Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीः ॥
. अनाचार्य - जैन धर्म दिवाकर - पूज्य - श्री - घासीलालवति निरचित - भाष्य ममलङ्कृतं -
(१) श्रीव्यवहारसूत्रम्
(I) Shree Vyavhar Sutram
पवम्.
चूर्णि भाष्यावचूरिसमलङ्कृत
(२) श्रीबृहत्कल्पसूत्रम
( 2 ) Shree Bruhatkalpa Sutram
नियोजक.
संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात - प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी - महाराजः
उदयपुरमेवाड निवासि - भूतपूर्वदेवस्थानकमिश्नर -गलुंडियावंशभूषणश्री हिम्मतसिंहजी - महोदयप्रदत्तद्रव्य साहाध्येन
प्रकाशकः
अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि- श्री शान्तिलाल - मङ्गलदासभाई - महोदय
प्रथमा - मावृति. प्रति ११००
वीर संपत २४९५
विक्रम संव
२०३५
मूल्यम् - २४..
ईस्वी सन् १९६९
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
મળવાનુ` ઠેકાણું:
શ્રી ઋ સા. છે. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર समिति, ठे. गरेडिया डूवा रोड, ग्रीन सॉन, पासे, रानडोट (सौराष्ट्र )
Published by;
Shri Akhil Bharat S. S Jain Shastrodhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra) W Rly. India
卐
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां,
जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः ।
उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा,
कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥
卐
( हरिगीतछन्दः )
करते अवज्ञा जो हमारी, यत्न ना उनके लिये ।
जो जानते हैं तत्त्व कुछ, फिर यत्न ना उनके लिये ॥
जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई, तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी, ध्यानमें यह लाया || १ ||
भूस्य ; ३. २०-००
પ્રથમ આવૃત્તિ ઃ પ્રત ૧૧૦૦ વીર સંવત્ ઃ ૨૪૯૫ વિક્રમ સ’વત્ ૨૦૨૫ ईश्वीसन १८९८
: मुद्र
વૈદ્ય, શ્રત્રિભુવનાસ શાસ્ત્રીજી શ્રીરામાન દ પ્રિન્ટીંગ प्रेस. કાકરિયા રેડ, અમદાવાદ–૨૨
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
P
Ladka
.
..
58
NEE
"
...
A
:
हिम्मतसिंहजी
पिताश्री शहाजी मोडीलालजी
गलुन्डिया
(१) हरिसिंहजी (२) रुगनाथसिंहजी
PrimeTMITract
M
m
iminati
R
1-
-
M
liaNPATI
134MAR
1-
ti
(१) चन्द्रसेन (२) कुसलसिंह (३) शिवसिंह (४) भोपालसिह
जगन्नाथसिंहजी
SHANCE
प्रतापसिंह
चेतनसिंह
सुमेरसिंह
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीः ॥ गटुंडिया परिवार का संक्षिप्त जीवनचरित्र स्वातंत्र्य और स्वाभिमान का अमर पुजारी मेवाड, भारतीय गौरवगरिमा को आरावली की गिरिमालाओ को तरह उन्नत और अडोल रखने के लिये सदैव कटिबद्ध हो रहा है । इस वीर भूमि की भव्य गौरवगाथामो से भारतीय इतिहास का अन्धकारमय युग भी जगमगा उठता है। स्वतन्त्रता और स्वाभिमान के वलिवेदी पर सर्वस्व अर्पण कर देने में इस भूमि की समानता करने वाला संसार भर में कोई दूसरा दृष्टि गोचर नहीं होता । अतः मातृभूमि की स्वतन्त्रता और आत्मगौरव के लिये निरन्तर जूझने वाले मेवाड का भारतीय इतिहास में सर्वोपरि स्थान है।
ऐसे गौरवान्वित प्रदेश के इतिहास का जब हम अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट झलक उठता है कि इन स्वतन्त्रा के पुजारियो के महान् सहयोगी और परामर्श दाता ओसवाल जाति के महापुरुष ही रहे हैं । इस जाति का केवल मेवाड ही नहीं किन्तु समस्त राजस्थान के निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। अपने देश और स्वामी के प्रति वफादार रहने वाले जैन वीरों में गळंडिया परिवार का गौरवान्वित स्थान रहा है।
इस परिवार का इतिहास बहुत पुराना है । कहा जाता है कि राठोडवंशीय राजपूत घड़िया शाखा में राजा चन्द्रसेन ने कन्नोज नामक नगर में भट्टारक श्री पूज्य शांति सूर्यजी के पास सं. ७३५ में जैनधर्म ग्रहण किया था । इससे उस समय धुड़िया से गुगलियाँ गोत्र की स्थापना हुई। इसके बाद राठौडवंशीय लोग मंडोवर आये । इस वंश के शाह कल्लोजी को अपनी वीरता के कारण गढसहित ग्राम गठंड जागीर में मिला। ये वहीं रहने लगे। उनके वंशज गलुंडियां गढपति के नाम से प्रसिद्ध हुए । यहीं से गलंडियाँ गोत्र की उत्पत्ति हुई ।
गलंडिया परिवार अपनी वीरता के लिये प्रसिद्ध है। एक समय का प्रसग है कि होलकर सिंघियाँ की सेना जो पटेल सेना के नाम से प्रसिद्ध थी वह समय समय पर मेवाड के गावों में छापा मार कर लूट पाट किया करती थी। उसने एक बार वेगू नामक गाँव पर चढाई कर दी । अचानक गांव पर हमला हुआ जानकर ग्राम निवासी घबड़ाकर इधर उधर प्राण बचाकर भागने लगे। गाँववालों को भागते देखकर गलंडिया परिवार का एक व्यक्ति सामने आया
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
और दोनो हाथो में तलवार लेकर पटेल सेना का कड़ाई के साथ सामना करने लगा। पटेल सेना उस वीर सेनानी का सामना न कर सकी । अपनी सेना के एक एक वीर को मरता देख वह वहां से भाग गई गलंडियाँ वीर विजयी हुआ। राजपूत इस ओसवाल वीर सेनानी के रणकौशल को देखकर दंग रह गये । उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे।
शाह कल्लोजी के वंश में शा, शूरोजी बडे प्रसिद्ध व्यक्ति हो गये । आप वढे उदार चरित्र वाले तथा दानी सज्जन थे। कहते हैं कि मंडोर के प्रधान भण्डारी समरो जी को मांडू के बादशाह ने पकड़ कर कैद कर लिया था। उस समय उसे अठारह लाख रुपये देकर सूरोजी ने छुडवाया । सूरोजी के लिये इस परिवार में ऐसी भी एक किवंदती चली आती है कि 'एक बार जगन हजारी नाम का सुप्रसिद्ध मांत्रिक (चारण) दिल्ली में रहता था। उसका यह नियम था कि जो एक लाख रुपया भेंट करे वह उसी के घर भोजन करता था। भामाशाह की माता ने तीन बार जगन हजारी को जिमाया और प्रत्येक बार एक-एक लाख रुपयो की दक्षिणा दी। एक बार जगन हजारो को भामाशाह की माता ने कहा-जगन हजारी जी ! क्या मेरा जैसा एक लाख रुपये दक्षिणा देकर जीमाने वाला घर आपने अन्यत्र भी कहीं देखा है। हजारोजी ने झट उत्तर देते हुए कहा- सेठानी जी ! ससार केवल एक दानी पर नहीं चलता। संसार में एक से एक महापुरुष पड़े है ।
उन्हे खोजने का हमारे पास समय नहीं । फिर भी अवसर आने पर ऐसे व्यक्ति को अवश्य बताऊँगा । सेठानी ने कहा---यदि ऐसा ही है मैं उस दानी सज्जन का अवश्य दर्शन करूँगी। और उस व्यक्ति के दान से चौगुना दान आपको दूंगी। जगनहजारी वहाँ से चल दिया ।
वहाँ से जब चले तो रास्ते में सोच ही रहे थे कि किसके पास चलूं। तव तक रास्ते में हरी भरी सस्यश्यामला दिगन्त व्यापी खेती के ऊपर उनकी दृष्टि आकृष्ट हो गई। सुन्दर कूँवा देखकर बोले-यह कौन सा गाम है, और इन क्षेत्रो का कौन सौभाग्यशाली मालिक है ? किसीने बतलाया-आपको मालूम नहीं यह 'गर्लंड' ग्राम है, यहाँ के मालिक युद्धवीर के वंशज दानवोर सूराजी हैं सूराजी का नाम सुनते ही हजारी जी बोले-अरे ? सूराजी? तब क्या है, ये तो अपने ही यजमान हैं। इन घोड़ों को इस सस्य में छोड़ दो। तुम लोग नहाओ घोओ। इनके साथ ३०० सौ घुड़सवार चलते रहते थे, इनके वे ३०० सौ घोड़े छोड़ दिये और सब कोई नहाने लगे। इस तरह इनको मन मानी कार्यवाही देख कर रक्षको ने सूराजी को सूचना दी। वे बोले–मै आता हूँ। तुम जाकर उनसे प्रार्थना करो
१ जिसके देवत्ता भाराधित हो वह ऐसा दृश्य दिखा सकता है ।
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
कि-घोड़ो को बन्धवा दीजिये और हम लोग खुद ही काट कर सस्य सहित घास इनको खिला देते है। इस तरह सस्य रोदे नहीं जायेंगे और घोड़ो को सुन्दर चारा मिल जायगा। हजारी जी मान गए और खुश हुए। बाहरी ! अक्लने कैसी युक्ति निकाल ली जिससे मेरी इज्जत की भी कदर हुई। घोडो को भी मन चाहा चारा मिल गया और बरवादी भी बची।
मैंने तो दानवीरता की परीक्षा की थी, युद्ध वीरता की सनद तो इनके पूर्वज प्राप्त कर ही चुके है । मालूम पडता है दूसरी परीक्षा में भी ये सर्व प्रथम आवेंगे। क्योंकि नीति बतलाती है
यः काकिणीमप्यपथपयुक्तां निवारयेन्निष्कसहस्रतुल्याम् ।
कार्ये तु कोटिष्वपि मुक्तहस्तः तं रानसिंहं न जहाति लक्ष्मीः॥ जो चतुर अर्थतन्त्र का पण्डित काकिणी को २० (कौडी की काकिणी होती है, चार काकिणी का एक पैसा वनता है) भी अनवसर में लापरवाही से जाते हुए देखकर उसको मूल्यवान मोती समझकर खर्च में नहीं जाने देते हैं और समयोचित कार्य के अवसर पर कोटि के कोटि द्रव्य को मुक्त हस्त से खरचते है, ऐसे राजसिंह को लक्ष्मी नहीं छोड़ती है।
इतने में सूराजी सामने आगए और आदर सत्कार के साथ बोले-आज का निमन्त्रण दलबल के साथ मेरे घर का स्वीकृत हो। मैं आप से एक वार उपकृत तो हो. जाऊँ, बड़े कामों में विघ्न होता ही रहता है कृपा करे ।
हजारी जी बोले हाँ हाँ स्वीकृत होगा और अवश्य होगा, लेकिन....सूराजी बोले । लेकिन क्या है तन मन धरा धाम न्योछावर करने के लिये सेवक खड़ा है सिर देकर भी निमन्त्रण स्वीकार करवाने का इरादा बाँधकर आया हैं । हजारी जी बोले-निमन्त्रण की दक्षिणा में अगर तेरी पत्नी तेरे परिवारो के सामने अपने हाथ से तेरा सर काट के दे, और किसी के नेत्रो से मश्रपात न हो तो....सुराजी ने ऐसा ही किया । इन्हें भोजन के उपरान्त दक्षिणा में सर मिल गया । वाह वाह धन्यवाद कहकर हजारी जी सर को रुमाल में बान्धते हुए बोले-"वाई-वीर पत्नी तूं है, जरा ठहर जाना, मुझे लौटकर आने देना, और खुद की परीक्षा देने देना, फिर सती होने की व्यवस्था करवाना।
यों सुराजी के पत्नी को समझा कर जगन हजारी उसी समय लौटते पांवो से भामाशाह की माता के पास पहुँचे, भामाशाह भी भोजन के लिए इष्ट मित्रो के साथ बैठ रहे
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
थे । हजारी जी सब के समक्ष भामाशाह के माता के हाथ में सुराजी का सर जो कि ताजे खूनो से लथ पथ था, देते हुए बोले तूं दानवीर की माता है और तेरे सामने दुनियाँ में अपने आपको अकेला दानवीर समझने वाला तेरा लड़का भामाशाह भी अपने बन्धुवर्गों
के साथ मौजूद ही है, फिर देर किस बात की। तेरे आग्रह से फिलहाल सूराजी के पास __ मैं पहले पहल गया और तेरी शर्त सुनायीतो सुराजी ने कहा-भला कौन ऐसा गंवार होगा
जो आपकी मांग पूरी नहीं करें जब कि एक दान के बदले चौगूना दान मिलने वाला है, सौभाग्य की बात है तो मेरा दान चौगुने शर्तका पहला सिद्ध होगा।
यो अर्जू मिन्नत करके अपना सर दान में दे दिया है इतना ही नहीं जिसकी छाया प्रवल शत्रुसैन्य व्यूह में दुश्मन नहीं पा सका उस वंशज का सर है। कुछ अधिक ही इसका बदला मिलना चाहिये । चौगुना देने की तो तूं ने सौगन्द ले ही चुकी है। ला उतना ही ला, देर मत कर। सुराजी के पत्नी को सती होने में इतनी ही देर है कि मैं लौटकर जल्दी जाऊँ और सिर लोटा हूँ ।
भामाशाह उनकी माता और जनसमुदाय यह सब देखकर चकित हो गया और हाथ जोड़ कर हजारी जी के पाँव में पड़े । दानवीर का गर्व उतर गया । हजारी जी इनको दानवीर के नाटक खेलने वाला कह कर लौट गये और जाकर सुराजी के पत्नी से बोले-लेलो अपने पति का सर । इसे जोड़ दो । धड़ से सर जुड़ गया। जगन हजारीजीने सूराजीकी पत्नी की खूब खूब प्रशंसा की । सरजुड़ते ही सूराजी उठकर खड़े हो गये। जयजय कार हो गया।
सूराजी के बाद पीढ़ी दरपीढ़ी में साहजी शिवलाल जी हुए जो महाराणा स्वरूपसिंह जी सा० के दरवार का अमात्य-प्रधान थे, इनके देहान्त पर इनकी पत्नी श्रीमती अमृताबाईजी जिन्दा ही सती हुई जिनकी छतरी उदयपुर में गंगू पर बनी हुई है। अभी भी सभी वर्ग अपने कार्य की पूर्ति के लिये वहाँ जाते हैं और सामायिक की मिन्नत लेते हैं। सा० जी शिवलाल जी के कोई सन्तान न होने से महाराणा स्वरूपसिंह जी सा० उनके नाम पर सा० जी गोपाल लालजीको गोद रख के मेवाड़ का प्रधान बनाना चाहते थे जसा कि सती माता का फरमान था । किन्तु सा० जी गोपाल लालजी पिता श्री सा० जी चम्पा लालजी साहब का एक मात्र पुत्र थे अतः गोददेने से इनकार हो गये पितृभक्ति के बस सा० जी गोपाललाल जी रुक गये । सा० जी गोपाललालजी के एक ही पुत्र सा० श्री मोडीलाल जो सा० थे जिन्होंने सोलह उमरावो की वकालत की और महाराणा फतेहसिंह जी के सलाहकार नियुक्त हुए बाद में महाराणा फतेहसिंह जी ने इन्हे जहाज पुर के हाकिम
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
बनाये । जहाजपुर कोटा बुंदी के नीचे राणा के बरावर का
सरहद पर है, यहाँ फौजें रहती थी, यहाँ के हाकिम राणा समझे जाते है । जहाजपुर मेवाड राज्य की रीढ समझा जाता है ।
सा० जी मोडीलालजी सा० के हरिसिंहजी रुगनाथजी, हिम्मतसिंहजी, ये तीन पुत्र हुए। इनमें हरिसिंहजी पिता के साथ साथ 'खमनोर' के हाकिम राणाजी के द्वारा नामजद हुए। रुगनाथसिंहजी सा० पिताजी को हाकिम बनने पर सोलह उमरावो की वकालत करने लगे । ये वडे भद्र पुरुष थे। इन्होंने खान दान, धर्म समाज की पूर्ण सेवा की । हरिसिंहजी सा० को एक ही पुत्री भवरवाई है । रुगनाथसिंहजी सा० को भी एक ही पुत्र जगन्नाथसिंहजी है । श्री हिम्मतसहजी सा० के चार पुत्र- शिवसिंहजी, कुशलसिंहजी, चन्द्र सिंहजी, भूपालसिंहजी तथा एक पुत्री विजयनन्दिनी है । श्री हिम्मतसिंह सा० की दो शादियाँ रीयांवाले सेठ के घराने में हुई, रीयां का घराना" मारवाड के ढाई घर में से एक घर समझा जाता है, किसी समय जरूरत से जोधपुर दरवार को द्रव्य सहायता देते समय रीयां से जोधपुर खजाने तक रुपयों से भरे हुए गाड़ा का ताँता लगा दिया था । पहली शादी सेठ भैरववक्षजी की पुत्री मोहनकुंवरजी से हुई इनका श्री हिम्मतसिंहजी सा० के विद्याध्ययन के समय में ही देहांत हुआ | आपका नियमित अध्ययन पिता श्री के देहान्त के बाद शादी हो जाने पर १८ साल की उम्र में प्रारम्भ हुआ । दूसरी शादी सेठ प्यारेलालजी रीयांवाले अजमेर निवासी की पुत्री माणककुंवर के साथ हुई, इन्हीं से ये उपर्युक्त सन्तान हुए ।
श्री हिम्मतसिंहजी सा० अपने परम पूज्य पिता श्री के अत्यन्त प्रिय पुत्र थे, इस कारण वे अपने जीवन काल में बाहर जुदा रखकर अपनी पढाई नहीं करवा सके। आप पिता श्री के साथ ही रहते थे, इस कारण स्कूल के दरेक विषय को पढाई नहीं हो सकी, सिर्फ हिन्दी और अंग्रेजी की पढाई मास्टर घर पर आकर करवाता था, पिता श्री के जीवन काल में जाकर शादी तो हो चुकी थी। बाद में पिता श्री का स्वर्गवास हो गया । तब ये स्कूल जाकर विद्याध्ययन करने लगे । मैौट्रक देहली रामजस हाईस्कूल से पास की । इण्टर अजमेर गवर्मेन्ट कॉलेज से की बी ए . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से तथा एम. ए. राजनीति में और एल. एल. बी. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में लखनऊ विश्वविद्यालय से सन् १९३३ ई० में उत्तीर्ण हुए।
इसके साथ साथ फौजी परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में पास की। इनकी प्रथम नियुक्ति फौज में हुई, किन्तु इन्होंने उस वक्त के रियासती वातावरण में रहना पसन्द नहीं किया । वहाँ से
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
निकलकर अजमेर में आकर वकालत सन् १९३८ तक की। तत्पश्चात् मातुश्री के आग्रह से महाराणा सा० श्री भूपालसिंहजी ने हाकिम के पद पर नियुक्त किया । इसके बाद मेवाड़ राज्य में अनेक पदो पर काम किया । महाराणा स० ने इनको सेवा की सराहना में इनको और इनकी पत्नी को सोना पांव में पहनने की इज्जत वक्सी। राजस्थान बनने पर प्रतापगढ़ रियासत के एडमीनिस्टेस्टर बने, फिर टौंक के कलक्टर (जिलाधीश) बने । इसके पश्चात् डाइरेक्टर
ओफ रिलीपएडीस्नल कमीश्नर रहे। अन्त में देवस्थान कमीश्नर पद से रिटायर हो गये । तव से जयपुर में रहने लगे, और वहाँ गलंडिया भवन का आकाशवाणी के आमने सामने निर्माण करवाया, एक बगीचा माणक वाटिका नामका अजमेर-रोड-पर और एक बंगला गोपाल वाडी में भी बनवाया ।
इनके बड़े लड़के शिवसिहजी सा. के दो पुत्र प्रताप सिंहजी सुमेरसिंहजी तथा एक पुत्री नीताबाई है । श्री शिवसिंहजी की शादी अहमदनगर निवासी उत्तमचन्द्रजी रामचन्द्रजी बोगावत जो कि लोकसभा के एक सदस्य थे, उनको सुपुत्री के साथ हुई । श्री शिवसिंहजी जयपुर में उद्योग (इण्डस्ट्री) का कार्य कर रहे हैं, जिनकी दो शाखाएँ शिवइंजिनियरिंग और कमलइंजिनियरिंग हैं।
श्री हिम्मतमिहजी सा० के द्वितीय पुत्र कुशलसिंहजी प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट पद पर जयपुर में हैं । इनके एक ही पुत्र चेतनसिंहजी है इनकी शादी मणासा निवासी वकील सा० श्री जमुनालालजी जैन की पुत्री से हुई है । तृतीय और चतुर्थ पुत्र श्री चन्द्रसिंह और भूपाल सिंह जयपुर में फिल हाल विद्याभ्यास कर रहे हैं ।
श्री हिम्मतसिंहजी सा० के बड़े भ्राता रघुनाथसिंहजी के सुपुत्र श्री जगन्नाथ सिंहजी उदयपुर गोपाल भवन में रहते हैं और कृषिकार्य सुचारु रूप से चला रहे हैं-इनकी शादी उज्जैन निवासी वापूलालजी की पुत्री से हुई है। इनके तीन पुत्र और दो पुत्रियां है । उदय पुर का गोपालभवन बंगला हिम्मतसिंहजी सा० के पितामह के नाम से प्रसिद्ध है ।
श्री हिम्मतसिंहजी को पाँच वहनें थी। श्रीमती रूप कुंवर बाईजी की एक ही पुत्री श्रीमती आनन्द कुंवर बाई है, जिसकी शादी रतलाम निवासी सेठ वर्धमानजी पीतलिया से हुई । २ -द्वितीय बहन श्री सज्जन बाईजी के पुत्र भूरेलालजी वया राजस्थान के मन्त्री पद पर रहे जो कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता है ।
द्वितीय पुत्र श्री गणेशलालजी जिनकी धर्म में अच्छी लगन है । ३--तृतीय बहन गुलाब कुंवरजी मुनिव्रत को अङ्गीकार किया है। इनके एक पुत्र मोहनलालजी वया तथा एक पुत्री
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेज कुँवर है । चतुर्थ बहन मोहनकुँवरजी इनकी शादी रीयांवाले सेठ घनश्यामदासजी के साथ हुई थी, इनकी स्मृति में भूपाल पुरा उदयपुर में मोहनज्ञानमन्दिर का निर्माण हुआ । जिसमें सब कुटुम्बियो के साहाय्य और सहयोग रहे है । यह भवन उपाश्रय और पुस्तकालय के काम में आ रहा है । ५ पाँचवी बहन चन्द्रकुँवर उदयपुर गोपाल भवन में रहती है और धर्मध्यान करती है ।।
श्री हिम्मतसिंहजी सा० की माता श्री श्रीमती सुन्दरवाई अपने जीवन काल में खूब धर्मध्यान करती थी ८५ पच्चासी वर्ष की अवस्था में कालधर्म को प्राप्त हुई । इन्हीं के धर्मध्यान के सुसंस्कार का यह सुपरिणाम है कि आगे के सन्तति भौतिक सुख साधनो से भरपुर होकर भी जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज (जो कि बत्तीस के बत्तीस स्थानकवासी जैन आगम की टीका सम्पन्न करके व्याकरण, साहित्य कोष न्याय आदि समूचे उपयुक्त शब्दजाल के ऊपर अस्सो से ऊँची उमर में भी लेखनी चला रहे है) की सेवा से भक्ति के साथ आध्यात्मिक उन्नति सम्मुख हो रही है । श्री हिम्मतसिंह जी का आग्रह है कि
इन गुरुचरणों की सेवा में, वची उमर अव जाय । इनके शुभ आदेश का, पालन करने आय ॥१॥
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
આદ્યમુરબ્બીશ્રીઓ
*: *; ::
?
s
...
છે.'
શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ
અમદાવાદ,
(સ્વ) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ
વીરાણું–રાજકોટ
*
જ
--
કે
'
(સ્વ) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર– અમદાવાદ,
મ
કે
છે
કે
આ
ન ડી
: જય : Ta
-
શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ
વિરાણુ-રાજકોટ.
વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સા. જોહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ મહેતાબચન્દજી સા. નાના – અનિલકુમાર જૈન (દેયત્તા)
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
આધમુરબ્બીશ્રીઓ
|
'
e +
,
=
=
=
'જી
=
(સ્વ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ
ભાણવડ.
(સ્વ) શેઠ રંગજીભાઈ મેહનલાલ શાહ
અમદાવાદ,
:
-
*'
', ' કેત
.
+ '
+
3
.
F4
(સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ
અમદાવાદ,
શ્રી વિનોદભાઈ વીરાણી
::
:
*
૪
..
*
* '
-
*
:
*
*
*
*
શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ
અમદાવાદ,
સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેક્લાલ
અમદાવાદ
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
આમુરબ્બીશ્રીઓ
/
જ
' '
શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ
રાજકોટ,
કોઠારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ
રાજેકેટ,
L
હા
હૈ:
'
$
:
-
K
:
'
પટેલ ડોસાભાઈ ગોપાલદાસ મુ.સાણ દ (જી. અમદાવાદ)
શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી લાલચંદજી સા, લુણિયા તથા શેઠશ્રી વતરાજજી લાલચંદજી સા.
-
- -
-
- -
-
-
(૩) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ
- બારસી,
સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુનચંદજી સા.
બાલિયા પાલી મારવાડ
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
આમુરબ્બીશ્રીઓ
-
- ૧૬
1.
s
-
I
.
-
-
-
-
- -
- - *
-
-
:
*
}
*
Eસ '*
સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનોપચંદ શાહ
ખંભાત,
. શેઠ તારાચંદ્રની લહેર સ્રરા
;
, ; ; ;
''
"N
ગ્રાન્ ડ . મનસ્ટિની રજા. મયંકી સા બતવાજે (૩રિવાર)
૧ અમીચંદભાઈ વ્યા ૨ ગીરધરભાઈ બાટવિયા
*
**
::*
: :
''
'ક
વને મટાભાઇ શ્રીમાનું મૂલચંદજી
જવાહરલાલજી બરડિયા ૧ માં વ ભાઈમિથીલાલજી બરડિયા ? નનાભાઈ પૂનમચંદ બારિયા
श्रीमान् सेठश्री खीमराजजी सा. चोरडिया
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्रसं०
..
सपन
॥ व्यवहारसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका ॥ विषयः
पृष्ठसं० ॥ मङ्गलाचरणं, व्याख्या कारपतिज्ञा च॥ १ भिक्षोर्मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने प्रायश्चित्तविधिः । २ एवं द्वैमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने ३ त्रैमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने ४ चातुर्मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने ५ पाश्चमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने ६ पाश्चमासिकपरिहारस्थानादूचं पाण्मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवने
सर्वत्र प्रतिकुश्चितेऽप्रतिकुश्चिते वा पण्पासा एव प्रायश्चित्तम् । ७-१२ एवं बहुशोऽपि मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनविषयेऽपि षट् सूत्राणि ।
८-१० १३ मासिकादारभ्य पाण्मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविषयकं समुच्चयसूत्रम् ।।
१०-११ १४ एवं बहुशो मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवने प्रायश्चित्तविधिः । १२ १५ चातुर्मासिकसातिरेकचातुर्मासिकपाञ्चमासिकसातिरेकपाञ्चमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने प्रायश्चित्तविधिः ।
१३ १६ बहुशोऽपि चातुर्मासिकसातिरेकचातुर्मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवने प्रायश्चित्तविधिः ।
१४-१८ १७ चातुर्मासिक-सातिरेकचातुर्मासिक-पाञ्चमासिक-सातिरेकपाञ्चमासिक. ___ परिहारस्थानप्रतिसेवनेऽप्रतिकुञ्ज्यालोचयतः प्रायश्चित्तविधिः। १९-२१ १८ एवं प्रतिकुञ्च्यालोचयतः प्रायश्चित्तविधिः।
२२-२४
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठसं.
mr
m
m
सूत्रसं.
विषयः १९ बहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिक-पाश्चमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने अप्रतिकुञ्च्याऽऽलोचयतः प्रायश्चित्तविधिः ।
२५-२६ २० एवं प्रतिकुञ्च्याऽऽलोचयतः प्रायश्चित्तविधिः ।
२७-२९ २१ पारिहारकाऽपारिहारिकानां स्वाध्यायार्थमेकत्र निषदनादौ स्थविराऽऽज्ञामन्तरेण निषेधः ।
३०-३१ २२ परिहारकल्पस्थितभिक्षोर्बहिः स्थविरवैयावृत्त्याथै गमने . ., स्थविरस्मरणमाश्रित्य गमनप्रकारः ।
२३ एवं स्थविराऽस्मरणे गमनप्रकारः ।। . २४ एवं स्थविरस्मरणाऽस्मरणे गमनप्रकारः । .
२५ भिक्षोर्गणादवक्रम्य एकाकिविहारप्रतिमां प्रतिपद्य विहरणे विधिः ।। २६-२७ एवं गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायविषयकं सूत्रद्वयम् ।
३८ २८ भिक्षोर्गणादवक्रम्य पार्श्वस्थविहार प्रतिमामुपसंपद्य विहरतस्तद्विधि.। ३९ २९-३२ एवं यथाछन्दविहारप्रतिमा-कुशीलविहारप्रतिमा-ऽवसन्नविहार
प्रतिमा-ससक्तविहारप्रतिमाविषये चत्वारि सूत्राणि । ३९-४१ ३३ भिक्षोर्गणादवक्रम्य परपाषण्डप्रतिमामुपसंपद्य विहरतस्तद्विधिः । ४१-४२ ३४ भिक्षोर्गणावक्रम्यावधावने तद्विधि. ।।
४३ ३५ भिक्षोः किमप्य कृत्यस्थानप्रतिसेवनानन्तरमालोचनेच्छायाम् आलोचनाविषये प्रायश्चित्तविषये च घड विकल्पाः।
॥ इति व्यवहारसूत्रे प्रथमोद्देशकः ॥१॥
m
४४-४९
॥ अथ द्वितीयोदेशकः ॥ १ एकतो विहरतोयो. साधर्सिकयोर्मध्यादेकस्याकृत्यस्थान
सेवने प्रायश्चित्तसेवनविधिः । २ एवं दूयोर्मध्ये द्रूयोरपि अकृत्यस्थानसेवने प्रायश्चित्तसेवन विधिः। . ३ एकतो विहरता बहूना साधर्मिकाणां मध्ये एकतमस्याऽकृत्यस्थान
सेवने प्रायश्चित्तसेवन विधिः । . ४ एवं बहूनां साघर्मिकाणां मध्ये सर्वेषामकृत्यस्थानसेवने प्रायश्चित्तविधिः । ५२
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्रसं.
१. पृष्ठसं.
विषयः ५. परिहारकल्पस्थितभिक्षोर्लायत एकतमाकृत्यस्थान; . .... .
सेवने प्रायश्चित्तविधिः । ६ परिहारकल्पस्थितभिक्षोगर्लानादस्थायां गणावच्छेदकाय तन्नि
ष्कासननिषेधः, तस्य वैयावृत्त्यपूर्वकं प्रायश्चित्तदानविधिः । ७ एवमनवस्थाप्यभिक्षुविषयकं सूत्रम् । ८ एवं पाराञ्चितभिक्षुविषयकं सूत्रम् । ९ क्षिप्तचित्तभिक्षोलानावस्थायां गणावच्छेदकाय तन्निष्कासन. ,
निषेधस्तस्य वैयावृत्त्यपूर्वकं प्रायश्चित्तदानविधिश्च । १०-१३ एवं दीप्त-यक्षाविष्टो-न्मादप्राप्तो-पसर्गप्राप्त-भिक्षुविषयेऽपि चत्वारि सूत्राणि ।
५७-५८ १४-१७ एवं साधिकरण-सप्रायश्चित्त-भक्तपानप्रत्याख्याता-ऽर्थजातभिक्षुविषयेऽपि चत्वारि सूत्राणि ।
५९-६० १८ अगृहीभूतानवस्थाप्यभिक्षोरुपस्थापने गणावच्छेदकाय निर्षेधः, .
गृहीभूतस्योपस्थापने चानुज्ञा । १९ एवं पाराञ्चितर्भिक्षुर्विषयकं सूत्रम्।। २० गणस्य प्रतीतो सत्यां गृहीभूताऽगृहीभूतोरनवस्थाप्य
पाराञ्चितयोरुपस्थापनानुज्ञा । २१ एकतो विहरत्साधर्मिकद्वयमध्यादेकेनाकृत्यस्थानप्रतिसेवि
नाऽऽलोचनाकाले न्योपरि मैथुनसेवनारोपे दत्तै तन्निर्णयविधिः।
६४-६५ २२ गणादवक्रम्यावधावनेच्छुर्यदि-अनवधावितो भवेत्तदाऽस्य
पापप्रतिसेवनाऽप्रतिसेवनविषये निर्णयविधिः । २३ आचार्योपाध्याये मृते एकपाक्षिकस्य भिक्षोः पदवीदान
६७-६८ २४ बहुपारिहारिकाऽपारिहारिकाणामेकत्र वासे विधिः ।
६९-७० २५ परिहारकल्पस्थितभिक्षवे अशनादिदाने निषेधः, स्थविराज्ञया--
ऽशनादिदानविधिश्च ।
विधिः ।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
विषयः
सूत्रसं
पृष्ठसं.
२६ परिहारकल्पस्थितभिक्षुः स्वपात्रसमानीताऽशनादेर्भोजनपाने विधिः ७२ २७ एवं स्थविरपात्रसमानीताशनादेर्भोजनपाने विधिप्रदर्शनम् ।
७३-७५
॥ इति व्यवहारसूत्रे द्वितीयोदेशकः ||२||
॥ अथ तृतीयोदेशकः ॥
१ भिक्षोर्गणधारणविधिः ।
२ भिक्षोर्गणधारणेच्छायां स्थविराणामनापृच्छापृच्छाऽऽज्ञानाज्ञा अधिकृत्य विधिनिषेघप्रायश्चित्तप्रदर्शनम् ।
३ त्रिवर्षपर्यायश्रमणनिर्ग्रन्थस्य आचारकुशलत्वादिगुणवत्त्वे सति उपाध्यायपददानानुज्ञा ।
४ एवं पूर्वोक्तगुणाभावे त्रिवर्षपर्याय श्रमणनिर्ग्रन्थस्योपाध्यायपददाननिषेधः ।
५ पञ्चवर्ष पर्यायस्या चारकुशला दिगुणयुक्तस्य जघन्यतो दशाकल्पव्यवहारधरस्याऽऽचार्योपाध्यायपददानानुज्ञा ।
६ एवं तद्विपरीतस्य पञ्चवर्षपर्यायस्यापि - आचार्योपाध्याय पददान
निषेधः ।
७ अष्टवर्षपर्यायस्याssचारकुशलादिगुणोपेतस्य जघन्यतः स्थानसमवायघरस्य आचार्योपाध्याय - गणावच्छेदकपददानानुज्ञा ।
८ एवं तद्विपरीतस्याऽष्टवर्षपर्यायस्यापि अल्पश्रुताल्पागमस्याssचार्यादिपददाननिषेधः ।
९ निरुद्धपर्यायश्रमण निर्ग्रन्थस्याचार्योपाध्यायपददानविधिः । १० एवं निरुद्धवर्षपर्यायश्रमणनिर्ग्रन्थस्याचार्योपाध्यायपददानविधिः ।
११ नवडहरतरुणनिर्ग्रन्थस्याचार्योपाध्यायनिश्रामन्तरेण न स्थातव्यमिति तद्विधिः ।
७६
७७
७८-८१
८१
८२
८३
८३
८५-८६
८७
८८
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्रसं.
विषयः
पृष्ठसं. १२ एवं नवडहरतरुणीनिम्रन्थ्या आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीतिनिश्रात्रयमन्तरेण न स्थातव्यमिति तद्विधिः ।
८९-९१ १३ भिक्षोर्गणादवक्रम्य मैथुनसेवनानन्तरं पुनर्दीक्षाग्रहणे आचा
र्यादिपददाने विधिः। १४ गणावच्छेदकस्य स्वपदत्यागमन्तरेण मैथुनसेवनानन्तरं पुन
दीक्षाग्रहणे यावज्जीवमाचार्यादिपददाननिषेधः । १५ एवं गणावच्छेदकस्य स्वपदत्यागपूर्वकं मैथुनसेवने पुनर्दी
क्षाग्रहणे आचार्यादिपददाने विधिः । १६-१७ एवमाचार्योपाध्यायमैथुनसेवनविषयेऽपि स्वपदत्यागा__- ऽत्यागमधिकृत्याचार्यादिपददाने निषेधविधिप्रतिपादकं सूत्रद्वयम् । ७४-७५ १८ भिक्षोर्गणादवक्रम्यावधावने पुनर्दीक्षायामाचार्यादिपद
दाने विधिः । . १९. गणावच्छेदकस्य स्वपदत्यागमन्तरेणावधावने पुनर्दीक्षा ग्रहणे
यावज्जीवमाचार्यादिपददाननिषेधः । २० एवं गणावच्छेदकस्य स्वपदत्यागपूर्वकमवधावकस्य त्रिसंव
त्सरानन्तरमाचार्यादिपददाने विधिः । २१-२२ एवमाचार्योपाध्यायावधावनविषयेऽपि स्वपदत्यागाऽत्या
गमधिकृत्याचार्यादिपददाने निषेघविधिप्रदर्शकं सूत्रद्वयम् । ९७-९८ २३ बहुश्रुतबह्वागमभिक्षोरागाढागाढकारणेऽपि बहुवारं माया
. मृषादिदोषसेवने यावज्जीवमाचार्यादिपदनिषेधः । २४-२५ एवं बहुश्रुतबहागमगणावच्छेदकाचार्योपाध्यायविष- येऽपि यावज्जीवमाचार्यादिपदनिषेधप्रतिपादकं सूत्रद्वयम् ।
२६ एवं बहुश्रतबह्वागमबहुभिक्षुविषयेऽपि पूर्ववद् यावज्जीव। माचार्यादिपदनिषेधः । २७-२८ एवं बहुश्रुतबद्घागमबहुगणावच्छेदकचहाचार्योपाध्याय
विषयेऽपि यावज्जीवमाचार्यादिपदनिषेध प्रतिपादक सूत्रद्वयम् । - १०१
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयः
पृष्ठसं.
महाचार्यो-
सूत्रसं. २९ एवं बहुश्रुत ब्रह्मागम -बहुभिक्षु-बहुगणावच्छेक-बह्वाचार्यां
पाध्याय-विषयेऽपि पूर्ववदेव यावज्जीवमाचार्यादिपददाननिषेधः ।
॥ इति व्यवहारसूत्रे तृतीयोद्देशकः ॥३॥
१०२
॥अथ चतुर्थो देशकः ॥ १-८ आचार्योपाध्यायस्य. हेमन्तग्रीष्मकालविहरणविषये सूत्रद्वयम् । १-२
एवं गणावच्छेदकस्य हेमन्तप्रीष्मकालविहरूणविषये सूत्रद्वयम् । ३-४ एवम्-आचार्योपाध्यायस्य वर्षाकालविहरणविषये. सूत्रयम्। ५-६
एवं गणावच्छेदकस्य वर्षाकालविहरणविषये सूत्रयम् । ७-८ ९ बहूनामाचार्योपाध्यायानामात्मद्वितीयानां, वहूनां गणावच्छेद
कानामात्मतृतीयानां हेमन्तपोष्मकाले ग्रामादिषु विहरणानुज्ञा । १०६ १० एवं वहूनामाचार्योपाध्यायानामात्मतृतीयानाम् , बहूनां -
गणावच्छेदकानामात्मचतुर्थानां प्रामादिषु वर्षावासानुज्ञा । १०७ ११ भिक्षुर्यन्निश्रया प्रामानुग्राम विहरति, तस्मिन् कालगते तत्र पद
योग्यान्याभावेऽधीयमानशेषकल्पपठनार्थमन्यत्र तयोग्यमुनिपाचे गमने विधिः ।
१०८-१०६ १२ एवं यन्निश्रया वर्षावासे स्थितस्तस्य मरणेऽपि पूर्वोक्तो विधिः । ११० १३ ग्लायमानाचार्योपाध्यायसङ्केतित साधोराचार्योपाध्यायमरणें तत्पदवी ___दानादानविषये विधिप्रदर्शनम् ।
११०-१११ १४ एवमेवाऽवधावमानाचार्योपाध्यायसूत्रम् ।
११३ १५ आचार्योपाध्यायस्य स्मरतः कल्पाकोपस्थापने विधिः । ११३-११४ १६ आचार्योपाध्यायस्याऽस्मरतः करपाकोपस्थापने विधिः । १-१.५० १७ आचार्योपाध्यायस्य स्मरतोऽस्मरतः कल्पाकोपस्थापने विधिः। ११६ १८ गणादवक्रम्याऽन्यगणमुपसंपद्य विहरतो-मिक्षोरन्यसाधर्मिकेण
सह प्रश्नोत्तरम् । १९ बहूनां सार्मिकाणामेकत्राभिनिचरिकाचरणे विधिप्रदर्शनम्। ११.८. २० चरिकाप्रविष्टस्य. भिक्षोश्चतूगत्रपञ्चरात्रावधिकालोचनादिविधिः । ११९
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रसं.
विषय
पृष्ठस.
२१ चरिकाप्रविष्टस्य भिक्षोश्चतूरात्रपञ्चरात्रादधिकावधिकाऽऽलोचनादिविधिः ।
१२०-१२१ २२ चरिकानिवृत्तस्य भिक्षोश्चतूरात्रपञ्चरात्रावधिकाऽऽलोचनादिविधिः । १२२ २३ चरिकानिवृत्तस्य भिक्षोश्चतूरात्रपञ्चरात्रादधिकावधिकाऽऽलोचनादि
विधिः । १२२ २४ शैक्षरानिकयोरेकत्र विहरणे परिच्छिन्नस्यापि शैक्षस्य रात्निक उपसंपदाईः ।
१२३ २५ एवं परिच्छिन्नरास्निकस्य शैक्षोपसम्पत्स्वीकारास्वीकारे तस्येच्चैव ___ कारणम् ।
१२४ २६ द्वयोभिक्षुकयोरेकत्र विहरणे यथारात्निकमुपसंपद्विधिः । १२५ २७-३२ एवं योर्गणावच्छेदकयोंः, योराचार्योपाध्याययो!, एवं बहूनां भिक्षुणी,
वहूनां गणावच्छेदकानां, बहनामाचार्योपाध्यायानाम् , तथा--प्रत्येक चहूनां भिक्षु-गणावच्छेदका-ऽऽचार्योपाध्यायेतित्रयाणां संमिलितांनीमेकत्र विहरणे पूर्वोक्तयथारानिकोपसंपद्विधिप्रदर्शकानि षट् सूत्राणि ।
। । १२५-१२७ ॥ इति व्यवहारसूत्रे चतुर्थोद्देशकः ॥॥
॥ अथ पञ्चमोदेशकः ॥ , . . . १-२ प्रवर्त्तिन्या आत्मद्वितीयाया हेमन्तग्रीष्मकाले विहरणनिषेधः । आत्मतृतीयायाश्चानुज्ञा ।
१२८ . ३-४ गणावच्छेदिन्या आत्मतृतीयाया हेमन्तग्रीष्मकाले विहरणनिषेधः, आत्मचतुर्थ्याच विहरणानुज्ञो ।
१२९ ५-६ प्रवर्त्तिन्या आत्मतृतीयाया वर्षावासनिषेधः, आत्मचतुश्चि . वर्षावासानुज्ञा ।
१२९ ७-८ गणावच्छेदिन्या आत्मचतुर्थ्या वर्षावासनिषेधः, आत्मपच्चम्याश्च वर्षावासांनुज्ञा । । ।
१३० ९ बनामात्मतृतीयप्रवर्जिनीनां, बहूनामात्मचतुर्थगणावच्छेदिनीनां
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
सूत्रसं.
पृष्ठसं. प्रामादिषु हेमन्तग्रीष्मकालेऽन्योन्यनिश्रया वासानुज्ञा । १३१ १० एवं प्रामादिषु आत्मचतुर्थबहुप्रवर्तिनीनाम् , आत्मपञ्चमबहुगणावच्छेदिनीनां वर्षावासेऽन्योन्यनिश्रया वासानुज्ञा ।
१३२ ११ निर्मन्थी यन्निश्रया प्रामानुग्रामं विहरति तस्यां कालातायां तत्र
तत्पदवीयोग्यान्यनिर्ग्रन्थ्यभावेऽधीयानशेषकल्पपठनार्थ तस्या अन्यत्र गमने विधिः ।
१३३ १२ एवं निम्रन्थी यन्निश्रया वर्षावासे स्थिता तस्यां कालगतायां तत्र
तत्पदयोग्यनिर्ग्रन्थ्यभावेऽधीयानशेषकल्पपठनार्थं तस्या अन्यत्र गमने विधिः ।
१३३ १३ ग्लायमानप्रवत्तिनीसंकेतितनिम्रन्थ्याः प्रवचिनीमरणे पदवीदानादाने विधिः ।
१३४ १५ नवडहरतरुणनिम्रन्थस्याचारप्रकल्पाध्ययने परिभ्रष्टे तत्कारणपृच्छायामाचार्यादिपददानादानविषये विधिः ।
१३५ १६ एवमेव नवडहरतरुण्या निर्ग्रन्ध्या आचारप्रकल्पाऽध्ययने परिभ्रष्टे
कारणपृच्छायां प्रवर्त्तिन्यादिपददानादानविषयकं सूत्रम् । १३७ १७ स्थविरभूमिप्राप्तस्थविराणामाचारप्रकल्पाध्ययने परिभ्रष्टे तस्य संस्थापने संस्थापने वा आचार्यादिपददानानुज्ञा ।
१३९ १८ एवं तेषां निषण्णादिविशेषणवतां परिभ्रष्टाचारप्रकल्पाध्ययनस्य
द्वित्रिवारमपि प्रतिप्रच्छनप्रतिसारणानुज्ञा । १९ साम्भोगिकनिम्रन्थनिर्ग्रन्थीनामन्योन्यान्तिके आलोचनानिषेधः,
आलोचनार्हसाधुसमीपे आलोचनानुज्ञा, तदभावेऽन्योन्यान्तिकेऽपि आलोचनानुज्ञा ।
१४०-१४३ २. निम्रन्थस्य निर्ग्रन्थ्या वा रात्रौ विकाले वा सर्पदंशने निर्ग्रन्थी
निम्रन्थस्य, निम्रन्थश्च निर्ग्रन्थ्या विषस्य स्वहस्तेनापमार्जने स्थविरकल्पिकानामनुज्ञा, जिनकल्पिकानां च निषेधः १४४-१४
॥ इति व्यवहारसूत्रे पश्चमोद्देशकः ॥५॥
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयः
॥ अथ षष्ठोदेशकः ॥
१ भिक्षोः स्वजनमातापित्रादिगृहे गमनेच्छायां तद्विधिः ।
२ भिक्षोरल्पश्रताल्पा गमस्य एकाकिनः स्वजनादिगृहे गमननिषेधः ।
३ बहुश्रुतबह्वागमेन सार्धं तत्र गमनानुज्ञा ।
४ भिक्षोस्तत्र भिलिङ्ग (मसूर) दालिं - तन्दुलोदकयोर्मध्ये पूर्वायुक्तपश्चादायुक्तभेदमाश्रित्य कल्प्याकल्प्यविधिः ।
सूत्रसं.
- पृष्ठसं.
१४६
१४७
१४७
१४८
१४८
५ पूर्वायुक्तभिलिङ्गसूपग्रहणाऽनुज्ञा ।
६ पूर्वायुक्तयोर्द्वयोरपि ग्रहणेऽनुज्ञा ।
७ पश्चादायुक्तयोर्द्वयोरपि ग्रहणे निषेधः ।
१४९
८-९ पूर्वायुक्तस्य ग्रहणानुज्ञा, पश्चादायुक्तस्य ग्रहणनिषेध इति सूत्रद्वयम् । १४९ १०- १४ आचार्योपाध्यायस्य स्वगणे पञ्चातिशेषप्रदर्शकाणि
पञ्च सूत्राणि ।
१५-१६ गणावच्छेदकस्या यातिशेषद्वयप्रदर्शकं सूत्रद्वयम् । १७ ग्रामादिषु एकवगडेकद्वारे कनिष्क्रमणप्रवेशवसतौ बहूनामकृतश्रुतानामेकत्र वासावासविधौ प्रायश्चित्ताप्रायश्चित्तप्रकरणम् ।
१८ एवं ग्रामादिषु अनेकवगडा - द्वार - निष्क्रमणप्रवेशवसतौं तेषामेकत्र वासावासविधौ प्रायश्चित्ताप्रायश्चित्तप्रकरणम् । १९ भिक्षोरेकाकिनो, ग्रामादौ पूर्वप्रदर्शितवसतौ बहुश्रुतवह्वागमस्यापि वासनिषेधः ।
२० ग्रामादौ एकवगडा-द्वार - निष्क्रमणप्रवेश - वसतौ बागमबहुश्रुतस्य द्विकालं भिक्षुभावं सावधं परिपालयत एकाकिनो भिक्षोर्वासानुज्ञाः । १५७ २.१ बहुस्त्रीपुरुषमैथुन सेवनस्थाने, श्रमणनिर्ग्रन्थस्य, वासे- हस्तकर्म
प्रतिसेवनप्राप्तं प्रायश्चित्तम् ।
१४९ - १५२
१५२
१५३ - १५४
१५५
१५६
7०१५८
२२ एवं पूर्वोक्तस्थानवासे श्रमण निर्ग्रन्थस्य मैथुनसेवनप्राप्तं प्रायश्चित्तम्।। १५९ २३ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामन्यगणागतक्षताचारादिविशिष्टनिर्ग्रन्ध्याः
पापस्थानस्याऽऽलोचनादिकमन्तरेणोपस्थापनादिनिषेधः ।. १५९. १६०
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्रसं.
पृष्ठसं.
विषयः २४ अन्यगणागतक्षताचारादिविशिष्टनिर्ग्रन्ध्याः पापस्थानस्यालोचनादिपूर्वकमुपस्थापनादेरनुज्ञा ।
॥ इति व्यवहारसूत्रे षष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥६॥
१६१-१६२
१६५
॥ अथ सप्तमोद्देशकः ।। १ साम्भोगिकनिम्रन्थनिम्रन्थीनां मध्ये निर्ग्रन्थीनां निम्रन्थानना पृच्छ्यान्यगणागतक्षताचारादिविशिष्टनिर्ग्रन्थ्याः पापस्थानस्यालोचनादिकमन्तरेण शातादिप्रच्छनाप्रमृतेनिषेधः ।
१६३-१६४ २ एवं निर्ग्रन्थीनां निम्रन्थपृच्छापूर्वकं पूर्वोक्तनिर्ग्रन्थ्याः पापस्था
नस्यालोचनादिपूर्वकं शतादिप्रच्छनाप्रमृतेरनुज्ञा । ३ साम्भोगिकनिम्रन्थनिम्रन्थीनां मध्ये निम्रन्थानां निम्रन्थीः पृष्ट्वा ।
अपृष्ट्वा वा अन्यगणागतपूर्वोक्तनिर्मन्ध्याः पापस्थानस्यालोचनादि। पूर्वकं शातादिप्रच्छनाप्रमृतेरनुज्ञा । ४ साम्भोगिकनिम्रन्थनिम्रन्थीनां मध्ये साम्भोगिकनिम्रन्थस्य परोक्षं विसाम्भोगिककरणं निर्ग्रन्थस्य न कल्पते, प्रत्यक्षं विसाम्भोगिक
करणाकरणे च विधिनिषेधौ । ५ साम्भोगिकनिम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां मध्ये साम्भोगिकनिम्रन्ध्याः
प्रत्यक्षं विसाम्भोगिककरणं निर्ग्रन्थ्या न कल्पते, परोक्षं विसाम्भोगिककरणाकरणे विधिनिषेधौ। ६ निम्रन्थानामात्मनोऽर्थाय निर्ग्रन्थ्याः प्रव्राजनादिनिषेधः । १७० ७ निग्रन्थानामन्यासां निर्ग्रन्थीनामर्थाय निग्रन्थ्याः प्रव्राजनादेरनुज्ञा । १७१ ८ एवं निर्ग्रन्थीनामात्मनोऽर्थाय निर्ग्रन्थस्य प्रव्राजनादिनिषेधः । १७१-१७२ ९ निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थानामर्थाय निम्रन्थस्य प्रवाजनादेरनुज्ञा । १७२ १० निर्ग्रन्थीनां व्यतिकृष्टदिगुद्देशने निषेधः । ११ निर्ग्रन्थानां व्यतिकृष्टदिगुद्देशनेऽनुज्ञा । १२ निर्ग्रन्थानां व्यतिकृष्टाधिकरणव्यवशमने निषेधः । १३ निर्ग्रन्थीनां व्यतिकृष्टाधिकरणव्यवशमनेऽनुज्ञा ।
१७३ १४ निर्ग्रन्थानां व्यतिकृष्टकाले स्वाध्यायनिषेधः । ।
१७४
१६०
१६९
१७२ १७३ १७३
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयः
पृष्ठसं
१७६
सत्रसंः १५ निर्ग्रन्थीनां व्यतिकृष्टकाले निर्ग्रन्थनिश्रया स्वाध्यायाऽनुज्ञा । १७४ १६ निम्रन्थनिम्रन्थीनामस्वाध्यायकाले स्वाध्यायनिषेधः । १७ निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां स्वाध्यायकाले स्वाध्यायकरणानुज्ञा । १७५ १८ निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां स्वात्मनोऽस्वाध्यायिके स्वाध्यायनिषेधः,
अन्योन्यस्य वाचनादानस्य नुज्ञा च । १९ त्रिंशद्वर्षपर्यायिकनिम्रन्ध्यात्रिवर्षपर्यायिकश्रमणनिर्ग्रन्थ
उपाध्यायोद्देशनत्वेन कल्पते इति कथनम् । २० एवं षष्टिवर्षपर्यायिकनिम्रन्थ्याः पञ्चवर्षपर्यायिकश्रमणनिम्रन्थ .
आचार्योद्देशनत्वेन कल्पते, इति कथनम् । २१ ग्रामानुग्रामं विहरतो भिक्षोर्मृतशरीरपरिष्ठापनविधिः । १७७ २२ अवक्रय(भाटक)गृहीतोपाश्रयविषये शय्यातरस्थापनविधिः । १७८-१७९ २३ - एवं विक्रीतोपाश्रयविषये शय्यातरस्थापनविधिः ।
१८० २४ पितृगृहवासिविधवदुहितुरपि-उपाश्रयावग्रहदानेऽधिकारः । . १८१ २५ मार्गेऽपि वृक्षायधः पूर्वस्थितगृहस्थेषु शय्यातरस्थापनविधिः। १८२ २६ संस्तृता(समर्था)दिविशेषणविशिष्टराज्यपरिवर्तेषु-अवग्रहस्य पूर्वानु
ज्ञापनैव । २७ एवम्-असंस्तृतादिविशेषणविशिष्ठराज्यपरिवर्तेषु भिक्षुभावार्थ द्वितीयवारमवग्रहस्यानुज्ञापना।
.१८३-१८५ ॥ इति व्यवहारे सप्तमोद्देशकः समाप्तः ॥७॥
. १८२
॥अथाष्टमोदेशकः ॥ १ ऋतुबद्धकालप्राप्तवसतेरेकप्रदेशे स्थविराज्ञया शय्यासंस्तारक, ग्रहणविधिः । २ हेमन्तग्रीष्मकालनिमित्तमन्यग्रामनयनाथ शय्यसंस्तारक
गवेषणविधिः । ३-४ एवं वर्षावासनिमित्तं वृद्धावासनिमित्तं चान्यग्रामनयनार्थ शय्यासंस्तारकगवेषणे सूत्रद्वयम् ।
१८७-१८८ - ५ स्थविरभूमिप्राप्तस्थविराणां दण्डकाधुपकरणजातमन्यगृहस्थ
१८६
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૨
सुत्रसं.
विपया
पृष्टसं.
१८८
१८९
गृहे स्थापयित्वा भक्तपानार्थ गृहस्थगृहे प्रवेशाधनुज्ञा, प्रत्यावृत्तानामवग्रहानुज्ञापनापूर्वकं पुनस्तद्ग्रहणम् । ६ निर्ग्रन्थनिम्रन्थोनां द्वितीयवारं सागारिकाज्ञामन्तरेण सागारिक
सत्कप्रातिहारिकशय्यासंस्तारकस्यान्यत्र नयने निषेधः । ७ एवं सागारिकाज्ञापूर्वकं तस्यान्यत्र नयनेऽनुज्ञा । ८ निर्ग्रन्थनिर्घन्धीनां प्रत्यर्पितशय्यासंस्तारकस्य सागारिकाज्ञा___ मन्तरेण पुनरुपभोगनिषेधः, आज्ञापूर्वकं तदुपभोगानुज्ञा च । १९०
९ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां पीठफलकादिग्रहणानन्तरमाज्ञाग्रहणे निवेधः । १९१ १० एवमाज्ञाग्रहणानन्तरं पीठफलकादिग्रहणेऽनुज्ञा ।
१९१ ११ निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां प्रातिहारिकशय्यासंस्तारकस्य हुर्लभत्वे तत्पूर्व
गृहीत्वा पश्चादवग्रहानुज्ञापनाया अनुज्ञा । तत्स्वामिनः प्रतिकूलत्वे चाचार्यस्यानुलोमवाक्यैः सान्त्वनानुज्ञा 4
१९२ १२ भिक्षार्थ गाथापतिकुलप्रविष्टनिम्रन्थस्य परिभ्रष्टोपकरणजातस्य
लामे साघमिकेण किंकर्तव्यमिति तदिधिः । १३ एवं बहिर्विचारभूमिविहारभूमिगतस्य परिभ्रष्टोपकरणविषये विधिप्रदर्शकसूत्रम् ।
१९४ १४ एवं ग्रामानुप्रामं विहरतो निर्ग्रन्थत्य परिभ्रष्टोपकरणविषये
सूत्रम् । १५ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामतिरेकप्रतिग्रहस्यान्यान्यनिमित्तं दूराध्वपरिबहनकल्पः, तदर्पणविधिश्च ।। .
१९६ १६ कुक्कुटाण्डप्रेमाणकवलानधिकृत्य निर्ग्रन्थस्याल्पाहारादि- . कथनम् ।
१९७-१९९ ॥ इति व्यवहारे अष्टमोद्देशकः समाप्तः ॥ ८॥
॥ नवमोद्देशकः॥ . १-५ शय्यातरस्य प्राघूर्णकादिनिमित्तसंपादिताहारस्य -ग्रहणाग्रहणप्रकारविषये चत्वारि -सूत्राणि ।
२००-२०२
१९३
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्रसं०
विषय ५-८ एवं शय्यातरस्य दासादिनिमित्तसंपादिताहारस्य ग्रहणाग्रहणविषयेऽपि चत्वारि सूत्राणि ।
.२०२-२०३ ९-१६ शय्यातरस्य एकानेकवगडादौ अन्तर्बहि रेकानेकचुल्हीसम्पा. . -दिततज्ज्ञातकाहारस्य शय्यातरसम्बन्धासम्बन्धमाश्रित्य । ग्रहणाग्रहणविषयेऽष्टौ सूत्राणि ।
२०४-२०९ १७-३२ शय्यातरस्य चक्रिकाशालात आरभ्य सौण्डिकशालापर्यत्ता
ष्टशालाः साधारणप्रयुक्त-निस्सधारणप्रयुक्तविशेषणद्वयविशिष्टा -आश्रित्य तद्गततैला दिवस्तुजातस्य ग्रहणाग्रहणविषये -षोडश सूत्राणि ।
. . २०९-२१३ -३३-३४ शय्यातरभागसहितरहितशाल्यायौषधीनां ग्रहणाग्रहणविषये सूत्रद्वयम्।
२१३-२१४ . ३५-३६ एवम्-आम्रफलविषयेऽपि त्रयम् । , ... २१४-२१५ . . ॥ भिक्षुपतिमापकरणम् ॥ .. (२१५-२२२) ., ३७ सप्तसप्तकिकाभिक्षुप्रतिमासूत्रं तत्कोष्ठकं च । - L . -२१५-२१६ -- ३८ 'अष्टाष्टकिकाभिक्षुप्रतिमासूत्रं तत्कोष्ठकं च । . . २१७ - ३९ नवनवकिकाभिक्षुप्रतिमासूत्रं तत्कोष्ठकं च ।
। २१८ . . ४० दशदशकिकाभिक्षुप्रतिमासूत्रं, तत्कोष्ठकं, पूर्वोक्तभिक्षुप्रतिसा.. चतुष्टयस्य कालपरिमाण-दत्तिपरिमाणविषये पक्ष भाष्य
.-२१९-२२२ ॥ इति भिक्षुप्रतिमाप्रकरणम् ॥ __- ११ क्षुल्लिकमोकप्रतिमापरिवहनविधिः।
.,२२२-२२४ ४२ महतिकमोकप्रतिमापरिवहनविधिः ।
२२५ ४३ प्रतिग्रहधारिसंख्यादत्तिकभिक्षोर्दत्तिस्वरूपम् ।
२२६-२२७ ४४ पाणिप्रतिग्रहिकसंख्यादत्तिकभिक्षोर्दत्तिस्वरूपम् । ४५ उपहृतस्य त्रैविध्यम् । ४६ अवग्रहिताभिग्रहस्य त्रैविध्यम् । ४७ 'अन्याचार्यमतेनाऽवंग्रहितस्य द्वैविध्यम् ।
२२९-२३० ॥ इति व्यवहारे नवमोद्देशकः समाप्तः ॥९॥
-
- - गाथाश्च ।
२२८
२२८ २२९
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
वसं.
पृष्ठसं.
विषयः . ॥ दशमोद्देशकः ।।
१ यवमध्यचन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्नानगारस्य समापतितदेवमनुष्य
तिर्यग्जनितानुलोमप्रतिलोभपरीषहोपसर्गवर्णनम् । २३१-२३३ २ यवमध्यचन्द्रप्रतिमापरिवहनविधिः । ।
२३३-२३७ ३ वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्नानगारस्य समापतितदेव
मनुष्यतिर्यग्जनितानुलोमप्रतिलोमपरीषहोपसर्गवर्णनम् २३७-२३८ ४ वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमापरिवहनविधिः ।
२३८-२४० ५ पञ्चविधव्यवहारमध्ये उत्तरोत्तरव्यवहारप्रस्थापनविधिः । २४०-२४४ ६ अर्थकर-मानकरेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी। २४१-२४६ ७ गणार्थकर- मानकरेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्मङ्गी । २४६ ८ गणसंग्रहकर मानकरेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी । २४७ ९ गणशोभाकर- मानकरेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्मङ्गी। २४८ १० गणशोधिकर -मानकरेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी २४९-२५० ११ रूपत्यागि-धर्मत्यागीतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्मङ्गी। २५१ १२ धर्मत्यागि-गणसस्थितित्यागीतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी । - २५२ १३ प्रियधर्म-दृढधर्मेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी । २५३ १४ प्रबोजनो-पस्थापनपदद्वयमधिकृत्य-आचार्यचतुर्भङ्गी । १५ उद्देशन-वाचनापदद्वयमधिकृत्य-आचार्यचतुमझी।
२५५ १६ उद्देशन-वाचनपदद्वयमधिकृत्यान्तेवासिचतुर्मङ्गी। २५६-२५७ १७ स्थविरभूम्यास्त्रैविध्यम् ।
२५७ ०२५८ १८ शैक्षम्म्यावैविध्यम् ।
२५८-२५९ १९ निम्रन्थनिम्रन्थीनामूनाष्टवर्षजातक्षुल्लकक्षेल्लिक्योरुपस्थापनादेनिषेधः ।
२५९-२६० २० एवं सातिरेकाष्टवर्षजातयोस्तयोरुपस्थापनादेरनुज्ञा । २६० २१-२२ एवमव्यञ्जनजातयोः क्षल्लकक्षुल्लिस्योराचारकल्पाभ्ययनो
द्देशननिषेधः, व्यञ्जनजातयोश्च- तयोस्तदनुज्ञेतिसूत्रद्वयम् । २६०-२६१
२५४
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
सूत्रस. विषयः
पृष्ठसं. (२३-२७) ॥पर्यायमधिकृत्य शास्त्रोद्देशनमकरणम् ।। (२६२-२६९) २३ त्रिवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य आचारकल्पाध्ययनोदेशनानुज्ञा ।
२६२ २४ एवं चतुर्वर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य सूत्रकृताङ्गोदेशनानुज्ञा । 1. २५ पश्चवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य दशाकल्पव्यवहारोदेशनानुज्ञा।। २६ अष्टवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य स्थानसभवायोदेशनानुज्ञा ।। २७ दशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य विवाहाङ्गो (व्याख्याप्रज्ञप्त्यङ्गो)। २६३
देशनानुज्ञा । २८ एकादशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति ।
प्रमृत्यध्ययनोदेशनानुज्ञा । २९ द्वादशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य अरुणोपपाताधध्ययनो• ) ३० प्रयोदशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य उत्थानश्रुताघध्ययनो० ३१ चतुर्दशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य स्वप्नभावनाध्ययनो० ३२ पश्चदशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य चारणभावनाध्ययनो० ३३ षोडशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य तेजोनिसर्गाध्ययनो० ३४ सप्तदशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य आशीविषभावनाध्ययनो० । ३५ अष्टादशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य दृष्टिविषभावनाप्ययनो०) ३६ एकोनविंशतिवर्षपर्यायस्य श्रमणनिम्रन्थस्य दृष्टिवादाङ्गो० ३७ विंशतिवर्षपर्यायश्च सर्वश्रुतानुपाती भवतीति कथमम् । २६९
॥ इति पर्यायमधिकृत्य शास्त्रोद्देशनप्रकरणम् ॥ ३८ दशविधवैयावृत्त्यसूत्रम् ।
२६९ ३९ ४८ आचार्यवैयावृत्त्यादिदशविधवैयावृत्त्यफलप्रदर्शकानि दश सूत्राणि शास्त्रसमाप्तिश्च ।
२७०-२७२ ॥ इति व्यवहारसूत्रे दशमोदेशकः समाप्तः ॥१०॥
/ २६८
॥ इति व्यवहारसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका समाप्ता ॥
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री वीतरागाय नमः
जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचित-भाष्यसमलङ्कृतम्
श्री-व्यवहारसूत्रम्
मङ्गलाचरणम् वर्द्धमान जिनं नत्वा, गणीशं गौतमं तथा।
व्यवहारागमे भाष्यं, घासीलालेन तन्यते ॥१॥ इतः पूर्व वृहत्कल्पसूत्रं व्याख्यातम् । सम्प्रति व्यवहारसूत्रं वित्रियते-अस्य व्यवहारसूत्रस्य बृहत्कल्पसूत्रेण सहाऽयमभिसम्बन्धः-बृहत्कल्पे सामान्यत एव प्रायश्चित्तमुक्तम् , न तु तद्दानविधिरालोचनविधिर्वा, व्यवहारे तु प्रायश्चित्तदानमालोचनाविधिश्चाऽभिधास्यते । तदनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य व्यवहाराध्ययनस्य व्याख्या प्रस्तूयते
अत्र व्यवहारग्रहणेन व्यवहारी, व्यवहरणीयं चेति द्वयमपि सूचितम् । व्यवहारि-व्यवहरणीययोरभावे व्यवहारस्यैवाऽसंभवात् , ततो यथा व्यवहारस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या, तथा व्यवहारि-व्यवहरणीययोरपीति, तत् त्रयाणामपि प्ररूपणां कुर्वन्नाह भाष्यकारः-'ववहारो' इत्यादि । भाष्यम्-ववहारो ववहारी, ववहरणिज्जा य जे जहा पुरिसा ।
एएसिं तु पयाणं, पत्तेयं खलु परूवणं वोच्छं ॥१॥ छाया-व्यवहारो व्यवहारी, व्यवहरणीयाश्च ये यथा पुरुषाः ।
___एतेपां तु पदानां, प्रत्येकं खलु प्ररूपणां वक्ष्ये ॥१॥
अवचरी-'यवहारो' इति । व्यवहार , व्यवहियते दीयते यद्यस्य प्रायश्चित्तमापतति तद्दानविषयीक्रियतेऽनेन स व्यवहार. । 'ववहारी' व्यवहारी व्यवहरतीत्येवशीलः व्यवहारक्रियाप्रवर्तकः प्रायश्चित्तदायक इति यावत् 'य' च 'जे पुरिसा' ये पुरुषाः, अत्र पुरुषग्रहणं पुरुषोत्तमो धर्म इति ज्ञापनार्थम् । पुरुषपदेन स्त्रियोऽपि पगमृष्टा भवेयुः, तासामपि प्रायश्चित्तदानविषयतया प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । 'जहा' यथा येन वक्ष्यमाणप्रकारेण 'ववहरणिज्जा' व्यवहरणीयाः व्यवहारविषयीकर्तव्याः- 'एएसि पयाणं' एतेषां पदानाम् व्यवहार-व्यवहारिव्यवहरणीयानां त्रयाणाम् 'तु' तु-अपि 'पत्तेय' प्रत्येकम्, एकैकस्य पदस्य 'परूवणं' प्ररूपणां व्याख्यां संक्षेपतो विस्तरतश्च 'खल' खल-निश्चयेन 'वोच्छं' वक्ष्ये कथयिष्यामि ॥१॥
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
अथ त्रयाणामपि पदानां संक्षपप्ररूपणार्थमिदमाह-ववहारी' इत्यादि । आण्यम्- ववहारी खलु कत्ता, ववहारो हवइ करणभूओ उ ।
ववहरणिज्जं कजं, कुंभाइतिगस्स जह सिद्धी ॥२॥ छाया-व्यवहारी खलु कर्ता, व्यवहारो भवति करणभूतस्तु ।
व्यवहरणीयं कार्य, कुम्भादित्रिकस्य यथा सिद्धिः ॥२॥ अवचूरी—'ववहारी' इति अस्मिन् शाले 'खलु' खलु निश्चयेन । 'ववहारी' व्यवहारी 'कत्ता' कर्ता कथ्यते। 'ववहारो उ' व्यवहारस्तु 'करणभूओ' करणभूतः करणरूपो भवति । स च करणभूतो व्यवहारः पञ्चविधः, तद्यथा-आगमः, श्रुतम् , आज्ञा, धारणा, जीतं चेति । 'वबहरणिज्ज' व्यवहरणीयम् , करणभूतेन पञ्चविधव्यवहारेण व्यवहरन् कर्त्ता यन्निप्पादयति तत् 'कज्ज हवइ' कार्यं भवति । ननु व्यवहारग्रहणेन व्यवहारी व्यवहरणीयं चेति द्वे कथं गृह्येते ? नहि देवदत्तग्रहणेन यज्ञदत्तादयो गृह्यन्ते ? इति चेत् अत्रोच्यते-'जह कुंभाइतिगस्स सिद्धी' यथा-कुम्भादित्रिकस्य सिद्धिोंके भवति, तथाऽत्राऽपि इति । अयं भावः-कुम्भ इत्युक्ते, कुम्भ इति कार्य्यम् , कुलालस्तस्य कर्ता, मृदण्डचक्रादिकं करणं च सामर्थ्याद् गृह्यते, कृतस्य कार्यस्य कर्तृकरणव्यतिरेकेण चाऽसंभवात् । एवं व्यवहार इत्युक्ते व्यवहारी व्यवहरणीयश्च गृह्येते एव, कुत्रापि सकर्मकक्रियायाः साधकतम रूपस्य करणस्याऽपि कर्मकर्तृव्यतिरेकेणाऽसंभवात् ॥२॥ - तदेवं व्यवहार-व्यवहारि-व्यवहरणीयानां निरूपणं कृत्वा संप्रति सूत्रं व्याख्यातुमाह'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम् –जे भिक्खू मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा। अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासिय, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासिय ॥ सू० १॥
छायायो भिक्षुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अपरिकुञ्च्यालोचयतो मासिकम् , प्रतिकुञ्च्यालोचयतो द्वैमासिकम् ॥ सू० १॥
अथास्य सूत्रस्य भाष्यरूपेण व्याख्या क्रियते, तल्लक्षणं चेदम्
"संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः ।
चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या सूत्रस्य पद्दविधा ॥१॥
तत्र संहिता नाम-अस्खलितपदानां सामीप्येन उच्चारणम् १ । पदं च-पदच्छेदकरणम् , यथाऽत्रैव सूत्रे 'यः भिक्षुः मासिकं, परिहारस्थानं प्रतिसेव्य, आलोचयेत्' इत्यादि २। तथा पदार्थ:-पदस्य वाच्यार्थः, यथा भिक्षुपदस्यार्थप्रतिपादनं, तथाहि-'भिक्ष याचने' इति धातोः भिक्षते यमनियमव्यवस्थितः कृतकारितानुमोदितपरिहारेण याचते इत्येवंशीलो भिक्षुः उ प्रत्यये भिक्षुरिति सिद्धम् ३ । पदविग्रहो-नाम-पदानां परस्परविश्लेषीकरणं, यथाऽत्रैव 'परिहा
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १ सू० १-३
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तविधिः ३
रस्य स्थानं परिहारस्थानम्' इति विग्रहवाक्यम् ४ । चालना - प्रश्न, यथाऽत्रैव यदि 'परिहारः पापं प्रायश्चित्तं वा तदेव स्थानम्' इति विग्रहः क्रियेत तदां परिहारस्य स्थानस्य चेत्युभयोः पदयोः समानार्थकत्वाद् एकस्यैवाऽन्यतरस्य प्रयोगः करणीयो न तु द्वयोः 'उक्तार्थानामप्रयोगः' इति न्यायादिति ५ । प्रत्यवस्थानम् — तादृशप्रश्नस्योत्तरदानं, तथाहि - स्थानशब्दो नाम शब्दशक्तिस्वाभाव्यादनेकविशेषाधारसामान्याभिधायी, तेन एतद् ध्वनयति- अनेकप्रकाराणि नाम मासिकप्रायश्चित्तानि, अनेकप्रकारेण च मासिकेन उपन्यस्तेन प्रयोजनं, कल्पाध्ययनोक्तसकलमासिकप्रायश्चित्तविषयकदानालोचनयोरभिधातुमुपक्रमात्, अतोऽत्र स्थानग्रहणम्, इत्यादिरूप - मुत्तरदानम् ६ । इति व्याख्यालक्षणम् ।
♡
15
अथ सूत्रं व्याख्यायते-'जे भिक्ख' इति । यः कश्चिद् भिक्षुः पूर्वोक्तस्वरूपः, यद्वा नैरुक्ती शब्दव्युत्पत्तिर्यथा 'क्षुध बुभुक्षायाम् ' क्षुध्यति बुभुक्षते भोक्तुमिच्छति चतुर्गतिकमपि संसारमस्मादिति संपदादित्वात् किपि क्षुत्— अष्टप्रकारकं कर्म, तां भिनत्ति ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभिर्विदारयतीति भिक्षः पृषोदरादित्याद् भिक्षुरूपनिष्पत्तिः, एतादृशो भिक्षुः साधु, धर्मस्य पुरुषप्रधानत्वाद् भिक्षुनिर्देश., ततो भिक्षुकी साध्वी वा 'मासिय' मासिकं - मासेन निर्वृत्तं 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं परिह्रियते परित्यज्यते गुरुसमीपे गत्वा यः स परिहारः पापम्, तिष्ठन्ति जन्तवः कर्म - कलुषिता अस्मिन्निति स्थानम्, परिहारस्य स्थानं परिहारस्थानं पापस्थानम् 'पडिसेवित्ता प्रतिसेव्य आचर्य ‘आलोएज्जा' आलोचयेत् 'लोचृदर्शने' धातुः, 'आं मर्यादायाम्' तेन आमर्यादया 'जह बालो जंपतो' इत्यादिरूपया आलोचयेत्, यथा आत्मनस्तथा गुरोः प्रकटीकुर्यात् शिष्यः, अत्र ‘यः भिक्षुः' इत्यत्र यच्छन्दः 'यत्तदोर्नित्यसम्बन्धः' इति न्यायात् तच्छन्दापेक्षस्तेन यो भिक्षुः मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् तस्य' 'अपल्डिंचिय'" अप्रतिकुञ्च्य 'कुच कुञ्च कौटिल्याल्पाल्पीभावयोः' इति धातोः प्रतिकुञ्च्येति रूपम्, प्रतिकुञ्चय कौटिल्यमाचर्य, न प्रतिकुञ्च्य अप्रतिकुञ्च्य सर्वथा कर्पटमकृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः भिक्षो: 'मासिय' मासिकं मासेन निर्वर्त्तनयोग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारतो गुरुः प्रायश्चित्तं दद्यात् । यदि यो भिक्षुः शुद्धभावेन नालोचयेत्' 'पलिउचिय' प्रतिकुञ्चय कौटिल्यमाचर्य 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'दोमासिय' द्वैमासिकं मासद्वयनिर्वर्त्तनयोग्यं लघुकं गुरुक वा प्रतिसेवानुसारतः प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यात् मायाकरॅणतोऽधिकस्य गुरुमांसस्य सद्भावात्, 'प्रति' कुञ्च्य आलोचयतो यत् प्राप्तं तत्तु दीयत एव, अन्यश्च मायाप्रत्ययो गुरुको मासं इति द्वैमा' सिकं प्रायश्चित्तं तस्याऽऽपंद्यते इति ॥ सू० १ ॥
T
सूत्रम् - जे भिक्खू दोमासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासिय पछिउंचिय आलोएमाणस्स तिमांसियं ॥ सू० २ ॥
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
छाया-यो भिक्षुद्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अपरिकुञ्च्य आलोचयतः द्वैमासिकम् , परिकुंच्य आलोचयतः त्रैमासिकम् ॥ सू०२॥
भाष्यम्- 'जे भिक्खू' इति । यः कश्चिद् भिक्षुः 'दोमासियं' द्वैमासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात् 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्ध्य आलोचयतः 'दोमासियं' द्वैमासिकं 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य सकपटमालोचयतः 'तिमासिय' त्रैमासिकं त्रिमासेन निवर्तनयोग्यं प्रायश्चित्तं दद्यात् प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नस्य गुरुमासस्य प्रक्षेपात् । __ अयं भावः-यदि कश्चित् साधुः द्वैमासिकं प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेव्य शुद्धभावेन गुरुसमीपे प्रायश्चित्तमभिलषति तदा गुरुस्तस्मै द्वैमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात् ।
यदि कदाचित् स एव सकपटमालोचयेत् तदा मायाप्रयोगापराधाद् गुरुस्तस्मै त्रैमासिकं प्रायश्चित्तं दद्यादिति । इह द्वैमासिकं परिहारस्थानमात्रमापन्नस्य प्रतिकुञ्चकस्य दृष्टान्तः, तथाहि
अस्ति कश्चित् कुञ्चिको नाम तापसः, स फलान्यानेतुं वनं गतः । अरण्यं परिभ्रमता तेन नयां मृतो मत्स्यो दृष्टः, त समादाय भक्षितश्च, तेन तस्य रोगः समुत्पन्नः । ततस्तेन रोगपरिहाराय पृष्टो वैद्यः प्रोवाच -- किं त्वया भक्षितम् ? तापसोऽवदत्-फलमेव नान्यत्किञ्चित् । वैयेन कथितम्-घृतं पिब | तापसेन तथा कृतम् , किन्तु रोगो न नष्टः । तदा पुनस्तापसो वैद्यं कथितवान्-रोगो न गतः । वैद्य' प्रोवाच-तापस ! सत्यं वद, ततस्तापसो यथावृत्तं मत्त्यभक्षणमाख्यातवान् । ततो निदानज्ञवैधेन वमन-विरेचनादिना रोगो निष्कासितः । एवमेव शुद्धभावेनोपस्थिताय शिष्याय गुरुद्वैमासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् येन तस्य विशुद्धिर्भवेदिति ॥ सू०२।।
सूत्रम्-जे भिक्खू तेमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा । अपलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं ॥सू०३।।
छाया–यो भिक्षुस्त्रैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः त्रैमासिकं, प्रतिकुञ्च्य आलोचयतश्चातुर्मासिकम् ॥ सू० ३ ॥
__ भाष्यम्-'जे भिक्खू' इति । यो भिक्षुः 'तेमासिय' त्रैमासिकं परिहारहाणं परिहारस्थानं 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् , 'अपलिचिउंय' अप्रतिकुञ्च्य 'आलोएमाणस्स' आलोचयत. 'तेमासिय' त्रैमासिकं त्रिमासेन निवर्तनयोग्य प्रायश्चित्तं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनाऽनुसारि गुर्दद्यात् , 'पलिउंचिय' प्रतिकुञ्य मायामाचर्य 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'चाउमासियं' चातुर्मासिकं मासचतुष्टयेन निवर्तनयोग्यं प्रायश्चित्तं लघुकं गुस्कं वा प्रतिसेवनानुसारि दयात् ।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १ सू० ४-५
परिहारस्थान सेविनः प्रायश्चित्तविधिः ५
अयं भावः - त्रैमासिकं पापस्थानं प्रतिसेव्य यदि कश्चित्साधुः स्वकीयपापनिवारणाय गुरुसमीपे शुद्धभावेन प्रायश्चित्तमिच्छेत् तदा गुरुस्तस्मै त्रैमासिकं गुरुकं लघुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारेण दद्यात् । अथ कदाचित् मायापूर्वकमालोचयितुमिच्छेत्, तदा गुरुः प्रतिसेवनाऽनुसारि चातुर्मासिकं गुरुकं लघुकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात् मायादण्डरूपेण मासाधिक्यं वदेत् ।
अत्र प्रतिकुञ्चके दृष्टान्तो योधः, तथाहि - वसन्तपुरनामके नगरे वसन्तसेनो राजा, तस्य शूरसेननामक एको योधः शूरत्वेनातीव वल्लभः । स चैकदा तस्य राज्ञः एकेन प्रतिपक्षभूतेन राज्ञा सह युद्धे प्रवृत्ते तत्र सेनापतित्वमङ्गीकृत्य स्वसैन्यं परसैन्येन सह योधयन् स्वयमपि परचक्रचूरणाय योद्धुं प्रवृत्तः । ततः परसैन्यं पराजित्य विजयलक्ष्मीमासादितवान् किन्तु तस्य शरीरे परसैन्यक्षिप्तानि अनेकानि शल्यानि प्रविष्टानि । राजा चातिप्रियत्वेन तच्छरीरगतशल्योद्धरणार्थं वैद्य आदिष्टः । वैद्यश्च शल्यानि निष्कासयितुं प्रवृत्तस्तेन तस्यातिवेदना नायते ततो वेदनाभयात् कानिचित् शल्यानि मायाभावेन वैधाय न प्रकटितानि तेन स शल्यबाधया दुर्बलीभूय मृतः । एवमिहापि यः परिहारस्थानप्रतिसेवकः कौटिल्यभावेन स्वकृतं सर्वे पाप गुरवे न प्रकटीकरोति केवलमेकं द्विकं वा प्रदर्शयति असौ योधवत् तत्पापप्रभावेण संयमजीवितात् परिभ्रश्यतीति ॥ सू० ३ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू चाउम्मासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा । अपलिउँचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥ सू० ४ ॥
छाया -यो भिक्षुश्चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुच्य आलोचयतश्चातुर्मासिकं, प्रतिकुञ्च्यालोचयतः पाञ्चमासिकम् ॥ सू० ४ ॥
भाष्यम् – 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'चाउम्मासियं' चातुमसिकम् 'परिहारद्वाणं' परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् 'अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्च्य 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकं 'पलिउंचिय' प्रतिकुञ्च्य 'आलो एमाणस्स' आलोचयतः 'पंचमासियं' पाञ्चमासिकं मासपञ्चकेन निर्वर्त्तयितुं योग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं वदेत् गुरुरिति ।
अयं भावः यत्रैव कर्मणि मायारहितस्य शिष्यस्याऽन्यस्य वा चातुर्मासिकं गुरुकं लघुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं तत्रैव मायासहितस्य पाश्वमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं दद्यात्, मासाधिक्यस्य मायाप्रयोज्यत्वात् ।
9
अत्र दृष्टान्तमाह—एकस्मिन् उद्याने द्वौ मालाकारौ वसतः । तत्रैकदा 'कौमुदीमहोत्सव आसन्नीभूतः' इति कृत्वा द्वावपि तौ बहूनि पुष्पाणि उद्यानतः संगृहय माला विनिर्मितवन्तौ
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहार सु तत्रैकेन महोत्सवसमये कस्मैचिद् राज्ञे सा माला विधिना प्रदर्शिता, स राज्ञा बहुद्रव्येण पुरस्कृतः । द्वितीयेन सा माला न प्रकटीकृता संगोप्य रक्षिता तेन पुरस्कारो न लब्धः, एवं यो मूलगुणांपराधमुत्तरगुणापराध च न प्रकटीकरोति स निर्वाणलाभं न लभते, अपरः स्वापराधप्रकाशकस्तु परम्परया निर्वाणलाभ लभते इति ॥ सुं०४ ।
י
सूत्रम् - जे भिक्खू पंचमासिंयं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा | अपलिउँचिय' आलोएमाणस्स पंचमार्सिय, पलिउचियं आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥ सू०५ ॥
छाया - यो भिक्षुः पाञ्चमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुञ्चय आलोचयतः पाञ्चमासिकं, प्रतिकुञ्च्यालोचयतः पाण्मासिकम् ॥ सू० ५ ॥
भाष्यम् 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' य कश्चिद्भिक्षु' 'पंचमासिय' पांचमासिकं 'परिहारड्डाणं' परिहारस्थानं 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् 'अॅप लिउंचिय' अप्रतिकुञ्च्य 'ऑलोएमाणसं' आलोचयतः 'पंचमासिय' पांचमासिकं मासपञ्चकसाध्यं प्रायश्चित्त लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि गुरुर्दद्यात्, 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य मायां कृत्वा, मायापूर्वकमालोचयतस्तु 'छम्प्रासिय' षाण्मासिकं षड्भिर्मासैः साघनीयं लघुक गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं दद्यात् ।
अत्र प्रतिकुञ्चके मेघदृष्टान्तो यथा - एको मेघो नो गर्जति नो वर्षति; कश्चित् मेघो नो गर्जनं कृत्वा नो वर्षति, एवं हे शिष्य ! त्वमपि आलोचयामीति कथयित्वा आलोचयितुमारभ्य मायां करोषि । यदि माया कॅरिष्यसि तदा नियमभ्रष्टो भविष्यसि अतः सम्यगालोचय, मायां मा कुरु । तत्र द्वैमांसिकादिपरिहारस्थानेषु कुचिते' यथाक्रममिमें पूर्वोक्ताश्चत्वारो दृष्टान्ताः घटते, तथहि-द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य प्रतिकुञ्चकस्य दृष्टान्तः कुंश्चिकः तापसः १ । त्रैमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य' योघो दृष्टान्तः २ । चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य मालाकारो दृष्टान्तः ३ । पश्चिमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य मेघो दृष्टान्तः ४ । तत्र प्रतिकुञ्चनायां कृतायामाचार्येण - 'सम्यगालोंचय मां प्रतिकुञ्चनां कुरु' एवमुपाघो यदि सम्यक् प्रत्यावृत्य वदेत्-भगवन् ! "मिच्छामि दुक्कडं" मिध्या मे दुष्कृतंम्, सत्यं भवतां कथनम्, संम्प्रति सम्यगालोचयामि । ततः स श्रुतव्यवहारी प्रतिकुश्चिते तं तथा प्रत्योंवृत्तं सन्तं पुनरपि वास्त्रयमालोचनां कारयति । तत्र त्रिभिर्वारैः सदृशमालोचयति तदा ज्ञातव्यो यदयं सम्यक् प्रत्यावृत्त इति । तदनन्तरं तस्मै यद्देयं प्रायश्चित्तं तदातव्यमिति । ननु वारत्रयमालोचनादेवाऽस्य श्रुतव्यवहारिणोऽन्तर्गतां मायां कथ लक्षीकुर्वन्ति ? तत्राह -
1
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् ० १ सु० ६-७
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्सविधिः ७ "आकारैश्च स्वरैश्च, पूर्वाऽपरव्याहताभिश्वगीमिः । ज्ञात्वा कुञ्चितभावं परोक्षज्ञानिनों व्यवहरन्ति ॥१॥ "
' परोक्षज्ञानिनः श्रुतव्यवहारिण आचार्याः परान्तःकरणे विद्यमानां मायामाकारादिभिर्जानन्ति । तत्राऽऽकारा -शरीरगता भावविशेषाः । तत्र यः शुद्धस्तस्य सर्वेऽप्याकाराः सविग्नभावोपदर्शका भवन्ति, इतरस्य तु न तथा । तथा स्वराः विविक्ताः विस्पष्टाः अक्षुभिताश्च निस्सरन्ति । अशुद्धपुरुषस्य तु अव्यक्ताः पविस्पष्टा' क्षुभिता गद्दाश्च । तथा शुद्धस्य वाणी पूर्वापराऽव्याहता, अशुद्धस्य वाणी पूर्वापरविसंवादिनी । एवं परोक्षज्ञानिनः श्रुतव्यवहारिणः-आकारैः स्वरैः पूर्वापरव्याहताभिश्च वाणीभिः तस्याऽऽलोचकस्य अन्तःकरणगतं कुञ्चितभाव ज्ञात्वा तथा व्यवहरन्ति । पूर्व मायाप्रत्ययेन प्रायश्चित्तदण्डेन दण्ड्यते, पश्चात् अपराधप्रत्ययेन प्रायश्चित्तदण्डेनेति ।
अथ यदि विसदृशमालोचयति तदा गुरुणा वक्तव्यं यद्-भो भोः ! अन्यमुनिसमीपे गत्वा स्वकीयपरिहारस्थानस्य शुद्धिं कुरु । नाहं तवैतादृश्याः असद्दश्या आलोचनायाः सद्दावमजानानः शुद्धिं कर्तुं शक्नोमि, इति । शिष्यः पुनः प्रश्नयति-गुरो ! ससारपारावारसमुत्तरणकरण ! एतानि मासादीनि षण्मासपर्यन्तानि परिहारस्थानानि कुतः प्राप्तानि ? तत्राह-उद्गमादिरूपत्रिकस्थानातू एतानि परिहारस्थानानि प्राप्तानि भवन्ति । अयं भावः-उद्गमोत्पादनैषणासु यद् अकल्प्यप्रतिसेवनाया आचरणं तस्मादेवैतानि परिहारस्थानानि - प्राप्ताति भवन्तीति । सू० ५ ॥
सम्प्रति पाण्मासिकप्रायश्चित्तादूर्व प्रायश्चित्तं न भवतीति प्रदर्शयति-'तेण परं' इत्यादि। सूत्रम्-तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥ सू० ६॥ छाया-ततः परं प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा त एव पण्मासाः॥ सू०६॥
भाष्यम्-'तेण परं' इति । 'तेण परं' ततः परं, रोनेति पञ्चम्यर्थे तृतीया, अथवा 'तेन' इति अव्ययं 'ततः' इत्यर्थे, तथा च तेन ततः पाञ्चमासिकप्रायश्चित्तस्थानात् परमूर्ध्व पाण्मासिकादिपरिहारस्थाने प्रतिसेविते सति, आलोचनाकाले प्रायश्चित्तसमये 'पलिउंचिए वा' प्रतिकुञ्चिते वा, प्रतिकुञ्चन-माया तत्सहिते वा 'अपलिउंचिए वा' अप्रतिकुञ्चिते वा मायारहिते वा, मायापूर्वकम् , अमायापूर्वकं वा आलोचिते इत्यर्थः । ते चेत्र छम्मासा' त एव षण्मासाः त एव प्रतिसेवनानिष्पन्नाः स्थिता मासाः पण्मासा एव, नाधिक प्रतिकुञ्चनानिमित्तमारोपण कर्तव्यम् ।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
कुतो नाधिकं प्रायश्चित्त दातव्यम् यथा मासिकप्रतिसेवनानिमित्तप्रायश्चित्तावसरे समायस्य द्वैमासिकं प्रायश्चित्तविधानं कृतं तथा-घण्मासप्रायश्चित्तावसरे समायिकाय सप्तमासिकं प्रायश्चित्तं वक्तव्यं स्यात् किन्तु तथा न कृत्वा षण्मासावधिकमेव प्रायश्चित्तं प्रतिञ्कुचनाया अप्रतिकुञ्चनायाः कुतः कारणाद्विधीयते ? इति चेत् अत्रोच्यते-सत्यं भवता तर्कितम् षण्मासादप्यधिकं प्रायश्चित्तं दातव्यं प्रतिकुश्चिते, किन्तु इह जीतकल्पोऽयम्
अयं भाव-यस्य तीर्थकरस्य यावत्प्रमाणकमुत्कृष्टं तपःकरणं तस्य तीर्थकरस्य तीर्थ (शासने) अन्यसाधूनामुत्कृष्टं प्रायश्चित्तदानं तावत्प्रमाणकमेव, न ततोऽधिकं कदाचिदपि दातव्यम् । अन्तिमतीर्थकरस्य भगवतो महावीरस्वामिनः, उत्कृष्टं तपः पाण्मासिकं ततो भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः शासने सर्वोत्कृष्टमपि प्रायश्चित्तदानं पाण्मासिकमेवेति । पाण्मासिकं परिहारस्थान प्रतिसेवनयापि आलोचनां कुर्वतोऽपि नाधिकमारोपणम् , अतस्त एव षण्मासा इति कथितम् ।। सू०६।।
सूत्रम् -जे भिक्खू बहुसोवि मासियं परिहारहाणं पडि से वित्ता आलोएज्जा । अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस दोमासियं ॥ सू० ७॥
छाया-यो भिक्षुर्वहुशोऽपि मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रति कुञ्च्य आलोचयतः मासिकं, प्रतिकुच्य आलोचयतो द्वैमासिकम् ॥ सू० ७ ॥
भाष्यम्--'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षु. 'बहुसो' बहुशः त्रिप्रभृतिवहुवारानपि आस्तामेकै द्वौ वारौ, इत्यपिशब्देन संगृह्यते 'मासिय' मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात् तस्य 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्यालोचयतः प्रतिकुञ्चनं माया, तामकृत्वा मायामन्तरेण शुद्धान्तःकरणेन आलोचयतः आलोचनां प्रायश्चित्तविधानं कुर्वतः 'मासियं' मासिकमेकम् एकमासमात्रस्य प्रायश्चित्तं गुरुर्वदेत् । तत्रैव यदि-'पलिउंचिय' प्रतिकुञ्च्य मायापूर्वकम् आलोचयतः 'दोमासियं' द्वैमासिकम् , द्विमासेन निवर्तनयोग्यं गुरुकं लघुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तम् । अप्रतिकुञ्च्यालोचयतो मासिकमेकं प्रायश्चित्तम् प्रतिकुञ्यालोचयतो द्वितीयो मायानि पन्नो गुरुमासो दीयते इति द्वैमासिकम् ।
इयमत्र भावना-केनाऽपि गीतार्थन कारणेन मयत्नतया त्रीन् वारान् , बहुवारान् वा, मासिकं परिहारस्थान प्रतिसेवितम् , आलोचनाकाले च येनाऽप्रतिकुञ्च्यालोचितं तस्मै एकमेव मासिकं प्रायश्चित्तं दीयते, न तु यावतो वारान् प्रतिसेवनां मासिकस्य कृतवान् , तावन्ति मासिकानीति । अथ प्रतिकुञ्चनया आलोचयति, ततो द्वितीयो मासो मायानिष्पन्नो दीयते इति वैमासिकमिति संक्षेपः ॥ सू० ७ ॥
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १ सू० ८-१२
परिहारस्थानसविनः प्रायश्चित्तविधिः ९ सूत्रम् - जे भिक्खू बहुसोवि दोमा सियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा । अपलिउंचिय आलो एमाणस्स दोमासियं, पलिउचिय आलोएमाणस्स तेमासियं ॥ सू० ८ ॥
छाया - यो भिक्षुर्वशोऽपि द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः द्वैमासिकं, प्रतिकुञ्चय आलोचयतः त्रैमासिकम् ॥ सू० ८ ॥
भाष्यम् - - ' जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'बहुसोवि' बहुशोपि त्रि- चतुः - पश्च-वारानपि 'दोमासियं' द्वैमासिकं मासद्वयेन संपादन योग्यम् । 'परिहारद्वाणं ' परिहारस्थानं पापं पापप्रयोजकसावधकर्मानुष्ठानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य, तस्य प्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आलोचनां प्रायश्चित्तविधि संपादयेत् । तस्य 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य मायामकृत्वा विशुद्धान्तः करणेनालोचयतः 'दोमासिय' द्वैमासिकं मासद्वयेन निर्वर्त्तनीयं 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य मायापूर्वकमालोचयतः 'तेमासियं' त्रैमासिकं प्रतिकुञ्ञ्ज्यालोचयतो मायानिष्पन्नस्तृतीयो गुरुमासो दीयते ॥ सू० ८ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू बहुशोवि तेमासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा । अपलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं ॥ सू०९ ॥
छाया - -यो भिक्षुर्वहुशोऽपि त्रैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः त्रैमासिकं, प्रतिकुञ्च्य आलोचयतः चातुर्मासिकम् ॥ सू० ९ ॥
भाष्यम्--- 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'बहुसोचि' बहुशोऽपि द्वित्रिचतुर्वारान् ततोऽधिकान् पञ्चषट्सप्तादिवारान् वा 'तेमासियं' त्रैमासिकं मासत्रयकालेन संपादनयोग्यम् ‘परिहारट्ठाणं' परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात्, 'अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्न्य मायामकृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः मालोचनां कुर्वतः 'तेमासिय' त्रैमासिकम्, मासत्रयेण संपादनयोग्यं प्रायश्चित्तम् 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्भ्य मायापूर्वकमालोचयतः 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकम् प्रतिकुञ्च्यालोचयतः चतुर्थो मायानिष्पन्नो मासः ॥ सू० ९ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मा सियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा । अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासिगं पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासि ॥ १० ॥
छाया -यो भिक्षुर्व हुशोऽपि चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतश्चातुर्मासिकं प्रतिकुञ्च्य भालोचयतः पाञ्चमासिकम् ॥ सू० १० ॥ भाष्यम् - - 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षु' 'बहुसोवि' बहुशोऽपि त्रिचतुः पञ्चप्रभृतिवारानपि 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकं मासचतुष्टयेन संपादनयोग्यं 'परिहारहाणं'
व्य, २
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
परिहारस्थानं पापप्रयोजकसावद्यकर्मानुष्ठानम् 'पडि से वित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात्, ‘अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्च्य, प्रतिकुञ्चना माया तामकृत्वा 'आलोएमा - णस्स' आलोचयतः 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं मासचतुष्टयेन संपादन योग्यं प्रायश्चित्तं दीयते, 'पलिउंचिय' प्रतिकुञ्च्य मायां कृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'पंचमासिय' पाञ्चमासिकम्, मासपञ्चकेन संपादनयोग्यं प्रायश्चित्तम्, अप्रतिकुञ्च्यालोचयतश्चातुर्मासिकं प्रायश्चित्तम् । प्रतिकुञ्च्यालोचयतः पञ्चमो मायानिष्पन्नो गुरुमासो दीयते ॥ सू० १० ॥
१०
सूत्रम् - जे भिक्खु बहुसोवि पंचमासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा । अपलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं पलिउंचिय आलोएमाणस्स छम्मा सियं ॥ सू० ११।
छाया -यो भिक्षुर्वशोऽपि पाञ्चमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः पाञ्चमासिकं, प्रतिकुञ्च्य आलोचयतः षाण्मासिकम् ॥ सू० ११ ॥ भाष्यम् – 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'बहुसोवि' बहुशोऽपि पञ्चषड्वारान् बहून् वा 'परिहारद्वाणं' परिहारस्थानं पापस्थानं 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् तस्यालोचनासमये 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य प्रति'कुञ्च नाम कृत्वा, आलोचयतः 'पंचमासियं' पांचमासिकं मासपंचकेन संपादनयोग्यं प्रायश्चित्तं दद्यात् 'पल्डिंचिय' प्रतिकुञ्च्य प्रतिकुञ्चना माया, तां पुरस्कृत्य आलोचयतस्तु 'छम्मा सिय' पाण्मासिकं मासषट्केन संपादनयोग्यं प्रायश्चित्तम् । अप्रतिकुञ्च्यालोचयतः पांचमासिकम्, प्रतिकुञ्च्यालोचयतः षष्ठो मायानिष्पन्नो गुरुमासो दीयते ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम् - तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा, ते चेव छम्मासा ॥ सू० १२॥ छाया - ततः परं प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा त पव षण्मासाः ॥ सू०१२ ॥
भाष्यम् – 'तेण परं' इति । 'तेण परं' तत' परं षाण्मासिकादिपरिहारस्थाने प्रतिसेचितेऽपि आलोचनाकाले 'पलिउंचिए अपलिउंचिए वा' प्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चते वा, प्रति कुञ्चतया वा अप्रतिकुञ्चतया वा आलोचिते 'ते चेव' ते एव प्रतिसेवनानिष्पन्नाः स्थिताः 'छम्मासा' षण्मासाः, नाधिकं प्रतिकुञ्चनानिमित्तम् - आरोपणम् एतादृशजीतकल्पत्वात्, महावीरशासने षाण्मासिकस्यैव प्रायश्चित्तस्य विधानात् ॥ सू० १२ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खु मासियं वा, दोमासियं वा, तेमासियं वा, चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, एएसिं परिहारट्ठाणाणं अन्नयरं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १ सू० १३
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तविधिः ११ चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते वेव छम्मासा ॥ सू० १३ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मासिकं वा, द्वैमासिकं वा, त्रैमासिकं वा, चातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा, एतेषां परिहारस्थानानामन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत्, अप्रतिकुच्य आलोचयतः मासिकं वा, द्वैमासिकं वा, त्रैमासिकं वा, चातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा पाण्मासिकं वा, ततः परं प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा, त एव पण्मासाः ॥ सू०-१३ ।।
भाष्यम् –'जे भिक्खू मासियं' इति । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः माधुः साध्वी वा 'मासियं वा' मासिकं मासेन निवर्तनयोग्यं वा 'दोमासियं वा' 'द्वैमासिकं मात्रद्वयेन 'निर्वत्तनयोग्यं वा 'तेमासियं वा' त्रैमासिकं मासत्रयेण संपादनयोग्यं वा 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं मासचतुष्टयेन सपादनयोग्यं वा 'पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं मासपञ्चकेन संपादनयोग्यं वा 'एएर्सि' एतेषाम् मासिकादारभ्य पाश्चमासिकपर्यन्तानाम् 'परिहारदाणाण' परिहारस्थानानाम् 'अन्नयरं' अन्यतरत् किञ्चिदेकम् एकमासिकं वा द्वैमासिकं वा, त्रैमासिक वा, चातुर्मासिकं वा, पाश्चमासिकं वा 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य कस्यचिद् एकतरस्य पापस्थानस्य प्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् , स्वकीयं परिहारस्थानं आचार्यसमीपे प्रकाशयेत् । तत्र-'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्यालोचयतः कपटमकृत्वा आलोचनाविधिं संपादयतः साधोः क्रमशः मासियं वा' मासिकं वा एकमासनिष्पाद्यम् 'दोमासियं वा द्वैमासिकं वा मासद्वयसंपादनयोग्यम् तेमासियं वा' त्रैमासिकं वा मासत्रयवहनयोग्यं 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा मासचतुष्टयनिष्पादनयोग्य ‘पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं वा मासपञ्चकनिष्पादनीयं लघुकं ,गुरुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि गुरुराचार्यो वा दद्यात् , शुद्धनिष्कपटभावेनोपस्थितत्वात् , 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य आलोचयतः मायापूर्वकमाचार्यसमीपे पापस्थानं प्रकाशयतः मायापराधनिमित्तं मासिकस्थाने द्वैमासिक मासद्वयवहनयोग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि दद्यात् । 'तेमासिथं' त्रैमासिकं प्रायश्चितं द्वैमासिकपापस्थाने लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारिदद्यात् । 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा त्रैमासिकपापस्थाने लघुकं गुरुक वा प्रतिसेवनानुसारि दद्यात् । 'पंचमासियं वा' पाञ्चमासिकं वा प्रायश्चित्तं चातुर्मासिकप्रायश्चित्तस्थाने लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि दद्यात् 'छम्मासियं वा'
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारस्त्रे पाण्मासिकं वा पाञ्चमासिकप्रायश्चित्तस्थाने मायापराधजनितं पाण्मासिकं प्रायश्चित्तमेकमासाधिक दद्यात् । मायापराधनिमित्तत्वेन हेतुना सर्वत्र मासाधिक्यं दद्यात् ।
यथा-यदि मासिकं पापस्थान सेवितं सकपट चालोचयितुमाचार्यसमीपे स्थितस्तस्मै द्वैमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यात् । यदि वा मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेन्य सकपटमालोचयितुमुपस्थितो भवति, तदा तस्मै त्रैमासिकं दद्यात् । यदि वा त्रैमासिकं परिहारस्थानमासेवितं सकपटं चालोचयितुमुपस्थितः तदा तस्मै चातुर्मासिकं दद्यात् । चातुर्मासिकं प्रतिसेवितं तस्मै पाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । पाञ्चमासिकं पापस्थानं सेवितं मायापूर्वकमालोचयितुमुपस्थितस्तस्मै पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । एवं क्रमश एकैकमासस्याधिकं प्रतिकुञ्चनानिमित्तकं प्रायश्चित्तं दद्यात् , इति । 'तेण परं' ततः परम् , ततः पाञ्चमासिकात् परिहारस्थानादूर्व पाण्मासिकादिपापस्थानप्रतिसेवक आलोचनाकाले 'पलिउंचिए अपलिउंचिए वा' प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा मायापूर्वकं मायारहितं वा मालोचिते 'ते चेव छम्मासा' त एव प्रतिसेवनानिप्पन्नाः स्थिताः षण्मासाः, नाषिकं प्रतिकुञ्चनानिमित्तं प्रायश्चित्तम् , वर्द्धमानस्वामिशासने एतादृशस्यैव जीतकल्पस्य विधानात् , अन्यान्यतीर्थकरशासने न्यूनाधिकमपि प्रायश्चित्तं भवति, यथा ऋषभतीर्थकरस्य द्वादश मासाः, वर्द्धमानस्वामिनः षण्मासाः। शेषाणां द्वाविंशतितीर्थकराणां तीर्थे अष्टौ मासा इति । इदानीं तु वर्द्धमानस्वामिनः शासनम् , तस्य तूत्कृष्टं तपः पाण्मासिकमेव, ततोऽस्य तीर्थे सर्वोत्कृष्टमपि प्रायश्चित्तदानं षण्मासा एवेति पाण्मासिकपरिहारस्थानं प्रतिसेव्य प्रतिकुञ्चनयाऽऽलोचयतोऽपि नाधिकमारोपणम् , अतस्त एव षण्मासाः प्रोका इति ॥ सू० १३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वहुसोवि मासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा, बहुसोवि तेमासिय वा, वहुसोवि चाउम्मासियं वा, वहुसोवि पंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा, दोमासियं वा, तेमासियं वा, चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा, तेमासियं वा, चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा, अपलिउंचिए वा, ते चेव छम्मासाः ॥ सू० १४ ॥
छाया-यो भिक्षुर्वहुशोऽपि मासिकं वा, बहुशोऽपि द्वैमासिकं वा, वहुशोऽपि त्रैमासिकं वा, बहुशोऽपि चातुर्मासिक वा, वहुशोऽपि पाञ्चमासिकं वा, एतेषां परिहारस्थानानामन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् , अप्रतिकुच्य आलोचयतः मासिकं वा, द्वैमासिकं वा, त्रैमासिकं वा, चातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा, पाण्मासिकं वा, तेन परं प्रतिकुञ्चिते वा, अप्रतिकुञ्चिते वा, त एव पण्मासाः ॥ सू० १४ ॥
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
vM
भाष्यम् उ० १ सू० १४-१५ परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तविधिः १३
भाष्यम् –'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः साधुः साध्वी वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'मासियं वा' मासिकं वा 'वहुसोवि' बहुशोऽपि 'दोमासियं वा' द्वैमासिकं वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'ते मासियं वा' त्रैमासिकं वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं वा, 'एएसि परिहारहाणाणं' एतेषां मासिकादीनां परिहारस्थानानाम् 'अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता' अन्यतरत् क्रमशः एकं, द्विकं, त्रिकं, चतुष्कं, पञ्चकं वा परिहारस्थानं प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः मायामकृत्वाऽऽलोचनां कुर्वतः 'मासियं वा' क्रमशः मासिकं वा, अत्र वा शब्दः सर्वत्र विकल्पार्थः । 'दोमासियं वा' द्वैमासिकं वा 'तेमासियं वा' त्रैमासिकं वा 'चाउम्मासियं वा' चातु
र्मासिकं वा 'पंचमासियं वा' पाञ्चमासिकं वा प्रायश्चित्तम् । 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्यालोचयतः मायां कृत्वाऽऽलोचनां कुर्वतः सर्वत्राऽऽपन्नप्रायश्चित्तापेक्षयाऽधिको मायानिष्पन्नो लघुमासो गुरुमासो वा दीयते इति । कथमित्याह-मासिकपापस्थानसेवकस्य 'दोमासियं वा' द्वैमासिकं वा, द्विमासप्रायश्चित्तयोग्यपापस्थानसेवकस्य 'तेमासियं वा' त्रैमासिकं वा, एवं क्रमेण 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा 'पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं वा 'छम्मासियं वा' पाण्मासिकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात् 'तेण परं' ततः परं पाञ्चमासिकात् परिहारस्थानात् परं पाण्मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवकस्य 'पलिउचिए वा अपलिउचिए वा' प्रतिकुश्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा सति मायापूर्वकं वा मायारहितं वा कृतायामालोचनायाम् 'ते व छम्मासा' त एव षण्मासाः । तत् ऊर्ध्वम्-अस्मिन् भगवतो वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे आरोपणाया असद्भावात्, इति पूर्वमुक्तमेवेति ॥ सू० १४ ॥ . सूत्रम्-जे भिक्खू चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासिय वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासिय वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं वा साइ. रेगपंचमासियं वा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥ सू० १५॥
छाया - यो भिक्षुश्चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिक वा, पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, एतेषां परिहारस्थानानां अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् , अप्रतिकुच्य आलोचयतः चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिक वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, प्रतिकुञ्च्य आलोचयतः पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, पाण्मासिकं वा तेन परं प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा ते पव षण्मासाः॥२०१५॥
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
vvwww
व्यवहारसूत्रे भाष्यम्--'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा साइरेगचाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा, मासे अतिरेकता आधिक्यं दिवसादिभिः क्वचित् पञ्चरात्रिन्दिवैः, क्वचित् दशरात्रिन्दिवैः, क्वचित् पक्षण, विंशतिदिनैः, पंचविंशतिदिवसात्मकभिन्नमासैर्वा भवति । पंचमासिय वा' पाञ्चमासिकं वा 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, अत्राऽपि सातिरेकता पञ्चदिनादारम्य भिन्नमासात्मिकैव ज्ञातव्या । 'एएसिं' एतेषां चातुर्मासिक-सातिरेक चातुर्मासिक-पाञ्चमासिक-सातिरेकपाञ्चमासिकानाम् 'परिहारठाणाण' परिहारस्थानानां पापस्थानानां मध्ये 'अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता' अन्यतरत् एतेषु यत् किमप्येकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य यदि 'आलोएज्जा' आलोचयेत् पापापनोदनाय आचार्यसमीपे प्रकाशयेत् , तत्र-'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य मायामकृत्वा निष्कपटो भूत्वेत्यर्थः आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात् तदा तस्य तथाविधस्य प्रतिसेवकस्य 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा यत्प्रतिसेवितं तदेव 'साइरेगचाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा पञ्चदिवसाद्यधिकं चातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । 'पंचमासियं वा' पाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं यावन्मात्र प्रतिसेवितं तावन्मात्रमेव, 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेकपाश्चमासिकं वा पञ्चदिवसाद्यधिकं पाश्चमासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । 'पलिडंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य कपटं कृत्वा आलोचयतः प्रतिसेवकस्य 'पंचमासियं वा' चातुर्मासिकपरिहारस्थानसेवने पाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं दातव्यम् , तत्र च चातुर्मासिकस्य प्रतिसेवनानिमित्तत्वात् , मासाधिक्यस्य च मायापराधजनितत्वात् । 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, सातिरेकचातुर्मासिकपापस्थाने सेविते सति सातिरेकपाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं दातन्यमित्यर्थः । 'छम्मासिय वा' पाण्मासिकं वा पाञ्चमासिकसातिरेकपाश्चमासिकपापस्थानप्रतिसेवकस्य सकपटमालोचयतस्तस्य पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दातव्यमित्यर्थः । 'तेण परं' तेन ततः तस्मात् पाण्मासिकात् परिहारस्थानात् परं परस्मिन् सप्ताष्टादिके परिहारस्थाने प्रतिसेविते -प्रतिसेवकस्य 'पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा' प्रतिकुश्चिते सकपटे, अप्रतिकुञ्चिते निष्कपटे वा प्रतिसेवके 'ते चेव छम्मासा' ते एव षण्मासा एतदधिकप्रायश्चित्तस्य विधानाभावात् ।। सू० १५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा, वहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा वहुसोवि पंचमासियं वा वहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासिंयं वा साइरेगपंचमासियं वा छम्मासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥ सू० १६॥
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १ सू० १६
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तविधिः १५ छाया-यो भिक्षर्वहशोऽपि चातुर्मासिकं वा, वटुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा वहुशोऽपि पाश्चमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, एतेषां परिहारस्थानानां (मध्याद् ) अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत्, अप्रतिकुच्य आलोचयतः चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं, वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, अप्रतिकुच्य आलोचयतः पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, प्रतिकुञ्च्य आलोचयतः पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाश्चमासिकं वा, पाण्मासिकं वा, ततः परं प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा ते चेव पण्मासाः ॥ सू० १६॥ __ भाष्यम्-'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'वहुसोवि' बहुशोऽनेकशोऽनेकवा रानित्यथः 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं मासचतुष्टयेन सपादनयोग्यम् । 'बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा' वहुशोऽनेकवारान् सातिरेकचातुर्मासिकं चातुर्मासिकपरिहारस्थाने सातिरेकत्व रात्रिन्दिवपञ्चकादिभिर्भवति । रात्रिन्दिवपञ्चकादारभ्य भिन्नमासेनाऽधिकत्वमित्यर्थः । बहुसोवि पंचमासियं वा' बहुशोऽपि अनेकवारमपि पाञ्चमासिकं वा मासपञ्चकेन संपादनयोग्यं परिहारस्थानम् , 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेकपाञ्चमासिकं वा 'एएसिं परिहारहाणाणं' एतेषां चातुर्मासिकादिपरिहारस्थानानां मध्यात् 'अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता' अन्यतरत् यत्किमप्येकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आचार्यसमीपे दोषं प्रकाशयेत् । तत्र-'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य मायामकृत्वा निष्कपटभावेन आलोचयतः 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा 'साइरेगचाउमासियं वा' सातिरेकचातुमासिकं वा प्रायश्चित्तम् । 'पंचमासियं वा' पाञ्चमासिकं वा 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेकपाञ्चमासिकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि दद्यादाचार्यः। 'पलिडंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य मायापूर्वकम् आलोचयतः चातुर्मासिकपरिहारस्थाने 'पंचमासियं वा' पाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात्, तत्र-मासचतुष्टयपापस्थानस्य प्रतिसेवनाजनितत्वात् , मासाधिक्यस्य च मायापराधजनितत्वात् । सातिरेकचातुर्मासिकपरिहारस्थाने तु 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेकपाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं दातव्यम् । सातिरेकपाञ्त्तमासिकपरिहारस्थाने सकपटमलोचयतस्तु 'छम्मासियं वा' पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दातव्यम् । 'तेण परं' तेन ततः पञ्चमासाधिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनात् परं परस्मिन् परिहारस्थाने षट्सप्ताष्टादिमासिके प्रतिसेविते तु 'पलिउंचिए अपलिउंचिए वा' प्रतिकुञ्चिते सकपटे, अप्रतिकुञ्चिते निष्कपटे वा 'ते चेव छम्मासा' ते एव षण्मासाः प्रायश्चित्तरूपेण दातव्याः, कारणं पूर्वमुक्तमेवेति ।
ननु यदि शिष्यः प्रतिकुञ्य आलोचनां कुर्यात् तदा गुरुणा कथं ज्ञायते यदयं मूलगुणविषयं पापं सेवितवान् उत्तरगुणविषयं वा ? एवं सति न तस्य सम्यक् पापशुद्धिर्जायते । यदि तेन उत्तरगुणविषयं पापं सेवितं भवेत् तदा तस्मिन्ननालोचिते परम्परया मूलगुणेषु दोष
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र
प्रसङ्गः, तेन चारित्रं कलुषितं भवति, उत्तरगुणातिचारा हि मूलगुणानपि विराधयन्ति, मूलोत्तरगुणानां परस्परं संबद्धत्वात् । यदि मूलगुणविषयं पापं सेवितं भवेत्तदा चारित्रमेव समूलं विनश्यति । विशेषस्त्वेतावानेव यत् मूलगुणनाशे तत्कालमेव साधोश्चारित्रपर्वतादवपातो भवेत् , उत्तरगुणनाशे तु कालक्रमेण चरित्रनाशः संजायते, उक्तञ्च
"अग्गघाओ इणे मूलं, मूलघाओ य अग्गयं ।
मृलोत्तरगुणे नेव, विराहिज्जा कयाइ वि" ॥१॥ छाया-अग्रघातो मूलं हन्यात् , मूलघातश्च अग्रकम् ।
(तस्मात् ) मूलोत्तरगुणान् नैव विराधयेत् कदाचिदपि ॥१॥ अत्र तालो दृष्टान्तः-तालवृक्षस्याऽग्रे सूच्या घातो मूलं हन्ति । मूलघातस्तु सर्वं वृक्षमेव ___ हन्ति अग्रभागस्य का कथा इति । अत्र विषमक्षिकुपथ्यसेविनोईयोदृष्टान्ते गाथामाह
"एगो य विसं भक्खइ, वीओ सेवइ कुपत्थमाहारं ।
सज्जो मरइ य पढमो, अवरो कालक्कमेणेव” ॥१॥ छाया-एकश्च विषं भक्षति, द्वितीयः सेवते कुपथ्यमाहारम् ।
सद्यो नियते प्रथमः, अपरः कालक्रमेणैव ॥१॥ तथाहि--एकेन केनचित् पुरुषेण प्रच्छन्न विषं भक्षितम् , वैद्येन पृष्टम्-किं त्वया भक्षितं सद्यः सत्यं वद येन तदुपशामकमौषधं दत्त्वा त्वां प्रगुणीकरोमीति । तेन 'न किमपि भक्षितम्' इत्युक्त्वा विषभक्षणं संगोपितं वैद्याय न प्रकाशितम् । ततः स तदोषेण तत्कालमेव जीविताद् ध्वस्तोऽभवत् । द्वितीयः पुनः प्रच्छन्नं कुपथ्यं सेवते तेन प्रतिदिनं तस्य शरीरे रोगो वर्धितुमारब्धः, वैयेन पृष्टम्-किं त्वं कुपथ्यं सेवसे येन तव शरीरे रोगः प्रतिदिनं वृद्धिमेति, सत्यं यथावस्थितं प्रकाशय येन त्वां प्रगुणीकरोमि । तेन मायां कृत्वा वैद्याय न किमपि प्रकाशितम् , क्रमेण तस्य स रोगः असाध्यतां प्राप्तः, ततः कालक्रमेण स मृतवानिति । एवं मूलोत्तरगुणदोषसेविनाऽपि गुरुसमीपे मालोचनाकाले गुरुणा पृष्टे सति मायाचरणं न कर्त्तव्यं, यथावस्थित सर्व वदेदिति । शिप्यः पृच्छति भदन्त ! कीदृशो भिक्षुरालोचना) भवितुमर्हति ? गुरुराह
"जाइकुलाईदसगुण, जुत्तो आलोयणारिहो सीसो । ___ आलोयइ सो सम्मं, भीरुत्तणओ य पावस्स" ॥१॥ इति । छाया-जातिकुलादिदशगुणयुक्त आलोचनाहः शिष्यः ।
आलोचयति सम्यक् भीरुत्वाच्च पापस्य ॥१॥
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग्यम् उ०१ सू० १६
आलोचनाऽहनिहशिष्यगुणदोषप्ररूपणम् १५ - आलोचनार्हस्य दश गुणा यथा-जाति१-कुल२-विनय३-ज्ञान४-दर्शन५-चारित्र६क्षान्ति७-दमा८-ऽमायित्व९-पश्चात्तापित्वाख्याः १० । ननु केन कारणेन एतावन्तो गुणा आलोचनार्हस्य इष्यन्ते । तत्राह-जातिसम्पन्नः-जातिः-मातृपक्षरूपा तया संपन्नः-विशुद्धमातृपक्ष इत्यर्थः एतादृशः प्रायोऽकृत्यं न सेवते, अथ कथमपि दोष आपतेत् तदा आलोचनाकाले सम्यगालोचयति १ । कुलसम्पन्नः—कुलेन-पितृपक्षरूपेण संपन्नः, विशुद्धपितृपक्षो हि प्रतिपन्नप्रायश्चित्तस्य सम्यग निर्वाहको भवति २ । विनयसम्पन्नः-गुरोरभ्युत्थाननिषद्यादानादिविनय सम्यक् करोति ३ । ज्ञानसम्पन्न:-श्रुतानुसारेण सम्यगालोचयति यत् 'अमुकश्रुतानुसारेण मे दत्तं प्रायश्चित्तमतः शुद्धोऽह'-मिति जानीते ४ । दर्शनसम्पन्नः-प्रायश्चित्तात् स्वस्य शुद्धिं सम्यक् श्रद्धत्ते ५ । चारित्रसम्पन्न:-पुनरतिचारं न सेवते, अनालोचिते चारित्रं न शुध्यतीति सम्यगालोचयति ६ । क्षान्तिसम्पन्नः-कस्मिंश्चित्कारणविशेषे गुरुणा कठोरमपि भाषितं सम्यक् प्रतिपद्यते न तु रोषं कुरुते, यदपि प्रायश्चित्तमारोपितं तत् सम्यग् वहतीति ७ । दान्तः-इन्द्रियदमनसम्पन्नः-नोइन्द्रियदमनसम्पन्नः प्राप्तप्रायश्चित्ततपो मनोवलसम्पन्नत्वेन सम्यगाराधयति ८ । अमायित्वसम्पन्नः-माया अस्यास्तीति मायो, न मायी अमायी, तस्य भावोऽमायित्वम् , तेन संपन्नः, मायारहितोऽप्रतिकुञ्चितमालोचयति ९ । अपश्चात्तापित्वसम्पन्न:-पश्चात्तापः प्रायश्चित्तप्राप्तौ मनोमालिन्यम् , सोऽस्यास्तीति पश्चात्तापी, गुरुदत्तप्रायश्चित्तप्राप्तौ पश्चात्तापकारकः यथा-'हा दुष्टु मया कृतं यद् आलोचितम् , इदानीं कथमहं प्रायश्चित्ततपः करिष्यामि, इत्यादिचिन्तकः, यो न तथा सः अपश्चात्तापी, स एवं मनुते-कृतपुण्योऽहं यत् कृतपापस्य प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नवानिति १० । एतादृशदशगुणसम्पन्नेन आलोचकेन भाव्यमिति । एवमेवोक्तं भगवता स्थानाङ्गस्य दशमे स्थाने इति ।
आलोचनानर्हस्य दोषा अपि दश भवन्ति तानाहगाथा-"आवज्जणाणुमाणा-इदोसजुत्तो हविज्ज जो सीसो।
सो आलोयणनरिहो, नालोयइ सुद्धभावेणं" ॥१॥ छाया-आवर्जनानुमानादिदोषयुक्तो भवेत् यः शिष्यः ।
स आलोचनानहः नालोचयति शुद्धभावेन ॥१॥ आधर्जनानुमानादिदोषयुक्तः इति । आलोचनाऽनहस्य आवर्जना१-ऽनुमान२–दृष्ट३बाद४-सूभ५-छन्न६-शब्दाकुल७-बहुजना८-ऽव्यक्त९-तत्सेवि१० मेदाद् दश दोषाः भवन्ति । तथाहि-'आवर्जितः वशीकृतः सन् आचार्यो मेऽल्पं प्रायश्चित्तं दास्यति' इति बुद्ध्या
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसत्रे विनयवैयावृत्त्यादिभिरालोचनाचार्यमाराध्य आलोचनाकरणं आवर्जनाख्यः प्रथम आलोचनादोषः १ । आलोचकोऽनुमान करोति - यदयं ममाचार्यः अमुकप्रकारकवार्त्तालापादिचेष्टया मृदुदण्डप्रदायी भविष्यतीति विचार्य तथाविधां वार्त्ता कृत्वा आलोचनाकरणं स अनुमानाख्यो द्वितीय आलोचनादोषः २ । आचार्यादिना मया क्रियमाणं यदपराधजातं दृष्टं तस्यैवालोचनां करिष्यामोति मनसि निधाय आलोचनाकरणम् दृष्टास्यस्तृतीय आलोचनादोषः ३ । बादरस्यैव बृहत एव दोषजातस्यालोचनाकरणं न सुक्ष्मस्येति चतुर्थो बादराख्य आलोचनादोषः ४ | आचार्यों ज्ञास्यति यः सूक्ष्ममालोचयति स बादरं कथं नालोचयिष्यतीति आचार्यस्य विश्वासोत्पादनार्थं सूक्ष्मस्यैव दोषजातस्यालोचनाकरणं सूक्ष्माख्यः पञ्चम आलोचनादोषः ५ । लज्जालुतामुपदर्श्य मन्दशब्देन पापं तथाऽऽलोचयति यथा केवलं स्वयमेव शृणोति न तु आलोचनादायक आचार्यादिः, इत्येवमालोचनाकरणं षष्ठः छन्नाभिघ आलोचनादोषः ६ । महता शब्देन आलोचनाकरणं, तथा आलोचयति यथा अन्येऽपि अगीतार्थादयः शृण्वन्तीत्येष शब्दाकुलाख्यः सप्तम आलोचनादोषः ७ । एकान्तेऽनालोच्य बहुजनमध्ये आलोचनाकरणम्, अथवा एकस्याचार्यस्य समीपे आलोच्य तस्यैवापराधजातस्य अन्यान्याचार्याणां सविधेऽपि पुनः पुनरालोचनाकरणं बहुजनाख्योऽष्टम आलोचनादोषः ८ । अव्यक्तस्य अगीतार्थस्य समीपे आलोचनाकरणं नवमोऽव्यक्ताख्य आलोचनादोषः ९। यमपराधमालोचयति तस्यैव पुनः सेवनं तत्सेविनामको दशम आलोचनादोषः १० । एतादृशदशदोषधारकः शिष्यः, आलोचना नहीं भवति, नासौ आलोचनायोग्य इति स्थानाद्गस्य दशमे स्थाने प्रोक्तमिति । दशभ्यः कारणेभ्यो दोषाः समापद्यन्ते इति दश दोषान् गाथाद्दयेन दर्शयति—
१८
" कंदप्पो १ य माओ २, अन्नाणं ३ तह अकदभावो ४ य । आवत्ती ५ तह संकड ६, छुहा ७ तहा रागदोसा ८ य ॥१॥ णवमं च भयं णेयं ९, दसमं पुण परनिमित्तसंजयं १० । एयं कारणजायं, दोसुप्पाए मुणेयब्वं" ||२|| इति ।
छाया -- कन्दर्पश्च १ प्रमादः २, अज्ञानं ३ तथा अकस्माद्भावश्च ४ | आपत्तिः५ तथा संकटः ६ क्षुधा ७ तथा रागद्वेषौ ८ च ॥१॥ नवमं च भयं ९ ज्ञेयम्, दशमं पुनः परनिमित्तसंजातम् १० । एतत् कारणजातं, दोषोत्पादे ज्ञातव्यम् ॥२॥
तत्र – कन्दर्पः कामविकारः तद्वशवर्त्ती पापं सेवते १ । प्रमादः - निद्राविकथादिरूपः २ । अज्ञानं दोषानभिज्ञत्वम् ३ । अकस्माद्भावः अचिन्त्यत्वेन समापतितम् ४ । आपत्तिः - दुष्टराजादिजन्या ५ । संकटः-मरणादिरूपः ६ । क्षुधा - क्षुधापरीषहस्याऽसहनशीलत्वम्, यथा "बुभुक्षितः किं
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०१ सं० १७
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तारोपणविधिः १९ न करोति पापम्" इति न्यायात् क्षुधाऽपि दोषोत्पत्तौ कारणं जायते ७ । रागद्वेषौ ८ । भयं-मनुष्यदेवतिर्यग्जन्यम् ९ । परनिमित्तसंजातम्-परोऽन्यो निमित्तं यत्र तत् परनिमित्तं, तेन संजातं समुत्पन्न, यं निमित्तीकृत्य पापं सेवते तत् १० । एतत् पूर्वोक्तं कारणजात कारणसमूहः कारणदशकमित्यर्थः दोषोत्पादे-दोषोत्पत्तौ ज्ञातव्यम् ॥१-२॥ एतानि दश कारणानि दोषोत्पत्तौ संभवन्तीति भावः ।। सू० १६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू चाउम्मासियं वा, साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुव्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्यं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुन्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४। अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥ सू० १७ ॥
छाया--यो भिक्षुश्चातुर्मासिकं वा, सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा, सातिरेकपाञ्चमासिकं घा, पतेपां परिहारस्थानानाम् अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत्, अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्त्यम, स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य सोऽपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् , पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात् प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् ३, पश्चात प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४ । अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् १, अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् २, प्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् ३, प्रतिकुंचिते प्रतिकुञ्चितम । अप्रतिकश्चिते अप्रतिकुञ्चितम् आलोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहत्य यः एतया प्रस्थापनया प्रस्थापितः निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् ।। सू० १७॥
भाष्यम्-'जे भिक्खू इति ।जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा परिहारस्थानम् । 'साइरेगचाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पञ्चदिनाघधिक चातुर्मासिक परिहारस्थानम् , 'पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं वा 'साइरेगपंचमासयं वा' सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, 'एएर्सि' एतेषां पाञ्चमासिकान्तानाम् 'परिहारहाणाणं' परिहारस्थानानाम् 'अन्नयरं' अन्यतरत् , एतेषु यत्किमपि एकम् 'परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता' परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात् , तत्र 'अपलिउँचिय आलोएमाणस्स अप्रतिकुञ्च्य मायामकृत्वा निष्कपटभावेन आलोचयतः 'ठवणिज्ज ठावडत्ता'
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૦
sriricis
स्थापनीयं स्थापयित्वा परिहारतपसो दानसमये आचार्यः पारिहारिकांय एतादृशं नियमं श्रावयति-यः खलु प्रतिसेवकः परिहारर्तपः प्रायश्वित्तस्थानं प्राप्तः तस्य परिहारनामकर्तपोदानांय सर्वेषां साधु-साध्वीजनानां परिज्ञानाय सकलगच्छसमक्षं निरुपसर्गप्रत्ययं निरुपसर्गनिमित्तं कायोत्सर्गः पूर्वं क्रियते । कायोत्सर्गकरणानंतरं आचार्यः प्रतिसेवकं प्रति वक्ति-अहं ते कल्पस्थितः, 'अयं साधुरनुपारिहारिकः ततः स्थापनीयं स्थापयित्वेति यत्नेन सहाचरणीयम् तत् स्थाप्यते इति स्थापनीयम् अग्रे वक्ष्यमाणमालापन परिवर्तनादि, तत् सकलगच्छसमक्षं स्थापयित्वा कल्पस्थितेनाSनुपारिहारिकेण च यथायोगमनुशिष्टयपालम्भोपग्रहरूपं वक्ष्यमाणं वैयावृत्यं करणीयम्, 'ठांविएवि पडिसेवित्ता' स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य ताभ्यां क्रियमाणेऽपि वैयावृत्ये स्थापितेऽपि आलापनादौ कंदाचित् किमपि प्रतिसेव्य गुरोः समीपमुपागच्छेत् यथा भगवन् ! अहममुकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः । अतः 'सेवि' तदपि 'कसिणं' कृत्स्नं परिहारतपसि क्रियमाणे 'तत्थेव ' तथैव परिहारतपसि एव 'आरुहेयव्वे सिया' आरोहयितव्यं - आरोपणीयं स्यात्, 'स्यादित्यव्ययमत्रावघारणे, तेनारोहयितव्यमेव, केवलं तत्कृत्स्नमारोपयितव्यमिति । अनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेंन वा । तस्य प्रतिसेवितस्य गुरुसमक्षमालोचनायां चतुर्भङ्गी भवति, तामेव दर्शयितुमाह
-
'पुव्वं पडिसेवियं पुत्रं आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचिंतम् । अत्र पूर्वमित्यंत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पूर्वाऽऽनुपूर्येति ज्ञातव्यम् । ततश्चाऽयमर्थः - गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वानुपूर्व्या लघुपञ्चकादिक्रमेण यत् प्रतिसेवितं तत् पूर्व पूर्वानुपूर्व्येति प्रतिसेवनानुक्रमेणाssलोचितमिति प्रथमो भङ्गः १ ।
द्वितीयभङ्गमाद - 'पुत्रं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम्, पूर्व गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वाऽऽनुपूर्व्या मासलघुकादि प्रतिसेवितंम्, तदनन्तरं च अल्पप्रयोजनोत्पत्तौ गुरुलघुपर्यालोचनयैव लघुपञ्चकादि प्रतिसेवितम् । आलोचनासमये तु पश्चात् - पचानुपूर्व्या आलोचितं, पूर्व लघुपञ्चकांबालोचितं, पश्चात् लघुमासादिकमालोचितमिति द्वितीयो भङ्गः २ ।
तृतीयभङ्गमाह – 'पच्छा पडिसेवियं पुत्रं आलोइयं' पश्चात्प्रतिसेवितं पूर्वमालोचिंतम् । पश्चात् पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनामन्तरेण पूर्वं गुरुमासादिकं प्रतिसेवितं पश्चाल्लघुपञ्चकादीति आलोचनासमये आनुपूर्व्या आलोचितम् पूर्वं लघुपञ्चकाद्यालोचितं पश्चात् गुरुमांसादीत्यर्थः ' इति तृतीयो भङ्गः ३ ।
अथ चतुर्थभङ्गमाह - 'पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितं, पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनादिविरहितं यथाकथञ्चन प्रतिसेवित
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग्यम् उ० १ २०१७ प्रतिकुश्चनाऽप्रतिकुश्चनायां प्रायश्चित्तदानविधिः २१ मित्यर्थः पश्चात् पश्चानुपूर्त्या आलोचित प्रतिसेवनानुक्रमेणैवालोचितम् । अथवा स्मृत्वा स्मृत्वा यथाकथञ्चनाऽप्यालोचितमिति चतुर्थों भङ्गः ४।
अत्र प्रथमचतुर्थभङ्गौ अप्रतिकुञ्चनायाम् , द्वितीय-तृतीयभगौ प्रतिकुञ्चनायाम् , इति प्रतिकुञ्चनाऽप्रतिकुञ्चनाभ्यामियं चतुर्मगी भवति तामेवाह-'अपलिउंचिए अपलि चियं' इत्यादि ।
'अपलिउंचिए अपलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितम् , यदा खलु अपराधान् प्राप्तः आलोचनाभिमुखस्तदा कश्चिदेव संकल्पितवान् यथा-ये केचन मयि अपराधास्ते सर्वेऽपि मंया आलोचनीयाः, एवं पूर्वसकल्पकाले अप्रतिकुञ्चिते आलोचनासमये अप्रतिकुञ्चितमेवं आलोचयतीति प्रथमो भङ्गः १॥ . द्वितीयभङ्गमाह-'अपलिउंचिए पलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम्, यथापूर्व संकल्पकाले अप्रतिकुश्चितं निष्कपटभावेनोपस्थितः, आलोचनाकाले तु प्रतिकुञ्चितं सकपटमालोचयति, इति द्वितोयो भनः २ ।
तृतीयभगमोह-'पलिउंचिए अपलिउंचिय' प्रतिकुंचिंते अप्रतिकुञ्चितं, पूर्व संकल्पकाले केनापि प्रतिकुञ्चितम् यथा-न मया सर्वे अपराधा आलोचनीयाः, एवं पूर्व संकल्पकाले प्रतिकञ्चिते मालोचनावेलायां भावपरावृत्तेः सर्वमपि अतिकुञ्चितं कपटरहितमालोचयतीतितृतीयो भङ्गः३।
अथ चतुर्थभङ्गमाई–'पलिउंचिए पलिउंचिय' प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुंचिंतम् । पूर्व संकल्पकाले केनापि प्रतिसेवकेन प्रतिकुञ्चितम् यथा-मया न सर्वेऽपराधीः आलोचनीया ततः एवं संकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते आलोचनावेलायामपि प्रतिकुञ्चितं संकपटमेवालोचयतीति चतुर्थों भडः ४।
तंत्र-'अपलिउंचिए 'अपलिउंचियं आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्चिते 'अप्रतिकुञ्चितम् आलोचयतः । तत्राऽप्रतिकुञ्चितमालोचयतो वीप्सा साकल्येन व्याप्ता भवति, ततश्चाऽयमर्थः-निरवशेषमालोचयतः 'सव्वमेयं' सर्वमेतद् यदापन्नमपराधजातम् , अथवा कथमपि प्रतिकुंचना कृता स्यात् ततः प्रतिकुंचनानिष्पन्न, यच्च गुरुणा सह आलोचनाकाले समासनोच्चासननिष्पन्न, या चाऽऽलोचनाकाले 'असमाचारी, तन्निष्पन्नं च सकलमेतत् संकर्य स्वकृतं स्वयमात्मना अपराधकारिणा कृतम् 'साहणिय' संहृत्य एकत्र मेलयित्वा यदि . संचयितं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नस्ततः पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । यत् पुनः पाण्मासिका. तिरिक्त तत्सर्वं झोषयेत् परित्यजेत् । अथ मासादिकं द्वैमासिकं त्रैमासिकं चातुर्मासिकं, पाश्च
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
व्यवहारसूत्रे मासिकं प्रायश्चित्तमापन्नस्ततस्तदेव मासादिकं प्रायश्चित्तं दातव्यमिति शेषः । 'जे' यः साधुः साध्वी वा यदि 'एयाए' एतया अनन्तरपूर्वकथितया पाण्मासिक्या मासिक्यादिकया वा 'पट्टवणाए' प्रस्थापनया प्राक् पूर्वकाले कृतस्य स्वयं संपादितस्याऽपराधस्य विषये या स्थापना प्रायश्चित्तदानप्रस्थापना, तया प्रस्थापनया 'पट्टविए' प्रस्थापितः प्रायश्चित्तकरणे प्रवर्तितः सः 'निविसमाणे' निर्विशमानः ततः प्रायश्चित्तवहनं कृत्वा निस्सरन् अन्तिमं प्रायश्चित्ततपः कुर्वन्नित्यर्थः, यत्पुनः प्रमादतो विषयकषायादिभिर्वा 'पडिसेवेइ' प्रतिसेवते पुनः पापमाचरति ततस्तस्यां प्रतिसेवनायां यत्प्रायश्चित्तं सेवते 'सेवि' तदपि 'कसिणं' कृत्स्नं सकळम् अनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वा सर्वमपि 'तत्थेव' तत्रैव पूर्वप्रस्थापिते एव प्रायश्चित्ते 'आरु हियव्वे सिया' आरोहयितव्यमारोपणीयम् , तदपि सर्व संमेल्य पूर्वप्रस्थापितप्रायश्चित्त बर्द्धनीयं स्यादित्यर्थः । सू० १७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू चाउम्मासियं वा, साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलो एज्जा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया पुज्यं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुन्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुत्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउचियं २, पलिंउँचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ । पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सबमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टविए निविसमाणे पडसेवई सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥ सू० १८॥
छाया-यो भिक्षुश्चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा, सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, पतेषां परिहारस्थानानाम् अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्यालोचयेत्, प्रतिकुञ्च्यालोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्यम्, स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोपयितव्यं स्यात् । पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात् प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् ३, पश्चात् प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४ । अप्रतिकुंचिते अप्रतिकुञ्चितम् १, अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् २, प्रतिकुञ्चितेमप्रतिकुञ्चितम् ३, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् ४ । प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुंचितम् आलोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहृत्य य पतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात् ।। सू० १८॥
भाष्यम्-'जे भिक्खू' इति 'जे भिक्खू' य. कश्चिद् भिक्षुः 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकंवा 'साइरेगचाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा 'पंचमासियं वा' पाञ्चमासिकंवा 'साइरेग
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाज्यम् उ० १ सू० १८ प्रतिकुञ्चनाप्रतिकुश्वनायां प्रायश्चित्तदानविधिः २३ पंचमासियं वा' सातिरेकपाञ्चमासिकं वा 'एएसि परिहारहाणाणं' एतेषां चातुर्मासिकादिपरिहारस्थानानाम् 'अन्नयरं परिहारहाणं पडिसे वित्ता' अन्यतरत् एतेषु मध्ये यत् किमप्येकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् स्वकीयमपराघजातमाचार्यसमीपे प्रकाशयेत् । तत्र 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुच्य सकपटमालोचयतः 'ठवणिज्ज ठावइत्ता' स्थापनीयं स्थापयित्वा यः साधु साध्वी वा परिहारतपःपायश्चित्तस्थान प्राप्तः तस्य परिहारतपोदानार्थ सकलसाधुसाध्वीजनपरिज्ञानाय सकलगच्छसमक्षं निरुपसर्गप्रत्ययं पूर्व कायोत्सर्गः क्रियते, कायोत्सर्गकरणानन्तरं गुरुइँते–अहं ते कल्पस्थितः, अयं च साधुरनुपारिहारिकः । ततः स्थापनीयं स्थापयित्वेति यत्नेन सहाचरणीयम् । स्थाप्यते इति स्थापनीयं वक्ष्यमाणमालापनपरिवर्तनादि, तत् सकलगच्छसमक्ष स्थापयित्वोपवेश्य कल्पस्थितेनाऽनुपारिहारिकेण च यथायोगं अनुशिष्टयपालम्भरूपम् 'करणिज्जं वेयावडियं' करणीयं वैयावृत्यं तस्याऽऽहारादिना वैयावृत्यं करणीयम् । 'ठाविएवि पडिसेवित्ता' स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य ताभ्यामाचार्य-वैयावृत्यकर्तृभ्यां क्रियमाणेऽपि वैयावृत्ये स्थापितेऽप्यालापनादौ कदाचित् किमपि दोषं प्रतिसेव्य गुरोः समक्षमुपस्थितो भवेत् , यथा-भगवन् ! अहम् अमुकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, ततः ‘सेवि कसिणे तत्येव आरोहियव्वे सिया' तदपि कृत्स्नं तत्रैवाऽऽरोपयितव्यं स्यात्, तदपि कृत्स्नं परिहारतपसि आरोग्यमाणे आरोपणीयं स्यात् । तत्र तस्य प्रतिसेवितस्याऽऽचार्यसमक्षमालोचनायां चतुर्भङ्गी भवति, तामेवाह-'पुव्वं' इत्यादि । 'पुव्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् , तत्र पूर्वमित्यस्य पूर्वाऽऽनुा इत्यर्थः । ततोऽयमर्थः,-गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वाऽऽनुपर्ध्या लघुपञ्चकादिक्रमेण प्रतिसेवितं, तत् पूर्व पूर्वाऽऽनुपर्ध्या प्रतिसेवनाऽनुक्रमेणाऽऽलोचितमिति प्रथमो भगः १ ।
द्वितीयभङ्गमाह-'पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइय' पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितं, पूर्व गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वाऽऽनुपा मासलघुकादि प्रतिसेवितं, तदनन्तर च तथाविधाऽल्पप्रयोजनोत्पत्तौ गुरुलघुपर्यालोचनयैव लघुपञ्चकादि प्रतिसेवितम् । मालोचनाकाले तु पश्चात् पश्चाऽऽनुपूर्व्या आलोचितं, पूर्व लघुपश्चकाद्यालोचितं पश्चात् लघुमासादिकमालोचितमिति द्वितीयो भङ्गः २।
तृतीयभङ्गमाह-'पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं' पश्चात् प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितं पश्चादानुपूर्ध्या प्रतिसेवितं, गुरुलघुपर्यालोचनामन्तरेण पूर्वं गुरुमासादिकं प्रतिसेवितम् पश्चात् लघुपञ्चकादि प्रतिसेवितम् । आलोचनावेलायां मानुपूर्व्या आलोचितं पूर्व लषपञ्चकाघालोचितं पश्चात् गुरुमासादीति तृतीयो भङ्गः ३।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
चतुर्थभङ्गमाह - 'पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं पश्चात् प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् । तत्र-पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनादिविरहितो भूत्वा तेन यथाकथञ्चन प्रतिसेवितम् पश्चात् पश्चाऽनुपूर्व्या आलोचितं प्रतिसेवनाऽनुक्रमेणैवालोचितम् अथवा स्मृत्वा स्मृत्वा यथाकथञ्चनाऽऽप्यालोचितमिति चतुर्थी भङ्गः ४ ।
ܕ
इह प्रथमचरमभङ्गौ अप्रतिकुञ्चने, द्वितीयतृतीयौ प्रतिकुञ्चनायामिति । यदिह प्रतिञ्चनाऽप्रतिकुञ्चनाभ्यां चतुर्भङ्गी कृता, तामेवाह - 'अपलिउंचिए' इत्यादि । 'अपलिउंचिए अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितम् । यदा खलु अपराधान् प्राप्तः आलोचनाभिमुखः तदैवं संकल्पं कृतवान् कश्चित् य - यथा सर्वेऽपि अपराधाः मया आलोचयितव्याः, एवं पूर्वसंकल्पकाले - ऽप्रतिकुञ्चिते आलोचनावेलायामप्रति कुञ्चितमेवालोचयतीति प्रथमो भङ्गः १ ।
3
द्वितीयभङ्गमाह - 'अपलिउंचिए पलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं पूर्वं संकल्पकाळेऽप्रतिकुञ्चितम् आलोचनासमये तु प्रतिकुञ्चितं सकपटमालोचनं कृतमिति द्वितीयो भङ्गः । तृतीयभङ्गमाह - 'पलिउंचिए अपलिउंचिय' । प्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितम् - पूर्वं संकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते आलोचनाकाले भावपरावर्त्तनात् सर्वमपि अप्रतिकुञ्चितम् आलोचयतीति तृतीयो भङ्गः ३ ।
चतुर्थभङ्गमाह – 'पलिउंचिए पलिउंचियं प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं यथा पूर्वं सकल्पकाले केनापि प्रतिकुञ्चितं सकपटं मया सर्वेऽपराधा नालोचनीयाः, तत एवं संकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते, आलोचनाकालेऽपि प्रतिकुञ्चितमेवालोचयतीति चतुर्थो भङ्गः ४ ।
तथा च- निरवशेषं परिहारस्थानमालोचयतः सर्वमेतत् यदापन्नमपराधजातं यदि वा कथमपि प्रतिकुञ्चना कृता स्यात् ततः प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नं यच्चाचार्येण सहालोचनासमये तुल्यासनोच्चासननिष्पन्न या चालोचनाकाले असमाचारी तन्निष्पन्नं च । 'पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स' प्रतिकुश्चिते प्रतिकुञ्चितमालोचयतः - 'सव्वमेयं' सर्वमेतत् उपरोक्तमपराधजातम् 'सकयं' स्वकृतं स्वयमात्मनाऽपराधकारिणा कृतमुत्पादितमिति स्वकृतमपराधजातम् 'साहणिय' संहत्य सर्वमेकत्र मेलयित्वा यदि सञ्चयितं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, ततः षाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । यत्पुनः पाण्मासिकातिरिक्तमप्रराघनात तत्सर्वमपि परित्यजेत् । अथ पुनर्यदि मासादिकं ग्रायश्चित्तस्थानमापन्नः ततस्तावन्मात्रं मासादिकमेव प्रायश्चित्तं दातव्यं नाधिकमिति । 'जे एवाए पत्रणाए पट्टविए' यः साधुः साध्वी वा एतया अनन्तरपूर्वकथितया षाण्मासिक्या मासिक्यादिकया वा प्रस्थापनया प्राकृकृतस्याऽपराधजातस्य विषये या स्थापना प्रायश्चित्तदान
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् सू०१९
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तदानविधिः २५
ww
प्रस्थापना, तया प्रस्थापनया प्रस्थापितः प्रायश्चित्तकरणार्थ प्रस्थापितः सम्यक् प्रवत्तितः । 'निविसमाणे' निर्विशमानः प्रायश्चित्तवहनानन्तरं ततो निस्सरन् प्रतिसेवको यदि पुनरपि प्रमादतो विषयकपायादिभिर्वा पडिसेवइ प्रतिसेवते ततस्तस्यां प्रतिसेवनायां यत् प्रायश्चित्तं सेवते 'सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया' तदपि कृत्स्नमनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वा तत्रैव पूर्वप्रस्थापित प्रायश्चित्ते एवारोहयितव्यं स्यात् न तु प्रायश्चित्तान्तरे आरोपणीयमिति ॥ सू०१८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा, वहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारद्वाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिरंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुव्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ । अपलिडंचिए अपलिरंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥ सू० १९ ।।
छाया- यो भिक्षुहुशोऽपि चातुर्मासिकं वा वहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि पाञ्चमासिकं वा, वहुशोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानाम् अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेत् अप्रतिकुञ्च्य आलोचयमानस्य स्थापनीय स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्यं, स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्य स्यात् । पूर्व प्रतिसेवित पूर्वमालोचितं १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात्प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितं ३, पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितं ४ । अप्रतिकुञ्चितेप्रतिकुञ्चितं १, अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं २, प्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुचितं ३, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं ४ । अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् आलोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहृत्य य एतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् ॥ सू० १९॥
भाष्यम्---'जे भिक्खु' इति । 'जेभिक्खू यः कश्चित् भिक्षु 'वहुसोचि बहुशोऽपि बहुशोऽनेकवारमिति यावत् 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'साइरेगचाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा 'बहुसोवि पंचमासिय मा' बहुशोऽनेकवारं पाञ्चमासिक वा, 'बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा' बहुशोऽनेकवारं सातिरेकपाञ्चमामिकं वा परिहार
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
व्यवहारसूत्रे
स्थानम् | 'एएसिं परिहारहाणाणं' एतेषां बहुश. पदघटितचातुर्मासिकादीनां परिहारस्थानानां मध्यात् 'अन्नयरं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता' अन्यतरत् यत् किमप्येकं परिहारस्थानं चातुर्मासिकाद्यन्यतमरूपं प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् स्वकीयासेवितपापनिवारणाय आचार्यसमीपे प्रकाशयेत् । तत्र - 'अपठिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य मायामन्तरेणालोचयतः 'ठवणिज्जं ठावइत्ता' स्थापनीयं स्थापयित्वा 'करणिज्जं वेयावडियं' वैयावृत्यं करणीयम् । 'ठाविवि पडिसेवित्ता' स्थापितेऽपि यदि पुनरपि प्रतिसेव्य तादृशप्रतिसेवनां कृत्वा गुरुसमक्षमुपस्थितो भवेत् तदा 'सेवि कसिणे' तदपि प्रतिसेवितं कृत्स्नमेव संपूर्णमपि अपराधजातम् 'तत्थेव आरुहियव्वे सिया तत्रैव' पूर्वसंपादितापराधे षाण्मासिकादावेवारोपयितव्यम् आरोपणीयं स्यात् । तादृशारोपणे चत्वारो भगा भवन्ति तानेव दर्शयति- 'पुव्वं पडिसेवियं पुत्रं आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, 'पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ' पूर्वं प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २ | 'पच्छा पडिसेवियं पुवं आलोइयं' पश्चात्प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् ३ | 'पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४ । तत्राऽपि - 'अपलिउंचिए अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् यदाऽपराधानापन्नः आलोचनाऽभिमुखः तदैव कश्चित् सकल्पितवान्, यथा 'सर्वेऽपि अपराधाः मया आलोचनीयाः' एवं पूर्वसंकल्पकालेऽप्रतिकुञ्चिते आलोचनावेलायामपि अप्रतिकुंञ्चितमेवालोचयति १ । 'अपलिउँचिए पलिउंचियं' अप्रतिकुचिते प्रतिकुचितम्, पूर्वसंकल्पकाले अप्रतिकुञ्चितमालोचितम्, आलोचना काले तु प्रतिकुञ्चितमालोचयतीति २ । 'पलिउंचिए अपलिउंचियं' प्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितं पूर्वसङ्कल्पकाले केनाऽपि प्रतिकुञ्चितं यथा - मया सर्वेऽपराधा नाऽऽलोचनीयाः, पूर्वसङ्कल्पकाले प्रतिकुञ्चिते, आलोचनायां भावपरावृत्ते. सर्वमप्यप्रतिकुञ्चितमालोचयतीति ३ । 'पलिउंचिए पलिउंचियं' प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् पूर्वसंकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते, आलोचनाकालेsपि प्रतिकुञ्चितमेवालोचयतीति ४ | अपलिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स अप्रतिकुञ्चितेप्रतिकुञ्चितमालोचयत' 'सममेयं सकयं साहणिय' सर्वमेतत् स्वकृतं सहृत्य, सर्वमेतत् यद्व्यदापन्नमपरावजातं, यदि वा कथमपि प्रतिकुञ्चना कृता स्यात् ततः प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नमपराजात सकलमेतत् स्वकृतमपराधकारिणा कृतं सम्पादितं सर्वमपराधजातं संहृत्यैकत्र मेलयित्वा यदि सचयितं प्रायश्चित्तस्थानम आपन्न. तत पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । यत्पुनः पण्मासातिरिक्तं तत्सर्वं परित्यजेत् । अथ मासादिक प्रायश्चित्तमापन्न. ततः तदेव मासादिकं दातव्यमिति । जे 'एयाए पट्टणाए पट्टविए' यः कचित्साधुः साध्वी वा एतया यनंतर पूर्वकथितया प्रस्थापनया प्रस्थापित प्रायश्चित्त करणे प्रवर्त्तितः 'निव्विसमाणे' निर्विगमानः प्रायश्चित्तमुपय निमग्न 'पडि सेव' प्रमादतो विपयकपायादिभिर्वा पुनः पापं
,
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाज्यम् सु० २०
परिहारस्थान सेविनः प्रायश्चित्तदानविधिः २७
प्रतिसेवते ततः प्रतिसेवनायां यत् प्रायश्चित्तं सेवते 'सेवि कसिणे' तदपि कृत्स्नम् अनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वा 'तत्थेव ' तत्रैव पूर्वप्रस्थापितप्रायश्चित्ते एव 'आरुहिय-वे सिया' आरोहयितव्यमारोपणीयं स्यात् पुरतो यत्प्रायश्चित्तं षाण्मासिकादि तावन्मात्रमेव देयं न ततोऽधिकमिति ॥ सू० १९ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासि वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्जं ठावड़ता, करणिज्जं वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियवे सिया, पुव्यं पडिसेवियं पुत्रं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुचं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ | अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४। पछिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सत्र्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पsत्रणा पविए निव्विसमाणे पडि सेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहिय-वेसिया || सू० २० ॥
छाया -यो भिक्षुर्वशोऽपि चातुर्मासिकं वा, बहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा, बहुशोऽपि पाञ्च मासिकं वा, बहुधोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, एतेषां परिहारस्थानानामन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्यालोचयेत्, प्रतिकुञ्च्यालोचयमानस्य स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्यम् । स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात्, पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितं १, पूर्वं प्रतिसेवितं पश्चादालोचितं २, पश्चात् प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितं ३, पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४। अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितं १, अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् २, प्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् ३, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् ४। प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितमालोच्यमानस्य सर्वमेतत् स्वकृतं संहत्य, य पतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् ॥ सू० २० ।।
भाष्यम् – 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' य' कश्चित् भिक्षुः साधुः साध्वी वा । 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'चाउम्मासिथं वा' चातुर्मासिकं वा वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'साइरेग चाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं पञ्चदिवसाद्यधिकं चातुर्मासिकप्रायश्चित्तस्थानं वा 'बहुसोदि पंचमासि वा' बहुशोऽपि पाञ्चमासिकं वा 'बहुसोवि साइरेगपंचमासि वा ' बहुशोऽपि सातिरेकं पञ्चदिनाथधिकं पाञ्चमासिकं परिहारस्थानं वा । 'एएस परिहारट्ठाणाणं' एते पांचहुश. पदघटितचातुर्मासिकादीनां परिहारस्थानानां प्रायश्चित्तस्थानानाम् । 'अन्नयरं
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा' अन्यतरत् अनेकेषु यत् किमप्यन्यतमं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् आचार्यसमक्ष प्रकाशयेत् । तत्र-'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्य सकपटमालोचयमानस्य 'ठवणिज्ज ठावइत्ता' स्थापनीयं स्थापयित्वा यः परिहारतपःप्रायश्चित्तस्थानमापन्नः तस्य परिहारतपोदानार्थं सकलसाधुसाध्वीजनपरिज्ञानाय सकलगच्छसमक्ष निरुपसर्गप्रत्ययं कायोत्सर्गः पूर्व क्रियते । कायोत्सर्गकरणानन्तरं गुरुः कथयति-अहं ते कल्पस्थितः, अयं च साधुः अनुपारिहारिकः । ततः स्थापनीयं स्थापयित्वेति यत्नेन सहाचरणीयम् , तत्, स्थाप्यते इति स्थापनीयं वक्ष्यमाणमालापनपरिवर्तनादि, तत्सकलगच्छसमक्षं स्थापयित्वा कल्पस्थितेनाऽनुपारिहारिकेण च 'करणिज्ज वेयावडिय” यथायोगमनुशासनानुप्रहरूपं वैयावृत्यं करणीयम् । ठाविए वि पडिसेवित्ता स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य ताभ्याम् आचार्यवैयावृत्त्यकारिभ्यां क्रियमाणेऽपि वैयावृत्त्ये स्थापितेऽप्यालापनादौ कदाचित् किमपि प्रतिसेव्य गुरोः समीपमुपस्थितो भवेत् । यथा-अहम् अमुकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः । ततः 'सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया' तदपि कृत्स्नं सेव्यमानं परिहारतपसि आरोहयितव्यम् आरोपणीयं स्यात् । कृत्स्नं कतिविधं भवति । अत्र गाथामाह
"कसिणं छबिहमुत्तं, पडि सेवण संचयं च आरोवण ।
तत्तो अणुग्गई चाऽणुग्घायं निरवसेसं च” ॥१॥ छाया-कृत्स्नं पविधमुक्तं प्रतिसेवनं संचयं च आरोपणम् ।
ततः अनुग्रहं च अनुद्घातं निरवशेष च ॥१॥
तत्र-कृत्स्न षट्प्रकारकं भवति, तथाहि-प्रतिसेवनाकृत्स्नम् १ संचयकृत्स्नम् २, आरोपणाकृत्स्नम् ३, अनुग्रहकृत्स्नम् ४, अनुद्घातकृत्स्नम् ५, निरवशेषकृत्स्नम् ६ चेति । तत्रप्रतिसेवनाकृत्स्नम्-ततः परमन्यस्य प्रतिसेवनास्थानस्यासंभवात् सर्वमपि पञ्चमहाव्रतभङ्गरूपमिति प्रथमो भेदः १। संचयकृत्स्नम्-अशीत्यधिक मासशतं ततः परस्य संचयस्याभावादिति द्वितीयो भेदः २। आरोपणाकृत्स्न-पाण्मासिकं ततः परं भगवतः श्रीवर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थं आरोपणाया अभावादिति तृतीयो भेदः ३ । अनुग्रहकृत्स्नं-यत् षण्णां मासानां प्रायश्चित्तमारोपितं तत्र षड् दिवसा गताः, तदनन्तरम् अन्यान् षण्मासान् आपन्न., ततो यद् अवहमानं तत्सर्वमपि त्यक्तम् , पश्चाद् यदन्यत् पाण्मासिकप्रायश्चित्तमापन्न तद्वहति, पूर्व षण्माससेवितेषु पड्दिनेषु यदन्यत् पाण्मासिक सेवितं तद् वहति, यस्मात् पञ्च मासाश्चतुर्विशतिर्दिवसाश्चारोपिता., तद् एतद् अनुग्रहकृत्स्नम् , अन्यथा पूर्वपाण्मासिकस्य तथा अपरपाण्मासिकस्य चेत्युभयोर्वहने
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् सू० २०
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तदानविधिः २९ द्वादशमासस्य प्रायश्चित्तप्रसङ्ग आपतेत, अत्र तु केवलमेकस्यैव पाण्मासिकस्य दानेनानुग्रहो जात इति अनुग्रहकृत्तमिति । एतावता अनुग्रहकृत्स्नविपक्षीभूतं निरनुग्रहकृत्स्नमपि सूचितमिति ज्ञातव्यम् , तथाहि-षण्मासे प्रस्थापिते पण मासा. पञ्चविंशतिदिवसाश्च व्यूढाः, तदनन्तरमन्यत् पाण्मासिकमापन्नस्तद्वहति, पूर्वपाण्मासिकस्य येऽवशिष्टाः षड् दिवसास्तेऽत्र षड् दिवसा एव त्यक्ताः, अवशिष्टाः षण्मासास्तु कारिता एव, मत एव तत् निरनुग्रहकृत्स्नं भवतीति चतुर्थो भेदः ४ । अनुद्घातकृत्स्नम्-यत् कालगुरुर्यथा मासगुर्वादिः, अथवा निरन्तरं प्रायश्चित्तदानमनुद्घातकृत्स्नम् , अत्र मासलघुकाधपि निरन्तरं दीयमानमनुद्घातकृत्स्नमेव ज्ञातव्यम् । अथवा अनुद्घातं त्रिविधम्-कालगुरु १ तपोगुरु २, उभयगुरु ३ चेति । तत्र-कालगुरुनाम यद् ग्रीष्मादौ अतिकर्कशे दीयते १, तपोगुरु यदष्टमादि दीयते, निरन्तरं वा यदष्टमादि दीयते २, उभयगुरु-यद् ग्रीष्मादौ काले निरन्तरं च दीयते तदिति ३, पञ्चमो भेदः ५ । निरवशेषकृत्स्नंनाम यदापन्नं प्रायश्चित्तं तत् सर्वमन्यूनमनतिरिक्तं च दीयते इति षष्ठो भेदः ६। अत्रतस्य प्रतिसेवकस्य आचार्यसमक्षमालोचनायां चतुर्भङ्गी भवति, तामेवाह-'पुव्वं' इत्यादि । 'पुत्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचित, तत्र पूर्वमित्यस्य पूर्वाss. नुपूर्व्या इत्यर्थः । ततश्च पूर्वाऽऽनुपूर्व्या गुरुलघुपर्यालोचनया लघुपञ्चकादिक्रमेण प्रतिसेवितं, पूर्व पूर्वाऽऽनुपूर्त्या प्रतिसेवनाऽनुक्रमेणऽऽलोचितम् १। 'पुच्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् , पूर्व गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वाऽऽनुपूर्व्या मासलघुकादि प्रतिसेवितं, तदनन्तरं च तथाविधाल्पप्रयोजनोत्पत्तौ च गुरुलघुपर्यालोचनयैव लघुपञ्चकादि प्रतिसेवितम, आलोचनाकाले च पश्चात् पश्चानुपा आलोचितं, पूर्व लघुपंचकाद्यालोचितं पश्चात् मासादीति २ । 'पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं' पश्चात् पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं पूर्वम् आलोचनाकाले पूर्व लघुपंचकाद्यालोचितं पश्चात् गुरुमासादीति ३ । 'पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पश्चात् प्रतिसेवितं पश्चादालोचितं, पश्चात् पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं, गुरुलघुपर्यालोचनादिविरहितो यथाकथञ्चन प्रतिसेवितं, पश्चात् पश्चानुपूा आलोचितं प्रतिसेवनाऽनुक्रमेणाऽऽलोचितम. अथवा स्मृत्वा स्मृत्वा यथाकथञ्चनाऽप्यालोचितमिति ४ । इयं चतुर्भङ्गी प्रतिकुञ्चनाऽप्रतिकुञ्चनाभ्यां भवति, अतस्तामाह-'अपलिउंचिए' इत्यादि । 'अपलिउंचिए अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुश्चितं पूर्व संकल्पकालेऽप्रतिकुञ्चितम् आलोचनाकालेऽपि अप्रतिकुञ्चितमेवालोचयतीति १ । 'अपलिउंचिए पलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं पूर्व संकल्पकालेऽप्रतिकुञ्चितम्, आलोचनाकाले प्रतिकुञ्चितं सकपटमालोचयतीति २। 'पलिउंचिए अपलिउंचियं' प्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितं पूर्वसंकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते आलोचनाकाले कुतश्चित् कारणवशात् भावपरावर्तनात् अप्रतिकुञ्चितमालोचयतीति ३ । 'पलिउंचिए पलिउंचिय' प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं पूर्वसंकल्पकाले प्रति
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
कुञ्चिते पश्चात् आलोचनाकालेऽपि प्रतिकुञ्चितं सकपटमेवालोचयतीति ४। 'पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितमालोचयतः 'सबमेयं सकयं साहणिय' सर्वं निरवशेषमालो चयत. सर्वमेतद्यदापन्नमपराधजात प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नं च तत्सर्वं स्वकृतं स्वयमपराधकारिणा संपादितं संहृत्य एकत्र मेलयित्वा यदि सचित प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, ततस्तदेव पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । यत्पुनः पाण्मासिकातिरिक्तं तत्सर्वं परित्यजेत् । अथ यदि मासादिकं प्रायश्चित्तमापन्नः ततस्तदेव मासादिकं प्रायश्चित्त दातव्यम् । 'जे एयाए पट्टवणाए पट्टविए' यः साधुः साध्वी वा एतया अनन्तरपूर्वकथितया प्रस्थापनया पूर्वकृतापराधस्य विषये स्थापना. प्रायश्चित्तदानप्रस्थापना तया प्रस्थापितः प्रायश्चित्त करणे प्रवर्तितः सः 'निविसमाणे' निर्विशमान प्रायश्चित्तं कुर्वाणः यत्प्रमादतः विषयकषायादिभिर्वा पुनः 'पडि सेवई' प्रतिसेवते ततः तस्यां प्रतिसेवनायाँ यत्यायश्चित्तं प्रतिसेवते 'सेवि कसिणे' तदपि कृत्स्नम् अनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वा 'तत्थेव' तत्रैव . पूर्वप्रस्थापितप्रायश्चिते एव 'आरुहियव्वे सिया' आरोहयितव्यमारोपणीयं स्यात् नत्वन्यस्मिन् प्रायश्चित्ते आरोपणीयमिति ॥ सू० २०॥
इह पूर्वसूत्रे परिहारतपः कथितं, परिहारश्च परिहर्तव्यापेक्षः प्रतिषेध्यानान्तरीयकत्वात् परिहारस्य । तथा परिहारक्रियाग्रहणेन पारिहारिकोऽपि आक्षिप्यते, कर्तारं विना क्रियाया अनुपपत्तेः । तत्र ये परिहारेण परिहारनामकेन तपसा चरन्ति, ते पारिहारिकाः । एतद्विपरीता ये ते अपारिहारिकाः । न पारिहारिकाः अपारिहारिकैविना भवितुमर्हन्ति पारिहारिकस्यापारिहारिकानान्तरीयकत्वात्, एवमपारिहारिका अपि पारिहारिकैविना न भवन्ति अपारिहारिकाणामपि पारिहारिकानान्तरीयकत्वात् , अतोऽत्र पारिहारिकाऽपारिहारिकविषयं सूत्रमाह-'वहवे' इत्यादि ।
सूत्रम्-वहवे परिहारिया वहवे अपरिहारिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए नो ण्इं से कप्पड थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिसेज्ज वा अभिनिमीहियं वा चेइत्तए, कप्पड़ ण्हं से थेरे आपुच्छित्ता एगयओ अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, थेरा य ण्हं से वियरेज्जा एवं ण्हं कप्पइ एगयओ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, थेरा य ण्डं से नो वियरेज्जा एवं ई नो कप्पइ एगयओ अभिनिसेज वा अभिनिसीहिय वा चेइत्तए । जो हं थेरेहिं अविइण्णे अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेएइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० २१ ॥
छाया-वहव. पारिहारिकाः वहयोऽपरिहारिका इच्छेयुः एकतः अभिनिपा वा अभिनेपेधिकों या चेतयितुम्, नो खलु तेपां कल्पते स्थविरान् अनापृच्छय एकतो अभिनिपद्यां वा अभिनेपेधिकी वा चेतयितुम्, कल्पते खलु तेषां स्थविरान् आपृच्छय
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् सू० २१
पारिहारिकाsपारिहारिकानामेकत्रवासविधिः ३१
एकत अभिनिषद्यां वा अभिनैषेधिक वा चेतयितुम्, स्थविराश्च खलु तान् वितरेयुः एवं खलु तेपां कल्पते एकतः अभिनिषद्यां वा अभिनैपेधिक वा चेतयितुम्, स्थविरा: खलु तेषां नो वितरेयुः एवं खलु तेपां नो कल्पते एकतः अभिनिषद्यां वा अभिनैषेधिक वा चेतयितुम्, यः खलु स्थविरैरवितीर्णोऽभिनिषद्यां अभिनैपेधिकीं वा चेतयते तस्य स्वान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० २१ ॥
भाष्यम् -' वहवो' इति 'वहवो परिहारिया' बहवोऽनेके पारिहारिका वा, परिहारः तपोविशेषः, तेन तपोविशेषेण चरन्ति ये ते पारिहारिकाः, 'बहवे अपरिहारिया वा' बहवोऽनेके अपरिहारिका पारिहारिकव्यतिरिक्तास्ते ‘इच्छेज्जा' परस्परमिच्छेयु' इच्छां कुर्यु' । किमिच्छेयुस्तत्राह - 'एगयओ' एकतः एकस्थाने तत्रैव वसतौ वसत्यन्तरे वा 'अभिनि सेज्जं वा' अभिनिषद्याम् अभि-रात्रिमभिव्याप्य स्वाध्याय निमित्तमागताः सन्तो निषीदन्ति तिष्ठन्ति यस्यां सा तामभिनिषद्यां वसतिमित्यर्थ', 'अभिनिसीहियं वा' अभिनैपेधिकीं वा, निपेधः स्वाध्यायव्यतिरेकेण सकळ्यापारप्रतिषेधः, तेन निषेधेन निर्वृत्ता नैषेधिकी केवलस्वाध्यायस्थानम् "सुत्तत्थं निसीहिया" इति वचनात् अत्र नैपेधिकी सूत्रार्थप्रायोग्या ज्ञातव्या, न तु कालकारणप्रायोग्या, अभि- आभिमुख्येन सूत्रार्थ - प्रायोग्यतया नैषेधिको अभिनैषेधिको तामभिनैषेधिकीं वा ।
अयमर्थः -- तत्र दिवसे स्वाध्याय प्रवचनं कृत्वा रात्रौ वसतिमेव साधव प्राप्नुवंति सा अभिनैपेधिकी, अभिनैपेधिक्यामेव स्वाध्यायं कृत्वा रजनीमुषित्वा प्रातः काले वसतिमुपागच्छन्ति सा अभिनिपद्या, तामभिनिषद्याम् अभिनैषेधिकीं स्वाध्याय स्थानविशेषं वा 'चेइत्तए' चेतयितुं कर्त्तुम्, यदि अनेके पारिहारिका अपरिहारिकाश्च एकस्मिन् स्थाने अभिनिषयाम् अभिनपेधिक वा कर्त्तुं वस्तुमिच्छेयु' तदा ' णो णं कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए' नो खलु कल्पते स्थविराननापृच्छय एकतः एकस्थाने अभिनिषद्यां वा अभिनैषेधिकीं वा चेतयितुं कर्तुम् । तत्र नो नैव कथमपि एतेषां पारिहारिकाणामपरिहारिकाणां च कल्पते स्थविरान् आचार्यप्रभृतीन् अनापृच्छय तेषामाचार्यादीनामाज्ञामन्तरेण एकस्थाने स्ववसतौ अभिनिषद्याम् अभिनैषेधिकीं वा कर्त्तुं नो कल्पते इति भावः । साधूनामुच्छ्वासनि‘श्वासनिमेषादिव्यतिरेकेण शेषाणां समस्तानामपि व्यापाराणां गुरुपृच्छाधीनत्वात् । तदेवं प्रतिषेधावयवं निरूप्य विधिं निरूपयितुमाह - ' कप्पड़ हूं थेरे आपुच्छित्ता ते एगयओ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, कल्पते खलु स्थविरानापृच्छ्य तेषाम् एकतः अभिनिपद्यां वा अभिनैषेधिकों वा चेतयितुम् आचार्याज्ञया तेपामेकस्थानेऽभिनिषद्यादि क कल्पते इति । अथ यदि स्थविरा आपृष्टाः सन्त आज्ञां वितरेयुः तदा किं कुर्यु . ' इत्याशङ्कायामाह्—'थेरा य ण्हं से वियरिज्जा एवं ह कप्पइ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेह
ܕ
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm त्तए' स्थविराश्च खलु तेषां वितरेयुः आज्ञां दद्युः, एवं तदा खलु कल्पते तेषां अभिनिपद्यां वा अभिनषेधिकी वा चेतयितुं कर्तुम् , स्थविराणामाज्ञया तैः सह वस्तुं कल्पते इति भावः । यदि 'थेरा य ण्ह' स्थविराः खलु 'नो वियरेज्जा' नो वितरेयुः नैवाऽनुज्ञां कुर्युः ‘एवं ण्हं णो कप्पइ' एवमुक्तेन प्रकारेण अनुज्ञामन्तरेण खलु नो नैव कल्पते तेषाम् “एगयओ' एकतः एकस्थाने 'अभिनिसेज्जं वा' अभिनिषद्यां वा 'अभिनिसीहियं वा' अभिनषेधिकी वा 'चेइत्तए' चेतयितुं कर्तुमित्यर्थ. 'जो हं थेरेहिं अविइण्णे' यः कश्चित् खलु अपारिहारिकः स्थविरैराचार्यादिभिः अवि. तीर्ण अननुज्ञात सन् पारिहारिकैः सह एकस्थाने 'अभिनिसेज्जं वा' अभिनिषधां वा 'अभिनिसीहियं वा' अभिनषेधिकी वा 'चेतई' चेतयति करोति 'से' तस्य अपारिहारिकस्य 'संतरा छेए वा परिहारे वा' स्वान्तरात् स्वकृतमन्तरं स्वान्तरं तस्मात् यावदागत्य स न मिलति, यावद्वा स्वाध्यायभूमेर्नोत्तिष्ठति तावत् यद् व्यवधानं तद् अन्तरं, तस्मात् स्वकृतादन्तरात् छेदो वा पञ्चदिवसात्मकः, परिहारो वा परिहारतपो वा मासलघुकादि प्रायश्चित्तमापद्यते इति सूत्रार्थः ।। सू० २१ ॥
__नन्वस्य प्रकृतसूत्रस्याऽनन्तरपूर्वसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति चेत् अत्रोच्यते-अत्र पूर्वपूर्वसूत्रेषु परिहारः कथितः, न च कुत्रापि मध्ये परिहारप्रकरणं परित्यक्तम् , ततः प्रकृतः परिहारः, परिहारनामकं तपोविशेषः, स च क्रियाविशेषरूप एव, क्रिया च कर्तारमन्तरेणाऽनुपपन्नेति परिहारक्रियाप्रकरणाऽनुरोधात् अत्र परिहारी परिहारक्रियायाः कर्ताऽभिधीयते, अयमेव पूर्वपूर्वसूत्रैः सह प्रकृतसूत्रस्य संबन्ध इति । अथवा अनन्तरपूर्वसूत्रे इदमुक्तं यत् स्थविरैरनुज्ञातानामभिनिषद्यामभिनषेधिकी वा यदि गच्छति ततः प्राप्नोति परिहारमिति । अत्र प्रकृतसूत्रे तु स एव परिहारतामुपगत इति प्रतिपाद्यते । अथवा अनन्तरसूत्रेऽभिनिषद्यादिगमनं कथितं, स प्रत्यासन्नक्षेत्रनिगम , इदं तु प्रकृतसूत्रं दूरे निर्गमनं कथयति, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्य प्रकृतसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते-'परिहारकप्पट्टिए' इत्यादि ।
सूत्रम्-परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू वहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज़्जा कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जंणं जं णं दिसं अण्णे साहम्मिया विहरंति तं गं तं णं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पड़ तस्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तिय वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निहियसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो एगरायं वा दुरायं वा, एवं स कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जे तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० २२॥
छाया-परिहारकल्पस्थितो भिक्षः वहिः स्थविराणां वैयावृत्याय गच्छेत् स्थविराश्च स्मरेयुः कल्पते तस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया यां खलु यां खलु दिशम् अन्ये साधर्मिका
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०१सु० २२-२३
परिहारकल्पस्थितस्य प्रामान्तरगमनविधिः ३३
यिहरन्ति तां तां खलु दिशमुपलातुम्, न तस्य कल्पते तत्र विहारप्रत्ययिकंवस्तुम्, कल्पते तस्य कारणप्रत्ययिक वस्तुम्, तस्मिश्च खलु कारणे निष्ठिते परो वदेत् वस खलु आर्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा, एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम् , नो तस्य कल्पते परमेकरात्राद्वा. द्विरात्राद्वा वस्तुम् , यदि तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० २२ ।।।
भाष्यम्-'परिहारकप्पठिए' परिहारकल्पस्थितः । तत्र-परिहारस्य कल्पः सामाचारी इति परिहारकल्प', तस्मिन् परिहारकल्पे स्थित इति परिहारकल्पस्थितः परिहारतपसि वर्तमान इत्यर्थः 'भिक्खू' भिक्षुः 'वहिया' बहिरन्यत्र नगरादौ 'थेराणं' स्थविराणाम् अन्यग्रामादौ स्थितानामाचार्यादीनाम् 'वेयावडियाए' वैयावृत्याय ग्लानत्वादिकारणे वैयावृत्त्यकरणाय 'गच्छेज्जा' गच्छेत् 'थेरा य से सरेज्जा' स्थविराश्च तस्य स्मरेयुः परिहारतपः स्मृतिपथमानयेयुः यथा-एष परिहारकल्पस्थितो वर्तते, स्मरद्भिस्तैः स परिहारी वक्तव्यो यावत् प्रत्यागच्छसि तावन्निक्षिप्यतां परिहारतप इति । तत्र यदि परिहारिके सामर्थ्यमस्ति ततः परिहारतपः प्रपन्नो गच्छति । अथवा नास्ति चेत् सामर्थ्य ततः परिहारतपो निक्षिपति । परिहारतपो निक्षिप्य च 'कप्पइ से' तस्य कल्पते 'एगराइयाए पडिमाए' एकरात्रिक्या प्रतिमया, अत्र प्रतिमाशब्दोऽभिग्रहवाची, ततश्च एकरात्रिकेणाऽभिग्रहेणेत्यर्थः, अर्थात्-यत्रापान्तराले वसामि तत्र गोकुलादो प्रचुरगोरसादिभोज्यवस्तुलाभेऽपि प्रतिबन्धमकुर्वता कारणं विना मया एकरात्रमेव वस्तव्यं नाधिकं वस्तव्यमित्याकारेणाऽभिग्रहेण एकरात्रिकवासरूपमभिग्रहं कृत्वेत्यर्थः 'जं णं जंणं दिसं' यां यां खलु दिशं 'जणं' इत्यत्र द्वितीया विभक्तिः सप्तम्यर्थे ज्ञातव्या तेन यस्यां यस्यां खल दिशि दिशायामित्यर्थः, अथवा यां यां खलु दिशमाश्रित्य 'अन्ने साहम्मिया' अन्ये साधर्मिकाः लिङ्गसाधर्मिकाः प्रवचनसाधर्मिका वा संविग्नसंभोगिकादयो वक्ष्यमाणाः 'विहरंति' विहरन्ति तिष्ठन्ति 'तं णं तं णं दिसं उवलित्तए' तां तां खलु दिशम् उपलातुं ग्रहीतुम् आश्रयितुमित्यर्थः । 'नो से कप्पई' नो नैव 'से' तस्य परिहारकम्पस्थितस्य निक्षिप्तपरिहारतपसो वा आहारादिलोभेन कल्पते 'तत्थ' तत्र ग्रामादौ 'विहारवत्तियं वत्थए' विहारप्रत्ययिकम् अवस्थाननिमित्तं तत्र वस्तुं न कल्पते इति, किन्तु 'कप्पई से तत्थ' कल्पते तस्यानन्तरोदितस्य भिक्षो. यत्र भिक्षां कृतवान् उषितवान् वा तत्र-'कारणवत्तियं वत्थए' कारणप्रत्ययिकं वक्ष्यमाणसूत्रार्थप्रतिपृच्छादानवैयावृत्त्यादिकारणनिमित्तं वस्तुं वास कत्तुं कल्पते इति । अथ च 'तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि' तस्मिंश्च खलु कारणे निष्ठितेयत् कारणविशेषमासाद्य ग्रामान्तर स्थानान्तर वा उपितः तस्मिन् कारणविशेष निष्ठिते परिसमाप्ते सति यदि 'परो वएज्जा' परः-तत्स्थानाधिष्ठित आर्चादिर्वदेत् आग्रहं कुर्यात् यथा 'साहि यज्जो' हे आर्य ! वसाऽत्र मदीयस्थाने 'एगरायं वा दुरायं वा' एकरात्र वा द्विरात्रं वा, हे आर्य ! दूरादागतोऽसि महत्कार्य संपादितवान् , अतोऽत्र एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस, दूरादागतो.
