Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा आगम-अनुशीलन ग्रन्थमाला ग्रन्थ-२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी विवेचक और सम्पादक मुनि नथमल (निकाय-सचिव) प्रकाशक जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा आगम-साहित्य प्रकाशन समिति 3, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट कलकत्ता-१ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामपुरिया, 000 ए संकलक : आदर्श साहित्य संघ चूरू (राजस्थान) आर्थिक-सहायक : श्री रामलाल हंसराज गोलछा विराटनगर (नेपाल) प्रकाशन-तिथि: जनवरी, 1998 मुद्रित प्रति : 1100 पृष्ठांक मूल्य : रु. 12.00 न्यू रोशन प्रिन्टिंग 31/1, लोबर चितपुर रोड Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UTTARADHYAYAN: EK SAMIKSHATMAK LAYAN (The Uttaradhyayan Sutra: A Stude) Vacana Pramukh ACARYA TULASI Editor Muni Nathmal (Nikaya Saciva) Publisher Jain Swetambar Terapanthi Mahasabha Agam-Sahitya Prakashan Samiti 3, Portuguese Church Street CALCUTTA-1 (INDIA) Firsi Ediiion, 1967) [Price : Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Managing Editor : Shreechand Rampuria, B. Com, B. L. Manuscript Compiled by Adarsha Sahitya Sangh Churu (Rajasthan) Financial Assistance : Shri Ramlal Hansraj Golchha Biratnagar (Nepal) Copies Printed : 1100 Page : 544 Printer : New Roshan Printing Works 31/1, Lower Chitpur Road. Calcutta-1 All rights reserved Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण विलोडियं आगम दुद्ध मेव, लद्धं सुलद्धं णवणीय मच्छं / सज्झाय सज्झाण रयस्स निच्चं. जयस्स स्स प्पणिहाण पुव्वं // जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत / श्रुत्-सध्यान लीन चिर चिन्तन, जयाचार्य को विमल भाव से // विनयावनतः आचार्य तुलसी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रम समर्पण अन्तस्तोष प्रकाशकीय सम्पादकीय विषयानुक्रम समीक्षात्मक अध्ययन FFr Page #11 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है, उस माली का जो अपने हाथों से उत्त और सिश्चित द्रुम-निकुछज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें। संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हा गया। अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूँ, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं / संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है: विवेचक-सम्पादक : मुनि नथमल सहयोगी : मुनि दुलहराज संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूँ और कामना करता हूँ कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने। -आचार्य तुलसी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय इस ग्रन्थ में उत्तराध्ययन का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत है। श्रमण और वैदिक धाराओं के तुलनात्मक अध्ययन का अवकाश जिन आगमों में है, उनमें उत्तराध्ययन प्रमुख है / समसामयिक दर्शनों में वैचारिक विसदृशता होने पर भी भाषा-प्रयोग, शैली आदि तत्त्व सदृश होते हैं। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में वे एक-दूसरे से संबद्ध होते हैं / अतः उनका तुलनात्मक अध्ययन किए बिना शाब्दिक व आर्थिक बोध सम्यक् नहीं होता / प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन-तत्त्व-विद्या, साधना-पद्धति आदि विषय चर्चित हुए हैं तथा श्रमण और वैदिक संस्कृति के व्यावर्तक तत्त्वों का ऐतिहासिक व सैद्धान्तिक विश्लेषण हुआ है / वैदिक, जैन व बौद्ध तीनों धाराओं में प्राप्त सदृश कथाओं के मूल स्रोत को खोजने की चेष्टा की गई है। उस समय की इन तीनों महान् धाराओं में एक-दूसरी धारा का परस्पर मिश्रण हुआ है, प्रभाव पड़ा है। किसी एक धारा हो ने दूसरी को प्रभावित किया और वह दूसरी धाराओं से प्रभावित नहीं हुई, ऐसा मानना सत्य की कक्षा में समाहित नहीं हो सकता। श्रमण-परम्परा वैदिक-परम्परा से उद्भूत हो या वैदिक-परम्परा श्रमण-परम्परा से उद्भूत हो तो उसका ऐतिहासिक मूल्य बदल सकता है किन्तु गुणात्मक मूल्य नहीं बदलता। उद्भूत शाखा की गुणात्मक सत्ता अपने मूल से अधिक विकासशील हो सकती है। समय-समय पर कुछ विद्वानों ने जन-धर्म को वैदिक-धर्म की शाखा माना है। उस अभिमत के पीछे उनका कोई दुराग्रह रहा है, ऐसा कहना मुझे उचित नहीं लगता, किन्तु यह कहने में संकोच अनुभव नहीं होता कि उन्होंने वैसा निर्णय स्वल्प सामग्री के आधार पर किया था। डॉ० हर्मन जेकोबी आदि विद्वान उस अभिमत का निरसन कर चुके हैं। प्राप्त सामग्री के आधार पर हम भी इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि वैदिक और श्रमण धाराओं में जन्य-जनक का पौर्वापर्य खोजने की अपेक्षा उनके स्वतन्त्र अस्तित्व और विकास की खोज अधिक महत्त्वपूर्ण है। . इस ग्रन्थ में तीनों परम्पराओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत है। उसका मनन करने से यह प्रतीति होती है कि पारम्परिक भेदानुभूति के उपरान्त भी धर्म की अभेदानुभूति का स्रोत सब धाराओं में समान रूप से प्रवाहित रहा है। जो लोग धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन नहीं करते, उनका दृष्टिकोण संकीर्ण रहता है। आग्रह और संकीर्ण-दृष्टि की परिसमाप्ति के लिए धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन का बहुत ही महत्त्व है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] प्राकृत-साहित्य में तात्कालिक जीवन के चित्र बहुत ही प्रस्फुट हैं। उनमें दार्शनिक, सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन की रेखाएं बड़े कौशल से अंकित हुई है। इस ग्रन्थ में उसकी एक संक्षिप्त झाँकी प्रस्तुत की गई है। ... - आचार्य श्री की यह इच्छा थी कि उत्तराध्ययन पर ऐसा अध्ययन प्रस्तुत किया जाय, जो जैन-धर्म की धारणाओं का प्रतिनिधित्व कर सके / उनकी अन्तःप्रेरणा ने हमारे अन्तस् को प्रेरित किया, उनके पथ-दर्शन ने हमारा पथ प्रशस्त किया और प्रस्तुत ग्रन्थ निष्पन्न हो गया। इस ग्रन्थ की निष्पत्ति में मुनि दुलहराजजी का अनन्य योग रहा है। मुनि श्रीचन्दजी ने भी इस कार्य में मेरा सहयोग किया है। साध्वी कानकुमारीजी और मञ्जुलाजी का भी इस कार्य में कुछ योगदान रहा है। ___'नामानुक्रम' साध्वी कनकप्रभाजी ने तैयार किया है। प्रतिलिपि के संशोधन में मुनि गुलाबचन्दजी तथा उद्धरणों की प्रतिलिपि में मुनि चम्पालालजी भी भाग-संभुक्त रहे हैं। इस ग्रन्थ में जिनकी कृतियों का उपयोग किया गया है, उन सबके प्रति मैं हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। सागर सदन, शाहीबाग, अहमदाबाद-४ कार्तिक शुक्ला१२,वि०सं०२०२४ मुनि नथमल Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रस्तुत "उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन" आगम-अनुशीलन ग्रन्थमाला का द्वितीय ग्रन्थ है। 'दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन" इस ग्रन्थमाला का प्रथम ग्रन्थ है, जो पहले प्रकाशित हो चुका है और अपनी तरह का अद्वितीय होने के कारण विद्वान् और जनसाधारण सभी श्रेणियों के पाठकों द्वारा समाप्त हुआ है। ___ इस ग्रन्यमाला के प्रथम ग्रन्थ के समान ही "उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन" अपनी तरह का अनुपम और अभूतपूर्व ग्रन्थ है, जो हिन्दी-साहित्य को एक नवीन देन है। यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हिन्दी में ही नहीं, अपितु, किसी भी भाषा में-उत्तराध्ययन पर समीक्षात्मक अध्ययन अद्यावधि प्रकाशित नहीं हुआ है। __ यों तो प्रस्तुत ग्रन्थ-गत विषयों का ज्ञान आद्योपान्त पठन से ही होगा; फिर भी चर्चित विषयों के सम्बन्ध में किञ्चित आभास ग्रन्थ के सम्पादक विद्वान् मुनि श्री नथमलजी, निकाय सचिव ने अपने सम्पादकीय वक्तव्य में दे दिया है। फिर भी इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय तथ्य इस प्रकार हैं __ ग्रन्थ दो खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में श्रमण और वैदिक परम्पराएँ, श्रमण संस्कृति का प्रागऐतिहासिक अस्तित्व, श्रमण-संस्कृति के मतबाद, आत्म-विद्या, तत्त्व-विद्या, जेन-धर्म का प्रसार-प्रचार, साधना-पद्धति, योग आदि अतीव महत्त्वपूर्ण और गम्भीर विषयों पर सविस्तार और प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध की गई है। द्वितीय खण्ड में व्याकरण, छन्दोविमर्श, परिभाषा, कथानक संक्रमण, भौगोलिक व व्यक्ति परिचय, तुलनात्मक व सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। ___उत्तराध्ययन जैनों का मूल सूत्र है, जिसका गम्भीर और तलस्पर्शी अध्ययन इस अन्य के पढ़ने से होगा तथा तात्कालिक श्रमण संस्कृति, समाज व्यवस्था, शिल्प, मतवाद, आचार, विचार, धार्मिक-आध्यात्मिक उन्मेष आदि का भी सम्यक् बोध हो सकेगा। इस तरह यह ग्रन्य प्राचीन इतिहास, धर्म, दर्शन, तत्त्व-विद्या, भाषा, व्याकरण और जैन, बौद्ध एवं वैदिक विचारधारा में पल्लवित अथवा तत्कालीन चर्चित विषयों का तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन करने वाले अन्वेषक और साधारण पाठक के लिए बहुत उपयोगी * और दिशा सूचक होगा। पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि सन्तों द्वारा प्रस्तुत पाण्डुलिपि को नियमानुसार अवधार कर उसकी प्रतिलिपि करने का कार्य आदर्श साहित्य संघ, 'चुरू' द्वारा सम्पन्न हुआ है, जिसके लिए हम संघ के संचालकों के प्रति कृतज्ञ हैं। अर्थ-व्यवस्था इस ग्रन्थ के प्रकाशन का व्यय विराटनगर ( नेपाल) निवासी श्री रामलालजी हंसराजजी गोलछा द्वारा श्री हंसराजजी हुलासचन्दजी गोलछा की स्वर्गीया माता श्री Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन धापीदेवी (धर्म-पत्नी श्री रामलालजी गोलछा) की स्मृति में प्रदत्त निधि से हुआ है। एतदर्थ इस अनुकरणीय अनुदान के लिए गोलछा-परिवार हार्दिक धन्यवाद का पात्र है। . ___ आगम-साहित्य प्रकाशन समिति की ओर से उक्त निधि से होने वाले प्रकाशन-कार्य की देख-रेख के लिए निम्न सज्जनों की एक उपसमिति गठित की गई है : (1) श्रीमान् हुलासचन्दजी गोलछा (2) " मोहनलालजी बाँठिया (3) " श्रीचन्द रामपुरिया (4) " गोपीचन्दजी चौपड़ा (5) " केवलचन्दजी नाहटा सर्वश्री श्रीचन्द रामपुरिया एवं केवलचन्दजी नाहटा उक्त उपसमिति के संयोजक चुने गए हैं। आगम-साहित्य प्रकाशन-कार्य महासभा के अन्तर्गत गठित आगम-साहित्य प्रकाशन समिति का प्रकाशन-कार्य ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रहा है, त्यों-त्यों हृदय में आनन्द का पारावार नहीं। मैं तो अपने जीवन को एक साध ही पूरी होते देख रहा हूँ। इस अवसर पर मैं अपने अनन्य बन्धु और साथी सर्व श्री गोविन्दरामजी सरावगी, मोहनलालजी बांठिया एवं खेमचन्दजी सेठिया को उनकी मुक्त सेवाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। आभार आचार्य श्री की सुदीर्घ-दृष्टि अत्यन्त भेदिनी है। जहाँ एक ओर जन-मानस की आध्यात्मिक और नैतिक चेतना की जागृति के व्यापक नैतिक आन्दोलनों में उनके अमूल्य जीवन-क्षण लग रहे है, वहाँ दूसरी ओर आगम-साहित्य-गत जैन-संस्कृति के मूल-सन्देश को जन-व्यापी बनाने का उनका उपक्रम भी अनन्य और स्तुत्य है। जैन-आगमों को अभिलषित रूप में भारतीय एवं विदेशी विद्वानों के सम्मुख ला देने की आकांक्षा में वाचना प्रमुख के रूप में आचार्य श्री तुलसी ने जो अथक परिश्रम अपने कन्धों पर लिया है उसके लिए जैनी ही नहीं अपितु सारी भारतीय जनता उनके प्रति कृतज्ञ रहेगी। निकाय सचिव मुनि श्री नथमलजी का सम्पादन-कार्य एवं तेरापन्थ संघ के अन्य विद्वान् मुनि-वृन्द के सक्रिय सहयोग भी वस्तुतः अभिनन्दनीय हैं। हम आचार्य श्री और उनके साधु-परिवार के प्रति इस जनहितकारी पवित्र प्रवृत्ति के लिए नतमस्तक हैं। जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा श्रीचन्द रामपुरिया 3, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता-१ संयोजक 14 जनवरी, 1968 आगम-साहित्य प्रकाशन समिति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम प्रथम खण्ड पृ० 1-25 & u wo .. % प्रकरण : पहला 1. श्रमण और वैदिक परम्पराएँ तथा उनका पौर्वापर्य : श्रमण-साहित्य : वैदिक-वाङ्मय : श्रमण-साहित्य के अभिमत पर एक दृष्टि : वैदिक-वाङमय के अभिमत पर एक दृष्टि : जैन और बौद्ध : भगवान् पार्श्व : अरिष्टनेमि 2. श्रमण-संस्कृति का प्रागऐतिहासिक अस्तित्व वातरशन मुनि-वातरशन श्रमण : केशी :व्रात्य : व्रात्य-काण्ड के कुछ सूत्र : अर्हन् : असुर और अर्हत् : असुर और वैदिक आर्य : असुर और आत्म-विद्या : सांस्कृतिक विरोध : पुरातत्त्व प्रकरण : दूसरा 1. श्रमण-संस्कृति के मतवाद 2. श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु : परम्परागत एकता : भगवान् पार्श्व और महात्मा बुद्ध : गोशालक और पूरणकश्यप . 20 - 21 26-59 त्मा बुद्ध . .. . . . Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -चार उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक-अध्ययन - 45 - 49 rrrr 9 06954 71 74 :व्रत :जैन-धर्म और व्रत-परम्परा : ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत : संन्यास या श्रामण्य : यज्ञ-प्रतिरोध और वेद का अप्रामाण्य : जाति की अतात्त्विकता : समत्व की भावना व अहिंसा 57 प्रकरण : तीसरा 60-76 श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि : दान : स्नान : कतृ वाद 67 : आत्मा और परलोक : स्वर्ग और नरक : निर्वाण प्रकरण : चौथा 77-89 1. आत्म-विद्या-क्षत्रियों की देन 77 : आत्म-विद्या की परम्परा : कर्म-विद्या और आत्म-विद्या : आत्म-विद्या और वेद : श्रमण-परम्परा और क्षत्रिय : आत्म-विद्या के लिए ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों की उपासना : आत्म-विद्या के पुरस्कर्ता : ब्राह्मणों की उदारता : आत्म-विद्या और अहिंसा प्रकरण : पाँचवाँ 60-119 1. महावीर कालीन मतवाद 2. जैन-धर्म और क्षत्रिय 3. भगवान् महावीर का विहार-क्षेत्र 4. विदेशों में जैन-धर्म 5. जैन-धर्म-हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में 77 GmW Wom Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 103 106 106 107 106 106 110 111 112 112 विषयानुक्रम : विहार : बंगाल : उड़ीसा : उत्तर प्रदेश : मथुरा : चम्पा : राजस्थान : पंजाब और सिंधु-सौवीर : मध्य प्रदेश : सौराष्ट्र-गुजरात : बम्बई-महागष्ट्र : नर्मदा तट : दक्षिण भारत 6. जैन-धर्म का ह्रास-काल 7. जैन-धर्म और वैश्य प्रकरण : छट्ठा 1. महावीर तीर्थङ्कर थे पर जैन-धर्म के प्रवर्तक नहीं 2. पार्श्व और महावीर का शासन-भेद : चातुर्याम और पंच महाव्रत : सामायिक और छेदोपस्थापनीय : रात्रि-भोजन विरमण : सचेल और अचेल प्रतिक्रमण : अवस्थित और अनवस्थित कल्प प्रकरण : सातवाँ 1. साधना-पद्धति : साध्य : साधन : साधना 120-131 120 122 123 125 127 128 131 131 132-203 132 2. योग . : भावना-योग : स्थान-योग Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन 142 143 147 148 146 150 152 152 154 154 156. 157 : ऊर्ध्व-स्थान-योग : निषीदन-स्थान-योग : शयन-स्थान-योग : आसनों के अर्थ-भेद : वीरासन : पद्मासन : दण्डायत : वर्तमान में करणीय आसन : गमन-योग : आतापना-योग . : तपोयोग : बाह्य तप : अनशन : अवमौदर्य : भिक्षाचरी (वृत्ति-संक्षेप) : रस-परित्याग : काय-क्लेश :प्रतिसंलीनता : बाह्य-तप के प्रयोजन : बाह्य-तप के परिणाम : आभ्यन्तर-तप : प्रायश्चित्त : विनय : वैयावृत्त्य (सेवा) : स्वाध्याय : ध्यान : चित्त और ध्यान : ध्यान के प्रकार : ध्यान की मर्यादाएँ : ध्यान और प्राणायाम : ध्यान और समत्व 158 158 162 163 164 165 166 168 166 173 178 186 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम -सात 187 188 160 161 196 167 166 200 202 : ध्यान और शारीरिक संहनन : ध्यान का कालमान : ध्यान सिद्धि के हेतु : ध्यान का महत्त्व : व्युत्सर्ग : कायोत्सर्ग : कायोत्सर्ग का उद्देश्य .: कायोत्सर्ग की विधि और प्रकार : कायोत्सर्ग का कालमान : कायोत्सर्ग का फल : कायोत्सर्ग के दोष :आभ्यन्तर-तप के परिणाम 3. बाह्य-जगत् और हम 4. सामाचारी 5. चर्या 6. आवश्यक कर्म प्रकरण : आठवाँ 1. धर्म की धारणा के हेतु दृष्टिकोण : परलोकवादी दृष्टिकोण :: त्रिवर्ग और चतुर्वर्ग : परिणामवादी दृष्टिकोण - : व्यक्तिवादी दृष्टिकोण ... : एकत्व और अत्राणात्मक दृष्टिकोण : अनित्यवादी दृष्टिकोण :: संसार भावना 2. धर्म-श्रद्धा 3. बाह्य-संगों का त्याग क्यों ? 4. श्रामण्य और काय-क्लेश : महाव्रत और काय-क्लेश : परीषह और काय-क्लेश 4-226 204 204 206 206 213 213 215 215 216 217 218 221 222 222 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -आठ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन 223 227-252 227 228 له له سه 231 231 : अनेकान्त दृष्टि प्रकरण : नवाँ 1. तत्त्व-विद्या : उपनिषद् और सृष्टि : बौद्ध-दर्शन और विश्व : जैन-दर्शन और विश्व : मूर्त-अमूर्त : परमाणुवाद जीव विभाग : स्थावर सृष्टि : स्थूल पृथ्वी : स्थूल जल : स्थूल वनस्पति : त्रस सृष्टि : अग्नि और वायु : अभिप्राय पूर्वक गति करने वाले त्रस : दृश्य जगत् और परिवर्तनशील सृष्टि 2. कर्मवाद और लेश्या : कर्म-चैतन्य पर प्रभाव : लेश्या-चेतन और अचेतन के संयोग का माध्यम : डॉ० हर्मन जेकोबी के अभिमत की समीक्षा : लेश्या की परिभाषा और वर्गीकरण का आधार 233 233. 233 234 234 240 240 241 242 242 246 द्वितीय खण्ड प्रकरण : पहला कथानक संक्रमण : प्रस्तुत चर्चा : बौद्ध परिषद . महाभारत का रचनाकाल. : जैन आगम वाचनाएँ : सदृश कथानक 255-357 255 256 256 257 256 961 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम 284 315 347 358-370 358 356 362 364 : हरिकेशबल : चित्त सम्भूत : इषुकार : नमि प्रव्रज्या प्रकरण दूसरा प्रत्येक बुद्ध : करकण्डु : द्विमुख : नमि : नग्गति (नगगति) प्रकरण : तीसरा भौगोलिक परिचय . : विदेह और मिथिला : कम्बोज माञ्चाल और काम्पिल्ल : हस्तिनापुर : पुरिमताल : दशार्ण : काशी और वराणसी : इषुकार (उसुयार) नगर : कलिंग : गांधार : सौवीर : सुग्रीव नगर : मगध :कौशाम्बी चम्पा : पिहुंड : सोरियपुर द्वारका श्रावस्ती 371-385 371 371 373 373 374 375 376 377 378 378 376 380 380 380 380 mr m UUU ur 384 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -दस उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रकरण : चौथा ... 386-400 ध्यक्ति परिचय प्रकरण : पाँचवाँ 401-438 1. निक्षेप-पद्धत्ति 401 : अंग 401 : करण '403 : संयोग 405 2. निरुक्त 407 3. सभ्यता और संस्कृति : राजा और युवराज 413 : अन्तःपुर 413 : न्याय 414 :कर-व्यवस्था 414 : अपराध और दण्ड : चोरों के प्रकार : दण्ड-व्यवस्था : गुप्तचर 416 : निःस्वामिक धन : युद्ध : शस्त्र 418 : सुरक्षा के साधन 418 : अन्तर्देशीय व्यापार : शिल्ली वर्ग 420 : सिक्का 420 : दीनार : यान-वाहन : आखेट कर्म 422 : पशु : पशुओं का भोजन : जनपद 423 415 415 417 417 416 421 421 422 423 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम... -ग्यारह-. : जनपद का मुख्य भाग प्रासाद-गृह : अटवी और उद्यान / प्रकृति विश्लेषण : विवाह : स्वयंवर : गन्धर्व-विवाह : बहुपत्नी प्रथा : तलाक प्रथा और वैवाहिक शुल्क : दहेज . : सौतिया डाह . : यवनिका का प्रयोग : वेश्या : प्रसाधन : भोजन * दास प्रथा : विद्यार्थी : व्यसन / मल्ल-विद्या : रोग और चिकित्सा : मंत्र और विद्या : मतवाद : तापस : विकीर्ण 224 425 425 426 426 427 427 428 428 426 426 430 430 430 430 0 0 431 432 433 434 434 435 437 437 438 प्रकरण : छट्ठा तुलनात्मक अध्ययन प्रकरण : सातवाँ उपमा और दृष्टान्त : उपमाएं दृष्टान्त 439-455 436 456-462 456 456 461 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -बारह 463-470 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन - प्रकरण : आठवाँ छन्दोविमर्श प्रकरण : नौवाँ व्याकरण-विमर्श : सन्धि : कारक 471-488 471 471 :वचन 473 477 833 476 : समास : प्रत्यय : लिङ्ग : क्रिया और अर्द्ध क्रिया : आर्ष-प्रयोग : विशेष विमर्श प्रकरण : दसवाँ परिभाषा-पद प्रकरण : ग्यारहवाँ सूक्त और शिक्षा-पद 480 482 484 485 481-498 499-514 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : पहला १-श्रमण और वैदिक परम्पराएँ तथा उनका पौर्वापर्य हिन्दुस्तान में श्रमण और वैदिक-ये दो परम्पराएं बहुत प्राचीन काल से चली आ रही हैं। इनका अस्तित्व ऐतिहासिक काल से आगे प्राग्-ऐतिहासिक काल में भी जाता है। इनमें कौन पहले थी और कौन पीछे हुई, यह प्रश्न बहुत चर्चनीय और विवादास्पद है। यह प्रश्न विवादास्पद. इसलिए बना कि श्रमण-परम्परा के समर्थक श्रमण परम्परा को प्राचीन प्रमाणित करते हैं और वैदिक-परम्परा के समर्थक वैदिक-परम्परा को / श्रमण-साहित्य की नि है कि वैदिक-परम्परा श्रमण-परम्परा से उद्भूत हुई है और वैदिकवाङ्मय की ध्वनि है कि श्रमण-परम्परा वैदिक-परम्परा से उद्भूत हुई है। श्रमण-साहित्य ___भगवान् ऋषभ प्राग-ऐतिहासिक काल में हुए। वे जैन-परम्परा के आदि तीर्थङ्कर थे और धर्म-परम्परा के भी प्रथम प्रवर्तक थे। उनके पुत्र सम्राट भरत ने एक स्वाध्यायशील श्रावक मण्डल की स्थापना की। एक दिन उन श्रावकों को आमंत्रित कर भरत ने कहा-"आप प्रतिदिन मेरे घर पर भोजन किया करें, खेती, व्यापार आदि न करें। अधिक समय स्वाध्याय में लगाएं। प्रतिदिन मुझे यह चेतावनी दिया करें-आप पराजित हो रहे हैं, भय बढ़ रहा है, इसलिए 'मा हन, मा हन,'-हिंसा न करें, हिंसा न करें।" _ उन्होंने वैसा ही काम करना शुरू किया। भरत चक्रवर्ती था। वह राज्य-चिन्ता और भोगों में कभी प्रमत्त हो जाता। उनकी चेतावनी सुनकर सोचता- "मैं किनसे पराजित हो रहा हूँ ? भय किस ओर से बढ़ रहा है ?" इस चिन्तन से वह तत्काल समझ जाता.-"मै कषाय से पराजित हो रहा हूँ और कषाय से भय बढ़ रहा है।" वह तत्काल अप्रमत्त हो जाता। ___ वे श्रावक चक्रवर्ती की रसोई में ही भोजन करते थे। उनके साथ-साथ और भी बहुत लोग आने लगे। रसोइयों के सामने एक समस्या खड़ी हो गई। वे भोजन करने वालों को बाढ़ से घबड़ा गए। उन्होंने चक्रवर्ती से निवेदन किया-"पता नहीं कौन श्रावक है और कौन श्रावक नहीं है ? भोजन के लिए इतने लोग आने लगे हैं कि उन सबको भोजन कराने में हम असमर्थ हैं।" . सम्राट ने कहा- "कल जो भोजन करने आएं उन्हें पूछ-पूछ कर भोजन कराना और जो श्रावक हों, उन्हें मेरे पास ले आना।" Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन दूसरे दिन भोजन करने वाले आए / तब रसोइयों ने पूछा- "आप कौन हैं ?" "श्रावक / " "श्रावक के कितने व्रत होते हैं ?" "पाँच।" "शिक्षा व्रत कितने है "सात।" जिन्होंने यह उत्तर दिया उन सबको वे रसोइए सम्राट के पास ले गए। सम्राट ने अपने काकणी रत्न से उनके वक्ष पर तीन रेखाएँ खींच दीं / वे 'माहन' 'माहन' कहते थे इसलिए 'माहन' या 'ब्राह्मण' कहलाने लगे। भरत के पुत्र आदित्ययशा ने ब्राह्मणों के लिए सोने के यज्ञोपवीत बनवाए। महायशा आदि उत्तरवर्ती राजाओं ने चाँदी, सूत्र आदि के यज्ञोपवीत बनवाए / ब्राह्मण भरत द्वारा पूजित थे इसलिए दूसरे लोग भी उन्हें दान देने लगे। भरत ने उनके स्वाध्याय के लिए वेदों की रचना की। उन वेदों में श्रावक-धर्म का प्रतिपादन था। नर्वे तीर्थङ्कर सुविधिनाथ का निर्वाण होने के कुछ समय पश्चात् साधु-संघ का विच्छेद हो गया। उन ब्राह्मणों और उन वेदों का भी विच्छेद हो गया। वर्तमान के ब्राह्मण और वेद उनके बाद की सृष्टि हैं / इस प्रकार आवश्यक नियुक्तिकार ( ई० सन् 100-200 ) की कल्पना के अनुसार भरत द्वारा चिह्नित श्रावक मूल ब्राह्मण हैं और भरत द्वारा निर्मित वेद ही मूल वेद हैं। इन सबकी उत्पत्ति का आदि स्रोत जैन-परम्परा है। इस विषय में श्रीमद् भागवत के स्कंध 5, अध्याय 4 तथा स्कंध 11, अध्याय 2 द्रष्टव्य हैं / . वैदिक-वाङ्मय - डॉ. लक्ष्मण शास्त्री ने वैदिक-संस्कृति को श्रमण-संस्कृति का मूल माना है। उनका अभिमत है-"जैन तथा बौद्ध धर्म भी वैदिक-संस्कृति की ही शाखाएं हैं। यद्यपि सामान्य मनुष्य इन्हें वैदिक नहीं मानता। सामान्य मनुष्य की इस भ्रान्त धारणा का कारण है मूलतः इन शाखाओं के वेद-विरोध की कल्पना। सच तो यह है कि जैनों और बौद्धों की तीतों अंतिम कल्पनाएँ-कर्म-विपाक, संसार का बंधन और मोक्ष या मुक्ति-अन्ततोगत्वा वैदिक ही हैं / " 2 कुछ आगे लिखा है-"जैन तथा बौद्ध धर्म वेदान्त की यानि उपनिषदों की विचारधाराओं के विकसित रूप हैं।"3 कविवर दिनकर ने लिखा है- "वैदिक-धर्म पूर्ण नहीं है, इसका प्रमाण उपनिषदों १-आवश्यक नियुक्ति, गा० 361-366 ; वृत्ति पत्र 235,236 / २-बैदिक संस्कृति का विकास, पृ० 15 // ३-वही, पृ० 16 / Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 १-श्रमण और वैदिक परम्पराएं तथा उनका पौर्वापर्य 3 में ही मिलने लगा था और यद्यपि वैदिकों की प्रामाणिकता में उपनिषदों ने संदेह नहीं किया, किन्तु वैदिक-धर्म के काम्य स्वर्ग को अयथेष्ट बताकर वेदों की एक प्रकार की आलोचना उपनिषदों ने हो शुरू कर दी थी। वेद सबसे अधिक महत्त्व यज्ञ को देते थे। यज्ञों की प्रधानता के कारण समाज में ब्राह्मणों का स्थान बहुत प्रमुख हो गया था / इन सारी बातों की समाज में आलोचना चलने लगी और लोगों को यह संदेह होने लगा कि मनुष्य और उसकी मुक्ति के बीच में ब्राह्मण का आना सचमुच ही ठीक नहीं है / आलोचना की इस प्रवृत्ति ने बढ़ते-बढ़ते, आखिर ईसा से 600 वर्ष पूर्व तक आकर वैदिक-धर्म के खिलाफ खुले विद्रोह को जन्म दिया जिसका सुसंगठित रूप जैन और बौद्ध धर्मों में प्रगट हुआ।" ___डॉ० सत्यकेतु विद्यालंकार ने जैन और बौद्ध-धर्म का नई धार्मिक सुधारणा के रूप में अंकन किया है। उनके शब्दों में-"इस नई धार्मिक सुधारणा ने यज्ञों के रूढ़िवाद व समाज में ऊंच-नीच के भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाकर प्राचीन आर्य-धर्म का पुनरुद्धार करने का प्रयत्न किया / "2 श्रमण-साहित्य के अभिमत पर एक दृष्टि नियुक्ति तथा पुराण ग्रन्थों में ब्राह्मण और वेदों की उत्पति जैन स्रोत से बतलाई गई है / आवश्यक नियुक्ति की व्याख्या को हम एक रूपक मानें तो उसका अर्थ जैन-परम्परा का वैदिक-परम्परा के साथ सामञ्जस्य स्थापित करना होगा और यदि उसे यथार्थ माने तो उसका अर्थ यह होगा कि जैन-परम्परा में भी ब्राह्मण, वेद और यज्ञोपवीत का स्थान रहा है। वैदिक-वाङ्मय के अभिमत पर एक दृष्टि ___डॉ० लक्ष्मण शास्त्री ने कर्म-विपाक, संसार का बंधन और मोक्ष या मुक्ति–इन तोनों कल्पनाओं को वैदिक मानकर जैन और बौद्धों को वैदिक संस्कृति की शाखा मानने का साहस किया, किन्तु सच तो यह है कि कर्म-बन्धन और मुक्ति की कल्पना सर्वथा. अवैदिक है। उपनिषदों के ऋषि श्रमण-संस्कृति से कितने प्रभावित थे या वे स्वयं श्रमण हो थे, इस पर हमें आगे विचार करना है। ___ जैन-धर्म वैदिक-धर्म के क्रिया-काण्डों के प्रति विद्रोह करने के लिए समुत्पन्न धर्म नहीं है और आर्य-धर्म के पुनरुद्धार के रूप में भी उसका उदय नहीं हुआ है। ये सारी धारणाएं सामयिक दृष्टिकोण से बनी हुई हैं। १-संस्कृति के चार अध्याय (द्वितीय संस्करण), पृ० 102 / २-पाटलीपुत्र की कथा, पृ० 67-68 / Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन सच तो यह है कि श्रमण और वैदिक दोनों परम्पराएं स्वतंत्र रूप से उद्भूत हैं / दोनों एक साथ रहने के कारण एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं, इसीलिए किसी ने यह कल्पना की कि श्रमण-परम्परा वैदिक-परम्परा से उद्भूत है। किन्तु ये दोनों परिकल्पनाएं वस्तु-स्थिति से दूर हैं। जैन और बौद्ध श्रमण-परम्परा में अनेक सम्प्रदाय थे, किन्तु काल के अविरल प्रवाह में जैन और बौद्ध-ये दो बचे, शेष सब विलीन हो गए-कुछ मिट गए, कुछ जैन-परम्परा में मिल गए और कुछ वैदिक-परम्परा में। ___ दो शताब्दी पूर्व जब पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय इतिहास की खोज प्रारम्भ की तो उन्होंने बौद्ध और जैन परम्परा में अपूर्व साम्य पाया / बौद्ध-धर्म अनेक देशों में फैला हुआ था। उसका साहित्य सुलभ था। विद्वानों ने उसका अध्ययन शुरू किया और बौद्धदर्शन पर प्रचुर मात्रा में लिखा गया। ___ जैन-धर्म उस समय भारत से बाहर कहीं भी प्राप्त नहीं था। उसका साहित्य भी दुर्लभ था / उसका अध्ययन पर्याप्त रूप से नहीं किया जा सका। एक सीमित अध्ययन के आधार पर कुछ पश्चिमी विद्वान् त्रुटिपूर्ण निष्कर्षों पर पहुंचे। बुद्ध और महावीर के जीवन-दर्शन की समानता देखकर कुछ विद्वान् मानने लगे कि बुद्ध और महावीर एक ही व्यक्ति हैं। प्रो० वेबर ने उक्त मान्यता का खण्डन किया किन्तु वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जैन-धर्म बौद्ध-धर्म की शाखा है।' ___डॉ० हर्मन जेकोबी ने इन दोनों मान्यताओं का खण्डन कर यह प्रमाणित किया कि जैन-धर्म बौद्ध-धर्म से स्वतंत्र ही नहीं, किन्तु उससे बहुत प्राचीन है। भगवान् पार्श्व ___ डॉ० हर्मन जेकोबी ने भगवान् पार्श्व को ऐतिहासिक व्यक्ति प्रमाणित किया। फिर इस विषय की पुष्टि अनेक विद्वानों ने की। डॉ. बासम का अभिमत है : "भगवान् महावीर बौद्ध-पिटकों में बुद्ध के प्रतिस्पर्धी के रूप में अंकित किए गए हैं इसलिए उनकी 1. Indische Studien, XVI, p. 210. 2. The Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction pp. 18-22. 3. The Sacred Books of the East, Vol. XLV, Introduction p. 21 : "That Parsva was a historical person, is now admitted by all as very probable ;..." Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 १-श्रमण और वैदिक परम्पराएं तथा उनका पौर्वापर्य 5 ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। भगवान् पार्श्व चौबीस तीर्थङ्करों में से तेईसवें तीर्थङ्कर के रूप में प्रख्यात थे।"१ डॉ. विमलाचरण लॉ के अनुसार भगवान पार्श्व के धर्म का प्रचार भारत के उत्तरवर्ती क्षत्रियों में था। वैशाली उसका मुख्य केन्द्र था / 2 वृज्जिगण के प्रमुख महाराज चेटक भगवान् पार्श्व के अनुयायी थे। भगवान् महावीर के माता-पिता भी भगवान् पार्श्व के धर्म का पालन करते थे। कपिलवस्तु में भी पार्श्व का धर्म फैला हुआ था। वहाँ न्यग्रोधाराम में शाक्य निर्ग्रन्थ श्रावक 'वप्प' के साथ बुद्ध का संवाद हुआ था।" भगवान् महावीर से पूर्व जैन-धर्म के सिद्धांत स्थिर हो चुके थे। डॉ. चार्ल सरपेंटियर ने लिखा है-हमें इन दो बातों का भी स्मरण रखना चाहिए कि जैन-धर्म निश्चित रूपेण महावीर से प्राचीन है ; उनके प्रख्यात पूर्वगामी पार्श्व प्रायः निश्चित रूपेण एक वास्तविक व्यक्ति के रूप में विद्यमान रह चुके हैं एवं परिणाम स्वरूप मूल सिद्धांतों की मुख्य बातें महावीर से बहुत पहले सूत्र रूप धारण कर चुकी होंगी। ____ गौतम बुद्ध और वर्द्धमान महावीर से पूर्ववर्ती पुरुष के रूप में पार्श्व का उल्लेख करते हुए बताया गया है-"नातपुत्त ( श्री महावीर वर्द्धमान ) के पूर्वगामी उन्हीं की मान्यता 1. The Wonder That Was India ( A. L. Basham, B.A., Ph.D., F. R. A. S), Reprinted 1956, pp. 287-88. "As he (Vardhamana Mahavira) is referred to in the Buddhist scriptures as one of the Buddha's chief opponents, his historicity is beyond doubt. .........Parswa was remembered as the twenty-third of the twenty-four great tcachers Or :: Tirthankaras "ford-makers' of the Jaina faith." . 2. Kshatriya clans in Buddhist India, p. 82. ३-उपदेशमाला, श्लोक 92 : वेसालीए पुरीए सिरिपासजिणेससासणसणाहो। हेहयकुलसंमूओ चेडगनामानिवोअसि // ४-आचारांग, 2 / 3 / 401 / ५-अंगुत्तर निकाय, चतुष्कनिपात, महावर्ग वप्पसुत्त, भाग 2, पृ० 210-213 / 6. The Uttaradhyayana Sutra, Introduction p. 21 : "We ought also to remember both that the Jain religion is certainly older than Mahavira, his reputed predecessor Parsva having almost certainly existed as a real person, and that, consequently, the main points of the original doctrine may have been codified long before Mahavira." Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन वाले अनेक तीर्थङ्करों में उनका (जैनों का ) विश्वास है और इनमें से अंतिम पार्श्व या पार्श्वनाथ के प्रति वे विशेष श्रद्धा व्यक्त करते हैं। उनकी यह मान्यता ठीक भी है क्योंकि अंतिम व्यक्ति पौराणिक से अधिक है। वह वस्तुतः जैन-धर्म के राजवंशी संस्थापक थे जबकि उनके अनुयायी महावीर कई पीढ़यों से उनसे छोटे थे और उन्हें मात्र सुधारक ही माना जा सकता है। गौतम के समय में ही पार्श्व द्वारा स्थापित 'निमान्थ' नाम से प्रसिद्ध धार्मिक संघ एक पूर्व संस्थापित सम्प्रदाय था और बौद्ध-ग्रन्थों के अनुसार उसने बौद्ध-धर्म के उत्थान में अनेक बाधाएं डाली।"१ भगवान् पार्श्व का व्यक्तित्व ऐतिहासिक प्रमाणित होने पर यह प्रश्न उठा-"क्या पार्श्व ही जैन-धर्म के प्रवर्तक थे ?" इसके उत्तर में डॉ० हर्मन जेकोबी ने लिखा है-"किन्तु यह प्रमाणित करने के लिए कोई आधार नहीं है कि पार्श्व जन-धर्म के संस्थापक थे / जैन-- परम्परा ऋषभ को प्रथम तीर्थङ्कर ( आद्य संस्थापक) बताने में सर्वसम्मत है। परम्परा में कुछ ऐतिहासिकता भी हो सकती है जो उन्हें प्रथम तीर्थङ्कर मान्य करती है / "2. - डॉ. राधाकृष्णन ने भी इसी अभिमत की पुष्टि की है। उन्होंने लिखा है-"जैनपरम्परा के अनुसार जैन-धर्म का प्रवर्तन ऋषभदेव ने किया था। वे अनेक शताब्दियों पहले हो चुके हैं / यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि जन-धर्म का अस्तित्व वर्द्धमान और पार्श्व से पहले भी था।"3 1. Harmsworth, History of the world, Vol. II, p. 1198 : "They, the Jainas believe in a great number of prophets of their faith anterior of Nataputta (Mahavira Vardhmana ) and pay special reverence to the last of these, ParSwa 'or Parswa Natha. Herein they are correct, in so far as the latter personality is more than mythical. He was indeed the royal founder of Jainism (776 B.C.) while his successor Mahavira was younger by many generations and can be considered only as a reformer. As early as the time of Gotama, the religious confraternity founded by parswa, and known as the Nirgrantha, was a formally established sect, and according to the Buddhist chronicles, threw numerous difficulties in the way of the rising Buddhism". 2. Indian Antiquary, Vol. IX, p. 163. "But there is nothing to prove that Parswa was the founder of Jainism. Jaina tradition is unanimous in making Rsabha, the first Tirthankara, as its founder. There may be something his torical in the tradition which makes him the first Tirthankara". 3. Indian Philosophy, Vol. I, p. 287. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 १-श्रमण और वैदिक परम्पराएं तथा उनका पौर्वापर्य७ अरिष्टनेमि अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थङ्कर थे / उन्हें अभी तक पूर्णत: ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं माना गया है किन्तु वासुदेव कृष्ण को यदि ऐतिहासिक व्यक्ति माना जाय तो अरिष्टनेमि को ऐतिहासिक न मानने का कोई कारण नहीं। कौरव, पाण्डव, जरासंध, द्वारका, यदुवंश, अन्धक, वृष्णि आदि का अस्तित्व नहीं मानने का कोई कारण नहीं। पौराणिक विस्तार व कल्पना को स्वीकार न करें फिर भी ये कुछ मूलभूत तथ्य शेष रह जाते हैं। ऋषि-भाषित ( इसि-भासिय ) में 45 प्रत्येक बुद्धों के द्वारा निरूपित 45 अध्ययन हैं। उनमें 20 प्रत्येक बुद्ध भगवान् अरिष्टनेमि के तीर्थकाल में हुए थे। उनके द्वारा निरूपित अध्ययन अरिष्टनेमि के अस्तित्व के स्वयंभूत प्रमाण हैं। ऋग्वेद में 'अरिष्टनेमि' शब्द चार वार आया है / 2 "स्वस्ति नस्तार्यो अरिष्टनेमिः" ( ऋग्वेद, 1 / 14 / 86 / 6 ) में अरिष्टनेमि शब्द भगवान् अरिष्टनेमि का वाचक होना चाहिए। महाभारत में 'तार्थ्य' शब्द अरिष्टनेमि के पर्यायवाची नाम के रूप में प्रयुक्त हुआ है / ' तार्थ्य अरिष्टनेमि ने राजा सगर को जो मोक्ष विषयक उपदेश दिया उसकी तुलना जैन-धर्म के मोक्ष सम्बन्धी सिद्धांतों से होती है / वह उपदेश इस प्रकार है: “सगर ! संसार में मोक्ष का सुख ही वास्तविक सुख है, परन्तु जो धन-धान्य के उपार्जन में व्यग्र तथा पुत्र और पशुओं में आसक्त है, उस मूढ़ मनुष्य को उसका यथार्थज्ञान नहीं होता। जिसकी बुद्धि विषयों में आसक्त है ; जिसका मन अशान्त रहता है, ऐसे मनुष्य की चिकित्सा करनी कठिन है, क्योंकि जो स्नेह के बंधन में बंधा हुआ है, वह मूढ़ मोक्ष पाने के लिए योग्य नहीं होता।"४ इस समूचे अध्याय में संसार की असारता, मोक्ष की महत्ता, उसके लिए प्रयत्नशील होने और मुक्त के स्वरूप का निरूपण है / सगर के काल में वैदिक लोग मोक्ष में विश्वास नहीं करते थे, इसलिए यह उपदेश किसी वैदिक ऋषि का नहीं हो सकता / यहाँ 'तार्क्ष्य अरिष्टनेमि' का प्रयोग भगवान् अरिष्टनेमि के लिए ही होना चाहिए। १-इसि-भासियाई, पृ० 297, परिशिष्ट 1, गाथा 1: पत्तेय बुद्धमिसिणो वीसं तित्थ अरिटणेमिस्स। २-ऋग्वेद, 1314 / 89 / 6 ; 1124 / 180 / 10 ; 3 / 4 / 53 / 17 ; 10 / 12 / 178 / 1 / ३-महाभारत, शान्तिपर्व, 2884 : एवमुक्तस्तदा तायः सर्वशास्त्रविदां वरः। विबुध्य सम्पदं चाग्रयां सद्वाक्यमिदमब्रवीत् // ४-महाभारत, शान्तिपर्व, 2885,6 / Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन लगता है कि ऋग्वेद के व्याख्याकारों ने उसका अर्थ-परिवर्तन किया है। अरिष्टनेमि विशेषण ही नहीं है। प्राचीन काल में यह नाम होता था। महाभारत में मरीचि के पुत्र के दो नाम बतलाए गए हैं-अरिष्टनेमि और कश्यप। कुछ लोग उसे अरिष्टनेमि कहते और कुछ लोग कश्यप / ' ऋग्वेद में भी तार्थ्य अरिष्टनेमि की स्तुति की गई है / 2 अरिष्टनेमि का नाम महावीर और बुद्ध-काल में महापुरुषों की सूची में प्रचलित था। लंकावतार के तृतीय परिवर्तन में बुद्ध के अनेक नामों में अरिष्टनेमि का भी नाम है। वहाँ लिखा है--"जिस प्रकार एक ही वस्तु के अनेक नाम प्रयुक्त होते हैं, उसी प्रकार बुद्ध के असंख्य नाम है। कोई उन्हें तथागत कहते हैं तो कोई उन्हें स्वयंभू, नायक, विनायक, परिणायक, बुद्ध, ऋषि, वृषभ, ब्राह्मण, विष्णु, ईश्वर, प्रधान, कपिल, भूतान्त, भाष्कर, अरिष्टनेमि, राम, व्यास, शुक, इन्द्र, बलि, वरुण आदि नामों से पुकारते हैं।' प्रभासपुराण में अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण का सम्बन्धित उल्लेख है। अरिष्टनेमि का रेवत ( गिरनार ) पर्वत से भी सम्बन्ध बताया गया है / और वहाँ बताया गया है कि वामन ने नेमिनाथ को शिव के नाम से पुकारा था। वामन ने गिरनार पर बलि को बाँधने का सामर्थ्य पाने के लिए भगवान् नेमिनाथ के आगे तप तपा था। __ इन उद्धारणों से श्रीकृष्ण और अरिष्टनेमि के परिवारिक तथा धार्मिक सम्बन्ध की पुष्टि होती है / उत्तराध्ययन के बाईसवें अध्ययन से भी यही प्रमाणित होता है / प्रोफेसर प्राणनाथ ने प्रभास पाटण से प्राप्त ताम्रपत्र को इस प्रकार पढ़ा है-रेवा १-महाभारत, शान्तिपर्व, 208 / 8 : मरीचेः कश्यपः पुत्रस्तस्य द्वे नामनी स्मृते / अरिष्टनेमिरित्येके कश्यपेत्यपरे विदुः // २-ऋग्वेद, 10 // 12 // 178 / 1 / / त्यमू षु वाजिनं देवजूतं सहावानं तख्तारं रथानाम् / अरिष्टनेमि पृतनाजमाशुं स्वस्तये तार्यमिहा हुवेम // ३-बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० 162 / / ४-विशेष जानकारी के लिए देखें "कहत् अरिष्टनेमि और बासुदेव कृष्ण / " Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 १-श्रमण और वैदिक परम्पराएं तथा उनका पौर्वापर्य नगर के राज्य के स्वामि सु-जाति के देव नेबुशर नेजर आए हैं। वह वदुराज के स्थान (द्वारिका) आए हैं / उन्होंने मंदिर बनवाया है / सूर्य-देवनेमि कि जो स्वर्ग समान रेवत पर्वत के देव हैं (उन्हें) सदैव के लिए अर्पण किया।' बावल के सम्राटों में नेवुशर और नेजर नामक दो सम्राट हुए हैं। पहले का समय ई० सन् से लगभग दो हजार वर्ष पहले है और दूसरे ई० सन् पूर्व छठी या 7 शती में हुए हैं / इन दोनों में से एक ने द्वारिका आकर रेवत (गिरनार) पर्वत पर भगवान् नेमिनाथ का मंदिर बनवाया था। इस प्रकार साहित्य व ताम्र-पत्र-लेख-दोनों से अरिष्टनेमि का अस्तित्व प्रमाणित होता है। १-गुजराती 'जैन', भाग 35, पृ० 2 / २-संक्षिप्त जैन इतिहास, भाग 1, पृ० 9 / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व आर्य लोग हिन्दुस्तान में आए उससे पहले यहाँ एक ऊंची सभ्यता, संस्कृति और धर्म-चेतना विद्यमान थी। वह वैदिक परम्परा नहीं थी। यह मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त ध्वंसावशेषों से प्रमाणित हो चुका है। पुरातत्त्वविदों के अनुसार जो अवशेष मिले हैं, उनसे वैदिक धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। उनका सम्बन्ध श्रमण-संस्कृति से है। अतः यह प्रमाणित होता है कि आर्यो के आगमन से पूर्व यहाँ श्रमण-संस्कृति विकसित अवस्था में थी। इस तथ्य की संपुष्टि के लिए हम साहित्य और पुरातत्त्व दोनों का अवलम्बन लेंगे। भारतीय साहित्य में वेद बहुत प्राचीन माने जाते हैं। उनमें तथा उनके पार्श्ववर्ती ग्रन्थों में आए हुए कुछ शब्द-वातरशन-मुनि, वातरशन-श्रमण, केशी, व्रात्य और अर्हन्श्रमण-संस्कृति को प्राग-ऐतिहासिकता के प्रमाण हैं। वातरशन-मुनि-वातरशन-श्रमण ऋग्वेद में वातरशन-मुनि का प्रयोग मिलता है मुनयो वातऽरशनाः पिशंगा वसते मला / वातस्यानु ध्राजिम् यन्ति यद्देवासो अविक्षत // ' इसी प्रकरण में 'मौनेय' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। वातरेशन-मुनि अपनी 'मौनेय' की अनुभूति में कहता है-"मुनिभाव से प्रमुदित होकर हम वायु में स्थित हो गए हैं। मर्यो ! तुम हमारा शरीर मात्र देखते हो।"