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________________ अर्थ (किण्हलेसाए ) कृष्णलेश्यानी ( जहमा ) जघन्य स्थिति (मुद्दत्तद्धं तु ) महर्षि एटले अंतर्सहर्तनी छे भने (उकोसा ) उत्कृष्ट ( ठिई) स्थिति ( मुहुत्तहिया) अंतर्मुहूर्त अधिक एवा (तेत्तीस सागरा ) तेत्रीश सागरोपमनी (होइ) * के एम ( नायव्वा ) जाणचुं. पा उत्कृष्ट स्थिति सातमी नरक पृथ्वी आश्री जामाची. तेमा अंतर्मुहूर्ते करीने पूर्व तथा पछीना भवने भाश्रीने के अंतर्मुहूर्त जाणवा. एम सर्वत्र जाणी लेवू. सर्व लेश्यानी जपन्य स्थिति जे कही छे ते तिर्यच भने मनुष्यने विषे ज जाणवी. ३४. मुहुँत्तद्रं तु जहन्ना, दस उदही पलिममसंखभागमभहिआ। उकोसा होइ ठिई, नायव्वा नौललेलाए ॥ ३५ ॥ अर्थ-(नीललेसाए ) नीललेश्यानी (जहभा) जघन्य स्थिति (मुडुत्तद्धं तु) अंतर्मुहूर्तनी ज छ तथा (उकोसा ठिई) * उत्कृष्ट स्थिति ( दस उदही) दश सागरोपम अने (पलिअं असंखभागं अभहिमा ) पल्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक (होइ) छ एम (नायच्या) जाणवू. अहीं पम्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक कह्यो, तेनी अंदर पूर्वोत्तर भवना ये अंतर्मुहूते पण जाणी लेवा. एज प्रमायो सर्वत्र जाणवू. ३५, आ स्थिति धूमप्रभाने पहेले पाथडे समजवी. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तिण्णुदही पलिअमसंखभागमभहिआ। उकोसा होइ ठिई, नायव्वा काउलेसाए ॥ ३६ ।।
SR No.090459
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunvarji Anandji Shah
PublisherKunvarji Anandji Shah Bhavnagar
Publication Year
Total Pages809
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_uttaradhyayan
File Size18 MB
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