म्य, ५
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
ऽसि विहारजनितखेदमपनीय सुखेन तिष्ठ । 'एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा पत्थए' एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम्, एवमुक्तप्रकारके ग्रामान्तराधिष्ठितस्थविराधाग्रहे सति 'से' तस्य परिहारकल्पस्थितस्य तत्र स्थानान्तरादौ परिसमाप्तकार्यस्यापि एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुं वासं कत्तुं कल्पते, किन्तु 'नो से कप्पइ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वत्थए' नो तस्य कल्पते एकरात्राद्दा द्विरात्राद्वा परं वस्तुम्, ततः परं पुनः स्थविराद्याग्रहे स्वेच्छया वा निष्कारणम् एकरात्रात् द्विरात्राद्वा परमधिकं वासं कर्तुं परिहारकल्पस्थितस्य न कल्पते इत्यर्थः । यो निष्कारणमधिकं वसति तत्राह-'जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसई' यस्तत्र एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परमधिकं कालं त्रिरात्रं चतुरात्रादिकं वा निष्कारणं वसति 'से' तस्य 'संतरा
छेए वा परिहारे वा' सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा, यः परिहारकल्पस्थितः पुनस्तत्रैकरात्रात् द्विरात्राद्वा परमधिकं वसति तस्य भिक्षोः सान्तरात् स्वकृतादन्तरादपान्तराले निष्कारणवासरूपकारणात् यावत्कालं निष्कारणमेकद्विरात्रादधिकमुषितः तावत्कालिकः छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं वा परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं यथायोगं गुरुर्दद्यादिति ॥ सू० २२ ॥
सूत्रम्- परिहारकप्पढिए भिक्खू वहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से नो सरेज्जा कप्पइ से निविसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जणं जणं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तं णं तं णं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्व कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० २३॥ __ छाया-परिहारकल्पस्थितो भिक्षुर्वहिः स्थविराणां वैयावृत्याय गच्छेत्, स्थविराश्च नो स्मरेयुः कल्पते तस्य निर्विशमानस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया यां खल्लु यां खलु दिशमन्ये साधमिकाविहरन्ति तां खलु तां खलु दिशमुपलातु, नो तस्य कल्पते तत्र विहरप्रत्ययिक, वस्तुम्, कल्पते तस्य तत्र कारणप्रत्यत्र वस्तुं, तस्मिश्च कारणे निष्ठिते परो वदेत् वस आर्य! पकरात्र वा द्विरात्रं वा, एवं तस्य कल्पते पकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुं, नो तस्य कल्पते परमेकरात्राहा द्विरात्राद्वा वस्तु, यत् तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० २३ ॥
भाष्यम्-'परिहारकप्पढिए' इति । 'परिहारकप्पट्टिए' परिहारकल्पस्थितः परिहारतपसि वर्तमानः 'भिक्ख' भिक्षुः 'वहिया' वहिरन्यत्र नगरादौ ग्रामान्तरे वा । 'थेराणं' स्थविराणामाचार्यादीनाम्, 'वेयावडियाए' वैयावृत्त्याय, तत्र वैयावृत्यं गुरोरन्यस्य वा स्थविरस्य सेवा, तत्करणाय 'गच्छेज्जा' गच्छेत्'थेरा य' स्थविराश्च 'से' तस्य परिहारकल्पस्थितस्य तपः 'नो सरेज्जा' नो स्मरेयु कार्यबाहुल्येन अयं परिहारतपोधारक इति न स्मरणं कुर्युः, असौ अपि गमनसंभ्रमेण निवेदनं विस्मरेत् यथा परिहारतपो
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १ सू० २४
परिहारकल्पस्थितस्य प्रामान्तरगमनविधिः ३५
निक्षेपणीयमिति, तत्र यदि आचार्याः स्मरेयुः भिक्षुर्वा स्मारयति तदा तत्तपो निक्षिप्य गच्छति, यदि द्वयोरपि विस्मृतं भवेत् तदा 'कप्पड़ से निव्विसमाणस्स' कल्पते तस्य निर्विशमानस्य तपो वहमानस्यैव 'एगराइयाए पडिमा ए' एकरात्रिक्या प्रतिमया एकरात्रिका भिग्रहेण शेषं सर्व पूर्वसूत्रवदेव व्याख्येम् ॥ सू० २३ ॥
सूत्रम् - परिहारकपट्ठिए भिक्खू वहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा वा नो सरेज्जा वा कप्पड़ से निव्विसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जं णं जं ञं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति, तं णं तं णं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निडियंसि परोवएज्जा साहि अज्जो एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसई से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० २४ ॥
छाया - परिहारकल्प स्थितो भिक्षुवहिः स्थविराणां वैयावृत्याय गच्छेत् स्थवि - राश्च स्मरेयुर्वा नो स्मरेयुर्वा कल्पते तस्य निर्विशमानस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया यां खलु यां खलु दिशमन्ये साधर्मिका विहरन्ति तां खलु तां खलु दिशमुपलातुम्, नो तस्य कल्पते तत्र विहारप्रत्ययिकं वस्तुम्, कल्पते तस्य तत्र कारणप्रत्ययिकं वस्तुम्, तस्मिंश्च खलु कारणे निष्ठिते परो वदेत् वस आर्य ! एकरात्रं वा द्विरात्रं वा, एवं तस्य कल्पये एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम्, नो तस्य कल्पते परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तुम्, यत्र तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्य स्वान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० २४ ॥
-
भाष्यम् – 'परिहारक पहिए भिक्खू' इति । 'परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू' परिहारकलस्थितो भिक्षुः 'वहिया' बहिर्वाह नगरादौ 'थेराग' स्थविराणामाचार्यादीनां 'वेयावडियाए' वैयावृत्त्याय 'गच्छेज्जा' गच्छेत् 'थेरा य' स्थविराश्च 'से सरेज्जा वा नो सरेज्जा वा' तस्य पारिहारिकस्य तपः स्मरेयुर्दा कार्यव्याक्षेपान्नो स्मरेयुर्वा यथा एषः परिहारतपोवाहक इति स्मरणं कुर्युः नो वा कुर्युः तदा कल्पते तस्य निर्विशमानस्य तपो वहतः सतः, इत्यादि सर्वं पूर्ववदेव व्याख्येयम् । अत्रायं भावः - प्रथमसूत्रे वहनं कथितं तत्तप आचार्यो देशतो वाहयेदपि सर्वतो वा वाहयेदपि १ । द्वितीयसूत्रे स्थापन भविष्यत्कालार्थं तदपि देशतः सर्वतो वा स्थापयेदपि २ । तृतीयसूत्रे - त्यागः, तदपि देशतः सर्वतो वा त्याजयेदप्याचार्य इति ३ । तत्र देशतो वहनादि कथं स्यात्तत्राह - परिहारतपः प्रायः सर्व व्यूढं स्तोकमेवावशिष्टम्, अत्रान्तरे बहिर्गमनप्रयोजनमुपस्थितं भवेत्तदाऽऽचार्यो वदेत् — मुश्चाधिकृतं परिहारतपः यतः साम्प्रतमिदं गमनकार्यमुपस्थितम् । तत्र यदि स समर्थो भवेत्तदा प्राह-न क्षिपामि
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसुत्र भदन्त ! यदेतद्देशतोऽवशिष्टं तपो मार्ग एव सम्पूर्ण करिष्यामीति सोऽवशिष्टं देशतः तपो वहमान एव गच्छति । अथासमर्थश्चेत्तदाऽऽह-गमिष्यामि त्ववश्यमेवेति विचिन्तयन् तं तपोदेशं निक्षिप्य गच्छति । अथवा तस्य यदवशिष्टं स्तोकमव्यूढं तिष्ठति तत्तस्य महत्कार्यार्थ प्रस्थितस्याचार्याः कार्यस्य महत्त्वमाश्रित्य प्रसादबुद्धयाऽवशिष्टं तत्तपो समस्तमपि मोचयन्ति यथा महति वैयावृत्त्यादिप्रयोजने त्वं प्रस्थानं करोषीति मोचितं प्रसादतस्तव शेषमेतत्तप इति । एवं देशतो वहननिक्षेपण-त्यागाः प्रदर्शिता इति । अथ सर्वतस्ते प्रदर्श्यन्ते-कस्यापि साधोः परिहारतपो दत्तं वोढुमपि स प्रवृत्तः, अत्रान्तरे च वैयावृत्याद्यर्थ गमनप्रयोजनमुपस्थितं तदाऽऽचार्या ब्रुवतेहे देवानुप्रिय ! समुत्पन्नमिदमावश्यकं गमनप्रयोजनमतो निक्षिप परिहारतप इति । यदि स साधुः समर्थस्तदा पाह-भदन्त ! गच्छन्नपि समर्थोऽहं तत्तपो वोढुम् , मार्गस्य दूरत्वाच्च मार्ग एव तत्तपः समस्तं पूर्ण करिष्यामि, तथाहि-सर्व जघन्यं परिहारतपो मासिकं भवति तदापन्नोऽसौ, गन्तव्यं चानन्दपुरात् मथुरायां ततस्तत्तपो मार्ग एव समाप्तिमुपयातीति स तपो वहमान एव गच्छति । यदि सोऽसमर्थः तदा तत्तपो निक्षिपति । अथवा महत्प्रयोजनमुपस्थित गरीयांश्चाध्वा, एतस्य प्रयोजनस्यायमेव कर्त्ता गुणगरीयस्त्वात् ततः सम्यक् प्रवचनभक्तोऽय दुष्करदुष्करकारी किन्तु सामध्यविहीन इति विचिन्त्याचार्याः सर्वमपि तस्य तत्तपः प्रसादतो मोचयन्त्यपि । एवं सर्वतो वहननिक्षेपणत्यागा वेदितव्या इति । एवमेव ततः प्रतिनिवर्ति। तस्य देशतः सर्वतो वा वहनत्यागौ वेदितव्यो, तथाहि-यदि गच्छता देशो निक्षिप्तस्ततः स तपसो देशः प्रतिनिवर्तितेन क्रियते । अथ समस्तं निक्षिप्तं तदा तत्सर्वमपि प्रतिनिवर्तितेन क्रियते । अथवा अहो दुष्करमिदं चतुर्विधसंघजिनप्रवचनप्रभावनासम्बन्धिकार्यमनेन संपादितमिति परितुष्टा आचार्या निक्षिप्तं तत्तपसो देशं वा सवै वा मोचयन्ति । एवं प्रतिनिवर्तितस्य देशतः सर्वतो वहनत्यागौ भवत इति । अत्राऽऽशङ्का जायते यत् आचार्यादिप्रसादतो देशस्य सर्वस्य वा त्यागः कृतः किन्तु न खलु प्रसादतः पापनिवृत्तिः समुपजायते ? इत्यत्राइ-यथा मनुद्घातिके परिहारतपःप्राप्तौ वैयावृत्त्यकराणां तस्य त्यागो भवति 'अणुग्याइयं उग्याइयं किज्जई' इति वचनात् संघादिवैयावृत्त्ये प्रवृत्तानामुद्घातिकमेव परिहारतपो भवति न तु अनुद्धातिकं वैयावृत्त्यस्य परमनिर्जराहेतुकत्वादिति || सू० २४ ॥
अथास्य सूत्रस्य पूर्वसूत्रेण सह कः सम्बन्ध इति चेदत्रोच्यते-पूर्वसूत्रे पारिहारिकस्य वैयावत्यादिनिमित्तनिर्गमनाधिकारः प्रोक्तः, इहापि निर्गमनमेव कथयिष्यते । अथवा पूर्वसूत्रे तपसोऽधिकारोऽनुवर्त्तते, अत्रापि सूत्रे स एव तपसोऽधिकारो वर्णयिष्यते । अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातमिद सूत्रमाह 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १ सू० २५-२७
एकाकिविहारिणः पुनर्गच्छागमनविधिः ३७
सूत्रम् - जे भिक्खू य गणाओ अवकम्म एगल्लविहार पडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चपि तमेत्र गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित अस्थिया इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिकमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवहाएज्जा ।। सू० २५॥ छाया -यो भिक्षुश्च गणादवक्रम्य एकाकिविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत् स चेच्छेत् द्वितीयमपि तमेवगणमुपसंपद्य खलु विहर्त्तुम् अस्ति चात्र शेषं पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामयेत् पुनश्छेद् परिहारस्य उपस्थापयेत् ॥ ० २५ ॥
भाष्यम् - " - "जे भिक्खू" इति 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः जघन्यतो दशपूर्वघरः उत्कृष्टतश्चतुर्दश पूर्वधारी, तथा श्रद्धा १, सत्यं २, मेधा ३, बहुश्रुतत्वम् ४ शक्तिमत्त्वम् ५, अल्पाधिकरणत्वम् ६, धृतिमत्त्वम् ७, वीर्यसम्पन्नत्वं ८ चेति, इत्येतावदष्टगुणधारको मुनिर्वा 'गणाओ अवक्कम्म' गणात् स्वकीयगच्छात् अवक्रम्य विनिर्गत्य पृथग्भूत्वा 'एगल्लविहारपडिमं' एका किविहारप्रतिमाम् एका किविहारयोग्यां एकाकि भूत्वा विहरणरूप मभिग्रह - विंशेषम् 'उवसंपज्जित्ता गं' उपसपद्य स्वीकृत्य 'विहरेज्जा' विहरेत् 'से य' स चैका किविहारी 'इछेज्जा' स्वकीयं गणं स्मरन् इच्छेत्, किमिच्छेदित्याह - 'दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विरहित्तए' द्वितीयमपि वारम् एकवारं पूर्वे प्रब्रज्याप्रत्तिपत्तिकाले अश्रितवान् इदानीं तु द्वितीयं वारम् अत एव कथितं द्वितीयमपि वार तमेव आत्मीयं पूर्वत्यक्तं गणमेव उपसंपद्य स्वीकृत्य पुनर्विहर्त्तुम् तदा किं कुर्यात् पूर्वगच्छस्थित आचार्यादिः ? तत्राह - 'अस्थि या इत्थ सेसे' अस्ति चात्र तस्मिन् मुनौ शेषम् अवशिष्टं चारित्रं भवेत् तदा 'पुणो आलोएज्जा' पुनरालोचयेत् माचार्यादिः पुनस्तमेकाकिविहारप्रतिमाजातमतीचारमालोचयेत् पापस्यालोचनां कारयेत्, तस्य स्वकीयं पापं प्रकटं कारयेदित्यर्थः । आलोचनानन्तरं 'पुणो पडिकमेज्जा' पुनः प्रतिक्रामयेत् पुनः पुनरकरणतया तस्मात् स्थानात् प्रत्यावर्त्तयेत् पुनरपि किमित्याह - 'पुगो छेयपरिहारस्स उवद्याएज्जा' पुनश्छेदपरिहारस्योपस्थापयेत्, छेदश्च परिहारश्चेति समाहारद्वन्द्वे छेदपरिहारं तस्य, तत्र छेदस्य दीक्षाछेदं कृत्वा तस्य परिहारस्य परिहारतपसो वा यथायोग्यं करणाय पुनरुपस्थापयेत् दीक्षाछेदं परिहारतपो वा आरोपयेदितिभावः । पूर्वं यदुक्तम्- 'अस्थि या इत्थ सेसे' इति किञ्चिदवशिष्टे चारित्रभागेऽयं विधिरुक्तः, यदि सर्वमपि चारित्र नष्टं जात नावशिष्ट किश्चित्तदा सर्वं पूर्वपर्यायं छित्त्वा पुनर्नुतने चारित्रे तमुपस्थापयेदिति निष्कर्ष इति । अत्र कोऽपि शङ्कते - यद्यपि प्रतिमाप्रतिपन्नस्य चारित्रविराधनायाः संभवः, न तु चारित्रं सर्वमपगतं किन्तु शेषमवतिष्ठते, व्यवहारनयमतेन देशभङ्गेन सर्वभङ्गाभावात्, ततश्चारित्रस्य शेषे सति 'पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्राम्येत्' इत्यत्र पुनः शब्दो न द्वितीयवारापेक्षः आलोचनाप्रतिक्रमणयोः पूर्वमकरणात्, एकवारं कृतं कार्यं द्वितीयवारं क्रियते तत्र पुनः शब्दः सापेक्षः, यथा च लोके बक्ति——कृतमिदमेकवारमिदानीं पुनः क्रियते' इति, अत्र तु प्रथममेवाऽऽलोचनां प्रथममेव च
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र प्रतिक्रमणं ततः कथमत्र पुनः शब्दोपपत्तिः ? अत्रोच्यते-भिक्षुस्वभावस्य ऋजुत्वेन स यत्रैव स्थानेऽतिचारप्रसङ्गः समापतितस्तत्रैव स इत्थम् अचिन्तयत् यत् समापतितमतिचारजातं तदत्रैव आलोचयामि प्रतिक्रमामि पश्चाद् गुरुसमक्षमालोचनां प्रतिक्रमणं च करिष्यामीति । एवं चिन्तयित्वा पूर्वगच्छे आगच्छति ततो घटते एवात्र पुनः शब्दोपादानमिति । अथवा गच्छाद् गतस्य पुनस्तत्रागमनापेक्षया पुनः शब्दोपादानम् तथाहि-'पुणो आलोएज्जा' पुनरिति गत्वा पुनः प्रत्यावर्तितस्य आलोचनां कारयेत् युक्तमेव पुनःशब्दोपादानम् नहि तीर्थकरा एकमक्षरमपि व्यर्थ भाषन्ते इति । एवं पुनरपि स्वगच्छे प्रतिनिवृत्तं साधुं गच्छस्था मुनयो न निन्देयुः न गहेरन् यथा -'समाप्तिं नीताऽनेन प्रतिमा, सांप्रतं पुनरागतो वर्त्तते' इत्यादिवाक्यै. प्रतिनिवृत्तस्य निन्दा गीं न कुर्युः, तस्य शुभपरिणामवत्त्वेन शोभनाध्यवसायवत्त्वेन च प्रतिनिवृत्तत्वादिति ॥ स० २५ ॥
पूर्व भिक्षुसूत्रमुक्त्वा सम्प्रति गणावच्छेदकाऽचार्योपाध्याययोः सूत्रद्वयमाह-'गणावच्छेयए य' इत्यादि 'आयरिय उवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-गणावच्छेयएय गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए पुणो आलोएज्जा पुणो पडिकमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवठ्ठावेज्जा ॥ सू० २६॥
आयरियअवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्ना से इच्छेज्जा दोन्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा ॥ सू० २७ ।।।
छाया-गणावच्छेदकश्च गणावक्रम्य एकाकिविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत , स इच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहत्तम् पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामेत् पुनः छेदपरिहारस्य उपस्थापयेत् ।। सू० २६ ॥
आचार्योपाध्यायश्च गणादवक्रम्य एकाकिविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत् स मत द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहत्तुं पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामेत् पुनः छेदपरिहारस्य उपस्थापयेत् ॥ सू० २७ ॥
भाव्यम्-'गणावच्छेयए य' इति । 'आयरियउवज्झाए य' इति च । एतत् सूत्रद्वसमपि भिक्षसूत्रवदेव व्याख्येयं, विशेषः केवलमेतावानेव यत् गणावच्छेदक एकाकिविहारप्रतिमापतिपत्तिकाले गणावच्छेदकत्वं स्वपदं मुक्त्वा प्रतिमा प्रतिपद्यते, आचार्योऽन्यं गणधरं स्वपदे स्थापयित्वा प्रतिमा प्रतिपद्यते इति । शेषं सर्व सूत्रद्वयं भिक्षुसूत्रवदेव ज्ञातव्यम् । अथवा भिक्षुसत्रादिदं नानात्वं यत् गणावच्छेदक आचार्यश्च प्रतिमाप्रतिपत्तिकाले पूर्वगृहीतमुपधि निक्षिमान्यमुपधि प्रायोग्यमुत्पाद्य प्रतिमा प्रतिपद्यते इति, शेषं पूर्ववदेव । सू० २६, २७ ॥
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १ सू० २८-३२ पार्श्वस्थादिविहारप्राप्तस्यपुनरागमने विधि ३९
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म पासस्थविहारपडिम उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अत्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवद्यावेज्जा ॥सू० २८॥
छाया-भिक्षुश्च गणादवक्रम्य पार्श्वस्थविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत्, सच इच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहर्तुम्, अस्ति चात्र शेष पुनरालोचयेत पुनः प्रतिक्रामेत् पुनश्छेदस्य वा परिहारस्य वा उपस्थापयेत् ॥ सू० २८ ॥
भाष्यम्-'भिक्खू य' इति । भिक्खू 'य' यः कश्चिद् भिक्षुश्च 'गणाओ अवक्कम्म' गणात् स्वगच्छात् अपक्रम्य बहिर्निर्गत्य, 'पासत्थविहारपडिम' पार्श्वस्थविहारप्रतिमाम्, पार्श्वस्थस्य, पार्थे ज्ञानादीनां समीपे नतु ज्ञानादिषु तिष्ठतीति पार्श्वस्थः, अथवा अस्य पाशस्थ इतिच्छाया, तत्र पाशाः बन्धहेतुभूता मिथ्यात्वादयः, तेषु तिष्ठतीति पाशस्थः चारित्राचारशिथिलस्तस्यप्रतिमा-तद्विषयाऽवस्था, ताम् ‘उवसंपज्जित्ताणं' उपसंपद्य प्रतिपद्य खलु 'विहरेज्जा' विहरेत् । ‘से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए' स च पार्श्वस्थचर्यारतो भूत्वा भूयोऽपि भावपरावृत्त्या इच्छेत् द्वितीयमपि वारं गणं स्वगणं यस्मिन् गणे पूर्वमासीत् तमेव गणं गच्छमुपसंपद्य सम्प्राप्य विहत्त स्थातुम् इच्छेत् तदा 'अस्थि या इत्थ से से' अस्ति चेदत्र शेषं चारित्रांशो विद्यमानस्तदा गच्छागतं तं 'पुणो' पुनरागतत्वात् 'आलोएज्जा' तस्याऽपराधनातस्याऽऽलोचनामाचार्यादिः कारयेत् 'पुणो पडिक्कमेज्जा' पुनः प्रतिक्रामेत् पुनरकरणतया पापात् प्रत्यावर्त्तयेत् 'पुणो छेयस्स परिहारस्स वा उवठ्ठावएज्जा' ततः पुनः छेदस्य वा परिहारस्य वा उपस्थापयेत् छेदस्य दीक्षाछेदस्य स्वीकाराय परिहारतपसो वा करणाय प्रवर्तयेदिति भावः । यदि तस्य चारित्रं सर्वथा नष्टं भवेत्तदा पुनः पञ्चमहाव्रतेषु उपस्थापयेदिति विवेकः ॥सू० २८॥
इदं सूत्रं पार्श्वस्थविषयकम् । एवं यथान्दे, कुशीले, अवसन्ने, संसक्ते चाऽपि चत्वारि सूत्राणि वक्तव्यानि 'जे भिक्खू० अहाछंद० इत्यादि 'जेभिखू० संसत्त०' पर्यन्तम् ॥सू०२९-३२
सूत्रम्-भिक्खू यगणाओ अवक्कम्म जहाछंदविहारपडिम उवसंपज्जित्ता णं विहरेजा से य इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अत्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवट्ठावेज्जा ॥ सू० २९ ॥
भिक्खू य गणाओ अवकम्म कुसीलविहारपडिमं उपसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अस्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवदावेज्जा ॥ सू०३०॥
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
ध्यवहार भिक्खू य गणाओ अवकम्म ओसन्नविहारपडिमं उपसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अत्थि या इत्य सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवट्ठावेज्जा ॥ सू० ३१ ॥
भिक्खू य गणाओ अवकम्म संसत्तविहारपडिमं उपसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा से य इच्छेउजा दोच्चंपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता ण विहरितए अस्थि या इत्य सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स परिहारस्स वा उवहावेज्जा ॥ सू० ३२ ॥
छाया-भिक्षुश्च गणादवक्रम्य यथाछन्दविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत् स च इच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् , अस्ति चात्र शेपं पुनरालोचयेत पुनः प्रतिक्रामेत् पुनश्छेदस्य वा परिहारस्य वा उपस्थापयेत् ।। सु० २९ ॥
भिक्षुश्च गणादवक्रम्य कुशीलविहारप्रतिमामुपसंपध खलु विहरेत् स चेच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपश्च खलु विहत्तुम्, अस्ति चात्र शेप पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामेत् पुनश्छेदस्य वा परिहारस्य वा उपस्थापयेत् ।। सू० ३० ॥
भिक्षुश्च गणादवक्रम्य अवसन्नविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत् स चेच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् अस्ति चात्र शेषं पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिकामेत् पुनश्छेदस्य वा परिहारस्य वा उपास्थापयेत् ॥ सू० ३१ ॥
भिक्षुश्च गणादवक्रम्य संसक्तविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत् स चेच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य विहर्त्तम् अस्ति चात्र शेषं पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामेत् पुनश्छेदस्य वा परिहारस्य वा उपस्थापयेत् ॥ सू० ३२ ॥
भाष्यम्-'भिक्खू य गणाओ' इति । एतानि चत्वारि सूत्राणि पार्श्वस्थविहारप्रतिमासूत्रवदेव व्याख्येयानि नवरं विशेषः केवलमेतावानेव यदत्र यथाछन्दादयश्चत्वारो वाच्याः । 'अहाछदो' त्ति यथाछन्दः छन्दोऽभिप्राय इच्छा वा, यथा- स्वाभिप्रायानुसारं स्वेच्छानुसारं वा यथैव स्वस्याभिप्रायः यथैव वा स्वस्येच्छा तथैव यो विचरति स यथाछन्दः आगमनिरपेक्षवर्तनशील इत्ययः ॥ सू० २९॥
'कुसीले'-त्ति कुशीलः कुत्सितम् आगमनिषिद्ध शीलम् आचारः समितिगुप्त्यादिरूपो विद्यते यस्य स कुशीलः ।। सू० ३०॥
'ओसण्णे'-त्ति अवसन्नः, 'काळे विणए' इत्यादिरूपज्ञानादिसामा चार्यासेवने अवसीदति दुःखमनुभवति, अथवा सामाचारी वितथाम् असत्यां कुर्वन् वर्तते सः साध्वाचारपालने औदासीन्यवान् साध्वाचारपालननिरपेक्ष इत्यर्थः ।। सू० ३१ ॥
'संसत्ते' त्ति संसक्तः ससक्त इव संसक्तः पार्श्वस्थादीनां संविग्नानां वा सांनिध्यमासाद्य तत्तद्रपेण संनिहितदोषगुण' तत्रैव संसक्तो भवति यथा पार्श्वस्थादिपु मिलितः पार्श्वस्थसदृशो
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०१ सू० ३३
परपाषण्डताप्राप्तस्य पुनरागमनविधिः ४१ भवति, संविग्नेषु मिलितश्च संविग्नसदृशो भवति बहुरूपनट इव यथावसरवर्तनशील इति भावः स च संक्लिष्टासंक्लिष्टभेदेन द्विविधः, तम्र-संक्लिष्टसंसक्तस्वरूपमाहगाथा-पंचासवपवत्तो जो, गारवत्तिगसंजुओ ।
इत्थीगिहिसु संवद्धो, संसत्तो संकिलिट्ठगो ॥१॥ छाया-पञ्चाश्रवप्रवृत्तो यो गौरवधिकसंयुतः ।
स्त्रीगृहिपु संबद्धः संसक्तः संक्लिएकः ॥१॥ यः पञ्चसु आश्रवेषु हिंसादिषु प्रवृत्तः स पञ्चाश्रवप्रवृत्तः-हिंसाद्याश्रवेषु प्रवर्तनशीलः, गौरवत्रिकेन ऋद्धिरससातरूपेण संयुतः सहितः, तथा स्त्रीषु स्त्रीरूपेषु गृहिषु पूर्वपश्चात्संस्तुतेषु गृहस्थेषु सम्बद्धः स्त्रीगृहिभिः सह सम्बन्धकारको भवति स संक्लिष्टः संसक्तो ज्ञातव्य इति ॥ १॥
अथाऽसंक्लिष्टसंसक्तस्य स्वरूप गाथाद्वयेनाहगाथा-पासस्थे पासत्थो, अहछंदे होइ सोवि अहछंदो ।
एवं कुसीलमज्झे, ओसन्ने यावि एमेव ॥१॥ संसत्ते संसत्तो, पियधम्मे होइ सोवि पियधम्मो ।
एवं असंकिलिट्ठो, संसत्तो सो मुणेयन्बो ॥२॥ छाया-पावस्थे पार्श्वस्थो, (भवति), यथाछन्दे भवति सोऽपि यथाछन्दः ।
एवं कुसीलमध्ये, अवसन्ने चापि एवमेव ॥१॥ संसक्ते संसक्तः प्रियधर्मणि भवति सोऽपि प्रियधर्माः । एवमसंक्लिष्टः संसक्तः स ज्ञातव्यः॥ २॥
___ अनायोरर्थश्छायागम्य इति न विवियते इति । अत्रेदं विज्ञेयम्-पार्श्वस्थस्य यत्र स्थाने यत् प्रायश्चित्तं कथितं तस्मिन्नेव स्थाने यथाछन्दस्य प्रायश्चित्तं विवर्धयेत् 'अहाछदे विवढेज्जा' इति वचनात् , कथमेवं क्रियते ? आगमनिरपेक्षवर्त्तित्वेन कुप्ररूपणाप्ररूपको भवति, कुप्ररूपणाया बहुदोषत्वात्तस्य प्रायश्चित्ताधिक्यं प्रोक्तम् । अत्राऽयं विवेकः-पार्श्वस्थत्वं भिक्षुगणावच्छेदकाचार्योपाध्यायानां सर्वेषामपि संभवति, यथाछन्दत्वं तु केवलं भिक्षोरेव भवति ततः पार्श्वस्थविषयकं सूत्र त्रिसूत्रात्मकं भवति, यथाछन्दसूत्रं तु एकरूपमेवेति ॥ सू० २९-३२ ॥
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अवकम्म परपासंडपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए, नत्थि णं तस्स तप्पत्तिए केइ छेए वा परिहारे वा नन्नत्य एगाए आलोयणाए ॥ सू० ३३॥ ___ व्य. ६
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
M
व्यवहारसूत्रे छाया-भिक्षुश्च गणादवक्रम्य परपाषण्डप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत्, स चेच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहर्त्तम्, नास्ति खलु तस्य तत्प्रत्ययिकः कश्चित् छेदो वा परिहारो वा नाऽन्यत्र एकया आलोचनया ॥ सू० ३३ ॥
भाष्यम्-'भिक्व य' इति । 'भिक्खू य' यः कश्चिद् भिक्षुः राजाद्युपप्लवाऽशिवादिकारणात् 'गणाओ अवकम्म' गणात् स्वकीयगच्छात् अपक्रम्य पृथग्भूतो निस्सृत्येत्यर्थः 'परपासंडपडिमं उबसंपज्जित्ता णं' परपाषण्डप्रतिमा स्वकीयलिङ्गं परित्यज्य अन्यदीयं परदार्शनिकलिङ्गम् उपसंपद्य स्वीकृत्य खलु 'विहरेज्जा' विहरेत् यथावसरमुपद्रवकाले परकीयं लिङ्गं स्वीकृत्याऽपि अन्तःकरणेन पञ्चमहाव्रत पालयन् विहरन् ‘से य इच्छेज्जा' स च परित्यक्तस्वकीयवेषो गृहीतपरकीयवेषः, अन्तर्भावितचारित्रः, स यदि 'दोच्चंपि' द्वितीयमपि वारं 'तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं' लिङ्गपरिवर्तनकारणे परिसमाप्ते सति तमेव गणं यस्मिन् गणे पूर्वमासीत् तमेव गच्छं पुनरपि उपसंपद्य प्राप्य खल विहर्तुम् इच्छेत्- वाञ्छेत् तदा 'नस्थि णं तस्स तप्पत्तिए' नास्ति खलु तस्य कारणवशात् स्वलिङ्गं परित्यज्य परपाषण्डलिङ्गं स्वीकृत्य पुनरपि स्वगच्छे समागच्छतः तत्प्रत्ययिकः परपापण्डप्रतिमाग्रहणनिमित्तकः 'केइ छेए वा परिहारे वा' कश्चिच्छेदो वा परिहारो वा, तस्य तन्मूलक छेदनामकं परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं न भवतीत्यर्थः । तत् किमत्र सर्वथैव प्रायश्चित्ताऽभावः । तत्राह-'नन्नत्थ एगाए आलोयणाए' नान्यत्रैकया आलोचनया, आलोचना गुरुसमीपे स्वदोषाणां प्रकटनरूपा, तां विहाय नान्यत् प्रायश्चित्तं भवति, इति आलोचनामात्रमेव तस्य प्रायश्चित्तं भवति । राजाऽशिवायुपद्रवकारणमाश्रित्य परकीयलिङ्गधारणेनापि तस्य भावचारित्रसद्भावात् । यदि भिक्षुः रागद्वेषादिकारणेन स्वकीयगणादवक्रम्य परपाषण्डलिङ्गम् उपसंपद्य विहरेत् , कपायकारणे परिसमाप्ते सति द्वितीयमपि वारं तमेव गणमुपसंपद्य विहर्तुमिच्छेत्, अथैवं कुर्वतस्तस्य छेदो वा परिहारो वा प्रायश्चित्तमापयेत अन्यदपि प्रायश्चित्तं भवति रागद्वेषादिकारणतः परकीयलिङ्गस्य धारणात्, तादृशस्य परकीयलिङ्गप्रतिपत्तौ संयमयतनाया असंभवाच्चेति विवेकः ।
अत्रेदं बोध्यम्-भिक्षुः तादृशस्य परपापण्डस्य वेषं गृह्णाति यस्मिन् क्षेत्रे साधवो विचरन्ति तत्रत्यो राजा यस्य परपाषण्डस्य मतावलम्बी भवेत् एवं करणे राजा भिक्षु नोपद्रवति । कियत्कालपर्यन्तं तं लिग धारयेदिन्याह-यावत्कालपर्यन्तं तत्र राजाद्युपद्रवो नोपशाम्यति तावत्कालपर्यन्तं तल्लिनधारणमावश्यकम् । तथा-उपशान्तेऽपि राजाद्युपद्रवे यावत्कालं साधर्मिकाणां सार्थो न मिति तावत्कालं तेनैव लिङ्गेन कालक्षेपं कुर्यात्, तत्क्षेत्रस्य सहसा त्यक्तुमशक्यत्वात् । कथिवं च भगवतीनृत्रस्य पञ्चविशतितमे शनके संजयाधिकारे-'गृहस्थलिङ्गेऽन्यलिङ्गे वा छेदोपस्थापनीयं चारित्रं लभ्यते' इति । कारणमाश्रित्य लिग मुक्तवान् किन्तु यस्य चारित्रं निर्दोषं वर्तते
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
ww
भाष्यम् उ० १ सू० ३४
यवधावितस्य पुनरागमने विधिः ४३ स तत्र यदि कस्यापि नवदीक्षितत्य छेदोपस्थापनीयसम्बधी कालः समाप्तो भवेत्तदा तल्लिङ्गस्थितस्यैव निग्रन्था(नियंठा)पेक्षया, तथा स्थानाङ्गकथितचतुर्भद्यपेक्षया च त नवदीक्षितं चारित्रे स्थापयितुं कल्पते इति । अत्रेदे तात्पर्यम्-पार्थस्थादिससक्तपर्यन्तानि पञ्च सूत्राणि भावलिङ्गपरित्यागविषयकाणि ततस्तत्र प्रायश्चित्तदानमभिहितम्, इ६ परपापण्डप्रतिमासूत्रं तु द्रव्यलिङ्गपरित्यागविषयकमतोऽत्रालोचनां मुक्त्वा नान्यत् प्रायश्चितं प्रतिपादितम् ॥ सू०३३ ॥
पूर्व भावलिङ्गद्रव्यलिङ्गपरित्यागे विधि. प्रोक्तः, साम्प्रतं द्रव्यभावोभयलिङ्ग परित्यज्य गतस्य तत्रैव गणे पुनरागन्तुमिच्छतो विधिमाह-'भिक्खू च' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू व गणाओ अवकम्म ओहावेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता ण विहरित्तए, नत्थि णं तस्स तप्पत्तिए केइ छेए वा परिहारे वा नन्नत्थ एगाए सेहोवट्ठावणियाए ॥ सू० ३४ ॥
छाया-भिक्षुश्च गणादवक्रम्याऽवधावेत् स चेच्छेत् द्वितीयाप तमेवगणमुपसंपद्य खलु विहत्तं नास्ति खलु तस्य तत्प्रत्ययिकः कश्चित् छेदो वा परिहारो वा नान्यत्र एकया शैक्षोपस्थापनिकया ।। सू०३४ ।।
भाष्यम् -'भिक्खू य' इति । 'भिक्खू य' यः कश्चिद् भिक्षुः 'गणाओ अवकम्म' गणादपक्रम्य गणात् स्वकीयगच्छात् अपक्रम्य निर्गत्य 'ओहावेजना' अवधावेत् पञ्चमहाव्रतपर्यायात पराडमुखो मूत्वा गृहस्थपर्यायं प्रति गच्छेदित्यर्थः ‘से य इच्छेज्जा' स चेच्छेत् यः गृहस्थपर्यायमाश्रितः स पुनरपि साधूना सदुपदेशात् भाग्यवशाच्च भावपरावर्तनेन इच्छेत् 'दोच्चंपि तमेव गगं' द्वितीयमपि वारं तमेव गणम् 'उपसपज्जित्ता णं विदरित्तए' उपसंपद्य स्वीकृन्य विहत्तुं पुनः तत्रैव गणेदीक्षां गृहीत्वा संयमयात्रां निर्वाहयितुमिच्छेत्, पुनरागमनप्रश्ने कोदश प्रायश्चित्तं दातव्यम् ? न वा दातव्यम् ? इत्याह--'णत्थि णं तस्स' नास्ति. खल्ल तस्य 'तप्पत्तइए' तत्प्रत्ययिकः संयमत्यागनिमित्तकः 'केइ छेए वा परिहारे वा' कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, न भवति खलु तस्य कश्चित् छेदनामकं परिहारनामकं वा प्रायश्चितं, तस्मिन् छेदपरिहारप्रायश्चित्तस्य कारणाभावात् । तहि किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह-'णण्णत्थ एगाए सेहोवढावणियाए' नान्यत्र एकया शैक्षोपस्थापनिकया तस्य शैक्षोपस्थापनिका विहाय नान्यत् किमपि प्रायश्चित्त दात्तव्य स्यात् , मूलत एव तस्मै पुनर्नुतनामेव दीक्षां दद्यात् , तस्य सर्वथा गृहस्थपर्यायस्वीकृतत्वादिति ।। सू० ३४ ॥
___ पूर्व पार्श्वस्थादिप्रतिमाविषये आलोचनाविधिः प्रोक्त., साम्प्रत भिक्षणा अकृत्यस्थाने सेविते तस्यालोचनादिकं कस्य पार्श्वे कर्तव्यम् ? इति तद्विधिमाह-'भिक्खू य' इत्यादि ।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ व्यवहारसूत्रे
सूत्रम्-भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं सेवित्ता इच्छेज्जा आलोइत्तए जत्येव अप्पणो आयरियउवज्झाए पासेज्जा तेसंतियं आलोएज्जा पडिकम्मेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अमुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (१)।
___नो चेव अप्पणो आयरियउवज्झाए जत्थेव संभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं बभागमं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कम्मेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अद्वेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (२)।
नो चेव संभोइयं साहम्मियं, जत्थेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्मयं वभागमं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अमुटेज्जा अहारिहं तबोकम्मं पायच्छित्त पडिवज्जेज्जा (३)।
नो चेव अन्नसंभोइयं जत्थेव सारूवियं पासेज्जा बहुस्सुयं कभागभं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निदेजा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुटेज्जा अहारिहं तबोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (४) ।
नो चेव सारूवियं पासेज्जा बहुस्सुयं वभाग जत्थेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा वहुस्सुयं वभागमंतस्संतिए आलोएज्जा पडिकम्मेज्जा निदेजा गरहेज्जा विउद्वेज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अभुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा(५)।
___नो चेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्सुयं वभालामं जत्थेव सम्मंभावियाई चेइयाई पासेज्जा तेसंतिए आलोएज्जा पडिकमेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुट्टेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (६)।
नो चेव सम्मंभावियाई चेइयाई पासेज्जा, वहिया गामस्स वा नगरस्स वा निगमस्स वा रायहाणीए वा खेउस्त वा कव्बडस्स वा मडंवस्स वा पट्टणस्स वा दोण मु हस्स वा आसमस्स वा संवाइस्स या संनिवेसस्स वा पाईणाभिमुहे वाउदीणाभिमुहे वा करयलपरिन्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वएज्जा-एवइया मे अबराहा एवइक्खुत्तो अहं अबरद्धो अरहंताणं सिद्धाणं अंतिए आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निदेशा गरहेज्जा विउज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अन्भुटेज्जा अहारिदं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जासि (७) त्ति बेमि ॥ सू० ३५ ॥
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाध्यम् उ० १ सू० ३५
आचर्योपाध्यायाधैकै काभावे आलोचनाविधिः ४'
छाया-भिक्षुश्चाऽन्यतरमकृत्यस्थानं सेवित्वा इच्छेदालोचयितुं यत्रैवात्मन आच र्योपाध्यायान् पश्येत् तेपाम् अन्तिके प्रतिक्रामेत् निंदेत् गहेंत व्यावर्त्तत विशोधयेत् अक रणतयाऽभ्युत्तिष्ठेत् यथार्ह तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत १ । नो चैवात्मन आचार्योपाध्या यान् यत्रैव सांभोगिक साधर्मिकं पश्येत् बहुश्रुतं बह्वागमं तस्य अन्तिके आलोचये प्रतिक्रामेत् निंदेत् गर्हेत व्यावत विशोधयेत् अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत् यथाई तपाका प्रायश्चितं प्रतिपद्येत २ । नो चैव सांभोगिकं साधर्मिकं यत्रैवाऽन्यसांभोगिकं सामित्र पश्येत् वहुश्रुतं वबागमं तस्य अन्तिके आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निदेत् गर्हेत व्यावर्तेर विशोधयेत् अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत् यथाहं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत ३ । नं चैवान्यसांभोगिकं यत्रैव सारूपिकं पश्येत् बहुश्रुतं वबागम तस्य अन्ति आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निन्देत् गहेंत व्यावतेत विशोधयेत् अकरणतया अभ्यु तिव्ठेत् यथाहं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत ४ । नो चैव सारूपिकं यत्रैव श्रमणो पासकं पश्चात्कृतं पश्येत् बहुश्रुतं बह्वागमं कल्पते तस्यान्तिके आलोचयेत् प्रतिक्रामे निदेत् गहेंत व्यावत्तेत विशोधयेत् अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत् यथाहं तपःक्रम प्रायश्चि प्रतिपद्येत ५ । नो चैव श्रमणोपासकं पश्चात्कृत यत्रैव सम्यग्भावितानि चैत्यानि पश्येत तेषाम् अन्तिके आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निदेत् गहेत व्यावहूत विशोधयेत् अकरणतय अभ्युत्तिष्ठेत् यथाहं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत ६ । नो चैव सम्यग्भावितानि चैत्यानि पश्येत् वहिनमिस्य वा नगरस्य वा निगमस्य वा राजधान्या वा खेटस्थ वा कर्वटस्य वा मडम्बस्य वा पत्तनस्य वा द्रोणमुखस्य वा आश्रमस्थ वा संवाधस्य वा संनिवेशस्य वा प्राची. नाभिमुखो वा उदीचीनाभिमुखो वा करतलपरिगृहीतं शिरवर्त्त मस्तके अंजलिं कृत्वा एवं वदेत्-पतावंतो मेऽपराधा. एतावत्कृत्व. अहमपराद्धः, अर्हतां सिद्धानाम् अन्तिके आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निदेत् गर्दैत व्यावत्तत विशोधयेत् अकरणतयाऽभ्युत्तिष्ठेत् यथाई तपाकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत ७ इति ब्रवीमि ॥ ० ३५॥
॥ इति प्रथमोहेशः समाप्तः ॥१॥ भाष्यम्-'भिक्खू य अन्नयरं' इति। 'भिक्खू य अन्नयरं' भिक्षुश्च अन्यतरत् अनेकेषु प्राणातिपातादिष्वकृत्येषु मध्ये यत्किमप्येकम् 'अकिच्चट्ठाणं' अकृत्यस्थानं कर्तुमयोग्यमकृत्यम् , अकृत्यं च तत्स्थानमकृत्यस्थान प्राणातिपातादिलक्षणम् ‘सेवित्ता' सेवित्वा 'इच्छेज्जा' इच्छेत् अभिलपेत् 'आलोइत्तए' आलोचयितुं पापस्यालोचना कर्तुमिच्छेत् तथाहि-मोहनीयकर्मोदयाद्वा प्राणातिपातादिलक्षणस्याऽकृत्यस्य प्रतिसेवनं कृत्वा विगलितप्रमादो दुष्कृतकर्मणः कटविपाकमालोच्य तादृशकर्ममलमपनेतुं तस्य कर्मणः प्रायश्चित्तं ग्रहीतुमिच्छेदिति ।
सत्यामप्यालोचनेच्छायां कुत्र कस्याने आलोचनां कुर्यादिति जिज्ञासायामाह-'जत्थेव' यत्रैव स्थानविशेषे ग्रामादौ उपाश्रयविशेषे वा 'अप्पणो आयरियउवझाए पासेज्जा' आत्मन आचार्योपाध्यायान् पश्येत् स च आलोचनां कर्तुमिच्छुः आत्मनः स्वकीयगणसम्बन्धिनो नतु परगणाऽवस्थितान् आचार्योपाध्यायान् पश्येत् अकृत्यस्य दूरीकरणे सत्कृत्यस्य च करणे काल
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
क्षेपस्य अयोग्यत्वात् 'तेसंतियं आलोएज्जा' तेषाम् अन्तके आलोचयेत् तेषामाचार्योपाध्या यानामन्तिके समीपे आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात् आचार्योपाध्यायानां समीपे स्वकृताऽतिचारजातं म्लायता वदनेन वचनद्वारा नतु भावभङ्गया जनान्तरमुखेन वा प्रकटीकुर्यात् । 'पडिकमेज्जा' प्रतिक्रामेत् पापात् प्रत्यावर्तितुं मिथ्यादुष्कृत दद्यात् 'निंदेज्जा' निंद्यात् स्वोपार्जितपापकर्मणः स्वात्मानमेव साक्षीकृत्य निन्दा कुर्यात् 'गरहेज्जा' गत गुरु साक्षिकं विनिर्माय स्वकृतपापकर्मणो जुगुप्सां कुर्यात्, सर्वत्रापि निन्दनं गहेणं च एतदुभयमपि परमार्थतस्तदैव भवति यदा पुनः तादृशकर्मकरणत: सर्वथैव प्रतिनिवर्त्तते तत आह-'विउद्देज्जा' व्यावतेंत तस्मादकृत्य प्रतिसेवनात् सर्वथैव प्रतिनिवृत्तो भवेत् । प्रतिनिवर्त्तनेऽपि पापकर्मकरणतस्ताहशात्यापात् तदा मुच्यते यदा स्वकीयात्मनो विशोधिर्भवति, आत्मनो विशुद्ध्यभावे प्रतिनिवर्तनमपि निरर्थकमेवेत्याह-'विसोहेज्जा' विशोधयेदात्मान, पापमलप्रक्षालनेनाऽस्मान निर्मलीकुर्यात् । यथा भूमिलठिताश्व उत्थाय शरीरसंलग्नरजोऽङ्गानि विध्य पूर्वापररजोनिर्गमेन निर्मलीभवति तथैव भिक्षुः पापरजो विधूय निर्मलीभवेत् , सेयमात्मनो विशुद्धिः कृतस्य पापस्याऽपुनःकरणतायामेव सभवति, अन्यथा कृतकर्मणः पुनःकरणतायामात्मविशुद्धेरसंभवात् तत्राह-'अकरणयाए अभुटेज्जा' अकरणतया पुनरभ्युत्तिष्ठेत्-अकरणतया 'पुनरेवं न करिष्यामीति निश्चित्याऽभ्युत्तिष्ठेत् सानधानो भवेदित्यर्थः । पुनरकरणतया-अभ्युत्थानेऽपि पापाद्विशोधिः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यैव भवति, नतु प्रायश्चित्तमन्तरेण पापापनोदनम् , अत आह-'अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा' यथाई तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत, यथा यथायोग्यम् पापानुसारि येन पापनिवृत्तिर्भवेत्तादृशं तप कर्म, तत्र तपोग्रहणमुपलक्षणं तेन छेदादिकं प्रायश्चित्तं पापनाशकं कर्म प्रतिपयेत स्वीकुर्यात् १ । यदि आत्मीया आयोपाध्याया न लभ्यन्ते तदा किं कुर्यात् ! तत्राह
'नो चेव' इत्यादि 'नो चेव अप्पणो' नो चैव नैव यदि पुनः आत्मनः स्वगच्छस्य स्वगच्छसंवन्धिनः 'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्याया आसन्नप्रदेशे न विद्यन्ते दूरादिदेशव्यवधानतो वा तान् न पश्येत् तदा-'जत्थेच संभोइयं साहम्मियं पासेज्जा' यत्रैव सांभोगिकं साधर्मिकं पश्येत्, आचार्योपाध्यायानामलाभे यत्रैव खलु स्थानविशेष उपाश्रये वा सांभोगिकं सामानसामाचारीकं साधर्मिकं पश्येत् , कीदृशगुणसंपन्नं साधर्मिकम् ? त्त्राह- 'बहुस्सुयं' इत्यादि । 'बहुस्सुयंकमागम' बहुश्रुतं वह्वागर्म, तत्र बहुश्रुतं नामाऽनेकविधछेदादिसूत्रमर्मकुशलम् उद्यतविहारिणं क्रियापात्रं, बह्वागमं सूत्रतोऽर्थतश्च प्रभूतागमज्ञातारं पश्येत्, 'तस्संतियं आलोएज्जा तस्याऽन्तिके आलोचयेत् इत्यादि यथार्ह तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत, इतिपर्यन्तं पूर्ववद् व्याख्येयम् २। ___'नो चेव संभोइयं साहम्मियं' नो चैव खलु नैव यदि खलु सांभोगिकं साधर्मिकं, यदि पुन. स्वकीय सांभोगिकं साधर्मिकं बहुश्रुतं वहागमं न पश्येत् , तदा कत्य. समीपे आलोच
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०१ सू० ३५
आचार्योपाध्यायाधेकैकाभावे आलोचनाविधिः ४ ।
nommmmmmmmmmmmmmmmm
नादिकं कर्त्तव्यम् ? तत्राह-'जत्थेव' इत्यादि । यदि पुनः सांभोगिकं साधर्मिकं न पश्येदालोचनार्थं तदा 'जत्थेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं पासेज्जा' यत्रैवान्यसांभोगिकं साधर्मिकं पश्येत् तत्रैव स्थानविशेपे अन्यसांभोगिकम् अन्यगच्छीयं स्वसंभोगमर्यादाभिन्न किन्तु साधर्मिकं समानधर्मिकं जिनोत्तपञ्चमहावताराधकं पश्येत्, तमपि कथम्भूतं साधर्मिक तत्राह-'बहुस्सुयं' इत्यादि 'वहुस्मुयं वभागम' बहुश्रुत छेदादिप्रायश्चित्तसूत्रपटनपाठनकुशलं बह्वागम सूत्रार्थतः आगमज्ञानिनं पश्येत् 'तस्संतिए 'आलोएज्जा.' तस्यान्यसांभोगिकसाधर्मिकस्य सविधे आलोचयेत् इत्यादि सर्व पूर्ववद् व्याख्येयम् ३ ।
'नो चेव अन्नसंभोइयं' नो चैव अन्यसांभोगिकं यदि पुनरन्यसांभोगिकं साधर्मिकं बहुश्रुतं वहागमं नो पश्येत् नो लभेत तदा 'जत्थेव सारूवियं पासेज्जा' यत्रैव स्थाने उपाश्रये वा सारूपिकं समान रूप सरूप तत्र भवः सारूपिकः तं सारूपिकं स्वसमानवेषम्, स्वसमानालोचनाकरणेच्छुकं वा कश्चिन्मुनि पश्येत् कथम्भूतं सारूपिकम् ? तत्राह-'बहुस्सुयं' इत्यादि 'वहुस्सुयं वभागमं बहुश्रुत बहागमं पूर्वोक्तप्रकारकं पश्येत् 'तस्संतियं आलोएज्जा.' तस्यामन्तिके आलोचयेत्, परस्परमालोचनां कुर्यात् इत्यादि पूर्ववदिति ४ ।
___'नो चेव सारूवियं' नो चैव खलु सारूपिकं यदि पुनः सारूपिकं बहुश्रुतं बहागमं नैवं खलु पश्येत् नो लभेत तदा 'जत्थेव' यत्रैव स्थाने 'समणोवासग पच्छाकडं पासेज्जा' श्रमणोपासक श्रावकं कीदृशम् ? 'पच्छार्ड'-पश्चात्कृतं यः पूर्व साधुपर्याये स्थितः बहुश्रुतो बागम आसीत् ततस्तं साधुपर्याय मुक्त्वा गृहस्थो भवति स पश्चात्कृतः कथ्यते, त पश्येत् कीदृशम् ? 'वहस्सुयं वभागम' बहुश्रुत वबागमं "तस्संतिए' तस्यान्तिके 'आलोएज्जा.' आलोचयेत् आलोचनादि सर्वविविं पूर्वोक्तप्रकारेणैव कुर्यात् ५।।
___ 'नो चेत्र समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा' यदि पूर्वोक्तं श्रमणोपासकं पश्चास्कृतमपि न पश्येत् तदा-'जत्थेव सम्मभावियाई' यत्रैव खलु स्थानविशेपे सम्यग्भावितानि जिनवचनवासितान्तःकरणानि 'चेइयाई' चैत्यानि 'चितिस ज्ञाने' इति धातोनिष्पन्न
चैत्य, तानि सम्यग्भावयुक्ताः गृहस्था इत्यर्थः, येषामन्त करणे न रागो न चेp स्वपरगुणावगुणविवेकज्ञाः केऽपि गृहस्था भवेयुस्तान् पश्येत्, तन्मध्यात् कश्चिदेकं विवेकबुद्ध्या आलोचनादानकुशलं निरीक्षेत, बहुवचनं चात्र तादृशगृहस्थानां बहुत्वात् 'तेसंतियं आलोएज्जा.' तेषामन्तिके समीपे आलोचयेत्, इत्यादिपदानि पूर्ववदेव व्याख्येयानीति ६ ।
अथ यदि 'नो चेव सम्मंभावियाई' नैव सम्यग्भावितानि चैत्यानि तादृशान् गृहस्थान नो पश्येत् तदा-'वहिया गामस्स वा’ बहिर्ग्रामस्य वा ग्रामः वृतिवेष्टितो जननियासः, तस्य ग्रामस्य
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
व्यवहारसूत्रे
बहिर्वाह्यदेशे ग्रामस्य बहिःप्रदेशे, अथवा 'नगरस्स वा' नकरस्य नगरस्य वा, न करो गोमहिण्यादीनां विद्यते यत्र तत् नगरं अष्टादशकरवर्जितं, तस्य, 'निगमस्स वा' निगमस्य वा, तत्र निगमः प्रभूततरवणिग्जननिवासः, तस्य वा, 'रायहाणीए वा' राजधान्या वा, तत्र राज्ञाधिष्ठितं नगरं राजधानी, तस्या वा, 'खेडस्स का' खेटस्य वा, तत्र पांशुप्राकारनिवद्ध खेट, तस्य वा, 'कबडस्त वा' कर्बटस्य वा, तत्र कर्वट क्षुल्लकनगरम्, तस्य वा, 'मर्डवस्स वा' मडम्वस्य, वा तत्र मडम्बः सार्धगव्यूत्यन्तर्गतग्रामान्तररहितः, तस्य वा, 'पट्टणरस वा' अस्य- पत्तनस्य वा पट्टनस्य वेतिच्छाया, तत्र पत्तनं समस्तवस्तुप्राप्तिस्थानं जलस्थलनिर्गमप्रवेशं नगरम्, पट्टनं यत् नौभिरेव गम्यम् , उक्तञ्च
पत्तनं शकटैर्गम्यं, घोटकै नौभिरेव वा। नौभिरेव च यद्गम्य, पट्टनं तत्प्रचक्षते ॥१॥ इति
तादृशस्य पत्तनस्य वा पट्टनस्य वा, 'दोणमुहस्स वा' द्रोणमुखस्य वा, तत्र द्रोणमुखं जलस्थलपथोपेतो जननिवासः, तस्य वा, 'आसमस्स वा' आश्रमस्य वा, तत्राश्रमो नाम आश्रयविशेषः तापसादीनां, तस्य वा, 'संवाहस्य या' संवाधस्य वा, संवाधो जनसंमर्दः यथा यात्रादौ दिग्म्य आगत्य स्थानविशेषे जनानां समावेशः, तस्य वा, 'संनिवेसस्स वा' संनिवेशः सेनानिवेशः समागतसार्थवाहादि निवासस्थानं वा, तस्य वहिः पूर्वोक्तानां ग्रामादीनां वहिःप्रदेशे गत्वा तत्र 'पाईणाभिमुहे वा' प्राचीनाऽभिमुखो वा पूर्वाऽभिमुखो वा अथवा 'उदीणाभिमुहे वा उदीचीनाऽभिमुखो वा उत्तराभिमुखो वा सन् पूर्वदिगभिमुखः अथवा उत्तरदिगाभिमुखो वा मूत्वेत्यर्थः । अत्र पूर्वोत्तरयोर्दिशोर्ग्रहणं तयोरेवालोचनायां प्रशस्तत्वज्ञापनार्थ, पश्चिमदक्षिणयोदिशोरालोचनायामनर्हत्वादिति । तत्र गत्वा किं कुर्यात् ? तत्राह-'करकल०' इत्यादि । 'करयलपरिग्गहियं' सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु' तत्र करतलाभ्यां संहताम्यां हस्ततलाभ्यां प्रकर्षण गृहीत. स्थापित इति करतलपरिगृहीतस्तम् , तथा शिरसि आवर्त्तते दूरमिव सीमितदेशं गत्वा पुनस्तत्रैव निवर्तते स आवतः चक्राकृतिः, तद्वत् यस्य, स एव शिरसावतः, तादृशं मस्तके अंजलि कृत्वा स्थापयित्वा ‘एवं वएज्जा' एवं वदयमाणप्रकारेण वदेत्, तदेव दर्शयति-'एवइया मे' इत्यादि, 'एवइया मे अवराहा' एतावन्तो ममापराधाः अकृत्यस्थानसेवनरूपाः एतावन्तः सन्ति 'एचइक्खुत्तो अहं अवरो' एताव(कृत्व एतावतो वारान् यावदहमपराद्धः अकृत्यस्थानसेवनरूपाऽपराधयुक्तो जातोऽस्मि, एवं सविनयमुक्या 'अरहंताणं सिद्धाणं अंतिए' महर्ता सिद्धानां समीपे तान् साक्षीकृत्येत्यर्थ 'आलोएज्जा' आलोचयेत्, सर्व स्वापराधजातं स्ववचसा प्रकटीकुर्यात् , प्रतिक्रामेत्, निदेत, गर्हेत,
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्म् उ० १ सू० ३५
प्रथमोदेशकसमाप्तिः ४९ व्यावर्तेत विशोधयेत् अकरणत्याऽभ्युत्तिष्ठेत् , यथाहं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत, इति । तथा च अर्हतां सिद्धानां पुरत तत्साक्षिपूर्वकम् आलोचयेदात्मनो दोषजातं प्रकटयेत् , प्रतिक्रामेत् मिथ्यादुष्कृतं दद्यात् , अत्मानं निंदेत् , गर्हेत, अकृत्यकरणादात्मानं व्यावत्तत विनिवर्तेत, कृतातीचारविधूननेन आत्मानं विशोधयेत् , अकृत्यस्य पुनरकरणातयाऽभ्युत्तिष्ठेत् यथायोग्यम् अकृत्यस्थानानुसारि तप कर्म तपःकरणरूपं छेदादिप्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत स्वीकुर्यादिति । "त्ति वेमि' इति ब्रवीमि, एवं प्रकारेण सुधर्मस्वामी ज़म्बूस्वामिनं प्रोवाच-यदहं प्रायश्चित्तविषयेऽश्रौषं तीर्थकरमुखात् तत्ते कथयामि, इति सूत्रार्थः ।। सू० ३.५ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ -प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनाचार्य"--पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालचंतिविरचितायां "व्यवहारसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायां प्रथम उद्देशकः समासः ॥१॥
व्य. ५
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ द्वितीयोद्देशकः प्रारभ्यतेअथ प्रथमोद्देशकस्यान्तिमसूत्रेण सहास्य द्वितीयोदेशकप्रथमसूत्रस्य कः सम्बन्ध ! इत्यत्राह भाष्यकारः 'पुन्वं' इत्यादि । गाथा-पुव्वं एगो सेवइ, पावट्ठाणं च किंपि तस्स विही।
चुत्तोऽणेगाणं , सो बुच्चइ एस संबंधो ॥१॥ छाया-पूर्वम् एकः सेवते पापस्थानं च किमपि तस्य विधिः ।
प्रोक्तः अनेकेषां इह स प्रोच्यते एष सम्वन्ध्रः ॥ १ ॥ व्याख्या-पूर्व प्रथमोद्देशकस्य चरमे सूत्रे एकः कश्चित् भिक्षुः किमपि प्राणातिपातादिकं पापस्थान सेवते तस्य विधिः प्रोक्तः । इह अत्र द्वितीयोदेशकप्रथमसूत्रे द्वयादीनां पापस्थानसेवने स विधिः प्रोच्यते, एषः पूर्वापरोद्देशकयोः सम्बन्धो वर्त्तते ॥१॥
अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य द्वितीयोदेशकस्येदमादिसूत्रम्—'दो साहम्मिया' इत्यादि ।
सूत्रम्-दो साहम्मिया एगयओ विहरंति एगे तत्थ अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा ठवणिज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ॥ सू० १॥
छाया-द्रो साधर्मिको एकतो विहरतः एकस्तत्राऽन्यतरत् अकृत्यस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् स्थापनीय स्थापयित्वा कत्तव्य वैयावृत्त्यम् ॥ सू० १ ॥
भाष्यम्-'दो साहम्मिया' इति । 'दो साहम्मिया' द्वौ साधर्मिकौ, तत्र द्वौ द्वित्वसंख्याविशिष्टौ समानः सदृशो धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणो विद्यते ययोस्तौ द्वौ साधर्मिकौ समानधर्मिणौ एकसामाचारीकावित्यर्थः ‘एगयओ' एकतः एकत्र समुदितौ सन्तौ । 'विहरंति' विहरतः तिष्ठतः, 'एगे तत्थ' एकः कश्चित् तत्र द्वयोर्मध्ये 'अन्नयरं' अन्यतरत् यत् किमप्येकम् 'अकिच्चट्ठाणं' अकृत्यस्थानं प्राणातिपातादिलक्षणम् “पडिसेविता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् स्वकृतातिचारादिकं स्वचसा स्वकीयाचार्यादिसमीपे प्रकाशयेत् , तत्र यदि अगीतार्थकः प्रतिसेवनां प्राणातिपातादिलक्षणं पापं प्रतिसेवितवान् तदा तादृशाय आचार्यादिः ? शुद्धमेव उपवासाऽऽचामाम्लादिकमेव तपो दद्यात् न तु परिहारतपः, तस्य जडमतित्वेन परिहारतपोऽयोग्यत्वात् ।
अथ यदि स प्रतिसेवको गीतार्थो भवेत् तर्हि तस्मै गीतार्थाय परिहारनामकं तपो दद्यात् । 'ठवणिज्जं ठावइत्ता' स्थापनीयं तद् यथायोग्यं दातव्यप्रायश्चित्तं स्थापयित्वा दत्त्वा तत्र योऽन्यस्तदितरः साधुः स तस्य 'करणिज्जं वेयावडियं' वैयावृत्त्यं भक्तपानादिना शुश्रूषणं करणीयं भवेदिति ॥ सू० १॥
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०२ सू०१-४
सहविहरतां यादीनां तपोवहनविधिः ५९ सूत्रम्-दो साहम्मिया एगयओ विहरंति दोवि ते अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा एगं तत्थ कप्पागं ठावइत्ता एगे णिव्विसेज्जा अह पच्छा सेवि णिव्विसेज्जा ॥ सू० २॥
छाया-द्वौ साधर्मिकौ पकतो विहरतः द्वापपि तौ अन्यतरत् अकृत्यस्थानं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेताम्, एकं तत्र कल्पस्थितं स्थापयित्वा एको निर्विशेत् अथ पश्चात् सोऽपि निविशेत् ॥ सू० २॥
भाष्यम्-'दो साहम्मिया' इति । 'दोसाहम्मिया' द्वौ साधर्मिको, तत्र द्वौ समानधर्मिणौ एकगच्छीयौ द्वौ श्रमणौ इत्यर्थः 'एगयओ विहरंति' एकतः एकत्र द्वौ मिलित्वा विहरतः तिष्ठतः, तयोर्द्वयोर्मध्ये 'दोवि ते' द्वावपि तौ उभावपि 'अण्णयरं' अन्यतरत् अष्टादशपापस्थानेषु किमप्येकं, मोहनीयोदयात् 'अकिच्चहाणं' अकृत्यस्थानं प्राणातिपातादिकं 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य तादृशान्यतराकृव्यस्थानस्य प्रतिसेवनं कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेताम् , स्वकीयं स्वकीयमपराधमाचार्यादेः पुरतः क्रमश. प्रकटीकुर्याताम् । तत्र यदि द्वावपि श्रमणौ गीतार्थो भवेताम् , ततः 'एग तत्थ कप्पागं ठावइत्ता' तत्र तयोद्वेयोमध्यात् एकं यं कमप्येकं कल्पकं कल्पस्थितमानुपारिहारिकं स्थापयित्वा 'एगे णिबिसेज्जा' एकः तदन्यः कल्पस्थितादितरः श्रमणो निर्विशेत् गृहीतपरिहारतपः समापयेत् तयोर्मध्ये एकं कल्पस्थितं कल्पयित्वा तदन्यः परिहारनामकं तपः कुर्यात् । यश्च कल्पस्थितः स एव चाऽनुपरिहारिको भवति, तत्र तृतीयादेः साधोरभावात्, स च कल्पस्थित आनुपारिहारिकस्तस्य परिहारतपःप्राप्तस्य तावत्कालं वैयावृत्त्यं कुर्यात् यावत्तस्य परिहारतपो न समाप्यते इति । 'अह पच्छा सेवि णिविसेज्जा' अथ पश्चात् सोऽपि निर्विशेत, अथ तस्य पूर्वप्रतिपन्नस्य परिहारतपःसमाप्यनन्तरं सोऽपि कल्पस्थितोऽपि निर्विशेत परिहारतपो गृहीत्वा तत्समापयेत् । यः परिहारतपःकरणाय प्रवृत्तः तस्य परिहारतपःसमाप्त्यनन्तरं स्वयमपि स्वस्य पापापनोदाय परिहारतपः कुर्यादित्यर्थः। यश्च पूर्व परिहारतपः कृतवान् स कृतपरिहारतप.कर्मा कल्पस्थितो भूत्वा भानुपारिहारिको भवति तेन तस्य वैयावृत्त्यं करणीयं, यावत्पर्यन्तं तस्य परिहारतपसः समाप्तिर्भवेत् तावत्तस्य वैयावृत्त्यमाचरेत् । तृतीयस्य कस्यचिदपि श्रमणस्याऽभावे द्वावेव परस्परं क्रमशः तपोवाहको वैयावृत्त्यकारकश्च भवेदिति भावः ।
अत्रायं विवेकः-यदि पुनर्द्वयोर्मध्ये एकतरः अगीतार्थो भवेत् तदा शुद्धतपोरूपमेव तस्य प्रायश्चित्तं भवेत् न तु परिहारतपः, अगीतार्थत्वेन परिहारतपोयोग्यताया अभावात् । अथ यदि द्वावपि अगीतार्थावेव भवेताम् तदा द्वाभ्यामपि शुद्धमेव तपः प्रतिपद्यते न तु परिहारतपः, द्वयोरपि परिहारतपोरूपप्रायश्चित्तस्यायोग्यत्वादिति ।। सू० २ ॥
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसून : सूत्रम्-वहवे साहम्मिया एगयो विहरति एगे तत्थं अण्णयरं अकिञ्चहाणं पङिसेवित्ता आलोएज्जा; तत्थ ठवणिज्ज ठावइत्ता- करणिज्जं वेयावडियं ॥ सू० ३॥ ,
छाया-वहवः सार्मिकाः एकतो विहरन्ति एकस्तत्राऽन्यतरद्, अंकृत्यस्थान' प्रतिसेव्याऽऽलोचयेत् तत्र स्थापनीय स्थापयित्वा करणीय वैयावृत्त्यम् ॥ सू० ३॥
भाष्यम्-'वहवे साहम्मिया' इति । 'वहवे साहम्मिया' बहवोऽनेके त्रयश्चत्वारः पञ्चादिका वां साघमिका. श्रमणाः 'एंगयओ विहरंति' एकतः सहैव विहरन्ति-तिष्ठन्ति 'एगे तत्थ' एक स्तत्र तेषु बहुषु साधुषु मध्ये एकः कश्चित् श्रमणः 'अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं' अन्यतरत् अकृत्यस्थानम् अनेकेषु प्राणातिपातादिलक्षणाऽकृत्यस्थानेषु मध्याद् अन्यतरदं यत् किमप्येकमकृत्यस्थानं प्रतिसेवितवान् । 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य तादृशाऽन्यतरदकृत्यस्थानं सेवित्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् . भाचार्यादीनां पुरतः प्रकटीकुर्यात्, आलोचनानन्तरं 'तत्थ' तत्र तस्मिन्नालोचके साघौ 'ठवणिज्ज ठावइत्ता स्थापनीयं स्थापयित्वा, स्थापनीयं दातुं योग्य परिहारतपोरूपं प्रायश्चित्तं स्थापयित्वा आरोप्य तं परिहारतपसि प्रवेश्येत्यर्थः तदितरः कोऽपि साधुः कल्पस्थित आनुपाः रिहारिको भूत्वा तेन आनुपारिहारिकेण कल्पस्थितेन तस्य 'करणिज्जं वेयावडियं वैयावृत्त्यम् आहारादिना शुश्रषणं करणीयमिति ।
___ अयं भावः--ते बहवः साधर्मिकों गीतार्थाः अंगीतार्था मिश्रा वा भवेयुः तत्र- यदि एको द्वरे त्रयश्चतुरादिका वा अकृत्यस्थानप्रतिसेविनो भवन्ति तदा तेषाम् भानुपारिहारिकत्वं कल्पस्थितत्वं तपोवाहकत्वं वैयावृत्त्यकारकत्वं च सर्व यथायोग्यं यथोचित विधिना करणीय मिति ॥ सू०.३॥
सूत्रम्--वहवे साहम्मिया एगयओ विहरंति सव्वेवि ते अण्णयरं अकिंच्चहाणं पडिसेविता आलोएज्जा, एगं तत्थ कंप्पागं ठावइत्ता अवसेसा णिन्विसिज्जाअह पच्छा सेवि णिन्विसेज्जा ॥ सू०४ ॥
छाया-बहवः साधर्मिका एकतो विहरन्ति सर्वेऽपि ते मन्यतरत् अकृत्यस्थान: प्रतिसेव्याऽऽलोचयेयुः, एक तत्र कल्पकं स्थापयित्वा अवशेषाः, निर्विशेयुः, अथ पश्चात्. सोऽपि निर्विशेत् ॥ सू० ४ ॥
भाष्यम्-'वहवे साहम्मिया' इति 'वहवे साहम्मिया' वहवोऽनेके साधर्मिकाः 'एगयओ विहरंति'एकतः सहैव विहरन्ति-तिष्ठन्ति, कदाचित् 'सव्वेवि ते' सर्वेऽपि ते श्रमणाः 'अण्णयरं अकिच्चहाणं' अन्यतरद्-अकृत्यस्थानं प्रतिसेवितवन्तः 'पडिसेवित्ता' तादृशाऽन्यतरद् अकृत्यस्थानं प्रतिसेव्य 'थालोएज्जा' आलोचयेयुः पापस्थानस्याऽऽलोचनां कुयुः, आलोचनां कर्तुमिच्छेयुः, तदा 'एग . तत्य कप्पागं ठावइत्ता' एक कमप्येकं श्रमणं तत्र प्रायश्चित्तकाले कल्पकं कल्पस्थितं स्थापयित्वा
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०२ सू०५-६ ग्लानपरिहारकल्पस्थितभिक्षोस्तपोवाहनविधिः ५३. तत्रैक कल्पस्थितं कृत्वा 'अवसेसा निम्विसिज्जा' अवशेषाः कल्पस्थिताऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि श्रमणा निर्विशेयुः परिहारतपो गृहीत्वा तत् समापयेयुः । 'अह' अथ ततः परिहारतपसि प्रविष्टानां सर्वेषां परिहारतपसः समाप्त्यनन्तरकाले 'पच्छा' पश्चात् 'सेवि णिव्विसेज्जा' सोऽपि कल्पस्थितोऽपि निर्विशेत् परिहारतपो गृहीत्वा तत्समापयेत् । सर्वेषां प्रायश्चित्तकरणमावश्यकमिति एकः कल्पस्थितो भूत्वा स सर्वानपि परिहारतपः कारयति । तदनन्तरं तेषां परिहारतपःसमाप्त्यनन्तरं स स्वयमपि परिहारतपः कुर्यादिति भावः ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम् -परिहारकप्पट्टिए भिक्खू गिलायमाणे अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा से य संथरेज्जा ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं,
से य णो संथरेज्जा अणुपारिहारिएणं करणिज्जं वेयावडियं, से य संते बले अणुपारिहारिएणं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जेज्जा से य कसिणे तत्थेव आरुहियन्वे सिया ॥ सू० ५॥
छाया-परिहारकल्पस्थितो भिक्षुर्लायन् अन्यतरत् अकृत्यस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत स च संस्तरेत् स्थापनोयं स्थापयित्वा करणीय वैयावृत्त्यम्, ।
सचनो संस्तरेत् अनुपारिहारिकेण करणीयं वैयावृत्त्यम् स च सति वले अनुपारिहारिकेण क्रियमाणं वैयावृत्त्य स्वादयेत् तच्च कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् ।। सू०५॥
भाष्यम्-'परिहारकप्पट्टिए' इति । 'परिहारकप्पढिए भिक्खू परिहारकल्पस्थितो भिक्षः परिहारनामके तपसि स्थितो वर्तमानः परिहारतपो वहन् "गिलायमाणे' ग्लायन् रोगादिकारणेन ग्लानः सन् 'अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं' अन्यतरत् यत् किमप्येकम् अकृत्यस्थानं प्रतिसेवितवान् , 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य आलोएज्जा' आलोचयेत् स्वकृतापराधजातं स्ववचसा आचार्यादिसमीपे प्रकाशयेत् ‘से य संथरेजा' स च संस्तरेत् , स च ग्लानः रोगादिना पीडितोऽपि यदि- तादृशाकृत्यस्थानप्रतिसेवनसंजातपापविशुद्धयर्थ संस्तरेत् परिहारतपसो वहने समर्थों भवेत. ग्लायन्नपि अकृत्यस्थानप्रतिसेवनविशुद्धिबुद्धया परिहारनामकतपोवहनाय समुद्यतो भवेत् इत्यर्थः तदा तस्य 'ठवणिज्ज ठावइत्ता' स्थापनीयं स्थापयित्वा तदुचितप्रायश्चित्तं दत्त्वा एकेन केनचितास्थापितेन कल्पस्थितेनाऽनुपारिहारिकेण परिहारतपो वहतः श्रमणस्य ''करणिज्जं वेयावडिय'
यावत्यं भक्तपानादिना करणीयं तस्य पारिहारिकस्याऽनुपारिहारिकेण तथाविधा परिचर्या कर्तव्या येन निर्विघ्नं यथा भवेत् तथा परिहारतपसः संपूर्णता भवेदिति ।।
से य णो संथरेज्जा' स च परिहारतपोवाहको रोगादिपीडितत्वेन धृतिसहननबलाभावात् न सस्तरेत् परिहारत्पोवहने कष्टमनुभवन् समर्थो न भवेत् तदा 'अनुपारिहारिएणं करणिज्जं वेयावडियं' अनुपारिहारिकेण तस्य वैयावृत्त्यं यथायोग्यं परिचर्यारूपं शुश्रूषणं
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र करणीयम् । 'से य संते वले' स चाऽधिकृत. पारिहारिकः सति बले धृतिसंहननादिसामर्थ्य विद्यमानेऽपि निगूहितबलवीर्यः सन् 'अणुपारिहारिएणं कीरमाणं वेयावडियं अनुपारिहारिकेण क्रियमाणं वैयावृत्त्यं स्वकीयपरिचर्यारूपम् 'साइज्जेज्जा' स्वादयेत् अनुमोदयेत् 'सम्यक् कृतं भवता यत् ग्लानस्य मे एतादृशं वैयावृत्त्यं कृतम्' इत्येवंरूपेणाऽनुमोदनं कुर्यात् । बलसद्भावे वैयावृत्त्यस्याऽनुमोदनेन प्रायश्चित्तमापद्यतेऽतः 'से य कसिणे तत्थेव आरुहियन्वे सिया'तदपि अनुमोदनादिजनितं प्रायश्चितं कृत्स्नं सर्व तत्रैव वहमाने परिहारतपस्येवाऽनुग्रहकृत्स्नेनाऽऽरोपयितव्यं स्यात् अन्यतराऽकृन्यप्रतिसेवनजनितपापस्यापि निवृत्त्यर्थं यदपरं प्रायश्चित्तं प्राप्त तस्यापि समावेशस्तस्मिन्नेव परिहारतपसि कर्त्तव्यः, नतु प्रायश्चित्तान्तरं दातव्यमिति भावः । ___पारिहारकस्य वैयावृत्त्यप्रकारो यथा-यदि पारिहारको भाण्डं प्रत्युपेक्षितुं न शक्नोति तदाऽनुपारिहारिको भाण्डं प्रत्युपेक्षते, भिक्षार्थ हिण्डितुं न शक्नोति तदा भिक्षामानीय ददाति । एवमुत्थितुं न शक्नोति तदा तमुत्थापयति , एवमुपवेष्टुमशक्तमुपवेशयति, लेपादिखरण्डितं पात्रबन्धादि प्रक्षालयितुं न शक्नोति तदा तत् प्रक्षालयति । एवं पारिहारको यद् यत् कार्य कत्तुं न शक्नोति तत्तत्सर्वं तस्यानुपारिहारिकः करोति । एवंविधं यथायोग्यं परिचर्याकरणरूपं वैयावृत्त्यमनुपारिहारिकेण करणीयं भवेत् । तच्च तावत् करणीयं यावत् परिहारिको बलिष्ठो जायते । यत्पुनः कत्तु सामर्थ्य भवेत् तदा तेन स्वयमेवानिगृहितवलवीर्येण करणीयं न तु स्वस्य बलवीर्य गोपनीयमिति भावः ।। सू० ५॥
सूत्रम्-परिहारकप्पठियं भिक्खं गिलायमाणं णो कप्पइ तस्य गणावच्छेयगस्स णिज्जहित्तए अगिलाए तस्य करणिज्जं वेयावडियं जाव तो रोगायंकायो विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सए नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ।। सू० ६॥
छाया-परिहारकल्पस्थितं भिक्षु ग्लायन्तं न कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्यहितुम् , अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यं तावद् यावत् ततो रोगातकाद्विप्रमुक्ता, ततः पश्चात् तस्य यथा लघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० ६ ॥
भाष्यम् -'परिहारकप्पट्टियं इति । 'परिहारकप्पट्ठियं' रिहारकल्पस्थितं परिहारनामके तपसि स्थितं परिहारतपो वहंतमित्यर्थः । 'भिक्खं भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं ग्लानि शरीरमान्द्यमुपागतं परिहारतपसा वातपित्ताधुपचयापचयवशात् शरीराऽस्वास्थ्यमुपगतमित्यर्थः 'णो कपई नो कल्पते नोपयुज्यते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य यस्य गणावच्छेदकस्य समीपे आगतो ग्लायन् साधुस्तं तस्य गणावच्छेदकस्य न कल्पते 'णिज्जृहितए' निहितुं निवारयितुं वैयावृत्त्याऽकरणादिना निष्कासयितुं न कल्पते । किन्तु 'अगिलाए' अग्लान्या ग्लानिरहितो यथा भवेत् तथा राजा वेष्टिमिव 'वेठ,' 'वेगार' इति प्रसिद्धं, तद्वत् राजनिर्देशमिवानुमन्यमानेन 'सर्वज्ञादेशः' इति वुद्धया कर्म- -
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० २ ० ६-८
ग्लानाऽनवस्थाप्यपाराञ्चिकभिक्षोस्तपोवाहनविधिः ५५
निर्जरणनिमित्तं 'तस्स करणिज्ज वेयावडियं' तस्य रोगादिना ग्लानिमुपगतस्य साघोवर्यैावृत्त्यं करणीयं गणावच्छेदकेन । कियत्कालपर्यन्त वैयावृत्त्य करणीयम् ? तत्राह - ' जाव' इत्यादि, 'जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को' यावता कालेन तस्मात् शरीरसंस्थितात् रोगातङ्कात् विप्रमुक्तो विनिर्मुक्तो भवेत् यावत्तस्य रोगातको नोपशाम्यति तावदित्यर्थः 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् रोगविमुक्त्यनन्तरम् ‘तस्स' तस्य पारिहारिकस्य वैयावृत्त्यकारकस्य च ' अहालहुस्सए नामं ववहारे' यथालघुस्वक; स्तोको नाम व्यवहारः प्रायश्चित्तं यथालघुस्वक इति स्तोकोऽल्पः, व्यवहारः प्रायश्चित्तम् । उक्तञ्च
"वत्रहारो आलोयण, सोही पायच्छित्त होंति एगट्ठा । थोवो अहालहुस्सो, पडवणा होई तदाणं" ॥१॥
व्यवहारः अलोचना शोधिः प्रायश्चित्तं भवन्ति एकार्थाः । स्तोको यथालघुस्वकः प्रस्थापना भवति तद्दानं ( प्रायश्चित्तदानम्) |
1
'पट्टवियन्वे सिया' प्रस्थापयितव्यो दातव्यः स्यात्, रोगविमुक्त्यनंतरं तस्मै पारिहारिकाय यथालघुस्वकं स्तोकं प्रायश्चित्तं दातव्यं भवेदिति भावः । अत्र यथा लघुस्वकनामकं यत् प्रायश्चितं दातव्यत्वेन कथितं तत् पारिहारिकस्य रोगातङ्कावस्थायां यदतिचारजातमापन्नं भवेत्तद्विपयकम्, वैयावृत्यकारकस्य तु तन्निमित्तमाहासन यनादिविषये यदापन्नं तद् वेदतव्यम् एवमग्रेऽपि सर्वत्र वाच्यम् । अयं यथालघुस्वको व्यवहारः पञ्चदिवसात्मको भवति, तं च सद्योरोगमुक्तत्वेन निर्विकृतिकं कुर्वन् पूरयतीति । उक्तञ्च "निव्विगियं दायन्त्रं, अहालहुस्संमि सुद्धो वा" इति निर्विकृतिक दातव्यं यथालधुस्वके शुद्धो वा ( क्रियते ) इति च्छाया । अथवा यस्मिन् श्रमणे यथालघुस्वको व्यवहारः प्रस्थापयितव्यो भवेत् तदा यदि यः प्रवचनप्रभावनादिमहति कारणे समुपस्थिते मनसि पापभयं निधाय प्रतिसेवनमकरोत् तदा स आलोचनाप्रदानमात्रत एव शुद्धः क्रियते तच्चाचार्याद्यधीनमिति विवेकः ॥ सू० ६ ॥
सूत्रम् -- अणवट्टप्पं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पर तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिनाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सए नामं ववहारे पट्टवियन्वे सिया || सू० ७ ॥
छाया -- अनवस्थाप्यं भिक्षु' ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्यूहितुम् अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यं यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः ततः पश्चात् यथा लघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० ७ ॥
भाष्यम् – 'अणवट्ठप्पं' इति । 'अणनट्टप्पं' अनवस्थाप्यम् - अवस्थापयितुमयोग्यं चौर्यादि - रूपं नवमं प्रायश्चित्तम् तद्विषयकतपोऽनाचरणेन तद् योगात् साधुरपि अनवस्थाप्यः पुनरुत्थाप
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे नायामयोग्यः अनाचीर्णतपोविशेषत्वेन पुनर्महाव्रतेषु स्थापितुमनर्ह इत्यर्थः, स च त्रिविधो भवति, उक्तञ्च वहत्कल्पसूत्रे
"तओ अणवट्टप्पा पण्णत्ता तं ज़हा--साहम्मियाणं तेणं करेमाणे १, अण्णधम्मि“याणं तेण्णं करेमाणे २, हत्थादाणं दलमाणे" ३ इति ।
त्रयः सनवस्थाप्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-साधर्मिकाणां -स्तैन्यं कुर्वाणः १, -अन्यधार्मिकाणां स्तैन्यं कुर्वाणः २, हस्तातालं ददानः । इतिच्छाया । अस्य व्याख्या तत्रैव (बृहत्कल्पसूत्रे) तत्र द्रष्टव्या।
तं तादृशं नवम-प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिपन्नं 'भिक्खं' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं रोगातकादिना कदर्थितशरीरम् 'नो कप्पई' नो कल्पते 'तस्स गणाच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जूहित्तए' निहितुं निराकर्तुम् । शेष सर्व परिहारकल्पस्थितसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० ७॥
सूत्रम् --पारंचियं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए . तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगातंकाओ विप्पमुक्के तो पच्छा तस्स अहा लहुस्सगे नामं ववहारे पठवियत्वे सिया ॥ सू० ८ ॥
छाया-पाराञ्चितं भिक्षु रलायन्तं नो-कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्वृहितम् अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यं यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारःप्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० ८॥
भाष्यम्--'पारंचियं' इति । 'पारंचियं' पाराश्चितं, पाराश्चितं नाम दशमप्रायश्चित्तं तद्योगात् साधुरपि पाराश्चितः पाराञ्चिको वा, तत्र पारं तोरं तपःप्रतिसेवनेनापराधस्य मिश्नति गच्छति ततो दीक्षते यः स पाराश्चिः स एव पाराश्चितः पाराश्चिको वा, यद्वा पारम् , अन्तं प्रायश्चित्तानां तत उत्कृष्टतरप्रायश्चित्ताभावादपराधानां पारमञ्चति गच्छत्तीत्येवंशीलं पाराञ्चितं, तद्योगात् साधुरपि पाराञ्चितः । उक्तञ्च व्यवहारसूत्रे--
'तओ पारंचिया पण्णत्ता तंजहा-दुढे-पारंचिए १, पमत्ते पारंचिए २, अन्नमन्नं करेमाणे पारंचिए ३' इति ।
त्रयः पाराञ्चिताः प्रज्ञाः, तद्यथा-दुष्टः पाराञ्चितः १, प्रमत्तः पाराञ्चितः २, अन्योन्यं कुर्वाणः पाराञ्चितः ३ । इतिच्छाया ।
व्याख्या तत्रैव द्रष्टव्येति । तं तादृशं पाराञ्चितं दशमप्रायश्चित्तस्थानमापन्नम् । 'भिक्खु' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं रोगातकादिना ग्लानिमुपगच्छन्तम् 'नो कप्पई' नो कल्पते 'तस्सगणावच्छे यगस्स निज्जूहित्तए' तस्य गणावच्छेदकस्य निहितम् । इत्यादि सर्व पूर्ववद् व्याख्येयम् ।। सू० ८॥
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० २ सू० ९-१३
क्षिप्तचित्तादिभिक्षूणां वैयावृत्त्यविधिः ५७
सूत्रम् - खित्तचित्तं भिक्खुं गिलायमाणं नो कंप्पड़ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूदित्तए, अगिलाए तस्स कर णिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विष्पंमुक्को, dit पच्छा तस्स अहालहुस्सए नामं ववहारे पढवियन्वे सिया || सू० ९ ॥
छाया - क्षिप्तचित्तं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्यूहितुम् अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यं यावत्ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् । सू० ९ ॥
भाष्यम् – 'खित्तचित्तं ' क्षिप्तचित्तं क्षिप्तं भयो गादिना विक्षिप्तमवगं चित्तं यस्य स क्षिप्तचित्तः भ्रान्तचित्त इत्यर्थं । यो रागतो भयतो राजाद्यपमानतो वा, इत्यादिकारणवशाद् भ्रान्तचित्तो भवेत् तम् भिक्खु' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्त रोगातङ्कादिना ग्लानिमुपगच्छन्तं 'नो कप्पई' नो कल्पते तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य निज्जूहित्तप' निर्यूहितुं निराकर्तुम् इत्यादि सर्वे पूर्ववदेव व्याख्येयम् ॥ सू० ९ ॥
सूत्रम् - दत्तचित्तं भिक्खु गिलायमाणं नोकप्पड तस्त गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तरस करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पसुक्को, तभ पंच्छा तसं अहालघुस्सगे नामं ववहारे पहवियध्वे सिया ॥ सू० १० ॥
छाया -- दीप्तचित्त भिक्षु ग्लायंतं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्यूहितुम्, अग्ला या तस्य करणीयं वैयावृत्यम् यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः । ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्त्रको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० १० ॥
भाष्यम् - - 'दित्तचित्तं' दीप्तचित्तम्, तत्र दीप्तं प्रदीप्तम् इन्धनेनाऽग्निरिव अकस्माल्लाभदुर्जेयशत्रुजय - मदादिना मानसिकरोगेण वा दीप्तमिव दीप्तं चित्तं यस्य स अकस्माल्लाभादिना विक्षिप्तचित्त इत्यर्थः, तं तादृशं दीप्तचित्तम् ' भिक्खु' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं ज्वरा-दिरोगाभिभूत 'नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए' न कल्पते तस्य गणावच्छे'दकस्य निर्यूर्हित्तुं निराकर्तुम् इत्यादि सर्वं पूर्ववदेव ज्ञातत्र्यम् || सू० १० ॥
1
सूत्रम् - जक्खाइ भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पड़ तस्य गगावच्छेयगस्स निज्जुहित्तए, अंगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पक्को, ओ पंच्छा "स्त्र अहालहुस्सगे नामं ववहारे पद्वत्रियंवे सिया ॥ सू० ११ ॥
छाया - यंक्षाविष्टं भिक्षं ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्यूहितुम्, अग्लान्या तस्य करणीयम् वैयावृत्त्यं यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् । सू० ११ ॥
कय ५
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसुत्रे
"
भाष्यम् – 'जक्खाइहं' यक्षाविष्टम्, यक्षो नाम व्यन्तरदेव विशेषः तेन पूर्वभवादिवैरमाश्रितेन रागरञ्जितेन वा आविष्टः यक्षाविष्टस्तं तागं भिक्खु' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं ग्लानिमुपगच्छन्तम्, यक्षावेशेनैव ग्लानभावमुपगतं सन्तम् 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य निज्जूद्दित्तए' निर्यूहितुं निराकर्तुम् इत्यादि सर्व पूर्ववदेव व्याख्यातव्यम् ॥ सू० ११ ॥
५८
,
सूत्रम् - उम्मायपत्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पर तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूत्तिए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पक्को, तओ पच्छा अहालहुस्सगे नामं ववहारे पढवियन्वे सिया ॥ सू० १२ ॥
छाया - उन्माद प्राप्तं भिक्षं ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्यूहितुम् अग्लान्या तस्य करणीय वैयावृत्त्यं यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सु० १२ ॥
भाष्यम् – 'उम्मायपत्ते' उन्मादप्राप्तम्, मोहनीयकर्मोदयेन वातपित्ताद्युद्रेकेण वा उन्मादं प्राप्त. य' कश्चिद् तं तादृशमुन्मादप्राप्तं ' भिक्खु' भिक्षु' 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं तद्वशाज्ज्वरादिरोगाक्रान्तं 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जू हित्तए' निर्यूहितुं निराकर्तुम्, इत्यादि सर्व पूर्ववदेव व्याख्यातव्यम् ॥ सू० १२ ॥
सूत्रम् – उवसग्गपत्तं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पर तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तरस करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विष्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियन्वे सिया || सू० १३ ॥
छाया - उपसर्गप्राप्तं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते गणावच्छेदकस्य निहितुम् अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यम् यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्य स्यात् ॥ सू० १३ ॥
भाष्यम् – 'उवसग्गपत्त' उपसर्गप्राप्तम्, तत्रोपसर्गो देवमनुष्यतिर्यक् समुद्भूतः, यथा देवः पूर्वभववैरमासाद्य बीभत्स रूपदर्शनादिना उपसर्गं करोति, मनुष्यो वा द्वेषेण ईर्ष्यया वा उपसर्गं करोति, तिर्यक्-सिंहव्याघ्रादिर्वा उपसर्ग करोति तादृशं त्रिविधोपसर्गप्राप्तम् ' भिक्खु ' भिक्षु श्रमण 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं ज्वरादिरोगेण दैन्यमुपगच्छन्तम् 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'वरूप गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जू हित्तए' निर्यूहितुं निराकर्तुम् । शेषं पूर्ववदेव ॥ सू० १३ ॥
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० २१०१४-१५ _ साधिकरणादिभिषणां वैयावृत्त्यावधिः ५९
सूत्रम्-साहिगरणं भिक्खू गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स, निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के तो पच्छा अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ।। सू० १४ ॥
छाया-साधिकरण भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य नि!हितुम् , अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यं यावत् स तस्मात् रोगातङ्कद् विप्रमुको भवेत् , तत. पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहार प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० १४ ॥
भाष्यम् –'साहिगरणं' साधिकरणम् , अधिकरणं - कलहः, क्रोधमानमायालोभद्वेषादि. जनितः, तेन सह विद्यते इति साधिकरणः कलहजन्यक्रोधयुक्तस्तं साधिकरणं 'भिक्खं भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं कलहजनितज्वरादिभिग्लानिमुपगतम् 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जूहित्तए' निर्दुहितुं निराकर्तुम् । शेषं पूर्ववत् ।। सू० १४ ॥
सूत्रम्-सपायच्छितं भिक्षु गिलायमाणं नो कप्पई तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावड़ियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के, तो पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नाम ववतारे पट्टवियव्ये सिया ॥ सू० १५॥
छाया-सप्रायश्चितं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य नियुहितुम् , अग्लान्या तस्य करणीय वैयावृत्त्यं यावत् रोगातकाद् विप्रमुक्तः, तत पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ।। सू० १५ ॥
भाष्यम्-'सपायच्छित सप्रायश्चित्तं, तत्र प्रायश्चित्तं परिहारकादितपोविशेषः, तेन प्रायश्चित्तेन सहितो युक्त इति सप्रायश्चित्त., तं सप्रायश्चित्तम् 'भिक्खु भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं प्रायश्चित्तबाहुल्याद्भयभीतत्वेन संजातज्वरादिकम् 'नो कप्पई नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य ग गावच्छेदकस्य 'निज्जूदित्तए' निहितुं निराकर्तुम्, शेषं व्याख्यातपूर्वम् ॥ सु. १५॥
सूत्रम्-भत्तपाणपडियाइक्खियं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पद तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के, तो पच्छा अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥सू०१६॥
छाया -भक्तपानप्रत्याख्यातं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य नियंहितम् , अग्लान्या तस्य करणीय वैयावृत्त्यम् यावत् ततो रोगातकाद् विप्रमुक्त, तत पश्चात् यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू०१६ ।।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र - भाष्यम्-'भत्तपाणपडियाइक्खियं' भक्तपानप्रत्याख्यातम् , भक्तमोदनादिकं, पानं च जलादिकम् इति भक्तपाने, ते उभे भक्तपाने प्रत्याख्याते परित्यक्ते येन स भक्तपानप्रत्याख्यातः प्रत्याख्यात भक्कानः तं 'भिक्खु' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं वातपित्तादिव्याधिना प्रस्यमानं 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेय गस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जूहित्तए' निहितुं निराकत्तुं न कल्पते किन्तु यदि तस्य रोगादिकारणाद् चिरजीवनेन भयमुत्पद्यते यथा'नाद्याप्य म्रिये, न जानेऽने रोगादिना का का व्यथा भोग्या भविष्यती'-ति व्यग्रचित्तं तं, धैर्यगर्मितवाक्यैराश्वासयेत् यथा-'भविष्यति रोगान्मुक्तिः सर्वं समीचीनं भविष्यती-ति नोद्विग्नतां भजतु भवान्' इत्येवमाश्वास्य तं तत्र दृढोकुर्यात् किन्तु न नियूहेत् , न निस्सारयेत् , अपि तु 'अगिलाए' अग्लान्या 'कदायं नीरोगो भविष्यति, कियत्कालं यावदस्य वैयावृत्यं करणीयम्' इत्याद्यात्मसकोचराहित्येन निर्जराभावं मन से निधाय दृढमनोभावेनेत्यर्थः' 'करणिज्ज वेयावडियं' तस्य वैयावृत्त्यं करणीय येन तस्य तद् भक्तपानप्रत्याख्यानाख्यमनशनवतं चित्तसमाधिपूर्वकं समाप्यते । तद् वैयावृत्त्य तावत् करणीयं यावत् स रोगान्मुक्तो भवेत् । रोगमुक्त्यनन्तरं तस्य यथालचुम्वकं प्रायश्चित्तं दातव्यमिति सूत्रसंक्षेपार्थ. । अस्य यत् लघुस्वकं प्रायश्चित्तं कथितं तत् तस्य भक्तपानप्रत्याख्यानावस्थायां रोगकाले यत् किमपि प्रायश्चित्त मापन्नं स्यात् तदपनोदनविषयकं विज्ञेयपिति भावः ॥ सू० १६ ॥
सूत्रम् - अजायं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पई तस्स गणावच्छेयगस्स निग्नहित्तए, अगिला र तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के, तो पच्छा अहालहुस्सगे नाम ववहारे पवियव्वे सिया ॥सू०१७॥
छाया-अर्थजातं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य नियूहितुम्, अग्लान्या तस्य करणीय वैयावृत्त्यं यावत् ततो रोगातकाद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ।। सू० १७ ।।
भाष्यम्-'अजायं' अर्थजातम् , अर्थन धनेन जातं-कार्य यस्य सः अर्थजातः यहा मर्य. किमपि प्रयोजनं धनार्जनादिरूप., स जातो यस्य स अर्थजात', तं धनार्जनवाञ्याभिभून भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं लोभोद्रेकाद् रोगाक्रान्तं 'नो कप्पइ! नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणान्छेदकस्य 'निज्जूहित्तए' नियुहितुं निराकर्तुम् , किन्तु मर्थलब्ध तम् अर्थस्य निस्मारताप्रदर्शनपूर्वकं प्रतिबोध्य 'अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडिय' तस्य रोगाक्रान्तस्य अग्लान्या आत्मसंकोचराहित्येन वैयावृत्त्यं करणीयम् । शेष पूर्ववत् ॥ म्० १७ ॥
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् - २०१८-२०
अनवस्थाप्य वराञ्चितयोः पुनरुपस्थापनविधिः ६१
पूर्वसूत्रेऽर्थजात भिक्षोर्वैयावृत्यकरणं प्रोक्तम् साम्प्रतमनुवस्थाप्यस्योपस्थापनविधिमाह, तत्राऽनवस्थाप्यसूत्रस्यार्थजातसूत्रेण सह कः सम्बन्धः इति सम्बन्धप्रतिपादिकां गाथामाह 'अजाओ' इत्यादि ।
2
1. गाथा - अजाओ पुत्रमुत्तो, अहस्स तेणियं भवे । तत्तेणे अणवटुप्पो संबंधोत्थ इमो सिया ॥ १ ॥
छाया - अर्थजातः पूर्वमुक्तः अर्धस्य स्तैन्यं भवेत् । तत्स्तैन्येऽनवस्थाप्यः सम्वन्धोऽत्रायं स्यात् 11211
है
व्याख्या -- 'अजाओ' पूर्वमर्थजातो मिक्षुरुतः अर्थजात भिक्षुविषये विधिः प्रोक्तः, अर्थस्य घनस्य कदाचित् स्तैन्यं चौर्यं भवेत्, तत तत्स्तैन्ये धनस्य चौर्ये भिक्षुरनवस्थाप्यो नवमप्रायश्चित्तभाक् स्यात्, अतोऽस्मिन् वदयमाणे सूत्रे अनवस्थाप्यभिक्षुविषये विधिः प्रतिपादयिष्यते । अयमेवात्र संबन्ध. स्यादिति गाथार्थः ॥ १ ॥
÷
अनेन सम्बन्धेनायातमिदमनवस्थाप्यसूत्रमाह- 'अणवटुप्प' इत्यादि ।
सूत्रम् - अणवपं भिक्खु अगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणात्रच्छेयगस्स उवट्ठावेत्तए । अणवट्टप्पं भिक्खुं गिरिभूर्यं कप्पेइ तस्स गणावच्छेयगस्स उवट्ठावित्तए । ० १८ ॥
*
छाया - अनवस्थाप्य - भिक्षुम् अगृहीभूतं नो कल्पते तस्य गुणावच्छेदकस्योपस्थापयितुम् । अनवस्थाप्यं भिक्षु गृहीभूतं कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्योपस्थापयितुम् ॥ सु०१८ ||
"
C
सः,
भाष्यम् – ‘अणवट्टप्पं’ अनवस्थाप्यम् - गृहिणः साधर्मिकस्य वा चौर्येण अनवस्थाप्यः नामंकनवमप्रीयश्वित्तस्थानापन्नं भिक्खु" भिक्षु 'अंगिहिभूयं अगृहीभूतम् अप्राप्तगृहस्थवे साधुपर्याये एव स्थितम् साधुवेपत्यागयोग्ये नवमप्रायश्चित्ते प्राप्तेऽपि यः साधुवेपं न त्यक्तवान् तं तादृश भिक्षु' 'नो कप्पड़' 'नो कल्पते "तस्स' गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेद्'कस्य 'उवडावेत' उपस्थापयितुम् मद्दात्रतेषु समारोपयितुम् पुनर्दीक्षां दातुमित्यर्थः । अयं भावः -- यदि कदाचिद् अनवस्थाप्यो भिक्षु धौर्यदोषशुद्धयर्थं पुनश्चारित्रप्रतिपत्तये गणावच्छेदकस्य समीपं - मागच्छेत् तदा तस्य गणावच्छेदकस्य न कल्पते अगृहीतभूम् - अस्वीकृतगृहस्थवेषं तम् अनस्थाप्यं 'भिक्षुमुपस्थापयितुं पुनः दीक्षां ' दातुं न कल्पते । स यदि ' गृहोभूतो भवेत् तदा किं कर्त्तव्यम् ' तत्राह-'अणत्रठप्पं' इत्यादि, 'अणवणं भिक्खु' अनवस्थाप्यम् अनवस्थाप्यनामर्कप्रायश्चित्तस्थापन्नँ भिक्षु 'गिहिभूयं गृही भूतं प्रतिपन्नगृहस्थवेषं ' कप्पड़' कल्पते 'गणावच्छेयगस्स' गणावच्छेदकस्य ‘'उवट्ठा वित्तए' उपस्थापयितुम् पुनः दीक्षां दातुमिति । प्रकृतसूत्रस्य
★
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे पूर्वार्द्धभागेनेदं प्रतिपादितं यत् अनवस्थाप्यो भिक्षु. संयममार्गात् भ्रष्टत्वेन नवमप्रायश्चित्तभागी भवति स यदि साधुवेषेण समागत्य पुनः संयमप्रतिपत्यर्थ गणनायकस्य समीपमागच्छेत् तदा नास्ति अधिकारो गणनायकस्य यत्पुनरपि तथाविधं तं संयमे उपस्थापयेत् ।।
इदानीं प्रकृतसूत्रस्यैवोत्तरभागेन चेदं प्रतिपादितम्-यत्-यधनवस्थाप्यो भिक्षुर्गृहस्थवेषमादाय गणनायकस्य समीपं पुन. संयमप्रतिपत्यर्थमुपस्थितो भवेत् तदा गणनायकेन तथाभूताय तस्मै पुनरपि संयमो दातव्यः । तत्र केन प्रकारेण पुनः स चारित्रे उपस्थापनीयः । तदेवोत्तरभागेन प्रतिपाद्यते-नवमप्रायश्चित्तस्थान प्राप्तं श्रमणं गृहस्थवेषसदृश वेषं कारयित्वा गणावच्छेदकस्तं संयमे उपस्थापयेत्। गृहस्थवेषं कारयित्वा पुनः तस्मै दीक्षादाने कारण मदम् यत्-अनवस्थाप्यश्रमणस्य ये दोषास्ते नागरिकाणां समक्षं प्रकटीभूता आसन् ततो गृहस्थलिङ्गधारणेन तेषां नगरलोकानां विश्वासो जायेत यदनेन नवमप्रायश्चित्तभागित्वेन वान्तसंयम इति, ततः संघसमक्षं गणनायकेन तस्मै प्रायश्चित्तं दातव्यम् , दत्त्वा च प्रायश्चित्तं पुनस्तं संयमे उपस्थापयेत् । एवं करणे नान्येऽपि गच्छगता साधव एतादृशपापा चरणाद् भीता भवेयुः, 'पुत्रीभ्यो दण्डदानेन स्नुषा विभ्यति नित्यशः' इति न्यायात् ॥ सू० १८ ॥
अनवस्थाप्यसूत्रमुक्त्वा सम्प्रति पाराञ्चितसूत्रमाह - पारंचियं' इत्यादि ।
सूत्रम्-पारंचियंभिक्खुं अगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स उवहावित्तए पारंचिंय भिक्खं गिहिभूयं कप्पई तस्स गणावच्छेयगस्स उवठ्ठावित्तए । सू० १९ ।।
छाया-पाराञ्चितं भिक्षुमगृहीभूतं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्योपस्थायितुम् । पाराधितं भिभुगृहीभूतं कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्योपस्थापयितुम्॥ सू० १९ ॥
भाष्यम्-'पारंचियं' पाराञ्चितं पाराञ्चितनामकदशमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तम् 'भिक्खं' भिक्षु श्रमणम् 'अगिहिभूय' अगृहीभूतम् अपरिगृहीतगृहस्थवेषम् 'नो कप्पई' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'उवटावित्तए' उपस्थापयितुं पुनः संयमे प्रवेशयितुम् । यदि कदाचिद् यः कश्चित्साधुदशमपाराञ्चितप्रायश्चित्तस्थान प्राप्तवान् , प्राप्य चाऽगृहीत गृहस्थवेष एव प्रायश्चित्तं ग्रहोतुं पुनः संयमं प्रतिपतुं च गणनायकसमीपे समुपस्थितो भवेत् स यावत्पर्यन्तं गृहस्थवेषं न परिधारयेत् , साधुवेषे एव व्यवस्थितो भवेत् तावत्पर्यन्तं गणनायको न तमुपस्थापयेत्, न कथमपि संयमं तस्मै दद्यादितिभाव. । कथम्भूतं पाराञ्चितमुपस्थापयेदिति सूत्रोत्तरार्द्धनाह –'पारंचियं' इत्यादि ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० २ २० २१
द्वयोमैथुनाभ्याख्याने निर्णयविधिः ६३
'पारंचियं भिक्खं पाराञ्चितं भिक्षु दशमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तं श्रमणम् 'गिहिभूय गृहीभूनं गृहस्थलिङ्गे वर्तमानं पुनः संयमप्रत्तिपत्तये गणनायकस्य समीपमागतम् 'कप्पई' कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगल्सतस्य गणावच्छेदकस्य 'उवट्ठावित्तए' उपस्थापयितुं पुनः संयमे स्थापयितुं . कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ।। सू० १९ ॥
सम्प्रति सूत्रकारः स्वयमेव अनवस्थाप्य-पाराश्चितविषयेऽपवादमाह-'अणवढप्यं' इत्यादि।
सूत्रम्-अणवठ्ठप्पं भिक्खु पारंचियं वा भिक्खु गिहिभूयं वा अगिहिभूयं वा कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स उवठ्ठावित्तए जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया ।। सु० २०॥
छाया-अनवस्थाप्यं भिक्षु पाराञ्चितं वा भिक्षु गृहीभूतमगृहीभूतं या कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्योपस्थापयितुम् , यथा तस्य गणस्य प्रत्ययं स्यात् ।। सू०२०॥
भाष्यम् -'अणवठ्ठप्पं अनवस्थाप्यम्-अनवस्थाप्यनामकनवमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तं भिक्षम . एवं पाराश्चितं वा दशमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तं वा भिक्षु 'गिहिभूयं वा' गृहीभूतं वा गृहस्थलिङ्गधारिणं वा 'अगिहिभूयं वा' अगृहीभूतं वा गृहस्थलिगरहितं साधुवेषे एव स्थितं वा 'कप्पड तस्स गणावच्छेयगस्स' कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य 'उवदावित्तए' उपस्थापयितं पुनरपि संयमे प्रवेशयितुम् । कथं पुनस्तौ उपस्थापनायोग्यो भवेताम् ? तत्राह -'जहा' इत्यादि । 'जहाँ तस्स गणस्स पत्तियं सिया' यथा येन प्रकारेण तस्य गणस्य यस्य स उपस्थापनीयो विद्यते तस्य गणस्य प्रत्ययं प्रतीतिः तद्विषयको विश्वासः स्यात् , तथा कृत्वा कल्पते नान्यथा । अत्र यद् अगृहीभूतस्योपस्थापनं कथितं तद् अपवादविषयकं स्यात् तस्योत्सर्गतः प्रतिषिद्धत्वात् ।
अयं भावः -नवमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तं दशमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तं वा भिक्षु गृहस्थलिङ्गवन्तं कृत्वा, यद्वा-गृहस्थलिङ्गवन्तमकृत्वैव गणनायकस्य कल्पते पुनस्तं सयमे उपस्थापयितुम् , तदत्र कारणमाह-यदि स नवमदशमप्रायश्चित्तापन्नः श्रमणः राज्ञ उपकारी भवेत् तदा राजानुवृत्त्या तमगृहीभूतमेवोपस्थापयितुं कल्पते । यद्वा स अन्यतैर्थिकैः सह वादे वादलब्धिमान् भवेत् , तैः सह वादकरणं साधुवेषेणैवोचितं भवेत्तदा तस्य प्रवचनप्रभावकत्वादगृहीभूतस्यैवोपस्थापनं कल्पते, इत्यादिप्रवचनप्रभावनारूपकारणैरेवं करणे गणस्य विश्वासो भवेदिति । - यद्वाऽन्यदपि कारणं भवेद् यथा-यदि कश्चिदाचार्यो नवमप्रायश्चित्तस्थानं दशमप्रायश्चित्तस्थान वा समापद्य गणावच्छेदकसमीपे तत्प्रायश्चित्तार्थ समुपस्थितो भवेत्तस्य गृहस्थलिङ्गदाने तस्य शिष्या विदेयुः-यदि ममाचार्य गृहस्थलिंगं करिष्यथ तदा समुद्यता वयमधिकरणमुत्पादयिष्यामः, एवं करणेऽस्माकमाचार्यस्य प्रायश्चित्तं लोके प्रकाशितं भविष्यति तेन लोके शङ्का
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र
संमुत्पद्येतं यदनेनाचार्येण नवमं दशमं वा प्रायश्चित्तस्थानं सेवितमिति वयं न संहिंष्यामः । इत्यादि कारणैरपि प्रवचनाड्डाह भयोदगृही भूतस्याप्युपस्थापनं कर्त्तव्यं
स्यादित्यपवादसूत्रस्य
-
भावः ॥ सू० २० ॥
पूर्व मनवस्थाप्य -पाराञ्चितयोः पुनरुपस्थापनविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतमेकत्र विहरतोर्द्वयोः साधर्मिक श्रमण यो मैथुन प्रतिसेवनविषयक विवादे निर्णय प्रकार माह - 'दो साहम्मिया' इत्यादि ।
सूत्रम् - दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, एगे तत्थ अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पंडिसेवित्ता आलोएज्जा, अहरणं भंते! अमुएणं सांहुणा सद्धि इमंमि य कारणमि मेहुणपडि सेवी, पच्चयtउं च सयं पडिसेवियं भंणइ तत्थ पुच्छिवे किं पंडिसेवी ? अडिसेवी 2, से य वएज्जा पडिसेवी परिहारपत्ते । से य वएज्जा णो पडिसेवी णौ परिहारपत्ते । जं से पमाणं वयइ से य पमाणाओ घेत वे सिया से किमाहु मंते, सच्चपइण्णा ववहारा ॥ सू० २१ ॥
छाया - द्वौ साधर्मिकौ एकतो विहरतः, एकः तत्राऽन्यतरमकृत्यस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अहं खलु भदन्त ! अमुकेन साधुना सार्द्धमस्मिन् कारणे मैथुन प्रतिसेवो प्रत्ययहेतोश्व स्वयं प्रतिसेवितं भणति, तंत्र प्रष्टव्यः किं प्रतिसेवी ? अप्रतिसेवी ?, सच वदेत् प्रतिसेवी परिहारप्राप्तः स च वदेत् नो प्रतिसेवी नों परिहारप्राप्तः । यत् से प्रमाण वृदति स च तस्मात् प्रमाणात् गृहीतव्यः स्यात् । अथ किमाहुर्भदन्त । सत्यप्रतिज्ञा व्यंवद्वाराः ॥ सु≈ २१ ।।
भाष्यम्—'दो साहम्मिया' द्वौ साधर्मिको समानधर्मिणी 'एगयओ विहरंति' एकत एकेन संघाटेन - विहरतः तिष्ठत 'एगे तत्थ' तत्र तयोर्द्वयोर्मध्ये एक कश्चित् इतरस्याऽभ्याख्याननिमित्तम् 'अण्णयरं अकिच्चद्वाणं' अन्यतरत् प्राणातिपातादिषु यत् किमप्येकमकृत्य - स्थानं प्रतिसेवितवान् 'पंडि सेवित्ता' प्रतिसेव्य प्रतिसेवनं कृत्वा 'आलाएज्जा' 'आलोचयेत् स्ववंचंसा स्वकृतातिचारजातं गुरुसमीपे कृतपापस्थानस्यालोचनां कुर्यात् । आलोचनाप्रकार मैव दर्शयति-'अण्णं मंते' अहं खलु भदन्त । हे गुरो ! 'अए । साहुणा' सद्धि अमुकेनं येन - केनचित् अनिर्दिष्टनामकेन साधुना सार्द्धम् अमुकेन साधुंना सहितो भूत्वेत्यर्थः 'इमंमि य कारणमि' अस्मिन् प्रतिसेवनार्थमाग्रहादिकरणें 'मेहुणपडिसेवी' 'मैथुनप्रति सेवी मैथुनप्रतिसेवन कृतेवानित्यर्थ. अमुकेन साबुना सह विचरन् तस्याग्रहेण मैथुनसेवी 'जातोऽस्मीति भावः ।
स कस्मात् कारणात् आत्मानमप्रति से विनमपि प्रतिसेविनमभ्युपगच्छति' न पुनः केवल 'परस्याऽभ्याख्यानमेव कथं न ददाति ? ततं आह - ' पच्चयहेतुं च' इत्यादि, 'पच्चर्य हेउँ च सयं पॅडिसेवियं भणई' प्रत्यय हेतु च स्वयंमात्मानमपि प्रतिसेविनं भणति परेषामाचार्याणां तथाऽन्ये॑षां च साधूंनाम्ळे 'एषः सत्यमेव वंदति अन्यथा को नाम स्वकीयमात्मानमप्रतिसेविनं प्रति
·
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम्,उ१-२ सू० २१-२२
मैथुनाभ्याख्याने तन्निर्णयविधिः ६५, सेविनमभिभन्येत । इत्याकारको यः प्रत्ययो विश्वासः स सर्वेषां भवतु, अस्मादेव कारणात् स्वस्याप्यकृत्यं भणति । एवमुक्ते तस्मिन् आचार्य. कि कुर्यादित्याह-'तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ पुच्छियव्वे' तत्र, तादृशपरिस्थितिप्रसङ्गे. यस्योपरि अभ्याख्यानं तेन दत्तं स समाहृयाचार्येण प्रष्टव्यः, कथं प्रष्टव्यः ? इत्याह-'किं पडिसेवी अपडिसेवी' किं भवान् प्रतिसेवी, वा अथवा अप्रतिसेवी ? इति, . भवान् मैथुन सेवितवान् वा-अथवा न सेवितवान् ? एवं पृष्टे सति यदि-से य वएज्जा पडिसेवी, परिहारपत्ते' स च, वदेत् प्रतिसेवी सत्यमयं वदति । इत्येवं कथने स साधुः परिहारप्राप्तः परिहारतपोयोग्यो भवति ततः तस्मै तदकृत्यप्रतिसेवनजनितपापान्निवृत्त्यर्थ परिहारनोमकं तपः प्रायश्चित्तरूपेण दातव्यम्, उपलक्षणमेतत् तस्मात्. छेदमूलाऽनवस्थाप्यपाराश्चितनामकमपि प्रायश्चित्तं यथोचितमकृत्यप्रतिसेवकाय आचार्येण दातव्यमिति भावः ।, अथ च से य वएज्जा णो पडिसेवी णो परिहारपत्ते स च वदेत् नो प्रतिसेवी, नाहं प्रतिसेवी, अभ्याख्यानमात्रमेतत् , इति वदेत् तदा स न परिहारप्राप्तः परिहारनामकतपोभाग् न भवति । अथेवं स्थिते, कथं निश्चेतव्यं यद्यमकृत्यस्थान प्रतिसेवितवान् न वा ? तत्राह-'जं से पमाण' इत्यादि, जं से पमाणं वयइ से य पमाणाओ घेतत्वे सिया' सः प्रतिसेवी यत् प्रमाणं वदति तस्मात् प्रमाणात् स.ग्रहीतव्यः, स च अभ्याख्यानदाता प्रतिसेवनायाः प्रमाण वदति कथयति, तस्मात् प्रमाणात्गृहीतव्यो निश्चेतन्यः स्यात् , तथा प्रतिसेवकस्य कथनानुसारेणैव निश्चयः कर्तव्यः यदयं मैथुन प्रतिसेवितवान् , यद्वा न प्रतिसेवितवानिति, तत्र यदि प्रमाणाद् एवं निश्चयो जायते यदयं मैथुन प्रतिसेवितवान् तदा तस्मै परिहाराद्यन्यतमप्रायश्चित्तं यथायोग्य दातव्यम् , यद्यत्र प्रमाणात् अयमकृत्यस्थानं न प्रतिसेवितवान् इत्याकारको निषेधविषयको निश्चय आचार्यस्य भवेत् तदा तस्मै परिहारादि प्रायश्चित्तं न दातव्यमिति भावः । तद्वचनादेव सर्वव्यवस्था कर्तव्या भवेदिति । शिष्यः पृच्छति-से किमाहु भंते' अथ किमाहुर्भदन्त ? अथ कस्मात् कारणात् भवान् एवं कथयति. यत् तत्कथनानुसारमेव प्रायश्चित्तं दातव्यं न वा दातव्यमिति अत्र किं कारणम् ? आह-सच्चपइण्णा व्वहारा' सत्यप्रतिज्ञाः व्यवहारा., हे शिष्य । व्यवहाराः जिनशासनव्यवहाराः सत्यप्रतिज्ञाः सत्यप्रतिज्ञावन्तस्तीर्थकरैर्दर्शिता इति सत्यमेव प्रतिज्ञा प्रमाणं ये ते सत्य प्रतिज्ञाः व्यवहाराः सत्यमूलका एवैते जिनशासने प्ररूपिता इति । अत्र कश्चित् शकते-किमर्थमेकः साधुरन्यस्मिन्नभ्याख्यानमारोपयति । तत्रेदं कारणं संभवेत् यः कश्चित् रत्नाधिकः अन्य रत्नाधिकमीjया अवमरत्नाधिकं कर्तुमिच्छेत्-यदहं रत्नाधिकोऽस्मि नायं रत्नाधिक इति गर्वेण कषायोदयेन वा एव कुर्यात् । अत्राय भावः सद्भतार्थे ज्ञाते सति यदि तत्प्रतिसेवनं द्वयोः सत्यं भवेत्तदा द्वयोरपि मूलं दीयते । अथालोकमभ्याख्यानं तदा योऽभ्याख्यातः स शुद्ध इतरोऽशुद्धः ।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
तस्याभ्याख्यानदातुर्मूलं प्रायश्चित्तं न दीयते किन्तु तस्मै अलीकनिमित्तकं मृषावादप्रत्ययं चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तं दातव्यमिति ॥ सू० २१॥
पूर्व मैथुनाम्याख्यानविषये सनिर्णय प्रायश्चित्तविधिरुक्तः, संप्रति-अवधावकविषयं तद्विधिमाह-'भिक्खूयय' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहाणुपेही वएज्जा, से आहच्च अणोहाइओ से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गण उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । तत्थ ण थेराणं इमेयारूवे विवाए समुप्पज्जिज्जा-इमं अज्जो ! जाणह किं पडिसेवी किं अपडिसेवी ? से य पुच्छियन्वे-किं पडिसवी किं अपडिसेवी ? से य वएज्जा पडिसेवी परिहारपत्ते, से य वएज्जा नो पडिसेवी नो परिहारपत्ते, जं से पमाणं वयइ. से य पमाणाओ घेतव्वे, से किमाहु भंते ! सच्चपइण्णा ववहारा । सू० २२॥
__ छाया-भिक्षुश्च गणावक्रम्याऽवधावनानुप्रेक्षी व्रजेत् सः आहत्य अनवधावितः स इच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् , तत्र खलु स्थविराणामयमेतद्रपो विवादः समुत्पद्येत-इदम् आर्य ! जानासि किं प्रतिसेवी अप्रतिसेवी ? स च प्रष्टव्यः कि प्रतिसेवी अप्रतिसेवी ?, स च वदेत् प्रतिसेवी परिहारप्राप्तः, स च वदेत्-नो प्रतिसेवी नो परिहारप्राप्तः, यं स प्रमाणं वदति तस्मात् प्रमाणात् ग्रहीतव्यः । अथ किमाहुर्भदन्त ! सत्यप्रतिज्ञा व्यवहाराः ॥ सू० २२ ॥
भाष्यम्-'भिक्खू य' भिक्षुश्च 'गणाओ अवक्कम्म' गणात् स्वकीयगच्छात् अपक्रम्य निःसृत्य 'ओहाणुपेही वएज्जा' अवधावनाऽनुप्रेक्षी व्रजेत् तत्राऽवधावनम् संयमादसंयमे गमनं तदनुप्रेक्षी सन् व्रजेत् गच्छेत् , मोहोदयाद् भोगावलिकर्मोदयाद्वा संयमत्यागेच्छया गच्छेदित्यर्थः, 'से आहच्च अणोहाइओ' स आहत्य-कदाचित् अनवधावितः स प्रबलशुभकमोंदयाद् विषयवाञ्छोपशमनेन असंयममप्राप्तः, एतादृशः 'से य इच्छेज्जा' स च पुनरपि इच्छेत् , किं पुनरिच्छेत् ? तत्राह-'दोच्चपि' इत्यादि, 'दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए' द्वितीयमपि वारं पुनरपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहत्तु स्थातुम् शुभकर्मोदयात् संघाटकोपदेशादा अपरित्यकसाधुलिङ्गः पापाप्रतिसेवी एव पुनरपि तमेव गणमागत्य संयम पालयितुमिच्छेत् इत्यर्थः, तस्यागमने 'तत्थ णं' तत्र खलु गच्छे विद्यमानानाम् 'थेराणं' स्थविराणां 'इमेयारूवे' अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणस्वरूपः 'विवाए' विवादः अनेकप्रकारक ऊहापोहलक्षणः 'समुपज्जिज्जा' समुत्पधेत, कीदृशो विवादः समुत्पद्येत ? तत्राह-'इमं अज्जो' इत्यादि, 'इमं अज्जो, जाणह' इदं भो आर्याः ! यूयं जानीत 'किं पडिसेवी अपडिसेवी' किमयं प्रतिसेवी अत्रतो गत्वा अकृत्यप्रतिसेवन कृतवान् ? अथवा 'अपडिसेवी' अप्रतिसेवो अकृत्यप्रतिसेवनं न कृतवान् वा ? इत्याकारको विवादः उहापोहरूपः परस्परं समुत्पद्येत तदा एवमुपर्युकप्रकारेण विवादे जाते सति ‘से य
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०२ सू० २६
मृत आचार्यादौ तत्पप्रदानविधिः ६७ पुच्छियव्वे' तन्निर्णयाय स एव यः अवधावितः स एव, अथवा अस्य साधू साक्षिरूपेण प्रेषितो भवेत् स वा साधुः प्रष्टव्यः। किं प्रष्टव्यः ? तत्राह-'किं पडिसेवी ? अपडिसेकी' ! प्रथमं तमेवाऽऽह्य गणनायकेन स प्रष्टव्यः-किं भोः! त्वमत्रतो गत्वा अकृत्यं प्रतिसेवितवानसि ! अथवा न प्रतिसेवितवानसि! । यस्तेन साघ गतः सोऽप्येवमेव प्रष्टव्यः-यदयम् अकृत्य प्रतिसेवितवान् ! न वे? ति । उपर्युक्तप्रकारेण सत्यस्वरूपं ज्ञातुं गणनायकेन पृष्टः सन् ‘से य वएज्जा' स च वदेत् , स पृष्टः साधुर्यदि वदेत्-'पडिसेवी' प्रतिसेवी अहमकृत्यप्रतिसेवनां कृतवानस्मि तदा 'परिहारपत्ते' परिहारप्राप्तः परिहारतपोयोग्यो जातः, आचार्येण पृष्टः प्रतिसेवको यदि स्वीकरोति प्रतिसेवनां तदा तदीयमेव वचन प्रमाणीकृत्याऽऽचार्यः तस्मै परिहारनामकं तपः प्रायश्चित्तरूपेण दद्यादिति भावः । 'से य वएज्जा नो पडिसेवी नो परिहारपत्ते' स च यदि वदेत् नो प्रतिसेवी तदा नो परिहारप्राप्तो भवति, न परिहारतपःप्रायश्चित्तभाग् भवति । आचार्येण पृष्टः सः यदि कथयेत्यत् नाहमकृत्यं प्रतिसेवितवानस्मि तदा तद्वचनमेव प्रमाणीकृत्याऽऽचार्यों नो परिहारतपो दद्यात् , तस्मैं अप्रतिसेवकाय परिहारनामकं तपो न दयादिति भावः । कथमेवम् ? तत्राह-'जं से इत्यादि, 'जं से पमाणं वयइ से पमाणाओ घेत्तव्वे' यत्स प्रमाण वदति तस्मादेव प्रमाणात् स सत्योऽसत्योवेति निश्चेतव्यः, तद्वचनप्रमाणेनैव सत्यार्थाऽसत्यार्थयोनिर्णयः कर्त्तव्य इति भावः ।
से कि माह भंते !' अथ किमर्थं कस्माद्धेतोरेवमाहुर्भदन्त ! हे भदन्त ! कथमेवमुच्यते यत् तस्य वचनप्रमाणेनैव सत्यासत्यनिर्णयः कर्तव्यः ? यावता एवं सति कुत्रापि सत्यार्थनिश्चयो न स्यात् नहि कोऽपि स्वकृतमकृत्यस्थानप्रतिसेवनं प्रकाशयिष्यति लजया लोकनिन्दाभयाद्वा तत्कथमेवं तद्वचनमेव प्रमाणीक्रियते भवता ? इति शिष्यस्य जिज्ञासायामाचार्यः प्राह-'सच्चपइण्णा ववहारा' सत्यप्रतिज्ञा व्यवहाराः प्रायश्चित्त रूपा व्यवहाराः सत्यप्रतिज्ञाः प्रतिज्ञयैव सत्या जिनैर्निर्दिष्टाः ॥ सू० २२.॥ ,
दिवंगते आचार्योपाध्याये तत्पदेऽन्याचार्योपाध्यायस्थापनविधिमाह-'एगपक्खियस्स'इत्यादि ।
सूत्रम्-एगपक्खियस्स भिक्खुयस्स कप्पइ आयरियउवज्झायाण इत्तरिय दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा जहा बा तस्स गणस्स पत्तियं सिया ॥ सू०२३॥
छाया-एकपाक्षिकस्य भिक्षुकस्य कल्पते आचार्योपाध्यायानाम् इत्वरिकां दिशं अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा यथा वा तस्य गणस्य प्रत्ययं स्यात् ॥ सू० २३॥
भाष्यम्-'एगपक्खियस्स' एकपाक्षिकस्य एकः समानः पक्ष इत्येकपक्षः सोऽस्त्यस्येत्येकपाक्षिकः प्रव्रज्यया श्रुतेन च, तस्य इत्थंभूतस्य 'भिक्खुयस्स' भिक्षुकस्य आचार्य
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
.
व्यवहारस्त्रे उपाध्याये वा मृते सति 'कप्पइ' कल्पते 'आयरियउवज्झायाण' आचीयोपाध्याययोः 'इत्तरिय इत्वरिकां कियत्कालभाविनीम् अल्पकालिकीम् 'यांवदन्यो विशिष्टतर आचार्योपाध्यायपदयोग्यः प्रव्रज्याश्रुताभ्यामेकपाक्षिको न लभ्यते तावत्कालिकीम् इत्वरग्रहणमुपलक्षणं यावत्कंथिका च यावज्जीवभाविनीम् 'दिसं वा अणुदिसं वा' तत्र दिशम् आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं वा, अनुदिश वा आचार्योपाध्यायपदद्वितीयस्थानवर्त्तित्वं वा 'उदिसित्तए' उद्देष्टुं कर्तुम्, यद्वा धारिचए वा' स्वयमेव धारयितुम् 'जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया' यथा येन प्रकारेण तस्य गणस्य प्रत्ययं विश्वासः स्यात्, तथा दिशमनुदिशं वा उदिशेत् , मृते आचार्योपाध्याये तत्पदेऽन्य कमपि स्थापयेत् स्वमात्मानं वा स्थापयेत् येन गणस्य विश्वासः स्यात् तथैव कर्त्तव्यम् योग्यस्यैकपाक्षिकस्याभावे भिन्नपाक्षिकमपि अपवादपदेन स्थापयेत्, किन्तु गणमाचार्योपाध्यायशून्यं न कुर्यादिति । अयं भावः-यद्याचार्योपाध्याययोराकस्मिकमरणादिना गच्छे तदभावे जाते सनाथयितुं यावत्पर्यन्तं पदवीयोग्यः श्रमणो न 'मिलेत् तावत्कालं साधारणमपि यस्योपरि गणस्य विश्वामः स्यात् तादृश साधुमाचार्योपाध्यायपदे स्थापयितुं कल्पते अनेन प्रकारेण स्थापितः आचार्यः उपाध्यायो वा इत्वरोऽपकालिक. इति कथ्यते । 'अर्थ यदि कश्चियोग्यः सारणावारणादिगच्छ कार्यदक्षो बहुश्रुत एकपाक्षिकः प्राप्यते यदुंपरि गच्छंस्य विश्वांसश्च स्यात् स यावजीवमाचार्यपदे उपाध्याय पदे वा स्थापयितुं कल्पते, स'च यावज्जीवकः यावत्कथिक इति कथ्यते इति ।
अत्र प्रव्रज्यया श्रुतेन चेति पदद्वयस्य चतुर्भङ्गी जायते, यथा एकः प्रव्रज्यया श्रुतेन च एकपाक्षिकः १, द्वितीयो न प्रव्रज्यया किन्तु श्रुतेन २, तृतीयः " प्रत्रज्यया किन्तु न श्रुतेन ३, चतुर्थो न प्रव्रज्यया न श्रुतेन ? इति । अत्र प्रथमो भङ्गः 'शुद्धः, 'चतुर्थो भङ्गोऽशुद्धः, ततः आयेषु त्रिषु भङ्गेषु एकैकस्याभावे उत्तरोत्तरो ग्राह्य इति । एकपाक्षिको द्विविधः एकवाचनाक, एकप्रव्रज्याकश्च, तत्र एकवाचनाकः एका समाना परस्परं वाचना यस्य स एकवाचनाकः एकगुरुकुलाधीनः, एकप्रव्रज्याकः एकस्मिन् कुले प्रव्रज्या यस्य स एककुलवर्ती, उपलक्षणात् एकगच्छवर्ती, सहाध्यायी वा गृह्यते इति । गच्छाधिपतिराचार्यों द्विविधो भवति-अभ्युद्यतपरिकर्मा अभ्युद्यतमरणो वा, अभ्युद्यतः उद्युक्तः परिकर्मणि विहारादिपरिकर्मणि यः स अभ्युद्यतपरिकर्माः, द्वितीय. अभ्युद्यतमरणः-अभ्युद्यतः उद्युक्तः मरणे भक्तंप्रत्याख्यानादिना असाध्यरोगविशेषेण वा यः स अभ्युद्यतमरणः । एष एकैको द्विविधः गच्छसापेक्षो गच्छनिरपेक्षो वा. तत्रैको गच्छंन्यवस्थायामपेक्षावान् , मन्यो गच्छयवस्थां प्रति निरपेक्षः स्यात् । यो गच्छसापेक्ष स्यात् सः अभ्युद्यतविहारपरिकर्मा वा अभ्युद्यतमरणो वा 'जीवन्नेव यः कश्चिदेकपाक्षिकः प्रत्याश्रुताम्यां भवेत् स्वपदे पूर्वमेव स्थापयति येन तदनुरक्तो गच्छः कालगतेऽपि तस्मिन्नाचार्य परस्परप्रेमानुभावतो न विनाशमुपैति । यः पुनर्गच्छनिरपेक्षो भवेत्
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० २ ०२४
पारिहारिकावारिवारिक भोगविधिः ६९ "सगच्छस्य शुभाशुमव्यवस्थामुपेक्ष्य स्वयं जीवन् नान्यं गच्छयोग्यं साधुं स्वपदे युवराजत्वेन स्थापयति तेन तस्मिन् कालगते परस्परकलहभावतो गच्छो विनाशमुपैति तस्माज्जीविते एव स्वस्मिन् आचार्य उपाध्यायो वा स्थापनीय इति । ' प्रस्तुतं सूत्रं तु गच्छनिरपेक्षाचार्यविषयकम् । एवं सति गच्छवासिनो यस्मिन् विश्वासः स्यात्तमेकपाक्षिकम् अपवादे भिन्नपाक्षिकं वा साधुमाचार्योंपाध्यायत्वेन स्थापयेयुः, येनास्वामिको गच्छो न भवेदिति ॥ सू० २३ ॥
सूत्रम् - बहवे परिहारिया बहवे अपरिहारिया इच्छेज्जा एगयओ एगमासं वा दुमासं वातिमा वा चाउम्मास वा पंचमासं वा छम्मांसं वा वत्थए ते अन्नमन्नं संभु"जंति अन्नमन्न 'नो संभुजति मासते तओ पच्छा सव्वेवि एगयओ संर्भुजंति ॥ सू० २४ ॥
छाया -- वहवः पारिहारिकाः बहवोऽपारिहारिकाः इच्छेयुः एकत्र एकमासं वा द्विमासं घा त्रिमास वा चतुर्मासं वा पंचमासं वा षण्मासं वा वस्तुम् ते अन्योऽन्य संभुञ्जते अन्योन्यं नो संभुञ्जते मासान्ते ततः पश्चात् सर्वेऽपि एकत्र संभुञ्जते ॥ सु० २४ ॥
*
भाष्यम्- -' बहवे परिहारिया ' ' बहवोऽनेके द्वित्रादयः पारिहारिका: : संप्राप्तपरिहारतपः प्रायश्चित्तवन्तः 'वहवे अपरिहारिया' बहवः प्रभूता द्वित्रादयोऽपारिहारिकाः पारिहारिकभिन्नाः दोषाभावात् परिहारेतपोवर्जिताः शुद्धा इत्यर्थः सर्वे ते अशिवादिकारणवशात् तपोवननिमित्तं वा 'इच्छेज्जा' इच्छेयुः, किंमिच्छेयुस्ते सर्वे ! तत्राह - ' एगयओ' इत्यादि, 'एगयओ' एकतः एकत्रस्थाने ‘एगमासँ वा' एकमांसं वा मासैकमात्रं ' वा 'दुमासं वा' द्विमासं वा मासद्वयं 'वेत्यर्थः 'तिमोसं वा' त्रिमासं वा मासत्रयमित्यर्थः, 'चाउम्मासं वा' चतुर्मासं वा मासचतुष्टयं ज्यावदित्यर्थः ‘पंचमासं वा' पञ्चमासं वा मासपञ्चकमित्यर्थः, 'छम्मासंवा' षण्मासं वा मासषट्कं वा 'वत्थंए ंवस्तुं यावद् अशिवादि निवर्त्तेत तावत् एकत्र वासं कर्त्तुमिति, तत्र 'ते अन्नमन्नं संभुजति' -इतिं ते पारिहारिकाः अन्योऽन्यं परस्परं पारिहारिकाः पारिहारिकैः सार्धं 'सभुजंते' सर्वप्रकारैः संभोगं कुर्वन्ति “तेषां सादृश्यात्, 'अन्नमन्नं नो संभुजति' इति पारिहारिकाः यावत् कलिपर्यन्तं परिहारतपो वर्हति तावत्पर्यन्तं ते परस्परं पारिहारिकाः पारिहारिका मिलिवा संभुञ्जते इत्यर्थः वा 'अथवा अपारिहारिकैः साकं न संभुञ्जते । अयं भावः: - ये प्रतिपन्न परिहारतपोवन्तस्ते, तथा ये परिहारतपोऽधुना न वोढुमारब्धवन्तस्ते, एते परस्परं न संभुञ्जते, एवं पारिहारिका अपारिहा'रिकाश्च एंतेऽपि परस्परं न संभुञ्जते इति । प्रतिपन्नपरिहारतपसः पारिहारिकास्तु परस्परं समुज्जते इंति पूर्वमुक्तमेवेति । 'मासंते' यैः षण्मासा. सेविताः तेषां यः षण्मासोपरिवर्ती मासस्तं यावत्, षण्मासोपरि एकमासपर्यन्तमित्यर्थ ते पारिहारिकाः परस्परं पारिहारकैः सममपारिहारिकैर्वा संममेकत्र न संभुञ्जते, आलापादीनि तु परस्परं 'कुर्वन्ति । 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् पण्मासोपरि मासपरिपूर्णानन्तरम् 'सव्वेवि एगयओ संमुंजंति सर्वेऽपि प्रतिसेवित परिहारतपसः अपरिहारिकाश्चैकतः एकत्र स्थाने संभुञ्जते सर्वप्रकारै. संभोगं कुर्वन्ति, अत्र ये पारिहारिका -
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
७
व्यवहारसूत्रे पारिहारिका दुर्भिक्षादिकारणवशादेकत्र वसन्ति तेषां मध्ये प्रतिसेवितपाण्मासिकतपसः पण्मासोपरि एको मासः कथं भवेत् ? इति दर्शयितुं गाथामाह--'पणगं पणगं' इत्यादि ।
"पणगं पणगं मासे, दिवसाणं वड्ढणं च तं वज्जे । एवं छम्मासेसु य, एगो मासो य वड्ढेइ” ॥१॥ छाया--पञ्चकं पञ्चकं मासे, दिवसानां वर्धनं च तद् वर्जयेत्
एवं षण्मासेषु च, एको मासश्च वर्धते ॥१॥ व्याख्या---'पणगं पणगं मासे' दिवसाणं' मासे मासे यत् दिवसानां पञ्चकं पञ्चक रात्रिन्दिवपञ्चकम् , 'वड्ढणं' वर्धेनं परिवर्धन भवति 'तं वज्जे' तद् दिवसपञ्चकं प्रत्येकस्मिन् मासे परिपूर्णे तदुपरि पञ्च पञ्च दिवसान् वर्जयेत् संभोगे । 'एवं छम्मासेसु य' एवम् अनेन क्रमेण षण्णां मासानामुपरि एको मासो वर्धते तं वर्जयेत् परित्यजेत् , पण्मासानन्तरं तदुपरितनमासेऽपि तैः सह संभोगं वर्जयेत् आलापादिकं तु क्रियते । अयं भावः-यो हि कश्चित् श्रमणो मामिकमेव परिहारतप. प्राप्तवान् , तस्य मासं वहतः आलापनादिकं सर्व वर्जितं भवति । मासे व्यूढे सति यत् तदुपरि पञ्चरात्रिन्दिवे व्यतीते आलापनादीनि सर्वाणि क्रियन्ते, केवलं पञ्चरात्रिन्दिवं यावत् भोजनमात्रमेव वय॑ते । एवं यो हो मासौ मापन्नं परिहारतपस्तस्य मासद्वयोपरि दशरात्रिन्दिवं यावत् आलापनादीनि क्रियन्ते केवलं सहभोजनं वय॑ते । एवं यत्रीन्मासान् आपन्नस्तस्य मासत्रयोपरि पञ्चदशरात्रिन्दिवं यावत, यश्च चतुरो मासानापन्नस्तस्य मास चतुष्टयोपरि विंशतिरात्रिंदिवं यावत् , यः पञ्चमासानापन्नस्तस्य पञ्चमासोपरि पञ्चशितिदिवसान् यावत् , यस्तु षण्मासानापन्नः तस्य घण्मासेषु व्यूढेषु तदुपरि एक मासं यावदेकत्र स्थाने तैः सह केवलं भोजनमेव वय॑ते, आलापनादिकं तु सर्व सर्वत्र क्रियते एवेति । अत्रेदमुक्तं भवति-तपोवहनकाले तपोवाहकेन साधू संलापादिकमपि कोऽपि न कुर्यात् किन्तु गृहोतमासतपोवहनानन्तरं तदुपरि प्रतिमास पञ्चपञ्चदिवसक्रमेण तेषु दिवसेषु आलापनादीनि कर्त्तव्यानि भवेयुः, किन्तु सहभोजनं तु यथागृहीतमासोपरि यस्मिन् एकमासिकादितपसि यानि रात्रिन्दिवानि लभ्यन्ते तेषु व्यतीतेषु कत्त कल्पते इति ।
___ ननु ऋतुबद्धेषु मासेषु कृतापराधस्य वर्षामासेष्वेव प्रायश्चित्तं दीयते इति श्रयते तत्र किं फारणम् , उचितं तु येन यदैव यदाचरितं प्रतिसेवनादिकं तस्य तदैव प्रायश्चित्तं दातव्यं भवेत् । तत्राह-वर्षाकाले परिहारतपःप्रायश्चित्तदाने नास्ति दोषाणां संभावना प्रत्युत बहवो गुणा एव भवन्ति । ___अयं भावः-यदि ऋतुबद्धे काले परिहारतपो दीयेत, तत. तस्मिन् दत्ते सति यदि मासकल्पः परिपूर्णो भवति तदा तस्य तत्स्थानात् विहार आवश्यक इति कृत्वा विहरन्ति तदा सन्तापादयो दोषाः संभवन्ति ।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० २ सू० २५
परिहारकल्पस्थितायाऽशनादिदानविधिः ७५ अथ यदि विहारं न कुर्वन्ति तत्रैव तिष्ठन्ति तदा भद्रकप्रान्तकृतदोषा भवेयुः। तत्र भद्रकृता दोषा अतिपरिचयादुद्गमादिसंभवः, प्रान्तकृतदोषाः बहुचिरादेकत्रावस्थानेन क्षुद्रजनकृताक्षेपरूपाः 'यदेतेऽत्रैव तिष्ठन्ति न च कुत्रापि विहरन्तीति । वर्षाकाले तु एते दोषाः प्रायो न भवन्ति । वर्षाकाले प्रायो वहवः प्राणा उत्पद्यन्ते ततो भिक्षाचर्या दीर्घा न भवति ! वर्षाकालस्य स्निग्यतया स कालो बलिष्ठस्तेन तपः कुर्वतां बलोपष्टम्भं करोति । तथा वर्षाकालस्य तपोऽनुष्ठानाश्रयतया सर्वेषां समतत्वेन कस्याऽपि विशेषतो रागस्य द्वेषस्य चाऽसंभवादिति । तथा कल्पाध्ययनप्रतिपादिता गुणा अपि वर्षाकाले संभवन्ति । एतस्मादेव कारणात् वर्षाकाले एव विशेषतः परिहारतपो दीयते इति ॥ सू० २४ ॥
पूर्वसूत्रे पारिहारिकाऽपारिहारिकाणामाहारादिसंभोगे विधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतं पारिहारिकस्तपश्चरणेन क्षीणशरीरो भवेत् तेन तस्य विकृतिकाहारग्रहणमावश्यकमिति तस्मै अशनादिदाने विधिमाह-'परिहारकप्पट्ठियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-परिहारकप्पद्वियस्स भिक्खुस्स णो कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, थेराण वएज्जा इम ता अज्जो! तुम एएर्सि देहि वा अणुप्पदेहि वा एवं से कप्पइ दाउं वा अणुप्पदाउं वा कप्पइ से लेवं अणुजाणावित्तए अणुजाणह भंते ! लेवाए एवं से कप्पइ लेवं समासेवित्तए ॥सू०२६॥
छाया-परिहारकल्पस्थितस्य भिक्षोनों कल्पते अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाधं वा दातुं वा अनुप्रदातुं वा, स्थविराः खलु वदेयुः इमं तावत् हे आर्य ! त्वमेतेभ्यो देहि वा अनुप्रदेहि वा, एवं तस्य कल्पते दातुं वा अनुप्रदातुं वा, कल्पते तस्य लेपमनुज्ञापयितुम्, अनुजानीत भदन्त ! लेपाय एवं तस्य कल्पते लेपं समासेवितुम् ॥ सू० २५ ॥
भाष्यम्-'परिहारकप्पद्वियस्स' परिहारकल्पस्थितस्य परिहारकल्पे परिहारनामतपोविशेषे स्थित इति परिहारकल्पस्थितः, तस्य परिहारतपसो वहनं कुर्वतः परिहारकल्पस्थितस्य समापन्नपरिहारतपम इत्यर्थः 'भिक्खुस्स' भिक्षोः 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनादिचतुर्विधाहारवस्तुजातं 'दाउं वा अणुप्पदाउं वा दातुं वा अनुप्रदातु वा परिहारकल्पस्थितस्य भिक्षोः अशनादिकं वस्तुं दातुं स्वहस्तेन न कल्पते न वा अनुप्रदातुं परम्परयाऽन्यसकाशाद् वा दापयितुम् । अनुप्रदातुमित्यत्राऽनुशब्दः परंपरार्थबोधकः, तेन साक्षादपि दातुं न कल्पते न वा परम्परया दातुं कल्पते इत्यर्थः । एवं किं सर्वथा न कल्पते ? इत्यत्राह-'थेरा णं' इत्यादि, 'थेरा ण वएज्जा' स्थविराः खलु वदेयुः-यदि पुनः स्थविराः गगनायकाः कश्चित् साधु वदेयुराज्ञापयेयुः । किं वदेयुः ? तत्राह-'इमं
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारको ता' इमं तावत् परिहारकल्पत्थितं भिक्षुम् 'अज्जो' हे आर्य ! . 'तुम' त्वम् 'एएसिं देहि वा. अणुप्पदेहि वा' एतेभ्यः पारिहारकेभ्यः देहि अशनादिचतुर्विवमाहारम्, अनुप्रदेहि वा परम्परया अन्यसकाशादापय, एवं पूर्वोक्तप्रकारेण स्थविरैः अनुज्ञाते सति 'से. कापड, दाउं वा अणुप्पदाउं वा' तस्याज्ञापितस्य साधोः कल्पते दातुं वा अनुप्रदातुं वा । यदि तद् अशनादिकं लेपमयं विकृति कादिरूपं भवेत् तदा पारिहारकस्य तद् विकृति कादिकं. स्थविराज्ञामन्तरेण. भोक्तुं न कल्पते, ततः किं कुर्यादित्याह-'कप्पइ.से लेवं अणुजाणा वित्तए' कल्पते तस्य लेपमनुज्ञा.. पयितुं, तस्य पारिहारिकस्य कल्पते लेपरूपविकृतिकादिनिमित्तमनुज्ञापयितुं तद्भोजने आज्ञां ग्रहीतुं कल्पते, तदेवाह-'अणुजाणह भंते ! लेवाए' हे भदन्त ! यूयमनुजानीथ लेपाय विकृतिकाहारकर; णाय, ‘एवं' एवंप्रकारेणानुझापने कृते सति 'से कप्पइ लेवं समासेवित्तए' तस्य पारिहारिकस्य कल्पते लेपं विकृतिकाहारं समासेवितुं भोक्तुं पारिहारिकतपो वहतो दुग्धादिगुरुकमाहारं गरिष्टत्वान्नोचित्तं भवेत् तस्मात् स्थविराज्ञामादायैव तत्सेवनमुचित्तं, स्थविराणां द्रव्यक्षेत्रादिबलाबलादिज्ञायकत्वादिति भावः ॥ सू० २५ ॥
-पूर्व पारिहारिकस्याऽशनादिदानविधिरुक्तः, साम्प्रतं पारिहारिकपात्रगृहीताऽशनादिभोजने अपारिहारिकस्य विधिमाह-'परिहारकप्पट्टिए' इत्यादि ।
सूत्रम्- परिहारकप्पद्विए भिक्खू सएणं पडिग्गहेणं वहिया अप्पणो वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा यतं वएज्जा-पडिग्गाहेहि अज्जो ! अहंपि भोक्खामि वा पाहामि, वा, एवं णं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए, तत्थ णो कप्पइ अपरिहारिएणं परिहारियस्स- पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा भोत्तए वा पायए, वा, कप्पइ से सयंसि पडिग्गइंसि सयंसि पलासगसि कमढगंसि वा सयंसि खुव्वगंसि पाणिसि वा उद्धटूटु उद्धटु वा भोत्तए वा पायए वा, एस कप्पे अपरिहारियस्स परिहारियओ ॥ सू० २६ ॥
छाया-परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः स्वकीयेन प्रतिग्रहेण वहिरात्मनो वैयावृत्त्याय गच्छेत्, स्थविराश्च तं वदेयुःप्रतिगृह्णीयाः-आर्य ! अहमपि भोक्ष्ये वा पास्यामि वा, एवं खलु तस्य कल्पते परिग्रहीतुम्, तत्र नो कल्पते अपारिहारिकेण पारिहारिकस्य प्रतिग्रहे अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा भोक्तुं वा पातुं वा, कल्पते तस्य स्वकीये प्रतिग्रहे वा स्वकीये पलाशके कमढके वा स्वकीये खुव्वके वा पाणौ वा उद्धृत्य उद्धृत्य भोक्तुं वा पातुं वा एष कल्पोऽपारिहारिकस्य पारिहारिकतः ॥ स्० २६ ॥
भाष्यम्--'परिहारकप्पट्टिए' परिहारकल्पस्थितः 'भिक्ख' भिक्षुः 'सएण पडिरगहेणं', स्वकीयेन स्वात्मसंवन्धिना प्रतिग्रहेण पात्रेण 'वहिया' वहिः उपाश्रयाद् बहिः 'अप्पणो वेयावडियाए' आत्मनः स्वस्य वैयावृत्त्याय संयमयात्रां निर्वाहयितुमशनाद्याहाराऽऽनयनाय 'गच्छेज्जा'
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० २ सू० २६-२३ पारिहारिकपात्रेऽपारिहारिकस्य भोजननिषेधः ७३ गच्छेत् स्वकीयसंयमयात्रानिहाय पारिहारिको भिक्षः स्वकीयपात्रमादाय भिक्षामानेतुमाचार्याज्ञया उपाश्रयाद् वहिर्गच्छेदित्यर्थः, तत्समये 'थेरा य तं वएज्जा' तं परिहारिकं भिक्षामानेतुं वहिः प्रस्थितं ममार्थमाहाराधनेतुं द्वितीयवारं पुनर्गमने कष्टसंभव., इति विचार्य स्थविराः वदेयुः मधुरवचसा संबोच्य कथयेयुः । किं कथयेयुः ? तत्राह-'पडिग्गाहेहि'इत्यादि, 'पडिग्गाहेहि अज्जो ! अईपि भोक्खामि वा पाहामि वा प्रतिगृह्णीयाः खल आर्य । मदर्थम्प्यशनादि अहमपि भोल्ये पास्यामि वा, हे आर्य ! त्वं गच्छसि भिक्षामानेतुमतोऽस्मद्योग्यमपि अशनादिकं. स्वकीय: पात्रके एव गृहीत्वा आनय, अहमपि त्वदानीतं भोक्ष्ये त्वदानीतं दुग्धादिकमपि पास्यामि, 'एवं ण से कप्पइ पंडिग्गाहितए' एवं खलु पूर्वोक्तप्रकारेण स्थविरैः कथिते सति 'से' तस्य पारिहारिकस्य कल्पते स्थविरयोग्यमन्नपानादिकमपि स्वकीये पात्रे प्रतिग्रहीतुम् । अथ भोजनविधिमाह-'तत्य णो कप्पई' तत्र तस्मिन् समानीतेऽशनादौ नो नैव कल्पते 'अपारिहारिए पारिहारियस्स पडिग्गहंसि' अपारिहारिकेण सता पारिहारिकस्य प्रतिग्रहे पात्रे 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तए वा पायए वा' अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्यं वा भोक्तुं वा पातुं वा परिहारकस्य पात्रे अशनादिक भोक्तुमपारिहारिकस्य स्थविरस्य न कल्पते इत्यर्थः किन्तु-'कप्पई से सयंसि पडिग्गहंसि' कल्पते, तस्याऽपारिहारादिकस्य स्थविरादेः स्वकीये पात्रे काष्ठमये पात्रे 'सयंसि पलासगंसि कमढगंसि’ स्वकीये पलाशके कमढके शुष्कपलाशपत्रनिर्मिते कमढके द्रोणकाभिधपात्रविशेषे 'सयंसि खुव्वगंसि वा' स्वकीये खुव्वके संपुटितोर्द्धमुखकरतलद्वयरूपे खोवा इति प्रसिद्ध 'सयंसि पाणिसि वा' स्वकीये हस्ते वा 'उद्धटु उद्धट्टु भोत्तए वा पायए वा' उद्धृत्य उद्धृत्य अवकृष्याऽवकृष्य भोक्तं वा पातुं वा कल्पते इति 'एस कप्पे अपारिहारियस्स पारिहारियो' एषः पूर्वोक्तः, कल्प आचारः अपारिहारिकस्य परिहारतपोवर्जितस्य शुद्धस्य साधोः पारिहारिकत' पारिहारिकमधिकृत्य कथितस्तीर्थकरैरिति ॥ सू० २६ ॥
साम्प्रतमपारिहारिकाऽऽनीताशनादिभोजने पारिहारिकस्य विधिमाह-'परिहारकप्पढिए' इत्यादि ।
सूत्रम्-परिहारकप्पहिए भिक्खू थेराणं पडिग्गहेण वहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा थेरा य वएज्जा पंडिग्गाहेहि अज्जो ! तुमंपि एत्थ भोक्खसि वा पाहसि वो एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए, तत्थ णो कप्पइ पारिहारिएणं अपारिहारियस्स पडिग्गइंसि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वा पायए वा, कप्पइ से सयंसि
...
.......
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
पग्गसि वा सयंसि पलासगंसि कमढगंसि वा सयंसि खुन्वगंसि वा सयंसि पार्णिसि वा उद्धटु उद्धटु भोत्तए वा पायए वा एस कप्पे पारिहारियस्स अपारिहारियओ त्ति वेसि ॥ ० २७ ॥
ઉદ
ववहारस्स बीओ उद्देसो समत्तो ॥ २॥
छाया - परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः स्थविराणां प्रतिग्रहेण बहिः स्थविराणां वैयावृत्याय गच्छेत् स्थविराश्व वदेयुः परिगृहाण आर्य ! त्वमपि अत्र भोक्ष्यसे वा पास्यसि वा, एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम्, तत्र नो कल्पते पारिहारिकेणाsपारिहारिकस्य प्रतिग्रहे अशनं वा पानं वा स्वाद्यं वा स्वाद्यं वा भोक्तुं वा पातुं वा, कल्पते तस्य स्वकीये प्रतिम स्वकीये पलाशके कमढके वा स्वकीये खुव्वके वा स्वकीये पाणौ वा उद्धृत्त्योद्धृत्य भोक्तुं वा पातुं वा एष कल्पः पारिहारिकस्याऽपारिहारिकतः, इति ब्रवीमि ॥ सू० २७ ॥ व्यवहारस्य द्वितीय उद्देशः समाप्तः ॥ २ ॥
भाष्यम् – 'परिहार कप्पट्टिए भिक्खू' परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः 'थेराणं' स्थविराणां 'पडिग्गहेणं' प्रतिग्रहेण पात्रेण 'बहिया' बहिर्वसतेर्बहिर्भागे 'थेराणं वेयावडियाए' स्थविराणां वैयावृत्त्याय स्थविरार्थी भिक्षानयनाय 'गच्छेज्जा' गच्छेत् यदा गन्तुं प्रस्थितो भवेत् तदा 'थेरा य वएज्जा' "नूनं सर्वगृहेषु भिक्षायाः सममेककालमेव वर्त्तते ततोऽयं पारिहारिकोsस्मयोग्यां भिक्षां प्रथममादाय पश्चादयमात्मयोग्यां भिक्षामानेतुं नगरे प्रविष्टो न किमपि भोज्यनातं लप्स्यते" इति विचिन्त्य स्थविरा: पारिहारिकं वदेयुः कथयेयुः 'अज्जो' हे आर्य ! 'अत्थ' अत्र अस्मिन्नेव मदीये प्रतिग्रहे 'पडिग्गाहेहि' प्रतिगृहाण त्वदर्थमपि भिक्षां, ततः 'तुमपि एत्थ भोक्खसि वा पाइसि वा' त्वमप्यत्र मदीयपात्रे समानीतमशनादि भोक्ष्यसि वा पास्यसि वा 'एव से कप्पइ पडिग्गाहित्तए' एवं स्थविरैरुक्ते सति 'से' तस्य भिक्षार्थं गतस्य पारिहारिकस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् स्थविरपात्रे स्वनिमित्तमपि भिक्षां ग्रहीतुम् । भिक्षाऽऽनयनानन्तर भोजनविधिमाह — 'तत्थ णो कप्पर' इत्यादि, 'तत्थ णो कप्पइ' तत्र समानीताशनादौ नो कल्पते 'पारिहारिएण अपारिहारियस्स' पारिहारिकेणाऽपारिहारिकस्य 'पडिग्गइंसि' प्रतिग्रहे पात्रे 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तए वा पायए वा' अशनं वा पानं वा स्वाद्यं वा स्वाद्य वा भोक्तुं वा पातुं वा । तर्हि कथं कल्पते ' तत्राह - ' कप्पर ' इत्यादि, 'कप्पर से सयंसि पडिग्गइंसि' किन्तु कल्पते 'से' तस्य पारिहारिकस्य स्वकीये प्रतिम पात्रे 'सयंसि पलासगंसि कमढगंसि वा' स्वकीये पलाशके शुष्कपलाशपत्रनिर्मिते कमढके द्रोणकाभिघपात्रविशेपे वा 'सरांसि खुव्वगंसि वा' स्वकीये खुब्बगे संपुटितकरतलरूपे खोबा इति प्रसिद्धे वा 'सयंसि पार्णिसि वा' स्वकीये पाणौ वा 'उद्धट्टु उद्धटु' उद्धृत्योद्धृत्य स्वपाणिना
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०२ सू० २७
द्वितीयोद्देशसमाप्तिः ७५ अवकृष्यावकृष्य 'भोएत्तए वा पायत्तए वा' भोक्तुं वा पातुं वा कल्पते ॥ सम्प्रति उपसंहारमाह-'एस कप्पे' इत्यादि, 'एस कप्पे पारिहारियस्स अपारिहारियओ एषः पूर्वोक्तः कल्पः पारिहारिकस्य परिहारकल्पस्थितस्याऽपारिहारिकतः अपारिहारिकमधिकृत्य कथित इति । एतत् सूत्रद्वयं स्थविराणां पार्श्वे अन्यवैयावृत्त्यकारकाऽपारिहारिकश्रमणाभावे ज्ञातव्यमिति । 'तिवेमि' इति ब्रवीमि । सुधर्मस्वामी जम्बुस्वामिनं कथयति-यन्मया भगवतो वर्द्धमानस्वामिनो मुखात् श्रुतं तत् तव ब्रवीमि कथयामि न तु स्वमनीषिकया किञ्चिदपि कथयामि । एतावता श्रुतस्याऽप्रामाणिकता निराकृता ॥ सू० २७ ॥
इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितायां "व्यवहारसूत्रस्य"
भाण्यरूपायां व्याख्यायां द्वितीय उद्देशकः समाप्तः ॥२॥
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथ तृतीयोदेशकः प्रारभ्यतेव्याख्यातो द्वितीयोद्देशकः, सम्प्रति तृतीयः प्रारभ्यते, तत्र द्वितीयोद्देशकस्य चरमसूत्रेणं सहास्यतृतीयोद्देशकादिसूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इति प्रथमं सम्बन्धप्रतिपादिकां गाथामाह भाष्यकार:-'परिहारिय०' इत्यादि ।
भाष्यम्- परिहारियथेराणं, असणाणयणे य तस्स परिभोगे। . वुत्तो विही य पुव्वं, गणस्स धारणविही एत्थ ॥१॥ छाया-पारिहारिकस्थविरयोरशनानयने च तस्य परिभोगे ।
उक्तो विधिश्च पूर्व गणस्य धारणविधिरत्र ॥१॥ व्याख्या- 'परिहारिय०' इति । 'पुव्वं' पूर्व द्वितीयोद्देशकस्य चरमसूत्रे पारिहारिकस्थविरयोः पारिहारिकत रोवहमानस्य स्थविरस्य च निमित्तमशनादीनामानयने, तस्याशनादेः परिभोगे परिभोगविषये च विधिरुतः-प्रतिपादितः । पारिहारिकः स्थविरश्च भिक्षुरेव भवतीति 'एत्थ' अत्र तृतीयोदेशकस्यादिसूत्रे तस्य भिक्षोः गणस्य धारणे विधिः कथयिष्यते, इत्येष एवं सम्बन्धः पूर्वापरोद्देशकयोर्विज्ञेयः ॥१॥
अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य तृतीयोदेशकस्येदमादिसूत्रम्-'भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य इच्छेज्जा गणं धारिचए. भगवं च से अपलिच्छण्णे एवं से नो कप्पइ गणं धारित्तए। भगवं च से पलिच्छन्ने एवं से कप्पइ गणं धारित्तए ॥ सू० १॥
छाया-भिक्षुश्च इच्छेत् गण धारयितु भगवाश्च स अपरिच्छिन्नः एवं तस्ये नो कल्पते गण धारयितुम्, भगवाँश्च स परिच्छन्नः एवं तस्य कल्पते गणं धारयितुम् ॥ सू० १॥
भाष्यम्-'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च कश्चित् साधुः 'इच्छेज्जा' इच्छेत् 'गणं धारित्तए' गणं साधुसमुदायं धारयितुं गणस्य गणधरत्वं कर्तुमिच्छेत् , अयं भावः-कोऽपि भिक्षुः कियतां साधूना गणं कृत्वा 'इमं साधुसमुदाय ममाधीनं कृत्वाऽन्यत्र विहरिष्यामी'-ति बुद्धया साधुसमुदायस्य गणधरत्वं कर्तुमिच्छेदिति । 'भगवं च से' गणधारणेच्छुः स अनगारो भगवान् यदि 'अपलिच्छण्णे' अपरिच्छन्नः परिच्छेदरहितो भवेत् परिवारवर्जितो भवेत् तत्र परिच्छदो द्रव्यभावभेदतो द्विविधः, द्रव्यतः परिच्छदः शिष्यपरिवारः, भावतः परिच्छदः आचाराङ्गादिच्छेदपर्यन्तं सूत्रजातम् , द्विघापि परिच्छेदरहितः, तत्र द्रव्यतः स्वप्रवाजितसाधुसमुदायरहितः, भावत आचाराङ्गादिसूत्रज्ञानरहित. स्यात् 'एवं से' एवम् एतादृशस्थितौ तस्यापरिच्छ. न्नस्य भिक्षोः 'नो कप्पई' न कल्पते 'गणं धारित्तए' गणम् अन्यदीयसाधुसमुदायरूपं गच्छं धारयितुम् तस्य द्रव्यभावतो द्विवापि गणधरणयोग्यताया अभावादिति । यदि 'भगवं
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०३ सू० १-२
भिक्षोर्गणधारणविधिः ७७ च से' भगवांश्च सः अनगारः 'पलिच्छन्ने' परिच्छन्नः द्रव्यभावपरिच्छेदयुक्तो भवेत् ‘एवं से' एवं सति एतादृशस्थितौ द्रव्यभावपरिच्छेदयुक्तत्वे सति 'से' तस्य 'कप्पई' कल्पते 'गणं धारित्तए' गणं घारयितुम् , तस्य द्विधाऽपि गणधरणयोग्यतायाः सद्भावादिति ।
अत्र द्रव्यभावमधिकृत्य परिच्छन्नापरिच्छन्नविषया चतुर्भङ्गी प्रदर्श्यते, तथाहिएकः-द्रव्यतोऽपरिच्छन्नः, भावतोऽपि अपरिच्छन्नः १ । द्वितीयः-द्रव्यतोऽपरिच्छन्नः, भावतः परिच्छन्नः २ । तृतीयः--द्रव्यतः परिच्छन्नः भावतोऽपरिच्छन्नः ३ । चतुर्थः-द्रव्यतः परिच्छन्नः, भावतोऽपि परिच्छन्नः ४ ।
अस्यां चतुर्भङ्गयां चतुर्थभङ्गवर्ती शुद्ध., शेषा भङ्गत्रयवर्तिनः अशुद्धा इति । अत्र प्रस्तुतसूत्रे चतुर्थभगवर्ती एव गणधरपदे स्थापयितुं योग्य इति सूत्रार्थः ॥ सू० १॥
__पूर्व द्रव्यभावपरिच्छन्नो भिक्षुर्गणधरणयोग्यो भवतीति प्रोक्तम् , साम्प्रतं स द्रव्यभावपरिच्छन्नो भिक्षुर्यदि मनस्येवं चिन्तयेत् -यत् सूत्रे प्रोक्तम्-यो भिक्षुव्यभावपरिच्छन्नो भवेत्स गगं धारयितुं शक्नोति ततोऽहमुभाभ्यामपि परिच्छन्नोऽस्मि ततः किमहं तन्न कुर्याम् ? अतोऽहं गणं धारयामि किमत्र स्थविराणां परिपृच्छायाः प्रयोजनम् ? इति विचार्य भिक्षुर्गणं धारयेत् , तत्र स्थविरान् अनापृच्छ्य गणं धारयितुं मिक्षोने कल्पते इति प्रदर्शयति सूत्रकारः--'भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य इच्छेज्जा गगं धारित्तए नो से कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता गणं धारिचए । कप्पइ से थेरे आपुच्छित्ता गगं धारिचए । थेरा य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ गणं धारित्तए, थेरा य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ गण धारित्तए । जण्ण थेरेहिं अविइण्णं गणं धारेज्जा से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू०२॥
छाया-भिक्षुश्च इच्छेत् गण धारयितुं नो तस्य कल्पते स्थविरान् अनापृच्छय गण धारयितुम् । कल्पते तस्य स्थविरान् आपृच्छय गण धारयितुम् । स्थविराश्च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते गणं धारयितुम् । स्थविराश्च नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते गण धारयितुम् । यत् खलु स्थविरैः अवितोणे गणं धारयेत् तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥सू० २ ॥
___ भाष्यम् –'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च 'इच्छेज्जा' इच्छेत् 'गणं धारित्तए' गणं धारयितुं साधुसमुदायरूपं गणं कृत्वा तदुपरि गणाधिपत्यं कर्तुमिच्छेत् तदा तत्र 'से' तस्य भिक्षोः 'नो कप्पइ' नो कल्पने 'थेरे अणापुच्छित्ता' स्थविरान् अनापृच्छय स्थविराज्ञामनादाय 'गणं धारित्तए' गणं धारयितुम् । तहि कथं कल्पते ! इत्याह-'से' तस्य
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसत्र
गणधारणेच्छुकस्य भिक्षोः 'कप्पइ' कल्पते 'थेरे आपुच्छित्ता' स्थविरान् आपृच्छय स्थविराज्ञामादाय 'गणं धारित्तए' गणं धारयितुम् । पृष्टेषु तेषु यदि 'थेरा य' स्थविराश्च 'वियरेज्जा' वितरेयुः गणधारणार्थमाज्ञां दद्युः 'धारय इमं गणं त्वम्' इति तदा 'से' तस्य 'कप्पइ' कल्पते 'गणं धारित्तए' गणं धारयितुं स्वसत्तायां कर्तुम् । 'थेरा य' यदि पृष्टा च ते स्थविराः 'नो वियरेज्जा' प्रतिकूलद्रव्यभावादिकारणवशात् नो वितरेयुः गणधारणस्याज्ञां नो दद्यु. तदा 'नो से कप्पइ' नो तस्य कल्पते 'गणं धारित्तए' गणं धारयितुम्-'आज्ञाप्रधाना जिनव्यवहाराः' इत्यतः स्थविराज्ञामन्तरेण गणं धारयितुं भिक्षोर्नो कल्पते इति भावः ।
___ यद्याचार्यः पूर्वोक्तस्वरूपं द्रव्यभावपरिच्छन्नं भिक्षु स्मारणावारणादिलब्धिसम्पन्नं गणनायकपदं धारयितुं योग्यं मत्वा गणधारणाज्ञां दद्यात् तदा स गणनायकपदे व्यवस्थितो भवितुमर्हति नान्यथेति तात्पर्यम् । यद्येवमकृत्वा 'जणं' यत् खलु 'थेरेहिं अविइण्ण' स्थविरैरवितीर्णम् अदत्तं 'गणं धारेज्जा' गणं धारयेत् स्थविराज्ञामन्तरेण तैरनाज्ञप्तं गणधारणं कुर्यात् तदा 'से' तस्य 'संतरा' सान्तरात् स्वकृतादन्तराद् , यद्वा यावत्कालं तेन गणो धारितः तावत्कालिकमन्तरमधिकृत्य प्रायश्चित्तं 'छेए वा परिहारे वा' छेदो वा परिहारो वा वाशब्दादन्यद्वा देशकालोचितं प्रायश्चित्तमापन्नं भवतीति सूत्रार्थः ।। सू० २ ॥
पूर्व भिक्षीगणधारणविधिमुपदर्य साम्प्रतम् उपाध्यायः कीदृग्गुणसम्पन्नो भवितुमर्हतीति उपाध्यायसूत्रमाह-'तिवासपरियाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-विवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे अभिन्नायारे असवलायारे असंकिलिट्ठायारे बहुस्सुए वभागमे जहन्नेणं आयारकप्पधरे कप्पइ उवायत्ताए उदिसित्तए ।। सू०३॥
छाया-त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थ आचारकुशलः संयमकुशलः प्रवचनकुशलः प्रक्षप्तिकुशलः संग्रहकुशलः उपग्रहकुशलः अक्षताचारः अभिन्नाचारः अशवलाचारः असंक्लिष्टाचारः बहुश्रुतः वह्वागमः जघम्येन आचारकल्पधरः कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुम् ।। सू० ३॥
भाष्यम्-'तिवासपरियाए' इति । त्रिवर्षपर्यायः त्रीणि वर्षाणि पर्यायः दीक्षापर्यायो जातो यस्य स त्रिवर्षपर्यायः प्रवज्याग्रहणानन्तरं त्रिवर्षात्मकः कालः संयमाराधने यस्य व्यतीतो भवेत् स त्रिवर्पपर्यायः कथ्यते । इत्थम्भूतः कः ? इत्याह-'समणे' इत्यादि, 'समणे' श्रमणः, तत्र श्राम्यति तपस्यति संयमाराधनाय तपस्यां करोति यः स श्रमणो भिक्षुकः । श्रमणस्तु कदाचित् शाक्यादिभिक्षुरपि भवतीत्यतः तेषां व्यवच्छेदायाह-णिग्गंथे' निर्ग्रन्थः, तत्र निर्गतः दूरं गतो प्रन्यात् द्रव्यतो धनधान्यहिरण्यादिरूपात् , भावतः कषायमिथ्यात्वाऽविरल्यादिलक्षणात्
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्म् उ० ३ सू० ३
त्रिवर्षपर्यायस्योपाध्यायपददाविधिः ७९
यः स निर्ग्रन्थः, नहि भवति शाक्यादिभिक्षुर्द्रव्यभावोभयग्रन्थरहितः मतः स निर्ग्रन्थो न भवतीति निग्रन्थ इति कथितम् । स पुनः कथम्भूतः ? इति तद्विशेषणान्याह-'आयार०' इत्यादि, 'आयारकुसले' आचारकुशलः ज्ञानादिपश्चाऽऽचारदक्षः । कुशलो द्विधा भवति-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र कुशल इति कुशं दर्भ लुनातीति कुशलः, यः कुशं दात्रेण यथा लुनाति न कचिदपि कुशो दात्रेण विच्छिन्नो भवति स द्रव्यकुशलः, यः पुनः ज्ञानादिपश्चविधाचाररुपेण दात्रेण कर्मरूपं कुशं लुनाति स भावकुशलः ज्ञानाद्याचारेण कर्मकुशलः कर्मच्छेदको यः स आचारकुशलः, आचारविषयकसम्यक्परिज्ञानवान् इत्यर्थः, अन्यथा कर्मकुशच्छेदकाऽनुपपत्तेः । अथवाकुशलशब्दो दक्षवाची तेनाऽऽचारे ज्ञातव्ये प्रयोक्तव्ये वा कुशलो दक्षः स आचारकुशल इति ।
अयं भावः-आचारकुशलः, तत्र आचारः ज्ञानाद्याचारविनयाचारभेदेन द्विविधः । तत्र ज्ञानाद्याचारो यथा-यः स्वस्वोचिते काले स्वाध्यायं प्रतिलेखनादिकं स्वोचितं तपश्च करोति, आत्मनो ज्ञानादिकमधिकं निर्मलतर च वाञ्छन् सदैव गुरुषु बहुमानपरो भवति । एष ज्ञानाघाचारः प्रतिपादितः । यो रत्नाधिकानामागच्छतामभ्युत्थानं करोति, आसनं ददाति, समागतानां पीठफलकाद्युपनयति, गच्छतां प्रति आसनादिकं नयति, तथा प्रतिलेखनानन्तरम् आगत्य आचार्यान् प्रार्थयति-आदिशतु भदन्त ! किं करोमीति, अभ्युपेतानामात्मसमीपवर्तित्वं करोति, यथानुरूपं रत्नाधिकानां कृतिकर्म करोति, मधुरं वदति, चापल्यकौकुच्यवञ्चनारहितो वर्तते, इत्यादिः सर्वोऽपि वीर्याचारोऽवसेयः । एवं ज्ञानाद्याचारे विनयाचारे च कुशलः स आचारकुशलः कथ्यते । 'संजमकुसले' संयमकुशलः, तत्र-संयमः पृथिवीकायसंयमादिभेदेन सप्तदशविधः, तस्मिन् संयमे ज्ञातव्ये परिपालने वा कुशलो दक्ष इति संयमकुशलः । अयं भावः-संयमकुशलो नामः यः उपकरणानामादानं निक्षेपणं च प्रतिलेख्य प्रमाय॑ च करोति । अनेन प्रेक्षासंयमः प्रमार्जनासंयमश्चोक्तः। एतद्ग्रहणेन तज्जातीयाः शेषा अप्युपेक्षादिसंयमानां ग्रहणं भवति । तथा यः शय्यामुपधिमाहारं च उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धं गृह्णाति, संयोजनादिमण्डलदोषरहितं च भुङ्क्ते, स्थानशयनाद्यपि कुर्वाणः प्रत्युपेक्ष्य प्रमार्य च करोति । य एतेषु सर्वेष्वपि संयमेषु स्मृतिमान् भवति स संयमकुशल कथ्यते 'स्मृतिमूलमनुष्ठानमवितथम्' इति वचनात् । पुनश्च-अप्रशस्तानां मनोवाक्काययोगानामपवर्जनम्, शुभानां चैषामभियोजनं करोति । तथा श्रोत्रादीन्द्रियाणां क्रोधादिकषायाणां च निग्रहं करोति । तथा श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि तत्तद्विषये नो व्यापारयति, प्राप्तेषु च शुभाशुभेषु तद्विषयेषु शब्दाद्यर्थेषु राग द्वेषं च न करोति । उदयितुं प्रवृत्तान् क्रोधादीन् निरुणद्धि, उदयप्राप्तांस्तान् विफलीकरोति । तथा प्राणातिपाताद्याश्रवान् पिदधाति । आर्त्तरौद्रध्यानपरिहारेण धर्म्य शुक्ले च ध्यानेऽनिगूहितबलवीर्यतया प्रवृत्तो भवति । ततस्त्रिकरणविशुद्धो यो इहलोकाद्याशंसादिविप्रमुक्तत्वात् मनसाऽप्यसंयमान् अभिलाषान् नाभि
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसत्रे
लपति स संयमकुशलः कथ्यते । 'पवयणकुसले' प्रवचनकुशलः, तत्र प्रवचनं जिनवचनं, तत्परिपालने कुशल', तस्मिन् ज्ञातव्ये तदुपदेशे वा कुशलो दक्षो यः स प्रवचनकुशलः । अयंभावः-प्रवचनकुशलो नाम यः सूत्रस्य तदर्थस्य हेतुकारणप्रतिपादनपूर्वकं धारको न तु अक्षराराधनमात्रधारकः, अर्थनिर्णयप्रदानादिना श्रुतस्नानां निधानमिव पूर्णः पूर्वापराऽव्याहतत्वेन प्रवचनस्य निश्चायक', बहुश्रुताचार्यसकाशाद् वाचनाग्राहित्वाद् विपुलवाचनादायकः, प्रवचनमधीत्यात्मनो हितमाचरति अन्येपां च हितमुपदिशति, प्रवचनाऽवर्णभाषिणां निग्रहे समर्थ , अनिगूहितस्वशक्तित्वेन प्रवचनप्रभावकः, स्वपरसंसारनिस्तारणे समर्थो भवति स प्रवचनकुशलः कथ्यते इति । 'पन्नत्तिकुसले प्रज्ञप्तिकुशलः, तत्र प्रज्ञप्ति म स्वसमयपरसमयप्ररूपणारूपा, तथा च स्वकीयशास्त्रप्रतिपादितानि, तथा परदर्शनप्रतिपादितानि यानि पदार्थजातानि तेषां ज्ञाने कुशलो निपुणो यः स प्रज्ञप्तिकुशलः । यः स्वसमयप्ररूपणानियममधिकृत्य कुसमयान् मथ्नाति स प्रज्ञप्तिकुशलः कथ्यते इति भावः । 'संगहकुसले' संग्रहकुशलः-संग्रहे दक्ष तत्र संग्रहणं सम्यग्: रूपेणोपादानम् इति । स च संग्रहो द्विप्रकारक , तद्यथा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः संग्रह आहारोपधिपात्रादीनाम् , भावतः संग्रहः सूत्रार्थयोः । तयोदिप्रकारकयोरपि संग्रहयोः करणे कुशलो दक्षो यः स संग्रहकुशल. । अयं भावः -संग्रहकुशलो नाम-द्रव्यभावतः सूत्रार्थादिवस्तुजातस्य स्वात्मनि संग्राहकः, तथाहि-गृहीतमौनव्रतस्याभाषणे केनापि कृतप्रश्नस्योत्तरभाषणम् , वाचनादानेन क्लान्ते गुरौ साधूनां वाचनादानम् , देशकालानुसारेण आचार्यादीनां ग्लानाद्यनुकम्पनस्य स्मारणम् , यथादेशकालं बालवृद्धाऽसहानामनुकम्पनम् , सामाचार्या सीदतां कथञ्चिद् रुष्टानां वा शास्त्रोपदेशतोऽनुशासनम् , ज्ञानाचारादिषु अभ्युद्यतानामुपवृंहणम् , यद् यस्योपकारकं भक्तमुपधिर्वा तत्तस्य स्वयमानीय प्रदानम् , सीवनलेपनादिकुर्वतो दृष्ट्वा-इच्छाकारेण भवत इदमहं करोमोति भणनं तत्करणं कारापणं वाऽन्यसकाशात् इत्यादिगुणानां संग्रहो यस्मिन् विद्यते स संग्रहकुशल इति । 'उवग्गहकुसले' उपग्रहकुशलः, तत्रोप - सामीप्येन ग्रहणमुपग्रहः, स चोपग्रहो द्विप्रकारकः, तद्यथा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र येषां साधूनामाचार्य उपाध्यायो वा गणप्रवर्तको न विद्यते तान् आत्मसमीपे समानीय तेषामित्वरां दिशं इत्वरकालभाविनी दिशम् आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं च प्रकल्प्य तान् तावत्पर्यन्तं धारयति यावदाचार्य उपाध्यायो वा निष्पाद्यते, अयं च द्रव्यत उपग्रहः। यः खलु विशेषेण सर्वेषामेव सूक्ष्मबादरजीवानामुपकारे वर्त्तते स भावत उपग्रहः, तत्र कुशल उपग्रहकुशलः, तत्र उपग्रहो नाम-बालासमर्थवृद्धमार्गगमनादिश्रान्ततपःक्लान्तवेदना-जातरोगातकानां शय्यानिषद्योपधिभक्तपानौषधमैषज्यौपग्रहिकोपकरणादिभिरुपग्रहोपष्टम्भकरणम् । कथमित्याह-पूर्वोक्तबालादिभ्यः पूर्वोक्तं शय्यादिवस्तुजातं स्वयं ददाति, अन्यैर्वा दापयति, तथा स्वयं वैयावृत्त्यादि करोति अन्यैर्वा कारयति,
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ३ सू० ३-५
त्रिवर्षपर्यायस्योपाध्यायपददानविधिः .८१ कुर्वन्तमन्यमनुमोदयति, उपहितविधि वा करोति तथाहि-यद् यस्य गुरुणा दत्तं तत्तस्योपनयति । तथा अनुपहितविधि वा करोति; तथाहि-यत्पुनर्यस्य दत्तं सोऽन्यस्मै गुरून् अनुज्ञाप्य उपनयंति ददाति, यथा--इदं वस्तुजातं स्थविरैः त्वदर्थ दत्तमिति, एवमुपहितविधिरनुपहितविधिः । पूर्वोक्तगुणयुक्तश्च यो भवेत् स उपग्रहकुशलः 'कथ्यते । 'अक्खयायारे' अक्षताचारः, तत्र न क्षतः खेण्डित आचारो यस्य सोऽक्षताचारः परिपूर्णाचारः, परिपूर्णाचारता च चारित्रे सति भवति, वारित्रवता नियमतः शेषाश्चत्वारोऽपि ज्ञानानाद्याचाराः सेव्याः 'चारित्रवतश्चारित्रं स्यात्' इति
चनात् , ततश्चाऽक्षताचार इत्यस्य चारित्रवानित्यर्थो बोध्यः, यः आधाकर्मादिद्विचत्वारिंशद्दोषरहितस्याऽऽहारस्य ग्रहीता भोक्ता च भवति सोऽक्षताचारः, साध्वाचारस्य परिशुद्धाहारग्रहणमूलकत्वादिति । 'अभिन्नायारे' अभिन्नाचारः, न भिन्नो न खण्डितः केनचिदपि अतिचारविशेषेण वर्जितत्वाद् आचारो ज्ञानाचारादिको यस्य सोऽभिन्नाचारः अखण्डितज्ञानाचारवानित्यर्थः 'असवलायारे' अशबलाचारः शवलदोपवर्जितः । 'असंकिलिहायारे' असंक्लिष्टाचारः, तत्राऽसंक्लिष्ट इहलोकपरलोकाऽऽशंसालक्षणक्लेशरहित आचारो यस्य सोऽसंक्लिष्टाचारः क्रोधादिवर्जनेन संक्लिष्टपरिणामरहित इत्यर्थः । 'बहुस्सुए' बहुश्रुतः बहु-अधिकं श्रुतं शास्त्र यस्य स बहुश्रुतः आचारादिछेदपर्यन्तसूत्रधारकः । 'वभागमे' बह्वागमः-बहुरधिक मागमोऽर्थरूपो यस्य स बहागमः । बहागम इति किम् । तत्राह-'जहन्नेणं आयारपकप्पंधरे' जघन्येनाचारप्रकल्पधरः आचाराङ्गनिशीथाऽध्ययनसूत्रार्थधर इत्यर्थः । जघन्यत आचारप्रकल्पग्रहणाद् उत्कर्षतो द्वादशा- . गधर इति ज्ञातव्यम् । अत्र आचारप्रकल्पधरनिविध -सूत्रतोऽर्थत तदुभयतच, अत्र सूत्रार्थघरत्वमधिकृत्य चतुर्भङ्गी भवति, तथाहि-सूत्रधरो नो अर्थधरः १, नो सूत्रधरः अर्थधरः २, सूत्रधरोऽपि अर्थधरोऽपि ३, नो सूत्रधरो नाप्यर्थधरः ४। एषु चतुर्थो भङ्ग शून्यः, उभयविंकलतया आचारप्रकल्पधारित्वविशेषणासंभवात् । आद्यानां तु त्रयाणां भङ्गानां मध्ये यस्तृतीयभगवर्ती स उपाध्यायत्वेन उद्देष्टुं योग्यः, अस्य सूत्रार्थोभयधारितया गच्छस्य सम्यक्परिवर्धकगुणसंपन्नत्वात् । तदभावे द्वितीयभगवर्त्यपि उपाध्यायत्वेन उद्देष्टुमर्हति तस्यार्थधारित्वेन गच्छपरिवर्द्धकत्वगुणसंभवात. किन्तु प्रथमभङ्गवर्ती नोपाध्यायपदयोग्यः, तस्य सूत्रमात्रधारित्वेन शास्त्रमानभिज्ञत्वात् । एवं दशाकल्पव्यवहारधरादिपदेष्वपि व्याख्यानं कर्त्तव्यमिति । पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टः श्रमणो निम्रन्थः 'कप्पइ, उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए' कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुम् । त्रिवर्षपर्यायादिगुणगणविशिष्टो भिक्षुरुपाध्यायपदे स्थापयितुं युज्यते इत्यर्थः । सू० ३ ॥
अथोपाध्यायपदायोग्यं श्रमणनिम्रन्थ विवृणोति–'सच्चेव ण' इत्यादि ।
सूत्रम्-सच्चेव णं से तिवासपरियाए समणे णिग्गंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पर्यणकुसले नो पन्नत्तिकुसले नो संगहकुसले नो उवग्गहकुसले खया
ध्य, १
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारस्त्रे यारे भिन्नायारे सबलायारे संकिलिहायारे अप्पसुए अप्पागमे नो कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए । सू० ४ ॥
छाया-स एव खलु अथ त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निम्रन्थो नो आचारकुशलो नो संयमकुशलो नो प्रवचनकुशलो नो प्राप्तिकुशलो नो संग्रहकुशलो नो उपग्रहकुशलः क्षताचारो भिन्नाचारः शवलाचार. संक्लिष्टाचारोऽल्पश्रुतोऽल्पाऽऽगमो नो कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुम् ॥ सू० ४॥
भाष्यम्-'सच्चेव णं से' इति । 'से' अथ 'सच्चेव णं' इति स एव खलु त्रिवर्षपर्यायः यः श्रमणो निर्ग्रन्थ तृतीयसूत्रे कथित. स एव त्रिवर्षपर्यायो यदि पूर्वोक्ताचारकुशलवादिगुणरहितो भवेत् स उपाध्यायतया उद्देष्टुं न कल्पते इति सूत्रभावार्थः । अत्र आचारकुशलादिपदानि निपेघपरत्वेन सर्वाणि व्याख्येयानि, तेषां पदानामर्थोऽत्रैव तृतीयसूत्रे विस्तारेण प्रतिपादितः । नवरम् 'अप्पस्सुए अप्पागमे' इति, अत्राल्पशब्दः अभाववाचकः श्रुतागमज्ञानविकलः, इति व्याख्येयम् ।। सू० ४ ॥
पूर्व त्रिवर्षपर्यायविषयकमुपाध्यायसूत्रं व्याख्याय सम्प्रति पाञ्चवार्षिकपर्यायमाश्रित्य आचार्योपाध्यायसूत्रमाह-पंचवासपरियाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-पंचवासपरियाए समणे णिन्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे असवलायारे असंकिलिहायारे बहुस्सुए वभागमे जहन्नेणं दसाकप्पववहारधरे कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ॥ सू०५॥
छाया-पञ्चवर्ष पर्यायः श्रमणो निर्मथ आचारकुशलः संयमकुशलः प्रवचनकुशलः प्रश्नप्तिकुशलः संग्रहकुशलः उपग्रहकुशलोऽक्षताचारोऽभिन्नाचारोऽशवलाचारोऽसंक्लिष्टाचारः बहुश्रुतो वहागमो जघन्येन दशाकल्पव्यवहारधरः कल्पते आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् ॥ सू० ५॥
भाष्यम्-'पंचवासपरियाए' पञ्चवर्षपर्यायः पञ्च वर्षाणि पर्यायः प्रव्रज्यापर्यायो जातो यस्य स पञ्चवर्षपर्यायः, दीक्षाग्रहणकालादारभ्येदानीन्तनकालं यावत् यदि संगृह्यते, तदा स कालः पञ्चदर्पमितो यस्य भिक्षोर्व्यतीतो षष्ठ’च वर्षः प्रारब्धो भवति स पञ्चवर्षपर्यायः 'समणेणिग्गंथे श्रमणो निम्रन्थः 'आयारकुसले' आचारकुशलः, इत्यादिपदानां व्याख्या तृतीयसूत्रकृ. तत्र्याझ्यावदेव ज्ञातव्या, नवरम् 'बहुस्तुए' बहुश्रुतः वहु-प्रभूतं श्रुतं सूत्ररूपं यस्य स बहुश्रुतः 'भागमे' चहागमः बहुरागमोऽर्थरूपो यस्य स बहागमः 'जहन्नेणं दसाकापववहारधरे'
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०३ सू० ६-८
पञ्चाष्टवर्षपर्यायस्याचार्यादिपददानविधिः ॥ जघन्येन दशकल्पव्यवहारघरः दशाश्रुतस्कन्धव्यवहारसूत्रधारकः एतादृशगुणगणविशिष्टः श्रमणो निम्रन्थः 'कप्पइ' कल्पते 'आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए' आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् आचार्योपाध्यायपदे स्थापयितुम् । यः श्रमणो निम्रन्थः पूर्वोक्ताऽऽचारकुशलादिगुणगणविशिष्टः पञ्चवर्षात्मकदीक्षापर्याययुक्तश्च भवेत् स आचार्यपदमुपाध्यायपदं वा स्वीकत्तुं योग्यो भवेदिति भावः ॥ सू० ५ ॥ _अथ पूर्वसूत्राद् वैपरीत्येनाचार्योपाध्यायपदायोग्यपरकं सूत्रमाह-'सच्चेव णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-सच्चेव णं से पंचवासपरियाए समणे णिगंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पदयणकुसले नो पन्नत्तिकुसले नो संगहकुसले नो उवग्गहकुसले खयायारे भिन्नायारे सवलायारे संकि लिट्ठायारे अप्पमुए अप्पागमे नो कप्पइ आयरिय उवज्झायत्ताए उदिसित्तए । सू० ६ ॥
छाया-स एव खलु अथ पञ्चवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थो नो आचारकुशलो नो संयमकुशलो नो प्रवचनकुशलो नो प्रज्ञप्तिकुशलो नो संग्रहकुशलो नो उपग्रहकुशल: क्षताचारो भिन्नाचारः शवलाचारः संक्लिष्टाचारोऽल्पश्रुतोऽल्पागमो नो कल्पते आचार्योपाध्यायतयोद्देष्टुम् ।। सू० ६॥
भाष्यम्-'सच्चेव णं से' अत्र 'से' शब्दः अथार्थवाचकस्तेन 'से' अथ स एव खल 'पंचवासपरियाए' पञ्चवर्षपर्यायः पूर्ववत् पञ्चवर्षात्मककालदीक्षितः 'समणे णिग्गंथे' श्रमणो निम्रन्थ. माचारकुशलादिविशेषणविशिष्टो न भवेत्तदा तस्याचार्योपाध्यायपदं न कल्पते इति सूत्राशयः । अत्र आचारकुशलादिपदानि 'नो'-शब्दमधिकृत्य निषेधपरकत्वेन पूर्ववद् व्याख्येयानि । नवरम्, पूर्वोक्ताचारकुशलादिविकलः श्रमणो निर्ग्रन्थः 'नो कप्पड आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए' नो कल्पते आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् आचार्योपाध्यायपदे स्थापयितुम् । आचारकुशलत्वादिगुणरहितः श्रमणो निम्रन्थः आचार्यपदे उपाध्यायपदे या स्थापयितुं युक्तो न भवतीति भावः ।। सू०६ ॥
अथाष्टवर्षपर्यायमधिकृत्याचार्यादिपददानविधिमाह-'अट्ठवासपरियाए' इत्यादि ।
सूत्रम् -अट्ठवासपरियाए समणे णिग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे अभिन्नायारे असवलायारे बहुस्सुए वभागमे जहन्नेणं ठाणसमवायधरे कप्पइ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणवच्छेयगत्ताए उदिसित्तए ॥सू०७॥
छाया-अष्टवर्षपर्याय. श्रमणो निर्ग्रन्थः आचारकुशलः संयमकुशलः प्रवचनकुशलः प्रज्ञप्तिकुशलः संग्रहकुशलः उपग्रहकुशलोऽक्षताचारोऽभिन्नाचारः अशयलाचारः असंक्लिष्टाचारो वहुश्रुतः वागमः जघन्येन स्थानसमवायधरः कल्पते आचार्यतया उपाध्यायतया गणावच्छेदकतया उद्देष्टुम् ॥ सू० ७॥
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे भाष्यम् – 'अट्ठवासपरियाए, अष्टवर्षपर्यायः तत्राऽष्टौ वर्षाणि पर्यायः प्रव्रज्यापर्यायो यस्य सोऽष्टवर्षपर्यायः 'समणे णिग्गंथे' श्रमणो निम्रन्थः 'आयारकुसले, आचारकुशलः, इत्यादिपदानां तृतीयसूत्रे व्याख्या कृता तत्रतोऽत्रसेया । नवरम् 'जहन्नेणं ठाणसमवायधरे जघन्येन स्थानाङ्गसमवायाङ्गघ्रः स्थानाङ्गसूत्रस्य समवायाङ्गसूत्रस्य च सूत्रार्थघारको भवेत् सः 'कप्पइ' कल्पते 'आयरियत्ताए' आचार्यतया 'उवज्झायत्ताए' उपाध्यायतया 'गणावच्छेयगत्ताए' गणावच्छेदकतया 'उदिसित्तए' उद्देष्टुं, संस्थापयितुम् आचारकुशलादिगुणगणोपेतोऽष्टवर्षपर्यायः श्रमणो निम्रन्थः आचार्यपदे उपाध्यायपदे गणावच्छेदकपदे च. संस्थापयितुं योग्यो भवति । अत्र गणावच्छेदकेति चरमपदग्रहणेन प्रवर्तकादीनि मध्यस्थानि पदान्यपि- ग्रहीतः व्यानि तेनायाति पूर्वोक्तगुणयुक्तः श्रमण आचार्यादीनि सर्वाणि पदानि गृहीतुं योग्यो भवतीति भावः ।। सू०७ ।।
पूर्वोक्तगुणरहितस्तु आचार्यादिपदे समुपस्थापयितुं न- योग्य इति प्रदर्शयति-'सच्चेवणं' इत्यादि ।
सूत्रम्-सच्चेव णं अट्ठवासपरियाए समणे शिनगंथे नो आयारकुसले नोसंजमकुसले नो पश्यणकुसले नो पन्नत्तिकुसले. नो संगहकुसले नो उपग्गहकुसले खयायारे भिन्नायारे सवलायारे संकिलिट्ठायारे अप्पसुए. अप्पागमे; नो कप्पई आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेयगत्ताए उ िसित्तए । सू०८ ॥
छाया- स एव अथ खलु अष्टवर्षपर्यायः श्रमणो निग्रंन्थो नो आचारकुशलो नो.संयमकुशलो नो प्रवचनकुशलो नो प्रज्ञप्तिकुशलो, नो संग्रहकुशलो. नो उपग्रहकुशलो क्षताचारो भिन्नाचारः शवलाचारः संक्लिष्टाचारचितोऽल्पश्नुतोऽल्पागमः न कल्पते आचार्यतया उपाध्यायतया गणावच्छेदकतयोद्देष्टुम् ।। सू० ८ ॥
भाष्यम्-'सच्चेव णं' अथ स एव खलु 'अहवासपरियाए' अष्टवर्षपर्यायः अष्ट वर्षाणि पर्यायः प्रव्रज्यापर्यायो यस्य सोऽष्टवर्षपर्यायः 'समणे णिग्गंथे' श्रमणो निम्रन्थः, शेषपदानि निषेधपरकत्वेन पूर्ववद् व्याख्येयानि त्रिवर्षपर्याय-पञ्चवर्षपर्याया-ऽष्टवर्षपर्याययुक्तस्य श्रमणनिम्रन्थस्य आचारप्रकल्पादिधरस्य उपाध्यायादिपदस्थापनेऽयं निषेधपरको निष्कर्षों बोध्यः
अत्रोपाध्यायाचार्यादयो युगानुरूपा आचारपकल्पदशाकल्पव्यवहारघरादयः, तपोनियमस्वाघ्यायादिपु उद्युक्ता द्रव्यक्षेत्रकालभावोचितयतनापरायणाः तत्तत्पदयोग्या ज्ञातव्याः, तथाहि-त्रिवर्षपर्या यस्यएकमेवोपाध्यायलक्षणं स्थानमनुज्ञातं न तु द्वितीयमाचार्यत्वलक्षणं स्थानम् , यतोऽसौ अल्पपर्यायतया प्रमूतखेदसहिष्णुत्वाभावादाचार्यपदयोग्यताया अभावेन नाचार्यपदयोग्यो- भवितुमर्हतीति । पञ्चवर्षपर्यायस्य द्वे स्थाने अनुनाते, तथाहि उपाध्यायत्वमाचार्यत्वं चेति, तस्य बहुतरवर्षपर्याय
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ३ सू० २
निरुद्धपर्याययस्य पुनःक्षायामाचार्यादिपदविधिः ८५ .
तया, खेदसहिष्णुत्वशक्तिसंपन्नत्वादिति । अष्टवर्षपर्यायो विप्रकृष्टः पुनः सर्वाण्यपि, स्थानानि वोढुं शक्नोति ततस्तस्य आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं प्रवर्तकत्वं गणित्वं गणधरत्वं, गणावच्छेदकत्वं चानुज्ञातम्, तादृशस्य तस्य बहुतमवर्षपर्यायत्वेन सकलगच्छसमापतितखेदसहिष्णुत्वादिशक्तिसंपन्नत्वादिति । यतश्च तस्याष्टवर्षपर्यायस्य दीर्घकालिकेनाष्टवर्षप्रमाणेन इन्द्रियनोइन्द्रियाणि निगृहीतानि भवन्ति, बहुभिः कर्त्तव्यैश्च तस्यात्मा खल भावितो भवति, ततस्तस्य योग्यत्वेन सर्वाणि स्थानान्यनुज्ञातानि भगवतेति भावः ॥ सू० ८ ॥
पूर्वसूत्रे दीक्षापर्यायमधिकृत्याचारकुशलत्वादिगुणयुक्तस्य आचार्यादिपददानविधिरुतः, सम्प्रति, निरुद्धपर्यायस्याचार्यादिपददानविधिमाह-'निरुद्धपरियार' इत्यादि ।
सूत्रम्-निरुद्धपरियाए समणे णिगंथे कप्पइ तदिवस आयरियउवज्झायत्ताए। उद्दिसित्तए, से. किमाहु भंते !; अत्थिणं थेराणं तहारूवाणि कुलाणि कडाणि, पत्तियाणि येज्जाणि वेसासियाणि संमयाणि- सम्मुइयकराणि अणुमयाणि वहुमयाणि भवंति, तेहिं कडेहि तेहिं पत्तिएहि तेहिं थेज्जेहिं तेहि वेसासिएहि तेहिं संमएहि तेहिं संमु. इकरहिं तेहि अणुमएहि तेहिं वहुमएहिं जं से निरुद्धपरियाए समणे णिगंथे कप्पड़ आयरियउबज्झायत्ताए उदिसित्तए तदिवसं । सू०.९॥
छाया-निरुद्धपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः कल्पते, तदिवसे आचार्योपाध्यायतया उद्दे. ष्टुम् । अथ किमाहुः भदन्त ! सन्ति खल्लु स्थविराणां तथारूपाणि कुलानि, कृतानि प्रत्ययकाणि स्थैर्याणि, वैश्वासिकानि संमतानि संमुदितकराणि अनुमतानि वहुमतानि भवन्ति । तैः कृतः, तैः प्रत्ययिकैः तै, स्थैर्वः, तैर्वैश्वासिकैः तैः संमते, ते संमदितकरी तैरनुमतैः, तैर्वहुमतैः यत् स निरुद्धपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः कल्पते आचार्योपाध्यायतयोहेष्टुं तहिवसे ॥ सू० ९॥
- भाष्यम् -'निरुद्धपरियाए' निरुद्धपर्यायः, तत्र निरुद्धो विनष्टोऽतिचारादिसेवनेन । पर्यायः प्रवज्यापर्यायो यस्य,येन वा स निरुद्धपर्याय: विनष्टदीक्षापर्यायः स पुनरागत्य दीक्षितो भवेत्। तादृशः 'समणे णिग्गंथे', श्रमणो निर्ग्रन्थः एतादृशः निरुद्धपर्यायः श्रमणः 'कप्पइ! कल्पते तहिक वसं आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए' तदिवसे आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् , तत्र तस्मिन् दिवसे यस्मिन् दिवसे पुनः प्रघ्रज्यां- गृहीतवान् तस्मिन् दिवसे, पूर्वपर्यायस्तस्य प्रभूततर आसीत्, ततस्तस्मिन् दिवसे एव स कल्पते आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् , आचार्यपदे उपाध्यायपदे वा. व्यवस्थापयितुं कल्पते इत्यर्थः ।
अत्र शिष्यः-प्रश्नयति-से किमाहु भंते' अत्र 'से' शब्दोऽथशब्दार्थकः, तथा च-अथ किमाहुर्भदन्त । हेभदन्त ! किं कथं कस्मात् कारणात् भगवन्त एवमाहुर्यथा-तदिवसे एव कल्पते तस्य निरुद्धपर्यायस्याऽऽचार्योपाध्यायतया व्यवस्थापयितुम् , न खलु प्रव्रजितमात्रस्य तदिने एवा
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र ऽऽचार्यत्वादोनि आरोप्यमाणानि घटन्ते, अगीतार्थत्वात् , इति शिष्यप्रश्नः । आचार्यः प्राह'अत्थि णं' इत्यादि, 'अस्थि णं' इति सन्ति खलु 'थेराणं' स्थविराणामाचार्याणां गच्छनायकानाम् 'तहारूवाणि' तथारूपाणि आचार्यादिप्रायोग्यानि 'कुलाणि' कुलानि साधुसाध्वीश्रावकश्राविकारूपाणि 'कडाणि' तेन कृतानि गच्छप्रायोग्यतया निर्बर्तितानि संपादितानि येन यत् यथाकालं तेभ्यः तत्प्रायोग्यं भक्तादिकमुपधिश्चोपजायते, उपलक्षणमेतत्-तेन न केवलं तथारू. पाणि कुलानि कृतानि अपि तु आचार्यबालवृद्धग्लानादयोऽप्यनेकधा संग्रहोपग्रहविषयीकृताः, इत्यपि द्रष्टव्यमिति । न केवलं तथारूपाणि कुलान्येव तानि कृतानि किन्तु-'पत्तियाणि' प्रत्ययिकानि गच्छस्य प्रीतिकराणि विनययुक्तानि कृतानि । 'थेनाणि' स्थैर्याणि नैकवारं द्विवारं वा गच्छस्य प्रीतिकराणि कृतानि अपितु स्थैर्याणि अनेकवारं गच्छस्य प्रीतिकराणि विनयवैयावृत्त्यादिना स्थायित्वेन कृतानीति । अथवा स्थैर्याणि प्रीतिकरतया गच्छचिन्तायां प्रमाणभूततया स्थिरीकृतानि, यदा खलु गच्छे एव विचारणा भवेत् यत् गच्छस्य कः स्थायी प्रीतिकरः ? तदा एतान्येव कुलानि प्रमाणतया समुपस्थितानि भवन्ति । एवं गच्छचिन्तायां प्रमाणभूततया स्थिरीकृतानीति । न केवलमेतावदेव अपि तु 'वेसासियाणि' वैश्वासिकानि आत्मनः अन्येषां च गच्छवासिनां मायारहितीकृततया विश्वासयुक्तानि कृतानि । यत एव विश्वासयुक्तानि मत एव 'संमयाणि' संमतानि तेषु तेषु प्रयोजनेषु इष्टानि 'संमुइयकराणि' संमुदितकराणि जिनवचनेऽनुरागमुत्पाद्य जिनधर्मे प्रमोदकराणि कृतानि । 'अणुमयाणि' अनुमतानि यतो गच्छे बहुशः क्लेशादिषु समुत्पन्नेषु गच्छस्यानुकूलानि कृतानि, मत एव 'बहुमयाणि' बहुमतानि बहूनामनेकेषां बालवृद्धग्लानादीनाम् अतिशयत इष्टानीति वहुमतानि भवन्ति ततः 'जं से' यत् यस्मात्कारणात् स श्रमणो निर्ग्रन्थः 'तेहिं कडेहिं तेहिं पत्तिएहिं तेहिं थेज्जेहिं तेहिं वेसासिएहिं तेहिं संमएहिं तेहिं संमुहयकरेहि तेहिं अणुमएहिं तेहिं वहुमएहि तैः कृतैः, तैः प्रत्ययिकैः, तैः स्थैर्यैः, तैर्वैश्वासिकः, तैः संमतैः, तैः संमुदितकरैः, तैरनुमतैः, तैर्वहुमतैः पूर्वोक्तस्वरूपैः कुलैः गच्छप्रायोग्यकरणादिकारणात् कदाचित् तत्करणे मोहकर्मोदयात् , तत्तत्प्रसङ्गप्राप्तकारणविशेषाद्वा 'निरुद्धपरियाए' निरुद्धपर्यायः त्यक्तसंयमपर्यायो भवेत् , पुनश्च शुभकर्मोदयात् सावधानीभूय दीक्षा गृह्णीयात् एतादृशः स श्रमणो निम्रन्थः 'कप्पइ' कल्पते 'आयरियउवज्झायत्ताए' आचार्योपाध्यायतया आचार्यतया उपाध्यायतया च 'उदिसित्तए तदिवस' उद्देष्टुं तदिवसे यस्मिन् दिवसे दीक्षा गृहीता तस्मिन्नेव दिवसे स गच्छोपकारकगुणवत्त्वात् आचार्योपाध्यायपदे स्थापयितुं योग्यो भवतीति भावः ।
___ अयं भावः--येन मुनिना पूर्वदीक्षाकाले साधुकुलानि साध्वीकुलानि श्रावककुलानि श्राविकाकुलानि चेति, चतुर्विघसद्धकुलानि वहुश आचार्यगच्छादिप्रायोग्यानि कृतानि प्रीतिकरादिपदवाच्यानि कृतानि बहुशो वालवृद्धग्लानादयः संग्रहोपग्रहादिविषयीकृताः, तैः तादृशैः
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ३ ० १०-११ असमाप्तश्रुतनिरुद्धपर्यायस्याचार्यादिषदविधिः ८७ कारणकलापैः यदि कदाचित् सोऽशुभकर्मोदयात् तत्तत्सम्बन्धिकारणविशेषाद्दा निरुद्धपर्यायो भूत्वा पुनः शुभकर्मोदयादीक्षां गृह्णाति, एवं तस्य पूर्वपर्यायकाले समाचरितान् संघोपकारकगुणान् स्मृत्वा तस्य तदिवसे एव आचार्योपाध्यायपदवीं दातुं कल्पते इत्यनुज्ञातं भगवतेति न कोऽपि दोष इति शिष्यप्रश्नसमाधानमिति ॥ सू० ९ ॥
पूर्व निरुद्धपर्यायस्य पुनर्दीक्षिते सति तदिवस एवाचार्यादिपददानविधिरुक्तः, साम्प्रतं तादृशस्यैवासमाप्तश्रुतस्य तद्विधिमाह-'निरुद्धवासपरियाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-निरुद्धवासपरियाए समणे णिगथे कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उदिसितए समुच्छेयकप्पंसि तस्स णं आयारपक्रप्पस्स देसे अवढिए सेय 'अहिज्जिस्सामि'-त्ति अहिज्जेज्जा एवं से कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए, से य 'अहिज्जिस्सामि'त्ति नो अहिज्जेज्जा एवं से नो कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए तदिवस ॥ सू० १०॥
छाया-निरुद्धवर्प पर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थ. कल्पते याचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् , समुच्छेदकल्पे तस्य खलु आचारप्रकल्पस्य देशोऽवस्थितः स च 'अध्येण्यामी'-ति अधीयीत, एवं तस्य कल्पते आचार्योपाध्यायतयोद्देष्टम् । स च 'अध्येण्यामी'-ति नो अधीयीत एवं तस्य नो कल्पते आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुं तदिवसम् ॥ सू० १० ॥
भाष्यम् –'निरुद्धवासपरियाए' निरुद्धवर्षपर्यायः, निरुद्धो विनष्टो वर्षपर्यायो यस्य स निरुद्धवर्षपर्यायः । अयं भावः-त्रिषु वर्षेषु परिपूर्णेषु यस्य असमाप्तश्रुतस्य पूर्वपर्यायो निरुद्धो विनष्टो भवेत् । अथवा अपूर्णेषु त्रिपु वर्षेषु समाप्तश्रुतस्य वर्षपर्यायो निरुद्धः स्यादिति, एतादृशः 'समणे णिग्गंथे' श्रमणो निम्रन्थ 'कप्पई' कल्पते 'आयरियउवझायत्ताए उद्दिसित्तए' आचार्योपाध्यायतया आचार्यतया उपाध्यायतया वा उद्देष्टुं स्थापयितुम्, त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निम्रन्थः आचार्यतयाउपाध्यायतया वा उद्देष्टुं कल्पते इति भावः । कदा कल्पते ? इत्याह-'समुच्छेयकप्पंसि' इत्यादि, 'समुच्छेयकप्पंसि' ममुच्छेदकल्पे कल्पस्य समुच्छेदकाले आचार्ये गणनायके कालं गते सतीत्यर्थः अन्यस्य बहुश्रुतस्य लक्षणपूर्णस्य चाऽसत्त्वे तस्य भाचार्यतया उपाध्यायतया वा उद्देष्टुं कल्पते। कथं कल्पते ! इत्यत्र विधिमाह-'तस्स णं तस्य खलु प्रस्तुतश्रमणनिम्रन्थस्य यद्यपि सः भबहुश्रुतोऽस्ति किन्तु अध्ययनसमर्थो भवेत् तादृशस्य तस्य यदि 'आयारपकप्पस्स' माचारप्रकल्पस्य आचाराङ्गनिशीथाध्ययनस्य 'देसे' देश किश्चित्प्रमाणोऽश. 'अवट्ठिए' अवस्थितः-अपठितरूपेण स्थितो वर्तते, किञ्चित्प्रमाणोऽशो नाधीतः, सूत्रमधीतम् अर्थस्तु नाद्याप्यधीत इति, ‘से य' तं च
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
योऽर्थरूपोंऽशोऽवशिष्टो वर्त्तते तम् अवशिष्टमर्थरूपमंशं यदि सः 'अहिज्जिस्सामि' अध्येप्ये इति कथयित्वा यदि 'अहिज्जेज्जा' अधीयेत आचाराङ्गादेः शेषभागं पठेत् यदवशिष्टं तत् सर्व पश्चात् अध्येप्ये इत्युक्त्वा यदि तत्कालमेवाऽधीते अध्येतुं प्रारभेत तदा-‘एवं से कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए' एवं सति तस्य कल्पते तदिवसे आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुं स्थापयितुम् । यदि पुनः ‘से य अहिज्जिस्सामि त्ति नो अहिज्जेजा' तच्चावशिष्टमशम् अध्येध्ये इति कथयित्वाऽपि नो अधीयेत पठनवचनानन्तरं 'न मम तदध्ययनसामर्थं वर्तते' इति वदेत् तदा ‘एवं से नो कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए तहिवसं' एवं सति तदा तस्य नो कल्पते आचायतया वा उपाध्यायतया वा उद्देष्टुं स्थापयितुं तद्दिने तस्मिन्नेव दिवसे इति ।। सू० १०॥
पूर्वं तदिवस एवाचार्यादिपददानविधिरुक्तः, सम्प्रति कालगते आचार्योपाध्याये नवदीक्षितादिभिराचार्योपाध्यायराहित्येन न भाव्यमिति तद्विधिमाह-'निग्गंथस्स णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-णिग्गंथस्स णं नव-डहर-तरुणस्स आयरियउवज्झाए विसंभेज्जा नो से कप्पइ अणायरियउवज्झायत्ताए होत्तए, कप्पइ से पुव्वं आयरियं उदिसावेत्ता तओ पच्छा उवज्झायं, से किमाहुभंते ! दुसंगहिए समणे जिग्गथे तं जहा आय'रिएण उवज्झाएण य ॥ सू० ११ ॥
छाया-निर्ग्रन्थस्य खलु नव-डहर-तरुणस्य आचार्योपाध्यायो निष्कम्भेत् । नो तस्य कल्पते अनाचार्योपाध्यायतया भवितुम्, कल्पते तस्य पूर्वमाचार्यमुद्देशाप्य तत. पश्चात् उपाध्यायम्, अथ किमाहुर्भदन्त ! द्विसंगृहीतः श्रमणो निर्ग्रन्थ. तद्यथा आचायेणोपाध्यायेन च ॥ सू०११॥
भाष्यम्--'णिग्गंथस्स ' निर्ग्रन्थस्य खलु 'नव-डहर-तरुणस्स' नव-डहर-तरुणस्य, 'तत्र नवो नवदीक्षितः, यस्य त्रीणि वर्षाणि दीक्षापर्यायस्य व्यतीतानि भवेयुः स नव उच्यते । डहरः-जन्मपर्यायेण वर्षचतुष्टयादारभ्य यावत् परिपूर्णानि पञ्चदशवर्षाणि षोडशाद् वर्षादर्वाक् स डहरकः प्रोच्यते, ततो वर्षचतुष्टयादारभ्य परिपूर्णपञ्चदशवर्षपर्यन्तजन्मदीक्षापर्यायवानित्यर्थः । तरुणः-जन्मना पर्यायेण वा पोडशवर्षादारभ्य यावत् चत्वारिंशद्वर्षाणि तावत् स 'तरुणः प्रोच्यते, इति नवडहरतरुणेति-पदत्रयस्य व्याख्या । ततः परं यावद् एकोनषष्टिवर्षाणि तावन्मध्यमः, ततः षष्ठिवर्षादारम्य तदुपरि यावज्जीवेत्तावत् स्थविरपदवाच्यो भवतीति । तादृशंस्य नेवस्य डहरस्य तरुणस्य च 'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः आचार्यः उपाध्यायश्चेत्यर्थः । 'वीसभेज्जा' विष्कम्भेत् 'म्रियेत नवादिश्रमणानां मध्ये प्रत्येकस्य यद्याचार्यों म्रियते तदा 'नो से कप्पइ अणायरियउवझायत्ताए होतए'
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ३ सूफ ११-१२ आचार्याधनिश्रया निम्रन्थस्यावस्थाननिषेधः ८४ नो तस्य कल्पते अनाचार्योपाध्यायतया भवितुम् 'से' तस्य निग्रन्थस्य नवस्य डहरस्य तरुणस्य चाऽनाचार्योपाध्यायतया आचार्योपाध्यायविरहिततया भवितुं गणे वर्तितुं स्थातुं न कल्पते । आचायोपाध्यायरहितः सन् से गणे न वसेत् अनायकस्थितौ अनेकदोषसंभवात् तस्मात्कारणात् 'से पुत्वं आयरियं उदिसावेत्ता' स नवादिः श्रमणः पूर्व प्रथमतः आचार्य गणनायकम् उद्देश्य गणेगणनायकं स्थापयित्वा 'तओ पच्छा उवज्झायं' ततः पश्चादाचार्यस्य स्थापनाऽनन्तरम् उपाध्यायमुद्देश्य स्थापयित्वा पुनः कल्पते स्थातुमिति भावः । एवमाचार्योपाध्यायस्य विद्यमानत्तया भवितुं कल्पते । एवमाचार्यस्य वचनं श्रुत्वा शिष्यः पृच्छति-से किमाहु भंते' इति:'से किमाहु भंते' ! अथ हे भदन्त ! किं कस्मात् कारणात् भगवन्त एवमाहुः कथयन्ति यत् निर्ग्रन्थस्य नवडहरतरुणस्य आचार्यमरणे प्रथममाचार्य स्थापयित्वा तत्पश्चात् उपाध्याय स्थापयित्वा तयोनिश्रया स्थातुं कल्पते इति कथमेवम् ? तत्राऽऽचार्यः प्राह-'दुसंगहिए' इत्यादि । 'दुसंगहिए समणे णिग्गंथे' द्विसंगृहीतः श्रमणो निम्रन्थः, द्वाभ्यां संगृहीतः संरक्षित एव श्रमणो निम्रन्थः सदा भवति । श्रमणेन निर्ग्रन्थेन सदैवाचार्योपाध्याययुक्तेनैव भवितव्यम् , न तु ताभ्यां विरहितेन कदाचिदपि भाव्यमिति । काभ्यां द्वाभ्याम् ? तत्राह-'तंजहा' इति । 'तंजहा' तद्यथा"आयरिएणं उवज्झाएण य' आचार्येण उपाध्यायेन च सगृहीत एव श्रमणो निर्ग्रन्थः सदा भवतीति । ननु किमर्थमेवमुक्तम् यत् आचार्योपाध्यायरहिता नवदीक्षिता डहराः तरुणाश्च स्थातुं नार्हन्ति ? तत्राह-आचार्योपाध्यायसंरक्षणरहितानामस्वामिकानां तेषां स्वपरसमुद्भवा बहवो दोषाः समापतन्ति, तथाहि-संरक्षणरहिता बालसाधवः 'अनाथा वय-मिति कृत्वाऽन्यगणे गच्छन्ति, न शास्त्रमधीयते, प्रत्युपेक्षणादिकमपि यथासमयं न कुर्वन्ति, सयमे शिथिला भवन्ति, ययेच्छं भ्रमन्ति;गृहस्थपर्याये वा गच्छेयुः, इत्यादिस्वसमुद्भवा दोषा इति । परसमुद्भवा दोषा यथा-पार्श्वस्थादयो गृहस्थाः परतीथिका वा क्षुल्लकान् 'अस्वामिका एते' इति कृत्वा तद्गच्छाद् निष्क्रामयेयुः, ततः पार्श्वस्थास्तान पार्श्वस्थत्वे परिणमयन्ति, गृहस्थास्तान् गृहस्थपर्याये परिणमयन्ति; अन्यतीर्थिकाः अन्यतीथिकान् कुर्वन्ति, इत्यादिका बहवो दोषा नवानां विषये समुत्पद्यन्ते । तथा डंहराणामिमे दोषाः-'अनाथा वयं जाताः' इति मनस्याघातेन क्षिप्तचित्ता भवन्ति, स्तेना वा स्वपक्षे परपक्षे चोत्तिष्ठन्ति, ते तान् विपरिणमय्य हरन्ति, अन्यत्र नयन्ति, अपरिपक्ववुद्धित्वेन परीपहैः वित्नाः संयमे कम्पमाना भवेयुरन्यत्र वा स्वयं गच्छन्तीत्यादयः डहरदोषाः। तरुणानां तु दोषकलापसभवः, तारुण्यस्य तथास्वभावात् , तथाहि-न वर्ततेऽस्माकमाचार्य उपाध्यायो वा, स्वतन्त्रा वयमिति बुद्धया न संयम सुचारुतया परिपालयन्ति, गृहस्थैः सह राजकथादिकां चतुर्विधां विकथा यथेच्छं कुर्वन्ति, न यथासमयं प्रतिलेखनादिक्रियां कुर्वन्ति, आचार्यादिपदपिपासया वाऽन्यत्र गमनं
व्य. १२
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे कुर्वन्ति, संयमयोगे सीदतां संयमाध्वनि अप्रवर्त्तमानानामपमाभ् भवति तेनाऽधर्मश्रद्धाका भूत्वा गणादपक्रम्य स्वच्छन्दाः परिभ्रमन्ति । केचित्तरुणाः आचार्यपिपासया नास्माकमाचार्यमन्तरेणानुत्तरो ज्ञानदर्शनचारित्रलाभो भवति तस्मादवश्यमस्माभिरन्याचार्यसमीपे वर्तितव्यमित्याचार्यलाभवाञ्च्या तेऽप्यन्यत्र गच्छेयुः । केचिद्धर्मश्रद्धालवोऽपि स्मारणावारणादिकत्र्तरभावे गच्छान्तरं गच्छेयुरित्यादयस्तरुणदोषाः । तथा मध्यमाः स्थविराश्च केचिदेवं चिन्तयेयुः-यथा सर्वकालमद्यप्रभृति वयं गुरुभिः श्रावकैर्वा मानिता आसन्, सम्प्रति गुरूणामभावे नास्त्यन्यः कोऽपि अस्माकमादरसकारकारकः, श्रावकेप्वपि न मानं लप्स्यामः, इति चिन्तयित्वा स्वापमानभयादन्यत्र गच्छेयुः । यस्मादेते दोषास्तस्मात् नवडहरतरुणैः मध्यमैः स्थविरैश्च साधुभिराचार्योपाध्यायरहितैर्न स्थातव्यम्, अत एव सूत्रे प्रोक्तम्-'नो से कप्पइ अणायरियउवज्झायत्ताए होत्तए' इति ।। सू० ११ ।।
पूर्व निर्ग्रन्थमधिकृत्य नवडहरतरुणसूत्रं कथितम् , सम्प्रति निम्रन्थीमधिकृत्य तदेवाह-णिग्गंथीए णं' इत्यादि।
सूत्रम्-णिग्गंधीए णं नवडहरतरुणीए आयरियउवज्झाए वीसं भेज्जा नो से फप्पई अणायरियउवज्झायत्ताए होत्तए, कप्पइ से पुवं आयरियं उदिसावेत्ता तओ उवझायं, तओ पच्छा पवित्तिणिं, से किमाहु भंते ! तिसंगहिया समणी निग्गंधी तं जहा आयरिएणं उवज्झाएणं पवित्तिणीए य ॥ सू० १२ ॥
छाया-निग्रंन्ध्याः खलु नवडहरतरुण्याः आचार्योपाध्यायो विष्कम्मेत् नो तस्याः कल्पते अनाचार्योपाध्यायतया भवितुम्,कल्पते तस्याः पूर्वमाचार्यमुद्दिशाप्य तत उपाध्यायम्, ततः पश्चात् प्रवर्तिनीम् । अथ किमाहु भदन्त ! त्रिसंगृहीता श्रमणी निग्रंथी तद्यथामाचार्येण उपाध्यायेन प्रवर्तिन्या च ।। सू० १२ ॥
भाष्यम्-'णिग्गंधीए णं' निग्रन्थ्याः खलु 'नवडहरतरुणीए' नवडहरतरुण्याः तत्रनिर्ग्रन्थसूत्रोकस्वरूपाया नवाया डहरायास्तहण्याश्च-'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः आचार्यसहित उपाध्यायः-आचार्य उपाध्यायश्च 'वीसंभेज्जा' विष्कम्भेत्, विश्वग्भवेद्वा कदाचिद् म्रियेत कालगतो भवेत् तदा 'नो से कप्पई' नो तस्याः नवडहरतरुण्याः कल्पते 'अणायरियउवज्झायत्ताए होत्तए'अनाचार्योपाध्यायतया, आचार्योपाध्यायरहिततया उपलक्षणमेतत् तेन प्रवर्तिनीरहिततया चापि न कल्पते गणे स्थातुमिति । किन्तु -'कप्पइ से पुव्वं आयरियं उदिसावेत्ता' कल्पते तस्याः पूर्व प्रथमम् आचार्य गणनायकमुदिशाप्य स्थापयित्वा 'तओ उवज्झायं' तत आचार्यस्थापनानन्तरम् उपापाध्यायमुद्देशाप्य स्थापयित्वा 'तओ पच्छा पवित्तिर्णि' ततः पश्चात् आचार्योपाध्यायस्थापनात् परं प्रवर्तिनी स्थापयित्वा । ततः एतेषां स्थापनानन्तरं नवडहरतरुण्या निर्ग्रन्ध्याः गणे स्थातुं कल्पते, नाऽन्यथा । शिष्यःप्राह-से किमाहु मते' अथ कस्मात् कारणाद् भदन्त । एवं कथ्यते
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ३ २०१२-१३ आचार्याद्यनिश्रया:निन्थ्या अवस्थाननिषेधः ९१ यदाचार्यादीनां संस्थापनानन्तरमेव निर्ग्रन्थ्या गणेऽवस्थानं कल्पते ? इति शिष्यस्य प्रश्नः । आचार्यः प्राह-'तिसंगहिया समणी निग्गंथी' त्रिसंगृहीता श्रमणी निर्ग्रन्थी, त्रिभिः संगृहीता संरक्षिता श्रमणी निर्ग्रन्थी भवति । कैस्त्रिमिः संगृहीता भवति ? तत्राह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहाआयरिएणं उवज्झाएणं पवित्तिणीए य' तद्यथा-आचार्येण उपाध्यायेन प्रवर्त्तिन्या च आचार्यादीनां त्रयाणां संरक्षणे एव श्रमणीनिर्ग्रन्थीभिरवस्थातव्यमिति । ननु किं कारणमत्र यन्निम्रन्थी त्रिभिः संगृहीता भवति ? अत्राह-आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीरहितायाः स्वपरसमुद्भवा बहवो दोषाः समापतन्ति, तत्र स्वसमुद्भवा दोषा यथा-सरक्षकरहितास्ताः स्वच्छन्दत्वेन स्त्रीस्वभावाद् राजकथादिविकथां कर्तुं प्रवर्तन्ते तेन तासां संयमघातसंभवः । क्रीडाकन्दर्पोद्रेकोत्पादिनी वाक्कायचेष्टां वा कुर्वन्ति, बकुशत्वं शरीरोपकरणविभूषाकरणरूप प्राप्नुवन्ति, इत्याद्यनेके दोषाः समापतन्ति । परसमुद्भवा दोषा यथा-अनायकां निर्ग्रन्थीं विज्ञाय कोऽपि असंयतः पुरुषः स्त्रियो हृदयसौकुमार्यात् तन्मनो विपरिणमय्य तस्या हरणं करोति, तां नीत्वा मातापित्रोर्वा समर्पयति, मातापित्रादयस्तां गृहस्थवेषां कुर्वन्ति । नारीशरीरस्य पुरुषलुब्धकत्वान्न नारी स्ववशा भवितुमर्हति । उक्तश्च--
"जाया पितिवसा नारी, दत्ता नारी पतिव्वसा ।
थेरा पुत्तवसा नारी, नस्थि नारी सयंवसा" इति ॥ छाया-जाता पितृवशा नारी, दत्ता नारी पतिवशा ।
स्थविरा पुत्रवशा नारी, नास्ति नारी स्वयंदशा ॥ इति । . उक्तश्चान्यदर्शनेऽपि
"पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने । पुत्रश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति" ॥ इति ।
अतो निर्ग्रन्ध्या अनाचार्योपाध्यायप्रवर्त्तिन्या न कदाचिदपि भाव्यम् । अत्राऽऽचार्योपाध्यायसंग्रहे इमे गुणाः, तथाहि-यद्यपि आचार्य उपाध्यायो वा संयतीनां दूरेऽपि वर्तते तथापि दूरस्थस्यापि पुरुषस्य गौरवेण भयेन वा न कोऽपि संयतीनाम् उपसगै करोति यदिमा अमुकस्याऽऽचार्यस्योपाध्यायस्य वा संयत्यो वर्तन्ते इति बुद्धया, प्रत्युत स्वपक्षे परपक्षे वा सुबहुमानं तासां जायते-यदिमा अमुकाचार्योपाध्यायस्याऽऽज्ञावर्त्तिन्यः संयत्यः शुद्धसयम पालयन्ति अतो बहुमानयोग्या एता इति । अथवा आचार्योपाध्यायभयतस्तासु न काचिदपि संयती आचारक्षति कत्तं शक्नोति । यदि आचारक्षति कत्तुं प्रवृत्ता भवेत्तदा तृतीया संग्राहिका प्रवर्तिनी तां सावप्टम्भं शिक्षयति-'यद्येवं करिष्यसि तदाऽहमाचार्यस्य उपाध्यायस्य वा समीपे कथयिष्यामीति लोकमयेन धर्मभयेन च सा न तथा करोति प्रवतिन्या आज्ञायां तिष्ठति, इत्यादयस्त्रिसंग्रहेऽवस्थाने
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र
निग्रन्ध्या वहवो गुणाः भवन्तीत्यतो निर्ग्रन्ध्या आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीसहितयैव स्थातव्यं न तद्हितयेति भावः ।। सू० १२ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थनिन्धीभिराचार्यादिनिश्रां विना न स्थातव्यमिति प्रोक्तम्, साम्प्रतं गणान्निर्गत्य प्रतिसेवितमैथुनस्याचार्यादिपददाने विधिमाह-'भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म मेहुणं पडिसेवेज्जा तिणि संवच्छराणि तस्य तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स णिबिगारस्स, एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयत्त वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० १३ ॥
___ छाया-भिक्षुश्च गणादवक्रम्य मैथुन प्रतिसेवेत त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्त्पत्यय नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, त्रिपु संवत्सरेपु व्यतिक्रान्तेपुचतुर्थे संवत्सरे प्रथिते स्थितस्य उपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्थ निर्विकारस्य, एवं तस्य कल्पते आचार्यत्व वा यावत् गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० १३ ।।
भाष्यम्-'भिक्खू य' भिक्षुश्च ‘गणाओ' गणात् स्वकीयगच्छात् 'अवक्कम्म' अवक्रम्य गणाद्वहिनिःसृत्य साधुवेषं त्यक्त्वेत्यर्थः 'मेहुणं' मैथुनं 'पडिसेविज्जा' प्रतिसेवेत मोहनीयकर्मोदयतो मैथुनप्रतिसेवनं कृतवानित्यर्थः, ततः पश्चात् शुभकर्मोदयाद्भावविपरिणामेन पुनदीक्षागृह्णाति तदनन्तरम् 'तिणि संवच्छराणि' त्रीन् संवत्सरान् दीक्षादिवसादारभ्य त्रिसंख्यकानिवर्षाणि यावत् 'तस्स तप्पत्तियं तस्य पुतर्गृहीतसंयमस्य श्रमणस्य तत्प्रत्ययिक मैथुनसेवनकारणकं मैथुनसेवनापराधजनितं कारणमाश्रित्येत्यर्थः 'नो कप्पई' नो कल्पते 'आयरियत्तं वा आचायत्वं वा आचार्यस्य गणनायकस्य यत्पदं स्थानं तहा 'जाव गणावच्छेयगत्तं वा यावत् गणावच्छेदकत्वं वा गणावच्छेदकस्य पदमित्यर्थः, अत्र यावत्पदेन उपाध्यायत्वस्य प्रवर्तकत्वस्य स्थविरस्य गणिनो गणधरस्य च संग्रहो भवतीति तेनाचार्यादारम्यगणावच्छेदपदपर्यन्तं किमपि पदं तस्य दावा धत्त वा न कल्पते इत्यग्रेण सम्बन्धः। तत्राचार्यः-यो जघन्यतोऽष्टवर्षप्रवज्यापर्योयः श्रमणो निर्ग्रन्थः आचारकुशलः संयमकुशलः प्रवचनकुशलः प्रज्ञप्तिकुशल. संग्रहकुशलः उपग्रहकुशलोऽक्षताचारोऽभिन्नाचारोऽशबलाचारोऽसंक्लिष्टाचारो वहुश्रुतो बहागमो जघन्येन स्थानसमवायधरः उत्कर्षेण द्वादशाङ्गः धरः स आचार्यः १ । उपाध्यायस्तु यः सूत्रपाठकः स. २। प्रवर्तकस्तु य आचार्यकथनानुसारेण वैयावृत्यविषयेसाधून प्रवर्त्तयति स प्रवर्तकः कथ्यते ३ । यः संयमे सीदतः श्रमणान् स्थिरीकरोति उपदेशादिप्रदानेन स स्थैर्यसंपादनात् स्थविर इति कथ्यते ४ । गणी तु स भवति यः सूत्रमर्थ
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ३ सू० १३-१५ . मैथुनसेविभिक्षुकादेः पुनरागमने पददानविधिः ९३ च भाषते सूत्रार्थयोरुपदेष्टा गणी भवति ५। गणधरः गणस्य स्मारणावारणाकारकः ६। गणावच्छेदकस्तु यः परमादिशति, श्रमणसमुदायस्य गणवासिनः संरक्षणं करोति, तथा साधुसमुदाय गृहीत्वा तदाधाराय नवीनक्षेत्रस्योपध्युपकरणादीनां च गवेषणार्थमन्यान्यजनपदे सम्यक् विहृत्य गच्छार्थमवग्रहोपग्रहादिकं करोति स गणावच्छेदकः कथ्यते ७ । एतत् पूर्वोक्तं सर्वमाचार्यादिपदसमूहम् 'उदिसित्तए वा धारित्तए वा' उद्देष्टुं वा अनुज्ञातुमित्यर्थः धारयितुं वा तस्य स्वयं धारयितुं वा नो कल्पते इति किन्तु-तिहिं संवच्छरेहिं' अत्र तृतीया सप्तम्यर्थस्य धोतिका ततश्च पुनर्गृहीतदीक्षापर्यायस्य त्रिषु वर्षेषु 'वीइक्कंते हिं' व्यतिक्रान्तेषु गतेषु वर्षत्रयेष्वित्यर्थः यस्मिन् दिने पुनर्दीक्षां गृहीतवान् तदिवसादारम्य यावत्पर्यन्तं वर्षत्रयं परिसमाप्तं भवेत् इति भावः 'चउत्थगंसि संवच्छ रंसि' चतुर्थे संवत्सरे ‘पट्ठियंसि' प्रस्थिते संप्राप्ते चतुर्थे वर्षे प्रवतितुमारब्धे सति 'ठियस्स' स्थितस्य स्थितपरिणामस्य, पुन. किंविशिष्टस्य ? तत्राह-'उवसंतस्सं' उपशान्तस्य उपशान्तवेदोदयस्य, तच्चोपशान्तत्व मैथुनविषयकप्रवृत्तिप्रतिषेधमात्रेणोपि संभवति तत्राह-'उवरयस्स' उपरतस्य मैथुनाभिलाषात् प्रतिनिवृत्तस्य, मैंथुनाभिलाषप्रतिनिवृत्तत्वं तु दाक्षिण्यवशमात्रतोऽपि भवितुमर्हति तत आह-'पडिविरयस्स' प्रतिविरतस्य प्रति-मैथुनाभिलाषप्रातिकल्येन विरतः तद्विषयकविरतिमान् इति प्रतिविरतः तस्य, प्रतिविरतस्य, एतादृशप्रतिविरतत्वं विकाराऽदर्शनमात्रेणापि सभवेत् तत्राह-णिविगारस्स' निर्विकारस्य लेशतोऽपि मैथुनाभिलाषविकाररहितस्य श्रमणस्य ‘एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा' एवं पूर्वोक्तप्रकारके श्रमणे ज्ञाते सति चतुर्थवर्षारम्भे 'वस्तुतोऽयं पूर्वोक्तगुणविशिष्टो जातः' इति निर्णये सतीत्यर्थः तस्य ताहशस्य उपशान्तत्वादिगुणयुक्तस्य श्रमणस्याऽऽचार्यत्वं वा 'जाव गणावच्छेयगत्तं वा' यावत् उपाध्यायत्वं वा प्रवर्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणघरत्व वा गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा' उद्देष्टुं वा समनुज्ञातुं वा 'धारित्तए वा' स्वयं वां धारयितुं तस्य कल्पते ॥ सू०१३ ॥
साम्प्रतमपरित्यक्तगणावच्छेदकपदस्य मैथुनसेवने आचार्यादिपदस्य निषेधसूत्रमाह-'गणावच्छेयए' इत्यादि ।
सूत्रम्- गणावच्छेयए गणावच्छेयगत्तं अनिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तिय नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० १४॥
__ छाया-गणावच्छेदको गणावच्छेदकत्वमनिक्षिप्य मैथुनधर्म प्रतिसेवेत यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्व या उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ।। सू० १४ ॥
भाष्यम्-'गणावच्छेयर' गणावच्छेदकः गणस्य साघुसमुदायस्य धारकः 'गणावच्छेयगत्त' गणावच्छेदकत्वं स्वस्य गणावच्छेदकपदवीम् 'अनिक्खिविता' अनिक्षिप्याऽपरित्यज्य गणावच्छे
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहार दकपदयुक्त एव साघुवेषेणैवेत्यर्थः 'मेहुणधम्म पडि सेवेज्जा' मैथुनधर्म प्रतिसेवेत तदा 'जावज्जीवाए' यावज्जीव जीवनपर्यन्तं 'तस्स' तस्य शुभकर्मोदयात् पुनर्गृहीतदीक्षस्य 'तप्पत्तियं' तत्प्रत्ययिकं तत्कारणम् तत्कारणमाश्रित्येत्यर्थः 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'आयरियतं वा' आचार्यत्वं वा 'जाव गणावच्छेयगत्तं वा' यावत् उपाध्यायत्वं प्रवर्तकत्वं स्थविरत्वं गणित्वं गणघरत्वं गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा 'धारित्तए वा' स्वयं धारितुं वा नो कल्पते । मैथुनसेवनाऽनन्तरं पुनर्दीक्षितस्याऽयं विधिर्विज्ञेय इति भावः ॥ सू० १४ ॥
त्यक्तगणावच्छेदकपदस्य मैथुनसेवने अचार्यादिपददानविधिमाह-‘गणावछेयए' इत्यादि ।
सूत्रम्-गणावच्छेयए गणावच्छेयत्त निक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, तिर्हि संवच्छरेहिं वीइतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्टियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ।। सू० १५ ॥
छाया-गणावच्छेदको गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्य मैथुनधर्म प्रतिसेवेत त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रत्ययितं नो कल्पते आचार्यत्व वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारियितु वा त्रिपु संवत्सरेषु व्यतिक्रान्तेषु चतुर्थक संवत्सरे प्रस्थिते स्थितस्योपशान्तस्योपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्व वा उद्देष्टुं वा धारयितु वा ।। सू० १५ ॥
भाष्यम्-'गणावच्छेयए' गणावच्छेदकः ‘गणावच्छेयगत्तं' गणावच्छेदकत्वं स्वकीय गणावच्छेदकपदं 'निक्खिविता' निक्षिप्य मुक्त्वा अन्यस्मै दत्वा गृहस्थवेषेणेत्यर्थः 'मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा' मैथुनधर्म प्रतिसेवेत, कश्चित् गणावच्छेदको गणावच्छेदकत्वं स्वकीयं पदं परित्यज्य ततो मैथुनधर्म प्रतिसेवेत तदा तस्य पुनर्दीक्षितस्य 'तिणि संवच्छराणि' त्रीणि संवत्सराणि पुनर्दीक्षाग्रहणानन्तरं तद्दिवसादारभ्य वर्षत्रयं यावत् । शेषं सर्वं त्रयोदशभिक्षुसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू०१५॥
गणावच्छेदकस्य स्वपदसहितासहितभेदेन मैथुनसेवने आचार्यादिपदाऽदानदानविषयकं सूत्रद्वयं कथितम् , संप्रति अचार्योपाध्याययोरपि विषये तदेव सूत्रद्वयं व्याख्यातुं प्रथममनिक्षितपदविषयकं सूत्रमाह –'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम् -आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं अनिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उद्दिसिचए वा धारित्तए वा ॥ सू० १६ ।।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ३ सू० १६-१८
अवधावितभिक्षुकादेः पुनरागमने पदविधिः ९५
छाया-आचार्योपाध्याय आचार्योपाध्यायत्वम् अनिक्षिप्य मैथुनधर्म प्रतिसेवेत यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावत् गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टु पा धारयितुं वा ॥ सू० १६॥
भाष्यम्-'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः, आचार्यश्च उपाध्यायश्चेत्यर्थः 'आयरियउवज्झायत्तं' आचार्योपाध्यायत्वम् , आचार्यपदमुपाध्यायपदं च 'अनिक्खिवित्ता' अनिक्षिप्य अपरित्यज्यैव । इत्यादि सर्वं गणावच्छेदकस्य चतुर्दशसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० १६॥
आचार्योपाध्यायपदसहितस्याचार्यादिपददानविषयकं सूत्रं व्याख्याय साम्प्रतं त्यक्ततत्पदस्य तद्विधिमाह-'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं निक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइकंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पहियंसि ठियस्स उपसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स णिव्विगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० १७॥
छाया-आचार्योपाध्याय अचार्योपाध्यायत्वं निक्षिप्य मैथुनधर्म प्रतिसेवेत त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टु धारयितुवा, त्रिपु संवत्सरेपु व्यतिक्रान्तेषु चतुर्थके संवत्सरे प्रस्थिते स्थितस्य उपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं पा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुवा धारयितुं वा ॥ सू० १७ ॥
भाष्यम् -'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः, आचार्यश्चोपाध्यायश्चेत्यर्थः । 'आयरियउवज्झायत्तं निक्खिवित्ता' आचार्यत्वमाचार्यपदवीम् उपाध्यायत्वमुपाध्यायपदवीं च निक्षिप्य परित्यज्य गृहस्थो भूत्वेत्यर्थः 'मेहुणधम्म' मैथुनधर्म ‘पडिसेवेज्जा प्रतिसेवेत । इत्यादि शेषं सर्वं त्रयोदशभिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० १७ ॥
पूर्व मैथुनधर्मसेवनविषयाणि पश्च सूत्राणि, तत्र भिक्षुविषयकमेकं, गणावच्छेदकस्य स्वपदाऽत्यागत्यागविषयक सूत्रद्वयम्, एवमाचार्योपाध्यायस्य तादृशमेव सूत्रद्वयम् , एवं पञ्च सूत्राणि व्याख्याय साम्प्रतमनेनैव प्रकारेणाऽवधावनविषयाणि भिक्षुकादीनां पश्च सूत्राणि प्रोच्यन्ते, तत्र प्रथमं भिक्षुसूत्रमाह-'भिक्खु य' इत्यादि।
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
सूत्रम् - भिक्खु य गणाओ अवक्कम्म ओहायइ, तिष्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पड आयरियच वा जात्र गणावच्छेयगतं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा, तिहिं संचरेहि astiहिं वत्थगंसि संच्छरंसि पडियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पढिवरस निव्विगारस्प एवं से कप्पड आयरियतं वा जाब गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥ सू० १८ ॥
९६
छाया - भिक्षुच गणादवक्रस्याऽवधावति, त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, त्रिषु संवत्सरेषु व्यतिक्रान्तेषु चतुर्थके संवत्सरे प्रस्थिते स्थितस्योपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गुणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० १८ ॥