२ तैत्तिरीयारण्यक में श्रमणों को 'वातरशन-ऋषि' और 'ऊर्ध्वमन्थी' कहा गया है वातरशना हवा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूवुः / ये श्रमण भगवान् ऋषभ के ही शिष्य हैं / श्रीमद्भागवत में ऋषभ को जिन श्रमणों के धर्म का प्रवर्तक बताया गया है, उनके लिए ये ही विशेषण प्रयुक्त किए गए हैं १-ऋग्वेद, 10 / 11 / 136 / 2 / २-वही, 10 / 11 / 136 / 3 : उन्मदिता मौनेयन वाताँ आ तस्थिमा वयम् / शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ // ३-तैत्तिरीयारण्यक, 2071, पृ० 137 / Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 २-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व 11 'धर्मान् दिर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुनावततार / ' __ अर्थात् भगवान ऋषभ श्रमणों, ऋषियों तथा ब्रह्मचारियों ( ऊर्ध्वमन्थिनः ) का धर्म प्रकट करने के लिए शुक्ल-सत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए / वैदिक-साहित्य में मुनि का उल्लेख विरल है, किन्तु इसका कारण यह नहीं कि उस समय मुनि नहीं थे। वे थे, अपने ध्यान में मग्न थे / पुरोहितों के भौतिक जगत् से परे वे अपने चिन्तन में लीन रहते थे और पुत्रोत्पादन या दक्षिणा-ग्रहण के कार्यों से भी दूर रहते थे। मुनि के इस विवरण से स्पष्ट है कि वे किसी वैदिकेतर परम्परा के थे। वैदिक जगत् में यज्ञ-संस्थान ही सब कुछ थी। वहाँ संन्यास या मुनि-पद को स्थान नहीं मिला था। वातरशन शब्द भी श्रमणों का सूचक है। तैत्तिरीयारण्यक और श्रीमद्भागवत द्वारा इस तथ्य की पुष्टि होती रही है। श्रमण का उल्लेख बृहदारण्यक उपनिषद् और रामायण आदि में भी होता रहा है। केशी ___ ऋग्वेद के जिस प्रकरण में वातरशन-मुनि का उल्लेख है, उसी में केशी की स्तुति की गई है केश्यग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी। केशी विश्वं स्वदृशे केशीदं ज्योति रुच्यते // ' यह 'केशी' भगवान् ऋषभ का वाचक है / वातरशन के संदर्भ में यह कल्पना करना कोई साहस का काम नहीं है / भगवान् ऋषभ के केशी होने की परम्परा जैन-साहित्य में आज भी उपलब्ध है। ___ भगवान् ऋषभ जब मुनि बने तब उन्होंने चार मुष्टि केश-लोच किया जबकि . सामान्य परम्परा पाँच-मुष्टि केश-लोच करने की है। भगवान् केश-लोच कर रहे थे, दोनों पार्श्व-भागों का केश-लोच करना बाकी था / तब देवराज शक्रेन्द्र ने भगवान् से १-श्रीमद्भागवत, 5 // 3 // 20 / २-वैदिक कोश, पृ० 383 / ३-बृहदारण्यकोपनिषद्, 4 / 3 / 22 / ४-बालकाण्ड, सगे 14, श्लो०२२: तपसा मुंजते चापि, श्रमणा भुजते तथा / ५-ऋग्वेद, 10 / 11 / 136 / 1 / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रार्थना की-"इतनी रमणीय केश-राशि को इसी प्रकार रहने दें।" भगवान् ने उसकी बात मानी और उसे वैसे ही रहने दिया। इसीलिए भगवान् ऋषभ की मूर्ति के कंधों पर आज भी केशों की वल्लरिका की जाती हैं / धुंघराले और कंधों तक लटकते हुए बाल उनकी प्रतिमा के प्रतीक हैं।' भगवान् ऋषभ की प्रतिमाओं को जटा-शेखर युक्त कहा गया है / 2 केशी वृषभ प्राग-वैदिक थे और श्रमण-संस्कृति के आदि-स्रोत-यह इस केशी-स्तुति से स्पष्ट है। ___ ऋग्वेद में केशी और वृषभ का एक साथ उल्लेख मिलता है / मुद्गल ऋषि की गाएं (इन्द्रियाँ) चुराई जा रही थीं, तब ऋषि के सारथी केशी वृषभं के वचन से वे अपने स्थान पर लौट आई अर्थात् ऋषभ के उपदेश से वे अन्तर्मुखी हो गई। व्रात्य ___ अथर्ववेद के व्रात्य-काण्ड का सम्बन्ध किसी ब्राह्मणेतर परम्परा से है। आचार्य सायण ने व्रात्य को विद्वत्तम, महाधिकार, पुण्यशील, विश्व-सम्मान्य और ब्राह्मण-विशिष्ट कहा १-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 2, सू० 30 : चउहिं अट्ठाहिं लोअं करेइ। वृत्ति-तीर्थकृतां पंचमुष्टिलोचसम्भवेऽपि अस्य भगवतश्चतुर्मुष्टिकलोचगोचरः श्रीहेमाचार्यकृतऋषभचरित्राद्यभिप्रायोऽयं'प्रथममेकया मुष्ट्या स्मश्रुकूर्चयोर्लोचे तिसृभिश्च शिरोलोचे कृते एकां मुष्टिमव शिष्यमाणां पवनान्दोलितां कनकावदातयोः प्रभुस्कन्धयोरुपरि लुठन्तीं भरकतोपमानमाबिभ्रतीं परमरमणीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेण भगवन् ! मय्यनुग्रहं विधाय ध्रियतामिय मित्थमेवेति विज्ञप्ते भगवतापिसा तथैव रक्षितेति, 'न होकांतभक्तानां याच्यामनुग्रहीतारः खण्डयन्ती'ति, अत एवेदानीमपि श्रीऋषभमूर्ती स्कन्धोपरि वल्लरिका क्रियन्ते। २-(क) तिलोयपन्नत्ती, 4 / 230 : __ आदिजिणप्पडिमाओ, ताओ जडमउडसेहरिल्लाओ। पडिमोवरिम्मि गंगा, अभिसित्तुमणा व सा पडदि // (ख) तिलोयसार, 590 : सिरिगिहसीसट्ठियंबुअकण्णियसिंहासणं जडामउलं / जिणनाभिसित्तुमणा वा, ओदिण्णा मत्थए गंगा // ३-ऋग्वेद, 10 / 9 / 102 / 6 : ककर्दवे वृषभो युक्त आसीदवावचीत्सारथिरस्य केशी / दुधेर्युक्तस्य द्रवतः सहानस ऋच्छन्ति मा निष्पदो मुद्गलानीम् // .. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 1 २-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व 13 है / ' तथा व्रात्य-काण्ड की भूमिका के प्रसंग में उन्होंने लिखा है- "इसमें व्रात्य की स्तुति की गई है / उपनयनादि से हीन मनुष्य व्रात्य कहलाता है। ऐसे मनुष्य को लोग वैदिक कृत्यों के लिए अनधिकारी और सामान्यतः पतित मानते हैं। परन्तु यदि कोई वात्य ऐसा हो जो विद्वान् और तपस्वी हो तो ब्राह्मण उससे भले ही द्वेष करे परन्तु वह सर्व पूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा।२ वात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को प्रेरणा दी थी। ___ श्री सम्पूर्णानन्दजी ने व्रात्य का अर्थ परमात्मा किया है। श्री बलदेव उपाध्याय भी इसी मत का अनुसरण करते हैं / किन्तु समूचे वाय-काण्ड का परिशीलन करने पर यह अर्थ संगत नहीं लगता। वात्य-काण्ड के कुछ सूत्र वह संवत्सर तक खड़ा रहा / उससे देवों ने पूछा-व्रात्य ! तू क्यों खड़ा है ? _ वह अनावृत्ता दिशा में चला। इससे ( उसने ) सोचा न लौटूंगा।अर्थात् जिस दिशा में चलने वाले का आवर्तन ( लौटना ) नहीं होता वह अनावृत्ता दिशा है / इसलिए उसने सोचा कि मैं अब न लौटूंगा। मुक्त पुरुष का ही प्रत्यावर्तन नहीं होता। तब जिस राजा के घरों पर ऐसा विद्वान् राजा व्रात्य अतिथि ( होकर ) आए। १-अथर्ववेद, 15 // 11 // सायण भाग्य : कञ्चिद् विद्वत्तमं, महाधिकारं, पुण्यशीलं विश्वसंमान्यं ब्राह्मणविशिष्टं व्रात्य मनुलक्ष्य वचन मिति मंतव्यम् / २-वही, 15 / 1 / 1 / 1 / ३-वही,१५३१११११: व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापति समेरयत् // ४-अथर्ववेदीयं व्रात्यकाण्ड, पृ० 1 / ५-वैदिक साहित्य और संस्कृति, पृ० 229 / ६-अथर्ववेद, 15 // 1 // 3 / 1 / ७-वही, 15 // 1 / 6 / 19: सोऽनावृत्तां दिशमनु व्यऽचलत्ततो नावय॑न्नमन्थत / . .. ८-अथर्ववेदीयं व्रात्यकाण्ड, पृ०.३६ / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (इसको) (वह राजा) इस (विद्वान् के आगमन) को अपने लिए कल्याणकारी माने / ऐसा (करने से) क्षेत्र तथा राष्ट्र के प्रति अपराध नहीं करता।' ____ यदि किसी के घर ऐसा विद्वान् व्रात्य अतिथि आ जाए (तो) स्वयं उसके सामने जाकर कहे, व्रात्य, आप कहाँ रहते हैं ? व्रात्य (यह) जल ( ग्रहण कीजिए ) व्रात्य (मेरे घर के लोग आपको भोजनादि से) तृप्त करें। जैसा आपको प्रिय हो, जैसी आपकी इच्छा हो, जैसी आपकी अभिलाषा हो, वैसा ही हो अर्थात् हम लोग वैसा ही करें। __ (वात्य से) यह जो प्रश्न है कि व्रात्य आप कहाँ रहते हैं, इस (प्रश्न) से (ही) वह देवयान मार्ग को (जिससे पुण्यात्मा स्वर्ग को जाते हैं) अपने वश में कर लेता है। इससे जो यह कहता है व्रात्य यह जल ग्रहण कीजिए इससे अप (जल या कर्म) अपने वश में कर लेता है। __यह कहने से व्रात्य (मेरे घर के लोग आपको भोजनादि से) तृप्त करें, अपने आपको चिरस्थायी (अर्थात् दीर्घजीवी) बना लेता है / / जिसके घर में विद्वान् व्रात्य एक रात अतिथि रहे, वह पृथ्वी में जितने पुण्य-लोक हैं उन सबको वश में कर लेता है। जिसके घर में विद्वान् व्रात्य दूसरी रात अतिथि रहे, वह अन्तरिक्ष में जो पुण्य-लोक हैं, उन सबको वश में कर लेता हैं / जिसके घर में विद्वान् व्रात्य तीसरी रात अतिथि रहे, वह जो द्युलोक में पुण्य-लोक हैं उन सबको वश में कर लेता है। १-अथर्ववेद, 1 // 2 // 3 // 1,2 : तद् यस्यैवं विद्वान् वात्यो राज्ञोऽतिथिहानागच्छेत् / श्रेयांसमेनमात्मनो मानयेत् तथा क्षत्राय ना वृश्चते तथा राष्ट्राय ना वृश्चते / २-वही, 15 / 2 / 4 / 1,2 : तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिगृहानागच्छेत् / / स्वयमेनमभ्युदेत्य ब याद् व्रात्य क्वाऽवात्सी: व्रात्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथाते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथा स्त्विति। ३-वही, 15 / 2 / 4 / 3 : यदेनमाह व्रात्य क्वाऽवात्सीरिति पथ एव तेन देवयानानव रूद्ध। ४-वही, 15 / 2 / 4 / 4,5: यदेनमाह व्रात्योदकमित्यप एव तेनाव रुन्छे / यदेनमाह वात्य तपयन्त्विति प्राणमेव तेन वर्षीयांसं कुरुते // Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1 प्रकरण : 1 २-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व 15 जिसके घर में विद्वान् व्रात्य चौथी रात अतिथि रहे, वह पुण्य-लोकों से श्रेष्ठ पुण्यलोकों को वश में कर लेता है। जिसके घर में विद्वान् व्रात्य अपरिमित (बहुधा) अतिथि रहे, वह अपरिमित पुण्यलोकों को अपने वश में कर लेता है।' ____ इन सूत्रों से जो प्रतिपादित है, उसका सम्बन्ध परमात्मा से नहीं किन्तु किसी देहधारी व्यक्ति से है। ___ व्रात्य-काण्ड में प्रतिपादित विषय की भगवान् ऋषभ के जीवन-व्रत से तुलना होती है। वे दीक्षित होने के बाद एक वर्ष तक तपस्या में स्थिर रहे थे। एक वर्ष तक भोजन न करने पर भी शरीर में पुष्टि और दीप्ति को धारण कर रहे थे। मुनियों की चर्या को धारण करने वाले भगवान् जिस-जिस ओर कदम रखते थे अर्थात् जहाँ-जहाँ जाते थे, वहीं-वहीं के लोग प्रसन्न होकर और बड़े संभ्रम के साथ आकर उन्हें प्रणाम करते थे। उनमें से कितने ही लोग कहने लगते थे- "हे देव ! प्रसन्न होइए और कहिए कि क्या काम है ?"3 १-अथर्ववेद, 15 / 2 / 6 / 1-10 : तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्य एकां रात्रिमतिथिगृहे वसति / ये पृथिव्यां पुण्या लोकास्तानेव तेनाव रुन्द्धे // तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्यो द्वितीयां रात्रिमतिथि हे वसति / येऽन्तरिशे पुण्या लोका स्तानेव तेनाव रुन्द्धे // तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्यस्तृतीयां रात्रिमतिथिग हे वसति / ये दिवि पुण्या लोकास्तानेव तेनाव रुन्द्धे // तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्यश्चतुर्थी रात्रिमतिथिग हे वसति / ये पुण्यानां पुण्या लोकास्तानेव तेनाव रुद्धे / तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽपरिमिता रात्रिरतिथिग हे वसति / य एवापरिमिताः पुण्या लोकास्तानेव तेनाव रुन्द्धे // २-महापुराण, 20 / 95 : हायशनेऽप्यङ्ग, पुष्टिं दीप्तिञ्च बिभ्रते। ३-वही, 20 / 14,15 यतो यतः पदं धत्ते, मौनी चर्या स्म संश्रितः / ततस्ततो जनाः प्रीताः, प्रणमन्त्येत्य सम्भ्रमात् // प्रसीद देव ! किं कृत्यमिति केचिजगुर्गिरम् / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . - कितने ही लोग भगवान् से ऐसी प्रार्थना करते थे कि भगवन् ! हम पर प्रसन्न होइए / हमें अनुगृहीत कीजिए। भगवान् ऋषभ अन्त में अपुनरावृत्ति स्थान को प्राप्त हुए, जहाँ जाने के पश्चात् कोई लौट कर नहीं आता। यह बहुत सम्भव है कि व्रात्य-काण्ड में भगवान् ऋषभ का जीवन रूपक की भाषा में चित्रित है। ऋषभ के प्रति कुछ वैदिक ऋषि श्रद्धावान् थे और वे उन्हें देवाधिदेव के रूप में मान्य करते थे। अर्हन् ___ ऋग्वेद में भगवान् ऋषभ के अनेक उल्लेख हैं। किन्तु उनका अर्थ-परिवर्तन कर देने के कारण वे विवादास्पद हो जाते हैं। अर्हन् शब्द श्रमण संस्कृति का बहुत प्रिय शब्द है। श्रमण लोग अपने तीर्थङ्करों या वीतराग आत्माओं को अर्हन् कहते हैं / जैन और बौद्ध साहित्य में अर्हन् शब्द का प्रयोग हजारों बार हुआ है। जैन लोग आर्हत् नाम से भी प्रसिद्ध रहे हैं। ऋग्वेद में अर्हन् शब्द का प्रयोग श्रमण नेता के लिए ही हुआ है अर्हन् बिभर्षि सायकानि धन्वाहन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् / अर्हन्निदं दयसे विश्वमम्वं न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति // आचार्य विनोबा भावे ने इसी मंत्र के एक वाक्य 'अर्हन्निदं दयसे विश्वमन्वं' को उद्धृत करते हुए लिखा है- "हे अर्हन् ! तुम जिस तुच्छ .दुनियाँ पर दया करते हो १-महापुराण, 20122 / २-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति, पत्र 158 : समुजाए-तत्र सम्यग्-असुनरावृत्या ऊर्ध्व लोकाग्रलक्षणं यातः प्रातः / ३-ऋग्वेद, 1 / 24 / 190 // 1 // 2 / 4 / 33 / 15 / 5 / 2 / 28 / 4 / 6 / 11 / 8 / 6 / 2 / 16 / 11 / 10 / 12 / 166 / 1 / आदि-आदि ४-वही, 2 / 4 / 33 / 10 / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 २-श्रमण-संस्कृति का प्राग्-ऐतिहासिक अस्तित्व 17 इसमें 'अर्हन्' और 'दया' दोनों जैनों के प्यारे शब्द हैं। मेरी तो मान्यता है कि जितना हिन्दू-धर्म प्राचीन है, शायद उतना ही जैन-धर्म भी प्राचीन है।" अर्हन् शब्द का प्रयोग वैदिक विद्वान् भी श्रमणों के लिए करते रहे हैं। हनुमन्नाटक में लिखा है ___"अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः।" ऋग्वेद के अर्हन् शब्द से यह प्रमाणित होता है कि श्रमण-संस्कृति ऋग्वैदिक-काल से पूर्ववर्ती है। __श्री जयचन्द्र विद्यालंकार ने व्रात्यों को अर्हतों का अनुयायो माना है- "वैदिक से भिन्न मार्ग बुद्ध और महावीर से पहले भी भारतवर्ष में थे। अर्हत् लोग बुद्ध से पहले भी थे और अनेक चैत्य भी बुद्ध से पहले थे। उन अर्हतों और चैत्यों के अनुयायी 'व्रात्य' कहलाते थे, जिनका उल्लेख अथर्ववेद में भी है।"२ असुर और अर्हत ___वैदिक-आर्यों के आगमन से पूर्व भारतवर्ष में दो प्रकार की जातियाँ थीं-सभ्य और असभ्य / सभ्य जाति के लोग गाँवों और नगरों में रहते थे और असभ्य जाति के लोग जंगलों में। असुर, नाग, द्रविड़-ये सभ्य जातियाँ थीं। दास-जाति असभ्य थी। असुरों की सभ्यता और संस्कृति बहुत उन्नत थी। उनके पराक्रम से वैदिक-आर्यों को प्रारम्भ में बहुत क्षति उठानी पड़ी। . . असुर लोग आईत्-धर्म के उपासक थे। बहुत आश्चर्य की बात है कि जैन-साहित्य में इसकी स्पष्ट चर्चा नहीं मिलती, किन्तु पुराण और महाभारत में इस प्राचीन परम्परा के उल्लेख सुरक्षित हैं। . . विष्णुपुराण,3 पद्मपुराण,४ मत्स्यपुराण" और देवीभागवत में असुरों को आईत् या जैन-धर्म का अनुयायी बनाने का उल्लेख है। १-हरिजन सेवक, 30 मई 1948 / २-भारतीय इतिहास की रूपरेखा, प्रथम जिल्द, पृ० 402 / ३-विष्णुपुराण, 3 // 17 // 18 : ४-पद्मपुराण, सृष्टि खण्ड, अध्याय 13, श्लोक 170-413 / ५-मत्स्यपुराण, 24 / 43-49 / ६-देवीभागवत, 4 / 13 / 54-57 / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन _ विष्णुपुराण के अनुसार मायामोह ने असुरों को आईत्-धर्म में दीक्षित किया।' त्रयी (ऋग् , यजुः और साम) में उनका विश्वास नहीं रहा / ' उनका यज्ञ और पशुबलि से भी विश्वास उठ गया।३ वे अहिंसा-धर्म में विश्वास करने लगे। उन्होंने श्राद्ध आदि कर्म-काण्डों का भी विरोध करना प्रारम्भ कर दिया।" विष्णुपुराण का मायामोह किसी अर्हत् का शिष्य था। उसने असुरों को अर्हत् के धर्म में दीक्षित किया, यह भी इससे स्पष्ट है। असुर जिन सिद्धान्तों में विश्वास करने लगे, वे अर्हत्-धर्म के सिद्धान्त थे। मायामोह ने अनेकान्तवाद का भी निरूपण किया। उसने असुरों से कहा-"यह धर्म-युक्त है और यह धर्म-विरुद्ध है, यह सत् है और यह असत् है, यह मुक्तिकारक है और इससे मुक्ति नहीं होती, यह आत्यन्तिक परमार्थ है और यह परमार्थ नहीं है, यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य है, यह ऐसा नहीं है और यह स्पष्ट ऐसा ही है, यह दिगम्बरों का धर्म और यह साम्बरों का धर्म है / "6 पुराणकार ने इस कथानक में अर्हत् के धर्म की न्यूनता दिखलाने का यत्न किया है, फिर भी इस रूपक में से जैन-धर्म की प्राचीनता, उसके अहिंसा और अनेकान्तवादी सिद्धान्त और असुरों की जैन-धर्म परायणता-ये फलित निकल आते हैं / विष्णुपुराण में असुरों को वैदिक रंग में रंगने का प्रयत्न किया गया है ; किन्तु ऋग्वेद द्वारा यह स्वीकृत नहीं है। वहाँ उन्हें वैदिक-आर्यो का शत्रु कहा गया है।" असुर और वैदिक आर्य वेदों और पुराणों में वर्णित देव-दानव-युद्ध वैदिक-आर्यो और आर्य-पूर्व जातियों के प्रतीक का युद्ध है। वैदिक-आर्यो के आगमन के साथ-साथ असुरों से उनका संघ १-विष्णुपुराण 3 / 18 / 12 : अर्हतैतं महाधर्म मायामोहेन ते यतः / प्रोक्तास्तमाश्रिता धर्ममाहतास्तेन तेऽभवन् // २-वही, 3 / 18 / 13,14 / ३-वही, 3 // 18 // 27 // ४-वही, 3 // 18 // 25 // ५-वही, 3 / 18 / 28-29 / ६-वही, 3 / 18 / 8-11 ७-ऋग्वेद, 11233174 / 2-3 / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 २-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व 16 छिड़ा और वह 300 वर्षों तक चलता रहा।' आर्यों का इन्द्र पहले बहुत शक्तिशाली नहीं था। इसलिए प्रारम्भ में आर्य लोग पराजित हुए। ___भारतवर्ष में असुर राजाओं की एक लम्बी परम्परा रही है। वे सभी व्रत-परायण, बहुश्रुत और लोकेश्वर थे।" असुर प्रथम आक्रमण में हो वैदिक-आर्यो' से पराजित नहीं हुए थे। जब तक वे सदाचार-परायण और संगठित थे तब तक आर्य लोग उन्हें पराजित नहीं कर सके। किन्तु जब असुरों के आचरण में शिथिलता आई तब आर्यो ने उन्हें परास्त कर डाला। इस तथ्य का चित्रण इन्द्र और लक्ष्मी के संवाद में हुआ है। इन्द्र के पूछने पर लक्ष्मी ने कहा--"सत्य और धर्म से बंध कर पहले मैं असुरों के यहाँ रहती थी, अब उन्हें धर्म के विपरीत देख कर मैंने तुम्हारे यहाँ रहना पसन्द किया है / मैं उत्तम गुणों वाले दानवों के पास सृष्टि-काल से लेकर अब तक अनेकों युगों से रहती आई हूं। किन्तु अब वे काम-क्रोध के वशीभूत हो गए हैं, उनमें धर्म नहीं रह गया है इसलिए मैंने उनका साथ छोड़ दिया।"६ इससे स्पष्ट है कि दानवों की राज्य-सत्ता सुदीर्घ-काल तक यहाँ रही और उसके पश्चात् वह इन्द्र के नेतृत्व में संगठित आर्यों के हाथ में चली गई। वैदिक-आर्यों का प्रभुत्व उत्तर भारत पर अधिक हुआ था / दक्षिण भारत में उनका प्रवेश बहुत विलम्ब से हुआ या, विशेष प्रभावशाली रूप में नहीं हुआ। जब दैत्यराज बलि की राज्यश्री ने इन्द्र का वरण किया तब इन्द्र ने दैत्यराज बलि से कहा- "ब्रह्मा ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं तुम्हारा वध न करूं / इसीलिए मैं तुम्हारे सिर पर वज्र नहीं छोड़ -- १-मत्स्यपुराण, 24 / 37 : अथ देवासुरं युद्धमभूद् वर्षशतत्रयम् / २-महाभारत, शान्तिपर्व, 227 / 22 : अशक्तः पूर्वमासीस्त्वं, कथंचिच्छक्ततां गतः / कस्त्वदन्य इमां वाचं, सुक्रूरां वक्तुमर्हति // ३-विष्णुपुराण, 3 / 17 / 9 / देवासुरमभूद् युद्धं, दिव्यमब्दशतं पुरा। तस्मिन् पराजिता देवा, दैत्यर्हादपुरोगमैः / / ४-महाभारत, शान्तिपर्व, 227 / 49-54 / ५-वही, 227159-60 / ६-वही, 228 / 49,50 / Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन रहा हूँ। दैत्यराज ! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चले जाओ। इन्द्र की यह बात सुन दैत्यराज बलि दक्षिण-दिशा में चले गए और इन्द्र उत्तर दिशा में।" पद्मपुराण में भी बताया गया है कि असुर लोग जैन-धर्म को स्वीकार करने के बाद नर्मदा के तट पर निवास करने लगे। इससे स्पष्ट है कि अर्हत् का धर्म, उत्तर भारत में आर्यों का प्रभुत्व बढ़ जाने के बाद, दक्षिण भारत में विशेष बलशाली बन गया / असुरों का उत्तर से दक्षिण की ओर जाना भी उनकी तथा द्रविडों की सभ्यता और संस्कृति की समानता का सूचक है। असुर और आत्म-विद्या आर्य-पूर्व असुर राजाओं की पराजय होने के बाद आर्य-नेता इन्द्र ने दैत्यराज बलि, नमुचि और प्रह्लाद से कहा- "तुम्हारा राज्य छीन लिया गया है; तुम शत्रु के हाथ में पड़ गए हो फिर भी तुम्हारी आकृति पर कोई शोक की रेखा नहीं, यह कैसे ?' 3 इस प्रश्न के उत्तर में असुर राजाओं ने जो कहा वह उनकी आत्म-विद्या का ही फलित था। विरोचनकुमार बलि ने इन्द्र को इस प्रकार फटकारा कि उसका गर्व चूर हो गया। बलि ने इन्द्र से कहा- "देवराज ! तुम्हारी मूर्खता मेरे लिए आश्चर्यजनक है / इस समय तुम समृद्धिशाली हो और मेरी समृद्धि छिन हो गई है। ऐसी अवस्था में तुम मेरे सामने अपनी प्रशंसा के गीत गाना चाहते हो, यह तुम्हारे कुल और यश के अनुरूप नहीं है।" १-महाभारत, शान्तिपर्व, 225 // 37 : एवमुक्तस्तु दैत्येन्द्रो बलिरिन्द्रेण भारत / जगाम दक्षिणामाशामुदीची तु पुरन्दरः // २-पद्मपुराण, 13 / 412 : नर्मदासरितं प्राप्य, स्थिता दानवसत्तमाः / ३-(क) महाभारत, शान्तिपर्व, 227 / 15 : शत्रुभिवर्तमानीतो, हीनः स्थानादनुत्तमात् / वैरोचने ! किमाश्रित्य, शोचितव्ये न शोचसि ? // (ख) वही, 226 / 3 : बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद्, द्विषतां वशमागतः। श्रिया विहीनो नमुचे ! शोचस्याहो न शोचसि ? // (ग) वही, 222 / 11 : बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद्, द्विषतां वशमागतः / श्रिया विहीनः प्रह्लाद !, शोचितव्ये न शोचसि ? // . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 1 १-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व 21 नमुचि और बलि राज्यहीन होने पर भी जिस प्रकार शोक-मुक्त रहे, वह उनकी अध्यात्मविद्या का ही फल था / इन्द्र उनके धैर्य और अशोक-भाव को देख कर आश्चर्य-चकित रह गया। ___ महाभारत में असुरों पर वैदिक विचारों की छाप लगाई गई है फिर भी उनकी अशोक, शान्त व समभावी वृत्ति से जो आत्म-विद्या की भलक मिलती है, निश्चित रूप से उन्हें श्रमण-धर्मानुयायो सिद्ध करती है। -सांस्कृतिक विरोध ___ असुरों और वैदिक-आर्यो का विरोध केवल भौगोलिक और राजनीतिक ही नहीं, किन्तु सांस्कृतिक भी था। आर्यों ने असुरों की अहिंसा का विरोध किया तो असुरों ने आर्यों की हिंसा और यज्ञ-पद्धति का विरोध किया। भारतवर्ष में वैदिक-आर्यो का अस्तित्व सुदृढ़ होने के साथ-साथ यह विरोध की धारा प्रबल हो उठी थी। एम० विन्टरनिटज ने लिखा है-"वेदों के विरुद्ध प्रतिक्रिया बुद्ध से सदियों पूर्व शुरू हो चुकी थी। कम-से-कम जैनों की परम्परा में इस प्रतिक्रिया के स्पष्ट निर्देश मिलते हैं और जैन-धर्म की संस्थापना 750 ई० पू० में हो चुकी थी। इस विषय में जैनों की अन्यथा विश्वसनीय काल-बुद्धि और काल-गणना को यहाँ (और यहीं पर ?) झुठलाने की आवश्यकता नहीं। व्यूलर का तो यह विश्वास था कि वेदों ( और ब्राह्मण-धर्म ) की प्रगति तथा वेद-विरोध की प्रगति, दोनों प्रायः समानान्तर ही होती रही हैं। दुर्भाग्यवश, एक निश्चित सिद्धान्त के रूप में यह साबित करने से पूर्व ही व्यूलर की मृत्यु हो गई।"२ :- श्रमण-संस्कृति का अस्तित्व पूर्ववर्ती था इसलिए वैदिक यज्ञ-संस्था का प्रारम्भ से ही विरोध हुआ। यदि वह न होती तो उसका विरोध कैसे होता ? ___- आचार्य क्षितिमोहन सेन के अनुसार तीर्थ, पूजा, भक्ति, नदी की पवित्रता, तुलसी, अश्वत्थ आदि वृक्षों से सम्बन्धित देव और सिन्दूर आदि उपकरण-ये सब वेद-बाह्य वस्तुएँ हैं / आर्यो ने इन्हें आर्य-पूर्व जातियों से ग्रहण किया था। श्रमण-परम्परा में धर्म-संघ के लिए 'तीर्थ' शब्द का प्रयोग होता था और उसके प्रवर्तक तीर्थङ्कर कहलाते थे। दीघनिकाय में पूरणकश्यप, मश्करी गोशाल, अजितकेश १-महाभारत, शान्तिपर्व, 227 / 13 / २-प्राचीन भारतीय इतिहास, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, पृ० 233 / ३-भारतवर्ष में जाति-भेद, पृ० 75-77 / ४-भगवती, 208 / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Ps उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / कम्बल, प्रक्रुद्धकात्यायन, संजयवेलठ्ठीपुत्र और निम्रन्थ ज्ञातपुत्र-इन छहों को तीर्थङ्कर नाग-पूजा भगवान् ऋषभ के पुत्र भरत के समय में प्रचलित हुई थी।' भक्ति का मूल उद्गम द्रविड प्रदेश है, अतः वह भी आर्य-पूर्व हो सकती है / 3 गंगा-यमुना आदि नदियों का वेदों में उल्लेख नहीं है और ब्राह्मण-ग्रन्थों में वे बहुत पवित्र और देवता रूप मानी गई हैं / जैन-सूत्रों में भवनवासी देवों के दस चैत्य-वृक्ष बतलाए गए हैं / जैसे- . असुरकुमार -अश्वत्थ नागकुमार -सप्तपर्ण- सात पत्तों वाला पलाश सुपर्णकुमार -शाल्मली- सेमल . विद्य कुमार -उदुम्बर अग्निकुमार -सिरीस दीपकुमार -दधिपर्ण उदधिकुमार -वंजुल-अशोक . दिशाकुमार -पलाश--तीन पत्तों वाला पलाश वायुकुमार -वन स्तनितकुमार –कर्णिकार- कणेर४ इसी प्रकार व्यन्तर देवों के भी आठ चैत्य-वृक्ष बतलाए गए हैंपिशाच -कदम्ब -तुलसी यक्ष -बरगद राक्षस -खट्वांग किन्नर -अशोक किंपुरुष -चंपक नाग या महोरग -नाग गन्धर्व -तिन्दुक भूत १-दीघनिकाय (सामअफल सुत्त), प्रथम भाग, पृ० 56-97 / २-आवश्यकनियुक्ति, 218 / ३-पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, 5051 : उत्पन्ना द्राविडे चाहम् / ४-स्थानांग, 101736 / ५-वही, 8 / 654 / Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तपर्ण प्रियंगु खण्ड 1, प्रकरण : 1 २-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व 23 महात्मा बुद्ध के बोधि-वृक्ष का महत्त्व आरम्भ से हो रहा है। जैन के 24 तीर्थङ्करों के 24 ज्ञान-वृक्ष माने गए हैंतीर्थङ्कर ज्ञान-वृक्ष १-वृषभ न्यग्रोध २-अजित ३-संभव शाल ४-अभिनन्दन प्रियाल ५-सुमति ६-पद्मप्रभ छत्राम ७-सुपार्श्व सिरीस ८-चन्दप्रभ नाग ६-सुविधि मल्ली १०-शीतल : प्लक्ष ११–श्रेयांस तिंदुक १२–वासुपूज्य पाटल १३-विमल जम्ब १४-अनन्त अश्वत्थ १५--धर्म दधिपर्ण १६-शान्ति नंदि १७-कुन्थु तिलक १८-अर आम्र १६-मल्ली अशोक २०-मुनिसुव्रत चंपक . २१–नमि बकुल २२-नेमि वेतस २३-पाव धातकी २४-महावीर शाल' सिन्दूर भी आर्य-पूर्व नाग-जाति की वस्तु है। श्रमण-साहित्य में नदी, वृक्ष आदि का उत्सव मनाने के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं / इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य १-समवायांग, समवाय 157 / २-राजप्रश्नीय, पृ० 284 / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन क्षितिमोहन सेन ने जिन वस्तुओं को वेद-बाह्य या अवैदिक कहा है, उनका महत्त्व या महत्त्वपूर्ण उल्लेख श्रमण-परम्परा के साहित्य में मिलता है। उनके आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन नहीं है कि जिसे आर्य-पूर्व संस्कृति या अवैदिक-परम्परा कहा जाता है, वह श्रमण-परम्परा ही होनी चाहिए। पुरातत्त्व मोहनजोदड़ो की खुदाई से जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनका सम्बन्ध श्रमण या जैनपरम्परा से है, ऐसा कुछ विद्वान् मानते हैं / यद्यपि एक मत से यह तथ्य स्वीकृत नहीं हुआ है फिर भी सारे परिकर का सूक्ष्म अवलोकन करने पर उनका सम्बन्ध श्रमण-परम्परा से ही जुड़ता है / इसके लिए सर जान मार्शल की "मोहनजोदड़ो एण्ड इट्स सिविलिजेशन" के प्रथम भाग की बारहवीं प्लेट की 13, 14, 15, 18, 16 और 22 वीं कोष्ठिका के मूर्ति-चित्र दर्शनीय हैं। सिन्धु-घाटी से प्राप्त मूर्तियों और कुषाणकालीन जैन-मूर्तियों में अपूर्व साम्य है। कायोत्सर्ग-मुद्रा जैन-परम्परा की ही देन है। प्राचीन जैन-मूर्तियाँ अधिकांशतः इसी मुद्रा में प्राप्त होती हैं। मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों की विशेषता यह है कि वे कायोत्सर्ग अर्थात् खड़ी मुद्रा में हैं, ध्यान-लीन हैं और नग्न हैं / खड़े रह कर कायोत्सर्ग करने की पद्धति जैन-परम्परा में बहुत प्रचलित है / इस मुद्रा को 'स्थान' या 'ऊर्ध्वस्थान' कहा जाता है। पतञ्जलि ने जिसे आसन कहा है, जैन आचार्य उसे 'स्थान' कहते हैं। स्थान का अर्थ है 'गति-निवृत्ति' / उसके तीन प्रकार हैं (1) ऊर्ध्व स्थान- खड़े होकर कायोत्सर्ग करना / (2) निषीदन स्थान-बैठकर कायोसर्ग करना / (3) शयन स्थान- सोकर कायोत्सर्ग करना / ' पर्यङ्कासन या पद्मासन जैन-मूर्तियों की विशेषता है। धर्म-परम्पराओं में योगमुद्राओं का भेद होता था, उसी के संदर्भ में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है "प्रभो ! आपको पर्यङ्क आसन और नासाग्र दृष्टि वाली योग-मुद्रा को भी परतीर्थिक नहीं सीख पाए हैं तो भला वे और क्या सीखेंगे ?"2 प्रोफेसर प्राणनाथ ने मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर 'जिनेश्वर' शब्द पढ़ा है। डेल्फी से प्राप्त प्राचीन आर्गिव मूर्ति, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है, ध्यान लीन है और १-आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1465; आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र 773 / २-आयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, श्लोक 20 / ३-इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटी, 8, परिशिष्ट पृ० 30 / . Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 २-श्रमण-संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व 25 उसके दोनों कंधों पर ऋषभ की भाँति केश-राशि लटकी हुई है। डॉ० कालिदास नाग ने उसे जैन-मूर्ति के अनुरूप बताया है। वह लगभग दस हजार वर्ष पुरानी है।' अपोलो रेशफ ( यूनान ) की धड़-मूर्ति भी वैसी ही है / 2 ये भी श्रमण-संस्कृति की सुदीर्घ प्राचीनता के प्रमाण हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त मूर्तियों या उनके उपासकों के सिर पर नाग-फण का अंकन है। वह नाग-वंश के सम्बन्ध का सूचक है। सातवें तीर्थङ्कर भगवान् सुपार्श्व के सिर पर सर्प-मण्डल का छत्र था।3 ___नाग-जाति वैदिक-काल से पूर्ववर्ती भारतीय जाति थी। यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और द्राविड जातियाँ भी मूलतः भारतीय और श्रमणों की उपासक थीं। उनकी सभ्यता और संस्कृति ऋग्वैदिक सभ्यता और संस्कृति से पूर्ववर्ती और स्वतंत्र थी। उनके उपास्य ऋषभ, सुपार्श्व आदि तीर्थङ्कर भी प्राग-वैदिककाल में हुए थे। पूर्वोक्त दोनों साधनों (साहित्य और पुरातत्त्व) से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि श्रमण-परम्परा वैदिक-काल से पूर्ववर्ती है / 11 . . . 1-Discovery of Asia, plate No. 5. .. २-(क) आदि तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव, पृ० 140 के बाद / (ख) R. G. Marse--The historic importance of bronze statue of Reshief, discovered in Syprus. (Bulletin of the Deccan . College Research Institute, Poona, Vol. XIV, pp. 230-236). ३-त्रिष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व 3, सर्ग 5, श्लोक 78-80 : तीर्थाय नम इत्युक्त्वा तत्र सिंहासनोत्तमे / उपाविशज्जगन्नाथोऽतिशयैरुपशोभितः // पृथ्वीदेव्या तदा स्वप्ने दृष्टं तादृग्महोरगम् / शक्रो विचक्रे भगवन्मूनिच्छत्रमिवापरम् // तदादि चाभूत्समवसरणेष्वपरेवपि / नाग एकफणः पञ्चफणो नवफणोऽथवा // ४-सर जॉन मार्शल : 'मोहनजोदड़ो', भाग 1, अंक 8, पृ० 110-112 / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : दूसरा १-श्रमण-संस्कृति के मतवाद श्रमण-संस्कृति की आधारशिला प्राग-ऐतिहासिक काल में ही रखी जा चुकी थी। बुद्ध और महावीर के काल में तो वह अनेक तीर्थों में विभक्त हो चुकी थी। विभाग का क्रम भगवान् ऋषभ से ही प्रारम्भ हो चुका था। उसका प्रारम्भ भगवान् ऋषभ के शिष्य मरीचि से हुआ था। एक दिन गर्मी से व्याकुल होकर उसने सोचा-यह श्रमण-जीवन बहुत कठिन है, मैं इसकी आराधना के लिए अपने आपको असमर्थ पाता हूँ। यह सोच कर वह त्रिदण्डी तपस्वी बन गया। ___ उसने परिकल्पना की-श्रमण मन, वचन और काया इन तीनों का दमन करते हैं। मैं इन तीनों दण्डों का दमन करने में असमर्थ हूँ, इसलिए मैं त्रिदण्ड चिह्न को धारण करूंगा। श्रमण इन्द्रिय मुण्ड हैं। मैं इन्द्रियों पर विजय पाने में असमर्थ हूँ, इसलिए सिर को मुण्डाऊँगा, केवल चोटी रखूगा। श्रमण अकिंचन हैं। मैं अकिंचन रहने में असमर्थ हूँ, इसलिए कुछ परिग्रह रखूगा। श्रमण शील से सुगन्धित हैं। मैं शील से सुगन्धित नहीं हूँ, इसलिए चंदन आदि सुगन्धित द्रव्यों का लेप करूँगा। श्रमण मोह से रहित हैं। मैं मोह से आच्छन्न हूँ, इसलिए छत्र धारण करूँगा। श्रमण पादुका नहीं पहनते, किन्तु मैं नंगे पैर चलने में असमर्थ हूँ, इसलिए पादुका धारण करूंगा। श्रमण कषाय से अकलुषित हैं, इसलिए वे दिगम्बर या श्वेताम्बर हैं। मैं कषाय से कलुषित हूँ, इसलिए गेरुवे वस्त्र धारण करूँगा। __ श्रमण हिंसा-भीरु हैं। मैं पूर्ण हिंसा का वर्जन करने में असमर्थ हूँ, इसलिए परिमित जल से स्नान भी करूंगा और कच्चा जल पीऊँगा भी। इस परिकल्पना के अनुसार वह परिव्राजक हो गया।' १-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 347, 350,359 / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 खंण्ड 1, प्रकरण : 2 १-श्रमण-संस्कृति के मतवाद जैन-साहित्य में श्रमणों के पाँच विभाग बतलाए गए हैं निर्ग्रन्थ जैन-मुनि, शाक्य- बौद्ध-भिक्षु, तापस जटाधारी वनवासी तपस्वी, गेरुक- त्रिदण्डी परिव्राजक और आजीवक- गोशालक के शिष्य / ' निशोथ चूणि में अन्यतीर्थिक श्रमणों के 30 गणों का उल्लेख मिलता है। बौद्धसाहित्य में बुद्ध के अतिरिक्त छह श्रमण-संघ के तीर्थङ्करों का उल्लेख मिलता है। दशवकालिक नियुक्ति में श्रमण के अनेक पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैंप्रवजित, अणगार, पापड, चरक, तापस; भिक्षु, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, तीर्ण, त्रायी, द्रव्य, मुनि, क्षान्त, दान्त, विरत, रूक्ष और तीरस्थ / इन नामों में चरक, तापस, परिव्राजक आदि शब्द निर्ग्रन्थों से भिन्न श्रमणसम्प्रदाय के सूचक हैं। श्रमण के एकार्थवाची शब्दों में उन सबका संकलन किया गया है। .. १-प्रवचनसारोद्धार, गाथा 731-733 : निग्गंथ सक्क तावस गेल्य, आजीव पंचहा समणा। तम्मि निग्गंथा ते जे, जिणसासणभवा मुणिणो॥ सक्का य सुगयसीसा, जे जडिला ते उ तावसा गीया / जे धाउरत्तवत्था, तिदंडिगो गेल्या ते उ // जे गोसालगमयमणुसरंति, भन्नति ते उ आजीवा। समणत्तणेण भुवणे, पंचवि पत्ता पसिद्धिमिमे // २-निशीथ सूत्र, समाज्य चूर्णि, भाग 2, पृ० 118-200 / ३-दीघनिकाय, सामञफल सुत्त, पृ० 16-22 / / ४-दशवकालिक नियुक्ति, 158-159 : पव्वइए अपगारे, पासंडे चरग तावसे भिक्खू / परिवाइए य समणे, निग्गंथे संजए मुत्ते // तिन्ने ताई दविए, मुणी य खंते य दन्त विरए य / लूहे तीरटेऽविय, हवंति समणस्स नामाई॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु जितने श्रमण-सम्प्रदाय थे, उनमें अनेक मतवाद थे। पूरणकश्यप अक्रियावादी था।' .. मस्करी गोशालक संसार-शुद्धिवादी या नियतिवादी था / 2 अजितकेशकम्बल उच्छेदवादी था। प्रक्रुद्धकात्यायन अन्योन्यवादी था। संजयवेलट्ठिपुत्र विक्षेपवादी था।" बौद्ध-दर्शन क्षणिकवादी और जैन-दर्शन स्याद्वादी था। इतने विरोधी विचारों के होते हुए भी वे सब श्रमण थे, अवैदिक थे। इसका हेतु क्या था ? कौन सा ऐसा समता का धागा था, जो सबको एक माला में पिरोए हुए था। इस प्रश्न की मीमांसा अब तक प्राप्त नहीं है। किन्तु श्रमणों की मान्यता और जीवन-चर्या का अध्ययन करने पर हम कुछ निष्कर्षों पर पहुँच सकते हैं : (1) परम्परागत एकता (2) व्रत (3) संन्यास या श्रामण्य (4) यज्ञ-प्रतिरोध (5) वेद का अप्रामाण्य (6) जाति की अतात्त्विकता (7) समत्व की भावना व अहिंसा १-दीघनिकाय, सामञफल सुत्त, पृ० 19 / २-(क) भगवती, 15 / (ख) उपासकदशा, 7 / (ग) दीघनिकाय, सामञफल सुत्त, पृ० 20 / ३-(क) दशाश्रुतस्कंध, छट्ठी दशा : (ख) दीघनिकाय, सामञफल सुत्त, पृ० 20-21 / ४-(क) सूत्रकृतांग, 131217 : (ख) दीघनिकाय, सामञफल सुत्त, पृ० 21 / ५-दीघनिकाय, सामञफलसुत्त, पृ० 22 / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उनके हेतु 26 उत्तराध्ययन में इन विषयों पर बहुत व्यवस्थित विवेचन किया गया है। वह आध्यात्मिक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक भी है। परम्परागत एकता श्रमण-परम्परा का मूल उद्गम एक है, इसलिए अनेक सम्प्रदाय होने पर भी मूलतः वह अविभक्त है / श्रमण-परम्परा का उद्गम भगवान् ऋषभ से हुआ है / जयघोष ब्राह्मण ने निर्ग्रन्थ विजयघोष से पूछा-धर्म का मुख क्या है ? विजयघोष ने उत्तर दिया-धर्म का मुख काश्यप ऋषभ है।' ___ श्रीमद्भागवत के अनुसार वे श्रमणों का धर्म प्रकट करने के लिए अवतरित ___ उन्होंने राजा नमि की पत्नी सुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया। इस अवतार ने समस्त आसक्तियों से रहित रह कर, अपनी इन्द्रियों और मन को अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूप में स्थिर होकर समदर्शी के रूप में जड़ों की भाँति योगचर्या का आचरण किया। इस स्थिति को महर्षि लोग परमहंस-पद कहते हैं / निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्म-लोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्म-स्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है / ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार महादेव ऋषभ ने दस प्रकार के धर्म का स्वयं आचरण * १-उत्तराध्ययन, 25 / 14,16 / २-श्रीमद्भागवत, 5 / 3 / 20 : धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततार। ३-वही, 27 / 10 : नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुर्योवैचचार समग् जडयोगचर्याम् / यत् पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः // ४-वही, 5 / 6 / 16 / नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुहबुद्धेः। लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोकमाख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै / Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन किया और केवलज्ञान को प्राप्ति होने पर भगवान् ने जो महर्षि परमेष्ठी, वीतराग, स्नातक, निर्ग्रन्थ, नैष्ठिक थे—उन्हें उसका उपदेश दिया। जैन-साहित्य में तो यह स्पष्ट है ही कि श्रमण-धर्म के आदि-प्रवर्तक भगवान् ऋषभ थे। इस प्रकार जैन व वैदिक दोनों प्रकार के साहित्य से यह प्रमाणित होता है कि श्रमणधर्म का आदि-स्रोत भगवान् ऋषभ हैं / * ऋषभ का धर्म प्राग-ऐतिहासिक काल की सीमा का अतिक्रमण कर जब इतिहास की सीमा में आता है तब भी उसका मूल-स्रोत बहुत विभक्त नहीं मिलता। भगवान् महावीर के तीर्थ-काल में जो श्रमण-संघ उपलब्ध थे, वे अधिकांश पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्धित थे / दीघनिकाय में जिन छह तीर्थङ्करों का वर्णन है, उन सबको 'संघी' और 'गणी' कहा गया है। धर्म सम्प्रदायों में 'संघ' की परम्परा श्रमणों की देन हैं / ऐतिहासिक काल में श्रमण-संघ का सबसे पहला उदाहरण भगवान् पार्श्व के तीर्थ का है / धर्मानन्द कोशाम्बी ने लिखा है___"पार्श्व मुनि ने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने संघ बनाए। बौद्ध-साहित्य से इस बात का पता लगता है कि बुद्ध के समय जो संघ विद्यमान थे, उन सबों में जैन साधु और साध्वियों का संघ सबसे बड़ा था। "पार्श्व के पहले ब्राह्मणों के बड़े-बड़े समूह थे, पर वे सिर्फ यज्ञ-याज्ञ का प्रचार करने के लिए ही थे। यज्ञ-याज्ञ का तिरस्कार कर उसका त्याग करके जंगलों में तपस्या करने वालों के संघ भी थे / तपस्या का एक अंग समझ कर ही वे अहिंसा-धर्म का पालन करते थे, पर समाज में उसका उपदेश नहीं देते थे। वे लोगों से बहुत कम मिलतेजुलते थे। "बुद्ध के पहले यज्ञ-याज्ञ को धर्म मानने वाले ब्राह्मण थे और उसके बाद यज्ञ-याज्ञ से ऊबकर जंगलों में जाने वाले तपस्वी थे। बुद्ध के समय ऐसे ब्राह्मण और तपस्वी न थे १-जमहीप प्राप्ति, 2130, पत्र 135 : उसहे गामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमनिगे पढमकेवली पठमतित्यकरे पढमधम्मवरचकवट्टी समुप्पज्जित्थे। २-दीघनिकाय, सामञफल सुत्त, प्रथम भाग, पृ० 41-42 : . संबी बेगमणी / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1 प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 31 ऐसी बात नहीं है। पर इन दो प्रकार के दोषों को देखने वाले तीसरे प्रकार के भी संन्यासी थे और उन लोगों में पार्श्व मुनि के शिष्यों को पहला स्थान देना चाहिए।" भगवान् पाश्व और महात्मा बुद्ध देवसेनाचार्य (आठवीं सदी) के अनुसार महात्मा बुद्ध आरम्भ में जैन थे। जैनाचार्य पिहितास्रव ने सरयू-नदी पर स्थित पलाश नामक ग्राम में पार्श्व के संध में उन्हें दीक्षा दी और मुनि 'बुद्धकीर्ति' नाम रखा। ___ श्रीमती राइस डेविड्स का भी मत है कि बुद्ध पहले गुरु की खोज में वैशाली पहुंचे। वहाँ आचार और उदक से उनकी भेंट हुई, फिर बाद में उन्होंने जैन-धर्म की तप-विधि का अभ्यास किया। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी के अभिमत में बुद्ध ने पहले आत्मानुभव के लिए उस काल में प्रचलित दोनों साधनाओं का अभ्यास किया। आलार और उद्रक के निर्देशानुसार ब्राह्मण-मार्ग का और तब जैन-मार्ग का और बाद में अपने स्वतंत्र साधनामार्ग का विकास किया। . महात्मा बुद्ध पार्श्व की परम्परा में दीक्षित हुए या नहीं इन दोनों प्रश्नों को गौण कर हम इस रेखा पर पहुँचते हैं कि उन्होंने अहिंसा आदि तत्त्वों का जो निरूपण किया, उसका बहुत बड़ा आधार भगवान् पार्श्व की परम्परा है। उनके शब्द-प्रयोग भी पार्श्व की परम्परा के जितने निकट हैं, उतने अन्य किसी परम्परा के निकट नहीं है। आज भी त्रिपिटक और द्वादशांगी का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले सहज ही इस कल्पना पर पहुंच जाते हैं कि उन दोनों का मूल एक है। विचार-भेद की स्थिति में सम्प्रदाय परिवर्तन की रीति उस समय बहुत प्रचलित थी। पिटकों व आगमों के अभ्यासी के लिए यह अपरिचित विषय नहीं है। महात्मा बुद्ध के प्रमुख शिष्य मोद्गल्यायन भी पहले पार्श्वनाथ को शिष्य-परम्परा में थे। वे भगवान् महावीर की किसी प्रवृत्ति से रुष्ट होकर .बुद्ध के शिष्य बन गए। १-भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ० 41, 43 / २-दर्शनसार, 6H सिरिपासणाहतित्थे, सरयूतीरे पलासणयरत्यो / 'पिहियासवस्स सिस्सो, महासुदो वुड्ढकित्ति मुणी // 3-Gautma, the man, 22/5. ४-हिन्दू सभ्यता, पृ० 239 / ५-धर्म परीक्षा, अध्याय.१८॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 . उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन गोशालक और पूरणकश्यप आजीवक-सम्प्रदाय के आचार्य गोशालक के विषय में दो मान्यताएं प्रचलित हैं। श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार वह भगवान् महावीर का शिष्य था और दिगम्बर-मान्यता के अनुसार वह पार्श्व की शिष्य-परम्परा में था। ___ मंखलीपुत्र गोशालक ने सर्वानुभूति और सुनक्षत्र---इन दोनों निर्ग्रन्थों को अपनी तेजोलेश्या से जला डाला, तब भगवान् महावीर ने कहा-"गोशालक ! मैंने तुम्हें प्रवजित किया, बहुश्रुत किया और तुम आज मेरे ही साथ इस प्रकार का मिथ्या आचरण कर रहे हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है / "1 इसका आशय स्पष्ट है कि गोशालक भगवान् महावीर के पास प्रवजित हुआ था। छह वर्ष तक भगवान के साथ रहा और उसके बाद वह आजीवक-संघ का आचार्य बन गया। उस समय उसके साथ भगवान् पार्श्व के छह शिष्य सम्मिलित हुए। दिगम्बर-मान्यता के अनुसार मश्करी गोशालक और पूरणकश्यप भगवान् महावीर के प्रथम समवसरण (धर्म-परिच्छेद) में विद्यमान थे। वे दोनों पार्श्वनाथ के प्रशिष्य थे। उस परिषद् में इन्द्रभूति गौतम आए। भगवान् महावीर की ध्वनि का क्षरण हुआ। मश्करी गोशालक रुष्ट होकर चला गया / उसने सोचा-बहुत आश्चर्य की बात है, ग्यारह अंगों (शास्त्रों) को धारण करने वाला मैं परिषद् में विद्यमान था फिर भी भगवान् की ध्वनि का क्षरण नहीं हुआ। मुझे उसके योग्य नहीं समझा गया। यह इन्द्रभूति गौतम वेदपाठी है। अंगों को नहीं जानता फिर भी उसके आने पर भगवान् की ध्वनि का क्षरण हुआ। उसे उसके योग्य समझा गया। इससे लगता है कि ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। अज्ञान ही श्रेष्ठ है। उसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वह अज्ञानवादी बन गया। ____ श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं में भेद होने पर भी इसमें कोई मतभेद नहीं है कि गोशालक का सम्बन्ध श्रमण-परम्परा के मूल उद्गम से था। आजीवक-सम्प्रदाय गोशालक से पहले भी था। वह उसका प्रवर्तक नहीं था / उस सम्प्रदाय का मूल-स्रोत भी प्राचीन श्रमण-परम्परा से भिन्न नहीं है। जैन-श्रमणों और आजीवकों की तपस्या पद्धति १-भगवती, 15 // तुम मए चेव पव्वाविए जाव मए चेव बहुस्सुई कए, ममं चेव मिच्छं विप्पडियन्ने तं मा एवं गोसाल? २-वही, 15 / ३-दर्शनसार, 176-179 / 4-History and Doctrines of the Ajivikas, p. 98. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 33 और सिद्धान्त निरूपणा में कुछ भेद था तो बहुत समानता भी थी, किन्तु उसमें मुख्य भेद आजीविका की वृत्ति की था। आजीवक-श्रमण विद्या आदि के प्रयोग द्वारा आजीविका करते थे। जैन-श्रमणों को यह सर्वथा अमान्य था। जो श्रमण लक्षण, स्वप्न और अंगविद्या का प्रयोग करते थे, उन्हें जैन-श्रमण कहने को भी वे तैयार नहीं थे।' आजीवक लोग मूलतः पार्श्व की परम्परा से उद्भूत थे, यह मानना निराधार नहीं है / सूत्रकृतांग (1 / 1 / 2 / 5) में नियतिवादियों को पार्श्वस्थ कहा है एवमेगेहु पासत्था, ते मुजो विप्पगमिआ / एवं उवद्विआ संता, ण ते दुक्खविमोक्खया // वृत्तिकार ने पार्श्वस्थ का अर्थ 'युक्ति से बाहर ठहरने वाला' या 'पाश-बन्धन में स्थित' किया है२, किन्तु ये सारे अर्थ कल्पना से अधिक मूल्य नहीं रखते / वस्तुतः पार्श्वस्थ का अर्थ 'पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्धित' होना चाहिए। भगवान् महावीर ने तीर्थ की स्थापना की और वे चौबीसवें तीर्थङ्कर हुए। उसके पश्चात् भगवान् पार्श्व के अनेक शिष्य भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रवजित हो गए और अनेक प्रवजित नहीं भी हुए। हमारा ऐसा अनुमान है कि भगवान् पार्श्व के जो शिष्य भगवान् महावीर के शासन में सम्मिलित नहीं हुए उनके लिए 'पार्श्वस्थ' शब्द प्रयुक्त हुआ है तथा भगवान् महावीर से पहले ही कुछ साधु भगवान् पार्श्व की मान्यता का अतिक्रमण कर अपने स्वतंत्र विचारों का प्रचार कर रहे थे। उनके लिए भी 'पार्श्वस्थ' शब्द का प्रयोग किया गया है / पहली श्रेणी वालों को 'देशतः पार्श्वस्थ' कहा गया है एवं दूसरी श्रेणी वालों को 'सर्वतः पार्श्वस्थ' कहा गया है। भगवान् महावीर के तीर्थ-प्रवर्तन के बाद भी पार्श्व की परम्परा के जो श्रमण जैन-धर्म की रत्नत्रयी-ज्ञान, दर्शन और चारित्र-से सर्वथा विमुख होकर मिथ्या-दृष्टि का प्रचार करने में रत थे, उन्हें 'सर्वतः पार्श्वस्थ' कहा गया है। १-उत्तराध्ययन, 8 / 13;157,16 / २-सूत्रकृतांग, 13112 / 5 वृत्ति : युक्तिकदम्बकादबहिस्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः परलोकक्रियापार्श्वस्था वा, नियतिपक्षसमाश्रयणात्परलोक क्रियावैयर्थ्य, यदिवा-पाश इव पाशः-कर्मबन्धनं, तच्चेह युक्तिविकलनियतिवादप्ररूपणं तत्र स्थिताः पाशस्थाः। ३-प्रवचनसारोद्धार, गाथा 104-105 : सो पासत्यो दुविहो, सव्वे देसे य होइ नायव्वो। सव्वं मि नाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि // देसंमि य पासत्थो, सेजायरऽभिहडरायपिण्डं च / नीयं च अग्गपिण्डं मुंजइ निकारणे चेव // Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन जो श्रमण शय्यातर-पिण्ड, अभिहृत-पिण्ड, राज-पिण्ड, नित्य-पिण्ड, अग्र-पिण्ड आदि आहार का उपभोग करते थे, उन्हें 'देशतः पार्श्वस्थ' कहा गया। आजीवक 'सर्वतः पार्श्वस्थ' थे / गोशालक आजीवक-सम्प्रदाय के आचार्य थे, प्रवर्तक नहीं। वह गोशालक से पहले ही प्रचलित था।' श्वेताम्बर-साहित्य के अनुसार गोशालक भगवान् महावीर के शिष्य थे और दिगम्बरसाहित्य के अनुसार वे भगवान् महावीर की प्रथम प्रवचन-परिषद् में उपस्थित थे। महावीर से उनका सम्पर्क था, इसमें दोनों सहमत हैं। .. दिगम्बर-साहित्य के अनुसार गोशालक पार्श्व-परम्परा में थे और श्वेताम्बर-साहित्य में नियतिवादियों को 'पार्श्वस्थ' कहा है / इस प्रकार उनके पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित होने में भी दोनों सहमत हैं। इन दो अभिमतों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गोशालक प्रारम्भ में पार्श्व की परम्परा में दीक्षित हुए और बाद में महावीर के साथ रहे / दिगम्बरों ने पहली स्थिति को प्रमुखता दी और गोशालक को पार्श्व की परम्परा का श्रमण माना। श्वेताम्बरों ने दूसरी स्थिति को प्रमुखता दी और गोशालक को महावीर का शिष्य माना। किन्तु इतना निश्चित है कि भगवान् पार्श्व की परम्परा व भगवान् महावीर से उनका पूर्व सम्बन्ध रहा था। दर्शनसार में मस्करी गोशालक व पूरणकश्यप का एक साथ उल्लेख है। इससे उनके घनिष्ट सम्बन्ध की भी सूचना मिलती है। एक परम्परा में दीक्षित होने के कारण उनका परस्पर सम्बन्ध रहा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। अंगुत्तरनिकाय में मस्करी गोशालक के छह अभिजाति के सिद्धान्त को पूरणकश्यप का बतलाया गया है। इस प्रकार बुद्ध, मस्करी गोशालक और पूरणकश्यप का श्रमण-परम्परा के मूल-स्रोत भगवान् पार्श्व या महावीर से सम्बन्ध था, इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। संजय, अजितकेशकम्बल और प्रकुद्धकात्यायन के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती, फिर भी उनकी परम्परा सर्वथा मौलिक रही हो, ऐसा प्रतिभासित नहीं होता। p-History and Doctrines of the Ajivikas, p. 97. २-अंगुत्तरनिकाय, भाग 3, पृ० 383 / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 35 व्रत श्रमण-परम्परा में व्रत का बहुत महत्त्व रहा है। उसके आधार पर सभी मनुष्य तीन भागों में विभक्त किए गए हैं-बाल, पंडित और बाल-पंडित / जिसके कोई व्रत नहीं होता, वह 'बाल' कहलाता है। जो महाव्रतों को स्वीकार करता है, वह 'पंडित' कहलाता है और जो अणुव्रतों को स्वीकार करता है अर्थात् व्रती भी होता है और अव्रती भी, वह 'बाल-पंडित' कहलाता है।' ___ भगवान् महावीर ने साधु के लिए पाँच महाव्रत और रात्रि-भोजन-विरमण-व्रत का विधान किया / पाँच महाव्रत ये हैं (1) अहिंसा। . (2) सत्य। (3) अस्तेय / (4) ब्रह्मचर्य।. (5) अपरिग्रह / श्रावक के लिए बारह व्रतों की व्यवस्था की / ' उनमें पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत हैं / पाँच अणुव्रत, ये हैं (1) स्थूल प्राणातिपात-विरति / / (2) स्थूल मृपावाद-विरति / दत्तादान-विरति / (4) स्वदार-संतोष। (5) इच्छा-परिमाण / सात शिक्षा-व्रत ये हैं (1) दिग-व्रत / .. . (2) उपभोग-परिभोग परिमाण / (3) अनर्थ-दण्ड-विरति / (4) सामायिक / (5) देशावकाशिक / (6) पौषध / (7) अतिथि-संविभाग। १-सूत्रकृताङ्ग, 2 / 2 / २-उपासक दशा, 1112 / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए दस शीलों का विधान किया था। दस-शील (1) प्राणातिपात-विरति / (2) अदत्तादान-विरति / (3) अब्रह्मचर्य-विरति / (4) मृषावाद-विरति / (5) सुरा-मद्य-मैरेय-विरति / (6) अकाल-भोजन-विरति / (7) नृत्य-गीत-वादित्र-विरति / (8) माल्य-गंध-विलेपन-विरति / (8) उच्चासन-शयन-विरति / (10) जातरूप-रजत-प्रतिग्रह-विरति / ' उपासकों के लिए पञ्चशील का विधान है / पञ्चशील ये हैं (1) प्राणातिपात-विरति / (2) अदत्तादान-विरति / (3) काम-मिथ्याचार-विरति / (4) मृषावाद-विरति / (5) सुरा-मैरेय-प्रमाद-स्थान-विरति / 2 आजीवक-उपासक बैलों को नपुंसक नहीं करते थे ; उनको नाक भी नहीं बींधते थे ; आजीविका के लिए त्रस जीवों का वध नहीं करते थे ; उदुम्बर और बरगद के फल तथा प्याज-लहसुन और कन्द-मूल आदि नहीं खाते थे / इस प्रकार जैन, बौद्ध और आजीवक-इन तीनों में व्रतों की व्यवस्था मिलती है / शेष श्रमण-सम्प्रदायों में भी व्रतों की व्यवस्था होनी चाहिए। जहाँ श्रामण्य या प्रव्रज्या की व्यवस्था है, वहाँ व्रतों की व्यवस्था न हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता। जैन-धर्म और व्रत-परम्परा डॉ० हर्मन जेकोबी ने ऐसी संभावना की है कि जैनों ने अपने व्रत ब्राह्मणों से उधार १-बौद्धधर्मदर्शन, पृ० 19 / २-वही, पृ० 24 // ३-भगवती, 8 / 5 / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 37 लिए हैं।' ब्राह्मण संन्यासी मुख्यतया अहिंसा, सत्य, अचौर्य, संतोष और मुक्तता-इन पाँच व्रतों का पालन करते थे / डॉ० जेकोबी का अभिमत है कि जैन-महाव्रतों की व्यवस्था के आधार उक्त पाँच व्रत बने हैं। यह संभावना केवल कल्पना पर आधारित है। इसका कोई वास्तविक आधार नहीं है। यदि हम व्रतों को परम्परा का ऐतिहासिक अध्ययन करें तो अहिंसा आदि व्रतों का मूल ब्राह्मण-परम्परा में नहीं पाएंगे। डॉ. जेकोबी ने बौधायन में उल्लिखित व्रतों के आधार पर यह संभावना को, किन्तु प्रश्न यह है कि उसमें व्रत कहाँ से आए ? इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व संन्यास-आश्रम पर विचार करना आवश्यक है, क्योंकि व्रत और संन्यास का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। वैदिक-साहित्य में सर्व प्राचीन ग्रन्थ वेद हैं। उनमें 'आश्रम' शब्द का उल्लेख नहीं है। ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थों में भी आश्रमों की चर्चा नहीं है। उपनिषद्-काल में आश्रमों की चर्चा प्रारम्भ होती है / बृहदारण्यक में संन्यास को 'आत्म-जिज्ञासा के बाद होने वाली स्थिति' कहा है। वहाँ लिखा है-'इस आत्मा को ब्राह्मण वेदों के स्वाध्याय, यज्ञ, दान और निष्काम-तप के द्वारा जानने की इच्छा करते हैं। इसी को जान कर मुनि होते हैं / इस आत्म-लोक की ही इच्छा करते हुए त्यागी पुरुष सब कुछ त्याग कर चले जाते हैं, संन्यासी हो जाते हैं। इस संन्यास में कारण यह है-पूर्ववर्ती विद्वान् सन्तान (तथा सकाम कर्म आदि) को इच्छा नहीं करते थे। ( वे सोचते थे ) हमें प्रजा से क्या लेना है, जिन हमको कि यह आत्म-लोक अभीष्ट है। अत: वे पुत्रैषणा, वित्तषणा और लोकैषणा से व्युत्थान कर फिर भिक्षा-चर्या करते थे।"२ ___ इस उद्धरण में "पूर्ववर्ती विद्वान् सन्तान की इच्छा नहीं करते थे और लोकेषणा से व्युत्थान कर फिर भिक्षा-चर्या करते थे"-ये वाक्य निवर्तक-परम्परा की ओर संकेत करते हैं / वेदिक-परम्परा लोकैषणा से विमुख नहीं रही है / उसमें पुत्रैषणा की प्रधानता रही है और यहाँ बताया है कि जो भी पुत्रैषणा है, वह वित्तषणा है और जो वित्तषणा है, वही लोकेषणा है / श्रमण-परम्परा का मुख्य सूत्र है- "लोकेषणा मत करो"-"नो लोगस्सेसणं चरे।"४ भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा--"पहले पुत्रों को उत्पन्न करो, फिर आरण्यक मुनि हो 1-The Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction p. 24. "It is therefore probable that the Jainas have borrowed their own vows from the Brahmans, not from the Buddhists. २-बृहदारण्यक, 4 / 4 / 22 / 3- वही, 4 / 4 / 22 / ४-आचारांग, 1 / 4 / 1 / 128 / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन जाना।" उन्होंने उत्तर की भाषा में कहा--- "पिता ! पुत्र त्राण नहीं होते, इसलिए उन्हें उत्पन्न करना अनिवार्य धर्म नहीं है।"२ वैदिक धारणा ठीक इस धारणा के विपरीत है। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है-"जन्म प्राप्त करने वाला ब्राह्मण तीन ऋणों के साथ ही जन्म लेता है। ऋषियों का ऋण ब्रह्मचर्य से, देवों का ऋण यज्ञ से तथा पितरों का ऋण प्रजोत्पादन से चुकाया जा सकता है / पुत्रवान्, यजनशील तथा ब्रह्मचर्य को पूर्ण करने वाला मानव उऋण होता है / "3 इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में बताया है-"इक्ष्वाकु-वंश के वेधस राजा का पुत्र राजा हरिश्चन्द्र निस्संतान था। उसके सौ पत्नियाँ थीं। परन्तु उसके कोई पुत्र न हुआ। उसके घर में पर्वत और नारद दो ऋषि रहते थे। उसने नारद से पूछा-"सभी पुत्र की इच्छा करते हैं, ज्ञानी हो या अज्ञानी / हे नारद ! बताओ, पुत्र से क्या लाभ होता है ?" ' नारद ने इस एक प्रश्न का दस श्लोकों में उत्तर दिया। उनमें पहला श्लोक इस प्रकार है ___ ऋण मस्मिन् सनयत्यमृतत्त्वं च गच्छति / पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतोमुखम् // -अगर पिता जीते हुए पुत्र का मुख देख ले तो उसका ऋण छूट जाता है और वह अमर हो जाता है। उक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि श्रमण-परम्परा में संन्यास की प्रधानता रही है और वैदिक-परम्परा में पुत्र उत्पन्न करने की। उस स्थिति में इस उपनिषद् का यह वाक्य'तत्पूर्वे विद्वांसः प्रजां न कामयंते' बहुत ही अर्थ-सूचक है। - जैन-दर्शन का संन्यास नितान्त आत्मवाद पर आधारित है। आचार की आराधना वही कर पाता है, जो आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी होता है / आत्म-जिज्ञासा के बिना संन्यास का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। इस धारणा के आलोक में हम सहज ही यह देख पाते हैं कि आत्म-जिज्ञासा पर आधारित संन्यास (जिसका संकेत बृहदारण्यक उपनिषद् देता है) श्रमणों की दीर्घकालीन परम्परा है / १-उत्तराध्ययन, 1406 / २-वही, 14 / 12 / ३-तैत्तिरीय संहिता, 6 / 3 / 10 / 5 / ४-ऐतरेय ब्राह्मण, 7 वीं पंचिका, अध्याय 3 / ५-आचारांग, 1111115 / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु 36 भगवान् पार्श्व के समय श्रमण-संघ बहुत सुसंगठित था। उपनिषद् का रचना-काल उनसे पहले नहीं जाता। भगवान पार्श्व का अस्तित्व-काल ई० पू० दसवीं शताब्दी है। और उपनिषदों का रचना-काल प्रायः ई० पूर्व 800 से 300 के बीच का है / १-भगवान् महावीर का निर्वाण-काल ई० पू० 528 में हुआ था। भगवान् महावीर का जीवन-काल 72 वर्ष का था। (देखिए-जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० 26) : भगवान् पार्श्व भगवान् महावीर से 250 वर्ष पहले हुए थे। पास जिणाओ य होइ वीरजिणो। अट्ठाइज्जसएहिं गएहिं चरिमो समुप्पन्नो॥ उनका 100 वर्ष का जीवन-काल था। इस प्रकार भगवान् पार्श्व का अस्तित्वकाल ई० पू० दसवीं शताब्दी होता है। आचार्य गुणभद्र के अनुसार भगवान् पार्श्व के निर्वाण के 250 वर्ष बाद भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ था पार्वेशतीर्थे सन्ताने, पंचाशद्विशताब्दके। तदभ्यन्तरवायु, महावीरोऽत्र जातवान् // -महापुराण (उत्तरपुराण), पर्व 74, पृ० 462 / अर्थात् श्री पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर के बाद दो सौ पचास वर्ष बीत जाने पर श्री महावीर स्वामी उत्पन्न हुए थे, उनकी आयु (72 वर्ष) भी इसी में शामिल है : आचार्य गुणभद्र के उक्त अभिमत से भगवान् पाव का अस्तित्व-काल ई० पू० नौवीं शताब्दी होता है। Co. (7) History of the Sanskrit Literature, p. 226. आर्थर ए. मैकडॉनल के अभिमत में प्राचीनतम वर्ग बृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय और कौशीतकी उपनिषद् का रचना-काल ईसा पूर्व (ख) A. B. Kieth : the Religion and Philosophy of the Veda and Upanisads, P. 20. इसके अनुसार वैदिक-साहित्य का काल-मान इस प्रकार है १-उपनिषद् - ई० पू० ५वीं शताब्दी। २-ब्राह्मण - ई० पू० ६वीं शताब्दी। ३-बाद की संहिताएँ - ई० पू० ८-७वीं शताब्दी / इन्होंने जैन तीर्थङ्कर पार्श्व का काल ईसा पूर्व 740 निर्धारित किया है और प्राचीनतम उपनिषदों का काल पार्श्व के बाद माना है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन इस स्थिति में यह मान लेना कोई कठिन बात नहीं कि संन्यास और व्रतों की व्यवस्था के लिए श्रमण-धर्म वैदिक-धर्म का ऋणी नहीं है। वेद, ब्राह्मण और आरण्यक-साहित्य में महाव्रतों का उल्लेख नहीं है / जिन उपनिषदों, पुराणों और स्मृतियों में उनका उल्लेख है, वे सभी ग्रन्थ भगवान् पार्श्व के उत्तरकालीन है। अतः पूर्वकालीन व्रत-व्यवस्था को उत्तरवर्ती व्रत-व्यवस्था ने प्रभावित किया-यह मानना स्वाभाविक नहीं है। भगवान् महावीर भगवान् पार्श्व के उत्तरवर्ती तीर्थङ्कर हैं। उन्होंने भगवान् पार्श्व के व्रतों का ही विकास किया था। उन्होंने इस विषय में किसी अन्य परम्परा का अनुसरण नहीं किया। उनके उत्तरकाल में महाव्रत इतने व्यापक हो गए कि उनका मूल-स्रोत ढूँढ़ना एक पहेली बन गया। इस दिशा में कभी-कभी प्रयत्न हुआ है। उनके अभिमत इस प्रकार हैं-पार्श्वनाथ का धर्म महावीर के पञ्च महाव्रतों में परिणत हुआ है / वही धर्म बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग में और योग के यम-नियमों में प्रकट (ग) एफ० मेक्समूलर-दी वेदाज, पृ० 146-148 : इनकी मान्यता है कि उपनिषदों में प्रतिपादित वेदान्त-दर्शन का काल मान ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी है। (घ) एच० सी० रायचौधरी-पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्सियन्ट इण्डिया, पृ० 52 : ये मानते हैं कि विदेह का महाराज जनक याज्ञवल्क्य के समकालीन थे। याज्ञवल्क्य, बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद् के मुख्य पाँच पात्र हैं। उनका काल-मान ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी है। वही, पृ० ९७—जैन तीर्थङ्कर पार्श्व का जन्म ईसा पूर्व 877 और निर्वाण-काल ईसा पूर्व 777 है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि प्राचीनतम उपनिषद् पार्श्व के बाद के हैं। (ङ) राधाकृष्णन-इण्डियन फिलोसफो, भाग 1, पृ० 142 : (1) इनकी मान्यता है कि ऐतरेय, कौशीतकी, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक-ये सभी उपनिषद् प्राचीनतम हैं। ये बुद्ध से पूर्व के हैं। इनका काल-मान ईसा पूर्व दसवीं शताब्दी से तीसरी शताब्दी तक माना जा सकता है। (2) राधाकृष्णन-दी प्रिंसिपल उपनिषदाज , पृ० 22 : बुद्ध-पूर्व के प्राचीनतम उपनिषदों का काल-मान ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी से ईसा तीसरी शताब्दी तक का है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 41 हुआ। गाँधीजी के आश्रम-धर्म में भी प्रधानतया चातुर्याम-धर्म दृष्टिगोचर होता है।' हिन्दुत्व और जन-धर्म आपस में घुल मिल कर अब इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये जैन-धर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के नहीं / 2 ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत ___ भगवान् पार्श्व के चातुर्याम-धर्म में ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे शब्दों की व्यवस्था नहीं थी। उनकी व्यवस्था में बाह्य वस्तुओं की अनासक्ति का सूचक शब्द था 'बहिस्तात्आदान-विरमण / ' भगवान् महावीर ने इस व्यवस्था में परिवर्तन किया और 'बहिस्तात्आदान-विरमण' को 'ब्रह्मचर्य' और 'अपरिग्रह' इन दो शब्दों में विभक्त कर डाला / ब्रह्मचर्य शब्द वैदिक-साहित्य में प्रचलित था। किन्तु भगवान् महावीर ने एक महाव्रत के रूप में ब्रह्मचर्य का प्रयोग किया। उस रूप में वह वैदिक साहित्य में प्रयुक्त नहीं था / अपरिग्रह शब्द का भी महाव्रत के रूप में सर्व प्रथम भगवान महावीर ने ही प्रयोग किया था। जाबालोपनिषद् (5), नारद परिव्राजकोपनिषद् (3 / 8 / 6), तेजोबिन्दूपनिषद् (1 / 3), याज्यवल्क्योपनिषद् (2 / 1), आरुणिकोपनिषद् (3), गीता (6 / 10), योगसूत्र (2 / 30) में अपरिग्रह शब्द मिलता है, किन्तु ये सभी ग्रन्थ भगवान् महावीर के उत्तरवर्ती हैं। उनके पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थ में अपरिग्रह शब्द का एक महान् व्रत के रूप में प्रयोग नहीं हुआ है। जैन-धर्म का बहुत बड़ा भाग व्रत और अव्रत की मीमांसा है। सम्भवतः अन्य किसी भी दर्शन में व्रतों की इतनी मीमांसा नहीं हुई। चौदह गुणस्थानों-विशुद्धि की भूमिकाओं में अव्रती चौथे, अणुव्रती पाँचवें और महाव्रती छठे गुणस्थान का अधिकारी होता है। यह विकास किसी दीर्घकालीन परम्परा का है, तत्काल गृहीत परम्परा का नहीं। . संन्यास या श्रामण्य संन्यास श्रमण-परम्परा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व रहा है। अजितकेशकम्बल जैसे उच्छेदवादी श्रमण भी संन्यासी थे। वैदिक-परम्परा में संन्यास की व्यवस्था उपनिषद्काल में मान्य हुई है / वैदिक-काल में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ-ये दो ही व्यवस्था-क्रम थे / आरण्यक-काल में 'न्यास' ( संन्यास) को मोक्ष का हेतु कहा गया है और वह सत्य, १-पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, भूमिका पृ० 6 / २-संस्कृति के चार अध्याय, पृ० 125 / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन - तप, दम, शम, दान, धर्म, पुत्रोत्पादन, अमिहोत्र, यज्ञ और मानसिक-उपासना-इन सबसे उत्कृष्ट बतलाया गया है / ' किन्तु वह किन लोगों द्वारा स्वीकृत था, इसका उल्लेख नहीं है। आश्रम-व्यवस्था का अस्पष्ट वर्णन छान्दोग्य उपनिषद् में मिलता है। वहाँ लिखा है-धर्म के तीन स्कन्ध (आधार-स्तम्भ ) हैं---यज्ञ, अध्ययन और दान / यज्ञ पहला स्कन्ध है। तप दूसरा स्कन्ध है। आचार्य कुल में अपने शरीर को अत्यन्त क्षीण कर देना तीसरा स्कन्ध है। ये सभी पुण्य-लोक के भागी होते हैं। ब्रह्म में सम्यक प्रकार से स्थित संन्यासी अमृतत्व को प्राप्त होता है / 2 बृहदारण्यक में संन्यास का उल्लेख है / जाबालोपनिषद् में चार आश्रमों की स्पष्ट व्यवस्था प्राप्त होती है। वहाँ बताया है कि ब्रह्मचर्य को समाप्त कर गृहस्थ, उसके बाद वानप्रस्थ और उसके बाद प्रवजित होना चाहिए। यह समुच्चय पक्ष है / यदि वैराग्य उत्कट हो तो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ या वानप्रस्थ किसी भी आश्रम से संन्यास स्वीकार किया जा सकता है। जिस समय वैराग्य उत्पन्न हो, उसी समय प्रवजित हो जाना चाहिए। यह विकल्प पक्ष है। चार आश्रमों की व्यवस्था हो जाने पर भी धर्म-शास्त्र और कल्पसूत्रकार गृहस्थाश्रम को ही महत्त्व देते रहे हैं। वशिष्ठ ने लिखा है-'आश्रम चार हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और परिव्राजक / 5 गृहस्थ ही यजन करता है, तप तपता है / इसलिए चारों आश्रमों में वही विशिष्ट है। जैसे सब नदी और नद समुद्र में आकर स्थित होते हैं, वैसे ही सभी आश्रमी गृहस्थ आश्रम में स्थित होते हैं।६ . १-तैत्तिरीयारण्यक 1, अनुवाक 62, पृ० 766 : न्यास इति ब्रह्मा ब्रह्मा हि परः परो हि ब्रह्मा तानि वा एतान्यवराणि तपाँसि न्यास एवात्यरेचयत् इति / २-छान्दोग्योपनिषद्, 2 / 23 / 1 / ३-बृहदारण्यकोपनिषद्, 4 / 4 / 22 / ४-जाबालोपनिषद्, 4 / ५-वाशिष्ठ धर्म-शास्त्र, 7 / 1 / 2 / ६-वही, 8 / 14-15: गृहस्थएव यजते, गृहस्थ स्तप्यते तपः / चतुर्णामाश्रमाणां तु, गृहस्थश्च विशिष्यते // यथा नदी नदाः सर्वे, समुद्रे यान्ति संस्थितिम् / एव माश्रमिणः सर्वे, गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् // Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 43 वैदिक परम्परा के मूल में यह मान्यता स्थिर रही है कि वस्तुत: आश्रम एक ही है, वह है गृहस्थाश्रम / बौधायन ने लिखा है-"प्रह्लाद के पुत्र कपिल ने देवों के प्रति स्पर्धा के कारण आश्रम-भेदों की व्यवस्था की है, इसलिए मनीषी वर्ग को उसका स्वीकार नहीं करना चाहिए।" ___ इसी भूमिका के संदर्भ में ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा था"राजर्षे ! गृहवास घोर आश्रम है / तुम इसे छोड़ दूसरे आश्रम में जाना चाहते हो, यह उचित नहीं / तुम यहीं रहो और यहीं धर्म-पोषक कार्य करो।" इसके उत्तर में नेमि राजर्षि ने जो कहा वह श्रमण-परम्परा का पक्ष है। उन्होंने कहा-"ब्राह्मण ! मास-मास का उपवास करने वाला और पारण में कुश की नोक पर टिके उतना स्वल्प आहार खाने वाला गृहस्थ मुनि-धर्म की सोलहवीं कला की तुलना में भी नहीं जाता।"२ ___ श्रमण-परम्परा में जीवन के दो ही विकल्प मान्य रहे है-गृहस्थ और श्रमण / श्रमण कोई गृहस्थ ही बनता है। अतः जीवन का प्रारम्भिक रूप गृहस्थ ही है श्रामण्य विवेक द्वारा लक्ष्य पूर्ति के लिए स्वीकृत पक्ष है। वाशिष्ठ का यह अभिमत-"सभी आश्रमी गृहस्थ-आश्रम में स्थित होते हैं"-यदि इस आशय पर आधारित हो कि सब आश्रमों का मूल गृहस्थाश्रम है तो वह श्रमण-परम्परा में भी अमान्य नहीं है। वाशिष्ठ ने स्वयं आगे लिखा है-"जैसे माता के सहारे सब जीव जीते हैं, वैसे ही गृहस्थ के सहारे सब भिक्षु जीते हैं।' 3 यह तथ्य उत्तराध्ययन में याचना-परीषह के रूप में स्वीकृत है : "अरे ! अनगार-भिक्षु की यह दैनिक-चर्या कितनी कठिन है कि उसे सब कुछ याचना से मिलता है। उसके पास अयाचित कुछ भी नहीं होता।"४ किन्तु श्रमण-परम्परा वैदिक परम्परा के इस अभिमत से सहमत नहीं कि गृहस्थआश्रम संन्यास की तुलना में श्रेष्ठ है। इसीलिए कहा है १-बौधायन धर्मसूत्र, 2 / 6 / 30 : प्रह्लादिहवे कपिलो नामासुर आस स एतान्भेदांश्चकार देवैः सह स्पर्धमान स्तान् मनीषी नाद्रियेत। २-उत्तराध्ययन, 9 / 42-44 / ३-वाशिष्ठ धर्मशास्त्र, 8 / 16 : यथा मातरमाश्रित्य, सर्वे जीवन्ति जन्तवः / एवं गृहस्थमाश्रित्य, सर्वे जीवन्ति भिक्षुकाः // ४-उत्तराध्ययन, 2028 / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन : "गोचराग्न में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है। अतः गृहवास ही श्रेय है-मुनि ऐसा चिन्तन न करे।" जैन-धर्म की मूल मान्यता यह है कि अव्रत प्रेय है-बन्धन है और व्रत श्रेय हैमुक्ति है। सुव्रती मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त होता है, भले फिर वह भिक्षु हो या गृहस्थ / / --- "श्रद्धालु श्रावक गृहस्थ-सामायिक के अंगों का आचरण करे। दोनों पक्षों में किए जाने वाले पौषध को एक दिन-रात के लिए भी न छोड़े। __ "इस प्रकार शिक्षा से समापन्न सुव्रती मनुष्य गृहवास में रहता हुआ भी औदारिकशरीर से मुक्त होकर देवलोक में जाता है। "जो संवृत्त भिक्षु होता है, वह दोनों में से एक होता है-सब दुखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव / " 3 इन श्लोकों की स्पष्ट ध्वनि है कि सुबती गृहस्थ व व्रत-संपन्न भिक्षु की श्रेष्ठ गति होती है। जब तक व्रत का पूर्ण उत्कर्ष नहीं होता, तब तक वह मरने के बाद स्वर्ग में जाता है और जब व्रत का पूर्ण उत्कर्ष हो जाता है, तब मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त होता है / भिक्षु की श्रेष्ठता जन्मना तो है ही नहीं, किन्तु वेश से भी नहीं है। उसकी श्रेष्ठता का एक मात्र हेतु व्रत या संयम है / इसी दृष्टि से कहा है-. ___ "कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है, किन्तु साधुओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता है। "चीवर, चर्म, नग्नत्व, जटाधारीपन, संघाटी (उतरीय वस्त्र) और सिर मुंडाना-ये सब दुष्टशील वाले साधु की रक्षा नहीं करते। ___“भिक्षा से जीवन चलाने वाला भी यदि दुःशील हो तो वह नरक से नहीं छूटता।" भिक्षु का अर्थ ही व्रती है / अपूर्ण व्रती या व्रत की परिपूर्ण आराधना तक न पहुंचने वाले को स्वर्ग ही प्राप्त होता है, मोक्ष नहीं। मोक्ष उसी को प्राप्त होता है, जो व्रत को चरम आराधना तक पहुँच जाता है। ऐसा गृहस्थ के वेश में भी हो सकता है।५ वेश भले ही गृहस्थ का हो, आत्मिक-शुद्धि से जो इस स्थिति तक पहुंच जाता है, वह १-उत्तराध्ययन, 2029 / २-वही, 222 / ३-वही, 223-25 // ४-वही, // 20-22 / ५-नंदी, सूत्र 21: गिहिलिंगसिद्धा। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु 45 वास्तविक अर्थ में भिक्षु ही होता है / इसीलिए “सब दुःखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव"-ये दो विकल्प केवल भिक्षु के लिए ही हैं। गृहस्थ वही होता है, जो महाव्रत या उसके उत्कर्ष तक नहीं पहुंच पाता / श्रमण-परम्परा में श्रमण होने से पूर्व गृह-वास करना आवश्यक नहीं माना गया। कोई व्यक्ति बाल्य अवस्था में भी 'श्रमण' हो सकता है, यौवन या बुढ़ापे में भी हो सकता है। __भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा--"पुत्रो ! पहले हम सब एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों का पालन करें, फिर तुम्हारा यौवन बीत जाने के बाद घर-घर से भिक्षा लेते हुए विहार करेंगे।"२ ___तब पुत्र बोले- "पिता ! कल की इच्छा वही कर सकता है, जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री हो, जो मौत के मुंह से बच कर पलायन कर सके और जो जानता हो-मैं नहीं मरूंगा।" बौद्ध-संघ में भिक्षु-जीवन को दो अवस्थाएं मान्य हैं- श्रामणेर अवस्था तथा उपसम्पन्न अवस्था। श्रामणेर अवस्था में केवल दस नियमों का पालन करना पड़ता है। उपसम्पन्न भिक्षु को प्रातिमोक्ष के अन्तर्गत दो सौ सत्ताईस नियमों का पालन करना पड़ता है / बीस वर्ष की आयु के बाद ही कोई उपसम्पन्न हो सकता है। इस प्रकरण की मीमांसा का सार-भाग यह है१. श्रमण-परम्परा में गृहस्थ-जीवन की अपेक्षा श्रमण-जीवन श्रेष्ठ माना गया। 2. श्रमण होने के नाते तीन अवस्थाएं योग्य मानी गई। 3. श्रमण-जीवन से ही मोक्ष की प्राप्ति मानी गई। यज्ञ-प्रतिरोध और वेद का अप्रामाण्य हमारे सांस्कृतिक अध्ययन की यह सहज उपलब्धि है कि वैदिक-संस्कृति का केन्द्र यज्ञ और श्रमण-संस्कृति का केन्द्र श्रामण्य रहा है। वैदिक धारणा है-यज्ञ की उत्पत्ति का मूल है—विश्व का आधार / पापों का नाश, शत्रुओं का संहार, विपत्तियों का निवारण, राक्षसों का विध्वंस, व्याधियों का परिहार सब यज्ञ से ही सम्पन्न होता है / क्या दीर्घायु, क्या समृद्धि, क्या अमरत्व सबका साधन यज्ञ ही माना गया है। वास्तव में वैदिकों के जीवन का सम्पूर्ण दर्शन यज्ञ में सुरक्षित है। यज्ञ के इस तत्त्व का स्वरूप १-स्थानांग, 3 / 2 / 155 / २-उत्तराध्ययन, 14 / 26 / ३-बही, 14 // 27 // ४-सुत्तनिपात, पृ० 244 / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / ऋग्वेद में यों व्यक्त हुआ है-यज्ञ इस भुवन की, उत्पन्न होने वाले संसार की नाभि है, उत्पत्ति प्रधान है। देव तथा ऋषि यज्ञ से ही उत्पन्न हुए; यज्ञ से ही ग्राम और अरण्य के पशुओं की सृष्टि हुई; अश्व, गाएँ, अज, भेड़ें, वेद आदि का निर्माण भी यज्ञ के ही कारण हुआ। यज्ञ ही देवों का प्रथम धर्म था / ' __आर्य-पूर्व-जातियों ( जो श्रमण-परम्परा का अनुगमन करती थीं ) का प्रथम धर्म था अहिंसा / इसीलिए वे यज्ञ-संस्था से कभी प्रभावित नहीं हुई। जैन और बौद्ध-साहित्य में यज्ञ के प्रति जो अनादर का भाव मिलता है, वह उनकी चिरकालीन यज्ञ-विरोधी धारणा का परिणाम है। ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा-"राजर्षे ! पहले तुम विपुल यज्ञ करो, फिर श्रमण बन जाना / "2 इस पर राजर्षि ने कहा-"जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गाएं देता है, उसके लिए भी संयम श्रेय है, भले फिर वह कुछ भी न दे।"3 यज्ञ-संस्था का प्रतिरोध प्रारम्भ से ही होता रहा है। अग्नि-हीन व्यक्तियों का उल्लेख ऋगवेद में मिलता है। उन्हें देव-विरोधी और यज्ञ-विरोधी भी कहा गया है। यति-वर्ग यज्ञ-विरोधी था / इन्द्र ने उसे सालावकों को समर्पित किया था। इस प्रकार के और भी अनेक वर्ग थे। उन्होंने वैदिक धारा को प्रभावित किया था। लक्ष्मण शास्त्री के अनुसार- "इस अवैदिक और यज्ञ को न मानने वाली प्रवृत्ति ने वैदिक विचार पद्धति को भी प्रभावित किया। बाह्य कर्मकाण्ड के बदले मानसिक कर्म रूप उपासना को प्रधानता देने वाली विचारधारा यजुर्वेद में प्रकट हुई है। उसमें कहा गया है कि जिस तरह अश्वमेव के बल पर पाप और ब्रह्म-हत्या से मुक्त होना संभव है उसी तरह अश्वमेध की चिन्तनात्मक उपासना के बल पर भी इन्हीं दोषों से मुक्त होना संभव है ( तैत्तिरीय संहिता 5 / 3 / 12) / इस तरह की शुद्ध मानसिक उपासना का विधान करने वाले अनेकों वैदिक उल्लेख प्राप्त हैं।' यज्ञ-संस्थान का प्रतिरोध श्रमण ही नहीं कर रहे थे किन्तु उनसे प्रभावित आरण्यक और औपनिषदिक ऋषि भी करने लगे थे। प्रतिरोध की थोड़ी रेखाएं ब्राह्मण-काल में १-वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० 40 / २-उत्तराध्ययन, 9138 / ३-वही, 9 / 40 / ४-ताण्ड्य महाब्राह्मण, 1334 : इन्द्रो यतीन् सालावृकेभ्यः प्रायच्छत् / ५-वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० 196 / Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उनके हेतु 47 भी खिंच चुकी थीं / शतपथ ब्राह्मणकार ने कहा-"जिस स्थान पर कामनाएं पूर्ण होती हैं, वहाँ पहुंचना विद्या की सहायता से ही संभव है। वहाँ न दक्षिणा पहुँच पाती है और न विद्या-हीन तपस्वी।"१ ___ ऋषि कावषेय कहते हैं-"हम वेदों का अध्ययन किसलिए करें और यज्ञ भी किसलिए करें ? क्योंकि वाणी का उपरम होने पर प्राण-वृत्ति का विलय होता है और प्राण का उपरम होने पर वाणी की वृत्ति का उद्भव होता है, प्राण की प्रवृत्ति होने पर वाणी की वृत्ति विलीन हो जाती है।"२ ___ उपनिषद्कार ने कहा- "यज्ञ के अट्ठारह ( सोलह ऋत्विक, यजमान और पत्नी) साधन, जो ज्ञान रहित कर्म के आश्रय होते हैं, विनाशी और अस्थिर हैं। जो मूढ़ 'यही श्रेय है' इस प्रकार इनका अभिनन्दन करते हैं, वे बार-बार जरा-मरण को प्राप्त होते रहते हैं।"3 इस विचारधारा के उपरान्त भी यज्ञ-संस्था निर्वीर्य नहीं हुई थी। भगवान् महावीर के काल में भी उसका प्रवाह चालू था। उत्तराध्ययन के चार अध्ययनों (6,12,14,25) में उसकी चर्चा हुई है। भृगु पुत्रों ने जो कहा, वह लगभग वही है जो ऋषि कावषेय ने कहा था। भृगु ने कहा-"पुत्रो ! पहले वेदों का अध्ययन करो, फिर आरण्यक मुनि हो जाना।"