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थ. तोपण ते महर्षिए पोताना व्याधिनी कांदयण चिकित्सा करी नहीं.
एकदा शक इंद्रे सुधर्मा सभामा सर्व देवो समक्ष को के - " अहो ! श्रा सनत्कुमार महर्षिं धैर्य मेरुपर्वतथी पण अधिक छे के जे चक्रवतींनी लक्ष्मीनो त्याग करी उग्र तप करे छे. रोगरूपी अत्रिने बुझक्वामां मेघनी माळा समान अनेक लब्धि पाया तो पण कायाने विषे तद्दन निस्पृह थयेला ते मुनि पोताना व्याधिनी चिकित्सा पण करता नथी. " श्रवा इंद्रना चचनपर श्रद्धा नहीं थवाथी प्रथमना ज वे देवो वैद्यनुं रूप करी ते राजर्षि पासे याच्या अने योन्या के " हे साधु ! जो आपनी अनुज्ञा होय तो श्रमे धर्मवैद्यो थीए ते तमारा व्याधिनी चिकित्सा करीए. " आ प्रमाणे तेमणे मुनिनी सन्मुख वने वारंवार कहां, त्यारे मुनिए कछु के-" तमे कर्मरोगनी चिकित्सा करो छो के शरीरना रोगनी चिकित्सा करो को ? " त्यारे तेस्रो बोल्या के-" हे मुनिराज ! श्रमे शरीरमा रोगनी चिकित्सा करीए छीए. " ते सांभळी मुनिए पामा ( खरज-खस ) थी सडी गयेली पोतानी एक आगळीने पोतानुं थुंक चोपडी सुवर्ण जेवा वर्णवाळी बनावी तेमने देखाडी क ुएं के " शरीरना रोगने तो हुं पोते पण या प्रमाणे चिकित्सा करी शकुं हुं, पण ते करवानी मारी इच्छा नथी. तेथी जो तमे कर्मरोगनी चिकित्सा करी शकता हो तो ने करो. " ते जोइ श्राचर्य पामी तेश्रो बोन्या के " कर्मरूपी व्याघिनो नाश करवामां तो हे मुनि ! तमे ज समर्थ छो. " एम कही चक्रीमुनिने नमस्कार करी तेयो फरीथी बोन्या के"लब्धि पाया छतां धीर एव सनत्कुमार राजर्षि पोताना व्याधिनी पण चिकित्सा करता नथी इत्यादिक इंद्रे करेली अपनी प्रशंसा सांभळीने अमे के जे प्रथम तमारुं रूप जोवा चाव्या हता ते ज देवो अपना सच्चनी परीक्षा करवा अत्यारे
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