1
तत्र
भाष्यम् – 'भिक्खू य' भिक्षुच 'गणाओ अवक्कम्म' गणाद् अवक्रम्य 'ओहाय ' अदवावति–‘अहं वेदोदयं धारयितुं न शक्नोमि गणस्थितेन मया मैथुनसेवनं न कर्त्तव्यं प्रवच नोहादिसद्भावात् मा भवतु प्रवचनोडाहः, अत्राहं साधुवेषेण विहरन् धर्मकथाप्रबन्धादिरनेकशः कृत इति अत्र निवासिनो जना मां जानन्ति देशान्तरे च सुखेन मैथुनं सेविष्ये" इति बुद्ध्या सदोरकमुखवस्त्रिकारजोहरणादिरूपं द्रव्यलिङ्गं परित्यज्य मैथुनसेवनभावनया देशान्तरं गच्छति, मैथुनधर्म प्रतिसेवते तनः कदाचिद्वेदोपशमनानन्तरं शुभकर्मोदयात् पुनरागत्य दीक्षां गृहीत्वा संयतो भवेत्तदा 'तस्' तस्य उपशान्तवेदस्य पुनर्दीक्षितस्य 'तिण्णि संवच्छराणि' त्रीणि संवत्सराणि यदि संयमी गृहीत विमादारभ्य वत्रयं यावत् 'तप्पत्तियं' तत्प्रत्ययिकम् अवधावनकारणकम् अववावनकारणमाश्रित्येत्यर्थः 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'आयरियतं वा जाव गणावच्छेवगतं वा आचार्यत्वं वा यावत् उपाध्यायवं वा प्रवर्त्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणपरत्वं वा गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दित्तिए वा' उद्देष्टुम् अनुज्ञातुं वा 'धारितए वा' धारयितुं वा । इत्यादि सर्वमधुन प्रतिसेवनविपयकत्रयोदशभिक्षुमूत्रवदेव व्याख्येयम् || सू० १८ ॥ विषय सूत्रमुक्वा सम्प्रति पदवीस हितावधावनविपयकं गणावच्छेदकसूत्रमाह-'गगावच्छेयम्' इत्यादि ।
सूत्रम्- गणावच्छेयर गणावच्छेयगचं अनिविखवित्ता ओहाएज्जा जावज्जीवाए तम् पनियो पर आयरियत्तं वा जाव गणात्रच्छेयगतं वा उद्दिसित्तए वा धारि
राए वा ॥ १९ ॥
चाया - गावच्छेदको गणावच्छेदकत्वं यनिक्षिप्यावद्यावेत् यावज्जीवं तस्य तत्प्रकिन बन्पते जाना या बाबद गणावच्छेदकत्वं या उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू १९ ॥
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ३ सू० १९-२२
अवधावितस्य पुनरागमने पदानविधिः ९७
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm भाष्यम् -'गणावच्छेइए' गणावच्छेदकः 'गणावच्छेयगत्त' गणावच्छेदकत्वम् - गणावच्छेदकपदवीम् 'अनिक्खिवित्ता' अनिक्षिप्य अपरित्यज्य साधुवेषेणैवेत्यर्थः 'ओहावेज्जा' अवधावेत् मैथुनार्थ देशान्तरं गच्छेत् , गत्वा च तद्वेपेणैव मैथुनं प्रतिसेवते, प्रतिसेव्य पुनरागत्य दीक्षां गृह्णाति तदा 'जावज्जीवाए तस्स' यावज्जीवं जोवनपर्यन्तं तस्य तादृशस्यावधावितस्य पुनगृहीतदीक्षस्य 'तप्पत्तियं' तत्प्रत्ययिक मैथुनार्थमवधावनकारणकम् 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'आयरियत्तं वा उवज्झायत्तं वा । इत्यादि सर्वं पूर्वोक्तपदवोसहितमैथुनधर्मसेविगणावच्छेदकसूत्रचतुर्दशवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० १९ ॥
सम्प्रति त्यक्तपदवीकगणावच्छेदकस्यावधावनसूत्रमाह-'गणावगच्छेयए' इत्यादि ।
सूत्रम् -गणावच्छेयए गणावच्छेयगत्तं निक्खिवित्ता ओहाएज्जा तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदि सित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं बीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्टियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स परिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० २०॥
छाया-गणावच्छेदको गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्याऽवधावेत् त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्व वा उद्देष्टुं वा धारयितं वा, त्रिपु संवत्सरेपु व्यतिक्रान्तेपु चतुर्थ के संवत्सरे प्रस्थिते स्थितस्य उपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० २० ॥ __ भाष्यम्-'गणावच्छेइए' गणावच्छेदकः गणावच्छेयगत्तं गणावच्छेदकत्वं गणावच्छेदकपदवीम् 'निक्खिवित्ता' निक्षिप्य परित्यज्य 'ओहावेज्जा' अवधावेत् मैथुनसेवनार्थ देशान्तरं प्रत्यवधावनं कुर्यात, तत्र मैथुनं प्रतिसेवते इति भावः । प्रतिसेव्य च शुभकर्मोदयात् पुनः प्रत्यावृत्य दीक्षितो भवेत् , तदा तस्य 'तिण्णि सवच्छराणि' त्रीणि संवत्सराणि, इत्यादि सर्व पदवीपरित्यागपूर्वकमैथुनसेविगणावच्छेदकपश्चदशसूत्रवद् व्याख्येयम् ।। सू० २०॥
__ पूर्व पदवीसहितपदवीपरित्यागपूर्वकावधावकगणावच्छेदकविषयकं सूत्रद्वयमुक्त्वा सम्प्रति तद्विषयकमेवाऽऽचार्योपाध्याय-सूत्रद्वयमुच्यते, तत्र प्रथम पदवीसहितावधावनविषयकमाचार्योपाध्यायसूत्रमाह-'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम्- आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्त अनिक्खिवित्ता ओहाएज्जा जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० २१ ॥
व्य. १३
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसम
छाया-आचार्योपाध्यायः आचार्योपाध्यायत्वनिक्षिप्य अवधायेत् यावज्जोवं तस्थ तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा उपाध्यायत्वं वा यावद् गणावच्छेदकत्व घा उद्देष्टुं वा धारयितु वा ॥ सू० २१ ॥
भाष्यम्-'आयरिय उवज्झाए' आचार्योपाध्यायः, आचार्यश्च उपाध्यायश्च 'आयरिय उवज्ञायत्तं अनिक्खिवित्ता' आचार्यत्वमाचार्यपदवीम्, तथा उपाध्यायत्वमुपाध्यायपदवीम् अनिक्षिप्याऽपरित्यज्य 'ओहाएज्जा' अवधावेत् तदा यावज्जीवं तस्य नो कल्पते आचार्योपाध्यायत्वमुद्देष्टुं वा धारयितुं वेति अनिक्षिप्तपदवीकमैथुनसेव्याचार्योपाध्यायषोडशसूत्रवद् व्याख्या कर्त्तव्येति ॥ सू०२१ ॥
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्त निक्खिवित्ता ओहाएज्जा तिण्णि संबच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहि चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्टियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडि विरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरित्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं चा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू०२२॥
छाया-आचार्योपाध्यायः आचार्योपाध्यायत्वं निक्षिप्य अवधावेत् त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उहेष्टुं वा धारयितुं वा, त्रिपु संवत्सरेपु व्यतिक्रान्तेपु चतुर्थक संवत्सरे प्रस्थिते स्थितस्य उपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावत् गणावच्छेद कत्वं चा उद्देष्टु वा धारयितुं वा ॥ सू० २२॥
भाष्यम्-'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्याय', आचार्यः उपाध्यायश्च 'आयरियउवज्झायत्तं' आचार्योपाध्यायत्वम् आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं च, स्वकीय पदमाचार्यादिपदम् तत् 'निक्खिवित्ता, निक्षिप्य परित्यज्य 'ओहाएज्जा' अवधावेत् । शेष सर्व निक्षिप्तपदमैथुनसेव्याचार्योपाध्यायसप्तदशसूत्रवद् व्याख्येयम् ।
स्वपदस्यानिक्षेपणे निक्षेपणे च गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायविषये अजापालकदृष्टान्तद्वयं यथा-एकोऽजापालकः स्वकीयमजावर्ग कस्मै असमर्प्य गतः तस्याजावर्गश्चोरेण चोरितः । स पुनरावृत्तो यावजीवं सोऽजावगं न लब्धवान् । अन्योऽजापालकः स्वकीयम् अनावर्ग कस्मै समर्प्य गतः । ततः प्रतिनिवृत्तेन तेन यथावस्थितोऽजावर्गो लब्धः। एवं गणावच्छेदकाचार्योपाच्यायविषयेऽपि भावनीयम् । अत्र मैथुनधर्मप्रतिसेवनमधिकृत्य पञ्च सूत्राणि सन्ति, तत्रैकं सूत्र सामान्येन भिक्षुविषयकम् १ । गणावच्छेदकपदापरित्यागमधिकृत्यैकं गणावच्छेदकसूत्रम् २ । स्वपदपरित्यागमधिकृत्य द्वितीयं गणावच्छेदकसूत्रम् ३ एवमेव आचार्योपाध्यायसूत्रद्वयं पदाऽपरि
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ३ ० २३-२५
बहुशो मायामृवादिसेवने आचार्यादिपदनिषेधः ९९ त्यागपरित्यागपरकमिति पञ्च सूत्राणि मैथुनसेवनविषयाणि सन्तीति ५ । एवमेवाऽवधावनमधिकृत्यैकं भिक्षुसूत्रम् १, पदाsपरित्यागपरित्यागमाश्रित्य गणावच्छेदकसूत्रद्वयम् ३, आचार्योपाध्यायसूत्रद्वयं चेत्यवधावनपरकाणि पञ्चसूत्राणि ५ । एवं दश सूत्राणि त्रयोदशसूत्रादारम्य द्वाविंशतिसूत्रपर्यन्तानि प्रायः समानव्याख्यानानि सन्तीत्यवधेयम् । अयं भावः - स्वपदाऽनिक्षेपणसूत्रद्विके गणावच्छेदका - चार्योपाध्यायाः प्रत्यागता अनर्पिताजावर्गाजापालकवत् यावज्जीवमाचार्यादिपदानामन एव । स्वपदनिक्षेपणसूत्रद्वये तु अर्पिताजावर्गाजापालकदृष्टान्तेन पूर्वोक्तप्रकारेण त्रिसंवत्सरातिक्रमे आचार्यादिपदानां योग्याः भवन्तीति ॥ सू०२२ ॥
पूर्वमवधावनमधिकृत्य भिक्षुप्रभृतीनि पञ्च सूत्राणि व्याख्यातानि साम्प्रतं मायादियुक्तबहुश्रुतवह्नागमभिक्षुगणावच्छेदकाचार्योपाध्याय विषयाणि सप्त सूत्राणि वक्ष्यन्ते, तत्रैषामेवैकवचनमाश्रित्य त्रीणि सूत्राणि ३ । एवं बहुवचनमाश्रित्य त्रीणि सूत्राणि ६ । तथा एषामेव समुच्चयेन बहुवचनमाश्रित्यैकं सूत्रम् ७ । एवं सप्त सूत्राणि कथयिष्यन्ते तत्र सप्तसु सूत्रेषु प्रथममेकवचनेन भिक्षुसूत्रमाह-- ' भिक्खु य वहुस्सुए' इत्यादि ।
सूत्रम् - भिक्खू य बहुस्सु वन्भागमे बहुसो बहुसु आगाढाग । देसु कारणेसु भाई मुसावा असुई पापजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणात्रच्छेयगत्तं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा ।। सू० २३||
छाया - भिक्षुश्च बहुश्रुतो बह्नागमः बहुशो बहुपु आगाढागाढेषु कारणेषु मायी मृषावादी अशुचिः पापजीवी यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टु वा धारयितुं वा ॥ सू० २३ ॥
भाष्यम् – 'भिक्खू य' भिक्षुश्च 'बहुस्सुए' बहुश्रुतः बहु - अधिकं श्रुतं सूत्रमभ्यासेयस्य स बहुश्रुतः अनेकप्रकारक सूत्रज्ञातेत्यर्थः । तथा 'बभागमे बह्वागमः बहुरधिक आगमः आगमार्थपरिज्ञानं यस्य स बह्नागमः अनेकाऽनेकविधसूत्रार्थतदुभयज्ञातेत्यर्थः ' बहुसु' बहुषु बहुप्रकारकेषु 'आगाढागाढेसु कारणेसु' आगाढागाढकारणं यत् सचित्ताचित्तविषये विवादास्पदीभूतमपि कुलगणसंघस्याहारोपधिशय्याद्युपग्रहे वर्त्तते, तादृशेषु आगाढागाढेषु कारणेपु 'बहुसो' बहुशोऽनेकवारम् ‘माई' मायी मायावी परच्छिद्रान्वेषित्वात् तेन मायित्वेन 'मुसावाई' मृषावादी असत्यभाषणकारी अत एव 'असुई' अशुचिः अशुद्धाऽऽङ्गारादिसेवनादशुद्धान्तःकरणः, अत एव 'पावजीवी' पापजीवी पापकर्मणा जीवनशीलः मायादिकपटमाश्रित्य बहुशोऽकृत्य करणात् पापिष्ठ इत्यर्थः । एतादृशो यो भिक्षः 'तस्स' तस्य भिक्षो. 'जावज्जीवाए' यावज्जीवं जीवनपर्यन्तम् 'तप्पत्तियं' तत्प्रत्ययिकं मायामृषादिकारणकम् 'नो कप्पड़' नो कल्पते आयरियत्तं वा जाव गणा
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
व्यवहारसूत्रे
वच्छेयगत्तं वा आचार्यत्वमाचार्यपदवीं वा यावत् उपाध्यायत्वं वा प्रवर्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणधरत्वं वा गणावच्छेदकत्वं वा 'उदिसित्तए वा धारित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा स्वस्य वा आचार्यपदवी धारयितुं तस्य भिक्षोर्न कल्पते ।। सू०२३॥
अथ सप्तसु सूत्रेषु द्वितीयं गणावच्छेदकविषयं सूत्रमाह-'गणावच्छेइए' इत्यादि ।
सूत्रम्- गणावच्छेइए बहुस्सुए वभागमे वहुसो वहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं व जाच गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० २४ ॥
छाया--गणावच्छेदकः बहुश्रुतः वह्वागमः बहुशः .बहुसु आगाढागाढेपु कारणेपु मायी मृपावादी अशुचिः पापजीवी यावज्जीव तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावत् गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टु वा धारयितुं वा ।। सू० २४॥
भाष्यम्-'गणावच्छेइए' गणावच्छेदकः गणव्यवस्थाकारकः 'बहुम्सुए बभागमे' बहुश्रुतः वह्वागमः पूर्वोक्तस्वरूपः 'बहुसो' बहुशोऽनेकवारम् 'बहुसु आगाढागाडेसु कारणेसु' इत्यादि शेष संर्व भिक्षुमूत्रवदेव व्याख्येयम् । अयं भावः-यदि गणावच्छेदको बहुश्रुतो बह्वागमोऽपि किमपि कारणमासाद्यापि बहुशो माविमृषावादिप्रभृतिविशेषणविशिष्टो भवेत् तदा तस्य तत्कारणमाश्रित्य यावज्जीवमाचार्यादिपदवीदानं पुनः कथमपि न कल्पते ॥ सू० २४ ॥
साम्प्रतं तृतीयमाचार्योपाध्यायविषयं सूत्रमाह-'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए वहुस्सुए कन्भागमे बहुसो वहुसु आगाढागाढेसु कारणे माई मुसावाई अमुई पावजीवी जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० २५ ॥
छाया-आचार्योपाध्यायो बहुश्रुतो वह्यागमो मायी मृपावादी अशुचिः पापजीवी यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्त्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० २५ ॥
भाष्यम्-'आयरियउवज्झाए' इति । इदमपि सूत्रं भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् । अयं भावः-भाचार्यः उपाध्यायो वा बहुश्रुतो बबागमोऽपि यं कमपि कारणविशेषमासाद्यापि कि पुनरझारणकं बहुशो मृपाभाषणादिकं करोति तत्य मृषावादादिविशिष्टस्याचार्यस्य उपाध्यायस्य वा मृपावादित्वात्ययिकं यावर्जीव पुनराचार्यादिपदवीदानं धारणं वा कथमपि न कल्पते इति ॥ सू० २५॥
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ३ सू० २६-२९ भिक्षुकादोना बहुशो मायादिसेवने पदनिषेधः १०१
अथ चतुर्थ भिक्षुमधिकृत्य बहुवचनेन सूत्रमाह-'वहवे भिक्खुणो' इत्यादि ।
सूत्रम्--बहवे भिक्खुणो बहुस्सुया वभागमा बहुसो वहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ।। सू० २६॥
छाया-वहवो भिक्षवः बहुश्रुताः बह्वागमाः बहुशो वहुसु आगाढागाढेषु कारणेपु मायिनो मृपावादिनोऽशुचयः पापजीविनो यावज्जीवं तेषां तत्प्रत्यायकं नो कल्पते आचार्यत्व वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टु वा धारयितुं वा ॥ सू० २६ ॥
भाष्यम्- 'वहवे भिक्खुणो' बहवोऽनेके भिक्षवः । इदमपि सूत्रं भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् । विशेष एतावानेव यत् तत्रैकवचनमाश्रित्य व्याख्या कृता, अत्र बहुवचनमाश्रित्य व्याख्या कर्त्तव्येति ॥ सू० २६ ॥
अथ बहुवचनेन गणावच्छेदकविषयं पञ्चमसूत्रमाह-'वहवे गणावच्छेयया' इत्यादि ।
सूत्रम् -वहवे गणावच्छेयया बहुस्सुया बभागमा वहुसो वहुसु आगाढागाढेमु कारणेसु माई मुसाबाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० २७॥
छाया-वहवो गणावच्छेदकाः बहुश्रुताः बह्वागमाः बहुशो वहुसु आगाढागा. ढेषु कारणेपु मायिनो मृषावादिनः अशुचयः पापजीविनः यावज्जीवं तेषां तत्प्रत्ययिक नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्ट वा धारयितुं वा ॥ सू० २७॥
भाष्यम्-'वहवे गणावच्छेयया' बहवोऽनेके त्रिचतुःप्रमृतयः गणावच्छेदकाः । शेषं सर्व वहुवचनेन भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० २७ ॥
अथाचार्योपाध्यायविषयं षष्ठं सूत्रमाह-'वहवे आयरियउवज्झाया' इत्यादि ।
सूत्रम्-वहवे आयरियउवज्झाया वहुस्सुया कभागमा बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरियतं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारितए वा ॥ सू० २८ ॥
छाया-वहवः आचार्योपाध्यायाः वहुश्रुताः बह्वागमाः वहुशो वहुपु आगाढागाढेपु कारणेपु मायिनो मृषावादिनोऽशुचयः पापजोविनो यावज्जीवं तेषां तत्प्रत्ययिक नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावत् गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुवा धारयितुं वा । सू० २८॥
भाष्यम्-'वहवे आयरियउवज्झाया' वहवोऽनेके त्रिचतुःप्रमृतयः माचार्योपाध्यायाः आचार्याः उपाध्यायाश्च । शेपं सर्व बहुवचनेन भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् ।। सू० २८ ॥
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र अथ भिक्षुकादीन् सर्वान् संगृह्य बहुवचनेन सप्तमं समुच्चयसूत्रमाह-'वहवे भिक्खुणो' इत्यादि ।
सूत्रम्-वहवे भिक्खुणो वहवे गणावच्छेयया वहवे आयरियउवज्झाया बहुस्मुया वभागमा बहुसो बहुसु अगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसावाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० २९ ॥
॥ ववहारकप्पे तइओ उद्देसो समत्तो ॥ ३ ॥ छाया-बहवो भिक्षुका वहवो गणावच्छेदकाः वहव आचार्योपाध्याया बहुश्रुताः वबागमाः वहुशो वहुपु आगाढागाढेपु कारणेपु मायिनो मृपावादिनः अशुचयः पापजीविनो यावज्जीवं तेषां तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद् गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टु वा धारयितुं वा ॥ सू० २९॥
॥ व्यवहारकल्पे तृतीय उद्देशः समाप्त ॥३॥ भाष्यम्-'बहवे भिक्खुणो' बहवो भिक्षुकाः तथा 'वहवे गणावच्छेयया' वहवोऽनेके गणावच्छेदकाः 'वहवे आयरियउवझाया' वहवोऽनेके आचार्योपाध्यायाः । शेषं सर्वं भिक्षुकादीनां बहुत्वमधिकृत्य बहुवचनेन भिक्षुसूत्रव्याल्यावद् व्याख्या करणीया । अयं भावः-अनेके भिक्षुका ग्रणावच्छेदका आचार्योपाध्याया बहुश्रुताद्या अपि अभीक्ष्णं माया-मृषा-वादादिकं यदि कुर्युः तदा भिक्षुकादीनां सर्वेषामपि मृषावादादिजनितापराधेन जीवनपर्यन्तमेषामाचार्यादिगणावच्छेदकान्तपदव्या दानं धारण च न कल्पते इति ॥ सू० २९ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त
"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैन__धर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितायां"व्यवहारसुत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायां तृतीय
उद्देशकः समाप्तः ॥३॥
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथ चतुर्थोदेशकः प्रारभ्यते
व्याख्यातस्तृतीयोद्देशक', सम्प्रति चतुर्थ उद्देशः प्रारभ्यते, तत्रास्यादिसूत्रस्य तृतीयो - देशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धस्तत्राह भाष्यकारः - 'आयरिय०' इत्यादि ।
भाष्यम् - आयरियमाइयाणं, माइप्पभिण नो पय देना । उद्धारकाले, विहरेज्जा तेसि विहिमेत्थ ॥ १ ॥
छाया - आचार्यादीनां मायिप्रभृतीनां नो पदं दद्यात् । ऋतुबद्धादिककाले विहरेयुस्तेषां विधिमन्त्र ॥ १ ॥
व्याख्या- 'आयरियमाइयाणं' इति । पूर्वं तृतीयोद्देश कस्यान्तिमसूत्रे मायिप्रभृतीनां मायिमृषावाद्यशुचिपापजीविनाम् आचार्यादीनाम् आचार्यस्योपाध्यायस्य प्रवर्त्तकस्य स्थविरस्य गणिनो गणघरस्य गणावच्छेदकस्य चेत्यर्थः पदम् आचार्योपाध्यायादिपदं यावज्जीवं न दद्यात् इति प्रोक्तम्, ते च 'उउवाइयकाले' ऋतुबद्धादिकाले हेमन्तग्रीष्मकाले वर्षावासकाले च 'विहरेज्जा' विहरेयुः विचरेयु तदा कथं विचरेयुः 2 इति तेषां विचरणस्य विधिम् अत्र चतुर्थोद्देशकस्यादौ कथयिप्यते, इत्येष पूर्वापरोद्देशकयो. सम्वन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य 'चतुर्थोद्देशकस्येदमादौ आचार्योपाध्यायादिविषयकं सूत्राष्टकमाह - 'नो कप' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कप्पइआयरिय उवज्झायस्स एगाणियस्स हेमंत गिम्हासु चरित्तर ॥१॥ कप्पड़े आयरियउवज्झायरस अप्पविइयस्स हेमंत गिम्हासु चरित्तए | सू० २ ॥ नो कप्पइ गणावच्छेययस्स अप्पविश्यस्स हेमंतगिम्हासु चरित्तए । सू० ३ ॥ कप्पर गणावच्छेययस्स अप्पतइयस्स हेमंतगिम्हासु चरितए || सू० ४ || नो कप्पर आयरियउवज्झायस्स अप्पविश्यस्स वासावासं वत्थए | सू० ५ ॥ कप्पइ आयरियउवज्झायस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए | सू० ६ ॥ नो कप्पड़ गणावच्छेययस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए || सू० ७ ॥ कप्पइ गणावच्छेययस्स अप्प उत्थस्स वासावासं वत्थए । सू० ८ ॥
छाया - नो कल्पते आचार्योपाध्यायस्य एकाकिनो हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् ॥ सू० १ ॥ कल्पते आचार्योपाध्यायस्य आत्मद्वितीयस्य हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् ॥ ० २ ॥ नो कल्पते गणावच्छेदकस्य आत्मद्वितीयस्य हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् ॥ सू० ३ ॥ कल्पते गणावच्छेदकस्य आत्मतृतीयस्य हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् ॥ सू० ४ ॥ नो कल्पते आचार्योपाध्यायस्य आत्मद्वितीयस्य वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ५ ॥
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे कल्पते आचार्योपाध्यायस्य आत्मतृतीयस्य वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू०६॥ नो कल्पते गणावच्छेदकस्य आत्मतृतीयस्य वर्षावास वस्तुम् ॥ सू० ७ ॥ कल्पते गणावच्छेदकस्य आत्मचतुर्थस्य वर्षावार्स वस्तुम् ॥ सू० ८॥
भाष्यम्-'नो कप्पइ' इति । 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'आयरियउज्वझायस्स' आचार्यस्य उपाध्यायस्य च 'एगाणियस्स' एकाकिनः अद्वितीयस्य 'हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मेषु, अत्र वर्षस्य त्रय एव भागा विवक्षिताः, हेमन्तकालः ग्रीष्मकालः वर्षाकालश्चेति, तत्र हेमन्तग्रीष्मकालः शेषकालनाम्ना ऋतुबद्धकालनाम्ना वा प्रसिद्धः, सोऽष्टमासात्मको नवमासात्मको वा भवति तेन शेषकालेऽष्टमासात्मके नवमासात्मके वा हेमन्तग्रीष्मरूपे, सूत्रे बहुवचनं हेमन्तग्रीष्मयोरष्टनवमासात्मकत्वात् , तेपु अष्टसु नवसु वा मासेषु इत्यर्थः आचार्योपाध्या. यस्य एकाकिनः 'चरित्तए' चरितुं विहत्तं न कल्पते, आचार्योपाध्यायस्य हेमन्तग्रीष्मकाले मासकल्पेन विहरणं भवति गच्छश्च सबालवृद्धाकुलः ततस्तत्र तिष्ठतः तस्य वैयावृत्त्यादिकं बहु कर्तव्यं भवेत् सूत्रार्थतदुभयानां स्मरणे मा विघ्नो भूयादिति गच्छाद् वहिः पृथग् एकाकी स्थातुमिच्छेत् तदा नैकाकित्वेन स्थातुं कल्पते, यतो गच्छ• अनाचार्योपाध्यायो न कर्त्तव्य इति ॥ सू०१॥
तर्हि कथं कल्पते इति द्वितीयं सूत्रमाह-'कप्पइ' इत्यादि । कप्पइ कल्पते 'आयरियउवज्झायस्स' आचार्योपाध्यायस्य 'अप्पविइयस्स' आत्मद्वितीयस्य 'हेमन्तगिम्हास्नु' हेमन्तग्रीष्मेषु अष्टसु मासेषु 'चरित्तए' चरितुं विहर्तुम् ॥ सू० २॥ ____ अथ गणावच्छेदकविषयं निषेधरूपं तृतीयसूत्रमाह-'नो कप्पइ गणा०' इत्यादि । 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'गणावच्छेययस्स' गणावच्छेदकस्य 'अप्पविइयस्स' आत्मद्विनीयस्य आत्मा स्वयं द्वितीयो यत्र स आत्मद्वितीयः द्वितीयेन आत्मभिन्नेन साधुना सहितः, तस्य 'हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मेषु 'चरित्तए' चरितुम् ॥ सू० ३॥
चतुर्थ गणावच्छेदकविषयमाज्ञासूत्रमाह-'कप्पइ गणा०' इत्यादि ।
'कप्पई' कल्पते 'गणावच्छेययस्स' गणावच्छेदकस्य 'अप्पतइयस्स' आत्मतृतीयस्य, तत्र आत्मा स्वयं तृतीयो यत्र स आत्मतृतीयः द्वाभ्यामात्मभिन्नाम्यां साधुभ्यां सहितः, तस्य 'हेमंतगिम्हामु' हेमन्तग्रीप्मेषु चरितुम् ॥ सू० ४ ॥
अथ वर्षावासमधिकृत्य निषेधविषयं पञ्चममाचार्योपाध्यायसूत्रमाह-'नो कप्पइ०' इत्यादि ।
'नो कप्पई' न कल्पते'आयरियउवज्झायस्स' आचार्योपाध्यायस्य 'अप्पविइयस्स' आत्मद्वितोयस्य द्वितीयसाधुसहितस्य 'वासावासं' वर्षावास 'वस्थए' वस्तुं स्थातुम् ॥ सू० ५॥
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ४ सू० १-९ आचार्यादीनां शेषकालवर्षाकालविहरणविधिः १०५
षष्ठमनुज्ञासूत्रमाह- कप्पइ आयरिय०' इत्यादि ।
'कप्पई' कल्पते 'आयरियउवज्झायस्स' आचार्योपाध्यायस्य 'अप्पतइयस्स' आत्मतृतीयस्य आत्मा स्वयं तृतीयो यत्र स आत्मतृतीयः द्वाभ्यामात्मभिन्नाभ्यां साधुभ्यां सहितस्तस्य 'वासावासं वत्थए' वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ६ ॥
मथसप्तमं वर्षावासमधिकृत्य निषेधविषयं गणावच्छेदकसूत्रमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
नो कप्पई न कल्पते ' गणावच्छेययस्स' गणावच्छेदकस्य 'अप्पतइयस्स आत्मतृती. यस्य मात्मभिन्नसाधुद्वयसहितस्य 'वासावासं वत्थए' वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ७ ॥
अथाष्टममनुज्ञासूत्रमाह-'कप्पइ गणा०' इत्यादि ।
कप्पइ' कल्पते 'गणावच्छेययस्स' गणावच्छेदकस्य 'अप्पचउत्थरस' आत्मचतुर्यस्यआत्मा स्वयं चतुर्थों यत्र स मात्मचतुर्थः आत्मभिन्नस्त्रिमिः साधुभिः सहितस्य वासावास वत्थए' वर्षावासं वस्तुम् कल्पते इति सूत्राष्टकसक्षेपार्थः ।
___अयं भावः-हेमन्तग्रीष्मकालमधिकृत्याचार्योपाध्यायविषयं निषेधानुज्ञागभिंत सूत्रद्वयम्, तत्राघसूत्रे हेमन्तग्रीष्मयोरेकाकिन आचार्योपाध्यायस्य विहरणनिषेधः, द्वितीयसूत्रे आत्मद्वितीयस्य तस्य विहरणानुज्ञेति सूत्रद्वयमाचार्योपाध्यायविषयकम् २ । एवं सूत्रद्वयं गणावच्छेदकस्य हेमन्तग्रीष्मकालविषये भावनीयम्, तत्राद्यसूत्रे आत्मद्वितीयस्य प्रतिषेधः, द्वितीयसूत्रे त्वात्मतृतीयस्यानुज्ञा ४। एवमेषामेव चत्वारि सूत्राणि वर्षावासविषयाणि वेदितव्यानि. तत्राये द्वे सूत्रे आचार्योपाध्यायस्य यथा-प्रथमसूत्रे आचार्योपाध्यायस्यात्मद्वितीयस्य प्रतिषेधः, द्वितीये त्वात्मतृतीयस्यानुज्ञा ६ । तृतीयसूत्रे गणावच्छेदकस्यात्मतृतीयस्य प्रतिषेधः, चतुर्थे त्वात्मचतुर्थस्यानुज्ञेति सूत्राष्टकभावार्थः ८ । अत्र ऋतुबद्धकाले वर्षाकाले चेति कालद्वये जघन्यतो यथाक्रमं गच्छ• पश्चकः सप्तकश्च भवितुमर्हति, पञ्चपरिमाणमस्येति पञ्चकः, सप्तपरिमाणमस्येति सप्तकः, किमुक्तं भवति-ऋतुबद्धकाले पञ्चको गच्छः पञ्चसाधुसमुदायरूपः, वर्षाकाले च सप्तकः सप्तसाधुसमुदायरूपो गच्छो भवति । कथमित्याह-ऋतुबद्ध काले जघन्यत आचार्य उपाध्यायो वा आत्मद्वितीयः गणावच्छेदकस्त्वात्मतृतीय इत्येवं पञ्चको गच्छो भवति । वर्षाकाले जघन्यत आचार्य उपाध्यायो वा आत्मतृतीयः, गणावच्छेदकश्चात्मचतुर्थ इत्येवं सप्तको गच्छो भवति । उत्कर्पत. कालदयेऽपि द्वात्रिशत्सहस्रसाधुसमुदायरूपो गच्छो भवति, यथाहि-भगवत ऋपभदेवस्वामिनो ज्येष्ठस्य गणधरस्य ऋषभसेनस्य पुण्डरीकाऽपरनाम्नो द्वात्रिंशत्सहस्रो गच्छ आसीत् । शेषपरिमाणो जघन्योत्कृष्टमध्यगतो गच्छो मध्यमो भवति । अत्र सूत्राष्टके जधन्यपरिमाणो गच्छः प्रतिपादित इति ॥ सू० १-८॥
म्य, ११
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र
पूर्वम् ऋतुबद्धकालवर्षाकालमधिकृत्य एकैकाचार्योपाध्यायगणावच्छेदकविषयं कल्पाकल्पसूत्राष्टकं प्रतिपादितम्, साम्प्रतं तदेव कालद्वयमधिकृत्याऽनेकाचार्योपाध्यायगणावच्छेदकविषय सूत्रद्वयमभिधातुकामः पूर्वं हेमन्तग्रीष्मकालमधिकृत्य सूत्रमाह-'से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा संनिवेसंसि वा वहूर्ण आयरियउवज्झायाणं अप्पविइयाणं, वहणं गच्छावच्छेययाणं अप्पतइयाणं कप्पइ हेमंतगिम्हासु चरित्तए अन्नमन्ननिस्साए ॥ सू० ९ ॥
छाया-अथ ग्रामे वा नगरे वा राजधान्यां वा खेटके वा कव्यडे वा मडम्ने वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आश्रमे वा संवाहे वा संनिवेशे वा बहूनामाचार्योपाध्यायानामात्मद्वितीयानाम् बहूनां गणावच्छेदकानामात्मतृतीयानाम् कल्पते हेमन्तग्रीष्मेपु चरितुम् अन्योऽन्यनिश्रया ॥ सू० ९ ॥
भाष्यम्-'से गामंसि वा' इति । 'से' अत्र 'से' शब्दोऽथशव्दार्थक', तथाच-अथानन्तरं प्रत्येकाचार्यादिविषयकविधिप्रतिपेधप्रदर्शनानन्तरम् ‘गामंसि वाः' ग्रामे वा ग्रामविषये, तत्र ग्रामा वृतिवेष्टितः, तस्मिन् 'नगरंसि वा' नगरे वा, तत्र नगरं गोमहिण्यादीनामष्टादशकरवर्जितम् , तस्मिन् 'निगमंसि वा' निगमे वा, निगमः वणिजां व्यापारस्थानम् , तस्मिन् वा, 'रायहाणीए वा' राजधान्यां वा, तत्र राजधानी राज्ञो निवासस्थानम् , तत्र वा, 'खेडंसिवा' खेटे वा, तत्र खेटो धूलिनिमितप्राकारपरिवेष्टितं जननिवासस्थानं, तस्मिन् , 'कव्वडंसिवा' कर्बटे वा कुत्सितनगरे 'मडंवंसिवा' मडम्वे वा, मडम्बः-सार्घक्रोशद्वयान्तर्गतग्रामरहितः प्रदेशः, तत्र, 'पट्टणंसि वा' पत्तने वा, पत्तनं जलपत्तनं स्थलपत्तनमिति द्विविधम् , नौभिः शकटैर्वा प्राप्यं नगरं पत्तनं भवति, तत्र वा, 'दोणमुहंसि वा' द्रोणमुखे वा, तत्र द्रोणमुखो नाम जलस्थलमार्गयोः संमेलनस्थानम् , तत्र वा, 'आसमंसि वा' आश्रमे वा तापसादीनां निवासस्थाने वा 'संबाइंसि वा' सबाहे वा, तत्र संबाहः कृषिवलैर्घान्यरक्षार्थ निर्मितं दुर्गभूमिस्थानम् , तत्र वा, 'संनिवेसंसि वा' सन्निवेशे वा, तत्र संनिवेशःसमागतसार्थवाहादिनिवासस्थानम् , तत्र वा, 'बहणं' बहूनामनेकेषां द्वित्रिप्रभृतीनाम् 'आयरियउवज्झायाण आचार्योपाध्यायानाम् आचार्याणामुपाध्यायाना चेत्यर्थः । कथम्भूतानाम् ? तत्राह 'अप्पविइयाणं' आत्मद्वितीयानाम् , आत्मना द्वितीयानाम् आत्मभिन्नैकसाधुयुक्तानाम् 'वहूणं गणावच्छेययाणं' वहूनामनेकेषां गणावच्छेदकानाम् 'अप्पतइयाणं' आत्मतृतीयानाम् आत्मना सह तृतीयानाम् द्वौ सहायको तृतीयश्च स्वयं तेषाम् ‘कप्पई' कल्पते 'हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मेषु ऋतुबद्धकाले इत्यर्थः 'चरित्तए' चरितुं विहर्तुम् । कथं कल्पते ? इत्याह-'अन्नमन्ननिस्साए' अन्योऽन्यनिश्रया परस्परोपसंपदमाश्रित्येति यथा-एकस्याचार्यस्यैकः शिष्यः, द्वितीयः स्वयम् , एवं प्रत्येकं द्वितीयादीनां द्वौ द्वौ मिलित्वा चतुःसंख्यकादय आचार्याः, एवमेकस्य गणावच्छेदस्य
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ४ सू० १०-११
आचार्या
कालधर्मप्राप्ते विहरणविधिः १०७
द्वौ शिष्यौ एकश्च स्वयमिति प्रत्येकं द्वित्रादीनां त्रयस्त्रयो मिलित्वा षट्संख्यकादयो गणावच्छेदका - स्तेषां हेमन्तग्रीष्मेषु विहर्तुं कल्पते इति भावः ॥ सू०९॥
सूत्रम् -- से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कव्वडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाइंसि वा संनिवेसंसि वा बहूणं आयरियउवज्झायाणं अप्पतइयाणं, बहूणं गणावच्छेययाणं अप्पचउत्थाणं कप्पइ वासावासं वत्थए अन्नमन्ननिस्साए || सू० १०॥
छाया- -अथ ग्रामे वा नगरे वा राजधान्यां वा खेटे वा कवडे वा मडम्बे वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आश्रमे वा संवाहे वा बहूनामाचार्योपाध्यायानामात्मतृतीयानाम् बहूनां गणावच्छेदकानामात्मचतुर्थानां कल्पते वर्षावासं वस्तुमन्योऽन्यनिश्रया ॥ सू० १० ॥
-
भाष्यम् –' से गामंसि वा' इत्यादि । 'से' अथानन्तरम् ' गामंसि वा' ग्रामे वा पूर्वनिर्दिष्टस्वरूपेषु ग्रामादिषु 'वहूणं' बहूनामनेकेषां 'आयरियउवज्झायाणं' आचार्योपाध्यायाना प्रत्येकमनेकेषामाचार्याणाम् तथा प्रत्येकमनेकेषामुपाध्यायानाम् 'अप्पतइयाणं' आत्मतृतीयानाम् आत्मना सह त्रित्वसंख्याविशिष्टानाम्, तथा 'बहूणं गणावच्छेययाणं' बहूनामनेकेषां गणावच्छेदकानाम् ‘अप्पचउत्थाणं’ आत्मचतुर्थानाम् आत्मना सह चतुष्कसंख्याविशिष्टानाम् ' कप्पइ' कल्पतें 'वासावासं' वर्षावासं चातुर्मास्यम् 'वत्थए' वस्तुं वासं कर्तुम् । कल्पते आत्मवृतीयानामाचार्याणां बहूनाम्, तथा-आत्मचतुर्थानां बहूनां गणावच्छेदकानां वर्षावासं वस्तुम् । कथमित्याह-'अन्नमन्ननिस्साए ' अन्योऽन्यंनिश्रया परस्परोपसंपदा चातुर्मास्ये एकत्र वासं कर्त्तुं कल्पते । अत्रायं भावः यथा-एकस्याचार्यस्य द्वौ शिष्यौ एकश्च स्वयमिति त्रयः, एवं प्रत्येकं द्वित्रादीनां संख्यामेलनं भवतीति परस्परं मिलित्वा, एवमेकस्य गणावच्छेदस्य त्रयः शिष्याश्चतुर्थः स्वयमिति चत्वारः, एवं प्रत्येकं द्वित्रादीनां संख्यामेलनं भवतीति परस्परं मिलित्वा तेषा वर्षावास स्थातुं कल्पते इति। यत् क्षेत्रं यस्यानुकूलं भवति तन्निश्रया वर्षावासे स्थातव्यमिति ॥ सू० १० ॥
सूत्रम्गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू जं पुरओ कट्टु fares से आहच्च वीसंभेज्जा अस्थि या इत्थ अन्ने केइ उपसंपज्जणारिहे से उवसंपज्जियव्वे, णत्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपज्ञ्जणारिहे तस्स अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ गराइए पडिमा जण्णं जण्णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तष्णं तण्णं दिसं उचलित्तए, नो से कप्पड़ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा वसादि अज्जो एगरायं वा दुरायं वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पर परं एग
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
व्यवहासूत्रे
रायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू०११॥
छाया--प्रामाऽनुग्राम द्रवन् भिक्षुर्य पुरतः कृत्वा विहरति स आहत्य विष्वग्भवेत्, अस्ति चात्राऽन्यः कश्चित् उपसंपदाहः उपसंपत्तव्यः, नास्ति कश्चित् उपसंपदाईः तस्य आत्मनः कल्पोऽसमाप्त. कल्पते तस्यैफरात्रिक्या प्रतिमया यां या खलु दिशमन्ये साधर्मिका विहरन्ति तां तां खलु दिशसुपलातुम्, नो तस्य कल्पते तम विहारप्रत्ययं वस्तुम, कल्पते तस्य तत्र कारणप्रत्ययं वस्तुम्, तस्मिश्च कारणे निष्ठिते परो वदेत् यस आर्य ! एकरात्रं वा द्विरात्रं वा एवं तस्य कल्पते एकरात्र वा द्विरात्र वा वस्तुम्, नो तस्य कल्पते परमेफरात्राद्वा विरात्राद्वा वस्तुम्, यत्तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ।। सू०११ ॥
भाष्यम्-'गामाणुगाम' इत्यादि । 'गामाणुगाम' प्रामानुग्रामम् एकस्माद् ग्रामाद् गामान्तरम् 'दूइज्जमाणे' द्रवन् गच्छन् एतावता ऋतुबद्धः कालः प्रदर्शितः । 'भिक्ख' भिक्षुः श्रमणः 'जं पुरओ कट्टु विहरई' यं पुरतः कृत्वा पुरस्कृत्य यमाचार्यमुपाध्यायं वा पुरतः कृत्वा यन्निश्रयेत्यर्थः विहरति 'से आ६च्च विसंभेज्जा' स आचार्य उपाध्यायो वा गच्छनायकः आहत्य कदाचिद् आयुर्दलिकपरिक्षयात् विश्वग्भवेत् शरीरात्पृथग् भवेत् कालगतो मृतो भवेदित्यर्थः तदा 'अस्थि या इत्थ अन्ने केइ उपसंपज्जणारिहे' अस्ति चाऽत्र समुदायेऽन्यः कश्चित् भाचार्य उपाध्यायो गणी गणधरः प्रवर्तकः स्थविरो वा उपसंपदाऽर्हः उपसंपद्योग्यः पदवीयोग्य इत्यर्थः तदा 'से उवसंपज्जियव्वे' स एवोपसंपत्तव्यः आचार्यादित्वेन स्थापयित्वा तन्निश्रायां स्थातव्यमित्यर्थः । 'नत्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपणारिहे' यदि नास्ति चात्र कश्चिदन्य आचार्यादिः, गणी प्रवर्तकादिर्वा समुदाये उपसंपदाहः आचाराङ्गनिशीथादेर्शाता तदा 'अप्पणो कप्पाए असमत्ते' आत्मनः स्वकीयस्य कल्पः आचारकल्पः असमाप्तः आचारकल्पः पूर्णो न पठितो भवेत्तदा तदने पठनस्यावश्यकता वर्तते एवं सति 'कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए' कल्पते तस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया एकरात्राभिग्रहेण 'अत्रतः प्रस्थितोऽहं गन्तव्यस्थानादर्वाग् अपान्तराले एकरात्रादधिकं न स्थास्यामि' इत्यभिग्रहमादायेत्यर्थः 'जणं जंणं दिसं' यां यां खल दिशं-यस्या यस्यां दिशि यत्र यत्र प्रदेशे 'अन्ने साहम्मिया विहरंति' अन्ये केचित् साधर्मिकाः समानधर्माणो विहरंति 'तं णं तं णं दिसं उवलित्तए' ता तां खलु दिशं-तस्या तस्या दिशि उपलातुम् गन्तुमित्यर्थः किन्तु 'नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए' नो तस्य भिक्षुकस्य कल्पते अपान्तराले विहारप्रत्ययं निवासनिमित्तकं आहारोपकरणादिलोभात्तत्रावस्थानकारणकं वस्तुं वासं कर्तुम् । 'कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए' कल्पते तत्यान्तराले कारणप्रत्ययं कारणमासाद्य ग्लानादेवैयावृत्त्यादिकारणमालभ्य एकद्विरात्रादधिकमपि
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ४ सू० १२
काचार्यादौ कालधर्मप्राप्ते विहरणाविधिः १०९ वस्तुं वास कर्तुम् । 'तंसि च णं कारणंसि निद्वियंसि' तस्मिंश्च खलु कारणे निष्टिते समाप्ते सति यदि 'परो वएज्जा' परोऽन्यः तत्रत्यः श्रमणः सघो वा वदेत्-कथयेत्, किं वदेत्तत्राह'वसाही'-त्यादि, 'वसाहि अज्जो' वस निवासं कुरु हे आर्य ! 'एगरायं वा दुरायं वा' एकरात्रं वा द्विरात्रं वा यावद् अत्राधिकं वस, इति यदि परो वदेत् तदा 'एवं से कप्पई एगरायं वा दुरायं वा वत्थए' एवमन्येन प्रार्थनायां कृतायां तस्य श्रमणस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम्, किन्तु 'नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए' नो कल्पते तस्य एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परमधिकं तत्र वस्तुम्, 'जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसई' यद्-यदि तत्र परमधिकमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा कारणं विना वसति तदा 'से' तस्य 'संतरा छेए वा परिहारे वा' सान्तरात् स्वकृतादन्तरात् अन्तररूपापराधात् गन्तव्यस्थानप्रापणे यावदेवसिकमन्तरं भवेत् यावन्ति दिनानि गन्तव्यस्थानप्रापणे तत्र व्यवधानोकतानि तावदिवसपरिमितः छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं वा परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं भवेत्तस्येति ।
अत्रायं मूत्राशयः-यन्निश्रया भिक्षुामानुग्राम विहरति तस्मिन् कालगते सति गच्छे यदि उपसम्पदाहः पदवीयोग्यः कोऽप्यन्यो भवेत्तदा तं तत्र उपसंपदायां स्थापयित्वा तन्निश्रायां स्थातव्यम् , तदनन्तरं स्वस्य पठितुमारब्धकल्पस्याग्रे पठनं कर्त्तव्यम् । यदि उपसंपदाह-पदवीयोग्योऽन्यः कोऽपि गच्छे न भवेत्, स्वकीयः कल्पश्चाऽसमाप्तो वर्ततेऽतस्तत्पूरणार्थमग्रे पठनमावश्यकं वर्तते स्वनिश्रायां कतिचित् साधवो भवेयुः, एवं सति स्वनिश्रागतान् सर्वान् साधून गृहीत्वा गमनं कर्त्तव्यम् । तत्र एकरात्रिकाभिग्रहेण गच्छेत् , यथा अत्रतो निर्गमनानन्तरं गन्तव्यस्थानादर्वाग् अपान्तराले एकरात्रादधिकं कुत्रापि न स्थास्यामीति । एवंविधाभिग्रहेण यस्यां दिशि कल्पपाठकाः साधर्मिकास्तिष्ठन्ति ता दिशं प्रति प्रस्थातव्यम्, तत्रापान्तराले गोकुलादौ दुग्धदध्यादिलाभरूपं प्रतिवन्धमकुर्वन् गच्छेत् किन्तु मार्गे आहारा दिलाभमपेक्ष्य स्थातुं न कल्पते । यदि मार्गे स्थिताना साधूना ग्लानाद्यवस्थायां वैयावृत्त्यादिकारणमुपस्थितं भवेत्तदा तस्य तत्कारणप्रत्ययमेकरात्रादधिकमपि तत्र वस्तुं कल्पते । समाप्ते च कारणे तत्रतो निर्गन्तव्यम् । यदि तत्रत्याः श्रमणाः पुनरधिकं वस्तुमाग्रहं कुर्युः तदा एकरात्र वा द्विरात्रं वा तत्र स्थातुं कल्पते । तत्राहारोपध्यादिलोभादेकद्विरात्रादधिकं वसेत् तदा तस्य भिक्षोरपान्तराले गन्तव्यस्थानप्राप्ती यावदिनावधिकमन्तरं भवेत् ताव-परिमितश्छेदः परिहारतपो वा कल्पपठनान्तरायकारणकं समापधेतेति सूत्राशयः ॥ सू०११ ॥
तदेवं ऋतुबद्ध कालसूत्र व्याख्याय सम्प्रति वर्षावासमूत्र व्याख्यातुमाह-'वासावासं' इत्यादि ।
सूत्रम् -वासावासं प्रज्जोसविओ भिक्खू य ज पुरओ कटु विहरइ से आहच्च वीसंभेज्जा अस्थि या इत्य अन्ने केइ उपसंपज्जणारिहे से उवसंपज्जियम्वे, नत्थि या
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०
ध्यवहारसूत्रे इत्य अन्ने उपसंपज्जणारिहे तस्स अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जण जणं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तणं तणं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए । तंसि च णं कारणंसि निट्टियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो एगरायं वा दुरायं वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पई परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ।। सू० १२॥
छाया -वर्षावासं पर्युपितो भिक्षुश्च यं पुरतः कृत्वा विहरति आहत्य स विष्वग्भवेत् अस्ति चाऽत्राऽन्यः कश्चिदुपसंपदार्हः स उपसंपत्तव्यः, नास्ति चात्र कश्चिदुपसंपदार्हः तस्य चाऽऽत्मनः कल्पोऽसमाप्तः कल्पते तस्यैकरात्रिक्या प्रतिमया यां यां खलु दिशमन्ये साधर्मिका विहरन्ति तां तां खलु दिशमुपलातुम्, नो तस्य कल्पते विहारप्रत्ययं वस्तुम्, कल्पते तस्य कारणप्रत्ययं वस्तुम् , सस्मिश्च खलु कारणे निष्ठिते: परो वदेत् वस आर्य ! एकरात्रं वा द्विरात्रं वा, एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम् नो तस्य कल्पते परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तुम्, यस्तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १२ ॥
__भाष्यम् –'वासावासं' इत्यादि । 'वासावासं' वर्षावासं वर्षाकालं 'पज्जोसविओ' पर्युपितः वर्षाकाले वासं कुर्वन् स्थितः 'भिक्खू य' भिक्षुश्च 'जं पुरओ कटु विहरइ' यमाचार्यादिकं पुरतः कृत्वा यन्निश्रयेत्यर्थः विहरति वर्षावासे तिष्ठति 'आहच्च से बीसंभेज्जा' आहत्य स विश्वग्भवेत् कदाचित् स आचार्यः शरीरात् पृथग्भवेत् म्रियेत इत्यर्थः तत. 'अस्थि या इत्य अन्ने केइ उवसंपज्जणारिहे' अस्ति विद्यते अत्र समुदाये कश्चिदन्यो नायकः उपसंपदार्ह उपसंपत्तियोग्यः आचार्यादिपदयोग्यः तदा 'से उवसंपज्जियन्वे' स उपसंपत्तव्यः। शेष सर्वमेकादशसूत्रोक्तऋतुबद्धकालसूत्रवद् व्याख्येयम् ।। सू० १२ ॥
पूर्वमाचार्ये कालगते भिक्षुमधिकृत्य ऋतुबद्धकालवर्षाकालविहारविषयकं सूत्रद्वयं प्रतिपादितम् , साम्प्रतमाचार्योपाध्यायस्य मरणावस्थायां पदवीदानविधिमाह-'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरिय उवज्झाए गिलायमाणे अन्नयरं एज्जा अज्जो ! ममंसि णं कालगयंसि समाणंसि अयं समुक्कसियव्वे, से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियन्वे, से य नो समुक्कसणारिहे नो समुक्कसियव्वे, अत्थि या इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियध्वे । नत्थि या इत्य अन्ने समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियत्वे । तंसि चणं समुक्किमुसि परो वएज्जा दुस्समुक्कि ते अज्जो ! निक्खिवाहि, तस्स णं निक्खि
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०४ सू०१३
मरणासन्नाचार्यानुशाते तत्पश्चात्पददानविधिः ११
~
वमाणस्स नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जे साहम्मिया आहाकप्पेणं नो अब्भुट्टाए विहरंति सम्वेसिं तेर्सि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १३ ॥
- छाया-अचार्योपाध्यायो ग्लायन् अन्यतरं वदेत्-आर्य ! मयि खलु कालगते सति अयं समुत्कर्षयितव्यः, स च समुत्कर्षणार्हः समुत्कर्षयितव्यः । स च नो समुत्कर्पणाईः नो समुत्कर्षयितव्यः, अस्ति चाऽत्राऽन्यः कश्चित् समुत्कर्षणाहः समुत्कर्षयितव्यः । नास्ति चावान्यः कश्चित् समुत्कर्षणार्हः स एव च समुत्कर्षयितव्यः। तस्मिश्च खलु समत्कृष्टे परो वदेत् दुस्समुत्कृष्ट ते आर्यः! निक्षिप, तस्य खलु निक्षिपतो नाऽस्ति कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, ये साधर्मिका यथाकल्पेन नो अभ्युथाय विहरन्ति सर्वेषां तेषां तत्प्रत्ययिक छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १३ ॥
भाष्यम्--'आयरियउवज्झाए' इत्यादि । 'आयरियउवज्झाए' आचार्यः उपाध्यायो वा 'गिलायमाणे' ग्लायन् धातुक्षोभादिना ग्लानिमुपगच्छन् आसन्नमरणः सन्नित्यर्थः 'अन्नयरं' अन्यतरम् उपाध्याय-प्रवर्तक-स्थविर-गणि-गणधर-गणावच्छेदक-गीतार्थभिक्षूणां मध्यात् यं कमप्येकं गच्छसापेक्षः सन् 'वएज्जा' वदेत्-कथयेत् , कश्चिद्गणनायक आचार्यादिः धातुक्षोभादिनाऽनिष्टादिनिमित्तदर्शनेन वा स्वकीयं कालगमनं संभाव्य गच्छसचालनार्थ गच्छवासिनमे कमपि श्रमणं समाहूय कथयतीत्यर्थः । 'अज्जो' हे आर्य ! 'ममंसि णं कालगयंसि समाणंसि' मयि खलु कालगते मयि मृते सति 'अयं समुक्कसियवे' अयं समुत्कर्षयितव्यः अयं परिदृश्यमानः श्रमणः मत्समीहितः समुत्कर्षयितव्यः आचार्यपदे स्थापनीयो भवद्भिः । ततः कालगते आचार्ये 'से य समुक्कसणारिहे' स च यदि समुत्कर्षणार्हः समुत्कर्षणयोग्यः आचार्यादिपदवीयोग्यः अभ्युद्यतमरणमभ्युद्यतविहारं वा न स्वीकृतो भवेत् तदा स एव 'समुक्कसियवे' समुत्कर्षयितव्यः गणनायकपदे स्थापनीयो नान्यः, यदि स वदेत्- अहमभ्युद्यतविहारं जिनकल्पादिकमभ्युद्यतमरणं पादपोपगमनेशितभक्तप्रत्याख्यानरूपं वा प्रतिपत्स्ये इति तदा किं कुर्यात् ? तत्राह-'अस्थि या इत्थ' इत्यादि, 'अस्थि या इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे' अस्ति चाऽत्र गच्छेऽन्यः कोऽपि श्रमणः समुत्कर्षणाई: गणनायकपदवीयोग्य श्रमणसमुदायाभीष्टस्तदा ‘से समुक्कसियव्वे' स समुत्कर्षयितव्य. गणनायकपदे स्थापनीयः । अथ यदि 'नस्थि या इत्थ केइ समुक्कणारिहे' नास्ति चाऽत्र गच्छे. ऽन्यः कोऽपि श्रमणः समुत्कर्षणाई गणनायकपदवीयोग्यः तदा किं कुर्यादित्याह-तदा 'से चेव' स एव योऽभ्युद्यतविहारादिकं स्वीकर्तुकामः स एव सप्रार्थ्य 'समुक्कसियवे' समुत्कर्षयितव्यः गणनायकपदे स्थापनीयः, संप्रार्थना यथा-गीतार्थाः संप्रार्थनापुरस्सरं तं ब्रवते-यूयं गणनायकपदं किश्चित् कालं यावत् स्वीकुरुत, परिपालयन्तश्च भवन्त एकमस्माकं कश्चन श्रमणं गीतार्थ निर्मा
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे ___पयत, तदनन्तरं तत्पदं निक्षिप्य भवद्भिरभ्युद्यतविहारादिकं यदिष्टं तत् प्रतिपत्तव्यम् । गीताभरे
वमुक्ते तेन गणनायकपदं प्रतिपद्य कश्चनाप्येकः श्रमणो गीतार्थत्वेन निर्मापितः । तत्पश्चात्तस्य मनसि एवं विचारः समुत्पद्येत-यथा अभ्युद्यतविहाराद्यपेक्षया गच्छपरिपालनं विपुलतरं निर्जराहेतुकमित्यहमेव परिपालयामि गच्छमिति । एवमन्यगीतार्थे निष्पन्ने सति गच्छगता गीतार्थास्तं ब्रुवते-निक्षिप गणनायकपदमिति गीतार्थरेवमुक्ते स ब्रूते-न निक्षिपामि पदवीं किन्तु इच्छामि गच्छं परिपालयितुम् । एवमुक्ते ते गीतार्थाः क्षुभ्यन्ति, ततः 'तंसि च णं समुक्झिटुंसि' तस्मिंश्च खलु समुत्कृष्टे पूर्व गणनायकत्वेन स्थापिते 'परो वएज्जा' परः गीतार्थः गच्छो वा वदेत् 'अज्जो' हे आर्य ? 'ते' तव 'दुस्समुक्कि' दुःसमुत्कृष्टम् अनुचितमिदं गणनायकपदं तस्मात् 'निखिवाहि' निक्षिप त्यजेदं पदम् , यत् पूर्व त्वया नेच्छितं गणनायकपदं पश्चादिदानी यद्यपि तव रोचते तथापि नास्माकं रोचते अतो दुःसमुत्कृष्टं खलु तवेदं गणनायकपदं वर्त्तते । एवं तैः कथिते यदि स स्वपदं निक्षिपति तदा 'तस्स णं' तस्य समुत्कृष्टस्य खलु 'निक्खिवमाणस्स' निक्षिपतः स्वपदवी विमुञ्चतः 'नत्थि केइ छए वा परिहारे वा' नाऽस्ति कोऽपि छेदो वा दीक्षाछेदरूपः, परिहारो वा सप्तरात्रं वा तपः, न तस्य किमपि प्रायश्चित्तं समापतेदिति भावः । अथ 'जे साहम्मिया' ये साधर्मिकाः ये पुनः साधर्मिका गच्छसाधवः 'अहाकप्पेणं' यथाकल्पेन आवश्यकादिषु यथोक्तविनयकरणलक्षणेन, तथाहि-आवश्यके क्रियमाणे यो विनय तस्याऽऽचार्यस्य कर्त्तव्यो भवेत्तं च न कुर्वन्ति, सूत्रमथै वा तत्समीपे न गृह्णन्ति, आचार्यप्रायोग्यं भक्तं तस्य न प्रयच्छन्ति, तस्य पुरतो नालोचयन्ति आचार्यस्य वस्त्रपात्रकम्बलादिप्रत्युपेक्षणार्थ नोपस्थिता भवन्ति, नापि तस्य कृतिकर्म वन्दनकमन्यद्वा कुर्वन्ति, न च तस्य यास्तिस्रः संस्तारकभूमयस्ताअपि ददति एवं यथाकल्पेन यदि 'नो अब्भुट्टाए' नो अभ्युत्थाय तस्य पदवीत्यागं नो कारयित्वा 'विहरंति' विहरन्ति तिष्ठन्ति तदा 'सन्वेसि तेर्सि' सर्वेषां तेषां यथाकल्पमनभ्युत्तिष्ठतां पूर्वोक्तां क्रियां कुर्वतामित्यर्थः प्रत्येकं सर्वेषां पदवीधारकस्य च 'तप्पत्तियं' तत्प्रत्ययिकं यथाकल्पानभ्युत्थान कारणकं 'छए वा परिहारे वा' छेदो वा दीक्षाच्छेद., परिहारः सप्तरात्रं वा तपः प्रायश्चित्तं समापतति ।। सू० १३ ।।।
पूर्व सापेक्षे आचार्योपाध्याये कालधर्मप्राप्ते तत्कथितानुसारेण तत्पदेऽन्याचार्यस्थापने विधिरुक्त', साम्प्रतमाचार्योपाध्यायस्य अवधावने तद्विधिमाह,-अथवा पूर्व भवजीवितान्मरणविषयकं सूत्रमूक्तम् , साम्प्रतं संयमजीवितान्मरणविषयकं सूत्रं प्रतिपाद्यते-'आयरियउवज्झाए ओहायमाणे' इत्यादि ।
स्त्रम्-आयरियउवज्झाए ओहायमाणे अन्नयरं वएज्जा अज्जो ! ममंसिणं ओहावियंसि समाणंसि अयं समुक्कसियव्वे, से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे, से य नो समुक्कसिणारिहे नो समुक्कसियव्वे, अस्थि या इत्य अण्णे केइ समुक्कसरणारिहे से समुक्कसियचे, नत्थि या इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियन्वे
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ४ सू० १४-१५ मरणासन्नाचार्याद्यनुशाते तत्पश्चात्पदानविधिः ११३ तेसि च णं समुकिलुसि परो वएज्जा दुस्समुक्टिं ते अज्जो निक्खिवाहि, तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जे साहम्मिया अहाकप्पेणं नो अब्भुट्टाए विहरंति सव्वेसिं तेसिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १४ ॥
_छाया-आचार्योपाध्यायोऽवधावन् अन्यतरं वदेत् आर्य! मयि खलु अवधाविते सति अयं समुत्कर्पयितव्यः, स च समुत्कर्षणाहः समुत्कर्षयितव्यः स च नो समुत्कर्पणाहों नो समुत्कर्षयितव्यः, अस्ति चात्रऽन्यः कश्चित् समुत्कर्पणार्हः समुत्कर्पयितव्यः, नास्ति चात्राऽन्यः कश्चित् समुत्कर्पणाहः स एव समुत्कर्पयितव्यः, तस्मिंश्च खलु समुत्कृष्टे परो वदेत् दुःसमुत्कृष्टं ते आर्य ! निक्षिप, तस्य खलु निक्षिपतो नास्ति कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, ये साधर्मिकाः यथाकल्पेन न अभ्युत्थाय विहरन्ति सर्वेपां तेषां तत्प्रत्ययिकं छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १४ ॥
__ भाष्यम्-'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्याय आचार्य उपाध्यायश्च 'ओहायमाणे' अवधावन् मोहेन रोगेण वा लिङ्गं सदोरकमुखवस्त्रिकारजोहरणलक्षणं परित्यज्य गच्छान्निस्सरन् अयं गच्छसापेक्षोऽतो गमनात्प्रागेव 'अन्नयरं' अन्यतरम् उपाध्यायं प्रवर्तकं स्थविरं गणिनं गणघरं गणावच्छेदकं वा 'वएज्जा' वदेत् , किं वदेत् ? तत्राह 'अज्जो ! ममंसिणं
ओहावियंसि' हे आर्य | मयि खलु अवधाविते चारित्रलिङ्ग मुक्त्वा गते सति 'अयं समुक्कसियव्यो' अयममुक श्रमण मत्स्थाने समुत्कर्पयितव्यः-मम स्थाने स्थापनीयः । शेषं सर्वं त्रयोदशसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० १४ ॥
__पूर्वमवधाविताचार्योपाध्यायविषयकं सूत्रमुक्तम् , अवधावितश्च स यदि भग्नव्रतो जायेत, भग्नवतो भूत्वा ततो यदि स शुभकर्मोदयात्पश्चात्तापपूर्वकं पुनरुपतिष्ठति, पुनरुपस्थिते सति तस्मिन् उपस्थापना कर्तव्या भवति, तत्प्रसङ्गाद् उपस्थापनाप्रतिपादनार्थ सूत्रमाह-'आयरियउवज्झाए सरेमाणे' इत्यादि ।
सूत्रम् - आयरियउवज्झाए सरेमाणे परं चउरायपंचरायाओ कप्पागं भिक्खं नो उवहावेइ कप्पाए, अत्थि याई से केइ माणणिज्जे कप्पागे णत्थि याई से केइ छेए वा परिहारे वा, णत्थि याई से केइ माणणिज्जे कप्पाए से संतरा छेए वा परिहारे वा ।। सू० १५ ॥
छाया-आचार्योपाध्यायः स्मरन् परं चतुरात्रपञ्चरात्रात् कल्पाकं भिक्षु नो उपस्थापयति कल्पाके, अस्ति तस्य माननीयः कल्पाकः नास्ति चापि तस्य कोऽपि छेदो वा परिहारो वा, नास्ति चापि तस्य कश्चित् माननीयः कल्पाकः तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १५॥
व्य १५
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
घ्यवहारसूत्रे
भाष्यम्--'आयरियउवज्झाए' आचार्यः उपाध्यायश्च सरेमाणे स्मरन् अयमुपस्थापनाई इति जानानः नवदीक्षितोऽयं छेदोपस्थापनीयचारित्रं प्राप्तुं योग्योऽस्ति, इत्येवं जानानः 'परं चउरायपंचरायाओ' परं चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा 'कप्पागं' कल्पाकं यः पइजीवनिकादिसूत्रार्थ प्राप्तस्त 'भिक्खु भिक्षु नवदीक्षितं मुनिम् ‘णो उपहावेइ' नो उपस्थापयति-छेदोपस्थापनीयचारित्रं न समर्पयति तदा आचार्यस्योपाध्यायस्य वा छेदपरिहारादि प्रायश्चित्तमापद्यते । तत्र यदि कदाचित् 'कप्पागे' कल्पाके छेदोपस्थापनोयचारित्रप्राप्तियोग्ये तस्मिन् सति 'अत्यि याई से केइ माणणिज्जे कप्पागे' अस्ति चाऽपि 'से' तस्य महाव्रतरोपणयोग्यनवदीक्षितश्रमणस्य कश्चित् माननीयः संसारपर्यायिकः पिता ज्येष्ठो भ्राता, भन्यो वा कश्चित् स्वामी कल्पाकः भावी पञ्चमहावतारोपणयोग्यः सः नवदीक्षितः प्रतिक्रमण न जानाति पञ्चरात्रेण दशरात्रेण पञ्चदशरात्रेण वा सहैव महावतारोपणमावश्यकं भवेत् तदा 'से' तस्य आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा 'पत्थि याइं से केई छेए वा परिहारे वा' नास्ति न भवति कश्चित्तस्याचार्यस्योपाध्यायस्य वा छेदो वा परिहारो वा उपलक्षणादन्यदपि दशरात्रतपःप्रमृतिकं वा प्रायश्चित्तम् । यदि नवदीक्षितस्य महाव्रतारोपणयोग्यतायुक्तस्याऽपि यदि माननीयः पितादिर्भवति स च दशरात्रात्पर प्रतिक्रमणाभ्यासाऽनन्तरं महावतस्याधिकारी भविष्यतीति ज्ञात्वा आचार्यः 'उभयोः सहैव पञ्चमहावतारोपणं फरिप्यामि' इति कृत्वा पूर्वदीक्षितस्योपस्थापने विलम्बं करोति तदा आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा छेदादिकं प्रायश्चित्तं न भवति, माननीयेऽनुत्थापिते तस्योपस्थापनायाः अयोग्यत्वादिति । 'नत्यि याइं से केइ माणणिज्जे कप्पागे' अथ नास्ति चाऽपि कश्चित् नवदीक्षितस्य माननीयः भावी कल्पाकः उपस्थापनायोग्यः पितादिः तदा चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा परमपि नोपस्थापयति तदा 'से' तस्याचार्यस्योपाध्यायस्य वा 'संतरा छेए वा परिहारे वा' सान्तरात् स्वकृतात्-अन्तरात् अपराधात् यावन्ति दिनानि तस्योपस्थापनेऽन्तरितानि तावन्ति दिनानीत्यर्थः छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं परिहारनामकं पञ्चरात्रादिकं तपःप्रमृतिकं वा प्रायश्चित्तं भवति ।
अयं भावः-यदि चतूरात्रात्परमन्यानि चत्वारि दिनानि यावत् नोपस्थापयति तदा आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा प्रत्येकं प्रत्येक दिनचतुष्टये-प्रथमचतुष्टये द्वितीयचतुष्टये च प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकं भवति । अथ यदि प्रथमद्वितीयचतुष्कादनन्तरमन्यानि चत्वारि दिनानि लक्ष्यति तत्र नोपस्थापयति तदा षइलघुकं प्रायश्चित्तं भवति, ततोऽप्यन्यानि चत्वारि दिनानि अतिवाहयति चेत् तदा षड्गुरुकं प्रायश्चित्तं भवति । ततोऽपि यद्यन्यानि चत्वारि दिनानि लञ्चयति तदा चतुर्गुरुकश्छेदः प्रायश्चित्तं भवति । ततः परं यद्यन्यानि चत्वारि दिनानि लश्चयति, तदा षड्गुरुकश्छेदः प्रायश्चित्तं भवति । तदनन्तरमेकैकदिवसातिक्रमे मूलाऽनवस्थाप्यपाराश्चितानि प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति ।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ४ सू० १६-१७
कल्पाकस्योपस्थापनाविधिः ११५ अयमाशयः- विवक्षिते भिक्षौ कल्पाके पञ्चमहावतारोपणयोग्ये जाते सति यदि कदाचित् तस्य कल्पाकस्य माननीयो जनकादिरुपस्थापयितव्यो विद्यते परन्तु अद्यावधि कल्पाको न जातः आवश्यकसूत्रार्थयोर्खता न सम्पन्नस्तहि स जघन्यतः पञ्चरात्रं यावत् प्रतीक्ष्यः, मध्यमतो दशरात्रं यावत् , उत्कर्षतः पञ्चदशरात्रं यावत् प्रतीक्ष्यः, तदनन्तरमपि यदि माननीयो जनकादिवर्गो न कल्पाक उपजायते तदा तत्प्रतीक्षां दूरतोऽपहाय स कल्पाको भिक्षुरुपस्थापनीय एव । तत्र यदि आचार्यः उपाध्यायो वा नोपस्थापयति तदा आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा अनुत्थापननिमित्तकं छेदः छेदनामकं, परिहारः परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं भवति । अथ यदि तस्य कल्पाकस्य माननीयो जनकादिः भावी कल्पाको न विद्यते, तदा तेषां पित्रादीनामभावे यदि तं कल्पाकं चतूरात्रमध्ये पञ्चरात्रमध्ये वा नोपस्थापयति तदा तस्याचार्यस्य उपाध्यायस्य वा छेदः परिहारो वा प्रायश्चित्तं भवति ॥ सू० १५॥
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए असरमाणे परं चउरायपंचरायाओ कप्पागं भिक्खं नो उवहावेइ कप्पाए, अस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए नत्थि से केइ छए वा परिहारे वा, नस्थि य इत्थ से केइ मागणिज्जे कप्पाए से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू०१६॥
छाया-आचार्योपाध्यायः अस्मरन् परं चतूरात्रपञ्चरात्रात् कल्पाकं भिक्षं नो उपस्थापयति कल्पाके, अस्ति चाऽत्र कश्चित् माननीयः कल्पाकः नाऽस्ति तस्य कश्चित छेदो वा परिहारो वा, नास्ति चाऽत्र तस्य कश्चित् माननीयः कल्पाकः तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ।। स्०१६ ॥
भाष्यम-आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्याय आचार्यो वा उपाध्यायो वा 'असरमाणे' अस्मरन् प्रमादवशात् कार्यव्यग्रत्वेन वा नवदीक्षितोपस्थापनस्य स्मरणमकुर्वन् 'परं चउरायपंचरायाओ' चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा परम् 'कप्पागं भिक बुं नो उपहावेइ' कल्पाकं सूत्रार्थप्राप्तम् सम्यक् षड्जीवनिकादिज्ञातारं भिक्षु नवदीक्षितं श्रमणम् नो उपस्थापयति छेदोपस्थापनीयचारित्रारोपणं न करोति, अथ 'कप्पाए' कल्पाके अभ्यस्तषड्जीवनिकादिके तस्मिन् विद्यमाने 'अस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए' अस्ति विद्यते चाऽत्राऽस्मिन् गच्छे 'से' तस्य नवदीक्षितस्य कश्चित् कोऽपि माननीयः पितृभ्रातृप्रभृतिकः भावी कल्पाकः तदा अस्मरतः आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा 'नत्थि से केइ छए वा परिहारे वा' नास्ति न भवति तदा 'से' तस्याचार्यस्य उपाध्यायस्य वा छेदो वा परिहारो वा । यदि नवदीक्षितस्य कश्चित् पितृभ्रातृप्रभृतिको माननीयः तस्मिन् गच्छे भावी कल्पाक उपस्थापनायोग्यो भवेत् तदा पञ्चरात्रात् परमपि नवदीक्षितस्याऽनुपस्थापने अस्मरतोऽपि आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा छेदनामकं परिहारनामकम् अन्यद्वा सप्तरात्रादिकतपःप्रभृतिकं प्रायश्चित्तं न भवतीति भावः ।
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे 'नस्थि य इत्य से माणणिज्जे कप्पाए' अथ यदि नाऽस्ति न विद्यते अत्राऽस्मिन् गच्छे 'से' तस्य माननीयः पिता ज्येष्ठभ्रातादिर्वा कल्पाकः सूत्रार्थप्राप्तः कश्चित् तदा चतूगत्रात् पञ्चरात्राद्दा परमस्मरतः 'से' तस्य आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा 'संतरा छेए वा परिहारे वा' सान्तरात् यावन्ति दिनानि तस्योपस्थापने व्यवधानीकृतानि तावदिनपरमितः छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं परिहारनामकं सप्तरात्रं वा तपः प्रायश्चित्तं भवतीति ।। सू० १६ ॥
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए सरमाणे वा असरमाणे वा परं दसरायकप्पाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अत्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए नत्थि य इत्य से केइ छेए वा परिहारे वा, नत्थि य इत्य से केइ माणणिज्जे कप्पाए संवच्छरं तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा उवज्झायत्तं वा पवत्तयत्तं वा थेरत्तं वा गणित्त वा गणहरत्तं वा गणावच्छेययत्तं वा उद्दिसित्तए वा ॥ सू० १७॥
छाया-आचार्योपाध्यायः स्मरन् वा अस्मरन् वा परं दशरात्रकल्पात् कल्पाक भिक्षु नो उपस्थापयति कल्पाके, अस्ति चाऽत्र कश्चित् माननीयः कल्पाकः नाऽस्ति तस्य कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, नास्ति चाऽत्र तस्य कश्चित् माननीयः कल्पाकः संवत्सरं तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा उपाध्यायत्वं वा प्रवर्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणधरत्वं वा गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुम् ॥ सू० १७॥
भाष्यम्-'आयरियउवज्झाए' आचार्यः उपाध्यायो वा 'सरमाणे वा असरमाणे वा' स्मरन् 'मयं नवदीक्षितः श्रमण उपस्थापनायोग्यः' इत्येवं स्मरन्, विस्मरन् वा यस्मिन् काले स्मरण करोति 'अयमुपस्थापनयोग्यः' इति तत्समये उपस्थापनासाधकं प्रशस्तलग्ननक्षत्रमुहूर्तादिकं न मिलति, यदा तु साधकं लग्ननक्षत्रादिकमनुकूलमुपस्थितं भवति, तदा संघकार्यादिव्याक्षेपात् न त्मरति तत एवं कथ्यते यत् स्मरन् वा अस्मरन् वा 'परं दसरायकप्पाओ' परं दशरात्रकल्पात् कालः समयः भद्धा, कल्पः, इति समानार्थका. कालवाचकाः शब्दाः, ततोऽत्र कल्पशब्दः कालार्थकः तथाच-स्मरणेऽपि पञ्च, अस्मरणेऽपि पञ्चेति स्मरणास्मरणमिश्रसूत्रत्वेन दशरात्रात्कल्पादिति दशरात्रात्मककालात् परमधिकं कालं यावत् 'कप्पागं' कल्पाकं प्राप्तसूत्रार्थम् 'भिक्ख' भिक्षं 'नो उवहावेई' नो उपस्थापयति महानते नाऽऽरोपयति 'कप्पाए' कल्पाकेऽधिगतसत्रार्थे तस्मिन् विद्यमाने सति तत्र यदि 'अस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए' अस्ति चाऽत्र तस्य कश्चित् माननीयः कल्पाकः, यद्यत्र गच्छे तस्य अभिनवदीक्षितस्य माननीयः पितृभ्रातृप्रमृतिकः समीपतरकाले भाविकल्पाको विद्यते तदा नोपस्थापयति अभिनव दीक्षितं तर्हि तु 'नत्थि इत्थ से केइ छेए वा परिहारे वा' नास्ति न भवति तस्याऽनुपत्थापयितुराचार्यस्योपाध्यायस्य वा कश्चित् छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं परिहारनामकं
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ४ ० १८
भिक्षोगणान्तरगमने तत्रावस्थानविधिः १२७ दशरात्रप्रभृतिकं वा प्रायश्चितम् । अत्र तस्य भाविकल्पाकस्य माननीयपित्रादिकस्य सद्भावे यदि नवदीक्षितं तत्कारणमाश्रित्य नोपस्थापयति तदाऽऽचार्यादेर्न किमपि छेदपरिहारादिकं प्रायश्चित्तमापतति, माननीय कल्पाकोपस्थापनानन्तरमेव लघुवयस्कनवदीक्षितस्याधिकारप्राप्तत्वादिति भावः । अथ 'नत्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए' नास्ति न विद्यते चाऽत्र गच्छे तस्याऽभिनवदीक्षितस्य कश्चिन्माननीयः पित्रादिर्भाविकल्पाः तर्हि तस्याऽभिनवदीक्षितस्य तत्कालमेवोपस्थापनमकर्त्तुराचार्यस्य उपाध्यायस्य वा छेदनामकं परिहारनामकं दशरात्रं वा यद्यत्तपः तत्तव्प्रभृतिकं प्रायश्चित्तं भवत्येव । अथ यदि स छेदं परिहारं तदुभयं वा तपो धृतिकायबलाद्यभावेन वोढुं न शक्नुयात् तदा 'संवच्छरं तस्स तप्पत्तियं' संवत्सरं वर्षपर्यन्तं यावत् तस्याऽनुपस्थापयितुराचार्यस्य उपाध्यायस्य वा तत्प्रत्ययिकम् - अनुपस्थापननिमित्तकम् 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'आयरियत्तं वा' आचार्यत्वं वा गणनायकपदं वा 'पवत्तयत्तं वा' प्रवर्त्तकत्वं वा 'थेरत्तं वा' स्थविरत्वं वा 'गणित्तं वा' गणित्वं वा 'गणहरतं वा' गणधरत्वं वा 'गणात्रच्छेययत्त' वा' गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा संवत्सरपर्यन्तम् आचार्यादिपदं त्याजयित्वा तत्सकाशाद् गणो ह्रियते, अमुस्मिन् अपराधे तपोवहनाशक्तस्य आचार्यादेः पदापहरणमात्रदण्डस्यैव विधानादिति ॥ सू० १७॥
पूर्वसूत्रे आचार्यस्य गणापहरणमुक्तम्, ततो गुरोर्गणहरणं दृष्ट्वा गणस्थो भिक्षुः 'मे गुरोर्गणः किमिति हृतः' इति विचिन्त्यास्मादेवापमानकरणाद् भिक्षुरन्यत्र गणान्तरे गच्छेत्, यद्वा यस्य गणो हृतः स एव वा गणहरणापमानेन कलुषितः सन् अन्यं गणं व्रजेदित्यन्यगणोपसम्पत्प्रतिपादनार्थमाह – 'भिक्खू य' इत्यादि ।
I
सूत्रम् - भिक्खू य गणाओ अवकम्म अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा - कं अज्जो ! उवसंपज्जित्ता णं विहरसि ? जे तत्थ सव्चराइणिए तं वएज्जा, अह भंते कस्स कप्पाए ? जे तत्थ वहुस्सुए तं वएज्जा जं वा से भगवं वक्खर तस्स आणाउववायवयणनिदे से चिट्ठिस्सामि ॥ सू० १८ ॥
छाया - भिक्षुश्च गणाद्वक्रम्य अन्यं गणमुपसंपद्य खलु विहरेत् तं च कश्चित् साधर्मिको दृष्ट्वा वदेत्-कम् आर्य ! उपसंपद्य विहरसि । यः तत्र सर्वरत्नाधिकः तं वदेत्, अथ भदन्त ! कस्य कल्पेन यस्तत्र बहुश्रुतस्तं वदेत् यं वा स भगवान् वक्ष्यति तस्याज्ञो - पपातवचननिर्देशे स्थास्यामि || सू० १८ ॥
भाष्यम् – 'भिक्खू य' भिक्षुश्व 'गणाओ अवक्कम्म' गणात् स्वकीयगच्छात् अवक्रम्य निष्क्रम्य 'अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा' गणहरणकारणं, यद्वा विशिष्टसूत्रार्थनिमित्तमन्यकारणनिमित्तं वा अन्यम् अन्यदीयं गणं गच्छमुपसंपद्य परकीयगच्छं प्राप्य विहरेत् तिष्ठेत् तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा' तं श्रमणं च कचित् अनेक भिक्षाचरादि
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८
व्यवहार
समाकुले ग्रामे भिक्षाद्यर्थं भ्रमन्तं दृष्ट्वा सम्यगवलोक्य कश्चित्साधर्मिको वदेत् पृच्छेदित्यर्थः, किं पृच्छेदित्याह – 'कं' इत्यादि, 'कं अज्जो ! उवसंपज्जित्ता णं विहरसि' हे आर्य ! कमाचार्यविशेषमुपसंपद्य कस्याचार्यस्य निश्रायां तिष्ठन् खलु त्वं विहरसि एवं साधर्मिकेण पृष्टः सन् 'जे तत्थ सव्वराइणिए' यस्तत्र यत्र गच्छे गतस्तस्मिन् स्थाने सर्वरत्नाधिको गीतार्थ आचार्यो भवेत्तं वदेत् अमुकस्य रत्नाधिकस्य निश्रायां तिष्ठामीति वदेत् । तस्मिन्नेवमुक्ते स परिकल्पयति-यमयं व्यपदिशति स तु अगीतार्थः, न चाऽयमगीतार्थनिश्रया विहरति ततः स साधर्मिकः पुनरपि पृच्छति - 'अह भंते ' इत्यादि 'अह मंते कस कप्पाए' अथ भदन्त ! कस्याचार्यस्य कल्पेन कस्य निश्रया विहरसीति । सूत्रे 'कप्पाए' इत्यत्र स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् । एवमुक्ते 'जे तत्थ वहुस्सुए तं वएज्जा' यः कोऽपि तत्र स्थाने बहुश्रुतस्तं वदेत् तस्य सर्वरत्ना धिकस्याचार्यस्याऽगीतार्थस्य यो गीतार्थः शिष्यः सूत्रार्थनिष्णातः समस्तस्यापि गणस्य तृप्तिकारकस्तस्य नाम गृह्णीयात्, यद् अमुकस्य निश्रयाऽहं विहरामीति वदेत् - 'जं वा से भगवं वक्खइ' यं वा स भगवान् ज्ञानादिसंपदासम्पन्नः वक्ष्यति कथयिष्यति यथाऽमुकस्याऽऽज्ञा त्वया परिपालनीये - ति, 'तस्स आणाउववायवयणनिदेसे चिट्ठिस्सामि' तस्यैव आज्ञोपपातवचननिर्देशे आज्ञा च उपपातश्च वचननिर्देशश्चेति समाहारद्वन्द्वः, तेन आज्ञायाम् उपपाते - समीपे, वचननिर्देशे आदेशप्रतीक्षायां च स्थास्या - मीति ॥ सू०१८ ॥
पूर्वसूत्रे आज्ञायां स्थास्यामीत्युक्तम्, इत्यनेन गुरूणामाज्ञा बलवती भवति - 'आज्ञासारश्च गच्छवासः' इति ध्वनितम् ततः शरीरस्य प्रतिरोद्धुमशक्तं श्वासोच्छासनिमेषादिक्रियाव्यापारं मुक्त्वा सर्वेषु व्यापारेषु गुर्वाज्ञा पालनीयेति तदर्थप्रतिपादनार्थमिदं सूत्रमाह - ' वहवे साहम्मिया' इत्यादि ।
सूत्रम् - - बहवे साहम्मिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिचरियं चारए णो व्हं कप्पर थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिचरियं चारए, कप्पइ ण्हं थेरे आपुच्छित्ता एगयओ अभिनिचरियं चारए, थेरा य से वियरेज्जा एवं ह कप्पइ एगयओ अभिनिचरियं चारए, थेरा य से नो वियरेज्जा एवं हं नो कप्पर एगयओ अभिनिचरिथं चारए, जं तत्थ थेरेहिं अविणे एगयओ अभिनिचरियं चरंति से अंतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १९ ॥
छाया - बहवः साधर्मिका इच्छेयुरेकतोऽभिनिचरिकां चरितुम् नो खलु कल्पते स्थविराननापृच्छय एकतोऽभिनिचरिकां चरितुम्, कल्पते खलु स्थविरानापृच्छय एकतोऽभिनिचरिकां चरितुम् स्थविराश्च ते वितरेयुः एवं खलु कल्पते एकतोऽभिनिचरिकां चरितुम् स्थविराश्च ते नो वितरेयुः एवं खलु नो कल्पतेऽभिनिचरिकां चरितुम्, यत्तत्र स्थविरैरवितीर्णे पकतोऽभिचरिकां चरन्ति तेषां सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू०१९॥
9
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
~
भाष्यम् उ० ४ सू० १९-२०
अनेकसार्मिकाणामेकतो विहरणविधिः ११ भाष्यम्- 'वहवे' बहवोऽनेके त्रिप्रभृतिकाः 'साहम्मिया' साधर्मिकाः समानधर्मवन्त साम्भोगिकाः 'इच्छेज्जा' इच्छेयुः, किमिच्छेयुः ! तत्राह-'एगयओ' इत्यादि । एगयओ एकतः एकत्र सहिता इत्यर्थः 'अभिनिचरियं चारए' अभिनिचरिकां चरितुम्, तत्र एकत्र मिलित्वा विचरणम्, एकत्र मिलित्वा वासकरणम्, एकत्र मिलित्वा चलनं अभिनिचरिका, तां कत्तुं वहवः श्रमणा इच्छेयुः, एवं प्रकारेण तेषामिच्छताम् 'नो ण्डं कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता' नो खल सूत्रे 'पह' इति सर्वत्र खल्वर्थे' तेषामभिनिचरिकां चरितुं कल्पते स्थविरान् गच्छनायकान् अनापृच्छ्य मनामन्त्र्य, स्थविराणामाज्ञां विना तेषामिच्छतामपि अभिनिचरिको चरितुं कथमपि न कल्पते स्वच्छन्दचारित्वदोषसंभवात् । तर्हि कथं कल्पते ? इत्याह-'कप्पइ हं' इत्यादि, 'कप्पइ ण्हं थेरे आपुच्छिता एगयओ अभिनिचरियं चारए' यस्मात् कारणात् स्वच्छन्दचारित्वदोषापातस्तस्मात् कारणात् कल्पते खलु तेषां स्थविरान् गणनायकान् आपृच्छ्य आमन्त्र्य तदाज्ञां लब्ध्वेत्यर्थः एकतोऽभिनिचरिकां चरितुमिति । 'थेरा य से वियरेज्जा एवं ण्हं कप्पइ एगयओ अभिनिचरियं चारए' आपृच्छायां कृतायां सत्यां यदि स्थविराश्च तेषां वितरेयुरनुजानीयुरनुज्ञां दधु रित्यर्थः तदा एवं खलु कल्पते तेषामिच्छतां बहूनामेकत्र मिलित्वा एकतोऽभिचरिकां गमननिवासादिरूपां चरितुम् । अथ यदि आपृ. च्छायां कृतायामपि 'थेरा य से नो वियरेज्जा' स्थविराश्च तेषां नो वितरेयुः अनुज्ञां यदि नो दद्युस्तदा ‘एवं ण्डं नो कप्पई एगयओ अभिनिचरियं चारए' एवं खल तेषां न कल्पते न कथमपि युज्यते एकतः एकत्र मिलित्वा अभिनिचरिकां चरितुम् । 'जं तत्थ थेरेहिं अविइण्णे' यत पुनः तत्र स्थविरैः गणनायकैरवितीर्णेऽननुज्ञाते सति 'एगयओ अभिनिचरियं चरंति' एकत एकत्रमिलित्वा अभिनिचरिकां चरन्ति कुर्वन्ति 'से संतरा छेए वा परिहारेवा' से तेषां प्रत्येकं सान्तरात् तत्स्थानादप्रत्यावर्त्तनरूपात् यावन्ति दिनानि तेऽभिनिचरिकां चरन्ति तावदिनपरिमितकालमाश्रित्येत्यर्थः छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं परिहारनामकं दशरात्रिकं तपःप्रभृतिकं वा प्रायश्चित भवतीति ॥सू० १९ ॥
पूर्वसूत्रे स्थविराज्ञयाऽभिनिचरिका प्रोक्ता, साम्प्रतमनाज्ञाविचरतो भिक्षोः प्रायश्चित्तमाह'चरियापविढे' इत्यादि।
सूत्रम्-चरियापविढे भिक्खू जाव चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा सच्चेव आलोयणा सच्चेव पडिक्कमणा सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुन्नवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे ।। सू० २० ॥
छाया--चरिकाप्रविष्टो भिक्षुर्यावत् चतूरात्रपञ्चरात्राद्वा स्थविरान् पश्येत् सैव आलोचना तदेव प्रतिक्रमणम् सैवोपग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति यथालन्दमप्यवग्रहे ॥सू० २० ॥
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
व्यवहारसूत्रे भाष्यम् –'चरियापविटे भिक्खू' चरिकानिमित्तं ये श्रमणा ग्रामानुग्रामगताः तेषां मध्यात् एकतरं श्रमणमधिकृत्य कथ्यते चरिकाप्रविष्टो भिक्षुः श्रमणः स्वगच्छीयस्थविराणामाज्ञामन्तरेण विहत्तुं प्रवृत्तः साधुः 'जाव चउरायपंचरायाओ' यावत् चतूरात्रात्पञ्चरात्राद्वा, अत्र यावत्पदेन-'एकद्वित्रि' इति पदं गृह्यते ततश्चायमर्थः-एकद्वित्रिचतु पञ्चरात्रात् , यथा एकरात्रात् द्विरात्रात् त्रिरात्रात् चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा परं 'थेरेपासेज्जा' स्थविरान् स्वकीयगणनायकान् पश्येत् एकादिपञ्चरात्रानन्तरं यदा पूर्वस्थविरैः सह मिलेदित्यर्थः तदा तस्य स्थविरैः सह मिलितस्य 'सच्चेव आलोयणा' सैवालोचना तिष्ठति या खलु आलोचना अन्यस्माद्गणादागते उपसंपद्यमाने वितीर्णा 'सच्चेव पडिक्कमण' तदेव परिक्रमणम् अन्यगणादागत्य तस्मिन् गणे उपसंपद्यमाने यत् तस्मात् पापस्थानात् प्रत्यावर्तनरूपं तदेव, 'सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुन्नवणा चिट्टई' सैव चावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति या अनुज्ञापना अन्यदीयगणादागते उपसंपद्यमाने च साधर्मिकावग्रहस्याऽनुज्ञापनाकृता आसीत् सैवेति 'अहालंदमवि उग्गहे' यथालन्दमप्यवग्रहे यथाकालमपि, अत्रापिशब्दः संभावनायाम् तेन न केवलं यथाकालमेव किन्तु चिरमपि यथाकालं यावत्ततो गच्छात् तस्य भावो न विपरिणमति तावदवग्रहे अवग्रहस्य सैव पूर्वाऽनुज्ञापना तिष्ठति, आज्ञामन्तरेण विहारप्रवृत्तः साधुवित् एकद्वित्रिचतूरात्रपञ्चरात्रपर्यन्तं विहृत्य स्थविरान् दृष्ट्वा भवदाज्ञामन्तरेणाहं विहारं कृतवान् इत्येवंरूपेगाऽऽलोचना कर्त्तव्या, प्रतिक्रमणं कर्त्तव्यम् । तथा यत्रैतावत्कालं स्थितः तत्रत्यस्थविराज्ञामादाय पुनः यस्य स्थविरस्य पार्थे पूर्वमासीत् तदाज्ञायामेव भूयोऽवस्थितो भवेत् । तथा यावत्पर्यन्तं हस्तरेखा शुष्येत् तावत्कालमपि स्थविराज्ञामन्तरेण न तिष्ठेदिति भावः ॥ सू० २०॥
सूत्रम्-चरियापविढे भिक्खू परं चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स परिहारस्स उवट्ठाएज्जा भिक्खुभावस्स अट्टाए दोच्चपि ओग्गहे अणुन्नवेयवे सिया, कप्पइ से एवं वदित्तए-अणुजाणह भंते ! मिओग्गहें अहालंद धुवं निययं निच्छइयं वेउट्टियं तओ पच्छा कायसंफासं ॥ सू० २१॥
छाया-चरिकाप्रविष्टो भिक्षुः परं चतूरात्रपञ्चरात्राद्वा स्थविरान् पश्येत् पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रमेत् पुनश्छेदस्य परिहारस्योपतिष्ठेत् भिक्षुभावस्यार्थाय द्वितीयमन्यवग्रहोऽनुज्ञातव्यः स्यात् कल्पते तस्य एवं वक्तुम्-अनुजानीत भदन्त ! मितमवग्रहम् यथालन्दं ध्रुवं नियतं नैश्चयिकं व्यावृत्तम् ततः पश्चात् कायसंस्पर्शम् ।। सू० २१॥
भाष्यम्-'चरियापविट्रे भिक्खू' चरिकाप्रविष्टः स्थविराज्ञामन्तरेण एकतो विहारादिनिमित्तं गतो भिक्षुः 'परं चउरायपंचरायाभो'. परं चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा इत्यत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिस्तत. परमित्यस्यायमर्थः-परम् परिणते भावे चतुःपञ्चरात्रात् पूर्व परतो वा यदि चरिकाप्रविष्टस्य श्रमणस्य भादो विपरिणतो भवेत् यथा कोऽत्र स्थास्यति, अत्रतो मया निष्क्रमितव्य
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०४ सू० २१-२२
चरिकानिवृत्तस्य पुनरागमने विधिः १२१ मिति परिभूतः सन् ततश्चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा परतः 'थेरे पासेज्जा' स्थविरान् स्वकीयंगणनायकान् पश्येत् पुनरपि च तस्य भावः प्रत्यावृत्तो भवेत् तदा स भूयोऽपि प्रथमोपसंपदीव यथा पूर्व तत्प्रथमतया उपसंपदि स्थितः तद्वत् तेषां स्थविराणां पार्वे 'पुणो आलोएज्जा' 'पुनरपि प्रथमोपसंपदीव भूयोऽप्यालोचयेत् आलोचनां कुर्यात् स्वकीयापराधं गुरुसमीपे वचसा प्रकाशयेत् 'पुणो पडिक्कमेज्जा' पुनर्भूयोऽपि प्रतिक्रामेत् तत्पापस्थानात् पुनरकरणतया प्रत्यावर्तनरूपं प्रतिक्रमणं कुर्यात् 'पुणो छेयस्स परिहारस्स उवट्ठाएज्जा' पुन योऽपि छेदाय छेदप्रायश्चित्तग्रहणाय परिहाराय वा परिहारतपोग्रहणाय वा उपतिष्ठेत उपस्थितो भवेत् , विपरिणते अपरिणते वा भावे यत्किञ्चित् प्रायश्चित्तस्थान प्राप्तवान् , तस्मिन् पापस्थाने आलोचिते प्रतिक्रान्ते सति गणनायकेन यत् छेदनामकं परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं निर्दिष्टम् तत्सम्यक् श्रद्धाय तस्य करणार्थमुपतिप्ठेत अभ्युद्यतो भवेत् । प्रथम स्वगच्छात् विनिर्गतः पुनर्भावपरावर्त्तनेन स्वगच्छं समागतः तदनन्तरमाचार्येण यत् प्रायश्चित्तं दीयते तस्य सर्वस्यापि परिपालनाय समुद्यतो भवेदिति भावः । किमर्थं छेदादिप्रायश्चित्तार्थमभ्युद्यतो भवेत् ? तत्राह-'भिक्खुभावस्स अट्ठाए ' भिक्षुभावस्य भिक्षुत्वस्याऽर्थाय प्रयोजनाय 'यथाऽवस्थितं मे भिक्षुत्वं पुनरपि भूयात्' इत्येवमर्थम् , अथवा भिक्षुभावो नाम-स्मारणा, वारणा, नोदना, प्रतिनोदना, तत्र विस्मृतेऽर्थे स्मारणा १, अतिचारादेः प्रतिषेधनं वारणा २, स्खलितस्य पुनः शिक्षणं नोदना ३, स्खलितस्य पुनः पुनर्निष्ठुरं शिक्षापणं प्रतिनोदना ४ । एनाभिर्यथावस्थितो भावो भिक्षुभावः, एता यथा पूर्वमासीरन् तथेदानीमपि स्युरित्येवमर्थम् 'दोच्चंपि ओग्गहे अणुन्नवेयव्वे सिया' द्वितीयमपि वारमवग्रहोऽनुज्ञातव्यः स्यात् भवेत् , द्वितीयवारमवग्रहानुज्ञां गृह्णीयात् 'कप्पइ से एवं वदित्तए' कल्पते 'से' तस्य एव वक्ष्यमाणप्रकारेण वक्तुम् । कथमित्याह-'अणुजाणहं भंते' अनुजानीत भदन्त ! हे भदन्त ! 'मिओग्ग' मितमवग्रहम् , अत्रावग्रेहेत्युपलक्षणं गमनादीनाम् , तथाचाऽयमर्थः-मितं प्रमाणयुक्तं मर्यादायुक्तमवग्रहम् , मितं गमनं प्रयोजनवंशतः, मितमवस्थानम् विश्रामनिमित्तम् , मितं निषीदन, मितं- त्वग्वर्त्तनादिकम् । तत्र मितनिषीदनं स्वाध्यायादिनिमित्तम् , मितत्वग्वर्त्तनं पार्श्वपरितापकारणात् , आदिशब्दात मितभाषणं कार्ये समापतिते भाषणावसरभावात् , मितभोजनम् एककुक्षिपूरणमात्रस्य भगवताऽनु ज्ञातात् , हे भदन्त ! तत्सर्वमनुजानीत 'अहालंदं यथालन्दं यथाकालं 'धुवं' ध्रुवम् गच्छमर्यादया यदवश्यं कर्त्तव्यम् 'निययं नियतं यावदवधावनिकामर्यादा तावदहमपि न त्यक्ष्यामि अवश्यकरणीयम् 'निच्छइयं' नैश्चयिकं यावत् सहायान् न लमे तावत् अवश्यं निश्चयभावेनाऽनुष्ठेयम् तथा 'वेउट्टियं' व्यावर्तितम् प्रतिदिनं पक्षचातुर्मासिकसवत्सरादौ क्षामणादिषु वा अनेकप्रकारमाज्ञाविलोपनं कृतम् , इत्येतत्सर्वमनुजानीत क्षमध्वमित्यर्थः । 'तओ पच्छा कायसंफासं'
व्य. १६
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨
व्यवहारसूत्रे
ततो गुरुणाऽभ्युपगते सति पश्चात् कायसंस्पर्शम् कायस्य चरणयुगललक्षणस्य शिरसा संस्पर्श करोति गुरोश्चरणद्वयं शिरसा वन्दते इत्यर्थ, अथवा कृतिकर्मादिषु आगमने गमने च यः कायसंस्पर्शः शरीरसंघट्टादिर्जातस्तमप्यनुजानीत गमनागमने च भवदासनादीनां संघट्टादिकं नातं तस्याऽपि क्षमां ददतु इत्यर्थः ॥ सू० २१ ॥
पूर्वं चरिकाप्रविष्टस्य सूत्रद्वयेनाऽऽलोचनादिकं प्रोक्तम्, सम्प्रति चरिकानिवृत्तस्य सूत्रद्वयेनाऽऽलोचनादिकमाह-'चरियानिय भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम् - चरियानियट्टे भिक्खू जाव चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा सच्चेव आलोयणा सच्चेव पडिक्कमणा सच्चेव उग्गहस्स पुन्वाणुण्णवणा चिट्ठ आहालंदमवि उग्गहे ॥ सू० २२ ॥
छाया - चरिका निवृत्तो भिक्षुः यावत् चतूरात्रपञ्चरात्रात् स्थविरान् पश्येत् सैवाssलोचना तदेव प्रतिक्रमणम् सैवाऽवग्रहस्य पूर्वाऽनुज्ञापना तिष्ठति यथालन्दमप्यवग्रहे ॥ सू० २२ ॥
भाष्यम् – 'चरियानियट्टे भिक्खू' चरिकानिवृत्तो भिक्षुः यः साधुः स्थविराज्ञां विना गत्त्वा तत्स्थानतो निवृत्त: ‘जाव चउरायपंचरायाओ' यावत् चतूरात्रपञ्चरात्रात् यावत्पदेन एकरात्रात् द्विरात्रात् त्रिरात्राद्वा परं इत्यस्य संग्रहो भवति । शेषं सर्वे चरिकाप्रविष्टविषयकविंशतितमसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० २२ ॥
1
अथ चरिकानिवृत्तविषयकं द्वितीयसूत्रमाह - 'चरियानिय भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम् – चरियानियट्टे भिक्खू परं चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उबट्टाएज्जा भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चपि ओग्गहे अनुन्नवेयच्वे सिया, अणुजाणह भंते ! मिश्रग्गदं अहालंं धुवं नितियं नियच्छियं वेउट्टियं तओ पच्छा कायसंफासं ॥ सू० २३ ॥
छाया -चारिकानिवृत्तो भिक्षुः परं चतूरात्रपञ्चरात्रात् स्थविरान् पश्येत् पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रमेत् पुनश्छेदपरिहारस्थोपतिष्ठेत् भिक्षुभावस्यार्थाय द्वितीयमपि अवग्रहः अनुज्ञातव्यः स्यात् अनुजानीत भदन्त ! मितमवग्रहं यथालन्दं ध्रुवं नियतं नैश्चयिकं व्यावृत्तम् ततः पश्चात् कायसंस्पर्शम् ॥ सू० २३ ॥
भाष्यम्- 'चरियानियट्टे भिक्खू' चरिकानिवृत्तो भिक्षुः आज्ञामन्तरेण अन्यगणे ग्रामानुग्रामविहारे वा गत्वा ततः प्रतिनिवृत्तो भिक्षुरित्यर्थः ' परं चउरायपंचरायाओ' चतूरात्रपञ्चरात्रात् । पूर्वं परतो वा 'थेरे पासेज्जा' स्थविरान् पश्येत् । शेषं सर्वे चरिकाप्रविष्टविषयैकविंशतितमसूत्रवद् व्याख्येयम् ।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ४ सू० २३-२५
साधर्मिकद्वयस्यैकतो विहरणविधिः १२३ अथ यदि चरिकाप्रविष्टसूत्रद्वयवदेव चरिकानिवृत्तसूत्रद्वयमपि वर्त्तते तदा किमर्थमनयोः सूत्रयोः पृथगुपादानं क्रियते चरिकाप्रविष्टसूत्राभ्यामेव अनयोश्चरिकानिवृत्तसूत्रयोर्गतार्थत्वात् , यतो यैव चरिकाप्रविष्टानां श्रमणानां सामाचारी सैव सामाचारी चरिकानिवृत्तानां साधूनामपीति । अत्रोच्यते-केवलमुच्चारिते चरिकाप्रविष्टसूत्रद्वये, अनुच्चारिते च चरिकानिवृत्तसूत्रद्वये यथैव प्रायश्चित्तदानसामाचारी चरिकाप्रविष्टानाम् सैव सामाचारी चरिकानिवृत्तानामपीत्यर्थो न लभ्यते एतादृशार्थप्रतिपादकसूत्रपदाऽभावात् , पदेन हि पदार्थो ज्ञायते पदाऽभावे पदार्थज्ञानस्याऽसंभवात् ततःसूत्रद्वयमुच्चार्य यैव सामाचारी चरिकाप्रविष्टानां सैव सामाचारी चरिकानिवृत्तानामपीति वोधनाय चरिकानिवृत्तसूत्रद्वयं निहितम् , अन्यथा-एतत्सूत्रद्वयाभावे चरिकानिवृत्तानामन्यैव कापि सामाचारीति कल्प्येत ततः कल्पनान्तरं मा भूदित्येवमर्थं चरिकानिवृत्तसूत्रद्वयमिति ॥ सू० २३ ॥
सूत्रम्-दो साहम्मिया एगयओ विहरंति तंजहा सेहो रायणिए य, तत्थ सेहतराए पलिच्छन्ने रायणिए अपलिच्छन्ने, सेहतराएणं रायणिए उवसंपज्जियव्वे भिक्खोववायं च दलयइ कप्पागं ॥ सू० २४ ॥
छाया-- द्वौ साघमिकौ एकतो विहरतः तद्यथा-शैक्षो रात्निकश्च तत्र शैक्षतर:परिच्छन्नः रत्निकोऽपरिच्छन्नः, शैक्षतरेण रात्निक उपसंपत्तव्यः भिक्षामुपपात च दाति कल्प्य कम् ॥ सू० २४ ॥
भाष्यम्-'दो साहम्मिया' द्वौ साधर्मिको समानगुरुकुलौ सहाध्यायिनौ एकस्य गुरोरन्तेवासिनौ 'एगयओ विहरंति' एकतः सहैव द्वावपि विहरतः 'तंजहा' तद्यथा-'सेहो रायणिए य' शैक्षकः पर्यायविद्यादिमिश्च न्यून., रास्निकश्च रत्नाधिकः, 'तत्थ' तत्र तयोर्द्वयोः शैक्षरानिकयोमध्ये यः शैक्षतरः लघुपर्यायः सः पलिच्छन्ने' परिच्छन्नः द्रव्यपरिच्छदेन शिष्यादिना परिवृतः संयुक्तः तथा 'रायणिए अपलिच्छन्ने' रानिको रत्नाधिकः अपरिच्छन्नः द्रव्यपरिवारेण शिष्यरूपेणाऽपरिच्छन्नः शिष्यपरिवाररहित इत्यर्थ , तत्र 'सेहतरएणं रायणिए उवसंपज्जियव्वे सिया' शैक्षतरकेण लघुपर्यायसाधुना 'रायणिए' रात्निको रत्नाधिक उपसंपत्तव्यः स्यात् शैक्षतरको रत्नाधिकमुपसंपद्येत रत्नाधिकस्य परिवारत्वेन स्थातव्यमित्यर्थः, तथा शैक्षतरः रत्नाधिकाय 'भिक्खोववायं च दलया कल्पागं भिक्षामुपपातं ददाति कल्पाकम् शैक्षतरको रत्नाधिकस्य भिक्षाम् अशनादिचतुर्विधमाहारम् , उपपातं समोपोपवेशनं विनयादिकं च ददाति, भिक्षादिकं सर्वमपि कल्पनीयं रत्नाधिकस्य ददाति तत्समीपे दैवसिकी रात्रिकी चालोचना कर्त्तव्या सर्वमपि विनयवैयावृत्त्यादिकं रत्नाधिकस्य कुर्यादिति भावः ॥ सू० २४ ॥
___ पूर्वसूत्रे शैक्षः परिवारसहितः रत्नाधिकश्च परिवाररहितः इति तयोर्द्वयोरेकत्र वासविधिः प्रदर्शितः, साम्प्रत तद्वैपरीत्येन तयोरेकत्र वासविधिमाह-दो साहम्मिया' इत्यादि । ।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहार
सूत्रसू -- दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तंजद्दा - सेहे य रायणिए य, तत्थ रायणिए पलिच्छपणे से हतराए अपलिच्छण्णे, इच्छा रायणिए सेहतरागं उचसंपज्जेज्जा, इच्छा नो उवसंपज्जेज्जा इच्छा भिक्खोववायं दलयड़ कप्पागं इच्छा नो दलय कप्पागं ||२५||
२४
"
छाया - द्वौ साधर्मिकौ पकतो विहरतः, तद्यथा - शैक्षश्च रात्निकश्च तत्र रात्निकः परिच्छन्नः शैक्षतरकोऽपरिच्छन्नः, इच्छा रात्निकः शैक्षत रकमुपसंपद्येत इच्छा नो उपसंपद्येत इच्छाभिक्षोपपातं ददाति कल्प्यकम् इच्छा नो ददाति कल्यकम् ॥ सू० २५ ॥
भाष्यम् – 'दो साहम्मिया' हौसाधर्मिकौ ' एगयओ विहरंति' एकत' सदैव विहरतः 'तंज' तथा 'सेहे य रायणिए य' शैक्षय रात्निकश्च तत्र शैक्षः लघुपर्यायः रात्निकः रत्नाघिकः पर्यायज्येष्ठः ‘तत्थ’ तत्र तयोर्द्वयोः शैक्षकरानिकयोर्मध्ये रायणिए' रानिको रत्नाधिकः पर्यायज्येष्ठः 'पलिच्छण्णे' परिच्छन्नः परिच्छदेन शिष्यपरिवारेण सहितः 'सेहतराए अपलिच्छ - ण्णे' शैक्षतरकोऽपरिच्छन्नः शिष्यपरिवारेण रहितो भवेत्, एवं सति तत्र 'इच्छा' इच्छा - रात्निकस्य इच्छा यदि भवति तदा ‘रायणिए' रात्निकः 'सेहतरागं उवसंपज्जेज्जा' शैक्षतरकमुपसंपद्येत यदि रात्निकस्येच्छा भवेत् तदा स रत्नाधिकः शैक्षतरकं स्वमर्यादायां गृहीयात् 'इच्छा' इच्छा पर्यायज्येष्ठस्य वाञ्छा तं शैक्षतरकं 'नो उवसंपज्जेज्जा' नो उपसंपद्येताऽपि । तथा 'इच्छा भिक्खोववायं दलइ कप्पागं' इच्छा भिक्षामुपपातं च ददाति कल्प्यकम् । यदि रत्नाधिकस्येच्छा भवति तदा शैक्षकाय भिक्षामशनादिचतुर्विधाहारमानीय शिष्यद्वारा आनाय्य वा कल्पनीयं ददाति, 'इच्छा नो दलयइ कप्पागं' इच्छा नो ददाति कल्प्यकम्, यदि कदाचित् रत्नाधिकस्यादातुमिच्छा तदा कल्पनीयं भिक्षादिकमानीय नापि ददाति शैक्षकाय ।
अयं भावः -- - शैक्षको यदि सपरिवारो भवेत्तदा निष्परिवारं रत्नाधिकमुपसंपद्य विहर्तुं कल्पते किन्तु रत्नाधिकः सपरिवारः शैक्षकोsपरिवारः एतादृश्यां स्थितौ रत्नाधिक इच्छानुसारं वर्त्तते, शैक्षकं स्वोपसंपादायां गृह्णीयात् नो गृह्णीयात्, पर्यायज्येष्टस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावादिज्ञातृत्वेन ऐच्छिक प्रवृत्तित्वविधानात्, इदमुक्तं भवति - यदि स शैक्षतरकोऽल्पपर्यायः किन्तु तुल्यश्रुतः तदा स रत्नाधिकश्चिन्तयति - एतस्य भिक्षाहिण्डनव्याक्षेपेण मा सूत्रार्था नश्येयुः, ततः संघाटकं ददाति, अथवा एष मम समानगुरुकुलवासी सहाध्यायी द्रव्यपरिच्छेदेनाsपरिच्छदो मा भूयादिति सहाध्यायान्तेवासिस्नेहेन संघाटं साधुपरिवारं ददाति, आलोचनां च प्रयच्छति, यद्यल्पश्रुतस्तदा तु परिवारमुपसंपदं वा ददातीति । अथ स शैक्षतरको रत्नाधिकाद्बहुश्रुतस्तदा नियमत उपसंपत्तव्य', परिवारश्च तस्य दातव्य., रत्नाधिकस्य सूत्रार्थग्रहणकामुकत्वादिति । यदि शैक्षतरकोऽबहुश्रुतस्तदा न ददातीति 'इच्छा नो इच्छा' इत्यस्य विवेक. ॥ सू० २५ ॥
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ४ सू० २६-३२ द्विवहुगणावच्छेदकादीनामेकतो विहरणविधिः १२५
इतः परं चतुर्थोदेशकसमाप्तिपर्यन्तं भिक्षुगणावच्छेदकाचार्योपाध्यायानां द्वित्वबहुत्वसंख्यामधिकृत्य सप्तसूत्री प्रोच्यते, तत्र प्रथमं भिक्षुसूत्रमाह-दो भिक्खुणो' इत्यादि ।
सूत्रम्--दो भिक्खुणो एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० २६॥
छाया-द्वौ भिक्षुको एकतो विहरतः नो खलु कल्पते अन्योऽन्य उपसंपद्य खल्लु विहर्तुम् । कल्पते खलु यथारत्नाधिकतया उपसंपद्य खलु विहर्तुम् ॥ सू० २६॥
भाष्यम् – 'दो भिक्खुणो' द्वौ भिक्षुको अन्यान्याचार्यनिश्राको ‘एगयओ विहरन्ति एकतः संमिलितौ सन्तौ विहरतः । कथमेकतो मिलितौ ? इति चिन्त्यते-दावाचार्यों अन्यस्मिन्नन्यस्मिन् क्षेत्रे स्थितौ भवेताम् , तौ च परस्परं सांभोगिकौ तौ द्वावग्याचारों स्वं स्वं भिक्षं क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाकरणार्थमुपधिगवेषणार्थ वा प्रेषितवान् तयोर्गन्तव्यमार्गस्यैकत्वात् पथि संमिलितो भवेतामिति । संमिलितो यदि तिष्टेतां तदा 'नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपजित्त णं विहरित्तए' नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यं परस्परमुपसंपद्य समानतां स्वीकृत्य खल विहर्तुम् । तर्हि कथं कल्पते ? इत्याह-'कप्पइ णं अहाराइणियाए अनमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विह रित्तए' कल्पते खलु यथारात्निकतया लघुज्येष्ठपर्यायमर्यादयाऽन्योऽन्यं परस्परमुपसंपद्य परस्परमर्यादां स्वीकृत्य विहर्त्तम् ।' दो साध सदैव विहरतो समतयाऽपि लघुज्येष्ठमर्यादया वन्दनादिकरणं विना अवस्थातुं न कल्पते किन्तु पर्यायज्येष्ठमेकं रत्नाधिकमङ्गीकृत्य विहां कल्पते इति भावः । सू० २६ ।।
अथ गणावच्छेदकादीनाश्रित्य शेष सूत्रषट्कमाह-दो गणावच्छेयया' इत्यादि ।
सत्रम-दो गणावच्छेयया एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए ॥ सू० २७॥
दो आयरियउवज्झाया एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरितए। सू० २८॥
वहवे भिक्खुणो एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए कप्पई अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० २९॥
वहवे गणावच्छेयया एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं, विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरिचए ॥ सू० ३०॥
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र वहवे आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ।। सू० ३१ ।।
वहवे भिक्खुणो वहवे गणावच्छेयया बहवे आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विह रित्तए । सू० ३२॥
॥ ववहारे चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ ४ ॥ छाया-द्वौ गणावच्छेदको एकतो विहरतः नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपध विहर्तुम् , कल्पते यथा रात्निकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ॥ सू० २७ ॥
द्वावाचार्योपाध्यायो एकतो विहरतः नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् , कल्पते यथारात्निकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य विहर्त्तम् ॥ सू० २८ ॥
वहवो भिक्षुका एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहत्तुम्, कल्पते यथारानिकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ॥ सू० २९ ॥
घहवो गणावच्छेदका एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् , कल्पते यथारानिकतयाऽन्योन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ॥ सू० ३० ॥
वहव आचार्योपाध्याया एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यम् उपसंपद्य खलु विहर्तुम् , कल्पते यथारात्निकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्त्तम् ॥ सू० ३१ ।।
वहयो भिक्षुकाः बहवो गणावच्छेदकाः वहव आचार्योपाध्यायाः एकतो विहरन्ति नो स्वलु कल्पते अन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्त्तम्, कल्पते यथारात्निकतया अन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ॥सू० ३२ ॥
॥ व्यवहारे चतुर्थ उद्देशः समाप्तः ॥४॥ भाष्यम्--एतानि 'दो गणावच्छेयया' इत्यादीनि चतुर्थोद्देशसमाप्तिपर्यन्तानि षडपि सूत्राणि पइविंशतितमभिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयानि । एपाभयं भावः-'दो गणावच्छेयया' इति द्वयोर्गणावच्छेदकयोः एकं रत्नाधिकं प्रकल्प्य विहत्तुं कल्पते ॥ सू० २७ ॥ एवमेव 'दो आयरियउवज्झाया' इति द्वयोराचार्ययोः द्वयोरुपाध्याययोरपि एक पर्यायज्येष्ठमाचार्यमुपाध्यायं च स्वीकृत्य विहत्त कल्पते ।। मू० २८ ॥ एवं 'वहवे भिक्खुणो' इति बहूनाम् एकद्वित्रिप्रभृतीनां भिक्षुकाणां यथारास्निकमर्यादया विहत्तुं कल्पते ॥ सू० २९ ॥ तथा 'वहवे गणावच्छेयया' इति बहूनां गणावच्छेदकानां यथारात्निकमर्यादया विहां कल्पते ।। सू० ३० ।। तथा 'वहवे आयरियउव
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ४ सू० ३२
चतुर्थीद्देशकसमाप्तिः १२७ ज्झाया' इति बहूनामाचार्याणां बहूनामुपाध्यायानां च यथारानिकमर्यादया विहन्तुं कल्पते ॥ सू० ३१ ॥ एवमेव 'वहवे भिक्खुणो, वहवे गणावच्छेयया वहवे आयरियउवज्झाया' इति बहवो भिक्षकाः, बहवो गणावच्छेदकाः, वहवः आचार्या , वहवः उपाध्यायाश्च, एते सर्वे मिलित्वा एकतो विहरन्ति तदाऽपि तेषां यथोचितां रात्निकमर्यादां लघुज्येष्ठादिरूपां मर्यादा स्वीकृत्यैव विहत्तुं कल्पते नान्यथा । इति सूत्रषट्कस्य भाव इति ॥ सू० ३२ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालनतिविरचितायां "व्यवहारसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायां चतुर्थ
उद्देशकः समाप्तः ॥४॥
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
।। अथ पञ्चमोद्देशः प्रारभ्यतेव्याखातश्चतुर्थोद्देशकः, सम्प्रति पञ्चमोद्देशको व्याख्यायते, तत्र पूर्व चतुर्थोद्देशकस्य चरमसप्तसूत्र्यामेकतो विहरतां भिक्षुप्रभृतीनां यथारात्निकमर्यादा प्रतिपादिता । अत्र पञ्चमोदेशके प्रवर्तिनीप्रमृतीनां ऋतुबद्धकालविहरणवर्षाकालनिवासपरकां मर्यादामाह-तत्र भाष्यकारो द्वयोरुदेशयोः सम्बन्धप्रतिपादनार्थ गाथामाह-'एगविहारे' इत्यादि । गाथा-एगविहारे वुत्ता, भिक्खुयमाईण वसणमज्जाया ।
उउवद्धाइसु वुच्चइ, पवत्तिणीए य सा चेव ॥ १॥ छाया-एकविहारे प्रोक्ता, भिक्षुकादीनां वसनमर्यादा ।
ऋतुवद्धादिपु प्रोच्यते, प्रवर्तिन्याश्च सैव ॥१॥ भाष्यम्-- पूर्वम् ‘एगविहारे' इति एकतो विहारे एकत्र संमील्य विहरणे भिक्षुकादीनां भिक्षकगणावच्छेदकाचार्योपाध्यायानां वसनमर्यादा यथारात्निकत्वेन एकत्र वासमर्यादा प्रोक्का, अत्र निर्ग्रन्थानन्तरं निम्रन्थीनां प्रसङ्ग इति पञ्चमोद्देशके ऋतुबद्धादिषु ऋतुबद्धकाले हेमन्तग्रीष्मयोर्विहरणे आदिशव्दाद् वर्षावासे च प्रवर्तिन्याश्च प्रवर्तिन्याः चकाराद् गणावच्छेदिन्याश्च सैवेत्ति मर्यादा विहरणस्य निवासस्य च मर्यादा प्रोच्यते, एष एव चतुर्थोद्देशकान्तिमसूत्रैः सहास्य पञ्चमोदेशकादिसूत्राणां सम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य पञ्चमोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम्-'नो कप्पइ पवित्तिणीए' इत्यादि ।
सूत्रम्--नो कप्पइ पवत्तिणीए अप्पविइयाए हेमंतगिम्हासु चरिए ॥ सू० १॥ छाया-नो कल्पते प्रवर्तिन्या आत्मद्वितीयायाः हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितम ॥ सू० १॥
भाष्यम्--'नो कप्पइ' नो नैव कल्पते 'पवत्तिणीए' प्रवर्त्तिन्याः प्रवर्तिनीपदधारिण्याः श्रमण्याः 'अप्पविइयाए' आत्मद्वितीयायाः आत्मना स्वेन सह द्वितीयायाः 'हेमन्तगिम्हामु' हेमन्तग्रीष्मयोः हेमन्तकाले ग्रीष्मकाले चाष्टमासरूपे 'चरिए' चरितुं विहर्तुम् ।। सू० १॥
कथं कल्पते ? तत्राह-'कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्-कप्पइ पवत्तिणीए अप्पतझ्याए हेमन्तगिम्हासु चारए ॥ सू० २ ॥ छाया- कल्पते प्रवर्त्तिन्या आत्मतृतीयायाः हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुम् ।। सू० २॥
भाष्यम्--'कप्पइ पवत्तिणीए' कल्पते प्रवर्तिन्याः 'अप्पतइयाए' आत्मतृतीयायाः आत्मना सह त्रित्वसंख्याविशिष्टायाः एका स्वयम् द्वे च सहकारिण्यौ इत्यर्थः तादृश्यास्तस्याः 'हेमन्तगिम्हामु हेमन्तग्रीष्मयोः 'चारए' चरितुम् ॥ सू० २ ॥
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ५ सू० ३-८ साध्वीनां हेमन्तग्रीष्मवर्षावासनिवासविधिः १२९
सूत्रम्-नो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पतझ्याए हेमन्तगिम्हासु चारए । सू०३॥ छाया--नो कल्पते गणावच्छेदिन्या आत्मतृतीयायाः हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुम् ॥ सू०३।
भाष्यम्--'नो कप्पई' नो कल्पते 'गणावच्छेदणीए' गणावच्छेदिन्याः 'अप्पतइयाए' आत्मतृतीयायाः सहायिकाद्वययुक्तायाः हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मयोः शेषकाले इत्यर्थः 'चारए' चरितुं विहर्तुम् । सहायिकाद्वयायुक्ताऽपि गणावच्छेदिनी हेमन्ते ग्रीष्मे च विहत्तुं न शक्नोति इति भावः ॥ सू० ३ ॥
गणावच्छेदिन्याः कथं कल्पते ? इत्याह-'कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थीए हेमंतगिम्हामु चारए ॥ सू० ४ ॥ छाया-कल्पते गणावच्छेदिन्या आत्मचतुर्थाया हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुम् ।। सू०४॥
भाष्यम्---'कप्पइ गणावच्छेइणीए' कल्पते गणावच्छेदिन्याः 'अप्पचउत्थीए' आत्मचतुर्थायाः आत्मना स्वेन चतुर्थसख्याविशिष्टायाः सहायकश्रमणीत्रयसहितायाः 'हेमन्त(गम्हामु' हेमन्तग्रीष्मयोः 'चारए' चरितुं विहर्तुम् । यदा खलु गणावच्छेदिनी आत्मना सह चतुर्थसंख्याविशिष्टा भवेत् एका स्वयम् सहचारिण्यस्तिस्रस्तदा गणावच्छेदिन्या हेमन्तग्रीष्मकाले तस्याः विहारः कल्पते इति भावः ॥ सू० ४ ॥
अथ प्रवर्त्तिन्या वर्षावाससूत्रद्वये प्रथमनिषेधसूत्रमाह--'नो कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पई पवत्तिणीए अप्पतइयाए वासावासं वत्थए ॥ सू० ५॥ छाया--नो कल्पते प्रवर्तिन्या आत्मतृतीयायाः वर्षावास वस्तुम् ॥ सू० ५ ॥
भास्यम--'नो कप्पई नो कल्पते 'पवत्तिणीए अप्पतइयाए' प्रवर्त्तिन्याः आत्मतृतीयायाः आत्मना सह तृतीयायाः एका स्वयम् द्वे च सहकारिण्यौ एतादृश्याः 'वासावा वर्षावास वर्षाकाले 'वत्थए' वस्तु वास कत्तुम् आत्मतृतीयायाः प्रवर्त्तिन्या वर्षासमये वासं कत्तुं न कल्पते इति भावः ॥ सू० ५॥
अथ द्वितीयं प्रवर्त्तिन्या वर्षावासे विधिसूत्रमाह- 'कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ पचत्तिणीए अप्पचउत्थीए वासावासं वत्थए ॥ सू० ६॥ छाया- कल्पते प्रवत्तिन्या आत्मचतुर्थाया वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ६॥
भाष्यम--'कप्पई' कल्पते 'पवत्तिणीए अप्पचउत्थाए' प्रवर्त्तिन्याः आत्मचतुर्थायाः आत्मना स्वेन सह चतुर्थसंख्याविशिष्टायाः 'वासावासं वथए' वर्षावासे चातुर्मास्ये वस्तुं
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
व्यवहारसूत्रे
वासं कर्तुम् । यदा स्खलु प्रवर्त्तिनी आत्मचतुर्था भवति तदैव तस्या चातुर्मास्यं कत्तु कल्पते न तु तन्न्यूनाया इति भाव ॥ सू० ६ ॥
गणावच्छेदिन्या वर्षावाससूत्रद्वये प्रथमं निषेधसूत्रमाह-- 'नो कप्पड़' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थीए वासावासं वत्थए | सू० ७ ॥ छाया - नो कल्पते गणावच्छेदिन्याः आत्मचतुर्थायाः वर्षावासं वस्तुम् ॥ सृ० ७ ॥
भाष्यम् – 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थीए' गणावच्छेदिन्याः आत्मचतुर्थायाः आत्मना सह चतुः संख्य कायाः 'वासावासं वत्थए' वर्षावासं वस्तुं वास कर्त्तुम यदा खलु गणावच्छेदिनी चतु संख्याविशिष्टा भवेत् तदा तस्या वर्षाकाले वासो कल्पनीयो भवतीति भावः ॥ सू० ७ ॥
अथ द्वितीयं गणावच्छेदिन्या वर्षावासे विधिमाह - ' कप्पड़' इत्यादि ।
सूत्रम् - कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पपंचमाए वासावासं वत्थए || सू० ८ ॥ छाया - कल्पते गणावच्छेदिन्याः आत्मपञ्चमायाः वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ८ |
भाष्यम्--' कप्पड़' कल्पते 'गणावच्छेइणीए' गणावच्छेदिन्याः 'अप्पपंचमाए' आत्मपञ्चमायाः आत्मना स्वेन सह पञ्चत्वसंख्याविशिष्टायाः 'वासावासं वत्थए' वर्षावासं वर्षा - कालं यावत् वस्तुं वास कर्त्तुम् । यदा खलु गणावच्छेदिनी आत्मपञ्चमा भवेत् तदैव वर्षाकाले वासं कर्त्तुं शक्नोति न तु ततो न्यूना ।
इदमुक्तं भवति - एषु अष्टसु सूत्रेषु प्रथमं सूत्रं प्रवर्त्तिन्या हेमन्तग्रीष्मयोरात्मद्वितीयाया विहरणनिषेधपरकम् १। द्वितीयमात्मतृतीयाया विहरणविधिपरकमिति प्रवर्त्तिनीमधिकृत्य हेमन्त - ग्रीष्मविषयकं सूत्रद्वयम् २ । तृतीयं सूत्रं गणावच्छेदिन्या आत्मतृतीयाया हेमन्तग्रीष्मयोर्विहरणनिषेघपरकम् ३ । चतुर्थं सूत्रमात्मचतुर्थाया विहरणविधिपरकमिति गणावच्छेदिनीमधिकृत्य हेमन्तग्रीष्मविषयकं सूत्रद्वयम् ४ । पञ्चमं सूत्र प्रवर्त्तिन्या आत्मतृतीयायाः वर्षावासनिषेधपरकम् ५ । षष्ठमात्म चतुर्थाया वर्षावासविधिपरकमिति प्रवर्त्तिनीमधिकृत्य वर्षावास विषयकं सूत्रद्वयम् ६ । सप्तमं सूत्रं गणावच्छेदिन्या आत्मचतुर्थाया वर्षावासनिषेधपरकम् ७ । अष्टमं चात्मपञ्चमाया वर्षावासविधिपरकमिति गणावच्छेदिनीमधिकृत्य वर्षावासविषयकं सूत्रद्वयम् ८ । इत्यष्टानां सूत्राणां निष्कर्षः ||
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ५ ० ९-१० बहुप्रवतिन्यादीनां हेमन्तग्रोऽमवर्यावासनिवासविधिः १३१
अत्र द्वितीयचतुर्थसूत्रयोरयं भावः-संयतीनां ऋतुबद्धकाले सप्तकः समाप्तकल्प इति ऋतुबद्धकाले प्रवर्त्तिन्या आत्मतृतीयायाः गणावच्छेदिन्याश्चाऽऽत्मचतुर्थाया विहरणं कल्पते इत्युक्तं तत् ऋतुबद्धकाले प्रवर्तिनीगणावच्छेदिन्योः सप्तकरूपस्य समाप्तकल्पस्य सद्भावादुक्तम् ।
__षष्टाष्टमसूत्रयोरयं भाव.-संयतीनां वर्षाकाले नवकः समाप्तकल्पो भवतीति वर्षाकाले प्रवर्त्तिन्या आत्मचतुर्थायाः, गणावच्छेदिन्याश्चात्मपञ्चमायाः स्थातुं कल्पते इत्युक्तं तत् नवकरूपस्य समाप्तकल्पस्य सद्भावादुक्कमिति ॥ सू० ८ ॥
अथ प्रवर्तिनी गणावच्छेदिनीनां बहुत्वमधिकृत्य हेमन्तग्रीष्मकाले ग्रामादिषु विहरणविधिमाहसे गामंसि वा' इत्यादि।
सूत्रम्-से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए चा खेडंसि वा कबडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहसि वा संनिवेसंसि वा वहणं पवत्तिणीणं अप्पतइयाणं, वहूर्ण गणावच्छेइणीणं अप्पचउत्थीणं कप्पइ हेमंतगिम्हासु चारए अन्नमन्ननिस्साए । सू० ९ ॥
छाया-अथ ग्रामे वा नगरे वा निगमे वा राजधान्यां वा खेटे वा कर्वटे वा मडम्बे वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आश्रमे वा संवाहे वा संनिवेसे वा बहूनां प्रवर्तिनीनाम् आत्मतृतीयानाम्, वहूनां गणावच्छेदिनीनामत्मचतुर्थानां कल्पते हेमन्तग्रीष्मयोश्चरित. मन्योऽन्यनिश्रया ॥ सू०९॥
भाष्यम--से गामंसि वा' इति । 'से' अथानन्तरमू एकेकस्याः प्रवर्त्तिन्याः ऋतुबद्धकाले विहरणप्रतिषेध-विधिकथनानन्तरम् 'गामंसि वा' ग्रामे वा 'नगरंसि वा' नगरे वा 'निगमंसि वा निगमे वा 'रायहाणीए वा' राजधान्यां वा 'खेडंसि वा' खेटे वा 'कब्बडंसि वा' कर्बटे वा 'मडवंसि वा' मडम्बे वा 'पत्तणंसि वा' पत्तने वा पट्टने वा 'दोणमुहंसि वा द्रोणमुखे वा 'आसमंसि वा' आश्रमे वा 'संवाहंसि वा' संवाहे वा 'संनिवेसंसि वा' संनिवेशे वा चतुर्थोदेशकनवमसूत्रोक्तार्थविशिष्टेषु प्रामादिषु 'वहूर्ण पवत्तिणीणं' बहूनामनेकासाम् एकद्वित्रिप्रभृतीनां प्रवर्तिनीनां 'अप्पतइयाणं' आत्मतृतीयाना सहायकद्वययुक्तानाम् । 'वहूर्णगणावच्छेइणीणं' बहूनामनेकासाम् एकद्वित्रिप्रभृतीनां गणावच्छेदिनीनाम् 'अप्पचउत्थीणं' आत्मचतुर्थानाम् मात्मना च चतु:संख्यायुक्तानाम् 'कप्पइ हेमंतगिम्हासु' कल्पते हेमन्तग्रीष्मयो ऋतुबद्धकाले इत्यर्थः 'चारए' चरितुं विहर्तुम् तच्च 'अन्नमन्ननिस्साए' अन्योऽन्यनिश्रया परस्परोपसंपदा परस्पर समानतया मिलित्वा पर्यायज्येष्ठां पुरस्कृत्य ततस्तदाज्ञया विहत कल्पते तासामित्यर्थः। यदा खलु अनेकाः प्रवर्त्तिन्यो आत्मतृतीया आत्मतृतीयाः सर्वाः, अनेका गणा
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२
व्यवहारसूत्रे
वच्छेदिन्य आत्मचतुर्थाः आत्मचतुर्थाः सर्वाः, तदा सर्वा अपि पर्यायज्येष्ठाया उपसम्पत्वेन परस्परं मिलित्वा ऋतुबद्धकाले विहारं कर्तुं शक्नुवन्तीति भावः ॥ सू० ९ ॥
अथ आत्मचतुर्थानां बहूना प्रवर्त्तिनीनाम् आत्मपञ्चमानां बहूनां गणावच्छेदिनीनां वर्षा - समये वासानुज्ञां दर्शयति-' से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम् - से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कवडंसि वा मडवंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा संनिवेसंसि वा वहूणं पवत्तिणीणं अप्पचउत्थीणं, वहूणं गणावच्छेइणीणं अप्पपंचमाणं कप्पइ वासावासं वत्थए अन्नमन्न निस्साए || सू० १० ॥
छाया -अथ ग्रामे वा नगरे वा निगमे वा राजधान्यां वा खेटे वा कर्वटे वा मस्त्रे वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आश्रमे वा संवाहे वा संनिवेशे वा बहूनां प्रवर्त्तिनीनामात्मचतुर्थानाम्, बहूनां गणात्रच्छेदिनीनामात्मपञ्चमानां कल्पते वर्षावासं वस्तुमन्योन्यनिश्रया । सू० १० ॥
भाष्यम् - " से गामंसि वा' अथ ग्रामे वा 'नगरंसि वा' नगरे वा 'निगमंसि वा' निगमे वा 'रायहाणीए वा' राजधान्यां वा 'खेडंसि वा' खेटे वा 'कव्वडंसि वा ' कर्वटे वा 'मडवसिवा' मडम्वे वा 'पट्टणंसि वा' पत्तने वा पट्टने वा 'दोणमुहंसि वा द्रोणमुखे वा 'आसमंसि वा' आश्रमे वा 'संवाहंसि वा' संवाहे वा 'संनिवेसंसि वा' सन्निवेशे वा अत्राऽपि 'गामंसि वा' इत्यारभ्य 'संनिवेसंसि वा' इत्यन्तपदानामर्थाः विस्तरतः चतुर्थीदेशके नवमसूत्रे प्रदर्शिताः तादृशेषु ग्रामादिषु इत्यर्थः 'बहूणं पवत्तिणीणं अप्पचउत्थानं' बहूनामनेकासां प्रवृत्तिनीनामात्म चतुर्थानां तथा 'बहूणं गणावच्छेइणीणं अप्पपंचमाणं' वहूना-, मनेकासां गणावच्छेदिनी नामात्मपञ्चमानाम् ' कृप्पइ वासावासं वत्थए' कल्पते वर्षावासं वस्तुम् अन्योऽन्यनिश्रया परस्परोपसपदा लघुज्येष्ठपर्याय मर्यादया परस्परं मिलित्वा तासामनेकासां प्रवर्त्तिनीगणावच्छेदिनीनां वर्षावासे वस्तुं कल्पते ॥ सू० १० ॥
T
पूर्व सत्या ऋतुबद्धकाल विहरणविधिः वर्षावासविधिश्च प्रदर्शितः, विहरन्त्याश्च तस्याः प्रवर्त्तिनी कदाचित् कालधर्मं प्राप्नुयात् तदा किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिं प्रदर्शयति- 'गामाणुग्रामं दूइज्जमाणा' इत्यादि ।
सूत्रम् --गामाणुगामं दुइज्जमाणा णिग्गंथीय जं पुरओ काउं विहरेज्जा साय आहच्च वीसंभेज्जा अत्थि य इत्थ काइ अन्ना उवसंपज्जणारिहा सा उवसंपज्जियव्वा, नत्थ य इत्य काइ अन्ना उवसंपज्जणारिहा तीसे य अप्पणो कप्पए असमत्ते एवं से
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ५ सू० ११-१३
प्रवर्त्तिनीमरणे निर्ग्रन्थया विहरणविधिः १३३
कप्पर एगराइयाए पडिमाए जं णं जं णं दिसं अन्नाओ साहम्मिणीओ विहरंति तं णं तं णं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पड़ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए कप्पर, से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निट्टियंसि परा वज्जा वसाहि अज्जो ! नो से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसई से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० ११ ॥
छाया - ग्रामानुग्रामं द्रवन्ती निर्ग्रन्थी च यां पुरतः कृत्वा विहरेत् सा चाऽऽहत्य विष्वग्भवेत् अस्ति चात्र काचित् उपसंपदार्हा सा उपसंपत्तव्या, नाऽस्ति चात्राऽन्या उपसंपदार्दा तस्याश्चात्मनः कल्पोऽसमाप्तः एवं तस्याः कल्पते एकरात्रि क्या प्रतिमया यां खलु यां खलु दिशमन्या साधर्मिण्यो विहरति तां खलु तां खलु दिशमुपलातुम्, नो तस्याः कल्पते तत्र विहारप्रत्ययं वस्तुम्, कल्पते तस्या तत्र कारणप्रत्ययं वस्तुम् तस्मिञ्च कारणे निष्ठिते परावदेत् वस आर्ये ! एकरात्रं वा द्विरात्रं वा एवं तस्याः कल्पते एकरात्र वा द्विरात्र' वा वस्तुम्, नो तस्याः कल्पते परमेक रात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तुम्, यत् तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्याः सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० ११ ॥
भाष्यम् - - 'गामाणुगामं' ग्रामाद्ग्रामान्तरम् एकस्मात् ग्रामादपरं ग्रामम् ' दुइज्जमाणा णिग्गंथी य' द्रवन्ती विहार कुर्वन्ती निर्ग्रन्थी च 'जं पुरओ काउं विहरेज्जा' यामधिष्ठात्रीं प्रवर्त्तिनीं पुरतोऽग्रे कृत्वा विहरेत् यस्या निश्रायां विहरेदित्यर्थः । शेषं सर्वं व्याख्यानं चतुर्थोद्देशगतैकादशसूत्रवदेव स्त्रीलिङ्गव्यत्ययेन कर्त्तव्यम् ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम् - - वासावासं पज्जोसविया णिग्गंथी य जं पुरओ काउं विहर सा आहच्च वीसंभेजा अत्थि य इत्थ काइ अन्ना उपसंपणारिहा उवसंपज्जियन्वा, नेत्थि य से इत्थ काइ अन्ना उवसंपणारिहा तीसे य अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ एगराइयाए पडिमाए जं णं जं णं दिसं अन्नाओ साहम्मिणीओ विहरंति तं णं तं णं दिसं उबलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पर से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि चणं कारणंसि निट्ठियंसि परा वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से, कप्पर एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पर परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसई से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १२ ॥
छाया - वर्षावर्ष पर्युषिता निर्ग्रन्थी च यां पुरतः कृत्वा विहरति सा आहत्य विष्वग् भवेत् अस्ति चाऽत्र काचित् अन्या उपसंपद सा उपसंपत्तव्या, नाऽस्ति चाऽत्र काचिदन्या उपसंपद तस्याश्र्चात्मनः कल्पोऽसमाप्तः कल्पते तस्या एकरात्रिक्या प्रतिमया यां खलु
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
व्यवहारसूत्रे यां खलु दिशम् अन्याः साधर्मिण्यो विहरंति तां खलु तां खलु दिशमुपलातुम् , नो तस्याः कल्पते तत्र विहारप्रत्ययं वस्तुम् , कल्पते तस्यास्तत्र कारणप्रत्ययं वस्तुम् , तस्मिश्च कारणे निष्ठित परा वदेत् वल आफै ! एकरात्रं वा द्विरात्रं वा, एवं तस्याः कल्पते एकरात्र वा द्विरात्र वा वस्तुम् , नो तस्याः कल्पते परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तुम् , यत्तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरावाद्वा वसति तस्याः सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १२ ॥
भाष्यम् --'वासावासं पज्जोसविया' वर्षावास वर्षावासनिमित्तं पर्युषिता निवासार्थ स्थिता 'निग्गंथी' निर्ग्रन्थी। शेषं सर्व चतुर्थोदेशगतद्वादशसूत्रव्याख्यानवत् स्त्रीत्वनिर्देशेन व्याख्यातव्यम् ॥ सू० १२ ।।
सूत्रम्--पवत्तिणी य गिलायमाणी अन्नयरं वएज्जा मए णं अज्जो ! कालगयाए समाणीए इमा समुक्कसियव्चा सा य समुक्कसणारिहा समुक्कसियन्वा, सा य नो समुक्कसणारिहा नो समुक्कसियव्वा, अस्थि या इत्य अन्ना काइ समुक्कसणारिहा समुक्कसियव्वा, नत्थि या इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा साचेव समुक्कसियवा, ताए णं समुक्किठाए परा वएज्जा दुस्समुक्किडं ते अज्जे! निक्खिवाहि, ताए णं निक्खिवमाणीए नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जाओ साहम्मणीओ अहाकप्पेणं नो उट्ठाए विहरंति सन्चासि तासिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ।। सू० १३ ॥
छाया-प्रवर्तिनी च ग्लायन्ती अन्यतरां वदेत् मयि खलु आर्ये ! कालगतायां सत्यामियं समुत्कर्षयितव्या। सा च समुत्कर्पणाऱ्या समुत्कर्पयितव्या, सा च नो समुत्कर्षणार्थी नो समुत्कर्षयितव्या, अस्ति चाऽचाऽन्या काचित्समुत्कर्षणार्हा सा समुत्कर्षयितव्या नास्ति चात्राऽन्या काचित् समुत्कर्षणार्हा सैव समुत्कर्षयितव्या , तस्यां च खलु समुत्कष्टायां परा वदेत् दुःसमुत्कृष्टं ते आयें! निक्षिप, तस्या निक्षिप्यमाणायाः नास्ति कश्चित् छेदो घा परिहारो वा, ता यदा साधर्मिण्यो यथाकल्पेन नो उत्थाय विहरन्ति तासां सर्वासां तत्प्रत्यय छेदो वा परिहारो वा ।। सू० १३ ॥
भाष्यम् – 'पवत्तिणी य' प्रवर्तिनी च 'गिलायमाणी' ग्लायन्ती रोगादिना ग्लानिमुपगता मरणासन्ना सतीत्यर्थ. 'अन्नयरं वएज्जा' अन्यतरां संयती वा वदेत् कथयेत् । शेषं सर्वं चतुथोद्देशगताचार्योपाध्यायात्मकत्रयोदशसूत्रवदेव व्याख्येयम् नवरं केवलमत्र विशेषोऽयम्-यत्तत्र 'से य नो समुक्कसणारिहे' इत्यस्यार्थे समुद्यतविहारजिनकल्पसमुद्यतमरणं प्रत्तिपत्तुकामः, इत्युक्तम् अत्र च प्रवर्तिनीसूत्रे 'सा य नो समुक्कसणारिहा' इत्यस्य भक्तप्रत्याख्यान प्रतिपत्तुकामा यदि भवेत् इत्यर्थः कर्त्तव्यः, एतावानेवात्र भेदः, अन्यच्च तत्र पुंस्त्वेन निर्देशः अत्र तु स्त्रीत्वेन निर्देशः कर्तव्यः ॥ सू० १३ ॥
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ५ ० १४-१५
प्रवर्त्तिन्यवधावने तत्पश्चात्पददानविधिः १३५
सूत्रम् -- पवत्तिणीय ओहायमाणा अन्नयरं वएज्जा मए णं अज्जो ! ओहावियाए समाणीए इमा समुक्कसियच्चा, साय समुक्कसणारिहा समुक्क सियव्वा, सा य नो सम्मुवकसणारिहा नो समुक्कसियव्वा, अस्थिय इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा सा समुक्कसियव्वा, नत्थि य इत्थ अन्ना काई समुक्कसणारिहा सा चैव समुक्कसियव्वा, ताए णं समुविकट्टाए परा वज्जा दुस्समुक्किटं ते अज्जे ! निक्खिवाहि, ताए णं निक्खिवमाणीए नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जाओ साहम्मिणीओ अहाकल्पेणं नो उडाए विहरति सव्वासि तासिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १४ ॥
छाया - प्रवर्त्तिनी चाऽवधावमाना अन्यतरां वदेत् मयि खलु आयें ! अवधावितायां सत्याम् इयं समुत्कर्षयितव्या, सा च समुत्कर्षणाह समुत्कर्षयितव्या, सा च नो समुकर्पणार्हा नो समुत्कर्पयितव्या, अस्ति चाऽत्राऽन्या काचित् समुत्कर्पणा समुत्कर्षयितव्या, नाऽस्ति चाऽत्राऽन्या काचित् समुत्कर्पणा - सैव समुत्कर्पयितव्या, तस्यां च समुत्कृष्टायां परा वदेत् दुःसमुत्कृष्टं ते आये ! निक्षिप, तस्याः खलु निक्षिप्यमाणाया नाऽस्ति कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, याः साधर्मिण्यो यथाकल्पेन नोत्थाय विहरन्ति सर्वासां तासां तत्प्रत्ययं छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १४ ॥
भाष्यम् – 'पवत्तिणी य' प्रवर्त्तिनी च 'ओहायमाणा' अवधावमाना द्रव्यलिङ्गं सडोरकमुखवस्त्रिकारजोहरणादिलक्षणं परित्यज्य मोहनीयकर्मोदयात् । शेषं सर्व चतुर्थोद्देशगतावधावमा नाचार्योपाध्यायस्य चतुर्द्दशसूत्रवदेव व्याख्येयम्, आचार्योपाध्यायसूत्रात्प्रवर्तिनीसूत्रे यो विशेषः सोऽत्रैव त्रयोदशसूत्रे प्रदर्शित एव शेषं सर्वं तद्वदेव ॥ सू० १४॥
सूत्रम् - णिग्गंथस्स नवडहरतरुणस्स आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिब्भट्टे सिया से य पुच्छियव्वे-केण ते अज्जो ! कारणेणं आयारपकप्पे णामं अज्झयणे परिभट्ठे किं आवाहेणं उदाहु पमाएणं ? से य वएज्जा - नो आवाहेणं पमाएणं, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेययत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, से य वएज्जा - आवाहेणं नो पमाएणं, से य संठवेस्सामीति संठवेज्जा एवं से कप्प आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेययत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा, से य संठवेस्सामीति नो संठवेज्जा एवं से नो कप्पर आयरियतं वा जावगणावच्छेययत्तं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा ॥ सू० १५ ।।
छाया निर्ग्रन्थस्य नवडहरतरुणस्य आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं परिभ्रष्टं स्यात् स च प्रष्टव्यः - केन ते आर्य ! कारणेन आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं परिभ्रष्टम् किम्आवाघेन उताहो प्रमादेन ? । स च वदेत्-नो आवाधेन प्रमादेन, यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययं
-
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
व्यवहारसूत्रे नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं चा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा । स च वदेत्आवाधेन, नो प्रमादेन, स च-संस्थापयिष्यामीति संस्थापयेत् , एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, स च-संस्थापयिष्यामीति नो संस्थापयेत् एवं तस्य नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० १५॥
भाष्यम्-'निग्गंथस्स' निम्रन्थस्य श्रमणस्य 'नवडहरतरुणस्स' नवडहरतरुणस्य, तत्र नव-दीक्षापर्यायेण त्रिवार्षिक', डहर.-जन्म-पर्यायेण षोडशवार्षिकः, तरुणः-चतुश्चत्वारिंशद्वार्षिकः उक्तञ्च -'तिवरिसो होइ नवो, आसोलसगं डहरगं वेति ।
तरुणो चउचत्तालो, मज्झिमो थेरओ सेसो ॥१॥ छाया--त्रिवर्षो भवति नवः, आषोडशकं डहरकं ब्रवन्ति ।
तरुणश्चतुश्चत्वारिंशत्को मध्यमः स्थविरः शेषः ॥१॥ इति । तस्य तादृशस्य निर्ग्रन्थस्य यदि 'आयारपकप्पे नाम अज्झयणे' आचारप्रकल्पो नामा. ध्ययनम्-आचाराङ्गनिशीथादिसूत्रम् 'परिव्भटे सिया' परिभ्रष्ट-पठितं सद् विस्मृतं स्यात् तदा 'से य पुच्छियन्वें' स च अधीतविस्मृतो निर्ग्रन्थः स्थविरेण प्रष्टव्यः, किं प्रष्टव्यस्तत्राह-'केण ते कारणेणं अज्जो' हे आर्य ! ते तव केन कारणेन 'आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिभट्टे'-आचारप्रकल्पो नामाध्ययनं परिभ्रष्टं-त्वया विस्मृतम् , किं कारणमाश्रित्य त्वयाऽऽचारप्रकल्पाध्ययनं विस्मृतमिति पृच्छेदित्यर्थः । तत्र कारणमेव विविच्य पृच्छति-किमित्यादि, 'कि आवाहेण उंदाहु पमाएणं' किम् आवाधेन-रोगादिकारणेन विस्मृतम् ? उताहो-अथवा किं प्रमादेन-आत्मनः प्रमादभावेन विस्मृतम् । एवं स्थविरेण पृष्टः सन् 'से य वएज्जा' स च श्रमणो वदेत्-कथयेत् हे भदन्त ! 'नो आवाहेणं पमाएणं' आवाधेन रागादिकारणेन नो विस्मृतं किन्तु प्रमादेन आत्मनः प्रमादभावेन विस्मृतम् । एवं कथिते सति 'जावज्जीवाए तस्स' यावज्जीवं-जीवनपर्यन्तं तस्य श्रमणस्य 'तप्पत्तिय' तत्प्रत्ययं प्रमादतो विस्मरणनिमित्तं 'नो कप्पई' नो कल्पते 'आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेययत्तं वा' आचार्यत्वं वा यावत् उपाध्यायत्वं वा प्रवत्र्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणवरत्वं वा एवं गणावच्छेदकत्वं वा 'उदिसित्तए वा' उद्देष्टु वा अनुज्ञातुम् 'धारित्तए वा' स्वयं धारयितुं वा न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ।
अथ कदाचित् ‘से य वएज्जा' स च वदेत्-हे भदन्त ! अधीतमाचारकल्पो नामाध्ययनं मया 'आवाहेणं णो पमाएणं आवाधेन-रोगादिकारणेन विस्मृतं किन्तु नो प्रमादेन प्रमादभावमाश्रित्य नो विस्मृतमिति, ‘से य संठवेस्सामीति संठवेज्जा' स च संस्थापयिष्यामि विस्मृत
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ५ सू० १६
निर्मथ्या आचारप्रकल्पे नष्टे पददानाऽदानविधिः १३७
माचारकल्पाध्ययनं पुनः स्मरिष्यामीति कथयित्वा यदि संस्थापयेद् विस्मृतं पुनरपि संस्मरेत् 'एवं से कप्पई' एवं प्रकारेण पुनः स्मृते आचारकल्पाध्ययने सति तस्य कल्पते 'आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेययत्वं वा' आचार्यत्वं वा यावद् गणावच्छेदकत्वं वा 'उदिसित्तए वा धारित्तए वा' उद्देष्टुं वा धारयितुं वा.कल्पते इति सम्बन्धः 'से य' स च यदि 'संठवेस्सामीति नो संठवेज्जा' संस्थापयिष्यामीति कथयित्वा नो संस्थापयेत् तदा 'एवं से नो कप्पइ' एवं-संस्मरणाभावे तस्य नो कल्पते 'आयरियत्तं वा जाव गणावछेययचं वा' आचार्यत्वं वा यावद् गणावच्छेदकत्वं वा 'उघिसिचए वा धारित्तए वा' उद्देष्टुं वा धारयितुं वेति ।। सू० १५ ॥
निग्रन्थसूत्रमभिधाय सम्प्रति निम्रन्थीसूत्रमाह-'निग्गंथीए णं' इत्यादि।
सूत्रम्-णिग्गंथीए णं नवडहरतरुणीए आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिस्मठे। सिया, सा य पुच्छियन्वा केणं ते कारणेणं अज्जे ! आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिमटे. किं आवाहेणं उदाहु पमाएणं ? सा य वएज्जा नो आवाहेणं पमाएणं, जावज्जीवाए तीसे तप्पत्तियं नो कप्पई पवत्तिणितं वा गणावच्छेइ णित्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, सा. य वएज्जा-आवाहाएणं नो एमाएणं सा य संठवेस्सामित्ति संठवेज्जा एवं से कप्पड़ पवत्तिणित्तं वा गणावच्छेइणित्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, सा य संठवेस्सामीति नो संठवेज्जा एवं से नो कप्पई पवत्तिणित्तं वा गणावच्छेइणित्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू०१६॥
छाया-निर्ग्रन्थ्याः खलु नवडहरतरुण्याः आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं परिभ्रष्टं स्यात् सा च प्रष्टव्या-केन ते कारणेन आय! आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं परिभ्रष्टम? किम आवाधेन उताहो प्रमादेन ? सा च वदेत् नो आवाधेन प्रमादेन, यावज्जीवं तस्यास्तत्प्रत्ययं नो कल्पते प्रचत्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिनीत्वं वा 'उद्देष्टुवा धारयितं वा। सा च वदेत् आवाधेन नो प्रमादेन सा च संस्थापयिष्यामीति संस्थापयेत् एवं तस्याः कल्पते प्रवर्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिनीत्व वा उद्देष्टु वा धारयितुं वा, सा च संस्थापयिज्यामीति नो संस्थापयेत् एवं तस्याः नो कल्पते प्रवर्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिनीत्वं वा उद्देष्टु वा धारयितुं वा ॥ सू०१६ ॥
भाष्यम्-'णिग्गंथीए णं' निर्ग्रन्थ्याः खलु श्रमण्याः 'नवडहरतरुणीए' नवडहरतरुण्याः , तत्र नवदीक्षिता नवा त्रिवर्षात्मकदीक्षापर्यायवती, डहरा-जन्मपर्योयेण अष्टादशवर्षिका, तरुणीअधिगतयुवावस्था, जन्मतश्चत्वारिंशद्वर्षिका वा, उक्तञ्च. व्य. १८
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
"तिवरिसा होइ नवा, अट्ठारसिया य डहरिया होइ ।
तरुणी य जाव जुवई, चत्तालिसिया य वा तरुणी" ॥१॥ छाया-त्रिवर्षा भवति नवा, अष्टादशिकाच डहरिका भवति ।
तरुणी च यावद् युवतिः, चत्वारिंशा च वा तरुणी ॥१॥ तस्याः 'आयरपकप्पे णामं अज्झयणे' आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनम् आचाराङ्गनिशीथादिकम् 'परिन्भटे सिया' परिभ्रष्टं स्यात् अधीतमाचारप्रकल्पाऽध्ययनम् विस्मृतं भवेत्तदा 'सा य पुच्छियव्या' सा चाऽधीतविस्मृता संयती स्थविरेण प्रष्टव्या-'केण ते कारणेण अज्जे !' हे आर्ये ! केन खलु कारणेन ते तव, 'आयारप कप्पे नामं अन्झयणे परिभट्टे' आचारप्रकल्पो नामाsध्ययनं परिभ्रष्टम्-अधीतमाचारप्रकल्पाऽध्ययनं त्वया विस्मृतं केन कारणेन विस्मृतमिति पृच्छेदित्यर्थः । तत्र कारणमेव विविच्य पृच्छति-किमित्यादि, 'कि आवाहेणं उदाहु पमाएणं' किमावाधेन-रोगादिकारणेन उताहो-यद्वा प्रमादेन विस्मृतमिति । एवं पृष्टा सती-'सा य वएज्जा' सा च वदेत्-'नो आवाहेणं पमाएणं' नो आवाधेन रोगादिकारणेन किन्तु प्रमादेन मयाऽधीतमपि-आचारप्रकल्पाध्ययनं विस्मृतमिति, एवं कथिते सति 'जावज्जीवाए' जावज्जीव-जीवनपर्यन्तमित्यर्थः तस्या विस्मृतकल्पाऽध्ययनायाः श्रमण्याः 'तप्पत्तिय-तत्प्रत्ययं प्रमादतो विस्मरणनिमित्तम् 'नो कप्पई' नो कल्पते 'पवत्तिणीत्तं वा' प्रवर्तिनीत्वं वा 'गणावच्छेइणित्तं वा' गणावच्छेदिनीत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा स्वयं धारयितुं वा, एतादृश्याः पुनः प्रवर्तिनीपदस्याऽनुज्ञापनं न कर्त्तव्यमाचार्येण, न वा सा स्वयमेव पुनः प्रवर्तिनीत्वं गणावच्छेदिनीत्वं वा धारयितुं शक्नोतीति । 'सा य वएज्जा' अथ यदि सा संयती एवं वदेत्-हे भदन्त ! मया "आवाहेण नो पमाएणं आवाधेन रोगादिना अधीतमपि पुनविस्मृतम् , नतु प्रमादेन विस्मृतमिति ‘सा य संठवेस्सामीति संठवेज्जा' सा च संयती विस्मृतमध्ययन संस्थापयिष्यामि-पुनरपि स्मरिष्यामीति कथयित्वा संस्थापयेत्-पुनरपि संस्मरेत् , 'एवं से कप्पई' एवं प्रकारेण पुनः स्मृतेऽध्ययने सति तस्याः कल्पते 'पवत्तिणीतं वा गणावच्छेइणित्तं वा' प्रवर्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिनीत्वं वा 'उद्दिसिचए वा धारित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा स्वयं धारयितुं वा । अथ कदाचित् नष्टमध्ययनम् ‘सा य संठवेस्सामीति नो संठवेज्जा' संस्थापयिष्यामीति कथयित्वा नो संस्थापयेत् न तस्य संस्मरणं कुर्यात् ‘एवं से नो कप्पइ पवत्तिणीत्तं वा गणावच्छेइणिचंवा उदिसित्तए वा धारित्तए वा' एवं तर्हि तस्याः संयत्याः नो कल्पते प्रवत्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिनीत्वं वा उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा स्वयं धारयितुं वा ॥ सू० १६ ॥
पूर्व नवडहरतरुणनिर्गन्थनिर्ग्रन्थीनाम् आचारप्रकल्पाऽध्ययनं प्रमादतो विस्मरणेन असंस्थापनेन च यावज्जीव पददानाऽभावः प्रतिपादितः, अस्मिन् सूत्रे तु स्थविराणां स्थविरभूमिप्रा
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ ५ सू० १७-१८ स्थविराणामाचारप्रकल्पे नष्टेऽपि पदानविधिः १३९ तानांच आचारप्रकल्पनामकाऽध्ययनस्य विस्मृतौ संस्थापने असंस्थापने वापि आचार्यादिपदं दातव्यं ' भवेदिति प्रदर्शयन्नाह-'थेराण' इत्यादि ।
सूत्रम्-थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभहे सिया कप्पइ तेर्सि संठवेत्ताण वा असंठवेत्ताण वा आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेययत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० १७ ॥
छाया-स्थविराणां स्थविरभूमिप्राप्तानामाचारप्रकल्पो नामाध्ययन परिभ्रष्ट स्थाव कल्पते तेषां संस्थापयतामसंस्थापयतां वा आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० १७ ॥
भाष्यम्-'थेराणं' स्थविराणाम्-ये ज्ञान-दर्शन-चारित्रे सीदतामिहलोकपरलोकाऽपायं प्रदर्य तान् संयमे संस्थापयन्ति तेषाम्-श्रुतस्थविराणां षष्टिवर्षाणां वा 'येरभूमिपत्ताणं' स्थविरभूमिप्राप्तानाम्-आचार्यपदप्राप्तानाम् 'आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभट्टे सिया'-आचारप्रकल्पो नामाध्ययनम्-आचाराङ्गनिशीथसूत्रादिकं परिभ्रष्ट-नष्ट-विस्मृतं स्यात्भवेत् 'कप्पइ तेर्सि' कल्पते तेषां स्थविराणां स्थविरभूमिप्राप्तानाम् 'संठवेत्ताण वा' संस्थापयतां पुनरधीत्य सस्मरताम् 'असंठवेत्ताण वा' असंस्थापयतां पुनरसंस्मरतां वा 'आयरियत्तं जाव गणावच्छेययत्तं वा'-आचार्यत्वं वा उपाध्यायत्वं वा प्रवर्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणधरत्वं वा गणावच्छेदकत्वं वा 'उदिसित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा, जीर्णत्वमहत्त्वकारणेन तेषां सूत्रधारणायाः सामर्थ्याभावात् 'धारित्तए वा' स्वयं धारयितुं वा । स्थविरविषये अत्र चतुर्भङ्गी यथा
जीर्णो नो महान् , यस्तरुण एवं सन् जरया परिणतः, इत्येकः १। नो जीर्णः किन्तु महान्, यो वृद्धोऽपि सन् दृढशरीर इति द्वितीयः २ । जीर्णोऽपि च महानपि चेति तृतीयः ३ । नो जीर्णो नो महान् इति चतुर्थः ४।
मयं चतुर्थो भङ्गः शून्यः । शेषाणां तुं त्रयाणामेकतरो न शक्नोति संस्थापयितमिति तस्याचारप्रकल्पो नामाध्ययनं परिभ्रष्टं भवेदिति कल्पेत तादृशस्यासंस्थापनेऽपि माचार्यादिपदमुद्देष्टु वा धारयितुं वेति ।। सू० १७ ॥
सूत्रम्-थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयरपकप्पे णामं अज्झयणे परिभट्टे सिया कप्पइ तेसिं संनिसण्णाण वासंतुयधाण वा उत्ताणयाण चा पासल्लियाण वा आयारपकप्पे नाम अज्झयणे दोच्चंपि तच्चपि पडिपुच्छित्तए वा पडिसारेत्तए वा ॥सू०१८॥
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪
व्यवहारसूत्रे
छाया - स्थविराणां स्थविरभूमि प्राप्तानाम् आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं परिभ्रष्ट स्यात् कल्पते तेषां सन्निपण्णानां वा त्वग्वर्त्तयतां वा उत्तानकानां वा पार्श्वयतां (पार्श्वतः स्थितानाम् ) वा आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं द्वितीयमपि तृतीयमपि प्रतिप्रष्टुं वा प्रतिसारयितुं वा ॥ सू० १८ ॥
भाष्यम् -- 'थेराणं' स्थविराणाम् 'थेरभूमिपत्ताणं' स्थविरभूमिप्राप्तानाम् - आचार्यपदप्राप्तानाम्, अथवा-अतिवृद्धभावं प्राप्तानाम्, ' आयारपकप्पे नाम अज्झयणे' आचारप्रकल्पः-आचाराङ्गनिशीथादिसूत्रं नामाऽध्ययनम् 'परिभट्ठे सिया' परिभ्रष्टं - विनष्टं विस्मृतमित्यर्थः स्यात् - भवेत् 'कप्पइ तेर्सि' कल्पते युज्यते तेषां विस्मृताध्ययनानाम् 'संनिसण्णाण वा'–सन्निषण्णानां वा-निपद्यागतानां समुपविष्टानामित्यर्थः 'संतुयद्वाण वा' त्वग्वर्त्तनेन स्थितानां सुप्तानामित्यर्थः ' उत्ताणयाण वा' उत्तानकानां वा - हृदयभागमूर्ध्वकृत्य शयनं कुर्वताम् 'पासल्लियाण वा' पार्श्ववतां वामादिपार्श्वतः स्थितानाम् आश्रयमादायोपविष्टानां वा 'आयरपकप्पे नामं अज्झयणे' -अ " - आचार प्रकल्पना मकमध्ययनम् ' दोच्चापि तच्चपि' द्वितीयमपि वारं तृतीयमपि वारम् अपिशब्दात् चतुर्थीदिवारमपि 'पडिपुच्छित्तए वा' प्रतिप्रष्टुं वा तद्विपयां पृच्छां कर्तुम् 'पडिसारेत्तए वा' प्रतिसारयितुं वा संस्मत्तुं ग्रहीतुं वा कल्पते इति पूर्वेण - संवन्धः ॥ सू० १८ ॥
पूर्वं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां विस्मृताचार प्रकल्पाध्ययनस्य पठनमाश्रित्य कथितम्, साम्प्रतं निर्यन्थनिर्ग्रन्थीनां द्वादशविधः सम्भोगो भवति तत्र कोऽपि दोष आपतितो भवेत्तदा तस्याऽऽलोचना “कर्त्तव्येत्यालोचनाविधि प्रदर्शयति- 'जे णिग्गंथा णिग्गंधीओ य' इत्यादि ।
सूत्रम् - जे णिग्गंथा णिग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो व्हें कप्पइ अन्नमन्नस्स अंतिए आलोएत्तए, अस्थि या एत्थ केइ आलोयणारिहा कप्पर से तेर्सि अंतिए आलोएत्तए, नत्थि या एत्थ केइ आलोयणारिहा एवं हूं कप्पर अन्नमन्नस्स अंतिए आलोएतए ॥ सू० १९ ॥
छाया - ये निर्ग्रन्था निर्ग्रन्ध्यश्च सांभोगिकाः स्यु नो खलु कल्पते अन्योऽन्यस्याऽन्तिके आलोचयितुम्, सन्ति चात्र केचित् आलोचनार्हाः कल्पते तस्य तेषामन्तिके आलोचयितुम्, न सन्ति वा केचिदत्र भालोचनाहः एवं खलु कल्पते अन्योऽन्यस्याs. न्तिके आलोचयितुम् ॥ सू० १९ ॥
भाष्यम् – 'जे णिग्गंधा' ये निर्ग्रन्थाः 'णिगंथीओ य' निर्ग्रन्ध्यश्च 'संभोइया सिया’-साम्भोगिकाः स्युः, तत्र 'संभोगः उपध्यादिवस्तूनां परस्परमादानप्रदानम्, सच ओघतो
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०५ सू० १९
निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां परस्परमालोचनाविधिः १४१
- द्वादशविधः, उक्तश्च--:,
। : गाथा- 'उवहि-सुय-भत्तपाणं, अंजलिपगहो य दावणा णेया ।
छटुं निकायणं तह, अव्भुट्ठाणं च किइकम्मं ॥१॥ वेयावच्चं चसमो-सरो निसज्जा कहापबंधो य ।
बारसविहो य एसो, संभोगो ओघमो णेमो ॥२॥ इति, छाया-उपधि-श्रुत-भक्तपानम् अञ्जलिप्रग्रहश्च दापना ज्ञेया ।
षष्ठं निकाचनं तथा, अभ्युत्थानं च कृतिकर्म ॥१॥ वैयावृत्त्यं समवसरणं निषद्या कथाप्रबन्धश्च ।
द्वादशविधश्चैष संभोग ओघतो ज्ञेयः ॥२॥ इति । .. तथाहि-उपधिविषयः १, श्रुतविषयः २, भक्तपानविषयः,३, अञ्जलिप्रग्रहविषयः ४, दापनाविषयः दापना-शय्याहारोपधिस्वाध्यायशिष्यगणानां प्रदापनं तद्विषयः ५, निकाचनविषयः, निकाचनं निमन्त्रण तद्विषयः ६, अभ्युत्थानविषयः ७, कृतिकर्मविषयः ८, वैयावृत्यविषयः ९, समवसरणं व्याख्यानादिकरणे गृहस्थसाक्षात् परस्परमन्तिके उपवेशनं, तद्विषयः समवसरणविषयः १०, संनिषद्याविषयः ११, कथाप्रबन्धविषयश्चेति १२ द्वादशविधः संभोगस्तद्विशिष्टाः सांभोगिका भवेयः 'नो पहं कप्पइ अन्नमन्नस्स अंतिए -आलोएत्तए' नो-नैव 'ई' इति वाक्यालङ्कारे कल्पतेऽन्योऽन्यस्य-परस्परस्य अन्तिके-समीपे निम्रन्थस्य निर्ग्रन्थीसमीपे, निर्ग्रन्या॑श्च निम्रन्थसमीपे आलोचयितुम्-आलोचनां कत्तुम् स्वकीय स्वकीयमतीचारज़ातं प्रकटयितुं नो कल्पते इति सम्बन्धः । एवं तर्हि कुत्र कल्पते ? इत्याह-'अस्थि या' इत्यादि । 'अस्थि या पत्थ कई आलोयणारिहे. सन्ति-विद्यन्ते. चेदत्र समुदाये केचिदालोचनाोः आलोचनादानयोग्याः स्थानाङ्गसूत्रस्य दशमस्थानोक्तदशविधगुणवन्तो निर्ग्रन्थास्तदा-'कप्पइ से तेंसिं अंतिए आलोएत्तए' कल्पते तस्य-आलोचकस्य तेषाम् आलोचनार्हाणामन्तिके समीपे आलोचयितुम् । आलोचनाहः स्थानाङ्गसूत्रस्य दशमस्थानोकदशविधगुणधारको भवेत् । उक्तञ्च___"दसहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे मरिहंइ आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा-आयारवं १, अवहारवं २, ववहारवं ३, ओवीलए '४, पकुब्बए ५, मपरिस्साई ६, निज्जावए ७, अवायदंसी ८, पियधम्मे ९, ददधम्मे १०" ॥ ' छाया-आचारवान् १, अवधारवान् -२, व्यवहारवान् ३, अपनीडकः ४, प्रकुर्वकः ५, अपरिस्रावी ६, निर्यापकः ७, अपायदर्शी ८, प्रियधर्मा ७. दृढधर्मा १० इति । .
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्यवहारसूत्र
व्याख्या-दशस्थानसंपन्नोऽनगारः आलोचकेन दीयमानामालोचनां ग्रहीतुमर्हति, कीदृशः स भवितुमर्हति ? 'तं जहा' तद्यथा-आचारवान्-ज्ञानाद्याचारवान् १, अवधारवान्अवधारणावान् २, व्यवहारवान्-आगमादिपश्चप्रकारव्यवहारवान् ३, अपनीडकः-लज्जापनोदकः यथा परः सुखमालोचयति ४, प्रकुर्वक:-आलोचितेऽतिचारे शुद्धिकरणसामर्थ्यवान् ५, निर्यापक्रः-निर्यापनकारकः तथा प्रायश्चित्तं ददाति यथा स निर्वोढुं शक्नोति ६, अपरित्रावीश्रुतालोचकदोषाणां न कस्मैचित्कथनशीलः ७, अपायदर्शी-आलोचकस्य पारलाकिकाऽपायदर्शकः ८, प्रियधर्मा-धर्मप्रियः ९, दृढधर्मा-आपद्यपि धर्मेऽविचल १० इति । तस्य, तथा ज्येष्टस्य च समीपे आलोचना कर्तव्या । यदि तत्र दशविधगुणयुक्तो न भवेत्तदा पर्यायज्येष्ठस्य समीपे दैवसिकं रात्रिकं सामान्यमतिचारजातमालोचयेदिति । अथापवादमाह-अथ यदि-'नत्थि या इत्य केइ आलोयणारिहे' न सन्ति-न विधन्ते चेदत्र केचिदालोचनाो निम्रन्थाः 'एवं ण्हं कप्पइ अन्नमन्नस्स अंतिए आलोएत्तए' एवम्-एतादृश्यां परिस्थितौ खल कल्पतेऽन्योऽन्यस्याऽन्तिके-समीपे आलोचयितुम्-आलोचनां कर्तुमिति ।
अयं भावः-आलोचना च न विपक्षे, सपक्षेऽपि नागीतार्थेषु भवितुमर्हति, तत्र गुप्तातिचारस्य प्रकटनायोग्यत्वात् । तत्र विपक्षः-संयताः संयतीनाम्, संयत्यश्च संयतानामिति । सपक्षः संयताः संयतानाम् , संयत्यश्च संयतीनां भवति । यतः-विपक्षे आलोचनायां चतुर्थवतादिगुप्तातिचाराणां प्रकटने परस्परं भावभेदः संभवति, तस्माद् भगवता अन्योऽन्यालोचनाप्रतिषे. धकमिदं सूत्रं प्रतिपादितम् । अपवादपक्षे गाढागाढकारणे समुत्पन्ने परस्परालोचनाविधिप्रतिपादकं सूत्रं प्रवर्तितम् । तत्रापि विवेकः प्रवर्त्तयितव्यः, यथा-आलोचको युवको वृद्धो वा आलोचना निर्ग्रन्थी वृद्धाऽवश्यम्भाविनी। आलोचिका युवतिवृद्धा वा आलोचनाहों निम्रन्थो वृद्धो. ऽवश्यंभावी युज्यते, एवं परस्परालोचनाविधिप्रतिपादकं सूत्रं प्रवर्तनीयमिति । मालोचना: कीदृशैभवितव्यम् । तत्राह भाष्यकारः-'गीयस्था' इत्यादि। गाथा-"गीयस्था कयकरणा, पोदा परिणामिया य गंभीरा ।
चिरदिक्खिया य वुड्ढा, जइणो अलोयणाजोग्गा ॥१॥" , छाया-गीतार्थाः कृतकरणाः, प्रौदाः पारिणामिकाश्च गम्भीराः ।
चिरदीक्षिताश्च वृद्धाः, यतय आलोचनायोग्याः ॥१॥ व्याख्या--'गीयत्था' इति । गीतार्थाः-सूत्रार्थतदुभयनिष्णाताः, कृतकरणाः-अनेकवारमालोचनादाने सहायीभूताः, प्रौढाः-समर्थाः सूत्रतोऽर्थतश्च प्रायश्चित्तदाने पश्चास्कर्त्तमशक्याः, पारिणामिकाः-आलोचनायाः परिणामचिन्ताकुशलाः, गम्भीराः आलोचकस्य महति
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यम् उ० ५ सू १९-२० निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां स्वपक्षविपक्षे वैयावृत्यविधिः १४३ दोपेऽपि श्रुते अपरिस्राविणः न कस्मैचिदपि प्रकटनशीला इत्यर्थः, चिरदीक्षिताः-प्रभूतकालप्रवजिताः, वृद्धाः-श्रुतेन पर्यायेण वयसा च महान्तः, एवम्भूता यतयः-साधवः उपलक्षणात् सान्यश्च मालोचनादानयोग्याः आलोचनादाने समुचिता भवन्तीति ॥ १॥ अत्राह भाष्यकारः'आलोयणाए' इत्यादि । गाथा-"आलोयणाए जे दोसा, वेयावच्चेवि ते पुणो।
तम्हा अन्नोन्नभावेणं, वेयावच्चं न कारए" ॥१॥ छाया-आलोचनायां ये दोषा वैयावृत्त्येऽपि ते पुनः ।
तस्माद् अन्योऽन्यभावेन वैयावृत्त्यं न कारयेत् ॥१॥ व्याख्या-ये च खलु-विपक्षे-आलोचनायां दोषाः कथिताः, ते सर्वेऽपि दोषाः वैयावृत्त्येऽपि परस्परं वैयावृत्त्यकारणेऽपि भवन्ति तस्माद् अन्योऽन्यभावेन विपक्षे वैयावृत्त्यं न कारयेदिति सूत्राक्षरार्थः ।
. अयं भावः—विपक्षात्-वैयावृत्त्यं शारीरिकं हस्तपादादिसंवाहनरूपं कारयतः साघोः कदाचित चञ्चलचित्तायाः साच्या विषये मनो विकृतं भवेत् तेन व्रतभङ्गदोष आपद्येत, आहाराद्यानयनविषये च श्रमण्या समानीतमन्नादिकं भुञ्जतः साधोराज्ञाभङ्गादिदोषाः, शङ्कितादि. दोषाश्च भवेयुः । उक्तञ्चात्र
समणीए आणीय, मुंजइ असणाइ जत्थ समणो य । गच्छो नपुंसओ सो, एवं समणीण धम्मकहा ॥१॥
छाया-श्रमण्या आनीतं भुक्ते अशनादि यत्र श्रमणश्च ।
गच्छो नपुंसकः सः, एवं श्रमणीनां धर्मकथा ॥१॥
अयं भावः—यस्मिन् गच्छे श्रमण्या समानीतमशनादिकमकारणे श्रमणो मुके स गच्छो नपुंसको विज्ञेयः । एवं श्रमणानां सद्भावे श्रमण्या धर्मकथाऽपि बोध्या । श्रमणसत्तायां श्रमणी यदि पट्टोपर्युपविश्य परिपदि धर्मकथां करोति यस्मिन् गच्छे स गच्छोऽपि नपुंसक एवेति ॥ १॥
पुनश्च-आहारानयने–'अन्यन्मनसि-अन्यद्वचसि' इत्यादिदुष्टलक्षणलक्षिता संयती कदाचिद् अनेषणीयमप्यशनादिकमानीय समर्पयति, इत्यादि दोषवाहुल्यात् कथमपि किमपि संयतेन संयतीभिः किमपि वैयावृत्यं न कारयितव्यमिति। एवं संयत्याः संयतेवैयावृत्त्यकारणे दोषाः
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
. ,
. .
व्यवहारसचे
समुन्नेयाः । अपवादे गाढागाढकारणे विवेकः कर्तव्य इति । विशेषत आलोचनादोषा वैयावृत्त्यदोषाश्च स्थानाङ्गसूत्राज्ज्ञातव्याः ।। सू० १९॥ .
पूर्व विपक्षेऽन्योऽन्यवैयावृत्त्यकरणं निषिद्धम् , गाढकारणे चाज्ञा प्रतिपादिता, साम्प्रतं स्थविरकल्पिकजिनकल्पिकयोरपवादोत्सर्गों प्रतिपादयन्नाह-'णिग्गंथं च णं' इत्यादि । ' '
सूत्रम्-णिग्गंथं च णं राओ वा वियाले वा दीहपट्टो वा लूसेज्जा इत्थी वा पुरिसस्स ओमावेज्जा पुरिसो वा इत्थीए ओमावेज़्जा, एवं से कप्पइ एवं से चिट्ठइ परिहारं च नो पाउणइ एस कप्पे थेरकप्पियाणं । एवं से नो कप्पइ एवं से नो चिट्ठइ परिहारं च नो पाउणइ एस कप्पे जिणकप्पियाणं ति वेमि ॥ सू० २१॥
. ववहारस्स पंचमो उद्देसो समत्तो ॥५॥ छाया-निर्ग्रन्थ च खलु रात्रौ वा विकाले वा दीर्घपृष्ठो लूपयेत् स्त्री वा पुरु: पस्यापमार्जयेत् पुरुषो वा स्त्रिया अपमार्जयेत्, पवं तस्य कल्पते एवं तस्य तिष्ठति परि. हारं च नो प्राप्नोति एष कल्पः स्थविरकल्पिकानाम् । एवं तस्य नो कल्पते एवं तस्य नो तिष्ठति परिहारं च नो प्राप्नोति एपः कल्पो जिनकल्पिकानाम्, इति ब्रवीमि ॥ सू०२०॥
व्यवहारस्य पञ्चम उद्देशः समाप्तः ॥ ५॥ - भाष्यम् --'णिग्गंथं च णं निर्ग्रन्थं श्रमणम् चकारात्-निर्ग्रन्थी च खलु 'राओ वा वियाले वा' रात्रौ वां विकाले-सायंकाले प्रातःकाले तदन्यकाले वा यदि-दीहपट्ठो वा लूसेज्जा' दीर्घपृष्ठः सर्पः लूपयेत्-दशेत् तत्र-'इत्थी वा पुरिसस्स ओमावेज्जा' स्त्री श्रमणी पुरुषस्य साधोः स्वहस्तेन तं विषमपमार्जयेत् मन्त्रौषधादिना निवारयेत् 'पुरिसो इत्थीए ओमावेज्जा' पुरुषः साधुः स्त्रियाः श्रमण्याः स्वहस्तेन विषमपमार्जयेत् । यदि-साधुः साध्वी वा सर्पदष्टा भवेत् तत्राऽसति व्यक्त्यन्तरे साधुः श्रमण्याः विषं हस्तेन प्रमार्जयेत् , श्रमणी वा श्रमणस्य विषं हस्तेनाऽपसारयेदिति भावः । ‘एवं से कप्पई' एवम् एतादृश्यां परिस्थितौ तस्य स्थविरकल्पिकस्य कल्पते, ‘एवं से चिटइ' एवम्-अनेन प्रकारेण अपवादमासेवमानस्य तस्य स्थविरकल्पिकस्य तिष्ठति पर्यायः न तु सः स्थविरकल्पिकत्वात् पर्यायपरिभ्रष्टो भवति अत एव 'परिहारं च से नो पाउणइ' परिहारं च तपः स स्थविरकल्पिकः प्रायश्चित्तरूपेण न प्राप्नोति परिहारनामकं प्रायश्चित्तं च तस्य न भवति 'एस कप्पे थेरकप्पियाणं' एषः-सूत्रोक्तः कल्पः-आचारः स्थविरकल्पिकानां कथितः । सम्प्रति जिनकल्पिकमधिकृत्य उत्सर्गमार्ग प्रदर्शयितुमाह-'एवं से नो' इत्यादि, 'एवं से नो कप्पई' एवम्-उक्तप्रकारेण सपक्षेण विपक्षेण वा वैयावृत्त्यकारणं 'से' तस्य जिनकल्पिकस्य नो नैव कथमपि कल्पते, 'एवं से नो चिहई' एवम्-अनेन प्रकारेणाअपवादपदसेवनेन तस्य जिनकल्पिकस्य जिनपर्यायो न तिष्ठति, जिनकल्पिकत्वात् पतितो भवतीत्यर्थः।।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ षष्ठोद्देशकः प्रारभ्यतेअथ पञ्चमोदेशकस्य चरमसूत्रेणास्य षष्ठोदेशकस्यादिसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति सम्बन्धं प्रदर्शयन्नाह भाष्यकार:--'पंचम' इत्यादि ।
गाथा-"पंचमउद्देसते, गिलाणभावो पदंसिओ मुणिणो ।
सो इच्छइ नायविहि, संबंधो एस नायव्वो" ॥१॥
.
छाया-पञ्चमोद्देशकान्ते ग्लानभावः प्रदर्शितो मुनेः ।
स इच्छति शातविधि, सम्बन्ध एप ज्ञातव्यः ॥ १॥ व्याख्या-पंचमउद्देसते'-पञ्चमोद्देशकस्यान्ते चरमसूत्रे 'मुणिणो' मुनेः-निम्रन्थस्य 'गिलाणभावो' ग्लानभावः-सर्पदंशेन मनोदौर्बल्यरूपः 'पदंसिओ' प्रदर्शितः । 'सो' सः-मरणाशङ्कादिना खिन्नः सन् ‘णायविहिं ज्ञातविधि, तत्र-ज्ञाताः-मातापित्रादयः तत्संवन्धीभूता वा, तेषां विधि-ज्ञातसम्बन्धमाश्रित्य तत्तत्संबन्धीभूतं ज्ञातभेदम् अन्यस्वजनान् वा 'इच्छई' इच्छति तेषां समीपे गन्तुमिच्छेदित्यर्थः । अथवा स्वजना ग्लाना मरणासन्ना वा भवेयुस्तेषां दर्शनदानाद्यर्थं वा गन्तुमिच्छेदिति षष्ठोद्देशकस्यादौ ज्ञातविधिः प्रदर्श्यते, एष सम्बन्धः पूर्वापरोद्देशकयोर्ज्ञातव्य इति ॥१॥ तत्रादिमं सूत्रमाह-"भिक्खू य इच्छेज्जा' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य इच्छेज्जा नायविहिं एत्तए, नो से कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता नायविहिं एत्तए, कप्पइ से थेरे आपुच्छित्ता नायविहिं एत्तए, थेरा य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ नायविहिं एत्तए, थेरा य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ नायविहिं एत्तए, जं तत्थ थेरेहिं अविइण्णे नायविहि एई, से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १॥
छाया-भिक्षुश्च इच्छेत् शातविधिं नो तस्य कल्पते स्थविराननापृच्छय ज्ञात. विधिमेतुम् , कल्पते तस्य स्थविरान् आपृच्छय ज्ञातविधिमेतुम् , स्थविराश्च तस्य वितरेयुः, एवं तस्य कल्पते ज्ञातविधिमेतुम् , स्थविराश्च तस्य नो वितरेयुः, एवं तस्य नो कल्पते ज्ञातविधिमेतुम् , यत्तत्र स्थविरैः अवितीर्णो ज्ञातविधिमेति तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १ ॥
__ भाष्यम्-'भिक्खु य इच्छेज्जा' भिक्षुः-श्रमणः च-शब्दात् श्रमणी च इच्छेत् , किमिच्छेत्तत्राह-'नायविर्हि' इत्यादि, 'णायविहिं एत्तए' ज्ञातविधि स्वजनभेदम् , ज्ञाता-मातापित्रादयः,
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ६ ० १-५
भिक्षोः स्वजनमिलनार्थगमनविधि. १४७ अथवा पूर्वसंस्तुता मातापित्रादयः, पश्चात्संस्तुताः श्वश्रूश्वशुरश्यालकादयः, तन्निमित्तेन यः सम्बन्धः स ज्ञातविधिरुच्यते, मातापितृश्वश्रूश्वशुरादिविषयेऽनेके भेदा भवन्ति, अतो विधिशब्दोऽत्र भेदवाचको ज्ञातव्यः, तेषां गृहे दर्शनदानाद्यर्थम् एतुं-प्राप्तुं गन्तुमित्यर्थः तदा-'नो से कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता नायविहिं एत्तए' 'नो'–न कथमपि 'से' तस्य-श्रमणस्य कल्पते स्थविरान् गच्छनायकान् अनापृच्छ्य स्थविराज्ञामन्तरेणेत्यर्थः ज्ञातविधिमेतुम् आत्मनः स्वजनगेहे गन्तुम् । 'कप्पड़ से थेरे आपुच्छित्ता नायविहिं एत्तए' कल्पते तस्य स्थविरान् गच्छनायकान् आपृच्छय गच्छनायकस्याऽऽज्ञां लब्ध्वा इत्यर्थः ज्ञातविधिमेतु-स्वजनगृहे गन्तुमिति । प्रच्छने यदि-'थेराय से वियरेज्जा' स्थविराश्च 'से' तस्य वितरेयुः-गमनायाऽऽज्ञां दद्युः ‘एवं से कप्पइ नायविहिं एत्तए' एवं गच्छनायकस्याऽऽज्ञासंप्राप्त्यनन्तरम् ‘से' तस्य श्रमणस्य कल्पते ज्ञातविधिमेतुम् 'थेरा य से नो वियरेज्जा' यदि स्थविराश्च तस्य स्वजनगृहे गन्तुमाज्ञां नो वितरेयुः नो दधुः ‘एवं से नो कप्पइ नायविहिं एत्तए' एवम्-आज्ञावितरणाभावे तस्य नो कल्पते ज्ञातविधिमेतुम् । 'जं तत्थ थेरेहिं अविइण्णे नायविहिं एई' यत् यदि श्रमणस्तत्र स्थविरैरवितीर्णोऽननुज्ञातः ज्ञातविधिमेति प्राप्नोति स्थविराज्ञामन्तरेण यदि कश्चित् श्रमणः स्वजनगृहं याति गच्छति 'से संतरा छेए वा परिहारे वा' 'से' तस्य-श्रमणस्याज्ञामन्तरेण ज्ञातविधिं कुर्वतः सान्तरात् स्वकृताद् अन्तरात् आज्ञोल्लङ्घनरूपाऽपराधात् छेदो वा परिहारो वा, गच्छनायकाज्ञामुल्लंध्य ज्ञातविधिकरणे श्रमणस्य छेदनामकं परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं भवति, इति भावः ॥ सू०१॥
ज्ञातविधिमेतुं कस्य न कल्पते ? तत्राह-'नो से कप्पइ' इस्यादि । सूत्रम्-नो से कप्पइ अप्पसुयस्स अप्पागमस्स एगाणियस्स नायविहिं एत्तए ।०२॥ छायानो तस्य कल्पते अल्पश्रुतस्य अल्पागमस्य एकाकिनो शातविधिमेतुम् ।।सू०२॥
भाष्यम्-'नो से कप्पई' नो-न कल्पते कथपि 'से' तस्य श्रमणस्य, कीदृशस्येत्याह'अप्पमुयस्स' मल्पश्रुतस्याऽगीतार्थस्य, 'अप्पागमस्स' अल्पागमस्य-आगमज्ञानविकलस्य लौकिकशास्त्रेष्वतिपरिचितस्य स्वशास्त्रविषयकज्ञानवश्चितस्य, पुनश्च गीतार्थे सत्यपि 'एगाणियस्स' एकाकिन' सहायकरहितस्याद्वितीयस्य 'णायविहिं एत्तए' ज्ञातविधिमेतुम्-प्राप्तुम्, अल्पश्रुतेनअल्पागमेन एकाकिनाऽगीतार्थेन श्रमणेन स्वजनगृहे गमन न कर्त्तव्यमित्यर्थः ॥ सू० २ ॥
ज्ञातविधिमेतुं कस्य कल्पते ? इति तद्विधिमाह--'कप्पइ से जे तत्थ' इत्यादि । सूत्रम्-कप्पइ से जे तत्थ बहुस्सुए वभागमे तेण सद्धिं नायविहि एत्तए।सू०३॥ छाया- कल्पते तस्य यस्तत्र बहुश्रुतो वह्वागमः तेन सा शातविधिमेतुम् ॥ सू०३।।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
व्यवहारसूत्रे mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm भाष्यम्-'कप्पड़ से जे तत्थ बहुस्सुए वहागमे' कल्पते 'से' तस्य श्रम णस्य यस्तत्र-गच्छे वहुश्रुतः सूत्रापेक्षया, वह्वागमः अर्थापेक्षया 'तेण सद्धिं नायविहि एत्तए' तेन वहुश्रुतेन वह्वागमेन सार्ध ज्ञातविधिमेतुम्-स्वजनगृहं गन्तुं कल्पते इति संबन्धः, नैकाकिनां श्रमणेन स्वजनगृहे गन्तुं शक्यते किन्तु -तस्मिन् गच्छे यो बहुश्रुतो बह्वागमः तेन साकं मिलित्वा गन्तुं शक्यते इति भावः ।। सू० ३ ।। ।
स्वजनगृहे गते सति तत्राहारग्रहणविधिमाह-'तत्थ से' इत्यादि ।
सूत्रम्-- तत्थ से पुव्यागमणेणं पुब्बाउत्ते चाउलोदणे, पच्छाउत्ते भिलिंगसूवे कप्पइ से चाउलोदणे पडिग्गाहित्तए. नो से कप्पइ भिलिंगसूवे पडिग्गाहित्तए । सू० ४ ॥
छाया-तत्र तस्य पूर्वागमनात् पूर्वायुक्तः तन्दुलौदन पश्चादायुक्तः भिलिङ्गसूपः कल्पते तस्य तन्दुलौदनः प्रतिग्रहीतुम् , नो तस्य कल्पते भिलिङ्गसूपः प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू०४॥
भाष्यम् - 'तत्थ से' इति तत्र-गृहस्थगृहे तस्य-भिक्षार्थमागतस्य साधोः 'पुव्वागमणेणं' सूत्रे पञ्चम्यर्थे तृतीया आर्षत्वात् तेन आगमनात्पूर्व साधोरागमनात्प्रागेव 'पुन्बाउत्ते' पूर्वायुक्त. पूर्व रन्धनकाले एव आयुक्तः रध्यमानः गृहस्थैः स्वनिमित्तं पक्तुमारब्धः 'चाउलोदणे' तन्दुलौदनः वर्तेत 'पच्छाउत्ते भिलिंगसवे' पश्चादायुक्तः साधोरागमनानन्तरं रध्यमानः 'भिलिंगसूवे' इति मसूर दालिर्भवेत् उपलक्षणमेतत् सर्वदालीनाम् , तत्र तयोर्मध्ये 'कप्पइ से' कल्पते तस्य साधोः 'चाउलोदणे' तन्दुलौदनः 'पडिग्गाहित्तए' प्रतिग्रहीतुम् तन्दुलौदनस्य पूर्वायुक्तत्वात् , किन्तु- 'नो. से कप्पइ'. नो-नैव-तस्य- साधोः कल्पते 'भिलिंगस्वे' मसूरसूपः 'पडिग्गाहित्तए' प्रतिग्रहीतुं तस्य पश्चादायुक्तत्त्वात् ॥ सू० ४ ॥
पुनरेवाह--'तत्य पुन्नागमणेणं' इत्यादि ।
सूत्रम्-तत्य पुवागमणेणं पुव्वाउत्ते भिलिंगसूवे, पच्छाउत्ते चाउलोदणे, कप्पइ से भिलिंगसूवे पडिग्गाहित्तए, नो से कप्पइ चाउलोदणे पडिग्गाहित्तए ॥ सू० ५॥
छाया-तत्र पूर्वागमनेन पूर्वायुक्तो भिलिङ्गसूपः पश्चादायुक्तस्तन्दुलौदनः कल्पते तस्य भिलिङ्गसूपः प्रतिग्रहीतुम्, नो तस्य कल्पते तन्दुलौदनः प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ५॥
भाष्यम्-अस्मिन् सूत्रे भिलिङ्गसूप. साधोः प्रतिग्रहीतु कल्पते पूर्वायुक्तत्वात् किन्तु तन्दुलौदनो न कल्पते तस्य पश्चादायुक्तत्वादिति सूत्रभावः ॥ सू० ५॥
सूत्रम्-तत्थ से पूवागमणेणं दोवि पुवाउत्ते कप्पइ से दोवि पडिग्गाहित्तए ॥ सू०६॥
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीष्यम् उ०६ सू०६-११
तन्दुलौदनभिलिङ्गसूपयोहणविधिः १४९ छाया-तत्र तस्य पूर्वागमनेन द्वावपि पूर्वायुक्तौ कल्पते तस्य द्वावपि प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू०६॥
भाष्यम्-अस्मिन् सूत्रे तन्दुलौदनो भिलिङ्गसूपश्चेति द्वावपि प्रतिग्रहीतुं कल्पते तयोईयोरपि पूर्वायुक्तत्वात् ।। सू० ६॥
सूत्रम्--तत्थ से पून्वागमणेणं दोवि पच्छाउत्ते नो से कप्पइ दोवि पडि-- ग्गाहित्तए ॥ सू०७॥
छाया-तत्र तस्य पूर्वागमनेन द्वावपि पश्चादायुक्तौ नो तस्य कल्पते द्वावपि प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ७॥
भाष्यम्-अस्मिन् सूत्रे मिलिङ्गसूपस्तन्दुलौदनश्च द्वावपि नो कल्पते द्वयोरपि पश्चादायुक्तत्वात् ।। सू० ७ ॥
अत्र कल्पने कारणं प्रदर्शयति-'जे से तत्थ' इत्यादि । सूत्रम्-जे से तत्थ पुयागमणेण पुन्हाउत्ते, से कप्पइ पडिग्गाहित्तए । सू० ८ ॥ छाया-यः सः तत्र पूर्वागमनेन पूर्वायुक्तः स कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ८ ॥
भाष्यम्-यः सः कोऽपि पदार्थो गृहस्थगृहे साधुप्रायोग्यः अशनादिः स सर्वोऽपि साधोरागमनात्पूर्वमायुक्तः-सम्पन्नः स कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति तात्पर्यार्थः ॥ सू० ८ ॥
अथाऽकल्पने कारणमाह--'जे से' इत्यादि । सूत्रम्--जे से तत्थ पुवागमणेणं पच्छाउत्ते, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ।०९॥ छाया- यः स तत्र पूर्वागमनेन पश्चादायुक्तो नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।।सू०९॥
भाष्यम्-यः स कोऽपि पदार्थः साधोर्ग्रहणयोग्योऽशनादिर्गृहस्थगृहे साधोरागमनात्पश्चादायुक्तः-सम्पन्नः स कोऽपि पदार्थः साधोर्न कल्पते इति भावः ॥ सू० ९॥
पूर्व बहुश्रुतबह्वागमस्य ज्ञातविधिगमने विधिः प्रदर्शितः । ज्ञातविधिं कृत्वा ततः प्रत्यावर्त्य उपाश्रये आगच्छति तत्र पादप्रस्फोटनादि चावश्यं करोतीति तद्विषये आचार्योपाध्यायस्य पश्चातिशेषान् दर्शयति--'आयरियउवज्झायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरियउवज्झायस्य गणंसि पंच अइसेसा पन्नत्ता, तं जहा आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए निगिझिय निगिज्झिय पप्फोडेमाणे वा पमज्जमाणे वा नो अइक्कमइ ॥ सू० १० ॥
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे छाया-आचार्योपाध्यस्थ गणे पञ्च अतिशेषाः प्रज्ञप्ता तद्यथा-आचार्योपाध्यायः अन्त उपाश्रयस्य पादौ निगृह्य निगृह्य प्रस्फोटयन् वा प्रमार्जयन् वा नो अतिक्रामति सू०१०॥
भाष्यम्-'आयरियउवज्झायस्स' आचार्योपाध्यायस्य आचार्यश्चोपाध्यायश्चेत्याचार्योपाध्याय. आचार्यरूप उपाध्यायः यद्वा आचार्येण सहित उपाध्यायः आचार्योपाध्यायः, तस्याचार्योपाध्यायस्य 'गणसि' गणे-गच्छमध्ये इत्यर्थः 'पंच अइसेसा पन्नत्ता' पञ्च-पञ्चसंख्यका अतिशेषाः- अतिशयाः सामान्यसाधोरनाचरणीयत्वात् प्रज्ञप्ताः-कथिताः । तानेव पञ्चातिशयान् दर्शयितुमाह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः, आचार्यश्चोपाध्यायश्चेत्यर्थ., 'अंतो उवस्सयस्स' अन्तः उपाश्रयस्य वसतेमध्ये इत्यर्थः, 'पाए' पादौ स्वकीयचरणौ 'निगिज्झिय निगिझिय' निगृह्य निगृह्य-भूमौ यतनया-आस्फाल्यास्फाल्य 'पप्फोडेमाणे वा' प्रस्फोटयन्-तद्गतधूल्यादिमपनयन् ‘पमज्जमाणे चा' प्रमार्जयन् वा वस्त्रादिना प्रोञ्छयन् वा 'नो अइक्कमइ' नो अतिक्रामति-तीर्थकरा नोलद्धयति, बाह्यत आगतस्य साघोः पादप्रमार्जनमुपाश्रयाद्वहिरेव करणीयं भवेत् किन्तु आचायोपाध्यायस्य तदतिशयत्त्वेन प्रतिपादनान्न दोषः, यत आचार्योपाध्याया न किमपि कारणं विना एवं कुर्वन्ति, - बहिर्गृहस्थानामुपस्थितौ एवं करणे शासनोड्डाहो भवति, यदेते असम्या जैनसाधवः ये उपस्थितजने धूलिमुडापयन्तीत्यादि कारणवशात्ते एवं कुर्वन्ति ततो न तेषामाज्ञाभङ्गादि दोषः समापद्येत तेषामतिशयत्वेन भगवता प्रतिपादितत्वात् । एषः एकोऽतिशयः ॥सू० १०॥
अथ द्वितीयमाह-'आयरिय' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए अन्तो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ ॥ सू० ११ ॥
छाया--आचार्योपाध्यायः अन्त उपाश्रयस्य उच्चारप्रस्रवणं विगिञ्चयन् वा विशोधयन् वा नो अतिक्रामति ॥ सू० ११ ॥ .
__ भाष्यम्-'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः 'अंतो उवस्सयस्स' अन्तःमध्ये उपाश्रयस्य 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'विर्गिचमाणे वा' विगिञ्चयन्-व्युत्सजन् वा, 'विसोहेमाणे वा' भूमिं विशोधयन् वा 'नो अइक्कमइ' नो अतिक्रामति, उपाश्रयमध्ये उच्चारप्रस्रवण कुर्वन् आचार्यः तस्य यत् पुरीषादिकं विशोधयन् उच्चारादिपरिष्ठापकोऽपि नातिकामति । आचार्योपाध्यायस्य यदि प्रस्रवणादिवेगो भवेत् , तदा स उपाश्रयमध्य एव तत् कुर्यात् , यदन्यः कश्चिद् उच्चारादि परिष्ठापको भवेत्तर्हि-आचार्यः,
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ६ स्० १२-१६
आचार्योपाध्यायस्यातिशयनिरूपम् १५१
द्वितीयवारं तृतीयवारं वा उपाश्रयावहिरुध्चाराधर्थ गन्तुं न शक्नुयात् , यतो हि-मुहुर्मुहुर्वहिर्गमने श्रावकैरिं वारं विनयादिकं कर्तुं न पायेंत, इत्यवज्ञया शासनस्य लघुता स्यात् , अत एव द्वितीयादिवारं ययुच्चारादिशङ्का भवेत् तदा तत्रैव तत् तेन कर्त्तव्यम् , तस्य बहिर्गमने तदनुपस्थितौ यदि कोऽपि अन्यतैर्थिको वादी सामायाति कस्तं निवारयेत् , इत्यादिकारणसंभवात् , तस्य विशोधकोऽपि शिष्यो विशुद्धिं कुर्वन् तीर्थकराज्ञां नातिकामति प्रत्युत महानिर्जरां करोतीति भावः । इति द्वितीयोऽतिशयः २ ॥ सू० ११ ॥
अथ तृतीयमतिशयमाह-आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए पभू वेयावडियं इच्छा करेजा इच्छा नो करेज्जा ॥ सू० १२॥
छाया--आचार्योपाध्यायः प्रभुः वैयावृत्त्यम् इच्छा कुर्यात् इच्छा नो कुर्यात् ॥ सू० १२ ॥
भाष्यम्---'आरियउवज्झाए पभू' आचार्योपाध्यायः प्रभुः समर्थः शरीरसामर्थ्यवानपि 'वेयावडियं इच्छा करेज्जा' वैयावृत्त्यम् अन्यसाधुम्यो भक्तपानादीनामानयनादिकम् इच्छा कुर्यात् यदीच्छा भवेत्तदा कुर्यात् कत्तुं शक्नोति, 'इच्छा नो करेज्जा' इच्छा नो कुर्यात् , यदीच्छा न भवेत्तदा न कुर्यात् , आचार्योपाध्यायस्य सामर्थेऽपि वैयावृत्यकरणप्रतिबन्धाभावात् , यदीच्छेत् तस्येच्छा भवेत् तदा वैयावृत्त्यं कुर्यात् यदि नेच्छा भवेत् , तदा न कुर्या तस्यातिशयवत्त्वात् । एष तृतीयोऽतिशयः ३ ॥ सू० १२॥
अथ चतुर्थमतिशयमाह-आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम्--'आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा दुराय वा वसमाणे नो अइक्कमइ ।। सू० १३ ॥ - छाया--आचार्योपाध्यायः अन्तः उपाश्रययस्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नो अतिक्रामति ॥ सू० १३ ॥
भाष्यम्-'आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स' आचार्योपाध्यायः अन्तः-मध्ये उपाश्रयस्य वसतेः 'एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे' एकरात्रं वा द्विरानं वा एकाकी वसन् 'नो अइक्कमई' नातिकामति कथमपि तीर्थङ्कराज्ञां नोल्लधयति, तस्योपाश्रयमध्ये एकाकिवासोऽपि कल्पते अतिशयवत्वात् । एषश्चतुर्थोऽतिशयः १ ॥ सू० १३ ॥
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूखे अथ पञ्चममतिशयमाह--'आयरियउवज्झाए' इयादि ।
सूत्रम्--आयरियउवज्झाए वाहि उवस्सयस्स एगराय वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ ॥ सू० १४ ॥
छाया- आचार्योपाध्यायो, बहिरुपाश्रयस्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा पसन् नो अतिकामति ॥ सू० १४॥
___ भाष्यम्-'आयरियउवज्झाए' माचार्योपाध्यायः 'वाहि उवस्सयस्स' वहिरुपाश्रयस्य वसतेर्बहिर्भागे 'एगराय वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ, एकरात्रं वा द्विरात्रं वा कारणवशाद् एकाको वसन् नो अतिक्रामति न कथमपि अतिचारादिकं प्राप्नोति कारणिकज्ञानवत्त्वात् । इति पञ्चमोऽतिशयः । ५। इत्येते पञ्चातिशया आचार्योपाध्यायानामेव भवन्ति तेषामागमकुशलत्वेन औचित्यतो वर्तनशीलत्वात् ॥ सू० १४ ॥
उक्ता आचार्योपाध्यायस्य पञ्चातिशयाः, सम्प्रति गणावच्छेदकस्यातिशयद्वयं भवेदिति प्रदर्शयन्नाह-'गणावच्छेययस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-गणावच्छेययस्स गं गणंसि दो अइसेसा पन्नत्ता तं जहा-गणावच्छेछेयए अंतो उबस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ॥ सू० १५॥
गणावच्छेयए बाहिं उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ ॥ सू० १६॥
छाया-गणावच्छेदकस्य खलु गणे द्वावतिशेषौ प्रक्षप्तौ तद्यथा-गणावच्छेदकः अन्तरुपाश्रयस्य एकरात्रं वा द्विरानं वा वसन् नो अतिक्रामति ॥ सू० १५ ॥ गणावच्छेदको बहिरुपाश्रयस्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नो अतिक्रामति ॥२०१६।।
भाष्यम्-'गणावच्छेययस्स' गणावच्छेदकस्य 'गणंसि' गणे स्वगणमध्ये 'दो अइसेसा पन्नत्ता' द्वौ-द्विसंख्यको अतिशेषौ -अतिशयौ प्रज्ञप्तौ, नतु साधारणतः आचार्योपाध्यायवदस्य पश्चातिशया भवन्ति । तदेवातिशयद्वयं प्रदर्शयति-तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा-'गणावच्छेयए अंतो उवस्सयस्स' गणावच्छेदकोऽन्तः-मध्ये उपाश्रयस्य 'एगरायं वा दुरायं वा' एकरात्रम्-एकरात्रिपर्यन्तं वा, द्विरात्रं वा रात्रिद्वयं वा 'वसमाणे' वसन् निवासं कुर्वन् , 'नो अइक्कमई' नो अतिक्रामति-अतिचारभार न भवति, इति प्रथमोऽतिशयः १ ॥ सू० १५॥
द्वितीयमाह-'गणावच्छेयए' गणावच्छेदकः 'वाहिं उवस्सयस्स' वहिर्वाह्यभागे उपाश्रयस्यवसतेः, 'एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे' एकरात्रम्-एकरात्रिपर्यन्तं वा, द्विरात्रं रात्रिद्वयं वा
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ६ सू० १७
अगोतार्थानामेकप्राकारादिवसतिवासविधिः १५३ वसन् निवासं कुर्वन् 'नो अइक्कमइ' नो कथमपि अतिकामति अतिचारवान् न भवति, कारणाकारणज्ञानकुशलत्वात् । एतौ द्वावपि सूत्रोक्तावतिशयौ तस्यैव गणावच्छेदकस्य भवतः, यो हि गणावच्छेदको नियमतः आचार्यों भविता भविष्यति वा । यः पुनर्गोवच्छेदको गणावच्छेदकत्वे वर्तमान आचार्यपदानहः तस्य सूत्रोक्तौ अतिशयौ न भवतः ॥ सू० १६ ॥ ।
. उक्ता आचार्योपाध्यायगणावच्छेदकानामतिशयाः, सम्प्रति वसतिवासप्रसङ्गात् अगीतार्थानामेकप्राकारादियुक्तवसतौ वासनिपेधमाह-'से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणप्पवेसाए नो कप्पइ वहूर्ण अगडसुयाणं एगयओ वत्थए, अत्थि य इत्थ ण्हं केई आयारपकप्पधरे नत्थि य इत्थ ण्हं केइ छेए वा परिहारे वा, नत्थि य इत्थ ण्डं केइ आयारपकप्पधरे से संतरा छेए वा परिहारे वा ।। सू० १७ ॥
छाया-अथ ग्रामे वा यावद्राजधान्यां वा एकवगडायां वा एकद्वारायां वा एकनिष्क्रमणप्रवेशायां वा नो कल्पते वहनाम्-अकृतश्रुतानामेकतो वस्तुम् , अस्ति चात्र खल कश्चिदाचारप्रकल्पधरः नास्ति चात्र खलु कश्चित् छेदो वा-परिहारो वा, नास्ति चात्र कश्चिद आचारप्रकल्पधरः तेपां सान्तरांत् छेदो वा परिहारों वा ॥ सू० १७ ॥
भाष्यम्-'से गामंसि वा' अत्र 'से'--शब्दोऽथशब्दार्थवाचकः, ततश्च 'से' अथ ग्रामे, 'जाव रायहाणिसि वा' यावद् राजधान्यां वा, अत्र यावत्पदेन-'नगरंसि वा खेडंसि वा कबडंसि वा मडंबंसि वा दोणमुहंसि वा पट्टणं सि वा णिगमंसिवा आसमंसि वा संवाहसिवा संनिवेसंसि वा' इति संग्राह्यम् । नगरे वा खेटे वा कर्बटे वा मडम्बे वा द्रोणमुखे वा पट्टने वा (पत्तने वा) आश्रमे वा संवाहे वा संनिवेशे वा, इतिच्छाया। तत्र ग्राम-वृतिवेष्टितः, आकरः-सुवर्णरत्नाद्युत्पत्तिस्थानम् , नगरम्-अष्टादशकरवर्जितं जननिवासस्थानम्, खेटं-धूलिप्राकारपरिक्षिप्तम्, कर्बटम-. कुत्सितनगरम् , मडम्बं-सार्धक्रोशद्वयान्तनामान्तररहितम् , द्रोणमुखं-जलस्थलपथोपेतो जननिवासः, पत्तन-समस्तवस्तुप्राप्तिस्थानम् तद् द्विविधं भवति- जलपत्तन स्थलपत्तनं चेति, नौभियंत्र गम्यते तज्जलपत्तनम् , यत्र च शकटादिभिर्गम्यते तत् स्थलपत्तनम् , यद्वा शकटादिभि भिर्वा यद्गम्यं तत् पत्तनम् , यत् केवलं नौभिरेव गम्यं तत् पट्टनम् , उक्तश्च- "पत्तनं शकटैगम्यं, घोटकैनैभिरेव च । नौभिरेव तु यद्गम्य, पट्टनं तत् प्रचक्षते" ॥१॥
व्य, २९
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
व्यवहारसूत्रे निगमः-प्रभूततरवणिग्जननिवासः, आश्रमः-तापसैरावासितः, पश्चादपरोऽपि लोकस्तत्रागत्य वसति, संवाहः-कृषीवलैर्धान्यरक्षार्थ निर्मितं दुर्गभूमिस्थानम् पर्वतशिखरस्थितजननिवासः, समागतप्रभूतपथिकजननिवासो वा, संनिवेशः-समागतसार्थवाहादिनिवासस्थानम् । एषु ग्रामादिषु, ‘एगवगडाए' एकवगडायाम् एका वगडा परिक्षेपः प्राकारः प्रकोटा इति लोकप्रसिद्धो यस्यां सा-एकवगडा, तस्यामेकवगडायाम् । तथा-'एगदुवाराए' एकद्वारायाम् एकं द्वारं यस्याः सा एकद्वारा तस्याम्, तथा 'एगनिक्खमणपवेसाए' एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् , एक निष्क्रमण-बहिनिंगमनमार्गः, एकः प्रवेशः-प्रवेशमार्गो यस्याः सा एकनिष्क्रमणप्रवेशा तस्याम् एतादृश्यां वसतौ इति शेषः, 'नो कप्पइ' नो कल्पते-न युज्यते । केषामेतादृशवसतौ वासो न कल्पते ? तत्राह-'वहूर्ण' इत्यादि, 'वहूणं अगड़सुयाणं' बहूनाम्-अनेकेषाम् अकृतश्रुतानाम्-अनधिगताचाराङ्गनिशीथादिसूत्राणाम् अगीतार्थानामशिवादिकारणवशादेकत्र संप्राप्तानाम् 'एगयओ' एकतः- एकत्र एकस्थाने मिलित्वा वस्तुं-वासं कर्तुम् ऋतुबद्धकाले वर्षाकाले वा न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । यतः मगीतार्थसंगस्य दोषबाहुल्यात् तेषाम् ऋतुबद्धकाले वसतां मासलघु, वर्षाकाले चतुर्लघुकं प्रायश्चित्तं भवतीति । अपवादमाह-'अत्थि य इत्थ ण्हं केइ
आयारपकप्पधरे' अत्र 'हं' शब्दो वाक्यालङ्कारे, अस्ति चात्र यथोक्तविशेषणविशिष्टायां वसतौ कश्चित् आचारप्रकल्पधरः-आचाराङ्ग-निशीथादिसूत्रधारकः एकोऽपि यदि भवेत् तदा तादृशवसतौ ऋतुबद्धकाले वर्षाकाले वा निवासकरणेऽपि, 'नत्थि य इत्थ ण्ह केइ छेए वा परिहारे वा' नास्ति-न भवति अत्र वसतौ वासेऽपि तेषां वसतां कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, आचारप्रकल्पधराधिष्ठितयथोक्तवसतौ बहूनामकृतश्रुतानां वर्षाकाले ऋतुबद्धकाले वा निवसतां छेदनामकं
परिहारनामकमन्यद्वा प्रायश्चित्तं न भवतीति भावः । गीतार्थेन सह वसतां केन कारणेन प्रायश्चित्तं __न भवति, यतो हि-गीतार्थस्तेषां मार्गदेशको भवति, यथा केचित्पुरुषा अटव्यां मार्गभ्रष्टा भवन्ति
तत्र कश्चिन्मार्गदेशकस्तान् मार्ग प्रदर्श्य नगरं प्रवेशयति, एवं गीतार्थोऽपि मोक्षपथपरिभ्रष्टानां मोक्षपथप्रदर्शको भवति तेन सह वसतां न किमपि प्रायश्चित्तं भवति, न तथा अगीतार्थ इति । 'नत्थि य इत्थ ण्ई केइ आयारपकप्पधरे' नास्ति-न विद्यते चात्र यथोक्तवसतौ खल कश्चिदाचारप्रकल्पधरः -आचाराङ्गनिशीथादिसूत्रार्थज्ञाता, तदा तादृशवसतौ वासकरणे ‘से संतरा छेए वा परिहारे वा' तेषां सान्तरात् यावतो दिवसान् तत्र स्थितास्तावत्प्रमाणरूपात् स्वकृतात् अपराधात् छेदो वा परिहारो वा, आचारप्रकल्पघराऽनधिष्ठितवसतौ वासकरणात् तेषां छेदनामकं परिहारनामकमन्यद्वा यथाशास्त्रं यथाकालं च प्रायश्चित्तं भवतीति भावः ॥ सू० १७ ॥
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ६ सू० १८
अगीतार्थानां पृथक्प्राकारादिवसतिवासविधिः १५५
पूर्वसूत्रे अगीतार्थानामेकप्राकारैकद्वारादिविशिष्टवसतिमधिकृत्य निषेधः कृतः, सम्प्रति अनेकद्वारानेकप्राकारविशिष्टवसतौ गीतार्थनिश्रिता ये वसन्ति तानधिकृत्य प्रदर्शयितुमाह_ 'से गामसि वा' इत्यादि।
सूत्रम्-से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभिनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ वहूर्णपि अगडसुयाणं एगयो वत्थए, अस्थि य इत्थ ण्इं केइ आयारपकप्पधरे, जे तइयं रयणि संवसइ, नत्थि य इत्थ केइ छेए वा परिहारे वा, नत्यि य इत्य केइ आयारपकप्पधरे जे तइयं रयणि संवसइ सम्वेसि तेर्सि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥सू० १८॥
छाया-अथ ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा अभिनिवगडायाम् अभिनिद्वारायाम् अभिनिष्क्रमणप्रवेशायाम् नो कल्पते बहूनामपि अकृतश्रुतानाम् एकतो वस्तुम , अस्ति चात्र कश्चिद् आचारप्रकल्पधरो यस्तृतीयां रजनी संवसति, नास्ति चात्र कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, नास्ति चात्र कश्चिद् आचारप्रकल्पधरो यस्तृतीयां रजनी संवसति, तेषां सर्वेषां तत्प्रत्ययं छेदो वा परिहारो वा ॥ सू०१८॥
भाष्यम् - 'से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा' अथाऽनन्तरं ग्रामे वा अत्र यावत्पदेन नगरे वा खेटे वा, कर्बटे वा, मडम्वे वा, द्रोणमुखे वा, पट्टने वा (पत्तने वा) निगमे वा आश्रमे वा, संबाहे वा, सनिवेशे वा, इति संग्राह्यम् , प्रामादिराजधानीपर्यन्तेषु जननिवासस्थानेषु 'अभिणिन्वगडाए' अभिनिवगडायाम् , तत्राऽभि-प्रत्येकं पृथक् पृथक् नियता वगडा परिक्षेपो यस्यां सा अभिनिवगडा तस्यां पृथक् पृथक् परिक्षेपवत्या वसतो 'अभिनिदुवाराए' अभिनिद्वारायाम् प्रत्येकं पृथक् पृथग् नियतद्वारवत्याम्, 'अभिणिक्खमगपवेसाए' अभिनिष्क्रमणप्रवेशायाम्, तत्राऽभि-प्रत्येकं पृथक् पृथग् निष्क्रमणं बहिर्गमनं प्रवेशोऽन्तर्गमनं निष्क्रमणप्रवेशमार्गो यस्या सा-अभिनिष्क्रमणप्रवेशा तस्यां वसतो 'नो कप्पई' नो कल्पते, 'बहूणंवि अगउसुयाणं' बहूनामनेकेषामपि अकृतश्रुतानाम्, न कृतानि-नाघीतानि श्रुतानिआचारागानिशीथादिसूत्रजातानि यैस्ते-अकृतश्रुताः अनधीतसूत्रार्थाः-अगीतार्था इत्यर्थः तेषामकृतश्रुतानामनेकेषामपि 'एगयओ वत्थए' एकत एकत्र वस्तुं-निवासं कत्तुं न कल्पते इति, किं सर्वथैवाऽकृतश्रुतानाम् एकत्र वसतौ निवासो न कल्पते ? इति न, यदि तत्र तन्मध्ये कोऽपि-आचारप्रकल्पधरो विद्यते, तदा-तेषां तत्र गीतार्थस्य निश्रया एकत्र वासः कल्पते,
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
व्यवहारसूत्र तदेव दर्शयति-'अत्थि' इत्यादि, 'अस्थि य इत्थ केइ आयारपकप्पधरे' अस्ति–विद्यते चाऽत्र कश्चिद् आचारप्रकल्पधरः-आचारागनिशीथादिसूत्रार्थयोर्शाता गीतार्थः, 'जे तइयं रयणि संवसई' य आचारप्रकल्पधरः तृतीयां रजनीं रात्रिं तृतीयरात्रौ इत्यर्थः अकृतश्रुतसंवासानन्तरं रात्रिद्वयं मुक्त्वा तृतीयस्यां रजन्यामागत्य तैरनेकैरकृतश्रुतैः सह संवसेत् तैः सह मिलित्वा तत्र निवासं कुर्यात् , ,यदि-एतादृशः कश्चिदाचारप्रकल्पधरो भवेत् यस्तृतीयदिवसे तैः सह मिलेत् तदा-'नत्थि य इत्थ केइ छेए वा परिहारे वा' नास्ति चात्र कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, अकृतश्रुतसहवासजनितं छेदनामकं परिहारनामकमन्यद्वाऽपि प्रायश्चित्तं न भवति, तेषां गीतार्थनिश्राप्राप्तत्त्वात् । अथ च 'नस्थि य इत्थ केइ आयारपकप्पधरे' नास्ति चात्र कश्चिदाचारप्रकल्पधरः 'जे तइयं रयणि संवसई' य आचारप्रकल्पधरस्तृतीयां रजनीरात्रिं संवासानन्तरं तृतीयस्यां रजन्यामित्यर्थ तैः सह संवसति, यदि-तत्र कश्चिदाचारप्रकल्पघरस्तृतीयस्यां रात्रावपि समागत्य तत्र न वसेत्, यो हि तैः सह तृतीयदिवसेऽपि संमिलितो न भवेत् तदा-'सव्वेसि तेसिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा' सर्वेषां तेषा तत्र वसतां निर्ग्रन्थानां तत्प्रत्ययम्-अगीतार्थसहवासनिमित्तकं छेदो वा परिहारो वा, यदि तत्र कश्चिद् गीतार्थो न भवेत् तदा-तत्र वसतां सर्वेषामपि अकृतश्रुतानां छेदनामकं--परिहारनामकमन्यदपि देशकालोचितं प्रायश्चित्तं भवत्येवेति ॥ सू० १८ ॥
___ पूर्वमकृतश्रुतानामकृतश्रुतसंवन्धेन एकाकिनां गीतार्थसहवासमन्तरेण वस्तुं न कल्पते इति प्रोक्तम् , एकाकिप्रसङ्गादत्र पृथक् पृथग् द्वारादियुक्तायां वसतौ बहुश्रुतबह्वागमस्य भिक्षुकस्यैकाकिनो वस्तुं न कल्पते इति प्रदर्शयन्नाह–'से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभिनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ बहुस्सुयस्स वभागमस्प्त भिक्खुयस्स वत्थए, किमंग पुण अप्पागमस्स अप्पसुयस्स ।। सू० १९॥
छाया-अथ ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा अभिनिवगडायाम् अभिनिद्वारायाम् अभिनिष्क्रमणप्रवेशायाम् नो कल्पते बहुश्रुतस्य वह्वागमस्य भिक्षुकस्य वस्तुम् किमङ्ग पुनरल्पागमस्याऽल्पश्रुतस्य ॥ सू० १९॥
भाष्यम्- 'से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा' अथ ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा 'अभिनिव्वगडाए' अभिनिवगडायाम्-अनेकप्राकारपरिक्षिप्तायाम् 'अभिनिदुवाराए' अभिनिद्वारायाम्-अनेकद्वारवत्याम् , , 'अभिनिवखमणपवेसाए' अभिनिष्क्रमणप्रवेशायाम्
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ६ सू० १९-२१
बहुश्रुतस्यैकप्राकारादियुक्तवसतिवासानुज्ञा १५७
यत्राऽनेको निष्क्रमणस्य प्रवेशस्य च मार्गो भवति तस्यामनेकनिष्क्रमणप्रवेशमार्गायां वसतो 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'बहुस्सुयस्स' बहुश्रुतस्य- सूत्रतोऽधीताऽनेकागमस्य 'वभागमस्स' वहागमस्य -अर्थतो ज्ञाताऽनेकागमस्य, य आवश्यकदशवैकालिकोत्तराध्ययनज्ञानवान् स बागम आख्यायते, यः पुनर्द्वि त्रिसूत्रज्ञानवान् सोऽल्पश्रुतः, यस्तु सूत्राणि अनेकानि जानाति, अर्थ तु दित्राणामेव सोऽपाऽऽगमस्तस्य 'भिक्खुयस्स' भिक्षुकस्य साधोरेकाकिनः 'वस्थए' वस्तुं--निवासं कर्तुं न कल्पते 'किमंग पुण अप्पागमस्स अप्पसुयस्स' किमङ्ग पुनः -किमुत अल्पश्रुतस्याऽल्पागमस्य एकाकिनः सामान्यभिक्षुकस्य पृथग् निवासः कल्पते तस्य सुतरामेव न कल्पते--इति तात्पर्यम् । यदा- बहुश्रुतस्य वागमस्यैकाकिनो निवासो न कल्पते तदा--अल्पश्रुतस्याऽल्पागमस्यैकाकिनस्तु कथमपि न कल्पते इति भावः ॥ सू० १९ ॥
पूर्वमेकाकिना वसतेन्तर्बहिर्वा न वस्तव्यमित्यधिकृत्य कथितम्, सम्प्रति--बहुश्रुतस्योभयकालं भिक्षुभावप्राप्तस्यैकाकिनोऽपि एकवगडादियुक्तायां वसतौ वासः कल्पते, इत्यधिकृत्य सूत्रमाह-- ‘से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से गामंसि वा नगरंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगद्वाराए एगनिक्खमणपवेसाए कप्पइ बहुस्सुयस्स वभागमस्स एगाणियस्स भिक्खुस्स वत्थए, दुहओ कालं भिक्खुभावं पडिजागरमाणस्स ॥ सू० २० ॥
छाया-अथ ग्रामे वा नगरे वा यावद् राजधान्यां वा एकवगडायाम् पकद्वारायाम पकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् कल्पते वहुश्रुतस्य वागमस्य एकाकिनो भिक्षोर्वस्तुम् , उभयकालं भिक्षुभावं प्रतिजाग्रतः ॥ सू० २० ॥
भाष्यम् –'से गामंसि वा नगरंसि वा जाव रायहाणिसि वा' अथ ग्रामे वा नगरे वा यावद् राजधान्यां वा 'एगवगडाए' एकवगडायां वा-एकप्राकारविशिष्टायां वसतो, 'एकदवाराए' एकद्वारायां एकमेव द्वारं यत्र तस्याम् , एगनिक्खमणपवेसाए' एक निष्क्रमणप्रवेशायाम् यत्र एक एव निष्क्रमणमार्गः प्रवेशमार्गश्च तथाविधाया वसतौ, 'कप्पई' कल्पते 'वहस्सयस्स' बहुश्रुतस्य-सूत्रापेक्षयाऽनेकशास्त्रकुशलस्य विभागमस्स' बह्वागमस्य-अर्थापेक्षयाऽनेकागमज्ञानवतः, 'एगाणियस्स' एकाकिन. सहायकरहितस्येत्यर्थ., 'भिक्खुस्स' भिक्षोः-श्रमणस्य 'वत्थए' वस्तुं-वासं कर्तुम् । कथमेकाकिनः कल्पते तत्राह-'दुहओ' इत्यादि, 'दुहओ कालं' उभयकालम् उपलक्षणादहोरात्रम् , 'भिक्खुभावं' भिक्षुभावम्-भावभिक्षुतां निरतिचारचारित्रमित्यर्थः 'पडिजागरमाणस्स' प्रतिजाग्रतः-दत्तावधानेन परिपालयतः, चारित्राराधनार्थ या सामाचारी तां कुर्वतः, चारित्रे दोषलेशो नापतेति, तत्र अहर्निशं यतनां कुर्वतः एवम्भूतस्य एकवगडादिविशेषणविशिष्टायां वसतौ वस्तुमेकाकिनोऽपि कारणे कल्पते नान्यस्येति भावः ।
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र ~~~unainamainamainanimom अष्टगुणवान् भिक्षुरेकाकिविहारप्रतिमाप्रतिपन्नो भवितुमर्हति उक्तञ्च-स्थानाङ्गे दशमे. स्थाने--'अहि ठाणेहिं अणगारे अरिहइ एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए तंजहा-सड्ढी पुरिसजाए १, सच्चे पुरिसजाए २, मेहावी पुरिसजाए ३, वहुस्सुए पुरिसजाए ४, सत्तिमं ५, अप्पाहिगरणे ६, धिइमं ७, वीरियसंपन्ने ८, छाया-श्रद्धी पुरुषनातम् (पुरुष-प्रकारः) १, सत्यः पुरुषजातम् २, मेधावी पुरुपजातम् ३, बहुश्रुतः पुरुषजातम् ४, शक्तिमान् ५, अल्पाधिकरणः ६, धृतिमान् ७, वीर्यसंपन्नः ८ ॥ इति सू० २० ।।
पूर्व बहुश्रुतवह्वागमस्याऽहर्निशं भिक्षुभावं प्रतिजाग्रत एकाकिवासः प्रतिपादितः, एवं तर्हि एकवगडादियुक्तवसतौ सामान्यश्रमणस्यैकाकिवासे को दोपः ? इति श्रमणस्यैकाकिवासे दोषान् प्रदर्शयन्नाह-'जत्थ एए वहवे' इत्यादि ।
सूत्रम् -जत्थ एए वहवे इत्थीओ पुरिसा य पण्हावेति तत्थ से समणे निग्गये अन्नयरंसि अचित्तसि सोयंसि सुक्कपोग्गले णिग्यायमाणे हत्थकम्मपडिसेवणपत्ते आवज्जइ मासिय परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥ सू० २१ ॥
छाया -यत्र एते वहवः स्त्रियः पुरुषाश्च प्रश्नुवन्ति तत्र स श्रमणो निर्ग्रन्थोऽन्य. तरस्मिन् अचित्ते स्रोतसि शुक्रपुद्गलान् निर्घातयन् हस्तकर्मप्रतिसेवनप्राप्तः आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ॥ सू० २१ ।।
भाष्यम्-'जत्थ एए वहवे' यत्र-यस्याम् एकवगडादिविशेषणविशिष्टायां वसतौ एते प्रत्यक्षतः परिदृश्यमानाः बहवोऽनेके 'इत्थीओ पुरिसा य स्त्रियः पुरुषाश्च ‘पण्हावंति' प्रश्नुवन्ति-प्रस्पन्दन्ते-एकान्तस्थानत्वेन तत्र संमील्य मैथुनं सेवितुमारभन्ते 'तत्थ से समणे निग्गंथे' तत्र तस्मिन् प्रदेशे यत्र प्रदेशे वहवः वीपुरुषाः मैथुनं प्रारभमाणास्तिष्ठन्ति तादृशक्षेत्रविशेषे तेषां मैथुनकर्म चक्षुषाऽवलोक्य य एकाकी स्थितः स श्रमणो निग्रन्थः तत उदीर्णवेदः सन् 'कोऽत्र मां पश्यति' इति कृत्वा 'अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि' अन्यतरस्मिन् अचित्ते स्रोतसि, तत्रान्यतरस्मिन्-हस्तकर्माधुचिते युगनालिकादिछिद्रे 'सुक्कपोग्गले णिग्यायमाणे' हस्तकर्मभावनया शुक्रपुद्गलान् निर्घातयन्-निष्कासयन् 'हत्थकम्मपडिसेवणपत्ते' हस्तकर्मप्रतिसेवनप्राप्तः-हस्तकर्मभावनया तत्रासक्तत्वात् हस्तकर्मप्रतिसेवनादोषं प्राप्तः सन् 'आवज्जई' आपयते-प्राप्नोति 'मासियं' मासिकम् 'परिहारहाणं अणुग्याइयं' परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम्, गुरुचातुर्मासिकमनुद्घातिकं परिहारनामकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति भावः, तस्मात् श्रमणेन एकाकिना एकान्तस्थाने न स्थातव्यमिति सूत्राशयः ।। सू० २१ ॥
पूर्व हस्तकर्मप्रत्ययिकं प्रायश्चित्तसूत्रमुक्तम् , सम्प्रति मैथुनप्रत्ययिकप्रायश्चित्ताभिधायकं सूत्रमाह-'जत्य एए वहवे' इत्यादि।
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग्यम् उ० ६ स्० २२-२३ निर्ग्रन्थस्य हस्तकर्मादिप्रत्ययिकप्रायश्चित्तविधिः १५९
सूत्रम् -जत्थ एए वहवे इत्थीओ पुरिसा य पण्हावेंति तत्थ से समणे णिग्गये अन्नयरंसि अचित्तसि सोयंसि मुकपोग्गले णिग्यायमाणे मेहुणपडिसेवण पत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं ॥ सू० २२ ।।
छाया-यत्रेते यहवः स्त्रियः पुरुपाश्च प्रश्नुवन्ति तत्र स श्रमणो निर्ग्रन्थोऽचित्ते स्रोतसि शुक्रपुद्गलान् निर्घातयन् मैथुनसेवनाप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थान मनुद्घातिकम् ॥ सू० २२ ॥
भाष्यम्-'जत्थ' यत्रप्रदेशे 'एए' एते-प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाः 'इत्थीओ पुरिसाय' स्त्रियः पुरुषाश्च 'पण्हावेंति प्रश्नुवन्ति मैथुनाख्यमब्रह्मकर्म समाचरन्ति 'तत्थ से समणे णिग्गंथे' तत्र-तस्मिन् प्रदेशे मैथुनकर्म दृष्ट्वा उदीर्णमोहः-संयमाच्चलितमनाः स श्रमणो निम्रन्थः 'अन्नयरंसि' अन्यतरस्मिन् 'अचित्तंसि सोयंसि' अचित्ते-मैथुनाद्युचिते स्रोतसि युगनालिकाछिद्रे 'मुक्कपोग्गले णिग्यायमाणे शुक्रपुद्गलान् निर्धातयन् 'मेहुणपडिसेवणपत्ते' मैथुनप्रतिसेवनप्राप्तः मैथुनकर्मप्रतिसेवनभावनया प्रसक्तो भवति, स च तथा प्रसक्तः 'आवज्जई' आपद्यते-प्राप्नोति, 'चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं' गुरुचातुर्मासिकं परिहारस्थानं परिहारनामकं प्रायश्चित्तस्थानम् अनुद्घातिकम् । इदं सूत्रद्वयं निर्ग्रन्थीविषयेऽपि अनुसन्धातव्यमिति ॥ सू० २२ ॥
पूर्वमभिनिवगडादिका वसतिरुक्ता, तत्र वसतो निम्रन्थस्य प्रायश्चित्तविधिः प्रतिपादितः, सम्प्रति-तादृग्वसतो निर्गन्थ्योऽपि संवसन्ति, तत्र तासां मध्ये काचिन्निर्ग्रन्थी वसतिदोषेण उदीर्णप्रबलवेदा दोषबहुला सामाचारीप्रमादपरा सती गणादपकामेत् , तया सह निर्ग्रन्थ-निम्रन्थीभिः कथं वर्तितव्यमिति तद्विधिसूत्रमाह--'नो कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पई णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा निग्गंथि अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सवलायारं भिन्नायारं संकिलिहायारचरितं तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता अपडिक्कमावेत्ता अनिंदावेत्ता अगरिहावेत्ता अविउद्यावेत्ता अविसोहावेत्ता अकरणाए अणभुटावेत्ता अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं अपडिवज्जावेत्ता उवद्यावेत्तए वा संभंजित्तए वा संवसिएत्त वा तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ।। सू० २३ ॥
छाया-नो कल्पते निग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा निर्ग्रन्थीम् अन्यगणादागतां क्षताचारां शवलाचारां भिन्नाचारां संक्लिष्टाचारचारित्रां तस्य स्थानस्य अनालोच्य अप्रतिक्राम्य अनिन्दयित्वा अगर्हयित्वा अविकुटय अविशोध्य अकरणाय अनभ्युत्थाप्य
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे यथाह प्राश्चित्तं तपाकर्म अप्रतिपाद्य उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तुं वा तस्या इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ।। सू० २३॥
भाष्यम्-'नो कप्पइ' नो कल्पते णिग्गंथाण वा निग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थानां श्रमणानां पुनश्च निर्ग्रन्थीनां श्रमणीनाम् ‘णिगंथिं' निर्ग्रन्थीं-श्रमणीम् 'अन्नगणाओ आगयं' अन्यगणात् ___ गणान्तराद् आगताम् पापस्थानसेवने प्रायश्चित्तग्रहणभयात् आगताम्, कीदृशीमिन्याइ-खुयाया'
क्षताचाराम् -क्षतो विनिष्ट आचारो-ज्ञानाद्याऽऽचारो यस्याः सा क्षताचारा ताम् । 'सबलायार' शवलाचाराम् शवल:-कर्वरः दूषितः आचारो विनयादिरूपः साध्वाचारो यस्या. सा शवलाचारा दुषिताचारा ताम् । 'भिन्नायारं' भिन्नाऽऽचाराम्-भिन्नः-भेदमापन्न आचारो यस्याः सा भिन्नाचारा ताम् । 'संकिलिहायारचरितं संक्लिष्टाऽऽचारचारित्राम् संक्लिष्टं क्रोधादिना मलिनम् आचारविशिष्टं चारित्रं यस्या. सा तथा ताम्, पुनश्च-'तस्स ठाणस्स' तस्य स्थानस्य यस्मिन् स्थाने प्रतिसेविते सति मताचारादिविशिष्टा जाता तस्य स्थानस्य 'अणालोएत्ता वा' अनालोच्य-तस्य पापस्थानस्याऽऽलोचनामकारयित्वा 'अपडिक्कमावेत्ता' अप्रतिक्रम्य तस्मात्पापस्थानादपरावर्त्य 'अनिंदावेत्ता' अनिन्दयित्वा तस्य पापस्थानस्याऽऽमसाक्षिकी निन्दामकारयित्वा 'अगरिहावेत्ता' अगर्हयित्वा-गुरुसाक्षिकी गर्हामकारयित्वा 'अविउद्यावेत्ता' अविकुट्य-अतिचारसम्बन्धमविच्छेद्य अतिचारात् पृथग् अकृत्त्वेत्यर्थः 'अविसोहावेता' अविशोध्य तस्य पापस्थानस्य शोधनमकारयित्वा 'अकरणाए अणमुटावेत्ता' तस्य पापस्थानस्य पुनरकरणाय अनभ्युत्थाप्य 'अहारिहं पायच्छित्त' तबोकम्मं अपडिवज्जावेत्ता' यथार्ह-यथायोग्यं प्रायश्चित्तं तप.कर्म अप्रतिपाद्य-अस्वीकार्य तां निर्ग्रन्थीम् 'उवहावेत्तए वा' पुनर्महाव्रतेषु उपस्थापयितुम् , 'स जित्तए वा' संभोक्तुं वा तया अकृतप्रायश्चितया सह एकमण्डले आहारादि कर्तुम् , 'संबसित्तए वा' सवस्तुं वा तया सह वंसतौ स्थातुं वा, पुनश्च-तीसे' तस्याः 'इतरियं दिसं वा' इत्वरिका दिशं वा अल्पकालिकों प्रवर्तिन्यादिपदवीम् 'अणुदिसं वा' अनुदिशं वा यावज्जोविकां वा प्रवर्तिन्यादिपदवीम् 'उदिसित्तए वा' उद्देष्टुं-दातुं न कल्पते एवम् 'धारित्तए वा' धारयितुं वा तस्याः स्वस्याः पदवी धतुं वा न कल्पते, पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टया निर्ग्रन्थ्या सह किमपि प्रकारकं परिचयजातं निर्ग्रन्ध्या निर्ग्रन्थस्य न कल्पते, यथा कुथितनागवल्लीदलसंपर्केण अकुथितान्यपि दलानि कुथितानि जायन्ते तथैव क्षताचारादिविशेषणविशिष्टाया निर्ग्रन्ध्या सहवासादन्या अपि निर्ग्रन्थ्यस्तादृश्यो भवन्ति । अत्राशङ्कते कोऽपि—'पमायरहिया जा उ, सा कहं सवला भवे' प्रमादरहिता या तु सा कथं शवला भवेत् ? उत्तरमाह-संवासमाइदोसेणाऽसवला सवला भवे' संवासादिदोषेण अशवला शवला भवेत् , इति ॥ १ ॥ तस्मात्तादृश्या निम्रन्थ्या. सहवासो वर्जनीय इति । एवं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टस्य निर्ग्रन्थस्य विपयेऽपि सूत्रमनुसंधातव्यमिति ॥ सू.० २३ ॥
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ६ ० २४
अन्यगणागतनिर्ग्रन्थीग्रहणविधिः २६१ पूर्व क्षताचारादिविशेषणविशिष्टाया निम्रन्थ्याः सहवासो निषिदः, साम्प्रतं तद्विपर्यये सूत्रमाह-कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ णिगंथाण वा णिग्गंधीण वा णिग्गंथि अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सवलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरित्तं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता पडिक्कमावेत्ता निंदावेत्ता गरिहावेत्ता विउहावेचा विसोहावेत्ता अकरणाए अन्भुटावेत्ता अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जावत्ता उचढावेत्तए वा संभंजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० २४ ॥
॥ ववहारे छट्टो उद्देसो समत्तो ॥६॥
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा निर्ग्रन्थीम् अन्यगणादागतां क्षताचारां शवलाचारां भिन्नाचारां संक्लिष्टाचारचरित्रां तस्य स्थानस्याऽऽलोच्य प्रतिक्राम्य निन्दयित्वा गर्हयित्वा विकुटय, विशोध्य अकरणाय अभ्युत्थाप्य यथाई प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपाद्य उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तुं वा, तस्या इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० २४ ॥
व्यवहारे पष्ठ उद्देशकः समाप्तः॥६॥ भाष्यम्- 'कप्पई' कल्पते 'णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा' निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा 'णिग्गथिं अन्नगणाओ आगयं' निर्ग्रन्थीं-श्रमणीम् अन्यगणात् -परकीयगच्छादागताम् 'खुयायारं' क्षताचाराम्-विनष्टाचारवतीम् , इत आरभ्य संक्लिष्टाचारचरित्रामितिपर्यन्तानां व्याख्या पूर्वसूत्रे गता, 'तस्स हाणस्स आलोयावेत्ता' तस्य स्थानस्य यस्मिन् स्थाने प्रतिसेवनां कृतवती तस्य पापस्थानस्य आलोच्य-अलोचनां कारयित्वा 'पडिक्कमावेत्ता' प्रतिक्राम्य-पापस्थानात् परावर्त्य 'निंदावेत्ता' निंदयित्वा-आत्मसाक्षिकी निन्दां कारयित्वा 'गरिहावेत्ता, गर्हयित्वा गुरुसाक्षिकी निन्दा कारयित्वा 'विउट्टावेत्ता' विकुट्य-चारित्रं निर्मलं कारयित्वा 'चिसोहावेत्ता' विशोध्य-पापस्य विशोधि कारयित्वा 'अकरणाए अब्भुटावेत्ता' अकरणाय भविष्यति पुनरकरणाय अभ्युत्थाप्य पुनर्न करिष्यामीति प्रतिज्ञाम् कारयित्वा 'अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म' यथाह- यथायोग्यम् यस्य पापस्थानस्य यादृशं प्रायश्चित्तं शास्त्रे कथितम् तादृशं प्रायश्चित्त तपःकर्म 'पडिवज्जावेत्ता' प्रतिपाद्य प्राप्य दत्त्वेत्यर्थः "उवद्यावेत्तए वा' उपस्थापयितुं वा-महाव्रतेपु पुनः स्थापयितुम् 'संभुजित्तए वा' सभोक्तुं वा एकमण्डल्यामाहारादि कर्तु वा 'संवसित्तए वा' संवस्तुं वा तया सह एकत्र वसतौ निवासं कर्तुं वा, तथा
व्य. २१
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
'तीसे इत्तरियं दिसं वा' तस्याः प्रायश्चित्तदानेन विशुद्धाया निम्रन्थ्याः इत्वरिकां दिशम्अल्पकालिकी पदवीम् 'अणुदिसं वा' अनुदिशं वा-यावत्कालिकी प्रवर्तिन्यादिपदवीं वा 'उहिसित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा 'धारित्तए वा' धारयितुं वा दातुं वा कल्पते इति । अनेन-निर्ग्रन्थीकथितप्रकारेण निर्धन्थस्य अन्यगणादागतस्य क्षताचारादिमतोऽपि विधितिव्यः ॥ सू० २४ ॥
इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त
"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां"व्यवहारसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायां षष्ठ
उद्देशकः समाप्तः ॥६॥
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथ सप्तमोद्देशकः ॥ गत• पष्ठ उद्देशः, साम्प्रतं सप्तमो व्याख्यायते, पूर्वोद्देशेनास्य कः सम्बन्धस्तत्राह गाथाद्वयं भाष्यकारः-'सामन्नओ' इत्यादि । गाथा-सामन्नो दुयाणं, णिग्गंथी आगया खुयायारा । .
