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रत्नपर ( समारूढो ) भारुढ थयेला ( भयवं ) भगवान ( पारयाओ) द्वारका नगरीथी (निक्समिश्र ) नीकळीने (रेव- || ययम्मि । वतकपर्वतपर ( तियो ) ग्या-गया २२. उज्जाणं संपत्तो, ओइण्णो उत्तिमाओ सीआओ। साहस्तीइ परिवुडो, अह निखमई उ चित्ताहि ॥२३॥
अर्थ--त्या ( उज्जाणं) सहसाम्रवन नामना उद्यानमा ( संपसो) प्रभु प्राव थया. त्यां उत्तिमाओ ) उत्तम (सीआओ) शिविकाथकी (ोइण्णा ) नीचे उतर्या. ( अह ) पछी ( साइस्सीइ ) हजार प्रधान पुरुषोथी ( परिवुडो) परिवर्या सता (चित्ताहि ) चित्रा नक्षत्रमा प्रभु ( निक्खमई उ ) दीक्षा ग्रहण करता हवा--पंच महाव्रत उचरता हवा. भा प्रभुना पांचे कल्याणको चित्रा नक्षत्रमा ज थया छे. २३. अह सो सुगंधगंधिए, तुरिअं मउअकुंचिए। संयमेव लुचई केसे, पंचमुट्ठीहि समाहिओ ॥ २४ ॥ ___ अर्थ--(अह ) त्यारपछी ( समाहियो ) सर्व सावध योगनो त्याग करवायी जान, दर्शन अने चारित्रने विषे समा- | | धिवाळा ( सो ) ते प्रभुए (सुगंधगंधिए ) स्वभावथी ज सुरभि गंधवाळा तथा ( मउअकुंचिए) कोमल अने कुटिल एवा। ॐा (केसे) केशोनो ( पंचमुट्ठीहिं) पांच मुठीवडे ( सयमेव ) पोते ज ( तुरि अं) शीघ्र (लुचई) लोच कर्यो. २४. वासुदेवो ये णें भगइ,लत्तकेसं जिइंदिअं। इच्छिअमणोरहं तुरिश्र, पावसूतै दमीसरा! ॥ २५ ॥
अर्थ---( वासुदेवो ) वासुदेव (य) तथा घळभद्र अने समुद्रविजय विगेरे यादवो ( लुत्तकेसं ) जेणे केशनो लोच