमार साधु ( गोश्रमे अ) तथा गौतमस्वामी ( उभो ) ए बो ( महायसे ) मोटा यशवाळा तथा ( अन्नीणा) मन, वचन अने कायगुप्तिमा लीन थयेला तथा (सुसमाहिया ) सारी समाधिचाळा सता ( तत्थ ) ते पोतपोताना उद्याना (विहरिसु ) विचरता हता. ६. उभओ सिस्ससंधाण, संजयाण सिणं । तत्थ चिंता समुप्पन्ना, गुणवंताण ताइणं ॥ १० ॥ अर्थ-(तत्थ ) त्यां श्रावस्ति नगरीना उद्यानमा ( उमओ) केशीकुमार भने गौतमस्वामी ए बनेना (सिस्ससंघाणं) शिष्यनो समूह के जेओ ( संजयाण ) संयमने धारण करनारा, ( तबस्सिणं ) तपस्वी, (गुणवंताण) गुणवान अने (ताइर्ण) | जीव निकायना रक्षण करनार हता. तेमाथी केशीकुमारना मुनिओने (चिंता) विचार ( समुप्पमा ) उत्पन्न थयो. एक बीजाने परस्पर जोवाथी हवे कहे छे तेवो विचार उत्पम थयो. १०. शो विचार थयो ? ते कहे छे.केरिसो वा इमो धम्मो ?, ईमो धम्मो ब केरिसी?1 आयारधम्मप्पणिही, ईमा वा सा व "केरिसी? ॥११॥ अर्थ-(इमो ) या अमारो ( धम्मो ) महाव्रतरूप धर्म ( केरिसो वा ) केवो छ ? अने ( इमो ) आ प्रत्यक्ष देखाता Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेवी रीते जन्म पामी हत्ती तेवी एटले वस्त्र रहित थइ. (त्ति) एषा स्वरूपयाळी तेणीने (पासिया) जोइने प्रथमथी स्यां रहेलो (रहनेमी) स्थनेमि ( मग्गचित्तो) भग्नचित्तवाको एटले चारित्रथी भ्रष्ट परिणामवाळो थयो (अ) अने ( पच्छा) त्यारपछी । (तीह वि ) ते राजीमतीए पण (दिवो ) तेने जोयो. प्रवेश करती खते अंधारी जग्यामां कांड पण देखी शकातुं नथी, TE तेथी तेखीए प्रथमथी त्यां रहेला रथनेमिने जोयो नहोतो. जो कदाच प्रथम प्रवेश करती वेळाए ज जोयो होत तो ज्यारे | बीजी साध्वीओ जुदा जदा स्थानमा गड तेम ते पण चीजे जात; एकली अही प्रवेश करत नहीं. ३४.. भीया य स तहिं दलु, एगते संजयं तयं । बाहाहि काउं संगोफ, वेवमाणी निसीबई ॥ ३५॥ अर्थ-(प) तथा ( सा ) ते राजीमती (तहि ) त्यां (एगते ) एकांतमा रखेला ( तयं) ते (संजय ) रथनेमि साधुने ( दटुं) जोइने (भीश्रा) भय पामी. 'कदाच आ मारा शीळनो मंग करशे' एम धारी भयथी ( वेवमाणी : कंपती सती (बाहाहि ) पोताना बे बाहृवडे ( संगोर्फ) परस्पर गुथ_-गोपव( काउं) करीने एटले पोताना स्तनपर वे बाहु. वडे परस्पर मर्केटबंध करीन ( निसीआइ) तेने बळात्कारे पण आलिंगन नहीं करवा देवा माटे नीचे बेसी गइ. ३५. अह सो वि रायपुत्तो, समुदविजयंगओ। भी पवेइअंदटुं, इमं वकमुदाहरे ॥ ३६ ।। अर्थ-(अह ) त्यारपछी ( सो वि ) ते पण ( रायपुत्तो) राजपुत्र ( समृद्दविजयंगो) समुद्रधिजयनो अंगज स्थनेमि ( मीअं ) भय पामेली अने (पवेदनं ) कंपती एवी तेशीने (दई) और ( इम) मा प्रमाणे ( वकं ) वचनने | Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( उदाहरे ) बोल्यो. ३६. रहनेमी अहं भद्दे, सुरुवे चारुभासिणि । ममं भयाहि सुतणू, न ते पीला भविस्सइ ॥ ३७॥ अर्थ-(भद्दे ) हे भद्र ! (सुरूवे ) हे सारा रूपवाळी ! ( चारुभासिणि ) हे मनोहर वचनवाळी ! ( अहं) हुँ (रह* नेमी) रथनेमि छ. ( मुतणू ) हे सुंदर शरीरवाळी ! ( ममं ) मने ( भयाहि ) भज-पतिपणे अंगीकार कर. तेम करवाधी | (ते) तने ( पीला) पीडा (न भविस्सइ) थशे नहीं. तुं पीडानी शंकाथी कंपे छे, पण विषयसेवा कांड पीडाने माटे * थती नथी, परंतु सुखने माटै थाय छ. २७. # एहि तो भुजिमो भोष, माणुस्सं व सुदुल्लह । भुतंभोगी तओ पैच्छा, जिमग्गं चैरिस्तिमो ॥३८॥ * अर्थ-हे राजीमती ! ( एहि ) भाव. (ता) प्रथम आपणे ( भोए ) भोगोने (भुजिमो) भोगवीए. (सु) खरेखर ( माणुस्स) मनुष्यपणुं ( सुदन) अति दुर्लभ के. (तो)ते कारण माटे (भत्तभोगी) भोग भोगवीने (पच्छा) पछीथी आपणे ( जिणमम् ) जिनेश्वरना मार्गने -चारित्रने (चरिस्सिमो ) याचरणं. प्रथम भोगसुख भोगवीए अने पछी | | दीक्षा लइए, तो पछी भोगसुखनी इच्छा रहेती नथी. माटे हमणा प्रथम भोगसुख भोगवg सारं छे. ३८. ते सांभळी राजीमतीए शुक' ? ते कहे थे.दैट्टण रहनेमि तं, भग्गुंजोअपराइभं । राईमई अंसंभंता, अप्पाणं संवरे तहिं ॥ ३६ ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(भग्गुओमपराइ) संयमने विषे जेनो उधम भग्न थयो छे एवा तथा स्त्रीपरीषहथी पराजय पामेला एषा (त) ते ( रहनेमि ) रयनेमिने (दहण ) जोइने (असमंता) "श्रा मारापर बलात्कार करी शकशे नहीं. " एम धारी मय रहित थयेली (राईमई ) राजीमती ( तहिं ) ते गुफामा ज ( अप्पाणं) पोताना शरीरने (संवरे) हांकती हवी एटले लूगडां पहेरी लेती हवी. ३९. अहे सौ रायवरकन्ना, अद्विआ निअमव्यए । जाइं कुलं च सीलं च, रक्खमाणी तयं वैए ॥४०॥ ___अर्थ-(अह) स्थायी (निप्रभध्वर ) शीच, संतोष, स्वाध्याय भने तपरूपी नियमने विष तथा पंच महाव्रतने विषे ( सुविधा ) स्थिर रहेली (सा) ते ( रायवरकमा) राजानी श्रेष्ठ कन्या-राजीमसी (जाई ) जाति एटले माताना वंशने, (कुलं च ) कुळ एटले पिताना वंशने (सीलं च ) तथा शीळने ( रक्खमाणी रक्षण करती सती ( तयं ) ते वखते (वए) या प्रमाणो बोली. ४०. जइ सि रूवेण वेसमणो, लेलिएणं नलकूबरो।तेहा वितेने इच्छामि, जइसिं सरखं पुरंदरो॥१४॥ अर्थ-हे स्थनेमि ! (जह ) जो तुं (रूवेश ) रूपे करीने (वेसमणो) वैश्रमण-कुबेर जेबो (सि ) होय, अथवा जो तुं ( ललिए) विलासवाळी चेष्टाए करीने ( नलकूबरो) नळकूमर देव जेवो होय, अथवा (जा) जो तुं (सक्खं) साचात् (पुरंदरो) इंद्र जेवो (सि) होय, (तहा वि) तो पण हुं (ते) तने (न इच्छामि ) इच्छती नथी. ४१. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्खंदे जलिश्रं जोई, धूमकेउं दुरासयं । न इच्छति देतेयं भोतुं कुले जोया अगंधणे ॥ ४२ ॥ अर्थ--हे रथनेमि ! ( अगंधणे ) अंगधन नामना ( कुले ) कुळमां (जाया ) उत्पन्न धयेला सर्पो ( जलि ) जाज्ययमान अने (दुरास ) दु:सह एवी (धूमकेउं ) अमिनी ( जोई) ज्वाळाने विषे ( पक्खंदे ) प्रवेश करे छे, परंतु (चंतयं) धमनुं विष (भोतुं ) खावाने - पाहुं चूसी लेवाने ( न इच्छति ) इच्छता नथी. ४२. धीरस्यु जसो कामी, जी से जीविकारणा । 'वंतं इच्छसि श्रोवेडं, "सेअं "ते मरणं भवे ॥ ४३ ॥ (अर्थ (कामी) हे कामांध ! ( ते जसो ) तारा यशने ( घोरत्थु ) धिकार हो. अथवा (अजसोकामी) हे अपयशनी इच्छावाळा ! (ते) तने धिकार थे. के ( जो ) जे ( तं ) तुं ( जीवि श्रकारणा) असंयमरूप जीवितने कारणे (वंत ) वमेलाने (सावे) फरीथी पीवाने (इच्छसि इच्छे छे. जे भोगने तजी दीक्षा ग्रहण करी, ते ज भोगने फरी भोगवना इच्छे थे. तेथी करीने (ते) तारुं ( मरणं ) पंडित मरण (से) श्रेयस्कर ( भवे ) छे. अर्थात् असंयम जीविते जीवना करतां पंडितमर मर सारुं थे, परंतु वमेला भोगोने फरीथी भोगववानी इच्छा करवी सारी नथी. निंद्य वस्तुने जाणी तेनो त्याग कर्यो होय, तो तेने पंडितो फरीथी ग्रहण करता नथी. ४५. अहं च भोगेरायस्स, तं च सिं अंगवहिणो । मां कैले गंषणा होमो, संजैमं निहुओ रे ॥४५॥ अर्थ- हे रथनेमि ! ( अहं च ) हुं ( भोगरामस्स ) भोगराजनी एटले उग्रसेन राजानी पुत्री हूं, ( तं च ) अने तुं K-03 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **-03-28400 गणधरना शिष्योनो (घम्मो त्र ) धर्म ( केरियो ) केवा प्रकारनो छे ? तथा (इमा वा ) या समारा संबंधी (आयारघ मी ) याचार एटले वेष धारण करवारूप बाह्य क्रियानो समूह, ते रूप धर्मनी व्यवस्था केवी बे ? ( साव) अने गणधरना शिष्योना बाह्य श्राचाररूप धर्मनी व्यवस्था ( केरिसी ) केवी थे ? अर्थात् अमारो अने तेमनो धर्म श्रीसर्व ज कहेलो छे, छतां ते धर्ममां अने तेना साधनांमां घणो तफावत देखाय छे, तेनुं कारण शुं दशे ? ते अमे जाणवा इच्छीए छीए. ११. तेज विचारने प्रगट करता सता कहे छे. श्र चाउनामो जो धम्मो, जो ईमो पंचसिक्खिओ । देसियो वैद्धमाणेणं, पासेण य महाभुणी ॥ १२ ॥ अर्थ – ( जो ) जे अमारो (चाउजामो अ ) चार महाव्रतवाळो (धम्मो ) धर्म ( महामुखी ) महामुनि ( पासे (A) पार्श्वनाथस्वामी ( देसिओ) कहेलो छ, अने (जो ) जे ( इमो ) श्र गौतम गणधरना शिष्योनो ( पंचसिक्खिश्रो ) पांच शिचावाळो एटले पंचमहाव्रतवाळो धर्म महामुनि (बद्धमाणे) वर्धमान स्वामीए कहेलो छे. या बन्ने प्रकारनो जुदो जुदो धर्म कहेवानुं शुं कारण हशे ? ( या सूत्रवडे धर्मना विषयवाळो संशय प्रगट कर्यो . ) १२. चारा विषयवाळी संशय प्रगट करे छे. अचेल गो अ जो धम्मो, जो ईमो संतरुत्तरो । एंगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ? ॥ १३ ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 = अर्थ-(अ) तथा (जो जे (अचेलगो) अचेलक एटले वस्त्र रहित अर्थात् प्रमाणोपेत, श्वेत, जीर्णप्राय अने | अल्प मून्यवाल्लं वस्त्र धारण कर एवो (धम्मो) धर्म श्रीवर्धमानस्वामीए कह्यो बे, अने ( जो इमो ) जे आ अमारो (संतरुत्तरो) सांतर एटले श्रीमहावीरस्वामीना शिष्यनी अपेक्षाए अंतर सहित अर्थात् विशेष प्रकारना प्रमाण अने वर्णवाको तथा उत्तर एटले मोटा मूल्ययडे प्रधान-श्रेष्ठ एवा वस्त्रवाळो धर्म श्रीपार्श्वनाथस्वामीए कह्यो छे. नो (एगाजपरमाणं ) मोक्षरूप एक ज' कार्यने माटे प्रवर्तेला ते वो तीर्थकरोने (विससे ) श्रावो विशेष-फेरफार करवामां (किं नु कारणं) शु कारण हशे ? १३. . श्राप्रमाणे गौनमस्वामीना साधुमोने पण संशय थगो. हले बोरा मानोगे शाम उत्सव मनाथी केशी अने | मौतमस्वामीए शुं कर्यु ? ते कहे छे. अह ते तत्थ सीसाणं, विणाय पविकिअं । समागमे कैंयमई, उभओ केसिंगोअमा ॥ १४ ॥ अर्थ-(अह ) त्यारपछी ( तत्थ ) त्यां श्रावस्तिनगरीमा (तीसाणं) साधुभोना आवा प्रकारना ( पवित्रकिअं) वितर्कने ( विलाय ) जाणीने (ते ) ते ( केसिंगोभमा ) केशी अने गौतम ( उभो) बझे जणा (समागमे ) परस्पर समागम करवामां ( कयमई ) करी छ मति जेमणे एवा थया-परस्पर मळबानी इच्छावाला यया. १४. गोअमो पडिवण्णू, सीससंघसमाउले । जि8 कुलमविक्खंतो, तिदुअं वणमार्गओ ॥ १५ ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणा ( पासंडा ) पाखंडीओ एटले अन्यदर्शनी साधुप्रो ( समागया ) भाव्या. तथा (अणेगामओ) अनेक ( साहस्सीओ) का हजारो ( गिहत्थाणं ) गृहस्थीओ (समागया ) आल्या. १६. देवदानवगंधव्वा, जैश्वरक्खसकिन्नरा । अदिस्साण ये भूआणं, आसि तत्थ समागमो ॥२०॥ अर्थ-तथा ( देवदानवगंधया ) देव, दानव अंने गंधर्वो, तथा ( अक्खरक्खसाकेनरा ) यक्ष, राक्षस अने किन्नरो पण श्राव्या. (य) तथा ( अदिस्सास ) अदृश्य एवा ( भूमाशं) भूतोनो-व्यंतरोनो पण ( तत्थ ) त्यां ( समागमो) समागम (आसि ) थयो. २०. ___हवे ते चन्ने नियोनी वातचीत केवी रीते थह ? ते कहे छे.पुच्छामि ते महाभाग !, केसी गोअममधवी । तओ केसी बुवंतं तु, गोमो इणमब्वैवी ॥२१॥ अर्थ- (केसी) केशीकुमारे ( गोमं ) गौतम गणधरने ( अम्बची ) को के--( महाभाग ) हे महा भाग्यवान ! (ते ) तमने (पुच्छामि ) हुं पूछं छु. ( तओ ) त्यारपछी ( बुवंतं ) या प्रमाणे बोलता एवा ( केसी ) केशीकुमारने (तु) पुनः ( गोअमो ) गौतमस्वामी ( इणं ) पा प्रमाणे (अब्बवी) कहेता हवा. २१. पुच्छ भंते ! जैहिच्छ ते, केसी गोअममबवी । तो केसी अणुमाए, गोमं इणमबत्री ।।२२।। अर्थ- ( भंते ) हे पूज्य ! ( जहिच्छं ) जेम तमारी इच्छा होय तेम ( ते ) तमे (पुच्छ) पूछो. ए प्रमाणे ( केसी ) Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशीकुमारने ( गोश्रम ) गौतमस्वामी ( अब्बबी) कहेता हवा. ( तो) त्यारे (फेसी ) केशीकुमार (अणुणाए गौतम-13 स्वामीनी आज्ञाए करीने ( गो ) गौतमस्वामी प्रत्ये (इणं ) आप्रमाणे ( अब्धवी) कहता हवा---पूछता हवा. २२. केशीकुमारे गौतमस्त्रामीने जे पूछधु से कहे छे.चाउजामो अ जो धम्मो, जो इमो पंसिविखओ। देसिओ बद्धनाणेणं, पासेण य महामुणी ॥२३॥ __ अर्थ-(जो) जे आ अमारो ( चाउजामो अ) अहिंसा, अन्त, अस्तेय अने अपरिग्रह ए चार महावतवाळो (ध. म्मो ) धर्म ( महामुणी ) महामुनि ( पासेण य ) श्रीपार्श्वनाथ स्वामीए (देसियो) कयो के, तथा ( जो इमो) जे आ तमारो (पंचसिक्सिमो ) उपरना चार तथा ब्रह्मचर्य ए पांच शिक्षावाळो एटले पांच महाव्रतरूप धर्म ( बद्धमाणेणं ) श्री वर्धमानस्वामीए कह्यो छे. २३. एंगकजप्रवन्नाणं, विससे किं नु कारणं ? ॥ घुम्मे दुविहे मेहावी !, केहं विपंचओ ने तें ? ॥२४॥ ___अर्थ--तो ( एगकअपवनाणं ) मोक्षरूपी एक ज कार्यने माटे प्रवर्तेला ते बने जिनेश्वरोने ( विसेसे ) मावो विशेष || -भेद करवामां (किं नु ) ( कारणं ) कारण हशे ? ( महावी ) हे बुद्धिमान ! ( दुविहे ) आ रीते वे प्रकारे ( धम्मे ) धर्म कहे सते (ते ) तमने ( विपनो ) अविश्वास । कई ) कम ( न ) थतो नथी ? बनेनुं सर्वत्रपणुं तुन्य छे, छतां पात्रो मतभेद केम थाय ? २४. pal Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-त्यारपछी ( पडिरूवण्णू ) यथायोग्य विनयने जाणनार (गोश्रमो ) गौतमस्वामी ( जिट्ठ कुलं ) पार्श्वनाथना संतानने प्रथम थयेल होवाथी या मोटुं कुळ छे एम (अविखंतो) अपेक्षा करता-जाणता सता (सीससंघसमाउलो) शिष्योना समूह सहित (तिदुभं ) तिदुक नामना ( वणं ) उद्यानमा ( आगओ) च्या. १५. कैसी कुमारसमणे, गोअमं दिसमासुयं । पडिरवं पविति, सम्म संपेडियजइ ॥१६॥ ___अर्थ-( केसी ) केशी नामना ( कुमारसमणे ) कुमार साधु ( गोममं ) गौतमने ( आगयं) आवेला (दिस्स) जोइने ( सम्म ) सम्यक् प्रकारे ( पडिरूवं ) अतिथिने योग्य एवी ( पडिवत्ति ) सेवाने ( संपडिवाइ) सारी रीते करता हवा, १६. ते सेवाने ज बतावे छे.पैलालं फासुअं तत्थ, पं. कुसतणाणि | गौअमस्त णिसिज्जाए, खिंय संपणामए ॥ १७ ॥ ___ अर्ध-( तत्थ ) त्या तिदुक वनमा ( फासुग्रं ) प्रासुक-अचित्त ( पलालं ) पराळ ( अ ) तथा ( पंचमं ) पांचमा । | ( कुसतणाणि ) कुश जातिना तृण ( गोश्रमस्स ) गौतमने (थिसिजाए ) बेसवा माटे (खिपं) शीघ्रपणे ( संपखामए) केशीकुमारे आप्या. अहीं पराळना चार भेदनी अपेक्षाए तृणने पांच, गणाव्यु छ तेथी 'पंचम' शब्द लख्पो छे. ते | | विष कडु के के Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " तणपंचगं पुण भणिनं, जिणेहि कम्मदुर्गठिमहरणेहिं । साली १ वीही २ कोदव ३, रालय ४ रखे तणाई ५ च ॥" अर्थ--" आठे कर्मनी ग्रंथिने मथन करनारा झिनेश्वरोए पांच प्रकारना तृण कह्या छ,-शाळी १, ब्रीहि २, कोदरा * ३, रालक ४ भने अरण्यना तृण ५." ( प्रामा प्रथमना चार भेद पराळनी नातिना छे अने पांचमो भेद तणनो छे तेथी पंचम शब्द कह्यो छे. १७. ते बन्ने साथै बेठा ते वखते केवा शोभता हता! ते कहे छे.केसी कुमारसमणे, गोओ महामसे । देशको निसन्ना सोहंति, चंदसूरसमप्पहा ॥ १८॥ अर्थ-( महायसे ) महा यशवाळा ( केसी कुमारसमणे ) केशीकुमार साधु (अ) तथा (गोत्रमे ) गौतम | ( उभो ) ए बने (निसन्ना ) बेठा सता ( चंदसरसमप्पहा ) चंद्र अने सूर्य जेवी कांतिवाळा ( सोहंति ) शोभता हता. १८, __तेमना समागम वखते जे थयुं ते कई छ.समागया बहू तस्थ, पोसंडा कोउगा मिश्रा । गिहेत्थाणमणेगाओ, साहस्सीओ संमागया ॥ १९॥ अर्थ-( तत्थ ) त्यां तिंदुक उद्यानमा (कोउगा ) कौतुकथी ( मिश्रा) मृगनी जेवा मृग एटले अज्ञानी एवा (बहू ) 55... . क.. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओकेतु, गोअमो ईणमब्बैत्री | पंपणा समिक्खए धर्म-तत्तं तत्तविणिच्छयं ॥ २५ ॥ अर्थ - (ओ) त्यारपछी ( बुवंतं तु ) श्रा प्रमाणे बोलता एवा (केसि ) केशीकुमार प्रत्ये ( गोमो ) गौतम गणधर (इ) प्रमाणे ( अव्ववी ) कहेता हवा, (पप्पा ) बुद्धि ( तत्तविणिच्छ्रयं ) जीवादिक तच्चोनो निश्चय क नार (धम्मंत ) धर्मना तच्चने ( समिक्खए ) जुए छे. अर्थात् मात्र वाक्यनुं श्रवण करवाथी ज अर्धनो निर्णय यह शकतो नथी परंतु बुद्धिधी ज निर्णय थाय छे. २५. तेथी करीने पुरमा उज्जुजडा डे, वैक्कजडा ये पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपला उ, तेरी धम्मे हा कैए || २६ || अर्थ - ( उ ) जे कारण माटे ( पुरिमा ) पहेला तीर्थंकरना मुनिश्रो (उज्जुजडा ) सरळपणाए करीने ऋजु अने बोध पाडवाने दुष्कर होवाथी जड हता, (य) तथा (पच्छिमा ) बेल्ला तीर्थकरना साधुश्रो ( वक्कजडा ) विपरीत प्रकृति होचाभी चक्र अने पोताना कुविकल्पवडे सत्य अर्थ जाणवामां असमर्थ होवाथी जड छे, ( उ ) तथा ( मज्झिमा ) मध्यमना वीश तीर्थकरोना साधुओ ( उज्जुपला ) ऋजु एटले सरळ प्रकृतिवाळा अने प्राज्ञ एटले बुद्धिमान हता, ( तेरा ) ते कारण माटे एक कार्यमा ज प्रवर्त्या छतां (धम्मे ) धर्म (दुहा ) चे प्रकारे (कए ) कर्यो छे को छे. २६. अ केशकुमार शंका करे के " जो के प्रथमादिक प्रभुना मुनिओ एवा प्रकारना हता, तोपण आ रीते वे प्रकारनो Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्म करवानुं शुं कारण ?" ते उपर कहे छे.न|| पुरिमाणं दुविसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुबिसोझो सुपालओ।२७ अर्ध- पुरिमाणं ) पहेला तीर्थकरना साधुओने ( कप्पो ) आ साधुधर्मनो कल्प एटले आचार ( दुन्निसोझो उ ) | दुर्विशोध्य एटले दुःखे करीने निर्मळ करी शकाय तेवो अर्थात् जाणी शकाय तेवो छे, कारण के तेओ ऋजुजड होवाथी गु-| | रूए कह्या छतां तेनो अर्थ सम्यक् प्रकारे जाणी शके नहीं. परंतु जो जाणे तो पछी पाळी शके खरा, तथा ( चरिमाणं) छेल्ला तीर्थकरना साधुओने ते कल्प ( दुरणुपालभो) दुःखे करीने पाळी शकाय तेवो के कारण के तेत्रो कोइपण रीते | | जाणी शके छे. परंतु वक्रजड होवाथी बराबर पाळी शकता नथी. (तु ) तथा ( मज्झिमगाणं ) मध्यना बावीश तीर्थकरो|| ना साधुनोने से कल्प (सुविसोझो ) सारी रीते शोधी शकाय-जाणी शकाय तेयो अने I ( सुपालभो ) सारी रीते पाळी शकाय तेको छे. कारण के तेश्रो ऋजुप्राज्ञ होवाथी सुखे करीने | | यथार्थपणे जाणी शके छे अने ते ज प्रमाणे पाळी पण शके छे. तेथी तेओ चार महाबतोवाळो धर्म कह्या छतां पण । यांचमा व्रतने जाणवामा अने पाळवामा समर्थ छे. कयु छ के–“ स्त्रीनो परिग्रह कर्या विना तेनो भोग था शकतो नथी, तेथी परिग्रहनी विरतिमा मैथुननी पण विरति भावी जायज छे." ए प्रमाणेनी बुद्धिी बावीश तीर्थकरोना साधुओ जाशीने ते प्रमाणे पाळे छे. श्रावी अपेक्षाथी श्रीपार्श्वनाथस्वामीए चार महावतो कह्या भने पहेला छल्ला तीर्थकरना साधुभो तेत्रा ऋजुप्राश नहीं होत्राथी श्रीऋषभदेवे अने श्रीमहावीरस्वामीए पांच महाव्रतो का छे. विचित्र बुद्धिवाळा । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्योना उपर अनुग्रह करवानी बुद्धिथी जबे प्रकारनो धर्म कहो के, पसा तत्वधी विचार करीए तो ए वे प्रकारनो धर्म छ ज नहीं-एक ज प्रकारनो के. अहीं प्रसंगने लीघे ज पहेला तीर्थकर संबंधी वात कही छे. २७. ते सांभळी केशकुमारे कई...... साहु गांअंम! पण्णा ते, पिणो में संसमो ईमो।अन्नो वि संसओ मज्झं,"त"मे कहेसु गोमा! ॥२८॥ अर्थ-(गोश्रम ) हे गौतम ! ( ते ) तमारी ( पप्मा) बुद्धि ( साहु ) घणी सारी छे, तेथी ( इमो ) प्रा (मे ) | * मारो (संसओ) संशय तो ( छिलो ) तमे छेधो छ, वळी ( अनओ वि) बीजो पण ( मनं ) मने (संसमो) संशय | | २. (तं ) तेने-तेना समाधानने पण ( गोभमा ) हे गौतम ! तमे ( मे ) मने ( कहसु ) कहो. आ सर्व केशीकुमारन कहेवु शिष्यनी अपेक्षाथी छे. अर्थात् शिष्यवर्गने समजाववा माटे छे. कारण के पोते तो त्रण All ज्ञान सहित छ तेथी सेने तो प्रावो संशय होय ज नहीं. २८० ___ अचेलगो 'अ जो धम्मो, जो इमो संतस्त्तरो । देसियो वद्धमाणेणं, पासेण य महायसा ॥२९॥ ___ अर्थ-(अ ) तथा ( जो ) जे आ (अचेलगो) अचेलक एटले वस्त्र रहित अर्थात् प्रमाणोपेत, श्वेत, जीर्णप्राय || अने अल्प मूल्यवाल्लं वस्त्र धारण करई एवो (धम्मो ) साधुनो धर्म ( महायसा ) मोटा यशवाळा ( वद्धमाणेचं ) श्री वर्धमानस्वामीए ( देसिओ) कमो के, तथा ( जो इमो ) जे मा अमारो (संतरुत्तरो) सांतर एटले श्रीमहावीरस्वामीना Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्यनी अपेक्षाए अंतर सहित अर्थात् विशेष प्रकारना प्रमाण अने वर्णवाळा-गमे तेवा प्रमाणवाळा अने जूदा जूदा रंगवाळा अने उत्तर एटले घणा मूल्यवडे श्रेष्ठ एवा वस्त्रवाळो धर्म ( पासेण य ) श्रीपार्श्वनाथस्यामीए कहेलो छे. २६. एकजप्पवन्नाएं, विलेसे किं नु कारणं ? । लिंगे विहे मेहावी ! कहं विप्पचओ ने ते? ॥३०॥ ___ अर्थ-(एगकअप्परमाणं ) मोक्षरूपी एक ज कार्य साधवामा प्रवतेला ते बन्ने तीर्थकरोने ( विसेसे ) भावो विशेष- | भेद करवामां (किं नु कारणं) शुं कारण हशे ! (मेहावी) हे बुद्धिमान ! (दुविहे ) अचेलक अने सचेलक एवा चे प्रकारना | (लिंगे) लिंग-वेपने विषे (ते) तमने (विप्पच्चो) अविश्वास { कहं ) केम (न) नथी थतो ? शंका केम नथी थती ? ३०. केसिमेवं बुवंतं तु, गोश्रम इणेमब्बी । विण्णाणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छिंअं ॥३१॥ ___ अर्थ–एवं ) ए प्रमाणे ( वुवतं तु ) कहेता-पूछता एवा ( केसि ) केशीकुमारने (गोमं ) गौतम गणधर (इणं). आ प्रमाणे (अचत्री) कहेता हवा-उत्तर देता हवा, के--(विमाणेण ) केवळज्ञानवडे ( समागम्म ) जे जेने उचित होय ते तेज प्रमाणे जाणीने ते बने तीर्थकरोए (धम्मसाहणं ) धर्मनु साधन एटले धर्मना उपकरणने (इच्छिमं) इच्छषा छे-कथा छे. पहेला अने छल्ला तीर्थकरना साधुने जो पंचवर्णना वस्त्रादिकनी अनुज्ञा पापी होत तो तेप्रो ऋजुजड भने वक्रजड होवाथी चखने रंगवा विगेरे कार्यमा प्रवृत्ति करत. तेथी सेमने तेत्री अनुन्ना पापी नहीं. अने श्रीपार्श्वनाथस्वामीना शिष्यो तो ऋजुप्रास होवाथी तेओने रंगेला वस्त्रोनी पण मनुज्ञा भापी छे. ३१. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेम जवळी. - पचयैत्थं च लोगस्स, नाणावित्रिगप्पणं । जत्तत्थं गणत्थं च लोए लिंगप्पओअणं ॥ ३२ ॥ अर्थ--- (च) तथा बळी ( लोगस्स ) लोकना ( पश्चयत्थं ) विश्वासने माटे ( नाखाविहविगप्पां ) नाना प्रकारना रणनी पता करेली के हरणादिक विविध प्रकारनां उपकरण नियमे करीने यतिभने विषे ज संभवे छे, तेथी लोकोने ते उपकरण जोड़ 'आ साधु के ' एम विश्वास आवे छे. जो ए रीते नियमित उपकरण न होय तो बीजा पण को इच्छा प्रमाणे वेष धारण करीने 'अमे साधु बीए.' एम पूजावा मनावा माटे लोको पासे पोतानी प्रसिद्धि करे, अने ते करवाथी सत्य मुनिओने विषे पण लोकनी प्रतीतिमां भंग पडे. माटे नियमित उपकरणमां फेरकार कहेल नथी. ते तो बने एक सरखा ज राखत्रा योग्य थे तथा ( जत्तत्थं ) यात्रा एटले संयमता निर्वाहने माठे ( गहणत्थं च ) तथा पोताना ज्ञानने माटे पण (लोए) लोकमां (लिंगप्पश्रोअ) वेषनुं प्रयोजन के एटले ते प्रमाणे वर्षा कल्पादिक राखवामां न वे तो वर्षाकाळमां संयमनी बाधा धाय, तेथी वेषनी जरुर छे तेमज कदाचित् मनना परिणाम चारित्रपरथी पडी जाय : तोपण हुं मुनि 'एम पोताने मुनिपखाना ज्ञानने माटे पण वेपनी जरुर के. ३२. अंह भवे पंइणा डे, मोक्ख सन्भूअसाहणो । नाणं च दसणं चैव, चैरित्तं चैव निच्छए ॥ ३३ ॥ अर्थ - (अह ) हवे (निच्छए ) निश्रय नयना मते तो ( नां च ) ज्ञान, ( दंसणं चेव ) दर्शन भने ( चरितं Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | चेष ) चारित्र ज ( मोक्खसम्मूसाहयो) मोचना सत्य साधनो छ, ए प्रमाणे श्रीपार्श्वनाथ स्वामी अने वर्धमानस्वामीनी | (पइस्पा) एक सरखी प्रतिज्ञा-अंगीकार (भवे उ) होय ज-छे ज. भरतचक्री विगेरेने वेष विना पण केवळज्ञान उत्पम थयु हतुं एम संभळाय छे, तेथी मोक्षy कारण सत्वी तो ज्ञान, दर्शन अने चारित्र थे, पण वेष नथी. तेथी वेषनी भिन्नता जोराधी विज्ञानीयोने तेमां कांइ अविश्वास थतो नथी. वेष तो मात्र व्यवहार नयनी अपंक्षाए ज छे. ३३. साहु गोअम! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओइमो। अन्नो वि संसओ मज्झं,"तं मे कहीँ गोअमा॥३४॥ अर्थ-(गोश्रम ) हे गौतम ! (ते ) तमारी ( पप्मा) बुद्धि (साह ) बह सारी छे. तेथी ( इमा) आ (मे)| मारो ( संसओ) संशय पण ( लिसो) तमे वेद्यो छे. हजु ( अम्रो वि ) चीजो पण ( मझं ) मने ( संसओ) संशय छे, (तं ) ते ( मे ) मारा संशयने ( गोममा ) हे गौतम गणधर ! ( कहसु ) तमे कहो. ते बीजा पण मारा संशयने तमे * छेदो. या प्रमाणे महाव्रत संबंधी तथा वेष संबंधी शिष्योना संशयने दूर करी हवे ते शिष्योने ज जणाववा माटे केशीकुमार | पोते जाणता हता तोपण नीचेनो बीजो प्रश्न करे छे. ३४, अणेगाण सहस्साणं, मझे चिंट्रेसिगोमा। ते अते अभिगच्छति, कहते निजिमी तुमे ! ॥३५॥ __ अर्थ-( गोमा ) हे गौतम ! ( अणेमाण ) अनेक ( सहस्साणं) हजारो शत्रुओनी ( मज्झे ) मध्ये ( चिट्ठसि) तमे रहो छो. ( ते अ ) भने वळी ते शत्रुओ ( ते ) तमारी तरफ (अभिगच्छति ) तमने जीतवा माटे दोडे छे, छा (ते) | Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से शत्रुधोने ( तुमे ) तमे ( कहं ) शी रीते (निजिआ ) जत्यिा ! जीती लीधा ! ते कहो. ३५. हवे गौतमस्वामी उत्तर भापे छे.एगे जिए जिआ पंच, पंच जिए जिग दस । दसंहा उ जिर्णिता णं, सव्वसत्तू जिणामहं ॥३६॥ ___अर्थ-(एगे) एक शत्रु (जिए ) जीताये सते (पंच) पांचे शत्रु (जिमा) जीताया एम जाणवू, तथा (पंच) पांच शव (जिए) जीताये मते (दस) टोपाठ (जिमा) जीताया जाणवा. तथा (दसहा उ) दश प्रकारना शत्रुने (जिणिता णं) ITI जीतीने ( सव्यसत्तू ) सर्व शत्रुओने ( अहं ) हुं (जिणामि) जीतुं छु. ३६. ते सांभळीने पछीवित सत्तू अ ईइ के वुत्ते ?, केसी गोश्रममब्बी । तओ केसी बुवंतं तु, गोमो ईणमब्वी ॥ ३७ ॥ | अर्थ-तमे १-५-१० विगेरे (सत्तू अ) शत्रुनो (के) कया ( बुत्ते ) कह्या छ ?-कोने कहो छो। (इ) ए प्रमाणे (केसी) केशीकुमार ( गोश्रमं ) गौतमस्वामीने (अब्बवी ) कहेता हवा पूछता हवा. (तो) त्यारपछी ( युवतं तु) ए प्रमाणे बोलता एवा (केसी) केशीकुमार प्रत्ये ( गोअमो ) गौतमस्वामी ( इणं ) आ प्रमाणे ( अब्बवी) बोलता अंहवा–कहेता हवा. ३७. । एगप्पा अजिए सत्तू, कैंसाया इंदिआणि अ। ते जिणीतु जहाणायं, विरामि अहं मुंणी!॥३८॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(एगा ) एक आत्मा एटले जीव के मन ( अजिए ) नहीं जीतायो सतो ( सत्तू ) शत्रुरूप छ, तथा I ( कसाया ) चारे कपायो नहीं जीरया सता शत्रुरूप छे, आ रीते मन भने कपायो मळीने पांच शत्रु छ. (अ) तथा | ( इंदिआणि ) पांच इंद्रियो नहीं जीत्या सता शत्रुरूप छे. आ सर्व मळीने दश शत्रु थया. (ते) ते सर्व शत्रुप्रोने ( जहाणायं ) शास्त्रमा कहेली नीतिवडे (जिणीतु ) जीतीने ( मुणी ) हे केशीकुमार मुनि ! ( अहं ) हुँ ( बिहरामि) | विचरूं छु, एटले ते शत्रुयोनी मध्ये रह्या छतां पण अप्रतिबद्ध विहारे करीने हुँ विचरं छु. ३८. श्रा प्रमाणे गौतमस्वामीए कहुं त्यारे केशीकुमार फरीथी बोल्या के-- सानोमा पार दे, शिको 'म संसओ ईमो! अन्नो वि संसओ मज्झं, मे कहसु गोअमा! ॥ ३९ ॥ अर्थ-(गोअम) हे गौतम गणधर ! ( ते पप्मा ) मारी बुद्धि ( साहु) बहु सारी थे, तथी ( इमो) मा (मे संसओ) मारो संशय पण ( छिलो ) तमे छेद्यो छ. ( अन्नो वि ) हजु बीजो पण ( मझ) मने ( संसपो ) संशय के, (तं मे ) ते मारा संशयने ( गोप्रमा) हे गौतम गणधर ! (कहसु ) तमे कहो-छेदो. ३६. दीसंति बहवो लोए, पासबद्धा सरीरिणो । मुंकपासो लेहभूओ, केहं तं विहरसी मुणी ? ॥१०॥ अर्थ (लोए ) लोकने विषे ( पासबद्धा ) पाशथी एटले रागद्वेषरूपी पाशधी बंधायेला ( सरीरिणो ) प्राणीयो Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (चद्दवो ) घणा ( दीसंति ) देखाथ छे, अने (लहओ) लघु एटले वायु, सेनी विचरो छ ? ४०. त्यारे गौतमस्वामी बोल्या के 'ते पासे सेव्वसो छित्ता निहंग ( मुणी ) हे गौतम मुनि ! ( सं ) तमे ( सुकपासो) ते पाशथी मुक्त जेवा थया सता ( क ) केवी रीते ( विहरसी) सर्वत्र प्रतिबद्धपणे वायओ । मुक्कपासो लहूभूओ विरामि अहं णी ! ॥ ४१ ॥ अर्थ -- (ते ) ते ( सव्वसो ) सर्व ( पासे ) पाशोने ( बित्ता ) बेदीने तथा ( उवायओ) सत्य भावनाना अभ्यासरूप उपायथी (निरंतू ) हणीने एटले फरीथी तेनो बंध न थाय एवी रीते तेमनो विनाश करीने (श्रई) हुं ( सुखी ) हे केशीकुमार मुनि ! ( मुकपासो ) पाशथी मुक्त भने ( लहूभूओ ) वायुनी जेवो लघु थयो सतो ( विहरामि ) विचरुं . ४१. पासा य इति के बुत्ता ?, केली गोममवी । तओ कैसीं बुवंतं तु, गोमो णमत्रैवी ॥४२॥ अर्थ - ( पासा य ) पाशो ( के बुत्ता ) तमे कया कया ? एटले तमे कोने पासला कह्या १ ( इति ) ए प्रमाणे ( केसी ) केशीकुमार सुनि ( गोश्रमं ) गौतम गणधरने (अब्बवी ) कहता हवा. ( तो ) त्यारपछी ( बुर्वतं तु ) ए प्रमाणे बोear ear (ii) केशीकुमारने (गोश्रमो ) गौतमस्वामी ( इणं ) ) आ प्रमाणे ( अन्भवी ) कहता हवा. ४२. ३१ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोगदोसादमओ तिवा, नपासा भयंकरा । ते छिदिन जहाणायं, विरामि जहक्कम ॥ ४३ ॥ * अर्थ- सोसादी ) रा टेप विगरे (निया ) तीव्र अने ( भयंकग ) भयंकर एवा (नहपासा) स्नेह- 11 पाशो कहेला के, (ते) ते पाशाने ( जहाणा) शास्त्रमा कहेली नीति प्रमाणे (विदितु ) छेदीने (जहक्कम) यथाक्रम एटले साधुना पाचारमा कहेला क्रम प्रमाणे (विहरामि ) ९ विचरूं छु. ४३. ते सांभळी केशीकुमार बोन्या.साह गोअम! पण्णा ते, छिन्नो में संसओ इमो। अन्नो वि संसभो मैज्झं, त में कहेसु गामा अर्थ-- गोश्रम ) हे गौतम गणधर ! ( ते पप्पा ) तमारी बुद्धि ( साहु) घणी सारी छ, तेथी ( इमो) आ (में) मारो ( संसओ) संशय पण ( छिन्नो ) तमे छयो छे. वळी । अन्नो वि ) वीजो पण ( मज्झं ) मने ( संसओ) संशय छ, El (तमेमारा संशयने ( गोत्रमा ) हे गौतम गणधर ! ( कह · तमे कहो-छेदो. ४४. | अंतोहिअयसंभूआ, लैया चि गोअमा!। फलेइ विसभक्षीणं, सा उ उद्धरिआ केहं ? ॥ १५॥ अर्थ-(गोत्रमा ) हे गौतम गणधर 1 (अंतोहि अयसंसूबा ) हृदयनी भंदर उत्पन्न थयेली (लया) जे लता (चिट्ठह ) रहेली छे, तथा जे लता ( पिसभक्खीणं ) विषनी जेबा भक्षण करया लायक एटले परिणामे दारुण एवा विष | फळोने (फलेइ ) फळे छे-उत्पन्न करे छे, (साउ) ते लता तमे ( कई ) केवी रीते ( उद्धरिमा ) उखेडी नांखी ! ४५. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA त्यारे गौतमस्वामी बोल्या.है। तं लेतं सव्वलो छित्ता, उद्धरित्तु समूलिअं। विहरामि जहानायं, मुंकोमि विसंभक्खणं ॥ १६ ॥ * अर्थ-(तं ) ते ( लतं ) लताने ( सव्वसो ) सर्वथा (छित्ता) छेदीने तथा ( समूलिअं) पूल सहित ( उद्धरितु) । उखेडी नांखीने (जहानागं । शास्त्रमा नदेली नि प्रमाणे (विहरामि ) हुं विचरुं छु भने (विसमक्खणं) क्लिष्ट * कर्मरूपी विषफळना भक्षणथी ( मुकोमि ) हुं मुक्त थयो छु. ४६. लया य इति का वुत्ता ?, कैसी गोअममबंधी । केसीमेवें बुवंतं तु, गोमो इणमब्वी ॥४॥ अर्थ--( लया य ) वळी लता ते ( का वुत्ता ) कह कही छे ? ( इति ) ए प्रमाणे ( केसी ) केशीकुमार ( गोअम ) गौतम गणधरने ( अब्बवी ) कहेता हवा-पूछता हवा. (एवं ) ए प्रमाणे (घुवंतं तु ) कहेता एवा ( केसी) केशीकुमारने (गोअमो ) गौतमस्वामी (इणं ) आ प्रमाणे ( अब्बी ) कहेता हवा. ४७. भवतण्हा लैंया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया । तमुद्धित्तु जहानायं, विरामि महामुणी ! ॥ ४८ ॥ ___ अर्थ ( भवतण्डा ) संसारने विषे जे तृष्णा-लोम ते ज ( मीमा ) भयंकर अने ( भीमफलोदया) भर्यकर फळना उदयवाळी (लया ) लता (बुत्ता) कहेली छे. (तं ) ते लताने (जहानायं ) शास्त्रमा कहेली नीति प्रमाणे ( उद्धि) । उखेडी नांखीने (महामुणी ) हे केशी महामुनि ! ( विहरामि ) हुं विचरुं छु. ४८. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहु गोअम ! परमा ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नो वि संसओ मझ, तं मे कहसुगोअमा ! ॥४९॥ अर्थ-- प्रथमनी जेम जाणवो. ४६. | संपेजलिआ धौरा, अंग्गी चिट्ठह गोअमा!। जे डेहति सरीरस्था, कहं विज्झाविआ तुमे ? ॥५०॥ अर्थ- ( गोअमा) हे गौतम गणधर ! ( संपजलिमा) अत्यंत जाज्वन्यमान अने एज कारणथी (घोरा ) घोर| भयंकर एवा ( अगी) अग्निओ (चिट्ठइ ) रहेला छे, के (जे) जे अग्निओ ( सरीरत्था ) शरीरमा रया थका ( उहंति ) बाळे छे-परिताप उपजाये छे. तेमने ( तुमे ) तमे ( कई ) केवी रीते ( विज्झाविमा ) बुझव्या-शांत कर्या ? ५०. ___त्यारे गौतमस्वामी बोच्या. . महामेहप्पसूआओ, गिझ वारि जलोत्तमं । सिंचामि सययं ते उ, सित्ता'नो अ देहति मे ॥५१॥ अर्थ- (महामहप्पस्थाओ) महामेषयकी उत्पन्न थयेला प्रवाहथी ( जलोत्तमं ) सर्व जळमां प्रधान एवं ( वारि ) जळ (गिज्झ ) ग्रहण करीने ( ते उ ) ते भग्निओने ( सययं ) निरंतर (सिंचामि ) ई छांटुं छ-शांत करूं छु. ( सित्ता) || अने ते जळवडे सींच्या एका ते अग्नियो । मे) मने ( नो घ दहति ) नथी ज बाळता. ५१. अग्गी अ ईइ के वुत्ते ?, कैसी गोअममचवी । तो कैसी बुवंतं तु, गोभेमो इणमब्बेवी ॥ ५२ ।। अर्थः- (अग्नी भ) वळी अग्नि ते ( के वृत्ते ) कया कया छ ? (इइ) ए प्रमाणे (केसी गोश्रममन्त्री) केशीकुमार Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतमस्वामीने कहेता-पूछता हवा. (तो ) त्यारे ( बुवंतं तु) ए प्रमाणे चोलता एवा ( केसी ) केशीकुमारने (गोममो इणं अब्बवी ) गौतमस्वामी या प्रमाणे कहेता इवा. अहीं अग्निना संबंधमा प्रश्न कर्यो, तेना उपलचणथी लेने घुझावनार महामेषादिक संबंधी पण प्रश्न कर्यो एम समजवू. ५२. कसाया श्रेग्गिणो वुत्ता, सुजसीलतओ अल सुयारामिहया सता, भिन्ना हुने डेहति मे ॥५३॥ __ अर्थ (कसाया ) कषायो परिताप उपजाबनार होवाथी तथा शोषण करनार होवाथी (अम्गिणो) अग्निमो (वुत्ता) कह्या छ, तथा (सुअसीलतो) श्रुत एटले कषायने शमावत्राना कारणभूत श्रुतने विषे रहेला उपदेशो, शीळ एटले पांच महाव्रतो अने बार प्रकारनो तप, ते . जलं ) जळ कहेल छे. उपलक्षणथी जगतने आनंददायक एवा तीर्थकरने | महामेधरूप कया छ, अने तेमनाथी उत्पन थयेला भागमने जळना प्रवाहरूप कहेलो छे. तेथी करीने ( सुअपारामिहया ) श्रुतनी तथा उपलक्षणथी शीळ अने सपनी धाराबडे हणायेला अने ( भिमा हु) भेदाया (संता ) सता ते भग्निो (मे) मने (न उइंति ) बाळता नथी. ५३. साहु गोअम ! पपणा ते, छिन्नो मे संसओ इमो।अन्नो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोअमा!॥४॥ अर्थ-पूर्वनी जेम जाणवो. ५१. | अयं साहसिओ भीमो, बुंटुस्सो परिधावइ । जैसि गोश्रम ! मारूढो, कह तेण में होरसि ? ॥५५॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .... अर्थ--( अयं ) मा प्रत्यक्ष देखातो, ( साहसियो ) साहसिक एटले विचार कर्या विना ज प्रवर्ततो, ( मीमो ) भयंन कर अने ( दुवस्सो) दुष्ट एवो अश्व ( परिधावइ ) दोडे के, के (जसि ) जेना उपर ( मालढो ) आरूढ थयेला एवा समे (गोश्रम ) हे गौतम गणधर ! ( तेण ) ते अश्वथी ( कहं ) केम ( न होरसि ) हरण कराता नथी-ते अश्व तमने केम उl मार्गे लइ जतो नथी ?. ५५. " त्यारे गौतमस्वामी बोल्या.-- al पहावंत निगिहामि, सुअरस्सीसमाहितं । न में गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पेडिवजइ ॥ ५६ ।। । अर्थ-(सुनरस्तीसमाहित ) श्रुतरूपी रश्मि एटले दोपडे बांधेला से दुभी र पहाव) उन्मार्गे दोडता || एवाने (निगिण्हामि) पकडी राखं छु, तेथी ( मे) मारो ते अम ( उम्मगं) उन्मार्गे ( न गच्छद्र ) जनो नथी, (मम्गं च) ॐ अने मार्गने एटले सन्मार्गने ( पडिवाइ) अंगीकार करे छे-सन्मार्गे चाले छे. ५६. आसे अ इति के वुत्ते?, केसी गोअममधवी। "केसीमेवं बुवंतं तु, गोअमो इणमब्बी ॥ ५७ ॥ ____ अर्थ-(भासे अ) वळी अश्व ते ( के वृत्ते ) कयो कयो छे ? ( इति ) ए प्रमाणे ( केसी ) केशीकुमार ( गोमं ) | गौतम गणघर प्रत्ये ( अन्धवी ) कहेता हवा-पूछता हवा ( एवं बुवंतं तु ) ए प्रमाणे कहेता एवा (केसी) केशीकुमार प्रत्ये (गोभमो) गौतमस्वामी (इमं अब्यबी) या प्रमाणे उसर कहता हवा. ५७. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MI मणो साहसियो भीमो, kट्ठस्सो परिधावइ । तं सम्मं निगिहामि, धम्मसिक्खाइ कथगं ॥५॥ अर्थ-हे केशी मुनि ! (मणो ) मनरूपी ( साहसिमो ) साहसिक भने ( भीमो ) भयंकर एवो ( दुस्सो) दुष्ट । अश्व ( परिधावा) आम तेम दोडे छे. (ते) तेने ( धम्मसिक्खाइ) धर्मरूप शिक्षावडे ( कंथग) जातिवंत अश्वनी जेम || ( सम्म) सम्यक् प्रकारे (निगिरहामि ) हुं निग्रह करूं के-नियममा राखं छु. ५८. साहु गोअम! पहा ते, छिन्नो मे संसनो इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोभमा! ॥५९॥ अर्थ-पूनती जेम जागा मो. ५२. कुप्पहा बहेवो लोएं, जोहिं नासंति जंतुणो। अछाणे कह वहतो, "तं ने नस्सासि गामा ! ॥६॥ अर्थ-( लोए ) लोकने विषे ( कुष्पहा ) कुमार्गो ( बहवो ) घणा छे, के ( जेहिं ) जे कुमार्गोए करीने ( जंतुणो ) ||| प्राणीमो ( नासति ) नाश पामे के एटले सन्मार्गथी प्रष्ट थाय छे, तो (गोअमा) हे गौतम मुनीश्वर ! (पद्धाणे ) सन्मा| र्गमा ( बट्टतो ) वर्तना एवा ( तं ) तमे ( कह ) केम ( न नस्ससि ) नाश पामता नथी ? भ्रष्ट थता नथी १६०, जे अ मग्गेण गच्छति, जे अ उम्मम्गपट्टिआ। ते सव्वे विईआमज्झं, तो ननस्सामहं मुणी ! ॥११॥ ___अर्थ- (गुणी ) हे केशी मुनि ! (जे अ) जेनो ( मग्गेण । सन्मार्गे ( गच्छति ) जाय छ, (जे प्र) तथा जेभो ( उम्मम्गपट्टिा ) उन्मार्गे चालनारा छे, (ते सव्वे ) ते सर्व प्राणीओ ( मझं) मारा ( विश्रा ) जाणेला के एटले ते Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सर्वेने हुँ जाणुं छु पार्थात् मार्ग अने उन्मार्गना स्वरूपने हुं नाणुं छु. ( सो ) तेथी ( अहं ) हुं (न नस्सामि ) नाश पामतो || नधी-सन्मार्गथी भ्रष्ट थतो नी. ६१. मग्गे अ इति के बुत्ते, केसी गोअममब्बवी । तओ केसी बुवंतं तु, गोअमो इणमब्बबी ॥२॥ अर्थ-( मग्गे ) मार्ग ( अ ) अने उन्मार्ग कोने कहो छो? बाकीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ६२. कुप्पावयणपासंडी, सब्वे उम्मग्गपट्रिमा । सम्मग्गं तु जिणेक्वायं, एंस मग्गे हिं उत्तमे ॥३॥ अर्थ- (कुप्पावयण पासंडी ) कुप्रवचनना पाखंडीओ एटले एकांतवादी कपिलादिकना दर्शनवाळा ( सन्चे ) सर्वे ( उम्मग्गपट्टिमा ) उन्मार्गे चालनारा छ, (तु) पुनः ( जिणक्खाय) जिनेश्वरे कहेलो जे मार्ग ते ज ( सम्मग्गं ) सन्मार्ग छ, माटे (एस ) मा ( मग्गे हि ) मार्ग ज ( उसमे) उत्तम छे. ६३.. | साहु गोअम! पण्णा ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥४ा || अर्थ-पूर्ववत् जाणवो. ६४. महाउदगवेगेणं, बुझमाणाण पाणिणं । सरणं गई पइँट्ठा य, दीवं के मन्नसी मुणी ! ॥६५॥ अर्थ-(मुखी) हे गौतम मुनि ! (महाउदगवेगेण) मोटा जळना प्रवाहवडे (बुझमाणाण) तसाता एवा (पामिय) प्रायीमोने ( सरणं) शरणरूप, (गई ) गति एटले माधार भूभिरूप, (पाहा य) अने प्रतिष्ठा एटले स्थिर रहेबाना Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | हेतुरूप ( दीवं ) द्वीप ( 5 ) कोने ( ममसी) समे मानो छो १ ६५. गौतमस्वामी जवाब आपे छे.---- अस्थि एंगो महादीवो, वोरिमन्ये महालओ। मदाउदगवेगस, गति तत्थ न विजई ॥६६॥ अर्थ--( धारिमज्झे ) जळनी मध्ये (महालभो ) मोटो (एगो ) एक ( महादीवो ) महाद्वीप ( अस्थि ) छे. (तत्थ) तेमा ( महाउदगवेगस्स) महाजळना वेगनी-प्रवाहनी ( गति ) गति (न विजई) प्रवर्तती नथी. ६६. दीवे अ इइ के वुत्ते, केसी गोअममब्बवी । केसीमेवं बुवंतं तु, गोअमो इणमब्बवी ॥६७॥ __अर्थ-(दीवे ) द्वीप कोने कहीए ? चाकीनो अर्थ पूर्ववत्. द्वीपना उपलक्षणथी ते जळमा रहेलो होवाथी जळना | प्रवाहनो प्रश्न पण बाणी लेवो. ६७, जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ ६८॥ अर्थ--( जरामरणवेगेणं ) जरा अने मरणरूपी जळना वेगवडे ( बुज्झमाणाण ) वहन कराता-तणाता (पाणिणं) प्राणीओने ( धम्मो ) धर्म ज ( पइट्ठा य ) स्थिर रहेवाना हेतुरूप, ( गई गति-आधाररूप अने ( उत्तम ) उत्तम (सरखं) शरणरूप (दीवो) द्वीप छे. कारण के ते धर्म ज संसाररूपी समुद्रमा द्वीपरूपे रहेलो छे. ते मुक्तिनुं कारण होवाथी जरा अने मरणरूप जळनो वेग तेने पहोंची शकतो नथी. ६८, Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-*-* साहु गोअम ! पाते, छिन्नो मे संसश्रो इमो । अन्नो वि संसश्रो मज्झं, तं मे कहसु गोअमा ॥ ६९ ॥ अर्थ - पूर्ववत् ६६. अपवंसि महाहंसि, नावा विप्परिधावइ । जैसि गोअम ! मारूढो, केह पारं मिस्ससि ? ॥ ७० ॥ अर्थ - (महोहंसि ) मोटा प्रवाहवाळा ( श्रावंसि ) समुद्रने विषे (नावा) वहाण ( विप्परिघावर ) विशेषे करीने आमतेम दोडे थे, बराबर सीधा चाली शकता नथी हो ( जंसि ) जे वहाणपर एटले ते वहाणपर ( मारूढो) मारूढ थला तमे (गोश्रम ) हे गौतम मुनि ! (पारं ) ते समुद्रना पारने ( कई ) केवी रीते ( गमिस्ससि) पामशो १७०. गौतमस्वामी जवाब आपे छे. जाउ सारिणी नावा, न सा पारस्स गामिणी । जा निरस्साविणी नावा, सी उ पारस्स गांमिणी ॥ ७१ ॥ ) अर्थ - (जाउ ) जे (नावा) नौका ( अस्साविणी) श्राश्रववाळी- मंदर जळ भावी शके तेवी होय छे-जेमा पाणी भरातुं होय छे, ( सा ) ते ( पारस समुद्रना पारने ( गामिणी ) पामदारी (न ) थती नथी, पया ( जा ) जे (नावा) नावा (निरस्साविगी ) आश्रव रहित - अंदर जळ न आवी शके नेवी होय छे ( सा उ ) ते नादा ( पारस ) समुद्रना पारने ( गामिणी ) पामनारी थाय छे. तेथी हुं आश्रव रहित नावावर आरूढ थह समुद्रना पारने पामीश. ७१. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROKAR++oke OF- नावा अ इति का वुत्ता ?, केसी गोअममब्बी । केसीमेवं बुवतं तु, गोअमो इणमब्ववी ॥७२॥ अर्थ पूर्ववत् जाणवो. अहीं केची नावा ? एत्रो प्रश्न कयों छे तेथी ते साथे तरनारनो अने तरवा लायक समुद्रनो पण प्रश्न को ज के एम जाणवू. ७२. | सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अलवो वुत्तो, "ज तरंति महसिणो ॥ ७३ ॥ अर्थ (सरीरं ) शरीर रूप (नाव ति) नावा के एम (आहु ) कहुं छे, कारण के पाश्रवद्वारनो रोध करी ज्ञान, दर्शन भने चारित्ररूप त्रण रत्ननी आराधना करवाथी शरीर ज संसारसागरने तारे छ. तथा ( जीवो) जीव (नाविभो) नाविक-तरनार ( बुचइ ) कहेवाय छे. केमके ते जीव ज भवसागरने तरनार छे. तथा ( संसारो) पा चार गतिरूप संसार (श्रावो ) समुद्र (बुत्तो) कह्यो छे. केमके तत्यथी ते संसार ज समुद्रनी जेम तरया लायक छ. (जं) के जे संसारसागरने (महेसियो) महर्षिओ ज ( तरंति ) तरे छे-तरी शके छे. ७३. साहु गोअम! पामा ते, छिन्नो मे संसमो इमो।अन्नो वि संसओमज्झ, तं मे कहसु गोत्रमा!॥७॥ अर्थ-पूर्ववत्. ७४. अंधयारे तमे घोरे, चिंट्रति पाणिणो बह । को कैरिस्सति उज्जो, सव्वलोअम्मि पाणिणं ? ॥७॥ अर्थ (अंधयारे ) प्राणीने अंध करनार अने (घोरे ) घोर एवा (तमे) अंधारामा ( बहू ) घणा (पाणियो) CONT- Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणीमो (चिट्ठति ) रहेला छे. तो (सब्बलोभम्मि) सर्व लोकने विषे ( पाणिणं ) प्राणीमोने (को) कोण-कयो - | पदार्थ ( उज्जोमं ) उद्योतने प्रकाशने ( करिस्सति ) करशे ? ७५. श्री गौतमस्वामी जवाब आपे छे.-- उग्गओ विमलो भाणू, सव्वलोअप्पहंकरो । सो करिस्सति उज्जोअं, सब्बलोअम्मि पाणिणं ॥७६॥ अर्थ-(सब्बलोअप्पहकरो ) सर्व लोकमा प्रकाश करनार (विमलो) निर्मळ ( भाणू ) सूर्य ( उग्गयो ) उदय पाम्यो छे, (सो) ते सूर्य (सव्वलोम्मि) सर्व लोकमां (पाणिणं ) प्राणीमोने (उओभं) उद्योत-प्रकाश (करिस्सति ) करशे. ७६. __भाणू अ इइ के वुत्ते ?, केसी गोअममब्बवी । केसीमेवं बुवंतं तु, गोअमो इणमब्बवी॥ ७७॥ अर्थ-वहीं सूर्य कोने कहो छो ? एम प्रश्न कर्यों छे. बाकी पूर्ववत्. ७७. उग्गओ खीणसंसारो, सवण्णू जिणभक्खरो । सो करिस्सइ उज्जोअं, सबलोअम्मि पाणिणं ॥७८॥ अर्थ-(खीणसंसारो ) क्षीण थयो के संसार जेनो तथा ( सव्वस्मू ) सर्व पदार्थने जाणनार एवो (जियमक्खरो) जिनेश्वररूपी भास्कर-सूर्य ( उग्गओ) उदय पाम्यो थे, ( सो) ते सूर्य ( सम्वलोमम्मि ) सर्व लोकने विषे (पाखिक) प्राणीओने ( उजोअं) उद्योत-मोहरूपी अंधकारनो नाश करी सर्व वस्तुनो प्रकाश ( फरिस्सइ) फरशे. ७८, Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * साहु गोअम! परमाते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोअमा!॥७९॥ अर्थ—पूर्ववत्. ७६. साररिमाणसं दुक्ख, बैज्झमाणाण पाणिणं । खेम सिंवमणावाह, ठाणं किं मन्नसी मुणी !॥ ८० ।। ____ अर्थ-(मणी ) हे गौना मुनीवर ! ( सारीरमाणसे ) शरीर संबंधी अने मनसंबंधी (दुक्खे ) दुःखोक्डे *( यज्झमाणाण ) बाधा-पीडा पामता एवा (पाणिणं ) प्राणीओने (खेमं ) क्षेम-आधि व्याधि रहित, (सिवं ) शिव जरा भने उपद्रव रहित तथा (अणाचाहं ) अनावाध-शत्रु नहीं होगाथी स्वभावे करीने ज पीडा रहित एवं ( ठाणे) | स्थान (किं ) कयूं ( मन्नसी ) तमे मानो छो ? ते कहो. ००. गौतमस्वामी जबाव आपे छे.अतिथ एंगं धुवं ठाणं, लोगग्गम्मि दुरारुहं । जत्थ नैत्थि जरामच्चू. वाहिणो वेअणा तेहा ॥ ८१॥ अर्थ-( लोगग्गम्मि ) लोकना अग्रभागने विष ( दुरारुहं ) दुःखे करीने चडी शकाय ए, ( एग) एक ज ( धुर्व) | धुत्र-निश्चळ ( ठाणं) स्थान (अस्थि) छे, के ( जत्थ ) ज्या ( जरामच्चू ) जरा, मृत्यु, ( वाहियो ) व्याधिो ( वहा), | तथा ( वेश्रणा ) वेदना एटले शरीर अने मन संबंधी दुःखोनो भनुभव (नस्थि ) नथी. जरा अने मृत्यु नहीं होवाथी ते स्थान शिवरूप थे, व्याधि नहीं होताथी क्षेमरूप के अने वेदना नहीं होवाथी अनाबाध छे. ८१. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणे अइइ के वुत्ते? केसी गोअममब्बची । केसीमेवं बुवंतं त, गोअमो इणमब्बी ॥ ८॥ अर्थ-श्रामा ते स्थान कयुं ? एम प्रश्न कर्यो छे. बाकी पूर्ववत्. ८२. निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धि लोगग्गनेव य । खेमं सिवमणाबाहं, जं चरति मेहेसिणो ॥३॥ अर्थ (निव्वाणं ति ) संतापना अभावी प्राणीओ शीतळ थाय जने विप ते निर्वाण ए प्रमाणे कहवाय छे, ( अबाहं ति ) बाधा नथी जेने विषे ते अथाष एवं नामे पाईसाय के सिद्धि) प्राण कर्या विना सर्व कार्यों जेन विषे सिद्ध थाय ते सिद्धि एवं नामे कहेवाय छे, (लोगग्गमेव य) लोकना अग्रभागने विषे रहेल होचाथी लोकान एम करेवाय छ, (खेमं ) शाश्वत सुख करनार होवाथी क्षेम एम कहेवाय छ, (सिबं) उपद्रव नहीं होवार्थी शिव एवे नामे कहेचाय छ, तथा ( अणाबाई ) वाघा पीडा रहित होवाथी जे स्थान अनावाध एवं कहेवाय छे, तथा (जं)जे स्थानने विष ( महेसियो) मर्षिशो (चरंति) जाय छे. अहीं ज्यां न होय त्यां 'इति' शब्दनो अध्याहार राखी अथे करवो. ८३. तं ठाणं सासर्यवासं, लोअग्गम्मि दुरारुहं । ज संपत्ता नं सौअंति, भवोहंतकरा मुंणी ॥ ८४॥ ___ अर्थ-(तं ठाणं ) ते स्थान ( सासर्यवासं ) शाश्वत निवासवाळू तथा (लोअग्गम्मि ) लोकना अग्र भागने विषे ( दुरारुहं ) दुःखे करीने चडी शकाय तेवु कैयुं छे. ( भवोहंतकरा ) भवना समूहनो अंत करनारा ( मुसी) मुनियो (जं संपत्ता) जे स्थानने पाम्या सता (न सोअंति) शोक करता नधी-कोइ जातनो शोक करवापणुं रहेतु ज नथी. ८४. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहु गोअम ! पण्णा 'ते, छिन्नो में संसओ ईमो नमो ते" संसयातीत ! संव्यसुत्तमहोदधी ! ॥८॥ * अर्थ-( गोअम ) हे गौतम गणधर ! (ते ) तमारी ( पल्ला ) बुद्धि ( साहु ) बहु सारी छ, ( इमो ) मा ( मे |* संसो) मारो संशय पसा (छिनो) तमे घो . ( संसयातीत ) हे संशय रहित ! ( सन्यसुत्तमहोदधी) हे सर्व श्रुतना * मोटा समुद्र ! ( ते नमो) तमने नमस्कार छे. ८५. पछी केशीकुमार शुं कर्यु ? ते कहे थेएवं तु संसए छिन्ने, केसी घोरपरक्कमे । अभिवंदित्ता सिरसा, गोअमं तु महायसं ॥ ८६ ॥ अर्थ एवं तु ) या अनुक्रमे ( संसए ) संशय ( छिन्ने ) छेदाये सते एटले सर्व संशयो छेदाये सते (घोरपरकमे) A घोर पराक्रमवाळा (केसी) केशीकुमारे ( महायसं ) महा यशवाळा ( गोअमं तु ) गौतम गणधरने ( सिरसा ) मस्तकवडे (अभिवंदित्ता) वंदना करीने. १६. पंचमहब्बयधम्म, पडिवज भावो । पुरिमस्स पेच्छिमम्मि, मग्गे तत्थ सुहावहे ॥ ८७ ॥ __ अर्थ--- ( भावो ) भावी (पुरिमस्स ) प्रथम जिनेश्वरे मानेला-प्रथम जिनेश्वरे पण प्रवर्तीवेला एका (तत्य मुहावहे) * ते सुखकारक ( पच्छिमम्मि मग्गे) भेला तीर्थकरना प्रवर्तीवेला मार्गमां-तीर्थमा (पंचमहन्दयधम्म) पांच महाव्रतरूप धर्मने (पडिवाइ) अंगीकार कर्यो,८७. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे आ अध्ययनने समाप्त करता महापुरुषना संगनुं फळ कहे छे..केसिंगोअमओ णिच्चं, तम्मि आसि समागमे । सुंअसीलसमुक्करिसो, महत्थत्थविणिच्छओ ॥८॥ ___ अर्थ--( तम्मि ) ते नगरीमा (णिचं ) हमेशां (केसिमोयमो) केशीकुमार अने गौतमस्वामीनो ( समागमे ) समागम (आसे ) थया कया, तेथी ( सुअसालसभुक्कारमा ) श्रुत अने शीळनो एटले ज्ञान अने चारित्रनो उत्कर्ष धयो, सथा ( महत्वत्थविणिच्छरो) महाधे एटले मुक्तिना साधनपणाए करीने महा प्रयोजनवाळा जे शिक्षा अने व्रत विगेरे | अर्थो तेनो निश्चय पण थयो, अर्थात् शिक्षा, व्रत अने तत्त्वो विगेरे पदार्थोनो निश्चय धयो. अहीं केशीकुमार तथा गौतम- | स्वामीने तो मर्थनो निश्चय हतो ज. पण नेमना शिष्योने अर्थनिश्चय थयो एम जाणवानुं छे. ८८. | तोसिआ परिसा सव्वा, सम्मगं लमुवदिया। संक्षुआ ते पसीअंतु, भयवं केसीगोअमति बेमि ॥८॥ ___ अर्थ-श्रा रीते ( तोसिमा) प्रसन्न थयेली ( सन्त्रा) सर्व ( परिसा) पर्षदा ( सम्मग्गं ) सन्मार्गने एटले मुक्ति- | मार्गने आराधवा ( समुवट्ठिा ) सावधान थइ. ( ते ) ते ( भयवं ) पूज्य अने ज्ञानवंत एवा ( केसीगोत्रमा ) केशीकुमार | अने मौतमस्वामी (संधुआ) पदाए स्तुति कराया मता (पसीअंतु) सत्पुरुषो उपर प्रसन्न थाओ (त्ति बेमि ) एम हुँ । कहुं छु. ए प्रमाणे सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने क.८६. इति प्रयोविंशमध्ययनम्. २३. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *******+1-1+1)+2018+ अथ प्रवचनमातृ नामनुं चोवीशमं अध्ययन. २४. क के बीजाना मननी शंकाने केशीकुमार अने गौतमस्वामीनी जेम दूर करवी. ते शंकानु निवारण तो भाषासमितिरूप बागयोगे करीने थइ शके छे, अने भाषासमिति अष्टप्रवचन मातानी मध्ये आवे छे, तेथी श्रहीं अष्टप्रवचन मातानुं स्वरूप कहे छे. अत्रयणमायाओं, समिई गुत्ती तहेव य । पंचे य समीईओ, तओ गुत्तिओ आहिंआ ॥ १ ॥ अर्थ--( श्रदुष्पवयणमायाओ ) प्रवचननी माताओ आठ छे. ( समिई ) समिति ( तहेव य ) तथा ( गुत्ती ) गुप्ति. मां (समीईओ) समितिश्री ( पंचैव य ) पांच ज छे धने ( गुप्तियो ) गुप्तियो (तो) त्रण (आहिया ) कहेली छे. १. ते श्रानो नाम कहे छे. -- ईरिआ भासणादाणे, उच्चारे समिई ईअ । मणगुती वेयगुक्ती, कायगुत्ति अं अंटुमा ॥ २ ॥ अर्थ - ( ईरिश्रा) इर्ष्या एटले गमन, ( भासा ) भाषा ( एसया ) एषणा एटले अन्नादिकनी गवेषणा, ( आदाये ) आदान एटले पात्रादिकनुं ग्रहण, तथा ( उच्चारे) उच्चारादिकनुं परिष्ठापन (इअ ) ए पांच ज ( समिई) समिति छे. तथा (मणगुती ) मनगुप्ति एटले मननी शुभ कार्यमां प्रवृत्ति भने अशुभ कार्यथी निवृत्ति, ( वयगुती ) ए ज रीते वचनमुति (अ) तथा ( अङ्कमा ) आदमी ( कायगुति ) काय गुप्ति छे. २. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ते आठेनुं निगमन करे के.-समाप्ति करे छ | एआओ अट्ट समिईओ, समासेण विआहिआ। र्दुवालसंगं जिंणवखायं, मायं जत्थ डे पेवयणं ॥३॥ अर्थ-(एआयो ) आ ( अट्ठ) आठ ( समिईओ) समितिमो ( समासेण ) संक्षेपे करीने ( विश्राहिमा ) कही छ । ( जत्थ ) जेने विषे ( जिणखायं ) जिनेश्वरे कहेलु (दुवालसंग) द्वादशांगरूप ( पवयणं ) प्रवचन (मायं उ) समायरुंज छे. अहीं समिति शब्दनो अर्थ ा प्रमाणे छे-सम्-सम्यक् एटले जिनेश्वरना वचनने अनुसारे इति एटले मात्मानी जे । चेष्टा ते समिति. पाया शब्दार्थ प्रमाणे गुप्तिो पण समिति ज कही शकाय छे, तेथी नहीं पाठेने समिति कही छे, छत्ता * पांच समिति भने त्रण गुप्ति एम भेदवटे जे कहेवामां आवे छ तेनुं कारण एजे समितिमो प्रवृत्तिरूपे होष छे अने गुप्तियो प्रवृत्ति अने निवृत्ति बनेरूपे होय के एम जणाववा माटे कथंचित् बन्नेनो भेद कडेवामां भावे छे. आ पाठ समितिको चारित्ररूप ज छ, भने ज्ञान तथा दर्शन विना चारित्र होइ शकतुं नथी, अने ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र ए त्रण सिवाय || चीजो कोइ पण विषय द्वादशांगीमां नथी, तेथी मा भाठ समितिने विषे प्रवचन समायेनु ज छे. एम कडं ते योग्य ज छे. ३. हवे प्रथम ईर्यासमितिनुं स्वरूप कहे छे.आलंबणेण कालेण, मग्गेण जयणाइ । चउकारणपरिसुद्धं, संजए इरिअं रिए ॥४॥ अर्थ-(संजए ) साधुए (श्रावण ) पालनन, (कालेण ) काळ, ( मग्गेण ) मार्ग (अ) अने ( जयणाइ ) | Keration Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतना ( चउकारणपरिसुद्धं ) ए चार कारणे करीने शुद्ध एवी ( इरिअं) इर्या एटले गति ( रिए ) फरवी जोइए. ४. ते आलंबनादिकनुं ज स्वरूप कहे छ.तस्थ आलंबणं नाणं, देसणं चरणं तहा । काले अ दिवसे वुत्ते, मैग्गे उप्पहवजिए ॥ ५॥ अर्थ-( तत्थ ) तेमा एटले ते श्रालंबनादिकमा (नाणं ) शान, (दंसणं) दर्शन ( तहा ) तथा ( चरणं ) चारित्र, ए ऋण (श्रालंबणं ) भालंबन कहेवाय छे. कारण के ए वणने आश्रीने ज जिनेश्वरे गमन करवानी आज्ञा पापेली छे. तेमा ज्ञान एटले सूत्र, अर्थ अने स्त्रार्थ बोरूप भागम, दर्शन एटले सम्यक्त्व अने चरण एटले चारित्र. 'तहा'-तथा शब्द आप्यो छे ते वे संयोगीया भने ऋण प्रादि गंगोगीया भागाने सूचववा माटे छे. एटले के ज्ञानादिक एक एकने अने बने आदिने आश्रीने पण गमन करवानी अनुज्ञा आपेली छे. (अ) तथा (दिवसे ) दिवस ए ( काले) काळ (वृत्ते) कह्यो छे एटले साधुने गमन करवानो काळ दिवस करो छे, पण रात्रिए ईर्यानी शुद्धि था शके नहीं, तेथी रात्रिनो काळ कह्यो नथी. तथा | ( मग्गे ) मार्ग ते (उप्पहचलिए ) उन्मार्गने वर्जीने करो छे, उन्मार्गे जवाथी आत्मानी पिराधना विगेरे दोषो लागे छे. माटे सारा मार्गे-राजमार्गे चालवू. ५. हवे यतनारूप चोथो भेद ने तेना चार प्रकार कहे थे.दव्वमो खेतो चेव, कालमो भौवमो तहा । जयणा चंडबिहा वुत्ता, तं मे कित्तयमो मुंण ॥६॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( दबो) द्रव्यथी ( खेत्तनो चेव ) क्षेत्रधी तथा ( कालो ) काळथी ( तहा ) तथा ( भावओ) भावथी। एनएम ( चउचिहा ) चार प्रकारे । जयणा) यतना ( वुत्ता) कही छे, (तं ) ते यतनाने (कित्तयो) कहेता एचा ( मे ) . मारी पासे ( सुण ) हे शिष्य ! तुं सांभळ. ६. दवओ चखुसा पेहे, जुगमित्तं तु खेत्तओ। कालो जाव रीएजा, उर्वउत्ते श्र भावो ॥७॥ - अर्थ-( चक्खुसा ) चचुवडे ( पेहे ) जे जीवादिक पदार्थने जोवा-जोइने चालवू ते ( दन्ननो ) द्रव्यथी यतना || कहेवाय छे, (जुगमित्तं तु) तथा युगप्रमाण एटले साडात्रण हाथ प्रमाण क्षेत्रने जोतां चालवु ते । खेत्तमो) क्षेत्रथी यतना कहेवाय छे, तथा ( जाव रीएजा ) ज्यांसुधी चाले त्यांसुधीना प्रमाणवाळी एटले तेटला काळना प्रमाणवाळी जे यतना ते ( कालमओ) काळथी यतना कहेवाय छे, ( उपउने श्र) तथा उपयुक्त एटले सावधान एवो सतो जे चाले ते ( भावो) मावथी यतना कहेवाय छे. ७. हवे यतनाना चोथा भेद उपयोगने ज स्पष्ट रीते कहे छे.इंदिअत्थे विवजित्ता, सञ्झायं चैव पंचहा । तम्मुत्ती तप्पुरकारे, संजए ईरिअं रिएं ॥८॥ अर्थ-( इंदिअत्थे ) इंद्रियोना शब्दादिक विषयोंने ( चेव ) तथा ( पंचहा ) पांच प्रकारना ( सज्झायं ) स्वाध्यायने । (विवजिचा ) वर्जीने कारण के स्वाध्याय पण गमन करती वखते उपयोगनो विनाश करे के तेथी स्वाध्यायने पण वर्जीने Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तम्मुत्ती) ते ईर्याने विषे ज मूर्ति एटले ब्यापार करतुं छे शरीर जेनु एवो अने ( तप्पुरकारे ) ते ईर्याने जागळ करे । एटले उपयोगमा मुख्यपणे अंगीकार करे एवो अर्थात् काया अने मन- सेमा ज एकाप्रपणुं राखतो एवो ( संजए ) साधु | (इरिगं ) गतिने (रिस ) करे. ८, हबे चीज़ी भाषासमिति कहे छे.कोहे माणे अ मायाए, लोभे अउर्वउत्तया। हासे भयमोहरिए, विकहासु तहेव य ।। ९ ॥ एआई अट ठाणाई, परिवजित संजए । असावज मिों काले, भासं भासिज पेण्णवं ॥१०॥ अर्थ-( कोहे ) क्रोधने विष, ( माणे अ ) मानने विषे, ( मायाए ) मायाने विषे, ( लोभे श्र) लोभने विषे, (हासे) हास्यने विषे, (भयमोहरिए) भयने विषे, मौखर्यने विषे, (तहेव य) तेम ज वळी (विकहासु) विकथाने विषे ( उवउत्तया) उपयोग रास्ववो, (एआई) ए ( अट्ठ ठाणाई ) आठ स्थानकोने ( परिवजित्तु ) सर्वथा वर्जीने ( पल्लवं ) बुद्धिमान ( संजए ) साधुए ( काले ) बोलवाने वखते ( असावलं ) पाप रहित-निर्दोष अने (मिमं ) परिमित एटले कार्य जेटली | ज ( भासं ) भाषा ( भासिज) बोलवी. जो क्रोधादिकमा उपयोग होय तो प्राये शुभ भाषा बोलाती नथी सेथी बोलती वखते क्रोधादिकनो अवश्य त्याग करचो जोइए. ६-१०. हवे त्रीजी एपणासमिति कहे छे. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -10213-***** गवसणाए गहणे अ, परिभोगेसणा ये जा । आहारोवहिलेजाए, ऐए तिणि वि सोहे ॥ ११॥ अर्थ - ( गवेसणाए ) गायनी जेवी एषणा एटले शुद्ध आहारनुं जोबुं ते गवेषणा कहेवाय छे, वहीं एषणा शब्द जडवाथी गवेषणानं दिधे जे एषणा ते गवेषणैषणा एटले गायनी जेम विशुद्ध आहार जोवामां एषणा- विचार करतो ते. ( गइ अ ) तथा ग्रहण एटले विशुद्ध आहारनुं ग्रहण, भहीं पण एषणा शब्द जोडवाथी ग्रहणने विषे जे एषणा- विचार ते ग्रहण कहेवाय छे, ( ब ) तथा ( जा ) जे (परिभोगेसया ) परिभोग एटले मंडळीने त्रिषे भोजननो समय तेने विषे जे एषणा - विचार ते परिभोगेषणा कद्देवाय के. (एए तिथि वि) आ ण प्रकारनी एषणा ( आहारोबहि सजाए ) आहार, उपधि-वस्त्र पात्रादिक अने शय्या--उपाश्रय संस्तारकादिक ए त्रणेने विषे ( सोहए ) शोधवानी छे. अर्थात् एकला हारने विषे ज शोधवानी के एम नथी. ११. ते एवानी शुद्धि केवी रीते करवी ? ते कड़े छे.- उग्गमुप्पायणं पैढमे, बीए सोहिज ऐसणं । परिभोगम्मि चंडकं, विसोहिज्जं जयं जेई ॥ १२ ॥ अर्थ - ( जयं) यतना करता ( जई ) साघुए ( पढने ) पहेली गवेषणाम ( उग्गमुप्पाणं) आधाकर्मादिक सोळ उद्गमना श्रने घात्री आदि सोळ उत्पादनाना दोषोने शोधवाना के, तथा (बीए) बीजी ग्रहयौषणामां ( एस ) शंकि Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T -NAMAN- -- सादिक दश एषणाना दोषाने ( सोहिज ) शोधयाना छे, तथा (परिभोगम्मि ) परिभोगैषणाने विषे ( चउकं ) संयोजना, प्रमाण, अंगारधूम अने कारण ए चार बाबत विसोहिजा शोधवानी छे. अहीं अंगार दोष अने धूम दोष योजूदा लइए तो परिमोगैषणाना पांच दोषो थवाथी कुल सुडतालीश दोषो थाय छे, परंतु अहीं अंगार अने धूम ए बन्ने दोषो मोहनीयकर्ममा अंतर्गत होवाथी बने मळीने एक ज दोष कह्यो छे. १२. ___हवे चौथी आदाननिक्षेप समिति कहे छ. ओहोवहोवग्गहिरं, भंडंग दुविहं भुणी । गिण्हतो निक्खिवतो अ, पंउंजिज्ज इमं विहि ॥ १३ ॥ ___ अर्ध-(पोहोबहोव ) हा अनुक्रम भीष, उपधि, आपग्राहक एम त्रण शब्दो रहेला छे, तेमा मध्ये रहेलो उपधि शब्द डमरुकमणिना न्यायक्डे बन्ने शब्द साथे जोडाय छे, तेथी रजोहरणादिक भोघोपधि अने दंडादिक औपग्रहि-* कोषधि एम (दुविहं ) के प्रकारना ( भंडगं ) मांडक एटले उपकरणने (गिरहंतो ) ग्रहण करता (निक्खितो अ) अने मूकता एवा (मुखी) मुनिए ( इमं ) श्रा भागळ कडेवाशे ते (विहिं ) विधि (पउंजिज) प्रयुंजवानो छ| करवानो छ.१३. १ लक्ष्मीविनयनी टीकामा ४७ दोपोनी व्याख्या विस्तारथी आपी छे, तेमां परिभोगने विषे पांच दोष न करवाना कहेला छे. एटले | १६-१६-१०-५ मळी ४७ थाय छे. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेज विधि कहे बे. - ― चक्खुसा पडिलेहित्ता, पर्मजिज्ज जयं जैई। आइए निक्खिविज्जा व दुहओ वि समिए सेवा ॥ १४॥ अर्थ - ( समिए) समितिवाळा अने ( जयं ) यतनाचाळा ( जई ) सुनिए ( दुइयो वि ) भौधिक अने श्रीपग्रहिक ए बने प्रकारना उपधिने (सया ) सदा (अक्सा ) प्रथम चतुवडे ( पडिलेहिता ) पडिलेहख करीने एटले जोहने ( जिज) रजोहरणादिकवडे प्रमार्जन करवी भने पछी ( भाइए ) ते उपधिने ग्रहण करवी (वा) अथवा ( निक्खिविजा ) मूकवी. १४. हवे यांची परिष्ठापना समितिने कहे छे. - उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाण जल्लिअं । आहारं उवहिं देहं, अन्नं वावि तहाविहं ॥ १५ ॥ अर्थ – (उच्चारं) उच्चार - पुरीप, ( पासवणं ) प्रश्रवण - मूत्र, ( खेलं ) मुखनो बळखो, (सिंघाण ) नासिकानो श्लेष्म, (नि) शरीरनो मळ, ( घ्याहारं ) अमादिक आहार, ( उवहिं ) चने प्रकारनी उपधि, ( देहं ) शरीर, (अनं aft) अथवा बीजुं द्वारा विगेरे ( तहाविहं ) तेवा प्रकारनुं के जे परिष्ठापना एटले परठववाने लायक होय ते सर्व स्थंडिलमा बोसराव कुं-तज, ए प्रमाणे क्रियापदनो संबंध अढारमी गाधामां मावशे तेनी साथे करवो. १५. अहीं जे स्थंडिलमा वोसराववानुं कां ते स्थंडिलना दश विशेषणो थे. तेमां पहेला विशेषणमां अनापात अने Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A * असंलोक ए वे शब्दो छ, तेना भोगानी रचना प्रथम बताने छ, पछी तेना उपलक्षणर्थी दशे विशेषणोना मांगा समजी लेवा. अणावायमसंलोए, गवार होइ संद। भागलोए, आँवाए चे संलोए ॥१६॥ अर्थ-(अणावायं असलोए ) ज्या स्वपच एटले साधु के परपक्ष एटले गृहस्थीमोनी जा-पाव थती न होय ते अनापात स्थंडिल कहेवाय छे, तथा ज्या स्वपक्ष के परपक्ष दूरथी पण जोइ न शके ते असंलोक स्थंडिल कहेवाय छे. ए पहेलो भांगो थयो. १ : चेव) तथा (अणावाए ) अनापात अने ( संलोए ) संलोक (होइ) होय छे एटले ज्या जाव भाव नधी पण संलोक छे ते अनापात संलोक स्थंडित कहेवाय के, ए बीजो भांगो थयो. २ तथा (भावायं असंलोए) आपात अने असंलोक एटले ज्या जात्र आव होय पण संलोक न होय ते आपात असंलोक स्थंडित कहेवाय छे, ए बीजो मांगो. ३. ।।। ( चेव ) तथा ( श्रात्राए) आपात भने ( संलोए ) संलोक एटले ज्यां जा-पाव होथ अने संलोक पण होय ते आपात | संलोक स्थंडिल कहेयाय छे, ए चौथो भांगो थयो. ४. १६. हवे ते दश विशेषणो जणाववा माटे केवा स्थंडिलमा उच्चारादिक चोसराव ? ते कहे छ.अण्णावायमसंलोए १, परस्सऽणुवघाइए २। समे३ अझुसिरे ४ आवि, अचिरकालकयम्मि अ५॥१७॥ विच्छिपणे ६ दूरमोगाढे ७,नासन्ने बिलवजिए ९।तसपाणबीअरहिए १०, उच्चाराईणि वोसिरे॥१८॥ अर्थ-(परस्स) बीजानो एटले स्वपक्ष के परपचनो (भयावार्य भसंलोए) आपात-जा-श्राव न होय भने संलोक Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न होय. १. ( अणुवधाए ) संयम, आत्मा अने प्रवचननो उपघात न घसो होय. २. ( समे ) समान होय एटले खाडा खडीयाबाळं नीचुं उंचुं न शेष. १. ( अनुशिरे ) नेता रहित एटले तृण पांदड विगेरेधी श्राच्छादित न होय. ४. (वि) तथा (अचिरकालकयम्मिश्र ) दाहादिकवडे थोडा काळथी ज अचित्त करेल होय. केमके चिरकाळ चित्त करे होय तो मां पृथिव्यादिकनी उत्पत्ति पाळी थाय छे. ५. ( विच्छि ) विस्तीर्ण एटले जघन्यथी पण एक हाथ प्रमाण क्षेत्र होय. ६. ( दूरमोगाडे ) दूर गुधी श्रवगाढ होय एटले जघन्यथी पण पृथ्वीमां नीचे-भंदर चार गळ चित्त होय. ७. (नासने ) नजीक न होय एटले ग्राम अने आरामादिकधी दूर होय. ८. ( बिलवजिए ) सूपक विगेरेना बिल रहित होय. ६० (तसपासचीअरहिए ) त्रसप्राण एटले हींद्रियादिक त्रस जीवो ने शालि विगेरे बीज तेथी रहिव एटले सर्व एकेंद्रिय द्वींद्रियादिक जीवोधी रहित होय. १०. आवा दश विशेषणवाळा स्थंडिलने विषे ( उच्चाराईणि ) उच्चारादिकने ( वोसिरे) बोसरावया एटले त्याग करवा. श्रा दश पदोना थे, ऋण श्रादिकना संयोगीया भांगा करीए त्यारे एक हजार ने चोवीश भंग थाय छे. तेमां बेल्लो दशे विशेषणवाळो भांगो मुख्यत्वे करीने शुद्ध छे, माटे ते स्थंडिलमां परठव योग्य छे. १७-१८. हवे समितिनो विषय पूर्ण करी गुतिनी प्रस्तावना करे बे. - एओ पंच समिईओ, समासेण विवाहिआ । इत्तो व तओ गुती, वोच्छामि अणुपुव्वसो ||१९|| *+-+---+**<<-->{+ →→* →* *«- •**••*••*}@ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अर्थ-(एमाओ) पा (पंच ) पांच ( समिईयो) समितिओ (समासेण) संक्षेपे करीने (विभाहिया) कही थे. (इत्तो अ) हवे (तो) त्रण ( गुत्ती) गुलियोने ( अणुपुब्बसो) अनुक्रमे ( वोच्छामि ) ९ कहुं छु. १६. हवे पहेली गुप्ति कहे छ.-- सच्चा १ तहेब मोसार य, सच्चामोसा ३ तहेव य। चउत्थी असञ्चमोसा ४ अ, मणगुती चउब्धिहा ॥२०॥ अर्थ- (सच्चा) मनमा छता पदार्थ- जे चितवq ते सत्य मनोयोग कहेवाय छे ते संबंधी मनोगुप्ति पण उपचारथी * सत्या कहेवाय छे. १. (तहेब) ते ज प्रमाणे (भोसा य) मृषा मनोगुप्ति. २. (सच्चामोसा) सत्यामृपा मनोगुप्ति. ३. (तहेव य) तथा वळी ( चउत्थी ) चौथी (असञ्चमोसा य) असत्यामृषा मनोगुप्ति. ४. ए प्रमाणे ( मणगुत्ती ) मनोगुप्ति ( चउन्विहा) चार प्रकारनी छे. जगतमां जीवतत्व छ एम सत्य पदार्थy चितवन ते सत्या १, जीवतत्व नथी एम सत्नु असत्पणे चितवन करवू ते मृषा एटले असत्या २, अाम्रादिक विविध वृक्षोनुं वन जोह तेने आम्रनुं ज वन छ एम चितवq ते सत्यामृषा ३, तथा जे चितवन सत्य पण न होय अने असत्य पण न होय, जेम " हे देवदत्त ! घडो लाव." " मारे माटे अमुक वस्तु लाव" इत्यादि आदेश निर्देशादिक वचन- मनमा चितवन करवू ते असत्याऽमृषा मनोगुप्ति छे. २०. मनोगुप्तिना ज स्वरूपने कहेता सता उपदेश श्रापे छे.--- संरंभसमारंभे, आरंभम्मि तहेव य । मणं पंवत्तमाणं तु, निमत्तिज जयं जेई ॥ २१ ॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - अर्थ (जयं) यतनावान (जई) यति (सरंभसमारंभे) हु ते ध्यान कर छु अथवा करीश के जैथी ते मरे के मरशे एवा ध्यानरूप संरंमने विषे तथा परनी पीड़ा करनार उमारनारिक संबंधी भयानरूप समारंभने विषे ( तहेव य) तथा (आरंभम्मि) परना प्राणने नाश करी शके तेवा अशुभ परिणामरूप प्रारंभने विषे ( पवचमाणं तु ) प्रवर्तता एया (मणं) मनने (निअचिन ) निवर्तन करे, अने शुभ संकल्पने विषे मनने प्रवावे. २१. * इवे बीजी वचनगुप्तिने कहे छे.* सञ्चा तहेव मोसा य, सञ्चामोसा तहेव य। चउत्थी असञ्चमोसा उ, वयगुत्ती चउठिवहा ॥२२॥ अर्थ-(सचा) सत्या १, (तहेव) तथा ( मोसा य ) मृषा २, तथा ( सच्चामोसा ) सत्यामृषा ३, ( तहेव य) तथा (चउत्थी) चोथी (असचमोसा उ) असत्याऽमृषा ४, ए प्रमाणे (वयगुत्ती ) वचनगुप्ति (चउबिहा) चार प्रकारनी छे. तेनो अर्थ मनोगुप्तिनी जेवो जाणवो. २२. ___ संरेभसमारंभे, आरंभम्मि तहेव य । वयं पर्वतमाणं तु, नितिन्ज जयं जेई ॥ २३ ॥ अर्थ (जयं) यतनावान (जई ) यति ( सरंभसमारंभे ) संरंभने विषे एटले परनो विनाश करवामां समर्थ एवा मंत्रादिक गणवाना संकल्पने सूचनार शब्द बोलवा तेने विषे, तथा समारंभने पिपे एटले परने पीडा करनार मंत्रादिक | गणवा तेने विषे ( तहेव य) तथा (आरंभम्मि ) आरंभने विषे एटले परनो विनाश करवाना कारणरूप मंत्रादिकनो जाप Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरवो तेने विषे ( पवत्तमाणं तु ) प्रवर्तता एवा ( वयं ) वचनने ( निमत्तिन ) निवर्तन करे-रोके भने शुभने विषे | प्रवर्ताने. २३ हवे श्रीजी कायगुतिने कहे छे. ठाणे निसीअणे चव, तहेव य तुडणे । उल्लंघण पल्लंघण, इंदिाणं च जुजणे ॥ २४ ॥ अर्थ-(ठाणे) उभा रहेवामा, (निसीअणे ) वेसवामा, ( चेव ) तथा (तुअदृणे ) त्वम्वर्तने एटले शयनमां, | ( तहेव य ) तथा बळी ( उल्लंघण) खाडो विगेरे ओलंगवामां, ( पळूषण ) सीधुं गमन करवामां, (इंदिभामं च ) तथा | इंद्रियोना ( जुजणे ) व्यापारमा एटले शब्दादिक विषयोना व्यापारमा वर्ततो साधु कायगुप्ति करे, ते या प्रमाणे---२४. संरंभसमारंभे, आरंभम्मि तहेव य । कार्य पर्वतमाणं तु, निमत्तिज जयं जई ॥ २५ ॥ ___ अर्थ–(जय) यतनावान (जई) यति ( संरंभसमारंभे ) संरंभने विषे एटले यष्टि, मुष्टि आदिकथी ताडन करवाने माटे तैयार थवामा तथा समारंभने विषे एटले परिताप करनारा लत्तादिकवडे मारवामां ( तहेब य) तथा (आरंभम्मि ) प्रारंभने विपे एटले प्राणीना बंधने माटे यष्टि विगेरेनो उपयोग करवामा (पवत्तमाणं तु ) प्रवर्तता (कार्य) शरीरने (निप्रतिज) निवर्तन करे-अटकावे-रोके. २५, समिति अने गुप्तिमां शो तफावत छे ? ते कहे छे. || Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एआओ पंचे सैमिईओ, चरणस्स ये पैवत्तणे । गुत्ती नित्तणेऽवुत्ता, असुभत्येसु सव्वसो ॥२६॥ । अर्थ-(एआरओ) आ उपर कहेली (पंच ) पांच (समिईमो ) समितियो ( चरणस्स ) सारी चेष्टारूप चारित्रनी (पवत्तणे य ) प्रवृत्तिने विषे ज कहेली छे, अने (गुत्ती ) त्रण गुप्तिश्रो तो ( सव्वसो) सर्व एवा (असुभत्येसु ) अशुभ मनोयोगादिकथी ( मिश्राणधि । निवर्तमान व पस' ( उचा) कही छे. अपि शब्द लयो छ माटे चारित्रनी प्रवृत्तिने विषे पण कही छे. २६. ___हवे आ अध्ययन समाप्त करवा पूर्वक तेमना आचरणY फळ कहे छे.| एआओ पैवयणमायाओ,जे सम्मं आयरे मुंणी। से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिएँ ति बेमि ॥२७॥ अर्थ-(एआरओ) श्रा ( पवयामायायो ) प्रवचननी माताओने (जे ) जे ( मुणी ) साधु ( सम्म ) सम्यक् प्रकारे म (पायरे ) आचरे छे-पाळे छे, (से) ते ( पंडिए ) पंडित साधु ( खिप्पं ) शीघ्र ( सव्वसंसारा ) समग्र संसारथी (विप्पमुच्चद ) मुक्त थाय छे. (त्ति देमि ) एम ९ कहुं . ए प्रमाणे मुषर्मास्वामीए जंबूस्वामीने कयु. २७. इति चतुर्विशमध्ययनम्. २४. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ यज्ञिय नामर्नु पचीशमुं अध्ययन. २५. चोवीशमा अध्ययनमा प्रवचननी आठ माताभो कही. ते तत्त्वी तो प्रश्नचर्यना गुणमा रहेलाने-ब्रह्मचर्य गुणवाळाने ज होई शके छे, तेथी जयघोष अने विजयघोषनुं चरित्र कहेवा पूर्वक ब्रह्मचर्यना गुणोने आ अध्ययनमा बताचे छे. * तेना प्रस्तावने माटे प्रथम जयघोषनी कथा संक्षेपथी कहे छे. __ जयघोषनी कथा. वाराणसी नामनी नगरीमा काश्यप गोत्रवाळा जयघोष अने विजयघोष नामना चे ब्राह्मणो साथै जन्मेला हता. | एकदा जयघोष स्नान करवा माटे गंगा किनारे गयो. त्या एक आरडता देडकाने भक्षण करतो एक सर्प तेना जोवामा श्राव्यो. तेवामा एक कुरर पश्चीए आवी ते सर्पने उछाळी पृथ्वीपर पछाडी तेने खावानो प्रारंभ कर्यो. ते कुरर पोतानी | चांची ते सर्पना शरीरने तोडतो हतो, तो पण ते सर्प पेला आरडता देखकाने खातो ज हतो-छोडतो नहोतो. या प्रमाणे 1 परस्परना ग्रासने जोइ जयघोषे विचायु के-"अहो ! आ संसारनी स्थिति केत्री दुःखदायक छ ? जे जेनाथी चळवान होय छे ते तेने मत्स्यनी जेम गळे के, पण समुद्रनी जेम कोइ पण पोतानी शक्तिने गोपवतो नथी-जीरची शकतो नथी. वळी यमराज तो महा शक्तिमान होवाथी सर्वने गळी जाय छे, तो भा भ्रसार संसारमा पंडितो शी रीते श्रद्धा करी शके ? मात्र एक धर्म ज सर्व उपद्रवोनो नाश करनार छे. माटे कम्पवृक्षनी जेम इच्छित वस्तुने आपनारा ते धर्मनो ज हुँ पाश्रय करूं." Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 1920t+ C या प्रमाणे मनमां विचार करी ते गंगानदीने सामे कांठे गयो. त्यां तेणे उत्तम मुनिओने जोया. तेमनी पासे जिनधर्मनी देशना सांभळी. तेमना कहेवाथी दीक्षा ग्रहण करीने ते जयघोष मुनि पृथ्वीपर विचरवा लाग्या. नुं वृत्तांत सूत्रमां भावे छे, तेथी ते ज कहे छे.- माणकुलसंभूओ, आसि विप्पो महायसो । आयाई जैमजांसि जयघोसे त्ति नामओ ॥ १ ॥ अर्थ – ( माहणकुलसंभूओ ) ब्राह्मणना कुळमां उत्पन्न थयेलो तथा ( जमजण्णांस ) म एटले पांच महावतो, ते रूपी यज्ञने विषे (जाबाई ) वारंवार यज्ञ करनार - पांच महाव्रतने पाळनार ( जयघोसे त्ति नाम) जयघोष एवा नामनो ( महायसो) महा यशस्वी (विप्पो ) त्राह्मण (आसि ) हतो. इंदिअग्गमनिग्गाही, भेग्गगामी महामुनी । गामाणुगामं रीअंती, पत्ती वाणारसी पुरीं ॥ २ ॥ अर्थ - ( इंदिरमामनिगाही ) इंद्रियांना समूइनो निग्रह करनार तेथी करीने ज ( मग्गगामी ) मोक्षमार्गमां गमन करनार एवा ते ( महामुखी ) महामुनि ( गामाशुगामं ) एक गामथी बीजे गाम ( अंतो ) विहार करता ( वाणारसी पूरी ) वाराणसी नगरीमा ( पत्तो ) भाव्या. २. वाणरसीए बेहिआ, उर्जेणम्मि मणोरमे । फासुए सिज्जसंधारे, तत्थ वासमुवाए ॥ ३ ॥ अर्थ - (वाणारसीए) वाराणसी नगरीनी ( बहिया) बहार ( भयोरमे ) मनोहर एवा अथवा मणोरम नामना • EK++***+++++*131** Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *131*~**14********* (उआयम्मि) उद्यानने विषे ( तत्थ ) त्यां (फासुर ) प्रासुक - जीवरहित (सिज्जसंथारे) दर्भादिकना रचेला शय्यासंस्तारकने विषे (वास) निवास करवाने ( उवागए ) श्राव्या. ३. ते वखते ते नगरीमा जे हतुं अने सुनिए जे कर्यु ते कहे छे. अह तेवं कौलेणं, पुरीए तत्थ माहणे । नामेण विजयघोले, जंपणं जैयइ बेअवी ॥ ४ ॥ अर्थ – (ह) हवे (व कालें ) ते ज काळे ( तत्थ पुरीए ) ते नगरीमां (वेश्रवी ) वेदने जाणनार (विजयघोसे) विजयघोष (नामेा ) नामनी ( माहणे ) ब्राह्मण (जासं) यज्ञने ( जय ) पूजतो वो करतो हवी. ४. यह "सेतैस्थ अणगारे, मासखमणपारणे । विजयघोसस्स जण्णम्मि, भिक्खमट्ठा ठेवट्टिए ॥५॥ अर्थ - ( अ ) त्यास्पछी ( तत्थ ) त्यां (विजयघोसस्स) विजयघोषना (जमम्मि ) यज्ञमां ( से ) ते (अणगारे ) जयघोष मुनि (मासक्खमण पारणे ) मासखमणने पारणे ( भिक्खमट्ठा) भिक्षाने अर्थे ( उचट्टिए ) ग्राप्त थया. ५. त्यांतेने विजयघोषे जे कधुं ते कहे थे- - दाहामु ते भिक्ख, भिक्खू ! जायाहि अओ ॥ ६ ॥ ( संतं ) सता ते भुनिने ( जायगो ) याजक एटले यज्ञ करनार से विजयघोष ब्राह्मणे मुनिने नहीं ओळखवाथी ( पाडसेहए ) निषेध कर्यो के - ( भिक्खू ) हे भिक्षु ! (ते) तमने हुं (मिनखं) समुट्ठियं तर्हि संतं, जायँगो पंडिसेहए । अर्थ -- ( तहिं ) त्यां (समुवद्विअं ) प्राप्त थयेला 04-100+++ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1000 भिक्षा (नहु दाहामु ) नहीं ज श्रापुं तेथी ( अन्नयां ) बीजे स्थाने जड़ने ( जायाहि ) याचना करो. ६. कारण के श्र जें वेविऊ विप्पा, जपणट्टा ये जे दिऔं । जोईसंगविऊ जे श्र, 'जे अ धम्माण पोरगा ||७|| अर्थ - ( जे अ ) जेभो (वेभविऊ ) वेदने जाणनारा ( चिप्पा) ब्राह्मणो छे ( य ) तथा (जे ) जेओ ( दिया ) द्विज एटले संस्कारथी बीजी वार जन्मेला अने (जपट्टा ) यज्ञना ज प्रयोजनवाळा छे, (जे अ ) तथा जेओ ( जोइसंगविऊ ) ज्योतिष भने शिक्षादिक श्रंगने जाणनारा छे. अहीं ज्योतिष शास्त्रनो अंगमां ज समावेश थाय छे, छतां ज्योतिषनुं प्रधानप जणावचा माटे तेने जूदुं कथुं छे (जे अ ) तथा जेओ ( धम्माण ) धर्मशास्त्रना ( पारगा ) पारगामी छे तथा उपलक्षणाथी जे सर्व शास्त्रोने जाणनारा . ७. 'जे सत्था समुद्धत्तुं, पैरं अप्पाणमेव य । तेर्सि अन्नर्मिणं देयं भो भिक्खू ! सव्वकामियं ॥८॥ अर्थ- - तथा (जे) जेओ (परं) मीजा जीवोने ( श्रध्यायमेव य ) अने पोताना आत्माने ( समुद्धतुं ) संसार सागरथी उद्धार करवाने (समत्था ) समर्थ छे. ( तेर्सि ) तेश्रोने ( भो भिक्खू ) हे भिक्षु ! ( सव्वकामिश्रं ) जेमां अभिलाष करवा लायक सर्व वस्तुओ होय थे एटले हुए रस सहित एवं (इयां ) या ( अ ) अन्न (देयं ) देवानुं छे. ८. तेनुं वचन सांभळी मुनि केवा थया १ ते कहे थे. - Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ••*••*03•→→**«•G सो तत्थ एवं पेंडिसिद्धो, जायगेण महामुखी । न विट्ठो ने वि तुट्ठो, उत्तिम दुगवे ॥९॥ अर्थ - (तस्थ ) त्यां-यज्ञपाटकमा ( एवं ) प्राप्रमाणे ( जायगेण ) यज्ञ करनारा विजयघोषे ( पडिसिद्धो ) निषेध कर्या एवा (सो) ते ( महामुखी ) जयघोष नामना महामुनि ( न वि रुडो ) रोषवाळा थया नहीं, तेमज (न त्रि दो ) तुष्टमान पण थया नहीं. कारण के ( उत्तिमट्टगसओ) ते मुनि उत्तमार्थ जे मोक्ष तेना ज गवेषक एटले अर्थी हता. ६. त्यारे ते मुनिए शुं कर्तुं ? ते कहे छे. पाउं वा, विनिवाहणाथ वा । 'तेति विमोक्खणट्टाए, इमं वैयणमच्छेवी ॥ १० ॥ अर्थ - (अ) श्रमने माटे ( वा ) के ( पाउं ) पाणीने माटे ( न ) नहीं, ( वा ) अथवा ( निव्वाहरणाय ) वस्त्रादिकवडे पोताना निर्वाहने माटे पण ( न वि ) नहीं. परंतु ( तेर्सि ) तेमना एटले ते याज्ञिकोना ( विमोक्खपाए ) मोचने माटे एटले तेमने संसारथी मुक्त करवा माटे ( इमं ) ( वयणं ) वचनने ( अव्यवी ) बोन्या. १०. शुं बोन्या ? ते कहे बे. - न हि जागसि वेअमुहं, न वि जाण "जं मुहं । नेक्खताण मुंह जं च, "जं च धम्माण वा मुँहं ॥ ११ ॥ अर्थ – (अहं) वेदना मुखने एटले वेदमां जे मुख्य-प्रधान द्वे तेने ( न हि जाखसि ) तुं जाणतो नथी, तथा Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( जमाण ) यहोर्नु (जं मुहं ) जे मुख एटले प्रधान छ तेने ( न वि ) तुं जाणतो नथी, (जंच ) तथा जे ( नवखत्ताण) नक्षत्रोनुं ( मुहं ) मुख के तेने पण तुं जाणतो नथी, (च) तथा जे (धम्माण चा ) धर्मोन एटले धर्मशाखोनु (मुहं ) मुख के तेने पण तुं जाणतो नथी. अर्थात् वेद, यज्ञ, ज्योतिष भने धर्मशाल ए नारे, वास्तविक ज्ञान ने नथी. ११. ___ हवे पात्रनुं अजाणपणुं कहे छे.HE 'जे समत्था समुद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव य । न ते तुम विश्राणासि, अह जाणासि तो भैण ॥