आलोयणं कराविय, कप्पइ तीए य संभोगो॥१॥ इइ वुत्तं पुव्वं इह, निग्गंथीए न कप्पए एवं ।
निग्गंथमणापुच्छिय, संबंधो एत्थ विन्नेओ ॥२॥ छाया-सामान्यतो द्वयानां, निर्ग्रन्थी आगता क्षताचारा।
आलोचनां कारयित्वा, कल्पते तया च संभोगः ॥ १॥ इत्युक्त पूर्वमिह निर्ग्रन्थ्या न कल्पते एवम् ।
निर्ग्रन्थमनापृच्छय, सम्वन्धोऽत्र विज्ञेयः ॥ २ ॥ व्याख्या-सामान्यतः समुच्चयेन द्वयानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च या काचिद् निर्ग्रन्थी आगता-अन्यगणात् समागता, कीदृशीत्याह-'खुयायारा' क्षताचारा, उपलक्षणात् शबलाचारादिविशेषणविशिष्टा भवेत्तदा 'आलोयणं कराविय' आलोचनाम् उपलक्षणात् प्रतिक्रमणादिकं कारयित्वा कल्पते तया सह संभोगो नान्यथेति ॥ १॥
'डेड वृत्तं' इत्यादि, इति-एवं प्रकारेण पूर्व षष्ठोद्देशकस्य चरमसूत्रे उक्तम् , इहअस्मिन् सप्तमोद्देशकस्यादिसूत्रे निर्घन्ध्याः केवलं निर्ग्रन्ध्याः निर्ग्रन्थम् , अत्र जातावेकवचनं तेन निर्ग्रन्थान् साम्भोगिकान् आचार्यादिकान् अनापृच्छ्य अपृष्ट्वा एवम्-पूर्वोक्तप्रकारेण अनालोचितपापस्थानया निम्रन्थ्या सह संभोगः कर्तुं न कल्पते, स यथा आदिशेत् तथा कुर्यादिति भावः, एषोऽत्र सम्बन्धो विज्ञेय इति ॥ २ ॥
भनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य सप्तमोद्देशकस्य इदमादिम सूत्रम्-"जे णिग्गंथा य इत्यादि ।
सूत्रम्-जे णिग्गंथा य णिग्गंधीओ य संभोइया सिया नो कप्पइ णिग्गंथीणं णिग्गंथे अणापुच्छित्ता णिग्गंथिं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सवलायारं भिन्नायारं संकिलिहायारचरितं तस्स ठाणस्त अणालोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म अपडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वाएत्तए वा उवद्यावेत्तए वा संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० १॥
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे ___ छाया-ये निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च साम्भोगिकाः स्युः नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां निम्रन्थाननापृच्छ्य निर्ग्रन्थीमन्यगणादागतां क्षताचारां शवलाचारां भिन्नाचारां संक्लिष्टाचारचरित्रां तस्य स्थानस्य अनालोच्य यावद् यथाहं प्रायश्चित्तं तपःकर्म अप्रतिपाद्य प्रष्टुं वा वाचयितुं वा उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तुं वा, तस्या इत्वरिकां दिश वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारियतु वा ॥ स० १ ॥
भाष्यम्- 'जे णिग्गंधा य णिग्गंधीओ य' ये निर्ग्रन्थाः श्रमणाः तथा निर्ग्रन्थ्यः श्रमण्यश्च, 'संभोइया सिया' साम्भोगिकाः स्यु. द्वादशप्रकारकसम्भोगयुक्ता एकत्र प्रामादिषु भवेयु:तिष्ठेयुः, उपलक्षणात् कल्पानुसारेण सार्द्धक्रोशद्यपरिमिते दूरेऽपि वा तिष्ठेयुः, तेषां मध्ये 'नो कप्पइ णिग्गंधीणं णिग्गंथे अणापुच्छित्ता' नो न कथमपि कल्पते निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थान् साम्भोगिकान् आचार्यादिकान् अनापृछ्य तेषामाज्ञामन्तरेणेत्यर्थः । किं न कल्पते ? तत्राह-णिग्गंर्थि' इत्यादि, 'णिग्गथिं अन्नेगणामो आगयं' निग्रन्थों श्रमणीमन्यगणाद् -अन्यगच्छाद् आगतांसमागताम्, कथम्भूतामन्यगणादागतां श्रमणीम् ? तत्राह-'खुयायारं' इत्यादि, 'खुयायारं' क्षताचाराम् शवलाचाराम् भिन्नांचाराम् संक्लिष्टाचारचरित्राम् , एषां पदानां व्याख्या षष्ठोद्देशके त्रयोविशतितमसूत्रे गता, एतादृशक्षताचारादिविशेषणयुक्तामन्यगणादागतां श्रमणीम् , 'तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता' तस्य पापस्थानस्यानालोच्य येनापंराधेन सा मलिना जाता तादृशापराधस्थानस्य आलोचनामकारयित्वा तंत्पापस्थानमप्रकटयित्वेत्यर्थः नाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोंकम्मं अपडिवज्जावेत्ता' यावद् यथार्ह प्रायश्चित्तं तप.कर्म अप्रतिपाद्य-अदत्त्वा, अत्र यावत्पदेन 'अपंडिक्कमावेत्ता अनिंदावेचा अगरिहावेत्ता अविउद्यावेत्ता अविसोहावेत्ता अकरणाए अणभुट्टावेत्ता' इत्येतेषां विशेषणानां साहो भवति। एषां पदानामपि व्याख्या षष्ठोदेशकस्य त्रयोविंशतितमे सूत्रे गता, येन पापस्थानेन सा दूषिता तादृशपापस्थानस्य प्रतिक्रमणादिकमकारयित्वेत्यर्थः, येथाह-यथायोग्यं शास्त्रोक्तं प्रायश्चित्तं तपःकर्म अप्रतिपाद्य तस्य पापस्थानस्य यथायोग्यं प्रायश्चित्तरूपेण- तपःकर्माsदत्त्वेत्यर्थः 'पुच्छित्तए वी वाएत्तए वा' प्रष्टुं वा वाचयितुं वा, यदि पूर्वोक्तक्षताचारादियुक्ता अन्यगणात् कॉचित् श्रमणी समागच्छेत् तां गणनायकस्याऽऽज्ञामन्तरेण सुखशातादिकं प्रष्टुं न फल्पते, तथा तस्यै वाचनामपि दातुं न कल्पते श्रमणीनामित्यर्थः, तथा-'उवहावेत्तए वा' उपस्थापयितुं वा महावतेषु आरोपयितुं न कल्पते, तस्याश्छेदोपस्थापनीयचारित्रमपि न देयम् , 'संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा' संभोक्तुं वा संवस्तुं वा एतादृशपूर्वोक्तदूषणविशिष्टश्रमण्या सह एकमण्डल्यां नाऽऽहारादिव्यवहारः करणीय., तथा तया सह एकस्मिन्नुपाश्रयादौ निवासोऽपि न करणीय इति, 'तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा' तस्याः इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, एतादृशदोषोपेतायै श्रमण्यै इत्वरिकां दिशम् अल्पकालिकी प्रवर्त्तिन्यादिपदवीम् , अनुदिशम् यावज्जीवनकालिकों वा पदवीम्, उद्देष्टुम्-अनुज्ञातुम् धारयितुं पदवी दातुं वा न कल्पते ।। सू० १ ॥
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ७ सू० २-३
अन्यगणागतनिर्मन्थी ग्रहणविधिः १६५ पूर्वमन्यगणादागताया अनालोचितपापस्थानायाः साम्भोगिक निर्ग्रन्थाज्ञामन्तरेण सुखगाताप्रच्छनादि निर्ग्रन्थीनां न कल्पते इति प्रोक्तम्, सम्प्रति तद्विपर्यये सूत्रमाह - 'जे णिग्गंथा य णिग्गंथोओ य' इत्यादि ।
सूत्रम् - जे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया कप्पड़ णिग्गंथीणं णिये आपुच्छित्ता णिग्गंधिं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सबलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जावेत्ता पुच्छिंत्तए वा वाएत्तए वा उवद्यावेत्तए वा संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दित्तिए वा धारित्तए वा ।। सू० २ ।।
छाया - ये निर्ग्रन्थारच निर्ग्रन्थ्यश्च सांभोगिकाः स्युः कल्पते निर्ग्रन्थीनां निर्यन्थानाऽऽपृच्छ्यं निर्ग्रन्थीमन्यगणादागतां क्षताचारां शवलाचारां भिन्नाचारां संक्लिष्टाचारचरित्रां तस्य स्थानस्याऽऽलोच्य यावद् यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपाद्य प्रष्टुं वा वाचयितुं वा उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तु वा तस्या इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० २ ॥
भाष्यम् – जे णिग्गंथा य' ये निर्ब्रन्याश्च श्रमणाः, 'णिग्गंथीओ य' निर्ग्रन्ध्यः श्रमण्यश्च 'संभोइया सिया' साम्भोगिकाः स्युः तन्मध्यात् 'कप्पइ' कल्पते 'णिगंथीणं' निर्ग्रन्थीनां श्रमणी - नाम 'णिग्गंथे आपुच्छित्ता' निर्मन्थान् साम्भोगिकाचार्यान् आपृच्छ्य - पृष्ट्वा तदाज्ञामादायेत्यर्थः, किमित्याह-‘णिग्गंथिं' इत्यादि, 'णिग्गंर्थि अन्नगणाओ आगयं' निर्ग्रन्थीमन्यगणात्- गच्छान्तरात् आगताम् 'खुयायारं' क्षताचाराम् शबलाचाराम् भिन्नाचाराम् संक्लिष्टाचारचरित्रामित्येषां पदानां व्याख्या षष्ठोद्देशकस्य चतुर्विंशतितमसूत्रे विलोकनीयेति, 'तस्स ठाणस्स' तस्य स्थानस्य यस्याऽपराधस्थानस्य संसेवनेन क्षताचारादिका जाता तस्यापराधस्थानस्य 'आलोयावेत्ता' आलोच्य-आलोचनां कारयित्वा 'जाव' यावत्, अत्र यावत्पदेन 'पडिक्कमावेत्ता निंदावेत्ता गरिहावेत्ता विद्यावेत्ता विसोहावेत्ता अकरणाए अन्भुट्टावेत्ता' एतेषां पदानां सग्रहः, व्याख्या च षष्ठोदेशकस्य चतुर्विंशतितमे सूत्रेऽवलोकनीयेति, 'अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जावेत्ता' तस्य पापस्थानस्य यथार्ह - यथायोग्यं प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपाद्य पापस्थानोचितं प्रायश्चिरूपेण तपो दत्त्वेत्यर्थ, तदनेन क्रमेण तपःकर्मणां सम्यक् तां विशुद्धीकृत्य ततः पश्चात् 'पुच्छित्तए वा' सुखशांतादि प्रष्टुं वा, 'वाएत्तए वा' वाचयितुं वा वाचनां दातुं वा 'उवडावेत्तए वा' उपस्थापयितुं वा पुनर्महाव्रतेषु समारोपयितुं वा, ‘संभुंजित्तए वा' संभोक्तुं वा तया सह एकमण्डल्यामाहारादिकं कर्त्तुं वा 'संवसित्तए वा' सवस्तुं वा एकत्र मिलित्वा वासं कर्त्तुं वा 'ती से इत्तरियं दिसं वा' तस्या उपर्युक्तप्रकारेण प्रायश्चित्तादिना विशुद्धायाः कृते इत्वरिकाम् अल्पकालिकों प्रवर्त्तिन्यादिपदवीम्, 'अणुदिसं वा' अनुदिशं वा यावज्जीवन कालिकों प्रवर्त्तिन्यादिपदवीं वा 'उद्दिसित्तए वा' उद्देष्टुं वा अनुज्ञातुं वा, 'धारितए वा' धारयितुं वा - तादृशपदव्या. धारणं कारयितुं वा कल्पते ॥ सू० २ ॥
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे पूर्व निर्ग्रन्थीमधिकृत्यान्यगणादागतक्षताचारादिदोषवत्याः स्वगणे स्थापने विधिरुक्तः, सम्प्रति निर्ग्रन्थमधिकृत्य तद्विधिमाह--'जे णिग्गंधा य' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे णिग्गंथा यणिग्गंधीओ य संभोइया सिया, कप्पइ णिग्गंथाणं णिग्गथीओ आपुच्छित्ता वा अणापुच्छित्ता वा णिग्गंथि अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सवलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वाएत्तए वा उवहावेत्तए वा संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, तं च णिग्गंथीओ नो इच्छेज्जा सेवमेव नियं ठाणं ॥ सू० ३॥
छाया-ये निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च साम्भोगिकाः स्युः, कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीः आपृच्छ्य वा अनापृच्छय वा निर्ग्रन्थीमन्यगणादागतां क्षताचारां शवलाचारां भिन्नाचारां संक्लिष्टाचारचरित्रां तस्य स्थानस्याऽऽलोच्य यावत् यथाहं प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपाद्य प्रष्टुं वा वाचयितुं वा उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तुं वा, तस्या इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, तां च निग्रन्थ्यो नो इच्छेयुः सेवेत एव निजं स्थानम् ॥ सू०३॥
भाष्यम्--'जे णिग्गंधा य णिगंथीओ य संभोइया सिया' ये निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च द्वयेऽपि साम्भोगिका एकस्मिन् ग्रामादौ स्यु., तत्र 'कप्पइ णिग्गंथाणं' कल्पते निर्ग्रन्थानाम् 'णिग्गंधीओ आपुच्छित्ता वा अणापुच्छित्ता वा' निम्रन्थीः श्रमणोः आपृच्छ्च वा अनापृच्छ्य वा, निम्रन्थीः पृच्छेयुर्न वेति स्वेच्छा श्रमणानाम् 'णिग्गथि अन्नगणाओ आगयं' निर्ग्रन्थीमन्यगणादागताम् 'खुयायारं' क्षताचाराम् 'सवलायारं' शबलाचाराम् 'भिन्नायारं' भिन्नाचाराम् 'संकिलिहायारचरित' संक्लिष्टाचारचरित्राम् , व्याख्या पूर्ववत् 'तस्स ठाणस्स' तस्य स्थानस्य यादृशप्रतिसेवनाजनितेन मलिना जाता तस्य पापस्थानस्य 'आलोयावेत्ता' आलोच्यआलोचनां कारयित्वा 'जाव' यावत् यावत्पदेन प्रतिक्राम्यादिपदानां संग्रहोऽर्थश्च पूर्ववदेव 'अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जावेत्ता' यथाहं तस्य पापस्थानस्य यथायोग्य प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपाद्य, तदनन्तरम्-'पुच्छित्तए वा' प्रष्टुं वा सुखशातादिकं प्रष्टुं कल्पते 'वाएत्तए वा' वाचयितुं वा-सूत्रादिवाचनां दातुं वा, "उपहावेत्तए वा' उपस्थापयितुं वा-महाव्रतेषु समारोपयितुं वा, 'संभुजित्तए वा' संभोक्तुं वा-एकमण्डले भोजनादिव्यवहारं श्रमणीमिः सह कारयितुमित्यर्थः, 'संवसित्तए वा' संवस्तुं वा एकत्र श्रमणीभिः सह निवासं कारयितुमित्यर्थः कल्पते, 'तीसे इत्तरियं दिसं वा' तस्याः कृतप्रायश्चित्तायाः श्रमण्याः इत्वरिकाम्-अल्पकालिकी दिशम् प्रवर्त्तिन्यादिपदवीम् 'अणुदिसं वा' यावत्कथिकां प्रवर्त्तिन्यादिपदवीम् 'उदिसित्तए वा'
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०७ सू०४
साम्भोगिकस्य विसाम्भोगिककरणे विधिः १६७ उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा, 'धारित्तए वा' धारयितुं वा-तस्याः प्रवर्तिनीपदं दातुं कल्पते 'तं च णिग्गंथीओ नो इच्छेज्जा' तां च निम्रन्थ्यो नेच्छेयुः, यदि कदाचित् श्रमणेन प्रायश्चित्तदानादिना कृतशुद्धामपि अन्यगणादागतां तां श्रमणी ताः साम्भोगिका निर्ग्रन्ध्यः अनापृच्छादिकारणवशात् स्वगणे स्थापयितुं नेच्छेयुः तदा 'सेवमेव नियं ठाणं' सेवेत एव निजं स्थानम् , तत्र स्थानमलभमाना सा स्वकीयं यत्स्थानं-स्वकीयगच्छरूपं, तदेव सेवेत तत्रैव पुनः परावृत्त्य गच्छेदिति भावः । तासां तस्याः निम्रन्थ्याः स्वसमीपे आश्रयादाने इमानि कारणानि संभवन्ति-प्रथमं तु कारणं निम्रन्थीरनापृच्छ्य तस्याः शुद्धिः कृतेति नेच्छेयुः, पुनश्च यस्याः सा शिष्या तया सह तासां मैत्री ततस्तस्या अत्र रक्षणे अस्याः प्रवर्तिनी गुरुर्वा अस्माकमुपरि कोपं करिष्यतीति मत्वा तां नेच्छेयुः, अथवा सा कर्मानुभावेन स्वभावतः प्रायः सर्वजनस्याऽपि द्वेष्येति तां नेच्छेयुः । यदि वा पूर्व भावानुभावतः प्रवर्त्तिन्या अप्रियेति, अथवा सा प्रवर्तिनी शुद्धिकर्तृणां साम्भोगिकानां विषये केनापि कारणेन परम्परातः कुपिता वर्तते । यदि वा गच्छस्योपरि कुपिता वर्तते, अथवा संयत्या यो निर्ग्रन्थीसमुदायस्तस्य तद्विषये प्रवर्त्तिन्याः प्रतिस्पर्धा भवेत्-यदियं न कस्या अपि शिण्या कर्त्तव्येति, अथवा ताः सर्वा अपि संयत्यः शृङ्खलाबद्धाः परस्परं गृहावस्थासम्बन्धिन्यस्ततः 'नूतनैषाऽस्माकमपमानं करिष्यति, नास्माकं यादृच्छिकमाहारविहारादिकं भविध्यति' इत्यादिकारणैर्यदि तामुद्यतामपि नेच्छेयुस्तदा स्वगच्छे एव तया प्रसन्नचेतसा प्रत्यावर्त्तितव्यं तदेव तस्याः श्रेय इति । उपलक्षणादिदं सूत्रत्रयं निर्ग्रन्थविषयेऽपि अनुसन्धातव्यम् ॥ सू० ३॥
पर्वमन्यगणादागतां निर्ग्रन्थीम् आलोचनादिना विशोध्य तया सह सम्भोगः कल्पते इति प्रतिपादितम् , साम्प्रतम् निम्रन्थानुसन्धानात् साम्भोगिकनिर्ग्रन्थस्यासाम्भोगिककरणे विधि प्रदर्शयन्नाह-'जे णिग्गंथा य' इत्यादि।
सूत्रम्--जे णिग्गंथा य णिग्गंधीओ य संभोइया सिया, नो ण्डं कप्पइ परोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, कप्पइ ण्हं पचक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-अहं णं अज्जो ! तुमाए सद्धिं इमंमि कारणंमि पच्चक्खं संभोइयं विसंभोइयं करेमि । से य पडितप्पेज्जा एवं से नो कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, से य नो पडितप्पेज्जा एवं से कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए ॥ सू०४॥
छाया-ये निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च साम्भोगिकाः स्युः, नो खलु कल्पते परोक्षे प्रत्येक साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्तुम् । कल्पते खलु प्रत्यक्ष प्रत्येकं सांभोगिकं विसाम्भोगिक कर्त्तम् । यत्रैवाऽन्योऽन्यं पश्येत् तत्रैव एवं वदेत्-अहं खलु आर्य! त्वया साद्धंमस्मिन् कारणे
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
૧૮
serentres
प्रत्यक्षं साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं करोमि, स च प्रतितपेत् एवं तस्य नो कल्पते प्रत्यक्ष प्रत्येकं साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्तुम्, स च नो प्रतितपेत् एवं तस्य कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्तुम् ॥ सू० ४ ॥
"
-
भाष्यम् – 'जे णिग्गंथाय णिग्गंथीओ य' ये निर्मन्थाश्च निर्मन्ध्यथ 'संभोइया सिया' सम्भोगिकाः द्वादशप्रकार कसंभोगवन्तो भवेयुः तेषां निर्मन्थानां निर्ग्रन्थीनां द्वयानां मध्ये निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थपदस्य पूर्वं प्रयुक्तत्वात्, 'नो हं कप्पर परोक्तं' अत्र 'ई' शब्दो वाक्यालङ्कारे नो कल्पते खलु परोक्षे अनुपस्थितौ यदा स उपस्थितो न भवेत्तदेत्यर्थः ' पाडिएक्कं ' प्रत्येकम् अत्र निर्ग्रन्थमुद्दिश्य सूत्रप्रवृत्तेः कमपि निर्ग्रन्थम् 'संभोइयं विसंभोइयं करेत्तए' साम्भोगिकं–सम्भोगयोग्यमपि श्रमणं विसाम्भोगिकं – भक्तपानादिसम्भोगरहितं कर्त्तुं न कल्पते इति पूर्वेणान्वयः । तर्हि कथं कल्पते ? तत्राह - यदि विसम्भोगविषयं किमपि कारणमुत्पद्यते तदा - ' कप्पर टं पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' कल्पते खलु प्रत्यक्षं तदुपस्थितौ तत्संभुखमित्यर्थः प्रत्येकं निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी-साम्भोगिकेति त्रयाणां मध्ये एकैकस्य साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्त्तुम् । कया रीत्या कल्पते ? तत्राह – ' जत्थेव ' इत्यादि, ' जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा' यत्रैव स्थलविशेषेऽन्य एकः, अन्यमपरं पश्येत् 'तत्थेव एवं वएज्जा' तत्रैव स्थले एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदेत्–कथयेत्, किं वदेत् तत्राह - 'अहं णं अज्जो !' अहं खलु हे मार्य ! 'तुमाए सद्धि इममि कारणंमि पच्चक्खं संभोइयं विसंभोइयं करेमि अद्यानन्तरं त्वया सार्द्धम् अस्मिन् कारणे-अतिचारादिकारणे- अतिचारादिकारणविशेषमासाद्य 'पच्चक्खं ' प्रत्यक्षं त्वत्संमुखमेव 'संभोइयं विसंभोइयं करेमि' साम्भोगिकं त्वां विसाम्भोगिकं - संभोगरहितं करोमि अतिचारादिकारणविशेषमासाद्य त्वया सहाऽऽहारादिव्यवहारं पृथक्करोमीत्यर्थः । ' से य पडितप्पेज्जा' कारणे कथिने सति स श्रोता साम्भोगिकः श्रमणो यदि परितपेत् --- परितापं कुर्यात् यथा 'मया नेदं सुष्ठु कृतं येनेदानीं परित्यक्तो भवामि, नाद्य प्रभृति एवं करिष्यामि, कृतस्य चाऽशुभकर्मणो मिथ्यादुष्कृतं ददामि न पुनरेतादृशं दुष्टं कर्म करिष्यामी' -ति पश्चात्तापं कुर्यादिति भावः ' एवं से नो कप्पर पच्चक्खं पाडि एक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' एवं - मिथ्यादुष्कृतादिदाने 'से' तस्य विसांभोगिकं कर्त्तुं प्रवृत्तस्य न कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येकं त्रयाणां मध्ये एकैकस्य साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्त्तुम् । यदि प्रतिपन्नपापस्थान : श्रमणः पश्चात्तापं कुर्यात् मिथ्यादुष्कृतं दधात् प्रायश्चित्तं च स्वीकुर्यात् तदा साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्त्तुं न कल्पते श्रमणानां श्रमणीनां वेति भावः । यदि प्रत्यक्षं पूर्वोक्तप्रकारेण कथितेऽपि 'से य नो पडितप्पेज्जा' स च यदि नो परितपेत्यदि कदाचित् कृतकर्मणो निमित्तं पश्चात्तापं पूर्वोक्तरूपेण न कुर्यात्, स्वकृता तिचारस्याssलोचनया प्रतिक्रमणेन तदुभाभ्याम्, व्युत्सर्गेण तपसा एवं प्रकारेण यावत् पारावितेन प्रायश्चित्तेन विशोधि न कुर्यात् एवं से कप्पड़ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करितए' एवं तदा ' से ' तस्य विसाम्भोगिककर्त्तुः कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्त्तुमिति ॥ सू० ४ ॥
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ७ सू० ५
साम्भोगिकस्याऽसाम्भोगिककरणे विधिः १६ पूर्व निर्ग्रन्थमधिकृत्य सांभोगिकस्य प्रत्यक्षं तत्संमुखं विसांभोगिककरणे विधिरुतः, सम्प्रति निम्रन्थीमुद्दिश्य सांभोगिकायाः परोक्षम्-तस्या अनुपस्थितौ विसांभोगिककरणे विधिमाह-'जाओ णिग्गंधीओ वा' इत्यादि।
सूत्रम्-जाओ णिग्गंधीओ वा णिग्गंथा वा संभोइया सिया, नो ण्डं कप्पइ पच्चक्ख पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, कप्पइ ण्हं पारोक्खं, पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, जत्थेव ताओ अप्पणो आयरियउवज्झाए पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जाअहं णं भंते ! अमुगीए अज्जाए सद्धिं इमंमि कारणंमि पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करेमि । सा य से पडितप्पेज्जा एवं से नो कप्पइ पारोक्खं पाडिएक्क संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, सा य से नो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पइ पारोक्खं पाडि एक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए ॥ सू०५॥
छाया--या निर्ग्रन्थ्यो वानिर्ग्रन्था वा सांभोगिकाः स्युः, नो खलु कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येक साम्भोगिकी विसंभोगिकी कर्तुम् , कल्पते खलु परोक्षं प्रत्येक साम्भोगिकी विसांभोगिकी कतम् , यत्रैव ता आत्मनः--आचार्योपाध्यायान् पश्येयुः तत्रैव एवं वदेत्-अहं खलु भदन्त ! अमुक्या आर्यया सार्द्धम् अस्मिन् कारणे परोक्षं प्रत्येक सांभोगिकी विसांभोगिकी करोमि । सा च तस्याः प्रतितपेत् , एवं तस्याः नो कल्पते परोक्ष प्रत्येकं सांभोगिकी विसांभोगिकी कत्तम् । सा च तस्याः नो प्रतितपेत् , एवं तस्याः कल्पते परोक्ष प्रत्येक साम्भोगिकी विसांभोगिकी कर्त्तम् ॥ सू० ५॥
भाष्यम-'जाओ णिग्गंथीओ वा णिग्गंथा वा' याः काश्चन निम्रन्थ्यः श्रमण्यः निर्ग्रन्था. श्रमणा वा 'संभोइया सिया' साम्भोगिकाः स्यु.-भवेयु., तेषां द्वयानां मध्ये निर्ग्रन्थीनाम्, अत्र निर्ग्रन्थीपदस्य पूर्व प्रयुक्तत्वात् , 'नो पहं कप्पइ पञ्चक्खं पडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' नो खलु कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकी विसांभोगिकी कर्तुम् । तासां श्रमणीनां नो कथमपि कल्पते प्रत्यक्ष-तस्याः संमुखमित्यर्थः प्रत्येकम्-एकैकस्याः संयत्याः प्रत्यक्षरूपेण सांभोगिकी-भक्तपानादिव्यवहारवती श्रमणी विसांभोगिकी-सभोगरहितां परित्याजितभोजनादिव्यवहारां कर्तुम् । तर्हि कथं कल्पते ? इत्याह-'कप्पइ ण्डं पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' कल्पते खलु परोक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकी विसांभोगिकी कर्तुम्, कल्पते परोक्ष-परोक्षरूपेण तदनुपस्थितौ प्रत्येकं सांभोगिकी विसाभोगिकी कर्तुम् । तद्विधिमाह-'जत्येव ताओ अप्पणो आयरियउवज्झाए पासेज्जा' अथ यत्रैव स्थले ताः आत्मनः स्वसंघाटकस्य आचार्योपाध्यायान्-आचार्यान्-गच्छनायकान् उपाध्यायान् वा पश्येयु. 'तत्थेव एवं वएज्जा' तत्रैव स्थले तासु मध्ये एका एवम् वदयमाणप्रकारेण वदेत् । किं वदेदित्याह-'अहं णं' इत्यादि ।
२२
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
व्यवहारसूत्रे 'अहं णं भंते !' अहं खलु भदन्त ! 'अमुगीए अज्जाए सद्धिं इमंमि कारणमि' अमुक्यानिर्दिष्टनाम्न्या आर्यया सार्द्धम् अस्मिन् कारणे अतिचारादिरूपे 'पारोक्खं पडिएक्कं संभो. इयं विसंभोइयं करेमि' परोक्षं-परोक्षरूपेण तदनुपस्थितौ भवत्पार्श्वे, न तु तत्संमुग्वं, प्रत्येकम् एककेत्यर्थः सांभोगिकी विसांभोगिकी करोमि । अथ साध्वीनाम् एवं प्रकारकं वचनं श्रुत्वा आचार्योपाध्यायास्तदुक्तं तस्याः कथयन्ति, कथिते सति यदि 'सा य से पडितप्पेज्जा' सा च संप्राप्तदोषा 'से' तस्याः कथने प्रतितपेत् , तत्प्रदत्तदोषविषये परिताप कुर्यात् पश्चात्तापवती भवेदित्यर्थः 'सत्यं दुप्ठ मया कृतं, नैवं मम कर्तुं युज्यते' इत्येवं यदि मिथ्यादुप्कृतदानेन पश्चात्तापं कुर्यात् । यदि पापस्थानं न सेवितं भवेत्तदा असत्तदाख्यानमित्युक्त्वा प्रत्याख्यायेत् तत्कथनं निराकुर्यात् आचार्योपाध्यायेभ्यस्तदकरणे विश्वासं कारयेदित्यर्थः ‘एवं से नो कप्प पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' एवं सति 'से' तासां समुदायस्य नो कल्पते परोक्षं प्रत्येक सांभोगिकी विसांभोगिकी कर्तुम् । 'सा य से नो पडितपेज्जा' सा च तासां कथने नो परितपेत् , अथ यदि सा श्रमणी तत्कथने मिथ्यादुष्कृतदानादि न समाचरेत् 'एवं से कप्पइ पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' एवं स्थितौ तासां कल्पते परोक्षं प्रत्येकं सांभोगिकी विसांभोगिकी कतै कल्पते इति पूर्वण सम्बन्धः, एवं रीत्या करणे आचार्योपाध्यायास्ताभ्यो न कमपि उपालम्भं प्रयच्छन्ति ।
भत्र परोक्षप्रत्यक्षविषये शङ्कापूर्वकं समाधत्ते भाष्याकरः-'णिगंथाण य' इत्यादि । गाथा-"णिग्गंथाण य पच्चक्खं, परोक्खं संजईण किं ।
__णिग्गंथा सहणं कुज्जा, असहा सा य भंडए" ॥१॥ छाया-निर्ग्रन्थानां च प्रत्यक्षं, परोक्षं संयतीनां किम्।
निम्रन्थाः सहनं कुर्यात् , असहा सा च भण्डयेत् ॥ १ ॥ अयं भावः-अत्राशङ्कते-संयतसंयतीनां विषये विपर्ययेण कथने किं प्रयोजनम् । उत्तरमाह-संयताः सहनशीला भवन्ति परिशीलितशास्त्रत्वात्, संयत्यश्च न तथा सहनशीला भवन्ति स्त्रीस्वाभाव्यात्, ततस्ताः कुपिताः सत्यः भण्डयेयुः धर्मस्य, संयतसंयतीनां च भण्डनां कुर्युरतोऽत्र विपर्ययेण प्रोक्तमिति ।। सू० ५ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थीनां सांभोगिकीनां विसाम्भोगिककरणे विधिः प्रदर्शितः, अथ निर्ग्रन्थानां स्वशिष्याकरणनिमित्तं निम्रन्थ्याः प्रव्राजननिषेधमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं निगंथिं अप्पणो अट्ठाए पव्यावेत्तए वा, मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उवट्ठावेत्तए वा, संभुजित्तए वा, संवसित्तए वा, तीसे इत्तरिय दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० ६ ॥
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ७ सू० ६-१०
निग्रन्थनिर्ग्रन्थ्योः प्रव्राजनविधिः १७१
छाया - नो कल्पते निर्मन्थानां निर्ग्रन्थीमात्मनोऽर्थाय प्रव्राजयितुं वा-मुण्डापयितुं वा उपस्थाययितु वा संभोक्तुं वा संवस्तुं वा, तस्या इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं घा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू०
11
भाष्यम् –'नो कप्पइ णिग्गंथाणं' नो कल्पते निर्ग्रन्थानाम् 'निग्गंथिं' निर्ग्रन्थोम् 'अपणो अट्टाए' आत्मनोऽर्थाय - स्वस्य शिष्यांकरणाय ' इयं मम शिष्या भविष्यती ' - तिबुद्धया 'पव्वावेत्तए वा' प्रव्राजयितुं वा - सामायिकारोपणेन प्रव्रज्या दातुं वा, 'मुंडावेत्तए वा' मुण्डा - पयितुं वा–लोचादिकरणेन मुण्डितां कर्त्तुं वा, 'सेहावेत्तए वा' शिक्षयितुं वा - ग्रहणासेवनशिक्षां दातु ं वा, 'वहावेच वा' उपस्थापयितुं वा छेदोपस्थापनचारित्रे आरोपयितुं वा 'संभुंजितए वा' संभोक्तुं वा द्वादशविधसंभोगानां मध्येऽन्यतम संभोगमाचरितु वा प्रदानरूपं व्यवहारं कर्त्तुमित्यर्थः, 'संवसित्तए वा' संवस्तु वा - तया सह वासं कर्तुम् - एकत्र स्थातु ं न कल्पते । तथा-'तीसे इत्तरियं दिसं वा' तस्याः संयत्या इत्वरिकाम् - अल्पकालिक दिशं प्रवर्त्तिन्यादिपदवीम् ‘अणुदिसं वा' अनुदिशं वा - यावज्जीविकां पदवीं वा 'उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा' उद्देष्टुम् - अनुज्ञातुं वा धारयितुं वा न कल्पते ॥ सू० ६ ॥
भक्तपानाद्यादान
पूर्वं निर्ग्रन्थानां स्वनिमित्तं निर्ग्रन्ध्याः प्रत्राजनादिनिषेधः कथितः, सम्प्रति -अन्यप्रवर्त्तिन्यादिनिमित्तं तत्कल्पते, इति विपर्यये सूत्रमाह - ' कप्पर णिग्गंथा' इत्यादि ।
सूत्रम् — कप्पइ णिग्गंथाणं णिग्गंथिं अन्नार्सि अट्ठाए पव्वावेत्तए वा, मुंडावेत्तए वा, सेहावेत वा, उवद्यावेत्तए वा, संभुंजित्तए वा, संवत्तिए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा, अणुदिसं वा, उद्दित्तिए वा, धारितए वा ॥ सू० ७ ॥
छाया -कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीम् अन्यासामर्थाय प्रव्राजयितु वा, मुण्डापयितु वा, शिक्षयितुं वा, उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा, संवस्तु वा, तस्या इत्वरिकां दिशं वा, अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितु वा ॥ सू० ७ ॥
भाष्यम् –'कप्पइ णिग्गंथाणं' कल्पते निर्ग्रन्थानाम् 'णिग्गंथिं' निर्ग्रन्थीम् ' अन्नासिं अट्ठाए' अन्यासामर्थाय, तत्र अन्यासाम् प्रवर्त्तिन्यादीनाम् अर्थाय प्रयोजनाय. 'एता एतस्या उपग्रहं करिष्यन्ती'–त्यभिप्रायेण, न तु स्वात्महितायेत्यर्थः, 'पच्चावेत्तए वा' इत्यादि सबै पूर्ववदेव व्याख्येयम् ॥ सू० ७ ॥
निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीविषये प्रत्राजनादिविधिरुक्तः, सम्प्रति निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थविषये तन्निषेधमाह - 'नो कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्
-नो कप्पर णिग्गथीणं णिग्गंथ अप्पणो अट्टाए पव्वावेत्तए वा मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उवद्यावेत्तए वा, संभुजित्तए वा, संवसित्तए वा, तस्स इतरियं दिसं वा, अणुदिसं वा, उद्दित्तिए वा, धारितए वा ।। सू० ८ ॥
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७३
-
व्यवहारसूत्रे छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थमात्मनोऽर्थाय प्रवाजयित वा, मुण्डापयितु वा, शिक्षयितु वा, उपस्थापयितुं वा, संभोक्तु वा, संवस्तु वा, तस्या इत्वरिकां दिशं वा, अनुदिशं वा, उद्देष्टुं वा धारयितु वा ॥ सू० ८ ॥
भाष्यम्-'नो कप्पइ णिग्गंधीणं' नो कल्पते निर्ग्रन्थीनाम् णिग्गंध' निर्ग्रन्थम् 'अप्पणो अट्ठाए' आत्मनोऽर्थाय-आत्मनः-स्वस्याः प्रयोजनाय 'पवावेत्तए वा' प्रव्राजयितुं वा, इत्यादि सर्वं पूर्ववदेव व्याख्येयम् ॥ सू० ८॥
पूर्व निर्ग्रन्थीनां स्वनिमित्तं निर्ग्रन्थस्य प्रव्राजनादि न कल्पते इति प्रोक्तम् , सम्प्रति परनिमित्तम्-आचार्यादिनिमित्तं कल्पते इति तद्विपर्य ये सूत्रमाह-'कप्पइ णिग्गथीणं' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पई णिग्गंथीणं णिग्गंथं णिग्गंथाणं अट्ठाए पवावेत्तए वा, मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उवट्ठावेत्तए वा, संभुंजित्तए वा, संवसित्तए वा, तस्स इत्तरिय दिसं वा, अणुदिसं वा, उदिसित्तए वा, धारित्तए वा ॥ सू० ९॥
___ छाया- कल्पते निर्ग्रन्थीनां निम्रन्थं निर्ग्रन्थानामर्थाय प्रत्राजयितुवा, मुण्डापयितु वा, शिक्षयितु वा, उपस्थापयितुवा, संभोक्तुं वा, संवस्तुं वा, तस्य इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा, उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० ९॥
भाष्यम्--'कप्पइ निग्गंथीणं' कल्पते-निर्ग्रन्थीनाम् 'णिग्गंध' निम्रन्थम् णिग्गंथाणं अहाए' निर्ग्रन्थानां श्रमणानामाचार्योपाध्यायादीनामर्थाय-प्रयोजनाय 'पन्यावेत्तए' वा प्रव्राजयितुं वा, इत्यादि सर्वं पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥ सू० ९ ॥
पूर्व स्वनिमित्तं दीक्षादानं निषिध्य अन्यार्थ दीक्षादानमुक्तम् , अन्यार्थ दीक्षादानं दत्वा च यन्निश्रामधिकृत्य दीक्षा दत्ता तदाचार्यादिसमीपे प्रेषणार्थ नियमात्तस्य विहारः कारयितव्यः, इति प्रथमं निम्रन्थीमधिकृत्य विहारविधिमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ णिग्गंथीणं विइकिट्ठियं दिसं वा, अणुदिसं वा, उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० १०॥
छाया- नो कल्पते निर्ग्रन्थोनां व्यतिकृष्ट दिशं वा, अनुदिशं वा, उद्देष्टुं वा, धारयितुं वा ॥ सू० १० ॥
भाष्यम्-"नो कप्पइ णिग्गंधीणं" नो कल्पते निर्ग्रन्थीनाम् "विइकिट्ठियं दिसं वा अणुदिसं वा" व्यतिकृष्टां दूरस्थां दिशं वा, अनुदिशं वा, तत्र व्यतिकृष्टाम् , व्यतिकृष्टा दिग् द्विविधा भवति क्षेत्रतो भावतश्च, तत्र क्षेत्रतः क्षेत्रमाश्रित्य दूरदेशरूपा, भावतो दूरसम्बन्धगताचार्यादिरूपा, तत्र संयतस्य-आचार्योपाध्यायरूपा द्विविधा । संयत्याश्च आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीरूपा त्रिविधा दिग् भवति, तां क्षेत्रतो भावतश्च विप्रकृष्टां-दूरस्थां दिशम् 'अणुदिसं वा' अनुदिशम्-विशेपतो विप्रकृष्टां दिशम् “उदिसित्तए वा' उद्देष्टुम् अन्यमन्यां वाऽनुज्ञातुं तादृशदिग्ग
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ७ सू० ११-१५ व्यतिकृष्टदिग्गमनाधिकरणब्यवशमनविधिः १७३ मनाज्ञां दातुं वा, "धारितए वा" धारायितुं स्वस्य गमनं स्वीकत्तुं स्वस्य गन्तुमित्यर्थ. न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । क्षेत्रतो विप्रकृष्टा दिग्-दूरदेशरूपा, तत्र गच्छन्तीनां संयतीनां स्त्रीशरीरत्वाद् बहवो दोषा आत्मसंयमविराधनादयो भवन्ति । भावतो विप्रकृष्टा-अन्यगच्छीयाचार्यादिरूपा तत्राधिकरणादिसंभवादिति ॥ सू० १०॥
सम्प्रति निम्रन्थमधिकृत्य विहारविधिमाह --'कप्पइ' इत्यादि।।
सूत्रम्-कप्पइ णिग्गंथाणं विइगिट्ठियं दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० ११॥
छाया-कल्पते निम्रन्थानां व्यतिकृष्टां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टु वा धारयितुं वा ॥ सू० ११ ॥
भाष्यम्-'कप्पइ' कल्पते "णिग्गंथाणं' निर्ग्रन्थानाम् 'विइगिट्टियं दिसं वा' व्यतिकृष्टां दिशं वा-व्यतिकृष्टाम् क्षेत्रतो भावतश्च विपरीता, क्षेत्रतो दूरस्थाम्, भावतोऽन्यगच्छीयाचार्यादिरूपाम् 'अणुदिसं वा' अनुदिशं वा-अतिविपरीताम् 'उदिसित्तए वा धारित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुम् धारयितुं-स्वयं गन्तुं वा । सू० ११ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थानां विप्रकृष्टदिग्गमने विधिः प्रोक्तः, सम्प्रति, विप्रकृष्टप्रसङ्गाद् विप्रकृष्टाधिकरणजन्यापराधक्षमापने निर्ग्रन्थमधिकृत्य सूत्रमाह—'नो कप्पइ णिग्गंथाणं' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथाणं विइगिहाई पाहुडाई विओसवित्तए ॥२०१२॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां व्यतिकृष्टानि प्राभृतानि व्यवशमयितुम् ॥ सू० १२ ॥
भाष्यम-'नो कप्पई' न कल्पते 'णिग्गंथाणं' निर्ग्रन्थानाम् 'विइगिट्ठाई' व्यतिकृष्टानि-दूरदेशकृतानि 'पाहुडाई' प्रामृतानि कठोरवचनादिजनिताधिकरणानि — विओसवित्तए' व्यवशमयितुम् तत्रस्थानामेव उपशमयितुम् , किन्तु-यत्रैव स्थानविशेषेऽधिकरणं समुस्पन्नं तत्रैवोपशमयितुं कल्पते, क्लेशमुत्पाद्य नान्यत्र गमनं युक्तियुक्तमिति भावः। अत्रापि व्यतिकृष्टाधिकरणक्षमापनं द्विविधम्-क्षेत्रतो भावतश्च, एषः क्षेत्रतो व्यतिकृष्टाधिकरणक्षमापनविधिरुक्तः । भावतस्तु अन्येन श्रमणेन साद्धं कृताधिकरणस्याऽन्यसमीपे क्षमापनम् , एवमपि कत्तुं न कल्पते इति सूत्राशयः ॥ स्० १२ ॥
सम्प्रति निम्रन्थीमधिकृत्य व्यतिकृष्टाधिकरणक्षमापनविधिमाह-'कप्पइ णिग्गंथीणं' इत्यादि । सूत्रम्-कप्पइ णिग्गंथीणं विइगिट्ठाई पाहुडाइं विओसवित्तए ॥ सू० १३ ॥ छाया-कल्पते निम्रन्थीनां व्यतिकृष्टानि प्राभृतानि व्यवशमयितुम् ॥ सू० १३ ॥
भाष्यम्-'कप्पई' कल्पते 'णिग्गंधीणं' निम्रन्थीनाम् 'विइगिट्टाई' व्यतिकृष्टानि क्षेत्रतो भावतश्च दूरदेशकृतानि 'पाहुडाई' प्राभृतानि-अधिकरणानि तत्रस्थिताया एव 'विओ
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र
सवित्तए' व्यवशमयितुम्-उपशमयितुं क्षमापयितुमित्यर्थः, निर्ग्रन्थीनां दूरदेशगमने स्त्रीशरीरत्वात् संयमात्मविराधनादिबहुदोषसंभवादिति ॥ सू० १३ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां व्यतिकृष्टाऽधिकरणक्षमापनविधिः प्रदर्शितः, सम्प्रति निम्रन्थमधिकृत्य व्यतिकृष्टकाले स्वाध्यायनिषेधमाह-'नो कप्पइ निग्गंथाणं' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पड णिग्गंथागं विइगिट्टे काले सज्झायं करित्तए । सू०१४ ॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां व्यतिकृष्टे काले स्वाध्यायं कर्तुम् ।। स्० १४ ।।
भाष्यम्-नो कप्पइ' नो कल्पते 'णिग्गंथाणं' निम्रन्थानाम् 'विइगिट्टे काले' व्यतिकृष्टे काले -विकृते विपरीते काले अस्वाध्यायकाले यस्य स्वाध्यायस्य यः कालविशेषो नितिः शास्त्रे तदतिरिक्ते काले, विकृतकालो द्विविधः-कालिक उत्कालिकश्चेति । तत्र कालिकः प्रथमपौरुष्या अनन्तरं चतुर्थपौरुषीतः पूर्वो यः कालः सः । विकृतोत्कालिकः-सूर्योदयसूर्यास्तयोः सन्धिकालः अर्द्धरात्रिश्चेति । एवम्भूते विकृते काले 'सज्झायं' त्वाध्यायम्-आचाराङ्गनिशीथसूत्रप्रमृतीनां मूलपाठस्याऽध्ययनम् 'करित्तए वा' कर्तुम् ॥ सू० १४ ॥
निम्रन्थीनां व्यतिकृष्टे काले स्वाध्यायं कत्तुं कल्पते इति तद्विधिमाह-कप्पइ णिग्गंथीणं' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ णिग्गंधीणं विइगिटे काले सज्झायं करित्तए णिगंथनिस्साए ॥१५॥ छाया-कल्पते निर्ग्रन्थीनां व्यतिकृष्टे काले स्वाध्यायं कत्तुं निग्रन्थनिश्रया ॥१५॥
भाष्यम्--'कप्पई' कल्पते 'णिग्गंथीणं' निग्रन्थीनाम् 'विइगिट्टे काले' व्यतिकृष्टे काले-विकालेऽपीत्यर्थः 'सज्झायं करिचए' स्वाध्यायं आचाराङ्ग-निशीथसूत्राणामध्ययनं कर्तुम् ।
ननु पूर्वसूत्रे व्यतिकृष्टकाले निर्ग्रन्थानां स्वाध्यायस्य निषेधः कृतः, प्रकृतसूत्रेण श्रमण्याः कृते स्वाध्यायस्य विधानं क्रियते अस्वाध्यायकालस्तु सर्वेषां समान एव भवतीति न्यायस्य समानत्वात् कथमस्वाध्यायकाले निम्रन्थीनां स्वाध्यायस्य विधानं कृतम् ? तत्राह--कारणिकमिदं सूत्रम् , यथा काचिन्नवदीक्षिता सूत्रावृतिं करोति स्त्रीस्वभावत्वाद् विस्मरणशीला च सा, संप्रति स्वाध्यायाकरणेऽस्याः सूत्रं विस्मृतं भविष्यतीत्यादिकारणमादाय निम्रन्थ आज्ञां ददाति तदा तदाज्ञया तस्याः कृते व्यतिकृष्टकालेऽपि स्वाध्यायस्य विधानं कृतमिति नात्र दोषापत्तिरत माह-णिग्गंथ०' इत्यादि, 'णिग्गंथनिस्साए' निर्ग्रन्थनिश्रया-श्रमणस्याज्ञया श्रमण्या सूर्योदयसूर्यास्तसन्धिकालार्द्धरात्ररूपास्वाध्यायेऽपि काले स्वाध्यायः फल्पते, निषेधोऽत्र स्वातन्त्र्येण संयत्याः विकृतकाले स्वाध्यायकरणविषयको विज्ञेय इति ॥ सू० १५ ॥
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०७सू० १६-२०
स्वाध्यायास्वाध्यायविधिनिषेधनि० १७५
- सम्प्रति समुच्चयेन स्वाध्यायनिषेधमाह-'णो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा असज्झाइए सज्झायं करित्तए ॥ सू० १६॥
छाया-नो कल्पते निग्रंथानां वा निम्रन्थीनां वा अस्वाध्यायिके स्वाध्यायं कर्तुम् ॥ सू० १६ ॥
भाष्यम्-'नो कप्पई' नो कल्पते 'णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा 'असज्झाइए' अस्वाध्यायिके स्वाध्यायेन निर्वृत्तं स्वाध्यायिकं, न स्वाध्यायिकम् अस्वाध्यायिकम् , तस्मिन्- यदा यत्र वा अस्वाध्यायसम्बन्धि किमपि कारणं भवेत तत्समये तत्स्थाने वा 'सज्झायं करित्तए' स्वाध्यायं कर्तुम्, यः खलः अस्वाध्यायिकः कालस्तस्मिन् काले स्वाध्याय कत्तं संयतानां संयतीनां वा न कल्पते । अस्वाध्यायिकप्रकरणं सविस्तरमुत्तराध्ययनसूत्रस्यैकोनत्रिंशत्तमेऽध्ययने मत्कृतायां प्रियदर्शनीव्याख्यायामालोकनीयम् ॥ सू० १६॥
अथ स्वाध्यायकाले स्वाध्यायोऽवश्यं कर्त्तव्य इति स्वाध्यायसूत्रमाह-'कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम् -कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा सज्झाइए सज्झायं करित्तए ॥१७॥ छाया- कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा स्वाध्यायिके स्वाध्यायं कर्तुम् ॥१७॥
भाष्यम्-'कप्पई' कल्पते 'निग्गंथाण वा' निर्ग्रन्थानां वा 'निग्गथीण वा' निम्रन्थीनां वा 'सज्झाइए' स्वाध्यायिके-स्वाध्यायकाले 'सज्झायं' स्वाध्यायम् 'करित्तए' कतम् कल्पते, स्वाध्यायकाले निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीभिरवश्यं स्वाध्यायः कर्तव्यः, नाऽत्र प्रमादः कार्य इति भावः । कस्य सूत्रस्य कः स्वाध्यायकालः ? कस्य सूत्रस्य कोऽस्वाध्यायकालः ? इत्यादि सर्वं नन्दीसूत्रे द्रष्टव्यम् ॥ सू०१७॥
अस्वाध्यायिक द्विविधं भवति-आत्मसमुत्थं परसमुत्थं च, तत्राऽऽत्मसमुत्थमस्वाध्यायिकमाह-'नो कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अप्पणो असज्झाइए सज्झायं करित्तए, कप्पइ ण्डं अण्णमण्णस्स वायणं दलइत्तए ॥ सू०१८॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा आत्मनोऽस्वाध्यायिके स्वाध्यायं कर्त्तम् , कल्पते खलु अन्योऽन्यस्य वाचनां दातुम् ॥ सू० १८॥
भाष्यम्-'नो कप्पइ' नो कल्पते ‘णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा' निग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा, 'अप्पणो' आत्मनः स्वसंवन्धिनि स्वस्मादुत्थिते इत्यर्थः 'असज्झाइए' अस्वा
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
व्यवहारसूत्रे
ध्यायिके 'सज्झायं करित्तए' स्वाध्यायं कर्तुं न कल्पते इति सम्बन्धः, किन्तु 'कप्पइ ण्इं अन्नमन्नस्स' कल्पते खलु अन्योऽन्यस्य-परस्परस्य 'वायणं दलइत्तए' वाचनां दातुम् अन्यत्र अन्यस्थाने अन्यद्वारा वा । तत्रात्मसमुत्थमस्वाध्यायिकं श्रमणस्यैकं भवति रोगजम्, श्रमण्याश्च द्विविधम् रोगजम् ऋतुजं च, तत्र रोगजम् अर्शोभगन्दरवणादिविषयम् , ऋतुजं च ऋतुविषयम् । तत्र श्रमणस्य रक्तपूयादिदर्शनं यावत् , श्रमणीनां च रक्तपूयरजोदर्शनं यावद् अस्वाध्यायिक भवति, तस्मिन् काले निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां स्वाध्यायं कर्तुं न कल्पते, किन्तु व्रणादिस्थानमष्टपुटवस्त्रेणाच्छाद्याऽन्योऽन्यस्य-परस्परस्य वाचनां अर्थरूपां दातुं श्रोतुं वा कल्पते ॥सू०१८ ॥
पूर्वमस्वाध्यायिके स्वाध्यायनिषेधः, स्वाध्यायिके स्वाध्यायविधिश्च प्रदर्शितः, सम्प्रति स्वाध्यायिके नित्यस्वाध्यायकारकः श्रमणः पदवीयोग्यो भवति, स चापपर्यायोऽपि बहुपर्यायवत्याः श्रमण्या उपाध्यायतया आचार्यतया च उद्देष्टुं कल्पते इति सूत्रद्वयेनाह-'तिवास०' इत्यादि ।
सूत्रम्-तिवासपरियाए समणे णिग्गंथे तीसंवासपरियायाए समणीए णिग्गंथीए कप्पइ उवज्झायचाए उद्दिसित्तए ॥ सू०१९ ।।
छाया-त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः प्रिंशद्वर्षपर्यायायाः श्रमण्याः निर्ग्रन्थ्याः कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुम् ॥ सू० १९ ॥
भाष्यम्--'तिवासपरियाए' समणे णिग्गंथे' त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निम्रन्थः, त्रिवर्ष--वर्षत्रयं यथा स्यात् पर्यायो-दीक्षाग्रहणसमयो विद्यते यस्य स त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थो भवेत्तदा सः 'तीसंवासपरियाए' त्रिंशद्वर्षपर्यायायाः--त्रिंशद्वर्षदीक्षापर्यायवत्याः 'समणीए णिग्गंथीए' श्रमण्या निम्रन्ध्याः 'कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए' कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुंस्वीकर्तुम्, त्रिंशद्वर्षपर्यायवत्याः श्रमण्याः त्रिवर्षपयायः श्रमणः उपाध्यायो भवितुमर्हतीति भावः ॥१९॥
पुनराह-'पंचवासपरियाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-पंचवासपरियाए समणे निग्गथे सद्विवासपरियायाए समणीए निग्गंथीए कप्पइ आयरियत्ताए उदिसित्तए ॥ सू०२०॥
छाया-पञ्चवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः पष्टिवर्पपर्यायायाः श्रमण्या निर्ग्रन्थ्याः कल्पते आचार्यतया उद्देष्टुं ॥ सू० २० ॥
__भाप्यम्-'पंचवासपरियाए' पञ्चवर्षपर्यायः-पश्चवर्षदीक्षापर्यायः 'समणे निग्गंथे' श्रमणो निम्रन्थो यदि भवेत्तदा सः 'सट्ठिवासपरियायाए' षष्टिवर्षपर्यायायाः- षष्टिवर्षदीक्षापर्यायवत्याः 'समणीए निग्गंधीए' श्रमण्या निम्रन्ध्याः 'कप्पइ' कल्पते, 'आयरियत्ताए' आचार्यतया
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग्यम् उ०७ सू० २१-२२
भिक्षोमृतदेहपरिष्ठापनविधिः १७७ आचार्यरूपेण 'उदिसित्तए' उद्देष्टुं--स्वीकर्तुम्, पञ्चवर्षपर्यायः श्रमणः षष्टिवर्षपर्यायवत्याः श्रमण्याः आचार्यों भवितुमर्हतीति भावः । अत्र विषये अस्यैव व्यवहारसूत्रस्य तृतीयोद्देशकस्य तृतीयसूत्रे त्रिवर्षपर्यायस्य श्रमणनिग्रन्थस्योपाध्यायत्वम् , पञ्चमे सूत्रे च पञ्चवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य च आचार्योपाध्यायत्वं कल्पते इति प्रोक्तमित्युभयोर्भेदः । ननु त्रिंशद्वर्षपर्यायायास्त्रिवर्षपर्याय उपाध्यायः, पञ्चवर्षपर्यायश्च षष्टिवर्षपर्यायाया आचार्यश्च भवेत्तदाऽधिकपर्यायवती श्रमणी अल्पपर्यायस्य श्रमणस्य कथं वन्दनादिव्यवहारं कुर्यात् , एतदनुचितं प्रतिभाति ? तत्राह-नैवं शङ्कनीयमू जिनशासने पुरुषज्येष्ठस्य धर्मस्य तीर्थकरैः प्रतिपादितत्वादिति, कि बहुना--श्रमण एकदिवसपर्यायोऽपि शतवर्षपर्यायायाः श्रमण्या वन्दनीयो भवतीति शास्त्रसंमतम् ॥ सू० २० ॥
पूर्व पर्यायमाश्रित्य पदवीदानविधिः प्रदर्शितः, सम्प्रति--मृतश्रमणदेहस्य परिष्ठापनविधिमाह'गीमाणुगाम' इत्यादि ।
सूत्रम्-गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू य आहच्च वीसंभेजा तं च सरीरगं केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से तं सरीरगं न सागारियमिति कटु थंडिले वहुफासुए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिहवेत्तए, अत्थि य इत्थ केइ साहम्मियसंतिए उवगरणजाए परिहरणारिहे कप्पइ से सागारकडं गहाय दोचंपि ओग्गहे अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ सू० २१॥
छाया-ग्रामानुग्राम द्रवन् भिक्षुश्चाहत्य विष्वग्भवेत्, तं च शरीरकं कश्चित्साधमिकः पश्येत् कल्पते तस्य तच्छरीरकं न सागारिकमिति कृत्वा स्थण्डिले बहमासके प्रतिलेख्य प्रमाय॑ परिस्थापयितुम् । आस्ति चात्र किञ्चित् सार्मिकसत्कमुपकरणजातं परिहरणार्हम्, कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा द्वितीयमपि अवग्रहमनुज्ञाप्य परिहार परिहतम् ॥ सू० २१ ॥
भाष्यम--'गामाणुगाम' ग्रामानुग्रामम्-एकस्माद् प्रामाद् ग्रामान्तरम् 'दइज्जमाणे, द्रवन-विहारवृत्त्या गच्छन् , 'भिक्खू य' भिक्षुश्च श्रमणः 'आहच्च' माहत्य-कदाचित् 'वीसंभेज्जा' विष्वग्भवेत्-शरीराद् विष्वक्-पृथग्भवेत्-म्रियेत-कालगतो भवेदित्यर्थः 'तं च सरीरंग के साहम्मिया पासेज्जा' तच्च शरीरकं कश्चित् साधर्मिकः-सहगतः श्रमणः पश्येत्-अयं मृत इति जानीयात्तदा 'कप्पई' कल्पते 'से' तस्य साधर्मिकस्य भिक्षोः 'तं सरीरगं' तन्मृतशरीरम् 'न सागरियमिति कटु' न सागारिकं-सागारसंवन्धि-गृहस्थसंवन्धि मा भवतु गृहस्था इदं मृतकशरीरं मा स्पृशन्तु 'इति कट्ट' इति कृत्वा-इति बुद्धया
स्य. २३
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८
'थंडिले' स्थण्डिले - एकान्तभूमिरूपे, कीदृशे ? इत्याह- 'बहुफानुए' बहुप्रासुके-द्वीन्द्रियादिजीवविवर्जिते 'पडिले हित्ता' तत्स्थण्डिलं प्रतिलेख्य - प्रत्युपेक्ष्य द्वीन्द्रियादिप्राणिवर्जितं सम्यगवलोक्य ततः 'पमज्जित्ता' प्रमार्ण्य - प्रमार्जनं कृत्वा तत्स्थानात् द्वीन्द्रियादिकं पृथक् कृत्वा, 'परिट्ठवित्तए' परिस्थापयितुम् साधूनां साधर्मिकस्य मृतस्य संयतस्य शरीरं गृहस्था मा स्पृशन्तु इति बुद्धया द्वीन्द्रियादिजीवविवर्जितप्रदेशे प्रतिलेखनप्रमार्जनं कृत्वा तत् शरीरं परिष्ठापयितुं कल्पते इत्यर्थः । परिष्ठापनानन्तरम् 'अस्थि य इत्थ केइ साहम्मियसंतिए उवगरणजाए परिहरणारिहे' अस्ति चात्र किञ्चित् सावर्मिक सत्कमुपकरणजातं परिहरणाहम्, अस्ति - विद्यते चात्र मृतसाधुशरीरसमीपे किञ्चित् साधर्मिकसंयत सबन्धि - उपकरणजातं भण्डोपकरणादिकं परिहरणार्है-परिभोगार्हम् उपभोगयोग्यं भवेत्तदा ' कप्पर से सागारकडं गहाय' कल्पते 'से' तस्य सागारकृतं गृहीत्वा तत्र - सागारकृतं नाम नात्मना स्वीकरोति किन्तु आचार्य सम्बन्धि एतत् आचार्य एव तस्य ज्ञायकः, एवमवग्रहपूर्वकं गृहीत्वाऽऽचार्याणां समर्पयेत्, आचार्यों यदि यस्मै कस्मैचिदद्यात् तदा सः 'मत्थएण वन्दामि तहचि' इति बुवाणः आचार्यवचः स्वीकुर्यात् गृहीते सति 'दोच्चंपि ओग्गहं अणुण्णवेत्ता' द्वितीयमपि वारम् अवग्रहम्-आज्ञां भण्डोपकरणाद्युपभोगार्थमनुज्ञाप्य - गृहीत्वा 'परिहारं परिहरिचए' परिहारं परिहर्त्तुम्-आचार्यानुज्ञापनानन्तरमुपभोगयोग्यं वस्तु आचार्य प्रदत्तमुपभोक्तुं कल्पते परिहर्त्तुमिति त्यागानुज्ञायां त्यक्तुं कल्पते, अन्यस्मै दातुं परिष्ठापयितुं वा कल्पते ।। सू० २१॥ अवक्रयविक्रयविषयमधिकृत्य शय्यातरविधि प्रदर्शयितुमाह
व्यवहारस्
सम्प्रति- उपाश्रयस्य 'सागारिए' इत्यादि ।
सूत्रम् - सागारिए उस्सयं वक्कएणं पउंजेज्जा, से य वक्कइयं वएज्जा इमम्मिय इमम्मिय ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसंति से सागारिए परिहारिए, से य नो वएज्जा चकइए वएज्जा से सागारिए परिहारिए, दोवि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया ॥ सू० २२ ॥
छाया-- सागारिकः उपाश्रयमवक्रयेण प्रयुञ्जीतः स चाऽवक्रयिकं वदेत्-अस्मिंश्च अस्मिश्च अवकाशे श्रमणा निर्ग्रन्थाः परिवसन्ति, स सागारिकः परिहार्य्यः, स च नो वदेत् अवक्रयिको वदेत् स सागारिकः परिहार्य्यः, द्वावपि तौ वदेयाताम् द्वावपि सागारिकौ परिहाय्य ॥ सू० २२॥
भाष्यम् – 'सागारिए' सागारिकः उपाश्रयस्वामी 'उवस्तयं' उपाश्रयम् - वसतिम् 'वक्कणं' अवक्रयेण कियत्कालमवक्रयेण - भाटकप्रदानेन 'पउंजेज्जा' प्रयुञ्जीत - व्यापारयेत्,
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०७ सू० २२-२३
शय्यातराऽशय्यातरपरिज्ञानविधिः १७९ श्रावको भाटकप्रदानपूर्वकमन्यस्मै उपाश्रयं दद्यात् इत्यर्थः, 'से य वक्कइयं वएज्जा' स च सागारिकः, अवक्रयिक भाटकेनोपाश्रयप्रतिग्राहिणं वदेत् उपाश्रयग्रहणसमये कथयेत् । किं वदेत् ! तत्राह-'इमम्मि' इत्यादि, 'इमंमि य इमंमि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसति' अस्मिंश्च अस्मिंश्च अवकाशे-उपाश्रयस्याऽमुकामुकप्रदेशे श्रमणा निम्रन्थाः परिवसन्ति-निवासं कुर्वन्ति, स सागारिकः यस्मै भाटकग्रहणाय उपाश्रयं ददाति, तं प्रति उपाश्रयप्रदानसमये एवं वदेत्-यदहं तुभ्यं भाटकप्रदानपूर्वकमुपाश्रयं ददामि किन्तु उपाश्रयस्याऽमुकप्रदेशे साघवो वसन्ति अतस्तं प्रदेशं विहायोपाश्रयं ददामीति । तस्मात् साधुस्थितिकमुपाश्रयस्य प्रदेशं विहायाऽवशिष्ट एवोपाश्रयस्य प्रदेशो भाटकप्रदानपूर्वकं त्वया ग्रहीतव्यः 'से सागारिए परिहारिए' एवमुक्के स सागारिकः परिहार्य.-परिहर्त्तव्यः । उपाश्रयं भाटकप्रदानपूर्वकं ददतः शय्यातरस्य गृहात् साधुभिर्भक्तपानादिकं न ग्रहीतव्यमित्यर्थः । 'से य नो वएज्जा वक्कइए वएज्जा' कदाचित् स चोपाश्रयस्वामी नो वदेत् अवक्रयिक एव-भाटकेनोपाश्रयग्रहीतैव वदेत् , यथा-अस्मिंश्च अस्मिंश्चावकाशे श्रमणा निवासं कुर्वन्तु, 'से सागारिए परिहारिए' स सागारिकः-सोऽवक्रयिकः सागारिकः शय्यातर इति परिहार्यः -परिहर्त्तव्यः, तद्गृहादपि भक्तपानादिकं साधुभिन ग्रहोतव्यमिति । 'दोवि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया' द्वावपि तौ वदेयाताम् , द्वावपि सागारिको परिहार्यो । अथ द्वावपि भाटकदाता भाटकेन प्रतिग्रहीता च वदेयाताम् प्रथममुपाश्रयस्वामी वदेत्-एतावति उपाश्रयस्याऽवकाशे श्रमणा निम्रन्थाः स्थास्यन्तीति, पश्चादवक्रयिको ब्रूयात्-एतावति प्रदेशे श्रमणा निर्ग्रन्थास्तिष्ठन्तु न मे काऽपि हानिः, एवं यदि तौ द्वावपि वदेयाताम् तदा तौ द्वावपि सागारिको शय्यातरौ इति द्वावपि परिहाय्यौ', तयोर्द्वयोरपि गृहात्साधुभिर्भक्तपानादिकं न ग्रहीतव्यमिति ।
यदि-शय्यातरो भाटकेनोपाश्रयं कस्मैचिद्ददाति तथा प्रदान समये कथयेत-यामहं ददामि वसतिम् , तस्या वसतेरमुकाऽमुकप्रदेशे श्रमणा निर्ग्रन्थाः परिवसन्ति, अतस्ततत्प्रदेशं परित्यज्योपाश्रयस्य प्रदेशान्तरमेव त्वया ग्रहीतव्यम् , इत्थं कथयतः शय्यातरस्य भक्तपानादिकं श्रमणैन ग्रहीतव्यम् । यदि शय्यातरः सम्पूर्णमेवोपाश्रयं भाटकेन दद्यात् अतोऽमुकप्रदेशे श्रमणा स्तिष्ठन्तीति वक्तुं न पारयेत्-कथयितुं न शक्नुयात् , किन्तु-यो भाटकेन गृह्णाति स एव वदेत्- यदमुकाऽमुकप्रदेशे श्रमणा निग्रन्थास्तिष्ठन्तु, तदा स भाटकेन उपाश्रयप्रतिग्रहीता शय्यातर इति तस्याऽपि भक्तपानादिकं ग्रहीतुं साधूनां न कल्पते । यदि उपाश्रयस्याधिपतिः भाटकेन ग्रहीता च उभावपि वदेयाताम् तत्र प्रथमो वदेत्-अमुकप्रदेशे श्रमणा निग्रन्थाः स्थास्यन्तीति, उपाश्रयग्रहीताऽपि वदेत्-यदुपाश्रयस्याऽमुम्मिन् अवकाशे
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र श्रमणा निर्ग्रन्थास्तिष्ठन्तु तदोभावपि शय्यातरौ इति द्वयोरपि तयोर्भक्तपानादिकं साधुभिर्न ग्रहीतव्यमिति भावः ॥ सू० २२ ॥
सूत्रम्-सागारिए उवस्सयं विक्किणिज्जा से य कइयं वएज्जा इममि य इमंमि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसंति, से य सागारिए परिहारिए, से य नो वएज्जा कइए वएज्जा से सागारिए परिहारिए, दोवि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया ॥ सू० २३॥
छाया- सागारिक उपाश्रय विक्रीणीत, स च क्रयिकं वदेत्-अस्मिश्च अस्मिंश्च अवकाशे श्रमणा निर्ग्रन्थाः परिवसन्ति, स च सागारिकः परिहार्यः, स च नो वदेत् , अवक्रयिको वदेत् स सागारिकः परिहार्यः, द्वावपि तो वदेयाताम् द्वावपि सागारिको परिहाय्यौँ। सू० २३।।
भाष्यम्-'सागारिए' सागारिकः शय्यातर. 'उवस्सयं' उपाश्रय--वसतिम् 'विक्किणिज्जा' विक्रीणीत-उपाश्रयस्य विक्रयं कुर्यात् मूल्येन दद्यादित्यर्थः तस्योपाश्रयस्य यावन्मूल्यं तद् गृहीत्वा तमुपाश्रायं मूल्यदात्रे दद्यात् , 'से य कइयं वएजा' स च क्रयिकं वदेत् स चोपाश्रयस्य विक्रेता सागारिकः यो मूल्यं दत्वा उपाश्रयं गृह्णाति तं प्रति वदेत्-'इममि य इमंमि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसंति' त्वया मूल्येन गृहीतस्यास्योपाश्रयस्य अस्मिंश्चास्मिंश्च अवकाशे श्रमणा निर्ग्रन्थाः परिवसन्ति-अस्योपाश्रयस्यामुकप्रदेशे साधवत्तिष्ठन्ति, अतस्तादृशं देशं परित्यज्योपाश्रयं मवते ददामि, 'से य सागारिए परिहारिए' स च सागारिकः शय्यातरः इति शय्यातरत्वात् स परिहार्यः-परिहर्त्तव्यः भक्तपानादिकं गृहद्भिः तस्य प्रतिषेधः कार्यः । 'से य नो वएज्जा' स च-पूर्वस्वामी यदि किञ्चिदपि न वदेत् किन्तु 'कइए वएज्जा' क्रयिक:-यो मूल्यं दत्त्वा उपाश्रयं गृह्णाति स एव वदेत्-यथा-अस्योपाश्रयस्याऽमुकप्रदेशे मक्रीतेऽपि श्रमणा निर्ग्रन्थाः यथासुखं तिष्ठन्तु, तदा-'से सागारिए परिहारिए' स च क्रेता सागारिकः शय्यातर इति कृत्वा परिहार्यः-परिहर्त्तव्यः, तद्गृहं भक्तपानाद्यथै परिवर्जनीयमिति । 'दोवि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया' अथवा द्वावपि तौ पूर्वप्रकारेण वदेयाताम् तदा द्वावपि सागारिको शय्यातरौ परिहार्यो-परिहर्त्तव्यौ । अथ यदि द्वावपि वदेयाताम्-यथा पूर्वस्वामिना कथितम्'एतावत्येकदेशे श्रमणा निर्ग्रन्थास्तिष्ठन्तु' परन्तु तावति प्रदेशे श्रमणानां समावेशमदृष्ट्वा मूल्येन ग्रहीता वदेत्-एतावति मदीयेऽपि प्रदेशे तिष्ठन्तु श्रमणा निर्ग्रन्थाः, तदा द्वावपि सागारिकोशय्यातरौ इति तौ द्वावपि परिहार्यो-परिहर्त्तव्यो, तद्गृहेभ्यो भक्तपानादिकं कदाचिदपि न ग्राह्यम् ॥ सू० २३ ॥
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाज्यमें उ० ७ सू० २५-२६
वसतिवासावग्रहानुज्ञापनाविधिः १८१ पूर्वमुपाश्रयमधिकृत्य शय्यातरविधिः प्रदर्शितः, साम्प्रतमुपाश्रयस्याऽवग्रहविधिमाह'विहवधूया' इत्यादि ।
सूत्रम्--विहवधूया नायकुलवासिणी सावि यावि ओग्गहं अणुन्नवेयव्वा किमंग! पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा सेवि यावि ओग्गहं ओगिहियव्वे ॥ सू० २४ ॥
छाया-विधवदुहिता ज्ञातकुलवासिनी साऽपि चापि अवग्रहमनुज्ञापयितव्या किम? पुनः पिता वा भ्राता वा पुत्रो वा सोऽपि चापि अवग्रहमवग्रहीतव्यः ॥ सू०२४॥
भाष्यम्-विवधूया' विधवदुहिता तत्र विगतः घवः पतिर्यस्याः सा विधवापतिरहिता, दहिता-उपाश्रयस्वामिनः कन्या, कीदृशीत्याह-'नायकुलवासिणी' ज्ञातकुलवासिनीपतिपक्षरहितत्वेन पितृगृहवासिनी पितृपक्षवासिनी पितृपितामहादिगृहवासिनी वा 'सावि यावि ओग्ग अणुन्नवेयव्या' साऽपि चापि-साऽपि चावग्रहमनुज्ञापयितव्या-अवग्रहम्-आज्ञा प्रति अनुज्ञापयितव्या-आज्ञाग्रहणयोग्या भवति, साधुभिर्वासाय एषाऽपि प्रष्टव्येत्यर्थः, एतस्या अनुजामादाय उपाश्रये वासः करणीयो न त्वाज्ञामन्तरेण निवसेदितिभावः । यदि पितृगृहस्थिता विधवाऽपि आज्ञाग्रहणार्थ योग्या भवति तर्हि--'किमंग ! पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा' किमङ्ग पुनः पिता वा भ्राता वा पुत्रो वा, 'सेवि यावि' सोऽपि च सुतराम् 'ओग्गई ओगेण्डियन्वे' अवग्रहमवग्रहीतव्यः। यदि विधवा दुहिता स्थानार्थमनुज्ञापयितव्या भवेत्तदा का कथा पितृभ्रातूपुत्रा दीनाम् , अतस्ते सर्वेऽपि निवासार्थमनुज्ञापयितव्याः। तत्र पुत्रादयो द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः प्रभवः सत्ताधारिण, अप्रभवः--सत्तावर्जिताः, तत्राऽप्रभव एते-गृहीतभागः पृथग्भूतो भ्राता १, पत्रो वा २, प्राधूर्णकः ३, दासः ४, भृतकः ५, जामात्रे दत्ता पितृपक्षद्विष्टा कन्या च ६, एते निस्सत्ताका अप्रभवो नानुज्ञापनीयाः, एतेषामुपाश्रयाज्ञा न ग्रहीतव्या श्रमणैरिति भावः । अथ च-अप्रभूणामनुज्ञापने सम्भवन्त्येते दोषाः, तथाहि-अप्रभूननुज्ञाप्य यदि कुत्रचित् उपाश्रये गृहे वा श्रमणः स्थास्यति तदा--यदा गृहस्वामी आगमिष्यति, अथ यदि तस्य साधुनिवासो नानुमतो भवेत् तदा स गृहस्वामी दिवा रात्रौ वा उपाश्रयात् श्रमणान्निष्कासयेत् । तत्र-निष्काशने लोके महती निन्दा स्यात् , कथयिष्यन्ति च लोकाः यत् इमे साधवी दुष्टाः अशुभकर्मकारिणः सन्तीति प्रतिभाति, अत एव अमुकेन श्रावकेन स्वोपाश्रयान्निष्का-- सिता इति, कदाचित् स्थानान्तरमलभमानानामकिञ्चनानामिव यत्र तत्र परिभ्रमणं स्यात, इत्यादिवहवो दोषाः संभवेयुः। तथा-अद तादानदोषोऽपि स्यात्, तेनाऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषा अपि समापतेयुः, तस्मात् गृहस्वामिनो वा तन्निर्दिष्टाद्वा वसतेराज्ञा ग्रहीतव्येति भावः ॥ सू० २४ ॥ .
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र
पूर्वं चतुर्विशतितमसूत्रे नगरे वसता श्रमणेनाऽवग्रहयाचना कर्तव्येति कथितम् स च श्रमणो यथानगरे तिष्ठति तथा विहारं कुर्वन् श्रमणः कदाचिदटव्यामपि वसेदिति वनेऽपि तिष्ठता श्रमणेन तत्रापि अवग्रहयाचना कर्त्तव्येति दर्शयितुं पञ्चविशतितमं सूत्रं व्याख्यातुमाह–'पहेवि ओग्गई इत्यादि ।
सूत्रम्-पहेवि ओग्गहं अणुन्नवेयव्वे ॥ सू० २५ ॥ छाया-पथि अपि अवग्रहमनुज्ञापयितव्यः ।। सू० २५॥
भाष्यम्-पथि अपि, तत्र पथि-मार्गे अपिशब्दाद् वृक्षाद्यधः मटव्यादौ च 'ओग्ग' अवग्रहम्-निवासार्थमात्मनो निवासविषयकं याचनं प्रति कोऽपि वृक्षादिस्वामी भवेत् सः 'अणुन्नयन्त्रे' अनुज्ञापयितव्यः, तत्सकाशान्निवासविषयाज्ञा ग्रहीतव्येति भावः । मार्गे यत्र वृक्षादौ छायायां विश्राम्यन्तो ये यत्र पथिकाः प्रथमं स्थितास्तिष्ठन्ति तानपि पृष्ट्वा तत्र श्रमणस्तिष्ठेत्, अपृष्ट्वा तु तत्रापि न स्थातव्यम् । यत्र ते सागारिका वसेयुर्वृक्षादिमूले ते तु सुतरामेव अनुज्ञापयितव्याः, ततो भवन्ति ते शय्यातराः । यत्र वृक्षस्याऽधस्तात् अन्यत्र वा एकस्य परिग्रहे अनेकेषां वा परिग्रहे साधवो रात्रौ वसन्ति तर्हि यदिसंस्तरेयुस्तदा सर्वानेव तान् शय्यातरान् कुयुः अथाहाराद्यलाभेन न संस्तरेयुस्तदा तन्मध्ये एक एव शय्यातरत्वेन स्थापयितव्यः, इत्येषा शेषेषु सागारिकेषु भजनेति ॥ सू० २५ ॥
पूर्व शय्यातरावग्रहानुज्ञापनाविधिरुक्तः, सम्प्रति राजपरावर्तेऽवग्रहानुज्ञापनाविधिमाह-'से रज्जपरिपपट्टेसु' इत्यादि ।
सूत्रम्-से रज्जपरिपट्टेसु संथडेसु अव्योगडेसु अवोच्छिन्नेसु अपरपरिग्गहिएमु सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुन्नवणा चिट्ठइ अहालंदमवि ओग्गहे ॥ सू० २६ ॥
छाया-तस्य राजपरावर्तेषु संस्तृतेषु अव्याकृतेषु अव्यवच्छिन्नेषु अपरपरिगृहीतेषु सैवाऽवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना यथालन्दनमपि अवग्रहः ॥ सू० २६ ॥
भाष्यम्-'से रज्जपरिपट्टेसु' 'से' तस्य श्रमणस्य राजपरावर्तेषु राज्ञः परावर्त्तने जाते सति, तत्र-राजपरावतॊ नाम पूर्व यो राजा शासनं कुर्वन्नासीत् स राजा कालगतोऽभूत् नवीनश्च राजा तस्मिन् स्थानेऽभिषिक्तः, तेषु राजपरावर्तेषु । पुन. कथम्भूतेषु ! तत्राह-'संथडेसु' संस्तृतेपु-सम्यग्रूपेण समर्थेषु-न कोऽपि प्रत्यन्तरराजा तदीयराज्यं विलुम्पितुं शक्नोति ताहशेषु सामर्थ्यवत्सु । पुनः कथम्भूतेषु राजपरावर्तेषु ? 'अबोगडेसु' अव्याकृतेषु-व्याकृतरहितेषु येषां दायादानां तदाज्यसामान्यं तैयादैरविभक्तेपु दायादभागवर्जितेषु । पुनः कथम्भू. तेपु राजपरावत्तेपु ? तत्राह-'अवोच्छिन्नेसु'अव्यवच्छिन्नेषु-वंशपरम्परागतं तदाज्यमद्यावधि न'
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
राज्यपरावर्त्तऽवग्रहानुज्ञापनाविधिः १८३
वष्यम् उ० ७ सू० २७
-न
व्यवच्छिन्नं परम्परागतमेव वर्तते तादृशेषु, अत एव 'अपरपरिग्ाहिएसु' अपरपरिगृहीतेषु - रेण केनापि राज्ञा परिगृहीतेषु राजपरावर्त्तेषु 'सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वणुन्नवणा' सा एव वग्रहस्याऽनुज्ञापना या पूर्वराज्ञः सकाशाद् गृहीता - अनुज्ञापना कृता सैवाऽवग्रहस्याऽनुज्ञाबना तिष्ठति । कियन्तं कालं सैव पूर्वाऽनुज्ञापना तिष्ठति ? तत्राह - 'अहालंदमवि ओग्गहे' कालवाचकस्तेन यावन्तं कालं स राजवंशोऽनुवर्त्तते यथालन्दमप्यवग्रहः, लन्दशब्दोऽत्र नावन्तं कालम्, अथवा यावत्कालं श्रमणस्तत्र तिष्ठेत् तावत्कालपर्यन्तमपि अवग्रहे पूर्वराजाऽवग्रहे सैव पूर्वाऽनुज्ञापना वर्त्तते, न पुनरस्मिन् राज्ञि सिंहासने उपविष्टे स भूयोऽपि अवग्रहं प्रति अनुज्ञापयितव्य. । साधुः साध्वी वा पूर्वराजा कालगतः, द्वितीयो राज्येऽभिषिक्तः अनेन प्रकारेण राज्ये परिवर्तनं जातम् परन्तु सम्प्रति-तस्मिन् देशे प्रथमस्य राज्ञ आज्ञा न गता, दायादेषु विभागो न जातः वंशपरम्परागतस्य राज्ञो विच्छेदो न जातः, वंशपरम्परागत एव तत्राभिषिक्तः, प्रत्यन्तरराजन्येन केनापि राज्यं न परिगृहीतम् तावत्कालपर्यन्तं पूर्वराज्ञ एव अवग्रहानुज्ञप स्थातव्यं श्रमणैरिति भावार्थः ॥ सू० २६ ॥
अथ पूर्वोक्तस्य विपर्यये सूत्रमाह - ' से रज्जपरियट्टेसु' इयादि ।
सूत्रम् - से रज्जपरियट्टे असंथडेसु वोगडेसु वोच्छिन्नेसु परपरिग्गहिए भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चंपि ओग्गहे अणुम्नवेयव्वे सिया || सू० २७ ॥ ॥ ववहारे सत्तमो उद्देसो ||७||
छाया - तस्य राजपरावर्त्तेषु असंस्तृतेषु व्याकृतेषु व्यवच्छिन्नेषु परपरिगृहीतेषु भिक्षुभावार्थाय द्वितीयमपि अवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः स्यात् ।। सू० २७ ॥ ॥ व्यवहारे सप्तम उद्देशः ||७||
भाष्यम् – ' से रज्जपरियट्ठेसु' 'से' तस्य श्रमणस्य राजपरावर्त्तेषु यत्र पूर्वराज्ञः परिवर्त्तनं जातम् पूर्वराज्ञि कालंगते सति तत्रापरो राजाऽभिषिक्तस्तद्देशेषु 'असंथडे' असंस्तृतेषु असमर्थेषु - अपरराजाऽऽक्रमणनिवारणार्थमशक्तेषु, कोऽप्यन्यो राजा तत्रागत्य तद्राज्यं विलु - म्पितुं शक्नोति तादृशेषु त्रुटितपूर्व राज्य संस्थितिष्वित्यर्थः 'वोगडेसु' व्याकृतेषु - विकृतिं प्राप्तेषु अन्यवंशीयैर्दायादैव विभज्य स्वायत्तीकृतेषु 'वोच्छिन्नेसु' व्यवच्छिन्नेषु - व्यपगतेषु पूर्ववंशीयराजश|सनेषु, अतएव 'परपरिग्गहिएसु' परपरिगृहीतेपु, परेण प्रत्यन्तरराज्ञा स्वाघीनीकृतेषु 'भिक्खुभावस्स अड्डाए' भिक्षुभावस्याऽर्थाय तत्र भिक्षोः - श्रमणस्य भावः-ज्ञानदर्शन—चारित्ररूपः, तस्याऽर्थाय प्रयोजनायय थाऽवस्थितभिक्षुभावसंपादनायेत्यर्थः ' मम भिक्षुभावो मा स्खण्डितो भूयात् परिपूर्णो भवतु तदर्थ' मिति, अथवा भिक्षुभावोऽचौर्याख्यं तृतीयं व्रतं तस्याऽर्थाय - अचौर्यत्रतपरिरक्षायै 'दोच्चपि द्वितीयमपि वारम्, एकवारं पूर्वराजसमीपे अवग्रहस्याऽनुज्ञापना
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
व्यवहारसूत्र
ww
कृताऽऽसीत् , राजपरावर्ते जाते द्वितीयमपि वारम्-तत्सिंहासनासीनराजसमीपे 'ओग्गहे अणुन्नवेयत्वे सिया' अवग्रहः--अनुज्ञापयितव्यः स्यात् , तादृशपरिस्थितिसद्भावे द्वितीयमपि वारमवनहस्याऽनुज्ञापना कर्त्तव्येति भावः । यत्र प्रदेशे पूर्वराजा कालं गतः तस्य पूर्वावस्थितस्य राज्ञो राज्यस्थितिरपि परावृत्ता दायादैविभागोऽपि कृतः, अन्येन वा केनचित् राज्ञा तदासनं समासादितं तादृशेषु राजपरावर्तेषु द्वितीयमपि वारं श्रमणैः स्वकीयभावस्य ज्ञान-दर्शन-चरित्ररूपस्याऽचौर्यव्रतस्य च रक्षार्थमवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः, अन्यथा अदत्तादानदोषः समापद्यतेति भावार्थः । एवं द्वितीयमपि वारम् अनुग्रहाऽननुज्ञापनायामात्मविराधना संयमविराधना च संभवति, यथा-स नूतनो राजा निर्विषयत्वं कुर्यात् , जीवनस्य भेदं वा कुर्यादित्याद्यात्मविराधनासंभवः, संयमविराधना चाज्ञाभङ्गादिरूपेति तस्मात् यत्र स्थिरो जातः स एव पुनरनुज्ञापयितव्य. ॥ सू० २७ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचिताया व्यवहारसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायां सप्तम उद्देशः समाप्तः ॥७॥
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथ अष्टमोद्देशकः ॥ व्याख्यातः सप्तमोद्देशकः, अथाष्टमः प्रारभ्यते, अस्य सप्तमोद्देशकेन सह कः सम्बन्धः ! इति सम्बन्धप्रतिपादनार्थमाह भाष्यकारः-'पुव्वं चरमे' इत्यादि । गाथा-पुव्वं चरमे रणो, ओग्गहऽणुण्णावणा तो पच्छा ।
संथारग कायव्वं, किज्जइ इह वण्णणं तस्स ॥१॥ छाया-पूर्व चरमे राज्ञः अवग्रहानुशापना ततः पश्चात् ।
संस्तारकं कर्त्तव्यम्, क्रियते इह वर्णनं तस्य ॥ १ ॥ व्याख्या-'पुन्छ' इति । पूर्व सप्तमोद्देशके चरमे-चरमसूत्रे सप्तमोद्देशकस्याऽन्तिमे सूत्र 'रण्णो' राज्ञः अवग्रहानुज्ञापना-वसतिवासार्थमाज्ञामार्गणा कथितेति शेषः 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् तदनन्तरं 'संथारग' लुप्तविभक्तिकमिदंपदं तेन संस्तारकं पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् शय्यासंस्तारकं शय्या च संस्तारकश्चेति समाहारे तत् कर्त्तव्यं भवेदिति । इह-अस्मिन् अष्टमोद्देशकस्यादिसूत्रे तस्य शय्यासस्तारकस्य वर्णनं क्रियते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्याऽस्याष्टमोदेशकस्येदमादिम सूत्रम्-'गाहा' इत्यादि ।।
सत्रम-गाहा उ पज्जोसविए ताए गाहाए ताए पएसाए ताए ओवासंतराए जमिणं जमिणं सेज्जासंथारगं लभेज्जा तमिणं तमिणं ममेव सिया, थेरा य से अणुजाणेज्जा तस्सेव सिया, थेरा य से नो अणुजाणेज्जा एवं से कप्पइ अहारायणियाए सेज्जासंथारगं पडिगाहेत्तए ॥ सू० १॥
छाया-गाथायाम् ऋतौ पर्युषितः तस्यां गाथायां तस्मिन् प्रदेशे, तस्मिन् अबकाशान्तरे यदिदं यदिदं शय्यासंस्तारकं लमेत तदिदं तदिदं ममैव स्यात्, स्थविराश्च तस्याऽनुजानीयुः तस्यैव स्यात् , स्थविराश्च तस्य नो अनुजानीयुः एवं तस्य कल्पते यथारात्निकतया शय्यासंस्तारकं परिग्रहीतुम् ॥ सू०१॥
भाष्यम्-'गाहा' गाथा, गाथाशब्दोऽत्र गृद्ववाचकः 'गाथापतिः-गृहपति'रिति सर्वत्र लम्यमानत्वात् , तेन गाथा-गृहं यदवग्रहेण प्राप्तम् , गृहस्य त्रिविघोऽवग्रहो भवति, तथाहि-ऋतुबद्धसाधर्मिकावग्रहः १, वर्षावाससाघर्मिकावग्रहः २, वृद्धावाससाधर्मिकावग्रहश्च ३ इति । तत्र 'उउ' ऋतौ ऋतुबद्धे काले, वर्षावासातिरिक्ते हेमन्तग्रीष्मरूपे, उपलक्षणाद् वर्षाकाले वृद्धावासे वा 'पज्जोवसिए' पर्युषितः-निवसित इति गाथायाम् ऋतौ पर्युषितः 'ताए गाहाए' तस्यां गाथायां
न्य. २१
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६
ग्यवहारसूत्रे यस्मिन् गृहे ऋतुबद्धेकाले निवसति तस्मिन् गृहे 'ताए पएसाए' तस्मिन् प्रदेशे यस्मिन् गृहप्रदेशे तिष्ठति तस्मिन् प्रदेशे-अन्तर्वहिरादिलक्षणे 'ताए ओवासंतराए' तस्मिन् अवकाशान्तरे-द्वयोर्मध्यभागलक्षणे 'जमिणं जमिणं सेज्जासंथारगं लभेज्जा' यदिदं यदिदं शय्यासंस्तारकम्-शय्या च संस्तारकश्चेति समाहारे शय्यासंस्तारकम् यद् यत् शयनोपयोगि स्थानं मदभिलषितं लभेत-प्राप्नुयात् 'तमिणं तमिणं ममेव सिया' तदिदं तदिदं सर्वं ममैव स्यात्भवतु, इति व्रते श्रमणस्तदा यदि 'थेरा य से अणुजाणेज्जा' स्थविराश्च गच्छनायका आचार्याः तस्याशठभावम् अवगम्य, अशठेभावो नाम-मम श्लेष्मा प्रस्पन्दते स्वपतो मम श्लेप्माधिक्यं जायते अतो निर्वातस्थानमनुजानीत, अथवा अमुकं साधुमहं सदैव प्रतिपृच्छामि तत एतत्पाश्र्वे मम शल्यासंस्तारकभूमि यूयमनुजानीत, इत्यादिविषये तस्य ऋजुभावं ज्ञात्वा 'अणुजाणेज्जा' अनुजानीयुः-आज्ञां दद्यः, यथा-'यदिदं यदिदं त्वया लब्धं तत्सर्व शय्यासंस्तारकं तवैव भवतु' तदा तत्सर्व शय्यासंस्तारकम् 'तस्सेव सिया' तस्यैव-यो हि श्रमण एवं ब्रूते-ममेदं सर्व तस्यैव तत् शय्यासस्तारकं स्यात्-भवेत् । अथ यदि कदाचित् याचकस्य श्रमणस्य पूर्वोक्तविषये शठभावो लक्ष्यते तदा 'थेरा य से णो अणुजाणेज्जा' स्थविराश्च तस्य श्रमणस्य शठभावेन कथनात् नो अनुजानीयुः-नाज्ञां दधुः तदा ‘एवं से कप्पइ अहारायणियाए' एवम् स्थविराज्ञाया अभावे तस्य कल्पते यथारानिकतया .रत्नाधिकमर्यादया यल्लभ्यते तत् 'सेज्जासंथारगं पडिग्गाहित्तए' शय्यासंस्तारकं प्रतिग्रहीतुम्-स्वीकत्तुं कल्पते, न तत्रेतस्ततः कर्त्तव्यमिति भावः । ऋतुवद्धे काले वर्षाकाले वा गृहे वसन् साधुः तत्र गृहे तत्प्रदेशे तदवकाशान्तरे वा यद् यत् शय्यासंस्तारकं लभते तत्तत् सर्व स्थविरानुज्ञयैव लघुज्येष्ठादिमर्यादया प्रतिग्रहीतुं कल्पते न तु स्वेच्छयेति तात्पर्यम् ॥ सू० १॥
पूर्व शय्यासंस्तारकस्थानविघिरुक्तः, सम्प्रति शय्यासंस्तारकगवेषणविधिमाह-'से य' इत्यादि ।
सूत्रम्-से य अहालहुस्सगं सेज्जासंधारगं गवेसेज्जा जं चक्किया एगेणं हत्थेणं ओगिज्झ जाव एगाई वा दुयाहं वा तियाई वा परिवहित्तए एस मे हेमंतगिम्हासु भविस्सइ ॥ सू० २॥
छाया--स च यथालघुस्वकं शय्यासंस्तारकं गवेषयेत् यत् शक्नुयात् एकेन हस्तेनाऽवगृह्य यावदेकाहं वा द्वयह वा व्यहं वा अध्वानं परिवोढुम् , एतन्मे हेमन्त-- ग्रीष्मेषु भविष्यति ॥ सू० २॥
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ८ सू०२-५
अस्पभारशय्यासंस्तारकग्रहणविधिः १८७ भाष्यम्-'से य' स च भिक्षुः 'अहालहुस्सगं' यथालघुस्वकम्-एकान्ततो लघुकमिति यथालघुस्वकम् अत्यन्ताऽल्पभारमित्यर्थः 'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकम् तत्र शय्या शरीरप्रमाणा संस्तारकः सार्घतृतीयहस्तप्रमाणकः, उभयोः समाहारे शय्यासंस्तारकं तत् 'गवेसेज्जा' गवेषयेत् , कीदृशं यथालघुस्वकम्-'जं चक्किया एगेण हत्थेण ओगिज्झ' यत्-यादृशं शय्यासंस्तारकं शक्नुयात्-समर्थो भवेत् एकेन हस्तेनाऽवगृह्य-गृहीत्वा 'जाव एगाहं वा दयाहं वा तियाहं वा' यावदेकाहम्-एकविश्रामपर्यन्तम्, द्वयहम्-द्विविश्रामम् त्र्यहम्त्रिविश्रामं यावत. 'अद्धाणं परिवहिचए' अध्वानम्-मार्ग परिवोढुं शक्नुयात् । 'अहन्'शब्दोऽत्र विश्रामवाचकः आहारशय्यासंस्तारकादेः क्रोशद्वयादुपरि नयनस्य शास्त्रे प्रतिष्ठिद्धत्वादिति । किमर्थमेवं कुर्यात् ! तत्राह-'एस मे हेमंतगिम्हासु भविस्सइ' एतन्मे शयासंस्तारकं हेमन्तग्रीष्मेषु-हेमन्तग्रीष्ममासेषु उपयोगि भविष्यति ॥ सू० २ ॥
एतदेव वर्षावासमधिकृत्याऽऽह ‘से य' इत्यादि ।
सूत्रम-से य अहालहुस्सगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा जं चक्किया एगेण हत्थेण ओगिज्झ जाव एगाई वा दुयाह वा तियाहं वा अद्धाणं परिवहित्तए, एस मे वासावासासु भविस्सइ ॥ सू०३॥
छाया-स च यथालघुस्वकं शय्यासंस्तारकं गवेषयेत् यत् शक्नुयात् एकेन.. हस्तेनाऽवगृह्य यावत् एकाहं वा यह वा त्र्यहं वा अध्वानं परिवोढुम्, पतन्मे वर्षावासेषु भविष्यति ॥ सू० ३॥
भाष्यम्-‘से य स च भिक्षुः 'अहालहुस्सगं' यथालधुस्वकम् एकान्ततो लघुकम्, इत्यादि सर्व पूर्वसूत्रवदेव व्याख्येयम् , नवरम्-अयं विशेषः-'एस मे वासावासासु भविस्सई' एतत् शय्यासंस्तारकं मे-मम वर्षावासेषु-वर्षाकालिकमासेषु उपयोगि भविष्यतीति । सू० ३ ॥
एतदेव पुनः वृद्धावासमधिकृत्याऽऽह–'से य' इत्यादि ।
सूत्रम्-से य अहालहुस्सगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा जं चक्किया एगेण हत्येणं ओगिज्झ जाव एगाई वा दुयाह वा तियाहं वा चउयाह वा पंचाहं वा दूरमवि अद्धाणं परिवहित्तए, एस मे वुड्ढावासेसु भविस्सइ ।। सू० ४॥
छाया-स च यथालघुस्वकं शय्यासंस्तारकं गवेषयेत् यत् शक्नुयात् एकेन हस्तेन अवगृह्य यावदेकाहं वा द्वयहं वा व्यहं वा चतुरह वा पञ्चाहं वा दूरमपि अध्वानं परियोदुम् , एष मे वृद्धावासेषु भविष्यति ।। सू० ४॥
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८
व्यवहारस्त्रे भाष्यम्-'से य' स च श्रमणः 'अहालहुस्सग' यथालघुस्वकम् , इत्यादि सर्व द्वितीय सूत्रवदेव व्याख्येम् , विशेषोऽत्रायम्-यत्पूर्वसूत्रद्वये त्र्यहं यावद् वहनं प्रतिपादितम् , अत्र तु-'एगाई वा दुयाहं वा तियाहं वा चउयाहं वा पंचाहं वा' इति एकदिवसादारभ्य पञ्चदिवसान् यावत् , पञ्च विश्रामान् यावत् इति कथितम् , पुनश्चायं विशेषः–'दूरमवि अद्धाणं परिवहितए' पञ्चविश्रामपर्यन्तं दूरमपि अध्वानं परिवोढुं शक्नोति चेत् तं गवेषयेदिति । अयं भावः-वृद्धत्वेन पञ्चविश्रामान् कृत्वा नेतुं कल्पते किन्तु ते पञ्च विश्रामा अपि कोशद्वये एव भवितुमर्हन्ति न तु तदुपरि नेतुं कल्पते, अथवा शरीरदौर्बल्याद् द्वित्रादिदिवसानपि मार्गे स्थित्वा स्थित्वा गम्यते किन्तु तेन मार्गेण क्रोशद्वयपरिमितेनैव भाव्यम् , एषा शास्त्रमर्यादेति । किमर्थमित्याह'एस मे बुड्ढावासेस भविस्सई' एतत् शय्यासंस्तारकं मे वृद्धावासेषु उपयोगि भविष्यतीति ॥ सू० ४ ॥
पूर्वं शय्यासंस्तारकस्य मार्गवहनसूत्रं प्रोक्तम् , मार्गवहनप्रसङ्गात् स्थविरभावेनाऽसहायानां स्थविराणां दण्डकादि कल्पते इति भिक्षाचर्यायां तद्ग्रहणस्थापनविधिमाह-'थेराणं' इत्यादि ।
सूत्रम्-थेराण थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा छत्तए वा मत्तए वा लट्टियं वा भिसे वा चेले वा चेलचिलिमिलिं वा चम्मे वा चम्मकोसे वा चम्मपलि. च्छेयणए वा अविरहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा पविसित्तए वा निक्खमित्तए वा, कप्पइ ण्ई संनियदृचाराणं दोच्चंपि ओग्गहं अणुन्नवेत्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ सू० ५॥
छाया—स्थविराणां स्थविरभूमिप्राप्तानां कल्पते दण्डकं वा भाण्डकं वा छत्रक वा मात्रकं वा यष्टिकां वा भिसं वा चेलं वा चेलचिलिमिलीं वा चर्म वा चर्मकोषं वा चर्मपरिच्छेदनकं वा अविरहिते अवकाशे स्थापयित्वा गाथापतिकुलं भक्ताय वा पानाय वा प्रवेष्टुं पा निष्क्रमितुं वा, कल्पते खलु संनिवृत्तचाराणां द्वितीयमपि अवग्रहमनुशाप्य परिहारं परिहर्तुम् ॥ सू० ५॥
भाष्यम्-थेराणं' स्थविराणां वृद्धानाम्-जवावलक्षीणानाम्-जरसा जीर्णानाम् 'थेरभूमिपत्ताणं' स्थविरभूमिप्राप्तानाम् दीक्षा-श्रुत-वयोभिवृद्धानां ज्वरादिकारणेन गन्तुमशक्नुवतां वा 'कप्पइ' कल्पते 'दंडए वा' दण्डकं-रजोहरणदण्डकं वा 'भंडए वा' भाण्डकं वा-अनेकविधमुपकरणजातं मृत्पात्रं वा 'छत्तए वा छत्रकं वा मस्तकाच्छादनकं वस्त्रम् , नतु लोकप्रसिद्ध छत्रं तस्याऽनाचीर्णरूपत्वेन दशवैकालिके निषेधात् 'मत्तए वा' मात्रकं वा, तत्र मात्रकमुच्चारप्रस्रवण
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाज्यम् उ० ८ सू० ५-७
स्थविराणामुपकरणप्रकारविधि १८९
खेलसम्बन्धिपात्रम् 'लट्ठियं वा' यष्टिका- िद्विहस्तप्रमाणा यदालम्बनेन गम्यते ताम् 'भिसे वा' 'भिस' इति मुनीनामुपवेशनपट्टिका,या माश्रित्योपविशति ताम्, 'चेले वा' चेलं वा-चेलं-देहाच्छादनवस्त्रं 'पछेवडी' 'चादर' इति प्रसिद्धम् , 'चेलचिलिमिलि वा' वस्त्रनिर्मितां जवनिकां, 'चम्मे वा' चर्म वा तत्र चर्म–सूचिकया वस्त्रसन्धानसमये अंगुलीरक्षाथ चर्मनिर्मिताङ्गुलीयकं वा, 'चम्मकोसे वा' चर्मकोषं चर्मकुत्थलिकां या कण्टकोद्धरणकण्टकरक्षणार्थ ध्रियते ताम् , 'चम्मपरिच्छेयणए वा' चर्मपरिच्छेदनकं वा चर्मवेष्ठनकम् , एतानि वस्तूनि 'अविरहिए ओवासे' अविरहितेऽवकाशे स्थापयित्वा तत्र-अविरहिते-जनविरहवर्जिते यत्र जना गृहपतिर्वा वर्त्तते तत्र निरापदि अवकाशे प्रदेशे 'ठवेत्ता' स्थापयित्वा 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलं गृहस्थगृहम् 'भत्ताए वा पाणाए वा' भक्ताय वा पानाय वा-मक्तपानादिप्राप्तये 'पविसित्तए वा' प्रवेष्टुं वा-गाथापतिगृहे प्रवेशं कर्तुम् 'निक्खमित्तए वा' निष्क्रमितुं वा-प्रविष्टानां प्रत्यावर्तितुं वा कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । स्थविरादिकारणेन कल्प्यत्वेन प्रतिपादितानि दण्डादिवस्तूनि अशून्ये गृहादौ स्थापयित्वा भिक्षाचर्याथै गृहस्थगृहे गमनं कल्पते न तु तानि गृहीत्वेत्यर्थः । भिक्षातः पूर्वं यद् यद् वस्तु दण्डादिकं गृहस्थगृहे स्थापितं तत् पुनर्गृहस्थाज्ञामादायैव उपभोक्तुं कल्पते इत्याह-'कप्पई' इत्यादि, 'कप्पइ व्ह' कल्पते खलु 'संनियहचाराणं' संनिवृत्त चाराणाम्-संनिवृत्तः-प्रतिनिवृत्तः चारः-चरण-भ्रमणं येषां ते संनिवृत्तचारास्तेषाम्-भिक्षाचर्यातः प्रत्यागतानामित्यर्थः स्थविराणाम् 'दोच्चंपि' प्रथमं तु आज्ञया गृहीतान्येवेति प्रथमतः 'दोच्चंपि' इति कथितम् , द्वितीयमपि वारम् 'ओग्गह' अवग्रहम् , 'अणुनवेत्ता' अनुज्ञाप्यअनुज्ञामादायेत्यर्थः 'परिहारं' परिहारम्-उपभोग्य वस्तुजातम् 'परिहरित्तए' परिहर्तुम् - धारणेन-परिभोगेन चोपभोक्तुं कल्पते, स्वस्य स्थापितस्यापि वस्तुनः पुनर्ग्रहणसमये श्रमणै गुंहस्थाज्ञा अनुज्ञातव्येति भाव. ॥ सू० ५ ॥
___ पूर्व स्थविरानधिकृत्योपकरणग्रहणस्थापनविधिरुक्तः, साम्प्रतमुपाश्रयस्थितशय्यासंस्तारकस्यान्यत्र नयने निषेधमाह-'नो कप्पइ णिगंयाण वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ णिग्गंथाण का णिग्गंधीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चंपि ओग्गई अणणुन्नवेत्ता वहिया नीहरित्तए । सू० ६॥
छाया—नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं वा सागारिकसत्कं वा शय्यासंस्तारकं द्वितायमपि वारमननुशाप्य वहिनिहर्जम् ॥ सू० ६ ॥
भाष्यम्-'नो कप्पई' नो कल्पते 'णिग्गंथाण वा णिग्गथीण वा' निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा 'पाडिहारियं वा' प्रातिहारिकं वा अल्पकालायोपभोगार्थं गृहस्थगृहादा
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९०
व्यवहारस्त्रे
नीतम् , 'सागारियसंतियं वा' सागारिकसत्कं वा-शय्यातरसम्बन्धि वा यदुपाश्रये स्थितं, यद् अन्यसत्कं वा तस्य शय्यातरस्य तदन्यस्य वा सबन्धि यत् 'सेज्जासंथारग' शय्यासंस्तारकम् पीठफलकादिकमुपकरणजातं तद् यदि पूणे मासे बहिन्यत्र गन्तुकामो मुनिर्यत् शय्यातरादिदत्तं शय्यातरादिसंबन्धि वा तत्र पूर्वोपाश्रये स्थितं शय्यातरादिसंस्तारकमन्यत्राऽलामसंभवे बहिर्नेतुमिच्छेत्तदा पूर्वमवग्रहोऽनुज्ञापितोऽपि 'दोच्चंपि' द्वितीयमपि वारं पुनरपीत्यर्थः 'ओग्ग अणणुन्नवेत्ता' अवग्रहमननुज्ञाप्य पीठफलकादिस्वामिन आज्ञा न गृहीत्वा 'वहिया नीहरित्तए' वहि
मान्तरादौ पीठफलकादि निर्हर्तुम्-नेतुं न कल्पते इति सम्बन्धः । अयं भावः-कोऽपि साधुः साध्वी वा पूर्णे मासेऽन्यत्र गन्तुमिच्छेत्तदा-अन्यत्र तदलाभसम्भवे तस्य तस्या वा शय्यातराऽन्यश्रावकसम्वन्धिपीठफलकादेः पूर्वमाज्ञा गृहीताऽपि बहिर्नयनसमये पुनर्द्वितीयवारमपि पीठफकादिस्वामिन आज्ञामन्तरेण वसतेबहिस्तादृशमुपकरणजातं नीत्वा गन्तुं न कल्पते इति ॥ सू० ५ ॥
पूर्व पूर्वगृहीतशय्यासंस्तारकस्याऽऽज्ञामन्तरेणाऽन्यत्र नयनं निषिद्धम् , सम्प्रति अन्यत्र तदलामे किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिमाह --'कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चंपि ओग्गहं अणुन्नवेत्ता वहिया नीहरित्तए ॥ सू० ७॥
छाया- कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं वा सागारिकसत्कं वा शय्यासंस्तारकं द्वितीयमपि अवग्रहमनुशाप्य बहिनिहर्तुम् ॥सू० ७॥ -
भाष्यम्-अत्रास्मिन् सूत्रे पूर्वोक्तं शय्यासंस्तारकमाज्ञामादाय वहिर्नेतु कल्पते, एतावानेव विशेषः, शेषं पूर्ववदेव ॥ सू० ७ ॥
शय्यासंस्तारकस्य समर्पणानन्तरं तस्य पुनर्ग्रहणे - निषेधमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं सम्बप्पणा अप्पिणित्ता दोच्चंपि ओग्गहं अणणुन्नवेत्ता अहिहित्तए, कप्पइ अणुन्नवेत्ता ॥ सू० ८ ॥
छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिक वा सागारिकसत्क वा शय्यासंस्तारकं सर्वात्मना-अर्पयित्वा, द्वितीयमपि वारम् अवग्रहम ननुक्षाप्या. ऽधिष्ठातुम् , कल्पतेऽनुशाप्य ॥ सू० ८॥
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग्यम् ३०८ ० ८-११
शय्यासंस्तारकावग्रहानुज्ञापनाविधिः १९१
भाष्यम् – 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'णिग्गंधाण वा' निर्मन्थानां वा 'णिग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थीनां वा, 'पाडिहारियं वा' प्रातिहारिकं वा कार्यानन्तरं प्रत्यावर्त्तनीयम् ' सागारियसंतियं वा' सागारिकत्सकं वा - शय्यातरसम्बन्धि वा 'सेज्जासंथारगं' शय्या संस्तारकम् - पीठफलकादिकम् 'सवप्पणा अप्पिणित्ता' सर्वात्मना सर्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्वकं यथा स्यात् तथा वस्तुस्वामिने समर्प्य यदि दत्तोपकरणस्य पुनरप्यावश्यकता भवेत् तदा 'दोच्चंपि द्वितीयमपि वारम् 'ओग्गहं अणणुन्नवेत्ता' अवग्रहमननुज्ञाप्य - पुनरपि आज्ञामनादाय ' अहिट्टित्तए' अधिष्ठातुम् पुनस्तस्योपकरणस्योपभोगं कर्त्तुं न कल्पते । तर्हि कथं कल्पते ? तत्राइ - ' कप्पड़ ' इत्यादि, 'कप्पइ अणुन्नवेत्ता' कल्पतेऽनुज्ञाप्य - आज्ञामादाय उपभोक्तुं कल्पते इति भावः ॥ सू० ८ ॥
पूर्वसूत्रे पीठफलकादिकमाश्रित्य विधिनिषेधौ कथितौ सम्प्रति - उपाश्रयमाश्रित्य ग्रहणाग्रहणयोर्विधिनिषेधौ कथयितुमाह- 'नो कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुव्वामेव ओग्गह ओगिहित्ता तओ पच्छा अणुन्नवेत्तए | सू० ९ ॥
छाया -- नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वमेव अवग्रहमवगृह्य ततः पश्चात् अनुज्ञापयितुम् ॥ सू० ९ ॥
-
भाष्यम् – 'नो कप्पर' नो कल्पते 'णिग्गंथाण वा' निर्ग्रन्थानां वा 'णिग्गंथीण वा ' निर्ग्रन्थीनां वा ‘पुव्वामेव' पूर्वमेव - आज्ञा ग्रहणात्पूर्वकाल एव 'ओग्गहं ओगिण्डित्ता' अवग्रहमवगृह्य-पीठफलकादिक गृहीत्वा 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् - तदनन्तरम् ' अणुन्नवेत्तए ' अनुज्ञापयितुम्–आज्ञां ग्रहीतुं न कल्पते । अयं भावः – पूर्वं वस्तुस्वामिसकाशात् पीठफलकादि प्राप्त्यर्थम् अनुज्ञा ग्रहीतव्या । आज्ञां विनैव किमपि वस्तुजातं गृहीत्वा तदनन्तरं तद्विषये आज्ञां गृह्णीयात्तन्न कल्पते, अदत्तादान दोषापत्तेः, एवं करणे श्रावक संयतयो. कलहसम्भवोऽपि ॥ सू० ९ ॥
पूर्वं वस्तु स्वायत्तीकृत्य पश्चादनुज्ञापनं निषिद्धम्, सम्प्रति तद्विपर्यये सुत्रमाह - ' कप्पड़' इत्यादि ।
सूत्रम् - कप्पर णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पुव्वामेच ओग्गह अणुन्नवेत्ता तओ पच्छा ओगिण्डित्तए ॥ सू० १० ॥
छाया –— कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वमेवाऽवग्रहमनुब्राप्य ततः पश्चाद् अवग्रहीतुम् ॥ सू० १० ॥
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
raamanna
~
ज्यवहारसूत्रे भाष्यम् –'कप्पई' कल्पते- 'णिग्गथाण वा' निम्रन्थानां वा 'णिग्गथीण वा' निर्मन्थीनां वा 'पुन्वामेव ओग्गई अणुन्नवत्ता पूर्व प्रथमम् वस्तुग्रहणात् प्रागेव अवग्रहम् अनुज्ञाप्य-श्रावकेभ्यः पीठफलकादिग्रहणविषयिणीमाज्ञामादाय 'तओ पच्छा' ततः पश्चात्-अनुज्ञापनानन्तरम् , 'ओगिण्हित्तए' अवग्रहीतुम्-पीठफलकादि ग्रहीतुं कल्पते इति ।। सू० १० ॥
पूर्वमाज्ञामादाय पश्चात् पीठफलकादि ग्रहीतव्यमित्युक्तम् , सम्प्रति पीठफलकादीनामन्यप्रालाभे किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिमाह-'अह पुण' इत्यादि ।
सूत्रम्-अह पुण एवं जाणेज्जा इह खलु णिग्गथाण वा णिग्गथीण वा णो सुलभे पाडिहारिए सेज्जासंथारए-त्ति कटु एवं हं कप्पइ पुवामेव ओग्गह ओगिण्हित्ता तओ पज्छा अणुन्नवेत्तए, मा दुहओ अज्जो ! वइ अणुलोमेण अणुलोमियव्वे सिया ॥ सू० ११॥
छाया--अथ पुनरेवं जानीयात् इह खलु निम्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा नो सुलभं प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकम् , इति कृत्वा खलु कल्पते पूर्वमेव अवग्रहमवगृह्य ततः पश्चात् अनुज्ञापयितुम्, मा द्विधात आर्याः ! वदत अनुलोमेन अनुलोमयितव्यः स्यात् ॥ सू० ११॥
भाष्यम्-'अह पुण एवं जाणेज्जा' अथ यदि कदाचित् पुनः एवमेतज्जानीयात् , किं जानीयात्तत्राह-इहेत्यादि, 'इह खलु' इह-अत्र ग्रामादौ खल 'णिग्गथाण वा' निर्ग्रन्थानां वा, 'णिग्गथीण वा' निर्ग्रन्थीनां वा, 'नो सुलभे नो सुलभः-न सुखेन लभ्यः-सरलतया न प्राप्तव्यः 'पाडिहारिए सेज्जासंथारए' प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकं पीठफलकादिकमुपकरणजातम् ऋतुबद्धकालग्राह्यं वर्षाकालग्राह्यं वा, 'त्ति कटु' इति कृत्वा-इति विज्ञाय ‘एवं ण्हं कप्पइ' एवम् अनेन कारणेन खलु 'कप्पई' कल्पते, 'पुवामेव ओग्गहं ओगिंण्डित्ता' पूर्वमेवाऽनुज्ञापनतः प्रथममेव अवग्रहं-पीठफलकस्थानकादिकमवगृह्य-गृहीत्वा 'तो पच्छा' ततः पश्चात्-अवग्रहग्रहणानन्तरम् 'अणुन्नवेत्तए अनुज्ञापयितुम्-अनुज्ञा ग्रहीतुम् । प्रथममवग्रहग्रहणं कर्त्तव्यम् तदनन्तरमनुज्ञापना कर्त्तव्येत्यर्थः, एवं करणे यदि तददाने साधुसंयतानां विवादो भवेत्तदा आचार्याः श्रमणान् प्रति बुवते-'मा दुइ ओ अज्जो वई' मा हे आर्याः ! द्विधातो वदत, एकं तु-अस्य शय्यासंस्तारकं वसतिं वा गृहीथ द्वितीयं परुषाणि भाषध्वे, हे आर्याः । अयं गृहस्वामी एतदाज्ञयैव वस्तुजातं ग्रहीतव्यम् इति परम्पराप्राप्तो मुनीनां व्यवहारस्तस्मात् क्षमध्वम् , इत्यादिना 'अणुलोमेण' अनुलोमेन-अनुकूलेन वचसा, यदि भवद्भिः कारणवशाद् गृहस्वामिन अज्ञामन्तरेण वसत्यादिवस्तुजातस्य ग्रहणं कृतम् तदाऽनेन गृहस्वामिना सह
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
पतितोपलव्योपकरणविषयो विधः १९३ भाष्यम् उ० ८ सू० १२ विवादो ने विधातव्यः, किन्तु शमतां पुरस्कृत्यैव आज्ञा याचध्वम् , एवं प्रकारेणाऽनुकूलेन वचसा स वस्तुस्वामी 'अणुलोभेयव्ये सिया' अनुलोभयितव्योऽनुकूलयितव्यः स्यात् अनुकूलवचोभिः सागारिकसंयतानां कलहः समूलमुपशमयितव्यो भवेत् , तमनुकूलेन वचसाऽनुकूलयित्वा तत्र तिष्ठेयुः संस्तारकं वा गृह्णीयुरिति ॥ सू० ११ ॥
उपर्युक्तसूत्रे वसतिमाश्रित्य कथितम् , सम्प्रति यदि कश्चिद् भक्तपानादिकमानेतुं श्रावकगृहं गतो भिक्षार्थ हिण्डन् वा यदि कस्यचित्साधोः किमप्युपकरणजातं तत्र पतितं पश्येत्तदा कि कर्त्तव्यमिति तद्विधिं दर्शयितुमाह-'णिग्गथस्स णं गाहावइकुलं' इत्यादि ।
सूत्रम्-णिग्गंथस्सं णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स अहालहुस्सए उपगरणजोए परिम्भहे सिया तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से सागारकंड़ गहाय जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-इमे भो अज्जो ! कि परिन्नाए ? से य वएज्जा-परिन्नाए तस्सेव पडिणिज्जायन्वे सिया, से य वएज्जा-नो परिन्नाए तं नो अप्पणा परिभुजेज्जा नो अन्नमन्नस्स दावए एगते वहुफामुए थंडिले परिट्टवेयव्वे सिया ॥ सू० १२ ॥
छायानिर्ग्रन्थस्य खलु गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिशया अनुप्रविष्टस्य यथा लघस्वकमपकरणजातं परिभ्रष्टं स्यात् तच्च कश्चित् साधर्मिकः पश्येत् कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा यत्रैव अन्यमन्यं पश्येत् तत्रैव एवं वदेत्-इदं भो आर्य ! कि परिक्षातम् ? स च वदेत्-परिज्ञातम् तस्यैव प्रतिनिर्यातव्यं स्यात् । स च वदेत्-नो परिज्ञातम तन्नो आत्मना परिभुजीत नो अन्यस्याऽन्यस्य दद्यात् एकान्ते वहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात् ।। सू० १२॥ ।
भाष्यम्-'णिग्गथस्स गं' निर्ग्रन्थस्य खलु 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलम्-गृहस्थगहम् 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया, तत्र-पिण्डम्-भक्तं पानं वा, तस्य पातप्रतिज्ञया ग्रहणेच्छया 'अणुपचिट्ठस्स' 'अनुप्रविष्टस्य-भक्तं पानं वा आनेप्यामीत्याकारवुद्धया गृहपतिगृहं प्रविष्टस्य भिक्षाचर्या हिण्डतो वा यस्य कस्यचित् श्रमणस्य 'अहालहुस्सए' यथालघुस्वकम्-एकान्तलघुक जघन्यं मध्यमं वा 'उवगरणजोए' उपकरणजातम्-उपकरणविशेषः लघुपात्रादिकं वा 'परिभट्टे सिया' परिभ्रष्टं-गृहस्थगृहे मार्गे वा पतितं स्यात् । अथ च यस्य कस्यचिदुपकरणजातं पतितं तस्य मदीयमुपकरणं पतितमेवप्रकॉरिका स्मृतिरपि अपगता भवेत्तदा 'तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा' तच्च पतितं श्रावकगृहेऽन्यत्र वा उपकरण
१ यहाँ पूर्वाचार्यभाष्यगा० १४७ से १५२ में साधुभाषा के विरुद्ध आचरण लिसा है। व्य. २५
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९४
व्यवहार सूत्रे
नातं कश्चिदन्यो मुनिर्भिक्षापानार्थं हिण्डन् तत्र गतो वा साधर्मिकः श्रमणः पश्येत् तथा इदमुपकरणं न गृहस्थस्य, किन्तु कस्यचित्साधोरेव, इत्येवंलक्षण परिज्ञानेन जानीयात्, तदा 'कप्पर से सागारकडं गहाय' कल्पते 'से' तस्य उपकरणजातदर्शकस्य साधर्मिकस्य साधोः सागारकृतम् अगारसहितम् यथा - यस्येदमुपकरणजातमस्ति स यदि मिलिष्यति तदा तस्मै दास्यामीति बुद्ध्या गृहीत्वा तदनन्तरम् ' जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा' यत्रैव स्थानेऽन्यमन्यम् अपराऽपरं श्रमणं पश्येत् तत्रैव स्थाने एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण वदेत् यं यं पश्येत् श्रमणं तं तमेव पृच्छेदित्यर्थः । किं पृच्छेत्तत्राह – 'इमे भो अज्जो ! परिन्नाए' इदमुपकरणजातम् भो आर्य । परिज्ञातम् ? उपलब्धमुपकरणजातं निष्काश्य साधर्मिकान्तरं दर्शयित्वा पृच्छेत् - यद् भो आर्य ! परिज्ञातं-स्वसकाशात्पतितमुपकरणजातं त्वया स्मृतं किम् ? जानासि किम् इदमुपकरणनातं मम ? इत्येवं तं श्रमणं पृच्छेदित्यर्थः एवं पृष्टे सति 'से य वएज्जा' स च वदेत् 'परिन्नाए ' परिज्ञातम् - अहं जानामि एतदुपकरणजातं मदीयं पतितम्, इत्येवं वदेत् तदा 'तस्सेव पडिणिज्जायव्वे सिया' तस्यैव एवं वदतः प्रतिनिर्यातव्यम् - तस्मै समर्पयितव्यं स्यात्, यो वदेद् मदीयमेतदुपकरणम् तत्तस्मै तदा दातव्यमिति भावः ।
अथ यदि 'से य वएज्जा' स च वदेत् पृष्टः सन् कथयेत्, 'नो परिन्नाए' नो परिज्ञातम् यस्योपकरणविषये भवान् पृच्छति तदहं कस्येति न जानामि, तदा तत्तस्मै न समर्पणीयम् । तर्हि किं कर्त्तव्यमित्याह- 'तं नो' इत्यादि, 'तं नो अप्पणा परिभुंजेज्जा' तदुपकरणनातं नो आत्मना स्वयं परिभुञ्जीत न व्यवहूियात्, 'नो अन्नमन्नस्स दावए' न वा अन्या - न्यस्य-अन्यान्यस्मै दद्यात्, तद् उपकरणजातं न वाऽन्यस्मै दातव्यमित्यर्थः । अथ-यदि उपलब्धं तदुपकरणम् अनधिकारिणे न दद्यात्, न वा स्वयमुपभुञ्जीत तदा किं कर्त्तव्यमित्याह-'एगंते' इत्यादि, 'एगंते बहुफासुए थंडिले परिद्ववेयव्वे सिया' एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात्, तत्रैकान्ते - विजने - जनसंचरणरहितप्रदेशे बहुप्रासुके- द्वीन्द्रियादिजीवपरिवर्जिते स्थण्डिले - भूभागे परिष्ठापयितव्यमिति ॥ सू० १२ ॥
पूर्व भिक्षाचर्यायां गतस्य साधोः पतितब्धोपकरणविषये विधिरुक्तः, सम्प्रति विचारभूमिं विहारभूमिं वा गतस्य पतितोपकरणविषये विधिमाह - 'णिग्गंथस्स णं बहिया' इत्यादि ।
सूत्रम् - णिग्गंथस्स णं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खतस्स अहाल हुस्सए उवगरणजाए परिभट्ठे सिया तं च केइ साइम्मिए पासेज्जा कप्पर से सागारकडं गहाय जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा - तत्थेव एवं वएज्जा - इमे भो अज्जो !
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ८ सू० १३-१५
पतितोपलब्धोपकरणविषयो विधिः १९५
किं परिन्नाए ? से य एज्जा - परिन्नाए तस्सेव पडिणिज्जायव्वे सिया, से य वएज्जा नो परिन्नाए तं नो अपणा परिभुंजेज्जा नो अन्नमन्नस्स दावए एगंते बहुफाए थंडिले परिवेयव्वे सिया" || सू० १३ ॥
छाया --निर्ग्रन्थस्य खलु बहिर्विचारभूमिं वा विहारभूमिं वा निष्क्रान्तस्य यथालघुस्वकमुपकरणजातं परिभ्रष्टं स्यात् तच्च कश्चित् साधार्मिकः पश्येत्, कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा यत्रैवाऽन्यमन्यं पश्येत् तत्रैव एवं वदेत् - इदं भो आर्य । किं परि ज्ञातम् ?, स च वदेत् परिज्ञातम्, तस्यैव प्रतिनिर्यातव्यं स्यात्, स च वदेत् नो परिज्ञातम् तत् नो आत्मना परिमुञ्जीत, नो अन्यस्याऽन्यस्य दद्यात् एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात् ॥ सू० १३ ॥
भाष्यम् – 'णिग्गंथस्स णं' निर्ग्रन्थस्य - श्रमणस्य खलु 'वियारभूमिं वा' विचारभूमिं वा बाह्यभूमिम् उच्चारप्रस्रवणभूमिम्, अथवा 'बिहारभूमिं वा' विहारभूमिं वा स्वाध्यायादि - भूमिं प्रति 'णिक्खंतस्स' निष्क्रान्तस्य विचारायर्थे वहिर्गतस्य श्रमणस्य, अवशिष्टं सर्वं पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥ सू० १३ ॥
पूर्व विचारभूमि विहारभूमिं वा गतस्य साधोः परिभ्रष्टोपलव्धोपकरणनातविषये विधिरुक्तः, सम्प्रति ग्रामानुग्रामं विहरतस्तद्विधिमाह - 'णिग्गंथस्स णं गामाणुगामं' इत्यादि ।
सूत्रम् - णिग्गंथस्स णं गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स अन्नयरे उवगरणजाए परिभट्ठे सिया तं च केइ साइम्मिए पासेज्जा कप्पर से सागारकडे गहाय दूरमेव अद्धाणं परिवहित्तए, जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा - इमे भे अज्जो ! किं परिन्नाए ?, से य वऐज्जा परिन्ना ए तस्सेव पडिणिज्जायव्वे सिया, से य वएज्जा-नो परिम्नाए तं नो अप्पणा परिभुंजेज्जा नो अन्नमम्नस्स दावए, एगंते बहुफानुए थंडिले परिवेयव्वे सिया || सू० १४ ॥
छाया - निर्ग्रन्थस्य खलु ग्रामानुग्रामं द्रवतोऽन्यतरद् उपकरणजातं परिभ्रष्टं स्यात् तत् कश्चित् साधर्मिकः पश्येत् कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा दूरमेवाध्वानं परिवोढुम्, यत्रैवाऽन्यमन्यं पश्येत् तत्रैव एवं वदेत् इदं भो आर्य ! किं परिज्ञातम् ? स च वदेत् परिज्ञातम् तस्यैव प्रतिनिर्यातव्यं स्यात्, स च वदेत्-नो परिज्ञातम् तत् नो आत्मना परिभुञ्जीत नो अन्यस्याऽन्यस्य दद्यात्, एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात् ॥ सू० १४ ॥
भाष्यम् – 'णग्गंथस्स णं' निर्ग्रन्थस्य खलु 'गामाणुगामं दृइज्ञमाणस्स' ग्रामानुग्रामं द्रवतः-एकस्माद् ग्रामाद् ग्रामान्तरं प्रति विहारं कुर्वतः, 'अन्नयरे उवगरणजाए' अन्यतरत्-यत्
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
किमपि प्रकारकमुपकरणजातं-वस्त्रपात्रादिकम् 'परिभट्टे सिया' परिभ्रष्ट-पतितं-विस्मृतं वा स्यात् 'तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा' तच्च पतितमुपकरणजातं यः कोऽपि साधर्मिकः श्रमणः पश्येत् तदा 'कप्पइ से सागारकडं गहाय' कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा 'दूरमेव अद्धाणं परिवहित्तए' दूरमेवाध्वानं परिवोढुम्-दूरमार्गपर्यन्तं तस्योपकरणस्य वहनं कर्तुम् , तदनन्तरम् 'जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा' यत्रैव मार्गेऽन्यमन्यं-साधर्मिकान्तरं पश्येत् , इत्यादि सर्व द्वादशसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू० १४ ॥
पूर्व प्रामानुग्रामं विहरतो मुनेः परिभ्रष्टोपलब्धोपकरणजातविषये विधिरुक्तः, सम्प्रति निम्रन्थनिर्ग्रन्थीभिरन्योऽन्यस्य गृहीताधिकपात्रादि यमुद्दिश्य गृहीतं तस्याऽऽज्ञामन्तरेणाऽन्यस्मै न दातव्यमिति तद्विधिमाह-'कप्पइ णिगंथाण वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पई णिग्गंथाण वा, णिग्गंथीण वा अइरेगं पडिग्गहं अनमन्नस्स अट्ठाए दूरमवि अद्धाण परिवहित्तए वा धारित्तए वा परिग्गहित्तए वा, सो वा णं धारेस्सइ अहं वा णं धारेस्सामि अन्नो वा णं धारेस्सइ, नो से कप्पइ तं अणापुच्छिय अणामंतिय अन्नमन्नेसि दाउं वा, अणुप्पदाउं वा, कप्पइ से तं आपुच्छिय आमंतिय अन्नमन्नेसिं दाउं वा अणुप्पदाउं वा ॥ सू० १५ ।।
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा अतिरेकं प्रतिग्रहम् ( पतद्ग्रहम्) अन्योन्यस्यार्थाय दूरसप्यध्वानं परिवोदुवा धारयितुं वा परिग्रहीतुं वा, स वा तद् धारयिष्यति, अहं वा तद् धारयिष्यामि, अन्यो वा तद् धारयिष्यति, नो तस्य कल्पते तमनापृच्छय, अनामन्त्र्य अन्यान्येषां दातुं वा, अनुप्रदातुं वा, कल्पते तमापृच्छय आमन्त्र्य अन्यान्येषां दातुं वा अनुप्रदातुं वा ॥ सू० १५ ॥
भाष्यम्-'कप्पई' कल्पते 'निग्गंथाणं वा' निम्रन्थानां वा 'णिग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थीनां वा 'अइरेग पडिग्गह' अति रेकं प्रतिग्रहं-पतद्ग्रहं वा, उपलक्षणाद् वस्त्रादिकं वा, तत्रातिरेकं नाम यावत्प्रमाणकं वस्त्र-पावाद्युपकरणं शास्त्रसंमतं ततोऽधिकं यत् तद् अतिरेकं प्रतिग्रहम्, 'अन्नमन्नस्स अट्ठाए' अन्यान्यस्य अर्थाय-प्रयोजनाय, तत्राऽन्यस्याऽन्यस्यअमुकाऽमुकस्य श्रमणाऽन्तरस्य प्रयोजनमुद्दिश्य, तत्र-अन्यस्याऽर्थाय-इदमविशेषितं सामान्यवचनम् , तेनान्यस्यान्यस्येति अमुकस्याऽमुकस्य साधर्मिकस्याऽर्थाय प्रयोजनाय गृहीतं नतु समुच्चयरूपेण गृहीतमित्यर्थो बोध्यः, तत् 'दरमवि अद्धाणं परिवहित्तए' दूरमपि मध्वानं- मार्ग परिवोढुम्गृहीत्वा दूरमपि मार्ग गन्तुम् , 'धारेत्तए वा परिग्गहित्तए वा' धारयितुं वा परिग्रहीतुं वा, कल्पते अन्यस्य श्रमणस्य अन्यस्याः श्रमण्या वा कृते प्रमाणादधिकमपि वस्त्रपात्रादिकं परिवोढुम्
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ८ सू०१६
अधिकपात्रादिवहनतदानविधिः १९७ धारयितुं परिग्रहीतुं वा कल्पते इत्यर्थः, यदुद्दिश्य गृहीतं तत्प्रकारं प्रदर्शयति-'सो वाणं धारेस्सई' स वाऽमुको निम्रन्थो यन्मया गृहीतं तद् धारयिष्यति ग्रहीष्यति, 'अहं वा णं धारेस्सामि' अहं वा तद् धारयिष्यामि, 'अन्नो वा धारेस्सइ' अन्यो वाऽमुको गणी वाचक उपाध्यायो वा तद् धारयिष्यति, स वा धारयिष्यति, इत्यादि विशेषितवचनम् , तेनाऽमुको गणी वाचकोऽन्यो वा श्रमणः स्यात्तस्येदं भविष्यतीति भावः, अहं वा धारयिष्यामि ममैव भविष्यतीत्यर्थः, स वा धारयिष्यति, इत्येवंप्रकारेण गृहीतं वस्त्रपात्रादिकम् 'नो से कप्इइ तं अणापुच्छिय अणामंतिय' नो-नैव तस्य-पात्रादिवाहकस्य कल्पते तं यदर्थे गृहीतं तं श्रमणं-वाचकं-गणिनमुपाध्यायं वा अनापृच्छ्य-तस्य पृच्छामन्तरेण, अनामन्त्र्य-यथा-गृह्णातु भो इदं वस्त्रपात्रादिकं यन्मम समर्पितम् , इत्येवं तमकथयित्वा 'अन्नमन्नेसि दाउं वा अणुप्पयाउं वा' अन्येषामन्येषां दातुं वा एकवारम्, अनुप्रदातुं वा वारं वारम्, यदर्थमतिरेकं पात्रादिकमुपकरणं गृहीतं धारितं तं व्यक्तिविशेषमनापृच्छचाऽनामन्त्र्य अन्यस्मै दातुमनुप्रदातुं वा न कल्पते 'कप्पइ से तं आपुच्छिय आमंतिय अन्नमन्नेसिं दाउं वा अणुप्पदा उं वा' कल्पते तस्य पात्रादिवाहकस्य तमापृच्छय आमन्त्र्य अन्येषामन्येषां दातुं वा अनुप्रदातुं वा, स श्रमणो यं व्यक्तिविशेषमुद्दिश्याऽतिरेकं वस्त्रपात्रादिकं गृहीतवान् तं व्यक्तिविशेष गणिनं वाचकमुपाध्याय वा पृष्टवा आमन्त्र्य-सम्यकू कथयित्वा ततो यस्मै कस्मैचिन्निर्ग्रन्थाय निम्रन्थ्या वा तदुपकरणं दात कल्पते इत्यर्थः ॥ सू० १५ ॥
पूर्वमुपधेरतिरेकविषये सूत्रमुक्तम् , सम्प्रति उपधेरतिरेकवदाहारातिरेको मुनिना न कर्त्तव्यः, यतः साधोत्रिंशत्कवलपरिमित आहारः प्रमाणप्राप्तः कथ्यते, ततो न्यूनाहारे साधुरल्पाहारादिविशेषणविशिष्टो भवतीति तत् प्रकारं प्रदर्शयन्नाह–'अट्ठकुक्कुडिअंड०' इत्यादि ।
सूत्रम्-अट्ठकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिगंथे अप्पाहारे, दुवालसकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे अवड्ढोमोयरिए, सोलसकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे दुभागपत्ते, चउवीसंकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे तिभागपत्ते सिया ओमायरिए, एगतीसंकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे किंचूणोमोयरिए, बत्तीसं कृक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गथे पमाणपत्ते । एत्तो एगेणवि कवलेणं ऊणगं आहारं आहारेमाणे समणे णिग्ग थे नो प्रकामभोई-त्ति वत्तव्वं सिया ॥ सू० १६॥
॥ ववहारे अठमो उद्देसो समत्तो ॥८॥
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्र
छाया-अष्टकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निर्ग्रन्थोऽल्पाहारः, द्वादशकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निम्रन्थोऽपार्धाऽवमौदर्यः, पोडशकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निर्ग्रन्थो द्विभागप्राप्तः, चतुर्विशतिकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निम्रन्थस्त्रिभागप्राप्तः स्यादव. मौदर्यः, एकत्रिंशत्कुक्कुठाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निम्रन्थः किञ्चिदूनाऽवमौदर्यः, द्वात्रिंशत्कुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निम्रन्थः प्रमाणप्राप्तः । इत एकेनाऽपि कवलेन ऊनकमाहारमाहरन् श्रमणो निर्ग्रन्थो नो प्रकामभोजी-ति वक्तव्यं स्यात् ।। सू० १६ ॥
॥ व्यवहारे अष्टम उद्देशकः समाप्तः ॥८॥
भाष्यम्-'अट्टकुक्कुडिप्पमाणमेत्ते कवले' अष्टकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान्-कुक्कुटाण्डप्रमाणान् , यः पुरुषस्य मुखे क्षिप्तः सन् सुखेन चय॑ते तथा गलान्तराले अविलग्न एव गले प्रविशति एतावत्प्रमाणमेव कवलमनोयादित्येतावत्प्रमाणः कवलः कुक्कुटाण्डशब्देनोपमीयते यतः कुक्कुट्या अण्डकमाकारप्रमाणेन सदा सर्वदा समानमेव भवति न न्यूनं नाधिकमिति तत्प्रमाणेन गृहीतम् , अन्यत्रापि चान्द्रायणव्रतादौ कवलोऽनेनैव शब्देनोपमितो लभ्यते उपमामात्रमेवेति । यस्य प्रमाणप्राप्त आहारो यावत्परिमितो भवेत्तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागः कवलशब्देन गृह्यते ततस्तादृशान् अष्टौ कवलान् 'आहारं आहारेमाणे' प्रमाणप्राप्ताहाराच्चतुर्थांशरूपम् आहरन्-आहारं कुर्वन् 'णिगंथे' निर्ग्रन्थः श्रमणः 'अप्पाहारे' अल्पाहारो भण्यते । 'दुवालसकुक्कुडिअंडप्पमाणमेचे कवले आहारं आहारे माणे' कुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् द्वादश कवलान् आहारं-प्रमाणप्राप्ताहारचतुर्थाशतः किञ्चिदधिकं द्वादशकवलप्रमितम् माहरन् ‘णिग्गंथे' निर्ग्रन्थः 'अवड्ढोमोयरिए' अपार्घावमौदर्यः कथ्यते । 'सोलसकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे' पोडशकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलानाहारं-प्रमाणप्राप्तादर्धम् आहरन्-आहारं कुर्वन् 'णिग्गंथे' निर्ग्रन्थः 'दुभागपत्ते' द्विभागप्राप्तः-द्विभागेन ऊनोदरः कथ्यते । 'चउवीसंकुक्कुडिअन्डप्पमाणमेत्ते कवले' चतुर्विशतिकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् ‘आहारं आहारेमाणे णिग्गथे' आहारमाहरन् कुर्वन् निम्रन्थः 'तिभागपत्ते सिया ओमोयरिए' त्रिभागप्राप्तः स्यात् अवमौदर्य इति कथ्यते । 'एगतीसंकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे' एकत्रिंशत्कुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् ‘णिगंथे' निम्रन्थः 'किंचूणोमोयरिए' किञ्चिदूनाऽवमौदर्यः कथ्यते । 'वत्तीसंकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे' द्वात्रिंशत्कुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् 'णिग्गथे' निर्ग्रन्थः 'प्रमाणपत्ते' प्रमाणप्राप्तः कथ्यतेः । 'एत्तो एगेणवि कवलेणं ऊणगं आहारं' इतः-द्वात्रिंशत्कुक्कु
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाप्यम्
उद्देशपरिसमाप्तिः १९९ टाण्डप्रमाणात् एकेनापि कवलेन ऊनक-हीनम् थाहारम् आहरन् कुर्वन् 'समणे णिग्गये' श्रमणो निर्ग्रन्थः 'नो पकामभोइ-त्ति वत्तन्वं सिया' नो प्रकामभोजीति वक्तव्यं स्यात्, ततोऽधिकभोजी-प्रकामभोजी कथ्यतेऽतः साधुना नैवं भाव्यमिति भावः ॥ स० १६ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त
"जैनाचार्य" पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां"व्यवहारसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायामष्टम उद्देशः समाप्तः ॥८॥
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ नवमोद्देशकः ॥ व्याख्यातोऽप्टमोद्देशकः, साम्प्रतं नवमः प्रारभ्यते-तंत्र अस्य नवमोद्देशकस्यादिसूत्रेण सहाऽष्टमोद्देशकस्य चरमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति संबन्धप्रतिपादनार्थमाह भाष्यकार:'वुत्तो आहारो' इत्यादि । गाथा-बुत्तो आहारो अह, आएसो तं च तत्थ जइ भुंजइ ।
साहूण तग्गहणे, कप्पाकप्पस्स एत्थ विही ॥१॥ छाया- उक्त आहारः अथ आदेशस्तं च तत्र यदि भुङ्क्ते ।
__ साधूनां तद्ग्रहणे, कल्प्याकल्प्यस्य अत्र विधिः ॥१॥ व्याख्या-'वुत्तो' इति । अष्टमोद्देशकस्य चरमसूत्रे 'आहारो वुत्तो' आहार उक्तः, आहारप्रमाणं प्रतिपादितम् , तं चाहारम् आदेशः आदिश्यते-सत्कारपुरस्सरम् आहूयते यः स आदेशः-प्राघूर्णकः, ज्ञातकः, स्वजनः, मित्रं, कुलगुर्वादिप्रभु', परतीथिको वा 'तत्थ' इति-तत्र सागारिकगृहे भुक्ते तदा 'तग्गहणे' तद्ग्रहणे- तस्य तन्निमित्तं कृतस्य ग्रहणे 'साहूर्ण' साधूनाम् 'कप्पा-कप्पस्स' एत्थ विही कल्प्याऽकल्प्यस्य 'एत्य' अत्र-नवमोद्देशकस्यादिसूत्रे विधिः प्रोच्यते ॥१॥
एष एव सम्बन्धः, अनेन सम्बन्धेन आयातस्य नवमोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम्'सागारियस्स' इत्यादि।
सूत्रम्-सागारियस्य आएसे अन्तो वगडाए मुंजइ निहिए निसिडिए पाडिहारिए तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू० १॥
छाया—सागारिकस्य आदेशः अन्तर्वगडावां भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् प्रातिहारिकान् तस्माद् ददाति नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १॥
भाप्यम् –'सागारियस्स' इति । 'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य, य उपाश्रयस्याऽऽज्ञां ददाति स सागारिक. कथ्यते, तस्य 'आएसे' आदेशः यः सत्कारपुरस्सरमादिप्टः-आहूत. स आदेशः कथ्यते, आवेशोवा-य आविशति-भोजनार्थ गृहे प्रविशति स
आवेशः भोजनार्थ गृहमागतः, स च प्राघूर्णकादिः 'अंतो वगडाए' अन्तर्वगडायाम्, तत्र वगडानाम-परिक्षेपः गृहमित्यर्थः, तस्य अन्तर्मध्ये-गृहमप्ये 'भुजई' मुक्त पदार्थान् ओदनादीन् , किंविशिष्टान मोदनादीन् भुङ्क्ते । तत्राह-'निट्टिए' निष्ठितान्-निष्ठां नीतान् प्राघूर्णकाद्यर्थ निप्पादितान् इत्यर्थः 'निसिट्टिए' निसृष्टान्-प्रापूर्णिकादिभ्यो दत्तान् , निष्ठितनिसृष्टयोरयं भेद.-यत् प्रथमं रन्धनक्रियायाम् , द्वितीयं तु-दानक्रियायाम् , प्राघूर्णकाद्यर्थं पाचितवान् , तदर्थ दत्तान् , प्रातिहारिकान्-शय्यातरेण प्रातिहारिकरूपेण दत्तान् , शय्यातरः प्राघूर्णकादीन् वक्ति
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९ सू०२-६
सागरिकप्राघूर्णकादेराहारग्रहणाग्रहणविधिः २०१ यथारुचि भुज्यतां शेषं ममेत्येवं रूपेण दत्तान् भुङ्क्ते 'तम्हा दावए' तस्मात् परिनिष्ठितादिविशेषणविशिष्टौदनादिमध्यात् निष्कास्य यद् ददाति साघवे 'नो से कप्पई पडिग्गाहित्तए' नो-न तस्य- श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुं-स्वीकर्तुम् अत्यक्तसत्ताकत्वेन शय्यातरपिण्डत्वात् , अयं भावः-शय्यातरस्य प्रापूर्णकादिर्ग्रहेभुङ्क्ते, यं शय्यातरः प्राघूर्णकाद्यर्थ कृत्वा प्राघूर्णकाय अवशिष्टग्रहणप्रतिज्ञया प्रयच्छति तं प्राघूर्णको भुङ्क्ते, तद्भुक्तावशिष्टाहारमध्यादाहारं यय्यातरः साधवे यदि ददाति तदा तादृश आहारो न कल्पते साधूनाम् । यतः स आहारः शय्यातरेण प्राघूर्णकादिभ्यः प्रातिहारिको दत्तोऽतः स शय्यातरस्वत्वेन शय्यातरपिण्ड इति ॥ स्० १ ॥
पूर्व गृहान्त जिप्राघूर्णकादिसंवन्धिशय्यातरस्वत्वयुक्ताहारस्य निषेधः प्रोक्तः, साम्प्रतं शय्यातरस्वत्वरहिततादृशाहारस्य ग्रहणविधिमाह-'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स आएसे अंतो बगडाए भुंजइ निहिए निसिहे अपाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहेत्तए ॥ सू० २।
छाया-सागारिकस्य आदेशः अन्तर्वगडायां भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् अप्रातिहारिकान् , तस्मात् ददाति एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २ ॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य' इत्यादि पूर्वसूत्रवद् व्याख्येयम् , विशेषस्त्वयम्सागारिकस्य गृहे प्राघूर्णकादिर्यान् पदार्थान् भुङ्क्ते तान् पदार्थान् शय्यातरो यदि स्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्वकं प्राघूर्णकादिभ्यो दद्यात् तदा साधोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते तदेवाह-'अप्पडिहारिए' इत्यादि, 'अप्पडिहारिए' अप्रातिहारिकान् अपुनर्ग्रहणप्रतिज्ञया दत्तान् स प्राघूर्णकादिर्भङ्क्ते 'तम्हा दावए' तस्मात् परिनिष्ठितादिविशिष्टौदनादिभोजन जातमध्यात् साघवे दद्यात् , 'एवं से कप्पई पडिगाहित्तए' एवम्-अनेन प्रकारेण कल्पते तस्य साधोस्तादृशमाहारजातं प्रतिग्रहीतुम् । शय्यातरस्य प्रापूर्णकादिस्तस्य गृहे आहारजातं भुक्ते तद् गृहपतिना तदर्थ निप्पादितं तादृशमाहारजातं गृहपतिर्भोक्तुं प्राघूर्णकादिभ्यो दत्त्वा कथयेत्-भोजनानन्तरं यदवशिष्टं भवेत्रत् त्वदीयमेवेति, तत् प्राघूर्णकेन न पुनर्गृहपतये समर्पितं भवेत् , तदप्रातिहारिकमुच्यते तादृशमाहारजातं यदि प्राघूर्णकादिः साधवे दद्यात् तदा तादृशमाहारजातं साधूनां प्रतिग्रहीतुं कल्पते इति भावः ॥ सू० २ ॥
संप्रति शय्यातरस्य गृहबहिभोंजिप्राघूर्णकादिसंबन्धिभोजनजातस्य शय्यातरस्वत्वास्वत्वविषये निषेधं विधिं च सूत्रद्वयेनाह-'सागारियस्स आएसे' इत्यादि ।
व्य. २६
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
व्यवहारसूत्रे
यतं दीयते, दासादीनां च हस्तोत्पाटितं नियतमेव दीयते, तथा आदेशाय सत्कारपुरस्सरं दीयते, न तथा दासादिकृते, तथा - आदेशस्य भोजनविधिसंपादनाय महान् प्रयत्नः ससंभ्रमं विधीयते, दासादीनांतु न तादृशः प्रयत्नः क्रियते, इत्यत आदेशस्य दासादेश्च सूत्राणां पृथक्करण मुचितमेवेति बोध्यम् ॥ सू० ७८ ॥
उपर्युक्तसूत्राष्टके आदेशादिविषयमधिकृत्य कथितम्, सम्प्रति ज्ञातकमधिकृत्यैकगृहविषयं सूत्रचतुष्टयमाह - 'सागारियस' इत्यादि ।
सूत्रम् - - सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगडाए अंतो एगपयाए सागारियं चोवजीवs तम्हा दावए नो से कप्पर पडिगाहित्तए । सू० ९ ॥
छाया - सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्य एकवगडायामन्तः एकप्रजायां सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सु० ९ ॥
भाष्यम् – 'सागारियस्स' सागारिकस्य - शय्यातरस्य, 'नाय ए सिया' ज्ञातकः - सागारिकस्वजनः स्यात्, तत्र—ज्ञातको नाम - स्वजनः पूर्वसंस्तुतः १, यदि वा पश्चात्संस्तुतः २, यदि वा उभयसंस्तुतः स्वजनः ३, तत्र पूर्वसंस्तुतः - मातापितृपक्षवर्ती १, पश्चात्संस्तुतः कलनपक्षगतः २, उभयसंस्तुतः - उभयपक्षवर्ती ३ भवेत्, 'सागारियस्स' सागारिकस्य - शय्यातरस्य ‘एगवगडाए' एकवगडायाम् - एकस्मिन् गृहे, तस्य गृहस्य -'अंतो' अन्तः- मध्ये, 'एगपयाए ' एकप्रजायाम्, तत्र प्रजानाम-चुल्ली, तदर्थस्तु - प्रकर्षेण जायते पाकनिष्पत्तिरस्यामिति प्रजाचुल्हो, तस्याम्, अथवा- 'एगपयाए' इत्यस्य एकपचायामिति च्छाया, तत्र पच्यते ओदनादिर्यत्र सा पचा चुल्हीत्यर्थः, एका पचा एकपचा तस्याम्, 'सागारियं चोपजीवइ' सागारिकं चोपनीवति, सागारिकमाश्रित्यैव जीवनयात्रां निर्वहति सागारिकस्य काष्ठलवणगोरसमुद्गादिसूपोदकाम्लशाकफलादिग्रहणपूर्वकमुपजीवति 'तम्हा दावए' तस्मात् - तादृशात् सागारिकसंबन्धिस्वजनाशनमध्याद् अशनादिकं दद्यात् 'नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' नो तस्य-साधोस्तत् कल्पते प्रतिग्रहीतुम्, शय्यातरस्वजनपिण्डस्यापि शय्यातरवस्तुसंयोगात् शय्यातरपिण्डत्वदोष सद्भावात् ।
नतु- - शय्यातरस्य तज्ज्ञातकस्य च किमर्थमेका चुल्ही भवति ? तत्राह---यतस्तत्र चुल्हीकरं राज्ये गृह्णाति या या पृथक् चुल्ही भवति तस्यास्तस्याः करमपि पृथग् गृह्णातीति तत्रत्यराज्यनियमात् करभीता लोका एकस्यामेव चुल्हिकायां पाकक्रियां कृत्वा स्वस्वभागं सर्वे गृहान्ति ततस्तत्र शय्यातरवस्तु संमिश्रणप्रसङ्गात्स आहारोऽपि शय्यातर पिण्डदोषदूषितो भवेदिति न
कल्पते ॥ सू० ९ ॥
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
M
भाष्यम् उ० ९ सू० १०-१३ सागारिकज्ञातकाहारग्रहणाग्रहणविधिः २०५
सूत्रम्-सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए अन्तो सागारियस्स अभिनिप्पयाए सागारियं चोपजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पड़िगाहित्तए॥सू०१०॥
छाया--सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्यैकवगडायाम् अन्तः सागारिकस्याभिनिप्रजायां सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥१०॥
भाष्यम् –'सागारियस्स नायए सिया' सागारिकस्य-शय्यातरस्य ज्ञातकः-पूर्वोक्तस्वरूपः स्यात् स च 'सागारियस्स एगवगड़ाए अन्तो' सागारिकस्य-शय्यातरस्य-एकवगडायाम्-एकस्मिन् गृहे तदन्तःप्रदेशे एव निवसति, तथा-'सागारियस्स अभिनिपयाए' अभिनिप्रजायां तत्र-अभि-प्रत्येकं नि-नियता विविक्ता प्रजा अभिनिप्रजा पृथक्चुल्होत्यर्थः, तस्याम्, सागारिकादभिनिप्रजायाम्, सूत्रे पञ्चम्यर्थे षष्ठी आषत्वात् ततः सागरिकात् शय्यातरात् पृथक्चुल्हिकायां न्धनादिकं करोति किन्तु-'सागारियं चोवजीवइ' सागारिकमाश्रित्य चोपजीवति, शय्यातरस्यैव काष्ठलवणादिकं व्यवहरति । 'तम्हा दावए' तस्मात-सागारिकगृहस्थितपृथकचुल्लिकासंपादितभक्तपानादिकर्तस्वजनात् अन्नादिकं साधवे दद्यात् 'नो से कप्पड पडिगाहित्तए' तदप्याहारजातं नो-कथमपि न 'से' तस्य-श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् । यद्यपि-शय्यातरगृहे विद्यमानः स्वजनः पृथक् चुल्हिकायां रन्धनादिकं संपादयति तथापि शय्यातरस्य काष्ठादिकं व्यवहरतस्तस्य भक्तादिकमपि शय्यातरपिण्डत्वात् कथमपि साधुभिर्न ग्रहीतव्यमिति भावः ।। सू० १० ॥
सूत्रम्-सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए वाहि सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोपजीवइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पाड़िगाहित्तए ॥ सू० ११ ॥
छाया-सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्य एकवगडायां वहिः सागारिकस्यैकप्रजायां सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य, 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात्, स च 'सागारियस्स एगवगडाए' सागारिकस्य-शय्यातरस्य एकवगड़ायाम्-एकस्मिन्-गृहे बहिःप्रदेशे 'सागारियस्स एगपयाए' सागारिकस्य-शय्यातरस्य-एकप्रजायाम्-एकस्यामेव चुल्हिकायाम् भोजनादिकं निष्पादयति 'सागारियं चोवजीवई' सागारिकमुपजीवति-शय्यातरप्रदत्तकाष्ठजलादिभिराहारं निष्पादयति 'तम्हा दावए' तस्मात् सागारिकोपजीविस्वजन
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२
व्यवहारसूत्रे सूत्रम्-सागारियस्स आएसे वाहिं वगडाए भुजइ निहिए निसिढे पाडिहारिए तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० ३ ॥
सागारियस्स आएसे वाहिं वगडाए निट्ठिए निसिढे अपाडिहारिए, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए । सू० ४ ॥ - छाया-सागारिकस्याऽऽदेशो वहिर्वगडायां भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् प्रातिहारिकान् तस्मात् ददाति, नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३ ॥ . सागारिकस्य आदेशो बहिर्वगडायां मुक्ते निष्ठितान् निसृष्टान् अप्रातिहारिकान् तस्माद् ददाति, एवं कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू ४॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'आएसे' आदेश:–प्राधूर्णकादिः 'बाहिं वगडाए' बहिर्वगडायाम्-गृहस्य बहिर्भागे इत्यर्थः, शेषं सर्व पूर्वसूत्रद्वयवदेव व्याख्येयम् । तात्पर्यमेतावदेव प्राघूर्णकादिदत्तमाहारं तृतीयसूत्रोक्तं प्रातिहारिकत्वान्न साधूनां कल्पते । चतुर्थसूत्रोक्तं च कल्पते अप्रातिहारिकत्वात्तस्येति विज्ञेयम् ।। सू० ३-४ ॥
___ पूर्व प्राघूर्णकादिभ्यो दत्तस्य शय्यातराहारस्य निषेधो विधिश्च प्रदर्शितः, सम्प्रति दासादिभ्यः प्रदत्ताहारविषये निषेधं विधिंच सूत्रद्वयेनाह-'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स दासेइ वा, पेसेइ वा, भयएइ वा, भइण्णएई वा अंतोषगड़ाए भुंजइ निहिए निसिढे पाडिहारिए तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० ५॥
सागारियस्स दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ भइण्णएइ वा अंतो बगडाए भुंजइ निट्ठिए निसिढे अप्पाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए । सू० ६ ॥
छाया--सागारिकस्य दास इति वा प्रेष्य इति वा भृत्य इति वा भृतक इति वा अन्तर्वगडाय भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् प्रातिहारिकान् तस्माद् ददाति नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ५॥
सागारिकस्य दास इति वा प्रेष्य इति वा भृत्य इति वा भृतक इति वा अन्तर्वगडायां भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् अप्रातिहारिकान् तस्माद् ददाति एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।। सू० ६॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'दासेइ वा' दास इति वाआनन्ममरणावधि किङ्करः । पेसेइ वा प्रेप्य इति वा, तत्र-प्रेष्यो यो ग्रामान्तरे प्रेषणार्थ किङ्करः ग्रामान्तरसम्बन्धि कार्य करोतीत्यर्थः । 'भयएइ वा' भृत्य इति वा-तत्र-मृत्यः कश्चित्कालं मूल्येन धृतः, 'भइण्णएइ वा' मृतक इति वा प्रभूतकालार्थ क्रयक्रीतः । 'अंतो वगडाए' अन्तर्वगडायाम्
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९ सू० ७-६
सागारिकदासादेराहारग्रहणाग्रहणविधिः २०३ गृहमध्ये 'भुजई' भुते, इत्यादि सर्व पूर्ववद् व्याख्येयम् । विशेषस्त्वयम्-अस्मिन् पञ्चमे सूत्रे शय्या तरेण प्रातिहारिकतया दत्तत्वात्तदाहारजातं साधूनां न कल्पते तत्र शय्यातरस्वत्वत्वात् ॥ सू० ५ ॥
षष्ठे सूत्रे च अप्रातिहारिकत्वेन दत्तत्वात्तदाहारजातं कल्पते इत्येतावदेवाऽन्तरं पञ्चमषष्ठसूत्रयोरिति ।। सू० ६ ॥
पूर्व दासादिकमधिकृत्याऽन्तर्वगडासूत्रद्वयं प्रोक्तम्, सम्प्रति बहिर्वगडासूत्रद्वयमाह'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स दासेइ वा, पेसेइ वा, भयएइ वा भइण्णएइ वा, वाहि वगडाए झुंजइ निहिए निसिहे पाडिहारिए, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥सू०७॥
सागारियस्स दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ वा भइण्णएइ वा वाहि वगडाए मुंजइ निहिए निसिढे अप्पाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू०८॥
छाया-सागारिकस्य दास इति वा प्रेष्य इति वा भृत्य इति वा भृतक इति वा यहिर्वगडायांभु ङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् प्रातिहारिकान् तस्मात् ददाति नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।। खु० ७॥
सागारिकस्य दास इति वा प्रेष्य इति वा भृत्य इति वा-भृतक इति वा वहिवंगडायां भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् अप्रातिहारिकान् तस्माद् ददाति, एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ८॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'दासे इ वा दास इति वा, इत्यादि पूर्ववदेव वगडाया वहिर्दासादिभोजनग्रहणं सप्तमसूत्रे प्रातिहारिकत्वेन दत्तत्वान्न कल्पते ॥ सू० ७॥ ____ अष्टमसूत्रे च अप्रातिहारिकत्वेन दीयमानत्वात् कल्पते इति भावः ॥ सू० ८॥ अत्र सूत्राष्टकस्याय भावः-अत्रादितश्चत्वारि सूत्राणि बगडाया अन्तर्वहिरादेशमधिकृत्य कथितानि ४ । चत्वारि'च वगडाया अन्तर्वहिर्दासादिकमधिकृत्य कथितानि ४ (८) । तत्र-यत्र यत्र प्रातिहारिकं तत्र तत्र शय्यातरस्वत्वत्वात् शय्यातरपिण्ड इति न कल्पते । यत्र यत्र पुनरप्रातिहारिकं तत्र तत्र शय्यातरस्वत्वरहितत्वान्न सशय्यातरपिण्ड इति कल्पते साधूनां प्रतिग्रहीतुम् । यथा प्रथम-तृतीय-पञ्चमसप्तमसूत्रेषु शय्यातरपिण्डग्रहणदोषापत्तेरकल्प्यमाहरजातम् । द्वितीय-चतुर्थ-षष्ठाऽष्टमसूत्रेष शय्यातरस्वत्वरहितत्वान्न तत्र शय्यातरपिण्डत्वमिति तत् कल्प्यमिति ॥
अत्राऽऽशकते शिष्यः चत्वारि सूत्राणि आदेशविपयाणि, चत्वारि च दासादिविषयाणीति अष्टानां सूत्राणां पृथक् पृथक् कथन निरर्थकम्, आदेशस्य चतुर्थेव सूत्रेषु तेन सार्द्ध दासादीनामपि समावेशसंभवात् ? तत्राऽऽह-शृणु आदेशः कश्चिदपि कदाचिदागच्छति ततस्तस्याऽनि
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहरिस्त्र
सम्बन्धिभक्कादितो दद्यात् 'नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' नो तादृशमन्नम् 'से' तस्य श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुं, शय्यातरपिण्डत्वात् ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम्-सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए बाहिं सागारियस्स अभिणिपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पड़िगाहित्तए ॥ सू० १२॥
छाया-सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्य एकवगडायां वहिः सागारिकस्य अभिनिप्रजायां सागारिकं चोपजीवति तस्मात् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥सू०१२॥ .: भाष्यम्—'सागारियस्स' सागारिकस्य 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात् 'सागारियस्स एगवगड़ाए वाहि' सागारिकस्य शय्यातरस्य-गृहपते. एकवगड़ायामेकस्मिन् गृहे बहिः सागारिकस्य गृहाइहिर्भागे 'सागारियस्स अभिनिपयाए' सागारिकस्य अभिनिप्रजायां-पृथक् चुल्हिकायां रन्धनादिकं करोति, शेषं सर्वं पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥
अयं भावः- शय्यातरस्य कश्चित् स्वजनो भवेत् , स च शय्यातरस्य यद् गृहम् तस्य बहिर्भागे पृथक् पृथकू चुल्हिकाया भोजनादिकं संपादयति, परन्तु-शय्यातरस्य जललवणादिना संपादितस्वजनपाकाद् यदि साधवे ओदनादिकं समर्पयति, तादृशमोदनादिकं प्रतिग्रहीतुं श्रमणस्य न कल्पते, तादृशोदनादेरपि शय्यातरपिण्डत्वात् ॥ सू० १२ ॥
पूर्व सागारिकस्य प्रकरणेन-एकं गृहमाश्रित्याऽऽहारस्याऽनादेयत्वं कथितम् सम्प्रतिपृथक् पृथग् गृहमाश्रित्य शय्यातरपिण्डस्य-अनादेयतां कथयितुमाह-'सागारियस्स इत्यादि ।
- सूत्रम्--सागारियल्स नायए सिया सागारियस्स अभिणिबगड़ाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए अन्तो सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० १३॥
छाया-सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्य-अभिनिबगड़ायामेकद्वारायाम् एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् अन्तः सागारिकस्यैकप्रजायाम्, सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।। सू० १३ ॥
भाष्यम् -- 'सागारियस्स' सागारिकस्य-गृहपतेः 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात् । 'सागारियस्स अभिणिवगड़ाए' सागारिकस्य-शय्यातरस्य अभिनिवगडायाम्, तत्र-अभिप्रत्येकं नि-नियता विविक्ता-पृथग्भूता वगड़ा-गृहम् इति -अभिनिवगडा, तस्याम्-शय्यातर
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९ सू० १४-१६
सागारिकातकाहारग्रहणाग्रहणविधिः २०७
गृहात् पृथग्गृहे इत्यर्थः किन्तु 'एगदुवाराए' एकद्वारायाम् एकमेव द्वारं यस्यां सा एकद्वारा तस्यामेकद्वारायामभिनिवगडायाम्, पुनश्च 'एगनिक्खमणपवेसाए' एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् एक एव निष्क्रमणेति निष्क्रमणमार्गः प्रवेशेति प्रवेशमार्गश्च यत्र तथाभूतायाम् अभिनिवगडायाम् 'अन्तो' अन्तर्मध्ये-- एतादृशगृहस्याऽभ्यन्तरे 'सागारियस्स एगपयाए' सागारिकस्य एकप्रजायाम् एकस्यामेव प्रजायां - चुल्हिकायाम् यत्र चुल्हिकायाम् सागारिकः पचति तत्रैव तस्य स्वजनोऽपि रन्धनादिकं करोतीत्यर्थः, 'सागारियं चोवजीवइ' सागारिकं -- शय्यातरमाश्रित्य उपजीवति जीवनं यापयति । शेषं सर्वं पूर्वव्याख्यातवदेव वोध्यम् || सू० १३ ॥
सूत्रम् - सागारियस्स नायए सिया सागारियस्ल अभिनित्र गड़ाए एगदुवाराए एगनिक्मणपबेसाए तो सागारियस्स अभिणिपयाए सागारियं च उवजीवड़ तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडिगाहित्तए । सू० १४ ॥
छाया - सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्य अभिनिवगढ़ायाम् एकद्वारायाम् एक निष्कणप्रवेशायाम् अन्तः सागारिकस्य अभिनिप्रजायाम् सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १४ ॥
भाष्यम् – 'सागारियस्स' सागारिकस्य 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात् स च स्वजनः 'सागारियस्स अभिनिव्वगडाए' सागारिकस्य अभिनिवगड़ायाम् पृथग्गृहे इत्यर्थः किन्तु 'एगदुवाराए' एकद्वारायाम् - एकद्वारयुक्तायाम्, 'एगनिक्खमणपवेसाए' एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम्, एक एव निष्क्रमणस्य प्रवेशस्य च मार्गों यत्र तादृश्यामेकवगड़ायाम् । 'अन्तो' अन्तर्मध्ये 'सागारियस्स अभिनिपयाए' सागारिकस्य अभिनिप्रजायाम् – पृथग्भूतायां चुल्हिका+ याम्, रन्धनादिकं करोति, इत्यादि सर्वं पूर्ववदेव व्याख्येयम् ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम् - सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए बाहिं सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडिगाहित्तए । सू० १५ ॥
छाया - सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्य अभिनिवगडायाम् एकद्वारायाम् एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् वह्निः सागारिकस्य एकप्रजायाम् सागारिक चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १५ ॥
'भाष्यम् – 'सागारियस्स' सागारिकस्य - शय्यातरस्य 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात् स च 'सागारियरस' सागारिकस्य 'अभिनिव्वगडाए' अभिनिवगड़ायाम् - पृथग्भूतायां वसतौ पृथक् पृथग गृहे इति यावत्, किन्तु 'एगदुवाराए' एकद्वारायाम्, एग निक्खमणपवेसाए'
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८
व्यवहार
एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् 'बाहि' वहिर्भागे इत्यर्थः 'सागारियस्स एगपयाए' सागारिकस्य एकप्रजायाम् एकस्यामपि चुल्हिकायामित्यादिशेषस्य सर्वस्यापि पूर्ववद् व्याख्यानं कर्त्तव्यमिति ॥ १५ ॥
सूत्रम् - सागारियस्स नायए सिया सागारियस अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए वाहिँ सागारियस्स अभिनिप्पयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' ॥ ० १६॥
छाया - सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्य - अभिनिवगडायाम् पकद्वारायाम् एकनिष्क्रमण प्रवेशायां वहिः सागारिकस्य अभिनिप्रजायाम् सागारिकं चोपजीवति, तस्मात् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १६ ॥
भाष्यम् – 'सागारियस्स' सागारिकस्य 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात् स च सागारिकस्य स्वजनः 'सागारियरस' सागारिकस्य शय्यातरस्य 'अभिनिव्वगडाए' अभिनिवगड़ायाम्पृथग्वसता किन्तु 'एगदुवाराए' एकद्वारायाम् 'एग निक्खमणपवेसाए' एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् 'बाहिं' बहिः प्रदेशे 'अभिनिपयाए' अभिनिप्रजायाम् पृथकूचुल्हिकायाम् शेषं सर्वं व्याख्यातपूर्वसूत्रवद् बोध्यम् ।
"
अत्र ज्ञातकमधिकृत्य नवमसूत्रादारम्य षोडशसूत्रपर्यन्तानि अष्ट सूत्राणि सन्ति, तत्रादिमानि चत्वारि (९-१२) सूत्राणि सागारिकस्यैकगृहविषयाणि सन्ति, तानि यथा
२ सूत्रद्वयं गृहान्तः एकचुल्हिकाविषयं, पृथक्चुल्हिकाविषयं चेति । २ - सूत्रद्वयं च गृहाद्वहिरेऋचुल्हिकाविषयं, पृथक्चुल्हिकाविषयं चेति चत्वारि ४ ।
चरमाणि चत्वारि (१३-१६) सूत्राणि च - एकद्वारैकनिष्क्रमण प्रवेशयुक्तपृथग्गृहविषयाणि सन्ति, तानि यथा - २ सूत्रद्वयं गृहान्तः एकचुल्हिकाविषयं पृथकूचुल्हिकाविषयं । २ सूत्रद्वयं च ग्रहाद्वहिरेकचुल्हिकाविषयं पृथक् चुल्हिकाविषयं चेति च ।
9
एवमष्ट सूत्राणि सन्ति, एषु चाष्टस्वपि सूत्रेषु प्रदर्शितमशनादि साधूनां प्रतिग्रहीतुं न कल्पते, तत्र सर्वत्र सागारिकज्ञातयोः परस्परं काष्ठलवणतकादिव्यवहारसम्बन्धेन शय्यातरपिण्डदोषसंभवात् ।
ननु चतुर्षु प्रथम- तृतीय - पञ्चम - सप्तमरूपेषु सागारिकज्ञातकयोरेकचुल्होत्वेन तत्र निष्पादिताशनादौ सागारिक पिण्डदोषसम्भवः, किन्तु सागारिककाष्ठलवणादिव्यवहाररहितस्य तत्र निवासमात्रेण स्थितस्य ज्ञातकस्य पृथक्चुल्ही निष्पादितस्याऽशनादेर्ग्रहणे को दोषः ? येन तदपि अग्राह्यत्वेन भगवता प्रतिपादितम् ? तत्राह - तत्रापि भद्रकप्रसङ्गाद्यनेकदोषसम्भवः, भद्रक
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९ सू० १७-१८
चक्रिकाशालागतवस्तुग्रहणाग्रहणविधिः २०९
दोषा यथा-भद्रकः सागारिकश्चिन्तयति-यदहं शय्यातरोऽस्मीति साधवो मे भिक्षां न गृह्णन्ति तेनाहं साधुप्रतिलम्भनाद् वञ्चितो भवामीति विचार्य तं ज्ञातकं बूते-एते साधवः शय्यातरत्वेन ममाशनादि ग्रहीतुं नेच्छन्ति ततस्त्वमेतेभ्यः प्रभूतमशनादिकं देहि, यत्त्वं दास्यति तदहं तव प्रतिदास्यामीति । ज्ञातकश्चै कुर्यात् । अथवा स स्वयं तस्याशनादौ स्वकीयाशनादेः प्रक्षेपणं कुर्यादिति प्रक्षेपादिरूपभद्रकदोषाः संभवन्ति ।
प्रसङ्गदोषा यथा-सागारिकगृहस्थितज्ञातकाशनादेर्ग्रहणे सागारिकगृहप्रसङ्गाल्लोके शय्यातरपिण्डग्रहणाशङ्काऽवश्यम्भाविनीति प्रसङ्गदोषसम्भवः, अतो भगवता-एकगृहपृथग्गृहैकचुल्हीपृथक्चुल्हीनिष्पादितं सर्वविधमपि अशनादिकं सागारिकगृहसम्बन्धात् साधूनामकल्प्यत्वेन प्रतिपादितमित्यलं विस्तरेणेत्यष्टसूत्रीभावः ॥ सू० ९-१६ ॥
पूर्व सागारिकगृहस्थितिसंबन्धात्तत्र निवसतस्तत्स्वजनस्याऽपि अशनादि साधूनां प्रतिग्रहीतुं न कल्पते इति प्रोक्तम्, साम्प्रतं पण्यशालास्थितस्य साधुयोग्यवस्तुजातस्य ग्रहणे सागारिकसंबन्धासम्बन्धमधिकृत्य यथायोग विधिनिषेधं प्रदर्शयन् चक्रिकाशालादिषोडशसूत्रीमाह'सागारियस्स चक्कियासाला' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स चक्कियासाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० १७ ॥
छाया-सागारिकस्य चक्रिकाशाला साधारणावक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १७ ॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'चक्कियाशाला' चक्रिकाशाला तैलविक्रयशाला, कीदृशीत्याह-'साहारणवक्कयपउत्ता' साधारणावक्रयप्रयुक्ता, तत्र-सागारिकस्य अन्यस्य भागिकस्य च द्वयोः साधारण-प्तमानोऽवक्रयः विक्रयणं तेन प्रयुक्तानियोजिता, यत् तस्यां शालायां तिलादि प्रक्षिप्यते, यश्च तत्र लाभो भवेत् तत्सर्वं सागारिकेण भागिकेन च साधारण-समानं, तज्जातलाभादेः समानो भागो न्यूनाधिको वा भागो भविष्यतीति नियमेन प्रयुक्ता चक्रिकाशाला भवेत्, 'तम्हा दावए' तस्माद् दद्यात्, तस्माद्-साधारणांवक्रयशालागतवस्तुजातमध्याद् यद्वस्तु साघोर्योग्य तैलादिकं तदन्यद्वा साधवे दद्यात् तदा तद्वस्तु 'नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' नो-नैव 'से' तस्य-श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।
व्य २५
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
व्यवहारसूत्रे अयं भावः–कस्यचित् शय्यातरस्य तैलशाला विद्यते तस्य अन्य एकोऽनेकेवाऽधिकारिणो ___ भवेयुः, शालातस्तैलादीनां विक्रयकरणेन यो लाभो जायते स एकस्य न भवति, किन्तु-अने
केषु विभज्यते, तत्र यो विक्रेता-स यदि साधवे तैलादिकं किमपि दद्यात् तादृशं वस्तु-तैलादिकं साधूनां ग्रहीतुं न कल्पते इति निषेधसूत्रम् ॥ सू० १७ ॥
अथ विधिसूत्रमाह--'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्--सागारियस्स चक्कियासाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० १८॥
छाया-सागारिकस्य चक्रिकाशाला निस्साधारणाऽचक्रयप्रयुक्ता, तस्माद् दद्यात् ___एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १८ ।।
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातस्य-गृहस्थस्य 'चक्कियासाला' चक्रिकाशाला-तैलविक्रयशाला वर्तते किन्तु सा 'निस्साहरणवक्कयपउत्ता' निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता निस्साधारणः--सागारिकभागरहितोऽवक्रयो विक्रयणम् , अत्र यत्किञ्चित्तैलादि, तत्संजातलाभश्च भविष्यति तत्सर्व तवैव न मम, इत्येवंरूपेण प्रयुक्ता-नियोजिता भवेत् , स्वतन्त्ररूपेण तस्यैव चक्रिकस्य न तु सागारिकस्य तत्र भागो विद्यते 'तम्हा दावए' तस्मात् तादृशनिःसाधारणचक्रिकाशालामध्यात् यत् साधूचित्तं तैलादिकमन्यद्वा वस्तु आपणस्थविक्रेता दद्यात् ‘एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए' एवंप्रकारेण दीयमानं तैलादिकम् 'से' तस्यश्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।
या खलु शाला साधारणा सागारिकभागयुक्ता भवेत् तन्मध्याद् दीयमानं वस्तु साधूनां न कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति सप्तदशसूत्रस्याशयः । या तु खलु निस्साधारणा-सागारिकभागवर्जिता भाटकेन गृहीता, व्यापारमाश्रित्य चक्रिकस्य स्वतन्त्रा शाला भवेत्तन्मध्याद् दीयमानं तैलादिकं वस्तु साधूनां कल्पते प्रतिग्रहीतुम् । इत्यष्टादशसूत्रस्याशयः, एवमग्रेऽपि गौडिकशालादिसूत्राणि वोध्यानीति ।। सू० १८ ॥
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९ सू० १९-३२
गौडिकशाला दिगतवस्तुग्रहणाग्रहणविधिः २ ११
अथ गौडिकशाला दिचतुर्दशसूत्राण्याह - 'सागारियस्स गोलियसाला' इत्यादि । सूत्रम् - सागारियस्स गोलियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडिगाहित्तए । सू० १९ ॥
सागारियस गोलियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दाव एवं से पडिगाहित्तए ।। सू० २० ॥
कप्पइ
सागारियस वोधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पर पडिगाहित्तए || सू० २१ ॥
सागारियस वोधियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिगाहित्तए || सू० २२ ॥
सागारियस्स दोसियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्दा दावए नो से कप्पड़ पडि गाहित्तए | सू० २३ ॥
सागारियस दोसियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तुम्हा दावए एवं से कप पडिगा हित्तए | सू० २४ ॥
सागारियस्स सोत्तियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए || सू० २५ ॥
छाया - सागारिकस्य गौडिकशाला साधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात्, नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १९ ॥
सागारिकस्य गौडिकशाला निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता, तस्मात् दद्यात् पर्व तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २० ॥
सागारिकस्य वोधिकशाला साधारणावक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २१ ॥
सागरिकस्य वोधिकशाला निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २२ ॥
सागारिकस्य दौषिकशाला साधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २३ ॥
सागारिकस्य दौषिकशाला निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात्, एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २४ ॥
नो तस्य
सागारिकस्य सौत्रिकशाला साधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता, तस्माद् दद्यात्, करुपते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २५ ॥
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
व्यवहारसूत्रे सागारियस्स सोत्तियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्ही दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए । सू० २६ ।।
सागारियस्स वोडयसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दोवए नो से कप्पइ __ पडिगाहित्तए ॥ सू० २७॥
सागारियस्स बोंडयसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० २८॥
सागारियस्स गंधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्ही दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए । सू० २९॥
सागारियस्स गंधियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू०३०॥
सागारियस्स सौडियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पई पडिगाहित्तए ॥ सू० ३१ ॥
सागारियस्स सोडियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० ३२ ॥
छाया-सागारिकस्य सौत्रिकशाला निःसाधारणावक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् , एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २६ ॥
सागारिकस्य वोडजशाला साधारणावक्रयप्रयुक्ता, तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २७ ॥
सागारिकस्य बोंडजशाला निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २८ ॥
सागारिकस्य गान्धिकशाला साधारणावक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् । सू० २९ ॥
सागारिकस्य गान्धिकशाला निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।। सू० ३० ॥
सागरिकस्य शौण्डिकशाला साधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३१ ॥
सागारिकस्य शौण्डिकशाला निःसोधारणावक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।। सू० ३२ ॥
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९ सू० ३३-३६
औषध्याम्रफलग्रहणाग्रहणविधिः २१३ भाष्यम्-'सागारियस्स गोलियसाला' इत्यादीनि एकोनविंशतितमसूत्रादारभ्य द्वात्रिंत्तमसूत्रपर्यन्तानि चतुर्दश सूत्राणि चक्रिकाशालावत् प्रायः समानव्याख्यानानि सन्ति, तत्रै विषमपदव्याख्या प्रतन्यते-'गोलियसाला' गौडिकशाला-गुडविक्रयशाला ॥ सू० १९ ॥२०॥ 'बोधियसाला' वोधिकशाला-तन्दुलादिक्रयाणकविक्रयशाला ॥ सू० २१।२२ ॥ 'दोसियसाला' दौषिकशाला-वस्त्रविक्रयशाला ॥ सू० २३ ॥ २४ ॥ 'सोत्तियसाला' सौत्रिकशाला-सूत्रविक्रयशाला ॥सू० २५।२६ ॥ 'वोडयसाला' बोण्डजसाला-कर्षासविक्रयशाला ।। सू० २७।२८ ॥ 'गंधियसाला' गान्धिकशाला-गन्धद्रव्यविक्रयशाला ॥ सू० २९।३०॥ 'सोडियसाला' शौण्डिकशाला-'सुखडी'-तिप्रसिद्धमिष्टान्नविक्रयशाला कान्दविकापण इत्यर्थः ॥ सू० ३१३२॥ तथाविधा अन्या अपि शाला भवेयुः, तासु सर्वासु शालासु मध्ये या या 'साहारणवक्कयपउत्ता' साधारणावक्रयप्रयुक्ता--सागारिकभागयुक्ता भवेत्तन्मध्याहीयमानं किमपि गुडादिवस्तुजातं साधूना ग्रहीतुं नो कल्पते, तत्र सागारिकभागसत्त्वेन शय्यातरपिण्डदोषसद्भावात् । तथा-या या च 'निस्साहारणवक्कयपउत्ता' निस्साधारणावक्रयप्रयुक्ता-सागारिकभागवर्जिता स्वतन्त्रा गुडादिविक्रेतुरेव स्वाधीना न तु तत्र कस्याप्यन्यस्य सागारिकस्य वा आंशिकोऽपि भागो वर्तते, तस्या लाभादिग्राही तदधिकारी च स एक एव भवेत् , अथवा सागारिकव्यतिरिक्ता अनेके वा भागिनो भवेयुः किन्तु यत्र सागारिकभागो न भवेत्तादृश्याः शालाया मध्याहीयमानं गुडादिवस्तुजातं साधूनां प्रतिग्रहीतुं कल्पते, तत्र सागारिकभाग रहितत्वान्न तद्ग्रहणे दोषः । इत्येकोनविंशतितमसूत्रादारभ्य द्वात्रिंशत्तमसूत्रपर्यान्तानां चतुर्दशसूत्राणां तात्पर्यम् ॥ एषु चतुर्दशसु सूत्रेषु मध्ये सप्तसु प्रथम-तृतीय-पञ्चम-सप्तम-नवमै-कादश-त्रयोदश-रूपेषु(१९-२१. २३-२५-२७-२९-३१) शय्यातरभागसत्त्वात्तत्तच्छालातो दीयमानं वस्तुजातं साधूनामकलयम् । तथा सप्तसु-द्वितीय--चतुर्थ--षष्ठा-ऽष्टम-दशम-द्वादश-चतुर्दशरूपेषु (२०-२२-२४-२६२८-३-०-३२) शय्यातरभागराहित्येन तत्तच्छालातो दीयमानं वस्तुजातं साधूनां कल्प्यमिति चतुर्दशसूत्राशयः ॥ सू० १९-३२ ॥
पूर्व सागारिकशालामधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधिः प्रदर्शितः, साम्प्रतं सूपकाररसवत्यां पच्यमाना औषधीरधिकृत्य सागारिकाऽसागारिकाहारे कल्प्याकल्प्यविधि सूत्रद्वयेनाहै-'सांगारियस्स ओसहीओ' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स ओसहीओ संथडाओ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए । सू० ३३ ॥
सागारियस्स ओसहीओ असंथदाओ तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० ३४ ॥
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
छाया - सागारिकस्य औषधयः संस्तुताः ताभ्यो दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३३ ॥
सागारिकस्य औषधयोऽसंस्तृताः ताभ्यो दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३४ ॥ भाष्यम् – 'सागारियस्स' सागारिकस्य - शय्यातरस्य 'ओसहीओ' औषधयः--शालिव्रीहिगोधूमादयः, तन्निष्पादितानि भोज्यजातान्यपि औषधिशब्देन व्यवहियन्ते तेन शाल्यादिनिष्पादितानि भोज्यजातानि तदन्या वा ओषधयः सुण्ठयादयो या भवन्ति 'संथडाओ' संस्तृताः--सूपकाररसवत्यां सर्वसाधारणतया संस्कृताः पाचिताः साधारणा इति यत्राऽन्येपि स्वत्वान्नादिकं पाचयन्ति ततः सर्वेषां संमिलिता इत्यर्थः 'तम्हा दावए' तस्माद् - ओषधिसम्बन्धिभोजनजातात् सूपकारः श्रमणाय दद्यात् 'नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' तादृशं दीयमानमन्नादिकं नो--नैव 'से' तस्य - श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३३ ॥
अथ च या औषघयः असंस्तृताः असाधारणाः सागारिक भागरहिताः, विभज्य तन्मध्यात् शय्यातरभागो निष्कासितो भवेत्तादृशभोजनमध्याद् यदि सूपकारो दद्यात्तदा कल्पते साधूनां प्रतिग्रहीतुम् ।
अयं भावः — सूपकारस्य पाकशालायां विवाहादिविविधमहोत्सवप्रसङ्गे लोका विविधा औषधीः पाचयन्ति तत्र सागारिकोऽपि पाचयति, ता द्विप्रकारका भवन्ति संस्वृताः साधारणाः सर्वेषां भागयुक्ताः, असं स्तृताः - असाघारणाः अन्यभागरहिता इति । तत्र या औषधयः शय्यातरेण सह साधारणाः - शय्यातरेणाऽविभक्तीकृताः, ता औषघयो दीयमाना अपि साधूनां न कल्पते प्रतिग्रहीतुम्, सागारिकभागाविभक्तत्वेन तासां सागारिकपिण्डत्वस्यैव सद्भावात् । ता एव विभक्तीकृताः सागारिकपिण्डरूपा न भवन्ति ततश्च ताः प्रतिग्रहीतुं कल्पते साधूनामिति सूत्रयभावः ॥ सू० -३४ ॥
पूर्व मोषधिविषयं कल्प्या कल्प्य सूत्रमुक्तम्, साम्प्रतमाम्रफलान्यधिकृत्य कल्प्या कल्प्यविधि सूत्रद्वयेनाह - 'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् - सागारियस्स अंबफला संथडा तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगा - हित्तए || सू० ३५ ||
सागारियस्स अंबफला असंधडा तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ।। सू० ३६ ॥
छाया - सागारिकस्य--आम्रफलानि संस्तृतानि तेभ्यो दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३५ ॥
सागारिकस्य- आम्रफलानि असंस्कृतानि तेभ्यो दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् || सू० ३६ ॥
૨૪
"
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९. स० ३७
सप्तसप्तकिकाभिक्षुप्रतिमास्वरूपम् २१५
भाष्यम् -'सागारियस्स' सागारिकस्य 'अंवफला' आम्रफलानि शर्करादिशस्त्रपरिणताम्रफलानीत्यर्थः सचित्तानामकल्प्यत्वात् 'संथडा' संस्तृतानि अविभक्तानि यथा-अन्यस्य यत्राधिकारः शय्यातरस्याऽपि तत्राधिकारो भवेत् 'तम्हा दावए' तेभ्यस्तादृशेम्योऽचित्तफलखण्डेभ्यः साधवे दद्यात् तदा 'नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' तादृशानि दीयमानानि आम्रखण्डानि न कथमपि 'से' तस्य श्रमणस्य प्रतिग्रहीतुं--स्वीकर्तुं कल्पते ॥ सू० ३५ ॥
अथ च यदि 'सागारियस्स' सागारिकस्याऽचित्तानि आम्रफलखण्डानि 'असंथडा' असंस्तृतानि-सागारिकभागरहितानि भवेयुः, तदा तन्मध्यादीयमानानि तान्याम्रफलानि साधूनां कल्पते ॥ सू० ३६ ॥
पूर्व शय्यातरपिण्डो न ग्राह्य इति प्रोक्तम् , तस्याऽग्रहणेऽज्ञातभिक्षाग्रहणरूपोऽभिग्रहो जातः, प्रतिमाऽपि चाभिग्रह एवेत्यभिग्रहप्रसङ्गात् प्रतिमाविधिमाह-'सत्तसत्तमिया णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एग्णपन्नाए राइदिएहिं एगेण छन्नउएणं भिक्खासएणं अहामुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मकाएणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ ॥ सू० ३७॥
छाया--सप्तसप्तकिका खलु भिक्षुप्रतिमा एकोनपञ्चाशता रात्रिदिवैरेकेन षण्णवतेन भिक्षाशतेन यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग यथातथ्यं सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आश्या अनुपालिता भवति ॥ सू० ३७ ॥
भाष्यम्-'सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमां' सप्तसप्तकिका खल्ल भिक्षुप्रतिमा, तत्र- सप्त सप्तकानि विद्यन्ते यस्यां सा सप्तसप्तकिका, अथवा-सप्तभिः सप्तकैरन्तः समाप्तिर्यस्याः सा सप्तसप्तकिका, 'सत्तसत्तमिया' इत्यत्र ककारस्य मकारः प्राकृतत्वात् 'णं शब्दो' वाक्यालङ्कारे, सप्तसप्तकिका-सप्तसप्तकदिवसयुक्ता प्रतिमा (४९) एकोनपश्चाशदिवससंपाद्या प्रतिमेत्यर्थः । तदेवाह-सा च प्रतिमा-अभिग्रहविशेषरूपा सप्तसप्तकिका प्रतिमा, 'एगणपन्नाए राइंदिएहिं' एकोनपञ्चाशता रात्रिंदिवैः, सप्तानां सप्तभिर्गुणने जायन्ते एकोनपञ्चाशद्रात्रिन्दिवानि, तैः, तथा-'एगेण छन्नउएणं भिक्खासएणं' एकेन षण्णवतेन भिक्षाशतेन, दिनानां सप्तसप्तके एकोनपञ्चाशद् दिवसा भवन्ति, तत्र च पण्णवत्यधिकं भिक्षाशतं भवति । तथाहि-प्रथमसप्तके प्रतिदिनमेकैका दत्तिराहारस्य पानस्य च गृह्यते ७। द्वितीये सप्तके द्वे द्वे दत्ती १४ । तृतीये सप्तके तिस्रस्तिस्रो दत्तयः २१ । चतुर्थे सप्तके चतनश्चतस्रो
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm दत्तयः २८ । पञ्चमे सप्तके पञ्च पञ्च दत्तयः ३५, षष्ठे सप्तके षट् षट् दत्तयः ४२ । सप्तमे सप्तके सप्त सप्त दत्तयो गृह्यन्ते ४९ । इति सप्तभिः सप्तकैरेकोनपञ्चाशदिवसैर्जायते षण्णवत्यधिकमेकं शतम् (१९६) भिक्षादत्तीनामिति ।
॥ सप्तसप्तकिकाभिक्षुप्रतिमाकोष्ठकम् ॥
-
-
संकलनम्
दत्तिः दत्तिः
दत्तिः
مع | ع | س ا ه امام
२८
दत्तिः दत्तिः दत्तिः
४२
४९
संकलनम् | २८
संकलनम् २८ | २८ | २८ | २८ | २८ | २८ | १९६
एषा च सप्तसप्तकिका भिक्षप्रतिमा 'अहासुत्तं यथासूत्रम्-सूत्रमनतिक्रम्य यद् भवतितत् , सूत्रोक्तप्रकारान् अनतिक्रम्येत्यर्थः । 'अहाकप्पं' यथाकल्प-कल्पमनतिक्रम्य साधुकल्पानुसारमित्यर्थः । 'अहामग्गं' यथामार्गम् मार्गः-ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपः, तमनतिक्रम्य यद् भवति तत् , ज्ञान-दर्शन-चारित्राणामविराधनेनेत्यर्थः । 'अहातच्चं' यथातथ्यं , तथ्यं वास्तविकता, तद् अनतिक्रम्य-एकान्ततः सूत्रानुसारेण संपादितं सत्यतयेत्यर्थः । 'सम्मकाएणं' सम्यग्यथार्थतया कायेन कायग्रहणात् त्रिविधेनापि मनोवाक्काययोगेन ‘फासिया' स्पर्शिताविराधनारक्षणतः सेविता, 'पालिया पालिता सम्यग्रूपेण परिपालनात् , अत एव 'सोहिया' शोधिता ईपदपि अतिचाराभावत् 'तीरिया' तारिता तीरं-पारं-नीता-प्राप्ता पर्यन्तं नीतेत्यर्थः, 'किटिया' कीर्तिता-आचार्याणां पुरतः कथिता यथा मया प्रतिमा समाप्तेति, 'आणाए अणुपा: लिया भवई' आज्ञया-तीर्थकराज्ञया-तीर्थकराज्ञानुसारेण अनुपालिता-सम्यग्ररूपेण प्रतिपालिता भवति सा सप्तसप्तकिका भिक्षुप्रतिमा ॥ सू० ३७ ॥
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९ सू० ३८-३९
अष्टाष्टकिका-नवनवकिकामिक्षुप्रतिमानि० २१७. अथाष्टाष्टकिकां भिक्षुप्रतिमामाह-'अट्टअट्टमिया' इत्यादि।
सूत्रम्-अट्टअट्टमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्टीए राइदिएहिं दोहि य अट्ठासीएहिं भिक्खासएहिं अहामुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मकाएणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ ।। सू० ३८॥
छाया-अष्टाष्टकिका खल्लु भिक्षुप्रतिमा चतुष्षष्टया रात्रिन्दिवैः द्वाभ्यां चाष्टाशोताभ्यां भिक्षाशताभ्यां यथासूत्रम् यथाकल्पम् यथामार्गम् यथातथ्यम् सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्त्तिता आशयाऽनुपालिता भवति ॥ सू० ३८ ॥ .
भाष्यम्-'अटूअहमिया णं भिक्खुपडिमा' अष्टाष्टकिका-अष्ट अष्टकानि दिनानां प्रमाणं यस्यां सा अष्टाष्टकिका एतादृशी भिक्षप्रतिमा 'चउसट्ठीए राइदिएहि चतुष्षष्टया-चतुष्पष्टिकैः-चतु: प्पष्टिसंख्यकै रात्रिन्दिवै.-अहोरात्रैः, तथा 'दोहि य अट्ठासीएहिं भिक्खासएहि' द्वाभ्यामष्टाशीताभ्यां भिक्षाशताभ्याम् , तथाहि-अष्ट अष्टकानीति अष्ट अष्टभिर्गुणने चतुष्पष्टिरहोरात्राणि अस्याः सम्पन्नतायां भवन्ति । एषु चतुष्पष्टिसंख्यकेषु दिवसेषु प्रथमेऽष्टके एकैका दत्तिरिति अष्ट दत्तयः८, द्वितीयेऽष्टके द्वे द्वे दत्ती इति पोडश दत्तय. १६, तृतीयेऽष्टके तिम्रस्तिस्रो दत्तय इति । चतुर्विशतिर्दत्तयः २४, चतुर्थेऽष्टके चतस्रश्चतस्र इति द्वात्रिशद् दत्तयः ३२, पञ्चमेऽष्टके पञ्च पञ्चेति चत्वारिंशद्दत्तयः ४०, घष्ठेऽष्टके षट् पडिति अष्टचत्वारिंशदत्तयः ४८, सप्तमेऽष्टके सप्त सप्तेति षट्पञ्चाशद्दत्तयः ५६, अष्टमेऽष्टकेऽष्टाष्ट दत्तयो भिक्षाया इति चतुष्पष्टिदेत्तयः ६४) आसां सर्वसकलने चतुष्पष्टिदिवसैर्जाते अष्टाशीत्यधिके द्वे शते (२८८) भिक्षादत्तीनामिति । ..
एतावद्विक्षादत्तिभिरेषा अष्टाष्टकिका भिक्षप्रतिमा यावदाज्ञयाऽनुपालिता भवति । शेष सर्व पूर्वसूत्रवदेव व्याख्येयम् । सू० ३८ ॥
॥ अष्टाष्टकिकाभिक्षुप्रतिमाकोष्टकम् ॥ दत्तिः दत्तिः
। २ । २ । २ दत्तिः
|ur
ocIWA
|| r3
२४
३२
दत्तिः
४८
दत्तिः दत्तिः दात्त: दत्तिः
५६
६४
३६ | ३६ । ३६ | ३६ | ३६ ।
१९६
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
अथ नवनवकिकां भिक्षुप्रतिमामाह - 'नवनवमिया णं' इत्यादि ।
सूत्रम्- 'नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीए राईदिएहिं चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खासएहिं अहासुतं अहाकप्पं अहासगं अहातच्च सम्मकारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ || सू० ३९॥
छाया - नवनव किका खलु भिक्षुप्रतिमा एकाशीत्या रात्रिन्दिवैः चतुर्भिश्च पञ्चोतरैभिक्षाशतैः यथासूत्र यथाकल्पं यथामागं यथातथ्यं सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आज्ञयाऽनुपालिता भवति ॥ सू० ३९ ॥
भाष्यम् – 'नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा ' नवनवकिका नवेति नवसंख्यकानि नघकानि यस्यां सा नवनवकिका भिक्षुप्रतिमा 'एगासीए राईदिएहिं' एकाशीत्या रात्रिन्दिवै एकाशीतिसंख्यकैरहोरात्रैरित्यर्थः ' चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खास हिं' पञ्चोत्तरैः पञ्चाधिकै चतुर्भिश्व भिक्षाशतैः ।
तथाहि—प्रथमे नवके प्रतिदिनमेकैका दत्तिरिति नव ९, द्वितीये नवके द्वे द्वे दत्ती इति अष्टादश १८, तृतीये नवके तिस्रस्तिस्र इति सप्तविंशतिः २७, चतुर्थे नवके चतस्रश्चतस्र इति षट्त्रिंशत् ३६, पञ्चमे नवके पञ्च पञ्चेति पञ्चचत्वारिंशत् ४५, षष्ठे नवके षट् षडिति चतुपञ्चाशत् ५४, सप्तमे नवके सप्त सप्तेति त्रिषष्टिः ६३, अष्टमे नवके अष्टाष्टेति द्विसप्ततिदत्तयः ७२, नवमे नवके नव नवेति-- एकाशीतिर्दत्तयः ८१, आसां सर्वसंकलने एकाशीतिदिवसैः पञ्चोत्तराणि चत्वारि शतानि (४०५ ) भिक्षाया भवन्ति । एतावद्भिक्षादत्तिभिरेषा नवनवकिका भिक्षुप्रतिमा यावदाज्ञयाऽनुपालिता भवति । शेषं सर्व सप्तसप्तकिकाभिक्षुप्रतिमासृत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू० ३९॥
॥ नवनवकिकाभिक्षुप्रतिमाकोष्टकम् ॥
१
१ १
२
२
R
३ ३
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
r | M
३
3 w 9 |
६
१ १
२
mr | 20
३
४
5 || १ | ७
५
६
५
१ २
४ ०४ २०० | 5 | १ | | ॐ
rm | 2০ | 5 w
পনন। ০ 5 | १ ७ ० \ w १
९ ९
३
४
५.
६ ६
१
२
८
rm 20s w १ ७ ०
3 x 5 w9v
३
४
५
४
५
६
७
८
20 5 w | 9
९
५
६
१
ov
७
८ ८
९ ९
संकलनम् ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५
२
३
४
व्यवहारसुत्रे
५
w
९
१८
२७
३६
४५
५४
६३
७२
८१
४०५
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० सू० ४०
देशदशकिकाभिक्षुप्रतिमानिरूपणम् २१९
अथ दशदशकिकां भिक्षुप्रतिमामाह - 'दसदसमिया णं' इत्यादि ।
सूत्रम् - दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइदियसरणं अद्धछट्ठेहि य भिक्खा एहिं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मकारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किहिया आणाए अणुपालिया भवइ ॥ सू० ४० ॥
छाया - दशदशकिका खलु भिक्षुप्रतिमा एकेन रात्रिन्दिवशतेन अर्द्धषष्ठेश्च भिक्षाशतैः ः यथासूत्रम् यथाकल्पम् यथामार्गम् यथातथ्यम् सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्त्तित्ता आशया अनुपालिता भवति ॥ सू० ४० ॥
भाष्यम् – 'दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा दशदशकिका खलु भिक्षुप्रतिमा, तत्र दशदशकिका - दश दशकानि यस्यां सा दशदशकिका, एतादृशी भिक्षुप्रतिमा अभिग्रहविशेषः । सा च भिक्षुप्रतिमा 'एगेणं राईदियस एणं' एकेन रात्रिन्दिवशतेन, दश दशभिर्गुणिताः भवति शतमेकं रात्रिन्दिवानामिति रात्रिन्दिवानामेकशतेन, तथा शतसंख्यक दिवसेषु 'अद्धछट्ठेहि य भिक्खा - सएहिं' अर्द्धषष्ठैश्च भिक्षाशतै., अर्द्ध पष्ठं शतं भिक्षाणां यत्र तानि अर्द्धषष्ठानि भिक्षाशतानिः, वैः पञ्चाशदधिकैः पञ्चभिः शतैरित्यर्थः (५५०), शतसंख्यकै रात्रिन्दिवैः, तत्संबन्धिभिः पञ्चाशदधिकपञ्चशत(५५०)संख्यकै' भिक्षाप्रमाणैरेषा दशदशकिका भिक्षुप्रतिमा यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्गं यथातथ्यं सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्त्तिता आज्ञया अनुपालिता भवति ।
अथ भिक्षुप्रतिमानां कालप्रमाणं भिक्षाप्रमाणं तत्प्रमाणानयनविधिश्च प्रदर्श्यते, तथाहितत्र सप्तसप्तकिकायाः कालः एकोनपञ्चाशद् रात्रिन्दिवानि ४९ । अष्टाष्टकिकायाः प्रतिमायाः कालः चतुष्षष्टी रात्रिन्दिवानि ६४ । नवनवक्किकाया एकाशीती रात्रिन्दिवानि ८१ । दशदशकिकायाः परिपूर्णं शतं रात्रिन्दिवानाम् १०० । सर्वप्रतिमानामधिकृतसूत्रचतुष्टयोपेतानां पृथक् पृथगेतावानेव भवति काल इति कालप्रमाणम् ।
सम्प्रति भिक्षापरिमाणमाह - सप्तसप्तकिकायां भिक्षापरिमाणं षण्णवत्यधिकं शतम् (१९६) भिक्षाणां भवति । अष्टाष्टकिकायाम् - अष्टाशीत्यधिके द्वे शते (२८८) भिक्षाणां भवतः । नवनवक्रिकायां पञ्चोत्तराणि चत्वारि शतानि (४०५) । दशदशकिकायां प्रतिमायामर्द्धषष्ठानि पञ्च शतानीति पञ्चाशदधिकानि पञ्च शतानि ( ५५० ) भिक्षाणां भवन्ति ।
भिक्षाप्रमाणानयनविधि' प्रदर्श्यते तथाहि - सप्तसप्तकवर्गदिवसाः एकोनपञ्चाशत् (४९) ते मूलदिवसैः सप्तभिर्युताः क्रियन्ते, ततो जाताः षट्पञ्चाशत् (५६) । तेऽर्धीक्रियन्ते, ततो जाता अष्टाविंशतिः (२८) । सा मूलेन सप्तकेन गुण्यते, तदा - आगतं षण्णवत्यधिकं शतम् (१९६) । सप्त सप्तकिकाप्रतिमाभिक्षापरिमाणम् ।
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्यवहारसूत्र तथा-अष्टाऽष्टकवर्गदिवसाः चतुष्पष्टिः (६४)। ते मूलदिवसैरष्टभिः संमिश्यन्ते ततो जाता द्वासप्ततिः (७२)। तस्या अर्धे क्रियते, ततो जाताः षट्त्रिंशत् (३६)। ते मूलेनाऽष्टकेन गुण्यन्ते जाते द्वे शतेऽष्टाशीव्युत्तरे-(२८८) अष्टाष्टकिकाप्रतिमाभिक्षापरिमाणम् ।।
एवं नवनवकिकायां दशदशकिकायां च भिक्षुप्रतिमायां यथोक्तं भिक्षापरिमाणं ज्ञातव्यम् ।। सू० ४०॥
॥ दशदशकिकाभिक्षुप्रतिमाकोष्ठकम् ॥ दत्तिः | १ | १/१ | १ | १ | १ | १ | १ | १ १ दत्तिः | २ | २ २ २ २ | २ | २ | २ | २ | २
Jam|
दत्तिः
m
३०
m|
|
0|
0 |
|3|
६०
|
७०
दत्तिः । ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ | दत्तिः ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ | दत्तिः ७७७ | ७ | ७ |७|| ७ | ७ | | दत्तिः । ८८८८८८८८८ ८० | दत्तिः। ९ ९ ९ ९ ९/९ | ९| ९ / ९/९/ ९० | दत्तिः |१०|१०|१०|१०|१०|१०|१०|१०१०१० १०० ॥ संकलनम् | ५५ ५५ ५५ ५५ ५५ ५५ ५५ ५५ ५५ ५५ ५५०
अथ सप्तसप्तकिकादिभिक्षुप्रतिमाचतुष्टयस्य कालभिक्षापरिमाणादिसंग्राहकं गाथापञ्चकमाह-पढमाए' इत्यादि । गाथा-'पढमाए पडिमाए, कालो एगणपन्न दिवसाणं ।
बीयाए चउसट्ठी, एगासीई य तइयाए ॥ १ ॥ चोत्थीए सयमेग, दिवसाणं होइ चउण्ह पडिमाणं । भिक्खाणं परिमाणं, वोच्छं चउसुंपि पडिमासु ॥२॥ दत्ती पढमे एगा, निच्चं वढिज्ज एवमिक्किक्क । सत्त-ऽट-नवम-दसम, सत्तगमाइं च भिक्खाणं ॥३॥
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १ सू० ४०
छाया
सप्तसप्तकिकादिप्रतिमानां कालभिक्षापरिमाणनि० २२१
छण्णउयं सयमेगं, अट्ठासीई य दो सया णेया । पंचुत्तरा चउसया, पण्णासऽहिया य पंच सया ॥ ४ ॥ पडिमा चउपि य, भिक्खापरिमाणमेत्थ पुव्वृत्तं । कमसो एया सव्वा, आणाए पालिया होंति" ॥ ५ ॥ इति । प्रथमायाः प्रतिमायाः काल एकोनपञ्चाशद्दिवसानाम् । द्वितीयायाश्चतुष्षष्टिः, एकाशीतिश्च तृतीयायाः ॥ १ ॥ चतुर्थ्याः शतमेकं दिवसानां भवति चतसृप्रतिमानाम् । भिक्षाणां परिमाणं, वक्ष्ये चतसृष्वपि प्रतिमासु ॥ २ ॥ दत्तिः प्रथमे एका नित्यं वर्द्धयेद् एवमेकैकाम् । सप्तमा-ऽष्टम-नवम-दशमं, सप्तकादि च भिक्षाणाम् ॥३॥ षण्णवतं शतमेकम्, अष्टाशीतिश्च द्वेशे ते ज्ञेये ।
पञ्चोत्तराणि चतुरशतानि पञ्चाशदधिकानि च पञ्च शतानि ॥ ४ ॥ प्रतिमासु चतसृष्वपि च, भिक्षापरिमाणमत्र पूर्वोक्तम् । क्रमश पताः सर्वाः, आइया पालिता भवन्ति ॥ ५ ॥ इति ॥
व्याख्या - 'पढमाए' इति । प्रथमायाः प्रतिमाया एकोनपञ्चाशदिवसाः (४९) कालः, एकोनपञ्चाशद्दिवसैः प्रथमा सप्तसप्तकिका भिक्षुप्रतिमा सपद्यते १ । एवं द्वितीया अष्टाऽष्टकिका भिक्षुप्रतिमा चतुष्षष्टिसंख्यकैर्दिवसैः (६४) संपद्यते २ । तृतीया नवनवत्रिका मिक्षुप्रतिमा एकाशीतिदिवसैः (८१) संपद्यते ३ । गा० १ ॥ चतुर्थी दशदशकिका भिक्षुप्रतिमा शतसंख्यकैर्दिवसैः (१००) संपद्यते । एतत्कालपरिमाणं चतसृष्वपि भिक्षु - प्रतिमासु भवति ॥ गा० २ ॥ अथ भिक्षाया दत्तिग्रहणपरिमाणं प्रदर्श्यते - 'दत्ती' इति मासु चतसृष्वपि प्रतिमासु प्रथमे सप्तकादिके इति प्रथमे सप्तके, प्रथमेऽष्टके, प्रथमे नवके, प्रथमे दशके एकैका दत्तिर्भोजनस्य एका पानस्य च गृह्यते । एवम् अनेन प्रकारेण नित्यं सदा द्वितीयादिसप्तकादिषु एकैकां दत्ति भिक्षाणां वर्द्धयेत् । कियत्पर्यन्तमित्याह - 'सत्तट्ट० ' इत्यादि, सप्तमा - Sष्टम - नवम - दशमदशकं यावत् ।
-
अयं भावः - सप्तसप्तकिकायां प्रतिमायां सप्तमं सप्तकं यावदिति सप्तम सप्तकपर्यन्तं वर्द्धयेत् । अष्टाष्टकिकायां प्रतिमायाम् अष्टमाष्टकपर्यन्तं वर्द्धयेत् । नवनवकिकायां प्रतिमायां नवमनवकपर्यन्तं बर्द्धयेत् । दशदशकिकायां प्रतिमायां दशमदशकपर्यन्तमेकैकां दत्ति वर्द्धये - दिति ॥ गा० ३ ॥
अथ-- भिक्षापरिमाणमाह-- 'छण्णउयं' इत्यादि । 'छण्णउयं सयमेगं' इति षण्णवतंघण्णवत्यधिक्रमेकं शतं (१९६) सप्तसप्तकिकाप्रतिमायां भिक्षाणां भवति १ । 'अट्टहासीई य दो सया' इति - अष्टाशीत्यधिकं शतद्वयम् (२८८) अष्टाष्टकिकाप्रतिमायां भिक्षाणां
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६
२२२
व्यवहारसूत्र भवति २। 'पंचुत्तरा चउसया' इति-पञ्चोत्तराणि चत्वारि शतानि (४०५) नवनवकिकाप्रतिमायां भिक्षाणां भवन्ति ३ । 'पृण्णासऽहिया य पंच सया' इति-पञ्चाशदधिकानि पञ्च शतानि (५५०) दशदशकिकाप्रतिमायां भिक्षाणां भवन्ति ४ ॥ गा० ४ ॥ अत्र-चतसृप्वपि प्रतिमासु 'कमसो' क्रमश:-अनुक्रमेण पूर्वोक्तम्-अनुपदप्रदर्शितं भिक्षापरिमाणं भवति । उपसंहरन्नाह-'एया' इति-एताः सर्वाः-चतत्रोऽपि सप्तसप्तकिकादयो भिक्षुप्रतिमाः 'आणाए' आज्ञया- तीर्थकराज्ञया 'पालिया' पालिता-अनुपालिता भवन्त ति ॥ गा० ५ ॥ इति ॥
॥ भिक्षुप्रतिमानां दिवसपरिमाणभिक्षापरिमाणकोष्टकम् ॥ प्रतिमानामानि दिवसपरिमाणम् भिक्षा परिमाणम् सप्तसप्तकिका
४९ अष्टाष्टकिका
६४
२८८ नवनवकिका दशदशकिका
५५० ॥ इति भिक्षुप्रतिमाप्रकरणं समाप्तम् ॥ सू०४०॥ पूर्व सप्तसप्तकिकाया आरम्य दशदशकिकापर्यन्तं भिक्षुप्रतिमाचतुष्कं प्रदर्शितम्, प्रतिमाप्रसङ्गात् साम्प्रतं मोकप्रतिमाह्यं प्रदर्शयन्नाह—'दो पडिमाओ' इत्यादि ।
सूत्रम्-'दो पडिमाओ पन्नत्ताओ तंजहा--खुड्डिया वा मोयपडिमा' १, महल्लिया वा मोयपडिमा २ खुड्डियण्णं मोयपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पइ पढमसरयकालसमयसि वा चरमनिदाहकालसमयंसि वा वहिया ठावियचा गामस्स वा जाव रायहाणीए वा वर्णसि वा वणदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पचयदुग्गंसि वा, भोच्चा आरुभइ चउद्दसमेणं पारेइ, अमोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ, जाए जाए मोए आवियत्वे, दिया आगच्छइ आवियम्वे, राइं आगच्छइ नो आवियव्वे, सपाणे मत्ते आगच्छइ नोआवियन्वे, अप्पाणे मत्ते आगच्छइ आवियव्ये, सवीए मत्त आगच्छइ नो आवियन्वे, अवीए मत्ते आगच्छइ आवियचे, ससणि मते आगच्छइ नो आवियव्वे, असणिद्धे मत्ते आगच्छइ आवियव्वे, मसरवखे मचे आगच्छद नो आवियव्वे, असरक्खे मत्ते आगच्छइ आवियन्वे । जाए जाए मोए आवियव्वे, तंजहा-अप्पे वा बहुए वा । एवं खलु एसा खुढ़िया मोयपडिमा अहावृत्तं अदाकणं अहामग्गं अहातच्चं सम्मकारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किहिया आणाए अणुपालिया भवइ ।। मू० ४१ ॥
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९ सू० ४१
क्षुद्रिका मोकप्रतिमायालनविधिः २२३
छाया - द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते, तद्यथा क्षुद्रिका वा मोकप्रतिमा १, महतिका वा मोकप्रतिमा २ | क्षुद्रिकां खलु मोकप्रतिमां प्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पते प्रथमशरत्कालसमये वा, चरमनिदाघकालसमये वा वहिः स्थापयितव्या, ग्रामस्य वा यावद्राजधान्या वा वने वा वनदुर्गे वा पर्वते वा पर्वतदुर्गे वा, भुक्त्वा आरोहति चतुर्दशेन पारयति, अभुआरोहति षोडशेन पारयति, जातं जातं मोकमापातव्यम्, दिवा आगच्छति आपा तव्यम्, रात्रौ आगच्छति नो आपातव्यम्, सप्राणं मात्रम् आगच्छति नो आपातव्यम्, अप्राणं मात्रम् आगच्छति आपातव्यम् सवीजं मात्रम् आगच्छति नो आपातव्यम्, अवीज़ं मात्रम् आगच्छति आपातव्यम्, सस्निग्धं मात्रम् आगच्छति नो आपातव्यम् अस्निग्धं अरजस्कं मात्रम् आगच्छति आपातव्यम्, सरजस्कं मात्रम् आगच्छति नो आपातव्यम्, मात्रम् आगच्छति आपातव्यम् । जातं जातं मोकमापातव्यम् तद्यथा - अल्पं वा बहुकं वा । एवं खलु पपा क्षुद्रिका मोकप्रतिमा यथासूत्रम् यथाकल्पम् यथामार्गम् यथातथ्यम् सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्त्तिता आज्ञया अनुपालिता भवति ॥ सू० ४१॥
1
भाष्यम् – 'दो पडिमाओ पन्नत्ताओ' - द्विप्रकारिके प्रतिमे प्रज्ञप्ते कथिते, 'तंजहा '
-
तद्यथा - 'खुड्डिया वा मोयपडिमा महल्लिया वा मोयपडिमा ' क्षुद्रिका वा मोकप्रतिमा महतिका वा मोकप्रतिमा । तत्र मोकं कायिकी, तत्प्रधाना प्रतिमा मोकप्रतिमा, मोचयति पापकर्मम्यः साधुमिति मोकं तत्प्रधाना प्रतिमा मोकप्रतिमा, अस्यां प्रतिमायां सिद्धायां कश्चिन्मुनिः कालं कुर्वन् कर्मविमुक्तः सिद्धो भवति, देवो वा महर्द्धिको भवति, अथवा रोगाद्विमुच्यते शरीरेण कनकवर्णो जायते । उत्सर्गमार्गप्रधानेयं प्रतिमा, तां न कातरः पालयितुं शक्नोति । तत्र प्रथमं क्षुल्लिकामोकप्रतिमास्वरूपं प्रदर्शयति-‘खुड्डियं णं मोयपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स' क्षुदिकां मोकप्रतिमां प्रतिपन्नस्य प्राप्तस्याऽनगारस्य साधोः ' कप्पर' कल्पते 'पढमसरयकालसमयंसि वा ' प्रथमशरत्कालसमये-शरत्कालस्य प्रथमसमये - मार्गशीर्षे 'चरम निदाहकालसमयंसि वा' चरम - निदाघकालसमये-उष्णकालस्य चरमसमये आपाढमासे 'वहिया ठावेयव्वा' बहिः स्थापयितव्या बहिर्गत्वा समाचरणीया, कस्य वहिरित्याह- 'गामस्स वा जाव रायहाणीए वा' ग्रामस्य वा याव - द्राजघान्या वा बहिः,यावत्पदेन - आकरनगर निगम खेटकर्वटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रम संवाह सन्निवेशानां संग्रहस्तेन आकरनगरादिराजधानीपर्यन्तानां वहिरिति भावः । कुत्र स्थाने ? इत्याह- 'वस वा वणदुग्गंसि वा' वने वा– एकजातीयवृक्षसमुदायरूपे, वनदुर्गे वा नानाजातीयसघन वृक्षसमुदायरूपे, 'पन्चए वा पव्वयदुग्गंसि वा' पर्वते वा प्रसिद्धे, पर्वतदुर्गे वा अनेकपर्वतसमुदायरूपे गत्वेयं क्षुद्रिका मोकप्रतिमा समाचारणीया भवेत् । भोच्चा आरुभइ' भुक्त्वा भोजनं कृत्वा आरोहति, तथाहि - मोकप्रतिमाप्रतिपन्नो मुनिर्निषद्यां चोलपट्टं कायिकींपात्रकं च गृहीत्वा ग्रामादेर्वहिर्गत्वा एकान्ते प्रतिमां प्रतिपद्यते । तत्र कायकोसमागमे तां मात्रके व्युत्सृज्यानापातेऽसंलोके दिशालोकं कृत्वा आपिबेत् । तां प्रतिमां यदि‘भोच्चा आरुभइ' भुक्त्वा स्वीकरोति तदा - 'चउदस मेणं पारेइ' चतुर्दशेनच-तुर्दशभक्तेन
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
व्यवहारसूत्रे पइभिरुपवासै. पारयति-पारणां करोति 'अभोच्चा आरुभइ सोलसमेण पारेइ' अथ यदि अभुक्त्वाभोजनमकृत्वा आरोहति प्रतिमां प्रतिपद्यते तदा षोडशेन-षोडशभक्तेन सप्तभिरुपवासैः पारयति पारणां करोति । तत्र विधिमाह-प्रतिमासमाचरणकाले 'जाए जाए मोए आवियव्वे' जातं जातं मोकं मात्रकं प्रस्रवणमित्यर्थः आपातव्यम् , तत्रापि यत् 'दिया आगच्छइ आवियन्वे' दिवा-दिवसे आगच्छति मोक तत आपातव्यम् 'राई आगच्छइ नो आवियब्वे' यत् रात्रौ आगच्छति तद् नो आपातव्यम् रात्रौ वीर्यप्राणादेरदर्शनात् किन्तु परिष्ठापयितव्यम्, एवमग्रेऽपि योज्यम् । मोकं द्विविधं भवति-स्वाभाविक तदितरद्वा, तत्र स्वाभाविकं प्राणादिवर्जितं, तदितरत् प्राणादिसंमिश्रम् , तत्र स्वाभाविकं पातव्यम्, अस्वाभाविकं परिष्ठापनीयम्, तदेवाह-तत्रापि दिवसेऽपि यदि 'सपाणे मत्ते आगच्छइ नो आवियव्वे' सप्राणं जीवविशिष्टं मात्रकम् आगच्छति तदा नो आपातव्यं न पातव्यम्, 'अपाणे मत्ते आगच्छइ आवियन्वे' अप्राणम्-प्राणिविवर्जितं मात्रकमागच्छति तदा आपातव्यम् । सप्राणं मोकमेवं भवेत्-उदरे कृमयो भवेयुस्ते चोष्णप्रकृत्या तापिताः सन्तो मोकेन सार्द्धमागच्छेयुः, ताश्च छायायां निःसृजेत् , 'सवीए मत्ते आगच्छइ नो आवियन्वे' सबीजं वीजमिति वीर्यम् वीर्यविशिष्टं मात्रकमागच्छति तदा नो आपातव्यम्, 'अवीए मत्ते आगच्छई आवियन्वें' यदि अबीजं वीर्यरहितं मात्रकमागच्छति तदा आपातव्यम् । 'ससणिद्धे मत्ते आगच्छइ नो आवियव्वे' सस्निग्धं स्नेहविशिष्टं चिक्कणं मात्रकमागच्छति तदा नो आपातव्यम् , 'असणिद्धे मत्ते आगच्छइ आवियव्वे' अस्निग्धं चिक्कणतावर्जितं मात्रकम् आगच्छति तदा आपातव्यम् । शौक्राः पुद्गला द्विविधा भवन्ति-चिक्कणा अचिक्कणाश्च, तत्र अचिक्कणा वीर्यरहिता इत्यर्थ., चिक्कणाः सवीर्याः सस्निग्धा उच्यन्ते, ते उभयेऽपि देहस्य शैथिल्ये तपोजनितौष्ण्येन तापिताः सन्तो मोकेन सार्द्ध प्रपतन्तीति, 'ससरक्खे मत्ते आगच्छइ नो आवियव्वे' सरजस्कं रजोविशिष्टं प्रमेहरोगजन्यकणिकामिश्रितं मात्रकमागच्छति तदा न आपातव्यम् किन्तु परिष्ठापनीयम् 'असरक्खे मत्ते आगच्छइ आवियन्वे' अरजस्क रजोरहितं मात्रकमागच्छति तदा आपातव्यम् । तन्मोकं कियत्परिमितं पातव्यम् अल्पं वा सर्व वा ? तत्राह 'जाए जाए' इत्यादि, 'जाए जाए मोए आवियव्वे' जातं जातं मोकं मात्रकं सर्वमापातव्यम् । 'तंजहा' तद्यथा-'अप्पे वा बहुए वा' अल्पं वा बहुकं वा, तत्सर्व मोकं पातव्यम् । अथोपसंहरन्नाह
'एवं खलु एसा खुड्डिया मोयपडिमा अहासुत्तं' इत्यादि 'जाव अणुपालिया भवई' इत्यन्तम् , एवम् कथितप्रकारेण खल एपा क्षुद्रिका मोकप्रतिमा यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग यथातथ्यं सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आज्ञया तीर्थकराज्ञया अनुपालिता भवति, एतेषां पदानां व्याख्या पूर्वसूत्रे गता ॥ सू० ४१ ।।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९ सू० ४३
पात्रधारिसंख्यादत्तिकभिक्षुकभिक्षाविधिः २२५ पूर्व क्षुद्रिकामोकप्रतिमा प्रदर्शिता, साम्प्रतं महती मोकप्रतिमा प्रदर्शयति-'महल्लिय' इत्यादि ।
सूत्रम्-महल्लियं णं मोयपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पइ से पढमसरयकालसमयंसि वा चरम निदाहकालसमयंसि वा बहिया ठावियव्या, गामस्स वा जाव रायहाणीए वा वर्णसि वा वणदुग्गसि वा पव्वयंसि वा पव्ययदुग्गंसि वा, भोच्चा आरुभइ सोलसमेण पारेइ, अभोच्चा आरुभइ अहारसमेण पारेइ, जाए जाए मोए आवियन्वे तह चेव जाव अणुपा लिया भवइ ॥ सू० ४२ ॥
छाया-महती खलु मोकप्रतिमां प्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पते तस्य प्रथमशरत्कालसमये वा चरमनिदाघकालसमये वा वहिः स्थापयितव्या ग्रामस्य वा यावद्राजधान्या वा वने वा वनर्दुर्ग वा पर्वते वा, पर्वतदुर्गे वा भुत्वा आरोहति षोडशेन पारयति, अभुक्त्वा आरोहति अष्टादशेन पारयति, जातं जातं मोकमापातव्यम् तथैव यावद् अनुपालिता भवति ॥ सू० ४२॥
भाष्यम्-'महल्लियं णं मोयपडिमं' महती खलु मोकप्रतिमाम् 'पडिवनस्स' प्रतिपन्नस्स-प्राप्तस्य 'अणगारस्स' मनगारस्य-श्रमणस्य 'कप्पई' कल्पते 'से' तस्य श्रमणस्य 'पढमसरयकालसमयसि वा' प्रथमशरत्कालसमये-मार्गशीर्पमासे वा 'चरमनिदाहकालसमयंसि वा' चरमनिदाधकालसमये वा-आषाढमासे वा 'वहिया ठावेयव्वा गामस्स वा जाव रायहाणीए वा' बहिः स्थापयितव्या-बहिः समाचरणीया भवति, कस्येत्याह-ग्रामस्य वा यावदाजधान्या वा 'वर्णसि वा वणदुग्गंसिया' वने वा-वनविषये वा वनदुर्गे-वनदुर्गविषये वा, 'पव्ययंसि वा पव्ययदुग्गंसि वा' पर्वते वा पर्वतदुर्गे वा श्रमणस्य प्रतिमां ग्रहीतुं कल्पते इति पूर्वेणान्वयः ।
अथ यदि श्रमणः 'भोच्चा आरुभइ' भुक्त्वा यदि प्रतिमामारोहति-स्वीकरोति तदा 'सोलसमेण पारेइ' षोडशेन-षोडशभक्तेन-सप्तोपवासरूपेण पारयति- पारणां करोति 'अभोच्चा आरुभइ अहारसमेणं पारेइ' अथ यदि अभुक्त्वा प्रतिमामारोहति-स्वीकरोति तदा-अष्टादशेन भक्तेन अष्टोपवासरूपेण पारयति-पारणां करोति, अस्या प्रतिमायाम् 'जाए जाए मोए आवियव्वे' जातं जातं मोकं कायिकीत्यर्थः, आपातव्यम् । 'तह चेव' तथैव -क्षुद्रिकाप्रतिमावदेव सर्वोऽपि आलापकोऽत्र ग्रहीतव्यः, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव आणाए अणुपालिया भवइ' यावद् आज्ञया अनुपालिता भवति, इति पर्यन्तम् । अत्रस्थानां सर्वेषां पदानां व्याख्या क्षदिकामोकप्रतिमावत् कर्तव्या। एते द्वे अपि प्रतिमे धृतिबलसपन्नस्यैव भवति न तु कातरस्येति ॥सू० ४२॥
व्य. २९
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
व्यवहारसूत्रे पूर्व मोकप्रतिमाद्वयं प्रतिपादितम्, प्रतिमाधारी च दत्तिरूपेण भिक्षां गृह्णाति, तत्र किं नाम दत्तिरिति-दत्तिस्वरूप प्रदर्शयति--'संखादत्तियस्स णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-संखादत्तियस्स णं भिक्खुस्स पडिग्गहधारिस्स गाहावइकुलं पिंडवाय पडिवाए अणुप्पविट्ठस्स जावइयं केइ अन्तो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलएज्जा तावइयाओ दत्तीओ वत्तव्यं सिया, तत्थ से केइ छब्बएण वा दुसरण वा चालएण वा अंतो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलएज्जा सावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्यं सिया, तत्थ बहवे मुंजमाणा सव्वे ते सयं सयं पिंडं साहणिय अंतो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलएज्जा सव्वा विणं सा एगा दत्ती वत्तव्यं सिया ॥ सू० ४३ ॥
छाया-संख्यादत्तिकस्य खलु भिक्षोः पतिग्रहधारिणो गाथापतिकुलं पिण्डपात प्रतिज्ञया अनुप्रविष्टस्य यावत्कं कश्चित् अन्तः प्रतिग्रहस्य उच्चैः कृत्वा दद्यात् तावत्यो दत्तयो वक्तव्यं स्यात्, तत्रे तस्य कश्चित् छब्बकेण वा दूष्यकेण वा चालकेण वा अन्तः प्रतिग्रहस्योच्चैः कृत्वाः दद्यात् सापि खलु सा एका दत्तिः वक्तव्यं स्यात्, तत्र बहवो भुजानाः सवे ते स्वकं स्वकं पिण्डं संहत्य अन्तःप्रतिग्रहस्य उच्चैः कृत्वा दद्यात् सर्वाऽपि खलु सा एका दत्तिः वक्तव्यं स्यात् ॥ सू० ४३ ॥
माध्यम्-'संखादत्तियस्स गं' इति । संखादत्तियस्स णं' संख्यादत्तिकस्य खलु संख्या एकद्वित्रादिपरिमाणरूपा, तामाश्रित्य दत्तिः-भिक्षाया अव्यवच्छिन्नतया निपातनम् दत्तिरूपाऽन्नस्य पानस्य च भिक्षा यस्य स संख्यादत्तिकः, तस्य संख्यादत्तिकस्य 'भिक्खुस्स' भिक्षोःदत्तिरूपाभिग्रहधारिश्रमणस्य, कीदृशस्य--'पडिग्गहधारिस्स' प्रतिग्रहधारिणः-पात्रसहितस्येत्यर्थः, 'गाहावहकुलं' गाथापतिकुलं-गृहस्थगृहम् 'पिंडवायपड़ियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया-आहारग्रहणेच्छया 'अणुप्पविट्ठस्स' अनुप्रविष्टस्य--गृहस्थगृहे गतस्य 'जावइयं यावत्कं-यावद्वारम् आछिय आछिद्य द्वित्रादिवारं कृत्वाऽन्न-पानं च 'अन्तो पडिग्गहस्स' अन्तः प्रतिग्रहस्य पात्रस्य मध्ये 'उच्चित्ता' उच्चैः कृत्वा-उपरित उद्धृत्य 'दलएज्जा' दद्यात् 'तावइयाओ दत्तीओ' तावत्य एव दत्तयो भवन्तीति 'वत्तव्यं सिया' वत्तव्यं स्याद् ।
अयं भावः---एकस्यामपि भिक्षायामुपरि उत्पाटितायां यावतो वारान् आच्छिद्य--विच्छिद्य विरम्य विरम्य साधोः पात्रे अन्नं पानं च प्रक्षिपति तावत्यस्तत्र दत्तयो भवन्तीति । तत्र हस्तकेन पात्रकेण वा उत्पाटिता सा भिक्षेति कथ्यते । दत्तयः पुनस्तामेव भिक्षां यावतो वारान् अवच्छिध अवच्छिद्य क्षिपति तावत्यो दत्तयो भवन्तीति तात्पर्यम् ।
'तत्य से केई तत्र 'से' तस्य-साधोः कश्चित् श्रावकः, 'छब्बएण वा' छब्बकेन वा वंशदलमयेन पात्रेण 'छाबड़ी' ति लोकप्रसिद्धेन, 'दुसरण वा' दृष्येण-वस्त्रेण वा, 'चालएण वा' चालकेन वा-'चालनी'-ति लोकप्रसिद्धेन पात्रेण 'अंतो पडिग्गहस्स' अन्तः पतद्ग्रहस्य पानमध्ये 'उच्चित्ता' उच्चैः कृत्वा भिक्षामुपर्युत्पाट्य 'दलएज्जा' दद्यात् 'सावि णं सा एगा
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९. सू० ४४
पाणिपात्रसंख्यादत्तिकभिक्षुभिक्षाविधिः २२७
दत्ती वत्तव्यं सिया' साऽपि खलु सा-एका दत्तिरिति वक्तव्यं स्यात् । इदमेकजनमाश्रित्य कथितम्, सम्प्रति-अनेकजनानाश्रित्य कथयति-'तत्थ से हवे' इत्यादि, 'तत्थ व व हवे मुंजमाणा' तत्र-गृहस्थगृहे बहवोऽनेके भुञ्जाना भोजनं कुर्वाणा भवेयुः 'सव्वे ते सयं सयं पिंडं' सर्वे ते स्वकं स्वकं-स्वकीयं स्वकीयं पिण्डमन्नादि 'साहणिय' संहृत्य--एकत्रीकृत्य 'अंतो पडिग्गहस्स' अन्तः पतग्रहस्य पात्रमध्ये 'उच्चित्ता' उच्चैः कृत्वा--उपरितः 'दलएज्जा' दद्यात् 'सव्वावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्यं सिया' सर्वाऽपि खल सा भिक्षा एका दत्तिरिति वक्तव्यं स्यात् ।
अयं भावः-ओदनादिकं ददानो गृहस्थो यावत्कं भोजनजातमेकवारेण पात्रे क्षिपेत् सा एकवारं पतिता भिक्षा दत्तिरुच्यते । पानकस्य च दाने यावत् पानकधारा त्रुटयते तावदेकादत्तिः कथ्यते । आहारजाते एकवारेण पात्रे पतिते-पानकद्रव्यस्य धाराविच्छेदे च यदि दाता पुनर्निक्षिपेत् तदा सा द्वितीया दत्तिर्भवेत् । एवं तृतीयचतुर्थादिवारेण तृतीयचतुर्थादिर्दत्तिर्जायते । तथा-गृहस्थस्य गृहे पथिकाः कर्मकरा वा एकागणे पृथक पृथक् उपस्कृत्य भुञ्जते, तेषामेकः परिवेषकः स्यात् , साधुश्च तत्र तत्समये भिक्षार्थमनुप्रविष्टो भवेत् ततः स परिवेषकः 'ददामी'-ति साधवे निवेदयति तत्समये भुञ्जानास्ते सर्वे वदेयुः--यत् प्रत्येकमस्मदीयभोजनमध्यादपि साधवे भिक्षां देहीति, ततस्तेन परिवेषकेण तेषां सर्वेषां भोजनमध्याद् गृहीत्वा गृहीत्वा एकत्रीकृत्य तद् भोजनजातं साधोः पात्रमध्येऽव्वच्छिन्नं प्रक्षिपेत्तदा बहुजनभिक्षासद्भावेऽपि सा एकैव दत्तिर्भवेत् एकेनैव वारेणाऽव्यवच्छिन्नतया पात्रे पतितत्वादिति । अत्र भिक्षा दत्तिश्चेति पदद्वयमधिकृत्य द्विकसंयोगे चतुर्भङ्गी भवति, तथाहि—एका भिक्षा--एका दत्तिः १, एका भिक्षाअनेका दत्तयः २, भनेका भिक्षा--एका दत्तिः ३, अनेका भिक्षा अनेका दत्तयः ४, इति । अत्रे प्रथमभङ्गे दायकेनाऽव्यवच्छिन्ना एकेनैव वारेण दत्ता तत एका भिक्षा--एका दत्तिः १, द्वितीयभले व्यवच्छिय व्यवच्छिद्य दत्तेति-एका भिक्षा-अनेका दत्तयः २, तृतीयभङ्गे अनेका भिक्षा एका दत्तिः, अत्र दायकेन सर्वेषां भोजनजातमेकत्रीकृत्यैकवारेण अव्यवच्छिन्नतया दत्ता, अत्र 'तत्थ बहवे भुंजमाणा' इति सूत्रस्य पूर्वोक्तो भावो घटते ३। चतुर्थे भङ्गे अनेका बहुजनसत्का भिक्षा व्यवच्छिद्य व्यवच्छिद्याऽनेकवारेण दत्तेति-अनेका भिक्षा-अनेका दत्तयः ४, इति भङ्गचतुष्टयस्य स्पष्टीकरणम् ।
___ एवम्-एकानेकदायक-भिक्षा-दत्तीति पदत्रयमधिकृत्य त्रिकसयोगे चतुर्भङ्गी प्रदर्श्यते-एको दायकः एका मिक्षा एका दत्तिः, अत्र एको दायक एकां भिक्षामेकवारेणाऽव्यवच्छिन्नतया ददातीति प्रथमो भङ्गः १, एको दायकः एका भिक्षा अनेका दत्तयः, अत्र-एको दायक एकांभिक्षां वहशो वारान् विच्छिद्य विच्छिद्य ददातीति द्वितीयो भङ्गः २, एको दायकः अनेका भिक्षा ,एका दत्तिः, अत्र
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
व्यवहारसूत्रे एको दायकः अनेकां भिक्षामेकत्रीकृत्य एकवारेणाऽव्यवच्छिन्नतया ददातीति तृतीयो भङ्गः ३, एको दायकः मनेका भिक्षा मनेका दत्तयः, अत्र-एको दायकोऽनेकां भिक्षां बहुशो वारान् विच्छिद्य विच्छिद्य ददातीति चतुर्थो भङ्गः ४, इति ॥ सू० ४३ ॥ ___पूर्वोक्तं सूत्रं पतद्ग्रहमधिकृत्य दत्तिविषयकं कथितम् , सम्प्रति पाणिपतद्ग्रहविषयकं सूत्रमाह'संखादत्तियस्स णं इत्यादि ।
सूत्रम्-संखादत्तियस्स णं भिक्खुस्स पाणिपडिग्गहियस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स जावइयं केइ अंतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा तावइयाओ दत्तीओ वत्तव्यं सिया, तत्थ से केइ छब्बएण वा दूसरण वा चालएण वा अतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा सावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्यं सिया, तत्थ से वहवे मुंजमाणा सव्वे ते सयं सयं पिंडं समाहणिय अंतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा सव्याविण सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया ॥ सू० ४४ ॥
छाया-संख्यादत्तिकस्य खलु भिक्षोः पाणिपतग्रहिकस्य गाथापतिकुलं पिण्डतिपातप्रविज्ञया अनुप्रविष्टस्य यावत्कं कश्चिद् अन्तः पाणेः उच्चैः कृत्वा दद्यात् तावत्यो दत्तयो वक्तव्यं स्यात् , तत्र तस्य कश्चित् छन्चकेन वा दूप्येण वा चालकेन वा अन्तः पाणेः उच्चैः कृत्वा दद्यात् सर्वाऽपि खलु सा एका दत्तिः वत्तव्यं स्यात् , तत्र तस्य बहवो भुञ्जानाः सर्वे ते स्वकं स्वकं पिण्डं संहत्य अन्तः पाणेः उच्चैः कृत्वा दद्यात् सर्वाऽपि खलु सा एका दत्तिः वक्तव्यं स्यात् ॥ सू० ४४ ॥
भाष्यम्-'संखादत्तियस्स णं भिक्खुस्स' संख्यादत्तिकस्य संख्यामाश्रित्य दत्तिरूपेण भिक्षाग्राहिणः खल भिक्षोः, कीदृशस्य तस्य ? इत्याह-'पाणिपडिग्गहियस्स' पाणिपतद्ग्रहिकस्य भिक्षोः पाणिरेव पतद्ग्रह-पात्रं यस्य सः पाणिपतद्ग्रहः, स एव पाणिपतद्ग्रहिकः, यः पाणावेव करे एवान्नपानादिकं धृत्वा भुङ्क्ते तस्य 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलं-गृहस्थगृहम् 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया-आहारग्रहणेच्छया 'अणुप्पविट्ठस्स अनुप्रविष्टस्य गृहस्थगृहे भिक्षार्थ गतस्य 'जावइयं' यावत्कं यावद्वारमाछियाछिद्य हित्रादिवारम् , इत्यादि शेषं सर्वं पूर्वोक्तपतद्ग्रहधारिसूत्रबद् व्याख्येयम् , विशेष एतावानेव-पूर्वसूत्रे 'अंतो पडिग्गहस्स' इत्यस्य स्थाने 'अंतो पाणिस्स' इति पठनीयम् , 'अंतो पाणिस्स' अन्तः पाणेः हस्तस्य मध्ये इति व्याख्या कर्तव्येति ।। सू०४४
पूर्व पतद्ग्रहधारिणः पाणिपतहिकस्य च दत्तिरूपो भिक्षाऽभिग्रहः प्रतिपादितः, साम्प्रतमभिप्रहप्रसङ्गाद् उपहृतमेव गृह्णातोति-उपहृतस्वरूपमाह-'तिविहे उबद्दडे' इत्यादि ।
सूत्रम् –'तिविहे उवहडे पन्नत्ते, तंजहा-सुद्धोवहढे, फलिहोवहडे, संसठोवहढे ॥४५॥
छाया-त्रिविधमुपहृतं प्राप्तम् , तद्यथा-शुद्धोपहृतं फलिकोपहृतं संसृष्टोपहतम् ॥ सू० ४५॥
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० ९ सुं० ४५-४७
उपहतादिभिक्षाभिग्रहधारिस्वरूपम् २२९
भाष्यम्- य उपहृताभिग्रही स उपहृतं गृह्णाति तत् 'तिविह' त्रिविधं - त्रिप्रकारकम् 'उवह डे पन्नत्ते' उपहृतं प्रज्ञप्तम् कथितम्, उप समीपे - अन्यस्य भोक्तुः समीपे परिवेषणार्थं हृतम् गृहीतम् उपहृतं कथ्यते, तत् त्रिविधं प्रज्ञप्तम् तंजहा' - तद्यथा 'सुद्धोवहडे' शुद्धोपहृतम् १, 'फलिहोवइडे' फलिकोपहृतम् २, 'संसद्वो वह डे' संसृष्टोपहृतम् ३, तत्र शुद्धोपहृतं यथा - यदि व्यञ्जनरहितं केवलं तण्डुलादिकं गृहीत्वा दास्यति तदा ग्रहीष्यामीति शुद्धोपहृतम् १ | फलिकोपहतं यथा फलिकं काष्ठपात्रम्, यदि काष्ठपात्रे गृहीत्वा दास्यति तदा ग्रहीष्यामि इति फलिकोपहृतम् २ | संसृष्टोपहृतं यथा-यदि 'शाकादिखरडितपात्रे गृहीत्वा दास्यति तदा ग्रहीष्यामीति ससृष्टोप - तम् ३ । एतत्त्रिविधमुपहृतमुपहताभिग्रहधारी भिक्षारूपेण गृह्णातीति ॥
अथ शुद्धादिपदानामर्थमाहइ - अत्र खलु यत् अलेपकृतं काञ्जिकेन पानीयेन वा न सन्मि श्रीकृतं तत्-शुद्धम्, अथवा व्यञ्जनादिरहितं शुद्धौदनं शुद्धम् । तच्च नियमतोऽलेपकृतम् १ | फलिकं नाम यत् काष्ठपात्रे गृहीतम्, अथवा फलितमिति व्यञ्जनैर्नानाप्रकारकैर्भोज्यवस्तुभिर्विरचितमिति २ । संसृष्टं नाम-भोक्तुकामेन गृहीतम्, यत् स्थाले परिवेषितम् ततो ग्रहणाय हस्ते, क्षिप्तो न तु मुखे प्रक्षिपति, अत्रान्तरे भिक्षार्थं कश्चित् साधुः समागतः यत् शाकादिना लेपकृतमलेपकृतं वा तत् संसृष्टमिति कथ्यते ३ । उपहृतं तु यद् भोक्तुकामेन गृहीतं तदुपहतमित्युच्यते ॥ सू० ४५ ॥ अथावग्रहिताभिग्रहस्वरूपमाह - 'तिविहे ' इत्यादि ।
सूत्रम् - तिविहे ओग्गहिए पण्णत्ते, तं जहा - जं च . ओगिण्हइ जं च साइरह जं च आसगंसि पक्खिव एगे एवमाहंसु || सू० ४६ ।।
छाया - त्रिविधमवग्रहितं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - यदवगृह्णाति यच्च संहरति यच्च आस्यके प्रक्षिपति, एके एवमाहुः ॥ सू० ४६ ॥
भाष्यम् – 'तिविहे' त्रिविधम् - त्रिप्रकार कम्, 'ओग्गहिए पण्णत्ते' अवग्रहितम्, अनग्रहितं नाम अभिग्रहविशेषः प्रज्ञप्तं- कथितम् 'तंजहा' तद्यथा - 'जं च ओगिण्हइ' यच्चाऽवगृह्णाति-भोजनार्थं गृह्णाति, 'जं च साहरई' यच्च संहरति, यच्च भोजन पात्राद् निष्क्रामयति, 'जं च आसगंसि पक्खिवइ' यच्चाऽऽस्यके मुखे प्रक्षिपति, एवमवग्रहितं त्रिविधं भवति । 'एगे' एके केचन आचार्यां एवं पूर्वोक्तप्रकारेण त्रिविधमवग्रहितम् आहुः - कथयन्तीति ॥ सू० ४६ ॥
अत्रान्याचार्यमतमाह – 'एगे पुण' इत्यादि ।
सूत्रम् - एगे पुण एवमाहंसु दुबिहे ओग्गहिए पन्नत्ते, तंजहा - जं च ओगिण्हइ जं च आसगंसि पक्खिवइ ॥ ४७ ॥
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
व्यवहार
छाया---एके पुनरेवमाहुः-द्विविधमवग्रहितं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-यच्चावगृह्णाति यच्चाऽऽस्यके प्रक्षिपति ॥ सू० ४७ ॥
भाष्यम्-‘एगे पुण एवमाइंसु' एके पुनराचार्या अवग्रहितविपये एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति । तथाहि-'दुविहे 'ओग्गहिए पन्नत्ते' द्विविधं द्विप्रकारकमवग्रहितं प्रज्ञप्तं कथितं भगवता, अवग्रहितं नाम अवग्रहविशेषः 'तंजहा' तद्यथा 'जं च ओगिण्हइ' यच्चा वगृह्णाति भोजनार्थ स्थापयति, 'जं च आसगंसि पक्खिबई' यच्चाऽऽस्यके मुखे प्रक्षिपति तत् , एव मवग्रहितं द्विविधं भवतीति ॥
ननु पूर्वमत्रावग्रहितं यच्चावगृह्णाति, यच्च संहरति यच्चास्ये प्रक्षिपतीति त्रिविधमुक्त्वा पुनरत्र द्विविधं प्रोक्तम् तत्कथं शास्त्रे वाक्यद्वैविध्यम् ? अत्राह–अत्र :यद् वाक्यद्वैविध्यं तदादेशान्तरेण भवति । आदेशो नाम यद् बहुश्रुतैराचीर्ण, न च तदन्यैर्युगप्रधानैर्वाधितं भवेत् स भवति नाम आदेश इत्येष. शास्त्रसंमतत्वाद् ग्राह्यः ततो नात्र वाक्यद्वैविध्यं शङ्कनीयमिति ।
पुनः शङ्कते मत्र यदुक्तम् 'जं च आसगंसि पक्खिवई' अस्यायमर्थः यद् आस्यके मुखे प्रक्षिपति तद् गृह्णातीति तदुच्छिष्टं भवेदिति लोके साधोरवहेलना भवेत् यदयं साधुरुच्छिष्टं भुड्क्ते इति तत् कथं तद् गृह्यते ? अत्राह-मुखे इति स्वमुखे प्रक्षिपतीति न, भोक्तुमुपविष्टानां दत्त्वा परिवेषकोऽवशिष्टं भोजनजातं भूयो भोजनस्थापनपात्रस्य पिठरादेर्मुखे प्रक्षिपति, तपक्षिपन् साधवे दद्यात् तद् गृह्णातीत्यर्थोऽवसेयः। ततः पिठरादिमुखमधिकृत्येदं सूत्रं प्रवर्तितम् ॥ सू० ४७॥
इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक्र-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त
"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचिताया "व्यवहारसूत्रस्य" .
