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स एकदा शुभ समाना रदेला इंद्र सोमानिन नामनुं नाटक करावता हता, ते वखते ईशान देवलोकमाथी संगम || नामनो देव सुधर्मा सभामां आव्यो. तेनी रूपकातिवडे सर्व देवोनी कांति ढंकाइ जह झाखी पडी गइ. पछी ज्यारे ते देव |
त्यांथी गयो त्यारे सर्व देवोए आश्चर्य पामी शक इंद्रने पूछघु के-“ हे स्वामी ! आ देवचं रूप अने तेज सर्व देवोना रूप Ka अने तेजना गर्वने हरण कर तेवु कम छ ?" इंद्रे कयु के–“छा देवे पूर्वभवमां प्राचाम्लवर्धमान नामनो तप को हतो, |1| | तेथी तेर्नु रूप अने तेज उत्कृष्ट छे." फरी देवोए पूछयु के-"त्रण भुवनमां बीजो परा कोई उत्कृष्ट रूप अने तेजवानो छ ?" इंद्रे कयुं—“भरतक्षेत्रमा हस्तिनापुरने विषे सनत्कुमार चक्री छे, तेनुं रूप अने तेज देवोधी पण अधिक छे." आवा इंद्रना वचनपर श्रद्धा नहीं थवाथी विजय अने वैजयंत नामना चे देवो तेना रूपने जोवा माटे विप्रनुं रूप लइ चक्रीना महेल पासे श्राव्या. ते वखते चक्रीए स्नान करवानुं प्रारंभ्यु हतुं, तोपण द्वारपानी विनंतिथी राजाए ते परदेशी ब्राह्मणोने पोतानी पासे बोलाच्या. ते बखते इंद्रना कया करतां पण तेनुं अधिक रूप जोइ ते देवो विस्मय पाम्या, अने | वोन्या के-"अहो ! आ राजानुं तेज सूर्यथी पण अधिक छे. आना जे जे अंग उपर दृष्टि स्थापन करीए बीए ते ते | अंगमां जाणे चोंटी गइ होय तेम ते दृष्टि महाकष्टे खेंची शकाय छे. इंद्रे आना रूपन जे वर्णन कर्यु ते जरा पण मिथ्या नथी. आपणे तेना वचनपर अश्रद्धा करी हती पण आजे भानुं रूप जोवाथी अापणे कृतार्थ थया लीए अने इंद्रना वचनो सत्य हता एवी प्रतीति थह छे." पछी चक्रीए तेमने पूछयु के-“हे विप्रो ! नमे शा कारणथी अहीं भाव्या छो ?" त्यारे वेो बोल्या के-" हे महाराजा! जगतमा प्रापना रूप अने तेजनी प्रशंसा सांभळी अमे ते जोवा माटे ज अही