१२ ।। ___ अर्थ—(जे) जेमो (परं ) वीजा प्राणीमोनो (अप्पाणमेव य ) तथा पोताना आत्मानो ( समुद्धत्तुं ) उद्धार * करवामा ( समत्था ) समर्थ छे, (ते ) तेमने (तुमं) तुं (न विभायासि ) जाणतो नथी. ( अह ) जो कदाच (जाणासि) जासतो हो (तो) तो ( भण) तुं कहे. १२. आ प्रमाणे मुनिए कडं, त्यारे ते ब्रामये शुं कयु ? ते कहे थे.तस्सक्खेवपमुक्खं च, अचयंतो तहि दिनी । सपरिसो पंजली होउं, पुच्छई त महामुणिं ॥ १३ ॥ अर्थ- तहिं ) ते यज्ञपाटकमां (तस्सक्खेवपमुक्खं च ) ते मुनिना आपनो-प्रश्ननो प्रमोच-उत्तर आपवामा (अचयंतो) असमर्थ एवो (दिओ) ते ब्राह्मण (सपरिसो) पर्षदा सहित (पंजली होउं ) नम्र पहने हाथ जोडीने (ते | महामुणिं ) से महामुनिने ( पुच्छई ) पूछतो हवो. १३. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **O**<~*~ बूहि, ब्रूहि जाण जं मुंहं । नक्खत्ताण मुंह ब्रूहि, ब्रूहि धम्माण जं मुँह ॥ १४ ॥ अर्थ- हे मुनि ! (वेश्राणं च ) वेदोनुं ( मुहं ) जे मुख होय तेने ( बूहि ) तमे कहो, तथा ( जम्माण ) यज्ञोनुं ( जं मुहं ) जे मुख होय तेने ( ब्रूहि ) तमे कहो, तथा ( नक्खत्ताण ) नक्षत्रोनुं (सुई) जे सुख होय तेने (बुद्धि ) तमे कहो, तथा ( धम्माण ) धर्मशास्त्रोनुं (जं मुहं ) जे मुख होय तेने (ब्रूहि ) तमे कहो. १४. 'जे समत्या समुद्धतं, पैर अप्पाणमेव य । एयं मे संसयं सव्वं, साहू ! कैहसु पुछियो ॥ १५ ॥ अर्थ - (जे) जेओ (परं) बीजा प्राणीओनो ( अप्पाणमेव य) तथा पोताना आत्मानो ( समुद्धतुं ) उद्धार करवाने (समत्था) समर्थ होय ते पशु मने कहो - चतावो (एयं ) आ (मे) मारा ( स ) सर्व (संत) संशयने - संशयना उत्तरने (साहू) हे साधु ! ( पुच्चियो ) माराथी पुछाया एवा तमे ( कहसु ) कहो. १५. या प्रमाणे ते विजयघोष ब्राह्मणे पूछधुं त्यारे ते मुनि बोल्या के अग्गिहोत्तमुहा वेओ, जौणट्ठी वेसां मुहं । नक्खत्ताण मुँहं चंदो, धम्माणं कालो हं ॥ १६ ॥ (ग) अग्निहोत्र छे मुख जेनुं एवा ( आ ) वेदो के एटले वेदोनुं मुख अग्निहोत्र - अधिकारिका के. ते अहीं या प्रमाणे के. -" दीक्षा लीलाए कर्मरूपी इंधणाने धर्मध्यानरूपी अग्निमां दृढ घृतनी आहुति चापीने अग्निकारिका करवी. श्राकी अधिकारिका वेदोनुं मुख छे. केम के दहींनुं तच जेम v आच ते नांखी सद्भावनारूपी माखण के तेम वेदोनुं तस्व Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारण्यक नामनो वेदनो ग्रंथ के, तेमा "सत्य, तप, संतोष, दमा, चारित्र, आर्जव, श्रद्धा, धृति, महिंसा भने संघर" ए दश प्रकारनोज धर्म करो छे. तेने अनुसारेमा उपर फमुं तेर्बुज अग्निहोत्र होइशके छे. तथा(जमही) यज्ञार्थी-संयमरूप भाषयानो अर्थी ते ( वेभसा मुह) वेदोर्नु-यज्ञोनू मुख , कारणके यज्ञनो अर्थी होय तो ज यन्त्र प्रवर्ते थे. तथा (नक्खत्वाण) नक्षत्रोतुं ( मुहं ) मुख ( चंदो) चंद्र छे. सथा ( अम्मा ) धर्मोनुं ( मुहं ) मुख ( कासवो) काश्यपगोत्री श्रीयुगादिदेव ज छे. केमके तेमणे ज सौंथी प्रथम धर्म प्रवर्तव्यो थे. १६. हवे धर्मर्नु मुख दृद्ध करवा माटे युगादिदेवर्नु ज माहात्म्य प्रगट करे छे.-- जैहा दें गहोईना, चिट्रति पंजलीउडा। वंदेमाणा नेमसंता, उत्तम मणहारिणो ॥१७॥ अर्थ- (जहा ) जेम ( गहाईमा ) ग्रहादिक ( चंद) चंद्रने (पंजलिउडा ) हाथ जोडी ( बंदमाणा ) स्तुति करता है। (नमसंता ) नमस्कार करता अने ( उत्तम ) अत्यंत (मणहारिणो) विनीतपणाए करीने मनने हरण करता सता (चिट्ठति) Ma रहे छ, तेम श्रीऋषभस्वामी पासे पण देवेंद्रो विगेरे सर्वे सेवी जरीते रहे छे. १७. आ रीते चार प्रश्नोनो उत्तर कही हवे पांचमा प्रश्ननो उचर कहे के.अजाणगा जपणवाई, विजामाहणसंपया । गृढी सज्झायतवसा, भासछन्ना ईवऽग्गिणी ॥ १८ ॥ अर्थ- ( जम्मवाई ) यक्षवादी एटले यझने कहेनारा जेमने ते पात्रपणे मानेला छे तेभो (विजामाहणसंपया) Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ l भारण्यक, ब्रह्मांडपुराण विगरे विद्यारूपी ग्रामणनी संपदाना (अजाणगा) अजाण ज छे. कारख के खरा ब्रामणाने तो अकिंचनपणाए करीने एटले परिग्रहडितानाए कसीने रिमा विहार को तेने जो तेश्रो जाणता होय तो बृहदारण्यादिका कहेला दश प्रकारना धर्मने जागता छतां केम श्रावो यज्ञ करे ? तथा ( सज्झायतवसा ) वेदना अध्ययनरूप स्वाध्याय अने उपवासादक तपचडे करीने (गढा) तेभो गढ के एटले मात्र बहारथी ज संबवाळा के. (इव) जेम ( भास-1 छन्ना ) भस्मथी ढकिलो ( अग्गिणा ) अग्नि बहारथी शीतळ देखाय छे पण अंदर तो उष्मा होय छे, तेम आ ब्राह्मणो पण बहारथी वेदाध्ययन अने उपवासादिकवडे उपशमवाळा देखाय छे, परंतु अंदर तो कषायरूपी अनिवडे जाज्जन्यमान ज . * तेथी तमे मानेला प्रामणो स्वपरनो उद्धार करवामां समर्थ शी रीते होइ शके ? न ज होइ शके १८. ___ त्यारे पात्ररूप ब्राह्मण कोण कद्देवाय ? ते कहे छे.-- जो लोऐं बंभेको वुत्तो, अंग्गी वा महिओ जहा । सयों कुसैलसंदिटुं, तं वयं माहेणे ॥१९॥ ___ अर्ध-(जो ) जेने कुशळ पुरुषोए (भणो) ब्राह्मण (बुसो) को छे, तथा जे (लोए ) लोकनेविषे ( अग्गी वा जहा ) अमिनी जेम ( महिओ) पूज्यो सतो देदीप्यमान थाय छ, (तं ) तेने ( वयं ) अमे (सया) सदा (कुसलसंदिई) कुशळ पुरुषोए कहेलो एवो (माह ) बाक्षण (चूम ) कहीए छीए. १६. कुशळ पुरुषोए कहेला एवा ब्राह्मणनु स्वरूप कहे थे. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न जो ने सर्जेइ आगंतुं. पव्वेयतो ने सोअइ । रेमए अजवयणम्मि, "तं वयं व्रम माहेणं ॥ २० ॥ जा अर्थ-(जो) जे ( आगंतु ) स्वजनादिकना स्थान प्रत्ये भाववाने (न सञ्जइ ) तैयार धाय नहीं. तथा भाव्या | | पछी (पव्ययंतो) त्यांथी चीजे स्थाने जतां ( न सोह) शोक करे नहीं, तथा जे ( अजवयणम्मि) आर्यना एटले तीर्थकरना वचनने विषे ( रसए रमे-यानंद पाते ने ( वयं ) अमे ( माहणं) ब्रामण (बूम) कहीए बीए. २०. all जायरूवं जहामहूँ, निद्धतमलपावगं । रागेदोसभयातीतं, तं वयं वूम माहणं ॥ २१ ॥ अर्थ- (जहा) जेम (आमई ) तेजस्वी करवा माटे मणशीलादिकवडे घसेलु तथा (निद्भूतमलपावर्ग ) अग्निवडे । * बाळी नांख्यों के मेल जेनो ए (जायरूत्र ) सुवर्ण वाह्य तथा आभ्यंतर गुणयुक्त थाय छ, तेम जे बाध अने आभ्यंतर गुणे करीने युक्त होय, तथा ( रागद्दोसभयातीतं ) जे राग, द्वेष अने भयथी रहित होय (तं ) तेने ( वयं ) अमे (माइल) | ब्राक्षण ( बूम ) कहीए छीए. २१. तस्लिअं कि दंत', अर्वचयमंससोणिअं । सुव्यं पर्तनिव्वाणं, ते वयं वूम माहणं ॥ २२ ॥ अर्थ-( नवस्सिनं ) जे तपस्वी होय. तेथी करीने ज (किसं ) शरीरे कृश-दुर्बळ होय, (दंत ) इंद्रियोने दमन | करनार होय, ( अवचयमंससोणि )जेना मांस अने रुधिर सुकाइ गयां होय, ( सुव्वयं ) जे सारा व्रतवाळा होय, तथा जे * आ गाथा तथा तेनी टीका भावविजयजोनी टीकाबाळी छापेल प्रतमां नथी. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पत्तनिव्वाणं) कषायरूपी अग्निना उपशमथी निर्वाणने-शीतळताने पामेला होय, (तं वयं ) तेने अमे (माहणं बूम ) | || ब्राह्मण कहीए छीए. २.. तेसे पाणे विआणित्ता, संगहेण ये थावरे । जो ने हिंसह तिविहेणं, तं वयं धूम मौहणं ॥२३॥ अर्थ-( तसे ) त्रस तथा ( थावरे ) स्थावर (पाणे ) प्राणीश्रोने ( संगहेसा ) संग्रहबडे एटले संक्षेपवडे (य) च शब्दथी विस्तारवडे (विआणित्ता ) जाणीने (जो)जे (तिविहेणं) मन, वचन अने काया ए त्रिविधे करीने (न हिंसइ) | तेमनी हिंसा न करे (तं) तेने (वयं ) अमे (माहणं बूम) ब्राह्मण कहीए छीए. २३. कोही वा जई वा हासो, लोहा वा जेइ वा भया। मुंसं वयई जो उ, "तं वयं बम मौहणं ॥२४॥ अर्थ--( कोहा वा ) क्रोधी (जइ वा) अथवा (हासा) हास्यथी, अथवा (लोहा वा) लाभथी ( जइ वा ) अथवा IL ( भया) भयर्थी ( जो उ) जे ( मुसं ) मृषावाद ( न वयई ) न बोले ( तं वयं ) तेने अमे ( माहणं घूम ) | ब्रामण कहीए छीए. २४. चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइँ वा बहुं । न गिणहइ अदत्तं जो, ते वैयं ब्रूम मौहणं ॥२५॥ ___ अर्थ-(चिचमत) द्विपदादि सचित्त (अचित्तं वा ) अथवा सुवर्णादिक अचित्त (भप्पं का) अल्प (जइ वा) अथवा (बहुं) घणी एवी ( अदत्तं ) अदत्त वस्तुने ( जो ) जे (न गिह ) ग्रहण न करे ( तं वयं ) तेने अमे ( माहणं बूम ) Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन E ब्राह्मण कहीए डीए. २५. दिदेवमाणुस तरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । मैणसा कार्य वैक्केणं, तं वयं बूमैं माहेणं ॥ २६ ॥ अर्थ - ( जो ) जे ( दिव्यमाणुसतेरिच्छं ) देव संबंधी, मनुष्य संबंधी अने तिर्येच संबंधी ( मेहुणं ) मैथुनने (मणसा ) मनवडे, ( काय ) कायावडे, ( बक्केणं ) वचनवडे ( न सेवह) सेवतो न होय. ( तं वयं) तेने असे ( माह बूम ) ब्राह्मण कहए जीए. २६. जहा पउनं कैसे जायें, नोवलिषङ्ग बारिश । एवं अलितं कमिहिं, "तं वेयं म माहणं ॥ २७ ॥ अर्थ - ( जहा ) जेम (पउम ) पद्म- कमळ ( जले ) जळने विषे ( जायं ) उत्पन्न थया छतां पण ( वारिणा ) जळवडे (न उचलिप्पड़ ) लेपातुं नथी, ( एवं ) ए ज प्रमाणे जे प्राणी कामथी उत्पन्न थया छतां पण ( कामेहिं ) ते कामोवडे ( अलित्तं ) लेपातो नथी, ( तं वयं ) तेने अमे ( माहणं चूम ) ब्राह्मण कहीए बीए. २७. अलोलुअं मुहाजीवी, अणगारं अकिंचणं । श्रसंत्तं हित्थेसु, 'तं वयं बूम माहणं ॥ २८ ॥ अर्थ -- ( अलोलु ) जे माहारादिकमां लोलुफ्ता रहित होय, (मुहाजीवी) मुधाजीवी एटले निर्दोष महारनी भिक्षा लइने आजीविका करतो होय, पण औषध के मंत्रादिकथी भाजीविका करतो न होय, ( अणगारं ) घर रहित होय, ( अकिंचणं ) द्रव्यधी अने भावथी परिग्रह रहित होय तथा ( गिहस्थेसु ) पूर्वना परिश्चित के पाकळना परिचित Kamatka Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा गृहस्थोनी साथे ( असंसप्तं ) संबंध रहित होय, ( तं वयं ) सेने भमे ( माहणं चूम ) जाह्मण कहीए बीए. २८. जहिता पुर्व संजोगं, नोतिसंगे से बंधवे । जो न सज्जेइ एएसु, "तं वयं बूम माहणं ॥ २९ ॥ अर्थ – (पुब्वसंजोगं ) पूर्वसंयोगने एटले माताविगेरेना संबंधने तथा ( नातिसंगे ) ज्ञातिना संगने ( अ ) तथा ( बंधवे ) बंधुओने (जहित्ता ) तजीने ( जो ) जे पाछळथी ( एएस) ते मातादिकने विषे । न सजह ) रागी - प्रीतिवाको नथाय (तं वयं ) सेने श्रमे ( माहणं बूम ) ब्राह्मण कहीए बीए. २६. वहीं ते यज्ञ करनार शंका करे के वेदनुं मध्यवन अने यज्ञ ज रक्षण करनार थे, तेथी वेदाध्ययन अने यज्ञवडे ज ब्राह्मण कद्देवाय छे, पण तमे कह्यो ते ब्राह्मण न कद्देवाय श्र शंकानो जवाब भापे के. पसुबंधा सर्वववेथा, जहं च पावकैम्सुणा । न तं तायैति दुस्सील, कैम्माणि बेलवति ॥ ३० ॥ (अर्थ – (सब्ववेथा ) सर्व वेदो ( पसुबंधा ) पशुभोना विनाशने माटे तेना बंधनना हेतुरूप छे, (च ) तथा ( जट्टं ) यज्ञ पण ( पावकम्मुणा ) पापना हेतुरूप पशुवधादिक झुकर्मवडे ( दुस्सीलं ) दुराचारी एवा ( तं) ते यज्ञ करनारने (न तार्थवि ) रक्षण करता नथी, कारण के ( इह ) मा संसारमां (कम्माणि) कर्मों ज ( बलवंति) बळवान छे, एटल करेला दुष्ट कर्मों तेनाकरनार बळात्कारे नरकादिकमां लइ जाय छे. कारण के जे वेद अने यज्ञमा पशुबधादिक होवाथी ते दुष्ट कर्म अति बळवान थाय छे, तेथी वेद अने यज्ञना संबंधथी ब्राह्मण थवातुं नथी. माटे असे जे श्राह्ममनुं स्वरूप कथं ते ज योग्य छे. ३०. ६०० Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **-*¥*••*@*«→→**←→»*•¥0_? नत्र मुंडण समंणो ने ओंकारण बर्मणो । ने मुंगी वणवासेणं, कुंसवीरेण नै तासो ॥३१॥ अर्थ -- (मुंडिए) मात्र मुंडनवडे के लोचवडे ज ( समयो ) साधु ( न वि ) का नहीं, ( ओंकारेण ) कारादिक गायत्री मंत्री ज () बाल कहानी (मात्रा) अरण्यमां वसवा मात्रश्री ज ( मुखी न ) मुनि कहेवाय नहीं. तथा ( कुसचीरेण ) दर्भमय वस्त्रवडे ज ( तात्रसो न ) तापस कहेवाय नहीं. ३१. त्यारे ते शी रीते कद्देवाय ? ते कहे छे. -- समयाए समणो होइ, बंभचेरेण वंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो || ३२ ॥ अर्थ--( समयाए ) शत्रु तथा मित्रपर समानपणाए करीने ( समयों ) श्रमण - साधु (होइ ) होय छेकदेवाय से, (बंभचेरेण ) ब्रह्मचर्यवंड करीने ( भयो ) ब्राह्मण कहेवाय छ, ( नाणेण य ) तथा ज्ञाने करीने ( मुणी होइ ) मुनि होय छे, तथा ( तवेणुं ) तपबड़े करीने ( होइ तावसो) तापस होय छे- कहेवाय के. ३२. कम्मुणा भणो होइ, कैम्मुखा होइ वत्तिओ । कम्मुणा वहलो होइ, सुहो हेंवइ कंम्मुला ॥ ३३ ॥ अर्थ-( कम्पुणा ) क्षमा, दान, दम विगेरे कर्मवडे ज ( बंभणो ) ब्राह्मण (दोइ ) होय छे, ( कम्मुखा ) चत थकी रक्षण करवारूप कर्मे करीने ज ( खत्तियां ) क्षत्रिय ( दोह ) होय थे, ( कम्मुखा ) खेती, पशुपाळ विगेरेना कर्मवडे ज ( वसो ) वैश्य ( होइ ) होय छे, तथा (कम्मुखा ) चाकरी करवारूप कर्मवडे ज ( सुद्दो ) शूद्र (हवह ) होय . आ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रमाणे दरेकना जूदा जूदा कर्म न होय तो तेमनी जूदी जूदी जाति शी रीते कही शकाय? माटे कर्मने आश्रीने ज जाति र | होइ शके ले. ३३. वळी श्रा हुँ मारी बुद्धिथी ज कहेतो नथी. ते उपर कहे छे. एए पाउकरे बुद्धे, जहिं होइ सिंणायओ । सव्वकम्मविणिम्मुक्कं, तं वयं ब्रूम मौहणं ॥ ३४ ॥ अर्थ (एए ) पा उपर कहला अहिंसादिक अर्थाने (बुद्धे ) तत्त्वज्ञानी श्रीवर्धमानखामीए ( पाउकरे) प्रगट कर्या छ, के ( जेहि ) जे अहिंसादिके करीने सिणायो ) स्नातक एटले केवळी ( होइ ) थाय छे, तेथी करीने ( सच्च| कम्मविणिम्मुर्क) जाणे सर्व कर्मथी रहित थया होय तेवा (तं ) तेने (वयं ) अमे ( माहणं) ब्राह्मण (बूम ) | * कहीए छीए. ३४. एवं गुणसमाउत्ता, जे भवंति दिउत्तमा । ते संमत्था उ उद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव य ॥ ३५ ॥ अर्थ--(एवं) या प्रमाणे (गुणसमाउत्ता) अहिंसादिक गुणे करीने युक्त (जे) जे ( दिउत्तमा) द्विजोत्तमो-ब्रामणो ( भवंति ) होय छे, (ते) तेओ ज (परं ) पर प्राणीने (अप्पाणमेव य ) तथा पोताना श्रात्माने ( उद्धत्तुं) उद्धार करवाने एटले संसारथकी तारखाने ( समत्था 3 ) समर्थ होय छे. ३५. श्रा प्रमाणे कहीने मुनि विराम पाम्या, त्यारे शुं थयुं ? से कहे छे. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन ३ ॥ ER: एवं तु संसए छिन्ने, विजयघोसे अ माहणे । समुदाय तओ तं तु, जयघोस महामुणिं ॥ ३६॥ ___ अर्थ-(एवं तु ) आ प्रमाणे एटले पूर्वे कह्या प्रमाणे मुनिना बचन सांभळीने ( संसए ) संशय (छिने ) छेदाये | सते ( तो ) त्यारपछी ( विजयघोसे अ) विजयघोष नामनो (माहणे ) ब्राह्मण (तं तु) ते (जयघोस) जयघोष नामना ( महामुणिं) महामुनिने (समुदाय ) समादाय-सम्यक् प्रकारे ग्रहण करीने एटले ‘आ तो मारा भाइ ज छ' एम बराबर पोळखीने. ३६. शुं करतो हवो ? ते कहे छे.--- तुटे अविजयघोसे, ईणमुदाहु कयंजली । माहणतं जहाभूअं, सुटु मे उवदसि ॥ ३७॥ अर्थ- ( तुढे अ) प्रसन्न थयो एको ( विजयघोसे } विजयघोष ब्राह्मण ( कयंजली) हाथ जोडीने ( इणं ) श्रा प्रमाणे ( उदाह) बोज्यो के हे मुनि ! (जहाभूभ) यथाभूत एटले जेवू ले तेवू ( माहणत्तं ) ब्राह्मणपणुं ( मे ) मने तमे | ( सुट्ट) सारूं ( उपदसिधे ) देखाडथु, तमे मने प्रारमण- यथार्थ स्वरूप समजाव्युं ते बहु टीक कयु. ३७. तुब्भे जइआ जागाणं, तुब्भे वेअविऊ विऊ !। ओइसंगविऊ तुम्भे, तुब्भे धम्माण पोरगा ॥३८॥ | अर्थ-(विऊ ) हे विदः-तत्वज्ञानी मुनि ! (तुम्भे) तमे ज ( जमाणं ) यज्ञने ( जइभा) यष्टारः--करनारा छो (तुम ) तमे ज ( वेअविऊ ) वेदने जाणनारा छो, (तुम्भे) तम ज (जोइसंगविऊ) ज्योतिषशास्त्र अने अंगविद्याना Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जाणनारा छो, तथा ( तुन्भे) तमेज ( धम्माण ) धर्मशास्त्रना ( पारगा) पारगामी-पारने पामेला को. ३८. तुम्भे समत्था उद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव य । तमणुरंगहं करेह म्ह, भिक्खेणं भिक्खउत्तमा ! ॥३९॥ अर्थ ( तुम्भे ) तमे ज (परं ) परने ( अप्पासमेव य ) तथा पोताना आत्माने पण (उत्तुं ) उद्धार करवाने ( समत्था ) समर्थ छो ( तं ) ते कारण माटे ( भिक्खउत्चमा) हे उत्तम भिक्षु ! तमे (मिस्खेणं ) भिक्षा ग्रहण करवावडे || (हं) ममारा उपर (अणुग्गह) अनुग्रह कृपा (करेह ) करा. ३६. मा प्रमाणे ग्रामणे कडं, त्यारे मुनि बोन्या.न को मज्ज भिखणं, खिप्पं निक्खमसू दिऔं। मी भामर्माहास भयावत्ते, घोरे संसारसागरे । अर्थ-( मज) मारे ( भिक्खेणं ) भिक्षावडे ( कजं न ) कांह पण कार्य नथी. परंतु ( दिया ) हे द्विज ! (खि) शीघ्रपणे (निक्समसु ) तुं प्रव्रज्या प्रहण कर, मने ( भयावचे) सप्त भयरूपी आवर्तवाळा तथा (घोरे) भयंकर एवा | ( संसारसागरे ) आ संसाररूपी सागरने विषे ( मा ममिहिसि ) तुं भ्रमण न कर. ४०. | उबलेओ होई भोगेसु अभोगी नोवैलिप्पई । भोगी भमइ सँसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥४१॥ अर्थ ( भोगेसु ) भोग भोगवते सते ( उवलो ) उपलेप एटले कर्मनो लेप (होइ) थाय छे अने (भभोगी) भोग रहित पुरुष ( न उवलिप्पई ) कर्मथी लेपातो नधी. ( भोगी ) मोगी माणस (संसारे) संसारले विषे (ममइ) ममे छे भने । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अमोगी ) भाग रहित माणस (विपमुचई ) कमेथा मूकाय छे. ४१. ____ भोगीने कर्मलेप थाय छे अने अभोगीने लेप थतो नथी, ते उपर दृष्टांन कहे छ. उल्लो सुको अ दो बूंढा, गोलेया महिओमया। दो वि वडिआ कुड्डे, जो उल्लो सोऽथ लैंग्गइ ४२ ।। " अर्थ-( उल्लो) आर्द्र-लीलो ( सुक्को अ ) अने सुको (दोये ( मट्टिामया ) माटीना ( गोलया ) गोळा कोइ || भीतपर (छूढा)-फया, ते (दो वि ) बने गोळा ( कुछ ) भींत उपर ( आवाडिमा) पध्या, ( अत्थ ) तेमां-ते बनेमा Ma(जो उल्लो ) जे आर्द्र गोळो होय ( सो ) ते भींत साथे ( लग्गह) लागे छे-छोटी जाय छे. ४२. ___ हवे दाष्टांतिक कहे छे.। एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा। विरती उ नै लग्गति, जहा सुके उ गोलए ॥१३॥ अर्थ ( एवं ) एज प्रमाणे एटले आर्द्र गोळानी जेम (दुम्मेहा ) दुर्बुद्भिवाळा (जे नरा ) जे मनुष्यो (कामला। लसा ) कामने विषे लालसावाला थाय जे तेओ । लमगति ) संसारमा आसक्त थाय के, चोंटी जाय छे (उ) परंतु (जहा ) जेम (सुके 3) सुको (मोलए ) गोळो भींत साथे लागतो नथी-चोंटी जतो नी तेम (विरत्ता) कामभोगी विरक्त थयेला पुरुषो ( न लग्गति ) संसारने विषे आसक्त थता नथी. ४३. आ प्रमाणे जयघोष मुनिए कहुं त्यारे विजयघोष माझणे शुं कर्यु ? ते कहे छ. । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | एवं सो विजयघोसो, जयघोसस्स अंतिए । अणशास्स निखसो, धम्म सोचा अणुत्तरं ॥ १४ ॥ अर्थ-( एवं ) आ प्रमाणे ( सो ) ते (विजयघोसो) विजयघोष ब्राह्मणे ( जयघोसस्स ) जयघोष नामना ( प्रथगारस्स ) मुनिनी (अंतिए ) समीपे ( अणुत्तरं ) उत्तम (धम्म ) धर्मने ( सोचा) सांभळीने (निस्संतो) ते मुनिनी ज पासे दीक्षा ग्रहण करी. ४४. हवे अध्ययनना अर्थने समाप्त करता सता पा बन्नेनी दीक्षानुं फळ बताये छे.खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तैवेण य । जयघोसविजयघोसा, सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ति बेमि॥४५॥ ___ अर्थ-(संजमेण ) संयमवडे ( तयेण य ) तथा तपवडे (पुवकम्माई ) पूर्वना कर्मोने (खविचा) खपापीने ( जयघोसविजयघोसा ) जयघोष भने विजयघोष ए बन्ने मुनि ( अणुत्तरं ) सर्वोत्तम (सिद्धि) सिद्धिने-मोक्षने (पत्ता) पाम्या. (ति बेमि) एम हुँ कहुं छु. ए प्रमाणे सुधर्मास्वामीए जंयूस्वामीने कां. ४५. इति पञ्चविंशमध्ययमम्. २५. । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सामाचारी नामर्नु छन्वीशमुं अध्ययन. २६. पचीशमा अध्ययनमा ब्रह्मचर्यना गुणो कहा, ते गुणो यतिमा ज होव छ, तेवा यलिए अवश्य सामाचारी पण पाळवी जोइए, तेथी भा अध्ययनमा सामाचारीने ज बतावे छे. तेनुं पहेलुं सूत्र या प्रमाणे छे.* सामायारि पैवक्खामि, सव्वदुक्खविमोक्खणिं । ॐ चरित्ता ण निग्गंथा, तिला संसारसागरं ॥१॥ अर्थ-( सम्बदुक्खविमोक्खणिं ) सर्व दुःखोथी मुक्त करनारी एटले सर्व दुःखोनो नाश करनारी एवी (सामायारिं ) सामाचारीने एटले साधुनी क्रियाने ( पवखामि ) हुँ कहीश. (जे) जे सामाचारीनुं (चरित्ता ण) आचरण करीने ( निम्गंधा ) साधुओ ( संसारसागरं ) संसारसागरने (सिमा) तरी गया छे, उपलचणथी वर्तमानकाळमां तरे थे भने अनागतकाळमां तरशे. १. ते सामाचारीने ज कहे छे. पढमा आवस्सिआ नाम १, बिहआ य निसीहिआ २। आपुच्छणा य तइआ ३, चउत्थी पडिपुच्छणा ४ ॥२॥ पंचमी छंदणा नामं ५, इच्छाकारो अछट्टओ ६। सत्तमो मिच्छकारो उ ७, तहकारो उ अट्टमो ८ ॥३॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अन्भूटाणं नवमं ९, दसमा उवसंपया १० । एसा दसंगा साहूणं, सामायारी पवेदना ॥४॥ अर्थ (पढमा ) पहेली ( भावस्सिा नाम ) आवश्यकी नामनी सामाचारी छे, ( बिइमा य) अने बीजी | (निसीहिया ) नैषेधिकी छे, ( भापुच्छणा य) तथा प्रापृच्छना ( तहमा ) श्रीजी छ, ( चउत्थी ) चोथी (पडिपुच्छणा) : | प्रतिपृच्छना छे, (पंचमी ) पांचमी (छंदणा नाम ) छंदना नामनी छ, ( इच्छाकारो भ) तथा इच्छाकार ए (छट्टभो ) | छही के, ( सत्तमो) सातमी (मिच्छकारो उ) मिथ्याकार के ( तहकारो उ) तथाकार ए (भट्ठमो) आठमी छे, (भभुट्टा ) अभ्युत्थान ए (नवमं ) नवमी छे, ( दसमा) अने दशमी ( उवसंपया) उपसंपदा छे. (एसा) मा (दसंगा) यश मवाळी-दस प्रकावली (शाहू ) साधुधोनी (सामायारी) सामाचारी (पवेइमा) कहेली के. भावार्थ-श्री जिनेश्वरोए साधुनी दश सामाचारी आ प्रमाणे कही थे. चारित्र लीधा पछी कारण बिना गुरुना अवग्रहमा भाशातनानी शंकाने लीधे रहेवू नहीं, परंतु तेमना भवग्रहथी बहार रहे-नीकळवं, अने ते निर्गमन आवश्यकी कर्या विना था शकतुं नथी तेथी आवश्यकी ए पहेली सामाचारी के १, निर्गमन कर्या पछी पोताना स्थानमा रहेवार्नु छ माटे गमनादिकना निषेधरूप नैषेषिकी करवी ए बीजी सामाचारी के २, पोताने स्थाने रहेला साधुने मिचाटनादिक कार्यनी प्राप्ति थाय त्यारे गुरुने पूछीनेज अवतजोहए, तेथी श्रीजी आपृच्छना नामनी सामाघारी के ३, गुरुए जवानी रजा आप्या छतां चालती वखते फरीथी गुरुने पूछवानुं के वेथी प्रतिपृच्छना Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामनी चोधी सामाचारी कही छे ४, भिक्षाटन करीने साधुए पेटभरू न थर्बु जोइए, परंतु बीजा निनोने पण निमंत्रण करवारूप छंदना करवी नोइए तेथी पांचमी छंदना सामाचारी कही छे ५, तेमां पण इच्छाकार-आपनी इच्छापूर्वक पधारो-एम कहेवू जोइए, तेथी इच्छाकार नामनी छठी सामाचारी कही छे , आ प्रमाणे कर्या छतां पण कदाच कथंचित् ।। कोई कार्यमा अतिचार थइ जाय तो तेनु मिथ्यादुष्कृत आप जाइए तेथी सातमी मिथ्याकार नामनी सामाचारी कही के ७, गुरुनी पासे भोटो अपराध आलोचे सते गुरुनु वचन ' तथा-वहत्ति-बहु सारं' एम कहीने स्वीकारवानुं छे तेथी ठिमी तथाकार नामनी सामाचारी छे ८, तहत्ति कहीने गुरुन वचन स्वीकार्या पछी पोताने योग्य सर्व कार्यमांउद्यम करयो जोइए तेथी नवमी अभ्युत्थान नामनी सामाचारी कही छे है, तथा तेवा उद्यमवाळाए ज्ञानादिक | मेळनवा माटे बीजा गच्छमां जाने पण उपसंपदा ग्रहण करवी जोइए तेथी दशमी उपसंपदा नामनी सामाचारी | कही छे. १०,२-३-४. ____ हवे कड़ कइ सामाचारी कये कये ठेकाणे करवी ? ते कहे छे.| गेमणे आवस्सिअंकुजा, ठाणे कुजा णिसीहि। आपुच्छणा सयकरणे, परकरणे पडिधुच्छणा ॥५॥ अर्थ ( गमणे ) गमन करती यसते (आपस्सिनं ) श्रावश्यकी एटलं अवश्य करवा लायक कार्य संबंधी पहेली | सामाचारी (कुजा) करची १, तथा (ठाणे) उपाश्रयादिक स्थानमा प्रवेश करती. वखते ( णिसीहिरं ) गमनादिकना Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषेधरूप नैषेधिकी-बीजी सामाचारी ( कुआ ) करवी २, तथा ( सयंकरणे ) पोतानुं कार्य करती वखते ( श्रपुच्छणा ) ना एटले गुरुनी आज्ञा मागवी के 'आ कार्य हुं करूं?' ए प्रमाणे पृच्छारूप सामाचारी करवी ३, तथा (परकरणे) अन्यनुं कार्य करती खते (डिपुच्छणा ) गुरुनी आज्ञा लेवी एटले गुरुनी आज्ञा प्रथम थह होय तो पण कार्यमा प्रवृत्ति करती खते गुरुने फरीने पूछ जोइए ए प्रमाणे प्रतिच्छनारूप सामाचारी करवी ४, नहीं जे पोताना कार्यमा आपृच्छना अपना कार्यमा प्रतिच्छना कही छे ते उपलक्षगधी स्वपरना सर्व कार्योंमां गुरुनी प्रथम आज्ञा मागधी ते आपृच्छना गुरु प्रथमथी नियोग छतां पण कार्य करती वखते फरीथी जे गुरुने पूछवृं ते प्रतिपृच्छना समजवी. ५. छंदणा दव्वजोंएणं, इच्छाकारो अ सारणे । मिच्छाकारो अ निंदाए, तहकीरो पडिए ॥ ६ ॥ अर्थ – ( दव्वजाएणं ) पूर्वे पोते जे द्रव्य-पदार्थ विशेष अन्नपानादिक ग्रहण कर्या होय, तेने उद्देशीने (चंदया ) अन्य साधुचोने निमंत्रणरूप छंदना सामाचारी करवानी के. एटले के बीजा साधुधोने पोते आला आहार पाणी देखाडी कहे के ' श्रमांशी तमारी इच्छा प्रमाणे ग्रहण करी मने ताशे' एम जे कहेनुं ते छंदना कहेवाय छे. ५. ( अ ) तथा (सारणे ) सारणाने विषे एटले स्वपरना कार्यमां प्रवृत्ति करती वखते ( इच्छाकारो ) इच्छाकार कहेवाय के एटले पोतानी इच्छाथी कार्य करवानुं के पण बळात्कारथी करवानुं नथी. तेमां पोते कार्य करयुं होय तो ' हुं तमारुं श्रमुक कार्य मारी इच्छाथी करुं हुं ' एम कहे भने पर पासे कार्य कराव होय तो ' मारुं पात्रलेपादिक अमुक कार्य तमारी इच्छाथी Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करो' एम कहें वे इच्छाकार सामाचारी कवाय . ६. ( अ ) तथा ( निंदाए ) पोताना आत्मानी निंदाने ि (मिच्छाकाशे ) मिथ्याकार सामाचारी कराय के एटले पोते कांइ अनाचार क्यों होय-भूल थर गइ होय तो तेनी निंदा करती वखते ' हा ! में आ मिथ्या कर्यु ' ए प्रमाणे कहेतुं ते. ७ तथा ( पडिस्सुए ) प्रतिश्रुतने विषे एटले कोड़पण काना अंगीकार ( तहकारो ) तथाकार सामाचारी कराय छे, एटले गुरु वाचनादिक देता होय त्यारे 'आप कहो छो से एम ज छे' ए रीते अंगीकार करवामां तथाकार कराय छे. ८. ६. अब्र्भुट्टाणं गुरुधूंआ, अच्छेणे उवसंर्पया । ऐवं दुपंचैसंजुत्ता, सामायारी पवेईश्रा ॥ ७ ॥ अर्थ-- (गुरुपूचा ) गुरुपूजाने विषे एटले गौरव करवा लायक आचार्य, ग्लान विगेरेने योग्य आहारादिक लावी पाने विषे तथा विनयादिक करवाने विषे ( श्रब्भुट्टा ) अभ्युत्थान एटले उद्यम करतो ते अभ्युत्थान सामाचारी है. अहीं सामान्य रीते क ुछे तो पण अभ्युत्थान एटले निमंत्रण जाणवुं निर्मुक्तिकारे पण अभ्युत्थानने बदले निमंत्रण शब्द वापर्यो . . तथा ( अच्छो ) अवस्थानने विषे एटले बीजा श्राचार्यादिकनी पासे रहेवाने विषे ( उवसंपया ) उपसंपदा एटले 'आपनी पासे अमुक काळ सुधी रहीश ' ए प्रमाणे कही ज्ञानादिक गुण उपार्जन करवा माटे जे रहें ते उपसंपदा सामाचारी थे. १०. ( एवं ) मा प्रमाणे ( दुपंच संजुता ) बे पंचकवडे युक्त एटले दश संख्यावाळी ( सामायारी) सामाचारी ( पचेहमा ) कही . ७. ****+*0301 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा रीते दश प्रकारनी सामाचारी कही, हने प्रोम गामवाली कहे को.---- पुश्विल्लम्मि चउभागे, आइञ्चम्मि समुट्टिए । भंडैग पैडिलेहित्ता, वंदित्ता य तओ गुरुं ॥८॥ पुछिजा पंजैलिउडो, किं कायव्वं मैए देह। इच्छं निओइडं 'भंते !, वेआँवञ्चे व संज्झाए ॥९॥ अर्थ (पुबिनम्मि) पूर्वदिशाए ( चउभागे ) भाकाशना काइक न्यून एबा चोथा भागे ( प्राइमम्मि ) सूर्य (समुट्टिए ) चडे सते-प्राप्त थये सते एटले पादोन पोरसी थाय त्यारे (भंडगं) मांडकने एटले पात्रादिक उपकरणने || (पडिलेहिता) पडिलेहीने ( तो ) त्यारपछी (गुरुं ) प्राचार्यादिक गुरुने (वदित्ता य) बांदीने (पंजलिउडो) प्रांजलिपुट एटले मस्तकपर चे हाथ जोडीने (पुच्छिजा) पूछे के (मए) मारे (इह) अत्यारे (किं कायर्व) करवू ? (भंते) हे भगवान ! | (वेयावच्चे व ) ग्लानादिकनी वैयावचने विषे अथवा तो ( सज्झाए ) वाचनादिक स्वाध्यायने विषे (निओइडं) मारा प्रात्माने नियोग कराववाने-जोडी देवाने आज्ञा अपाववाने (इच्छ) हुँइच्छु छु. श्राप मने आज्ञा पापोएम हुं इच्छु छु.८-६. IT ___ आ प्रमाणे पूछीने पछी शुं करवू ? ते कहे छ.---- वेयावच्चे निउत्तेणं, कायव्वं अगिलायओ । सज्झाए वो निउत्तेणं, संध्यदक्खविमोक्खणे ॥१०॥ ___ अर्थ ( वेयावच्चे ) ग्लानादिकनी वैयावचने विषे ( निउत्तेणं ) माज्ञा अपायेला साधुए ( अगिलायमो ) ग्लानि-* पणा रहित एटले शरीरनो श्रम विचार्या विना ज ( कायव्वं ) वैयावच्च कर, (वा) अथवा ( सज्झाए ) स्वाध्यायने विष Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . | (निउत्तेणं ) श्राज्ञा पामेला साधुए (सन्यदुक्खविमोक्खणे ) सर्व दुःखना नाशवडे ज एटले ग्लानिपणा रहित ज स्वाध्याय | करवो, अथवा जेनाथी सर्व दुःखनो नाश थाय छ एवा स्वाध्यायने विषे श्राज्ञा पामेला साधुए ग्लानिपणा रहित | स्वाध्याय करवो. १०. श्रा प्रमाणे पडिलेहण विगैरे प्रोव सामाचारीनु मूळ छे तेथी ते काळे तेनुं करवापणुं बताव्युं तथा ते सर्व गुरुनी आना| थी ज करवान के तेथी गुरुनु पराधीनपणुं पण बतायू, हवे उत्सर्ग मार्गे दिवसतुं कृत्य कहे छे.दिवसस्स चउरोभाए, कुंजा भिक्खू विभक्खणो।तओ उत्तरगुणे कुजा, दिणभागेसुचउसु वि॥११॥ अर्थ- (विश्रवणो ) विचक्षण एटले क्रियाने विष कुशळ एवा (भिक्खू ) साधुए (दिवसस्स ) दिवसना ( चउ- | | रो भाए ) चार भाग ( कुजा ) करवा, ( तो ) त्यारपछी ( चउसु वि ) ते चारे (दिणभागेसु ) दिवसना भागोमा | ( उत्तरगुणे ) स्वाध्यायादिक उत्तरगुण करवा. ११. | उत्तरगुणने केवी रीते करवा ? ते कहे के.पढमं पोरिसि सज्झायं, विडनं झाणं झिआयइ। तइआए गोअरकालं, पुणो चउथिए सज्झायं ॥१२॥ __ अर्थ- ( पढम ) पहेली (पोरिसि) पोरसीमा ( सज्झायं ) वाचनादिक स्वाध्याय करवो, (वित्रं ) बीजी पोरसीमा (साणं) ध्यान (शिवायइ ) याचं एटले करवं, भा अर्थपोरसी होनाथी अर्थना विषयतुं ध्यान फरवु एम समजवू, (त. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इआए ) त्रीजी पोरसीमा ( गोअरकालं ) गोचरकाळ एटले भिक्षाचर्या अने तेना उपलक्षणथी बहिभूमि जया विगेरेनुं कार्य ||1|| करवं, (पुणो ) फरीथी ( चउथीए ) चोथी पोरसीमा ( सज्झायं ) स्वाध्याय करवो. अहीं पण उपलक्षणथी पडिलेहण विगेरे क्रिया जाणी लेवी. १२. ____ हवे पोरसीनुं प्रमाण बताव छ.. .. आसाढे मासे दुपया, पोसे मासे चउप्पया। चित्तासोएसु मासेसु, तिपया हवइ पोरिसी ॥ १३ ॥ अर्थ- (आसाढे मासे ) आषाढ मासनी पूर्णिमाने दिवसे ( दुपया ) वे पगले पोरसी थाय छे, (पोसे मासे ) पोष मासनी पूर्णिमाने दिवसे ( चउप्पया) चार पगले पोरसी थाय छ, (चित्तासोपसु मासेसु ) चैत्र भने आश्विन मासनी पू. शिमाने दिवसे (तिपया) त्रण पगले ( पोरसी हवह ) पोरसी थाय छे. पुरुषे पोताना दक्षिण कान सन्मुख सूर्यमंडळ राखी उभा रहे, पछी ढींचण सुधीनी छाया आषाढी पूर्णिमाए ज्यारे वे पगला प्रमाण थाय त्यारे एक प्रहर थाय छे, एम | सर्वत्र जाणवू. १३. मा प्रमाण आपाढादिक पूर्णिमानुं कडं, त्यारपछी आ प्रमाणे वृद्धि अने हानि करवी, ते कहे छ.अंगुलं सत्तरत्तेणं, पंखेणं तु देअंगुलं । बड्डए हायए आवि, मासेणं चउरंगुलं ॥ १४ ॥ अर्थ-( सत्तरत्तेणं ) सात रात्रिए एटले सात रात्रिदिवसे ( अंगुलं ) एक आंगळ, ( पखेणं तु ) एक पखवाडीए Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ****** -. | ( दुअंगुल ) ये आंगळ तथा ( मासेणं ) एक मासे (चउरंगुलं) चार आंगळ छाया ( वड्डए ) दक्षिणायनमा वधे छे (आवि ) अने ( हायए ) उत्तरायणमा हानि पामे छे. अहीं एक पखवाडीए वे आंगळ कह्या छे तेथी सात दिवसे एक प्रांगळने ठेकाणे साडा सात दिवसे एक भांगळ समजवू. वळी कोइ मासमां चौद दिवस, पण पखवाडीयुं होय छे, ते बखते सात दिवसे पण एक मांगनी वृद्धि हानि झरनामा दोष नथी. १४. | कया कया मासमां चौद दिवस- पखवाडीयुं थाय छे ? ते कहे छे.आसाढबहुलपक्खे, भद्दवए कत्तिए अ पोसे अ । फग्गुणवइसाहेसु अ, नायव्वा ओमरत्ताओ ॥१५॥ अर्थ (आसाढबहुलपक्खे) अषाढ मासना कृष्णपदमां, ( भद्दवए) भाद्रपदना कृष्णपक्षमा, ( कत्तिए अ) कार्तिकना कृष्णापक्षमां, तथा ( पोसे अ) पोषना कृष्णपक्षमा, तथा ( फग्गुणवहसाहेसु अ) फाल्गुनना कृष्णपचमा अने* वैशाखना कृष्णपक्षमा (भीमरत्ताओ) न्यून रात्रिओ एटले एक एक न्यून तिथि ( नायन्या ) जाणवी. एटले पाटला मासना कृष्णपक्षमा चौद दिवस, पखवाडीयुं होय छे. १५. ____ा प्रमाणे पोरसीना ज्ञाननो उपाय बतानी हवे प्रथम आठमी गाथामा जे पादोन पोरसी कही हती ते जाणवानो उपाय बतावे छे.* जेट्ठामूले पासोढ-सावणे छैहिं अंगुलेहिं पडिलेहा। अद्वहिं बीअतिम्मि , तइए देस अट्टहिं उत्थे॥१६॥ ** *** Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ – ( जेट्ठामुले ) ज्येष्ठा भने मूळ नक्षत्र जेठ शुदि पूर्णिमाने दिवसे होय के तेथी जेठ मासमां, (भासाढसावणे ) अषाढ मासमा अने श्रावण मासमां ( छहिं अंगुलेहिं ) छ आंगळवडे एटले पूर्वे कहेली पोरसीना प्रमाणमां व आंगळ नांखी त्यारे ( पडलेहा) पात्रनी परिलेखनो काटने पाहोन परसी भाय के जेमके अपाद मासम वे पगला छाया होय त्यारे पोरसी थाय छे अने बे पगला उपर छ श्रांगळ वधारीए एटली छाया होय त्यारे पादोन पोरसी थाय छे, ए ते सर्वत्र जाणं. तथा ( बीश्रतिअम्मि) बीजा त्रिकम एटले भाद्रपद, आश्विन अने कार्तिक मासमां (भट्टहिं ) पोरसीना प्रमाणमां आठ श्रांगळ नांखवाथी पादोन पोरसी थाय छे, तथा ( तइए ) त्रीजा त्रिकमा एटले मार्गशीर्ष, पोष भने माघ मासमा (दस) पोरसीना प्रमाणमां दश भांगळ नांखवाथी पादोन पोरसी थाय छे, तथा ( चउत्थे ) फाल्गुन, चैत्र अने वैशाक मासरूप चोथा त्रिकर्मा (अहिं ) पोरसीना प्रमाणमां आठ भांगळ नांखवाथी पादोन पोरसी थाय छे. १६. ते दिवसनुं कृत्य कयुं, हवे रात्रिनुं कृत्य कहे थे. - त्तिं पिचउरो भाष, भिक्खू कुर्जा विअक्खणो। तो उत्तरगुणे कुजा, रोईभागे चउसु वि ॥ १७ ॥ अर्थ -- ( विक्खणो) विचचण एटले क्रियामां निपुण एवो भिक्खू ) साधु ( रतिं पि ) रात्रिना पण ( चउरो ) चार ( भाए ) भाग ( कुजा ) करे, (तो) त्यारपत्री ( चउसु वि ) चारे (राईभागेसु) रात्रिना भागने विषे ( उत्तरगुणे) उच्चरगुणने (कुजा ) करे. १७. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शी रीते उत्तरगुणने करे ? त कहे थे. पढमं पोरिसि सज्झायं, बिइअं झाणं झिआयइ। तइअाए निदमोक्खं तु, चऊत्थीए भुजो वि सज्झायं ॥ १८ ॥ अर्थ-( पढमं ) पहेली ( पोरिसि ) पोरसीमा ( सज्झाय । स्वाध्याय करे, (विहमं) चीजी पोरसीमां (साणं)। धर्मध्यान (शिवायइ ) ध्यावे-करे, (राइमर ) ची पोरसीप निमोपखं तु) निद्रानो मोक्ष करे एटले निद्राने मोककी मूके अर्थात् निद्रा ले, तथा ( चउत्थीए ) चोथी पोरसीमा ( भुजो वि ) फरीथी पण ( सज्झायं ) स्वाध्याय करे. १८. | | हवे रात्रिना चार भाग जाणवानो उपाय बताववा पूर्वक समग्र साधुनु कर्तव्य कहे छ.--- | जं नेई जया रतिं, नक्खत्तं तम्मि नहचउब्भाए। संपत्ते विमिजा, संज्झाय पेओसकालम्मि॥१९॥ अर्थ-( जया) जे काळे (जं) जे (नक्सत्तं ) नक्षत्र ( रसिं ) रात्रिने (नेइ) समाप्त करे, (तम्मि) ते नक्षत्र (नहचउम्भाए) अाकाशना चोथा भागने ( संपत्ते पामे सते (पोसकालम्मि प्रदोष वखते एटले रात्रिना प्रारंभमा | प्रारंभेला ( सज्झाय ) स्वाध्यायथी ( विरमिजा) विराम पामे. जे नक्षत्र अस्त पामे त्यारे रात्रि पूर्ण थती होय ते नचत्र प्राय सूर्यना नक्षत्रधी चौदसुं होय छे, ते नक्षत्र आकाशना चोथा चोथा भागने अोळंगे तेम तेम प्रहरनी गणतरी करवी. १६. | तम्मेव य नक्खत्ते, गैयण चउभागसावसेसम्मि । वेतिअंपिं कालं पंडिलेहित्ता मुणी कुंजा ॥२०॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--(तम्भेष 4 ) तेज प्रातःकाळे अस्त थनारूं (नक्खत्ते ) नचत्र ( चउब्भागसाबसेसम्मि) चोथो भाग बाकी II रहेलो होय एवा ( गयण ) आकाशने विषे प्राप्त थये सते ( वेरत्तिभं) वैरात्रिक नामना (कालं ) काळने तथा (पि) all अपि शब्द छे तेथी पोतषोताने समये प्रादोषिकादिक एटले प्रामातिक काळने (पडिलेहिता) पडिलेहीने ( मुणी ) मुनि * काळग्रहण (कुजा) करे. २०. A श्रा प्रमाणे सामान्य रीते दिवस अने रात्रिनुं कृत्य देखाडधु, हवे विशेषधी तेज देखाडता प्रथम साडी सत्तर गाधावडे दिवसकृत्य कहे छे.पुबिल्लम्मि चैडब्भागे, पडिलहिताण भंडगं । गुरुं वंदित्तु संज्झायं, कुजा दुश्वविमोक्खणं ॥२१॥ अर्थ-( पुब्विलम्मि ) पहेलाना ( चउभागे) चोथा मागे एटले दिवसनी पहेली पोरसीए एटले सूर्योदय वखते। (भंडगं ) वर्षाकल्पादिक उपधिने (पडिलेहिताण ) पडिलेहीने पछी ( गुरु ) गुरुने ( वंदिनु) बांदीने (दुक्खविमोक्खणं) दुःखने-पापने नाश करनार एवा (सज्झायं ) स्वाध्यायने ( कुआ) करे. २१. | पोरसीए चउब्भांगे, बंदित्ताण तओ गुरुं । अपडिक्कमित्ता कालस्स, भायणं पडिलेहएं ॥ २२ ॥ . अर्थ—(तयो ) त्यारपछी ( पोरसीए ) पहेली पोरसीनो ( चउभागे ) चोथो भाग वाकी रहे त्यारे एटले पादोन|| पोरसी थाय त्यारे (गुरुं ) गुरुने (बंदित्ताण ) वादिने ( कालस्स ) काळने (अपडिक्कमित्ता) नहीं पडिकमीने एटले प्र Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - --- - - - भातकाळना प्रतिक्रमण माटे कायोत्सर्ग कर्या विना ज (भायां ) पात्रादिक भाजनने (पडिलेहए ) पडिलेहे. दिवसनी | चोर्थी पोरसीए फरीथी स्वाध्याय करवानो छ, अने कानुं प्रतिक्रमण कर्या पछी स्वाश्याय करवानो निषेध के, तेथी काळने नहीं पडिकमीने एम कयुं छे. २२. ____ हवे पडिलेहणनो विधि कहे छे...... मुहपोतिनं पडिलैहित्ता, पडिलहिज्ज गोच्छगं । गोच्छगलइअंगुलिओ, वत्थाई पडिलेहए ॥ २३ ॥ ___अर्थ-प्रथम ( मुहपोत्तिअं) मुहपत्तिने ( पडिलेहित्ता) पडिलेहीने पछी ( गोच्छग ) पात्रां उपर राखवाना ऊनना वस्वरूप गोच्छकने (पडिलेहिज ) पडिलेहे. त्यारपछी ( गोच्छगलाअंगुलियो ) अंगुलिमा ग्रहण कयों के गोच्छक जेणे एवो सतो एटले प्रांगळीओमा गोच्छकने ग्रहण करीने ( वत्थाई ) झोळी उपर राखवानां वन एटले पडलाने (पडिलेहए) पडिलेहे एटले प्रमानें. २३. ___या प्रमाणे ते ज स्थितिकाळा पडलाने गोच्छकवडे प्रमार्जन करी पछी शुं करे ? ते कहे छे.| उड़े धिरै अतुरिअं, पुव्वं ता वेत्थमेव पडिलेहे। तो बिईयं पैटफोडे, तइअंच पुणो पैमाजिजा॥२४॥ | अर्थ–(पुर्व ता ; पूर्व तावत् एटले प्रथम ( उड्डे ) ऊर्ध्व एटले उत्कटिक प्रासने येसी तथा चस्व पण ऊर्ध्व एटले | तिरछु राखी ( थिरं) दृढ रीते वस्त्रने पकडी तथा ( अतुरिअं) अत्वरित एटले उतावळ को विना ( वरचं ) बनने एटले Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडलाने ( पडिलेहे एव ) पडिलेहे एटले सवळा अने भवळा करीने मात्र तेने दृष्टिथी जुए, पण प्रस्फोटन एटले पफ्फोडा करे नहीं. अहीं पडलानुं प्रकरण छर्ता सामान्य रीते वस्त्र शब्द लख्यो छे ते वर्षाकल्यादिकनी पडिलेहणने विपे पण श्रा ज विधि जाणवो एम जणाचवा माटे लख्यो छे. जोती वखते जो तेमां जंतुनोने जुए तो तेने यतनापूर्वक अन्य स्थाने मूके. ( तो ) त्यारपछी (बिइअं) बीजी क्रिया करे, शुं करे? ( पप्फोडे ) जे वस्त्र शुद्ध कयुं तेने प्रस्फोटन करे एटले पफफोडा करे. (तइयं च पुणो) तथा वळी त्रीजी क्रिया या प्रमाणे करे-(पमजिजा) प्रमार्जन करे एटले के पडिलेहीने तथा प्रस्फोटन करीने पछी प्रमार्जन करे. २४. ____ हवे ते वस्त्रनुं प्रस्फोटन प्रमार्जन शी रीते का ? ने कहे के.अणञ्चाविभं अवलिअं, अणाणुबंधिं अमोसलि चेव । छप्पुरिमा नव खोडा, पाणीपाणिविसोहणं ॥२५॥ अर्थ-(अणच्चाविध ) अनर्तित एटले शरीर अथवा वस्त्र नाच करतुं न होय तेवी रीते ( अवलिअं) शरीर अथवा वस्त्र वळे नहीं तेम-मरडाय नहीं तेम, (अणाणुबंधि) अनुबंध रहित एटले आंतरा सहित अर्थात् पूर्वापरना प्रस्फोटनहुँ ज्ञान थाय तेवी रीते, (अमोसलिं चेत्र ) तथा मोसलि रहित एटले विरछा भींत विगेरेने, उंचे माळ विगेरेने अन नीचे पृथ्वी विगैरेने स्पर्श न थाय तेम वस्त्रनुं प्रस्फोटन करवु. शी रीते? ते कई छ. (छप्पुरिमा) छ पुरिम-पूर्व करवा एटले श्रा क्रिया प्रथम करवामां आवे छे तेथी तेनुं नाम पुरिम-पूर्व कहेवाय छ अर्थात् तिरछा करेला वखने छ बार ऊर्ध्व प्रस्फोटन । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** कर तेरूप छ पूर्व करवा. त्यारपछी (नव खोडा ) नव खोडा करवा एटले प्रस्फोटनरूप नव श्रखोडा करवा. ( पाणीपाणिविसह ) ए ते करवाथी हाथने विषे पाणी श्रोतुं त्रिशोधन धाय छे. अहीं एक दृष्टि पडिलेहरा, छ ऊर्ध्व पफ्फोडा, नव खोडा खंखेश्वारूप अने नव पखोडा पुंजवारूप ए सर्व मळीने पचीश पडिलेहरा थाय छे. २५. पडिलेहखना दोषो समजावीने तेने तजवानुं कहे छे. आभरडा संमद्दा, बजेअव्वा य मोसली तइया । पफ्फोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वेइआ छटा ||२६|| अर्थ – ( आरभडा ) विपरीतपणे कर अथवा शीघ्रपणे अन्य अन्य वस्त्र ग्रहण करवां ते आमडा नामनो दोष बजेat योग्य a, तथा ( संमदा ) बना बेडा परस्पर भेळा करवा अथवा उपधिनी उपर बेस ए संमर्दा नामनो दोष छे, ते (बच्चा) वर्जवा योग्य छे, (य) तथा (मोसली ) तिरछो, उंचे के नीचे संघट्टो करतो ते मोसली नामनो ( तहमा ) श्री जो दोष वर्जवा योग्य छे, तथा ( पफ्फोडणा ) धूळथी खरडायेला वस्त्रनी जम पडिलेहाना बने अत्यंत झापट प्रस्फोटना नामनो ( चउत्थी ) चोथो दोष चर्जया योग्य के. तथा ( विक्खित्ता ) पडिलेहरा कर्या विनाना वस्त्र उपर पड लेहण करेलुं बस्त्र मूकवुं ते विक्षिप्ता नामनो पांचमो दोष वर्जचा योग्य छे, तथा ( वेइआ ) वेदिका नामनो ( घट्टा ) बडो दोष वर्जना योग्य छे, ते वेदिका पांच प्रकारे छे. ते या प्रमाणे – ऊर्ध्ववेदिका एटले वे ढींचण उपर वे हाथ राखवा ते १, वेदिका एटलेढीची धणा नीचे हाथ राखवा ते २ तिर्यग्वेदिका एटले तिरछा हाथ राखीने पडिलेहब करवी ते Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, उभयवेदिका एटले बने ढींचगनी बहार हाथ राखया ते ४ तथा एकवेदिका एटले एक हाथ ढींचगनी बचे राखे भने बीजो हाथ चिनी बहार राखे ते ५. श्र छ दोषो वर्जना योग्य छे. २६. पसिढिलपलंबलोला, एगामोसा गरूवधुणा । कुरा किगं कुज्जा ॥२७॥ अर्थ - (सिढिल ) ने शिथिलपणे ग्रहण करवुं - पकडवं ते प्रशिथिल तथा ( पलंब ) बराबर सरखी रीते ग्रहण नहीं करवाथी पडिलेहण कराता वस्त्रना छेडा लांबा लटकता राखवा ते प्रलंब, तथा (लोला) पडिलेहण कराता व भूमिपर के हाथमा रोळ ते लोल, तथा (एगामोसा) एकी वखते वस्त्रना बने वाजुना छेडा खेंचवा ते एकामर्शा, तथा (अरूबा) बखने त्रणथी वधारे वखत कंपाव अथवा एकी साथे अनेक चखने ग्रहण करी तेने कंपाचवा ते करूप घूमना, तथा ( पमाणि ) प्रस्फोटनादिकनी संख्याना प्रमाणमां (पमार्थ ) प्रमाद (कुइ) करवो, तथा ( संकिए ) संख्याना प्रमाणमा शंका उत्पन्न थवाथी ( गणयोवनं ) हाथनी आंगळीनी रेखानो स्पर्श विगेरे करी एक, के, स संख्यारूप गणना करी शकाय तेत्री रीते ( कुआ ) कर ते, या सर्व दोषो वर्जवाना छे. आ वे गाथामां कहेला ( ६-७-१३) दोषोथी जे युक्त ते सदोषा पहिलेहखा छे. अर्थात् ते दोष रहित जे पडिलेहणा करवी ते निर्दोष छे एम सिद्ध थयुं. २७. हवे ते पडिलेहाने ज भांगा देखाडवावडे सदोष अने निर्दोष कहे थे— अणूणाईरित पडिलेहो, अविवच्चासो त य । पढमं पेयं सत्यं, सेसणि उ अप्पाणि ॥ २८ ॥ *K Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ZOK••EOK••E&K-+£0 अर्थ - ( पडिलेहा ) पडिलेहरा ( अणूणा ) श्रोछी न करवी, तथा (इरिता ) अधिक न करवी, ( तद्देव य ) तथा बळी ( अविवच्चासा) विपर्यासवाळी एटले विपरीत न करवी. अहीं अन्यून, अनतिरिक्त अने अविपर्यास ए ऋण विशेषणना शब्दोवडे आठ मांगा थाय छे, तेमां ( पढमं ) पहेलुं ( प ) पद - भंगक ( पसत्थं ) प्रशस्त - शुद्ध छे, भने ( साणि उ ) बाकीना सात भांगा ( अप्पसत्याणि) अप्रशस्त - अशुद्ध छे. त्रण विशेषचना आठ भांगा या प्रमाणे - मंग - अन्यून - अनतिरिक्त-अविपर्यास. भंग - न्यून - अनतिरिक्त- श्रविपर्यास. १ १ १ ५ १ ० १ P ३ 0 २ १ ० ક १ • १ ४ ० O १ १ वा खानुं विशेषणवाद्धं श्रने शून्यवा खानुं विशेषण रहित जानुं. २८. - श्रा रीते निर्दोष पडिलेहण करनारे बीजुं शुं सजवानुं ? ते कहे थे. ० 〃 पडिले हरणं कुणतो, मिही कहं कुणइ जणवेयकहं वा । देई व पंचक्खाणं, वीएइ सेयं पडिच्छइ वा ॥ २६ ॥ अर्थ -- जे ( पडिलें ) पडिलेहस ( कुतो ) करतो सतो ( मिहो कहं ) परस्पर कथाने ( जणवयक वा) अथवा देशकथाने तथा उपलचणथी स्त्री ध्यादिकनी कथाने ( कुणr ) करे, ( ब ) अथवा ( पञ्चक्खाणं ) बीजाने पचवाय 80*3**** K••£OK+-***«***@3 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (देह) आपे, अथवा ( माएइ) बीजाने वाचना आपे (वा) अथवा ( सयं) पोते ( पडिच्छर ) श्रालावादिकने ग्रहण करे. २६. पुढवी श्राउक्काए, तेऊ बाऊ वणस्सइ तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छहं पि विराहओ होड़ ||३०|| अर्थ - ( पडिलेहणामतो ) परस्पर कथादिके करीने पडिलेहणमां प्रमादी थयेलो ते पुरुष ( पुढवी ) पृथ्वी काय, (उकाए) अप्काय, ( तेऊ ) तेजस्काय, ( चाऊ ) वायुकाय, ( वणस्सह) वनस्पतिकाय अने ( तसा ) सकाय ( छह पि ) ए छए कायनो ( विराहओ ) विराधक ( होह ) थाय छे. प्रमादी साधु कुंभार विगेरेनी शाळामां रह्यो होम तो ते त्यां कदाच जळ भरेलो घडो विगेरे पण ढोळी नांखे, तेना जळवडे माटी, अग्नि, बीज अने कुंथु श्रादिकना जीवो उपद्रव पामे के अने ज्यां अग्नि होय त्यां वायु अवश्य होय छे, तेथी छए कायनी विराधना संभवे छे, तेथी करीने पडिलेइणने षखते हिंसानुं कारण होवाथी परस्पर कथादिक करवी नहीं. ३०. पुढवी आउक्काए, तेऊ वाऊ वणस्सइ तसाणं । पडिलेहणा आउत्तो, छहं पि आराहओ होइ ||३१|| अर्थ - ( पडिलेहणा आउचो ) पडिलेहण करवामां प्रयुक्त सावधान एटले प्रमाद रहित एवो साधु ( पुढची ) पृथ्वीकाय, ( आउकाए ) अपकाय, ( तेऊ ) तेजस्काय, ( वाऊ ) वायुकाय, ( वणस्सइ) वनस्पत्तिकाय श्रने ( तसा ) सकाय (छहं पि) ए हुए कायनो ( धाराहओ ) आराधक ( होइ ) थाय छे. ३१. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तईआए पोरिसीए, भत्तपाणं गंवेसए । छैण्हमन्नयरागम्मि, कारणम्मि समुट्ठिए ॥ ३२॥ अर्थ-( तइमाए ) श्रीजी ( पोरिसीए ) पोरसीए ( छण्ई ) छमाथी ( अन्नयरागम्मि ) कोइ पण एक ( कारणम्मि) कारण ( समुहिए ) प्राप्त थये सते ( भत्तपाणं ) भात पाणीनी-माहारनी ( गवेसए ) गवेषणा करे-शोध करे. अही त्रीजी पोरसीए भातपाणीनी गवेषणा कही ते उत्सर्ग मार्गे कही छे, अन्यथा स्थविरकल्पीने योग्य अवसरे ज भातपाणीनी | गवेषणा करवानी छे. ३२. हवे माहार करवानां छ कारणो बतावे छे.. वेअणवेआवञ्चे, इरिअट्ठाए अ संजमट्ठाए। तह पाणवत्तिआए, छटुं पुण धम्मचिंताए ॥३३॥ ___ अर्थ-(वेषण ) क्षुधा पिपासादिक वेदनाने दूर करवा माटे १, (वेश्रावचे ) वैयावच्च करवा माटे, केमके चुघा- | दिकथी बाधा पामेलो होय तो वैयावच्च करी शके नहीं माटे २, ( इरिअट्ठाए अ) ईर्यासमितिने अर्थे, बुधादिकथी व्याकुळ थयेलो चक्षुबडे जोइ शकतो नथी तेथी तेने ईर्यासमिति साचववी दुष्कर थाय माटे ३, तथा ( संजमट्ठाए ) संयम | पाळवाने माटे, आहारादिक विना कच्छ, महाकच्छादिकनी जेम मंयम पाळवं दुष्कर थाय माटे ४, ( तह ) तथा (पाण वत्तिाए ) प्राणवृत्तिने माटे एटले प्राणना रक्षणने माटे, आयुष्य पूर्ण थये सतेज प्राणनो त्याग करवो युक्त छ, अन्यथा | | आत्महत्यानो दोष लागे छे, तेथी जीवित राखवा माटे ५, (छ8 पुण) तथा छहुँ कारखा (धम्मचिंताए) धर्मना चिंसवन Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ saw माटे-धर्मध्यानने निमित्ते एटले क्षुधादिकथी दुर्बळ थयेलाने दुनिनो संभव छे तेथी धर्मध्यान थइ शकतुं नथी. ६. पा | | छ कारणे भातपाणीनी गवेपणा करवी, ३३. जे कारणोए भातपाणीनी गवेषणा न करवी, ते कारणो कहे थे. - निग्गंथो धिइमंतो, निगंथी विने करिज छहिं चेव । ठाणेहिं तु इमेहिं, अणतिकमणाय से होई ॥३४॥ ___अर्थ (धिहमंतो ) धृतिमान एटले धर्मना पाचरण प्रत्ये स्थिरतावाळा ( निग्गंधो ) साधुए तथा ( निग्गंथी वि) | साध्वीए पण ( छहिं चेव ) छ कारणे ( न करिज ) भातपाणीनी गवेषणा करवी नहीं. ( य ) कारण के ( इमेहिं ) श्रा ( ठाणेहिं तु ) स्थानोए करीने ( से ) ते साधु ना शाबीने (अगतिकाया। संगयोगको अनतिक्रम ( होई ) थाय | ले-संयमयोगर्नु उल्लंघन थतुं नथी अर्थात् संयमयोग बराबर पकाय छ, अन्यथा तेनो अतिक्रम संभवे छे. ३४. ते छ स्थानोने ज कहे छे.आयंके उबलग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु। पाणिदयातवहेडं, सरीरवाच्छेअणट्ठाए ॥ ३५ ॥ अर्थ-(प्रायके ) ज्वरादिक व्याधिने विधे-व्याधि होय त्यारे १, ( उचसग्गे ) दिव्यादिक उपसर्गने विषे-उपसर्ग थतो होय त्यारे अथवा व्रतभंग करवा माटे स्वजनादिके करेला उपसर्ग वखते २, (वंभचेरगुत्तीसु) ब्रह्मचर्यनी मुतिने | (तितिक्खया ) सहन करवा माटे, कारण के जो आहार करवाथी मनमां विकार उत्पम थाय तो आहारनो त्याग कयों Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना ब्रह्मचर्य पळी शके नहीं ३, (पाणिदयातबहेउं ) प्राणीनी दयाने कारणे एटले वर्षादिक ऋतुमा अपकाणादिक | जीवोनी रचाने माटे ४, तथा उपवासादिक तपने माटे ५, तथा ( सरीरवोच्छेमणहाए ) भायुष्यनी समाप्तिमा शरीरको त्याग करवा माटे उचित काळे अनशन करती वखते ६, प्रा छ कारणे भात पाणीनी गोषणा करवी नहीं-तेनो त्याग करखो. ३५. ___ भात पाशमीमी गवेषणा करता या विविवडे केटला क्षेत्र सुधी भटन कर ? ते कहे छ.अवसेसं भंडगं गिज्झा, चक्खुसा पडिलेहए। परमद्धजोषणाओ, विहारं विहरए मुणी ॥३६॥ अर्थ--(अवसेस ) समग्र (भंडगं ) उपकरण (गिज्झा ) ग्रहण करीने तेने ( चक्खुसा ) चक्षुबडे जोहने पछी | ( पडिलेहए ) तेनी पडिलेहण करे. पछी ते सर्व उपधि लइने (परं ) उत्कृष्थी (अद्धजोषणाओ) अर्ध योजन एटले बे | क्रोश प्रमाण (विहारं ) क्षेत्र सुधी (मुणी ) मुनि (विहरए) विचरे एटले मातपाणीनी गवेषणा माटे पर्यटन कर. ३६. ____ा प्रमाणे विचरी, उपाश्रयमा आत्री, गुरु पासे आलोचनादिक पूर्वक भोजनादिक करी पछी शुं करते कहे थेचउत्थीए पोरिसीए, निखवित्ताण भायणं । सज्झायं च तेओ कुंजा, सव्वभावविभावणं ॥ ३७॥ अर्थ-(चउथीए ) चौथी ( पोरिसीए ) पोरसीए (मायणं ) भाजन एटले पाने प्रत्युपेक्षणा पूर्वक तथा उपलमाथी उपधिने पण प्रतिलेखना करवा पूर्वक (निक्खीवत्ताश ) स्थानके मूकीने (तो) त्यारपछी ( सव्वभावविभा Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E. वशं ) जीवादिक सर्व पदार्थोने प्रकाश करनार ( सज्झायं च ) स्वाध्यायने (कुला ) करे. ३७. पोरिसीए चढन्माए, वंदित्ताण संओ गुरुं । पडिक्कमित्ता कालस्स, सिंजं तु पडिलेहए ॥३८॥ अर्थ-(तभो ) त्यारपछी मुनि ( पोरिसीए ) चोधी पोरसीनो ( पउन्माए) चोथो भाग बाकी रहे त्यारे (गुरु) EII गुरुने ( वंदिताण ) बांदीने ( कालस्स ) काळर्नु ( पडिक्कमित्ता) प्रतिक्रमण करीने पछी ( सिजं तु ) शय्याने एटले । वसतिने (पडिलेहए ) पडिलेहे-पडिलेहण करे. ३८. Fi पासवणुच्चारभूमि चं, पडिलेहिजे जयं जई । काउस्सग्गं तेओ कुजा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥३९॥ ___ अर्थ-(जई ) साधु ( जयं ) सर्व माप रहित शइने (पागलगुलारभूमि ) प्रसवणभूमिने भने उच्चारभूमिने अर्थात् | ते धमेना बार बार स्थंडिलोने (च) चशब्दथी काळभूमिना त्रण स्थंडिलने ( पडिलेहिज ) पडिलेहे. भा प्रमाणे दिन- ! | कृत्य का, हरे रात्रिनु कृत्य कहे छे.-(तो) त्यारपछी ( सव्वदुक्खविमोक्खणं ) सर्व दुःखने-पापने नाश करनार || ( काउस्सग्गं ) कायोत्सर्गने (कुजा) करे. ३६. । देसिअंच अईआरं, चिंतिज अॅणुपुव्वसो । नाणे अ देसणे चेव, चरित्तम्मि तहेव य ॥४०॥ F अर्थ ते कायोत्सर्गमा रयो थको साधु ( नाणे श्र) ज्ञानने विषे, तथा ( दसणे चेव ) दर्शनने विषे, ( तहेव य) || तेम ज वळी ( चरित्तम्मि ) चारित्रने विषे ( अणुपुत्वसो) अनुक्रमे एटले प्रातःकाळना प्रतिक्रमणमा प्रथम मुस्त्रवत्रिकानी || Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पडिलेहण करी त्यारथी आरंभीने या कायोत्सर्ग सुधी अनुक्रमे ( देसि च ) दिवस संबंधी ( आईआर ) प्रतिचारने ( चितिख ) चिंतवे. ४०. पारिअकाउस्सग्गो, वंदिताण तओ गुरुं । देसिअं तु अईआरं, आलोइज जकमं ॥ ४१ ॥ अर्थ – (ओ) अतिचार चितव्या पछी ( पारिका उग्गो) कायोत्सर्गने पारी (गुरु) गुरुने ( वंदिताय ) द्वादशावर्त वंदन करीने ( देसि तु ) दिवस संबंधी (आईआर) चिंतवेला अतिचारने ( जहकमं ) अनुक्रमे (आलोअ ) आलोचे - गुरु पासे प्रगट करे. ४१. पछी पडिमित्तु निस्सलो, वंदिताण तओ गुरुं । काउस्सग्गं तैओ कुंजा, सर्ववदुक्खविमोक्खणं ॥ ४२ ॥ अर्थ - ( पडिकभित्तु ) प्रतिक्रमण करीने एटले श्रमणसूत्र ने कहीने अपराधना स्थानोथी पाछा फरीने ( निस्सल्लो) माया शल्यादिक शल्य रहित थने (तो) त्यारपछी (गुरु) गुरुने ( वंदित्ताय ) चंदन पूर्वक अन्युडिउ खमावीने तथा चांदीने (तो) त्यापछी ( सन्चदुक्खचिमोक्खणं) सर्व दुःखनो नाश करनार (काउस्सगं) कायोत्सर्गने एटले ज्ञान, दर्शन चारित्रनी शुद्धिने माटे ऋण कायोत्सर्गेने ( कुआ ) करे. ४२. पारिका उग्गो, वंदिताणं तओ गुरुं । थुइमंगलं च काउं, कालं संपडिलेहए ॥ ४३ ॥ अर्थ -- ( पारिका उस्सग्गो) कायोत्सर्ग पारीने ( तनो) पछी (गुरुं ) गुरुने ( वंदितायं ) वांदीने ( धुइमंगलं च ) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में सिद्धस्सवरूप तथा प्रण स्तुतिरूप स्तुतिमंगळ ( काउं) करीन एटले नमोस्तु बर्द्धमानाय कहाँने ( कालं ) प्रादोषिक काळने (संपडिलेहए ) पडिलेहे तथा उपलवणथी ग्रहण करे. ४३. पढम पोरिति सज्झायं. बिईअं झाणं झिआयइ । तईआए निमोक्खं तु, सज्झायं तु चउत्थीए ॥४४॥ अर्थ-(पढम ) पहेली (पोरिसि) पोरसीए ( सज्झाचं) स्वाध्याय करे, (बिभं) बीजी पोरसीए ( झाणं) धर्मध्यान ( झिआयइ ) ध्यावे, (तइनाए ) त्रीजी पोरसीए (निमोक्खं तु) निद्राने छूटी मुके-निद्रा ले, (तु) क्या (चउत्थीए ) चोथी पोरसीए ( सज्झायं ) फरीथी स्वाध्याय करे. आगाथा प्रथम कही गया छे, छता अहीं फरीथी लखी थे. ते वारंवार उपदेश श्रापबामा गुरुए प्रयास गणवो नहीं, एम जणावघा माटे लखी छे. ४४. शी रीते चोथी पोरसीए स्वाध्याय करको ? ते कहे छे.- . पोरिसीए चउत्थीए, कालं तु पंडिलेहिआ। सज्झायं तु तेश्रो कुजा, अबोहितो असंजए ॥ ४५ ॥ अर्थ-( चउत्थीए ) चोथी ( पोरिसीए ) पोरसीए ( कालं तु ) रात्रिक काळने ( पडिलेहिना) पडिलेहीने तथा 1 ग्रहण करीने ( तमओ ) त्यारपछी ( असंजए ) असंयतिमीने (अमोहितो) नहीं जमाडतो-मौनपणे ( सन्झाय तु) __ स्वाध्यायने (कुला ) करे. ४५, पोरिसीए चउभाए, वंदित्ताण तओ गुरुं । पंडिक्कमित्ता कालस्स, कालं तु पंडिलेहए ॥ १६ ॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - (तो) त्यारपछी ( पोरिसीए ) चोथी पोरसीनो ( उन्माए ) चोथो भाग बाकी रहे त्यारे ( गुरुं ) गुरुने (दिता) चांदीने (कालस्स ) वैरात्रिक काळने ( पडिकमित्ता ) पडिक्कमीने ( कालं तु ) प्राभाविक काळने ( पडिलेहए ) पडिले तथा काळ ग्रहण करे. अहीं मध्यम क्रमनी अपेक्षाए ऋण काळ ग्रहण कह्मां घे, अन्यथा उत्सर्ग मार्गे उत्कृष्टधी चार अने जपन्थी त्रा काळात मार्गे उत्कृष्टथी वे अने जघन्यथी एक पण काळ ग्रहण कधुं छे. काळग्रहणनो विधि आवश्यकनी वृत्ति थकी जावो. ४६. आगए काय वुस्सग्गे सव्त्रदुकखविमोक्खणे । काउस्सग्गं तैओ कुंज्जा, सैव्वदुक्ख विमोक्खणं ॥ ४७॥ अर्थ -- ( सञ्चदुक्ख विमोक्खणे ) सर्व दुःखनो नाश करनार ( कायस्सगे ) कायोत्सर्गनो काळ ( आगए ) प्राप्त थये सते (तो) त्यारपछी (सब्वदुक्खत्रिमक्खणं ) सर्व दुःखनो नाश करनार ( काउससम्म ) कायोत्सर्गने ( कुआ) करे. 'सर्व दुःखनो नाश करनार ' ए कायोत्सर्गनुं विशेषण वारंवार भाष्यं घे तेनो हेतु कायोत्सर्ग मोटी निर्जरानुं कारण एम जाववानो छे. बळी अहीं कायोत्सर्ग शब्दे करीने ज्ञान, दर्शन भने चारित्रनी शुद्धि माटे पण ऋण कायोत्सर्ग करबाना छे, मांजा कायोत्सर्गमां रात्रि संबंधी अतिचारनुं चितवन करवानुं छे. ४७. ते विषे ज कहे छे. इअं च श्रईआरं, चिंतिजे अणुपुव्वसो । नाम्नि दंसणम्मि, चरितम्मिं तवम्मिये ॥ ४८ ॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - श्रीजा काउसन्गमां (नाणम्मि) ज्ञानने विषे, (दंसणम्मि) दर्शनने विषे, (चरितम्मि) चारित्रने विषे, (तवम्मि) तपने विषे, (य) शब्दधी वीर्यने विषे लागेला (अणुपुब्वसो) अनुक्रमे (राइथं च ) रात्रि संबंधी (आईआर) प्रतिचार (चितिज) चितववा. बाकीना कायोत्सर्गोमा चतुर्विंशतिस्तवनुं चितवन करवानुं छे ए प्रसिद्ध ज छे, तेथी कां नथी. ४८. पारिअकाउान्गो, दिसाण ओ । राइअं तु अईआरं, आलोएज जेहक्क ॥ ४९ ॥ अर्थ - (पारिका उगो ) कायोत्सर्गने पारीने (तो) त्यारपछी (गुरुं ) गुरुने ( वंदिनाथ ) वांदीने ( जहकर्म) अनुक्रमे (राइअं तु ) रात्रि संबंधी (आईआर) अतिचारने (भालोएज) आलोचे - प्रकाश करे. ४६. पंडिकमित्तु निस्सलो, वंदिताण तैओ गुरुं । काउस्सग्गं तओ कुंज्जा, संव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ५० ॥ अर्थ - ( परिकमित्तु ) पडिकमीने — श्रमणसूत्र कहीने एटले अपराधथी पाछा फरीने ( निरसल्लो) शन्य रहित थइने (तो) त्यारपछी (गुरु) गुरुने ( वंदित्ताय ) वांदीने एटले वंदन पूर्वक गुरुने अठवडे खमावाने पछी फरीथी दीने (तो) त्यारपछी ( सम्वदुक्ख विमोक्खयां ) सर्व दुःखनो नाश करनार (काउस्सगं) कायोत्सर्गने (कुजा) करे. ५०. कायोत्सर्गमा रहने शुं करे ? ते कहे छे. किं तवं पैडिवज्जामि ?, एवं तत्थ विचितए । कांउस्सग्गं तु पारिता, वंदेई उ तो गुंरुं ॥ ५१ ॥ अर्थ - आजे हुं (किं तवं ) कयो तप ( पडिवआमि ) अंगीकार करूं ? ( एवं ) ए प्रमाणे ( तस्थ ) ते कायोत्सर्गने विषे ••*+*••********O*••*~! Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ... ... II (विचिंतए) चितव. श्रीमहावीरस्वामी छ मासनो तप करीने पण विचर्या हता, तो शुं हुं पण तेटलो तप करवा शक्तिमान छ ? तेथी एक दिवस ओछो तप करवा शक्तिमान छ ? ए रीते चे, त्रण विगेरे यावत् २६ दिवस मोछा करी विचार, el छेवट पांच मास, चार मास विगेरे तप करवाने चिंतव, ए रीते उतरता उतरता एक मास. ओगणत्रीश दिवस, अट्ठावीश | | दिवस, छेवटे एक दिवस, एकाशन, पोरसी अने छेवट नवकारसो सुधा विचार. जैतप करवो होय ते नक्की करवं. (तो) त्यारपछी ( काउस्सग्मं तु ) कायोत्सर्गने ( पारिता) पारीने ( गुरुं ) गुरुने ( वंदई उ ) दि. ५१. उपरनी गाथाना उत्तरार्धमा कहेला अर्थनो ज अनुवाद करता सता शेष सामाचारीने कहे छे.पारिअकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरुं । तवं संपडिवजित्ता, केरिज सिद्धाण सँथवं ॥५२॥ अर्थ-(पारिअकाउस्मग्गो) कायोत्सर्गने पारीने (तो) त्यारपछी (गुरु) गुरुने (वंदिताण) चांदीने (तर्व) कायोत्सर्गमा चितवेला-निर्णीत करेला तपने (संपडिवजित्ता। अंगीकार करीने (सिद्धाण) सिद्धोना (संघवत्रण स्तुतिरूप विशाललोचन संस्तधने ( करिअ ) करे. त्यारपछी ज्या ज्या शाश्वत अशाश्वत चैत्यो छे तेने बंदना करे-सकळतीर्थ कहे. ५२. ___हवे श्रा अध्ययनने समाप्त करे छे.एसा सामायारी, समासेण विहाइआ । जं चरित्ता बहू जीवा, तिण्णा संसारसागरं ति बेमि ॥५३॥ अर्थ--(एसा ) आ ( सामायारी ) सामाचारी ( समासेश) संक्षेपे करीने ( बिहाइमा ) कही छ, (जे) जे सामा Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारीने (चरिता ) आचरीने पाळीने (बहू जीवा ) घणा जीबो ( संसारसागरं तिष्ठा ) संसाररूपी सागरने तरी गया है, तरे के अने तरशे. (तिमि ) ए प्रमाणे हुं कहुं हुं एम सुधर्मास्वामीए जंबुस्वामीने कं . ५३. इति षड् विंशमध्ययनम्. २६. **@* अथ खलुंकीय नामनुं सत्तावीसुं प्रयगत २७ छन्वीशमा अध्ययनमा सामाचारी कही. ते अशठपणाए करीने ज पाळी शकाय हे, ते अशठता पण तेना विपक्षभूत शठतानी त्याग करवाथी ज प्राप्त थाय छे, तेथी या अध्ययनमां दृष्टांत द्वारा शठतानुं स्वरूप कहे छे.'थेरे धरे गंगे, मुणी आसि विसारए । आइसे गणिभावम्मि, समाहिं पडिए ॥ १ ॥ अर्थ – (थेरे) स्थविर एटले अस्थिर जीवोने धर्मने विषे स्थिर करनार, ( गणधरे ) गच्छने धारण करनार, (विसारए) सर्व शास्त्रमां कुशळ, (आइये ) आचार्यना गुणोथी व्यास - सहित तथा (गणिभावम्मि ) श्राचार्यपदने विषे रहेला (गग्गे ) गर्ग नामना (मुखी) सर्वसाद्य विरतिने अंगीकार करनार मुनि (आसि ) हता. ते मुनि ( समाहिं ) समाधिने ( परिसंघ ) सांधना हता एटले जो कुशिष्योए पोताना चित्तनी समाधिनो भंग कर्यो होय तो तेने पाछा सांधी लेनारा हता. १. ते याचार्य समाधिने सांधता सता शुं विचारता हता ? ते कहे थे. ―― Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहणे वहमाणस्स, कंतारं अइवत्तइ । जोए अ वहमाणस्स, संसारे अइवत्तह ॥ २ ॥ अर्थ--( वहणे ) गाडी प्रादिक वाहनमा ( वहमाणस्स ) जोडेला विनीत वृषभ अश्वादिकने हांकता एवा पुरुषर्नु (केतारं ) अरण्य ( अहवत्तइ ) सुखेथी पोतानी मेळे ज उल्लंघन थाय छ, ते जरीते ( जोए अ) योगने विषे एटले संयमव्यापारने विषे (वहमाणस्स ) जोडेला सुशिष्योने प्रवर्तावनार प्राचार्यादिकनो ( संसारे ) संसार (अइवत्तइ ) पोतानी मेळे ज सुखेथी उल्लंघन थाय छे. कारण के शिष्योने विनयवाला जोवाथी पोताने विशेष समाधि थाय छे. २. आ प्रमाणे पोतानी समाधिने माटे विनीत शिष्यनुं स्वरूप विचारी हवे अविनीतनुं स्वरूप विचारे के.खलंके जो उ जोपइ, विहम्माणो किलिस्सइ । असमाहिं च वेदेति, तोतओ से ये भजइ ॥३॥ ___ अर्थ-(उ) तु पुनः (जो ) जे पुरुष ( खलुंके ) अविनीत एटले गळीया वृषभादिकने ( जोएइ) रथमा जोड छ, 5 ते पुरुष ( विहम्माणो ) अविनीत वृषभादिकने वींघतो एटले मारतो मारतो (किलिस्सइ) क्लेश पामे छे-थाकी जाय छे, भने तेथी करीने ज (असमाहिं च) असमाधिने (वेदेति) वेदे खे-पामे छे, (य) तथा (से) ते हकिनार पुरुषनो (तोत्तओ) * तोत्रक एटले होकवानो परोणो, चाबक विगेरे ( मजद) भोगी जाय छे. ३. तेथी भति क्रोध पामीने ते हांकनार पुरुष शु करे छे । ते कहे छे.एग डैसइ पुच्छम्मि, एंगं विधइऽभिक्खणं । एगो भंजइ समिलं, एंगो उप्पहपट्ठिओ ॥४॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(एग) एक वृषभने पोताना दांतवडे (पुच्छम्मि) पूछडामा ( डसइ) करडे छे भने ( एर्ग) एकने न (अभिक्खणं ) वारंवार (विधइ) वींधे छे-मारे छे, तेम करवाथी (एगो) एक वृषभ ( समिलं) शमिलने-सुसरीनी खीलीने (भंजइ ) भांग के अने ( एगो) एफ ( उप्पहपढिनो) उन्मार्गे गयेलो थाय छे-उन्मार्गे जाय छे. ४. एगो पैडइ पासेणं, निवेसइ निवेजइ । उकुदइ उप्किंडइ, सढे बालगवी वंए ॥ ५॥ अर्थ (एगो ) एक गळीयो वृषभ ( पासेणं ) डावा जमणा पडखे ( पडइ ) पडे छे-आळोटे छे, (निवेसइ ) कोइ। बेसी जाय छे, (निवअइ) कोइ लांबो थइने सुइ जाय , ( उक्कुद्दइ ) कोइ कूदे थे, ( उप्फिडइ) कोइ फाळ मारे छ || एटले ठेके छे, ( सढे) कोइ शठपणुं-धूर्तपणुं करे छ, ( बालगवी वए ) कोइ युवान गाय तरफ दोडे छे. ५. ___माई मुद्धेण पडइ, कुद्धे गच्छइ पडिपहं । मयलक्खेण चिट्ठाइ, वेगेण य पहावइ॥६॥ ___ अर्थ- (माई ) मायावी एवो बीजो वृषभ तो (मुद्धेण ) मस्तकवडे (पडइ) पडे के एटले पोताने अशक्त देखाडतो माथाभर पडे छे, (कुद्धे ) कोइ क्रोध पाम्यो सतो ( पडिपहं ) पाछे मार्गे-पाचे पगले (गच्छह ) जाय छे, (मयलक्खण) कोइ मरेलानी जेम (चिट्ठाइ ) पब्यो रहे छ, ( वेगेण य ) तथा कोइ वेगथी ( पहावइ ) दोडे थे. ६. छिण्णाले छिरोणई सैलिं, दुईते भंजई जुगं । से वि अ सुस्सुआइत्ता, उज्जहिता पलायइ ॥७॥ अर्थ-(छिमाले ) दुष्ट जासिनो कोइ पृषम ( सविं ) रज्जुने (छिकई ) तोडी नांखे छे, तथा ( दुईते ) दुःखे क Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "" @_*•**••* रीने दमी शकाय एवो कोइ वृषभ (जुर्ग ) झुंसरीने ( भंजई ) भांगी नांखे के, ( से विश्र ) वळी ते पण उद्धत वृषभ ( सुस्सुइसा ) फुंकाडा मारी ( उजहित्ता ) गाडीने तथा स्वामीनें उन्मार्गे नांखी ( पलायह ) नाशी जाय थे. ७. चप्रमाणे दृष्टांतने विचारी हवे दाष्टांतिकने विचारे छे. वलंका आरिसा जोजा, दुस्सीसा वि हुँ तारिसा । जोइआ धम्मजाणम्मि, भजंति धिइँदुब्बला ||८|| - अर्थ - ( खलुंका) गळीया वृषभ ( जोखा) वाहनमां जोड्या सता (जारिसा) जेवा प्रकारना होय छे, (दुस्सीसा वि) शिष्यो (तारिसा हु ) तेवा ज होय छे. केमके (धिदुब्बला) दुर्बळ धृतियाळा तेश्रो (धम्मजाखम्मि) धर्मरूपी यानमा ( जोइया) जोडया सता एटले धर्मानुष्ठानमा स्थिर कर्या सता पण ( भांति ) संयममार्गथी भ्रष्ट थाय छे अने गुरुने लेशकारक थाय छे. ८. धृतिना दुर्बळपणाने ज प्रगट करे .. डीगारविए ऐगे, ऍगेऽथ रेसगारवे । सायागारविए पैगे, एंगे सुचिरकोहणे ॥ ९ ॥ अर्थ – (अत्थ ) आ कुशिष्यना अधिकारमा ( एगे ) मारो को अविनीत शिष्य ( इडीगारचिए ) ऋद्धिगौरववालो के एटले " धनिक श्रावको मारे आधीन के अने मारा वस्त्र पात्रादिक उपगरयो उत्तम के " इत्यादिक माननारो के तथा ( एगे ) कोह शिष्य (रसगारवे ) मधुरादिक रसने विषे गौरववाळो ये तेथी ते ग्लानादिकने आहार लावी आपवाम के Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपस्या करवामा प्रवर्ततो नथी. ( एगे ) कोई शिष्य ( सायागारविए ) सात गौरववालो छ एटले सुखशीलीयो छे तेथी ते अप्रतिबद्ध विहारादिकमा प्रवर्ततो नथी. (एगे ) कोइ शिष्य ( सुचिरकोहणे ) चिरकाल सुधी क्रोधयुक्त में रहे छे तेथी |1| कोइपण कार्यमा प्रपति थी. ६. भिक्खालसीए एगे, एंगे ओमाणभीरुप थेद्धे । एंगं च अणुलासम्मि, हेऊहिं कारणोहि अ ॥१०॥ ___ अर्थ-(एगे) कोइ शिष्य ( भिक्खालसीए ) भिक्षा लेचा जवामां आळसु छ, तेथी गोचरीए जतो नधी, (एगे)। कोइ शिष्य (ओमाण भीरुए ) अपमानथी भीरु छे तेथी भिक्षाने माटे भ्रमण करता छतां पण जेवा तेवाने घेर जवा इच्छतो नथी. ( थवे ) कोइ शिष्य स्तब्ध एटले अहंकारी छे तेथी तेने तेना कदाग्रहथी नम्र करी शकातो नथी. (एगं च) भने कोइ शिष्यने ( देऊहिं ) हेतुबडे ( कारणेहि अ) तथा कारणोवडे ( अणुसासम्मि) हुं शीखामण आपुं हुं, तोपण ते समजतो नथी, तेने हवे केवी रीते समजावयो ? १०, सो वि अंतरभासिल्लो, दोसमेव 'कुब्वइ । आयरिमाणं तं वयणं, पडिकलेइ अभिक्खणं ॥ ११ ॥ अर्थ-( सो वि ) ते शिक्षा अपातो कुशिम्य पण ( अंतरभासिलो ) वधे बोलनारो एटले गुरुना वचनमा बच्चे कोलीने ( दोसमेव ) गुरुना दोषने ज ( पकुवइ ) करे छे-काढे छ, अने (आयरिश्राणं ) आचार्य एवा भमास (तं वयक) ते शिक्षाना वचनने (अभिक्खणं ) वारंवार ( पडिकूलेइ ) प्रतिकूळ आचरण करे छे एटले कुयुक्तिए करीने तेथी। विपरीत पणे चर्ते छे. ११. HAMA Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न सा ममं विआंणाई, न वि सा मज्झ दाहिइ । निग्गया 'होहिई मन्ने, साहू अन्नोऽथ वैचउ॥१ अर्थ-"अमुक श्राविकाने घेर जइ त्यांथी ग्लानादिकने माटे पथ्यादिक लइ आव" ए प्रमाणे कदाच ते कुशिष्यने । | अमे कयु होय, त्यारे ते एवो उत्तर भापे छ के-(सा) ते श्राविका (ममं) मने (न वियाणाइ ) ओळखती नथी. (सा) ते श्राविका (AE ) मने (दि शाहिद : प्रमादिक भागशे पण नहीं. ( निग्गया ) ते श्राविका तेने घेरथी क्याइ बीजे स्थाने गयेली ( होहिई ) हशे एम ( मो) हुं मार्नु छ. (अत्थ) मा कार्यमां (थनो साहू) चीजो साधु (वच) जाओ* बीजाने मोकलो. शुं हुं एक ज साधु छ के जेथी मने ज काम बतावो छो ? बीजा घणा छे, तेने भोकलो. इत्यादि ते * कुशिष्य बोले छे. १२. पेसिआ पैलिउंचंति, ते परियति समंतओ। रायविटिं व मनंता, कैरिति भिउडि मुंहे ॥१३॥ अर्थ-(पेसिआ ) कोइ कार्यने माटे मोकल्या एवा (ते ) ते कुशिष्यो ( पलिउंचति ) अपलाप करे हे एटले " ते कार्य केम न कयुं ?" एम अमे तेने पूछीए त्यारे ते खोटा जवान मापे छ के-" तमे ते काम मने क्यारे वताव्यु हतुं ?" अथवा “अमे तो त्यां गया हता, पण ते श्राविकाने श्रमे तो जोइ नहीं." इत्यादि. तथा ते कुशिष्यो (समंतभो) चौतरफ सर्व दिशाओमी ( परियंति ) भम्या करे ले, परंतु अमारी पासे उभा पण रहेता नथी. " यानी पासे रहेबाथी चळी आनु || कांहक काम करवू पडशे." एम धारीने छेटा छेटा फरे छे. तथा कदाचित कांडक कार्य करवा प्रवत व्या होय तो (राय Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विट्टि व ) राजानी वेठ जेवू ( मन्नंता ) मानता सता ( मुहे ) मुखपर ( भिडिं) भृकुटि ( करिति ) करे छे-चडावे छे, || अर्थात् इर्ष्याने जणावनारी बीजी पण कुचेष्टाभो करे छ. १३. * वाहनया मंगहिआ चेव, अनागोण पोसिआ । जायपक्खा जहा हंसा, कमति दिसोदिसं ॥१४॥ अर्थ-(वाइआ ) सूत्र भणाव्या, अर्थ भरणाच्या अर्थात् सूत्रार्थ भणावीने पंडित कर्या, तथा (संगहिमा ) संग्रह कर्या एटले श्रमारी निश्रामा राख्या, (चेव ) चशब्दथी अमे पोते ज दीक्षित कर्या, तथा ( भत्तपाणेण ) मातपाणीवडे ( पोसिमा) पुष्ट कर्या-पोष्या, तो पण ते कुशिष्यो (जायपक्खा) उत्पन्न थइ छ-श्रावी छे पांख जेने एवा (हंसा जहा) हंसोनी जेम (दिसोदिसं) सर्व दिशामा (पकमंति) फरे ले-पोतानी इच्छा प्रमाणे विहार करे छे. प्रथम एक एक शिष्यनी वात कहेता हता, अने अहीं बहुवचन लख्युं छे, ते मावा कुशिष्यो घणा होय छे एबुं जणावत्रा माटे छे. १४. आरीते कुशिष्यतुं स्वरूप विचार्यु. हवे तेमनाथी ज असमाधिने तथा खेदने पाम्या सताते गर्ग आचार्य शुं कयु ? ते कहे छ...अह सारही विचिंतेई, खलुंकेहिं समागो । किं मज्झ दूंसीसेहि, अप्पा मे अवसीअइ ॥१५॥ ___ अर्थ-( श्रह ) हवे (खलुंकेहिं) गळीया वृषभनी जेवा कुशिष्योधी ( समागो) संयुक्त एवा (सारही ) धर्मयानना | सारथि गर्गाचार्य (विचिंतेह ) विचार करे ले के-( मज्झ) मारे (दुट्ठसीसेहिं ) आवा दुष्ट शिष्योए करीने (किं) शुं फळ छ ? उलटो (मे) मारो (अप्पा) प्रात्मा ( अवसीआइ ) सीदाय छे.पा कुशिष्योने प्रेरणा करवामां व्यग्र रहेबाथी मारा आत्मकार्यनी हानि थाय छे, माटे तेमनो त्याग करी मारे उधत विहारे विचरवू सारं छे. १५. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अही कोइ शंका करे के-तेश्रोने प्रेरणा करतांवच्चे बच्चे पोतानुं प्रात्मकार्य पण केम साधी न शकाय? ते उपर कहे छ.जारिसा मम सीसा उ, तारिसा गलिगद्दहा । गलिगदहे चइत्ता णं, दढं पगिण्हई तवं ॥१६॥ || अर्थ-( जारिसा ) जेवा ( मम ) मारा ( सीसा उ) शिष्यो छे, ( तारिसा ) तेवा कदाच. ( गलिगढहा ) गळीया गधेडा होय तो होय, ते सिवाय बीजो कोइ तेमनी उपमाने पामे तेवो नथी. अहीं अत्यंत दुष्टता जणाववा माटे गर्दभ शन्द | लख्यो छे. ते गधेडा स्वाभाविक रीते अत्यंत प्रेरणा करवाथी ज चाले छे, तेथी तेमनी प्रेरणामा ज समग्र काळ चाल्यो जाय छे, परंतु बच्चे श्रात्मसाधन करवानो समय रहेतो नथी. पा रीते विचारीने ते गर्गाचार्य (गलिगद्दहे) गळीया गधेडा शश जेवा शिष्योनो (चहत्ता णं) त्याग करीने (दर्द) दृढ-उग्र एषा (तव) तपने-बिहारने (पगिण्हई) ग्रहण करता हवा. १६. l एज वातने कई छ.मिउ मईवसंपन्ने, गंभीरे सुसमाहिए । विहेरइ महि महप्पा, सीलभूएण अप्पण त्ति बेमि ॥ १७ ॥ अर्थ (मिउ ) बाह्यवृत्तिथी कोमळ एटले विनयवाला, ( मद्दवसंपन्ने ) मनवडे पण मार्दवयुक्त, (गंभीरे ) गंभीरता. वाळा, (सुसमाहिए ) सारा समाधिवाळा तथा ( सीलभूएण) शीलने-चारित्रने पामेला एवा ( अप्पणा) भात्मावडे ओळखाता ( महप्या) ते महात्मा गर्गाचार्य अविनीत शिष्योने तजीने (महिं ) पृथ्वीपर (विहरह) एकला विचरता हवा. (ति बेमि ) एम हुं कहुं छु. ए प्रमाणे सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने कद्दु. १७. इति सप्तर्वियमध्ययनम्. २७, Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MO- 10 अथ मोक्षमार्गगति नामनुं अहावीशमं अध्ययन २=. प्रथमना अध्ययनमां शठतानो त्याग करी अशठतानो स्त्रीकार करवानुं कीं. हवे शठतारहित पुरुष सुखे करीने मोक्षमार्गने पानी शके छे, तेथी श्री मोक्षमार्गगति नामनुं अध्ययन कहेवाय छे, तेनुं आ प्रथम सूत्र छे. मोखमग्गगई तच्च, सुणेह जिंगभासिनं । चउकारणसंजुत्तं, नाणदंसणलखणं ॥ १ ॥ अर्थ - श्रीसुधर्मास्वामी जंत्रस्वामी विगेरे शिष्योने कहे थे के – ' हे मुनिओ ! (जिणभासि ) श्रीजिनेश्वरे कहेली, कारण संजुत्तं ) चार कारणोए सहित, (नाणदंस लक्खयं) ज्ञान अने दर्शन के लक्षण जेनुं एवी तथा ( त ) सत्य एवी (मोक्खमग्गगई ) मोक्षमार्गनी गतिने ( सुखेह ) तमे सांभळो. अहीं मोच एटले समग्र कर्मनो वय, तेनो मार्ग ज्ञानादिक ते मोक्षमार्ग कहेवाय छे, ते मोक्षमार्गे करीने जे गति ते मोक्षमार्गगति कद्देवाय छे. १. हवे ते मोक्षमार्गनां चार कारणो कहे छे. - गाणं च दणं चैव चैरितं च तेत्रो तेहा । ऐस मैग्गु ति सात्तो, जिणेहिं वरदसिहिं ॥ २ ॥ अर्थ - ( गाणं च ) ज्ञान, ( दंसणं चेत्र ) दर्शन, (चरितं च ) चारित्र, ( तहा ) तथा (तको ) तप, ( एस ) ए चार (मग्गुति) मार्ग के एम (वरदंसिहिं ) श्रेष्ठ के दर्शन जेनुं एटले केवळदर्शी एवा ( जिरोर्हि ) तीर्थंकरोए (पणतो) ३८ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहुं छे. अहीं चारित्रनी अंदर तपनो समावेश थाय छे, तोपण तप ज कर्मक्षयमा उत्तम कारण छ एम बणाववा माटे तपने जूदो करो छ. २. ____ाज ज्ञानादिकनो अनुवाद करदा पूर्वक तेनुं फळ बतावे छे.नाणं च देसणं चैव, चरित्तं च तेत्रो तैहा । ऐअं मग्गमणुपत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गइं ॥३॥ अर्थ-नाणं च ) ज्ञान, (दसणं चेव ) दर्शन, (चरितं ना : चारित्र, बिहा) रा ( वयो) तप, (एभं) मा चार प्रकारना (मन्ग) मागेने । अणुपत्ता) पामेला (जीवा) जीवो (सोम्मई) मुक्तिरूपी सद्गतिने गच्छति) पाम छ. ३. ज्ञानादिकने ज अनुक्रमे कहे छे.- .. तस्थ पंचविहं नाणं, सुअं आभिपिबोहिअं। ओहिणाणं च तइअं, मणनाणं च केवलं ॥४॥ | ___ अर्थ-( तत्थ ) तेमा (नाणं ) ज्ञान ( पंचविई ) पांच प्रकारच् छे. ते भा प्रमाणे-(सुअं) श्रुतज्ञान, ( भामिणियोहिनं) आभिनिवोधिक मतिज्ञान, ( श्रोहिणाणं च) तथा अवधिज्ञान (तह) ए त्रीजु थे, (मणनाणं) मनपर्याय ज्ञान, (च) अने । केवलं ) केवळज्ञान. श्रीनंदीसूत्र विगेरेमा मतिज्ञान पहेलुं अने पछी श्रुतज्ञान चीजुं कयुं छे, अने अहीं श्रुतज्ञान पहेलं कथु, तेनुं कारण ए जे जे चाकीनां सर्व ज्ञानोना स्वरूपनुं ज्ञान प्राये श्रुतथी ज घइ शके छ, तेथी ध्रुतज्ञानतुं मुख्यपणुं बताववा माटे श्रुतज्ञान पहेलु कयुं छे. ४. हवे ते ज्ञाननो विषय कहेछ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐ पंचविहं नाणं, देव्वाण य गुणाय य । पंजवाणं च सेव्वेसिं, नाणं नाणीहिं देसिंअं ॥ ५ ॥ अर्थ – (एथं ) श्रा (पंचविहं ) पांच प्रकारनुं ( नाणं ) ज्ञान ( नाखीहिं ) ज्ञानीओए एटले तीर्थकरोए ( सव्वेसिं) सर्व (दव्या य ) जीवादिक द्रव्योने ( गुणाय य ) रूपादिक गुणोने, अने तेना ( पञ्जवाणं च ) नवापणुं जूनापणुं विमेरे अनुक्रमे थनारा पर्यायाने (नाणं ) जाखनारुं छे एम (देसिअं ) कथुं छे. अहीं केवळज्ञाननी अपेक्षा सर्व शब्द लख्यो छे. केमके एक केवलज्ञान ज सर्व द्रव्यादिकने लाखे छे, अने ते सिवायनां बीजां ज्ञानो तो नियमित पर्यायोने ज जाणी शके थे. ५. ज्ञाननो विषय द्रव्यादिक के एम कयुं तेथी द्रव्यादिनुं लक्षण कहे छे. गुणा मांसओ देव्वं, एगदव्वस्सिआ गुणा । लैक्खणं पंजवाणं तु, उभओ अस्सिआ भेवे ॥ ६ ॥ अर्थ – (गुणा आमो) रूपादिक गुणोनो जे आश्रय ते ( दव्वं ) द्रव्य कहेवाय थे, एटले ए द्रव्यनुं लक्षण छे. ( एगदव्वस्तिमा ) एक द्रव्यने आश्रीने रहेला जे होय ते (गुणा ) गुण कहेवाय छे, एटले वे गुखनुं लक्षण छे, (तु) aar (उभयो अस्सिा ) द्रव्य अने गुण ए बनेने आश्रीने जे रहेला ( भवे ) होय ते ( पञ्जवाणं ) पर्यायोनुं ( लक्ख) लक्षण के एटले पर्यायो उभयाश्रित थे. ६. गुणोनो आश्रय ते द्रव्य एम कह्युं, हवे द्रव्यना केटला प्रकार छे ? ते कहे बे. - **** Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " E | धम्मो |हम्मो आगासं, कालो पोग्गलजंतवो। एस लोगु त्ति पोलतो, जिणेहि वरदसिहि ॥ ७ ॥ अर्थ--(धम्मो ) धर्मास्तिकाय, ( अहम्मो ) अधर्मास्तिकाय, (आगास) आकाशास्तिकाय, ( कालो ) काळ-समयादिक श्रद्धा, ( पोग्गलजंतवो ) पुद्गलास्तिकाय अने जीवास्तिकाय. आ छ द्रव्य ले. तथा ( एस ) मा छ द्रव्यना स्वरूप वाळो ज ( लोगु ति ) आ लोक छ एम ( वरदसिहि ) केवळज्ञानी ( जिणेहि ) जिनेश्वरोए ( पपत्तो ) कहुं छे. ७. ____ हवे धर्मादिक द्रव्योने ज भेदथी कहे ले.-- धम्मो अहम्मो आगासं, दवं इकिकमाहि। अणंताणि अ दवाणि, कालो पुग्गलजंतवो ॥८॥ अर्थ-(धम्मो ) धर्मास्तिकाय, ( अहम्मो प्रतिकार, प्रो (मावास) गगकाशातिकाय (द) ए द्रव्यने जिनेश्वरोए ( इक्विक ) एक एक ज (आहिनं ) कहां छे, ( कालो ) काळ, ( पुग्गल जंतयो ) पुगळ अने जीयो ( दवाणि ) ए द्रव्यो (अणंतास्थि म) अनंता कयां छे. तेमा काळने अतीत अने अनागत काळनी अपेक्षाए अनंत को छे. ८. (पुद्गळ द्रव्यो ने जीवो तो त्रणे काळे अनंता छे.) हवे छए द्रव्योना लक्षणो कहे छे.गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्षणो । भायणं संवदव्याणं, नहं ओगाहलखणं ॥