भाष्यरूपायां व्याख्यायां नवमोद्देशः समाप्तः ॥९॥
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥अथ दशमोद्देशकः॥ तदेवं नवममुद्देशं व्याख्याय संप्रति-दशमोद्देशकः प्रारभ्यते, अस्य दशमोदेशकप्रथम. सूत्रस्य नवमोद्देशकचरमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इत्याह भाष्यकारः-'पुव्वं ओग्गहियाभिह' इत्यादि । गाहा–पुव्वं ओग्गहियाभिह, अभिग्गहो देसिओ चरमसुत्ते ।
पडिमा अभिग्गहो इह, वुच्चइ एसेव संबंधो ॥ भा० गा० ॥१॥ छाया-पूर्वम् अवग्रहिताभिधः अभिग्रहो देशितश्चरमसूत्रे ।
प्रतिमाभिग्रह इह, प्रोच्यते एप एव सम्बन्धः ॥ भा० गा० १॥ व्याख्या-पूर्वमिति पूर्व नवमोद्देशकस्य चरमसूत्रे अवग्रहिताभिधः अवग्रहितनामकः अभिग्रहो देशितः कथितः । इह-दशमोद्देशकस्य प्रथमसूत्रे प्रतिमाऽपि अभिग्रह एवेति कृत्वा प्रतिमाभिग्रहः यवमध्य-वज्रमध्य-चन्द्रप्रतिमाद्वयरूपोऽभिग्रहः प्रोच्यते तत एष एव संवन्धो नवमदशमोद्देशकयोरिति ॥ भा० गा० १॥
अनेन सबन्धेनाऽऽयातस्यास्य दशमोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम्-'दो पडिमाओ' इत्यादि ।
सूत्रम्-दो पडिमाओ पन्नत्ताओ तं जहा-जवमज्झा य चन्दपडिमा वइरमज्झा य चंदपडिमा । जवमज्झं णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स निच्चं मासं वोसहकाए चियत्तदेहे जे केई परीसहोवसग्गा समुप्पज्जंति दिव्या वा मणुस्सगा वा तिरिक्खजोणिया वा अणुलोमा वा पडिलोमा वा, तत्थ अणुलोमा ताव वंदेज्जा वा नमंसिज्जा वा सक्कारेज्जा वा सम्माणेज्जा वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुपासेज्जा, पडिलोमा ताव अन्नयरेणं दंडेण वा अहिणा वा जोत्तेण वा वेत्तेण वा कसेण वा काए आउद्देज्जा ते सव्वे उप्पन्ने सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ ॥ सू० १ ॥
छाया-वे प्रतिमे प्राप्ते तद्यथा-यवमध्यचन्द्रप्रतिमा च वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा च । यवमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमां प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य नित्यं मासं व्युत्सृष्टकाये त्यक्तदेहे ये केचित्परीपहोपसर्गाः समुत्पद्यन्ते दिव्या वा मानुषका वा तैर्यग्योनिका वा-अनुलोमा वा प्रतिलोमा वा, तत्राऽनुलोमा तावद् वन्देत वा नमस्येद् वा सत्कारयेद्वा संमानयेद् वा कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्युपासेत, प्रतिलोमा तावत् अन्यतरेण दण्डेन वा अस्या वा जोत्रेण वा वेत्रेण वा कशया वा कायम् आकुटयेत् तान् सर्वान् उत्पन्नान सम्यक् सहते क्षमते तितिक्षते अधिसहते ॥ सू० १॥
भाष्यम्-'दो पडिमाओ पन्नत्ताओ' वे-द्विप्रकारिके प्रतिमे प्रज्ञप्ते कथिते, तत्र प्रतिमाया दैविध्य दर्शयितुमाह-'तं जहा' इत्यादि 'तं जहा' तद्यथा-'जवमज्झा य चंदपडिमा वडरमज्झा य चंदपडिमा' यवमध्या च चन्द्रप्रतिमा वज्रमध्या च चन्द्रप्रतिमा, तत्र-यवमध्य
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२
व्यवहार
चन्द्रप्रतिमाया यवेनोषमा चन्द्रेण चोपमा, यवस्येव मध्यं पृथुलत्वेन यस्याः सा यवमध्या चन्द्राकारा प्रतिमेति व्युत्पत्तेः । एवं वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमायाः वज्रेण 'चन्द्रेण च सादृश्यम् वज्रवद् मध्यभागस्तनुकत्वेन यस्याः सा वनमध्या चन्द्राकारा प्रतिमा वनमध्यचन्द्रप्रतिमा, इत्येवं द्विप्रकारिके प्रतिमे इति । तत्र-'जवमझ णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स' यवमध्यां खलु चन्द्राकारां प्रतिमां प्रतिपन्नस्य-प्राप्तस्य-प्रतिपन्नयवमध्यचन्द्रप्रतिमस्याऽनगारस्य भिक्षोः 'निच्चं मासं' नित्यं- सदा दिवा रात्रौ मासम् एकमासं यावत् यावान् प्रतिमाकालस्तावत्कालपर्यन्तम् 'वोसहकाए' व्युत्सृष्टकाये व्युत्सृष्टः ममत्वाभावेन विसर्जितः एतादृशश्चासौ कायश्च अस्थ्यादिचयात्मकत्वात्कायः शरीरमिति व्युत्सृष्टकायस्तस्मिन् ममत्ववर्जिते शरीरे इत्यर्थः । व्युत्सृष्टकायो द्विविधः-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो मलमलिनोऽप्यकृतस्नान: विभूषावर्जितः भूमिशायित्वादिरूपः, भावतो-व्युत्सृष्टकायो यो वातिक-पैत्तिक-श्लैष्मिकरोगातकैः स्पृष्टोऽपि कायममत्वाभावान्न काश्चिदपि औषधभैषज्यादिना कायविषयां परिचारणादिरूपां चिन्तां करोति यः, एतादृशे ममत्ववर्जिते काये, यतो व्युत्सृष्टकायस्तत. 'चियत्तदेहे' त्यक्तदेहे कायममत्वरहितत्वेन त्यक्त इव व्यक्तश्चासौ देहश्च तस्मिन् त्यक्तदेहभावे परिणतात्मभावे शरीरे । एतादृशं देहं यदि कोऽपि हन्याद् बन्नीयात्, रुन्च्यात् , ताडयेद्वा तथापि तं न निवारयति प्रत्युत धृतनिर्जराभाव एवं विभावयति-'नेदं शरीरं मम, शरीरमन्यद् अहं चान्योऽतः को मां मारयितुं शक्नोति अजरामरोऽहम् एतेन वधवन्धनादिना मम कर्मनिर्जरा भवति' इति भावनया भावितस्यानगारस्य तादृशे देहे 'जे केइ परीसहोवसग्गा' ये केचित् परीषहोपसर्गाः पहीपहाश्च उपसर्गाश्चेति परीषहोपसर्गाः, तत्र परीषहाः-क्षुत्पिपासादयो द्वाविंशतिविधाः, उपसर्गा देवादिकृतास्त्रिविधाः 'समुप्पज्जति' समुत्पद्यन्ते उपस्थिता भवन्ति, के ते उपसर्गाः ? इति उपसर्गान् प्रदर्शयति-'दिव्या वा मणुस्सगा वा तिरिक्खजोणिया वा' दिव्या वा मानुष्यका वा तैयग्योनिका वा, तत्र दिव्या-देवकृता भापनसंहरणादयः, मानुष्यका वधवन्धनादयः, तैर्यग्योनिकाः श्वापदादिकृताः, एते त्रिविधा अपि उपसर्गास्तस्मिन् त्यकममत्वे देहे समुत्पद्यन्ते । त इमे त्रयोऽपि परीषहोपसर्गाः प्रत्येकं चतुर्घा भवन्ति, सर्वसङ्कलनया द्वादश, तत्र दिव्या उपसर्गाश्चत्वारः-हासात् प्रद्वेषात् विमर्शतो विमात्रातो वा । एवं मनुष्यकृता अपि चत्वारः-हासात् प्रद्वेषात् विमर्शात् कुशीलप्रतिसेवनात् । तैरश्वा अपि चतुर्विधाः--भयात् प्रद्वेषतः, आहारकारणाद् , अपत्यरक्षाकारणतश्चेति भवेयुः ।
ते पुनः 'अणुलोमा वा' अनुलोमाः-प्रीतिकरा उपसर्गाः, 'पडिलोमा' प्रतिकूला वा । 'तत्थ अणुलोमा ताव' तत्राऽनुलोमप्रतिलोमोपसर्गयोमध्ये येऽनुलोमा देवादिकृताः तावत् कोऽपि देवादिः प्रतिमाभ्रंशकरणार्थं साधुम् 'वंदेज्जा' वन्देत वन्दनं कुर्यात् 'नमंसिज्जा' नमस्येत्-नमस्कारं कुर्यात् 'सक्कारेज्जा' सत्कारयेत्-साधोः सत्कारं कुर्यात् 'संमाणेज्जा वा' सम्मानयेत्-संमानं वा कुर्यात् 'कल्याणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुपासेज्जा' कल्याणं
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सु० २
यवमध्यचन्द्रप्रतिमास्वरूपम् २३३ कल्याणकरं, मङ्गलं-मङ्गलस्वरूपं, दैवतं - धर्मदेवस्वरूपं, चैत्यं - ज्ञानस्वरूपं भवन्तं पर्युपासे' इत्युक्त्वा पर्युपासेत - समीपोपवेशनादिरूपामुपासनां कुर्यात् । ननु अनुलोमास्तु मनोगम्या भवन्ति तथाऽप्येते उपसर्गाः कथं भवेयुः, उपसर्गास्तु पीडोत्पादका भवन्तीत्यत्राह - प्रतिमाप्रतिपत्तितश्चलित करण हेतुकत्वादात्मनो भावपीडोत्पादकत्वादेते उपसर्गशब्देन संबोधिता भगवतेति । 'पड़िलोमा' प्रतिलोमाः - प्रतिकूला उपसर्गास्तावत् 'अन्नयरेण' अन्यतरेण ताडनसाधनानां मध्ये केनापि-अन्यतरेण एकेन, तथाहि - 'दंडेण वा' दण्डेन वा - लकुटेन, 'अट्टिणा वा ' अस्थ्ना वा अस्थिरूपताडनसाधनेन, 'जोत्तेण वा' जोत्रेण वा - जोत्रमिति गोवलीवर्दादिवन्धकस्थूलदवरिकारूपेण ‘वेत्तेणवा' वेत्रेण वा 'वेंत' इति लोकप्रसिद्धेन वा । 'कसेण वा' का वा 'चाबुक' इति लोकप्रसिद्धेन वा, एतादृशैस्ताडनसाधनभूतैः वस्तुभिः साधोः 'काएआउट्टेज्जा' कार्य--शरीरम्-आकुटयेत् ताडयेत् 'ते सव्वे उप्पन्ने' तान्- उपर्युक्तान् सर्वान् एव समुपस्थितान् ‘सम्मं’ सम्यग् मनोमालिन्य राहित्येन 'सहइ' सहते सहनं करोति 'खमइ' क्षमते सत्यामपि निवारणशक्तौ क्षमां करोति 'तितिक्खेइ' तितिक्षते - निर्जराभावेन सहते 'अधिया से ' अधिसहते अधि-निश्चलभावेन वासीचन्दनवृक्षवत् सहते । उक्तञ्च - वासीचंदणकप्पो, जह रुक्खो इय सुहदुहसमो उ ।
रागद्दोस विमुक्को, सहइ अणुलोम- पडिलोमे ॥ १ ॥ इति ॥ छाया—वासीचन्दनकल्पो, यथा वृक्ष इति सुखदुःखसमस्तु ।
रागद्वेषविमुक्तः, सहते अनुलोम-प्रतिलोमान् ॥ १ ॥ इति ॥ सू० १ ॥ अथ-यवमध्यचन्द्रप्रतिमायाः प्रतिपत्तिस्वरूपं प्रदर्शयति – 'जवमज्झं णं' इत्यादि ।
सूत्रम् - जवमज्यं णं चंदपडिमं पडिवरन्नस्स अणगारस्स स्रुक्क पक्खस्स पाडिवए कप्पइ एगं दर्त्ति भोयणस्स पडिगाहित्तए एगं पाणगस्स, सव्वेहिं दुप्पयचउप्पयाइएहिं आहारकंखीहिं सत्तेहिं पडिनियत्तेहिं अन्नायउंछं सुद्धोबहडं णिज्जूहित्ता वहवे समणमाहण-अहि- किवण-वणीमगा, कप्पड़ से एगस्स भुंजमाणस्स पडिगाहित्तए नो दोह नो तिनो चउण्ड नो पंचन्ह नो गुव्विणीए नो वालवच्छाए नो दारगं पेज्जमाणीए । नो से कप्पर अंतो एलुयस्स दोवि पाए साहट्टु दलमाणीए नो चाहिं एलयस दोवि पाए साइड दलमाणीए, अह पुण एवं जाणेज्जा एवं पायं अंतो किच्चा एगं पायं वाहिं किच्चा एलुयं विक्खंभइत्ता एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहारेज्जा, एयाए एसणाए एसमाणे नो लभेज्जा नो आहारेज्जा विइज्जाए से कप दोणि दत्तओ भोयणस्स पडिगाढित्तए दोणि पाणगस्स, सव्वेहिं दुप्पयचउप्पयाइएहिं जाव नो आहारेज्जा । एवं तइयार तिण्णि जात्र पण्णरसीए पणरस ।
व्यं, ३०
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४
व्यवहार
बहुलपक्खस्स पाडिवए से कप्पइ चोद्दसदत्तीओ, बीयाए तेरस जाव चोदसीए एग दत्तिं भोयणस्स एगं पाणगस्स सव्वेहिं दुप्पयचउप्पयाइएहिं जाच नो आहारेज्जा, अमावासाए से य अभत्तढे भवइ । एवं खलु एसा जवमज्झचंदपडिमा अहामृत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं कारणं फासिया-पालिया सोहिया तीरिया किदिया आणाए अणुपालिया भवइ ।। सू० २ ॥
छाया-यवमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमां प्रतिपन्नस्थाऽनगारस्य शुक्लपक्षस्थ प्रतिपदि कल्पते एकां दत्ति भोजनस्य प्रतिग्रहीतुम पकां पानकस्य सर्वेढिपदचतुष्पदादिभिराहारकांक्षिभिः सत्त्वैः प्रतिनिवृत्तः अशातोंछ शुद्धोपहतं निर्युह्य वहन् श्रमण-माहना-ऽतिथिकृपण-वनीपकान् , कल्पते तस्यैकस्य भुजानस्य प्रतिग्रहीतुम् नो द्वयोः नो प्रयाणाम् नो चतुर्णाम् नो पञ्चानाम् , नो गुर्विण्याः नो वालवत्सायाः नो दारकं पाययन्त्याः, नो तस्य कल्पते, अन्तरेलुकस्य द्वावपि पादौ संहृत्य ददत्याः, नो बहिरेलुकस्य द्वावपि पादौ संहत्य ददत्याः, अथ पुनरेवं जानीयात् एकं पादमन्तः कृत्वा-एकं पादं वहिः कृत्वा पलुकं विष्कम्भयित्वा एतया एपणया एषयन् लमेत आहरेत्, पतया एपणया पपयन् नो लमेत नो आहरेत् । द्वितीयायां तस्य कल्पते द्वे दत्ती भोजनस्य प्रतिग्रहीतुम् द्वे पानकस्य सर्वे द्विपदचतुष्पदादिभिर्यावन्नो आहरेत् । एवं तृतीयायां तिम्रो यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदश। बहुलपक्षस्य प्रतिपदि तस्य कल्पते चतुर्दश दत्तीः, द्वितीयायां त्रयोदश यावच्चतुर्दश्यामेकां दत्ति भोजनस्य, एकां पानकस्य सर्द्विपदचतुष्पदादिभिर्यावत् नो माहरेत्, अमावास्यायां स चाभक्तार्थो भवति । एवं खलु एषा यवमध्यचन्द्रप्रतिमा यथासूत्र यथाकल्प यथामार्ग सम्यक् कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आनयाऽनुपालिता अवति ॥ सू०२॥
भाष्यम्-'जवमज्झं णं चंदपडिम' यवमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमाम् , यवमध्यचन्द्रप्रतिमायाः यवेन चन्द्रेण चोपमा यववन्मध्यभागः-पृथुलो यस्या सा यवमध्या। तथा,चन्द्राकारा प्रतिमा चन्द्रप्रतिमा- चन्द्रानुसारिणीत्यर्थः ।
___ अयं भावः-शुक्लपक्षस्य प्रतिपत्तिथौ चन्द्रविमानस्य पञ्चदशभागीकृतस्य एकैव कला दृश्या भवति, द्वितीयायां तिथौ द्वे कले चन्द्रविमानस्य दृश्येते, तृतीयायां तिस्रः, एवं पूर्णिमायां परिपूर्णाः पञ्चदशाऽपि कलाः दृश्यन्ते । ततः कृष्णपक्षस्य प्रतिपदि एकया कलया होनो दृश्यते चन्द्रस्य चतुर्दश कला दृश्यन्ते इत्यर्थः । द्वितीयायां तिथौ त्रयोदश कला दृश्यन्ते, तृतीयायां द्वादशैव, यावदमावास्यायामेकाऽपि कला न दृश्यते । तदेवमयं मासः आदौ ऊनः मध्ये संपूर्णः अन्ते पुनरपि परिहीनः । यद्वा-आदावन्ते च तनुको मध्ये विपुलः । एवं भिक्षुकोऽपि शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि तिथौ एकां दत्तिं भिक्षाया गृह्णाति, द्वितीयायां शुक्लपक्षस्य द्वे गृह्णाति, तृतीयायां तिस्रो दत्तीः गृह्णाति यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदश दत्तीगृह्णाति । कृष्णपक्षस्य प्रतिपदि पुनश्चतुर्दश दत्तीगुहाति, द्वितीयायां त्रयोदश, एवं क्रमेण यावत् चतुर्दश्याभेकैकोनत्वेन एकां दतिं गृह्णातीति तेन अमा
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू० २
येवमध्यचन्द्रप्रतिमास्वरूपम् २३५ वास्यायां चोपोषितो भवति, चतुर्थभक्कं करोतीत्यर्थः । ततश्चचन्द्राकारतया चन्द्रप्रतिमा आदावन्ते च भिक्षायात्तनुत्वात् मध्ये विपुलत्वात् यवमध्योपमितमध्यभागा, एवम्भूतां यवमध्यचन्द्रप्रतिमाम् 'पडिबन्नस्स' प्रतिपन्नस्य 'अणगारस्स' अनगारस्य-साधोः स्वीकृतयवमध्यचन्द्रप्रतिमस्य भिक्षोः, 'मुक्कपक्खस्स पाडिवए' शुक्लपक्षस्य प्रतिपत्तिथौ 'कप्पई' एग दति भोगणस्स पडिगाहित्तए' कल्पते एकां दत्ति भोजनस्य प्रतिग्रहीतुम् , तथा-'एगं पाणगस्स' एकां दत्ति पानकस्य प्रतिग्रहीतुं कल्पते । कदा कल्पते ? इत्याह-सव्वेहि' इत्यादि, 'सव्वेहि दुप्पयचउप्पयाइएहिं आहारकंखीहि सत्तेहि पडिणियत्तेहिं' सर्वैदिपदचतुष्पदादिभिराहारकाक्षिभिः सत्त्वैः-प्राणिभिः आहारं कृत्वा प्रतिनिवृत्तैः, अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् तेन सर्वेषु द्विपदचतुप्पदादिषु आहारकाक्षिषु सत्त्वेषु प्रतिनिवृत्तेषु सत्सु, इत्यर्थः । ___अयं भावः-तस्मिन् समये साधुर्भिक्षार्थ गच्छेत् यदा सर्वेऽति द्विपदचतुप्पदादयो जीवा आहारकांक्षिणः माहारं कृत्वा प्रतिनिवृत्ता भवेयुस्तदवसरे साधुर्भिक्षार्थ परिभ्रमेदिति । कोशमाहारं गृहीयात्तत्राह-'अन्नायउंछे' अज्ञातोंछम् , अज्ञातस्य-अपरिचितकुलस्य उञ्छम्-अल्पमल्पं 'सुद्धोवहई' शुद्धोपहृतम् निर्दोपमाहारं दातुमुत्थापितम् , यद्वा शुद्धेन-सचित्तादिसंपर्करहितेन गृहस्थेन उपहृतम्-दातुं हस्ते गृहीतं तत् अन्यस्मै दत्त्वा अवशिष्टं स्याद्भवेत्। 'निज्जूहित्ता वहवे समण-माहण-अइहि-किवण-वणीमगा' बहून् श्रमण-माहना ऽतिथि-कृपण-वनीपकान् , तत्रश्रमण.-शाक्यमिक्षुः, माहनो भिक्षावृत्तिको व्राह्मण, अतिथिः-प्राघुर्णकादिः, कृपणः दीनः, वनीपकोयाचकः, इत्येतान् सर्वान् नियूह्य-भिक्षाग्रहणप्रवृत्तान् वर्जयित्वा, यदा ते भिक्षां गृह्णन्तो भवेयुस्तदा तत्र साधना भिक्षार्थ न गन्तव्यमिति भावः। तत्समये तत्र गतस्य 'कप्पइ से एगस्स मुंजमाणस्स पडिगोहित्तए' कल्पते तस्य-गृहस्थगृहे प्रविष्टस्य, तत्र-एकस्य मुञानस्य प्रतिग्रहीतुम् , एक एव पुरुषो यत्र भुङ्क्ते तस्य हस्तादेवान्नपानादिकं प्रतिग्रहीतुं कल्पते किन्तु-'नो दोण्हं नो तिण्डं नो यो पुरुपयोर्मुञानयोस्त्रयाणां वा भुजानानाम् एवम्-'नो चउण्हं नो पंचण्हं' नो चतर्णा नो वा पञ्चानां हस्ताद् भिक्षां प्रतिग्रहीतुं कल्पते, एवम् 'नो गुत्रिणीए' नो गुर्विण्या गर्भवत्या हस्तात् 'नो वालवच्छाए' नो वालवत्सायाः यस्य बालोऽव्यक्तः, स न तस्या विरहे तिष्ठति एतादृश्या हस्तात् , एवम् -'नोदारगं पेज्जमाणीए' नो दारकं पाययन्त्याः-बालकं स्तन्यं धायन्न्याः, या स्त्री बालकं स्तन्यं पायर्यात तद्धस्तादपि भिक्षां ग्रहीतुं न कल्पते, पुनश्च 'नो से कप्पड अंतो एलयस्स दोवि पाए साहटु दलमाणीए' न तस्य श्रमणस्य कल्पतेऽन्तमध्ये एलुकस्यगडदेहल्याः द्वावपि पादौ-चरणौ सत्य-स्थापयित्वा ददत्या', गृहद्वाराभ्यन्तरे पादद्वयं संहन्य या भिक्षा ददाति तद्धस्तादपि नो ग्रहीतुं कल्पते 'नो वाहिं एलुयस्स दोवि पाए साहहु दलमाणीए नो-न वा बहिः-बहिर्मागे एलुकस्य-गृहद्वारस्य द्वावपि पादौ संहृत्य भिक्षां ददत्याः, गृहस्य बहिर्मागे चरणद्वयं स्थापयित्वा या भिक्षां ददाति तद्धस्तादपि ग्रहीतुं न कल्पते इति
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारीसंत्र
पूर्वेण सम्बन्धः । तदा कथं कल्पते ? इत्याह-'अह पुण एवं जाणेज्जा' अथ पुनरेवं जानीयात्'एगं पायं अंना किच्चा' एकं पादमन्तारस्य कृत्वा, 'एगं पायं वाहि किच्चा' एकं पादमेलुकस्य-द्वारस्य वहिः-बहिर्भागे कृत्वा 'एलुयं विक्खंभइत्ता' एलुकं-गृहद्वारं विष्कम्भयित्वा द्वयोश्चरणयोर्मध्ये कृत्वा ददत्या हस्तात्कल्पते, 'एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा' एतया एषणया एषयन् यदि लभेत, तदा 'आहारज्जा' आहरेत्- आहारं कुर्यात् तादृशमन्नपानादिकं ग्रहीतुं कल्पते इति भावः 'एयाए एसणाए एसमाणे णो लभेज्जा णो आहारेज्जा' एतया एषणया एपयन् यदि नो लभेत तदा नो आहरेत् आहारं नो कुर्यात् । एषः प्रथमदिनभिक्षाग्रहणविधिरुक्तः, एवंरीत्यैव द्वितीयादितिथिविषयेऽपि योजनीयमिति । एवम् 'विइयाए से कप्पइ दोणि दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए दो पाणगस्स' द्वितीयायां तिथौ 'से' तस्य यवमध्यचन्द्रप्रतिमा प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य कल्पते द्वे दत्ती भोजनस्य-भक्तौदनादेः प्रतिग्रहीतुं तथा द्वे दत्ती पानकस्य प्रतिग्रहीतुम् । कदा-कल्पते ? तत्राह--'सव्वेहिं दुप्पयचउप्पयाइएहि आहारकंखीहि सत्तेहिं पडिनियत्तेहि सर्वेषु द्विपदचतुष्पदादिषु आहारकाङ्क्षिपु सत्वेषु-प्राणिषु प्रतिनिवृत्तेषु अन्नायउंछं सुद्धोवहडं जाव नो आहारज्जा' अज्ञातोंछं शुद्धोपहृतं यावत् नो आहरेत् , इत्यादि पदानि प्रतिपदालापकोक्तवद् व्याख्येयानि ।
"एवं तइयाए तिण्णि जाव पण्णरसीए पण्णरस' एवं तृतीयायां तिथौ तिम्रो यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदश, पूर्वोक्तक्रमेण एकैकां दत्तिं वर्द्धयन् पञ्चदश्यां-पूर्णिमायां पञ्चदश दत्तीभोजनस्य, पञ्चदश पानकस्य प्रतिग्रहीतुं कल्पते ।
मासस्य शुक्लपक्षे दत्तीनां वर्द्धमानतामुपदर्य मासस्य कृष्णपक्षे दत्तीनां हासतां दर्शयितुमाह-'बहुलपक्खस्स' इत्यादि, 'बहुलपक्खस्स पाडिवए से कप्पइ चोदस दत्तीओ' वहुलपक्षस्य-कृष्णपक्षस्य प्रतिपदि प्रथमदिवसे तस्य-यवमध्यचन्द्रप्रतिमां प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य चतुर्दश दत्ती जनस्य तथा चतुर्दश दत्तीः पानकस्य प्रतिग्रहीतुं कल्पते इति भावः । एवम् 'वीयाए तेरस' द्वितीयायां त्रयोदश 'जाव' यावत्, यावत्पदेन तृतीयायां द्वादश, चतुर्थ्यामेकादश, पञ्चम्याम् दश, एवं क्रमेण हापयन् 'चोदसीए एगं दत्तिं भोयणस्स' चतुर्दश्यामेकां दत्तिं भोजनस्य 'एगं दतिं पाणगस्स' एकां दत्तिं पानकस्य प्रतिग्रहीतुं कल्पते । कदा ? इत्याह-'दुप्पयचउप्पयाइएहि' द्विपदचतुष्पदादिषु भोजनकाक्षिषु सत्त्वेषु-प्राणिषु प्रतिनिवृत्तेषु, इत्यादि 'जाव नो आहारेज्जा' यावत् नो आहरेत्, एतया एषणया एषयन् लभेत आहोत, एतया एषणया नो लभेत नो आहरेदिति पूर्ववद् व्याख्येयम्, ततः 'अमावासाए से य अभत्तद्वे भवई' अमावास्यायां-मासस्य चरमे दिवसे स च अभक्तार्थ, न भक्कमभक्तं-भोजनराहित्यं तदेव प्रयोजनं यस्य सोऽभक्तार्थः, उपोषितो भवतीति । 'एवं खल एसा जवमज्झचंदंपडिमा' एवमुपयुक्तप्रकारेण एषा-पूर्वप्रदर्शिता यवमध्यचन्द्रप्रतिमा 'अहामुत्तं' यथासूत्रम्-सूत्रानति
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू०३
वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमास्वरूपम् २३७ क्रमेण, 'अहाकप्पं यथाकल्पम्-सूत्रोक्तसाधुकल्पानतिक्रमेण, 'जाव अणुपालिया भवई' यावद् अनुपालिता भवति, यावत्पदेन यथामार्ग सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आज्ञया, इत्येतेषां ग्रहणं भवति । तत्र यथामार्ग ज्ञान-दर्शन-चारित्रानतिक्रमण, सम्यग् निरतिचारं कायेन स्पर्शिता सेवनतः, पालिता जीवरक्षातः, शोधिता गुरुकथनानुसारतो निरतिचाराचरणतः, तीरितापर्यन्तं नीता, कीर्त्तिता-आचार्याणामने 'मया प्रतिमा संपादिता' इति निवेदिता, तीर्थकराणामाज्ञया अनुपालिता भवतीति ॥ सू० २ ॥
__ यवमध्यचन्द्रप्रतिमाकोष्टकम्
शुक्लपक्षे प्रति. द्वि. तृ. च. पं. प. स. अ. न. द. एका. द्वा. त्रयो. चतु. पूर्णिमा | | | | | ।। । । । । । । । । १ २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५
कृष्णपक्षे प्रति. द्वि. तृ. च. पं. प. स. अ. न. द. एका. द्वा. त्रयो. चतु. अमा. । । । । । । । । । । । । । १४, १३, १२,११, १०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २, १, .
अभकार्थः पूर्व शुक्लपक्षमाश्रित्य क्रियमाणा यवमध्यचन्द्रप्रतिमा प्रदर्शिता, साम्प्रतं-बहुलपक्षादारभ्य क्रियमाणा वजमध्यचन्द्रप्रतिमां प्रदर्शयति- 'वइरमज्झं णं' इत्यादि ।
सत्रम्-'परमज्झं णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स णिच्चं मासं वोसहकाए चियत्तदेहे जे केइ परिसहोवसग्गा समुप्पज्जति तंजहा-दिव्वा वा माणुस्सगा वा निरिक्खजोणिया वा अणुलोमा वा पडिलोमा वा । तत्थ अणुलोमा ताव वंदेज्जा वा नमसेज्जा वा-सक्कारेज्जा वा संमाणेज्जा वा कल्याणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जवादेना । पडिलोमा अन्नयरेणं दंडेण वा अट्ठिणा वा जोत्तेण वा वेत्तेण वा कसेण वा काए आउद्देज्जा ते सव्वे उप्पन्ने सम्मं सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा ॥ सू० ३॥
छाया-वज्रमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमां प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य नित्यं मार्स व्युत्सृष्ट काले त्यक्तदेहे ये केचित् परीपहोपसर्गाः समुत्पद्यन्ते तद्यथा-दिव्या वा-मानुषका वा निर्ययोनिका वा अनुलोमा वा प्रतिलोमा वा, तत्राऽनुलोमा तावत् वन्देत नमस्येत् मकारयेत संमानयेत् कल्याणं मगलं दैवतं चैत्यं पर्युपासेत । प्रतिलोमा अन्यतरेण--दण्डेन
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे वा अस्थना वा जोत्रेण वा वेत्रेण वा कशया वा कायमाकुट्येत, तान् सर्वान् समुत्पन्नान् सम्यक् सहेत क्षमेत तितिक्षेत अधिसहेत ॥ सू० ३ ।।
भाष्यम्-वइरमझं ण चंदपडिम' वजमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमाम्, तत्र-वत्रस्येव मध्य यस्याः सा वज्रमध्या चन्द्राकारा-चन्द्रतुल्या प्रतिमा-वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा, वनवद् आदौ अन्ते च स्थूला, मध्ये तनुकेत्यर्थः । कृष्णपक्षचन्द्राऽनुसारित्वात् चन्द्रानुसारिणी भवति ।
अयं भावः-वामध्यचन्द्रप्रतिमायां कृष्णपक्ष आदौ क्रियते तत एवं भावना-कृष्णपक्षस्य प्रतिपत्तिथौ चन्द्रविमानस्य चतुर्दश कला दृश्यन्ते, द्वितीयायां चन्द्रविमानस्य त्रयोदश कला दृश्यन्ते, तृतीयायां द्वादश यावत् चतुर्दश्याम् एकैव कला दृश्यते, अमावास्यायां तु-एकापि कला चन्द्रविमानस्य न दृश्यते । ततः पुनरपि शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि चन्द्रविमानस्यैका कला दृश्यते द्वितीयायां द्वे कले दृश्येते, तृतीयायां तिनः कला दृश्यन्ते, एवं यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशाऽपि कला दृश्यन्ते । तदयं मासः आदो अवसाने च पृथुलो मध्ये तनुकः, वनमपि आदावन्ते च विपुलं मध्ये तनुकम् । एवंप्रकारेण श्रमणोऽपि भिक्षां गृह्णाति, कृष्णप. क्षस्य प्रतिपदि चतुर्दश, द्वितीयायां त्रयोदश, तृतीयायां द्वादश यावत् चतुर्दश्यामेकैव, अमावास्यायाम् उपोषितो भवति । ततः पुनरपि शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि एकां भिक्षां गृह्णाति, द्वितीयायां वे भिक्षे, तृतीयायां तित्रो भिक्षाः यावत् पञ्चदश्यां पच्चदश । तत एषा कृष्णपक्षगतचन्द्राकारतया चन्द्रप्रतिमा आदावन्ते च विपुलतया मध्ये च तनुतया वज्रमध्योपमितमध्यभागा इति वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा भवतीति । एतादृशीं वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमाम् 'पडिवन्नस्स' प्रतिपन्नस्य 'अणगारस्स' अनगारस्य साधोः 'णिच्चं मासं वोसट्टकाए' नित्यं मासं मासपर्यन्तं व्युत्सृष्टकाये-परित्यक्तपरिकर्मणि काये अत एव 'चियत्तदेहे' त्यक्तदेहे-त्यकात्मभावे देहे अनयोईयोः पदयोः सविस्तरमों यवमध्यचन्द्रप्रतिमासूत्रे विलोकनीय, एतादृशे देहे 'जे कइ परीसहोवसग्गा समुप्पज्जति' ये केचित् परीघहोपसर्गाः शरीरविघातकाः परीपहा. उपसर्गाश्च समुत्पद्यन्ते-समागच्छन्ति तान् सर्वान् एव सोऽधिसहेतेत्यग्रिमेण सम्बन्धः । ते के परीपहोपसर्गा इति तान् नामग्राहं दर्शयितुमाह-'तंजहा' इत्यादि, तद्यथा-'दिव्या वा माणुस्सगा वा तिरिक्खजोणिया वा' इत्यादि, शेषं सर्वे सूत्रं यवमध्यचन्द्रप्रतिमावद् व्याख्येयम् ॥ सू० ३ ॥
पूर्व वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमाया' स्वरूपं प्रदर्शितम् , सम्प्रति तस्याः पालनप्रकारः प्रदर्श्यते'वइरमज्झं गं' इत्यादि ।
सूत्रम्- वइरमज्झं णं चंदपडिम पडिवन्नस्स अणगारस्स बहुलपक्खस्स पाडिवए कप्पइ पन्नरस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए-पन्नरस पाणगस्स, सव्वेहिं दुप्पयच उप्पयाइएहिं आहारकंखीहि जाच णो आहारेज्जा । वितियाए से कप्पइ चउद्दस दत्तीओ भोयणस्स, चउद्दस पाणगस्स पडिगाहित्तए जाव णो आहारेज्जा । एवं जाव पणरसीए
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू० ४
वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमास्वरूपम् २३९
एगा दत्ती । सुक्कपक्खस्स पाडिवर कप्पर दो दत्तीओ, बीयाए तिष्णि जाव चउदसीए पणरस, पुण्णिमाए अभत्तट्ठे भवइ । एवं खलु एसा वइरमज्झा चंदपडिमा अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं जाव अणुपालिया भवइ ॥ सू० ४ ॥
छाया- -वज्रमध्यां खलु चन्दप्रतिमां प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य बहुलपक्षस्य प्रतिपदि कल्पते तस्य पञ्चदश दत्तीर्भोजनस्य प्रतिग्रहीतुम् पंचदश पानकस्य, सर्वैर्द्विपदचतुष्पदादिभिराद्दारकांक्षिभिः यावत् नो आहरेत् । द्वितीयायां तस्य कल्पते चतुर्दश दत्तीजनस्य प्रतिग्रहीतुं चतुर्दश पानकस्य यावत् नो आहरेत् । एवं यावत् पञ्चदश्याम् (अमावास्यायाम्) एका दत्तिः । शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि कल्पते हे दत्ती, द्वितीयायां तिस्रः यावच्चतुर्दश्यां पञ्चदश, पूर्णिमायाम् अभक्तार्थो भवति । एवं खलु एषा वज्रमध्या चन्द्रप्रतिमा यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग यावत् अनुपालिता भवति ॥ सू० ४ ॥
भाष्यम् –'वइरमज्झं णं चंदपडिमं' वज्रमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमाम् ' पडिवन्नस्स' अणगारस्स' प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य - साधोः 'वहुलपक्खस्स' बहुलपक्षस्य कृष्णपक्षस्येत्यर्थः 'पाडिवए' प्रतिपदि–प्रतिपत्तिथौ प्रथमदिवसे इत्यर्थः, 'कप्पर पन्नरस दत्तीओ भोयणस्स पडिगा - हित्तए' कल्पते पञ्चदश दत्तीर्भोजनस्य - भक्तौदनादेः प्रतिग्रहीतुम्, तथा - 'पन्नरस पाणगस्स' पञ्चदश दत्ती' पानकस्यापि प्रतिग्रहीतुं कल्पते, कदा ? इत्याह-- ' सव्वेहिं दुप्पयचउप्पयाइएहिं आहारकंखीहिं जाव णो आहारेज्जा' सर्वेषु द्विपदचतुष्पदादिषु आहारकांक्षिषु प्रतिनिवृत्तेषु यावद् नो आहरेत्, एतया सूत्रोक्तया एषणया एषयन् यदि लभेत तदा - आहरेत्, एषणया एषयन् नो लभेत तदा नो आहरेदिति सर्वत्रैव योजनीयम् । अत्र - यावत्पदगृहीतस्य सर्वस्यापि पाठस्यार्थो यवमध्यचन्द्रप्रतिमासूत्रे विलोकनीयः ।
एतया
'वितियाए चउद सदत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए जाव णो आहारेज्जा' कृष्णपक्षस्य द्वितीयायां तिथौं द्वितीयदिवसे इत्यर्थः ' से' तस्याऽनगारस्य कल्पते चतुर्दश दत्तीर्भोजनस्य-भक्तौदनादेः प्रतिग्रहीतुम् चतुर्दश पानकस्य पानस्यापि चतुर्दशैव दत्तः प्रतिग्रहीतुं कल्पते, तत्र यदि एतया सूत्रोक्तया एषणया एषयन् लभेत तदा- - आहरेत् यदि नो लभेत तदा नो आहरेत्, इति । एवं जाव पणरसीए एगा दत्ती' एवम् अनेन प्रकारेण यावत् तृतीयात आरम्य क्रमश एकैकोनत्वेन पञ्चदश्यां तिथौ अमावास्यायाम् एका दत्तिर्ग्रहीतव्या भवति, एकां दत्ति प्रतिग्रहीतुं कल्पते । तदनन्तरम् 'सुक्क पक्खस्स पाडिवर' शुक्लपक्षस्य प्रतिपत्तिथौ कल्पते साधोः द्वे दत्ती प्रतिग्रहीतुम्, 'वीयाए तिष्णि' द्वितीयायां तिस्र' 'जाब चउदसीए पणरस' यावत् तृतीयात आरभ्य क्रमश एकैकवृद्धया चतुर्दश्यां तिथौ पञ्चदश, 'पुण्णिमाए अभत्तट्टे
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
व्यवहारसूत्रे
भवई' पूर्णिमायां-पौर्णमास्यां तिथौ स प्रतिमाधारी साधुः अभक्तार्थः भक्तप्रयोजनरहितः उपोपितो भवति । 'एवं खलु एसा वइरमज्झा चंदपडिमा' एवम् उक्तप्रकारेण एषा-कथितस्वरूपा वज्रमच्या चन्द्रप्रतिमा, 'अहासुतं अहाकप्पं जाव अणुपालिया भवई' यथासूत्रं यथाकल्पं यावदनुपालिता भवति, एषां पदानामर्थो यवमध्यचन्द्रप्रतिमासूत्रेऽवलोकनीयः, एवं प्रकारेण वजमध्य चन्द्रप्रतिमा निरूपिता भवति । एतावानत्र भेदो द्वयोर्यवमध्यवज्रमध्यचन्द्रप्रतिमयो-यत् यवमध्या चन्द्रप्रतिमा आदाववसाने च तनुका मध्ये च विपुला । वज्रमध्यचन्द्र प्रतिमा तु--आदाववसाने च विपुला मध्ये तनुकेति । सूत्रेऽर्थे च सति धृतिवलसंपन्न एव यवमध्यां वज्रमध्यां च चन्द्रप्रतिमा प्रतिपद्यते इति विज्ञेयम् ॥ सू० ४ ॥
तिथिः दत्तिः
वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमाकोष्ठकम्
कृष्णपक्षे प्रति. द्वि. तृ. च. पं. प. स. अ. न. द. एका. द्वा. त्रयो. च, अमा. । १५, १४, १३, १२,११,१०,९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २. १,
शुक्लसुक्षे प्रति. हि, तृ. च. पं. प. स. अ. न. दश. ए. द्वा. यो. च. पू.
। । । । । । । । । २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, अभक्तार्थः
तिथिः
दत्तिः
।
पूर्व प्रतिमा प्रोक्ता, प्रतिमां चागमादिव्यवहारकुशल एव पालयितुं समर्थो भवेदिति पञ्चविधं व्यवहारं प्रदर्शयति —'पंचविहे ववहारे पन्नत्ते' इत्यादि ।
सूत्रम्-पंचविहे ववहारे पन्नत्ते तंजहा-आगमे १, सुए २, आणा ३, धारणा ४, जीए ५ । जत्येव तत्य आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा, नो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा, नो से तत्थ सुए सिया जहा से तत्य आणा सिया आणाए ववहारं पट्ठवेज्जा, नो से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा नो से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थजीए,
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू०-५
आगमादिपञ्चविधव्यवहारनिरूपणम् २४१ सिया जीएणं ववहारं पट्टवेज्जा, एएहिं पंचहि ववहारेहिं ववहारं पडवेज्जा तंजहा-आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं । जहा जहा आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहा ववहारं पट्टवेज्जा । से किमाहु भंते ? आगमवलिया समणा णिग्गांथा । इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तया तर्हि तहिं अणिस्सिओवस्सियं ववहारं ववहारेमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ ॥ सू० ५ ॥
छाया-पञ्चविधो व्यवहारः प्रशप्तः तद्यथा-आगमः १, श्रुतम् २, आज्ञा ३, धारणा ४. जीतम् ५, यत्रैव तत्रागमः स्यात् । आगमेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् १, नो अथ तत्रागमः स्यात् यथा अथ तत्र श्रुतं स्यात् श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् २, नो अथ तत्र श्रुतं स्यात् यथा अथ तमाशा स्यात् आशया व्यवहारं प्रस्थापयेत् ३, नो तत्राज्ञा स्यात् यथा अथ तत्र धारणा स्यात् धारणया व्यवहारं प्रस्थापयेत् ४, नो अथ तत्र धारणा स्यात् यथा अथ तत्र जीतं स्यात् जोतेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् ५, । एभिः पञ्चभिर्व्यवहारैर्व्यवहारं प्रस्थापयेत् तद्यथा-आगमेन, श्रुतेन, आशया, धारणया जीतेन, यथा यथा आगमः श्रुतम् आशा धारणा जीतम् तथा तथा व्यवहारं प्रस्थापयेत् । अथ किमाहुर्भदन्त !, आगमवलिकाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः । इत्येतं पञ्चविधं व्यवहारम् यदा यदा यत्र यत्र तदा तदा तत्र तत्र अनिधितोपश्रितं व्यवहारं व्यवहरन् श्रमणो निम्रन्थः आज्ञया आराधको भवति ॥ सू०५॥
भाष्यम्-'पंचविहे ववहारे पन्नत्ते' पञ्चविधः पञ्चप्रकारको व्यवहारः, तत्र-व्यवहरतीति व्यवहारः प्रज्ञप्तः-कथितः, तमेव पञ्चविधत्वं दर्शयितुमाह-'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'आगो' आगमः, तत्राऽऽगच्छति प्राप्तो भवति मोक्षरूपोऽर्थोऽनेन, ज्ञानदर्शनचारित्ररूपो वाऽर्थोऽनेन इत्यागमः द्वादशाङ्गगणिपिटकरूपः साधूनां प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो व्यवहार इत्यर्थः, अत्र गुणगुणिनोरभेदोपचाराद् गुणेन गुणी गृह्यते तेन आगम इति आगमव्यवहारी स च केवलज्ञानी १, मनःपर्यवज्ञानी २, अवधिज्ञानी ३, चतुर्दशपूर्वधरः ४, दशपूर्वधरः ५, नवपूर्वधरश्चेति षडेते आगमव्यवहारिणो भवन्ति ६ ।।
एतेषु षट्सु उत्तरोत्तरं ग्राह्यः 'मुए' श्रुतम्-श्रुतव्यवहारी आचारप्रकल्पनिशीथादिसूत्रधारी, अत्र श्रुतशब्देन नवादिपूर्वाणामपि ग्रहणं भवति, तेन नवपूर्वादिधरा अपि सूत्रव्यवहारिणः कथ्यन्ते २। 'आणा' आज्ञा-आज्ञाव्यवहारी, यथा-केचिद्गीतार्था आचार्यादयः दूरदेशस्थिता जडावलक्षीणत्वेन विहृत्यागन्तुं न समर्था भवेयुस्तेषामाजया, तीर्थकराज्ञया शास्त्रद्वारा वा व्यवहरति प्रायश्चित्तादि ददाति स आज्ञाव्यवहारीति ३ । 'धारणा' धारणाव्यवहारी, यो धारणया व्यवहरति स धारणाव्यवहारी, धारणा नाम गीतार्थगुर्वादिभिः कस्मैचिद्दत्तां शोधि दृष्ट्वा तद्दत्ता शोधिं श्रुत्वा वा धार्यते सा धारणा कथ्यते तया व्यवह" धारणाव्यवहारी प्रोच्यते, यथा—यः कश्चिद् गीतार्थव्यवहारी कस्मैचित् प्रायश्चित्तादि ददाति तच्छृत्वा-तदुक्तं धारयित्वा यः प्रायश्चित्तं ददाति स धारणाव्यहारीति कथ्यते ४ । 'जीए' जीतम्-गुरुपरम्परागत
न्य, ३१
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारत्रे प्रक्रियारूपं तेन यो व्यवहरति स जीतव्यवहारी, यः पूर्वाचार्य परम्परामनुसृत्य प्रायश्चित्तादि ददाति स जीतव्यवहारी कथ्यते ५ ।
एषु पञ्चसु मध्ये एकैकाभावे उत्तरोत्तरेणाऽऽलोचना ग्रहीतव्येति प्रदर्शयति-'जत्थेव तत्थ' इत्यादि, 'जत्थेव तत्य आगमे सिया आगमेणं ववहारं पडवेज्जा' यत्रैव यत्र स्थाने आगमः
आगमव्यवहारी भवेत् तत्र स्थानविशेषे आगमेन-आगमत्र्यवहारिणा व्यवहारं प्रस्थापयेत्, तत्र व्यवहार निर्णयमागमव्यवहारिणैव कारयेत्-आगमव्यवहारिपार्श्व एव आलोचनां गृह्णीयादिति भाव । आगमव्यवहारिणो जिनेन्द्राणामाज्ञयैव यथावस्थितं व्यवहारं व्यवहरन्ति किन्तुनाधिकं न न्यूनम् , तेषां रागद्वेषविनिर्मुक्तत्वात् । उक्तञ्च
"ते आगमवबहारी, हवंति जे रागदोसनिम्मुक्का ।
जिणवरआणाए जे, ववहारं ववहरंति जहतत्थं" ॥१॥ छाया-ते आगमव्यवहारिणो, भवन्ति ये रागद्वेपनिर्मुक्ताः।
जिनवराज्ञया ये व्यवहारं व्यवहरन्ति यथातथ्यम् ॥१॥ इति । यतः प्रथमं तेषां पार्वे व्यवहारं प्रस्थापयेदिति । 'नो तत्थ आगमे सिया' अथ च यत्र नो आगमः-आगमव्यवहारी न स्यात् न भवेत् तदा 'जहा से तत्थ सुए सिया' अथ यथा तत्र श्रतम्-श्रतव्यवहारी भवेत् तदा 'मुएणं ववहारं पट्टवेज्जा' श्रुतेन श्रुतव्यवहारिणा व्यवहारं प्रस्थापयेत् श्रुतव्यवहारितः प्रायश्चित्तं गृह्णीयादित्यर्थः । 'नो से तत्थ सुए सिया' अथ नो तत्र श्रुतम्-श्रुतव्यवहारी स्यात् किन्तु 'जहा से तत्थ आणा सिया' यथा तत्राज्ञा स्यात् यदि तव्यवहारी न भवेत् किन्तु-माज्ञाव्यवहारी भवेत् तदा 'आणाए ववहारं पट्टवेज्जा' आज्ञया आज्ञाव्यवहारिणा व्यवहारं प्रस्थापयेत् आज्ञाव्यव हारिद्वारा प्रायश्चित्तं गृहीयादित्यर्थः । 'नो से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया' अथ नो तत्राऽऽज्ञा स्यात् अथ यथा तत्र धारणा स्यात् , यदि कदाचित् यत्राज्ञाव्यवहारी न भवेत् किन्तु धारणाव्यवहारी भवेत् तदा 'धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा' धारणया-धारणाव्यवहारिणा व्यवहारं प्रस्थापयेत् । 'नो से तत्व धारणा सिया जहा से तत्थ जीए सिया जीएणं ववहारं पट्टवेज्जा' अथ नो तत्र धारणा- धारणाव्यवहारी स्यात् अथ यथा तत्र जीतं-जीतव्यवहारी स्यात् तदा जीतेन जीतव्यवहारिणा व्यवहारं प्रस्थापयेत् , धारणाव्यवहारिणोऽभावे जीतव्यवहारिद्वारेणैव आलोचनाव्यवहारं कुर्यादित्यर्थः । 'एएहिं पंचहि ववहारेहि ववहारं पट्टवेज्जा' एतैः- उपरिदर्शितैः पञ्चभिर्व्यवहारिभिर्व्यवहारं प्रस्थापयेत् कुर्यात् , 'तंजहा' तद्यथा--'आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं' आगमेन १, श्रुतेन २ आज्ञया ३, धारणया ४, जीतेन ५ । 'जहा जहा आगमे १, सुए २, आणा ३, धारणा,
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग्यम् उ० १० सू० ५
आगमादिपञ्चविधत्र्यवहारनिरूपणम् २४३ जीए' यथा यथा आगम: १, श्रुतम् २, आज्ञा ३, धारणा ४, जीतम् ५ 'तदा तहा वबहारं पट्टवेज्जा' आगमव्यवहारिणोऽभावे तथा तथा तेन तेन श्रुतव्यवहार्यादिप्रकारेण व्यवहारं प्रस्थापयेत् । ' से किमाहु भंते ?' अथ किमेवमाहुर्भदन्त ! हे भदन्त ! कथमेवं कथयसि यत् प्रथममागमव्यवहारिणैव व्यवहारं प्रस्थापयेदित्यागमस्य प्राथम्यं ददाति ? तत्राह - ' आगमवलिया समणा णिग्गंधा' आगमवलिकाः आगम एव बलं येषां ते आगमवलिकाः आगमाधारवन्त एव श्रमणा निर्ग्रन्धा भवन्ति, आगमबलेनैव श्रमणा निर्ग्रन्था आगमेनैव व्यवहरन्ति, आगमस्य तीर्थकरैः स्वमुखोच्चरितत्वादिति । 'इच्चेयं पंचविहं ववहारं ' इत्येतं - पूर्वप्रदर्शितं पञ्चविधं पञ्चप्रकारकं व्यवहारम् ; 'जया जया जहिं जहि' यदा यदा यत्र यत्र ये ये आगमादिव्यवहाणि भवन्ति 'तया तया तर्हि तर्हि' तदा तदा तत्र तत्र तेषां तेषा समीपे, 'अणिस्सिओस्सियं' अनिश्रितोपश्रितं यथा स्यात्तथा कस्यापि निश्रां वर्जयित्वा यथा अमुकस्य निश्रयाssलोचनां करोति तदा-स न्यूनं प्रायश्चित्तं दास्यतीत्येवंरूपां निश्रां विवर्ज्य 'ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ' व्यवहरन् - व्यवहारं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थः आज्ञायाः - तीर्थकराज्ञाया आराधको भवतीति ॥
अत्राssगमादिपञ्चसु व्यवहारिषु क्रमेण व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः, यदि व्युत्क्रमेण व्यवहरति तदा चत्वारो गुरुमासाः प्रायश्चित्तं भवति, अयं भावः — आगमे विद्यमाने श्रुतादिभिर्व्यवहारं करोति । श्रुते विद्यमाने आज्ञादिभिर्व्यवहरति । आज्ञाव्यवहारे विद्यमाने धारणाव्यवहारं प्रस्थापयति । धारणायां विद्यमानायां जीतेन व्यवहारं प्रस्थापयति । इत्येवं व्युत्क्रमेण व्यवहारप्रस्थापने साधुश्चतुर्गुरुकादिप्रायश्चित्तभाग् भवतीति विज्ञेयम् । प्रथमं मुख्यतया आगमव्यवहारिसमीपे एवालोचना कर्त्तव्या भवेत् । आगमव्यवहारिणोऽपि परविधा भवन्ति तत्रापि क्रमेणैव व्यवहारः प्रस्थापनीय', यथा प्रथमं केवलज्ञानिसमीपे मालोचना कर्त्तव्या स चालोचकस्य सर्वमतिचारं जानाति, न तस्य समीपे माया कर्त्तुं शक्यते १ तदभावे मनः पर्यवज्ञानिपा २, तदभावेमवधिज्ञानिपार्श्वे ३, तदभावे चतुर्दशपूर्वधरसमीपे ४, तदभावे दशपूर्वघरसमीपे ५, तदभावे नवपूर्वधरसमीपे ६, आलोचना ग्रहीतव्या । पूर्वपूर्वाऽभावे उत्तरोत्तरो ग्राह्यः । एवमग्रे श्रुतव्यवहारादिविषयेऽपि मर्यादा वोव्या ।
ननु यस्मिन् काले भगवन्तो गणधराः 'ववहारे पंचविहे पन्नत्ते' इत्यादि सूत्रं निवद्ववन्तस्तस्मिन् कालेऽवाधितरूपेणाssगम आसीदेव ततः कस्मात् कारणात् आज्ञादयो जीतान्ता व्यवहाराः सूत्रे तैर्निबद्धाः आगमादेव सर्वव्यवहारसंभवात्, न हि सूर्यप्रकाशसत्तायां चाक्षुष्ककार्य संपादनाय प्रदीपादीनामल्पप्रकाशानां सग्रहो भवति । अत्राह - तेऽवधिज्ञानादिना ज्ञातवन्तः, यत् स एतादृश. कालः समागमिष्यति यस्मिन् काले सूत्रमनागतविषयं भविष्यति आगमस्य
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
व्यवहारसूत्र व्युच्छेदो भविष्यति तदा शेपैर्व्यवहारैर्व्यवहर्त्तव्यं भविष्यतीति कृत्वा श्रुतादिव्यवहारानपि सूत्र निबद्धवन्तः । तत्रापि व्यवहारः क्षेत्रं काल च प्राप्य यो यथा संभविष्यति, तेन तथा व्यवहारः करणीयो भविष्यतीति।
मयं भावः-यस्मिन् यस्मिन् काले यो यो व्यवहारो व्यवच्छिन्नोऽव्यवच्छिन्नो वा भविध्यति तस्मिन् तस्मिन् काले प्रागुक्तक्रमेण साधवो व्यवहारं व्यवहरिष्यन्ति । तथा यस्मिन् यस्मिन् क्षेत्रे युगप्रथानैराचार्यादिभिर्यां यां व्यवस्थां व्यवस्थापयिष्यन्ति तया तया व्यवस्थया अनिश्रितोपश्रितं व्यवहारः प्रवर्तितो भविष्यतीति विचार्य आगमादिपञ्चव्यवहारसूत्रं ते निवद्धवन्त इति ।
अपि च-आगमादिका धारणान्ताश्चत्वारो व्यवहाराः यावतीर्थप्रवृत्तिस्तावद् भविष्यति, जीतव्यवहारस्तु यावच्चतुर्विधः सद्धः प्रचलिष्यति तावत्कालपर्यन्तं स्थास्यति तस्मात् कारणात् जीतव्यहारोपादानं कृतमिति विवेकः ।
सूत्रे यदुक्तम्-सूत्रोक्तव्यवहारं व्यवहरन् श्रमणो निर्ग्रन्थ आज्ञया आराधको भवतीति, सा चाऽऽराधना खल त्रिप्रकारिका भवति यथा-उत्कृष्टाऽऽराधना १, मध्यमाऽऽराधना २, जघन्याऽऽराधना च । तत्रोत्कृष्टाया आराधनायाः फलम् ---एको भवः, मध्यमाया आराधनायाः फलम् द्वौ भवौ, जघन्याया माराधनायाः फलम्-त्रयो भवाः । अथवा यदि तद्भवे मोक्षो न जातस्तदा उत्कृष्टाया आराधनायाः फलम्-जघन्यसंसरणम् द्वौ भवौ । मधयमाया आराधनायास्त्रयो भवाः, जघन्याया आराधनाया उत्कृष्टा अष्टौ भवा भवेयुरित्याराधनायाः फलं विज्ञेयम् ।
सूत्रोक्तव्यवहारपदव्याख्या यथा-येनाऽऽगमादिना श्रमणो व्यवहरति-व्यवहारं करोति सोऽप्यागमादिर्व्यवहारः, व्यवह्रियतेऽनेनेति व्युत्पत्या-आगमादेरपि व्यवहारत्वात, यद्यपि व्यवहर्त्तव्यं वस्तुप्रतिक्रमणप्रतिलेखनादिकं मुनिर्व्यवहरति सोऽपि व्यवहार एव । व्यवहियते यः स व्यवहार इति कर्मसाधनात् तदेवं करणे कर्मणि उभयत्रापि व्यवहारशब्दः प्रयुज्यते शाब्दिकमर्यादाबलात् ।। सू० ५॥
पूर्व व्यवहाराः प्रदर्शिताः, ते च पुरुषाधीना भवन्तीति तान् सम्यग्ज्ञानवन्तः पुरुषा एव व्यवहर्तुमर्हन्तीति । पुरुषाश्चार्थकरा मानकरा इति द्विविधा भवन्तीति तेषां चतुर्भङ्गी प्रदर्यते'चत्तारि' इत्यादि।
सूत्रम्-चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता तंजहा-अट्ठकरे नाम एगे नो माणकरे १, माणकरे णामं एगे नो अट्टकरे २, एगे अट्ठकरे वि माणकरे वि ३, एगे नो अट्ठकरे नो माणकरे ॥ सू०६॥
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यमें उ०१० सू० ६-७
चतुष्पुरुपजातप्रकरणम् २४५
छाया-चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अर्थकरो नाम एको नो मानकरः १, मानकरो नाम एको नो अर्थकरः २, एकोअर्थकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो अर्थकरो नो मानकरः ४॥ सू० ६॥
भाष्यम्- 'चत्तारि' चत्वारः 'पुरिसजाया' पन्नत्ता' पुरुषजाताः-चतुष्प्रकाराः पुरुषाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, तानेव चतुरो भेदान् दर्शयति-तंजहा' तद्यथा-'अत्थकरे नाम एगे नो माणकरे' अर्थकरो नाम एकः नो मानकरः, तत्रार्थ उपकारः तादृशमर्थ करोति सोऽर्थकरः परेपां हितकारकोऽहितनिवारको भवेत् किन्तु न मानकरः। परेषामुपकारं कृत्वाऽभिमानं न करोतीति प्रथमः १ ।
'माणकरे णामं एगे णो अट्ठकरे' मानकरो नाम एकः न त्वर्थकरः कश्चिदेतादृश. पुरुषः, यो हि मानं करोति, न पुनः करोति कदाचिदपि कस्यापि कमप्युपकारम्, एष द्वितीयः २। 'एगे अढकरेवि माणकरेवि' एकोऽर्थकरोऽपि मानकरोऽपि, तृतीयस्तु स हि भवति यो मानं करोति उपकारमपि करोति ३ । 'एगे नो अट्ठकरे नो माणकरे' एकश्चतुर्थः सः, यो नो अर्थकरों नो वा मानकरः उभयमपि न करोति, चतुर्थ प्रकारकः सः, यो न परेषामुपकारं करोति न मानमपि करोति ४ । एते चत्वारः चतुभि दैर्भिन्नाश्चतुर्विधाः पुरुषा भवन्तीति ।
__ अयं भावः- एकोऽर्थकरः आचार्यस्य वैयावृत्त्यसंपादको न तु मानकरः १। द्वितीयो नार्थकरः केवलं मानकर एव राजवंशीयोऽहम्, घनिकवंशीयोऽहं वेति जातिकुलाद्यभिमानवानेव २ । तृतीय उभयकरः अर्थकरोऽपि मानकरोऽपि, मानं कुर्वन्नपि आचार्यादेः कार्यसंपादकः ३ । चतुर्थो नार्थकरो, न वा मानकरः, अर्थमाचार्यादेन किमपि कार्य करोति, मानम्-अभिमानमपि न करोति ४ । अत्र-चतुष्प्रकारकेष्वपि पुरुषेषु मध्ये प्रथमतृतीयौ-अर्यकरोभयकरौ सफलौ, इतरौद्वितीयचतुर्थी-मानकरो नो मर्थकरो नोभयकरश्चेत्येतौ द्वितीयचतुथौ पुरुषौ निष्फलौ ।
अथ दृष्टान्तमाह-एकस्मिन् नगरे केचिच्चत्वारः पुरुषाः केनाप्यपराधेन राज्ञा निर्विषयीकृताः सन्तो देशान्तरे गत्वा कस्यचिद्राज्ञ सेवायां स्थितवन्तः । तत्र तेषु चतुर्ष मध्ये एकस्तस्य राज्ञः कार्य संपादयति नाभिमानं करोति, तथा-राज्ञोऽम्युत्थानासनदानादिना विनयं च करोति १ । द्वितीयो राज्ञः कार्य तु संपादयति किन्तु-मानं करोति नाभ्युत्थानासनदानादिना कमपि विनयं करोति-'अहमपि राजवंशीयः कुलजात्यादिमानस्मि, अहमपि जातिकुलादिनाऽनेन समान एवाऽस्मी'-त्यभिमानं करोति २ । एतौ द्वौ प्रथमतृतीयभङ्गप्रदर्शिता पुरुषौ स्तः । शेषयोईयोर्मध्ये एको मानं करोति-'अहमेतादृशोऽस्मि, मम पूर्वजाः समृद्धिशालिन आसन्' इत्यादिरूपेण मानमानं करोति किन्तु न राज्ञः कार्य सपादयति १, द्वितीयस्तु राज्ञो
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६
व्यवहारसूत्र न कमपि कार्य साधयति मानमपि न करोति । एतौ द्वौ द्वितीयचतुर्थभगोक्तौ पुरुपो स्तः । तत्र राजा च प्रथमतृतीयभगवत्तिपुरुषाभ्यां यथायोगं वृत्तिं दत्तवान् , द्वितीयचतुर्थभङ्गवर्तिपुरुपाभ्यां न कामपि वृत्तिं दत्तवान् । इति दृष्टान्तः ।
एवमेव पुरुषचतुष्टयदृष्टान्तेन कोऽपि साधुराचार्यस्यार्थ करोति न च मानम्, स चेत्थमाचार्यवैयावृत्यादिभेदैर्दशप्रकारं वैयावृत्त्यं संपादयति, अथवा-आचार्यस्य समागच्छतोऽभ्युस्थानम् १, आसनादिदानद् २ कृतिकर्म ३, विश्रामणा ४, उच्चारपात्रकस्य-प्रत्रवणपात्रकस्य श्लेष्मपात्रकस्य चोपनयनम् ७, संस्तारकस्य करणम् ८, आचार्यसमीपे आसनकरणम् ९ इत्यादिप्रयोजनभेदतोऽनेकप्रकारका अर्था भवन्ति, तत्करः अर्थकरः प्रोच्यते १ । द्वितीयो भवति मानकरः, यथा-समागच्छत आचार्यस्याऽभ्युत्थानं न करोति यदि वा-'आचार्येण न मेंऽभ्यर्थना कृता न वा मम प्रशंसा कृता' इत्यादिरूपेण मानं करोति न किञ्चित्कार्य संपादयतीति मानकरो नार्थकरः २ । तृतीय आचार्यस्याऽर्थकरोऽपि मानकरोऽपि आचार्यस्य वैयावृत्त्यादि करोति किन्तु मानवशादभ्युत्थानादि न करोति ३ । चतुर्थो नो अर्थकरो नो वा मानकरः अयमाचार्यस्य द्वयमपि न करोति । तत्र द्वितीयचतुर्थो नो कर्मनिर्जराया लाभवन्तौ भवतः, न तयोराचार्याः सूत्रमर्थमुभयं वा प्रयच्छन्ति । प्रथमतृतीययोस्तु सूत्रार्थतदुभयस्य निर्जरायाश्च लामो भवति अर्थकारितया आचार्यस्य मनःप्रसादकत्वात् , । तस्मात् प्रथमतृतीयाभ्यामिव वर्तितव्यम् न तु कदाचिदपि द्वितीयचतुर्थाम्यामिवेति । तदेवं चत्वारः पुरुषजाताः प्रदर्शिताः ॥ सू० ६ ॥
पूर्वमाचार्यस्याऽर्थकरमानकरपुरुषजातचतुर्भद्गी प्रदर्शिता, सम्प्रति गणमधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह'चत्तारि' इत्यादि ।
सूत्रम्-चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता तंजहा-गणटकरे नामं एगे नो माणकरे १, माणकरे नाम एगे नो गणटकरे २, एगे गणट्टकरेवि माणकरेवि ३, एगे नो गणटकरे नो माणकरे ॥४॥ सू० ७ ॥
छाया-चत्वारः पुरुपजाताः प्राप्ताः तद्यथा--गणार्थकरो नाम एको, नो मानकरः१, मानकरो नाम एको नो, गणार्थकरः २, पको गणार्थकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो गणार्थकरो नो मानकरः ४॥ सू० ७॥
भाष्यम् - 'चत्तारि' चत्वार-चतुष्प्रकाराः 'पुरिसजाया' पुरुषजाताः-पुरुषप्रकाराः 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ता । तानेव चतुरो भेदान् दर्शयति-तंजहा' इत्यादि । 'तजहा' तद्यथा-'गणकरे' णाम एगे नो माणकरे' गणार्थकरो नाम-एको नो मानकरः तत्र-गणो नाम गच्छः-समुदायः तस्य गणस्य योऽर्थ -कार्यम् तस्य गणकार्यस्य करः-संपादको यः स गणार्थकरः गच्छकार्यसंपादक इत्यर्थः, नो मानकरः गणस्य कार्य कृत्वाऽपि मानमभिमानं न करोति, एतादृशः
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૪૭
भाग्यम् उ० १० सू० ८-९
चतुष्पुरुषजातप्रकरणम्
पुरुषः प्रथमः १ | 'माणकरे णाम एगे नो गणट्टकरे' मानकरो नाम एको नो गणार्थकरः मानें करोति नो करोति गणस्यार्थ - कार्यम् स च द्वितीयः २ । 'एगे गणट्टकरेवि माणकरेवि३, एको गणार्थकरोऽपि मानकरोऽपि - गणस्याऽर्थसंपादकोऽपि भवति तथा मानकरोsपीति तृतीयः ३ । एगे णो गणडकरे णो माणकरे' एको नो गणार्थकरो नो मानकरः, न खलु गणस्याऽर्थं-कार्यमेव करोति न वा मानमभिमान करोतीति चतुर्थः पुरुषः ४
तेषु चतुर्ष्वपि पुरुझजातेषु ये साधोः समानरूपधारिणो मुण्डित शिरस्का भिक्षाटनशीलाः, तथा— दैवचिन्तकाः निदर्शनं दृष्टान्तो भवति । तत्र- दैवचिन्तका नाम ते ये शुभाशुभं राज्ञे कथयन्ति, शकुनादिशास्त्रज्ञा इत्यर्थः, त एवात्र दृष्टान्तः तथाहि प्रथमः सः यो हि राज्ञा पृष्टोsपृष्टो वा शुभाशुभं साधयति, किन्तु मानं न करोति १ । द्वितीयो मानं करोति न च मानादेव किञ्चित् पृष्टोऽपि कथयति २ । तृतीयो यदि पृच्छति तदा कथयति नो पृच्छति तदा न कथयति ३ । चतुर्थो न किमपि कथयति न वा मानमेव करोति ४ ।
तत्र द्वौ प्रथमतृतीयौ सफलौ द्दौ च द्वितीयचतुर्थो विफलौ । एवं दृष्टान्तगतेन प्रकारेण गणेऽपि प्रथमतृतींयौ सफलौ, द्वौ च द्वितीय - चतुर्थो विफलावेव ज्ञातव्यौ । तेषां चतुर्णामपि साधूनां मध्ये प्रथम आहारोपधिशयनासनादिभिर्गच्छस्योपकारं करोति, न च कदाचिदपि मानं करोति १ । द्वितीयो मानं करोति न च गणधरस्योपकारं करोति २ । तृतीयो गच्छस्योपकारमपि करोति मानमपि करोति ३ । चतुर्थस्तु न गच्छस्योपकारं करोति न वा मानमेव करोति ४ । त इमे चत्वारो मुनिप्रभेदा भवन्तौति ॥ सू० ७ ॥
अथ गण संग्रहमधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह - 'चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि ।
सूत्रम् - चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता तंजहा - गणसंगहकरे नाम एगे नो मानकरे १ एगे माणकरे नो गणसंगहकरे २, एगे गणसंगहकरेवि -माणकरेवि ३, एगे नो गणसंगहरे नो माणकरे ४ ॥ सू० ८ ॥
छाया[- चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - गणसंग्रहकरो नाम एको न मानकरः ?, एको मानकरो नो गण संग्रहकर : २, एको गणसंग्रहकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो गणसंकरो नो मानकरः ॥ सू० ८ ॥
भाष्यम् – 'चत्तारि पुरिसजाया' चत्वारः पुरुषजाताः, तत्र चत्वारः- चतुष्प्रकारकाः पुरुषजाताः - पुरुषाः 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ताः तानेव भेदान् दर्शयितुमाह- 'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तथथा - 'गणसं गढ़करे णामं एगे नो माणकरे' गण संग्रहकरो नाम एको न मान
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
- व्यवहारसूत्र करः, तत्र गणस्य-गच्छस्य संग्रह-द्रव्यभाव मेदभिन्नं करोति-संपादयति यः स गणसंग्रहकरः, संग्रहो द्विविधो दूव्यतो भावतश्च, तत्राऽऽहारवस्त्रपात्रादिकं द्रव्यसंग्रहः, सूत्रार्थज्ञानादिकं भावसंग्रहः, तदुभयमपि संग्रहं संपादयति नो मानकरः-नो-न कथमपि मानकरः आहारवस्त्रपात्रादिना ज्ञानादिना च गच्छस्योपग्रहं करोति किन्तु नाभिमानं करोतीति प्रथमः १ । 'एगे माणकरे नो गणसंगहकरे २' एको मानकरो नो गणसंग्रहकरः-स्वस्य जातिकुलादेमनिमेव करोति गणसंग्रहं न करोतीति द्वितीयः २ । 'एगे गणसंगहकरेवि माणकरेवि' एको गणसंग्रहकरोऽपि मानकरोऽपि गणस्यापि संग्रहं करोति मानमपि करोतीति तृतीय ३ । 'एगे नो गणसंगहकरे नो माणकरे ४' एको नो गणसंग्रहकरो नो मानकरः, द्वयमपि न करोतीति चतुर्थः ४ ।
अयं भावः-तत्र प्रथमभङ्गीयः साधुः द्रव्यत आहारोपधिशय्यादिद्वारा संग्रहकरो भवति, भावतो ज्ञानादिना संग्रहकरो भवति, रणनायके आचार्येऽसमर्थं मति यदा गुरुः शारीरिकादिसामर्थ्याऽभावेन वाचनादाने शक्तो न भवति तदा शिष्यात्-प्रातीच्छकात् वाचयति एषः प्रथमः १ । द्वितीयस्तु-मानं करोति न तु द्रव्यतो भावतो वा गणस्य संग्रहं करोति २ । तृतीयस्तु-गणस्य द्रव्यतो भावतश्च सग्रहं करोति ३ । चतुर्थस्तु-न द्रव्यतो न भावतो गणस्य संग्रहं करोति ४ । तदेवं चत्वारः पुरुषा भवन्ति ॥ सू० ८ ॥
अथ गणशोभामधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह-'चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि ।
सूत्रम्-चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजसो गणहाहकरे नाम एगे नो माणकरे १, माणकरे नाम एगे नो गणसोहकरे २, एगे गणसोहकरेवि माणकरेवि ३, एगे नो गणसोहकरे णो माणकरे ४ ॥ सू० ९॥
छाया-चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-गणशोभाकरो नाम एको नो मानकरः १, मानकरो नाम एको नो गणशोभाकरः २, एको गणशोभाकरोऽपि मानकरोऽपि३, एको नो गणशोभाकरो नो मानकरः ४ ॥ सू० ९॥
भाष्यम्-'चत्तारि' चत्वारः 'पुरिसजाया' पुरुषजाताः-पुरुषप्रकाराः 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ताः । तानेव चतुर्भेदान् पुरुषान् दर्शयितुमाह-'तंजहा' तद्यथा-'गणसोहकरे नामं एगे नो माणकरे१' गणशोभाकरो नाम एको नो मानकरः, तत्र गच्छस्य चतुविधसदस्य शोभा गणस्य ख्याति प्रवचनप्रभावनारूपां वा करोति स गणशोभाकरः, नो मानकरः न तु कदाचिदपि गणस्य शोभाकरणात् स्वमनसि मानम् अभिमानं करोति, एतादृशः प्रथमः पुरुषः १ ।
___ 'माणकरे नाम एगे नो गणसोहकरे२' मानकरो नाम एको नो गणशोभाकरः, मानमेव करोति किन्तु कदाचिदपि गणस्य शोभां न करोति, एप द्वितीयः २ । 'एगे गण
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू० १०
चतुष्प्रकार पुरुषजातनिरूपणम् २४९ 'सोहकरेवि माणकरेवि एकस्तृतीयः सः - यो गणशोभाकरोऽपि मानकरोऽपि शोभामानयोरुभयोरपि कारक' स तृतीयः ३ । 'एगे नो गणसोहकरे नो माणकरे' एकश्चचतुर्थः स पुरुषो यो न कदाचिदपि गणशोभाकरो न वा मानकरो भवति उभयवर्जितश्चतुर्थः ४ । अत्रापि चतुर्षु भङ्गेषु मध्ये प्रथमतृतीयौ सफलौ, द्वितीयचतुर्थभङ्गौ विफलाविति ॥
तंत्र-गणशोभाकरो नाम-यो गणं शोभयति, शोभा खल वादिजयप्रवचनोड्डाह निवारणादिभिर्भवति, तथाहि–वादेन वादिनं पराजित्य गणं शोभयति, उत्सूत्रप्ररूपकं सूत्रार्थं सम्यक् प्रदर्शये जिनमार्गे स्थापयति, प्रवचनाक्षेपकान् सूत्रप्रमाणं प्रदर्श्य प्रवचनप्रभावनां वर्धयति धर्म-कथादिभिर्निमित्तैः, तथा विद्यादिभिचोन्मार्गगतान् यथायोगं जिनधर्मे आनयति, इत्येवंप्रकारेण सदा गणं शोभयति ।
अयं भावः– यदा कदाचित् सकलदर्शन पारवा वादी समागत्य गणनायकस्य पुरत एवं वदति - भो आचार्यमतप्रचारक ! साघो । यदि त्वयि पाण्डित्यं भवेत्, यदि वा पाण्डित्येन स्वकीयं मतं लोके व्यवस्थापथसि, तर्हि राजादिपरिवृतपरिषदि मया सह वादं कुरु, यदि मां विजेष्यसि तदा त्वन्मतस्य संस्थापनं स्यात्, अहं तव धर्मं स्वीकरिष्यामि, नो चेत् केवलं विप्रतारकमेव त्वां मन्ये । तदा यदि प्रतिवादिना वादं कर्त्तुं स गणनायको न शक्तो भवेत् तदा महती शासनस्याऽप्रतिष्ठा स्यात् इति मन्यमानो वादनिपुणः साधुस्तं दुर्दान्तवादिनं सर्वज्ञसिद्धान्तोक्तमनेकान्तवादं पुरस्कृत्य पराजयति, पराजित्य च तं वादिन जिनधर्मे स्थापयित्वा शासनस्य शोभां वर्धयति । एवंप्रकारेण स गणस्य शोभाकरो भवति । न केवलं वादेनैव पराजित्य गणशोभाकरः किन्तु धर्मकथां कृत्वा गणं शोभयति । तथा निमित्तादिशास्त्रं सम्यग् ज्ञात्वा निमित्तादिकथनद्वारा राजानमावर्जयित्वा शासनस्य ख्याति लोके सपादयति । एवं विद्यादि - बलात् महतोऽपि सङ्घप्रयोजनस्य साधनाद् गणं शोभयति । यदा कदाचित् सङ्घस्य महत्कार्य समुपस्थितं भवेत् कार्यं च तादृशं प्रकारान्तरेण साधितं न भवति, तदा स साधुः विद्यातिशयप्रभावेण सङ्घस्य तादृशं कार्यं साधयन् गणशोभाकरो भवतीति ॥ सू० ९ ॥
अथ - शोधिमधिकृत्य चतुर्भङ्गी माह--' चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि ।
सूत्रम् - चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा गणसोहिकरे णासं एगे नो माणकरे १, एंगे मांणकरे नो गणसोहिकरे २, एगे गणसोहिकरेवि माणकरेवि ३, एगे नो गणसोहिकरे नो माणकरे ॥ सू० १० ॥
छाया- चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- गणशोधिकरो नाम पको नो मानकरः १, एको मानकरो नो गणशोधिकरः २, एको गणशोधिकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको न गणशोधिकरो नो मानकरः ।। सू० १० ॥
व्यं. ३२
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
ध्यवहारसूत्रे
भाष्यम् - 'चत्तारि' चत्वारः चतुःसंख्यकाः 'पुरिसजाया पन्नत्ता' पुरुपजाता पुरुषप्रकाराः प्रज्ञप्ताः, तानेव चतुरः प्रकारान् दर्शयितुमाह-'तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा-'गणसोहिकरे णामं एगे नो माणकरे १' गणशोधिकरो नाम एको नो मानकरः । तत्र-गणस्य शोधि प्रायश्चित्तदानेन धर्मप्ररूपणया च विशुद्धिं करोतीति गणशोधिकरो न तु मानकरः १ । 'एगे माणकरे नो गणसोहिकरे २' एको मानकरो भवति नो न तु कदाचिदपि गणस्य शोधिकरो भवति २ । 'एगे गणसोहिकरेवि माणकरेवि ३' एको गणशोधिकरोऽपि मानकरोऽपि ३ । 'एगे नो गणसोहिकरे नो माणकरे ४' एको नो गणशोधि. करो नो मानकरः ४ । अत्रापि प्रथमतृतीयभङ्गौ सफलौ, द्वितीयचतुर्थभङ्गो त्रिफलाविति । अत्रायं दृष्टान्त:___ एकस्मिन् नगरे जनपदविहारेण विहरन्त आचार्या अनेकैर्मुनिसघाटकैः सह समवसृताः । तत्र साधुसद्धाटकाः पृथक् २ भिक्षार्थ ग्रामे प्रविष्टवन्तः, तत्रैकस्मिन् गृहस्थगृहे एकः संघाटको भिक्षार्थं गतः, तत्र तस्य गृहे तदा प्राघुणकादिनिमित्तं बहुलं मोदकानां भोज्यं सम्पादितमासीत् ततस्तस्मै साधुसद्घाटकाय विपुला मोदकाः प्रतिलाभिताः । तदनन्तरमकस्माद् द्वितीयः सद्घाटकोऽपि तत्रैव गतः, तेनापि विपुला मोदका लब्धाः । एवं तृतीयश्चतुथः सद्घाटकोऽपि तत्र गत. मोदकांश्च लब्धवान् । आगताः सर्वे उपाश्रये, आचार्येभ्यो भिक्षा प्रदर्शिता । सर्वेषां सदृशभिक्षालाभेन तेषां साधूनां मनसि शङ्का जाता यदेतेषां मोदकानामुद्गमा अशुद्धाः संभवेयुः साधूनागतान् श्रुत्वा साध्वर्थमिमे संपादिता इति लक्ष्यते । इति शङ्किते गत्वा तद्गृहं द्रष्टव्यं स प्रष्टव्यश्च भवेत् भो श्रमणोपासक ! अद्य तव गृहे सखडिर्वतते प्राधुणका वा समागताः ?, अथवा साधूनां कृते मोदकाः सपादिताः क्रीता वेति । तत्र च गृहे भोजनवेलायां न कोऽपि प्रवेशं लभते, क एतादृशः साहसिकः साधुर्यो भोजनवेलायां गृहस्थगृहे प्रविशेत् , पृच्छा विना एतदशनादि साधुभिर्न भोक्तव्यम् , एष साधुकल्पः । तत्रैकः ओजस्वी साधु' तद्गृहजनानां परिचितश्च स तस्मिन् गृहेऽनिवारितप्रसरस्तद् दुष्प्रवेशं गृहं प्रविशति । प्रविश्य च तेषां मोदकानामुद्गमं पृच्छाप्रतिपृच्छादिना विज्ञाय शुद्ध एषामुद्गमः, इति निशङ्कितं करोति । आगत्याऽऽचार्यपादमूले निवेदयति न मानं करोति, एष प्रथम पुरुषजातो योऽमानेन गत्वाऽऽहारस्य शोधिं कृतवान् तेनायं शोधिकरो नो मानकर इति । एवं द्वितीयः केवलं मानकर. किन्तु शोधिकरणेऽसमर्थः २। तृतीयः शोधिमपि कगेति, कृत्वा मानमपि करोति ३। चतुर्थस्तु नोभयकरणसमर्थः ४। इति भङ्गचतुष्टयभावना ॥ सू० १० ।।।
पूर्व शोधिमाश्रित्य चतुर्भङ्गी प्रोक्ता. तत्र शोधिरिति वा धर्म इति वा एकार्थः, धर्मश्च रूपतो भावतश्चेति द्विधा भवति ततो रूपधर्मोभयमधिकृत्य चतुर्भगीमाह-'चन्तारि' इत्यादि ।
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू० ११-१९
चतुष्प्रकारपुरुपजातनिरूपणम् २५१ सूत्रम् - चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-रूवं नाम एगे जहइ नो धम्म१, धम्म नाम एगे जहइ नो रूबं२, एगे रूबंवि जहइ धम्मंवि जहइ३, एगेनो रूपं जहइ नो धम्मं जहइ४ ॥सू० ११॥
छाया-चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रूपं नाम एको जहाति नो धर्मम् १, धर्म नाम एको जहाति नो रूपम् २; एको रूपमपि जहाति, धर्ममपि जहाति ३. एको नो रूपं जहाति नो धर्म जहाति४ ॥सू० ११॥
. भाष्यम्- - ‘चत्तारि' चत्वारः 'पुरिसजाया' पुरुषजाताः पुरुषप्रकाराः 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ताः, तानेव चतुरो भेदान् दर्शयितुमाह-'तजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा 'रूवं नाम एगे जहइ नो धस्म' रूपं नाम एको जहाति नो धर्म जहाति, प्रयोजने समुपस्थिते सति रूप-स्वकीय लिङ्गं जहाति-परित्यजति, स्वलिङ्गं परित्यज्यापि साधयति कार्यम् , किन्तु धर्म श्रुतचारित्रलक्षणं कदापि न जहाति, इति प्रथमः १ ।
'धम्मं नाम एगे जहइ नो रूवं' धर्म नाम एको जहाति नो रूपम् , यथा-पार्श्वस्थः इति द्वितीयः २ ।
'एगे रूबंवि जहइ धम्मवि जहइ' एको रूपमपि जहाति धर्ममपि जहाति, यथा -एकान्ततो मिथ्यादृष्टिरिति तृतीयः ३ ।।
'एगे नो रुवं जहइ नो धम्मं जहइ' एको नो रूपं जहाति नो धर्म जहाति यथाज्ञानादिरत्नत्रयाऽऽराधकः, इति चतुर्थः ४ ।
_ अत्र यः सदोरकमुखवस्त्रिकारजोहरणादिरूपो मुनिवेषः स रूपमुच्यते, तथा धर्मों ज्ञान-दर्शन-चारित्रलक्षणः, धर्मशब्देन त्रयाणां रत्नानामेव ग्रहणं भवति ।
अयं भावः-कश्चिद् भावतो ज्ञानादिरत्नत्रयसमन्वितोऽशिवादि-मिथ्यादृष्टिराजादि-कारणवशाद् अन्यलिङ्गं गृहिलिङ्गं वा प्रतिपद्यमानस्स्यक्तलिङ्गोऽत्यक्तधर्मश्च कथ्यते । अत्र दृष्टान्तः
। आसीत् कस्मिंश्चिन्नगरे कनकदत्तो नाम राजा महामिध्यादृष्ठिर्नास्तिकवादी वावदूकः वाचालः पण्डिताभिमानी पण्डितैः सह वादं दत्त्वा तद्बुद्धिमेवोपजीव्य पण्डितान् अपमानयति । अथ कदाचित् कालान्तरे प्रवृद्धमिथ्यावासनः सर्वज्ञमतोपासकान् साघून् अपवद्रावयितुं प्रवृत्तः । स चाय साधून् कथयति-यदि युष्माकं धर्मः सत्यस्तर्हि भवद्भिर्मया सह वादः क्रियताम् । यदा साघवो वादाय समागच्छन्ति तदा किञ्चिद्वादं कृत्वा तानपमान्य स्वदेशादेव निष्कासयति । ततस्तस्यैतादृशमपद्रावणकरणेन सर्वेऽपि साधव. श्रावकाश्च परमोद्विग्ना जाताः, परस्परं विचारणां च कुर्यु.-कथमेतस्य राज्ञो वादे पराजयः स्यात् अयं पण्डिताभिमानी दुःखायति साधून् । ततस्तत्रासीत् कश्चित् वादलब्धिसम्पन्नः खेचरलब्धिमांश्च साधुः, सः 'संघस्य अपमानो
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
व्यवहारस्त्र
~
भवतीति विचार्य स्वकीयलिङ्गं परित्यज्य अन्यलिङ्गं विधाय वादकरणाय राजसमीपं गतवान् । गत्वा च तेन निवेदितम्-यदेकः साधुर्वादाय समागत. । तच्छृत्वा सञ्जातकुतुहलो राजा वादकरणाय साधुमाहूतवान् , समागतः स साधुर्वादाय । तदनन्तरं द्वयोः साधुराज्ञोर्वादः प्रचलितः, प्रचलिते वादे राजाऽल्पमतित्वात् निरुत्तरो जातः । साधुश्च वादलब्धिसम्पन्नो राजानं मूकवद् वचनरहितं कृतवान् । तदनन्तरं स राजाऽल्पशक्तिमत्त्वात् , अल्पमतिकत्वाच्च स्वपक्षं निर्वाहयितुमसमर्थः क्रोधाग्निसतप्तः साधोर्वचसाऽपमानकरणे प्रवृत्तः । ततो राजसमीपतोऽपमानं ज्ञात्वा स साधुर्वाददर्पस्फोटनाय राज्ञो मस्तकं पादेनाऽऽक्रम्य वायुरिव आकाशे उत्प्लुत्य तत्स्थानात् पलायनं कृत्वा स्वस्थानमागतः । एष प्रथम. पुरुपस्त्यक्तस्वलिङ्गोऽत्यक्तधर्मा १।।
द्वितीयस्त्यक्तधर्माऽव्यक्तरूपः, स खलु स्वलिड्ने सति प्रतिपत्तव्यः, स च पार्श्वस्थादीनामन्यतमो निष्कारणप्रतिसेवी अवघावितुकामो वा ज्ञातव्यः, तस्य भावतस्त्यक्तधर्मत्वात् स्वलिङ्गस्य च धारणात् २ । तृतीय उभयत्यक्तः, रूपं साधुवेषमपि त्यजति श्रुतचारित्ररूपं धर्ममपि त्यजति, मञ्जातैकान्तमिथ्याष्टिगुहिलिङ्गे वर्तमानो ज्ञातव्य ३ । चतुर्थस्तु उभयसहितः साधुवेषमपि न त्यजति स्वधर्ममपि न त्यजति, तत्र स्वलिङ्गेन सदोरकमुखवस्त्रिकारजोहरणादिरूपेण युक्तः धर्मेणज्ञान-दर्शन-चरित्र-लक्षणरत्नत्रयेण युक्तः स्वमतसिद्धः श्रमणः ४ ॥ सू० ११ ॥
अथ-गणमर्यादां धर्म चाधिकृत्य चतुर्भगीमाह-'चत्तारि' इत्यादि. ।
सूत्रम्---चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-धम्म नामेगे जहइ नो गणसंठिई १, गणसंठिई नामेगे जहइ नो धम्म २, एगे धम्मपि जहइ गणसंठिइंपि जहइ ३, एगे नो धम्मं जहइ नो गणसंठिई ४ ।। सू० १२ ॥
छाया-चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-धर्म नाम एको जहाति नो गणसंस्थितिम् १, गणसंस्थितिं नाम एको जहाति नो धर्मम् २, एको धर्ममपि जहाति गणसंस्थितिमपि जहाति ३, एको नो धर्म जहाति नो गणसंस्थितिम् ४ ॥ सू० १२ ॥
भाष्यम्-'चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता' चत्वारः पुरुषजाताः-पुरुषप्रकाराः प्रज्ञप्ताः। तानेवाह-तंजहा' तद्यथा--'धम्म नामेगे जहइ नो गणसंठिई'धर्म नाम एको जहाति नो गणसंस्थितिम् । तत्र गणस्य गच्छस्य सस्थितिः-मर्यादा यथा-तीर्थकरस्येयमाज्ञा-यत् अन्यगच्छीयो वाचनाग्रहणयोग्यः साधुर्भवेत्तदा तस्य तीर्थकराज्ञाप्रमाणेन सूत्रवाचनां दातुं कल्पते इति, किन्तु कश्चिद् गच्छ. स्वच्छन्दतया तीर्थकराज्ञा विरुद्धां स्वगच्छस्य मर्यादां कुर्यात्- यद् अन्यगच्छीय योग्यमपि साधुं न वाचयेदिति । एवमेकः पुरुषो धर्म तीर्थकराज्ञारूपं जहातियोग्यमप्यन्यगच्छीयं साधुं न वाचयति, किन्तु गणसंस्थितिम् अन्यगच्छीयसाधुवाचनादाननिषेधरूपा गणमर्यादां न जहाति, एष प्रथमो भङ्गः १ । द्वितीयो गणसंस्थितिं जहाति योग्यमन्यगच्छीयं साधु वाचयति, तेनाऽन्यगच्छीयस्य वाचनादाननिषेधरूपां मर्यादा त्यक्तवान् किन्तु
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ १० सू० १३-१४
चतुष्प्रकाराचार्यस्वरूपनिरूपणम् २५३ धर्मं जिनाज्ञारूपं यद् योग्यं साधुमन्यगच्छीयं वाचयेदित्येतादृशं धर्मे न व्यक्तवान्, एष द्वितीयः २ । तृतीयो धर्म - गणसंस्थितिरूपमुभयमपि जहाति, यथा अयोग्यस्य वाचनादानाद्धर्म त्यक्तवान्, अन्यगच्छीयस्य वाचनादानाद् गणसंस्थितिमपि त्यक्तवान्, एष तृतीयः ३ । चतुर्थः पुनरुभयमपि न त्यजति, यथा - अन्यगच्छीय साधोः शिष्यम् 'अयं मेधावी प्रवचनोपग्रहकरो भविष्यतीत्यादिगुणयुक्तमुपलभ्य तच्छेदप्रायश्चित्तदानेन स्वशिष्यं कृत्वा वाचयति तेन धर्मं तीर्थकराज्ञारूपं न व्यक्तवान्, स्वशिष्यत्वेन कृतस्य वाचनादानाद् अन्यगच्छीयवाचनादाननिषेधरूपां गणमर्यादामपि न त्यक्तवान्, एष चतुर्थः ४ । एतमुभयं - गणसंस्थितिं धर्मे चावलम्बमानं महापुरुष वन्दामहे । इति सूत्रस्पष्टार्थः ॥ सू० १२ ॥
अथ प्रियधर्म-दृढधर्मेतिपदद्वयमधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह - ' चत्तारि' इत्यादि ।
सूत्रम् - चत्तारि पुरिसजाया पम्नत्ता, तंजहा -पियधम्मे णामं एगे नो दढ़मे १, धम्मे नाम एगे, नो पियधम्मे २, एगे पियधम्मेवि दढम्मेवि, ३, एगे नो पियम् नो दधम्मे ४ ॥ सू० १३ ॥
छाया [ - चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - प्रियधर्मा नामैको नो दृढधर्मा १, धर्मा नामैको नो प्रियधर्मा २, एकः प्रियधर्माऽपि दृढधर्माऽपि ३, एको नो प्रियधर्मा नो दृढधर्मा ४ || सू० १३ ॥
भाष्यम् – 'चत्तारि' चत्वारः 'पुरिसजाया पन्नत्ता' पुरुषजाताः -- पुरुषप्रकाराः प्रज्ञप्ताः, तानेव चतुष्प्रकारान् दर्शयितुमाह - ' तं जहा ' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा- - "पियधम्मे नामं एगे नो दढम्मे' प्रियधर्मा नामैको नो दृढधर्मा, तत्र- प्रियः सर्वेभ्योऽपि अभिलाषयोग्यो घर्मो यस्य स प्रियवर्मा, नो दृढधर्मा, धर्मे दृढा - निश्चला मतिर्यस्य स तथा तादृशो न, सोऽयं प्रथमः १, दढम्मे णाममेगे नो पियधम्मे २' दृढधर्मा धर्मे दृढा मतिर्भस्य स तथा तादृशः किन्तु प्रियधर्मा न धर्मस्तु न तादृशः प्रियः २ । 'एगे प्रियधम्मेवि दढधम्मेवि' एकः प्रियधर्माऽपि दृढधर्माऽपि स चायं तृतीयः ३ । 'एगे नो पियधम्मे नो दधमे ४ एकः पुरुषो न प्रियधर्मा न वा दृढधर्मा, एष चतुर्थ ४ ॥
अत्रायं भावः - प्रियधर्मा सः यो यस्माद् वाचनादि गृह्णाति तस्य द्रव्यत आहारादिना, भावतो मन.सुप्रणिधानादिना वैयावृत्त्ये उपतिष्ठने न कालान्तरेऽन्यस्योपतिष्ठते, दृढधर्मार्वे मविशेषेण वैयावृत्त्ये उपतिष्ठते सर्वत्र निरतिचारश्चेति, अयं प्रियधर्म - दृढधर्भयोर्विशेषः । प्रथमभङ्गभावना यथा-प्रथमः पुरुषो दशप्रकारकस्य वैयावृत्त्यस्याग्रे वक्ष्यमाणस्याऽन्यतमस्मिन् वैयावृत्त्ये प्रियधर्मतया झटित्युद्यमं करोति किन्तु अदृढधर्मतयाऽत्यन्तं न निर्वहति तस्याल्पधृतिवीर्यत्वादिति प्रथमो भो भवति १ ।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
द्वितीयस्तु वैयावृत्त्यनिर्वाहकत्वाद् दृढधर्मा यो गृहीतं वैयावृत्त्यं यावत्कालं तदावश्यकता भवेत्तावत्कालपर्यन्तं निर्वाहर्यात, नो प्रियधर्मा योऽप्रियधर्मतया महता कष्टेन कथं कथमपि प्रथमं वैयावृत्त्यं ग्राह्यते सर्वसाधारणवैयावृत्य करणभावराहित्यात्, स एष द्वितीयभङ्गवर्त्ती २ । उभयतः कल्याणकरस्तृतीयभङ्गवर्त्ती ३ । चतुर्थस्तु न प्रियधर्मा नापि दृढधर्मा, इत्याकारको गच्छनिराकृतो ज्ञातव्य ४ ॥ सू० १३ ॥
૪
साम्प्रतमाचार्यपदमधिकृत्य चतुर्मङ्गीमाह - ' चत्तारि' इत्यादि ।
सूत्रम् - चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहा - पव्त्रायणायरिए नाम एगे णो उचट्ठावणायरिए १, उबद्वावणायरिए नाम एगेनो पव्वायणायरिए २, एगे पञ्चायणायfree उद्वावणारिवि २, एगे नो पन्चायणायरिए नो उवहावणायरिए ४ धम्मायरिए ४ ।। सू० १४ ॥
छाया - चत्वार आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- प्रवाजनाचार्यों नामैको नो उपस्थापनाचार्यः १, उपस्थापनाचार्यो नामैको नो प्रवाजनाचार्यः २, एकः प्रवाजनाचार्योऽपि उपस्थापनाचार्योऽपि ३, एको नो प्रवाजनाचार्यो नो उपस्थापनाचार्यो धर्माचार्यः ४ ॥ सू० १४ ॥
भाष्यम् – 'चत्तारि' चत्वारः आयरिया पन्नत्ता' आचार्याः - गणनायकाः तत्र - आचार्य - लक्षणं यथा
आचिनोति च शास्त्रार्थम्, आचारे स्थापयत्यपि । स्वयमाचरते यस्मात्, तस्मादाचार्य उच्यते ॥१॥
अस्यार्थः - :- यस्मात् कारणात् शास्त्रार्थ - शास्त्रप्रतिपाद्यं वस्तु - पदार्थजातम् आचिनोतिएकत्रीकरोति - शास्त्रप्रतिपादितपदार्थजातं स्वमनसि अवधारयति, तथा शास्त्रप्रतिपादितसाधुमर्यादापरिभ्रष्टान् साधून् आचारे - शास्त्रप्रतिपादितव्यवहारे स्थापयति, शास्त्रप्रतिपादितपदार्थान् जीवाजीवादिकान्-अवबोधयति, तथा स्वयमाचरति - शास्त्रप्रतिपादितं समिति गुप्त्यात्मकं श्रमणधर्ममाचरति, स्वयं पालयति, तस्मात्कारणात् स आचार्य इति कथ्यते ।
एतादृशा आचार्याश्चतुष्प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः । सम्प्रति तानेव चतुरो भेदान् दर्शयितुमाह'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा - 'पन्चायणायरिए नाम एगे नो उवद्वावणारिए' प्रव्रजनाचार्यो नामैको न तूपस्थापनाचार्य', केवलं प्रत्राजयति-- सम्यक्त्वोत्पादनेन दीक्षोन्मुखं कृत्वा सामायिकचारित्रं ददाति न तु छेदोपस्थापनीयचारित्रे उपस्थापयति स प्रथमः १ ।
'उवट्टावणायरिए नामसेगे नो पव्वायणायरिए' उपस्थापनाचार्यो नामैको नो प्रव्राजनाचार्यः, सम्यक्त्वे-उपस्थितान् पञ्च महात्रते उपस्थापयति न प्रत्राजयति-न दोक्षां ददातीति द्वितीयः २ ।
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू० १५-१६
चतुर्विधान्तेवासिस्वरूपनिरूपणम् २५५ 'एगे पन्चायणायरिएवि उवट्ठावणायरिएवि ३' एकः प्रव्राजनाचार्योऽपि उपस्थापनाचार्योऽपि, स एव प्रव्राजयत्यपि स एवोपस्थापयत्यपि, इति तृतीयः ३ । - 'एगे नो पन्चायणायरिए नो उवहावणायरिए ४, एको नो प्रव्राजनाचायों नो न वा उपस्थापनाचार्यः। ननु य उभयविकल' स कथमाचार्य प्रोच्यते पड्गुवदुभयचरणहीनत्वात् । तत्राह'धम्मायरिए' धर्माचार्यः, एष नो प्रव्राजयति न वा उपस्थापयति किन्तु केवलं धर्ममेव श्रुतचारित्रलक्षणं ग्राहयति ततो धर्मदेशक्त्वाद् धर्माचार्यः । एप चतुर्थः धर्मोपदेशलब्धिमान् श्रमणो भवतीति । _____ अयं भावः--प्रथमभङ्गे प्रव्राजनाचार्यः सूचितो भवति १ । द्वितीयभङ्गे उपस्थापनाचार्यः सूचितः २ । तृतीयभङ्गे--उभयः सूचितः प्रजाजनाचार्य उपस्थापनाचार्यश्चेति३, तत्र--प्रथमस्याssचार्यस्याऽऽमार्थम् परार्थे वा केवलप्रव्राजनाधिकारः, य आत्मनिमित्तं परनिमित्तं वा केवलं प्रव्राजयति स प्रथमः प्रव्राजनाचायः १ । द्वितीयस्तु प्रव्रजितं केवलमुपस्थापयति, प्रव्रजितस्य पुरुषस्योपस्थापनां महावतारोपणरूपा करोति २ । तृतीयस्तु पुनराचावः स्वात्मार्थ परार्थ वा प्रव्राजनमुपस्थापनं चोभयमपि करोति ३ । यस्तु-नो प्रव्राजयति न वा महाव्रतेषु उपस्थापयति स चतुर्थः, एष धर्मोपदेशकः केवलं जिनोक्तं धर्म ग्राहयतीति ४ ।।
- अत्रैवं योजना विज्ञेया-एकः कश्चिद् धर्माचार्यः यः प्रथमतया धर्म ग्राहयति १ । द्वितीयः प्रव्राजनाचार्यों यः प्रव्राजयति २ । तृतीयो गुरुरुपस्थापनाचार्यों यो हि प्राणातिपातविरमणादिपञ्चमहाव्रतेष्पस्थापयति ३ । एषु त्रिषु कश्चित् त्रिभिरपि संपन्नो भवति, यथा--कदाचित्स एव धर्मग्राहयति,स एव प्रव्राजयति, स एव उपस्थापयत्यापि महाव्रतेषु कश्चिद् द्वाभ्यामेव संपन्नो भवति, यथा-स एव धर्म ग्राहयति, स एव प्रवानयति; अथवा प्रव्राजयति उपस्थापयति च । कश्चिदेकेनैव गुणेन युक्तो भवति, यथा-यो धर्ममेव ग्राहयति, कश्चित् केवलं प्रव्राजयत्येव, कश्चित् केवलमुपस्थापयत्येवेति ॥ सू०१४॥
अथ पुनराचार्यप्रकारानेवाधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह-'चत्तारि' इत्यादि ।
सूत्रम्- चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहा--उदेसणायरिए नाम एगे नो वायणायरिए १, वायणायरिए नाम एगे नो उद्देसणायरिए २, एगे उदेसणायरिएवि वायणायरिएवि ३, एगे नो उद्देसणायरिए नो वायणायरिए धम्मायरिए ४ ॥ सू० १५ ॥
छाया-चत्वार आचार्याः प्राप्ताः, तद्यथा--उद्देशनाचार्यों नामैको नो वाचना चार्यः १, वाचनाचार्यों नामैको नो उद्देशनाचार्यः २, एक उद्देशनाचार्योऽपि वाचनाचार्यो ऽपि ३, एको नो उद्देशनाचार्यो- नो वाचनाचार्यों धर्माचार्यः ४ ॥ सू० १५॥
भाष्यम्-'चत्तारि' चत्वारः 'आयरिया पन्नत्ता' आचार्या । प्रज्ञप्ताः तानेव चतुरो मेदान् दर्शयति-तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'उद्देसणायरिए नाम एगे नो वायणायरिए १' उद्देशनाचार्यों नाम-एको नो वाचनाचार्यः प्रथम , य उद्दिशति श्रुतोक्तक्रियाकलापादि
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६
व्यवहारसूत्रे शिक्षणतो द्वादशाङ्गादिश्रुताध्ययनयोग्यतां संपादयति किन्तु श्रुतं न वाचयति-तादृशश्रुतस्य वाचनां न ददाति १ । 'वायणायरिए नामेगे नो उद्देसणायरिए २' वाचनाचार्यों नामैको नो उद्देशनाचार्यः, श्रुतवाचनां ददाति नतूडिशति-न श्रुताध्ययनयोग्यतां संपादयति २। एगे उद्देसणायरिएवि चायणायरिएवि ३' एक उद्देशनाचार्योऽपि वाचनाचार्योऽपि-उद्दिशत्यपि वाचयत्यपि ३ । 'एगे नो उद्देसणायरिए-नो वायणायरिए-धम्मायरिए ४' एकस्तु नो उडेशनाचार्यो न वा वाचनाचार्यः किन्तु धर्माचार्यः ।
अयं भावः-तत्रैकः प्रथमः श्रुतमुद्दिशति-श्रुतगुणान् प्रदर्शयति परन्तु न वाचयति, यथामङ्गलबुद्धया प्रथमत आचार्य उद्दिशति १, तदनन्तरमुपाध्यायो वाचयति २। अत्राचार्यः प्रथमभङ्गवर्ती १, उपाध्यायस्तु, द्वितीयभगवर्ती, आचार्येणोद्दिष्टमुपाध्यायो वाचयति २ । य एवोदिशति स एव वाचयति, इति तृतीयो भगः ३ । यो नो उद्दिशति श्रुतं न वा वाचयति, इत्येषश्चतुर्थ. ४ । एष धर्माचार्यो धर्मोपदेशकत्वात्, स पुनः श्रुताध्येता गृहस्थो वा श्रमणो वा ज्ञातव्यः ॥ सू० १५ ॥
अथान्तेवासिनोऽधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह-'चत्तारि' इत्यादि ।
सूत्रम्-धम्मायरियस्स चत्तारि अन्तेवासी पन्नत्ता तंजहा-उदेसणंतेवासी नाम एगे नो वायणंतेवासी १, वायणंतेवासी नाम एगे नो उद्देसणंतेवासी २, एगे उद्देसणंतेवासीवि वायणंतेवासी वि ३, एगे नो उदेसणंतेवासी नो वायणंतेवासी-धम्मते वासी ४॥ सू० १६॥
छाया-धर्माचार्यस्य चत्वारोऽन्तेवासिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-उद्देशनान्तेवासी नामको नो वाचनान्तेवासी १, वाचनान्तेवासी नामैको नो उद्देशनान्तेवासी २, एक उद्देशनान्तेवासी अपि वाचनान्तेवासी अपि ३, एको नो उद्देशनान्तेवासी नो वाचनान्तेवासी धर्मान्तेवासी ४ ॥सू० १६ ॥
भाष्यम्.-.-'धम्मायरियस्स चत्तारि अंतेवासी पन्नत्ता' धर्माचार्यस्य चत्वारोऽन्तेवासिनः-शिप्याः प्रज्ञताः, तत्र-अन्तं नाम-अन्तिकमध्यास आसन्न समीपं चेत्येकोऽर्थः, तत्पुनरन्तः-समीपे वसति-शिक्षाग्रहणाय गुरुसमीप वसति सोऽन्तेवासी आचार्य प्रतीत्यैव श्रुतग्रहणनियमात् । तथा चाऽऽचार्यस्याऽन्ते-समीपं वसतीत्येवंशीलो य. सोऽन्तेवासी, ते चान्तेवासिन आचार्यवदेव चतुष्प्रकारका भवन्ति । आचार्यस्य चतुर्विधत्वेन तदन्तेवासिनामपि चतुर्विधत्वसंभवात् , तानेव चतुरो भेदान् दर्शयति-तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'उद्देसणंतेवासी नाम एगे नो वायणंतेवासी' उद्देशनान्तेवासी नाम-एको नो वाचनान्तेवासी, तत्र-उद्देशनमुद्देशः सूत्रोशिक्षेत्यर्थः । केवलमुद्देशमेवाधिकृत्य योऽन्तेवासी स उद्देशनान्तेवासी कथ्यते. एतादृश एकः किन्तु नो वाचनान्तेवासी वाचनामधिकृत्य नो अन्तेवासी वाचनाग्रहणवुद्वयाऽन्तेवासी नेति प्रथमः १।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwr
भाष्यम् उ० १० सू० १७-१८ त्रिविधस्थविरभूमि-शैक्षभूमिनिरूपणम् २५७ 'वायणंतेवासी नाम एगे नो उद्देसणंतेवासी २, वाचनान्तेवासी नाम एको न तु उद्देशनान्तेवासी, यः केवलं वाचनामेव गृह्णाति न तूदेशमिति द्वितीयः २ । 'एगे उद्देसणंतेवासीवि वायणंतेवासीवि' एक उद्देशनान्तेवासी-अपि, वाचनान्तेवासी-अपि, य उभयमपि गृह्णातिउद्देशमपि गृह्णाति तथा श्रुतस्य वाचनामपि गृह्णाति स तृतीयः ३ । 'एगे नो उद्देसणंतेवासी नो वायणंतेवासी धम्मंतेवासी ४' एको नो उद्देशं गृह्णाति, न वा वाचनामेव श्रुतस्य गृह्णाति किन्तु केवलं धर्मश्रवणमात्रमधिकृत्याऽऽचार्यान्तिके वसति स धर्मान्तेवासीति चतुर्थः ४ ।
अय भावः-- यो यस्यान्ते-उद्देशनमेवाधिकृत्य वसति स तस्याचार्यस्योद्देशनान्तेवासी प्रथमः । यो यस्याचार्यस्य अन्तिके केवलं वाचनामेवाधिकृत्य वसति स तस्य वाचनान्तेवासी द्वितीयः २ । यस्तु यस्याऽऽचार्यस्यान्तिके उद्देशनं वाचनां चेत्युभयमपि अधिकृत्य वसति, स तस्याचार्यस्योभयान्तेवासी, इति तृतीयः ३ । यस्तु यस्याचार्यस्य समीपे नो उद्देशनं नाऽपि वाचनामधिकृत्य वसति, किन्तु-धर्मश्रवणमात्रमधिकृत्यैव वसति, स तं प्रति उभयविकलो धर्मान्तेवासीति चतुर्थः ४ ।
अत्रैव योजना कर्त्तव्या, तथाहि-प्रथमं कश्चित् धर्मश्रोतृत्वेन धर्मान्तेवासी १। कश्चित् श्रुतोक्तशिक्षाग्राहित्वेन उद्देशान्तेवासी २ । कश्चित् श्रुतवाचनाग्राहित्वेन वाचनान्तेवासी ३ । कश्चिद् उद्देशनं वाचनां चेत्युभयस्यापि ग्राहित्वेन उभयान्तेवासीति चत्वारोऽन्तेवासिनो भवन्तीति ४ । ___अत्र-धर्मादिमिश्रणेनापि पञ्चविधा अन्तेवासिनो भवन्ति, तथाहि-कश्चिद् धर्मोद्देशनवाचनेतित्रिभिः समन्वितो भवति १ । कश्चिद्धर्मवाचनाभ्यां समन्वितो भवति २ । कश्चिद् धर्मोद्देशनाभ्यां समन्वितो भवति ३ । कश्चिद्वाचनोद्देशनाभ्यां युक्तो भवति ४, कश्चिद्- एवेनैव युक्तो भवति धर्मेण वा उद्देशनेन वा-वाचनया वाऽन्तेवासी भवतीति ॥ सू १६ ।।
___ पूर्वमन्तेवासिनां चतुर्भङ्गी प्ररूपिता, अन्तेवासिनश्च स्थविराणां भवन्तीति स्थविरवक्तव्यतामाह-'तओ थेरभूमीओ' इत्यादि ।
सूत्रम् --'तओ थेरभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा- जाइथेरे सुयथेरे परियायथेरे य। सठिवासजाए-जाइथेरे ठाणसमवायधरे सुयथेरे २, वीसवासपरियाए परियायथेरे ३,॥सू०१७॥
छाया--तिनः स्थविरभूमयः प्राप्ताः, तद्यथा-जातिस्थविरः १ श्रुतस्थविरः, २ पर्यायस्थविरश्च ३। पष्टिवर्पजातो जातिस्थविरः १, स्थानसमवायधरः श्रुतस्थविरः २, विंशतिवर्पपर्यायः पर्यायस्थविरः ४ ॥ सू० १७॥ . ज्य, ३३
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
व्यवहारसूत्रे ___ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लक वा क्षुल्लिका वा ऊनाटवर्षजातमुपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा ।। सू० १९ ॥
भाष्यम्-'नो कप्पइ' नो-नैव कल्पते, 'णिग्गंथाण वा' निम्रन्थानां श्रमणानां वा 'णिग्गंथीण वा निम्रन्थीनां श्रमणीनां वा 'खुड्डगं वा खुड्डियं वा' क्षुल्लकं भुल्लिकां वा--तत्रक्षुल्लकोऽल्पवयस्कः तम्, क्षुल्लिका- अल्पवयस्का ताम्, तादृशं पुनः कथम्भूतम्, तत्राह– 'उण?' इत्यादि, 'ऊणहवासजायं' ऊनाष्टवर्षजातम् ऊनानि किञ्चिन्यूनानि अष्ट वर्षाणि जाते जन्मनि यस्य स ऊनाष्टवर्षजातः-अष्टवर्षाद् अल्पावस्थाकः, तम् , तां वा क्षुल्लकं क्षुल्लिकां वा, 'उवट्ठावए' उपस्थापयितुं पञ्चमहाव्रतेषु-उपस्थापयितुं-प्रव्राजयितुमित्यर्थः । तथा--संभुंजित्तए' संभोक्तुं वा एकमण्डल्यां सहोपविश्य तेन सह सभोक्तुम्-आहारादिसंभोगं कर्तुम् श्रमणस्य श्रमण्या वा न कल्पते, यथाहि-अष्टवर्षान्नूनवयस्के वालके उपस्थापितं चारित्रं मतेरपरिपक्वत्वेन न सम्यग् अवतिष्ठते, तदवस्थायाश्चञ्चलस्वभावत्त्वात् , यथा आमे घटे निहितं जलं नावतिष्ठते घटस्याऽऽमत्वेन जलं निशीर्यते तथैवात्रापि विज्ञेयम् ॥ सू० १९ ॥
पूर्वम् ऊनाष्टवर्षजातं क्षुल्लकादिकं न दीक्षयेदित्युक्तं तेनाऽऽयातं पूर्णाष्टवर्षजातं तु दीक्षयेदिति तन्निराकरणाय सूत्रमाह-'कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम् – कप्पइ णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा खुड्डगं वा खुड्डियं वा साइरेगअट्ठवासजाय उवट्ठावेत्तए वा संभुंजित्तए वा ॥ सू० २०॥
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लकं वा क्षुल्लिकां वा सातिरेकाऽटवर्षजातम् उपस्थापयितुवा संभोक्तुं वा ॥ सू० २० ॥
भाष्यम् - 'कप्पई' कल्पते, 'णिग्गंधाण वा' निर्ग्रन्थानां वा 'णिग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थीनां वा 'खुड्गं वा' क्षुल्लक-बालकं वा, 'खुड्डियं वा क्षुल्लिकां-बालिका वा, 'साइरेगअट्ठवासजायं' सातिरेकाष्टवर्षजातम् ‘जन्मनाऽष्टवर्षादधिकवयस्कम् 'उवद्यावेत्तए वा' उपस्थापयितुं-प्रव्राजयितुं वा, तथा 'सं जिचए वा' संभोक्तुं वा-तेन तया वा सह आहारादिसंभोगं कत्तुं कल्पते, यतः सातिरेकाष्टवर्षायुष्के मतिर्विकसितु प्रारभते ततो भगवतेद प्रतिपादितम् ॥ सू० २० ॥
पूर्व सातिरेकाप्टवर्पायुष्कं दीक्षयेदिति प्रोक्तम् , सम्प्रति तादृशस्यापि आचारप्रकल्पनामाध्ययनस्य निषेधकालं प्रदर्शवति-'नोकप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम् - नोकप्पई णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा खुड्गस्स वा खुड्डियाए वा अन्वंजण जायस्स आयारकप्पे नाम अज्झयणे उदिसित्तए । सू० २१ ॥
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू० २२-२५
दीक्षा पर्यायमश्रित्य सूत्राध्यापन विधिः २६१
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लकस्य वा क्षुल्लिकाया वा अव्यञ्जनञ्जातस्य आचारकल्पो नामाऽध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ सु० २१ ॥
,
1
भाष्यम् – 'नो कपइ' नो नैव कल्पते, 'णिग्गंथाण वा निग्गंथीणवा' निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा, 'खुड्डगस्स वा खुड्ड्डयाए वा' क्षुल्लकस्य वा क्षुल्लिकाया वा, 'अव्वंजणजायस्स' अव्यञ्जनजातस्य तत्र व्यञ्जनानि युवत्वसंसूचकक्षालोमादीनि तानि न जातानि न समुत्पन्नानि यस्य यस्या वा सोऽव्यञ्जनजातोऽव्यञ्जनाता वा, तस्य तस्या वा अप्राप्तषोडशवर्षस्य क्षुल्लकस्य, अप्राप्तयौवनायाः क्षुल्लिकाया वेत्यर्थः ' आयारकप्पे नाम अज्झयणे' आचारकल्पो नामाऽध्ययनम्, अत्र आचरपदेन आचारानं कल्पपदेन निशीथमिति व्याचाराङ्गसूत्रं निशीथसूत्रं च ' उद्दिसित्तए' उद्देष्टुं समुपदेष्टुम् । उक्तञ्च—
"यावन्न यौवनाऽऽशंसि, लोमलज्जोद्गमः स्फुटम् । तावन्निशीथसूत्राणां कल्पतेऽध्ययनं नहि" ॥१॥
यावत्कालपर्यन्तं यौवनाऽभिव्यञ्जकलोमराजिः नेत्राद्यङ्गप्रत्यङ्गे लज्जोद्गमः स्फुटं नावभासेत तावत्कालपर्यन्तं बालस्य दीक्षितस्यापि श्रमणस्य श्रमण्या वा निशीथसूत्रादिकमध्यापयितुं श्रमणानां श्रमणीनां वा न कल्पते, अपक्वमतिकाले तदध्ययनस्य निपेधात् ।
यथा - ऊनाष्टवर्षो बालश्चारित्रघारणे समर्थो न भवतीति अप्राप्ताऽष्टमवर्षस्य दीक्षणं प्रतिषिद्धम् । एवमेवाप्राप्तव्यञ्जनस्याssचाराङ्ग - निशीथ - सूत्रादिकं नाऽध्याप्यते, अपरिपक्चबुद्धितयाऽपवादशास्त्रस्य धारणेऽयोग्यतामाकलय्य स्थविरास्तान् अज्ञातव्यञ्जनान् आचाराङ्ग-निशीथसूत्रादिकं नाऽध्यापयन्तीति ॥ सू० २१ ॥
अथाऽऽचारप्रकल्पनामाध्ययनकालमाह - ' कप्पइ णिग्गंथाण वा' इत्यादि । सूत्रम् - कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खुड्डगस्स खुड्डियाए वा वंजणजायस्स आयारकप्पे नामं अज्झयणे उद्दित्तिए । सू० २२॥
छाया -कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लकस्य क्षुल्लिकाया वा व्यञ्जनजातस्य आचारकल्पो नामाध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ सु० २२ ॥
भाष्यम् – 'कप्पइ' कल्पते 'णिग्गंथाण वा' निर्ग्रन्थानां वा 'णिग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थीनां वा 'खुड्डगस्स वा खुड्डियाएवा' क्षुल्लकस्य बालकस्य वा, क्षुल्लिकाया वा, बालिकाया वा 'वजण जायस्स' व्यञ्जनजातस्य सञ्जातयुवत्वसूचककक्षारोमादिव्यञ्जनस्य तादृशस्य श्रमणस्य श्रमण्या वा 'आयारकप्पे नामं अज्झयणे' आचारकल्पो नामाध्ययनं आचाराङ्ग-निशीथ-रूपम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टु समुद्देष्टुम् अध्यापयितुम्, कस्मात्कारणादिति चेद् अत्र ब्रूमः - तादृशो हि
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८
व्यवहारसूत्रे
भाष्यम् – 'तो' तिस्रः-त्रिप्रकारिकाः 'थेरभूमीओ पन्नत्ताओ' स्थविरभूमयः प्रज्ञप्ताः तत्र-भूमिः स्थानं काल इत्येकार्थः तेनायमर्थः- स्थविरस्य भूमि.-अवस्थारूपः कालः, तास्तिनः प्रज्ञप्ताः, ता एवाह-'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'जाइरे' जातिस्थविरः, 'सुयथेरे' श्रुतस्थविरः, 'परियायथेरे य' पर्यायस्थविरश्च । तत्रैषां त्रयाणां स्थविराणां व्याख्यानं सूत्रकारः स्वयं करोति- सहिवासजाए' इत्यादि, 'सटिवासजाए' पष्टिवर्षजातः-जन्मतः षष्ठिवर्षायुष्कः साधु 'जाइथेरे' जातिस्थविरः कथ्यते १ 'ठाणसमवायघरे सुयधरे स्थानसमवायधरः-स्थानानसमवायाङ्गधरः श्रुतस्थविरः प्रोच्यते २ । 'चीसवासपरियाए परियायथेरे' विंशतिवर्षपर्यायः- विंशतिवर्षदीक्षापर्यायवान् पर्यायस्थविर उच्यते ३ इति ।
एषां त्रयाणामपि स्थविराणां सत्कारसम्मानादिपूर्वकं तद्योग्यं वैयावृत्त्यमन्यसाधुभिः कर्त्तव्यम्, तथाहि- यो हि जातिस्थविरः पष्टिवर्षजातः, तस्य स्थविरस्य देश-काल- स्वभावानुमताहारपानीयादितव्यः । उपधिर्यावता संस्तरति तावत्प्रमाणको दातव्यः । तथा-शय्यावसतिरनुकूला दातव्या । संस्तारको मृदुको देयः । तथा क्षेत्रान्तरगमनसमये जातिस्थविरस्योपथ्यादिकमन्ये वहन्तीति जातिस्थविरस्य वैयावृत्तिप्रकारः १ ।
___ तथा—श्रुतस्थविरस्य श्रतेन तपसा, वृद्धस्य कृतिकर्म-वन्दनादिकं कर्त्तव्यम्, तस्य छन्दतो ऽनुवर्त्तनं कर्त्तव्यम् । एवमागतस्य श्रुतस्थविरस्याऽभ्युत्थानमभिवादनं पादप्रमार्जनादिकं कर्त्तव्यम् । तद्योग्यमाहारादिकमानीय समर्पणीयम् । तदीयगुणानां प्रशंसनं कर्त्तव्यम् । यत्र श्रुतस्थविर उपविष्टो भवेत् तत्र तदपेक्षया नीचैः शय्यायामुपवेष्टव्यम् । तस्याऽऽज्ञा सर्वदा परिपालनीया । एवंप्रकारेण श्रुतस्थविरस्य संमानपूर्वक वैयावृत्त्यं विधेयमिति श्रुतस्थविरस्य वैयावृत्त्यप्रकारः २ । तथा पर्यायस्थविरस्य अप्रव्राजकस्यापि वाचनामदातुरपि आगच्छतोऽभ्युत्थानादिकं सहर्ष कर्त्तव्यम् । योग्यमाहारादिकमानीय तस्मै समर्पणीयमिति पर्यायस्थविरस्य वैयावृत्त्यप्रकार इति ॥ सू०१७ ॥
पूर्व तिनः स्थविरभूमयः प्रदर्शिताः, स्थविराणां वैयावृत्त्यादिकं शैक्ष एव कर्तुमर्हतीति शैक्षसूत्रमाह-अथवा स्थविरपक्षाः शैक्षा इति स्थविरसूत्रानन्तरं शैक्षसूत्रमाह--'तो' इत्यादि ।
सूत्रम्--'तो सेहभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-सतराइंदिया, चाउम्मासिया, छम्मासिया। छम्मासिया य उक्कोसिया, चाउम्मासिया मज्झमिया, सत्तराईदिया जहन्ना ॥ सू०१८॥
छाया-तिस्रः शैक्षभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सप्तरात्रिंदिवा, चातुर्मासिकी, पाण्मासिकी। पाण्मासिकी चोत्कृष्टा, चातुर्मासिकी मध्यमा, सप्तरात्रिन्दिवा जघन्या' ॥ सू०१८॥
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० १० १९-२१
अवस्थामाश्रित्य दीक्षादानविधिः २५९ भाष्यम् -'तओ सेहभूमीओ पन्नत्ताओ' तिनः-त्रिसंख्यकाः शैक्षभूमयः, शैक्षकाणांशिष्याणां भूमयः-उपस्थपनाकालरूपाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, तानेव भेदान् दर्शयितुमाह-'तंजा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'सत्तराईदिया' सप्तरात्रिन्दिवा-सप्तरात्रिंदिवप्रमाणा, 'चाउमासिया' चातुर्मासिकी-चतुर्मासप्रमाणा, 'छम्मासिया' पाण्मासिकी षण्मासप्रमाणा, तत्र-तासु तिसृषु मध्ये 'छम्मासिया य उक्कोसिया' पाण्मासिकी, उत्कृष्टा शैक्षभूमिः पाण्मासिकी-भवति । तथा चाउम्मासिया मज्झमिया' चातुर्मासिकी, मध्यमा शैक्षकभूमिः चातुर्मासिकी भवति । 'सत्तराईदिया जहन्ना' सप्तरात्रिदिवा जघन्या, जघन्या शैक्षकभूमिः सप्तरात्रिदिवप्रमाणा भवति । ता एताः तिस्रः शैक्षकभूमयो भवन्तीति । ____ अयं भाव----यः शैक्षकः पूर्व गृहीतप्रव्रज्यः उत्प्रव्रजितो भूत्वा पुनरपि प्रव्रज्यां प्रतिपन्नवान् स शैक्षकः सप्तमे दिवसे उपस्थापनीयः । तस्य हि यावद्भिर्दिनैः पूर्वविस्मृतसाधुसामाचारीरूपषडध्ययनात्मकमावश्यकमधीतं भवेत् तदा दीक्षादिना सप्ममे दिवसे छेदोपस्थापनीये चारित्रे उपस्थापयितव्यः, एषा जघन्या भूमिः । यद्येतावदिनेषु आवश्यकं नाभ्यस्तं भवेत्तदा स चतुर्थे मासे उपस्थापनीयः, एपा मध्यमिका भूमिः । चतुर्भिर्मासैरप्यावश्यकं नाधीतं भवेत् तदा षष्ठे मासे उपस्थापयितव्यः, एपा उत्कृष्टा भूमिः । दुर्मेघसं धर्ममश्रद्दधान च प्रतीत्य उत्कृष्टा पाण्मासिकी भूमिर्भवतीति ।
__ अत्रेयं भावना-यदि सप्तसु दिवसेषु आवश्यकमभ्यस्तं न भवेत्तदा चतुर्थमासि उपस्थापयितव्यः । ततोऽपि यदि न भवेदभ्यस्तमावश्यकं तदा षष्ठेमासे उपस्थापयितव्यः । ततोऽपि न भवेत् तदा यदा भवेत्तदोपस्थापयितव्यः । जघन्यभूमिप्राप्तः शैक्षो धर्मश्रद्धापरिणतत्वेन परिणामकः कथ्यते । परिणामको द्विप्रकारको भवति, यथा-आज्ञापरिणामको दृष्टान्तपरिणामकश्च । तत्रआज्ञापरिणामकः आज्ञयैव -जिनाज्ञामात्रेणैव परिणतो भवति 'तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं तदेव सत्यं निश्शवं यज्जिनैः प्रवेदितम्, इत्येवंप्रकारेण जिनोकानि जीवा-जीवादितत्त्वानि निश्शवं श्रद्दधाति न कारणं जानीते न वा कारणं पृच्छति स आज्ञापरिणामक शैक्षः ।
यस्तु परोक्षहेतुकमर्थ प्रत्यक्षप्रसिद्धदृष्टान्तद्वारा आत्मबुद्वौ-आरोपयति नान्यथा, स दृष्टान्त परिणामकः । दृष्टान्तेन विवक्षितम परिणमयति स्ववुद्धौ स दृष्टान्तपरिणामक इति ।। सू० १८ ॥
पूर्व शैक्षकस्योपस्थापनाकालः प्रोक्तः, साम्प्रतं शैक्षकस्याऽदस्थामधिकृत्योपस्थापनाप्रकारमाह-'नो कप्पइ निग्गंथाण वा' इत्यादि ।
सूत्रम् -लो कप्पइ निग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खुड्डगं वा खुड्डियं वा ऊणवासजायं उपहावेत्तए वा संभुजित्तए वा ॥ सू० १९ ॥
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
युवा परिपक्वबुद्वितयाऽपवादशास्त्रस्याऽपि ज्ञाने समर्थो भवति, अतस्तस्य जातव्यञ्जनस्याऽध्यापन विधीयते इति ॥ सू० २२ ॥
पूर्व जातव्यञ्जनायाऽऽचारप्रकल्पाध्ययनमुद्देष्टव्यमिति प्रोक्तम्, एतादृशस्तु अल्पकाल दीक्षितोऽपि भवेत्तदा तादृशाय श्रमणाय तत् समुद्देष्टव्यं न वा ' इति जिज्ञासायां सूत्रकारो दीक्षापर्यायमाश्रित्याऽऽचाराङ्गादि सूत्राध्ययनक्रमं पञ्चदशभिः सूत्रः प्रदर्शयति, तत्र प्रथमं त्रिचतु पञ्चाष्टादशवर्षपर्यायसंवन्धि सूत्रपञ्चकमाह-'तिवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् - तिवासपरियायस्स समणस्स निग्गंधस्स कप्पइ आयारकप्पे नामं अज्झयणे उदिसित्तए ।। सू० २३ ।।
छाया-त्रिवर्पपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते आचारकल्पो नामाऽध्ययन मुद्देष्टुम् ॥ सू० २३ ॥
भाष्यम् -'तिवासपरियायस्स' त्रिवर्षपर्यायस्य त्रीणि वर्षाणि परिपूर्णानि पर्यायस्य दीक्षाकालस्य जातानि यस्य स त्रिवर्षपर्याय. प्रारब्धचतुर्थवर्षपर्याय इत्यर्थः, यस्य दीक्षापर्यायो वर्षत्रयात्मकः परिपूर्णो जातश्चतुर्थश्च प्रविष्टस्तत्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पइ' कल्पते 'आयारकप्पे णामं अज्झयणे' आचारकल्पो नामाध्ययनम् आचाराङ्गनिशीथादिसूत्रम्, 'उदिसित्तए' उद्देष्टुम् अध्यापयितुम् । जातव्यञ्जनस्यापि त्रिवर्षपर्यायस्यैव श्रमणनिम्रन्थस्य आचारकल्पो नामाऽध्ययनमुद्देष्टव्यं भवेत् नाऽन्यस्येति भावः ॥ सू० २३॥
सूत्रस्--चउवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ सूयगडे नामं अंगे उद्दिसित्तए ॥२४॥
पंचवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ दसाकप्पयवहारे उदिसित्तए ॥२५॥ छाया- चतुर्वर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते सूत्रकृतं नामाजमुद्देष्टुम् ॥२४॥ पञ्चवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निग्रन्थस्य कल्पते दशाकल्पव्यवहारान् उद्देष्टुम् ॥२५॥
भाष्यम् -'चउवासपरियायस्स' इति, चतुर्वर्षपर्यायस्य परिपूर्णचतुर्वर्षदीक्षाकालस्य श्रमणनिम्रन्थस्य 'सूयगडे नाम अंगे' सूत्रकृतं नामाझं-द्वितीयमनसूत्रमुद्देष्टुं कल्पते ॥ सू० २४ ॥ एवम्-'पंचवासपरियायस्स' इति, पञ्चवर्षपर्यायस्य सञ्जातपरिपूर्णपञ्चवर्षदीक्षाकालस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य 'दसाकप्पयवहार' दशाकल्पव्यवहारान्-दशाश्रुतस्कन्धः, वृहत्कल्पः, व्यवहारअति व्यवहारसूत्रं चेति त्रीणि सूत्राणि उद्देष्टुं कल्पते, अस्य पञ्च-षट्-सप्तवर्षदीक्षापर्यायरूपेषु
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू० २६-२९ दोक्षापर्यायमाश्रित्य सूत्राध्यापनविधिः २६३ त्रिषु वर्षेषु त्रीणि सूत्राणि उद्देष्टव्यानि येनाऽग्रे स स्थानान-समवायाङ्ग-सूत्रोद्देशनयोग्यतां प्राप्नुयात्तदर्थम् अग्रिमसूत्रेऽष्टवर्षपर्यायस्य स्थानसमवायोदेशनं प्रतिपादितम् ॥सू०२५॥ ।
अथ-अष्टवर्षपर्यायरूपं चतुर्थसूत्रमाह-'अट्टवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-अहवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ ठाणसमवाया उद्दिसित्तए ॥ सू० २६॥
छाया-अष्टवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते स्थानसमवायौ उद्देष्टुम् ॥ स्० २६ ॥
भाष्यम्--'अहवासपरियायस्स' अष्टवर्षपर्यायस्य, यस्य दीक्षापर्यायोऽष्टवर्षात्मको व्यतीतः नवमे च प्रविष्टस्तस्य तादृशस्य, 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पई' कल्पते 'ठाणसमवाया उद्दिसित्तए' स्थानसमवायौ-स्थानाङ्गं समवायाङ्गं चेति सूत्रद्वयम् उद्देष्टुमध्यापयितुम् ।
अष्टनवात्मके वर्षद्वये स्थानागसमवायाङ्गेति सूत्रद्वये उद्दिष्टे सति तस्य व्याख्याप्रज्ञत्यगोद्देशनयोग्यता स्यात्, अग्रिमसूत्रे दशवर्षपर्यायस्य व्याख्याप्रज्ञप्तेरुद्देशनस्य प्रतिपादितत्वात् ॥सू० २६ ॥
तदेवाह-'दसवास.' इत्यादि ।
सूत्रम्- दसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथरस कप्पइ विवाहे नामं अंगे उदिसित्तए ॥ स्० २७॥
छाया- दशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते विवाहो नामाङ्गमुद्देष्टुम् ॥२७॥
भाष्यम्-'दसवासपरियायस्स' दशवर्षपर्यायस्य, यस्य दीक्षाकालो दशवर्षात्मको व्यतीतस्तादृशस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य-निर्ग्रन्थस्य 'कप्पइ' कल्पते, 'विवाहे नामं अंगं उदिसित्तए' विवाहनामकमग-व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रं-भगवतीसूत्रापरपर्यायं सूत्रम् उद्देष्टुमध्यापयितुम् ।
त्रिवर्षपर्यायादारभ्य दशवर्षपर्यायपर्यन्तानां पञ्चानां सूत्राणामयं भावः-त्रिवर्पपर्यायस्याऽऽचारप्रकल्पाध्ययनोदेशेन स साध्वाचारस्य सम्यक् परिपालनसमर्थो भवति तत्र साध्वाचारस्य प्रतिपादितत्वात्।।सू० २३॥ चतुर्वर्षपर्यायस्य सूत्रकृतागोद्देशनमनुज्ञातम् , यतश्चतुर्वपंपर्यायो धर्मे दृढमतिर्भवेत् हीनपर्यायो मतिभेदेन मिथ्यात्वं प्राप्नुयात् , सूत्रकृताङ्गे च त्रिषष्टयधिकाना त्रयाणां पाखण्डिगतानां दृष्टयः प्ररूपिताः, तदध्ययनेन स कुसमयै पहियते ॥ सू० २४ ।। पञ्चवर्षपर्यायोऽपवादज्ञानयोग्यो भवतीति कृत्वा तस्य दशाश्रुतस्कन्ध–वृहत्कल्प-व्यवहाराध्यापनमनुज्ञातम् ।। सू०२५॥ एयां त्रयाणा सूत्राणामध्ययनं पञ्चषट्-सप्तेति वर्षत्रयं यावत् करोति ततः स विकृष्टपर्यायो
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारसूत्रे
२६४
जायते तेन कारणेन अष्टवर्षपर्यायस्य स्थानाङ्गं समवायानं चेति सूत्रद्वयस्याऽव्ययनमष्टमनवमेतिवर्षद्वये करोति एतत्सूत्रद्वयस्य द्वादशानामपि, अङ्गानां मध्ये प्रायेण महर्द्धिकत्वात् ॥ सू० २६ ॥ ततस्ताभ्यां परिकर्मितमतेर्दशवर्षपर्यायस्य व्याख्याप्रज्ञप्तिरुद्दिश्यते । इति
सूत्रपञ्चकाशयः ॥ सू० २७ ॥
अथैकादशवर्षपर्यायं श्रमण निर्ग्रन्थमधिकृत्य सूत्रमाह- 'एक्कारसवासपरियायस्स' इत्यादि । सूत्रम् --एक्कारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस कप्पइ खुड्डियाविमाण पविभत्ती महल्लियात्रिमाणपविभत्ती अंगचूलिया वंगचूलिया विवाहचूलिया नामं अज्झयणं उद्दित्तिए | सू० २८ ॥
छाया - एकादशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते क्षुल्लिकाविमानप्रविविमानप्रविभक्तिरचूलिकवर्गचूलिका विवाहचूलिका नामाऽध्ययन
भक्तिर्महती मुद्देष्टुम् ॥ २८ ॥
भाष्यम् – 'एक्कारसवासपरियायस्स' एकादशवर्षदीक्षापर्यायस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पड़' कल्पते खुडियाविमाणपविभत्ती' क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति, यत्रकल्पेषु विमाना वर्ण्यन्ते, 'महल्लियाविमाणपविभत्ती' महती विमानप्रविभक्तिः, यत्र कल्पेषु विमानान्येव विस्तारपूर्वकं प्रतिपाद्यन्ते, 'अंगचूलिया' अङ्गचूलिका, तत्राऽङ्गानाम् उपासकदशाप्रभृतीनां पञ्चानां चूलिका निरयावलिका इत्यङ्गचूलिका | 'वंगचूलिया' वर्गचूलिका महाकल्पश्रुतस्य चूलिका वर्गचूलिका | 'विवाहचूलिया' विवाहचूलिका - व्याख्याप्रज्ञप्तेश्चूलिका 'नामं अज्झयणं' एतन्नामकमध्ययनं शास्त्रम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुमध्यापयितुम् ॥ सू० २८ ॥
द्वादशवर्षपर्यायमाश्रित्याह--' वारसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् — 'बारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ अरुणोववाए गरुलोaare वरुणोववाए धरणोववाए वेसमणोववाए वेलंधरोववाए नाम अज्झयणं उद्दिसित्तए | सू० २९ ॥
छाया - द्वादशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते अरुणोपपातो गरुडोपपातो वरुणोपपातो धरणोपपातो वैश्रमणोपपातो वेलंधरोपपातो नामाध्ययन मुद्देष्टुम् ॥ सू० २९ ॥ भाष्यम् – ' वारसवासपरियायस्स' द्वादशवर्षपर्यायस्य यस्य साधोर्दीक्षापर्यायो द्वादशवर्षात्मको व्यतीतः, येन द्वादशवर्षपर्यन्तं श्रामण्यं पालितं तस्य तादृशस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पड़' कल्पते 'अरुणोववाए' अरुणोपपातः - अरुणोपपातनामकमध्ययनम्, अत्र 'नामं अज्झयणं' इति प्रतिपदे संयोज्यम् । 'गरुलोववाए' गरुडोपपातः - गरुडोपपातनामकमध्यनम् । ‘वरुणोववाए' वरुणोपपातः - एतन्नामकमध्ययनम् । 'धरणोववाए' धरणोपपातः
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ०१० स० ३०-३१
दीक्षापर्यायक्रमेण सूत्राध्यापनविधिः २६५
एतन्नामकमध्ययनम् । 'वेसमणोववाए' वैश्रमणोपपातः-एतन्नामकोऽध्ययनविशेषः । तथा'वेलंधरोववाए नाम अज्झयणं' वेलंधरोपपातो नामाध्ययनम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुं-वाचयितुमध्यापयितुमित्यर्थः ।
एतेषामरुणोपपातादिनामाऽध्ययनानामधिष्ठातारस्तत्तदध्ययनसदृशनामानोऽरुणादयो देवाः सन्ति तानरुणादिदेवान् हृदये संप्रधार्य ये श्रमणा यदा अरुणोपपातादिकानि अध्ययनानि परावर्त्तन्ते तदा तेषामन्तिके स्वकीयस्वकीयाऽध्ययनपरावर्तनाऽनुगृहीतास्ते देवा भञ्जलिमुकुलितहस्ता दशाऽपि दिश उद्योतयन्तः प्रादुर्भवन्ति, प्रादुर्भूय च किङ्करभृताः सन्तोऽध्ययनपरावर्तकान् पर्युपासते, वेलन्धरा धरणा वरुणाश्च देवाः वेलन्धरोपपातादिपाठकानामन्तिके गन्धोदकादि वर्षा वर्षन्ति, तथा-अरुणा गरुडा वैश्रमणाश्च देवा अरुणोपपातादिकाऽऽध्ययनपरावर्त्तनेनाऽऽवर्जिताः सन्तः तत्तदन्तिकमुपागत्य सुवर्णरजतादीनां वृष्टि कुर्वाणा दासवद् उपासते ब्रुवते च हे श्रमणाः ! आदिशत किं कुर्मो वयमिति ॥ सू० २९॥
अथ-त्रयोदशवर्षपर्यायमधिकृत्याह--'तेरसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्- तेरसवासपरियायरस समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ उठाणसुए समुहाणमुए देविंदोववाए णागपरियावणिया नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए ॥ सू० ३० ॥
छाया-त्रयोदशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते, उत्थानश्रुतं समुत्थानश्रुतं देवेन्द्रोपपातो नागपर्यापनिका नामाध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ सू० ३० ॥
. भाष्यम्-'तेरसवासपरियायस्स' त्रयोदशवर्षपर्यायस्य-यस्य दीक्षापर्यायस्त्रयोदशवर्षात्मकः कालो व्यतीतस्तादृशस्य, 'समणरस णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निम्रन्थस्य 'कप्पइ' कल्पते, 'उहाणसुए' उत्थानश्रुतम् - एतन्नामकमध्ययनम् । तथा-'समुत्थानमुए' समुत्थानश्रुतम्-एतन्ना-, मकमध्ययनम् । तथा 'देविंदोववाए' देवेन्द्रोपपातः-देवेन्द्रोपपातकनामकमध्ययनम् । 'नागपरियावणिया नाम अज्झयणं' नागपर्यापनिकानामकमध्ययनम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुम्, त्रयोदशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य उत्थानश्रुतादिनामकानि-अध्ययनानि अध्यापयितुं कल्पते ॥
एतेषामध्ययनानामयमतिशयः- त्रयोदशवर्षपर्यायः श्रमणो निग्रन्थो यत्र स्थानविशेषे सुचेतसा मनःप्रणिधानपूर्वकम् उत्थानश्रुतं परावर्तयति तत्रैव स्थानविशेपे कुलग्रामदेशा उत्तिष्ठन्ति उदशीभवन्ति, तदनन्तरं कार्ये निष्पन्ने सति समुत्थानश्रुते परावर्त्यमाने पुनरपि ते कुलग्रामदेशा स्वस्थीभूय निवसन्ति । एवमुपर्युक्तप्रकारेण स्वनामसदृशदेवेन्द्रोपपात इति देवेन्द्रपर्यापनिका-नागपर्यापनिकाऽध्ययनात् देवेन्द्रा नागदेवाश्च स्वस्वाध्ययनाध्येतृणां समीपे समागच्छन्ति, समागत्य च किङ्करवत् तान् पर्युपासते, एष एवातिशय उत्थानादिश्रुतानाम् ॥ सू० ३० ॥
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
व्यवहारसूत्रे
चतुर्दशवर्षपर्यायमधिकृत्याह - 'चउदसवास परियायस्स समणस्स' इत्यादि । सूत्रम् - चउदसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ सुमिणभावणा णाम अज्झयणं उद्दिसित्तए || सू० ३१ ॥
छाया - चतुर्दशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते स्वप्नभावना नामाध्ययनमुद्देष्टुम् || स्० ३१ ॥
"
भाष्यम् – 'चउदसवासपरियायस्स' चतुर्दशवर्षदीक्षापर्यायस्य-यस्य श्रमणस्य दीक्षापर्यायो-दीक्षाग्रहणकालः चतुर्दशवर्षात्मको व्यतीतः तादृशस्य, 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पइ' कल्पते 'सुमिणभावणा णामं अज्झयणं' स्वप्नभावनामाध्ययनम् । यस्मि - न्नध्ययने सामान्यतः त्रिंशत् स्वप्नाः विशेषतो द्वा चत्वारिंशत् स्वप्नाः प्रतिपादिताः कीदृशस्य स्वप्नस्य कीदृशं शुभमशुभं वा फलं भवति एतत्प्रतिपादकमध्ययनं स्वप्नभावनाध्ययनम् इति कथ्यते । तादृशं स्वप्नभावनानामकमध्ययनम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुमध्यापयितुं कल्पते इति ।
अयं भावः - यदा खलु मनो निद्रावस्थायां हृदयेऽवस्थितं भवति तदा दृष्टश्रुतान् अर्थात् पश्यति स स्वप्नः कारणभेदात् त्रिप्रकारको भवति, रोगबलात् वासनाबलात्, अदृष्टबलाच्च । तत्र-रोगस्त्रिविधः पैत्तिको वातिकः प्लैष्मिकश्च । तत्र - ज्वरादिरोगाक्रान्तः स्वप्नेऽग्निदाहादिकं पश्यति । वातरोगाक्रान्तो रात्रौ --आकाशगमनादिकं पश्यति, श्लैष्मिकरोगपीडितस्तु जलसंतरणादिकं पश्यति, सोऽयं स्वप्नो रोगजनितः कथ्यते । वासनाजनितस्तु स यो वासनया समुत्पद्यते, तत्र-वासनादिवसे दृष्टस्य श्रुतस्य वा विषयजातस्य संस्कारवशाद् रात्रौ शयानः तमेव पदार्थजातं पश्यति यः स तादृशः । इमौ द्वावपि स्वप्नौ न फलदायकौ भवतो वासनाजनितः स्वप्नः कथ्यते ।
तृतीयस्तु -- अदृष्टजनित: - भाग्यजनितः स शुभमशुभ वा फलं ददाति । तत्राऽदृष्टजनिताः सामान्यत त्रिंशत् स्वप्नाः विशेषतो द्वाचत्वारिंशत् स्वप्नाः, सङ्कलनया द्वासप्ततिसंख्यका भवन्ति । तदुक्तममुकस्वप्नस्य फलम्
" यदा कर्मसु काम्येषु, स्त्रियं पश्यति पुरुषः ।
भरिष्टं तत्र जानीयात् तस्मिन्स्वप्ननिदर्शने ॥ १ ॥
इत्यादिना शुभाशुभफलसूचकत्वं स्वप्नस्य दर्शितम् । स्वप्ने खररोहणादीनि जघन्यानि वस्तूनि पश्यन्ति, तेन 'अशुभफलसूचनं भवति । विशेषतस्तु - स्वप्नाध्यायादेव द्रष्टव्यम् ॥ सू० ३१ ॥ पञ्चदशवर्षपर्यायमधिकृत्याऽऽह--'पन्नरसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् - पन्नरसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ चारणभावणा णामं अज्झयणं उद्दिसित्तए || सू० ३२ ॥
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू० ३२-३७
दीक्षापर्यायक्रमेण सूत्राध्यापनविधिः २६७ छाया-पञ्चदशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते चारणभावना नामाध्ययन मुद्देष्टुम् ॥ सू० ३२ ।।
भाष्यम्-‘पन्नरसवासपरियायस्स' पञ्चदशवर्षपर्यायस्य यस्य पञ्चदशवर्षात्मको दीक्षाकालो व्यतीतस्तादृशस्य, 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पई' कल्पते, 'चारणभावणा नाम अज्झयणं' चारणभावनानामकमध्ययनम् 'उदिसित्तए' उद्देष्टुमध्यापयितुं कल्पते । पञ्चदशवर्षपर्यायस्य साधोः चारणभावनानामकमध्ययनम् अध्यापयितुं कल्पते । अस्यायमतिशयः-चारणभावनानामकाऽध्ययनाध्येतुश्चारणलब्धिरुत्पद्यते, अथवा येन तपोविशेषेण कृतेन जराचारण-विद्याचारण-लब्धिर्जायते इति तत्रैव वर्णनमुपलभ्यते ॥ सू० ३२ ॥
षोडशवर्षपर्यायमाश्रित्याह-'सोलसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-सोलसवासपरियायस्स समणस्स णिगंथस्स कप्पइ तेयनिसग्गे नाम अज्झयणे उद्दिसित्तए' ॥ सू० ३३॥
छाया- पोडशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते तेजोनिसगों नामाध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ सू० ३३ ॥
भाष्यम्-'सोलसवासपरियायस्स' षोडशवर्षपर्यायस्य यस्य साधोदीक्षाकालः षोडशवर्षात्मको व्यतीतः स षोडशवर्षपर्यायस्तस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पड़े कल्पते तेयनिसग्गे नामं अज्झयणे' तेजोनिसर्गों नामकमध्ययनम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुम्- अध्यापयितुम् । तेजोनिसर्गाऽध्ययनाध्येतुस्तेजोनिःसरणं भवति-तेजसो निस्सरण-प्रादुर्भावो जायते, अयमेवातिशयः ॥ सू० ३३ ॥
सप्तदशपर्यायमधिकृत्याऽऽह- 'सत्तरसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-सत्तरसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पई आसीविसभावणा नाम अज्झयणे उदिसित्तए ॥ सू० ३४ ॥
छाया-सप्तदशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निग्रन्थस्य कल्पते आशीविपभाषना नामाऽध्ययनमुद्देष्टुम् ।। ३४॥
भाष्यम् –'सत्तरसवासपरियायस्स' सप्तदशवर्षपर्यायस्य, यस्य दीक्षाकालः सप्तदशवर्षात्मको व्यतीतः सः सप्तदशवर्षपर्यायः, तादृशस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निम्रन्थस्य 'कप्पई' कल्पते 'आसीविसभावणा नाम अज्झयणं' आशीविषभावनानामकमध्ययनम् 'उदिसित्तए' उद्देष्टुम्--अध्यापयितुं कल्पते, आशीविषभावनाऽध्ययनपाठकस्य आशीविषलब्धिः
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
व्यवहारत्रे
समुत्पद्यते । अथवा यैराचरणैराशीविपत्वेन कर्म बध्यते तेषामाचरणानामुपवर्णनमत्राऽऽशीविघभावनाध्ययने समुपलभ्यते । एष एवास्त्यतिशयः ।। सू० ३४ ॥
अष्टादशवर्षपर्यायमाश्रित्याऽऽह-'अट्ठारसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-'अट्ठारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गयस्स कप्पइ दिहिविसभावणाणाम अज्झयणं उदिसित्तए ॥ सू० २५ ॥
छाया-अष्टादशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते दृष्टिविषभावनामाध्य. यनमुद्देष्टुम् ।। सू० ३५ ॥
भाष्यम् --- 'अट्ठारसवासपरियायस्स' अष्टादशवर्षपर्यायस्य, यस्य दीक्षाकालोऽष्टादश'वर्षात्मको व्यतीतः सोऽष्टादशवर्षपर्यायः, तादृशस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य
कप्पई' कल्पते, 'दिहि विसभावणा णाम अज्झयणं' दृष्टिविषभावनानामाऽध्ययनम् 'उद्दिसित्तए' उष्टुम् । अस्याध्ययनस्याध्येतुर्दृष्टिविषनाम्नी लब्धिः प्रादुर्भवति, तत्प्रभावादस्य श्रमणस्य दृष्टया विषमुपशाम्यति । अथवा यै समाचरणैर्मनुष्यो दृष्टिविषतया कर्म वध्नातीत्यत्र तवर्णनमुपलभ्यते ॥ सू० ३५ ॥
अथकोनविंशतिवर्षपर्यायसूत्रमाह- 'एगूणवीसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्--एगूणवीसबासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ दिहिवायं नामे अंगे उद्दिसित्तए ॥ सू० ३६॥
छाया-एकोनविंशतिवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते दृष्टिवादं नामाङ्गमुद्देष्टुम् ॥ सू० ३६ ॥
भाष्यम् –'एगूणवीसवासपरियायस्स' एकोनविशतिवर्षपर्यायस्य, यस्य साधोः दीक्षापर्याय एकोनविंशतिवर्षप्रमाणो व्यतीतो भवेत् स एकोनविंशतिवर्षपर्यायः, तादृशस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पई' कल्पते 'दिदिवाय नामे अंगे उहिसिता दृष्टिवादं नामाझं दृष्टिवादाख्यं द्वादशमद्गम् उद्देष्टुम् अध्यापयितुम् । यो हि श्रमण एकोनविंशति वर्षप्रमाणकदीक्षापर्याय. स दृष्टिवादनामकमगमध्येतुं शक्नोति, एतावद्वर्षदीक्षापर्यायस्यैव दृष्टिवादाध्ययनयोग्यताया भगवता प्रतिपादितत्वात् ।। सू० ३६ ॥
पूर्व दृष्टिवादाङ्गपर्यन्तश्रुतानामुद्देशनयोग्यता प्रदर्शिता, ततः परं श्रमणः कीदृशी योग्यतां प्राप्नोतीति प्रदर्शयन्नाह-वीसइवासपरियाए' इत्यादि ।
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू० ३८
दशविधवैयावृत्त्यनिरूपणम् २६९ सूत्रम्-बीसइवासपरियाए समणे णिग्गंथे सव्वसुयाणुवाई भवइ ॥ सू० ३७ ॥ छाया-विंशतिवर्पपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः सर्वश्रुतानुपाती भवति ॥ सू० ३७ ।
भाष्यम-वीसइवासपरियाए' विंशतिवर्षपर्यायः, यस्य दीक्षापर्यायो विंशतिवर्षप्रमाणको जातस्तादृशः, 'समणे णिग्गंथे' श्रमणो निर्ग्रन्थः 'सव्वसुयाणुवाई भवई' सर्व श्रुतानुपाती भवति, स आचारागादिद्वादशागगणिपिटकधारको जायते ।
____ अयं भावः-अत्राचाराङ्गादिदृष्टिवादपर्यन्तानां योग्यताक्रमेणोद्देशनविधिः प्रदर्शितस्तेन पात्रस्यैव यथोचिते काले तत्तद्योग्यतां विचार्य यस्य यदुचितमझं ज्ञायते तत्तस्य दातव्यं भवेत् न त्वन्यत् । अपात्रे दाने महती श्रुताशातना जायते ॥ सू० ३७॥
पूर्व श्रुताध्ययनयोग्यता प्रदर्शिता, सा च कर्मलाघवेन समुपलभ्यते, कर्मलाघवं चाचार्यादीनां वैयावृत्त्येन जायते, इति साम्प्रतं दशविधवैयावृत्त्यं तत्फलं च प्रदर्शयति-'दसविहे वेयाबच्चे' इत्यादि।
सूत्रम्-दसविहे वेयावच्चे पण्णत्ते तंजहा-आयरियवेयावच्चे १, उवज्झायवेयावच्चे २, थेरवेयावच्चे ३, तवस्सिवेयावच्चे ४, सेहवेयावच्चे ५ गिलाणवेयावच्चे ६ साहम्मियवेयावच्चे ७ कुलवेयावच्चे ८ गणवेयावच्चे ९ संघवेयावच्चे १० ॥३८॥
छाया-दशविधं वैयावृत्यं प्राप्तम् , तद्यथा-आचार्यवैयावृत्त्यम् १, उपाध्यायः वैयावृत्त्यम् २, स्थविरवैयावृत्त्यम् ३, तपस्विवैयावृत्त्यम् ४, शैक्षवैयावृत्त्यम् ५, ग्लानवैयावृत्त्यम् ६, साधर्मिकवैयावृत्त्यम् ७, कुलवैयावृत्त्यम् ८, गणवैयावृत्त्यम् ९, सवैया. वृत्त्यम् ॥ सू० ३८॥
भाष्यम् –'दसविहे वेयावच्चे पन्नत्ते' दशविघं दशप्रकारकं वैयावृत्त्य प्रज्ञप्तं कथितम् । तानेव दश भेदान् दर्शयितुमाह-'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'आयरियवेयावच्चे आचार्यवैयावृत्त्यम् , तत्राचार्यस्य गणनायकस्य वैयावृत्त्यं भक्तपानादिना तस्य सेवाकरणमिति प्रथमं वैयावृत्त्यम् १।
'उवज्झायवेयावच्चे' उपाध्यायवैयावृत्त्यम् , तत्रोपाध्यायस्य यस्य-उप-समीपे आगत्याधीयते सूत्रार्थतदुभयमिति स उपाध्यायस्तस्य वैयावृत्यमिति द्वितीयं वैयावृत्त्यम् २ ।
'थेरवेयावच्चे' स्थविरवैयावृत्त्यम् स्थविरस्य श्रुतपर्यायावस्थामेदेन त्रिविधस्य स्थविरस्य वैयावृत्त्यं तृतीयं वैयावृत्यम् ३ ।
'तवस्सिवेयावच्चे' तपस्विवैयावृत्त्यम् , तत्र तपो बाह्याभ्यन्तरमेदेन द्विविधं, तत्करोति यः स तपस्वी, तस्य तपस्विनो वैयावृत्त्यं चतुर्थ वैयावृत्त्यम् ४ ।
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७०
व्यवहारसूत्र सेहवेयावच्चे' शैक्षवैयावृत्त्यम् , तत्र शैक्षः शिक्यते शास्त्रदर्शितविधिजयते व्रतातिचारादियस्य सः शैक्षः शिक्षयितुं योग्यः शैक्षः, यद्वा ग्रहणासेवनशिक्षायोग्यः शैक्षस्तस्य वैयावृत्त्यम् समये समये तस्य वैयावृत्त्यं ग्रहणासेवनीशिक्षाप्रदानरूपं पञ्चमं वैयावृत्त्यम् ५ ।
_ 'गिलाणवेयावच्चे' ग्लानवैयावृत्त्यम् तत्र-ग्लानो रोगतपोभेदेन द्विविधः, रोगेण ग्लानस्तपसा वा ग्लानस्तस्य वैयावृत्त्यम् औषधान्नपानादिभिरभिभावनमिति षष्ठं वैयावृत्त्यम् ६ ।
'साहम्मियवेयावच्चे' साधर्मिकवैयावृत्त्यम् , तत्र समान एको धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणो येषां ते साधर्मिकाः समानधर्माचरणशीलाः साधवस्तेषां वैयावृत्यं सप्तमं वैयावृत्त्यम् ७ ।
'कुलवेयावच्चे' कुलवैयावृत्त्यम् तत्र कुलम् एकगुरुपरिवाररूपः साधुसमुदायस्तस्य वैयावृत्त्यम् अष्टमं वैयावृत्त्यम् ८ । - गणवेयावच्चे' गणवैयावृत्यम् , गणस्य एकगुरुपरम्परागत साधुसमुदायस्य वैयावृ. त्यं नवमं वैयावृत्त्यम् ९ ।
_ 'संघवेयावच्चे' सवैयावृत्त्यम् , तत्र संघस्य साधुसाध्वीरूपस्य भक्तपानवस्त्रपात्रादिना, चतुर्विधसंघस्य वा परतीर्थिकविवादनिवारणादिना सदुपदेशादिना च वैयावृत्त्यम् दशमं वैयावृत्त्यम् १० । एतद्दशविधं वैयावृत्त्यं भगवता प्ररूपितमिति ॥ सू० ३८ ॥
पूर्व दशविधं वैयावृत्त्यं नामनिर्देशपूर्वकं प्रदर्शितम् , साम्प्रतं सर्वेषां मुख्यत्वेन प्रथममाचार्यवैयावृत्त्यस्य फलं प्रदर्शयति-'आयरियवेयावच्चं' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरियवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ सू० ३९॥
छाया-आचार्यवैयावृत्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥ सू० ३९ ॥
'आयरियवेयावच्चे' आचार्यवैयावृत्त्यम् , तत्राचार्यस्य गणनायकस्य वैयावृत्त्यं, तच्च त्रयोदशभिः प्रकारैः क्रियते, अत्र गाथाद्वयमाह-भत्तं पाणं च' इत्यादि ।
"भत्तं १ पाणं २ च सेज्जा ३, आसणदाणं ४ तहेव पडिलेहा ५। पायपमज्जण ६ ओसह ७, अद्धागमणे ८ य रायदुट्टे य ९ ॥२॥ तेणा १० पत्तग्गहणं ११, गेलन्ने १२ पत्तढोयणं १३ चेव । एवं आयरियाण, वेयायचं करेइ मोक्खट्टी" ॥२॥
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाष्यम् उ० १० सू० ३९-४८
दशविधवैयावृत्त्यफल निरूणम् २७१
छाया -- भक्तं पानं शय्या, आसनदानं तथैव प्रतिलेखा | पादप्रमार्जन मौषधः, अध्वगमने च राजद्विष्टे च ॥१॥ स्तेनात् पात्रग्रहणं; ग्लाने पात्रढौकनं चैव । एवमाचार्याणां वैयावृत्यं करोति मोक्षार्थी | २||
3
अयं भावः — भक्तं पानं च यथासमयं दीयते इति २, 'सेज्जा' शय्या संस्तारकं क्रियते ३, समीपागमनेऽभ्युत्थानपूर्वकमासनदानम् ४, एवमेव तेषां क्षेत्रवस्त्रपात्रादीनां प्रतिलेखनाकर - णम् ५, बहिः प्रदेशादागतानां पादप्रमार्जनकरणम् ६, ग्लानत्वे औषधभैषज्यादिना परिचरणम् ७, अध्वगमने—मार्गगमने तेषामुपधेर्वहनम्, विश्रामणयोपष्टम्भनं च ८, राजद्विष्टे - राज्ञि द्विष्टे सति तत्कृतोपद्रवान्निस्तारणम् ९, ' तेणा' स्तेनात्- शरीरोपधेः स्तेनाद्रक्षणम् १०, पत्तग्गहणं विचारभूमित आगतानां पात्रादीनां स्वहस्ते धारणम् ११, ग्लाने यद् योग्यं पथ्यादि तदानीय समर्पणम् १२, ‘'पत्तढोयणं' पात्रढौकनम् - उच्चार- प्रस्रवण- खेल - सम्बन्धिपात्रत्रिकस्य तदग्रे स्थापनम् १३ | एवं त्रयोदशभिः प्रकारैराचार्याणां वैयावृत्यं यो मोक्षार्थी श्रमणः स करोति तस्य मोक्षप्राप्तिहेतुकत्वात् इति गाथाद्वयार्थः ॥२॥
एवं त्रयोदशप्रकारैर्वैयावृत्त्यम् 'करेमाणे' कुर्वन् निर्जराभावेन संपादयन् 'समणे णिग्गंथे' श्रमणो निर्ग्रन्थः 'महानिज्जरे' महानिर्जरः महती निर्जरा - कर्मशातनारूपा यस्य स महानिर्जरः, आचार्यस्य वैयावृत्त्यक्रियायामायुक्तः श्रमणोऽनुसमयं कर्मकोटिं क्षपयति । यत. कर्मकोटिक्षपकस्ततोऽयम् 'महापज्जवसाणे भवइ' महापर्यवसानो भवति, तत्र महत् पुनरबन्धकत्वेन पर्यवसानं ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मणां परि-समन्तादात्मप्रदेशाद् अवसानम् अन्तो जातो यस्य स महापर्यव सानः सर्वकर्मक्षयकरो भवति जायते स तद्भवे एव मोक्षगामी भवतीति भावः ॥ सू० ३९ ॥
पूर्वमाचार्यवैयावृत्त्यस्य फलमुक्तम्, एवमेव शेषाणामुपाध्यायादीनामपि वैयावृत्त्यकरणे एतदेव फलं भवतीति उपाध्यायादीनां नवानां वैयावृत्यफलं प्रदर्शयन् नवसूत्री माह - उवज्झाय ० ' इत्यादि ।
सूत्रम् — उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे
भवइ ॥ सू० ४० ॥
थेरवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ सू०४१ तवस्सि वेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ४२ छाया - उपाध्यायवैयावृत्यं कुर्वाणः श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो
भवति ॥ सू० ४० ॥
स्थविरवैयावृत्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥ सू०४१ तपस्वि वैयावृत्य कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥ सू० ४२
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
व्यवहारसूत्रे सूत्रम्-सेहवेयावच्च करेमाणे समणे निग्गंथे महानिजरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ४३॥ गिलाणवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ।। ४४ ॥ साइम्मियवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गथे महानिज्जरे महापज्वसाणे भवइ ॥ ४५ ॥ कुलवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ४६॥ गणवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ४७ ॥ संघवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ४८ ॥
ववहारे दसमो उद्देसो समत्तो ॥१॥ छाया-शैक्षवैयावृत्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ।।सू० ४॥ ग्लानवैयावृत्त्यं कुर्वाणः श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्ज़रो महापर्यवसानो भवति ॥सू ४४॥ साघमिकवैयावृत्त्यं कुर्वाणः श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥५॥ कुलवैयावृत्त्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥४६॥ गणवैयावृत्त्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥४७॥ संघवैयावृत्त्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥४॥
भाष्यम् - उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे' इति सूत्रादारभ्य 'संघवेयावच्चं करेमाणे' इति सूत्रपर्यन्तानां नवानामपि सूत्राणां व्याख्या-आचार्यवैयावृत्यसूत्रवदेव कर्त्तव्या।
अयं भावः-आचार्यादीना दशानामपि वैयावृत्त्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरी महापर्यवसानो भवति । निर्जराभावेन कृतस्य वैयावृत्यस्य मोक्षप्रापकत्त्वेन भगवदुपदिष्टत्वात् ॥ सू० ४०-४८ ॥
- इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ -प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैन- . धर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां'व्यवहारसूत्रस्य" भाष्यरूपायां व्याख्यायां दशम उदेशः समाप्तः ॥१०॥
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री-व्यवहारसूत्रस्य
मूलपाठः सूत्रम्-जे भिक्खू मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासिय, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं ॥१॥
जे भिक्खू दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासिय, पलिउंचिप आलोएमाणस्स तिमासियं ॥२॥
जे भिक्खू मासिय परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउँचिय आलो. एमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं ॥३॥
जे भिक्खू चाउम्मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥४॥
जे भिक्खू पंचमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥५॥
तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते व छम्मासा ॥६॥ . जे भिक्खू बहुसोवि मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं ॥७॥
जे भिक्खू बहुसोवि दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं ॥८॥
जे भिक्खू बहुशोवि तेमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलि. उंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं ॥९॥
जे भिक्खू वहुसोवि चाउम्मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासिय, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥१०॥
जे भिक्खू बहुसोवि पंचमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥११॥
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेण परं पलिउँचिए वा अपलिउंचिए वा, ते चेत्र छम्मासा ॥१२॥
जे भिक्खू मासियं वा, दोमासियं वा, तेमासियं वा चाउमासियं वा, पंचमासियं वा, एएसि परिहारद्वाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासिय या दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासिय पचमासिय चा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१३॥
जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा, वहुसोवि तेमासियं वा, बहुसोवि चाउम्मासियं वा, बहुसोवि पंचमासियं वा, एएसि परिहारट्टाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा, दोमासियं वा, तेमासियं वा; चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, पलिंउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा, तेमासियं वा, चाउम्मासियं वा, पंचमासिय वा, छम्मासियं वा; तेण परं पलिउंचिए बा, अपलिउंचिए वा, ते चेव छम्मासाः ॥१४॥
जे भिक्खू चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारट्ठाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेत्र छम्मासा ॥
जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा, बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचथासियं वा, पलिउंचिय आलोएमा णस्स पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते वेव छम्मासा ॥१६॥
- जे भिक्खू चाउम्मासियं वा, साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिदारहाणाण अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिडंचिय आलोएणाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियन्वे या, सिपुव्वं पडिसेवियं पुवं
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
आलोइयं १, पुच्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउँचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४। अपलिउचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्यमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियत्वे सिया ॥१७॥
जे भिक्खू चाउम्मासियं वा, साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, पलिउंचिय आलोएमाणस्त ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियत्वे सिया, पुव्वं पडिसेवियं पुवं आलोइयं १, पुच्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं३, पच्छा पडिसेवियंपच्छा आलोइयं ४, अपलिउंचिए अपलिउंचियं १,अपलिउंचिए पलिउंचियं २,पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४, । पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवइ. सेवि कसिणे तत्येव आरुहियव्वे सिया ॥१८॥
जे भिक्ख वहसोवि चाउम्मासियं वा वहुसोवि साइरेगचाउम्मासिंयं वा, वहुसोवि पंचमासि वा वहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणत्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं, ठाविएवि पडि सेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियन्वेसिया, पुव्वं पडिसेविय पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुवं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४, अपधिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पढवणाए पद्दविए निविसमाणे पडिसेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥१९॥
जे भिक्खु बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा वहुसोवि पंचमासियं वा वहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्जं
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठावइत्ता , करणिज्जं वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियचे सिया, पुव्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेविवं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुवं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ 1 अपलिउंचिए अपल्डिंचियं १, अपलिरंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिडंचिए पउिंचियं ४ । पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टबिए निविसमाणे पडिसेवइ सेचि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥२०॥
वहवे परिहारिया वहवे अपरिहारिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए नो ण्हं से कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता एगयी अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहि यं वा चेइत्तए, कप्पइ ण्हं से थेरे आपुच्छित्ता एगयओ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, थेरा य ण्हं से वियरेज्जा एवं ण्हं कप्पइ एगयो अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, थेरा य ण्हं से नो वियरेज्जा एवं यह नो कप्पइ एगयो अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए । जो एहं थेरेहिं अविइण्णे अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेएइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥२१॥
- परिहारकप्पट्टिए भिक्खू वहिया थेराण वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए ज णं जं णं दिसं अण्णे साहम्मिया विहरंति तणं तं गं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्य कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च ण कारणंसि निहियसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ घा दुरायाओ वा वत्थए, जे तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा. परिहारे ॥२२॥
- परिहारकप्पठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से नो सरेज्जा कप्पइ से निव्विसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जणं जणं दिसं अन्ने साइम्मिवा विहरंति तं णं तं णं दिसं उचलित्तए, नो से कप्पइ तत्य विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तसि च णं कारणंसि निहियंसि परो वएज़्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं चा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ चा दुरायाओ वत्थए, जं तत्य परं एगरीयाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥२३॥
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिहारकप्पढिए भिक्खू वहिया थेराणं वेयावडियाए गज्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा वा नो सरेज्जा वा कप्पइ से निन्चिसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए में गंजे णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तं णं तं गं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पई तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च ण कारणंसि निट्टियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं का दुरायं वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थइ, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥२४॥
भिक्खु य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उपसंपज्जिचा णं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दीच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विह रित्तए अत्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पडिकमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा ॥२५॥
गणावच्छेयए य गणाओ अवकम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्उित्ता णं विरेज्जा, ‘से य इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जिता णं विहरित्तए पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठावेज्जा ॥२६॥
आयरियउवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं घिहरेज्जा, से य इच्छेज्चा दोच्चपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए पुणो आलोरएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवहाएज्जा ॥२७॥ .. -
। भिक्ख य गणाओ अवक्कम्म पासत्थविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता ण विहरेज्जा. से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं ववसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, अस्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवट्ठावेज्जा॥२८॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म जहाछंदविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा: से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अस्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवट्ठावेज्जा ॥२९॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म कुसीलविहारपडिमं उपसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अस्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवट्ठावेज्जा ॥३०॥ - भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओसन्नविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेजा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अत्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवहावेज्जा ॥३॥
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
भिक्खू य गणाओ अवस्कम्म संसत्तविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं ‘उवसंपज्जित्ता णं वितरित्तए अस्थि या इत्य सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उचठ्ठावेज्जा ॥३२॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म परपासंडपडिमं उसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उपसंपन्जित्ता णं विहरित्तए, नत्थि णं तस्स तप्पत्तिए केइ छेए वा परिहारे वा, नन्नत्थ एगाए आलोयणाए ॥३३॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहावेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नत्थि णं तस्स तप्यत्तिए केइ छेए वा परिहारे वा नन्नत्य एगाए सेहोवणियाए ॥३४॥
भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं सेवित्ता इच्छेज्जा आलोइत्तए जत्येव अप्पणो आपरियउवज्झाए पासेज्जा तेसतियं आलोज्जा पडिक्कमेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अन्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पाय जित्तं पडिवज्जेज्जा (१) ।
नो चेव अप्पणो आयरियउवज्झाए जत्थेव संभोइयं साहम्मिय पासेज्जा बहुस्मुयं वभागमं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए उन्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (२) ।
नो चेव संभोइयं साहम्मिय, जत्थेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं पासेज्जा वहुस्सुयं वभागमं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणाए अभुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (३)
नो चेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं जत्थेव सारूवियं पासेज्जा वहुस्सुयं बभागभं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निदेना गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अव्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (४)।
__ नो चेव सारूवियं पासेज्जा वहुस्सुयं वभागमं जत्थेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा वहुस्सुयं वभागमं तस्संतिए आलोएज्जा पडिक्खमेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (५)।
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ नो चेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागमं जत्थेव सम्मभावियाई चेइयाइं पासेज्जा तेसंतिए आलीएज्जा पडिकमज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अभुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (६)।
. . नो चेव सम्मंभावियाई चेइयाइं पासेज्जा, वहिया गामस्स वा नगरस्स वा निगमस्स वा रायहाणीए वा खेडस्स वा कवडस्स चा मडंवस्स वा पट्टणस्स वा दोणमु हस्स वा आसमस्स वा संवाहस्स वा संनिवेसस्स वा पाईणाभिमुहे वा उदीणाभिमुहे वा करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वएज्जा-एवइया मे अवराहा एवइक्खुत्तो अहं अवरद्धो अरहंताणं सिद्धाणं अंतिए आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अन्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्वं पडिवज्जेज्जासि (७) त्ति वेमि ॥३५॥
॥ ववहारे पढमो उद्देसो समत्तो ।
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ बीओ उद्देसो ॥ .... दो साहम्मिया एगयओ विहरंति एगे तत्थ अन्नयरं अकिच्चटाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ॥१॥ .. दो साहम्मिया एगयओ विहरंति दोवि ते अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा एगं तत्थ कप्पागं ठावइत्ता एगे णिव्विसेज्जा अह पच्छा सेवि णिविसेज्जा ॥२॥ . वहवे साहम्मिया एगयो विहरंति एगे तत्थ अण्णयरं अकिच्चटाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, तत्थ ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ॥३॥
. वहवे साहम्मिया एगयओ विहरंति सम्वेवि ते अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, एग तत्थ कप्पागं ठावडत्ता अवसेसा णिव्विसिज्जा, अह पच्छा सेवि णिव्विसेज्जा ॥४॥
परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू गिलायमाणे अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा से य संघरेज्जा ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं,
से य णो संथरेज्जा अणुपारिहारिएणं करणिज्ज वेयावडियं, से य संते वले अणुपारिहारिएणं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जेज्जा से य कसिणे तत्थेव आरुहियब्वे सिया ॥५॥
परिहारकप्पट्टियं भिक्खुं गिलायमाणं णो कप्पइ तस्य गणावच्छेयगस्स णिज्जूहित्तए अगिलाए तस्य करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकायो विप्पमुक्को, तो पच्छा तस्स अहालहुस्सए नामं ववहारे पट्टवियन्वे सिया ॥६॥
अणवठ्ठप्पं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तो रोगायकाओ विप्पमुक्को तो पच्छा तस्स अहालहुस्सए नाम ववहारे पट्टवियत्वे सिया ॥७॥
__पारंचियं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निजहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को तो पच्छा तस्स अदालहुस्सगे नामं ववहारे पठवियन्वे सिया ॥८॥
खित्तचित्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तो पच्छा तस्स अहालहुस्सए नाम ववहारे पट्टवियत्वे सिया ॥९॥
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
दित्तचित्तं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पड़ तस्स -गणावच्छेयगस्स निज्ञहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विष्पमुक्को तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥१०॥
जक्खाइटें भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पइ तस्य गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तो पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥११॥
उम्मायपत्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा अहालहुस्सगे नामं ववहारे पछवियब्वे सिया ॥१२॥
उक्सग्गपत्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥१३॥
साहिगरणं भिक्खू गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स, निज्जहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को तो पच्छा अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥१४॥
सपायच्छित्तं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तो पच्छा तस्स अहालहुस्प्लगे नाम ववहारे पट्टवियत्वे सिया ॥१५॥ .
भत्तपाणपडियाइक्खियं भिक्खू गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निहितए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा अहालहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥१६॥
__ अट्ठजायं भिक्खू गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा अहालहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥१७॥
अणवठ्ठप्पं भिक्खु अगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स उवद्यावेत्तए । अणवठ्ठप्पं भिक्खुं गिदिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स उवट्ठा वित्तए ॥१८॥ .
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारंचिय भिक्खं अगिहिभूयं नो कप्पई तस्स गणावच्छेयगस्स उवठ्ठावित्तए । पारंचियं भिक्खुं गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स उवट्ठावित्तए ॥१९॥
अणवढप्पं भिक्खु पारंचियं वा भिक्खं गिहिभूयं वा अगिहिभूयं वा कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स उवठ्ठावित्तए जहा तस्स गणस्स पत्तिय सिया ॥२०॥
दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, एगे तत्थ अण्णयरं अकिच्चट्टाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अहणं भंते ! अमुएणं साहुणा सद्धिं इमंमि य कारणंमि मेहुणपडिसेवी, पच्चयउ च सयं पडिसेवियं भणइ तत्थ पुच्छियव्वे कि पंडिसेवी ? अपडिसेवी ?, से य वएज्जा पडिसेवी परिहारपत्ते । से य वएज्जा णो पडिसेवी णो परिहारपत्ते । जं से पमाणं वयइ से य पमाणाओ घेतवे सिया से किमाहु भंते !, सच्चपइण्णा ववहारा ॥२१॥
मिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहाणुपेही वएज्जा, से आइच्च अणोहाइओ, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । तत्थ ण थेराणं इमेयारूवे विवाए समुप्पज्जिज्जा इमं अज्जो ! जाणह किं पडिसेवी किं अपडिसेवी ? से य वएज्जा पडिसेवी परिहारपत्ते, से य वएज्जा नो पडिसेवी नो परिहारपत्ते, जं से पमाणं वयइ से य पमाणाओ घेतव्वे, से किमाहु भंते !, सच्चपइण्णा ववहारा ॥२२॥
एगपक्खियस्स भिक्खुयस्स कप्पइ आयरियउवज्झायाणं इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धारित्तए चा जहा वा तस्स गणस्स पंत्तियं सिया ॥२३॥
वहवे परिहारिया वहवे अपरिहारिया इच्छेज्जा एगयओ एगमासं वा दुमासं वा तिमासं वा चाउम्मासं वा पंचमासं वा छम्मासं वा वत्थए ते अन्नमन्नं संभुजति अन्नमन्नं नो संभुजंति मासंते तओ पच्छा सव्वेवि एगयओ संभुंजंति ॥२४॥
परिदारकप्पट्टियस्स भिक्खुस्स णो कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, थेरा णं वएज्जा इमं ता अज्जो ! तुमं एएसिं देहि वा अणुप्पदेहि वा एवं से कप्पइ दाउं वा अणुप्पदाउं वा, कप्पई से लेवं अणुजाणावित्तए अणुजाणाह भंते ! लेवाए एवं से कप्पई लेवं समासे वित्तए ॥२५॥
परिहारकप्पढिए भिक्खू सएणं पंडिग्गहेण वहिया अप्पणो वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य तं वएज्जा-पडिग्गाहेहि अज्जो ! अहंपि भोक्खामि वा पाहामि वा, एवं णं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए, तत्थ णो कप्पइ अपरिहारिएणं परिहारियस्स
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा भोत्तए वा पायए चा, कप्पइ से सयंसि पडिग्गहंसि सयंसि पलासंगसि कमढगंसि वा सयंसि खुव्वगंसि पाणिसि वा उद्धटु उद्धदटु वा भोत्तए वा पायए वा, एस कप्पे अपारिहारियस्स पारिहारियो ॥२६॥
परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू थेराणं पडिग्गहेण वहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा थेरा य वएज्जा पडिग्गाहे हि अज्जो ! तुमंपि एत्थ भोक्खसि वा पाहसि वा, एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए, तत्थ णो कप्पइ पारिहारिएणं अपारिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तए वा पायए वा, कप्पइ से सयंसि पडिग्गइंसि वा सयंसि पलासगंसि कमढगंसि वा संयंसि खुब्बगंसि वा सयंसि पाणिसि वा उद्धटु उद्धटु भोत्तए चा पायए वा एस कप्पे पारिहारियस्स अपारिहारियओत्ति वेमि ॥२७॥
॥ ववहारे चीओ उद्देसो समत्तो ॥२॥
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ तइओ उद्देसो ॥ भिक्खू य इच्छेज्जा गण धारित्तए भगवं च से अपलिच्छण्णे एवं से नो कप्पइ गणं धारित्तए । भगवं च से पलिच्छन्ने एवं से कप्पइ गणं धारित्तए ॥१॥
भिक्खू य इच्छेज्जा गणं धारित्तए नो से कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता गणं धारित्तए । कप्पइ से थेरे आपुच्छित्ता गणं धारित्तए । थेरा य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ गणं धारित्तए, थेरा य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ गणं धारित्तए । जणं थेरेहिं अविइण्णं गणं धारेज्जा से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥२॥
तिवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे अभिन्नायारे असवलायारे असंकिलिट्ठायारे वडुस्सुए वभागमे जहन्नेणं आयारकप्पधरे कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ॥३॥
सच्चेव णं से तिवासपरियाए समणे णिग्गंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पवयणकुसले नो पन्नत्तिकुसले नो संगहकुसले नो उवग्गहकुसले खयायारे भिन्नायारे सवलायारे संकिलिट्ठायारे अप्पमुए अप्पागमे नो कप्पइ उवज्झायत्ताए हिसित्तए ॥४॥
पंचवासपरियाए समणे णिग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे असवलायारे असंकिलिहायारे बहुस्सुए कब्भागमे जहन्नेणं दसाकप्पयवहारधरे कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए ॥५॥
सच्चेव णं से पंचवासपरियाए समणे णिग्गंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पवयणकुसले नो पन्नत्तिकुसले नो संगहकुसले नो उवग्गहकुसले खयायारे भिन्नायारे सबलायारे संकिलिट्ठायारे अप्पमुए अप्पागमे नो कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए ॥६॥ ___अहवासपरियाए समणे णिग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे अभिन्नायारे असवलायारे बहुस्सुए वभागमे जहन्नेणं ठाणसमवायधरे कप्पइ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेयगत्ताए उदिसित्तए ॥७॥
सच्चेव णं अट्ठवासपरियाए समणे णिगंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पवयणकुसले नो पन्नत्तिकुसले नो संगहकुसले नो उवग्गहकुसले खयायारे भिन्नायारे
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
सबलायारे संकिलिट्ठायारे अप्पसुए अप्पागमे नो कप्पइ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेयगत्ताए उद्दिसित्तए ॥८॥
निरुद्धपरियाए समणे णिग्गंथे कप्पइ तदिवसं आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए, से किमाहु भंते !, अस्थि णं थेराणं तहाख्वाणि कुलाणि कडाणि पत्तियाणि थेज्जाणि वेसासियाणि संमयाणि सम्मुइयकराणि अणुमयाणि बहुमयाणि भवंति, तेहि कडेहिं तेहिं पत्तिएहिं तेहिं थेज्जेहि तर्हि वेसासिएहि तेहिं संमएहिं तेहि संमुइयकरेहि तेहि अणुमएहिं तेहिं वहुमएहिं जं से निरुद्धपरियाए समणे णिग्गंथे कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए तदिवस ॥९॥
निरुद्धवासपरियाए समणे णिग्गंथे कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए समुच्छेयकप्पंसि तस्स णं आयारपकप्पस्स देसे अवट्ठिए सेय 'अहिज्जिस्सामि'-त्ति अहिज्जेज्जा एवं से कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए, से य 'अहिज्जिस्सामि'-- त्ति नो अहिज्जेज्जा एवं से नो कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए तदिवसं ॥१०॥
णिग्गंथस्स णं नव-डहर-तरुणस्य आयरियउवज्झाए वीसभेज्जा नो से कप्पइ अणायरियउवज्झायत्ताए होत्तए, कप्पइ से पुच् आयरियं उदिसावेत्ता तओ पच्छा उव ज्झायं, से किमाहु भंते ! दुसंगहिए समणे णिग्गंथे तंजहा आयरिएण उवज्झाएण य ॥११॥
णिग्गंथीए णं नव डहर-तरुणीए आयरियउवज्झाए वीसंभेज्जा नो से कप्पइ अणायरियउवज्जायत्ताए होत्तए, कप्पइ से पुव्वं आयरियं उदिसावेत्ता तओ उवज्झायं, तो पच्छा पवित्तिणि, से किमाहु भंते ! तिसंगहिया समणी निग्गंथी तंजहा-आयरिएणं उवज्झाएणं पवित्तिणीए य ॥१२॥
भिक्खु य गणामो अवकम्म मेहुणं पडिसेवेज्जा तिणि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, विहि संवच्छरेहिं वीइतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स णिविगारस्स, एवं से कप्पई आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१३॥
गणावच्छेयए गणावच्छेयगत्तं अणिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा जावज्जी वाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१४॥
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
गणावच्छेयए गणावच्छेययत्तं णिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा तिणि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहि संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्टियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१५॥
आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१६॥
आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहि संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं च उत्थगसि संवच्छरंसि पद्वियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स णिविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१७॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहाएज्जा, तिणि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्टियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगचं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१८॥
गणावच्छेयए गणावच्छेयगतं अणिविखवित्ता ओहाएज्जा जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥
गणावच्छेयए गणावच्छेयगत्तं णिक्खिवित्ता ओहाएज्जा तिणि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा गणावछेयगत्तं वा जाव उदिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२०॥
आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता ओहाएज्जा जावज्जीवाए तस्स पप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उदिसित्तए वा धारिचए वा ॥२१॥
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५
आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता ओहाएज्जा तिष्णि संवच राणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए धारित वा, तिर्हि संवच्छरे हि वीइक्कतेहिं चत्थसि संच्छरंसिपट्टियंसि ठिय उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निव्विगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गण वच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥२२॥
भिक्खु य बहुस्सुए बभागमे बहुसो बहुसु आगाढागास कारणे माई मुस वाई असुई पापजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरियत्तं वा जा गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ||२३||
गणावच्छेयए बहुस्सुए भागमे बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणे मा मुसावाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तस्स तष्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जा गणावच्छेयगत्तं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा ॥ २४ ॥
आयरियउवज्झाए बहुस्सुए बभागमे बहुसो बहुसु आगाढागास कारणेसु मा मुसाबाई असुई पावजीची जावज्जीवाए तस्स तष्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जा गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥ २५ ॥
बहवे भिक्खुणो बहुस्सुया वभागमा बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु मा मुसाबाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरियतं वा जा गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ||२६||
बहवे गणावच्छेयया बहुस्सुया वन्भागमा बहुसो बहुसु आगाढागाडेसु कारणे माई मुसावाई अई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पर आयरियत्तं व जाव गणात्रच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारितए वा ॥२७॥
वहवे आयरियउवज्झाया बहुस्सुया कभागमा बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कार माई मुसावाई असुई पावजीची जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरिय वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा ||२८||
बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेयगा वहवे आयरियउवज्झाया वहुस्सुया ववभागमा बहुसो बहुलुं आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसावाई अमुई पावजीवी जावज्जीवाए तेर्सि तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा ॥ ॥ ववहारे तइओ उद्देसो समत्तो ||३||
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ चउत्थो उद्देसो॥ नो कप्पइ आयरियउवज्झायस्स एगाणियस्स हेमंतगिम्हासु चरित्तए ॥१॥ कप्पइ आयरियउवज्झायस्स अप्पविइयस्स हेमंतगिम्हामु चरित्तए ॥२॥ नो कप्पइ गणावच्छेयगस्स अप्पविइयस्स हेमंतगिम्हासु चरित्तए ॥३॥ कप्पइ गणावच्छेयगस्स अप्पतइयस्स हेमंतगिम्हामु चरित्तए ॥४॥ नो कप्पई आयरियउवज्झायस्स अप्पविइयस्स वासावासं वत्थए ॥५॥ कप्पइ आयरियउवज्झायस्स अप्पतझ्यस्स वासावासं वत्थए ॥६॥ नो कप्पइ गणावज्छेयगस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए ॥७॥ कप्पइ गणावच्छेयगस्स अप्पचउत्थस्स वासावासं वत्थए ॥८॥
से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा , मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा संनिवेसंसि वहूर्ण
आयरियउवज्झायाणं अप्पविइयाणं, वहणं गच्छावच्छेयगाणं अप्पतइयाणं कप्पइ हेमंतगिम्हामु चरित्तए अन्नमन्ननिस्साए ॥९॥ • से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडं सि वा मडवंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा संनिवेसंसि वा वहूर्ण आयरियउवज्झायाणं अप्पतइयाणं, वहूर्ण गणावच्छेयगाणं अप्पचउत्थाणं कप्पइ वासावासं वत्थए अन्नमन्ननिस्साए ॥१०॥
गामाणुगाम दुइज्जमाणे भिक्खू जं पुरओ कटु विहरइ से आहच्च वीसंभेज्जा, अस्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपज्जणारिहे से उवसंपज्जियन्वे, णत्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपज्जणारिहे तस्स अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जण्णं जण्णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तणं तण्णं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पड़ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तिय वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निहियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुराय वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाभो वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥११॥
वासावासं पज्जोसविओ भिक्खू जं पुरओ कटु विहरइ से आहच्च वीसंभेज्जाअस्थि या इत्थ अन्ने केइ उपसंपज्जणारिहे से उवसंपज्जियव्वे, नत्थि या इत्थ अन्ने केइ उव
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
संपज्जणारिहे तस्स अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जणं जण्णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तणं तणं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारबचियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए । तसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥१२॥
आयरियउवज्झाए गिलायमाणे अन्नयर एज्जा अज्जो ! ममंसि ण कालगयंसि समाणंसि अयं समुक्कसियवे, से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे, से य नो समुक्कसणारिहे नो समुक्कसियव्वे, अत्थि या इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियव्वे, नस्थि या इत्थ अन्ने समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियव्वे । तंसि च णं समुकिसि परो वएज्जा दुस्समुक्कि8 ते अज्जो ! निक्खिवाहि, तस्स णं निक्खिवमाणस्स नथि केइ छेए वा परिहारे वा, जे साहम्मिया अहाकप्पेणं नो अब्भुटाए विहरंति सव्वेसि तेसि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥१३॥
___ आयरियउवज्झाए ओहायमाणे अन्नयरं वएज्जा अज्जो ! ममंसि णं ओहावियंसि समाणंसि अयं समुक्कसियव्वे, से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे, से य नो समुक्कसिणारिहे नो समुक्कसियत्वे, अस्थि या इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियव्वे, नस्थि या इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से चेब समुक्कसियव्वे, तंसि च णं समुकिलुसि परो वएज्जा दुस्समुक्किटं ते अज्जो ! निविखवाहि, तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केड छए वा परिहारे वा, जे साहम्मिया अहाकप्पेणं नो अब्भुट्टाए विहरंति सव्वेसि तेर्सि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥१४॥
आयरियउवज्झाए सरमाणे परं चउरायपंचरायाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अत्थि याई से केइ माणणिज्जे कप्पागे, णस्थि याइं से केइ छेए वा परिहारे वा, पत्थि याई से केइ माणणिज्जे कप्पाए से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥१५॥
आयरियउवज्झाए असरमाणे परं चउरायपंचरायाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्टावेइ कप्पाए, अस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए नस्थि से केई छेए वा परिहारे वा, नस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥१६॥
आयरियउवज्झाए सरमाणे वा असरमाणे या परं दसरायकप्पाओ कप्पागं भिक्खं नो उर्वट्ठावेइ कप्पाए, अस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए नत्थि य इत्य से केइ
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
छेए वा परिहारे वा, नत्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए संघच्छरं तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा उवज्झायत्तं वा पबत्तयत्तं वा थेरत्तं वा गणित्तं वा गणहरतं वा गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१७॥
भिक्खू य गणाओ अवकम्म अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा-कं अज्जो! उवसंपज्जित्ता ण विहरसि ? जे तत्थ सब्बराइणिए तं वएज्जा, अह भंते ! कस्स कप्पाए ? जे तत्थ बहुस्सुए तं वएज्जा जं वा भगवं वक्खइ तस्स आणाउववायवयणनिद्देसे चिहिस्सामि ॥१८॥
वहवे साइम्मिया इच्छेज्जा एगयो अभिनिचरियं चारए णो ण्ई कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिचरियं चारए, कप्पइ हं थेरे आपुच्छित्ता एगयओ अभिनिचरियं चारए, थेरा य से वियरेज्जा एवं ण्डं कप्पइ एगयओ अभिनिचरियं चारए, थेरा य से नो वियरेज्जा एवं ण्हं नो कप्पइ एगयओ अभिनिचरियं चारए, जं तत्थ थेरेहिं अविइण्णे एगयओ अभिनिचरियं चरंइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥१९॥
चरियापविढे भिक्खू जाव चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा सच्चेव आलोयणा सच्चेव पडिक्कमणा सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ महालंदमवि उग्गहे ॥२०॥
चरियापविढे भिक्खू परं चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स परिहारस्स उवहाएज्जा भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चंपि ओग्गहे अणुण्णवेयव्वे सिया, कप्पइ से एवं वदित्तए--अणुजाणह भंते ! मिओग्गहं अहालंदं धुवं निययं नेच्छइयं वेउट्टियं तओ पच्छा कायसंफासं ॥२१॥
चरियानियट्टे भिक्खू जाव चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा सच्चेव आलोयणा सच्चेव पडिक्कमणा सच्चेव उग्गहस्स पुवाणुण्णवणा चिहइ आहालंदमवि उग्गहे ॥
चरियानियट्टे भिक्खू परं चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवहाएज्जा भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चंपि ओग्गहे अणुण्णवेयव्वे सिया, अणुजाणह भंते ! मिश्रोग्गहं अहालंदं धुवं निययं नेच्छइयं वेउट्टियं तो पच्छा कायसंफासं ॥२३॥
दो साहम्मिया एगयो विहरंति तंजहा-सेहो रायणिए य, एत्थ सेहतराए पलिच्छन्ने रायणिए अपलिच्छन्ने सेहतराएणं रायणिए उवसंपज्जियव्वे भिक्खोववायं च दलयइ कप्पागं ॥२४॥
दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तंजहा-सेहे य रायणिए य, तत्थ रायणिए पलिच्छण्णे सेहतराए अपलिच्छण्णे, इच्छा रायणिए सेहतरागं उवसंपज्जेज्जा, इच्छा
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
नो उवप्तंपज्जेज्जा, इच्छा भिक्खोववायं दलयइ कप्पागं, इच्छा नो दलयइ कप्पागं ॥२५॥
दो भिक्खुणो एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विह रित्तए, कप्पड़ णं अहारायणियाए अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥२६॥
दो गणावच्छेयगा एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ।॥२७॥
दो आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ अहारायणियाए अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥२८॥
वहवे भिक्खुणो एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ अहारायणियाए अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥२९॥
वहवे गणावच्छेयगा एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्न उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥३०॥
वहवे आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता ण विहरितए, कप्पइ णं अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥३१॥
वहवे भिक्खुणो वहवे गणावच्छेयया वहवे आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥३३॥
॥ ववहारे चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥४॥
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ पंचमो उद्देसो ॥ नो कप्पइ पवत्तिणीए अप्पविइयाए हेमंतगिम्हासु चारए ॥१॥ कप्पइ पवत्तिणीए अप्पतइयाए हेमंतगिम्हासु चारए ॥२॥ नो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पतइयाए हेमंतगिम्हामु चारए ॥३॥ कप्पड़ गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थीए हेमंतगिम्हामु चारए ॥४॥ नो कप्पई पवत्तिणीए अप्पतझ्याए वासावासं वत्थए ॥५॥ कप्पइ पवत्तिणीए अप्पचउत्थीए वासावासं वत्थइ ॥६॥ नो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थीए वासावासं वत्यए ॥७॥ कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पपंचमाए वासावासं वत्थए ॥८॥
से गामसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कव्वडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा संनिवेसंसि वा वहणं पवत्तिणीणं अप्पतइयाणं, वहूणं गणावच्छेइणीणं अप्पचउत्थीणं कप्पइ हेमंतगिम्हामु चारए अन्नमन्ननिस्साए ॥९॥
से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडं सि वा मडवंसि वा पट्टणसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा संनिवेसंसि वा वहूर्ण पवत्तिणीणं अप्पचउत्थीणं, बहूणं गणावच्छेइणीणं अप्पपंचमाणं कप्पइ वासावासं वत्थए अन्नमन्ननिस्साए ॥१०॥
गामाणुगाणं दुइज्जमाणा णिग्गंधी य जं पुरओ काउं विहरेज्जा सा य आहच्च वीसंभेजा अत्थि य इत्थ काइ अन्ना उवसंपज्जणारिहा सा उपसंपज्जियचा, नत्थि य इत्य काइ अन्ना उवसंपज्जणारिहा तीसे य अप्पणो कप्पाए असमत्ते एवं से कप्पड़ एगराइयाए पडिमाए जं णं जणं दिसं अन्नाओ साहम्मिणीओ विहरंति तं गं तं गं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तिय वत्थए, कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तसि च ण कारणंसि निट्ठियंसि परा वएज्जा वसाहि अज्जे ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पड़ एगरायं वा दुरायं वा वथए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए. जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिकारे वा ॥११॥
चासावासं पज्जोसविया णिग्गंधी य जं पुरओ काउं विदरइ सा आहच्च वीसंभेजा अत्थि य इत्थ काइ अन्ना उवसंपज्जणारिदा उवसंपज्जियन्वा, नस्थि य इत्य
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
રo
काइ अन्ना उवसंपजणारिहा तीसे य अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पड़ से एगराइयाए पडिमाए जं णं जं णं दिसं अन्नाओ साहम्मिणीओ विहरंति तं णं तं णं दिसं उवलितर, नो से कप्पड़ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पर से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निट्टियंसि परा वएज्जा व साहि अज्जे ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं चा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पर परं एगरायाओ वा दुरायाओं वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसई से संतरा छेए वा परिहारे वा ||१२||
पवत्तिणीय गिलायमाणी अन्नयरं वएज्जा मए णं अज्जो ! कालगयाए समाणीए इमा समुक्कसियन्या, सा य समुकसणारिहा समुकसियव्वा, सा य नो समुकसणारिहा तो मुकसियव्वा, अस्थि या इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा समुक्कसियव्वा, नस्थि या इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा सा चैव समुक्कसियव्वा, ताए णं समुक्किहाए पर एज्जा दुस्समुक्कि ते अज्जे ! निक्खिवाहि, ताए णं निक्खिमाणीए after as छेए वा परिहारे वा, जाओ साहम्मणीओ अहाकप्पेणं नो अब्भुट्टाए विहरति सव्वासि तासिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥१३॥
पवत्तिणीय ओहायमाणी अन्नयरं वएज्जे मए णं अज्जे ! ओहावियाए समाणीए इमा समुक्कसियन्वा, साय समुक्कसणारिहा समुक्कसियन्वा, साय नो समुवकसणारिहा नो समुक्कसियन्या, अस्थि य इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा सा समुक्कसियव्वा, नत्थि य इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा सा चैव समुक्कसियव्या, ताए णं समुक्किए परा एज्जा दुस्समुक्कि ते अज्जे ! निक्खिवाहि, ताए णं निक्खिवमाणीए नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जाओ साहम्मिणीओ अहाकप्पेणं नो अब्भुट्टाए विहरति सव्वासि तासिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥ १४ ॥
णिस्स नवडहरतरुणस्स आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभट्ठे सिया, से य पुच्छियब्वे-केण ते अज्जो ! कारणेणं आयारपकप्पे णामं अज्झयणे परिभट्ठे कि आवाहेणं उदाहु पमाएणं ? से य वएज्जा-नो आवाहेणं पमाएणं, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणात्रच्छेयगतं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा, से य वएज्जा - आवाहेणं नो पमाएणं, से य संठवेस्सामित्ति संठवेज्जा एवं से कप्पइ आयरियतं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा, से य संठवेस्सामित्ति न संठवेज्जा एवं से नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उद्दिसत्तए वा धारिए ||१५||
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
णिग्गथीए णं नवडहरतरुणीए आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिभट्टे सिया, सा य पुच्छियव्वा केण ते कारणेणं अज्जे ! आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभहे किं आवाहेणं उदाहु पमाएणं ? सा य वएज्जा नो आवाहेणं पमाएण, जावज्जीवाए तीसे तप्पत्तियं नो कप्पइ पवत्तिणित्तं वा जाव गणावच्छेइणित्तं चा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, सा य वएज्जा-आवाहेणं नो पमाएणं सा य संठवेस्सामित्ति संठवेज्जा, एवं से कप्पइ पवत्तिणित्तं वा जाव गणावच्छेइणित्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, सा य संठवेस्सामित्ति नो संठवेज्जा एवं से नो कप्पइ पवत्तिणित्तं वा जाव गणावच्छेइणित्त वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१६॥
थेराण थेरभूमियत्ताणं आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभट्टे सिया कप्पइ तेसि संठवेत्ताण वा असंठवेत्ताण वा आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१७॥
थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे णामं अज्झयणे परिन्भटे सिया कपइ तेर्सि संनिसण्णाण वा संतुयहाण वा उत्ताणयाण वा पासल्लियाण वा आयारपकप्पे नामं अज्झयणे दोच्चंपि तच्चपि पडिपुच्छित्तए वा पडिसारेत्तए चा ॥१८॥
जे णिगंथा णिग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो ण्इं कप्पइ अन्नमन्नस्स अंतिए आलोएत्तए, अत्धि या एत्थ केइ आलोयणारिहा कप्पह से तेसिं अंतिए आलोएत्तए, नत्थि या एत्थ केह आलोयणारिहा एवं ण्हं कप्पइ अन्नमन्नस्स अंतिए आकोएत्तए ॥१९॥
णिग्गंथं च णं राओ वा वियाले वा दीडपट्टो वा लुसेज्जा इत्थी वा पुरिसस्स ओमावेज्जा पुरिसो वा इत्थीए ओमावेज्जा, एवं से कप्पइ एवं से चिट्ठा परिहारं च नो पाउणइ एस कप्पे थेरकप्पियाणं । एवं से नो कप्पइ एवं से नो चिटइ परिहारं च नो पाउणइ एस कप्पे जिणकप्पियाणं ति बेमि ॥२१॥
॥ ववहारस्स पंचमो उद्देसो समत्तो ॥५॥
MYEN
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥छट्ठो उद्देसो॥ भिक्खू य इच्छेज्जा नायविहिं एत्तए, नो से कप्पई थेरे अणापुच्छित्ता नायविहिं एत्तए, कप्पइ से थेरे आपुच्छित्ता नायविहिं एत्तए, थेरा य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ नायविहि एत्तए, थेरा य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पई नायविहिं एत्तए, जं तत्थ थेरेहिं अविइण्णे नायविहिं एइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥१॥
नो से कप्पइ अप्पसुयस्स अप्पागमस्स एगाणियस्स नायविहि एत्तए ॥२॥ कप्पइ से जे तत्थ बहुस्सुए वभागमे तेण सद्धिं नायविहि एत्तए ॥३॥
तत्थ से पुव्वागमणेणं पुवाउत्ते चाउलोदणे, पच्छाउत्ते भिलिंगम्वे कप्पड़ से चाउलोदणे पडिग्गाहित्तए, नो से कप्पइ भिलिंगसूवे पडिग्गाहित्तए ॥४॥
तत्थ पुव्वागमणेणं पुवाउत्ते भिलिंगवे, पच्छाउत्ते चाउलोदणे, कप्पइ से मिलिंगसूवे पडिग्गाहित्तए, नो से कप्पइ चाउलोदणे पडिग्गाहित्तए ॥५॥
तत्थ से पुन्यागमणेणं दोवि पुवाउत्ता कप्पड़ से दोवि पडिग्गाहित्तए ॥६॥ तत्थ से पुव्वागमणेणं दोवि पच्छाउत्ता नो से कप्पइ दोवि पडिग्गाहित्तए ॥७॥ जे से तत्थ पुव्वागमणेणं पुवाउत्ते, से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥८॥ जे से तत्थ पुव्वागमणेणं पच्छाउत्ते, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥९॥
आयरियउवज्झायस्य गणंसि पंच अइसेसा पन्नत्ता, तं जहा-आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए निगिज्झिय निगिज्झिय पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा नो अइक्कमइ ॥१०॥
आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ ॥११॥
आयरियउवज्झाए पभू वेयावडियं इच्छा करेज्जा इच्छा नो करेज्जा ॥१२।।
आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइकमई ॥१३॥
आयरियउवज्झाए वाहि उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमई ॥१४॥
गणावच्छेयगस्स णं गणंसि दो अइसेसा पन्नत्ता तं जहा-गणावच्छेयए अंतों उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ ॥१५॥
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
गणावच्छेय वाहि उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइ
क्कम ॥१६॥
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवारीए एगनिक्खम पवेसाए नो कप्पड़ बहूणं अगडसुयाणं एगयओ वत्थए, अस्थि य इत्थ हं केइ आया rusted नथिय इत्थ यह केइ छेए वा परिहारे वा, नत्थि य इत्थ हं केइ आया रपकप्पधरे से संतरा छेए वा परिहारे वा ||१७||
से गामंसि वा जाव रायहार्णिसि वा अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभि निक्खमणपवेसाए नो कप्पर बहूणं अगडसुयाणं एगयओ वत्थए, अस्थि य इ हं केs आयारपकप्पधरे, जे तइयं स्यणि संवसर, नत्थि य इत्थ केइ छेए वा परि हारे वा नत्थि य इत्थ केइ आयारपकप्पधरे जे तइयं स्यणि संवसह सब्बेसि तेसिं तप्पत्तियं छेद वा परिहारे वा ॥ १८ ॥
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभि निक्खमणपवेसाए नो कप्पर वहुस्सुयस्स ववभागमस्त भिक्खुयस्स वत्थए, किमंग पु अप्पागमस्स अप्पयस्स ॥१९॥
से गामंसि वा नगरंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराय एग निक्खमणपवेसाए कप्पड़ वहुस्सुयस भागमस्स एगाणिस्स भिक्खुस्स वत्थए हो कालं भिक्खुभार्व पडिजागर माणेस्स || २०॥
जत्थ एए वहवे इत्थीओ पुरिसा य पण्हावेंति तत्थ से समणे निग्गंथे अन्न यरंसि अचित्तंसि सोयंसि सुकपोग्गले णिग्धायमाणे इत्थकम्मपडि सेवणपत्चे आवज्जइ मासि परिहारहाणं अणुग्घाइयं । २१ ॥
जत्थ एए वहवे इत्थीओ पुरिसा य पण्हावेंति तत्थ से समणे णिग्गंथे अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि सुक्कपोग्गले णिग्यायमाणे मेहुणपंडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासयं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं ||२२||
नो कप्पर णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा निग्गंथिं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सवलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स द्वाणस्स अणालोयावेत्ता अपपेंडिक्कमावेत्ता अनिंदावेत्ता अंगरिहावेत्ता अविउट्टावेत्ता अविसोडावेचा अकरणाए अणभुहावेत्ता अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं अपडिवज्जीवेत्ता उबट्टावेत्तएं वा संजित्तए या संबसिएच वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा ॥ २३॥
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५
कप्पर णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा णिग्गंथिं अन्नगणाओ आगयं खुयायार सवलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता पडिक्कम वेत्ता निंदावेत्ता गरिहावेत्ता विउट्टावेत्ता विसोहावेत्ता अकरणाए अन्भुहावेत्ता अहारिहं पायच्छित तवोकम्भं पडिवज्जावेत्ता उवद्यावेत्तए वा संभुंजित्तए वा, संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ||२४|| ॥ ववहारे छट्ठो उद्देसो समत्तो ॥७॥
1
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
- ॥ सत्तमो उद्देसो॥ . .जे.णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया नो कप्पइ णिग्गंथीण णिग्गंथे अणापुच्छित्ता णिग्गंथिं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सवलायारं भिन्नायारं संकिलि. हायारचरितं तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं अपडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वाएत्तए वा उवद्यावेत्तए वा संभुजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१॥
जे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया कप्पइ निग्गंथीण णिगंथे आपुच्छित्ता णिग्गंथि अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सबलायरं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वाएत्तए वा उवट्ठावेत्तए वा संभंजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा, धारित्तए वा ॥२॥
जे णिगंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया, कप्पइ णिग्गंथाणं णिग्गंथीओ आपुच्छित्ता वा अणापुच्छित्ता वा णिग्गथिं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सवलायारं भिन्नायारं संकिलिटायारचरितं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तपोकम्म पडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वाएत्तए वा उवद्यावेत्तए वा भुंजित्तएसं वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, तं च णिग्गंधीओ नो इच्छेज्जा सेवमेव नियं ठाणं ॥३॥
जे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो ण्हं कप्पइ परोक्ख पाडिएक्कं संभोऽयं विसंभोइयं करित्तए, कप्पइ ण्हं पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-अहं णं अज्जो ! तुमाए सद्धिं इमंमि कारणंमि पच्चक्ख पाडिएवकं संभोइयं विसंभोइयं करेमि । से य पडितप्पेज्जा एवं से नो कप्पइ पच्चवख पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, से य नो पडितप्पेज्जा एवं से कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए ॥४॥
जाओ णिग्गंथीओ वा णिग्गंथा वा संभोइया सिया, नो ण्हं कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोऽयं विसंभोइयं करित्तए, कप्पइ ण्हं पारोक्ख पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, जत्थेव ताओ अप्पणो आयरियउवज्झाए पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-अहं णं भंते ! अमुगीए अज्जाए सद्धिं इमंमि कारणमि पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसं
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७ भोइयं करेमिः सा य से पडितप्पेज्जों एवं से नो कप्पा पारोक्खं पाडिएकक संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, सा य से नो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पइ पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं-विसंभोइयं करित्तए ।।५।।
___नो कप्पइ निग्गंथाणं निग्गथिं अप्पणो अढाए पंव्यावेत्तए वा, मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उचढावेत्तए वा, संभुंजित्तए वा, संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा कणुदिसं वा उहिसित्तए वा धारित्तए वा ॥६॥ . कप्पइ णिग्गंधाणं णिग्गथि अन्नासिं अट्ठाए पवावेत्तए वा, मुंडावेत्तए वा; सेहावेत्तए बा, उवद्यावेत्तए वा; संभुजित्तए वा, संवसित्तए वा, तीसे इत्तरिय दिसं वा अणुदिसं वा, उदिसित्तए वा, धारित्तए वा ॥७॥ .. नो कप्पा णिग्गयीणं णिग्गंथं अपणो अट्ठाए पच्चावेत्तए वा मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा; उवट्ठावेत्तए.वा, संभुंजित्तए वा, संवसित्तए वा, तस्स इतरिय दिसं वा, आणुदिसं वा उदिसित्तए वा ॥८॥ . . .
कप्पइ णिग्गंथीणं णिग्गथ णिगंथाणं अट्ठाए पवावेत्तए वा, मुंडावेत्तए 'वा, सेहावैत्तएं वा, उवट्ठावेत्तए वो, संभुंजित्तए वा, संवसित्तए वा; तस्स इत्तरिय दिसं वा. अणुदिसँ वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥९॥
'नो कप्पई 'णिग्गंथीणं विइंगिट्टियं दिस वा अणुदिसं वा, उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१०॥
कप्पड णिग्गंधाणं विइगिष्टियं दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं विइगिट्ठाई पाहुडाई विओसवित्तए ॥१२॥ कप्पइ णिग्गंथीणं विइगिटाई पाहुडाई विओसवित्तए ॥१३॥ नो कप्पइ णिग्गंथाणं विइगिट्टे काले सज्झायं करित्तए ॥१४॥ कैप्पइ 'णिग्गंथीण विइगिढे काले सज्झायं करित्तए णिग्गंथनिस्साए ॥१५॥ णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा असज्झाइए सज्झायं करित्तए ॥१६॥ कप्पइ णिग्गंथाण' वा णिग्गंधीण वा सेज्झाइए सज्झायं करित्तए ॥१७॥
नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिगंथीण,वा अप्पणो असज्झाइए सज्झायं करित्तए कप्पइ ण्हं अण्णमण्णस्स चायणं दलइत्तए ॥१८॥
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
तिवासपरियाए समणे णिग्गंथे तीसंवासपरियायाए समणीए णिग्गंथीए कप्पई उवज्झायत्ताए उदिसित्तए ॥१९॥
पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे सहिवासपरियायाए समणीए निगंथीए कप्पइ आयरियत्ताए उदिसित्तए ॥२०॥ ___गामाणुगाम दुइज्जमाणे भिक्खू य आहच्च वीसभेजा तं च सरीरंग केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से तं सरीरगं न सागारियमिति कटु थंडिले बहुफामुए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिहवेत्तए, अस्थि य इत्थ केइ साहम्मियसंतिए उवगरणजाए परिदरणारिहे कप्पइ से सागारकडं गहाय दोच्चंपि ओग्गहे अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरित्तए ॥२१॥
सागारिए उवस्सयं वक्कएणं पउनेज्जा, से य वक्कइयं वएज्जा इमम्मि य इमम्मि य ओवासे समणा णिगंथा परिवसंति से सागारिए परिहारिए. से य नो वएज्जा वक्कइए वएज्जा से सागारिए परिहारिए, दोवि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया ॥२२॥
. सागारिए उवस्सयं विक्किणिज्जा से य कइयं वएज्जा इममि य इमंमि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसंति, से य सागारिए परिहारिए, से य नो वएज्जा. कइए वएज्जा से सागारिए परिहारिए. दोचि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया ।।
विवधूया नायकुलवासिणी सावि यावि ओग्गहं अणुन्नवेयन्वा किमंग ! पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा सेवि यावि ओग्गहं ओगिहियव्वे ॥२४॥
पहेवि ओग्गहं अणुन्नवेयव्वे ॥२५॥
से रज्जपरियट्टेसु संथडेमु अब्बोगडेम्स अवोच्छिन्नेसु अपरपरिग्गहिएम -सच्चेव ओग्गहस्स पुवाणुन्नवणा चिट्टइ अहालंदमवि ओग्गहे ॥२६॥
से रज्जपरियझेस असंथडेस वोगडेसु वोच्छिन्नेसु परपरिग्गदिएमु भिक्खुभावस्स अट्टाए ओग्गहे अणुन्नवेयव्वे सिया ॥२७॥
॥ ववहारे सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥७॥
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अट्ठमो उद्देसो॥... गाहा उ पज्जोसविए ताए गाहाए ताए पएसाए ताए ओवासंतराए जमिणं जमिणं सेज्जासंथारगं लभेज्जा तमिणं तमिणं ममेव सिया, थेरा य से अणुजाणेज्जा तस्सेव सिया, थेरा य से नो अणुजाणेज्जा एवं से कप्पइ अहारायणियाए सेज्जासंथारगं पडिग्गाहित्तए ॥१॥
से य अहालहुस्सग सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा जं चक्किया एगेणं हत्थेणं ओगिज्झ जाव, एगाहं चा दुयाहं वा तियाहं वा परिवहित्तए एस मे हेमंतगिम्हामु भविस्सइ ।।२।।
से य. बहालहुस्सगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा जं चक्किया एगेण हत्थेण ओगिज्झ जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा अद्धाणं परिवहित्तए, ' एस मे वासावासामु भविस्सइ ॥३॥
. से य अहालहुस्सगं सेज्जाऊंथारंग गवेसेज्जा, जं चक्किया: एगेण हत्थेण ओगिज्झ जाव एगाई वा दुयाहं वा तियाहं वा. चउयाई वा पंचाहं का दरमवि अद्धाणं, परिवहित्तए, एस मे वुड्ढावासेस भविस्सइ ॥४॥ . . . , ." __ - थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा छत्तए वा मत्तए वा लट्टियं वो भिसे वा चेले वा चेलचिलिमिली वा' चम्मे या चम्मकोसे चा चम्मपलिच्छेयणए वा अविरहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा पविसित्तए' चा निक्वमित्तए वा, कप्पइ ग्रहं संनियदृचाराणं दोच्चंपि ओग्गइं अणुनवेत्ता परिहारं परिहरित्तए ॥५
नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीणं वा पाडिहारियं वा सांगारियसंतियं वा सेजा संथारगं दोच्चंपि ओग्गहं अणणुन्नवेत्ता वहिया नीहरित्तएं ॥ina
ta कप्पड णिग्गंथाण वा णिग्गंधीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा. सेज्जासं, थारगं दोच्चंपि ओग्गई अणुघ्नवेत्ता वहिया नीहरित्तए ॥७॥
नो कप्पड णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण. वा. पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारंग सबप्पणा अप्पिणित्ता दोच्चंपि ओग्गडं अणणुनवेत्ता अहिद्वित्तए, कप्पइ. अणुन्नवेत्ता ॥८॥ . - नो कप्पइ-निगंथाण वा निग्गंधीण वा पुव्वामेव ओग्गई ओगिण्डित्ता तो पुच्छा अणुन्नवेत्तए ।।९॥
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पुवामेव ओग्गहं अणुन्नवेत्ता तओ पच्छा ओगिण्हित्तए ॥१०॥ _ अह पुण एवं जाणेज्जा इह खलु णिगंथाण वा णिग्गथीण वा णो सुलभे पाडिहारिए सेज्जासंथारए–त्ति कटु एवं ण्हं कप्पइ पुन्वामेव ओग्गहं ओगिहित्ता तओ पज्छा अणुन्नवेत्तए, मा दुहओ अज्जो ! वइ अणुलोमेण अणुलोमियत्वे सिया ॥११॥
गिरगंथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविहस्स अहालहुस्सए उपगरणजाए परिभट्टे सिया तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से सागारकडं गाय जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-इमे भो अज्जो ! किं परिन्नाए ? से य वएज्जापरिन्नाए तस्सेव पडिणिज्जायव्वे सिया, से य वएज्जा-नो परिन्नाए तं नो अप्पणा परि जेज्जा नो अन्नमन्नस्स दावए एगते बहुफासुए थंडिले परिडवेयव्वे ,सिया ॥१२॥
णिगंथस्स-णं वहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंतस्स अहालहुस्सए उवगरण जाए परिभटे सिया तं च केइ . साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से सागारकडं गहाय जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-इमे भो अज्जो ! किं परिन्नाएं ? से य वएज्जा-परिन्नाए तस्सेव पडिणिज्जायवे सिया, से य वएज्जा-नो परिन्नाए तं नो अपणा परि जेज्जा नो अन्नमन्नस्स दावए एगते बहुफामुए थंडिले - परिहवेयवे सिया ॥१३॥
पिग्गंधस्स णं गामाणुगाम - दूइज्जमाणस्स अन्नयरे उवगरणजाए परिभट्टे सिया तं च केइ साहम्मिए. पासेज्जा कप्पइ से सागारकडं गहाय दूरमेव अद्धाणं परिवहित्तए, जत्थेव अन्नमन्न पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-इमे भो अज्जो ! किं परित्नाए से य वएज्जा परिन्नाए तस्सेवं पडिणिज्जायब्वे सिया, से य वएज्जा-नो परिन्नाए तं नो अप्पणा परिभुजेज्जा नो' अन्नमन्नस्स दावए, एगते वहुफासुए थंडिले परिद्ववेयव्वे सिया ॥१४॥ - कप्पा णिगांधाण वा, णिग्गंथीण वा अइरेगं पडिग्गई अन्नमन्नस्स अद्वाए दरमवि अद्धाणं परिवहित्तए वा धारित्तए वा परिग्गहित्तए वा, सो वा णं धारेस्सह, अहं वा णं धारिस्सामि अन्नो वा णं धारेस्सइ नो से कप्पइ तं अणापुच्छिय अणाम विय अन्नमन्नेसि दाउं वा, अणुप्पदाउं वा, कप्पइ से तं आपुच्छिय आमंतिय अन्नमन्नेसि दाउं वा अणुप्पदाउं वा ॥१५॥
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
अट्टकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे अप्पाहारे, दुवालसकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे अवइढोमोयरिए, सोलसकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गये दुभागपत्ते, चउवीसंकुक्कुडिअंडप्पणाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे तिभागपत्ते सिया ओमायरिए, एगतीसंकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गये किचूणोमोयरिए, बत्तीसं कुक्कुजिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे निगंथे पमाणपत्ते । एत्तो एगेणवि कवलेणं ऊणगंआहारं आहारेमाणे समणे णिगंथे नो पकामभोइ-त्ति वत्तव्वं सिया॥१६॥
॥ ववहारे अटमो उद्देसो समत्तो ।।८॥ .
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ नवमो उद्देसो॥ सागारियस्य आएसे अंतो वगडाए भुजइ निटिए निसिढे पाडिहारिए तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥१॥ ... सागारियस्स आएसे अंतो बगडाए भुंजइ निटूिठए निसिढे अपाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गहित्तए ॥२॥
- सागारियस्स आएसे बाहिं वगडाए - भुंजई निहिए निसिढे पाडिहारिए तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥३॥
सागारियस्स आएसे वाहि वगडाए मुंजइ निहिए निसिढे अपाडिहारिए, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥४॥ ___सागारियस्स दासेइ वा, पेसेइ वा, भयएइ वा, भइण्णएइ वा अंतो वगड़ाए भुंजइ निटिए निसिढे पाडिहारिए तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥५॥
सागारियस्स दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ भइण्णएइ वा अंतो वगडाए भुंजइ निट्ठिए निसिट्टे अप्पाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥६॥
सागारियस्स दासेइ वा, पेसेइ वा, भयएइ वा भइण्णएइ वा, वाहिं वगडाए झुंजइ निहिए निसिठे पाडिहारिए, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥७॥
___ सागारियस्स दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ वा भइण्णएइ वा वाहि वगडाए मुंजइ निष्ठिए निसिहे अप्पाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥८॥
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगडाए अंतो एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥९॥
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए अंतो सागारियस्स अभिनिप्पयाए सागारियं चोपजीवई तम्हा दावए नो से कप्पइ पड़िगाहित्तए ॥१०॥
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए वार्हि सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोपजीवइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पड़िगाहित्तए ॥११॥
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए वाहि सागारियस्स अभिणिपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१२॥
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिणिव्वगड़ाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए अंतो सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहितए ॥१३॥
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिव्यगडाए एगदुवाराए एगनिक्खिमणपवेसाए अंतो सागारियस्स अभिणिपयाए सागारियं च उवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१४॥
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए वार्हि सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१५॥
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए वाहिं सागारियस्स अभिनिप्पयाए सागारियं चोवजीवइ 'तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१६॥
सागारियस्स चक्कियासाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पंडिगाहित्तए ॥१७॥
सागारियस्स चक्कियासाला निस्साहारणवक्यपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१८॥
- सागारियस्स गोलियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१९॥ . सागारियस्स गोलियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥२०॥
सागारियस्स बोधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥२१॥
सागारियस्स वोधियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिगाहिचए ॥२२॥ - सागारियस्स दोसियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥२३॥
सागारियस्स दोसियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥२४॥
सागारियस्स सोत्तियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडि गाहित्तए ॥२५॥
सागारियस्स सोत्तियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिगाहित्तए ॥२६॥
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
सागारियस वोडयसाला साधारणवक्कयपत्ता तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडिगाद्दित्तए ||२७|
सागारियस्स वडयाला निस्साहारणवक्कय पउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिगाहिए ||२८||
सागारियस गंधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडिगाद्दित्तए ||२९||
सागर गंधियसाला निस्साहारणचक्कयपरत्ता तम्हा दावए एवं से कपड़ परिगाहित्य ||३०||
सागारियस्स सौंडियसाला साहारणवक्कयपरत्ता तम्हा दावए नो से कप्पड पडिगाहित्तय ॥३१॥
सागारियस्स सोंडियसाला निस्साहारणवक्कयपरत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिगाहित्तए |३२||
सागारिस्स ओसहीओ संथडाओ तम्हा दावर नो से कप्पड़ पडिगाहित्तए ||३३|| सागारियस्स ओसहीओ असंथडाओ तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिगाहित्तए || मागारियस अफला संथडा तम्हा दावए नो से कप्पड पडिगाहित्तए ||३५|| सागारियस्स अंबफला असंथडा तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिगाहित्तए || ३६ || सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एगूणपन्नाए राईटिएहिं एगेण छन्नउएणं भिक्खाणं अहा अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारण फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिया भवः ||३७||
अमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राईदिएहिं दोहि य अट्ठासी एर्हि भिक्खाएहिं अहामुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किहिया आणाए अणुपालिया भवइ ||३८||
नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीए राईदिएहि चउद्दि य पंचुत्तरेहिं भिक्खाएहिं असतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तोरिया किट्टिया आणाए अणुवालिया भवइ ॥ ३९ ॥ ॥
दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राउंदियसएणं अद्धछट्ठेद्दि य भिक्खास एहिं अहासुत्तं अहाकप्प अहामग्ग अहातच्च सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया कट्टिया आणाए अणुपालिया भव ||४०||
दो पडिमाओ पन्नत्तओ तंजहा - खुड्डिया वा मोयपडिमा १, महल्लिया वा मोयपडिमा २ | खुड्डियण्णं मोयपडिमं पडित्रन्नस्स अणगारस्स कप्पड पढमसरयकालसमयंसि वा चरम निदाहकालसमसि वा बहिया ठावियव्वा गामस्स वा जाव रायहाणीए वा वर्णसि
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
वा वणदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयदुग्गंसि वा, भोच्चा आरुभइ चउदसमेणं पारेर, अभोच्चा आरुभइ सोलसमेण पारेइ, जाए जाए मोए आश्यिव्वे, दिया आगच्छइ आवियव्वे, राई आगच्छड़ नो आवियव्वे, सपाणे मत्ते आगच्छ नो आवियव्वे, अप्पाणे मत्ते आगच्छइ आवियव्वे, सवीए मत्ते आगच्छइ नो आवियव्वे, अवीए मत्ते आगच्छइ आवियव्वे, ससणिद्धे मचे आगच्छर नो आवियव्वे, असणिद्धे मत्ते आगच्छइ आवियन्वे, ससरक्खे मत्ते आगच्छए नो आवियव्वे, असरक्खे मत्ते आगच्छइ आवियन्वे । ज जाए मोए आविव्वे, जहा- अप्पे वा बहुए वा । एवं खलु एसा खुड्डिया मोयपडिमा अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया fafar आणाए अणुपालय | भवइ ॥ ४१ ॥
{
महल्लियं णं मोयपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पर से पढमसरयकालसमयंसि वा चरमनिदाहकालसमर्थसि वा बढिया ठावियन्वा, गामस्स वा जाव रायहाणीए वा वर्णसि वा वणदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पुत्रयदुग्गंसि वा, भोच्चा आरुभइ सोलसमेण पारेइ, अभोच्चा आरुभइ अट्ठासमेण पारेइ, जाए जाए मोए आत्रियव्वे तह चेव जाव अणुपालिया भवः || ४२ ॥
संखादत्तियस्स णं भिक्खुस्स पडिग्गहधारिस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाएअणुष्पविस्स जावइयं केइ अंतो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलज्जा तावइयाओ दत्तीओ वत्तव्यं सिया, तत्थ से केइ छन्वएण वा दूसरण वा चालएण वा अंतो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलज्जा सावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्यं सिया, तत्थ वहवे भुंजमाणा स ते सयं सयं पिंड साहणिय अंतो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलएज्जा सव्वा विणं सा एगा दत्ती त्वं सिया ॥ ४३ ॥
संखादत्तिय स णं भिक्खुस्स पाणिपडिग्गहियस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाएं अणुस जाati केइ अंतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा तावइयाओ दत्तीमो वत्तव्वं सिया, तत्थ से केइ छब्वएण वा दुसएण वा चालएण वा अंतो पाणिस्स उच्चित्ता दलज्जा साविणं सा एगा दत्ती वत्तव्यं सिया, तत्थ से बहवे भुंजमाणा सवे ते सयं सयं पिंडं साहणिय अंतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा सव्वाविणं सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया ||४४ ||
'तिविहे उवहढे पन्नत्ते, तंजहा सुद्धोवहडे, फलिहोबडे, संसहोवह डे ||४५|| तिहिवे ओग्गहिए पण्णत्ते, तं जहा - जं च ओगिण्हइ जं च साहरइ जं च आसगंसि पक्खिवर एगे एवमाहंसु || ४६ ||
एगे पुर्ण एवमा दुविहे ओग्गाहिए पन्नत्ते तंजदा - जं च ओगिण्डe जंच आसंगंसि पक्खिव ||४७॥
|| ववहारे नवमो उद्देसो समत्तो ॥ ९ ॥
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ दसमो उद्देसो ॥ दो पडिमाओ पन्नत्ताओ तं जहा-नवमज्झा य चंदपडिमा बहरेमा य चंदपडिमा । जवमझं णं चंदपडिमं पडिबन्नस्स अणगारस्म निच्च मासं वोसहकाए चियचदेहे जे केइ परीसहोवसग्गा समुपज्जति दिव्या वा माणुस्सगा वा तिरिक्सजोणिया या अणुलोमा वा पडिलोमा वा, तत्य अणुलोमा ताव वंदेजा वा नमंसिज्जा वा सक्कारेज्जा वा सम्माणेज्जा वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुपासेज्जा, पडिलोमा ताव अन्नयरेणं दंडेण वा अहिणा वा जोत्तेण वा कसेण- वा काए आउद्देज्जा, ते सन्चे उप्पन्ने सम्मं सहइ खमई तितिक्खइ अहियासेइ ॥१॥
___ जवसझं णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स. सुक्कपक्खस्स पाडिवए कप्पड़ एगं दतिं भोयणस्स पडिगाहित्तए एग पाणगस्स, सम्वेहिं दुप्पयचउप्पयाइएहि आहा. रकंसीहिं सत्तेहि पडि नियत्तेहिं अन्नायउंछं सुद्धोवहडं णिज्जूहित्ता वहवे समणमाहणअईहिकिवणवणीमगा, कप्पइ से एगस्स मुंजमाणस्स पड़िगाहित्तए नो दोण्हं नो तिण्हं नो चउण्हं नो पंचण्डं नो गुम्विणीए नो वालवच्छाए नो दारगं पेजमाणीए । नो से कप्पइ अंतो एलुयस्स दोवि पाए साहढ दलमाणीए नो वाहिं एलुयस्स दोवि पाए साहटु दलमाणीए, अह पुण एवं जाणेज्जा एगं पाये अंतो किच्चा एगं पायं वाहि किच्चा एलुयं विक्खंभइत्ता एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहारेज्जा, एयाए एसणाए एसमाणे नो लभेज्जा नो आहारेज्जा । विइज्जाए से कप्पइ दोण्णि दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए दोणि पाणगस्स, सव्वेहि दुप्पयचउप्पयाइएहि जाव नो आहा.. रेज्जाः। एवं तइयाए तिण्णि जाव पण्णरसीए पणरस । बहुलपक्खस्स - पाडिवए से कप्पइ चोइसदत्तीओ, वीयाए- तेरस जाव चोदसीए एगं दर्ति भोयणस्स एग पाणगस्स सम्वेहि दुप्पयचउप्पयाइएहिं जाव नो आहारेज्जा, अमावासाए से य अभत्तढे भवइ । एवं खलु एसा जवमझचंदपडिमा अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्च सम्म कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किटिया आणाए अणुपालिया भवइ ॥२॥
वइरमज्झं णं चंदपडिम पडिवन्नस्स अणगारस्स णिच्चं मासं वोसट्टकाए चियत्त-- देहे जे केइ परिसहोवसग्गा समुप्पज्जति तंजहा-दिव्वा वा माणुस्सगा वा तिरिक्खजोणियाँ वा अणुलोमा वा पडिलोमा वा । तत्थ अणुलोमा ताव वंदेज्जा चा- नमसेज्जा वा सक्कारेज्जा वा समाणेज्जा वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्जा । पडिलोमा अन्नयरेणं दंडेण वा अद्विणा वा जोत्तेण वा वेत्तेण वा कसेण वा काए आउटेज्जा ते-सन्चे. उप्पन्ने सम्म सहेज्जा खमेज़्जा तितिक्ज्ज्जा अहियासेज्जा-शा
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
वहरमझं णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स बहुलपक्खस्स- पाडिवए कप्पइ पन्नरस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए-पन्नरस पाणगस्स, सव्वेहि दुप्पयचउप्पया इएहिं आहारकंखीहिं जाव णो आहारेज्जा। वितियाए से कप्पइ चउद्दस दतीओ भोयणस्स, चउद्दस पाणगस्स पडिगाहित्तए जाव णो आहारेज्जा । एवं जाव पणरसीए एगा दत्ती । सुक्कपक्खस्स पाडिवए कप्पइ दो दत्तीओ, वीयाएं तिण्णि जाव चउदसीए पण रस, पुण्णिमाए अत्तट्टे भवइ । एवं खलु एसा वइरमज्झा चंदपडिमा अहामुत्तं अहाकप्पः अहामग्गं जाव अणुपालिया भवइ ॥४॥
पंचविहे ववहारे पन्नत्ते तंजहा-आगमे १, सुए २, आणा ३, धारणा ४, जीए ५। जत्थेव तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पडवेज्जा, नो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा, नो से तत्थ सुए सिया जहा से तत्थ आणा सिया आणाए ववहारं पठवेज्जा, नो से तत्थ आणा सिया जहा से-तत्थ धारणा सियाः धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा, नो से तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ, जीए सिया जीएणं ववहारं- पट्टबेज्जा, एएहि पंचर्हि ववहारेहिं ववहारं पट्ठवेज्जा तंजहा-आगमेणं मुएणं आणाए धारणाए जीएणं । जहा जहा आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहाववहारं पठवेज्जा । से किमाहु भंते ! आगमवलिया समणा णिग्गंथा । इच्चेयं पंचविहं. ववहारं. जया जया जहिं जहिं तया तया तहिं तहिं अणिस्सिओवस्सियं ववहारं ववहारेमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ ॥५॥ __चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता तंजहा-अट्टकरे नाम एगे नो माणकरे १, माणकरें णामी एगे नो अहकरे २, एगे अट्ठकरे वि माणकरे वि.३, एगे नो अट्ठकरे नो माणकरे ॥६॥
चत्तारि पुरिसनाया पन्नत्ता तंजहा-गणटकरे नाम एगे नो माणकरे १, माणकरें नामा एगे नो गणटकरे २, एगे गणहकरेवि माणकरेवि ३, एगे नो गणटकरे नो माणकरेः ॥७॥
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता तंजहा---गणसंगहकरे नाम एगे नो माणकरे एगे माणकरे नो गणसंगहकरे २, एगे गणसंगहकरेवि-माणकरेवि ३, एगे नों गणसंगहकरे - नो माणकरे ४ ॥८॥
चत्तारि पुरिसनाया पन्नता, तंजहा-गणसोहकरे नाम एगे नो माणकरे माणकरे नाम एगे नो गणसोहकरे २, एगे गणसोहकरेवि माणकरेविः३, एगे नो गणसोहकरे णो माणकरे ४ ॥९॥
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
- - चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा गणसोहिकरे णामं एगे नो माणकरे १, एगे माणकरे नो गणसोहिकरे २, एगे गणसोहिकरेवि माणकरेवि ३, एगे नो गणसोहिकरे नो माणकरे ॥१०॥
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-रूवं नाम एगे जहइ नो धम्म १, धम्मं नाम एगे जहइ नो स्वं २, एगे रूबंवि जहइ धम्मंवि जहइ ३, एगे नो रूवं जहई नो धम्म जहइ ४ ॥११॥
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-धम्म नामेगे जहइ नो गणसंठिई १, गणसंठिई नामेगे जहइ नो धम्मं २, एगे धम्मपि जहइ गणसंठिइंपि जहइ ३, एगे नो धम्म जहइ नो गणसंठिई ४ ॥१२॥ -: चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तनहा-पियधम्मे णामं एगे नो दधम्मे १, दढधम्मे नाम एगे, नो पियधम्मे २, एगे पियधम्मे वि, दढधम्मेवि, ३, एगे नो पियधम्मे नो दढधम्मे ४ ॥१॥ . . . . .
चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहा-पन्चायणायरिए नाम एगे णो उवट्ठावणा-- यरिए १, उवट्ठावणायरिए नाम एगे नो पन्चायणायरिए २, एगे पन्वायणायरिएवि: उवट्ठावणायरिएवि ३, एगे नों पयायणायरिए नो उवट्ठावणायरिए-धम्मायरिए ४ ॥
"चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहा-उद्देसणायरिए नाम एगे नो वायणायरिए १, चायणायरिए नाम एगे नो उद्देसणायरिए २, एगे उद्देसणायरिएवि वायणायरिएंवि ३, एगे नो उद्देसणायरिए नो वायणायरिए-धम्मायरिए ४ ॥१५॥ . . . .
धम्मायरियस्स चत्तारि अंतेवासी पन्नत्ता तंजहा-उद्देसणंतेवासी नाम एगे नो, चायणंतेवासी १, वायणं तेवासी नाम एगे नो उदेसणंतेवासी २, एगे उद्देसणंतेवासीवि वायणंतेवासी वि ३, एगे नो उदेसणंतेवासी नो वायणं तेवासी-धम्मंतेवासी ४॥१६॥
. . 'तो थेरभूमीओ पन्नत्ती , तंजहा-जाइथेरे १, सुयथेरे २, परियायथेरे ३, य । सहिवासजाए जाइथेरे १, ठाणसमवायधरे सुयथेरे २. वीसवासपरियाए परियायथेरे ३..
'तओ सेहभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-सत्तराईदिया, चाउम्मासिया, छम्मासिया। छम्मासिया य उक्कोसिया, चाउम्मासिया- मज्झमिया, सत्तराईदिया जहन्ना ॥१८॥
..नो कप्पइ निग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा खुड्डगं वा खुडियं वा ऊणवासजाय उव-. हावेत्तए वा संभुंजित्तए वा ॥१९॥
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
- कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खुड्डगं वा खुड्डियं वा साइरेगअहवासजायं उवट्ठावेत्तए वा संभुंजित्तए वा ॥२०॥
नोकप्पइ णिग्गंधाण वा थिग्गंथीण वा खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा अव्वंजणजायस्स आयारकप्पे नाम अज्झयणे उद्दिसित्तए ॥२१॥
.. कप्पई णिग्गंथाण वा णिग्गथीण वा खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा वंजणजायस्स आयारकप्पे नाम अज्झयणे उद्दिसित्तए ॥२२॥
तिवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारकप्पे नाम अज्झयणे उद्दिसित्तए ॥२३॥ । चउवासपरियायत समगस्त णिगंथस्त कप्पइ सूयगडे नामं अंगे उद्दिसित्तए॥२ - पंचचासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ दसाकप्पयवहारे उदिसिचए ॥२५ - अहवासपरियायस्स समणस्स णिगंथस्स कप्पइ ठाणसमवाया उद्दिसित्तए ॥२६॥ . दसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ विवाहे नामं अंगे उदिसित्तए ॥२७ - एक्कारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ खड्डियाविमाणपविभत्ती महल्लियाविमाणपविभत्ती अंगचूलिया वंगचूलिया विवाहचूलिया नाम अज्झयणं उद्दिसित्तए ।
'वारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ अरुणोववाए गरुलोववाए वरुणोववाए धरणोववाए वेसमणोक्वाए वेलंधरोववाए नामं अज्झयणे उदिसित्तए ॥२९॥
तेरसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ उट्ठाणमुए समुट्ठाणसुए देविं. दोववाए णागपरियावणिया नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए ॥३०॥ ,
__चउद्दसवासपरियायस्स समणस्त णिग्गथस्स कप्पइ सुमिणभावणा णामं अज्झयणं उदिसित्तए ॥३१॥
पन्नरसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ चारणभावणा णाम अज्झयणं उद्दिसित्तएं ॥३२॥
सोलसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पड़, तेयनिसग्गे नाम अज्झयणे उद्दिसित्तए. ॥३३॥
सत्तरसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ आसीविसभावणा नाम अज्झयणे उदिसित्तए ॥३४॥ ___'अट्ठारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ दिट्टिविसभावणा नाम अज्झयणं उदिसित्तए ॥३५॥
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
एगणवीसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ दिद्विवाए नाम अंगे उदिसित्तए ॥३६॥ । वीसइवासपरियाए समणे णिग्गंथे सव्वसुयाणुवाई भवइ ॥३७॥
दसविहे वेयावच्चे पण्णत्ते तंजहा-आयरियवेयावच्चे १, उवज्झायवेयावच्चे २, थेरवेयावच्चे ३, तवस्सिंवेयावच्चे ४, सेहवेयावच्चे ५ गिलाणवेयावच्चे ६ साहम्मि. यवेयावच्चे ७ कुलवेयावच्चे ८ गणवेयावच्चे ९ संघवेयावच्चे १० ॥३८॥
'आयरियवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । थेरवेयावच्चं करेमाणे समणे णिगंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥४१॥ तवस्सिवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ सेहवेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥४३॥ 'गिलाणवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । कुलवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥४६॥ गणवेयावच्चं करेमाणे 'समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥४७॥ संघवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥४८॥
॥ ववहारे दसमो उद्देसो समत्तो ॥१०॥
॥ इति व्यवहारसूत्रस्य मूलपाठः समाप्तः ॥
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२)
चूर्णिभाष्यावचूरिसमलकृतम्
श्रीबृहत्कल्पसूत्रम् .
