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तपहाभिभूप्रस्स श्रदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे अ। मायामुसं बड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ६९ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरस्थओ अ, पयोगकाले अदुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययतो, रसे असित्तो दुहिओ अणिस्सो ।। ७० ॥ रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्ता सुह होज कयाइ किंधि । तत्थोवभोगेऽवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ७१ ॥ एमेव रस्सम्मि गश्रो पश्रोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ।। पचित्तो श्रचिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ७२ ॥ रसे विरत्तो मणुश्रो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमझेऽवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ७३ ॥ ४ ॥ इवे स्पर्श इंद्रिय विषे कहे छ.