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जय धक्रीनी संक्षिप्त कथाभाज जंबूद्वीपना भरतचेत्रमा संपत्तिना गृहरूप राजगृह नामे नगर ले. तेमां यशरूपी अमृतना समुद्ररूप समुद्रविजय नामे राजा इतो. तेने पवित्र लावण्यवाळी, शीलरूपी अलंकारने धारण करनारी भने मनोहर गुहागिना वा | (किल्ला) समान वप्रा नामनी प्रिया हती. तेमने चौद महास्वप्नोए सूचवन करेलो जय नामे पुत्र थयो. ते शरीरनी लक्ष्मीवडे जयन्तना रूपने जीतनार हतो. ते यमुना नदी अमृत समान जल पीने' अनुक्रमे युवावस्थान पाम्यो. तेनुं शरीर पार धनुप उंचु थयुं ते वसते तेणे पितार्नु राज्य धारण कयु. पछी चक्र विगेरे रत्नो उत्पा थयो त्यारे तेणे भर. तना छ खंड साधी स्त्रीरत्ननी जेम चक्रीनी लक्ष्मी चिरकाळ सुधी भोगवी. एकदा संमार उपर वैराग्य थवाथी सेगे | विचार कर्यो के
" सुचिरमपि उषित्वा स्यात् प्रियेविप्रयोगः, सुचिरमपि चरित्वा नास्ति भोगेषु तृप्तिः । सुचिरमपि सृपुष्टं याति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिन्त्यो धर्म एक: सहायः ॥" __ "चिरकाळ सुधी साधे रह्या छतां प्रियजनोनो वियोग थायज छ, चिरकार मुधी भोगच्या छतां भोगोने विषे कृति थती ज नथी, चिरकाळ सुधी सारी रीते पुष्ट-पोषण कर्या छत्ता शरीर नाश पामे ज छे. ( अर्थात जीवने कोइ पण सहाय
१ रामगृह पासे यमुना नदी होवार्थी आम कत्युं छे.