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ब्रह्मचर्यनां स्थानो सांभळीने साधुना संयमनी उत्तरोत्तर वृद्धि थाय के, आश्रवनो निरोध भने संवरनी प्राप्ति थायले, मन समाधिमां रहे
के, मन वचन अने कायानी गुप्ति सचवाय छ, जितेंद्रियपगुं प्राप्त थाय छ, तथा सदा अप्रमत्सपणं प्राप्त थाय ते. ते घतावीने ब्रह्मचर्यनां | दश स्थानो कयां छे. स्त्री पशु भने नपुंसक रहित उपाश्रयमा रहेQ १, एकली स्त्रीनी साथे अथवा स्त्री संबंधी कथा करवी नहीं २, स्त्रीनी साये एक श्रासनपर बैसधैं नहीं ३, स्त्रीना अवयवो जोवा नहीं ४, भीतविगैरेनी ग्रोथाणे रही खीना क्रीडादिकना शब्दो सांभळवा नहीं ५, दीपा लीधा पहेला खी साथे करेली क्रीडानुं स्मरण करवू नहीं ६, घी 'विगेरे जेमाथी नीतरतुं होय एवो गरिष्ठ भ्राहार करबो नहीं ७, तुधानी शांति थाय तेथी वधारे आहार करवो नहीं ८, शरीरनी, प्राभूषा करवी नहीं है, तथा शब्दादिक पांचे विषयोमा प्रवृत्ति करवी नहीं १०, आ दश स्थानोने प्रथम संक्षेपथी अने पछी विस्तारथी कही ब्रह्मचर्यमां द्रढ थवानो उपदेश करी छेन्ट तेनो महिमा यताव्यो छे.
अध्ययन १७ पार्नु १३–ब्रह्मचर्यनी समाधिनां स्थानो पापस्थानकोने वजवाथी जपाळी शकाय हे, जे पापस्थानोने वर्जतो नथी ते पापश्रमण्य कहेवाय छे, तेथी आ अध्ययन पापश्रमशीय नामनें कडं छे. तेमा ' श्रुतनो अभ्यास करावनार प्राचार्यादिक पण भूतकाळ भने भविष्यकाळ संबंधी काइ पण जाग्रता नथी भने वर्तमानकाळ संबंधी तेश्रो जेटलुं जाणे के तेटलु नहीं भगोला पण जाणे हे, तेधोनी जेम नहीं भगोनाने पण वसति, अन्न, पान, वस्त्र विगेरे मळे छे.' था प्रमाणे जे प्रमादी साधु बोले के भने मनोहर आहार की प्रमादने लीधे निद्रादिकने सेवे छे, प्राचार्यादिकनी वैयावन करतो नथी, एकेंद्रियादिक जीवोनी विराधनामा प्रवर्ने छ, विधिप्रमाणे पडिलेहणादिक क्रिया करतो नथी, वळी चालतां ईयासमिति साचवे नहीं, क्रोधाधिक कपायोनो त्याग करे नहीं, गुरुनो दोष कहेवामा