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
खत्रसं.
س
سر:" تم
बृहत्कल्पसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका
प्रथमोदेशकः विषयः
पृष्ठसं. मङ्गलाचरणम् १-५ प्रलम्वप्रकरणम्
, २-५ १ निग्रन्थनिग्रंथीनाम् अभिन्नाऽऽमतालप्रलम्बग्रहणनिषेधः। २
भिन्नाऽऽमतालप्रलम्बग्रहणानुज्ञा । २ ३ निम्रन्थानां पकतालप्रलम्बाभिन्नाभिन्नग्रहणानुज्ञा । ३ ४ निर्ग्रन्थीनां पक्कतालप्रलम्वाऽभिन्नग्रहणनिषेधः । ५ निर्ग्रन्थीनां भिन्नेऽपि तालप्रलम्वे विधिभिन्नग्रहणानुज्ञा, अविधिभिन्नग्रहणनिषेधश्च ।
॥ इति प्रलम्वप्रकरणम् ॥ ६-९ __मासकल्पप्रकरणम् ६ निम्रन्थानां सपरिक्षेपाऽबाहिरिकंग्रामादौ हेमन्तप्रीष्मकालविषय-'।
कैकमासवासानुज्ञा । ७ निर्ग्रन्थानां सपरिक्षेपसवाहिरिकग्रामादौ हेमन्तग्रीष्मकालविष
यकद्विमासवासविधिः । ८ निर्ग्रन्थीनां सपरिक्षेपाऽबाहिरिकग्रामादौ हेमन्तग्रीष्मकाल"विषयकद्विमासवासानुज्ञा ।'
८ . ९ निम्रन्थीनां सपरिक्षेपसबाहिरिकग्रामादौ हेमन्तग्रीष्मकालविषयकमासचतुष्टयवासानुज्ञा ।। -
६१८९ ॥ इति मासकल्पप्रकरणम् ।। १० निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामेकवगडादियुक्तोपाश्रये एकत्रवासनिषेधः । ११ । ११ , मनेकवगडादियुक्तोपाश्रये एकत्रवासानुज्ञा । ११ १२ निर्ग्रन्थीनामापणगृहरथ्यामुखादिस्थाने वासनिपेधः । - । १२ १३ निम्रन्थानां तथाविधस्थाने वासानुज्ञा ।
१३ . १४ निर्ग्रन्थीनामपावृतद्वारोपाश्रयवासनिषेधः । .. - १.४ । १५ निग्रन्थानामपावृतद्वारोपाश्रयवासानुज्ञा ।
१४
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्रसं
विपयः
पृष्ठसं.
१५
१६ निर्ग्रन्थीनामन्त लिंसघटीमात्रकधारणानुज्ञा । १७ निर्ग्रन्थानां तन्निषेधः
१५
१६
१८ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां चेल चिलि मिलिकाघारणानुज्ञा । १९ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामुदकतीरे स्थाननिषदनादिसर्व कार्यनिपेधः । १६ २०-२१ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां सचित्रकर्मोपाश्रयवास निपेधः, अचित्रकर्मोपाश्रयवासानुज्ञा च ।
२२-२३ निर्ग्रन्थीनां सागारिकाऽ निश्रया वासनिषेघः, सागारिकनिश्रया च वासानुज्ञा ।
२४ निर्ग्रन्थानां सागारिकस्यनिश्रया अनिश्रया वा वासानुज्ञा । || सागारिकापाश्रयप्रकरणम् ||
२५ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां सागारिकापाश्रयवासनिषेधः ।
असागारिकोपाश्रयवासानुज्ञा ।
""
२६ २७-२८ निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिको पाश्रयवासनिषेघ', पुरुषसागारिका -
पाश्रयवासानुज्ञा च ।
२१
२९ - ३० निर्ग्रन्थीनां पुरुषसागारिकापाश्रयवा सनिषेधः, स्त्रीसागारिको
२५-३०
""
पाश्रयवासानुज्ञा च ।
इति सागारिकोपाश्रयमकरणम् ।
३१ निर्ग्रन्थानां प्रतिबद्धोपाश्रयवासनिषेधः ।
३२ निर्ग्रन्थीनां प्रतिबद्धोपाश्रयवा सानुज्ञा ।
३३ निर्ग्रन्थानां गृहस्थगृहमध्यतो गमनागमनयुक्त पाश्रयवास
निषेधः ।
३४ पूर्वोतोपाश्रये निर्ग्रन्थीनां वासानुज्ञा ।
३५ भिक्षोरधिकरणव्यवशमनोपदेश. । ३६ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थोनां वर्षाकालविहारनिषेधः । ३७ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां हेमन्तग्रीष्मकालविहारानुज्ञा । ३८ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वैराज्यविरुद्धराज्ये गमनागमननिषेधः, तत्करणे प्रायश्चित्तविधिश्च ।
१८
१८
१९
१९
२०
२२
२२
२३
२४
2 2 2 2 2
२४
२६
२८
२८
२९
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
पृष्ठसं.
सूत्रसं.
विषयः ३९ निम्रन्थानां भिक्षार्थगतानां वस्त्राद्युपनिमन्त्रणे वस्त्रादिग्रहणविधिः३१
४० एवं विचारभूमिविहारभूमिगतानामपि वस्त्रादिग्रहणविधिः । ३१ ४१-४२ एवमेव निर्ग्रन्थीनां वस्रादिग्रहणे विधिः । ३१-३२
४३ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां रात्रौ विकाले वा अशनादिग्रहणनिषेधः । ३३
४४ , , , वस्त्रादिग्रहणनिषेधः । ३३ ४५-४६ निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां रात्रौ विकाले वा अध्वगमननिषेधः, संखडि.
प्रतिज्ञया-अध्वगमननिषेधश्च । ४७ निर्ग्रन्थस्य रात्रौ विकाले वा एकाकिनो बहिर्विचारभूमौ विहा
रभूमौ वा निष्क्रमणप्रवेशनिषेधः, आत्मद्वितीयस्य त्वनुज्ञा । ४८ एवं निर्ग्रन्थ्या अपि निषेधः, तस्या आत्मद्वितीयाया आत्म.
तृतीयायाश्चानुज्ञा । ४९ निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां चतुर्दिक्षु अगमगधाचार्य क्षेत्रविहरणमर्यादा । ३७ ॥ इति बृहत्कल्पे प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥१॥
॥ अथ द्वितीयोद्देशकः ॥ १-१२ ॥ उपाश्रयप्रकरणम् ॥
३९-४६ १ निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां शाल्यादिबीजाकीर्णोपाश्रयवासनिषेधः। ' २ , राशिपुञ्जादिरूपेण स्थितशाल्यादियुक्तो।
पाश्रये हेमन्तग्रीष्मकालवासानुज्ञा । ३ एवमुपाश्रयवगडायां राशिपुञ्जादिरूपेण स्थितशाल्यादियुक्तो
पाश्रये निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां वर्षावासानुज्ञा । ४ उपाश्रयवगडास्थापितसुरासौवीरविकटकुम्भयुक्तोपाश्रये वास
निषेधः, अन्योपाश्रयाभावे एकद्विरात्रोपरि वासे प्रायश्चित्तविधिश्च ।४१-४२ ५ एवमेव शीतोदकोष्णोदकविकट कुम्भयुक्तोपाश्रयविषयेऽपि
निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वासनिषेधः, वासे प्रायश्चित्तविधिश्च ।। ६ एवं वगडास्थितसार्वरात्रिकज्योतिर्युक्तोपाश्रये निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां । वासनिषेधः, वासे प्रायश्चित्तविधिश्च । । ७ एवं सर्वरात्रिकदीपविषयेऽपि सूत्रम् ।
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
सूत्रसं. विपयः
पृष्ठसं. ८ एवं वगडाविकीर्णपिण्डकलोचकादियुक्तोपाश्रयेऽपि वासनिषेधः । ४४ ९ वगडायामेकत्र राशिपुजादिरूपेण स्थितपिण्डकलोचकादियुक्तोपाश्रये निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां हेमन्तप्रीष्मकालवासानुज्ञा ।
४५ १० एवं वगडायां कोष्टपल्लादिस्थितपिण्डकादियुक्तोपाश्रये वर्षावासानुज्ञ । ४५ ११ निर्ग्रन्थीनामधआगमनगृहादिषु वासनिपेधः । १२ निम्रन्थानां च तत्र वासानुज्ञा ।
॥ इत्युपाश्रयप्रकरणम् ।। १३-२४ ॥सागारिक (शय्यातर) प्रकरणम् ॥ ४७-५३ · १३ अनेकशय्यांतरेषु सत्सु तन्मध्यादेकशय्यातरस्थापनविधिः । ४७
१४ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वहिरनिर्हतासंसृष्टसंसृष्टसागारिकपिण्डग्रहणनिषेधः। ४७ १५ एवं बहिर्निर्हतासंसृष्टसागारिकपिण्डग्रहणनिषेधः, वहिनिहतसंसृष्ट
सागारिकपिण्डग्रहणानुज्ञा च । १६ निर्ग्रन्थनिन्थ्योवहिनिर्हतासंसृष्टप्सींगारिककपिण्डस्य संसृष्ट
करणे प्रायश्चित्तविधिः । १७-१८. सागारिकस्याऽऽहतिकाया ग्रहणाग्रहणविधिः ।
१९ सागारिकस्य नितिकाया ग्रहणाग्रहणविधिः ।
२० सागारिकस्यांशिका विषये ग्रहणाग्रहणविधिः । २१-२३ सागारिकपूज्यभक्तस्य निपेधप्रकारा. ।
५१-५२ २४ सागारिकपूज्यस्वायत्तीकृत-तत्प्रदत्ताहारस्य ग्रहणानुज्ञा ।
५२ ॥ इति सागारिकप्रकरणम् ।। २५ निग्रन्थनिम्रन्थीनां पञ्चविधवस्त्रधारणांनुज्ञा । २६ एवं पञ्चविधरजोहरणधारणानुज्ञा ।
५४ ॥ इति बृहत्कल्पे द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥२॥
. . . ., ॥ अथ तृतीयोदेशकः ॥ . १ निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये निम्रन्थानां स्थाननिषदनादिकरणनिषेधः । ५६-५७ . २ एवं निर्ग्रन्थानामुपाश्रये निम्रन्थीनां स्थाननिषदनादिकरणनिषेधः ५८
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
'सूत्रसं.
___-पृष्ठसं.
1053 ruram
विषयः । ३ निम्रन्थीनां 'सलोमचर्माधिष्ठाननिषेधः । ४ निग्रन्यांना सलीमचर्माधिष्ठाने विधिप्रकारः । ५ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां कृत्स्न(अखण्डित)चैर्मधारणनिषेधः ।
६ ,, अकृत्स्न(खण्डित)चर्मधारणाऽनुज्ञा । • ७ एवं , , कृत्स्नाकृत्स्नवस्त्रधारणे क्रमेण निषेधोऽनुज्ञा च ।
८ एवं ,, ,, अभिन्नवस्त्रधारणनिषेधः ।
९ , , भिन्नवस्त्रधारणानुज्ञा । १० निर्ग्रन्थानाम् अवग्रहानन्तकाऽवग्रहपट्टकधारणनिषेधः। ११ निर्ग्रन्थीनां तद्धारेणानुज्ञा ।' १२ आहारार्थ गृहस्थगृहप्रविष्टाया निर्ग्रन्थ्यां वस्त्रप्रयोजने' तद्ग्रहणविधिः ।
६४-६५ १३ प्रथमप्रव्रजतो निम्रन्थस्य रजोहरणादिग्रहणविधिः ।। ६६ १४ एवं प्रथमप्रव्रजन्त्या निर्ग्रन्ध्या रजोहरणांदिग्रहणविधिः । . १५ निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां वर्षाकालप्राप्तवस्त्रग्रहणनिषेध', ऋतुबद्धकाल
प्राप्तवस्त्रग्रहणानुज्ञा च । १६ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां यथारात्निकवस्त्रग्रहणानुज्ञा । १७ एवं , शय्यासंस्तारकस्यापि यथारात्निकग्रहणानुज्ञा . १८ एवं , यथारात्निककृतिकर्मानुज्ञा । १९ निम्रन्थनिम्रन्थीनाम् अन्तरद्वारे (गृहस्यान्तरालमार्गे) स्थाननिषद
नादिकरणनिषेधः, अपवादे व्याधितादौनां तत्करणानुज्ञा च । १७ , २० एवमन्तरगृहे चतुःपञ्चगाथाख्यानादिनिषेधः ।
७२ ० २१ एवमन्तरगृहे भावनासहितपञ्चमहाव्रताख्यानादिनिषेधः । : ७३ २२-२५ प्रातिहारिकसागारिकसत्कशय्यासंस्तारकपकरणम् ७४-७५ २२ निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां प्रातिहारिकसागारिकसत्कशय्यासस्तारकमदत्त्वा विहारनिषेधः ।
- ७४ २३- एवं पूर्वोक्तशय्यासंस्तारकं यथावस्थितरूपेणाऽदत्त्वा विझरनिषेधः । ७४ २४ पूर्वोक्तशय्यासंस्तारकं यथावस्थितरूपेण दत्त्वा विहारानुज्ञा । ७४
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
खत्रसं.
पृष्ठसं.
७७
৩৩
७८
विषयः २५ पूर्वोक्तशय्यासंस्तारके विप्रणष्टे किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिः । ७५
। इति प्रातिहारिकसागारिकसत्कशय्यासंस्तारकमकरणम् । २६-३० ___अवग्रहप्रकरणम्
७६--७९ २६ पूर्वस्थितश्रमणानां गमने तत्कालसमागतश्रमणानामवग्रहा
नुज्ञापनाविधिः । २७ एवं पूर्वस्थितश्रमणानां गमने तदुपाश्रयस्थिताऽचित्तवस्तुजातस्य
परिभोगे पूर्वस्थितश्रमणविषयैवाऽवग्रहस्यानुज्ञापना भवतीति
कथनम् । २८ अव्याप्टतादिवसतेः पूर्वस्थितश्रमणविषयैवावग्रहस्या
नुज्ञापना भवतीति कथनम् । २९ व्यापृतादिवसतेर्दितीयवारमवग्रहानुज्ञापना कर्त्तव्या । ३० भिन्यादिनिकटवर्तिस्थानेष्वपि अवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापनैव भवति ।
॥ इत्यवग्रहप्रकरणम् ।। ३१ ग्रामादीनां वहि सन्यनिवेशे स्थिते निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां भिक्षाचर्याविधिः । ८० ३२ प्रामादिषु सर्वतः समन्तात् क्षेत्रावग्रहप्रमाणाधिकारः । ८१ ॥ इति वृहत्कल्पे तृतीयोद्देशकः समाप्तः ॥३॥
. ॥ अथ चतुर्थोद्देशकः॥ १ अनुद्घातिकाधिकारः । २ पाराञ्चिकाधिकारः ।
३ अनवस्थाप्याधिकारः । ४-९ प्रव्राजन-मुण्डापन-शिक्षणो-पस्थापन-संभोग-संवासाधिकारे
पण्डकादित्रयाणां षड् निषेधसूत्राणि । १० अविनीतादित्रयाणां वाचनानिषेधः । ११ विनीतादित्रयाणां वाचनानुज्ञा । १२ दुष्टादयखयो दुस्संज्ञाप्याः । १३ अदुष्टादयस्त्रयः सुसंज्ञाप्याः । १४ ग्लाननिम्रन्थ्याः पित्रादिना धारणे पुरुषस्पर्शानुमोदने .
प्रायश्चित्तविधिः ।
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्रसं
विषय:
१५ एवं निर्ग्रन्थस्य मात्रादिना धारणे स्त्रीस्पर्शानुमोदने
प्रायश्चित्तविधिः ।
95
१६ निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थीनां कालातिक्रान्ताहारकरणनिषेधः । क्षेत्रातिक्रान्ताहारकरणनिषेधः ।
१७
13
१८ निर्मन्थस्याना भोगेनाचित्तानेषणीयपानभोजनप्राप्तौ किं
कर्त्तव्यमिति तद्विधिः ।
1
१९ कल्पस्थिताऽकल्पस्थितानामाहारकल्पविधिः । २० भिक्षोः स्वगणादन्यगणावक्रमणेच्छायां तद्विधिः । २१-२२ एवं गुणावच्छेदकस्य, आचार्योपाध्यायस्य च पूर्वोक्तो विधिः २३-२५ भिक्षु - गणावच्छेदका - ssचार्योपाध्यायानां संभोगप्रतिज्ञयाऽन्यगणावक्रमणेच्छायां तद्विषिप्रदर्शकाणि त्रीणि सूत्राणि । १०२ - १०६ २६-२८ भिक्षुगणावच्छेदका - ऽऽचार्योपाध्यायानामन्याचायों
पाध्यायोद्देशनेच्छायां तद्विधिप्रदर्शकाणि त्रीणि सूत्राणि | २९ मृतभिक्षुशरीरपरिष्ठापनविधिः ।
३० कृताधिकरणव्यवशमनमन्तरेण भिक्षोभिक्षार्थगमनादिसर्वव्यवहारनिषेधः, तत्प्रायश्चित्तविधिश्च ।
३१ परिहार कल्पस्थित भिक्षोरधिकारः ।
पृष्ठसं
९५-९४
९५-९५
९६
॥ इति वृहत्कल्पे चतुर्थोदेशकः समाप्तः ॥४॥ ॥ अथ पञ्चमोद्देशकः ॥
१ स्त्रीरूपेण निर्मन्थस्य देवकृतोपसर्गः
२ पुरुषरूपेण निर्मन्ध्या देवकृतोपसर्गः ।
९७
९८
९९
१०१
१११
११३
३२-३३ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां मासमध्ये द्वित्रिवारं पञ्चमहानधुत्तरणनिषेधः। ११६ कुणालानगरी स्थितैरावतीसदृशान्यनद्युत्तरणानुज्ञा च
१०७-११०
११०
३४ तृणपुञ्जाद्याच्छादिततथाविधोपाश्रये हेमन्तग्रीष्मकालवा सनिपेधः । ११८ ३५ तृणपुञ्जाद्याच्छादितान्यविधोपाश्रये हेमन्तग्रीष्मकालवासानुज्ञा । ।११८ ३६ तृणपुञ्जाद्याच्छादिततथाविधोपाश्रये वर्षावासनिपेधः ।
११८
३७ तृणपुञ्जाद्याच्छादितान्यविधोपाश्रये वर्षावासानुज्ञा ।
११९
१२०-१२०
१२०
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्रसं०
विषयः
३ स्त्रीरूपेण निर्ग्रन्थस्य देवीकृतोपसर्गः ।
४ पुरुषरूपेण निर्ग्रन्ध्या देवीकृतोपसर्गः ।
५ भिक्षोर्व्यवशमिताधिकरणमन्तरेणान्यगणगमनेच्छायां तद्विधिः ।
६९ उद्गतवृत्तिकाऽनस्तमितसंकल्पस्य भिक्षोरधिकारे सूत्रचतुष्टम् । १२२-१२५ १० निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्ध्योरुद्गालाधिकारः ।
११ भिक्षार्थं गृहस्थगृहप्रविष्टस्य भिक्षोः पात्रे प्राणबीनादिपाते
तत्परिभोगापरिभोगे विधिः ।
१२ एवं सचित्तोदकादिपाते तत्परिभोगापरिभोगे विधिः ।
१३ निर्ब्रम्ध्याः पशुपक्षिशरीरेण स्वकीयेन्द्रियजातस्पर्शेऽब्रह्मविषयानुमोदने प्रायश्चित्तविधिः ।
१४ एवं निर्ग्रन्ध्याः पक्षुपक्षिशरीरेण स्वकीय स्रोतोऽवगाहे अविषयानुमोदने प्रायश्चित्तविधिः ।
१५ निर्ग्रन्ध्या एकाकिनीत्वेन स्थितिनिषेधः ।
१६ एवमेकाकिन्या आहारार्थगृहस्थगृहप्रवेशनिपेधः ।
१७ एवमेकाकिन्या विचारभूमिविहारभूमिगमननिषेधः
१८ एवमेकाकिन्या प्रामानुग्रामविहारनिषेधः ।
१९ निर्मन्ध्या अचेलिकात्वनिषेधः ।
.२० एवमपात्रिकात्वनिपेधः ।
२१ एवं व्यत्सृष्टकायिकात्वनिषेघः 1
२२ निर्ग्रन्ध्या ग्रामादेर्वहिरूर्ध्व वा हुत्वेनाऽऽतापनानिषेधः ।
२३- ३३ निर्ग्रन्य्याः स्थानायतिकाद्यासनेन स्थितिनिपेधविषये एकादश सूत्राणि ।'
I
पृष्टसं०
१२१
१२१
-१२२
३४ निर्ग्रन्थीनामाकुञ्चनपट्टेधारणपरिभोगनिषेधः ।
३५ निर्ग्रन्थानामाकुञ्चनप्रट्टधारणपरिभोगानुज्ञा, -1 -
३६-३७ निर्मन्थीनां सावष्टम्भासने निषदननिषेधः, निर्मन्थानां च • तादृशासननिषदनानुज्ञा ।
३८-३९ निर्मन्थीनां सविषाणपीठफलके स्थाननिषदननिषेधः, निर्म
१२६
१२७
१२८
१२८
१२९
१२९
१२९
१३०
१३०
१३०
१३१
१३१
१३३-१३४
१३५
१३५
१३५
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्रसं०
विषयः
न्थानां च तदनुज्ञा ।
४० - ४१ निर्ग्रन्थीनां सवृन्ताला बुधारणनिषेधः, निर्ग्रन्थानां च
तदनुज्ञा ।
४२-४३ निर्ग्रन्थीनां सवृन्तिकपात्र के सरिकिाधारणनिषेधः, निर्ग्रन्थानां च तदनुज्ञा ।
४४-४५ निर्ग्रन्थीनां दारुदण्डकपाद प्रोञ्छनकधारणनिपेध', निर्ग्रन्थानां च तदनुज्ञा ।
४६ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां परस्परं मोकपानाचमननिषेधः
४७ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां संग्रहित भोजनजाताहारकरणनिषेधः ।
४८ एवं संग्रहिताss लेपनजा तेनाssलेपनविलेपननिषेधः ।
४९ एवं संग्रहिततैलघृतादिना गात्राभ्यङ्गनिषेधः । ५० एवं संग्रहित कल्काद्या लेपनजातेन उपलेपोद्वर्त्तननिषेधः । ५१ परिहारकल्पस्थितस्य बहिः स्थवि रवैयावृत्त्याद्यर्थं गतस्य तपोदोषे प्रायश्चित्तविधिः ।
५२ निर्ग्रन्थ्याः पुलाकभक्तग्रह्णविधि ।
॥ इति बृहत्कल्पे पञ्चमोदेशकः समाप्तः ||५|| ॥ अथ षष्ठोदेशकः ॥
१ निर्मन्थनिर्ग्रन्थीनां षड्विधाऽवचनभाषण निपेधः । २ कल्पस्य प्राणातिपाता दिवादरूपषड्विधप्रस्ताराधिकारः ।
पृष्ठसं.
१३६
३ निर्ग्रन्थस्य स्वस्यासामर्थ्ये पादसंलग्नस्थाणुप्रभृतेर्निष्कासनं निर्ग्रन्ध्या कल्पते इत्यधिकारः
१३६
१३७
१३७
१३८
१३८
१३९
१४०
१४१
१४२
१४२
१४५
१४६
१४९
१५०
४ एवमक्षिगतप्राणादि विषयकं सूत्रम् ।
५ - ६ एवमेव निर्ग्रथ्याः स्वस्या असामर्थ्ये पादाक्षिगतस्थाणुप्राणादे
निष्कासनं निर्ग्रन्थस्य कल्पते इत्यधिकारे सूत्रद्वयम् । १५०-१५१ ७ निर्ग्रन्थस्य दुर्गविषमादिस्थाने प्रस्खलन्त्याः पतन्त्या निर्मन्ध्याः प्रहणं कल्पते, इत्यधिकारः ।
१५१
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठसं
१५२
सूत्रसं.
विषयः ८ एवं स्वेदपत्रादिषु अवकर्षन्त्या अवब्रुडन्त्या निम्रन्ध्या ग्रह
णमपि निर्ग्रन्थस्य कल्पते, इत्यधिकारः ।
९ एवं नावाचारोहणेऽपि सूत्रम् । १०-१४ एवमेव क्षिप्तचित्त-दीप्तचित्त-यक्षाविष्टो-न्मादप्राप्तो-पस
र्गप्राप्तनिर्ग्रन्थ्या ग्रहणं निम्रन्थस्य कल्पते, इत्यधिकारे पञ्च
सूत्राणि । १५ १८ एवं साधिकरण-सप्रायश्चित्त-भक्तपानप्रत्याख्याता-ऽर्थजात
निर्ग्रन्ध्या अपि ग्रहणं निर्ग्रन्थस्य कल्पते, इत्यधिकारे चत्वारि
सूत्राणि । १९ कल्पस्य षड्विधपरिमन्थुप्रकरणम् । २० षड्विधकल्पस्थितिप्रकरणम् । २१ शास्त्रसमाप्तिः ।
१५२
१५३
१५४
१५५
१५६
॥ इति वृहत्कल्पे पष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥६॥
॥ इति बृहत्कल्पसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका
समाप्ता ॥
KARNEMA
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितं
___चूर्णिभाष्यावचूरीसमलङ्कृतम् श्रीबृहत्कल्पसूत्रम् ।
मङ्गलाचरणम्
(मालिनीवृत्तम्) भविजनहितकारं, ज्ञानवित्तकसारम् ,
कृतभवभयपारं नष्टकर्मारिभारम् । अघहरणसमीरं, दुःखदावाग्निनीरम् ,
विमलगुणगभीरं, नौमि वीरं सुधीरम् ॥१॥
(मालावृत्तं-इन्द्रवज्रा) वृहद्भिरिदैश्च जिनैर्गणीशै,-स्तथा पुरा पूर्वधरैः प्ररूपितः । तैरेव पूर्वं चरितो बृहन् यः, कल्पो बृहत्कल्प इति प्रसिद्धः ॥२॥
(अनुष्टुवू वृत्तम्) बृहत्कल्पस्य तस्यैव, भाष्यं चूर्ण्यवचूरिका ।
शास्त्रसारं समादाय, घासीलालेन तन्यते ॥३॥ अयेह शास्त्रादौ पूर्वमनुगमः कर्त्तव्यः, अनुगमः इति किम् ? गमनं गमः ज्ञानमित्यर्थः अनु-भगवद्वचनमनुसृत्य यो गमः सोऽनुगम । स च द्विधा-नियुक्त्यनुगमः, सूत्रानुगमश्च, तत्र नियुक्त्यनुगमः पद्यादिरूपः, सोऽत्र नाधिकृतः । सूत्रानुगमः सूत्ररूपः, स चात्र प्रसङ्गप्राप्तः शास्त्रस्य गणधरैः प्रायः सूत्ररूपेण प्रथितत्वात् इति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्च स्खलितादिदशदोषविनिर्मुक्तं भवितुर्महति, ते च सूत्रोच्चारणदोषा यथा
. सवलितं १ मिलित २ चैव, व्यविद्धाक्षरमेव च ३। हीनाधिकाक्षरे द्वे ५ च, व्यत्यानेडितमेव च ६।" ॥१॥ अपरिपूर्णमित्येक ७-मपरिपूर्णघोपकम् ८
अकण्ठोष्ठविप्रमुक्त ९-मगुरुवाचनाऽऽगतम् १० ॥२॥ इति
तत्र संवलितम्-यद् अन्तराऽन्तरा पदादि मुक्त्वा उच्चारणम् १ । मिलितम्-यत् अन्यान्यस्य उद्देशस्याध्ययनस्य वा आलापकादि संमेल्योच्चारणम् २। व्याविद्वाक्षरम् यद् विपर्यस्तरत्न
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे
सूत्रगताक्ष
मालागत रत्नवत् विपर्यस्ताक्षरविन्यासपूर्वकमुच्चारणम् ३ । होनाक्षरम् - यद् रेम्यः कानिचिदक्षराणि हीनानि कृत्वा उच्चारणम् ४ | अधिकाक्षरम् - यत् सूत्रे स्वबुद्ध्याऽक्षराणि अधिकानि संयोज्योच्चारणम् ५ । व्यत्याम्रेडितम् - यद् एकस्य शास्त्रस्य वचनेऽन्यान्यशास्त्रवचनानां संमिश्रणं कृत्वोच्चारणम् ६ । अपरिपूर्णम् - यद् मात्रापदचरण विन्दुवर्णादिभिरपरिपूर्णतयोच्चारणम् ७ । अपरिपूर्णघोषम् - यद् उदात्तानुदात्तस्वरितरूपैः घोषैरपूर्णमुच्चारणम् ८ । अकण्ठौष्ठविप्रमुक्तम् यत् कण्ठौष्टताल्वादिभिरविमुक्तमेवेति वर्णानां कण्ठौष्ठस लग्नत्वेनाव्यक्तमस्पष्टमुच्चारणम्, अथवा वर्णानां कण्ठौष्ठादितत्तत्स्थानरहितमेवोच्चारणम् ९ | अगुरुवाचनागतमिति - अगुरुवाचनोपगतम् - यद् गुरुप्रदत्तवाचनया न प्राप्तं, गुरुतो वाचनामप्राप्यैवोच्चारणम् १० । इति । इत्यादिदोषरहितं सूत्रमुच्चारणीयमित्यस्य शास्त्रस्य प्रथमं सूत्रमाह'नोक पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा आमे तालपलंचे अभिन्ने पsि - गाहिए ||०२||
छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा आमं तालप्रलम्यं अभिन्नं प्रतिनहीतुम् ॥ सू० १॥
3
चूर्णी - 'नो कप्पइ'न कल्पते निग्गंथाणं निर्मन्थानाम्, -निर्-निर्गता' ग्रन्थात् बाह्याभ्यन्तररूपात, तत्र बाह्य ग्रन्थः क्षेत्र वास्तु- हिरण्य- सुवर्ण-धन-धान्य- द्विपद-चतुष्पद - कुप्य - रूपो नवविधः, आभ्यन्तरः-राग-द्वेष-क्रोध-मान-माया - लोभ-हास्य- रत्यरति मिध्यात्व- वेद-भय-शोक-जुगुप्सारू पश्चतुर्दशविधः, ताभ्यां द्विविधाभ्यामपि ग्रन्थाभ्यां निर्गता निर्ग्रन्थाः श्रमणास्तेषाम् एवं निग्गंथीणं निर्ग्रन्थीनां पूर्वोक्तलक्षणवतीनां साध्वीनां आमे आमम् अपकम्, यत् तालपलंबे, तालप्रलम्बम्, तलो वृक्षविशेषस्तत्र भवं तालं वृक्षविशेषसम्बन्धि, पलम् - प्रलम्बते इति प्रलम्बं प्रकर्षेण लम्ं वा प्रलम्ब लम्बायमानमाकृतिनो दीर्घं कदलीफलादिकं अभिन्ने अभिन्नं, भिन्नं द्रव्यतो भावतश्च द्विविधम्, तत्र द्रव्यतो भिन्नं क्षुरिकादिना विदारितं, भावतो. भिन्नं व्यपगत जीवमचित्तमित्यर्थः तद्विपरीतम् अभिन्नं शस्त्रापरिणतत्त्वेन सचित्तमित्यर्थः तादृश तालप्रलम्बं पडिगाहित्तए प्रतिग्रहीतुम्-आदातुं न कन्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः, आमफलस्य सचित्तत्वसद्भावात् । सू० १॥
अथ यादृशं तालप्रलम्बं कल्पते तदेव प्रदर्शयति- 'कप' इत्यादि ।
२
मूलम् - कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा आमे तालपलम्वे भिन्ने पडिणाहित्तए ||०२||
छाया - कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्मन्थीनां वा आमं तालप्रलम्वं भिन्नं प्रतिग्र हीतुम् ॥सू०२ |
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू० २-५
प्रलम्वप्रकरणम् ३ चूर्णी-कप्पइ कल्पते निगंथाणं निर्ग्रन्थानां निग्गंथीणं निर्ग्रन्थीनां पूर्वप्रदर्शितस्वरूपाणां साधूनां साध्वीनां च आमे आमं अपकं तालप्रलम्बं वृक्षविशेषस्य लम्बं फलं कदलीफला दिकं यदि भिन्नं द्रव्यतो भावतश्च शस्त्रपरिगतमचित्तं भवेत्तदा पडिग्गाहित्तए प्रतिग्रहीतुम् कल्पते भिन्नस्य शस्त्रपरिणतत्वेन सचित्तत्वदोपराहित्यात् ॥सू० २१॥
पूर्व सामान्येन निषेधो विधिश्च प्रदर्शितः, साम्प्रतं विशेषमाह-कप्पइ' इत्यादि ।
मूलम्-कप्पइ निग्गंथाणं पक्के तालपलंबे भिण्णे वा अभिण्णे वा पडिगाहित्तए ॥ सू० ३॥
छाया-कल्पते गिर्ग्रन्थानां पक्वं तालप्रलम्ब भिन्नमभिन्नं वा प्रतिग्रहीतुम् ।।सू०३।।
चूर्णी-कप्पइ कल्पते निग्गंथाणं निर्ग्रन्थानां श्रमणानां पक्के तालपलंबे पक्वं तालप्रलम्ब कदलीफलादिकं दीर्घफलं भिण्णे वा अभिण्णे वा भिन्नं वा अभिन्नं वा द्विविधमपि पडिगाहित्तए प्रतिग्रहीतुं कल्पते । पक्कमिति यदचित्तं तत् कल्पते, साधूनामाकृतिजनितदोषाभावात् ।।सू०॥३॥
अथ निम्रन्थीनां पक्कस्याप्यभिन्नस्य ग्रहणे निषेधमाह—'नो कप्पई' इत्यादि । मूलम् -नो कप्पइ निग्गंधीणं पक्के तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए ॥४॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां पक्व तालप्रलम्बं अभिन्न प्रतिग्रहीतुम् ॥सू०४॥
चूर्णी-नो कप्पइ नो नैव कल्पते निग्गंथीणं निम्रन्थीनां साध्वीनां पक्के तालपलवे पक्कमपि तालप्रलम्बं यत् अभिन्ने अभिन्नम् अविदारितं अखण्डमित्यर्थः, तत् पडिगाहित्तए प्रतिग्रहीतुं न कल्पते, निर्ग्रन्थीनां तदाकृतिजन्यदोपप्राप्तिसद्भावात् ॥सू०४॥
साम्प्रतं पक्वस्य तालप्रलम्बस्य ग्रहणे साध्वीनां विधिं प्रदर्शयति-'कप्पइ' इत्यादि ।
मूलम्-कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंवे भिन्ने पडिगाहित्तए, सेवि य विहिभिण्णे नो चेव णं अविहिभिण्णे ॥स०५॥
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थीनां पक्वं तालप्रलवं भिन्न प्रतिग्रहीतुम् , तदपि च विधिभिन्न नैव खलु अविधिभिन्नम् ॥सू० ५॥
चूर्णी-कप्पइ कल्पते निग्गंथीणं निर्ग्रन्थीनां पक्के तालपलंबे पक्वं तालप्रलम्ब भिण्णे भिन्न खण्डितं यदि भवेत्तदा पडिगाहेत्तए प्रतिग्रहीतुं कल्पते, किन्तु सेवि य णं तदपि च भिन्नमपि च खलु यदि विहिभिन्न विधिभिन्नं विधिना उचितप्रकारेण फलकर्त्तनविधिना यदि भिन्नं भवेत्तदा कल्पते नो चेव णं नैव खल अविहिभिन्नं 'अविधिभिन्न कल्पते, विधिभिन्नमिति किमप्याकारविशेषमधिकृत्य खण्डितं न भवेत् तत् , अविधिभिन्नं तु यत् कमप्याकारविशेपमधिकृत्य खण्डितं भवेत्तन्न कल्पते इति भावः पासू०५॥ अत्र गाथात्रयमाह भाष्यकार:
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे mmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww भाष्यम्-पढमे आममभिन्न, तालमलब निसेहियं दुण्हं । वीए भिन्नग्गहणं, आणत्तं समण-समणीणं ॥१॥ तइए निग्गंयाण, भिण्णमभिण्णं च पक्कमाणचं । निग्गंधीण चउत्थे, पकं पि निसेहियमभिण्णं ॥२॥ कप्पड़ य एत्थ भिण्णं, विहिभिण्णं तंपि णो अविहिभिण्ण समणीण य छ भंगा, जो सुद्धो सो य गहियचो ॥३॥ छाया-प्रथमे आममभिन्नं तालप्रलम्वं निषिद्धं द्वयानाम् । द्वितीये भिन्नग्रहणम् , आक्षप्त श्रमण-श्रमणीनाम् ॥१॥ तृतीये निग्रन्थानां, भिन्नमभिन्नं च पक्वमाक्षप्तम् । निर्ग्रन्थीनां चतुर्थ, पक्कमपि निषिद्धमभिन्नम् ॥२॥ कल्पते चात्र (पञ्चमे) भिन्न, विधिभिन्नं तदपि नो अविधिभिन्नम् । श्रमणीनां पह भङ्गा, यः शुद्धः स च ग्रहीतव्यः ॥३॥
अवचूरी--पढमे इति । पढमे प्रथमे सूत्रे आममभिन्न तालप्रलम्ब दुण्हं द्वयानां श्रमणानां श्रमणीनां च निसेहियं निषिद्धमिति । बीए द्वितीये सूत्रे समगसमणीणं, श्रमण-श्रमणीनां साधूनां साध्वीनां च भिण्णग्गहणं भिन्नग्रहणं भिन्नस्य तालप्रलम्बस्य ग्रहणम् आदानम् आण आज्ञप्तम्-आज्ञाविषयीकृतं भगवतेति ॥१॥
तइए तृतीये सूत्रे निम्रन्थानां साधूनां पक्के पकं तालप्रलम्बं भिन्नमभिन्नं च आज्ञप्तम् । चउत्थे चतुर्थे सूत्रे निर्ग्रन्थीनां पक्वमपि तत् अभिन्नं निषिद्धम् ॥२॥
'एत्य' अत्र पञ्चमे सूत्रे निम्रन्थीनां भिन्न कल्पते किन्तु तंपि तदपि भिन्नं तालप्रलम्बमपि विदिभिन्न विधिभिन्नं विधिना समुचितप्रकारेण नतु केनाप्याकारविशेषेण मिन्नं खण्डितं भवेचदा कल्पते नो अविहिभिण्णं अविधिभिन्नम्, अविधिना अनुचितप्रकारेण, केनापि आकारविशेषण भिन्नं भवेत्तदा नो नैव कल्पते । अत्र श्रमणीनां प्रलम्बग्रहणे छ भंगा षड् भङ्गा भवन्ति तत्र यो भङ्गो ग्रहणविषये शुद्धो भवेत् सो गहियव्यो स ग्रहीतव्यः नान्य इति ॥३॥
के ते पड् भङ्गाः ? इति तान् प्रदर्शयति भाष्यकार:--'समणीणं' इत्यादि भाष्यम्-समणीणं छ भंगा, होति य जे ते इहं पवुच्छामि । पढमो दोहि अभिण्णं, दवेणं तह य भावेणं (१) ॥४॥ अविहि-विही य दवे, वीओ तइओ य होइ दो भंगा (३)। भावेण य दवेण य, भिण्णमभिण्णं चउत्थो य (४)॥५॥
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्याचचूरी उ० १ सू० ६
प्रलम्वप्रकरणम् ५ भावेणं भिण्णं पुण, दवेणं अविहिभिण्ण पंचमओ (५)। छट्ठो य भावभिण्णं, तंपि य दव्वेण विहिभिण्णं (६) ॥६॥
छाया-श्रमणीनां पडू भङ्गा भवन्ति च ये तान् इह प्रवक्ष्यामि । प्रथमो द्वाभ्यामभिन्नं द्रव्येण तथा च भावेन (१) अविधिविधी च द्रव्ये द्वितीयस्तृतीयश्च भावतो द्वौ भङ्गौ (३)॥४॥ भावेन च द्रव्येण च, भिन्नं अभिन्नं चतुर्थश्च (४) ॥५॥ भावेन भिन्नं पुनद्रव्येणाविधिभिन्न पञ्चमकः (५)। षष्ठश्च भावभिन्न, तदपि च द्रव्येण विधिभिन्नम् (६) ॥६॥
अवचूरी-'समणीणं' इति । समणीणं श्रमणीनां प्रलम्वग्रहणविषये षड् भङ्गा ये भवन्ति तान् इह 'पवुच्छामि' प्रवक्ष्यामि कथयिष्यामीति भाष्यकारवचनम् । तानेव दर्शयति-पढमो इत्यादि, तत्र घट्सु भनेषु प्रथमो भगः पूर्वोक्तं प्रलम्बं दोहि द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां यथा 'दन्वेण य भावेण य' द्रव्यतो भावतश्च यत्र अभिन्नं भवेत्स प्रथमो भङ्ग इत्यर्थः (१)। अविहिविही य दवे' द्रव्ये द्रव्यविषये प्रथमविधिः, ततश्च विधिर्यथा-पूर्वोक्तं भावतो यद् अभिन्नं तत् , द्वितीये भङ्गे-अविधिभिन्नं, तृतीये भने-विधिभिन्नम् , इत्येवं 'वीओ तइओ य' द्वितीयस्तृतीयश्चेति होति दो भंगा' द्वौ भनौ भवतः (३) । 'भावेण य दव्वेण य भिण्णमभिण्णं' क्रमशो यथासंख्य भावेन भिन्नं, द्रव्येण अभिन्नम् , इत्येवं चतुर्थो भङ्गो भवति (४) । भावेणं भिण्णं पुण भावेन भिन्नमपि 'दव्वेण अविहिभिणं' द्रव्येण तद् अविधिभिन्नं भवति, इत्येषः 'पंचमओ' पञ्चमो भगो भवति (५) । 'छट्ठो य' षष्टश्च भङ्गः-भावभिण्णं भावतो भिन्नं, तंपि य' तदपि च दव्वेण विहिभिण्णं' द्रव्येण विधिभिन्नम् , इत्येष षष्ठो भगः (६) । एष भङ्गः भ्रमणीनां ग्राह्यो भवतीति भावः।।
_षण्णां भङ्गानां कोष्ठकमिदम्१-द्रव्यतो भावतश्च अभिन्नम् । २-भावतः अभिन्नं-द्रव्यतः अविधिभिन्नम् । ३-भावतः अभिन्नं द्रव्यतः-विधिभिन्नम् । ४-भावतः भिन्नं-द्रव्यतः-अभिन्नम् ५-भावतः भिन्न-द्रव्यतः-अविधिभिन्नम् । ६-भावतः भिन्नं द्रव्यतः विधिभिन्नम् ।
। इति प्रलम्वप्रकरणम् । पूर्व प्रलम्बग्रहणविधिरुक्तः, सम्प्रति वसतिनिवासविधिमाह, तत्र पूर्वसूत्रेणाऽस्य कः सम्बन्धः ? इति सम्बन्ध प्रदर्शयति भाष्यकारः-'आहारो' इत्यादि ।
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
६
generसूत्रे
भाष्यम् - आहारो पुन्वत्तो, सो य कहि भुंजर समुवि । इय वसविहिमेत्थ य, वन्ने एस संबंधो ॥७॥
छाया - आहार पूर्वमुक्तः स च कुत्र भुज्यते समुपविश्य । इति वसतिविधिमत्र च वर्णयति एप सम्बन्धः ||७||
अवचूरिः – ' आहारों' इति । पूर्व पूर्वसूत्रे आहार. उक्तः, स चाहारः कुत्र समुपविश्य भुज्यते इति, एतदवलम्ब्य अत्र च वसतिविधि ' चन्ने' वर्णयति । एष पूर्वसूत्रेणास्यसम्बन्ध इति ||७|
इत्यनेन सम्बन्धेन निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्योनां च ऋतुबद्वादिकाले एकस्मिन् क्षेत्रे कियन्तं कालं वस्तुं कल्पते । इति प्रदर्शयितुकाम सूत्रकारः प्रथमं निर्ग्रन्थसूत्रमाह - ' से गामंसि बा' इत्यादि ।
मूलम् - - से गामंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कवडंसि वा 'मडवंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा निगमंसि वा आसमंसि वा संनिवेसंसि वा संवासि वा बोसंसि वा असिसि वा पुडभेयणंसि वा रायहार्णिसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंत गिम्हासु एगं मासं वत्थए, ||६||
छाया- - अथ ग्रामे वा नगरे वा खेटे वा कर्वटे वा मडम्बे वापत्तने वा आकरे वा द्रोणमुखे वा निगमे वा आश्रमे वा संनिवेशे वा संवाहे वा घोपे वा सिकायां वा पुटभेदने घी राजधान्यां वा सर्परिक्षेपे अवाहिरिके कल्पते निर्ग्रन्थानाम् हेमन्तग्रीष्मेषु पर्क मासं वस्तुम् ॥ ६॥
:-~
1
चूर्णी - से गामंसि वा इति । 'से' अथ ग्रामे - गम्यो गननीयः प्रापणीयो वा अष्टादशानां कराणां यः स ग्रामः, ग्रसते बुद्ध्यादिगुणान् इति वा ग्रामः, पृषोदरादिना सिद्धि:, तस्मिन् ग्रामे, नगरे वा, 'नयरे' इत्यस्य नकरे इति च्छाया, तंत्र करः अष्टादशविधो राजदेयो भाग, स न विद्यते यत्र नकरम्-नगरम् पृषोदरादित्वात् ककारस्य गकारः, नञो लोपाभावश्चेति, तस्मिन् नगरे, खेटे वा खेटः धूलिनाकार परिक्षितजननिवासः तस्मिन् कर्बटे वा, कर्वटः कुत्सितनगरम्, तस्मिन् वा, मडत्रे वा मडम्बो यस्य सर्वतश्चतुर्दिक्षु सार्द्धगव्यूतपर्यन्तं ग्रामादिकं न भवति सः, तस्मिन् वा, पत्तने वा, पत्तनं द्विविध- जलपत्तनं स्थलपत्तनं च यत्र नावादिना गम्यते तत् जलपत्तनम्, यत्र शकटघोटकादिभिर्गम्यते तत् स्थलपत्तनम्, तस्मिन् एतादृशे द्विविधेऽपि पत्तने वा, आकरे वा, आकरः खनिः लोहताम्ररूप्याद्युत्पत्तिस्थानं, यत्र लोकाः प्रस्तरधातुघमनादिना 'लोहता रूप्यादि संपादयन्ति तस्मिन् तादृशे स्थाने वा, द्रोणमुखे वा द्रोणमुखम् - द्रोणः परिमाणविशेष इति परिमाणस्य परिमितजलरूपस्य मुख, यत्र समुद्रस्य कर्मयः यथासमयमागच्छन्ति
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
अणिमायावचूरी उ० १ सू० ६-७
वसतिनिवासविधिः ७. तत् जलस्थलेति द्विप्रकारयुक्तं स्थानं तस्मिन् , निगमे वा-निगमः नेगमानां वणिजकानां स्थानं, निगमे भवा नैगमाः इति व्युत्पत्या तस्मिन्, आश्रमे वा आश्रमः प्रथमतस्तापसैरावासितः पश्चादपरेऽपि जना आगत्य संवसन्ति, तादृशं स्थानं तस्मिन् , संनिवेशे वा, संनिवेशः यत्र जनसमुदायरूपः सार्थों व्यापारादिनिमित्तं प्रस्थित' सन् अन्तरान्तरा वासमधिवसति सः, तस्मिन् तादृशे स्थाने, संवाहे वा संवाहः यत्र कृषीवला अन्यत्र कर्षण कृत्वा, वणिजो वा, वाणिज्यनिमित्तमन्यतः धान्यादिकं संवाह्य-आनीय-पर्वतादौ विषमे स्थाने धान्यादिकं कोष्ठागारादौ च प्रक्षिप्य वसन्ति सः, तस्मिन् तादृशे स्थाने, घोपे वा-घोषः आभीरपल्ली तस्मिन् , अंशिकायां वा अंशिकानाम यत्र ग्रामस्या तृतीयश्चतुर्थो वा भाग आगत्य वसति, ग्रामांशत्वाद् अंशिका प्रोच्यते सा तस्यां वा, पुटभेदने वा, पुटभेदनं पुटानां कुङ्कुमादिपुटानां यत्र नानादिग्भ्य आनीय विक्रयार्थ भेदनं क्रियते, तत् तस्मिन् तादृशे स्थाने वा, राजधान्यां वा, राजधानी यत्र राजा वसति सा तस्यां वा, एतादृशे पूर्वोक्तस्वरूपे प्रमादौ सपरिक्षेपे कण्टकवृत्तिभित्यादिपरिक्षेपयुक्ते, पुनश्च अबाहिरिके बाहिरिका यस्य प्रामादेः परिक्षेपाद् बहिर्गृहपतिर्भवेत् सा, न विद्यते वाहिरिका बहिर्जनबसतिः 'पुरा' इति प्रसिद्धा यस्य ग्रामादेः स अबाहिरिको ग्रामादिः, तस्मिन् एतादृशे ग्रामादौ निम्रन्थानां श्रमणानां हेमन्तप्रीष्मेषु हेमन्तादिग्रीष्मान्तेषु ऋतुबद्धकालसम्बन्धिषु अष्टसु मासेषु मध्ये एक मासं यावत् वस्तुम् अवस्थातुं कल्पते ततोऽधिकनिवासेऽतिपरिचयेनाऽनादरसंभव , रुयादीनां वारं वारं दर्शनभाषणादिना संयमात्मोभयविराधनादयो दोषाः संभवन्ति, अधिककालवासेन भद्कगृहस्थानां श्रमणोपरि गाढतरः स्नेहः संजायते, तेनाधाकर्मादिदोषदुष्टमशनादि प्रतिलाभयन्ति, कदाचित्ततो विहारे तेषां गाढतरस्नेहसम्बधेन ते पुरुषाः स्त्रियो वा विरहद खदःखिता अपि भवेयुः, अधिकनिवासे क्षेत्रमपि नीरसं भवति, इत्याद्यनेके दोषाः श्रमणानामापतन्ति तत ऋतुबद्धकाले ग्रामादौ एकमेव मासं यावद् वस्तुं कल्पते नाधिकमिति । आगाढकारणे तु कल्पते तत् प्रदर्यते-यदि आचार्यादीनां शरीरदौर्बल्येन तत्प्रायोग्य भक्तपानादिकं तदासन्नग्रामादौ दुरापं भवेत् तदा कियत्कालं यावत्, तथा साधुर्वा ग्लानो जायते, अन्यत्र औषधभैषज्यादि सुलभं न भवेत् तेन कारणेत मासादधिकं यावत्कालपर्यन्तं ग्लानः प्रगुणीभूतो न भवेत्तावत्कालपर्यन्तमपि तत्र वस्तुं कल्पते । यदि ग्लानः प्रगुणीभूतो भवेत्तदा तदैव तस्मात् स्थानान्निर्गन्तव्यमिति तात्पर्यम् ॥सू० ६॥
अथ ग्रामादिवासविषयेऽन्यमपि विधि प्रदर्शयति सूत्रकारः --'से गामंसि वा' इत्यादि ।
मूलम्-से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सवाहिरियसि कप्पइ निम्गंथाणं हेमंतगिम्हामु दो मासे पत्थए, अंतो इक्कं मास, वाहिं इक्कं मासं, अंतो वसमाणाणं अंतो भिक्खायरिया, वाहि वसमाणाणं चाहिं भिक्खायरिया ॥सू० ७॥
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्यल्पसूत्रे छाया-अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा सपरिक्षेपे सबाहिरिके कल्पते निर्ग्रन्थानां हेमन्तग्रीष्मेपु द्वौ मासौ वस्तुम् । अन्तः एकं मासं बहिरेकं मासम्, अन्तर्वसताम् अन्तर्भिक्षाचर्या, वहिर्वलतां वहिभिक्षाचर्या ॥सू० ७॥
चूर्णी-'से गामसि वा' इति । अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा, ग्रामत आरभ्य राजधानीपर्यन्तं सर्वत्र ग्रामादौ पूर्वप्रतिपादितस्वरूपे सपरिक्षेपे–परिक्षेपसहिते, सबाहिरिके परिक्षेपाद् बहिर्जननिवाससहिते निर्ग्रन्थानां हेमन्तग्रीष्मेषु ऋतुबद्धकालसंवन्धिषु अष्टसु मासेषु द्वौ मासौ मासयपर्यन्तं वस्तु कल्पते । पूर्वमेकमासं यावत् निवासः प्रोक्तः, अस्मिन् सूत्रे च द्वौ मासौ, इति प्रोक्तं तत्कथम् ? अत्राह-पूर्वसूत्रे सपरिक्षेपे सति वाहिरिकारहितत्वेन एकं मासमेव निवासः कथित', अत्र तु यद ग्रामादि सबाहिरिकं भवेत्तत्र द्विमासमपि वस्तुं कल्पते, इत्येवं दर्शयति सूत्रकार -अंतो इक इति, सबाहिरिके ग्रामादौ अन्तः-ग्रामादिपरिक्षेपमध्ये एक मासं, वहिश्च एकं मासं यावत् वस्तुं कल्पते, तत्रापि अन्तर्वसतां परिक्षेपान्तर्निवासं कुर्वतां निर्ग्रन्थानां अन्तरेव परिक्षेपमध्ये एव भिक्षाचर्या करणीया भवेत् , वहिः परिक्षेपाढहिर्भागे जनवसतौ वसतां निम्रन्थानां बहिग्रांमाहिरेव वाह्यवसतावेव भिक्षाचर्या करणीया भवेत् , इत्येष विशेषोऽत्र बोध्यः ॥
ग्रामाधन्तर्वमद्भिर्निग्रन्थैर्मासकल्पे परिपूर्णे सति ग्लानादिकारणवशात्तदन्यत्र विहरणं कर्तुं न शक्यते तदा द्वितीये मासे वाहिरिकायां संक्रमणं कर्त्तव्यम् , पीठफलकाद्यपि तत्रैव ग्रहीतव्यं नाभ्यन्तरतो वहिर्नेतव्यम् , यदि वाहिरिकायां पीठफलकादि न लभ्यते तदा अन्तरुपाश्रयस्वामिनं पृष्ट्वा तदाज्ञया नेतुं कल्पते, न त्वनापृच्छ्चति । यद्यनापृच्छय नीयते तदा स्तेनाहृतादिनानाविधदोषसंभवः, संयमात्मविराधनाऽपि भवितुमर्हति ॥मू०७॥
पूर्व निर्ग्रन्थानामृतुबद्धकालसम्बन्धिनिवासविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं निम्रन्थीनां स प्रोच्यते'से गामंसि वा' इत्यादि ।
मूलम् -से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि अवाहिरियंसि कप्पइ निगंथीणं हेमंतगिम्हासु दो मासे वत्थए ॥सू० ८॥
छाया-अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा सपरिक्षेपे सवाहिरिके कल्पते निर्ग्रन्थीनां हेमन्तग्रीष्मेपु द्वौ मासो वस्तुम् ॥१० ८॥
चूर्णी-से गामंसि वा' इति । अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां सपरिक्षेपे अबाहिरिके बाह्यवसतिरहिते निम्रन्थीनां ऋतुबद्धकाले अष्टमासरूपे हो मासौ यावत् वस्तुं कल्पते । ननु निर्ग्रन्थानामेतादृशे ग्रामादौ एकं मासं यावदेकत्र वसनमनुज्ञातं, निर्ग्रन्थीनां च द्वौ मासौ इति कोऽत्र हेतु', महात्रतानि तु समानान्येव यानाम् ? इत्यत्राह-यानां महावतेषु समानेष्वपि तासां मासे मासे विहरणे वीशरीरत्वादनेके दोपाः समापतन्ति ततो भगवता निर्ग्रन्थीम्यो द्विमासं यावदेकत्र निवामकरणमनुज्ञातमिति ॥सू० ८॥
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू० ९
वसतिवासविधिः ९ ___ साम्प्रतं सबाहिरिकग्रामादौ निम्रन्थीनां वासविधिमाह--‘से गामंसि वा' इत्यादि ।
मूलम्-से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथीणं हेमंतगिम्हालु चत्तारि मासे वत्थए, अंतो दो मासे, वाहिं दो मासे, अंतो वसमाणीणं अंतो भिक्खायरिया, वाहि वसमाणीणं वाहिं भिक्खायरिया ।।सू० ९॥
छाया-अथ त्रामे वा यावत् राजधान्यां वा सपरिक्षेपे सवाहिरिके कल्पते निर्ग्रन्थीनां हेमन्तग्रीमेपु चतुरो मासान् वस्तुम्, अन्तौ मासो, वहिही मासौ, अन्तर्वसतीनामन्तभिक्षाचर्या, बहिर्वसतीनां घहिभिक्षाचर्या |सू० ९॥
चूर्णी-'से गामंसि वा इति । अथ ग्रामे वा यावत्-राजधान्यां वा सपरिक्षेपे सवाहिरिके वहिर्जननिवासयुक्ते ग्रामादौ निम्रन्थीनां हेमन्तग्रीप्मेषु ऋतुबद्धकालसम्बन्धिषु अष्टसु मासेषु चतुरो मासान् स्थातुं कल्पते, कथमित्याह-अंतो दो मासे इति, अन्तः परिक्षेपयुक्तग्रामाद्यभ्यन्तरे द्वौ मासौ यावत् स्थातव्यम् , तदन्तरं द्वौ मासौ च बहिरिति बाहिरिकायां परिक्षेपावहिर्गृहपक्तिरूपायां जनवसतौ द्वौ मासौ यावत् स्थातव्यम् । तत्रापि अन्तर्वसतीनां परिक्षेपाभ्यन्तरे वसतीनां वासं कुर्वन्तीनां निर्ग्रन्थीनाम् अन्तरेव परिक्षेपाभ्यन्तरे एव भिक्षाचर्या करणीया,बहिर्वसतीनां बाहिरिकायां स्थितानां निर्ग्रन्थीनां च बहिरेव भिक्षाचर्या कर्त्तव्या किन्तु अन्तःस्थितानां बहिर्भिक्षाचर्या कर्त न कल्पते इति ॥ सू० ९॥
अत्राह भाष्यकार:- वाहिरिय' ० इत्यादि । भाष्यम्--वाहिरियरहियगामा,-इए य हेमंतगिम्हमासेसुं । कप्पई निग्गंथाणं, एगं मासं च वत्थेउं ॥८॥ वाहिरियस हियगामा,-इए य मासा पक्रप्पेइ । अंतो ठियाण अंतो, भिक्खा बाहिं च वज्झाणं ॥९॥ एगत्थाहियवासे, सिणेहवंधो तहेव अस्सद्धा । आहाकम्मग्गहणं, विराहणं संजयत्ताणं ॥१०॥ एवं निग्गथीणं, दुगुणं लिगंथकालमाणाओ । वंभव्ययाइरक्खा,-निमित्तमेयं च आणतं ॥११॥
छाया–पाहिरिकारहितग्रामादिके च हेमन्तप्री ममासेषु । कल्पते निम्रन्थानां, एकं मासं च वस्तुम् ॥८॥ बाहिरिकाहितनामादिके च सासद्विकं प्रकल्पते । अन्तः स्थितानामन्तो भिक्षा बहिश्च बाह्यानाम् ॥९॥ एकत्राधिकवासे स्नेहवन्धस्तथैव अश्रद्धा। आधाकर्मग्रहणं, विराधनं संयमात्मनो ॥१०॥ एवं निर्ग्रन्थीनां,द्विशुणं निन्थकालमानात् । ब्रह्मव्रतादिरक्षा, निमित्तमेतच्च आक्षप्तम् ॥११॥
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे अवचूरी-'वाहिरिय०' इति । वाहिरिकारहितग्रामादिके सपरिक्षेपे सति अबाहिरिके ग्रामादिके ग्रामादारभ्य राजधानीपर्यन्तस्थाने हेमन्तग्रीष्ममासेषु हेमन्तादिग्रीष्मान्तेषु ऋतुबद्धकालसम्बन्धिषु अष्टसु मासेषु निर्ग्रन्थानामेकं मासं वस्तुं कल्पते, निम्रन्थानामेकं मास यावदेकस्थानवासस्य कल्पत्वात् ॥८॥ तथा-'वाहिरियसहिय०' इति । सपरिक्षेपे सति सबाहिरिके परिक्षेपाद् वहिर्जननिवाससहिते प्रामादौ मासद्विकं द्वौ मासौ यावद्वस्तुं प्रकल्पते, तादृशस्थानम्य वसतिदययुक्तल्वात् , तत्रापि यदि प्रामाद्यन्तस्तिष्ठेयुस्तदा तेषामन्त स्थानां निग्रन्थानां भिक्षा-भिक्षाचर्या अन्तः प्रामाद्यभ्यन्तरे एव कत्तुं कल्पते, नतु वाहिरिकायाम् , यदि च बहिस्तिष्ठेयुस्तदा बाह्यानां वहिःस्थितानां तेषां बहिः बाहिरिकायामेव भिक्षाचर्या कत्तुं कल्पते, नतु ग्रामाघभ्यन्तरे, इति निम्रन्थानां तत्र वासविधिविज्ञेयः ॥९॥ अधिकवासनिषेधे कारणमाह
'एगत्थाहिय०' इति । एकत्र एकस्मिन् ग्रामादौ मधिके वासे सति निम्रन्थानां बहवो दोषा भवन्ति, तथाहि-प्रथमं तत्र स्नेहबन्धः श्रावकश्राविकादिभिः सह जायते तजन्यो टोपः, तथा चाधिके वासे तत्रत्यानां मनसि निर्ग्रन्थान् प्रति अश्रद्वा जायते--यदेते कियन्तं कालमत्र स्थास्यन्ति ! कदा गमिष्यन्तीत्यादि, पुनश्च स्नेहबंधेन च्यादिससर्गे ब्रह्मवतेऽपि शङ्का भवेत् , तथा स्नेहवशात् आधाकर्माहारग्रहणमपि जायते, इत्यादिकारणेन निर्ग्रन्थानां संयमत्य आत्मनश्च विराधनमवश्यम्भावि, तस्माच्छास्त्रोतकालादधिकं न वस्तव्यमिति ॥१०॥ एवं' इति एवम् अनेनैव रीत्या निर्ग्रन्थीनां निम्रन्थकालमानात् निर्ग्रन्थानां वासविधौ यत् कालमानं मासरूपं द्विमासरूपं च प्रोकं तस्मात् द्विगुणम् एकमासस्थाने मासद्विकम् , द्विमासस्थाने मासचतुष्टयमित्येवंरूपं द्विगुणं कालमानं कथितम् , तथाहि-निर्ग्रन्थीनामबाहिरिके ग्रामादौ, द्वौ मासौ यावत् स्थातुं कल्पते, सबाहिरिके ग्रामादौ च चतुरो मासान् यावत् स्थातुं कल्पते इति भावः । अन्यो विधिभिक्षाचर्यारूपो निम्रन्थसमान एव विज्ञेयः । निम्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च समानेऽपि श्रामण्ये कथमेषो भेदः प्रतिपादितः ? तत्राह-ताश्च स्त्रीजातीयाः सन्ति ततस्तासां ब्रह्मवतादिरक्षानिमित्तमेतद् आज्ञप्तं भगवतेति ।
तदधिके वासे च ये निम्रन्धविषये दोषाः प्रोक्तास्ते तु निग्रन्थीनामप्यनिवार्या एव भवन्ति ततः शास्त्रोक्तसमयादधिकं ग्रामादौ कुत्रापि नैव वस्तव्यमिति भावः । ग्लानत्वादिकारणे तु यावत्कालं ग्लानत्वं न निवत्तते तावकालं तत्र वस्तुं कल्पते, ग्लानत्वे निवृत्ते नैकमपि दिवसं तत्र स्थातव्यम् , अन्यत्र गन्तव्यमेवेति भावः ॥११॥
॥ इति मासकल्पप्रकरणम् ॥ पूर्व निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च मासकल्पविधिः प्रोक्तः, सम्प्रति तेपामेकस्थाने वस्तु न कल्पते, इति विधिमाह-से गामंसि वा' इत्यादि ।
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूंर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू० १०-१२
वसतिवासविधिः .११ सूत्रम्--से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा एगयओ वत्थए ।सू० १०॥
छाया-अथ नामे वा यावत् राजधान्यां वा एकवगडाके एकद्वारके एकनिष्क्रमणप्रवेशके नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा एकतो वस्तुम् ॥ सू० १०॥
चूर्णी-'से गामंसि वा' इति । अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा एकवगडाके 'वगडा' इति देशी शब्दः परिक्षेपवाची, एका वगडा-परिक्षेप. प्राकारो यस्य तत् एकवगडाकम्, तस्मिन् एकप्राकारयुक्ते, ग्रामादौ इत्यर्थः, एवम्-एकद्वारे एकमेव द्वारं यस्य ग्रामादेस्तद् एकद्वारम्, तस्मिन्-एक्द्वारयुक्ते, एकनिष्क्रमणप्रवेशके एकं एकमेव निष्क्रमणं निस्सरणमार्ग., एक एव च प्रवेशः-प्रवेशमागों यस्य तत् एकनिष्क्रमणप्रवेशकं तस्मिन् एकनिष्क्रमणप्रवेशयुक्ते ग्रामादौ इत्यर्थः, यस्य प्रामादे. निर्गन्थानां निर्ग्रन्थीनां च निष्क्रमणं प्रवेशश्च एकेनैव द्वारेण भवेत् तादृशे ग्रामादौ निम्रन्धानां निर्ग्रन्थीनां च द्यानां एकतः-एकत्र वस्तु स्थातुं न कल्पते । अत्र चतुर्भङ्गी भवति ।
यथा-१- एका वगडा-एक द्वारम् । २-एका वगडा-अनेकानि द्वाराणि । ३-अनेका वाडा-एकं द्वारम् । ४-अनेका वगडा-अनेकानि द्वाराणि । अत्र चतुर्थो भङ्गः शुद्धः, 'सं ग्राह्य इति ॥ सू० १०॥
ययेव तर्हि कीदृशे ग्रामादौ वस्तुं कल्पते । इति प्रदर्शयति-‘से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम्--से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा अभिणिवगडाए अभिनिदुवाराए अभिणिक्खमणपवेसाए कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गथीणं वा एगयओ वत्थए ।सू० ११॥
छाया-अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा अभिनिवगडाके अभिनिवारके-अभिनिष्क्रमणप्रवेशके कल्पते निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा पकतो वस्तुम् ॥ सू० ११ ॥ .
चूर्णी -'से गार्मसिना' इति । अथ ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा अभिनिवगडाके अभिशब्दोऽनेकार्थ., नि-शब्दो नियतार्थकः वगडाशब्दः प्राकारार्थक इति, अभि-अनेका, नि-नियता वगडा-प्राकारो यत्र तत् अभिनिवगडाक, तस्मिन् अनेकनियतपरिक्षेपयुक्त ग्रामादौ, तथा अभिनिद्वारे- अनेकद्वारयुक्ते अभिनिष्क्रमणप्रवेशके-अनेकनिष्क्रमणप्रवेशमार्गयुक्ते प्रामादौ तत्र निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च एकतः एकत्र एतादृशे एकस्मिन् ग्रामादौ वस्तु कल्पते ॥ सू० ११॥
अत्राह भाष्यकार:-'खेत्ते' इत्यादि । भाष्यम्--खेत्ते संकुचिए खलु, निक्खमणं तह पवेसणं एग । तत्थेगत्थ ठियाणं, गगणागमणे य बहुदोसा ॥१२॥ तम्हा अणेगवगडा, अणेगदारा भवंति जत्थेव । तत्थेव निवसियचं, भिक्खासण्णाइसुलभत्थं ॥१३॥
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
वृहत्कल्पसूत्रे
छाया -क्षेत्रे संकुचिते खलु निष्क्रमण तथा प्रवेशनमेकम् ! तत्रैकत्र स्थितानां गमनागमे च वहुदोषाः ||१२|| तस्मात् अनेकवगडा अनेकद्वाराणि भवन्ति यत्रैव । तत्रैव निवस्तव्यं, भिक्षासंज्ञादिसुलभार्थम् ||१३||
अवचूरी – 'खेत्ते ' इति । क्षेत्रे संकुचिते खलु निश्चयेन यत्र निष्क्रमण तथा प्रवेशनं चैकं भवति तत्र तस्मिन् क्षेत्रे ग्रामादौ एकत्र स्थितानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च गमनागमने बहुदोषा बहवः दोषाः संभवन्ति ||१२||
तस्मात् कारणात् यत्र अनेका वगडा अनेकानि द्वाराणि च यत्रैव यस्मिन्नेव ग्रामादौ भवन्ति तत्रैव निर्ग्रन्थैः निर्ग्रन्थीभिश्च निवस्तव्यं निवासः कर्त्तव्यः, नान्यत्र । किमर्थमित्याहभिक्षासंज्ञा दिसुलभार्थम्, तत्र भिक्षा - भिक्षाचर्यार्थगमनं, संज्ञा-संज्ञाभूमौ गमनं तत आगमनं चैतद् द्वयमपि सुलभं भवति तदर्थं तत्र वस्तव्यम्, तत्र साधुसाध्वीनां परस्परं संपर्काभावादिति ॥१३॥ अथ निर्ग्रन्थीनां कीदृशे उपाश्रये वस्तु न कल्पते 2 इत्येव प्ररूपयितुमाह- 'नो कप्पर निगंीणं' इत्यादि ।
सिंघाडगंसि
छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां आपणगृहे वा रथ्यामुखे वा शृङ्गाटके घा चतुष्के वा चत्वरे वा अन्तरापणे वा वस्तुम् ॥ सू० १२॥
चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो न कल्पते तावत् निर्ग्रन्थीनाम् आपणगृहे वा 'दुकान' इति प्रसिद्धे. यत् खलु गृहम् आपणमध्ये वर्त्तते, आपणैः समन्तात्परिक्षिप्तं भवति, अथवा मध्यभागे यद् गृहं द्वाभ्यामपि पार्श्वाभ्यां यस्याssपणा भवन्ति तद् आपणगृहं तस्मिन् रथ्यामुखे वा रथ्या इति मार्ग, रथ्यायाः पार्श्वे यद् गृहं तद् रथ्यामुखम् । तच्च त्रिविधम् - रथ्याभिमुखम् १, रथ्याबहिर्मुखम् २, रथ्योभयतोमुखम् ३ । तत्र यद् गृहं रध्यायाः पार्श्वे वर्त्तते तद् रथ्याभिमुखम् १, यस्य पृष्ठतो रथ्या वर्त्तते तद् रथ्याबहिर्मुखम् २, यस्यैकं द्वारं रथ्यायाः पराङ्मुखम्, एकं द्वारं चरध्याया अभिमुखं भवेत् तत् रध्योभयतोमुखम् ३ | अथवा यस्माद् गृहाद् रथ्या प्रवहति तद् रथ्यामुखमुच्यते, अथवा यस्य गृहस्य मुखं रथ्यायां राजमार्गे भवति तद् रथ्यामुखम्, तस्मिन् तथा शृङ्गाटके वा शृङ्गाटक तावत् त्रिकोणाकारः फलविशेषः, तदाकारेण यत्र मार्गो भवति तत्, मार्गत्रयमिलनस्थानमित्यर्थ., तस्मिन् शृङ्गाटकस्थिते गृहे । चतुष्के - चतुष्कं पुनश्च - तुर्णां मार्गाणां संमिलनस्थानम्, यत्र चत्वारो मार्गा आगत्य मिलन्ति तत्स्थानं चतुष्कं व्यपदिश्यते, तस्मिन् चतुष्कस्थिते गृहे वा, चत्वरे वा - चत्वरं नाम यत्र षण्णां मार्गाणां संमेलनं भवति तत्, तस्मिन् चतुष्कस्थिते गृहे वा, अन्तरापणे वा - अन्तरापणस्तावत् यत्र अन्तरन्तो
"
सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथीणं आवणगिहंसि वा रत्थामुहंसि वा, वा चक्कंसि वा चच्चरंसि वा अंतरावणंसि वा वत्थए ||६० १२||
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू०१३-१५
वसतिवासविधिः १३ मध्ये-मध्ये आपणा भवन्ति स हट्टमार्ग 'इत्यर्थः, स च एकपाद्येन द्वाभ्यां वा पार्श्वभ्यां यत्र भवेत् तत्, अथवा यद् गृहं स्वयमेव आपणरूपं तद् अन्तरापणमुच्यते, यत्र एकेन द्वारेण आपणव्यवहारः क्रियते, द्वितीयेन तु द्वारेण पुनर्गृहकार्य विधीयते तद् गृहम् अन्तरापणम् , तस्मिन् । एतेषु पूर्वोक्तेपु उपाश्रयेषु निम्रन्थीनां वस्तुं न कल्पते । एतेषु उपाश्रयेषु वसन्तीनां निम्रन्थीनां जनसमुदायस्य गमनागमनबाहुल्यात् स्वाध्यायादि न सम्यग् जायते, तथा अनेकविधजनावलोकने परिणयनादिमहोत्सवाद्यवलोकने च पूर्वस्मृति सभवाच्चित्तवृत्तौ विकारसंभवः, कामुकजनद्वारा निर्ग्रन्ध्या अपहरणमपि संभवेत् , इत्यादिकारणैः संयमात्म-विराधनासंभवादेतादृशेषु उपाश्रयेषु निम्रन्थीनां वासः प्रतिषिद्धःः ॥१२॥
पूर्वोक्तेषु उपाश्रयेषु निम्रन्थानां वस्तुं कल्पते इति प्रदर्शयति-कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथाणं आवणगिहंसि वा जाव अंतरावणंसि वा बत्थए ॥सू०१३। छाया -कल्पते निग्रन्थानां आपणगृहे वा चावत् अन्तरापणे वा वस्तुम् ॥सू०१३॥
चौँ —'कप्पई' इति । कल्पते निग्रन्थानाम् आपणगृहे वा यावत् अन्तरापणे वा, यावत् पदेन रथ्यामुखे वा शङ्गाटके वा चतुष्के वा चत्वरे वा, इति सग्रहः । साध्वीसूत्रे कथितेषु सर्वविधेषु उपाश्रयेषु साधूनां वस्तु कल्पते, पुरुषत्वेन तेषां दोषाभावात् ॥ सू० १३ ॥
अत्राह भाष्यकारः-'आवणगिहाइएखं' इत्यादि । भाष्यम्-आवणगिहाइएमुं, निग्गथीहि न तत्थ वसियव्वं । पुरिसाणं आवाओ, निग्गयीणं भवेज्ज दोसटुं ॥१४॥ निग्गंथाणं कप्पड़, पुवुत्तेमु य समग्गठाणेसु । तेसिं पुरिसत्तणओ, नो दोसा पुरिससंसग्गा ॥१५॥ छाया -आपणगृहादिकेषु निम्रन्थीभिर्न तत्र वस्तव्यं । पुरुषाणामापातो निम्रन्थीनां भवेद् दोपार्थम् ॥१४॥ निर्ग्रन्थानां कल्पते पूर्वोक्तयु च समग्रस्थानेषु । तेषां पुरुपत्त्वतो नो दोषाः पुरुपसंसात् ॥ १५॥
अवचूरी-'आवणगिहाइएमुं' इति । आपणगृहादिपु पूर्वोक्तेषु स्थानेषु निर्ग्रन्थीभिस्तत्र न वस्तव्यम्, यतस्तत्र पुरुषाणामनेकविधानामपशब्दादिवादिनामपि आपात आगमनं भवति स च निम्रन्थीनां स्त्रीजातित्वेन दोपाय भवतीति ॥१४॥
निग्रन्थानां च पूर्वोक्तेपु समग्रस्थानेषु आपणगृहादिपु वस्तुं कल्पते, यतस्तेषां पुरुपत्वेन पुरुषसंसर्गात् नो-नैव केचिदपि दोषा भवेयुरिति ॥१५॥
पुनर्निर्ग्रन्थीनामुपाश्रयविधि प्रदर्शयति-'नो कप्पइ....अवंशुय०' इत्यादि ।
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गयीणं अवगुयदुवारिए उदस्सए वत्थए । एग पत्यारं अंतो किच्चा एवं पत्यारं वाहि किच्चा ओहाडियचिलिमिलियागंसि एवं णं कपइ वथए । सू। १४ ॥
छायानो कलपते निर्ग्रन्थीनामअपावृनद्वारके उपाश्रये वस्तुम् । एकं प्रस्तारम् अन्तः कृत्वा, एक प्रस्तारं वहिः कृत्वा अवघाटितविलिमिलिकाके पवं खलु कल्पते वस्तुम् ॥सू०१४॥
चूर्गी . 'नो अप्पई' इति । नो-न कल्पते निगेन्थीनां अपावृतहारके पावृतं- अपगतम् आवृतम्-आवरणं कपाटादिकं यत्र तद् अपावृतम्- तादृशं द्वारं यस्य तत् अपावृतहारकम्, तस्मिन् तादृशे उपाश्रये वस्तुम्, कपाटावावरणरहिने उपाश्रये निम्रन्थीनां वस्तुं न कल्पते, यत्
आश्रये कदाचिद् रोगादिवशाद् अनावरणत्वमपि तासा स्यात् अतस्तादृशे उपाश्रये साध्वीना मावामो निषिद्ध । अथापवादमाह-प्रामान्त गद् विहृत्य सन्ध्यासमये ग्राम प्राप्तास्तत्समयेऽन्योपाश्रयाऽभावे एकगत्रं द्विरात्रं वा कल्पते नत्र तदा एप विधिः-एकं प्रस्तारं वस्त्रकटादिकम् मन्त. उपाश्रयमध्ये कृत्वा बवा, एक-द्वितीय प्रत्तारं वस्त्रादिकं बहिः उपाश्रयवाह्यभागे-कृत्वा बवा अश्याटितचिलिमिलि कार्क-अवाटिता विस्तारिता चिलिमिलिका-जवनिका 'पडदा' इति प्रसिद्धा, अथवा मशकदानी-(मच्छरदानी)-ति प्रसिद्धा यत्र तत् तस्मिन्, तत्र स्थविरां पुनरेका निप्रेन्यीमुपाश्रयद्वारे प्रतिहारिकारूपेण रात्री स्थापगेत्, एवम् अनया रीत्या खलु तत्रवस्तुं कल्पते ॥ सू० १४ ॥
निर्जन्याना तु अन्योपाश्रयाभावे पूर्वोत्तोपाश्रयेऽपि स्थातुं कल्पते इति प्रदर्शयति'कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथाणं अवंगुयदुवारिए उबस्सए वत्थर ॥ सू० १५॥ छाया--कलपते निर्ग्रन्थानामपावृतद्वारके उपाश्रये वस्तुम् ॥१५॥
चूर्णी -कप्पई' इति सूत्रं स्पष्टार्थम् । यतो निम्रन्याश्च पुत्पत्वेन ते धृतिबलादिसंपन्ना भवन्ति तस्माद् अपावृतशरीरत्वमा तेषा न विरुध्यते तसस्तेवामन्योपाश्रयाभावेऽपावृतद्वारके उपाश्रयेऽपि वामो विहित इति ।। सू०१५ ॥
अत्राह मायकार:--- 'सञ्चाउड वारे' इत्यादि भाग्य-अयाउडदुवारे, निग्गंधीहि न तत्थ वसियव्यं । इस्थितणेण बंभे, रक्खा पुण दुलहा जत्थ ॥१६॥ अन्नहाणाभावे चिलिमिलि काउं च तत्थ वसियव्यं । निगंथाणं कप्पइ, पुरिसत्तणओ य नो हाणी ॥१७॥
छाया–अग्रावृतद्वारे निर्ग्रन्थीभिर्न तत्र वस्तव्यम् । स्त्रीत्वेन ब्रह्मणि रक्षा पुनदुलभा यन ॥१६॥
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
~
चुणिभाष्यावचूरी उ० १ सू० १६-१९
वसतिवासविधिः १५ अन्यस्थानाभावे, चिलिमिलिं कृत्वा च वस्तव्यम् । निर्ग्रन्थानां कल्पते, पुरुषत्वेन च नो हानिः ॥१७॥ __ अवचूरी-'अव्वाउडढुवारे' इति । अप्रावृतद्वारे उपाश्रये निम्रन्थी भिस्तत्र न वस्तव्यं न वासः कार्यः, स्त्रीत्वेन तत्र वसन्तीनां नानाविधजनदृष्टिपातादिसंभवात्, यत्र स्थाने ब्रह्मणि ब्रह्मव्रते रक्षा पुनर्दुर्लभा भवति तस्मादप्रावृतद्वारे निर्ग्रन्थीनां वासो निषिद्ध ॥१६॥
___ अपवादे-विकाले विद्वत्यागतानामन्यस्थानाभावे एकद्विरात्रार्थ निवास आवश्यको भवेत्तदा तत्र चिलिमिलिं-वस्त्रादिना चिलिमिलिकां कृत्वा तत्र वस्तव्यम् । निर्ग्रन्थानां च तत्र वासः कल्पते यतस्तेषां पुरुषत्वेन पुरुषशरीरत्वेन नो हानिः न काचिदपि हानिरतस्तेपां तादृशे उपाश्रये वासो विहित इति । निर्ग्रन्थानामप्येतदपवादिकं सूत्रम् , तेन अन्यस्थानाभावे साधूनां तत्र एकद्विरात्रार्थ वासः कल्पते, न तु ततः परमिति भावः ॥ सू० १७ ॥
पूर्व चिलिमिलिकया प्रावृते उपाश्रये निर्ग्रन्थ्यो वमन्ति तत्र रात्रौ मात्र विना कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थ बहुशो बहिनिर्गमप्रवेशं कुर्वन्त्यो निम्रन्थ्यो दुःखपूर्वकं निर्गच्छन्ति प्रविशन्ति च तस्मात् कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थ घटोमात्रक मावश्यामिति घटीमात्रकधारणविधिप्रतिपादक सूत्रमाह-कप्पइ' इत्यादि।
सूत्रम्-कप्पइ निग्गंथीणं अंतोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू०१६॥
छाया-कल्पते निर्यन्थीनां अन्तर्लिप्तं घटीमाकं धर्नु वा परिहर्नु वा ॥सू० १६
चूर्णी-'कृप्यइ'-इति । कल्पते निग्रन्थीनां अन्तर्लिप्त-अन्तर् मध्ये लिप्तं श्लक्ष्णपदार्थलेपेन प्रलदणीकृतं घटीमात्रकं घटी-लघुघट , तत्संस्थानकं मात्रकं काष्ठपात्र धत्तुं पार्वे स्थापयितुम् परिहत्तम् उपभोक्तं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । अन्तर्लिप्तमिति विशेषणं-अन्तर्लिप्ते प्रलदणे पात्रे कायिक्यादिलेपसंश्लेषणाभावात् समूर्छिमोत्पत्त्यभावप्रदर्शनार्थभिति--॥ सू०१६ ॥ __ पूर्व निर्ग्रन्थीनां घटीमात्रकधारणं प्रोक्तं, तत्तु निर्ग्रन्थानां न कल्पते, इति प्रदर्शयितुमाह'नो कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गथाणं अंतोलितं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥सू०१७॥
छाया-गो कल्पते निर्ग्रन्थानामन्तर्लिप्त घटीमात्रकं धर्तु वा परिहत्तु वा ॥सू. १७॥
चूर्णी- 'नो कप्पइ' इति । पूर्वोक्तमन्तर्लिप्तं घटीमात्र निर्ग्रन्थानां धर्नु परिहत्तुं वा न कल्पते । तेषां तद्भिन्नाकारकं सामान्य काष्ठपात्रं कायिक्यादिनिमित्तं कल्पते, यत. साधूनां पात्रचतुष्टयं कल्पते तत्र त्रीणि पात्राणि अशनादिनिमित्तम् , चतुर्थे च कायिक्यादिनिमित्तं ते स्थापयन्तीति घट्याकारकं मात्रकं तेषां न कल्पते, तदाकारावलोकनेन मनोविकारसभवादिति भावः ।।मू०१७ ॥
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे
M
पूर्व निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां कायिक्यादिनिमित्तं घटीमात्रकधारणाऽधारणे विधिनिषेधश्च प्रोकः, तत् कायिक्यादि आहारादि च चिलिमिलिकाप्रावृते स्थाने एव कर्त्तव्यं भवेदिति सा चिलिमिलिका कस्य वस्तुनो भवितुमर्हतीति तत् प्रदर्शयितुमाह-'कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ निग्गथाण वा निग्गथीण वा चलचिलिमिलियं धारित्तए वा, परिहरित्तए वा ।। सू० १८॥
छाया -कल्पते निर्घन्धानां वा निम्रन्थीनां वा चेलचिलमिलिकां धत्तुं वा परिहा वा ॥ स्०१८ ॥ __ चूर्णी-'कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा द्वयानामपि चेलचिलिमिलिकां चेलमिति वस्त्रं, तस्य
तेन निर्मितां वा चिलिमिलिकां धतु परिहतुं च कल्पते इति सूत्रार्थः, यतो वारज्जुकटवंशदलादिचिलिमिलिकासु केवलं वस्त्रचिलिमिलिकैव कल्पते, रज्ज्वादिचिलिमिलिकासु मत्कुणमशकादिलघुजन्तूनामुत्पत्तिसंभवात् ता. दुष्प्रतिलेल्या भवन्ति तेन सयमात्म विराधनाऽवश्यम्भाविनीति ।। सू०१८॥
पूर्वमनावृतस्थाने आहारादिकं कुर्वतः निम्रन्थान् निम्रन्थींश्च कश्चित् सागारी मा पश्यतु, इति विभाव्य चिलिमिलिका क्रियते, इति प्रतिपादितम्, साम्प्रतमनावृतस्थानप्रसंगाद् उदकतीरे स्थाननिषदनादिनिषेधं प्रतिपादयन्नाह-'नो कप्पइ ...दगतीरंसि' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दगतीरंसि चिट्टित्तए वा निसीइत्तए वा, तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा आहारित्तए, उच्चारं चा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिहवित्तए, सज्झायं वा करित्तए, धम्मजागरियं वा जागरित्तए, काउस्लग्गं वा करित्तए, ठाणं वा ठाइत्तए । सू० १९॥
छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा उदकतीरे स्थातुं वा निषत्तुं वा त्वग्वर्त्तयितुं वा निद्रायितुं वा प्रचलायितुं वा अशनं वा पानं वो खाद्यं वा स्वाय वा आहर्तुम्, उच्चार वा प्रावणं वा खेलं वा सिवाणं वा परिष्ठापयितुम्, स्वाध्याय वा कर्तुम्, धर्मजागरिकां वा जागरितुस्, कायोत्सर्ग वा कर्तुम्, स्थानं वा स्थातुम् ॥सू. २०॥
चूर्णी- 'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निम्रन्थीनां च उदकतीरे स्थाननिषदनादि किमपि कार्य कत्तुं न कल्पते इति सूत्राशयः । तत्र किं किं न कर्त्तव्यम् ? इति प्रदर्शयति-'दकतीरंसि वा' उदकतीरे अत्र उदकशब्देन उदकस्थानं गृह्यते तेन उदकस्य नदीतडागादेः तीरम् उदकतीरम्, यत्राऽऽरण्यका ग्रामेयका वा पशव मनुष्याः स्त्रियो वा जलार्थिनोऽवतरीतुकामा उत्तरीतुकामा वा तत्र स्थितं साधं दृष्ट्वा तिष्ठन्ति निवर्तन्ते भयोद्विग्ना वा भवन्ति, तथा यत्र स्थितं साधुं दृष्ट्वा मत्स्यकच्छपादयो जलचरास्त्रस्यन्ति विभ्यति तादृशं स्थानमुदकतीरं कथ्यते, नतु यत्र जलं नीयते
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्णिभाष्याघचूरी उ० १ सू०२०-२३
वसतिवासविधिः १७ तद् उदकतीरं, न वा यावान् भूभागो जलपूरेण आक्रम्यते तद् उदकतीरम् , न वा यावन्तं प्रदेश तरङ्गाः स्पृशन्ति तद् उदकतीरम् , नो वा यावान् प्रदेशो जलेन स्पृष्टो भवति तद् उदकतीरमिति भावः । तस्मिन् , तत्र चिहित्तए वा स्थातुं ऊर्ध्वस्थानेनाऽवस्थातुम्, निसीइत्तए वा निषत्तुं वा उपवेष्टुम्, तुयहित्तए वा त्ववर्तयितुं वा कायमायतं कृत्वा पार्श्वपरिवर्तन कर्तुम् निदाइत्तए वा निद्रायितुं वा सुखप्रतिबोधावस्थारूपया निया शयितुम्, पयलाइत्तए वा प्रचलायितुं वा यत्र स्थितेनैव निद्रायते सा प्रचला कथ्यते, स्थितस्य निद्रातुम् , तथा असणं वा अशनादिचतुर्विधमाहारं वा आहरित्तए वा आहत्तुं कर्तुम्, पुनश्च उच्चारादिकं परिष्ठापयितुम्, तत्र उच्चार-प्रस्रवणं, खेलं कफलक्षणं श्लेष्माणम् सिंघाणं नासिकामलम्, एतानि शरीरसम्बन्धिमलानि परिठवित्तए परिष्ठापयितुं परित्यक्तुम्, तथा सज्झायं वा करित्तए स्वाध्यायं सूत्रार्थोभयपरिवर्तनरूपं कर्तुम्, पुनश्च धम्मजागरियं वा जागरित्तए धर्मजागरिकां तत्वविचारणारूपां जागरितुं कर्तुम् काउस्सग वा करित्तए कायोत्सर्ग लोगस्सगुणनर्वकं कायनिश्चेष्टतारूपं कर्तुम् ठाणं वा ठाइत्तए स्थानं वा यत्र एकस्थाने पादमारोप्य ऊर्ध्वस्थितेन कार्योत्सर्गः क्रियते तत् स्थानमिति कथ्यते, तत् तादृशं कायोत्सर्ग स्थातुं-कर्तुं निम्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा नो कल्पते इति । उदकतीरे स्थानादिकं कुर्वतो निम्रन्थादेराज्ञाभङ्गादिका दोषाः समापद्यन्ते ॥१९॥
अत्राह भाष्यकारः-'दगतीरे' इत्यादि । भाष्यम्-दगतीरे ठाणाइ य, नो करणिज्जं भवेज्ज साहूणं । तत्थ अणेगे दोसा, तेणं पावंति पच्छित्तं ॥१८॥ जीवाणं जलपाणे, जमंतराओ जणे य उड्डाहो । . सिंगाइणा य हणणं, विराहणं:संजमप्पाणं ॥१९॥
छाया -दकतीरे स्थानादि च नो करणीयं भवेत् साधूनाम् । , तत्रानेके दोषाः तेन प्राप्नुवन्ति प्रायश्चित्तम्॥१८॥
जीवानां जलपाने यद् अन्तरायः जने च उद्याहः । भृङ्गादिना च हनन, विराधनं संयमात्मनोः ॥१९॥
अवचूरी-'दगतीरे' इति । उदकतीरे जलाशयसांनिध्ये स्थानादि स्थाननिषदनादि सूत्रोक्तं सर्व साधूनां साध्वीनां च करणीयं नो भवेत्' न कर्त्तव्यमित्यर्थः । यतस्तत्र स्थानादिकरणे अनेके वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति तेन कारणेन ते प्राप्नुवन्ति प्रायश्चित्तम् ॥१८॥
दोषा यथा जीवानां जलपानेऽन्तरायो भवेत् , तथा जने लोकमध्ये उद्दाहः अपवादः निन्दनं भवेत् , पशवश्च शृङ्गादिना साधुसाध्वीनां हननमपि कुर्युः, इत्यादिना संयमात्मनो. संयमस्यात्मनश्च विराधनं जायते इति भाष्यार्थः ॥१९॥
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
पररकल्प पूर्व निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीनामुदकतीरे स्थानादिकरणं निषिद्वम् । सम्प्रति चित्रकर्मयुक्तोपाश्रये निर्ग्रन्थनिम्रन्थीभिर्न वस्तव्यमिति सचित्रकर्मोपाश्रयनिषेधमाह-'नो कप्पइ० सचित्तकम्मे' इत्यादि।
सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा सचित्तकम्मे उबस्सए वत्यए ॥० २०॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अचित्तकम्मे उबस्सए वत्थए । मु०२१॥
छाया- नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा सचित्रकर्मणि उपाश्रये वस्तुम् ॥सू० २०॥ कल्पते निग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अचित्रकर्मणि उपाभये वस्तुम् ॥सू० २१॥
चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा सचित्रकर्मणि चित्रकर्मणा सहिते उपाश्रये वस्तुं न कल्पते, तत्र चित्राणि भित्यादौ रक्तपीतादिरागद्रव्येण मनुष्य-स्त्री-पशुपक्षि-नदी-पर्वत-गृह-वृक्ष-लतादीनामाकृतिरूपाणि, तैः सहिते चित्रिते उपाश्रये साधुसाध्वीनां निवासो निषिद्धः, यतः सचित्रोपाश्रये वसतां साधूनां साध्वीनां च हास्यकौतुककेलिभुक्तभोगस्मृतिमनोविकाराद्यनेकदोषाणां समवः, अतो मुनिभिस्तत्र वासो न विधातव्यः ॥सू०२१॥ एवं चित्रकर्मरहिते उपाश्रये साघुसाध्वीनां वस्तुं कल्पते इति द्वितीयसूत्रार्थः ॥सू. २२॥
पूर्वोक्तचित्रकर्मरहिते उपाश्रये साधुसाध्वीनां वासः कल्पते, तत्रापि साध्वीनां सागारिकनिश्रया वस्तुं कल्पते, न त्वनिश्रयेति प्रदर्शयन् सूत्रद्वयमाह-'नो कप्पइ० सागारिय०' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निगथीणं सागारियअणिस्साए वत्थए । मू०२२।। कप्पइ निग्गंथीणं सागारियणिस्साए वत्थए ॥ सू० २३॥ छाया-नो कल्पते निन्थीनां सागारिकानिश्रया वस्तुम् ।। स्. २२॥ कल्पते निग्रन्थीनां सागारिकनिश्रया वस्तुम् ॥ स २३॥
चूर्णी-'नो कप्पई' इत्यादि । चित्रकर्मरहिते उपाश्रयेऽपि निम्रन्थीनां सागारिकाऽनिश्रया सागारिकस्य शय्यातरस्य उपाश्रयस्वामिनः अनिश्रया, निश्रेति आलम्बनम् शय्यातरस्वालम्बनं विनेत्यर्थः, आलम्बनं यथा-भो शय्यात्तर ! वयमत्र निवसामस्तवाऽऽज्ञयाऽतोऽस्माकं त्वया निरीक्षणं कर्तव्यम्, इति कथन, तेन विना निर्ग्रन्थीनां तत्र वस्तुं न कल्पते ॥ सू०२२॥ 'कप्पई' इति सागारिकनिश्रया शय्यातराऽऽलम्बनेन निम्रन्थीनां तत्र वस्तु कल्पते, इति ॥ सू०२३॥
अत्राह भाष्यकारः-'सागारियनिस्सं' इत्यादि । भाष्यम्--सागारियनिस्सं जइ, अक्किच्चा साहुणीउ चिट्ठति । पावंति आणभंगे, तम्हा निस्साए वसियध्वं ॥२०॥ निस्साकरणे सो पुण, तासिं रक्खं करेइ दुट्ठाओ । सावयतेणाइत्तो, रक्खणमिह होइ तक्कज्जं ॥२१॥
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
विभाण्यावरी उ० १ सू० २४-२६
वसतिवासविधिः १९ छाया -सागारिकनिश्रां यदि अकृत्वा साध्यस्तिष्ठन्ति । प्राप्नुवन्ति आशाभक्कान् तस्मात् निश्रया वस्तव्यम् ॥२०॥ निश्राकरणे स पुनस्तासां रक्षां करोति दुष्टात् । श्वापदस्तेनादितः, रक्षणमिह भवति तत्कार्यम् ॥२१॥
__ अवचूरी-'सागारियणिस्सं' इति । सागारिकनिश्रां शय्यातरस्याऽऽलम्बनम् अकृत्वा यदि साध्य. उपाश्रये तिष्ठन्ति तदा आज्ञाभङ्गान् तीर्थंकराज्ञाविराधनादिदोषान् प्राप्नुवन्ति । तस्मात् कारणात् साँचीभिः निश्रया सागारिकनिश्रया वस्तव्यम् ॥२०॥ यतः निश्राकरणे स शय्यातरः पुनः दुष्टात् दुष्टजनात् कामुकादिदुष्टपुरुषात् तासां रक्षा करोति, एवं करणे न कोऽपि तासां काश्चिदपि बाधामुत्पादयितुं शक्नोति, तथा श्वापदस्तेनादितः-श्वापदेभ्यः हिंसपश्वादिभ्यः चौरादिभ्यश्च तासामिह उपाश्रये रक्षणं रक्षाकरणं तत्कार्य तस्य तत् कार्यमेव भवति ॥२१॥
उक्तं निम्रन्थीनां सागारिकनिश्रया संवसनम् , साम्प्रतं निर्ग्रन्थानां तु सागारिकस्य निश्रयाऽनिश्रया वा वस्तुं कल्पते इति प्रदर्शयति-'कप्पई' इत्यादि ।
सत्रम--कप्पई निग्गंथाणं सांगांरियस्स णिस्साए वा अणिस्साए वा वत्थए ।२४॥ लाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां सागारिकस्य निश्रया वा अनिश्रया वा वस्तुम् स्०ि २४॥
चूर्णी- 'कप्पई' इति । निम्रन्थानां यत् श्वापदस्तेनादिबहुल क्षेत्रं भवेत्तत्र तेभ्यो रक्षादिकारणे सति सांगरिकस्यै शय्यातग्य निश्रया आलम्बनेन 'वयमत्र वसामः अस्माकं रक्षा त्वया कर्त्तव्या' इत्यादिरूपेण गृहस्थस्यालम्बनं कृत्वा वस्तुं कल्पते, अथ चौऽसति पूर्वोक्त कारणे सागारिकस्याऽनिश्रेयाऽपि वस्तुं कल्पते, पुरुषत्वेन स्वभावत एवं धृतिबलादिसंपन्नत्वात्तेषाम् , निर्ग्रन्थीनां तु कारणे अकारणे वी सौगारिकनिश्रां विना न कदापि वस्तुं कल्पते, इति द्वयोः सूत्रयोभिन्नत्वम् ॥२४॥
‘पर्व निर्ग्रन्थानां सागारिकस्य निश्रयाऽनिश्रया वा निवासः प्रोक्तः, साम्प्रतं गृहस्थवस्तुजतिसंसोगारिकसंहिते उपाश्रये निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां द्वयानामपि वस्तुं न कल्पते, इति प्रतिपादयति-- 'नो कप्पइ० सागारिए' इत्यादि ।
सूत्रेम--नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंधीणं वा सागारिए उवस्सए वत्थए ।२५। लाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनों वा सागारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥सू.२५।।
चणी-'नो कम्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च सागारिके–अगारिण इदं वस्तुजातं आगारिक, आगारिकेण सहितः सागारिकः, यत्रोपाश्रये गृहस्थस्य वस्त्राभूषणखष्ट्वापल्यकादिगृहसामग्री वर्तते सः सागारिक उपाश्रयः कथ्यते, तस्मिन् वस्तुं न कल्पते इति । सागारिकं द्विविधम्अव्यतागारिकं भावसागारिकं च, तत्र द्रव्यसागारिक वस्त्राभूषणादिवस्तुनातम् , भावसागारिकम्ईक्लेिशादिमयो मनोभावः, यत्र गृहस्थानां तदुपाश्रयविषये परस्परं मनसि ईक्लेिशादिभावः परम्परागत माधुनिको वा संभवेत्तादृश उपाश्रयो भावसागारिकः प्रोच्यते, अत्र चतुर्भङ्गी यथा
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
गृहत्कल्पसत्रे
(१) द्रव्यतः सागारिक:-भावतोऽपि सागारिकः । (२) द्रव्यतः असागारिकः-भावतः सागारिकः । (३) भावतः असागारिकः-द्रव्यतः सागारिकः । (४) द्रव्यतः-असागारिकः-भावतोऽपि असागारिकः । ___ एषु चतुर्यु भङ्गेषु अन्तिमो भगो ग्राह्यः ।
एवम्भूते सागारिके उपाश्रये वसतां द्वयानां निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीनां तद्गतविलासिवस्तुजातावलोकनेन मनोविकारादिना संयमविराधना, तद्गतवस्तुजातस्य चौर्यादिना च आत्मविराधना संभवेदिति ॥सू०२५॥
अत्राह भाष्यकारः-'सागारियवसहीए' इत्यादि । भाष्यम्--सागारियवसहीए, वसमाणाण इवंति बहुदोसा ।
मोहेण पुवसरणं, तेणागमणं च तग्गहणे ॥२२॥ छाया -सागारिकवसतौ वसतां भवन्ति वहुदोपाः । मोहेन पूर्वस्मरणं, स्तेनाऽऽगमनं च तद्ग्रहणे ॥२२॥
अवचूरी-'सागारियवसहीए' इति । सागारिकवसतौ गृहस्थवस्तुजातसहितोपाश्रये वसतां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च बहुदोषाः बहवो दोपाः संयमात्मविराधनारूपा भवन्ति, कथमित्याह-मोहेन तद्गतवस्त्राभूषणपन्यवाद्यवलोकनेन पूर्वस्मरणं पूर्वस्य गृहस्थावस्थारूपपूर्वकालस्य स्मरणं भवेत् , यत्-'ममापि एतादृशानि सुन्दराणि वस्त्राभूषणादीनि आसन्' इत्यादिस्मरणेन संयमविराधना भवेत् । तया तत् तस्य वस्त्राभूषणादिवस्तुजातस्य ग्रहणे ग्रहणाथै स्तेनागमनं स्तेनानां चौराणामागमनं भवेत् , तैर्वस्तुजातं चौरित वा भवेत् तेन साधुसाध्वीविषये गृहस्थस्य शङ्का जायते ततः सः साधु साध्वीं वा राजपुरुषैहियेत् तेन आत्मविराधनासंभवः, तस्माद्धेतोः सागारिकोपाश्रये साधु-साध्वीनां वस्तुं न कल्पते इति भावः ॥२२॥
पूर्व सागारिके उपाश्रये साधुसाध्वीभिर्निवासो न कर्त्तव्य इति प्रोक्तम् , सम्प्रति सागारिकरहितोपाश्रये निवासः कल्पते इत्याह-'कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अप्पसागारिए उवस्सए वत्थए ।२६। छाया- कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अल्पसागारिके उपाध्ये वस्तुम् ॥
चर्णी-'कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनाम् अल्पसागारिके, अत्र अल्पशब्दः अभाववाची तेन असागारिके सागारिकं गृहस्थसम्बन्धिवस्त्रभूषणादिवस्तुजातं, तद् यत्र न विद्यते सः अल्पसागारिकः, तस्मिन् गृहस्थसम्बन्धिवस्तुरहिते उपाश्रये वस्तुं कल्पते, तत्र पूर्वोक्तदोषोऽसभावात् ।। सू० २६॥
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूणिभाष्यावचूरी उ० १ सू० २३-३१
वसतिवासविधिः २१
पूर्वं सागारिकोपाश्रये वासो निषिद्धः, असागारिके च वासो विहितः, साम्प्रतं निर्ग्रन्थानां स्त्रीप्तागारिकोपाश्रये, निर्ग्रन्थीनां च पुरुषसागारिकापाश्रये वासस्य कल्पाकल्पविधिं सूत्रचतुष्टयेन प्रतिपादयन् प्रथमं निर्ग्रन्थविषयकं सूत्रद्वयमाह - 'नो कप्पइ० इत्थीसागारिए' इत्यादि । सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्थीसागारिए उवस्सए वत्थए || सू०२७|| कप्पइ निग्गंथाणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए || सू०२८||
छाया -- नो कल्पते निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥ सू० २७|| कल्पते निर्मन्थानां पुरुषसगारिके उपाश्रये वस्तुम् || सू० २८||
चूर्णी - 'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां साधूनां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुम्, तत्र स्त्रीभिः मनुष्यतिर्यक्त्रीभिर्यः सागारिकः स्त्रीसागारिकः - यत्रोपाश्रये स्त्रियो वसन्ति खण्डनपेषणादिकार्यं कुर्वन्त्यस्तिष्ठन्ति गमनागमनं वा कुर्वन्ति, अथवा यत्रोपाश्रये स्त्रीणां प्रवेशनिर्गममार्गों वा भवेत्, अथवा तिर्यकत्रियो यत्र गोमहिष्यजादिरूपा तिर्यक्त्रयस्तिष्ठन्ति बद्धा भवन्ति वा सोऽपि स्त्रीसागारिकः प्रोच्यते, तस्मिन् त्रीसंसर्गोपेते उपाश्रये साधूनां वस्तुं नो कल्पते, तत्र वासे साधूनां ब्रह्मव्रतभङ्गप्रसङ्गात् ॥ सू० २७॥
अथ पुरुषसागारिके निर्ग्रन्थानां वासः कल्पते इति द्वितीय सूत्रमाह- 'कप्पइ' इत्यादि कल्पते निर्मन्थानां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुम् । साधूनां पुरुषशरीरत्वेन पुरुषसंसर्गे दोषाऽसंभवात्, इदमपवादिकं सूत्रम्, तेन विशुद्धाऽन्योपाश्रयाभावे एकद्विरात्रं यावद् यतनया तत्र वस्तुं कल्पते नाधिकमिति विज्ञेयम् ॥ सू० २८||
अत्राह भाष्यकारः - ' इत्थी' इत्यादि ।
भाष्यम् -- इत्थी दुविहा बुत्ता, माणुस्सित्थी तदेव तेरिस्थी । दुविहाव जत्थ चिट्ठ, सिउं नो कप्पइ जईणं ॥२३॥ थीसागारियवासे, वंभे दोसा तहा य उड्डाहो । कप्पड़ पुंवसहीए, एत्थेपि य एगदुगरतिं ॥ २४ ॥
छाया - स्त्री द्विविधा प्रोक्ता, मानुपस्त्री तथैव तिर्यकस्त्री । द्विविधाsपि यत्र तिष्ठति, वस्तुं नो कल्पते यतीनाम् ||२३|| स्त्रीसागारिकवासे, ब्रह्मणि दोषाः तथा च उड्डाहः । कल्पते पुंवसतौ, अत्रापि च एकद्विकरात्रम् ||२४||
अवचूरी - ' इत्थी' इति । अत्र स्त्रीसागारिके उपाश्रये निर्ग्रन्थानां वासो निषिद्धः, तत्र स्त्री द्विविधा प्रोक्ता तद्यथा - मानुषस्त्री तिर्यक्त्री च, एवं द्विविधाऽपि स्त्री यत्र तिष्ठति, पुरुषस्त्रियो रन्धनकुट्टनादिकार्यं कुर्वन्त्यो निवसन्ति, तथा तिर्यस्त्रियश्च गोमहिष्यजादिरूपाः बद्धा अबद्धा वा यत्र तिष्ठन्ति तत्र यतीनां निर्ग्रन्थानां वस्तुं न कल्पते ॥२३॥
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे
1
यतः साधूनां स्त्रीसागारिकवासे ब्रह्मणि ब्रह्मव्रते दोषाः संभवेयुः तथा च उहः - लोके निन्दा जायते यदेते साधवः स्त्रीसागारिके उपाश्रये वसन्ति तेन ज्ञायते नैतेषां ब्रह्मव्रतं विशुद्धम्, स्त्रीसंसर्गे पुरुषाणां मनोविकारादेरवश्यम्भावादिति, यतः संयमात्मविराधनादयोऽनेके दोषास्ततो निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वासो भगवता निषिद्धः । अथापवादमाह - अन्योपाश्रयाला भे पुंवसतौ पुरुषसागारिके निर्ग्रन्थानां वस्तुं कल्पते, किन्तु अत्रापि च एकद्विरात्रं यावत् वस्तुं कल्पते नाधिकम्, आधिक्येन पुरुषसंसर्गेऽपि पुरुषाणां सविकारनिर्विकारादिभिरनेकदोषसंभवादिति |२४|
२२
पूर्व निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिकापाश्रये वासी निषिद्धः, पुरुषसागारिकोपश्रये चापवादेन विधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं निर्ग्रन्थीनां वासावासविधि प्रदर्शयितुमाह - 'नो कप्पइ०' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ निगगंधीणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए । सू०२९ ।। aaut निगंीणं इत्थीसागारिए उवस्सए वत्थए || सू०३०||
छाया -नो कल्पते निग्रन्धीनां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुम् ॥ सू०२९॥ कल्पते निर्मन्थीनां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुम् ||३०||
चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । यथा निर्ग्रन्थानां खोसागारिके उपाश्रये वासनिषेधः प्रोक्तस्तथैवाश्र निर्ग्रन्थीनां पुरुषसागारिके उपाश्रये वासनिषेधः प्रोच्यते, तथाहि - निर्ग्रन्थीनां पुरुषसागारिके पुरुषसहिते उपाश्रये यत्र पुरुषाः वार्त्तालापं कुर्वन्ति क्रीडन्ति लेखनादिकार्य च कुर्वन्ति, तद्गतमार्गेण गमनागमनं वा कुर्वन्ति तादृशे उपाश्रये, तथा तिर्यक्पुरुषा अपि गोमहिषाजाश्वादिरूपा वृद्धा अबद्धा वा भवेयुस्तादृशे उपाश्रये निर्ग्रन्थीनां वस्तुं न कल्पते, स्त्रीजातीनां पुरुषजातिभिः संसर्गोऽपि नोचितः, कदाचिन्मनुष्याणां मनोविकारादि संभवे बलात्कारादिना संयमात्मविराधनासंभवात् । सू०२९॥ स्मथापवादमाह–‘कृप्पइ' इत्यादि । अन्योपाश्रयाभावे निर्ग्रन्थीनां श्रीसागारिके स्त्रीजनसंयुक्ते उपाश्रये वस्तुमल्पकालाय कल्पते । यथा निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिके पूर्व दोषाः प्रोक्तास्त एवात्र निर्ग्रन्थीसूत्रे पुरुषसागरिके 'वैपरीत्येन वा वोद्धव्या इति ॥ सू० ३० ॥
पूर्वं समुच्चयेन विभागेन च स्त्रीपुरुषसागारिकप्रतिश्रयापरपर्याया शय्या प्रतिपादिता, संप्रति सागारिकप्रतिबद्धोपाश्रयविषये निर्ग्रन्थानां निषेधं निर्ग्रन्थीनां च विधिं प्रतिपादयितुकामः प्रथमं निर्ग्रन्थानां प्रतिबद्धशय्यायां वासनिषेधमाह - 'नो कप्पइ० पडिवद्धसेज्जाए' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पड़ निग्गंथाणं पडिबद्धसेज्जाए वत्थए ||३१|| छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां प्रतिवद्धशय्यायां वस्तुम् ||३१||
}
चूर्णी - 'नो कप्पइ' - इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां प्रतिबद्धशय्यायां शय्येति वसतिः उपाश्रय इत्यर्थः, प्रतिबद्धेति गृहस्थगृहेण सह एकभित्यादिरूपेण सचद्धा सा प्रतिबद्धा कथ्यतें, एतादृशी शय्या—उपाश्रयः प्रतिबद्धशय्या, तस्यां वस्तुं निर्ग्रन्थानां न कल्पते इति सूत्राशयः । प्रतिबद्धोपाश्रयो द्विविधः द्रव्यप्रतिबद्धः भावप्रतिबद्धश्चेति । तत्र द्रव्यतः प्रतिबद्धः वलभीकाष्ठ
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्णिमान्यापधुरी उ० १ सू० ३२-३४
वसतिवासविधिः २३ भित्यादि यस्मिन् उपाश्रये गृहस्थगृहेण साई संबद्धं भवेत् गृहस्थगृहस्य उपाश्रयस्य चाच्छादनादिकाष्ठं भित्तिर्वा एका भवेत्, यत्र स्थितैर्गृहस्थस्त्रीपुरुषाणां शब्दादि श्रूयते एष द्रव्यतः प्रतिबद्धः । भावतः प्रतिबद्धश्चतुर्विधः- प्रस्रवण-स्थान-रूप-शब्दभेदात् । एते चत्वारो भेदा भावप्रतिवद्धे भवन्ति । यत्रोपाश्रये साधूनां गृहस्थस्त्रीपुरुषाणां च एकैव कायिकी भूमिर्भवेत् स प्रस्रचणप्रतिबद्धः प्रथमः १, यत्रैकमेवोपवेशनस्थानं भवेत् स स्थानप्रतिबद्धो द्वितीयः २, यत्र स्त्रीणां रूपसौन्दर्यादि विलोक्यते स रूपप्रतिवद्धस्तृतीयः ३, यत्र पुनः स्थितैः स्त्रीणां भाषाभूषणपदन्यासादिशब्दाः रहस्यशब्दाश्च श्रूयन्ते स शब्दप्रतिबद्धश्चतुर्थः ४ । अत्र द्रव्यभावसंयोगे चत्वारो भङ्गा भवन्ति तथाहि-द्रव्यतः प्रतिबद्धो न भावतः १, भावतः प्रतिबद्धो न द्रव्यतः २, द्रव्यतो भावतश्च प्रतिबद्धः ३, न द्रव्यतो न भावतः प्रतिबद्धः ४ । अत्र चतुर्थो भगोऽनुज्ञातः, उभयथाऽप्यन्नतिबद्धत्वात् । अत्र तु प्रतिबद्धोपाश्रये निवासविषयो निषेधो विहितः । प्रतिबद्धोपाश्रये वसतां निम्रन्थानामाज्ञाभङ्गादयो दोषाः समापतन्ति । साधवो द्विविधाः प्रोक्ताः-भुक्तभोगिनः अभुक्तभोगिनश्च, तत्र ये भोगान् भुक्त्वा पश्चात् प्रव्रजितास्ते भुक्तभोगिनः, ये च कुमारावस्थायामेव प्रवजितास्ते अमुक्तभोगिनः प्रोच्यन्ते ।
अत्र चतुर्विधे भावप्रतिबद्धे दोषा इमे-प्रस्रवणप्रतिबद्धे-कायिक्यादिकरणे अकस्मात् गृहस्थस्त्रीणां साधूनां चैकत्रागमनं संभवेत् १, स्थानप्रतिवद्धे स्वाध्यायादिसमये द्वयानामेकत्रोपवेशनं भवेत् २, रूपप्रतिबद्धे-स्त्रीणां रूपसौन्दर्याङ्गचेष्टाद्यवलोकन भवेत् ३, शब्दप्रतिबद्ध-स्त्रीणां इसित-गीत-क्रन्दित-कूजित-प्रेमालापादिशब्दश्रवणं भवेत् ४ । एतेन भुक्तभोगिनां भुक्तभोगस्मृतिर्जायते, अभुक्तभोगिनां कौतुकादि जायते, तेन ब्रह्मवते शङ्काकाङ्क्षादिना व्रतभङ्गदोषप्रसङ्गः। तत्र वसतां निर्ग्रन्थानामाज्ञाभङ्गमिथ्यात्वानवस्थादयोऽनेके दोषाः संभवन्ति, अतः प्रतिवद्धायां बसतो निम्रन्थानां वासो न कल्पते इति भावः ॥ सू० ३१॥
पूर्व प्रतिबद्धशय्यायां निर्ग्रन्थानां वासो निषिद्धः, साम्प्रतं निर्ग्रन्थीनां तत्र वासः कल्पते इति विधि प्रदर्शयति-'कप्पइ० पडिवद्ध०' इत्यादि ।
सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथीणं पडिबद्धसिज्जाए वत्थए ॥सू०३२॥ छाया-कल्पते निम्रन्थीनां प्रतिवद्धशय्यायां वस्तुम् ॥३२॥
चूर्णी-'कप्पई' इति । निर्ग्रन्थीना प्रतिवद्धशय्यायां वस्तुं कल्पते इति सूत्रार्थः । ननु पूर्वोक्तस्वरूपायां प्रतिबद्धशय्यायां तु निर्ग्रन्थीनामपि पूर्वोक्ता एव दोपाः संभवन्ति तहिं कथं तासां 'कल्पते' इति प्रोक्तम् ? तत्राह-निर्ग्रन्थीनां केवलस्त्रीजनप्रतिवद्धोपाश्रये सम्बन्धिजनप्रतिबदोपाश्रये वा वस्तुं कल्पते इति सूत्रकाराभिप्रायो बोध्यः, तत्र केवलस्त्रीजन-सम्बन्धिजन-प्रतिबद्धखेन द्रव्यभावभेदभिन्नस्यापि तस्य निर्दोषत्वसद्भावात् साध्वीनां द्रव्यत. स्त्रीप्रतिवद्धे उपाश्रये
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे निवासः कल्पते, यतः पूर्व सान्वीनां सागारिकनिश्रया वस्तुं कल्पते इति प्रतिपादितम् , तासां शीलरत्नरक्षाया आवश्यकत्वात् , अत्र सागारिकाः मातृष्वस-भगिनी-भ्रातृजाया-मातृ-पितृ-भ्रातृपितामही-मातामही-प्रभृतिसम्बन्धिजनरूपा विज्ञेयाः, तत्प्रतिबद्ध उपाश्रये साध्वीभिर्वस्तव्यं नत्वन्यस्मिन् पतिपल्यादिप्रतिबद्धे दुष्टजनप्रतिबद्धे वा, यतस्तत्र वसन्तीनां शीलरत्नरक्षा सुलभा भवति, सम्बन्धिजना' समर्था. सन्त उपसर्गकारकान् दुष्टजनान् निवारयन्ति अतो निर्ग्रन्थीनां निर्दोघे प्रतिबद्धोपाश्रये निवसनमावश्यकमिति ज्ञात्वैव भगवता निर्ग्रन्थीभ्यः प्रतिबद्धोपाश्रये वासो विहित इति । भावतः प्रस्रवण-स्थान-रूप-शब्द-भेदाच्चतुर्विधे प्रतिश्रये वसन्तीनां साध्वीनां पूर्वोक्ता एव दोषाः समापतन्त्येवेति तादृशे प्रतिवद्धे उपाश्रये साध्वीभिर्न कदाऽपि वस्तव्यमिति तात्पर्यम् ॥ सू० ३२॥
पूर्व निर्ग्रन्थसूत्रे प्रतिवद्धोपाश्रयो निषिद्धः, तत्प्रसङ्गात् यत्रोपाश्रये गृहस्थगृहमध्यमार्गेण गमनागमन भवेत् सोऽपि प्रतिबद्ध एव कथ्यते, इति निर्ग्रन्थानां तादृशे उपाश्रये वस्तुं न कल्पते इति निषेधसूत्रमाह-'नो कप्पइ०' गाहावइ० इत्यादि ।
सूत्रम्-- नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झमज्झेणं गंतुं वत्थए ॥ सू०३३॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां गाथापतिकुलस्य मध्यमध्येन गत्वा वस्तुम् ॥सू०३३॥
चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां साधूनां गाथापतिकुलस्य गृहस्थगृहस्य मध्यमध्येन-मध्यमार्गेण गत्वा उपाश्रये गम्यते निर्गम्यते च, एवमुपलक्षणात् यस्योपाश्रयस्य मध्य मार्गेण गृहस्थाः स्वगृहे प्रविशन्ति निर्गच्छन्ति वा तादृशे उपाश्रये वस्तुं न कल्पते । तत्र निवासे गमनागमनसमये साधूनां गृहस्थप्रक्रियायां दृष्टिपातो भवेत् , गृहस्थानामुपाश्रयमार्गेण गमनागमने ते साधूनामाहारोपवेशननिषदनादिप्रक्रियां पश्यन्ति तेन तेषां परस्परं तत्तत्प्रक्रियाणां समालोचनासंभवस्ततः परस्परं द्वेषकलहादिसभवः, साधूनां तत्रस्थस्त्रीरूपदर्शने मोहोदयो वो भवेत् , ततः श्रामण्ये शङ्काकाङ्क्षाद्यनेके दोषाः समापतन्ति तस्मादेतादृशे उपाश्रये निर्ग्रन्थानां वस्तुं न कल्पते ॥सू० ३३॥
निर्ग्रन्थीनां पूर्वोक्ते उपाश्रये कारणसद्भावाद् वस्तुं कल्पते इति निर्ग्रन्थीसूत्रमाह-'कप्पइ० गाहावइ०' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ निग्गंथीणं गाहावइकुलस्स मज्झमज्ञण गंतुं वत्थए ॥सू०३४॥ छाया-कल्पते नि न्थीनां गाथापतिकुलस्य मध्यमध्येन गत्वा वस्तुम् ॥सू०३४॥
चूर्णी – 'कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थीनां गाथापतिकुलस्य मध्यमध्येन गत्वा उपाश्रये गम्यते निर्गम्यते एतादृशे उपाश्रये वस्तुं कल्पते । ननु निर्ग्रन्थसूत्रप्रोक्ता दोषास्तु साध्वीनामेव समापतन्ति तर्हि कथं तासां 'कल्पते' इति विधिरुक्तः ? अत्राह-निर्ग्रन्ध्यः स्त्रीत्वेन स्वभावत एव
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूणिभाष्यावचूरी उ० १ सू० ३६
अधिकरणोपशमनविधिः २५, मृदुमुग्धहृदया भवन्ति, लोके च शीललुण्टाका विषयलोलुपा धूर्ती जना अनेकविधवचनचाटुत्वेन ता मोहयन्ति, बलात्कारं वा कुर्वन्ति, इत्यादिकारणवशात्तासां संबन्धिजनासन्नत्वेन निर्दोषे तादृशे उपाश्रयेऽपि वस्तुं कल्पते इति प्रोक्तम् ॥सू० ३५॥
अत्राह भाष्यकार:-'सीलस्स' इत्यादि । भाष्यम्--सी लस्स रक्खणह, निग्गंथीणं पकप्पए तत्थ । अप्पडिबद्धे वासे,को तासिं रक्खणं कुज्जा ॥२५॥ छाया-शीलस्य रक्षणार्थ, निर्ग्रन्थीनां प्रकल्पते तत्र । अप्रतिवद्ध वासे, कस्तासां रक्षणं कुर्यात् ॥२५॥
अवचूरी-'सीलस्स' इति । निम्रन्थीनां शीलस्य ब्रह्मवतस्य रक्षणार्थ रक्षानिमित्त तत्र प्रतिबद्धोपाश्रये, तथा यत्र सम्बन्धिजनगाथापतिकुलमध्यमार्गेण गमनागमनयुक्ते उपाश्रये वा वस्तुमवस्थातुं प्रकल्पते युज्यते तत्र मूलगुणभूतब्रह्मव तरक्षायाः सुशक्यत्वात् । अन्यथा अप्रतिबद्धाधुपाश्रयवासे उपसर्गोत्पादकेभ्यो दुष्टजनेभ्यस्तासां रक्षणं कः कुर्यात् ? अतो निम्रन्थीनां प्रतिवद्धोपाश्रये वस्तुं कल्पते इत्युक्तम् ॥२५॥
अत्र पूर्वापरसूत्रयोः सम्बन्धमाह भाष्यकारः~-'निग्गंथाण.' इत्यादि । भाष्यम्--निग्गंथाणमकप्पं, निग्गंथीणं च कप्पमिह वुत्तं । एयं असदहतो, करेज्ज जइ सोऽत्थ अहिगरणं ॥२६॥ तत्थ य किं कायव्यं, उपसमियव्यं च होइ अहिगरणं । एसो संबंधो इह, सुत्तेण पुन्चभणिएणं ॥२७॥ छाया -निम्रन्थानामकल्प्यं, निर्ग्रन्थीनां च कल्प्यमिहोक्तम् ।
एतद् अश्रदधानः कुर्यात् यदि सोऽत्र अधिकरणम् ॥२६॥ । तत्र च किं कर्तव्यम्, उपशमितव्यं च भवति अधिकरणम् ।
एप सम्बन्ध इह, सूत्रेण पूर्वभणितेन ॥२७॥
अवचूरी-'निग्गंथाण' इति । निर्ग्रन्थानां गाथापतिकुलस्योपाश्रयमार्गेण गमनागमनयुक्ते उपाश्रये सवसनम् अकल्प्यम् अकल्यत्वेन प्रतिपादितम्, इह तत्रैव तादृशे एव उपाश्रये निम्रन्थीनां च संवसनं कल्प्यमुक्तं-कल्यत्वेन प्रतिपादितम् । एतद्-वैपम्यं साधुसंघे कश्चित्साधुः अश्रद्दधानः तत्राश्रद्धां कुर्वाणो विवादग्रस्तो भूत्वा यदि तत्र साधुमण्डल्याम् अधिकरणं कलहं कुर्यात् तत्र कलहविषये किं कर्तवम् ?
___ तत्राऽऽचार्य माह-'उवसमियव्यं' इत्यादि, तदुत्पन्नमधिकरणं भगवचनश्रद्धावता साधुना साध्वाचारं विभाव्य उपशमितव्यं भवति स स्वावनतत्वेनाधिकरणस्योपशमं कुर्यादिति भावः, इत्यधिकरणस्योपशमनसूत्रमत्र प्रोच्यते । इह अत्र विपये पूर्वभणितेन सूत्रेण सह एप सम्बन्धः ।।
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
बृहत्कल्पसूत्रे
एतेन सम्बन्धेनायातमिदमधिकरणोपशमनसूत्र प्रस्तौति - ' भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम् -- भिक्खू य अहिगरणं कट्टु तं अहिगरणं विओसवित्ता त्रिओस वियपाहुडे, इच्छाए परो आढाइज्जा इच्छाए परो तो आढाइज्जा, इच्छाए परो अब्भुट्टिज्जा इच्छाए परो नो अब्भुट्टिज्जा, इच्छाए परो चंदिज्जा इच्छाए परो नो चंदिज्जा, इच्छाए परो संभुजिज्जा इच्छाए परो नो संभुंजिज्जा, इच्छाए परो संवसिज्जा इच्छाए परो नो संबसिज्जा, इच्छाए परो उपसमिज्जा इच्छाए परो नो उवसमिज्जा, जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तम्हा अप्पणा चेव उवसम्रियं । से किमाहु भंते ! ? उवसमसारं सामण्णं ॥ सू०३५॥
छाया - भिक्षु अधिकरणं कृत्वा तद् अधिकरणं व्यवशसय्य व्यवशमितप्राभृतः इच्छया पर आद्रियेत इच्छया परो नो आद्वियेत, इच्छया परः अभ्युत्तिष्ठेत् इच्छया परो नो अभ्युत्तिष्ठेत् इच्छया परो वन्देत इच्छया परो नो वन्देत, इच्छया पर संभुजीत इच्छया परो नो संभुञ्जीत इच्छया पर संवसेत्, इच्छया पसे न संवसेत्, इच्छया पर उपशाम्येत् इच्छ्या परो नो उपशाम्येत्, य उपशास्यति, तस्य अस्ति आसधना, यो नोपशाम्यति तस्य नास्ति आराधना, तस्मात् आत्मनैव उपशमितव्यम्, तत् किमाहुः भदन्त ! ? उपशमसारं श्रामण्यम् ॥स्०३५॥
चूर्णी – 'भिक्खू' इति । भिक्षुस्तावत् सामान्यसाधुः चकारात् आचार्य उपाध्यायश्च, व्यधिकरणम्-अधिक्रियते नरकगतिगमनयोग्यतां प्राप्यते आत्मा येन तत् अधिकरणम् कलहः प्राभृतमित्येकोऽर्थ' तत् कृत्वा तथाविधद्रव्यक्षेत्रादिसांनिध्यो पबृंहितात् कषायमोहनीयोदयाद् अपरश्रमणेन सह कलहरूपम् अधिकरणं विधायेत्यर्थः तदनन्तरं स्वयमन्योपदेशेन वा तस्य कलहस्य ऐहिकपारलौकिकप्रत्यवायबाहुल्यं परिभाव्य तद् अधिकरणं कलहरूपम् व्यवशमय्य वि-त्रिविधै: - अनेकैः प्रकारैः स्वापराद्यप्रतिपत्तिपूर्वकं मिध्यादुष्कृतदानेन अवशमय्य-उपशमं प्रापय्य तदनन्तरं व्यवशमितप्राभृत – विशेपेण अवशमितम् उपशान्तीकृतम् अवसानं प्रापितं प्राभृतं कलहो येन स व्यवशमितप्राभृतो दूरीकृतकलहो भवेदित्यर्थः तथा च गुरुसन्निधौ स्वदुश्चरितमालोच्य तव्प्र॒दत्तप्रायश्चित्तं च यथावत् प्रतिपद्य पुनस्तदकरणायाभ्युत्तिष्ठेत् । अथ येन सह कलहरूपम् अधिकरणम् उत्पन्नम् स यदि उपशमं नीयमानोऽपि नोपशाम्यति तदा किं कुर्यात् 2 इत्यत आह— 'इच्छाए परो आढाएज्जा' इत्यादि, इच्छया यथास्वरुच्या यथेच्छमित्यर्थः, परः - अन्यों द्वितीयः श्रमण आद्रियेत वा, इच्छया यथास्वरुचि स्वेच्छानुसारं परः - अन्यो द्वितीयः साधुः नाहियेत वा, पूर्ववत् सम्भाषणादिभिरादरं विदध्याद् वा न वेति भावः, एवम् इच्छया स्वेच्छानुसारं परः–अन्यो द्वितीयः साधुः तम् - उपशामकम् साधुम् अभ्युत्तिष्ठेत् तस्य अभ्युत्यानं कुर्याद् वा, इच्छया - स्वेच्छानुसारं परः - अन्यो द्वितीय. साधुर्नाऽभ्युत्तिष्ठेत् - अभ्युत्थानं
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरो उ० १ सू० ३७-३८
विहरणविधिः २७ न वा कुर्यात् , इच्छया परः-द्वितीयः साधुस्तं साधु वन्देत वा, इच्छया परः अन्यः श्रमणो __ नं वन्देत वा, इच्छ्या परः साधुस्तेन साघुना सह संमुञ्जीत-एकसार्थ भोजनं दानग्रहणस
भोगं वा कुर्यात् वा, इच्छया परः अन्यो द्वितीयः साधुन संभुञ्जीत-एकमण्डल्यां भोजनं तेन सह न वा कुर्यात् , इच्छया परः साधुस्तेन साधुना सह संवसेत् सम् एकीभूय-एकस्मिन् उपाश्रये वसेद् वा, इच्छया परः साधु. न वा संवसेत्-एकीभूय एकत्रोपाश्रये न वसेद् वा, इच्छयों परः साधुः उपशाम्येद् वा इच्छया परः श्रमणो नोपशाम्येद् वा परम् , तत्र यः श्रमण उपशाम्यति कषायतापाऽपगमेन निर्वृतिमुपैति उपशम प्राप्नोतीत्यर्थः, तस्य सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानादीनामारीधना भवति, यः पुनः साधुः नोपशाम्यति उपशमं न प्राप्नोति तस्य साधोस्तेषां सम्यग्दर्शनादीनां नास्ति आरोघना, तस्मात् कारणात् एवम्-उक्तरीत्या विचिन्त्य-विभाव्य आत्मनैव उपशान्तव्यम् उपशमी विधेयः । शिष्यः-प्राह ‘से किमाहुते' हे मदन्त ! से तत् किमंत्र विषये कारणमाः उक्तवन्तः तीर्थकरमृतयः ? आचार्य आह–'उसमसारं सामन्न' उपशमसारम्-उपशर्मः सारों यत्र तत् उपशेमंसारमेव श्रामण्यं भवति, नोपशमरहितं श्रामण्यमित्यर्थः, उपशमवर्जितस्य श्रामण्यस्य निष्फलत्वादिति भावः । तथा चोक्तम्-'सामन्नेऽणुचरंतस्सं कसायी जस्स उक्कडा होति ।
मन्नामि उच्छुपुरफ व, निफैलं तस्स सामन्नं ॥१॥
श्रामण्यमनुचरतः कपाया यस्य उत्कटा भवन्ति । मन्ये इक्षुपुष्पमिव निष्फलं तस्य श्रामण्यम् ॥१॥ इति । सू०३५॥
अथ पूर्वोक्ताऽधिकरणसूत्रेण सहास्य वर्षावासगमननिषेधसूत्रस्य कः सम्बन्धः । इत्यत्राह भाष्यकार:--'किच्ची' इत्यादि ।
भाष्यम्-किच्चा कलहं गच्छइ, आगच्छइ वा पुणो य खामेउं । वासावासे नेवं, करणिज्जं एस संबंधो ॥२८॥
अवचूरी-'किच्चा कलहं' इति । केनापि साघुना सहाधिकरणे समुत्पन्ने तयोईयोर्मध्ये एकेन विवेकिना भिक्षुणा 'उपशमसारं श्रामण्यम्' इति गुरूपदेशमभिसंधाय तदधिकरणं क्षमापनादिना उपशमितम् किन्तु येन सहाऽधिकरणं समुत्पन्नं स उपशाम्यमानोऽपि नोपशान्तो भवेत् स कषायानुबद्धमनाः श्रमणोऽन्यत्र ग्रामादौ 'कलह किच्चा' अधिकरणं कृत्वा गच्छति, अथवा यः पूर्वमनुपशान्तः सन् अन्यत्र ग्रामादौ गतः स तत्र तस्य मतिपरिवर्तनेन शुभपरिणामवंशात् स्वयम्, अन्यसाधूपदेशेन वा येन सहाधिकरणं जातं भवेत्तं साधु 'सामे' क्षमयितुं स्वापराधं क्षमापनार्थम् गच्छति, अथवा अन्यत्र गतः स सांवत्सरिकक्षमापनाकाले आसन्ने समायोते सति विचारयेत्-'यन्मया तदधिकरण न क्षमितमतः कथं तावन्मम सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं कत्तुं कल्पते' इति विचिन्य तं श्रमण क्षमयितुं पुनरप्यागच्छति , अथवा श्रमणानां परस्परमधिकरणमुत्पन्नमिति श्रुत्वीऽन्यत्र स्थितोऽन्यः
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૮
वृहत्कल्पसूत्रे
कश्चित् प्रवचनोड्डाहभीरुर्धर्मश्रद्धालुः साधुस्तदधिकरणमुपशमयितुं तत्रागच्छति, एवम् तत् तदीयगमनागमनं शुद्धमपि वासावासे वर्षावासे वर्षाकाले 'न करणिज्जं' न करणीयम् यतो वर्षाकाले साधूनां गमनागमनं न कल्पते, इत्येष एव पूर्वसूत्रेण सहाऽस्य सूत्रस्य सम्बन्धः॥२८॥
अनेन सम्बन्धेनायातं वर्षांवासे गमनागमननिषेधपरकमिदं सूत्रमाह - 'नो कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम् - - नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावा सेसु चरित्तर || ३६ ॥ छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा वर्षावासेषु चरितुम् ॥ सू०३६॥
चूर्णी - 'नो कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च वर्षावासेषु वर्षायां वर्षांकाले वासः वर्षावासः, तस्य चातुर्मासरूपत्वाद बहुत्वविवक्षायां तेषु वर्षावासेषु चतुर्मासरूपेषु वर्षाकालसम्बन्धिषु चतुर्षु मासेषु चरितुं विचरितुम् एकस्माद् ग्रामादन्यस्मिन् ग्रामे गन्तुं न कल्पते । वर्षासु विहरतः षट् कायविराधनेन संयमात्मविराधना भवति । तत्र पकायविराधना यथा - वर्षाकाले पन्थानः अमर्दिता भवन्ति तेन पृथिवीकाय विराधना ९, जलक्लिन्नमार्गे गमनेऽप्कायविराधना सुस्पष्टैव २, उपधेर्जलक्लिन्नत्वेन तापनार्थं मतिर्भवेत्तेन तापनबुद्ध्याऽग्निकायविराधनादोषः समापयेत ३, जलाईवायोस्तीव्रगत्या वायुकायविराधना ४, वर्षाकाले भूमौ दूर्वादिवनस्पतिकायः समुद्भवति, जलसद्भावात् पनकसंमूर्च्छनमपि भवति, इत्यादिना वनस्पतिकायविराधना ५, वर्षाकाले इन्द्रगोपशिशुनागाद्यनेकसा भूमौ विचरन्ति तेन त्रसकायविराधना भवेत् ६ । एवं सयमविराधना भवति । आत्मविराधना तु अनेकप्रकारा भवति यथा - कर्दमपिच्छिले मार्गे पादस्खलन, तेन विषमे भूप्रदेशे निपतनं भवेत्, जलेऽदृश्यमानकीलककण्टकादि वा चरणयोविद्धं भवेत्, अकस्मात् गिरिनद्यादि जलपूरेणान्यत्र नयनं भवेत्, इत्याद्यनेकप्रकाराऽऽत्मविराधना भवेत् । तीर्थकराज्ञाविराघना तु स्पष्टैव शास्त्रे, चातुर्मास - विहरणस्य निषिद्धत्वात् । तस्मात् निर्ग्रन्थैर्निर्ग्रन्थीभिश्च वर्षाकाले विहरणं न विधेयम्, अपवादे राज्योपद्रवे ग्रामदाहे दुर्भिक्षे जलप्लाविते ग्रामे, इत्यादिसंयमयात्रानिर्वाहबाधकेषु कारणेषु समुपस्थितेषु वर्षाकालेऽपि तत्रतो निर्गमनमावश्यकं भवेदिति ॥ सू०३६॥
पूर्व - वर्षावासे चातुर्मासे श्रमणानां विहरणं न कल्पते इति प्रतिपादितम्, अथ कस्मिन् काले श्रमणानां विहरणं कल्पते ? इति प्रश्ने विहारकल्पकालं प्रदर्शयन्नाह - ' कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम् -- कप्पर निम्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा हेमंतगिम्हासु चरित्तए । ०३७ ॥ छाया -कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् ॥०३७|| चूर्णी - ' कप' इति । निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा 'हेमंत गिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मेषु हेमन्तग्रीष्मसम्वन्धिषु अष्टसु मासेषु ऋतुबद्धे काले इत्यर्थः चरितुं विचरितुं कल्पते, ऋतुबद्धकाले शुष्क भूम्यादिकारणेन संयमात्मविराधनाया असंभवात् ॥ सू० ३७||
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूणिभाष्यावचूरी उ० १ सू० ३९-४०
विरुद्धराज्यगमननिषेधः २९ । पूर्वसूत्रे ऋतुबद्धकाले निर्ग्रन्थानां विहरणं कल्पते इति प्रोक्तम्, साम्प्रतम् ऋतुबद्धकाले विहृत्य निर्ग्रन्था ग्रामनगरादौ मासकल्पविधिना तिष्ठन्ति, यत्र निर्ग्रन्थास्तिष्ठन्ति तेन स्थानेनाऽपायवर्जितेन भवितव्यम् , स चापायो वैराज्यविरुद्धराज्यादिरूपो भवतीति तादृशे स्थाने निर्ग्रन्थैर्गमनागमनं न कर्त्तव्यमिति तद्विधि प्रदर्शयति-'नो कप्पइ० वेरज्ज०' इत्यादि ।
सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वेरज्जविरुद्धरज्जसि सज्जंगमणं सज्ज आगमणं सज्जं गमणागमणं करित्तए । जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा वेरज्जविरुद्धरज्जसि सज्जं गमणं सज्ज आगमगं सज्जं गमणागमणं करेइ करतं वा साइज्जइ से दुहओवि वीइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥
छाया-नो कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा वैराज्यविरुद्धराज्ये सद्यो गमनं सद्य आगमनं सद्यो गमनागमन कर्तुम् । यः खलु निम्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा वैराज्यविरुद्धराज्ये सद्यो गमनं सद्य आगमनं सद्यो गमनागमनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते स द्विधातोऽपि व्यतिक्रामन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥३८॥
चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते न युज्यते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा ऋतुबद्धकाले विहरतां वैराज्यविरुद्धराज्ये, वि-विरुद्धं राज्यं विराज्यं तदेव वैराज्यं वर्तमानकालिकवैरयुक्त राज्यम्, अथवा विगतराजकं यत्र राजा मृतो भवेत् तद् वैराज्यम् , तथा विरुद्धराज्यं यत्र द्वयोः राज्ञोः स्वस्वराज्ये परस्परम् एकराज्यजनानामन्यराज्ये गमनागमनं विरुद्धं निषिद्धं भवेत्तद् विरुद्धराज्यम्, वैराज्यं च विरुद्धराज्यं चेति समाहारे वैराज्यविरुद्धराज्यम्, तस्मिन तादृशे देशे प्रदेशे वा सद्यः-तत्कालम् विरोधकाल एव गमनम् यत्र स्थितस्तत्रतो निस्सरणम्, तत्, आगमनम्-अन्यप्रदेशात् सद्यः-विरोधसमकाले तत्र प्रवेशः, तत्, तथा सद्य:विरोधसमकाल एव गमनागमनं-वारं वारं निस्सरणं प्रवेशं वा कत्तु न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । यदि यः खलु साधुः पूर्वोक्ते वैराज्यविरुद्धराज्ये गमनमागमन गमनागमनं च करोति स्वयं, कारयति वाऽन्यं, तथा कुर्वन्तं वाऽन्यं स्वदते-अनुमोदते तदा स तत्र गमनस्यागमनस्य गमनागमनस्य च कर्ता कारयिता अनुमोदिता च द्विधातोऽपि-उभयतोऽपि द्वयानामपि तीर्थकृतां राज्ञां च सम्बन्धिनीम् आज्ञां व्यतिक्रामन् उल्लद्दयन् तीर्थकरराजाज्ञाया विराधनां कर्वन आपद्यते प्राप्नोति चातुर्मासिकं चतुर्माससम्बन्धि परिहारस्थानम् अनुदातिकं चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् । यस्मात्कारणात् वैराज्यविरुद्धराज्ये गमनागमनकरणे साधुः प्रायश्चित्तभागी भवति तस्मात् कारणात् वैराज्यविरुद्धराज्ये न स्वयं गमनागमनं कुर्यात् न कारयेत् न वा कुर्वन्तमन्यमनुमोदेत, तत्र प्रवचनोड्डाहसयमात्मविराधनाद्यनेकदोषापत्तिसद्भावादिति ॥ सू० ३८॥
पूर्वसूत्रे वैराज्यविरुद्धराज्ये साधूनां गमनागमननिषेध प्रतिपादित., साम्प्रतं वैराज्यविरुद्धराज्ये कदाचिद् गतो भवेत्तत्र लुण्टकैर्वस्त्राणि लुण्टितानि भवेयुस्ततोऽन्यग्रामादौ साधुर्गच्छेत्
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पसूत्र तत्राऽशनाद्यर्थ गृहस्थगृहे प्रविशन्तं तमल्पवन दृष्ट्वा कश्चित् श्रावकस्तं मुनि वस्त्रादिग्रहणार्थमुपनिमन्त्रयति तदा साधुना किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिं प्रदर्शयति-निग्गथं च णं' इत्यादि ।
सूत्रम्--निगं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविठं केई वत्येणे वा पडिग्गहेण वा कंवलेण या पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कंप्पइ से सागारकडे गहार्य आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्चपि उग्गहं अणुण्णं वित्ता परिहारं परिहरित्तएं ॥ सू० ३९॥
छाया-निर्ग्रन्थं च खलु गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्ट कश्चित् वस्त्रेण वा प्रतिग्रहेण वा कम्पलेन वा पादप्रोञ्छनेन वा उपनिमन्त्रयेत् कल्पते सागारकृतं गृहीत्वा आचार्यपादमूले स्थापयित्वा द्वितीयमपि अवग्रहम् अनुज्ञाप्य परिहार परिहर्तुम् ॥ सू० ३९॥
चूणी-'निरगंथं चे पं' इति । निर्ग्रन्थं च खलं वैराज्यविरुद्धराज्यविहारांदागतमल्पवनादिकं साधुम्, कीदृशम् ? पिण्डपातप्रतिज्ञया, तत्र पिण्ड:-ओदनादिस्तस्य पातः पात्रे पतनं ग्रहणं पिण्डपातस्तस्य प्रतिज्ञया-अशनादिग्रहणेच्छया गाथापतिकुल-गृहस्थगृहम् अनुप्रविष्टम्अनु-अन्ययाच कजननिस्सरणानन्तरं प्रविष्टम् अनुप्रविष्टम्, अनेन गृहस्थगृहे दीनार्थमपावृतद्वारं भवेदिति सूचितम्, गृहस्थगृहे गतं साधु कश्चित् श्रावकस्तमल्पवस्त्रादिकं दृष्ट्वा वस्त्रेण वस्त्रमुद्दिश्य, प्रतिग्रहेण-पात्रेण पात्रमुद्दिश्य कम्बलेन-ऊर्णामयवस्त्रेण ऊर्णामयवस्त्रमुद्दिश्य, पादप्रोञ्छनेन रजोहरणेन, अथवा 'पात्रप्रोञ्छनेनं' इति च्छाया, तत्र पात्राणां प्रोञ्छनकवत्रम् तेन, अथवा पात्रशब्देन पात्रबन्धः पात्रकेसरिकादिकः, प्रोञ्छनशब्देन रजोहरणं गृह्यते ततः पात्रं च प्रोञ्छनं चेति समाहारद्वन्द्वे पात्रप्रोञ्छनं तेन वा, तदुद्दिश्य उपनिमन्त्रयेत् वस्त्रादिग्रहणार्थं प्रार्थयेत, तदा 'से' तस्य उपनिमन्त्रितस्य मुनेः कल्पते तद् वस्त्रादिकं ग्रहीतुम् , केन विधिना कल्पते ? इत्याह-तद वनादिकं सागारकृतम्-सागारसम्बन्धिकम्, अगारेणं सहितः सागार:-गृहस्थः तत्सम्बन्धिकम्, इदं वस्त्रादिकं गृहस्थसत्कमेव, त्वत्सत्कमेव न ममेति कथनपूर्वकम् । अथवा साकारकृतमिति आकारेण सहितम्, यथा-संप्रति तवेदं वनादिकं गृह्णामि तत् प्रातिहारिकरूपेण गृह्णामि, यद्याचार्या ग्रहीष्यन्ति तदा तेभ्यो दास्यामि, अन्यथा प्रत्यावर्तयिष्यामि, एवरूपाकारपूर्वकम्, अथवा औचार्यसत्कमिदं वस्त्रं, न मम, ते यस्मै कस्मैचित् मह्यं वा दास्यन्ति, ते वा स्वयमस्योपभोगं करिप्यन्ति यत्तत्सम्बन्धिकमेवेदं वस्त्रादिकं भविष्यति नान्यस्य, यदि ते नादरिष्यन्ति तदैतद्वस्त्रादिकं सांगारकृतमेवेति तुभ्यमेवानीय परावर्तयिष्यामि, इत्येवं सविकल्पककथनपूर्वकं 'गहाय' गृहीत्वा आचार्यपादमूले-आचार्यचरणसमीपे स्थापयित्वा, यदि ते तस्मै एव ददाति तदा द्वितीयमपि वारम्-अवग्रहम्, प्रथमत एकोऽवग्रहः गृहस्थसम्बन्धी यो गृहस्थाद् गृहीतः, द्वितीय आचार्यसम्बन्धी, इत्येवं द्वितीय वारम् अवग्रहम् वस्त्रादिग्रहणाज्ञाम् अनुज्ञाप्य-गृहीत्वा परिहारं,
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिमा यावरी उ० १ सू० ४१-४३
वस्त्रादिग्रहणविधिः ३१ परिहियते यत्तत् परिहारम्-उपभोगयोग्यं वस्त्रादिकं परिहत्तुं धत्तुमुपभोक्तुं वा कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ सू० ३९॥
पूर्वसूत्रे भिक्षार्थगतस्य साधोहस्थोपनिमन्त्रितवस्त्रादिग्रहणविधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतं विचारविहारभूमिगतस्य वस्त्रादिग्रहणविधिमाह-निग्गंथं च णं' इत्यादि,
सूत्रम्--निग्गंथं च णं वहिया वियारभूमि वा विद्यारभूमि वा निक्खंत समाणं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंवलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज़्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्चंपि उग्गहं अणुण्ण वित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ सू० ४०॥
छाया-निग्रन्थं च खलु बहिविचारभूमि वा, विहारभूमिं वा निष्क्रान्तं सन्तं कोऽपि वस्त्रेण वा प्रतिग्रहेण वा कम्बलेन वा, पादप्रोञ्छनेन वा उपनिमन्त्रयेत्, कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा आचार्यपादमूले स्थापयित्वा द्वितीयमपि अवग्रह अनुज्ञाप्य परिहर्जुम् ॥४॥
चूणी-'निग्गंथं च णं' इति । निर्ग्रन्थं च खलु, 'पहिया' बहिः उपाश्रयाबहिःप्रदेशे विचारभूमि-विचारः-संज्ञा तस्य भूमिः विचारभूमिस्तां विचारभूमि स्थण्डिलभूमि मित्यर्थः, वाअथवा विहारभूमि-विहारभूमिरिति स्वाध्यायभूमिः मुनिर्यत्र शास्त्रस्वाध्यायार्थमुपाश्रयाबहिर्गत्वा एकान्तभूमौ आत्मद्वितीय आत्मतृतीयः सन् तत्र स्थित्वा सूत्रमथं तदुभयं च चिन्तयति सा विहारभूमिः समयभाषया कथ्यते, ततस्तां विचारभूमि विहारभूमि वा तत्र रामनार्थमित्यर्थः निष्क्रान्तं गत सन्तं कोऽपि गृहस्थः वस्त्रादिग्रहणार्थमुपनिमन्त्रयेत् यथा-'आगच्छतु भगवन् ! मम गृहे भवत्कल्प्यं वस्त्रादि गृह्णातु' इत्येवं प्रार्थयेत् तदा, इत्यादि यथा पूर्व मिक्षाचर्यागतस्य यो वस्त्रादिग्रहणविधिरुक्तः स एवात्र बोध्यः ॥ सू० ४०॥
पूर्व निर्ग्रन्थविषयकं भिक्षाचर्यार्थ गतस्य, तथा विचारभूमि विहारभूमि गतस्य च वस्त्रादिग्रहणविधिप्रतिपादकं सूत्रद्वयं प्रतिपादितम्, साम्प्रतं एष एव विधिर्निग्रन्थीमुद्दिश्य सूत्रयेन प्रतिपाद्यते-'निरगंथिं च णं' इत्यादि ।
सूत्रम् --निग्गंथिं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविटं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंवलेण वा पायपुंछणेण वा उचनिमंतेज्जा कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणीपायमूले ठवित्ता दोच्चंपि उग्गई अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए॥ निग्गथिं च णं वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंत समाणं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंवलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेजा, कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणीपायमूले ठवित्ता दोच्चपि उग्गहें अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ सू० ४२॥
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पस्ने छाया-निर्ग्रन्थी च खलु गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिक्षया अनुप्रविष्टां कोऽपि वस्त्रेण वा कम्बलेन वा पादमोञ्छनेन वा उपनिमन्त्रयेत्, कल्पते तस्याः सागारकृतं (साकारकृतं वा) गृहीत्वा प्रवर्तिनीपादमूले स्थापित्वा द्वितीयमपि अवग्रहम् अनुज्ञाप्य परिहारं परिदत्तम् ।। सू० ४१।। निर्ग्रन्थींच खलु विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्कान्ती सती कोऽपि वस्त्रेण वा प्रतिग्रहेण वा कम्बलेन वा पादप्रोञ्छनेन वा उपनिमन्त्रयेत् कल्पते तस्या सागारकृतं (साकारकृतं वा) गृहीत्वा प्रवर्तिनीपादमूले स्थापयित्वा द्वितीयमपि अवग्रहम् अनुज्ञाप्य परिहारं परिहर्तुम् ॥ सू० ४२॥
चूर्णी –'निग्गंथिं च णं गाहाइकुलं' इत्यादि, तथा 'निग्गंथि च णं वियारभूमि वा' इत्यादि च सूत्रद्वयमपि निग्रन्थसूावदेव व्याख्येयम्, नवरं विशेषस्त्वयम्-यत् निम्रन्थसूत्रद्वये 'आयरियपायमूळे ठवित्ता, आचार्यपादमूले स्थापयित्वा' इत्युक्तम , अत्र निर्ग्रन्थीसूत्रद्वये च पवत्तणीपायमूले ठवित्ता' 'प्रवर्तिनीपादमूले स्थापयित्वा' इति व्याख्येयम् तत्र । प्रवर्तिनीतिप्रवर्त्तयति-प्रेरयति स्वनिश्रागतसाध्वीः श्रुतचारित्रधर्मे या सा प्रवर्तिनी-दीक्षादात्री, पर्यायज्येष्ठा वा निर्ग्रन्थीति । शेपं सर्व निर्ग्रन्थमूत्रवदेव व्याख्येयमिति ॥ सू० ४२॥
अत्राह भाष्यकार—'सच्छदं' इत्यादि । भाष्यम्--सच्छंदं नो गिण्हे, नो परिभुजे य वत्थपत्ताई जं आयरियपदत्तं, तं गिण्हे तं च परिभुजे ॥सू०२९॥ एवं निग्गंथीणं, पवत्तिणीदत्तवत्थपत्ताई। कप्पइ किंतु सयं तं, नो गिण्हे नेव परिभुंजे ॥३०॥ छाया-स्वच्छन्दं नो गृहीयात्, नो परिभुञ्जीत च वस्त्रपात्रादि । यद् आचायप्रदत्तं, तद् गृहीयात् तच्च परिभुञ्जीत ॥२९॥ एवं निर्ग्रन्थीनां, प्रवर्तिनादत्तवस्त्रपात्रादि । कल्पते किन्तु स्वयं तद् नो गृह्णीयात् नैव परिभुञ्जीत । ३०॥
अवचूरी-'सच्छंद' इति । निर्ग्रन्थ वस्त्रपात्रादि गृहस्थगृहाद् गृहस्थहस्ताच्च स्वच्छंद स्वच्छन्दतया यथारुचि नो गृह्णीयात् , एवं गृहीतं च तद् नो नैव परिभुञ्जीत । किं कुर्यात् ? तत्राह-गृहीतं तद् वस्त्रादिकं साकारकृतमिति कृत्वा 'नेदं वस्त्रं मम, किन्तु आचार्यसत्कं प्रातिहारिकं वा अस्ति' इति कथनपूर्वक्रमादाय आचार्यसमीपे स्थापयेत् , तत्र यद् वस्त्रादिकमाचार्यप्रदत्तं भवेत्-आचार्या , उपाध्यायाः, पर्यायज्येष्ठा वा स्वेच्छया यद् वस्त्रादिकं दद्युस्तद् गृह्णीयात्, विनयवन्दनपूर्वक द्वितीयमवग्रहमनुज्ञाप्य स्वीकुर्यात् तच्चेति तदेव वस्त्रादिकं परिमुञ्जीत् स्त्रकायें व्यापारयेदिति निर्ग्रन्थकल्प ॥ २९ ॥
'एवं' इति । एवम् अनेनैव प्रकारेण निर्ग्रन्थीनां साध्वीनां प्रवर्तिनीप्रदत्तवस्त्रपात्रादि ग्रहीतुं परिभोक्तुं च कल्पते, किन्तु तद् वस्त्रपात्रादिकं स्वयं स्वेच्छया गृहस्थाद् नो गृह्णीयात् न स्वीकुर्यात्
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ० १ सू० ४३-४६
आहारादिग्रहणविधिः ३३ नैव च परिभुञ्जीत न स्वकार्ये व्यापारयेत्, किन्तु निम्रन्थवदेव गृहस्थेन दीयमानं वस्त्रादिक साकारकृतमिति कृत्वा 'नेदं मम वस्त्रादि, किन्तु प्रवर्तिनीसत्कं प्रातिहारिकं वाऽस्ती'-तिकृत्वा प्रवर्तिनीसमीपे स्थापयित्वाऽवग्रहानुज्ञापूर्वकं तत्प्रदत्तं वनादिकं विनयेन स्वीकुर्यात्, तदेव च परिभुञ्जीतेति निर्ग्रन्थीकल्पः ॥ ३० ॥
पूर्व निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्त्रपात्रादिग्रहणविधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतं वस्त्रादिग्रहणानन्तरमाहाराधिकार इति रात्रौ विकाले वाऽऽहारग्रहणनिषेधं प्रदर्शयति-'नो कप्पइ० राओ वा०' इत्यादि ।
सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्तए, नन्नत्य एगेणं पुन्धपडिलेहिएणं सेज्जासंथारएणं ॥ सू०४३॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा रात्रौ वा विकाले वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिग्रहीतुम्, नान्यत्र एकेन पूर्वप्रतिलेखितेन शय्यासं. स्तारकेण ॥ सू० ४३॥
चूर्णी- 'नो कप्पई' इति । निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा रात्रौ वा रात्रिमध्ये विकाले वा सन्ध्यासमये 'असणं वा' इति अशनादि चतुर्विधमाहारं प्रतिग्रहीतुम् आदातुं न कल्पते । अत्र विकाले चतुर्विधाहारनिषेधस्तहिँ किमन्यदप्युपधिजातं रात्रौ विकाले वा ग्रहीतुं न कल्पते ? अत्राह सूत्रकारः--'नन्नत्थ' इत्यादि, एकेन केवलेन 'सेज्जासंथारएणं' शय्यासंस्तारकेण, तत्र शय्या शरीरप्रमाणा, संस्तारकः सार्द्धतृतीयहस्तप्रमाणः, शय्या च संस्तारक श्चेति समाहारे शय्यासंस्तारकम्, तेन, कीदृशेन शय्यासंस्तारकेण? तत्राह-पूर्वप्रतिलेखितेन-पूर्व दिवसे यत् प्रतिलेखितं भवेत् तेन विना अन्यत्र न, तत्त्यक्त्वा अन्यत् किमपि न कल्पते, दिवसे शय्यासंस्तारकस्य प्रतिलेखनां कृत्वाऽन्यत्र स्थाने वसतौ स्थानाभावे चौरादिशङ्कया वा गृहस्थनिश्रया तद्गृहे स्थापितं भवेत्तदा तद् रात्रौ विकाले वा शयनार्थ प्रतिग्रहीतुं कल्पते नान्यदिति भावः ॥ सू० ४३ ॥
पूर्व रात्रौ विकाले वा अशनादिग्रहणनिपेधः प्रोक्तः, साम्प्रतं वस्त्रादिग्रहणनिषेधमाह'नो कप्पइ० वत्थं वा' इत्यादि ।
सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा पायपुंछणं वा पडिग्गाहित्तए, नन्नत्थ एगाए हरियाहडियाए, सावि य परिभुत्ता वा धोया वा रत्तावा घट्टा वा मट्टा वा संपधूमिया वा ॥ सू०४४ ॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा गिम्रन्थीनां वा रात्रौ वा विकाले वा वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं वा प्रतिग्रहीतुम्, नान्यत्र एकया हताहतया, साऽपि च परिभुक्ता वा धौता वा रजिता वा धृष्टा वा मृष्टा वा संप्रधूमिता घा ॥ सू०४४ ॥
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पसूत्रे
चूर्णी - 'नो कप्पइ' इति । निर्ग्रन्धानां निर्ग्रन्थीनां रात्रौ विकाले वा वस्त्रंवा चोलपट्टशाटिकादिकम्, प्रतिग्रहं - पात्रम्, कम्बलम् - ऊर्णामयं प्रावरणवस्त्रम्, पादप्रोञ्छनं - रजोहरणम् अथवा पात्रप्रोच्छनम् - आहारादिपात्राणां प्रोञ्छनवस्त्रम् एतत्सर्वं वस्तुजातं प्रतिग्रहीतुं न कल्पते । तर्हि किं कल्पते ? इत्याह-एकया केवलया हताहतया - हृतं पूर्वे चौरादिना चोरितं पश्चात् शुभपरिणामादिवशात् गृहस्थभयवशाद्दा आहता - आनीय पुनर्दत्ता, एतादृशी काऽपि वस्त्रजातिः, तया अन्यत्र - विना तां त्यक्त्वेत्यर्थः न कल्पते, सा तु कल्पते इति भावः साऽपि च या आनीय दत्ता सा यदि परिभुक्का हरणकर्त्रा स्वपरिभोगे नीता शरीरे धृता भवेत्, धौता वा जलेन प्रक्षालिता वा भवेत्, रञ्जिता वा रक्तपीतादिरागेण रङ्गयुक्ता वा कृता भवेत्, घृष्टा वा चिक्कणप्रस्तरादिना चिक्कणीकृता वा, सृष्टा वा प्रक्षिता सुकोमलीकृता वा भवेत्, संप्रघूमिता, संप्रधूपिता वा अगुरुचन्दनादि सुगन्धद्रव्यधूमेन धूमयुक्ता कृता, सुगन्धद्रव्यधूपेन धूपिता वा भवेत् तथापि सा वस्ननातिर्निर्ग्रन्थैर्निर्ग्रन्थीभिः रात्रौ विकाले वाऽपि सा दीयमाना ग्रहीतव्या, तस्याः स्वनिश्रागतत्वादिति ॥ सू० ४४ ॥
३४
1
पूर्वं रात्रौ विकाले वा वस्त्रग्रहणविधिरुक्तः, साम्प्रतमध्वगमनस्य सखडिगमनस्य च निषेधमाह - 'नो कप्पइ० अद्धाण०' इत्यादि ।
सूत्रम् -- 'नो कप्पइ निगंथाण वा, निग्गंथीण वा राओ वा, वियाले वा, अद्धाणगमणं एत्तए || सू०४५ || नो कप्पइ निग्र्गयाण वा निग्गंथीण वा संखार्ड वा संखडिपडियाए अद्धाणगमणं एत्तए || सू०४६॥
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा रात्रौ वा विकाले वा अभ्वगमनम् एतुम् ॥ सू० ४५ ॥ नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा संखार्ड वा संखडिप्रतिज्ञया अध्वगमनम् एतुम् ॥ सु० ४६ ॥
चूर्णी - 'नो कप' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च रात्रौ विकाले वा सन्ध्याकाले अध्वगमनं मार्गगमनम् एतुं कर्त्तुं नो कल्पते, रात्रौ विकाले वा गमनशीलस्य प्रथमम् चक्षुरगोचरतया ईर्यासमितिरेव विराधिता भवति, तस्यां विराधितायां संयमोऽपि विराधितो भवेत् तेन तीर्थकराज्ञाऽतिक्रान्ता भवतीति संयमविराधना भवति, एवमात्मविराधना तु प्रत्यक्षैव यथारात्रौ विकाले वा गमनशीलस्य साघोरन्धकारसद्भावाद् गर्त्तादौ पतनं भवेत् पादयोः कण्टकवेधः स्यान्, चौरलुण्टाकादिना वस्त्राद्यपहरणं भवेत्, श्वापदादिहिंस्रजन्तुकृतस्त्रासः समुत्पयेत, समारयेद्वा कुलटाजारादिकृतोपद्रवोऽपि सभवेत् तस्माद् निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीभिः रात्रौ विकाले वाऽध्वगमनं न
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
घृणिभाष्यावेचूरी उ० १ सू० ४७-४८ रात्रौ विकाले वा वहिर्गमनविधि : ३५ कर्तव्यम् ॥ सू० ४५ ॥ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थ्यो रात्रौ गमनं संखड्यामाहाराद्यर्थं वा कदाचित् कुर्वन्तीति तन्निषेधमप्याह-'नो कप्पई' इत्यादि । नो कल्पते निग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा संखडिं वा, संखण्ड्यन्ते त्रोट्यन्ते षट्कायजीवानामायूंषि यत्र सा संखडिः अग्न्यारम्भे षट्कायानामुपमर्दनसद्भावात् , विवाहमरणादिनिमित्तं क्रियमाणं बहुजनभोज्यं संखडिरुच्यते, तामपि संखडिप्रतिज्ञया संखडिवाञ्छया तन्निमित्तम् अध्वगमनम्, एतुं कर्तुं न कल्पते ॥ ४६ ।।
पूर्वसूत्रे रात्रौ विकाले वा ऽध्वगमनस्य संखडिगमनस्य च निषेधः प्रतिपादितः, साम्प्रतं गमनप्रकरणाद् निर्ग्रन्थस्य एकाकिनः संज्ञादिभूमौ गमनविधिमाह-'नो कप्पइ०' इत्यादि ।
सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा वहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । कप्पइ से अप्पविइयस्स वा अप्पतइयस्स व, राओ वा, वियाले वा वहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि वा निक्खेंमित्तए वा पविसित्तए वा । सू० ४७॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थस्य एकाकिनः रात्रौ वा विकाले वा वहिविचारभूमि या विहारभूमि वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, कल्पते तस्य आत्मद्वितीयस्य वा आत्मतृतीयस्य वो रात्रौ वा विकाले वा बहिर्विचारभूमि वा विहारमूर्मि वा निष्क्रमितुं वी प्रवेष्टुं वा ॥ सू• ४७ ॥
चूर्णी-'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थस्य साधोः एकाकिन:-अद्वितीयस्य रात्री वा विकाले वो बहिः उपाश्रयाद् बहिःप्रदेशे विचारभूमि वा-सञ्ज्ञाभूमि कायिक्यादिपरिष्ठापनभूमिम् , विहारभूमि वा स्वाध्यायमूमिम् उद्दिश्य निष्क्रमितुं-निस्सतुं प्रवेष्टुं बहिर्भागतोऽन्तरागन्तुं गमनागमनं कर्तुमित्यर्थः नो कल्पते । तहिं कथं कल्पते ? इत्याह-कल्पते 'से' तस्य निर्ग्रन्थस्य आत्मद्वितीयस्य आत्मा स्वयं द्वितीयो यस्य सः एकः अन्यः साधुः स्वयं द्वितीयो भवेत् स भात्मद्वितीयो भवेत् स आत्मद्वितीयः, तस्य वा, अथवा आत्मतृतीयस्य द्वौ अन्यौ श्रमणौ स्वयं च तृतीयो भवेत् स आत्मतृतीयः, तस्य एकेन श्रमणेन द्वाभ्यां वा श्रमणाभ्यां सहितस्य रात्रौ वा विकाले वा बहिः उपाश्रयाद् बहिःप्रदेशे विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रमितुं प्रवेण्टुं गमनागमनं कर्तुं कल्पते । रात्रौ विकाले च एकाकिना श्रमणेन उपाश्रयाद्वहिर्न गन्तव्यमिति भावः । रात्री एकाकित्वेन गमनशीलस्य साघोः संयमविराधना आत्मविराधना च भवति, तथाहि-संयमविराधना यथा-बहिर्गतम् एकाकिन साधुं दृष्ट्वा रूपमुग्धा काचित् कुलटा स्त्री तदनिच्छयापि
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पस्त्रे
तमुपसर्गयति, 'कोऽत्र मां पश्यती' ति कृत्वा एकाकिनो मनो वा भिद्यते, इत्यादिना संयमविराधना । रात्रौ बहिर्गतमेकाकिनं साधुं दृष्ट्वा तस्करास्तदुपधिमपहरेयुः, प्रामारक्षका वा एकाकिनं रात्री दृष्ट्वा चौरोऽयमिति बुद्धया ग्रहणाकर्षणादिकं वा कुर्युः, श्वापदादिभिर्वा हन्येत, श्रामण्यसीदितः पलायनप्रतीक्षक एकाकित्वेन पलायेत, रात्री बहिः कायिकी प्रतिष्ठापयन् वायुप्रकोपेन मूर्छितः सन् भूमौ प्रपतेत् म्रियेत वा, इत्यादिप्रकारेण आत्मविराधना भवति तस्मात् नैकाकिना श्रमणेन रात्रौ बहिर्भूमौ गन्तव्यम् , अपितु एकेन द्वाभ्यां वा सह कायिक्याद्यर्थ रात्रौ बहिर्गन्तव्यं, तेन पूर्वोक्तपरिस्थितौ तस्य साहाय्यं भवेदिति भावः ॥ सू० ४७ ॥
पूर्व निग्रन्थस्य रात्रौ वहिर्गमनविधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतं तमेव विधि निर्ग्रन्थ्यर्थं प्रतिपादयितुमाह-'नो कप्पइ० एगाणियाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निरगंथीए एगाणियाए राओ वा वियाले वा वहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । कप्पइ से अप्पविइयाए वा अप्पतइयाए वा अप्पचउत्थीए वा राओ चा वियाले वा पहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥ सू० ४८ ॥
छाया-नो कल्पते निर्मथ्या एकाकिन्या रात्री वा विकाले वा बहिर्विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा कल्पते तस्या आत्मद्वितीयाया वा आत्मतृतीयाया वा आत्मचतुर्थ्या वा रात्रौ पा विकाले वा बहिर्विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥९० ४८ ॥ -
चूर्णी-'नो कप्पई' इति । इदं सूत्रं निम्रन्थसूत्रवदेव व्याख्येयम् , नवरं निर्ग्रन्थसूत्रे निम्रन्थस्य आत्मद्वितीयस्य आत्मतृतीयस्य रात्रौ वहिर्गमनं कल्पते इति प्रोक्तम् , अत्र तु निम्रन्थीसूत्रे आत्मचतुर्थ्या वा रात्रौ बहिर्गतुं कल्पते, इति प्रोक्तम् , एतावानेव विशेषः शेषं पूर्वसूत्रवदेवेति । निर्ग्रन्थ्या रात्रौ एकाकिन्या बहिर्गमनेऽनेके दोषाः संयमात्मविराधनादिकाः संभवेयुः, तथाहि-एकाकिनी बहिर्गतां दृष्ट्वा लम्पटः कोऽपि पुरुष उपसर्गयेत् , तत्प्रार्थनायां स्वमनो वा भिद्यते 'कोऽत्र मां पश्यती' ति कृत्वा तमनुमोदते, इत्यादिरूपेण संयमविराधना । आत्मविराधना प्रायः पूर्वोक्तैव रात्रौ गर्जादौ प्रपतेत् , मूर्छिता वा भवेत् , इत्यादिकाऽऽत्मविराधना भवति, अतो निम्रन्थ्या एकया द्वाभ्यां तिसृभिश्च सहितया रात्रौ बहिर्गन्तव्यम्, किन्तु नैकाकिन्या रात्रौ वहिर्गन्तव्यम् , एकाकिन्या रात्रौ वहिर्गमने आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वादयोऽनेके दोषाः समापयेरन्निति ॥ सू०४८ ॥
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णि भाग्यावचूरी उ० १ सू० ४१
आर्यदेश विहरणविधिः ३७
पूर्व निर्मन्थानां निर्व्रन्धीनां च रात्रौ वहिर्गमनविधिः प्रत्येकं पृथक्पृथकूत्वेन प्रतिपादितः, साम्प्रतं गमनप्रसङ्गात् निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां समुच्चयेनाऽऽर्यदेशान् प्रदर्शयन् विहरणविधिमाह - 'कप्पइ० पुरत्थिमेणं' इत्यादि ।
सूत्रम् -- कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमेणं जाव अंगमगहाओ एत्तए, दक्खिणं जाव कोसंबीओ, पच्चत्थिमेणं जाव थूणाविसयाओ, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए, एताaara कप्पर, एतावतान आरिए खेत्ते, णो से कष्पह एत्तो वाहि । तेण परं जत्थ नाणदंसणचरित्ताई उस्सप्पंति-त्ति वेमि ॥ सू० ४९ ॥
छाया - कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्यीनां वा पौरस्त्ये यावत् अङ्गमगधान् एतुम्, दक्षिणे यावत् कौशाम्वीः, पाश्चात्ये यावत् स्थूणाविषयान्, उत्तरे यावत् कुणालाविषयान् तुम्, एतावत्तावत् कल्पते, एतावत्तावद् आर्य क्षेत्रम् | नो तेषां ( तासां वा ) कल्पते एतस्माद् बहिः । ततः परं यत्र ज्ञानदर्शनचारित्राणि उत्सर्पन्ति इति ब्रवीमि ॥ सू० ४९ ॥
चूर्णी - ' कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्यीनां वा द्वयानां 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वदिशायां यावत् अङ्गमगघान् अङ्गजनपदं - मगधजनपद चावधीकृत्य अङ्गमगधदेशपर्यन्तमित्यर्थः । एतु ं विहर्तुं कल्पते । तत्र चम्पाप्रान्तसम्बद्धो जनपदः अङ्गपदेन प्रोच्यते, राजगृहसम्बद्धश्च जनपदो मगधशब्देन प्रोच्यते । अत्र सूत्रे बहुवचनं तद्गतानेकापान्तरालजनपदविवक्षया बोध्यम्, एवमग्रेऽपि । 'दक्खिणं' दक्षिणस्यां दिशि यावत् कौशाम्बीः, कौशाम्बीति कौशाम्बीनगर्युपलक्षितो जनपदः कौशाम्बीशब्देन प्रोच्यते इति कौशाम्बी सम्बद्धदेशपर्यन्तम् एतुं कल्पते, इति सर्वत्र संबध्यते । 'पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्ये पश्चिमदिशायां यावत् स्थूणाविषयान् स्थूणादेशपर्यन्तम् एतु ं कल्पते । 'उत्तरेणं' उत्तरस्यां दिशि यावत् कुणालाविषयान् कुणालादेशपर्यन्तम् एतुं कल्पते । एताव'त्तावत् चतुर्दिक्षु पूर्वोक्तजनपदपर्यन्तमेव निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां विहर्त्ती कल्पते । तत्र कारणमाह - 'एताव - ताव' एतावत्प्रमाणमेव कार्यक्षेत्रम्, अत्र तीर्थंकरादिमहापुरुषजन्मभूमित्वेन लोका धर्मिष्ठा: सन्ति तेन निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां ज्ञानदर्शनचारित्राणामाराधना सम्यक् कर्तुं शक्यतेऽत एतावत्येव आर्यक्षेत्रे निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीभिर्विहर्तव्यमिति भगवता समुपदिष्टम् । आर्यक्षेत्राद्वहिर्विहरणे निषेघमाह'नो से कप्पड़' इति । ‘से' इति तेषां निर्ग्रन्थानां तासां निर्ग्रन्थीनां वा नो कल्पते एतस्मात् क्षेत्राद् बहिर्विहर्त्तुम् । ज्ञानादिलाभार्थमपवादमाह – 'तेण परं' इति, ततः पूर्वोक्तमर्यादितार्यक्षेत्रात् परम्अग्रे अनार्यदेशेऽपि यत्र ज्ञानदर्शनचारित्राणि उत्सर्पन्ति वृद्धिमासादयन्ति तत्र विहर्तुं कल्पते, यदि पूर्वोक्तार्यक्षेत्राद्वहिः कारणवशात् श्रुतस्थविरास्तत्क्षेत्रेऽपि क्षेत्रगतजनानां सुलभबोधित्वप्राप्तिबुद्धया गता भवेयुः, ते च पश्चात् जावलक्षणत्वेन तत्रैव स्थिरवासे स्थिता भवेयुस्तेषां पार्श्वे ज्ञान
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwww
बृहत्कल्पसूत्र दर्शनचारित्रवृद्धिसंभवः, इति वुद्ध्या यथावसरं तत्रापि श्रमणश्रमणीनां गन्तुं कल्पते, इत्यपवादपदसंक्षेपार्थः । सुधर्मा स्वामी उपसंहरति-'त्ति बेमि' इति, यथा भगवन्मुखात् श्रुतं तथैव बवीमि-कथयामि न तु स्वबुद्धचेति ॥ सू० ४९॥ इति श्री-विश्वविख्यात–जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक -पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां"बृहत्कल्पसूत्रस्य"
चूर्णि-भाष्या-ऽवचूरीरूपायां व्याख्यायां
प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥१॥
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
| अथ द्वितीयोदेशकः ।
अथास्य द्वितीयोद्देशकादिसूत्रस्य प्रथमोद्देशकस्यान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह ---
भाष्यकार : - 'पुचं ' इत्यादि ।
साहूण गमणपाउरगा ।
भाष्यम् - पुवं आरियविसया, तत्थ निवासविही इह, दरिसिज्जइ एस संबंधी ॥ १ ॥ छाया - पूर्वम् आर्यविषयाः, प्रोक्ताः साधूनां गमनप्रायोग्याः ।
तत्र निवासविधिरिह, दर्श्यते एव सम्बन्धः ||१||
अवचूरी - 'पुत्र' इति । पूर्वम् - प्रथमोदेशकस्यान्तिमसूत्रे आर्यविषयाः आर्यदेशाः साधूनां गमनप्रायोग्याः विहरणयोग्याः प्रोक्ताः, तत्र आर्यदेशेषु विहरतां मुनीनां कीदृशे उपाश्रये वस्तव्यम् ? इति उपाश्रयनिवासविधिः इह - अस्य द्वितीयोदेशकस्य प्रथमे सूत्रे दर्श्यते । एष पूर्वोदेशकान्तिमसूत्रेण सह अस्यादिसूत्रस्य सम्बन्धो वर्त्तते ॥१॥
इत्यनेन सम्बन्धेनायातेऽस्मिन् द्वितीयोदेशके निर्मन्थनिर्ग्रन्थीभिः कीदृशे उपाश्रये वस्तव्यमिति प्रदर्शयितुकामः सूत्रकारोऽस्मिन् विषये त्रीणि सूत्राणि वक्ष्यति, तत्र प्रथमं सचित्तप्रतिबद्धोपाश्रयवासप्रतिषेघसूत्रम् १, द्वितीयम् - ऋतुबद्धकालयोग्योपाश्रयवासविधिप्रतिपादकं सूत्रम् २, तृतीयं चातुर्मासयोग्योपाश्रयविधिप्रतिपादकं सूत्रम् ३ चेति त्रीणि सूत्राणि, तत्र प्रथमं सचित्तबीजप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासनिपेधसूत्रमाह - 'उवस्सयस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् — उवस्सस्स अंतो वगडाए सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा कुलत्थाणि वा गोहमाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा उक्खिताणि वा विक्खित्ताणि वा विइकिष्णाणि वा विप्प किष्णाणि वा नो कप्पइ निमांथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए || सू० १ ॥
छाया
➖➖➖
- उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां शालयो वा ब्रोहयो वा मुद्रा वा भाषा घा तिला वा कुलत्था वा गोधूमा वा यवा वा, यवयवा वा उत्क्षिप्ता वा विक्षिप्ता वा व्यतिकीर्णा या विप्रकीर्णा वा नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम् ॥ सु०१ ॥ चूर्णी - ' उवस्सयस्स' इति । पूर्वोक्तेषु आर्यक्षेत्रेषु विहरतां श्रमणानां ऋतुबद्धकाले चातुर्मासे वा यत्र उपाश्रये स्थितिः कर्त्तव्या भवेत् तस्य उपाश्रयस्य वगडायां 'वगडा' इति देशी शब्दः प्राङ्गणवाचकस्तेन वगडायामिति उपाश्रयस्य प्राङ्गणे शालयः शालिवीजानि, ब्रीहयः ता एव शालिविशेषाः, मुद्गाः प्रसिद्धाः, माषाः 'उडद' इति प्रसिद्धाः, तिलाः कुलत्थाः 'कुलथी' इति प्रसिद्धो धान्यविशेषस्तस्या बोजानि, गोधूमाः, यवाः, यवयवाः 'ज्वारी' इति प्रसिद्धाः, यवजातीयबीजानि वा, एतानि धान्यबीजानि यदि उपाश्रयप्राङ्गणे उत्क्षिप्तानि सामान्येन प्रसृतानि, विक्षिप्तानि
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे विशेषेण प्रसृतानि, व्यतिकर्णानि सर्वत्र प्रस्तानि वा भवेयुस्तादृशे उपाश्रये निम्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि-क्षणमात्रमपि, यथालन्दशब्दो देशीयोऽत्र क्षणमात्रवाचकः, यावता कालेन जलार्दा हस्तरेखा शुष्यति तावत्कालमपि तत्र वस्तुं नो कल्पते । तत्र वासे अप्रमत्तानामपि अकस्मात् सचित्तबीजसंघट्टनस्यावश्यम्भावात् ॥ सू० १॥
अथ तत्रापि ऋतुबद्धकालयोग्योपाश्रयविधिप्रतिपादकं द्वितीय सूत्रमाह-'अह पुण' इत्यादि ।
सूत्रम्-अह पुण एवं जाणिज्जा-(उचस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि १०) नो उक्खित्ताई नो विक्खित्ताई नो विइकिण्णाई नो विपकिण्णाइं (किन्तु) रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥ सू०२॥
छाया- अथ पुनरेवं जानीयात्-(उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां शालयो वा०) नो उत्क्षिप्ताः, नो विक्षिप्ताः, नो व्यतिकीर्णा , नो विप्रकीर्णाः, (किन्तु) राशीकृता वा, पुञ्जीकृता वा, भित्तिकृता वा, कुलिकाकृता वा, लाञ्छिता वा, मुद्रिता वा, पिहिता वा, कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेपु वस्तुम् ॥ सू० २॥
.. ___ चूर्णी-'अह पुण' इति । तत्रार्यदेशे वस्तुमिच्छन्तो मुनयः अथ पुनरिति पूर्वसूत्रोक्तशाल्यादिबीजोत्क्षेपादिविपरीतमुपाश्रयं जानीयात्, अत्र पूर्वसूत्रोक्तपाठस्यानुवृतिः कर्त्तव्या, यथा उपाश्रयस्य वगडायां शालिबीजादीनि नो नैव उत्क्षिप्तानि विक्षिप्तानि व्यतिकीर्णानि किन्तु तानि तत्र वक्ष्यमाणप्रकारेण स्थितानि भवेयुः, यथा राशीकृतानि एकत्र राशिं कृत्वा स्थापितानि, पुजीकृतानि-दीर्घगोलाकारराशिं कृत्वा स्थापितानि, भित्तिकृतानि–भित्तौ कृतानिइष्टकादिरचितमित्तिनिश्रया स्थापितानि कुलिकाकृतानि मृत्पिण्डनिर्मितं कुड्याकारं स्थानं कुलिकोच्यते तत्रालीनानि कृत्वा स्थापितानि, लाञ्छितानि भस्मादिना चिन्हितानि, मुद्रितानि छगणमृत्तिकादिना अङ्कितानि आवृतानि, पिहितानि किलिञ्जकटादिना स्थाल्यादिना वा एवमेव स्थगयित्वा स्थापितानि भवेयुरत्रोपाश्रये तदा तत्र निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां हेमन्तग्रीष्मेषु ऋतुबद्वेषु. अष्टसु मासेपु मध्ये स्वस्वकल्प्यकाले वस्तुं कल्पते । एतादृशप्रकारेण स्थितेषु शाल्यादिवीजेषु तत्र वसतां मुनीनां सचित्तसंघटनादिप्रसङ्गाभावात् । तत्रापि चातुर्मासकाले न कल्पते, चातुर्मासे बीजानां गृहस्थकृतनिस्सारणपुनःस्थापनयोर्भूयो भूयः प्रसङ्गेन सचित्तसंघटनादेरवश्यम्भावात् ॥ सू० २.॥.
अथ तत्रापि चातुर्मासयोग्योपाश्रयविधिप्रतिपादकं तृतीयं सुत्रमाह-'अह पुण' इत्यादि।
सूत्रम्-अह पुण एवं जाणिज्जा (उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा०) नो रासिकडाई, नो पुंजकडाई, नो भित्तिकडाई, नो कुलियाकडाई, (किन्तु)कोहाउत्ताणि वा, पल्लाउत्ताणि वा, मंचाउत्ताणि वा, मालाउत्ताणि वा भोलित्ताणि वा लित्ताणि वा, पिहि
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ २ सू० ३-५
सचित्तप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासविधिः ४१. याणि वा लंछियाणि वा, मुदियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण चा निग्गंथीण वा वासाबासं वत्थए ॥ सू०३ ॥ - छाया-अथ पुनरेवं जानीयात् (उपाश्रयस्यान्तर्वगडायां शालयो वा०)नो राशोकतानि वा नो पुजीकृतानि नो भित्तिकृतानि नो कुलिकाकृतानि (किन्तु)कोष्ठागुप्तानि वा पल्यागुप्तानि वा, मञ्चागुप्तानि वा, मालागुप्तानि वा, अवलिप्तानि वा, लिप्तानि वा, पिहितानि वा, लाञ्छितानि वा, मुद्रितानि वा, कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रंन्थीनां वा वर्षावासं वस्तुम् ।। सू०३॥
चूर्णी-'अह पुण' इति । चातुर्मासवस्तुकामो मुनिः अथ-पूर्वोक्तप्रकारादन्यथाप्रकारेण पुनरेवं जानीयात्, यथा-प्रथमसूत्रानुवृत्त्या उपाश्रयस्यान्तर्वगडायां शालिवीजानि वा, इत्यादिपूर्वोतानि वीजानि पूर्ववत् नो राशीकृतानि नो पुञ्जीकृतानि नो भित्तिकृतानि नो कुलिकाकृतानि, एतानि पदानि पूर्ववद् व्याख्येयानि, किन्तु तानि शाल्यादिवीजानि कोष्ठागुप्तानि-कोष्ठेषु-कुशूलेषु-'कोठी' इतिप्रसिद्धेषु प्रक्षिप्य आ-समन्ताद् गुप्तानि गोपितानि गुप्तीकृतानि अचक्षुर्विषयीकृतानि, पल्यागुप्तानि वा-पल्येषु काष्ठगोमयमृत्तिकालिप्तवंशदलादिनिर्मितधान्याधारपात्रविशेषेषु 'पल्ला'इति प्राचीनसमयप्रसिद्धेपु आगुप्तानि समन्ततो गुप्तीकृतानि, मञ्चागुप्तानि वा-मञ्चेषु स्तम्भोपरि मृतिकागोमयलिप्तवंशदलादिना निर्मितेपु गोलाकारेपु उपर्याच्छादनसहितेषु धान्याधारविशेषेषु प्रक्षिप्य गुप्तीकृतानि, मालागुप्तानि वा-मालेषु गृहस्योपरि द्वितीयभूमितलगतेषु स्थानेषु प्रक्षिप्य
गुप्तीकृतानि भवेयुः, तान्यपि अवलिप्तानि तद्द्वारदेशं काष्ठपट्टादिना पिधाय गोमयमृत्तिकादिना ___ कृतोपलेपानि, लिप्तानि विशेषेण सर्वान्तः खरण्टितानि, पिहितानि तन्मुखाकारसमीचीनाच्छादकेन
सम्यक्तया गुप्तीकृतानि, लाञ्छितानि-रेखाऽक्षरादिकरणेन चिह्नितानि, मुद्रितानि-मृत्तिकादिना तद्गतच्छिद्राणि विलिप्य कृतमुद्रायुक्तानि भवेयुस्तस्मिन् , एवंविधे उपाश्रये निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा वर्षावासं चातुर्मासं वस्तुं कल्पते । एवप्रकारेण स्थापितानि शालिबीजादीनि चातुर्मासे नोद्घाट्यन्ते तेन तत्र वसतां श्रमणानां सचित्तबीजादिसघट्टनाशङ्काया अभावादिति ॥ सू० ३ ॥
पूर्व सचित्तप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासनिपेधः, ऋतुबद्धचातुर्मासयोग्योपाश्रयनिवासविधिश्च प्रदशितः, साम्प्रतं सुरावि कटकुम्भादिप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासे सापवादं विविं प्रदर्शयन्नाह 'उवस्सयस्स ....सुरावियडकुंभे' इत्यादि ।
सूत्रम्-उवस्सयस्स अंतो वगडाए मुरावियडकुंभे वा, सोवीरवियडकुंभे वा, उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० ४ ॥
छाया- उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां सुराविकटकुम्भो वा सौवीरविकटकुम्भो वा उपनिक्षिप्तः स्यात् , नो कल्पते निर्ग्रन्धानां वा निर्ग्रन्थोनों वा यथालन्दमपि वस्तुम्, हुरत्था
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
वृहत्कल्पसूत्रे
च उपाश्रयं प्रतिलिखन् नो लभेत एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम् , यस्तत्र एकरात्रा वा द्विरात्राद् वा परं वसति तस्य स्वान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥सू. ४॥
___ चूर्णी-'उवस्सयस्स' इति । उपाश्रयस्यान्तर्वगडायां सुराविकटकुम्भो वा सुराविकटस्य पिष्टनिष्पन्नमद्यस्य कुम्भो घटो वा, सौवीरविकटस्य-पिष्टवर्जित गुडादिनिष्पन्नमद्यस्य कुम्भो घटो वा उपनिक्षिप्त स्यात् स्थापितो भवेत् तदा तत्र निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा यथालन्दमपि-क्षणमात्रमपि आर्द्रहस्तरेखापरिशोषणकालमात्रमपि वस्तुं नो कल्पते । इत्युत्सर्गसूत्रम् । अथापवादमाह-'हुरत्या' इति देशी शब्दः बहिरर्थप्रतिपादकस्तेन वहिश्च तादृशोपाश्रयाद् वहिरन्यं च उपाश्रयं प्रतिलिखन् शोधयन् यदि नो लभेत तत्र ग्रामनगरादौ निर्दोषोपाश्रयं न प्राप्नुयात् तदा एवम् एतादृश्यां परिस्थिती सत्यां 'से' तस्य अत्र निर्ग्रन्थजातित्वेन एकवचनम्, कल्पते तथाविधेऽपि उपाश्रये एकरात्रं वा द्विरात्रं वा अत्र रात्रपदेन अहोरात्रं गृह्यते तेन एकाहोरात्रं वा व्यहोरात्रं वा वस्तुम् । किन्तु 'जे' यः कोपि साधुः तत्र तादृशे उपाश्रये एकरात्राद्दा द्विरात्राद्वा परम्-अधिकं त्रिचतूरात्रादिकं यावत् वसति 'से' तस्य 'संतरा' स्वान्तरात् स्वकृतं यद् अन्तरं भगवदुक्तैकद्विरात्रतो भेद त्रिचतूरात्रादिकालावस्थानरूपः तस्मात् , भगवदाज्ञाभेदकरणात् भगवदाज्ञाऽनाराधनादित्यर्थः छेदो वा छेदः पञ्चरात्रिन्दिवादिः, परिहारो वा मासलघुकादिस्तपोविशेषो वा आपद्यते इति ।। सू०४ ॥
पूर्वसूने सुराविकटादिप्रतिबद्धोपाश्रयवासस्य निषेधः, सापवादं विधिश्च प्रदर्शितः, साम्प्रतं पूर्ववदेव उदकविकटादिप्रतिवद्धोपाश्रयस्य निषेधं सापवादं विधिं च प्रदर्शयति-'उबस्सयस्स, इत्यादि ।
सूत्रम्-उवस्सयस्स अंतो वगडाए सीओदगवियडकुंभे वा उसिणोद्गवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमपि वथए । हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेजा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥सू०५॥
छाया-उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां शीतोदकविकटकुम्भो वा उष्णोदकविकटकुम्भो या उपनिक्षिप्तः स्यात् नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम्, हुरत्था च उपाश्रयं प्रतिलिखन् नो लमेत एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम्, यस्तत्र एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परं वसति तस्य स्वान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ।। सू०५॥
चूर्णी-उवस्सयस्स' इति । अस्य सूत्रस्य व्याख्या सुराविकटकुम्भसूत्रवदेव ज्ञातव्या, नवरं-विशेप एतावानेव यत् अत्र 'सीओदगवियड कुंभे वा उसिणोदगवियड कुंभे वा' इति वाच्यम् अत्रायमर्थः-शीतोदकविकृतकुम्भः शीतोदकं च तद् विकृत च स्ववर्णादिना वस्तं शीतोदकविकृतं विकृतशीतोदकं, तस्य कुम्भो घटः, एवम् उष्णोदकविकृतकुम्भ:-उष्णोदकं च तद् विकृतं च उष्णोदकविकृतं विकृतोष्णोदकं तस्य कुम्भो घटो यत्रोपाश्रये उपनिक्षिप्तो भवेत् । शेषं सर्व पूर्ववदिति ।। सू०५॥
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwwwwww
चूर्णिमायावचूरी उ० २ सं० ६-६ सचित्तप्रतिबद्धोपाश्रयनिवास विधि ४३
साम्प्रतमग्निकायप्रतिबद्धोपाश्रयसूत्रमाह-'उवस्सयस्स० सव्वराईए' इत्यादि ।
सूत्रम्-उवस्सयस्स अंतो वगडाए सब्बराईए जोई झियाएज्जा नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्ना एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू०६ ॥
छाया-उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां सार्वरात्रिकं ज्योतिः ध्मायेत् नो कल्पते, निम्रस्थानां वा निग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम्, हुरत्था च उपाश्रयं प्रतिलिखन् नो लभेत एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम्, यस्तत्र एकरावाद्वा द्विरात्राद्वा परं वसति तस्य स्वान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू०६॥
चूर्णी-- 'उवस्सयस्स' इति । इदमपि सूत्रं सुराविकटकुम्भसूत्रवदेव व्याख्येयम्, विशेषस्त्वयम्-अत्र सव्वराईए जोई झियाएब्जा इति वाच्पम्, तस्यायमर्थः-सार्वरात्रिक-परिपूर्णरात्रिव्यापकं ज्योतिः अग्निकायः ध्मायेत् प्रज्वलेत् , शेषं पूर्ववत् । साधूनामत्र वासे यत्राग्निकायविराधना तत्र षट्कायविराधना स्यादतः षट्कायविराधनादोष आपद्येत । अन्योपाश्रयालाभे एकद्विरात्रं वस्तुं कल्पते इति कारणजातेऽपवादः ।। सू०६ ।।
अथ प्रदीपप्रतिबद्धोपाश्रयसूत्रमाह-'उबस्सयस्स० पईवे' इत्यादि ॥
सूत्रम्--उवस्सयस्स अंतो वगडाए सबराईए पईवे पईवेज्जा नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वस्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वापरं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू०७ ॥
छाया-उपाश्रयस्यान्तवंगडायां सार्वरात्रिका प्रदीप प्रदीप्येत, नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम्, हुरत्था च उपाश्रय प्रतिलिखन् नो लमेत एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम्, यस्तत्र एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परं वसति तस्य स्वान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ।। सू०७॥
चूर्णी-उवस्सयस्त' इति । इद प्रदीपसूत्रमपि सुराविकटकुम्भसूत्रवदेव व्याख्येयम् , विशेषस्त्वयम्-'सबराईए' सार्वरात्रिकः परिपूर्णरात्रिव्यापकः संपूर्णरात्रिं यावत् प्रदीपः तैलप्रदीपो विद्युत्प्रदीपो वा दीप्येत प्रज्वलेत् तदा तत्र यथालन्दमपि निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्तु न कल्पते अन्योपाश्रयाभावे एकद्विरात्रं तत्र वस्तुं कल्पते, इत्यादि पूर्ववद् व्याख्या कर्तव्येति । अग्न्यारम्मे साधूनां वस्तुं न कल्पते तत्र पूर्ववदेव षट्कायविराधनादयो दोषाः संभवेयुः दीपेषु पततां पतङ्गादिप्राणिनां विराधनासंभवः, उपध्यादिषु तेषां पतनात् साधुशरीरेणापि विराधना स्यात् , इत्यादिदोषसंघातसभवात् , अपवादे अन्योपाश्रयालाभे एकद्विरात्रं कल्पतेऽपि, इति सूत्राशयः ।। सू०७ ॥
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
Annr
AAVM
वृहत्कल्पसूत्र पूर्व सार्वरात्रिकप्रदीपप्रतिवद्धोपाश्रये निम्रन्थनिर्ग्रन्थीभिर्न स्थातव्यमिति प्रोक्तम् , साम्प्रतं पिण्डादिप्रतिवद्धोपाश्रयविषये त्रीणि मूत्राणि वक्ष्यति, तत्र प्रथमं पिण्डादिप्रतिवद्धोपाश्रयनिवासप्रतिषेधसूत्रम् १, द्वितीयं ऋतुबद्रकालयोग्योपाश्रयनिवासविधिप्रतिपादकं सूत्रम् २, तृतीयं चातुर्मासयोग्योपाश्रयनिवासविधिप्रतिपादकं सूत्रं ३ चेति, तत्र प्रथमं पिण्डादिप्रतिबद्धोपाश्रयनिवासनिषेधमूत्रमाह- 'उवस्सयस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्--उचस्सयस्त अंतो वगडाए पिंडए वा लोयए वा खीरे वा दहिं वा णवणीए वा सपि वा तेल्ले वा फाणिर वा पूर्व वा सक्कुली वा सिहरिणी वा उक्खिताणि वा विक्खित्ताणि वा विइकिण्णाणि वा विप्पइण्णाणि वा नो कप्पई निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा अहालंदमवि वत्थए । सू० ८ ॥
छाया-उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां पिण्डको वा लोचकं वा क्षीरं वा दधि वा नवनीतं वा सपिर्वा तैलं वा फाणितं वा अपूपो वा शकुली वा शिखरिणी वा उत्क्षिप्तानि वा विक्षिप्तानि वा व्यतिकीर्णानि वा विप्रकीर्णानि वा नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुम् ॥ सू० ८ ॥
चूर्णी-'उवस्सयस्स' इति । उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां पिण्डको वा पिण्डस्तावत् विशिष्टस्वादुरससंपादितः गोलाकारो मोदकादिपदार्थः, अथवा गुडधृतशर्करादिवस्तुना पिण्डितो हस्ते ग्रहणयोग्यः पदार्थः पिण्ड उच्यते, स पिण्डक', लोचकं दुग्धादिविकृतिनिष्पन्नं भोज्यवस्तुजातम्, अथवा 'मावा' इति प्रसिद्ध खाद्यवस्तुजातं लोचकं कथ्यते, यस्य ग्रहणे हस्तौ खरण्टयेते तत् , क्षीरं वा दग्धम् , दधि वा, नवनीतं म्रक्षणं 'मक्खन' इति प्रसिद्धम् सर्पिः-घृतं वा, तैल वा, फाणितं द्रवितगुडरूपं गुडस्यपूर्वरूपं वा, प.-अप्पः 'मालपूआ'-पदवाच्यो वा, शकुली 'पुडी' इति प्रसिद्धा शिखरिणी शर्करायक्तदधिविकृतिरूपा शिखण्डपदवाच्या वा, एतानि आर्द्रशुष्करूपाणि भक्याणि यदि उत्क्षिप्तानि विक्षिप्तानि व्यतिकीर्णानि विप्रकीर्णानि इतस्तत. प्रसृतानीत्यर्थः, एषां प्रत्येकपदानां पृथक् पृथग् व्याख्या शालिबीजसूत्रे गता तत्रतोऽवसेया, तदा निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा ऋतुबद्धकाले वा चातुर्मासे वा कमिश्चिदपि काले यथालन्दमपि क्षणमात्रमपि आर्द्रहस्तरेखाशोषणकालमात्रमपि तत्र वस्तुं न कल्पते । तत्र वासे गमनागमनेन वस्तुविनाशसंभवस्तेन तदधिपतेर्मनसि साधु प्रति दुर्भावो जायते, लोके साधोस्तदतपदार्थलोलुपता लक्ष्यते बालग्लानसाधूनां तद्भक्षणाकाङ्क्षाऽपि संभवेत् , इत्यादिदोषसंभवात्निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीभि. क्षणमात्रमपि न तिष्ठेदिति भावः ।। सू० ८॥ .
