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हवे जिव्हा इंद्रिय विषे कहे छे
जीहाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुसमाहु । तं दोसहेउं श्रमणुलमाहु, समो अजो तेसु स वीश्ररागो ।। ६१ ॥ रसस्स जिम्भं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुहामाहु, दोसरस हेडं असणुलमाछु ।। ६१ ॥ रसेस जो गिद्धिमुवेइ तिब्ब, अकालिभं पावइ से विणासं।
रागाउरे बडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा श्रामिसभोगगिद्धे ॥ १३ ॥ अर्थ--( जहा ) जेम ( श्रामिसभोगगिद्धे ) मांसना स्वादमा लुब्ध एवो (मच्छे) मत्स्य ( बडिसविभिनकाए) जेना अग्रभागपर मांस राखेळ होय छे तेवा बडिशवडे जेनी काया भेदाय-वधाय छे एवो सतो विनाश पामे छ. ६३.
जे श्रावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ॥ दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रस्सं अवरज्झई से ॥ ३४ ॥