________________
.
.
अर्थ-श्री सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छ के-(पाउस) हे आयुष्मान् ! (मे) में ( सुभं ) समिळy छ, के (तेणं भगवया ) ते एटले शातकुळरूपी समुद्रने विकास करवामां चंद्र समान भगवान श्री वर्धमान जिनेश्वरे ( एवं ) आ प्रमाणे ( अक्खायं ) कहुं छे. शुं कर्बु छ ? ते ज कहे छे—( इह ) आ जिनप्रवचनने विषे ( खलु ) निश्चे (परेहिं भगवंतेहिं ) भगवंत एटले पूज्य एवा स्थविर एटले गणधरादिके ( दस ) दश (बंभचेरसमाहिट्ठाणा ) ब्रह्मचर्यनी समाधिना
स्थानो ( पपत्ता ) कह्यां छे. तात्पर्य ए छे के-श्रा बाबत स्थविरो पोतानी बुद्धिथी कई छ एम नधी, परंतु भगवान श्री सावधेमानस्वामीए पण श्राज प्रमाणे का छेते में सांभळ्य छे. तेथी या बाबतमा अनास्था-अश्रद्धा करशि नहीं.
हवे ब्रह्मचर्यनां स्थानो केवां छ? ते कहे छे(जे) जे ब्रह्मचर्यनां स्थानोने ( भिक्खू ) साधु जे ते ( सोचा) सूत्रथी समिळीने तथा (निसम्म ) अर्थथी धारीने ( संजमबहुले) बहुल एटले उत्तरोत्तर स्थाननी प्राप्तिवडे घणो छ संयम जेने एवो थाय छे, तेथी करीने ज (संबरबहुले ) घणो के संबर एटले भाश्रवद्वारनो निरोध जेने एवो थाय छे, तेथी करीने ज ( समाहिबहुले ) घणी छे समाधि एटले मननी स्वस्थता जेने एवो थाय छे, तथा (गुत्ते ) मन, वचन अने कायावडे गुप्त थाय छे, तेथी करीने ज (गुतिदिए ) गुप्त छे-वश छे इंद्रियो जेनी एवो थाय छे, अने तेथी करीने ज (गुत्तमयारी) नव गुप्तिने सेववाथी गुप्त एवा ब्रह्मचर्यन आचरण करवाना स्वभाववाळो थइने ( सया) सदा (अप्पमत्ते) प्रमाद रहित थयो सतो (विहरिजा ) विहार करे छे-विचरे के.
कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभवेरसमाहिट्ठाणा पामत्ता ? जे भिक्खू सोच्चा निसम्म