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अने जघन्यनी वच्चेनी अवगाहनाने विषे पण सिद्ध थया छे. ( उड्ले मेरुपर्वतनी चूलिका विगैरे ऊर्ध्वलोकमां, (अहे अ) कुपडी विजयना अधोग्रामरूप अधोलोकमां, (तिरिअं च ) अढी द्वीप अने बे समुद्ररूप ति लोकमा, ( समुहम्मि ) तेमां पण केटलाक समुद्रमा तथा ( जलम्मि अ) केटलाक नदी विगेरेना जळमां पण सिद्ध धया छे. ५०.
आ प्रमाणे स्त्रीलिंग सिद्ध विगैरे कपाधी स्त्रीत्वादिकने विषे सिद्धिनो संभव कयो. हवे तेमा पण कया भेदने विषे | केटला सिद्ध थाय छे ! ते कहे छेदस चेव नपुंसेसुं, वीसई इतिथं आसु अ ! पूरिसेम अ अट्रलयं, समऐणेगेण सिझई ॥ ५१ ॥
अर्थ–उत्कृष्टपणे ( एगेण ) एक ( समरण ) समये ( नपुंसेसु ) नपुंसकने विषे ( दस चेव ) दश ज सिद्ध थाय छे, (इत्थिासु अ) स्त्रीोने विषे ( वीसई ) चीश सिद्ध थाय छे. अने ( पुरिसेसु अ) पुरुषने बिषे ( अट्ठसयं) एक सोने आठ (सिझई ) सिद्ध थाय छे. अहीं सर्वत्र नपुंसक शब्दयडे कृत्रिम नपुंसक ज समजत्रा. केमके अकृत्रिम-जन्मथी न'सकने तो दीक्षा लेवानो परिणाम ज थतो नथी. ५१. चत्तारि अ गिहिलिंगे, अन्नलिंगे दसेव य । सलिंगेण य अट्ठसयं, समएणेगण सिंज्झइ ।।५२॥
अर्थ उत्कृष्टथी ( एगेण ) एक ( समरण ) समये ( गिहिलिंगे ) गृहीलिंगे ( चसारि अ) चार सिद्ध थाय छे, A (अमलिंगे) शाक्य विगेरे अन्य लिंगे ( दसेव य ) दश ज सिद्ध थाय छे, तथा ( सलिगेण य) स्वलिंगे-साघुवेषे ( अड