९॥ अर्थ-(गइलक्खनो उ धम्मो ) गतिरूप लवणवाळो धर्मास्तिकाय के, एक स्थानेथी बीजे स्थाने अतुं वे गति करे Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Offika+Cha-definik* *** वाय छे तेमां सहायक थर्बु ते धर्मास्तिकायतुं लक्षण छ. (ठाणलक्खणो) स्थानरूप लवणवाळो (महम्मो) अधर्म के, अधर्मास्तिकायर्नु लक्षण स्थिति छ, एटले के पोतानी भेळे ज गमन करवामा प्रवर्तेला जीव अने पुद्गळने गतिक्रियामा |* सहायभूत थाय ते धर्मास्तिकार ले सने शिर रहेताना एरिणामवाळा जीव अने पुद्गळने स्थितिक्रियामा सहायभूत थाय ते अधमोस्तिकाय छे. तथा ( मन्यदलाणं ) सर्व द्रव्योनो ( भायणं ) आधार ( ओगाहलक्षणं) अवगाहरूप लक्षणवाग्छ । (नहं ) आकाश छे. अवगाह करवामा प्रवर्तेला जीव भने पुद्गळने जे अवकाश प्रापे ते आकाश कद्देवाय छे. ९. वत्तणालक्खणो कालो, जीवो उवओगलक्खणो । नाणेणं देसणेणं च, सुहेण य र्दुहेण य ॥१०॥ ___अर्थ-(वत्तगालक्खणो) वर्तवाना लक्षणकाळो ( कालो) काळ ले, काळर्नु लक्षण वर्तना-होवापणुं छे, ते काळ ||| प्रमादिकने पुष्पादिकनी नियमित उत्पत्तिमां कारणरूपले. तशा ( उवप्रोगलक्षणो) मतिजानादिकना उपयो वाळो ( जीवो) जीव के एटले जीवन लक्षण उपयोग छ, तेथी करीने ज ( नाणेणं) विशेष ग्रहण करनार एवा झाने l करीन, (दसणेणं च ) सामान्य ग्रहण करनार एवा दर्शने करीने, (सुहेण य) सुखने अनुभववावडे करीने तथा (दुहेस्या य) दुःखने अनुभववावडे करीने ते जीव ओळखाय छे. १०.. हवे शिष्योने अत्यंत दृढ़ संस्कार थवा माटे कहेला लक्षणने फरीथी कहेवा पूर्वक जीवनां बीजां लक्षण कहे छे. | नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरिमं उवओगो अ, एअं जीवस्स लक्खणं ॥११॥ अर्थ-(नाणं च ) ज्ञान, (दसणं चेव ) दर्शन, ( चरित्रं च ) चारित्र, (तवो) तप, ( तहा ) तथा (वीरियं) Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्य - सामर्थ्य, भने ( उवओोगो अ ) उपयोग एटले सावधान पयुं ( एवं ) या ज्ञानादिक समुदाय ते ( जीवस्स) जीवनुं ( लक्खणं ) लक्षण . आ लक्ष्य बीजा कोइ पख द्रव्यने नहीं होवाथी या लक्षणवडे जीव बराबर ओळखाय थे. ११. हवे पुद्गनुं लक्षण कहे छे. सधयार उज्जोओ पहा छायाऽऽतवेइ वा । वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ १२ ॥ अर्थ - ( सधयार) शब्द ध्वनि, अंधकार, ( उओोश्रो ) उद्योत एटले रत्नादिकनो प्रकाश, ( पहा ) प्रभा एटले चंद्रादिकनी कांति, ( छाया ) शीतगुणवाळी छाया ( तव ) आतप एटले तडको (ह) श्रादिक, ( वा ) तथा ( वरसगंधफासा ) कृष्णादिक वर्ण, तिक्तादिक रस, सुरभि आदिक गंध अने शीतादिक स्पर्श, ए ( पुग्गलाणं तु ) पुद्गलोनुं ( लक्खणं ) लक्षण छे. आटला लक्षणोए करीने ज पुद्गळ ओळखायचे. १२. द्रव्यनुं लक्षण कथुं, हवे पर्यायनुं लक्षण कई छे.. एगतं च पुहतं च संखा संठाणमेत्र य । संजोगा य विभागा य, पजवाणं तु लक्खणं ॥ १३ ॥ - अर्थ - ( एगतं च ) एकत्व एटले घटादिकना परमाणु विगेरे भिन्न भिन्न छतां आ एक घडी हे एवी प्रतीतिनुं कारण, (पुहतं च ) पृथक्त्व - मिश्रपशुं एटले आ घट पेला वटथी जूदो के एवी प्रतीतिनुं कारण, ( संखा ) संख्या एटले जेनाथी एक, बे, ण विगेरे संख्यानी प्रतीति थाय ते, ( संठारणमेव य ) संस्थान एटले आ पदार्थ गोळ हे आा चोरस थे **++ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि बुद्धि थवार्नु कारण जे होय ते, (संजोगा य) संयोग एटले ये आंगळीोनो पा संयोग के एम जेनाथी अणाय ते, तथा ( विभागा य ) विमाग एटले मा भानाथी जूदो के एवी मतिनुं कारस्य, प्रा सर्वे ( पजवाणं तु) पर्यायोनुं | || ( लक्खणं ) लक्षण छे. रूपादिक गुणो पण पर्यायनुं लषण छे परंतु ते प्रति प्रसिद्ध होवाधी गमावेल नथी, तथा नवं, जूनुं विगैरे पण पर्यायोनुं ज लक्षण छे पण उपलक्षणथी जाणी लेवा. अहीं 'संयोग ' अने 'विभाग 'एचे शब्दने बहबचनमा मक्या वे ते वहवचन व्यक्तिनी अपेचाए जामावं. केमके संयोग के विभाग एक वस्तुनो थइ शकतो नथी, तेनी अंदर रहेला पदार्थो एकथी वधारे छे तेथी ते अपेक्षाए बहुवचन लख्युं छे. १३. आ प्रमाणे स्वरूपी गो वियधी शान बताव्यं, वे दर्शनने कई छ.जीवीऽजीवा य बंधी अ, पुंपणं पावासवो तेहा । संवरो निजरा मोक्खो, 'संतेए तेहिया नैव ॥१४॥ अर्थ-(जीवा ) जीव, ( अजीवा य) धर्मास्तिकायादिक अजीव, (बंधो अ) बंध-जीव अने कर्मनो संयोग, (पुस्म)पुण्य-शुभप्रकृतिरूप सातादिक, (पावासवो) पाप-अशुभप्रकृतिरूप मिथ्यात्वादिक, माधव-कर्मबंधनना हेतु हिंसादिक, (तहा) तथा (संवरो) संवर-महाव्रतादिकवडे भाश्रवनो निरोध, (निअरा) निर्जरा-मोगववाथी अथवा तप करवाची बांधेला कर्मनो चय भने (मोक्खो) सर्व कर्मनो चय ते मोच (एए) भा (नव) नव पदार्थो (तहिा ) सत्य-तत्त्व (संति) . १४. ए नव पदार्थो सत्य के तेथी झुं ? ते कहे के. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहिआणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं । भावेण सदहतस्स, सम्मत्तं ति विआहि ॥ १५ ॥ अर्थ-(तहिाणं तु ) तथ्य ण्टले सत्य एवा ( भानामा ) पदार्थोना ( सम्भावे ) सद्भारने कइनार एटले सत्यणाने कहेनार एवा ( उवएस उपदेशने-गस आदिकना कथनने जे पुरुष (मावेण) भावथी ( सतस्स) श्रद्धा | करे ते पुरुषने ( सम्मत्तं ति ) समकित दर्शन के एम (वित्राहि ) जिनेश्वरे का छे. मोहनीयना चय अने उपशम विगे थी उत्पन्न भयेला आत्माना परिणाम विशेष ते समकित कवाय छे. १५. जा था प्रमाणे समकितनुं स्वरूप कहूं. हचे तेना भेदो कहे छ.---- निस्सग्गुवएसरुई, बाणारुइ सुत्तबीयरुइमेव । अभिगमवित्थाररुई, शिरिासंखेवधम्मरई ॥१६॥ अर्थ-( निस्सग्गुवएसरुई ) निसर्गरुचि एटले कोइना उपदेश विना स्वभावधी ज तत्वनी अभिलाषा थाय ते १, * उपदेशरुचि एटले गुर्वादिकना उपदेशथी तत्वनी अभिलाषा थाय ते २, ( आणारुह ) प्राज्ञारुचि एटले सर्वनना वचने - करीने तच्चनी रुचि थाय ते ३, ( सुत्तयीश्ररुइमेव ) सत्ररूचि एटले आगमे करीने रुचि थाय ते ४, बीजरुचि एटले नीजनी | | जेम जे एक छतां पण अनेक अर्थने उत्पन्न करे तेवा वचने करीने रुचि थाय ते ५, ( अभिगमषित्थाररुई ) अभिगमरुचि | | एटले विज्ञाने करीने रुचि थाय ते ६, विस्ताररुचि एटले विस्तारे करीने रुचि थाय ते ७, (किरियासंखेवधम्मरुहे) क्रियारुचि एटले धमोनुष्ठाने करीने अथवा धर्मानुष्ठानने विषे रुचि थाय ते ८, संक्षेपरुचि एटले संचेपे करीने भथवा संधेपने विषे रुचि Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | थाय ते ६, तथा धर्मरुचि एटले श्रुतधर्मे करीने अथवा श्रुतधर्मने विषे रुचि थाय ते १०. पा रीते दश प्रकारे समकित में प्राप्त थई शके छे. १६. ___आ प्रमाणे संक्षेपथी समकितना दश भेदो कहा, तेनो विस्तारथी अर्थ कहे के.भूअत्थेणाहिगेया, जीवोऽजीवा य पुमिपावं च। सेहसंमुइया आसव-संवरे अ रोएँइ उ निसंग्गो ॥१७॥ अर्थ-( जीवाऽजीवा य) जीव, अजीव, (पुमपाव च) पुण्य, पाप, । आसवसंवरे अ) आश्रव अने संवर तथा | च शब्दे करीने निर्जरा बंध मोक्ष विगैरे नव तच्चोने जेणे ( भूप्रत्येण ) सत्यपणाए करीने (अहिगया) जाणेला छे, il तथा ( सहसंमुइया ) पोतानी स्वाभाविक मतिए करीने एटले कोइना उपदेश विना जातिसरणादि शाने करीने (रोएइ उ) रुचाव्या छ, ते पुरुष (निसग्गो) निसर्गरुचि कहेवाय छे. १७. * एज अर्थने वधारे स्पष्ट करीने बतावे छे. जो जिणदिदै भावे, चउविहे संहहइ सेयमेव । एमेव नन्नह त्ति अ, निसग्गराइति नायव्वो ॥१८॥ ___अर्थ--(जो ) जे प्राणी (जिणदिढे ) जिनेश्वरे कहेला ( चउबिहे ) द्रव्य, चेत्र, काळ अने भाव, अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव एवा चार प्रकारना (भाषे) पदार्थोने ( सयमेव ) बीजाना उपदेश विना पोतानी मेळे ज ( एमेव) "आ जीवादिक तत्व जिनेश्वरे कहा ये ते ज प्रमाणे थे, (माह त्ति भ) अन्यथा प्रकारे नथी." ए प्रमावे ( सइइइ) Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 911 =*O*•»*•K•→→*££o3⁄4»3 श्रद्धा करे ते जीव ( निसग्गरुह त्ति ) निसर्गाचे छे एम (नायव्यो ) जाणवु. १८. हवे चीजो भेद उपदेशरुचि कहे थे. एए चैव उ भावे, उवइट्टे ओ पैरेण सदहई । छेउमत्थेण जिणेण व, डेवएसरुइ त्ति नयव्व ॥ १९ ॥ अर्थ - ( जो ) जे प्राणी ( परेश ) वीजाए एटले ( खउमत्थेा ) वग्रस्थ गुरुए (जिग व ) अथवा केवलज्ञानीए ( उबट्ठे ) उपदेश आपेला ( एए चेव उ ) ए ज ( भावे ) जीवादिक पदार्थोंने ( सहहई ) सदहे - श्रद्धा करे, ते प्राणी ( उवएसरुइ ति ) उपदेशरुचि द्वे एम (नायव्दो ) जाणवुं. १६. हवे श्री जो श्राज्ञारुचि कछे छे. रोगो दोसी मोहो, असाणं जस्ल अवगयं होइँ । आणाए रोअंतो, सो खेलु ओणारुई नौम ||२०|| अर्थ - (जस्स) जेना ( रागो ) राम ( दोसो) द्वेष, ( मोहो ) मोह अने ( अमाणं ) अज्ञान ( अवयं होइ ) देशथी तय थयेला होय, अने तेथी करीने ( भाणार ) श्राचार्यादिकनी माझाए करीने ज ( रोअंतो ) कोइ पण ठेका कदाग्रह विना भाषतुषनी जेम जीवादिक पदार्थ उपर रुचि राखतो होय, (सो) ते प्राणी ( खलु ) निचे ( श्रारुई) आशारुचि ( नाम ) नामे जावो. २०. चोथो सूत्ररुचि कहे छे. 2000 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो सुतमहितो, सुंएण ओगाहई उ सम्मतं । अंगेश बाहिरेण व, सो सुतरुइ तिनौयव्व ॥ २१ ॥ अर्थ - (जो ) जे पुरुष (सुतं महिज्जेतो ) सूत्रने मणतो थको ( अंगेख ) अंगप्रविष्ट आचारांगादिक (बाहिरेय व ) अथवा उत्तराध्ययनादिक बाह्य एटले अनंगप्रविष्ट ( सुश्या) श्रुतबडे ( सम्मतं ) समकितने ( श्रोगाहई उ ) भवगाइन करे के एटले पामे छे, ( सो ) ते पुरुष ( सुतरुड़ ) सूत्ररुचि छे (त्ति ) एम ( नायन्नो ) जावुं. २१. पश्चिमो चीजरुचि कहे छे. ऐगेण अगाई, पेयाई जो पेसरई उ सेम्मतं । उदए वे तिछेबिंदू, सो बीअरुइ ति नायकवो ॥२२॥ अर्थ - (उद) जळने विषे ( तिनबिंदू व ) तेलना बिंदुनी जेम (जो ) जे ( सम्मचं ) सम्यच्चवाळो पुरुष ( एगेश ) एक जीवादिक पदवडे करीने ( गाई ) अजीवादिक अनेक ( पयाई) पदोने विषे ( पसरई) प्रसरे थे, जेम जळना एक देशमा रहेलो तेलनो बिंदु समग्र जळमां प्रसरे छे, तेम एक देशमात्रथी रुचि उत्पन्न थह होय एवो जे जीव तथाप्रकारना क्षयोपशमधी समग्र तत्त्वाने विषे रुचिवाळा थाय, ( सो ) ते ( बीच्चरुह ति नायब्बो ) बीजरुचि छे एम जा. २२. agi अभिगमरुचि कहे छे. सो 'होई अभिगमरुई, सुअनाणं जेण अस्थओ दिहं । एक्कारसश्रंगाई, पइण्णगं दिट्टिवाओ अ ॥ २३ ॥ अर्थ - ( एकारसभंगाई, पाचारांगादिक अन्यार अंग, (पइप्सगं ) उत्तराध्ययनादिक प्रकीर्णको ( दिट्टिवाओ ) *O*•*** *04 * - - * **-- Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिवाद एटले बारमुं अंग, ( अ ) तथा चशब्दथी उपपातिकादिक उपांगो, आ सर्व ( सुचना ) श्रुतज्ञान ( शेख ) जेथे ( अत्थओ ) अर्थथी (दि) जोयुं - जायुं होय, (सो) ते पुरुष ( अभिगमरुई ) अभिगमरुचि ( होई) होय छे. २३. सातमो विस्ताररुचि कहे छे. - देव्वाणं सव्वभावा, सेव्वपमाणेहिं जैस्स उवलद्धा । सैव्वाहिं नैयविहिहि अ, वित्थाररुइ ति नांयच्वो ||२४|| अर्थ – ( दव्वाणं ) धर्मास्तिकायादिक सर्व द्रव्योना (सब्वमावा ) एकत्व, पृथक्त्व, आदि सर्व भावो - पर्यायो ( सब्वमाहिं ) प्रत्यक्षादिक सर्व प्रमाणोए करीने ( सव्वाहि नयावहि अ ) तथा नगमादिक सर्व नयना प्रकारोए करीने (जस्स) जेना (उबलद्धा) जाणवामां आच्या होय जेथे जाण्या होय, ते पुरुष ( वित्थाररुह चि ) विस्ताररुचि छे एम (नायो ) जाणधुं. २४. मो क्रियारुचि कहे छे. दंसणनाणचरित्ते, तवविणए सच्चसमिइगुन्तीसु । जो किरिआभावरुई, सो खलु किरिआरुई नाम ||२५|| अर्थ - ( दंसणनाराचरिते ) दर्शन, ज्ञान अने चारित्रने विषे, (तवविणए) तप भने विनयने विषे तथा ( सचसमिहगुती ) सत्य एवा समिति भने गुप्तिने विषे (जो ) जे प्राणी ( किरिभाभावरुई) वे दर्शनादिकना क्रियानुष्ठानने विषे भावी रुचिवाको होय, (सो) ते जीव ( खलु ) निचे ( किरिमारुई ) क्रियारुचि ( नाम ) नामे कहेवाय खे. २५. Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम संपरुचि कहे छे. - श्रभिहिअकुदिट्टी, संखेव रुइ र्त्ति होई नांव्वो । अविसारओ पैवयणे, श्रणभिग्गहिओ अ सेसेसुं ॥ २६॥ अर्थ – (भिग्गहिमदिट्ठी ) जेणे सौगतादिकना मतरूपी कुदृष्टिने अंगीकार करी न होय, ( पवयो ) जिनप्रचarr विषे ( विसार) कुशळ न होय, ( अ ) तथा ( सेसेसु ) कपिलादिकना शास्त्रोने विषे पण ( अभिग्गहियो ) प्रेमवाळो न होय ते-तेवा जीवो चिलातिपुत्रनी जेम ( संखेबरुद्द होह ) संक्षेपरुचि होय ले, (त्ति) एम (नायव्वो) जाणवुं. २६. वे छेलो एटले दशमो धर्मरुचि कछे छे. जो अस्थिकायधम्मं, सुअधम्मं खेल चैरितधम्मं च । सद्दहइ जिगाभिहियं, सो धम्मरुइ ति नायठत्रो ॥२७॥ अर्थ - ( जो ) जे पुरुष ( जिणाभिहिनं ) जिनेश्वरे कहेला ( अस्थिकायधम्मं ) अस्तिकाय एटले धर्मास्तिकाय, श्रधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय विगेरेना धर्मने एटले गति, स्थिति, अवगाह विगेरे लक्षणने, तथा (सुअधम्मं) आगमरूप श्रुतधर्मने, तथा ( खलु ) निचे ( चरितधम्मं च ) सामायिकादिक चारित्रधर्मने ( सहहह ) सदद्दे - श्रद्धा करे ( सो ) ते ( धम्मरुइ ति ) धर्मरुचि छे एम (नायव्त्रो) जाणवुं. अहीं धर्म एटले पर्यायो अथवा धर्म एटले श्रुतधर्मादिक, तेने वि रुचि जेनी ते धर्मरुचि कहेवाय छे. कालिंगे करीने सम्यक्त्व थे ? एम जाण १ ते विषे कहे थे. ३९ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | परमत्थसंथवो वा, सुदिपरमत्थसेवणा यावि । वावण्णकुदंसणवजणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ २८ ॥ अर्थ-(परमत्यसंथवो वा ) परम एवा अर्थ एटले जीवादिक ताचिक पदार्थो, तेने दिषे संस्तव एटले तेना स्वरूपनो वारंवार चितवन करवारूप परिचय, तथा ( सुदेिपरमत्थसेवणा ) सारी रीते देख्यो छे परमार्थ जेणे एवा प्राचार्यादिकनुं सेवन. ( यादि ) चशब्द छे तेथी शक्ति प्रमाणे ते प्राचार्यादिकनी वैयावच्च, अपिशब्द समुच्चय अर्थमा छे, (वावाकुदसणवजणा य ) तथा ब्यापनदर्शन एटले नाश पाधु के सम्यग्दर्शन जेनुं एवा निन्हवादिक अने कुदर्शन एटले शाक्यादिक मिध्यादृष्टिनो, तेमनुं वर्जन, ए सर्व (सम्मत्तसद्दहणा) सम्यक्त्वर्नु श्रद्धान के एटले या सर्व लिंगवडे तेनामा समकित छ एम श्रद्धा कराय छे. २८. | आ प्रमाणे समकितनां लिंग करा, हवे तेनुं ज माहात्म्य देखाडे छ.| नत्थि चरितं सम्मत्त-विहणं दसणे उ भइअब्बं । सम्मत्तचरित्ताई, जुगवं पुच्वं वं सम्मत्तं ॥२९॥ अर्थ (सम्मत्तविहणं ) सम्यक्त्व धिना (परिचं) चारित्र-भावचारित्र (नस्थि) होतुं नथी एटले ज्यांसुधी समकित नथी त्यांसुधी चारित्र नथी. (दसणे उ ) परंतु सम्यक्त्व सते ( भइअव्वं ) भजना छे एटले चारित्र होय के न पण होय. ( सम्मत्तचरिचाई ) सम्यक्त्व अने चारित्र (जुगवं ) एकी साथे प्राप्त थाय छे, (व ) अथवा ( सम्मत्तं) | सम्यक्त्व ( पुब्बं) प्रथम प्राप्त थाय छे. २६. Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नादसैणिस्स नाणं, नाणेण विणा न होति चरणगुणा । अंगुणिस्स मस्थि मोक्खो, नैस्थि अमुक्कस्स निवाणं ॥ ३० ॥ अर्थ-(प्रदंसणिस्स ) समकित रहित एवा पुरुषने ( नाणं न ) सम्यक् ज्ञान होतुं नथी, तथा ( नाणेण विणा) ज्ञान विना ( चरणगुणा) चरण एटले पंच महाव्रत अने गुण एटले पिंडविशुद्ध्यादिक (न होति ) होता नथी, तथा (अगुणिस्स ) गुण रहितने ( मोक्खो) मोक्ष-समग्र कर्मनो क्षय ( नत्थि ) होतो नथी, तथा ( अमुक्कस्स) कर्मथी मुक्त थयेला न होय तेने (निवाणं ) मुक्तिपदनी प्राप्ति ( नत्थि ) होती नथी. ३०. आठ प्रकारना दर्शनाचारवडे ज उत्तरोत्तर गुणनी प्राप्ति थाय छे, तेथी ते समकितना आठ आचारने देखाडे - निस्संकिय निकंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी । उववूहथिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे भट्ट॥३१॥ अर्थ-(निस्संकिय) निःशंकित-जैन दर्शनने विषे देशथी अने सर्वथी शंका रहितपणुं १, (निकखिव) निष्कांचितअन्य अन्य दर्शननी अभिलाषानो प्रभाव २, (निम्वितिगिच्छा) निर्विचिकित्सा एटले फळ प्रत्ये संदेह रहितपणुं अथवा निर्विजुगुप्सा एटले साधुनी निंदानो अभाव ३, ( अमूढदिट्टी म) अमूढ दृष्टि-ऋद्धियाळा कुतीर्थिकने जोइने पण पोतानी दृष्टि एटले बुद्धि मोह न पामे ते ४, प्रा चार प्रकारनो आचार आभ्यंतर के, हवे चार वाह्य आचारने कहे के.- ( उववूहथिरीकरणे ) उपहा-सम्यक्त्वादिक गुणवाळायोनी प्रशंसा करी तेमना गुणोनी वृद्धि करवी ते ५, स्थिरीकरण-स्वीकार Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **10****803++80R करेला धर्मानुष्ठान प्रत्ये सीदाता जीवोने पाछा धर्ममां स्थिर करवा ते ३) ( बच्छल्लपभावणे ) चात्सल्य - धार्मिक जननी भक्ति करवी ते ७ तथा प्रभावना तीर्थनी उन्नतिना कार्यमां प्रवर्तते ८ ( अट्ट ) या आठ दर्शनना आचार . ३१. या प्रमाणे ज्ञान अने दर्शनरूप मुक्ति मार्ग को हमे चारित्ररूप मुक्तिनो मार्ग कहे छे.-सोमाइअ त्थ पढमं, छेडावणं भवे बीअं । परिहारविसुद्धी, सुहुमं तह संपेरायं च ॥ ३२ ॥ कसाय महक्खाएं, छेउमत्थस्स जिर्णेस्स वा । ऐअ चयरितकरं, चारितं होई आहि ॥ ३३ ॥ अर्थ - ( पढमं ) पहेलुं (सामाइय त्थ ) सामायिक नामनुं चारित्र थे, (बीच्यं) बीजुं (छेशोवट्टात्रणं ) छेदोपस्थापनीय ( भवे ) होय छे, ( परिहारविसुद्धी ) श्रीजुं परिहारविशुद्धिक, ( तह ) तथा चोथुं ( सुदुमं संपरायं च ) सूक्ष्मपराय चारित्र दश गुणठा होय छे. अने (अकसायं ) कषाय रहित अर्थात् चय करेला के उपशमावेला कषायनी अवस्थामां (हवा) यथाख्यात नामनुं चारित्र प्राप्त थाय छे, ते ( उमत्थस्स ) स्थने उपशांतमोह ने क्षीणमोह ए वे गुणस्थानमां वर्तता होय छे अने ( जिणस्स वा ) जिनने - केवळीने योगी केवळी ते योगीकेवळी ए वे गुणस्थाने वर्ततां होय. (ए) आ पांच प्रकारनुं ( चयरितकरं ) चय एटले कर्मना समूहनुं रिक्ककर एटले नाश करनार एवा सार्थक नामवाळु (चारितं ) चारित्र ( आहि होइ ) तीर्थकरोए कहेतुं छे. वहीं सम एटले रागद्वेष रहित चिचना परिणाम तेनें विषे आय एटले जनुं रहेतुं ते समाय, अने समाय ए ज सामा 103403 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •CE-2305248 यिक एचं सार्थक नाम छे. अर्थात् सर्व सावध योगनो त्याग. या सामायिक बे प्रकारच्छे-इत्वर सामायिक अने यावत्कथिक । * सामायिक. तेमा इत्वर सामायिक भरत अने ऐरवत क्षेत्रमा पहेला अने छल्ला तीर्थकरना तीर्थमा उपस्थापना एटले वडी-|| ! दीक्षा थाय त्यां सुधी होय छे अने यावत्कथिक सामायिक ते ज ये क्षेत्रमा मध्यमना चावीश तीर्थकरना तीर्थमा तथा महाविदेहक्षेत्रमा निरंतर होय छे, केमके त्या उपस्थापना नहीं होवाथी जावजीव सामायिक चारित्र ज होय छे. १. बीजूं * छेदोपस्थापनीय चारित्र छे. तेमां अतिचार सहित एवा साधुने अथवा अतिचार रहित छतो पण चीमा तीर्थने अंगीकार | करता साधुने पूर्वना पर्यायनो छेद करवो. ते छेदे करीने सहित एवी उपस्थापना एटले महावतनी आरोपणा जेने विषे होय ते चारित्र छेदोपस्थापनीय कहेवाय छे. २. वीजु परिहारविशुद्धिक छे. तेमां परिहार एटले विशिष्ट तपना अंगीकारवडे गच्छनो त्याग, ते बडे शुद्धि के बेमां ते चारित्र परिहारविशुद्धिक नामे कहेवाय छे. तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे.-नक मुनिओ गच्छनी वहार नीकळीने जिनेश्वरनी पासे अथवा जेणे प्रथम जिनेश्वरनी पासे आतप कर्यो होय तेनी पासे मा तप अंगीकार करे छे, ते नवमां एक मुनि गुरुस्थाने रहे, चार सुनिनो पा तप करे भने बाकीना चार मुनिश्रो तेमनी वैयावच्च करे. ते तपखी मुनिश्री ग्रीष्मकाळे जघन्य तप करे तो चतुर्थभक्त-उपवास करे, मध्यम करे तो छ भने उत्कृष्ट करे तो अहम करे. शीतकाळे अनुक्रमे जघन्यादिक छह, अट्ठम अने दशम ( चार उपवास ) करे भने वर्षाकाळमा अनुक्रमे जघन्यादिक अहम, दशम अने द्वादश-पांच उपवास करे. ते तपस्वीओ पारणाने दिवसे आचाम्ल करे भने गुरु तथा चैयावच्च करनार साधो हमेशा आचाम्ल करे. या प्रमाणे मास तप करीने पछी जेभो यावष करनारा Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ -* star ageat et अने तपस्वी हता ते वैयावच्च करनारा थाय. ए रीते पख छ मास थाय, त्यारपछी ते आाठमांथी एक गुरु थाय अने जे गुरु थया हता ते तपस्वी थाय भने बाकीना साते वैयावन्च करनारा थाय. आ रीते छ मास करे. कुल दो वर्ष पूरुं थाय त्यारे ते सर्वे करी थी ते ज तप करे अथवा जिनकम्प अंगीकार करे अथवा तो गच्छमां प्रवेश करे, वा तपस्वनुं जे चारित्र ते परिहारविशुद्धिक कहेबाय छे. या चारित्र भरत ने ऐरावत ए वे ज क्षेत्रमा पहेला भने बेला तीर्थंकरना जतीर्थमां होय थे. बीजे होतुं नथी. ३. चोथुं सूक्ष्मसंपराध थे. तेमां किट्टी करवाथी सूक्ष्म कर्यो छे लोभ नामनो संपराय एटले कषाय जेते विषे ते चारित्र सूक्ष्मसंपराय नामनुं छे आ चारित्र क्षपकश्रेणिमने उपशमश्रेणिने विषे लोभना अंतिम राज्यारे वेदोत्यारे दमे कुष्ठाये होय . ४. तथा पांचमुं यथाख्यात एटले जिनेश्वरे जे स्वरूप कं थे तेने किंचित् पण चोळंगा नहीं तेनुं पूर्ण शुद्ध ते यथाख्यात चारित्र एवं तेनुं सार्थक नाम छे. ( ते ११-१२-१३-१४ गुणठाणे होय . ) ५. श्रा प्रमाणे ते पाँचेनो विस्तरार्थ जाणो. ३२-३३ वे तपरूपी चोथुं कारण कहे छे. तवो छा दुविहो बुत्तो, बाहिरभितरो तहा । बाहिरो छव्विहो वृत्तो, एवमभितरो तो ॥ ३४ ॥ अर्थ - (तो) तप ( दुविहो ) वे प्रकारे (बुचो) को छे, ( बाहिरभितरो तहा ) बाह्य तथा श्राभ्यंतर. मां (बाहिरो ) बाह्य तप ( छन्विहो तो ) छ प्रकारे को थे, तथा ( एवं ) एज प्रमाणे एटले छप्रकारनो (मि 803400303 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *3+11+3 तरो तो ) आभ्यंतर तप पण को छे. ३४. वे मा चारे कारणोमांथी मुक्तिमार्गने विषे कोनो कयो व्यापार छे ? ते कहे छे. - नाणेण जाणं भांवे, दंसणेण य सदेहे । चरितेण नॅ गिण्हाइ, तेंवेण परिसुंज्झइ ॥ ३५ ॥ अर्थ – (नाणे) श्रुतादिक ज्ञानवडे (भावे) जीवादिक भावोने (जाई) जाये थे, (दंसणेण य) दर्शने करीने ते माबोने (सद) सहे छे, ( चरिलेग ) भाश्रव द्वारना निरोधरूप चारित्रवडे ( न गिन्हाइ ) नवा कर्मने ग्रहण करता नथी (त) तपवडे (परिसुज्झइ ) पूर्वे उपार्जन करेला कर्मनो चय करी शुद्ध थाय छे. ३५. गाथावडे शुद्ध मार्गं फळ मोक्ष क. दवे घोचना फळभूत उत्कृष्ट गतिने कहे छे.. खंवित्ता पुढवकम्माई, संजैमेण तैवेण य । सैव्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो र्त्ति बेमि ॥ ३६ ॥ अर्थ – (महेसियो) महर्षियो ( संजमेण ) संयमवडे ( तवेण य ) तथा तपवडे ( पुव्वकम्माई ) पूर्वनां कर्मोनो ( खविचा) क्षय करीने (सव्यदुक्ख यहीयट्ठा) सर्व दुःखे करीने प्रहीन एटले रहित एवा मोक्षने इच्छता सता अथवा सर्व दुःख भने अर्थ एटले कार्यों जेनां श्रीण थया के एवा सता (पक्कमंति) मुक्ति प्रत्ये जाय छे, ( सि बेमि ) एम हुं हुं हुं. इति अष्टाविंशमध्ययनम्. २८. Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अथ सम्यक्त्वपराक्रम नामनुं श्रोगणत्रीशमुं अध्ययन. २६. अहावीशमा अध्ययनमा मोक्षमार्गगति कही, ते वीतरागपणाथी प्राप्त थाय छे, तेथी जे रीते वीतरागपणुं प्राप्त थाय ते पा अध्ययनमा कहेवाय छे. या संबंधी प्रायेला आ अध्ययननुं प्रथम सूत्र कहे छ.-- सुअं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं, इह खलु सम्मत्तपरकमे नामज्झयणे समजेणं - भगवया महावीरेणं कासवेणं पवइए। सम्मं सदहिता पत्तिआइत्ता रोअइत्ता फासित्ता पाल इत्ता तीरइत्ता किइत्ता सोहइत्ता माराहइत्ता आणाए अणुपालइत्ता बहवे जीवा सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिनिवाति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति ॥ १ ॥ ___ अर्थ- श्रीसुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छ के ( सुनं मे पाउस ) हे आयुष्मान् शिष्य ! में सांभळ्यु छ के-( तेणं ।। भगक्या ) ते त्रण जगतमा प्रसिद्ध एवा भगवान श्रीमहावीरस्वामीए ( एवं अक्खायं ) पा प्रमाणे कबुं छे. अर्थात् (इह) al आ प्रवचनने विषे ( खलु ) निश्च ( सम्मत्तपरकमे) सम्यक्त्व सते उत्तरोत्तर गुणप्राप्तिवडे कर्मरूपी शत्रुने जीतवाना | सामर्थ्यरूप जीवना पराक्रमर्नु जेने विषे वर्णन कराय छे एवं आ सम्यक्त्व पराक्रम (नामन्झयणे) नामर्नु अध्ययन ( समणेणं) श्रमण ( भगवया) भगवंत (महावीरेणं ) श्री महावीर नामना ( कासवेणं ) काश्यप गोत्रीए (पवेइए) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्ररूप्यु छे. पा अध्ययननुं माहात्म्य कहे छ के (जे) जे आ अध्ययनने ( सम्म ) सम्यक् प्रकारे ( सद्दहित्वा ) सद्दहीने एटले शब्द, अर्थ अने ते बच्चेने सामान्यपणे अंगीकार करीने, तथा (पत्तिाइत्ता ) प्रतीत्य एटले 'पा एम ज छे' एम विशेषपणे निश्चय करीने, तथा ( रोश्रइत्ता ) तेनो अभ्यास करवावडे तेने आत्माने विषे रुचावीने, तथा ( फासित्ता) श्रण योगयडे स्पर्श करीने एटले मनवडे सूत्र अने अर्थना चितवने करीने, वचनवडे यांचवादिके करीने अने कायावडे तेना | भांगा अंगीकार करवा प्रमुख करीने-ए रीते स्पर्श करीने, तथा (पालइत्ता) परावर्तन विगेरेवडे रक्षण करीने, तथा ( तीरइत्ता ) तेने समाप्त करीने. तथा ( किट्टइत्ता) गुरु पासे विनयपूर्वक 'आ था प्रमाणे हुँ भएयो छु' एम निवेदन करीने, तथ। ( सोहइत्ता ) गुरुनी पाछळ तेनो अनुवाद करवाचडे शुद्ध करीने, तथा ( माराहइत्ता) उत्सूत्रनी प्ररूपणाना || त्यामबड़े अथवा उत्सर्ग अने अपवादमा कुशळतावडे अथवा जीवन पर्यंत तेना अर्थना सेवनवडे आराधीने तथा (थाणाए अणुयालइचा ) गुरुना नियोगरूप श्राज्ञापडे पालन करीने ( बहवे ) घणा ( जीवा ) जीवो ( सिझंति ) सिद्ध थाय छे एटले नहीं ज आत्मानी सिद्धिने पामे छे, (बुझंति ) घातिकर्मना क्षयवडे बोध-केवळज्ञान पामे छ; (मुचंति) भवोपग्राही चार कर्मना क्षयवडे मक्त थाय के. अने त्यारपछी (परिनिच्चायति) समग्र कर्मरूपी दावानळनी शांतिवडे शांत निळनी शांतिवडे शांत थाय छे, अनेक तेथी करीनेज (सव्वदुक्खाणं ) शरीर अने मन संबंधी सर्व दुःखोना ( अंतं ) अंतने ( कति ) करे छ-मुक्तिपदने | पामे छे. १. हवे शिष्यनो अनुग्रह करचा माटे संबंध कहेवा पूर्वक मा अध्ययनना अर्थने कहे छे--- Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ £0K+→→*→**«*»**@** तस्स णं अमट्ठे एवमाहिज्जइ, तं जहा- संवेगे १, निव्वेए २, धम्मसद्धा ३, गुरुसाहम्मिश्र सुस्सूसणया ४, आलोचणया ५, निंदणया ६, गरिहणया ७, सामाइए ८, चउवीसत्थए ९, वंदणे १०, परिक्कमणे ११, काउस्सग्गे १२, पश्चये १३, पथुइमंगले १४, कालपडिलेहण्या १५, पायच्छित्तकरणे १६, खमावण्या १७, सज्झाए १८, वायख्या १९, पडिपुच्छणया २०, परिश्र या २१, अणुहा २२, धम्मका २३, सुत्रस्त आराहणया २४, एगग्गमणसन्निवेसणया २५, संजमे २६, तवे २७, वोदाणे २८, सुहसाए २९, अप्पडिबद्धया ३०, विवित्तसयणा सण सेवणया ३१, विणिया ३२, संभोगपश्च्चत्रखाणे ३३, उवहिपच्चक्खाणे ३४ आहारपञ्चकखाणे ३५, कसायप 'चक्खाणे ३६. जोगपञ्चक्खाणे ३७, सरीरपच्चक्खाणे ३८, सहाय पच्चक्खाणे ३९, भत्तपञ्चक्खाणे ४०, भावपच्चक्खाणे ४९, पडिरुवया ४२, वेआवच्चे ४३, सव्वगुणसंपन्नया ४४, बीअरागया १५, खंती ४६, मुत्ती ४७, मद्दत्रे ४८, अजवे ४९, भावसच्चे ५०, करणसचे ५१, जोगसचे ५२, मणगुतया ५३, वयगुत्तया ५४, कायगुत्तया ५५, मणसमाधारणया ५६, वयसमाधारणया ५७, कायस Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | माधारणया ५८, नाणसंपन्नया ५९, दसणसंपन्नया ६०, चरित्तसंपन्नया ६१, सोइंदिअनिग्गहे ६२, | || चविखदिश्रनिग्गहे ६३, घाणिदिअनिग्गहे ६४, जिभिदिअनिग्गहे ६५, फासिंदिआनिग्गहे ६६, I कोहविजए ६७, माणविजए ६८, मायाविजए ६९, लोभविजए ७०, पिजदोसमिच्छादसणविजए ७१, सेलेसी ७२, अकम्मया ७३. ॥ २॥ अर्थ (तस्स णं ) ते सम्यक्त्वपराक्रम अध्ययानी ( अयं अट्ठा अधं ( एवं आहजई ) श्रा प्रमाणे श्रीमहा| वीर भगवान कहे छे, (तं जहा ) ते आ प्रमाणे-(संवेगे ) संवेग १, ( निव्वेए ) निर्वेद २, (धम्मसद्धा ) धर्मश्रद्धा ३, (गुरुसाहम्मिभसुस्सूसणया) गुरु अने साधकिनी शुश्रूषा-भक्ति ४, (मालोअणया) आलोयण ५, (निंदणया) * निंदा ६. ( गरिहणया ) गर्दा ७, (सामाइए ) सामायिक ८, ( चउवीसत्थए । चतुर्विंशतिस्तव 8, (बंदणे ) वंदन १०, (परिकमणे) प्रतिक्रमण ११, ( काउस्सग्मे ) कायोत्सर्ग १२, ( पच्चक्खाणे) प्रत्याख्यान १३, ( थयथुइमंगले ) स्तव* स्तुतिमंगळ १४, ( कालपडिलेहणया) काळप्रत्युपेक्षणा १५, (पायच्छित्तकरणे ) प्रायश्चिचनुं करवू १६, (खमावणया) खामणा १७, ( सज्झाए ) स्वाध्याय १८, । वायग्णया ) वाचना १६, (पडिपुच्छणया) प्रतिप्रच्छना २०, (परिभट्टगया) परावर्तना २१, ( अणुप्पेहा ) अनुप्रेक्षा २२, धम्मकहा ) धर्मकथा २३, (सुअस्स भाराहणया) श्रुतनी माराधना २४, ( एगम्गमणसग्निवेसणया) एकाग्र मनमनिवेशना एटले मन- एकाग्रपणे स्थापन २५, (संजमे ) संयम २६, Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तबे ) तप २७, ( बोदाणे ) व्यवदान एटले कर्मनी शुद्धि-कनिर्जरा २८, ( सुहसाए ) सुखशाय एटले विषयसुखनो नाश २६, ( अप्पडिबद्धया ) अप्रतिबद्धपणुं ३०, ( विचिचसयणासणसेवणया) विविक्त शयनासनसेवन-स्त्री, पशु, I पंडकादि रहित शय्या, आसन विगेरेनुं सेवन ३१, ( विणिअट्टणया ) विनिवर्तना एटले पांच इंद्रियोना विषयथी निवतेन ३२, ( संभोगपञ्चक्खाणे ) संभोगप्रत्याख्यान एटले जिनकल्पिकादिकने एक मंडळीनो श्राहार ग्रहण करवानुं प्रत्याख्यान ३३, ( उवहिपञ्चक्खाणे ) रजोहरण भने मुखरखिका सिवाय बीजी उपधिनुं प्रत्याख्यान ३४, (आहारपञ्चक्खाणे ) सदोष आहारर्नु प्रत्याख्यान ३५, ( कसायपचक्खाणे ) कषाय प्रत्याख्यान ३६, (जोमपच्चक्खाणे ) मन, वचन, कायाना योगनुं प्रत्याख्यान ३७, (सरीरपण याचे ) गमरमाने शरीर रण बान ३८, ( सहायपञ्चकखाणे ) सहाय करवानुं प्रत्याख्यान ३६, ( मत्तपञ्चक्खाणे) भक्त प्रत्याख्यान-अनशन ग्रहण ४०, (सन्मावपञ्चक्खाणे)। सद्भावे करीने एटले सत्यपणे प्रत्याख्यान ४१, (पडिरूक्या ) प्रतिरूपता एटले स्थविरकन्पी सदृश वेषधारीपणुं ४२, (वेयावच्चे ) वैयावच्च ४३, (सव्वगुणसंपनया) ज्ञानादिक सर्वगुणे करीने संपन्नता-सहितपणुं ४४. (वीरागया) चीतरागपणुं ४५, (खंती) शांति-क्षमा ४६, (मुत्ती) मुक्ति-निर्लोभता ४७, ( मद्दवे) मार्दव-माननो त्याग ४८, (अञ्जवे ) आजैवता-माया रहितपणुं ४६, (भावसच्चे ) भाक्सत्य-अंतरात्मानी शुद्धि ५०, ( करणसच्चे ) करणसत्य एटले प्रतिलेखनादि क्रियामा आळस रहितपणुं ५१, (जोगसच्चे ) योगसत्य-मन, वचन, कायाना योगर्नु सत्यपणुं ५२, ( मणगुत्तया) मनगुप्तता-मनोगुप्ति ५३, ( वयगुत्तया ) वचोगुठि ५४, ( कायगुत्तया) कायगुप्तता ५५, ( मणसमाधार Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया ) मनसमाधारणा-मननी समाधि ५६, (चयसमाधारण या ) वचनसमाधारणा ५७, ( कायसमाधारणया) कायसमाधारणा, ५८, (नाणसंपन्नया ) ज्ञानसंपन्नता-ज्ञानसहितपणुं ५६, (दसणसंपनया) दर्शनसंपन्नता ६०, (चरित्तसंपनया) चारित्रसंपन्नता ६१, ( सोइंदिअनिागहे ) श्रोत्रंद्रियनिग्रह ६२, ( चक्खिदिअनिग्गहे ) चक्षुइंद्रियनिग्रह ६३, (घाणिदिश्रनिग्गहे ) घ्राणेंद्रियनिग्रह ६४, ( जिभिदिअनिग्गहे ) जिव्हेंद्रियनिग्रह ६५, ( फासिंदिअनिग्गहे ) स्पर्शद्रियनिग्रह ६६, ( कोहविजए ) क्रोधविजय ६७, ( माणविजए ) मानविजय ६८, (मायाविजए ) मायाविजय ६६, ( लोभविजए) लोमपिडा . (पेदोसमिच्छादंसस्यविजए ) प्रेम द्वेष अने मिथ्यादर्शननो विजय ७१ ( सेलेसी) | शैलेशीकरण-चौदमा गुणस्थानमा रहे, ते ७२, तथा (अकम्मया) अकर्मता-कर्मनो अभाव ७३. आ प्रमाणे शब्दार्थ करो. २. हवे अनुक्रमे दरेक पदनी फळपूर्वक व्याख्या करे छे. संवेगेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ, अणुत्तराए धम्मस. द्वाए संवेग हव्वमागच्छइ, अणंताणुबंधिकोहमाणमाथालोहे खवेइ, नवं च कम्मं न बंधइ, तप्पचइअं च णं मिच्छत्तविसोहिं काऊण दंसणाराहए भवइ, दसणविसोहीएणं विसुद्धाए अत्थेगतिए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ, सोहीए अ णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइकमइ ॥१॥३॥ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन मर्थ—(संवेगेणं ) संवेगे करीने एटले मोचना प्रमिलाषे करीने ( भंते ) हे भगवान ! ( जीवे ) जीव (क) || शं (जणयइ) उत्पन्न कर एटले शो गुण आजैन करे ? मा प्रमाणे शिष्य प्रश्न करे के तेने भगवान उत्तर आपे छ के* (संवेगेणं ) संवेगे करीने (भगुत्तरं ) श्रेष्ठ एवी (धम्मसळू) धमनी श्रद्धाने ( जणयह) उत्पन्न करे छे. (अणुचराए) | श्रेष्ठ एवी ( धम्मसद्धाए ) धर्मनी श्रद्धाए करीने जीव (संवेग) विशेष संवेगने ( हव्वं ) शीघ्रपणे (पागच्छद) पामे के. | अणंताणुबंधिकोहमाणमायालोहे ) अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया भने लोभने ( खवेइ ) खपाचे छ-क्षय करे छे, ( नवं च कर्म ) तथा नवा अशुभ कमने ( न बंधइ) बांधतो नथी. ( तप्पचइअं च णं) अने तेने पाश्रीने एटले कषायना आयने भाश्रीने (मिच्छत्तविसोहिं ) मिथ्यात्वनी शुद्धिने एटले सर्वथा मिध्यात्वनो घय ( काऊण ) करीने (दसणाराहए) दर्शननो एटले क्षायिक सम्यक्त्वनो श्राराधक ( भवर) थाय छे. (दसणविसोहीएणं विसुद्धाए ) निर्मळ एवा दर्शननी शुद्धिए करीने ( अस्थि एगतिए ) एक कोइ जीव एवी छे के जे ( तेणेव भवन्गहणेणं ) ते ज भवना ग्रहणवडे एटले ते एक ज भवे करीने (सिज्झइ ) मरुदेवी मातानी जेम सिद्ध धाय छे. अने जे जीव ते ज म सिद्धिपदने पामतो नथी ते । पण ( सोहीए अ णं विसुद्धाए ) निर्मळ एवी दर्शनशुद्धिए करीने ( तचं पुणो) वळी वीजा ( भवग्महणं) भवना ग्रह-* णने ( नाइकमइ ) उल्लंघन करे नहीं. एटले बीजे भवे तो अवश्य सिद्धिपदने पामे. प्रा उत्कृष्ट दर्शननी आराधनाने । आश्रीने कयुं छे. १-३. संवेगे करीने भवश्य निर्वेद थाय छ, तेथी हवे तेने ज कहे थे Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- -*- -*- -- -*- निव्वेएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ! निव्वेएणं दिव्वमाणुस्सतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेअं हव्वमागच्छइ, सव्वविसएसु विरजइ, सव्वविसएसु विरजमाणे आरंभपरिग्गहपरिचायं करेइ, आरंभपरिग्गहपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वुच्छिंदइ, सिद्धिमग्गपडिवण्णे अभवइ ॥२॥४॥ ___ अर्थ-( मते ) हे भगवान ! ( निवेएणं ) निर्वेद एटले " आ संसारनो हुँ क्यारे त्याग करूं." एवो सामान्यपणे | संसारपरनो वैराग्य, ते वडे करीने (जीवे) जीव ( किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? कयो गुण उपार्जन करे ? उत्ता निकोप गिर्येदवारे करीने (दिव्वमाणुस्सतरिच्छिएस ) देव, मनुष्य अने तिरंच संबंधी ( कामभोगेसु) | कामभोगने विषे (निव्वेनं ) निवेदने एटले "आ अनर्थना हेतुरूप विषयोथी सयु" एवा भावने (हवं श्रागच्छद) शीघ्रपणे पामे छे, तथा ((सम्वविसएसु ) सर्व विषयोने विषे ( विरजइ ) वैराग्य पामे छे, ( सबतिसएमु ) सर्व विषयोने विधे ( विरजमाणे ) वैराग्य पामे सते (आरंमपरिग्गहपरिचार्य) भारंभ अने परिग्रहना त्यागने ( करेइ ) करे , AT ( श्रारंभपरिग्गहपरिचायं ) प्रारंभ अने परिग्रहना त्यागने ( करेमाचे) करते सते ( संसारमग्गं ) मिथ्यात्व, अविरति | | भादिक संसारना मार्गने (बुञ्छिदइ) छेदे थे, तथा ( सिद्धिमग्गपडिवो अ) सिद्धिमार्गने पामेलो ( भवइ ) थाय छे. कृषि | विगेरे प्रारंभ अने धन, धान्यादि परिग्रहनो त्याग करवाथी ज संसारमार्गनो विच्छेद थाय छ, तेनो विच्छेद थवाथी सम्यक् | दर्शनादिक मोक्षमार्ग सुखेथी प्राप्त थाय छे, तेथी करीने सिद्धिमार्गने पामेलो थाय छ एम कयुं छे ते योग्य ज छे. २-४. Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वेद पण धर्मनी श्रद्धाथी न थाय छे तेथी हवे धर्मश्रद्धाने कहे थे. --- धम्मसद्धाणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मसकाएणं सायासोक्खेसु रजमाणे विरजइ, अगारधम्मं चणं चयइ, अणगारे णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयणभेया संजोगाई बुच्छेअं करेइ, अव्वावाहं च सुहं निव्वत्तेइ ॥ ३५॥ अर्थ - (भंते ) हे भगवान् ! ( धम्मसद्धा एवं ) धर्मनी श्रद्धाए करीने - श्रास्तिक्यपणाए करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणय ) सुं उत्पन करे १ शो गुण प्राप्त करे ? उत्तर – ( धम्मसद्भाए ) धर्मश्रद्धाए करीने ( सायासोक्स) सातावेदनीयथी उत्पन्न थयेला सुखने विषे एटले विषयसुखने विषे (रजमा ) प्रथम आसक्त थयो हतो ते हवे ( विरजर ) चिराग पामे छे, (श्रगारधम्मं च गं) अने गृहाarrat - गृहस्थ धर्मन (चयह) त्याग करे छे, साधु थाय के तथा (अणगारे यं) अणगार - साधु थयेलो ( जीवे ) जीव ( सारीर माणसां ) शरीर अने मनसंबंधी ( दुक्खाणं ) दुःखोना तथा ( बेयण भेयणसंजोगाई) खड्गादिकवडे छेदन, कुंतादिकवडे भेदन विगेरे शरीर संबंधी श्रने संयोग एटले अनिष्टनो मेळाप तथा आदि शब्दथी इष्टनो वियोग विगेरे मन संबंधी दुःखोना (बुच्छे ) विच्छेदने (करेह) करे छे. (अब्बावाहं च ) अने ए ज कारणथी अव्यावाध एटले बाबा पीडा रहित मोच संबंधी (सु) सुखने ( निव्वत्तेइ ) उत्पन्न करे छे. ३-५. Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मनी श्रद्धावाळाए गुर्यादिकनी सेवा अवश्य करवी जोइए, तेथी इवे गुर्वादिकनी सेवाने कहे छ. गुरुसाहम्मिअसुस्सूराणसार पंते ! जीवे किं जनपद ? गुरुसाहम्मिअसुस्सूसणयाए णं विणयपडिवत्ति जणयइ, विणयपडिवण्णे अणं जीवे अणञ्चासायणासीले नेरइअतिरिक्खजोणि. अमणुस्सदेवदुग्गइओ निरंभइ वण्णसंजलणभत्तिबहुमाणयाए मणुस्सदेवसुग्गईओ निबंधइ सिद्धिसोग्गइं च विसोहेइ, पसस्थाइं च णं विणयमूलाई सव्वकज्जाइं साहेश, अन्नं अ वहवे जीवे विणइत्ता भवइ ॥ ४ ॥ ६ ॥ अर्थ-( भंते ) हे भगवान ! ( गुरुसाहम्मिनसुस्स्सणयाए णं ) गुरु अने साधर्मिकनी सेवावडे करीने ( जीवे ) जीच [(किं जणयइ ) शुं उत्पन्न करे ? शुं उपार्जन करे १. उत्तर-(गुरुसाहम्मिप्रभुस्यूसणयाए णं ) गुरु अने सार्मिकनी सेवावडे करीने (विणयपडिवत्ति) विनयनी ! प्रातिने ( जणयइ ) उत्पन्न करे छे. (विणयपडिचमे अ णं) विनयने पामेलो ( जीवे ) जीव ( अणचासायणासीले ) आशातना रहित स्वभाववाळो थयो सतो ( नेरहअतिरिक्खजोणिमणुस्सदेवदुग्गइओ ) नारकी, तिथंच योनि, म्लेच्छादिक मनुष्य अने किल्बिषादिक देवरूप दुर्गतिने (निरंभह ) रुंधे छ, तथा ( वामसंजलणभत्तिबहुमागायाए ) वर्णवहे एटले श्लाघापडे जे संज्वलन एटले गुणनी प्रगटता, भक्ति एटले उभा थयु विगैरे सेवा अने बहुमान एटले भाभ्यंतरनी प्रीति Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Si यन *पा सर्व गुरु प्रत्य करवायो (मणुस्सदेवसुम्गईमो ) कुळवान मनुष्य अने अश्वर्यादि युक्त देवरूप सुगतिने (निबंध) बांधे छे, (सिद्धिसोग्गई च ) अने सिद्धिरूपी सुगतिने ( विसोहेह) सन्मार्गरूप सम्यग्दर्शनादिवडे विशुद्ध करे छ, ( पसमें स्थाई च णं ) तथा प्रशस्त एवा (विणयमूलाई) मने विनयना हेतुवाळा (सव्वकलाई) सर्व कार्योंने एटले श्रुतनो अभ्यास विगेरे आ भव संबंधी तथा मोक्षादिक परमव संबंधी कार्योने ( साहेह) साधे छे, ( भन्ने श्र) तथा बीजा ( बहवे ) षणा (जीवे ) जीवोने ( विणइत्ता) विनय ग्रहण करावनार-विनय शिखवनार ( भवइ ) थाय छे. ४-६. गुरुनी सेवा करतां छतां पण काइक दोष लागवानो संभव छ तेथी तेनी आलोचना करवी जोइए, तेथी हवे आलोचनाने कहे छे.~___ आलोयणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? आलोयणयाए णं मायानियाणमिच्छादसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अणंतसंसारवद्धणाणं उद्धरणं करेइ, उज्जुभावं च णं जणवइ, उज्जु. भावपडिवन्ने अणं जीवे अमाई शत्थिवेयं नपुंसगवेयं च न बंध, पुवषद्धं च णं निजरेइ ॥५॥७॥ !! अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( आलोयणयाए णं ) आलोचनावडे एटले गुरुनी पासे पोताना दोष प्रगट करवावडे (जीवे) जीव ( कि जणयइ ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(आलोयणयाए णं ) आलोचनावडे जीव ( मोक्खमग्गविग्याणं ) मोक्षमार्गना विघ्नरूप अने ( अशांतसंसा Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खणाणं) अनंत संसारनी श्राद्ध करनारा ( मायानियाथमिच्छादसणसल्ला) मायाशन्य, निदानशल्य भने मिथ्यादर्शनशन्य ए त्रखे शल्यना ( उद्धरणं) उद्धारने-विनाशने ( करेह ) करे छे. ( उज्जुभावं च सं) तथा अजुभावनेसरळपणाने ( जणयइ ) उत्पन्न करे छे. ( उजुभावपडिवो अर्ण) ऋजुभावने पामेलो (जीवे ) जीव ( अमाई ) माया | रहित थयो सतो ( इत्थिवेयं ) खीवेदने ( नपंसगवेयं च) भने नपुंसकवेदने (न बंधह) बांधतो नथी, (पुन्नबध्धं च सां) तथा पूर्व बांधला आ यो वेदने अथवा समग्र कर्मने (निजरेइ ) खपावे छे. ५-७ जे पोताना दोषनी निंदा करतो होय तेनी ज आलोचना सफळ थाय छ तेथी हवे स्वदोपनी निंदाने ज कई छ. निंदणयाए णं भंते ! जीवे किं जण्यइ ? निंदणयाए णं पच्छाणुतावं जणयइ, पच्छाणुता. | वेणं विरजमाणे करणगुणसेटिं पडिवजइ, करणगुणसेढिं पडिवन्ने अ अणगारे मोहणिज्ज कम्म उग्घाएइ ।। ६॥ ८॥ __अर्थ- भंते ) हे भगवान ! ( निंदणयाए णं ) निंदायडे एटले पोताना दोषना चितवनबडे-तेनी निंदावडे (जीवे ) जीव (किं जणयइ ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(निंदणयाए णं ) निंदावडे करीने जीव ( पच्छाणुतावं ) "अहो ! में भा अकार्य कयु !" एम पश्चात्तापने | ( जणयइ ) उत्पन्न करे छे. (पच्छाणुवावेणं) पश्चात्तापबहे (विरजमाणे ) पैराग्यने पाम्यो सतो ( करणागुणसेढिं ) करण Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वडे एटले अपूर्वकरणबडे अर्थात् पूर्वे कदापि नहीं पामेला एवा निर्मळ मनना परिणामवडे गुणश्रेणिने एटले चपकौणिने I ( पडिवजह ) पामे छे. ( करणगुखसेटिं) अपूर्वकरणवडे क्षपकश्रेणिने (पडिवो अ) पामेलो (अणगारे ) भनगार *-साधु ( मोहणिजे कम्मं ) मोहनीय कर्मने ( उन्धाएइ ) खपावे छे. ६-८. बहु दोष होय तो निंदानी पछी गर्दा पण करवी जोइए तेथी हवे गर्होने कहे छ.___ गरहणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? गरहणयाए णं अपुरकारं जणयई, अपुरकारगए अणं जीवे अप्पसत्यहिता जोहितो निअत्तइ, पसत्थे अ पवत्तइ, पसस्थजोगपडिवणे अगं || अणगारे अणंतघाई पजवे खवेइ ॥ ७॥ ६ ॥ अर्थ-( भंते ) हे भगवान ! ( गरहणयाए णं ) अन्यनी पासे पोताना दोष अगट करवारूप गर्हाए करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणयइ ) शुं उत्पन्न करे। सा उत्तर-(गरहणयाए णं) गाए करीने जीव ( अपुरकारं ) पोताना अपुरस्कारने एटले 'आ गुणवान छे' एवी | प्रसिध्धिना अभावरूप अवज्ञाना स्थानपणाने ( जणयइ ) उत्पम करे छे. ( अपुरकारगए अणं) अपुरस्कारने पामेलो | (जीवे ) जीव ( अप्पसत्थेहिंतो) कदाच अशुभ अध्यवसाय उत्पन्न थाय सोपण पोतानी विशेष अवज्ञा थशे एवा भयने लीधे अप्रशस्त एवा ( जोगेहितो ) योगोथी-एटले मन, वचन अने कायाना व्यापारोथी ( निमसइ) निवर्ते छे-पाको फरे | Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के महत्थे ) असे प्रभात रवा योगाने विष (परसइ) प्रवर्ते छे. ( पसत्थजोगपडियले अ गं) तथा प्रशस्त योगने पामेलो ( अणगारे ) साधु (अणंतघाई) अनंत एवा ज्ञान दर्शनने हणनारा ( पञ्जवे । पर्यायाने एटले ज्ञानावर णीयादिक कर्मना परिणामोने ( खवेह ) खपावे छे. ७-६. * उपर कहेली आलोचना विगैरे तत्त्वथा सामायिकवाळाने ज होय छे तेथी हवे सामायिकने कहे छ, सामाइएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सामाइएणं सव्वसावज्जजोगविरइं जण्यइ ॥ ८॥१०॥ अर्थ-(भते ) हे भगवान ! ( सामाइएणं ) सामायिकवडे ( जीवे ) जीव ( किं जणयइ ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर -(सामाइएणं ) सामायिकवडे जीव (सन्चसावजजोगविरई ) सर्व सायद्य योगनी विरतिने एटले सर्व पापव्यापारनी | निवृत्तिने ( जणयह ) उत्पन्न करे छे. ८-१०. सामायिक अंगीकार करनाराए ते सामायिकने रचनारा कहेनारा अरिहंतोनी स्तुति करवी जोइए तेथी हवे ते चतुर्विशतिस्तवरूप अरिहंतोनी स्तुतिने कहे छे.-- चउवीसत्थएणं भंते ! जीवे कि जणयइ? चउवीसत्थएणं देसणविसोहिं जणयइ ॥९॥११॥ अर्थ (भंते ) हे भगवान ! ( चउवासस्थएणं ) चोचीसत्थाए करीने एटले चतुर्विशतिस्तवे करीने (जीवे ) जीव *(किं जणयइ ) शुं उत्पन्न करे छे ? उत्तर-(चउवीसत्थएणं ) चतुर्विंशतिस्तवे करीने जीव (दसणविसोहि) दर्शननी एट ले समकितनी विशुद्धिने (जयायह) उत्पन करे छ.8-११. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरोनी स्तुति कर्या छतां पण सामायिकनो स्वीकार गुरुवंदन पूर्वक ज थाय छे, तेथी हवे गुरुवंदनने कहे छ. बंदणएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वंदणएणं नीआगो कम्मं खवेइ, उच्चागोअं निबंधड़, || सोहग्गं च णं अप्पडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ, दााहेणभावं च णं जणयइ ॥ १० ॥ १२ ॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( बंदणएवं ) गुरुना द्वादशावर्त बंदनवडे करीने (जीचे ) जीव ( किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-( बंदणएणं ) द्वादशावर्त वंदनवडे करीने जीव ( नीअागोअं) नीचगोत्र ( कम्मं ) कर्मने (खवेइ) खपावे छ, भने (उच्चागोभं) उचगोत्रने (निबंधेइ) बांधे छे, ( च णं) तथा ( अप्पडिहयं ) अप्रतिहत एटले अस्खलित-कोइ पण विनाश न करे एवु अने ( आणाफलं ) याज्ञा छे फळ-सार जेनुं एg ( सोहम्गं)। सौभाग्य एटले सर्व जनने स्पृहा करवा लायक ऐश्चर्य (निव्वत्तेइ ) नीपजावे छे-उत्पन्न करे छे. ( दाहिणभावं च शं) तथा दक्षिणमावने एटले लोकोना अनुकूळपणाने ( जणयह ) उत्पन्न करे छे. १०-१२. सामायिकादिक गुणवाळाए पहेला अने छल्ला तीर्थकरना तीर्थमां हमेशा अने मध्यमना बावीश तीर्थकरना तीर्थमा अपराधनो संभव सते प्रतिक्रमण करवानुं छे, तेथी इवे प्रतिक्रमणने कहे छे.___ पडिक्कमणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिदाई पिहेइ, पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरिते असु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ ॥११-१३॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( भंते ) हे भगवान! ( पडिकमणेणं) प्रतिक्रमणवडे करीने ( जीवे ) जीव (कि जणयह ) शु उत्पन्न करे ? उत्तर-- -( पडिकमणे ) प्रतिक्रमशक्डे करीने जीव ( क्याछिद्दाई ) व्रतना छिद्रोने एटले l अतिचारोने ( पिहेइ ) ढांकी दे छे-रुंधे छे. (पुण ) वळी (पिहियवयछिद्दे ) जेणे व्रतना छिद्रो ढाक्या छे एवो (जीवे ) जीव (निरुद्धासवे) आश्रवने रुधनार थाय छे, अने भाव रंधवाथी (असबलचरिते ) अशबल एटले निर्मळ चारित्रवाळो थाय छे, तथा ( अट्ठसु पवयणमायासु ) पांच समिति अने प्रण गुप्तिरूप पाठ प्रवचननी माताने विषे ( उपउत्चे ) उपयोमवाळो वथा (अपुरचे अश्यप एटले संयाना योगथी अभिन्न तथा (सुप्पणिहिणे ) संयमयोगने विषे सारी रीते | सावधान थयो सतो (विहरइ ) विचरे छे. ११-१३. प्रतिक्रमणमा अतिचारनी शुद्धिने माटे कायोत्सर्ग करवो जोइए तेथी हवे कायोत्सर्गने कहे छे.___ काउस्सग्गेणं भंते ! जीवे किंजणयइ? काउस्सग्गेणं तीअपडुपन्नं पायच्छित्तं विसोहे, विसुद्धपायच्छित्ते अजीवे नियहिअए ओहरिअभरु व्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहंसुहेणं विहरइ ॥१२॥१४॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( काउस्सग्गेणं ) कायोत्सर्गे करीने ( जीवे ) जीव (किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? | उत्तर-( काउस्सग्गेणं ) कायोत्सर्गे करीने जीव ( तीअपडुप) अतीत एटले चिरकाळे थथेलुं भने प्रत्युत्पन्न एटले हमा १" नियत्तहियए" एको पाठ संभवे के. Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. --18थयेनुं वर्तमान काळजें (पायच्छितं) प्रायश्चित्त एटले प्रायश्चित्तने योग्य अपराध, तेने (विसोहेह) विशुद्ध करे के, (विसुद्धपा यच्छिते अ) भने प्रायश्चित्तबले विशुद्ध धयेलो (जीवे) जीव (नियहिए) निवृत्तहृदय थाय छे एटले पोताना चित्तने विषे या | निवृत्तिने पामे छ, कोनी जेम ? ते कहे छ-( ओहरिप्रभा व भारबहे ) उतार्यों छे भार जेणे एवा भारवाहकनी जेम अतिचाररूप भार उतारवाथी चित्तमा निवृत्ति पामे छे, अने तेथी करीने (पसत्थज्झाणोवगए) प्रशस्त ध्यानने पाम्यो सतो | (सुहंसुहेणं ) सुखे सुखे (विहरइ ) विचरे छे. १२-१४. कायोत्सर्गधी पण जे शुद्ध न थाय, तेने माटे प्रत्याख्यान करवान होय छे तेथी के प्रत्याख्यानने कहे छे. पञ्चवारखे भोले जीव जागाइ पचखाणेणं श्रासवदाराई निरंभइ ॥ १३ ॥ १५॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( पच्चक्खाणेणं ) प्रत्याख्यानवडे (जीचे ) जीव (किं जणयइ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर- || (पश्चक्खाणेणं ) प्रत्याख्यानवडे एटले मूळगुण भने उचरगुणरूपी पञ्चखाणबडे जीव (आसवदाराई ) हिंसादिक, भावना द्वारोने (निरंभइ) रुंधे छे. उपलक्षणथी पूर्व उपार्जन करेला कर्मोनै खपावे छे. अहीं नमस्कार सहित-नवकारसी विगेरे पञ्चखाणोनो उत्तरगुणप्रत्याख्यानमा समावेश थाय छे. १३-१५. प्रत्याख्यान कर्या पछी जो त्यां चैत्य होय तो तेनुं वंदन कस्वार्नु छ, ते चैत्यवंदन स्तुतिस्तवमंगळ विना घडू शकतुं | नथी, तेथी हथे स्तुतिस्तवमंगळने कई छ. Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थयथुइमंगलेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? थयथुइमंगलणं नाणदसणचरित्तपोहिलाभं जणयइ, नाणदसणचरित्तबोहिलाभसंपरमेणं जीवे अंतकिरिअं कप्पविमाणोववत्तिअं आराहणं आराहेइ ।। १४ ।। १६ ॥ ___ अर्थ (भंते ) हे भगवान ! ( थयथुइमंगलेणं ) स्तुति अने स्तवरूप मंगळे करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणयइ ) शुं उत्पन्न करे छे ? उत्तर- यापमंडलेश सिएटले देशद्राव विगेरे अने स्तुति एटले एकथी प्रारंभीने सात श्लोक | पर्यंत स्तुति, तेरूप मंगळे करीने जीव (नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं ) ज्ञान, दर्शन श्रने चारित्ररूपी बोधिलाभने एटले | जैनधर्मनी प्राप्तिने ( जणयइ ) उत्पन करे छे. (नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपमेणं ) भने ज्ञान, दर्शन तथा चारित्ररूप गांधिलाभने पामवावडे करीने ( जीवे ) जीव (अंतकिरिअं) संसारना अथवा कर्मना अंतनी क्रियाने अर्थात् मोबने श्रापनारी अथवा ( कप्पविमाणोषयत्ति) कल्प एटले चार देवलोक अने विमान एटले ग्रैवेयक अने अनुत्तरविमान, तेने प्राप्त करावनारी (आराहणं) आराधनाने (आराहेह) आराधे छे-साधे छे. अर्थात् प्रथम विशिष्ट देवलोकने अने परंपराए छेवट मोक्षने आपनारी पाराधनाने साधे के-करे छे. १४-१६. स्तव स्तुतिरूप चैत्यवंदन कर्या पछी स्वाध्याय करवानो छ, ते स्वाध्याय काळने विषे ज थाय के अने ते काळनुं ज्ञान १ शुश्थय• यवु जोइए, परंतु प्राकृत होवाथी आ प्रमारे पाठ काँ छे. Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काळप्रत्युपेक्षणावडे थाय छे, तेथी हवे काळप्रत्युपेक्षणाने कहे छे. कालपडिलेहणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? कालपडिलेहणयाए णं नाणावरणिज कम्म खवेइ ॥ १५-१७॥ न अर्ध-(भंते ) हे भगवान ! (कालपडिलेहण्याए णं ) काळप डिलेहणबडे (जीवे) जीव (किंजणयइ ) शं उत्पम dil करे छे ? उत्तर-( कालपडिलेहणयाए ) प्रादोषिक श्रादिक काळग्रहण भने प्रतिजागरणरूप परिलहणावडे जीव ( नाणावरणिज ) भानावरणीय ( कम्म) कर्मने ( खवेइ ) खपाये छे. १५-१७. कदाच अकाळे पाठ को होय तो प्रायश्चित्त करवू जोइए, तेथी ते कहे छ. पायच्छित्तकरणेणं भंते ! जीवे किं जणयह ? पायच्छित्तकरणेणं पावकम्मविसोहि जणयइ, निरइआरे आवि भवइ, सम्मं च णं पायच्छित् पडिबजमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ, मायारं आयारफलं च आराहेइ ॥ १६ ॥ १८॥ अर्थ--(भंते ) हे भगवान ! (पापच्छित्तकरणेणं ) प्रायश्चित्त करवावडे ( जीवे ) जीव (किं जगायइ ) शुं उत्पम करे ? उत्तर-( पायच्छित्तकरणेणं) भालोचनादिक प्रायश्चित्त करवावडे जीव (पावकम्मविसोहिं ) पापकर्मनी विशुदिने Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटले पाप रहितपणाने ( जणयह ) उत्पन्न करे छे, (निरहमारे भावि) तथा ज्ञानाचारादि अतिचारने शोधवाथी अतिचार |FI रहितपणुं पण (भवइ) थाय छे, (सम्मं च णं) तथा सम्यक् प्रकारे (पायच्छित्तं) प्रायश्चित्तने (पडिवञ्जमाये ) अंगीकार करतो सतो ( मग्गं च ) मार्गने एटले ज्ञाननी प्राप्तिना हेतुरूप समकितने ( मग्गफलं च ) अने मार्गना फळने एटले शानने (रिसोहेइ) शुद्ध को तो जो के सारित बारे जानएकीदने ज प्राप्त थाय छे. तोपण जेम प्रकाशन कारण प्रदीप छे तेम ज्ञानतुं कारण समकित छ एम जणावा माटे आ प्रमाणे कां छे. तथा । मायार) आचारने एटले चारित्रने (भाया- | रफलं च ) अने आचारना फळने एटले मोचने (आराहेइ ) भाराधे छे-साधे छे. १६-१८. प्रायश्चित्तनुं कर ते खमाववाथी थइ शके के तेथी हवे खामणा करवा संबंधी कहे छे. खमावणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ, पल्हायणभावमुवगए अ जीवे सव्वपाणभूअजीवसत्तेसु मित्तीभावं उप्पाएइ, मित्तीभावमुवगए आवि जीवे भावविसोहि काऊण निम्भए भवइ ॥ १७ ॥ १९ ॥ अर्थ-( भंते ) हे भगवान ! ( खमारणयाए णं ) क्षामणाए करीने एटले काइ पण दुष्कृत कर्या पछी "पा मारा दुष्कृतनी तमे क्षमा करो" एम समाववाए करीने (जीवे) जीव ( किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(खमावणयाए णं) खमाववावडे करीने जीव ( पन्हायणभावं ) चित्तनी असमताने ( जणयइ ) उत्पन्न करे छे, ( पल्हायणभावं उवगए *HEkankot Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने चित्तनी प्रसन्नताने पामेलो ( जीवे ) जीव ( सच्चपाणभूमजीवसत्तेसु ) सर्व प्राण-घे, त्रण अने चार इंद्रियोवाळा, भूत-वनस्पतिकाय, जीव-पंचेंद्रियो अने सव-चाकीना जीयो, ए सर्वने विष (मिचीभावं ) परहितना चितवनरूप मैत्रीमावने ( उप्पाएइ) उत्पन्न करे छे, (मित्तीमा उवगए प्रावि ) तथा मैत्रीभावने पामेलो एका पण ( जीवे ) जीव ( मावविसोहिं ) रागद्वेषना अभावरूप नावविशुद्धिने स्टले विविशुलिने (कास) करीने ( निब्भए मवइ ) निर्भय थाय छे-समग्र भयना कारणनो अभाव थवाथी भय रहित थाय छे. १७-१६. आवा गुणचाळाए स्वाध्याय करवानो छ तेथी हवे स्वाध्यायने कहे छे. सज्झाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सज्झाएणं नाणावरणिज कम्मं खवेइ ॥ १८ ॥ २० ॥ अर्थ- -( भंते ) हे भगवान! (सज्झाएणं ) स्वाध्यायवडे करीने (जीचे ) जीव (किं जणयइ ) उत्पन्न करे ? | उत्तर-( सज्झाएणं) स्वाध्यायवडे करीने जीव (नाणावरणिज्जं ) ज्ञानावरणीय ( कम्म ) कर्मने तथा उपलक्षणथी बीजां कर्मोने पण ( ख ) खपावे छे-चय करे छे. १८-२०. स्वाध्यायमा प्रथम वाचना करवानी के तेथी हो वाचनाने कहे छे. वायणाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वायणाए णं निजरं जणघइ, सुअस्स अणासायणाए वद्दति, सुअस्स अणासायणाए वहमाणे तित्थधम्म अवलवइ, तित्थधम्म अवलंबमाणे Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++ ++++++ महानिज्वरे महापज्जवसा भवइ ॥ १९ ॥ २१ ॥ अर्थ – (भंते ) हे भगवान ! ( वायखाए गं ) वाचनाए करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणय ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर - (वायणाएं ) वाचनाए करीने जीव (निअरं ) कर्मनी निर्जराने ( जगह ) उत्पन्न करे थे, अने (सुमस्स) श्रुती ( भासाया ) अनाशातनाने विषे ( वट्टति ) वर्ते थे, केमके वाचना नहीं करवाथी श्रुतनी अवज्ञा करी कवाय अने तेथीनी आशातना करो कद्देवाय के तथा ( सुचस्स ) श्रुतनी ( भणासायखाए ) अनाशावनामां (वट्टमाणे ) वर्ततो सतो ( तिन्भनं ) दीन पदानरूप गणधरना श्राचारने ( अवलंबह ) अवलंबन करे छे - आश्रय करे छे. अर्थात् पामे थे, तथा ( तित्थधम्मं ) तीर्थना धर्मने ( अवलंबमाणे ) अवलंबन करतो सतो ( महानिज्जरे ) मोटी निर्जराचाळ (महापसा ) महा पर्यवसान एटले सर्वथा कर्मना अंतवाळो ( भवइ ) थाय छे अर्थात् मोक्षने पामनारो थाय छे. १६-२१. — वाचनालीघा पछी शंका थाय त्यारे फरी पूछ जोहए, तेथी हवे प्रच्छना कहे छे.पडिपुच्छणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिपुच्छणयाए णं सुतत्थतदुभयाई विसोहेइ, कंखामोहणिजं कम्मं वोच्छिदइ || २० || २२ || अर्थ-- ( भंते ) हे भगवान! ( पडिपुच्छयाए णं ) पूर्वे कहेला मूत्रादिकने फरीथी जे पूछवं ते प्रतिप्रच्छना कहेवा Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . |छे, ते प्रतिप्रच्छनाघडे करीने (जीवे ) जीव (किं जणयइ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(पडिपुच्छणयाए णं) प्रतिप्रच्छनावडे | करीने जीव । सुत्तत्थतदुभयाई ) सूत्र, अर्थ भने ते बोने (विसोहेइ ) विशुद्ध करे छ, भने (कंखामोहणिज कम्म) कांचामोहनीय कर्मनो ( वोच्छिदइ ) नाश करे छे. "आ मारे पा रीते भणq योग्य छ के भा रीते भणवं योग्य छ ?" | इत्यादिक शंकानो तथा परमतनी अभिलापारूप काचानो-ते बन्ने प्रकारना मिथ्यात्वमोहनीय कर्मनो क्षय करे छे. २०-२२ मा प्रमाणे एटले पूछीने स्थिर करेला श्रुतनुं विसरण न थवा माटे परावर्तना करवी जोइए तेथी हरे परावर्तना कहे छे. परिभणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? परिअहण्याए णं वंजणाई जणथइ, वंजणलद्धिं च उप्पाएइ ॥ २१ ॥ २३ ।। अर्थ --( भंते ) हे भगवान ! (परिभट्टणयाए णं ) परावर्तनावडे ( जीवे ) जीव ( किं जणयइ ) शुं उत्पन्न करे ? | उत्तर-(परिभट्टणयाए णं ) परावर्तनावडे एटले भणेलाने फरी फरी गण चावडे जीव ( वंजणाई) व्यंजनोने-अधरोने ( जणयइ ) उत्पन्न करे के एटले के ते व्यजनो विस्मृत थया होय तोपण गणवाथी ते जलदीथी पाछा स्मरणामां भावे । के तेथी उत्पम थाय छे एम का. (वंजणलादि च ) तथा बळी तेवा प्रकारना क्षयोपशमने लीधे व्यंजनलब्धि भने चशब्द छे तेथी पदलब्धिने पण ( उप्पाएइ) उत्पन्न करे छे.-पामे छे. २१-२३. सूत्रनी जेम अर्थ- पण विस्मरण नहीं थवा देवा माटे अनुप्रेक्षा करची जोइए तेथी हवे अनुप्रेक्षा कहे छ, Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुहाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? अणुप्पेहाए णं आउअवज्जाओ सन्त कम्मप्पगडिओ णि अधबन्दाओ सिविलयंत्रणा एकरेह दीहकालट्ठिइआओ हस्तकालाइ आश्रो पकरेs, तिवाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुप्पएसग्गाओ अप्पप्पएसग्गाओ पकरेइ, आउच णं कम्मं सिअ बंधइ, सिअ नो बंधइ, असायाये श्रणिजं च गं कम्मं नो भुज्जो भुजो उवचिणाइ, अणाइअं च णं णवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसारकंतारं खिप्पामेव वीईवयइ ॥ २२ ॥ २४ ॥ अर्थ - ( मंसे) हे भगवान! ( अणुध्येहाए णं ) अनुप्रेक्षावडे एटले अर्थनी चितनावडे ( जीवे ) जीव ( किं जय ) उत्पन्न करे छे ? उत्तर- ( अणुप्पेहाए सं ) अर्थचितवनरूप अनुप्रेक्षावडे ( आउअब जाओ ) एक आयुष्यकर्म व बाकीनी ( सत्त ) सात (कम्मप्पगडिओ ) कर्मनी प्रकृतिओ ( घणिबंध णबद्धाओ ) गाढ बंधनधी बांधेलीनिकाचित करेली होय तेने ( सिढिल बंधवद्धाओ ) शिथिल बंधनवडे बंधायेली होय तेवी ( पकरेह ) करे छे एटले के अपवर्तन करण करें। शकाय तेत्री करे छे. कारण के आ अनुप्रेक्षा आभ्यंतर उपरूप छे भने तपथी निकाचित कर्मनो पण श्चय थाय छे एम आगममां धुं छे. तथा ( दीहकालहि आओ ) जे कर्मप्रकृतिमो दीर्घकाळनी स्थितिवाळी होय तेने ( इस्सकाल हिओ ) ह्रस्व एटले अल्प काळनी स्थितिवाळी ( पकरेह ) करे थे, एटले शुभाशयना वशथी कर्मनी Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिना कंडकोनो हास करे छे तेथी ते अन्पकाळनी स्थितिवाळी थाय छे. अहीं मनुजाय, तिर्यगाय भने देवायु रहित । चाकीनी सर्व कर्मनी स्थिति जाणत्री, कारण के तेनु ज दीर्घपणुं अशुभ छे. तथा ( तिव्वाणुभावाभो ) तीव्र अनुभाववाळी एटले चारस्थानीया आदिक रसवाली प्रकृतिने ( मंदाणुभावानो) मंद अनुभाववाळी एटले प्रणस्थानीया आदिक रसवाळी (पकरेइ ) करे छे. तथा ( बहुप्पएसग्गामओ) बहु प्रदेशाग्रवाळी एटले घणा दळीयावाळी प्रकृतिने ( अप्पप्पएस-* म्गाओ ) अल्प प्रदेशाप्रवाळी एटले थोडा दळीयावाळी ( पकरेइ ) करे छ, तथा ( आउभं च शं कर्म ) आयुष्य कमेने || (सिअ बंधइ ) कदाखिल गांधे से सने (शिर लो गंध ) सरचित बांधतो नीं; केमके आयु तो चालता भवना | आयुष्यनो त्रीजो भाग के तेनो पण त्रीजो भाग विगेरे छेत्रट अंतर्मुहूर्त शेष रहे त्यारे ज बंधाय छे अने ते पण एक ज वार || | बंधाय छे, ज्यारे बांधे छे त्यारे पण देवायुने ज बांधे के केमके मुनिने तेनो ज बंध होय छे. तथा ( असायावेअमिजं च * कम्मं ) असातावदनीय कर्मने अने चशब्दथी बीजी पण अशुभ कर्मप्रकृतिने (नो भुञ्जो भुओ उचिणाइ ) वारंवार | उपचय करतो नथी-बांधतो नथी. कदाच कोई खत प्रमादथी प्रमत्त मुनि अशुभनो पण बंध करे के पण वारंवार करतो नथी. तथा ( अण्णाइभं च णं ) अनादि, (अणवदगं) अनवदा-अनंत अने (दीहमद्धं) दीर्धाद्ध एटले लांचा काळे प्रोळंगाय सेवा (चाउरंतसंसारकतारं) चार गतिरूप अंत-अवयवो छ जेना एवा संसाररूपी कांतारने-अटवीने (खिप्पामेव)* शीघ्रपणे ज (विईवयइ ) विशेषे करीने अतिक्रमण करे के-चोळगे थे. २२-२४. Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *40*40*** — जे श्रुतनो अभ्यास कर्यो होय तेथे धर्मकथा पण करवी जोइए, तेथी हवे धर्मकथाने माटे कहे छे.धम्मकहाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मकहाए सं पवयणं पभावेइ, पवयणपभावए णं जीवे आगमे सस्समदन्ताए कम्मं निबंधइ ॥ २३ ॥ २५ ॥ अर्थ - ( अंते ) हे भगवान ! ( धम्मकहाए सं ) धर्मकथाए करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर- ( धम्मकहाए गं ) धर्मकथाए करीने एटले व्याख्यान करवावडे करीने जीव ( पयवj ) प्रवचननी - जिनशासननी ( पभावे ) प्रभावना करे छे " प्रावचनिक १, धर्मकथी २, बादी ३, नैमित्तिक ४, तपस्वी ४, विद्या ६, सिद्ध, ७, अने पर आठ प्रभावक करेला थे. तथा ( पवयणप्रभावए ं ) प्रवचननी प्रभावना करवावडे ( जीवे ) जीव (आगमे) आगामी काळाने विषे ( सस्समद्दचाए ) शश्वत् भद्रता करीने एटले निरंतर कल्याणपणाए करीने सहित एवा (कम्मं ) कर्मने (निबंध) बांधे द्वे अर्थात् शुभानुबंधी शुभ कर्मने उपार्जन करे छे. २३-२५. चप्रमाणे पांच प्रकारना स्वाध्यायनी प्रीतिथी श्रुतनी आराधना थाय छे, तेथी हवे श्रुतनी आराधनाने कडे छे.सुअस आराहणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सुस्त राहण्याए णं अह्माणं खवेइ, न य संकिलिस्सा || २४ ॥ २६ ॥ अर्थ -- ( भंते ) हे भगवानं ! ( सुम्मस्स ) श्रुतनी ( राहण्याए गं ) आराधनाए करीने ( जीवे ) जीव ( किं जया Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न | यह ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(सुअस्स ) श्रुतनी (पाराइणयाए णं ) अाराधनाए करीने जीव ( प्रमाणं ) अज्ञानने (खवेइ ) खपावे छे, (न य संकिलिस्सइ ) तथा रागादिकधी उत्पन्न यता क्लेशने पामतो नी. केमके विशिष्ट ज्ञानने लीधे नवी नवी संवेगनी प्राप्ति थवाथी क्लेशने पामता नथी. २४-२६. श्रुतनी आराधना मनना एकाग्रपणाधी थाय छ तेथी हवे मन- एकाग्रप' कहे छे. एगग्गमनसंनिवेतणयाए णं भंते ! जीवे किं जण्यइ ? एगग्गमनसंनिवेसणयाए णं चित्तनिरोहं करेइ ॥ २५ ॥ २७ ॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( एगग्गमनसंनिवेसणयाए ग ) एकाग्रने विषे मन स्थापवावडे करीने (जीचे ) जीव (किं जणयह) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(एगग्गमनसंनिबेसणयाए णं) एकाग्रने विष मन स्थापनावडे करीने मननी एकाग्रताए करीने जीव ( चित्तनिरोई ) कोई प्रकारे उन्मार्गे गयेला चिचना निरोधने ( करेइ ) करे छ. २५-२७. या सर्व संयमवाळाने जरुफळ थाय छे, तेथी इवे संयमने कहे थे. संजमेणं भंते ! जीवे किं जयणइ ? संजमेणं अणण्यत्तं जणयइ ॥ २६ ॥ २८ ॥ अर्थ-(मते ) हे भगवान ! ( संजमेणं ) संयमवडे ( जीवे ) जीव (किं जणयइ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(संजमेण) हिंसादिक आश्रवथी विरमवारूप संयमवडे जीव (अणण्हयत्तं ) अनंहस्कत्त्वं-पापरहितपणाने (जणयइ ) उत्पम करे के *1** Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटले पापरहित थाय छे. २६-२७. संयम छतां पण तप विना कर्मक्षय थतो नथी, तेथी हवे तपसंबंधी कहे थे. तवेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? तवेणं वोदाणं जणयइ ॥ २७ ॥ २९ ॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( तवेणं ) तपवडे (जीवे ) जीव (किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-( नवे ) तपबडे जीव (बोदाणं) व्यवदानने एटले पूर्व बांधला कर्ममळनो नाश थवाथी विशेष प्रकारनी शुद्धिने (जयड) उत्पम करे छे. २७-२६. __ व्यवदान- ज फळ कहे थे. वोदाणेणं भंते जीवे किं जणयइ ? वोदाणेणं अकिरिअं जणयइ, भकिरिबाए भविचा तमो पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥ २८ ॥ ३०॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! (बोदालोणं ) व्यवदाने करीने (जीवे ) जीव (किं जणयइ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर all-(वोदाणेणं) व्यवदाने करीने जीव (अकिरिअं) अक्रियने एटले व्युपरतक्रिय नामना शुक्लध्यानना चोथा मेदने (जणयइ) उत्पन करे . (अकिरिआए ) क्रियाक एटले व्युपरतक्रिय नामना शुक्लध्यानना चोथा भेदमा वर्तनारो | ( भविता ) थइने ( तो पच्छा ) त्यारपछी तरत ज (सिज्मइ ) सिद्ध थाय छे-समास अर्थवाळो थाय छे, (बुज्झइ)| Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X** CO3k03 ज्ञानदर्शनना उपयोगवडे वस्तुतत्वने जाये थे, (मुम्बई) संसारथी मूकाय थे, ( परिनिब्वाइ ) कर्मरूपी अग्निने बुझावीने चौतरफथी शीतळ थाय छे, तथा ( सव्वदुक्खाणमंत करेह ) शारीरिक अने मानसिक सर्व प्रकारनां दुःखोना अंत करे छे. २८-३०. व्यवदान एटले विशेष प्रकारनी शुद्धि तो सुखना शातवडे एटले सुखने पथ दूर करवावडे थाय छे तेथी हवे सुझाउने कहे थे.-- सुहसाएणं भंते! जीवे किं जाय ? सुहसाएणं अणुस्सुअत्तं जणयइ, मणुस्सुम श्रणं जीवे अणुकंपए अणुब्भडे विगयसोए चरितमोहणिज्जं कम्मं खवेइ ॥ २९ ॥ ३१ ॥ अर्थ - (ते) हे भगवान! ( सुहसाएं ) सुखना शातवडे ( जीवे ) जीव (किं जणय) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(सुहसाए ) वैषयिक सुखना शातवडे एटले तेने दूर करवावडे - तजीदेवावडे अर्थात् वैषयिक स्पृहानो नाश करवावडे जीव (अणुतं ) अनुत्सुकपणाने एटले वैषयिक सुखना निस्पृहपणाने (जणयह) उत्पन्न करे थे, ( अणुस्सुए अ सं ) भने उत्सुकता रहित थलो ( जीवे ) जीव (ऋणुकंप) दुःखी प्राणी उपर अनुकंपावाळो थाय छे, विषयसुखमां उत्सुकताबाळो जीव बीजा प्राणीने मरता जोइने पण एक पोताना ज सुखमां रसिक थाय छे, पण तेनापर अनुकंपा करतो नथी, तथा उत्सुकता रहित थलो जीव (प्रणुन्भडे ) अनुद्भट एटले अभिमान रहित अथवा शृंगारादिकनी शोभा रहित छाय Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ, तथा (विगयसोए ) शोकरहित एटले आलोक संबंधी कार्यनो नाश थया छतां ते मोचनी इच्छाधाळो होवाची शोक करतो नथी अने आवा प्रकारनो होवाथी ते (चरित्तमोहणिज) कषाय अने नोकपायरूप चारित्रमोहनीय ( कम्म) कर्मने (खवेइ ) खपावे छे-क्षय करे के २६-३१. सुखनो शात-चिनाश सुखमा अप्रतिबद्धतावडे थइ शके छ तेथी अप्रतिबद्धताने कहे छे. अप्पडिबद्धयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? अप्पडिबद्धयाए णं निस्संगतं जणयइ, निस्संगत्तगए अणं जीवे एगे एगम्गाचे दिया य राओ अ असजमाणे अप्पडिबद्धे आवि विहरइ ॥ ३० ॥ ३२ ॥ ___अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( अप्पडिबद्धयाए णं ) अप्रतिबद्धताए करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणयह ) शुं उत्पन्न । | करे ? उत्तर-(अप्पडिबद्धयाए ण) अप्रतिबद्धता एटले मनने विषे कोइ पण पदार्थ उपर आसक्तिरहितपणु, ते वडे करीने जीव ( निस्संगतं ) बाह्यवस्तुना नि:संगपणाने ( जथयइ ) उत्पन करे के, ( निस्संगतगए अणं ) निःस्संगपणाने पामेलो (जीचे )जीव (एगे ) एकलो एटले रागद्वेष रहित थाय छ, तथा ( एगमगचित्रे ) एकाग्रचित्त एटले धर्ममां दृढ़ मनवाळो थाय छे, तथा (दिना य राम्रो भ) दिवसे अने रात्रे (असन्जमाणे) अनासक्त एटले बाह्य संगने त्याग करतो सतो (अप्पडिबद्धे आवि ) भने अप्रतिबद्ध एवो सतो पण ( विहरइ) मासकम्पादिक उद्यत विहारे करीने विवरे छे. ३०-३२. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानिमद्धता तो विवित्त शाहगी भइ शाके से सेथी तेने कहे छे. विवित्तसयणासणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? विवित्तसयणासणयाए णं चरितगृत्तिं | जणयइ, चरित्तगुत्ते अणं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एगंतरए मोक्खभावपडिवारले अविहं | कम्मगंठिं निजरेइ ॥ ३१ ॥ ३३ ॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( विविचसयणासणयाए पं) विविक्त शयनासनवडे ( जीवे ) जीव ( कि जणयह ) शु उत्पन्न करे ? उत्तर-(विवित्तसयणासणयाए णं ) विविक्त एटले स्त्री, पशु, पंडकादि रहित शयन, आसन अने उपलक्षणथी उपाश्रयवडे करीने जीव ( चरित्तगुति ) चारित्रनी गुप्तिने एटले रक्षाने (जणयइ) उत्पन्न करे छे. ( चरित्तगुत्ते अणं) तथा चारित्रनी रक्षा करनार (जीवे) जीव (विवित्ताहारे) विविक्त एटले विगइ आदिक शरीरनी पुष्टि करनार वस्तु रहित आहार छ जेनो एवो, तथा ( दढचरित्ते ) दृढ़ छे चारित्र जेनुं एको, तथा, ( एगंतरए) संयमने विषे एकांतपणेनिश्चयपणे रक्त-यासक्त एवो, तथा ( मोक्खमावपडियो ) मोक्षना मायने-अभिप्रायने पामेलो एटले 'मारे मोक्ष ज साधवानो छे' एवा अभिप्रायवालो सतो ( अविहं ) आठ प्रकारनी (कम्मगठिं) कर्मरूपी अंथिने (निरह) नि. जैरे छ-क्षपकश्रेणिवडे क्षय करे छे. ॥ ३१-३३ ॥ विविक्त शयनासनथी विनिवर्तना थाय छे तेथी तेने बताये छे. Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणिवणयाए णं भंते !जीवे किं जणयइ ? विणिवणयाएणं पावकम्माणं अकरणयाए अब्भुटेइ, पुत्ववद्धाण य निजरणयाए तं निअत्तेइ, तओ पच्छा चाउरंतसंसारकतारं विईवयइ ॥३२॥३४॥ | अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! (विणिवट्टणयाए णं) विनिवर्तनाए करीने (जीवे) जीव (किं जणयइ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर--(विणिवट्टणयाए णं निनिवर्तनागहे पटते दिशामाधी हातपाने राङ्मुख करवावडे जीव (पावकम्माण) मानावरणादिक पापकर्मोने (अकरणयाए) नहीं करवाथी एटले नयाँ कर्मों नहीं बांधवामां (अब्भुटेइ ) उद्यमवंत धाय छे. (पुव्ववद्धाण य) तथा पूर्वे बघिला कर्मोनी (निजरण्याए )निर्जरा करवाथी (तं ) ते पापकर्मने (निअत्तेइ ) निवर्तन करे छे-खपावे | छे, ( तो पच्छा ) त्यारपछी ( चाउरंतसंसारकतारं ) चार गतिरूप अंत-अवययो छ जेना एवा संसाररूप कांतारने *(विईवयइ ) ओळंगे छे. ३२-३४. विषयोथी निवृत्ति पामेलो कोइक जीव-साधु संभोगना पचरूखाणवाळो पण थाय छ, तेथी हवे संभोगना - पञ्चख्खाणने कहे छे. __संभोगपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संभोगपञ्चक्खाणेणं आलंबणाई खवेइ, निरालंबणस्स य आयढिआ जोगा भवंति, सएणं लाभेणं तुस्सइ, परस्स लाभं नो आसाएइ, नो तक्केइ, नो पीहेई, नो पत्थेइ, नो अभिलसइ, परस्स लाभं अणासाएमाणे अतकमाणे अपीहेमाणे Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपत्थेमाणे अणभिलसेमाणे दोच्चं सुहसिज उवसंपज्जिताणं विहरइ ॥ ३३ ॥ ३५ ॥ अर्थ-( मते ) हे भगवान ! (संभोगपच्चक्खाणेणं ) संभोगना पच्चख्खाणवडे (जीवे ) जीव ( किं जणयइ ) झुं | उत्पन्न करे ? उत्तर-(संभोगपञ्चक्खाणेणं ) संभोग एटले एक मंडळीमा पाहार करवो अर्थात बीजा भुनिए भापेला | आहारादिक ग्रहण करवा, तेनुं प्रत्याख्यान एटले पोते गीतार्थ होइने जिनकल्पादिक अंगीकार करवाथी तेनो-बीजाना । | लावेला श्राहासदिकनो त्याग करवो, तेरूप संभोगपञ्चख्खाणे करीने जीव ( आलंबणाई ) ग्लानत्वादिक भालंबनाने (खवेइ ) खपावे ले-दूर करे छे. बीजा साधु मांदगी आदि कारणे बीजाना लावी आपेला थाहारादिकने ग्रहण करे छ, | परंतु ा तो कारण छतां पण ग्रहण करता नथी, अने निरंतर उधत विहारवडे वीर्याचारनु आलंबन करे छे. (निरालंबणस्स य ) तथा बालंबन रहित एका जीवने-साधुने (प्रायट्टिमा) आयतार्थिक एटले मोक्षना प्रयोजनवाळा ज (जोगा) • बालबनवाळाने केटला व्यापारी मोक्षना प्रयोजनवाळा नथी पण होता तेथीभा प्रमाणे | कयुं छे. तेथी ते निरालंयन साधु ( सरणं लामेणं तुस्सइ) पोताना लाभे करीने पोते ज मेळवेला लामे करीने संतुष्ट थाय छ भने ( परस्स लामं ) वीजाना लाभनो (नो आसाएइ) आस्वाद करतो नथी, (नो तक ) तर्क करतो नथी-चिंत* चतो नथी, ( नो पीहेई ) स्पृहा करतो नयी-इच्छतो नथी, (नो पत्थेइ ) प्राधेना करतो नी, नथा ( नो अभिलसइ) अभिलाषा करतो नथी. ( परस्स लाभं ) बीजाना लामने (अणासाएमाणे) आस्वादन नहीं करतो, (अतक्केमारणे ) तर्क नहीं करतो, (अपीहेमाणे) स्पृहा नहीं करतो. (अपत्येमाणे) प्रार्थना नहीं करतो तथा (अणभिलसेमाणे) आभिलाष । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410104000+ -FKXX नहीं करतो सतो (दोचं ) बीजी ( सुहसिअं ) सुखशय्याने एटले बीजा सर्व साधुओोथी जूदा एकला रहेवारूप सुखशय्याने (उपसंपा) अंगीकार करीने ( विहरह ) विचरे . ३३-३५. संभोगना पच्चख्खाण करनारने उपधिनुं पण पञ्चख्खाय होय के तेथी तेने बतावे छे. उवहिपञ्चक्खाणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? उवहिपच्चक्खाणं अपलिमंथं जण्यइ, frease i जी निक्कखे उबहिमंतरेण य न संकिलिस्सइ ॥ ३४ ॥ ३६ ॥ अर्थ - (भंते ) हे भगवान ! ( उवहिपश्चक्खाणं ) उपधिना पञ्चख्खाखवडे ( जीवे ) जीव ( किं जयइ ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर- ( उव हिपच्चख्खाणं ) रजोहरण भने मुस्त्रयस्त्रिका सिवाय बीजी उपधिना पचणखाण - त्यागवडे (पलिमंथ ) परिमंथ एटले स्वाध्यायनो विघात, तेनो प्रभाव ते अपरिमंथ अर्थात् स्वाध्यायादिकमां आळस रहितपणाने ( जगह ) उत्पन्न करे छे, तथा ( निरुवहिए गं ) उपधि रहित एवो ( जीवे ) जीव ( निकखे ) कांचा रहित एटले वस्त्रादिकने विषे अभिलाषा रहित थाय छे, तेथी ते ( उबहिमंतरेण य ) उपधि विना ( न संकिलिस्सह ) क्लेशने पामतो नथी - अनुभवतो नथी. ३४-३६. उपधिनुं पञ्चख्खाण करनार जिनकल्पिकादिकने योग्य आहारादिक न मळे तो उपवास पण थाय छे माटे उपवास एटले हारना पचखापने हवे कहे थे. - **O 3*--**-*-**→ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आहारपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? आहारपच्चक्खाणेणं जीविआसंसप्पओगं | | वोच्छिदइ, जीविआसंसप्पओगं वोच्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेण न संकिलिस्सइ ॥३५॥३७॥ अर्थ- ( भंते ) हे भगवान ! (पाहारपचक्खाणेणं ) आहारना पचख्खाणबडे एटले सदोष आहारना सागवडे करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणय ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(आहारपञ्चख्खागणं) आहारना पश्चख्खाणवडे-उपवास करवावडे जीव ( जीविथासंसप्पोगं ) जीवितनी भाशंसाना प्रयोगनो एटले जीवधानी अभिलाषानो ( चोच्छिदइ) विच्छेद-विनाश करे ले. तथा (जीविआसंसप्पोगं ) जीवितनी आशंसाना प्रयोगने ( वोच्छिदित्ता) छेदीने ( जीवे) जीव (आहारमंतरेण ) आहार विना-योग्य आहार न मळे तोपण ( न संकिलिस्सइ ) क्लेशने पामतो नथी-उत्कृष्ट तप थाय तोपण ते पीडाने अनुभवतो नथी. ३५-३७. उपर कहेला धणे पच्चख्खाणो कषायना अभावे ज सफळ थाय छे तेथी हवे कषायर्नु पच्चख्खाण देखाडे के. कसायपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कसायपञ्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ, वीयरागभावं पडिवो अणं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ॥ ३६ ॥ ३८॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( कसायपचक्खाणे) कयायना पञ्चख्याखवडे ( जीवे ) जीव ( किं जणय ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-( कसायपक्षखाणे ) क्रोधादिक कपापना त्यागवडे जीव ( वीयरागभावं ) वीतरागपणाने भने Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलक्षाथी द्वेषरहितपणाने ( जणयह ) उत्पम करे थे. तथा (बीयरागभावं ) वीतरागपचाने (पडिवो अ) पामेलो एवो ( जीवे ) जीव ( समसुहदुक्खे ) समान के सुखदुःख जेने एवो ( मवइ ) थाय छे-सुख दुःखने विषे समान चित्तवाळी थाय छे. ३६-३८. कपाय रहित सतो पण योगना पचलखाणथी ज खरी मुक्त थाय छ, तेथी तेने कहे छे. जोगपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? जोगपञ्चक्खाणेणं अजोगित्तं जणयइ, अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न बंधइ, पुठवर्षधं च निजरेइ ।। ३७ ॥ ३९ ॥ ___अर्थ-( भंते ) हे भगवान ! ( जोगपञ्चक्खाणेणं ) योगना पचरूखाणवडे ( जीवे ) जीव (किं जगायइ ) शुं उत्पन्न | करे ? उत्तर-( जोगपञ्चरूखाणे ) योग एटले मन, वचन, कायाना व्यापार, तेना निरोघरडे जीव ( अजोगित्तं ) अयोगीपणाने ( जणयह ) उत्पन्न करे छे, (अजोगी णं जीवे ) अने अयोगी एवो जीव ( नवं कम्मं ) नवु कर्म | (न बंधइ) बांधतो नथी, (पुन्यबद्धं च) अने पूर्वे बांधेला भवोपग्राही चार कर्मने (निजरेइ) निजैरे २-क्षय करे छे. ३०-३९. | योगर्नु पच्चख्खाण करनारने शरीरनुं पञ्चख्खाण पण करवानुं होय छे, तेथी तेने कहे छे.- . __सरीरपञ्चकखाणेणं भंते ! जीवे किं अणयइ ? सरीरपञ्चक्खाणेणं सिद्धाइसयगुणत्तं निव्वत्तेइ, सिद्धाइसयगुणसंपन्ने अ णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ ।। ३८ ॥ ४० ॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न 0 0 अर्थ-( मंते ) हे भगवान ! ( सरीरपञ्चव्याणणं ) शरीरना पचख्खाणवडे (जीचे ) जीव (किं जमायइ) 01 उत्पन करे ? उत्तर-(सरीरपचख्खायेणं) औदारिकादिक सर्व शरीरना त्यागवडे जीव (सिद्धाइसयगुणतं) सिद्धना अतिशय गुणपणाने (निव्वत्तेइ) उत्पन्न करे छे. (सिद्धाइसबगुणसंपने अणं) सिद्धना अतिशय गुणने पामेलो (जीवे) जीव (लोगग्मं उवगए ) लोकना अग्रभागने पाम्यो सतो-मुक्तिशिलाए पहींच्यो सतो ( परमसुही भवइ ) अत्यंत सुखी थाय छे. ३८-४०. ___ उपर कहेला संभोगादिक पञ्चरत्स्यायो नाये सहायर्नु पञ्चरखाण सते सुलभ छ, नेथी सहायर्नु पञ्चख्खाण कहे छे.-- सहायपच्चक्वाणणं भंते जीवे ! कि जणयइ ? सहायपञ्चक्खाणेणं एगीभावं जणयइ, एगीभावभूए अ जीवे एगग्गं भावमाणे अप्पझंझे अप्पकसाए अप्पकलहे अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिए श्रावि भवइ ॥ ३९ ॥ ४१ ॥ ___ अर्थ-( भंते ) हे भगवान ! ( सहायपञ्चक्खाणेणं ) सहायना पचरूखाणवडे ( जीवे ) जीव (किं जरणयइ ) शुं | उत्पन्न करे ? उत्तर-(सहायपञ्चक्खाशेणं ) सहाय करनारा जे मुनियो तेमनो त्याग करवावडे-सहायनी अषेचा तजवाबडे जीव ( एगीभावं) एकीभावने एटले एकत्वने ( जणयइ ) उत्पन्न करे . ( एगीभावभूए अ) एकत्वने पाम्यो एवो (जीवे) जीव (एगम्गं भावमाणे) एकाप्रपयाने भावतो-अभ्यास करतो (अप्पझंझे) वाणीना कलह रहित थाय छ, (अप्पकसाए) -**--०६0- Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाय रहित थाय छ, (अप्पकलहे) कलह रहित थाय छे, (अप्पतुमंतुमे) तुं हुं एचा शब्द रहित थाय छे, एटले के “ तुंज श्रा कार्य करतो हयो, तुं न करे छे" इत्यादिक शब्द बोलवानो बखत ज पावतो नी. तथा (संजमबहुले) घणा संयमवाळो अने ( संयरबहुले) घणा संवरवाळो थाय छे, (समाहिए श्रापि भवइ ) तेमज ज्ञानादिकनी समाधिवाळो पस्य थाय छे.२०-30 पायो जे जीव होय ते छेवट भक्तप्रत्याख्यान करे छे, तेथी सेने कहे छे.-- भत्तपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? भत्तपञ्चक्खाणेणं अणेगाई भवसयाई निरंभइ ॥ ४० ॥ ४२ ॥ अर्थ (भंते ) हे भगवान! ( भत्तपञ्चक्खाणेणं ) आहारना प्रत्याख्यानवडे करीने ( जीवे ) जीव (किं जणयइ ) शुं उत्पन करे ? उत्तर--(भत्तपञ्चक्खाणणं ) श्राहारना प्रत्याख्यानवड़े करीने जीव ( अणेगाई ) अनेक ( भवसयाई ) सेंकडो भवोने (निरंभइ ) रुंधे छे अर्थात् दृढ शुभ अध्यवसायथी संसारने घणो अल्प करे छे. ४०-४२. हवे सर्व प्रत्याख्यानाने विषे उत्तम एवा छेवटना सद्भाव प्रत्याख्यानने कहे छे.--- ___ सब्भावपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सब्भावपञ्चक्खाणेणं अनिहिं जणयइ, अनिअर्हि पडिवन्ने अ अणगारे चत्तारि केवलिकम्मसे खवेइ । तंजहा-वेवणिज, आउअं, नाम, Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***+***+++++++++*K गोतं । तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, सुवइ, परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणमंत करेइ ॥ ४१ ॥ ४३ ॥ अर्थ -- (भंते ) हे भगवान ! (सम्भावपचक्खाणं) सद्भाव प्रत्याख्याने करीने (जीवे) जीव (किं) शुं (जायइ) उत्पन्न करे ? उत्तर---( सम्भावपचक्खाणं ) सर्वथा फरीथी करवानो असंभव होवाथी सद्भावे करीनें एटले परमार्थे करीने जे प्रत्याख्यान ते सद्भाव प्रत्याख्यान करवावडे करीने एटले सर्व संवररूप शैलेशीकरण करवावडे करीने जीव (अनिआई ) अनिवृत्तिने एटले शुक्त ध्यानना चोथा भेदने ( जणयइ ) उत्पन्न करे थे. ( श्रनिवाट्ठि) अनिवृत्तिने ( पडियो अ) पामेलो एवो (अणगारे ) साधु ( चचारि ) चार (केवलिकम्मंसे ) केवळीना कर्माशोने एटले केवळी थतां बाकी रहेला कर्मोने (खवेइ ) खपावे छे. ( तं जहा ) ते कर्मों या प्रमाणे . - ( वेणिअं ) वेदनीय, (आउ ) आयुष्य, (नाम) नामकर्म अने ( गोत्तं ) गोत्रकर्म ए चार भवोपग्राही कर्मोने खपावे छे, (तम्रो पच्छा ) त्यारपछी ( सिज्झइ ) समग्र अर्थने साधीने सिद्ध थाय छे, ( बुज्झइ ) तत्वना बांधने पामे थे, (मुम्बइ ) कर्मथी मुक्त थाय ( परिनिब्वाइ ) कर्मरूपी तापना अभावी शीतळ थाय छे, तथा ( सव्वदुक्खाणमंत करेइ ) सर्व दुःखोनोपंत करे छे. ४१-४३. सद्भाव प्रत्याख्यान प्राये करीने प्रतिरूपता सते थाय छे तेथी हवे प्रतिरूपताने बतावे दे पडिरूवाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? पडिरूवयाए गं लाघविचं जणयइ, लहुब्भूए अ णं जीव अप्पमन्ते पागडलिंगे पसत्थलिंगे विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसम्मत्ते सव्वपाणभूअजीवसत्तेसु →→ (→→★←) ✨ •-) Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीससणिजरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए विउलतवसमिइसमन्नागए श्रावि भवइ ॥ ४२ ॥ ४४ ॥ ___अर्थ-( मंते ) हे भगवान ! (पडिरूपयाए शं) प्रतिरूपतावडे ( जीवे ) जीव (किं जणयइ ) शुं उत्पन करे ? | उत्तर-(पडिरूबयाए णं ) स्थविरकल्पीना जेवो वेष धारण करवो ते प्रतिरूप कहेवाय छे ते प्रतिरूपतावडे अर्थात् || | अधिक उपकरणना त्यागवडे जीव (लापविमं ) द्रव्यथी अन्य उपकरणने लीधे भने भावधी अप्रतिबद्धपणाने लीधे लाघवपणाने ( जणयइ ) उत्पन्न करे छे. ( लहुन्भूए अणं ) अने लघुभूत एटले लघु थयेतो ( जीवे ) जीव ( अप्पमचे) || प्रमादरहित थाय छे, ते (पागडलिंगे) स्थविरकल्पिकादिकना वो जगातो होबाथी प्रगट लिंगवाको थाय छे. ( पसस्थलिंगे ) जीवरक्षाना हेतुरूप रजोहरणादिक धारण करवाथी प्रशस्त लिंगवाळो थाय छे, (विसुद्धसम्मत्ते) क्रियावडे समकितने शोधन करवाथी विशुद्ध समकितवाको थाय छे, ( सत्तसमिइसम्मत्ते) सत्य अने समितिओ जेनी समाप्त श्रने परि| पूर्ण थइ छ एवो थाय छे, अने तेथी करीनेज (सव्वपाणभृअजीवसत्तेसु) सर्व प्राण. भूत, जीव अने सत्वने विषे al वीससणिजरूवे ) पीडा उपजावनार नहीं होवाथी विश्वास करवा लायक थाय छे, (अप्पडिलेहे) अन्प उपधि होवाथी अल्प | पडिलेहणवाळो थाय छे, ( जिईदिए ) जितेंद्रिय थाय छे, तथा (विउलतवसमिइसमन्त्रागए मावि ) विपुल भने घणा भेद 3 होवाधी विस्तीर्ण एवा तप अने सर्व विषयमा व्याप्त होवाथी विपुल एवी समितियोवडे युक्त एवो पण (भवइ) थाय छे. उपर समितिश्रोतुं समग्रपणुं कयु अने अही सर्व विषयतुं व्याप्तपणुं का, तेथी पुनरुक्त दोष समजवो नहीं. ४२-४४. प्रतिरूपता छते पण वैयावश्च करवाथी ज इष्टनी सिद्धि थाय छे, तेथी वैयावच्चने कहे के. Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कपाय रहित थाय छ, (अप्पकलहे) कलह रहित थाय के (अप्पतुमंतुमे) तुं तुं एवा शब्द रहित थाय छे, एटले के " तुं ज | * आ कार्य करतो हवो, तुं न करे छे" इत्यादिक शब्द बोलवानो वखत ज पावतो नथी. तथा (संजमबहुले) घणा संयमवाळो - अने ( संघरबहुले ) घणा संघरवाळो थाय छे, ( समाहिए आवि भवइ ) तेमज ज्ञानादिकनी समाधिवाळो पण HD थाय छे. ३६-४१. आयो जे जीव होय ते केवट भक्तप्रत्याख्यान करे छे, तेथी तेने कहे छे. भत्तपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? भत्तपच्चक्खाणेणं अणेगाइं भवसयाई निरंभइ ॥ ४०॥ ४२ ॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( भत्तपञ्चक्खाणणं ) आहारना प्रत्याख्यानवडे करीन ( जीवे ) जीव (किं जायइ ) || शुं उत्पन्न करे ? उत्तर--( भत्तपञ्चक्खाणणं ) आहारना प्रत्याख्यानवडे करीने जीव ( अणेगाई ) अनेक ( भवसयाई) * सेंकडो भवोने (निरंभा) रु छ अर्थात् दृढ शुभ अध्यवसायी संसारने घणो अल्प करे छे. ४०-४२. हचे सर्च प्रत्याख्यानोने विषे उत्तम एचा छेवटना सद्भाव प्रत्याख्यानने कहे . सब्भावपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सब्भावपञ्चक्खाणेणं अनिअर्हि जणयइ, अनिअर्हि पडिवन्ने अ अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ । तंजहा-वेअणिज, आउअं, नाम, Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीससणिजरूचे अप्पडिलेहे जिइंदिप पिउललयात मिसभागार गाविरबह ॥ ४२ ॥ १४ ॥ अर्थ-( भंते ) हे भगवान ! (पडिरूवयाए णं) प्रतिरूपतावडे ( जीवे ) जीष (कि जबमा) उत्पन करे। उत्तर-(पडिरूवयाए णं) स्थविरकल्पीना जेवो वेष धारण करवो ते प्रतिरूप कहेवाय छेते प्रतिरूपताप पर्वाद अधिक उपकरणना त्यागवडे जीव (लापविअं) द्रव्यथी अन्य उपकरणाने लीधे भने भाक्षी मप्रतिपदामा सीप लाघवपणाने ( जणायइ ) उत्पन्न करे . ( लहुन्भूए अणं) अने लघुभूत एटले लघु पयेलो (बीके) वीप (अपाचे प्रमादरहित थाय छ, ते (पागडलिंगे) स्थविरकल्पिकादिकना जेवो जणातो होवाथी प्रगट लिंगबाजो शायदे (सत्यलिंगे ) जीवरक्षाना हेतुरूप रजोहरणादिक धारण करवाथी प्रशस्त लिंगवालो थाय छ, (विसुद्धसम्म) निमावडे समकितने शोधन करवाथी विशुद्ध समकितवाळो थाय छे, ( सत्तसमिइसम्मत्ते ) सत्य भने समितिमो बेनी समक्ष भने परिपूर्ण थइ छ एवो थाय छे, अने तेथी करीनेज (सबपाणभृनजीवसचेसु) सर्व प्राण. भूत, जीव भने अपने किस (बीससणिजरूचे ) पीडा उपजावनार नहीं होबाथी विश्वास करवा लायक थाय छ, (मप्पडिजेहे) मा निमावीमन पडिलेहणवाळो थाय छे, (जिइंदिए ) जितेंद्रिय थाय छे, तथा (विउलतवसमिइसमभागए मावि विजय होबाथी तप अने सवै विषयमा व्याप्त होवाथी विपुल एवी समितिभोष समितिपोर्नु समग्रपणुं का अने ही सर्व विषयनुं व्याप्तपणुं का, तेथी पुनरुक्त दोष समजयो । प्रतिरूपता छते पण बैयाक्च करवाथी ज इष्टनी सिद्धि थाय हे, तेथी वैयावबने रहे . ANA R . Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UrD वेभावच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वेयावच्चेणं तित्थयरनामगो कम्मं निबंधइ ॥ ४३ ॥ १५ ॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( वेश्यावच्चेणे ) वैयावच्चचडे करीने ( जीवे ) जीव (किं जणयह ) ° उत्पम करे ? उत्तर-(वेश्रावञ्चणं ) वैयावच्चवडे करीने जीव (नित्थयरनामगोमं ) तीर्थकरनाम गोत्र ( कम्म ) कर्मने (निबंधह) बांधे छे. ४३-४५. वैयावच्चवडे अरिहंतपदनी प्राप्ति कही, ते अरिहंत सर्व गुण संपन्न होय छे, तेथी सर्व गुणसंपन्नताने कहे छ. सव्वगुणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जग्णयइ ? सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरावत्तिं जणयइ, अपुणरावत्तिपत्तए अ णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं नो भागी भवइ ॥ ४४ ॥ ४६॥ अर्थ (भंते ) हे भगवान ! ( सध्वगुणसंपन्नयाए णं ) ज्ञानादिक सर्व गुणोथी युक्तपणाए करीने (जीवे ) जीव (किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-( सन्दगुणसंपन्नवाए णं ) सर्व गुणोथी युक्तपणाए करीने जीष (भपुणरावचिं) 1 अपुनरावृत्तिने एटले मुक्तिने ( जणयइ ) उत्पन्न करे . ( अपुणरावत्तिपत्तए अ ) अपुनरावृत्तिने-सुक्तिने पामेलो (जीवे) * जीव ( सारीरमाणसाणं) शरीर अने मन संबंधी सर्व (दुक्खाणं) दुःखोनो ( भागी) मागी ( नो भवइ ) थतो नथी. केमके दुःखना कारणरूप शरीर भने मननो ज मभाव छे तेथी ते दुःखनो भागी थतो नथी. ४४-४६. सर्व गुणो तो वीतरागपणुं सते ज थाय छे तेथी वीतरागपणाने कहे के. Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीअरागयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वीअरागयाए णं णेहाणुबंधणाणि तण्डाणुबंधगाणि भवोच्छिदइ, मणुलामणुमेसु सदफरिसरूवरसगंधेसु विरजइ ॥ ४५ ॥ ४७ ।। ___ अर्थ (भंते ) हे भगवान ! (वीरागयाए णं ) वीतरागपणाए करीने एटले रागद्वेष रहितपणाए करीने ( जीवे) जीव (किं जणयइ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(वीरागयाए मं) पीतरागपगाए करीने जीव (हाणुबंधणाणि) पुत्रादिक संबंधी स्नेहना रंधनोने (सहाणुबंधणागि म) तथा तृष्णा एटले लोमरूप बंघनोने ( वोच्छिदइ) छेदी नाखे छ, तथा (मणुस्मामणुमेसु ) मनोज भने अमनोज्ञ एवा ( सदफरिसरूवरसगंधेसु) शब्द, स्पर्श, रूप, रस अने गंधने विषे (विरजा) विराग पामे छे-विरमे के प्रथम कषायर्नु पवख्खाण कयुं छे सेनाथी ज वीतरागपणुं भावी जाय के तो पण राग र समग्र अनर्थर्नु मूळ ले एम जगाववा माटे अहीं वीतरागपणुं जूहूँ कमु छ. ४५-४७. वीतरागपणाचें मुख्य कारण आमा छे तेथी क्षमाने कहे छे.. खंतीए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? खंतीए णं परीसहे जिणइ ॥ ४६ ॥४८॥ अर्थ-(मते ) हे भगवान ! ( खंतीए णं ) धमाए करीने (जीवे ) जीव ( किं जमायह) शुं उत्पन्न करे छ । उत्तर-(खंतीए णं ) समाए करीने जीव ( परीसहे ) वधादिक परिषहोने (जिया) जीते छे. ४६-४८, चमा पण मुक्तिबडे एटले निर्लोभवावडे ज दृढ थाय के, तेथी मुक्तिने कहे छ. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुत्तीए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? मुत्तीए णं अकिंचणं जणयइ, अकिंचणे अ जीवे प्रस्थलोलाणं पारेसाणं अपस्थणिजे हवइ ॥ ४७ ॥ ४९ ॥ अर्थ-( भंते ) हे भगवान ! ( मुत्तीए णं) निर्लोभतावडे ( जीवे ) जीव ( किं जणयइ ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर(मत्तीए णं) निर्लोभतावडे जीव (अकिंचणं) अकिंचन एटले परिग्रह रहितपणाने (जणयइ) उत्पन्न करे छे. (अकिंचखे ॥ अ) परिग्रह रहित एवो (जीवे) जीव (अत्यलोलाणं) धनना लोभी एवा ( पुरिसाणं ) चौरादिक पुरुषोने (अपत्याणिजे) नहीं प्रार्थना करवा लायक एटले पीडवाने नहीं इच्छचा लायक ( भवइ) थाय छे. ४७-४६. लोभने अभाव माया करवानुं कारण पण होतुं नथी, तेथी मायाना प्रभावरूप पाजेबने कहे छे._अज्जवयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? अज्जवयाए णं काउज्जुअयं भावुज्जुअयं भासुजुअयं * अविसंवायणं जणयइ, अविसंवायणसंपन्नयाए अणं जीवे धम्मस्स पाराहए भवइ ॥४८॥ ५० ॥ || अर्थ---( भंते ) हे मगवान ! ( अञ्जवयाए णं) आर्जववडे करीने एटले माया रहितपणाए करीने (जीवे ) जीव |* (किं जण यइ ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(अजवयाए मां) आर्जवनडे करीने जीव ( काउजुभयं) कायानी ऋजुताने | * एटले कुन्जादिकनो वेष भने भृकुटिनो विकार विगेरे नहीं करवाथी शरीरना सरळपणाने, तथा (भावुज्जुअयं ) भावनी | 1 ऋजुताने एटले मनमा काइक विचार होय छतां लोकोने रंजन करवा माटे मुखथी जूदुं घोल अथवा कायाथी जूदुं कर Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ·····~***+*+→→*••*&*•** तेना श्रमावरूप-तेम नहीं करवारूप मननी सरळताने, तथा ( मासुज्जुभयं ) भाषानी ऋजुता एटले हास्यादिकने निमिचे अन्य देशनी भाषा न बोलवारूप भाषानी सरळताने, तथा ( अविसंवाय ) अविसंवादनने एटले अन्यना अविप्रतारखने अर्थात् बीजाने ठग नहीं तेने ( जायइ ) उत्पन्न करे छे. ( अविसंवायण संपन्नया अ सं ) अविसंवादनने प्राप्त थयेलो तथा उपलक्षणथी काय, मन भने वचननी ऋजुतानं प्राप्त थयेलो (जीव ) जांव ( धम्मस्स ) धर्मनो ( आराहए ) आराधक (इव) थाय छे. ४८-५०. -- आवा गुणवाळाने पण विनयथा ज इष्टसिद्धि थाय थे, अने विनय मार्दवधी थाय छे, तेथी मार्दवने कहे छे.. महवयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? महत्र्याए णं जीवे अणुस्सियत्तं जणयइ, मरिसयन्त्रेणं जीवे मिउमद्दत्रसंपन्ने अट्टमट्टाणाई निदुवे ॥ ४९ ॥ ५१ ॥ अर्थ - ( मंते ) हे भगवान ! ( मद्दवयाए णं ) मार्दववडे ( जीवे ) जीव (किं जखयइ ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर( मध्वयाए गं ) मार्दवनडे ( जीवे ) जीव (अणुस्सियत्तं) अनुच्छ्रितपणाने एटले अहंकारना अभावने ( अणय ) उत्पन्न करे . ( अणुस्सियत्तेयं ) अनुच्छ्रितपणाए करीने ( जीवे ) जीव ( मिउमदवसंपत्रे ) कोमळ एटले द्रव्यथी अने भावधी नमनना-नम्रताना स्वभाववाळानुं जे मार्दव एटले सदा सुकुमाळपणुं तेथे करीने सहित एवो सतो ( अट्टमयट्ठाणाई ) आठ मदना स्थानोने ( निद्ववेद ) खपावे छे. ४६-५१. Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वथी जे सत्यसायुक्त होय तेने ज मार्दव होइ शके छ, सत्या पण भावसत्य ज प्रधान छे, तेथी मावसत्यने कहे छ. भावसच्चेणं भंते ! जीवे कि जणय ? मावसच भावविसोहि अणयइ, भावविसोहिए अ | वहमाणे जीवे मरहंतपामसरस धम्मस्स पाराहणयाए अब्भुढेइ, अरहंतपासत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भुद्वित्ता परलोअधम्मस्स आराहए भवइ ॥ ५० ॥ ५२ ॥ अर्थ- (भंते ) हे भगवान ! ( भावसच्चे ) भावसत्यवडे एटले शुद्ध अंतःकरणवडे (जीवे ) जीव (किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(भावसषेणं, भावसत्यवर्ड जीव ( भावविसोहिं ) भावविशुद्धिने एटले अध्यवसायनी शुद्धिने । (जणयइ ) उत्पन करे छे. ( भावविसोहिए अ) ने भावविशोधिने विषे ( वट्टमाणे ) वर्ततो (जीवे ) जीव ( भरतपसत्तस्स ) अरिहंते प्ररूपेला ( धम्मस्स ) धर्मनी (आराहणयाए ) अाराधनाने माटे ( भन्मुढेइ ) उत्साहवाळो थाय छे. ( अरहतपयत्तस्स ) भने अरिहंते प्ररूपेला (धम्मस्स ) धर्मनी (आराहण्याए ) आराधनाने माटे (अन्मुद्वित्ता) उधमवंत थइने (परलोअधम्मस्स ) परलोकना धर्मनो (राहए ) आराधक ( मवइ ) थाय छे, एटले परभवा जिनपर्मनी ने | विशिष्ट भवनी प्राप्ति थाय छे. ५०-५२, भावसत्य सते करणसत्य पण होय छे तेधी करणसत्यने कहे थे.करणसच्चेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? करणसच्चेणं करणसत्तिं जणयइ, करणसचे अ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 माणे जीवे जहावाई तहाकारी आदि भवइ ॥ ५१ ॥ ५३ ॥ अर्थ - ( मंते ) हे भगवान! ( करणसचेणं ) प्रतिलेखनादिक क्रिया करवामां सत्य एटले विधिप्रमाणे श्राराधन करवु, ते वडे करीने (जीवे ) जीव (किं जायर ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर - (करण सच्चे ) करणासत्यवडे, जीव ( करण(स) करणशक्ति एटले अपूर्व अपूर्व शुभ क्रिया करवानी शक्तिने ( जायद ) उत्पन्न करे छे. ( करणसचे ) तथा करणसत्यने विषे (माणे जीवे ) वर्ततो जीव ( जहा वाई ) जे प्रमाणे बोले ( तहाकारी आणि ) ते प्रमाणे करनारो प (भ) थाय छे, एटले के ते सूत्रने भगतो सतो जे प्रमाणे क्रियासमूहने मुखधी बोले छे वे ज प्रमाणे ते ते क्रियाने करे पण छे. ५१-५३. तेवा मुनिने योगसत्य पण होय के, तेथी योगसत्यने कहे थे. जोगसचेण भंते! जीवे किं जणयइ ? जोगसच्चेणं जोगे विसोहेइ ॥ ५२ ॥ ५४ ॥ अर्थ - ( मंते ) हे भगवान ! ( जोगसच्चें ) योगसत्यवडे एटले मन, वचन अने कायाना सत्यवडे ( जीवे ) जीव (किं जगाय ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर--( जोगसन्देयं ) योगसत्यवडे जीव ( जोगे) मन, वचन, कायाना योगोने ( विसोइ ) शुद्ध करे थे एटले क्रिष्ट कर्मना बंधनो प्रभाव होवाथी ते योगोने निर्दोष करे द्वे. ५२-५४. योगसत्य गुप्तिवाळाने ज होय छे तेथी गुप्तिने कहे थे. - Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ॥ मणगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? मणगुत्याए णं जीवे एगग्गं जणयइ, एगग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवद ।। ५३ ॥ ५५॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( मणगुचयाए णं) मनगुप्तिए करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणयइ ) शुं उत्पन्न करे ? उसर-( मणगुत्तयाए णं ) मागुलिए करीने । जीले । लीच ( पगर्ग ) धर्मने विषे एकाग्रताने तन्मयपणाने (जया)। उत्पन्न करे छ भने ( एगग्गचित्ते ) एकाग्रचित्तवाळो ( जीवे ) जीव ( मणगुत्ते ) मनगुप्तिवाळो एटले अशुभ मध्यव- | सायमा जता मनने रोकतो सतो ( संजमाराहए ) संयमनो आराधक (भवइ ) थाय छे. ५३-५५. वइगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वइगुत्तयाए णं निविआर जणयइ, निम्विकारे । ॥ णं जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगसाहणजुत्ते आवि भवइ ॥ ५४ ॥ ५६ ॥ म अर्थ (भंते ) हे भगवान ! ( वइगुत्तयाए णं) कुशळ वाणी बोलवारूप वचनगुप्तिवडे ( जीवे ) जीव (किं जण* यह) शु उत्पम करे ? उत्तर-(बइगुत्तयाए थे ) वचनगुप्तिवडे जीव (निविआर) निर्विकारपणाने एटले विकथादिक | करवारूप वाणीना विकारना अभावने ( जग्णयइ ) उत्पन्न करे छे. (निस्विकारे सां) वाणीना विकार रहित एवो ( जीवे) जीव ( वइगुत्ते) सर्वथा वाणीना निरोधरूप वचनगुप्तिवाळो भने ( अज्झप्पजोगसाहबजुत्ते आवि ) अध्यात्मयोगना एटले मनना व्यापार धर्मध्यानादिकना साधनो जे एकाग्रतादिक नेणे करीने युक्त एवो पण ( भवइ ) थाय छे. विशेष Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारनी वचनगुप्ति न होय तो चित्तनुं एकाग्रपणुं पण थइ शके नहीं. ५४-५६. कायगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कायगुत्तयाए णं संवरं जणयह, संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ ॥ ५५ ॥ ५७॥ अर्थ–(भै , है भगवान : ( कालपार में ) हुन रोगने विषे प्रवृत्ति करवारूप कायगुप्लिए करीने ( जीवे ) जीव (किं जणयइ) शुं उत्पन्न करे? उत्तर-( कायगुत्तयाए णं) कायगुप्तिए करीने जीव (संबरं ) अशुभ योगना निरो- | धरूप संवरने ( जणयइ ) उत्पन्न करे छे. ( संवरेणं) निरंतर अभ्यास कराता संवरवडे ( कायगुत्ते ) सर्वथा कायव्यापारनो | निरोध करनार जीव (पुणो) वळी (पावासबनिरोई ) पापाश्रवनो एटले पापकर्मना ग्रहणनो निरोघ ( करेह ) करे छे.५५-५७. मात्रणे गुप्तिवडे अनुक्रमे मन विगेरेनी समाधारणा थाय छ, तेथी ते समाघारणाने कहे छे.-- मणसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? मण्समाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ, एगग्गं जणइत्ता नाणपज्जवे जग्णयइ, नाणपज्जवे जणश्त्ता सम्मत्तं विसोहेश, मिच्छत्तं विनिजरेइ । ५६ ॥ ५८ ॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान! ( मणसमाहारणयाए शं) मननुं सम्यक् प्रकारे आगममा का प्रमाणे धारण करवं Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त | स्थापन करवू तेरूप मननी समाधारणाए करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(मणसमाहार णयाए मं) मननी समाधारणाए करीने जीव ( एगग्गं) चिसना एकाग्रपणाने ( जणया) उत्पन्न करे छे, (एगन्मं जनइत्ता ) एकाग्रताने उत्पन्न करीने ( नाणपञ्जवे जणयइ ) विशेष विशेष श्रुतना बोधरूप ज्ञानना पर्यायाने उत्पन्न कर के, (नाणपज्जवे जणइत्ता ) अने ज्ञानना पर्यायोने उत्पन्न करीने ( सम्मत्तं विसाहेह) सम्यक्त्वने शुद्ध करे के केमके तत्वज्ञाननी शुद्धि थवाधी तचना विषयवाळी श्रद्धा पण विशुद्ध थाय छ, तेथी करीने ज ( मिच्छतं विनिजरेइ ) मिथ्यात्वने विशेषे करीने निर्जरे छ-नपावे छ.५६-५७. पइसमाहारगयाए भंत ! जीवे किं जणयइ ? वइसमाहारणयाए णं वइसाहारणदसण| पजवे विसोहेइ, वइसाहारणदसणपजवे विसोहित्ता सुलहबोहितं निव्वत्तेइ, दुल्लहबोहितं निजरेइ ॥ ५७ ॥ ५९ ॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( वइसमाहारणयाए शं) स्वाध्यायमा वामी स्थापन करवारूप वाणीनी समाधारणाए करीने (जीचे ) जीव ( किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-( वइसमाहारसयाए शं) पाणीनी समाधारणाए करीने जीव ( वइसाहारणदसणपज्जवे) वाणीने साधारण एटले वाणीना विषयवाळा अर्थात् वाणीथी कहेवा लायक पदार्थोना विषयवाला दर्शनना पर्यायाने ( पिसोहेइ ) विशुद्ध करे छे. (पइसाहाखदसापावे ) वाणीने साधारण एवा दर्शनमा Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यायाने ( बिसोहित्ता ) विशुद्ध करीने ( सुलइबोहित्तं ) सुलभ बोधिषणाने ( निव्वसेइ ) उत्पन्न करे के भने ( दुल्हनो हिसं ) दुर्लभबोधपणाने ( निज्जरेइ ) निर्जरे छे खपावे छे. ५७-५६. कायसमाहारण्याए णं भंते ! जीवे किं जगायइ ? कायसमाहारणयाए णं चरिचपज्जवे विसोहेइ, चरितपज्जवे विसोहित्ता अहक्खायचरितं विसोहेइ, अहक्खायचरितं विसोहिप्ता चारि केवलकम्मंसे खवेश, तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंत करे ॥ ५८ ॥ ६० ॥ अर्थ - ( अंते ) हे भगवान ! ( कायसमाहारणयाए गां ) संयमयोगने विषे शरीरना सम्यक् व्यापाररूप कायनी समाघारणा करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणयइ ) भुं उत्पन्न करे ? उत्तर - ( कायसमाहारणयाए गं ) कायनी समाधारणाए करीने जीव ( चरित्तपज्जवे ) क्षायोपशमिक चारित्रना मेदरूप चारित्रना पर्यायोने ( विसोदेह ) विशुद्ध करे छे. ( चरित) क्षायोपशमिक चारित्रना पर्यायाने ( विसोहित्ता ) विशुद्ध करीने ( अहक्खायचरिचं ) यथाख्यात चारित्रने ( बिसist) विशुद्ध करे छे, ( श्रहखायचरितं ) यथाख्यात चारित्रने ( विसोहित्ता ) विशुद्ध करीने ( चत्तारि ) चार ( केवलिकम्मंसे ) केवळीना सत्कर्मोने एटले अवातिया चारे कर्मोने ( ख ) खपाने के. ( तमो पन्छा ) त्यारपडी (सिज्झइ ) समाप्त कार्यवाळा थाय के, ( बुज्झइ ) वस्तुतस्वने जाये छे, (सुबह) संसारथी मुक्त थाय छे, (परिनिव्वाह) Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M कर्मना वाप रहित थवाथी शीतळ थाय छे, तया (सबदुक्खाणमत करेइ) शारीरिक भने मानसिक सर्व दुःखोना अंतने करे छ.५८-६०, ___ माणे पाए असावाची सानादिक अपनी शुद्धि कही. हवे तेनुं ज फळ कहे छ. नाणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? नाणसंपन्नयाए णं सव्वभावाहिगमं जणयइ, * नाणसंपन्ने भणं जीवे चाउरते संसारकंतारे न विणस्सइ, जहा सूई ससुत्ता पडिमा विन विणस्सइ तहा जीवे समुत्ते संसार न विणस्सइ, नाणविणयतवचरित्तजोगे संपाउण, ससमयपरसमयसंघाय. | णिजे भवइ ॥ ५९ ॥ ६१ ॥ अर्थ-( भंते ) हे भगवान ! ( नाणसंपनपाए णं ) भुतज्ञान सहितपणाए करीने ( जीवे ) जीव ( किं जणयइ ) | || | उत्पन्न करे ? उत्तर--( नाणसंपभयाए णं ) श्रुतज्ञान सहितपणाए करीने जीव ( सवभावाहिगमं) सर्व पदार्थना झानने ( जणयह ) उत्पन्न करे छ. ( नाणसंपन्ने अM) श्रुतज्ञान सहित एवो (जीवे जीव ( चाउरते) चतुरंत ( संसारकतारे) जा संसाररूपी कांतारने निषे (न विणस्सइ) विनाश पामतो नधी एटले मुक्तिमार्गथी वघारे दूर थतो नथी. आ वातने दृष्टांतवडे || का वधारे स्पष्ट करीने बताये के.-(जहा) जेम (सूई) सोय (ससुचा) सूत्र-दोरा सहित (पडिया वि) कादव विगेरेमा पडी सती पण (न विणस्सइ) विनाश पामती नथी-बहु दूर जती नथी ( तहा) तेम (जीवे ) जीव ( ससुत्ते ) सूत्र-श्रुतज्ञान Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FI सहित एवो सतो (संसारे ) संसारने विषे ( न विखस्सह ) विनाश पामतो नयी-मोक्षमार्गथी दूर जतो नयी. (नाबवि गायतवचरिचजोगे) अवधि विगेरे ज्ञान, विनय, सप अने चारित्रयोगोने (संपाउसाइ) सम्यक् प्रकारे पामे छ, तथा ( ससमयपरसमयसंघायणिजे ) स्वसमय अने परसमयने अर्थात् तेना जागनारने मळवा लायक (मबइ) चाय छे. ५६-६१. दसणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किंजणयइ ? सणसंपन्नवाए णं भवमिच्छत्तच्छेत्रणं करेइ, परं न विजाइ, अणुत्तरण णाणेणं दसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भावेमाणे विहरइ ॥६० ॥ २ ॥ अर्थ-(मते ) हे भगवान ! (दसणसंपन्नयाए सं ) दर्शन युक्तपणाए करीने एटले पायोपशमिक समकित सहित* पणाए करीने (जीवे ) जीव (किं जणयइ ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(सणसंपन्भयाए पं) दर्शन सहितपणाए * करीने जीव ( भवमिच्छत्तच्छेअखं ) संसारना हेतुरूप मिथ्यात्वनु सर्वथा छेदन ( करेइ ) करे छे, एटले क्षायिक समकितने पामे छे. (परं) त्यारपछी उत्कृष्टथी ते ज भव अने मध्यम तथा जयन्यनी अपेक्षाए वीजा के चोथा भवमा केवळज्ञान प्राप्त थवाथी (न विजआइ) होलवाइ जतो नथी-केवळज्ञान अने केवळदर्शनरूप प्रकाशना प्रभावने पामतो नथी. परंतु (अणुत्तरेणं) सर्वोत्तम एवा (णाणेणं ) केवळज्ञानवडे भने (दसणेणं ) केवळदर्शनवडे (अप्पा ) पोताना आत्माने (संजोएमाणे ) संयोजना करतो-तेनी साथे जोडतो (सम्मं मावेमाणे) सम्यक् प्रकारे भावतो एटले तन्मयपणाने पमाडतो *सतो ( विहरद ) भवस्थ केवळीपणे विचरे छे. ६०-६२. Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्तसंपन्नयाए णं मंते ! जीवे कि जणयइ ? चरित्तसंपन्नयाए णं सेलेसीभाव जणयइ, सेलेसीपडिवने अ अणगारे चचारि केलिकम्मसे खवेह, ता पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परि. निव्वाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥ ६१॥ ३ ॥ अर्थ-(भंते) हे भगवान! ( चरित्तसंपनयाए थं) चारित्र सहितपणाए करीने (जीवे ) जीव (किं जणया) उत्पन्न करे ? उत्तर-(चरिससंपत्रयाए णं ) चारित्रसहितपणाए करीने जीव ( सेलेसीमावं ) योगनो निरोध करवावडे शैलेश-मेरुनी जेम अत्यंत स्थिर थयेल होवाथी मुनि पण शैलेश कहेवाय थे. तेनी जे अवस्था ते शैलेशी, तेना होवापणाने एटले कडेवाशे एचा शैलेशीभावने ( जणयह) उत्पन करे छे. ( सेलेसीपटिव श्र) शैलेशीकरणने पामेलो एको ( असणगारे ) साधु (चत्तारि केवलिकम्मंसे) चार केवळी सत्कर्मोने-अपातिया कोने (खवेइ ) खपावे छे. (तम्रो पच्छा) त्यारपछी (सिज्झइ) समाप्त कार्यवाळो थाय छे, (बुनाई ) वस्तुतचने जाणे छे, (मुघद) संसारपी मुकाय के, (परिनिम्बाइ) कर्मना ताप रहित थवाथी शीतळ थाय छ, भने (सव्वदुख्खाणमंतं करे) सर्व दुःखोना | अंत करे थे. ६१-६३. इंद्रियोनो निग्रह करवाथी ज चारित्र प्राप्त थाय छे, तेथी दरेक इंद्रियना निग्रहने कई छ.सोइंदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे किं जणय ? सोइंदियनिग्गहेणं मणुणामणुलेसु सहेसु । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | रागहोसनिग्गहं जणयह, तप्पचइअंच नवं कम्मं न बंधह, पुष्वबद्धं च निजरेइ ॥ ६२ ।। ६४ ॥ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! (सोइंदियनिग्गहेग ) पोताना विषय तरफ जता एवा श्रोत्रंद्रियना निग्रहवडे ( जीवे) जीव ( किं जणयह ) शं उत्पन्न करे ले ? उत्तर-( सोइंदियनिगाहेणं ) श्रोत्रंद्रियना निग्रहवडे जीव ( मणुमामणुमेसु) मनोज्ञ भने अमनोज्ञ एटले इष्ट भने अनिष्ट एवा ( सद्देसु) शब्दोने विषे अनुक्रमे ( रागद्दोसनिम्गहं ) राग भने देषना निग्रहने ( जणयइ) उत्पन्न करे छे. ( तप्पचाचं च) तथा ते रागद्वेषना प्रत्ययवाळ-निमित्त्वालं ( नवं कम्म) नवं कर्म (न बंधइ ) बांधतो नथी. ( पुख्खयां च ) भने पूर्वे बांधला कर्मने ( निअरेइ ) निर्जरे छे-खपावे छे. ६२-६४. चक्खिदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? चक्खिदियनिग्गहेणं मणुमामणुमेसु रूबसु रागहोसनिग्गहं जणयइ, तप्पञ्चइअं नवं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ ॥ ६३ ॥६५॥ अर्थ--(भंते ) हे भगवान ! ( चक्विंदियनिग्गहेणं ) चक्षुइंद्रियना निग्रहवडे (जीवे) जीव ( किं जण्यइ ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-( चक्विंदियनिग्गहेणं) चचुइंद्रियना निग्रहवडे जीव ( मणुष्मामणुप्मेसु ) मनोज्ञ भने अमनोज्ञ एवा (रूवेसु ) रूपोने विषे ( रागद्दोसनिग्गई ) अनुक्रमे राग भने द्वेषना निग्रहने ( जण्यइ) उत्पन्न करे छे. ( तप्पश्चानं) तथा ते रागद्वेषना निमित्तवालं (नषं फम्म ) नवं कर्म (न बंधइ) बांधतो नथी. ( पुचकम्मं च) तथा पूर्वे बांधला कर्मने (निजरेइ ) निर्जरे छे-खपावे छे. ६३-६५. Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** वागिदिएणं एवं चैव ॥ ६४ ॥ ६६ ॥ जिब्भिदिए वि ॥ ६५ ॥ ६७ ॥ फार्सिदिए वि ॥ ६६ ॥ ६८ || नवरं गंधेसु रसेसु फालेसु वतव्वं ॥ अर्थ - घाणेंद्रिय, जिव्हेंद्रिय श्रने स्पशेंद्रियना निग्रहने विषे पण एज प्रमाणे जाणवुं विशेष ए के घाणेंद्रियमां मनोगं तो जिन्हेंद्रियमां रस लेवो अने स्पशेंद्रियमां स्पर्श लेवो. धने तेना निग्रहथी नवा कर्म बांधतो नथी ने पूर्वकर्मने निर्जरे छे. एम समज. ६४-६६. ६५- ६७. ६६-६८. इंद्रियनिग्रह पण कपाना विजयथी ज थाय छे तेथी कषायना विजयने कहे थे. - कोह विजएं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कोहविजएणं खंतिं जणयइ । कोहवेअणिजं कम्मं नबंध, पुत्रबद्धं च निज्जइ ॥ ६७ ॥ ६९ ॥ अर्थ – (ते) हे भगवान! (कोहविजए ) क्रोधना विजय - निग्रहबडे ( जीबे ) जीव ( किं जगयद ) शुं उत्पा करे ? ( कोहविजrj) क्रोधना विजयवडे जीव (खतिं ) चमाने ( जणयइ ) उत्पन्न करे छे. ( को हवे अणिअं ) क्रोधवेदनीय एटले क्रोधना हेतुभूत पृद्गळरूप (कम्मं ) कर्मने ( न बंधइ ) बांधतो नथी. (पुव्यचद्धं च ) तथा पूर्वे बांधला ते क्रोधवेदनीय कर्मने (निज) खपावे छे. ६७-६६. एवं माणें ॥ ६८ ॥ ७० ॥ मायाए ॥ ६६ ॥ ७१ ॥ लोहेणं ॥ ७० ॥ ७२ ॥ नवरं महवं *+ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जुभावं संतोसं च जणयइति वतव्वं ॥ अर्थ – ए ज प्रमाणे मान, माया अने लोभना विषयवांळां सूत्रो पण कद्देवा विशेष ए जे मानना विजयवडे मार्दवने, मायाना विजय वडे ऋजुभावने श्रने लोभना विजयवडे संतोषने उत्पन्न करे छे अने तेथी नवा कर्म बांधतो नधी ने पूर्वकर्म निर्जरे के इत्यादि कहें. ६८-७०० ६६-७१.७०-७२. 14 कपायनो विजय प्रेम (राग), द्वेष भने मिथ्यादर्शनना विजय विना थतो नथी तेथी ते प्रेमादिकना विजयने कहे छे. - पिज्जदो समिच्छादंसणविजपणं भंते! जीवे किं जणयइ ? पिज्जदोसमिच्छादंसणविजएणं नागदंसणचरिताराहणयाए अब्भुट्टेइ, अटुविहस्स कम्मगंदिविमोअणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुबीए अट्ठावीस इविहं मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ, पंचविहं नाणावरणिजं नवविहं दंसणावरणिजं पंचविहं अंतरा एए तिमि वि कम्मंसे जुगवं खवेइ तओ पच्छा अणुत्तरं अनंतं कसिणं पडिपुष्पं निरावरणं वितिमिरं विसुद्धं लोगालोगप्पभावगं केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेइ, जाव सजोगी भवइ ताव य इरिआवहिअं कम्मं बंधइ, सुहफारसं दुसमयद्वितिअं, तं पढमसमए बद्धं बिइअसमए वेइअं तइअसमए निजि, तं बद्धं पुटुं उईरिअं वेइअं निजितं सेअकाले कम्मं चा Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न । भवइ ॥ ७१ ॥७३॥ ____ अर्थ-(भंते ) हे भगवान ! ( पिजदोसमिच्छादसणविजएणं ) प्रेम-(राम), द्वेष अने मिथ्यादर्शनना विजयवडे करीने (जीवे ) जीव (किं जणयह ) शुं उत्पन्न करे ? उत्तर-(पिजदोसमिच्छादसणविजएणं ) राग, द्वेष अने मिथ्यात्वना विजयबडे करीने जीव ( नाणदंसणचरिताराहण्याए ) ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी भाराधनाने माटे ( अन्भुढेइ ) उद्यमवंत थाय छे. त्यारपछी ( अट्ठविहस्स) आठ प्रकारना ( कम्मगंठिविमोशणयाए ) कर्मनी मध्ये जे पत्यंत दुर्भेष पातीकर्मरूप | कर्मग्रंथि छे तेना विमोचन एटले विनाश करवा माटे उद्यमयंत थाय छे. पछी शुं करे छ ? ते कहे छे. (तप्पढमयाए) पहेला कोइ बखत खपावेल नहीं होचाथी प्रथमपणाए करीने ( जहाणुपुच्चीए ) अनुक्रमे ( अट्ठावीसइविहं ) अधानीश प्रकारना ( मोहणि कर्म ) मोहनीय कमेने ( उग्याएइ) खमावे के. तेने खपाववानो भनुक्रम ा प्रमाणे छे.-प्रथम | एकी वखते अनंतानुबंधी क्रोधादिक चारे कषायने खपावे छे. त्यारपछी अनुक्रमे मिथ्यात्व, मिश्र अने समकितमोहनीनां दळियांने सपावे छे. त्यारपछी प्रत्याख्यानावरण अने अप्रत्याख्यानावरणरूप पाठ कषायोने खपाववानो भारंम करे के, ते पाठे अर्धा खपे त्यां बच्चे नरकगति १, नरकानुपूर्वी २, विर्यग्गति ३ तिर्यगानुपूर्वी ४, एफेंद्रियादिक चार बाति ८, भातप ६, उद्योत १०, स्थावर ११, सूक्ष्म १२, साधारण १३, निद्रानिद्रा १४, प्रचलाप्रचला १५ अने स्त्यानाई १६, आ सोळ प्रकृतिने खपावे छे. पछी ते पाठे कषायोनो बाकी रहेलो अर्थ भाग खपावे छे. त्यारपछी पुरुष होय तो मनुक्रमे नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादिक छ अने पुरुषवेदने खपाये छ, स्त्री के नपुंसक खपावतो होप तो पोतपोताना चेदने बेडे Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेवटे खपावे छे. त्यापछी अनुक्रमे संज्वलन क्रोध, मान, माया अपने लोभने खपावे छे. या दरेक प्रकृतिने खपाववानो काळ अंतर्मुहूर्त्तनो के तथा सर्व प्रकृतिभोने स्वपाववानो काळ पण अंतर्मुहूर्तनो ज छे. केमके अंतर्मुहूर्त्तना असंख्याता भेद छे. या प्रमाणे मोहनीय कर्मने खपावी पछी एक अंतर्मुहूर्त्तमां यथाख्यात चारित्रने पामे थे, पक्षी क्षीणमोह गुणस्थानकना ला समयर्माना पहेला समये निद्रा भने प्रचला ए बेने खपात्री छेना समये शुं खपावे छे ? ते कड़े थे. – ( पंचविहं ) पांच प्रकारनुं ( नाखावरणिअं ) ज्ञानावरणीय, (नवेविहं ) नव प्रकार ( दंसणावरथिअं) दर्शनावरणीय भने ( पंचवि ) पांच प्रकारनुं ( अंतराइअं ) अंतराय कर्म, ( एए तिथि वि कम्मंसे) आत्रणे सत्कर्मोने-तेनी १४ प्रकृविश्रोने (जुगवं खवे ) एकी वखते खपाये थे. ( तो पच्छा) त्यारी ( अणुत्तरं ) सर्वोत्तम, ( अनंतं ) विनाश नहीं होवाथी अनंत (कसिणं ) समग्र पदार्थोंने ग्रहण करurt start gee (डिपू ) समय स्वपर पर्यायोबडे परिपूर्ण, ( निरावरणं ) समग्र आवरण रहित, ( वितिमिरं ) अज्ञानरूपी अंधकार रहित, (बिसुद्ध ) सर्व दोष रहित, (लोगालोग पभावगं ) लोकालोकने प्रकाश करनार ( केवलवरनाणसं ) श्रेष्ठ एवा केवलज्ञान भने क्रेषदर्शन ने समुप्पाडेह ) उत्पन्न करे छे. त्यारपछी ( जाच ) ज्यां सुधी (सजोगी ) सयोगी मन, वचन अने कायाना व्यापारवाळो ( भवइ ) होय, ( तात्रय ) त्यां सुधी ( इरिश्रावहियं ) अॅर्यापथिक (कम्मं ) कर्मने ( बंधह ) बांधे छे. ते भैर्यापथिक कर्म के ? ते कहे छे . - ( सुहफरिस ) आत्मप्रदेशनी साधे सुखकारक छे स्पर्श जेनो एवं सातावेदनीयरूप (दुसमयडितिभं) ( १ अहीं नव विध कहे छे पण तेमांधी पांच निद्रा तो प्रथम खपावेली छे सेथी आ छेल्ले समये तो चार दर्शनावरण ज खपावे छे. Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ד ******-- +11++++*//e बे समयनी स्थितिवा ं, ( सं ) ते कर्म ( पढमसमए) पहेले समये ( बद्धं ) बांध ( बिश्रसमए) बीजे समये ( वेइअं ) वेदे भने ( तइसमए ) जीजे समये (निखि ं) जीर्ण करे एटले क्षीण करे - आधुं ( तं बद्धं ) ते कर्म जीव प्रदेशनी साथै आकाशनी साथे घटनी जेम तथा ( इं ) लीसी मशिनी भींत उपर पडेला सुका श्रने जाडा चूर्णनी जेम स्पर्श मात्र करे छे. या मे विशेषणथी ते कर्म निघत्त अने निकावित अवस्थाने नहीं पामेलं एम जाणवुं. ते कर्म पहले समये ( उईरिनं ) उदयने पाखुं एवं, बीजे सनये (वेद) तेना फरूखने अनुपावडे बेधुं एवं अने श्रीजे समये (निजि) क्षयने पाम् एवं समजवुं. एटले ( सेमकाले ) पोधा समय आदि आगामी काळने विषे (कम्मं चावि ) ते कर्मथी रहितri ( भवइ ) थाय छे. ७१–७३, वो जीव आयुष्यने छेडे शैलेशीकरणने पामीने - करीने कर्म रहित थाय छे, तेथी शैलेशी अने अकर्मता ए वे द्वारने अर्थथी कहे छे. अहाउअं पालइत्ता अंतोमुहुत्तावसेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे सुहुमकिरिअं अप्पडिवाइ सुक्कज्झाणं ज्झिआयमाणे तप्पढमयाए मणजोगं निरंभइ, निरुंभइत्ता वइजोगं निरंभइ, निरुभङ्गता आणापाणनिरोह करेइ, करिता ईसिं पंचहस्सक्खरुच्चारद्वाए अ णं अणगारे समुच्छिन्नकिरिअं अनि सुकझाणं ज्झिआयमाणे वेणियां आऊअं नामं गोतं व एए चत्तारि विकम्मंसे - लंड Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुगवं खवेइ ॥ ७२ ॥ ७४ ॥ तओ ओरालिकम्माइं च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहिता | उज्जुसेढिपत्ते अफुसमाणगई उ8 एगसमएणं अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ, जाव अंतं करेइ ॥ ७३ ।। ७५ ॥ अर्थ (अह ) त्यास्पछी केवळीपणुं प्राप्त थया पछी ( आउअं) अंतर्मुहुर्तथी प्रारंभीने देशोनपूर्वकोटि पर्यंत जेटलु आयुष्य बाकी होय तेटला आयुष्यने ( पालइचा ) पाळीने ( अंतोमुत्तावसेसाउए ) अंतर्मुहूर्त आयुष्य शेष रहे त्यारे | ( जोगनिरोह ) योगनिरोधने (करेमाणे) करनार जीव (सुहमकिरिथं अप्पडिवाइ) सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति नामना (सुकज्झाणं) शुक्रध्यानना श्रीजा मेदने ध्यावे. तेनुं ( झिायमाणे ) ध्यान करतो ( तप्पढमयाए )ते प्रथमपणाए करीने एटले प्रथम ( मणजोगं) मनोयोगने एटले द्रव्यमनना समीपपणाथी उत्पन थयेला जीवव्यापारने ( निरंभइ ) रुंधे, तेने (निरंभइत्ता ) रुंधीने ( बहजोगं ) बचनयोगने एटले द्रव्यभाषाना सांनिध्यपणाथी उत्पन्न थयेला जीवव्यापारने (निरंभइ) रंधे, (निरंभइचा ) तेने रुंधीने (आणापाणनिरोह) उच्चास निश्वासना निरोधने ( करेइ ) करे-उपलवणथी सर्व काययोगनो निरोध करे. (करित्ता) आ रीते असंख्याता असंख्याता समयोवडे त्रणे योगनो निरोध करीने (ईसि) ईषत् एटले स्वल्प प्रयत्नवडे (पंचहस्सक्खरुवारद्धाए अणं) अ इ उ भूल ए पांच इस्व अक्षरोने मध्यमपणे उच्चार करता जेटलो काळ लागे तेटला काळने विषे ( अणगारे ) साधु (समुच्छिवकिरिश्चं अनियहि) समुच्छिमकिय अनिवृत्ति नामना (सुक्कज्माणं ) शुक्र Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ध्यानना चोथा मेदर्नु (सिआयमाणे ) ध्यान करतो अर्याद शैलेशी अवस्थाने अनुभवतो सतो (वेअसिज) वेदनीय, * ( आऊभं ) आयुष्य, ( नामं ) नाम, (गोतं च ) अने गोत्र ( एए चतार वि ) ए चारे ( कम्मसे ) सत्कर्मोने ( जुगवं ) ॥ एकी वखते ( खवेइ ) खपावे छे. ७३-७४. ( तमो ) स्यारपछी ( भोरालिमकम्माई च) औदारिक, कार्मल भने च. शब्दथी सेजस ए त्रणे शरीरने (सव्वाहि विप्पजहणाहिं ) सर्व विप्रहानिओवडे एटले विशेष करीने प्रफर्षयी त्याग करवाबड़े अर्थात् सर्वथा प्रकारे (विप्पजहिता) त्याग करीने (उन्मुसाढेपत्ते) जुनदिने भवन एवी आकाशप्रदेशनी पंक्तिने । | पाम्यो सतो ( अफुसमाणगई ) स्पर्श रहित गतिवाळो एटले पोताना अपगाह उपरांत वीजा आकाशप्रदेशने स्पर्श नहीं | || करतो सतो अर्थात् जेटला आकाशप्रदेशमा ते जीव अवगाढ थयो के तेटला ज आकाशप्रदेशने समणिक्डे स्पर्श करतो * सतो ( उड्डे) उपर ( एगसमएणं ) एक समयबड़े ज (भविग्गणं) वक्रगतिरूप विग्रहगति विना ज (तत्थ गंता) त्यां एटले H कहेवाने इष्ट एवा मुक्तिपदा जइने (सागारोवउत्ते) साकार उपयोगवाळो एटले ज्ञानना उपयोगवाको होय ते समये (सिज्म) & समाप्त कार्यवाळो थाय छे. इत्यादि (जाब) यावत् (अंतं करेइ) सर्व कर्मना अंतने करे छे. ए सर्व पूर्वनी जेम जाण.७३-७५ हवे आ अध्ययननो उपसंहार करे छे. एस खलु सम्मत्तपरकमस्त अज्झयणस्स अट्टे समणेणं भगवया महावीरेण आधविए पामविए | पहावए निदंसिए उवदंसिए ति बेमि ॥ ७६ ॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - ( एस ) आ (खल) निचे ( सम्मत्तपरक मस्स ) सम्यक्त्व पराक्रम नामना ( अश्यास्स ) अध्ययननो (घ) अर्थ (समणेयं भगवया महावीरेण ) श्रमण भगवान महावीर स्वामीए ( प्रापविए) सामान्य अने विशेषव को, (ए) हेतु फळादिक कहवावडे जणान्यो छे, ( परूचिए ) स्वरूपने कहेवावडे प्ररूप्यो थे, ( निदसिए) कावडे देखायो है, तथा ( उबदंसिए) उपसंहार द्वारवडे बताव्यो छे. ( स बेमि ) एम हुं हुं हुं. ए प्रमाणे सुधर्मास्वामी जंबुस्वामीने कधुं. ७६. इति एकोनत्रिंशमध्ययनम्. २६. अथ तपोमार्गगति नामनुं त्रीशमं अध्ययन ३०. श्रीगणत्रीशमा अध्ययनमां कर्म रहितपणुं थवाना कारणो कहां ते अकर्मता खरेखरी तपथी साधी शकाय के, तेथी या तपोमार्गगति नामनुं अध्ययन कद्देवाय छे. तेमां तपरूपी भावमार्गनां फळभूत सिद्धिगति जेमां कद्देरामां आवे ते तपोमार्गगति ए प्रमाणे आनो शब्दार्थ बे. तेनुं प्रथम सूत्र या प्रमाणे थे. - जहा उ पावगं कैम्म, रोगहोससमजिअं । खवेइ तवैसा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुंग ॥ १ ॥ अर्थ – ( जहा उ ) जे प्रकारे ( रागद्दोससमशिषं ) रागद्वेषथी उपार्जन करेला ( पावगं ) पापवाळा (कम्मं ) ज्ञाना **०१ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरणादिक कर्मने ( भिकस् ) साधु ( तबसा ) तावडे ( खवेइ ) खपावे छे, (तं ) ते तपने (एगग्गमणो) एकाग्र मनवाळो । || सतो ( सुख ) तुं सांभळ. १. भहीं भाव रहित एवो ज जीप कर्मने खपाची शके छ, तेथी जे प्रकारे ते जीव आश्रव रहित थाय छे, ते कहे छ.पाणिवहमुसावाए-अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ । राईभोअणविरओ, जीवो होइ अणासवो ॥२॥ ____ अर्थ-( पाणिवह ) प्राणीवघ, (मसावाए ) मृषावाद, ( अदत्त) अदचादान, ( मेहुण ) मैथुन भने ( परिग्गहा) परिग्रहथकी (विरओ) विराम पामेलो तथा (राईभोषणविरो) रात्रिभोजनथी विराम पामेलो (जीवो) जीव (अस्यासवो) पाश्रवरहित ( होइ) होय छे. २. पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ । अगारवो अनिस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो ॥ ३ ॥ अर्थ (पंचसमिनो) पांच समितिवाको, (तिगुत्तो) त्रण गुप्तिमाळो, (अकसाओ) चार कषाय रहित, ( जिइंदिभो) | जितेंद्रिय, ( अगारयो ) प्रण गौरव रहित, (अ) तथा (निस्सलो) त्रण शल्य रहित एत्रो ( जीवो ) जीव ( अणासयो) माश्रय रहित (होइ ) होय छे. ३. श्रा प्रमाणे पाश्रव रहित थयेलो जीव जे प्रकारे कर्मने खपावे छे, ते कहे छे.एएसिं तु विवच्चासे, रागहोससमजिअं । खवेइ उ जहा भिक्खू , तं मे एगमणो सुण ।। ४ ॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्थ--( एएसिं तु ) वळी हे शिष्य ! मा प्रावीवधविरति विगेरे भने समिति विगेरे के जे प्राथव रहित थवाना हे तेभनो विवश ) वित्रर्याप्त बाले तेथी विपरीतपणुं हतु ते पखतना ( रागदोससममि) राग अने द्वेषयी उपार्जन करेला कर्मने ( भिक्खू ) मुनि ( जहा ) जे प्रकारे (खयेइ उ ) खपाचे के, () ते (मे) मारी पासेधी (एगमणो) एकाग्र मनवाळो थइने ( सुण ) तुं सांभळ. ४. प्रथम ते विषे दृष्टांत पापे छे.जहा महातलागस्स, सन्निरुद्ध जलागमे । उस्सिंचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥५॥ अर्थ-( जहा ) जेम ( महातलागस्स ) मोटा सरोवरना (जलागमे ) जळ भाववाना मार्ग ( सविरुदे) पाळ विगेरे- 11 बडे रुंधे सते ( उम्सिचणाए) पछी तेमाथी अरघट्ट विगेरे यंत्रवहे सींचवाथी-उलेचवाथी तथा ( तवणाए ) सूर्यना तापथी | (कमेणं ) अनुक्रमे ( सोसणा ) तेना जन्नुं शोषण ( भवे) थाय छे. ५. ___ हवे दाटोतिक कहे थे. एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । भवकोडिसंचित्रं कम्म, तवसा निजरिज्जइ ॥६॥ अर्थ-(एवं तु) ए ज प्रमाणे (पावकम्मनिरासवे ) नवां पापकर्मना आश्रवनो अभाव सते एटले प्राणातिपातविरति विगेरेरूप पाळवडे नवा पापकर्मर्नु आगमन रंधे सते (संजयस्सावि) साधुनुं पण (भवकोडिसंचिअं) कोटि भवोमा संचेलं Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... भ.. ... कम्मं ) कर्म (नवसा ) तपवडे (निअरिजा ) वय पा . ६. तपवडे कर्मनो क्षय थाय छ एम कj, तेथी हवे ते तपना भेद बताये छे.| सो तवो दुविहो वुत्तो, याहिरभितरो तहा । बाहिरो छव्विहो वुत्तो, एवमभितरो तवो ॥७॥ मर्थ-(सो तो ) ते तप (दुविहो ) के प्रकारनो ( वुत्तो ) कयो छे, ( बाहिरम्भितरो तहा) बाह्य तथा माभ्यंतर. जातेमा (बाहिरो) बाह्य सप (छविहो) प्रकारनो ( वुत्तो) को छे, ( एवं ) एज प्रमाणे ( अग्मितरो) भाभ्यंतर I (तवो) तप पण छ प्रकारनो करो छे. ७. तेमा प्रथम नाय तपना छ प्रकार बतावे के.| भणसणमूणोअरिभा, भिक्खायरियाय रसपरिश्चानो। कायकिलेसो संली-ण्याय बज्झो सवो होइ॥८॥ अर्थ-(प्रशसणं । अनशन, ( ऊणोरिया ) ऊनोदरिका, ( भिक्खायरिया ) भिक्षाचर्या एटले भाहारने माटे उंच नीच गृहोने विषे भ्रमण, (य) तथा ( रसपरिणामो) रसनो एटले विगइनो त्याग, ( कायकिलेसो) कायकेश एटले ताप, शीत विगेरे, सहन, (सेलीणया य) भने सलीनता एटले अंगोपांगनो संकोच करीने वर्त. भा प्रमाणे (पयो) बाह्य ( तवो) तप (होइ ) ... वेमा प्रथम अनशननुं स्वरूप कहे छे. Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्तरिअ मरणकाला य, दुविहा अण्णसणा भवे। इत्तरिआ सावकंखा, निरवकंखा उ बिइजिआ॥९॥ अर्थ (इत्तरित्र ) अल्प काळनी अवधिवाळ ( मरणकाला य) अने मरण काळ सुधीनु एम ( दुविहा) में प्रकारर्नु (अणसणा) अनशन ( भवे ) छे. तेमां (इत्तरित्रा) इत्वर एटले अल्प काळजें अनशन (सापकरखा) आकांक्षा सहित छे एटले बेघडी आदिक पछी भोजन करवानी अभिलाषा सहित छ, (उ) तु पुनः तथा वळी (पिइजिमा) बीजुं जावजीवनुं अनशन (निरवकंखा ) भोजननी आकांचा एटले इच्छा रहित .६. तेमा प्रथम इत्वर अनशनना भेद कई हे....... जो सो इत्तरिअतवो, सो समासेण छविहो। सेढितवो१ पयरतवोर घणो अ३ तह होइ वग्गो अ४ ॥१०॥ ___ अर्थ-(जो सो ) जे ते ( इत्तरितवो ) इत्वर तप-अनशन के, (सो) ते तप (समासेण) संक्षेपे करीने (छबिहो) छ प्रकारनो छे. ते या प्रमाणे.---( सेढितवो) श्रेणितप १, (पयरतवो ) प्रतरतए २, ( घणो अ) धनतप ३, (तह) तथा ( बग्गो श्र) वर्गतप ४ ( होइ) छे. अहीं एक उपवासथी प्रारंभीने छ मासना उपवास सुधी श्रेणितप थइ शके छे. एटले के प्रथम एक उपवास करीने पारगुं, पछी तरत बे उपवास करीने पारणुं कर ते एक श्रेणि थइ. पछी प्रथम एक | उपवास करीने पार[, पछी वे उपवास करीने पारगुं, पछी त्रण उपवास करीने पारणुं ए बीजी श्रेणि थइ. ए ज रीते एक उपवास ने पार[, ये उपवास ने पारणु, त्रण उपवास ने पार' अने चार उपवास ने पार| ए त्रीजी श्रेणि थइ. एज रीते || Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-* " - --*-*- शक्ति प्रमाणे श्रेणि वधारतां वधारतां उत्कृष्ट छ मासना उपवास सुधी श्रेशिओ थइ शके छ. ते सर्व श्रेणितप कहेवाय छे. इवे श्रेणिने श्रेणिवडे गुणवाथी प्रतर थाव छे. तेा समजुतीने माटे उपवास, छठ, अम अने दशम (चार उपवास) नामना चार पदरूप श्रेणि लइए, तेने चारे गुणचाथी सोळ पदरूप प्रतर थाय छे. ते लंयाइ अने पट्टोळाइमा सरखो ज थाय छे. एटले के पहेली श्रेणिमा एकथी चार अंक लखचा, वीजीमा वेथी, त्रीजीमांत्रणधी अन चोथीमा चारथी अंक लखवा, ते या प्रमाणे आटला अने आत्री रीतना एटले आवा अनुक्रमना तयपदे करीने करातो जे तप ते प्रतर तप कला दे. अताने श्रेणिवडे गुणवाथी घन थाय छे एटले सोळ पदरूप प्रतरने चार पदरूप श्रेणिवडे गुणतां चौसठ (६४) पदवढे धन तप थाय छे. अने घनने धनवडे गुणवाथी वर्ग १ | २ | थाय के तेथी चोसठने चौसठे गुणतां ४०६६, चोथभक्तथी भारंभीने दशम सुधीना तपवडे वर्ग तप थाय छे. अर्थात् प्रतर तप चार वार करवाथी घन तप थाय छे अने धन तपने चोसठ | २ | ३ | वार करवाधी वर्ग तप थाय छे. १०. तत्तो भ वग्गवग्गो उ, पंचमओ छट्ठो पइससवो। मणइच्छिअचित्तत्थो, नायव्यो होइ इत्तरिओ अर्थ-( तत्तो अ) त्यारपछी ( वग्गवम्गो उ) वर्गवर्ग नामनो तप ( पंचमयो ) पांचमो के ५, तथा (छठभो ) छटो ( पहम्मतवो ) प्रकीर्णतप छे. ६. ए रीते ( मणइच्छिअचित्तत्थो) मनने इच्छित एवा स्वर्ग, मोक्ष के वेजोलेश्यादिक विचित्र-अनेक प्रकारना अर्थवाळो (इचरिओ) इत्वरिक नामनो अनशन तप (नायवो होइ) | Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणवा लायक बे-जाणवो. अही वर्गने वर्गवडे गुणवाथी वर्भवर्ग था . जमके ४०६६ धर्गनो अंक छे, तेने तेटलाए गुणवाथी १६७७७२१६ थाय छे. पाटला तपना पदवड वर्गवर्ग नामनो तप थाय छे. एक उपवासथी चार उपवास सुधीना पदोने आश्री श्रेणि विगेरे तप बतायो. तेज प्रमाणे पांच विगेरे पदोने पाश्रीने पण ए जरीने श्रेण्यादिक वर्गवर्ग सुधीना तपनी भावना करवी. हवे छटो जे प्रकीर्णक तप करो ते श्रेणि आदिक निश्चित पदनी रचना विना ज पोतानी शक्ति प्रमाणे नमस्कार सहित-नवकारसी विगैरे तथा यवमध्य, वजमध्य, चंद्रप्रतिमा विगरे अनेक प्रकारना तपो जाणवा. ११. | हवे मरणकाळ अनशन कहे छ.-- जो सो असणा भैरणे, दुविहाँ सो विमाहिआ । संवियारमवियारा, कोयचिट्ठ पई भवे ॥१२॥ अर्थ (जा सा)जे ते (मरणे ) मरणं समये ( अणसणा) अनशन थाय छे, (सा) ते (दुविहा) बे प्रकारे HI (विवाहिया) कयुं छे. तेमा एक ( सवियारं) चेष्टारूप विचार सहित अने वीजु ( अवियारा) चेष्टारूप विचार रहित, |ते तप ( कायचिट्ठ) शरीरनी चेष्टाने (पई) आश्रीने ( भवे) होय छे. तेमा सविचार अनशन बे प्रकारनुं छे.-भक्तप त्याख्यान १, अने इंगिनीमरण २. तेमां भक्तप्रत्याख्यान करनार साधु गच्छ मध्ये रही गुरु पासे भालोचना ला! विधिपूर्वक संलेखना करी विविध के चतुर्विध पाहारनुं प्रत्याख्यान करे. वळी ते साधु कोमळ संधारो पाथरी श्राहार अने उपकरण विगेरेपरनी ममतानो स्वाग करी पोते नमस्कार मंत्रनो उच्चार करे अथवा पासे रहेला मुनि नमस्कार बोले ते सांभळे, तथा पोतानी शक्ति होय तो पोते शरीरनुं पड फेरवे विगेरे शरीरनी चेष्टा करे अने शक्ति न होय तो बीजानी - Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मददथी चेष्टा करे. १. इंगिनीमरण करनार साधु पालोचना अने संलेखनादि पूर्वक शुद्ध स्थंडिलमा रही पोते जाते ज चतुर्विध माहारनुं प्रत्याख्यान करे, तथा नियमित करेला स्थंडिलमा ज रहीने छायाधी तडके अने तडकेथी छायामा पोतानी जाते जाय, कोइनी काइपण मदद ले नहीं. २, हवे अविचार अनशन ते पादपोपगमन छै. तेमा देवगुरुने वंदनादिकनी विधि करी चतुर्विध आहारनुं प्रत्याख्यान करी पर्वतनी गुफा विगेरे ठेकाणे जइ पादप (वृक्ष) नी जेम | जावजीव चेष्टा सहेत ज रहे. १२. | वे बीजी रीते वे प्रकारचें अनशन कहे वे.| अहवा सपरिक्कम्मा, अपरिकम्मा य माहिया । नीहारिमनीहारि, आहारच्छेओ दोसु वि ॥ १३ ॥ ____ अर्थ-(प्रहवा) अथवा (सपरिकम्मा' सपरिकर्म एटले उमा रहे, बेसवं, पडलु फेरव, चापचु, चोळ विगैरे परिकर्म सहित, II (अपरिक्कम्मा य ) तथा अपरिकर्म एटले कोइपण प्रकारना परिकर्म रहित. (आहिया) ए वे प्रकारे अनशन कयु के. मां सपरिकर्मना चे भेद छे.-भक्तप्रत्याख्यान १ अने इंगिनीमरण २. तेमा भक्तप्रत्याख्यान अनशनमा पोताना अथवा बीजाना करेला उद्वर्तनादिक परिकर्म थइ शके छे. १. अने इंगिनीमरणअनशनमा मात्र पोते करेला ज उद्वर्तनादिक थइ । शके छे. २. अपरिकर्ममां तो पादपोपगमन होयाथी कांइपण परिकर्म होतुं नथी. _ अथवा सपरिकर्म एटले संलेखना सहित अने अपरिकर्म एटले संलेखना रहित. तेमां जो काइ आयुष्यनो व्याघात न होय तो भक्तप्रत्याख्यान विगेरे प्रणमाथी कोइ पण अनशन संलेखना पूर्वक करवू ए ज योग्य छे, अन्यथा प्राध्यान Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थवानो संभव छ, आ सपरिकर्म कहेवाय छे, अने वीजळी, पर्वत के मीत विगेरेनुं पडवू के तत्काळ घात करनार रोगादिकनो उपद्रव थवो ते रूपी आयुष्यनो व्याघात होय तो संलेखना कर्या विना ज भक्तप्रत्याख्यानादिक अनशन करवामा । भावे छे. पा अपरिकर्म कहेवाय छे. तथा ( नीहारिं ) निहोरि एटले प्रामादिकनी बहार जइने पादपोपगमन अनशन लेवू है. शशा (मानीहारि ) अनिहरि एटन्ले ग्रामादिकनी बहार ज होवाथी क्यांह जबानुं न होय अने जे स्थाने होय ते ज स्थाने पादपोपगमन अनशन लेबु से. ( दोसु वि) बनेने विषे (आहारच्छेयो) आहारनो त्याग तो समान ज , एटले के | सविचार के अविचार, सपरिकम के अपरिकम अने निहोरि के अनिहारि ए सर्वने विषे आहारनो त्याग तो सरखोज के. १३. | हवे ऊनोदरि तप कहे छ.| ओमोअरणं पंचहा, समासेण विश्राहि । दवओ खित्तकालेणं, भावेणं पजवेहि अ॥ १४ ॥ अर्थ-(प्रोमोश्ररणं ) अवमौदर्य एटले ऊनोदरि तप ( समासेण ) संक्षेपे करीने ( पंचहा ) पांच प्रकारनो (विश्रा: हिनं ) कझो छे. ते या प्रमाणे.--(दब्वश्रो) द्रव्यथी एटले द्रव्यने आश्रीने, (खिसकालेणं) क्षेत्रथी, काळथी, (भावेणं) भाषथी, ( पञ्जवेहि अ) तथा पर्यायथी एटले पर्यायने आश्रीने. १४. तेमा प्रथम द्रव्यथी ऊनोदरि कहे छे.जो जस्स उ आहारो, तत्तो ओमं तु जो करे । जहम्मेणेगसित्थाइ, एवं दठवेण ऊ भवे ॥ १५ ॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a अर्थ-(जो) जेटलो (जस्स उ) जेनो (आहारो) आहार होय (तत्तो) ते आहारमाथी (जो) जे भोजन करतो सतो (ोमं तु) न्यूनताने (करे) करे. केटलो न्यून करे ? ते कहे छे--(जहाण ) जघन्ये करीने ( एगसिस्थाइ) एक सिक्थ दाणो विगेरे ओढुं खाय, आदि शब्दथी ये सिक्यथी भारंभीने एक कवळ सुधार्नु भोजन न्यून करे, ते पुरुषने ( एवं ) मा || प्रमाणे (दब्वेण ऊ) द्रव्ये करीने ( मवे ) भवमौदर्य थाय छे. पा अल्पाहार नामना अवमौदर्यने आश्रीने कलु थे. एटले . के जे कवळ मुखमा नांवता मुखनो अतिविकार न थाय तेटला प्रमाणवाळा वत्रीश कवळनो पूर्ण आहार पुरुषने होय छे अने स्त्रीने र अट्ठावीश कवळनो आहार पूर्ण होय छे. ते आहारमाधी जे एक सिक्थादिकधी एक कवळ पर्यंत पोछो माहार करे ते अन्पाहार नामनं अवमौदर्य कडेनाय कारण के भावगौढार्थना लगानिकोनानव कवळादिकनं प्रमाण जघन्य पसेकी छे ते श्रा प्रमाणे.-अन्पाहार नामर्नु अवमौदर्य जघन्ये करीने एक कवळनुं अने उत्कृष्ट करीने आठ कवळनुं छे. बच्चेनुं सर्व अजघन्योको स्कृष्ट छ. १. उपार्ध नामर्नु अचमौदर्य जघन्य नव कवळर्नु, उत्कृष्ट बार कवळर्नु, अने वनेनुं सर्व अजघन्योत्कृष्ट छे. २. . द्विभाग नामर्नु अवमौदर्य जघन्य तेर कवळर्नु भने उत्कृष्ट सोळ कवळर्नु तथा बच्चेनुं सर्व माजघन्योत्कृष्ट छे. ३. प्राप्त नामर्नु । अवमौदर्य जघन्य सतर कवळर्नु, उत्कृष्ट चोवीश कवळर्नु भने वचेनुं सर्व अजघन्योत्कृष्ट छे. ४. तथा किंचित् ऊन नामनुं | अवमौदर्य जघन्य पचीश कवळर्नु, उत्कृष्ट एकत्रीश कवळर्नु भने वनेनुं सर्व अजघन्योत्कृष्ट छे. ५. १५. हवे क्षेत्रथी ऊनोदरि कहे थे.-- गामे नगरे तह राय-हाणिनिगमे अ आगरे पल्ली । खेडे कब्बडदोणमु-हपट्टणमडंबसंवाहे ॥१६॥ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( गामे ) गामने विषे. ( नगरे ) नगरने विषे, ( तह ) तथा ( रायहाणिनिगमे ) राजधानीने विषे, निगम एटले पणा वेपारीओनू निवासस्थान तेने विषे, (अ) तथा (आगरे ) आकरने विषे एटले सोना रुपा विगेरेनी खाणने विषे, (पक्षी) पनीने विष, ( खेडे ) जेमा उंचो किलो होय एवा बेटने विषे, (कबड) कर्बटने विषे एटले कुत्सित | नगरने विषे, ( दोणमुह ) द्रोणमुख एटले जळमार्गे तथा स्थनमार्गे जेमा जवातुं होय तेने विषे, (पट्टण) पत्तन ये प्रकारे छे-जळपत्तन अने स्थळपत्तन. तेमां जळपत्तन जळनी बच्चे होय छे अने स्थळपत्तन जळ रहित पृथ्वीपर होय छे, ते बन्ने प्रकारना पत्तनने विषे, ( मडंब) मर्डव एटले फरतुं अढी योजन सुधीमां बीजं गाम न होय तेवु गाम तेने | | विषे, (संबाहे) संबाध एटले जेमा चारे वर्णना घणा लोको बसता होय तेने विषे. १६. | श्रासमपए विहारे, सन्निवेसे समायघोसे अ । थलिसेणाखंधारे, सत्थे संवट्टको अ ॥ १७ ॥ __अर्थ-( आसमपए ) तापस विगैरेना पाश्रमस्थानने विषे, ( विहारे ) विहार एटले देवगृह अथवा भिक्षुकोनुं निवास स्थान, ते जेमा मुख्य होय एवा गामने विषे, ( सभिवेसे ) संनिवेश एटले यात्रादिकने माटे पावेला लोकोना आवास, | तेने विषे, ( समायघोसे ) समाज एटले पथिकनो समूह तेने विषे, घोष एटले गोकुळ तेने विषे, (अ) तथा (धलि ) स्थली एटले उंची भूमिनो प्रदेश तेने विषे, ( सेणा) चतुरंग सेनाने विषे, (खंधारे) स्कंधावार एटले पमिजादिक सर्व जन सहित चतुरंग सेनानो निवास तेने विषे, ( सत्थे ) सार्थ एटले गाडांमां करीयाणां भरी वेपार माटे नीकळेला वेपारीमोनुं भावासस्थान तेने विषे, ( संवट्टकोट्टे अ) सथा संवते एटले भयथी त्रास पामेला लोकोनु निवासस्थान तेने विषे अने Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ (-) KK•-* कोड एटले प्राकार तेने चिपे. १७. वाडेसु वा रत्थासु व, घरेसु वा एवमेत्तिअ खेत्तं । कप्पइ उ एवमाई, एवं खन्तेण ऊ भवे ॥ १८ ॥ अर्थ - ( वाडेसु वा ) वाडाओने विषे, अथवा ( रत्थासु व ) शेरीओने विषे, अथवा (घरेसु वा ) घराने विषे, ( एवं ) एप्रकारे (एति ) एटलं एटले अमुक परिमाणवाळु ( खेतं ) क्षेत्र ( कप्पड़ उ ) मारे भिक्षाटन माटे कम्पे. (एवमाई ) ए आदिक ( एवं ) आ प्रकारे ( खेत्ते ऊ ) क्षेत्रने आश्री श्रवमौदर्य ( भये ) थाय छे. १८. वे बीजी रीते क्षेत्र श्री अमौदर्य कहे थे. - -- पेडा य श्रद्धपेडा, गोमुत्ति पयंगवीहिश्रा चेव । संबुक्कावहायय-गंतु पञ्चागया छटा ॥ १९ ॥ अर्थ - ( पेडा य) पेटीना आकारनी जेम सलंग चोतरफ सर्व घरोमां टन करवु ते पेटा कहेवाय छे १, (अद्ध पेडा) तेनाज अर्धभागमां भिचाटन कर ते अर्धपेटा कहेबाय के २, ( गोमुत्ति ) बळदना मूत्रने आकारे एटले डाबी बाजु तथा जमणी बाजु एक एक बर मूकीने अटन करं ते गोमुत्रिका कहेवाय के ३, (पर्वगत्रीहिश्रा) पतंग तोडनी जेम बच्चे बच्चे घाघरो की मूकीने अटन कर ते पतंगवीथिका कहेवाय के ४, (चैत्र) निचे (संबुकावट्टा ) शंबूक एटले शंख, तेना आवर्तन जेम न करं ते शंबूकावर्त कहेवाय छे, ते बे प्रकारे थे-याभ्यंतर शंबूकावर्त श्रने बाह्यशंबूकात्रर्त. तेमां शंखनी नाभि जेवा आकारवाळा क्षेत्रमां प्रथम मध्यभागना बरथी आरंभी बहारना घर सुधी अटन कर ते आभ्यंतर शंबूकावर्त भने Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ allथी विपरीतपणे एटलं बहारना धरथी प्रारंभी मध्यना घर सुधी अटन कर ते बाह्य शंबूकावर्त कहेवाय छ५, तथा (छद्वा) गया) आयत एटले लांचे-सीधुं जड़ने प्रत्यागता एटले पाछु बळ, एटले प्रथम सीधुं दूर जइ पछी पाछा वळता भिक्षाटन करवू एटले मिक्षा ग्रहण करवी ते अायतगतुंप्रत्यागता कहेवाय छे. ६. अहीं कोइने शंका थाय | के-"पही जे क्षेत्रो बताव्यां ते सर्व भिक्षाचर्याना ज प्रकारो छे, तेमां क्षेत्रने आश्री अवमौदर्य शी रीते कहेवाय ?" | श्रानो उत्तर ए के जे." याजे मारे अवमौदर्य हो." एवा आशयी धारी राखेला-निश्चय करेला क्षेत्रमा भिक्षाटन करवायी तेने अवमौदर्य तरीके कहेवामा कांई दोष नथी. निमित्त जूदा जूदा होवाथी जेम एक ज माणस अपेक्षाथी कोइनो पिता अने कोइनो पुत्र विगेरे थह शके छे, ते ज प्रमाणे अहीं पण गोचरीना चेत्रने अवमौदर्यनी धारणाथी घोनोदरी पण कही शकाय छे. एज प्रमाणे उपर प्रामादिक क्षेत्रोमां अने आगळ काळादिकने आश्री अवमौदर्य कहेशे, त्यां पण अमुक प्रामादिक अने काळादिकनो अभिग्रह होवाथी अवमौदर्य कहेवाय छे, १६. हवे काळने श्राश्री अवमोदय कहे थे.दिवसस्स पोरिसीणं, चउण्हं पि उ अतिओ भवे कालो।एवं चरमाणो खेल, कालोमाणं मुंणेअव्वं ॥२०॥ अर्थ-(दिवसस्स ) दिचसनी ( चउण्हं पिउ) चारे ( पोरिसीणं ) पोरसीने मध्ये (जचित्रो ) जेटलो (कालो) | काळ ( भवे) होय एटले "अमुक काळे हुँ मिचाटन करीश" ए रीते अभिग्रह धारीने पछी ( एवं) एज प्रमाणे नियमित काळे ( चरमाणो) भिक्षाटन करता साधुने ( खलु) निचे ( कालोमाणं ) काळावमौदर्य (मुनव्वं ) जाणवू. २०. Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काळावमौदर्यन ज बीजी रीते कहे थे. अहवा तइआए पो - रिसीए ऊणाए घासमेसंतो । चउभागूणाए वा, एवं काले ऊ भवे ।। २१ ।। अर्थ - (हवा) अथवा ( तहमाए ) श्रीजी ( पोरिसीए) पोरसी ( ऊणाए ) ऊग्री - भोली सते ( घासं एसंतो ) ग्रासनी एप करे, केटली योनी होय त्यारे १ ते उपर कहे छे - चउभागूयाए वा ) चोथो भाग ओडी सते अने वा शन्दथी पांचमो विगेरे भाग श्री सते ( एवं ) ए प्रकारे काळना श्रभिग्रहबडे भिक्षाटन करवाथी ( कालेख ऊ ) काळे करीने मौदर्य एटले काळा मौदर्य ( भये ) थाय छे. शास्त्रमां श्रीजी पोरसीए ज भिक्षाटन कटुं के तेथी घा उत्सर्ग विधिना resentर्य जाग. २१. हवे भाव ऊनोदरि कहे छे. - इत्थी वा पुरिसोवा, अलंकिओ वाऽणलंकिओ वावि । अन्नयरवयत्थो वा, अन्नयरेणं वा वत्थेणं ॥ २२ ॥ अर्थ - - ( इत्थी वा ) स्त्री अथवा ( पुरिसो वा ) पुरुष, ( अलंकिमो वा ) अलंकार करेलो अथवा ( अणलं किशो वावि ) अलंकार नहीं करेलो, अथवा ( अमयरवयत्थो वा ) यौवन ध्यादिक कोइ एक-अमुक वयम रहेलो, अथवा (प्रयरेणं वा ) को एक-अमुक प्रकारना (बत्थे ) वखवडे सहित होय एवो. २२. अनेण विसेसेणं, वणं भावमणुमुअंते उ । एवं चरमाणो खलु भावोमाणं मुअव्वं ॥ २३ ॥ =**-*•*O*•»XOJ tok tuk••*r** Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ (अनेण बिसेसेणं) वीजा कोइ विशेषषडे एटले कोप पामेलो के हसतो विगेरे अवस्थावाळो अथवा (वमेणं) IF कृष्णादिक वर्णे करीने जगातो, ( भावं ) उपर कहेला अलंकतत्त्वादिक भावने ( अणुमुते उ) नहीं भूकतो-तजतो सतो I जदातार जो मने भात पाणी आपशे तो हुँ प्रण करीश. (एव) प्रकारे अभिग्रह लइने (चरमाणो) भिक्षाटन करता। साधुने ( खलु ) निश्चे ( भावोमा ) भाषायमौदर्य-भाव ऊनोदरि (मुणेमन्वं ) जाणवी. २३. हवे पर्याय ऊनोदरि कहे छे..दच्चे खित्ते काले, भावम्मि अ आहियाँ उजे भावा । एएहिं ओमचरो, पज्जवचरो भवे भिक्ख ॥२४॥ अर्थ-( दध्वे ) अशनादिक द्रव्यने विषे, (खित्ते ) ग्रामादिक क्षेत्रने विषे, ( काले ) पोरसी श्रादिक काळने विष, | (भावम्मिश्र) तथा स्त्रीत्वादिक भावने विषे (जे भावा) जे भावो एटले एक दाणो न्यून आदिक पर्यायो (श्राहिया उ) कहेला छ, (एएहिं ) ते सर्व मावोवडे (ओमचरओ) अक्मौदर्यने आचरण करनार (भिक्खू ) साधु (पजवचरो) पर्यवचरक एटले पयोय अवमौदर्यतुं माचरण करनार ( भवे ) होय छे. अहीं पर्यवशन्दवडे पर्यचनुं प्राधान्य कहेवानी इच्छा होवाथी पा पर्यव अवमौदर्य कहेवाय छे. ए ज प्रमाणे क्षेत्रादिकनुं प्राधान्य कद्देवानी इच्छाथी क्षेत्रादिक भवमौदर्य कहेवाय छे. परंतु तत्वथी तो ते सर्वने विषे द्रव्यर्नु अवमौदर्य संभवे छे. कदाच कोइ क्षेत्रादिक अवमौदर्यमां द्रव्यनी न्यूनता न होय, तो त्या क्षेत्रादिकनी न्यूनताने पाश्री अवमौदर्य कद्देवाय छ एम जाण. २४. हवे भिचाचर्या नामनो त्रीजो बाझ तप कहे के Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अविहगोअरग्गं तु, तहा सत्तेव एसणा । अभिग्गहा य जे अन्ने, भिक्खायरिअमाहिआ ॥ २५ ॥ । अर्थ-(अट्ठविहगोअरग्गं तु) आठ प्रकारनो अग्र एटले अकल्प्यपिंडने दूर करवाथी-तजवाथी प्रधान एवो गोचर एटले उंच नीच सर्व गृहोंने विपं सामान्यपणे भ्रमण कर ते अष्टविधाअगोचर कहेवाय छे अर्थात् प्रधान गोचरीना आठ | भेद के. (तहा ) तथा ( सत्तेव ) सात ज ( एसणा) मा छे एटले एषमाना सात भेद छे. (य) तथा (जे अने) वीजा जे (अभिग्गहा) द्रव्यादिक अभिग्रहो छे, ते सर्वे (भिक्खायरिअं) भिक्षाचर्या के जेनुं बीजुं नाम वृत्तिसंक्षेप छेते | (आहिमा) जिनेश्वरोए कही छे. यहीं अग्रगोचरना पाठ भेद पेटा विगेरे जे प्रथम कही गया ते ज छे. तेमा शंबूकावर्तना बमे प्रकार जूदा गणवा अने प्रायतगंतुंप्रत्यागत-सीधुं जq अने पार्छ वळवू ए पण बे भेद जूदा गणवा. तेथी पाठ श्रा प्रमाणे थाय छ-'पेटा १, अर्धपेटा २, मोमूविका ३, पतंगवीथिका ४, आभ्यंतर शंबूकावळ ५, बाह्य शंबूकावर्ता ६, आयत्तमंतुं ७, तथा प्रत्यागमा ८.' सात एषणा ा प्रमाणे के.--- " संसह १ मसंसट्टा २, उद्धड ३ तह अप्पले विश्रा ४ चेव । उग्गहिमा ५ पम्गहिया ६, उझिअधम्मा ७ य सतमिया ॥" ____“ संसृष्टा—भिक्षाथी खरडायेला हाथ के पात्र होय, तेनावडे ज भिक्षा ग्रहण करवी ते. १. प्रसंसृष्टा-हाथ के पात्र खरडायेला न होय अने तेवडे भिक्षा ग्रहण करवी ते. २. उधृता-रसोडामाथी पोताने खावा माटे जे पात्रमा भोजन १ आयतर्गतुं प्रत्यागमा ७ अने ऋजुगति ८. ए प्रमाणे लक्ष्मीविजयभीनी टीकामां छे. Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काढ्युं होय तेमाथी ज भिक्षा ग्रहण करवी ते. ३. अम्पलेपा-चणा विगेरे लेप रहित वस्तु लेखी ते. ४. उद्गृहीतामोजन समये भोजन करनारने माटे पीरसवानी वस्तु जे पात्रमा नांखीने लावे तेमाथी ज ग्रहण करवी ते. ५. प्रगृहीवा| भोजन समये भोजन करनारने आपना माटे पीरसनारे दस्तादिकपचे जे व अक्षण करी दोष अथवा भोजन करनारे | पाताना हस्तादिकमा ग्रहण करी होय तेमाथी ज ग्रहण करवी ते. ६. तथा सातमी उज्झितधर्मा--जे भोजननी वस्त त्याग 1 करवा योग्य होय अने तेने बीजा कोइ मनुष्यादिक लेवाने इच्छता न होय एवी वस्तु लेवी अथवा ते वस्तु अर्धी नोखी दीधी होय अने अर्धी बाकी होय ते लेवी ते. ७. हवे चार प्रकारना अभिग्रहो पा प्रमाणे छे.-द्रव्य, चेत्र, काळ अने भाव. तेमां द्रव्य अभिग्रह एटले " भालाना अग्रभाग आदिने विषे रहेला मांडा विगेरेने हुं ग्रहण करीश." इत्यादि. १. क्षेत्राभिग्रह एटले "चे पगनी बच्चे उमरो राखीने मने अापशे तो हुँ ग्रहण करीश." इत्यादि. २. काळाभिग्रह एटले "समग्र भिचुम्रो भिक्षाचयों करीने गया होय ते वखते भिधा माटे अटन करीश ने जे मळशे ते लइश." इत्यादि. ३. तथा भावाभिग्रह एटले " हसतो के रोतो दातार मने श्रापशे तो ई ग्रहण करीश." इत्यादि ४. २५. ___ हवे रसत्याग नामनो चोथो बाह्यतप कहे छे..खीरदहिसप्पिमाई, पणीअं पाणभोअणं । परिवजणं रसाणं तु, भणिअं रसविवजणं ॥ २६ ।।। अर्थ- ( खीरदहिसप्पिमाई ) दूध, दही, घी, आदिशन्दी तेल, गोळ, पकान विगेरे (पणीनं ) प्रशीत एटले Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्टिकारक एवा ( पाणभोगणं ) खजूरनो रस विगेरे पान-पीचा योग्य पदार्थ अने भोजन एटले जैमाथी धी नीतरतुं होय एका प्रोदनादिक ए सर्व (साणं ) सोनो (परिमाणे जे लाम झरपो-तेवो आहार ग्रहसा न करवो ते ( रसविवजणं) रसत्याग नामनो तप ( मणिनं ) कह्यो छे. २६.. हवे कायक्लेश नामनो पांचमो बाबतप कहे छे.ठाणा वीरासणाईआ, जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिजति, कायकिलेसं तैमाहिंअं ॥२७॥ अर्थ- ( जीवस्स ) जीवने ( उ सुहावहा) सुखकारक एवाज अने ( उग्गा ) दुष्कर होवाथी प्रति उत्कट एवा (वीरासणाईया) चीरासन विगेरे श्रादिशब्दथी गोदोहादिक भने उपलदणधी लोच विगेरे ( ठाणा ) स्थानो (जहा) जे प्रकारे { धरिजति ) धारण कराय ते प्रकारे ग्रहण करवा (तं) तेने ( कायकिलेस ) कायक्लेश (प्राहिमं) को छ । २७. ( अनेक प्रकारे कायाने क्लेश आपवारूप आ तप छे.) हवे छटो संलीनता नामनो बायतप कहे छे. एगंतमणावाए, इत्थीपसुविवजिए । सयपासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ॥ २८ ॥ अर्थ (एगंत) एकांत एटले मनुष्य रहित, (अणावाए) अनापात एटले स्त्री विगेरेनी जाव भाव न होय एवा तथा | (इत्थीपसुविवजिए) स्त्री पशु विगेरे ज्या रहेता न होय एवा शून्य गृहादिकने विषे ( सयणासणसेवख्या) शयन भने Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसन सेववाथी (मिवियपणास) निविदास पलासक नालो बासतप कहेबाय छे. शयन अने भासन शब्दना उपलक्षणथी एषणीय पाट पाटला विगेरे सेववार्थी पण विविक्तशयनासन नामनो बाह्यतप कहेवाय छे. महीं विविक्तचर्या नामनी सलीनता कही, तेना उपलचमाथी बीजी अणे संलीनता जाणी लेवी. सलीनता चार प्रकारनी छे, ते भा प्रमाणेइंद्रियसलीनता १, कषायसंलीनता २, योगसंलीनता ३ अने विविक्तचर्यासलीनता ४. तेमां इंद्रियसंलीनता एटले मनोज्ञ के मनोज्ञ शब्दादिक विषयोमा रागद्वेष न करतो ते १, कषायसंलीनता एटले तेना उदयनो निरोध करवो ते २, योगसलीनता एटले मन, वचन अने कायाना शुभ व्यापारमा प्रवृत्ति अने अशुभथी निवृत्ति करवी ते ३, अने विविक्तचर्याः | संलीनता तो मूळ गाथामा ज कही छे ते. ४. २८. हवे याह्य तपनी समाप्ति करवा पूर्वक अभ्यंतर तपनी प्रस्तावना करे छे.। सो बाहिरंगेतवो, समासेण विआहिओ। अभितरं तवं ऐत्तो, वोच्छोमि अणुपुटवसो ॥ २९ ॥ अर्थ-(एसो ) प्रा ( चाहिरंगतवो ) बाह्य तप ( समासेण ) संचेपे करीने ( विाहिओ) कझो. (एचो) हवे पछी ।। (भभितरं तवं ) माभ्यंतर तपने ( अणुपुब्बसो ) अनुक्रमे (वोच्छामि ) हुं कहीश. २६. ___ आभ्यंतर तपना भेदो कहे छ...पायच्छित्तं विणओ, वेआवच्चं तहेव सज्झायो । झाणं च विउस्सग्गो, पसो अभितरो तवो ॥३०॥ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **10******** अर्थ - ( पायच्छितं ) प्रायश्चित्त, ( विणो ) विनय, ( वैभवचं ) वैयावृत्य, ( तहेव ) तथा ( सज्झाओ ) स्वाध्याय, ( झाणं ) ध्यान, (च) भने ( विउरसम्गो) व्युत्सर्ग - कायोत्सर्ग ( एसो ) था छ प्रकारनो (अभितरो ) आभ्यंतर ( तवो ) तप छे. ३०. पहेलो प्रायश्चित्त नामनो आभ्यंतर तप कहे . - आलोअणारिहाई, पायच्छित्तं तु देसविहं । जे' भिक्खू हई सम्मं, पायच्छित्तं तेमहि ॥३१ ॥ अर्थ – (आलोअणारिहाई अं ) जे पाप, मात्र आलोचनाथीज शुद्ध धाय ते आलोचनाई कहेाय थे, आदिशन्दथी प्रतिक्रमणने योग्य विगेरे ( पायच्छित्तं ) प्रायश्चित्त ( दसविहं तु ) दश प्रकारनुं ज छे. तेने ( जे ) जे ( भिक्खू ) साधु ( सम्मं ) सम्यक् प्रकारे ( बहई ) बहन करे – सेवे, (तं) तेने ( पायच्चिं ) प्रायश्चित्त तप ( आहिचं ) कयुं छे. प्रायचित्तना दश प्रकार या प्रमाणे छे. - भालोचना १, प्रतिक्रमण २, मिश्र ३, विवेक ४, व्युत्सर्ग ५, तप ६, छेद ७, मूल ८, अवस्थाप्य अने पारांचित १० तेमां गुरुनी पासे वचनमात्रवडे प्रकाश करवाथी ज जे पापथी मुक्त थवाय के आलोचनाई कद्देवाय छे. ते अहीं आलोचना नामनुं प्रथम प्रायश्चित छे. १. दोषधी पाछा फरं एटले मिथ्यादुष्कृत देवुं से प्रतिक्रमण कहेवाय छे. मात्र प्रतिक्रमणथी ज सहसात्कारे उत्पन्न थयेला पापनी शुद्धि थाय छे, तेने गुरुनी समच आलोचवानी जरुर रहेती नथी, ते प्रतिक्रमणने ज लायक छे. २. गुरुनी समक्ष आलोचना करी पछी वेनी ज आज्ञाधी मिथ्यादु Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ @*+*0* ************* ष्कृत देवं ते प्रतिक्रमण अने आलोचना ए बनेने योग्य होवाथी मिश्र नामनुं प्रायश्चित्त कहेवाय छे ३. विवेक एटले पृथक् करते. मात्र विवेकथी ज जेनी शुद्धि थती होय ते चिवेकाई छे. एटले के कोइक प्रकारे अशुद्ध प्रहार ग्रहण कर्यो होय तो तेनी मात्र त्यागधी ज शुद्धि थाय छे, तेथी से विवेक नामनुं प्रायश्चित्त कद्देवाय थे. ४. न्युत्सर्गवडे एटले केवळ कायोत्सर्गवडे ज जेनी शुद्धि थाय ते व्युत्सर्ग नामनुं प्रायश्चित्त क्रे. ५. जे दोष सेवे सते नीवीथी आरंभी छ मास सुधीनो तप अपाय ते तपोई प्रायश्चित्त कहेवाय छे. ६. जे दोष सेवे सते चारित्रपर्यायनो छेद कराय ते छेदाई प्रायश्चित्त छे. ७. जे दोप सेवे सते सर्व पर्यायनो छेद करी फरीची मूळ व्रतनुं भारोपण कराय वे मूलाई प्रायश्चित्त कहेबाय थे. ८. जे दोष सेवे सते उपस्थापना ( व्रत ) ने पण अयोग्य सतां ज्यां सुधा गुरुए कहेलो तप न करे त्यांधी ने विषे स्थापन न कराय वने तप करी दोष रहित थया पछी बतने विषे स्थापन कराय से अनवस्थाप्य प्रायवित्त कद्देवाय . ६. तथा जे दोष सेवे सते लिंग, क्षेत्र, काळ अने तपवडे पारने पाने ते पाशंचित कद्देवाय छे. अथवा सर्व प्रायश्विनो पार एटले अंत ते पारांचित, अथवा अपराधना पारने पामे ते पारांचित कद्देवाय छे. १०, ( श्र प्रायविसिद्धसेनदिवाकरने आपवामां आयु इ. ) ए दश प्रकारना प्रायश्चित्तने साधु सम्यक प्रकारे सेवे, ते अभ्यंतर उपजावो. ३१. वे विनय नामनो बीजो श्राभ्यंतर तप कहे छे. अब्भुट्ठाणं अंजलि-करणं लहेवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सा, विणओ एस विओहिओ ||३२|| - Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-गुरु विगेरे आवे त्यारे ( अन्सद्वाणं ) उभा थर्बु, ( अंजलिकरणं ) हाथ जोडवा, ( तहेब ) तथा ( आसपदायणं) आसन माप (गुरुपति गुगली भक्ति, ( भागम्यूसा) भाववडे एटले अंतःकरणवडे शुश्रूषा एटले गुरुनी आज्ञा सांभळयानी इच्छा अथवा गुरुनी सेवा, (एस) मा पाँच प्रकारे (विणो ) विनय तप (विभाहिनओ) कइलो छे. ३२. वैयावृत्त्य नामनो श्रीजो तप कहे छे. आयरिश्रमाइअम्मि, वेआवश्चम्मि देसविहे । आंसेवणं जहाँथाम, वेश्रावञ्चं तैमाहिमं ॥ ३३॥ । ___ अर्थ-( दसविहे ) दश प्रकारना (आयरिममाइमम्मि) प्राचार्यादिक- (वेभावचम्मि ) वैयावृत्य एटले उचित | विधिए आहारादिक लावी आप, ते, तथा । जहाथामं) शक्ति प्रमाणे ( आसेवणं ) तेमनी सेवा करवी, (तं) ते ( वेमावचं ) वैयावृश्य तप ( आहिअं) कधुं छे. महीं प्राचार्य १, उपाध्याय २, स्थविर ३, तपस्वी ४, ग्लान ५, शैक्ष्य-बाळ साधु ६, साधर्मिक ७, कुळ ८, गण, भने संघ १०, भा दशनी वैयावच्च करवानी समजवी. ३३. स्वाध्याय नामनो चोथो तप कहे थे.वायणा १ पुच्छणा २ चेव, तहेव परिअहणा३ । अणुप्पहा । धम्मकहा ५, सज्झाओ पंचहा भवे ॥३४॥ __अर्थ-(वायणा ) वाचना, (पुच्छणा) पृच्छना, ( चेव ) नीचे ( तहेब ) तथा ( परिभट्टया ) परावर्तना, (अणुप्पेहा ) अनुप्रेक्षा अने (धम्मकहा ) धर्मकथा ( पंचहा ) या पांच प्रकारनो ( सज्माभो) स्वाध्याय ( भवे ) छे. भा * Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचनो विस्तरार्थ प्रथम प्रावी गयो छे. ३४. ___ हवे ध्यान नामनो पोचमो आभ्यंतर तप कहे थे.