४ तब वे बोले-"पिता ! वेद पढ़ लेने पर भी वे त्राण नहीं होते / "5 इस उत्तर के पीछे जो भावना है, उसका सम्बन्ध कामना और यज्ञ से है। वेद कामना-पूर्ति और यज्ञों के प्रतिपादक हैं, इसीलिए वे त्राण नहीं हैं। इस अत्राणता का विशद वर्णन प्रजापति मनु और वृहस्पति के संवाद में मिलता है। मनु ने कहा-"वेद में जो कर्मों के प्रयोग बताए गए हैं, वे प्रायः सकामभाव ये युक्त हैं / जो इन कामनाओं से मुक्त होता है, वही परमात्मा को पा सकता है। नाना प्रकार के कर्म-मार्ग में सुख की इच्छा रख कर प्रवृत्त होने वाला मनुष्य परमात्मा को प्राप्त नहीं होता।"६ . उत्तराध्ययन से यह भी पता चलता है कि उस समय निर्ग्रन्थ श्रमण यज्ञ के बाडों में १-शतपथ ब्राह्मण, 10 / 5 / 4 / 16 / २-ऐतरेय आरण्यक, 3 / 2 / 6, पृ०.२६६ : एतद्ध स्म वै तद्विद्वांस आहु ऋषयः कावषेयाः किमर्था वयमध्येष्यामहे किमर्था वयं यक्ष्यामहे वाचि हि प्राणं जुहुमः प्राणे वा वाचं यो ह्य व प्रभवः स एवाप्ययः इति। ३-मुण्डकोपनिषद्, 1127 / ४-उत्तराध्ययन, 14 / 9 / ५-वही, 14 / 12 / ६-महाभारत, शान्तिपर्व 201 / 12 / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन भिक्षा के लिए जाते थे और यज्ञ की व्यर्थता और आत्मिक-यज्ञ की सफलता का प्रतिपादन करते थे। महात्मा बुद्ध ने भी अल्प सामग्री के महान् यज्ञ का प्रतिपादन किया था और वे भिक्षु-संघ के साथ भोजन के लिए यज्ञ-मण्डल में भी गए थे। कूटदंत ब्राह्मण के प्रश्न का उत्तर देते हुये उन्होंने पाँच महाफलदायी यज्ञों का उल्लेख किया था (1) दान यज्ञ (2) त्रिशरण यज्ञ (3) शिक्षापद यज्ञ (4) शील यज्ञ (5) समाघि यज्ञ सांख्य-दर्शन को अवैदिक-परम्परा या श्रमण-परम्परा की श्रेणि में मानने का यह एक बहुत बड़ा आधार है कि वह यज्ञ का प्रतिरोधी था। यज्ञ का प्रतिरोधक वैदिक-मार्ग नहीं हो सकता। अतः उपनिषद् की धारा में जो यज्ञ-प्रतिरोध हुआ, उसे अवैदिक-परम्परा के विचारों की परिणति कहना अधिक संगत है। जाति की अतात्त्विकता वैदिक लोग जाति को तात्त्विक मानते थे। ऋग्वेद के अनुसार ब्राह्मण प्रजापति के मुख से उत्पन्न हुआ, राजन्य उसको बाहु से उत्पन्न हुआ, वैश्य उसके ऊरु से उत्पन्न हुआ और शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ। श्रमण-परम्परा जाति को अतात्त्विक मानती थी। ब्राह्मण जन्मना जाति के समर्थक थे। उस स्थिति में श्रमण इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते कि जाति कर्मणा होती है। महात्मा बुद्ध मनुष्य जाति की एकता का प्रतिपादन बहुत प्रभावशाली पद्धति से करते थे। वासेट्ठ और भारद्वाज विवाद का परिसमापन करते हुए उन्होंने कहा___"मैं क्रमशः यथार्थ रूप से प्राणियों के जाति-भेद को बताता हूँ। जिससे भिन्न-भिन्न जातियाँ होती हैं। तृण वृक्षों को जानो यद्यपि वे इस बात का दावा नहीं करते, फिर भी उनमें जातिमय लक्षण हैं, जिससे भिन्न-भिन्न जातियाँ होती हैं। १-उत्तराध्ययन, 12 / 38-44,2515-16 / २-दीघनिकाय, 115, पृ० 53-55 / ३-ऋग्वेद, मं० 10, अ० 7, सू० 91, मं० 12 / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु 46 कीटों, पतंगों और चीटियों तक में जातिमय लक्षण हैं, जिससे उनमें भिन्न-भिन्न जातियाँ होती हैं। छोटे, बड़े जानवरों को भी जानो, उनमें भी जातिमय लक्षण हैं ( जिससे ) भिन्नभिन्न जातियाँ होती हैं। फिर पानी में रहने वाली जलचर मछलियों को भी जानो, उनमें भी जातिमय लक्षण हैं, (जिनसे) भिन्न-भिन्न जातियाँ होती हैं। ____ आकाश में पंखों द्वारा उड़ने वाले पक्षियों को भी जानो, उनमें भी जातिमय लक्षण हैं, ( जिससे ) भिन्न-भिन्न जातियाँ होती हैं। जिस प्रकार इन जातियों में भिन्न-भिन्न जातिमय लक्षण हैं, उस प्रकार मनुष्यों में भिन्न-भिन्न जातिमय लक्षण नहीं हैं / दूसरी जातियों की तरह न तो मनुष्यों के केशों में, न शिर में, न कानों में, न आँखों में, न नाक में, न ओठों में, न भौंहों में, न गले में, न अंगों में, न पेट में, न पीठ में, न पादों में, न अंगुलियों में, न नखों में, न जंघों में, न उरुओं में, न श्रेणि में, न उर में, न योनि में, न मैथुन में, न हाथों में, न वर्ण में और न स्वर में जातिमय लक्षण हैं। (प्राणियों की) भिन्नता शरीरों में है, मनुष्य में वैसा नहीं है। मनुष्यों में भिन्नता नाम मात्र की है। बासेठ ! मनुष्यों में जो कोई गौ-रक्षा से जीविका करता है, उसे कृषक जानो न कि ब्राह्मण / वासेठ ! मनुष्यों में जो कोई नाना शिल्पों से जीविका करता है, उसे शिल्पी जानो न कि ब्राह्मण / . . वासेठ ! मनुष्यों में जो कोई व्यापार से जीविका करता है, उसे बनिया जानो न कि. ब्राह्मण। वासेठ ! मनुष्यों में जो कोई चोरी से जीविका करता है, उसे चोर जानो न कि ब्राह्मण / वासेठ ! मनुष्यों में जो कोई धनुर्विद्या से जीविका करता है, उसे योद्धा जानो न . कि ब्राह्मण। . वासेठ ! मनुष्यों में जो कोई पुरोहिताई से जोविका करता है, उसे पुरोहित जानो न कि ब्राह्मण / __वासेठ ! मनुष्यों में जो कोई ग्राम या राष्ट्र का उपभोग करता है, उसे राजा जानो न कि ब्राह्मण / . ब्राह्मणी माता की योनि से उत्पन्न होने से ही मैं (किसी को) ब्राह्मण नहीं कहता। जो सम्पत्तिशाली है (वह) धनी कहलाता है, जो अकिंचन है, तृष्णा रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___जो रस्सी रूपी क्रोध को, प्रग्रह रूपी तृष्णा को, मुँह पर के जाल रूपी मिथ्या धारणाओं को और जुआ रूपी अविद्या को तोड़ कर बुद्ध हुआ है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो कटुवचन, वध और बन्धन को बिना द्वेष के सह लेता है, क्षमाशील-क्षमा ही जिसकी सेना और बल है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। पानी में लिप्त न होने वाले कमल की तरह और आरे की नोक पर न टिकने वाले सरसों के दाने की तरह जो विषयों में लिप्त नहीं होता, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। __जो गृहस्थ, प्रवजित दोनों से अलग है, जो बेघर हो विहरण करता है, जिसकी आवश्यकताएं थोड़ी हैं, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो स्थावर और जंगम सब प्राणियों के प्रति दण्ड का त्याग कर न तो स्वयं उनका वध करता है और न दूसरों से (वध) कराता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो विरोधियों में अविरोध रहता है, हिंसकों में शान्त रहता है और आसक्तों में अनासक्त रहता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ / / आरे की नोक पर न टिकने वाले सरसों के दाने की तरह जिसके राग, द्वेष, अभिमान आदि छूट गए हैं, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो अकर्कश, ज्ञानकारी–सत्य बात बोलता है, जिससे किसी को चोट नहीं पहुँचती, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो संसार में लम्बी या छोटी, पतली या मोटी, अच्छी या बुरी किसी चीज की चोरी नहीं करता, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जिसे इस लोक या परलोक के विषय में तृष्णा नहीं रहती, जो तृष्णा-रहित, आसक्तिरहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो आसक्ति-रहित है, ज्ञान के कारण संशय-रहित हो गया है और अमृत (निर्वाण) को प्राप्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो दोनों-पुण्य और पाप की आसक्तियों से परे है, शोक-रहित, रज-रहित है उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो इस संकटमय, दुर्गम संसार रूपी मोह से परे हो गया है, जो उसे तैर कर पार कर गया है, जो ध्यानी है, जो पाप-रहित है, संशय-रहित है, तृष्णा-रहित हो शान्त हो गया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। .. जो विषयों को त्याग बेघर हो प्रवजित हुआ है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। ____ जो तृष्णा को त्याग बेघर हो प्रव्रजित हुआ है, जो तृष्णा-क्षीण है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 51 __ जो रति और अरति को त्याग, शान्त और बन्धन-रहित हो गया है, जो सारे संसार का विजेता और वीर है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जिसने सर्व प्रकार से प्राणियों की मृत्यु और जन्म को जान लिया है, जो अनासक्त है, सुगत है और बुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जिसकी गति को देवता, गन्धर्व और मनुष्य नहीं जानते, जो वासना-क्षीण और अर्हन्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। __जिसको भूत, वर्तमान या भविष्य में किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रहती, जो परिग्रह और आसक्ति-रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो श्रेष्ठ, उत्तम, वीर, महर्षि, विजेता, स्थिर, स्नातक और बुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जिसने पूर्व जन्म के विषय में जान लिया है, जो स्वर्ग और नरक दोनों को देखता है और जो जन्म क्षय को प्राप्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। संसार के नाम-गोत्र कल्पित हैं और व्यवहार मात्र हैं। एक-एक के लिए कल्पित ये नाम-गोत्र व्यवहार से चले आए हैं। मिथ्याधारणा वाले अज्ञों (के मन) में ये ( नाम ) घर कर गए हैं / (इसीलिए) अज्ञ लोग हमें कहते हैं कि ब्राह्मण जन्म से होता है। ___न (कोई) जन्म से ब्राह्मण होता है और न जन्म से अब्राह्मण / ब्राह्मण कर्म से होता है और अब्राह्मण भी कर्म से / कृषक कर्म से होता है, शिल्पी भी कर्म से होता है, वणिक कर्म से होता है (और) सेवक भी कर्म से। .. चोर भी कर्म से होता है, योद्धा भी कर्म से होता है, याजक भी कर्म से होता है (और) राजा भी कर्म से होता है।"१ ___- उत्तराध्ययन में हरिकेशबल और जयघोष के-ये दो प्रसंग हैं, जो भगवान् महावीर के जातिवाद सम्बन्धी दृष्टिकोण पर पूरा प्रकाश डालते हैं। हरिकेशबल जन्मना चाण्डाल जाति के थे और जयघोष जन्मना ब्राह्मण थे। वे दोनों यज्ञ-मण्डप में गए और उन्होंने जातिवाद को बहुत स्पष्ट आलोचना की। वे दोनों प्रसंग वाराणसी में ही घटित हुए। . (1) हरिकेशबल को यज्ञ-मण्डप में आते देख जातिमद से मत्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और अज्ञानी ब्राह्मणों ने परस्पर इस प्रकार कहा-"बीभत्स रूप वाला, काला, विकराल और बड़ी नाक वाला, अधनंगा, पांशु-पिशाच (चुडैल)-सा, गले में शंकरदृष्य (उकुरडी से उठाया हुआ चिथड़ा) डाले हुए वह कौन आ रहा है ? १-सुत्तनिपात, वासेट्ठसुत्त। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ "ओ अदर्शनीय मूर्ति ! तुम कौन हो ? किस आशा से यहाँ आए हो ? अधनंगे तुम पांशु-पिशाच (चुडैल) से लग रहे हो। जाओ, आँखों से परे चले जाओ। यहाँ क्यों खड़े हो ?" उस समय महामुनि हरिकेशबल की अनुकम्पा करने वाला तिंदुक वृक्ष का वासी यक्ष अपने शरीर का गोपन कर मुनि के शरीर में प्रवेश कर इस प्रकार बोला- "आपके यहाँ पर बहुत-सा भोजन दिया जा रहा है, खाया जा रहा है और भोगा जा रहा है। मैं भिक्षाजीवी हूँ, यह आपको ज्ञात होना चाहिए / अच्छा ही है कुछ बचा भोजन इस तपस्वी को मिल जाए।” (सोमदेव)—'यहाँ जो ब्राह्मणों के लिए भोजन बना है, वह केवल उन्हीं के लिए बना है / वह एक-पाक्षिक है-अब्राह्मण को अदेय है। ऐसा अन्न-पान हम तुम्हें नहीं देंगे, फिर यहाँ क्यों खड़े हो ?" (यक्ष)-"अच्छी उपज की आशा से किसान जैसे स्थल (ऊँची भूमि) में बीज बोते हैं, वैसे ही नीची भूमि में बीज बोते हैं। इसी श्रद्धा से (अपने आपको निम्न भूमि और मुझे स्थल तुल्य मानते हुए भी तुम ) मुझे दान दो। पुण्य की आराधना करो। यह क्षेत्र है, बीज खाली नहीं जाएगा।" (सोमदेव)—“जहाँ बोए हुए सारे के सारे बीज उग जाते हैं, वे क्षेत्र इस लोक में हमें ज्ञात हैं / जो ब्राह्मण जाति और विद्या से युक्त हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं।' (यक्ष)-"जिनके क्रोध है, मान है, हिंसा है, झूठ है, चोरी है और अपरिग्रह है-- वे ब्राह्मण जाति-विहीन, विद्या-हीन और पाप-क्षेत्र हैं। ___"हे ब्राह्मणो ! इस संसार में केवल तुम वाणी का भार ढो रहे हो। वेदों को पढ़ कर भी उनका अर्थ नहीं जानते। जो मुनि उच्च और नीच घरों में भिक्षा के लिए जाते हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं।" __ (सोमदेव)- "ओ ! अध्यापकों के प्रतिकूल बोलने वाले साधु ! हमारे समक्ष तू क्या अधिक बोल रहा है ? हे निर्ग्रन्थ ! यह अन्न-पान भले ही सड़ कर नष्ट हो जाए किन्तु तुझे नहीं देंगे।" __(यक्ष)-"मैं समितियों से समाहित, गुप्तियों से गुप्त और जितेन्द्रिय हूँ। यह एषणीय (विशुद्ध) आहार यदि तुम मुझे नहीं दोगे, तो इन यज्ञों का आज तुम्हें क्या लाभ होगा ?" (सोमदेव)-“यहाँ कौन है क्षत्रिय, रसोइया, अध्यापक या छात्र, जो डण्डे और फल से पीट कर, गल-हत्था देकर इस निर्ग्रन्थ को यहाँ से बाहर निकाले।" __ अध्यापकों के विचार सुन कर बहुत कुमार उधर दौड़े और डण्डों, बेतों और चाबुकों से उस ऋषि को पीटने लगे। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु 53 कोशल के राजा की भद्रा नामक सुन्दर पुत्री यज्ञ-मण्डप में मुनि को प्रताड़ित हुए देख क्रुद्ध कुमारों को शान्त करने लगी। उसने कहा___ "राजाओं और इन्द्रों से पूजित यह वह ऋषि है, जिसने मेरा त्याग किया। देवता के अभियोग से प्रेरित होकर राजा द्वारा मैं दी गई, किन्तु जिसने मुझे मन से भी नहीं चाहा। 'यह वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी है, जिसने मुझे मेरे पिता राजा कौशलिक द्वारा दिये जाने पर भी नहीं चाहा / ___"यह महान् यशस्वी है / महान् अनुभाग (अचिन्त्य-शक्ति) से सम्पन्न है / घोर व्रती है, घोर पराक्रमी है / इसकी अवहेलना मत करो, यह अवहेलनीय नहीं है / कहीं यह अपने तेज से तुम्हें भस्मसात् न कर डाले।" सोमदेव पुरोहित की पत्नी भद्रा के सुभाषित वचनों को सुन कर यक्षों ने ऋषि का वयावृत्त्य (परिचर्या) करने के लिए कुमारों को भूमि पर गिरा दिया। वे घोर रूप वाले यक्ष आकाश में स्थिर होकर उन छात्रों को मारने लगे। उनके शरीर को क्षत-विक्षत और उन्हें रुधिर का वमन करते देख भद्रा फिर कहने लगी___ "जो इस भिक्षु का अपमान कर रहे हैं, वे नखों से पर्वत को खोद रहे हैं, दाँतों से लोहे को चबा रहे हैं, पैरों से अग्नि को प्रताड़ित कर रहे हैं / "यह महर्षि आशीविष-लब्धि से सम्पन्न है। उग्र तपस्वी है। घोर व्रती और घोर पराक्रमी है। भिक्षा के समय जो भिक्षु का वध कर रहे हैं, वे पतंग-सेना की भाँति अग्नि में झंपापात कर रहे हैं। ___"यदि तुम जीवन और धन चाहते हो तो सब मिल कर, सिर झुका कर इस मुनि की शरण में आओ / कुपित होने पर यह समूचे संसार को भस्म कर सकता है।" उन छात्रों के सिर पीठ की ओर भुक गए / भुजाएं फैल गई। वे निष्क्रिय हो गए। उनकी आँख खुली की खुली रह गई। उनके मुँह से रुधिर निकलने लगा। उनके मुँह ऊार को हो गए। उनकी जीभ और नेत्र बाहिर निकल आए। उन छात्रों को काठ की तरह निश्चेष्ट देख कर वह सोमदेव ब्राह्मण उदास और घबराया हुआ अपनी पत्नी-सहित मुनि के पास आ उन्हें प्रसन्न करने लगा "भन्ते ! हमने जो अवहेलना और निन्दा की उसे क्षमा करें।" "भन्ते ! मूढ़ बालकों ने अज्ञानवश जो आपकी अवहेलना की, उसे आप क्षमा करें। ऋषि महान् प्रसन्नचित्त होते हैं / मुनि कोप नहीं किया करते।" मुनि ने कहा- "मेरे मन में प्रद्वेष न पहले था, न अभी है और न आगे भी होगा। किन्तु यक्ष मेरा वैयावृत्त्य कर रहे हैं / इसीलिए ये कुमार प्रताड़ित हुए।" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 4 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __ (सोमदेव)-"अर्थ और धर्म को जानने वाले भूति-प्रज्ञ (मंगल-प्रज्ञा युक्त) आप कोप नहीं करते / इसलिए हम सब मिल कर आपके चरणों की शरण ले रहे हैं। . ___"महाभाग ! हम आपकी अर्चा करते हैं। आपका कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसकी हम अर्चा न करें। आप नाना व्यंजनों से युक्त चावल-निष्पन्न भोजन लेकर खाइए। ___"मेरे यहाँ यह प्रचुर भोजन पड़ा है। हमें अनुगृहीत करने के लिए आप कुछ खाएँ।" ___ महात्मा हरिकेशबल ने हाँ भर ली और एक मास की तपस्या का पारणा करने के लिए भक्त-पान लिया। ___ देवों ने वहाँ सुगन्धित जल, पुष्प और दिव्य-धन की वर्षा की। आकाश से दुंदुभि बजाई और 'अहो दानं' (आश्चर्यकारी दान)- इस प्रकार का घोष किया। यह प्रत्यक्ष ही तप की महिमा दीख रही है, जाति की कोई महिमा नहीं है। जिसकी ऋद्धि ऐसी महान् (अचिन्त्य शक्ति-सम्पन्न) है, वह हरिकेश मुनि चाण्डाल का पुत्र है। (2) निर्ग्रन्थ जयघोष अपने भाई विजयघोष के यज्ञ-मण्डप में गए। यज्ञ-कर्ता ने वहाँ उपस्थित हुए मुनि को निषेध को भाषा में कहा--- "भिक्षो ! तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा और कहीं याचना करो। "हे भिक्षो ! यह सबके लिए अभिलषित भोजन उन्हीं को देना है, जो वेदों को जानने वाले विप्र हैं, यज्ञ के लिए जो द्विज हैं, जो वेद के ज्योतिष आदि छहों अंगों को जानने वाले हैं, जो धर्मशास्त्रों के पारगामी हैं, जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं।" ___ वह उत्तम अर्थ की गवेषणा करने वाला महामुनि वहाँ यज्ञ-कर्ता के द्वारा प्रतिषेध किए जाने पर न रुष्ट ही हुआ और न तुष्ट ही। ___ न अन्न के लिए, न जल के लिए और न किसी जीवन-निर्वाह के साधन के लिए किन्तु उनकी विमुक्ति के लिए मुनि ने इस प्रकार कहा __"तू वेद के मुख को नहीं जानता है, यज्ञ का जो मुख है उसे नहीं जानता है, नक्षत्र का जो मुख है और धर्म का जो मुख है, उसे भी नहीं जानता है। जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ है, उसे तू नहीं जानता। यदि तू जानता है तो बता" मुनि के प्रश्न का उत्तर देने में अपने को असमर्थ पाते हुए द्विज ने परिषद्-सहित हाथ जोड़ कर उस महामुनि से पूछा- "तुम कहो वेदों का मुख क्या है ? यज्ञ का जो १-उत्तराध्ययन, 12 // 5-37 / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 55 मुख है, वह तुम्हीं बतलाओ / तुम कहो नक्षत्रों का मुख क्या है ? धर्मों का मुख क्या है, तुम्हीं बताओ। ___"जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं ( उनके विषय में तुम्हीं कहो ) / हे साध ! यह मुझे सारा संशय हैं, तुम मेरे प्रश्नों का समाधान दो।" ___ "वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है और धर्मों का मुख काश्यप ऋषभदेव हैं।" ____ "जिस प्रकार चन्द्रमा के सम्मुख गृह आदि हाथ जोड़े हुए, वंदना नमस्कार करते हुए और विनीत भाव से मन का हरण करते हुए रहते हैं उसी प्रकार भगवान् ऋषभ के सम्मुख सब लोग रहते थे।" ___“जो यज्ञवादी हैं, वे ब्राह्मण की सम्पदा से अनभिज्ञ हैं / वे बाहर में स्वाध्याय और तपस्या से उसी प्रकार ढंके हुए हैं, जिस प्रकार अग्नि राख से ढंकी हुई होती है। __ "जिसे कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है, जो अग्नि की भाँति सदा लोक में पूजित हैं, उन्हें हम कुशल पुरुष द्वारा कहा हुआ ब्राह्मण कहते हैं / "जो आने पर आसक्त नहीं होता, जाने के समय शोक नहीं करता, जो आर्य-वचन में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते है / ____ "अग्नि में तपा कर शुद्ध किए हुए और घिसे हुए सोने की तरह जो विशुद्ध है तथा राग-द्वेष और भय से रहित है / उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। ___ "जो त्रस और स्थावर जीवों को भली-भाँति जान कर मन, वाणी और शरीर से उनकी हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं / " .: "जो क्रोध, हास्य, लोभ या भय के कारण असत्य नहीं बोलता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। __ "जो सचित्त या अचित्त-कोई भी पदार्थ, थोड़ा या अधिक, कितना ही क्यों न हो, उसके अधिकारी के दिए बिना नहीं लेता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं / ___ "जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं / ___ "जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार कामभोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उनसे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण . कहते हैं। __"जो लोलुप नहीं है, जो निर्दोष भिक्षा से जीवन का निर्वाह करता है, जो गृहत्यागी हैं, जो अकिंचन है, जो गृहस्थों में अनासक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। .. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___"जिनके शिक्षा-पद, पशुओं को बलि के लिए यज्ञ के खम्भे में बाँधे जाने के हेतु बनते हैं, वे सब वेद और पशु-बलि आदि पाप-कर्म के द्वारा किए जाने वाले यज्ञ दुराचारसम्पन्न उस यज्ञकर्ता को त्राण नहीं देते, क्योंकि कर्म बलवान् होते हैं। "केवल सिर-मूंड लेने से कोई श्रमण नहीं होता, 'ओम्' का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर . पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता। ___ "समभाव की साधना करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की आराधना-मनन करने से मुनि होता है, तप का आचरण करने से तापस होता है। "मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है। ____ "इन तत्त्वों को अर्हत् ने प्रकट किया है। इनके द्वारा जो मनुष्य स्नातक होता है, जो सब कर्मों से मुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। इस प्रकार जो गुण-सम्पन्न द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ है।" ___ इस प्रकार संशय दूर होने पर विजयघोष ब्राह्मण ने जयघोष की वाणी को भलीभाँति समझा और सन्तुष्ट हो, हाथ जोड़ कर उसने महामुनि जयघोष से इस प्रकार कहा-- - "तुमने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा अर्थ समझाया है / "तुम यज्ञों के यज्ञकर्ता हो, तुम वेदों को जानने वाले विद्वान् हो, तुम वेद के ज्योतिष आदि छहों अंगों के विद्वान् हो, तुम धर्मों के पारगामी हो। ___ "तुम अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हो, इसलिए हे भिक्षु-श्रेष्ठ ! तुम हम पर भिक्षा लेने का अनुग्रह करो।" (मुनि)-- "मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं है। हे द्विज ! तू तुरन्त ही निष्क्रमण कर-मुनि-जीवन को स्वीकार कर, जिससे भय के आवर्तों से आकीर्ण इस घोर संसारसागर में तुझे चक्कर लगाना न पड़े।"" श्रमण-संस्कृति के कर्मणा-जाति के सिद्धान्त ने वैदिक-ऋषियों को भी प्रभावित किया और महाभारत एवं पुराण काल में कर्मणा-जाति के सिद्धान्त का प्रतिपादन होने लगा। महाभारत में ब्राह्मण के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं "जो सदा अपने सर्व व्यापी रूप से स्थित होने के कारण अकेले ही सम्पूर्ण आकाश में परिपूर्ण-सा हो रहा है तथा जो असंग होने के कारण लोगों से भरे हुए स्थान को मी सूना समझता है, उसे ही देवता लोग ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) मानते हैं। १-उत्तराध्ययन, 25 // 6-38 / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 57 "जो सब प्रकार को आसक्तियों से छूट कर मुनि वृत्ति से रहता है, आकाश की भाँति निर्लेप और स्थिर है, किसी भी वस्तु को अपनी नहीं मानता, एकाकी विचरता और शान्त-भाव से रहता है, उसे देवता ब्रह्मवेत्ता मानते हैं / ___ "जिसका जीवन धर्म के लिए और धर्म भगवान् श्रीहरि के लिए होता है, जिसके दिन और रात धर्म-पालन में ही व्यतीत होते हैं, उसे देवता ब्रह्मज्ञ मानते हैं। ___ "जो कामनाओं से रहित तथा सब प्रकार के आरंभों से रहित है, नमस्कार और स्तुति से दूर रहता तथा सब प्रकार के बंधनों से मुक्त होता है, उसे ही देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं।" ब्रह्मपुराण के अनुसार शूद्र ब्राह्मण बन जाता है और वैश्य क्षत्रिय हो जाता है / वज्रसूचिकोपनिषद् एवं भविष्यपुराण में भी जातिवाद की आलोचना मिलती है, किन्तु यह दृष्टिकोण वैदिक-संस्कृति की आत्मा में परिपूर्ण रूप से व्याप्त नहीं हो सका। समत्व की भावना व अहिंसा समत्व श्रमण-परम्परा की एकता का मौलिक हेतु है / श्रमण शब्द बहुत प्रचलित रहा है, इसीलिए इस समताप्रधान संस्कृति को 'श्रमण-संस्कृति' कहा जाता है। हमने भी स्थान-स्थान पर श्रमण शब्द का प्रयोग किया है। किन्तु वास्तविक दृष्टि से इसका नाम 'समग-संस्कृति' है। 'समण' शब्द 'सम' शब्द से व्युत्पन्न हैं- "सममणई तेण सो समणो"-जो सब जीवों को तुल्य मानता है, वह 'समण' है / 'जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं, उसी प्रकार सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है'-इस समता की दृष्टि से जो किसी भी प्राणी का वध न करता है, न करवाता है, वह अपनी समगति के कारण 'समण' कहलाता है जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं / न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो // 3 जिसका मन सम होता है, वह समण है। जिसके लिए कोई भी जीव न द्वेषी होता .है और न प्रिय, वह अपनी सम मनःस्थिति के कारण 'समण' कहलाता है-- . नत्थि य सि कोइ वेसो पिओ व सम्वेस चेव जीवेस। एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पजाओ // 4 १-महाभारत, शान्तिपर्व, 245 / 11-14, 22-24 / २-ब्रह्मपुराण, 223 / 32 / ३--दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 154 / ४-वही, गाथा 155 / Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ____ जो विभिन्न विशेषताओं की दृष्टि से सर्प, पर्वत, अग्नि, समुद्र, आकाश, वृक्ष, श्रमर, हरिण, भूमि, कमल, सूर्य और पवन के समान होता है, वह 'समण' है। समण वह होता है, जो स्वजन वर्ग और अन्य लोगों में तथा मान और अपमान में सम होता है तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु // उरगगिरिजलणसागरनहयलतरुगणसमो य जो होई।. भमरमिगधरणिजलरुहरविपवणसमो जो समणो // ' इस समत्व के आधार पर हो यह कहा गया कि सिर मुण्डा लेने मात्र से कोई समण नहीं होता, किन्तु समण समता से होता है / 2 श्रमण शब्द का अर्थ तपस्वी भी होता है। सूत्रकृतांग के एक ही श्लोक में समण और तपस्वी का एक साथ प्रयोग है / यदि समण का अर्थ तपस्वी हो होता तो समण और तपस्वी इन दोनों का एक साथ प्रयोग आवश्यक नहीं होता। उसी सूत्र में समण के समभाव की विभिन्न रूपों में व्याख्या हुई है। विषमता का एक रूप मद है। इसीलिए कहा है मुनि गोत्र, कुल आदि का मद न करें, दूसरों से घृणा न करें, किन्तु सम रहें / 4 जो दूसरों का तिरस्कार करता है, वह चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है, इसीलिए मुनि मद न करे, किन्तु सम रहे / 5 चक्रवर्ती भी दीक्षित होने पर पूर्व-दीक्षित अपने सेवक के.सेवक को भी वंदना करने में संकोच न करे, किन्तु समता का आचरण करे / 6 प्रज्ञा-सम्पन्न मुनि क्रोध आदि कषायों पर विजय प्राप्त करे और समता-धर्म का निरूपण करे—'पण्णसमत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी' इस प्रकार अनेक स्थलों में समण के साथ समता का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। १-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 156-157 / २-उत्तराध्ययन, 25 // 29-30 / ३-सूत्रकृतांग, 112 / 1 / 16 / ४-वही, 1 / 2 / 2 / 1 / ५-वही, 22 / 2 / 2 / ६-वही, 112 / 2 / 3 / ७-वही, 1 / 2 / 2 / 6 / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 56 बौद्ध-साहित्य में समता को महवत्त्पूर्ण स्थान दिया गया है। किन्तु समण शब्द उससे व्युत्पन्न है, ऐसा कोई स्थल हमें उपलब्ध नहीं हुआ। फिर भी श्रमण शब्द की जो व्याख्या है, उससे उसकी समभावपूर्ण स्थिति का ही बोध होता है / सभिय परिव्राजक के प्रश्न पर भगवान् बुद्ध ने कहा-- समितावि पहाय पुञ्जपापं, विरजो जत्वा इमं परं च लोकं / जातिमरणं उपातिवत्तो, समणो तादि पवुच्चते तथता // 1 -जो पुण्य और पाप को दूर कर शान्त हो गया है, इस लोक और परलोक को जान कर रज-रहित हो गया है, जो जन्म के परे हो गया है, स्थिर, स्थितात्मा वह 'श्रमण' कहलाता है। समण का सम्बन्ध शम (उपशम) से भी है। जो छोटे-बड़े पापों को सर्वथा शमन करने वाला है, वह पाप के शमित होने के कारण श्रमण कहा जाता है / समता के आधार पर ही भिक्षु-संघ में सब वर्गों के मनुष्य दीक्षित होते थे / भगवान् बुद्ध ने श्रमण की उत्पत्ति बतलाते हुए कहा था "वाशिष्ठ ! एक समय था जब क्षत्रिय भी-'मैं श्रमण होऊंगा' (सोच) अपने धर्म को निंदते घर से बेघर हो प्रव्रजित हो जाता था। ब्राह्मण भी०। वैश्य भी०। शूद्र भी० / "वाशिष्ठ ! इन्हीं चार मण्डलों से श्रमण-मण्डल की उत्पत्ति हुई / उन्हीं प्राणियों का दूसरों का नहीं, धर्म से अधर्म नहीं / धर्म ही मनुष्यों में श्रेष्ठ है, इस जन्म में भी और पर-जन्म में भी।"3 .... उत्तराध्ययन के प्रमुख पात्रों में चारों वर्गों से दीक्षित मुनि थे। नमि राजर्षि, संजय, मृगापुत्र आदि क्षत्रिय थे। कपिल, जयघोष, विजयघोष, भृगु आदि ब्राह्मण थे / अनाथी, समुद्रपाल आदि वैश्य थे / हरिकेशबल, चित्रसंभूत आदि चाण्डाल थे। . श्रमणों की यह समता अहिंसा पर आधारित थी। इस प्रकार समता और अहिंसाये दोनों तत्त्व संमण (या श्रमण) संस्कृति के मूल बीज थे। १-सुत्तनिपात, 32 // 11 // २-धम्मपद, धम्मट्टवग्ग 19 : यो च समेति पापानि, अणुं थूलानि सब्बसो। समितत्ता हि पापानं, समणो त्ति पवुच्चति // ३-दीघनिकाय, 3 / 3, पृ० 245 / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : तीसरा श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठभूमि पहले दो प्रकरणों में हम श्रमण और वैदिक-परम्परा के स्वतंत्र अस्तित्व, उनके विचारभेद और श्रमण-परम्परा की एकता के हेतुभूत सूत्रों का अध्ययन कर चुके हैं। प्रस्तुत प्रकरण में हम कुछ ऐसे तथ्यों का अध्ययन करेंगे, जो श्रमण और वैदिक-परम्परा को विभक्त तो करते हैं, किन्तु सर्वथा नहीं। वे श्रमणों की एकसूत्रता के हेतु तो हैं, किन्तु सर्वथा नहीं। पहले प्रकरण में निर्दिष्ट सात हेतु श्रमण और वैदिक-परम्परा के विभाजन में तथा श्रमणों की एकसूत्रता में जैसे पूर्णरूपेण व्याप्त है, वैसे इस प्रकरण में बताए जाने वाले हेतु पूर्णत: व्याप्त नहीं है। फिर भी उनके द्वारा श्रमण तथा वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि को समझने में प्राप्त सहायता मिलती है, इसलिए उनके विषय में चर्चा करना आवश्यक है और सच तो यह है कि उनकी विशद् चर्चा के बिना हम उत्तराध्ययन के हृदय का स्पर्श भी नहीं कर पाएंगे / हमारे सामने आलोच्य विषय हैं १-दान २-स्नान ३-कर्तृवाद ४-आत्मा परलोक ५-स्वर्ग और नरक ६-निर्वाण १-दान तैत्तिरीयारण्यक' का एक प्रसंग है कि एक बार प्राजापत्य आरुणी अपने पिता प्रजापति के पास गया और उसने प्रजापति से पूछा कि महर्षि लोग मोक्ष-साधन के विषय में किस साधन को परम बतलाते हैं ? प्रजापति ने कहा (1) सत्य से पवन चलता है, सत्य से सूर्य प्रकाश करता है, सत्य वाणी की प्रतिष्ठा है, सत्य में सर्व प्रतिष्ठित है, इसलिए कुछ ऋषि सत्य (सत्य वचन) को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। १-तत्तिरीयारण्यक, 10 / 63, पृ० 767-771 / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठ-भूमि 61 (2) जो अग्नि आदि देवता हैं, वे तप से बने हैं / वाशिष्ठ आदि महर्षियों ने भी तप तपा और देवत्व को प्राप्त किया। हम लोग भी तप के द्वारा शत्रुओं को परास्त कर रहे हैं / तप में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि तप को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (3) दान्त पुरुष दम से अपने पापों का विनाश करते हैं। दम से ब्रह्मचारी स्वर्ग में गए। दम जीवों के लिए दूर्घर्ष-अपराजेय है। दम में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि दम को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (4) शान्त पुरुष शम के द्वारा शिव (मंगल पुरुषार्थ) का आचरण करते हैं। नारद आदि मुनि शम के द्वारा स्वर्ग में गए / शम जीवों के लिए दुर्धर्ष है / शम में सर्व प्रतिष्ठित हैं इसलिए कुछ ऋषि शम को परम-मोक्ष साधन बतलाते हैं / (5) दान (गौ, हिरण्य आदि का दान) यज्ञ की दक्षिणा होने के कारण श्रेष्ठ है / लोक में भी सब आदमी दाता के उपजीवी होते हैं / धन-दान से योद्धा शत्रुओं को परास्त करते हैं। दान से द्वेष करने वाले भी मित्र बन जाते हैं। दान में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि दान को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (6) धर्म ( तालाब, प्याऊ आदि बनाने रूप ) सर्व प्राणीजात की प्रतिष्ठा (आधार) है। लोक में भी धमिष्ठ पुरुष के पास जनता जाती है-धर्म, अधर्म का निर्णय लेती है। धर्म से पाप का विनाश होता है। धर्म में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि धर्म को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (7) प्रजनन (पुत्रोत्पादन) ही गृहस्थ की प्रतिष्ठा है। लोक में पुत्र रूपी धागे को विस्तृत बनाने वाला अपना पितृ-ऋण चुका पाता है। पुत्रोत्पादन ही उऋण होने का प्रमुख साधन है / इसलिए कुछ ऋषि प्रजनन को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। - (8) अग्नित्रय' ही त्रेयी-विद्या (वेद-त्रयी) है / वही देवत्व प्राप्ति का मार्ग है / गार्हपत्य नामक अग्नि ऋग्वेदात्मक है। वह पृथ्वी-लोक स्वरूप और रथन्तर सामरूप है / दक्षिणाग्नि से आहार का पाक होता है। वह यजुर्वेदात्मक, अन्तरिक्ष-लोक रूप और वामदेव्य सामरूप है। आह्वनीय अग्नि सामवेदात्मक स्वर्गलोक रूप और बृहत् सामरूप है, इसलिए कुछ ऋषि अग्नि को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। १-वैदिक कोश, पृ० 129 : वैदिक-यज्ञ के प्रमुख तीन अग्नियों में एक गार्हपत्य है। अथर्ववेद (6 / 6 / 30) के अनुसार "योऽतिथीनां स आहवनीयो, यो वेश्मनिसगार्हपत्य यस्मिन् पचति स दक्षिणाग्नि' अर्थात् अतिथियों के लिए प्रयुक्त अग्नि आहवनीय, गृह-यज्ञों में प्रयुक्त गार्हपत्य और पकाने का अग्नि दक्षिणाग्नि है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (8) अग्निहोत्र सायंकाल और प्रातःकाल में घरों का मूल्य है / अग्निहोत्र के अभाव में क्षुधित अग्नि घरों को जला डालती है इसलिए वह घरों का मूल्य है। अग्नि-होत्र अच्छा याज्ञ और अच्छा होना है। वह यज्ञ-क्रतु' का प्रारम्भ है। स्वर्गलोक की ज्योति है, इसलिए कुछ ऋषि अग्निहोत्र को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (10) यज्ञ देवों को प्रिय है। देवता पूर्वानुष्ठित यज्ञ के द्वारा स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं। वे यज्ञ के द्वारा ही असुरों का विनाश कर पाए हैं। ज्योतिष्टोम-यज्ञ. के द्वारा द्वेष करने वाले शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। यज्ञ में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि यज्ञ को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (11) मानसिक उपासना ही प्रजापति के पद की प्राप्ति का साधन है। इसीलिए वह चित्त-शुद्धि का कारण है। मानसिक उपासना से युक्त एकान मन से योगी लोग अतीत, अनागत और व्यवहृत वस्तुओं का साक्षात्कार करते हैं। मानसिक उपासना से युक्त एकाग्न मन वाले विश्वामित्र आदि ऋषियों ने संकल्प-मात्र से प्रजा का सृजन किया था। मानसिक आसना में सर्व प्रतिष्ठित हैं इसलिए कुछ ऋषि मानसिक उपासना को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (12) कुछ मनीषी लोग संन्यास को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। यह तिरसठवें अनुवाक का वर्णन है। बासठवें अनुवाक में भी इन बारह पर्वां का निरूपणहुआ है। उनके भाष्य में आचार्य सायण ने कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएं दी हैं-नैष्ठिक ब्रह्मचारी 'दम' को परम मान उसमें रमण करते हैं। आरण्यक मुनि वानप्रस्थ 'शम' को परम मान उसमें रमण करते हैं / वापी, कूप, तड़ाग आदि के निर्माणात्मक धर्म को राजा, मंत्री आदि परम मानते हैं। कुछ वेदार्थवादी अग्नि को परम मानते हैं / कुछ वेदार्थवादी अग्निहोत्र को परम मानते हैं / कुछ वेदार्थवादी यज्ञ को परम मानते हैं / सगुण ब्रह्मवादी मानसिक उपासना को परम मानते हैं। संन्यास हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के द्वारा परम रूप में अभिमत है। भाष्यकार ने आगे लिखा है कि ब्रह्मा पूर्वोक्त मतानुयायी लोगों की तरह १-तैत्तिरीयारण्यक, 10 / 63, सायण भाज्य, पृ० 770 : अग्न्याधेयमग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासावाग्रयणं चातुर्मास्यानि निरूढपशुबन्धः सौत्रामणीति सप्त हविर्यज्ञाः / क्रतुशब्दो यूपवत्सु सोमयागेषु रूढः / अग्निष्टोमोऽत्य ग्निष्टोम उक्थ्यः षोडशी वाजपेयोऽतिरात्रोप्तोर्यामश्चेति सप्त सोमसंस्थाः क्रतवः / तेषां सर्वेषां यज्ञक्रतूनां प्रारम्भक मग्निहोत्रम् / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठ-भूमि जीव नहीं है। यद्यपि हिरण्यगर्भ देहधारी है, फिर भी वह परमात्मा, ब्रह्म कहलाएगा। क्योंकि परमात्मा का शिष्य होने के कारण वह उसी के समान ज्ञानी है।' ये सब साधन वैदिक नहीं हैं, किन्तु यह आरण्यक-काल में प्रचलित साधनों का संग्रह है / इन बारह साधनों में आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ भाष्यकार के अनुसार निश्चित ही वैदिक है / छठा लौकिक है, पाँचवाँ और सातवाँ लौकिक भी है और वैदिक भी। पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा और ग्यारहवाँ आरण्यक सम्मत भी है और श्रामणिक (श्रमणों का) भी है। इन बारह साधनों में संन्यास सबसे उत्कृष्ट है। आचार्य सायण ने लिखा है कि पूर्वोक्त सत्य से लेकर मानस-उपासना तक के साधन तप हैं, फिर भी संन्यास की अपेक्षा वे अवर हैं--निकृष्ट हैं / यही बात तिरसठवें अनुवाक में कही गई है-'तस्मान्न्यासमेषां तपसामतिरिक्तमाहुः' / 5 आचार्य सायण ने लिखा है- "संन्यास परम पुरुषार्थ का अन्तरंग साधन है। इसलिए वह सत्य आदि तपों से अत्युत्कृष्ट है।" प्रजनन (सातवाँ), अग्नि (आठवाँ), अग्निहोत्र (नौवाँ) और यज्ञ (दसवाँ) ये श्रमणों द्वारा सम्मत नहीं हैं, इसकी संक्षिप्त चर्चा हम पहले प्रकरण में कर चुके हैं / संन्यास श्रमणों का सर्वोत्कृष्ट साधन है, यह भी बताया जा चुका है। 'घर में कान रहे' यह घोष वहीं हो सकता है, जहाँ संन्यास को सर्वोच्च साधन माना जाए। अब हम शेष साधनों पर विचार करना चाहेंगे। छद्म वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा- "राजर्षे ! पहले तुम विपुल यज्ञ करो, : श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराओ, दान दो फिर मुनि हो जाना।" १-तैत्तिरीयारण्यक, 10 // 62, सायण भाज्य, पृ० 766 : स च ब्रह्मा परो हि परमात्मरूपे हि / न तु पूवोक्तमतानुसारिण इव जीवः / यद्यप्यसौ हिरण्यगर्भो देहधारी तथापि परो हि परमात्मैव ब्रह्मा हिरण्यगर्भ इति वक्तुं शक्यते, तच्छिण्यत्वेन तत्समानज्ञानत्वात् / २-देखिये चौथा प्रकरण 'आत्म-विद्या क्षत्रियों की देन' शीर्षक / ३-तैत्तिरीयारण्यक, 10.62, पृ० 766 / ४-वही, 10 / 62, पृ० 766 : यानि पूर्वोक्तसत्यादीनि मानसान्तनि तान्येतानि तपांसि भवन्त्येन्व तथापि संन्यासमपेक्ष्यावराणि निकृष्टानि / ५-वही, 10 / 63, पृ० 774 / ६-वही, 10 // 63, पृ० 774 : यस्मात् परमपुरुषार्थस्यान्तरंग साधनं तस्मादेषां सत्यादीनां तपसां मध्ये संन्यास मतिरिक्त मत्युत्कृष्टं साधनं मनीषिण आहुः। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन नमि राजर्षि ने इसके उत्तर में कहा-"जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गाएँ देता है, उसके लिए भी संयम ही श्रेय है, भले फिर वह कुछ भी न दे।"