________________
उवेहमाणो उ परिव्वएज्जा, पिमप्पि सव्य तितिक्खएजा।
ने सव्व सव्वत्थऽभिरोअइजा, न यौवि शं गैरहं च संजए ॥ १५ ॥ अर्थ-(उ) तु पुनः बळी ( उवेहमाणो) परना कहेला अशुभ बचननी उपेक्षा करता सता तारे (परिवएजा) विघरवं. तथा ( पिनं अप्पियं ) लोकोना प्रिय के भप्रिय ( सध्व ) सर्व वचनोने (तितिक्खएन्जा ) सहन करा, तथा *(सब , सर्व वस्तुने कितने सम्वन्ध , सब ठेकाणे ( अभिरोअइजा ) रुचि-इच्छा करवी नहीं. (यादि ) तथा बळी * (पूर्व) लोकोनी करेली पूजाने-स्तुतिने ( गरहे च) अने निंदाने ( संजए ) संयमवाळा तारे (न) इच्छवी नहीं-तेना पर तारे रागद्वेष करवो नहीं. १५.
मही कोइने शंका थाय के-भिक्षुने पण आवो अन्यथा भाव होय ? के जेथी प्रोत्माने आ प्रमाणे शिक्षा प्रापवी पडे ? ते उपर कहे छे.
अणेग छंदो मिहे माणवेहि, जे भावओ संपकरेइ भिक्खू ।
भयभेरवा तत्थं उइंति भीमा, दिव्वा मणुस्सा अवा तिरिच्छा ॥ १६ ॥ भर्थ-(मिह ) आ जगतने विषे ( माणवेहिं ) मनुष्योने ( अमोग ) अनेक ( चंदा ) अभिप्रायो-इच्छाभो पाय छे. | के (जे) जे अभिप्रायोने ( मिक्खू ) कर्मने वश रहेलो साधु पण ( भावओ ) भावथी -मनथी ( संपकरेइ ) अत्यंत करे के.