अथ तत्रापि ऋतुबद्धकालयोग्योपाश्रयवासविधिप्रतिपादकं द्वितीयं सूत्रमाह-'अह पुण' इत्यादि ।
सूत्रम्--अह पुण एवं जाणेज्जा-( उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा०) नो उक्खित्ताइवा, नो विक्खित्ताई वा नो विइकिण्णाई वा नो विपकिण्णाई वा (किन्तु) रासि
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ० २ सू० ९-१२ सचित्तप्रतिवद्धोपाश्रयनिवासविधिः ४५ कडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुदियाणि वा पिहियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए। सू०९ ॥
छाया_अथ पुनरेवं जानीयात् (उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां पिण्डको वा०) नो उत्क्षिप्तानि वा नो विक्षिप्तानि वा नो व्यतिकीर्णानि वा नो विप्रकोर्णानि वा (किन्तु) राशीकृतानि वा पुजीकृतानि वा भित्तिकृतानि वा कुलिकाकृतानि वा लामिछतानि वा मुद्रितानि वा पिहितानि वा कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेपु वस्तुम् ।।
चूर्णी-'अह पुण' इति । अथ पूर्वप्रदर्शिताद् अन्यथा पुनः साधुर्जानीयात् उपाश्रयान्तर्वगडायां पिण्डकादोनि खाद्यवस्तूनि नो उत्क्षिप्तानि, इत्यादिपदानां व्याख्या पूर्ववत् , एवंप्रकारेण पूर्वोक्तपिण्डकादिवस्तूनि स्थापितानि भवेयुस्तदा हेमन्तग्रीष्मेषु अष्टमासात्मकेषु यथाकल्पकालं यावत् निर्ग्रन्थनिग्रंथीनां तत्र वस्तुं कल्पते तत्र पूर्वोक्तदोषासभवात् ॥ सू०९ ॥
अथ तत्रापि चातुर्मासनिवासयोग्योपाश्रयनिवासविधिप्रतिपाऽदकं तृतीयसूत्रमाह-'अह पुण' इत्यादि।
सूत्रम्--अह पुण एवं जाणेज्जा (उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा०) नो रासिकडाणि वा नो पुंजकडाणि वा नो भित्तिकडाणि वा नो कुलियाकडाणि वा कोद्राउत्ताणि वा पल्लाउत्ताणि वा मंचाउत्ताणि वा मालाउत्ताणि वा ओलित्ताणि वा विलित्ताणि वा लंछियाणि वा मुदियाणि वा पिहियाणि वा, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासं वत्थए ॥ सू० १०॥
छाया--अथ पुनरेवं जानीयात् (उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां पिण्डको वा०) नो राशीकृतानि वा नो पुजीकृतानि वा नो भित्तिकृतानि वा नो कुलिकाकृतानि वा कोष्ठागुप्तानि वा पल्यागुप्तानि वा मञ्चागुप्तानि वा मालागुप्तानि वा अवलिप्तानि वा 'विलिप्तानि वा लाञ्छितानि वा मुद्रितानि वा पिहितानि वा कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू १० ॥
चूर्णी-'अह पुण' इति । अथ तत्र चातुर्मासं वस्तुकामो मुनिर्यदि एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण जानीयात्, किं जानीयादित्याह-पिण्डकादारभ्य शिखरिणीपर्यन्तानि भक्ष्यद्रव्याणि 'नो राशीकृतानि इत्यादीनि पिहितानि वा' इति पर्यन्तानि पदानि शालिबीजप्रकरणगततृतीयसूत्रवद् व्याख्येयानि, एवंविधो यदि उपाश्रयो भवेत् तदा तत्र निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वर्षावासे चातुर्मासं वस्तुं कल्पते, पूर्वोक्तप्रकारेण रक्षितानां पिण्डकादिभक्यपदार्थानां भूयो भूयो निष्कासनस्थापनाद्यभावेन दोषाभावादिति ।। सू० १० ॥
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पसूत्रे
पूर्वं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां सामान्यतः सदोषा उपाश्रयाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं केवलं निर्ग्रन्थीनां शेषकालवासे सदोषस्थानानि निपेधयितुमाह - 'नो कप्पइ० अहे आगमण हिंसि' इत्यादि ॥ सूत्रम् - नो कप्पर निग्गंथीण अहे आगमण गिर्हसि वा वियडगिहंसि वा सीमूलंसि वा रुक्खसूलंसि वा अम्भावगासियंसि वा वत्थए | सू०११ ॥
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां अधः आगमनगृहे वा विवृतगृहे वा, वंशीमूले वा वृक्षमूले वा अभ्रावकाशिके वा वस्तुम् ॥ सू० ११ ॥
चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । निर्ग्रन्थीनां 'अघ" शब्दोऽत्र मध्यार्थक. 'अघ.' इत्यर्थकोऽपि वा तेन 'अधआगमन गृहे' इति आगमनगृहमध्ये इत्यर्थः, अधः - शब्दस्य सर्वत्र सम्बन्धः कार्यः, तत्र आगमनगृहे पथिकादीनां ग्रामाद् ग्रामान्तरे गमनागमनं कुर्वतां निवासार्थं यद् गृहं तस्मिन् पथिकनिवासस्थाने इत्यर्थः, अधोविवृतगृहे वा विवृतम् चतुर्दिक्षु आवरणवर्जितम् उपर्याच्छादितं यद् गृहं तद् विवृतगृहं, तस्मिन् तन्मध्ये अधोवंशीमूले वा वंशीमूलं तावद् गृहाद्वह्निवैशदलनिर्मितं गृहम् तस्मिन् गृहाद्वहिः, प्राघूर्णकादि सर्वसाधारणजनोपवेशनस्थानमध्ये इत्यर्थः, अघोवृक्षमूले वा वटपिप्पलादिवृक्षतले, अभ्रावकाशिके - अभ्रस्य आकाशस्य अवकाशः प्रचुरतया यत्र तत् अभ्रावका शिकं, तस्मिन् अल्पाच्छादिताधिकानाच्छादित गृहमध्ये आकाशबहुलस्थानमध्ये इत्यर्थ, एतादृशे गृहे साध्वीनां वस्तुं नो कल्पते, तस्य सागारिकनिश्राराहित्यात् सर्वसाधारणजनानां गमनागमनेनोच्चारप्रस्रवणादिपरिष्ठापने आहारादिकरणे च लोकानां दृष्टिपातादिभावात्, स्त्रोशरीरत्वेन ब्रह्मव्रते उपसर्गसंभवाच्चेति ॥ सू० ११ ॥
"
યુદ્
पूर्वं निर्ग्रन्थीनामागमनगृहादिषु वासो निषिद्धः, साम्प्रतं निर्ग्रन्थानामत्र कल्पते इति तद्विषये निर्मन्थसूत्रमाह- कप्पड़' इत्यादि ॥
सूत्रम् -- कप्पइ निग्गंथाणं आहे आगमणगिहंसि वा वियडगिहंसि वा वसीमूलंसि वा रुक्मूलंसि वा अभावगासियंसि वा वत्थए || सु०१२ ॥
छाया – कल्पते निर्ग्रन्थार्ना अधः आगमनगृहे वा विवृतगृहे वा वंशीभूले वा वृक्षमूले वा अभ्रावकाशिके वा वस्तुम् ॥ सू० १२ ॥
चूर्णी - ' कप्पइ' इति । पूर्वोक्तेषु आगमनगृहादिपु निर्ग्रन्धानां कल्पते, इति सूत्रार्थः । पुरुषशरीरत्वेन साधूनां तदोषानापातात् । आपवादिकमिदं सूत्रम् - यत् अन्योपाश्रयाभावेऽल्पकालार्थ कल्पते, नतु शेषकाले मासकल्पं यावत् चातुर्मासं यावद्वेति भावः ॥ सू० १२ ॥
पूर्वं निर्ग्रन्थानामागमनगृहादिपु वासो विहितः, स च शय्यातरमाश्रित्य भवतीति तत्प्रसङ्गात् शय्यातरवत्र्यतां प्रस्तौति, तत्र प्रथमम् अनेकशय्यातरेषु एकं शय्यातरं कुर्यादिति प्रतिपादयितुमाह- 'एगे' इत्यादि ।
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णभाष्यावरी उ०- २ सू० १३-१८
शय्यातरपिण्डग्रहणाग्रहणविधिः ४७
सूत्रम् - एगे सागारिए पारिहारिए, दो तिन्नि चत्तारि पंच सागारिया पारिहारिया, एवं तत्थ कप्पागं ठवित्ता अवसेसे निव्विसेञ्जा || सू०१३ ॥
छाया- - एकः सागारिकः पारिहारिकः द्वौ त्रयः चत्वारः पंच सागारिकाः, एकं तत्र कल्पकं कृत्वा शेषान् निर्विशेत् ॥ सू० १३ ॥
चूर्णी - 'एगे' इति । सागारिकः अगारेण गृहेण सहितः सागारः, स एव सागारिकः गृहस्वामी शय्यातर इत्यर्थः । शय्यातर इति कोऽर्थः ? शय्यां साधुभ्यो वसतिं दत्त्वा तरति संसारसागरं पारयति यः स शय्यातरः, अथवा शय्यायाः - वसतेर्दानेन भवपरंपरारूपं ससारप्रवाहं तरति योऽसौ शय्यातरः कथ्यते । अत्र शिष्यप्रश्नः - स एकः सागारिकः पारिहारिकः परिहारं परित्यागं अर्हतीति पारिहारिकः भिक्षादिग्रहणपरिहारयोग्यो भवति, तथैव द्वौ त्रयः चत्वारः पञ्च वाऽपि पारिहारिका भिक्षादिपरिहरणयोग्या भवन्ति किम् ? आचार्यस्तत्र विधिमाह -- य उपाश्रयो दायादभागमिश्रो भवेत्, अथवा बहुजनसाधारणं देवकुलादिकं वा भवेत्, एवं यस्य स्थानस्य द्वयादयः स्वामिनो भवेयुस्तत्र तेषु मध्ये एकं स्वामिनं कल्पकं शय्यातरकल्पयोग्यं शय्यातरत्वेन स्थापयित्वा तेष्वेकं शय्यातरं कृत्वा अवशेषान् अवशिष्टान् तदितरान् निव्त्रिसेज्जा-निर्विशेत् विसर्जयेत्, शय्यातरत्वेन न गणयेत् । अथवा अवशेषान् शेषाणां गृहेषु इत्यर्थः 'निवि०सेज्जा' निर्विशेत् प्रविशेत् महाराद्यर्थ तेषां गृहेषु अनुप्रविशेदिति भावः ॥ सू० १३ ॥ पूर्वसूत्रे एकः शय्यातरः कर्त्तव्यः इति प्रोक्तम्, साम्प्रतमत्रत आरभ्य शय्यातरपिण्डस्य निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीसमुच्चयेन ग्रहणविषये विधिं प्रतिपादयितुमाह - 'नोकप्पइ० सागारियपिंडं' इत्यादि । सूत्रम् - - नो कप्पड निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं वहिया अनीहड़ असस वा संसद्धं वा पडिग्गाहित्तए || सू० १४ ॥
,
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा सागारिकपिण्डं यहिः अनितं असंसृष्टं वा संसृष्टं वा प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १४ ॥
1
चूर्णी - 'नो कप' इति । निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा द्वयानामपि सागारिकपिण्ड सागारिकस्य–यो गृहस्थ. शय्यातरत्वेन स्थापितस्तस्य पिण्डम् - अशनादिक, यः, पिण्डः बहिः शय्यातरगृहाद् बहि' अनि 'त' अनिस्सृत. अन्यगृहे न नीत. शय्यातरगृहे एव स्थितः सः असंसृष्टोवा शय्यातरेतरपिण्डेन अमिलितो वा, अथवा ससृष्टो वा मिलितो वा भवेत् तं तादृशं शय्यातरपिण्डं नो कल्पते प्रतिग्रहीतुम्, शय्यातर पिण्डग्रहणस्य शास्त्रे सर्वत्र निषिद्धत्वात् ॥ सू०१४ ॥
-
अथ शय्यातर पिण्डस्यान्यनिषेधविधिमाह - 'नो कप्पड़' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कप्पर निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं वहिया नीहडं असंस पडिगाहित्तए । कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं वहिया नीडं संसद्वं पडिगाहित्तए ॥ सू० १५ ॥
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पस्त्रे छाया--- नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा सागारिकपिण्डं बहिनिहतं असंसष्टं प्रतिग्रहीतम् । कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा सागारिकपिण्डं बहिनिहृतं संसृष्टं प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १५ ॥
___ चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । शरय्यातपिण्डः शय्यातरगृहाद् वहिस्तु निर्हतः-निस्सृतः अन्यगृहे नीतो भवेत् किन्तु स तत्र अससृष्टः अन्यदीयपिण्डेन असंमिलितः अन्यागृहीतत्वेन अन्यदीयपिण्डत्वं न प्राप्त. शय्यातरस्वत्वसहित एव भवेत् , तं पिण्डं प्रतिग्रहीतुं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां नो कल्पते शय्यातरस्वत्वेन अनिर्मुक्तत्वात् । तर्हि कथं कल्पते ? इति कल्पविधिं दर्शयति-बहिनिहृतः यदि शय्यातरगृहादन्यगृहे नीत. सन् स शय्यातरपिण्डः ससृष्टः अन्यदीयपिण्डेन संमिलितः अन्यदीयपिण्डत्वं प्राप्तः शय्यातरस्वत्वविनिर्मुक्तो भवेत् तदा तं तादृशं शय्यातरपिण्ड प्रतिग्रहातं निग्रन्थनिर्ग्रन्थोनां कल्पते तस्य शय्यातरस्वत्वविनिर्मुक्तत्वात् ।। सू०१५॥
अथ शय्यातरगृहविनिर्गतासंसृष्टपिण्डस्य ससृष्टकरणे प्रायश्चित्तं प्रदर्शयति - 'जो खलु' इत्यादि ।
सूत्रम्--जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा सागारियपिंडं बहियानीहडं असंसर्ट संसर्ट करेइ, करेंतं वा साइज्जइ से दुहओ वीइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥ सू० १६ ॥
छाया-यः खलु निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा सागारिकपिण्डं वहिनिहतं असंसृष्टं संसृष्टं करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते स द्विधातो व्यतिक्रामन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥ सू० १६ ॥
___ चूर्णी-'जो खलु' इति । यः खलु कोऽपि रसनलोलुपी निर्ग्रन्थो वा तथा तादृशी निर्ग्रन्थी वा यदि सागारिकपिण्डं वहिनितम्-अन्यगृहे संप्राप्तम् किन्तु असंसृष्टम् अन्याशनादिना न मिलितम् । यस्य गृहे स पिण्डो नीतस्तेनास्वीकृतः शय्यातरस्वत्वसहित एव तं ससृष्टं अन्यगृहस्थस्वत्वसहितं शय्यातरस्वत्वविनिमुक्तं स्वहस्तेन तत्रागतं शय्यातरपिण्डं गृहीत्वा तद्गृहे स्थापयति । तेनाऽगृह्यमाणमपि गृहीतमनेनेति करोति, एवं कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स एतादृशो निर्ग्रन्थः निम्रन्थी वा द्विधातः-लौकिकलोकोत्तरेति द्विप्रकारत' लौकिकमर्यादां जिनशासनमर्यादां च व्यतिक्रामन् उल्लङ्घयन् आपद्यते प्राप्नोति चातुर्मासिकं चतुर्माससम्बन्धिकं परिहारस्थान प्रायश्चित्तस्थानम् अनुद्घातिकम् चतुरो गुरुमासान् प्रायश्चित्त प्राप्नोतीति भाव. ॥ सू०१६॥
पुनरपि सागारिकपिण्डविपये आवृतिकामध्याद्दीयमानाहारादेर्ग्रहणाग्रहणविधिमाह-'सागारियस्स आइडिया' इत्यादि,।
सूत्रम्-सागारियस्स आइडिया सागारिएण पडिगहिया तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ।सू०१७॥ सागारियस्स आइडिया सागरिएण अप्पडिग्गहिया तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू०१८ ॥
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
घुर्णिभाष्यावचूरी उ०-२ सू० १७-२० शय्तातरपिण्डग्रहणाऽग्रहणविधिः ४९
छाया-सागारिकस्य आहृतिका सागारिकेण प्रतिगृहीता, तस्याः दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥सू० १७॥ सागारिकस्य आहृतिका सागारिकेण अप्रतिगृहीता तस्याः दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १८॥
चूर्णी-'सागारियस्स' इति । सागारिकत्य-शय्यातरस्य आहृतिका आहियते-- दातुमानीयते या सा आहृतिका अन्यगृहादागता प्रहेणकरूपा उपायनप्राभृतादिपदवाच्या 'परोसा' इति भाषाप्रसिद्धा, या अन्यस्मात् स्वजनादिगृहात् समर्पयितुं शय्यातरगृहे समागता भवेत् सा यदि सागारिकेण प्रतिगृहीता-स्वीकृता तस्याः तद्गताशनादिमव्यात् अशनादिकं साधवे दद्यात् शय्यातरोऽन्यो वा कोऽपि तदशनादिकं तदा 'से' तस्य भिक्षार्थमागतस्य साधोः प्रतिग्रहीतु नो कल्पते, तस्मिन् संजातशय्यातरस्वत्वत्वात् ।।सू०१७॥ अथ तद्वैपरीत्ये कल्पते इति तद्विधि प्रदर्शयति'सागारियस्स आहडिया' इत्यादि । सागारिकस्य गृहे समानीता आहृतिका यदि तेन सागारिकेण अप्रतिगृहीता-अस्वीकृता भवेत् तदा तस्याः-तद्गताशनादितोऽन्यः शय्यातरादितर आहृतिकावाहकोऽन्यो वा दद्यात् ‘एवं' अनेन विधिना दीयमानमशनादि 'से' तस्य भिक्षार्थ समुपस्थितस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते, तस्मिन् असजातशय्यातरस्वत्वत्वादिति ॥ सू० १८ ।।
पूर्व सागारिकगृहागगताऽऽद्वतिकाया अशनादेर्ग्रहणाग्रहणविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं सागारिकगृहादन्यत्रगतनिर्दृतिकाया अशनादेर्ग्रहणाग्रहणविधिमाह-'सागारियस्स नीहडिया' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स नीहडिया परेण अपडिग्गहिया तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए । सागारियस्स नीहडिया परेण पडिग्गहिया तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू० १९॥
छाया-सागारिकस्य निर्दृतिका परेण अपरिगृहीता तस्याः दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सागारिकस्य निर्हतिका परेण परिगृहीता तस्या. दयात् ण्वं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १९॥
चूर्णी-'सागारियरस' इति । सागारिकस्य शय्यातरस्य निर्वृतिका निर्हियते-दातुमन्यत्र नोयते सा निर्हतिका सागारिकगृहाद् अन्यस्मै स्वजनादिकाय दातुं वहिनीता ग्वजनादिगृहे प्राप्ता तत्र परेण तेन स्वजनादिना अपरिगृहीता-अस्वीकृता शय्यातरसत्कैव स्थिता तस्या तन्मध्यात् कोऽपि शय्यातरोऽन्योऽपि कश्चित् अशनादि तत्र तत्क्षणसमागताय साधवे दद्यात् तदशनादि 'से' तस्य सावो प्रतिग्रहीतुं नो कन्पते, तस्मिन् शय्यातरस्वत्वस्यानिमुक्तत्वात् । अथ तद्वैपरोत्ये ग्रहणविधिमाह-'सागारियस्स नीहाडिया' इत्यादि । सागारिकस्य निर्वृतिका सागारिकगृहाबहिनिर्गता स्वजनादिगृहे संप्राप्ता सा निर्दृतिका यदि परेण स्वजनादिना प्रतिगृहीता-स्वीकृता
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पसूत्रे भवेत् तस्याः तन्मध्यात् अशनादि शय्यातरेतरः तत्स्वीकर्ता स्वजनादिः दद्यात् तदा तदशनादि 'से' तस्य भिक्षार्थ तत्रोपस्थितस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते, तादृशाशनादेः शय्यातरस्वत्वविनिर्मुक्तवादिति ॥ सू० १९ ॥
पूर्व सागारिकस्य निर्हताया ग्रहणाग्रहणविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं सागारिकपिण्डांशमिश्रितस्याशनादेर्ग्रहणाग्रहणविधिमाह-'सागारियस्स अंसियाओ' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स असियाओ अविभत्ताओ अव्वोच्छिन्नाओ अयोगडाओ अणिज्जूढाओ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सागारियस्स अंसियाओ विभत्ताओ वोच्छिनाओ वोगडाओ णिज्जूढाओ तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू० २० ॥
छाया--सागारिकस्य अंशिकाः अविभक्ता अव्यवच्छिन्ना अव्याकृता अनियूंढा ताभ्यः दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सागारिकस्य अंशिका विभक्ता व्यवच्छिन्ना व्याकृता, नियूँढा ताभ्यः दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।। सू०२०॥
__ चूर्णी--'सागारियस्स' इति । अत्र अंशिकाः इति वहुवचनम् बहूनां मित्रस्वजनादीनाम् अंशा नानाभक्ष्यमया येषु अशनादिषु एकत्रिताः स्युस्ता अंशिका इत्युच्यन्ते बहुजनानामंशमिश्रिताशनादिरूपाः, तासु अंशिकासु यदि सागारिकस्य अंशिकाः अविभक्ताः विभागपृथक्करणरहिताः सागारिकस्य विभागो यासु विद्यते तादृश्य इत्यर्थः, अव्यवच्छिन्नाः व्यवच्छेदरहित्ताः संबद्धा इत्यर्थः, अन्याकृता व्याकरणरहिताः भागस्पष्टोकरणवर्जिताः 'अयं तवांशः, अयं ममांशः' इत्येवं सागारिकभागस्य नामनिर्देशपूर्वकमनिर्दिष्टाः, अनियंढाः अनिष्कासिताः कृतविभागा अपि तत्रैव स्थिताः सागारिकेण न नीताः, एतादृश्यः अंशिकाः यत्र गृहस्थगृहे स्युः 'तम्हा' ताभ्यो यदि शय्यातरादितरोऽपि जनः साधवे दद्यात् तदा नो नैव 'से' तस्य भिक्षार्थमुपस्थितस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते, सागारिकांशिकामिश्रितत्वात् । ग्रहणविधिमाह-यदि पूर्वोक्तस्वरूपाभ्योंऽशिकाभ्यः सागारिकस्य अंशिकाः विभक्ताः विभागेन पृथक्कृताः व्यवच्छिन्ना व्यवच्छेदसहिता असंवद्धा इत्यर्थः, व्याकृता नाम निर्देशपूर्वकं भागस्पष्टीकरणेन निर्दिष्टाः 'इमाः सागारिकस्यांशिकाः इमा न' इतिभागस्पष्टीकरणयुक्ता इत्यर्थः, निर्मूढाः निष्कासिताः कृतविभागत्वेन तत्रतोऽन्यत्र स्थापिताः 'तम्हा' ताम्यो यदि शय्यातरादितरः कोऽपि साधवे दद्यात्, एवं स्थिताः 'से तस्य भिक्षार्थमुपागतस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते, तत्र सागारिकांशिकाया विनिर्मुक्तत्वात् । अयं भावार्थः-यत्र वहुजनविभागयुक्तमशनादिकं भवेत् तत्रान्येषां विभागेभ्यः सागारिकस्य विभागः पूर्वोक्तप्रकारेण विभज्य पृथग न कृतो भवेत् तदशनादिकं सागारिकविभागस्य त्याज्यत्वेन साधोर्न कल्पते, अन्यथा अन्येषां विभागेम्यः सागारिकस्य विभागः पूर्वोक्तविधिना तत्रतः पृथक्कृतो भवेत् तदा तदशनादिकं सागारिकविभागरहितत्वेन साधोः कल्पते इति ॥ सू० २०॥
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ०-२ सू० २१-२४ शय्यातरपिण्डग्रहणाऽग्रहणविधिः ५१
पूर्वसूत्रे शय्यातरस्यांशिकायुक्तांशिकारहिताशनादेब्रहणाग्रहणविधिः, प्रदर्शितः, सांप्रतं सागारिकस्य कलाचार्यादिपूज्यजनोद्देशेन तदानार्थं निष्पादितभक्तस्य ग्रहणनिषेधं ग्रहणविधिं च प्रदर्शयितुकामः सूत्रकारस्तद्विषये सूत्रचतुष्टयीमाह,तत्र प्रथमं निषेधसूत्रमाह-'सागारियस्स पूयाभत्ते' इत्यादि।
सूत्रम्-सागारियस्स पूयाभत्ते उदेसिए चेइए पाहुडियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निहिए निसिहे पाडिहारिए, तं सागारिओ देज्जा सागारियस्स परिजणो वा देज्जा तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू० २१॥
छाया - सागारिकस्य पूज्यभक्तम् औद्देशिकं चेतितं प्राभृतिकायाम् सागारिकस्य उपकरणजाते निष्ठितं निसृष्टं प्रातिहारिकं, तत् सागारिको दद्यात् सागारिकस्य परिजनो वा दद्यात् तस्मात् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २१ ॥
चूणी-'सागारियस्स' इति । सागारिकस्य पूज्यभक्तम्-पूज्यानां कलाचार्यादिसंमान्यपुरुपाणां पूज्यत्वेन मान्यानां प्राघुणकानां च कृते निष्पादितं भक्तम् ओदनादिकं पूज्यभक्तं कथ्यते, तच्च औदेशिकम् कमप्युद्दिश्य निष्पादितम् औदेशिकं, भण्यते अत्र कलाचार्यप्राघुणकादिपूज्यजनानामुद्देशेन संपादितमशनादिकमौदेशिकशब्देन गृह्यते, तद् औद्देशिकमशनादि प्राभृतिकायाम् उपायन(मेट,रूपायां चेतितम्-उपढौकितं तेभ्य उपनीतं समर्पितमित्यर्थः, कीदृशं तत् पूज्यभक्तमित्याह-'सागारियस्स' इत्यादि, तत् पूज्यभक्तं सागारिकस्य उपकरणजाते स्थाल्यादिपाकपात्रे निष्ठितं निष्पादित, निसृष्टं तत्पात्रान्निष्कासितं, तथा तत् प्रातिहारिकं पुनः प्रत्यर्पणप्रतिज्ञया गृह्यमाणं प्रातिहारिक भवति यथा-'भुक्तोद्वरित पुनरस्मभ्यं प्रत्यर्पणीयम्' इति प्रतिज्ञायुक्तम् , तदशनादि सागारिको वा सागारिकपरिजनकुटुम्बजनो वा दद्यात् तस्माद् तादृशाद् अशनादेमध्यात् साधवे भिक्षार्थमुपस्थिताय दद्यात् तदा तदशनादि-"से' तस्य भिक्षार्थमुपस्थितस्य साधोः प्रतिग्रहीतु स्वीकर्तुं नो कल्पते, तदशनादेः सर्वथा शय्यातरदोषदूषितत्वात् ।। सू० २१ ॥
अथ पूज्यभक्तविषयकं द्वितीयं सूत्रमाह-सागारियस्स पूयाभत्ते' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स पूयाभत्ते उदेसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए निहिए निसिहे पाडिहारिए तं नो सागारिओ देज्जा नो सागारियस्स परिजणो वा देज्ना सागारियस्स पूया देज्जा तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू०२२॥
छाया--सागारिकस्य पूज्यभक्तम् औद्देशिकं चेतितं प्राभृतिकायाम् सागारिकस्य उपकरणजाए निष्ठितं निसृष्टं प्रातिहारिकं, तत् नो सागारिको दद्यात् नो सागारिकस्य परिजनो वा दद्यात्, (किन्तु) सागारिकस्य पूज्यो दद्यात् तस्मात् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २२॥
चूर्णी-'सागारियस्स' इति । एतत्सूत्रगतपदानां व्याख्या पूर्वसूत्रवदेव कर्तव्या, नवरम्अत्र तादृशमशनादि न सागारिको दद्यात् न वा सागारिकस्य परिजनो दद्यात् किन्तु पूज्यः स्वहस्तेन
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्र दद्यात् तथापि तदशनादि 'से' तस्य साधोः प्रतिग्रहीतुं न कल्पते, तदशनादेः सागारिकस्त्रत्ववत्त्वात् ॥ सू० २२ ॥
साम्प्रतं पूज्यभक्तविषयकं तृतीयं सूत्रमाह-'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स पूयाभत्ते उदेसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए निहिए निसिढे अपाडिहारिए तं सागारिओ देइ सागारियपरिजणो वा देइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० २३ ॥
छाया-सागारिकस्य पूज्यभक्तम् औद्देशिकम् चेतितं प्राभृतिकायाम् सागारिकस्योपकरणजाते निष्ठितं निसृष्टम् अप्रातिहारिकम् तत् सागारिको ददाति सागारिकपरिजनो वा ददाति तस्मात् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २३ ॥
. चूर्णी-'सागारियम्स' इति । एतदपि सूत्र पूर्ववदेव व्याख्येयम् , नवरं विशेषत्वयम्यत् पूर्वमूत्रद्वये पूज्यभक्तं 'प्रातिहारिकम्' इति भुक्तोद्वरितस्य पुनर्ग्रहणयोग्यम्-इति कथितम्, अस्मिन् सूत्रे अप्रातिहारिकं 'भुक्तोद्दरिन पुनरस्मभ्यं प्रत्यर्पणीय' मितिप्रतिज्ञावार्जितं भवता सर्वं तत्रैव स्थाप्यं नास्मभ्यं दातव्यम् वयं नो प्रतिग्रहोण्यामः' इत्येवं प्रतिज्ञया प्रदत्तं भवेत् तथापि सागारिकेण सागारिकपरिजनेन वा दीयमानं तदशनादि साधोर्न कल्पते तस्य सागारिकतत्परिजनहस्तस्पर्शदोषसद्भावात् , तदाहारे प्रकृतिभद्रकसागारिकेण निर्दोषवस्तुनि भक्तिवशात् स्वकीयाऽन्यवस्तुप्रक्षेपणसंभवाच्चेति ॥ सू० २३ ॥
अथ पूज्यभक्तविषये तदाहारग्रहणप्रकारप्रतिपादकं चतुर्थ सूत्रमाह-'सागारियस' इत्यादि ।
सूत्र-सागारियस्स पूयाभत्ते उदेसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उबगरणजाए निहिए निसिट्ठे अपडिहारिए तं नो सागारिओ देइ नो सागरियस्स परिजणो वा देइ सागारियस्स पूया देइ तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सू० २४॥
छाया-सागारिकस्य पूज्यभक्तम् औद्देशिकं चेतितं प्राभृतिकायाम्, सागारिकस्य उपकरणजाते निष्ठितं निसृष्टम् अप्रातिहारिकं तद् नो सागारिको ददाति नो सागारिकस्य परिजनो वा ददाति, सागारिकस्य पूज्यो ददाति तस्मात् दद्यात् एवं तस्य कल्पते . प्रतिग्रहीतुम् ।। सू० २४ ।।
चूर्णी-'सागारियस्स' इति । सागारिकस्य पूज्यभक्तं पूर्वप्रदर्शितप्रकारकं तत् अप्रातिहारिकं पुन प्रत्यर्पणप्रतिज्ञारहितं भवेत् तत्पुनः नो सागारिको ददाति नो वा सागारिकपरिजनो ददाति किन्तु तदाहारजातम् अप्रातिहारिकत्वेन गृहीतं शय्यातरस्त्र-वविनिर्मुक्तं सागारिकस्य पूज्यः स्वहस्तेन ददाति तस्मात् तादृशादाहारजातमध्यात् दद्यात् एवं सति तस्य भिक्षार्थमुपागतस्य साधोः प्रतिग्रहीतुम् उपादातुं कल्पते, अस्याऽप्रानिहारिकत्वेन शय्यातरस्वत्वराहित्यात्, शय्यातरस्य तत्परि- . जनस्य च हस्तस्पर्शवर्जितत्वाच्च ॥ सू० २४ ॥
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावधुरी उ०-२ सू० २५-२६
वस्त्ररजोहरणग्रहणविधिः ५३ अथ शय्यातरपिण्डविषयान् संगृह्याह भाष्यकारः-'अनीहडं' इत्यादि । भाष्यम्-अनीहडं नीहडं चा, आहडिया तहेव य । नोहडिया अंसिया वा, पूयाभत्तं चउव्विहं ॥२॥ सागारियस्स संबंधो, जत्थ जारिसतारिसो । साहूणं कप्पर नो तं, कप्पे संबंधवज्जियं ॥३॥ छाया-अनिहतं निहत वा, आहतिका तथैव च । निर्हतिका अंशिका वा, पूज्यभक्तं चतुर्विधम् ॥ २ ॥ सागारिकस्य संवन्धो, यत्र यादृशतादृश ।
साधूनां कल्पते नो तत्, कल्पेत सम्बन्धवर्जितम् ॥ ३ ॥ __ अवचूरी-'अनीहडं' इति । अनि तम् यद् अन्यस्तै वितरणाय अन्यदीयगृहे न नीत
शय्यातरगृह एव स्थितं तत् १, निहतं यत् शय्यातरगृहादन्यदीयगृहे प्राप्तम् २, आहृतिका-अन्यस्माद गृहात् शय्यातरगृहे समागता 'परोसा' इतिलोकप्रसिद्धा प्राभृतिकारूपा ३, निर्दृतिका-शय्यातरगृहादन्यदीयगृहे प्रेपिता प्राभतिका ४, अंशिका शय्यातरसहितद्वित्रिचतु पञ्चजनानां विभागैः संमिश्रा ५, चतुर्विधं पूज्यभक्तम् , तत्र प्रथमं कलाचार्यादिपूज्यजनमुदिश्य सपादितं प्रातिहारिकत्वेन तस्मै प्रदत्तं सागारिकेण दीयमानम् १, द्वितीय-पूर्वोक्तप्रकारमशनादि सागारिकरय पूज्येन दीयमानम् २, तृतीयं तादृशमशनादि अप्रातिहारिकत्वेन पूज्याय प्रदत्तं किन्तु तत् सागारिकेण दीयमानम् ३, एतत्त्रयमप्यकरप्यम् । चथुथे तादृशमशनादि अप्रातिहारिकत्वेन पूज्याय प्रदत्तं सागारिकं वर्जयित्वा पूज्यहस्तेन दीयमानम् ४, एतत्कल्प्यम् । एषु नवविधेषु अशनादिषु मध्ये यत्र यस्मिन् कस्मिंश्चिदशनादौ सागारिकस्य यादृशतादृशो यः कोऽपि सम्बन्धः स्वत्वविषयो हस्तदानविषयो विभागविषयो वा एतादृशोऽन्यो वा कोऽपि सम्बन्धो भवेत् तदशनादि साधूनां नो.. कल्पते, किन्तु यत् सम्बन्धवर्जितं-स्वत्वसम्बन्धहस्तदानसम्बन्धविभागसम्बन्धवर्जितं भवेत् तत् साधूनां कल्पेत ॥ २-३॥
पूर्वमाहारसूत्रं प्रोक्तम् , आहारानन्तरं वस्त्रप्रसङ्ग इति वस्त्रग्रहणसूत्रमाइ-'कप्पइ. पंच वत्थाई' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा इमाइं पंच वत्थाइंधारित्तए वा परिहरित्तए वा तं जहा-जंगिए भंगिए साणए पोत्तए तिरीडपट्टे नामं पंचमे ॥ सू० २५ ॥
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा इमानि पञ्च वस्त्राणि धारयितुं वा परिहत वा, तद्यथा-जाङ्गमिकम् , भाङ्गिकम् , शाणकम् पोतकम् तिरीटपट्टकं नाम पञ्चमम् ॥ सू० २५ ॥
. चूर्णी-'कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा इमानि वक्ष्यमाणानि पञ्च पञ्च. प्रकारकाणि वस्त्राणि धारयितुं वा स्वनिश्रायां स्थापयितुं, तथा परिहर्तुं वा उपभोक्तुं कल्पते, तान्येव
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्र दर्शयति-तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा तानि यथा-जाङ्गमिकम्-जङ्गमानां गमनशीलानां मेषादीनामिदं जाङ्गमिकम् मेषादिरोमनिष्पन्नम् औणिकमित्यर्थः १, भाङ्गिकम्-भङ्गैः अतस्यादित्वग्भिनिष्पन्नं भाङ्गिकम् २, शाणकम् -शणः स्वनामख्यातस्तृगविशेषः, तेन निष्पन्न शाणकं शणसूत्रवस्त्रम् ३, पोतकम्-पोतः कर्पासस्तेन निष्पन्नं पोतकं कार्पासवस्त्रम् ४, तिरीटपट्ट कम्-तिरीटो वृक्षविशेषस्तस्य त्वग्भिनिष्पादितं तिरीटपट्टकम् एतन्नामकं पञ्चमं वस्त्रम् ५। एतानि उपर्युक्तानि पञ्चविधानि वस्त्राणि निम्रन्थनिर्ग्रन्थोनां कल्पते, न तु तद्भिन्नानि क्षौमदुकूलचीनांशुकादिवस्त्राणि कल्पते । अत्र जङ्गमशब्देन त्रसप्राणिनो गृह्णन्ते तत्कथं त्रसप्राण्यङ्गसमुद्भूतंवस्त्रं कल्पते इति प्रोक्तम् ? तत्राह-जङ्गमा द्विविधाः विकलेन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्च, तत्र विकलेन्द्रियप्राण्यङ्गभूतसूत्रनिर्मितानि क्षौमादिवस्त्राणि न कल्पन्ते प्राणिवधप्रसङ्गात् , अत्र जङ्गमशब्देन पञ्चेन्द्रिया गृह्यन्ते तेषां रोमभिर्निष्पन्नं वस्त्रं कल्पते, तेषां परिवतिरोमकर्त्तनेन न किमपि दुःखं भवति प्रत्युत तेषां सुखानुभवो भवति ततो जाङ्गमिकशब्देन ऊर्णावस्त्रं वोध्यम्, अत्र प्राणिपीडालेशासंभवात् ॥ सू० २५ ॥
पूर्व वस्त्रग्रहणसूत्रं प्रोक्तम् ,तत्प्रसङ्गात् रनोहरणग्रहणसूत्रमाह-'कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिदरित्तए वा, तंजहा--उण्णिए, उहिए, सागए, वच्चाचिप्पए, मुंजचिप्पए नाम पंचमे ॥ सू० २६ ॥
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा इमानि पञ्च रजोहरणानि धारयितुं वा परिहर्नु वा, तद्यथा-ओणिकम्, औष्ट्रिकम्, शाणकम्, वच्चाचिप्पकम्, मुजचिप्पक नाम पञ्चमम् ॥ सू० २६ ॥
चूर्णी--'कप्पई' इति । निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा इमानि अप्रे वक्ष्यमाणानि पञ्च-पञ्चप्रकारकाणि रजोहरणानि-रजो द्विवियं द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यरजो धूल्यादिकम् , भावरजःअष्टविधकर्म, ततो द्विविधमपि रजो हरतीति रजोहरणम् । तत्र द्रव्यरजोहरणेन आदाननिक्षेपपरिष्ठापनादिकार्ये भूमिगत कुन्थुपिपीलिकादिलवुजन्तुनां निवारणं भवति ततः संयमयोगाः संपन्ना भवन्ति । भावरजोहरणेन कममलशोधिर्जायते, तानि पञ्चप्रकारकाणि कल्पन्ते, तदेव दर्शयतितद्यथा तानीमानि- औणिक मेषाचूर्णानिष्पन्नम् १, औष्ट्रिकम्-उष्ट्ररोमनिष्पन्नम् २, शाणकम्शणसूत्रनिप्पन्नम् ३, बच्चाचिप्पका--बच्चा-दर्भाकारतृणविशेषस्तस्य वल्कलः, तस्य चिप्पकेन कुट्टितेन कुट्टितत्वविशेषेण निष्पन्न वच्चाचिप्पकम् ४, मुंजचिप्पक-मुञ्जस्य शरस्तम्बस्य चिप्पकेन कुट्टितेन कुट्टितमुजेन निष्पादितं नाम पञ्चमं रजोहरणम् ५, एतानि पञ्चविधानि रजोहरणानि साधुसाध्वीनां कल्पते नान्यानि कासिकादिसूत्रनिष्पन्नानि, तैः कुन्थुपिपीलिकादीनां सम्यग् रक्षणासंभवात् । अत्र वच्चाचिप्पकं मुञ्जचिप्पकं नाम कस्मिंश्चिदेशविशेषे चिप्पकनामको दर्भाकारस्तृणविशेषो भवति, तं च प्रथम चिप्पित्वा कुट्टयित्वा तदीय क्षोदं रुतरूपं कृत्वा कर्त्तयति ततः सूत्राणि
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूणिभाष्यावचूरी उ० २. सू० २६
उद्देशक्षमाप्तिः ५५ जायन्ते, तैर्वच्चासूत्रैश्च प्रावरणास्तरणादीनि निष्पादयन्ति, तत्सूत्रनिष्पन्नं रजोहरणं वच्चाचिप्पकमुच्यते । एवं देशविशेषे मुजाभिधस्तृणविशेषः, तमपि कुट्टयित्वा पूर्ववदेव सूत्राणि कर्त्यन्ते,तैः सूत्रैनिष्पन्नं रजोहरणं मुञ्जचिप्पकं प्रोच्यते। वस्त्रप्रकरणोक्तरीत्यैव सूत्रोक्तानां पञ्चविधानां रजोहरणानां ग्रहणं श्रमणैः कर्तव्यम् । तत्रापि क्रमेण पूर्वपूर्वस्याभावे उत्तरोत्तररजोहरणं ग्राह्यत्वेन बोध्यम् । उत्सर्गेण तु सूत्रे प्रथगतया प्रोक्तम् और्णिकमेव रजोहरणं ग्राह्यं, सूत्रे तस्य भगवता प्रथमतया गृहीतत्वादिति ॥ सू० २६ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त
"जैनाचार्य-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालचतिविरचितायां"बृहत्कल्पसूत्रस्य"
चूर्णि-भाण्या-ऽवचूरीरूपायां व्याख्यायां द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥२॥
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
। अथ तृतीयोद्देशकः। व्याख्यातो द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीयोदेशकः प्रस्तूयते, अत्र द्वितीयोदेशकान्तिमसूत्रेणास्य तृतीयोद्देशकस्यादिसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति भाग्यकारः सम्बन्ध प्रदर्शयति'वत्थरोहरणाणं' इत्यादि ।
भाष्यस्-वत्थरओहरणाणं, पुव्वं वुत्तो विही समासेण । तेर्सि निगंथीणं, दाणविही एत्य नायव्यो ॥१॥ गच्छइ तासि वसहि, गणचिताकारगो पयाए । तस्ल विही इह कत्थइ, संबंधो एत्य एसेव ॥२॥ छाया-वस्त्ररजोहरणानां पूर्वमुक्तो विधिः समासेन । तेपां निग्रन्थीभ्यो, दानविधिरन ज्ञातव्यः ॥१॥ गच्छति तासां वसति, गणचिन्ताकारकः प्रदातुम् । तस्य विधिरिह कथ्यते, सम्बन्धोऽत्र एप पव ॥२॥
अवचूरी-'वत्य' इति । पूर्व द्वितीयोद्देशस्वान्तिमे मूत्रद्वये वस्त्ररजोहरणानां विधि:वस्त्रस्य पञ्चविधत्वं रजोहरणस्य पञ्चविधत्वं चेति तद्रूपो विधिः समासेन संक्षेपेण उक्तः कथितः । अत्र अस्मिन् तृतीयोदेशकस्य प्रथमसूत्रे तेषां पूर्वोक्तप्रकाराणां वस्त्राणां रजोहरणानां च निर्ग्रन्थोभ्यो दानविधिः दानविषयो विधिः ज्ञातव्यः ॥१॥
ततः गणचिन्ताकारकः गणव्यवस्थाकारको गणधरः वस्त्ररजोहरणानि निर्ग्रन्थीप्रायोग्याणि प्रदातुं यथाकल्पं वितरीतुं तासां निग्रन्थीनां वसतिं गच्छति, तस्य साध्वीवसतिगमनशीलस्य साधोः विधिः-तत्र गमनागमनस्थानादिरूपः निपेघविधानात्मकः साधुकल्प इह अस्मिन् वक्ष्यमाणे तृतीयोदेशकस्यादिसूत्रे कथ्यते प्रतिपाद्यते । अत्रास्मिन् प्रकरणे पूर्वापरसूत्रयोः एष एव सम्बन्धोऽस्तीति ॥२॥
इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य तृतीयोद्देशकस्येदं निर्ग्रन्थ्युपाश्रयगमनस्थानादिप्रतिपादकमादिसूत्रम्-'नो कप्पइ निग्गंथाणं' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं, निग्गंधीण उवस्सयंसि चिहित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहरितए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिघाणं वा परिदृवित्तए सज्झायं वा करित्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा करित्तए, ठाणं वा ठाइत्तए । सू०१॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां, निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये स्थातुं वा निपत्तं वा त्वग्वतयितुं वा निद्रायितुं वा प्रचलायितुं वा, अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाधवा आहारमाहर्तुम्, उच्चारं वा प्रनवणं वा खेलं वा सिवाणं वा परिष्ठापयितुम्, स्वध्याय वा कर्तुम्, ध्यानं वा ध्यातुम्, कायोत्सर्ग वा कर्तुम् , स्थानं वा स्थातुम् ॥ सू०१॥
चूर्णी--'नो कप्पइ निग्गंथाणं' इति । निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये वस्त्रदानादिकार्यवशात्तत्र गतानां निर्ग्रन्थानाम् अग्रेऽनुपदं वक्ष्यमाणानि स्थानादीनि कत्तुं न कल्पते । तान्येव दर्शयति-निर्ग्रन्थी
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूणि-भाष्या-वचूरी उ० ३ सू० १-२ साधु-साध्वीनां परस्परोपाश्रयगमननिषेधः ५७ नामुपाश्रये निर्ग्रन्थानां न कल्पते स्थातुं वा ऊर्ध्वस्थितिरूपेण, निषत्तु वा उपवेष्टुं वा पर्यङ्कासनादिना, स्वरवर्त्तयितुं वा पार्श्वपरिवर्तनं कर्तुम्, निद्रातु वा निद्रां ग्रहीतुम्, प्रचलायितुं वा उपविष्टः स्थितो वा निद्रा ग्रहीतुम् , अशनं वा४ अशनादि चतुर्विधमाहारमाहर्तु वा, उच्चारं वा संज्ञारूपम्, प्रसवणं वा कायिकीरूपम्, खेलं वा श्लेष्माणम, सिद्धाणं वा नासिकामलम्, एतानि शरीरेन्द्रियमलानि तत्र परिष्ठापयितुं न कल्पते । तथा स्वाध्यायं वा सूत्रार्थरूपं कत्तुम् , ध्यानं वा अन्तर्मुहूर्त्तकालप्रमाणात्मचिन्तनरूपं ध्यातु-कर्तुम् , कार्योत्सर्ग वा कायिकव्यापारनिवृत्तिपूर्वकं लोगस्सगुणनरूपं कत्तुंम्, स्थानं वा ऊवीभूय कायिकचेष्टावर्जित लोगस्सगुणनरूपं द्वादशभिक्षुप्रतिमामर्यादारूपं स्थातुम् आचरितुम् निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये निम्रन्थानामेतानि कार्याणि कर्तुम् नोकल्पते, एवं करणे निर्ग्रन्थीभिरपमानितत्वादिसंभवात् , अधिकपरिचये स्वपरतदुभयानां ब्रह्मवते शङ्कासनावाच्चेति । यस्मादेवं तस्मात् निर्ग्रन्थीना, मुपाश्रये निर्ग्रन्थस्याकारणे गमनं निषिद्धमेव, कारणेऽपि गमने द्वितीयेन साधुना सहितः सन् गच्छेत् कारणं संपाद्य चाल्पकालेनैव ततोऽपसरेत् एकाकी न गच्छेदिति भावः ।। सू० १ ॥
अत्राह भाष्यकार:--'निग्गंथीवसहीए' इत्यादि । भाष्यम्--निग्गंथीवसहीए, निग्गंथाणं न कप्पए ठाउं । चइयव्या दस ठाणा, वयभंगुप्पायगा जम्हा ॥३॥ कारणओ जइ गच्छइ, किच्चा कज्जं पुणो निवत्तेज्जा। अहियं तत्थ न चिठे, अहिगरणाईण संभवओ॥४॥ कारणजाए गच्छइ, विहिणा एत्थं भवे चउभंगी । असहिण्हु सहिण्ह इय, एत्थं पुण होइ चउभंगी ॥५॥ छाया-निर्ग्रन्थीवसतौ निर्ग्रन्थानां न कल्पते स्थातुम् । त्यक्तव्यानि दश स्थानानि, व्रतभङ्गोत्पादकानि यस्मात् ॥ ३ ॥ कारणतो यदि गच्छति, कृत्वा कार्य पुनर्निवर्तत । अधिकं तत्र न तिष्ठेत्, अधिकरणादीनां संभवतः ॥४॥ कारणजाते गच्छति विधिना, अत्र भवेत् चतुर्भड्डी । असहिष्णुः सहिष्णुरिति, अत्र पुनर्भवति चतुर्भगी ॥ ५॥
अवचूरी-'निग्गंथीवसहीए' इति व्याख्या सुगमा । अयं भावः-एतानि वक्ष्यमाणानि दश स्थानानि साधूनां सर्वथा त्याच्यानि, तानि यथा-प्रथमं निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये निष्कारणं गमनम् १, तत्र गत्वा दूरतस्तासामवलोकनम् २, कतमाः कतमाः पुनरेता इति जिज्ञासाकरणम् ३, 'अमुकी अमुकी वा एपा' इत्येवं निश्चयकरणम् ४, ताभिः सह वार्तालापकरणम् ५, तासामगोपाङ्गादिषु दृष्टिपातकरणम् ६, तासु काञ्चिदेकां दृष्ट्वा 'एतादृशी ममाप्यासीत्'इति भूतपूर्वस्वस्त्रीसाम्यचिन्तनम् ७, तासु कयाचित् सह गुप्ताभिभाषणम् ८, तन्निमित्तं तस्या अग्रे कस्यापि
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पस्ने वस्तुनो निश्चयकरणम् ९, ततश्चान्ते शनैः शनैरेवंकरणपूर्वकं तया सह संपर्कसाधनम् इति दशमं स्थानम् १०, एतानि दशापि स्थानानि निर्ग्रन्थैः परिहरणीयानि नानाविधदोपसंघातसंभवादिति ॥ १॥ कारणे गमनेऽपि कार्य कृत्वा शीघ्र पुनः प्रत्यावर्तेत, अधिकस्थितौ अधिकरणसंभवात् ॥ २॥ कारणवशादपि साध्वीनामुपाश्रये विधिना गन्तव्यम् न त्वविधिना, विधिश्च यथा-गणचिन्ताकारको गणघरो यदि वस्त्रादिदानादिनिमित्तं ग्लानायाः शाताप्रच्छनार्थ दा गच्छेत्तदा त्रिषु स्थानेषु नैषेधिकी कुर्यात्-अग्रद्वारे १, मध्यभागे २, आसन्नभागे च ३ । नैषेधिकीत्रयं कृत्वा तत्र प्रविशेत् तेन उपाश्रयस्थिताः साध्व्यः वस्त्रावरणादिना सावधाना भवेयुः । अत्र कारणं विधि चाश्रित्य चत्वारो भङ्गा भवन्ति,तथाहि-अकारणे अविधिना १, अकारणे विधिना २, कारणे अविघिना ३, कारणे विधिना ४ । अत्र चतुर्थो भङ्गः शुद्धः समाचरणीयो लभ्यते । पुनरपि सहिण्वसहिष्णुश्रमणश्रमणीशब्दानाश्रित्य चत्वारो भङ्गा भवन्ति तथाहि-श्रमणी असहिष्णुः श्रमणोऽपि असहिष्णुः १, श्रमणी-असाहष्णुः श्रमणः सहिष्णुः २, श्रमणी सहिष्णुः श्रमणः असहिष्णु: ३, श्रमणी सहिष्णुः श्रमणोऽपि सहिष्णुः ४ । एष्वपि चतुर्थो भङ्गः कारणे ग्राह्यः ॥ निम्रन्थस्य साध्वीनामुपाश्रये गमनस्यान्यान्यपि कारणानि भवन्ति,तेपूपस्थितेषु निर्ग्रन्थस्य तत्र पूर्वोक्तशुद्धभगानुसारेण गमनं कल्पते, तानि यथा-उपाश्रयस्य संस्तारकस्योपधेर्वा वितरणार्थम् १, संयमे सीदन्तीनां परिपत्रस्तानां स्थिरीकरणार्थम् २, प्रतिश्रये अस्वाध्यायिक सति श्रुतस्योद्देशमनुज्ञां वा विधातुम् ३, तासां परस्परसंजाताधिकरणस्य व्युपशमनार्थम् ४, प्रवर्त्तिन्यां कालधर्मप्राप्तायां सत्यां गणचिन्तार्थम् शेषसाध्वीनां संसारस्वरूपप्रदर्शनपूर्वकं धर्मोपदेशेनाश्वासनार्थं वा ५, ग्लानाया औषधभैषज्यादिप्रदानाथम् ६, उपाश्रयेऽग्निना दग्धे जलपूरेण प्लाविते वा तद्व्यवस्थाकरणार्थम् ७, साध्वीनां देवमानुपतैरेश्चोपसर्गशमनार्थम् ८, भक्तप्रत्याख्यानाद्यनशनप्रतिपन्नायाः परिकर्मजिज्ञासाथै चेति ९ । एतादृशेप्वन्येष्वपि कारणेपूत्पन्नेषु श्रमणीनामुपाश्रये श्रमणानां गन्तुं कल्पते, तत्र भगवदाज्ञातिक्रमणदोपाभावात् ॥ ३ ॥
पूर्व निग्रन्थीनामुपाश्रये निर्ग्रन्थानां स्थानादिकरणं निषिद्धम् , साम्प्रतं तद्वैपरीत्येन निम्रन्थीनां निर्ग्रन्थोपाश्रये तान्येव स्थानादीनि निषेधयितुमाह-'नो कप्पड़ निग्गंथीणं' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंधीणं निग्गंथउवस्सयंसि चिहित्तएवा जाव काउस्सग्गं करेत्तए ठाणं वा ठाइत्तए । सू०२॥
छाया-नो कल्पते निम्रन्थीनां निर्ग्रन्थोपाश्रये स्थातुं वा यावत् कार्योत्सर्ग कर्तुम् स्थानं वा स्थातुम् ॥ सु० २ ॥
ची-'नो कप्पई' इति । यथा पूर्व निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थ्युपाश्रयेऽवस्थानादि निषिद्धं तथैखात्र निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थोपाश्रयेऽवस्थानादि कत्तुं न कल्पते' इति प्रतिपादितम् । यदि ग्लानसाधुशरीरसमाविजिज्ञासाथ गणचिन्ताकारकगणधरादुपध्यादिमार्गणार्थ वा निम्रन्थी साधूपाश्रये गच्छेतदा कारणविधिभङ्गप्रदर्शितशुद्धभगमपेव्य नेषेधिकीत्रयपूर्वकं गच्छेत् । एवं असहिष्णु-सहिष्णु- भङ्गे
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णि-भाष्याऽवचूरी उ० १ सू० ३-५ निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां चर्मग्रहणविधिः ५९ प्वपि शुद्धभगमपेक्ष्य गच्छेत् । अत्रायं विशेषः लानादिजिज्ञासावाचनाप्रच्छनादिकारणजाते पुरुषसाक्षिपूर्वकं गृहस्थस्त्रीसाक्षिपूर्वकं च द्वितीयया तृतीयया वा साच्या सहिता भूत्वा पूर्वोक्तविधिना यतनया गच्छेदिति भावः । शेष सर्व पूर्वसूत्रोक्तवदेव विज्ञेयम् ।। सू० २ ॥
पूर्व ब्रह्मवतरक्षणार्थ निम्रन्था निर्ग्रन्ध्यश्च परस्परं स्वान्यतरोपाश्रये न गच्छेयुरिति प्रतिपादितम् , एवं ब्रह्मत्रतरक्षणायैव निर्ग्रन्थीभिस्तादृशमुपकरणमपि न प्रतिग्रहीतव्यं येन ब्रह्मव्रते बाधा स्यादिति विभाव्य साध्वीनां सलोमचर्मग्रहणनिषेधं प्रतिपादयन्नाह-'नो कप्पइ० सलोमाई' इत्यादि,
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीण सलोमाई चम्माइं अहिट्टित्तए । सू०३ ॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सलोमानि चर्माणि अधिष्ठातुम् ॥ सू० ३ ॥
चूर्णी-'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थीनां सलोमानि लोमसहितानि चर्माणि मृगादिचर्माणि अधिष्ठातुं तदुपरि उपवेष्टुम् उपवेशनार्थ सरोमचर्माणि उपभोक्तुं नो कल्पते । सलोमचर्मोपरि साध्वीमिर्नोपवेष्टव्यमिति भावः । अनेनायातं निर्लोमचर्माणि साध्वीनां कल्पते इति न, सलोम. निर्लोमचर्मणोईयोरपि ग्रहणे जीववधतदनुमोदनक्रिया समापयेत । सलोमचर्मोपरि समुपवेशनेन संयमात्मविराधना भवति यथा--सुकुमाललोमस्पर्शेण मनोविकारादिदुर्भावसंभवात् , लोममध्ये स्थितानां कुन्थुपिपीलिकादीनां दुष्प्रतिलेख्यत्वाच्च संयमविराधना, लोमशुषिरभागे कण्टकवृश्चिकादिनाऽऽत्मविराधना च भवति ॥ सू० ३॥ -
पूर्व निर्ग्रन्थीनां सलोमचर्मोपरि समुपवेशनं निषिद्धम् , संप्रति निर्ग्रन्थानां तानि कल्पते इति तद्विधिं प्रदर्शयति-'कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ निग्गंथाणं सलोमाई चम्माइं अदिहित्तए, सेवि य परिभुत्ते नो चेवणं अपरिमुत्ते, सेवि य पडिहारिए नो चेव णं अपडिहारिए, सेवि य एगराइए नो चेवणं अणेगराइए ॥ सू०४॥
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां सलोमानि चर्माणि अधिष्ठातुम्, तदपि च परिभुक्त नो चैव खलु अपरिभुक्तम्, तदपि च प्रातिहारिकम् नो चैव खलु अप्रातिहारिकम, तदपि च एकरात्रिक नो चैव खलु अनेकरात्रिकम् ॥ सू०४॥
ची _कप्पड' इति । कल्पते निर्ग्रन्थानां सलोमानि-लोमसहितानि चर्माणि अधिष्ठातुम्-परिभोक्तुम् किन्तु तदपि च सलोमचर्म परिभुक्तं लोहकारादिभिरुपवेशनादिना परिभोगविषयीकृतं कल्पते इति सम्बन्धः, एवमग्रेऽपि बोध्यम् । किन्तु नो चैव खलु अपरिभुक्तं गृहस्थैः पूर्व न परिभुक्तं चेत्-तन्न कल्पते । तत् परिभुक्तमपि सलोमचर्म प्रातिहारिकं कार्यानन्तरं पुनः प्रत्यावर्त्तनीयं, 'कार्यानन्तरं पुनः प्रत्यर्पयिष्यामी'-त्युक्त्वा यदानीयते तत् प्रातिहारिकं कथ्यते 'पडिहारी' इति मुनिभाषाप्रसिद्धं, तत्प्रकारकं प्रातिहारिकं कल्पते किन्तु न चैव खलु अप्रातिहारिकं पुनर्न प्रत्य
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्र पंणं भवेत् तद् 'आगेरी'इति मुनिभाषाप्रसिद्धं तथाविधं परिभुक्तमपि न कल्पते । तदपि च सलोमचर्म परिभुक्तं प्रातिहारिकं च एकरात्रिकं एकाहोरात्रपर्यन्तमेव कल्पते किन्तु नो चैव खलु अनेकरात्रिकं द्वित्रिचतुराद्यहोरात्रपर्यन्तं कल्पते अर्शोभगंदर-रोगादिकारणजाते साधुना सलोमचर्म परिभुक्तं प्रातिहारिकमेकरात्रिकम् एकाहोरात्रमर्यादित ग्राह्यं, न तदधिकाहोरात्रपर्यन्तमिति भावः ।
अत्र शङ्कते कश्चित्-यत् निर्ग्रन्थानां सलोमचर्मानुज्ञातं निर्ग्रन्थीनां च तन्निषिद्धं तत् किमत्र कारणम् महाव्रतानां समानत्वात् ? तत्राह-साध्व्यः स्वभावतः कोमलास्ततस्तासां कोमलस्पर्शतः पूर्वभुक्तभोगानां स्मृतिकौतुकादिना बह्मव्रते शङ्कोत्पत्तिसंभवात् । निर्ग्रन्थानां तदभावादिति । वस्तुतस्तु इदं कारणिक सूत्रम् , उत्सर्गतस्तु साधूनामपि तन्न कल्पते हिंसानुमोदनदुष्प्रतिलेख्यत्वादिदोषसद्भावादिति । सू० ४ ॥
पूर्व सलोमचर्म साध्वीनां निषिद्धं, साधूनां च तस्य विधिना ग्रहणमनुज्ञातम् , साम्प्रतं चर्मप्रसङ्गात्कृस्नचर्मनिषेधप्रतिपादकं साधुसाध्वीनां समुच्चयसूत्रमाह-नो कप्पइ० कसिणाई चम्माई' इत्यादि।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाइ चस्माई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू० ५॥
छाया-नो कल्पते निग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा कृत्स्नानि चर्माणि धर्नु वा परिहत्तुं वा ॥ सू० ५॥
चूर्णी-'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां द्वयानामपि कृत्स्नानि परिपूर्णानि अखण्डानि वर्गप्रमाणादिभिः प्रतिपूर्णानि चर्माणि धत्तु पार्श्वे स्थापयितुं परिहर्तु परिभोक्तुं वा नो कल्पते, अनेनेदमायातम्-यत् खण्डितानि खण्डशः कृतानि वर्गप्रमाणादिभिरपरिपूर्णानि तु निम्रन्थनिम्रन्थीनां कल्पते, इति, अनेन ज्ञायते यथासंभवं साधूनां चर्मण आवश्यकता भवेत् 'प्राप्तौ सत्यां निषेध' इतिवचनात् , सत्यम् यथासंभवमावश्यकता भवेदपि-सन्धिवातादिकारणे कदाचित् जान्वादौ बन्धयितुं वैद्यादेशो भवेत् तदा तच्चर्म खण्डितमेव ग्राह्य, नतु परिपूर्णम् । अन्यच्च परिपूर्णचर्म अन्यतोर्थिकसाधव उपकरणत्वेन गृह्णन्ति ततस्तादृशे परिपूर्णे चर्मणि गृहीते प्रवचनस्योद्धाहो भवेत् यत् परपापण्डिवदेतेऽपि मृगव्याघ्रादिचर्म गृह्णन्तीति तस्मात् कृत्स्नचर्म निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां निषिद्धं भगवतेति बोध्यम् ॥ सू० ५॥
पूर्वं कृत्स्नचर्म ग्रहणं साधुसाध्वीनां निषिद्धं किन्तु वातरोगादिकारणे अकृत्स्नचर्मणो यथासंभवमावश्यकता जायते इति चर्मसम्बन्धिकारणिकसूत्रमाह-'कप्पइ० अकसिणाणि चस्माई' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई चम्माइंधारित्तए वा परिहरित्तएवा ॥ सू०६॥
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णि-भाष्या-ऽवचूरो उ० ३ सू० ६-८ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्त्रग्रहणविधिः ६१
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा अकृत्स्नानि चर्माणि धर्तु वा परिहषु वा ॥ सू०६॥
चूर्णी- 'कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा अकृत्स्नानि अपरिपूर्णानि खण्डरूपाणि चर्माणि धत्तुं परिहत्तं वा कल्पते । पूर्वोक्तसन्धिवातादिकारणे वैद्यादेशेन जान्वादौ वन्धयितुमावश्यकता भवेत्तदा चर्मखण्डं ग्रहीतुं कल्पते नतु कृत्स्नमिति कारणिकसूत्रमिदं बोध्यम् ।
ननु पूर्व सूत्रे कृत्स्नचर्म निषिद्धं तेनैवाऽऽयातं यत् अकृत्स्नं कल्पते इति तेनास्य सूत्रस्य नैरर्थक्यमुपजायते, अत्राह–साधुसमुदाये नानादेशीयाः प्रकृतिभद्रका विनेया भवन्ति ते जानन्ति यत् भगवता कृस्नचर्म निषिद्धं तेन चर्ममात्रं न ग्राह्यम् , एवं सति वातादिकारणे वैद्यादेशो निष्फलो भवेत् वातादिनिवारणं न भवेत् तेन संयमाराधन दुःशक्यं जायतेऽतो भगवता तेषां स्पष्टबोधार्थमिदं सूत्रमत्रोपन्यस्तं ततो नास्य सूत्रस्य नैरर्थक्यमित्यग्रेऽपि बोध्यम् ॥ सू० ६ ॥
पूर्वसूत्रद्वये कृत्स्नाऽकृत्स्नचर्मग्रहणे विधिनिषेधौ प्रतिपादितौ, साम्प्रतं वस्त्रविषयकं सूत्रमाह'नो कप्पइ० कसिणाई वत्थाई' इत्यादि । ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा कसिणाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा । कप्पइ निगंथाण वा निग्गंधीण वा अकसिणाई वत्थाईधारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू० ७॥
छाया--नो फल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा कृत्स्नानि वस्त्राणि धर्तु वा परिहर्नु वा, कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अकृत्स्नानि वस्त्राणि धर्नु वा परिहत्तुं वा ॥ सू० ७॥
चूर्णों-'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां कृत्स्नानि परिपूर्णानि अखण्डानि यथाप्रकाराणि उत्पादनस्थानादागतानि तथाप्रकाराण्येव वस्त्राणि धर्तुं परिहर्तुं वा नो कल्पते, कृत्स्नं चतुर्विधं द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् , तत्र द्रव्यकृत्स्नं द्विवित्र भवति सकलकृत्स्नं प्रमाणकृत्स्नं चेति । तत्र द्रव्यतः सकलकृत्स्नं वस्त्रपर्यन्तगततन्तुसहितं परिपूर्णकोमलस्पर्शयुक्तम् अनुपहतम् अञ्जनखञ्जनादिदोषवर्जितं सदशाकं 'दशा' किनारी,इति प्रसिद्धं तत्सहितं तादृशं वस्त्रं द्रव्यतः सकलकृत्स्नं प्रोच्यते, तदपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिविधम् , तत्र जघन्यं मुखवनिकादिकम् , मध्यम चोलपट्टादि,उत्कृष्ट प्रावरणादि, इदं त्रैविध्यमपि सर्वप्रकारवस्त्रेषु बोध्यम् १, यत्-दैर्ध्यविस्ताराभ्यां यथोक्तप्रमाणतोऽतिरिक्तं तत् द्रव्यतः प्रमाणकृत्स्नम् २, क्षेत्रकृत्स्नं यत् यस्मिन् देशे दुर्लभं वा भवेत् एकदेशनिष्पन्नं वनमन्यस्मिन् देशे वहुमूल्यं भवति, बहुमुल्यं यथा पूर्वदेशनिष्पन्नं वस्त्रं लाटदेशं प्राप्य बहुमूल्यं भवति २, कालकृस्न-यस्मिन् काले यद् वस्त्रं बहुमूल्यं भवति यथा-ग्रीष्मे सूक्ष्मवस्त्रं, शिशिरे कम्बलादि, वर्षासु कुङ्कुमखचितादि ३, भावकृत्स्नं द्विविधम्-वर्णयुतं मूल्ययुतं च, तत्र वर्णयुत्तं पञ्चविधं कृष्णादिवर्णमेदात् , मूल्ययुतं त्रिविधम्-जघन्य
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
ફર
बृहत्कल्पसूत्र
मध्यमोत्कृष्टभेदात् मूल्ययुक्त कृत्स्नस्य जघन्यमध्यमोत्कृष्टत्वं देशानुसारेण यद् वस्त्रं यत्र जघन्यमूल्यकं तदपि अन्यत्र मध्यमोत्कृष्टमूल्यकं जायते इति यथासंभवं स्वयमूहनीयम् ४ ॥ सू० ७ ॥
पूर्वसूत्रे तावत् श्रमणश्रमणीनामकृत्स्रं वस्त्रमनुज्ञातम्, संप्रति तस्याकृत्स्नस्य वस्त्रस्य भिन्नत्वमभिन्नत्वं च भवतीति प्रथममभिन्नानि वस्त्राणि प्रतिषेधितुमाह- 'नो कप्पइ० अभिन्नाह' इत्यादि । सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अभिन्नाई वत्थाई धारितए वा परिहरित वा ॥ सु० ८ ॥
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अभिन्नानि वस्त्राणि धर्चु वा परिहर्तु वा ॥ सु०८ ॥
चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा अभिन्नानि अच्छिन्नानि अस्फाटितानि पूर्वं गृहस्थैः स्वनिमित्तं न खण्डीकृतानि वस्त्रोत्पादनस्थानाद् यथा आगतानि तथैव स्थितानि तादृशानि वस्त्राणि घ - स्वनिश्रया स्थापयितुम्, परिहर्त्तु परिभोक्तुं नो कल्पते। स्वहस्तेन छियमाने वायुकायादिविराधना संभवति । ननु कृत्स्नाभिन्नयोः समानार्थकत्वात्पूर्वसूत्राला - पक एवात्रापि प्रतिपादित इति पिष्टपेषणवद् भवति, ततः पुनरुक्तत्वात् सूत्रमिदं निरर्थकं प्रतिभाति इति न, कारणसापेक्षत्वादस्य सूत्रस्य । किं पुनस्तत्कारणम् ? इति चेदुच्यते - अनेन सूत्रेण वस्त्राणां गणनालक्षणं प्रमाणलक्षणं चेति द्विविधं प्रमाणं नियम्यते, तथाहि -कियन्ति किं प्रमाणानि वा तानि वस्त्राणि श्रमगैर्ग्रहीतव्यानि ? इत्येवमत्र निरूप्यते इति नास्य नैरर्थक्यमिति । अत्र कश्चित् शङ्कते - यस्मादभिन्नस्य वस्त्रस्य धारणे श्रमणानां पूर्वसूत्रोक्ता दोषा भवन्ति तर्हि भिन्नमपि वस्त्रं गृह्यते तदपि यदि चोलपट्टादिप्रमाणेनाऽतिरिक्तमधिकं लम्वं भवेत्तदा तस्यापि पुनर्भेदनमावश्यकमेव तर्हि ते दोषा अत्रापि संभवन्त्येव, तथा हि-वस्त्रे विद्यमाने 'चिर' इत्यादिशब्दसंमूर्च्छनं भवति, सूक्ष्मपदमावयवाश्चोड्डीयन्ते, तैश्च लोकान्तपर्यन्तं गच्छद्भिर्बहूनां त्रसप्राणिप्रभृतीनां सूक्ष्मजन्तूनां विराघनाऽवश्यम्भाविनी । अथवा वस्त्रछेदनजन्यैः शब्दपदमवातादिपुद्गलैर्लोकान्तं यावद्रच्छद्भिस्तैश्चालिताः सन्तोऽन्ये तत्पुछा लोकान्तपर्यन्तं गच्छन्ति एवं रीत्याऽन्यान्य पुद्गलप्रेरिताः पुद्गलाः प्रसरन्तः क्षणेन ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् चतसृप्वपि दिक्षु सकलमपि लोकमापूरयन्ति तस्मा - त्सकललोकपूरणात्मकमारम्मं सूक्ष्मजीवविराघनया सदोषं बुद्ध्वा यथालब्धं लघु दीर्घ लम्वं विस्तृतं वा भवेत् तत्तादृशमेव श्रमणैर्धारयितव्यं, न पुनस्तस्य छेदनादिकं कर्त्तव्यमिति, अत्राह - नोचिता तवैपा शङ्का, यतो यद्येवं तर्हि भिक्षादिनिमित्तमपि चेष्टादिकं न कर्त्तव्यं भवेत्, भिक्षासंज्ञाभूम्यादिगमनभोजनशयनादिरूपाभिरीर्याभिर्विना तु शरीरस्य पौगलिकत्वात्तन्निर्वाहोऽपि न स्यात्, शरीरमन्तरा च सयमस्यापि व्यवच्छेदः समापतेत्, तस्माद् भिक्षादिनिमित्तमीर्यादिचेष्टाया अनि
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
~
चूणिभाष्यावचूरो उ० ३ सू० ९-१२
भिन्नाभिन्नवस्त्रग्रहणविधिः ६३ वार्यत्वात्सा कर्तुमुचितैव । एवं यथोक्तप्रमाणचोलपट्टादिवस्त्रधारणस्य भगवता समुपदिष्ठत्त्वातत्प्रमाणार्थं यतनया वस्त्रच्छेदने कोऽपि न दोषः शास्त्रे साधोः सकलक्रियाया यतनयैव करणीयत्वेन प्रतिपादनात् , उक्तं च-दशवै० ४ अ०
जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए । ___ जयं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ ॥ तस्मात् भिन्नवस्त्रधारणस्य भगवतानुज्ञातत्वाद् निर्ग्रन्थनिम्रन्थीभिरभिन्नवस्त्रं न धारयितव्यं न परिभोक्तव्यम् , भगवदाज्ञापालने न कोऽपि दोषः 'आणाए मामगं धम्म' इत्याचारागवचनप्रामाण्यादिति ॥ सू० ८ ॥
श्रमणैर्वस्त्राणि कियन्ति किंप्रमाणानि चोपकरणत्वेन ग्रहीतव्यानि तत्राह भाप्यकार:'भिन्नाई' इत्यादि ।
भाष्यम्--भिन्नाई वत्थाई, उवगरणे कइ य धारणिज्जाई । थविरे कप्पे चउदस, साडगमाईणि णेयाइं ॥६॥ छाया-भिन्नानि वस्त्राणि उपकरणे कति च धारणीयानि ।
स्थविरे कल्पे चतुर्दश, शाटकादीनि ज्ञातव्यानि ॥६॥ अवचूरी-'मिन्नाई' इति । अभिन्नानि वरत्राणि श्रमणेने ग्रहीतव्यानि नैव च धारणीयानीति भगवता प्रतिपिवं, तेनायाति-भिन्नानि धारणीयानि, तानि श्रमणानामुपकरणे उपकरणनिश्रायां कति–कतिसंख्यकानि धारणीयानि ? इति प्रश्ने प्राह-अत्रास्मिन् स्थविरे कल्पे साधूनां चतुर्दश वस्त्राणि शाटकादीनि उपकरणे ज्ञातव्यानि, तानीमानि-शाटकत्रयम् ३, चोलपट्टकः ४. आसनम् ५, मुखवस्त्रिका ६, प्रमार्जिका ७, पात्राणामञ्चलत्रयम् १०, भिक्षाधानी ११, माण्डलकवस्त्रम् १२, रजोहरणदण्डाऽऽवरकवस्त्रं 'निषद्या'इति समयभाषाप्रसिद्धम् १३, चतुर्दशच धावनजलादिगालनवस्त्रम् १४, इति । एतानि चतुर्दश उपकरणानि स्थविरकल्पिकानां कल्पन्ते । गृहस्थैः स्वनिमित्तं भिन्नं वस्त्रं समादाय तन्मध्याद् यथोक्तप्रकारेण चतुर्दशोपकरणानि यतनया विभिद्य करणीयानि स्वस्वप्रमाणेन उपकरणविधायनस्य भगवताऽनुज्ञातत्वादिति ॥ ६ ॥
पूर्वमभिन्नवस्त्रधारणे निषेधः प्रतिपादितः, साम्प्रतं स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थं तद्विपरीतं भिन्नवस्त्रधारणसूत्रमाह-'कप्पइ० मिन्नाई' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा भिन्नाइं वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू० ९॥
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा भिन्नानि वस्त्राणि धत्तं वा परिहत्तुं वा ॥ सू० ९॥
चूर्णी-'कप्पई' इति । कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा भिन्नानि छेदितानि गृहस्थैः स्वनिमित्तं स्फाटितानि वस्त्राणि धर्तुं परिहत्तुं वा । अन्यत्सर्वं पूर्वसूत्रवदेव विज्ञेयम् ॥ सू०९ ॥
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पसूत्रे
पूर्व निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां सामान्येन भिन्नाभिन्नवस्त्रधारणे विधिनिषेधश्च प्रतिपादितः, साम्प्रतं निर्ग्रन्थानां निम्रन्थीनां च स्वस्वकल्पानुसारेण पृथक् पृथग् वस्त्रधारणे निषेधं विधि च प्रतिपादयितुकामः प्रथमं निर्ग्रन्थसूत्रमाह-'नो कप्पइ० उग्गहणंतर्ग' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तएवा ।। सू० १०॥
छाया-नो कल्पते निम्रन्थानाम् अवग्रहानन्तकं वा अवग्रहपट्टकं वा धर्तु वा परिहतुवा ॥ सू० १०॥
चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । निम्रन्थानाम् अवग्रहानन्तकम्-समयभाषया गुह्यस्थानाच्छादनवस्त्रं 'लंगोट, कौपीन'इतिप्रसिद्धम् , अवग्रहपट्टकं तस्याप्युपरि तदाच्छादनार्थं यद् धार्यते तत् धत्तुं स्वनिश्रायां स्थापयितुं परिहर्तुं परिभोक्तुं वा नो कल्पते, अनयोस्तापसादीनामुपकरणत्वेन जैनमुनीनामकल्प्यत्वादिति ॥ सू० १० ॥
पूर्वोक्तं वस्त्रद्वयं निम्रन्थीनां कल्प्यत्वेन तद्विधिसूत्रमाह-'कप्पइ० उग्गहणंतगं' इत्यादि ।
सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथीणं उग्गहणंतग वा उग्गहपणं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा ।। सू०११॥ ___छाया-कल्पते निर्ग्रन्थीनाम् अवग्रहानन्तकं वा अवग्रहपट्टकं वा धर्तु वा परिहर्तु वा॥सू० ११॥
___ चूर्णी-कप्पइ' इति । व्याख्या सुगमा नवरं पूर्वोक्तं वस्त्रद्वयं यद् निर्ग्रन्थानां प्रतिपिद्धं तद् निर्ग्रन्थीनां कल्पते, निम्रन्थीनां स्त्रीत्वेन रजोदर्शनसंजातरुधिरस्रावप्रतिरोधने आवश्यकत्वादिति ॥ सू० ११॥
पूर्वसूत्रे निर्ग्रन्थीनां वस्त्रद्वयधारणे विधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं वस्त्रप्रसङ्गाद् निम्रन्थीवस्त्रग्रहणे विधिमाह-निग्गंथीए य' इत्यादि ।
मूत्रम्-निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविठाए चेल? समुप्पज्जेज्जा, नो से कप्पइ अप्पणो नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए, कप्पइ से पवत्तिणीणीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए । नो य से पवित्तिणी सामाणा सिया जे से तत्थ सामाणे आयरिए वा उवज्झाए वा पवत्तए वा थेरे वा गणी वा गणहरे वा गणाक्च्छे यए चा जं चऽन्नं पुरओ कटु विहरइ कप्पड़ से तन्नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए ॥ सू० १२॥
छाया-निर्माश्च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिक्षया अनुप्रविष्टायाश्चेलार्थ समुस्पद्येत, नो तस्याः कल्पते आत्मनो निश्रया चेलं प्रतिग्रहीतुम् , कल्पते तस्याः प्रवत्तिनीनिश्रया चेलं प्रतिग्रहीतुम् , नो चेद् अथ तत्र प्रवर्तिनी सामाना स्यात् यः स तत्र सामानः आचार्यो वा उपाध्यायो वाप्रवर्त्तको वा स्थविरो वागणी वा गणघरो वा गणावच्छे
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूणिभाष्यावचूरी उ०-३ सू० १२-१३ प्रथमपश्चादुपस्थितयोर्वस्त्रादिग्रहणविधिः ६५ दको वायं चान्यं पुरतः कृत्वा विहरति कल्पते तस्यास्तन्निश्रयाचेल प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू०१२॥
चूर्णी-'निग्गंथीए य' इति । निर्ग्रन्थ्याश्च, कीदृश्या इत्याह-गाथापतिकुलं गृहस्थगृहं पिण्डपातप्रतिज्ञया-आहारग्रहणेच्छया अनुप्रविष्टाया यदि चेलार्थः चेलस्य अर्थः प्रयोजनं अल्पवस्त्रत्वेन वस्त्रग्रहणप्रयोजन समुत्पधेत तदा तस्या निग्रन्थ्या आत्मनः निश्रया आत्मीयत्वेन 'इदं वस्त्रं मम भविष्यती'-त्येवंरूपया निश्रया लं वस्त्र प्रतिग्रहीतुं गृहस्थादादातुं नो कल्पते । तर्हि कथं कल्पते ? इति तद्विधिं प्रदर्शयति-तस्याः प्रवर्तिनीनिश्रया-'इदं वस्त्रं गृह्णामि मम प्रवर्तिनीनिश्रया, सा यस्याः कस्या मम अन्यस्या वा दास्यति सा ग्रहीष्यति' इत्येवंरूपया गृहस्थं प्रत्येवं वाचा प्रकटय्येत्यर्थः चे वस्त्रं प्रतिग्रहीतुं कल्पते । यदि नो चाथ प्रवर्तिनी सामाना सन्निहिता तत्र ग्रामे उपाश्रये वा न स्यात् नो भवेत्तदा तत्र ग्रामे यः सः यः कोऽपि सामानः संनिहितः स्यात् , कः ? इत्याह-आचार्यो वा, आचार्यः - यः पञ्चाचारान् स्वयं पालति परान् पालयति सः, तथा योऽथ वाचयति, गच्छस्य मेवीभूतः शरीराद्यष्टयपदायुक्तो भवेत्स आचार्यः संनिहितो भवेत् , तदभावे उपाध्यायः-उप-समीपम् एत्य अधीयते प्रवचनं शिष्यैः यस्मात् स वा भवेत् , तदभावे प्रवर्तकः-प्रवर्त्तयति आचार्योपदिष्टेपु कार्येषु तपःसंयमयोगवैयावृत्त्यसेवाशुश्रूषाऽध्ययनाध्यापनसूत्रार्थादिपु यथायोग्यं बलावलं विचार्य नियोजयति यः स प्रवर्तको भवेत् , तदभावे स्थविरो वा-सयमयोगेषु सीदतः साधून् ऐहिकामुष्मिकापायप्रदर्शनपूर्वकं ज्ञानादिषु स्थिरीकरोति यः स स्थविरो वा भवेत् , तदभावे गणी वा-गण कतिपयसाधुसमुदायः स्वस्वामिसम्बन्धेन यस्यास्ति सः, यः साधुसमुदायेन सह विचरणशीलः स गणी वा भवेत् . तदभावे गणधरो वा यः गणचिन्ताकारको गणस्य योगक्षेमविधायकः, तत्र अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगः, प्राप्तस्य रक्षणं क्षेमस्तद्विधायको गणघरो वा भवेत् , तदभावे गणावच्छेदको वा गणस्य साधुसमुदायस्यावच्छेदं विभागं करोति यः गणव्यवस्थाकारकः स गणावच्छेदको वा भवेत् , तदभावे यं चान्यं कमपि गीतार्थ पुरतः कृत्वा साध्वी तदाज्ञया विहरति सो वा तत्र संनिहितो भवेत् , एतेपु आचार्यादिषु यः कोऽपि तदा संनिहितो भवेत् तन्निश्रया तन्निश्रामधिकृत्य तस्या निम्रन्थ्याः चेलंवस्त्रं प्रतिग्रहीतुं कल्पत्ते, भिक्षार्थ गृहस्थगृहे गतया निग्रन्थ्या वस्त्रावश्यकतायां स्वनिश्रया कदापि वस्त्रं न ग्रहीतव्यमिति भावः ॥ सू० १२ ॥
पूर्वसूत्रे निम्रन्थ्या वस्त्रग्रहणविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं प्रथमतया प्रत्रजितुकामस्य पूर्वोपस्थितस्य च वस्त्रग्रहणविधिमाह-'निग्गंथस्स' इत्यादि ।
सत्रम-निग्गंथस्स णं तप्पढमयाए संपव्वयमाणस्य कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिग्गहमायाए तिर्हि कसिणेहिं वत्थेहि आयाए संपन्वइत्तए, से य पुव्योवहिए सिया एवं से
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे weremmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm नो कप्पइ स्यहरणगोच्छगपडिग्गमायाए तिर्हि कसिणेहि वत्येहिं आयाए संपन्चइत्तए, कप्पइ से अहापडिग्गहियाई वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तए । सू० १३ ॥
छाया-निर्ग्रन्थस्य खलु तत्प्रथमतया संप्रव्रजतः कल्पते रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहमादाय त्रिभिः कृत्स्नैर्वस्त्रैः आत्मना संप्रव्रजितुम् । स च पूर्वोपस्थितः स्यात् एवं तस्य नो कल्पते रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहमादाय त्रिभिः कृत्स्नैर्वस्त्रैः आत्मना संप्रवजितुम् कल्पते तस्य यथाप्रतिगृहीतानि वस्त्राणि गृहीत्वा आत्मना संप्रबजितुम् ।। सू०१३॥
चूर्णी-'निग्गंथस्स'इति । निर्ग्रन्थस्य तत्प्रथमतया तत्-तेन साधुत्वेन प्रथमः तत्प्रथम', तस्य भावस्तत्ता, तया पूर्वमदीक्षितस्य प्रथममेव दीक्षितुमुपस्थिततया सप्रवजतः प्रव्रज्यां गृहतः कल्पते रजोहरण-गोच्छक प्रतिग्रहम् , तत्र रजोहरणं प्रसिद्ध, गोच्छकं प्रमार्जनिका, प्रतिग्रहः पात्रम् , रनोहरणं च गोच्छकं च प्रतिग्रहश्चेति समाहारद्वन्द्वे रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहम् , तत् नूतनम् आदाय गृहीत्वा तदन्यैनूतनैस्त्रिभिः कृस्नै , तत्र-चतुर्विशतिहत्तपरिमितमायामतः, एकहस्त्तपरिमितं च विष्कम्भतः, एतावत्प्रमाणकं वस्त्र कृत्स्नमुच्यते, तैः परिपूर्णैः अखण्डितैः वस्त्रैः 'थान' 'ताका' इति प्राचीनसमये प्रसिद्धैः, एकं कृत्स्नं वस्त्रं चतुर्विंशतिहस्तप्रमितमभूत् तादृशैस्त्रिमिः कृत्स्नैर्वस्त्रैः साधूनां द्वासप्ततिहस्तप्रमितवस्त्रग्रहणस्य कल्पत्वात्, तैः सह तानि त्रीणि गृहीत्वेत्यर्थः आत्मना स्वयं सप्रनजितुं कल्पते । एष विधिरगारितोऽनगारताग्रहणकालविपयो बोव्यः । अथ पूर्वप्रव्रजितस्य सामायिकचारित्रवतश्छेदोपस्थापनीयचारित्रग्रहणसमयस्य विधि प्रदर्शयति-'से य पुन्योवहिए' इत्यादि, ‘से य' स च प्रव्रज्यां प्रतिपत्तुकामो यदि पूर्वोपस्थितः पूर्वगृहीतसामायिकचारित्रः सन् छेदोपस्थापनीयचारित्रं ग्रहीतुकामः स्यात्, यद्वा अतिचारादिमूलगुणदोपापत्या पुनर्वीक्षार्थमुपस्थित स्यात् तदा 'एवं' एवं सति 'से' तस्य पूर्वोपस्थितस्य रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहं नूतनम् 'आयाए' आदाय गृहीत्वा एवं त्रिभिश्च कृत्स्नैः वस्त्रैः सह आत्मना स्वयं संप्रत्रजितु नो कल्पते । तर्हि तस्य कया रीत्या कल्पते ? इति तद्विधिमाह-'कप्पई' इत्यादि, कल्पते तस्य तादृशस्य पूर्वोपस्थितस्य छेदोपस्थंपनीयचारित्रग्रहणकामस्य यथाप्रतिगृहीतानि-यथा येन विधिना प्रतिगृहीतानि यानि पूर्व स्वीकृतानि वस्त्राणि तान्येव गृहीत्वा आत्मना स्वयं संप्रव्रजितुम् छेदोपस्थापनीयचारित्रं ग्रहीतु कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्ध । अयं भाव.-यः पूर्व गृहस्थः स प्रथमतया प्रव्रज्यां गृह्णानि तस्य नूतनं रजोहरणादिक त्रीणि कृत्स्नानि वस्त्राणि च गृहीत्वा प्रव्रजितुं कल्पते । यः पुनः पूर्वोपस्थितः पूर्व गृहीतसामायिकचारित्रः, यद्वा चारित्रदोषवशात् पुनर्महाव्रतोपस्थापनं स्वीक कामो भवेत् तस्य नृतनरजोहरणादिकं त्रीणि कृत्स्नानि वस्त्राणि च गृहीत्वा प्रव्रजितुं न कल्पते, किन्तु तस्य पूर्वप्रतिगृहीतान्येव वस्त्राणि गृहीत्वा कल्पते इति भावः। ननु यस्तत्प्रथमतया दीक्षा ग्रहीष्यति,
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूणिभाष्यावचूरी उ० ३ सू० १४-१७
- वस्त्रादिग्रहणविधिः ६७ अतः संप्रति स गृहस्थ एव तर्हि सूत्रे 'निग्गंथस्स' इति कथं प्रोक्तम्, स निर्ग्रन्थपदेन कथमुपलक्षीकृतः ? अत्राह-सत्यम् , किन्तु अत्र जिनशासने निर्ग्रन्थो द्विविधः प्रोक्तः, द्रव्यनिर्ग्रन्थो भावनिम्रन्थश्चेते, अत्रायं भावनिम्रन्थो वर्तते ततः सूत्रकारेण निम्रन्थपदेन उपलक्षीकृतः । अत्र द्रव्यभावमाश्रित्य चतुर्भङ्गी भवति, तथाहि-एको द्रव्यतो निर्ग्रन्थो भवति नतु भावतः १, एको भावतो निर्ग्रन्थो भवति नतु द्रव्यत २, एको द्रव्यतो भावत इत्युभयतोऽपि निर्ग्रन्थः३, एको न द्रव्यतो न भावतो निर्ग्रन्थ ४ । तत्र यो द्रव्यतो वेषेण निर्ग्रन्थः किन्तु भावतः साध्वाचारतो न निम्रन्थ साधुक्रियायाः शैथिल्यात् इति प्रथमभङ्गस्य भावः १, एकः कश्चित् भावतो निर्ग्रन्थः सन्नपि मनोवचोवृत्त्या साधुवत्क्रियाकारकः किन्तु द्रव्यतः साधुवेषतो न निर्ग्रन्थ इति द्वितीयभङ्गभाव. २, एको द्रव्यतो मुनिवेषतोऽपि भावतो यथोक्तसाध्वाचारपालनतोऽपि च निर्ग्रन्थ इति तृतीयभगभावः ३, एको न द्रव्यतः साधुवेषतः, नापि च भावतः-विरतिपरिणामरहितो गृहस्थ इति चतुर्थभगभावः ४ । अत्र स द्वितीयभङ्गवर्तित्वाद्निग्रन्थशब्देन प्रोक्त इति समीचीनमेवेति ॥ सू०१३ ॥
अथ पूर्वोक्तमेव विषयमधिकृत्य निर्ग्रन्थीसूत्रमाह-'निग्गंथीए णं' इत्यादि ।
सूत्रम्--निग्गंथीए णं तप्पढमयाए संपव्वयमाणीए कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिग्गहमायाए चउहिँ कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपन्यइत्तए । सा य पुव्योवटिया सिया एवं से नो कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिग्गहमायाए चउहिँ कसिणेहिं आयाए संपव्यइत्तए, कप्पइ से अहापडिग्गहियाई वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तए ॥ सू० १४ ॥
छाया-निर्ग्रन्थ्याः खलु तत्प्रथमतया संप्रव्रजन्त्याः कल्पते रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहमादाय चतुर्भिः कृत्स्नै वस्त्रै आत्मना संप्रव्रजितुम् । साच पूर्वोपस्थिता स्यात एवं तस्या नो कल्पते रजोहरणगोच्छकप्रतिग्रहमादाय चतुर्भिः कृत्स्नैः वस्त्रैः आत्मना संप्रवजितुम्, कल्पते तस्या यथाप्रतिगृहीतानि वस्त्राणि गृहीत्वा आत्मना संप्रवजितुम् ॥ सू०१४॥
चूर्णी-'निग्गंथीए णं' इति । अस्य निम्रन्थीसूत्रस्य सर्वाऽपि व्याख्या निर्ग्रन्थसूत्रस्येव परिभावनीया, विशेषोऽत्राऽयं बोध्य-तत्र निर्ग्रन्थसूत्रे पुंलिङ्गनिर्देशेन व्याख्या कृता अत्र तु स्त्रीलिङ्गनिर्देशेन व्याख्या कर्त्तव्या, अन्यसूत्रगतो विशेषोऽत्रायम्-निम्रन्थसूत्रे 'तिहिं कसिणेहिं वत्थेहि' त्रिभिः कृत्स्नैर्वस्त्रैः इत्युक्तम् , अत्र निर्ग्रन्थीसूत्रे च 'चउहिँ कसिणेहि वत्थेहिं' चतुर्भिः कृत्स्नैः वस्त्रैः इति प्रोक्तम् , निम्रन्थीना स्त्रीत्वेन भगवता षण्णवतिहस्तपरिमितवस्त्रप्रमाणस्यानुज्ञातत्वादिति ।। सू०१४ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्थ्याश्च दीक्षाकालिकवस्त्रग्रहणविधिः प्रदर्शितः, साम्प्रतं वस्त्रप्रसङ्गात् निग्रन्थनिम्रन्थीनामन्यकालिकवस्त्रग्रहणविधिमाह-'नो कप्पइ० पढम०' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पढमसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिगाहित्तए। कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दोच्चसमोसरणुदेशपत्ताई चेलाड पडिगाहित्तए । सू०१५ ॥
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
धृहत्कल्पसूत्र छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रथमसमवसरणोद्देशप्राप्तानि चेलानि प्रतिग्रहीतुम् । कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा द्वितीयसमवसरणोदेशप्राप्तानि चेलानि प्रतिग्रहीतुम् ।। सू०१५॥
चूर्णी—'नोकप्पइ' इति । निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रथमममवसरणोद्देशप्राप्तानि प्रथमे समवसरणे, एकस्मिन् वर्षे द्वे समवसरणे भवतः-एक वर्षाकालिकं द्वितीयम् ऋतुबद्धकालिकम् , तयोर्मध्ये प्रथमे वर्षाकालिकरूपे समवसरणे वर्षाकाले इत्यर्थः उद्देशः क्षेत्रकालविभागरूप, तं प्राप्तानि प्रथमसमवसरणोद्दे शप्राप्तानि वर्षाकालमध्यवर्ति क्षेत्रकालोपस्थितानि चेलानि-वस्त्राणि प्रतिग्रहीतुं नो कल्पते। तर्हि कीटक्क्षेत्रकालप्राप्तानि वस्त्राणि प्रतिग्रहीतव्यानि 2 तत्राह-'कप्पई' इत्यादि, निम्रन्थानां निम्रन्थीनां च द्वितीयसमवसरणोदेशप्राप्तानि-तत्र द्वितीयसमवसरणे ऋतुबद्धकाले हेमन्तग्रीष्मकालसम्बन्धिषु अण्टसु मासेषु उद्देश. क्षेत्रकालविभागरूपस्तं प्राप्तानि-हेमन्तग्रीष्मकालमध्यवर्तिक्षेत्रकालो. पस्थितानि चेलानि वस्त्राणि उपधिप्रायोग्यानि पात्राणि च प्रतिग्रहीतुं कल्पते । समाप्ते चातुर्मासे कार्तिकर्णिमात आरभ्य यावत् अषाढपूर्णिमा नायाति तावत्कालयर्यन्तं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्त्राणि पात्राणि च एषणाप्राप्तानि क्षेत्रकालतो निर्दोषाणि कल्पते इति भावः ॥ सू०१५ ॥
पूर्वं द्वितीयसमवसरणे निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्त्रग्रहणमनुज्ञातम् , साम्प्रतं गृहीतानां तेषां वस्त्राणां यथारानिकं विभागविधि प्रतिपादयति-'कप्पइ० अहारायणियाए' इत्यादि ।
सूत्रम्--कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए चेलाई पडिग्गाहित्तए । सू० १६ ॥
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा यथारानिकतया चेलानि प्रतिग्रहीतुम् ।।सु० १६ ॥
चर्णी-कप्पई' इति । निम्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा चेलानि वस्त्राणि यथारानिकतया यथारत्नाधिकतया, रत्नं चारित्रपर्यायः तद् यथा यथा श्रमणश्रमणीनामधिककालिकः पर्यायो भवेत तथा तथा पर्यायज्येष्ठक्रमेण मनसि निधाय प्रतिग्रहीतुं स्वीकतु कल्पते, एवमेव विभागेन दातुं कल्पते, अन्यथा दाने अविनयाशातनाऽधिकरणादिदोषसंभवात् ॥ सू० १६ ॥
पूर्वसत्रे श्रमणश्रमणीनां यथारानिकक्रमेण वस्त्रग्रहणं प्रतिपादितम् , साम्प्रत शप्यासंस्तारकग्रहणविधिमाह-'कप्पइ' इत्यादि ।
मृत्रम्--कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए सेज्जासंपारए पडिग्गाहित्तए । सू० १७ ॥
डाया—कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथारालिकतया शय्यासंस्तारकान् प्रतिग्रहीतुम् ।। सू० १७ ॥
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाण्यावचूरी उ० ३ स० १८
यथारानिकविनयविधिः ६९ चूर्णी--कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वसूत्रोक्तवस्त्रवदेव शय्यासंस्तारकान् , तत्र शय्या वसति', तस्या यः संस्तारकः शयनयोग्यावकाशलक्षणं स्थानं स शय्यासंस्तारकः, तान् यथारानिकतया पर्यायज्येष्ठतया प्रतिग्रहीतु समादातुं कल्पते । तस्य चोपाश्रयप्राप्तैः श्रमणैः पूर्वाह्नवेलायामेव ग्रहण कर्त्तव्यम् ततो यथारात्निकं विभक्तव्यम् , यद्वा शय्या-शरीरप्रमाणा, संस्तारकः-सार्द्धद्विहस्तः, तयोः समाहारे शय्यासंस्तारकम् , तानि, पीठफलकादीनि वा यथारात्निकतया पर्यायज्येष्ठत्वक्रमेण आचार्यस्थविरबालग्लानादीनां यथायोग्यक्रमेण च ग्रहीतुं कल्पते ॥ सू० १७ ॥
अत्राह गाथाद्वयं भाष्यकार:—'सयणटाणं' इत्यादि । भाष्यम्--सयणट्ठाणं तिविहं, निव्वायसवायमिस्सभेयाओ । समविसममिस्सभेया, पुणोवि तिविहं सयणठाणं ॥७॥ एमु य जं सुहठाणं, रायणियाणं गिलाणमाईणं । आमंतिय तं देज्जा, एसा जिणसासणे मेरा ॥ ८ ॥ छाया--शयनस्थानं त्रिविधं-निर्वात-सवात-मिश्रभेदतः । सम-विषम-मिश्रभेदात् , पुनरपि त्रिविधं शयनस्थानम् ॥७॥ एषु च यत् सुखस्थानं, रात्निकानां ग्लानादीनाम् । आमन्त्र्य तद् दद्यात् , एषा जिनशासने मर्यादा ॥ ८॥ __ अवचूरी--'सयणहाणं' इत्यादि । सूत्रे शय्यासस्तारकशब्देन वसतिगतशयनयोग्य स्थानं गृहीतम् । तच्च शयनस्थान-निर्वातं, सवातं, निर्वातसवातं चेति भेदात् त्रिविधं भवति, पुनरपि समं, विषमं, समविषममिति भेदात् त्रिविधम् । तत्र शयनस्थानमाचार्येण यद् यस्मै साधवे दीयते तत्तेन मायामदविप्रमुक्तेन ऋजुभावेन ग्रहीतव्यम् , किन्तु एषु पूर्वोक्तेषु षट्सु स्थानेषु यत् सुखस्थानं भवेत् तत्-आचार्य-स्थविर-लानादीनाम् आमन्त्र्य 'यदि भवतां न समीचीनं शयनस्थानं तर्हि ममेदं गृहाण' इत्यादिसंमानवाक्येन उपनिमन्त्र्य तत् स्वस्य समी. चीनं शयनस्थानं यत्तेषां रोचते तद् दद्यात् यतो जिनशासने एषा श्रमणानां मर्यादा वर्तते.
भगवता समुपदिष्टत्वात् । अथवा शय्या शरीरप्रमाणा, संस्तारकः सा द्विहस्तप्रमाणः । अत्रापि ___ कर्कशमृदुकठोरलक्ष्णादिभेदमधिकृत्य पूर्वोक्तो विधिर्वोच्यः॥ ७-८॥
पूर्व शय्यासस्तारकस्य यथारानिकतया ग्रहणविषयकं सूत्र प्रोक्तम् , साम्प्रतं शय्यासंस्तारकग्रहणानन्तर सन्ध्यासमये पूर्णायां पौरुष्यां गुरुप्रदत्तशय्यासंस्तारं प्रस्तीर्य तदपरि समारूढस्य एवं प्रातरुत्थितस्य च कृतिकर्म करणीयं भवेत् , तदपि यथारानिकतया कर्तव्यमिति तद्विधिप्रतिपादकं सूत्रमाह-'कप्पइ० किइकम्म' इत्यादि ॥
सूत्रम् – कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा अहारायणियाए किइकम्म करित्तए ॥ सू० १८॥
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पसूत्रे छाया--कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथारात्निकतया कृतिकर्म कर्तुम् ॥१८॥
चूर्णी-'कप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां यथारात्निकतया पर्यायज्येष्ठत्वक्रमेणे कृतिकर्म-शानभाषया शिष्यादिकृतो वन्दनाभ्युत्थानादिसत्कार , तत् कत्तुं कल्पते, नान्यथा ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्त्वमर्यादामतिक्रम्येति भावः । कृतिकर्म द्विविधं वन्दनाभ्युत्थानमेदात् , तत्र वन्दनम् आचार्यादियथारात्निकानां प्रातः सायं तेषां दृष्टिपाते कार्यपृच्छादिसमये च यथाविधि वन्दनकं कर्तव्यम् , वन्दन कृत्वैव कार्यादिपृच्छा कर्त्तव्या, एवं सूत्रार्थतदुभयग्रहणेऽपि वन्दनं कर्त्तव्यमेवेति । अभ्युत्थानम्-गुरोः समीपागमने, चंक्रमणे, उच्चारादिभूमौ गमनकाले, आसनादुत्थानकाले, इत्याद्यवसरे शिष्येणाभ्युत्थानं कर्त्तव्यम्, अन्यथा गुरोराशातना, आज्ञाभङ्गादिदोषाश्च समापद्यन्ते, धर्मस्य विनयमूलत्वेन भगवता प्रतिपादितत्वात् , उक्तञ्च
"धम्मस्स मूलं विणयं वयंति, धम्मो य मूलं खल सोग्गईए । सा सोग्गई जत्थ अबाहया उ, तम्हा निसेल्वो विणओ तयट्टा" ॥ १॥
अयं भावः-धर्मस्य जिनोत्तस्य श्रुतचारित्रलक्षणस्य मूलं तीर्थकरगणधरादयो विनयं वदन्ति 'धर्मस्य मूलं विनय' इति, 'मूलं नास्ति कुतः शाखा' इति वचनाद् विनयमन्तरेण तप-संयमाराधनाऽपि कथं भवेत् । धर्मो हि सुगत्या मूलम् , सा सुगतिः कथ्यते यत्र अवाधता क्षुत्पिपासारोगशोकादिशारीरमानसानां वाधानामभावः सिद्धिरित्यर्थः स्यात् तस्मात् कारणात् मुनिना प्रथम विनयो निसेव्यः बिनयः समादरणीयः । स च गुरूणां वन्दनाभ्युत्थानसेवाशुश्रूषादिना जायते ।
अत्राय भावः-इह निर्ग्रन्थस्य कार्य तावदव्यावाधसुखलक्षणो मोक्षः, तस्य च कारणं सर्वज्ञभाषितः श्रुतचारित्रलक्षणो धर्म', स च गुरोरभ्युत्थानवन्दनादिरूपविनयलक्षणमुपायमन्तरेण साधयितुं न शक्यते, धर्मस्य विनयमूलत्वात् , अतो विनयेन धर्माराधनं, धर्माराधनेन मोक्ष इति पर म्परया विनयो मोक्षकारणमेवेति मत्वा तदर्थं विनय आसेवितव्य इति ॥ सू० १८॥
अत्र विनयमोक्षयोः कार्यकारणभावप्रदर्शनपूर्वकमाह भाष्यकार:—'कज्ज' इत्यादि । भाष्यम्-कज्जं च मोक्खो, विणो य हेऊ, निक्कारणा नत्थिह कज्जसिद्धी । तम्हा उवायं तह कारणं च, ओलंबिउं पावइ कज्जसिद्धिं ॥९॥
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ० ३ सू० १९-२०
गृहस्थगृहान्तःस्थ छाया—कार्य च मोक्षो विनयश्च हेतुः । निष्कारणात् नास्तीह कार्यसिद्धिः ॥ तस्माद् उपाय तथा कारणं च,। अवलम्व्य प्राप्नोति कार्यसिद्धिम् ॥ ९ ॥
अवचूरी—'कज्जं च' इति । इह श्रमणधर्मे निम्रन्थस्य कार्य मोक्षः, तस्य हेतुरिति कारणं च विनयः, इति तयोः कार्यकारणभावः, तस्मात् निष्कारणात कारणमन्तरेण उपायमन्तरेण च इह लोके कार्यसिद्धिर्नास्ति न भवति, तस्मात् कारणात् उपायं तथा कारण चावलम्व्यैव कार्यसिद्धिः जीवः प्राप्नोति । तथाहि-यस्य कार्यस्य यद् उपादानं कारणं तेन विना तत्कार्य न सिध्यति यथा मृत्पिण्डमन्तरेण घट इति', उपादानकारणसद्भावेऽपि उपायरूपनिमित्तकारणाभावे कार्य न सिध्यति यथा मृत्पिण्डसद्भावेऽपि चक्रचीवरोदकादिनिमित्तकारणमन्तरेण घटो न निष्पाद्यते अतो यः पुनरुपायरूपनिमित्तकारणवान् प्रयत्नशीलश्च भवति स उपादानकारणम् उपायरूपनिमित्तकारणं चावलम्ब्यैव कार्यं साधयति, तथैवात्र मोक्षकार्यस्योपादानकारणं सर्वविरतिमान् आत्मैव, विनयादिनिमित्तकारणैर्विना नोपादानकारणं मोक्षत्वेन परिणमति-यथा मृत्पिण्डश्चक्रवीवरोदकाद्यभावे घटत्वेन नो परिणमति, अतो निर्ग्रन्थेन विनयः समासेवनीय इति ॥ ९ ॥
पूर्व कृतिकर्मविधौ विनयः सविस्तरं प्रदर्शितः, विनयवांश्च तादृशमविनयजनकं किमपि कार्य न करोति, गृहान्तराले स्थानादिकारणे च गृहस्थस्याविनयो भवतीति गृहान्तराले स्थानादिकरणस्य निषेधसूत्रमाह-'नो कप्पइ० अन्तरागिहंसि' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अन्तरागिहंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहरित्तए वा, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं, वा सिघाणं वा परिदृवित्तए, सज्झायं वा करित्तए झाणं वा झाइत्तए काउस्सग्गं वा करित्तए ठाणं वा ठाइत्तए । अह पुण एवं जाणेज्जा वाहिए जराजुण्णे. तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिज्ज वा पवडिज्ज वा एवं से कप्पइ अन्तरागिहंसि चिट्टित्तए वा जाव ठाणं वा ठाइत्तए ॥ सू० १९॥
माया_नो कल्पते निर्ग्रन्थानांवा निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे स्थातु वा निपतुं वा त्वयि वा निदायितं वा प्रचलायितुं वा अशनं वा, पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा आहारम् आहर्त्तम, उच्चारं वा प्रस्नवणं वा खेलं वा शिवाणं वा परिष्ठापयितुम्, स्वाध्याय वा कर्तुम् , ध्यानं वा ध्यातुम्, कायोत्सर्ग वा कर्तुम् , स्थानं वा स्थातुम् । अथ पुनरेवं जानीयात् व्याधितः जराजीर्णः तपस्वी दुर्वलः क्लान्तः मूर्च्छत् वा प्रपतेत् वा एवं तस्य कल्पते अन्तरगृहे स्थातुं वा यावत् स्थानं वा स्थातुम् ॥ सू० १९ ॥
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
वृहत्कल्पसूत्रे
चूर्णी--'नो कल्पते' इति । निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे गृहयोः गृहस्थनिवासस्थानयोः अन्तरम् अन्तरालम्-अन्तरगृहम् गृहद्वयस्यान्तरालम् अन्तरगृहम् तस्मिन् यत्र गृहस्था गृहाद् गृहान्तरप्रवेशार्थ गमनागमनं कुर्वन्ति तत्र, अत्र अन्तरशब्दस्य पूर्वनिपात आपत्वात् । यद्वा 'अतोगिहंसि' इति पाठे गृहस्थगृहस्य अन्तः मध्ये भिक्षाद्यर्थ गृहस्थगृहे प्रविष्टानां निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां स्थातुमुपवेष्टुं निद्रायितुं प्रचलायितुम् इत्यारम्य स्थानं वा स्थातुम् इति पर्यन्तानि स्थानानि तत्र समाचरितुं नो कल्पते, इत्युत्सर्गवचनम् , एषां पदानां व्याख्या पूर्व गता । कारणे कर्तुं कल्पते इति कारणं प्रदश्यते-'अह पुण' इत्यादि , अथ-इति प्रकरणान्तरद्योतक , अथ पुनः- पूर्वोक्तानि पदानि अन्तरगृहे कर्तु साधूनां न कल्पते किन्तु यदि एवं जानीयात् एवं संभवेत् तत्र गतो मुनिर्व्याधितः पूर्वतो व्याधिग्रस्तः तत्कालं वा व्याधितो मवेत् , जराजीणोवा वार्द्धक्यग्रस्त स्थविरोः वा भवेत् , तपस्वी तप.कर्म वहमानो वा भवेत्, दुर्वल: रोगादिना तत्कालमुक्तत्वेन वलहीनो दुबैलशरीरो वा भवेत् , क्लान्तः- अध्वगमनादिना परिश्रान्तो वा भवेत्, एतादृशः स साधुः कदाचित् मूर्छद् मूर्छा प्राप्नुयाद् वा तेन कारणेन प्रपतेत्-भूमौ प्रस्खलेत् , एवम् एभिः कारणैः 'से' तस्य व्याधितादिविशेषणविशिष्टस्य पूर्वोक्तानि सर्वाणि स्थानानि यथायोग्यमन्तरगृहे कत्तु कल्पते इति सूत्रार्थः ॥ सू० १९ ॥
पूर्व व्याधितादिविशेषणविशिष्टानामन्तरगृहे स्थानादिकरणमनुज्ञातम् , तेन अन्तरगृहे स्थितः सन् कश्चित् श्रमणो धर्मकथामपि कर्तुमारभते इति तन्निषेधमाह-'नो कप्पइ० चउग्गाहं वा' इत्यादि ॥
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्रथीण वा अंतरगिहंसि जाव चउग्गाहं वा पंचगाहं वा आइक्खित्तए वा विभावित्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा, नन्नत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा एगगाहाए वा एगसिलोएण वा, सेवि य ठिच्चा नो वेव णं अद्विच्चा ॥ सू० २० ॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे यावत् चतुर्थ वा पञ्चगाथं वा आख्यातुं वा विभावयितुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वा नान्यत्र एकज्ञातेन वा एकव्याकरणेन वा एकगाथया वा एकश्लोकेन वा तदपि च स्थित्वा, नो चैव खलु अस्थित्वा ॥ सू० २० ॥
__चूर्णी-'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे द्वयोहयोरन्तराले गृहस्थगृहाम्यन्तरे वा यावत् चतुर्गाथम् चतसृणां गाथानां समाहारश्चतुर्गाथम्-एकत आरभ्य गाथा चतुष्टयपर्यन्तम्, पञ्चगाथं वा गाथापञ्चकपर्यन्तं वा, आरव्यातुं वा मूलरूपेण कथयितुं वा, विभावयि तुं वा चिन्तयितुं वा, कीर्तयितुं वा गीतवद् उच्चारयितुं वा, प्रवेदयितुं वा विज्ञापयितुं वा नो कल्पते । तत्र स्थितानां श्रमणश्रमणीनां कारणे कियत् कल्पते ? तत्राह-यदि तत्र केषाञ्चित् जिनवचने शङ्का जायते, धार्मिको विवादो वा भवेत् , इत्यादिकारणे कोऽपि समागत्य तत्रस्थितं साधु पृच्छेत्
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ०-३ सू० २१-२४ गृहस्थगृहान्तराख्यानादिनिषेधः ७३ तदा गाथानामाख्यानादिकं कर्तुं कल्पते, अन्यथा पृच्छकस्य साधोर्विषये शास्त्रज्ञानाऽबोधरूपा शङ्का भवेत्, विवादनिर्णयो वा न भवेत् । तदा तादृशेऽवसरेऽपि 'नन्नत्थ' इति नान्यत्र-एकज्ञातेन एकदृष्टान्तेन अन्यत्र-विना 'ने'-ति न कल्पते, 'नान्यत्र' इति सर्वत्र संबध्यते, एकदृष्टान्तादधिकं कथयितुं न कल्पते इति भावः, एवम्-एकव्याकरणेन-एकप्रश्नस्योत्तररूपेण विना एकव्याकरणं मुक्त्वाऽधिकं न कल्पते, यथा यदि कोऽपि पृच्छेत् किंलक्षणो धर्मः ? 'अहिंसालक्खणो धम्मो' अहिंसालक्षणो धर्म इति गाथांशेन निर्वचनं प्रवदेत् , नाधिकमिति । तथा एकगाथया वा नान्यत्र, गाथा आर्यावृत्तरूपा, एकश्लोकेन वा नान्यत्र, लोकः-अनुष्टुभादिरूपः । एकज्ञातात् एकव्याकरणात् , एकगाथातः, एकश्लोकाद् अधिकम् आरव्यातुं विभावयितुं कीर्तयितुं प्रवेदयितुं वा किमपि वा कर्तुं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामन्तरगृहे न कल्पते इति भावः । तदपि कथं कल्पते ? इति विधिमाह'सेवि य' इत्यादि, तदपि च ज्ञातादीनामाख्यानादिकं कल्पते स्थित्वा ऊर्बीभूतगात्रयष्टया स्थिति कृत्वा कल्पते किन्तु नो चैव खलु अस्थित्वा पूर्वोक्तव्यतिरेकेण आसनादौ समुपविश्येत्यर्थः न कल्पते इति भावः ॥ सू०२०॥
अथ पूर्वोक्तप्रकारेण भावनासहितपञ्चमहाव्रतानामपि आख्यानादेः प्रतिषेधमाह-'नो कप्पइ० इमाई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा अंतरगिहंसि इमाइं पंचमहव्वयाई सभावणाई आइक्खित्तए वा, विभावित्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा, नन्नत्थ एगनाएण वा जाव एगसिलोएण वा, सेवि य ठिच्चा नो चेव णं अद्विच्चा ॥ सू०२१ ॥
छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे इमानि पञ्चमहाव्रतानि सभावनानि आख्यातुं वा विभावयितुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वा, नान्यत्र एकज्ञातेन वा यावत् एकश्लोकेन वा, तदपि च स्थित्वा, नो चैव खलु अस्थित्वा ॥ सु० २१ ॥
___ चूणी--'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनाम् अन्तरगृहे इमानि शास्त्रप्रसिद्धानि पञ्चमहाव्रतानि अहिंसा-सत्या-ऽस्तेय-ब्रह्मचर्या-उपरिग्रहरूपाणि सभावनानि भावनासहितानि, प्रत्येकमहाव्रतस्य पञ्च पञ्च भावनाः "इरियासमिए सया जए" इत्यादिगाथोक्तस्वरूपाः भवन्तीतिपञ्चविशतिभावनायुक्तानि आख्यातुम् , इत्यादिपदानां व्याख्या पूर्वसूत्रे गता, न कल्पते, नान्यत्र, इत्यादिपदानामपि व्याख्या पूर्वसूत्रे गता । तत्र आख्यानं यथा-इमानि पञ्च महाव्रतानि पट्कायरक्षणपराणि, षट्कायाश्च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरूपाः, इत्यादि । विभावनं यथाएतानि पञ्च महाव्रतानि प्राणातिपातविरमणादीनि भावनापूर्वकं निरतिचार मनोवच.काययोगमाश्रित्य कृतकारितानुमोदनसहितानि समाचरणीयानि भवन्तीत्यादि । कीर्तनम्-एषु पञ्चसु महाव्रतेषु
१०
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
वृहत्कल्पसूत्रे प्रथमं प्राणातिपातविरमणाख्यं व्रतं सदेवमनुष्यासुरस्य लोकस्य पूजनीय द्वीपस्त्राणं शरणं गतिः प्रतिष्ठा, इत्यादिरूपेण सर्वेषामपि प्रश्नव्याकरणाङ्गगतसंवराध्ययनपञ्चकोक्तानाम् (अध्य०१-५) गुणानां प्रतिपादनम् , प्रवेदनम्-पञ्चमहाव्रतानुपालनात् मोक्षो देवलोको वा भवति, इत्येवं तत्फलकथनमिति । एतत्सर्वमन्तरगृहे कत्तु साधूनां न कल्पते, व्याधितादिकारणे तु कल्पते, तत्तु सूत्रोक्तप्रमाणं न तु तदधिकमिति ॥ सू० २१ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामन्तरगृहे स्थानधर्मकथादिकरणं निषिद्धम्, साम्प्रतं तत्रगतो मुनिः शय्यासंस्तारकं गृह्णीयात् तद् अपरावर्त्य न गच्छेदिति प्रतिपादयितुमाह-'नो कप्पई० पाड़िहारियं' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं सागारियसंतयं सेज्जासंथारयं आयाए अपडिहटु संपव्वइत्तए ॥ सू० २२ ॥
छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं सांगारिकसत्कं शय्यासंस्तारकम् आदाय अप्रतिहत्य संप्रवजितुम् ॥ सू० २२ ॥
चूर्णी--'नो कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निम्रन्थीनां वा प्रातिहारिक-प्रतिहरणं प्रत्यपणं, तद् अर्हतीति प्रातिहारिकं प्रत्यर्पणप्रतिज्ञयाऽऽनीत वस्तु प्रातिहारिकं कथ्यते, तादृशं सागारिकसत्कं गृहस्थसम्बन्धिकं शय्यासंस्तारकं, शय्या-शरीरप्रमाणा, संस्तारकः-सार्द्धद्वयहस्तप्रमाणः पीठफलकादिकं वा तद् आदाय आनीय अपरिहत्य पुनरदत्त्वा संप्रव्रजितुं ग्रामान्तरं विहर्तुं न कल्पते, साधोरप्रतीतिजनकत्वात् ॥ सू० २२ ॥ ।
__पूर्व साधोः प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकमदत्त्वा गमनं निषिद्धम्, तच्च सागारिकसम्बन्धि भवेदिति तस्य प्रत्यर्पणविधिमाह-'नो कप्पइ० सागारियसंतयं' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं सागारियसंतयं सिज्जासंथारयं आयाए अविकरणं कटु संपन्वइत्तए ॥ सू० २३॥
छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा सागारिकसत्कं प्रातिहारिक शय्यासंस्तारकमादाय अविकरणं कृत्वा संप्रबजितुम् ॥ सू० २३ ॥
चूर्णी--'नोकप्पइ' इति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं सागारिकसत्कं, सागारिको गृहस्थ तत्सम्बन्धि गृहस्थसत्ताकमित्यर्थः, शय्यासंस्तारकं पीठफलकादिकं वा आदाय गृहस्थसकाशादानीय स्वकार्यसमाप्तौ तस्य अविकरणं-विकरण नाम यथारूपेण यत्स्थानाहा आनीतं तथारूपेण तत्रैव स्थाने स्थापनम् , तस्य न करणम्- अविकरणम्, तत् कृत्वा सस्तरणार्थमानीतं तृणादिकं यथानीतरूपेण पुनस्तत्रैव स्थापनमकृत्वा प्रव्रजितुं विहारं कत्तुं नो कल्पते ॥ सू० २३ ॥
तर्हि कथं कल्पते ? इत्याह 'कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं सागारियसंतयं सेज्जासंधारयं आयाए विकरणं कटु संपव्वइत्तए ॥ सू० २४ ॥
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
चुणिभाष्यावरी उ०-३ सू० २४-२६ प्रतिहारिकशय्यादेर्ग्रहणाऽर्पणविधिः ७५
छाया- कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं सागारिकसत्कं शय्यासेस्तारकम् आदाय विकरणं कृत्वा संप्रवजितुम् ॥ सू० २४ ॥
चूर्णी--'कप्पई' इति । निर्ग्रन्थानां निम्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकमादाय आनीय विकरणं यथारूपेण आनीतं तथारूपेणैव तत्रैव स्थापनं कृत्वा प्रवजितुं विहारं कत्त कल्पते । अयं भावः-यानि तृणानि संस्तरणार्थ यस्मात् स्थानात् प्रस्तुततृणपुजात् राशीकृततृणपुञ्जाद्वा आनीतानि तानि कार्यसमाप्तौ गमनसमये प्रस्तृततृणपुजादानीतानि प्रस्तृततृणपुजे, राशीकृततृणंपुञ्जादानीतानि राशीकृततृणपुजे एव पूर्व यथास्थितानि तादृशान्येव प्रत्यर्पणसमयेऽपि कृत्वा स्थापनीयानि । एवं पीठफलकमपि यथाऽऽनीतं-यद्यानयनसमये तदूर्ध्वं स्थापितं भवेत्तत् प्रत्यर्पणसमयेऽप्यूर्ध्वमेव स्थापनीयम् , तिर्यक्स्थापितं भवेत्तदा तिर्यगेव स्थापनीयम्, भित्तिपार्शदानीतं भवेत्तदा प्रत्यर्पणसमयेऽपि भित्तिपार्श्वे एव स्थापनीयम् , यं पृष्टा चानीतं तमेव पुन संसूच्य स्थापनीयम्, येन गृहस्थस्याऽप्रतीतिकं न भवेत् । एव कृत्वैव साधोामान्तरं गन्तुं कल्पते, प्रातिहारिकवस्तुप्रत्यर्पणस्य एतादृशविधिकत्वात्। एवं करणे श्रमण आज्ञाभङ्गादिदोषभागू न भवति, न वा प्रायश्चित्तभाग् भवतीति भावः ॥ सू० २४ ॥
पूर्व सागारिकसत्कशय्यासस्तारकादेः प्रत्यर्पणविधिः प्रोक्तः, यदि तत् शय्यासंस्तारकादि चोरादिना चोरितं भवेत्तदा कि कत्र्तव्यम् ? इति तद्विधिं प्रदर्शयति-'इह खलु' इत्यादि।
सूत्रम्-इह खलु निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा पाडिहारिए सागारियसंत सेज्जासंथारए विप्पणसिज्जा से य अणुगवेसियवे सिया. से य अण. वेस्समाणे लभेज्जा तस्सेव पडिदायव्वे सिया, से य अणुगवेस्समाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पड दोच्चपि उग्गहं अणुन्नवित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ सू० २५ ॥
लाया_इह खलु निर्ग्रन्थानां वा निग्रेन्थीनां वा प्रातिहारिकं वा सागारिकसत्कं वास्तारकं विप्रणश्येत् तच्च अनुगवेपयितव्यं स्यात्, तच्च अनुगवेष्यमाणं लभेत (तदा) तस्यैव प्रतिदातव्यं स्यात्, तच्च अनुगवेष्यमाण नो लमेत एव तस्य कल्पते द्वितीयमपि अवग्रहम् अनुज्ञाप्य परिहारं परिहतम् ॥ सू० २५ ॥
चूर्णी-इह खलु' इति । इह-जिनशासने खलु निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा यत प्रातिहारिक -प्रत्यर्पणवचसा समानीतं सागारिकसत्कं गृहस्थसत्ताकं शयासंस्तारकं पीठफलकादिकं वा किमपि वस्तु विप्रणश्येत् चोरादिना अपहियेत तदा तत् शय्यासंस्तारकम् अनुगवेपयितव्य स्यात् झटिति श्रमणेन तस्य गवेषणम् इतस्ततः पृच्छादिना शोधनं कर्त्तव्यं स्यात । यदि गवेष्यमाणं तत् लभेत तदा तस्यैव गृहस्थस्य यत्सकाशादानीतं भवेत्तस्यैव प्रतिदातव्यं स्यात् प्रत्यर्पणीयं भवेत् तस्मै प्रत्यर्पयितव्यमिति भावः । यदि तच्च शय्यासंस्तारकमले ध्यमाणमपि न लमेत न प्राप्नुयात् एवम् एतादृशेऽवसरे 'से' तस्येति सूत्रे जातावेकवचनं तेन
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पसूत्रे
तेषां निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां कल्पते द्वितीयमपि वारम् अवग्रहम् अनुज्ञाप्य, प्रथमवारं तावद् अवग्रहो यदा शय्यासंस्तारकं गृहीतं तदा अनुज्ञापितः, तदनन्तरं यदा विप्रणष्टं सत् अनुगवेष्यमाणमपि नोपलव्धं तदा तत्स्वामिने निवेदने कृते सति यद्यसौ गृहस्थः अन्यत् शय्यासंस्तारकं साघवे प्रयच्छति तदा, अथवा तदेव यद् विप्रणष्टं शय्यासंस्तारकं तत्स्वामिना लब्धं तदा च तद्विषयकमवग्रहं द्वितीयवारमपि अनुज्ञाप्य परिहारं परिभोगलक्षणं शय्यासंस्तारक गृहीत्वा परिहत्तुं परिभोक्तुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । वसतौ शून्यायां कृतायां शय्यासंस्तारकं नड्क्ष्यतीति मत्वा श्रमणेन प्रथमत एव वसतिः शून्या न कर्त्तव्या सदा सावधानेन भाव्यम्, वसतिशून्यत्वकरणे श्रमणस्य प्रमादः सिध्यतीत्यतः श्रमणेन नित्यमप्रमत्तेन भवितव्यमिति भावः ॥ सू० २५ ॥
पूर्व सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकं प्रत्यर्थे श्रमणैविहारः कर्त्तव्यः इति प्रोक्तम् , तथा यदि चौरैः शय्यासंस्तारकं चोरितं तदा द्वितीयवारमवग्रहं गृहीत्वा शय्यासंस्तारकमानेतव्यमिति च प्रोक्तम् , साम्प्रतं पूर्वस्थिताः साधवस्तत् शय्यासंस्तारकं विप्रजहति तदवसरेऽन्ये श्रमणा आगच्छन्ति तदा तद्विषयकमवग्रहकालं प्रतिपादयन्नाह-'जदिवस' इत्यादि।
सूत्रम्-जदिवसं समणा निग्गंथा सेज्जासंथारय विप्पजहंति तदिवसं अवरे समणा निग्गंथा हन्धमागच्छेज्जा सच्चेव उग्गहस्स पुत्राणुण्णवणा चिहइ अहालंदमवि उग्गहे ॥ सू०२६॥
छाया-यं दिवसं श्रमणा निर्ग्रन्थाः शय्यासंस्तारकं विप्रजहति तं दिवसम् अपरे श्रमणा निर्ग्रन्था हव्यमागच्छेयुः सैव अवग्रहस्य पूर्वानुशापना तिष्ठति यथालन्दमपि अवग्रहः ॥ सू० २६ ॥
चूर्णी-'जदिवस' इति । यं दिवसमधिकृत्य यस्मिन् दिवंसे इत्यर्थः, श्रमणा निर्ग्रन्था ये पूर्व तत्रोपाश्रये स्थितास्ते मासकल्पसमाप्यनन्तरं चातुर्माससमाप्त्यनन्तरं वा शय्यासंस्तारकं स्वावग्रहेणानीतं पीठफलकादिकं तद् विप्रजहति त्यजन्ति तं दिवसमधिकृत्य तस्मिन् दिवसे इत्यर्थः अपरे अन्ये साधर्मिका. श्रमणा निर्ग्रन्था हव्यं-शीत्रं तत्कालमेव आगच्छेयुः उपाश्रये प्रविशेयुस्तदा सा एव या पूर्वस्थितैः श्रमणैर्गृहीता अवग्रहस्य निवसनाधिकारस्य पूर्वानुज्ञापना पूर्व याऽनुज्ञापना गृहीता भवेत् सा एव तदुपाश्रयविषया तिष्ठति, ये एव पूर्वस्थिताः श्रमणा यस्मात् उपाश्रयाद् निम्रतास्तेषामेवाधिकारे स उपाश्रयस्तिष्ठतीति भावः । कियन्तं काल यावदवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति ? तत्राह-यथालन्दमपि अवग्रहस्तिष्ठति । अत्र मध्यमोऽष्टपौरुषीप्रमाणो यथालन्दकालो गृह्यते इति अष्टपौरुषीकालं यावत् पूर्वस्थितश्रमणानामेवावग्रहे स उपाश्रयस्तिष्टति तत एतावत्कालपर्यन्तमपरे समागता निर्ग्रन्थाः उपाश्रयस्वामिनोऽवग्रहमयाचित्वाऽपि तत्र स्थातुं पीठफलकादिकमुपभोक्तुं वाऽर्हन्ति, तदनन्तरं तैरपरोऽवग्रहो याचितव्यो भवेदिति भावः ॥
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ०- ३ सु० २७-२९
उपाश्रयादेरवग्रहानुज्ञापनाविधिः ७७
अथ स उपाश्रय एवावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापनायां तिष्ठति किमन्यदपि तत्रस्थितं सागारिकसत्कं वस्तु पूर्वानुज्ञापनायां तिष्ठति ? इति जिज्ञासायां तद्विषयकं सूत्रमाह- 'अस्थि या इत्थ' इत्यादि । सूत्रम् - अस्थि या इत्थ केt उवस्यपरियावन्नए अचित्ते परिहरणारिहे सच्चेच उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिह्न अहालंदमवि उग्गहो । सू० २७ ॥
छाया -- अस्ति चात्र किञ्चिद् उपाश्रयपर्यापन्नम् अचित्तं परिहरणार्ह सैव अवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति, यथालन्दमपि अवग्रहः ॥ सू० २७ ॥
चूर्णी -- 'अत्थि या इत्थ' इति । अस्ति चात्र पूर्वस्थितश्रमणपरित्यक्तोपाश्रये किञ्चित्`वस्त्रादिकम् उपाश्रयपर्यापन्नम् - उपाश्रये पर्यापन्न पूर्वस्थितश्रमणैर्विहारसमये विस्मृतं परित्यक्तं वा सागारिकसत्कं वा किमपि वस्तु स्थितम् उपाश्रयपर्यापन्नम्, अचित्तं वस्त्रादिकं 'पात्रादिकं वा तद् यदि परिहरणा प्रासुकत्वेन साधूनां परिभोगयोग्यं भवेत् तद्विषयेऽपि सा एव अवग्रह्रस्य अनुज्ञापना तिष्ठति, तत्परिभोगः पूर्वानुज्ञापनयैव कर्त्तव्यः, न तत्परिभोगेऽन्यानुज्ञापना ग्रही - तव्या, तत्परिभोगेन साधूनामदत्तादानादिदोषा सद्भावादिति भावः । कियन्तं कालमित्याह-यथालन्दमपि मध्यम यथालन्दकालमष्ट पौरुषपर्यन्तम् अवग्रहस्तिष्ठति यथालन्दकालं यावत्तदुपभोगो नूतनसमागतश्रमणानां कल्पते इति भावः ॥ सू० २७ ॥
पुनरप्यवग्रहानुज्ञापनाविषये प्राह - 'से वत्थुसु' इत्यादि ।
सूत्रम् - से वत्थुसु अव्यावडेसु अन्धोगडेसु अपरपरिग्गहिएस अमरपरिग्गहिएस सच्चेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिह्न अहालंदमवि उग्गहो || सू० २८ ॥
छाया- - तस्य वास्तुपु अव्यापृतेषु अव्याकृतेषु अपरपरिगृहीतेषु अमरपरिगृहीतेषु सैव अवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति यथालन्दमपि अवग्रहः ॥ सू० २८ ॥
चूर्णी - तस्य अन्यग्रामाद् विहृत्यागच्छतः वास्तुषु वसतिगृहेषु कीदृशेषु ? तत्राहअव्याट्टंतेषु शटितपतिततया निवासव्यापारवर्जितेषु, अव्याकृतेषु अविभक्तेषु येषां दायादादिभिर्विभागो न कृतस्तादृशेषु अनेकजनसत्तावत्सु, यद्वा अतीतकाले केनाऽप्यनुज्ञातानि इमानि चास्तूनि इत्यज्ञातेषु, अपरपरिगृहीतेषु-परैरन्यैः परिगृहीतानि स्वपरिग्रहे कृतानि परपरिगृहीतानि, न तथा अपरपरिगृहीतानि अन्यैरनधिष्ठितानि तेषु, अमरपरिगृहीतेषु ममरैः व्यन्तरादिदेवैः परिगृहीतेषु 'स्वा“घीनीकृतेषु यथा व्यन्तराधिष्ठितभूमिभागे व्यन्तरादिदेवान् अवमान्य निर्मापितत्वेन ते तत्र गृहनिर्मापकं न वासयन्ति विघ्नं कुर्वन्ति न तथा श्रमणानाम् तानि गृहाणि अमरपरिगृहीतानि प्रोच्यन्ते तेषु एतेषु वास्तुषु सैव पूर्वस्थितश्रमणविषयैव अवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना यथालन्दकाल तिष्ठति, यथालन्दकालं यावद् आगन्तुकश्रमणैः भूयोऽवग्रहो नानुज्ञापनीय इति भाव' ॥ सू० २८ ॥ तदेव विशदयति भाष्यकारः - - ' अव्वावड ०" इत्यादि ।
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
वृहत्कल्पसूत्रे
भाष्यम्--अव्वावड-अव्वोगड-अपरा-ऽमरपरिग्गहियवत्थूणि । नाणाविहभेयाणि य, नायवाणीह जहजोगं ॥१०॥ छाया-अव्यापृताऽव्याकृताऽपरामरपरिगृहीतवास्तूनि । नानाविधभेदानि, झातव्यानीह यथायोग्यं ॥ १० ॥
अवचूरी--'अव्वावड०' इति । अव्यापृतानि अव्याकृतानि, अपरपरिगृहीतानि अमरपरिगृहीतानि चेति चत्वारि वास्तुनि नानाविधभेदानि अनेकभेदयुक्तानि इह शास्त्रे यथायोग्यं ज्ञातव्यानि । तथाहि-अव्यापृतानि शटितपतितादिना न तत्र केनापि वासो विहितस्तादृशानि, अव्याकृतानि बहुजनस्वाभिकत्वेन तेषु न केनाप्येकेन स्वायत्तीकृतानि, अपरपरिगृहीतानि नान्यः कैश्चिदधिष्ठितानि अस्वामिकानीव स्थितानि, अमरपरिगृहीतानि कृतव्यन्तरादिदेवनिवासानीति । तत्र अव्याप्तं वास्तु यथा कश्चित् कौटुम्बिको गृहं निर्मापितवान् तत्र वस्तुमारब्धवान् तस्य कुमुहूर्तादिसंयोगे निर्मापितत्वेन स तत्र न सुखं वस्तुं शक्नोति, तत्र वासानन्तरं प्रतिदिनं द्रव्यहानिः प्रारब्धा ततः स तं मुक्तवान् न तत्र कोऽपि वसति तद् वास्तु अव्यापृतं प्रोच्यते । अव्याकृतं यथाकेनापि आढयेन श्रेष्ठिना गृहं निर्मापितम्, तस्य बहवः सुता आसन् , मृते च तस्मिन् तद् गृहं दायादगणगोष्ठीसत्ताकं जातं, नैकस्य, कियत्कालानन्तरं क्षीणधनत्वेन तद् गृहमेको ग्रहीतुं न शक्नोति. राजकरश्च तस्य दातव्यः स्यादिति तद् गृहं श्रमणनिवासार्थ धार्मिकस्थानत्वेन तैः समर्पितम्, ते चान्यत्र स्वकुटीरं निर्माय स्थातुमारब्धवन्तः, तादृशं गृहमव्याकृतं प्रोच्यते २। अपरपरिगृहीतं यथा-अन्यः कैश्चिदपि स्वपरिग्रहे न कृतं तद्रक्षार्थ तत्र कोऽपि प्रेक्षकः स्थापित इति तद् गृहमपरपरिगहीतं कथ्यते ३। अमरपरिगृहीतं यथा-कश्चित् श्रेष्ठी गृहं व्यन्तराधिष्ठितभूमिभागे निर्मापितवान् वस्तं प्रारब्धवांश्च, तस्मिन् समये स व्यन्तरो देवः स्वप्ने निवेदितवान्-'यत्त्वया मदधिष्ठितभूमौ गृहं निर्मापितमतोहमत्र निवसिष्यामि, यदि त्वं वसिष्यसि तदा त्वां सकुटुम्बं विनाशयिष्यामि श्रमणा वसन्तु' इति तद्भयात्तेन तद् गृहं परित्यक्तम्, तादृशं वास्तु अमरपरिगृहीतमुच्यते ४ । एतादृशेषु वास्तुषु ये श्रमणाः पूर्वस्थितास्तेषु मासकल्पे चातुर्मासे वा समाप्ते सति तत्समये येऽन्ये श्रमणाः समागतास्तेषामवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापनैव तेन यथालन्दकालं स्थातुं कल्पते न तु तैः निवासार्थ पुनरनुज्ञा ग्रहीतव्येति ॥ १० ॥
अथाव्यामृतादिविपरीतव्यापृतादिवास्तुविषयामवग्रहानुज्ञापनां प्रदर्शयति-'से वत्थुसु वावडेसु' इत्यादि ।
सूत्रम्-से वत्थुसु वावडेसु वोगडेसु परपरिग्गहिएसु भिक्खुभावस्स अट्टाए दोच्चंपि उग्गाहे अणुण्णवेयचे सिया अहालंदमवि उग्गहे ।। सू० २९ ॥
छाया-तस्य वास्तुपु व्यापृतेपु व्याकृतेपु परपरिगृहोतेपु भिक्षुभावस्याय द्वितीयमपि अवग्रहः अनुज्ञापयितव्यः स्यात् यथालन्दमपि अवग्रहः ॥ सू० २९ ॥
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
घूर्णिभाष्यावचूरी उ०३ सू० २९-३१ उपाश्रयादेरवग्रहानुज्ञापनाविधिः ७९
चूर्णी-'से वत्थुसु वावडेसु' इति । तस्य पूर्वोक्तस्य श्रमणस्य वास्तुषु व्यापृतेषु निवासव्यापारविशिष्टेपु, व्याकृतेषु दायादादिभिर्विभज्य एकेन स्वायत्तीकृतेषु परपरिगहीतेषु अन्यैरधिष्ठितेपु, 'भिक्खुभावस्स अहाए'-भिक्षुभावो ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः तृतीयत्रतादिरूपो वा यथाऽयं भिक्षुभावो परिपूर्णो भवेदित्येवंरूपः, तस्यार्थाय प्रयोजनाय सग्यक्तया भिक्षुभावपालननिमित्तं पूर्वस्थितश्रमणविहारसमये य' समागच्छति तस्य दोच्चंपि द्वितीयमपि वारं प्रथम तैरवग्रहानुज्ञापना गृहीताऽतो द्वितीयवारमिति कथितम्, अवग्रहोऽनुज्ञापयितव्य. निवासार्थ गृहस्वामिन आज्ञा ग्रहीतन्या स्यात् तेन पुनरप्याज्ञा ग्रहीतव्येति भावः । कियत्कालमित्याह-यथालन्दमपि जघन्ययथालन्दकालं यावदपि यथालन्दकालार्थमपि अवग्रहोऽनुज्ञापयितव्य इति । तत्रावग्रहः पञ्चविधः-शक्रेन्द्रावग्रह १, राजावग्रहः २, गाथापत्यवग्रहः ३ सागारिकावग्रहः ४, साधर्मिकावग्रहश्चेति ५। एपु पञ्चविधेषु अवग्रहेषु यस्य यत्रावग्रह उचितो ज्ञायते तस्य तस्यावग्रहेण गृहीतेपु उपाश्रयादिषु श्रमणैर्वस्तव्यम् । यदि कुत्रापि वृक्षतलादिशून्यस्थाने यस्य कोऽपि स्वामी न भवेत्तत्र यदि वस्तव्यं स्यात्तदा शक्रेन्द्रस्यावग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः । अत्र कश्चित् शङ्कते-किं शक्रेन्द्रोऽनुज्ञां ददाति येन तस्यावग्रहोऽनुज्ञाप्यते ? शृणु, यद् भगवतोवग्रहप्रतिपादकं वचनं श्रुत्वा शकेन्द्रस्तीर्थकरं वन्दित्वा यद् यद अस्वामिकम् आत्मीयेऽवग्रहे साधुप्रायोग्यं सचित्तं शिष्यादि, अचित्तं मिश्रं वा किमपि वस्तुजातं भवेत्तत्तत्तदानीं सर्वमपि भगवद्वचनाराधकत्वेन प्रसन्नमनसा साधुभ्योऽनुजानातीत्यत एव शक्रेन्दस्यावग्रहः शास्त्रे प्रतिपादित इति ॥ सू० २९ ॥
अथावग्रहप्रसङ्गादत्र सागारिकावग्रहस्य राजावग्रहस्य चावग्रहपरिमाणं प्रतिपादयितुमाह'से अणुकुड्डेमु' इत्यादि ।
सूत्रम्-से अणुकुड्डेसु वा अणुभित्तिसु वा अणुचरियासु वा अणुफलिहासु वा अणुपंथेसु वा अणुमेरासु वा सच्चेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा अहालंदमवि उग्गहे ।। सू०३०॥
छाया-तस्य अनुकुडयेपु वा अनुभित्तिपु वा अनुचरिकासु वा अनुपरिखासु वा अनुपथेपुवा अनुमर्यादासु वा सैव अवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना यथालन्दमपि अवग्रहः॥ सू०३० ।।
चूर्णी--‘से अणुकुड्डेमु वा' इति । 'से' तस्य पूर्वोक्तस्य श्रमणस्य अनुकुडयेपु वा मृत्तिकानिर्मितभित्तिनिकटवर्तिपु स्थानेषु, अनुभित्तिपु वा इष्टकाप्रस्तरादिनिर्मितभित्तिनिकटवर्तिपु प्रदेशेष, अनुचरिकासु वा-नगरप्राकारयोरपान्तरालवर्तिपु अष्टहस्तप्रमाणमार्गेषु, अनुपरिखासु वा नगरचतुर्दिकस्थितखातिकासमीपवर्तिषु प्रदेशेषु, अनुपयेषु वा मार्गसमीपवत्तिषु स्थानेषु, अनुमर्यादासु वा-नगरसीमासमीपवर्त्तिषु स्थानेषु, एतेषु स्थानेषु सा एव राजाऽनुज्ञा एव यत्र न कोऽपि गृहादि करोति जनसाधारणार्थमेव यानि स्थानानि नगरप्रामादिपु राज्ञा स्थापितानि भवन्ति तेषु स्थानेषु राजाज्ञा पूर्वमेवानुज्ञापिता भवति अतः सा एवावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे
M
वर्त्तते तत्र यथालन्दमपि जघन्यमध्यमयथालन्दकालं यथावसरम् अवग्रहो भवति न तत्र कोऽपि अनुज्ञापयितव्यः, एपां स्थानानां पूर्वमेव सागारिकराजादिनाऽनुज्ञापितत्वादेव, अत्र सागारिकराजावग्रही बोध्यौ । अत्रायं विवेकः-पूर्वोक्तेपु स्थानेषु यथायोग्यमवग्रहो भवति यथा-अनुचरिकायामष्टौ हस्ता अवग्रहे, परिखायां चत्वारो रत्नयः, वृतिस्वामिनो वृते. परमपि हस्तमात्रमवग्रहो वोध्यः । शेषः पुनः सर्वोऽपि नृपतेरवग्रहो मन्तव्यः । एतदवग्रहपरिमाणं बोध्यम् । अत्र उच्चारादीनि स्थाननिषदनादीनि वा कुर्वन् श्रमणो यदि कुड्यादीनां हस्ताभ्यन्तरे करोति तदा तेन गृहपत्यवग्रहो मनसि भावनीयः, हस्तात्पुनरधिकं बहिश्चरिकाप्राकारपरिखादिषु च राजावग्रहो वोध्यः, अटव्यामपि यद्यसौ राजा भवति तदा तस्यैवावग्रहं श्रमणः स्मरेत् , यदि चासौ राजा तत्राटव्यां न प्रभुस्तदा शकेन्द्रस्यावग्रहं मनसि चिन्तयेदिति ॥ सू० ३० ॥
॥ इत्यवग्रहप्रकरणम् ॥ पूर्व श्रमणस्य निवासविषयोऽवग्रहः प्रतिपादितः तत्र, राजावग्रहोऽप्यन्तर्भूत इति साम्प्रतं विरुद्धराजसैन्यातिक्रमणे निर्ग्रन्थनिग्रन्थीनां भिक्षाचर्यानिवासादिविधि प्रतिपादयति'से गामस्स वा' इत्यादि ।
सूत्रम्--से गामस्स या जाव रायहाणीए वा वहिया सेण्णं सनिविठं पेहाए कप्पइ निग्गंधाण वा निगंथीण वा तदिवसं भिक्खायरियाए गंतुं पडिनियत्तए । नो से कप्पइ तं रयणि तत्थेव उवाइणावित्तए, जो रवलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा तं रयणि तत्थेव उवाइणावेइ, उवाइणावंतं वा साइजइ, से दुइओवि अइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० ३१ ॥
छाया-अथ ग्रामस्य वा यावद् राजधान्या वा वहिः सैन्य संनिविष्टं प्रेक्ष्य कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तं दिवसं भिक्षाचर्यायै गत्वा प्रतिनिवर्तितम् । नो तस्य कल्पते तां रजनी तत्रैव अतिक्रामयितुस् । यः खलु निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा तां रजनी तत्रैव अतिक्रामयति अतिक्रामयन्तं वा स्वदते स द्विघातोऽपि अतिक्रामन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ॥ सू० ३१ ॥ ___चूर्णी-'से गामस्स वा' इत्यादि । 'से' अथ-अवग्रहप्रकरणानन्तरं सम्प्रति ग्रामस्य वा आसन्नग्रामस्य 'जाव' इति यावत् , यावत्पदेनात्र नगरादिपदाना संग्रहपाठोऽस्यैव प्रथमोद्देशके षष्ठसूत्रोको ग्रामादारभ्य राजधानीपर्यन्तः सर्वोऽपि वाच्यः, अत्रोक्तपदानामर्थोऽपि तत्रैवाऽवलोकनीयः। राजधान्या वा वहिः-बहिर्भागे सैन्यम् अन्यनृपतेः सैन्यदलं ग्रामादिविजयार्थ संनिविष्टम् आगत्य स्थितं प्रेक्ष्य दृष्ट्वा कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तत्तद्ग्रामादिस्थितानां तदिवसमभिव्याप्य तस्मिन् दिवसे इत्यर्थः भिक्षाचर्यायै भिक्षाचर्यार्थ तत्र आसन्नग्रामादौ गत्वा प्रतिनिवर्तित प्रत्यागन्तुं कल्पते किन्तु 'से' तस्य भिक्षाचर्यागतस्य निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्ध्या वा नो कल्पते न
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यामधूरी उ० ३ सू० ३२
प्रामादिभूमेरवग्रहानुज्ञापनाविधिः ८१ युज्यते तां रजनी रात्री तत्रैव सैन्यपरिवेष्टिते ग्रामादौ अतिक्रामयितुम् उल्लङ्घयितुं यापयितुं तत्र स्थातुमित्यर्थः नो कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । यः खलु निर्ग्रन्थो वा निम्रन्थी वा तां रजनी तत्रैव अतिक्रामयति अतिकामयन्तं वाऽन्य स्वदते अनुमोदते सः 'दुहओवि' इति द्विधातोऽपि तीर्थकरतो नृपतो वा उभयतोऽपि अतिक्रामन् आज्ञामुल्लचयन् तीर्थकराज्ञां नृपाज्ञां च विलोपयन् आपद्यते-प्राप्नोति चातुर्मासिकं चतुर्माससम्बन्धिकं परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् अनुदातिक चतुर्गुरुरूपं प्राप्नोतीति पूर्वेण सम्बन्धः ॥सू० ३१॥
__ अत्राह भाष्यकार:-'पढम' इत्यादि । भाष्यम् --पढ़मं जइ जाणिज्जा, निमित्त विज्जावलेण उप्पायं ।
सोच्चा वा जइ जाणइ, तत्तो पुव्वं नियत्तेज्जा ॥७॥ छाया--प्रथमं यदि जानीयात् निमित्तविद्यावलेन उत्पातम् ।
श्रुत्वा वा जानीयात् तत्तः पूर्व निवर्तत ॥७॥ अवचूरी-'पढम' इति । प्रथमं विरुद्धराज्यातिक्रमणादितः पूर्वं निम्रन्थो यदि निमित्तशास्त्रस्य विद्यायाश्च वन उपलक्षणादवधिज्ञानाधतिशयेन वा उत्पातं भविष्यमाणमुपद्रवं जानीयात् , वा-अथवा श्रुखा-अन्यजनसक्राशात् अतिशयज्ञानिसकाशात् कस्यचिदेवस्य कथनाद्वा श्रवणगोचरीकृत्य अनागतकालिकमुपद्रवम्-यथा जनाः परस्पर वार्तालापसमये किञ्चिद्विरोधादिकारणमुपलक्ष्य वदन्ति यदत्र परराजातिक्रमणं भविष्यतीति, तथा किञ्चित्प्रकारकं दुनिमित्तमशुभं चन्द्रसूर्यपरिवेषादिकं दृष्ट्वाऽनुमानेन उत्पातसंभव कथयन्ति, इति तेभ्यः श्रुत्वा वा उत्पातं जानीयात् तदा श्रमणः तत्तः तस्माद् प्रामादितः पूर्व पूर्वमेव उत्पातात्यागेव निवर्तेत ततो निर्गच्छेत् न तत्र वासं-मासकल्परूप चातुर्मासरूपं वा कुर्यादिति भावः । यदि च पूर्वोक्तप्रकारेण नावगतं स्यात् सहसैव तद् प्रामादिकं परसैन्येन अवरुद्ध भवेत् , मार्गाश्च व्यवच्छिन्नास्तदा निर्गमनं श्रमणैर्न कर्तव्यम् , अथवा केचित् साधवो ग्लाना ज्वरादिपीडिताः तपोदुला वा भवेयुस्तदापि तत्रतो न निर्गन्तव्यं, तत्रैव यतनया संयमरक्षणपूर्वकं स्थातव्यम् । यदि परचक्रपीडिता जना एकत्रीभूय पर्वतदुर्गादिषु गत्वा तिष्ठन्ति तदा श्रमणैरपि तैः सार्धं गत्वा तत्रैव भक्तपानादौ गमनागमनादौ च तथा यतना कर्त्तव्या यथा संयमयोगो न परिभ्रश्येतेति भावः ॥७॥
अथ प्रामादिषु अवग्रहमर्यादां प्रतिपादयति-से गामसि वा' इत्यादि
सूत्रम्--से गामंसि वा जाव संनिवेसंसि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं उग्गहं ओगिण्हित्ता णं चिट्ठित्तए ॥ सू० ३२॥
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृहरकरपस्ने छाया—अथ ग्रामे वा यावत् संनिवेशे वा कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निग्रंन्धीनां वा सर्वतः समन्तात्सक्रोशं योजनम् अवग्रहम् अवगृह्य स्थातुम् ॥ सू० ३२॥
तइओ उद्देसो समत्तो ॥३॥ चूर्णी-'से गामंसि वा' इति । अथ-सैन्यप्रकरणानन्तरम् ग्रामे वा यावत् संनिवेशे वा यावत्पदेन-ग्रामाकरनगरखेटकर्वटद्रोणमुखपत्तनाश्रमसंनिवेशेषु इत्यर्थो वोध्यः, एतेषु स्थानेषु यदा मासकल्पं चातुर्मासं .वा यावत् स्थितिं कुर्वतां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा सर्वतः समन्तात् प्रामादेः पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तरदिक्षु विदिक्षु वा प्रत्येकं सक्रोशं योजनम् पञ्चक्रोशान् यावत् सार्द्धद्विक्रोशं गमनस्य सार्द्धद्विक्रोशमेवागमनस्य एवं पञ्चक्रोशान् यावत् प्रत्येकं दिशि क्रोशद्वयमाहाराद्यर्थ, तत्स्थानाक्रोशाई विचारभूमिनिमित्तमिति, अनेन प्रकारेण गमनागमनस्य पञ्चक्रोशपरिमितक्षेत्रविषयमवग्रहम् अवगृह्य-अनुज्ञाप्य तत्र स्थातुं मासकल्पं चातुर्मासं वाऽवस्थातुं कल्पते ॥ सू० ३२॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितायो "बृहत्कल्पसूत्रस्य"
चूर्णि-भाष्या-ऽवचूरीरूपायां व्याख्यायां
तृतीयोद्देशकः समाप्तः ॥३॥
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
। अथ चतुर्थोद्देशकः । व्याख्यातस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थोद्देशको व्याख्यायते । अत्र तृतीयोदेशकस्यान्तिमसूत्रेणास्यादिसूत्रस्य, कः सम्बन्धः ? इति तत्सम्बन्ध प्रतिपादयति भाष्यकारः-'गामाई०' इत्यादि ।
भाष्यम् -ग्रामाइवासवसणं, पुन्वं वुत्तं च समणसमणीणं । तत्थ य निवसंताणं, दुद्धाइयविगइसेवणओ ॥१॥ मोहुन्भवो हि जायइ, तेणं सेवेज्ज दोससंघायं । तस्स य पायच्छित्तं, वुच्चइ इह एस संबंधो ॥२॥ छाया—प्रामादिवासवसनं, पूर्वमुक्कं च श्रमणश्रमणीनाम् । तत्र च निवसतां दुग्धादिकविकृतिसेवनतः ॥१॥ मोहोद्भवो हि जायते, तेन सेवेयुर्दोषसंघातम् । तस्य च प्रायश्चित्तम् , उच्यते इह एष सम्बन्धः ॥२॥
अवचूरी-'गामाइ०' इति । पूर्वं तृतीयोदेशकस्यान्तिमसूत्रे श्रमणश्रमणीनां प्रामादिवासवसनम् उक्त-प्रतिपादितम् , तत्र च निवसतां मासकल्पवासं वा चातुर्मासवास वा कुर्वतां तेषां तत्र गोमहिण्यादिप्राचुर्येण दुग्धादिदाने लोकाः सुलभा भवेयुः, ते च संयतादीन् प्रचुरदुग्धादिना प्रतिलम्मेयुस्ततो दुग्धादिकविकृतिसेवनतः प्रणीतरसभोजनतस्तेषां हि निश्चयेन मोहोद्भवो जायते, तेन कारणेन ते दोषसंघातं हस्तकर्मादिदोषसमूहं कदाचित् सेवेयुः, तस्य च दोषसंघातस्य प्रायश्चित्तम् इह-अस्मिन् चतुर्थोद्देशकस्यादि सूत्रे उच्यते प्रतिपाद्यते, एष उक्तस्वरूपस्तृतीयचतुर्थीदेशकयोः सम्बन्धो वर्त्तते ॥ १-२-॥
इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य चतुर्थोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम्-'तओ अणुग्धाइया' इत्यादि । . सूत्रम्-तओ अणुग्धाइया पण्णत्ता तंजहा-हत्थकम्मं करेमाणे १, मेहुणं पडिसेबमाणे २, राइभोयणं भुंजमाणे ३॥ सू० १॥
छाया-त्रयः अनुद्धातिकाः प्रशप्ताः, तद्यथा-हस्तकर्म कुर्वाणः १, मैथुनं प्रतिसेवमानः २, रात्रिभोजनं भुजानः॥ सू०१॥
चूर्णी-'तओ' इति । अनुद्वातिकाः-उद्घातयितुमशक्या अनुद्वातिकाः, अनुद्घातिकप्रायश्चित्तयोग्याः, एते द्रव्यक्षेत्रकालभावभिन्ना अपि प्रकृते गुरुमासिकप्रायश्चित्तभाजोऽत्र ग्राह्याः, ते त्रयः त्रिसंख्यकाः प्रज्ञताः भगवद्भिरुक्ताः । के ते? इत्याह-तंजहा-तद्यथा ते यथा-'हत्थकम्मं करेमाणे' हस्तकर्म कुर्वाणः, तत्र हस्तकर्म-हन्ति हसति वा मुखमावृत्य अनेनेति हस्तः आदाननिक्षेपादिकरणस्वभावः करः, तेन करणभूतेन यत् कर्म निषिद्धाचरणादिकं क्रियते तत् हस्तकर्म, शुभाशुभं सर्वमपि कर्म हस्तेनैव क्रियते किन्त्वत्र निषिद्धाचरणस्य प्रस्तावात्कर्मणो निषिद्वाचरणमित्यर्थः कृत इति, तत् कुर्वाणः आचरन् प्रथमोऽनुद्घातिको भवति १ । द्वितीयमाह
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पसूत्रे 'मेहुणं पडिसेवमाणे' मैथुनं प्रतिसेवमानः, तत्र मैथुनं मिथुनं स्त्रीपुंसयुग्मलक्षणं, तस्य भावः कर्म वा मैथुनम्-अब्रह्म तत् प्रतिसेवमानो द्वितीयोऽनुद्घातिकः २ । तृतीयमाह-'राइभोयणं भुंजमाणे रात्रिभोजनं भुञ्जानः-पूर्व सैन्यप्रकरणे सैन्यरुद्धे स्थाने भिक्षाचर्यार्थ गतः साधुः कदाचित् तां रजनी तत्रैव वाहयेत् तत्र तेन एकाकित्वेन रात्रिभोजनं कृतं स्यात्. तेन स रात्रिभोजनस्वभावो भवेत् ततः रात्रिभोजनं रात्रौ अशनाद्याहरणं भुञ्जानः कुर्वाणस्तृतीयोऽनुद्घातिको भवति । एषां त्रयाणामपि अनुद्घातिकं गुरुमासिकं प्रायश्चित्तं समापयेतेति ।। सू० १॥ एतदेव विशदयति भाष्यकारः-'उग्घाय०' इत्यादि ।
भाष्यम्--उग्घायअणुग्घाया, दव्वे खेत्ते य काल भावे य । दव्वे हलिद्दरागो, किमिरागो होज्जऽणुक्कमसो। ३॥ खेत्ते य किण्ह-पत्थर-भूमी काले य संतरं इयरं । भावे य अपगडी, भव्यस्स य तह अभव्चस्स ॥४॥ छाया--उद्घातानुद्घाती, द्रव्ये क्षेत्रे च कोले भावे च । द्रव्ये हरिद्वारागः, कृमिरागो भवेदनुक्रमशः ॥३॥ क्षेत्रे च कृष्ण-प्रस्तर-भूमिः, काले च सान्तरमितरम् । भावे चाट प्रकृतयः, भव्यस्य च तथा अभव्यस्य ॥४॥
अवचूरी-'उग्घाय' इति । अत्र ह्रस्वत्वाद् दीर्घत्ववद् उद्घातिकाद् अनुद्घातिकस्य प्रसिद्धिरिति कृत्वा द्वयोरपि उद्घातिकानुद्घातिकयोव्यादिभेदतः प्रत्येकं चतुर्विधत्वं प्रतिपाद्यते'उग्याइय०' इत्यादि । उद्घातानुद्घातौ उद्घातिकम् अनुघाति कंचेति द्वे अपि प्रत्येकं चतुर्विधे भवतः, तथाहि-द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च द्वे अपि भवतः, तत्र द्रव्य इति द्रव्यत उद्घातिको हरिद्रारागः, तस्य सुखेनापनेतुं शक्यत्वात् , अनुद्घातिकं कृमिराग. अपनेतुमशक्यत्वात् १ । क्षेत्रे इति क्षेत्रतः कृष्णप्रस्तरभूमिः, क्रमशः उद्घातिकं, कृष्णभूमिः हलकुलिकादिभिः सुखेन क्षोदयितुं शक्यत्वात् , अनुातिक प्रस्तरभूमि. हलादिना क्षोदयितुमशक्यत्वात् २। काले इति कालतः उद्घातिकं यत्र सान्तरम्अन्तरन्तः समयव्यवधानेन प्रायश्चित्तदानं भवति, अनुद्घातिकम् इतरमिति निरन्तरं यत्र समयसातत्येन प्रायश्चित्तदानं भवति ३ । भावे इति भावतः-उद्घातिकं यथा भव्यस्याष्टौ प्रकृतयः या उद्घातयितुं, शक्या भवन्ति, अनुद्धातिकं यथा अभव्यस्याष्टौ प्रकृतयः या उद्घातयितुमशक्या भवन्ति यतो यथा भन्यो येन शुभाध्यवसायेन ज्ञानावरणादिकर्मणां क्षपणं करिष्यति तादृशो भावोऽभव्यस्य कदाचिदपि नोत्पद्यते इत्यतस्तस्य भावोऽनुद्घातः, कर्मोद्घातकरणस्यासामर्थ्यात् , अनेनैव कारणेन तस्य कर्माणि अनुद्घातिकानि कथ्यन्ते । अत्र च प्रायश्चित्तानुद्घातिकस्याधिकार इति हस्तकर्मादीनां त्रयाणां विरुद्धाचरणानां सेवनत एते त्रयोऽपि अनुद्घातिकाः अनुघातिकप्रायः श्चित्तयोग्यो भगवता प्रदर्शिताः, एपां मूलगुणानामेव मगसद्भावादिति ।। ३-४ ॥.
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णि भाष्या ऽवचूरी उ० ४ सू० २
पाराञ्चिक-:
- स्वरूपम् ८५
पूर्वसूत्रे अनुद्धांताख्यगुरुकारोपणां प्रोक्ता, संम्प्रतमपि गुरुकांया एवं पाराञ्चिकारख्यारोपण प्रतिपादयितुमाह, अथवा पूर्वसूत्रे तपोऽर्दा शोधिः प्रोक्ता, इदानीं छेदाह शोधिः प्रतिपाद्यते'तो' इत्यादि ।
सूत्रम् - तओ पारंचिया पण्णत्ता, तं जहा दुट्ठे पारंचिए १, प्रमते पारंचिए २, अन्नमन्नं करेमाणे पारंचिए ३ ॥ सू० २ ॥
छाया[ त्रयः पाराञ्चिकाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-दुष्टः पाञ्चिकः १, प्रमत्तः पाराञ्चिकः २, अन्योन्यं कुर्वाणः पाराञ्चिकः ॥ सूँ० २ ॥
"
चूर्णी—'तओ' इति । त्रयः त्रिसंख्यकाः पराञ्चिकाः पाञ्चिकप्रायंश्चित्तयोग्याः प्रज्ञप्ताः तीर्थकरादिभिः प्ररूपिताः । पाराञ्चिक इति कौऽर्थस्तंत्रांह - येन प्रायश्चित्तेन परिशोधितेन श्रमणः पारं-संसारसमुद्रस्य तीरम् मोक्षरूपम् अञ्चतिं गच्छेति तत् परिश्चिकम् अस्य प्रायश्चित्तस्य शुद्धभावतः परिशोधनेन श्रमणो मोक्षमाप्नुयादिति भावः । एतत्प्रायश्चित्तापन्नत्वेन उपचारात् श्रमणोऽपि पाराञ्चिकः कथ्यते । अथवा शोधिरूप प्रायश्चित्तस्य पारं पर्यन्तमञ्चति गच्छति यत्तत् पाराञ्चिकं अपश्चिममनुत्तरं वा प्रायश्वितं पाराश्चिकं व्यपदिश्यते । के त्रयः पाराञ्चिकाः ' इत्याह- ' तंज हा, इत्यादि, तद्यथा - ते यथा - दुष्टः पाराञ्चिकः प्रथमः १, प्रमत्तः पाराञ्चिको द्वितीयः २, अन्योन्यं कुर्वाणः पाराञ्चिकस्तृतीयः ३ । तत्र दुष्टो - द्विविधः कषायदुष्टो विषयदुष्टश्च, एक कषायमाश्रित्य दुष्टो भवेत्, द्वितीयो विषयमिन्द्रियविषयमाश्रित्य दुष्टो भवेत्, स द्विविधोऽपि दुष्टः पाराञ्चिकप्रायश्चित्तयोग्यो भवति १ । द्वितीयः प्रमत्तः पाराञ्चिकः प्रमादमाश्रित्य पाराञ्चिकप्रायश्चित्तयोग्यो भवति, मयं स्त्यानर्द्धिनिद्रावशात् मांससेवी, पञ्चेन्द्रियवधकारी, मद्यसेवी च भवतीति प्रमत्तः पाराञ्चिकः कथ्यते २॥ तृतीयः अन्योन्यं कुर्वाणः अन्योन्यमिति परस्परं साधुः साधुना सह मैथुनचेष्टां कुर्वाण निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्ध्या सह मैथुनवेष्टां कुर्वाणा च । एते पूर्वोक्तास्त्रयोऽपि पाराश्चिकप्रायश्चित्तभागिनो भवन्तीति । अत्रेयं छेदार्हा शोधिरभिहिता, छेदस्तावत् द्विविधःदेशतः सर्वतश्च, तत्र पञ्चरात्रिन्दिवादिकः षण्मासान्तश्छेदो देशतश्छेद उच्यते सर्वच्छेदस्त्रिविध:मूलाऽनवस्थाप्यपाराञ्चिकभेदात् अत्र पाराञ्चिकच्छेदस्याधिकारः; स च द्वादशवार्षिकं तपोऽनुष्ठानं कारयित्वा गृहस्थवेषं दत्त्वा पुनर्नूतनदीक्षाप्रदानरूपो भवति । पाराचिको द्विविधो भवति-आशातनापाराञ्चिकः प्रतिसेवनापाराञ्चिकश्च तत्र - आशातनापाराञ्चिकःतीर्थकर-प्रवचन-श्रुता चार्यगणधरमहर्द्धि कादीनामत्याशातकः, तत्र तीर्थकराशातना यथातीर्थकरो हि यद् देवरचितसमवसरणाष्टमहाप्रातिहार्यादिलक्षणां प्राभृतिकामनुमन्यते तन्न वरम्, यः केवलालोकेन भवस्वरूपं जानन्नपि किमिति विपाकदारुणामेतादृशीं भोगसामग्रीं भुङ्क्ते ? इति । तथा मल्लिनाथस्य स्त्रीशरीरस्यापि यत्तीर्थमुच्यते तदप्यतीवायुक्तम्, स्त्रीतीर्थं न भवतीति शास्त्रे श्रूयते इति । तथा सर्वोपायकुशला अपि तीर्थकरा प्रामनगरादौ विद्वत्य विहृत्यातीव दुश्वरां देशनां
"
-
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पसूत्रे कृतवन्तस्तदपि न समीचीनम् । इत्यादिरूपमवणे तीर्थकृतां यो भाषते स पाराच्चिकप्रायश्चित्तस्थानमापद्यते । एवं प्रवचनश्रुताचार्यादिविषयाऽऽशातनाप्रकाराः स्वयमूहनीयाः, एप आशातनापाराञ्चिको बोध्यः । द्वितीयः प्रतिसेवनापाराञ्चिकः । पाराञ्चिका अस्मिन्नेव सूत्रे प्रतिपादितास्त्रयो भवन्तीति, ।। सू० २ ।। पाराञ्चिकानेवविशदयति भाष्यकार:-'दुविहो' इत्यादि ।
भाष्यम् -दुविहो दुट्ठो वुत्तो, पंचविहो होइ जो पमत्तो उ । अन्नोन्नं कुवा, णेगविहो एस णायब्बो ॥ गा० ५॥ छाया—द्विविधो दुष्ट उक्तः पञ्चविधो भवति य. प्रमत्तस्तु । अन्योन्यं कुर्वाणः अनेकविध एष ज्ञातव्यः ॥ ५ ॥
अवचूरी--'दुविहो' इति । अत्र प्रथमो दुष्ट पाराञ्चिको द्विविधः प्रोक्तः तथाहि-कषायदुष्टः विषयदुष्टश्चेति । तत्र कषायदुष्टो द्विविधो भवति-स्वपक्षदुष्टः परपक्षदुष्टश्च, अत्र चतुर्भङ्गी भवति तथाहि-स्वपक्षः स्वपक्षे, स्वपक्षः परपक्षे २, परपक्षः स्वपक्षे ३, परपक्षः परपक्षे ४ । तत्र स्वपक्षः स्वपक्षे एकः साधुरन्यसाधूपरि कषायं करोति, अत्र दृष्टान्तः सर्षपपत्रशाकभोक्तमृतगुरुदन्तभञ्जकः शिष्यः, तथाहि-शिष्येण भिक्षायां सर्षपशाकः प्राप्तः, तेन निमन्त्रितो गुरुः सर्व शाकमाहृतवान् तेन तस्य मनसि कोपः समुद्भूतः, यदनेन मद्गुरुणा सर्वोऽपि शाको भुक्त, गुरुणा क्षामितोऽपि नोपशान्तः सन् गुरुदन्तमञ्जनप्रतिज्ञां कृतवान् तद् ज्ञात्वा गुरुभक्तप्रत्याख्यानेन कालधर्म प्राप्तः, ततश्च स मृतगुरुमुखादन्तान् वोटितवान् कथितवांश्च-एत एव तव दन्ता सर्व सर्पपशाकं भुक्तवन्त इति प्रथमो दृष्टान्तः १ । एवमेव द्वितीय उज्ज्वलसदोरकमुखवत्रिकाथ गुरोगैलग्रहणं कृत्वा गुरुं मारितवान् २। एवमन्येऽप्येवं प्रकारा दृष्टान्ता विज्ञेयाः । इति प्रथमो भङ्गः।। द्वितीयः स्वपक्षः परपक्षे यथा कस्यचित् साधोहस्थावस्थायां केनापि सह वादो जातस्तत्र स पराजितो भूत्वा प्रव्रजितः । ततोऽवसरं प्राप्य स कयाचिद् युक्त्या पूर्वकषायोदयेन तं मारितवान । इति द्वितीयो भङ्ग. २ । तृतीयः-परपक्षः स्वपक्षे यथा-गृहस्थावस्थायां केनापि वादे पराजितः एकः, यस्तं पराजितवान् स प्रव्रजितः, ततः स पूर्व पराजितो गृहस्थः प्रव्रजितं तं जयिनं साधु केनचिदपायेन मारितवान् एघ तृतीयोभङ्गः ३ । चतुर्थः-परपक्ष' परपक्षे-गृहस्थो गृहस्थं मारयति, इति चतुर्थों भङ्गः ४ । एष भगः साधौ न घटते । उक्त. कषायदुष्टः, सम्प्रति विषयदुष्टं विवृणोति-अत्रापि स्वपक्षपरपक्षमाश्रित्य पूर्ववदेव चत्वारो भङ्गा भवन्ति-यथा-स्वपक्षः स्वपक्षे विषयदुष्टः, इति प्रथमों भङ्गः १ । एवं चत्वारोऽपि भङ्गाः पूर्ववदेव कर्त्तव्याः ४ । तत्र-श्रमणः श्रमण्यामध्युपपन्नः स्वपक्षः स्वपक्षे विषयदुष्टः १, श्रमणो गृहस्थस्त्रियामध्युपपन्नः स्वपक्षः परपक्षे विषयदुष्टः २। गृहस्थः श्रमण्यामध्युपपन्नः परपक्षः स्वपक्षे विषयदुष्टः ३। गृहस्थो गृहस्थस्त्रियामध्युपपन्नः परपक्षः परपक्षे विषयदुष्टः, ४ । एष भङ्गः श्रमणपक्षे न घटते,इति चतुर्थो भङ्गः । एष द्विविधो दुष्टपारा
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
पणि-भाण्या-वचूरी उ०४ सू० २
पाराञ्चिकस्वरूपम् ८७
ञ्चिकस्तत्रः प्रथमः प्रतिपादितः । १ । द्वितीयं प्रमत्तपाराञ्चिकं विवृणोति-'पंचविहो' इत्यादि यः प्रमत्तपाराञ्चिकः, स तु पञ्चविधीभवति प्रमादस्य पञ्चविधत्वात् तथाहि-मद्यप्रमत्तः १, विषयप्रमत्तः २, कपायप्रमतः ३, विकथाप्रमत्तः ४, निद्राप्रमत्तश्चेति ५ । तत्र मद्यप्रमत्तः मद्यपानोद्भूतप्रमादवान् १, विषयप्रमत्तः-श्रोत्रादिविषयलोलुपत्वेन प्रमादवान २, कषायप्रमत्तःकपायाः क्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः, तेवन्यतमकषायवशेन प्रमादवान् ३, विकथाप्रमत्तःविकथाश्चतस्रः-स्त्रीकथा१, देशकथा २, भक्तकथा ३, राजकथा ४, तासु आसक्तत्वेन प्रमादवान् ४, निद्राप्रमत्तः, तत्र निद्रा पञ्चविधा-निद्रा १, निद्रानिद्रा २, प्रचला ३, प्रचलाप्रचला ४, स्त्यानद्धिश्चेति ५ । निद्राचतुष्टयस्य लक्षणं यथा
"मुहपडिवोहो निदा १, दुहपडिवोहो य निहनिद्दा य २ । पयला होइ ठियस्स ३, पयलापयला उ चकमओ ४ इति ॥१॥ सुखप्रतिवोघो निद्रा १, दुःखप्रतिबोधश्च निद्रानिद्रा २ । प्रचला भवति स्थितस्य ३, प्रचलाप्रचला तु चंक्रमतः ॥ २ ॥ इति प्रच्छाया ।
आसां चतसृणां निद्राणां लक्षणं प्रोक्तम् , अत्र पाराञ्चिकस्य प्रस्तुतत्वात्स्त्यानर्द्धिनिद्रयाऽधिकाइति स्त्यानर्द्धिर्भाव्यते-स्त्यानद्धिस्तावत् दर्शनावरणीयप्रबलकर्मोदयात् स्त्याना कठिनीभूता आच्छन्ना ऋद्धिः चैतन्यशक्तिर्यस्यां सा त्यानःि, यथा घृते जले च त्याने कठिनीभूते सति न तत्र द्रवत्वं किञ्चिदुपलभ्यते तथा चैतन्यऋचामपि स्त्यानायां सत्यां न किञ्चिदपलभ्यते । अस्यां निद्रायां प्राप्तायां मनुष्यो तदवस्थायामेव नानाविधानि महान्ति बलसाध्यानि दुश्चरणानि समाचर्य पुनरागत्य स्वपिति, स्त्यानर्द्धिमतो हि वासुदेवबलादर्घबलं भवति तीर्थकृदादयः प्रज्ञापयन्ति तत्त प्रथमसंहननिनमपेक्ष्य प्रोक्तम् , सम्प्रति तु सामान्यजनापेक्षया द्विगुणं त्रिगुणं चतुर्गुणं वा बल स्त्यानद्धिमतो भवतीति बोध्यम् ।
एवं पिशित१-मोदक२-कुम्भकार३-दन्त४-बटशाखा-भञ्जनादि ५-कायः, स्यानद्विनिद्रावानयमिति परिज्ञाय प्रमत्तपारा श्चिकं निर्णयेत् । तत्र प्रथमं पिशितदृष्टान्तो यथा-कश्चित श्रमणः पूर्व गृहस्थावस्थायां पिशिताशी आसीत् तेन च पश्चात् प्रव्रज्या गृहीता, एष कदाचित् कचित् दृष्टपुष्टं महिष दृष्ट्वा सजाततन्मांसभक्षणाभिलाषः सन् एकदा रात्रौ स्यानर्द्धिनिद्रायां तस्मिन् महिषमण्डले गत्वा अन्य महिषं व्यापाथ भुक्तवान् , शेषं तन्मांसमुपाश्रये मानीय तेन स्थापितम् , आचार्येण सर्वं ज्ञात्वा निर्णीतं यदयं स्यामर्द्धिनिद्रावानिति । एषा स्त्यानचिनिद्रा । १। मोदकदृष्टान्तो यथा-कश्चित् श्रमणः भिक्षाथै पर्यटन कस्यचिद् गृहस्थस्य गृहे मोदकं भक्तं दृष्ट्वा तद्ग्रहणार्थ याचनायां कृतायामपि स मोदकं न लब्धवान् , ततश्च तदलामे तदध्यवसायपरिणत एव सुप्तवान् । रात्रौ तद्गृहे गत्वा गृहस्य कपाटौ त्रोटयित्वा मोद
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृहत्कल्पसूत्र कान् यथारुचि भुक्त्वा अवशिष्टर्मोदकैः पात्रं पूरयिच्वा उपाश्रये समागतः । प्राभातिके चावश्यके---‘एवंविधः स्वप्नो मया दृष्टः' इति प्रकटितवान् , ततश्च प्रभाते मोदकपरिपूर्ण पात्रं दृष्ट्वा माचार्यैतिं यदयं स्त्यानर्द्धिनिद्रावानिति २ । कुम्मकारदृष्टान्तो यथा-कश्चित् कुम्भकारः कापि गच्छे प्रबजितः, तस्य कदाचिद् रात्रौ स्त्यानद्धिनिद्रा संजाता, स च पूर्वाचरित्तमृत्तिकापिण्डच्छेदनाभ्यासादुपाश्रयान्निर्गत्य मृत्तिकाखनौ गत्वा तत्रतो मृत्तिकापिण्डा आनीय उपाश्रये स्थापिताः, प्रभाते तान् दृष्ट्वाऽऽचार्येण ज्ञातं यदय त्यानचिनिद्रावानिति ३ । दन्तदृष्टन्तो यथाकश्चित् श्रमणः गहस्थावस्थायामभिमुखमापतता हस्तिना आक्रान्तः पलायमानः कथञ्चिदुन्मुक्तः स उदीर्णत्यानर्द्धिरुत्थाय गजशालायां गत्वा हस्तिदन्तौ उत्पाट्य उपाश्रयस्य बहिः प्रदेशे संस्थाप्य पुनरपि सुप्तः । प्रभाते स्वप्नमालोचितवान् यदहं स्वप्ने हस्तिदन्तौ उत्पाटितवान् प्रकटितवांश्च स्वप्नम् , तत आचार्य उपाश्रयबहिःप्रदेशे हस्तिदन्ता विलोक्य निर्णीतवान् यदयं स्त्यानर्द्धिनिद्रावानिति ४ । वटशाखामञ्जनदृष्टान्तो-यथा -कश्चित् श्रमणो भिक्षार्थं पर्यटन कुत्रचित् मध्यमार्गवर्तिन एकस्य वटस्य शाखया शिरसि आघट्टितः सन् अत्यन्तं परितप्तान्तः करणो वटवृक्षोपरि प्रद्वेषमुपगतस्तदध्यवसायपरिणतश्च प्रसुप्तवान् । ततः उदीर्णस्त्यानर्द्धिश्चोत्थाय तत्र गत्वा वटवृक्षमुन्मूल्य तदीयशाखामानीयोपाश्रयोपरि स्थापितवान् , प्रभाते चावश्यककायोत्सर्गत्रिके कृते सति पूर्वोक्तरीत्या आचार्यान् प्रति स्वप्नमालोचितवान् । तत आचार्याः प्रभाते दिगवलोकनं कुर्वन्तोऽन्यत आनीय संस्थापितां वटवृक्षशाखां दृष्ट्वा निर्णीतवन्तः यदयं स्त्यानर्द्धिनिद्रावानिति ५ । एतादृशं स्त्यानर्द्धिमन्तं श्रमणमेवं प्रज्ञापयेत्-सौम्य ! साधुलिङ्गं त्यज, तव चारित्रं नास्तीति सानुनयमाचार्येण तस्य लिङ्गं त्यानयेदिति। - __व्याख्यातः प्रमत्तपाराञ्चिकः, सम्प्रति अन्योन्यकुर्वाणो व्याख्यायते-अन्योन्यं कुर्वाणः पाराञ्चिक इति, अन्योन्यं परस्परं यत् करणं मुखपायुप्रभृतिप्रयोगेणंऽब्रह्मसेवनं तत्कुवार्णः, साधुः साधुना सह मुखपायुप्रयोगेण मैथुनचेष्टां कुर्वाणः पाराञ्चिकः, साध्वी साध्या सह हस्तपादाङ्गलिकर्मादिप्रयोगेण मैथुनचेष्टां कुर्वती पाराञ्चिका भवतीति विज्ञेयम् । यदि केनाऽपि साधुना बुद्धिवैपरीत्यवशाद् एतदाचरितं भवेत् , ततः शुभपरिणामोदयेन पश्चात्तापसंतप्तान्तःकरणो विशिष्टगुणवान् यदि 'पुनरेतादृशमपराधं न करिष्यामि' इति सद्भावनया पुनरकरणाय कृतनिश्चयो भवेत्तदा स तपःपाराञ्चिकः कथ्यते इति भावः । भा० गा० ५॥ सू० २ ॥
पूर्वसूत्रे पाराञ्चिक्रप्रायश्चित प्रतिपादितम्, सम्प्रति अनवस्थाप्यप्रायश्चितं प्ररूपयितुमाह'तओ अणवट्टप्पा' इत्यादि ।
मूत्रम्-तमो अणबहप्पा पण्मचा, तंजहा-साहम्मियाणं० तेण्णं करेमाणे, अन्नधम्मियाणं तेण्णं करेमाणे, इत्यादालं दलमाणे ॥ मू० ३॥
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्याऽवचूरो उ० ४ सू० ३-९
प्रव्राजनाद्ययोग्यशिष्यस्वरूपम् ८९ छाया-त्रयः अनवस्थाप्याः प्रशप्ताः, तद्यथा-साधर्मिकाणां स्तैन्यं कुर्वाणः, अन्यधार्मिकाणां स्तैन्यं कुवार्णः, हस्तातालं ददत् ॥ सू० ३॥
चूर्णी-'तओ' इति । त्रयः अग्रे वक्ष्यमाणस्वरूपाः तावत् अनवस्थाप्याः अपराधविशेषसमाचरणेन तत्क्षणादेव पुनव्रतेषु अवस्थापयितुम् अयोग्याः प्रज्ञप्ताः, कथिताः तीर्थकरगणधरादिभिराख्याताः, के ते? इत्याह-'तंजहा' इत्यादि, तद्यथा ते यथा-साधर्मिकाणां समानो धर्मो येषां ते सधर्माणः, त एव साधर्मिकाः समानो धर्मो वाऽस्ति येषामिति साधर्मिकाः श्रमणाः श्रमण्यो वा तेषां 'तेणं' स्तैन्यं स्तेनस्य भावः कर्म वा स्तैन्यं चौर्यम्-तत्सत्कस्य उत्कृष्टोपधेः शिष्यादेर्वा अपहरणं 'करेमाणे' कुर्वाणः स्वयं कुर्वन् उपलक्षणात् अन्यद्वारा कारयन् , कुर्वन्तमन्यं वाऽनुमोदमानः साधुः अनवस्थाप्यो भवतीति भावः १ । 'अन्नधम्मियाणं' अन्यधार्मिकाणाम् अन्यो जिनोक्तातिरिक्तो धर्मो येषां ते अन्यधर्माणः, यद्वा अन्य चासौ धर्मश्च अन्यधर्मः, सोऽस्ति येपामिति अन्यधर्माणः, मत्वर्थे इकण्प्रत्यये अन्यधार्मिका:-दण्डिशाक्यादयो गृहस्था वा तेषां सत्कस्य तदधीनस्य उपध्यादेः स्तैन्यं कुर्वाणः साधुरनवस्थाप्यो भवति २ । तृतीयः 'हत्थादाणं दलमाणे' हस्तातालं ददत् , हस्तातालम् हस्तेन हस्तस्य अन्यवस्तुनो वा आताडनं हस्तातालः तं ददत्-कुर्वन् उपलक्षणात् यष्टिमुष्टिलकुटादिभिरात्मानं परं प्रहरन् किञ्चिद्वस्तुजातं वा ताडयन् साधुरनवस्थाप्यो भवति, स अनवस्थाप्यप्रायश्चित्तभागी भवति, तत्प्रायश्चित्तस्यानवस्थाप्याभिधानात् ॥ सू० ३ ॥
पूर्वमनवस्थाप्यः प्रोक्तः, स च सद्योऽनाचरिततपोविशेषो भावलिङ्गरूपेषु महाव्रतेषु न स्थाप्यतेऽतोऽसौ अनवस्थाप्यः प्रोच्यते, अयं पूर्वसूत्रे वर्णितः । तत्प्रसङ्गात् पण्डकादिदिविधेऽपि द्रव्यभावलिङ्गे स्थापयितुं न योग्यो भवतीत्यत्र पण्डकादिः प्रतिपाद्यते-'तमो नो कप्पंति' इत्यादि ।
सूत्रम्-तओ नो कप्पंति पव्वावित्तए तंजहा-पंडए १, वाइए २, कीवे ३, ॥सू०४॥ एवं सुंडावित्तए । सू०५॥ सिक्खावित्तए ।। सू० ६॥ उपहावित्तए ॥ सूत्र ७॥ संभुंजित्तए । सू० ८॥ संवासित्तए ॥ सू० ९॥
छाया-त्रयो नो कल्पन्ते प्रव्राजयितुम् , तद्यथा-पण्डक १ वातिकः २, क्लीवः३ ॥सू०४॥ एवं मुण्डापयितुम् ॥सू०५॥ शिक्षापयितुम् ॥ सू० ६॥ उपस्थापयितुम् ॥ सू०७॥ संभोक्तुम् ॥सू० ८॥ संवासयितुम् ॥ सू० ९॥
चूर्णी-'तओ' इति । त्रयो वक्ष्यमाणाः पुरुषास्तावत् नो कल्पन्ते, किमित्याह-'पन्चावित्तए' प्रवाजयितु प्रव्रज्यां ग्राहयितुं दातुं न योग्या इत्यर्थः, के ते ? इत्याह-'तंजहा' तद्यथा-ते यथा-पण्डक. जन्मनपुंसकः १, वातिकः वातूजः वातरोगी–वेदोदयसहनाऽक्षमः २, क्लीबः असमर्थः कातर इत्यर्थः, क्लीबस्तावत् दृष्टि-शब्दा-ऽऽदिग्ध-निमन्त्रणक्लीबभेदाच्चतुर्विधः,
१२ ।
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृहत्कल्पसूत्रे तत्र दृष्टिक्लीवः-यस्यानुरागतो विवस्त्राद्यवस्थास्थितां स्त्रियं दृष्ट्वा मेहनं गलति सः १, शब्दक्लीव.-यस्य सुरतादिशब्दश्रवणेन मेहनं गलति सः २, आदिग्धक्लीवः यस्य चित्तविक्षेपेणोपगूढस्य मेहनं गलति सः ३, निमन्त्रणक्लीवः-यः कयाचित् स्त्रिया निमन्त्रिते व्रतं रक्षितुं न शक्नोति सः ४ । एष चतुर्विधोऽपि क्लीयोऽप्रतिसेवमानोऽपि वेदनिरोधेन वेदोदयवशात् नपुंसकतया परिणमति । एते त्रयः प्रव्राजयितुं न योग्या इति भावः । यद्यनाभोगलोभाद्यभिभूततया पण्डकादयः प्रव्राजिता भवेयुस्तदा प्रवचनोड्डाहप्रवचनप्रवादादयोऽनेके दोषाः समापतेयुस्ततो नैते प्रव्राजनीया इति । यद्यपि वालवृद्धादिभेदाद् विंशतिसंख्यकाः प्रव्राजयितुमयोग्याः ते च उपलक्षणाद् ग्राह्याः । प्रकृते गुरुतरदोषदुष्टत्वात् त्रयः पण्डकादयोऽत्र प्रव्राजयितुमयोग्या अधिकृता अवसेयाः । ते विंशतिविधा यथा
"वाले १, वुड्ढे २, नपुंसे य, जड्डे ४ कीवे ५ य वाहिए ६ । तेणे ७, रायावगारी ८ य, उम्मते ९ य असणे १० ॥१॥ दासे ११ दुढे १२ य मुढे १३ य, अणत्ते १४ जुंगिए १५, इय । अवोदए १६, य भयए १७, सेहनिप्फेडिए १८ इय ॥२॥ गुचिणी १९, वालवच्छा २०, य, पवावेउं न कप्पई ॥" छाया-वालो १, वृद्धो २, नपुंसकश्च ३, जडुः ४, क्लीवश्च ५, व्याधितः ६ । स्तेनः ७, राजापकारी ८, च, उन्मत्तश्च ९, अदर्शनः १० ॥१॥ दासः ११, दुष्टश्च १२, मूढश्च १३, अनत्त १४, जुङ्गिक १५, इति । अवोधकश्च १६, भयक १७, शैक्षनिष्फेटित १८ इति ॥ २॥ गुर्विणी १९, वालवत्ला २०, च प्रव्राजयितुं न कल्पते ॥
तत्र-अदर्शन:-अन्धः। 'अणत्तो' अनत्ते:-ऋणपीडित.। जुङ्गिकः-जात्यङ्गहीनः । अबोधकःवुद्धिहीनः । शैक्षनिप्फेटितः केनाप्यपहृत इति । एतेषामत्र नाधिकार इति सूत्रकारेण न गृहीता इति ॥ सू० ४ ॥
___ एव' इति । एवम् अनेनैव प्रचाजनप्रकारेणैव एते पूर्वोक्तास्त्रयः मुण्डापयितुम्शिरोलोचेन लुञ्चितुं श्रमणानां न कल्पन्ते ॥ सू० ५ ॥ तथा शिक्षापयितुम्-ग्रहणासेवनशिक्षया श्रुताध्यापनप्रत्युपेक्षणादिसमाचारी ग्राहयितुं न करपन्ते । तथा श्रुताध्यापनरूपा ग्रहणशिक्षा, प्रत्युपेक्षणादिरूपा-आसेवन शिक्षा बोध्या, एतद् द्वयमपि पण्डकादित्रयाय दातु न कल्पन्ते इति भाव. ॥ सू० ६ ॥ एवम् उपस्थापयितुम् एते त्रयो महानतेपु पञ्चसु, छेदोपस्थापनीयेषु व्यवस्थापयितुं श्रमणानां न कल्पन्ते ॥ सू० ७॥ एवम् एते त्रय संभोक्तम्एकमण्डन्यां भोजनादिकं कर्तुम् , तैः सह श्रमणानां न कल्पते इति भावः, ।। सू० ८ ॥
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णि-भाष्याऽवचूरी उ० ४ सू० १०-११ वाचनादानयोग्यायोग्यस्वरूपम् ९१ एवमेव एते त्रयः-सवासयितुम्-स्वसमीपे निवासयितुम् उपवेशयितुमपि श्रमणानां न कल्पन्ते । एवं च पण्डकादयः कदाचिद् अनाभोगादिना प्रत्राजिता भवेयुः, पश्चाद् विज्ञाताश्चेद् भवेयुस्तदापि तेपामेतत्सूत्रोक्तस्य शेषपञ्चकस्य-मुण्डापन-शिक्षापणो-पस्थापन-संभोजन-संवासनलक्षणस्य समाचरणं न कर्तव्यमिति भावः । एवं प्रव्राजनवत् पण्डकादित्रयस्य मुण्डापनादिपञ्चक समाचरति श्रमणस्तदा प्रबाजनरूपे पूर्वोक्तपदे प्रोक्ताः प्रवचनोहाहानिन्दादयो दोपा अत्रापि अवगन्तव्या इति । सू० ९ ॥
पूर्व पण्डकादित्रयस्य प्रत्राजनादिपट्कं निषिद्धम् , साम्प्रतमविनीतादित्रयस्य वाचनादानं प्रतिपेधितुमाह-'तओ नो कप्पति' इत्यादि ।
सूत्रम-तो नो कप्पंति वाइत्तए, तंजहा-अविणीए विगइपडिबद्धे अविओसवियपाहुडे ॥ सू० १० ॥
छाया-प्रयो नो फल्पन्ते वाचयितुम्, तद्यथा--अविनीतः, विकृतिप्रतिवद्धः, अव्य. वशमितप्राभृतः ॥ सू० १०॥
चर्णी-'तो' इति । त्रयस्तावत् वक्ष्यमाणाः नो कल्पन्ते श्रमणानां 'घाइत्तए' इति वाचयितुम् सूत्रवाचनां दातुम् अर्थ वा बोधयितुम् तदुभयं वा, तयथा--'अविणीए' इत्यादि, अविनीत माचार्यादेः पर्यायजेष्ठस्य वा अभ्युत्थानसत्कारसंमानादिविनयवर्जितः १, विकृतिप्रतिवद्वः विकृतिः-दधिदुग्धघतादिरसरूपा, तत्र प्रतिबद्धः-लोलुप• २, अव्यवशमितप्रामृतःअव्यवशमितम्-अनुपशान्त प्रामृतमिव प्रामृतं नरकपातनकुशलं तीवक्रोधलक्षणं येन स तथा, यः परुपभाषणाद्यपरावेऽपि परम क्रोधमावहति क्षमितमप्यपराधं यो वारं वारमुदीरयति स अव्यवशमितप्रामृतः प्रोच्यते तोक्रोधी इत्यर्थः ३ । एते त्रयः पुरुषाः सूत्रार्थतदुभयवाचनां दातु श्रमणानां नो कल्पन्ते इति सूत्रार्थः । एतेषा वाचनादाने इमे दोपाः सम्भवन्ति-यः खलु अविनीत. श्रुतज्ञानरहितोऽपि अहंकारी भवति तदा किं पुनस्तस्य श्रुतलाभे १ । स्वयंनष्टस्य तस्य अन्यानपि नाशयिष्यतः श्रतग्राहणं क्षते क्षारावसेकन्यायेन ऊपरभूमिबीजवपनन्यायेन च इहपरलोकाहितकरं भवति ततस्तादृशाय अविनीताय श्रुतग्राहणं नोचितमेव यथा भुजङ्गस्य पयःपानं विषवर्द्धकमेव भवति तथैव दुर्विनीतस्य श्रुतप्रदानमपि अधिकतरदुर्विनीततामेव वर्द्धयति, अतितप्ततेलादौ जलावसेकः ज्वलल्यग्नौ घृतदान च अग्निज्वालावईकमेव भवति अतो भगवता दुर्विनीताय श्रुतदानं निषिद्धमिति १। विकृतिप्रतिवद्धस्य वाचनादाने दोपा प्रदश्यन्तेयः कश्चित् शरीरेण दृढोऽपि रसलोलुपतया विकृतावेव लोलुपत्वेन तत्र प्रतिबद्धमनस्कतया न सुचारुरूपेण वाचनां गहाति, मनसो विकृती प्रतिबद्धत्वेन स श्रुतग्रहणे मनोयोग दातुं न शक्नोति, मनोयोगं विना श्रतग्रहणं न फलति । न स तपश्चरणं करोति, न तपो विना गृह्यमाणं श्रुतं मनोऽनुकूलं फलं प्रयच्छति प्रत्युत प्रभूतमनर्थं प्रसूते तस्मात् विकृतिप्रतिबद्धं शिष्यं सूत्रार्थतदुभयं न वाचयेदिति
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे भावः २ । साम्प्रतमव्यवशमितप्राभृतं व्याचष्टे-यः स्वल्पेऽपि परुषभाषणादों अपराधेऽत्यन्तक्रोधसमुद्घातं याति, एवं क्षामितो न प्रशाम्यति प्रत्युत क्षामितमप्यपराधजातं पुनः पुनः समुदीरयति स खलु अव्यवशमितप्राभृतो व्यपदिश्यते, तस्य वाचनादाने ऐहलौकिकस्नेहसत्कारादिपरित्यगः, पारलौकिकवैरानुवन्धकर्मवन्धसंभवश्चेति द्विधाप्यहितकरं तद्वाचनादानं संपद्यते इति न तादृशाय वाचना दातव्येति भावः ॥ सू० १०॥
पूर्वसूत्रे अविनीतादित्रितयस्य श्रुतार्थवाचनादान प्रतिषिद्धम् , सम्प्रति तद्वैपरीत्येन विनीतादित्रितयस्य तद्वाचनादानमनुज्ञापयति-तओ कप्पंति वाइत्तए' इत्यादि ।
सूत्रम्-तओ कप्पंति चाइत्तए, तंजहा-विणीए, नोविगइपडिवरे, विओसवियपाहुडे ॥ सू० ११॥
छाया-त्रयः कल्पन्ते वाचयितुम्, तद्यथा-विनीतः, नोविकृतिप्रतिवद्धः, व्यव. शमितप्राभृतः ॥ सू० ११॥
चूर्णी-'तओ' इति । त्रयः पुनर्वक्ष्यमाणस्वरूपाः शिष्याः वाचयितुं-सूत्रार्थों ग्राहयितुं श्रमणानां कल्पन्ते । तद्यथा-विनीतः आचार्यादेवन्दनादिविनययुक्तः, नोविकृतिप्रतिबद्धः घृतादिरसलोलुपतावर्जितः, व्यवशमितप्राभूतः-व्यवशमितम्-क्षमापनादिना उपशमितं प्राभतं नरकपातनोपायनमिव प्राभृतं तीव्रक्रोधलक्षणं यस्य स व्यवपशमितप्रामृतः स्वापराधक्षमापन-परापराधक्षमनसमर्थः उपशान्तक्रोध इत्यर्थः । एते त्रयः विनीत-विकृत्यप्रतिबद्ध-व्यपशमितप्रामृताः पुरुषाः श्रुतार्थों वाचयितुं श्रमणानां कल्पन्ते इति सूत्राशयः । विनयेन अभ्यस्तीकृता विद्या लोकद्वये फलवती भवति, तत्रास्मिन् लोके साधुजनसमाजराजसभादौ विनयगृहीतविद्यया समादृतः पूजितश्च भवति, यशःकीर्ति-ख्याति-सम्मान-प्रतिष्ठादिकं च लभते, परलोके च विनयप्राप्तविद्यया सम्यगूज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणरत्नत्रयविभूषितो लब्धिसंपन्नो भगवदाज्ञाराधकः सन् निःश्रेयसं प्राप्नोति । विकृत्यप्रतिवद्धो हि घृतादिरसलोलुपतारहितत्वेन एकाग्रमनसा श्रुतार्थों गृह्णाति, तेन तत् श्रुतार्थग्रहणं हृदये सुचारुतया परिणमति, ततः सः सम्यक्तया ज्ञानदर्शनचारित्राराधको भवति, तस्य श्रुतार्थवाचने वाचनादातुस्तीर्थकराज्ञाभङ्गादयो दोषा न भवन्तीति । एवं व्यवशमितप्रामृतस्यापि उपशान्ततीवक्रोधत्वेन शान्तमनोभावस्य प्रदत्ता वाचना सम्यक्तया परिणमति तेन सा मुगतिबोधिलाभादिकमामुष्मिकं फलं प्रापयतीति सूत्रोक्तानां त्रयाणां सूत्रार्थतदुभयवाचना दानं श्रमणानां कल्पते, यथा उर्वराभूमौ उसानि वीजानि फलितानि भवन्ति तथैवेतेषां श्रुतार्थदानं सफलं भवतीति भावः ॥
ननु पूर्वसूत्रे अविनीतादित्रयाणां वाचनादानस्य प्रतिषिद्धतया तेनैव कथनेन अर्थापत्तिन्यायात् तविपरीतानां विनीतादीनां वाचनादानं स्वयं सिद्धमेव, विपक्षार्थस्यानुक्कस्यापि सिद्धिलाभा
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णि-भाष्याऽवचूरी उ० ४ सू० १३-१४ दुःसंज्ञाप्य सुसंज्ञाप्यस्वरूपम् ९३ दितीदं सूत्रं व्यर्थमेव प्रतिभाति, तत्राह-नैवम् , शास्त्रशैली एयैव यत् प्रकृतसूत्रविवक्षितार्थस्यार्थापत्त्या लब्धत्त्वेऽपि विपक्षः साक्षादुच्यते, तथा लब्धोप्यर्थः प्रपञ्चितज्ञविनेयजनानुग्रहाय साक्षा. दभिधीयते, यथा-उत्तराध्ययनस्य प्रथमाध्ययने द्वितीयगाथायां “आणानिदेसकरे इत्यादिना विनीतस्वरूपप्रतिपादनादर्थापत्तिलब्धमप्यविनीतस्वरूपमत्रैव तृतीयगाथायाम्-"आणाअणिदेसकरे" इत्यादिना पुनः साक्षादभिहितम् ।
पुनश्च - विनेया नानादेशीया विभिन्नमतयो वक्रजडादयो भवन्ति ते चाविनीतादीनां वाचनादाननिषेधसूत्रेण एतावन्तमेवार्थ गृह्णन्ति यत् भगवता अविनीतादीनां वाचनादानं निषिद्ध किन्तु विनीतादीनां वाचनादानं कुत्र प्रतिपादितम् ? तेन न कस्यापि वाचना प्रदातव्या "आणा धम्मो" इतिवचनात् । इत्यादिकारणाद् विपक्षस्य साक्षात्कथनमुचितमेव, 'न तीर्थकरा व्यर्थ भाषन्ते' इति वचनात् ॥ सू० ११॥
पूर्वमविनीतादीनां त्रयाणां श्रुतदान प्रतिषिद्धम्, तद्वैपरीत्येन विनीतादीनां च श्रुतदानमनुज्ञापितम् । सम्प्रति दुष्टादीनां त्रयाणां श्रुतदानं प्रतिषेधयितुमाह-'तओ दुस्सन्नप्पा' इत्यादि ।
सूत्रम्-तओ दुस्सन्नप्पा पण्णत्ता, तंजहा-दुट्टे, मूढे, बुग्गहिए ।। सू०१२ ।। छाया-त्रयो दुःसंज्ञाप्याःप्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दुष्टः, मूढः, व्युद्ग्राहितः ॥ सू० १२ ॥
चूर्णी-'तओ दुस्सन्नप्पा' इति । त्रयस्तावत् वदयमाणाः पुरुषाः दुःसंज्ञाप्याः दु:दुःखेन कष्टेन संज्ञाप्यन्ते प्रतिबोध्यन्ते इति दुःसंज्ञाप्याः दुष्प्रतिवोध्याः प्रज्ञप्ताः कथितास्तीर्थकदादिभिः, एते वक्ष्यमाणास्त्रयो बोध्यमाना अपि बोधरहिता एव भवन्ति, तानेव त्रीनाह-'तं जहा' तद्यथा-दुष्टः-प्रज्ञापकं प्रतिपाद्यतत्त्वं वा प्रति द्वेषयुक्तो भवति, स च न प्रज्ञापनीयः श्रमणैः, तस्य द्वेषबुद्धया उपदेशाप्रतिपत्तेः । स च पूर्व पाराञ्चिकसूत्रे यथा वर्णितस्तथाsत्रापि ज्ञातव्यः । एवं मूढः गुणदोषज्ञानविवेकविकलः तस्य गुणाधनभिज्ञतया तत्त्वाप्रतिप्रत्तेः, एतादृशस्य प्रज्ञापनमनर्थकमेवेति भावः । एवमेव व्युग्राहितः वि-विपरीतक्रमेण उद्ग्राहःग्रहणप्रकारो यस्य स व्युद्ग्राहितः दृढीभूतविपरीतावबोधः मिथ्याशास्त्रश्रुतिप्रतिबद्धत्वेन विपरीतावबोधयुक्त इत्यर्थः ३ । एते त्रयो दु.संज्ञाप्यत्वात् श्रुतार्थवाचनादानायोग्या इति ते श्रमणैर्न प्रज्ञापनीयाः ॥ सू० १२ ॥
पूर्व दुष्टादित्रयाणां श्रुतसंज्ञापना प्रतिषिद्धा, सम्प्रति दुष्टादित्रयवैपरीत्येन अदुष्टादित्रयाणां श्रुतसंज्ञापनां प्रतिपादयति-तओ सुसण्णप्पा' इत्यादि ।
सूत्रम्-तओ सुसण्णप्पा पण्णत्ता, तंजहा-अदुट्टे, अमूढे, अव्युग्गाहिए। सूत्र १३ ।। छाया-त्रयः सुसंज्ञाप्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अदुष्टः, अमूढः अव्युद्ग्राहितः। सू०१३॥
चूर्णी-'तओ सुसण्णप्पा' इति । यतस्तावत् वक्ष्यमाणाः पुरुषाः सुसंज्ञाप्याः सुसुखेन संज्ञाप्यन्ते प्रतिबोध्यन्ते ये ते सुसंज्ञाप्याः अनायासेनैव श्रुतं प्रतिबोधयितुं शक्याः
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪
बृहत्कल्पसूत्रे
सुखेन सूत्रार्थप्राहणयोग्याः प्रज्ञप्ताः आख्याताः । तानेवाह - 'तंजहा' तद्यथा - अदुष्टः- तत्त्वं प्रज्ञापर्क वा प्रति द्वेपवर्जितः स चावश्यं श्रुतं संज्ञापनीयः द्वेषराहित्येन शुद्ध मनोवृत्तित्त्वात्तस्य श्रयोपदेशप्रतिपत्तेः । अमूढः गुणदोषविवेकशाली, सोऽपि सूत्रार्थी संज्ञापनीय, तस्य गुणदोषाभिज्ञत्त्वेन सत्यश्रद्धत्वात् । तृतीयमाह - अग्युग्राहित. दृढीकृत सम्यग्बोधवान्, प्रदत्तसूत्रार्थयोरविपरीतत्वेन ग्राहकत्वात् । एवमेते त्रयः पुरुषाः सुसज्ञाप्याः || सू० १३ ॥
1.