१ इन्द्र ने तीन बातें कहीं और राजर्षि ने उनमें से सिर्फ एक ही बात (दान) का उत्तर दिया। शेष दो बातों का उत्तर उसी में समाहित कर दिया। उनकी ध्वनि यह है--"जो मनुष्य प्रतिदिन यज्ञ करता है, उसके लिए भी संयम श्रेय है, भले फिर वह कभी यज्ञ न करे। इसी प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराता है, उसके लिए संयम ही श्रेय है, भले फिर वह श्रमण-ब्राह्मणों को कभी भोजन न कराए। इन तीनों प्रसंगों का फलित यही है कि संयम सर्वोत्कृष्ट है। ___ यज्ञ सभी श्रमण-संघों के लिए इष्ट नहीं रहा है। गायों व स्वर्ण आदि का दान भी उनमें परम मोक्ष-साधन के रूप में स्वीकृत नहीं रहा है। निर्ग्रन्थ श्रमणों ने तो उस पर तीव्र प्रहार किया था। ____ "ब्राह्मणों को भोजन कराने पर वे रौरव (नरक) में ले जाते हैं"3-भृगु पुत्रों ने यह जो कहा उसका तात्पर्य ब्राह्मणों की निन्दा करना नहीं, किन्तु उस सिद्धान्त की तीखी समालोचना करना है जो जन्मना जाति के आधार पर विकसित हुआ था। जैन-साहित्य में उक्त दान और धर्म एक दान शब्द के द्वारा ही निरूपित हैं। सूत्रकृतांग में कहा है 4 -"जो दान की प्रशंसा करता है, वह प्राणियों का वध चाहता है और जो उसका निषेध करता है, वह दान को प्राप्त करने वालों की वृत्ति का छेद करता है।" इसलिए मुमुक्षु को 'पुण्य है' और 'नहीं है'-इन दोनों से बच कर मध्यस्थ भाव का आलम्बन लेना चाहिए। वृत्तिकार ने लिखा है-राजा या अन्य कोई ईश्वर, व्यक्ति कूप, तड़ाग, दान-शाला आदि कराना चाहे और मुमुक्षु से पूछे-इस कार्य में मुझे पुण्य होगा या नहीं ? तब मुमुक्षु मुनि मौन रखे, किन्तु 'पुण्य होगा या नहीं होगा' ऐसा न कहे। उपयुक्त समझे तो उतना-सा कहे कि यह मेरे अधिकार से परे की बात है।५ 'राजा या अन्य कोई ईश्वर व्यक्ति कूप, तड़ाग, दानशाला आदि बनाना चाहे' १-उत्तराध्ययन, 9 / 38-40 / २-(क) हरिवंश पुराण, 60 / 13-14 : (ख) अमितगति श्रावकाचार, 8146,9 / 54-55 / ३-उत्तराध्ययन, 14 / 12 / ४-सूत्रकृतांग, 1 / 11 / 20-21 / ५-सूत्रकृतांग, 11020-21 वृत्ति : अस्ति नास्ति वा पुण्यमित्येवं 'ते' मुमुक्षवः साधवः पुनर्न भाषन्ते / किन्तु पृष्टः सद्भिर्मोनं मेव समाश्रयणीयम् / एवं विध विषये मुमुक्षूणामधिकार एव नास्ति / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि शीलांक सूरि का यह प्रतिपादन, 'वापी, कूप, तडाग आदि निर्माण को राजा, अमात्य आदि प्रभु-वर्ग उत्तम मोक्ष-हेतु मानता है -आचार्य सायण के इस उल्लेख से बहुत सम्बन्धित है / यह धर्म भी निर्ग्रन्थों को परम मोक्ष-साधन के रूप में मान्य नहीं रहा, इसीलिए भृगुपुत्रों ने कहा था कि धन और धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है-'धणेण किं धम्मधुराहिगारे?'२ (1) सत्य, (2) तप, (3) दम, (4) शम और (5) मानस-उपासना-ये पाँचों साधन श्रमण-परम्परा में स्वीकृत हैं, किन्तु सब श्रमण-संघों में समान रूप से स्वीकृत हैं, यह नहीं कहा जा सकता / निर्ग्रन्थ-श्रमण सत्य को मोक्ष का साधन मानते हैं, किन्तु सत्य ही परम मोक्ष-साधन है, ऐसा एकान्तिक-पक्ष उन्हें मान्य नहीं है। तप को भी वे मोक्ष का साधन मानते हैं, किन्तु अनशन से उत्कृष्ट तप नहीं हैं या तप ही परम मोक्ष-साधन है, ऐसा वे नहीं मानते। उनके अभिमत में तप के 12 प्रकार हैं / अनशन बाह्य-तप है, ध्यान अन्तरंग-तप है / वह अनशन से उत्कृष्ट है / / ___ इसी प्रकार दम्, शम और मानस-उपासना भी एकान्तिक रूप से मान्य नहीं हैं, किन्तु वे समुदित रूप से मान्य हैं। इनका विशद विवेचन 'साधना-पद्धति' (सातवें प्रकरण) में देखें। २-स्नान निम्रन्थ-श्रमण स्नान को आत्म-शुद्धि का साधन नहीं मानते / बौद्ध-श्रमणों का अभिमत भी यही रहा है। उस समय सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण ने भगवान् से यह कहा-- "क्या आप गौतम ! स्नान के लिए बाहुका नदी चलेंगे ?" .. "ब्राह्मण ! बाहुका नदी से क्या (लेना) है ? बाहुका नदी क्या करेगी ?" "हे गौतम ! बाहुका नदी लोकमान्य ( =लोक सम्मत ) है, बाहुका नदी बहुत जनों द्वारा पवित्र ( =पुण्य ) मानी जाती है। बहुत से लोग बाहुका नदी में ( अपने ) किए पापों को बहाते हैं।" १-तैत्तिरीयारण्यक, 10 / 62, सायण भाज्य, पृ० 765: . स्मृतिपुराणप्रतिपाद्यो वापीकूपतडागादि निर्माणरूपोत्र धर्मो विवक्षितः / स एवोत्तमो मोक्षहेतुरिति राजामात्यादयः प्रभवो मन्यन्ते / २-उत्तराध्ययन, 14 / 17 / ३-तैत्तिरीयारण्यक, 10 / 62, पृ० 765 : तपो नानशनात् परम् / ४-उत्तराध्ययन, 3 // 30 // Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ तब भगवान् ने सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण को गाथाओं में कहा "बाहुका, अविकक्क, गया और सुन्दरिका में, सरस्वती और प्रयाग तथा बाहुमती नदी में, काले कर्मों वाला मूढ चाहे नित्य नहाए, ( किन्तु ) शुद्ध नहीं होगा। क्या करेगी सुन्दरिका, क्या प्रयाग और क्या बाहुलिका नदी? "(वह) पापकर्मी =कृतकिल्विष दुष्ट नर को नहीं शुद्ध कर सकते। शुद्ध ( नर ) के लिए सदा ही फल्गू है, शुद्ध के लिए सदा ही उपोसथ है। शुद्ध और शुचिकर्मा के व्रत सदा ही पूरे होते रहते हैं। "ब्राह्मण ! यहीं नहा, सारे प्राणियों का क्षेम कर / यदि तू झूठ नहीं बोलता, यदि प्राण नहीं मारता, यदि बिना दिया नहीं लेता, ( और ) श्रद्धावान् मत्सर-रहित है। (तो) गया जाकर क्या करेगा, क्षुद्र जलाशय ( =उदपान ) भी तेरे लिए गया है।' धर्मकीर्ति का प्रसिद्ध श्लोक है वेदप्रामाण्यं कस्यचित् कर्तृवादः, स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः। . संतापारम्भः पापहानाय चेति, ध्वस्तप्रज्ञानां पंचलिंगानि जाड्ये // निम्रन्थ हरिकेशबल ने ब्राह्मणों से कहा- “जल से आत्म-शुद्धि नहीं होती।"२ तब उनके मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई और उन्होंने हरिकेशबल से पूछा-"आपका नद (जलाशय) कौन सा है ? आपका शान्ति-तीर्थ कौन सा है ? आप कहाँ नहा कर कर्म-रज धोते हैं ? हे यज्ञपूजित संयते ! हम आपसे जानना चाहते हैं, आप बताइए।" उस समय निर्ग्रन्थ हरिकेशबल ने उन्हें आत्म-शुद्धि के स्नान का उपदेश दिया। उन्होंने कहा- "अकलुषित एवं आत्मा का प्रसन्न-लेश्या वाला धर्म मेरा नद (जलाशय) है / ब्रह्मचर्य मेरा शान्ति-तीर्थ है, जहाँ नहा कर मैं विमल, विशुद्ध और सुशीतल होकर कर्म-रजों का त्याग करता हूँ। यह स्नान कुशल-पुरुषों द्वारा दृष्ट है / यह महास्नान है। अतः ऋषियों के लिए प्रशस्त है / इस धर्म-नद में नहाए हुए महर्षि विमल और विशुद्ध होकर उत्तम-अर्थ ( मुक्ति ) को प्राप्त हुए हैं।" इस प्रकार बौद्ध और निम्रन्थ स्नान से आत्म-शुचि नहीं मानते। किन्तु कुछ श्रमण स्नान को आत्म-शुद्धि का साधन मानते थे। एकदण्डी और त्रिदण्डी परिव्राजक स्नानशील १-मज्झिमनिकाय, 2017 पृ० 26 / २-उत्तराध्ययन, 12 // 38 / ३-वही, 12 / 45 / ४-वही, 12346-451 // Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 67 और शुचिवादी थे।' त्रिदण्डी परिव्राजक श्रमण थे-यह निशीथ भाष्य की चूणि में उल्लिखित है / सूत्रकृतांग (1 / 1 / 3 / 8) की वृत्ति से भी उनके श्रमण होने की पुष्टि होती है। मूलाचार में भी तापस, परिव्राजक, एकदण्डी, त्रिदण्डी आदि को 'श्रमण' कहा गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 'स्नान आत्म-शुद्धि का साधन नहीं'-इस विषय में सब श्रमण-संघ एक मत नहीं थे। ३-कर्तृवाद जैन और बौद्ध जगत् को किसी सर्वशक्तिसम्पन्न सत्ता के द्वारा निर्मित नहीं मानते / भगवान महावीर ने कहा- "जो लोग जगत् को कृत बतलाते हैं, वे तत्त्व को नहीं जानते / यह जगत् अविनाशी है—पहले था, है और होगा।"४ बौद्ध-सिद्धान्त में किसी मूल कारण की व्यवस्था नहीं है। बौद्ध नहीं मानते कि ईश्वर, महादेव या वासुदेव, पुरुष, प्रधानादिक किसी एक कारण से सर्व जगत् की प्रवृत्ति होती है। यदि भावों की उत्पत्ति एक कारण से होती तो सर्व जगत् की उत्पत्ति युगपत् होती, किन्तु हम देखते हैं कि भावों का क्रम संभव है।" कुछ श्रमण जगत् को अण्डकृत मानते थे। उनके अभिमतानुसार जब यह जगत् पदार्थ शून्य था तब ब्रह्मा ने जल में एक अण्डा उत्पन्न किया। वह अण्डा बढ़ते-बढ़ते जब फट गया तब ऊर्ध्वलोक और अधोलोक ये दो भाग हो गए। उनमें सब प्रजा उत्पन्न हुई। इस प्रकार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश आदि की उत्पत्ति हुई-- माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे। असो तत्त मकासी य, अयाणंता मुसं वदे // 6 वृत्तिकार के अनुसार त्रिदण्डी आदि श्रमण ऐसा मानते थे / १-मूलाचार, पंचाचाराधिकार, 62, वृत्ति : __परिहत्ता-परिव्राजका एकदण्डीत्रिदण्ड्यादयः स्नानशीलाः शुचिवादिनः / २-निशीथ सूत्र, भाग 2, पृ० 2,3,332 / ३-मूलाचार, पंचाचाराधिकार, 62 / ४-सूत्रकृतांग, 1313339 / ५-बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० 223 / ६-सूत्रकृतांग, 111 / 3 / 8 / ७-वही, 131 // 3 // 8, वृत्ति : श्रमणा:-त्रिदण्डिप्रभृतय एके केचन पौराणिकाः न सर्वे / - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ४-आत्मा और परलोक 'आत्मा' शब्द ऋग्वेद-काल (1. 115. 1; 10.107.7) से ही प्रचलित रहा है। किन्तु इसके अर्थ का क्रमशः विकास हुआ है और तब अन्त में उपनिषदों में यह ब्रह्म के समकक्ष परम सत्त्व के रूप में व्याख्यात हुआ है। उदाहरणार्थ बृहदारण्यकोपनिषद् (1 / 1,1) में इसका अर्थ 'शरीर' है, वहीं (312,13) पर यह वैयक्तिक आत्मा को उदृिष्ट करता है फिर परम तत्त्व के अर्थ में तो यह प्रायः आता रहा है।' ___ ए० ए० मैकडोनल ने लिखा है- “ऐसा विश्वास किया जाता है कि अग्नि अथवा 'शवगर्त' (कब्र) केवल मृत शरीर को हो विनष्ट करते हैं, क्योंकि मृत व्यक्ति के वास्तविक व्यक्तित्व को अनश्वर ही माना गया है। यह वैदिक-धारणा उस पुरातन विश्वास पर आधारित है कि आत्मा में शरीर से अपने को अचेतनावस्था तक में अलग कर लेने की शक्ति होती है और व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। इसीलिए एक सम्पूर्ण सूक्त (10, 58) में प्रत्यक्षतः मृतवत् पड़े सुप्त व्यक्ति की आत्मा (मनस्) से, बाहर भ्रमण कर रहे स्थानों से पुनः शरीर में लौट आने की स्तुति की गई है / बाद में विकसित पुनर्जन्म के सिद्धान्त का वेदों में कोई संकेत नहीं मिलता, किन्तु एक ब्राह्मण में यह उक्ति मिलती है कि जो लोग विधिवत् संस्कारादि नहीं करते, वे मृत्यु के बाद पुनः जन्म लेते हैं और बार-बार मृत्यु का ग्रास बनते रहते हैं (शतपथ ब्राह्मण, 10, 4,3) / "2 उपनिषदों से पूर्ववर्ती वैदिक-साहित्य में आत्मा और परलोक के विषय में बहुत विशद चर्चा नहीं है। निर्ग्रन्थ आदि श्रमण-संघ आत्मा को त्रिकालवर्ती मानते थे। पुनर्जन्म के विषय में भी उनकी धारणा बहुत स्पष्ट थी.। भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा-"पुत्रो ! जिस प्रकार अरणी में अविद्यमान अग्नि उत्पन्न होती है, दूध में घी और तिलों में तैल पैदा होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं। शरीर का नाश हो जाने पर उनका अस्तित्व नहीं रहता।"3 तब पुत्र बोले-"पिता ! आत्मा अमूर्त है, इसलिए यह इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता / यह अमूर्त है, इसलिए नित्य है। यह निश्चय है कि आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बन्धन के हेतु हैं और बन्धन ही संसार का हेतु है-ऐसा कहा है।"४ १-वैदिक कोश, पृ० 36 / २-वैदिक माइथोलॉजी (हिन्दी अनुवाद), पृ० 316 / ३-उत्तराध्ययन, 14 / 18 / ४-वही, 14 / 19 / Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि ___ कहा है : “बहुत सारे कामासक्त लोग परलोक को नहीं मानते थे। वे कहते थे'परलोक तो हमने देखा नहीं, यह रति ( आनन्द ) तो चक्षु-दृष्ट है-आँखों के सामने है। ये काम-भोग हाथ में आए हुए हैं। भविष्य में होने वाले संदिग्ध हैं। कौन जानता है-परलोक है या नहीं? हम लोक-समुदाय के साथ रहेंगे।' ऐसा मान कर बाल-मनुष्य धृष्ट बन जाता है। वह काम-भोग के अनुराग से क्लेश पाता है। _ "फिर वह त्रस तथा स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है और प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही प्राणी-समूह की हिंसा करता है / हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला, छल-कपट करने वाला, चुगली खाने वाला, वेश-परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रकट करने वाला अज्ञानी मनुष्य मद्य और मांस का भोग करता है और यह श्रेय है-ऐसा मानता है। __ "वह शरीर और वाणी से मत्त होता है, धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है / वह राग और द्वेष—दोनों से उसी प्रकार कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग (अलस या केंचुआ) मुख और शरीर दोनों से मिट्टी का।'' ये लोग सम्भवत: भौतिकवादी या सुखवादी विचारधारा अथवा संजयवेलट्ठिपुत्त के संदेहवादी दृष्टिकोण से प्रभावित थे। कुछ श्रमण भी आत्मा और परलोक का अस्तित्व नहीं मानते थे। अजातशत्रु ने भगवान् बुद्ध से कहा- "भन्ते ! एक दिन मैं जहाँ अजितकेशकम्बल था वहाँ 0 / एक ओर बैठ कर० यह कहा-'हे अजित ! जिस तरह 0 / हे अजित 0 / उसी तरह क्या श्रमण भाव के पालन करते 0?' - "ऐसा कहने पर भन्ते ! अजितकेशकम्बल ने यह उत्तर दिया-'महाराज ! न दान है, न यज्ञ है, न होम है, न पुण्य या पाप का अच्छा बुरा फल होता है, न यह लोक है, न परलोक है, न माता है, न पिता है, न आयोनिज (=औपपातिक, देव ) सत्व हैं और न इस लोक में वैसे ज्ञानी और समर्थ श्रमण या ब्राह्मण हैं जो इस लोक और परलोक को स्वयं जान कर या साक्षात् कर (कुछ) कहेंगे। मनुष्य चार महाभूतों से मिल कर बना है / मनुष्य जब मरता है तब पृथ्वी, महापृथ्वी में लीन हो जाती है, जल०, तेज०, वायु० और इन्द्रियाँ आकाश में लीन हो जाती हैं / मनुष्य लोग मरे हुए को खाट पर रख कर ले जाते हैं, उसकी निन्दा, प्रशंसा करते हैं। हड्डियाँ कबूतर की तरह उजली हो (बिखर) जाती हैं और सब कुछ भस्म हो जाता है। मूर्ख लोग जो दान देते हैं, उसका कोई फल नहीं होता। १-उत्तराध्ययन, 5 / 5-10 / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन आस्तिकवाद ( =आत्मा ) झूठा है / मूर्ख और पण्डित सभी शरीर के नष्ट होते ही उच्छेद को प्राप्त हो जाते हैं / मरने के बाद कोई नहीं रहता' / " संजयवेलट्टिपुत्त भी परलोक के विषय में कोई निश्चित मत नहीं रखते थे। उसी बैठक में अजातशत्रु ने भगवान् बुद्ध से कहा था "भन्ते ! एक दिन मैं जहाँ संजयवेलट्ठिपुत्त० ।-श्रामण्य के पालन करने० ? "ऐसा कहने पर भन्ते ! संजयवेलट्ठिपुत्त ने उत्तर दिया-'महाराज ! यदि आप पूर्छ, क्या परलोक है ? और यदि मैं सम कि परलोक है, तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है / मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरह से भी नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि यह नहीं है, परलोक नहीं है ।...अयोनिज प्राणी नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न नहीं हैं / अच्छे बुरे काम के फल हैं, नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न नहीं हैं ? 0 तथागत मरने के बाद होते हैं, नहीं होते हैं? यदि मुझे ऐसा पूछे और मैं ऐसा समझू कि मरने के बाद तथागत न रहते हैं और न नहीं रहते हैं, तो मैं ऐसा आपको कहूँ। मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता०'।"२ ___यह बहुत आश्चर्य की बात है कि महात्मा बुद्ध परलोकवादी होते हुए भी अनात्मवादी थे। बौद्धों के अनुसार आत्मा प्रज्ञप्तिमात्र है। जिस प्रकार 'रथ' नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है, वह शब्दमात्र है, परमार्थ में अंग-संभार है, उसी प्रकार आत्मा, जीव, सत्त्व, नाम रूपमात्र (स्कन्ध-पंचक) है। यह कोई अविपरिणामी शाश्वत पदार्थ नहीं है। बौद्ध अनीश्वरवादी और अनात्मवादी हैं। वे सर्वास्तिवादी, सस्वभाववादी तथा बहुधर्मवादी हैं, किन्तु वे कोई शाश्वत पदार्थ नहीं मानते। उनकी मान्यता में द्रव्य सत् हैं, किन्तु क्षणिक हैं। महात्मा बुद्ध ने कहा था "भिक्षुओ ! यदि कोई कहे कि मैं तब तक भगवान् ( बुद्ध ) के उपदेश के अनुसार नहीं चलूँगा, जब तक कि भगवान् मुझे यह न बता देंगे कि संसार शाश्वत है वा अशाश्वत ; संसार सान्त है वा अनन्त ; जीव वही है जो शरीर में है वा जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है ; मृत्यु के बाद तथागत रहते हैं वा मृत्यु के बाद तथागत नहीं रहते-तो भिक्षुओ, यह बातें तो तथागत के द्वारा बे-कही ही रहेंगी और वह मनुष्य यों हो मर जाएगा। १-दीघनिकाय, 12, पृ० 20-21 / . २-वही, 112, पृ० 22 / ३-बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० 223 / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 71 ___ "भिक्षुओ, जैसे किसी आदमी के जहर में बुझा हुआ तीर लगा हो। उसके मित्र, रिस्तेदार उसे तीर निकालने वाले वैद्य के पास ले जावें। लेकिन वह कहे- 'मैं तब तक यह तीर नहीं निकलवाऊँगा, जब तक यह न जान लें कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है वह क्षत्रिय है, ब्राह्मण है, वैश्य है वा शूद्र है' ; अथवा वह कहे-'मैं तब तक यह तीर नहीं निकलवाऊँगा, जब तक यह न जान लूँ कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है, उसका अमुक नाम है, अमुक गोत्र है'; अथवा वह कहे- 'मैं तब तक यह तीर नहीं निकलवाऊँगा, जब तक यह न जान लूँ कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है, वह लम्बा है, छोटा है, वा मझले कद का है' ; तो हे भिक्षुओ, उस आदमी को इन बातों का पता लगेगा ही नहीं, और वह यों ही मर जाएगा। ___ "भिक्षुओ, 'संसार शाश्वत हैं'-ऐसा मत रहने पर भी, 'संसार अशाश्वत हैं'-ऐसा मत रहने पर भी, 'संसार सान्त है'- ऐसा मत रहने पर भी, 'संसार अनन्त है'-ऐसा मत रहने पर भी 'जीव वही है जो शरीर है'- ऐसा मत रहने पर भी, 'जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है'-ऐसा मत रहने पर भी 'जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, रोना-पीटना, पीड़ित होना, चिन्तित होना, परेशान होना तो (हर हालत में) है ही और मैं इसी जन्म में-- जीते जी-इन्हीं सबके नाश का उपदेश देता हूँ।"१ __ भगवान महावीर आत्मा और परलोक, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के प्रबल समर्थक थे। उनका युग आत्म-विद्या और परलोक-विद्या की जिज्ञासाओं का युग था। उस समय 'आत्मा है या नहीं' ?, 'परलोक है या नहीं ?, 'जिन या तथागत होंगे या नहीं' ?-ऐसे प्रश्न पूछे जाते थे। कुछ अल्पमति श्रमण इन प्रश्नों के जाल में उलझ भी जाते थे। इसीलिए भगवान् महावीर ने उस मानसिक उलझन को 'दर्शन परीषह' कहा। उन्होंने बताया-'निश्चय हो परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है अथवा मैं ठगा गया हूँ'-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। “जिन हुए थे, जिन हैं और जिन होंगे-ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते हैं'-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे / उत्तराध्ययन में 'परलोक' शब्द का पाँच बार (5 / 11; 1962; 22 / 16; 26 / 50; 34 / 60 ) तथा 'पूर्व-जन्म की स्मृति (=जाति-स्मृति ) का तीन बार (6 / 1,2; 14 / 5; 197,8) उल्लेख हुआ है / प्रकारान्तर से ये विषय बहुत बार चर्चित हुए हैं। ५-स्वर्ग और नरक ___ स्वर्ग और नरक की चर्चा वैदिक-साहित्य में भी रही है। ए० ए० मैकडोनल ने लिखा है १-संयुत्तनिकाय, 2115 ; बुद्ध वचन, पृ० 22-23 / २-उत्तराध्ययन, 2044-45 / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ "यद्यपि परलोक-जीवन के सर्वाधिक स्पष्ट और प्रमुख सन्दर्भ ऋग्वेद के नवम और दशम मण्डल में मिलते हैं, तथापि कभी-कभी इसका प्रथम में भी उल्लेख है। जो कठिन तपस्या (तपस) करते हैं, जो युद्ध में अपने जीवन का मोह त्याग देते हैं (10, 1542.5 अथवा इनसे भी अधिक, जो प्रचुर दक्षिणा देते हैं, ( वही, 3; 1, 1255; 10, 1072) उन्हें ही पुरस्कार स्वरूप स्वर्ग प्राप्त होता है / अथर्ववेद, इस अन्तिम प्रकार . के लोगों को प्राप्त होने वाले पुण्य-फलों के विवरण से भरा है। "स्वर्ग में पहुँच कर मृत व्यक्ति ऐसा सुखकर जीवन व्यतीत करते हैं (10, 14. 1514. 162.5), जिसमें सभी कामनाएँ तृप्त रहती हैं (9. 1139.11), और जो देवों के बीच (10 1414) प्रमुखतः यम और वरुण, इन दो राजाओं की उपस्थिति में व्यतीत होता है (10.147) / यहाँ वह जरावस्था से सर्वथा मुक्त होते हैं (10, 2721) / तेजस्वी शरीर से युक्त होकर वह देवों के प्रियपात्र बन जाते हैं ( 10, 146. 165: 561) / यहाँ वह पिता, माता और पुत्रों को देखते हैं ( अथर्ववेद 6. 1203 ) और अपनी पत्नियों तथा सन्तान से पुनः मिल जाते हैं ( अथर्ववेद 12, 317 ) / यहाँ का जीवन अपूर्णताओं और शारीरिक कष्टों से सर्वथा मुक्त होता है ( 10, 14. ; अथर्ववेद 6, 1203), व्याधियाँ पीछे छूट जाती हैं और हाथ-पैर लूले या लंगड़े नहीं होते ( अथर्ववेद 3, 285 ) / अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मग में अक्सर यह कहा गया है कि परलोक में मृत व्यक्ति शरीर तथा अन्य अवयवों की दृष्टि से सम्पूर्ण होता है। "ऋग्वेद में मृतकों के आनन्दप्रद जीवन को 'मदन्ति' अथवा 'मादयन्ते' जैसे सामान्य आशय के शब्दों से व्यक्त किया गया है (10, 1410. 1514, इत्यादि) / स्वर्गलोक के आनन्दप्रद जीवन का सर्वाधिक विस्तृत विवरण ऋग्वेद (9, 1137.11 ) में मिलता है। वहाँ चिरन्तन प्रकाश और तीव्रगति से प्रवाहित होने वाले ऐसे जल हैं, जिनकी गति निर्बाध होती है (तु० की० तैत्तिरीय ब्राह्मण 3, 12, 29); वहाँ पुष्टिकर भोजन और तृप्ति है ; वहाँ आनन्द, सुख, आह्लाद, और सभी कामनाओं की सन्तुष्टि है / यहाँ अनिश्चित रूप से वर्णित आनन्द की, बाद में प्रेम के रूप में व्याख्या की गई है ( तैत्तिरीय ब्राह्मण 2, 4, 66; तु०की० शतपथ ब्राह्मण 10, 4, 44) और अथर्ववेद (4.342) यह व्यक्त करता है कि स्वर्गलोक में लैंगिक संतुष्टि के प्रचुर साधन उपलब्ध हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार वहाँ पहुँचने वाले भाग्यशालियों को प्राप्त सुख पृथ्वी के श्रेष्ठतम व्यक्तियों की अपेक्षा सौ गुने अधिक हैं ( 14, 7, 1323 ) / ऋग्वेद भी यह कहता है कि भाग्यशालियों के स्वर्ग में वीणा का स्वर और संगीत सुनाई पड़ता रहता है (10, 1350); वहाँ के लोगों के लिए सोम, घृत और मधु प्रवाहित होता रहता है (10, 1541) / वहाँ घृत से भरे सरोवर तथा दुग्ध, मधु और मदिरा की नदियाँ बहती हैं ( अथर्ववेद 4, Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठभूमि आ पकी पष्ठ-भमि 73 34, 506 ; शतपथ ब्राह्मण 11, 5, 64) / वहाँ उज्ज्वल, विविध रंगों वाली गायें हैं जो सभी कामनाओं को पूर्ण करती हैं ( कामदुधा:-अथर्ववेद 4 / 348 ) / वहाँ न तो निर्धन हैं और न धनवान्, न शक्तिशाली हैं न शोषित (अथर्ववेद 3, 263) / "1 __"ऋग्वेद के रचयिताओं के विचार से यदि पुण्यात्मा लोग परलोक में अपना पुरस्कार प्राप्त करते हैं, तो दुष्टों के लिए भी परलोक में दण्ड मिलने का न सही, किन्तु कम से कम किसी न किसी प्रकार के आवास की कल्पना कर लेना भी, जैसा कि 'अवेस्ता' में है, स्वाभाविक ही है / जहाँ तक अथर्ववेद और कठ उपनिषद् का सम्बन्ध है, इनमें नरक की कल्पना निश्चित रूप से मिलती है। अथर्ववेद (2,143: 5, 163) यम के क्षेत्र (12-426) 'स्वर्ग-लोक' के विपरीत, 'नारक-लोक' नामक राक्षसियों और अभिचारिणियों के आवास के रूप में एक अधो-गृह ( पाताल-लोक ) की चर्चा करता है। हत्यारे लोग इसी नरक में भेजे जाते हैं (वाजसनेयि संहिता 30,5) / इसे अथर्ववेद में अनेक बार 'अधम अन्धकार' (8,224 इत्यादि),और साथ ही साथ, 'काला अन्धकार' (5,3011) और 'अन्ध अन्धकार' (18, 33) कहा गया है / नारकीय यातनाओं का भी एक बार ही अथर्ववेद (5, 19) में और अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत रूप से शतपथ ब्राह्मण (11, 6, 1) में वर्णन किया गया है ; क्योंकि परलोक के दण्ड की धारणा अपने स्पष्ट रूप में ब्राह्मण-काल और उसके बाद से ही विकसित हुई है।"२ __ उत्तराध्ययन में 'देव' शब्द का प्रयोग इकतीस बार हुआ है / चार बार 'देवलोक' (देवलोग या देवलोय) का प्रयोग हुआ है / 4 ___ उसमें तीसरे अध्ययन में बताया गया है- "कर्म के हेतु को दूर कर / क्षमा से यश ( संयम ) का संचय कर। ऐसा करने वाला पार्थिव शरीर को छोड़ कर ऊर्ध्व दिशा : (स्वर्ग या मोक्ष) को प्राप्त होता है / "विविध प्रकार के शीलों की आराधना करके जो देवकल्पों व उसके ऊपर के देवलोकों की आयु का भोग करते हैं, वे उतरोतर महाशुक्ल (चन्द्र-सूर्य) की तरह दीप्तिमान होते हैं। 'स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता'-ऐसा मानते हैं। वे दैवी भोगों के लिए अपने आपको अर्पित किए हुए रहते हैं / इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं तथा सैकड़ों पूर्व-वर्षों-असंख्य-काल तक वहाँ रहते हैं।'' १-वैदिक माइथोलॉजी 'हिन्दी अनुवाद' पृ० 316-320 / २-वही, पृ० 321-322 / ३-देखिए-दसवेआलियं तह उत्तरायणाणि, शब्द-सूची, पृ० 198 / / ४-वही, शब्द-सूची पृ० 198 / ५-उत्तराध्ययन, 3313-15 / Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / __“जो संवृत-भिक्षु होता है, वह दोनों में से एक होता है-सब दुःखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव। ___ "देवताओं के आवास क्रमशः उत्तम, मोह-रहित, द्यु तिमान् और देवों से आकीर्ण होते हैं / उनमें रहने वाले देव यशस्वी, दीर्घायु, ऋद्धिमान्, दीप्तिमान्, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी कान्ति वाले और सूर्य के समान अति-तेजस्वी होते है।" ___"देव और नरक-योनि में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक एक-एक जन्म-ग्रहण तक वहाँ रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर / " 2 छत्तीसर्व अध्ययन में देव-जाति के प्रकारों का निरूपण है। नरक ( =नरग या नरय या निरय) का प्रयोग सतरह बार हुआ है। उन्नीसर्व अध्ययन में नारकीय वेदनाओं का विशद वर्णन है / ' नारकीय जीवों का निरूपण छत्तीसवें अध्ययन में हुआ है। ___कुछ श्रमण स्वर्ग और नरक में विश्वास नहीं करते थे। इस प्रसंग में अजितकेशकम्बल का उच्छेदवाद उल्लेखनीय है / संजयवेलटिठपुत्त भी इस विषय में कोई निश्चित मत नहीं रखता था / ६-निर्वाण __ वैदिक यज्ञ-संस्था में पारलौकिक-जीवन का महत्त्वपूर्ण संस्थान स्वर्ग है। निर्वाण का सिद्धान्त उन्हें मान्य नहीं था / उपनिषदों में वह स्थिर हुआ है। श्रमण-परम्परा आरम्भ से ही निर्वाणवादी रही है। श्रीमद्भागवत में भगवान् ऋषभ को मोक्ष-धर्म की अपेक्षा से ही वासुदेव का अवतार कहा गया है। भगवान् बुद्ध ने वैदिक-परम्परा से अपने उद्देश्य की पृथकता बतलाते हुए कहा१-उत्तराध्ययन, 525-27 / २-वही, 10 // 14 // ३-वही, 36 / 204-247 / ४-देखिए, दसवेआलियं तह उत्तरझयणाणि, शब्द-सूची-पृ० 204,210 / ५-उत्तराध्ययन, 19647-73 / ६-वही, 36 / 156-169 / ७-दीघनिकाय, 112, पृ० 20-21 / ८-वही, 112, पृ० 22 / ९-श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 11, अध्याय 2, खण्ड 2, पृ० 710: तमाहुर्वासुदेवांशं, मोक्षधर्मविवक्षया / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि "पंचशिख ! हाँ मुझे स्मरण है। मैं ही उस समय महागोविन्द था। मैंने ही उन श्रावकों को ब्रह्मलोक का मार्ग बतलाया था / पंचशिख ! मेरा वह ब्रह्मचर्य न निर्वेद के लिए (न विराग के लिए), न उपशम (=परम शान्ति) के लिए, न ज्ञान प्राप्ति के लिए. न सम्बोधि के लिए और न निर्वाण के लिए था। वह केवल ब्रह्मलोक-प्राप्ति के लिए था / पंचशिख ! मेरा यह ब्रह्मचर्य एकान्त ( बिलकुल ) निर्वेद के लिए, विराग० और निर्वाण के लिए है।"१ सूत्रकृतांग में भगवान् महावीर को निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहा गया है / भगवान् महावीर के काल में अनेक निर्वाणवादी धाराएँ थीं, किन्तु महावीर जिस धारा में थे, वह धारा बहुत प्राचीन और बहुत परिष्कृत थी। इसीलिए उन्हें निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहा गया। भगवान् बुद्ध ने निर्वाण का स्वरूप 'अस्त होना' या 'बुझ जाना' बतलाया "भिक्षुओ ! यह जो रूप का निरोध है, उपशमन है, अस्त होना है, यही दुःख का निषेध है, रोगों का उपशमन है, जरा-मरण का अस्त होना है। यह जो वेदना का निरोध है, संज्ञा का निरोध है, उपशमन है, अस्त होना है, यही दुःख का निरोध है, रोगों का उपशमन है, जरा-मरण का अस्त होना है।" "यही शान्ति है, यही श्रेष्ठता है, यह जो सभी संस्कारों का शमन, सभी चित्त-मलों का त्याग, तृष्णा का क्षय, विराग: स्वरूप, निरोध-स्वरूप निर्वाण है / ''4 किन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि निर्वाण के पश्चात् आत्मा की क्या स्थिति होती है ? भगवान् महावीर ने निर्वाण को उत्तरकालीन स्थिति पर पूर्ण प्रकाश डाला। इसीलिये उन्हें निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहा जा सकता है। उत्तराध्ययन में छह बार 'निर्वाण' शब्द का प्रयोग हुआ है और अनेक बार 'मोक्ष' शब्द भी अन्यान्य अर्थों के साथ निर्वाण के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है।" मोक्ष का वर्णन छत्तीसवें अध्ययन में है।६ अनेक अध्ययनों की परिसमाप्ति में १-दीघनिकाय, 206, पृ० 176 / २-सूत्रकृतांग, 1 / 6 / 21 / ३-संयुत्तनिकाय, 21 / 3 / ४-अंगुत्तरनिकाय, 3 // 32 // ५-देखिए-दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि, शब्द-सूची, पृ० 211,268 / ६-उत्तराध्ययन, 36 / 48-67 / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन सिद्धगति, निर्वाण या मोक्ष प्राप्त होने का उल्लेख है।' कुछ श्रमण निर्वाण को नहीं मानते थे।२ __ इस प्रकार हम देखते है कि (1) दान, (2) स्नान, (3) कर्तृवाद, (4) आत्मा और परलोक, (5) स्वर्ग और नरक तथा (6) निर्वाण-ये सभी विषय श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता के व्याप्त लक्षण नहीं हैं / इनमें से कुछ विषय श्रमण और वैदिक परम्पराओं में भी समान हैं। इसीलिए इन विषयों को श्रमण और वैदिक धारा की विभाजन-रेखा तथा श्रमणपरम्परा की एकसूत्रता की व्याप्ति के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। १-उत्तराध्ययन, 1:48; 3 / 20; 10 // 37; 11 // 32; 12 // 47; 13 // 35; 14153; 16317; 18053; 21 / 24; 24 / 27; 25543; 26152, 30 // 37, 31121; 32 / 111; 35 / 21; 36 / 268 / २-दीघनिकाय, 112, पृ० 22 / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : चौथा आत्म-विद्या-क्षत्रियों की देन आत्म-विद्या की परम्परा ब्रह्म-विद्या या आत्म-विद्या अवैदिक शब्द है। मुण्डकोपनिषद् के अनुसार सम्पूर्ण देवताओं में पहले ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। वह विश्व का कर्ता और भुवन का पालक था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को समस्त विद्याओं की आधारभूत ब्रह्म-विद्या का उपदेश दिया / अथर्वा ने अंगिर को, अंगिर ने भारद्वाज-सत्यवह को, भारद्वाज-सत्यवह ने अपने से कनिष्ठ ऋषि को उसका उपदेश दिया। इस प्रकार गुरु-शिष्य के क्रम से वह विद्या अंगिरा ऋषि को प्राप्त हुई।' . बृहदारण्यक में दो बार ब्रह्म-विद्या की वंश-परम्परा बताई गई है। उसके अनुसार पौतिमाष्य ने गौपवन से ब्रह्म-विद्या प्राप्त की। गुरु-शिष्य का क्रम चलते-चलते अन्त में बताया गया है कि, परमेष्ठी ने वह विद्या ब्रह्मा से प्राप्त की। ब्रह्मा स्वयंभू हैं। शंकराचार्य ने ब्रह्मा का अर्थ 'हिरण्यगर्भ' किया है / उससे आगे आचार्य-परम्परा नहीं है, क्योंकि वह स्वयंभू है। मुण्डक और बृहदारण्यक का क्रम एक नहीं है। मुण्डक के अनुसार ब्रह्म-विद्या की प्राप्ति ब्रह्मा से अथर्वा को होती है और बृहदारण्यक के अनुसार वह ब्रह्मा से परमेष्ठी को होती है / ब्रह्मा स्वयंभू है / इस विषय में दोनों एक मत हैं। जैन-दर्शन के अनुसार आत्म-विद्या के प्रथम प्रवर्तक भगवान् ऋषभ हैं। वे प्रथम राजा, प्रथम जिन (अर्हत्), प्रथम केवली, प्रथम तीर्थङ्कर और प्रथम धर्म-चक्रवर्ती थे। * उनके प्रथम जिन' होने की बात इतनी विश्रुत हुई कि आगे चल कर 'प्रथम जिन' उनका एक १-मुण्डकोपनिषद्, 1 / 1 ; 1 / 2 / २-बृहदारण्यकोपनिषद्, 2 / 6 / 1; 4 / 6 / 1-2 / ३-वही, भाज्य, 2 / 3 / 6, पृ० 618 : परमेठी विराट, ब्रह्मणो हिरण्यगर्भात् / ततः परं आचार्यपरम्परा नास्ति / ४-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, 2 / 30 : उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचक्कवट्टी समुप्पजित्थे / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन नाम बन गया।' श्रीमद्भागवत से भी इसी बात की पुष्टि होती है। वहाँ बताया गया है कि वासुदेव ने आठवाँ अवतार नाभि और मेरुदेवी के वहाँ धारण किया। वे ऋषभ रूप में अवतरित हुए और उन्होंने सब आश्रमों द्वारा नमस्कृत मार्ग दिखलाया।' इसीलिए ऋषभ को मोक्ष-धर्म की विवक्षा से 'वासुदेवांश' कहा गया। ___ ऋषभ के सौ पुत्र थे। वे सब के सब ब्रह्म-विद्या के पारगामी थे। उनके नौ पुत्रों को 'आत्म-विद्या विशारद' भी कहा गया है / उनका ज्येष्ठ पुत्र भरत महायोगी था। - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र और श्रीमद्भागवत के संदर्भ में हम आत्म-विद्या के प्रथम पुरुष भगवान् ऋषभ को पाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उपनिषद्कारों ने ऋषभ को ही ब्रह्मा कहा हो। ब्रह्मा का दूसरा नाम हिरण्यगर्भ है। महाभारत के अनुसार हिरण्यगर्भ ही योग का पुरातन विद्वान् है, कोई दूसरा नहीं / श्रीमद्भागवत में ऋषभ को योगेश्वर कहा गया है।' १-कल्पसूत्र, सू० 194: उसभेणं कोसलिए कासवगुत्ते णं, तस्स णं पंच नामधिजा एवमाहिज्जंति, तं जहा-उसमे इ वा पढमराया इ वा पढमभिक्खाचरे इ वा पढमजिणे इ वा पढमतित्थकरे इ वा। २-श्रीमद्भागवत, 1 / 3 / 13 : अष्टमे मेरुदेव्यां तु, नाभेर्जात उरुक्रमः। दर्शयन् वर्त्म धीराणां, सर्वाश्रमनमस्कृतम् // ३-वही, 11 / 2 / 16 : तमाहु र्वासुदेवांशं, मोक्षधर्म विवक्षया / ४-वही, 11 / 2 / 16 : अवतीर्णः सुतशतं, तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् / ५-वही, 11 / 2 / 20 : नवाभवन् महाभागा, मुनयो ह्यर्थशंसिनः / श्रमणा वातरशनाः, आत्मविद्याविशारदाः // ६-वही, 349: येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुणः आसीत् / ७-महामारत, शान्तिपर्व, 349 / 65 : हिरण्यगर्भो योगस्य, वेत्ता नान्यः पुरातनः / ८-श्रीमद्भागवत, // 4 // 3: भगवान् ऋषभदेवो योगेश्वरः / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 4 . आत्म-विद्या-क्षत्रियों की देन उन्होंने नाना योग-चर्याओं का चरण किया था।' हठयोग प्रदीपिका में भगवान् ऋषभ को हठयोग-विद्या के उपदेष्टा के रूप में नमस्कार किया गया है। जैन आचार्य भी उन्हें योग-विद्या के प्रणेता मानते हैं / इस दृष्टि से भगवान् ऋषभ 'आदिनाथ', 'हिरण्यगर्भ' और 'ब्रह्मा'--इन नामों से अभिहित हुए हैं। ऋग्वेद के अनुसार हिरण्यगर्भ भूत-जगत् का एकमात्र पति है। किन्तु उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह 'परमात्मा' है या 'देहधारी' ? शंकराचार्य ने बृहदारण्यकोपनिषद् में ऐसी ही विप्रतिपत्ति उपस्थित की है-किन्हीं विद्वानों का कहना है कि परमात्मा ही हिरण्यगर्भ है और कई विद्वान् कहते हैं कि वह संसारी है / यह संदेह हिरण्यगर्भ के मूल स्वरूप की जानकारी के अभाव में प्रचलित था। भाष्यकार सायण के अनुसार हिरण्यगर्भ देहधारी है / 6 आत्म-विद्या, संन्यास आदि के प्रथम प्रवर्तक होने के कारण इस प्रकरण में हिरण्यगर्भ का अर्थ 'ऋषभ' ही होना चाहिए। हिरण्यगर्भ उनका एक नाम भी रहा है / ऋषभ जब गर्भ में थे, तब कुबेर ने हिरण्य की वृष्टि की थी, इसलिए उन्हें 'हिरण्यगर्भ' भी कहा गया।' कर्म-विद्या और आत्म-विद्या कर्म-विद्या और आत्म-विद्या—ये दो धाराएं प्रारम्भ से ही विभक्त रही हैं / मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वशिष्ठ—ये सात ऋषि ब्रह्मा के मानस-पुत्र हैं। १-श्रीमद्भागवत, 5 / 5 / 25 : नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्यपति ऋषभः / २-हठयोग प्रदीपिका : __श्री आदिनाथाय नमोस्तु तस्यै, येनोपदिष्टा हठयोगविद्या। ३-ज्ञानार्णव, 122 : योगिकल्पतरं नौमि, देव-देवं वृषध्वजम् / ४-ऋग्वेद, 10 / 10 / 12131 : हिरण्यगर्भः ? समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् / स सदाधारपृथिवीं चामुतेमा कस्मै देवाय हविषा विधेम // ५-बृहदारण्यकोपनिषद्, 1 / 4 / 6, भाज्य, पृ० 185 : अत्र विप्रतिपद्यन्ते-पर एव हिरण्यगर्भ इत्येके / संसारोत्यपरे / ६-तैत्तिरीयारण्यक, प्रपाठक 10, अनुवाक 62, सायण भाष्य / ७-महापुराण, 12 / 95 : सैषा हिरण्यमयी वृष्टिः धनेशेन निपातिता। विभो हिरण्यगर्भत्व मिव बोधयितुं जगत् // Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ये प्रधान वेदवेत्ता और प्रवृत्ति-धर्मावलम्बी हैं। इन्हें ब्रह्मा द्वारा प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। यह कर्म-परायण पुरुषों के लिए शाश्वत मार्ग प्रकट हुआ।' __सन, सनत्, सुजात, सनक, सनंदन, सनत्कुमार, कपिल और सनातन-ये सात ऋषि भी ब्रह्मा के मानस-पुत्र हैं। इन्हें स्वयं विज्ञान प्राप्त है और ये निवृत्ति-धर्मावलम्बी हैं। ये प्रमुख योगवेत्ता, सांख्य-ज्ञान-विशारद, धर्म-शास्त्रों के आचार्य और मोक्ष-धर्म के प्रवर्तक हैं। सप्ततिशतस्थान में बतलाया गया है कि जैन, शैव और सांख्य--ये तीन धर्म-दर्शन भगवान् ऋषभ के तीर्थ में प्रवृत्त हुए थे। इससे महाभारत के उक्त तत्थ्यांश का समर्थन होता है। श्रीमद्भागवत में लिखा है-भगवान् ऋषभ के कुशावर्त आदि नौ पुत्र नौ द्वीपों के अधिपति बने, कवि आदि नौ पुत्र आत्म-विद्या-विशारद श्रमण बने और भरत को छोड़ कर १-महाभारत, शान्तिपर्व, 340 / 66-71 : . मरीचिरङ्गिराश्चात्रिः, पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः / वसिष्ठ इति सप्तते, मानसा निर्मिता हि ते // . . एते वेदविदो मुख्या, वेदाचार्याश्च कल्पिताः / प्रवृत्तिधर्मिणश्चैव, प्राजापत्ये प्रतिष्ठिताः // अयं क्रियावतां पन्था, व्यक्तीभूतः सनातनः / अनिरुद्ध इति प्रोक्तो, लोकसर्गकरः प्रभुः // . 2 वही, शान्तिपर्व, 340 / 72-74 : सनः सनत्सुजातश्च, सनकः ससनन्दनः / सनत्कुमारः कपिलः, सप्तमश्च सनातनः // सप्तैते मानसाः प्रोक्ता, ऋषयो ब्रह्मणः सुताः / स्वयमागत विज्ञाना, निवृत्तिं धर्ममास्थिताः // एते योगविदो मुख्याः, सांख्यज्ञानविशारदाः / आचार्या धर्मशास्त्रेषु, मोक्षधर्मप्रवर्तकाः // ३-सप्ततिशतस्थान, 340-341 : जइणं सइवं संखं, वेअंतियनाहिआण बुद्धाणं / वइसेसियाण वि मयं, इमाई सग दरिसणाई कम // तिग्नि उसहस्स तित्थे, जायाई सीअलस्स ते दुन्नि / दरिसण मेगं पासस्स, सत्तमं वीरतित्थंमि // . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 4 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 81 शेष 81 पुत्र महाश्रोत्रिय, यज्ञशील और कर्म-शुद्ध ब्राह्मण बने। उन्होंने कर्म-तन्त्र का प्रणयण किया। ___ भगवान् ऋषभ ने आत्म-तंत्र का प्रवर्तन किया और उनके 81 पुत्र कर्म-तन्त्र के प्रवर्तक हुए / ये दोनों धाराएं लगभग एक साथ ही प्रवृत्त हुई। यज्ञ का अर्थ यदि आत्मयज्ञ किया जाए तो थोड़ी भेद-रेखाओं के साथ उक्त विवरण का संवादक प्रमाण जैनसाहित्य में भी मिलता है. और यदि यज्ञ का अर्थ वेद-विहित यज्ञ किया जाए तो यह कहना होगा कि भागवतकार ने ऋषभ के पुत्रों को यज्ञशील बता यज्ञ को जैन-परम्परा से सम्बन्धित करने का प्रयत्न किया है। आत्म-विद्या भगवान् ऋषभ द्वारा प्रवर्तित हुई। उनके पुत्रों-वातरशन श्रमणोंद्वारा वह परम्परा के रूप में प्रचलित रही / श्रमण और वैदिक-धारा का संगम हुआ तब प्रवृत्तिवादी वैदिक आर्य उससे प्रभावित नहीं हुए किन्तु श्रमण-परम्परा के अनुयायी असुरों को धृति, आत्म-लीतता और अशोक-भाव को देखा तो वे उससे सहसा प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। वेदोत्तर युग में आत्म-विद्या और उसके परिपार्श्व में विकसित होने वाले अहिंसा, मोक्ष आदि तत्त्व दोनों धाराओं के संगम-स्थल हो गए। वैदिक-साहित्य में श्रमण-संस्कृति के और श्रमण-साहित्य में वैदिक-संस्कृति के अनेक संगम-स्थल हैं। यहाँ हम मुख्यतः आत्म-विद्या और उसके परिपार्श्व में अहिंसा की चर्चा करेंगे। आत्म-विद्या और वेद ___ महाभारत का एक प्रसंग है / महर्षि बृहस्पति ने प्रजापति मनु से पूछा- "भगवन् ! जो इस जगत् का कारण है, जिसके लिए वैदिक कर्मों का अनुष्ठान किया जाता है, ब्राह्मण लोग जिसे ज्ञान का अन्तिम फल बतलाते हैं तथा वेद के मंत्र-वाक्यों द्वारा जिसका तत्त्व पूर्ण रूप से प्रकाश में नहीं आता, उस नित्य वस्तु का आप मेरे लिए यथार्थ वर्णन करें / "मनुष्य को जिस वस्तु का ज्ञान होता है, उसी को वह पाना चाहता है और पाने की इच्छा होने पर उसके लिए वह प्रयत्न आरम्भ करता है, परन्तु मैं तो उस पुरातन परमोत्कृष्ट वस्तु के विषय में कुछ जानता ही नहीं हूँ, फिर पाने के लिए झूठा प्रयत्न कैसे करूँ ? मैंने ऋक्, साम और यजुर्वेद का तथा छन्द का अर्थात् अथर्ववेद का एवं नक्षत्रों की १-श्रीमद्भागवत, 5 / 4 / 9-13 / 11 / 2 / 19-21 / २-आवश्यकनियुक्ति, पृ० 235-236 / ३-महाभारत, शान्तिपर्व, 201 / 4 / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन गति, निरुक्त, व्याकरण, कल्प और शिक्षा का भी अध्ययन किया है तो भी मैं आकाश आदि पाँचों महाभूतों के उपादान कारण को न जान सका / तत्त्वज्ञान होने पर कौन-सा फल प्राप्त होता है ? कर्म करने पर किस फल की उपलब्धि होती है ? देहाभिमानी जीव देह से किस प्रकार निकलता है और फिर दूसरे शरीर में प्रवेश कैसे करता है ? ये सारी बातें भी मुझे बताएँ।" __ इसी प्रकार नारद सनत्कुमार से कहता है- "भगवन् ! मुझे उपदेश दें।" तब सनत्कुमार ने कहा-"तुम जो जानते हो वह मुझे बतलाओ, फिर उपदेश दूंगा।" तब नारद ने कहा-"भगवन् ! मुझे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद याद हैं। इतिहास, वेदों के वेद (व्याकरण), श्राद्ध-कल्प, गणित, उत्पात-ज्ञान, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीति, देव-विद्या, ब्रह्म-विद्या, भूत-विद्या, क्षत्र-विद्या, सर्प-विद्या और देवजन-विद्या (नृत्य, संगीत आदि) को मैं जानता हूँ।"२ सब वेदों को जान लेने पर भी आत्म-विद्या का ज्ञान नहीं होता था, उसका कारण मुण्डकोपनिषद् से स्पष्ट होता है / शौनक ने अंगिरा के पास विधि-पूर्वक जाकर पूछा-"भगवन् ! किसे जानने पर सब कुछ जान लिया जाता है ?" अंगिरा ने कहा-"दो विधाएँ हैं-एक 'परा' और दूसरो 'अपरा'। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष—यह 'अपरा' है तथा जिससे उस अक्षर परमात्मा का ज्ञान होता है, वह 'परा' है।"3 ___ इस 'परा' विद्या को वेदों से पृथक् बतलाने का तात्पर्य यही हो सकता है कि वैदिक ऋपि इसे महत्त्व नहीं देते थे। श्रमण-परम्परा और क्षत्रिय श्रमण-परम्परा में क्षत्रियों की प्रमुखता रही है और वैदिक-परम्परा में ब्राह्मणों की। भगवान् महावीर का देवानन्दा की कोख से त्रिशला क्षत्रियाणी की कोख में संक्रमण किया गया, यह तथ्य श्रमण-परम्परा सम्मत क्षत्रिय जाति की श्रेष्ठता का सूचक है।४ महात्मा बुद्ध ने कहा था-"वाशिष्ठ ! ब्रह्मा सनत्कुमार ने भी गाथा कही है १-महाभारत, शान्तिपर्व, 201 / 7,8,9 / २-छान्दोग्योपनिषद्, 7 / 1 / 1,2 / ३-मुण्डकोपनिषद्, 1 / 1 / 3-5 / ४-कल्पसूत्र, 20-25 // Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 4 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 'गोत्र लेकर चलने वाले जनों में क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं / जो विद्या और आचरण से युक्त हैं, वह देव मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं।' "वाशिष्ठ ! यह गाथा ब्रह्मा सनत्कुमार ने ठीक ही कही है, बे-ठीक नहीं कही। सार्थक कही, अनर्थक नहीं / इसका मैं भी अनुमोदन करता हूँ।"१ क्षत्रिय की उत्कृष्टता का उल्लेख बृहदारण्यकोपनिषद् में भी मिलता है। वह इतिहास की उस भूमिका पर अंकित हुआ जान पड़ता है जब क्षत्रिय और ब्राह्मण एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हो रहे थे। वहाँ लिखा है- "आरम्भ में यह एक ब्रह्म ही था। अकेले होने के कारण वह विभूतियुक्त कर्म करने में समर्थ नहीं हुआ। उसने अतिशयता से 'क्षत्र'-इस प्रशस्त रूप की रचना की अर्थात् देवताओं में जो क्षत्रिय, इन्द्र, वरुण, सोम, रुद्र, मेघ, यम, मृत्यु और ईशान आदि हैं, उन्हें उत्पन्न किया। अतः क्षत्रिय से उत्कृष्ट कोई नहीं है। उसी से राजसूय-यज्ञ में ब्राह्मण नीचे बैठ कर क्षत्रिय की उपासना करता है। वह क्षत्रिय में ही अपने यश को स्थापित करता है / " 2 आत्म-विद्या के लिए ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों की उपासना क्षत्रियों की श्रेष्ठता उनकी रक्षात्मक शक्ति के कारण नहीं, किन्तु आत्म-विद्या की उपलब्धि के कारण थी। यह आश्चर्यपूर्ण नहीं, किन्तु बहुत यथार्थ बात है कि ब्राह्मणों को आत्म-विद्या क्षत्रियों से प्राप्त हुई है। आरुणि का पुत्र श्वेतकेतु पंचालदेशीय लोगों की सभा में आया। प्रवाहण ने कहा-कुमार ! क्या पिता ने तुम्हें शिक्षा दी है ? श्वेतकेतु-हाँ भगवन् ! प्रवाहण-क्या तुझे मालूम है कि इस लोक से (जाने पर) प्रजा कहाँ जाती है ? श्वेतकेतु-नहीं, भगवन् ! प्रवाहण--क्या तू जानता है कि वह फिर इस लोक में कैसे आती है ? श्वेतकेतु-नहीं ! भगवन् ! प्रवाहण-देवयान और पितृयान-इन दोनों मार्गों का एक दूसरे से विलग होने का स्थान तुझे मालूम है ? श्वेतकेतु-नहीं, भगवन् ! प्रवाहण-तुझे मालूम है, यह पितृलोक मरता क्यों नहीं है ? श्वेतकेतु-भगवन् ! नहीं। १-दीघनिकाय, 3 / 4, पृ० 245 / २-बृहदारण्यक, 11411, पृ० 286 / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रवाहण-क्या तू जानता है कि पाँचवीं आहुति के हवन कर दिए जाने पर आप (सौम, घृतादि रस) पुरुष संज्ञा को कैसे प्राप्त होते हैं ? ___ श्वेतकेतु-नहीं, भगवन् ! नहीं। तो फिर तू अपने को 'मुझे शिक्षा दी गई है' ऐसा क्यों बोलता था ? जो इन बातों को नहीं जानता, वह अपने को शिक्षित कैसे कह सकता है ? तब वह त्रस्त होकर अपने पिता के स्थान पर आया और उससे बोला-"श्रीमान् ने मुझे शिक्षा दिए बिना हो कह दिया था कि मैंने तुम्हें शिक्षा दे दी है। उस क्षत्रिय बन्धु ने मुझ से पाँच प्रश्न पूछे थे, किन्तु मैं उनमें से एक का भी विवेचन नहीं कर सका।" उसने कहा-"तुमने उस समय ( आते ही ) जैसे ये प्रश्न मुझे सुनाएँ हैं, उनमें से मैं एक को भी नहीं जानता / यदि मैं इन्हें जानता तो तुम्हें क्यों नहीं बतलाता ?" __ तब वह गौतम राजा के स्थान पर आया और उसने अपनी जिज्ञासाएँ राजा के सामने प्रस्तुत की। राजा ने उसे चिरकाल तक अपने पास रहने का अनुरोध किया और कहा"गौतम ! जिस प्रकार तुमने मुझ से कहा है, पूर्व-काल में तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं गई। इसी से सम्पूर्ण लोकों में क्षत्रियों का ही (शिष्यों के प्रति) अनुशासन होता रहा है।" बृहदारण्यक उपनिषद् में भी राजा प्रवाहण आरुणि से कहता है-"इससे पूर्व यह विद्या (अध्यात्म-विद्या) किसी ब्राह्मण के पास नहीं रही। वह मैं तुम्हें बताऊंगा।"२ उपमन्यु का पुत्र प्राचीनशाल, पुलुष का पुत्र सत्ययज्ञ, मल्लवि के पुत्र का पुत्र इन्द्रद्युम्न, शर्करक्ष का पुत्र जन और अश्वतराश्व का पुत्र वडिल-ये महागृहस्थ और परम श्रोत्रिय एकत्रित होकर परस्पर विचार करने लगे कि हमारा आत्मा कौन है और हम क्या हैं ? उन्होंने निश्चय किया कि अरुण का पुत्र उद्दालक इस समय वैश्वानर आत्मा को जानता है, अतः हम उसके पास चलें। ऐसा निश्चय कर वे उसके पास आए। उसने निश्चय किया कि ये परम श्रोत्रिय महागृहस्थ मुझ से प्रश्न करेंगे, किन्तु मैं इन्हें पूरी तरह से बतला नहीं सकूँगा / अतः मैं इन्हें दूसरा उपदेष्टा बतला दूँ। १-छान्दोग्योपनिषद्, 5 // 3 // 1-70, पृ० 472-476 / २-बृहदारण्यकोपनिषद्, 6 / 2 / 8 : पथेयंविद्यतःपूर्व न कश्मिश्चन ब्राह्मण उवास तां त्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 4 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 85 उसने कहा-"इस समय केकयकुमार अश्वपति इस वैश्वानर संज्ञक आत्मा को अच्छी तरह से जानता है। आइए हम उसी के पास चलें।" ऐसा कह कर वे उसके पास चले गए। उन्होंने केकयकुमार अश्वपति से कहा- "इस समय आप वैश्वानर आत्मा को अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए उसका ज्ञान हमें दें।" दूसरे दिन केकयकुमार अश्वपति ने उन्हें आत्म-विद्या का उपदेश दिया।' __ ब्राह्मणों के ब्रह्मत्व पर तीखा व्यंग करते हुए अजातशत्रु ने गार्य से कहा था"ब्राह्मण क्षत्रिय को शरण में इस आशा से जाएं कि यह मुझे ब्रह्म का उपदेश करेगा, यह तो विपरीत है। तो भी मैं तुम्हें उसका ज्ञान कराऊँगा ही।" 2 प्रायः सभी मैथिल नरेश आत्म-विद्या को आश्रय देते थे / एम० विन्टरनिटज वे इस विषय पर बहुत विशद विवेचना की है। उन्होंने लिखा है-'भारत के इन प्रथम दार्शनिकों को उस युग के पुरोहितों में खोजना उचित न होगा, क्योंकि पुरोहित तो यज्ञ को एक शास्त्रीय ढाँचा देने में दिलोजान से लगे हुए थे जब कि इन दार्शनिकों का ध्येय वेद के अनेकेश्वरवाद को उन्मूलित करना ही था। जो ब्राह्मण यज्ञों के आडम्बर द्वारा हो अपनी रोटी कमाते हैं, उन्हीं के घर में ही कोई ऐसा व्यक्ति जन्म ले ले, जो इन्द्र तक की सत्ता में विश्वास न करे, देवताओं के नाम से आहुतियाँ देना जिसे व्यर्थ नजर आए, बुद्धि नहीं मानती। सो अधिक संभव नहीं प्रतीत होता है कि यह दार्शनिक चिन्तन उन्हीं लोगों का क्षेत्र था जिन्हें वेदों में पुरोहितों का शत्रु अर्थात् अरि, : कंजूस, 'ब्राह्मणों को दक्षिणा देने से जी चुराने वाला' कहा गया है। ___"उपनिषदों में तो और कभी-कभी ब्राह्मणों में भी, ऐसे कितने ही स्थल आते हैं, जहाँ दर्शन अनुचिन्तन के उस युग-प्रवाह में क्षत्रियों की भारतीय संस्कृति को देन स्वतः सिद्ध हो जाती है। ___ "कौशीतकी ब्राह्मण (26,5) में प्राचीन भारत की साहित्यिक गतिविधि की निदर्शक एक कथा, राजा प्रतर्दन के सम्बन्ध में आती है कि किस प्रकार वह मानी ब्राह्मणों से 'यज्ञ-विद्या के विषय में जूझता है। शतपथ की 11 वी कण्डिका में राजा जनक सभी पुरोहितों का मुंह बंद कर देते हैं, और तो और ब्राह्मणों को जनक के प्रश्न समझ में ही नहीं आते ? एक और प्रसंग में श्वेतकेतु, सोमशुष्म और याज्ञवल्क्य सरीखे माने हुए १-छान्दोग्योपनिषद्, 5 / 11 / 1-7 / २-बृहदारण्यकोपनिषद्, 2 / 1 / 15 / ३-विष्णुपुराण, 4 / 5 / 34 : प्रायेणेते आत्मविद्याश्रयिणो भूपाला भवन्ति / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ब्राह्मणों से प्रश्न करते हैं कि अग्निहोत्र करने का सच्चा तरीका क्या है, और किसी से इसका सन्तोषजनक उत्तर नहीं बन पाता / यज्ञ की दक्षिणा अर्थात् 100 गाएं, याज्ञवल्क्य के हाथ लगती हैं, किन्तु जनक साफ-साफ कहे जाता है कि अग्निहोत्री की भावना अभी स्वयं याज्ञवल्क्य को भी स्पष्ट नहीं हुई और सूत्र के अनन्तर जब महाराज अन्दर चले जाते हैं, तो ब्राह्मणों में कानाफूसी चल पड़ती है 'यह क्षत्रिय होकर हमारी ऐसी की तैसी कर गया; खैर हम भी तो इसे सबक दे सकते हैं-ब्रह्मोद (के विवाद) में इसे नीचा दिखा सकते हैं / ' तब याज्ञवल्क्य उन्हें मना करता है-देखो, हम ब्राह्मण हैं और वह सिर्फ एक क्षत्रिय हैं, हम उसे जीत भी लें तो हमारा उससे कुछ बढ़ नहीं जाता और अगर उसने हमें हरा दिया तो लोग हमारी मखौल उड़ाएँगे-'देखो, एक छोटे से क्षत्रिय ने ही इनका अभिमान चूर्ण कर डाला'। और उनसे (अपने साथियों से). छुट्टी पाकर याज्ञवल्क्य स्वयं जनक के चरणों में हाजिर होता है; भगवन् मुझे भी ब्रह्म-विद्या सम्बन्धी अपने स्वानुभव का कुछ प्रसाद दीजिए।"१ / ___ और भी ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं जिनमे आत्म-विद्या पर क्षत्रियों का प्रभुत्व प्रमाणित होता है। आत्म-विद्या के पुरस्कर्ता ___ एम० विन्टरनिट्ज ने लिखा है- "जहाँ ब्राह्मण यज्ञ, योग आदि की नीरस प्रक्रिया से लिपटे हए थे, अध्यात्म-विद्या के चरम प्रश्नों पर और लोग स्वतंत्र चिन्तन कर रहे थे। . इन्हीं ब्राह्मणेतर मण्डलों में ऐसे वानप्रस्थों तथा रमते परिव्राजकों का सम्प्रदाय उठाजिन्होंने न केवल संसार और सांसारिक सुख-वैभव से अपितु यज्ञादि की नीरसता से भी अपना नाता तोड़ लिया था। आगे चल कर बौद्ध, जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण-विरोधी मत-मतान्तरों का जन्म इन्हों स्वतंत्र-चिन्तकों तथाकथित नास्तिकों-की बदौलत सम्भव हो सका, यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है। प्राचीन यज्ञादि सिद्धान्तों के भप्मशेष से इन स्वतंत्र विचारों की परम्परा रही, यह भी एक (और) ऐतिहासिक तथ्य है। याज्ञिकों में 'जिद' कुछ घर कर पाती. और न यह नई दृष्टि कुछ संभव हो सकती। ____ "इन सबका यह मतलब न समझा जाए कि ब्राह्मणों का उपनिषदों के दार्शनिक चिन्तन में कोई भाग था ही नहीं, क्योंकि प्राचीन गुरुकुलों में एक हो आचार्य की छत्रछाया में ब्राह्मण-पुत्रों, क्षत्रिय-पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा का तब प्रबन्ध था और यह सब स्वाभाविक ही प्रतीत होता है कि विभिन्न समस्याओं पर समय-समय पर उन दिनों विचारविनिमय भी बिना किसी भेदभाव के हुआ करते थे।"२ १-प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, पृ० 183 / २-वही, पृ० 185 / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड : 1, प्रकरण : 4 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 87 'बौद्ध, जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण विरोधी मत-मतान्तरों का जन्म इन्हीं स्वतंत्र चिन्तकों तथाकथित नास्तिकों की बदौलत ही सम्भव हो सका'-..-'इस वाक्य की अपेक्षा यह वाक्य अधिक उपयुक्त हो सकता है कि 'बौद्ध जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण विरोधी मतमतान्तरों का विकास आत्म-वेत्ता क्षत्रियों की बदौलत ही संभव हो सका।' क्योंकि अध्यात्म- विद्या की परम्परा बहुत प्राचीन रही है, सभवतः वेद-रचना से पहले भी रही है / उसके पुरस्कर्ता क्षत्रिय थे। ब्राह्मण-पुराण भी इस बात का समर्थन करते हैं कि भगवान् ऋषभ क्षत्रियों के पूर्वज हैं।' उन्होंने सुदूर क्षितिज में अध्यात्म-विद्या का उपदेश दिया था। ब्राह्मणों की उदारता __ ब्राह्मणों ने भगवान् ऋषभ और उनकी अध्यात्म-विद्या को जिस प्रकार अपनाया, वह उनकी अपूर्व उदारता का ज्वलन्त उदाहरण है। एम० विन्टरनिटज के शब्दों में हम यह भी न भूल जाएं कि (भारत के इतिहास में) ब्राह्मणों में ही यह प्रतिभा पाई जाती है कि वे अपनी घिसी-पिटी उपेक्षित विद्या में भी नए---विरोधी भी क्यों न हों-विचारों की संगति बिठा सकते हैं / आश्रम-व्यवस्था को, इसी विशिष्टता के साथ, चुपचाप उन्होंने अपने (ब्राह्मण) धर्म का अंग बना लिया-वानप्रस्थ और संन्यासी लोग भी उन्हीं की प्राचीन व्यवस्था में समा गए / ___आरण्यकों और उपनिषदों में विकसित होने वाली अध्यात्य-विद्या को विचार-संगम की संज्ञा देकर हम अतीत के प्रति अन्याय नहीं करते। डा० भगवतशरण उपाध्याय का मत है कि ऋग्वैदिक काल के बाद जब उपनिषदों का समय आया तब तक क्षत्रिय-ब्राह्मण संघर्ष उत्पन्न हो गया था और क्षत्रिय ब्राह्मणों से वह पद छीन लेने को उद्यत हो गए थे जिसका अभोग ब्राह्मण वैदिक-काल से किए पा रहे थे। पार्जिटर का अभिमत इससे भिन्न है / उन्होंने लिखा है- “राजाओं व ऋषियों की परम्पराएं भिन्न-भिन्न रहीं / सुदूर अतीत में दो भिन्न परम्पराएँ थीं-क्षत्रिय-परम्परा और ब्राह्मण-परम्परा। यह मानना विचार ... १-(क) वायुपुराण, पूर्वाद्ध, 33150 : नाभिस्त्वजनयत पुत्रं, मरुदेव्यां महाद्युतिः / ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् // (ख) ब्रह्माण्डपुराण, पूर्वाद्ध, अनुषंगपाद, 14 / 60 : ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् / ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रशताग्रजः // २-प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, पृ० 186 / - ३-संस्कृति के चार अध्याय, पृ० 110 / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पूर्ण नहीं कि विशुद्ध क्षत्रिय-परम्परा पूर्णतः विलीन हो गई थी या अत्यधिक भ्रष्ट हो गई या जो वर्तमान में है, वह मौलिक नहीं। ब्राह्मण अपने धार्मिक व्याख्याओं को सुरक्षित रख सके व उनका पालन कर सके हैं तो क्षत्रियों के सम्बन्ध में इससे विपरीत मानना अविचारपूर्ण है। क्षत्रिय-परम्परा में भी ऐसे व्यक्ति थे, जिनका मुख्य कार्य ही परम्परा को सुरक्षित रखना था। "क्षत्रिय व ब्राह्मण-परम्परा का अन्तर महत्त्वपूर्ण है और स्वाभाविक भी।...यदि क्षत्रिय-परम्परा का अस्तित्व नहीं होता तो वह आश्चर्यजनक स्थिति होती। ब्राह्मण व क्षत्रिय-परम्परा की भिन्नता प्राचीनतम काल से पुराणों के संकलन व पौराणिक ब्रह्मणों का उन पर अधिकार होने तक रही।"१ वस्तुतः क्षत्रिय-परम्परा ऋग्वेद-काल से पूर्ववर्ती है। उपनिषद्-काल में क्षत्रिय ब्राह्मणों का पद छीन लेने को उद्यत नहीं थे ; प्रत्युत ब्राह्मणों को आत्म-विद्या का ज्ञान दे रहे थे / जैसा कि डा० उपाध्याय ने लिखा है- "ब्राह्मणों के यज्ञानुष्ठान आदि के विरुद्ध क्रान्तिकर क्षत्रियों ने उपनिषद्-विद्या की प्रतिष्ठा की और ब्राह्मणों ने अपने दर्शनों की नींव डाली। इस संघर्ष का काल प्रसार काफी लम्बा रहा जो अन्ततः द्वितीयं शती ई० पू० में ब्राह्मणों के राजनीतिक उत्कर्ष का कारण हुआ। इसमें एक ओर तो वशिष्ठ, परशुराम, तुरकावषेय, कात्यायन, राक्षस, पतंजलि और पुष्यमित्र शुंग की परम्परा रही और दूसरी ओर विश्वमित्र, देवापि, जनमेजय, अश्वपति, कैकेय, प्रवहण, जैबलिअजातशत्रु, कौशेय, जनक विदेह, पार्श्व, महावीर, वुद्ध और वृहद्रथ की।" 2 आत्म-विद्या और अहिंसा अहिंसा का आधार आत्म-विद्या है। उसके बिना अहिंसा कौरी नैतिक बन जाती है, उसका आध्यात्मिक मूल्य नहीं रहता। ____ अहिंसा और हिंसा कभी ब्राह्मण और क्षत्रिय-परम्परा की विभाजन रेखा थी। अहिंसा प्रिय होने के कारण क्षत्रिय जाति बहुत जनप्रिय हो गई थी जैसा की दिनकर ने लिखा है-"अवतारों में वामन और परशुराम, ये दो ही हैं जिनका जन्म ब्राह्मण-कुल में हुआ था। बाकी सभी अवतार क्षत्रियों के वंश में हुए हैं। वह आकस्मिक घटना हो सकती है, किन्तु इससे यह अनुमान आसानी से निकल आता है कि यज्ञों पर पलने के कारण ब्राह्मण इतने हिंसा-प्रिय हो गये थे कि समाज उनसे घृणा करने लगा और ब्राह्मणों का पद उन्होंने क्षत्रियों को दे दिया। प्रतिक्रिया केवल ब्राह्मण धर्म (यज्ञ) के प्रति ही 2-Ancient Indian Historical Tradition, p. 5,6. २-संस्कृति के चार अध्याय, पृ० 110 / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 4 आत्म-विद्या-क्षत्रियों की देन नहों, ब्राह्मणों के गढ़ कुरु पंचाल के खिलाफ भी जगी और वैदिक-सभ्यता के बाद वह समय आ गया जब इज्जत कुरु पंचाल की नहीं, बल्कि मगध और विदेह की होने लगी। कपिलवस्तु में जन्म लेने के ठोक पूर्व जब तथागत स्वर्ग में देवयोनि में विराज रहे थे, तब की कथा है कि देवताओं ने उनसे कहा कि अब आपका अवतार होना चाहिए, अतएव आप सोच लीजिए कि किस देश और किस कुल में जन्म-ग्रहण कीजिएगा। तथागत ने सोच समझ कर बताया कि महाबुद्ध के अवतार के योग्य तो मगध देश और क्षत्रिय-वंश ही हो सकता है / इसी प्रकार भगवान् महावीर वर्धमान भी पहले एक ब्राह्मणी के गर्भ में आए थे। लेकिन इन्द्र ने सोचा कि इतने बड़े महापुरुष का जन्म ब्राह्मण-वंश में कैसे हो सकता है ? अतएव उसने ब्राह्मणी का गर्भ चुरा कर उसे एक क्षत्राणी की कुक्षी में डाल दिया। इन कहानियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि उन दिनों यह अनुभव किया जाने लगा था कि अहिंसा-धर्म का महाप्रचारक ब्राह्मण नहीं हो सकता, इसलिए बुद्ध और महावीर के क्षत्रिय-वंश में उत्पन्न होने की कल्पना लोगों को बहुत अच्छी लगने लगी।" उक्त अवतरणों व अभिमतों से ये निष्कर्ष हमें सहज उपलब्ध होते हैं(१) आत्म-विद्या के आदि-स्रोत तीर्थङ्कर ऋषभ थे। (2) वे क्षत्रिय थे। (3) उनकी परम्परा क्षत्रियों में बराबर समादृत रही। (4) अहिंसा का विकास भी आत्म-विद्या के आधार पर हुआ। (5) यज्ञ-संस्था के समर्थक ब्राह्मगों ने वैदिक-काल में आत्म-विद्या को प्रमुखता नहीं दी। . (6) आरण्यक व उपनिषद्-काल में वे आत्म-विद्या की ओर आकृष्ट हुए। (7) क्षत्रियों के द्वारा उन्हें वह (आत्म-विद्या) प्राप्त हुई। . १-संस्कृति के चार अध्याय, पृ० 109-110 / 12 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : पाँचवाँ १-महावीर कालीन मतवाद भगवान् महावीर का युग धार्मिक मतवादों की जटिलता का युग था / बौद्ध-साहित्य में 62 धर्म मतवादों का विवरण मिलता है / ' सामञफलसुत्त में छह तीर्थङ्करों का उल्लेख है। उनमें पाँचवें तीर्थङ्कर निग्गंठ नातपुत्त अर्थात् भगवान् महावीर हैं / उनके मत का चातुर्याम संवर के रूप में उल्लेख किया गया है। अजातशत्रु भगवान् बुद्ध से कहता है__"भन्ते ! एक दिन मैं जहाँ निग्गंठ नाथपुत्त थे, वहाँ गया। जाकर निगंठ नाथपुत्त के साथ मैंने संमोदन किया :-'क्या भन्ते ! श्रामण्य के पालन करने का फल इसी जन्म में प्रत्यक्ष बतलाया जा सकता है।' ऐसा कहने पर भन्ते ! निग्गंठ नाथपुत्त ने यह उत्तर दिया--'महाराज ! निग्गंठ चार (प्रकार के) संवरों से संवृत्त (=आच्छादित,संयत) रहता है / महाराज ! निग्गंठ चार संवरों से कैसे संवृत रहता है ? महाराज ! (1) निग्गंठ (=निम्रन्थ) जल के व्यवहार का वारण करता है (जिसमें जल के जीव न मारे जावें), (2) सभी पापों का वारण करता है, (3) सभी पापों के वारण करने से धुतपाप (=पाप-रहित) होता है, (4) सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है। महाराज ! निग्गंठ इस प्रकार चार संवरों से संवृत्त रहता है। महाराज ! क्योंकि निग्गंठ इन चार प्रकार के संवरों से संवृत रहता है, इसीलिए वह निर्ग्रन्थ, गतात्मा (=अनिच्छुक ), यतात्मा (संयमी) और स्थितात्मा कहलाता है' ___ "भन्ते ! प्रत्यक्ष श्रामण्य फल के पूछे० निग्गंट नातपुत्त ने चार संवरों का वर्णन किया। भन्ते ! तब मेरे मन में यह हुआ 'कैसे मुझ जैसा 0 / ' भन्ते ! सो मैंने 0 / 0 उठ कर चल दिया / 2 यह संवाद वास्तविकता से दूर है। भगवान् महावीर चातुर्याम-संवर के प्रतिपादक नहीं थे। पार्श्वनाथ के चातुर्याम-धर्म को भ्रमवश निर्ग्रन्थ ज्ञात-पुत्र का चातुर्याम-संवर कहा गया है। लगता है कि संगीति में सम्मिलित बौद्ध भिक्षु भगवान् पार्श्व के चातुर्याम १-दीघनिकाय, 111, पृ० 5-15 / २-वही, 12, पृ० 21 / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 5 १-महावीर कालीन मतवाद धर्म से परिचित थे, किन्तु चार यामों की यथार्थ जानकारी उन्हें नहीं थी। सामञफलसुत्त में उल्लिखित चार याम निर्ग्रन्थ-परम्परा में प्रचलित नहीं रहे हैं। भगवान् पार्श्व के चार याम थे (1) प्राणातिपात-विरमण / (2) मृषावाद-विरमण / (3) अदत्तादान-विरमण / (4) बहिस्तात्-आदान-विरमण / ' भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थों के लिए पाँच महाव्रतों का प्रतिपादन किया था। भगवान् पार्श्व के चौथे उत्तराधिकारी कुमार श्रमण केशी एक बार श्रावस्ती में आए और तिन्दुक-उद्यान में ठहरे। उन्हों दिनों भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी भी वहाँ आए और कोष्ठक-उद्यान में ठहरे। उन दोनों के शिष्य परस्पर मिले। उनके मन में एक तर्क खड़ा हुआ--"यह हमारा धर्म कैसा है ? और यह उनका धर्म कैसा है ? आचार-धर्म को व्यवस्था यह हमारी कैसी है ? और वह उनकी कैसी है ? जो चातुर्यामधर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और यह जो पंच शिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है ..... 'जब कि हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ?"2 ___ अपने शिष्यों की वितर्कणा को जान कर उनका संदेह निवारण करने के लिए केशी और गौतम मिले। केशी ने गौतम से पूछा-"जो चातुर्याम-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्य ने किया है और यह जो पंच शिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है। एक ही उद्देश्य के लिए हम चलें हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? मेघाविन् ! धर्म के इन दो प्रकारों में तुम्हें संदेह कैसे नहीं होता ?" केशी के कहते-कहते ही गौतम ने इस प्रकार कहा-"धर्म के परम अर्थ की, जिसमें लाखों का विनिश्चय होता है, सीमा प्रज्ञा से होती है। पहले तीर्थङ्कर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं / अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वक्र और जड़ होते हैं। बीच के तीर्थङ्करों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं। पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। चरमवर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार का पालन कठिन है। मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं।" 3 १-स्थानांग, 4 / 1 / 266 / २-उत्तराध्ययन, 23 / 11,12,13 / ... ३-वही, 23 / 23-27 / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ गौतम ने जो उत्तर दिया उसका समर्थन स्थानांग से भी होता है। उत्तरवर्तीसाहित्य में भी यह अर्थ बराबर मान्य रहा है / इसका विसंवादी प्रमाण समन जैन-वाड़मय मैं कहीं भी नहीं है। इसलिए• सामञफलसुत्त का यह उल्लेख कि थामण्य का फल पूछने पर 'भगवान् महावीर ने चातुर्याम-संवर का व्याकरण किया' २-काल्पनिक सा लगता है। बुद्ध का प्रकर्ष और शेष तीर्थङ्करों व तीर्थिकों का अपकर्ष दिखाने के लिए बौद्ध भिक्षओं ने एक विशिष्ट शैली अपनाई थी। पिटकों में स्थान-स्थान पर वह देखने को मिलती है। इसीलिए उस शैली पर आधारित संवादों की यथार्थता की दृष्टि से बहुत महत्व नहीं दिया जा सकता। जैन आगमकारों को शैली इससे भिन्न है। पहली बात तो यह है कि उन्होंने अन्य तीर्थिकों के सिद्धान्त का उल्लेख किया, किन्तु उसके प्रवर्तक या प्ररूपक का उल्लेख नहीं किया। इससे उसका मूल ढूँढने में कठिनाई अवश्य होती है, पर उनके अपकर्ष-प्रदर्शन का प्रसंग नहीं आता। दूसरी बात-भगवान् महावीर का प्रकर्ष और अन्य तीथिकों का अपकर्प दिखलाने वाली शेली आगमकारों ने नहीं अपनाई। तीसरी बात-बौद्ध-भिक्षुओं ने पिटकों को जो साहित्यिक रूप दिया, वह जैन-साधुओं ने आगमों को नहीं दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिटकों को साहित्यिक रूप मिला, उससे वे बहुत सरस और मनोरम बन गए / आगम उतने सरस नहीं बन पाए। आगम वीर-निर्वाण की सहस्राब्दी के पश्चात् लिखे गए और पिटक बुद्ध-निर्वाण के पाँच सौ वर्ष बाद / फिर भी दोनों का निष्पक्ष अध्ययन करने वाला व्यक्ति इसी निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रहता कि पिटकों में जितना मिश्रण और परिवर्तन हुआ है, उतना आगमों में नहीं हुआ। उत्तराध्ययन में चार वादों का उल्लेख है-(१) क्रियावाद, (2) अक्रियावाद, (3) विनयवाद और (4) अज्ञानवाद / / इन चारों में विभिन्न अभ्युपगम-सिद्धान्तों का समावेश हो जाता है, इसीलिए १-स्थानांग, 5 // 1 // 395 / २-दीघनिकाय (पढमो भागो), सामञफलंसुत्तं, पृ० 50 : निगण्ठो नातपुत्तो सन्दिट्टिकं सामञफलं पुट्ठो समानो चातुयामसंवरं ब्याकासि। ३-मझिम निकाय, 2 / 1 / 6 उपालि-सुत्तन्त ; 2 / 1 / 8 अभयराजकुमार-सुत्तन्त / ४-उत्तराध्ययन, 18 / 23 / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 5 २-जेन धर्म और क्षत्रिय सूत्रकृतांग में इन्हें 'समवसरण' कहा गया है / ' सूत्रकृतांग के नियुक्तिकार ने इन समवसरणों में समाहृत होने वाले मतवादों की संख्या तीन सौ तिरेसठ बताई है। क्रियावादी मतवाद- 180 अक्रियावादी मतवाद----- 84 विनयवादी मतवाद-- 32 अज्ञानवादी मतवाद...-- G JA 263 इन सब मतवादों और उनके आचार्यो के नाम प्राप्त नहीं हैं, किन्तु जैनों के प्रकीर्णग्रन्थ और बौद्ध एवं वैदिक-साहित्य के संदर्भ में इनके कुछ नामों का पता लगाया जा सकता है। . २-जैन धर्म और क्षत्रिय जैन दर्शन क्रियावादी है। इस विचारधारा ने बहुत व्यक्तियों को प्रभावित किया था। उतराध्ययन में उन व्यक्तियों की एक लम्बो तालिका है, जो इस क्रियावादी विचारधारा से प्रभावित होकर श्रमण बने थे। क्षत्रिय राजा. ब्राह्मण (1) विदेहराज नमि (अ०६) (1) भृगु (अ०१४) (2) इषुकार (अ०१४) (2) यशा (अ०१४) (3) कमलावती रानी (अ०१४) (3) दो भृगु पुत्र (अ०१४) (4) संजय (अ०१८) (4) गौतम (अ०२४) (5) एक क्षत्रिय (अ०१८) (5) जयघोष (अ०२५) (6) गद्दमालि (अ०१८) (6) विजयघोष (अ०२५) (7) भरत चक्रवर्ती (अ०१८) (7) गर्ग (अ०२७) १-सूत्रकृातांग, 1 / 12 / 1 / २-वहीं, नियुक्ति, गाथा 116 : असियसयं किरियाणं अक्किरियाणं च होइ चुलसीती। अन्नाणियं सतही वेणइयाणं च बत्तीसा // ३-(क) षटखण्डागम, खण्ड 1, भाग 1, पुस्तक 2, पृ० 42 / (ख) तत्त्वार्थवार्तिक 8 / 1, पृ० 652 / (ग) देखिए-उत्तराध्ययन, 18 / 23 का टिप्पण। ४-उत्तराध्ययन, 18 / 33 / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (8) सगर चक्रवर्ती (अ०१८) वैश्य (9) मघवा चक्रवर्ती (अ०१८) (1) संभूत (अ०१३) (10) सनत्कुमार चक्रवर्ती (अ०१८) (2) अनाथी (अ०२०) (11) शान्ति चक्रवर्ती और तीर्थङ्कर (अ०१८) (3) समुद्रपाल (अ०२१) (12) कुन्थु तीर्थङ्कर (अ०१८) चाण्डाल (13) अर तीर्थङ्कर (अ०१८) (1) हरिकेशबल (अ०१२) (14) महापद्म चक्रवर्ती (अ०१८) (2) चित्र (अ० 1.3) (15) हरिपेण चक्रवर्ती (अ०१८) (3) संभूत (पूर्वजन्म) (अ०१३)' (16) जय चक्रवर्ती (अ०१८) (17) दशार्णभद्र (अ०१८) (18) करकण्डू (अ०१८) (16) द्विमुख (अ०१८) (20) नम जित् (अ०१८) (21) उद्रायण (अ०१८) (22) काशीराज (अ०१८) (23) विजय (अ०१८) (24) महाबल (अ०१८) (25) मृगापुत्र (अ०१६) (26) अरिष्टनेमि (अ०२२) (27) राजीमती (अ०२२) (28) रथनेमि (अ०२२) (26) केशी (अ०२३) इस तालिका के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस क्रियावादी ( या आत्मवादी ) विचारधारा ने क्षत्रियों को अधिक प्रभावित किया था। इतिहास की यह विचित्र घटना है कि जो धारा क्षत्रियों से उद्भूत हुई और सभी जातियों को प्रभावित करतो हुई भी उनमें सतत प्रवाहित रही, वही धारा आगे चल कर केवल वैश्य-वर्ग में सिमट गई। समग्र आगमों के अध्ययन से हम जान पाते हैं कि निर्ग्रन्थ-संघ में हजारों ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र निर्ग्रन्थ थे। किन्तु उनमें प्रचुरता क्षत्रियों की ही थी। इस प्रसंग में हमें इस विषय पर संक्षिप्त विवेचन करना है कि जैन-धर्म केवल वैश्य-वर्ग में सीमित क्यों हुआ? Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगध खण्ड : 1, प्रकरण : 5 ३-भगवान् महावीर का विहार-क्षेत्र / 65 ३-भगवान् महावीर का विहार क्षेत्र भगवान् महावीर का विहार-क्षेत्र प्रमुखतः वर्तमान बिहार, बंगाल और उत्तरप्रदेश था। जैन-साहित्य में साढ़े पच्चीस देशों को आर्य-देश कहा गया हैआर्य-देश राजधानी राजगृह अंग चम्पा बंग ताम्रलिप्ति कलिंग कांचनपुर काशी वाराणसी कौशल साकेत गजपुर (हस्तिनापुर) पांचाल काम्पिल्य जंगल (जांगल) अहिच्छत्र द्वारावती विदेह. . मिथिला वत्स कौशाम्बी शांडिल्य नन्दिपुर भद्दिलपुर मत्स्य वैराट अत्स्य (अच्छ) वरुणा दशार्ण मृत्तिकावती शुक्तिमती सिन्धु-सौवीर वीतभय शूरसेन मथुरा भंगी पावा मासपुरी कुणाल श्रावस्ती लाढ कोटिवर्ष केकय श्वेतांबिका १-प्रज्ञापना, पद 1 / सौराष्ट्र मलय चेदि. वर्त Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन रुक्षत्र किन्तु भगवान महावीर ने साधुओं के विहार के लिए आर्य-क्षेत्र की जो सीमा की, वह उक्त सीमा से छोटी है---- (1) पूर्व दिशा में अंग और मगध (2) दक्षिण दिशा में कौशाम्बी (3) पश्चिम दिशा में स्थूणा-कुरुक्षेत्र (4) उत्तर दिशा में कुणाल देश' . इस विहार-सीमा से यह प्रतीत होता है कि जैनों का प्रभाव-क्षेत्र मुख्यत: यही था। महावीर के जीवन-काल में ही संभवत: जैन-धर्म का प्रभाव क्षेत्र विस्तृत हो गया था। विहार की यह सीमा तीर्थ-स्थापना के कुछ वर्षों बाद ही की होगी। जीवन के उत्तरकाल में भगवान् महावीर स्वयं अवन्ति (उज्जन) सिन्धु, सौवीर आदि प्रदेशों में गए थे। हरिवंशपुराण के अनुसार भगवान् महावीर बाल्हीक (बैक्ट्यिा , बलख), यवन (यूनान), गांधार (आधुनिक अफगानिस्तान का पूर्वी भाग), कम्बोज (पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त) में गए थे। बंगाल की पूर्वीय सीमा (संभवतः बर्मी सरहद) तक भी भगवान् के बिहार की संभावना की जाती है / ४-विदेशों में जैन-धर्म जैन-साहित्य के अनुसार भगवान् ऋषभ, अरिष्टनेमि, पाव और महावीर ने अनार्यदेशों में विहार किया था। मूत्रकृतांग के एक श्लोक से अनार्य का अर्थ 'भाषा-भेद' भी फलित होता है।" इस अर्थ की छाया में हम कह सकते हैं कि चार तीर्थङ्करों ने उन देशों में भी विहार किया, जिनकी. भाषा उनके मुख्य विहार-क्षेत्र की भाषा से भिन्न थी। भगवान् ऋषभ ने बहलो (बेक्ट्यिा , बलख), अडंबइल्ला (अटकप्रदेश), यवन (यनान), सुवर्णभूमि (सुमात्रा), पण्हव आदि देशों में विहार किया। पण्हव का सम्बन्ध प्राचीन पार्थिया (वर्तमान ईरान का एक भाग) से है या पल्हव से, यह निश्चित नहीं कहा जा १-बृहत्कल्प, भाग 3, पृ० 905 / २-हरिवंशपुराण, सर्ग 3, श्लोक 5 / ३-सुवर्णभूमि में कालकाचार्य, पृ० 22 / ४-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 256 / ५-सूत्रकृतांग, 1 / 1 / 2 / 15 / ६-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 336-337 / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 खण्ड: 1, प्रकरण :5 ४-विदेशों में जैन-धर्म सकता / भगवान् अरिष्टनेमि दक्षिणापथ के मलय देश में गए थे।' जब द्वारका-दहन हुआ था तब अरिष्टनेमि पल्हव नामक अनार्य-देश में थे / 2 भगवान् पार्श्वनाथ ने कुरु कौशल, काशी, सुम्ह, अवन्ती, पुण्ड, मालव, अंग, बंग, कलिंग, पांचाल, मगध, विदर्भ, भद्र, दशार्ण, सौराष्ट्र, कर्णाटक, कोंकण, मेवाड़, लाट, द्राविड़, काश्मीर, कच्छ, शाक, पल्लव, वत्स, आभीर आदि देशों में विहार किया था / दक्षिण में कर्णाटक, कोंकण, पल्लव, द्राविड़ आदि उस समय अनार्य माने जाते थे। शाक भी अनार्य प्रदेश है। इसकी पहिचान शाक्य-देश या शाक्य-द्वीप से हो सकती है / शाक्य भूमि नेपाल की उपत्यका में है। वहाँ भगवान् पार्श्व के अनुयायी थे। भगवान् बुद्ध का चाचा स्वयं भगवान् पार्श्व का श्रावक था / शाक्य-प्रदेश में भगवान् का विहार हुआ हो, यह बहुत संभव है। भारत और शाक्य-प्रदेश का बहुत प्राचीन-काल से सम्बन्ध रहा है। भगवान् महावीर वज्रभूमि, सुम्हभूमि, दृढभूमि आदि अनेक अनार्य-प्रदेशों में गए थे। वे बंगाल की पूर्वीय सीमा तक भी गए थे। उत्तर-पश्चिम सीमा-प्रान्त एवं अफगानिस्तान में विपुल संख्या में जैन-श्रमण विहार करते थे / ___ जैन-श्रावक समुद्र पार जाते थे। उनकी समुद्र-यात्रा और विदेश-व्यापार के अनेक प्रमाण मिलते हैं / लंका में जैन-श्रावक थे, इसका उल्लेख बौद्ध-साहित्य में भी मिलता है। महावंश के अनुसार ई० पू० 430 में जब अनुराधापुर बसा, तब जैन-श्रावक वहाँ विद्यमान थे। वहाँ अनुराधापुर के राजा पाण्डुकाभय ने ज्योतिय निग्गंठ के लिए घर बनवाया। उसी स्थान पर गिरि नामक निग्गंठ रहते थे। राजा पाण्डुकाभय ने कुम्भण्ड निगंठ के लिए एक देवालय बनवाया था।६ जैन-श्रमण भी सुदूर देशों तक विहार करते थे। ई० पू० 25 में पाण्ड्य राजा ने अगस्टस सीजर के दरबार में दूत भेजे थे। उनके साथ श्रमण भी यूनान गए थे। १-हरिवंशपुराण, सग 59, श्लोक 112 / २-सुखबोधा, पत्र 36 / ३-सकलकीर्ति, पाश्वनाथ चरित्र, 15176-85 ; 23 // 17-19 / ४-अंगुत्तरनिकाय की अट्ठकथा, भाग 2, पृ० 559 / / ५-(क) जनरल ऑफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी, जनवरी 1985 / (ख) एन्शियन्ट ज्योग्रफी ऑफ इन्डिया, पृ० 617 / ६-महावंश, परिच्छेद 10, पृ० 55 / ७-इंडियन हिस्टोरीकल क्वाटी, भाग 2, पृ० 293 / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन जी० एफ० मूर के अनुसार ईसा से पूर्व ईराक, शाम और फिलिस्तीन में जैन-मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकड़ों की संख्या में चारों ओर फैले हुए थे। पश्चिमी एशिया, मिश्र, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित भारतीय-साधु रहते थे, जो अपने त्याग और अपनी विद्या के लिए प्रसिद्ध थे। ये साधु वस्त्रों तक का परित्याग किए हुए थे।' इस्लाम-धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन-धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। कलन्दर चार नियमों का पालन करते थे - साधुता, शुद्धता, सत्यता और दरिद्रता / वे अहिंसा पर अखण्ड विश्वास रखते थे।२ ___यूनानी लेखक मिस्र, एबीसीनिया, इथ्यूपिया में दिगम्बर-मुनियों का अस्तित्व बताते हैं / __आर्द्र देश का राजकुमार आर्द्र भगवान् महावीर के संघ में प्रवजित हुआ था। अरबिस्तान के दक्षिण में ‘एडन' बंदर वाले प्रदेश को 'आद्र-देश' कहा जाता था।" कुछ विद्वान् इटली के एडियाटिक समुद्र के किनारे वाले प्रदेश को आद्र-देश मानते हैं।६।। बेबीलोनिया में जैन-धर्म का प्रचार बौद्ध-धर्म का प्रसार होने से पहले ही हो चुका था। इसकी सूचना बावेरु-जातक से मिलती है। इन-अन नजीम के अनुसार अरबों के शासन-काल में यहिया इब्न खालिद बरमकी ने खलीफा के दरबार और भारत के साथ अत्यन्त गहरा सम्बन्ध स्थापित किया। उसने बड़े अध्यवसाय और आदर के साथ भारत के हिन्दू, बौद्ध और जैन विद्वानों को निमंत्रित किया। ___ इस प्रकार मध्य एशिया में जैन-धर्म या श्रमण-संस्कृति का काफी प्रभाव रहा था। उससे वहाँ के धर्म प्रभावित हुए थे / वानक्रेमर के अनुसार मध्य-पूर्व में प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रंश है। . १-हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 374 / २-वही, पृ० 374 / ३-एशियाटिक रिसर्चेज, भाग 3, पृ० 6 / ४-सूत्रकृतांग, 216 / ५-प्राचीन भारतवर्ष, प्रथम भाग, पृ० 265 / ६-वही, प्रथम भाग, पृ० 265 / ७-बावेरु जातक, (सं० 336), जातक खण्ड 3, पृ० 289-291 / ८-हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 375 / ९-वही, पृ० 374 / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 5 ४-विदेशों में जैन-धर्म 66 श्री विश्वम्भनाथ पाण्डे ने लिखा है-"इन साधुओं के त्याग का प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियों पर विशेष रूप से पड़ा। इन आदर्शों का पालन करने वालों को, यहूदियों में, एक खास जमात बन गई, जो 'ऐस्सिनी' कहलाती थी। इन लोगों ने यहूदी-धर्म के कर्म-काण्डों का पालन त्याग दिया। ये बस्ती से दूर जंगलों में या पहाड़ों पर कुटी बना कर रहते थे। जैन-मुनियों की तरह अहिंसा को अपना खास धर्म मानते थे। मांस खाने से उन्हें बेहद परहेज था / वे कठोर और संयमी जीवन व्यतीत करते थे / पैसा या धन को छूने तक से इन्कार करते थे। रोगियों और दुर्बलों की सहायता को दिन-चर्या का आवश्यक अङ्ग मानते थे। प्रेम और सेवा को पूजा-पाठ से बढ़ कर मानते थे / पशु-बलि का तीव्र विरोध करते थे। शारीरिक परिश्रम से ही जीवन-यापन करते थे। अपरिग्रह के सिद्धान्त पर विश्वास करते थे / समस्त सम्पत्ति को समाज की सम्पत्ति समझते थे। मिस्र में इन्हीं तपस्वियों को 'थेरापूते' कहा जाता था। 