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| लोपक जे साध ॥ पंच प्रमाद यशे पडयो, चारित्र न समाधि । वी.॥३॥ कंठ लगे भोजन भलं, करी सूबे जेह ।। रात
दिवस विकथा करे, गुशानी नहीं रेह । वी० ॥ ४ ॥ भव बेहु चूकी करी, करे काय कलेश ॥ विष मिश्र सेहने परहरी, | || धरो सुगुण विशेष । वी० ॥ ५ ॥ निजगदेव गुरु पारवी, विजयसिंह सूरीश ॥ शिष्य उदय कहे पुण्यथी, पहोंचे सुजगीश stuची ॥६॥ इति ।।
अथाष्टादश संयतिराजाध्ययन सज्झाय. १८.
लौकिक वाडादो ॥ ए देशी ।। कपिलपुरनो राजीयो, जग गाजीयो रे संजय नरराय के ॥ पाथ नमे नर जेहना रे, पहोंचे भडवाय के || १ | मन all धन संजय नरवरु ।। ए श्रांकणी ॥ जग सुरतरु रे शासन वन माहि के । बांह ग्रही भवकूपथी, दुःखरूपथी रे जिनधर्म
समाहि के ॥ ३० ॥ २ ॥ एक दिन केशरी कानने, रस वाह्यो रे जाये मृगया हेत के ॥ त्रास पमाडे जंतुने, एक मृगलो रे। दुहन्यो तिण खेत के ॥ ५० ॥ ३॥ तीर पीडाये तडफड्यो, पड्यो हरणलो रे मुनिवरनी पास के ॥ ते देखी चिंता करे, राय खाभतो रे मुनि तेजे त्रास के | ध० ॥४॥ राय कहे मुनिरायने, ई तो तुम्ह तणो रे अपराधी एह के ।। राख राख जगबंधु तुं, मुज भाखो रे जिनधर्म सरेह के ॥१०॥५॥ ध्यान पारी मुनिवर मणे, राय का हखे रे हरिणादिक जीव के। निरपराधी जे बापडा, पाडता रे दुःखीया बहु रीव के ॥१०॥ ६॥ हय गज रथ पायक वळी, धन कामिनी रे कारिखं सवि जाण के ॥ धर्म ज एक साचो अछे, एम निसुणी रे तेह संजय राण के प० ॥ ७॥ गर्दभाली पासे लीये, जिन