पूर्वं दुष्टतादिदोषदूषित भावस्य प्रत्राजनादिकं प्रतिषिद्धम्, सम्प्रति ग्लानप्रकरणे परिष्वज - नानुमोदनस्वरूपस्याशुभभावस्य निवारणं कर्त्तुं प्रथमं निर्ग्रन्थीसूत्रमाह- 'निग्गंथिं च गं' इत्यादि ।
सूत्रम् - निमगंथिं च गं गिलायमाणि दिया वा भाया वा पुतो वा पलिस्सएज्जा तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडि सेवणपत्ता, आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्वाइयं ॥ सू० १४॥
छाया - निर्ग्रन्थीं च खलु ग्लायन्तों पिता वा भ्राता वा पुत्रो वा परिष्वजेत् तं च निर्ग्रन्थी स्वादयेत् मैथुन प्रतिसेवनप्राता, आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥ सू० १४ ॥
चूर्णी - 'निधि च णं' इति । निर्ग्रन्थी च खलु साध्वीम् ग्लायन्तीम् - शरीरस्य क्षीणतया ग्लानिं हर्पक्षयरूपां शारीरमानस क्लिष्टतामनु भवन्तीं तस्या पिता वा सांसारिकपिता, निर्ग्रन्थत प्राप्तो वा पिता, भ्राता वा सांसारिक भ्राता निर्ग्रन्थतां प्राप्तो वा भ्राता, पुत्रः सांसारिकपुत्रो वा निर्ग्रन्थतां प्राप्तो वा पुत्र', 'पलिस्सएज्जा' इति परिष्वजेत - दौर्बल्येन भूमौ पतन्तीं धारयन् उपवेशयन् उत्थापयन् वा शरीरे स्पर्शं कुर्यात्, तं च पुरुषस्पर्श सा निर्ग्रन्थी मैथुन प्रतिसेवनप्राप्ता मैथुनसेवनेच्छां प्रतिपन्ना सती स्वादयेत् स्पर्शसमुद्भूतमैथुनसेवन भावनया अनुमोदेत 'सुखदोऽयं पुरुषस्पर्शः' इति कृत्वा मनसि हर्षं विदध्यात् तदा सा साध्वी चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुवातिकं गुरुकं प्रायश्चित्तम् आपद्यते प्राप्नोति गुरुकप्रायश्चित्तभागिनी भवतोत्यर्थः । ननु 'पुरिसपहाणो धम्मो' पुरुषप्रधानो धर्मः इति शास्त्रेऽनुमतं ततः प्रकृतसूत्रे प्रथमं निर्ग्रन्थसूत्रमभिधातव्यं भवेत् किन्तु प्रकृते पुनर्निर्ग्रन्थीसूत्रमेव प्रथममभिहित मिति किमत्र तत्त्वम् ' इति चेत् सत्यम्, पुरुषप्रधान एव धर्मो भवति किन्तु स्त्रियाश्चञ्चल स्वभावत्वात्, धृतिबलविकलत्वाच्च निर्ग्रन्व्या एव प्रथमं प्ररूपणं कृतमिति ॥ सू० १४ ॥
पूर्वसूत्रे ग्लानाया. निर्ग्रन्थ्याः पित्रादिना उत्थापने पुरुषस्पर्शनेन विकारो जायते, तस्यानुमोदनञ्क्षणस्याशुभभावस्य प्रतिपेध. प्रतिपादितः सम्प्रति ग्लानस्य निर्ग्रन्थस्य तथाविधाशु भावस्य प्रतिपेध प्रतिपादयितुमाह- 'निग्गंयं च णं' इत्यादि ।
सूत्रम् - निग्गंथं च णं गिलायमाणं माया वा भगिणी वा धूया वा पलिस्सएज्जा, तं च निगये साइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मा सियं परिहारहाणं अणुग्वाइयं ॥ सू० १५ ॥
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूणि-भाष्याऽवचूरी उ० ४ सू० १५-१७
अशनादेः कालक्षेत्रमर्यादाविधिः ९५
छाया-निर्ग्रन्थ च खलु ग्लायन्तं माता वा भगिनी वा दुहिता वा परिष्वजेत् तं च निर्ग्रन्थः स्वादयेत्, मैथुनप्रतिसेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥ सू० १५॥
चूर्णी-'निग्गंथं च णं' इति । निग्रन्थं साधु च खलु ग्लायन्तं रोगादिना शरीरक्षीणत्वेन ग्लानिमनुभवन्तं माता वा तस्य सांसारिकमाता निग्रन्थीभूता वा माता, भगिनी वा सांसारिकभगिनी निर्ग्रन्थीभृता वा भगिनी, दुहिता वा-सांसारिकपुत्री निग्रन्थीभूता पुत्री वा परि
वजेत् भूमौ पतन्तं धारयन्ती उपवेशयन्ती उत्थापयन्ती वा साधुशरीरे स्पृशेत् शरीरस्पर्श कुर्यात्, तं च स्पर्श निर्ग्रन्थः मैथुनप्रतिसेवनप्राप्त. मैथुनसेवनेच्छां प्रतिपन्न. सन् स्वादयेत् मैथुनसेवनभावनया अनुमोदेत 'सुखदोऽयं स्त्रीस्पर्श' इति कृत्वा मनसि हर्ष कुर्यात् तदा स निर्ग्रन्थः चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकं गुरुकं प्रायश्चित्तम् आपद्यते प्राप्नोति गुरुकप्रायश्चित्तभागी भवतीति भावः ॥ सू० १५ ।।
पूर्वं ब्रह्मचर्यपरिणामरूपस्य भावस्यातिचारवारणाय श्रमण्याः पुरुपस्पर्शप्रतिषेधः, श्रमणस्य स्त्रीस्पर्शप्रतिषेधश्च प्रतिपादित', सम्प्रति-अशनादेः कालातिक्रमस्यातिचारं प्रतिपेधितुमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहित्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावित्तए, से य आहच्च उवाइणाविए सिया तं नो अप्पणा अँजिज्जा, नो अन्नेसिं अणुप्पएज्जा, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिडवेयव्वे सिया, तं अप्पणा भुंजमाणे अन्नेसिं वा दलमाणे आवज्जड चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ॥ सू०१६॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्य वा प्रथमायां पौरुष्यां प्रतिगृह्य पश्चिमा पौरुपीम् उपानेतुम् , तच्च आहत्य उपानायितं स्यात् तद् नो आत्मना भुञ्जीत, न अन्येभ्यः अनुप्रदद्यात् एकान्ते वहुप्रासुके स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य परिष्टापयितव्य स्यात्, तद् आत्मना भुजानः अन्यस्मै वा ददानः आपद्येत चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् उद्घातिकम् ॥ सू० १६ ॥
चीनो कप्पड़, इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा श्रमणश्रमणीनां 'असणं वा' इत्यादि अशनादिकं चतुर्विधमाहार प्रथमायां पौरुप्या प्रतिगृह्य गृहीत्वा प्रथमपौरुष्यामानीतमशनादिकं पश्चिमां चतुर्थी पौरुषीम् ‘उवाइणावित्तए' उपानाययितुम् उल्लचयितुम् न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः प्रथमपौरुष्या गृहीतमशनादिकं पौरुपीत्रयमुल्लवय अन्तिमायां चतुर्थ्या पौरुष्यां न भोक्तव्यमित्याशयः । यद्यवं भवेत्तदा किं कर्त्तव्यमित्याह-'से य आहच्च'
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
९६
वृहत्कल्पसूत्रे
इत्यादि । तच्चाशनादिकम् आहत्य कदाचिदनाभोगादिकारणेन यदि 'उवाइणाविए' उपनायितं प्रथमपौरुष्यां गृहीत्वा चरमपौरुष्यां प्रापितं स्यात् पौरुषीत्रयमुल्लद्वय चतुर्थी पौरुषी प्राप्ता भवेत् तदा प्रथमपौरुष्यानीतं तदशनादिकं नो नैव आत्मना स्वयं भुञ्जीत न स्वयं तस्योपभोगं कुर्यात्, नो नैव च अन्येभ्यः श्रमाणादिभ्यः अनुप्रदद्यात् । तर्हि किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह- 'एगंते' इत्यादि, तत् प्रथमपौरुषीगृहीतमशनादिकं एकान्ते विजने गमनागमनरहिते बहुप्रासुके जीवरहिते अचित्ते स्थण्डिले भूमिप्रदेशे यत्र तदाहारप्रसङ्गेन द्वीन्द्रियादिजीवोत्पत्तिर्न भवेत् तत्प्रकारेण प्रतिलेख्य स्थण्डिलस्य चक्षुषा सम्यग् निरीक्षणं कृत्वा तथा प्रमृज्य तस्य स्थानस्य रजोहरणेन सम्यक्तया प्रमार्जनं कृत्वा परिष्ठापयितव्य स्यात्, एकान्ते बहुप्रासुके भूमिप्रदेशे प्रतिलेखनप्रमार्जनपूर्वकं निक्षेप्तव्यम् । किमर्थं परिष्ठापनीयमित्याह - तदशनादिकम् आत्मना स्वयं भुञ्जानः अन्यस्मै वा ददानः स आपद्यते प्रप्नोति चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् उद्घातिकं चतुर्लघुकं प्रायश्चित्तमिति सूत्रा - शयः ॥ सू० १६ ॥
पूर्वमशनादिविषये कालातिक्रमः प्ररूपितः सम्प्रति क्षेत्रातिक्रमसूत्रमाह- 'नो कप्पड़' इत्यादि ।
,
सूत्रम् -नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परं अद्धजोयणमेराए उवाइणावित्तए, से य आहच्च उवाइणाविए सिया तं नो अपणा भुंजिज्जा, नो अन्नेसिं अणुप्पएज्जा, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिले हित्ता पमज्जित्ता परिवेयव्वे सिया, तं अप्पणा भुंजमाणे अन्नेसिं वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ सू० १७ ॥
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा परम् अर्द्धयोजनमर्यादायाः उपानाययितुम्, तच्च आहत्य उपनायितं स्यात् तद् नो आत्मना भुञ्जीत नो अन्येभ्यः अनुप्रदद्यात्, एकान्ते बहुप्रासु के स्थण्डिले प्रत्युपेय प्रमार्ण्य परिष्ठापयितव्यं स्यात्, तद् आत्मना भुञ्जानः अन्येभ्यो वा ददानः यापद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् उद्घातिकम् ॥ सू० १७ ॥
चूर्णी -- 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां 'असणं वा ४' अशनादिकं चतुर्विधमाहारम् अर्द्वयोजनमर्यादायाः क्रोशद्वयरूपाया मर्यादायाः सीमायाः परम् - अनन्तरम् क्षेत्रम् उपानाययितुम्-क्रोशद्वयलक्षणसीमानमतिक्रामयितुं नो कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः, गृहीतमशनादिकं तत्क्षेत्रात् क्रोशद्वयाभ्यन्तरक्षेत्रे एव भोक्तुं कल्पते न तु क्रोशद्वयानन्तरक्षेत्रे इति भावः । तच्चाशनादिकम् आहत्य कदाचित् यदि अनाभोगादिकारणवशाद् उपनायितम् गृहीताशनादि क्षेत्रात् क्रोशद्वयात् परक्षेत्रे प्रापितं स्यात् तदा तदशनादिकं न स्वयं भुञ्जीत, नान्येभ्यः श्रमणादिभ्यः प्रदद्यात् अपितु तदशनादिकं बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रतिलेख्य प्रमृज्य तत्रा - चित्तभूप्रदेगे परिष्ठापयितव्यं स्यात् । यदि तदशनादिकस्य स्वयं भोक्ता अन्येभ्यः प्रदाता वा भवेत्
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
धूर्णिभाष्याऽवचूरी उ० ४ सू० १८-१९
अनेषणीयाहारादेः शेक्षकाय दानविधिः ९७
तदा स चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्घातकम् आपद्यते - प्राप्नोति स चतुर्लघुकप्रायश्चित्तभागी भवतीत्यर्थः ॥ सू० १७॥
पूर्वसूत्रे श्रमणैः कालक्षेत्रमर्यादामनतिक्रम्यैव आहारः कर्तव्य इति प्रतिपादितम् सम्प्रति आहारप्रसङ्गात् कदाचिदनामोगेनानेषणीयमचित्तमशनादि गृहीत स्यात्तदा किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिं प्रतिपादयितुमाह- 'निग्गंथेण य' इत्यादि ।
सूत्रम् — निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंड वायपडियाए अणुष्पविद्वेणं अन्नयपरे अचित्ते अणेसणिज्जे पाणभोयणे पडिग्गाहिए सिया, अस्थि या इत्थ के सेहत ए अणुवाaिre कप्पर से तस्य दाउँ वा अणुप्पदाउँ वा नस्थि या इत्थ केइ सेहत ए अणुवट्ठावियए तं नो अप्पणा भुंजिज्जा नो अन्नेसिं दावए, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्टवेयव्वे सिया ॥ सू० ॥ १८ ॥
छाया - निर्ग्रन्थेन च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टेन अन्यतरद् अचित्तम् अनेषणीयं पानभोजनं प्रतिगृहीतं स्यात्, अस्ति चात्रे कश्चित् शैक्षतरकः अनुपस्थापितकः कल्पते तस्य तस्मै दातुं वा अनुप्रदातुं वा, नास्ति चात्र कश्चित् शैक्षतरकः अनुपस्थापितक तद् नो आत्मना भुञ्जीत, नो अन्येभ्यः दद्यात् एकान्ते बहुप्रासु के स्थण्डिले प्रतिलेख्य प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यं स्यात् । सू० ॥ १८ ॥
चूर्णी - 'निगंथेण य' इति । निर्ग्रन्थेन च गाथापतिकुल - गृहस्थगृहम् पिण्डपातप्रतिज्ञया-आहारग्रहणवाञ्छया अनुप्रविष्टेन तत्र अन्यतरत् चतुर्विद्याशनादिमध्याद् एकम् तद् अचित्तं प्रासुकं किन्तु अनेषणीयम् - एषणादोषदुष्टम् पानभोजनम् - पान वा भोजनं वा उभय वा प्रतिगृहीतम् कदाचिदनाभोगेन पात्रे गृहीतं स्यात् तदा अस्ति चात्र साधुमण्डल्यां कचित् शैक्षतरकः नवदीक्षितो बालदीक्षितो वा, सोऽपि अनुपस्थापितक अनारोपितमहाव्रतकः, यावत्कालं छेदोपस्थापनीयचारित्रं न दीयते तावत्कालं स अनुपस्थापितकः प्रोच्यते, छेदोपस्थापनीयचारित्रस्य समयः जघन्यतः सप्त दिनानि मध्यमतचतुरो मासान्, उत्कृष्टतः षण्मासान् यावदिति । यदि षण्मासपर्यन्तमपि प्रतिक्रमणं तेन न शिक्षित भवेत् तदा तदनन्तरमपि प्रतिक्रमणशिक्षणपर्यन्त छेदोपस्थापनीयचारित्रं न दीयते एतादृशो यदि तत्र भवेत्तदा कल्पते तस्यानेषणीयाहारग्रहीतुः साधोः तस्मै अनुपस्थापितकाय तत् पान वा भोजनं वा दातुं वा प्रथमतो वितरीतुम् अनुप्रदातु वा वारं वारम् अन्यस्मिन् एषणीयपानभोजनदानात् पश्चाद्या कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्ध । यदि च नास्ति तत्र कश्चित् शैक्षतरक' मनुपस्थापितस्तदा तदनेषणीय पानभोजनं नैव आत्मना स्वयं भुञ्जीत, नो वा अन्येभ्यः श्रमणादिभ्यः दद्यात् । तदा किं कुर्यादित्याह-तत् पानभोजनम् एकान्ते निर्जने बहुप्रासुके अचित्ते स्थण्डिले भूमिप्रदेशे प्रति
१३
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कएपखत्रे
लेख्य तं भूप्रदेश-चक्षुषा-सम्यड् निरीक्ष्य प्रमृज्य रजोहरणेन सम्यक्तया तत्स्थानस्य प्रमार्जन कृत्वा परिष्ठापयितव्यम् ॥ सू० १८॥
पूर्वसूत्रेऽनाभोगेन -गृहीतमचित्तमनेषणीयं : पानभोजनमनवस्थापितकाय प्रदातव्यं, न स्वयं भोक्तव्यं नान्येभ्यः प्रदातव्यमिति प्रतिपादितम्, सम्प्रति 'किमर्थमनेषणीयमिदं पानभोजनं मह्यं दीयते' इत्येवं कलुषितपरिणामस्य शैक्षस्य प्रज्ञापनार्थमिदं सूत्रं प्रारभ्यते, · अथवा 'कथं - तावत् शैक्षस्यानेषणीयं पानभोजनं . कल्पते ? इति शङ्कायां - तत्समाधाननिमित्तमिदं सूत्र प्रारभ्यते'जे कडे' इत्यादि ।
सूत्रम्-जेकडे कप्पद्वियाणं कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं, नो से कप्पइ कप्प'ट्ठियाणं, जे :कडे अकप्पट्ठियाणं णो से कप्पइ कप्पटियाणं कप्पइ से अकप्पट्टियाणं कप्पे ठिया कप्पट्ठिया, अकप्पे ठिया अकप्पट्ठिया ॥ सू० १९॥
___-छाया यत् कृतंकल्पस्थितानां कल्पते तत् अकल्पस्थितानाम् नो तत् कल्पते कल्पस्थितानाम् यत् कृतम् अकल्पस्थितानां नो तत् कल्पते कल्पस्थितानाम्, कल्पते तद् .अकल्पस्थितानाम्, कल्पे स्थिता कल्पस्थिताः अकल्पे स्थिता अकल्पस्थिताः । सू० १९॥
चूर्णी-'जे कडे' इति । यद् भक्तपानादिकं कृतं आधाकर्मत्वेन निष्पन्नं कल्पस्थितानाम् आचेलक्यादिदशविघस्थितकल्पे स्थितानाम् । कल्पो द्विविधः स्थितकल्पः अस्थितकल्पश्च । तत्र आचेलक्यादिदशविधः स्थितकल्पः, असौ आदिमान्तिमतीर्थकरयोः साधूनां पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नानां भवति ततस्ते कल्पस्थिताः कथ्यन्ते, दशविधकल्पो यथा-आचेलक्यम् १ कृतिकर्म २, महावतम् ३, पर्यायज्येष्ठत्वम् ४, प्रतिक्रमणम् ५, मासनिवासः ६, पर्युषणा ७, औदेशिकम् ८, शय्यातरपिण्डः ९, राजपिण्डः '१० । एतेषु दशसु कल्पेषु आदितः सप्तविध कल्पाः ग्राह्या इत्यर्थः, औदेशिकादिकास्त्रयो निषेधकल्पाः अग्राह्या इत्यर्थः, एषु कल्पेषु स्थिताः कल्पस्थिताः, तेषां कृते यद् भक्तपानादिकं निष्पन्नं तद् भक्तपानादिकं कल्पते अकल्पस्थितानाम्आचेलक्यादिसम्पूर्णदशविधकल्परहितानाम् मध्यमद्वाविंशतितीर्थकरसाधूनां चातुर्यामधर्मप्रतिपन्नानां कल्यते इति पूर्वेण सम्बन्धः, किन्तु 'नो से' इति तद् भक्तपानादिकं कल्पस्थितानां आदिमान्तिमतीर्थकरसाधूनां पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नानां नो कल्पते, कल्पस्थितानुद्दिश्य निष्पादितं भक्तपानादिकमकल्पस्थितानां कल्पते किन्तु कल्पस्थितानां तत् नो कल्पते इत्याशयः ।
अथ च 'जे कडे' इति । यद् भक्तपानादिकम् अकल्पस्थितानां कृते कृतं निष्पादितं भवेत् तद् नो कल्पते कल्पस्थितानाम् किन्तु तद् अकल्पस्थितानां कल्पते। यत् चातुर्यामधर्मप्रतिपन्नानुद्दिश्य संपादितं भक्तपानादिकं पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नानां नो कल्पते तत्तु चातुर्यामधर्मप्रतिपन्नानामेव कल्पते इति भावः । कथं कल्पस्थिता अकल्पस्थिता इति कथ्यन्ते ? तत्राह-'कप्पे ठिया' इत्यादि, ये कल्पे
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
णि भाष्याऽवचूरी उ० ४ सू० २०
भिलोरन्यगणममनविधिः १६५ आचेलक्यादिदशविधस्थितकल्पे स्थितास्ते कल्पस्थिताः कथ्यन्ते, ये च' अकल्पे-अस्थितकल्पे. यथासंभवपालनरूपे स्थितास्ते" अकल्पस्थिताः कथ्यन्ते ।
कल्पस्थितानां पूर्वपश्चिमतीर्थकरसाधूनां पञ्चमहातरूपा स्थितिर्भवति । मध्यमद्वाविंशतितीर्थकरसाधूनां महाविदेहक्षेत्रस्थितसाधूनां च चातुर्यामरूपी कल्पस्थिंतिर्भवति । एषां। चत्वारि महाव्रतानि भवन्ति 'न अपरिगृहीता नो भुज्यते इति नियमात् चतुर्थं ब्रह्मचर्यव्रतं तेषां परिग्रहविरमणवते एवान्तर्भवतीति ।। सू० १९ ॥
पूर्व कल्पस्थिता अकल्पस्थिता वर्णिताः, तप्रसङ्गाद् अत्र कल्पस्थितस्याऽकल्पस्थितगणे अकल्पस्थितस्य कल्पस्थितगणे कारणवशात् सक्रमणं भवेत्तस्यान्यगणसंक्रमणे विधिः प्रतिपाद्यतेभिक्खू-य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झाय वा - पवत्तयं वा थेरं वा गणि वा गणहरं वा गणावच्छेयगं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तयं-चा थेरं वा गणि वा गणहरं-वागणावच्छेयगं चा अन्नं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अन्न माणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० २० ॥
छाया--भिक्षुश्च गणाद् अवक्रम्य इच्छेत् अन्य गण उपसंपद्य विहर्तुम् नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा; उपाध्याय वा प्रवर्तकं वा स्थविरं वा गणिनं वागणधरं वा गणावच्छेदकं वा अन्य गणम् । उपसम्पद्य विहर्त्तम्, कल्पते तस्य आपृच्छंय आचार्य वा उपाध्याय वा प्रवर्तकं वा स्थविरं वा गणिनं वागणधरं वा गणावच्छेदकं वा अन्य गणम उपसंपद्य-विहर्त्तम्, ते च-तस्य-वितरेयुः एवं त्तस्य कल्पते अन्य गणम् उपसंपद्य-विहर्तम् , तेच तस्य नो वितरेयु. एवं तस्य नो कल्पते अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् ॥ सू० २०॥
चूर्णी-'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च निम्रन्थो यदि गणात् स्वगणाद् अपक्रम्य-निस्सृत्यज्ञानदर्शनादिप्राप्त्यर्थं स्वर्गणाद् निर्गत्य इच्छेत् अन्य स्वगणभिन्नं गणम् उपसंपद्य स्वीकृत्य विहर्तुम् तत्रावस्थातुम् तदा तस्य भिक्षोनों कल्पते, कदा ? इत्याह- अनापृच्छ्य पृच्छामकृत्वा, कम् ? इत्याहअचार्य वा उपाध्यायं वा प्रवर्तकं वा स्थविरं वा गणिनं वा गणधरं वागणावच्छेदकं वा, तत्र-आचार्यः' यः पञ्चाचारान् स्वयं पालति परांश्च 'पालयति सः, तथा 'योऽर्थ वाचयति गणस्य मेघीभूतः आचारद्यष्टविघसपदायुक्तः ताश्च यथा-आचारसंपद् १ श्रुतसंपद् २ शरीरसंपद् ३ वचनसंपद् ४ वाचनासंपद् ५ मतिसंपद् ६. उपयोगसपद्' ७ संग्रहसंपद् ८ इति. एवं योऽष्टविधसंपदा युक्तो भवेत् स आचार्यः । तथा उपाध्यायः यस्य उप-समीपे एत्य अधीयते प्रवचनं शिष्यैर्यस्मात् स उपाध्यायः। प्रवर्तका-प्रवर्तयति आचार्योपदिष्टेषु कार्येषु तपःसयम
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पसूत्रे
१०० योगवैयावृत्त्यसेवाशुश्रूषास्त्रार्थाऽध्ययनाध्यापनादिपु यथायोग्यं बलाबलं विचार्य यथायोगं नियोजयति यः स प्रवर्तकः । रथविरः-संयमयोगेषु सीदतः साधून् ऐहिकामुष्मिकापायप्रर्दशनपूर्वकं ज्ञानादिषु स्थिरीकरोति यः स स्थविरः । गणी-गणः साधुसमुदायः स्वस्वामिसम्बन्धेन यस्यास्ति स गणी कतिपयसाधुसमुदायेन सह विचरणशीलो यः स गणी। गणधरः-यो गणचिन्ताकारकः गणस्य योगक्षेमविधायकः स गणधरः । गणावच्छेदकः-गणस्य साधुसमुदायस्य अवच्छेदं विभागं करोति यः स गणावच्छेदकः । एतान् आचार्यादीन् अनापृच्छ्य गणाद् गणान्तरमुपसंक्रम्य भिक्षोर्विहत्तु न कल्पते इति भावः । तहिं कथं कल्पते ? इत्याह-पूर्वोक्तान् आचार्यादीन् आपृच्छ्य तस्य भिक्षोर्गणान्तरमुपसंपद्य विहां कल्पते । ते च यदि तस्य वितरेयुः गणाद् गणान्तरं संक्रमितुमाज्ञां दद्युः एवम्-अनेन विधिना तस्य भिक्षोः कल्पते अन्य गणं गणाद् गणान्तरम् उपसंक्रम्य विहर्तुम् । यदि ते च तस्य गणान्तरसंक्रमणेच्छुकस्य नो वितरेयुः आज्ञा न दद्युः एवम्-अनेन प्रकारेण आज्ञामन्तरेण नो कल्पते तस्य भिक्षोरन्यं गणमुपसंपद्य विहर्तुमिति । एवं भिक्षुविषय आलापो निर्ग्रन्थ्या अपि गणान्तरगमनविषयेऽवगन्तव्यः किन्तु एतदपेक्षया विशेषस्तुनिम्रन्थी नियमत एव ससहाया गणान्तरं गच्छति न तु कथमपि असहाया एकाक्रिनीति ।। सू० २०॥
पूर्वसूत्रे सामान्यश्रमणस्य गणान्तरसक्रमणविधिरुक्तः, एष एव गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायानामपि विधिर्भवतीति भाष्यकारोऽतिदिशति- 'जह भिक्खुस्स' इत्यादि ।
भाष्यम्-जह भिक्खुस्स य कहिओ, गणावछेए तहेव आयरिए । एसेव उवज्झाए, विही य ते हंति वत्ता उ ॥१॥ छाया-यथा भिक्षोश्च कथितः गणावच्छेदे तथैव आचार्ये । एष एव उपाध्याये विधिश्च ते भवन्ति व्यक्तास्तु ॥ १॥
अवचूरी-'जह भिक्खुस्स' इति यथा-येन प्रकारेण भिक्षोश्च सामान्यश्रमणस्य गणान्तरसंक्रमणविपये सूत्रे विधिः कथितः तथैव तेनैव प्रकारेण गणावच्छेदे-गणावच्छेदविषये, आचार्ये-आचार्यविषये, उपाध्याये उपाध्यायविषये एष एव विधिः पृच्छादिरूपो विज्ञेयः, नवरं नानात्वं केवलमेतावदेव यत्-भिक्षोः केवलं पृ पूर्वकं गमनं प्रतिपादितम् , गणावच्छेदकादीनां तु स्वपदत्यागपुरस्सरमाचार्यादिकं पृष्ट्वा गन्तव्यम्, यत एते गणावच्छेदकादयो नियमात् 'वत्ता उ' इति व्यक्ता वयसा श्रुतेन च व्यक्ता एव भवन्ति नाव्यक्ताः ततो योऽव्यक्तस्य विघिरुक्त. सोऽत्र न भवतीति भावः ।। १ ।।
पूर्व सामान्यश्रमणस्य ज्ञानाद्यर्थ गणान्तरगमनविधिः प्रतिपादितः, सम्प्रति विशेषमाश्रित्य गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायानां गणान्तरगमनविधिं सूत्रकारः साक्षात् प्रतिपादयन् प्रथमं गणावच्छेदकस्य विधिमाह-'गणावच्छेयए य' इत्यादि ।
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्याऽवचूरी उ० ४ सू० २१-२२ गणावच्छेदकादेरन्यगणगमनविधिः १०१
सूत्रम्-गणावच्छेयए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए नो से कप्पइ गणावच्छेयगस्स गणावच्छेयगतं अणिक्खिवित्ता अन्नं गणं उव संपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ गणावच्छेयगस्स गणावच्छेयगत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरितए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तयं वा थेरं वा गर्णि वा गणहरं वा गणावच्छेयगं वा अन्नं गणं उ वसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पई से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से णो वियरेज्जा एवं से णो कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० २१ ॥
छायागणावच्छेदकश्च गणाद् अपक्रम्य इच्छेत् अन्यं गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् नो तस्य कल्पते गणावच्छेदकस्य गणावच्छे दकत्वम् अनिक्षिप्य अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्त्तम्, कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्य अन्यं गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् । नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा उपाध्यायं वा प्रवर्तकं वा स्थविरं वा गणिनं वा गणावच्छेदकं वा अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्तुम्, कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदक वा अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्त्तम्, ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्त्तम्, ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् ॥ सू० २१ ॥
चूर्णी--'गणावच्छेयए य' इति । गणावच्छेदको यदि गणादपक्रम्य विशेषज्ञानादिप्राप्त्यर्थम् अन्य गणमुपसपथ विहत्तुम् अवस्थातुम् इच्छेत् तदा तस्य गणावच्छेदकस्य गणावच्छेदकत्वं स्वपदवीरूपम् अनिक्षिप्य-आचार्यादिषु असमारोप्य न समर्म्य, स्वपदवीमन्यस्मै अदत्त्वेत्यर्थः अन्यं गणम् उपसपद्य विहां नो कल्पते ।
तहि कय कल्पते । इत्याह-कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य गणावच्छेदकत्वं स्वदपदवीरूपं निक्षिप्य अन्यस्मै दत्त्वा अन्यं गणमुपसपद्य विहर्तुमिति । पृच्छाविधिभिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयः । अयं भावः-आचार्यादिकमनापृच्छ्य गणान्तरसंक्रमणं तस्य न कल्पते, किन्तु भाचार्यादिकमापृच्छयव गणान्तरगमनं कल्पते । तत्रापि यदि ते गणान्तरगमनाज्ञां वितरेयुः तदा कल्पते. यदिन वितरेयुस्तदा नो कल्पते इति सूत्रार्थ ॥ सू० २१ ॥
पूर्व गणावच्छेदकस्य गणान्तरसक्रमणविधिरुक्तः, सम्प्रति आचार्यस्य उपाध्यायस्य च ज्ञानाद्यर्थं गणान्तरगमने विधिमाह-'आयरियउवज्झाए य' इत्यादि ।
सूत्रम् -आयरियउवज्झाए य गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए नो से कप्पइ आयरियउवज्झायस्य आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गण उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ से आयरियउवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्र गणावच्छेयगं वा अण्ण गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं उपसंपञ्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं उत्रसंपञ्जित्ता'णं विहरित्तए, ते य से'नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ. अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता' णं विहरित्तए ॥ सू० २२ ।।
छायाआचार्योपाध्यायश्च गणाद् अपक्रम्य इच्छेत् अन्य गणम् उपसंपद्य विहतम् . नो तस्य कल्पते प्राचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्यायत्वम्' अनिक्षिप्य अन्य गणम् उपर्सपद्य विहतम् , कलाते तस्य आचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्यायत्वं निक्षिप्य अन्य गणम्। उपसंपद्य विहर्तुम् , नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यांवत् गणावच्छेदकं वा अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्त्तम्, कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य 'यावत् गावच्छेदके वा अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् , ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्त्तम् , ते च तस्य नो वितरेयुः एवं नो कल्पते अन्यं गणं उपसंपद्य विहर्तुम् ॥ ० २२ ॥
चूर्णी-'आयरियउवज्झाए य' इति । इदम् आचार्योपाध्यायसूत्रं गणावच्छेदकसूत्रबदेव सर्व व्याख्येयम् , विशेष एतावानेव यत्तत्र गणावच्छेदकपदेन व्याख्या कृता अत्र तु आचार्योपाध्यायपदेने व्याख्या विधेया, इति । आचार्येग सहित उपाध्याय- आचार्योपाध्यायः, शाकपार्थिवादित्त्वात् मध्यमपदलोपी समासः तेन 'आचार्योपाध्यायौ' इत्यर्थो बोध्यः । आचार्योपाध्याययो समानविधि रुवादेकंस्मिन्नेव सूत्रे उभ योविधिः प्रतिपादित इति ॥ सू० २२ ॥
पूर्व भिक्षुप्रभृतीनां ज्ञानाद्यर्थं गणान्तरगमनविधि प्रतिपादितः, सम्प्रति तेषां संभोगार्थ गणान्तरगमनविधिमाह-भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अबक्कम्म इच्छेज्जा अणं गण संभोगपडियाए उवसंपज्जिताण विहरित्तए नो से कप्पई अणापुच्छित्ता आयरिय वा जाव'गणावछेयगंवा अण्णं गणं संभोगाडियाए उवसंपज्जित्ता'ण विहरित्तएं, कप्पई से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाएं उपसंपन्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पई अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेना एवं से नो कप्पइ अण्णं गर्ग संभोगपंडियाए उवसंपज्जित्ता णं विदरित्तए, जत्युत्तरिय धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से- कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए। उपसंपज्जित्ता ण विहरित्तए, जत्युत्तरिय धम्मविणयं नोलभेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । सू०२३।।
छाया-भिक्षुश्च गणाद् अपक्रम्य इच्छेत् अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य 'विह-- म् नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेनम् उपसंपये विहर्नु, कल्पते तस्यं आपृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्णि-भाष्याऽवचूरी उ० ४ सू० २३ भिक्षोः संभोगार्थमन्यगणगमनविधिः ११०३ -अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य-विहर्तुम्, ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्य गणं संभोगप्रत्ययेन उपर्सेपद्य विहर्त्तम् , ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गण संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तम्, यत्रौत्तरित धर्मविनय, लमेत एवं तस्य कल्पते अन्य गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य 'विहर्त्तम् , यत्रौत्तरिक धर्मविनये नो लमेत .एव.तस्य नो. कल्पते अन्यं गण संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहत्तुम् ॥ सू० ॥२३॥
चूर्णी 'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च गणात् स्वगणात् अपक्रम्य निस्सृत्य संभोगप्रत्ययेन'संभोगः-एकमण्डल्यां भोजनादिरूपः, 'अथवा समवायागोक्तो द्वादशविध· · संभोगस्तत्प्रत्ययेन तन्निमित्तेन तदर्थमित्यर्थः अन्य गणमुपसंपद्य विहर्तुम् अवस्थातुम् इच्छेत् तदा तस्य पूर्ववेदेव
आचार्यादिकमनापृच्छ्य नो कल्पते, आपृच्छय 'कल्पते । यदि ते गणान्तरगमनस्याज्ञा । वितरेयुः । एवम्-अनेनाज्ञाग्रहणविधिना तस्य गणान्तरगमनं 'कल्पते, यदि ते गणान्तरगमने
आज्ञां नो वितरेयुस्तदा नो कल्पते - गणान्तरगमनम्, इति सूत्राशयः । भिक्षोः गणान्तरगमने कारणमाह-'जत्युत्तारिय' इत्यादि, 'जत्थ' इति यत्र यस्मिन् गणे । गन्तुमिच्छति तत्र यदि स
औत्तरिकम्-उच्चतरं प्रधानं धर्मविनयं लभेत प्राप्नुयात् एतादृशो गणो यदि भवेत् तदा तस्य तमन्यं । गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् अवस्थातुं कल्पते, 'यत्रौत्तरिकं धर्मविनयं नो - लमेत तदा तस्य अन्य गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहन्तुं नो कल्पते ॥ सू० २३॥
अथ भाप्यकारो गणान्तरगमने विवेकं प्रदर्शयति-'नाणदृ' ० इत्यादि । भष्यम्--नाणट्टदसणट्ठा, चारित्तट्ठा भवे य संभोगो ।
संकमणे चउभंगी, आयरियं गच्छमासज्ज ॥ २ ॥ छाया-ज्ञानार्थ दर्शनार्थ चारित्रार्थ. भवेच्च संभोगः ।
संक्रमणे चतुर्भगी, आचार्य गच्छमासाद्य ॥२॥ अवचूरी-'नाणह०' इति । ज्ञानार्थे दर्शनार्थ चारित्रार्थ च संभोगो भवेदिति त्रिविधः -संभोग , तदर्थ गणान्तरसंक्रमणं भवति, तत्र आचार्य गच्छं च आसाद्य-आश्रित्य चतर्भङ्गी भवतीति भाष्यगाथार्थः । विस्तरार्थश्चायम्-स्वगच्छे सूत्रार्थदानादौ विषीदति सति गच्छान्तरसंक्रमणे पूर्वोक्तरीत्यैव गमनविधिरत्रापि प्रतिपत्तव्यः, परन्तु चारित्रार्थ गच्छान्तरसंक्रमणे तु यस्य गच्छस्य प्रथममुपसंपन्नो भवति तस्मिन् -गच्छे चरणकरणक्रियायां विषीदति सति चतर्भङ्गी भवति, तथाहि-गच्छो विषीदति -नाचार्यः १, आचार्यों . विषीदति न गच्छः -२, गच्छोऽपि आचार्योऽपि च विषीदति ३, न गच्छो विषीदति न वा आचार्यः ४ इति । तत्र प्रकृते 'गच्छो विषीदति नाचार्य.' इत्येवंरूपः प्रथमो भगोऽवगन्तव्यः, तत्र स्वयं विषीदतो गच्छस्य
आचार्येण प्रेरणा कर्त्तव्या, तत्र गच्छस्य विषादकारणं यथा-प्रथमं तावत् गच्छश्रमणाः यथा‘कालं प्रत्युपेक्षणां न कुर्वन्ति न्यूनातिरिक्तादिदोषैविपर्यासेन वा प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्ति, गुरुग्ला
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
बृहत्कल्पसूत्रे
नादीन् वा न प्रत्युपेक्षन्ते, निष्कारणं च दिवा त्वग्वर्त्तयन्ति, भाण्डोपकरणं निक्षिपन्त आददाना वा तं न प्रत्युपेभ्य निक्षिपन्ति आददति च यथायोगं विनयमपि न प्रयुञ्जते, सूत्रार्थ पौरुषीं, सूत्रार्थचिन्तनां वा न कुर्वन्ति, अस्वाध्यायकाले सूत्रस्वाध्यायं कुर्वन्ति काले चन कुर्वन्ति, पाक्षिकादौ चालोचनां न ददति, संखडीं वा पश्यन्ति मण्डल्यां भक्तपानादिसमुद्देशनं न कुर्वन्ति, सावद्यभाषां भाषन्ते, पटलकेषु ' थैली' इति भाषाप्रसिद्धेषु समानीतं भक्तपानादिकं भुञ्जते, शय्यातरपिण्डं वा भुञ्जते, उद्गमोत्पादनादिदोषदुष्टमाहारं गृह्णन्ति । इत्यादिषु विपी - दने त्रयो भङ्गा सन्ति तत्र विधिमाह - 'गच्छो विषीदति नाचार्यः' इति प्रथमभने सामाचार्य विषीदन्त गच्छमाचार्यः स्वयं वा प्रेरयति १ । ' आचार्यो विषीदति न गच्छः' एवंरूपे द्वितीयभङ्गे विषीदन्तमाचार्य गच्छः स्वयं वा प्रेरर्यात २ । 'गच्छोsपि विषीदति आचार्योऽपि विषीदति' इत्येवं रूपे तृतीयभङ्गे गच्छाचार्यै विषोदन्तौ कोऽपि मुनिः स्वयं प्रेरयति, अथवा तत्र ये न विषीदन्ति तैस्तान् प्रेरयति, किं बहुना स्थानं प्राप्य अनुलोमविलोमा दिवचनैः प्रेरयति । एव चाचार्योपाध्यायादिकं भिक्षुक्षुल्लकादिकं वा पुरुषवस्तु ज्ञात्वा यस्य यादृशी अनुलोमा विलोमा वा नोदना योग्या भवेत्तया प्रेरयति, यो वा खरसाध्यो मृदुसाध्यः क्रूरोऽक्रूरो वा यथा नोदनां गृह्णाति तं तथा प्रेरयेत् गच्छमाचार्ये तदुभयं वा विषीदन्तं स्वयं ब्रुवन् अन्यैर्वा प्रेरयन् तिष्ठेत् । साध्वाचारविशोधनार्थं नानाविधिप्रेरणायां कृतायामपि यदि ते शिथिलाचारत्वं न मुञ्चन्ति तदा भिक्षुः आचार्यादीन् पृष्ट्वा तदाज्ञां गृहीत्वा गणान्तरसंक्रमणं कुर्यात् इति जिनाज्ञा बोध्या । पूर्वावस्थायां तत्र स्थितिमानमिदम् - एते उच्यमाना अपि नोद्यमं करिष्यन्तीति ज्ञात्वा तत्रोत्कृष्टेन पञ्चदश दिवसान् तिष्ठेत् । आचार्य वा विषीदन्तं जानन्नपि लज्जया तद्गौरवेण वा त्रीणि पञ्च वा दिनानि अनोदयन्नपि शुद्ध एव, न दोषभाग् भवति । यदि च नोद्यमानोऽपि गच्छ आचार्यस्तदुभयं वा ब्रूयात्- 'विषीदत्सु अस्मत्सु तव किं दुःखम् ? यदि वयं विषीदामस्तर्हि वयमेव दुर्गतिं गमिष्यामः, त्वां न किमपि कथयिष्यामः त्व स्वकीयमात्मानं प्रेरय, किमन्यैस्तव प्रयोजनम् ?' इत्येवंविधे भावे परिणते तेषां त्यागं कृत्वा यत्रौत्तरिको धर्मविनयो लभ्येत तत्र गच्छे गच्छेदिति भाष्यगाथाविस्तरः ॥२॥
पूर्वं भिक्षोः संभोगप्रत्ययेन गच्छान्तरगमनं प्ररूपितम्, सम्प्रति गणावच्छेदकस्य संभोगप्रत्ययेन गच्छान्तरगमनं प्रतिपादयितुमाह- इत्यादि 'गणावगच्छेयए यं'
सूत्रम् -- गणावच्छेयए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेजा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित णो से कप्पड़ गणावच्छेयत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पर से गणावच्छेयत्तं णिक्खिवित्ता
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
धूर्णिभाष्यावचूरी उ० ४ सू० २४-२५
संभोगार्थमन्यगण गमनविधिः १०५ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पर अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उनसंपज्जि - ताणं विहरित्तए, कप्पड़ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जात्र गणावच्छेयगं वा अण्ण गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ roj गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरितए, ते य से नो वियरेज्जा एवं सेनो कप्प अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरितए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं भेज्जावं से कप अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पर अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । सू० २४ ॥
छाया - गणावच्छेदकश्च गणाद् अपक्रम्य इच्छेत् अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् नो तस्य कल्पते गणावच्छेदकत्त्वम् अनिक्षिप्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तम्, कल्पते तस्य गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् नो तस्य कल्पते अनापृच्छ्य आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम्, कल्पते तस्य आपृच्छ्य आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तुम्, ते च तस्य वितरेयु. एवं तस्य कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम्, ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्य गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम्, यत्रौत्तरिकं धर्मविनयं लभेत एवं तस्य कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम्, यत्रौत्तरिकं धर्मविनयं नो लमेत एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्म विहर्तुम् ॥ सू० ॥ २४ ॥
चूर्णी- 'गणावच्छेयए य' इति । गणावच्छेदकश्च गणात् स्वगणात् अपक्रम्य निर्गत्य इच्छेत् अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन संभोगो द्वादशविधस्तन्निमित्तम् उपसपद्य विहतु तदा तस्य गणावच्छेदकत्वं स्वपदवीरूपम् अनिक्षिप्य आचार्याद्युपरि अनारोप्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहत्तुं नो कल्पते । कथं कल्पते ! इत्याह-स्वस्य गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्य अन्यस्मै दत्त्वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तु कल्पते । पुनश्च आचार्यादिकमनापृच्छ्य अन्यं गणं संभोग प्रत्ययेन उपसंपद्य विहतु नो कल्पते किन्तु आचार्यादिकमापृच्छय अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तु कल्पते । तत्र च यदि ते आचार्यादयः अन्यगणसंक्रमणस्याज्ञां वितरेयुः -- दद्युस्तदा तस्य अन्यं गणं सभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुं कल्पते, यदि ते अन्यगणगमनाज्ञां न वितरेयुस्तदा तस्य नो कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसपद्य विहम् । तत्रापि यदि यत्र औत्तरिकं स्वगणापेक्षया प्रधानं धर्मविनयं स्मारणावारणादिरूपं लभेत एवम् - अनेन कारणेन
१४
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
पृहत्कल्पसूत्र कल्पते तस्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहत्तुम् , यदि यत्र औतरिकं प्रधानं धर्मविनयं न लभेत एव धर्मविनयस्याऽलामे अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहत्तु नो कल्पते इति सूत्राशयः ॥ सू०२४ ॥
पूर्व गणावच्छेदकस्य संभोगनिमित्तं गणान्तरगमने विधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतम् आचार्योपाध्यायस्य तद्विधिमाह-'आयरियउवज्झाए य' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए णो से कप्पइ आयरियउवज्झायत्तं अणिविखवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए, उवसंपज्जित्ता णं विदरित्तए, कप्पइ से आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पई अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विह रित्तए । सू० २५॥
छाया-आचार्योपाध्यायश्च गणाद् अपक्रम्य इच्छेत् अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहत्तं नो तस्य कल्पते आचार्योपाध्यायत्वम् अनिक्षिप्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तम्, कल्पते तस्य आचार्योपाध्यायत्वं निक्षिप्य अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम् , नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्य गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तम् , कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहतम् ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्त्तम्, तेच तस्य नो वितरेयः एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्येन उपसंपद्य विहर्तुम्, यत्रौतरिक धर्मविनयं लभेत एवं तस्य कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य विहर्तुम्, यत्रोत्तरिकं धर्मविनयं नो लमेत एवं तस्य नो कल्पते अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य ' विहतम् ॥ स्० २५ ॥
चूर्णी-'आयरियउवज्झाए य' इति । इदमाचार्योपाध्यायसूत्रं संभोगप्रत्ययमधिकृत्य गणावच्छेदकसूत्रवदेव सर्वं व्याख्येयम् , नवरं गणावच्छेदपदस्थानेऽस्मिन् सूत्रे आचार्योपाध्यपदमुच्चारणीयम् , शेषं सर्वं पूर्वसूत्रवदेवेति भावः ।। सू० २५ ॥
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूमि भाच्यावचूरी उ० ४ सू० २६-२७ भिक्षोरन्याचार्योपाध्यायस्वीकरणविधिः १०७
पूर्व भिक्षुप्रभृतीनां सभोगनिमित्तं गणान्तरगमनं प्ररूपितम् , सम्प्रति भिक्षोरेव अन्यमाचार्यो पाध्यायं कर्तुमिच्छुकस्य विधिमाह-'भिक्खू य 'इत्यादि ।
मूलम्--भिक्खू य इच्छेज्जा अन्नं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, णो से कम्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्ण आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं आयरिय उवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, कप्पड़ से तेर्सि कारणं दीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए ॥ सू० २६॥
छाया-भिक्षश्च इच्छेत् अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुं नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचार्योपाध्यायं उद्देशयितम, कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम, ते च तस्य वितरेयुः एव तस्य कल्पते अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् , ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यम् आचर्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् , नो तस्य कल्पते तेषां कारणम् अदीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य तेषां कारणं दीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् ॥सू०२६ ॥
ची-'भिक्ख य' इति । भिक्षुश्च इच्छेत् अन्यम् स्वकीयाचार्योपाध्यायात् परं गच्छान्तरवर्तिनम् आचार्योपाध्याय ज्ञानदर्शनचारित्रवृद्धयर्थम् उद्देशयितुम् आत्मनो गुरुत्वेन व्यवस्थापयितुं यदि इच्छेत् तदा नो तस्य कल्पते अनापृच्छय अपृष्ट्वा, कम् ? इत्याह-आचार्य यावत् गणा. वच्छेदकम् अन्यमाचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् । कथं कल्पते ? इत्याह-कल्पते तस्य आचार्यादिकमापृच्छय अन्यमाचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् । तत्रापि यदि ते आचार्यादयो वितरेयुः अन्याचार्योपाध्यायस्वीकरणाज्ञा दद्यः एवं तदाज्ञाप्राप्तो सत्यां तस्य कल्पते अन्यमाचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् , यदि ते नो वितरेयुः अज्ञां न दद्युः तदा नो कल्पते अन्यमाचार्योपाध्यायमुद्देशयितम् । पुनश्चाज्ञाप्राप्तावपि नो तस्य कल्पते कारणम्-अन्याचार्योपाध्यायस्यात्मनो गुरुत्वेन व्यवस्थापने हेतम् अदीपयित्वा-अप्रकाश्य कारणमनिवेद्य अन्यमाचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् । अपि त कल्पते तस्य भिक्षोः तेषाम् स्वकीयाचार्यादीनां कारणम् अन्याचार्योपाध्यायस्वीकरणे कमपि हेतं दीपयित्वा-प्रकटीकृत्य अन्यमाचार्योपाध्यायस्वीकरणे कमपि हेतुं प्रदर्य अन्यमाचार्योपाध्यायम उद्देशयितुम्-आत्मनो गुरुत्वेन व्यवस्थापयितुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ।
अत्रायं भावः-स्वकीयमाचार्योपाध्यायं त्यक्त्वा अन्यमाचार्योपाध्यायमुद्दिशेत् तत्र ज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य च प्रधानकारणेन भवितव्यम्, अन्यथा मनोमालिन्यादिक्षुद्रकारणमाश्रित्य यदि
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
हत्कल्पस
अन्यमाचार्योपाध्यायमुदिशेत् तदा आज्ञाभङ्गादयो दोपा भवन्ति । तत्र ज्ञाने तावत् केपाञ्चिदाचार्याणां गच्छे कुले संघे वा उत्कृष्ट आचारो विद्यते, ते चाचार्योपाध्यायाः संघसंस्थितिं कृतवन्तः यत्-'ये अस्माकं शिष्यतयोपगता भवेयुस्तेभ्य एव महाकल्पश्रुत दास्यामो नान्येभ्यः' इति, तत्रान्यत्र लाभसंभवे उत्सर्गतो नोपसंपत्तव्यम्, किन्तु अन्यत्र यदि महाकल्पथ्रदायको नोपलभ्यते, एतादृश्यां परिस्थितौ उत्कृष्टाचारप्रतिपादकमहाकल्पश्रुतग्रहणाथै तस्याचार्योपाध्यायस्योदेशनमनिवार्य भवेत्ततस्तमाचार्योपाध्यायं स्वगुरुत्वेन व्यवस्थापयेत् । तमाचार्योपाध्यायं गुरुत्वेन उद्दिश्य तत्सकाशात् महाकल्पश्रुतमधीयीत, अधीते च महाकल्पश्रुते पुनः पूर्वाचार्योपाध्याययोरन्तिके समागच्छेत् किन्तु न तत्रैव स्थितिं कुर्यात् । 'स्वशिप्यत्वेनोपगतायैव महाकल्पश्रुतम् अध्यापयि तव्यम् नान्यस्मै' इत्येषा तेषां स्वेच्छाऽवगन्तव्या न तु जिनाज्ञा यत् शिष्यतयोपगतायैव उत्कृष्टाचारप्रतिपादकं महाकल्पश्रुतम् अध्यापनीयमिति । एवं दर्शनार्थ, तथा विद्यामन्त्रनिमित्तम् हेतुशास्त्रनिमित्तं वाऽन्याचार्योपाध्यायस्यात्मनोगुरुत्वेन व्यवस्थापनं भवेत् । चारित्रार्थ तु उत्कृष्टक्रियाशिक्षणनिमित्तं पूर्वोत्तारीत्यैव अन्याचार्योपाध्यायस्यात्मना गुरुत्वेन निर्धारणमवगन्तव्यमिति ।
तस्मात् एषु त्रिप्वपि ज्ञानदर्शनचारित्रेषु उपार्जनीयेषु मन्याचार्योपाध्यायं गुरुवेन व्यवस्थापयन्तः श्रमणाः पूर्वोक्तरीत्या निवेदितस्वप्रयोजनाः आचार्यादिभिर्विसर्जिता. सन्तोऽन्याचायोपाध्याययोर्गुरुत्वेन व्यवस्थापने दोषभाजो न भवेयुः । तत्र गमिष्यमाणे गच्छे यदि अवसन्नतादिकारणं न भवेत्तदा तत्रोपसंपत्तव्यं नान्ययेति फलितम् ॥ सू० २६॥
पूर्व भिक्षोर्ज्ञानाद्यर्थमन्याचार्योपाध्यायस्यात्मनो गुरुत्वेन व्यवस्थापने विधिरुक्तः, सम्प्रति गणावच्छेदकस्य विधिमाह-'गणावच्छेयए य' इत्यादि।
सूत्रम्-गणावच्छेयए य इच्छेज्जा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए नो से कप्पइ गणावच्छेयगत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से गणावच्छेयगत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवझायं उदिसावित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्ण आयरियउवज्झासं उदिसावित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्ण आयरियउवझायं उदिसावित्तए, नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से तेसिं कारणं दीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए । सू० २७॥
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ०-४ सू०२७-२९ गणावच्छेदकस्यान्याचार्योपाध्यायस्वीकरणविधिः १०९
छाया-गणावच्छेदकश्च इच्छेत् अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् नो तस्य कल्पते गणावच्छेदकत्वम् अनिक्षिप्य अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् , कल्पते तस्य गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्य अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयि. तुम्, नो तस्य कल्पते तेषां कारणं अदीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य तेषां कारणं दीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् ॥सू० २७ ॥
चूर्णी-'गणावच्छेयए य' इति । गणावच्छेदकश्च यदि इच्छेत् अभिलषेत्, किमित्याह-अन्यम् अन्यगच्छवर्तिनम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् स्वस्य गुरुत्वेन व्यवस्थापयितुं तदा तस्य नो कल्पते गणावच्छेदकत्वं स्वकीयगणावच्छेदपदवीम् अनिक्षिप्य कस्मैचिद् असमर्प्य अन्यमाचायोपाध्यायम् उद्देशयितुम् , कल्पते तस्य गणावच्छेदकत्वं स्वपदवीरूपं गणावच्छेदकत्वप्रयुक्तकार्यभार निक्षिप्य स्वसधे कस्मैचित् समर्प्य अन्यमाचार्योपाध्यायमुद्देशयितुं कल्पते इति पर्वेण सम्बन्धः । शेषम् सर्व सूत्रं भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् । एवं च गणावच्छेदकस्य गणविभागकारकत्वेन ज्ञानादिनिमित्तमन्यगणगमनादिकर्तुस्तस्य स्वगणनिक्षेपणं सविग्नाचार्येषु कर्त्तव्यं युज्यते, यदि तु सविग्नाचार्या विषीदन्तो भवेयुस्तदा स्वगणं गृहीत्वा गच्छान्तरगमनादिकं कुर्यात, न तु तेषां विषीदतां सविग्नाचार्याणामन्तिके स्वगणं निक्षिपेत्, अन्यथा--गणस्य तेष निक्षेपणे चारित्रस्खलनादिकं भवेदिति विवेकः ।। सू० २७॥
पूर्व गणावच्छेदकस्य ज्ञानादिवृद्धयर्थं गच्छान्तरस्थमाचार्योपाध्यायमात्मन आचार्योपाध्या. यत्वेन व्यवस्थापनविधिः प्रदर्शितः, सम्प्रति आचार्योपाध्ययस्य तद्विधिं प्रदर्शयति-'आयरियडवज्झाए य' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरिय-उवज्झाए य इच्छिज्जा अन्न आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए नो से कप्पड आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसाक्तिए. कप्पइ से आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णंआयरियउवज्झायं उदिसावित्त जो से कप्पड अणापूच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगंवा अण्णं आयरियउवज्झायं उहिसावित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्या आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कप्प तेसि कारणं अदीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पइ से तेसिं कारणं दीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए ॥ सू०२८॥
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
maAAAAAAM
११०
बृहत्कल्पसूत्रे छाया-आचार्योपाध्यायश्च इच्छेत् अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् नो तस्य कल्पते आचार्योपाध्यायन्वम् अनिक्षिप्य अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य आचार्योपाध्यायत्वं निक्षिण्य अन्यम् आचायोपाध्यायम् उद्देशयितुम्, नो तस्य कल्पते अनपृच्छय आचार्य वा यादत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तत्त्व आपृच्छ्य आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यम् आचायोपाध्यायम् उद्देशयितुम् । तेच तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्यम् आचायोपाध्यायम् उद्देशयितुम्, ते च तस्य नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, नो तस्य कल्पते तेषां कारणम् अदीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम्, कल्पते तस्य तेषां कारणं दीपयित्वा अन्यम् आचार्योपाध्यायम् उद्देशयितुम् ।। सू० २८॥
चूर्णी-'आयरियउवज्झाए य' इति । इदं सर्व सूत्रम् गणावच्छेदकपदत्थाने आचायोपाध्यायपदं संनिवेश्य गणावच्छेदकसूत्रवदेव व्याख्येयम् ।। सू० २८ ।।
पूर्वमन्याचार्योपाध्योदेशनविधिरुक्तः, सम्प्रति कालगतभिक्षोः परिष्ठापनविधिमाह'भिक्खू य राओ वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य राओ वा वियाले वा आइच वीमुंभिज्जा, तं च सरीरगं केइ वियावच्चकरे भिक्खू इच्छिज्जा एगते बहुफासुए थंडिले परिहवित्तए, अत्थि य इत्थ केइ सागारियलतिए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे कप्पई से सागारियकर्ड गहाय तं सरीरंग एगंते वहुफासुए थंडिले परिहवित्ता तत्थेव उवनिक्खियव्चे सिया।मु०२९॥
छाया - भिक्षुश्च रात्रौ वा विकाले वा आहत्य विष्वग्भवेत् तच्च शरीरकं कश्चिद् वैयावृत्त्य करो भिक्षुः इच्छेत् एकान्ते वहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठायितुम्, अस्ति चात्र किञ्चित् सागारिकसत्कम् उपकरणजातम् अचित्तम् परिहरणाहम्, कल्पते तस्य सागारिककृतं गृहीत्वा तत् शरोरकम् एकान्ते वहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठाप्य तत्रैव उपनिक्षेप्तव्यं भवेत् ।। सू० २९॥
चूर्णी-'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च सामान्यश्रमणः, चकाराद् आचार्योपाध्यायादिश्च रात्रौ वा सन्ध्याकालातिरिक्तरजन्याम् विकाले वा संध्यासमये सायंकाले आहत्य-कदाचित 'वीमंभिज्जा' इति विश्वग्भवेत् शरीराद् आत्मा पृथग् भवेत् कालधर्म प्राप्नुयात् म्रियेतेत्यर्थः तच्च शरीरकं मृतदेहं कश्चित् समीपस्थो वैयावृत्त्यकरः तस्य सेवाशुश्रूषावर्ती भिक्षु. इच्छेत्-वाञ्छेत् , किमित्याह-तं मृतदेहम् एकान्ते निर्जने बहुप्रासुके अवश्यायोतिङ्ग-पनक-दक-मृत्तिका-मर्कटसन्तानवर्जिते-तत्र-अवश्याय. - मेघमन्तरेण रात्रों पतितः सूक्ष्मतुषाररूपः (ओस) इति भाषाप्रसिद्धः । उतिङ्गाः-भूमौ वर्तुलविवरकारिणो गर्दभमुखाकृतयः कीटविशेषाः कीटिकानगरादयो वा। पनकःअङ्कुरितोऽनङ्कुरितो वा पञ्चवर्णानन्तकायविशेष: जलसम्बन्धेन जायमानः पिच्छिलाकारः-(काई) इति लोकप्रसिद्धः । दकम्-उदकमप्काय., मृत्तिका-सचित्तपृथ्वीकायः, मर्कटकसन्तान:-लूता
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
~
चूर्णिभाष्यावचूरी उ०४ स० ३०. अधिकरणानुपशमेभिक्षाग्रहणादिनिषेधः .१११ जालम् , एतैर्वर्जिते अचित्ते स्थण्डिले भूप्रदेशे परिष्ठापयितुम् इच्छेदिति पूर्वेण सम्बन्धः, तदा अस्ति च अत्र अस्मिन् निवासस्थाने किश्चित् किमपि सागारिकसत्कम् गृहस्थसम्बन्धि अचित्तम् उपकरणजातं वहनकाष्ठं तदपि परिहरणार्ह-परिभोगयोग्यं मृतदेहवहनसाधनरूपं भवेत्तदा कल्पते तस्य भिक्षोः सागारिककृतं 'सागारिसस्कमेवेदं काष्टं नास्मत्सत्कम्' इत्येवं बुद्धया प्रातिहारिकं तत् काष्ठं गृहीत्वा तत् शरीरकं भिक्षोर्मृतदेहम् एकान्ते विजने बहुप्रासुके पूर्वोक्तस्वरूपे एकेन्द्रियदोन्द्रियादिजीवरहिते स्थण्डिले भूप्रदेशे परिष्ठाप्य विसृज्य तत् बहनकाष्ठं तत्रैव यस्मात् स्थानात् येन प्रकारेण ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्रूपेण गृहीतं भवेत् तस्मिन् स्थाने तेनैव रूपेण स्थापयितव्यं भवेत् यत्रतो यथा गृहीत तत्र तथैव स्थापयेदिति भावः ॥ सू० २९॥
पूर्व कालधर्मप्राप्तस्य भिक्षोः परिष्ठापनविधिरुक्तः, सम्प्रति-कालघर्मश्च प्राणिमात्रस्यावश्यम्भावीति विचार्य मुनिना परलोकाहितकरमधिकरणं केनाऽपि सह न विधातव्यमित्यधिकरणसूत्रमाह-'भिक्खू य अहिंगरणं कटु' इत्यादि ।
सूत्रम् -भिक्खू य अहिगरणं कटु तं अहिगरणं अविओसवित्ता नो से कप्पड़ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, वहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, गामाणुगामं वा दूइज्जित्तए, गणाओ गणं संकमित्तए, वासावासं वा वथए, जत्थेव अप्पणो आयरियं उवज्झायं पासेज्जा, बहुस्सुयं वभागमं तस्संतिए आलोइज्जा पडिक्कमिज्जा निदिज्जा गरहिज्जा विउट्टेज्जा विसोहेज्जा अकरणाए अभुट्ठिज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्त पडिवज्जेज्जा, से य सुएण पट्टविए आइयव्वे सिया, से य सुएण नो पट्टविए नो आइयचे सिया, से य सुएण पट्टविज्जमाणं नो आइयइ से निज्जूहियव्वे सिया ॥ सू०३० ॥
छाया---भिक्षश्च अधिकरणं कृत्वा तद् अधिकरणम् अव्यवशमय्य नो तस्य कल्पते गाथापतिकुलं भक्ताय वा पानाय वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुवा, वर्हिर्विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, ग्रामानुग्राम द्रोतुम् , गणाद् गणं संक्रमितुम्, वर्षावासं वस्तुम्, यत्रैव आत्मन आचार्य वा उपाध्यायं वा पश्येत् वहुश्रुतं बबागमं तस्यान्तिके आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निन्द्यात् गर्हेत व्यावर्तेत विशोधयेत् अकरणतया अभ्यत्तिष्टेत यथार्ह तपःकर्म प्रायश्चित्त प्रतिपद्येत, तच्च श्रुतेन प्रस्थापितम् आदातव्यं स्यात तच्च श्रुतेन नो प्रस्थापित नो आदातव्य स्यात् , स च श्रुतेन प्रस्थाप्यमानं नो ददाति स हितव्यः स्यात् ॥ सू० ३०॥
चर्णी- 'भिक्ख य अहिगरणं कटु' इति । भिक्षुश्च साधुः चकाराद् उपाध्यायादिश्च अधिकरणं कलहं कृत्वा तत्-केनापि कारणेन यत् सजातं तद् अधिकरणं-कलहम् अव्यवशमय्यउपशान्तमकृत्वा परस्परमक्षामयित्वा नो-नैव तस्य कल्पते गाथापतिकुलं-गृहस्थगृह भक्ताय वा
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
वृहत्कल्पसूत्रे
"
अशननिमित्तं पानाय वा पानीयनिमित्तं भक्तपानार्थमित्यर्थः निष्क्रमितुं निर्गन्तुम् उपाश्रयाद् वहिनिस्तु वा गृहस्थगृहान्तः प्रवेशं कर्तु नो कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । एवम् बहिः उपाश्रयाद् बहिः प्रदेशे विचारभूमिं संज्ञाभूमिं वा विहारभूमि - स्वाध्यायभूमिं वा निष्क्रमितुम् उपाश्रयाद् वहिः संज्ञार्थं गन्तुम्, प्रवेष्टुं वा उपाश्रयान्तः प्रवेशं कर्तुम्, तथा ग्रामानुग्रामं होतुं विहर्त्तुम्, एवं गणात् स्वगच्छात् गणम् अन्यं गच्छं संक्रमितुं संक्रमणं कर्तुं नो कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । तथा वर्षावासं चातुर्मासार्थं वस्तुं नो कल्पते । तर्हि किं कर्त्तव्यमित्याह-' जत्थेव ' इत्यादि यत्रैव यस्मिन् स्थाने आत्मनः स्वस्य आचार्यम् उपाध्यायम् कीदृशमित्याह - बहुश्रुतं - छेदशास्त्रनिपुणम्, बह्नागमम् अर्थतोऽनेकागमाभिज्ञ पश्येत् तस्य अन्तिके समीपे आलोचयेत् स्वापरार्धं वचसा प्रकाशयेत् प्रतिक्रामेत्, स्वापराधविषये मिथ्यादुष्कृतं दद्यात्, निन्द्यात्, आत्मसाक्षिकता स्वापराधस्य निन्दां कुर्यात्, गर्हेत गुरुसाक्षिकतया जुगुप्सेत् । निन्दनं गर्हणं च वास्तविकं तदा भवेद् यदा तस्य पुनः करणतो निवर्त्तेत, भत आह - 'विउट्टेज्जा' इति व्यावर्त्तेत तादृशापराधान्निवृत्तो भवेत् । निवृत्तावपि कृतपापात्तदा मुच्येत यदा आत्मनो विशोधिर्भवेत् अत आह- 'विसोहिज्जा' इति विशोधयेत् आत्मानं पापमलप्रक्षालनेन निर्मलं कुर्यात् । विशुद्धिश्च पुनरकरणतया संभवति अऩ आह-‘अकरणयाए अब्भुट्टेज्जा' इति, अकरणतया पुनरकरणप्रतिज्ञया अभ्युत्तिष्ठेत् अभ्युत्थितो भवेत् समुद्यतः स्यात्, पुनरकरणतया अभ्युत्थानेऽपि विशुद्धिस्तु प्रायश्चित्ताभ्युपगमेनैव भवतीत्यतः आह- 'अहारिहं' इति यथार्हं यथायोग्यम् अपराधानुसारं तपःकर्म अनशनादिरूपं प्रायश्चित्तंछेदादिक प्रतिपद्यते - स्वीकुर्यात् । ' से य' इति तदपि च प्रायश्चित्तं श्रतेन श्रुतमधिकृत्य श्रुतानुसारेण यदि प्रस्थापितं समारोपितं दत्तं भवेत्तदा आदातव्यं ग्रहीतव्यं स्यात ग्राह्यं भवेदित्यर्थः, 'से य' तच्च यदि श्रुतेन श्रुतानुसारेण नो प्रस्थापितं न दत्तं भवेत्तदा नो आदातव्यं स्यात् ग्राह्यं न भवेत् । 'से य' इति -अथ च स आलोचको यदि श्रुतेन श्रुतानुसारेण प्रस्थाप्यमानं दीयमानमपि तत् तपःकर्म प्रायश्चितं नो आददाति-न स्वीकरोति न प्रतिपद्यते तदा स आलोचकः साधुः निर्यूहितव्यः 'अन्यत्र गत्वा शोधि कुरुष्व' इति कथयित्वा स प्रतिषेधनीयः स्वसमीपात् पृथक् करणीयः स्यात् भवेदिति ॥ सू० ३० ॥
पूर्वमधिकरणकर्त्तः प्रायश्चित्तप्रकारः प्रदर्शितः, तच्च प्रायश्चितं समर्थस्य प्रथमसंहननादि गुणयुक्तस्य परिहारतपोरूपमेव प्रायश्चित्तं दातव्यं, न तु शुद्धतपोरूपमिति परिहारतपोवहमानस्य का मर्यादा ? का च सामाचारी ? इति जिज्ञासायां परिहारतपोवाहकस्य विधिमाह - ' परिहार - कप्पट्ठियस्स णं' इत्यादि ।
सूत्रम् - परिहारकप्पट्ठियस्स णं भिक्खुस्स कप्पर आयरिय - उवज्झाएणं तदिवसं एगगिहंसि पिंडवायं दवावित्तए, तेण परं णो से कप्पर असणं वा पाणं वा
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ०-४ सु० ३१
परिहारकल्पस्थितस्य वैयावृत्त्यविधिः ११३
खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाडं वा, कप्पर से अन्नयर वेयावडियं करित्तए, तं जहा - उट्टावणं वा निसीयावणं वा तुयट्टावणं वा उच्चार- पासवण - खेल - सिंघाणविर्गिचणं वा विसोहणं वा करित्तए, अह पुण एवं जाणिज्जा - छिन्नावासु पंथेसु आउरे झिंझिए पिवासिए तवस्सी दुम्बले किलंते मुच्छिज्ज वा पवडिज्ज वा, एवं से कप्पड़ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउँ वा अणुप्पदाउँ वा ॥ सू० ३१ ॥
छाया - परिहारकल्पस्थितस्य खलु भिक्षोः कल्पते आचार्योपाध्यायेन तद्दिवसम् एकगृहे पिण्डपातं दापयितुम्, तेन परं नो तस्य कल्पते अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा दातु वा अनुप्रदातु वा, कल्पते तस्य अन्यतरद् वैयावृत्त्यं कर्तुम्, तद्यथा - उत्थापन वा निषादन वा त्वग्वर्त्तनं वा उच्चार-प्रस्रवण - खेल - सिङ्घाण - विवेचनं वा विशोधनं वा कर्तुम्, अथ पुनरेवं जानीयात् - छिन्नापातेषु पथिपु आतुरो झिञ्झितः पिपासितः तपस्वी दुर्वलः क्लान्तो मूछेद् वा प्रपतेद् वा, एवं तस्य कल्पते अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा दातुं वा अनुप्रदातुं वा । सू० ३१ ॥
चूर्णी - 'परिहारकप्पट्ठिस्स णं' इति । परिहारकल्पस्थितस्य परिहारतपणे वहतः खलु भिक्षोः कल्पते आचार्योपाध्यायेन आचार्येण उपाध्यायेन च तद्द्विसम् यस्मिन् दिवसे तपो गृहीतं तस्मिन् दिवसे तपसः प्रारम्भदिवसे इत्यर्थः एकगृहे एकस्मिन् गृहस्थगृहे पिण्डपातं -विपुलभक्तपानादिलाभं दापयितुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः तेन परं ततः परं तदिवसानन्तरं नो कल्पते तस्य भिक्षोः परिहारकल्पस्थितस्य श्रमणस्य अशनं वा पानं वा खाधं वा स्वाद्यं वा दातुं वा एकवारं दापयितुम् अनुप्रदातुं वा वारं वारं दापयितुम् । अथ कल्पते तस्य भिक्षोः परिहारकल्पस्थितस्य अन्यतरत्–एकतरद् वैयावृत्त्यं परिचर्यारूप ( सेवारूप ) कर्त्तुं विधातुमाचार्योपाध्याययोः कल्पते, परिहारकल्पस्थितस्य साधोरेव तस्मिन्काले सेवा - ssचार्योपाध्यायाभ्यां कर्त्तव्येति भावः । तदेवाह - 'तंजहा' इति तद्यथा - उत्थापनम् उत्थातुमशक्तस्य उत्थापन वा निषादनं वा उपवेष्टुमशक्तस्योपवेशनम्, त्वग्वर्त्तनं पार्श्वपरिवर्त्तनम्, पुनश्च उच्चार - प्रस्रवण - खेल - सिङ्घाण - विवेचनम्, तत्र उच्चारः मलत्यागः, प्रस्रवणं मूत्रम्, खेलं - श्लेष्म, सिङ्घाणं - नासिकामलम्, तत्प्रभृतीनां विवेचनंपरिष्ठापनं विशोधनम् – उच्चारादिदूषितस्य वस्त्राद्युपकरणजातस्य शरीरस्य वा प्रक्षालनादिकं कर्त्तुमाचार्योपाध्याययोः कल्पते । अथ यदि पुनस्तावद् एवं जानीयात् यत् - छिन्नापातेषु गमनागमनरहितेषु पथिषु मार्गेषु आतुरः ग्लानः संजातः, झिञ्झितः क्षुधार्त्तः बुभुक्षया पीडितः, पिपासितः तृषितः पिपासया बाधित, एतादृश सन् विवक्षित ग्रामं प्राप्तुमशक्तः, यद्वा ग्रामादावपि तिष्ठन् स तपस्वी षष्ठाष्टमादिपरिहारतपः कुर्वन् दुर्बलः क्षीणशरीरो जातस्ततश्च भिक्षाचर्यया क्लान्तः - खिन्नः सन् मूर्च्छद् वा मूर्च्छामाप्नुयात् तेन प्रपतेद् वा भूमौ प्रस्खद् वा, एवम् - एतादृश्यामवस्थायां च
१५
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे
कल्पते तस्य भिक्षोनिमित्तमाचार्योपाध्यायस्य अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाचं वा-दातुं वा एकवारं वितरीतुम् , अनुप्रदातुं वा पुनः पुनर्वितरीतुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ सू० ३१ ॥
ननु स श्रमणः 'प्रमादो न कर्त्तव्यः' इति भगवदुपदेशेन संयममागे विचरन्नपि कथं परिहारकत्वं प्राप्तः । इत्यत्राह भाप्यकार:-'जह' इत्यादि । भाष्यम् - जह कंटगाइकिण्णे, खलणं तह संजमे जयंतस्स ।
छलणालोयणमवसं, ठवणं जुत्ते य वोसग्गो ॥३॥ छाया-यथा कण्टकाकीणे स्खलनं तथा संयमे यतमानस्य ।
छलनाऽऽलोचनमवश्यं स्थापनं युक्ते च व्युत्सर्गः ॥३॥ अवचूरी-'जह कंटगाइकिण्णे' इति । यथा कण्टकायाकीर्णे मार्गे गच्छत उपयुक्तस्यापि कण्टको लगति, मादिशब्दात् विषमे वा पथि यथा गच्छन्नुपयुक्तोऽपि कदाचित् प्रस्खलति कृतपरिश्रमोऽपि यथा नदीप्रवाहवेगेन देशान्तरं प्राप्यते, सुशिक्षितोऽपि यथा कदाचित् खड्गेन लाञ्छितो भवति तथा कण्टकादिस्थानीये संयमेऽतिगहनोत्पादनैषणारूपे ज्ञानादिरूपे वा यत. मानस्यापि कस्यचित् श्रमणस्य 'अवसं' अवशम् अवश्यं वा यथास्यात्तथा छलना भवत्येव, छलितश्च श्रमणोऽवश्यमालोचनां कुर्यात् । ततश्च संहननागमादिगुणैर्युक्ताय श्रमणाय स्थापनं परिहारतपःप्रायश्चित्तदानं कर्तव्यम्, तत्र च युक्ते उचिते प्रशस्ते द्रव्यक्षेत्रकालभावे तस्य श्रमणस्य निर्विघ्नतप.कर्मपरिपूर्तये व्युत्सर्गः कर्त्तव्यः, तन्निमित्तमाचार्यादयः कायोत्सर्ग कुर्युः, कायोत्सर्गे माचार्यादय एव वदेयु:-“एयस्स साहुस्स निरुवसग्गनिमित्तं ठामि काउस्सगं जावचोसिरामि” इति । एतस्य साधोनिरुपसर्गनिमित्तं तिष्ठामि (करोमि) कायोत्सर्ग यावत् व्युत्सृजामि, इति च्छाया, तदनन्तरं चतुर्विंशतिस्तवमनुप्रेक्ष्य मनसि चतुर्वारमनुचिन्त्य-'नमो अरिहंताणं' इति प्रकटं पठित्वा चतुर्विंशतिस्तवं मुखेनोच्चार्य वदति यत्-अयं तावत् श्रमण आत्मठिशुद्धिकारकः परिहारतपः प्रतिपद्यते तस्माद् अधप्रभृति अयं न किञ्चिद् युष्मान् वक्ष्यति यथा-परिहारकः साधुभिः सह सूत्रार्थयोः शरीरवृत्तान्तस्य वा प्रतिप्रच्छनं परिपृच्छादिकं संभाषणरूपमालपनं वन्दनकं च न करिष्यतीति, भवन्तोऽपि एनं मा ब्रुवन्तु, श्रमणा अनेन परिहारकेण सह संभाषणं न कुर्युः । एवमन्येष्वपि कार्येषु विज्ञेयम् , यथा-पूर्वाधीतश्रुतपरिवर्तन, कालग्रहणनिमित्तमुत्थापनम् , रात्रौ शयनादुत्याय वन्दनकम् , श्लेप्म-कायिकी-संज्ञाभूमि--मात्रकाणां समर्पणं, वस्त्रादेरुपकरणस्य प्रत्युपेक्षणम् , भिक्षार्थ विचारादौ च गमनं कुर्वतः संघाटकरूपसाधुद्वयेन सह मिलनम् , भक्तस्य पानस्य वा दानम् , एकमण्डल्यां वा संभूय भोजनं चेत्यादि तस्य परिहारकस्य भवद्भिर्न कर्त्तव्यम् । इत्थं तावदात्मार्थ चिन्तयतोऽस्य ध्यानस्य परिहारतपसश्च व्याघातो भवद्भिर्न विधातव्य इति ॥ ३॥
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ०-४ सू० ३२-३३ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां नद्युत्तरणविधिः ११५
पूर्व 'छिन्नावाएसु पंथेसु' इति वचनेन मार्गस्य प्रस्तुतत्वात् सम्प्रति मार्गे नदी भवति तद्विषये विधि प्रदशयति-'नो कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाओ पंच महानईओ उदिवाओ गणियाओ वंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरितए वा, तंजहा-गंगा १, जउणा २, सरऊ ३, कोसिया ४, मही ५ ॥ सू०.३२ ॥
छाया_नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमाः पञ्च महानद्यः उद्दिष्टाः गणिताः व्यञ्जिताः अन्तो मासस्य द्विःकृत्वो वा त्रिकृत्वो वा उत्तरीतुं वा संतरीतुं वा, तद्यथा-गङ्गा १, यमुना २, सरयूः ३, कोशिका ५, मही ५॥ सू० ३२॥
चूर्णी-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमा वक्ष्यमाणाः प्रत्यक्षासन्नाः प्रसिद्धाः पञ्च-पञ्चसख्यकाः महानद्यः विशालप्रवाहवत्त्वात् सततजलसम्भृतत्वाच्च महानद्यः उद्दिष्टाः महानदीत्वेन सामान्यतोऽभिहिताः, गणिताः विशालप्रवाहवत्त्वेन शेषनदीषु गणनाविषयीभूताः, व्यञ्जिताः स्वस्वप्रसिद्धनाम्ना व्यक्तीभूताः, एता महानद्यः अन्तो मासस्य एकमासस्य मध्ये द्विःकृत्वो वा द्विवारम् , त्रिःकृत्वो वा उत्कृष्टेन वारत्रयम् उत्तरीतं वा पादाभ्यां तरीत्वा पारं गन्तुं वा संतरीतुं वा नावादिना पारं गन्तुं वा न कल्पते निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनामिति । कास्ता महानद्यः ? इति तासां नामान्याह-'तं जहा' तद्यय॑थागङ्गा १, यमुना २, सरयूः ३, कोशिका ४, मही ५ इत्येताः पञ्च नदीः उत्तरीतं वा संतरीतुं वा निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां द्वित्रिवार न कल्पते, अनेनायातम् कारणे मासमध्ये एकवारं तरीतुं कल्पते इति भावः । उपलक्षणात् सिन्धुब्रह्मपुत्राद्यानामन्यासामपि महानदीनां ग्रहणं भवति तेन ता अपि द्वित्रिवारम् उत्तरीतुं वा संतरीतुं वा न कल्पते इत्यवसेयम् । ननु अन्यास्वपि महानदीषु विद्यमानासु सूत्रे गङ्गादीनां पञ्चानामेव नदीनां नामग्रहणं कथं कृतम् ? इति चेदुच्यते-येषु देशेषु गङ्गादयो महानद्यः प्रवहन्ति तेषु देशेषु मगधविहारादिषु पुराकाले विहारं कुर्वन्त आसन् ताश्च कदाचिदपि न शुष्यन्ति तस्माद् नित्य विहारमार्गस्थितानां गङ्गादिपञ्चनदीनामेव सूत्रे ग्रहणं कृतमिति । नदीनामुत्तरणे संतरणे श्रमणानामात्मसंयमविराधनाऽवश्यम्भाविनी। तत्र आत्मविराधना पादादिनामुत्तरणे जलस्थितकण्टकप्रस्तरादिना पादौ विध्यतः, अगाधजले ब्रुडनं वा स्यात् , प्रवाहवेगेन देशान्तरं वा प्राप्यते, इत्यादि । संयमविराधना नावादिना संतरणे षट्कायविराधनाऽवश्यंभाविनी, तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गादयो दोषा भवेयुः, अनेके वा प्रत्यपाया नावमारूढानां श्रमणानां भवन्ति, तथाहि-संतरणार्थिन श्रमण ज्ञात्वा नाविकोऽनुकम्पया तदर्थं नावं स्थलादुदके, उदकात्तीरस्थले प्रक्षिपेत् , नावाभ्यन्तरस्थं जलं बहिः प्रक्षिपेत , पूर्व वा ये नावमारूढास्तान् उदके पूर्वतटे वा अवतार्य श्रमणान् नाव
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कल्पस्त्रे मारोहयेत् तेनावतारिता जनाः प्रदेपं कुर्युः, श्रमणा उत्तरिष्यन्तीति कृत्वा संप्रस्थितां नावं पुनरावर्तयेत् , श्रमणान् वाऽवलोक्य परतटाद् नावमानयेत् , तत्र ये जनास्तावद् नावमारूढा अपि जलमध्ये पूर्वतटे वा अवतारितास्ते नाविकं प्रति श्रमणान् प्रति वा प्रदेषमावहन्तोऽधिकरणं वा कुर्युः, जले तटे वा तिष्ठन्तस्ते अप्कायहरितकायादीनां विराधनां कुर्वन्ति, इत्यादयोऽनेके दोषाः श्रमणानां संपद्यन्ते, तस्माद् भगवता कारणं विना नद्युत्तरणं श्रमणानां निषिद्धमिति ॥ सू० ३२ ॥
पूर्वसूत्रे गङ्गादिपञ्चनदीनां मासमध्ये द्वित्रिवारं सन्तरणं निषिद्धम् , सम्प्रति नदीविशेषोत्तरणेऽपवादसूत्रमाह-'अह पुण' इत्यादि । ।
सूत्रम् - अह पुण एवं जाणिज्जा एरवई कुणालाए जत्य चक्किया एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा एवं से कप्पइ अंतो मासस्स दुक्खत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा, एवं नो चक्किया एवं शं नो कप्पई अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा विक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा ॥ सू० ३३ ॥
छाया--अथ पुनरेवं जानीयात् -ऐरावती कुणालायाः यत्र शक्नुयात् एकं पादं जले कृत्वा एक पादं स्थले कृत्वा एवं खलु कल्पते अन्तो मासस्य द्वि-कृत्वो वा विकृत्वो वा उत्तरीतुं वा संतरीतुं वा, एवं नो शक्नुयात् एवं खलु नो कल्पते अन्तो मासस्य द्वित्कृत्वो वा विकृत्वो वा उत्तरीतुं वा संतरीतुं वा ॥ सू० ३३॥
चूर्णी-'अह पुण' इति । अथ-यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात् ऐरावती नाम नदी या कुणालाया नगर्याः समीपे जहाईप्रमाणेन उद्वेधेन प्रवहति तस्याम् एतादृश्यामन्यस्यां वा नद्याम् कस्यामित्याह-'जत्थ' इति यत्र 'चक्किया' इति शक्नुयात् एकं पादं जले कृत्वा जले स्थापयित्वा एकं पादं स्थले-जलोपरि कृत्वा एवं णं-एवं खलु यत्रोत्तरीतुं शक्नुयात तत्र तादृश्यां नद्यां कल्पते निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां अन्तो मासस्य मासमध्ये द्विः कृत्वो वा द्विवारम् त्रिःकृत्वो वा त्रिवारम् उत्तरीतुं वा उल्लवयितुं पारं गन्तुमित्यर्थः, संतरीतुं वा पुनः प्रत्यागन्तुं वा कल्पते इति सम्बन्धः, किन्तु यत्र तावद् एवम् उक्तरीत्या एकं पादं जले कृत्वा एक पादं स्थले कृत्वा उत्तरीतुं 'नो चक्किया' इति नो शक्नुयात् एवम् एतादृश्यां परिस्थितौ पूर्वोक्तरीत्या उत्तरणानुपाये खल नो कल्पते श्रमणश्रमणीनाम् अन्तो मासस्य मासाभ्यन्तरे दिःकृत्वो वा त्रि.कृत्वो वा उत्तरीतुं वा संतरोतुं वेति । अत्रेदें बोध्यम्- ऐरावती खलु सा नदी या कुणालानगर्याः समीपेऽर्द्धयोजनवित्तीर्णा वहति, सा चोधेिन जड्वार्द्धप्रमाणा वहति, तस्यां जलस्थलयोः पादकरणेन उत्तरीतुं शक्यते, स्थलपदेनात्र जलोपरिभागस्य ग्रहणं भवति यस्मात् एकं पादं जलबहिर्भागे उपरि आकाशप्रदेशे कत्तुं शक्यते इति, या वा इदृशी अन्यापि नदी भवेत्तस्यामप्येवंरीत्या उत्तरीतुं कल्पते । यत् पूर्वोक्तासु महानदीपु उद्वेषाधिक्येन एवं विधिना उत्तरीतुं
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ० ४ सू० ३४-३६ तृणादिमयोपाश्रयनिवासविधिः ११७ न शक्यतेऽतस्तत्रोत्तरोतुं निषिद्धम् । तत्र ऋतुबद्धे काले मासकल्पे अपूर्णे वैयावृत्त्यादिकारणे सति यतनया मासमध्ये द्वित्रिकृत्वो गन्तुमागन्तुं कल्पते किन्तु स पूर्वोक्त उदकलेपो वर्षमध्ये नववारं न भवेदिति विवेकः कर्त्तव्यः यतो वर्षमध्ये नववारोदकलेपकरणेन निर्ग्रन्थः शवलदोषमाग् भवतीति बोध्यम् ।। सू० ३३ ॥
पूर्व श्रमणानामध्वनि विधिः प्रतिपादितः, सम्प्रति वसतिविषयविधि प्रतिपादयितु. माह-'से तणेसु वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से तणेसु वा तणपुजेसु वा पलालेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पडेस अप्यपाणेसु अप्पवीएस अप्पहरिएमु अप्पुस्सेस अप्पुत्तिंग-पणग-दगमट्टिय-मक्कडगसंताणगेसु अहे सवणमायाए नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतगिम्हास वत्थए ॥ सू० ३४ ॥
छाया-अथ तृणेषु वा तृणपुजेषु वा पलालेषु वा पलालपुजेषु वा अल्पाण्डेषु अल्पप्राणेषु अल्पवीजेसु अल्पहरितेषु अल्पावश्यायेषु अल्पोत्तिङ्ग-पनक-दकमृत्तिका-मर्कटसन्तानकेषु अधः श्रवणमात्रया नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तथाप्रकारे उपाश्रये हेमन्तप्रीमेपु वस्तुम् ॥ सू० ३४ ॥
चूर्णी-'से तणेसु वा' इति । 'से' इति अथ-तृणेषु वा शुष्कघासादिषु, तृणपुञ्जेषु वा शुष्कघासादिसमुदायेषु, पलालेषु वा-शाल्यादिपलालेषु, पलालपुञ्जेषु वा शाल्यादिपलालसमूहेष, कीदृशेषु तेषु १ इत्याह-अल्पाण्डेषु अल्पशब्दस्यात्राभावार्थकतया पिपीलिकादीनामण्डकादिरहितेषु, अल्पप्राणेषु-द्वीन्द्रियादिप्राणिवर्जितेषु, अल्पबीजेषु-अनङ्कुरितशाल्यादिबीजरहितेषु, अल्पहरितेषु-अङ्कुरितोद्भिन्नबीजरूपहरितकायवर्जितेषु, अल्पावश्यायेषु-अवश्यायो हिमकणस्तदहितेषु, अल्पोत्तिङ्ग-पनक-दकमृत्तिका-मर्कटसन्तानकेषु, तत्र उत्तिङ्गः-कीटिकानगरम् , पनक.पञ्चवर्णः साङ्करोऽनङ्कुरो वाऽनन्तवनस्पतिकायविशेषलक्षण:-'लीलण-फूलण' इति भाषाप्रसिद्धः दकमृत्तिका-सचित्तो मिश्रो वा कर्दमः, मर्कटः कोलिकलक्षण. 'मकडी' इति भाषाप्रसिद्धः, तेषां सन्तानकम् जालकम् तद्रहितेषु अपि तृणादिषु इति पूर्वेण सम्बन्धः, अधः श्रवणमात्रया सूत्रे आर्षत्त्वात्पञ्चम्यर्थे तृतीया तेन श्रवणमात्रात् कर्णद्वयप्रमाणादधस्ताद् वर्तमानेषु तृणादिषु सत्सु कर्णप्रमाणादधो यत्र छादनतृणादीनि भवन्तीत्यर्थः, तथाप्रकारे तथाविधे उपाश्रये नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेषु-हेमन्तादिग्रीष्मपर्यन्तेषु ऋतुबद्धेषु अष्टसु मासेषु वस्तुम् अवस्थातुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः, तथा च मण्ड-प्राण-बीज-हस्तिकाया-वश्यायोत्तिङ्गादिसचित्तवस्तुवर्जितत्वात् शुद्धेऽपि उपाश्रये यदि मस्तकादधस्तात् आच्छादनतृणादीनि भवेयुस्तदा तस्मिन्नुपाश्रये ऋतुबद्धकालेषु निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वस्तुं न कल्पते इति भावः ॥ स० ३४॥
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८
हत्कल्पसूत्रे
पूर्व श्रवणादधच्छादनतृणादियुक्ते उपाश्रये निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां वासो निषिद्धः, सम्प्रति तद्वैपरीत्येन श्रवणापरिच्छादनतृणादियुक्ते उपाश्रये वासविधि प्रतिपादयितुमाह-'से तणेसु वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से तणेसु वा जाव-संताणएमु उप्पि सवणमायाए कप्पई निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥ सू० ३५ ॥
छाया-अथ तृणेपु वा यावत् सन्तानकेपु उपरि श्रवणमात्रया कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तथाप्रकारे उपाश्रये हेमन्तग्रीमेपु वस्तुम् ॥ सू० ३५॥
चूर्णी-'से तणेसु वा' इति । 'से' अथ-तृणेपु वा इति-तृण-तृणपुञ्ज-पलालपलालपुञ्जेषु अण्ड-प्राण-बीज-हरिता-ऽवश्यायो-त्तिङ्ग-पनक-दकमृत्तिका-मर्कटसन्तानवर्जितेषु यदि 'उप्पिं सवणमायाए' उपरि श्रवणमात्रया-कर्णद्वयोपरि छादनतृणादीनि भवेयुस्तदा कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा तथाप्रकारे-तथाविधे उपाश्रये हेमन्तग्रीष्मेषु-ऋतुबद्धकालेषु हेमन्तादिग्रीष्मपर्यन्तेषु अष्टसु मासेषु वस्तुं कल्पते ॥ सू० ३५ ॥
पूर्व श्रमणानाम् ऋतुबद्धकालेषु उपाश्रयविशेषे वासस्य विधि-निषेधौ प्रतिपादितौ, सम्प्रति तेषामेव वर्षावासे उपाश्रयविशेषे विधि-निषेधौ प्रतिपादयितुं प्रथमं निषेधसूत्रमाह'से तणेसु वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से तणेसु वा जाव संताणएमु अहे रयणिमुक्कमउडेसु नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उबस्सए वासावासं वत्थए ॥ सू० ३६ ॥
छाया - अथ तृणेषु वा यावत् सन्तानकेषु अधो रत्निमुक्तमुकुटेषु नो कल्पते निम्रस्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तथाप्रकारे उपाश्रये वर्षावासे वस्तुम् ॥सू० ३६॥
चूर्णी-'से तणेसु वा' इति । पूर्वोक्तेषु तृणादिषु अण्डादिवर्जितेषु सत्स्वपि 'अहेरयणिमुक्कमउडेसु' अधोरनिमुक्तमुकुटेषु,- सूत्रे पञ्चम्यर्थे सप्तमी, तेन-अघोरनिमुक्तमुकुटात् रनिभ्या हस्ताभ्यां मुक्ताभ्याम् विष्कम्मतया उच्छ्रिताभ्यां निर्मितः मुकुटः अञ्जलिमुकुलितोच्छूितबाहुद्वयरूपः स रनिमुक्तमुकुटः, मुकुट इति कोऽर्थः ? उक्तञ्च--
“मउडो पुण दोरयणी-पमाणओ होइ हु मुणेयन्यो" मुकुटः पुनर्द्विरस्निप्रमाणकः संयोजितरनिद्वयप्रमाणवान् भवति । मस्तकोपरि संयोजितरनियस्थापनं मुकुटाकारत्वेन मुकुट इति कथितम् । तस्मात् एतावत्प्रमाणात् अधः नीचम् आच्छादनतृणादि भवति, तत्रस्थितस्य साधोर्वन्दनादिसमये ऊर्वप्रसारितबाहुद्वयमुकुलिताऽञ्जलिना आच्छादनतृणादिकं स्पृष्टं भवेत् तेन न सम्यग् वन्दनादिकं संपद्यते आछादनतृणादेर्मस्तकस्य चान्तराले एतावत्प्रमाणमन्तरमावश्यकं येन वन्दनादि सम्यक् संपद्यते, एतावत्प्रमाणादधोवा
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्णिभाष्यावचूरी उ० ४ सू० ३७
चतुर्थीदेशकसमाप्तिः ११९ छादनतृणादि भवेत् तादृशेषु तृणादिषु सत्सु नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निम्रन्थीनां तभाप्रकारे उपाश्रये वर्षावासे चातुर्मास्यरूपे काले वस्तुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ सू०३६ ॥
पूर्वम् उपाश्रयविशेषे वर्षावासे वासनिषेधः प्रतिपादितः, सम्प्रति तद्वैपरीत्येन उपाश्रयविशेषे वर्षावासे वासविधिमाह-'से तणेसु वा' इत्यादि ।।
सूत्रम्-से तणेसु वा जाव संताणएसु वा उप्पिं रयणिमुक्कमउडेसु कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं वत्थए ॥ सू० ३७॥
॥ कप्पस्स चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥४॥ छाया-अथ तृणेपु वा यावत् सन्तानकेषु उपरि रनिमुक्तमुकुटेषु कल्पते निम्रन्थानां वा निग्रंन्थीनां पा तथाप्रकारे उपाश्रये वर्षावासे वस्तुम् ॥ सू० ॥३७॥
कल्पस्य चतुर्थ उदेशः समाप्तः ॥४॥ चूर्णी-'से तणेसु वा' इति । अथ पूर्वोक्तस्वरूपेषु तृणादिषु अण्डादि वर्जितेषु सत्स पुनः 'उप्पिरयणिमुक्कमउडेसु' उपरि रस्निमुक्तमुकुटेषु, अत्रापि पञ्चम्यर्थे सप्तमी नोध्या तेन रनिमुक्तमुकुटात् पूर्वोक्तस्वरूपाद् उपरि आच्छादनतृणादि भवेत् कल्पते तथाविधे उपाश्रये निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा वर्षावासे वस्तुमिति ॥ सू० ३७ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां "बृहत्कल्पसूत्रस्य"
चूर्णि-भाण्या-ऽवचूरीरूपायां व्याख्यायां
चतुथोद्देशकः समाप्तः ॥४॥
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमोद्देशकः प्रारभ्यते
व्याख्यातश्चतुर्थोद्देशकः, सम्प्रति पञ्चमः प्रारभ्यते, तत्र चतुर्थो देशकान्तिमसूत्रेण पञ्चमो - देशकादिसूत्रेण कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह भाष्यकारः - 'तणमाइ ० ' इत्यादि ।
भाष्यम् -- तणमाइवस हिवासे, विहो निसेहो य अंतिये वृत्तो । होइ जइ तत्थ देवो, देवहियारोऽत्थ भणियन्वो ॥ १ ॥ छाया - तृणादिवसतिवासे, विधिनिषेधश्च अन्तिमे प्रोक्तः । भवति यदि तत्र देवः, देवाधिकारोऽत्र भणितव्यः ॥ १ ॥ अवचूरी - 'तणमाइ' इति । अन्तिमे चतुथोद्देशकस्यान्तिमे भागे सूत्रचतुष्टये तृणादिवसतिवासे तृणादिमयोपाश्रयवा से विधिर्निषेघश्च प्रोक्तः । तत्र तादृश्यां वसतौ यदि देवः गुह्यकादिदेवो देवी वा भवति - वसति अतः अत्र पञ्चमोदेशकस्यादिमे सूत्रचतुष्टये देवाधिकारो भणितव्यः - कथयितव्यो भवतीति ॥ १ ॥
1
अनेन सम्बन्धेन सम्प्रति तृणादिमयवसतिवासे कदाचित् - देवदेवीनिवासप्रसङ्गात् निर्ग्रन्थमधिकृत्य देवकृतोपसर्गविषयकमिदमादिमं सूत्रमाह - 'देवे य इत्थिरूवं' इत्यादि ।
सूत्रम् — देवे य इथिरूवं विउब्वित्ता निग्गंथं परिग्गाहिज्जा तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं ॥ सू० १ ॥
छाया - देवश्च स्त्रीरूपं विकुर्व्य निर्ग्रन्थ प्रतिगृहीयात्, तच्च निर्ग्रन्थः स्वादयेत् मैथुन प्रतिसेवनप्राप्त आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्धातिकम् ॥ स्० १ ॥
चूर्णी - 'देवे य' इति । तृणादिमयोपाश्रये वर्त्तमानः कश्चित् देवः - व्यन्तरादिः स्त्रीरूपं– रमणीयस्त्रीरूपं विकुर्व्य स्वस्य विकुर्वणाशक्त्या निष्पाद्य यदि निर्ग्रन्थं-तत्रस्थितं साधुं प्रतिगृह्णीयात् स्वशरीरभुजादिभिरालिङ्गेत् तच्च प्रतिग्रहणम् - स्त्र्यालिङ्गनं यदि निर्ग्रन्थः श्रमणः अनुमोदयेत् 'सुन्दरमिदं ललनालिङ्गनम्' इत्येवम् अनुमोदयेत् तदा स निर्ग्रन्थः मैथुन प्रतिसेवनप्राप्तः अनासेवितमैथुनोऽपि मैथुन सेवनदोषापन्नः सन् आपद्यते - प्राप्नोति, किमित्याह-चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकं चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् ॥ सू० १ ॥
"
पूर्वं निर्ग्रन्थमाश्रित्य स्त्रीरूपेण देवकृतोपसर्गः प्रतिप्रादितः सम्प्रति निर्ग्रन्थीमाश्रित्य पुरुषरूपेण देवकृतोपसर्गं प्रतिपादयितुमाह - 'देवे य पुरिसरूवं' इत्यादि ।
सूत्रम् — देवे य पुरिसख्वं विउव्वित्ता निग्गंथिं पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा मेहुणपडि सेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मा सियं अणुस्वाइयं ॥ ०२ ॥
छाया - देवश्च पुरुषरूपं विकुल्यं निर्ग्रन्थीं प्रतिगृहीयात्, तच्च निर्ग्रन्थी स्वादयेत् मैथुन प्रतिसेवनप्राप्ता आपद्यते चातुर्मासिकं अनुद्घातिकम् ॥ सू० २ ॥
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यायचूरी उ० ५ सू० २-५ निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां देवदेवीकृतोपसर्गवर्णनम् १२१
चूर्णी-'देवे य पुरिसरूवं' इति । देवश्च तृणादिमयोपाश्रये निवसन् कश्चिद्देवो व्यन्तरादिः पुरुषरूपं-रमणीयपुरुषाकृति विकुळ स्वविकुर्वणाशक्त्या निष्पाद्य निग्रन्थीं तत्रोपाश्रये वसन्ती साध्वी प्रतिगृह्णीयात् स्वशरीरबाह्वादिना समालिङ्गेत् तच्च प्रतिग्रहणम्- पुरुषालिङ्गनं यदि निम्रन्थी स्वादयेत्-‘सुखदोऽयं पुरुषशरीरस्पर्शः' इत्येवमनुमोदयेत् तदा सा निर्ग्रन्थी मैथुनप्रतिसेवनप्राप्ता अनासेवितमैथुनाऽपि समापन्नमैथुनसेवनदोषा सती आपद्यते-प्राप्नोति चातुर्मासिकं अनुद्घातिकम् चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तम् निम्रन्थीनां परिहारतपो न भवतीति कृत्वा 'परिहारहाण' इतिपदं निम्रन्थीसूत्रे न प्रोक्तमिति ।। सू० २ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थीमाश्रित्य पुरुषरूपेण देवकृतोपसर्गों वर्णितः, सम्प्रति निम्रन्थमाश्रित्य स्त्रीरूपेण देवीकृतोपसर्ग प्रतिपादयितुमाह-'देवी य इत्थिरूवं' इत्यादि ।
सूत्रम्-देवी य इत्थित्वं विउन्वित्ता निग्गंथं पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥ सू० ॥३॥
छाया-देवी च स्त्रीरूपं विकुळ निर्ग्रन्थं प्रतिगृह्णीयात् , तच्च निर्ग्रन्थः स्वादयेत् , मैथुनप्रतिसेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥सू० ३॥
चूर्णी-'देवी य इत्थिरूवं' इति । देवी च स्त्रीरूपं-ललितस्त्रीरूपं विकुर्व्य स्ववैक्रियशक्त्या संपाद्य निग्रन्थं प्रतिगृह्णीयात् स्वशरीरबाहादिना आलिङ्गेत् , तच्च प्रतिग्रहणं स्त्रीशरीरालिङ्गनं स्वादयेत् - 'मनोमोदजनकोऽयं स्त्रीस्पर्शः' इत्येवमनुमोदयेत् तदा स निर्ग्रन्थः मैथुन-- प्रतिसेवनप्राप्तः-अनासेवितमैथुनोऽपि मैथुनसेवनजन्यदोषसपन्नः सन् आपद्यते-प्राप्नोति चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम्-चतुर्गुरुरूपं प्रायश्चित्तम् ॥ सू० ॥ ३ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थमाश्रित्य स्त्रीरूपेण देवीकृतोपसर्गो वर्णितः, सम्प्रति निर्ग्रन्थीमाश्रित्य पुरुषरूपेण देवीकृतोपसर्ग प्रतिपादयितुमाह-'देवी य पुरिसरूवं' इत्यादि ।
सूत्रम्--देवी य पुरिसरूवं विउव्वित्ता निग्गर्थि पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं ॥ सू० ४॥
छाया--देवी च पुरुषरूपं विकुळ निर्ग्रन्थी प्रतिगृह्णीयात् तच्च निर्ग्रन्थी स्वादयेत् , मैथुनप्रतिसेवनप्राप्ता आपद्यते चातुर्मासिकं अनुद्घातिकम् ॥ सू० ४॥
चूर्णी-देवी य पुरिसरुवं' इति । देवी च पुरुषरूपं पुरुषाकृति विकुळ स्ववैक्रियशक्त्यां नवयौवनसंपन्नां संपाद्य निर्ग्रन्थीं तत्रोपाश्रयस्थितां साध्वी प्रतिगृह्णीयात्-स्वशरीरभुजादिना समालिङ्गेत, तच्च प्रतिग्रहणं समालिङ्गनं निग्रन्थी साध्वी स्वादयेत्-'सुखजनकोऽयं पुरुषस्पर्शः' इत्येवमनुमोदयेत् तदा सा मैथुनप्रतिसेवनप्राप्ता-अनासेवितमैथुनाऽपि मैथुनसेवनजन्यदोषसंपन्ना सती आपद्यते-- प्राप्नोति चातुर्मासिकम् अनुद्घातिकं चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तम् । सू० ४ ॥
१६
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे
पूर्व मैथुनप्रतिसेवनप्राप्तस्य प्रायश्चित्तं प्रोक्तम् , तत्प्रायश्चित्ते न्यूनाधिकाऽऽरोपणायां दीयमानायां निर्ग्रन्थोऽधिकरणं कृत्वाऽन्यं गणं प्रविशेत्तदा तैरन्यगणस्थविरैः किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिमाह-'भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य अहिगरणं कटुतं अहिगरणं अविओसवित्ता इच्छिज्जा अन्नं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ तस्स पंचराइंदियं छेयं कटु परिनिव्वविय परिनिव्वविय दोच्चंपि तमेव गणं पडिणिज्जाएयव्वे सिया जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया ॥ सू० ५॥
छाया-भिक्षुश्च अधिकरणं कृत्वा तदधिकरणम् अव्यवशमय्य इच्छेद अन्यं गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् , कल्पते तस्य पञ्चरात्रिन्दिवं छेदं कृत्वा परिनिर्वाप्य परिनिर्वाप्य द्वितीयमपि तमेव गणं पडिनिर्यातव्यः स्यात् यथा वा तस्य गणस्य प्रीतिकं (प्रत्ययिकं ) स्यात् ॥ सू० ५॥
चूर्णी-'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च श्रमणः अधिकरणम्-प्रायश्चित्तदाने न्यूनाधिकतायां कलहं कृत्वा, तद् अधिकरणम् अव्यवशमय्य क्षमापनादिना शान्तं चाकृत्वा इच्छेत् अन्यं गणं गणान्तरम् उपसंपद्य-स्वीकृत्य विहर्तुम् वाञ्छेत् अन्यं गणं प्रविशेदिति भावः, एवं स्थितौ कल्पते अन्यगणस्थविराणां तस्य गच्छान्तरादागतस्य भिक्षोः पञ्चरात्रिन्दिवम्-पञ्चाहोरात्रकं छेदं कृत्वाछेदनामकम् प्रायश्चित्तं दत्त्वा परिनिर्वाप्य परिनिर्वाप्य क्रोधादिकषायानलसंतप्तं तं मृदुमधुरोप
देशवचनसलिलसेचनेन तत्कषायानलं भूयो भूयो विध्यापयित्वा तं सर्वथा शोतलं संपाद्य द्वितीय__ मपि द्वितीयवारमपि पुनरपि तमेव गणं यस्माद् गणाद् आगतस्तमेव तदीयगणं प्रति स श्रमणः परिनिर्यातव्यः प्रापयितव्यः नेतव्यः स्यात् । किमर्थमित्याह-यथा वा-येन कारणेन तस्य यस्माद् गन्छाद् निर्गतस्तस्य तदीयगच्छस्य 'पत्तियं' प्रीतिकं प्रसन्नता, प्रत्ययिकं वा प्रत्ययो विश्वासः तदेव प्रत्ययिकं वैश्वासिकं वस्तु स्यात् तथा विधेयमिति भावः ॥ सू० ५ ॥
पूर्वसूत्रे अधिकरणस्य प्ररूपितत्वेन तदधिकरणं कृत्वाऽनुपशमं प्राप्त. श्रमणो गच्छान्तरं गच्छन् कथञ्चिदुपशमित. पुनस्तमेव गच्छं प्रत्यागच्छन् मार्गे संस्तरणेऽसंस्तरणे वा कदाचिद् माहारं गृह्णीयादतो रात्रिभोजननिषेधकं सूत्रचतुष्टयं व्याख्यातुं तावत् प्रथमं सूत्रं व्याचष्टे-'भिक्खू य' इत्यादि। - सूत्रम् --भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए णिव्यितिगिच्छे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे अह पच्छा जाणिज्जा-अणुग्गए सूरिए, अत्यमिए वा जं च आसयंसि जं च पाणिसि जं च पडिग्गहे तं विगिचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं अप्पणा
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिताध्याय उ० ५ ० ६-८
उद्गतवृत्तिकभिक्षोराहारविधिः १२३
'जमाणे अण्णसिं वा दलमाणे राइभोयणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुस्वाइयं || सू० ६-१ ॥
छाया - भिक्षुश्व उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः संस्तृतो निर्विचिकित्सः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य आहारम् अहरन् अथ पश्चादेवं जानीयात् - अनुगतः सूर्योऽस्तमितो वा, स यच्च आस्ये, यच्च पाणौ यच्च प्रतिग्रहे तद् विविश्ञ्चन् वा विशोधयन् वा नो अतिक्रामति, तद् आत्मना भुञ्जान अन्येभ्यो वा ददानो रात्रिभो - जनप्रतिसेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥ सू० ६ ॥
चूर्णी - ' भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च, कीदृशः स ? उद्गतवृत्तिकः, उद्गते उदयं प्राप्ते सूर्ये वृत्तिः संयमयात्रा निर्वाहक भिक्षाकरणादिव्यवहारो यस्य स उद्गतवृत्तिकः, सूयोद्गमनान्तरमेव आहारादिक्रियाकारक', पुनश्च मनस्तमितसंकल्पः अनस्तमिते - अस्तमप्राप्ते सूर्ये सूर्यास्तमनात् प्रागेव संकल्पः आहारादिग्रहणनियमो यस्य स अनस्तमितसंकल्पः सूर्योदयानन्तरं सूर्यास्तगमनात्प्रागेव सूर्योपस्थितिकाले एव आहारादिग्रहणनियमवान् इत्यर्थः, अत एव संस्तृतः समर्थः दिवसभोजननियमवान्, एनादृशो भिक्षुः - श्रमणः निर्विचिकित्सः निर्गता अपगता विचिकित्सा - संयमात्मकचित्तवृत्तिविशेषरूपा यस्मात् स निर्विचिकित्सः अन्यदीपादिज्योतिः प्रकाशादिकारणवशात् सूर्यउदयं प्राप्तः, नास्तं गतो वा सूर्य, इत्येवं निश्चयमापन्नः सन् अशनं वा ४ अशनादिचतुविघमाहारम् प्रतिगृह्य - आदाय आहारमाहरन् भुञ्जानः भोक्तुमारब्धः, अथ यदि पश्चात् तदनन्तरं भोजनप्रारम्भानन्तरं जानीयात् अनुगतः सूर्यः नोदयं प्राप्तः सूर्यः, वा – अथवा व्यस्तमितो वा अस्तं प्राप्तो वा सूर्य., इत्येवं निश्चिनुयात् - जानीयात् तदा तादृश्यां परिस्थितौ स श्रमणः यच्च अशनादि आस्ये-मुखे कवलीकृत्य क्षिप्तं भवेत् यच्च अशनादिकं पाणौ - हस्ते मुखे प्रक्षेप्तुं गृहीतम्, यच्च अशनादि प्रतिग्रहे पात्रे स्थितं वर्तते तत् विविञ्चन् परिष्ठापयन् विशोधयन् पात्रं निर्लेपं कुर्वन् नो अतिक्रमति तीर्थकृदाज्ञां नोल्लङ्घयति, सर्वथैव तथाविधाशनादि परिष्ठापयन् पात्रं च निर्लेपं कुर्वन् स श्रमण आराधको भवति न विराधक इति । यदि पुनः तद् अशनादिकम् आत्मना ना स्वयं भुञ्जानः आहरन्, तथा अन्येभ्यो वा श्रमणादिभ्यो ददानो भवेत् तदा अभुक्ततदाहारोऽपि रात्रिभोजनप्रतिसेवनप्राप्त. रात्रिभोजनदोषापन्नः सन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति ॥ सू० ६-१ ॥
*
पूर्वं संस्तृतस्य सूर्योदय - सूर्यानस्तमितविषये निर्विचिकित्सितस्य - निःशङ्कस्याहारविधि - रुक्तः, सम्प्रति पुनः संस्तृतस्यैव सूर्यानुद्गतास्तमितविषये विचिकित्सा समापन्नस्य - सशयापन्नस्य अशनादिविषये प्रायश्चित्तमाह – 'भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम् - भिक्खू य उम्गयवित्तिए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए वितिमिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारे -
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
છુ
वृहत्कल्पसूत्रे
माणे जाव अन्नेसिं वा दलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ॥ सू० ७-२ ॥
छाया -- भिक्षुश्च उद्वतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः संस्तृतः विचिकित्सासमापन्नः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य आहारम् अहरन् यावत् अन्येभ्यो वा ददानः रात्रिभोजनप्रति सेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घा - तिकम् ॥ सू० ७-२ ॥
चूर्णी - ' भिक्खु य' इति । भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः पूर्वोक्तस्वरूपः, संस्तृतः-समर्थ' न तु ग्लानादिः स विचिकित्सासम्पन्नः 'किमुदितोऽनुदितो वा सूर्यः ?, यद्वा किमस्तं गतः सूर्योऽनस्तं गतो वा' इत्येवं संशयमारूढः सन् अशनं वा ४- - अशनादिचतुर्विधमाहारं प्रतिगृह्य-गृहस्थगृहादानीय आहारम् - तदानीतमाहारम् अहरन् भुञ्जानः 'जाव' इति यावत्, यावत्पदेन पूर्वोक्तः पाठोऽत्र संग्राह्यः, तथाहि - 'अह पुच्छा' इत्यादि, अथ पश्चात् जानीयात् अनुद्गतः सूर्यः अस्तमितो वा, तदा स यच्च आस्ये-मुखे, यच्च पाणौ - हस्ते, यच्च, प्रतिग्रहे पाँत्रे वर्तते तद् विविञ्चन् - परिष्ठापयन् वा विशोधयन् मुखहस्तपात्रादिकं निर्लेपं कुर्वन् वा स नो अतिक्रामति भगवदाज्ञां नोल्लङ्घयति, यदि पुनः तद् अशनादि आत्मना - स्वयं भुञ्जानः, इत्येत्पर्यन्त' पाठ' यावत्पदग्रायः, 'अन्नेसिं वा' इत्यादि, अन्येभ्यो वा ददानः स रात्रिभोजनप्रतिसेवनप्राप्तः रात्रिभोजनदोपापन्नः सन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तम् ॥ सू० ७–२ ॥
पूर्व संस्तृतस्य विचिकित्सास मापन्नस्य प्रायश्चित्तं प्रोक्तम्, सम्प्रति असंस्तृतस्य निर्विचि - कित्सितस्य प्रायश्चित्तमाह - ' भिक्खु य' इत्यादि ।
सूत्रम् - 'भिक्खु य उग्गयवित्तिए अणत्थमियसंकप्पे असंथडिए निव्वितिगिच्छे असणंव पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे जाव अन्नेसिं वा दलमाणे राइभोयणपडिसेवणप्पत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुस्वाइयं ।। सू० ८-३॥
छाया - भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः असंस्तुतः निर्विचिकित्सः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य आहारम् अहरन् यावत् अन्येभ्यो वा ददानः रात्रिभोजनप्रति सेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुघातिकम् ।। सू० ८-३ ॥
चूर्णी - भिक्खुय' इति । भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः दिवसंमात्रभोजीत्यर्थः स असंस्तृतः--असमर्थः ग्लानत्वादियुक्त अध्यविहारखिन्नः क्षपकः मासक्षमणादितपोयुको वा निर्विचिकित्स विचिकित्सारहितः -- सूर्योदय - सर्यानस्तमितरूपसंशयवर्जितः सूर्य उगतः
"
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णि भाष्यावचूरी उ० १ सू० ९-११
रात्रौ - उद्गाल गिलन नायश्चित्तविधिः १२५ नास्तं गतो वा इत्येवं निश्चयवान् सन् अशनं वा ४ अशनादिचतुर्विधमाहारं प्रतिगृह्य तमाहारमाहरन्, इत्यादि शेषं सर्वे पूर्वसूत्रवदेव व्याख्येयम् । सू० ८-३ ॥
पूर्वं असंस्तृतस्य निर्विचिकित्सितस्य प्रायश्चित्तमुक्तम्, सम्प्रति असंस्तृतस्यैव विचिकित्सा संपन्नस्य प्रायश्चित्तमाह- ‘भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम् - - भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणत्थमियसंकप्पे असंथडिए वितिमिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे जाव अन्नेसिं वा दलमाणे राइभोयणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहा अणुग्धायं ॥ सू० ९-४ ॥
छाया - भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः असंस्तृतो विचिकित्सासमापन्नः अशनं वा पान खाद्य वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्या आहारं आहरन् यावत् अन्येभ्यो वा ददानः रात्रिभोजन प्रतिसेवनप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् ॥ सू० ९-४ ॥
चूर्णी -- ' भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितसंकल्पः असंस्तृतः असमर्थः—–ग्लानो मासक्षपकः अध्वखिन्नो वा विचिकित्सा समापन्नः - सूर्यस्य उदयाऽस्तमितविषयकशङ्कासम्पन्नः अशनं वा ४ अशनादिचतुर्विधमाहारं प्रतिगृह्य तमाहारम् अहरन् इत्यादि शेषं सर्वम् असंस्तृतस्य निर्विचिकित्सासूत्रवद् व्याख्येयमिति ।
"
-
अत्रेदमवधेयम् - प्रथमं सूत्रम् - निर्विचिकित्स - संशयरहित संस्तृतं समर्थ श्रमणमधिकृत्य प्रतिपादितम् १ । द्वितीयं सूत्रम् - विचिकित्सा समापन्नं - संशययुक्तं संस्तृतं - समर्थं श्रमणमधिकृत्य प्रोक्तम् २ । तृतीयं सूत्रम्-असस्तृतम् - असमर्थ निर्विचिकित्सं - संशयरहितं श्रमणमधिकृत्य प्ररूपितम् ३ । चतुर्थं सूत्रम्-असंस्तृतम् - असमर्थं विचिकित्सा समापन्न – संशयापन्नं श्रमणमधिकृत्याभिहितम् ४ । इति चत्वारि सूत्राणि व्याख्यातानि ॥ सू०९
-४ ॥
पूर्वं श्रमणानां रात्रिभोजनप्रतिसेवनप्राप्तौ प्रायश्चित्तं प्रतिपादितम्, सम्प्रति, रात्रिभोजनप्रस्तावादेव रात्रौ समागतोङ्गालस्य गिलने प्रायश्चित्तं प्रतिपादयति - ' इह खलु' इत्यादि ।
सूत्रम् — इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा राभो वा वियाले वा सपाणे सभोयणे उग्गाले आगच्छेज्जा, तं विर्गिचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्क - मइ, तं उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राइभोयणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ सियं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं ॥ सू० १० ॥
चाउम्मा
छाया -- इह खलु निर्ग्रन्थस्य वा निर्ग्रन्ध्या वा रात्रौ वा विकाले वा सपानः सभोजनः उद्गालः आगच्छेत् त विविञ्चन् वा विशोधयन् वा नो अतिक्रामति, तम् उद्गीर्य प्रत्यवगिलन् रात्रिभोजनप्रति सेवनप्राप्त आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्वातिकम् ॥ सू० १० ॥
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत्कॅल्पसूत्रे
चूर्णी --' इह खलु' इति । इह खलु जिनप्रवचने ग्रामादौ वा वर्त्तमानस्य निर्ग्रन्थस्य वा निर्ग्रन्य्या वा रात्रौ वा विकाले सन्ध्याकाले रात्र्यन्ते वा यदि सपानः - पानकद्रव्यसहितः, सभोजनः भुक्तभोजनद्रव्यसहितः उद्गालः उत् ऊर्ध्वं मुखाभिमुखं गलत वातादिप्रकोपेन मुखे समागच्छतीति उद्गालः जलमिश्रितरसीभूतपानभोजनद्रव्ययुक्त उद्गारः आगच्छेत्, तथा च यदि कदाचित् सिक्थवर्जितं केवलं किञ्चित् पानीयमुङ्गारेण सह मुखे आगच्छेत्, कदाचित् केवलं कूरादिसिक्थं वा आगच्छेत्, कदाचित् तदुभयं वा आगच्छेत् तदा तम् उद्गालं विविञ्चन् बहिः परिष्ठापयन् विशोधयन् वस्त्रादिना सुखशुद्धिं कुर्वन् स भिक्षु. नो-नैव अतिक्रामति तीर्थकराज्ञां नोल्लवयति, एवं कुर्वन् भिक्षुराराधक एव नो विराधक इति भावः । किन्तु तं - पानभोजनसहितमुद्गालम् उद्गीर्य तस्य उद्गीर्णं कृत्वा मुखे समाकृष्येत्यर्थ प्रत्यवगिलन् पुनः कण्ठादध उत्तारयन् स रात्रिभोजन प्रतिसेवनप्राप्त. अकृतरात्रिभोजनोऽपि रात्रिभोजन दोषापन्नः सन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् अनुद्घातिकं चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तमिति ॥ सू० १० ॥
શરદ
पूर्व श्रमणस्य रात्रौ समागतसपानसभोजनोद्गालस्य प्रत्यवगिलने प्रायश्चित्तमुक्तम्, सम्प्रति समागतस्य प्राणवीजादियुक्ताहारस्य किं कर्तव्यमिति तद्विधिमाह - 'निग्गंथस्स वा इत्यादि ।
सूत्रम् — निग्गंथस्स वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुष्पविहस्स अंतो पडिग्गहंसि पाणाणि वा वीयाणि वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च संचाएइ बिर्गिचित्त वा विसोहित्तए वा तं पुत्र्वामेव लाइय विसोहिय विसोहिय तओ संजयामे वा भुंजेज्ज वा पिवेज्ज वा तं च नो संचाएर विर्गिचित्त वा विसोहित्तए वा तं नो अप्पणा भुंजिज्जा नो अन्नेसिं दावए, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिले हित्ता पमज्जित्ता परिवेयव्वेसिया ॥ सू० ११ ॥
छाया - निर्ग्रन्थस्य च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन अनुप्रविष्टस्य अन्तः प्रतिग्रहे प्राणा वा वीजानि वा रजो वा पर्यापतेत्, तच्च शक्नोति विवेक्तुं वा विशोधयितुं वा, तत् पूर्वमेव लात्वा विशोध्य विशोध्य ततः संयत एव भुञ्जीत वा पिबेद् वा, तच्च नो शक्नोति विवेक्तुं वा विशोधयितुं वा तद् नो आत्मना भुञ्जीत, नो अन्येभ्यो दद्यात् एकान्ते वहुप्रासु स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यं स्यात् ।
चूर्णी – 'निग्गंथस्स' इति । निर्गन्थस्य श्रमणस्य गाथापतिकुलं—–गृहस्थगृहं पिण्डपातप्रत्ययेन भिक्षाग्रहणनिमित्तेन अनुप्रविष्टस्य गतस्य तत्र अन्तः प्रतिग्रहे पात्राभ्यन्तरे यदि प्राणा वा द्वीन्द्रियादय., बीजानि वा वनस्पतिकायविशेषरूपाणि, रजो वा सचित्तधूली सचित्तपृथिवीकायविशेष, अग्निकणः तेजस्कायो वा पर्यापतेत् आगच्छेत् तदा तच्च प्राणादिजातं यदि 'संचाएइ' इति शक्नोति विवेक्तुम् पृथमर्तुम्, विशोधयितुम् - सर्वथा पृथक्कर्त्तुम्, तथा तत् द्वीन्द्रिया
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्णिभाष्यावधूरी उ० ५ सू० प्राणादिपतिताहारकरणाकरणविधिः १२७ दिजीवं पूर्वमेव प्रथममेव लात्वा हस्तादिना गृहीत्वा प्रतिलेख्य प्रतिलेख्य सर्वथैव अपनीयापनीय पात्रमध्याद् निस्सार्य २, ततः तदनन्तरं संयत एव यतनया भुञ्जीत वा पिबेद् वा । यदि पुनः तच्च प्राणादि-द्वीन्द्रियादिजीवं 'नो संचाएइ' इति नो शक्नोति विवेक्तुं निस्सारयितुम् वा पृथकर्तुम् , विशोधयितुं वा विशेषतो दूरीकत्तुं यदि न शक्नोति तदा तत् द्वीन्द्रियादियुक्तं भक्तपानं नो आत्मना स्वयं भुञ्जीत नो वा अन्येभ्यः श्रमणादिभ्यो दद्यात् , तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह-तद् भक्तपानम् एकान्ते विजने बहुप्रासुके अत्यन्तप्राशुके अवश्यायोत्तिङ्गादिरहिते स्थाने प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा सम्यग् निरीक्ष्य, प्रमृज्य रजोहरणेन प्रमार्जनं कृत्वा परिष्ठापयितव्यं स्यात् , तस्य प्राणादिमिश्रितभक्तपानस्य परिष्ठापनं कर्त्तव्यं न तु स्वयं भोक्तव्यं नाप्यन्येभ्यो वा दातव्यमिति भावः ॥ सू० ११॥
पूर्वमाहारसूत्रे प्राणपदेन त्रसानां, बीजपदेन वनस्पतिकायानां, रजोग्रहणेन पृथिव्यग्निकायानां, वायोः सर्वत्रान्तर्गतत्वेन वायुकायानां च ग्रहणं कृतमिति कायपञ्चकमुक्तम् , सम्प्रति अत्र सूत्रे षष्ठमकायमधिकृत्य भोजनविधि प्रतिपादयति-'निग्गंथस्स य' इत्यादि ।
सूत्रम्-निग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिंडदायपडियाए अणुप्प विहस्स __ अंतो पडिग्गहंसि दगे वा दगरए वा दगफुसिए वा परियावज्जेज्जा, से य उसिणे
भोयणजाए भोत्तव्वे सिया, से य सीए भोयणजाए तं नो अप्पणा अँजिज्जा नो अन्नेसि दावए, एगते बहुफासुए थंडिले परिटवेयवे सिया ॥ सू० १२ ॥
छाया-निग्रन्थस्य च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन अनुप्रविष्टस्य अन्तः प्रतिग्रहे दकं वा दकरजो वा दकपद् वा पर्यापतेत् तच्च उष्ण भोजनजातं भोक्तव्यं स्यात् , अथ च शीतं भोजनजातं तत् नो आत्मना भुञ्जीत, नो अन्येभ्यो दद्यात् एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात् ॥ सू० १२ ॥
चूर्णी-निग्गंथस्स य' इति । निर्ग्रन्थस्य च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन अनुप्रविष्टस्य अन्तः प्रतिग्रहे पात्राभ्यन्तरे दकं वा अप्कायसमूहरूपम् , दकरजो वा उदकबिन्दर्वादकपृषत्-उदकशीकरो जलकणो वा पर्यापतेत् , तच्च पात्रस्थितं भोजनजातं यदि उष्णं भवेत तदा तद् भोजनजातं श्रमणस्य भोक्तव्य भोजनयोग्य स्यात् , श्रमणेन तद् भोक्तव्यम् , उष्णपतितदकादेः शस्त्रपरिणतत्वेनाचित्तत्वसद्ावात् । तदपि भोजनजातं यदि शीतं भवेत् तदा तद् भोजनजातं पतितदकादेः शस्त्राऽपरिणतत्वेन सचित्तत्वसद्भावात् नो आत्मना स्वयं भुञ्जीत नापि च तद् अन्येभ्यो दद्यात् अपितु तद् भोजनजातम् एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यादिति । अत्र दक-दकरजःप्रभृतीनां परिमाणकृतो भेदो बोध्यः, तथाहि-दकपदेन प्रभूताप्कायरूपमुदकं गृह्यते, दकरजःपदेन उदकबिन्दुरुच्यते, दकपृषत्पदेन पुन. पानीयेऽन्यत्र प्रक्षिप्यमाणे वायुप्रेरितास्तत्रागत्य प्रपतन्तो जलकणाः प्रतिगृह्यन्ते इति विवेकः ॥ सू०१२॥
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
बृहत्कल्पसूत्रे पूर्व प्राणातिपातादिरक्षणवक्तव्यता प्रतिपादिता, सम्प्रति ब्रह्मचर्यव्रतरक्षणार्थमिन्द्रियविषये श्रोतोविषये च क्रमशः सूत्रद्वयं प्रतिपादयन् प्रथममिन्द्रियविषयं निर्ग्रन्थीसूत्रमाह'निग्गंथीए इत्यादि।
सूत्रम्-निग्गंथीए राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरं इंदियजायं परामुसेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेजा, हत्थकम्मपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं ॥ सू० १३॥
छाया-निर्ग्रन्थ्याः रात्रौ वा विकाले वा उच्चारं वा प्रनवणं वा विविञ्चत्या वा विशोधयन्त्या वा अन्यतरः पशुजातीयो वा पक्षिजातीयो वा अन्यतरद इन्द्रियजातं परामृशेत् , तं च निर्ग्रन्थी स्वादयेत् हस्तकर्मप्रतिसेवनप्राप्ता आपद्यते चातुर्मासिकम् अनुद्घातिकम् ॥सू०१३॥
चूर्णी-'निग्गंधीए' इति । निर्ग्रन्ध्याः-श्रमण्याः रात्रौ वा रजनीसमये, विकाले वा पूर्वापरसन्ध्यासमये उच्चारं वा संज्ञाम् , प्रत्रवणं वा कायिकीलक्षणम् , विविञ्चत्या वा परिष्ठापयन्त्याः , विशोधयन्त्या वा शुद्धिं कुर्वन्त्याः तत्समये अन्यतरः कश्चिद् एकतरः पशुजातीयो वा वानरादिः, पक्षिजातीयो वा मयूरादिः यदि अन्यतरत्-किमपि एकतरत् इन्द्रियजातम्-स्तनकपोलमुखनयनपाणिपादादिकम् अङ्गविशेष परामृशेत्- स्पृशेत् , अथ तं च वानरादिस्पर्श निर्ग्रन्थी स्वादयेत् 'सुखदोऽयं स्पर्शः' इत्येवमनुमोदयेत् , तदा हस्तकर्मप्रतिसेवनप्राप्ता अकृतहस्तकर्माऽपि हस्तकर्मप्रयुक्तदोपापन्ना सती आपद्यते चातुर्मासिकम् अनुद्घातिकं-चतुर्गुरुकरूपं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति ॥ सू० १३ ॥
पूर्वमिन्द्रियविषयकं प्रथमं सूत्रं प्रतिपादितम् , सम्प्रति श्रोतोविषयं द्वितीयं निर्ग्रन्थीसूत्रमाह-निग्गंथीए' इत्यादि ।
सूत्रम्-निग्गंथीए राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरंसि सोयंसि ओगाहिज्जा, तं च निग्गंधी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्याइयं ॥ सू० १४ ॥
छाया- निर्ग्रन्थ्या रात्रौ वा विकाले वा उच्चारं वा प्रस्रवणं वा विविञ्चत्या वा विशोधयन्त्या वा अन्यतरः पशुजातीयो वा पक्षिजातीयो वा अन्यतरस्मिन् श्रोतसि अवगाहेत, तच्च निग्रन्थी स्वादयेत् मैथुनप्रतिसेवनप्राप्ता आपद्यते चातुर्मासिकम् अनुद्घातिकम् ॥ सू० १४॥
चूर्णी-'निग्गंधीए' इति । निर्ग्रन्ध्या रात्रौ विकाले वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयन्त्या वा शुद्धिं कुर्वन्या वा तत्समये अन्यतरः कश्चिदेकः पशुजातीयो वा प्राणी वानरादिः
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूणिभाष्यावचूरी उ० ५ सू० १५-१९ निम्रन्थ्या एकाकिनीत्वादिमर्यादा १२९ पक्षिजातीयो वा प्राणी-हेसमयूरादिः यदि अन्यतरस्मिन् कस्मिंश्चित् श्रोतसि-योनिकक्षाजघनादिसन्धिरूपे विवरे अवगाहेत स्वीयं किमपि अङ्गं प्रवेशयेत् , तच्च. योन्यादौ वानरादीनामङ्गावगाहनं स्वादयेत् 'कीदृशमिदं सुखदमवगाहनम्' इत्येवमनुमोदयेत्-तदवगाहनेन मनसि सुखमनुभवेत् तदा सा निर्ग्रन्थी मैथुनप्रतिसेवनप्राप्ता-अनासेवितमैथुनाऽपि मैथुनसेवनजन्यदोषापन्ना सती आपद्यते चातुर्मासिकमनुद्घातिकं प्रायश्चित्तम् ।। सू० १४ ॥
___ पूर्व ब्रह्मचर्यव्रतविषया दोषाः प्रतिपादिताः, ते च दोषाः प्राय एकाकिन्याः संभवन्तीति सम्प्रति निम्रन्थ्या एकाकिन्याः स्थित्यादिनिषेधविषयकं सूत्रचतुष्टयं प्रतिपादयति-'नो कप्पइ निग्गंथीए' इत्यादि।।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए होत्तए ॥ सू० १५॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थ्या एकाकिन्या भवितुम् ॥ सू० १५॥
चूर्णी 'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्घन्ध्या एकाकिन्या असहायया भवितुम् , निम्रन्ध्या. एकाकिन्या कदापि न भवितव्यम् स्त्रीशरीरस्य पुरुषस्पृहणीयत्वेन दृढसंहननधृतिबलादिराहित्येन च बलात्कारादिसद्गावे ब्रह्मचर्यव्रतभङ्गदोषप्रसङ्गात् ॥ सू० १५ ॥
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥ सू०१६॥
छाया--नो कल्पते निग्रंन्थ्या एकाकिन्या गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन निष्फ्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥ सू० १६॥ ___चूर्णी-एवम् एकाकिन्या गाथापतिकुलं-गृहस्थगृहं पिण्डपातप्रत्ययेन आहारादिग्रहणनिमित्तं निष्क्रमितुम् उपाश्रयाद् गृहस्थगृहे भक्तपानाद्यर्थ निस्सर्तुम् , तथा प्रवेष्टु गृहस्थगृहे प्रवेशं कर्तुम् न कल्पते ॥ सू० १६ ॥
सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए वहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥ सू० १७ ॥
छाया-नो कल्पते निम्रन्थ्या एकाकिन्या वहिर्विचारभूमि वा विहारभूमिं घा निष्क्रमितुवा प्रवेष्टुं वा ॥ सु० १७॥
चूर्णी- एवम् एकाकिन्या बहिः उपाश्रयावहिः विचारभूमिं संज्ञामिम् निष्क्रमितुं वा उपाश्रयात् , प्रवेष्टुं वा सज्ञाभूमौ न कल्पते, तथा विहारभूमिं स्वाध्यायादिभूमौ वा निष्क्रमितुम् उपाश्रयात्, प्रवेष्टुम्-स्वाध्यायभूमौ एकाकिन्या न कल्पते ॥ सू० १७॥
सूत्रम्- नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए गामाणुगामं दृइज्जित्तए चा वासावासं वा वत्थए । सू० १८ ॥
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
~
वृहत्कल्पसूत्रे छाया-नो कल्पते निम्रन्थ्या एकाकिन्या ग्रामानुग्रामं द्रोतुं वा वर्षावासं चा वस्तुम् ॥ सू० १८॥
ची- एवमेव एकाकिन्या निम्रन्थ्या ग्रामानुग्रामम् एकस्माद् ग्रामाद ग्रामान्तरं द्रोतुम् विहर्तुम् , तथा वर्षावास चातुर्मास्यनिमित्तं वस्तुं न कल्पते ॥ सू० १८ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थ्या एकाकिनीत्वं निषिद्धम् , सम्प्रति श्रमणानामचेलकत्वस्य भगवता प्रतिपादितत्वेन काचित् श्रमणी चापि अचेलकत्वं कर्तमिच्छेढतस्तासामचेलकत्वं प्रतिपेधयन्नाह'नो कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-नों कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए । सू० १९ ॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थ्या अचेलिकया भवितुम् ॥ सू० १९ ॥
चूर्णी-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्घन्ध्याः श्रमण्या अचेलिकया-चेलः वस्त्रं, न चेलो वस्त्रं यस्याः सा अचेला, अचेला एव अचेलिका वस्त्रवर्जिता, तया वस्त्ररहितया भवितुम्-अवस्थातुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः, साच्या वस्त्ररहितया न भवितव्यम्-साध्वी वस्त्ररहिता न भवेदिति भावः । अनेन साध्वीनां जिनकल्पो निषिद्ध इत्यवगन्तव्यम् , तासां तादृशसंहननाभावात् । तरुणस्तेनकादिकृतोपसर्गजन्ये भये उपस्थिते तन्निवारणसामर्थ्याऽभावात्साध्वी वस्त्रवर्जिता भवितुं न शक्नोतीति तस्या अचेलकत्वं भगवता निषिद्धम् । वस्त्ररहितां साध्वीं दृष्ट्वा स्त्रीशरीरस्य पुरुषमोहकस्वभावात् तरुणादिश्चतुर्थसेवनादिकं कत्तुं साहसं कुर्यात्, एवं यदा कुलटाऽपि तावद् व्यभिचारिणी अपि वनरहिता भवितुं नेच्छति तदा किमुत वक्तव्यं कुलीनानां साध्वीनां विषये, यत् न ताः कदापि वस्त्ररहिता भवितुं वाञ्छन्तीति तात्पर्यम् । पुनश्च अचेलकतां प्रतिपन्नानां श्रमणीनां लोकापवादनिन्दितानां तीर्थोच्छेदो भवति, वृत्तिश्च तासां दुर्लभा भवति । एवं विवस्त्रां श्रमणीमवलोक्य लोको वदति-"स्त्रीणां लज्जा विभूषणम्" इति वचनात् कुत्र गता आसां लज्जा ? इति प्रव्रज्यां ग्रहीतुम् अभिमुखीभूतानामपि प्रव्रज्याग्रहणतः परावर्तनं स्यात् । अन्यो वा कश्चित् प्रव्रज्याग्रहणतस्ता निवारयेत् । लोकास्तत्कुटुम्विजनान् एव कथयन्ति यत्युष्मदीया दुहितर स्नुपा वा याः पूर्वं चन्द्रसूर्यकिरणैरस्पृष्टगात्रा आसन् ताः सम्प्रति प्रवजितावस्थायां सर्वजनदृष्टिस्पृष्टगात्राः सर्वलोकपुरतो विवस्रा हिण्डन्ते, कीदृशी चैषा प्रव्रज्या ?, लोकैरेवमुक्ते तत्कुटुम्बिनो भूयस्ताः स्वगृहमानयन्ति । अनेन प्रवचनोडाहोऽवश्यम्भवी । इत्याघनेकदोषसंभवात् साध्वीभिरचेलाभिर्न भवितव्यमिति भावः ॥ सू० १९॥
पूर्व निर्ग्रन्थीनामचेलकत्वं निषिद्धम्, सम्प्रति तासां पात्ररहितत्वं प्रतिषेधयितुमाह'नो कप्पई' इत्यादि।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीए अपाइयाए होत्तए ।। सू० २०॥
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्याव चूरी उ० ५ सू० २०-२२
निर्ग्रन्थ्या आतापनाविधिः १३१ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थ्या अपात्रिकया भवितुम् ॥ सू० २० ॥
चूर्णी-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निम्रन्थ्या अपात्रिकया पात्ररहितया भवितुम् अवस्थातुम्, पात्रराहित्ये आहारशौचादि क्रियाया अप्यसंभवेन लोकनिन्दासद्भावात् ।
पात्रं विना यत्र तत्रैव साध्वीभिर्भोक्तव्यं स्यात् । लोको वदेत्-साध्वीभ्यः कोऽपि पात्रं न ददाति तेन इमा गोश्वानादिवत् यत्र कुत्रापि निर्लज्जा सती लब्धमाहारं भोक्तुमारभन्ते कीदृश आसां धर्मः ? इति लोकापवादोऽवश्यम्भावीत्यतो निर्ग्रन्ध्या अपात्रिकया न भवितव्यमिति भावः ॥ सू० २० ॥
पूर्वसूत्रे निर्ग्रन्ध्याः पात्रं विनाऽवस्थातुं न कल्पते इत्युक्तम् , सप्रति तस्या विवस्त्रशरीरेण कायोत्सर्गनिषेधमाह-'नो कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गयीए वोसट्ठकाइयाए होत्तए ॥ सू० २१ ॥ छाया-नो कल्पते निम्रन्थ्या व्युत्सृष्टकायिकया भवितुम् ॥ सू० २१॥
चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या व्युत्सृष्टकायिकया-व्युत्सृष्टः शरीरवस्त्रादिममत्वत्यागेन परित्यक्तः कायो देहो यया सा व्युत्सृष्टकाया, सा एव व्युत्सृष्टकायिका, तया 'मया दिव्याधुपसर्गाः सोढव्याः' इत्यभिग्नहं गृहीत्वा शरीराद् वस्त्रं पृथक् कृत्य समयप्रसिद्धेन योगविषयकाभिनवकायोत्सर्गेण स्थितया भवितुम्-अवस्थातुं न कल्पते, निम्रन्थ्या उद्घाटित शरीरेण कायोत्सर्ग कर्तुं न कल्पते इति भावः । यतस्तथास्थिताया उदीर्णमोहप्रेरणया तरुणग्रहणादय उपसर्गाः पूर्वोक्ता एव भवन्ति, तेन ब्रह्मचर्यव्रतभङ्गप्रसङ्ग आपतेत , तस्मात् निर्ग्रन्ध्या विवस्त्रशरीरया कायोत्सर्गो न कर्त्तव्य इति भावः ॥ सू० २१॥
पूर्व निर्ग्रन्ध्या विवस्त्रशरीरेण कायोत्सर्गः प्रतिषिद्धः, सम्प्रति निर्ग्रन्थ्या प्रामादितो बहिरातापनाग्रहणनिषेधं प्रतिपादयितुमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीए पहिया गामस्स वा णगरस्स वा खेडस्स वा कब्बडस्स वा पट्टणस्त वा मडवस्स वा आगरस्स वा दोणमुहस्स वा आसमस्स वा सण्णिवेसस्स वा उड्ढं वाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहीए एगपाइयाए ठिच्चा आयावणाए आयावित्तए, कप्पइ से उव्वस्सयस्स अंतो वगडाए संघाडिपडिबद्धाए पलंवियवाहियाए समतलपाइयाए ठिच्चा आयावणाए आयावित्तए ॥ सू० २२ ॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः वहिः प्रामस्य वा नगरस्य वा खेटस्य वा कर्वटस्य वा पत्तनस्य वा मडम्बस्य वा आकरस्य वा द्रोणमुखस्य वा आश्रमस्य वा संनि. वेशस्य वा उर्व बाहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूर्याभिमुख्याः एकपादिकायाः स्थित्वा आतापनया
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे
छाया-नो कल्पते निम्रन्थ्या एकाकिन्या ग्रामानुग्रामं द्रोतुं वा वर्षावासं वा
वस्तुम् ॥ सू० १८॥
चूर्णी- एवमेव एकाकिन्या निम्रन्थ्या ग्रामानुग्रामम् एकस्माद् ग्रामाद् ग्रामान्तरं द्रोतुम् विहर्तुम् , तथा वर्षावासं चातुर्मास्यनिमित्तं वस्तुं न कल्पते ॥ सू० १८॥
पूर्व निर्ग्रन्थ्या एकाकिनीत्वं निषिद्धम् , सम्प्रति श्रमणानामचेलकत्वस्य भगवता प्रतिपादितत्वेन काचित् श्रमणी चापि अचेलकत्वं कर्तुमिच्छेदतस्तासामचेलकत्वं प्रतिपेघयन्नाह'नो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नों कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए । सू० १९ ॥ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थ्या अचेलिकया भवितुम् ॥ सू० १९ ॥
चूर्णी—'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निम्रन्थ्याः श्रमण्या अचेलिकया-चेलः वस्त्रं, न चेलो वस्त्रं यस्याः सा अचेला, अचेला एव अचेलिका वनवर्जिता, तया वस्त्ररहितया भवितुम्-अवस्थातुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्ध, साध्या वनरहितया न भवितव्यम्-साध्वी वस्त्ररहिता न भवेदिति भावः । अनेन साध्वीनां जिनकल्पो निषिद्ध इत्यवगन्तव्यम् , तासां तादृशसंहननाभावात् । तरुणस्तेनकादिकृतोपसर्गजन्ये भये उपस्थिते तन्निवारणसामर्थ्याऽभावात्साध्वी वस्त्रवर्जिता भवितु न शक्नोतीति तस्या अचेलकत्वं भगवता निषिद्धम् । वस्त्ररहितां साध्वीं दृष्ट्वा स्त्रीशरीरस्य पुरुषमोहकस्वभावात् तरुणादिश्चतुर्थसेवनादिकं कत्तु साहसं कुर्यात्, एवं यदा कुलटाऽपि तावद् व्यभिचारिणी अपि वनरहिता भवितुं नेच्छति तदा किमुत वक्तव्यं कुलीनानां साध्वीनां विषये, यत् न ताः कदापि वस्त्ररहिता भवितुं वाञ्छन्तीति तात्पर्यम् । पुनश्च अचेलकता प्रतिपन्नानां श्रमणीनां लोकापवादनिन्दितानां तीर्थोच्छेदो भवति, वृत्तिश्च तासां दुर्लभा भवति । एवं विवन्नां श्रमणीमवलोक्य लोको वदति-"स्त्रीणां लज्जा विभूषणम्" इति वचनात् कुत्र गता आसां लज्जा ? इति प्रव्रज्यां ग्रहीतुम् अभिमुखीभूतानामपि प्रत्रज्याग्रहणतः परावर्तनं स्यात् । अन्यो वा कश्चित् प्रत्रव्याग्रहणतस्ता निवारयेत् । लोकास्तत्कुटुम्विजनान् एव कथयन्ति यत्युष्मदीया दुहितरः स्नुषा वा याः पूर्वं चन्द्रमूर्यकिरणैरस्पृष्टगात्रा आसन् ताः सम्प्रति प्रत्रजितावस्थायां सर्वजनदृष्टिस्पृष्टगात्राः सर्वलोकपुरतो विवना हिण्डन्ते, कीदृशी चैषा प्रव्रज्या , लोकरेवमुक्ते तत्कुटुम्बिनो भूयस्ताः स्वगृहमानयन्ति । अनेन प्रवचनोड्डाहोऽवश्यम्भवी । इत्याद्यनेकदोषसंभवात् साध्वीभिरचेलाभिर्न भवितव्यमिति भावः ॥ सू० १९॥
पूर्व निर्ग्रन्थीनामचेलकत्वं निषिद्धम्, सम्प्रति तासां पात्ररहितत्वं प्रतिषेधयितुमाह'नो कप्पइ' इत्यादि।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीए अपाइयाए होत्तए ।। सू० २०॥
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाण्यांवचूरी उ० ५ सू० २०-२२
निर्ग्रन्या आतापनाविधिः १३१
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थया अपात्रिकया भवितुम् ॥ सू० २० ॥ चूर्णी - 'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या अपात्रिकया पात्ररहितया भवितुम् अवस्थातुम्, पात्रराहित्ये आहारशौचादिक्रियाया अप्यसंभवेन लोकनिन्दासद्भावात् ।
पात्रं विना यत्र तत्रैव साध्वीभिर्भोक्तव्यं स्यात् । लोको वदेत् - साध्वीभ्यः कोऽपि पात्रं न ददाति तेन इमा गोश्वानादिवत् यत्र कुत्रापि निर्लज्जा सती लब्धमाहारं भोक्तुमारभन्ते कीदृश आसां धर्मः ? इति लोकापवादोऽवश्यम्भावीत्यतो निर्ग्रन्ध्या अपात्रिकया न भवितव्यमिति भावः ॥ सू० २० ॥
पूर्वसूत्रे निर्ग्रन्ध्याः पात्रं विनाऽवस्थातुं न शरीरेण कायोत्सर्गनिषेधमाह - 'नो कप' इत्यादि ।
कल्पते इत्युक्तम्, संप्रति तस्या विवस्त्र -
सूत्रम् -नो कप्पड़ निग्गंथीए बोसट्टकाइयाए होतए ॥ सू० २१ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या व्युत्सृष्टकायिकया भवितुम् ॥ सू० २१ ॥
चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या व्युत्सृष्टकायिकया - व्युत्सृष्टः शरीरवस्त्रादिममत्वत्यागेन परिव्यक्तः कायो देहो यया सा व्युत्सृष्टकाया, सा एव व्युत्सृष्टकायिका, तया 'मया दिव्याद्युपसर्गाः सोढव्याः' इत्यभिग्रहं गृहीत्वा शरीराद् वस्त्रं पृथक् कृत्य समयप्रसिद्धेन योगविषयकाभिनवकायोत्सर्गेण स्थितया भवितुम् - अवस्थातुं न कल्पते, निर्ग्रन्ध्या उद्घाटितशरीरेण कायोत्सर्गं कर्तु न कल्पते इति भावः । यतस्तथास्थिताया उदीर्णमोहप्रेरणया तरुणग्रहणादय उपसर्गाः पूर्वोक्ता एव भवन्ति तेन ब्रह्मचर्यव्रतभङ्गप्रसङ्ग आपतेत्, तस्मात् निर्ग्रन्या विवस्त्रशरीरया कायोत्सर्गो न कर्त्तव्य इति भावः ॥ सू० २१ ॥
,
पूर्व निर्ग्रन्ध्या विवस्त्रशरीरेण कायोत्सर्गः प्रतिषिद्धः सम्प्रति निर्ग्रन्ध्या ग्रामादितो बहिताप नाग्रहणनिषेधं प्रतिपादयितुमाह- 'नो कप्पर' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कपइ निमगंथीए वहिया गामस्स वा नगरस्स वा खेडस्स वा कब्वडस्स वा पट्टणस्स वा मडवस्स वा आगरस्स वा दोणमुहस्स वा आसमस्स वा सण्णिवेसस्स वा उड्ढं वाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहीए एगपाइयाए ठिच्चा आयावणाए आयावित्तए, कप्पर से उब्वस्सयस्स अंतो वगडाए संघाडिपडिवद्धाए पलं वियवाहियाए समतलपाइयाए ठिच्चा आयावणाए आया वित्तए । सू० २२ ॥
छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः बहिः श्रामस्य वा नगरस्य वा खेटस्य वा कर्वटस्य वा पत्तनस्य वा मडम्बस्य वा आकरस्य वा द्रोणमुखस्य वा आश्रमस्य वा संनि. वेशस्य वा उर्ध्व बाहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूर्याभिमुख्याः एकपादिकायाः स्थित्वा आतापनया
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨
वृहत्कल्पसूत्रे
आतापयितुम्, कल्पते तस्या उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां संघाटी प्रतिवद्धायाः प्रलम्बितबाहायाः समतलपादिकायाः स्थित्वा आतापनया आतापयितुम् ॥ सू० २२ ॥
चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते निर्मन्ध्याः किमित्याह - ग्रामादेर्बहिः प्रदेशे वाहू ऊर्ध्वकृत्य सूर्याभिमुखीभूत्वा एकपादेन ऊर्ध्वभूताया आतापनामातापयितुं न कल्पते इति निषेघसूत्रस्य संक्षेपार्थः । कथं कल्पते । इति विधिसूत्रसंक्षेपार्थो यथा - ग्रामादेर्मध्ये उपाश्रयभूमेरभ्यन्तरे संघाट्यादिना समुचितावृतशरीरायाः बाहू अधोभागे प्रलम्ब्य समतल भूमिस्थितपाद - द्वयेन ऊर्ध्वस्थानेन स्थिताया आतापनामातापयितुं कल्पते, इति निषेधविधिगर्भितस्य सूत्रस्य संक्षेपार्थः। विस्तरार्थो यथा - नो कल्पते न युज्यते निर्ग्रन्ध्याः श्रमण्याः ग्रामस्य वा बाहिरि - त्यनेनान्वयः । एवं नगरस्य वा खेटस्य वा कर्बटस्य वा पत्तनस्य वा मडम्वस्य वा आकरस्य वा द्रोणमुखस्य वा आश्रमस्य वा संनिवेशस्य वा, तत्र - ग्रामः वृतिवेष्टितजन निवासरूपः, तस्य, माकरःसुवर्णरत्नाद्युत्पत्तिस्थानम् तस्य, नगरम् - अष्टादशकरवर्जितम् तस्य खेटं - धूलिप्राकारपरिक्षिप्तम् तस्य, कर्वटं - कुत्सितनगरम् तस्य, मडम्बं - सार्धक्रोशद्वयान्तर्ग्रामान्तररहितम् तस्य, द्रोणमुखंजलस्थलपथोपेतो जननिवासः तस्य, पत्तनं समस्तवस्तुप्राप्तिस्थानम् तस्य, तद् द्विविधं भवति-जलपत्तन स्थलपत्तनं चेति, नौभिर्यत्र गम्यते तज्जलपत्तनं, यत्र च शकटादिभिर्गम्यते तत्स्थलपत्तनम्। यद्वा शकटादिभिर्नैभिर्वा यद् गम्यं तत् पत्तनं, यत् केवलं नौभिरेव गम्यं तत् पट्टनम् इति बोध्यम् । एषां ग्रामादीनां बहिः ऊर्ध्वम् उपरिभागे आकाशे बाहू भुजौ प्रगृह्य - प्रगृह्य प्रकर्षेण कृत्वा सूराभिमुख्याः सूर्याभिमुखं स्थितायाः एकपादिकायाः ऊर्ध्वोत्थापितैकचरणायाः, एकं पादमाकुञ्चितं कृत्वा उत्थाप्य द्वितीयं पादं भूमौ संस्थाप्य एतादृशरूपेण स्थित्वा ऊर्ध्वस्थानेन ऊर्ध्वोत्थापितशरीरेण स्थित्वा आतापनया आतापनरूपतपोविशेषेण आतापयितुम् - आतापनां ग्रहीतुं न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । तहि कथं कल्पते? इति तद्विधिं प्रदर्शयति- 'कप्पड़ से ' इत्यादि, 'से' तस्या निर्ग्रन्थ्याः कल्पते उपाश्रयस्य अन्तर्वगडायां - प्राकाराभ्यन्तरे भित्त्याद्याच्छादितप्रदेशे 'वगडा’– शब्दोऽत्र गृहप्राकाररूपार्थवाचको देशीयो वर्त्तते, तस्या, अभ्यन्तरे, तत्रापि कौदृश्याः ? तत्राह-संघाटी प्रतिबद्धायाः संघाटीग्रहणेन अवग्रहानन्तकादीनां निर्ग्रन्थीप्रायोग्यानां समुचितोपकरणानां ग्रहणं भवति, तैः प्रतिबद्धायाः सुप्रावृतशरीरायाः पुनः कीदृस्याः ? इत्याह- 'पलंबियवाहाए' इति प्रलम्बितबाहायाः प्रलम्बिते अघोलम्बमाने बाहे - बाहू यस्याः सा प्रलम्बितवाहा अधोलम्बमानभुजा, तस्याः प्रलम्बीकृतभुजायाः समतलपादिकायाः समतलौ च तौ पादौ चेति समतलपादौ तौ अस्याः स्त इति समतलपादिका तस्याः, पादद्वयं भूमौ समतया संस्थाप्य स्थितायाः स्थित्वा - पूर्वोक्तप्रकारेण स्थितिं कृत्वा आतापनया - आतापनाभिघतपोविशेषेण आतापयितुम् आतापनां कर्त्तुं कल्पते । साधोर्वैपरीत्येन साध्वीनामातापनाग्रहणं कल्पते, स्त्रीशरीरस्य गोप्यत्वेन तथाविधातापनाग्रहणस्य भगवता प्ररूपितत्वादिति ॥ सू० २२॥
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ० ५ सू० २३-३३
निर्ग्रन्थ्या आसनमर्यादा १३३ पूर्व निर्ग्रन्थीनां प्रामादेर्बहिरातापनाग्रहणं निषिद्धम्, सम्प्रति तासामेव आसनाभिग्रहविशेषाणां निषेधं प्रतिपादयितुमेकादशसूत्रीमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीए ठाणायइयाए होत्तए । सू०२३॥ नो कप्पइ निग्गंथीए पडिमठाइयाए होत्तए । सू०२४ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए णिसज्जियाए होत्तए॥ सू०२५।। नो कप्पइ निग्गंथीए उक्कुडुगासणियाए (ठाणुक्कुडियाए) होत्तए । सू०२६ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए वीरासणियाए होत्तए । सू०२७ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए दंडासणियाए होत्तए ।। सू०२८॥ नो कप्पइ निग्गंथीए लगंडासणियाए होत्तए ॥ सू०२९ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए एगपासियाए होत्तए ॥ सू०३०॥ नो कप्पइ निग्गंथीए उत्ताणासणियाए होत्तए ॥ सू०३१ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए ओमंथियाए होत्तए । सू०३२ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए अंवखुज्जियाए होत्तए ॥ सू० ३३ ॥
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः स्थानायतिकाया भवितुम् ॥ सू०२३ ॥ नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः प्रतिमास्थायिन्या भवितुम् ॥ सू.२१॥ नो कल्पने निर्ग्रन्थ्या नैषधिकाया भवितुम् ॥ सू०१५ ॥ नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः उत्कुटुकासनिकायाः (स्थानोत्कुटुकिकायाः) भवितुम् ॥ सू० १६॥ नो कल्पते निन्थ्या वीरासनिकाया भवितुम् ॥ सू० १७ ॥ नो कल्पते निन्थ्या दण्डासनिकाया भवितुम् ॥ सू०१८ ॥ नो कल्पते निर्ग्रन्थ्या लकुटासभषितुम् ॥सू१९॥ नो कल्पते निर्ग्रन्ध्या एकपार्श्विकाया भवितुम् ॥सू३०॥ नो कल्पते निग्रन्थ्या उत्तानासनिकाया भवितुम् ।। सू०३१ ।। नो कल्पते निग्रंन्थ्या अवामुख्या भवितुम् ॥ ३१ ॥ नो कल्पते निर्ऋत्थ्या आम्रकुब्जिकाया भवितुम् ॥ सू० ३३॥
चूर्णी-'नो कप्पइ'इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः स्थानायतिकायाः ऊर्ध्वस्थानेन आयता स्थानायता सैव स्थानायतिका तस्याः एतादृश्या भवितुम् अवस्थातुम् । 'अमुकसमयपर्यन्तम् कायोत्सर्ग करिष्यामि' इति बुध्या, पूर्वोक्ताकृत्या कायोत्सर्ग कर्तुम् न कल्पते इति भावः ॥ सू०२३ ॥ सम्प्रति प्रतिमाविषयकं सत्रमाह-'नो कप्पइ' इत्यादि । एवं नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः प्रतिमा एकमासिक्यादिरूपा द्वादश, तासु तिष्ठतीति प्रतिमास्थायिनी द्वादशप्रतिमारूपाभिग्रहधारीणी, तस्या भवितुं न कल्पते । मासिक्यादिप्रतिमावहनं निर्ग्रन्थोनां नोचितम्, तासां धृतिबलादिराहित्येन संयमयात्रानिर्वाहाऽसद्भावात् ॥ सू० २४ ॥ एवं नैषधिकायाः निषद्या उपवेशनरूपा उपवेशनप्रकारः, सा विद्यते यस्याः सा नैषधी, सैव नैषधिका, तस्याः निषद्यारूपं स्थानमाश्रित्य स्थिताया भवितुं निग्रन्ध्या नो कल्पते । निषद्या च पञ्चविधा भवति, तथाहि-समपादपुता १, गोनिषधिका २, हस्तिशुण्डिका ३, पर्यड्का ४, अर्द्धपर्यड्डा ५, चेति । तत्र समपादपुता यत्रोपविष्टायाः समौ पादौ पुतौ च स्पृशतः समपादपुता १, यस्यां गौरिवोपवेशनं भवति सा- गोनिषधिका २, यस्यां पुताभ्यामुपविश्य एक पादं 'हस्तिशुण्डमिवोत्थाप्य उपविश्यते
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्र सा हस्तिशुण्डिका ३, पर्यका-यत्र पर्यङ्काकृत्या उपविश्यते सा पर्यङ्का निपद्या ४, अर्द्धपर्यङ्का यस्यामेकं जानुं समुत्थाप्य उपविश्यते सा अर्द्धपल्यङ्का निषद्या प्रोच्यते ५ ।।
___ एवंविधया पञ्चप्रकारया निषद्यया चरतीति नैषधिको तस्याः, एतादृशनिषदनस्थानमाश्रित्य उपवेशनं साध्वीनां नोचितमिति ॥ सू० २५ ॥ एवम् उत्कुटुकासनिकायाः उत्कुटुकंभूमिस्थापितचरणतलद्वयरूपं 'उकडु' इति भाषाप्रसिद्धमासनम् उत्कुटुकासनं, तद् विद्यते यस्याः सा उत्कुटुकासनिक', तस्या उत्कुटुकासनेन समुपविष्टाया निम्रन्थ्या भवितुं नो कल्पते, उस्कुटुकासनेन निर्ग्रन्ध्या नोपवेष्टव्यम् ॥ सु० २६ ॥ एवं वीरासनिकाया भवितुं नो कल्पते, वीरासनेन उपवेशनं साध्वीनां नोचित्तम् । वीरासनं नाम सिंहासने उपविष्टो भूमौ न्यस्तपादस्तिष्ठति, तदवस्थायां तत् सिंहासनं तदधोभागात् निस्सार्यते तदापि तदाकारेणैव अवस्थानं यत्र भवति तदासनं वीरासनं प्रोच्यते, तद् यस्या अस्तीति वीरासनिका, तस्या वीरासनिकाया भवितुं निर्ग्रन्ध्या नो कल्पते ॥ सू० २७ ॥ एव दण्डासनिकाया निग्रन्ध्या भवितुं नो कल्पते । दण्डः यष्टिः, तद् दीर्घमायतं पादप्रसारणेन भवति तद् आसनं दण्डासनं, तद् यस्या अस्ति सा दण्डासनिका तस्या दण्डासनिकाया भवितुम् अवस्थातुं निग्रन्ध्या न कल्पते, ।। सू० २८ ॥ एवं लकुटासनिकाया, लकुटं कुजकाष्ठं तद्वत् कुजतया मस्तकपार्णिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालगनेन शयनम् , अथवा कुब्जीभूय शयनम् , एतादृशमासन यस्याः सा लकुटासनिका, तस्या लकुटासनिकाया निर्ग्रन्ध्या भवितुं नो कल्पते ॥ सू० २९ ॥ एवं 'ओमंथियाए इति अवाड्मुख्याः अवाड् अघो मुखं यस्याः सा अवाङ्मुखी तस्या अधोमुखीभूताया भवितुम् अवस्थातुं निर्ग्रन्ध्या नो कल्पते ॥ सू० ३० ॥ एवम् एकपार्श्विकायाः-एकपार्श्वेन शायिन्याः तथाविधाभिग्रहविशेषेण शयितायाः साध्व्या भवितुं नो कल्पते ॥ सू० ३१॥ एवम् उत्तानासनिकायाः, उत्तानम् ऊर्ध्वमुखीभूय शयनम्, एतादृशमासनं यस्या सा उत्तानासनिका, तस्या उत्तानासनिकाया भवितुं साव्या नो कल्पते ॥ सू० ३२ ॥ एवम् आम्रकुजिकाया-आम्राकारेण कुब्जीमूय स्थिताया निर्घन्ध्या भवितुं नो कल्पते, यत्र मस्तकपादद्वयेन भूमि स्पृशति मध्यशरीरमूर्ध्व क्रियते तदासनम् आम्रकुब्जासनं प्रोच्यते, तदासनेन स्थातु साध्व्या नोचितमिति भावः, प्रागुक्तयुक्तः । एते एकादशसूत्रोकाः सर्वेऽपि अभिग्रहविशेषा निम्रन्थीनां प्रतिषिद्धाः ॥ सू० ३३ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थीनां ब्रह्मचर्यव्रतरक्षणार्थमकल्प्या अभिग्रहविशेषाः प्रतिपादिताः, सम्प्रति तद्क्षणार्थमेव निर्ग्रन्थीनाम् आकुञ्चनपट्टादयो दारुकदण्डकान्ता न कल्पन्ते, इति प्रतिपादयितुं प्रथम तासाम् आकुञ्चनपट्टकं प्रतिपेधितुमाह-'नो कप्पइ' इत्यादि।
सूत्रम्-नो कप्पइ निगंथीणं आकुंचणपगंधारित्तए वा परिहरित्तए वा। सू०३४॥
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ. ५ सू० ३४-३९ निर्ग्रन्थीनां स्थाननिषीदनादिमर्यादा १३५
छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थीनाम् आकुञ्चनपट्टकं धारयितुं वा परिहत्तुं वा ।सू०३४॥
चूणीं-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निम्रन्थीनाम् आकुश्चनपट्टकं, आकुश्चनं-संकोचनम् अधःशरीरस्य संकोचनं तन्निमित्तं यत् पट्टकं वस्त्रम् पर्यस्तिकापट्टकमित्यर्थः, पर्यस्तिकाकरणनिमित्तं यत् पट्टकं वस्त्रं तत् निर्ग्रन्थीनां धारयितुं पार्श्वे स्थापयितुम् , परिहर्तुम्-परिभोक्तुं न कल्पते । पर्यस्तिकां कुर्वाणां साध्वीं दृष्ट्वा लोको वदति-अहो कीदृशोऽस्या गर्वः या पर्यस्तिकां बद्ध्वा समुपविशति । पर्यस्तिकां कुर्वाणा अपावृताऽपि भवेत् तेन ब्रह्मचर्यवतमङ्गसंभवः लोकापवादो वा भवेत् । माकुञ्चनपट्टकं तासाम् अनुपधिः, य उपकारे वर्त्तते स उपधिरुच्यते, अन्यः अनुपधिः, तच्च तासामुपकारे नायातीति कृत्वा अनुपधिः । अनुपधिभूतस्योपकरणस्य धारणे तीर्थकृदाज्ञाभङ्गः । तत्प्रत्युपेक्षणादौ सूत्रार्थस्वाध्यायहानिर्भवेत् तस्मात् आकुश्चनपट्टकं साध्वीनां नानुज्ञातम् ॥ सू० ३४ ॥
पूर्व निर्ग्रन्थीनामाकुश्चनपट्टकं निषिद्धम् , तत् निर्ग्रन्थानां कल्पते इति निम्रन्थसूत्रमाह"कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ निग्गंथाणं आकुंचणपट्टगं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥सू०३५॥ छाया- कल्पते निर्ग्रन्थानाम् आकुञ्चनपट्टकं धारयितुं वा परिहर्त वा । सु०३५ ।
चर्णी_कप्पड' इति । कल्पते निर्ग्रन्थानां श्रमणानाम् आकुञ्चनपट्टकं पर्यस्तिकापट्टकं पर्यस्तिकाकरणाथै वस्त्रं धारयितुं-संग्रहीतु परिहत्तु परिभोक्तुं कल्पते, श्रमणानां पूर्वोक्तदोषानापत्तेः, किन्तु पर्यायज्येष्ठपुरत आकुञ्जनपट्टासनेन स्थातुम् न कल्पते ॥ सू० ३५ ।।
पूर्व निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थानां पर्यस्तिकापट्टधारणे निषेधो विधिश्च प्रदर्शितः, सम्प्रति उभयेषां सावष्टम्भासने उपवेशनस्य निषेधं विधिं च प्रदर्शयितुमाह-'नो कप्पइ' 'कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीणं सावस्सयंसि आसणंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा ॥ सू० ३६॥ कप्पइ निग्गंथाणं सावस्सयंसि आसणंसि चिद्वित्तए वा निसीइत्तए वा ।। सू० ३७ ॥
छाया-नो कल्पते निग्रन्थीनां सावधये आसने स्थातुं वा निषत्तुं वा ॥सू० ३६॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां सावधये आसने स्थातुं वा निषत्तुं वा ॥ सू० ॥ ३७॥
चर्णी_नो कप्पड' इति । नो कल्पते निम्रन्थीनां सावश्रये-सावश्रयं नाम यस्यासनस्य पृष्ठतोऽवष्टम्भो भवति तादृशे सावष्टम्भे आसने स्थातुम् ऊवस्थानेन स्थिति कर्त्तम् , निषत्तुं-तदुपरि उपवेष्टुं न कल्पते इति सम्बन्धः, एतादृशासने उपविष्टानां श्रमणीनां पूर्वोक्तो गर्वः मिद्धयति, स्त्रीशरीरत्वेन तरुणानां मोहजनकत्वं वा भवति तस्मात् निग्रन्थीनां सावष्टम्भासने
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
पृहत्कल्पसूत्रे
स्थातुं निषत्तुं वा नोचितमिति ॥ सू० ३६ ॥ सम्प्रति निम्रन्थविषये विघिसूत्रमाह-'कप्पई' इति । कल्पते निम्रन्थानां सावश्रये सावष्टम्मे आसने स्थातुं निषत्तुं वा , यतो ग्लानत्वादिकारणान्निरालम्बमुपवेष्टुमशक्तानां निम्रन्थानां सावष्टम्भमासनं कल्पते, निर्ग्रन्थीनां सर्वथा न कल्पते इति भावः ।। सू० ३७ ॥
पूर्व सावष्टम्भासनविषये निर्ग्रन्थीनां निपेधसूत्रं, निर्ग्रन्थानां च विधिसूत्रमुक्तम् , सम्प्रति सविषाणपीठफलकविषये तदेवाह-'नो कप्पइ' 'कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निगंथीणं सविसाणंसि पीटंसि वा फलगंसि वा चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा ॥ सू० ३८॥ कप्पइ निग्गंथाणं सविसाणंसि पीहँसि वा फलगंसि वा चिट्टित्तए वा निसीइत्तए वा ॥ सू० ३९ ॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सविपाणे पीठे वा फलके वा स्थातुं वा निषत्तुं वा ॥ सु० ॥ ३८ ॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां सविपाणे पीठे वा फलके वा स्थातुं वा नियतु वा ॥ सू० ॥ ३९ ॥
चूर्णी-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सविषाणे-विषाणं शृङ्गम् , विषाणमिव विषाणं शृङ्गाकार उपर्युत्थितः काष्ठविशेषः, तेन सहितं सविषाणम्-तस्मिन् सविषाणे सशृङ्गे पीठे काष्ठनिमितासनविशेषे, फलके वा शयनपट्टके स्थातुम् ऊर्ध्वस्थानेन निपत्तुम्-उपवेष्टुं न कल्पते इति सम्बन्धः । यस्य पीठस्य फलकस्य वा उपरि शोभार्थ शृङ्गाकारम् ऊर्ध्वलम्बकाष्ठं निर्मितं भवेत् तादृशे पीठे फलके वा स्थाननिषीदनकरणे ऊर्ध्वकाष्ठरूपतदाकारावलोकनेन उदीर्णमोहत्वेन भुक्तभोगिनीनां निम्रन्थीनां पादकर्मस्मृतिकरणादिदोषसंभवात्, अभुक्तभोगिनीनां च कौतुकसंभवात् निम्रन्थीनां सविषाणपीठफलकादौ स्थानदि कत्तुं नोचितमिति भावः ॥ सू० ३८ ॥ विधिमाश्रित्य निर्ग्रन्थसूत्रमाह-कप्पइ' इति । पूर्वोक्ते सविषाणे पीठे वा फलके वा स्थातुं निषत्तुं वा निम्रन्थानां कल्पते, श्रमणानां पूर्वोक्तदोषानापत्तेः ॥ सू० ३९ ॥
पूर्व सविषाणपीठफलकविषये निर्ग्रन्थीनां निषेधसूत्रम् , निर्ग्रन्थानां च विधिसूत्रं प्रतिपादितम् , सम्प्रति सवृन्तकालावुविषये तदेव सूत्रद्वयमाह-'नो कप्पइ' 'कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेंटगं लाउयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥सू०४०॥ कप्पइ निग्गंथाणं सर्वेटगं लाउयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू०४१॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सवृन्तकम् अलावु धारयितुं वा परिहत्तं वा ॥ सू०४० ॥ कल्पते निम्रन्थानां सवृन्तकम् अलायु धारयितुं वा परिहत्ते वा ॥ सू०४१ ॥
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्णिभाध्यायचूरी उ०-५ सू०४१-४६ साधुसाध्वीनां पादकेसरिकादिग्रहणविधिः १३७
___ चूर्णी-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निम्रन्थीनाम् सवृन्तकम्-वृन्तसहितं नाल-- युक्तम् अलावु-तुम्बिकाफलपात्रम् धारयितुम् संग्रहीतुम् , परिहर्तुम् पानादौ उपभोक्तुम् । सविपाणपीठफलकवदत्रापि बहिनिस्सृतो कारावलोकनेन भुक्तभोगिनीनामभुक्तभोगिनीनां निर्ग्रन्थीनां पूर्वोक्तस्मृतिकरणकौतुकादिदोषसंभवात् ॥सू० ४० ॥ निम्रन्थविषयकं विघिसूत्रमाह-कप्पइ' इति । कल्पते निर्ग्रन्थानां तदेव सवृन्तकं तुम्बीपात्रं धारयितुं वा परिहत्ते वा, निर्ग्रन्थानां पूर्वोक्तदोषासंभवात् ॥ सू० ४१॥
पूर्व सवृन्तकाऽलाबुपात्रधारणे निषेधसूत्रं विधिसूत्रं च निर्ग्रन्थीनिम्रन्थानां क्रमेण प्रतिपादितम् , सम्प्रति निम्रन्थीनिम्रन्थद्वयमाश्रित्य तदेव सूत्रद्वयमाह-'नो कप्पई' 'कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेंटियं पायकेसरियं 'धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू० ४२ ॥ कप्पइ निग्गंथाणं सवेंटियं पायकेसरियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू० ४३ ।।
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सवृन्तिकां पात्रकेसरिकां धारयितुं वा परिहत्तुं वा ॥ सू० ४२ ॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां सवृन्तिकां पात्रकेसरिकां धारयितुं वा परिहर्नु वा ॥ सू० ॥ ४३॥
चूर्णी—'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सवृन्तिकां वृन्तसहितां लम्बाकारेण वृन्तवद् वृन्तम् उपरिलम्बदण्डिकारूपं, तेन सहितां सवृन्तिकाम् पात्रकेसरिकाम्-पात्रप्रोञ्छनार्थ प्रमार्जनिकां लम्बदण्डिकाप्रतिबद्धदशिकामयी प्रमार्जनिकां धारयितुम् उपकरणवुद्ध्या पार्श्वे स्थापयितुम् , परिहर्तुम्-परिभोक्तुं न कल्पते ॥ सू० ४२ ॥ निर्ग्रन्थानधिकृत्य विधिसूत्रमाह-कप्पई' इति, कल्पते निम्रन्थानां सवृन्तिकां पात्रकेसरिकां पात्रप्रोञ्छनप्रमार्जनिकां धारयितुं वा परिहत्तुं वा कल्पते ॥ सू० ४३ ॥
पूर्व पात्रकेसरिकाविषयं सूत्रद्वयं प्रतिपादितम् , सम्प्रति दारुदण्डकपादप्रोञ्छनविषयं तदेव सूत्रद्वयमाह-'नो कप्पइ' 'कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथीणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू० ४४॥ कप्पइ निग्गंथाणं दारुदंडय पायपुंछणं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ सू० ४५॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनकं धारयितुं वा परिहत्त ॥ सू० ४४॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनकं धारयितुं वा परिहत्त वा ॥ सू० ४५॥
चूर्णी-'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां दारुदण्डक दारुमयदण्डिकायुक्तं पादप्रोञ्छनकं दारुमयदण्डिकाया अग्रभागे ओर्णिका दशिका बध्यन्ते तादृशं पादप्रोञ्छनार्थ
१८
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
पृहत्करपस्त्रे प्रमार्जनिकारूपम् न कल्पते इति भावः ॥ सू० ४४ ॥ निम्रन्थविषये विधिसूत्रमाह-'कप्पइ' इति । कल्पते निम्रन्थानां दारुदण्डकं काष्ठमयदण्डिकायुक्तं पादप्रोञ्छनकम् दण्डोपरिमागवद्धदशिका समूहं पादप्रोञ्छनार्थ प्रमार्जनिकारूप धारयितुं परिभोक्तुं वा कल्पते ॥ सू०४५॥
पूर्व ब्रह्मचर्यवतरक्षणार्थ विशेषतः श्रमणीमधिकृत्य एकाकिनी विहारादिदारुदण्डकपादप्रोञ्छनधारणपर्यन्तवक्तव्यता प्रतिपादिता, सम्प्रति तस्यैव व्रतस्य रक्षणार्थ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीद्वयमधिकृत्य मोकसूत्रमाह-'नो कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा अन्नमन्नस्स मोयं आपिवित्तए वा आयमित्तए वा नन्नत्य गाढागाटेहि रोगायंकेहिं ।। सू० ४६॥
छाया-नो कल्पते निग्रन्थानां वा निर्गन्थीनां वा अन्योन्यस्य मोकम् आपातुं वा आचमितुं वा नान्यत्र गाढागाढेभ्यो रोगातडेभ्यः ॥ सू० ४६ ।।।
चूर्णी--'नो कप्पई' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा श्रमणश्रमणीनां अन्योन्यस्य--परस्परस्य-साधोः-साव्याः साध्याश्च साधोः, इत्येवम् एकद्वितीययोः मोकम्-प्रत्रवणम् आपातुं आचमितुं वा न कल्पते, परस्परमोकग्रहणे वशीकरणादिदोपसंभवात् । किं सर्वथा न कल्पते ? इत्याह-'नन्नत्य' इति नान्यत्र, अन्यत्र न, कुत्र न ? इत्याह-'गाढागादेहि इति । गाढागाढेभ्यः रोगातङ्केभ्योऽन्यत्र न, गाढागाढा इत्यत्यन्तगाढाः कष्टसाध्या रोगातड्डाःरोगाः-व्याधयः, ते च ते आतड्काश्च कृच्छजीवितकारित्वात् रोगातकाः कष्टसाध्या व्याधयः सर्पमण्डूकादिदशनरूपाः, अथवा रोगाः-रक्तविकारपामादिरूपाः, आतङ्काः-सघोघातिनः सर्पादिविषयोनिहृदयशूलादयः, रोगाश्च आतङ्काश्चेति रोगातकाः, तेभ्योऽन्यत्र निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां मोकं परस्परमापातुम् , आचमितुं वा न कल्पते, अनेनायातम्-गाढागाढरोगातङ्ककारणे कल्पते, तदेवम्-सादिविषं पामादिरक्तविकाररोगश्च नरमूत्रेण शाम्यति, तदुक्तं भावप्रकाशे
"नरमूत्र गरं हन्ति, सेवितं तद् रसायनम् । रक्तपामाहरं तीक्ष्णं, सक्षारलवणं स्मृतम् ॥ गोऽजाऽविमहिषीणां तु, स्त्रीणां मूत्रं प्रशस्यते ।
खरोष्ट्रेभनराश्वानां, पुंसां मृत्रं हितं स्मृतम् ॥ सू० ४६ ॥" पूर्व मोकसूत्रं प्ररूपितम्, पानप्रसगात् पर्युषिताहारविषयं सूत्रमाह-'नो कप्पई' इति ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा परियासियं भोयणजायं जाव तयप्पमाणमेत्तं वा भूइप्पमाणमेत्तं वा तोयर्विदुप्पमाणमेत्तं वा आहार आहरित्तए नन्नत्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहिं ॥ सू० ४७ ॥
छाया-नो कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितं भोजनजातं यावत् त्वचाप्रमाणमात्रमपि भूतिप्रमाणमात्रमपि तोयविन्दुप्रमाणमात्रमपि आहारम् आहर्तम्, नान्यत्र गाढागाढेभ्यः रोगातङ्केभ्यः ॥ सू० ४७ ।।
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णि भाग्यावचूरी उ० ५ ० ४७-४९
पर्युषिताहारादिनिषेधः १३९
"
चूर्णी - 'नो कप्पड़' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितम् संगृहीतं प्रथमप्रहरे आनीतं चतुर्थप्रहर प्राप्त भोजनजातम् अशनादिचतुर्विधं यावत् - न्यूनान्यूनम् तत् कियदित्याह - ' तयप्पमाणमेत्तं वा' इति, त्वक्प्रमाणमात्रमपि तिलतुषत्रिभागमात्रमपि, एतच्चाशनस्य घटते । भूतिप्रमाणमात्रमपि, भूतिः - भस्म भूतिशब्देन भस्म चप्पु - टिका गृह्यते तेन भूतिचप्पुटिकामात्रमपि इत्यर्थो बोध्यः संयोजिताङ्गुष्टतर्जनीभ्यां गृहीतं द्रव्यं भूति प्रमाणमात्र कथ्यते तच्च सक्तुकादीनां शुष्कचूर्णद्रव्यादीनां च घटते । तोयबिन्दुप्रमाणमात्रमपि पानकद्रव्यस्य विन्दुप्रमितमपि परिवासितं प्रथमप्रहरस्थापितस्य चतुर्थ प्रहरः प्राप्तः, तादृशम् आहारम् - किमपि भोज्यपेयपदार्थजातम् आहर्तुम् - भोक्तुं न कल्पते इति । यद्वा परिवासितं रजन्यां स्थापितं पूर्वोकप्रमाणमात्रमपि आहारं भोक्तुं न कल्पते । रजन्यां स्थापितवस्तुमात्रस्य मुनीनां परिभोगो न कल्पते, तस्य सन्निधिसंचयदोषापत्तेः, सन्निधि - संचये साधुत्वमपि नश्यति, उक्तञ्च दशवैकालिकसूत्रे षष्ठाध्ययने"लोहस्सेसणुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि ।
जे सिया संनिहिकामे, गिही पव्चइए न से || गा० १९ ॥ " लोभस्य एष अनुस्पर्शः, मन्ये अन्यतरोऽपि ।
यः स्यात् संनिधिकामः गृही प्रव्रजितो न सः ॥ गा० १९ ॥ इतिच्छाया ॥ संक्षेपार्थः - 'मन्ये' इति भगवद्वाक्यम्, मन्ये अहं निश्चिनोमि अन्यतरोsपि बहूनां मध्ये एकः एषः लोभस्य अनुस्पर्शः प्रभावः, लोभस्य बहूनां प्रभावाणां मध्ये एष पूर्वोक्तः संनिधिरूप एकः प्रभावोऽस्ति, एवमहं मन्ये, अतः यः संनिधिकामः-संनिधिवाञ्छकः स्यात् सः गृही–गृहस्थ एव मन्तव्यः न तु सः प्रव्रजितः - साधुरिति । इत्येवं भगवद्वचनात् परिवासितमाहारजातं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां भोक्तुं न कल्पते इति भावः । किं सर्वथा न कल्पते ? इत्यपवादमाह–‘नन्नत्थ' इत्यादि, नान्यत्र - अन्यत्र न, केभ्यः ? इत्याह- गाढागाढेभ्यो रोगात - केभ्यः गाढागाढरोगातङ्कान् विहाय, अन्यत्र न कल्पते इत्यर्थः ॥ सू०४७॥
पूर्वं परिवासिताहारनिषेधसूत्रं प्रोक्तम्, सम्प्रति परिवासितालेपननिषेधसूत्रं प्रतिपादयति'नो कप' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कपड़े निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएणं आलेवणजाएणं आर्लिपित्तए वा विलिंपित्तए वा, नन्नत्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहिं ॥ सू० ४८ ॥
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितेन आलेपनजातेन आलेपयितु वा विलेपयितुं वा, नान्यत्रं गाढागाढेभ्यः रोगातङ्केभ्यः ॥ सू० ४८ ॥
चूर्णी - 'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीना वा परिवासितेनप्रथम प्रहरगृहीतचतुर्थ प्रहर प्राप्तेन आलेपनजातेन केनापि लोधादिनिर्मितालेपनेन आलेपयितुं
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४०
वृहत्कल्पसूत्रे वणादिपु किञ्चिद् एकवारम् आलेपनं कर्तुं विलेपयितुं-विशेपेण लेपयितुं अनेकवारम् न कल्पते इति सम्बन्धः । किं सर्वथैव न कल्पते ? इत्याह-'नन्नत्थ' इत्यादि, नान्यत्र गाढागाढेभ्यो रोगात भ्यः गाढागाढेभ्यः अत्यन्तप्रगाढेभ्यः भयङ्करेभ्यः रोगातकेभ्यः सर्पादिविपत्रणसद्योघातिक्षुद्रव्रणप्रभृतिप्राणघातकरोगरूपातङ्केभ्यः अन्यत्र न कल्पते, पूर्वोक्तकारणे कल्पते इति भाव. ॥ सू० ४८ ॥
पूर्व परिवासितालेपनेनाऽऽलेपननिषेधः प्रतिपादितः, तत्प्रसङ्गात् सम्प्रति परिवासिततैलादिना गात्राभ्यगनम्रक्षणनिषेधं प्रतिपादयितुमाह-नो कप्पइ' इति ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएणं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा गायाइं अभंगित्तए वा मक्खित्तए वा नन्नस्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहि ।। सू० ४९॥
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितेन तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा वसया वा गात्राणि अभ्यङ्गितु वा म्रक्षितु वा, नान्यत्र गाढागाढेभ्यः रोगातङ्केभ्यः ॥ सू० ४९ ॥
चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा परिवासितेनप्रथमप्रहरानीतचतुर्थप्रहरप्राप्तेन तैलेन वा-तिलसर्पपादिजन्यस्निग्धद्रवपदार्थजातेन, घृतेन वा प्रसिद्धेन, नवनीतेन वा-म्रक्षणेन 'मक्खन' इति भाषाप्रसिद्धेन, वसया वा स्निग्धरसविशेषेण वा गात्राणि हस्तपादमुखाद्यङ्गानि अभ्यङ्गितुं वा-प्रचुरतैलादिना उद्वर्त्तयितुम् , म्रक्षितु वा स्वल्पेन तैलादिना म्रक्षण कर्तुं वा न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । यद्येवं परिवासितेन तैलादिना गात्राणामभ्यङ्गनं म्रक्षण च न कल्पते तर्हि अपरिवासितेन तत्तत्प्रहरानीतेन तत्तत्प्रहरेऽभ्यङ्गनं म्रक्षणं च निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां कल्पते, इत्यायातम् तत्राह-परिवासितेन अपरिवासितेन वा तैलादिना मुनीनां गात्राम्यननं न कल्पते, तस्य शरीरविभूषासूचकत्वात्, शरीरविभूषाया भगवता निषिद्धत्त्वाच्च, उक्तं च".... ...कि विभूसाए कारणं" इति दशवैकालिसूत्रोक्तभगवद्वचनात् निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां तैलाद्यभ्यतनं न कल्पते । अथ च तैलाद्यभ्यगने संयमविराधना आत्मविराधना चापि संभवेत. तत्र संयमविराधना अभ्यङ्गितम्रक्षिते गात्रे सचित्तरजो लगति, तद्गन्धेन च पिपीलिकादित्रसप्राणिनो लगन्ति तेषां विराधनेन संयमविराधना भवेत् , पुनश्च तैलादिना चीवराणि मलिनीभवन्ति, तेषां धावनेऽधावने वा द्विधापि दोपाः समापतन्ति, यथा--यदि धाव्यन्ते तदा प्राणिनामुत्प्लावना भवेत् उपकरणशरीरयोर्वकुशत्वं भवति । यदि न धाव्यन्ते तदा निशिभक्कदोपापत्तिर्भवेत् । अभ्यङ्गितम्रक्षिते शरीर ‘पादयोधूलिर्मा लगतु' इति वुद्ध्या पादौ वनादिना पिनह्यति तेन
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिमायावचूरी उ० ५ सू० ४९-५१
परिहारकल्पस्थितस्य प्रायश्चित्तविधिः १४१
गर्वनिर्दिवतादयो दोषा भवन्ति । पुनश्च यावत्कालं गात्रस्याभ्यङ्गादि करोति तावत्कालं सूत्रार्थपरिमन्थो भवेत् , मुनिना च सर्वसामयिकत्वात् क्षणमपि निरर्थकं न नेतव्यमिति भगवदाज्ञाभगदोषोऽवश्यम्भावीति । आत्मविराधना-तैलादिनाऽभ्यङ्गिते गात्रे तद्गन्धेन समापतिताः पिपीलिकादिप्राणिनः क्षतं करोति, स्नग्ध्येन पादं वा प्रस्खलतीत्यादिनाऽऽत्मविराधनासंभवः, तस्मात् परिवासितेनापरिवासितेन वा तैलाद्यभ्यगनं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां न कल्पते इति भावः । किं सर्वथा न कल्पते । तत्राह-'नन्नत्थ' इत्यादि, नान्यत्र- अन्यत्र न, केभ्यः ! इत्याह-गाढागाडेभ्यः-गाढदुःखजनकेभ्यः रोगातङ्केभ्यः, गाढागाढरोगातङ्कान् विहायान्यत्र न कल्पते, तथाविधे कारणे कल्पते, कारणं यथा-अध्वगमनेनातीव श्रान्तत्वम्, वातरोगेण कटिबन्धनम् , कच्छुपामा दिपीडितत्वं च भवेत्, इत्यादिकारणे तैलाद्यभ्यङ्गनं यतनया कर्त्तव्यमिति भावः ।। सू० ४९ ॥
पूर्वसूत्रे गात्राणामभ्यङ्गन म्रक्षणं च निषिद्धम्, सम्प्रति--उपलेपनम् उद्वर्तनं च निषेधयितुमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्--नो कप्पइ निग्गथाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएण कक्केण वा लोद्धेण वा पधृवणेण वा अन्नयरेण वा आलेवणजाएण गायाइं उवलित्तए वा उव्वहित्तए वा, नन्नत्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहि ।। सू० ५० ॥
छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा परिवासितेन कल्केन वा लोध्रेण वा प्रधूपनेन वा अन्यतरेण वा-आलेपनजातेन गात्राणि उपलेपयितु वा उद्वर्त्तयितुवा, नान्यत्र गाढागाढेभ्यो रोगातङ्केभ्यः ॥ सू० ५० ॥
चूर्णी- 'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा परिवासितेन पर्युषितेन प्रथमप्रहरानीतचतुर्थप्रहरप्राप्तेन कल्केन वा उत्कालितसुगन्धिद्रव्यविशेषेण, लोभ्रेण वा स्निग्धचूर्णरूपसुगन्धिद्रव्यविशेषेण, प्रधूपनेन वा अगुरुचन्दनप्रभृतिसुगन्धिधूपनद्रव्येण, एवम् अन्यतरेण वा एतादृशेन केनापि अनेकविधसुगन्धिद्रव्यमध्यादेकेन सुगन्धिद्रव्यरूपेण आलेपनजातेन आलेपनयोग्यद्रव्यविशेषेण गात्राणि-अङ्गानि मुखहस्तपादादीनि उपलेपयितुं वा सामान्येन लेपितानि कत्तुं वा, तथा उद्वर्तयितुम् उपमर्दयितुं वा न कल्पते इति सम्बन्धः । किं सर्वथा न कल्पते ? इत्याह—'नन्नत्थ' इत्यादि, नान्यत्र गाढागाढेभ्यः रोगातङ्केभ्यः, गाढागाढेभ्यः अत्यन्तमरणादिभयजनकेभ्यः रोगातङ्केभ्यः, रोगरूपातङ्केभ्यः-कुक्षिशूलहृदयशूलमस्तकशूलरक्तविकारादिजनितविषमग्रन्थिप्रभृतिरूपेभ्यः, मरणादिभयजनकरोगातकान् विहाय
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
बृहत्कल्पसूर्य
निष्कारणं शरीरसौन्दर्याद्यर्थं सुगन्धिद्रव्यजातेन गात्राणामुपलेपनमुद्वर्त्तनं च मुनीनां न कल्पते, तादृशावस्थायां कारणे सति यतनया कल्पते इति भावः ॥ सू० ५० ॥
पूर्वं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां निष्कारणं गात्राभ्यङ्गनादि निषिद्धम्, सम्प्रति निष्कारणं गात्राभ्यङ्गनादिकारी कारणे चायतनया करणशीलः परिहारतपः प्रायश्चित्तभागी भवतीति परिहारकल्पसूत्रमाह – 'परिहारकप्पट्ठिए' इत्यादि ।
सूत्रम् -- परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू वहिया थेराण वेयावडियाए गच्छेजा, से य आहच्च अइवकमिज्जा, तं च थेरा जाणिज्जा अप्पणो आगमेण अन्नेसिं वा अंतिए सुच्चा, तओ पच्छा तस्य अहालहुस्सए नामं ववहारे पट्टवेयव्वे सिया || सू०५१ ॥
छाया - परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः वहिः स्थविराणां वैयावृत्त्याय गच्छेत्, स च आहत्य अतिक्रामेत्, तच्च स्थविरा: जानीयु आत्मन आगमेन, अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ स्० ५१| चूर्णी - 'परिहारकप्पट्टिए' इति । परिहार कल्पस्थितः परिहारतपो वहमानः भिक्षुः श्रमणः बहिः–स्थितस्थानादन्यत्र ग्रामनगरादौ, तत्रैव वा उपाश्रयान्तरे स्थितानां स्थविराणां वैयावृत्त्याय-वैयावृत्त्यनिमित्तम् उपलक्षणाद् नास्तिकादिवादिजयार्थं वा तादृशकार्यक्षमान्यश्रमणाभावे आचार्योपदिष्टो गच्छेत्, सच तत्र आहत्य - कदाचिद् अनिवार्यकारणवशाद् अज्ञानाद्या अतिक्रामेत्-प्रतिज्ञाततपोविशेषम् उल्लङ्घयेत् तच्च तस्यातिक्रमणं दोषसेवनरूपम् स्थविराः येषां वैयावृत्त्यार्थमागतस्ते प्रधानाचार्याः आत्मनः स्वस्य आगमेन - आगमोक्तावध्यादिज्ञानेन, वा - अथवा अन्येषाम्-तत्पार्श्वस्थान्यमुनीनां गृहस्थानां वा अन्तिके समीपे श्रुत्वा जानीयु, तस्यातिक्रमणं स्वस्य ज्ञानविषयीकृतं स्यात् तदा ततः पश्चात् तज्ज्ञानानन्तरं तस्य वैयावृत्त्यार्थमागतस्य परिहारकल्पस्थितस्य श्रमणस्य ‘अहालहुस्सए नामं' इति यथालघुस्वकनामकः यथालघुस्वकः यथासंभवं स्तोकप्रायश्चित्तरूपः व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः दातव्यः स्यात् । तस्मै यथाशक्य लघुप्रायश्चित्तं दातव्यमिति भावः ॥ सू० ५१ ॥
पूर्वं परिहारकल्पसूत्रं कथितम्, सम्प्रति भक्तप्रसङ्गात् निर्ग्रन्थीनां पुलाकभक्तसेवनविधिमाह - 'निग्गंधी य' इत्यादि ।
सूत्रम् - निग्गंथीए य गादाव कुलं पिंड़वायपडियाए अणुष्पविद्वाए अन्नयरे लागभत्ते पडिग्गाहिए सिया, साय संथरिज्जा कप्पर से तदिवस तेणेव भत्तट्टणं पज्जोसवित्तए, नो से कप्पड़ दुच्चपि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसित्तए वा, सायनो संथरिज्जा एवं से कप्पइ दुच्चं पि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसित्तए । ०५२॥ ॥ पंचमोसो समतो ॥५॥
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ०५ सू० ५२
निर्ग्रन्थ्याः पुलाकभकाहारविधिः १४३
wwwwwwwwwwwww
छाया-निर्ग्रन्थ्या च गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन अनुप्रविष्टया अन्यतरत् पुलाकभक्त प्रतिगृहीतं स्यात् , सा च संस्तरेत् कल्पते तस्याः तद्दिवसं तेनैव भकार्थेन पर्युषितुम् , नो तस्याः कल्पते द्वितीयमपि गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन प्रवेष्टुम् , सा च नो संस्तरेत् एवं तस्याः कल्पते द्वितीयमपि गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन प्रवेष्टुम् ॥ सू० ५२ ॥
॥ पञ्चमोद्देशः समाप्तः ॥५॥
चूर्णी-'निग्गंथीए य' इति । निर्ग्रन्थ्याश्च साध्व्याः गाथापतिकुलं गृहस्थगृहं पिण्डपातप्रत्ययेन भिक्षाग्रहणनिमित्तेन अनुप्रविष्टया-प्रवेशं कृतवत्या यदि अन्यतरत्-बहूनां मध्यादेकम् , पुलाकं त्रिविधं भवति-धान्यपुलाकम् , गन्धपुलाकम् , रसपुलाकं चेति, तत्र धान्यपुलाकं वल्लादि, गन्धपुलाकम्-एलालवड्गजातिफलादीनि यानि उत्कटगन्धानि द्रव्याणि, तद्बहुलं भक्तम्, रसपुलाकम् क्षीर-द्राक्षा-खजूरादिरसरूपम् , एषां त्रयाणां पुलाकानां मध्याद् एकतरत् पुलाकभक्तम्, पुलाकम् असारमुच्यते यत आहारितानि एतानि त्रीण्यपि पुलाकानि निम्रन्थी संयमसाररहितां कुर्वन्ति प्रवचनं वा निस्सारं कुर्वन्ति ततस्तानि पुलाकानि प्रोच्यन्ते, एषां मदजनकस्वभावत्वात् । एतानि पुलाकानि निर्ग्रन्थीं मदविह्वलां कुर्वन्ति तेन सा संयमसाररहिता भवति । तेषां कदाचिद् ग्रहणे तद्विधिं प्रदर्शयति-तत् पूर्वोक्तं पुलाकमक्तं कदाचित्-अनाभोगादिकारणात् प्रतिगृहीतं स्वीकृतं स्यात् तदा यदि सा च निग्रन्थी संस्तरेत् तेन प्रतिगृहीतेन पुलाकभक्तेन निर्वाहं कुर्यात् निर्वोढुं समर्था भवेत् तदा कल्पते तस्याः तं दिवस तेनैव पूर्वानीतेनैव भक्तार्थेन पुलाकभक्तेन पर्युषितुम्-तं दिवस व्यत्येतं कल्पते किन्तु नो-नैव तस्याः कल्पते द्वितीयमपि जिह्वालौल्येन द्वितीयवारमपि गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रत्ययेन तद्ग्रहणवाञ्छया प्रवेष्टुम् । अथ सा च निर्ग्रन्थी कदाचित् तपश्चरणग्लानत्वादिना बुभुक्षाप्राचुर्यप्रसङ्गात् पूर्वानीतेन पुलाकभक्तेन भुक्तेन नो संस्तरेत् क्षुधापरीषहसहनसामर्थ्याभावात त दिवसं व्यत्ये समर्था न भवेत् तदवस्थायां तस्या निम्रन्थ्याः कल्पते द्वितीयमपि वारं गाथापतिकुलं-गृहस्थगृहं पिण्डपातप्रत्ययेन भिक्षाग्रहणनिमित्तेन प्रवेष्टुं गृहस्थगृहे प्रवेश कत्तुं कल्पते, तदिवसनिर्वाहसामर्थ्ये सति द्वितीयवारं भिक्षार्थं न गच्छेदिति भावः । एकवार. गृहीतपुलाकभोजनेन यथाशक्यनिर्वाहसामर्थ्य सति जिह्वालोलुपतया पुनरपि द्वितीयवारं भिक्षार्थ गृहस्थगृहे गच्छेत् तदा निर्ग्रन्ध्या आज्ञाभगादयो दोषा भवन्ति, सयमात्मविराधना च भवेत् , तत्र स्त्रियाः सुकुमालप्रकृतित्वेन धान्यपुलाके भुक्ते उदरे वातप्रकोपः संजायते, गन्धपुलाके भुक्ते
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे
निम्रन्थी मदविह्वला भवति, रसपुलाके मुक्तेऽजीर्णादिरोगसंभवः, ततः सूत्रार्थस्वाध्यायादिपरिमन्यस्तेन संयमविराधना, वातप्रकोपादिना आत्मविराधना च स्पप्टैवेति भुक्तपुलाकमक्का द्वितीयवारं गृहस्थगृहे भिक्षार्थं न प्रविशेदिति सूत्राशयः ।। सू ०५२ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगहल्लभ -प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाइछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त
"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालचतिविरचितायां"बृहत्कल्पसूत्रस्य"
चूर्णि-भाप्या-ऽवचूरीरूपायां व्याख्यायां
पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ॥५॥
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ षष्ठोद्देशकः व्याख्यातः पञ्चमोद्देशकः, साम्प्रतं षष्ठो देशको व्याख्यायते, तत्र पूर्वगतपञ्चमोद्देशकस्यान्तिमसूत्रेण सहास्य षष्ठोद्देशकप्रथमसूत्रस्य कः सम्बन्ध ? इत्यत्राह भाष्यकार:-'भत्तग्गहण' इत्यादि । भाष्यम्-भत्तग्गहणं पुव्वं, कहियं तस्स य अलाभसमयम्मि ।
तत्थावयणं भासइ, तस्स णिसेहोऽत्थ संबंधो ॥१॥ छाया-भक्तग्रहणं पूर्व कथितं, तस्य चालाभसमये ।
तत्राऽवचनं भाषते, तस्य निषेधोऽत्र सम्बन्धः॥१॥ अवचूरी- भत्तग्गहणं' इति । पूर्वं पञ्चमोद्देशकस्यान्तिमसूत्रे भक्तग्रहणं कथितम् , तस्य भक्तस्य च अलाभसमये साधुस्तत्र कदाचिद् अवचनं भाषते इति तस्यावचनस्यात्र षष्ठोद्देशकस्य प्रथमसूत्र निषेधः प्रतिपादितः, एष एवात्र अस्मिन् षष्ठोद्देशके सम्बन्धः ॥१॥ इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य षष्ठोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम् - नो कप्पई इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पई णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई वदित्तए, तं जहा-अलियवयणे, हीलियवयणे , खिंसियवयणे, फरुसवयणे, गारस्थियवयणे, विउसवियं वा पुणो उदीरित्तए ॥ सू० १॥
__ छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमानि षट् अवचनानि वदितुम् , तद्यथा-अलीकवचम् , हीलितवचनम्, खिसितवचनम्, परुपवचनम् , गार्हस्थ्यवचनम् , व्युपशमितं वा पुनरुदीरितुम् ॥ सू०१ ॥
चूर्णी-'नो कप्पइ' इति । नो कल्पते-न युज्यते णिग्गंथाण वा निर्ग्रन्थानां वा णिग्गंथीण वा निर्ग्रन्थीनां श्रमणीनां वा इमाइं इमानि-वक्ष्यमाणानि छ षट्-षट्संख्यकानि अवयणाई अवचनानि, तत्र वक्तुं योर्य वचनम् सद्वचनमित्यर्थ न वचनमित्यवचनं वदितुमयोग्यमसद्वचनादिकम् । कानि तान्यवचनानि ? तानि दर्शयितुमाह-तंजहा' तद्यथा-अलियवयणे अलीकवचनं असत्यभाषणं तथाहि- असत्यवचनोच्चारण साधुभिः साध्वीभिर्वा न कर्तव्यमिति प्रथमम् १ । हीलियवयणे हीलितवचनम् , यस्मिन् वचने उच्चारिते साधूनां गृहस्थानां वा अवहेलनं भवति, तथाहि साधुविषये हीलितवचनं यथा-साधुः सन्नपि त्वं न सम्यक्तया चारित्रं पालयसि, यद्वा कस्त्व गणिनामाऽसि-गणी भवन्नपि न त्वं किमपि जानासि, केन त्वं गणिपदे स्थापित ? इत्यादिकथनम् , तथा गृहस्थविषये हीलितवचनं जन्मजात्यायुद्घाटनपूर्वकमपमाननं, यथा-त्वं जन्मकुलजात्यादिहीनोऽसि इत्यादि कथनम् २। खिसियवयणे खिसितवचनम्-जन्मकर्माबद्घाटनपूर्वकं सरोषवचनम् , अथवा रे मूर्ख ! रे दास ! इत्यादि श्रुतिकटुवचनम् ३ । फरुसवयणे परुषवचनम्-कर्कशवचनम् रूक्षवचनमित्यर्थः, रे नीच । रे अधम ! इत्यादि ४ । गारत्थियवयणे गार्हस्थ्यवचनम्-गृहस्थस्य भावो गार्हस्थ्यं तत्सम्बन्धि तद्वचनसदृश वचन गार्हस्थ्यवचनम्, हे तात ! हे पुत्र ! हे मातुल ! हे भागिनेय ! इत्यादि भाषणम् ,
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृहत्कल्पसूत्रे
व्यापाराद्यारम्भसमारम्भवचनं वा ५ । विउसवियं वा पुणो उदीरित्तए व्युपशमितम्-उपशमितक्लेशादिक पुनरुदीरयितुं यद् वचनं तद् , यथा-स एव त्वं यः पूर्व मामपमानितवान् , इत्यादि कथनम् ६ । एतानि पडलीकादिवचनानि न वक्तव्यानीति ।। सू० १ ॥
प्रथममत्रे शोधि' कथिता, द्वितीयसूत्रे तु शोधः प्रायश्चित्तविधिमाह-कप्पस्स इत्यादि ।
सूत्रम्- कप्पस्स छ पत्थारा पन्नत्ता, तं जहा-पाणाइचायस्स वायं वयमाणे, मुसाबायस्स वायं वयमाणे , अदिन्नादाणस्स वायं वयमाणे, अविरइयावाय वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासवायं वयमाणे, इच्चेते छ कप्पस्स पत्यारे पत्यारेत्ता सम्म अपडिपूरेमाणे तहाणपत्ते सिया ॥ मू० २ ॥
छायाकल्पस्य पद प्रस्ताराः प्रशप्ताः तद्यथा-प्राणातिपातस्य वादं वदन् , मृषावादस्य वादं वदन् , अदत्तादानस्य वादं वदन्, अविरतिकावाद वदन, अपुरुषवादं वदन्, दासवाद वदन् , इत्येतान् पट् कल्पस्य प्रस्तारान् प्रस्तीर्य अप्रतिपूरयन् तत्स्थानप्राप्तः स्यात् ।। सू०२॥
चूर्णी-'कप्पस्स' इति । कल्पस्य, तत्र कल्पो नाम साधूनामाचारः, तस्य तत्सम्बन्धिनां विशुद्धिकारणत्वात् छ पत्यारा पन्नत्ता पट्-पटसंख्यकाः प्रस्ताराः प्रायश्चितप्रकाराधिकारिणः प्रज्ञप्ता कथिताः, तानेव षड् भेदान् दर्शयितुमाह-तंजहे- त्यादि, तंजहा, तद्यथा पाणाइवायरस वायं वयमाणे प्राणातिपातस्य जीवविराधनलक्षणस्य वादमाक्षेपवचनं वदन् षड्जीवनिकायविराधनवाचं वदन् साधुः प्रायश्चित्तस्य प्रस्तारोऽधिकारी कथ्यते इति प्रथमः १ । मुसावायस्स वायं वयमाणे मृपावादस्य वादं वदन् द्वितीयो भेदः २। अदिन्नादाणस्स वयं वयमाणे अदत्तादानस्य वादं वदन् तृतीयः ३ | अविरइयावयं वयमाणे अविरतिकावादं वदन् , तत्र न विद्यते विरतिर्यस्याः सा अविरतिका-कुलटा स्त्री, तस्या वादं वाचं वा वदन् मैथुनाऽऽक्षेपं कुर्वन्नित्यर्थः, इति चतुर्थः ४ । अपुरिसवायं वयमाणे अपुरुषवादं वदन्, तत्र न पुरुषः अपुरुषः नपुंसकस्तस्य वादम् 'मयं नपुंसक.' इति वाचं वदन् पञ्चमः ५ । दासवायं वयमाणे दासवादं वदन्, यो न दासस्तम् 'मयं दासः' इति वदन् षष्ठो भेद. ६ । इच्चे ते छ कप्पस्स इत्येतान् पट् कल्पस्य इति एवं प्रकारान् एतान् पूर्वोक्तान् पसंख्यकान् प्राणातिपाताद्याक्षेपलक्षणान् कल्पस्य साध्वाचारस्य पत्यारे पत्यारेत्ता प्रस्तारान् प्रायश्चित्तस्य प्रकारान् प्रस्तीय सम्मं अपडिपूरेमाणे सम्यगू अप्रतिपूयन्-अप्रमाणयन् अभ्याख्यानकारक. साधुः सम्यक् अप्रतिप्रयन् आक्षेपार्थस्यासद्भूततया अभ्याख्यानस्य समर्थन कर्तुमशक्त. सन् ताणपत्ते सिया तत्स्थानप्राप्तः प्रायश्चित्तस्थानप्राप्तः प्रायश्चित्तभागी स्यात् ।
अत्र दर्दुर-शुनक-सर्प-मूषक-दृष्टान्ताः सन्ति । तत्र दर्दुरदृष्टान्तो यथा-कस्यचित् रत्नाधिकस्य साधोर्भिक्षाटनसमये मृतमण्डुककलेवरोपरि अकस्मात्पादः पतितः, सहागतेनाऽन्येन
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ० ६ सूं० २ कल्पस्य षट्प्रस्तारेषु प्रायश्चित्तविधिः १४७ साधुना गुरवे कथितं यदमुकेन साधुना मण्डूको मारितः, तदा आचार्यस्तं साधुं पृच्छेत् भोस्त्वया मण्डूको मारितः किम् , स यदि वदति न मारितः, अविराधने तेन सम्यक् प्रमाणमुपस्थापनीयम् अन्यथा स प्रायश्चित्तभागी भवत्येव । अथवा येनाक्षेपः कृतः स यदि प्रमाणेन स्वकीयमारोपणं न प्रमाणयितुं शक्नोति तदा स एव तत्स्थानप्राप्तो भवति, प्राणातिपाते यत् प्रायश्चित्तं तस्य प्रायश्चित्तस्य भागी स एवाभ्याख्यानकारको भवति । यः कोपि यस्य कस्याप्युपरि आरोपणं करोति प्राणातिपातादेः स यदि प्रमाणेन स्वकीयमभ्याख्यानं सिद्धं करोति तदा यस्यो परि आरोपणं कृतं स प्रायश्चित्तभागी भवति । यदि कदाचित् स स्वकृतमारोपणं प्रमाणयितुं न शक्तो भवति तदा अभ्याख्यानकारकस्यैव तादृशं प्रायश्चित्तं भवतीति प्राणातिपातवादविषयः प्रथमः प्रायश्चित्तप्रस्तारः । एवं शुनक-सर्प-मूषक–दृष्टान्ता भावनीयाः १ ।
मृषावादप्रस्तारो यथा-कस्मिंश्चिद् गृहस्थगृहेऽवमरात्निको रत्नाधिकेन सह भिक्षार्थं गतः सन् भोजनकालाभावेन प्रतिषिद्धः प्रत्यावृत्तः। पश्चान्मुहूर्त्तान्तरे रत्नाधिकेन कथितम्-इदानी भोजनकालः संभाव्यतेऽतो व्रजामो भिक्षार्थम् , अवमेन कथितम् -प्रतिषिद्धोऽहं न व्रजामि । ततो रत्नाधिकेन गत्वा भिक्षा समानीता । सोऽवमः आचार्यायेदमालोचयति यथा-भदन्त । अयं दीनकरुणवचनैर्याचते प्रतिषिद्धोऽपि गृहस्थगृहं प्रविशति, प्रविष्टश्च मुखप्रियाणि योगचिकित्सानिमित्तानि गृहस्थेभ्यो जल्पति, इत्येवमभ्याख्यानदानं मृषावादरूपो द्वितीयः प्रायश्चित्तप्रस्तारः २।
अदत्तादानप्रस्तारो यथा-एकत्र गृहेऽवमरानिकेन यावद् भिक्षा गृहीता तावद् एको रत्नाधिकः कुत्रतो मोदकान् लब्ध्वाऽन्यस्मै अवमाय दत्तवान्, तदितरोऽवमस्तान मोदकान् दृष्ट्वा प्रत्यावृत्त्य गुरुसमक्षं भणति-आलोचय त्वया रत्नाधिकेनादत्ता मोदका गृहीताः, इत्यभ्याख्यानदानमदत्तादानरूपस्तृतीयः प्रायश्चित्तप्रस्तारः ३ ।
अविरतिकावादप्रस्तारो यथा-कश्चिद् अवमरानिको दशविध च समाचार्या स्खलितो रत्नाधिकेन 'हे दुष्ट शिष्य | स्खलितोऽसि' इत्यादिवाक्यतस्तर्जित आलोचयति-अय 'रत्नाधिकोऽह'-मिति गर्वेण मामस्खलितमपि तर्जेयति कषायोदयतो मां प्रेरयतीत्यवसरं लब्ध्वा तथा करोमि येनायं लघुको भवतीति । ततोऽन्यदा द्वावपि भिक्षार्थं गतौ, भिक्षामानीय प्रत्यावृत्तौ मार्गे उष्णकालादिकारणवशाद् बुभुक्षितौ तृषितौ तत्रैवं चिन्तितवन्तौ-अत्र परिवाजिकादेवकुले कुटने लतावृक्षाच्छादितस्थाने प्रथमालिकां-पूर्व किश्चिद् भोजन-कृत्वा पानीयं पास्यावः, इति चिन्तयित्वा सुखं स्थितो, अत्रान्तरेऽवमरात्निकेन एका परिवाजिका तदभिमुखमागच्छन्ती दृष्टा, लब्धोऽवसर इदानीमिति चिन्तयित्वा वदति-कुरुत भदन्ताः ? भवन्तः भोजनपानम् , अहं तु उच्चारार्थ गमिष्यामीति । एवमुक्त्वा शीघ्रमाचार्यसमीपे समागत्य मैथनेऽभ्याख्यातुं भणति-भदन्त । ज्येष्टाऽऽर्येणाध सद्य इदानी परिवाजिकागृहे प्रतिसेवितमकार्य
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
૮
वृहत्कल्पसूत्रे
मैथुनलक्षणमित्यभ्याख्यानदानमविरतिकावादलक्षणश्चतुर्थः प्रायश्चित्तप्रस्तारः ४ ।
अपुरुषवादप्रस्तारो यथा - कोऽपि साधू रत्नाधिकेन दुष्प्रत्युपेक्षणादिस्खलने तर्जितछिद्रान्वेषी भिक्षातो निवृत्त्य रत्नाधिकमुद्दिश्याचार्य भणति-नूनमेष रत्नाधिकोऽपुरुपो नपुं. सको वर्तते, आचार्येण प्रोक्तम् त्वया कथं ज्ञातम् ! तेनोक्तम्-ममैतस्य निजकैः कथितं यदयं नपुंसकः प्रव्राजितो भवतेति । ततो मयाऽपि ज्ञातम्-हसितस्थितचक्रमितशरीरभाषादिलक्षणैः 'अयं नपुंसकः' इति । एवमभ्याख्यानदानं पञ्चमोऽपुरुषवादरूपः प्रायश्चित्तप्रस्तारः ५ ।
दासवादप्रस्तारो यथा-पूर्ववदेव कोऽपि साधू रत्नाधिकमुदिश्याचार्य प्रति भणतिअयं रत्नाधिको दासोऽस्ति । आचार्यैरुक्तम् -कथं जानासि ?, स प्राह-निजकर्मम कथित मयाऽपि ज्ञातं च यदसौ शीघ्रकोपशीलः उचितानुचितविवेकविकलां भाषां भापते, इत्यादिलक्षणैः शरीरसंस्थानादिनाऽपि चास्य दासत्वमनुमीयते, इत्याद्यभ्याख्यानदानं दासवादरूपः षष्ठः प्रायश्चित्तप्रस्तारः ६ । एते पट् कल्पस्य प्रस्ताराः प्रायश्चित्तरचनाविशेषाः प्रतिपादिता इति ६ ।
अथ सूत्रव्याख्या-'इच्चेते' इत्यादि, इच्वेते इत्येतान् पूर्वोक्तान् छ कप्पस्स पत्यारे घट कल्पस्य प्रस्तारान् पत्थारेत्ता प्रस्तीर्य यदि स प्रस्तारकोऽभ्याख्यानदायकः साधुः स्वदत्तमभ्याख्यानम् सम्म अपडिपूरेमाणे सम्यक् यथार्थतया अप्रतिपयन् तहाणपत्ते सिया तत्स्थाप्राप्तः स्यात्, तत् प्राणातिपातादिकत्र्तयेत्स्थानं तत्स्थानं प्रायश्चित्तस्थान प्राप्तो भवति । अयं भावः-यत् प्राणातिपातादिरूपेणाभ्याख्यानमन्योपरि येन दत्तं स तस्यासद्मूततया स्वारोपिताभ्याख्यानस्य सत्यतया समर्थनं कर्तुं न शक्नोति तदा तस्यैव अभ्याख्यान दायकस्यैव प्राणातिपातादिकरिव प्रायश्चित्तस्थानं प्राप्तं भवति, आचार्येण तस्याऽभ्याख्यानदायकस्यैव प्राणातिपातादिपापप्रायश्चित्तं दातव्यमिति । यदि अभ्याख्यानदायकोऽभ्याख्यानदानविषये विवदमानो भवेत्तदा तस्य प्रतिविवादमुत्तरोत्तरं प्रायश्चित्तवृद्धिः कर्तव्या, तथाहिप्रथमं मार्गे रत्नाधिकं-'भवता दर्दुरो मारितः' इति कथयित्वा ततो निवृत्त्याचार्यसमीप तत्कथनार्थ व्रजति तदा अभ्याख्यानदातृत्वेन तस्याभ्याख्यानदायकस्य मासलघुप्रायश्चित्तं भवति, ततः परं भणने मासगुरु । तस्य भणने यदि आचार्यों यस्योपर्यंभ्याख्यानं प्राप्तं तं साधुमालय पृच्छतिकिं त्वया द१रो मारित. ? स कथयति-न मारितः, एवं तेन कथिते तस्याभ्याख्यानदायकस्य चतुर्लघुप्रायश्चित्तं भवति । तेन भूय. प्रच्छने प्रेरित आचार्यस्तं पुनः पृच्छति तदाऽपि पूर्ववदेव 'न मारितः' इति कथने तस्याभ्याख्यानदातुश्चतुर्गुरु । पुनरवमो भणति यदि न विश्वासस्तदा तत्रोपस्थिता गृहस्थाः प्रष्टव्या., साधवो गृहस्थान् प्रष्टुं गच्छन्ति, पृष्टे सति षड्लघु, पृष्टा गृहस्था भणन्ति-नास्माभिरयं द१रमारणं कुर्वन् दृष्टः, इति तै. कथने षड्गुरु, साधवः समागताः कथयन्ति नापद्रावितोऽनेन द१र इति तदा छेदः ।
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णि भाग्यावबूरी उ०६ सू० ३ - १ साधुसाध्वीनां परसारकण्टकादिनिस्सारणविधिः १४९ अथाभ्याख्यानदायको भणति - यन्नाम गृहस्था असंयता अलीकं सत्यं वा ब्रुवते नैतेषां वचनप्रत्ययः, एवं भणतो मूलम् । यदि स भणति गृहस्थाश्च यूयमेकत्र मिलिताः, अहं पुनरेकः कोऽन्यो मम पक्षे इति कथनेऽनवस्थाप्यम् । पुनर्गृहस्थान् भणति - सर्वेऽपि यूयं प्रवचनस्य बाह्याः, इति भणतस्तस्याभ्याख्यानदायकस्य पाराञ्चिकं प्रायश्चितं समापतति । एवमु त्तरोत्तरं विवदतः पाञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीति । एवमेव यदि रात्निकेन सत्यमेव दर्दुरो व्यपरोपितः पृष्टे च भूयो विवादपूर्वकं निहृते तदाऽभ्याख्यानदायकस्यैव तस्याप्युत्तरोत्तरं प्रायश्चित्तवृद्धिः कर्त्तव्या । तत्राभ्याख्यानदायकस्यैक एव मृषावादलक्षणो दोषः किन्तु द्वितीयस्याभ्याख्यातस्य रात्निकस्य तु दर्दुरवधं कृत्वा निह्नुते इति द्वौ दोषौ भवतः, एकः प्राणातिपातजनितो दोषः, द्वितीयो मृषावादजनितश्चति । यदि चाभ्याख्यानदायकोऽवमरात्निकः तथाऽभ्याख्यातो रात्निकच अभ्याख्याने दत्तेऽपि प्राणातिपाते कृतेऽपि च स्वकथनसिद्धयर्थं न विवदति यथार्थ यथायोगं प्रायश्चित्तं गृह्णाति तदा न तयोः प्रायश्चित्तवृद्धिः कर्त्तव्येति । एवमन्ये मृषावादादिप्रस्तारा अपि स्वयं भावनीया इति ॥ सू० २ ॥
अथ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां ‘परस्परं ' कण्टकाद्युद्धरणप्रभृतिविषये विधिमाह - 'निगंथस्स य' इत्यादि । सूत्रम् - णिग्गंथस्स य अहे पायंसि खाणू वा कंटए वा हीरए वा सक्करे वा परिया वज्जेज्जा तं च णिग्गंथे नो संचाएइ नीहरितए वा विसोहित्तए वा तं णिग्गंथी णीहरमाणी वा विसोमाणी वा णाइक्कमइ || सू० ३॥
छाया - निर्ग्रन्थस्य चाधः पादे स्थाणुर्वा कंटको वा हीरकं वा शर्करं वा पर्यापद्येत तच्च निर्ग्रन्थो नो शक्नुयात् निर्हतुं वा विशोधितुं वा तं निर्ग्रन्थी निर्हरन्ती वा विशोधयन्ती वा नातिक्रामति ॥ सू० ३ ॥
चूर्णी - 'णिग्गंथस्स य' इति निर्ग्रन्थस्य गच्छतः प्रमादादिकारणवशात् अहे पायंसि अघः पादे पादयोः पादस्य वा अधः प्रदेशे पादतले इत्यर्थः खाणु वा स्थाणुर्वा, तत्र कण्टकिस्थाणुर्नाम छिन्नगोधूमादेः क्षेत्र संलग्नमूलस्थितोऽवयवविशेषः कंटए वा कंटको वा वृक्षस्य बर्बुरादेरवयवविशेषः होरए वा हीरक वा, तत्र हीरकं नाम सूचीवत् तीक्ष्णकाष्ठखण्डो वा सक्करे वा शर्करं वा शर्करं नाम पाषणखण्डः, तच्च स्थाण्वादि भिक्षाद्यानेतुं गच्छतः श्रमणस्य पादतले परियावज्जेज्जा पर्यापद्येत प्राप्नुयात् पादे संलग्नं भवेत् चरणः कंटकादिना विद्धो भवेदित्यर्थः तं च णिग्गंथे तच्चपादसंलग्नकण्टकादिकम् निर्ग्रन्थः श्रमणः स्वयमन्यो वा साधुः नो संचाइए नो शक्नुयात् नीहरितए वा विसोहित्तए वा निर्हर्तुं वा विशोधितुं वा कश्चित् श्रमणः कारणवशात् पादतलसंलग्नकण्टकादिकम् निष्कासयितुमुद्धर्तुं वा न शक्नुयात् न समर्थौ भवेदित्यर्थः, अथ यदा स्वयमन्यो वा श्रमणस्तान् कण्टकादीन् समुद्धर्त्तु नो शक्नुयात् तदा तं णिग्गंथी णीहरमाणी वा श्रमणचरणात् संलग्नकण्टकादिकं निर्हरन्ती निष्कासयन्ती
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे
'विसोहेमाणी वा' विशोधयन्ती समुद्धरन्ती णाइक्कमइ नातिक्राम्यति तीर्थकराज्ञाम् , सा तीर्थकराज्ञाया उल्लङ्घन न करोति, जिनाज्ञाविराधिका न भवतीत्यर्थः ॥ सू० ३ ॥
सूत्रम्-णिगंथस्स य अच्छिसि पाणे वा वीए वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च णिग्गंथे नो संचाएइ णीहरीत्तए वा विसोहित्तए वा तं णिग्गंथी णीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा, गाइक्कमइ ॥ सू० ४॥
छाया-निर्ग्रन्थस्य चाक्षिणि प्राणो वा, वीज वा, रजो वा, पर्यापद्येत तच्च निर्ग्रन्थो नो शक्नुयात् निहतम् वा, विशोधितुं वा, तं निग्रन्थी निहरन्ती वा विशोधयन्ती वा नातिकामति ॥ सू० ४ ॥
चूर्णी-णिग्गंथस्स य इति निर्ग्रन्थस्य श्रमणस्य अच्छिसि अक्षिणि नेत्रे पाणे वा प्राणो वा-क्षुदजीवो मशकादिर्वा वीएवा बीजं वा शालिगोधूमादिबीजं, 'रए वा' रजो वा-धूलिकणो वा पारियावज्जेज्जा पर्यापयेत परिपतेत् , नेत्रे यदि क्षुद्रजन्तुप्रभृतिकं वस्तु नेत्रकष्टकारकं पतितं भवेदित्यर्थः, तं च निगंथे नो संचाइए णीहरित्तए वा-विसोहित्तए वा तच्च निर्ग्रन्थोऽन्यः कोऽपि श्रमणः न शक्नुयात् निहत्तुं वा विशोधयितुं वा तद् नेत्रपतितं क्षुद्रजीवादिकम् निर्ग्रन्थोऽन्यः श्रमणः साधुः नेत्रपतितं क्षुद्रजीवादिकं साधुनेत्रात् निर्हत्तुं निष्कासयितुं विशोधयितुं वा न शक्नुयात् समर्थो न भवेत् तदा तं णिग्गंथी णीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा णाइक्कमइ तच्च श्रमणनेत्रपतितक्षुद्र जीवादिकं श्रमणस्याऽशक्तौ सत्यां निग्रंन्थी श्रमणी निहरन्ती साधुनेत्रात् क्षुदजीवादिकं नि सारयन्ती विशोधयन्ती अपनयनं कुर्वन्ती नातिकामति तीर्थकराज्ञां नोल्लयति ।। सू० ४ ॥
सूत्रम्-निग्गंथीए य अहे पायंसि खाणू वा कंटए वा हीरए वा सक्करए वा परियावज्जेज्जा, तं च णिगंथी णो संचाएइ णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा तं च णिग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमइ ॥ सू० ५ ॥
छाया-निर्ग्रन्थ्याश्चाधः पादे स्थाणुर्वा कण्टको पा हीरकं वा शर्करं वा पर्यापद्येत तंच निर्ग्रन्थी नो शक्नुयात् निर्हर्नु वा विशोधयितुं वा तं च निर्ग्रन्थो निर्हरन वा विशोधयन् वा नातिकामति ॥सू० ५॥
ची-णिगंथीए य' इति निम्रन्थ्याः अहे पायंसि अधः पादे चरणस्याधोभागे पादतले इत्यर्थः खाणू वा स्थाणुर्वा पूर्वोक्तस्थाणुकण्टकहीरकशर्करादिकं परियावज्जेज्जा पर्यापयत संलगेत स्थाणुप्रभतिना पादो विद्ध इत्यर्थ. तं च निग्गंथी नो संचाइए णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा तच्च निम्रन्थी नो शक्नुयात् निहत्ते वा, विशोधयितुं वा, तत्र तत् श्रमणीपदसंलानकण्टकादिकं श्रमणी स्वयं यस्याः पादे स्थाण्वादि लग्न तद्व्यतिरिका वा साध्वी नो शक्नुयात न
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णिभाष्यावचूरी उ० ६ सू०६-१० प्रस्खलनादिकारणेसाव्या ग्रहणे साधोविधिः १५१
समर्था भवेत् निर्हर्तुम् निष्कासयितुं विशोधयितुं पादादुद्धर्तुम् तदा त णिग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहमाणे वा णाइक्कमइ तच्च निर्ग्रन्थो निर्हरन् वा विशोधयन् वा नातिक्रामति तीर्थकराज्ञां नोलवयति ॥ सू०५॥
सूत्रम्-णिग्गंथीए अच्छिसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च णिग्गंथी णो संचाएइ णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा तं च णिग्गंथे णीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमइ ॥ सू० ६॥
छाया-निर्ग्रन्थ्या अक्षिणि प्राणो वा बीजं वा रजो वा पर्यापद्येत तच्च निर्ग्रन्थी नो शक्नोति निहत्तं वा विशोधयितुं वा तच्च निर्ग्रन्थो निर्हरन् वा विशोधयन् वा नातिकामति ॥ सू० ६॥ __चूर्णी-णिग्गंथीए' इति । निर्ग्रन्ध्याः 'अच्छिसि' अक्षिणि-नयने पाणे वा प्राणो वा-प्राणः क्षुद्रजन्तुर्मशकादिः वीए वा बीजं वा लघुतमं फलादेबीजम्'रए वा रजो वा-धूलिकणो वा कारणवशात् श्रमण्या नेत्रे 'परियावज्जेज्जा' पर्यापद्येत परिपतेत् नेत्रे समापतितं भवेत् 'तं च णिग्गंथी णो संचाएइ णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा' तच्च निर्ग्रन्थी नो शक्नोति निर्हर्नु वा विशोधयितुं वा तत्र तं श्रमण्यक्षिपतितं क्षद्रजीवमशकादिकम् यदि निम्रन्थी श्रमणी निहत निष्कासयितुं विशोधयितुमपाकत्तुं न शक्नुयात् तदा "तं च निग्गंथे णीहरमाणे चा विसोहेमाणे वा नाइक्कमई" तं च निर्ग्रन्थो निर्हरन् वा विशोधयन् वा नातिकामति ॥ सू० ६ ॥
सूत्रम्-णिग्गंथे णिग्गंथिं दुग्गंसि वा विसमंसि वा पव्वयंसि वा पक्खलमाणिं वा पवडमाणिं वा गिह्रमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ॥सू० ७॥
छाया-निन्थो निग्रन्थी दुर्गे वा विषमे वा पर्वते वा प्रस्खलन्ती वा प्रपतन्ती वा गृहन् वा अवलम्वमानो वा नातिकामति ॥ सू० ७॥
चूर्णी-णिग्गंथे णिग्गंथिं' इति । निम्रन्थः निर्ग्रन्थीं कदाचित् दुग्गंसि वा दुर्गे वा पर्वतादिविकटभूमौ विसमंसि वा विषमे उच्चनीचप्रदेशे पिच्छलप्रदेशे वा 'पव्वयंसि वा पर्वते वा पक्खलमाणि वा' प्रस्खलन्ती चरणादिसंकाचेन पतन्तीमिव भवन्ती वा पवडमाणि वा प्रपतन्ती वा पतितुमारब्धां गिण्हमाणे वा गृह्णन् हस्तादिना तस्या ग्रहणं कुर्वन् अवलंबमाणे वा अवम्बमानो वा पतन्त्याः देहयष्टयाद्याश्रयेण साहाय्यं कुर्वन् इत्यर्थः णाइक्कमइ नातिकामति ॥ सू० ७॥
सत्रम-णिग्गंथे णिग्गंथि सेयंसि वा पंकंसि वा पणगंसि वा उदगंसि वा ओकसमाणि वा ओबुडमाणिं वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ॥ सू० ८॥
छाया-निर्ग्रन्थो निग्रंथीं सेके वा पङ्के वा पनके वा उदके वा अवकर्षन्ती वा अवब्रुडन्ती वा गृखन् वा अवलम्वमानो वा नातिकामति ॥ सू०८॥
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत्कल्पसूत्रे
चूर्णी-'णिग्गंथे णिग्गंथीं वा' इति । निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थों सेयंसि वा सेके वा, तत्र सेको जलसहितकर्दमार्थबोधकः तथा च सेके जलसहितकर्दमे वा पंकंसि व' पंके वा शुष्कप्राये कर्दमे पणगंसि वा पनके सततजलसम्पत्पिाषाणादौ संलग्नो हरितवर्णों वनस्पतिविशेषः 'लीलण-फूलण' इति प्रसिद्ध तस्मिन् उदगंसि वा उदके जले वा ओकसमाणि वा अवकर्पन्ती वा जलस्रोतसा नीयमानां 'ओबुड्डमाणि वा' अवब्रुडन्ती जलसहितकर्दमे पंके जले वा निमज्जन्तीं श्रमणी श्रमणः 'गिण्हमाणे' गृहन् उद्धरणेच्छया तथा 'अवलंवमाणे वा' अवलम्बमानो वा धारयन् वा 'नाइकमइ नातिक्रामति तीर्थकृतामाज्ञां नोल्लद्धयतीति ।। सू० ८ ॥
सूत्रम्-जिग्गंथे णिग्गंथि णावं आरोहमाणिं वा ओरोहमाणि वा गिहमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ।। सू० ९॥
छाया-निर्ग्रन्थो निर्ग्रन्थी नावम् आरोहन्तीं वा अवरोहन्ती वा गृहन् वा अवलम्वमानो वा नातिक्रामति ॥ स्० ९ ॥
चूी-निग्गंथे' इति । निर्ग्रन्थ. 'णिग्गंथि णिग्रन्थी 'णावं' नावं नौकां 'आरोहमाणिवा' आरोहन्ती-समारोहन्तीम् 'ओरोहमाणिं वा' अवरोहन्तीम् अवतरन्तीम् 'गिण्हमाणे वा' गृहन् अवलंबमाणे वा अवलम्बमानो वा श्रमणः णाइक्कमइ नातिक्रमति तीर्थकराज्ञां नोल्लयति न विराघयतीति भावः ।। सूत्र ९॥
सूत्रम्-खित्तचित्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ।। सू० १०॥
छाया-क्षिप्तचित्तां निर्ग्रन्थीं निर्ग्रन्थो गृहन् वा अवलम्बमानो वा नातिकामति ॥ सू० १०॥
घृणी-'खित्तचित्त' इति । क्षिप्तचित्ताम्, तत्र क्षिप्तं विक्षिप्तम् उद्विग्नं मनोग्लान्यादिना चित्तमन्त करणं यस्या. श्रमण्याः सा क्षिप्तचित्ता, तादृशीम् निर्ग्रन्थीं निर्ग्रन्थः श्रमणः 'निण्डमाणे वा गृह्णन् वा अवलम्बमाणे वा अवलम्बमानो वा धारयन् वा 'णाइक्कमइ' नातिकामति तीर्थकराज्ञां नोल्लइयति ॥ सू० १० ॥
सूत्रम्-एवं दित्तचित्तं ॥ सू० ११॥ जक्खाइटें० ॥ सू० १२ ॥ उम्मायपत्त० ॥सू० १३।। उवसग्गपत्तं णिग्गंथिं णिग्गये गिण्हमाणे चा अवलंबमाणे वा नाइक्कमई ॥ सू० १४॥
छाया -पवं दीप्तचितां यक्षाविणामुन्मादप्राप्तामुपसर्गप्राप्तां निर्ग्रन्थीं निग्रंन्थो गृहन् वा अवलम्बमानो वा नातिक्रामति ।। सू० ११-१४॥
चूर्णी-'एवं दित्तचित्तं' एवं दशमसूत्रोक्तप्रकारेण दीप्तचित्ताम्, तत्र दीप्तं लौकिकलोकोत्तरिकवस्तुविषयकहर्पोद्रेकेण भ्रान्तं चित्तमन्तःकरणं यस्याः सा दीप्तचित्ता, ताम् । यद्वा जक्खा
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
निभात्यासधूरी उ० ६ सू० १५-१९ कल्पस्य कौकुचिकादिषट्परिमन्थुवर्णनम् १५३ इटं यक्षाविष्टाम् व्यन्तरदेवपरिगृहीताम्, यद्वा उम्मायपत्त उन्मादप्राप्ताम्, तत्रोन्मादो नाम-रोगादिना चित्तानवस्थता तयुक्ताम्, उवसरगपत्तं उपसर्गप्राप्ताम्-देवमनुष्यतिर्यगादिकृतोपसर्गविशिष्टाम् णिग्गथि निम्रन्थीं श्रमणीम् निग्गंथे निम्रन्थः श्रमणः गिण्हमाणे गृह्णन् क्वचित्पतनादितः क्वचिदौषधादिपानार्थ वा अवलम्बमाणे वा अवलम्बमानो वा धारयन् वा 'णाइक्मइ नातिकामति तीर्थकराज्ञां नोल्लद्धयति ॥ सू० ११-१४ ॥
सूत्रम्--साहिगरण ॥ सू० १५ ॥ सपायच्छित्तं ॥ सू० १६ ॥ भत्तपाणपडियाइक्खियं ॥ सू०१७ ॥ अट्ठजायं निग्गंथि णिग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा माइक्कमई ।। सू०१८॥
छाया-साधिकरणाम् ॥सू० १५॥ संप्रायश्चित्ताम् ॥ सू०-१६॥भक्तपानप्रत्यास्याताम् ॥ सू० १७॥ अर्थजातां निन्थीं निम्रन्थो गृहन् वा अवलम्बमानो वा नातिकामति ॥ सू० १८ ॥
चूर्णी- 'साहिगरण' इति । साधिकरणां, तत्राधिकरणं कलहः तेन मुतामिति साधिकरणाम्-कलहासतमानसाम , तथा सपायच्छित्तं सप्रायश्चित्तां प्रायश्चितेन युक्तामिति सप्रायश्चिताम् प्रायश्चित्तप्राप्तां-प्रायश्चित्तेन चलचित्तामित्यर्थः भत्तपाणपडियाइक्खियं भक्तपानप्रत्याख्याताम् , तत्र भक्तमोदनादिकं, पानं जलम्, ते प्रत्याख्याते यया सा भक्तपानप्रत्याख्याता-ताम् गृहीतानशनवतामित्यर्थः, अट्ठजायं अर्थजाताम्-अर्थलुब्धाम् भूमिपतितं सुवर्णादिकं दृष्ट्वा तद् ग्रहीतुं नम्रीभूताम् , कुत्राप्यर्थराशिं दृष्ट्वा सञ्जातविकारेण चलचित्ताम् , यद्वा-अर्थाकुलं पतिपुत्रादिकं ज्ञात्वा तत्सहायनिमित्तं द्रव्योपार्जनाय संयमाच्चलितचित्ताम् , यद्वा शिष्यानिमित्तं द्रव्यलाभार्थं गन्तुकामाम , एतादृशीम् णिग्गंथि निग्रंथीं-श्रमणीम् गिण्हमाणे गृह्णन् उपदेशेन शरीरेण वा स्पृष्ट्वा निवारयन् अवलम्बमाणे वा अवलम्बमानो वा णिग्गंथे निर्ग्रन्थः-श्रमणः णाइक्कमई नातिकामति-तीर्थकरस्याज्ञां नोल्लघयतीति भावः ॥ सू० १५-१८॥
श्रमणीनां सामाचारीलक्षणं कल्पं दर्शयित्वा सप्रति कल्पस्य प्रतिबन्धकान् दर्शयितुमाह-'छ कप्पस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-छ कप्पस्स पलिमथू पन्नत्ता, तंजहा-कोकुइए संजमस्स पलिमंथू १, मोहरिए सच्चवयमस्स पलिसंधू २, तितिणिए एसणागोयस्स्स पलिमंथू ३, चक्खुलोलए
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
yereeपसूत्रे
इरियावहियाए पलिमंधू ४, इच्छालोलुए मुत्तिमग्गस्स पलिमंधू ५, भिज्जाणियाण करणं सिद्धिमग्गस्स पलिमंधू, सव्वत्थ भगवया अणियाणया पसत्था ६ || सू० १९ ॥
१५४
छाया - षट् कल्पस्य परिमन्धवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- - कौकुचिकं संयमस्य परिमन्थुः १, मौर्य सत्यवचनस्य परिमन्धुः २, तितिणिकम् एषणागोचरस्य परिमन्धुः ३, चक्षुलील्यम् ऐर्यापथिकस्य परिमंथुः ४, इच्छालौलुप्यं मुक्तिमार्गस्य परिमन्थुः ५, भिध्यानिदानकरणं सिद्धिमार्गस्य परिमन्थुः, सर्वत्र भगवता अनिदानता प्रशस्ता ६ ॥ सू० १९ ॥
चूर्णी - 'छ कप्पस्स पलिमधू पन्नत्ता' इति । षट् - पट्संख्यकाः कल्पस्य साधुसामाचारीलक्षणस्य परिमन्थवः - परिमध्नन्तीति परिमन्थवः घातका इत्यर्थः प्रज्ञप्ताः कथिताः । तानेव षड् भेदान् दर्शयितुमाह - तं जहा इत्यादि, तं जहा तद्यथा- - कोकुए संजमस्स पलिसंधू कौकुचिक संयमस्य परिमन्धु', तत्र-- कौकुचिकम् - कुचेष्टा भाण्डचेष्टा वा, विकृतं मुखं कृत्वा लोकानामग्रतः प्रदर्शनम्, एतादशं कौकुचिकं संयमस्य चारित्रस्य परिमन्धुः, कौकुचिकस्य कन्दर्पोद्दीपकतया संयमस्य सुतरामेव विघातकसंभवादिति, इति प्रथमोभेदः १ ।
मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंधू मौखर्य मुखरता सत्यवचनस्य परिमन्थुः, तत्र मुखरता वाचालता निरर्थकमधिकजल्पनम् सत्यवचनस्य परिमन्धुः, वाचालतायाः सत्यप्रतिबन्धकत्वादिति
द्वितीयो भेदः २ |
तितिणिए एसणागोयरस्स पलिमन्धू तितिणिकमेषणागोचरस्य परिमन्धुः, तत्र तिंति णिकं सर्वदा भिक्षाया अलाभे गृहस्वामिनं प्रति - 'कृपणोऽयम्' इत्यादिरूपेण तण - तण ( बड़वड) शब्दकरणं तत्, एषणा – विशुद्धभक्तपानादिगवेषणरूपा, तत्प्रधानो यो गोचरः गोचरचर्या, तस्य परिमन्युरिति तृतीयो भेदः ३ ।
चक्लोलए इरियावहियाए पलिमन्धू चक्षुर्लौल्यम् ऐर्यापथिकस्य परिमन्थुः तत्र चक्षुलाल्यं नेत्रयोश्चाञ्चल्यम् ईर्ष्यासमितेर्घातकम् चक्षुषश्चाञ्चल्येन मार्गे गमनसमये सम्यगवलो - कनाभावे संयमात्मविराधनसंभवात् ईर्यासमितेः स्वयमेव विघातादिति चतुर्थो भेदः ४ |
इच्छालोलुप मुत्तिमग्गस्स पलिमन्यू इच्छालोलुप्यं मुक्तिमार्गस्य परिमन्थुः, इच्छालौलुप्यम् महारादिवाच्छायां गृद्धिभाव:, इति पञ्चमो भेदः ५ ।
भिज्जाणियाणकरण सिद्धिमग्गस्स पलिमन्धु भिध्यानिदानकरणं सिद्धिमार्गस्य परिमन्युः, भिव्या-लोभो गृद्धिरित्यर्थः, तद्वशात् निदानकरणम्, तच्च सिद्धिमार्गस्य परिमन्थुः,
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्णिमान्यापधुरी उ० ६ सू० २०
षड्विधकल्पस्थितिवर्णनम् १५५ इति षष्ठो भेदः६। यतः सव्वत्थ भगवया अणियाणया पसत्था सर्वत्र भगवता अनिदानता प्रशस्ता प्रशंसितेति ॥ सू० १९ ॥
सम्प्रति कल्पस्थितेर्भेदान् दर्शयितुमाह-'छविहा' इत्यादि ।
सूत्रम्-छव्विहा कप्पट्टिई पण्णत्ता तं जहा-सामाइयसंजयकप्पट्टिई १, छेओवहावणियसंजयकप्पट्टिई २, णिव्विसमाणकप्पट्टिई ३, णिविट्ठकाइयकप्पहिई ४, जिणकप्पट्टिई ५, थेरकप्पट्टिई ६ । त्ति बेमि ॥ सू० २० ॥
कप्पस्स छठो उद्देसो समत्तो - छाया - पड्विधा कल्पस्थितिः प्रक्षप्ता तद्यथा-सामायिकसंयतकल्पस्थितिः १, छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थितिः २, निविशमानकल्पस्थितिः ३, निविष्टकायिककल्पस्थितिः ४, जिनकल्पस्थितिः ५, स्थविरकल्पस्थितिः ६। इति ब्रवीमि । सु० २०॥
कल्पस्य षष्ठ उद्देशकः समाप्तः ॥६॥ चूर्णी-'छबिहा' इति । षड्विधा षट्प्रकारा कप्पट्टिई पण्णत्ता कल्पस्थितिः प्रज्ञप्ता कथिता, तत्र कल्पे संयताचारे स्थितिरवस्थानमिति कल्पस्थितिः, अथवा कल्पस्य साधुसामाचारीलक्षणस्य स्थितिमर्यादा इति कल्पस्थितिः, सा षड्विधा प्रज्ञप्ता-निरूपिता । तानेव षड्भेदान् दर्शयितुमाह-तं जहा इत्यादि, तं जहा तद्यथा-सामाइयसंजयकप्पट्टिई सामायिकसंयतकल्पस्थितिः, तत्र समो रागद्वेषरहितभावः-ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणभावः, तस्याऽऽयः प्राप्तिः, अथवा समय एव सामायिकं सर्वसावद्यकर्मणां विरतिलक्षणम्, तप्रधानाः संयताः साधवः, तादृशसाधूनां स्थितिः सा सामायिकसंयतकल्पस्थितिः प्रथमा १, छेदोवटावणियसंजयकप्पट्टिई छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थितिः, तत्र छेदनम्-पूर्वपर्यायोच्छेदनम्, उपस्थापनीयमारोपणीयं यत् तत् छेदोपस्थापनीयम् व्यक्तितो महाव्रतेषु आरोपणमित्यर्थः, ततश्च छेदोपस्थापनीयप्रधाना ये संयताः ते छेदोपस्थापनोयसंयताः साधवस्तेषां या कल्पस्थितिः सा छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थितिर्द्वितीया २, निविसमाणकप्पदिई निर्विशमानकल्पस्थितिः, तत्र निर्विशमानाः परिहारविशुद्धिकल्पं वहमानाः, तेषां कल्पस्तस्य स्थितिनिर्विशमानकल्पस्थितिस्तृतीयो भेदः ३, निन्विट्ठकायइकप्पहिई निर्विष्टकायिककल्पस्थितिः, तत्र निविष्टकायिको नाम येन परिहारविशुद्धिकं नाम तपो व्यूढम् , निर्विष्ट आसेवितः विवक्षितचारित्रस्वरूपः कायो-देहो यैस्ते निर्विष्टकायिका इति व्युत्पत्तेः, तेषां निविष्टकायिकानां कल्पस्थितिरिति निर्विष्टकायिककल्पस्थितिश्चतुर्थी ४ । जिणकप्पहिई जिनकल्पस्थितिः, तत्र जिनाः गच्छविनिर्गताः साधुविशेषास्तेषा जिनानां कल्पस्थितिरिति जिनकल्पस्थितिः पञ्चमी ५, थेरकप्पट्टिई स्थविरकल्पस्थितिः, तत्र स्थविरा आचार्योपाध्यायादयः गच्छसापेक्षाः साधुवि
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
बृहत्कल्पसूत्रे
शेषास्तेषां कल्फ-स्थतिरिति स्थविरकल्पस्थितिरिति षष्ठी ६ । ति बेमि इति ब्रवीमि – सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति कथयति - हे जम्बु ! यदहं तीर्थंकरमुखात् कल्पस्थितिविषये श्रुतवान् तदेव तुभ्यं कथयामि नतु स्वमनीषया प्रकल्प्य कथयामीति ॥ सू० २० ॥
इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा कलितललितकला पालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनाचार्य ” – पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलाल विविरचितायां "बृहत्कल्पसूत्रस्य” चूर्णि भाष्या-वचूरीरूपायां व्याख्यायां
षष्ठ उद्देशकुः समाप्तः ॥६॥
समाप्तं संचूर्णिमाष्यावचूरीकं बृहत्कल्पसूत्रम् |
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीबृहत्कल्पसूत्रस्य ॥
मूलपाठः .. सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंधीणं वा आमे तालपलंचे अभिन्ने पडि गाहित्तए ॥१॥ .. कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा आमे तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए ॥२॥ .. कप्पइ निग्गंथाणं पक्के तालपलंबे भिण्णे वा अभिण्णे वा पडिगाहित्तए ॥३॥ ___नो कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए ॥४॥
कप्पह निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए, सेवि य विहिभिण्णे नो चेव गं अविहिभिण्णे ॥५॥ ।
से गामंसि वा णगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडवंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा निगमंसि वा आसमंसि वा संनिवेसंसि वा संवाहसि वा घोसंसि' वा अंसियसि वा पुडभेयणंसि वा रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि अवाहिरियसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंतगिम्हामु एगं मासं वत्थए ॥६॥
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सवाहिरियसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंतगिम्हामु दो मासे चित्थए, अंतो इक्कं मासं, बाहिं इक्कं मासं, अंतो वसमाणाणं अंतो भिक्खायरिया, वाहि वसमाणाणं बाहिं भिक्खायरिया ॥७॥
से गामंसि वा जाव ,रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि अवाहिरियंसि कप्पइ निरगंथीणं हेमंतगिम्हास दो मासे वत्थए ॥८॥ .
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सबाहिरियसि कप्पइ निग्गंथीणं हेमंतगिम्हामु चत्तारि मासे वत्थए, अंतो दो मासे, वाहिं दो मासे, अंतो वसमाणीणं अंतो भिक्खायरिया, बाहि वसमाणीणं बाहिं भिक्खायरिया ॥९॥
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा एगयओ वधए ॥१०॥
गामंसि वा जाव रायहाणिसिवा अभिणिवगडाए अभिनिदुवाराए अभिणिक्खमणपवेसाए कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा एगयओ वत्थए ॥११॥
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
नो कप्पइ निग्गंथीणं आवणगि हसि वा रत्थामुहंसि बा, सिंघाडगंसि वा चउक्कसि वा चच्चरंसि वा अंतरावणंसि वा वत्थए ॥१२॥
कप्पइ निग्गंथाणं आवणगिहंसि वा जाव अंतरावणंसि वा वत्थए ॥१३॥
नो कप्पइ निरगंथीणं अवंगुयदुवारिए उबस्सए वत्थए । एगं पत्यारं अंतो किच्चा एग पत्यारं वाहिं किच्चा ओहाडियचिलिमिलियागंसि एवं णं कप्पइ वत्थए ॥१४॥
कप्पइ निग्गंथाणं अवंगुयदुवारिए उबस्सए वत्थए ॥१५॥ कप्पइ निग्गयीणं अंतोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥१६॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं अंतोलितं घडिमत्चयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥१७॥ कप्पइ निग्गंधाणं वा निग्गंथोणं वा चेलचिलिमिलियं धारित्तए वा, परिहरिए वा।
नो कप्पइ निग्गंथाण निग्गंथीण, वा दगतीरंसि चिहित्तए वा निसीइत्तए वा, तुयहित्तए वा निहाइत्तए वा, पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अहरित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिवित्तए, सज्झायं वा करित्तए, धम्मजागरियं वा जागरित्तए, काउस्सग्गं वा करित्तए, ठाणं वा ठाइत्तए॥१९॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सचित्तकम्मे उबस्सए वत्थए ॥२०॥ । कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए ॥२१॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं सागारियअणिस्साए वत्थए ॥२२॥ कप्पइ निग्गंधीणं सागारियणिस्साए वत्यए ॥२३॥ कप्पइ निग्गंयाण सागारियस्स णिस्साए वा अणिस्साए वा वत्थए ॥२४॥ नो कप्पइ निग्गंधाणं वा निग्गंधीणं वा सागारियउवस्सए वत्थए ॥२५॥ .. कप्पड निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अप्पसागारिए उवस्सए वत्थए ॥२६॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्यीसागारिए उबस्सए वत्थए ॥२७॥ . कप्पइ निग्गंथाणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए ॥२८॥ नो कप्पइ निग्गंधीणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए ॥२९॥ कप्पइ निग्गंथीणं इत्थीसागारिए उवस्सए वत्थए ॥३०॥ नो कप्पड़ निग्गंधाणं पडिबद्धसिज्जाए वत्थए ॥३१॥
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
: कप्पइ निग्गंथीणं पडिबद्धसिज्जाए वत्थए ॥३२॥ 1 नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झमझेणं गंतुं वत्थए ॥३३॥
कप्पइ निग्गंथीणं गाहावइकुलस्स मज्झमज्झेण गंतु वत्थए ॥३४॥ । भिक्खू य अहिगरणं कटु तं अहिगरणं विओसवित्ता विओसवियपाहुडे, इच्छाए परो आढाइज्जा इच्छाए परो नो आढाइज्जा, इच्छाए परो अब्भुद्विज्जा, इच्छाए परो नो अब्भुटिज्जा, इच्छाए परो वंदिज्जा इच्छाए परो नो वंदिज्जा, इच्छाए परो संभुजिज्जा, इच्छाए परो नो सं जिज्जा, इच्छाए परो संवसिज्जा, इच्छाए परो नो संवसिज्जा, इच्छाए परो उपसमिज्जा, इच्छाए परो नो उवसमिज्जा, जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तम्हा अप्पणा चेव उवसमियन्वं । से किमाहु भंते ! ? उवसमसारं सामण्णं ॥ ३५॥
नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा वासावासेषु चरित्तए ॥३६॥ कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा हेमंतगिम्हासु चरित्तए ॥३७॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वेरज्जविरुद्धरज्जसि सज्ज गमणं सज्ज आगमणं सज्ज गमणागमणं करित्तए । जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा वेरज्जविरुद्धरज्जंसि सज्ज गमणं सज्ज आगमणं सज्जं गमणागमणं करेइ करेंतं वा साइज्जई से दुइओवि वीइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं ॥३८॥ . निग्गथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविहं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंवलेण वा पायछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्चपि उग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥३९॥
निग्गथं च णं वहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंतं समाणं केइ वत्थेण वा पडिंग्गहेण वा कंवलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोच्चंपि उग्गहं अणुण्ण वित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥४०॥
निग्गथिं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविर्ट केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंवलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेजा, कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणोपायमले ठवित्ता दोच्चंपि उग्गहं अणुण्ण वित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥४१॥ निगंथि च ण वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंत समाणं केइ वत्येण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणीपायमूले ठवित्ता दोच्चंपि उग्गई अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए ।॥४२॥
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्तए, नन्नत्य एगेणं पुवपडिलेहिएणं सेज्जासंथारएण॥४३॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा राओ वा वियाले वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिग्गाहित्तए, नन्नत्थ एगाए हरियाहडियाए, साविय परिभुत्ता वा धोया वा रत्ता वा घट्टा वा मट्ठा वा संपधूमिया वा ॥४४॥
नो कप्पइ निग्गंधाण वा, निग्गंथीण वा राओ वा, वियाले वा, अद्धाणगमणं एत्तए ॥४५॥
नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा संखडि वा संखडिपडियाए अद्धाणगमणं एत्तए ॥४६॥
नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा वहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । कप्पइ से अप्पविइयस्स वा अप्पतइयस्स वा, रामो वा, चियाले वा वहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥४७॥
नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए राओ वा वियाले वा वहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्ख मित्तए वा पविसित्तए वा । कप्पइ से अप्पविइयाए वा अप्पतइयाए वा अप्पचउत्थीए वा राओ वा वियाले वा वहिया वियाभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥४८॥
कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमेण जाव अंगमगहाओ एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसंबीओ, पच्चत्थिमेणं जाव शृणाविसयाओ, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए, एतावताव कप्पड़, एतावताच आरिए खेत्ते, णो से कप्पइ एत्ती वाहिं । तेण परं जत्य नाणदंसणचरित्ताई उस्सप्पंति-त्ति वेमि ॥४९॥
पढमो उदेसो समत्तो ॥१॥
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ बीओ उद्देसो॥ उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा कुलत्थाणि वा गोहूमाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा उक्खित्ताणि वा विक्खित्ताणि वा विइकिण्णाणि वा विप्पकिण्णाणि वा नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा अहालंदमवि वत्थए ॥१॥
अह पुण एवं जाणिज्जा-(उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा०) नो उक्खित्ताई नो विक्खित्ताई नो विइकिण्णाई नो विप्पकिण्णाई (किन्तु) रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥२॥ .।
अह पुण एवं जाणिज्जा (उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा०) नो रासिकडाई, नो पुंजकडाई, नो भित्तिकडाई, नो कुलियाकडाई, (किन्तु) कोहाउत्ताणि वा, पल्लाउत्ताणि वा, मंचाउत्ताणि वा, मालाउत्ताणि वा ओलित्ताणि वा लित्ताणि वा, पिहियाणि वा लंछियाणि वा, मुद्दियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासं वत्थए ॥३॥
उवस्सयस्स अंतो वगडाए सुरावियडकुंभे वा, सोवीरवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमबि वत्थए । हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥४॥ ___उवस्सयस्स अंतो वगडाए सीओदगवियडकुंभे वा उसिणोदगवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमपि वत्थए । हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा पर वसइ से संतरा, छेए वा परिहारे वा ॥५॥
. उवस्सयस्स अंतो वगडाए सवराईए जोई झियाएज्जा नो कप्पइ निग्गथाण वा निग्गथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओं वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥६॥ ।।
उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराईए पईवे पईवेज्जा नो' कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदममि वत्थए । हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा-परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥७॥
उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा लोयए वा खीरे वा दहि वा णवणीए वा सप्पि वा तेल्ले वा फाणिए वा पूर्व वा सक्कुली वा सिहरिणी वा उक्खिताणि वा विक्खित्ताणि वा विइकिण्णाणि वा विप्पइण्णाणि वा नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए ।।८।।
अह पुण एवं जाणेज्जा-(उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा०) नो उक्खित्ताई वा, नो विक्खित्ताई वा नो विडकिण्णाई वा नो विप्पकिण्णाई वा (किन्तु) रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिाडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्यए ॥९॥
अह पुण एवं जाणेज्जा (उवस्सयस्स अंतो वगडाए पिंडए वा०) नो रासिकडाणि वा नो पुंजकडाणि वा नो भित्तिकडाणि वा नो कुलियाकडाणि वा (किन्तु)कोटाउत्ताणि वा पल्लाउत्ताणि वा मंचाउत्ताणि वा मालाउत्ताणि वा ओलिताणि वा विलिताणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा, कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गं. थीण वा वासवासं वत्थए ॥१०॥
नो कप्पइ निगंथीणं अहे आगमणगिहंसि वा. वियडगिहंसि वा सीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अब्भावगासियंसि वा वत्थए ॥११॥
कप्पइ निग्गथाणं अहे आगमणगिहंसि वा वियडगिहंसि वा वसीमलंसि वा रुक्खमूलसि वा अभावगासियंसि वा वत्थए ॥१२॥
एगे सागारिए पारिहारिए, दो तिन्नि चत्तारि एंच सागारिया पारिहारिया, एग तत्थ कप्पागं ठवित्ता अबसेसे निविसेज्जा ॥१३॥
नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा सागारियपिंडं बहिया अनीहडं असंसह वा पडिग्गाहित्तए ॥१४॥
नो कप्पड निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं बहिया नीहडं असं-. सर्ट पडिगाहित्तए । कप्पई निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं वहिया नीहडं संसह पडिगाहित्तए ॥१५॥
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा सागारियपिंडं बहिया नीहडं असंसह संसट्ठ करेइ, करैतं वा साइज्जई से दुहओ वीइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्टाणं अणुग्घाइयं ॥१६॥
___ सागारियस्स आहडिया सागारिएण पडिग्गहिया तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडिग्गाहित्तए ॥१७॥ सागारियस्स आहडिया सागारिएण अप्पडिग्गहिया तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥१८॥
सागारियस्स नीहडिया परेण अप्पडिग्गहिया तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए । सागारियस्स नीहडिया परेण पडिग्गहिया तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥१९॥ ।
सागारियस्स अंसियाओ अविभत्ताओ अव्वोच्छिन्नाओ अब्बोगडाओ अणिज्जूदाओ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥ सागारियस्स अंसियाओ विभत्ताओ वोच्छिन्नाओ वोगडाओ णिज्जूढाओ तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥२०॥
सागारियस्स पूयाभत्ते उदेसिए चेइए पाहुड़ियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निट्ठिए निसिहे पाडिहारिए, तं सागारिओ देज्जा, सागारियस्स परिजणो वा देज्जा तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥२१॥
सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए निहिए निसिढे पाडिहारिए तं नो सागारिओ देज्जा, नो सागारियस्स परिजणो वा देज्जा सागारियस्स पूया देज्जा तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहितए ॥२२॥
सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए. निहिए निसिढे अपाहिहारिए तं सागारिओ देइ सागारियपरिजणो वा देइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥२३॥
सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगणजाए निहिए निसिटे अपाडिहारिए तं नो सागारिओ देइ, नो सागारियस्स परिजणो वा देइ, सागारियस्स पूया देइ तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहिचए ॥२४॥
. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-जंगिए भंगिए साणए पोत्तए तिरीडपट्टे नामं पंचमे ॥२५॥
कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाइं पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तंजहा-उण्णिए, उहिए, साणए, वच्चाचिप्पए, मुंजचिप्पए नामं पंचमे॥२६॥
॥ बीओ उद्देसो समत्तो ॥२॥
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ तइओ उद्देसो॥ नो कप्पइ निग्गथाणं निग्गंथीणं उवस्सयंसि चिट्ठित्तए का निसीइत्तए वा तुयटित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहरित्तए, वा उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिद्ववित्तए, सज्झायं वा करित्तए, झाणं वा झाइत्तए काउस्सग्गं वा करित्तए, ठाणं वा ठाइत्तए ॥१॥
नो कप्पइ निग्गंथीणं निग्गंथउवस्सयंसि चिट्ठित्तए वा जाव काउस्सग्गं वा करित्तए ठाणं वा ठाइत्तए ॥२॥
नो कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाई चम्माइं अहिछित्तए ॥३॥
कप्पइ निग्गंथाणं सलोमाई चम्माई अहिहित्तए, सेवि य परिभुत्ते नो चेव णं अपरिभुत्ते, सेवि य पाडिहारिए नो चेव णं अपाडिहारिए, सेवि य एगराइए नो चेव णं अणेगराइए ॥४॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाई चम्माई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥५॥
कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई चम्माइं धारित्तए वा परिहरितए वा ॥६॥ _ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा कसिणाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा । कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥७॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अभिन्नाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥८॥ · कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा भिन्नाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥
नो कप्पइ निग्गंथाणं उग्गहणंतगं वा उग्गइपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा ।। ___कप्पइ निग्गंधीणं उग्गहणतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥११॥
. निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविटाए चेलटे समुप्पज्जेज्जा, नो से कप्पइ अप्पणो नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए, कप्पइ से पवत्तिणोणीसाए चेल पडिग्गाहित्तए । नो य से पवित्तिणी सामाणा सिया जे से तत्थ सामाणे आयरिए
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
वा उवज्झाए वा पवत्तए वा थेरे वा गणी वा गणहरे वा गणावच्छेयए वा जं चन्नं पुरओ कट्टु विहरइ कप्पर से तन्नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए || १२ ||
निग्गंथस्स णं तप्पढमयाए संपव्ययमाणस्स कप्पइ रयहरणगोच्छ्गपडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए, से य पुव्वोवट्टिए सिया एवं से नो कप्पइ रयहरणगोच्छगपडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपन्नइचए, कप्पर से अहापडिग्गहियाई वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तए ॥१३॥
है
निग्गंधीए णं तप्पढमयाए संपव्वयमाणीए कप्पर रयहरणगोच्छगपडिग्गहमायाए - चउहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए । सा य पुव्वोचट्ठिया सिया एवं से नो कप्पर रयहरणगोच्छणपडिग्गहमायाए चउहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए, कप्पड़ से अहापड़िग्गहियाई वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तर ॥ १४ ॥
नो कप्पर निरंगंधाण वा निम्गंधीण वा पढमसमोसरणुदेसपत्ताई चेलाई पडिग्गाहित्तए । कप्पड़ निमाण वा निग्रंथीण वा दोच्चसमोसरणुद्देशपत्ताई चेलाई - डिग्गाहिए || १५ |
कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण चा अहारायणियार चेलाई पडिग्गाहित्तए ॥ १६॥ करपइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए सेज्जासंथारए पडिग्गा - हित्तए ॥१७॥
atus निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अहारायणियाए किकम्मं करित्तए || १८ || नो कप्पर निग्गंथाण वा निरगंथीण वा अंतरागिहंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत वा तुयत्ति वा निदाइत्तर व पयलाइत्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहरित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिघाणं वा परिहवित्तए, सज्झायं वा करित्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सगं वा करित्तए, ठाणं वा ठात्तए । अह पुण एवं जाणेज्जा वाहिए जराजुण्णे तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिज्ज वा पवडिज्ज वा एवं से क़प्पड़ अंतरागिहंसि चिट्ठित्तए वा जाव ठाणं वा ठाइत्तए ॥१९॥
नो कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरागिहंसि जाव चउग्गा वा पंचगाहं वा आइक्खित्तए वा विभावित्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा ननत्थ एगणा एण वा एग़वागरणेण वा एगगाहाए वा एगसिलोएण वा, सेवि य ठिच्चा नो चेव णं अट्ठिच्चा ॥ २० ॥
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
नो कप्पइ निग्गंणाणं वा निग्गंथीणं वा अंतरागिहंसि इमाई पंच महव्वयाई सभावणाई आइक्खित्तए वा. विभावित्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा, नन्नत्थ एगनाएण वा जाव एगसिलोएण वा, सेवि य ठिच्चा नो चेव णं अटिच्चा ॥२१॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा पाडिहारियं सागारियसंतयं सेज्जासंथारयं आयाए अपडिहटु संपन्चइत्तए ॥२२॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा षाडिहारियं सागारियसंतयं सिज्जासंथारयं आयाए अविकरणं कटु संपन्यइत्तए ॥२३॥
कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा पाडिहारियं सागारियसंतयं सेज्जासंथारयं आयाए विकरणं कटु संपव्वइत्तए ॥२४॥
इह खल निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारिए सागारियसंतए सेज्जासंथारए विप्पणसिज्जा से य अणुगवेसियव्वे सिया, से य अणुगवेस्समाणे लभेज्जा तस्सेक पडिदायवे सिया, से य अणुगवेस्समाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ दोच्चंपि उग्गई अणुन्नवित्ता परिहारं परिहरित्तए ॥२५॥
जदिवसं समणा निग्गंथा सेज्जासंथारयं विप्पजहंति तदिवसं अवरे समणा निग्गंथा इन्चमागच्छेज्जा सच्चेव उग्गहस्स पुवाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे ॥
अत्थि या इत्थ केइ उवस्सयपरियावन्नए अचित्ते परिहरणारिहे सच्चेव उग्गहस्स पुयाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमबि उग्गहे ॥२७॥
से वत्थुसु अव्वावडेसु अब्बोगडेसु अपरपरिग्गहिएमु अमरपरिग्गहिएमु सच्चेव उग्गहस्स पुवाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे ॥२८॥
से वत्थुम वावडेसु वोगडेसु परपरिग्गहिएम भिक्खुभावस्स अट्टाए दोच्चंपि उग्गहे अणुण्णवेयव्वे सिया अहालंदद्मवि उग्गहे ॥२९॥
से अणुकुड्डेसु वा अणुभित्तिसु चा अणुचरियासु वा अणुफलिहामु वा अणुपंथेसु वा अणुमेराम वा सज्चेव उग्गहस्स पुन्वाणुण्णवणा अहालंदमवि उग्गहे ॥३०॥
से गामस्स वा जाव रायहाणीए वा बहिया सेण्णं संनिविद्रं पेहाए कप्पड़ निग्गंधाण वा निगंधीण वा तदिवसं भिक्खायरियाए गंतुं पडिनियत्तए । नो से कप्पड़ तं रयणि तत्थेव उवाइणा वित्तए, जो रवलु निग्गंथो वा निग्गंधी वा तं रयर्णि तत्थेव उवाइणावेइ, उवाइणावंतं वा साइज्जइ, से दुइओवि अइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाण अणुग्धाइयं ॥३१॥
से गामसि वा जाव रायहाणिसि वा कप्पइ निग्गंयाण वा निग्गंथीण वा सबओ समंता सकोसं जोयणं उग्गई ओगिण्हित्ता णं चिहित्तए ॥३२॥
॥ तइओ उहेसो समत्तो ॥३॥
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
। चउत्थो उद्देसो। तओ अणुग्धाइया पण्णत्ता तंजहा-हत्थकम्मं करेमाणे १, मेहुणं पडिसेवमाणे २, राइभोयणं भुंजमाणे ३ ॥१॥ . तओ पारंचिया पण्णत्ता, तंजहा-दुढे पारंचिए १, पमत्ते पारंचिए २, अन्नमन्नं करेमाणे पारंचिए ३ ॥२॥ . तओ अणवढप्पा पण्णत्ता, तंजहा-साहम्मियाणं तेण्णं करेमाणे १, अन्नधम्मियाणं तेणं करेमाणे २, इत्थादालं दलमाणे ३ ॥३॥
तओ नो कप्पंति पन्चावित्तए तंजहा-पंडए १, वाइए २, कीबे ३॥सू० ४ ॥ एवं मुंडावित्तए । सू० ५ ॥ सिक्खावित्तए । सू० ६॥ उवहावित्तए ॥ सू० ७॥ संभुजित्तए ॥ सू० ८॥ संवासित्तए ॥ सू० ९॥
तओ नो कप्पंति वाइत्तए, तंजहा-अविणीए, विगइपडिबढे, अविओसवियपाहडे॥ तओ कप्पंति वाइत्तए, तंजहा-विणीए, नोविगइपडिबद्धे, विओसवियपाहुडे ॥११॥ तो दुस्सन्नप्पा पण्णत्ता, तंजहा-दुढे, मूढे, बुग्गहिए ॥ १२ ॥ तओ सुसण्णप्पा पण्णत्ता, तंजहा-अदुद्दे, अमूढे, अव्वुग्गहिए ॥१३॥
निगंथिं च णं गिलायमाणि पिया वा भाया वा पुत्तो वा पलिस्सएज्जा तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता, आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥१४॥
निग्गंथं च णं गिलायमाणं माया वा भगिणी वा धूया वा पलिस्सएज्जा, तं च निग्गथे साइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥
नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहित्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावित्तए, से य आहच्च उवाइणाविए सिया तं नो अप्पणा अँजिज्जा, नो अन्नेसिं, अणुप्पएज्जा, एगते बहुफामुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिवेयव्वे सिया, तं अप्पणा मुंजमाणे अन्नेसिं वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ॥१६॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परं अद्धजोयणमेराए उवाइणावित्तए, से य आहच्च उवाइणाविए सिया तं नो अप्पणा भुजिज्जा, नो अन्नेसिं अणुप्पएज्जा, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिहवेयव्वे सिया, तं अप्पणा भुंजमाणे अन्नेसि वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्याइयं ॥१७॥
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविठ्ठणं अन्नयरे अचित्ते अणेसणिज्जे पाणभोयणे पडिग्गाहिए सिया, अस्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवहावियए कप्पइ से तस्स दाउं वा अणुप्पदाउं वा, नत्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए तं नो अप्पणा अँजिज्जा नो अन्नेसि दावए, एगंते बहुफामुए थंडिले पडिले हित्ता पमज्जित्ता परिद्ववेयवे सिया ॥१८॥
जे कडे कप्पट्ठियाणं कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं, नो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं, जे कडे अकप्पट्ठियाणं णो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं, कप्पे ठिया कप्पट्ठिया, अकप्पे ठिया अकप्पट्ठिया ॥१९॥
भिक्खू य गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तयं वा थेरं वा गणिं वा गणहरं वा गणांवच्छेयगं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पेवतयं वा थेरं वा गणिं वा गणहरं वा गणावच्छेयगं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अन्नं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता गं विहरित्तए ॥२०॥
गणावच्छेयए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गण उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ गणावच्छेयगस्स गणावच्छेयगत्तं अणिक्खिवित्ता अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ गणावच्छेयगस्स गणावच्छेयगत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरिक्तए, णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पंवत्तयं वा धेरै वा गणिं वा 'गणहरं वा गणावच्छेयगं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयग वा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से णो वियरेज्जा एवं से णो कप्पइ अण्णं गण उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥२१॥
आयरियउवज्झाए य गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अण्णं गण उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए नो से कप्पइ आयरियउचज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्ण गणं उपसंपज्जित्ता ण विहरित्तए, कप्पइ से आयरियउवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्त णिक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता ण विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ती
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गण उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए ॥२२॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावछेयगं वा अण्णं गणं संमोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पड़ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विह रित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विदरित्तए, जत्युत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता ण 'विहरित्तए ॥२३॥
गणावच्छेयए य गणाओ अवकम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए णो से कप्पइ गणावच्छेयत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से गणावच्छेयत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा एवं से कप्पड़ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता ‘णं विहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्ण गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ।२४। ___आयरियउवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म 'इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए णो से कप्पइ आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए, उवसंपज्जित्ता'ण विहरित्तए, कप्पइ से आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिविता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कम्पइ से आपुच्छित्ता 'आयरियं वा जाच गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं - संभोगपडियाए
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
ફૂંક
उवसपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पड़ अण्ण गणं संभोगपडियाएं उवसंपज्जित्ता णं विहरित, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा एवं से कप्पड़ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं चिहरित्तए, जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा एवं से नो कप्पड़ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए || २५ ||
भिक्खू य इच्छेज्जा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, णो से कप्पड़ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, nous से पुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, ते य से बियरेज्जा एवं से कप्पड़ अगं आयरियउवज्झायं उडिसावित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पड़ अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, नो से कप्पड़ तेसिं कारणं नदीवित्ता अगं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, कप्पड़ से तेर्सि कारणं दीवित्ता अगं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए ||२६||
गणावच्छेयए य इच्छेज्जा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए नो से कप्पइ गणावच्छेयगत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पड़ से गणावच्छेयगत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, नो से कप्पड़ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अगं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, कप्पड़ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए तेय से त्रियरेज्जा एवं से कष्पड़ अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, ते य से नो वियरेज्जा एवं से नो कष्पड़ अगं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, नो से कष्पड़ तेर्सिं कारणं अदीवित्ता अण्णं आयरियउवज्झाय उद्दिसावित्तए, कष्पड़ से तेसिं कारणं दीवित्ता अण्ण आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए ॥२७॥
आयरिय - उवज्झाए य इच्छिज्जा अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए नो से कप्पड़ आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसाक्तिए, कप्पइ से आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, णो से कपड़ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, कम्प से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए, ते य से बियरेजा एवं से कप्पड़ अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसाबित्तए, ते य से नो विथरेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए, नो से कंप्पइ
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेसिं कारण अदीवित्ता अण्ण आयरियउवज्झाय उदिसावित्तए, कप्पइ से तेसिं कारण दीवित्ता अण्ण आयरियउवज्झाय उदिसावित्तए ॥२८॥
भिक्खू य राओ वा वियाले वा आहच्च वीसुंभिज्जा, तं च सरीरंग केइ वेयावच्चकरे भिक्खू इच्छिज्जा एगंते बहुफामुए थंडिले परिदृवित्तए, अत्थि य इत्थ केइ सागारियसंतए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे कप्पइ से सागारियकडं गहाय तं सरीरगं एगंते बहुफामुए थंडिले परिदृवित्ता तत्थेव उवनिक्खियव्वे सिया ॥२९॥
भिक्खू य अहिगरणं कटु त अहिगरणं अविओसवित्ता नो से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, गामाणुगामं वा दूइज्जित्तए, गणाओ गणं संकमित्तए, वासावास वा वत्थए, जत्थेव अप्पणो आयरियं उवज्झायं पासेज्जा, वहुस्मयं बब्भागमं तस्संतिए आलोइज्जा पडिक्कमिज्जा निदिज्जा गरहिज्जा विउद्वेज्जा विसोहेज्जा अकरणाए अब्भुट्ठिज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा, से य सुएण पट्टविए आइयव्वे सिया, से य मुएण नो पट्टविए नो आइयत्वे सिया, से य मुएण पविज्जमाणं नो आइयइ से निज्जूहियव्वे सिया ॥३०॥
परिहारकप्पट्ठियस्स णं भिक्खुस्स कप्पइ आयरिय-उवज्झाएणं तदिवसं एगगिहंसि पिंडवायं दवावित्तए, तेण परं णो से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, कप्पइ से अन्नयरं वेयावडियं करित्तए, तं जहा-उठावणं वा निसीयावणं वा तुयट्टावणं वा उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणविगिचणं वा विसोहणं वा करित्तए, अह पुण एवं जाणिज्जा-छिन्नावाएमु पंथेमु आउरे झिंझिए पिवासिए तवस्सी दुबले किलंते मुच्छिज्ज बा पवडिज्ज वा, एवं से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं चा अणुप्पदाउं वा ॥ ३१॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाओ पंच महानईओ उद्दिट्ठाओ गणियाओ बंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा, तंजहा-गगा १, जउणा २, सरऊ ३, कोसिया ४, मही ५॥३२॥ ___अह पुण एवं जाणिज्जा एरवई कुणालाए जत्थ चक्किया एगं पायं जले किच्चा एग पाय थले किच्चा एवं से कप्पइ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा, एवं नो चक्किया एवं शं नो कष्पइ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा ॥३३॥
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
से तणेनु वा तणपुंजेस वा पलालेस वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेम्स अप्पपाणेसु अप्पवीएमु अप्पहरिएमु अप्पुस्सेम अप्पुचिंग-पणग-दगमट्टिय-मक्कड़गसंताणगेसु अहे सवणमायाए नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥३४॥
से तणेसु वा जाव-संताणएसु उप्पि सवणमायाए कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥३५॥
से तणेसु वा जाव संताणएस अहे रयणिमुक्कमउडेसु नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं वत्थए ॥३६॥
से तणेस वा जाव संताणएसु वा उप्पि रयणिमुक्कमउडेसु कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं वत्थए ॥३७॥
॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥४॥
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
। पञ्चमोद्देशः। देवे य इत्थिरूवं विउवित्ता निग्गंथं पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, ___ मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ॥१॥
देवे य पुरिसरूवं विउव्वित्ता निग्गंथि पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं ॥२॥
देवी य इत्थिरूवं विउवित्ता निग्गथं पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ॥३॥
देवी य पुरिसरुवं विउन्चित्ता निग्गंथि पडिग्गाहिज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्याइयं ॥४॥
भिक्खू य अहिगरणं कटु तं अहिगरणं अविओसवित्ता इच्छिज्जा अन्नं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ तस्स पंचराइंदियं छेयं कटु परिनिव्वविय परिनिव्वविय दोच्चंपि तमेव गणं पडिणिज्जाएयत्वे सिया जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया ॥५॥
भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणथमियसंकप्पे संथडिए णिन्वितिगिच्छे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे अह पच्छा जाणिज्जाअणुग्गए मूरिए, अत्थमिए वा, जं च आसयंसि ज च पाणिसि जं च पडिग्गहे तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसि वा दलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ।।६-१॥
भिक्ख य उग्गयवित्तिए अणथमियसंकप्पे संथडिए वितिगिच्छाममावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे जाव अन्नेसि वा दलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ॥७-२॥
भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणथमियसंकप्पे असंथडिए निवितिगिच्छे असण वा पाणवा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे जाव अन्नेसि वा दलमाणे राइमोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाण अणुग्धाइयं ।८-३।
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
भिक्खू य उग्गयवित्तिए अणत्यमियसंकप्पे असंथडिए वितिगिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारं आहारेमाणे जाव अन्नेसिं वा दलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ।।९-४॥ ___इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा राओ वा वियाले वा सपाणे सभोयणे उग्गाले आगच्छेज्जा, तं विगिचमाणे वा चिसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं उग्गिलित्ता पच्चोगिल. माणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ॥१०॥
निग्गंथस्स वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स अंतो पडिग्गर्हसि पाणाणि वा वीयाणि वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च संचाएइ विगिचित्तए वा विसो. हित्तए वा तं पुवामेव लाइय विसोहिय विसोहिय तओ संजयामेव भुंजेज्ज वा पिवेज वा, तं च नो संचाएइ विगिचित्तए वा विसोहित्तए वा तं नो अप्पणा अँजिज्जा नो अन्नेसिं दावए, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिवेयव्वे सिया॥११॥
निग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स अंतो पडिग्गहंसि दगे वा दगरए वा दगफुसिए वा परियावज्जेज्जा, से य उसिणे भोयणजाए भोत्तव्वे सिया, से य सीए भोयणजाए तं नो अप्पणा भुजिज्जा नो अन्नेसिं दावए, एगते बहुफासुए थंडिले परिद्ववेयव्वे सिया ॥१२॥
निग्गंधीए राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरं इंदियजायं परामुसज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, हत्थकम्मपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्धाइयं ॥१३॥
निग्गंथीए राओ वा चियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेणाणीए वा अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरंसि सोयंसि ओगाहिज्जा, तं च निग्गंधी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जई चाउम्मासिय अणुग्घाइयं ॥१४॥
नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए होत्तए ॥१५॥
नो कप्पइ निग्गंधीए एगाणियाए गाहावइकुलं पिडवायपडियाए निक्खमित्तए . वा पविसित्तए वा ॥१६॥
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
नो कप्पइ निगंथीए एगाणियाए बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥१७॥
नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाएं गामाणुगामं दूइज्जित्तए वा वासावास वा वत्थए ॥१८॥
नो कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए ॥१९॥ नो कप्पइ निग्गंथीए अपाइयाए होत्तए ॥२०॥ नो कप्पइ निग्गंथीए वोसट्टकाइयाए होत्तए ॥२१॥
नो कप्पइ निग्गथीए वहिया गामस्स वा णगरस्स वा खेडस्स वा कब्बडस्स वा पट्टणस्स वा मडंवस्स वा आगरस्स वा दोणमुहस्स वा आसमस्स वा सणिवेसस्स वा उड्ढं वाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूरोंभिमुहीए एगपाइयाए ठिच्चा आयावणाए आयावित्तए, कप्पई से उवस्सयस्स अंतो वगडाए संघाडिपडिबद्धाए पलंबियवाहियाए समतलपाइयाए ठिच्चा आयावणाए आयावित्तए ॥२२॥
नो कप्पइ निरगंथीए ठाणायइयाए होत्तए ॥२३॥ नो कप्पइ निग्गंथीए पडिमछाइयाए होतेए ॥ सू० २४ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए णिसज्जियाए होत्तए । सू० २५ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए उक्कुडुगासणियाए (ठाणुक्कुडियाए) होत्तए । सू० २६॥ नो कप्पइ -निग्गंथीए वीरासणियाए होत्तए ॥ सू० २७ ।। नो कप्पई निग्गंथीए दंडासणियाए होतए । सू० २८ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए लगंडासणियाए होत्तए । सू० २९ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए एगपासियाए होत्तए ॥ सू० ३० ॥ नो कप्पइ निग्गंथीए उत्ताणासणियाए होत्तए ।। सू० ३१ ।। नो कप्पइ निग्गंथीए ओमंथियाए होत्तए ।।सू० ३२॥ नो कप्पइ निग्गंथीए अंबखुज्जियाए होत्तए ॥ सू० ३३ ॥
नो कप्पइ निग्गंधीणं आकुंचणपट्टग धारित्तए वा परिहरित्तए वा ।। ३४ ॥ कप्पइ निग्गंथाणं आकुंचणपट्टगं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ ३५ ॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं सावस्सयंसि आसणंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा ॥३६॥
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
कप्पइ निग्गंथाणं सावस्सयंसि आसणंसि चिट्टित्तए वा निसीइत्तए वा ॥३७॥
नो कप्पइ निग्गंथोणं सविसाणंसि पीटंसि वा फलगंसि वा चिहित्तए वा निसीइत्तए वा ॥ ३८ ॥ कप्पइ निग्गंथाणं सविसाणंसि पीढंसि वा फलगंसि वा चिट्टित्तए वा निसीइत्तए वा ॥ ३९॥
नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेंटगं लाउयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥४०॥ कप्पइ निग्गंथाणं सवेंटग लाउयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ ४१॥ नो कप्पइ निगंथीणं सवेंटियं पायकेसरियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥४२॥ कप्पइ निग्गंधाणं सवेंटियं पायकेसरियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥४३॥ नो कप्पइ निग्गंधीणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥४४॥ कप्पइ निग्गंथागं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ ४५ ॥
नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा अन्नमन्नस्स मोयं आपिवित्तए वा आयमित्तए वा, नन्नत्थ गाढागाडेहिं रोगायंकेहि ॥ ४६॥
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परिया सियं भोयणजायं जाव तयप्प. माणमेत्तं वा भूइप्पमाणमेत्तं वा तोयविंदुप्पमाणमेत्तं वा आहारं आहरित्तए, नन्नत्थ गाढागाढेहि रोगायंकेहि ॥ ४ ॥
नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएणं आलेषणजाए, आलिंपित्तए वा विलिंपित्तए वा, नन्नत्य गाढागाढेहि रोगायंकेहिं ॥ ४८ ॥
नो कप्पइ निग्गंधाण वा निगंथीण वा परिवासिएण तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा गायाई अब्भंगित्तए वा मक्खित्तए वा, नन्नत्थ गाढागादेहि रोगायंकेहिं ।। ४९ ॥
नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा परिवासिएण कक्केण वा लोरेण वा पवणेण वा अन्नयरेण वा आलेवणजाएण गायाई उवलित्तए वा उध्वट्टित्तए वा, नन्नत्य गाढागाढेहिं रोगायंकेहिं ।। ५०॥
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
ર્ડ
परिहारक पहिए भिक्खू बहिया थेराण वेयावडियाए गच्छेज्जा, से य आहच्च अइक्कमिज्जा, तं च थेरा जाणिज्जा अप्पणो आगमेणं अन्नेसिं वा अंतिए सुच्चा, तओ पच्छा तस्य अहालहुस्सए नामं ववहारे पट्टवेयव्वे सिया ॥ ५१ ॥
निम्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्वाए अन्नयरे पुलागभत्ते पडिग्गाहिए सिया, साय संथरिज्जा कप्पर से तदिवस तेणेव भत्तद्वेणं पज्जोस वि चए, नो से कप्पर दुच्चपि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसित्तए, सा य नो संथरिज्जा एवं से कप्पर दुच्चपि गाहाबइकुलं पिंडवायपडियाए पविसि च ॥ ५२ ॥ ॥ पंचमो उद्देसो समत्तो ॥५॥
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥षष्ठोद्देशकः।। नो कप्पइ णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई पदित्तए, तं जहाअलियवयणे, हीलिययणे, खिसियवयणे, फरुसवयणे, गारस्थियवयणे, विउसवियं वा पुणो उदीरित्तए ॥१॥ __कंप्पस्स छ पत्थारो पन्नत्ता, तंजहा-पाणाइवायस्स वायं वयमाणे, मुसावायस्स वायं वयमाणे, अदिन्नादाणस्स वायं वयमाणे, अविरइयावायं वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासवाय वयमाणे, इच्चेते छ कप्पस्त पत्यारे पत्यारेत्ता सम्म अपडिपूरेमाणे तहाणपत्ते सिया ॥२॥
णिगंथस्स य अहे पायंसि खाणू वा कंटए वां हीरए वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा तं च णिग्गंथे नो संचाएइ नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा तं णिग्गंथी णीहरमणी वा विसोहेमाणी वा णाइक्कमइ ॥३॥
णिग्गयस्स य अच्छिसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च णिग्गंथे नो संचाएइ णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा तं णिग्गंथी णीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा णाइक्कमइ ॥४॥
निग्गंथीए य अहे पायंसि खाणू वा कंटए वा हीरए वा सक्करए वा परियावज्जेज्जा, तं च णिग्गंथी णो संचाएइ णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा तं च णिग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमेइ ॥५॥
णिग्गंथीए अच्छिसि पाणे वा वीए वा रए वा परियावज्जेज्जा तं च णिग्गंथी णो संचाएइ णीहरित्तए वा विसोहित्तए वा तं च णिग्गंथे गीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमइ ॥६॥
णिग्गंथे णिग्गंथि दुग्गंसि वा विसमंसि वा पव्वयंसि वा पक्खलमाणिं वा पवडमाणिं वा गिण्हमाणे वा अवलंवमाणे वा णाइक्कमइ ॥७॥
णिग्गथे णिग्गंथि सेयंसि वा पंकसि वा पणगंसि वा उदगंसि वा ओकसमाणि वा ओवुलमाणिं वा गिण्डमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ॥८॥
णिग्गथे णिग्गंथिं णावं आरोहमाणि वा ओरोहमाणि वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ॥९॥
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________ खित्तचित्तं निगर्थि निग्गंथे निण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ // 10 // एवं दित्तचित्तं० // 11 // जक्खाइट० // 12 // उम्मायपत्तं // 13 // उवसग्गपत्तं णिग्गंथि थिग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ // 14 // साहिगरणं // 15 // सपायच्छित्तं // 16 // भत्तपाणपडियाइक्खियं // 17 // अट्ठजायं निगर्थि णिग्गंथे निण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ // 18 // __ छ कप्पस्स पलिमंथू पन्नत्ता, तं जहा-कोकुइए संजमस्स पलिमंथू 1, मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू 2, तितिणिए एसणागोयरस्स पलिमंथू 3, चक्खुलोलए इरियावहियाए पलिमंथू 4, इच्छालोलुए मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू 5, भिज्जाणियाणकरणं सिद्धिमग्गस्स पथिमंथू, सव्वत्थ भगवया अणियाणया पसस्था 6 // 19 // छविहा कप्पट्टिई पण्णत्ता तंजहा-सामाइय संजयकप्पट्टिई 1, छेओवठ्ठावणियसंजयकप्पट्टिई 2, णिन्चिसमाणकप्पट्टिई 3, णिविट्ठकाइयकप्पट्टिई 4, जिणकप्पट्टिई 5, थेरकप्पट्टिई 6, त्ति वेमि // 20 // // कप्पस्स छटो उद्देसो समत्तो // 6 // - M OD-TALEONTO-IE11-01- // इति श्री-वृहत्कल्पसूत्रस्य / मूलपाठः समाप्तः॥ |IA-1}}IATI DAINITIAT28\IN-1910 -1] HIDAINIATIDAI- ITAMIN-alpal