'थेरापूते' का अर्थ 'मौनी अपरिग्रही' है।" ___ कालकाचार्य सुवर्णभूमि (सुमात्रा) में गए थे। उनके प्रशिष्य श्रमण सागर अपने गणसहित वहाँ पहले ही विद्यमान थे। ___कौंचद्वीप, सिंहलद्वीप ( लंका ) और हंसद्वीप में भगवान् सुमतिनाथ की पादुकाएँ थीं। पारकर देश और कासहद में भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा थी।" ऊपर के संक्षिप्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैन-धर्म का प्रसार हिन्दुस्तान से बाहर के देशों में भी हुआ था। उत्तरवर्ती श्रमणों की उपेक्षा व अन्यान्य परिस्थितियों के कारण वह स्थायी नहीं रह सका। १-हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 374 / २-(क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 120 / (ख) वही, बृहद्वृत्ति, पत्र 127-128 / (ग) वही, चूर्णि, पृ० 83-84 / (घ). वही, वृत्ति (सुखबोधा), पृ० 50 / (ङ) बृहत्कल्प, भाज्य, भाग 1, पृ० 73,74 / (च) निशीथ चूर्णि, उद्देशक 10 / ३-कर्नल विल्फर्ड के अनुसार क्रौंचद्वीप का सम्बन्ध बाल्टिक समुद्र के पाश्ववर्ती प्रदेश से है ( एशियाटिक रिसर्चेज, खण्ड 11, पृ० 14) / स्वर्गीय राजवाड़े के मतानुसार घृत समुद्र के पश्चिम में क्रौंचद्वीप था। जिस प्रदेश में वर्तमान समरकन्द तथा बुखारा शहर बसे हुए हैं, वह प्रदेश वास्तव में 'क्रौंचद्वीप' कहलाता था। ४-विविधतीर्थकल्प, पृ० 85 / Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ५-जैन-धर्म-हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में विहार - भगवान् महावीर के समय में उनका धर्म प्रजा के अतिरिक्त अनेक राजाओं द्वारा भी स्वीकृत था। वृज्जियों के शक्तिशाली गणतंत्र के प्रमुख राजा चेटक भगवान् महावीर के श्रावक थे। वे पहले से ही जैन थे। वे भगवान् पार्श्व की परम्परा को मान्य करते थे / ' वृज्जी गणतंत्र की राजधानी 'वैशाली' थी। वहाँ जैन-धर्म बहुत प्रभावशाली था। मगध सम्राट श्रेणिक प्रारम्भ में बुद्ध का अनुयायी था। अनाथी मुनि के सम्पर्क में आने के पश्चात् वह निम्रन्थ धर्म का अनुयायी हो गया था। इसका विशद वर्णन उत्तराध्ययन के बीसवें अध्ययन में है। श्रेणिक की रानी चेल्लणा चेटक की पुत्री थी। यह श्रेणिक को निर्ग्रन्थ-धर्म का अनुयायी बनाने का सतत प्रयत्न करती थी और अन्त में उसका प्रयत्न सफल हो गया। मगध में भी जैन-धर्म प्रभावशाली था। श्रेणिक का पुत्र कूणिक भी जैन था / जैन-आगमों में महावीर और कूणिक के अनेक प्रसंग हैं। मगध शासक शिशनाग-वंश के बाद नन्द-वंश का प्रभुत्व बढ़ा। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ रायचौधरी के अनुसार नन्द-वंश का राज्य बम्बई के सुदूर दक्षिण गोदावरी तक फैला हुआ था। उस समय मगध और कलिंग में जैन-धर्म का प्रभुत्व था ही, परन्तु अन्यान्य प्रदेशों में भी उसका प्रभुत्व बढ़ रहा था। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार "जैन-ग्रन्थों को भी नौ नन्दों का परिचय है ( आवश्यक सूत्र, पृ० ६६३---नवमे नन्दे ) / उनमें भी नन्द को वेश्या के गर्भ से उत्पन्न 'नापित-पुत्र' कहा है ( वही, पृ० ८६०-नापितदास'''राजा जातः) परन्तु उदायि और नौ नन्दों के बीच के राजा उन्रोंने छोड़ दिये। संभवतः उन्हें नगण्य समझकर नहीं लिया। _ "जैन-धर्म के प्रति नन्दों के झुकाव का कारण संभवतः उसकी जाति थी। पहले नंद को छोड़कर और नंदों के विरुद्ध जैन-ग्रन्थों में कुछ नहीं कहा है। नंद राजाओं के मंत्री १-उपदेशमाला, गाथा 92 : वेसालीए पुरीए सिरिपास जिणेससासणसणाहो। हेहयकुलसंभूओ चेडगनामा निवो आसि // २-दीघनिकायो (पढमो भागो), पृ० 135 : समणं खलु भो गोतम राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सपुत्तो सभारियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो। ३-स्टडीज इन इन्डियन एन्टीक्वीटीज, पृ० 215 / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 5 ५-जैन-धर्म-हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में 101 जैन थे। उनमें पहला कल्पक था जिसे बलात् यह पद संभालना पड़ा। कहा जाता है कि इसी मंत्री की विशेष सहायता पा कर सम्राट् नंद ने तुल्यकालीन क्षत्रिय-वंशों के अन्त करने के लिए अपनी सैनिक विजय की योजना की। उत्तरकालीन नन्दों के मंत्री उसी के वंशज थे (वही, 661-3) / नौ नंद का मंत्री शकटाल था। उसके दो पुत्र थे-स्थलभद्र और श्रीयक / पिता की मृत्यु के बाद स्थूलभद्र को मंत्रि-पद दिया गया, पर उसने स्वीकार नहीं किया / वह छठे जिन से दीक्षा लेकर साधु हो गया ( वही, 435-6 ; 663-5 ), तब वह पद उसके भाई श्रीयक को दिया गया। "नंदों पर जेनों के प्रभाव की अनुश्रुति को बाद के संस्कृत नाटक 'मुद्राराक्षस' में भी माना गया है। वहाँ चाणक्य ने एक जैन को ही अपना प्रधान गुप्तचर चुना है। नाटक की सामाजिक पृष्ठ-भूमि पर भी कुछ अंश में जैन-प्रभाव है। ___"खारवेल के हाथीगुंफा लेख से कलिंग पर नन्द की प्रभुता ज्ञात होती है। एक वाक्य में उसे 'नन्द राजा' कहा गया है जिसने एक प्रणाली या नहर बनाई थी, जो 300 वर्ष (या 103 ? ) वर्षों तक काम में न आई / तब अपने राज्य के पाँचवे वर्ष में खारवेल उसे अपने नगर में लाया। दूसरे वाक्य में कहा गया है कि नन्द राजा प्रथम जिनकी मूर्ति (या पादुका), जो कलिंग राजामों के यहाँ वंश-परम्परा से चली आ रही थी, विजय के चिह्न रूप मगध उठा ले गया।" नन्द-वंश को समाप्ति हुई और मगध की साम्राज्यश्री मौर्य-वंश के हाथ में आई। उसका पहला सम्राट चन्द्रगुप्त था। उसने उत्तर भारत में जैन धर्म का बहुत विस्तार किया। पूर्व और पश्चिम भी उससे काफी प्रभावित हुए। सम्राट चन्द्रगुप्त अपने अंतिम जीवन में मुनि बने और श्रुतकेवलो भद्रबाहु के साथ दक्षिण में गए थे। चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार और उनके पुत्र अशोकश्री (सम्राट अशोक) हुए। ऐसा माना जाता है कि वे प्रारम्भ में जैन थे, अपने परम्परागत धर्म के अनुयायो थे और बाद में बौद्ध हो गए। ___ कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं कि वे अन्त तक जैन ही थे। प्रो० कर्न के अनुसार ."अहिंसा के विषय में अशोक के नियम बौद्ध-सिद्धान्तों की अपेक्षा जैन-सिद्धान्तों से अधिक मिलते हैं।"3. १-हिन्दू सभ्यता, पृ० 264-265 / २-अली फैथ ऑफ अशोक (थॉमस) पृ० 31-32,34 / 3-. Indian Antiquery, Vol. V, page 205. His (Ashoka's) ordinances concerning the sparing of animal life agree much more closely with the idieas of historical Jainas then those of the Buddhists. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन अशोक के उत्तराधिकारी उनके पौत्र सम्प्रति थे। कुछ इतिहासज्ञ उनका उत्तराधिकारी उनके पुत्र कुणाल (सम्प्रति के पिता) को ही मानते हैं / जिनप्रभ सूरि के अनुसार मौर्य-वंश की राज्यावलि का क्रम इस प्रकार है (1) चन्द्रगुप्त / (2) बिन्दुसार। (3) अशोकश्री। (4) कुणाल / (5) सम्प्रति / किन्तु कुछ जैन लेखकों के अनुसार कुणाल अन्धा हो गया था, इसलिए उसने अपने पुत्र सम्प्रति के लिए ही सम्राट अशोक से राज्य माँगा था / सम्राट सम्प्रति को 'परम आर्हत्' कहा गया है। उन्होंने अनार्य-देशों में श्रमणों का विहार करवाया था। भगवान् महावीर के काल में विहार के लिए जो आर्य-क्षेत्र की सीमा थी, वह सम्प्रति के काल में बहुत विस्तृत हो गई थी। साढे पच्चीस देशों को आर्य-क्षेत्र मानने की बात भी सम्भवतः सम्प्रति के बाद ही स्थिर हुई होगी। ___सम्राट सम्प्रति को भरत के तीन खण्डों का अधिपति कहा गया है। जयचन्द्र विद्यालंकार ने लिखा है-“सम्प्रति को उज्जैन में जैन आचार्य सुहस्ती ने अपने धर्म की दीक्षा दी। उसके बाद सम्प्रति ने जैन-धर्म के लिए वही काम किया जो अशोक ने बौद्ध-धर्म के लिए किया था। चाहे चन्द्रगुप्त के और चाहे सम्प्रति के समय में जैन-धर्म की बुनियाद तामिल भारत के नए राज्यों में भी जा जमी, इसमें संदेह नहीं। उत्तरपश्चिम के अनार्य-देशों में भी सम्प्रति के समय जैन-प्रचारक भेजे और वहाँ जैन-साधुओं के लिए अनेक विहार स्थापित किए गए। अशोक और सम्प्रति दोनों के कार्य से आर्य १-भारतीय इतिहास की रूपरेखा, जिल्द 2, पृ० 696 : २-विविधतीर्थकल्प, पृ० 69 / / तत्रैव च चाणिक्यः सचिवो नन्दं समूलमुन्मूल्य मौर्यवंश्यं श्रीचन्द्रगुप्तं न्यवीशद्विशांपतित्वे / तवंशे तु बिन्दुसारोऽशोकश्री:कुणालस्तत्सूनुस्त्रिखण्डभारताधिपः परमाहतोऽनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तितश्रमणविहारः सम्प्रतिमहाराजश्चाभवत् // ३-विशेषावश्यक भाष्य, पृ० 276 / ४-विविधतीर्थकल्प, पृ० 69 / ५-बृहत्कल्प भाष्य वृत्ति, भाग 3, पृ० 907 : 'ततः परं' बहिर्देशेषु अपि सम्प्रतिनृपतिकालादारभ्य यत्र ज्ञान-दर्शन चारित्राणि 'उत्सर्पन्ति' स्फातिमासादयन्ति तत्र विहर्त्तव्यम् / Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 5 ५-जैन-धर्म-हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में 103 संस्कृति एक विश्व-शक्ति बन गई और आर्यावर्त का प्रभाव भारतवर्ष की सीमाओं के बाहर तक पहुँच गया। अशोक की तरह उसके पौत्र ने भी अनेक इमारतें बनवाई। राजपूताना की कई जैन रचनाएँ उसके समय की कही जाती हैं। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि जो शिला-लेख अशोक के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे सम्राट सम्प्रति ने लिखवाए थे। सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद् श्री सूर्यनारायण व्यास ने एक बहुत खोजपूर्ण लेख द्वारा यह प्रमाणित किया है कि सम्राट अशोक के नाम के लेख सम्राट् सम्प्रति के हैं।' सम्राट अशोक ने शिला-लेख लिखवाए हों और उन्हीं के पौत्र तथा उन्हों के समान धर्म-प्रचार-प्रेमी सम्राट सम्प्रति ने शिला-लेख न लिखवाए हों, यह कल्पना नहीं की जा सकती। एक बार फिर सूक्ष्म-दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता है कि अशोक के नाम से प्रसिद्ध शिला-लेखों में कितने अशोक के हैं और कितने सम्प्रति के ? बंगाल राजनीतिक दृष्टि से प्राचीन-काल में बंगाल का भाग्य मगध के साथ जुड़ा हुआ था। नन्दों और मौर्यों ने गंगा की उस नीचली घाटी पर अपना स्वत्व बनाए रखा। कुषाणों के समय में बंगाल उनके शासन से बाहर रहा, परन्तु गुप्तों ने उस पर अपना अधिकार फिर स्थापित किया। गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् बंगाल में छोटे छोटे अनेक राज्य उठ खड़े हुए। - मुनि कल्याणविजयजी के अनुसार प्राचीन-काल में बंग शब्द से दक्षिण बंगाल का ही बोध होता था, जिसकी राजधानी 'ताम्रलिप्ति' थी, जो आज कल तामलुक नाम से प्रसिद्ध है। बाद में धीरे-धीरे बंगाल की सीमा बढ़ी और वह पाँच भागों में भिन्न-भिन्न नामों से पहिचाना जाने लगा-बंग ( पूर्वी बंगाल ), समतट ( दक्षिणी बंगाल ), राढ अथवा कर्ण सुवर्ण ( पश्चिमी बंगाल ), पुण्ड्र ( उत्तरी बंगाल ), कामरूप ( आसाम ) / " भगवान् महावीर वज्रभूमि ( वीर भूमि ) में गए थे। उस समय वह अनार्य प्रदेश कहलाता था। उससे पूर्व बंगाल में भगवान् पार्श्व का धर्म ही प्रचलित था। वहाँ बौद्धधर्म का प्रचार जन-धर्म के बाद में हुआ। वैदिक-धर्म का प्रवेश तो वहाँ बहुत बाद में १-भारतीय इतिहास की रूपरेखा, जिल्द 2, पृ० 696-697 / २-जैन इतिहास की पूर्व पीठिका और हमारा अभ्युत्थान, पृ० 66 / ३-नागरी प्रचारिणी। ४-प्राचीन भारत का इतिहास, पृ० 265 / ५-श्रमण भगवान् महावीर, पृ० 386 ! Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन हुआ था। ई० स० 686 में राजा आदिसूर ने नैतिक धर्म के प्रचार के लिए पाँच ब्राह्मण निमन्त्रित किए थे। ___ भगवान् महावीर के सातवें पट्टधर श्री श्रुतकेवली भद्रबाहु पौण्ड्वर्धन (उत्तरी बंगाल) के प्रमुख नगर कोट्टपुर के सोमशर्म पुरोहित के पुत्र थे / उनके शिष्य स्थविर गोदास से गोदास-गण का प्रवर्तन हुआ। उसको चार शाखाएँ थीं (1) तामलित्तिया। (2) कोडिवरिसिया। (3) पुंडवद्धणिया ( पोंडवद्धणिया)। (4) दासीखब्बडिया / तामलित्तिया का सम्बन्ध बंगाल की मुख्य राजधानी ताम्रलिप्ती से है। कोडिवरिसिया का सम्बन्ध राढ की राजधानी कोटिवर्ष से है। पोंडवद्धणिया का सम्बन्ध पौंड-उत्तरी बंगाल से है। दासी खब्वडिया का सम्बन्ध खरवट से है। इन चारों बंगाली शाखाओं से बंगाल में जैन-धर्म के सार्वजनिक प्रसार की सम्यक जानकारी मिलती है। ___ शान्तिनिकेतन के उपकुलपति आचार्य क्षितिमोहन सेन ने 'बंगाल और जैन-धर्म' शीर्षक लेख में लिखा है- "भारतवर्ष के उत्तर-पूर्व प्रदेशों अर्थात् अंग, बंग, कलिंग, मगध, काकट (मिथिला) आदि में वैदिक-धर्म का प्रभाव कम तथा तीर्थिक प्रभाव अधिक था / फलतः श्रुति, स्मृति आदि शास्त्रों में यह प्रदेश निंदा के पात्र के रूप में उल्लिखित था / इसी प्रकार उस प्रदेश में तीर्थ यात्रा करने से प्रायश्चित्त करना पड़ता था। ___ श्रुति और स्मृति के शासन से बाहर पड़ जाने के कारण इस पूर्वी अंचल में प्रेम, मंत्री और स्वाधीन चिन्ता के लिए बहुत अवकाश प्राप्त हो गया था। इसी देश में महावीर, बुद्ध, आजीदक धर्म गुरु इत्यादि अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया और इसी प्रदेश में जैन, बौद्ध प्रभृति अनेक महान् धर्मों का उदय तथा विकास हुआ। जैन और बौद्ध-धर्म १-बंगला भाषार इतिहास, पृ०२७: आसीत् पुरा महाराज, आदिशूरः प्रतापवान् / आनीतवान् द्विजान् पंच, पंचगोत्रसमुद्भवान् // २-भद्रबाहु चरित्र, 1122.48 / / ३-पट्टावली समुच्चय, प्रथम भाग, पृ० 3,4 / थेरेहिन्तो गोढासेहिंतो कासवगुत्तेहिंतो इत्थं णं गोदासगणे नामं गणे निगए, तस्स णं इमाओ चत्तारी साहाओ एवमाहिजंति, तंजहा-तामलित्तिया 1, कोडिवरिसिया 2, पुंडवद्धणिया (पोंडवद्धणिया) 3, दासीखब्बडिया 4 / Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 5 ५-जैन-धर्म हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में 105 यद्यपि मगध में ही उत्पन्न हुए तथापि इनका प्रचार और विलक्षण प्रसार बंग देश में ही हुआ। इस दृष्टि से बंगाल और मगध एक ही स्थल पर अभिषिक्त माने जा सकते हैं। "बंगाल में कभी बौद्ध-धर्म को बाढ़ आई थी, किन्तु उससे पूर्व यहाँ जैन-धर्म का ही विशेष प्रसार था। हमारे प्राचीन धर्म के जो निदर्शन हमें मिलते हैं, वे सभी जैन हैं। इसके बाद आया बौद्ध-युग / वैदिक-धर्म के पुनरुत्थान की लहरें भी यहाँ आकर टकराई, किन्तु इस मतवाद में भी कट्टर कुमारिलभट्ट को स्थान नहीं मिला। इस प्रदेश में वैदिक मत के अन्तर्गत प्रभाकर को ही प्रधानता मिली और प्रभाकर थे स्वाधीन विचारधारा के पोषक तया समर्थक। जैनों के तीर्थङ्करों के पश्चात् चार श्रुतकेवली आए। इनमें चौथे श्रुतकेवली थे भद्रबाहु / _...ये भद्रबाहु चन्द्रगुप्त के गुरु थे। उनके समय में एक बार बारह वर्ष व्यापी अकाल की सम्भावना दिखाई दी थी। उस समय वे एक बड़े संघ के साथ बंगाल को छोड़ कर दक्षिग चले गए और फिर वहीं रह गए। वहीं उन्होंने देह त्यागी / दक्षिण का यह प्रसिद्ध जैन-महातीर्थ 'श्रवणबेलगोला' के नाम से प्रसिद्ध है / दुर्भिक्ष के समय इतने बड़े संघ को लेकर देश में रहते से गृहस्यों पर बहुत बड़ा भार पड़ेगा, इसी विचार से भद्रबाह ने देशपरित्याग किया था। "भद्रबाहु की जन्मभूमि थी बंगाल। यह कोई मनगढन्त कल्पना नहीं है। हरिसेन कृत बृहत्या में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। रत्लनन्दी गुजरात के निवासी थे, उन्होंने भी भद्रबाहु के सम्बन्ध में यही लिखा है। तत्कालीन बंग देश का जो वर्णन रत्ननन्दी ने किया है, इसकी तुलना नहीं मिलती। ___ "इनके अनुसार भद्रबाहु का जन्म-स्थान पुंडवर्धन के अन्तर्गत कोटवर्ष नाम का ग्राम था। ये दोनों स्थान आज बाँकुड़ा और दिनाजपुर जिलों में पड़ते हैं। इन सब स्थानों में जैन-मत की कितनी प्रतिष्ठा हुई थी, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वहाँ से राठ ओर तामलुक तक सारा इलाका जैन-धर्म से प्लावित था। उत्तर बंग, पूर्व बंग, .मेदनोपुर, राठ और मानभूम जिले में बहुत सी मूर्तियाँ मिलती हैं। मानभूम के अन्तर्गत पातकूम स्थान में भी जन-मूर्तियाँ मिली हैं, सुन्दर वन के जङ्गलों में भी धरती के नीचे से कई मूर्तियाँ संग्रहीत की गई हैं / बाँकुड़ा जिला को सराक जाति उस समय जैन-श्रावक शब्द के द्वारा परिचित थी। इस प्रकार बंगाल किसी समय जैन-धर्म का एक प्रधान क्षेत्र था। जब बौद्ध-धर्म आया, तब उस युग के अनेकों पण्डितों ने उसे जैन-धर्म की एक शाखा के रूप में ही ग्रहण किया था। ____"इन जैन साधुओं के अनेक संघ और गच्छ हैं। इन्हें हम साधक-सम्प्रदाय या मण्डली कह सकते हैं। बंगाल में इस प्रकार की अनेक मण्डलियाँ थीं। पुण्ड्रवर्धन और कोटिवर्ष Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन एक-दूसरे के निकट ही है, किन्तु वहाँ भी पुंडवर्धनीय और कोटिवर्षीय नाम को दो स्वतंत्र शाखाएं प्रचलित थीं। ताम्रलिप्ति में ताम्रलिप्ति-शाखा का प्रचार था। खरवट भू-भाग में खरवटिया-शाखा का प्रचार था। इस प्रकार और भी बहुत सी शाखाएँ पल्लवित हुई थीं, जिनके आधार पर हम कह सकते हैं कि बंगाल जैनों की एक प्राचीन भूमि है / यहीं जैनों के प्रथम शास्त्र-रचयिता भद्रबाहु का उदय हुआ था। यहाँ की धरती के नीचे अनेक जैन-मूर्तियाँ छिपी हुई हैं और धरती के कार अनेक जैन-धर्मावलम्बी आज भी निवास करते हैं।" उड़ीसा ई० पू० दूसरी शताब्दी में उड़ीसा में जैन-धर्म बहुत प्रभावशाली था। सम्राट खारवेल का उदयगिरि पर्वत पर हायोगुंफा का शिलालेख इसका स्वयं प्रमाण है / लेख का प्रारम्भ-'नमो अरहंतानं, नमो सव-सिधानं'-इस वाक्य से होता है / उत्तर प्रदेश भगवान् पार्श्व वाराणसी के थे। काशी और कौशल-ये दोनों राज्य उनके धर्मोपदेश से बहुत प्रभावित थे। वाराणसी का अलक्ष्य राजा भी भगवान् महावीर के पास प्रवजित हुआ था। उत्तराध्ययन में प्रवजित होने वाले राजाओं की सूची में काशीराज के प्रवजित होने का उल्लेख है, किन्तु उनका नाम यहाँ प्राप्त नहीं है। स्थानांग में भगवान महावीर के पास प्रवजित आठ राजाओं के नाम ये हैं (1) वीराङ्गक, (2) वीरयशा, (3) संजय, (4) ऐणेयक (प्रदेशी का सामन्त राजा), (5) सेय (आत्मकष्या का स्वामी), (6) शिव (हस्तिनापुर का राजा), (7) उद्रायण (सिन्धु-सौवीर का राजा) और (8) शंख (काशीवर्धन)।३ इनमें शंख को 'काशी का बढ़ाने वाला' कहा है। संभव है उत्तराध्ययन में यही काशीराज के नाम से उल्लिखित हों। विपाक के अनुसार काशीराज अलक भगवान् १-जैन भारती, 10 अप्रैल 1955, पृ० 264 / २-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, द्वितीय खण्ड, पृ० 26-28 / ३-स्थानांग, 8.621 / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1 प्रकरण : 5 ५-जैन-धर्म हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में -107 महावीर के पास प्रव्रजित हुए थे। संभव है ये सब एक ही व्यक्ति के अनेक नाम हों। इस प्रकार और भी अनेक राजा भगवान् महावीर के पास प्रवजित हुए। भगवान् महावीर के बाद मथुरा जैन-धर्म का प्रमुख अंग बन गया था। मथुरा ___ डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी ने उज्जैन के बाद दूसरा केन्द्र मथुरा को माना है। उन्होंने लिखा है-"जैनों का दूसरा केन्द्र मथुरा में बन रहा था। यहाँ बहुसंख्यक अभिलेख मिले हैं, और फूलते-फलते जैन-संघ के अस्तित्व का प्रभाव मिलता है। इस संघ में महावीर और उनके पूर्ववर्ती जिनों की मूर्तियाँ और चैत्यों की स्थापना दान द्वारा की गई थी। उनसे यह भी ज्ञात होता है कि मथुरा-संघ सष्ट रूप से श्वेताम्बर था और छोटे-छोटे गग, कुल और शाखाओं में बँटा हुआ था। इनमें सबसे पुराना लेख कनिष्क के हवें वर्ष ( लगभग 87 ई० ) का है और इसमें कोटिक गण के आचार्य नागनन्दी की प्रेरणा से जैन-उपासिका विकटा द्वारा मूर्ति की प्रतिष्ठा का उल्लेख है / स्थविरावली के अनुसार इस गण की स्थापना स्थविर सुस्थित ने की थी जो महावीर के 313 वर्ष बाद अर्थात् 154 ई० पूर्व में गत हुए। इस प्रकार इस लेख से श्वेताम्बरसम्प्रदाय की प्राचीनता द्वितीय शती ई० पू० तक जाती है। मथुरा के कुछ लेखों में भिक्षुणियों का भी उल्लेख है। इससे भी श्वेताम्बरों का सम्बन्ध सूचित होता है, क्योंकि वे ही स्त्रियों को संघ-प्रवेश का अधिकार देते हैं।"२ डॉ. वासुदेव उपाध्याय के अनसार-."ईसवी सन के प्रारम्भ से मथरा के समीप इस मत का अधिक प्रचार हुआ था। यही कारण है कि कंकाली टीले की खुदाई से अनेक तीर्थङ्कर प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। उन पर दानकर्ता का नाम भी उल्लिखित है / वहाँ के आयागपट्ट पर भी अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसमें वर्णन है कि अमोहिनी ने पूजा निमित्त इसे दान में दिया था अमोहिनिये सहा पुत्रेहि पालघोषेन पोटघोषेन / - धनघोषेन आर्यवती (आयागपट्ट) प्रतिथापिता // "वह लेख 'नमो अरहतो वर्धमानस' जैन-मत से उसका सम्बन्ध घोषित करता है।" डॉ. वासुदेवशरण अग्नवाल ने मथुरा के एक स्तूप, जो जैन-आचार्यों द्वारा सुदुर अतीत में निर्मित माना जाता था, की प्राचीनता का समर्थन किया है। उन्होंने लिखा है-“तिब्बत के विद्वान् बौद्ध-इतिहास के लेखक तारानाथ ने अशोक-कालीन शिल्प के १-तीर्थङ्कर महावीर, भाग 2, पृ० 505-664 / २-हिन्दू सभ्यता, पृ० 235 / ३-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० 124 / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन निर्माताओं को 'यक्ष' कहा है और लिखा है कि मौर्यकालीन शिल्पकला यक्षकला थी। उससे पूर्व युग की कला देव निर्मित समझी जाती थी। अतएव 'देव निर्मित' शब्द को यह ध्वनि स्वीकार की जा सकती है कि मथुरा का 'देव निमित' जैन-स्तूप मौर्य-काल से भी पहले लगभग पाँचवीं या छठी शताब्दी ईसवी पूर्व में बना होगा / जैन विद्वान् जिनप्रभ सूरि ने अपने विविधतीर्थकल्प ग्रन्थ में मथुरा के इस प्राचीन स्तूप के निर्माण और जीर्णोद्धार की परम्परा का उल्लेख किया है। उसके अनुसार यह माना जाता था कि मथुरा का यह स्तूप आदि में सुवर्णमय था / उसे कुबेरा नाम की देवी ने सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्व की स्मृति में बनवाया था। कालान्तर में तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के समय में इसका निर्माण इंटों से किया गया। भगवान महावीर की सम्बोधि के तेरह सौ वर्ष बाद वप्पमह सूरि ने इसका जीर्णोद्धार कराया। इस उल्लेख से यह ज्ञात होता है कि मथुरा के साथ जैन-धर्म का सम्बन्ध सुपार्श्व तीर्थङ्कर के समय में ही हो गया था और जैन लोग उसे अपना तीर्थ मानने लगे थे। पहले यह स्तूप केवल मिट्टी का रहा होगा, जैसा कि मौर्यकाल से पहले के बौद्ध-स्तूप भी हुआ करते थे। उसी प्रकार स्तूप का जब पहला जीर्णोद्धार हुआ तब उस पर ईटों का आच्छादन चढ़ाया गया। जैन-परम्परा के अनुसार यह परिवर्तन महावीर के भी जन्म के पहले तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के समय हो चुका था। इसमें कोई अत्युक्ति नहीं जान पड़ती। उसी इष्टिका निर्मित स्तूप का दूसरा जीर्णोद्धार लगभग शुंगकाल में दूसरी शती ई० पू० में किया गया। इस विवरण से डॉ० वासुदेव उपाध्याय का यह अभिमत कि 'ई० पू० के आरम्भ से मथुरा के समीप इस मत का अधिक प्रसार हुआ था' बहुत मूल्यवान् नहीं रहता। उत्तर प्रदेश में प्राप्त पुरातत्त्व और शिलालेखों के आधार से भी जैन-धर्म के व्यापक प्रसार की जानकारी मिलती है। "ईसवी सन् के आरम्भ से जैन प्रतिमा के आधार-शिला पर ( बौद्ध प्रतिमा की तरह ) लेख उत्कीर्ण मिलते हैं। लखनऊ के संग्रहालय में ऐसी अनेक तीर्थङ्कर की मूर्तियाँ सुरक्षित हैं, जिनके प्रस्तर पर कनिष्क के 76 या ८४वें वर्ष का लेख उत्कीर्ण है / गुप्त-युग में भी इस तरह की प्रतिमाओं का अभाव न था, जिनके आधार-शिला पर लेख उत्कीर्ण हैं। ध्यान मुद्रा में बैठी भगवान् महावीर की ऐसी मूर्ति मथुरा से प्राप्त हुई है। गु० स० 133 ( ई० स० 423) के मथुरा वाले लेख में हरि स्वामिनी द्वारा जैन प्रतिमा के दान का वर्णन मिलता है / स्कन्दगुप्त के शासन-काल में भद्र नामक व्यक्ति द्वारा आदिकर्तृन की प्रतिमा के साथ एक स्तम्भ का वर्णन कहोम (गोरखपुर, उत्तर प्रदेश) के लेख में है श्रेयोऽर्थ भूतभूत्यै पथि नियमवतामहतामदिकर्तृन् / १-महावीर जयन्ती स्मारिका, अप्रैल 1962, पृ० 17-18 / . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 5 ५-जैन-धर्म हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में 106 पहाड़पुर के लेख (गु० स० 156) में जन विहार में तीर्थङ्कर की पूजा निमित्त भूमिदान का विवरण है, जिसकी आय गंध, धूप, दीप, नैवेद्य के लिए व्यय की जाती थी विहारे भगवतां अर्हतां गंधधूपसुमनदीपाद्यर्थम् / / ईसा की चौथी शताब्दी में आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में 'मथुरा' में जैन-आगमों की द्वितीय वाचना हुई थी।२ चम्पा ___ कौशाम्बी की राजधानी चम्मा भी जैन-धर्म का प्रमुख केन्द्र थी / श्रुतकेवली शय्यंभव ने दशवकालिक की रचना वहीं की थी। राजस्थान भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् मरुस्थल ( वर्तमान राजस्थान ) में जैन-धर्म का प्रभाव बढ़ गया था। पंडित गौरीशंकर ओझा को अजमेर के पास वडली ग्राम में एक बहुत प्राचीन शिलालेख मिला था। वह वीर निर्वाण सम्वत् 84 (ई० पू० 443) में लिखा हुआ था वीराय भगवत, चत्तुरसीति वसे, मामामिके... आचार्य रत्नप्रभ सूरि वीर निर्वाण की पहली शताब्दी में उपकेश या ओसिया में आए थे। उन्होंने वहाँ ओसिया के सवालाख नागरिकों को जैन-धर्म में दीक्षित किया और उन्हें एक जैन-जाति (ओसवाल) के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह घटना वीर निर्वाण के 70 वर्ष बाद के आसपास की है। ___"पूर्व मध्ययुग में राजपूताना के विस्तृत क्षेत्र में भी जैन-मत का पर्याप्त प्रचार था, जिसका परिज्ञान अनेक प्रशस्तियों के अध्ययन से हो जाता है। चहमान लेख में राजा को जैन-धर्म परायण कहा गया है तथा तीर्थङ्कर शांतिनाथ की पूजा निमित्त आठ द्रम (सिक्के) के दान का वर्णन है। तैलप नामक राजा के पितामह द्वारा जैन मंदिर के निर्माण का भी वर्णन मिलता है ... पितामहेनतस्येदं शमीयाट्यां जिनालये कारितं शांतिनाथस्य बिम्बं जनमनोहरम् / १-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० 125 / २-नंदी, मलय गिरि वृत्ति, पत्र 51 / ३-दशवैकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र 11 / ४-जर्नल ऑफ दी बिहार एण्ड ओरिस्सा रिसर्च सोसाइटी, ई० स० 1930 / ५-पट्टावलि समुच्चय, पृ० 185-186 / Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . विझोली शिलालेख (ए० इ० 26, पृ० 86 ) का आरम्भ 'ओ नमो वीतरागाय' से किया गया है, जिसके पश्चात् पार्श्वनाथ की प्रार्थना मिलती है। जालोर के लेख में पार्श्वनाथ के 'ध्यज उत्सव' के लिए दान का वर्णन है श्री पार्श्वनाथ देवे तोरणादीनां प्रतिष्ठाकार्यो कृते / ध्वजारोपण प्रतिष्ठायां कृतायां (ए० इ० 11, पृ० 55) - मारवाड़ के शासक राजदेव के अभिलेख में महावीर मंदिर तथा विहार के निवासी जैन-साधु के लिए दान देने का विवरण मिलता है श्री महावीर चैत्ये साधु तपोधन निष्ठार्थे / लेखों के आधार पर कहा गया है कि राजपूताना में महावीर, पार्श्वनाथ तथा शांतिनाथ की पूजा प्रचलित थी। परमार लेख में ऋषभनाथ के पूजा का उल्लेख मिलता है और मन्दिर को अतीव सुन्दर तथा पृथ्वी का भूषण बतलाया है - श्री वृषभनाथ नाम्नः प्रतिष्ठितं भूषणेन बिम्बमिदं तेनाकारि मनोहरं जिन गृहं भूमे रिदं भूषणम् / " 1 पंजाब और सिन्धु-सौवीर ___ भगवान् महावीर ने साधुओं के विहार के लिए चारों दिशाओं की सीमा निर्धारित की, उसमें पश्चिमी सीमा 'स्थूणा' (कुरुक्षेत्र) है। इससे जान पड़ता है कि पंजाब का स्थूणा तक का भाग जैन-धर्म से प्रभावित था। साढ़े पच्चीस आर्य-देशों की सूची में भी कुरु का नाम है। सिन्धु-सौवीर सुदीर्घ-काल से श्रमण-संस्कृति से प्रभावित था ! भगवान महावीर महाराज उद्रायण को दीक्षित करने वहाँ पधारे ही थे। मध्य प्रदेश बुन्देलखण्ड में ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के लगभग जैन-धर्म बहुत प्रभावशाली था / आज भी वहाँ उसके अनेक चिन्ह मिलते हैं / राष्ट्रकूट-नरेश जैन-धर्म के अनुयायी थे। उनका कलचुरि-नरेशों से गहरा सम्बन्ध था। कलचुरि की राजधानी त्रिपुरा और रत्नपुर में आज भी अनेक प्राचीन जैनमूर्तियाँ और खण्डहर प्राप्त हैं। १-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० 125 / २-खण्डहरों का वैभव, 164, 229 / Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 5 -जैन-धर्म हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में 111 चन्देल राज्य के प्रधान खुजराहो नगर में लेख तथा प्रतिमाओं के अध्ययन से जन-मत के प्रचार का ज्ञान होता है। प्रतिमाओं के आधार-शिला पर खुदा लेख यह प्रमाणित करता है कि राजाओं के अतिरिक्त साधारण जनता भी जैन-मत में विश्वास रखती थी।' मालवा अनेक शताब्दियों तक जैन-धर्म का प्रमुख प्रचार क्षेत्र था। व्यवहार भाष्य में बताया है कि अन्य तीथिकों के साथ वाद-विवाद मालव आदि क्षेत्रों में करना चाहिए। इससे जाना जाता है कि अवन्तीपति चन्द्रप्रद्योत तथा विशेषतः सम्राट सम्प्रति से लेकर भाष्य-रचनाकाल तक वहाँ जैन-धर्म प्रभावशाली था। सौराष्ट्र-गुजरात सौराष्ट्र जैन-धर्म का प्रमुख केन्द्र था / भगवान् अरिष्टनेमि से वहाँ जैन-परम्परा चल रही थी। सम्राट सम्प्रति के राज्यकाल में वहाँ जैन-धर्म को अधिक बल मिला था। सूत्रकृतांग चूणि में सौराष्ट्रवासी श्रावक का उल्लेख मगधवासी श्रावक की तुलना में किया गया है। जैन-साहित्य में 'सौराष्ट्र' का प्राचीन नाम 'सुराष्ट्र' मिलता है। __ वल्लभी में श्वेताम्बर-जनों की दो आगम-वाचनाएं हुई थीं। ईसा को चौथी शताब्दी में जब आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में आगम-वाचना हो रही थी, उसी समय आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में वह वल्लभी में हो रही थी। ईसा की पाँचवीं शताब्दी (454) में फिर वहीं आगम-वाचना के लिए एक परिषद् आयोजित हुई / उसका नेतृत्व देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने किया। उन्होंने आचार्य स्कन्दिल की 'माथुरी-वाचना' को मुख्यता दी और नागार्जुन की 'वल्लभी-वाचना' को वाचनान्तर के रूप में स्वीकृत किया। गुजरात के चालुक्य, राष्ट्रकूट, चावड, सोलंकी आदि राजवंशी भी जैन-धर्म के अनुयायी या समर्थक थे। बम्बई-महाराष्ट्र . . सम्राट सम्प्रति से पूर्व जैनों की दृष्टि में महाराष्ट्र अनार्य-देश की गणना में था। उसके राज्य-काल में जैन-साधु वहाँ विहार करने लगे। उत्तरवर्ती-काल में वह जैनों का १-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० 125,126 / २-व्यवहार भाज्य, उद्देशक 10, गाथा 286 : खेत्तं मालवमादी, अहवावी साहुभावियं जंतु। नाऊण तहा विहिणा, वातो य तहिं पतो तव्वो // ३-सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ० 127 : सोरट्ठो सावगो मागधो वा। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 उतराध्ययन : एक समोक्षात्मक अध्ययन प्रमुख विहार-क्षेत्र बन गया था। जैन-आगमों की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत से बहुत प्रभावित है। कुछ विद्वानों ने प्राकृत भाषा के एक रूप का 'जैन महाराष्ट्री प्राकृत' ऐसा नाम रखा है। ईसा की आठवीं-नौवीं शताब्दी में विदर्भ पर चालुक्य राजाओं का शासन था। दसवीं शताब्दी में वहाँ राष्ट्रकूट राजाओं का शासन था। ये दोनों राज-वंश जैन-धर्म के पोषक थे। उनके शासन-काल में वहाँ जैन-धर्म खूब फला-फूला। नर्मदा-तट . नर्मदा-तट पर जैन-धर्म के अस्तित्व के उल्लेख पुराणों में मिलते हैं। वैदिक-आर्यों से पराजित होकर जैन-धर्म के आसक अपुर लोग नर्मदा के तट पर रहने लगे।' कुछ काल बाद वे उत्तर भारत में फैल गए थे। हैहय-वंश की उत्पत्ति नर्मदा-तट पर स्थित माहिष्मती के राजा कार्तवीर्य से मानी जाती है / भगवान् महावीर का श्रमणोपासक चेटक हैहय-वंश का ही था / 3 दक्षिण भारत दक्षिण भारत में जन-धर्म का प्रभाव भगवान् पार्श्व और महावीर से पहले ही था। जिस समय द्वारका का दहन हुआ था, उस समय भगवान् अरिष्टनेमि पल्हव देश में थे। 4. वह दक्षिणापथ का ही एक राज्य था। उत्तर भारत में जब दुर्भिक्ष हुआ, तब भद्रबाहु दक्षिण में गए। यह कोई आकस्मिक संयोग नहीं; किन्तु दक्षिण भारत में जैन-धर्म के सम्पर्क का सूचन है। मध्यकाल में भी कलभ, पाण्ड्य, चोल, पल्लव, गंग, राष्ट्रकूट, कदम्ब आदि राज-वंशों ने जैन-धर्म को बहुत प्रसारित किया था। ईसा की सातवीं शताब्दी के पश्चात् बंगाल और बिहार आदि पूर्वी प्रान्तों में जैनधर्म का प्रभाव क्षीण हुआ। उसमें भी विदेशी आक्रमण का बहुत बड़ा हाथ है / दुर्भिक्ष के कारण साधुओं का विहार वहाँ कम हुआ, उससे भी जैन धर्म को क्षति पहुंची। १-पद्मपुराण, प्रथम सृष्टि खण्ड, अध्याय 12, श्लोक 412 : नर्मदासरितं प्राप्य, 'स्थिताः दानवसत्तमाः / २-एपिग्राफिका इण्डिका, भाग 2, पृ० 8 / ३-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व 10, सर्ग 6, श्लोक 226 / ४-(क) हरिवंशपुराण, सर्ग 64, श्लोक 1 / (ख) सुखबोधा, पत्र 39 / Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 खण्ड 1, प्रकरण : 5 6 जन-धर्म का ह्रास-काल ६-जैन-धर्म का ह्रास-काल ईसा की दसवीं शताब्दी तक दक्षिण और बम्बई प्रान्त में जैन-धर्म प्रभावशाली रहा। किन्तु उसके पश्चात् जैन राज-वंशों के शैव हो जाने पर उसका प्रभाव क्षीण होने लगा। इधर सौराष्ट्र में जैन-धर्म का प्रभाव ईसा की बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी तक रहा। कुमारपाल ने जैन-धर्म को प्रभावशाली बनाने के लिए बहुत प्रयत्न किए। किन्तु कुछ समय बाद वहाँ भी जैन-धर्म का प्रभाव कम हो गया। शिथियन, तुरुष्क, ग्रीस, तुर्कस्तान, ईरान आदि देशों तथा गजनी के आक्रमण ने वहाँ जैन-धर्म को बहुत क्षति पहुँचाई। वल्लभी का भंग हुआ उस समय जैन-साहित्य प्रचुर मात्रा में लुप्त हो गया था / 1 प्रभावक चरित्र से ज्ञात होता है कि वि० संवत् की पहली शताब्दी तक क्षत्रिय राजा जन-मुनि होते थे। उसके पश्चात् ऐसा उल्लेख नहीं मिलता / राजस्थान के जैन राज-वंश भी शैव या वैष्णव हो गए। इस प्रकार जो जन-धर्म हिन्दुस्तान के लगभग सभी प्रान्तों में कालक्रम के तारतम्य में प्रभावशाली और व्यापक बना था, वह ईसा की पन्द्रहवीं, सोलहवीं शताब्दी आतेआते बहुत ही सीमित हो गया। इसमें जैन-साधु-संघों के पारस्परिक मतभेदों का भी व्यापक प्रभाव है। साधुओं की रूढ़िवादिता, समयानुसार परिवर्तन करने की अक्षमता, संघ को संगठित बनाए रखने की तत्परता का अभाव, सामुदायिक चिन्तन का अकौशल और प्रचार-कौशल को अल्पता--ये भी जैन-धर्म के सीमित होने में निमित्त बने / यद्यपि शैवों और वैष्णवों से जैन-धर्म को क्षति पहुंची, फिर भी उससे अधिक क्षति विदेशी आक्रमणों, राज्यों तथा आन्तरिक संघर्षों से पहुँची। शंकराचार्य ने जैन-धर्म को बहुत प्रभावहीन बनाया, यह कहा जाता है, उसमें बहुत सचाई नहीं है। श्री राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध-धर्म और शंकराचार्य के सम्बन्ध में जो लिखा है, वही जैन-धर्म और शंकराचार्य के सम्बन्ध में घटित होता है / उन्होंने लिखा है• - "भारतीय जीवन के निर्माण में इतनी देन देकर बौद्ध-धर्म भारत से लुप्त हो गया, इससे किसी भी सहृदय व्यक्ति को खेद हुए बिना नहीं रहेगा। उसके लुप्त होने के क्या कारण थे, इसके बारे में कई भ्रान्तिमुलक धारणाएँ फैली हैं। कहा जाता है, शंकराचार्य १-त्रैविद्यगोळी, मुनि सुन्दर सुरि : विकुत्स्या तुच्छम्लेच्छा दि कुनृपतिततिविध्वस्तानेक वल्लभ्यादि तत्तन्महानगरस्थानेकलक्षणप्रमाणागमादि सहादर्शोच्छेदेन कौतुस्कुतस्तावदज्ञानान्धकूपप्रपतत्प्राणिप्रतिहस्तकप्रायप्रशस्त पुस्तकप्राप्तियोगाः। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ने बौद्ध-धर्म को भारत से निकाल बाहर किया। किन्तु, शंकराचार्य के समय आठवीं सदी में भारत में बौद्ध-धर्म लुप्त नहीं, प्रबल होता देखा जाता है। यह नालन्दा के उत्कर्ष और विक्रमशीला की स्थापना का समय था। आठवीं सदी में ही पालों जैसा शक्तिशाली बौद्ध राज-वंश स्थापित हुआ था। यही समय है, जबकि नालन्दा ने शान्तरक्षित, धर्मोत्तर जैसे प्रकाण्ड दार्शनिक पैदा किए / तंत्रमत के सार्वजनिक प्रचार के कारण भीतर में निर्बलताएं भले ही बढ़ रही हों, किन्तु जहाँ तक विहारों और अनुयायियों की संख्या का सम्बन्ध है, शंकराचार्य के चार सदियों बाद बारहवीं सदी के अन्त तक बौद्धों का ह्रास नहीं हुआ था। उत्तरी भारत का शक्तिशाली गहड़वार-वंश केवल ब्राह्मण-धर्म का ही परिपोषक नहीं था, बल्कि वह बौद्धों का भी सहायक था। गहड़वार रानी कुमार देवी ने सारनाथ में 'धर्मचक्र महाविहार' की स्थापना की थी और गोविन्दचन्द्र ने 'जेतवन महाविहार' को कई गाँव दिए थे। अंतिम गहड़वार राजा जयचन्द के भी दीक्षा-गुरु जगन्मिजानन्द (मित्रयोगी) एक महान् बौद्ध सन्त थे, जिन्होंने कि तिब्बत में अपने शिष्य जयचन्द को पत्र लिखा था, जो आज भी 'चन्द्रराज-लेख' के नाम से तिब्बती भाषा में उपलब्ध है। गहड़वारों के पूर्वी पड़ोसी पाल थे, जो अंतिम क्षण तक बौद्ध रहे / दक्षिण में कोंकण का शिलाहार-वंश भी बौद्ध था। दूसरे राज्यों में भी बौद्ध काफी संख्या में थे। स्वयं शंकराचार्य की जन्मभूमि केरल भी बौद्ध-शिक्षा का बहिष्कार नहीं कर पाई थी, उसने तो बल्कि बौद्धों के 'मंजुश्री मूलकल्प' की रक्षा करते हुए हमारे पास तक पहुँचाया। वस्तुतः बौद्ध-धर्म को भारत से निकालने का श्रेय या अयश किसी शंकराचार्य को नहीं है। "फिर बौद्ध-धर्म भारत से नष्ट कैसे हुआ ? तुर्कों का प्रहार जरूर इसमें एक मुख्य कारण बना। मुसलमानों को भारत से बाहर मध्य-एशिया में जफरशां और वक्षु की उपत्यकाओं, फर्गाना और बाहलीक की भूमियों में बौद्धों का मुकाबिला करना पड़ा। वैसा संघर्ष उन्हें ईरान और रोम के साथ भी नहीं करना पड़ा था। घुटे चेहरे और रंगे कपड़े वाले बुतपरस्त ( बुद्ध-परस्त ) भिक्षुओं से वे पहले ही से परिचित थे / उन्होंने भारत में आकर अपने चिरपरिचित बौद्ध शत्रुओं के साथ जरा भी दया नहीं दिखाई। उनके बड़े-बड़े विहार लूट कर जला दिए गए, भिक्षुओं के संघाराम नष्ट कर दिए गए। उनके रहने के लिए स्थान नहीं रह गए / देश की उस विपन्नावस्था में कहीं आशा नहीं रह गई और पड़ोस के बौद्ध देश उनका स्वागत करने के लिए तैयार थे। इस तरह भारतीय बौद्धसंघ के प्रधान कश्मीरी पण्डित 'शाक्य श्रीमद्' विक्रमशिला विश्वविद्यालय के ध्वस्त होने के बाद भाग कर पूर्वी बंगाल के 'जगतला' विहार में पहुंचे। जब वहाँ भी तुर्को' की तलवार गई, तो वे अपने शिष्यों के साथ भाग कर नेपाल गए। उनके आने की खबर Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 5 ७-जैन-धर्म और वैश्य 115 सुन कर भोट (तिब्बत) सामन्त कीर्तिध्वज ने उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित किया। विक्रमशिला के संघराज कई सालों भोट में रहे और अन्त में ऊपर ही ऊपर अपनी जन्मभूमि कश्मीर में जा कर उन्होंने 1226 ई० में शरीर छोड़ा। 'शाक्य श्रीमद्' की तरह न जाने कितने बौद्ध भिक्षुओं और धर्माचार्यों ने बाहर के देशों में जाकर शरण ली। बौद्धों के धार्मिक नेता गृहस्थ नहीं, भिक्षु थे। इसलिए एक जगह छोड़ कर दूसरी जगह चला जाना उनके लिए आसान था। बाहरी बौद्ध देशों में जहाँ उनकी बहुत आवभगत थी, वहाँ देश में उनके रंगे कपड़े मृत्यु के वारंट थे। यह कारण था, जिससे कि भारत के बौद्धकेन्द्र बहुत जल्दी बौद्ध भिक्षुओं से शून्य हो गए। अपने धार्मिक नेताओं के अभाव में बौद्ध-धर्म बहुत दिनों तक टिक नहीं सकता था। इस प्रकार और वह भारत में तुर्कों के पैर रखने के एक-डेढ़ शताब्दियों में ही लुप्त हो गया। बज्रयान के सुरा-सुन्दरी सेवन ने चरित्र-बल को खोखला करके इस काम में और सहायता को।" 