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________________ अर्थ- कापोत लेश्यानी उत्कृष्ट स्थिति प्रण सागरोपम अने पन्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक एटली जाणवी. || शेष अर्थ पूर्ववत्. आटली स्थिति वालुकाप्रमाना उपरना पाथहे जाणवी. १६. मुहत्तद्धं तु जहन्ना, दुपणुवही पलिअमसंखभागमभहिश्रा । उकोसा होइ ठिई, नायबा तेउलेसाए ॥ ३७ ॥ अर्थ-तेजोलेस्मानी उत्कृष्ट स्थिति बे सागरोपम मने पन्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक एटली जाणवी. आटली || स्थिति ईशान देवलोकमा होय छे. ३७. a मुहत्तद्धं तु जहन्ना, दस होती सागरा मुहुत्तहिआ। उक्कोसा होइ ठिई, नायब्बा पम्हलेसाए ॥३८॥ अर्थ-पद्मलेश्यानी अंतर्महर्त अधिक दश सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति छे. ते ब्रह्मदेवलोकने विषे जाणवी. ३८. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तेतीसं सागरा मुहुत्तहिआ । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा मुक्कलेसाए ॥३९॥ अर्थ-शुक्ललेश्यानी तेत्रीश सागरोपम अंतर्मुहर्ताधिक उत्कृष्ट स्थिति छे. ते अनुत्तरविमानमा जाणवी. ३९.. इवे लेश्यानी स्थितिने समाप्त करवा पूर्वक लेश्या संबंधी जीजी हकीकतनो प्रारंभ करे छे.--- । एसा खलु लेसाणं, ओहेण ठिई उ वलिआ होई। चउसु वि गईसु पत्तो, लेसाण टिइं तु वोच्छामि।४।।
SR No.090459
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunvarji Anandji Shah
PublisherKunvarji Anandji Shah Bhavnagar
Publication Year
Total Pages809
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_uttaradhyayan
File Size18 MB
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