अहरुदाणि वैजित्ता, झाएजा सुसमाहिओ । धम्मसुक्काई झोणाई, झाणं तं तु बुहाँ वए ॥३५॥ __अर्ध-( अट्टरुदाणि ) प्रात अने रौद्र ए बे ध्यानने (लजिता) वर्जीने (मुसमाहिओ) सम्यक प्रकारे समाधियुक्त थयो थको ( धम्मसुक्काई ) जे धर्म अने शुक्ल ए वे (माणाई ) ध्यानने (झाएजा ) ध्यावे, (तं तु ) तेने ज (बुहा ) पंडितो | (सायं ) ध्यानतप ( वए ) कहे छे. ३५. ___हवे कायोत्सर्ग नामनो छठो आभ्यंतर तप कहे छ.सयणासणठाणे वा, जे अ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो, छट्ठो सो परिकित्तिओ ॥ ३६॥ || अर्थ-( सयणासणठाणे वा ) शयनने विषे, आसनने विषे अथवा वीरासनादिक स्थानने विषे रहेलो (प्र) जे (भिक्खू ) साधु ( न चावरे ) हालवा चालवा विगेरेनी काह पण क्रिया न करे, ते साधुने ( कायस्म ) कायानो (वि उस्सग्गो ) व्युत्सगे-कायानी चेष्टानो त्याग ए नामनो (छट्टो) छछो (सो) ते आभ्यंतर तप (पारकित्तिओ) कझो के. नहीं कायानो व्युत्सर्ग आव्यो छे तेना उपलक्षणी शेष व्युत्सर्ग पण जाणी लेवा. ते पा प्रमाणे.-- __ “दव्ये भावे अतहा, दुविहुस्सग्गो चउन्विहो दब्वे । गणदेहोवहिमसे, भावे कोहाइचालो त्ति ||" Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " उत्सर्ग एटले त्याग ते थे प्रकारनो छ-द्रव्य अने भाव. तेमां द्रव्यने विषे चार प्रकारनो व्युत्सर्ग-त्याग छे-गच्छनो, देहनो, उपधिनो अने भक्तनो एटले भातपाणीनो. मावने विषे क्रोधादिकषायनो त्याग करचो ते." या सर्व प्रकारनो व्युत्सर्ग जाणी लेवो. ३६. हवे अध्ययनने समाप्त करवा पूर्वक तपर्नु फळ कहे छ.-- एवं तेवं तु दुविहं, जे सम्मं आयरे मणी । सेंखियं सव्वसंसारा, विमुञ्चइ पंडिऐ नि बेमि॥३७॥ अर्थ-( एवं ) पा प्रमाणे (जे) जे ( मुगी) साधु ( दुविहं ) चे प्रकारना ( तवं तु) तपने ( सम्मं आयरे ) सम्य प्रकारे आचरण करे, (से) ते ( पंडिए ) पंडित साधु ( खिप्पं ) शीघ्रपणे ( सन्वसंसारा ) सर्व संसारथी (विप्पमुच्चइ ) मूकाय छे (चि चेमि ) एम ई कहुं हुं. ए प्रमाणे सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने कर्यु. ३७. इति त्रिंशत्तममध्ययनम् ३०. Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चरणविधि नामर्नु एकत्रीशमुं अध्ययन. ३१. त्रीशमा अध्ययनमा तप कलो. ते तप चारित्रवंतने ज सफळ थाय छे. तेथी मा एकत्रीशमा अध्ययनमा चारित्रने जर कहे छे. तेनुं आ प्रथम सूत्र छ.-- | चरणविहिं पैवत्रखामि, जीवस्स 3 सुहावहं । जै चरित्ता बहू जीवा, तिपणा संसारसागरं ॥ १॥ ____ अर्थ-( जीवस्स ) प्राणीने ( सुहावहं उ) सुखकारक एवा ज ( चरणविहिं ) चारित्रना विधिने ( पवक्खामि ) ९ कहीश, के (जं) जे विधिनुं (चरिचा) आचरण-सेवन करीने ( बढ्न जीवा ) घया जीवो ( संसारसागरं ) संसाररूपी स| मुद्रने ( तिमा) तरी गया छे. १. ते चरणविधिने ज कहे छ.| एगओ विरई कुज्जा, एगओ अ पवत्तणं । असंजमे निमत्तिं च, संजमे अ पवत्तणं ॥२॥ अर्थ- (एमओ) एकथकी (विर) विरति-निवृत्ति (कुजा) करवी, अने (एगो अ) एकने विषे ( पचत्त) | प्रवृत्ति करवी. ते आ प्रमाणे (असंजमे ) असंयम थकी एटले हिंसादिक थकी (निभर्ति च ) नित्ति करवी, भने ( संजमे अ) संयमने विषे ( पवत्तयं ) प्रवृत्ति करवी. २. रागहोसे अ दो पावे, पावकम्मपवत्तणे । जे भिक्खू रंभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥३॥ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-- -( रागद्दोसे अ ) राग भने द्वेष ( दो ) ए (पावे ) पापप्रकृतिरूप होवाधी पाप छे तथा (पावकम्मपवत्तणे) | | ज्ञानावरणादिक पापकर्मना प्रवर्तक छे, तेमने (जे भिक्खू ) जे साधु (निई) नित्य (रंभई ) रुंधे छे, (से) ते साधु ( मंडले ) संसारमा ( न मच्छा ) रहेतो नथी-मोक्षमा नाम छे. ३, दंडाणं गारवाणं च, सल्लाणं च तियं तियं । जे भिक्खू चयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥४॥ अर्थ (दंडाणं ) दंडना, ( गारवाणं च ) गौरवना भने ( सवाणं च ) शन्यना (तियं तियं ) त्रिक त्रिकने एटले मनदंड, वचनदंड अने कायदंड ए त्रण दंडने, ऋद्धिगौरव, रसगौरव भने सातगौरव ए त्रय गौरवने तथा मायाशन्य, नि. दानशन्य अने मिथ्यात्वशल्य ए श्रण शल्यने (जे मिक्खू ) जे साधु (निश्चं ) नित्य ( चयई ) तजे छे, (से) ते ( मंडले न अच्छइ ) संसारमा रहेतो नथी. ४. दिव्वे अ जे उवसग्गे, तहा तेरिच्छमाणुसे । जे भिक्खू संहई निच्चं, "से ने अच्छइ मडैले ॥५॥ अर्थ-(अ) तथा (जे) जे (दिच्चे ) देवना करेला (तहा) तथा (तेरिच्छमाणुसे) तिर्यचना अने मनुष्यना करेला ( उवसम्गे) उपसर्गोने (जे) जे (मिक्खू ) साधु ( निच्चं) नित्य ( सहई ) सहन करे, (से ) ते ( मंडले न अच्छइ ) संसारमा रहेतो नथी. ५. विगहाकसायसप्लाणं, झाणाणं च (अं तेहा । जे भिक्खू वैज्ञई निच्चं, से ने अच्छइ मैडले ॥६॥ HTS Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - (विगहा कसायसमास ) चार विकथा, चार कपाय भने चार संज्ञाने ( तहा ) तथा ( झायाणं च दुअं ) ध्याननाद्विकने एटले आर्त अने रौद्ररूप वे ध्यानने (जे भिक्खू ) जे साधु (निर्श्व ) निरंतर ( वाई ) वर्जे बे, (से) ते (मंडले ) संसारमा ( न अच्छ) रहेतो नश्री. अहीं राजकथा १, देशकथा २, भक्त- मोजनकथा ३ अने खीकथा ४ ए चार विकथा, कोष १, मान २, माया ३ अने लोभ एर काय आहारा १, भयसंज्ञा २, मैथुनसंज्ञा ३ अने परिग्रहसंज्ञा ४ ए चार संज्ञा जायची. ६. वएस इंदियत्थे, समिईसु किरियासु म । जे भिक्खू जयई निश्वं, से न अच्छइ मंडले ॥ ७ ॥ अर्थ – (वसु ) पांच महाव्रतीने विषे, ( इंदियत्थेसु ) शब्दादिक पांच विषयोने विषे, ( समिईसु ) ईर्यासमिति आदि पांच समितिने विषे, ( किरियासु अ ) कायिकी १, अधिकरणिकी २, प्राद्वेषिकी ३, पारितापनिकी ४ अने प्राणातिपातिकी ५ ए पांच क्रियाने विषे (जे भिक्खू ) जे साधु ( निचं ) निरंतर ( जयई ) यत्न करे छे, (से) ( मंडले न अच्छ) संसारने विषे रहेता नथी. व्रत अने समितिने पाळवावडे, इंद्रिय विषयोमां मध्यस्थ-रागद्वेष रहित रहेवाचले अने क्रियाने विषे त्यागवडे यत्न करवानो समजत्रो ७. लेसासु छसु कासु, छक्के आहारकारणे । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ ८ ॥ अर्थ - (सु) छ (लेसासु) लेश्याने विषे, ( कासु ) पृथ्व्यादिक छ कायने विषे तथा ( छक्के) व (आहार Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ It]] कारणे) आहार करवाना कारणने विषे (जे मिक्खू ) जे साधु (निचं ) निरंतर (जयई ) यत्न करे छ, (से) | ( मंडले न अच्छइ ) संसारने विषे रहेतो नथी. वहीं अशुभ पहेली प्रण लेश्यानो निरोध करवो अने शुभ त्रण लेश्यानु धारण करवू, षट्कायतुं रक्षण करवू अने छ कारणे आहार लेयो, ए रीते यत्न करवानो छे. ८. पिंडुग्गहपडिमासु, भयठाणेसु सत्तसु । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥९॥ ___ अर्थ-(पिंडुग्गहपडिमासु ) प्रथम कहेली संसृष्टादिक सात पिंडावग्रहप्रतिमाने विपे एटले आहार ग्रहण करवाना विषयवाळा अभिग्रहोने विषे तथा ( सत्तसु सात ( भयठाणेसु ) मयना स्थानोने विषे (जे भिक्खू ) जे. साधु (निर्ध) निरंतर ( जयई ) यत्न करे छ, (से) ते ( मंडल न अच्छा ) संसारमा रहेतो नथी. अहीं पिंडग्रहणनी प्रतिमाओ पाळबानी छ भने भयनां स्थानो तजवानां छे. ते सात भय या प्रमाणे-पालोक भय १, परलोक मय २, आदान भय ३, | अकस्मात् भय ४, प्राजीविका भय ५, मरण भय ६ अने अपयश भय ७. ६. मएसु बंभगुत्तीसु, भिक्खुधम्मम्मि दसविहे । जे भिक्खू जयई निञ्च, से न अच्छइ मंडले ॥१०॥ अर्थ-(मएसु ) आठ मदने विषे, (बंभगुचीसु) नव प्रमचर्यनी गुप्तिने विषे, तथा (दसबिहे ) दश प्रकारना | (मिक्खुधम्मम्मि ) साधुधर्मने विषे (जे मिक्स्लू ) जे साधु (निचं ) निरंतर (जयई ) यत्न करे छ, ( से ) ते (मंडले न अच्छा ) संसारमा रहेतो नथी. महीं जाति १, कुळ २, पळ ३, रूप, तप ५, ऐश्वर्य ६, श्रुत ७ भने लाम-ए Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माठ मद वर्जवाना छे, बसति १, कथा २, निषिधा ३, इंद्रिय ४, भियंतर ५, पूर्वक्रीडित स्मरण ६, प्रणीत भाहार ७, * अति आहार - असे विभूषा ९ ए नय अवर्थनी गुति पाळपानी छे, तथा क्षांति १, मार्दव २, आर्जव ३, मुक्ति | (निर्लोभता) ४, तप ५, संयम ६, सत्य ७, शौच ८, आकिंचन्य ६ अने ब्रह्मचर्य १० ए दश प्रकारना साधुधर्मनी आराधना करयानी छे. १०. उवासगाणं पडिमासु, भिक्खूणं पडिमासु श्र। जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥११॥ ___अर्थ-( उवासगाणं ) श्रायकोनी (पडिमासु ) अन्यार प्रतिमाने विष तथा ( भिक्खूणं ) साधुनी (पडिमासु अ) चार प्रतिमाने विषे (जे मिक्स् ) जे साधु (निचं जयई ) निरंतर यत्न करे, ( से ) ते ( मंडले न अच्छइ ) संसारमा । रहेतो नथी. ११. अहीं श्रावकनी अग्यार प्रतिमा आ प्रमाणे छे.-दर्शन १, व्रत २, सामायिक ३, पौषध ४, प्रतिमा (कायोत्सगे) ५, अब्रह्म त्याग ६, सचित्त त्याग ७, आरंम त्याग ८, प्रेष्य त्याग ६, उद्दिष्ट त्याग १०, अने श्रमणभूत ११. |T नहीं पहेली प्रतिमा उत्कृष्टधी एक मासनी, बीजी वे मासनी, श्रीजी त्रण मासनी ए रीते चड़ता छेल्ली अग्यारमी अग्यार मासनी छे, अने जघन्यथी तो सर्व प्रतिमानो एकादिक अग्यार दिवसनी जाणवी. केमके प्रतिमा ग्रहण कयों पछी एक बे | प्रादि दिवसे चारित्र ग्रहण करे अथया आयुष्यनो क्षय थाय तो ते प्रतिमा जेटला दिवस वहन करी होय तेटला दिवसनी। कहेयाय छे. यहीं उत्तरोतर प्रतिमा वहन करतां पूर्व पूर्वनी प्रतिमानुं सर्व कार्य साथे करवानुं ज छे, तेथी अग्यारमी Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***•*@→→→→→*** प्रतिमा वहन करता पूर्वनी दशे प्रतिमानी क्रिया करवानी छे, सेमां पहेली प्रतिमामा दोष रहित, प्रशमादिक गुण सहित अनेकदाग्रह रहित बुं समकित धारण करवानुं छे. १. बीनीमां अतिचार रहित असुव्रतादिक बारे बतो पाळवानां छे. २. त्रीजीमां ने संध्याए अवश्य सामायिक करवानुं वे. ३. चोथीम चौदश, आठम विगेरे पर्व तिथिए प्रतिचार रहित परिपूर्ण पौषध करवानो छे ४. पांचनीमां घठम विगेरे पर्व तिथिए पौषध लइ रात्रे कायोत्सर्ग करवानो छे. बीजा दिवसोम दिवसेज भोजन कर रात्रिभोजन कर नहीं, दिवसे पण प्रकाशमां ज भोजन कर, पाइळ धोतीयानो कच्छ a नहीं, दिवसे ब्रह्मचर्य राखवु अनं रात्रे पण स्त्रीओनुं तथा तेमना भोगनुं परिमाण कर. कायोत्सर्गमां जिनेश्वरना गुणोनुं सने कामादिक दोषनो नाश करवाना उपायोनुं चितवन करवुं. ५ हीमां ब्रह्मचर्य ने शृंगारकथादिकनो सर्वथा त्याग करवो. ६. सातमीमां सचित्ताहारनो त्याग करवो. ७. आठमीमा पोते जाते आरंभ न करवो. ८. नवमीमां बीजा पासे पण आरंभ न कराववो है. दशमीमां पोताने माटे भातपाणी करावयां नहीं. या वखते चुरथी मुंडन करावं अथवा शिखाधारी थj. १०. तथा खेन्ली श्रम्यारमी प्रतिमाने विषे पात्रां श्रादिक साधुनां उपकरण धारण करी लोच अथवा चुरमुंडन करावी साधुनी जेवी सर्व क्रिया करवी अने गोचरी बखते गृहस्थीने घेर जह " प्रतिमा प्रतिपन्नाय श्रमणोपासकाय भिक्षां दस "" प्रतिमा वहन करता एवा मने श्रावकने भिक्षा आपो. " ए प्रमाणे बोली भिक्षा ग्रहण करवी, भने सुनिनी जेम मासकल्पादिक विधिए ग्रामादिकमां विहार करवो. भिक्षुनी बार प्रतिमा या प्रमाणे के. 1 SXX Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12-10/ 103403 मासाई सत्चंता ७, पढमा = बिइ ९ तय १० सत्तराइदिया । अहराइ ११ एगराई १२, भिक्खुपडिमा बारसगं ॥ " 44 एक मासथी आरंभीने सात मास पर्यंतनी प्रथमनी सात प्रतिमाओ जागवी. एटले के पहेली प्रतिमा एक मासनी, बीजी वे मासनी ए रीते वृद्धि करतां सातमी प्रतिमा सात मासनी जावी. त्यारपछीनी पहेली एटले आठमी, बीजी एटले नवमी ने त्रीजी एटले दशमी प्रतिमा सात सात रात्रिदिवसनी जागवी. पछी अग्यारमी एक रात्रिदिवसनी भने बारमी एक रात्रिनी, एम भिक्षुनी बार प्रतिमा जायची. " " पडिव एाओ, संघयणी घिइजुओ महासत्तो । पडिमाओ माविश्रप्पा, सम्मं गुरुणा असाचो ।। " "वज्रर्षमनाराच आदि संघयणवाळो धृतियुक्त एटले मननी स्वस्थतावाळो, उपसर्गादिक सहन करी शके तेवो महा सुन्वान्, उत्तम भावनावडे जेणे आत्माने भाग्यो होय एवो अने गुरुए तेनी योग्यता जाणी अनुज्ञा आपी होय तेत्रो साधु सम्यक प्रकारे या प्रतिमाओने अंगीकार करे छे. जो गुरु पोते ज प्रतिमा वहन करता होय तो ते स्थाने रहेला आचार्यनी अथवा गच्छनी अनुज्ञाथी प्रतिमा वहन करवी. " 66 " गच्छे चिम निम्माओ, जा पुव्वा दस भवे असंपुषा । नवमस्स तद्भवत्थु होह जहन्नो सुभाभिगमो || "प्रतिम वहन करनार साधु गच्छने विषे ज रहे भने निर्मात एटले प्रतिमाने योग्य एवा आहारादिकना विषयबाळा परिकर्म चिपे निष्ठावाळा होय तथा सात प्रतिमामांथी जेटलामी प्रतिमा वहन कराती होय तेटला परिमाणबाळंज परिकर्म होय. वर्षाऋतुमा प्रतिमा अंगीकार कराती नथी, तेम ज परिकर्म पण करातुं नथी. आ सातमांथी पहेली वे प्रतिमा एक ब 04110*K Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमा वहन कराय छे, पछीनी वे एटले प्रीजी अने चोथी प्रतिमा एक एक वर्षे करवामां आवे थे, भने पछीनी त्रण एटल। | पांचमी, छठी अने सातमी प्रतिमा अन्य अन्य वर्षे करवामां आवे छे एटले के एक वर्षे प्रतिमा अने बीजे वर्षे परिकर्म ए रीते आ त्रण प्रतिमा छ वर्षे थाय छे. कुल सात प्रतिमा नव वर्षे पूरी थाय छे. या प्रतिमा अंगीकार करनारने जघन्यधी | प्रत्याख्यान नामना नवमा पूर्वनी भाचार नामनी त्रीजी वस्तु सुधीन सत्रार्थ ज्ञान हो जोइए. अने उत्कर्षथी काइक अोछा दश पूर्वनुं सूत्रार्थ ज्ञान होवू जोइए. संपूर्ण दश पूर्वना ज्ञानवाळानो उपदेश सफळ ज होय छे तेथी ते धर्मोपदेशवडे भव्य प्राणीमोनो उपकार करी शासननी प्रभावना करता होवार्थी प्रतिमा बहन फरता नथी, अने नवमा पूर्वनी त्रीजी वस्तु सुश्रीनुं ज्ञान न होय तो ते अतिशय ज्ञानवाळा न होवार्थी काळादिक जाणी शकता नथी, तेथी ते पण प्रतिमा वहन करवाने योग्य नथी." तथा___“चोसढचत्तदेहो, उयसग्गसहो जहेब जिणकप्पी । एसण अभिग्गहीश्रा, भत्तं च अलेवडं तम्स ॥" ___“प्रतिमाधारी मुनि परिकर्मना अभावथी चोसिसन्युं छे अने ममताना श्रभावथी तज्यूं के शरीर जेणे एवो सतो जिन| कल्पीनी जेम उपसर्गने सहन करनार थाय थे. वळी तेमने पूर्व संसृष्टादिक सात प्रकारनी एषणा कही छे तेनो अभिग्रह होवो जोइए. ते या प्रमाणे.--भाउपाणीनी सान एषणामाथी छली चार ज ग्रहण करवानी के तेमां पण पहेली बेनुं (सं. | सृष्ट बने असंसृष्टर्नु ) ग्रहण नथी. अमुक दिवसे छल्ली पांच एपणामांधी बेनो अभिग्रह करे. तेमा एक भोजननी भने एक ? संसृष्ट, असंसृष्ट, उम्धृत, अल्पलेप, उदगृहीत, प्रगृहीत अने उज्झितधर्मा. Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणीनी. तेने भोजन पण अलेपकृत होवू जोइए. एटले बाल, चणा विगैरे ज ग्रहण करे. वळी उपधि पण पोतानी वे एकणाथी ज प्राप्त थयेली ग्रहण करे. या परिकर्म कहेवाय छे." ___ “गच्छा विणिक्खमित्ता, पडिबजे मासिघ्र महापडिमं । दत्तेगभोरणस्सा, पाणस्स वि एग जा मासं ॥" "गच्छथी बहार नीकळीने एक मासनी महाप्रतिमा सनी महाप्रतिमाने ग्रहण करे, तथा ते पाखा मास र , तथा ते पाखा मास सुधी एक दत्ती भोजननी श्रने । | एक दत्ती पाणीनी ग्रहण करे. जो प्राचार्यादिक पदवीधर प्रतिमाने अंगीकार करे तो ते अन्य काळने माटे पोतानुं स्थान कोह वीजा साधुने श्रापे अने द्रव्यादिकनो शुभ योग प्राप्त ये सते स्ले शरद ऋतु प्राये स्यारे पोलाना गम्छने खमावी बहार नीकळे." प्रतिमा वहन करनारे या प्रमाणे वर्तवार्नु छे. "जत्थस्थमेइ सूरो, न तो ठाणा पयं पि संचलइ । नाएगराइवासी, एगं व दुगं व अप्माए ।" ___" चालता चालतां जे ठेकाणे सूर्य अस्त पामे, ते स्थानथी एक पगलं पण आगळ चाले नहीं अर्थात् से ज ठकाणे सूर्योदय सुधी कायात्सर्गे उभा रहे. वळी जे ग्रामादिकमा 'आ मुनि प्रतिमाधारी छ' एम लोकोना जाणवामा प्रावे, ते ठेकाणे एक ज रात्रिदिवस रहे अने जाणवामां न आव्युं होय तो एक के बे रात्रि दिवस रहे. __ " दुबाण हत्थिमाईण, नो भएणं पर्य पि प्रोसरई । एमाइ नियमसेवी, विहरह जाऽखंडिओ मासो ॥" ___ "दुष्ट एवा हस्ती श्रादिकना भयथी एक पगलं पण पाछा हठे नहीं, आ विगेरे नियमने सेवता थका अखंडित-प्राखा मास सुधी विचरे." Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J 64 पच्छागच्छमुवेई, एवं दुमासी विमासि जा सत्त | नवरं दत्ती वह जा सत उसत्तमासीए || " “ स्थारपछी गच्छमां श्रावे. ए अ प्रमाणे बीजी वे मासनी, त्रीजी ऋण मासनी यावत् सातमी सात मासनी प्रतिमानुं वहन करे, तेमां विशेष ए के दरेक प्रतिमानी वृद्धिए एक एक दत्ती वधारे, यावत् सातमी प्रतिमाए भातपाखीनी सात सात दत्ती ग्रहण करें. " " ततो मी, हवइ ह पडिमा उ सत्तराइदिणा । ती चउत्थ चउत्थे, पाणएयं इद्द विसेसो ॥ " "त्यारपत्री आठमी प्रतिमा सात रात्रिदिवसनी छे, तेमां एकांतर एक एक चोवीहार उपवास करे. अहीं पेण पारखे भांबील करे, परंतु हीं दत्तीनो नियम नथी. " तथा- उत्ताराम पासनी, नेसजी आणि ठाणा ठाइत्ता । सहइ उबसज्मे धोरें, दिव्चाई तत्थ अविकंपो || " " ग्रामादिकनी बहार उत्तान एटले चीतो सुवे, अथवा पडखे सुके अथवा चपट बेसे. पण एवा स्थाने रहीने निष्कंपपणे दिव्यादिक घोर उपसर्गाने सहन करे. " "दुचावि एरिसचि वहिच्या गामाइश्रण नवरं तु । उकड लगंडसाई, दंडाय यओ व ठाए || " बीजी एटले नवमी प्रतिमा पर एज प्रकारे वे एटले ग्रामादिकनी बहार रहेवुं तथा तप पारशुं विगेरे आठमी प्रमाणे छे. विशेष ए के उत्कटुक एटले उभडक श्रासने बेसे, अथवा लगंडशायी एटले लगडानी जेम मस्तक धने पानी १ पण शब्द लख्यो छे तेथी पूर्वनी सात प्रतिमामां पण पारणे आंबेल समज. 10-03-00 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6- ****** पानीज मात्र पृथ्वीने स्पर्श करे अने पृष्ठभाग स्पर्श करे नहीं ए रीते चत्ता सुवे, अथवा दंडनी जेम लांबा सुह रहे. अने दिव्यादि उपसर्गोंने सहन करे. " " तचावि एरिस चित्र, नवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । वीरासमहवा वि, ठाइजा मंत्रो वा ॥ " श्रीजी एटले दशमी प्रतिमा पण ते ज प्रमाणे थे, विशेष ए के तेनुं स्थान गोदोही गायने दोवा बेसे तेवी रीते बेस, अथवा वीरासने रहेतुं, अथवा आम्रकुब्ज एटले बाना फळनी जेम वक्र थाकारे बेसनुं वीरासन वे प्रकारे धाम के या प्रमाणे. -- सिंहासन पर बेसी पगने भूमिपर राखवा, पछी सिंहासन लइ लइए अने जे आसन रहे ते ज रीते अधर रहे ते. बीजी रीत ए छे जे डाबा पगने जमणा साथळपर अने जमणा पगने डावा साथळपर राखी डावा हाथनी इथेळी उपर रहेली जमणा हाथनी इथेळीवडे नाभिने स्पर्श करी रहेनुं ते. " ܕܕ " एमेव होराई, छ भत्तं अपागं नवरं । गामनगराण बहिष्या, वग्वारिभ्रपाणिए ठाण ॥ 11 “ए ज रीते अग्यारमी प्रतिमा एक रात्रिदिवसनी छे. तेर्मा चोविहार कुछ करवानो थे. बाकी सर्व प्रथमनी जेम जागा. विशेष ए के गाम के नगरनी बहार हाथने लांबा राखी उभा रहेवानुं छे. या प्रतिमा ऋण दिवसे धाय छे. कारण के एक रात्रदिवसनी प्रतिमा कर्या पछी छद्ध करवानी छे. " " " एमेव एगराई, अट्टमभत्ते ठाण बाहिरओ । ईसिंपन्भार गए, आणि भिसनयोगदिङ्कीए || " बारमी प्रतिमा पण ए ज रीते एटले अग्यारमीनी जेम एक रात्रिनी ज छे. तेमां ते रात्रिने छेडे पोविहार अहम Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप करवानो छे. ग्रामादिकनी बहार कायोत्सर्गे रही कांक शरीरने नीचुं नमावी रहे अने अनिमेष नेत्रे एक पुद्गळपर निश्चळ दृष्टि राखीने रहे." “साहहु दो वि पाए, यम्घास्यिपाणि दायर ठाणं । बग्धारिथलाविभुमो, संस दसासु जहा भणि |" "आ बारमी प्रतिमामां बने पगने सहरीने एटले बने पग बच्चे चार अंगुलन प्रांतर राखी लांचा हाथ राखीने कायोत्सर्गे रहे. बाकीनु दशाश्रुतस्कंधथी जाणवू. मा प्रतिमामा अहोरात्रि गया पछी अट्टम करवानो छ तेथी चार दिवसे पूर्ण थाय छे. आ बार प्रतिमाने पार पामेला साधु अवधि, मनःपर्याय के केवळनाननी लब्धिने अवश्य पामे छे." किरिआसु भूअग्गामेसु, परमाहम्मिएस य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ।। १२॥ ___ अर्थ---( किरियासु ) क्रियाने विष एटले कर्मबंधना कारणभूत अर्थानादि तेर क्रियाओने विषे, ( भूअग्गामेसु ) भूतग्रामने विपे एटले चौद प्रकारना जीवसमृहने विषे तथा ( परमाहम्मिएमु य ) पंदर परमाधार्मिकने विषे (जे भिक्खू ) जे साधु ( निचं ) निरंतर ( जयई ) यतना करे, (से) ते ( मंडले ) संसारमा (न अच्छइ ) रहेतो नथी. १२. अहीं तर क्रियाओ पा प्रमाणे छ.-अर्थक्रिया-पोताना अथवा परना प्रयोजने क्रिया करतां पृथिव्यादिक प्राणीओनो षध थाय ते. १. अनर्थक्रिया-प्रयोजन बिना यधनी क्रिया कराय ते. २. हिंसाक्रिया-"आ मने अथवा मारा स्वजनने मारतो हतो, अथवा मारे छे अथवा मारशे, मेथी तेने हुं मारु" एम विचारी जे दंडनो-वधनो प्रारंभ करवो ते. ३. भक Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मात् क्रिया-बीजाने बाणादिकवडे मारतां वचमा बीजो कोई मराइ जाय ते. ४, दृष्टिविपर्यासक्रिया-प्रशत्रुने शत्रु धारी | तेनी हिंसा करवी ते. ५. मृषाक्रिया-पोताने माटे अथवा पोताना स्वजनादिकने माटे असत्य बोलवू ते. ६. अदत्तग्रहणक्रिया- | स्वपरने माटे जे अदत्तनुं ग्रहण करवु ते. ७. आध्यात्मिकी क्रिया बाह्य कारण विना मन दुःखाय ते एटले पोतानुं कोई वाकुं बोलतुं न होय छतां मनमा शंका राखीने दुभाई ते. ८. मानकिया-जाति आदिकना मदे करीने अन्यनी हीलना करवी ते. ६. मित्रद्वेषवृत्तिक्रिया-मित्रो अथवा मातापितादिक स्वजनोने थोडा अपराधमां पण वधधादिक तीव्र दंड करवो ते, प्रा अमित्रक्रिया पण कहेवाय छे. १०. मायाक्रिया-माया कपटथी अन्यने छेतरवो अथवा वधबंधादिक करवा ते. ११. लोभक्रिया-लोमथी अन्यने वधादिक करवा ते. १२. ऐयोपथिकीक्रिया-निरंतर अप्रमत्त साधुने मन, वचन अने कायाना योगमात्रधी जे क्रिया लागे ते. १३. चौद प्रकारनो जीवराशि या प्रमाणे छे.-सूक्ष्म एकेंद्रिय १, बादर एकेंद्रिय २, द्वींद्रिय ३, त्रींद्रिय ४, चतुरिंद्रिय ५, संक्षिपंचेंद्रिय ६ अने असंक्षिपंचेंद्रिय ७ ए सात पर्याप्ता अने ए ल सात अपर्याप्त मळी चौद थाय के. पंदर परमाधार्मिक या प्रमाणे छे.-अंच १, अंपरीष २, श्याम ३, शबल ४, रुद्र ५, उपरुद्र ६, काल ७, महाकाल ८, सिपत्र, धनु १०. कृत ११. वालक १२. वेतरणी १३. खरस्वर (घोष ) १४. अने १५. अहीं तेर क्रियाना त्यागमा, चौद भूतराशिना रक्षणमा अने पंदर परमाधार्मिकना ज्ञानमा यत्न करवानो के. १२. गाहासोलसएहि, तहा अस्संजमम्मि य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छई मंडले ॥ १३ ॥ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *O***@**-••••) ‹•-} *•»* ̄*←←+13+ अर्थ - ( माहासो लस एहिं ) जेनुं सोळमुं अध्ययन गाथा नामनुं छे एवा सूत्रकृतांगना प्रथम श्रुतस्कंधना सोळ मध्यथनोने विषे ( तहा ) तथा ( अजमम्मि य ) सतर प्रकारना असंयमने विषे ( जे भिक्खू ) जे साधु (निचं ) निरंतर ( जयई) यत्न करे एटले गाथाषोडशकमा कला प्रमाखे करे अने सत्तर असंयमनो त्याग करे, (से) ते साधु ( मंडले ) संसारमा ( न अच्छइ ) रहे नहीं भ्रमण करे नहीं .१३. गाथाषोडशक था प्रमाणे - समय १, वैतालिक २, उपसर्गपरिज्ञा ३, स्त्रीपरिज्ञा ४, नरकविभक्ति ५ वीरस्तच ६, कुशीभाषाज्ञाण, चौधराप धर्मक, समाधि १०, मार्ग ११, समवसरण १२, आइतह १३, ग्रंथ १४, संयम १५, अने गाथा १६. सत्तर प्रकारनो असंयम या प्रमाणे. - पृथ्वीकाय असंयम १, अप्काय असंयम २, अग्निकाय असंयम ३, वायुकाय असंयम ४, वनस्पतिकाय असंयम ५, द्वींद्रिय असंयम ६, श्रींद्रिय असंयम ७, चतुरिंद्रिय असंयम ८ पंचेंद्रिय असंयम है, ( स पृथ्वीकायादि नवनो संघट्टादिक करवाथी हिंसारूप असंयम थाय छे. ) अजीव असंयम - प्राणीना उपमर्दनः हेतुरूप पंचकादिकनुं उत्सर्ग मार्गे ग्रहण करवाथी असंयम धाव छे अने अपवाद मार्गे ग्रहण कर्या छतां पण यतना नहीं करचाथी असंयम थाय . १०. प्रेक्षा असंयम- चवडे जोया बिना क्रिया करवी ते ११. उपेदा असंयम चारित्रक्रियामां सीदाता साधुने प्रेरणा न करवी अथवा गृहस्थीने तेना व्यावहारिक कार्यमा प्रेरणा करवी ते १२. प्रमार्जना असंयमसागरिकat ( श्रावकनी ) समक्ष पग न घोवा, तेनी परोक्षमा घोश, ए रीते न वर्तकुं ते. १३. परिष्ठापना संयम-दोषबाळा आहार तथा विष्ठा - मूत्र विगेरेने विधिप्रमाणे न परठवावा ते. १४. मन असंयमध्धकुशल मननो निरोध न करवी +100++******+ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव 08-03 अथवा कुशल मनने न प्रवर्ताषितुं ते. १५० वचन असंयम - शुभ वचन न बोलवं अथवा अशुभ वचननो निरोध न करतो ते. १६. तथा काय संयम - कार्य वखते उपयोगधी गमनादिक कर जोइए श्रने कार्य न होय त्यारे अंगोपांगने संकोची स्थिर रहे जोइए, ते प्रमाणे न वर्तकुं ते. १७. आ असंयमनो त्याग ए ज सचर प्रकारनो संयम छे. बंभfम्म नायज्झणे, ठाणेसु असमाहिए । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ||१४|| १३. अर्थ (मम्मि ) हार प्रकारना ब्रह्मचर्यने विषे, श्रोगणीश ज्ञाताध्ययनने विषे तथा ( असमाहिए ) श्रसमाधिना ( ठाणे ) वीश स्थानोने विषे (जे भिक्खू ) जे साधु ( निचं ) निरंतर ( जयई) यत्न करे, ( से) ते (मंडले ) संसारमा ( न अच्छ ) न रहे - भ्रमण न करे. दार प्रकारनुं ब्रह्मचर्या प्रमाणे. दिव्य श्रने श्रदारिक ए वे प्रकारना कामने मैथुनने मन, वचन अने कायाए करी कर, करा अनुमोद नहीं. एटले वे प्रकारने त्रण योगे गुणतां छ थया, तेने त्रण करणे गुणतां भढार थाय छे. ते दार प्रकार ब्रह्मचर्य पाळवानुं छे. श्रीगणीश ज्ञाताध्ययन या प्रमाणे - उत्क्षिप्त १, संघाड २, अंड ३, कूर्म ४, सेलक ५, तुंब ६, रोहिणी ७, मनीनाथ ८, माकंदी ६, चंद्रमा १०, दावद्रव ११, उदक १२, मंडूक १३, तेलीपुत्र १४, नंदीफळ १४, अपरकंका १६, आकीर्णक १७, सुमार १८ अने पुंडरीक १६ का अध्ययनो जाणवाना छे. -भा Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीश असमाधिनां स्थानो आ प्रमाणे. द्रुतद्रुतचारित्व-उतावळं उतावलं चालवू ते. शीघ्र चालवाथी पोते पडी जाय तो भारमानी असमाधि थाय, चीजा जीवनो बध थाय तो अन्यने असमाधि थाय अने परलोकमा प्राणीवधना कर्मन लीधे असमाधि थाय. पा रीते सर्व स्थानोमा जाणवू. १. प्रमार्जन को विनाना स्थानमा बेसवू, उभा रहे, सुषु विगेरे करवू ते. २. बराबर प्रमार्जन कर्या चिना बेसवा विगेरेनी क्रिया करवी ते. श्राव स्थानोमा सर्यादिकवडे पोताने असमाधि थाय छे. ३. अतिरिक्त शय्यासन-मोटो उपाश्रय होवाथी बीजा पण साधुयो आवे तेनी साथे कलहादिक थवाथी पोताने अने परने असमाधि थाय ते, तथा पीठ फलकादिक वधारे राखया ते. ४. रत्नाधिक पराभव-पोताथी मोटा गुणवंतनो पराभव करवो एटले तेनी सामं बोलq ते. ५. स्थविरपराभव-स्थविर साधनो पराभव करवो ते. ६. भूतोपघात-प्रमादथी | एकेंद्रियादिकनो वध करवो ते. ७. संज्वलन-क्षणे क्षणे रोप करवो ते. ८. क्रोधन-चिरकाळ सुधी क्रोध करचो ते. १. * पृष्ठमासिक-परोचे परनी निंदा करवी ते अथवा अपवाद आपको ते. १०. अबधारिणी भाषा वारंवार 'पा एम ज छे' एवी निश्चयवाळी वाणी बोलकी ते. ११. नवाधिकरण करण-अन्य अन्य नवा नवा कलहनी उदीरणा करवी ते. १२. उदीरण-शांत थयेला कलहने । करवा ते. १३. अकाळस्वाध्याय-श्रकाळे स्वाध्याय करवो ते. तेम करवाथी || क्षुद्र देवता असमाधि उत्पन्न करे छे. १४. सचित्त पृथ्वीनी रजथी खरडायेला हाथवड़े भिक्षा ग्रहण करवी ते अथवा रज सहित पगवडे अस्थंडिल भूमिपर जतां पग न प्रमार्जवा ते. १५. विकाळे पण मोटा शब्दथी बोलधुं ते. १६. जेनी तेनी साये कलह करखो ते. १७. झंझ एटले गच्छनो भेद करवो ते. १८. सूर्योदयथी प्रारंभी अस्त मुधी छूटे मुखे भोजन करवू ते. Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा १३, वस्त्रैषणा १४, पात्रैषणा १५, अवग्रहप्रतिमा १६, सप्तकसप्ततिका २३, भावना २४, विमुक्ति २५, उपघात २६, अनुद्घात २७ अने श्रारुहणा २८. आनी यथार्थ रूपपणामा यत्न करखो. १८. पावसुयपर्सगेसु, मोहट्टासु चैव य । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले ॥ १९ ॥ अर्थ - ( पाचसुयपसंगेसु) पापश्रुतना श्रीगणीश प्रसंगाने विषे ( वय ) तथा ( मोहड्डाणेसु ) मोहना त्रीश स्थानको विषे ( जे भिक्खू ) जे साधु ( निचं ) निरंतर ( जयई ) यत्न करे, ( से ) ते ( मंडले ) संसारने विषे (न अच्छा ) न रहे - भ्रमण न करे. पापश्रुतनाओगी प्रसंग श्रा प्रमाणे. - प्रथम आठ प्रकारनो निमित्त शास्त्र के ते आ प्रमाणे. – दिव्य एटले व्यंतरा अट्टहासादिकनुं जेमां ज्ञान थाय छे ते १, उत्पात रुधिरनी दृष्टि विगेरे उत्पातनुं ज्ञान जमां होय ते २ अंतरिक्ष-ग्रहनी भेद तथा उल्कापात विगेरेनुं जेमां ज्ञान होय ते ३, भौम-भूमिकेपादिकनुं ज्ञान जेमां होय ते ४, आंग - अंगना फरकवा विगेरेनुं ज्ञान जेमां होय ते ५, स्वर-षड्ज त्रिगेरे स्वरो तथा पक्षीना स्वर विगेरेनुं ज्ञान जेमां होय ते ६, लक्षगापुरुष, स्त्री विगेरेना लक्षणोनुं ज्ञान जेमां होय ते ७ अने व्यंजन-तल, मसा विगेरेनुं ज्ञान जेमां होय ते . आ आठ कारनां शास्त्री उपर सूत्र, वृत्ति अने वार्तिक ए ऋण ऋण होवाथी २४ भेद याय के तथा गंधर्व २५, नाट्य २६, वास्तुविद्या २७, धनुर्वेद २८ अने आयुर्वेद २६. आ ओगणग्रीश पापशास्त्रो त्याग करवामां सुनिए यत्न करवाना . ( तेम खे तो मात्र आत्महितकारक शास्त्रो ज वांचवाना छे. ) Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयनां श्रीश स्थानो पा प्रमाणे छे.-नदी आदिकना जम्मा प्रवेश करी रौद्र अध्यवसायथी त्रस प्राणीनी हिंसा करे ५, हाथवडे मुखने बंध करी हृदयमा दुःख सहित रोता बकरा विगैरेने मारे २, वाधी विगेरेवडे मस्तकने गांधीने मारे * ३, मुद्गर विगेरेवडे मस्तकमा प्रहार करीने इणे ४, घणा लोकोना नायक अथवा रक्षण करनारने हुणे ५, सर्वने साधारण | * एवा ग्लानादिकनुं छती शक्तिए औषधादिक न करे ६, मिक्षादिक माटे पावेला साधुने अधर्मी होवाथी हणे ७, कुयुक्ति वडे मोह पमाडी पोताने अथवा परने चारित्रधर्मथी भ्रष्ट करे ८, जिनेश्वरना अवर्णवाद बोले & प्राचार्यादिकनी जात्यादि * कवडे निंदा करे १० तेमनी वैयावच्चादिक न करे ११, वारंवार अधिकरणने कलहने उत्पन्न करी नीर्थनो भेद करे ५२, दोषने * जाणतां छतां वशीकरणादिक को १२, मालगोललो खास पानी मत न आ भव अने परभव संबंधी विषयोनी प्रार्थना करे १४, पोते बहुश्रुत नहीं छतो हुँ बहुश्रुत छ' एम कहे १५, अतपस्वी छतां हुँ तपस्वी हुँ' एम कहे १६, पर विगेरेमा * कोइ माणसने राखी तेमां अग्नि सळगावे १७, पोने अकार्य करी बीजाए कर्यानु कहे १८, अशुभ मनोयोगवडे धणी माया | || करी सर्च लोकने छेतरे १६, सत्य बोलनारने तुं असत्य बोले छे' एम कही खोटो पाडे २०, निरंतर कलह कर्या करे २१, लोकोने मार्गमा लइ जइ तेनु वित्त हरण करे २२, अन्यने विश्वास उपजावी तेनी खी प्रत्ये गमन करे २३, पोते | कुमार नहीं छतां ' हुं कुमार छु' एम कहे २४, पोते ब्रह्मचारी नहीं छतां 'हुं ब्रह्मचारी हुँ' एम कहे २५, जेनाथी ।। श्वर्यने पाम्यो होय तेना ज धनादिकनुं वरण करे २६. जेना प्रभावथी पोतानो उदय थयो होय तेनाज भोगादिका अंतराय करे २७, सेनापति, उपाध्याय, राजा, श्रेष्ठी विगेरेने हणे २८, देवादिकने जोया न होय छतां जोयानु कहे २६, Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K*****DY $6****$EX १६. तथा एपणा समिति न पाळवी ते २० मा स्थानो तजवानां थे. १४. इक्कीसाए सबले, बावीसाए परीसहे । जे भिक्खू जयई निश्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ १५ ॥ अर्थ - (इक्वीया) एकत्रीश (सबलेसु ) शबळक्रियाने विषे तथा ( बावीसाए ) बाधीश ( परीसहे ) परिषहोने विषे (जे भिक्खु ) जे साधु ( नियं) निरंतर ( जयई ) यत्न करे, ( से ) ते ( मंडले ) संसारमा ( न अच्छा ) रहे नहीं भ्रमण करे नहीं. मन करावाथ के तेना एकवीश भेद या प्रमाणे छे. हस्तकर्म करते. १. अतिक्रम अने प्रतिचारवडे मैथुन से ते. २. रात्रे भोजन कर एटले रात्रे ग्रहण करेलुं दिवसे खावुं अथवा दिवसे ग्रहण करे रात्रे खातुं ते. ३. यधाकर्मी भिक्षा ग्रहण करवी ते अथवा हमेशां बे ण बार खावुं ते. ४. राजपिंड ग्रहण करवो वे. ५. क्रीतवेचावो लीघेलो पिंड लेवो ते. ६. प्रामित्य- उघारे लीघेलो आहार लेवो ते. ७. अभ्याहत - सामो आलो आहार लेबो ते. ८. आच्छेद्य-कोइनी पाथी सुंदवीने लावेलो आहार ग्रहण करवो ते. ६. पच्चख्खाण करेली वस्तु खावी ते १०. छ मासनी अंदर एक गच्छधी बीजा गच्छमां जनुं ते. ११. एक मासमा ऋण दकलेप करवा ते. तेमां नदी विगेरे उतरतां अर्धी जंघा प्रमाण जळ होय तो संघट्ट कद्देवाय छे, नाभि प्रमाण होय तो लेप कद्देवाय छे अने नाभिथी उपर जळ होय तो लेपोपरि कहेवाय छे. तेथी नाभि प्रमाण जळाशयो एक मास ऋण वार उतरवा ते, अथवा एक मासमां त्रय बार पोतानो अपराध ढकिवा माटे माया कपट कर ते. १२. जाखी जोहने पृथ्व्यादिक जीव इणवा ते. १३. जाणीने Ya *0K+ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृपावाद बोलq ते. १४. जाणीने भासदान लेधु द. १३. धान रहिए हावत्त पृथ्वी उपर उभा रहे, शयन करवू , के येसवु ते. १६. स्निग्ध अथवा सचित्त रजवढे व्याप्त एची पृथ्वीपर, सचिन शिला विगेरे उपर अथवा घुग्णादिक जीव- याळा काष्ठ विगेरे उपर स्थानादिक कर ते. १७. इंडा, इंडाळ, त्रस जीव, चीज, लीलवणी के लीलफूल विगेरेवाळा आसनादिक उपर स्थानादिक करवा ते. १८. जाणीने कंद, मृळ, पुष्प, फळादिक खावा ते. १६. एक वर्षमा दश वार दकलेप | करवा अथवा दश बार माया कपट करवू ते. २०. जाणी जोइने सचित्त जळादिकथी व्याप्त एवा हस्त के पात्रादिकथी | श्राहार ग्रहण करवो ते. २१. आ सर्व शबळ क्रिया वर्जवानी छ. तथा बावीश परिपहोने सहन करवाना छे. ते परिपहो | प्रथम श्रावी गया छे. १५. तेवीसइ सूअगडे, रूवाहिएसु सुरेसु अ । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ १६ ॥ ___ अर्थ-( तेवीसह ) त्रेवीश एटले त्रैवीश अध्ययनवाला (सूअगडे ) सुयगडांगने विषे तथा (रूवाहिएसु ) एक अधिक एटले चोवीश ( सुरेसु अ) देवोने विषे (जे भिक्खू । जे साधु ( निच्चं ) निरंतर ( जयई ) यत्न करे. ( से ) ते (मंडले) संसारमा (न अच्छह )न रहे-भ्रमण न करे. सूत्रकृतांगना श्रेवीश अध्ययन आ प्रमाणे छे. पुंडरीक १, क्रियास्थान २. आहारपरिज्ञा ३, प्रत्याख्यानक्रिया ४, अनगारमार्ग ५, आर्द्रकुमार ६, नालंदक ७ तथा बाकीना समयादि सोळ प्रथम कहां छे ते मळी कुल तेत्रीश अध्ययन जाणवानां छे. Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोचीश देवो पा प्रमाणे.-भवनपति दश, व्यंतर आठ, ज्योतिषी पांच अने वैमानिक एक मळी कुल चोवीश * जातिना देवोने अथवा चौवीश तीर्थकरोने विपे यथार्थ प्ररूपणा करवावडे यतना करवानी छ. १६. पणवीस भावणाहि, उद्देसेसु दसाइणं । जे भिवस्य जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ १७ ॥ __ अर्थ-- ( पणवीस ) पचीश ( भावणाहिं ) भावनाने विष तथा ( दसाइणं ) दशादिना एटले दशाकल्पव्यवहारना | I ( उद्दसेसु ) छन्वीस उद्देशाने विषे (जे भिक्खू ) जे साधु (निच्चं ) निरंतर (जयई ) यत्न करे, (से) ते (मंडले) संसारमा (न सामान-अपशा न करे. पांच महाव्रतनी पचीश भावना या प्रमाणे छ.--पहेला व्रतनी-इर्यासमिति १, मनगुप्ति २, वचनगुप्ति ३, एपणा|| समिति ४ अने आदान मांड निक्षेपणासमिति ५. वीजा व्रतनी-विचारीने बोलवू १, क्रोधनो त्याग २, लोभनो त्याग ३, | भयनो त्याग ४ अने हास्यना त्याग ५. जीजा व्रतनी-अवग्रहनी याचना पोते करे १, बीजाने वृणादिकनी आज्ञा पापची होय तो उपाश्रय देनारना कहेवार्थी आपे २, माहार पाणीशो, शयननो अने बेसवा विगेरेनो अवग्रह स्पष्ट रीते अनुज्ञा लाइने चापरे ३, साधर्मिक साधुओने माटे पण प्रत्रग्रहनी याचना करी पोते स्थानादिक करी आपे. ४, तथा गुरुनी अनुज्ञाथी आहार पाणी वापरे ५. चोथा व्रतनी-स्त्री, पशु, पंडकवाळी वस्तिमा न रहेनुं १, स्त्रीकथानो त्याग २, स्त्रीमोना भवयवो जोवानो त्याग ३, पूर्व मैथुन के क्रीडा करी होय तेना स्मरणनो त्याग ४ अने प्रणीत भोजननो त्याग ५. पांचमा Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ khpke khetox * -------- है तनी-शब्द, रस, रूप, गंध अने स्पर्श ए पांचे विषयो मनोज जोइ राग न करवो अने अमनोन जोइ द्वेष न करवो ए पांच विषयोनी पांच भावना छे. कुल पांच महाव्रतनी पचीश भावना भाववामां यत्न करवानो छे. ___ दशाकल्पव्यवहारना छवीश उद्देशा आ प्रमाणे-दशाश्रुतस्कंधना उद्देशनकाळ दश छे, वृहत्कल्पना छ छे अने व्यवहारना दश उद्देशन काळ छे. कुल मळीने २६ उद्देशानी प्ररूपणा करवामा यत्न करवानो छ. १७. अणगारगुणहि च, पकप्पम्मि तहव य । जो भिक्खु जयई निचं, से न अच्छइ मंडले ॥ १८॥ अर्थ- ( अरणगारगुणेहिं च । साधुना सनावीश गुणोने विषे ( तहेर य ) तथा ( पकप्पम्मि ) प्रकल्पने विषे एटले | प्रहावीश अध्ययनवाला पाचारांगने विषे (जो भिक्खू । जे साधु ( निचं) निरंतर ( जयई ) यत्न करे, ( से ) ते ( मंडले ) संसारमा ( न अच्छइ ) न रहे--भ्रमण न करे. साधुना सत्तावीश गुणो था प्रमाणे.--- रात्रिभोजन सहित छ महानतो ६, पांच इंद्रियोनो निरोध ११, भावसत्य १२, करणसत्य १३, क्षमा १५, विरागता १५, मन, वचन, कायानो निरोध १८, छकायनी रक्षा २४, संयमयोगनी रक्षा, २५, ! परिषह सहन करवा २, अने मरण पर्यंतना उपसर्गों सहन करवा २७. प्राचारांगना अठ्ठावीश अध्ययन ा प्रमाणे.--शस्त्रपरित्रा १, लोकविजय २, शीतोष्णीय ३, सम्यक्च ४, आवंति-लोकसार ", धृताध्ययन ६, विमोक्ष ७, उपधान श्रुत ८, महापरिक्षा ६, पिंडैपणा १०, शय्या ११, इयों १२, Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***************-**-993 कामविषे गर्दभनी जेवा आसक्त एवा देषोथी शुं १ इत्यादिक कही तेमनो वर्णवाद बोले. ३०. मा स्यानो स्वाग करवामां यत्न करवो. १६. आा ३० क्रियाश्रो पापना स्थानरूप समजवी. सिद्धाइगुणजोएस, तितीसासायखासु अ । जे भिकू जयई निचं, से न अच्छर मंडले ॥ २० ॥ अर्थ --- ( सिद्धाइगुण ) सिद्धना श्रतिशयवाळा गुणो एकत्रीश छे तेने विषे, तथा ( जोएसु ) बत्रश योगसंग्रहने विषे, तथा (तित्तीसासायासु अ ) तेत्रीय आशातनाने विषे ( जे भिक्खु ) जे साधु (निश्वं ) निरंतर ( जयई) यत्न करे, (से) ते ( मंडले ) संसारमां ( न भच्छह ) न रहे. सिद्धना अतिशायी गुण एकत्रीश आ प्रमाणे छे. पांच संस्थान, पांच वर्ण, वे गंध, पांच रस, आठ स्पर्श भने ऋण वेद, २८ नो अभाव तद्रूप २८ गुण, तथा काय रहित २३, संग रहित ३० अने जन्म रहित ३१. आ एकत्रीश अथवा ज्ञानावरणनी प्रकृति ५, दर्शनावरणनी ६, बेदनीयनी २, मोहनीयनी दर्शनमोहनी अने चारित्रमोहनी ए २, आयुकर्मनी ४. नामकर्मनी शुभ ने अशुभ २, गोत्रकर्मनी २ अने अंतरायनी ५, आ आठे कर्मनी ३१ प्रकृतिना क्षयरूप एकश्रीश गुण जायचा. तेन यथार्थ जाणी तेनी श्रद्धा करवा अने ते प्रकृतिओने दूर करवा यत्न करवानो छे. योग एटले मन, वचन अने कायाना शुभ व्यापार, तेना बीश प्रकारनो संग्रह था प्रमाणे छे. – शिष्ये प्रशस्त योगना संग्रह माटे आचार्यने आलोचना सभळावधी १, आचार्ये पण प्रशस्त योगना संग्रहने माटे आलोचना आपीने ते *+2018+00 Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24-*-*-* बीजा पास प्रकाश करवी नहीं २, सर्व साधुमाऐ आपत्तिमा धर्मनी विशेष ढसा ही २, बालकः प्रथवा परलोकना न|| फळनी अपेक्षा विना तपस्या करवी ४, ग्रहणा अने आसेपना ए बे प्रकारनी शिक्षार्नु सेवन कर, ५, शरीरनी शुश्रूषा करवी नहीं ६, तप करी बीजाने जणाववो नहीं ७, लोभनो त्याग करवो ८, परिपहादिकनो पराजय करवो ९, मार्जव * राखq १०, संयमन विष निर्मळता-निरनिचारता रास्ववी १५. समकितने शुद्ध कर १२, चित्तनी समाधि राखवी १३, | पर पाळवामा माया न करवी १४. विनयमा उपयोग राखी माननो त्याग करवा १५, धृतिमा बुद्धि राखनी १६, 1/ संवेगमा तत्पर रहेg १७, पोताना दोष ढांकवा माटे जे माया करवी ते प्रणिधि कहेवाय छे, तेनो त्याग करवा १८, सारी रीते सर्व विधि करवी १६, संवर करवो २०, पोताना दोषनो त्याग करवो २१, सर्व कामथी विरक्त थवानी भावना राखी || २५, मूळगुणनुं प्रत्याख्यान करणे २३, उत्तरगुणन प्रत्याख्यान कर २४, द्रव्यथी अने भायथी कायोत्सर्ग करवो २५, - प्रमादनो त्याग करवो २६, क्षणे क्षणे सामाचारीनी क्रिया करवी २७, ध्यानसंकृतपणुं एटले आर्त रौद्रनो त्याग करी धर्म | अने शुक्ल ध्यानमा आदर करवो २८, मारणांतिक परिषह सहन करवा २६, सर्व संगनो त्याग करवो ३०, दोष लागे | तेनुं प्रायश्चित्त करवू ३१, तथा अंत समये आराधना करवी ३२, मा बत्रीश योगर्नु पालन कर. नेत्रीश आशातना आ प्रमाणे छे.-शिष्ये गुरुनी आगळ-सन्मुख १, पडखे २, अथवा पादळ ३ अत्यंत नजीक चालवू ते माशातना छे, एज रीते उभा रहेj ते श्राशातना छे ६, एज रोते बेसवु ते पण अाशातना छे ६, बहिभूमिए गयो सतो गुरुनी पहेला चमेने साधारण एवा जळवडे शौचक्रिया करे १०, गुरुनी पहेलो गमनागमन मालोवे ११, रात्रि Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समये गुरु बोलावे त्यारे जागता छता उत्तर न मापे १२, बोलावया लायक श्रावकने गुरुए बोलान्या पहेला पोते बोलाये १३, थाहारादिक लावीने प्रथम बीजा साधुसो पासे भालाची पछी गुरुनी पासे पालोचे १४, एज रीते प्रथम बीजाने देखाडी पछी गुरुने देखाडे १५, गुरुनी पहेला बीजाओने आहार बाटे निमन करे १५, शुरुमे पूरथा बिना वीजा साधुनोने तेमनी इच्छा प्रमाणे घणो आहार प्रापी दे १७, पोते सारो सारो आहार ग्रहण करे १८, दिवसे पण गुरु बोलावे ते सांभळ्या छतां उत्तर न आपे १६, गुरु प्रत्ये कठोर वचन बोले २०, गुरु बोलावे त्यारे पोते जे ठेकाणे रयो होय | त्यां बेठो बेठो ज उत्तर आपे २१, गुरु बोलावे त्यारे ‘शुं कहो को ? ' एम बहुमान रहित बोले २२, गुरुने तुकारो करे २३, गुरु कहे के-" या ग्लान साधुनी वैयावच्च केम करतो नथी ?" त्यारे पोते सामो कहे के “तमे केम करता नथी ?" इत्यादि उत्तर प्रापे २४, गुरु कथा कहेता होय ते वखते पोतानुं मन सारं न राखे-तेनी अनुमोदना न करे २५, गुरु कोइने सूत्रादिकनो अर्थ कहेता होय ते वखसे " तमने सांभरतुं नथी, आनो अर्थ तो वो छ " इत्यादिक बच्चे बोले २६, गुरु कथा करता होय त्यारे वचमा पोते आगळ आमळ कहेवा लागे २७, गुरु देशना देता होय ते वखते "भिक्षादिकनो अवसर थयो छे" एम कही गुरुनी पर्षदानो भंग करे २८, पर्षदा बेठी होय ते ज वखते गुरुए कहेलोज अर्थ पोतानी कुशळता देखाडवा माटे पोते बिस्तारथी कहे २६, गुरुना संथारा विगेरेने पोताना पगनो संघट्टो करे ३०, गुरुना ।। संधारापर वैसे अथवा सुवे ३१, गुरुथी उंचा आसने बेसे ३२, तथा गुरुनी समान आसन पर बेसे सुवे विगेरे ३३. आ सर्व आशातना तजवानी छे २०. Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LF हवे अध्ययनने समाप्त करे छ--- इइ एएस ठाणेसु, जो भिक्खू जयई सया । से खिप्पं सब्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिएत्ति बेमि ॥२१॥ | अर्थ-(इइ) मा प्रमाणे ( एएमु ठाणेसु ) श्रा कहेला स्थानोने विषे ( जो भिक्खू ) जे साधु (सया जयई ) नित्य यत्न करे, ( से ) ते (पंडिए) पंडित (खिप्पं) शीव ( सध्वसंसारा) सर्व संसारथी (विप्पाचइ) मुक्त थाय छे (त्ति बेमि ) एम हुं कहुं छु. ए प्रमाणे सुधर्मास्वामी जंधू स्वामीने कहे छे. इत्येकत्रिंशमध्ययनम्. ३१. अथ प्रभादस्थान नामर्नु बत्रीशमुं अध्ययन ३२. उपरना अध्ययनमां चारित्र कहुं ते चारित्र प्रमादना स्थान त्याग करवाथी ज मेवी शकाय के तेथी साधुए प्रमादनो al त्याग कर वो जोइए. प्रमादनो त्याग प्रथम तेनुं ज्ञान थया पछी थह शके छ तेथी तेने मारे ा अध्ययननो प्रारंभ करे - अञ्चतकालस्स समूलयस्स, सव्वस्स दुखस्स उ जो पमोक्खो। तं भासओ में पडिपोमचित्ता, सेणेह एंगंतहि हिअत्थं ॥१॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॐॐ *** अर्थ - ( अनंत कालस्स) जेनो काळ अत्यंत एटले आदि रहित छे. तथा ( समूलयस्स ) जे मूळ - कषाय अविरति विगेरे सहित छे एवा (सव्वस्स ) सर्व ( दुक्खस्स उ ) दुःखनो ( जो ) जे ( पमोक्खो ) प्रकर्षे करीने मोक्ष - विनाशरूप के ( तं) ते ( एगंतहि ) एकांत हितकारक वचन ( भासयो) कहेता एवा (मे) मारी पासे तमे ( हिश्वत्थं ) हितने माटे ( प डिपु चित्ता) प्रतिपूर्ण - सावधान चित्तवाळा थया सता ( सुणेह ) सांभळो. १. ते ज कहे छे. - नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, श्रह्माणमोहस्त विवज्जणाए । रागरस दोसस्स य संपूर्ण एगंतसोसते ॥ २ ॥ अर्थ (सन्स ) सर्व एवा ( नाणस्स ) मत्यादिक ज्ञानना ( पगासखाए ) प्रकाशनकडे एटले तेने निर्मळ करवावडे तथा ( माण मोहस्स ) मत्यज्ञानादिक ज्ञानमोह एटज्ञे दर्शनमोहनीय कर्म देना (विवज्जणाए ) बजवावडे तथा (रागस्स) राग (दोसस्स य) अने द्वेषना ( संखएां ) स्यवडे ( एगंत सोक्खं ) एकांत सुखबाळा ( मोक्खं ) मोचने ( समुवे ) पाये थे. अर्थात् अनुक्रमे ज्ञान, दर्शन अने चारित्रचडे मोच प्राप्त थाय छे. ए त्रणे एकत्र थयेला मोक्षनो उपाय के अने मोक्ष विना दुःखनो सर्वथा चय नथी. २, तस्लेस मग्गो गुरुविद्धसेवा, विवजणा बालजणस्स दूरा । सज्झायएगंत निसेवणा य, सुत्तत्थसंचिंतणया धिई य ॥ ३ ॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ – (तरुस ) तेना एटले मोचना उपायभूत ज्ञानादिकनो ( एस ) श्रा ( मग्गो) मार्ग - उपाय छे - ( गुरुषिद्धसेवा) सद्गुरूने वृद्ध पहले नी सेवा दशा ( बालजणस्स ) पासत्थादिक अज्ञानी जननो ( दूरा ) दूरधी ( विवखणा ) त्याग, तथा ( सज्झायएगंत निसेवया य ) स्वाध्यायनी एकांतपणे सेवा, तथा (सुत्तस्थसंचिताया ) सूत्र चितवन, (धिई य ) तथा धृति एटले मननी स्वस्थता धृति विना ज्ञानादिक प्राप्त थता नथी. ३. जो ज्ञानादिक मेळववाना उपाय श्रवा प्रकारना छे तो तेनी इच्छावाळाए प्रथम धुं कर जोइए ? ते कहे छे.आहारमिच्छे मिअमेसेजिं, सेहायमिच्छे निउँबुद्धिं । निकै अमिच्छेजे विवेगंजोगं, समाहिकामे समणे तैस्सी ॥ ४ ॥ अर्थ - ( समाहिकामे ) समाधि एटले ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना लाभने इच्छनार, ( समणे ) क्रियानुष्ठानादिकमां श्रम करनार ने ( तबस्सी ) षष्ठाष्टमादिक तप करनार साधु ( मिश्रं ) परिमित अने ( एसणिअं ) एषणीयनिर्दोष एवा (आहार) आहारने (इच्छे) इच्छे. तथा (निबुद्धि) श्रथने विषे एटले जीवादिक तच्चाने विषे निपुण के बुन्हि जेनी एवा (साहयं ) सहायने - शिष्यने ( इच्छे ) इच्छे, तथा ( विवेगजोगं ) विवेकवडे योग्य एटले स्त्री, पशु, पंडकादिक रहित एवा (निकेचं ) उपाश्रयने (इच्छेज ) इच्छे. ४. तेवा प्रकारनो सहायक - शिष्य न मळे तो शुं कर १ ते कहे . - Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ण वा लभिजी निउण सहाय, गुणाहिअंवा गुणओ समंवा । एकोऽवि पाँवाइँ विवजयंतो, विहरिज कोमेसु असजमाणो ॥५॥ अर्थ-(वा) जो कदाच (गुणाहिमं वा) पोताची अधिक गुणवान अथवा (गुणो समं वा) गुणे करीने पो. तानी समान एटले समान गुणात्राको (निउ ) निपुण (सहायं सहाय-शिष्य (ण लभिआ)न पामे तो ( एकोवि) पोते एकलो पख (पावाई) पापने एटले पापना हेतुभूत अशुभ मनुष्ठानने (विवजयंती ) वर्जतो थको तथा (कामेसु) इंद्रियोना विषयोने विषे ( असञ्जमाणो) आसक्ति रहित थयों थको (विधरित ) प. प. मा प्रमाणे दुःखना नाशनो उपाय ज्ञानादिक ले ते प्रसंग सहित कयु. हवे ज्ञानादिकनो प्रतिबंध करनार भने दुःखना हेतुरूप जे मोहादिक के तेनी जे प्रमाणे उत्पत्ति थाय छे, जे प्रकारे ते दुःखना हेतुरूप छ, जे प्रकारे तेनो चय | थाय छे अने जे प्रकारे तेना क्षयथी दुःखनो क्षय थाय थे, ते कहे छे. जहा य अंडप्पभवा बैलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्डा, 'मोहं च सहाययणं वयंति ॥ ६ ॥ अर्थ-(जहा य) जेम ( अंडप्पभवा ) हंसायी उत्पन थयेली (बलागा) पगली-पक्षिणी होय के, ( जहा य) अने जेम (बलागप्पभवं ) बगलीथी उत्पन्न थयेल ( अंडं ) इंड्ट होय छ, ( एमेव ) एज रीते (खु) निधे (मोहायपणं) Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहन स्थान ( तण्हा ) तृष्णा छ । च तण्हाययणं ) अने तृष्णानुं स्थान ( मोहं ) मोह के एम ( वयंति) पंडितो कहे : छे. तृष्णा एटले छती के अछती वस्तु उपरनी मूछो, ते मूळ रागप्रधान होय छे तेथी ते तृष्णाव राग लइ शकाय थे, अने ज्या राग होय त्या अवश्य द्वेष पण होय छे, तेथी तृष्णा शन्दे करीने राग अने द्वेष ए बझे कहेवाय छे. हवे ते रागद्वेष उत्कट होय नो पशांतमोह गणताणा मधी पड़ोंचेला पण मिध्यात्त गुण ठाणे जाय छे. तेथी तृष्णा शब्दबडे प्रज्ञानादिक मोह सिद्ध थाय छे. या गाथामा परस्पर हेतु हेतुमद्भाव कहेवाथी मोहादिकनी उत्पत्तिनो प्रकार को छे. ६. हवे ते मोहादिक जे रीते दुःखना हेतु छे, ते कढे छे. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥७॥ __ अर्थ-( रागो य) राग अने ( दोसो वि य ) द्वेष पण ( कम्मबीयं ) झानावरणादिक कर्मनु कारण छ, तेथी। करीने ज (कम्मं च ) कर्मने (मोहप्पभवं ) मोहथी उत्पन थयेलु ( वयंति ) कहे के. ( कम्मं च ) तथा कर्म (जाई. HI मरणस्स ) जन्म भने मरणY ( मूलं कारण छे, (च) अने ( जाईमरणं ) जन्म ने मरण एज ( दुक्खं ) दुःख छ* दुःखनुं कारण छ एम ( वयंति ) पंडितो कहे थे. ७. तेथी करीने Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देक्खं हय अस्त ने होइ मोहो 'मोहो हओ जस्स ने होई तहा। तण्हा हया जैस्स में होई लोहो, लोहो ओ जैस्स नै किंणाई ।। ८ ।। अर्थ-- (जस्स) जेने ( मोहो ) मोह ( न होइ ) नथी होतो, तेणे ( दुक्खं ) दुःख ( हयं ) हण्यु छ ( जस्स ) जेने | (तण्हा ) तृष्णा ( न होइ ) नथी, सेणे ( मोहो ) मोह ( हो) हण्यो छे, ( जस्स ) जेने (लोहो ) लोम ( न होइ) नथी, तेणे ( तण्हा ) तृष्णा (हया) हणी छे, अने ( जस्स ) जेने ( किंचणाई ) काइ पण धन (न ) नथी तेणे ( लोहो) लोभने ( हो) हण्यो के एम जाणवू.८. ही कोई शंका करे ---जना हेतु मोहानिक करा, ते ठीक छे, परंतु ते मोहादिकना नाशनो उपाय पूर्वे करो | ते ज छे के बीजा पण कोइ उपाय छ ? ए शंका दूर करवा माटे विस्तारथी तेना नाशना उपाय बतावे छे. रागं च दोसं च तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण समूलजालं । जे जे उवाया पडिवज्जियव्वा, ते कित्तइस्सामि अहाणपुचि ॥ ९॥ अर्थ-( रागं च ) रागने, ( दोसं च ) द्वेषने ( तहेब ) तथा वळी ( मोहं ) मोहने ( समूलजालं ) तीव्र कषायादिक अने विषयादिक मूळना समृह सहित ( उद्धत्तुकामेण ) उखेडवाने इच्छनारे (जे जे उवाया ) जे जे उपायो (पडिवजियन्वा ) अंगीकार करवाना छे, ( ते ) ते उपायो ( अहाणुपुचि ) अनुक्रमे ( कित्तइस्सामि ) हुँ कहीश—कहुं हुं. ६. Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज कहे छे. --- रसा पगामं न निसेविअव्वा, पायं रसा वित्तिकरा नराणं । दत्तं च कामा समभिवंति, दुमं जहा सादुफलं व पक्खी ॥ १० ॥ अर्थ - (रसा ) रसो एटले दूध विगेरे विग ( पगामं ) अत्यंत एटले जरा पण ( न निसेविकान्त्रा ) सेवा लायक नथी. कारण के (पा) प्राये करीने (रसा ) रसो ( नराणं ) पुरुषोने तथा उपलक्षणाथी स्त्रीधोने पथ (दिचिकरा ) दृप्ति - मद करनारा थे, ( दिनं च ) श्रने दमिवाळा मनुष्यने (कामा ) विषयो ( सममिद्दवंति ) पराभव करे छे. कोनी म १ ते कहे . - ( जहा ) जेम ( सादुफलं ) स्वादिष्ट फळवाळा ( दुमं ) वृचने ( पक्खी व ) पतम्रो जेम पराभव करे थे तेम. अहीं वृक्ष जेवा पुरुष- मनुष्य के स्वादिष्ट फळ जेवुं दृप्तपणुं वे अने पक्षी जेवा विषयो छे. १०. देगी पेरणे वैणे, समारुओ नोवर्समं वेइ । ऐर्विदिग्गी वि पैगाम भोइणो ने बभैयारिस्स हिऔय कैस्सइ ॥ ११ ॥ (वणे ) वनमां ( समारुभो ) वायु सहित एवो ( दवग्गी ) (एव) ए ज प्रमाणे ( इंदिअग्गी वि ) इंद्रिय एटले इंद्रियाथी अति आहार करनारा (कस्सह ) कोइ प ( भयारिस्स ) अर्थ - (जहा ) जेम (पउरिंधणे ) घथा इंधणावाळा दावानळ ( उवस ) शांतिने ( न उबेइ ) पामतो नथी, उत्पन थयेलो राग, ते रूपी अग्नि पण पगाममोइणो ) 100*****4ck+ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडकादिकना निवासस्थाननी (मज्झे) मध्ये (बंभयारिस्स) ब्रह्मचारीनो (निवासो) निवास (खमोन) योग्य नथी. १३. विविक्त उपाश्रयमा पण कदापि स्त्रीचें आगमन थाय, त्यारे शुं करवू ? कहे छे.--- न केवलावालविलासहासं, ने जीप इंगि पहिअं वा । इत्थीण चित्तीस निधेसइत्ता, १९ वैवस्से समणे तवस्सी ॥१४॥ अर्थ (समणे) चारित्र क्रियामा श्रम लेनारा ( तवस्सी ) तपस्वी साधु ( इत्थीण ) स्त्रीभोना (रूबलावविलासहासं) रूप-सारु संस्थान, लावण्य-सुंदरता, विलास-मनोहर चेपनी रचना अने हास्य, तेने (चित्तंसि ) मनमा (निवेसइत्ता) स्थापन करीने-राखीने (दहुं) जोवाने माटे (न ववस्से ) अध्यवसाय-उद्यम न करे. (वा) अथवा स्त्रीमोना ( जंपियं) वचनने, (इंगिम) इंगितने एटले अंगने मरडवं विगेरे चेष्टाने तथा (पेहिअं) प्रेक्षितने एटले कटाक्षवाळी दृष्टिने (न) जोवानो उद्यम न करे. १५. श्रावो उपदेश आपवानुं कारण कई छे. अदंसणं चेव अपत्थणं च, अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजस्लारियझाणजुग्गं, "हि सया बंभचेरे रेयाणं ॥ १५ ॥ अर्थ-(बंभचेरे ) प्रमचर्यने विषे ( रयाणं ) आसक्त थयेला साधुओने (इत्थीजणस्स) स्त्रीजननी सन्मुख (मदंसशं Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचारीने ( हिमाय ) हितने माटे (न ) थतो नधी. १९. वळी बी - विविससेनासणतिआणं, ओमासणाणं दैमिइंदिआणं । ने रागसेन रिसद चिनं पेराइयो बाहिरिवोसहेहिं ॥ १२ ॥ ____ अर्थ-(विवित्तसेजासणतिप्राणं) विविक्त एटले स्त्री आदि रहित शय्या एटले उपाश्रयमा रहेवावडे नियंत्रित, (ोमासणाणं ) मोर्छ भोजन करनारा अने (दमिइंदिआणं) इंद्रियो, दमन करनारा साधुभोना ( चिर्स) चित्तने (रागसतू ) रागरूपी शत्रु ( न धरिसइ) पराभव करी शकतो नथी. कोनी जेम ? ते कहे छे-(ओसहेहिं ) भौषधवडे ( पराइनो ) पराजय करेलो ( वाहिरिख ) व्याधि जेम शरीरने पराभव करी शकतो नथी तेम. १२. विविक्त उपाश्रय न होय तो तेथी थता दोषने कहे के. जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसस्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बंभयारिस्स खमो निवासो ॥१३॥ अर्थ-( जहा ) जेम (बिरालावसहस्स ) मिलाडाना निवासस्थाननी (मूले ) समीपे (मूसगाणं ) उंदरनो ( वसही ) निवास ( पसत्था न) प्रशस्त-कन्याणकारक नी, (एमेव ) एज प्रमाणे (इस्थीनिलयस्स ) स्त्री ने उपलक्षण थी Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Movie+fe agrikk+*MDHA AR चे) न जोवू से ज, ( अपत्थग्यं च ) तेनी प्रार्थना न करवी ते, (अतिवं चेव) तेनुं चितवन न करतुं ते, तथा (अकित्तणं च ) तेना नामर्नु कीर्तन न करतुं ते, भा सर्व (पारियझाणजुग्गं ) आर्य एटले धर्मादिक ध्यानने योग्य छ, तथा ( सया) सदा (हिअं) हितकारक छे. १५. ___ अहीं कोई शंका करे के-विकारनो हेतु छता पण बेो विकार न पामे, तेज धीर कहेवाय छे, तो शा माटे विविक्त स्थान सेवq ? श्रा प्रश्ननो उत्तर आगे के... कामं तु देवीहि विभूसिआहिं, ने चाइा खोभइउं तिगुत्ता । तहावि ऐगंतहि ति नच्चा, विवित्तभावो मणिणं पंसस्थो ॥१६॥ अर्थ-( कामं तु ) आ तो सर्वने अनुमत ज छ के–(तिगुत्ता) त्रण गुप्तिवाला मुनिओने (विभूसिबाहिं ) अलंकारादिकवडे विभूषित थयेली (देवीहिं ) देवीओ पण ( खोभहउं) चोभ पमाडवाने (न चाइमा ) शक्तिमान थइ शकती नथी, तो मनुष्यनी स्त्रीमो शी रीते होम पमाडी शके ? (तहावि ) तो पण ( एगंतहिअं) एकांतमा रहे, ते | हितकारक छ (ति ) एम ( नच्चा ) जाणीने ( मुणिणं ) मुनिओने ( विवित्तभावो) विविक्तपणुं एटले विविक्तस्थाने रहे, ते ( पसत्थो) प्रशस्त छे. स्त्री आदिकना संगथी प्राये योगीओ पण चोभ पामे छे. कदाच क्षोभ न पामे तो पण अवर्षषाद आदि दोषने तो पामे ज छे. तेथी एकांतमा रहेg ते ज कल्याणकारक छे. १६. Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - एज वातने दृढ करवा माटे स्त्रीओनुं दुरतिक्रमपणुं बतावे : मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स, संसारभीरस्स ठियस्त धैम्मे । नेयोरिसं दुत्तरमैरिथ लोए, जहिथिओ बालमणोहराओ ॥१७॥ अर्थ:-( मोक्खाभिकखिस्स वि) मोक्षनी अभिलाषावाला, (संसारभीरुस्स ) संसारथी मय पामनारा भने (धम्मे) धर्मने विषे (ठियस्स ) रहेला एवा ( माणषस्स ) मनुष्यने पण ( जहा )जे प्रकारे ( बालमणोहरामो) मूर्खजनने मनोहर लागे तेवी ( इत्थिो ) स्त्रीमो दुस्तर छ, । एयारिस ) एवा प्रकारचें ( लोए ) मा लोकमां बीजुं कोई (दुत्तरं ) दुस्तर (न अस्थि ) नथी. १७. स्त्रीनो संग नहीं करवायी थता गुणने कहे छ.-- एए अ संगे सेमइक्कमित्ता. सुहत्तरा चेव हवंति सेसी। जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥ १८ ॥ अर्थ-(एएम) या स्त्रीना विषयमाळा ( संगे ) संगने ( समकमिना ) ओळंगीने पछी ( सेसा ) बाकीना वीजा धनादिकना संगो ( सुहुचरा चेव ) सुखे तरी शकाय-योगी शकाय एवा ज ( हवंति ) थाय छे. ते उपर दृष्टांत मापे छे के-(जहा) जेम ( महासागरं ) मोटा समुद्रने ( उत्तरिता) उतरी गया पछी ( गंगासमाणा) गंगा जेबी (नई भवि) Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदीप (भवे) सुखे उतरी शकाय तेवी थाय बं. १८. कामा गिद्धभवं खु दुक्खं सव्वले लोगस्स सदेवगस्स । जं काइअं माणसिद्धं च किंचि, तस्संगं च्छइ वीअगो ॥ १९ ॥ अर्थ - ( सदेवगस्स ) देव सहित एवा (सव्वस्स) सर्व ( लोगस्स ) लोकने ( कामाणुगिन्दिपभवं खु) विषयोनी अभिलाषाथी उत्पन्न थयेलुं ज ( दुक्खं) दुःख होय छे. (जं) जे (काइअं ) काया संबंधी व्याधि विरेनुं ( मायसिनं च ) भने मनसंबंधी इष्टवियोगादिकनुं ( किंचि ) जे कोई पख दुःख छे, ( तस्स ) तेना ( अंवर्ग) अंतने (वीभरागो ) बीतराग एटले विषयनी लोलुपता रहित मनुष्य ज ( गच्छर ) पामे थे. १९० श्रीं को शंका करे के काम तो सुखरूप ज के, तो तेनाथी उत्पन्न धयेलुं दुःख केम कही शकाय ? भा शंकानो उत्तर आपे छे. हाय किंवाफला मणोरैमा, रेसेण वैशेण य भुज्जमाणा । ते खुए जीवि पंचमाणा, एओवैमा कामगुणाविव ॥ २० ॥ अर्थ - ( जहा ) जैम (किंपागफला ) किंपाऊना फळो ( भुजमाथा ) खाती वखते ( रसेल ) रसवडे अने (वय Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - न . ३॥ भ य ) वर्णचडे तथा चशब्दथी गंधादिकवडे (मखोरमा ) मनोहर लागे थे, परंतु (ते) ते फळो (पचमाणा ) पचे स्वारे एटले विपाक अवस्थाने पामे त्यारे ( जीविथ ) जीवितनो (खुद्द) भूको करे छे विनाश करे छे, तेज रीते ( कामगुखा ) कामगुणो ( faari) विपाकने विषे - परिणामे ( एश्रोमा ) ए उपमावाला के एटले किंपाकना फळ जेवा ज छे. २० आ प्रमाणे केवळ रागना ज उद्धारनो उपाय बताव्यो इवे राग अने द्वेष बनेना उच्चारनो उपाय बतावे छे. - जे इंदं विया मँणुता, नै तेसु भावं "निसिरे केयाइ । 'मपि कुँजा, समाहिकामे समणे तस्सी ॥ २१ ॥ अर्थ - ( समाहिकामे) राग द्वेषना विनाशरूप समाधिनी इच्छा वाळा, ( समये ) चारित्रनी क्रियामां श्रम करनार (तवस्सी ) तप करनार एदो साधु (जे) जे ( इंदिप्राणं ) इंद्रियोना ( विसया ) विषयो ( मसुद्या) मनोज्ञ चे, (तेसु) तेने बिषे ( क्रयाइ ) कदापि ( भावं ) अभिप्रायने पख ( न निसिरे) न करे, तो पछी विषयाने विषे इंद्रियोतुं प्रवर्तन तो क्याथी ज करे. (य) तथा ( मोसु ) श्रमनोज्ञ विषयाने विषे (मणं पि ) मनने पण ( न कुजा ) न करे, तो पछी प्रवर्तन तो क्यांथी ज करे. अर्थात् मनोज्ञ विषयो उपर रागवाळूं मन न करे भने अमनोज्ञ विषयो उपर द्वेषवाळं मन न करे. २१. 72-2 Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या प्रमाणे रागद्वेषनो उद्धार करवा माटे विषयो थकी इंद्रियोनी निवृत्ति करवानु कषु. हवे विषयोमा इंद्रियोने प्रवर्ताKI ववामा भने रागद्वेषनो उद्धार नहीं करवामा जे दोष छ, ते प्रत्येक इंद्रियने तथा मनने पाश्री अष्टोतेर गाथावडे घतावे छे. तेमा प्रथम एक चक्षु इंद्रियने आश्री तेर गाथा कहे छे. चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, ते रागहेउं तु मणुममाहु । तं दोसहेउं अमणुममाहु, सैमो 3 'जो तेसु से वीअराओ ॥ २२ ॥ अर्थ--(रूवं ) रूपने ( चकखुरला , क्षुलु गाणं) -गाकर (चंति ) तीर्थकरो कहे छे. (त) ते रूप I ( रागहेउं तु ) रागना हेतुरूप होवाथी ( मणुणं आहु) मनोज्ञ कधुं छे एटले जे रूपने जोइ राग उत्पम थाय ते रूप मनोज्ञ | है। कद्देवाय छे अने (तं ) ते रूप (दोसहे) द्वेषना हेतुरूप थतुं छतुं ( अमणुमं पाहु ) अमनोज्ञ कडं के एटले जे रूप जोइ | द्वेष थाय ते रूप अमनोज्ञ कहेवाय छे. (उ) तु पुनः (जो)जे मनुष्य (तेसु ) ते मनोज्ञ अने अमनोज्ञ रूपने विषे (समो) | समान एटले रागद्वेष रहित होय ( स ) ते ( वीरानो) वीतगग अने उपलक्षणथी वीतद्वेष छे. नहीं तात्पर्य एजे || प्रथम तो मनोज्ञ अने अमनोज्ञ एवा कोह पण रूप उपर चक्षुने प्रवर्ताव ज नहीं, छता कदाच प्रवृत्ति थइ जाय तो तेने में विषे समदृष्टि राखवी. २२. अहीं कोई शंका करे के—आ रीते तो एटले रूप ज चतुर्नु आकर्षक होय तो रूप ज रागद्वेषनुं कारण थयं, चक्षु Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण न थयुं, तो पतुनो विनइंशा साढे चारगो जोए । सावी शंकाने दूर करवा कहे छ रूत्रस्से चक् गहणं वयंति, चखुस्स रूवं गहणं वयंति । रागस "हेडं समगुलमोहु, दोसस्स "हेडं अमणुगमोहु ।। २३ ॥ अर्थ-( चपखं ) चक्षुने (रूवस्स ) रूपनुं ( गहणं ) ग्रहण करनार (वयंति ) कहे छे एटले रूपने ग्रहण करनार | चक्षु के अने (रूवं) रूपने ( चक्खुस्स ) चचुर्नु (गहयं ) ग्राय ( वयंति ) कहे के एटले चक्षुवडे रूप ग्रहण कराय छे एम कहे छे. आम कहेबाथी रूप अने चक्षु एनसे परस्पर ग्राम पण छ भने ग्राहक पण छे, एम सिद्ध थयु. तेथी करीने 21 जेम रूप रागद्वेष* कारण ले तेम चनु पण रागद्वेषन कारण छे, तेज कारमा माटे कहे छ के-(रागस्स) कारणरूप चचुने ( समणुमं ) मनोज्ञ एवा रूपनी साथे वर्तनारं होवाथी समनोज्ञ (माहु) कए थे, अने (दोसस्स) द्वेषना ( हेउं ) हेतुरूप चचुने (अमणुमं ) मनोज्ञ एवा रूपनी साथे वर्तनारूं नहीं होगाथी अमनोन (माहु) क छे. पा कारणथी चतुनो निग्रह करवो ते योग्य छे. २३. भा प्रमाणे रागदेषना उद्धारनो उपाय कहीने हवे तेनो उद्धार न करवामा दोष बताचे छ रूवेसु जो गिधिषे तिव्वं, अकालिंअं पा से विणासं । राँगाउरे "से जहें वा पैयंगे, आलोअलोले सर्मुवेइ मैचुं ॥ २४ ॥ टर Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(रूवेसु ) रूपने विषे ( जो) जे मनुष्य (गिद्धि ) रागने ( उबेइ ) पामे छ, (से) ते (मकालिअं) अकाळे थयेला (तिव्वं ) तीव्र ( विणासं ) विनाशने ( पावइ ) पामे छ, (जह वा ) जेम ( बालोअलोले ) आलोकने विषे लोल एटले अतिस्निग्ध दीपशिखा जोवामा लंपट एवो ( से ) ते (पयंगे ) पतंग ( रागाउरे) रागातुर सतो (मच्छु) मृत्युने ( समुवेइ ) यामे छे. २४. जे यावि" दोसं सगुबेव तिनं, नमि लगो से उ वह दुक्खं । दैतदोसेण संएण जंतूं, न किंचि वं अंबरज्झई से" ॥ २५ ॥ ___ अर्थ-(य) तथा (जे) जे प्राणी रूपने विषे ( तिव्वं ) तीन ( दोर्स ) द्वेषने ( समुवेइ ) पामे छे, ( से उ ) ते (जंतू ) प्राणी ( तंसि खणे वि ) ते ज समये पणे ( सएण) पोताना (दुइंतदोसेण) दुदांतपणाना दोपे करीने एटले इंद्रियने दमन न करवू ते रूपी दोपे करीने ( दुक्खं ) दुःखने ( उवेइ ) पामे छे, परंतु ( रूबं) रूप जे से ( से ) तेनो|| जोनारनो (किंचि ) काइ पण ( न अपरमाई ) अपराध कस्तुं नथी. जो रूपज दुःख आपवानो हेतु होय तो वीतरागने | पण ते दुःख पापी शके, तेम तो ले नही. तेथी पोताना जे दोषथी प्राणी दुःख पामे छे, ए वात सिद्ध छे. २५. श्रा प्रमाणे राग अने द्वेष अनर्थना हेतु छे एम कपु. हवे द्वेष पण रागने लइनेज थतो होवाथी राग महा अनर्थर्नु मूळ छ एम देखाडश पूर्वक तेनो विशेषे करीने त्याग करवायूँ कहे थे Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . एगतरत्तो रुइरस संवे, अतालिसे से कुगाई परे । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, ने लिप्पई तेणे मुंणा विराँगो ॥ २६ ॥ अर्थ-(रुहरसि ) रुचिर एटले मनोहर एया (सवे ) रूपने विषे ( एगंतरत्तो ) जे एकांत रागी होय (से) ते (अतालिसे) अतादृश एटले तेवा प्रकारना मनोहर न होय एवा रूपने विष { पोसं) प्रवचने (कुणई ) करे छे, तथा (बाले ) मूढ एवो ते ( दुक्खस्स ) दुःखना ( संपीलं) समूहने ( उवेइ ) पामे छे परंतु ( तेण ) ते द्वेषथी थता दुःखे करीने (विरागो) राग रहित (मुणी) मुनि (न लिप्पई)लेपाता नथी. २६. हवे राग ज हिंसादिक आश्रवनो हेतु के अने तेनाथी भा भवमां पण दुःख उत्पन्न थाय छे ते वात छ गाथावडे कहे छे रूवाणुगासाणु गए अ जीवे, चराचरे हिंसइ गरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेई अंत्तट्ठगुरू किलिट्टे" ॥ २७ ॥ अर्थ-(रूपाणुगासाणुगए श्र) प्रशस्त रूपना विषयवाळी आशाने अनुसरतो मनुष्य (अणेगरूवे ) अनेक प्रकारना ( चराचरे ) त्रस भने स्थावर (जीये ) जीवोने ( हिंसह ) हणे छे, तथा ( बाले ) मूढ एवो ते (चित्तेहि ) नाना प्रकारना | उपायोचडे ( ते ) ते त्रस स्थावर जीवोने ( परितावेह ) परिताप उपजावे छे, तथा ( अत्तगुरू) पोताना ज प्रयोजनमा Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधान भने ( किलिडे ) रागवडे क्लिष्ट परिणामवाळो ते ( पीलेइ ) ते जीवोने पीडा उपजाचे छ. २७. तथा रूवाणुवाए ण परिग्गेहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे। वैए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥ २८ ॥ अर्थ-(रूवाणुवाए ण ) प्रशस्त रूपने विषे अनुपात एटले अनुराग सते ( परिग्गहेण ) मूख्यि परिग्रहने लीधे | ( उप्पायणे ) प्रशस्तरूपवाळी वस्तु उपार्जन करवामां तथा ( रक्खणसन्नियोगे) नाशथी तेनुं रक्षण करवामा, संनियोग एटले स्वपरना प्रयोजन सम्यक् प्रकारे तेनो उपयोग करवामां तेमज ( वए) व्यय एटले तेना विनाशमां, (विओगे श्र) तथा ते वस्तुना वियोगमा (से) ते मनुष्यने ( कहिं सुई ) सुख क्याथी होय ? एटले के प्रशस्तरूपवाळा स्त्री, हाथी, घोडा अने वस्त्रादिकना उपार्जन विगेरे करवाने अर्थे ते ते क्लेशवाळा उपायोमा प्रवृत्ति करवाथी ते दुःखने ज अनुभवे . अहीं कोई शंका करे के-" प्रशस्तरूपवाळी वस्तु उपार्जन करवी ए विगेरेमा भले सुख न थाय, परंतु भोगवती बखते तो सुख थशे, " ते उपर कहे छ के-( संभोगकाले अ) भोगवती वखते पण (अतित्तिलाभे) दृप्तिनी प्राप्ति नहीं है। थवाथी कांथी सुख थाय ? कयु छ के-"कामी जनौना कामो भोगववाथी शांत थता नथी, परंतु उलटा इंधनवडे अग्निनी जेम वृद्धि ज पामे छे." तेथी अधिकाधिक इच्छा थवाथी रागी पुरुष काम भोगवता छता पण खेदने ज पामे के, सुखी थतो नथी. २८. Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -1 स्यारपछी तेने अन्य अन्य दोषो प्राप्त थाय छ, ने कहे छ. रूबे अंतित्ते भ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवे तुर्दैि । अतुद्विदोसेण देही परस्स, लोभाविले प्राययई अदत्तं ॥ २९ ॥ अर्थ--(रूवे ) प्रशस्तरूपने विषे ( अतित्ते भ) अतृप्त अने (परिम्गहे अ) विषयनी मृारूप परिग्रहने दिषे ( सत्तोवसत्तो ) सक्त एटले सामान्य आसक्तिवाळो अने उपसक्त एटले गाढ आसक्तिवाको सतो ( तुर्दि ) तुष्टिने ( न उवेह), पामतो नथी. अने ( अतुविदोसेण अतुष्टिरूप दोषयडे करीने ( दुही ) "मने आ वस्तु मळे तो ठीक " एम विचारीने , दुःखी एवो अने ( लोभाविले) लोभथी कलुष थयेलो एवो ते (परस्स) परना ( अदत्तं ) अदत्तने एटले नहीं आपेली रूपवाळी वस्तुने पण ( भाययई ) ग्रहण करे छे. २६. त्यारपछी. तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, केवे अतित्तस्स पेरिग्गहे अ । मायामुसं वेड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा ने विमुंबई 'से ॥ ३० ॥ अर्थ--( तण्हाभिभूप्रस्स ) तृष्णावडे एटले लोभवडे पराभव पामेला, तेथी करीने ज ( प्रदत्तहारिणो ) अदत्तने हरण करता (अ) तथा (रूबे ) प्रशलरूपना विषयवाळा ( परिग्गहे ) मू रूप परिग्रहने विधे ( अतित्तस्स ) इप्ति रहित एषा ते मनुष्यने ( लोभदोसः ) लोभना दोपथी ( मायामुसं ) मायामृषा एटले माया प्रधान एवू असत्य वचन पण - Naiakta- a -of tort Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वडाइ ) वृद्धि पामे छे. अर्थात् लोभी माणस परधनने ग्रहण करे के अने पछी तेने गोपववा माटे मायामृषा बोले छे, तेथी करीने लोभ ज सर्व श्राश्रवोर्नु मूळ कारण छ एम सिद्ध थयु. अहीं रागनो प्रस्ताव अतां पण जे लोभनो विषय को al ते रागमा पण लोभरूप अंशनुं अतिदुरपणं जणाववा मारे कहेल छे. अहीं कोई शंका करे के मायामृषा बोलवामा शो |' | दोष? ते उपर कहे .-(सत्थावि) तेमां पण एटले मृषा भाषणथी पण (से) ते माणस ( दुक्खा ) दुःखथी (न विमुदई ) मुक्त थतो नी-दुःखी ज थाय छे. ३०. मृषा भाषण करवाथी शी रीते दुःखी थाय छे ? ते कहे छे.-- मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ भ, पनोगकाले श्र दुही दुरते । __ एवं अदत्ताणि समाययंतो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ३१ ॥ अर्थ-( मोसस्स) मृषा वचननी ( पच्छा य) पछी एटले मृषावचन बोल्या पछी तथा (पुरत्वो अ) पहेला तथा ( पमोगकाले श्र) प्रयोगने वखते एटले मृषा बोलती वखते (दुही ) दुःखी सतो एटले मृषावाद बोल्या पछी " में बराबर युक्ति पूर्वक वचन कहां छे के नहीं ? कोइने तेनी खबर पडशे तो शुं थशे ?" इत्यादि विचार थवाथी दुःखी थाय छे, तथा मृषावाद बोन्या पहेला " श्रा वस्तुना स्वामीने मारे कइ रीते छेतरवो ?" इत्यादि चिंता थवाथी दुःखी थाय | छ, तथा मृषावाद बोलती बखते "मारा अमत्य वचनने आ जाणी जशे के केम ? " इत्यादि चिंताथी दुःखी थाय छे. श्रा नामदार Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शसे दुःखी थयो थको (दुरते। दुष्ट के अंत-परिणाम जेतुं एवी थाय छ. एटल के आ भवमा अनेक विडंबना पामे छे अने परमवमा नरकादिकने पामे छे. (एवं ) मा प्रकारे (अदत्ताणि) अदत्त वस्तुने (समाययंतो) ग्रहण करतो तथा (रुवे । अतित्तो) रूपने विष अतृप्त एवो ते ( अणिस्सो) निश्रा रहित होवाधी एटले कोइना आधार रहित होवाथी (दुहिनो) दुःखी थाय छे. प्रा अदचादानना उपलक्षणथी मैथुन आश्रव पण जाणी लेवो. ३१. कहेला ज अर्थने समाप्त करे छे. रूवाणुरत्तस्स नरस ऐवं, कत्ती सुहं होजे कयाई किर्तीचे । तत्थोवेभोगेऽवि किलेसैदुक्खं, निवत्सई जस्स कए ण दुखं ॥ ३२ ॥ अर्थ-( एवं ) ए प्रकारे (रूवाणुरत्तस्स ) रूपने विषे श्रासक्त थयेला (नरस्स ) मनुष्यने ( कयाइ ) कदापि (किंचि ) काइ पण ( सुई ) सुख (कतो) क्यांधी । होल ) होय ? कारण के ( तत्व ) ते रूपानुरागने विषे ( उव- | भोगेऽवि ) उपभोग करती रखते पण ( किलेसदुख) अतृप्ति रूपी क्लेशथी उत्पन्न थतुं दुःख ज थाय छे, के ( जस्स कए ण ) जे उपभोगने माटे पोते ( दुक्खं ) दुःखने (निव्वत्तई ) उत्पन्न करे के. जो उपभोगने माटे वस्तु मेळवतां क्लेश करवो पडे तो ते दुःख ज छे, अने जो तेना उपभोग वखते पण दुःख ज छे तो पछी क्यारे सुख थाय? कदापि न थाय. ३२. मा प्रमाणे राग अनर्थमुं कारण छे एम कपु. हवे द्वेष पण अनर्थन कारण छे एम बताक्वा माटे भलामण करे छे.-- Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- *-* - मेध र पसिनो पेओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपरायो। पर्दवचित्तो अ चिणाइ कम्मं, जैसे पुणो होई हं विवोगे ॥ ३३ ॥ अर्थ (एमेव ) एल रीते एटले राग पामेलानी जेम (रूवम्मि ) खराब रूपने विषे (पोसं ) प्रद्वेषने ( गो) पामेलो प्राणी ( दुक्खोहपरंपराओ) दुःखना समूहनी परंपराने ( उवेइ ) पामे छे. (अ) तथा ( पदुवचित्तो) प्रद्वेषवाळ |छे चित्त जेनुं एवो ते प्राणी (कर्म) कर्मने ( चिणाइ) उपार्जन करे छे, (ज) जेथी करीने (से) ते प्राणीने (विवागे) ते कर्मना विपाक वखते । पुणो ) फरीथी ( दुई ) दुःख ( होइ ) थाय छे. अशुभ कर्मर्नु उपार्जन हिंसादिक भाव विना थइ शकतुं नी तेथी द्वेष पण आश्रवनो हेतु छे एम सूचव्यु छे. ३३. पा प्रमाणे राग द्वेषनो उद्धार न करवाथी थत्ता दोष कहा, हवे तेमनो उद्धार करवाथी जे गुण थाय छे ते कहे छे. केके विरत्तो मणुओ विसोगा, एएँण दुर्वखोहपरंपरेण । ने लिपई भवैमझेवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ३४ ॥ १ ॥ अर्थ-(रूबे ) रूपने विषे (रित्तो) राग रहित तथा उपलक्षणथी द्वेष रहित एवो (मणुभो ) मनुष्य ( भवमझेवि संतो) संसारनी मध्ये रहेतो सतो पमा (विसोगो) रागद्वेषरूपी कारणना अभावथी शोक रहित सतो ( एएस) मा उपर कहेली । दुक्खोहपरंपरेण ) दुःखना समूहनी परंपराए करीने ( न लिप्पई ) लेपातो नथी. ( वा ) जेम ( पुक्स *- *-- * Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिणीपलासं ) कमलिनीनुं पांदडे ( जलेण ) जळबडे लेपातुं नयी तेम. ३४. आ प्रमाणे चचुने श्राश्रीने तेर सूत्रो व्याख्यान सहित कया. हवे ए ज रीते बाकीनां चार इंद्रियो तथा मनना विषयवाळा पण तेर तेर सूत्रो कहे छ, तेनुं व्याख्यान उपर प्रमाणे करी लेवू. तेमां जेटलो विशेष हशे, ते ज मात्र कद्देशे. सोअस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुशामाहु । तं दोसहेउं अमणुममाहु, समो अ जो तेसु स वीअरागो ॥ ३५ ॥ अर्थ---( सई ) शब्दने ( सोअस्स ) श्रोत्रन ( महणं ) ग्राहक आकर्षक ( वयंति ) कहे छे. इत्यादि पूर्ववत्. ३५. सदस्स सोअं गहणं वयंति, सोअस्स सई गहणं वयंति । रागस्स हेडं समणुप्ममाहु, दोसस्स हेउं अमणुहामाहु ॥ ३६ ॥ सदेस जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिअं पावइ से विणासं। रागाउरे हरिणमिए व्व मुद्धे, सद्दे अतित्ते समुवेइ मञ्चुं ॥ ३७ ।। अर्थ-( रामाउरे) रागानुर अने ( मुद्धे ) मुग्ध एटले हिताहितने नहीं जाणतो एयो ( हरिणमिए ब्व ) हरिण रूपी * पशु जेम ( सद्दे ) शब्दने विषे एटले शीकारीना गीतने विषे (अतिते) अतृप्त थयो सतो ( मच्चु ) मृत्युने ( समुवेद) Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** ******** पामे . तेम चाकी उपर प्रमाणे. ३७. जे व दो समुह तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उड़ दुक्खं । दुतदोसेण सएण जंतू, न किंचि सदं अवरज्झई से ॥ ३८ ॥ एगंतरत्तो रुइरंसि सदे, अतालिसे से कुपई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुत्रेइ बाले, न लिप्पई तेख मुणी विरागो ॥ ३९ ॥ सद्दानुगासाणुगए अ जीवे, चराचरे हिंसइणेगरूवे । चितेहि ते परतावे बाले, पीलेइ अत्तगुरु किलिट्टे ॥ ४० ॥ अर्थ-हीं चराचर जीवनी हिंसा कहीं ते या प्रमाणे - वाजिना उपयोगमा लेवा माटे स्नायु नसो भने चामडा स जीवोनी ने बांसळी, मृदंग विगेरेना काष्ठादिक माटे अचर एटले स्थावर जीवोनी हिंसा करवामां माटे चर एटले पावे छे. ४०. सहावा ar वियोगे परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । कहिं सुहं से, संभोगकाले अ श्रतित्तिलाभे ॥ ४१ ॥ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दे अतित्ते अपरिग्गहे श्र, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले पाययई अदत्तं ॥ ४२ ।। अर्थ-ग्रहीं अदत्त ग्रहण करवान कहुं ते या प्रमाणे-सारु गीत गानारी दासी विगेरेने तथा सारा ध्वनिवाला वीणा * वासळी विगरे वाजिबने चोरी ले छे, इत्यादि समजवु. ४२, तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ४३ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थमओ अ, पओगकाले अदुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, सद्दे अतित्तों दुहिओ अणिस्सो ॥ ४४ ॥ सदागुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तत्थोकभोगेऽवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ४५ ॥ एमेव सहम्मि गयो पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्धचित्तो अचिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ४६॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो, एपण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझेऽवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ १७ ॥२॥ हवे प्राण इंद्रिय विषे कहे छ.-- घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुसमाहु । तं दोसहेडं श्रमणुममाहु, समो श्र जो तेसु स वीअरागो ॥ १८ ॥ गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति । तं रागहेडं तु मणुप्लमाहु, दोसस्स हेउं श्रमणुपमाहु ॥ १६ ॥ गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिनं पावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाश्रो विव निक्खमंते ॥ ५० ॥ अर्थ-(भोसहिगंधगिद्धे ) नागदमनी आदिक भोपधिना गंधा गृद्धि पामेलो ( सप्पे विव ) सर्प जेम (चिलाओ) पोताना पिलमाथी (निक्खमंते ) निकळतो सतो नाश पामे छे. कारण के ते औषधिना गंधनी उपेक्षा करवामां अशक्त एवो सर्प बिलमाथी पराधीनपणे बहार नीकळे छ, पछी गारुडादिकने आधीन थइ दुःखने पामे छे. ५० Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे श्रावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सपण जंतू, न किंचि गंधं अवरज्झई से ॥ ५१ ।। एगंतरत्तो रुमलित गंधे, लालिसे से कुगाई एपोस। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ५२ ।। गंधाणुगासाणुगए अ जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिट्ठ ॥ ५३ ॥ अर्थ-अहीं कस्तूरि विगेरेने माटे चर-प्रस जीवनी अने पुष्पादिकने माटे अचर-स्थावर जीवनी हिंसा कर-1 वामां आवे छे. ५३. गंधाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विश्रोगे अ कहिं सुहं से, संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥ ५४ ॥ गंधे अतित्तो अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि । अतुहिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत् ॥ ५५ ॥ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- अहीं प्रदत्त वस्तु सुगंधी तेल, कस्तूरि, पुष्प विगेरे जाणवी. ५५ तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहे थ । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तस्थावि दुक्खा न विनुचई से ।। ५६ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थश्रो अ, पओगकाले अ दुही दुरते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, गंधे अतित्तो दुहिमो अणिस्लो ॥ ५७ ॥ गंधाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेऽवि किलेसदुक्ख, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ५८ ॥ एमेव गंधम्मि गो पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराश्रो। पदुट्ठचित्तो अ चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ५९ ॥ गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झेऽवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ६० ॥३॥ ५१ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EE _5. हवे जिव्हा इंद्रिय विषे कहे छे जीहाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुसमाहु । तं दोसहेउं श्रमणुलमाहु, समो अजो तेसु स वीश्ररागो ।। ६१ ॥ रसस्स जिम्भं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुहामाहु, दोसरस हेडं असणुलमाछु ।। ६१ ॥ रसेस जो गिद्धिमुवेइ तिब्ब, अकालिभं पावइ से विणासं। रागाउरे बडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा श्रामिसभोगगिद्धे ॥ १३ ॥ अर्थ--( जहा ) जेम ( श्रामिसभोगगिद्धे ) मांसना स्वादमा लुब्ध एवो (मच्छे) मत्स्य ( बडिसविभिनकाए) जेना अग्रभागपर मांस राखेळ होय छे तेवा बडिशवडे जेनी काया भेदाय-वधाय छे एवो सतो विनाश पामे छ. ६३. जे श्रावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ॥ दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रस्सं अवरज्झई से ॥ ३४ ॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगंतरतो रुहरे रसम्मि, अतालिसे से कुणई पमोसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ६५ ॥ रागागासाणुगए अजीवे, चराचरे हिंसाणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरूकिलिट्टे ॥ ६६ ॥ अर्थ-ग्रहीं जिव्हा इंद्रिय माटे भक्षण करवा सारु मृग, पशु, मत्स्य, पनी विगेरे चर-त्रस अने कंद, मूळ, फळ * विगेरे अचर-स्थावर जीवोनी हिंसा करे छे एम जाणवू. ६६. रसाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निोगे। वए विओगे अकहिं सुहं से, संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥ ६७॥ रसे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि । अतुद्विदोसेण दही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ६८ ॥ मर्थ-भहीं श्रदत्त खांड, खाजां, फळ विगेरे रसवाळी वस्तुओ ग्रहण करे छे एम जाणवू. Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपहाभिभूप्रस्स श्रदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे अ। मायामुसं बड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ६९ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरस्थओ अ, पयोगकाले अदुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययतो, रसे असित्तो दुहिओ अणिस्सो ।। ७० ॥ रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्ता सुह होज कयाइ किंधि । तत्थोवभोगेऽवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ७१ ॥ एमेव रस्सम्मि गश्रो पश्रोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ।। पचित्तो श्रचिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ७२ ॥ रसे विरत्तो मणुश्रो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझेऽवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ७३ ॥ ४ ॥ इवे स्पर्श इंद्रिय विषे कहे छ. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायस्स फासं गहणं वयंति, सं रागहेउं तु मणुममाहु ॥ तं दोसहेउं श्रमणुपमाहु, समो अ जो तेसु स वीरागो ॥ ७४ ॥ फासस्स कायं गहणं वयंति, कायस्स फासं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुपमाहु, दोसस्स हेउं श्रमणुममाहु ॥ ७५ ॥ फासस्स जो गिद्धिमुवेइ तिब्वं, अकालिग्रं वइ से विणासं । रागाउरे सीअजलावसन्ने, गाहग्गहीए महिसे व रमे ॥ ७६ ॥ अर्थ-(व ) जेम ( रमे ) अरण्यमा ( सीधजलाक्सन्ने ) शीतळ जळमां एटले जळाशयमा मन ययेलो (महिसे ) पाडो ( गाइन्गहीए ) ग्राह नामना जळचरोए ग्रहण कर्यो सतो विनाशने पामे के तेम. कदाच ग्राम विगेरेनी समीपे जळाशयमा पढ्यो होय तो कदाच कोइ मनुष्य तेने ग्राहथी छोडावी पण शके, तेथी अही अरण्य शब्द लख्यो छे के ज्या तेने छोडाचनार कोइ पण मळी शके नहीं. ७६, जे श्रावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि कखणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंसदोसेण सएण जंतू , न किंचि फासं अवरज्झई से ॥ ७७ ॥ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , M4V. .. 4 . एगंतरचो रुइरंसि फासे, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ७८ ।। फासाणुगासाणुगए अ जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे । विहि हो रिलायेहि पाले, पीलेइ अत्तट्टगुरू किलि? ॥ ७९ ।। अर्थ-अहीं शुभ स्पर्शवाळा मृगादिकना चर्म, पुष्प, वन विगैरेनो संग्रह करवा माटे तथा खीसेवनादिकमा प्रवर्ततो । मनुष्य चराचर जीवाने हणे छे. ७९. फामाणुवाएण ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे।। वए विश्रोगे श्र कहं सुहं से, संभोगकाले श्रअतित्तिलाभे ॥ ८॥ फासे अतित्ते अपरिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि ।। अतुद्विदोसेण दुही परस्स, लोभाविले पाययई श्रदत्तं ॥ ८१ ॥ अर्थ-भहीं अदत्त ते शुभ स्पर्शवाळा वस्त्र, तळाइ विगेरेने ग्रहण करे छ-चोरे छे एम जाणवू. ८१. thì t Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ८२ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरस्थो श्र, पओगकाले श्र दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दहिओ अणिस्तो ॥ ८३ ।। फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेऽवि किलेसदुक्खं, निम्बत्तए जस्स कए ण दुक्खं ।। ८४ ॥ एमेव फासम्मि गओ पमोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पटुचित्तो अचिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥५॥ फासे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझेऽवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ।। ८६ ॥ ५॥ हवे मनरूप नोइंद्रिय विषे कहे छे.-- Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणस्स भावं गैहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुममोह। "तं दोसहेउं श्रम[समोठे, संमो में जो तेसैं स वीअरोगो ॥८७ ।। अर्ध-(भावं ) भावने एटले स्मरणादिकना विषयवाला अभिप्रायने ( मणस्स ) मननो ( गहरा ) प्राहक-प्रहरण करनार (वयंति) को छे, (तु ) तु पुनः ( मणुकं ) मनोज्ञ एटले सुंदर रूपादिकना विषयवाळा एवा (तं ) ते भावने (रागहे ) रागना हेतुरूप ( आहु ) कह्यो छे, तथा ( अमणुमं ) अमनोत्र एका (तं ) ते भावने ( दोसहेड ) द्वेषना | हेतुरूप ( आहु ) कह्यो छे, (अ) तथा ( जो ) जे माणस तेसु) मनोज अने अमनोज्ञ रूपादिकना विषयवाळा ते बो | प्रकारना भावने विषे ( समो) समान होय (स) ते माणसने ( की अराओ) वीतराग एटले राग रहित तथा उपलक्षमाथी । द्वेष रहित जाणवो. श्राज प्रमाणे हवे पल्लीनां सूत्रोना पण भावना विषयरूप रूपादिकनी अपेक्षाए ज अर्थ करवो. अथवा स्वप्न अने कामनी दशामा रूपादिकना विषयवाळोजे भाव थाय छे. ते मननो ग्राहकछे, कारणके ते अवस्थामा केवळ मननो ज व्यापार होय वे. अथवा मनने इष्ट एवा धन, स्वजन, आरोग्य, पुत्र, राज्य बिगेरेना संयोग संबंधी अने अनिष्ट एवा रोग, शत्रु, चोर, दारिद्य विगेरेना वियोग संबंधी चिंतचनरूप भाव अहीं जाणवो. ते भाव इष्ट वस्तु मेळववा संबंधी होय तो ते मनोज्ञ छे भने अनिष्ट वस्तुना त्याग संबंधी होय तो ते अमनोज्ञ छे. ८७. भावस्स मणं गहणं वयंति, मणस्त भावं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुपमाहु, दोसस्स हेडं अमणुममाहु ॥ ८८ ॥ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भावे सु जो गिद्धिमुवेई तिव्वं, अकालिकं पावइ से विणासं। रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे, करेणुमग्गा वहिए व नागे ॥८९॥ अर्ध-( कामगुणेसु गिद्धे ) कामगुणने विषे लुन्ध थयेलो ( नागे ) हाथी ( ब ) जेम (करेणुमग्गावहिए ) हाथ- Mal णीना मार्गे अपहृत एटले आकर्षण करायो सतो नाश पामे के तेम. एटले के मदोन्मत्त एवो हाथी पासे रहेली हायणीने जोइ तेना संगममां उत्सुक थइ तेनी पाछळ मार्गमा दोडे छे तेटलामां राजादिक सुभटो ते हाथीने पकडी ले छे. त्यारपछी युद्धादिकमा ते हाथी चिनाश पामे छे. जो के आ दृष्टांतमां चक्षु आदिक इंद्रियोना वशथी ज हाथी हाथणीनी पाछळ प्रवृत्ति करे के एम कही शकाय तो पण अहीं मननुं प्रधानफ्णुं कहेवानी इच्छा होवाथी भावनो विषय जाणवो. अथवा तथाप्रकारनी कामांध दशामां इंद्रियोनो व्यापार होतो नथी, केवळ मन ज प्रवर्ते ले, तेथी मननी ज प्रवृत्ति कहेवामां काइ दोष नथी. ८६. जे आवि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि भावं अवरज्झई से ॥९ ॥ एगतरत्तो रुइरंसि भावे, अतालिसे से कुणई पोस।। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ९१ ।। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-ग्रही (अतालिसे) मातादो एटले तेता प्रहारना चिर न होय एवा ( भावे) भावने विषे एटले भावना विषयवाली वस्तुने विषे " हमणां मने मा अनिष्ट वस्तुनुं स्मरण केम थयुं ? " इत्यादिक विचारी तेना पर द्वेष पामे छे. ९१. भावाणुगासाणुगए अ जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिडे ॥ ९२ ॥ अर्थ--" मा औषधवडे हुं वर्शाकरण करुं, भा औषधवडे सुवर्णसिद्धि करु, आ औषधिवडे पुत्र थशे." इत्यादि । चितवन करी अनेक प्रकारना चराचर जीवोनी हिंसा करे छे. अथवा “मारा चिचनी पीडा नाश पामो अने मन प्रसन्न त्रिी रहो" इत्यादिक विचारी होम विगेरेमा प्रवृत्त थइ अनेक चराचर जीवोनी हिंसा करे छे. ९२. भावाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए वियोगे श्र कहं सुहं से, संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥ ९३ ।। भावे अतित्ते अपरिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढ़ि। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले पाययई श्रदत्तं ।। ९४ ॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CO*»****O*-40 66 अर्थ - पोतानो अभिप्राय- पोतानी इच्छा सिद्ध करवा - पूर्ण करवा माटे श्रदत्तनुं पषा ग्रहण करे छे. ९४. तपाभिभू अस्स श्रदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिग्गहे श्र । मायामु वढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ९५ ॥ मोसस्स पच्छाय पुरत्थओ अ, पयोगकाले श्र दुही दुरंते । एवं श्रदचाणि समाययंतो, भावे अतितो दुहियो णिस्सो ॥ ९६ ॥ भावापुरतस्स रस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तत्यो भोगेऽवि किलेस दुक्खं, निव्वत्तए जस्स कए ण दुक्खं ॥ ९७ ॥ एमेव भावम्मि गओ पोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराभो । पट्टचित्तो श्रचिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ९८ ॥ अर्थ - ( मावम्मि पञ्चसं गमो ) भावने विषे प्रद्वेष पामेलो एटले अनिष्ट वस्तुनुं स्मरण याय त्यारे ते विचारे के आ वस्तुनुं नाम पण मने न सांभरो. " इत्यादिक विचारी तेनापर द्वेष पामे . ९८. ***OK-***→→***O*•*O*•»**«*O*• ***t−)**+ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ !!! विसोगो, एएस दुक्खोहपरंपरे । भावे विरत मणु न लिप्पई भवमज्झेऽवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ९९ ॥ ६ ॥ अर्थ - भावने विषे विरक्त एटले इष्ट एवी मनोज्ञ वस्तुने विषे राग रहित तथा अनिष्ट एवी श्रमनोज्ञ वस्तुने विषे द्वेष रहित एवो मनुष्य संसारने विषे रद्देतो सतो पण रागद्वेषरूपी कारणाना अभावथी शोक रहित सतो उपर कहेली दुःखना समूहनी परंपराए करीने जेम पुष्करणीमा रहेलं कमळनुं पत्र पाथणीवडे लेपातुं नथी तेम लेपातो नथी. ९९. ( उपर प्रमाणे पांच इंद्रियो तथा मन संबंधी ७८ गाथाओनो कार्थ बराबर समजी लेवो. ) आज अर्थने संचेपथी कहे छे. ऐविदित्थाय मस्त श्रथा, दुक्खस्स हेऊ मगुस्स रोगिणो । ते चैव पिया दुक्खं, ने वीयरींगस्स कैरिति किंचि ॥ १०० ॥ अर्थ - - (एव) आ प्रमाणे ( इंदियत्था य ) इंद्रियोना रूपादिक विषयो तथा ( मणस्स अत्था ) मनना स्मरयादिक विषयो तथा उपलक्षणथी इंद्रियो भने मन पोते पण ( रागियो ) रागी भने उपलक्षणथी द्वेषी एवा (मणुअस्स) मनुष्य ने ( दुक्खरस ) दुःखना ( हेऊ ) हेतुरूप थाय थे. भने ( ते चेव ) ते ज विषयो ( वीरागस्स ) रागद्वेष रहित एवा पुरुषने E+TOKK +03 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पि) मन के शरीर संबंधी कांड पण ( थोवं पि) थोडं पण ( दुक्खं ) दुःख ( कयाह ) कदापि (न करिति ) नथी. १००. अहीं कोइ शंका करे के काम भोग विद्यमान सते कोइ पण मनुष्य वीतराग संभवतो नथी, तो तेने दुःखनो प्रभाव ते थाय ? पानो उत्तर प्रापे छे.--. ने कामभोगा समयं उर्विति, न यावि भोगा विंगई उविति । जे" तप्पयोसी अपरिग्गही अ, 'सो तेसैं मोहा विगई उँवेइ॥ १०१॥ —(कामभोगा) कामभोग पोते ( समयं ) समताने एटले रागद्वेषना अभावने (न उचिंति ) पामता नथी | मभोग पोते रागद्वेषना अभाव प्रत्ये कारणरूप थता नथी. जो तेम थतुं होय तो तो कोइ पण प्राणी रागद्वेषवाळो । ही. ( यावि ) तेम ज वळी ( भोगा) कामभोग पोते (विगई ) क्रोधादिक विकृति प्रत्ये पण ( न उविति) -कारणरूप थता नथी. जो कदाच केवळ कामभोगो ज क्रोधादिक विकारना कारण होय तो कोइ पण प्राणी | त थाय ज नहीं. त्यारे तेनो हेतु कोण के ? ते कहे .—(जे ) जे माणस (तप्पनोसी अ) ते विषयो उपर (परिम्गही अ) परिग्रहनी बुद्धिवाळो एटले रागवाळो होय, ( सो ) ते मनुष्य ( तेसु ) ते विषयो उपर , जी एटले रागद्वेषरूपी मोहनीय कर्मथी (विगई उवेइ ) क्रोधादिक विकृतिने पामे छे. अर्थात् जे रागद्वेष न समताने पामे छे. १०१. Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी विकृतिने पामे छे । ते कहे छे.~कोहं च मारणं च तव मायं, लोभं दुगुंछ अग्इ रई च। हासं भयं सोग पुमिस्थिवेअं, नपुंसवेनं विविहे श्र भावे ॥ १०२ ।। श्रावजई एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेमु सत्तो। अन्ने श्र एप्पभवे विसस, कारलदीणे हिरिमे वइस्से ॥ १०३ ॥ -( कोहं च ) क्रोधने, ( माणं च ) मानने, (तहेव ) तथा ( मायं ) मायाने, ( लोभं) लोभने, ( गुंछ) E -जुगुप्साने, ( अरई) अरतिन, । रई च ) रतिने, (हासं ) हास्यने, ( भयं ) भयने, (सोग ) शोकने, (पुमि- 12 पुरुषवेदने, स्वीवेदने, (नपुंसवे) नपुंसकवेदने, (विविहे श्र) तथा विविध प्रकारना हर्ष शोकादिक भावोने ( एवं ) पा रीते ( अणे गरूवे ) अनेक भेदवाळा ( एवंचिद्दे ) अावा प्रकारना विकारोने ( कामगुणेसु) गने विषे ( सत्तो) आसक्त धयेलो भने उपलक्षणथी द्विष्ट थयेलो प्राणी (आवजई ) पामे छे. तथा (कारुणदीणे) करवा लायक दीन एटले अत्यंत दीन, (हिरिमे ) लळावान अने ( वहस्से ) द्वेष पाम्यो सतो ते प्राणी ( अने वीजा पण ( एअप्पभये ) ते क्रोधादिकथी उत्पन थता ( विसेसे ) परिताप अने दुर्गतिपात विगेरेरूप विशेषोने दे. १०२-१०३. Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरीने बीजी रीते रागने उद्धार करवाना उपायने भने तेथी विपरीत वर्तवाथी धता दोषने कहे थे कैप्पं ने इलेज सहायलिच्छू, पच्छाणुतावेण तवप्पभावं। एवं विआरे अमिअप्पयारे, आवजई इंदियचोरवस्से ॥ १०४॥ जाई --- साधु (सहासलिनाडू ) " शिम मारुं विश्रामणादिक कार्य करशे" ए प्रमाणे विचारी (कप्पं ) वैया| पच्च करवामां समर्थ एवा पण शिष्यने (न इच्छेअ) न इच्छे, तो पछी प्रकल्प-असमर्थने तो शानो ज इच्छे। तेमज (पच्छा| णुतावेण ) दीक्षा ग्रहण कर्या पछी " में आq कष्ट शामाटे अंगीकार कर्यु ?" इत्यादिक पश्चात्तापे करीने अथवा बीजा कोई कारणथी ( तचप्पभावं ) तपना प्रभावने एटले भालोकमा ज पामोषध्यादिक लब्धिने अने परलोकमा मोगादिकने पण न इच्छे. कारण के ( एवं ) मा प्रकारे इच्छवाथी ( इंदियचोरवस्से ) इंद्रियोरूपी चोरने वश धयेलो साधु (भमिनप्पयारे) घणा प्रकारना (विजारे) विकारोने-दोषोने ( भावजई) पामे छे. १०४. आज विषयने दृढ करवा माटे विकारोथी वीजा दोषोनी उत्पत्ति कहे छे. तओ से जायंति पोणाई, निमजिउं मोहमहसवम्मि । सुहेसिणो दुखविणोअणट्टा, तप्पच्चयं उज्जैमए अ रोंगी ॥ १०५ ॥ अर्थ-(तो) कषाय भने वेदादिकनी प्राप्ति थया पछी ( सुहेसिणो) सुखनी इच्छापाळा (से) तेने एटले इंद्रियो Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I | रूपी चोरने वश थयेलाने ( मोहमहणवम्नि ) मोहरूपी महासागरने विषे (निमजिउ ) डुबाववा माटे (दुक्खषिणोश्रणहा) मानी लीघेला दुःखना विनाशने अर्थे (पोषणाई) विषयसेया अने हिंसा विगैरे प्रयोजनो (जायंति) उत्पम थाय छे. अर्थात् | सुखनी इच्छाथी दुखिनो नाश करवा माटे विषयसेवादिका प्रवर्ते छे, परंतु ते तो उलटा दुःखना ज कारण के. तेथी करीने ( तप्पच्चयं ) ते विषयसेवादिकने निश्चि । रागी) रानी भने उपलक्षणथी द्वेषी एवो सतो ज ( उज्जमए म) उधम | करे . कारण के राग द्वेष ज समग्र अनर्थना हेतु छे. १०५. राग द्वेष ज अनर्थना हेतु केम छ ? ते उपर कहे छ. विरजमाणस्त य इंदिअत्था, सदाइया तावइअप्पयारा। नं तस्स सम्वेऽवि मणुयं वा, निवत्तयंती अर्मणुमयं वा ॥ १०६ ।। अर्थ-( तावइनप्पयारा ) जेटला प्रकारो खर मृदु विगैरे पूर्वे कहेला छे तेटला प्रकारना ( सद्दाइमा ) शब्दादिक| शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्श ए ( सच्चेऽधि ) सर्वे ( इंदिअत्था ) इंद्रियोना विषयो ( विरञ्जमाणस्स य ) राग रहित तथा | उपलक्षमाथी द्वेष रहित एवा ( तस्स ते पुरुषने (मगुणायं वा) मनोज्ञपणू के ( अमणमयं वा) अमनोज्ञपणुकांड पण (न निच्चत्तयंती) उत्पन्न करता नथी. अर्थात् जे रागद्वेष रहित होय तेने विषयो शुं करी शके ? १०६. ा प्रमाणे रागद्वेपना तथा तेना उपादान कारणरूप मोहना उदारनो उपाय कझो. हवे तेनो उपसंहार-समाप्ति करे छे. Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐवं संसंकप्पविकप्पणासु, संजॉयए समयमुट्ठिअस्स। अस्थे अ संकप्पयओ तओ से, पहीअए कामगुणेसु तैपहा ॥ १०७ ॥ अर्थ-( एवं ) मा प्रकारे ( ससंकप्पविकप्पणासु ) पोताना संकल्प एटले राग, द्वेष अने मोहरूप अध्यवसाय, तेनी विकल्पनाने विषे एटले रागादिक ज समग्र दोपर्नु मूळ कारण छे एवी भावनाने विषे ( उवधिस्स ) उधमवंत थयेला (अत्थे श्र) तथा अर्थने एटले रूपादिक इंद्रियोना विषयोने ( संकप्पयो ) " आ विषयो काइ कर्मबंधना हेतु नधी, परंतु रागद्वेषादिक कर्मबंधना हेतु छे " एम संकल्प करता-चितवन करता एवा पुरुषने ( समयं ) समता एटले मध्यस्थता || ( संजायए ) उत्पन्न शाय छे, भने ( तओ ) ते समताथी (से) तेनी (कामगुणसु तण्हा) कामभोग संबंधी तृष्णा (पहीअए) क्षीण थाय छे. १.७, त्यारपछी ते शुं करे छे ? ते कहे - से वीरागो केयसबकिच्चो, खैवइ नाणावरणं खंणेणं । तेहेव जे दंसंगमावरेइ, में चतरायं पैकरेइ कम्मं ॥ १०८ ॥ अर्थ-(स) ते वृष्णा रहित पुरुष ( वीअरागो) वीतराग थाय छ, कारमा के कृष्णा एटले लोभ, तेनो क्षय थबाथी क्षीणमोह गुणस्थानक प्राप्त थाय छे. तेथी ते वीतराग थइ शके के, तथा ते पुरुष ( कयसबकिच्चो ) कर्या के सर्व कृत्यो Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेणे एवा पुरुपनी जेवो थयो थको ( नाणावरणं) ज्ञानावरणं-ज्ञानावरणीय कर्मने, ( तहेब ) तथा (ज) जे कर्म || (दसणं भावरेइ ) दर्शनने आवरे छे ते दर्शनावरणीय कमेने, (जं च ) तथा जे फर्म ( अंतरायं) दानादिकना अंतरायने । | (पकरेह) करे छे, ते (कम) कर्मने एटले अंतराय कमेने (खणेणं) एक घणमा ज ( खवेइ) खपावे छे. १०८. ते कर्मोनो क्षय थवाथी कयो गुणं प्राप्त थाप छे ? ते कहे छे सव्वं तओ जाणइ पासई अ, अमोहणे होई निरंतराएं। अंणासवे झाणसमाहिजुत्ते, आउवखए मोक्खेमुवेइ सुद्धे ॥ १०९ ॥ अर्थ ( तो ) त्यारपछी एटले ज्ञानावरणीयादिक कर्मनो क्षय थयेथी ( सव्वं ) सर्वने ( जाणइ ) विशेष प्रकारे । जाणे छ, (पासइ अ) सामान्य प्रकारे जुए के अर्थात् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी थाय छे. तथा ( अमोहणे) मोह रहित, ( निरंतराए ) अंतराय रहित अने (अणासवे ) फर्मबंधना हेतुरूप जे हिंसादिक आश्रवो तेणे करीने रहित एवो ( होह) थाय के. त्यारपछी ( माणसमाहिजुत्ते ) शुक्लध्यानवडे जे समाधि एटले अत्यंत स्वस्थता तेथे करीने यक्त एवो सतो ( पाउखए ) आयुष्यनो अने उपलक्षणथी नाम, गोत्र, तथा वेदनीय कर्मनो क्षय थये सते ( सुद्धे ) शुद्ध-कर्ममळ रहित एवो ते (मोक्खं उबेइ ) मोचने पामे छे. १०६. मोक्षमा गयेलो ते केवो थाय छ ? ते कहे थे Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो तस्स सबसे हस्त को, जं बाहई सययं जंतुमे । दीहामय विप्पको सत्थो, 'तो होई' चिंतसुही कैंयत्थी ॥ ११० ॥ अर्थ – (सो) मोचमां गयेलो ते (जं) जे दुःख ( एवं जंतुं ) मा संसारना जीवने (समर्थ) निरंतर (बाहई) पीडा उपजावे , (तस्स सव्वस दुस्स ) ते सर्व दुःखथी ( मुको) मुक्त थाय छे, तथा ( दीहामयविप्पभुको) दीर्घस्थितिवाळा कर्मरूपी व्याधिथी मुक्त थाय छे, अने तेथीं करीने ( पसत्थो ) प्रशंसाने लायक थाय छे, ( तो ) अने त्यारपछी एटले कर्मव्याधिवडे मुक्त थवाथी (चंतही अत्यंत सुखी धने (कयत्थी) कृतार्थ (होइ) थाय . ११०. हवे मा अध्ययनने समाप्त करे -- अणाई कालप्पभवस्स ऐसो, सव्वस्स दुक्खस्स पैमोक्खमग्गो । विमाहिओ जं समुवेच्च सत्ता, कैमेण श्रच्चंतसही हैवंति त्ति बेमि ॥ १११ ॥ अर्थ - ( एसो ) आखा अध्ययनमां को ते ( अणाइकालप्पभवस्स ) अनादिकाळधी उत्पन्न थयेला ( सम्वस्स दुक्खस्स ) सर्व दुःखना ( पमोक्खमग्गो) मोचनो मार्ग ( विवाहिओ ) तीर्थकरोए कह्यो बे, के (जं ) जे मार्गने ( समुवेश्च ) सम्यक् प्रकारे पामीने (सत्ता) प्राणीओ ( कमेण ) अनुक्रमे उत्तरोत्तर गुणस्थानने पामी ( प्रांतसुही ) अत्यंत सुखी (इवंति ) थाय छे. (त्ति बेमि ) एम हुं कहुं हुं. ए प्रमाणे सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने कर्पु. १११. ॥ इति द्वात्रिंशत्तममध्ययनम् ।। ३२. Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ कर्मप्रकृति नामर्नु तेत्रीशमुं अध्ययन. ३३. बधीशमा अध्ययनमा प्रमादनां स्थानो कहां, ते स्थानोवडे कर्म बंधाय छे तेथी आ अध्ययनमा कर्मनु स्वरूप बतावे छे. मा श्रा संबंधी प्रावेला प्रा अध्ययननुं आ प्रथम मूत्र छ--- अट्र कैम्माइं वोच्छामि, आणुपुचि जहक्कम । हिं बद्धो जीवो, लीलारे परित्तइ ॥ १ ॥ अर्थ-( अ ) आठ ( कम्माई ) कर्मोने ( जहक्कम ) अनुक्रमे एटले जेयो क्रम कह्यो छे ते प्रमाणे (आणुपुन्धि ) * परिपाटीए करीने (वोच्छामि ) ९ कहीश के ( जेहिं ) जे कर्मोघडे (बडो ) बंधायेलो ( अयं जीवो) मा जीव ( संसारे) संसारने विषे ( परिअत्तइ ) भ्रमण करे छे. १. आठ कर्मनां नाम कद्दे छनाणसावरणिज्जं. दसणावरणं तहा । वेणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य ॥२॥ नामकम्मं च गोत्तं च, अंतरायं तहेव य । एवमेआई कम्माई, अद्वैव उ समासओ ॥ ३ ॥ अर्थ-(नाणस्स पावरणिजं ) ज्ञानने आवरण करनारु एटले ज्ञानावरणीय १, (दसणावरणं ) दर्शनावरणीय २, Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - PANCE -- ):-- * ( तहा ) तथा ( वेअणिज ) वेदनीय ३, (तहा मोई) तथा मोहनीय ४, (आउकम्म) आयुकर्म , (तहेच य) तथा वळी | (नामकम्मं च ) नामकर्म ६, (गोतं च ) गोर ७, (सरन जोग) तशा बही अंतराय कर्म , (एवं) ए प्रमाणे ( एआई) आ ( कम्माई ) कर्मो ( अद्वैव उ) आठ ज ( समासओ) संक्षेपथी कयां छे. २-३, हवे ते आठ कर्मनी उत्तर प्रकृतिमी कहे छनाणावरणं पंचविहं, सुअं आभिणिबोहिमं । ओहिनाणं तइय, मणनाणं च केवलं ॥ ४ ॥ अर्थ-(नाणावरणं ) ज्ञानावरणीय कर्म (पंचविहं ) पांच प्रकारनुं छे, ते आ प्रमाणे-(सुअं) श्रुत एटले श्रुतज्ञानावरण १, ( भाभिणियोहि) आमिनिबोधिक एटले मतिज्ञानावरण २, ( श्रोहिनायं ) अवधिशानावरमा ए( तइयं) जीजूंछ ३, ( मगानाणं) मनःपर्यायज्ञानावरण ४, (च) अने ( केवलं ) केवळज्ञानावरण ५. श्रा पांच ज्ञानावरणीय कर्मनी उत्तर प्रकृति छे. ४. __हवे दर्शनाचरणनी उत्तर प्रकृतिलो कहे छेनिदा तहेव पयला, निदानिहा य पयलपयला य। तत्तो अ थीणगिद्धी उ, पंचमा होइ नायब्वा॥५॥ चक्खुमचक्खुओहिस्स, दंसणे केवले अ आवरणे। एवं तु नवविगप्पं, नायव्वं दसणावरणं ॥६॥ अर्थ-(निदा ) निद्रा १, ( तहेब ) तथा ( पयला ) प्रचला २, ( निहानिद्दा य ) निद्रानिद्रा ३, तथा ( पयल Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयला य ) प्रचलाप्रचला ४, ( ततो अ ) त्यारपत्री ( थी गिद्धी उ ) स्त्यानगृद्धि अथवा स्स्यानर्द्धि ५ ( पंचमा) पांचमी ( होइ ) छे एम (नायच्या) जयजया ( तुहिय) चतु, भचतु अने अवधिना ( दंसणे ) दर्शनने विषे एटले चतुदर्शन चक्षुवडे सामान्य रीते रूपनुं ग्रहण ६, अचक्षु एटले चक्षु सिवायना चार इंद्रियो तथा मन वडे तेना विषमनुं ग्रहण ते अचक्षुदर्शन ७, अवधिदर्शन ८, ( केवले का ) तथा केवळदर्शन ६ मा चारने विषे ( श्रावरणे ) आवरण, ( एवं तु ) प्रकारे एटले निद्रादिक पांच निद्रा भने चन्तु श्रादिक चारनुं आवरण ए ( नवविगप्पं ) नव प्रकारनुं ( दंसथावरणं ) दर्शनावरण ( नायव्वं ) जाणवुं. ५ - ६. वे वेदनीय कर्मनी उत्तर प्रकृति कहे छे. वेणिअं पिअ दुविहं, सायमसायं च आहिअं । सायस्त उ बहू भेआ, एमेवासायस्स वि ॥ ७ ॥ अर्थ---(अचिंपिा ) वळी वेदनीय कर्म ( दुविहं ) चे प्रकारनुं छे, ते ( सायं ) सात एटले शरीर भने मन संबंधी सुख (असाच ) तथा असात एटले शरीर अने मन संबंधी दुःख, ( श्राहि ) कह्युं छे. तेमां ( सायरस उ ) सात| वेदनीयना ( वधू मेश्रा ) घणा भेदो थे, ( एमेव ) एज प्रमाणे ( असायस्स वि) असातावेदनीयना पण घणा भेदो थे. ७. वे मोहनीय कर्मनी उत्तर प्रकृति कहे छे. मोहणिजं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । दंसणे तिविहं वुत्तं चरणे दुविहं भवे ॥ ८ ॥ — Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( मोहणिलं पि ) मोइनीय कर्म पण ( दुविहं ) चे प्रकारर्नु छ, ते आ प्रमाणे-(दसणे) दर्शनने विषेश ( चरणे तहा ) तथा चारित्रने विषे एटले दर्शनमोहनीय अने चारित्रमोहनीय. तेमा (दसणे) दर्शनना-समकितना विषयवाल्लं मोहनीय (तिविहं ) ण प्रकारनं । नुनं ) कर ले, अने ( चरणे) चारित्रना विषयवालं मोहनीय (दुविहं ।। मवे ) वे प्रकारचं छे. ८. प्रथम दर्शनमोहनीयना त्रण मेद कहे छ सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य। एआओ तिमि पयडीओ, मोहणिज्जस्स सणे ॥९॥ अर्थ-( सम्मचं ) शुद्ध दळीयांरूप समकित मोहनी, तेनो उदय थये सते शुद्ध तत्वनी रूचि थाय छे १, (घेव) तथा ( मिच्छत्तं ) अशुद्ध दळीयांसपी मिथ्यात्व मोहनी, तेनो उदय थये सते अतत्त्वने विषे तत्वनी बुद्धि थाय छे २, ( सम्मामिच्छत्तमेव य) तथा शुद्धाशुद्ध दळीयांरूप सम्यग्मिथ्यात्व-मिश्रमोहनी, तेनो उदय थये सते वने प्रकारनो स्वभाव थाय छे. ३ ( एमाओ ) मा ( तिमि ) त्रण ( पयडीयो ) प्रकृतियो ( मोहणिजस्स ) मोहनीय संबंधी (दंसखे)। दर्शनने विषे एटले दर्शनमोहनीयनी छे. ६. हवे चारित्रमोहनीयना चे भेद कहे छे.चरित्तमोहणं कम्म, दुविहं तु विआहिनं । कसायवेअणिजं तु, नोकसायं तहेव य ॥ १० ॥ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥ अर्थ – ( चरितमोहणं ) जेनावडे चारित्रने त्रिषे मोह पमाय ते चारित्रमोहनीय नामनुं ( कम्मं ) कर्म ( दुविहं तु ) वे प्रकारनुं (विचाहि ) कहुं छे. ते आप्रमाणे - ( कसायवेअणि तु ) क्रोधादिक कपायरूपे जे वेदाय - अनुभवाय कषायवेदनीय, ( तहेव य ) तथा ( नोकसायं ) कषायना सहचारीओ हास्यादिक नव ते नोकषाय, ते रूपे जे वेदाय ते नोपावेदनीय कहेवाय छे. १०. कषाय भने नोकपायना भेदो कड़े छे. सोहि भेणं, कम्मं तु कसीयजं । सत्तविह नवविहं वा, कम्मं नोकसायजं ॥ ११ ॥ अर्थ – (कसायजं) कषायथी उत्पन्न थयेलुं (कम्मं तु) कर्म (भेएं) भेदे करीने ( सोलसविह ) सोळ प्रकारनुं छे. अने (नोकसायजं) नोकषायथी उत्पन्न धयेलुं ( कम्मं ) कर्म ( सत्तविह ) सात प्रकारनुं ( नवविहं वा ) अथवा नव प्रकारनुं छे. मां कषाय चार छे - क्रोध, मान, माया अने लोभ. ते दरेकना चार चार भेद के अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानावरण ने संज्वलन. नोकषाय कर्म सात प्रकारनं या प्रमाणे . – हास्य १, रति २, अरति ३, भय ४, शोक ५, जुगुप्सा ६ ने वेद ७. तेमां त्रणे वेदने जूदा गणीए त्यारे हास्यादि छ भने ऋण वेद मळी नव थाय . ११. हवे आयुष्य कर्मनी उत्तर प्रकृति कहे छे. - नेर अतिरिक्खाउं, मणुस्साउं तहेव य । देवाउअं चउत्थं तु, आउकम्मं चउव्वि ॥ १२ ॥ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ (नेग्डअतिरिक्खाउं नरकाय, तिर्यगाय, ( मणम्साउं) मनुष्यायु, ( तहेव य ) तथा वळी (देवाउभ) देवायु l ए ( चउत्थं तु) चौधुं छे. ए प्रमाणे (आउकम्मं ) आयुकर्म ( चउब्धिहं ) चार प्रकारचं छ. १२. ___ हवे नामकर्मनी उत्तर प्रकृति कहे छे. नामकम्मं तु दुविहं, सुहं असुहं च आहिअं । सुहस्स य बहू भेया, एमेव असुहस्स वि ॥१३॥ __ अर्थ--( नामकम्मं तु ) नामकर्म ( दुविहं ) बे प्रकारनुं ( सुहं) शुभ ( असुई च ) अने अशुभ ( माहिअं) कg छे. | तेमां ( सुहस्स य ) शुभ नामकर्मना (बहू भेया ) घणा भेदो छ, ( एमेव ) ए ज प्रमाणे (असुहस्स वि ) अशुभना पण घणा भेदो छे. तेमां शुभ नामना उत्तर भेद अनंत छे तोपण मध्यम विचक्षा करीए तो साडत्रीश भेदो छ, ते श्रा! प्रमाणे नरगति १, देवगति २, पंचेंद्रिय जाति ३, औदारिकादिक पांच शरीर E, पहेला त्रण शरीरना अंगोपांग ११, प्रशस्त वर्णादि चार १५, पहेलुं संस्थान १६, पहेलुं संहनन १७, मनुष्यानुपूर्वी १८, देवानुपूर्वी १६, मगुरुलघु २०, परापात २१, उट्वास २२, प्रातप २३, उद्योत २४, प्रशस्त विहायोगति २५, त्रस २६, बादर २७, पर्याप्त २८, प्रत्येक २६, स्थिर ३०, शुभ ३१, सुभग ३२, सुस्वर ३३, प्रादेय ३४, यश ३३, निर्माण ३६ अने तीर्थंकर नाम ३७, आ प्रकृतिओ शुभ अनुभाववाळी होवाथी शुभ छे. तथा अशुभ नामना पण मध्यम विवहाए करीने चोत्रीश भेद छ, ते पा प्रमाणे,नरकगात १, तियग्मात २, एकद्रियादिक जाति चार ६, पहेला विनाना पांच संहनन ११, पहेला विनाना पांच संस्थान । १६, अप्रशस्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्श ए चार २०, नरकानुपूर्वी २१, तिर्यगानुपूर्वी २२, उपधात २३, अप्रशस्त विहायो Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति २४, तथा त्रसदशकथी विपरीत एवं स्थावरद एक हेरियो र विगेरे लघुभना कारण होवाथी अशुभ कद्देवाय छे. १३. वे गोत्रकर्मनी उत्तर प्रकृति कहे छे." गोश्रकम्मं दुविहं, उच्चं नीअं च श्राहि । उच्चं श्रटुविहं होइ, एवं नीनं पि श्राहिमं ॥ १४ ॥ (अर्थ – ( गोअकम्पं ) गोत्रकर्म ( उच्चं नीनं च ) उच्च अने नीच एम (दुविहं ) वे प्रकारनुं ( श्राहिश्रं ) कयुं छे. तेम ( उच्चं ) उच्च गोत्रकर्म ( अद्भुवि ) आठ प्रकारनुं ( होइ ) छे. ( एवं ) ए ज प्रकारे (नीचं पि) नीच गोत्रकर्म पण आठ प्रकारनुं ( श्राहियं ) धुं छे. जातिमदादिक श्रानो जे श्रभाव ते उच्चगोत्रनुं कारण के भने जातिमदादिकचाउनुं share ए नीच गोत्रनुं कारण छे. १४. हवे अंतरायकर्मनी उत्तर प्रकृति कहे छे दाणे लाभे भोगे अ, उपभोगे वीरिए तहा । पंचविहमंतरायं, समासेण विश्राहिश्रं ॥ १५ ॥ अ अर्थ – ( दाणे ) देवालायक वस्तु आपवाने विषे, ( लाभ अ ) इच्छित बस्तुना लाभने विषे ( भोगे अ ) एकवार Hindi लायक पुष्पादिकने विषे, ( उवभोंगे ) वारंवार भोगवत्रा लायक घर, स्त्री विगेरेने विषे, ( वीरिए तहा ) तथा वीर्य विषे-पराक्रमने विषे, श्रा रीते ( पंचवि ) पांच प्रकारनुं ( अंतरायं ) अंतराय कर्म ( समासेय ) संचेपे करीने विश्रादि ) कनुं छे. ते पात्र अने देवालायक वस्तु हाजर छत तथा दाननुं फळ जाणता छतां दान देवामां प्रवृत्ति Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MEDIA इच्छा न थाय ते दानांतराय कहेवाय छ १, उदार दिलनो दातार छतो याचना करवामां कुशल एवा पण याचकने लाम || न थाय ते लाभांतराय कहेबाय छ २, आहार अने पुष्पमाला विगेरे भोग्यवस्तु छतां पण भोगवी न शकाय ते भोगांतराय | कहेवाय छ ३, स्त्री अने वस्त्रादिक छता पण उपभोग करी न शकाय ते उपभोगांतराय कहेवाय छ ४, तथा नीरोगी अनेर युवान छतां पण तृण जेवी वस्तुने वांकी पण करी न शके ते वीर्यातराय कहेवाय छे. ५. १५. श्रा प्रमाणे पाठे कर्मनी उत्तर प्रकृतिलो कही, हवे आ कर्मनो विषय संपूर्ण करवा पूर्वक हवे पछी कहेवाना विषयनो संबंध कहे छ.---- एमाओ मूलप्पयडीमो, उत्तराओ अ आहिश्रा। पएसग्गं खेत्तकाले अ, भावं चादुत्तरं सुण ॥१६॥ अर्थ (एआरओ) आ ( मूलप्पयडीओ ) मूल प्रकृतिओ (उत्तराभो अ) तथा उत्तर प्रकृतिश्री ( प्राहिमा ) कही. ( अदुत्तरं ) हचे पछी ( पएसगं) प्रदेशाग्र एटले परमाणुगोना परिमाणरूप द्रव्य ( खेत्तकाले अ) क्षेत्र, काळ, ( भावं. च) अने भावने ( सुण ) सांभळो. १६. तेमा प्रथम प्रदेशाग्रने कहे छे. सव्वेसिं चेव कम्माणं, पएसग्गमणंतगं। गंठिअसत्ताईअं, अंतो सिद्धाण आहिश्रं ॥१७॥ अर्थ--(सव्वेसि चेव ) सर्व एवा पण (कम्माणं) कर्मना ( पएसगं) प्रदेशाग्न एटले परमाणुमो परिमाण (पणंवर्ग) Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंत छे. केटलुं अनंत छ ? ते कहे छ.-(गंठिनसत्ताईअं) ग्रंथिक सत्त्वने श्रोळंगी जाय तेटलं अनंत के एटले | के जेश्रो ग्रंथिदेशने पाम्या छतां पण ते प्रथिने मेदीने कोइपण वखत आगळ जवाना नथी नेवा अभव्योने श्रोळंगी जाय तेटलं एटले अभव्याधी अनंतगणं आ प्रदेशाग्रनं अनंत छ. तथा ( अंतो सिद्धास) सिद्धोनी अंदर (श्राहि । कह्यु एटले के सर्व सिद्धोने अनंतमे भागे कर्मना परमाणुसो छ, एक जीव एक समयमा जे कर्म बांधे छे, से कर्मना परमाणुशोर्नु ा प्रमाण जाणवू. केमके सर्व कर्मना परमाणुनो तो सर्व जीवो करतो अनंतानंतगुणा छ, तेथी भा कहेलु परिमाण अन्यथा घटतुं नथी. १७. हवे क्षेत्र कहे छे.सबजीवा ण कम्मं तु, संगहे छदिसागयं । सवेसु वि पऍसेसु, सव्वं सवेण बञ्झगं ॥ १८ ॥ । ___ अर्थ-(सव्वीवा ण) सर्व जीवो ( छद्दिसागयं) छए दिशामा रहेला ( कम्मं तु ) ज्ञानावरणादिक कर्मनेकार्मणवर्गणाने ( संगहे ) ग्रहण करे छे. अहीं सर्व जीवो कया छे तेमा द्वींद्रियादिक पंचेंद्रिय पर्यंतने माटे नियमथी | जाणवू. एकेंद्रियने आश्रीने तो अन्यथा पण संभवे छे एटले के एकेंद्रियो तो कदाचित् त्रण दिशाना, कदाचित् चार | दिशाना, कदाचित् पांच दिशानो अने कदाचित् छ दिशाना कर्मषुद्गलोने ग्रहण करे छे.' ते ग्रहण करेलु को कोनी साथे || १ आ त्रण, चार ने पांच दिशा लोकांतनी अपेक्षाए जाणवी. Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केटलुं अने केवी रीते बंधाय छे ? ते कहे छे.-( सच्चेसु वि पएसेसु) आत्माना सर्व प्रदेशोनी साथे ( सर्व ) सर्व एटले ज्ञानावरणादिकमाथी कोइ एक ज कर्म नहीं पण सर्व कर्म (७-८ कर्म ) (सम्वेस) सर्व एटले प्रकृति, स्थिति विगेरे सर्व प्रकारे ( बज्झर्ग) क्षीरनीरनी जेम बांधे थे-आश्लिष्ट करे छे. १८. हवे काळ एटले कर्मनी स्थितिने कहे छे.उदहिसरिसनामाणं, तीसई कोडिकोडीओ। उनकोसिया ठिई होई, अंतीमुहत्तं जहम्मिश्रा ।। १६ ॥ अर्थ-( तीसई ) त्रीश ( कोडिकोडीओ) कोटाकोटि (उदहिसरिसनामाणं) उदधि सदृश नामवाळानी एटले सागरोपमनी ( उकासिया ठिई ) उत्कृष्ट स्थिति ( होई ) होय छे अन ( जहलिया ) जघन्य स्थिति (अंतोतं) | अंतर्मुहूतेनी छे. १६. आटली स्थिति कया कया कर्मनी छ । ते कहे छे.| पावरणिजाण दुहं पि. वेणिज्जे तहेव य । अंतराए अकम्मम्मि, ठिई एसा विश्रोहिया ॥२०॥ ___ अर्थ-(दुण्हं पि) बझे ( पावरणिजाण ) आवरणने विषे एटले झानावरणीय अने दर्शनावरणीयने विषे, II (वेअणिजे) वेदनीयने विषे, । तहेव य ) तेम ज ( अंतराए अ) अंतरायने विषे (कम्मम्मि) आ चार कर्मने विषे ।। एटले ते चार कर्मनी ( एसा ) पा उपरनी गाथामां कहेली (ठिई ) स्थिति (विाहिश्रा ) कहेली छे. भहीं वेदनीय Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कर्मनी पण जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्तनी कही, परंतु अन्य स्थळे तो बार सहर्तनी कहेली के ते कषाय सहिमने पाश्री कहेली छे एम जाणवू. ते शिवे रुगुं छे के..लोकसामिपार महुचा जहम अणिए " एटले "अकपायी जीवोनी स्थिति बिना वेदनीय कर्मनी जघन्य स्थिति बार मुहर्तनी छे, " वळी कषायरहित सातावेदनीयनी स्थिति तो बे समयनी अहीं ज कहेली छे. तेनुं खरं तव तो बानीगम्य छे. २०. उदहिसरिसनामाणं, सत्तरि कोडिकोडीओ । मोहणिजस्म उकोसा, अंतोमुंहत्तं जहलिया ॥ २१ ॥ तेत्तीससागरोवम, उक्कोसेण विहिबा । ठिई उ पाउकम्मस्स, अंतोमुंहुत्तं जहमिया ।। २२ ।।। | उदहिसरिसनामाणं, वीसई कोडिकोडीओ । नामगोत्ताण उक्कोसा, अहूँ मुहुँत्ता जहमिश्रा ।। २३ ॥ अर्थ-( मोहमिजस्स ) मोहनीय कर्मनी ( उक्कोसा ) उत्कृष्ट स्थिति ( सत्तरि ) सीतेर (कोडिकोडीओ) कोटाकोटि ( उदहिसरिसनामाणं ) मागरोपमनी छे अने ( जहसिमा ) जघन्य स्थिति (अंतोमुहुर्स ) अंतर्मुहर्तनी के २१. ( पाउकम्मस्स ) आयुकर्मनी (ठिई उ) स्थिति ( उकोसेण) उत्कृष्टे करीने (तेत्तीससागरोवम) तेत्रीश सागरोपमनी (विश्राहिआ) कही के अने ( जहलिमा ) जघन्य स्थिति (अंतोसुहत्वं ) अंतर्मुहूर्तनी कही छे. २२. ( नामगोताण ) नामकर्म अने गोत्रकर्मनी (उकोमा ) उत्कृष्ट स्थिति (वीसई ) वीश ( कोडिकोडीओ) कोटाकोटि (उदहिसरिसनामाणं) सागरोपमनी | कही छे अने ( जहणिया ) जघन्य स्थिति ( अट्ठ मुहुचा ) पाठ मुस्तेनी कही छे. २३. Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हये भाव एटले अनुभाग-रस कहे छ, म ज प्रदेशप्रमाण पण कहे छे.|| सिद्धाणऽणतंभागो श्र, अणुभागा भवति । सेव्स वि पैएसग, सव्वजीवेस इच्छिनं ॥ २४ ॥ ___ अर्थ-(अणुमागा) अनुभाग एटले कर्मना रसविशेषो (सिद्धाण ) सिद्धोना (अणंतभागो म ) अनंतमे भागे (भवंति उ) छे. या अनंतमो भाग पण अनंतनी संख्यावाळो ज जाणवो. तथा ( सब्वेसु बि ) सर्व अनुभागोने विषे पण (पएसग्ग) प्रदेश- परिमाण (सव्वजीवेसइच्छिमं) सर्व जीवोने उल्लंघन करनारुं छे एटले सर्व जीवोधी अनंतगुणुं छे. २४ । । इवे अध्ययनने समाप्त करवा पूर्वक उपदेश भापे छे...... तम्हा एएसि कम्माणं, अणुभागे विश्राणिश्रा। एएसिं संवरे चेव, खवणे अजए बुहे त्ति बेमि ॥२५॥ अर्थ-जे कारण माटे ए कर्मोना प्रकृतिबंध, स्थितिबंध विगेरे भावा प्रकारना छ ( तम्हा ) ते कारण माटे (एal एसि कम्माणं ) आ कर्मोना ( अणुभागे ) अनुभागने तथा उपलक्षणथी प्रदेशबंध विगेरेने ( विश्राणिमा ) विशेषे करीने । | एटले विपाकना कटुपणाए करीने तथा भवना कारणपणाए करीने जाणीने ( एएसिं) श्रा नहीं ग्रहण करेला कर्मना | ( संवरे ) संवरने विषे एटले रुंधवाने विषे-मावता रोकवाने विषे ( चेव ) तथा ( खवणे अ) ग्रहण करेला कर्मना चयने । | विषे एटले निर्जराने विषे ( बुहे ) डाया माणसे ( जए ) यत्न करवो ज जोइए (त्ति बेमि ) एम ९ कहुं छु. ए प्रमाचे | सुधर्मास्त्रामीए जंबूस्वामीने कयु. २५, इति त्रयस्त्रिंशमध्ययनम्, ३३. - p Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ लेश्या नामर्नु बोत्रीशमुंअध्ययन. ३४. तेत्रीशमा अध्ययनमा कर्मनी प्रकृतिम्रो कही. ते कर्मनी स्थिति लेश्याने आश्रीने थाय छ, तेथी पा अध्ययनमा - लेश्यानुं स्वरूप को २. लेसज्झयणं पवक्खामि, भाणुपुव्वि जहक्कम । दण्हं पि कम्मलेसाणं, अणुभाने सुणेह मे ॥१॥ अर्थ--( लेसज्झयणं) लेश्याने कहेनारे अध्ययन ( आणुपुन्नि ) भानुपूर्वीए ( जहकम ) अनुक्रमे ( पवक्सामि ) हुं कहीश. ते (छण्हं पि) छए प्रकारनी ( कम्मलेसाणं) कर्मनी स्थिति करनार ते ते विशिष्ट पुद्गळरूप कर्मलेश्याना (अणुभावे ) अनुभावने एटले विशेष प्रकारना रसने ( मे ) मारी पासेथी (सुह ) तमे सांभळो. १. लेश्याना नामादिक कहेवाथी ज लेश्याना अनुभाष कहेला कहेवाय छ, तेथी तेना नामादिकनी प्ररूपणा करवा माटे प्रथम द्वारसूत्र कहे छे.णामाई वारसगंध-फासपरिणामलक्खणं ठाणं । ठिई गई च पाउं, लेसाणं तु सुणेह मे ॥ २ ॥ अर्थ-(लेसाणं तु) लेश्याओना ( णामाई ) नाम, (वस्मरसगंधफासपरिणामलक्खणं ) वर्ण, रस, गंध, स्पशे, जपन्यादिक परिणाम, पंचाश्रयसेवादिक लक्षण, ( ठाम ) उत्कर्ष अने अपकर्षरूप स्थान, ( ठिई ) स्थितिनो काळ. ( गई च) नरकादिक गति-जे जे लेश्याथी जे जे गति प्राप्त थाय ते, तथा (आउं) आयुष्य एटले जेटलं भायुम्य बाकी रहे Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वै. सत्ते यावत्ता भवनी लेश्यानो परिणाम थाय ते सर्व ( मे सुह ) मारी पासेथी तमे सांभळो. २. * जे प्रकारे उद्देश कर्यो होय ते प्रकारे निर्देश करवो 'ए न्यायने अनुसारे प्रथम लेश्यानां नामो कहे छे. किण्हा १ नीला २ य काऊय ३, तेऊ ४ पम्हा ५ तहेब य । सुक्कलेसा ६ घट्टा उ, नामाई तु जहक्कमं ॥ ३ ॥ अर्थ - ( किन्दा ) कृष्णा १, (नीला य ) नील २, (काऊय ) कापोत, ( तेऊ ) तेजो ४, ( पम्हा ) पद्म ५, ( तदेव व ) तथा ( सुकलेला य धट्टा उ ) की शुक् लेश्या ६, आ प्रमाणे लेश्या ओनां (नामाई तु ) नामो ( जहकमं ) अनुक्रमे जाणयां. ३. वेश्याना वर्ण कहे थे. - जीमूतनिद्धसंकासा, गक्लरिठ्ठगसन्निभा । खंजंजगानयणनिभा, किण्हलेसा उ वा ॥ ४ ॥ अर्थ – ( किहलेसा उ ) कृष्णलेश्या ( वमओ) वर्णथी ( जीमूतनिद्धसंकासा ) स्निग्ध मेघना जेवी थे, (गवलरिगसन्निभा ) गवल एटले शनुं शींग अने रिष्टक एटले कागडी अथवा ते नामनुं फळ, तेना जेवी थे, तथा (खंजजपनयखनिभा ) खंज एटले गाडानो कील, अंजन एटले काजळ श्रने नयन एटले नेत्रनी कीकी, तेना बेबी छे अर्थात् अत्यंत काळी छे. ४. OK-OLOX Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M R ..... नीलासोगसंकासा, चासपिच्छसमप्पभा। वेरुलियनिद्धसंकासा, नीललेसा उ वामओ ॥ ५ ॥ अर्थ (नीललेसा उ) नील लेश्या ( वाममो) वर्णथी (नीलासोगसंकासा ) नील अशोकवृचना जेवी छे, ( चासपिच्छसमप्पभा ) चास पक्षीनी पास जेवी छ, तथा (वेरुलियनिद्धसंकासा ) स्निग्ध वैडूर्य रत्नना जेवी छ अर्थात् E] अति नील छे, ५. असलीगुप्फसंकासा, कोहलतसलिमा पारेवयगीवनिभा, काउलेसा उ वालो ॥६॥ अर्थ-( काउलेसा उ ) कापोत लेश्या ( वयो ) वर्णथी ( अयसीपुष्फसंकासा ) अळसी नामना धान्यना पुष्प जेवी छे, ( कोइलच्छदसनिमा) कोकिलच्छद एटले कोयल पक्षीनी पांख जेवी छे, तथा (पारेवयगीवनिमा) पारेवानी ग्रीवा ।। जेवी छे. अर्थात् कांइक काळी अने काइक राती छे. ६.. ___ हिंगुलधाउसंकासा, तरुणाइच्चसन्निभा । सुअतुंडपईवनिभा, तेउलेसा उ वयो ।॥ ७ ॥ __ अर्थ-(तेउलेसा उ) तेजोलेश्या ( वस्पो) वर्णथी (हिंगुलधाउसंकासा) हिंगळोक अने गेरुना जेत्री छ, ( तरुणाइचसनिभा ) उगता सूर्य जेबी छ, तथा (सुअतुंडपईवनिभा) पोपटनी चांच अने प्रदीप-दीवा जेबी के, अर्थात् राती छे. ७. हरियालभेयसंकासा, हलिहाभेयसन्निभा । सणासणकुसुमनिभा, पम्हलेसा उ वामओ ॥८॥ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(पम्हलेसा उ) पद्मलेश्या ( वसओ ) वर्णथी ( हरियालमेयसंकासा) हडताळना ककडा जेवी छे. ( हलिदाभेयसनिमा) हळदना ककड़ा जेवी छ, तथा ( सणासणकुसुमनिमा) सण नामर्नु धान्य अने असण एटले पीयक नामनुं वृक्ष तेना पुष्प जेवी छे. अर्थात् पीळी के. ८. संखककुंदसंकासा, खीरधारासमप्पभा । रययहारसंकासा, सुक्कलेसा उ वाममो ॥ ६ ॥ अर्थ-( सुकलेसा उ ) शुक्ल लेश्या ( वसाओ) वर्णधी ( संखंककुंदसंकासा ) शंख, अंक नामनो मथि अने कुंद ।। | पुष्प जेवी छे, (खीरधारासमप्पभा ) द्धनी धारा जेबी छ, तथा (रययहारसंकासा) रजत एटले रु भने हार एटले | मोतीनी माळा तेना जेबी छ अर्थात् घोळी छे. ६. हवे लेश्यामोना रस कहे छ.--. जह कडुअतुंबगरसो, निंबरसो कडुअरोहिणिरसो वा । एतो वि अणंतगुणो, रसो उ किण्हाइ नायव्वो ॥१०॥ अर्थ (जह ) जेवो ( कडुअतुंगरसो) कडवा तुंबडानो रस छे, (निंबरसो ) जेबो लींबडानो रस छे, ( कहभall रोहिणिरसो वा ) अथवा जेबो कडवी रोहिणी नामनी छालनो रस छे, (एत्तो वि ) तेनाथी पण ( भणतगुणो) अनंत | गुणो अधिक कटु ( रसो उ) रस ( किण्हाइ कृष्णलेश्यानो (नायब्वो) जाणचो. १०. Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जह तिकडुअस्स य रसो, तिक्खो जह हस्थिपिप्पलीए वा । एत्तो वि अणंतगुणो, रसो उ नीलाइ नायव्यो ॥ ११ ॥ अर्थ-(जह ) जेवो (तिकडुनस्स य ) झूठ, पीपर अने मरी ए त्रिकटुनो ( रसो) रस ( तिक्खो ) तीखो छ, (जह हस्थिपिप्पलीए वा ) अथवा गजपिपळी-पीपरनो रस बेवो तीखो छ, ( एत्तो वि) तेनाथी पण (अनंतगुणो | R रसो उ )अनंत गुणो तिक्त रस ( नीलाइ ) नीललेश्यानो ( नायवो ) जाणवो. ११. जह तरुणभंबगरसो. तुबरकविट्ठस्स वावि जारिसओ। - एत्तोऽवि अणंतगुणो, रसो उ काऊ नायव्यो ।। १२॥ अर्थ-(जह ) जेवो ( तरुणयगरसो ) काचा मात्रफळनो रस छ, ( वावि ) अथवा ( जारिसओ) जेवो (तुबरकविहस्स) कषायला एटले तुरा कपित्थफळनो-कोठानो रस छ, (एनो वि अणंतगुणो रसो उ) तेनाथी पण अनंत गुणो रस ( काऊइ ) कापोत लेश्यानो ( नायव्यो ) जासवो. १२. जह परिणयंबगरसो, पक्ककविट्ठस्त वावि जारिसओ। एत्तोऽवि अणतगुणो, रलो उ तेऊइ नायव्वो ॥ १३ ॥ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ (जह ) जेवो ( परिणयंजगरसा ) पाकेला आम्रफळनी रस छ, (वापि ) अथवा (जारिसो ) जेवो ( एक कविठ्ठस्स) पाका कपित्थनो रस काइक मधुर अने काइक खाटो छे, (एचो०) तेनाथी पण अनंतगुणो रस (नेऊइ नायबो) हा तेजोलेश्यानो जाणवो. १३. वरवारुणीइ व रसो, विविहाणे व आसवाण जौरिसमो। म मेरगस्स व रसो, एत्तो पहाए परपणं ॥ १४ ॥ ___ अर्थ-(वरवारुणीइ व ) उत्तम जातिनी मदिरानो (जारिसओ) जेवो ( रसो ) रस छ, अथवा ( विविहाण व) | विविध प्रकारना (पासवाण ) पासबोनो एटले पुष्पथी उत्पन थता मद्योनो जेवो रस छे, अथवा ( महुमेरगस्स व ) मधु एटले मद्यविशेष अने मैरेय एटले सरको, तेनो जेवो ( रसो) रस थे, (एत्तो) एनाथी (परएणं ) अनंतगुणो अधिक रस ( पम्हाए ) पद्मलेश्यानो छे. आ रस काइक खाटो, काइक तुरो अने काइक मधुर होय छे. १४. खज्जूरमुद्दियरसो, खीररसो खंडसकररसो वा। एत्तोऽवि अणंतगुणो, रसो उ सुक्काइ नायव्वो॥१५॥ ___ अर्थ- सज्जूरमुदियरसो ) खर्जुरनो अने द्राक्षनो रस, ( खीररसो ) खीरनो रस ( खंडसकररसो वा) अथवा खांड साकरनो रस बेयो मिष्ट छ, ( एत्तोऽवि० ) एनाथी पण अनंतगुणो रस ( सुकाइ ) शुक्ललेश्यानो जावो. १५. हवे लेश्यानो गंध कहे छे. Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- जह गोमडम्स गंधो, सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स । एत्तोऽवि अणंतगुणा, लेस.णं अप्पसस्थाणं ।। १६ ॥ अर्थ-(जह ) जेवो । गोमडस्स ) गायना शबनो ( मंधो ) गंध छ, अथवा ( सुणगमडस्स )कूतराना शक्नो (व अथवा ( जहा ) जेवो ( अहिमडस्स ) सर्पना शबनो गंध छे ( एनोऽवि ) एनाथी पण (अणतगुणो) अनंतगुणो( अप्पसत्थाणं) अप्रशस्त एटले अशुभ ( लेसाणं) कृष्ण, नील अने कापोत ए त्रण लेश्याओनो गंध छे. १६. जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं। एत्तोऽवि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥ १७ ॥ अर्थ-(जह ) जेबो ( सुरहिकुसुमगंधो) सुगंधी पुष्पोनो गंध छे, अथवा (पिस्समाणाणं) पीसाता एवा ( गंधवा| साण ) कोष्ठपुटपाकथी उत्पन्न थयेला गंधद्रव्यनो अने बीमा सुवासित द्रव्योनो जेवो गंध छे, (एत्तोऽवि) एनाथी पण (भणंतगुणो) अनंतगुणो शुभगंध ( पसत्थलेसाण तिण्डं पि) तेजम्, पद्म अने शुक्ल ए त्रणे प्रशस्त लेश्यानो छे. वहीं अशुभ तथा शुभ सर्व लेश्यानो गंध परस्पर-अंदर अंदर ओछो वधतो कझो नथी ते स्वयमेव जाणी लेवो. १७. ___हवे लेश्याओनो स्पर्श कहे के.जह करगयस्स फासो, गोजिन्भाए व सागपत्ताणं । एत्तोऽवि अणंतगुणो, लेसाणं अप्पसस्थाएं॥१८॥ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - (जह ) जेवो ( करययस्स ) करवतनो ( फासो ) स्पर्श छे, अथवा ( गोजिन्माए ) गायनी जिव्हानो स्पर्श छे, (व) अथवा ( सागपत्ता ) शाक नामना वृचना पांदडानो जेवो कर्कश स्पर्श के ( एसोऽवि भयंतगुणो ) एनाथी पण अनंत गुणकर्कश स्पर्श ( लेसाणं अप्पसत्थाणं ) अप्रशस्त त्रण लेश्यानो छे. १८. जह बूरस्स व फासो, नवणीअस्स व सिरीसकुसुमाणं । तोऽवितगुणो, पसत्यलेसाण तिवहं पि ॥ १९ ॥ अर्थ – ( जह ) जेवो (बूरस्स व ) वर नामनी वनस्पतिनो ( फासो ) कोमळ स्पर्श छे, अथवा ( नवणीभस्स व ) माखणनो अथवा ( सिरीसकुसुमाणं ) शिरीषना पुष्पनो स्पर्श जेवो कोमळ के, (एत्तोऽवि प्रयंतगुणो) एनाथी पण अनंतगुण कमळ ( पत्थलेसाथ तिन्हें पि ) श्रणे प्रशस्त लेश्यानो स्पर्श छे. १६. वेश्यानो परिणाम कहे . तिविहो व नवविहो वा, सत्तावीसइविहिकलीओ वा । दुसो तेआलो वा, लेसाणं होइ परिणामो ॥ २० ॥ अर्थ - ( तिविहो व ) त्रण प्रकारनो अथवा ( नवविहो वा ) नव प्रकारनो अथवा प्रकार अथवा ( इसीओ वा ) एकाशी प्रकारनो अथवा ( दुसओ से आलो वा ) बसो ने सत्तावीस विहो ) सतावीश तालीश प्रकारनो अथवा उप Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षणीया या प्रकरनो (सार्थ) लेबानो ( परिणामो ) परिणाम ( होइ ) दोय थे. तेमां दरेक लेश्यामां जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट भेदे करीने ऋण प्रकारनो परिणाम जाणवो. ज्यारे या जघन्यादिक ऋण प्रकारमां पण पोतपोताने स्थाने तरतमतानो-न्यूनाधिक्यनो विचार करीए त्यारे ते त्रणेने फरीथी जघन्यादिक त्रये गुणवा एटले नव प्रकार नो थाय थे, ए ज रीते वारंवार त्रणे मुखर्ता सतावीश, एकाशी विगेरे प्रकारनो परिणाम थाय छे. २०. दवे लेश्यानुं लक्षण कहे छे. पंचासवप्पवतो, तीहिं अगुत्तो छसु श्रविरओ अ । तिव्वारंभपरिणओ, खुदो साहस्सिओ नरो ॥२१॥ निबंध सपरिणामो, निस्संसो अजिइंदियो । एअजोगसमाउतो, कण्हलेस तु परिणमे ॥ २२ ॥ अर्थ - ( पंचासवप्पवतो) हिंसादिक पांच श्राश्रवने विषे प्रवृत्तिवाळो, ( तीहिं अगुत्तो) मन, वचन अने काय ए गुरिहित, (अविश्य अ ) छ जीवनिकायने विषे विरति रहित, (तिब्बारंभ परिणाम ) तीव्र आरंभना परिणामचाळ (खुद्द) क्षुद्र एटले सर्वनुं ऋहित इच्छनार, ( साइस्सिओ) विचार्या दिना सहसा कार्य करनार एवो ( नरो ) नर अथवा उपलक्षणथी नारी होय तथा वळी ( निद्धंघसपरिणामो ) निध्वंस परिणामवाळो एटले मा लोक अने परलोकना कटनी शंका रहित, ( निस्संसो ) निखिश एटले जीवोनी हिंसा करतां जरा पण शंका न करे देवो तथा ( अजिर्हदिओ ) अजितेंद्रिय, (एअजोगसमाजतो ) था उपर कडेला व्यापारे करीने युक्त एषो पुरुष के स्त्री ( कण्डलंसं तु ) कृष्ण लेश्माने ज *O*•****** Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YAM मा-क (परिणमे ) परिणमे छे-पामे छे. एटले तेवा प्रकारना परमाणुद्रव्यनी सहायथी स्फटिकनी जेवो भात्मा पख तेवा रूपने पामे छे-तेवी लेश्यावाळो थाय छे. कमु छ के-" कृष्णादिक द्रव्यनी सहायथी स्फटिकनी जेम आत्माना जे परिणाम ते प्र लेश्या कहेवाय छे." २१-२२. इस्सा अमरिस अतवो, अविज माया अहीरिया । गेही पओस य सढे, पमते रसलोलुए ॥२३॥ सायगवेसए अआरंभाविरयो खुद्दो साहस्सिओ नरो। एमजोगसमाउत्तो,नीललेसंतुपरिणमे ॥२४॥ ___ अर्थ---( इस्सा अमरिस अतवो ) इया एटले परना गुण सहन न करवा ते, अमर्ष एटले अत्यंत क्रोध अने अतप एटले तपस्या रहितपणु, ( अपिज) अविद्या एटले कुशास्वनी विद्या, (माया) माया, (महीरिया) दुराचार सेवामा अहीकता -निलेअपणुं, (गेही ) गृद्धि-विषयने विषे लंपटता, अने ( पोसे य ) प्रद्वेष. भहीं सर्वत्र अभेद उपचारथी हयांवाळो, अमवाळा इत्यादिक जाणवु. तथा ( सढे ) शठ-घिटो, ( पमत्ते) जातिमदादिकवडे मदोन्मत्त, ( रसलोलुए) रसने विषे लुब्ध, ( सायगवेसए अ) साता सुखनी गवेषणा करनार-इच्छनार, (प्रारंभाविरमओ) जीवोपमर्दादिक प्रारंमथी निवृति नहीं पामेलो, (खुद्दो) क्षुद्र भने (साहस्सिओ) साहसिक एवो ( नरो) पुरुष के स्त्री (एभजोगसमाउचो) भाषा ||T * न्यापारे करीने युक्त सतो ( नीललेसं तु परिणमे ) नीललेश्याने ज परिणमे छे-नीललेश्यावालो थाय छे. २३-२४. वंके वंकसमायारे, निअडिल्ले अणुज्जुए । पलिउंचग ओवहिए, मिच्छदिट्री अणारिप ॥ २५ ।। -reatoK. Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्फालगदुट्ठवाई अ, तेणे प्रावि अ मच्छरी। एअजोगसमाउत्ते, काऊलेसं तु परिणमे ॥२६॥ अर्थ-(वके ) वचन बोलवामा वक्र, (बंकसमायारे ) वक्र क्रिया करनार, (निमडिल्ले ) मनमा मायावालो, | (अणुज्जुए ) सरळ न करी शकाय तेवो, ( पलिउंचग ) परिकुंचन एटले पोतानो दोष ढोकनार, (प्रोवहिए ) औपधिक एटले सर्वत्र कपटथी ज प्रवृत्ति करनार, (मिच्छदिट्ठी ) मिथ्यादृष्टि, (अण्णारिए) अनार्य, ( उप्फालगदुवाई अ) उत्प्रासुक एटले बीजाने भात उपजे तेथु अने दुष्ट से रामाविक दोपकाळु बोलनार, (तेणे प्रावि अ) चोर, तथा वळी ( मच्छरी) || मत्सरवाळो एटले बीजानी संपदा जोहन शके तेवो (एमजोगसमाउने) पावा व्यापारथी युक्त एवो मनुष्य ( काऊलेसंत परिणमे ) कापोतलेश्याने ज परिणमे छे--कापोतलेश्यावाळो थाय छे. २५-२६. नीमआवित्ती अचवले, अमाई अकुतूहले । विणीयविणए दंते, जोग उवहाणवं ॥ २७ ॥ पियधम्मे दढधम्मे, वनभीरू हिएसए । एयजोगसमाउत्ते, तेउलेसं तु परिणमे ॥ २८ ॥ अर्थ-नीमावित्ती ) नम्र वृत्तिवाळो एटले मन, वचन अने काथाथी अनुद्धत, (अचवले ) चपळता रहित, (अमा) माया रहित, (अकुतूहले ) कुतूहळ रहित, (विसीयविणए ) विनीतविनय एटले गुर्वादिकर्नु उचित करवामां प्रवृत्तिवाळो, (दंते ) दांत-इंद्रियोनुं दमन करनार, ( जोगवं ) योगवान एटले स्वाध्यायादिना व्यापारवाळो, ( उवहाण) उपधानवाळो एटले शाखनो उपचार करनार अर्थात् उपधान वहन करनार, ( पियधम्मे ) धर्मने विषे प्रीतिवाळो, (ददधम्मे ) धर्मने विषे Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृढ, (अवजभीरू ) पापथी मय पामनार तथा (हिएसए) हितैषक एटले मोचने इच्छनार (एयजोगसमाउत्से ) आवा | च्यापारे करीने युक्त एको मनुष्य ( तेउलेस तु परिणाम ) वेजोलेश्याने परिणमे छे-तेजोलेश्यावाळो थाय छे. २७-२८. पयणुक्कोहमाणे अ, मायालोभे अ पयणुए । पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उबहाणवं ॥ २९ ॥ तहा पयगुवाई अ, उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमाउत्ते, पम्हलेसं तु परिणमे ॥ ३० ॥ ___ अर्थ-(पयणुकोहमाणे म ) जेने क्रोध अने मान अन्य होय, ( मायालोभे अ ) माया तथा लोम (पयणुए ) जेने अन्प होय, (पसंतचित्ते) जेनुं चित्त प्रशांत होय, (दंतप्पा) ने श्रात्माने दमनार होय, (जोगवं ) जे योग वहन करनार होय, ( उपहासावं ) जे उपधानवाको होय, (तहा ) तथा ( पयगुवाई अ) थोढुं बोलनार, ( उवसंसे ) शांत आकारवाळो भने (जिइंदिए ) जितेंद्रिय ( एयजोगसमाउत्ते) आषा व्यापारे करीने युक्त एवो मनुष्य (पम्हलेसं तु परिणमे ) पदमलेश्याने ज परिणमे छे-पदमलेश्यावालो याय छे. २६-३०. अहरुदाणि वजित्ता, धम्मसुक्काणि झायए । पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु ॥ ३१॥ सरागे वीअरागे वा, उवसंते जिइंदिए । एअजोगसमाउत्ते, सुकलेसं तु परिणमे ॥ ३२॥ ___ अर्थ-(अवरुहाणि ) आर्तध्यान भने रौद्रध्याननो (वमित्ता) त्याग करी (धम्मसुकाणि) धर्मध्यान भने शुक्लध्यानचें | (सायए ) जे ध्यान करे, ( पसंतचित्ते ) जेनुं चित्त प्रशांत होय, ( दंतप्पा ) जेणे भात्मानुं दमन कर्यु होय, ( समिए) Kान Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ It जे पांच समितिवाळो होय. ( गुत्ते य गुत्तिस ) जे प्रण गुप्तिबडे गुप्त होय, ( सरागे वीरागे वा ) जे सराग के वीतराग संयमवाळ होय, ( उत्रसंवे ) जे शांत आकारवाळो होय तथा ( जिईदिए ) ने जितेंद्रिय होय, ( एअजोगसमाउत्ते ) भावा व्यापारवढे जे युक्त होय ते मनुष्य ( सुकलेसं तु परिणमे ) शुक्ललेश्याने ज परिणमे थे. अर्थात् तेवो जीव शुक्ललेश्यावाळो छे एम समज. विशिष्ट लेश्यानी अपेक्षाए भा लक्षणो कलां दे, तेथी देवादिकमां तेवां लक्षणो कदाच जोवामां न आवे तोपण तेमां दोष नथी एम जानुं. ३१-३२. हवेलेश्यानुं स्थान कहे छे.असंखेजाणोसप्पिणीण ओसपिणी जे समया । संखाई श्रा लोगा, लेसाणं हुंति ठाणाई ॥ ३३ ॥ अर्थ--(असंखेाणोसपिणीय) असंख्याती अवसर्पिणी भने ( मोसप्पिणीय) उत्सर्पिणीना ( जे समया ) जेटला समय अथवा ( संखाईया लोगा ) असंख्याता लोकाकाशना जेटला प्रदेश तेटला ( लेसा ) दरेक लेश्यानां ( ठाणा हुँति ) श्रध्यवसाय स्थानको के. एटले के अशुभ लेश्याना उंचा नीचा संक्लेशनां स्थानो भने शुभलेश्यानां उंचा नीचा विशुद्धिनां स्थानो असंख्याता के ३३. - हवे लेश्यानी स्थिति कहे छे. मुर्हुतद्धं तु जहन्नां, तेत्तीसं सागरा मुहुर्त्तहिआ। कोसा होइ ठिई, नार्यैव्वा किण्हेलेलाए ||३४|| - Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ (किण्हलेसाए ) कृष्णलेश्यानी ( जहमा ) जघन्य स्थिति (मुद्दत्तद्धं तु ) महर्षि एटले अंतर्सहर्तनी छे भने (उकोसा ) उत्कृष्ट ( ठिई) स्थिति ( मुहुत्तहिया) अंतर्मुहूर्त अधिक एवा (तेत्तीस सागरा ) तेत्रीश सागरोपमनी (होइ) * के एम ( नायव्वा ) जाणचुं. पा उत्कृष्ट स्थिति सातमी नरक पृथ्वी आश्री जामाची. तेमा अंतर्मुहूर्ते करीने पूर्व तथा पछीना भवने भाश्रीने के अंतर्मुहूर्त जाणवा. एम सर्वत्र जाणी लेवू. सर्व लेश्यानी जपन्य स्थिति जे कही छे ते तिर्यच भने मनुष्यने विषे ज जाणवी. ३४. मुहुँत्तद्रं तु जहन्ना, दस उदही पलिममसंखभागमभहिआ। उकोसा होइ ठिई, नायव्वा नौललेलाए ॥ ३५ ॥ अर्थ-(नीललेसाए ) नीललेश्यानी (जहभा) जघन्य स्थिति (मुडुत्तद्धं तु) अंतर्मुहूर्तनी ज छ तथा (उकोसा ठिई) * उत्कृष्ट स्थिति ( दस उदही) दश सागरोपम अने (पलिअं असंखभागं अभहिमा ) पल्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक (होइ) छ एम (नायच्या) जाणवू. अहीं पम्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक कह्यो, तेनी अंदर पूर्वोत्तर भवना ये अंतर्मुहूते पण जाणी लेवा. एज प्रमायो सर्वत्र जाणवू. ३५, आ स्थिति धूमप्रभाने पहेले पाथडे समजवी. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तिण्णुदही पलिअमसंखभागमभहिआ। उकोसा होइ ठिई, नायव्वा काउलेसाए ॥ ३६ ।। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- कापोत लेश्यानी उत्कृष्ट स्थिति प्रण सागरोपम अने पन्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक एटली जाणवी. || शेष अर्थ पूर्ववत्. आटली स्थिति वालुकाप्रमाना उपरना पाथहे जाणवी. १६. मुहत्तद्धं तु जहन्ना, दुपणुवही पलिअमसंखभागमभहिश्रा । उकोसा होइ ठिई, नायबा तेउलेसाए ॥ ३७ ॥ अर्थ-तेजोलेस्मानी उत्कृष्ट स्थिति बे सागरोपम मने पन्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक एटली जाणवी. आटली || स्थिति ईशान देवलोकमा होय छे. ३७. a मुहत्तद्धं तु जहन्ना, दस होती सागरा मुहुत्तहिआ। उक्कोसा होइ ठिई, नायब्बा पम्हलेसाए ॥३८॥ अर्थ-पद्मलेश्यानी अंतर्महर्त अधिक दश सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति छे. ते ब्रह्मदेवलोकने विषे जाणवी. ३८. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तेतीसं सागरा मुहुत्तहिआ । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा मुक्कलेसाए ॥३९॥ अर्थ-शुक्ललेश्यानी तेत्रीश सागरोपम अंतर्मुहर्ताधिक उत्कृष्ट स्थिति छे. ते अनुत्तरविमानमा जाणवी. ३९.. इवे लेश्यानी स्थितिने समाप्त करवा पूर्वक लेश्या संबंधी जीजी हकीकतनो प्रारंभ करे छे.--- । एसा खलु लेसाणं, ओहेण ठिई उ वलिआ होई। चउसु वि गईसु पत्तो, लेसाण टिइं तु वोच्छामि।४।। Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्ध–(एसा) आ (खलु) निश्चे (लेसाणं) लेश्यानी ( भोहेण ) ओधे करीने एटले सामान्य रीते (ठिई उ ) स्थिति | II ( वसिमा होई) वर्णन करी छे. ( एत्तो) हवे पछी ( चउसु वि मईसु) चारे गतिने विषे ( लेसाख ठिई तु) लेश्यानी स्थितिने ( वोच्छामि ) हुं कहीश, ४०. दसवाससहस्साई, काऊए ठिई जहनिआ होई। तिण्णुदही पलिश्रोवम-असंखभागं च उक्कोसा ॥४॥ अर्थ--(दसवाससहस्साई ) दश हजार वर्ष ( काऊए ठिई) कापोतलेश्यानी स्थिति ( जहनिया होई ) जघन्य छे, तथा (तिण्णुदही ) त्रण सागरोपम अने ( पलिमोवमअसंखभागं च ) पन्योपमनो असंख्यातमो भाग एटली ( उक्कोसा) उत्कृष्ट स्थिति छे. तेमा रत्नप्रभाना उपरना पाथडामा रहेला नारकीयोनी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी के तेथी त्यां जघन्य स्थिति भने वालुकाप्रमाना पहेला पाथडामा रहेला नारकीओनी त्रण सागरोपम अने पन्योपमनो असंख्यातमो भाग : एटली उत्कृष्ट स्थिति छे तेथी त्या कापोतलेश्यानी उत्कृष्ट स्थिति होय एम सर्वत्र जाणवू. ४१. तिण्णुदही पलिअमसंखभागो उ जहानीलठिई। दस उदहीपलिओवम-असंखभागं च उकोसा॥४शा ___ अर्थ-(तिष्णुदही ) त्रण सागरोपम अने ( पलिश्रमसंखभागो उ ) पन्योपमनो असंख्यातमो भाग एटली (जहानीलटिई) नील लेश्यानी जघन्य स्थिति छ, ते वालुकाप्रभामा समजवी. अने (दस उदही) दश सागरोपमने (पलिमो Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वमनसंखभागं च ) पल्पोपमनो असंख्यातमो भाग एटली नील लेश्यानी उत्कृष्ट स्थिति छ, ते धूमप्रमाना पहेले पाथडे | समजबी. ४२. दस उदही पलिममसंखभागं जहनिआ होई । तेत्तीस सागराई, उक्कोसा होइ किण्हाए ॥ ४३ ॥ अर्थ-(दस उदही) दश सागरोपम अने (पलियमसंखमार्ग) पन्योपमनो असंख्यातमो भाग एटली ( जहमिया * होई ) कृष्णलेश्यानी जघन्य स्थिति छे. से अमप्रभाष हाजनीगले ( लेनी मागाई ) तेत्रीश सागरोपमनी ( उकोसा) उत्कृष्ट स्थिति ( किरहार होइ) कृष्णलेश्यानी छे, ते तमस्तमा पृथ्वीने विषे समजबी. आ अने श्रागळ देवतानी कद्देशे ते सर्व द्रश्यलेश्यानी स्थिति जाणवी. तेमनी भावलेश्यानी स्थिति तो फरती होयाथी अन्यथा प्रकारे पण संभवे छे. एटले के | भाव लेश्या तो देव नारकी सर्वने छए संभवे छे. १३. एसा नेरइमाणं, लेसाण ठिई उ वणिआ होई ।सेण परंवोच्छामि, तिरिअमणुस्साण देवाणं ॥४॥ - अर्ध-(एसा ) श्रा ( नेरइयाणं ) नारकीनी ( लेसाण ) लेश्यानी ( ठिई उ ) स्थिति ( वणिमा होई ) वर्णन * करेली छे. (तेण परं) त्यारपछी-हचे (तिरिश्रमणुस्साण देवाणं) तियंच, मनुष्य अने देवनी लेश्यानी स्थितिने (वोच्छामि) ९ कहीश-कहुं छु. ४४. अंतोमुंहुत्तमद्धं, लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ । तिरियाण नराणं वा, वैजित्ता केवलं जेसं ॥४५॥ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--(तिरियाणं ) तिर्यच ( नरामं वा ) अने मनुष्यमा ( जहि जहिं ) ज्या ज्या एटले जे जे पृथिव्यादिकने विषे के संमूर्छिम मनुष्यादिकने विषे ( केवलं लसं ) एक शुक्ल लेश्याने ( वञ्जिता ) वर्जीने बीजी (जाउ) जे कृष्णादिक लेश्या संभवे छे, ते ( लेसाण ) लेश्याोनी (ठिई ) जघन्य अने उत्कृष्ट स्थिति ( अंतोमुहुत्तमद्धं ) अंतर्मुहूर्तकाळनी ज छे, तेमा पृथ्वीकाय, अप्काय अने वनस्पतिकायने विषे पहेली चार लेश्याओ संभवे छे, तेजस्काय, वायुकाय, विकलेंद्रिय अने संमूर्छिमने विषे पहेली त्रण लेश्याओ संभवे छे भने चीजाने विषे छए लेश्या संभवे छे. तेथी करीने भा छए लेश्यानी स्थिति तियच अने मनुष्यने विषे अंतर्मुहूतकाळनी ज प्राप्त थइ. तमा एक शुक्ल लेश्याने बाद करी छे. ४५. हवे शुक्ल लेश्यानी स्थिति कहे छे. मुहुँत्तद्धं तु जहन्ना, उक्कोसा होई पुषकोडी उ। नवहिं वैरिसेहिं ऊंणा नायव्वा सुक्कलेसाए॥४६॥ अर्थ-(सुक्कलेसाए ) शुक्ल लेश्यानी (जहाना ) जघन्य स्थिति ( मुहुत्तद्धं तु ) अंतर्मुहूर्तनी छे, अने (उकोसा ) उत्कृष्ट स्थिति ( नहिं वरिसेहिं ऊणा ) नव वर्ष अोछा एवा ( पुवकोडी उ ) पूर्वकोटी-करोड पूर्व वर्षनी ( होइ) छे. एम ( नायव्वा ) जाणवू. कोइ पूर्वकोटिना आयुष्यवालो मनुष्य पाठमे वर्षे चारित्र ग्रहण करे, ते पोधामा ओछो एक चर्पनो चारित्र पर्याय थाय स्थारे तेने शक्ल लेश्यानो भने केवलज्ञान पामवानो संभव छ, पछी जीवित पर्यंत ते लेश्या रहे छ. तेथी नव वर्ष प्रोछा पूर्वकोटि वर्ष कला छे. ४६. Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- एसा तिरियनराणं, लेसाण ठिई उ वलिआ होई। तेण परं वाच्छामि, लेसाण ठिई उ देवाणं ॥ १७ ॥ अर्थ-(एसा )आ ( तिरिअनराणं तिर्यंच मनुष्यनी ( लेसागा ठिई उ ) लेश्यानी स्थिति (यमिश्रा होई ) वर्णन | करेली छ, ( तेण परं ) त्यारपछी-हवं (देवाणं ) देवोनी ( लेसाण ठिई उ) लेश्यानी स्थितिने( वोच्छामि ) हुं | कहशि.४७. | दसवाससहरसाई, किण्हाए टिए जहमिआ होई। पलिअमसंखिज्जइमो, उक्कोसा होइ किण्हाए ॥१८॥ * अर्थ-देवोमा ( दसवास सहस्साई ) दश हजार वर्ष प्रमाण (किण्हाए ) कृष्णलेश्यानी (ठिई जहणिया) जघन्य |1|| * स्थिति ( होई ) छे. तथा ( पलिश्रमसंखिजइमो) पल्योषमना असंख्यातमा भाग जेटली (किण्हार ) कृष्ण लेश्यानी * (उकोसा होइ ) उत्कृष्ट स्थिति छे. या स्थिति तेटला ज आयुष्यबाळा भवनपति अने व्यंतरोनी जाणवी, एज प्रमाणे नील अने कापोत लेश्यामां पण जाणवू. ४८. जो कि.पहाइ ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमभहिआ। जहरणं नीलाए, पलिअमसंखेज उक्कोसा ॥ ४९ ॥ अर्ध--(किव्हाइ ) कृष्ण लेश्यानी (जा) जे (उकोसा ) उत्कृष्ट ( ठिई ) स्थिति ( खलु) निश्च कही छे, रसाउ) Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेज एटले पन्योपमनो असंख्यातमो भाग (समयमभहिया) एक समय अधिक (नीलाए) नीललेश्यानी (जहोणं) जघन्य | स्थिति जाणधी. तथा ( उकोसा) उत्कृष्ट स्थिति ( पलिश्रमसंखेज ) पल्योपमनो असंख्यातमो माग जाणवी. या पन्योपमनो असंख्यातमो भाग पूर्वना करता मोटो जाणवो. ते पण भवनपति ने व्यंतरमाज जाणवी. ४९. जो नीलाए ठिई खल्ल, उक्कोसा उ समयमभहिआ । जइन्नणं काऊए, पलिअमसंखं चे उक्कोसा ॥ ५० ॥ अर्थ-(नीलाए ) नील लेश्यानी ( जा) जे ( उक्कोसा उ ) उत्कृष्ट ( ठिई खलु ) स्थिति निश्चे कही छे. ते (समयमन्महिआ ) एक समय अधिक एवी ( जहन्नेणं ) जघन्ये करीने ( काऊए ) कापोत लेश्यानी स्थिति छे. (च) अने तेनी ( उकोसा ) उत्कृष्ट स्थिति ( पलिश्रमसंखं ) पन्योपमना असंख्यातमा भाग प्रमाण जाणवी. अहीं पण पूर्वना पन्योपमना असंख्यातमा भाग करता प्रा असंख्यातमो भाग मोटो जाणवो. ते पण भवनपतिने व्यंतरमा ज जाणवी. ५०. तेण परं वोछामि, तेऊलेसो जहाँ सुरगणाणं । भवणव इवाणमंतर-जोइसवेमाणिआणं च ॥५॥ अर्थ-( तेण परं ) त्यारपछी-हवे ( भवणवा ) मवनपति, ( वाणमंतर ) वाण व्यंतर, (जोइस ) ज्योतिषी ( वेमाणिआणं च ) अने वैमानिक ( मुरगणाणं ) देवसमूहनी ( जहा ) जे प्रकारे ( तेऊलेमा ) तेजोलेश्या छे ते प्रकारे (बोच्छामि ) हूं कहीश-कहुं दु. ५१. Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4लिओवमं जहन्नो, उक्कोसा सांगरा उ वुण्णहिआँ। पलिअमसंखिजेणं, होई भागेण तेऊए ॥५२॥ | अर्थ-(तऊए ) तेजोलेश्यानी ( जहमा ) जघन्य स्थिति ( पलिभोवमं ) एक पल्योपमनी छे, अने ( उक्कोसा) * उत्कृष्ट स्थिति ( पलियमसंखिजेणं ) पल्योपमना असंख्यातमा ( भागेण ) भागे करी ( अहिया) अधिक एवा ( दुस सागरा उ ) ने सागशेपमनी ( होई ) २. मारिणि पानिकने आधीने ज जाणवी. तेमा जघन्य स्थिति सौधर्ममा भने उत्कृष्ट स्थिति ईशान देवलोकमां छे. उपलक्षणथी भवनपति अने व्यंतरनी तेजोलेश्यानी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षेनी, व्यंतरनी उत्कृष्ट स्थिति पन्योपमनी अने भवनपतिनी उत्कृष्ट स्थिति कोहक अधिक सागरोपमनी जाणवी. ज्योतिषीनी जघन्य स्थिति पल्योपमनो आठमो भाग अने उत्कृष्ट स्थिति लाख वर्ष अधिक एक पल्योपमनी जाणवी. ५२. दसवाससहस्साई, तेऊइ टिई जहन्निआ होइ । दुण्णुदही पलिओवम-असंखभागं च उक्कोसा॥५३॥ । अर्थ-(दसराससहस्साई ) दश हजार वर्ष प्रमाण ( तेऊह ) तेजोलेश्यांनी (जहनिया ठिई ) जघन्य स्थिति होइ) * . ( च ) अने ( उक्कोसा ) उत्कृष्ट स्थिति ( दुण्णुदही) चे सागरोपम उपर (पलिप्रोवमअसंखभाग) पन्योपमनो असं-18 ख्यातमो भाग छ. अहीं प्रकरणने अनुसरीने तो जे कापोतलेश्यानी उत्कृष्ट स्थिति होय ते ज एक समय अधिक तेजो लेश्यानी जघन्य स्थिति होची जोइए परंतु अही तेम कहेल नथी. तेनुं कारण ज्ञानीगम्य छ. ५२, आटली स्थिति कया | देखोने होय ते उपरनी गाथाना अर्थमां कहेल छ. Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो लेऊए ठिई खलु, उकोसा सा उ समयमब्भहिया। जहाणं पम्हाए. देस उ मुहत्ताहिआई उँकोसा ।। ५४ ॥ अर्थ-( खलु ) निश्च ( तेऊए ) तेजो लेश्यानी ( जा ) जे ( उक्कोसा ) उत्कृष्ट (ठिई ) स्थिति कही छे, (साउ) ते ज ( समयमा महिआ ) एक समय अधिक (जहलेणं ) जघन्ये करीने ( पम्हाए ) पालेश्यानी स्थिति जाणाधी. अने ( उक्कोसा ) उत्कृष्ट स्थिति { मुहुचाहिआई ) पूर्वोत्तर भवनी अपेक्षाए चे अंतर्मुहूर्त अधिक एषा ( दस ) दश सागरोपमती झाली. ५४, या जब पाने का स्थिति तेटला आयुष्यचाळा देवोने समजवी. जो पम्हाई ठिई खेल्लु, उक्कोसा सा उ समयमब्भाहआ। जहोण सुक्काए, तित्तीस मुत्तमंन्भहिआ ॥ ५५॥ __ अर्थ-- ( खलु ) निश्चे ( पम्हाई : पालेश्यानी ( जा ) जे ( उक्कोसा ) उत्कृष्ट ( ठिई ) स्थिति कही छे, ( सा उ) तेज ( समयमन्महिमा ) एक समय अधिक ( जहण ) जघन्ये करीने ( सुक्काए ) शुक्रलेश्यानी स्थिति छे. तथा तेनी उत्कृष्ट स्थिति ( मुहुत्तमम्भहिया ) बे अंतर्मुहूर्त अधिक ( तितीस ) तेत्रीश सागरोपमनी छे. भानी जघन्य स्थिति लांतकमा भने उत्कृष्ट स्थिति अनुत्तर विमानमा के. ५५. स्थितिद्वार पूर्ण थयु. हवे लश्यानुं गतिद्वार कहे छे-- Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किण्हा नीला काऊ, तिणि वि एआ उ अहमलेसाओ। एत्राहि तिहिं वि जीवो, दुग्गइं उववजइ ॥५६।। -(हिष्टा । कृष्णा । नाला ) नील ने ( काऊ) कापोत (एमा उ) श्रा ( तिमि वि) ऋणे पण ( अहमलेसानो) अधम-अप्रशस्त लेश्याओ छे. ( एहि ) आ ( तिईि बि ) त्रसे बडे ( जीवो ) जीव ( दुग्गई ) दुर्गतिने ( उववजह ) पामे छे. ५६. तेऊ पम्हा मुक्का, तिमि वि एआउधम्मलेसाओ। एआहि तिहिं वि जीवो, सुग्गइं उववज्जइ॥५७॥ ___अर्थ-( तेऊ.) तेजस ( पम्हा ) पन भने (सुका) शुक्ल (एमा उ ) पा ( तिथि वि ) त्रणे पण ( धम्मलेसात्रो) | धर्म-प्रशस्त लेश्यानो छ. ( एनाहिं तिहि वि) श्रा त्रणे बढे ( जीवो ) जीव (सुग्गई, सुगतिने ( उववज्जइ ) पामे छे. ५७. हचे आयुष्य द्वारनो अवसर छे. तेमां अवश्य जीव जे लेश्यामां आगामी भवे उत्पन थत्रानो होव तेज लेश्यावाको भा भवमा मरे छे. तेमां जन्मांतरमा जे लेश्या थवानी होय ते लेश्याना पहेला समये परभवना आयुष्यनो उदय थाय छे ? H के चरम-छल्ला समये थाय छ ? के अन्यथा प्रकारे छे ? ९ शंकाने दूर करवा माटे कहे छे. | लेसाहिं सवाहि, पहमें समयस्मि परिणयाहिं तु।नै हु कस्स वि उवाओ, परे भवे होई जीवस ॥५८॥ अर्थ-(परिण याहिं तु ) परिणमेली ऐटले आत्मस्वरूपे उत्पन्न थयेली ( मव्याहिं ) सर्व कोइ ( लेसाहिं ) लेश्यावडे || युक्त एवा ( कस्स वि ) कोइ पण ( जीवस्स ) जीवनी ( पढमे समयम्मि ) पहेला समये ( परे मवे ) परभवने विषे ( उव Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामो ) उत्पत्ति ( न हु होह ) थती नथी. ५८. लेसाहि सव्वाहि, चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न तु कस्स वि उववाओ, परे भवे होइ जीक्स्स ॥५॥ अर्थ—पूर्ववत्. विशेष ए के ( चरमे समयम्मि ) त लेश्यानो अंधा समय पण उत्पत्ति थती नयी एम जाणवू. ५६. | त्यारे शी रीते छ ? ते कहे छे. अंतमुहुतम्मि गए, अंतमुहुँत्तम्मि सेसए चेबै । लेसोहि परिणयाहि. जीवा गच्छति परेलोगं ॥६॥ अर्थ-(परिणयाहि ) परिणमेली ( लेसाहि) लेश्यावडे युक्त एवा ( जीवा ) जीवो (अंतमुहुत्तम्मि गए ) अंतर्मुहुर्त गये सते (चेव ) तथा ( अंतमुडुत्तम्मि ) अंतर्मुहूर्त (सेसए ) बाकी रहे सते ( परलोग ) परलोकमा ( गच्छति ) जाय छे. अर्थात तिर्यच अने मनुष्यने पोतार्नु भायुष्य अंतर्मुहूते बाकी रहे त्यारे परभवनी लेश्यानो परिणाम थाय छे एम सिद्ध थयु एटले तिथंच अने मनुष्य श्रावता भवनी लेश्यानो अंतर्मुहूर्त गये सते परलोकमा जाय छे श्रने देव तथा नारकी पोताना भवनी लेश्यानो अंतर्मुहूर्त पाकी रहे सते ते लेश्या सहित परलोकमां जाय छे. ६.. हवे आ अध्ययन समाप्त करवापूर्वक उपदेश आपे छे. तम्हा एआण लेसाणं, अणुभावे विआणिआ। अप्पसस्था उ वजित्ता, पसस्था अहि द्विवासि त्ति बेमि ॥ ६१ ॥ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-( तम्हा ) तेथी करीने (एमआण लेसाग) बालेश्यामोना (अणुभावे ) अनुभावने-प्रभावने (त्रिमाणिमा) जाणीने तेमांधी (मप्पसस्था उ ) अप्रशस्त लेश्याओने ( वजिता ) वीने ( पमन्था ल ) प्रशस्त लेश्याने ( अहिटिजासि ) अंगीकार करवी. (सि बेमि ) एम हुँ कहुं छ. ए प्रमाणे सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने कयु. ६१. ॥ इति चतुत्रिंशत्तममध्ययनम् ।। ३४. -** * *अथ अनगारमार्गगति नामर्नु पांत्रीशमुं अध्ययन ३५. गया अध्ययनमा अप्रशस्त लेश्यानो त्याग करी प्रशस्त लेश्या स्वीकारत्रानु कयु, ते गुणवान साधु ज करी शके छे, Ell तेथी आ अध्ययनमा साधुना गुणोने कई छ.--- | सुणेह मेगैंग्गमणा, मैग्गं बुद्धेहिं देमिअं। जमायरतो भिक्खू, दुक्खाणंतकरो भवे ॥ १ ॥ ___अर्थ हे शिष्यो ! ( बुद्धेहिं ) तीर्थकरादिक पंडितोए ( देसिमं ) कहेला ( मम्मे ) मुक्तिमार्गने ( मेगग्गमणा ) मारी * पासेथी एकाग्रचित्तवाळा थइने ( सुमेह ) तमे सामळो. (जं) के जेने (मावरंतो ) आचरतो-सेवतो (भिक्खू ) साधु (दुक्खाय) कर्मना अयथी दुःखोनो (अंतकरो ) अंत करनार ( मवे ) थाय छे. १. Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिहवासं परिच्चेज, पवज्ज अँस्सिए मेंणी । ईमे 'संगे विआणेज्जा, जेहिं संजंति माणवा ॥२॥ अर्थ-(गिहवासं) गृहवासनो ( परिचज ) त्याग करीने ( पच्चों ) प्रव्रज्याने ( अस्सिए ) माश्रित धयेलो (मुणी) साधु (जेहि ) जनावडे ( माणवा) मनुष्यो ( सजंति ) आसक्त थाय छे, एवा (इमे ) आ (संगे) पुत्र, स्त्री विगेरे संगोने (विआणेजा ) जाणे एटले के आ स्त्री, पुत्र विगेरे भवना हेतु के एम विशेषे करीने जाणे अने जाणीने ज्ञान- फळ विरति होवाची प्रत्याख्यान करे-तेनो स्वाग कर. २. । तहेव हिंसं अलिअं, चोज्ज अब्बभसेवणं । इच्छाकामं च लोभं च, संजओ परिवज्जए ॥३॥ |. अर्थ-( तहेव ) तथा ( हिंसं ) जीहिंसाने, ( अलिअं) मृषावादने, ( चोजं ) चोरीने, ( मध्यमसेवणं ) मधुनना || सेवनने, ( इच्छाकामं च ) इच्छारूप कामने एटले अप्राप्त वस्तुना अभिलाषने अने ( लोभं च ) लोभने एटले प्रास थयेली | वस्तुपरनी गृद्धिने अर्थात् आ ये शन्दवडे परिग्रह कह्यो छे तेथी तेने : संजओ) साधु (परिवजए) वर्जे. ३. मणोहरं चित्तघरं, मल्लधूवेण वासि । संकबाडं पंडुरुल्लोअं, मणसाऽवि ने पत्थंए ॥ ४॥ अर्थ-(मनोहरं ) मनोहर, ( मलध्वेण ) मान्य एटले पुष्पनी माळा अने दशांगादिक धृपवडे ( वासिमं) वासित, (सकवाडं ) क्रमाड सहित तथा । पडल्लोअं) उज्वळ उल्लोचवाळा तथा (चितघरं ) चित्रवाळा घरने साधु (मणसावि) मनवडे पण (न पत्थए) प्रार्थना न करे-न इच्छे, तो पछी वचनवडे तो प्रार्थना न ज करे, तेम ज तेमा रहे पण नहीं. ४. Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न आवो उपदेश आपवार्नु कारण कहे छे.-- इंदिआणि उ भिक्खुस्स, तारिसम्मि उबस्सए । दुराई निधारेउं, कामरागविवढणे ॥ ५ ॥ अर्थ-(उ) कारण के ( तारिसम्मि ) तेवा प्रकारना ( कामरागविषवणे ) कामरागनी वृद्धि करनारा ( उवस्सए) उपाश्रयमा वसबाथी ( भिक्खुस्स ) साधुने ( इंदिश्राणि ) पोतपोताना विषयमा प्रवर्तती इंद्रियोने ( निवारेउं ) निवारवाने ( दुक्कराई ) दुष्कर थइ पडे छे. ५. . त्यारे क्या-केवा स्थानमा रहेg ? ते कहे छे.सुसाणे सुन्नगोरे वा, रुखमूले वा पगंगो । पईरिके परकडे वा, वासं तत्थाभिराए ॥ ६॥ अर्थ-( सुसाणे ) मशानमा, ( सुबगारे वा ) शून्य परमा, ( रुक्खमूले वा ) वृक्षनी नीचे, अथवा ( परकडे वा) बीजाए एटले गृहस्थीए पोताने माटे करेला अने ( पइरिक्के ) अतिरिक्त एटले स्त्री आदिकथी रहित ( तत्थ ) तेवा स्थानमा | । साधु ( एगगो) एकलो एटले कोइनी सहाय विना ( वासं ) निवासने (भभिरोभए ) पसंद करे. ६. फासुअम्मि अणाबाहे, इत्थीहि अणभिदुए । तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परमसंजए ॥ ७ ॥ | अर्थ-(फासुगम्मि ) प्रासुक एटले अचित्त पृथ्वीवाळा, ( अणाचाहे ) कोइनी बाधा-पीडा जेमा न होय एवा अने * ( इत्याहिं ) स्त्रीओ तथा उपलक्षणथी पंडकादिक बडे ( प्रणभिहुए ) उपद्रव नहीं पामेला एटले दोष नहीं पामेला एवा Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तत्थ ) ते उपर कहेला स्मशानादिकने विषे ( परमसंजए ) मोक्षने माटे संयमने धारण करनारा (मिक्खू ) साधु (पास) निवासने ( संकप्पए ) करे. उपरना श्लोकमा 'तेवा स्थानने विषे साधु नियासने पसंद करे.' एम को इतुं, वेथी कोइक मात्र रुचि ज करे पण रहे नहीं, तेटला माटे मा श्लोकमा रहेबानु कह्यु. ७.. अहीं कोई शंका करे के-" बीजाए पोताने माटे करेला स्थानमा साधुए रहेवार्नु पसंद कर." एम शा माटे कडं | ते उपर कहे छे..नै सेयं गिहाई कुविजा, नेव अग्नेहिं कारए । गिर्हकम्मसमारंभे, भूपाणं दिस्सए बेहो ॥ ८॥ अर्थ–साधु ( सयं ) पोते (गिहाई ! गृहादिक (न कविता करे नहीं, तथा (अमेहिं ) बीजा पासे गृहादिक । (नेव कारए) करावे नहीं, तथा उपलक्षणथी गृहादिक करता एवा अन्यने अनुमोदे नहीं. कारण के (गिहकम्मसमारंभे) गृहकार्यना प्रारंभमा एटले माटी, इंट विगेरे लाववा-करवामां (भूचाणं) अनेक प्राणीओनो (वहो ) वध (दिस्सए) देखाय छे, ८. कया प्राणीप्रोनो वध थाय छे ? ते कहे छे.तसाणं थावराणं च, सुहमाणं घायराण य । गिहकम्मसमारंभ, संजओ परिवजए ॥९॥ अर्थ-गृहादिकना प्रारंभ करवामा ( तसाणं ) प्रस, ( थावराणं च ) स्थावर, ( सुडमाणं ) सूक्ष्म भने (वायराण १ आ सूक्ष्म एकेंद्रिय न समजवा. केमके तेनी विराधना थइ शकती नथी. Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य) चादर जीवानो वघ थाय छे, तेथी ( संजो ) साधु (गिहकम्मसमारंभ ) गृहकर्मना समारंमने ( परिवजए ) वर्जे. ६. तहेव भत्तपाणेसु, पयणपयावणेसु अ । पाणभूयदयट्टाए, न पए न पयावए ॥ १० ॥ ___ अर्थ-( तहेव ) तेमज वळी ( भत्तपाइ भातपादीने लिये ( पुरा पयानणे ) संधवा के रंधाववामां पण || | जीववध जोवामां आवे छे, तेथी (पाणभूयदयट्ठाए ) प्राण एटले त्रसजीवो अने भूत एटले पृथिव्यादिक स्थावर जीवोनी दयाने अर्थे ( न पए ) साधु रांधे नहीं, तथा ( न पयावए ) रंधावे पण नहीं. १०. एज हकिकत स्पष्ट रीते कई छजलधन्ननिस्सिा पाणा, पुढेविकहनिस्तिआ।हम्मति भत्तपाणेसु, तम्हा भिक्खू न पयावए ॥११॥ ___अर्थ-( भत्तपाणेसु ) भातपाणी रंधाते सते ( जलधननिस्सिा ) जळ भने धान्यमा निश्रित धयेला एटले तेमांज | उत्पन्न थयेला अने अन्य स्थळे उत्पन्न थइ नेनी निश्राए रहेला एया तथा (पूढविकनिस्सिा ) पृथ्वी अने काष्ठनी । निश्राए रहेला एवा ( पाणा) जीवो ( इम्मति ) हणाय छ, ( तम्हा) तेथी करीने ( भिक्खू ) साधु (न पयावए) रंधाचे पण नहीं, तो पछी राधे तो केम ? उपलबणथी अनुमोदना पण न करे. ११. बिसप्पे सब्बो धारे, बहुपाणविणासणे । नस्थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोई न दीवए ॥ १२ ॥ अर्थ-(विसप्पे ) अन्प छता पण बहु व्यापवाना स्वभाववालं, ( सचओ धारे ) चौतरफ धारवाळं भने ( बहुपा Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिविणासणे ) घणा जीवोनो विनाश करनार ( जोममे ) अग्निना जेवू बीजु कोइ पण ( सत्ये) शस्त्र ( नत्थि ) नयी. (सम्हा) तेथी करीने ( जोई ) अग्निने (न दीवए) साधु सळगावे नहीं. १२ अही कोइने शंका थाय के-" रांधवा अने रंधाववामां जीववध थाय के, परंतु क्रयविक्रय करवामां जीववध नथी, माटे क्रयविक्रयवडे ज साधुए निर्वाह करवो योग्य छे." प्राची शंकावाळाने उत्तर प्रापे छेहिरणं जायरूवं च, मणसाऽवि ने पत्थए। समलेकंचणे भिक्खू विरैए कयविक्कए ।। १३ ॥ अर्थ- (समलेकंचणे ) कोइ पण ठेकाणे प्रतिबंध नहीं होवाथी समान छे लेष्टु-पथ्थर अने कांचन-सुवर्ण लेने L एवा ( भिक्खू ) साधु (कयविक्कए) क्रयविक्रयने विषे-क्रयविक्रयथी (विरए ) विरम्या छ--तेनाथी निवृत्त थया छ, तेथी (हिरमं ) सुवर्ण, (जायरूत्रं च) रू' अने चशब्दथी समग्र धन धान्यादिकने (मणसावि ) मनवडे पण (न पत्थए ) प्रार्थना न करे--इच्छे नहीं. १३. किणंतो कइओ होइ, विकिणंतो अ वाणिो । कयविक्कयम्मि बट्टतो, भिक्खू हवइ न तारिसो॥१४॥ अर्थ-कारण के साधु (किणतो ) खरीद करतो सतो ( कहो होइ ) अन्य मनुष्योनी जेम खरीद करनारो थाय छ, अने (विकिणतो अ) वेचतो सतो (वाणिो ) वणिक एटले वेपारी थाय छे, तेथी करीने ( कयविकयम्मि) क्रयविक| यने विषे ( यद्धृतो) प्रवेततो ( भिक्खू ) साधु ( नारिसो न हबइ ) जेवो शास्त्रमा कयो के तेवो धइ शकतो नथी. १४. KKA Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S NO ___ त्यारे शुं करवू ? ते कहे छे. भिविखअव्वं न केॲव्वं, भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा। कयविक्कओ महाँदोसो, भिखावित्ती सुहावहा॥१५॥ अर्थ-(भिक्खयत्तिणा) भिक्षानी वृचिवाळा मित्नाथी भाजीविकामाला ( भिवरखुणा ) साधुए (भिक्तिपत्र ) | भिक्षा मागवी, परंतु (न केअन्वं ) खरीद कर नहीं, अने उपलक्षणथी वेचवू पण नहीं. कारण के ( कवविकलो) क्रय | | विक्रय करवामा ( महादोसो) मोटो दोष छ भने ( भिक्खावित्ती ) भिक्षावृचि ( सुहावहा ) सुखकारक छे. १५. भिक्षा मागवानुं एक ज कुलमा पण होई शके तेथी कहे छ केसमुंश्राणं उंछमेसिज्जा, जैहासुत्तमणिदि। लाभालाभम्मि संतु, पिंडवायं चरे मुंणी ॥ १६ ॥ __अर्थ-(मुणी ) साधु ( जहासुचं ) शास्त्रमा कह्या प्रमाणे ( मणिदिधे ) निंदा रहित--निर्दोष अने ( उर्छ ) उंछना | जेपी उंछ एटले जूदा जूदा घरथी थोई थोड़े लेवारूप ( समुभाणं ) भिधानी ( एसिज्जा ) गवेषणा करे, तथा ( लाभालामम्मि) भिक्षाना लाभमां के अलाभमां पण (संतुडे) संतोषयाको सतो ( पिंडवायं ) जेमां पात्रने विपे पिंडर्नु पर्छ । थाय छे एवा पिंडपातने एटले भिक्षाटनने ( चरे ) सेव करे. १६.. प्रारीते पिंडने पामीने शी रीते आहार करे ? ते कई छे.अलोले नै रसे गिद्धे, जिभादंते अमुन्छिए । ने रसट्ठाए मुंजिजा, जवणढाए महामुणी ॥ १७ ॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--( अलोले ) रसवाळो भाहार मळ्यो होय तोपण तेमा लोलता-चपळता रहित, ( रसे ) प्राप्त न थयेला रसना विषयमा ( न गिद्धे ) गृद्धि रहित, (जिब्भादते ) जिव्हा इंद्रियने दमन करनार भने ( अमुच्छिए ) आहारने राखी मूकना रूप सनिधि नहीं करवाथी मूर्छा रहित एवो ( महागुणी ) महामुनि ( रसट्ठाए ) रसने माटे एटले शरीरनी धातु पुष्ट करवा | माटे ( न मुंजिन्जा ) न जमे. परंतु ( जवणवाए ) यापनाने माटे एटले संयमना निर्वाहने माटे ज आहार करे. १७. __श्रचणं रयणं चेव, बंदणं पूअणं तहा । इड्डीसकारसम्माणं, मणसाऽवि न पत्थए ॥ १८ ।। अर्थ-वळी मुनि श्रावकथी कराती (अवर्ण) पुष्पादिकनी पूजा, (रयणं चेव) श्रासनादिकनी रचना, (बंदणं) शरीस्थी वंदना, ( पूत्रणं ) वस्त्रादिकवडे पूजा, (तहा ) तथा (ड्डीसक्कारसम्माणं ) ऋद्धि-श्रावकरूपी संपदा अथवा वस्त्र, पात्रादिक संपदा, सत्कार-गुणकीर्तनरूप सत्कार भने अभ्युत्थानादिक सन्मान, ए सर्वने ( मणसाऽवि ) मनवडे पण (न पत्थए ) प्रार्थना न करे-इच्छे नहीं. १८. त्यारे शुं करे ? ते कहे छे.सुकं झाणं झिश्राएजा, अनिश्राणे अकिंचणे । वोसटकाए विहरेजा, जाव कालस्स पजो ॥१६॥ अर्थ- -( सुकं झाणं ) शुक्ल ध्यानने ( झिाएजा) ध्यावे, तथा ( अनिाणे ) नियाणा रहित, ( अकिंचणे ) परिग्रह रहित अने (बोसट्टकाए । शरीरपर पण ममता रहित एवो सतो साधु (जाव) ज्या सुधी ( कालस्स ) मरणनो Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( पञो) पर्याय पावे त्या सुधी एटले जायजीव ( विहरेआ ) अप्रतिबद्ध विहार करे. १६. त्यारपछी अंतकाळे शुं करीने शुं पामे ? ते कहे थे.निर्जेहिऊण श्राहारं, कालधम्मे उबैट्रिए । जहिऊण माणुसं बोदि, पy दुक्खे विमुच्चइ ॥२०॥ ___अर्थ-( कालधम्मे ) आयुष्यना क्षयरूप काळधर्म-मरण समय ( उवहिए ) प्राप्त थये सते (पाहारं ) सलेखनादिकना अनुक्रमे चतुर्विध अाहारनो (निज्जूहिऊण ) त्याग करी ( माणुमं बादि ) आ मनुष्य संबंधी शरीरने ( जहिऊण ) तजीने ( पभू ) विशेष सामर्थ्यवाको सतो (दुक्खे विमुच्चइ ) सर्व दु:खी मूकाय छे. २०. यो मतो दुःखथी गुमायो कदे थे..... | निम्ममे निरहंकारे, वीरागे अणासवे । संपत्ते केबलं नाणं, सासयं परिनित्रुडे ॥ त्ति बेमि ॥२१॥ । अर्थ - (निम्ममे ) ममता रहित, (निरहंकारे ) अहंकार रहित, ( वी अरागे ) राग रहित, उपलक्षणथी द्वेष रहित, | (अणासचे ) आश्रव रहित थयो सतो तथा ( सासर्य) शाश्वता ( केवलं नाणं) केवळज्ञानने ( संपत्ते) पाम्यो सतो | (परिनिव्बुडे ) सर्वथा प्रकारे स्वस्थ थाय के अर्थात् सिद्भिस्थानने पामे छे. (चि बेमि) एम हुं कहुं छु. ए प्रमाणे सुधर्मा-18 स्वामीए जंबूस्वामीने कथु. २१. इति पञ्चत्रिंशमध्ययनम्. ३५. Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ जीवाजीव विभक्ति नामर्नु छत्रीशमुं अध्ययन. ३६. पांत्रीशमा अध्ययनमा माधुना गुण कह्या. ते गुणो जीव अने अजीवन स्वरूप जाणवाथी ज संवी शकाय छे, तेथी Fा अध्ययनमा जीवाजीयर्नु स्वरूप कहे . जीवाजीवविभत्ति, सुणेह मे एगमणा ईओ। ज जाणिऊण भिक्खू, सम्म जयइ संजमे ॥१॥ ___ अर्थ--(इयो । हचे हे शिष्यो ! ( एगमणा ) तमे एकाग्र मनवाला सता ( मे ) मारी पासे ( जीवाजीववित्ति ) | जीव अने अजीवना विभागने (सुणेह ) सांभळी, के (जं) जे विभागने ( जाणिऊण ) जाणीने (भिक्खू ) साधु ( सम्म ) सम्यक् प्रकार ( मंजमे ) संयमने विषे ( जयइ ) यत्न करे छे करी शके छे. १. ___ जीवाजीव विभागना प्रसंगने लीधे ज प्रथम लोकालोकना विभागने कहे छ.जीवा चेव मजीवा य, एस लोए विभाहिए । अजीवदेसे आगासे, अलोए से विआहिए ॥२॥ अर्थ (जीवा चेव ) जीव अने ( अजीवा य ) अजीव ( एम ) ए ( लोए ) लोक ( विवाहिए ) तीर्थंकरादिके कयो छ. तथा ( अजीचदेसे ) धर्मास्तिकायादिक अजीवनो देश एटले अंशरूप जे एक मात्र ( आमासे ) आकाश, ( से ) ते T (अलोए ) अलोक ( विवाहिए ) कह्यो छे. अर्थात् धर्मास्तिकायादिक रहित ए जे आकाश ते ज अलोक छे. अर्थात अलोकमा मात्र थाकाश ज छे. Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + k+ + - जीव अने मजीवनी प्ररूपणा करवाथी ज तेमनो विभाग थइ शके छे, तेथी तेमनी प्ररूपसाने ज कहे छे.मा देवओ खेतओ चेव. कालओ भावओ तहाँ । रुवणा तेसि भवे, जीवाणं अजीवाण य ॥३॥ अर्थ-( तेसि ) ते ( जीवाणं ) जीवोनी ( अजीवाण य ) अने अजीबोनी (परूवणा) प्ररूपणा ( दवमो ) द्रव्य२.6] थी, ( खेसो चेव ) क्षेत्री, (कालो) काळथी ( तहा) तथा ( भावओ ) भावी ( भवे ) थाय के. ३. तेमा प्रथम थोड़ें कहेवार्नु होचाथी द्रव्यथी अजीवनी प्ररूपणा करे - रूविणो चेवरूदी अ, अजीवा दविहा भवे । अरूवी दसहा वुत्ता, रूविणोऽवि चउठिवहा ॥४॥ अर्थ- (रूविगो) रूपी ( चैव ) तथा (अस्त्री श्र) अरूपी ए रीते ( अजीया ) अजीव ( दुविहा ) चे प्रकारना | ( भवे ) छे. तेमा ( अरूबी ) अरूपी ( दसहा ) दश प्रकारना (कुत्ता ) कया छ, ( रूविणोऽचि ) अने वळी रूपी ( चउ. || विहा ) चार प्रकारना कहा छ. अहीं पण थोडं कहेवार्नु होकाथी अरूपीना भेद प्रथम बताच्या वे. ४. अरूपीना दश भेदो कहे छे.| धम्मस्थिकाए तसे तप्पएसे अ आहिए । अधम्मे तस्स देसे अ, तप्पएसे अ आहिए ॥५॥ ___ अर्ध- ( धम्मस्थिकाए ) गतिना परिणामवाला जीव अने पुगळोने तेवा स्वभावे करीने धारी राखे एटले गतिमा सहाय आपे ते धर्म कहेवाय छे. अस्ति एटले प्रदेशो, तेनो जे काय एटले समूह ते अस्तिकाय कहवाय छे. धर्म एटले गति + Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । IT चीजो, चोथो विगेरे भाग ते धर्मास्तिकाय देश. २. अने ( तप्पएसे अ) ते धर्मास्तिकायनो प्रदेश एटले जेनो विभाग न | सापक एषा ज भास्तकाय-प्रदशसमूह ते धमोस्तिकाय कहेवाय छे. १. (नईसे ) ते धोस्तिकायनो देश एटले | थाय एषो भाग ते धर्मास्तिकाय प्रदेश (पाहिए ) कसो छे. ३. ( अधम्मे) जीव अने पुद्गळोने मतिना परिणामने विषे | धारण न करे अर्थात् स्थितिमा सहाय आपे ते अधर्भ कहेवाय छे, ते अधर्मरूपी जे अस्तिकाय ते अधर्मास्तिकाय कहेवाय छ. ४. ( तस्स देस अ ) त अधर्मास्तिकायनो देश. ५. अने ( तप्पएसे अ ) ते अधर्मास्तिकायनो प्रदेश-एम तेना त्रण भेद ( आहिए ) कह्या छे. ६. ५. आगासे तस्स देसे अ, तप्पएसे अ आहिए। अध्धासमए चेव, अरूवी दसहा भवे ॥ ६॥ ____ अर्थ- ( भागासे ) 'आ' एटले पोताना स्वरूपनो त्याग नहीं करवारूप मर्यादाए करीने पदार्थो जैन विष 'काशन्ते' । एटले भासे छे ते थाकाश कहेवाय छे, ते रूपी जे अस्तिकाय-प्रदेशसमूह ते आकाशास्तिकाय अर्थात् जीव अने पुगळने | अवकाश प्रापे ते. ७. अने ( तस्स देसे श्र) ते आकाशास्तिकायनो अमुक विभाग ते देश. ८. तथा ( तप्पएसे अ) ते आकाशास्तिकायनो निर्विभाग भाग ते प्रदेश (आहिए ) कयो छे. ६. तथा ( अद्धा समए चेव ) काळरूप जे समय ते | | श्रद्धासमय कहेशय छे. १०. समयनो निर्विभाग भाग होइ शकतो नथी तेथी तेना देश अने प्रदेशनो संभव नथी. परंतु | श्रावलिका विगेरे जे काळना भेदो छे ते मात्र व्यवहारथी ज कहेवाय छ, तेथी तेनी नहीं विवक्षा करी नथी. या प्रमाणे : ( अरूवी) मरूपी पदार्थ ( दसहा भवे) दश प्रकारना छे. ६. हवे ते द्रव्योने क्षेत्रथी कडे छे.-- Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्माधम्मे अ दोवेए, लोगमेत्ता विआहिआ। लोपालोए अ आगासे, समए समयखेत्तिए ॥७॥ ___अर्थ-(धम्माधम्मे अ) धर्मास्तिकाय पारे धर्मास्तिबाग ( टोटे ) पाबे दृष्य ( लोगमेत्ता) लोक प्रमाण | (वित्राहिमा ) कहा छ एटले पाखा लोकने मापीने रह्या छ. ( लोपालोए अ) अने लोक तथा अलोक बन्नेने न्यापीने (पागासे ) आकाशास्तिकाय रहेलो छ तथा ( समए ) श्रद्धासमय ( समयखेत्तिए ) समयक्षेत्रिक एटले अढीद्वीप अने में समुद्ररूप समयक्षेत्रना विषयवाळो छ अर्थात् कालद्रव्य अढीद्वीप अने बे समुद्रमा ज छे. ७. हवे तेने ज काळ्थी कहे छ.धम्माधम्मागाला, तिमि वि एए प्रणाइआ। अपज्जवसिआ चेव, सव्वद्रं तु विआहिआ ॥८॥ ___ अर्थ-(धम्माधम्मामासा ) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकाय (एए तिमि वि ) आ त्रणे | (ग्रणाइत्रा ) अनादि (अपजवसिा चेव ) तेमज अपर्यवसित एटले अनंत के अने ते ( सम्बद्धं तु ) सर्वकाळे पोतार्नु | स्वरूप त्याग नहीं करवाथी नित्य छ एम ( विवाहिया) कपुं छे. ८. समएऽपि संतई पप्प, एवमेव विआहिए । आएसं पप्प साईए, सपजवसिए विअ ॥ ९ ॥ अर्थ-( समएवि ) समय पण ( संसई ) प्रवाहरूप संततिने (पप्प ) पाश्रीने ( एवमेव ) ए ज प्रमाणे एटले | अनादि अनंत ज (विपाहिए ) कयो छे, अने ( पाएसं ) प्रादेशने एटले नियमित व्यक्तिरूप विशेषने (पप ) मात्रीने Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ( साईए ) सादि अने ( सयजयसिएऽविध ) सपयर्वसित एटले सात पण कह्यो छे. है. ___हवे तेने ज भावथी कहेवानो अवसर छे, परंतु ते अमूर्त होवाथी तेना पर्यायो कह्या छतां पण जाणी शकाय तेषा | नथी. तेथी तेनी प्ररूपणा नहीं करतां द्रव्ययी रूपी पदार्थनी प्ररूपणा करे छे.खंधा य १ खंधदसा य २, तप्पएसा३ तहेव य । परमाणुणो अबोधव्वा, रूविणो य चउठिवहा॥१०॥ मर्थ--(खंधा य ) पुद्गलोनो उपचय-वृद्धि अने अपचय-हानिरूप जे स्तंभादिक ते स्कंध कहेवाय छे. १. (संघदेसा य ) ते ज स्तंभादिकनो बीजो, बीजो इत्यादि जे भाग ते स्कंधदेश कहेवाय छे, २. ( तप्यएसा ) ते ज स्तंभादिकना जेना में भाग न थह शके तेवा जे अंशो ते तत्प्रदेश एटले स्कंधप्रदेश कहेवाय छे, ३. (तहेव य) तथा ( परमाणुणो भ) जेना अंश न थइ शके ते छुटा रहेला-स्कंध साथे नहीं मळेला होय ते परमाणु कहेवाय छे. ४. श्रा रीते (रूवियो य) रूपी पदार्थ ( चउबिहा) चार प्रकारना ( बोधवा ) जाणवा. १०. . अहीं देश भने प्रदेशनो स्कंधने विषेज समावेश थाय छे. तेथी संक्षेप करीने स्कंध अने परमाणु ए चेज रूपी द्रव्यना भेद कही शकाय छे. ते यन्ननुं लक्षण कहे छे. एगत्तेण पुहत्तेणं, खंधा य परमाणुणो । लोएगदेसे लोएँ अ, भइअव्वा ते उ खेतओ ।। इत्तो कालविभागं तु, तेर्सि' वोछ उठिवह ॥११॥ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * G अर्थ - ( खधाय ) स्कंधो अने ( परमाणुणो ) परमाणुओं ( एगत्ते ) एकपणाए करीने स्टलें वे, त्रण, चार शादि परमाणुना संघातथी द्विप्रदेशिक, क्रिप्रदेशिक, चतुःप्रदेशिक विगेरे सरखा परिणामे करीने तथा ( पुहते ) पृथ करीने एटले जूदापणाए करीने अर्थात् बीजा परमाणुओनी साथ नहीं मळवाए करीने जगाय के एटले के एक ने पू क्त् स्कंध ने परमाणुनुं लक्षण बे-छुटा रहे ते परमाणु कहेवाय के ने मेगा मळे ते स्कंध कहेवाय के. हवे तेने क्षेत्री कहे थे- (ते उ ) ते एटले स्कंध अने परमाणुओं ( खेत्तओ ) क्षेत्रथी ( लोएगदे से ) लोकना एक देशाने विषे ( लोए) ने लोकने विषे ( भइअन्वा ) भजनाए करीने जागना लायक छे. अहीं सामान्य रीते कधुं वे तो पण परमाओ एक एक जाकाशप्रदेशमा रहेला होय के तेथी स्कंधने विष ज अवगाहनानी भजना जाणवी. कारण के स्कंधो विचित्र परिणामवाळा होवाथी घणा प्रदेशोवडे वृद्धि पामेला होय तोपय केटलाक एक आकाशप्रदेशमां जा रहे छे, अने केटला संख्याता प्रदेशमा रहे थे, केटलाक असंख्यात प्रदेशमां रहे थे, यावत् केटलाक तथा कारना अचित्त महारुकंघनी जेम समग्र लोकने व्यापीने पण रहे थे. तेथी स्कंधने भाश्रीने भजना जाणवी ( इत्तो ) हवे एटले क्षेत्र प्ररूपणा कर्या पछी ( तेसिं ) ते स्कंध अने परमाणुओना ( चउब्विहं ) चार प्रकारना ( कालविभागं तु ) काळविभागने (बोच्ं ) हुं कहीश. ( आ गाथासूत्र छ पादवा छे. ) ११. तं ज चार प्रकार कहे छे. संतई पप्प तेऽणाई अपज्जवसिआवि अ । टिई पडुख साईआ, सपज्जयसिश्राऽवि अ ||१२|| 35. Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--(संतई ) संततिने एटले परंपरान ( पप्प ) पाश्री (से) ते स्कंध भने परमाणुभो (अणाई ) अनादि अने (अपज्जवसिमावि अ) अपयेवसित एटले अनंत पण छे, एटले के प्रवाहनी अपेक्षाए स्कंध अने परमाणु रहित कदापि | जगत हतुं नहीं, छे नहीं अने थशे पण नहीं तथा (ठिई) नियमित क्षेत्रमा रहेवारूप स्थितिने ( पडुच्च ) आश्रीने (साई आ) सादि अने ( सपञ्जयसिआऽति अ) सपर्यवसित एटले सांत होय छे. कारण के स्कंधो अने परमाणुमो काळातरे नवा नवा क्षेत्रमा जाय छे तेथी तेनी स्थिति सादिसांत छ. १२. सादि सात छतां पण तेमनी स्थिति केटला काळ सुधीनी होय छे ? ते कहे छे.असंखकालमुधोसं, एंगं समयं जहन्नयं । अजीवाण य रवीणं, ठिई ऐसा विआहिआ ॥१३॥ मर्थ-(अजीवाण य ) अजीच ( रुवीणं ) रूपी द्रव्योनी (एसा ) या ( उक्कोसं ) उत्कृष्टी ( असंखकालं ) भसंख्यात काळनी अने ( जहन ) जघन्य ( एगं समयं ) एक समयनी (ठिई ) स्थिति (विमहिमा ) कहेली छे. ते स्कंध भने परमाणुश्री जघन्य एक समय पछी अने उत्कृष्ट प्रसंख्यात काळ पछी एक क्षेत्रथी बीजा क्षेत्रमा अवश्य जाय छे. १३. | श्रा प्रमाणे काळने आश्री स्थिति कही. हवे तेनी अंदर रहेलुं प्रांतरूं कहे थे.अणंतकालमुक्कोस, एंगं समयं जहन्नयं । अँजीवाण य रूवीणं, अंतरेझं विआहि ॥ १४ ॥ अर्थ- (उकोसं ) उत्कृष्टथी ( भणंतकालं ) अनंत काळ भने ( जहन्नयं ) जघन्यथी (एगं समय) एक समय (ए) Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाटखें ( अजीवाण य ) अजीव (रूवीणं ) रूपी द्रव्यनुं (अंतरं ) आंतरं ( बि आहि ) कहेलुं छे. एक चेत्री वीजा क्षेत्रमा गया पछी फरीथी तेज प्रथामा क्षेत्रमा गत पार जमा झोपुर प्रातरूं पडे छे.१४. __ हवे भावधी स्कंध भने परमाणुने कहे छ.वापओ गंधओ चेव, रसओ फासओ तहा । संठाणओ अ विहोओ, परिणामो तेसि पंचहा ॥१५॥ ___ अर्थ-(वामओ ) वर्णथी, ( गंधश्रो चेव ) गंधथी, ( रसओ ) रसथी, (फासो ) स्पर्शधी ( तहा ) तथा ( संठागो) संस्थानथी, आ रीते (तेसि) ते स्कंध आने परमाणुनो (पंचहा) पांच प्रकारनो (परिणामो) परिणाम (वित्रो) जाणवो. पोताना स्वरूपमा रह्या थका पण जेमनो वर्णादिक बदलाइ जाय, ते परिणाम कहेवाय छे. १५ हवे ते वणोदिकना उत्तर भेदो कहे छे.वामओ परिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिआ। किण्हा नीला यलोहिआ, हालिदा सुकिला तहा ॥१६॥ ___ अर्थ--( वसो ) वर्ण थी (जे उ ) जे स्कंधादिक ( परिणया ) परिणाम पाम्या होय ( ते ) ते (पंचहा ) पांच प्रकारे ( पकित्तिा ) कहेला छे. ते या प्रमाणे.-( किरहा ) काजळ विगेरे जेबा काळा, (नीला य ) लीला घास जेवा नील, ( लोहिया ) हींगळोक जेवा राता, ( हालिहा ) हळदर जेवा पीळा, (सुकिला तहा ) तथा शंख जेवा घोळा. १६. | गंधो परिणया जे उ, दुविहा ते विश्राहिश्रा । सुब्भिगंधपरिणामा, दुब्भिगंधा तहेब य ॥ १७ ॥ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(मंधो ) गंधी (जे उ ) जे स्कंधादिक (परिणया) परिणाम पाम्या होय (ते ) ते (दुविहा ) बे प्रकारना (विवाहिया) कह्या छे. तेमां एक (सुम्मिगंधपरिणामा) चंदन जेवा सुरमि गंधना परिणामवाळा ( तहेव य) तथा बीजा ( दुब्भिगधा ) लसण जेवा दुरभि गंधना परिणामवाळा, १७. रसओ परिणया जे उ, पंचाहा ते पनितिमा : शिसभापरताया, अंबिला महुरा तहा ॥१८॥ अर्थ ( रसो) रसथी (जे उ ) जे स्कंधादिक ( परिणया) परिणाम पाम्या होय (ते) ते (पंचहा ) पांच प्रकारना ( पकित्तिमा ) कया छे, ते आ प्रमाणे.- (तित ) लींबडादिकनी जेवा तिक्त-कडवा १, ( कटुश्र) सुंठ * || विगैरेनी जेवा कटुक-तीखा २, ( कसाया ) यावळ विगैरेनी जेवा कषायला-तुरा ३, ( अंबाला ) आपली बेवा खाटा ४, ( तहा) तथा ( महुरा ) साकर जेबा मधुर–मीठा. ५, १८, फासओ परिणया जे उ, अट्टहा ते पकित्तिा । कक्खडा१ मउमा२ चेव, गरुबा३ लहुश्रा४ तहा ॥ १९ ॥ सीआ५ उपहा६ य निधा७ य, तहा लुक्खा यद आहिला । इति फासपरिणया, एए पुग्गला समुदाहिया ॥ २० ॥ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--(फासो) स्पर्शथी (जे उ) जे स्कंधादिक (परिणया) परिणाम पाम्या होय (ते) ते (अट्टहा) आठ प्रकारना (पकित्तिा ) कहा छ, ते या प्रमाणे.—(कक्खडा) पथ्थर विगेरे जेवा कर्कश-कठण १, (मउआ चेव ) मृदु -माखण विगैरे जेचा कोमळ-पोचा २, (गरुग्रा) गुरु-हीरा विगैरे जेवा तोलमा भारे ३, (लहुआ) लघु-प्राकडाना रुविगेरे जेवा हळवा ४, (तहा) तथा (सीश्रा) जळादिक जेवा शीतळ, (उण्हा य) माग्नि श्रादिक जेवा उम्ण ६. ( निद्धा य) स्निग्ध-धी विगरे जेवा चीकाशवाळा ७, ( तहा) तथा ( तुक्खा य) रूक्ष-राख विगरे जेवा लूखा सका -कोरा ८. ( श्राहिमा ) ह्या छे. (इति) श्रा प्रमाणे ( फासपरिणया) स्पर्शथी परिणाम पामेला (एए) भा (पुग्गला ) पुद्गळो ( समुदाहिया ) कहेला छे. १६. २०. संठाणपरिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिया। परिमंडला य१ वहार, तंसा३ चउरंस४ मायया५॥२१॥ ___ अर्थ-(जे उ ) जे स्कंधादिक ( संठागपरिणया) संस्थानवडे परिणाम पाम्या होय (ते) ते (पंचहा) पांच प्रकारना ( पकित्तिा ) कहेला छे, ते या प्रमाणे-(परिमंडला य) परिमंडळ-वच्चे पालुं अने वलयने भाकारे गोळ १, | ( वट्टा ) बच्चे पोलाण रहित झालरने आकारे अथवा लाडने श्राकारे गोळ, २ (तंसा ) ,गाटकनी जेम प्रण खुणा-* वाल्लं ३, ( चउरंसं ) पाटनी जेम चार खूणावालं ४, तथा (आयया) श्रायत एटले लाकडींनी जेम लांबु, ५, २१. हवे ते स्कंधादिकना वर्ण रस विगेरेनो परस्पर संवेध-मिश्रता कहे थे. Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेण्णाओ जे भवे किम्हे, भइँए से उ गंधओ।सओ फासमो चेव, भईए संठाणओऽवि अ॥२२॥ अर्थ-(जे ) जे स्कंधादिक ( वयो ) वर्णे करीने (किण्हे ) काळो ( भवे ) होय, ( से उ) ते (गंधश्रो ) गंध* बडे ( भइए ) भजना करवा लायक के एटले के कृष्णवर्णवाळो कोइक स्कंधादिक सुरभिगंधवाळो पण होय छे अने कोइक दुरभिगंधवाळो पण होय छे. एज प्रमाणे (रसमओ) रसथी, (फासो चेच) स्पशेधी अने (संठाणोऽवि अ) संस्थानथी पण | | (भइए) भजना करवा लायक थे, एटले के तेज कृष्णवर्णवाळो सुरभि के दुरभिगंधवाळो स्कंधादिक कोहक रसवडे तिक्त होय, | कोइक कटुक होय, कोइक कपायलो होय, कोइक खाटो होय अने कोइक मधुर होय. एज रीते ते ज कृष्णवर्णवाळो स्कंधादिक आठमाथी कोइ पण स्पर्शवाळो होय को ए रीते पांग संस्थान की कोई गण संवानवाळो होय, तेथी एक कृष्णवर्णवाळो स्कंधादिक ये गंध, पांच रस, आठ स्पर्श अने पांच संस्थान मळी वीश प्रकारको होय छे. एज रीते बीजा चारे वर्णोना वीश बीश प्रकार गणतां कुल सो भंग वर्णने आश्री थाय छे. हवे गंधने पाश्रीने भंग करीए तो पांच वर्ण, पांच रस, | * आठ स्पर्श अने पांच संस्थान मळी २३ भंग एक सुरमि गंधना थाय, तेटला ज दुरभिगधना थवाथी कुल ४६ थाय छे. एज रीते पांच रसने श्राश्री गणीए तो वे गंध, पांच वर्ण, आठ स्पर्श अने पांच संस्थान मळी वीश थाय अने पांचे रसना मळी कुल सो थाय छे. ए ज रीते स्पर्शने श्राश्री गणीए तो पांच वर्ण, वे गंध, पांच रस अने पांच संस्थान मळी सत्तर थाय भने आठे स्पर्शना मळी १३६ थाय के. ए ज रीते पांच संस्थानना वीश वीश भंग होवाथी तेने आश्री कुल १०० थाय छे. सर्वना भंग एकत्र करीए त्यारे कुल ४८२ थाय छे. या गाथाना अर्थ प्रमाणे ज सर्व नीचेनी गाथामोनो Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ जाणी लेवो, तेमां कृष्णने बदले नील विगैरे शब्दो आवे तेनो अर्थ पण प्रसिद्ध छ, तेथी लखशुं नहीं. २२. वामओ जे भवे नीले. भइए से उ गंधयो । रसओ फासयो चेव, भइए संठाणओ विश्र ॥२३॥ वष्णो लोहिए जे उ, भइए से उ गंधयो । रसको फासओ चेव, भइए संठाणमो वि अ॥२४॥ वण्णओ पीअए जे उ, भइए से उ गंधओ । रसत्रो फासओ चेत्र, भइए संठाणओ विश्र ॥२५॥ वण्णओ सुकिले जे उ, भइए से 3 गंधयो । रसओ फासो चेव, भइए संठाणभो वि अ॥२६॥ गंधयो जे भये सुब्भी, भइए से उ वाणी । रसयों फासी चव, भइए संठाणश्रो वि श्र॥२७॥ गंधश्रो जे भवे दुटभी, भइए से उ वपणयो । रसओ फासओ चेव, भइए संठाणो वि अ॥२८॥ रसश्रो सित्तए जे उ, भइए से उ बायो । गंधनो फासओ चेव, भइए संठाणश्रो विश्र ॥२६॥ रसो कडुए जे उ, भइए से उ वालो । गंधश्रो फासो चेव, भइए संठाणो वि अ॥३०॥ रसयो कसाए जे उ, भइए से उ वायो । गंधो फासो चेव, भइए संठाणयो वि अ ॥३१॥ रसश्रो अंबिले जे उ, भइए से उ वाओ। गंधयो फालो चेव, भइए संठाणो वि श्र॥३२॥ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसो महुरे जे उ, भइप से उ वापश्रो । गंधो फासश्रो चेव, भइए संठाणओ वि अ ॥३३॥ फासओ कक्खडे जे उ, भइए से उ वलायो । गंधमो रसो चेव, भइए संठाणमो वि श्र॥३४॥ फासो मउए जे उ. भइए से उ वताओ। गंधो रसओ चेव, भइए संठाणो वि श्र॥३५॥ फासओ गरुए जे उ. भइए से उ वायो । गंधयो रसश्रो चेत्र, भइए संठाणो वि अ ॥३६॥ फासो लहुए जे उ. भइए से उ वामश्रो । गंधश्रो रलो चेव, भइए संठाणओ वि श्र ॥३७॥ फासओ सीए जे उ, भइए से उ वलयो । गंधमो रसो चेव, भइए संठाओ वि अ॥३८॥ | फासओ उपहए जे उ, भइए से उ वामओ । गंधयो रसओ चेव, भइए संठाणो वि अ॥३९. फासओ निद्धए जे उ, भइए से उ वालो । गंधो रसओ चेव, भइए संठाणओ वि अ॥४॥ फासओ लुक्खए जे उ, भइए से उ वाममो । गंधओ रसो चेव, भइए संठाणओ वि अ॥४१॥ परिमंडलसंठाणे, भइए से उ वामओ । गंधमो रसओ चेव, भइए फासमो वि श्र॥ ४२ ॥ संठाणमो भवे बढे, भइए से उ वामश्रो । गंधओ रसओ चेव, भइए फासो वि अ॥४३॥ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संठाणो भवे तंसे, भइए से उ बलो। गंधओ रो पेव, भदए फासो वि अ ॥४॥ | संठाणओ अ चउरंसे, भइए से उ वाममो । गंधओ रसत्रो चेव, भइए फासश्रो वि थ ॥१५॥ जे आययसंठाणे. भइए से उ वामओ। गंधओ रसमा चेव, भइए फासो वि अ ॥ ४६॥ । एसा अजीवपविभत्ती, समासेण विश्राहिया ! एत्तो जीववित्ति, बुच्छामि अणुपुटवसो॥४७॥ __ अर्थ-(एसा ) आ ( अजीवपविभत्ती ) भजीवनो विभाग ( समासेण ) संक्षेपे करीने (विभाहिआ ) कह्यो छे. | ( एत्तो ) हवे पछी ( जीवविभत्तिं ) जीवना विभागने ( अणुपुव्वसो ) अनुक्रमे ( बुच्छामि ) हुं कहीश-कहुं छु. ४७. तेज कहे छेसंसारस्था य सिद्धा य, दुविहा जीवा विहिआ। सिद्धाऽणेगविहा वृत्ता, तं मे कित्तयतो सुण ॥४८॥ अर्थ-( संसारत्था य ) चार गतिरूप संसारमा रहेला अने ( सिद्धा य ) सिद्धिक्षेत्रमा रहेला सिद्धो एम ( दुविहा) ये प्रकारना ( जीवा) जीवो ( विश्राहिमा) कहेला छे. तेमा (सिद्धा) सिद्धो (भणेगविहा) अनेक प्रकारना (वृत्ता) | कया छे. (तं ) ते ( कित्तयतो मे ) कहेता एवा मारी पासे हे जंबू ! (सुण ) तुं सांभळ. ४८. सिद्धना अनेक प्रकारने ज कहे छे--- Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थीपुरिससिद्धा य, तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे श्र, गिहिलिंगे तहेव य ॥१६॥ __ अर्थ-( इत्थीपुरिससिद्धा य ) स्त्रीलिंग सिद्ध थया ते स्त्रीलिंग सिड, पुरुषलिंगे सिद्ध थया ते पुरुषलिंग सिड, ( तहेच य ) तथा ( नपुंनगा) नपुंसकलिंगे सिद्ध थया ते नपुंसकलिंग सिद्ध, (सलिंगे ) साधु वेषे सिद्ध धया ते स्वलिंग सिद्ध. ( अमलिंगे अ) शाक्य विगेरे भन्य लिंगे सिद्ध थया ते अन्यलिंग सिद्ध, ( तहेव य ) तथा (गिहिलिंगे) गृहस्थीने लिंगे सिड थया ते गृहीलिंग सिद्ध कहेवाय छे. अहीं च शब्दथी बीजा नहीं कहेला सिद्धना भेदो पण जाणवी. ४९. हत्रे सिद्धनी अवमाहना तथा क्षेत्रने कहे छउकोसोगाहणाए अ, जहन्न मज्झिमाइ अ। उड्डे अहे अतिरिअंच, समुदम्मि जलम्मि अ॥५०॥ * _ अर्थ-( उकोसोगाहणाए अ) उत्कृष्ट अवगाहनाने विषे एटले पांचसो धनुष प्रमाण अवगाहनाने विष सिद्ध थया | छे. ( जहम ) जघन्यथी ये हस्त प्रमाण अश्यगाहनाने विष पण सिद्ध थया छे, अने ( मज्झिमाइ अ) मध्यम एटले उत्कृष्ट | १ उपलक्षणथी सिद्ध धाय छे अने सिद्ध थशे एम सर्वत्र त्रणे काळ जाणवा. २ कहेला छ भेद उपरांत ७ जिनसिन्ह, ८ अजिनसिद्ध, ९ तीर्थसिह, १० अतीर्थसिद्ध, ११ प्रत्येकबुद्धसिद्ध, १२ स्वयंबुद्धसिद्ध, १३ बुद्धबोहीसिद्ध, १४ एकसिद्ध अंने १५ अनेकसिड एम कुल १५ भेद जाणवा. +HOT+ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने जघन्यनी वच्चेनी अवगाहनाने विषे पण सिद्ध थया छे. ( उड्ले मेरुपर्वतनी चूलिका विगैरे ऊर्ध्वलोकमां, (अहे अ) कुपडी विजयना अधोग्रामरूप अधोलोकमां, (तिरिअं च ) अढी द्वीप अने बे समुद्ररूप ति लोकमा, ( समुहम्मि ) तेमां पण केटलाक समुद्रमा तथा ( जलम्मि अ) केटलाक नदी विगेरेना जळमां पण सिद्ध धया छे. ५०. आ प्रमाणे स्त्रीलिंग सिद्ध विगैरे कपाधी स्त्रीत्वादिकने विषे सिद्धिनो संभव कयो. हवे तेमा पण कया भेदने विषे | केटला सिद्ध थाय छे ! ते कहे छेदस चेव नपुंसेसुं, वीसई इतिथं आसु अ ! पूरिसेम अ अट्रलयं, समऐणेगेण सिझई ॥ ५१ ॥ अर्थ–उत्कृष्टपणे ( एगेण ) एक ( समरण ) समये ( नपुंसेसु ) नपुंसकने विषे ( दस चेव ) दश ज सिद्ध थाय छे, (इत्थिासु अ) स्त्रीोने विषे ( वीसई ) चीश सिद्ध थाय छे. अने ( पुरिसेसु अ) पुरुषने बिषे ( अट्ठसयं) एक सोने आठ (सिझई ) सिद्ध थाय छे. अहीं सर्वत्र नपुंसक शब्दयडे कृत्रिम नपुंसक ज समजत्रा. केमके अकृत्रिम-जन्मथी न'सकने तो दीक्षा लेवानो परिणाम ज थतो नथी. ५१. चत्तारि अ गिहिलिंगे, अन्नलिंगे दसेव य । सलिंगेण य अट्ठसयं, समएणेगण सिंज्झइ ।।५२॥ अर्थ उत्कृष्टथी ( एगेण ) एक ( समरण ) समये ( गिहिलिंगे ) गृहीलिंगे ( चसारि अ) चार सिद्ध थाय छे, A (अमलिंगे) शाक्य विगेरे अन्य लिंगे ( दसेव य ) दश ज सिद्ध थाय छे, तथा ( सलिगेण य) स्वलिंगे-साघुवेषे ( अड Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सयं ) एकसो ने आठ ( सिज्झइ ) सिद्ध थाय छे. ५२. | उक्कोसोगाहणाए उ, सिझंते जुगवं ट्वे । चत्तारि जहण्णाए, जवमझट्टतरं सेयं ॥ ५३॥ ___ अर्थ-( उक्कोसोगाहणाए उ) उत्कृट अवगाहनाने विपे ( जुगवं ) एक साथे एटले एक समये ( दुवे ) ये जीव * | (सिझते ) सिद्ध थाय छे, (जहम्माए ) जघन्य अवगाहनाने विषे ( चत्तारि ) चार सिद्ध थाय छे, अने | ( जवमज्झ ) ययना मध्यनी जेवी ते पवमध्य एटले मध्यम अवगाहनाने विपे ( अद्वत्तरं सर्य ) एकसो ने पाठ सिद्ध थाय छे. ५३. चउरुडलोएं अ देवे समुद्द, तओ जले बीसमहे" तेहेव य । संयं च अटुत्तर तिरिअलोए, समएण एगेण उ सिज्झई धुवं ॥ ५४ ॥ अर्थ-उत्कृष्टपणे ( एगेण उ ) एक ( समएण ) समये ( उड्डलोएन ) ऊर्ध्वलोकमां ( चउर ) चार सिद्ध थाय छ, (समुद्दे) समुद्रमा (दुवे) बे सिद्ध थाय छ, (जले) बीजा जळस्थानमा (तो) त्रण सिद्ध थाय छे, ( तहेव य) तथा (बहे ) अधोलोकमां ( वीस ) वीश सिद्ध थाय के, (तिरिश्रलोए ) ति_लोकमां ( अट्टत्तर ) आठ अधिक एवा ( सयं च ) एक सो एटले एक सो ने आठ ( धुवं ) निश्चे ( सिज्झइ ) सिद्ध थाय छे. ५४. हवे ते सिद्धोना प्रतिधात विगेरे कहे थे. Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कहिं पैडिहया सिद्धा, केहिं सिद्धा पैइट्रिआ। कहि वोदि चइत्ता णं, कत्थ गण सिझई ॥५५॥ __ अर्थ-(सिद्धा ) सिद्धो ( कहिं ) क्या (पडिहया) स्खलना पाम्या सता ? (सिद्धा) सिद्धो ( कहिं ) क्यो | |* ( पइडिया ) सादि अनंत काळ सुधी रया सता ? ( कहिं ) क्या (बोंदि ) शरीरने ( चइत्ता णं) तजीने ? तथा (कत्थ) || क्या ( गंतूण ) जइने ( सिज्झई ) सिद्ध थाय छे ? ५५. उपरना प्रश्रोनो उत्तर प्रापे के|| अलोए पडिहया सिद्धा, लोअग्गे अ पइट्रिआ। इहं बोदि चइत्ता णं, तस्थ गंतूण सिज्झई ॥५६॥ ॥1॥ अर्थ-(सिद्धा) सिद्धो ( अलोए ) अलोकने विषे (पडिहया) स्खलना पाम्या सता, ( लोश्रो श्र) लोकना * अग्रभागने विषे (पइट्ठिा ) रह्या सता ( इहं ) मा लोकने विषे ( बोंदि ) शरीरने ( चहत्ता णं) तजीने ( तत्थ ) ते लोकना अग्रभागने विषे (गंतूण ) जइने (सिझई ) सिद्ध थाय छे. अलोकमां धर्मास्तिकाय विगेरे नहीं होवाथी * तेमां गति थइ शकती नथी. तेथी लोकने छेडे रहेला छे. नीचे के तिरछ गमन करवू ते कर्मने श्राधीन छ अने सिद्धने कर्म होता नथी तेथी उंची ज गति होय छे. वळी जे समये अहीं शरीरनो त्याग करे छे ते ज समये लोकना अग्रभागे || | पहोंचे छे, इत्यादि समजवु. ५६. हवे लोकाग्रनुं अने सिद्धनुं स्वरूप कहे छे. Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसहिं जोअणेहि, सव्वट्ठस्सुवरिं भवे । ईसीभारनामा उ, पुढवी छत्तसंठिआ ॥ ५७ ॥ अर्थ-(सब्वहस्स उवरि ) सर्वार्थसिद्ध विमाननी उपर ( चारसहिं ) चार (जोधणेहिं ) योजन जइए त्यारे (छत्तसंठिया) छत्रना संस्थानवाळी-छत्राकार (ईसीपब्मारनामा उ) ईषत्प्राग्भार नामनी (पुढबी) पृथ्वी ( मवे) २. ५७. पणयालसयसहस्सा, जोअणाणं तु आयया । ___तावइयं चेव विच्छिमा, तिगुणा तस्सेव परिरओ ॥ ५८ ॥ अर्थ ते पृथ्वी ( पणयालसयसहस्सा ) पीस्ताळीश लाख (जीपणाणं तु ) योजन (आयया ) लांची छे, ( तावइअंचेव ) अने तेटली ज एटले पीस्ताळीश लाख योजन (विच्छिष्या) पहोळी छे, तेथी ( तस्सेब ) तेनो ( परिरमो) परिस्य-परिधि । तिगुणो) त्रण गुणो एटले त्रण गुणाथी अधिक छे. अर्थात् एक करोड बेताळीश लाख त्रीश हजार यसो ने ओगणपचास योजन छे. ५८. अट्ठजोअणवाहल्ला, सा मज्झम्मि विभाहिआ। परिहायंती चरिमंते, मच्छिपत्ताओ तणुअतरी ॥ ५९ ॥ अर्थ-(सा) ते पृथ्वी ( मज्झम्मि ) मध्यभागे (अहजोअणपाहल्ला) आठ योजन चाहन्यवाळी एटले जाडी Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विश्राहिश्रा ) कही छे, त्यारपछी ( परिहायंती ) चौतरफथी अनुक्रमे हानि पामती पामती एटले पातळी थती थती (चरिमंते ) छेवट अंते ( मच्छिअपत्ताओ ) माखीनी पांख करतो पण ( तणुअतरी) अति सूक्ष्म-पातळी छे. महीं दरेक योजने अंगुल पृथक्त्वनी-येथी नव अंगुल सुधीनी हानि जागावी. 8. अज्जुणसुवागमई, सा पुढी निममला संहावेणं । उत्ताणगछत्तसंठिा य, भणिआ जिणवरोहिं ।। ६० ।। | अर्थ--( सा पुढवी ) ने पृथ्वी ( महावेशं ) सभानथी । (निम्मला ) निर्मळ, (अन्जुणसुवामगई। श्वेत सुवर्णमय, | (उत्ताणगछत्तसंठिा य) तथा चत्ता राखेल छत्रना जेवा आकारवाळी (जिणवरहि) जिनेश्वरोए (भणियो) कहेली छ. ६०. | संखंककुंदसंकासा, पंडुरा निम्मला सुभा। सीश्राए जोअणे तत्तो, लोअंतो उ विआहिओ ॥६१ ।। ___ अर्थ-ते पृथ्वी ( संखंककुंदसंकासा ) शंख, अंकरत्न अने कुंदपुष्पनी जेवी (पद्धरा ) श्वेत, (निम्मला) निर्मळ अने ( सुभा) शुभ छ, ते सिद्धशिला पृथ्वीनुं वीजें नाम शीता . ( तत्तो सिमाए ) ते शीता पृथ्वीर्थी ( जोभणे ) उत्सेधांगुले एक योजन उपर ( लोअंतो उ) लोकांत (विभाहिओ) को छे. ६१. ___ ज्यारे एक योजनने छेडे लोकोत ले तो ते योजनमा सर्वत्र सिद्धो रहेला छे के नहीं ? ते उपर कहे छ.-. जोअणस्त उ जो तस्स, कोसो उवरिमो भवे । तस्स कोसस्स छन्भाए, सिद्धायोगाहणा भवे ॥६॥ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 幸 - ( तस्स ) ते ( जोअणस्स उ ) योजननो (जो ) जे ( उचरिमो ) उपरनो ( कोसो ) एक कोश ( मधे ) छे, ( तक्स कोसरस ) ते कोशना ( कमाए ) छटा मागने विषे ( सिद्धाय श्रोगाहणा ) सिद्धोनी अवगाहना- स्थिति (भषे ) पर ३३३ धनुष्य ने ३० अंगुल प्रमाण सिद्धस्थान थे. ६२. सिद्धोनुं ज स्वरूप कहे थे. ―― तत्थ सिद्धा महाभागा, लोगग्गम्मि पेइट्टिश्रा । भैव पवंचउम्मुक्का, सिद्धिं वैरगई गया ॥ ६३ ॥ अर्थ--( तत्थ ) त्यां एटले ते या भागमां (सिद्धि ) सिद्धि नामनी ( वरगई ) उत्तम गतिने (गया) पामेला अ ( महाभागा ) महाभागवंत एवा ( सिद्धा ) सिद्धो ( भवप्प उम्मुका ) नारकादिक संसारना प्रपंचथी - विस्तारथी मुक्त था सता ( लोगग्गम्मि ) लोकाग्रने विषे ( पइडिया ) स्थिर रहेला हो, अर्थात् हालवा चालवाना स्वभाव रहित - स्थिर रहेला वे. ६३. sa सिद्धोनी अवगाहना कहे . - सेहो जस्स जो होई, भवैमि चरिमम्मि अ । तिभागहीणा तत्तो अ, सिद्धाणोगीहणा मैवे ॥ ६४ ॥ अर्थ - (जस्स) जे सिद्धनो ( चरिमम्मि च ) पोताना बेल्ला ( भवम्मि ) भवने विषे ( जो ) जे ( उस्सेहो ) उत्सेध - उंचपणुं ( होइ ) दोय छे, ( ततो अ ) तेनाथी ( विभागहीणा ) त्रीजो भाग श्रोत्री ( सिद्धाय भोगाइया) ५८ 20-A Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धोनी अवगाहना ( भवे ) होय हे. अर्थात् शरीरना अवयवोना आंतराओ पुरवामां बीजो भाग ओछो थाय छे, तेथी ई भागनी अवगाहना रहे थे. ६४. ते सिद्धोनी काळधी प्ररूपणा करे छ._ एगत्तेणं साईआ, अपज्जवसिआ वि । पुहत्तण अणाईमा, अपज्जवसिआ वि अ ॥६५॥ अर्थ-( एगत्तेणं ) एक एक सिद्धने आश्रीने कहीए तो ते (साई) मादि के एटले जे काळे ते सिद्ध थया ते काळ तिनो श्रादि छे. अने ( अपज्जवसिमा वि श्र) त्यांथी कदापि चववानुं न होवार्थी अपर्यवसिन एटले अनंत छे. तथा ( पुहत्तेण ) बहुपणाए एटले समग्र सिद्धनी अपेक्षाए सिद्धो (अणाईश्रा) अनादि अने ( अपजवसिआ वि अ ) अनंत | छे. केमके सिद्धो नहोता, नथी के नहीं हशे एवो कोइ पण काळ नथी तेथी अनादि अनंत छ. ६५. ते सिद्धोनुं ज विशेष स्वरूप कहे छे.-- अरूविणो जीवघणा, नाणदसणसन्निआ। अउलं सुहसंपत्ता, उवमा जस्स नत्थि उ ॥ ६६ ।। अर्थ- ( अरूपिणो ) ते सिद्धो अरूपी छ, ( जीवघणा) निरंतर उपयोगयुक्त होवाथी जीवरूप अने पोला भागने * पूर्ण करी निचित-गाढ प्रदेशवाळा होबाथी धन छ, ( नाणदसणसमिया ) ज्ञान अने दर्शननी ज संज्ञावाला छे एटले । ज्ञान भने दर्शनना उपयोग विना तेमनुं चीजें कांइ पण स्वरूप नथी, (अउलं सुहसंपत्ता ) अतुल सुखने पामेला छ, के | Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( जस्स ) जे सुखनी ( उवमा ) उपमा ज ( नत्थि उ) नथी. ६६. फरीबीनधारे सरकारमा मारे से सिझोनु ज क्षेत्र अने स्वरूप कहे छे.-- लोएगदेसे ते सव्वे, नाणदसणसन्निआ। संसारपारनित्थिामा, सिद्धिं वरगई गया ॥ ६७ ॥ अर्थ-( ते सव्ये ) ते सर्वे सिद्धना जीवों ( लोएगदेसे ) लोकना एक देशमा रहेला छे, श्रा प्रमाणे कहवाशी 'मुक्त सर्वत्र व्यापीने रहा छ'ए मत दूर कर्यो, तथा ( नाणदसणसन्निपा ) ज्ञान अने दर्शननी संज्ञावाला छे. आम कहेबाथी पर 'ज्ञाननो नाश थवार्थी ज मोक्ष छे. ' एवो कोइनो मत छे ते दूर कर्यो. तथा (संसारपारनित्थिया) संसारना पारने पाम्या छ एटले फरीथी तेमने कदापि संसारमा प्रावधानुं नथी. आम कहेवाथी " धर्मतीर्थने प्रवर्तावी मोदपदने पामी फरीथी तीर्थना उच्छेद बखते संसारमा प्रावी अधर्मनो नाश करे छे." इत्यादि मतने दूर कर्यो. तथा (सिद्धि ) सिद्धि नामनी । (वरगई ) श्रेष्ठ गतिने (गया) पामेला छे. श्राम कहेवाथी एम जणाव्युं के कर्मनो क्षय थयो छत्तां पण स्वभावे करीने ज ! * उत्पत्ति समये लोकाग्रे पहोंचे त्यांसुधी ते क्रिया सहित पण छ. ६७. ___प्रमाणे सिद्धोनुं स्वरूप कायं. हवे संसारी जीवोनुं स्वरूप कहे छ.संसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते विआहिआ । तसा य थावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं ॥६॥ ___ अर्थ ( संसारस्था उ ) संसारमा रहेला (जे जीवा ) जे जीवो छ, (ते ) ते ( दुविहा ) वे प्रकारना ( विवाहिया) Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कक्षा छे. ते या प्रमाणे . - ( तसा य ) स अने ( थावरा चैव ) स्थावर. ( तर्हि ) तेमां ( थावरा ) स्थावर (तिषिहा ) त्रण प्रकारना . ६८. स्थावरना ऋण प्रकार कहे थे. पुढवी आउजीवा य, तहेव - य वणस्सई । इच्चैते थावरा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे ।। ६९ ।। अर्थ – (पुढवी ) पृथ्वी काय, ( आउजीवा य ) तथा अपकायना जीव, (तद्देव य ) तथा वळी ( वणस्सई ) वनस्प तिकाय, ( इच्चेते ) ए प्रमाणे आ ( थावरा ) स्थावरो ( तिविहा ) त्रण प्रकारना क्रे ( तेसिं ) तेमना ( भेए) भेदोने (मे) मारी पासे ( सुह ) तमे सांभळो. अहीं तेजस्काय श्रने वायुकाय गतित्रस होवाथी तेमने स्थावर मध्ये गण्या नथी. ६६. पृथ्वीका कहे थे. दुविहा पुढवी जीवा उ, हुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपजत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥ ७० ॥ अर्थ - ( पुढची जीवा उ ) पृथ्वीकाय जीवो ( दुबिहा ) बे प्रकारना . - ( सुडुमा ) सूक्ष्मनामकर्मना उदयने लीघे सूक्ष्म, (बायरा तहा ) तथा बादरनामकर्मना उदयने लीघे बादर (पुणो ) तेमां पण फरीथी ( पज्जत्तमपअता ) पर्याप्त पर्याप्त (ए) प्रमाणे (एए) सूक्षम भने बादर ए बने (दुहा ) बन्ने प्रकारना . ७०. हवे तेमना ज उचर भेद कहे थे. 13-10-11-13 Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | बायरा जे उ पज्जत्ता, दुविहा ते विवाहिआ। साहा खरा य बोधव्वा, सहा सत्तविहा तहिं ॥७९॥ * अर्थ (जे उ) जेयो ( बायरा ) बादर (पअचा) पर्याप्त छ, (ते) तेश्रो (दुविहा) ये प्रकारना (विभाहिया) कया | छे.-( सण्डा ) श्लक्ष्ण ण्टले चर्ण करेला देफा जेवी कामळ प्रध्वी. ते प्रथ्वीरूप जीव पसा उपच | ए प्रमाणे सर्वत्र जाणवू. ( खरा य ) अने बीजा कठसा (बोधवा ) जाणत्रा. ( तहिं ) तेमां ( सण्हा ) लक्ष्णा बादर | पर्याप्त ( ससविहा ) सात प्रकारना छे. ७१. ते सात प्रकार कहे छे. किण्हा १ नीला २ य रुहिरा ३ य, हालिद्दा ४ सुकिला ५ तहा । पंडू ६ पणगमट्टीआ ७, खरा छत्तीसई विहा ॥ ७२ ॥ अर्थ--( किण्हा ) काळी १, (नीला य ) नीली २, ( रुहिरा य ) राती ३, ( हालिदा ) हारिद्रा-पीळी ४, (सुकिला ) शुक्ला--धोळी ५, ( तहा ) तथा (पंडू ) पांडर एटले कांइक धोळी ६, आ प्रमाणे वर्णने पाश्रीने छ भेद बताघ्या. तेमां पांडूर वर्ण लख्यो छे, तेथी कृष्णादिक भेदोमां पण पोतपोताना वर्णना बीजा मेदो जाणवा. तथा सातमी ( पण ममद्विा ) पनक एटले अत्यंत सूक्ष्म रज, ते रूप मृत्तिका ते पनकमृत्तिका कहेबाय छे, ते रज आकाशमा होय के तेथी लोकमा ते पृथ्वीपणे रूढ नथी, तेथी आ भेद जूदो बताय्यो छे. ७. हवे (खरा) खर-कठण पृथ्वी (छत्तीसई Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ बिहा) छत्री प्रकारनी छे. ७२. ते ज छत्री प्रकार बतावे छे. -- पुढवी अ सक्करा बालुगा य उनले सिला य लोणूसे । श्रय- तंब - तउव-सीसग - रुप्प - सुवण्णे अ वहरे अ ॥ ७३ ॥ अर्थ - ( पुढवी अ ) शुद्ध पृथ्वी १, ( सकरा ) शर्करा - कांकरा २, ( बालुगा य ) बालकाचे ३, ( उवले ) उपलगोळ आकारना पत्थर, ( सिला य ) शिला-छीवर ५, (लोग उसे ) लवण समुद्रादिकनुं मी ६, ऊप-खारी माटी एटले खारो विगेरे ७, ( अ ) लाई ८, (तंब ) खांबु ६, (तउव) त्रपुं तर एटले कलइ १०, ( सीसग ) सीतुं ११, ( रुप्प ) रुपुं १२, ( सुत्र अ ) सुवर्ण १३, ( बहरे अ ) वञ्चरत्न एटले हीरा. १४. ७३. हरिश्राले हिंगुलए, मनोसिला सीसगंजणपवाले । श्रब्भपडलब्भवालुअ, चायरकाए मणिविहाणा ॥ ७४ ॥ अर्थ -- ( हरिभाले ) हडताल १५, ( हिंगुलए ) इंगळोक १६, ( मनोसिला ) मयशील १७, ( सीसग ) सीसक नामनी धातु एटले जसत १८, ( अंजय ) अंजन १६, ( पवाले ) परवाळा २०, ( अन्मपडल ) अभ्रपटल - अमरख २१, ( अन्भवालुअ ) अभ्रवालुका - अमरख मिश्र वाळूका २२, (वायरकाए ) बादर पृथ्वीकायने विषे या भेदो जावा. तथा ॐ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( मणिविहाणा) मणिनां नामो पण बादर पृथ्वीकायमाज छ. ७४. मणिनां ज भेदो कहे थे गोमेजए अरुअगे, अंके फलिहे लोहिअक्खे श्र। मरगय-मसारगल्ले, भुभमोअग इंदनीले अ ।। ७५ ॥ चंदण गेरुय हंसगन्भ-पुलए सोगंधिए अ बोधव्वे । चंदप्पभ वेरुलिए, जलकंते सरकते अ॥ ७६ ॥ अर्थ--(गोमेजए अ) गोमेयक-गोमेदक नामना मणि २३, ( रुमगे ) रुचकमणि २४, ( अंके ) अंक रत्न २५, | (फलिहे अ) स्फटिकरत्न २६, (लोहिअक्खे भ) लोहित नामना मणि २७, (मरगय) मरकत मखि २८, (मसारगळे) मसारगन्नमणि २६, ( भुसमोअग) भुजमोचकमणि ३०, (इंदनीले भ) इंद्रनीलमणि ३१, ( चंदण) चंदनमणि ३२, || (गेरुय ) गैरिकमणि ३३, ( हंसगम्भ ) हंसगर्भमणि ३४, (पुलए) पुलकमणि ३५, ( सोगंधिए अ) सौगंधिकमणि ३६, ( चंदप्पभ ) चंद्रप्रभमणि ३७, (वेरुलिए ) वैडूर्यमणि ३८, (जलकंते ) जळकांतमणि ३१, (सरकते म) सूर्यकांतमणि ४०. ( बोधच्चे ) आ मणिनां नाम जाणवा. अहीं मणिोनी १६ जातिमाथी कोइ पण चार जातिने बीजा मणिनी जातिमा समावेश करीने ४० ने बदले छत्रीशनी संख्या करवी. अर्थात् मणिनी अढार जाति गणावी छे तेने बदले Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौद जाति जाणवी. ७५-७६. बादर पृथ्वीकायनो विषय पूर्ण करवा पूर्वक सूक्ष्म पृथ्वीकायने कहे छे– ऐते खरपुंढवीए, भेआ छत्तीसमाहिमा । एगविहमाणसा, सुहमा तस्य विआहिया ॥ ७७ ॥ अर्थ-(एते ) श्रा ( खरपुढवीए ) खर पृथ्वीना ( छत्तीसं ) छत्रीश ( मेयो) भेदो ( पाहिआ ) कसा. (तत्थ ) sil ते पृथ्वीकायने विषे ( सुहुमा ) सूक्ष्म जीवो ( एगविहं ) एक ज अकारना एटले (अनाणसा) नाना प्रकार रहित (विभाहिया) कहा . ७७. हवे क्षेत्रथी पृथ्वीकायने कहे छसुहमा य सेवतोगम्मि, लोगैदेसे अ धायरा । एत्तो कालविभागं तु, तेसि वोच्छं चउब्विहं ॥७॥ अर्थ-(सुहमा य ) सूक्ष्म पृथ्वीकाय जीवो ( सम्वलोगम्मि ) सर्व लोकमा रहेला छे, (अ) अने ( बायरा ) बादर पृथ्वीकाय जीवो ( लोगदेसे ) लोकना एक देशमा एटले रत्नप्रभादिक पृथ्वी विमेरेमा रहेला छे. ( एनो) हवे पछी ( वेसि ) ते पृथ्वीकाय जीरोना ( चउन्विहं ) चार प्रकारना ( कालविभागं तु ) कामना विभागने ( वोच्छं) हूं कहीं-कई झु. ७८. संतई पप्पडणाईआ, अपज्जवसिआ वि अ । ठिइं पडुच्च साईआ, सपज्जवसिआ वि अ॥७९॥ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-पृथ्वीकायना जीवो (संतां) संततिने-माने (पार आश्रीने ( भगाईभा ) अनादि (अपजयसिया वि अ) तथा अनंत छ, भने (ठिई ) भवस्थिति अने कायस्थितिने ( पहुच्छ ) आश्रीने ( साईबा ) सादि (सपलवसिमा वि अ) तथा सांत छे. ७६. बावीस संहस्साई, वौसाणुकोसिआ भवे । आंउठिई पुढवीणं, अंतोमुंहुत्तं जहन्नगं ॥ ८ ॥ ___ अर्थ- ( पुढवीणं ) पृथ्वीकाय जीवोनी ( अाउठिई ) आयुष्यनी स्थिति (उकोसिमा) उत्कृष्टी (बावीस ) बाचीश ( सहस्साई ) हजार (वासाण ) वरसोनी (भवे) के, अने ( जहन्नगं ) जघन्य (अंतोमुहुत्तं ) अंतर्मुहर्तनी छे. ८०, असंखकालमुकोस, अंतोमुहत्तं जहन्नगा । कायठिई पुंढवीणं, 'तं कायं तु अमुंचओ ॥१॥ अर्थ-(तं कायं तु ) ते कायने ( अमुंचभो) नहीं मुकता एटले फरी फरीने ते ज कायमा उत्पन थता एवा ( पुढवीणं ) पृथ्वीकायजीवोनी ( कायठिई ) कायस्थिति ( उक्कोसं ) उत्कृष्टथी ( असंखकालं ) असंख्यकाळ एटले लोकाकाशना जेटला असंख्याता प्रदेशो के तेटली उत्सर्पिणी अवसर्पिणीनी छे, तथा ( जहभगा ) जघन्यथी (अंतोमुहुत्तं )। अंतर्मुहूर्त काळनी छे. ८१. ___काळमा अंतर्गत रहेलं श्रांतरं कहे छे. अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुंहत्तं जहन्नगं । विजढम्मि सए काप, पुढवीजीवाण अंतरं ॥ ८२ ॥ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(पुढवीजीवाण ) पृथ्वीकायना जीयोने ( सए काए ) पोतानी काय ( विजम्मि ) तज्या पछी ( उक्कोसं ) उत्कृष्टथी ( असंतकाल , असंण्याचा पुड परावर्चनरूप अनंतकाळनुं अने ( जहाग ) जवन्यथी ( अंतोमुहुतं ) अंतमहतनुं ( अंतरं ) आंतरं होय छे. तेटलो काळ अन्य जातिमा भमीने त्यारपछी पृथ्वी कायने विषे फरीथी आवे छे. (जो * मोक्षमा न जाय तो. एम सर्वत्र जाणवं. ) ८२. हवे भावी पृथ्वीकायनी प्ररूपणा करे छे.एएसिं वाओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥३॥ __ अर्थ-(एएसि ) ते पृथ्वीकाय जीवोना (वस्पो चेव) वर्णथी, (गंधओ) गंधथी, (रसफासओ) रसी, स्पर्शथी, ॐ (वावि ) तथा वळी ( संठाणादेसमो) संस्थानना प्रकारथी ( सहस्ससो) हजारो (विहाणाई ) मेदो छे. अर्थात् वर्णा| दिकनी तरतमताथी असंख्य मेदो थाय छे. ८३. हवे अपकाय विषे कहे छे.दुविहा श्राउजीवा उ, सुहमा बायरा तहा । पजत्तमपजत्ता, एवमेए दुहा पुणो ।। ८४ ॥ अर्थ-(आउजीवा उ ) अप्कायना जीवो ( दुविहा ) चे प्रकारना छे. सूक्ष्म तेम जं बादर. अने ए बने पाला पर्याप्त * अने अपर्याप्त एम चे प्रकारना छे. ८४. Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बायरा जे उ पजत्ता, पंचहा ते पकित्तिआ । सुद्धोदए अ उस्से, हरतणू महिआहिमे ॥ ८५॥ अर्थ-(जे उ ) जे ( बायरा ) चादर (पजचा ) पर्याप्ता छ, (ते) ते ( पंचहा ) पांच प्रकारना ( पकित्तिा ) । कह्या के. से ा प्रमाके सुखोदय म) शुद्ध नेप: जळ १, ( उस्से ) अवश्याय-शरद ऋतुमा प्राताकाळे झाकळ पडे के ते २, ( हरतणू ) हरतनु-प्रातःकाळे आर्द्र पृथ्वीमांथी नीकळी तृणना अग्रभागपर जळना बिंदुओ लागे छे ते ३, - ( महिला) महिका-चोमासानी ऋतु पहेला सूक्ष्म वृष्टि पडे चे ते के जेने धूमर कहेवामां आवे छे ४, तथा (हिमे) | हिम एटले जेने ठार कहेचामां आवे छे ते ५.८५. एगविहमनाणत्ता, सुहमा तत्थ विआहिआ । मुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे अ बायरा ॥ ८६ ॥ संतई पप्पऽणाईआ, अपज्जवसिआ वि अ । ठिइं पडुच्च साईआ, सपज्जवसिआ वि अ॥ ८७ ॥ | सत्तेव सहस्साई. वासाणुकोसिआ भवे । आउठिई आऊणं, अंतोमुहत्तं जहनिआ ॥ ८८ ॥ Fil असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहनिआ । कायठिई आऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ।। ८९ ॥ | अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं । विजढम्म सए काए, आऊजीवाण अंतरं ।। ९० ॥ १ अप्कायनी उत्कृष्ट आयुष्यनी स्थिति सात हजार वर्षनी छे. २ अपकायनी. ३ अपकायना जीयोk. Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एपसिं वालओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ।। ९१ ॥ अर्थ-प्रथमनी जेम करवो. ८६-६१. हवे वनस्पतिकाय विषे कहे छ.दुविहा परवाईजीया, सुहमा पापस सहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥ ९२ ।।। जीवा ) वनस्पतिकायना जीवो वे प्रकारना छे. भूक्ष्म ने बादर. ते ने पाया पर्याप्त ने अपर्याप्त एम * बेचे प्रकारना छे. ६२. बोयरा जे उ पत्ता, देविहा ते विआहिआ । साहारणसरीरा य, पेत्तेगा य तहेव य ॥ ९३ ॥ ___ अर्थ-(जे उ ) जे ( बायरा ) बादर ( पत्ता) पर्याप्ता छे, (ते ) ते ( दुविहा ) बे प्रकारना (विवाहिश्रा) कहेला प्रमाणे. (साहारसासरीरा य) साधारण शरीरवाळा एटले अनंत जीवोर्नु एक ज शरीर होय ते, ( तहेव य) | तथा वळी ( पत्तेमा य ) प्रत्येक शरीर एटले एक एक जीपनुं एक एक शरीर होय ते. ६३. पत्तेअसरीरा उ, गहा ते पकित्तिआ। रुकावा गुच्छा य गुम्मा य, लया वल्ली तणा तहा ।। ९४ | अर्थ-(पत्तेसरीरा उ ) तेमा जे प्रत्येक शरीरी छ, (से) ते (ोगहा ) अनेक प्रकारना ( पकित्तिमा ) कया छे. ते भा प्रमाणे.- (रुक्खा ) आम्र विगेरे वृक्षो १, (गुच्छा य) वृन्ताक विगेरे गुच्छा २, (गुम्मा य) नवमालिका विगेरे Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60***.net | गुम्म ३, ( लया ) चंपकादिक लता ४, ( वली ) चीमडा विगेरेना चेला ५, ( तणा तहा ) तथा दर्भ विगेरे वण ६.६४. | | वलयलया पव्वगा कुहणा, जलमहा ओसही तहा। हरिअकायाय बोधव्वा, पत्तेआइति आहिया॥९५॥ * अर्थ-( वलयलया) नाळीयेगी, केळ विगेरे लतावलय, तेमने बीजी शाखा न होवाथी तेश्रो लता कहेवाय छ, भने । तेमनो यलय जेवो आकार छ तेथी ते लतावलय कहेवाय छे ७, (पव्वगा ) शेरडी विगेरे पर्वज-पर्वथी उत्पन्न थयेला ८, ( कुहणा ) छत्रने आकारे भूमिफोडा थाय के ते कुहण कहवाय छे ६, (जलरुहा) कमळ विगेरे जळरुह १०, (ोसही) फळपाकवाळी शाळी विमर ओषधि-धान्या १६, ( राहा ) या ( हरिश्रकाया य ) तांदळीयानी भाजी विगेरे हरितकाय १२, चशब्द के तेथी पोतपोतामा रहेला अनेक भेदो जाणवा. ( इति आहिश्रा ) मा प्रमाणे कहेला ( पत्ता) प्रत्येकशरीरी ( बोधबा) जाणवा. ६५. हवे साधारणशरीरी कहे छे.साहारणसरीरा उ, गहा ते पकित्तिआ। आलूए मूलए चेव, सिंगवेरे तहेव य ॥ ९६ ॥ हिरिली सिरिली सिस्सिरिली जावईके अ कंदली । पलंडू लसण कंदे, कंदली नकुहुपए ॥१७॥ लोहणी हुअ थीह अ, कुहगा य तहेव य । कण्हे अ वजाकंदे अ, कंदे सूरणए तहा ॥ ९८॥ अस्सकण्णी अ बोधवा, सीहकण्णी सहेव य । मुसुंढी अ हलिदा य, गहा एवमायओ ॥१९॥ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *******‹ अर्थ - (साहारणसरीरा उ ) जे साधारण शरीरी छे (ते) ते ( रोगहा ) अनेक प्रकारना (पकित्तिया ) कहेला छे. ते आ प्रमाणे - ( चालूए) आलु - पिंडालु नामनो कंद २, (मूलए चेव ) मूळो २, ( सिंगवे रे ) शृंगवेर - खादु ३, ( तहेव य ) तथा वळी (हिरिली) दिरिलो नामनोद (सिरिली) सिरिलो नामनो कंद ५ (सिस्सिरिली) सिस्सि रिली नामनो कंद ६, (जावई ) यावतीक नामनो कंद ७, (कंदली ) कंदली नामनो कंद ८, ( पलंडू ) पलांड-डुंगळी ६, ( लसय कंदे) लसण कंद १०, ( कंदली अ ) कंदली कंद ११, ( कुहुन्नए) कुकुवत कंद १२, ( लोहणी ) लोहिनी कंद १३, (हू ) हूत कंद १४, ( श्रीहू अ ) धीहू कंद १५, ( कुहगा य ) कुहक कंद १६. ( तहेव व ) तथा वळी (कण्हे अ) कृष्ण कंद १७, ( वजदे अ ) वज्र कंद १८, ( कंदे सूरए ) सूरण कंद १६, ( तहा ) तथा ( श्रस्कणी अ ) अश्वकर्णी कंद २०, (सीहकणी ) सिंहकर्णी कंद २१, ( तद्देव य ) तथा बळी ( मुसुंदी अ ) मुसंढी कंद २२, ( इलिदा य ) अने हरिद्रा कंद २३ ( एवमायो ) ए विगेरे मुख्य ३२ प्रकारे तेम ज ( रोगहा ) अनेक प्रकारे ( बोधव्वा ) जाणवा, ६६-६६. एग विमनायत्ता, सुहुमा तत्थ विश्राहिया । सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदे से श्र बायरा ॥ १०० ॥ संत पप्पा, अपज्जवसिश्रा वि श्र । ठिई पडुच्च साईश्रा, सपज्जवसिश्रा विथ ॥ दस चैव सहरसाई, वासागुक्कोसि भवे । वणसईण श्राउं तु श्रतो मुहुत्तं जहन्नमं ॥ अर्थ - अर्थ पूर्ववत् जाणो. विशेष ए के – वनस्पतिकायनुं उत्कृष्ट आयुष्य दश हजार वर्षेनुं भने जघन्य अंत १०१ ॥ १०२ ॥ 00 Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहर्त्तनुं छे. तेमा उत्कृष्ट आयुष्य प्रत्येक शरीरवाळा पर्याप्त बादर वनस्पतिकायर्नु ज होय छे, भने अपर्याप्तनुं जपन्य ज | होय छे. सूक्ष्म अने साधारणतुं पर्याप्त अपर्याप्त बनेनुं अंतर्मुहूर्त्तनुं ज होय छे. एज प्रमाणे पूर्वे कहेला पृथ्वीकाय अने अएकायमां तथा आगळ कहेशे एवा तेजस्काय अने वायुकायमां पण पर्याप्त बादरने ज उत्कृष्ट आयुष्य होय एम जागवू. अणंतकालमुक्कोला, अंतोमुहले जहन्नगा। कागतिई गणमाग, तं कायं तु अमुचो ॥ १०३ ॥ अर्थ- पूर्ववत् विशेष ए के पनक (सूक्ष्म ) वनस्पतिकायनी उत्कृष्ट कारस्थिति अनंतकाळनी छे. ते सामान्य रीते सूक्ष्म वनस्पतिना जीशेने अथवा सूक्ष्म निगोदना जीवोने आश्रीने कही छे. विशेष विवक्षा करता तो प्रत्येक वनस्पति अने बादर निगोद ते साधारण वनस्पति-तेनी तो उत्कृष्ट कायस्थिति सीत्तेर कोटाकोटि सागरोयमनी छे, अने जेणे व्यवहार राशिनो कोइ वखत पण स्पर्श कर्यो छे अर्थात् व्यवहार राशिमा आवी मयेल छे एका सूक्ष्म निगोदनी कायस्थितिनुं प्रमाण असंख्यात काळर्नु छ. १०३. असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं । विजढम्मि सए काए, पणगजीवाण अंतरं ॥ १०४॥ अर्थ—पूर्ववत. विशेष ए के कोइ जीव वनस्पतिथी नीकळी पृथ्व्यादिकने विषे भ्रमण करी पालो फरीथी वनस्पतिमा आत्रे तो उत्कृष्टधी असंख्यात काळे आवे. केमके वनस्पति सिवाय चीजा सर्वनी कायस्थिति असंख्यात काळनी ज .] छे, तेथी बनस्पतिकायनुं उत्कृष्ट प्रांतरं असंख्यात काळर्नु ज कडुं छे. १०४. Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | एएसिं वाणो चेव, गंधश्रो रसफासओ । संटाणादेसओ वावि. विहाणाई सहस्ससो॥ १०५ ॥ ___ अर्थ-पूर्ववत्. १०५. इच्छेते थावरा तिविहा, समासेण विवाहिता । एत्तो उ तसे तिविहे, वोच्छामि अणुपुष्वसो॥१०६ ।। अर्थ--(इचेते ) या प्रमाणे श्रा (विविहा) त्रण प्रकारना ( थावरा ) स्थावरो (समासेण ) संक्षेपे करीने (विआहिमा ) कया. ( एत्तो उ ) हवे पछी (तिविहे) वण प्रकारना ( तसे ) त्रसने ( अणुपुव्वसो) अनुक्रमे (बोच्छामि) हुँ कहीश. १०६. तेउ वाऊ अवोधवा, उराला य तसा तहा । इच्चेते तसा तिविहा, तेसि भेए सुणेह मे ॥ १०७ ।। अर्थ-( नेउ) तेजस्काय, ( बाऊ अ) वायुकाय, ( उराला य ) अने उदार एटले स्थूळ एवा द्वींद्रियादिक ते त्रणे | ( तसा ) बस ( बोधव्या ) जाणवा, (तहा) तथा (इच्छेते) ए रीते या ( तसा ) त्रसो (तिविहा ) त्रण प्रकारना छ, (तेसि ) तेमना ( भए ) भेदो ( मे ) मारी पासे ( सुमेह ) सामळो. अहीं त्रस एटले गति करनार एवो अर्थ थाय छे. तेमां तज अन वायु स्थावर नामकमेनो उदय छत्तो पण गमननी अपेचाए अस कहेवाय छ, अने द्वींद्रियादिक तो त्रस नामकमेंना उदयथी तथा गति करनार होवाथी त्रस कहेवाय छे. १०७. तेमा प्रथम तेजस्काय कहे छे. Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAN दुविहा तेउजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा । पजत्तमपजत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥ १०८ ।। बायरा जे उ पज्जत्ता, णेगहा ते पकित्तिथा । अंगारे मुम्मुरे अगणी, अञ्ची जाला तहेव य ॥१०॥ अर्थ—पूर्ववत्. विशेष ए के बादर पर्याप्ताना अनेक भेद आ प्रमाणे छे.-(अंगारे) धूभाडा विनाना बळता अंगारा १, (मुम्मुरे ) राख मिश्रित अग्निना तणखा २, (अगणी) आबे सिवायनो शुद्ध अग्नि ३, ( अच्ची ) चळता काष्ठनी साथे | रहेली ज्वाळा ४, ( तहेव य ) तथा ( जाला ) तूटक थइने उंची गयेली ज्वाळा. ५. १०८-१०६. उक्का विज्जुश्र बोधव्वा, णेगहा एवमाइओ । एगविहमनाणत्ता, सुहमा ते विश्राहिआ ॥ ११०॥ अर्थ-( उक्का ) श्राकाशमा उन्कापात थाय छे ते ६, (विज्जुअ ) तथा वीजळी ७, (एवमाइओ) ए विगेरे (णेगहा ) अनेक प्रकारे तेजस्कायना भेदो ( बोधव्या ) जाणवा. चाकीनो अर्थ पूर्ववत् करवो. ११०० सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे अ बायरा । एत्तो कालविभागं तु, तेसि वोच्छं चउव्विहं ॥ १११ ॥ संतई पप्पऽणाईश्रा, अपज्जवसिया वि अ। ठिई पडुच्च साईपा, सपज्जवसिश्रा वि श्र ॥ ११२ ॥ | तिहमेव अहोरत्ता, उकोसेण विवाहिया । आउठिई उ तेऊणं, अंतोमुहत्तं जहन्निा ॥ ११३ ।। १३ण ज. २ रात्रिदिवस. Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंखकालमुक्कोसा अतोमुहत्तं जहन्नगा । काठिई तेऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ ११४ ॥ | अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नगं । विजढम्मि सए काए. तेऊजीवाण अंतरं ॥ ११५ ।। एएसिं वायो चेव, गंधश्रो रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो ॥ ११६ ।। अर्थ-पूर्ववत्. १११-११६. एटलुं विशेष के एर्नु उत्कृष्ट प्रायुष्य त्रण अहोरात्रीनुं जाणवू. हत्रे वायुकाय कहे छ.दुविहा वाउजीवा उ, सुहमा बायरा तहा । पजत्तमपजत्ता, एकमेए दुहा पुणो ।। ११७ ॥ बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिा । उकलिया मंडलि श्रा, घण गुंजा सुद्धवाया य॥११॥ अर्थ--पूर्ववत. विशेष-(पंचहा ) पांच प्रकारे वादर पर्याप्त वायुकाय कह्या छे. ते या प्रमाणे.-( उक्कलिया ) उत्कलिका एटले जे रही रहीने वाय तेवो वायु १, ( मंडलिमा ) मंडलिक एटले वीटोळीओ २, (घण ) रत्नप्रभादिकना भा| धाररूप धनवात ३, (गुंजा) गुंजारव करता वाय ते ४, (सुद्धवाया य) स्वाभाविक धीमे धीमे वाय ते वायु. ५. ११७-११८. संवद्वगवाए अ, णेगहा एवमायओ। एगविहमनाणत्ता, सुहमा ते विवाहिया ॥ ११९ ॥ अर्थ-( संवद्वगवाए अ ) तथा संवर्तकवात एटले दूर रहेला तणादिकने पण उपाडी अमुक प्रदेशमा लाबी नांखे Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवो वायु, ( एवमायो ) ए विगेरे (खेगहा ) भनेक प्रकार वायुकायजीवोना छ भने नाना प्रकार न होवार्थी सूक्ष्म वायुकाय जीवो एक ज प्रकारना छे, ११६. सुहमा सव्वलोगम्,ि सोगदेसे का साधन । एमो कालविभागं तु, तेसि वोच्छं चउव्विहं ॥१२०॥ संतई पप्पऽणाईश्रा, अप्पज्जवसिश्रा वि अ । ठिइं पडुच्च साईश्रा, सप्पज्जवसिमा वि अ॥ १२१ ॥ तिशिव सहस्साई, वासाणुकोसिया भवे । आऊठिई वाऊणं, अंतोमुहुतं जहनिया ॥ १२२ ।। असंखकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहान्निश्रा । कायठिई वाऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ १२३ ॥ अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजदम्मि सए काए, वाउजीवाण अंतरं ।। १२४ ॥ एएसिं वामओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ १२५ ॥ अर्थ-पूर्ववत्. १२०-१२५ हवे उदार-स्थूळ बसने कहे छे.उराला य तसा 'जे उ, चउहाँ ते पंकित्तिथा । बेइंदिअ तेइंदिअ, चउरो पंचिंदिआ चेव ॥१२६॥ अर्थ (जे उ ) वळी जे (उराला य) उदार एटले स्थूल ( तसा ) त्रसो छ (ते) ते ( चउहा) चार प्रकारना १ एमनी त्रण हजार वर्षनी उत्कृष्ट स्थिति ( आयु )छे. Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पकिचिमा ) कहेला छे. ते आ प्रमाणे.-( बेइंदिअ ) द्वींद्रिय १, ( तेइंदिअ ) त्रींद्रिय २, ( चउरो) चतुरिंद्रिय ३, । (पंचिंदिश्रा चेव) तथा पंचेंद्रिय ४.१२६. प्रथम द्वींद्रियने कहे छे.बेइंदिा उ जे जीवा. दुविहा ते पकित्तिा । पज्जत्तमजत्ता, तास भए सुणेह मे ॥ १२७ ॥ अर्थ---इंद्रियजीवो पर्याप्त ने अपर्याप्त एम वे प्रकारना कह्या छे. तेना पाका वातर बीजा भेदो छे ते सांभळो. १२७. किमिणो मंगला जेव, अलसा माइवाहया । वासीमुहा य सिप्पीश्रा, संखा संखणया तहा ॥१२॥ पलोगाणुलया चेव, तहेव य वराडगा । जलूगा जालगा चेव, चंदणा य तहेव य ॥ १२९ ॥ _ अर्थ-(किमिणो) कृमिया १, ( मंगला चेव ) मंगल अथवा सोमंगल नामना जीव विशेष २, (अलसा) अमा| सीया-वर्षाऋतुमा धाय छे ते ३, ( माइवाहया) मातृवाहक एटले चूडेल जातिना जीव ४, (वासीमुहा) वासीमुख एटले वासलानी जेवा मुखवाळा जीवविशेष ५, ( य ) तथा (सिप्पीश्रा) शुक्ति-छीपलीमो ६, (संखा) शंख ७, (संखणया) | शंखनक-नाना शंख ८ (तहा) तथा (पलोगाणलया चेव पब्लुका नामना जीव है, नाना पन्लुका १०, (तहेव य) | | तथा ( वराडगा) बराटक ते कोडाने कोडी ११, (जलगा) जळो १२, (जालगा चेत्र) जालक जातिना जीव १३, । (तद्देवय) तथा (चंदणाय) चंदनक एटले अक्ष, जे स्थापनाचार्यमा काम लागे छ ते. १४. १२०-१२६. * 'सोमंगला' इति प्रत्यन्तरम्, Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ss after एए, गहा एवमापो । लोएले ते स न क विश्राहिश्रा ॥ १३० ॥ संतई पप्पऽणाईया, अप्पजवसिया वित्र । ठिई पहुच साईश्रा, सपज्जवसिश्राविश्र ॥ १३१ ॥ साई बारसेव उ, उक्कोसेरा विश्वाहिश्रा । बेइंदिश्रश्राउटिई, अंतोमुहुत्तं जहन्निश्रा ॥ १३२ ॥ खेजकालकोसा, अंतोमुहुतं जहन्निया । बेइंदिकायठिई, तं कार्यं तु अमुं ॥ १३३ ॥ अतकालमुकोसं, अंतोमुहुतं जहायं । वेइंदियाण जीवाणुं, अंतरेधं विनाहिअं ॥ १३४ ॥ एएसि वसओ चेव, गंध रसफासो । संठागादेसश्रो वावि, बिहागाई सहस्सो ॥ १३५ ॥ अर्थ - पूर्ववत् १३० - १३५. हवे त्रींद्रिय जीवोनी प्ररूपणा करे छे. तेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपजता, तेसिं भेए सुरोह मे ।। १३६ ।। अर्थ - पूर्ववत् १३६. कुंथू पिपीलि उहंसा, उक्कलुदेहिश्रा तहा । तपहारकट्ठहारा, मासुगा पत्तहारगा ॥ १३७ ॥ १ बार वरसनी तेमनी उत्कृष्ट स्थिति ( आयु ) कहेल छे, २ एमनी काय स्थिति उत्कृष्ट संख्याता काळनी कही छे. *••*u*•*&*••*@**** Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170*40*1*ः **••*•··~··**<-→→ कप्पासट्ठिमिंजा य, तिंदुगा तउसमिजगा । सहावरी अ गुम्मी अ, बोधवा इंदकाइया || १३८ || इंदगोगमाईश्रा, गहा एवमायच्यो । लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वस्थ विद्याहि ॥ १३६ ॥ अर्थ - (कुंथू ) कुंथुचा, ( पिपीलि) कीडी, ( उईसा) उद्देश, ( उक्कलुदेहिया ) उत्कलिक, उद्देहीका - उभी ( तहा) तथा (तहार) वृखबहार, ( कद्वहारा ) काष्ठहार, (मालुगा) मालूक, ( पसहारगा ) पत्रधारक, (कप्पासिट्ठिमिंजा य) कपासना कपासीयामांची उत्पन्न थता, ( विंदुगा ) तिंदुक, ( तडसमिंजगा ) संसमिंजक, ( सदावरी अ ) सदावरी (गुम्मी अ) गुन्मी एटले कानखजुरा, ( ईदकाइया) इंद्रका विश, (त्रोधव्या) जाना (गोसाई) इंद्रगोप- इंद्र राजानी गाय आदि श्रींद्रिय जाणवा. ( एवमासओ) ए आदि (अगहा ) अनेक प्रकारना जाणवा. ( ते सच्चे ) ते सर्व ( लोएगदेसे ) लोकना एक देशमा रहेला . ( सव्वत्थ ) सर्वत्र ( न विश्राहिया ) रहेला कला नथी. १३७-१३६. संतई पप्पऽणाईचा, अपज्जवसिया वि श्र । ठिंई पडुच साईश्रा, सपजबसिया वि ॥ ऐगूणपता होरत्ता, उक्कोसेण विश्राहिया । तेइंदित्र थाउठिई, अंतोमुहुतं जहमिश्रा ॥ संखेज्जकालमुकोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्निश्रा । तेइंदिश्रकायटिई, तं कार्यं तु श्रमुंचम ॥ श्रतकालमुक्कसं, अंतोमुहूत्तं जहन्नगं । तेइंदिअजीवाणुं, अंतरेचं विग्राहियं ॥ १४३ ॥ १ ओगणपचास अहोरात्र -रात्रिदिवसनी तेमनी उत्कृष्टी स्थिति ( आयु ) छे. २ आ आंतरुं. १४० ॥ १४९ ॥ १४२ ॥ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एएस अर्थ - पूर्ववत् १४० - १४४. हवे चतुरिंद्रिय कहे छे. चाउरिंदिश्रा उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिथा । पज्जत्तमपजता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ १४५ ॥ अर्थ - पूर्ववत्. १४५. अधिया पोत्तिथा चैव मच्छिश्रा मसगा तहा । भमरे कीडपयंगे अ, ढिकुणे कुंकु तहा ॥ १४६ ॥ कुकुडे सिंगिरीडी श्र, नंदावत्ते विच्छिए । डोले भिंगिरीडी अ, विरिली अच्छिवेध ॥ १४७॥ अच्छिले माह अच्छि - रोडए चित्तपत्तए । ओहिंजलिश्रा जलकारि श्रनीश्रा तंषगा विश्र ॥१४८॥ व गंधथो रसफासओ । संठायादेश्रो वावि, विहाणाई सहस्सो ॥ १४४ ॥ अर्थ – (अंधि) अधिक जातिना जीव, (पोत्तिमा चेत्र ) पौतिक, ( मच्छि ) मक्षिका, ( मसगा ) मशक -- मच्छर, ( तहा ) तथा (ममरे) अमर, (कीडगे) कीट, पतंगीयुं, ( अ ) तथा ( ढिकुणे ) टिंकुण-चगाइ, ( कुंकु कुंका, ( तहा) तथा (कुकुडे) कुर्कुट, ( सिंगिरीडी अ ) शृंगटी, (नंदावते अ ) नंदावर्त, ( विच्छिए ) बींधी, ( डोले ) ढोल-खडमाकडी, ( भिंगिरीडी का ) भृंगरीटक, ( विरिली ) विरली, ( अधिर ) अधीवेधक, (अच्छिले ) अक्षिल, 1 1011)*%** Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ".. . ( माहए ) मागध, (अच्छिरोडए) अक्षीरोटक, (चित्तपत्तए) चित्रपत्रक, ( श्रोहिंजलिओ) उपधिजलिक, (जलकारि का श्र) जळकारी, (नीआ ) नीचक, (तंबमा विश्र) तथा ताम्रक. १४६-१४८, (आमा घणा नाम समजाता नथी.) चउरिंदिश्रा एए,ऽणेगहा एवमायो । लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे परिकित्तिश्रा ।। १४६ ॥ संतई पप्पऽणाईश्रा, अपज्जवसिआ वि अ। ठिई पडुच्च साईश्रा, सपजवसिपा वि अ॥ १५० ॥ छच्चेव य मासाऊ, उक्कोसेण विवाहिश्रा । चरिदिश्राऊटिई, अंतोमुहूत्तं जहपिणा ॥ १५१ ।। संखेजकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं । चउरिदिनकायठिई, तं कायं तु अमुंचओ ॥ १५२ ।। अणंतकालमुकोस, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं । चरिंदियाण जीवाणं, अंतरेअं विवाहियं ॥ १५३ ।। एएसिं वाओ वेव, गंधओ रसफासमो । संठाणादेसो वावि, विहाणाइंसहस्ससो ॥१५॥ अर्थ-पूर्ववत्. १४६-१५४. हवे पंचेंद्रिय कहे छे.पंचेंदिया उजे जीवा, चउन्विहा ते विवाहिश्रा। नेरइया तिरिक्खा य, मणुभा देवा य ाहिया ॥१५॥ अर्थ-(जे जीवा ) जे जीवो (पंचेंदिमा उ) पंचेंद्रिय छ, (ते) ते (पउनिहा) चार प्रकारना (वित्राहिमा) कह्या १ छ मानी उत्कृष्टस्थिति ( आयु . छे. Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे. ते कला छे. १५५. प्रमाणे . - ( नेरइआ ) नारकी, ( तिरिक्खा य ) तिर्यच, ( मणुआ ) मनुष्य, ( देवा य ) अने देव ( आई ) हवे प्रथम नारकीना भेद कहे छे - नेर सत्तविहा, पुढीसु सत्तसू भवे । रयणाभसकराभा, बालुग्राभा य श्राहि ॥ १५६ ॥ पंकामा धूमाभा, तमा तमतमा तहा । इति नेरइया एते, सत्तहा परिकिति १५७ ॥ ॥ अर्थ - (नेर ) नारकीओ ( सत्तविहा ) सात प्रकारना छे. कारण के ते ( सचसू ) सात जुदी जुदी - उपर नीचे रहेली (पुढवी ) पृथ्वीने विषे ( भवे ) होय छे. तेथी ते पृथ्वीना सात भेदथी नारकीना पण सात भेद छे. ते सात पृथ्वीनां नाम या प्रमाणे . --- ( रयणाम ) रत्नप्रभा १ ( सक्करामा ) शर्कराप्रभा २, (वालुआभा य ) तथा त्रीजी वालुकाप्रभा ३ (हि) कही छे. तथा ( पंकामा ) पंकप्रभा ४, ( धूमाभा ) धूमप्रभा ५, ( तमा) एटले तमप्रभा ६, ( तमतमा तहा) तथा तमतमा एटले तमतमप्रभा ७, ( इति ) श्रा प्रमाणे पृथ्वीना नामवाळा ( एते ) आ (नेहा) नारकी (सत्ता) सात प्रकारना (परिकित्तिया ) का छे. १५६ - १५७. लोगस्स एगदेसम्म ते सव्वे उ विआहि । इत्तो कालविभागं तु, तेतिं वोच्छं चउत्रिहं ॥ १५८ ॥ संतई पप्पऽणाई श्रा, अपज्जबसिआ वि अ । ठिहूं पडुच्च साईआ, सपज्जवसि विअ ॥ १५९ ॥ ६० Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरोवममेगं तु, उक्कोसेणे विआहिआ । पढमाएं जहँपणेणं, दसवाससहस्सिा ॥ १६ ॥ ___अर्थ-पूर्ववत्. १५८-१५६. ( पढमाए ) पहेली नरक पृथ्वीमा नारकीनी स्थिति ( उकासेण ) उत्कृष्टी ( सागरो- /* वममेगं तु) एक सागरोपमनी अने (जहमेणं) जघन्यथी (दसवाससहस्सिा ) दश हजार वर्षनी (विवाहिया) कही छे. १६०. 1 तिपणेवे सागराऊ, उक्कोसेण विनाहिआ। दोच्चाए जहणणेणं, एंगं तु सागरोवमं ॥ १६१ ॥ | सत्तेव सागैराऊ, उक्कोसेण विश्राहिआ । तइपाए जहन्नणं, तिपणेव उ साँगरोक्मा ॥ १२ ॥ __ अर्थ (दोच्चाए ) बीजी पृथ्वीमा ( उक्कोसेण ) उत्कृष्टयी (तिमेव ) त्रण ज ( सागराऊ ) सागरोपमर्नु श्रायुप्प अ. । थवा स्थिति ( विवाहिया) कही छे अने ( जहोणं ) जघन्यथी (एर्ग तु) एक ( सागरोवमं) सागरोपमनी कही है. १६१. (सइआए ) त्रीजी पृथ्वीमा ( उक्कोसण) उत्कृष्टथी (सत्तेव ) सात ज ( सागराऊ ) सागरोपमनुं आयुष्य अने | (जहन्नेणं ) जघन्यथी (तिमेव उत्रण ज ( सागरोवमा) सागरोपमनुं आयुष्य अथवा स्थिति विश्राहिमा कही छे. १६२. देस सागरोवमाऊ, उक्कोसेण विहिआ। चउत्थीए जहन्नणं, सत्तेव उ सागरोवमा ॥ १६३ ॥ अर्थ-(चउत्थीए) चोथी पृथ्वीमा ( उक्कोसेण ) उत्कृष्टथी (दस ) दश ( सागरोवमाऊ ) सागरोपमर्नु आयुष्य है तथा (जहमेणं) जघन्यथी ( सत्तेव उ ) सात ज (सागरोत्रमा ) सागरोपमनुं आयुष्य अथवा स्थिति (विश्राहिमा) कही के. १६३. Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरर्स सागरोंऊ, उक्कोसेण विभाहिआ। पंचमाए जहन्नेणं, दस चेव उ सागरोवमा ॥ १६४॥ __ अर्थ-- ( पंचमाए ) पांचमी पृथ्वीमा (उकोसेण ) उत्कृष्टश्री ( सत्तरस ) सतर ( सागराज) सागरोपमनुं श्रायुष्य | भने (जहलेणं ) जघन्यथी ( दस चेव उ) दश ज ( सागरोवमा) सागरोपमनुं आयुष्य अथवा स्थिति (विवाहिया) कही छे. १६४. बाबीस सागराऊ, उक्कोसेण विआहिआ। छट्ठीए जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा ॥ १६५ ।। तेत्तीस सागराऊ, उक्कोसेण विआहिआ। सत्तमार जहन्ने, बावीस सागरोधमा ॥ १६६ ॥ ॥ | अर्थ-पूर्ववत. विशेष ए के छही पृथ्वीमा उत्कृष्ट आयुष्य बावीश सागरोपमनुं थे. तथा जघन्य सन्चर सागरोपमर्नु छे तथा सातमीमा उत्कृष्ट तेत्रीश सागरोपमर्नु अने जघन्य बाबीश सागरोपमर्नु कम्युछे. १६५-१६६. I जा चव उ आउठिई, नेरईआणं विभाहिआ। सौ तेसि कार्यठिई, जहष्णुकोसिआ भवे ॥१६॥ | अर्थ-(नेरईआणं ) नारकीओनी ( जा चेव उ ) जे ( आउठिई ) आयुष्यनी स्थिति ( विश्राहिआ ) कही छे, (सा) | ते ज ( तेसि ) तेमनी ( जहणुक्कासिमा ) जघन्य अने उत्कृष्ट (कायठिई) कायस्थिति पण (भवे) होय छे. कारण के नारकी मरीने अनंतर नारकी थइ शकतो नथी. १६७. अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहृत्तं जहन्नगं । विजढम्मि सए काए, नेरइआणं तु अंतरं ॥१६॥ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-तेने उत्कृष्ट अंतर अनंत काळर्नु छ भने जघन्य अंतर कोइ जीव नरकमाथी उद्धरी गर्भज पर्याप्त मत्स्यने विषेश उत्पन्न थइ अंतर्मुहूतेनुं आयुष्य पूर्ण करी क्लिष्ट अध्यवसायने लीधे नरकमांज उत्पन्न थाय त्यारे अंतर्मुहूर्तनुं पडे छे. १६८. । एएसिं वपणओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो ॥१६९।। अर्थ-पूर्ववत्. १६६. हवे तिर्यचनी प्ररूपणा करे छे.पंचिंदिअतिरिक्खा उ, दुविहा ते विवाहिआ । समुच्छिमतिरिक्खा य, गब्भवतिआ तहा ॥१७॥ यर्थ-(पंचिदिअतिरिक्खा उ) जे पंचेंद्रिय तियेचो के, (ते ) ते (दुविहा ) ये प्रकारना ( विवाहिया) कला छे. ते आ प्रमाणे.-(समुच्छिमतिरिक्खा य) संमूर्छिम तिर्यच (गम्भवतिभा तहा) तथा गभेने विषे व्युत्क्राति एटर | उत्पत्ति छ जेनी एचा अर्थात् गर्भज तिथंच. १७०. दुविहा वि ते भवे तिविहा, जलयरा थलयरा तहा। खयरा य बोधव्वा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥१७१॥ मर्थ---( दुविहा वि) ने प्रकारना एवा पण ( से ) ते ( तिचिहा ) मा त्रण प्रकारना ( भवे ) होय छे. ते भा प्रमाणे. (जलयरा) जळचर, ( थलयरा) स्थळचर, (तहा) तथा (खड्यराय) खेचर, पत्रण प्रकारना ( बोधवा) जाणवा. (तेसि ) तेमना ( भेए) भेदो ( मे ) मारी पासे । सुणेह ) सांभळो. १७१. प्रथम जळचर जीवोना भेद कहे के. Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -200+1303 मच्छा य कच्छभा य, गाहा य मगरा तहा । सुंसुमारा य बोधव्वा, पंचहा जलचराहिआ || १७२|| अर्थ–( मच्छा य ) मत्स्य, ( करभा य ) काचवा, ( गाहा य ) ग्राह-झुंड, (मगरा ) मगर, ( तहा ) तथा ( सुमाराय ) सुंसुमार ए ( पंचहा ) पांच प्रकारना ( जलचरा आहिशा) जळचरो कह्या छे एम (बोधन्या) जाणं. १७२. लोएगदेसे ते सहवे. न सव्वत्थ विहिआ । एतो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउन्विहं ॥ १७३ ॥ संतई पप्पाईआ, अपज्जवसिआ वि अ । ठिइं पडुच्च साईआ, सपज्जबसिआ विअ ॥ १७४ ॥ अर्थ - पूर्ववत्. १७३ - १७४. गाय पुत्र कोडी उ, उक्कोसेण विहिआ । औउठिई जेलयराणं, अंतर्मुहुतं जहसि ॥१७५॥ अर्थ – ( जलयराणं ) संमूर्छिम श्रने गर्भज जळचरोनी ( श्राउटिई) आयुष्य स्थिति (उकोसेण ) उत्कृष्टथी (एगा य) एक (पुथ्नकोडी उ ) पूर्वकोटि वर्षेनी ( विश्राहिम ) कही छे, अने ( जहमिआ ) जघन्य स्थिति ( तो मुहुतं ) अंतर्मुहूर्त्तनी कही . १७५. १७६ ॥ goaकोडितं तु, कोसेरा विआहिआ । कायठिई जलयराणं, अंतोमुदुतं जहन्नयं ॥ अर्थ – ( जलयराणं ) जळचरोनी ( कायठिई ) काय स्थिति ( उक्कोसेण ) उत्कृष्टथी ( पुव्यकोडिपुहुषं तु ) पूर्वकोटि *H**••*;*M*•• 130030- + Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पृथक्त्व एटले बेधी नव पूर्वकोटिनी ( विश्राहिमा ) कहेली छे, अने (जहमयं ) जघन्य स्थिति (अंतोमुत्तं ) अंतर्मुहूर्त्तनी कही छे. अहीं जळचरोनी उत्कृष्ट कायस्थिति आठ पूर्वकोटिनी होय छे, ते प्राप्रमाणे थइ शके छे.-पंचेंद्रिय तिथंच जळचर प्रांतरा रहित उत्कृष्टथी आठ मव करे थे, ते भाठेनुं आयुष्य मेळववाथी आठ पूर्वकोटि ज थाय छे. आमा जळचर युमलिया थता न होबाथी युगलियानो भव आवतो नधी तेथी ने प्रमाणमा कोइ पण विरोध प्रावतो नथी. १७६. अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहसं जहम्नगं। विजदम्मि सए काए, जलयराणं तु अंतरं ॥ १७७ ॥ अर्थ--पूर्ववत्. १७७. स्थळचरी विष कहे छ.चउप्पया य परिसप्पा, दुविहा थलयरा भवे । चउप्पया चउविहा, ते मे कित्तयतो सुण ॥१७॥ कएगखुरा दुखुरा चेव, गंडीपय सणप्पया। हयमाई गोणमाई, गयमाई सीहमाइणो ॥ १७९ ॥ अर्थ-( चउप्पया) चारपगवाळा (य ) अने ( परिसप्पा ) परिसर्फ एम (दुविहा ) चे प्रकारना ( थलयरा ) स्थळचर (भवे) होय छे. तेमा ( चउप्पया) चार पगवाळा स्थळचर ( चउविहा) चार प्रकारना छे, (से) तेमने (कित्तयतो) कहेता एवा ( मे ) मारी पासे (सुण) सांभळ. १७८.-( एगखुरा ) एक खरीवाळा, (दुखुरा चेव ) बे खरीचाळा, ( गंडीपय ) गंडीपद-गंडी एटले कमळनी कर्सिका तेनी जेबा गोळ परवाळा, तथा (सणप्पया) नख सहित पगवाळा, Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ********-- माँ ( हयमाई ) अश्वादिक एक खरीवाळा थे, ( गोयामाई ) बळद बिगेरे वे खरीवाळा थे, ( गयमाई ) हाथी विगेरे istपद थे, ने (सीइमाइयो ) सिंहादिक सनख पद - नख सहित पगवाळा छे. १७६. हवे परिसर्पने कहे छे.- ओरपरिसप्पा उ. परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाई अहिमाई . एकेकाऽरोगहा भवे ॥ १८० ॥ अर्थ – ( भुझोरपरिसप्पा उ ) सृजपरिसर्प अने उरपरिसर्प एम (परिसप्पा ) परिसर्प ( दुबिहा ) वे प्रकारना ( भवे ) छे. तेमां ( गोहाई ) गोधा - गरोळी विगेरे अजपरिसर्प एटले जावडे गमन करनारा होय छे अने ( अहिमाई अ ) सर्प विगेरे उरपरिसर्प एटले उरवडे गमन करनारा होय . तेमां ( एकेका ) ते दरेक ( अगहा ) अनेक प्रकारना ( भवे ) छे. १८० लोएगदेसे ते सब्बे, न सव्वत्थ समाहिया । एतो कालविभागं तु, तेर्सि वोच्छं चउत्रिहं ॥ १८९ ॥ संतई पप्पऽणाईश्रा, अपज्जवसिच्या विअ । ठिङ्गं पडुच्च साईश्रा, सपजवासिया विश्र ॥ १८२ ॥ अर्थ - पूर्ववत् १८१ - १८२. पॅलियोमाइ तिएिँ उ, उसेण विश्राहिया । ब्राउटिई लयराणं, अंतोमुत्तं जहमिया ॥१८३॥ अर्थ - (थलयरां) स्थळचरनी ( आउटिई) आयुस्थिति ( उक्कोसेण ) उत्कृष्टथी ( तिमि उ ) ऋण (पलिओन Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - माइ ) पन्योपमनी ( विवाहिआ ) कही छे, ( जहलिया ) जघन्य स्थिति ( अंतोमुडुस ) अंतर्मुहनी कही छ. अहीं, | विशेष ए छे जे-गर्भज भुजपरिसर्प अने उरपरिसपर्नु उत्कृष्ट आयुष्य पूर्वकोटिर्नु छ, अने संमार्छम एवा ते बनेनुं अनुक्रमे बत्रीश हजार अने त्रेपन हजार वर्षर्नु छ तथा संमूर्छिम स्थळचरनुं श्रायुष्य चोराशी हजार वर्षेनुं छे. १८३. पलिग्रोवमाइ तिमि उ, उक्कोसेण विआहिया । पुंठवकोडीपुहुत्तेणं, अंतोमुंहुत्तं जहन्निश्रा ॥१८॥ अर्थ-स्थळचरनी कायस्थिति (उकोसेण ) उत्कृष्टथी ( पुषकोडीपहत्तेणं । पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक ( तिमि उ ) उस ( पलिप्रोवाइ ; पन्योपानी (विभाहिमा ) कहेली के तथा ( जहनिया) जघन्य कायस्थिति ( अंतोमुहु ) अंतमुहूर्तनी छे. अहीं कोइ जीव स्थळचर तिर्यचने विषे पूर्वकोटिना मायुष्यवाळा सात भव करी पछी पाठमो भव युगलिक स्थलचरने विषे त्रण पन्योपमना आयुष्यवाळो करे, तेथी उपर कहलं कायस्थितिनुं उत्कृष्ट प्रमाण थाय छे. कारण के तियेच अने मनुष्यने विषे उत्कृष्टधी निरंतर आठ भव ज था शके छे. १८४. कायठिई थलयराणं, अंतरं तेसिमः भवे । कालं अणंतमुकोस, अंतोमहत्तं जहन्नगं ।। १८५॥ अर्थ (थलयराणं) स्थळचरनी ( कायठिई ) कायस्थिति उपर प्रमाणे कही. हवे ( तेर्सि ) तेमनुं ( अंतरं ) आंतरं (इमं) श्रा प्रमाणे ( भये ) छे.- ( उक्कोसं ) उत्कृष्टथी (अयंत ) अनंत ( कालं) काळर्नु भने ( जहाग) जघन्यथी (अंतोमुहुसं ) अंतर्मुहूर्त्तनुं छे. १८५. Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजढम्मि सए काए, थलयराणं तु अंतरं । ___ अर्थ-(सए काए ) पोतानो काय-देह ( विजढम्मि ) त्याग करे सते ( थलयराणं तु ) स्थळचरोनुं ( अंतरं ) आ * उगर र ते जर जाई. हवे खेचरोने कहे छे. चम्मे उ लोमपक्खी अ तइया समुग्गपक्खी ॥ १८६ ॥ विततपक्खी अबोधव्वा, पविखणो उचउठिवहा । लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ विभाहिया॥१८७॥ ___ अर्थ-( उम्मे उ) चर्ममय पांखवाळा चामचीडीया विगेरे अने ( लोमपक्खी अ) रोममय एटले पीछावाळी पाखो| वाळा, तथा ( तइश्रा) त्रीजा ( समुग्गपक्खी श्र) दाभडाना आकार जेवी पांखोवाळा, तथा (विततपक्खी अ) विततपची एटले जेरो निरंतर पांखोने पहोळी करीने रहेनारा. आमा समुन्गपल्खी अने विततपख्खी ए ये जातना पक्षीओ मानुषो- त्तर पर्वतनी बहार होय छे. ( पवित्रणो उ) आ रीते पचीयो ( चउबिहा) चार प्रकारना ( बोधवा ) जाणवा. ( लोएगदेसे) लोकना एक देशमा (ते सच्चे ) ते सर्वे रहेला छे, (सम्वत्थ ) सर्व लोकने विषे ( न विप्राहिमा ) * कहेला नथी. १८६-१८७ सतंइ पप्पडणाईआ, अपजवसिया विश्र। ठिइं पडुच्च साईआ सपजवसिआ वि अ॥ १८८ ।। । Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ht अर्थ--पूर्ववत. १४. पलिओवेमस्स भागो, असंखिजइमो भवे । आउठिई खहयराणं, अंतोमुहुत्तं जहमिआ ॥ १८६ ।। | का अर्थ-(खहयराणं) खेचरोनी ( प्रारठिई ) आयुस्थिति उत्कृष्टथी ( पलिनोवमस्स) पन्योपमना (असंखिजइमो) | असंख्यातमो ( भागो) भाम (भवे ) छे, अने (जहधिमा) जघन्य स्थिति ( अंतोमूहुतं ) अंतर्मुहूर्त्तनी छे. अहीं Sil पल्योपमना असंख्यातमा भागनुं आयुष्य युगलिक पक्षी- जाणवू. ते सिवाय बीजा गर्भज पीओनुं आयुष्य पूर्वकोटि का प्रमाण छे, अने संमूर्छिमनुं बहोतेर हजार वर्षतुं छे. १८६. * असंखभागो पलिअस्स, उक्कोसेण उ साहिया। पुव्वकोडिपुहुत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहमिश्रा ॥१९०।। | कायठिई खहयराणं, अंतरं तेसिम भवे । कालमणमुक्तीसं, अंतोमुंहत्तं हलगं ॥ १९१ ॥ अर्थ-- -( खहयराणं) खेचरोनी ( कायठिई ) कायस्थिति ( उक्कोसेण उ ) उत्कृष्टी (पलिअस्स ) पत्योपमनो * (असंखभागो) असंख्यातमो भाग अने (पुच्चकोडिपुहुनेणं) पूर्वकोटि पृथक्त्व छ, तथा ( जहलिमा ) जघन्य स्थिति ( अतोमुहुत्तं ) अंतर्मुहूर्त्तनी ( साहिआ ) कहीं छे. तथा ( तेर्सि ) तेमर्नु (अंतरं ) आंतरं ( इमं ) आ प्रमाणे (भवे) - छ.-(उकोर्स ) उत्कृष्टथी ( अणंतं ) अनंत ( कालं ) काळ अने ( जहमगं) जघन्य (अंतोमुहुर्त ) अंतर्मुहर्तन के. १९०-१९१ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एएसिं वामो चेव, गंधओ रसफासो । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥१२॥ अर्थ--पूर्ववत्. १६२. हवे मनुष्योना मेद कहे छे.मणुआ दुविहभेा उ, ते मे कित्तयओ सुण । समुच्छिममणुस्सा य, गब्भवतिआ तहा ॥१६॥ अर्थ-(माया) मनुष्य ( दुविभेला उ ) चे प्रकारना छ, (ते ) तेने (किचयो ) कहेता एवा ( मे ) मारी || पासे (सुण ) सामळो.-(संमुच्छिममणुस्सा य ) संमूर्छिम मनुष्य ( तहा) तथा (गम्भवकंतित्रा) गर्भव्युत्क्रांत एटले | गर्भज. अहीं जे मन रहित अने गर्भज मनुष्यना वांतादिकमा उत्पब थह अंतर्मुहूर्त्तना आयुष्यवाळा अपर्याप्ता सता ज मरण पामे छे ते संमूर्छिम मनुष्य जाणवा. १६३. गैन्भवतिआ जे उ, तिविही ते विआहिया। अकम्मकम्मभूमा य, अंतरदीवया तहा ॥ १९४॥ ___ अर्थ (जे उ ) जे ( गम्भवकंतित्रा ) गर्भज मनुष्यो छे, (ते ) ते (तिविहा ) त्रण प्रकारना ( विभाहिश्रा), कहेला छे. ते आ प्रमाणे-(अकम्मकम्मभूमा य ) अकर्मभूमिमा उत्पन्न थयेला एटले युगलीया, कर्मभूमिमा एटले भरता- | दिक क्षेत्रमा उत्पन्न थयेला, (तहा) तथा ( अंतरद्दीवया ) अंतरद्वीपमा उत्पन्न थयेला युगलिक मनुष्यो. १६४. पामरसतीसईविहा, भेआ यं अट्ठवीसई । सखा उ कैमसो 'तेसिं, ईइ ऐसा विहिआ ॥१९५॥ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + A -+ अर्थ-( तेसिं ) तेमनी (संखा उ) संख्या (कमसो) अनुक्रमे ( इइ ) या प्रमाणे (एसा) आ (विभाहिआ) कहीं छ.( पारसतीसईविहा ) कर्मभूमिना पंदर प्रकार, अकर्मभूमिना त्रीश प्रकार, (य) अने अंतरद्वीपना ( अट्ठवीसई ) अट्टावीश || भेषा) भेद छे. अहीं पांच भरत, पांच ऐस्वत अने पांच महाविदेहना मळी पंदर भेद कर्मभूमिना छे. हैमवत, हरिवर्ष, । रम्यक, हैरण्यवत, देवकुरु अने उत्तरकुरु ए छ अकर्मभूमि प्रत्येके पांच पांच होवाथी त्रीश थाय छे. जो के अहीं अनुक्रम लेतां तो प्रथम अकर्मभूमिना कहेवा जोइए. तोपण कर्मभूमिना मनुष्याने मुक्तिनुं साधन होवाथी तेमनुं प्रधानपणुं जगाववा माटे तेमनी संख्या प्रथम गणावी छे. तथा अठ्ठावीश अंतरद्वीपो मा प्रमाणे छे.-हिमवान पर्वतना पूर्व पश्चिमने छेडे जंबूद्वीपनी ! वेदिकानी बहार न दाटायो विदिशा तरफ नीकळेली छे, तेमा पूर्वनी ये दाढाभोमांथी एक ईशान तरफ अने बीजी । अग्निखूण तरफ लांची जाय छ, अने पश्चिमनी वे दाढामाथी एक नैर्ऋत्य तरफ अने चीजी वायव्य तरफ जाय छे. ते दरेक दाढामां जगतीना कोटी त्रणसो त्रणसो योजन जइए त्यारे त्यां त्रणसो त्रणसो योजन लांबा अने पहोळा एकेक | एटले कुल चार अंतरद्वीपो आवे छे. त्यारपछी त्यांची चारसो चारसो योजन जहए त्यारे चारसो चारसो योजन लांचा पहोछा बीजा चार अंतरद्वीपो आवे छे, ए प्रमाणे सो सो योजननी वृद्धि करतां तेटला ज योजनना लांबा पहोळा चार चार अंतरद्वीपो आवे छे. एवी रीते दरेक दाढा उपर सात सात अंतरद्वीपो होवाधी कुल अठ्ठावीश अंतरद्वीपो छे. तेमनां नाम प्रदक्षिणाने क्रमे ा प्रमाणे छे.-पहेला चतुष्कमा एकोरुक १, आभाषिक २, वैषाणिक ३ अने लांगुलिक ४. बीजामां हयकर्ण १, गजकर्ण २, गोकर्ण ३ अने शकुलीकर्ष ४. त्रीजामा श्रादर्शमुख १, मेपमुख २, हयमुख ३ अने Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजमुख ४. चोथामां अश्वमुख १, हस्तिमुख २ सिंहमुख ३ अने व्याघ्रमुख ४ पाँचमामा अश्वकर्ण १, सिंहकर्ण २, गजकर्ण ३ अने कर्णप्रावरण ४. छट्टामा उल्कामुख १, विद्युन्मुख २, जिन्हामुख ३ अने मेघख ४. सातमाम घनदंत १, गूढदंत २ श्रेष्ठदंत ३ अने शुद्धदंत ४ आ सर्व द्वीपोमां द्वीपनी जेवा ज नामवाळा युगलिया से छे. आ ज रीते एवा ज नाम विगेरेवाळा शिखरीपर्वतना पण बीजा अहावीश अंतरद्वीप छे, ते सर्व पूर्वना श्रद्वावश सदृश नाम विगेरे हकीकतवाळा होवाथी अभेदनी विवक्षा जुदा का नथी. एटले अठ्ठावीश कहेवामां दोष नथी. ( बाकी कुल मळीने ५६ . ) १९५. समुच्छिमाण एसेव, भेओ होइ श्राहिओ । लोगस्स एगदेसम्मि ते सव्वेऽवि विश्राहिश्रा ॥ १९६ ॥ (मा) मूर्छिम मनुष्यना पण ( एसेव) ए ज ( भेश्रो ) भेदो (आहिश्रो ) कहेला ( दोह ) वे, एटले के गर्भज मनुष्यना जे भेद उपर का ज भेद संमूर्छिम मनुष्यना पण जाणवा. कारण के गर्भज मनुष्यना वात पित्तादिकने विषे ज ओ उत्पन्न थाय छे. तथा ( ते सच्चे वि ) ते सर्वे समुर्छिम मनुष्यो (लोगस्स ) लोकना ( एगदेसम्म) एक देशने विषे (विमहिश्रा ) कहेला छे, एटले लोकना एक भागमा रहेला छे एम जारावं. १६६. , संतई पप्पऽणाई श्रा, अपज्जवसिया वि अ । ठिइं पडुच्च साईआ, सपज्जवसिआ वि अ ॥ १९७ ॥ अर्थ - पूर्ववत्. १६७ पलिश्रोत्रमाई तिष्णि उ, उक्कोसेय विश्राहिश्रा । आऊटिई मणुआणं, अंतोमुहुत्तं जहमिश्रा ॥ १९८ ॥ ६१ " *0--+90+C++ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ (मणुप्राणं) मनुष्यनी (श्राऊठिई मायु स्थिति ( उक्कोसेण ) उत्कृष्टथी ( तिषि उ) त्रण (पलिमोचमाई) पल्योपमनी (विवाहिश्रा ) कही के अने ( जहलिया ) जघन्य आयुस्थिति (अंतोमुहुत्तं ) अंतर्मुहुर्तनी कही छे. एटले के त्रण पन्योपमनुं आयुष्य युगलियाई होय छे. संमूर्छिम मनुष्यनुं तो उत्कृष्ट आयुष्य पण अंतर्मुहूर्त्तनुं न होय छे. १९८, पलियोलमाइं निमित र, ऊक्कोसेण विश्राहिआ। पुवकोडीपुइत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहागा ॥१९९।। कायठिई मणुपाणं अर्थ-त्रण पल्यापम अने पूर्वकोटि पृथक्त्व एटले सात कोटि एटली अधिक उत्कृष्ट कायस्थिति मनुष्योनी कही । छ, भने जघन्य अंतर्मुहर्तनी कही छे. १९६. अंतर तेसिमं भवे । अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहुत्तं जहालगं ॥ २० ॥ एपसिं वालो चेव, गंधमो रसफासयो । संठाणादेसश्रो वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ २०१॥ अर्थ पूर्ववत् २००-२०१. हवे देयो विषे कहे छे--- देवा चउव्विहा बुत्ता, ते मे कित्तयो सुण । भोमेजवाणमंतर-जोइसवेमाणिआ तह ॥२०॥ अर्थ-(देवा ) देवो ( चउन्विहा ) चार प्रकारना ( वुत्ता ) कह्या छे. (ते ) तेमने ( मे कित्तयभो ) कहेता एवा मारा थकी (सुण ) तुं सांभळ. ( भोमेज ) भौमेय एटले भवनपति, ( वाणमंतर ) वासाव्यतर, (जोइस ) ज्योतिषी, * - Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तह ) तथा (वैमाणिश्रा ) वैमानिक. २०२. देवोना उत्तर भेद बतावे छे. ― दसहा भवणवासी, अट्टहा वणचारिणो । पंचविहा जोइसिया, दुविहा वैमाणिआ तहा || २०३ || अर्थ - (दसा भणवासी ) भवनवासी देव दश प्रकारना छे, ( अट्टहा वणचारिणो ) वाणव्यंतर आठ प्रकारना थे, ( पंचविहा] जोइसिश्रा ) ज्योतिषी देव पांच प्रकारना छे, ( तहा ) तथा ( दुविधा वैमाणिया ) वैमानिक देव वे प्रकारना छे. २०३. मनां नाम कहे थे. - असुरा १ नाग २ सुत्रमा ३, विज्जू ४ श्रग्गी अ ५ आहित्रा । दीवो ६ दहि ७ दिसा ८ वाया ९, थणि १० भवणवासिणो ॥ २०४ ॥ अर्थ - (सुरा) असुरकुमार १, (नाग) नागकुमार २, (सुवा) सुवर्णकुमार ३, ( विज्जू ) विद्युत्कुमार ४, ( अग्गी) अशिकुमार ५ ( दीव ) द्वीपकुमार ६, ( उदहि ) उदधिकुमार ७, ( दिसा ) दिक्कुमार ८, (वाया ) वायुकुमार है, तथा ( था ) स्तनितकुमार १० आ दश ( भवणवासियो) भवनवासी ( श्राहिश्रा ) कथा के. कुमारी जेम क्रीडा करवामां प्रीतिवाळा होवाथी या सर्व कुमार कद्देवाय छे. २०४. (सुवर्ण गरुड. स्वनित - मेघ ). Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +70*******+3 पिसाय १ भूआ २ जक्खा य ३, रक्खसा ४ किन्नरा य ५ किंपुरिसा ६ । महोरगा य ७ गंधव्त्रा ८ अट्ठविहा वाणमंतरा ॥ २०५ ॥ अर्थ - (पिसाय) पिशाच १, ( भूमा ) भूत २, ( जक्खा य) यक्ष ३, ( रक्खसा ) राक्षस ४, ( किमरा य ) किन्नर ५, ( किंपुरिसा ) किंपुरुष ६, ( महोरगा य ) महोरग ७, अने (गंधव्वा ) गंधर्व ८, (अडविहा ) आठ प्रकारना ( वाणमंतरा) वाच्यंतर कला छे. अहीं अयपत्री, पणपनी विगेरे बीजा पण आठ प्रकार कहेवाय छे. तेमनो समावेश आ आठर्मा ज धाय छे तेथी जूदा कथा नथी. २०५. चंदा १ सूरा य २ नक्खत्ता ३. गहा ४ तारागणा ५ तहा । टिआ विचारिणो चेव, पंचहा जोइसालया ॥ २०६ ॥ अर्थ - ( चंदा ) चंद्र १, ( सूर। य) सूर्य २, ( नक्खता ) नक्षत्र ३, ( गद्दा ) ग्रह ४ ( राहा ) तथा ( तारागणा ) खाना समूह ५, (पंचा) ए पांच प्रकारे ( जोइसालवा ) ज्योतिषी देव (ठिया ) अदी द्वीपनी बहार स्थिर रहेला के (चैत्र) श्रने ( विचारिणो ) अढी द्वीपनी अंदर विशेषे करीने एटले मेरुने प्रदक्षिणा दइने चालवावाळा . २०६. मणि उजे देवा, दुवा ते विआहिआ। कप्पोवगा य बोधव्वा, कप्पातीता तहेव य ॥२०७॥ अर्थ – (जे देवा ) जे देवो ( वैमाणिमा उ ) वैमानिक छे, (ते) तेस्रो ( दुविधा ) वे प्रकारना ( विश्राहिमा ) * Coy Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसा छे. ते आ प्रमाणे--(कप्पोयगा 4 ) कन्पोपण एंटल सौधर्मादिक कल्पने पामनारों ( तहेव स ) तथा वळी (कप्पा. तीता ) कन्यावीस एटले कल्पने ओळंगी गयेला अर्थात् नव मैवेयक अने पांच अनुत्तर देवलोकने पामनारा ( बोधवा ) जाणमा. २०७. कप्पोवगा बारसहा, सोहम्मी १ साणगा २ तहा । सणंकुमारा ३ माहिंदा ४, बंभलोगा य ५ लंतगा ६ ॥ २०८॥ महासुका ७ सहस्साराद, आणया ९ पाणया १० तहा । आरणा ११ अच्चुआ १२ चेव, इति कप्पोवगा सुरा ॥ २०९ ॥ अर्थ- (कप्पोयगा) कन्पोपग देव (पारसहा) चार प्रकारना छे. ते या प्रमाणे- ( सोहम्म ) सौधर्म १, ईसाणगा) ईशान, ( तहा ) तथा ( सणंकुमारा) सनत्कुमार ३, ( माहिंदा) माहेंद्र ४, (बंभलोगा य ) प्रमलोक ५, (लंतगा) लांतक ६, ( महासुक्का ) महाशुक्र ७, ( सहस्सारा ) सहस्रार ८, (प्राण या ) आनत ६, (पाणया) प्राणत १०,( तहा) तथा (आरणा ) पारण ११, ( अच्चुला चेव ) तथा अच्युत १२, ( इति ) या प्रमाणे ( कप्पोषगा) कल्पोपग ( सुरा) देवो के. अहीं सौधर्म विगैरे देवलोकना नाम गणाव्यां छे, तेमा रहेनारा देव पण सौधर्म विगेरे नामना ज जाणवा. २०८-२०६. ( आ देवो स्वामी सेवक भाव विमेरे कन्प-प्राचार तेने पाळनारा ले तेथी ते कल्पोपपत्र कडेवःय छे.) Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपातीता उ जे देवा, दुत्रिहा ते विआहिआ । गेविज्जाणुत्तरा क्षेत्र, गेविज्जा नवविहा तहिं ॥ २९० ॥ अर्थ - (जे देवा ) जे देवो ( कप्पातीता उ ) कन्पातीत छे, स्वामी सेवक भाव रहित - महमिंद्र छे. (ते ) तेश्रो ( दुविधा ) वे प्रकारना ( विश्वाहिश्रा ) कला छे. ते अ प्रमाणे . - ( गेविज अणुत्तरा चेत्र ) ग्रैवेयक अने अनुत्तर. ( तर्हि ) तेमां (गेविखा ) ग्रैवेयक ( नवदिहा ) नव प्रकारना कला छे. २१०. हिट्टिमा हिट्टिमा १ चेव, हिट्टिमा मज्झिमा २ तहा । हिट्टिमा उवरिमा ३ चैत्र, मझिमा हिट्टिमा ४ तहा ॥ २११ ॥ मज्झिमा मज्झिमा ५ चेव, मज्झिमा उवरिमा ६ तहा । उवरिमा हिट्टिमा ७ चेव उवरिमा मज्झिमा ८ तहा ॥ २१२ ॥ उवरिमा उवरिमा ९ चेथ, इइ गेविज्जगा सुरा । विजया १ वैजयंता २ य, जयंता ३ अपराजिआ ४ ।। २९३ ॥ सवसिद्धिगा ५ चैव, पंचहाऽणुत्तरा सुरा । इइ मारिआ एए, गहा एवमायओ || २१४ ॥ *1**• →→→*••*0*••*»*•-•-••* ̈*••**«< » Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-मही नष अवेयकना प्रण विभाग पाडवाथी ऋण त्रिक थाय छे. तेथी ते नवनी संज्ञा मा प्रमाणे के.(हिद्विमा हिडिमा चेव ) नीचला त्रिका नीचेना १, (हिडिमा मझिमा ) नीचला त्रिकमा मध्यमना २, (तहा) तथा (हिडिमा उवरिमा चेत्र ) नीचला त्रिकमा उपरना ३, ( मज्झिमा हिट्ठिमा ) वचला त्रिका नीचेना ४, (तहा ) तथा (मझिमा मज्झिमा चेव ) वचला त्रिकमां मध्यना ५, (मझिमा उवरिमा ) वचला त्रिकमां उपरना ६, (तहा ) तथा ( उवरिमा हिडिमा चेव ) उपला त्रिका नीचेना ७, ( उवरिमा मज्झिमा) उपला त्रिकमां मध्यना ८, ( तहा ) तथा ( उवरिमा उवरिमा चेव ) उपला त्रिका उपरना है, (इइ) आ प्रमाणे ( गेविजगा सुरा) नव ग्रैवेयकमा रहेला देवो जाणवा. तथा ( विजया) विजय १. (वेजयंता य ) वैजयंत २, ( जयंता ) जयंत ३, (अपराजिश्रा) अपराजित ४, ( सन्वसिद्धिगा चेव ) तथा सर्वार्थसिद्ध ५ आ पाँचमा रहेला (पंचहा ) पांच प्रकारना ( अणुत्तरा सुरा) अनुचर देवो जासावा. (ड) भा प्रमाणे (एए वेमाणिश्रा) या वैमानिक देवो ( एवमायो) एविगेरे (अणेगहा) भनेक प्रकारना जाणवा. २११-२१४. लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे परिकित्तिआ। इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउब्विहं ॥ २१५ ॥ संतई पप्पऽणाईआ, अपज्जवसिआवि अ । ठिई पड्डुच साईआ, सपजवसिआवि अ ।। २१६ ।। साहिअं सायरं इकं, उक्कोसेण ठिई भवे । भोमेजाणं जहन्नेणं, दसवाससहस्सिआ ॥ २१७ ॥ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 पलिओन मेगं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । अंतराणं जहन्नेणं, दसवाससहस्सि ॥ २९८ ॥ पलिओ सं तु एगं, वासलकरण साहिअं । पलिओमट्टभागो, जोईसेसु जहन्निआ ॥ २१९ ॥ अर्थ-वे गाथानो पूर्ववत्-पछी भूमिमा रहेला भुवनवासी धोनी स्थिति उत्कृष्टी एक सागरोपम झाझेरी जाणवी. अने तेमनी जघन्य दश हजार घनी वा व्यंतरांनी अष्ट स्थिति एक पन्योपमनी जाणवी अने जघन्य दश हजार वर्षनी जागवी. ज्योतिषीनी लाख वर्ष अधिक एक पल्योपमनी उत्कृष्ट स्थिति जागवी, ते चंद्रविमानना देवोनी छे भने जघन्य स्थिति पल्यांपमना आठमा भागनी थे, ते ताराविमानना देवोनी जावी. २१५-२१६. दो चेव सागराई, उक्कोसेण त्रिआहिआ । सोहम्मम्मि जहस्रेणं, एगं च पलिओनं ॥ २२० ॥ 1 अर्थ – सौधर्म देवलोकमा उत्कृष्ट स्थिति चे सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति एक पल्योपमनी कही छे. २२०० सागरा साहिआ दुनि, उक्कोसेण विहिआ । ईसाराम्मि जहोणं, साहिअं पलिओ मं ॥ २२९ ॥ अर्थ - ईशान देवलोकमा उत्कृष्ट स्थिति कांइक अधिक एवा वे सागरोपमनी ने जघन्य स्थिति कोहक अधिक एवा एक पल्योषमनी कहेली छे. २२१. सागराणि अ सत्तेव, उकोसेण ठिई भवे । सर्णकुमारे जहोणं, दुलि उ सागरोवमा ॥ २२२ ॥ अर्थ - श्रीजा सनत्कुमार देवलोकमां उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति चे सागरोपमनी कहेली थे. २२२. p Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ all साहिआ सागरा सत्त, उक्कोसेण ठिई भवे । माहिदम्मि जहन्नेणं, साहिआ दुमि सागरा ॥२२३॥ ___ अर्थ-चोथा माहेंद्र देवलोकमा उत्कृष्ट स्थिति काइक अधिक सात सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति कहिक अधिक वे सागरोपमनी कहेली छे. २२३. दस चेव सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । बंभलोए जहन्नेणं, सत्त उ सागरोवमा ॥ २२४ ।। अर्थ-पांचमा ब्रह्म देवलोकमा उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपमनी छे अने जघन्य स्थिति सात सागरोपमनी छे. २२४. चउद्दस उ सागराई, उकासेण ठिई भवे । लंतगम्मि जहन्नेणं, दस उ सागरोवमा ॥ २२५ ॥ अर्थ-छहा लातक देवलोकमां उत्कृष्ट स्थिति चौद सागरोपमनी छ भने जघन्य स्थिति दश सागरोपमनी छे. २२५. || सत्तरस सागराइं, उकोसेए ठिई भवे । महारसुक्के जहन्नेणं, चउद्दस सागरोपमा ॥ २२६ ॥ अर्थ-सातमा महाशुक्र देवलोकमा उत्कृष्ट स्थिति सत्तर सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति चौद सागरोपनी छे. २२६. । अट्ठारस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । सहस्सारे जहन्नणं, सत्तरस सागरोवमा ।। २२७॥ अर्थ-पाठमा सहस्रार देवलोकमा उत्कृष्ट स्थिति अढार सागरोपनी अने जघन्य स्थिति सत्तर सागरोपमनी छ. २२७. सागरा अउणवीसं तु, उक्कोसेण लिई भवे । आणगम्मि जहन्नेणं, अट्ठारस सागरोवमा ॥ २२८ ॥ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A अर्थ-नवमा मानत देवलोकमा उत्कृष्ट स्थिति भोगणीश सागरोपमनी अने जघन्य अढार सागरोपमनी छे. २२८. वीसं तु सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । पाणयाम्म जहमेणं, सागरा अउणवीसई ।। २२९ ।। अर्थ-दशमा प्रासात देवलोकमा उत्कृष्ट स्थिति वीश सागरोपमनी अने जघन्य ओगणीश सागरोपमनी छे. २२६. सागरा इकवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । श्रारणम्मि जहोणं, वीसई सागरोक्मा ।। २३० ॥ अर्थ-अग्यारमा श्रारण देवलोकगां उत्कृष्ट स्थिति एकवीश सागरोपमनी अने जघन्य वीश सागरोपमनी छे. २३० बावीस सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । अच्चुमम्मि जहणणं, सागरा इकवीसई ॥ २३१ ।। अर्थ-यारमा भच्युत देवलोकमा उत्कृष्ट स्थिति बावीश सागरोपमनी अने जघन्य एकवीश सागरोपमनी छे. २३१. तेवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । पढमम्मि जहमेणं, बावीसं सागरोक्मा ॥ २३२ ॥ अर्थ-पहेला अवेयकमा उत्कृष्ट स्थिति त्रेचीश सागरोपमनी अने जघन्य बाबीश सागरोपमनी छे. २३२. चउवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । बिईमम्मि जहामेणं. तेवीसं सागरोवमा ॥ २३३ ॥ अर्थ-वीजा अवेयकमा उत्कृष्ट स्थिति चोवीश सागरोपमनी अने जघन्य श्रेधीश सागरोपमनी छे. २३३. पणवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । तइम्मि जहन्नेणं, चउवीसं सागरोवमा ॥ २३४ ॥ - Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *40*40*40६०% श्र अर्थ - श्रीजा गैवेयकमां उत्कृष्ट स्थिति पचीश सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति चोवीश सागरोपमनी छे. २३४. छव्वीस सागराई, उक्कोण ठिई भवे । चत्थम्मि जहोणं, सागरा पणवीसई ॥ २३५ ॥ अर्थ- चोथा ग्रैवेयकमा उत्कृष्ट स्थितिवश सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति पचीश सागरोपमनी छे. २३५. सागरा सत्तावीसं तु, उक्कोसेा ठिई भने । पंचम लागा हवीसई ॥ २३६ ॥ अर्थ - पाँचमा ग्रैवेयकमा उत्कृष्ट स्थिति सतावीश सागरोपमनी अने जधन्य स्थिति छवीश सागरोपमनी छे. २३६. सागरा अटुवीसं तु; उक्कोण ठिई भवे । छट्टम्मि जहन्नेणं, सागरा सत्तसई ॥ २४७ ॥ अर्थ - धायैवेयकमा उत्कृष्ट स्थिति अट्ठावीश सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति सत्तावीश सागरोपमनी के. २३७. सागरा श्रउणतीसं तु, उक्कोसे ठिई भवे । सत्तमम्मि जहन्नेणं, सागरा श्रट्टवीसई ॥ २३८ ॥ अर्थ — सातमा ग्रैवेयकमां उत्कृष्ट स्थिति ओगणत्रीश सागरोपमनी ने जघन्य स्थिति पहावी सागरोषमनी छे. २३८. तीसं तु सागराई उक्कोसेण ठिई भवे । श्रटुमम्मि जहोणं, सागरा श्रउणतीसई ॥ २३६ ॥ अर्थ -- भाठमा ग्रैवेयकमां उत्कृष्ट स्थिति त्रीश सागरोपमनी अने जवन्य स्थिति योगयत्रीश सागरोपमनी थे. ॥२३६॥ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरा इकतीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । नवमम्मि जहोणं, तीसई सागरोक्मा ।। २४० ॥ ..अर्थ --कपा अपेगानां वाणिति मानीपण सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति त्रीश सागरोपमनी छे. २४०, तेत्तीस सागराइं, उकोसेण टिई भवे । चउसुं पि विजयाईसु, जहन्ना इकतीसई ॥ २४१ ॥ अजहहामणुकोसं, तित्तीसं सागरोवमा । महाविमाणे सबढे, ठिई एसा विश्राहिला ॥ २४२ ॥ अर्थ-विजयादिक चार अनुत्तर विमानमा उत्कृष्ट स्थिति सेत्रीश सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति एकत्रीश सागरोपमनी छे अने सर्वार्थसिद्ध नामना महाविमानमा उत्कृष्ट अने जघन्य तेत्रीश सागरोपमनी छे. २४१-२४२. जा चेव य आउटिई, देवाणं तु विवाहिआ । सा तेसिं कायठिई, जहामुक्कोसिश्रा भवे ॥२४३॥ । ___ अर्थ- ( जा चेव य ) जे ज ( देवाणं तु ) देवोनी ( आउटिई) आयुनी स्थिति ( विश्राहिमा ) कही छे, (सा)। ते ( तेसिं) तेमनी ( जहणुक्कोसिआ ) जघन्य तथा उत्कृष्ट ( कायठिई ) कायस्थिति पण ( भवे) होय छे. देव मरीने अनंतर देव थइ शकतो नी, तेथी देवोनी जेटली आयुस्थिति के नेटली ज कायस्थिति पण छे २४३. अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहालयं । विजढम्मि सए काए, देवाणं तुज अंतरं ।। २४४ ॥ एएसिं वमो चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसो वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥२४५॥ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बमनी जेम जाणवो. २४४-२४५. अंजीव तथा जीवनो अधिकार समाप्त करे छे. संसारस्था य सिद्धा य, इइ जीवा विआहिआ। रूविणो चेवऽरूवी य, अजीवादुविहा वि अ ॥२४६॥ अर्थ-(संसारत्था य ) संसारमा रहेला-संसारी अने (सिद्धा य) सिद्ध (इइ ) ए बे प्रकारना ( जीवा ) जीवो (वित्राहिमा ) कहा. तथा (रूविणो चेव ) रूपी अने (अरूबी य ) अरूपी एम (दुविहा वि अ) पन्ने प्रकारना | (अजीवा ) अजीबो पण करा. २४६. आ प्रमाणे जीव अने अनीवर्नु स्वरूप सांभळीने तथा ते पर श्रद्धा करीने ज कृतार्थपणुं मानवानुं नथी, ते कहे छे.इइ जीवमजीवे अ, सुच्चा सदहिऊण य । सवनयाण अणुमए, रमिज्जा संजमे मुणी ॥२४७॥ __ अर्थ-(इइ) या प्रमाणे (जीवं यजीवे अ ) जीव तथा अजीवना स्वरूपने ( सुच्चा ) सांभळीने ( सदहिऊण य ) तथा सद्दहीने (मुणी ) साधुए ( सवनयाण ) ज्ञाननय अने क्रियानयनी अंतर्गत रहेला नैममादिक सर्व नयोने ( अणुमए ) संमत एवा ( संजमे ) चारित्रने विषे ( रमिजा) रमण करवू. २४७. ___संयममा रति करीने शुं करचुं ? ते कहे छे.तओ बहूणि वासाणि, सामाममणुपालिआ । इमेण कम्मजोगेणं, अप्पाणं संलिहे मुणी ॥ २४८ ॥ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-(नयो ) त्यारपछी ( पहूखि ) घणा (पासारिण) वर्षों सुधी ( सामणं ) संयमने (अणुपालिया) पाळीने (मुणी ) मुनि ( इमेण ) आ (कम्मनोगेणं) क्रमना ब्यापारे करीने-तपना अनुष्ठाने करीने (अप्पाणं) पोताना आत्माने E] (संलिहे ) संलेखना को एटले द्रन्पथी अने भावथी कृश करे. २४८. ___ क्रमयोगने ज कहे छे.बारसेव उ वसाई, संलेहकोसिआ भवे । संवच्छरं मैडिझमिआ, छम्मासे अंजलिना ॥ २४९॥ अर्थ- ( उक्कोमिया ) उत्कृष्ट ( संलेहा) द्रव्यथी शरीन्नी अने भावथी कपायनी कुशतारूप संलेखना (बारसेच उ) बार ( वासाई) वएनी ( भये) होय ले.( मज्झिमिश्रा) मध्यम संलेखना (संवच्छर) एक चपेनी के (श्र)अने ( जहसिमा ) जघन्य संलेखना ( छम्मासे ) छ मासनी छे. २४६. ___हने उत्कृष्ट संलखनानो क्रमयोग कहे छे.all पढमे वासच उम्मि , विगईनिज्जू हणं करे । विइए वासचउक्कम्मि, विचित्तं तु तवं चरे ।। २५० ॥ १ अर्थ-(पढमे ) पहेला (वासचउक्कम्मि ) चार वर्षमा ( विगईनिजहणं ) विगयनो त्याग ( करे ) करे. ( बिइए ) बीजा ( वासचउकम्मि) चार वर्षमा ( विचित्तं तु) विचित्र प्रकारनो छट्ट, अट्ठम विगैरे ( तवं चर) तय करे. अहीं पहेला भाभी विचित्र तप करी पारणे नीवी करे अने बीजा चार वर्ष विचित्र तप करी पारणामां सर्व शुद्ध श्राहार वापरे २५०. Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐगंतरमायाम, कटू संवैच्छरे दुवे । तेओ संवैच्छरद्धं तु, नाइविगिटुं तवं चरे ॥ २५१ ॥ तओ संवैच्छरद्धं तु, विगि? तु तवं चरे । परिमिअं चेव आयाम, तम्मि संवैच्छरे करे ॥२५२॥ कोडीसहिअमायाम, कट्ट संवैच्छरे मुणी । मासद्धमासिएणं तु, आहारेणं तवं चेरे ॥ २५३ ॥ अर्थ (दुवे संघच्छरे ) त्यापकी ये वर्ष ( एगन्तरं ) एकांतर (आयाम ) प्रांथिल एटले एक उपवास अने एक बिल ए प्रमाण (कट्ट) करीने (ो ) त्यारपछी ( संवच्छरद्धं तु ) अर्ध व एटले छ मास ( नाइविगिढ़ ) नातिविकृष्ट एटले यहम, दशा गरे उत्ध नहीं एलो (सई) तप ( चरे ) करे. २५१. ( तओ ) त्यारपछी (संवच्छरद्धं नु) अर्ध वर्ष (विगिष्टुं तु ) उत्कृष्ट एवो ज ( तवं चरे) तप करे, परंतु (तम्मि संवच्छरे ) ते पाखा वर्षमा ( परिमिभं चंब ) परिमित एटले अल्प ज ( आयाम करे ) आंचिल करे. बारमा वर्षमा कोटि सहित आंपिल करवानु छ भने प्रही अग्यारमा वर्षमां उपवासादिकय प्रारणामां ज बिल करवानुं छे, तेथी अहीं परिभित शब्द वापर्यो छे. २५२. त्यारपछी (मुणी) मुनि ( संवच्छरे ) बारमे वर्षे ( कोडीसहिअं आयाम ) निरंतर वे बिल करवाथी पहेला दिवसनो अंत अने चीजा दिवसनो आरंभ ए ये कोटि-अन मळवाथी कोटि सहित अपिल ( कद्दू) करीने छेवट आयुष्यनी समाप्तिने समये ( मासद्धमासिएणं तु ) मास के अर्ध मासर्नु ( माहारेणं ) सर्व आहारना प्रत्याख्यान वडे (तव) तप एटले भक्तपरिज्ञादिक अनशन (चरे ) करे. २५३. -*-****.. *--- Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या प्रमाणे अनशन कर्या पछी अशुभ भावनामो त्याग कहे छ. कंदप्पमाभियोगं च, किबिसि मोहमासुरत्तं च । एश्राओ दुग्गईओ, मरणम्मि विराहिया "हुंति ॥ २५४ ॥ अर्थ (कंदर्य र कंदर्पभावना १, (आभिओगं च ) आभियोग्य भावना २, ( किन्विसिभ ) किल्विषभावना ३, मोहं ) मोहभावना ४ लासुरत्तं च ) प्रासुरभावना ५, (एआओ) श्रा पांच भावनाओ ( विराहिया ) विराधिका एटले सम्यग् ज्ञान, दर्शन भने गरित्रादिकनो भंग करनारी सती ( मरम्पम्मि) मरण समये भावी सती ( दुग्गईओ) दुर्गतिने शापार होवाथी दुर्गतिरूप (हुति ) थाय छे. एटले के मरण समये तेवी अशुभ भावना भाववाथी दुर्गति प्राप्त शाय छे. अर्थात् शुभ भावना भावत्राथी पद्गति पण थाय के एम सूचयवा माटे मरण समये एम कम्यु.२५४. ( तेधी अशुभ भावना न भाववी अने शुभ भावना भामी ए तात्पर्य समज.) । * मिच्छादसणरत्ता, सनिबाणा हिंसगा। इइ जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ।। २५५ ।। ___अर्थ-(मिच्छादसणरता) मिथ्यादर्शनमां रागी थयेला, ( सनिप्राणाहु) नियाणा सहित अने ( हिंसगा) प्राणीनी हिंसा करनारा (इइ) आq कार्य करनारा (जे) जे (जीवा) जीवो ( मरंति) मरे छे, (तेसिं) तेस्रोने (पुण) * फरीने परभवमां (वोही) जिनधर्मनी प्रप्ति ( दुल्लहा ) दुर्लभ थाय छे. २५५. Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सम्मंदसणरत्ता, अनिशाणा सुकलेसमोगाढाई जे मांति जीवा, सुगमा नि भवे बोही ॥२५६॥ ___ अर्थ-( सम्मदंसणरत्ता ) सम्यम् दर्शना रक्त, (अनिआणा) नियाणा रहित अने (सुक्कलेसमोगाढा) शुकलेश्याथी व्याप्त ( इइ) एवा प्रकारना (जे जीवा ) जे जीयो ( मरति ) मरे के, (तेसि ) तेमने ( बोही ) जिनधर्मनी प्राप्ति (सुलभा) सुलभ ( भवे ) थाय छे. २५६. मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा कण्हलेसमोगाढा। इअ जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही॥२५७॥ ___अर्थ-(मिच्छादसणरत्ता ) मिथ्यादर्शनमा रक्त, ( सनिआणा ) नियाणा सहित अने (कण्हलेसमोगाढा ) कृष्णKE लेश्याने पामेला ( इन) आवा नकारना (जे जीवा ) जे जीवो ( मरंति) मरे के, (तेसिं) तेस्रोने (पुण ) फरीथी (योही ) जिनधर्मनी प्राप्ति ( दुल्लहा ) दुर्लभ छे. २५७. . जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करिति भावेणं । अमला असंकिलिट्ठा, तेहोति परित्तसंसारी ॥ २५८ ॥ ___ अर्थ-( जिणवयणे ) जिनेश्वरना वचनने विषे ( अणुरत्ता ) प्रीतिवाळा (जे) जे जीवो (जिणवयणं ) जिनेश्वरना जनने-याज्ञाने ( भावणं) भावथी ( करिति ) करे छे-ते प्रमाणे वर्ने छ (ते ) तेश्रो (अमला) मिथ्यात्वादिक मक रहित अने (संक्रिलिट्टा) रागादिक संक्लेश रहित एचा सता (परित्तसंसारी) परिमित-अन्य संसारवाळा हाति) थाय छे. २५८. Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालमरणाणि बहुसो, काममरणाणि चेवं बहुप्राणि । मेरिति ते वैराया, जिणवयणं 'जे ने याति ॥ २५६ ॥ अर्थ - (जे) जेश्रो ( जिणवयं ) जिनेश्वरना वचनने ( न याति ) जाणता नथी अने उपलचणथी जाण्या प्रमाणे वर्तता थी, ( ते वराया ) ते विचारा (बहुसो ) घणीवार (बालमरणाणि) भृगुपातादिक बाळरये करीने ( चेव ) तथा (बहुआ णि ) घणा ( अकाममरणाणि ) अकाम मरणे करीने ( मरिहंति ) मरशे - मरे छे. २५३. बहुश्रागमविलाणा, समा हिउपायगा य गुणगाही। एए कारणं, अरिहा श्रालोअगं सोउं ॥ २६० ॥ अर्थ - (बहुश्रागमविपाखा ) घया आगमना ज्ञानवाळा, ( समाहिउपायगा ) बालोचकने समाधि उत्पन्न करनारा, (य) अने (गुणगाही ) अन्यना छता गुणाने ग्रहण करवाना स्वभाववाळा एवा आचार्यादि होय थे, (एए कारणे ) कारणी (भालो सोउं ) आलोचना सांभळवाने (अरिहा ) योग्य वे. २६०. या प्रमाणे अनशनवाळानुं कृत्य चतावी हवे पूर्वे ( २५४ मी गाथामां ) कहेली कंदर्पादिक पांच अशुभ भावनानुं स्वरूप कहे छे. कंदप्पकुक्कुआई, तह सीलसहावहासविगहाहिं । विम्हायंतो अ परं, कंदष्पं भावणं कुणइ ॥ २६१ ॥ अर्थ-( कंदप्पकुकुआई ) कंदर्प एटले अट्टहास, मोटेथी बोलवु गुर्वादिकनी साधे पण कठोर वचनथी बोलवु, अने Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामकथानो उपदेश तथा तेनी प्रशंसा करवी ते, काकुच्यै एटले भृकुटि अने नेत्रादिकनी चेष्टायडे अन्यने हसावq तथा | पक्षी विगेरेनी मापा गोष्टी साने मुखरहे. लागि गाडी मागने हसावq ते. ( तह ) तथा प्रकारना (सील ) शीळ, ( सहाव ) स्वभाव, ( हास ) हास्य अने (विगहाहिं ) विकथावडे (परं) परने ( विम्हायंतो अ) चिसय पमाडवो ते, आ रीते करतो प्राणी ( कंदप्पं भावणं ) कंदर्प भावनाने (कुणइ ) करे छ. २६१. | मंताजोगं काउं, भूईकम्मं च जे पउंजंति । सायरसइड्डिहेडं, अभियोगं भावणं कुणइ ॥ २६ ॥ अर्थ--(मंताजोगं) मंत्र भने योग-चूर्णादिक (काउं) करीने (भूईकम्म) भूतिकर्म अने रक्षादिकने माटे भस्म, माटी के |* दोरा विगेरेवडे जे कर्म कर तेने (च) तथा कौतुकादिकने-अंजनतिलकादिने (जे) जेओ (सायरसइतिहेर्ड) साता, रस अने [: ऋद्धिने कारणे ( पउंजंति ) प्रयुंजे छे-करे छे, ते ( अभिभोगं भावणं ) आभियोग्य भावनाने ( कुणइ ) करे छे. २६२. नाणस्स केवलीणं, धम्मायरिअस्स संघसाहणं । माई अवलवाई, किव्विसिअं भावणं कुणइ ॥२६॥ अर्थ-( नाणस्स ) ज्ञाननो, ( केवलीणं ) केवळीनो, (धम्मायरिअस्स ) धर्माचार्यनो, ( संघसाहूणं ) संघनो भने नामदाई ) जे अवर्णवाद बोले तथा ( माई ) पोताना दोष ढांकया माटे माया कपट करे ते (किव्यिसिअं) पणड ) करे छे. २६३. Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम विनयाधरणजसमाय. १ ......पतरा, तह य निमित्तम्मि होइ पडिसेवी । " एएहि कारणेहिं, आसुरिभं भावणं कुणइ ॥ २६४ ॥ अर्थ-(अणुवडरोसपसरो ) निरंतर क्रोधनो प्रचार छ जेने ( तह य ) तथा ( निमित्तम्मि ) अतीतादिक निमित्तने । विषे ( पडिसेवी ) सेवा करनारा ( होइ ) जे होय ते (एएहि कारणेहि ) आ कारणोए करीने (प्रासुरिनं मावलं) आसुरी | मावनाने ( कुणइ ) करे छे. २६४. सत्थग्गहणं विसभक्खणं च, जलणं च जलप्पवेसो भ। प्रणयारभंडसेवा, जम्मणमरणाणि बंधति ॥ २६५ ॥ अर्थ-( सस्थम्गहणं ) जे पात्मवात करवा माटे शस्त्रने ग्रहण करे, (विसझक्खणं च) विषभक्षण करे, (जलणं च ) अग्निप्रवेश करे, ( जलप्पवेसो भ) जळमां प्रवेश करे, चशब्दथी भृगुपातादिक करे तथा जे (अणायारभंडसेवा ) हस्या | मोहादिके करीने अनाचार एटले शास्त्रमा नहीं कहेला भोडनी एटले उपकरणनी सेवा करे, ते ( जम्मणमरणाणि ) जन्म मरणोने एटले अनेक जन्म मरण थाय तेवा कर्मोने (बंधति ) वांधे छे. शस्त्रग्रहणादिक संक्लेशनुं कारण होवाथी अनंत भवनुं कारण थाय छे. आम कहेबाथी पांचमी मोह भावना कही. २६५. Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ श्री उदयविजयकृतोत्तराध्ययनषट्त्रिंशत्स्वाध्यायाः प्रारभ्यन्ते ।। प्रथम विनयाध्ययन सज्झाय. १ श्री नेमीसरजिनतणुं जी ।। ए देशी ॥ पवयण देवी चित्तधरी जी, विनय वखाणीश सार । बंधूने पूछ कहाँ जी, श्रीसोहम गणधार ॥ १ ॥ भविक जनविनय वहो सुखकार || ए आंकणी ॥ पहेले अध्ययने कझो जी, उत्तराध्ययन मझार ॥ सपळा गुणमां मूळगो जी, जे || जिनशासन सार ।। भवि० ॥ २ ॥ नाणे विनयथी पामीए जी, नाणे दर्शन शुद्ध || चारित्र दर्शनथी हुवे जी, चारित्रथी पुण सिद्ध । भवि० ॥ ३ ॥ गुरुनी आज्ञा सदा घरे जी, जाणे गुरुनो भाव ॥ विनयवंत गुणरागीयो जी, ते मुनि सरळ || स्वभाव । भवि० ॥ ४॥ कण- कुंड़े परहरी जी, विष्टा शुं मन राग | गुरु द्रोही ते जाणवा जी, सूअर उपम लाग ॥ ॥ भवि० ॥ ५ ॥ कोह्या काननी कूतरी जी, ठाम न पामे रे जेम ॥ शीलहीन भ्रकह्यागरा जी, आदर न लहे तेम ॥ || || भवि० ॥६|| चंदतणी पेरे उजली जी, कीर्ति तेह लहंत ॥ विषय कषाय जीती करी जी, जे नर विनय वहंत ॥ भवि० ॥ ॥७॥ विजयदेव गुरु पाटवी जी, श्रीविजयसिंह सुरींद्र ॥ शिष्य उदय वाचक भणे जी, विनय सकल सुखकंद ॥ भविः ।। ॥८॥ इति ।। Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीय परीषह अध्ययन सज्झाय. २. शांतिसुघारस कुंडमां ॥ ए देशी ॥ सोहम स्वामी जंबू प्रत्ये, उपदेशे धर्म विचार रे ।। उत्तराध्ययन बीजे कयो, परिषह तणो प्राधिकार रे ॥ १ ॥ इंद्रिय जय तुमे आदरो ॥ ए आंकणी ॥ जेम लहो सुख संसार रे | अनुक्रमे नाण किरिया थकी, शाश्वतां सुख लहो मार रे ।। इंद्रिय० ॥२॥ खुहा सपा शीत ने तावडो, डंस अचेल तेम होय रे ॥ अरति रति नारी चर्या वळी, निसीहि शय्या पुण जोय रे ॥ इंद्रिय० ॥ ३ ॥ तेम आक्रोश वध याचना, रोग अलाम तृणफास रे ॥ मल सत्कार मतिमूढता, होय समकित सुखचास रे ॥ इंद्रियः ।। ४ ।। एह वावीश परिपह कहा, प्रथम विहां ऋषभ जिणंद रे ।। सांसही वरस ना पामी, केवळ नाण सुख कंद रे ॥ इंद्रिय० ॥ ५ ॥ ढंढण मुनिवरे सांसझो, परिषह नाम अलाम रे । तेहथी तेहने उपज्यो, केवळ संपदा लाभ रे ।। इंद्रिय० ॥ ६॥ बहुविध परिषद सांसह्या, शासन नायक वीर रे । तेहथी नाण अविचळ लघु, मेरुगिरि साहस धीररे | इंद्रियः ॥ ७॥ श्री विजयदेव गुरु पाटवी, श्री विजयसिंह सूरींद रे ॥ शिष्य वाचक उदयविजयनी, वाणी भवधारी नरबूंदरे ।। इंद्रिय० ॥ ८॥ इति ।। अथ तृतीय चतुरंगी अध्ययन सज्झाय. ३. वीरमाता प्रीति कारिणी ।। ए देशी ।। प्रथम मानव भव दोहिलो, सुणावे चित्त प्राणो ॥ पालव सदहणा खरी, धर्म अंग एह बाणो ॥ १॥ चार शुम पंग Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R+ 410 भधाये ॥ एकखी ॥ कहे सोहम स्वामी ॥ त्रीचे अध्ययन निसुण्यो, जंबू शिर नामी ॥ चार० || २ || मस भव दुलहता कारिणी, दश होइ दिद्वंत || सांभळवो वळी दोहीलो, जिनराय सिद्धंत || चार || ३ || जइ वि ते सांभळ मळे, तोहि रुचि किहाँ साची || कबहुं किरिया वणी रुचि हुइ, बल शक्ति तेहि कांची ॥ चार० || ४ || भाग्य योगे लहे ए. कोई भविजन प्राणी ॥ धर्मनुं आळस मत करो, तुमे तेरा हित जाणी ॥ चार० || ५ || श्रीविजयदेव गुरु पाटवी, जयसिंह मुनिराय || शिष्य तस उपदिश एसी परे, उदयांवेजय उवझाय ॥ चार० ॥ ६ ॥ इति ॥ श्रथ चतुर्थ संस्कृताध्ययन सझाय. ४. मुनिजन मारग चालतां ॥ ए देशी ॥ २ || पाप कर्म करी ॥ शुद्ध धर्मनो खप पोषवा, करे जे नर अजरामर जग को नहीं, प्रमाद ते छांडो रे ॥ मिथ्या मति मूकी करी, गुण आदर मांडो रे | करो || ए आंकणी || टाळी विषय विकारो रे । चोथे अध्ययने कहे, वीर एव विचारो रे || शुद्ध ० || मेळवे, धनना लक्ष जेह रे । मूर्ख धन छांडी करी, नरके भने तेह रे । शुद्ध" || ३ || वंधत्र जनने पाप रे || तेह तां फळ दोहिलां, सहे एकलो आप रे ॥ शुद्ध० ॥ ४ ॥ खात्र तणे मुखे जे ग्रह्मो, एक चोर प्रयाण रे ॥ निज कर्मे दुःख देखतां, तेहने कुरा त्राय रे || शुद्ध ॥ ५ ॥ इम जाणी पुण्य कीजीए, जेहथी सुख थाय रे || नवी नवी संपद अभिनत्री, बळी सुजश गवाय रे || शुद्ध० || ६ || विजयदेव गुरु पाटवी, विजयसिंह मुखिदो रे । शिष्य उदय कहे पुण्यथी, होह परम आनंदो रे || शुद्ध० ॥ ७ ॥ इति ॥ ६३ ******** Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पंचम अकामाध्ययन सज्झाय. ५ सकळ मनोरथ पूरचे ।। ५ देशी ।। पंचम अध्ययने कहे ए, पंचम गणधर नियजी ए सदहे ए, जंबूस्वामी ते सही ए ॥ १ ॥ मरण सकाम अकाम ए, मूर्ख मरण अकाम ए, सकाम ए, बीज उ जाणपणा थकी ए ॥२॥ प्रथम अनंती चार ए, जीव लहे निरधार ए, सार ए, बीजूं पुण्य कोइक लहे ए ॥३॥ इह परलोक न सद्दहे, जे भाचे ते सुखी कहे. नवि रहे, तच तणी मन वासना ए ॥ ४ ॥ पांचे श्राश्रव आदरे, विविध परे माया करे, नवि तरे, ते प्रज्ञानी जीवडो ए ॥५॥ सामायिक पोसह घरे, साधु तणा गुण अनुसरे, निस्तरे, ते प्राणी नागी सही र ॥ ६॥ गुण सदगुश इम जाणीए, गुण धरी ए गुण खाणी ए, वाणी ए, विजयसिंह गुरु शिष्यनी ॥ ७॥ इति ।। अथ षष्ट ग्रंथियाध्ययन सज्झाय. ६. दाल ॥ मधुधिंदूअनो ।। ए देशी ।। संसारे रे जीव अनंत भवे करी, करे बहुला रे संबंध चिडु गति फरी फरी | नवी राखे रे कोय न तव निज कर घरी, | समाइ रे कहो किण परे कहीए खरी ॥१॥ त्रुटक ।। कहो खरी किण पर एह सगाइ, कारिमो संबंध ए) सवि मृषा मात पिता बहेनी, बंधु नेह प्रबंध ए ॥ घरे तरुण गृहिणी रंगे परणी, त्राण कारण ते नहीं । मणि कणग मोतीभ धन धण क्षण, संपदा सवि संग्रही ॥२॥ दाल ।। ए थावर रे जंगम पातक दोइ कहा, जेह करतां रे चउगइ दुःख जीवे सद्दयां ।। Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेह ठाळो रे पातक दूरे पनियां, जिस पागो रे इद परभव सुख प्रतिषणां ।। ३ ।। त्रुटक ।। अविषणां सुख तुमे लहो || भवियण, जैनधर्म करी खरो ॥ परदार परधन परहरी तिथे, जैनधर्म समाचरो ।। जे मदे माचे रूपे राचे, धर्म साचे नवि || रमे ।। अंजलिजळ परे जन्म जातो, मूढ ते फळ त्रिण गमे ॥ ४ ॥ ढाळ ॥ अध्ययने रे छठे श्रीजिनवर कहे, शुभ दृष्टि रे । तेह भली परे सदहे ॥ ते सद्दही रे तप नियमादिक आदरे, ओदरतो रे केवळलच्छी पण बरे ॥ ५ ॥ अटक ॥ लच्छी वरे जिनधर्म करतो, हलुभकमी जे हुवे ।। पांचमो गणधर स्वामी जंबू, पूछीयो इणि परे कहे ॥ श्रीविजयदेव सूरींद पटधर, * विजयसिंह मुनिसर, तस शिष्य वाचक उदय इणि परे, उपदिशे मवि हितकर ॥ ६ ॥ इति ॥ अथ सप्तम एडकाध्ययन सज्झाय. ७. अज जिम कोइक पोषे आंगण, पाहुणडाने हेते रे ॥ ते अज जब मनगमता चरतो, तास विपाक न चेते रे ॥१॥ | श्रीजिनवर इणि परे जंपे ॥ ए आंकणी ॥ विषय विकार म राचो रे ।। तप जप संयम किरियानो खप, कीजे जे जग साचो रे ।। श्री० ॥२॥ मद्य मांस पाहार करतो, विषय विकार उमाया र ॥ नरक तणु त पाउखु चौघ, अज पारफेम कोसा ॥ श्री० ॥ ३ ॥ कोटी लोभे सहस गुमावे, मंद मति जिम कोइ रे ॥ अंवतणा फळ कारण छोडीये, राज्य ऋद्धि धरी सोइ | रे ॥ श्री० ॥ ४॥ तिम नरभव सुखकारणी छांडे, अमरतणां सुख भोग रे ॥ तिम वळी मोक्ष तणां सुख मोटो, किम पामे जड लोक रे॥ श्री० ॥ ५॥ एणिपरे मृढपणुं परहरीये, पंडित गुण पादरीये रे । विजयसिंह गुरु शिष्य कहे इम, उदय | सदा सुख वरीये ॥ श्री० ॥ ६ ॥ इति ॥ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = अथाष्टम कपिलाध्ययन सज्झाय. ८. रुक्मिणी अंगज जनमीयो । ए देशी 11 केवळ नाण गुण पूरीयो, चोर पांचसे देत रे ।। सुधन कपिलो मुनि उपदिसे, सुणो सुगुण सचित्त रे ॥ १॥ विषम | ए विषास परिहरी ॥ ए आंकणी ।। धरो धैर्य मन माही रे ॥ कायर नवि छांडी शके, त्यजे सुर उत्साही रे ॥ वि० ॥२॥ | एह संसार जळनिधि समो, कह्यो ते दुःख भंडार रे ॥ वहाण सरिस एक ज साहु, तिहाँ धर्म प्राधार रे ।। वि० ॥ ३ ॥ जेह मन वचन काया करी, जयणा करे सार रे ।। तेह सघळा दुःख परहरी, लहे सुख श्रीकार रे ॥ वि० ॥ ४ ॥ लाम जिम जिम हुवे अतिपणो, तिम तिम लोभ वात रे । दोइ मासा धन कारणे, नवि कोडि सरंत रे ॥ वि०॥५॥ पंच सय एम प्रतियोधिया, पिराय उपदेश रे ।। आठमा एह अध्ययननो, कझो अर्थ लव लेश रे ॥ वि०॥ ६ ॥ विजयदेव गुरु पाटवी, विजयसिंह सूरींद रे ॥ शिष्य तस वाचक हम भणे, उदयविजय सुखद रे । वि० ।। ७ ।। इति ॥ अथ नवम नमिराय अध्ययन सम्झाय. ६. लुहवि सुहागण सुंदरी सारी || ए देशी ।। देव तणी ऋद्धि भांगवी आव्यो, मिथिला नयरी नरिंदो || नमि नाम जे इंद्रे परखी, जाण्यो शुद्ध नरिंदो रे ॥ ME भविका एहवा मुनिवर वंदो ॥ सुख संपति निज हाथे करीने, जिम चिर काळे नंदो रे ॥ भ० ॥ ए० ॥१॥ एमांकणी॥ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र लेइ मिथिला नाथो, संवेग रसमां भीनो ॥ नमि रायऋषि पंथे चाले, राग न रोष अदीनो रे । मः ॥२॥ तास | || परीक्षा हेते सुरपति, ब्राह्मण वेषे आवे । मिथिला अग्नि जळती देखाडे, सुरपति पूछे भावे रे ॥ भ० ॥ ३ ॥ निज नगरी जळती कां मूकी, तिम वळी आधी अनेरी ।। मुनि कहे माह कहि न विगासे, केहनी अदि भजेरी रे ।। भ० ॥ ४ ॥ इंद्र भणे नगरी समरावी, अरिजन सवि यश कीजे ॥ अनुक्रमे संजम मार्ग लेइ, अविचळ सुखपद लीजे रे ॥ भ० ॥ ५॥ मुनि बोले जे अविचळ नगरी, तस मंडाण करे शुं ॥ अथिर तणो प्रतिबंध ते छोडी, थिरशुं प्रीति धरेशुं रे || म ॥ ६॥ कोडि कटक जीते जे तेहथी, मन जीते ते शूरो ॥ एम प्रशंसी हरि सुरलोके, पहींच्यो पुण्ये पूरो रे ॥ भ० ॥ ७ ॥ अविचळ सुख पाम्यो मुनिराजा, नवमे अध्ययन ॥ वात कही कहे उदयविजय इम, विजयसिंह गुरु वचने रे ॥ भ० ॥८॥ अथ दशम द्रुमपत्राध्ययन सज्झाय. १०. प्राणीया पर तांत नवि कीजे ॥ ए देशी ॥ . पंडर पान थये परिपाके, तरुथी पडे कोई काळे रे ॥ तिम धन यौवन जीवित पण तुं, गौतम नाणे नियाले रे ॥१॥ | गौतमने श्री वीर पयंपे । ए अांकणी ॥ म करे सय प्रमाद रे। तेम इह परभव सुख पामीजे, टाळीजे विषयाद रे॥ गौ०॥ ॥ २ ॥: तणी अणाए जळ कणिका, जिम हुवे अथिर स्वभाव रे ॥ तिम नरनो आउखां जाणो, धर्म सदा थिर भाव रे || गो० ॥ ३ ।। पदकाय मांहि काळ अनंतो, भमीयो दुःख सहंत रे ।। वळी जरा बळि केश पंडुरा, इंद्रिय शक्ति न हुंति गरे । गौ ॥४॥ तेहता माहे जिनवर नवि दीसे, पंचम काळे मरते रे ।। मतमति नवनवी वाणी दीसे, धमे ते कहो किहां Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरते रे ॥ गौ० ॥ ५ ॥ जिनवाणी निसुणी इम गौतम, अनुक्रमे केवळ नाणी रे ।। दशमे अध्ययने इम मांखे, वीर जिनेश्वर वाणी रे ।। गौ० ॥ ६ ॥ विजयदेव गुरु पट्ट प्रामाविक, विजयसिंह गुरु शिष्यो रे ॥ वाचक उदयविजय इम बोले, पुण्य | | पहोंचे जगीशो रे ॥ गौ० ॥७॥ अथ एकादश बहुश्रुताध्ययन सज्झाय. ११. सह गुरु जोवे बाटडी ॥ ए देशी ॥ वीर जिशंदनी देशना, श्रागम गुण देखी ॥ जे बहु सुन ते वर्णन्यो, अविनीत उवेखी । वी० ॥ १ ॥ जे जे भाव वखाणीया, भावो ते मवि लोको ।। जिम इहभत्र परभव दुवे, तुम सुख संयोगो । वी. ॥ २जे बहुश्रुत मुनिवर हुने, वेहने उपमान । सुरतरु सायर शशि रवि, गज रथ बहुमान ।। बी० ॥३॥ अर्धचक्री चक्री हरि, धन कोश सिंह ॥ सीता नदी मंदिर गिरि, जंबू तरु लीह ।। वी० ॥ ४ ॥ इत्यादिक उपमा घणी, बहुसुम अणगार ।। अध्ययने अग्यारमे, सहु एज अधिकार ॥ वी• ॥५॥ विजयदेच गुरु पाटवी, विजयसिंह सूरींद ॥ शिष्य उदय कहे सुमधरा, प्रतपो द्रुचंद ॥ ची० ॥६॥ अथ द्वादश हरिकेशी अध्ययन सज्झाय. १२. जगवल्लभ गुरुजी, तुं वसीयो मोरे मन्न ।। ए देशी ॥ ऋषि वनवासी सुरवर सेवित, पाळे पंच प्राधार ॥ पांचे निज इंद्रिय वश करतो, तपसी उम्र विहार ।। १॥ मातंग मुनीश्वर Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K+६०+******+3 ॥ ए भ्रांकणी ॥ हरिकेशी धनघन्य || सूघो मुनिवर जे कहायो, किरिया गुण संपन्न || मातंग० ॥ २ ॥ मास तयो तपसी हरिकेशी, तिदुःख जखनी ठाणी | मल शोभित तनु रह्यो संवेगी, निर्मळ काउस्सग्ग जाणी || मा० ॥ ३ ॥ राजसुता भद्रा तिहां श्रावी, जक्षने नमवा काम ॥ भमती मांदे मुनिवर देखी, मुह मचकोडे ताम || मा० ॥ ४ ॥ ते देखी सुरवर तव कोप्यो, कन्या की दुष्ट ॥ त्रांडे हार ने मोडे तनु सा, प्रलपे भूवाविष्ट || मा० || ५ || ते निसुखी राजा विहां श्राव्यो, करी उपचार अनेक || बोलाव्यो सुर कहे सुता जो, पर मुनि सुविवेक ॥ मा० ॥ ६ ॥ तो साजी तत्क्षण ए थाये, ते निसुखी कन्या तेह || राजाए मुनिने परणावी, मूकी यक्षने गेह || मा० ॥ ७ ॥ राते मुनि अविचळ तेथे दीठो, आवी प्रभाते गेह ॥ ऋषि निरखीने योग्य कही इम, झाणी पुरोहित तेह ॥ भा० ॥ ८ ॥ मांडे याग पुरोहित एक दिन, विप्र मळ्या लक्ष कोडि ॥ मासखमण पारणे तिहां मुनिवर, आव्यो मनने कोड ॥ मा० ॥ ९ ॥ भारंभी अविवेकी ब्राह्मण, न लहे धर्म विचार || मुनि देखी कहे कुम तुं दीसे, जा अंत्यज अवतार || मा० || १० ॥ यच तदा मुनिमुखी बोले, यागनुं फळ तुम्ह एह || शुद्ध पात्र गोचरीये पहोतो, हुं तुम्ह बारणि जेह ॥ मा० ॥ ११ ॥ रोषे ब्राह्मणसुत तब मुनिने, करवा यष्टि प्रहार || उठ्या तव ते यचे कीधा, रुधिर वमंत कुमार || मा० || ॥ १२ ॥ पाय लागी सुनिने ते खामे, पुरोहित सुत अपराध । प्रतिलाभी प्रतिबोध लह्यो तिणे, बाळकने थह रे समाधि ॥ मा० ॥ १३ ॥ मुक्ति मुनि पहोंच्यो जय वर्त्या, ए अधिकार अशेष || अध्ययने बारमे खाण्यो, श्रीमहावीर जिणेश || मा० ॥ १४ ॥ विजयदेव गुरु पाट प्राभाविक, श्रीविजयसिंह सूरिराय || तेह तथो वाळक इम बोले, उदयविजय उवज्झाय ॥ मा० ।। १५ ।। इति ॥ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E =3 अथ त्रयोदश चित्रसंभूति अध्ययन सज्झाय. १३. सकल मनोरथ पूरथे । ए देशी ।। चित्र अने संभूत ए, गजपुरमा विहरत ए, महंत ए, दोई मातंग मुनीश्वरा ए॥१॥एक दिन तेहने वंदे ए, चक्री नियम निछंद | ए, आणंदे ए, पटराणी पण वंदती ए ॥२॥ नारी रयण ते दीठी ए, काम अग्नि अंगीठी ए, पइठी ए, मनमा ते संभूतने ए | ॥३॥ चक्र तणुं नियाण ए, करे ते अजाण ए, जाण ए, चित्रे वार्यों नबि रहे. ए॥ ४॥ चित्र नियाणा विण शुद्ध ए, संभूतो | मुनि अविशुद्ध ए, सुर ऋद्धि ए, भघि चीजे दोइ पामीया ए || ५ ।। त्रीजे भने मुनि संभून ए, चक्री थयो नरपुर हुँत ए, धन्यपूत ए, चित्र पुस्मिताले थयो ए॥६॥ सुविहिवाने ते अनुसरे ए, अनुक्रमे संयम आदरे ए, एक दिन ते कपिलपुरे ए ॥ ७॥ पुर कपिले दोइ जणा ए, थया एकठा बहुगुणाः ए, अति घणा ए, चक्री कहे सुख भोगबो ए ॥ ८॥ चित्र कहे लीजे दीक्ष ए, ते न लहे चक्री शीख ए, सुपरिख ए, कर्म तणी जग एवी ए ६ || चको अपैठाण ए. मुनि निज पुण्य प्रमाण ए, जाण ए, उत्तम पदवी पामीयो ए॥१० |! विजयदेव पदधारक ए, विजयसिंह प्राभाविक ए, वाचक उदय ए, कहे गुण मुनितणा ए ॥ ११ ।। इति ॥ अथ चतुर्दश इषुकार कमलाध्ययन सज्झाय. १४. देवतणी रे बाणी सुणी रे।। ए देशी । देवतणी ऋद्धि भोगवी रे, पुर इपुकार मझार ॥ मोरा लाल रे ।। भृगु पुरोहित कुल भावीया रे, सुर दो शुभ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | तिथि वार ।। मोरा० ॥१॥ ते मुनि बाळक बंदीये रे ॥ ए अांकणी ॥ मात पितानी साथ ॥ मोरा ॥ दीख लेइ थया केवळी रे, बळी राणी नरनाथ ॥ मोरा० ॥ ते ॥ २ ॥ मावित्रे वीहावीया रे, ऋषि देखीता संत !! मोरा० । एक दिन P ऋषि तेणे दीठडा रे, तरुतळे अाहार करत ॥ मोराः ॥ ते ॥ ३ ॥ जातिस्मरण जाणीयं रे, पूर्व भव विरतंत ॥ मोरा० ॥ मात पिताने बूझवी रे, चारित्र तेह लहंत ॥ मोरा० ॥ ते ॥ ४ ॥ मात पिता दीक्षा लीये रे, तिम वळी राणी राय! | ॥ मोरा० ॥ ए पट जण थया केवळी रे, पहोंच्या शिवपुरमाय ॥ मोरा० ते ॥ ५ ॥ विजयदेव गुरु पाटबी रे, श्री | | विजयसिंह मुनिरा ।। मोरा । तेह तणों शिम उपदिशे रे. उदयविजप उबज्झाय ।। मोरा० ॥ ते० ॥ ६ ॥ इति ॥ श्रथ पंचदश भिक्षकाराध्ययन सज्झाय, १५. ___ रुक्मिणी रूप रंगिली नारी ॥ ए देशी ।।। तप करता मुनि राजीया लाला, न करे भोग नियाण ।। मुनि मार्ग सुधो धरे लाला, ते योल्या गुण खाणी ।। मुनी- | श्वर तो भिक्षु गुण शुद्ध ।। पंदरमा अध्ययनमा लाला, इम भाखे संबुद्ध ॥ मु०॥ १॥ मंत्र तंत्र नवि केलवे लाला, तस न राग न रोष ॥ शूरा परिसह जीतका लाला, चारित्रना नहीं दोष । पु० ॥ ते ॥ २॥ परिचय नहीं गृहस्थनो लाला, अरस विरस आहार ॥ पूजादिक वांछे नहीं लाला, साचा ते अणगार ।। मु.॥ ते ॥३॥ इणि परि, मुनिगुण सांभळी लाला, परखी किरिया नाण || साधु पंथ तुम्हे यादरो लाला, त्रण तत्त्वना जाण ॥ मु०॥ ते ॥ ४ ॥ विजयदेव गुरु पाटवी लाला, विजयसिंह गुरु लीह ॥ शिष्य उदय कहे एहवा लाला, मुनि प्रतपो निशि दीह ॥ मु० ॥ ते० ॥ ५॥ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 1 = अथ षोडश ब्रह्मचर्य समाधि अध्ययन सज्झाय. १६. हस्ती नागपुर ।। ए देशी । ब्रह्मचर्यनां दश कहां, स्थानक श्रीवीर जिणंद रे ॥ अध्ययने ते सोळमे, जेह पाळे शुद्ध मुणिंद रे ॥ १ ॥ जेह पाळे | शुद्ध मूर्णिद, संवेग रस भावीया गुण गेह ए । गुण गेह निरेह निराग, विषय दल जीवता मुविदेह रे ॥ए आंकणी ॥ पशु पंडग नारी विना, वसही पहेली निरधार रे || आसप तिणि नवि बेसीये, बेसे जिण आसन नारी रे ॥ ० || सं० ॥ । ॥२ ।। नारी कथा नवि कीजीये, नवि निरखी इंद्रिय तास रे ।। भीती पटंतर टाळीये, नयि चिंतिये पूर्व अभ्यास रे ॥ | न• ॥ सं० ॥ ३ ॥ सरस भोजन नवि कीजीये, नवि लीजीये अधिक आहार रे ॥ उद्भट वेष न धारीये, तरीये इण संसार | रे । त० ।। सं० ॥ ४ ॥ उदयविजय वाचक मणी, शीळवंत ते पुरुष रतन रे ॥ श्री विजयदेव गुरु पाटवी, श्री विजय| सिंह गुरु धन रे, ते तो विजयसिंह गुरु धन्य रे, संवेग रस भाविया गुण गेह ए ।। ५ ।। इति ॥ श्रथ सप्तदश पापश्रमणाध्ययन सञ्झाय, १७. आदि तु जोने जीवडा ।। ए देशी ॥ श्री जिनधर्म सुणी खरो, लही दीक्षा सार ।। निय धंदे जे संचरे, ते पुरुष गमार ॥ १॥ वीर जिनेश्वर उपदिशे ॥ ए आंकणी || पाप श्रमण जे तेह ।। सतरमा अध्ययनमां, मुनि भारख्यो जेह ।। वी० ॥ २॥ ज्ञान दायक निज गुरु तयो, Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | लोपक जे साध ॥ पंच प्रमाद यशे पडयो, चारित्र न समाधि । वी.॥३॥ कंठ लगे भोजन भलं, करी सूबे जेह ।। रात दिवस विकथा करे, गुशानी नहीं रेह । वी० ॥ ४ ॥ भव बेहु चूकी करी, करे काय कलेश ॥ विष मिश्र सेहने परहरी, | || धरो सुगुण विशेष । वी० ॥ ५ ॥ निजगदेव गुरु पारवी, विजयसिंह सूरीश ॥ शिष्य उदय कहे पुण्यथी, पहोंचे सुजगीश stuची ॥६॥ इति ।। अथाष्टादश संयतिराजाध्ययन सज्झाय. १८. लौकिक वाडादो ॥ ए देशी ।। कपिलपुरनो राजीयो, जग गाजीयो रे संजय नरराय के ॥ पाथ नमे नर जेहना रे, पहोंचे भडवाय के || १ | मन all धन संजय नरवरु ।। ए श्रांकणी ॥ जग सुरतरु रे शासन वन माहि के । बांह ग्रही भवकूपथी, दुःखरूपथी रे जिनधर्म समाहि के ॥ ३० ॥ २ ॥ एक दिन केशरी कानने, रस वाह्यो रे जाये मृगया हेत के ॥ त्रास पमाडे जंतुने, एक मृगलो रे। दुहन्यो तिण खेत के ॥ ५० ॥ ३॥ तीर पीडाये तडफड्यो, पड्यो हरणलो रे मुनिवरनी पास के ॥ ते देखी चिंता करे, राय खाभतो रे मुनि तेजे त्रास के | ध० ॥४॥ राय कहे मुनिरायने, ई तो तुम्ह तणो रे अपराधी एह के ।। राख राख जगबंधु तुं, मुज भाखो रे जिनधर्म सरेह के ॥१०॥५॥ ध्यान पारी मुनिवर मणे, राय का हखे रे हरिणादिक जीव के। निरपराधी जे बापडा, पाडता रे दुःखीया बहु रीव के ॥१०॥ ६॥ हय गज रथ पायक वळी, धन कामिनी रे कारिखं सवि जाण के ॥ धर्म ज एक साचो अछे, एम निसुणी रे तेह संजय राण के प० ॥ ७॥ गर्दभाली पासे लीये, जिन Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -IT दीक्षा रे संसारी सार के ।। गुरु आदेशे अनुक्रमे, पुहातले रे करे उग्र विहार के ।। ध० ॥ ८ ॥ मार्गे एक मुनिवर मळ्यो, नी तेह साथै रे करे धर्मविचार के ।। जिनदीक्षा पामी तर्यो, भरतेश्वर रे चक्री सनत्कुमार के ।। ३० ॥ ६ ॥ सगर मघव संती। अरो, कुंथु पद्म अने हरिषेण नरिंद के ॥ जपचक्री नगइ नमी, करकंडू रे दोमुह मुणिचंद के ॥ ३०॥ १० ॥ मइबल * राय उदायणा, बळी राजा रे दशार्णभद्र के ॥ नाण क्रिया पोते करी, ए तो तरीया रे संसार समुद्र के।। ध० ॥११॥ विजय जयदेव सूरीश्वरू, पट्टोघर रे विजयसिंह गुणखाण के।। उदयविजय कहे ए कह्यो, अध्ययने र अढारमे जाय के धा१२|| | अथ एकोनविंश मृगापुत्राध्ययन सज्झाय. १६. ___ शारद बुधदायी सेवक || ए देशी ।। ढाल ।। सुग्रीव नयर वर, वन बाडी आराम || बळभद्र नरेश्वर, राज करे गुणधाम ॥ इंद्राणी सरखी, राणी मृगा अभिराम || | मकरध्वज सुंदर, कुंवर बलश्री नाम ।। १॥त्रु०॥ बलश्री नाम कुंवर अति सुंदर, जील्यो कामविकार ॥ संयम लेइ कर्म खपेड़, पाम्यो भवजल पार ॥ प्रोगणीशमे अध्ययने जिनवर, वीर दीये उपदेश ॥ भणता गुणता भव भवना, नासे पाप क्लेश ॥२ढाला। एक दिन वर मंदिर, अंतेउर परिवार ॥ परवरीयो पेखे, नयर मझार कुमार ॥ दीठो तब मुनिवर, ईयाए मलपंत ।। तस ऊहापोहे, जाति स्मरण हुंत ॥ ३ ॥ त्रु.॥ जातिस्मरण पामी देखें, पूर्वभव संबंध ॥ पंच महायत सांभरे !ि वळी, चउ गइ दुःख प्रबंध ॥ मातपिता आगळ जह योले, दुःख अनंतीवार ॥ जे जे में पाम्यां ते कहेतां, किमही न आने पार ॥ ॥ ढाल ।। संसार असार ए, दीसे मळभंडार ॥ शंपल विण वाटे. जातां दुःख दातार ॥ बहु जन्म भरण भय, Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरय विरिय दुःख ठाण , तिहां पळता घरथी, सार आहे ते जाण ॥ ५ ॥ त्रु०॥ सार आहे ते जाण विचारी, आपण तारशुं ॥ यो प्रभुतुम्ह आदेश अम्हे, हचे संयम गुण धारशुं॥शीत ताप छुह तृषा, अनंती दुःसह संबलि रुख ॥ पूतली अमि वर्ण आलिंगी, दीठो नरके दुःख ॥ ६ ॥ ढाळ ।। दुलही नीकाना मगाइन नासिंह । माविद प्रादेशे, दीरूस लहे मुनि Fi लीह || अनुक्रमे ते मुनिवर, शिवपुर राज्य लहंत ॥ जिहां नाण देसण वळी, परमानंद अनंत ॥ ७ ॥ त्रु० ॥ परमानंद | अनंत ते लहीये, साधु तणा गुण धरता ।। श्रीजिनशासन उत्तम पामी, सूधी किरिया करतां । किरियानो ते मागर गणधर, IT विजयदेव पटधार ॥ विजयसिंह गुरुराज विराजे, शिष्य उदय जयकार ॥ ८ ॥ ढाळ ।। इति ।। अथ विंशतितम अनाथीराय अध्ययन सज्झाय.२०. जोतां रे मतां रे कानन सघर्छ । प देशी ॥ मगथ देश राजगृही नगरी, राजा श्रेणिक दीपे रे ॥ चतुरंग सेनाए परवरियो, तेजे दिनयर झीपे रे ।। धन धन श्री. ऋषिराज अनाथी । ए प्रांकणी ।। रूपे देवकुमार रे ॥ संवेग रंग तरंगे झीले, यौवनवय भणगार रे ।। घ० ॥२॥ एक | all दिन कानन पहोंच्यो श्रेणिक, बंद्या श्रीऋषिराय रे ।। लघु वय देखी हरखे पूछे, प्रभु तुम्ह कोमल काय रे ॥ ५० ॥ ३ ॥ भा तुम्ह रूप अनूपम यौवन, तरुणी जन आधार रे || इति अवसर नारी रस लीजे, वड पण संयम भार रे ॥ध०॥ ४ ॥ ध्यान पूरि तब मुनिवर बोले, राजन् हुँ छु अनाथ रे ॥ नाथ विना संयम में लीधुं, नृप कहे हुं सुम्ह नाथ रे ।। ३० ॥ ५ ॥ जोइये ते तुम्हने हुँ पूर, न्यो तुम्हें ए बहु आप रे ।। मुनि कहे राजन् नाथ न ताहरे, किम थाइश मुझ नाथ रे ॥१०॥६॥ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय कहे हय गय रथ पायक, मणि माणक भंडार रे॥ माहरे छे हुँ नाथ सहूनो, तर चाले अणगार रे ॥ ३० ॥ ७ ।। ! कोसंबी नयरीनो राजा, मुझ पिता गुणवतं रे ॥ तास कुंवर हुँ अति घणुं वल्लभ, लहु वय लीलावंत रे ॥ २०॥८॥ एक दिन मुझ अंगे थइ वेदना, न टळे कोइ उपाये रे ॥ मातपिता महारे दुःखे दुःखीया, नारी हैरई मराय रे ।। १० ।। || बहुल बिलाप कर्यो तेणीए, मुझ दुःख नचि लेवाय रे ।। तव में निर्णय एडवो कीधी, धर्म ज एक सहाय रे ॥ १० ॥ १० ॥ इम | चिंतक्ता वेदना नाठी, प्रातः संयम में लीधो रे ॥ नाथ अनाथ तणो ए विहरो, सुणी नरनाथ प्रसिद्धो रे ।। ध० ॥ ११ ।। ते सुणी राजा समकित पाम्यो, मुक्ति भयो अणमार रे॥ वीशमे अध्ययने जिनबीरे, ए भांख्यो अधिकार रे॥ध० ॥ १२ ॥ | श्रीविजयदेव सूरीश्वर पाटे, विजयसिंह मुनिरापरे ॥ उदयविजय वाचक तस बाळक, साधु तणा गुण गाय रे ॥ध ॥ १३ ॥ इति ।। अथ एकविंश समुद्रपाल अध्ययन सज्झाय. २१. पूज्य पधारो पाटीये ।। ए देशी ।। नयरी चंपामा वसे, ए तो श्रावक पालक नाम ।। सजनी ॥ एक दिन प्रवहण पूरीयां, पहोंच्यो पिहुडपुर ठाम || सजनी ॥१॥ समुद्रपाल मुनिवर जयो ।। ए मोकणी ।। ए तो संवेगी विख्यात ॥ सजनी ।। अध्ययने एकवीशमें, एह सयल अवदात ॥ स० ॥ स ||२|| ते तिहां धन भेलु करी, परएको विदेशे नारी ।। स० ॥ सगर्भा नारी लइ चडयो, नियपुर श्रावण हार ॥ स०॥ स०॥३॥ समुद्र माहि सुत जन्म्यो, समुद्रपाळ तस नाम ॥ स० ॥ पुत्र कलत्र लइ प्राचीयो, पालक Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंपा ठाम ॥ स. ॥ स. ॥ ४ ॥ अनुक्रमे ताते परणावीयो, रुक्मिणी नारी सरूप ॥ स. ॥ एक दिन गोंख वीराजतो, dil देखे नगर स्वरूप || स०॥ स० ।। ५ ।। एक चोर नव दीठड़ो, तस कंठ कणयर माळ ।। स० ॥ गाढे बंधने बांधीयो, भो गवी दुःख असराळ || स. ॥ स० ॥ ६ ॥ ते देखी तस उपज्यो, मन वैराग्य अपार ।। स । समुद्रपाळ तब चितवे, जुमो | कठिन कर्म अधिकार || स. स. ॥७॥ मासाने पूछी लीये, संथम भार कुमार ।। स०॥ मुक्ति गयो मुनिराजीयो, सुख | पाम्यो श्रीकार ॥ स० स० ॥ ८॥ विजयदेव पट्टे जयो, विजयसिंह गणधार ॥ स०॥ शिष्य उदयवाचक कहे, मुनि गुण | मोहनगार ।। स०। स ॥ इति । अथ द्वाविंश रहनेमि अध्ययन सज्झाय. २२. __फागनी ढालनी वा सुरती महिनानी देशी॥ सौरिपुर अतिसुंदर, श्रीवसुदेव नरिंद ।। रोहणी देवकी राणी, राम केशव होइ नंद । समुद्रविजय वळी राजीयो, राणी | शिवादे कंत ॥ मन आनंदन नंदन, नेमीश्वर अरिहंत ॥ १ ॥ सहस अष्टोत्तर सुंदर, लक्षण अंग अभंग ॥ अनुक्रमे पामीयु * मोहन, यौवन नव रस रंग ॥ एक दिन तेह तणे कारण, गोपीनो भरतार ॥ उग्रसेन पासे मागे, राजुल राजकुमारी ॥ २ ॥ मनमलि मालती मालती, चालती गज गति गेली ।। मयणतणी सेना सजी, विकसी मोहनवेली ॥ वड सोभागिणी रागिणी, त्रिभुवन केरो सार ॥ जान लेइ ते परणवा, आवे नेम कुमार ॥ ३ ॥ चाले हलधर गिरिधर, बंध बंधव जोडी ॥ रवि शशी मंडल झीपता, दीपता होडा होडी ॥ शिव सीदीया साथीया, हाथीया मत्त गिरींद।। बंदी जन विरुदावळी, गोले Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. || नव नव छंद ।।। डंबरे अंबर गाजे, वाजे मंगळ तुर। फेरी नफेरी नफेरीय, भेरीय मंगल भूरि॥राचे माचे नाचे, जाचे साचे प्रेम । गुणमणि बोरडी गोरडी. मोरडी पाउसि जेम ॥५॥करे के सुकमाळी, वाली गीत कलोल | केवि सुभग शण गारी, प्यारी चढे चकडोल ।। चतुर चकोरडी गोरडी, लूण उतारे एक !! जय जय नाद सुणावती, आवती धरती विवेक ॥ ॥ ॥ ६॥ हय गय रथ पायक वळी, मिलीय यादवनी जान ॥ एणिपरे बहु आडंबरे, आवे यदु सुलतान ।। ग्रहण माहे शशी || परे, सोहे नेमि कुमार ॥ अनुक्रमे तोरण बारण, पहोंच्या साथे मुरारि ।। ७ ।। पशुवाडे पशु जागी, पाखी करुणा तास ।। || सारथिने प्रभु पूछे, केम मेली पशु राशि ॥ गौरव कारण तुम्ह सणी, ते मणे ए सह पाल ।। ते सुख पशु मूकावी, पाछा वळ्या जिनराज ।। - ॥ सहसावन जई बुझीयो, शुशीयो कर्मह साथ ॥ व्रत धरी तप करी पादरी, तीर्थकर तणी प्राथ ।। | ते सुणी अति घणी वेयण, वेइ राजुल नारी ।। अनुक्रमे जिनवर नाणी, जाणी गइ गिरनार ॥ ६ ॥ दीख लेइ प्रभु पासे, . अभ्यासे गुणरंगी। इक दिन गिरिभणी जाता, वृष्टे भी अंग॥ कंचुक चीर सुकववा, पहोंची गिरिदरी माही॥तव मन मीठी दीठी, रहनेमी उत्साही।।१०१ नग्न नारी ते मन वसी, धसमसी बोल्यो बोल ॥ ते मुनि चारित्र चूकनो, मुकतो लाजनी ढोल ॥ मूनि सुणी सुंदरी मंदिरे,फरी करी पूरीये वास ।। यौवन क्य सुख लीजीये,कीजीये विविध विलास ||११ । सतीय शिरोमणि माखी,पाखे अणी मुझ शील || वाडी न लोपु तेह तणी, चउणि जिम होय लील॥ तुझ पण देखी तरुणी, रमणी चूकशे चित्त ॥ तोहर तरु परे होशे, चंचळ तुझ चरित्र ।। १२ ॥ एम अगम धन कुल तणी, भणी उपमा सार ॥ वाळ कुंवारी तारीया, रहनेमी अणगार || बिहु जण ते शिवपुर गया, गहगह्यां सुख मभंग ।। अध्ययने बावीशमे, ए अधिकार सुचंग || १३ ॥ धन धन Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | उपनी निय कुल, राजुल चाळ कुंवारी ॥ धन धन नेमि सहोदर, रहनेमी प्रणगार|| विजयदेव गुरु पटपर, विजयसिंह मुनिराय । तेह तयो एम पाळक, उदयविजय गुण गाय ॥ १४ ॥ इति ॥ अथ त्रयोविंश केशीमौसम अध्ययन साथ. २३. मन मधुकर मोही रह्यो ।। ए देशी ॥ शिष्य जिनेश्वर पार्थना, केशी कुमार मुर्णिद रे, ॥ गोयम वीर जिणंदना, एक सूरज एक चंद रे ।। १ ।। धन धन ए || दो गणघरा ॥ ए आंकणी ॥ गोयम केशी कुमार रे ॥ तिंदुक वन मेळा मळी, करे जिनधर्म विचार रे, ॥ १० ॥ २ ॥ र संघाडा बेहु जिन तणा, मनमा भाणे संदेह रे ॥ मुक्ति मार्ग दोइ जिन कहे, तो का अंतर एह रे ॥३०॥३॥ चार || महावत केशीने, गोयमने पुण पंच रे ॥ केशी पूछे गोयमा, कहे उत्तर प्रपंच रे ॥ ५० ॥ ४ ॥ ऋजु जड पहेला जिन तणा, अंतिम वक्र जड होइ रे ।। जाण सरळ बावीशना, तिणे हुआ मार्ग दोइ रे ॥ ३० ॥ ५ ॥ परमार्थ पूर्ण जोयता, l मार्ग भेद म जाणी रे ।। रुडी मति तुझ गोयमा, केशी टळीया संदेहो रे ॥ ३० ॥ ६॥ अध्ययने त्रेवीशमे, जे जे पूछy तेह रे ॥ गोयम स्वामीए सा कडं, केशी टळीया संदेह रे ॥ ३० ॥ ७ ॥ मुक्ति गया दोय गणधरा, जिहां सुख खाया अभंग रे ॥ श्रीविजयसिंह सूरीश्वरु, शिष्य उदय रसरंग रे ॥ ३०॥ ८॥ इति ।। अथ चतुर्विश समिति अध्ययन सज्झाय. २४. समिति गुप्ति मुधी धरो ॥ मषि चेतो रे । इम कहे वीर जिनेश । भविक चिच चेतो रे ॥ अध्ययने चउवीश +-40/+HE Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नी It श्रथ सप्तविंश कुशिष्याध्ययन सज्झाय. २७. मरु देवी माता ॥ ए देशी ॥ वीर गोयमने इम कहे, अविनीत उवेखो शिष्य जी ॥ वोका बळद तयी पेरे, कामवेला आणीए रीश जी ॥ वीर० ॥ ॥ १ ॥ समोल ते भांगे जोतरां, वळी सामा मांडे शींग जी || विम साहमा वोले घणुं, हम अविनयथी गुण भंग जी ॥ ॥ चीर || २ || आलसुआ अकझागरा, छोडी जाये निजनिज छंद जी ॥ पोष्या गुरुए वळी शीखन्या, पण न घरे ते गुणवृंद जी || वीर || ३ || बळदने उदेखी रहे, जिम सारथि सुख समाधि जी ।। तिम गुरु पण अविनीतने, उवेखी कारज साधे जी ॥ वीर० ॥ ४ ॥ श्री विजयदेव गुरु पाटवी, जयो श्री विजयसिंह गणधारजी ॥ अध्ययने सगदीशमें, को उदय कहे सुविचार जी ।। वीर० || ५ || इति || टाविंश मोक्षमार्गाध्ययन सज्झाय. २८. छैल छबीले छेतर्या ॥ ए देशी ॥ वर्धमान जिनवर कहे, दंसण नाण चारित्र पंचविव्युं, आठे ते समकित भेद रे ॥ भेद ॥ श्रध्ययने अडवीशमे, जिण पाळे थाये पवित्र रे । व० || १ || नाख आठ चारित्रना, तपगुण बारह भेद रे ॥ व० || २ || नाणी माव सवे लहे, दसया सह तेह रे ॥ चारित्र पातक आषता, वारे निःसंदेह रे | ० ||३|| पाप मेल लागो हुवे, ते शोधे तप शुद्ध Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- + -+-+ | रे ।। इम ए चार प्रभावधी, मुनि हुने परम विबुद्ध रे ॥ ३० ॥ ४॥ विजयदेव पटधर जयो, विजयसिंह मुनिराय रे ॥ | तास शिष्य इम चीनवे, उदयविजय उवहाय रे ।।०॥५॥ इति । श्रथ एकोनत्रिंश सम्यक्त्वपराक्रमाख्य अध्ययन सज्झाय. २९. गोगा जंबूने कहे. में जिन गाये विद्या ।। सुमीयुं ओगणत्रीशमे. अध्ययने सुखकार रे॥१॥ समकित पादरो ।। तिर्युत्तर बोल उदार रे, वळी किरिया धरो । एमांकणी । प्रथम बोल संधेगनो, बीजो ते निर्वेद ॥ त्रीजो रुचि धर्मह तणी, हवे चउथादिक भेद रे ॥ स० ॥ २ ॥ भक्ति मुगुरु साहामी तणी, पाप प्रकाशन निद॥ गईणया सामाइयं, चउविसत्थो अमंद रे ॥ स० ॥ ३ ॥ वंदन पडिकमणुं वळी, काउस्सग्ग पवख्खाण ॥ पयथूयें मंगळ || चौदमो, बोल ते नियम नियाणो रे ॥ स० ॥४॥ चार काळ पडिलेहणा, खाममा प्रायश्चित्त ।। सज्ज्ञाय मार्बु * पूछy, गणवू चितवं चित्त रे ।। स० ॥ ५ ॥ धर्मकथा श्रुत सेवना, मन एकाग्र निवेश || संयम तप ने निर्जरा, नहीं दुसज्झाय प्रवेश रे ॥ स ॥ ६ ॥ धरिय अप्रतिबंधता, सयणासण सुविवेक ॥ विषय निवृत्ति संभोगीया, पचरुखाखनी टेक रे ॥ स० ॥ ७ ॥ उपधि आहार कसाय ए, योग शरीर सहाय ॥ भाव भने सद्भावना, अब पञ्चख्खाण प्रमाय रे ॥ २०॥ ८॥ थिविर तणी पडिरूपता, वैयावश्च गुण भूरि ।। वीतरागता पुण धमा, मुत्ति सरळता अदर रे । स. १६॥ मादेव माव सुसत्यता, करण योगना साच ॥ मण वय काय सुगुसता, शुभ मन काय सुवाच रे ।। स० ॥ १०॥ नाण दरिसण चारित्र ए, पण इंद्रिय जयकार ।। क्रोध मान माया वळी, लोम तणो परिहार रे ।। स० ॥ ११॥ पिज्ज दोस -N ire Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वनो, जय करवो निरघार || शैलेशीय अकर्मता, ए विचार अवधार रे ॥ एता बोल थकी लहे, साधु परम पद सार || विजयसिंह मुनिराजनो, उदय कहे हितकार रे || स० ॥ १३ ॥ अथ त्रिंशत्तम तपोमार्गाध्ययन सज्झाय. ३० नारी रे निरुपम नागिला ॥ ए देशी || श्री वीरे तप वर्णव्यो, महोटो गुगा जग एह ॥ पापकर्म टाळी करी, मुक्ति पमाडे जेह || श्री || १ || जिम सरोवर कादव भयों, शोधे नायक तास ॥ गरनाला बूरी करी, सूरकिरणनी रे वास ॥ श्री० ॥ २ ॥ ते मळ जेम रवि शोषवे, जेम कंगना !! शत शोध करे ततकाळ || श्री० ॥ ३ ॥ उपत्रासो ऊणोदरी, वृत्ति तो रे संखेव ॥ रसदारण संलीनता, कायक्लेश घरेव || श्री० ॥ ४ ॥ वैयावच आलोचना, विनय भने सज्झाय ॥ काउससम्म झाणं तथा, षड् दुग चारह थाय || श्री० || ५ || बारे मैदे तप करो, अंगी घरो रे समाधि । अध्ययने जिम त्रीशमे, बोले अर्थ अगाध ॥ श्री० ॥ ६ ॥ विजयदेव गुरु पाटवी, विजयसिंह मुनिसिंह | उदयविजय कहे गणवरा, ए दोष गुरु गुण लीह ॥ श्री० ॥ ७ ॥ इति ॥ अथ एकत्रिंशत्तम चरविधि अध्ययन सज्झाय. ३१. हुं बलिहारी यादवा | ए देशी ॥ वर्षमान जिन उपदिशे, वरीये संयम शुद्धि के । एक दिन चारित्तर दीये, किंचित् मानकी सिद्धि के ॥ १ ॥ सूधी Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरिया पाळीये | एकखी ॥ इंद्रिय निज वश कीजीये, विकथा तजी मोष के || समिति गुप्ति आराधीये, परहरीये पुण दोष के || ० || २ || दश भेदे मुनिधर्म जे, ते आराधी जाणी के || प्रतिमा मुनि श्रावक तखी, वहो घरो शुभ जायी के || सू० ॥ ३ ॥ ज्ञाताधर्म तयी कथा, साधी आणो चित्त के ॥ बाबीश परिसह सांसदो, बोलो वाणी सत्य के ॥ सू० ॥ ४ ॥ जे जे थानके हम का, ते पाळो सुजगीश के ॥ अध्ययने एकत्रीशमे, बोले श्रीजगदीश के || सू० || ५ || विजयदेव गुरु पाटवी, विजयसिंह गुरु हीर के || शिष्य उदय कहे दोह ए, जागो गोयम बीर के || सू० || ६ || इति ॥ अथ द्वात्रिंश प्रमाद ठाम अध्ययन सज्झाय. ३२. कामिनी मूके न मोरी हाथ ॥ देश ॥ ६ वीर कहे वत्रीशमें रे, अध्ययने सुविचार || पाप हेतु ते परिहरो रे, जिम लहो भवजळ पार ॥ १ ॥ भविषण भाव धरो गुण राशि, जिम न पडो दुःख पाश ॥ भ० ॥ ए भकखी ॥ नाथ घरो रे मोह परिहरो रे, जीतो राग ने शेष | पंच इंद्रिय वश करो रे, म धरो विषय सदोष ॥ भ० ॥ २ ॥ तृणचारी बसतो बने रे, हरिण जुओ वेधाय || नाद तखे रसे वाहिया रे, जो लय लीखा थाय ॥ भ० ॥ ३ ॥ करिणी फरसे मोहीया रे, हाथीया चूके ठाम ॥ दरबारे आवी रही है, परवश सेवे गाम ॥ भ० ॥ ४ ॥ रूपे लुब्ध पतंगीयो है, दीवे होमे अंग || गंव तणे रस पंकजे रे, बंधन पामे भृंग ॥०॥५॥ श्रामिष रस व माछलो रे, एकमनो जो होय || देखो ततक्षण बापडो रे, वेदन पामे सोय ॥ म० ॥ ६ ॥ एकेकने परवशे रे, जो ए दुःखीया थाय ॥ तो पांचे परवश तशी रे, कहो गति के कहाय ॥ भ० ॥ ७ ॥ इम जाणी ए झीपतां रे, पामे Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्य आनंद || विजयसिंह गुरुनी परे रे, उदय सदा सुख कंद ॥ म ॥ ॥ इति ॥ __ अथ त्रयस्त्रिंशत्तम कर्मपयडी अध्ययन सज्झाय. ३३. तोगले मेवाडो राणो लोडियो रे ॥ ए देशी ॥ केवळ नाणे जाणतो रे लो, बोले श्री जिन वीर रे । मुर्णिदराय | आठ कर्मने वश पड्यो रे लो, न लहे मवजळ तीर रे ।मु०॥ कर्म कठिन दल जीतीये रे लो। पाठो ए जीते ते लहे रे लो, सुख सपळा वड वीर रे।।मु० ॥१०॥ | ॥१॥ए श्रांकणी || नाण पंचने आवरे रे लो, नाणावरणी सोय रे ॥ पु० ॥ दसणने जे पावरे रे लो, ते नव भेदे | । होय रे ॥ मु० ॥ ० ॥२॥ दोय भेदे कऽयं वेदनी । तो, मोह लेगा घाइती ॥ ॥ नम्प निरिय नर सुर तणुं रे लो, श्रायु कहे जगदीश रे ॥ मु० ।। क० ॥ ३ ॥ तिथि अधिका एक सो रे लो, नाम कर्मना मेद रे ॥ मु० ॥ गोत्र तणा भेद दो कह्या रे लो, विषन सणा पण मेद रे॥ मु० ॥ क० ॥ ४ ॥ अठावन शु आगली रे लो, एक सो पाडी | होय रे ।।मु०॥ अध्ययने तेत्रीशमे रे लो, ए परमारथ जोयरे ॥मु०॥ क.॥॥ विजयदेव पाटे जयो रे लो, श्री विजयसिंह गणधार रे॥ मु०॥ तेइ तखो बाळक कहे रे लो, उदयविजय जयकार रे ।। मु०॥ क० ॥६॥ अथ चतुविंशत्तम लेश्याध्ययन सज्झाय, ३४. वेगे पधारो महेलथी । ए देशी ।। कृष्ण नील कापोते ए, तेज पद्म चउ पंच ॥ शुक्ल छही एहना, हो सुणो वर्ण प्रपंच ॥ १॥ छ लेश्या शुं 7 Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****** विचारीये ॥ ए श्रकणी || जिम तरीये संसार || पहेली त्रप्ये परिहरी, वळी त्रण धरीये सार ॥ छ० || २ || पहेली कड शामली, बीजी नीली तीख ॥ त्रीजी शामल रातडी, ते कपायेली पीखु ॥ छ० ॥ ३ ॥ चउथी भांबिल रातडी, पीळी आसव सार || पंचमी छही उजली, साकर सरखी धार ॥ छ० ॥ ४ ॥ दुरभिगंध त्रण पहेलडी, त्रण आगली रे सुगंध ॥ कुगति त्रण पहेली दीये, सुगति त्रणथी बंध ॥ ६० ॥ ५ ॥ ए लेश्या रे चउत्रीशमें, अध्ययने कहे वीर ॥ तेमां उत्तम यादरे, लच्छी वरे मुनि धीर ॥ छ० ॥ ६ ॥ विजयदेव गुरु पाटवी, श्री विजयसिंह सूरीश । तेह तो वळी उपदिशे, उदय कहे सुजगी ॥ ६० ॥ ७ ॥ इति ॥ अथ पंचत्रिंशत्तम अणगार मार्ग अध्ययन सज्झाय. ३५. निःस्नेही तुमही भये ॥ ए देशी ॥ ॥ वीर कहे भवि लोकने, पाळो मुनि आचार राजे || अध्ययने पंचत्रिंशमे, तेइ तयो अधिकार राजे ॥ वी० ॥ १ ॥ पापारंभ निषेधीये, धरीये संयम धीर राजे | वसति विशुद्ध सेवी, एम लहीये गुण हीर राजे ॥ वी० ॥ २ ॥ त्रस स्थावर नव हिंसीये, मृषावाद परिहार राजे || श्रदधुं नवि लीजीये, घरीये बंभ उदार राजे ॥ वी० ॥ ३ ॥ परिग्रह परिमित कीजीये, राखीये जय शुभ ध्यान राजे ॥ एणीपरे धर्म समाचरे, तस घर नये निधान राजे || वी० ॥ ४ ॥ विजयदेव गुरु पाटवी, विजयसिंह मुनिराय राजे ॥ शिष्य तेइनो उपदिशे, उदयविजय उवज्झाय राजे || वी० ॥ ५ ॥ इति ॥ ६५ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अथ षट्त्रिंशत्चम जीवाजीवविभक्ताख्याध्ययन सज्झाय. 36. // ढाल धमालनी // सोहम स्वामी एम कहे रे, सुण जंबू ममगार // वीर जिनेश्वर भाखीयो रे, जीव अजीव विचार // 1 / परमारय परिचय कीजीये रे, लीजे प्रवचन सार // शुभ नाण अमीरस पीजीये रे, पामीजे भवपार / / प० // एमांकणी // जीव अजीर | दोइ वणेव्या रे, लोकालोक मझार // जीव भरूपी तेहमा रे, जाणो दोह मजीव प्रकार // 10 // 2 // पुदगळ रूपी ए कह्यो रे, आकाशादिक अरूप / / संक्षेपथी आजीवन रे, वर्णव्यु एह स्वरूप || प० // 3 // भेद सुण्या दोह जीवना रे, सिद्ध अने भववास / / भेद पनर तो सिद्धना रे, जेह मळ्या अलोक भाकाश // 50 // 4 / / पुढवी जळ जलणानिला रे, वण से वि ति चउ पंच // इंद्रिय माने भव तणी रे, जाणजो सूत्र प्रपंच // 50 // 5 // ए सवि भाव जिनेश्वरे रे, माख्या मचि हित काज / / सूधा सद्दहता थकां रे, पामीये अविचळ राज // 10 // 6 // विजयदेव सूरीश्वर रे, पद प्राभाविक सिंह / / विजयसिंह मुनिराजीयो रे, सुविहित गणधर लीह // 50 // 7 // तास नाम सुपसाउले रे, ए छत्रीश सज्झाय // | उदयविजय वाचक भणे रे, जेह थकी नव निधि धाय // 50 // 8 // // इति श्री उत्तराध्ययन पत्रिंशाध्ययनानां स्वाध्यायाः संपूर्णाः //