1 ७-जैन धर्म और वैश्य कुछ विद्वान् कहते हैं कि जैन-धर्म अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व देता है। युद्ध और रक्षा में हिंसा होती है, इसलिए यह धर्म क्षत्रियों के अनुकूल नहीं है / कृषि आदि कर्मों में हिंसा होती है, इसलिए यह किसानों के भी अनुकूल नहीं है / यह सिर्फ उन व्यापारियों के अनुकूल है, जो शान्तिपूर्वक अपना व्यापार चलाते हुए जीव-हिंसा से बचाव करने का यत्न किया करते हैं / मैक्स वेबर ने उक्त विषय पर कुछ विस्तार से लिखा है “जैन-धर्म एक विशिष्ट व्यापारिक-सम्प्रदाय है, जो पश्चिम के यहूदियों से भी ज्यादा एकांतिक रूप से व्यापार में लगा हुआ है। इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से एक धर्म का व्यापारिक उद्देश्य के साथ सम्बन्ध देखते हैं, जो हिन्दू-धर्म के लिए बिल्कुल विदेशीय है / ___".. अहिंसा के सिद्धान्त ने जैनियों को जीव-हिंसा वाले तमाम उद्योगों से अलग रखा। अतः उन व्यापारों से जिनमें अग्नि का प्रयोग होता है, तेज या तीक्ष्णधार वाले यंत्रों का उपयोग ( पत्थर या काठ के कारखाने आदि में ) होता है, भवनादि निर्माण व्यवसाय तथा अधिकांश उद्योग-धन्धों से जैनियों को अलग रखा / खेती-बारी का काम तो बिल्कुल ही बाद पड़ गया, क्योंकि विशेषतः खेत जोतने में कीड़े-मकोड़े आदि की सदा हिंसा होती है। ___ "यह उल्लेखनीय है कि (जैनधर्म में ) अधिक धन संचित करने की मनाही नहीं है बल्कि धन का अत्यधिक मोह या सम्पत्ति के पीछे पागल हो जाने की मनाही है / यह १-(क) बौद्ध संस्कृति, पृ० 33-34 / (ख) बुद्धचर्या, पृ० 12-13 / Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन - सिद्धान्त पश्चिम के एशेटिक प्रोटेस्टेन्टीज्म के सिद्धान्त से मिलता-जुलता है / प्रोटेस्टेन्टीज्म ने सम्पत्ति और लाभ को बुरा नहीं बताया किन्तु उसमें लवलीन होने को आपत्तिजनक बताया है। और भी बातें समान हैं। जैन-मत में अतिशयोक्ति या झूठ वर्ण्य है / जैन लोग व्यापार में बिल्कुल सच्चाई रखने पर विश्वास करते हैं। माया रूपी कार्यों की एकदम मनाही है। झूठ, चोरी या श्रष्ट तरीकों से कमाए हुए धन को वर्जित मानते हैं। "जैन विशेषतः श्वेताम्बर सभी जैनों के व्यापारी बनने का मुख्य हेतु धार्मिक सिद्धान्त ही है। केवल व्यापार ही एक ऐसा व्यवसाय है, जिसमें अहिंसा का पालन किया जा सकता है। उनके व्यवसाय का विशेष तरीका भी धार्मिक नियमों से निश्चित होता था। जिसमें विशेष करके यात्रा के प्रति गहरी अरुचि रहती थी और यात्रा को कठिन बनाने के अनेक नियमों ने उन्हें स्थानीय व्यापार के लिए प्रोत्साहित किया, फिर जैसा कि यहूदियों के साथ हुआ, वे साहूकारी (बैकिंग) और व्याज के धन्धों में सीमित रह गए। ___ "उनकी पूजी लेन-देन में ही सीमित रही और वे औद्योगिक संस्थानों के निर्माण में असफल रहे। इसका मूल कारण भी जैन-मत का संद्धान्तिक पक्ष ही रहा जिससे की जैन लोग उद्योग में पादन्यास कर ही नहीं सके। "जैन-सम्प्रदाय की उत्पत्ति भारतीय नगर के विकास के साथ-साथ प्रायः समसामयिक है / इसीलिए शहरी-जोवन विरोधी बंगाल जैनत्व को बहुत कम ग्रहण कर सका। लेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि यह सम्प्रदाय धनवानों से उत्पन्न है। यह क्षत्रियों की विचार कल्पना से तथा गृहस्थों की संन्यास भावना से प्रस्फुटित हुआ है। इसके सिद्धान्त विशेषकर श्रावकों (गृहस्थों के लिए निश्चित विधान) तथा दूसरे धार्मिक नियमों ने ऐसे दैनिक-जीवन का गठन किया, जिसका पालन व्यापारियों के लिए ही संभव था।" मैक्स वेबर की ये मान्यताएं काल्पनिक तथ्यों पर आधारित हैं। वास्तविक तथ्य ये हैं (1) जैन-श्रावक के लिए आक्रमणकारी होने का निषेध है। वह प्रत्याक्रमण की हिंसा से अपने को मुक्त नहीं रख पाता। भगवान महावीर के समय जिन क्षत्रियों या क्षत्रिय राजाओं ने अनाक्रमण का व्रत लिया था, उन्होंने भी अमुक-अमुक स्थितियों में लड़ने की छूट रखी थी। - जैन सम्राटों, राजाओं, सेनापतियों, दण्डनायकों और संनिकों ने देश की सुरक्षा के लिए अनेक लड़ाइयाँ लड़ी थीं। गुजरात और राजस्थान में जैन-सेनानायकों की बहुत १-दी रिलिजन्स ऑफ इण्डिया, पृ० 193-202 / Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 5 ७-जैन-धर्म और वैश्य लम्बी परम्परा रही है। इसी संदर्भ में उस निष्कर्ष को मान्य नहीं किया जा सकता कि अहिंसा प्रधान होने के कारण जैन-धर्म क्षत्रिय-वर्ग के अनुकूल नहीं है / (2) भगवान् महावीर के श्रावकों में आनन्द गृहपति का स्थान पहला है / वह बहुत बड़ा कृषिकार था। उसके पास चार व्रज थे। प्रत्येक ब्रज में दस-दस हजार गाएँ थीं। आज भी कच्छ आदि प्रदेशों में हजारों जैन खेतीहर हैं। एक शताब्दी पूर्व राजस्थान में भी हजारों जैन-परिवार खेती किया करते थे। इस संदर्भ में वह निष्कर्ष भी मान्य नहीं होता कि अहिंसा प्रधान होने के कारण जैन-धर्म किसानों के अनुकूल नहीं है / (3) व्यापार में प्रत्यक्ष जीव-वध नहीं होता, इसलिए वह अहिंसा प्रधान जैन-धर्म के अधिक अनुकूल है, यह भी विशेष महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है। जैन आचार्यों ने असि, मषी, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य-इन छहों कर्मों को एक कोटि का माना है / तलवार, धनुष आदि शस्त्र-विद्या में निपुण असि-कार्य हैं / मुनीमी का कार्य करने वाला मषि-कर्मार्य है / धोबी,नाई, लुहार, कुम्हार आदि शिल्प-कर्मार्य है / चन्दन, घी, धान्य आदि का व्यापार करने वाला वणिक्कार्य है / ये छहों अविरत होने से सावद्यकर्यि हैं।' ___जो लोग अव्रती होते हैं, जिनके संकल्ली-हिंसा का त्याग नहीं होता, वे भले रक्षा का काम करें, खेती करें या वाणिज्य करें, सावध काम करने वाले ही होते हैं। जो श्रावक होते हैं, उनके व्रत भी होता है, इसलिए वे चाहे व्यापार करें, खेती करें या रक्षा का काम करें, अल्पसावध काम करने वाले होते हैं / 2 जैन-श्रावक बनने का अर्थ : कृषि, रक्षा आदि से दूर हटना नहीं, किन्तु संकल्पी-हिंसा और अनर्थ-हिंसा का त्याग करना है। जैन-आचार्यों ने केवल प्रत्यक्ष जीव-वध को ही दोषपूर्ण नहीं माना, किन्तु मानसिक हिंसा को भी दोषपूर्ण माना है। इसी आधार पर आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण में व्याज के धन्धे को महाहिंसा की कोटि में उपस्थित किया था। (4) धावकों के लिए ऐसे दैनिक-जीवन का गठन नहीं किया गया, जिससे वह वैश्य-वर्ग के सिवाय अन्य वर्गो के अनुकूल न हो / - (5) बंगाल में जैन-धर्म के अस्तित्व की चर्चा पहले की जा चुकी है। उसके आधार पर कहा जा सकता है - 'शहरी जीवन विरोधी बंगाल जैनत्व को बहुत कम ग्रहण कर सका'-यह तथ्य भी सारपूर्ण नहीं है। १-तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 3 / 36 : षडप्येते अविरतिप्रवणत्वात् सावधकार्याः / २-वही, 3 / 36 : अल्पसावद्यकर्मार्याः श्रावकाः श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात् / Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / मैक्स वेबर जिन निष्कर्ष पर पहुंचे, उन्हें हम जैन-धर्म की सैद्धान्तिक भूमिका के स्तर से सम्बन्धित नहीं मान सकते। किन्तु तत्कालिक जैन-श्रावकों के जीवन-व्यवहार से सर्वथा सम्बन्धित नहीं थे, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। संभव है कि भूमिका भेद का गहरा विचार किए बिना साधुओं द्वारा भी श्रावकों के जटिल दैनिक-जीवन का क्रम निश्चित किया गया हो। इस लम्बे विवेचन के बाद हम पुनः उसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन-धर्म के ह्रास और उसके वैश्य-वर्ग में सीमित होने के हेतु मुख्य रूप में वे ही हैं, जो हमने पहले प्रस्तुत किए थे। सूत्र रूप में उनकी पुनरावृत्ति कुछ तथ्यों को और सम्मिलित कर इस प्रकार की जा सकती है (1) उन्नति और अवनति का ऐतिहासिक क्रम। . (2) दीर्घकालीन समृद्धि से आने वाली शिथिलता। (3) जैन-संघ का अनेक गच्छों व सम्प्रदायों में विभक्त हो जाना। (4) परस्पर एक दूसरे को पराजित करने का प्रयत्न / (5) अपने प्रभाव क्षेत्रों में दूसरों को न आने देना या जो आगत हों, उन्हें वहाँ से निकाल देना। (6) साधुओं का रूढ़िवादी होना। (7) देश-काल के अनुसार परिवर्तन न करना, नए आकर्षण उत्पन्न न करना। (8) दैनिक जीवन में क्रियाकाण्डों की जटिलता पैदा कर देना। (8) संघ-शक्ति का सही मूल्यांकन न होना। . (10) सामुदायिक चिन्तन और प्रचार कौशल की अल्पता / (11) विदेशी आक्रमण / (12) अन्यान्य प्रतिस्पर्धी धर्मों के प्रहार / (13) जातिवाद का स्वीकरण / इन स्थितियों ने जैन-धर्म को सीमित बनाया। कुछ जैन-प्राचार्यों ने दूरदर्शितापूर्ण प्रयत्न किए और ओसवाल, पोरवाल, खण्डेलवाल आदि कई जैन जातियों का निर्माण किया। उससे जैन-धर्म मुख्यतः वैश्य-वर्ग में सीमित हो गया, किन्तु वह बौद्ध-धर्म की भाँति भारत से उच्छिन्न नहीं हुआ। आचार्य भद्रबाहु ने अपने विशाल ज्ञान तथा वर्तमान की स्थितियों का भविष्य में प्रतिबिम्ब देख कर ही यह कहा था-"धर्म मुख्यतः वैश्य-वर्ग के हाथ में होगा।" चन्द्रगुप्त के सातवें स्वप्न-'अकुरडी पर कमल उगा हुआ है'-का अर्थ उन्होंने Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 5 ७-जैन-धर्म और वैश्य 116 किया था-"ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चारों वर्गों में जो धर्म फैला हुआ है, वह सिमट कर अधिकांशतया वैश्यों के हाथ में चला जाएगा।"१ पाठवें स्वप्न में उन्होंने देखा-"जुगनू प्रकाश कर रहा है / " आचार्य भद्रबाहु ने इसका फल बताया--"श्रमण-गण आर्य-मार्ग को छोड़, केवल क्रिया का घटाटोप दिखा वैश्य-वर्ग में उद्योत करेगा। फलतः निर्ग्रन्थों का पूजा-सत्कार कम हो जाएगा और बहुत लोग मिथ्यात्व रत हो जाएंगे।"२ / सम्राट का नौवाँ स्वप्न था-"सरोवर सूख गया, केवल दक्षिण-दिशा में थोड़ा जल भरा है और वह भी पूर्ण स्वच्छ नहीं।" आचार्य भद्रबाहु ने इसका फल बताया--"जिस भूमि में तीर्थङ्करों के पाँच कल्याण ( च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ) हुए थे, वहाँ धर्म की हानि होगी और दक्षिण-पश्चिम में थोड़ा-थोड़ा धर्म रहेगा और वह भी अनेक मतवादों और पारस्परिक संघर्षों से परिपूर्ण / ' 3 भद्रबाहु की इस भविष्यवाणी में उस घटना-क्रम का अंकन है, जब जैन-धर्म एक स्थिति से दूसरी स्थिति में संक्रान्त हो रहा था। जैन-श्रमण मतभेदों को प्रधानता दे रहे थे ; जैन-श्रावक प्रत्यक्ष जीव-वध की तुलना में मानसिक हिंसा को कम आंक रहे थे और जैन-शासन एक जाति के रूप में संगठित हो रहा था। १-व्यवहार चूलिका : उत्तमे उक्करडियाए कमलं उग्गय टुिं, तस्स फलं तेणं माहण खत्तिय वइस्स सुद्दे चउण्हं वण्णाणं मज्झे वइस्स हत्थे धम्मं भविस्सइ / २-वही : अट्ठमे खज्जुओ उज्जोयं करेइ / तेणं समणा आरियमगं मोत्तण खज्जुया इव किरियाए फडाडोवं दंसिऊण वइस्स वण्णे उज्जोयं करिस्संति / तेण समणाणं णिगंथाणं पूयासक्कारे थोवे भविस्सई, बहुजणा मिच्छत्तरागिणो भविस्संति / ३-वही: णवमे सुक्कं सरोवरं दाहिणदिसाए थोवं जलभरियं गडुलियं दिटुं, तस्स फलं तेणं जत्थ जत्थ भूमिए पंच जिणकलाणं तत्थ देशे धम्महाणी भविस्सइ दाहिणपच्छिमए किंपि किंपि धम्मं बहुमइडोहलियं भविस्सइ / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : छठा १-महावीर तीर्थङ्कर थे पर जैन-धर्म के प्रवर्तक नहीं भगवान महावीर तीर्थङ्कर थे, फिर भी किसी नए धर्म के प्रवर्तक नहीं थे। उनके पीछे एक परम्परा थी और वे उसके उन्नायक थे। __ महात्मा बुद्ध स्वतंत्र-धर्म के प्रवर्तक थे या किसी पूर्व परम्परा के उन्नायक ? इस प्रश्न के उत्तर में बौद्ध-साहित्य कोई निश्चित उत्तर नहीं देता। उपक आजीवक के यह पूछने पर कि तेरा शास्ता (गुरु) कौन है ? और तू किस धर्म को मानता है ? महात्मा बुद्ध ने कहा-"मैं सबको पराजित करने वाला, सबको जानने वाला हूँ। सभी धर्मों में निर्लेप हूँ / सर्व-त्यागी हूँ, तृष्णा के क्षय से मुक्त हूँ, मैं अपने ही जान कर उपदेश करूंगा। मेरा प्राचार्य नहीं है, मेरे सदृश ( कोई ) विद्यमान नहीं। देवताओं सहित (सारे) लोक में मेरे समान पुरुष नहीं। मैं संसार में अर्हत् हूँ, अपूर्व उपदेशक हूँ। मैं एक सम्यक सम्बुद्ध, शान्ति तथा निर्वाण को प्राप्त हूँ। धर्म का चक्का घुमाने के लिए काशियों के नगर को जा रहा हूँ। (वहाँ) अंधे हुए लोक में अमृत-दुन्दुभि बनाऊँगा। मेरे ही ऐसे आदमी जिन होते हैं, जिनके कि चित्तमल (आस्रव) नष्ट हो गए हैं। मैंने बुराइयों को जीत लिया है, इसलिए हे उपक ! मैं जिन हूँ।" ___ एक दूसरे प्रसंग में कहा गया है- भगवान् ने इन्द्रकील पर खड़े होकर सोचा--- 'पहले बुद्धों ने कुल नगर में भिक्षाचार कैसे किया ? क्या बीच-बीच में घर छोड़ कर या एक ओर से...?' फिर एक बुद्ध को भी बीच-बीच में घर छोड़ कर भिक्षाचार करते नहीं देख, 'मेरा भी यही ( बुद्धों का ) वंश है, इसलिए यही कुल धर्म ग्रहण करना चाहिए। इससे आने वाले समय में मेरे श्रावक (शिष्य) मेरा ही अनुसरण करते (हुए) भिक्षाचार व्रत पूरा करेंगे,' ऐसा (सोच) छोर के घर से भिक्षाचार आरम्भ किया।' राजा शुद्धोदन के द्वारा आपत्ति करने पर बुद्ध ने कहा--"महाराज ! हमारे वंश का यही आचार है।"3 पहले प्रसंग से प्राप्त होता है कि बुद्ध स्वतंत्र-धर्म के प्रवर्तक थे, उनका किसी परम्परा १-(क) विनयपिटक, पृ. 79 / __ (ख) बुद्धचर्या, पृ० 20-21 / २-बुद्धचर्या, पृ. 53 / ३-वही, पृ० 53 / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 6 १-महावीर तीर्थङ्कर थे पर जैन-धर्म के प्रवर्तक नहीं 121 से सम्बन्ध नहीं था। दूसरे प्रसंग से प्राप्त होता है कि वे बुद्धों की परम्परा से जुड़े हुए थे। भगवान् महावीर के सम्बन्ध में यह अनिश्चितता नहीं है। जैन-साहित्य की यह निश्चित घोषणा है कि भगवान महावीर स्वतंत्र-धर्म के प्रवर्तक नहीं, किन्तु पूर्व-परम्परा के उन्नायक थे। वे अहिंसक-परम्परा के एक तीर्थङ्कर थे / भगवान् ने स्वयं कहा है-"जो अर्हत् हो चुके हैं, जो वर्तमान में हैं, जो आगे होंगे, उन सबका यही निरूपण है कि सब जीवों की हिंसा मत करो।"१ भगवान् महावीर के मातृ-पक्ष और पितृ-पक्ष-दोनों भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। भगवान् महावीर स्वयं-बुद्ध थे, इसीलिए उन्हें भगवान् पार्श्व का शिष्य नहीं कहा जा सकता। जैसे भगवान् पार्श्व ने धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन किया था, वैसे ही भगवान् महावीर भी धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक थे। कुमारश्रमण केशी ने गौतम से पूछा था-"लोगों को अन्ध बनाने वाले.तिमिर में बहुत लोग रह रहे हैं / इस समूचे लोक में उन प्राणियों के लिए प्रकाश कौन करेगा।"२ ___ गौतम ने कहा- "समूचे लोक में प्रकाश करने वाला एक मिल भानु उगा है। वह समूचे लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा।" ___ "भानु किसे कहा गया है"—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम बोले- "जिसका संसार क्षीण हो चुका है, जो सर्वत्र है, वह अर्हत् रूपी भास्कर समूचे लोक के प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा।" 3 ____ भगवान् पार्श्व के निर्वाण के पश्चात् यज्ञ-संस्था बहुत प्रबल हो गई थी। इधर श्रमण परम्परा के अन्यायी और आत्म-विद्या के संरक्षक राजे भी वैदिकधारा से प्रभावित हो रहे थे. जिसका वर्णन हमें उपनिषदों में प्राप्त होता है / वैदिकों की प्रवृत्तिवादी विचारणा से श्रमणों में आचार सम्बन्धी शिथिलता घर कर रही थी। हिंसा और अब्रह्मचर्य जीवन की सहज प्रवृत्ति के रूप में अभिव्यक्ति पा रहे थे। वह स्थिति श्रमणों को घोर अन्धकार.मय लग रही थी। उस स्थिति में श्रमणों की विचारधारा को शक्तिशाली बनाने के लिए तीर्थङ्कर की आवश्यकता थी। भगवान् महावीर से ठीक पहले हमें तीर्थङ्कर के रूप में केवल एक पार्श्व का ही अस्तित्व मिलता है, किन्तु भगवान् महावीर के काल में हम छह तीर्थङ्करों का अस्तित्व पाते हैं / कुछ जैन विद्वान् यह कहते हैं कि एक तीर्थङ्कर जैसो धर्मव्यवस्था करते हैं, वैसी ही दूसरे तीर्थङ्कर करते हैं / किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बहुत १-बुद्धचर्या, पृ० 53 / २-आचारांग, 1 / 4 / 1 / ३-उत्तराध्ययन, 2375-78 / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन मूल्य नहीं है। एक तीर्थङ्कर ने जो कहा, उसका निरूपण दूसरा तीर्थङ्कर करे तो वस्तुतः वह तीर्थङ्कर ही नहीं होता। जिस का मार्ग पूर्व तीर्थङ्कर से भिन्न होता है, यानि सर्वथा संदृश नहीं होता, उसी को 'तीर्थङ्कर' कहा जाता है। हमारी यह स्थापना निराधार नहीं है। इसकी यथार्थता प्रमाणित करने के लिए हमें तीर्थङ्करों के शासन-भेद का अध्ययन प्रस्तुत करना होगा। २-पार्श्व और महावीर का शासन-भेद भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर के शासन-भेद का विचार हम निम्न तथ्यों के आधार पर करेंगे१. भगवान् पार्श्व की धर्म-सामाचारी भगवान महावीर की धर्म-सामाचारी (1) चातुर्याम (1) पाँच महाव्रत (2) सामायिक चारित्र (2) छेदोपस्थापनीय चारित्र (3) रात्रि भोजन न करना उत्तर गुण (3) रात्रि भोजन न करना मूल गुण (4) सचेल (4) अचेल 2. प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण (5) दोष होने पर प्रतिक्रमण (5) नियमतः दो बार प्रतिक्रमण 3. औद्देशिक औद्देशिक (6) एक साधु के लिए बने आहार का दूसरे (6) एक साधु के लिए बने आहार का द्वारा ग्रहण दूसरे द्वारा वर्जन 4. राजपिण्ड राजपिण्ड (7) राजपिण्ड का ग्रहण (7) राजपिण्ड का वर्जन 5. मासकल्प मासकल्प (8) मासकल्प का नियम न होने पर जीवन- (8) मासकल्प का नियम एक स्थान में भर एक गाँव में रहने का विधान। एक मास से अधिक न रहनेका कीचड़ और जीव-जन्तु न हो उस स्थिति विधान / में वर्षा-काल में भी विहार का विधान। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 खल्ड : 1, प्रकरण : 6 २-पार्श्व और महावीर का शासन-भेद पर्युषण कल्प पर्युषण कल्प (6) पर्युषण कल्प का अनियम / (6) पर्युषण कल्प का नियम / जघन्यतः भाद्रव-शुक्ला पंचमी से कार्तिकशुक्ला पंचमी तक और उत्कृष्टतः आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक एक स्थान में रहने का नियम / (10) (10) परिहार विशुद्ध चारित्र (1) चातुर्याम और पंच महाव्रत प्राग्-ऐतिहासिक काल में भगवान् ऋषभ ने पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया था, ऐसा माना जाता है। ऐतिहासिक काल में भगवान् पार्श्व ने चातुर्याम-धर्म का उपदेश दिया था। उनके चार याम ये थे-(१) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अचौर्य और (4) बहिस्तात् आदान-विरमण ( बाह्य-वस्तु के ग्रहण का त्याग ) / ' भगवान् महावीर ने पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया। उनके पाँच महाव्रत ये हैं-(१) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अचौर्य, (4) ब्रह्मचर्य आर (5) अपरिग्रह / 2 सहज ही प्रश्न होता है कि भगवान् महावीर ने महाव्रतों का विकास क्यों किया? भगवान् पार्श्व की परम्परा के आचार्य कुमारश्रमण केशी और भगवान महावोर ये गणधर गौतम जब श्रावस्ती में आए, तब उनके शिष्यों को यह संदेह उत्पन्न हुआ कि हम एक ही प्रयोजन से चल रहे हैं, फिर * यह अन्तर क्यों ? पार्श्व ने चातुर्याम-धर्म का निरूपण किया और महावीर ने पाँच महाव्रत-धर्म का, यह क्यों ? कुमारश्रमण केशी ने गौतम से यह प्रश्न पूछा तब उन्होंने केशी से कहा--"पहले तीर्थङ्कर के साधु ऋजु-जड़ होते हैं / अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वक्र-जड़ होते हैं। बीच के तीर्थङ्करों के साधु ऋज-प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं। "पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। चरमवर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार का पालन कठिन है। मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं।"४ इस समाधान में एक विशिष्ट ध्वनि है। उससे इस बात का संकेत मिलता है कि जब भगवान् पार्श्वनाथ के प्रशिष्य अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे, उसका पालन कठिन १-स्थानांग, 4 / 266 / २-उत्तराध्ययन, 21 / 12 / ३-वही, 23312-13 / ४-वही, 23 / 26-27 / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन हो गया तब उस स्थिति को देख कर भगवान् महावीर को ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत के रूप में स्थान देना पड़ा। भगवान् पार्श्व ने मैथुन को परिग्रह के अन्तर्गत माना था। किन्तु उनके निर्वाण के पश्चात् और भगवान् महावीर के तीर्थङ्कर होने से थोड़े पूर्व कुछ साधु इस तर्क का सहारा ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे कि भगवान् पार्श्व ने उसका निषेध नहीं किया है। भगवान् महावीर ने इस कुतर्क के निवारण के लिए स्पष्टतः ब्रह्मचर्य महाव्रत की व्यवस्था की और महाव्रत पाँच हो गए। सूत्रकृतांग में अब्रह्मचर्य का समर्थन करने वाले को 'पार्श्वस्थ' कहा है / वृत्तिकार ने उन्हें 'स्वयूथिक' भी बतलाया है / 2 इसका तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर के पहले से ही कुछ स्वयूयिक-निर्गन्थ अर्थात् पाश्व-परम्परा के श्रमण स्वच्छन्द होकर अब्रह्मचर्य का समर्थन कर रहे थे। उनका तर्क था कि "जैसे वर्ण या फोड़े को दबा कर पीव को निकाल देने से शान्ति मिलती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ समागम करने से शान्ति मिलती है। इसमें दोष कैसे हो सकता है ? __जसे भेड़ बिना हिलाए शान्त भाव से पानी पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ शान्त-भाव से किसी को पीड़ा पहुँचाए बिना समागम किया जाए, उसमें दोष कसे हो सकता है ? . "जैसे कपिंजल' नाम को चिड़िया आकाश में रह कर बिना हिलाए डुलाए जल पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ अनासक्त-भाव से समागम किया जाए तो उसमें दोष कैसे हो सकता है / "4 भगवान् महावीर ने इन कुतर्कों को ध्यान में रखा और वक्र-जड़ मुनि किस प्रकार अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं, इस और ध्यान दिया तो उन्हें बह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत का रूप देने की आवश्यकता हुई। इसीलिए स्तुतिकार ने कहा है १-स्थानांग, 4 / 266 वृत्ति : मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न हपरिगृहीता योषिद् भुज्यते। २-सूत्रकृतांग, 113 / 4 / 6,13 / ३-(क) सूत्रकृतांग, 1 / 3 / 4 / 6 वृत्ति : स्वयूथ्या वा। (ख) वही, 113 / 4 / 12 वृत्ति : स्वयूथ्या वा पार्श्वस्थावसन्नकुशीलादयः / ४-सूत्रकृतांग, 1 / 3 / 4 / 10,11,12 / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1 प्रकरण : 6 2 पार्श्व और महावीर का शासन-भेद 125 "से वारिया इत्थि सराइभत्तं" (सूत्रकृतांग, 116028) अर्थात् भगवान् ने स्त्री और रात्रि भोजन का निवारण किया। यह स्तुति-वाक्य इस तथ्य को ओर संकेत करता है कि भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य की विशेष व्याख्या, व्यवस्था या योजना की थी। ___ अब्रह्मचर्य को फोड़े की पीव निकालने आदि के समान बताया जाता था, उसके लिए भगवान् ने कहा- 'कोई मनुष्य तलवार से किसी का सिर काट शान्ति का अनुभव करे तो क्या वह दोषी नहीं है ? ___ "कोई मनुष्य चुपचाप शान्त-भाव से जहर की चूंट पीकर बैठ जाए तो क्या वह विष व्याप्त नहीं होता? ___"कोई मनुष्य किसी धनी के खजाने से अनासक्त-भाव से बहुमूल्य रत्नों को चुराए, तो क्या वह दोषी नहीं होता?'' दूसरे का सिर काटने वाला, जहर की चूंट पीने वाला और दूसरों के रत्न चुराने वाला वस्तुतः शान्त या अनासक्त नहीं होता, वैसे ही अब्रह्मचर्य का सेवन करने वाला शान्त या अनासक्त नहीं हो सकता। जो पार्श्वस्थ श्रमण अनासक्ति का नाम ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करते हैं, वे कामभोगों में अत्यन्त आसक्त हैं / 2 ___ अब्रह्मचर्य को स्वाभाविक मानने की ओर श्रमणों का मानसिक झुकाव होता जा रहा था, उस समय उन्हें ब्रह्मचर्य की विशेष व्यवस्था देने की आवश्यकता थी। इस अनुकूल परीषह से श्रमणों को बचाना आवश्यक था। उस स्थिति में भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य को बहुत महत्त्व दिया और उसकी सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था दी ( देखिएउत्तराध्ययन, सोलहवाँ और बत्तीसवाँ अध्ययन ) / (2) सामायिक और छेदोपस्थापनीय भगवान् पार्श्व के समय सामायिक-चारित्र था और भगवान् महावीर ने छेदोपस्थापनीय-चारित्र का प्रवर्तन किया / वास्तविक दृष्टि से चारित्र एक सामायिक ही है / चारित्र का अर्थ है 'समता की आराधना' / विषमतापूर्ण प्रवृत्तियाँ त्यक्त होती हैं तब सामायिक-चारित्र प्राप्त होता है / यह निर्विशेषण या निर्विभाग है। भगवान् पार्श्व ने चाभित्र के विभाग नहीं किए, उसे विस्तार से नहीं समझाया। सम्भव है उन्हें इसकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। भगवान् महावीर के सामने एक विशेष प्रयोजन उपस्थित १-सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा 53-55 / २-सूत्रकृतांग, 1 / 3 / 4 / 13 / ३-विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 1267 / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन था, इसलिए उन्होंने सामायिक को छेदोपस्थापनीय का रूप दिया। इस चारित्र को स्वीकार करने वाले को व्यक्ति या विभागशः महाव्रतों का स्वीकार कराया जाता है / छेद का अर्थ 'विभाग' है। भगवान महावीर ने भगवान पार्श्व के निर्विभाग सामायिकचारित्र को विभागात्मक सामायिक-चारित्र बना दिया और वही छेदोपस्थापनीय के नाम से प्रचलित हुआ। भगवान् ने चारित्र के तेरह मुख्य विभाग किए थे। पूज्यपाद ने भगवान महावीर को पूर्व तीर्थङ्करों द्वारा अनुपदिष्ट तेरह प्रकार के चारित्र-उपदेष्टा के रूप में नमस्कार किया है-- तिस्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः, पंचेर्यादि समाश्रयाः समितयः पंच व्रतानीत्यपि / चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दिलं परै, राचारं परमेष्ठिबुनो जिनपते वीरान् नमामो वयम् // 1 यह विचित्र संयोग की बात है कि आचार्य भिक्षु ने भी तेरापंथ की व्याख्या इन्हीं तेरह ( पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ) व्रतों के आधार पर को थी। भगवती से ज्ञात होता है कि जो चातुर्याम-धर्म का पालन करते थे, उन मुनियों के चारित्र को 'सामायिक' कहा जाता था और जो मुनि सामायिक-चारित्र की प्राचीन परम्परा को छोड़ कर पंचयाम-धर्म में प्रबजित हुए उनके चारित्र को 'छोपस्थापनीय' कहा गया / 3 भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्व की परम्परा का सम्मान करने अथवा अपने निरूपण के साथ उसका सामंजस्य बिठाने के लिए दोनों व्यवस्थाएं की प्रारम्भ में अल्पकालीन निर्विभाग ( सामायिक ) चारित्र को मान्यता दी,४ दीर्घकाल के लिए विभागात्मक ( छेदोपस्थापनीय ) चारित्र की व्यवस्था की। १-चारित्रभक्ति, 7 / २-भिक्षुजशरसायन, 77 : पंच महाव्रत पालता, शुद्धि सुमति सुहावै हो। तीन गुप्त तीखी तरै, भल आतम भावे हो। चित्त तूं तेरा ही चाहवै हो। ३-भगवती, 25 // 71786, गाथा 1,2 : सामाइयंमि उ कए, चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म / तिविहेणं फासयंतो, सामाइय संजमो स खलु // . छत्तण उ परियागं, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं / धम्ममि पंच जामे, छेदोवट्ठावणो स खलु // ४-विशेषावश्क भाज्य, गाथा 1268 / ५-वही, गाथा 1274 / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 6 २-पार्श्व और महावीर का शासन-भेद 127 (3) रात्रि-भोजन-विरमण भगवान् पार्श्व के शासन में रात्रि-भोजन न करना व्रत नहीं था। भगवान् महावीर ने उसे व्रत की सूचि में सम्मलित कर लिया। यहाँ सूत्रकृतांग (1 / 6 / 28) का वह पद फिर स्नरणीय है-'से वारिया इथि सराइभत्त' / हरिभद्र सूरि ने इसकी चर्चा करते हुए बताया है कि भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर ने अपने ऋजु-जड़ और वक्र-जड़ शिष्यों की अपेक्षा से रात्रि भोजन न करने को व्रत का रूप दिया और उसे मूल गुणों की सूचि में रखा। मध्यवर्ती 22 तीर्थकरों ने उसे मूलगुण नहीं माना इसलिए उन्होंने उसे व्रत का रूप नहीं दिया।' सोमतिलक सूरि का भी यहीं अभिमत है / ' ___ हरिभद्र सूरि से पहले ही यह मान्यता प्रचलित थी। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने लिखा है कि 'रात को भोजन न करना' अहिंसा महाव्रत का संरक्षक होने के कारण समिति की भाँति उत्तर गुण है। किन्तु मुनि के लिए वह अहिंसा महाव्रत की तरह पालनीय है। इस दृष्टि से वह मूलगुण की कोटि में रखने योग्य है / श्रावक के लिए वह मूलगुण नहीं है। जो गुण साधना के आधारभूत होते हैं, उन्हें 'मौलिक' या 'मूलगुण' कहा जाता है। उनके उपकारी या सहयोगी गुणों को 'उत्तरगुण' कहा जाता है। जिनभद्रगणी ने मूलगुण की संख्या 5 और 6 दोनों प्रकार से मानी है-- (1) अहिंसा (4) ब्रह्मचर्य (2) सत्य (5) अपरिग्रह १-दशवकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र 150 : . एतच्च रात्रिभोजनं प्रथमचरमतीधकरतीर्थयोः ऋजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थ महाव्रतोपरि पठितं, मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुन: ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति / २-सप्ततिशतस्थान, गाथा 287 : मूलगुणेसु उ दुण्हं, सेसाणुत्तरगुणेसु निसिभुत्तं / ३-विशेषावश्यक भाज्य, गाथा 1247 वृत्ति : उत्तरगुगत्वे सत्यपि तत् साधो मूलगुणो भण्यते / मूलगुणपालनात् प्राणातिपाता दिविरमणवत् अन्तरङ्गत्वाच्च / ४-वही, गाथा 1245-1250 / ५-विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 1244 : सम्मत्त समेयाई, महन्वयाणुव्वयाई मूलगुणा। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (3) अचौर्य त्रि-भोजन-विरमण१ . आचार्य वट्टकेर ने मूलगुण 28 माने हैंपाँच महावत अस्नान पाँच समितियाँ भूमिशयन पाँच इन्द्रिय-विजय दन्तघर्षन का वर्जन षड् आवश्यक स्थिति भोजन केशलोच एक-भक्त / अचेलकता मूलगुणों की संख्या सब तीर्थङ्करों के शासन में समान नहीं रही, इसका समर्थन भगवान् महावीर के एक निम्न प्रवचन से होता है-- "आर्यो !...मैंने पाँच महाव्रतात्मक, सप्रतिक्रमण और अचेल धर्म का निरूपण किया है। आर्यो !... मैंने नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, दन्तप्रक्षालन-वर्जन, छत्र-वर्जन, पादुकावर्जन, भूमि-शय्या, केश-लोच आदि का निरूपण किया है।'' भगवान् महावीर के जो विशेष विधान हैं, उनका लम्बा विवरण स्थानांग, 6 / 663 (4) सचेल और अचेल गौतम और केशी के शिष्यों के मन में एक वितर्क उठा था "महामुनि वर्द्धमान ने जो आचार-धर्म की व्यवस्था की है, वह अचलक है ओर महामुनि पार्श्व ने जो यह आचार-धर्म की व्यवस्था को है, वह वर्ण आदि से विशिष्ट तथा मुल्यवान वस्त्र वाली है। जब कि हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ?" केशी ने गौतम के सामने वह जिज्ञासा प्रस्तुत की और पूछा-- "मेवाविन् ! वेष के इन प्रकारों में तुम्हें संदेह कैसे नहीं होता ?" केशी के ऐसा कहने पर गौतम ने इस प्रकार कहा--"विज्ञान द्वारा यथोचित जान कर ही धर्म के साधनों-उपकरणों की अनुमति दी गई है। लोगों को यह प्रतीति हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। जीवन-यात्रा को निभाना और 'मैं साधु हूँ,' ऐसा ध्यान आते रहना वेष-धारण के इस लोक में ये प्रयोजन १-विशेषावश्यक भाज्य, गाथा 1829 : मूलगुणा छन्वयाइं तु। २-मूलाचार, 112-113 / ३-स्थानांग, 91693 / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 6 २-पार्व और महावीर का शासन-भेद 126 हैं। यदि मोक्ष को वास्तविक साधना की प्रतिज्ञा हो तो निश्चय-दृष्टि में उसके साधन, ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं। ___भगवान पार्श्व के शिष्य बहुमूल्य और रंगीन-वस्त्र रखते थे। भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों को अल्पमूल्य और श्वेत वस्त्र रखने की अनुमति दी। _____डॉ० हर्मन जेकोबो का यह मत है कि भगगन महावीर ने अचेलकता या नग्नत्व का आचार आजीवक आचार्य गोशालक से ग्रहण किया।२ किन्तु यह संदिग्ध है। भगवान महावीर के काल में और उनसे पूर्व भी नग्न साधुओं के अनेक सम्प्रदाय थे। भगवान् महावीर ने अचेलकता को किसी से प्रभावित होकर अपनाया या अपनी स्वतंत्र बुद्धि से ? इस प्रश्न के समाधान का कोई निश्चित स्रोत प्राप्त नहीं है, किन्तु इतना निश्चित है कि महावीर दीक्षित हुए तब सचेल थे, बाद में अचेल हो गए। भगवान ने अपने शिष्यों के लिए भी अचेल आचार की व्यवस्था की, किन्तु उनकी अचेल व्यवस्था दूसरे-दूसरे नग्न साधुओं की भाँति एकान्तिक आग्रहपूर्ण नहीं थी। गौतम ने केशी से जो कहा, उससे यह स्वयं सिद्ध है। जो निग्रन्थ निर्वस्त्र रहने में समर्थ थे, उनके लिए पूर्णत: अचेल (निर्वस्त्र) रहने की व्यवस्था थी और जो निम्रन्थ वैसा करने में समर्थ नहीं थे, उनके लिए सीमित अर्थ में अचेल (अल्पमूल्य और श्वेत वस्त्रधारी) रहने की व्यवस्था थी। ___भगवान् पार्श्व के शिष्य भगवान् महावीर के तीर्थ में इसीलिए खप सके कि भगवान् महावीर ने अपने तीर्थ में सचेल और अचेल-इन दोनों व्यवस्थाओं को मान्यता दी थी। इस सचेल और अचेल के प्रश्न पर ही निर्ग्रन्थ-संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर- इन दो शाखाओं में विभक्त हुआ था। श्वेताम्बर-साहित्य के अनुसार जिन-कल्पी साधु वस्त्र नहीं रखते थे और स्थविर-कल्पी साधु वस्त्र रखते थे। दिगम्बर साहित्य के अनुसार सब साधु वस्त्र नहीं रखते थे। इस विषय पर पार्ववर्ती परम्पराओं का भी विलोडन करना अपेक्षित है। पूरणकश्यप ने समस्त जीवों का वर्गीकरण कर छह अभिजातियाँ निश्चित की थीं। उसमें तीसरी-लोहित्याभिजाति-में एक शाटक रखने वाले निग्रन्थों का उल्लेख किया है। 1. उत्तराध्ययन, 23 / 29-33 / २-दी सेक्रेड बुक ऑफ दी ईस्ट, भाग 45, पृ० 32 : ... It is probable that be borrowed them from the Akelakas or Agivikas, the followers of Gosala... ३-अंगुत्तरनिकाय, 6 / 63, छल भिजाति सुत्त, भाग 3, पृ० 86 / ४-वही, 6 / 6 / 3 : तत्रिदं भन्ते, पूरणेन कस्सपेन लोहिताभिजाति पञ्चत्ता, निगण्ठा एक साटका। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . .. आचारांग में भी एक शाटक रखने का उल्लेख है।' अंगुत्तरनिकाय में निर्ग्रन्थों के नग्न रूप को लक्षित करके ही उन्हें 'अह्रीक' कहा गया है। आचारांग में निर्ग्रन्थों के लिए अचेल रहने का भी विधान है। विष्णुपुराण में जैन-साधुओं के निर्वस्त्र और सवस्त्र-दोनों रूपों का उल्लेख मिलता है। ____ इन सभी उल्लेखों से यह जान पड़ता है कि भगवान महावीर के शिष्य सचेल और अचेल-इन दोनों अवस्थाओं में रहते थे। फिर भी अचेल अवस्था को अधिक महत्त्व दिया गया, इसीलिए केशी के शिष्यों के मन में उसके प्रति एक वितर्क उत्पन्न हुआ था। प्रारम्भ में अचेल शब्द का अर्थ निर्वस्त्र ही रहा होगा और दिगम्बर, श्वेताम्बर संघर्षकाल में उसका अर्थ 'अल्प वस्त्र वाला' या 'मलिन वस्त्र वाला' हुआ होगा अथवा एक वस्त्रधारी निर्ग्रन्थों के लिए भी अचेल का प्रयोग हुआ होगा। दिगम्बर-परम्परा ने निर्वस्त्र रहने का एकान्तिक आग्रह किया और श्वेताम्बर-परम्परा ने निर्वस्त्र रहने की स्थिति के विच्छेद की घोषणा की। इस प्रकार सचेल और अचेल का प्रश्न, भगवान् महावीर ने जिसको समाहित किया था, आगे चल कर विवादास्पद बन गया। यह विवाद अधिक उग्र तब बना, जब आजीवक श्रमण दिगम्बरों में विलीन हो रहे थे। तामिल काव्य 'मणिमेखले' में जैन-श्रमणों को निम्रन्थ और आजीवक-इन दो भागों में विभक्त किया गया है। भगवान् महावीर के काल में आजीवक एक स्वतंत्र सम्प्रदाय था। अशोक और दशरथ के 'बराबर' तथा 'नागार्जुनी गुहा-लेखों' से उसके अस्तित्व की जानकारी मिलती है। उनके श्रमणों को गुहाएं दान में दी गई थी।५ सम्भवतः ई० स० के आरम्भ से आजीवक मत का उल्लेख प्रशस्तियों में नहीं मिलता। डॉ. वासुदेव उपाध्याय ने संभावना की है कि आजीवक ब्राह्मण मत में विलीन हो गए।६ किन्तु मणिमेखले १-आचारांग, 1 / 8 / 4 / 52 : अदुवा एग साडे। २-अंगुत्तरनिकाय, 1088, भाग 4, पृ० 218 : अहिरिका भिक्खवे निग्गण्ठा / ३-आचारांग, 108 / 4 / 53 : अदुवा श्रचेले। ४-विष्णुपुराण, अंश 3, अध्याय 18, श्लोक 10 : दिग्वाससामयं धर्मों, धर्मोऽयं बहुवासमाम् / ५-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, खण्ड 2, पृ० 22 / ६-वही, खण्ड 1, पृ. 126 / Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 6 २-पार्श्व और महावीर का शासन-भेद से यही प्रमाणित होता है कि आजीवक-श्रमण दिगम्बर श्रमणों में विलीन हो गए / ' आजीवक नग्नत्व के प्रबल समर्थक थे। उनके विलय होने के पश्चात् सम्भव है कि दिगम्बर-परम्परा में भी अचेलता का आग्रह हो गया। यदि आग्रह न हो तो सचेल और अचेल-इन दोनों अवस्थाओं का सुन्दर सामञ्जस्य बिठाया जा सकता है, जैसा कि भगवान महावीर ने बिठाया था। (5) प्रतिक्रमण भगवान पार्श्व के शिष्यों के लिए दोनों सन्ध्याओं में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य नहीं था / जब कोई दोषाचरण हो जाता, तब वे उसका प्रतिक्रमण कर लेते / भगवान महावीर ने आने शिष्यों के लिए दोनों संध्याओं में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य कर दिया, भले फिर कोई दोषाचरण हुआ हो या न हुआ हो / ' (6) अवस्थित और अनवस्थित कल्प भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर के शासन-भेद का इतिहास दस कल्पों में मिलता है। उनमें से चातुर्याम धर्म, अचेलता, प्रतिक्रमण पर हम एक दृष्टि डाल चुके हैं। भगवान् पार्श्व के शिष्यों के लिए-१-शय्यातर-पिण्ड (उपाश्रय दाता के घर का भाहार) न लेना, २-चातुर्याम-धर्म का पालन करना, ३-पुरुष को ज्येष्ठ मानना, ४-दीक्षा पर्याय में बड़े साधुओं को वंदना करना-ये चार कल्प अवस्थित थे। १-अचेलता, 2. औद्देशिक, ३-प्रतिक्रमण, ४-राजपिण्ड, ५-मासकल्प, ६-पर्युषण कल्प-ये छहों कल्प अनवस्थित थे-ऐच्छिक थे / भगवान् महावीर के शिष्यों के लिए ये सभी कल्प अवस्थित थे, अनिवार्य थे / परिहार विशुद्ध चारित्र भी भगवान महावीर की देन थी। इसे छेदोपस्थापनीय चारित्र की भाँति 'अवस्थित कल्पी' कहा गया है।४ * -- १-बुद्धिस्ट स्टडीज, पृ० 15 / २-(क) आवश्यक नियुक्ति, 1244 / (ख) मूलाचार 7 / 125-126 / ३-भगवती, 25 / 71787 : सामाइय संजमे णं भंते ! किं ठियकप्पे होज्जा अट्ठियकप्पे होज्जा ? गोयमा ठियकप्पे वा होज्जा अट्ठियकप्पे वा होज्जा, छेदोवट्ठावणियसंजए पुच्छा, गोयमा ! ठियकप्पे होज्जा. नो अट्ठियकप्पे होज्जा। ४-भगवती, 2517787 / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : सातवाँ १-साधना-पद्धति साध्य की सम्पूर्ति के लिए साधना-पद्धति अपेक्षित होती है। प्रत्येक दर्शन ने अपने साध्य की सिद्धि के लिए उसका विकास किया है। उनमें से जैन-दर्शत भी एक है। .. - सांख्य-दर्शन की साधना-पद्धति का अविकल रूप महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन में मिलता है / वह ई० पू० दुसरो शताब्दी की रचना है। पाणिनि के भाष्यकार, चरक के प्रति-संस्कत्तो और योग-दर्शन के कर्ता महर्षि पतञ्जलि एक ही व्यक्ति हैं। अतः उनका अस्तित्वकाल पाणिनी के बाद का है। मौर्य साम्राज्य का अस्तित्व ई० पू० 322 से 185 तक माना जाता है। मौय-वंश का अंतिम राजा बृहद्रथ था। वह ई० पू० 185 में अपने सेनापति पुष्यमित्र द्वारा मारा गया था। महर्षि पतंजलि पुष्यमित्र के समकालीन थे / इस तथ्य के आधार पर उनका अस्तित्व काल ई०ए० दसरी शताब्दी है। बौद्ध-दर्शन का साधना मार्ग 'अभिधम्मकोष' (ई० सन् पाँचवी शताब्दी) और 'विसुद्धिमग्ग' (ई० सन् पाँचवीं शताब्दी) में उपलब्ध है। उत्तराध्ययन उक्त तीनों ग्रन्थों से पूर्ववर्ती है। योग सूत्रकार पतञ्जलि और महाभाष्यकार पतञ्जलि एक व्यक्ति नहीं थे, यह नगेन्द्रनाथ वसु का अभिमत है।' उनके अनुसार महाभाष्यकार के बहुत पहले कात्यायन ने अपने वार्तिक (6 / 1 / 64) में पतञ्जलि का स्पष्ट नामोल्लेख किया है / अत: यह निश्वित है कि योग सूत्रकार पतञ्जलि कात्यायन के पूर्ववर्ती हैं। कुछ विद्वान योग सूत्रकार पतञ्जलि को पाणिनि से पूर्ववर्ती मानते हैं, किन्तु यह ठोक नहीं है। पाणिनि ने कहीं पर भी पतञ्जलि, पातंजल दर्शन प्रतिपाद्य किसी पारिभाषिक शब्द का उल्लेख नहीं किया। पतञ्जलि ने अपने योग-दर्शन में ऐसे अनेक पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है, जो वैदिक-साहित्य के पारिभाषिक शब्दों से भिन्न हैं और श्रमणों के पारिभाषिक शब्दों से अभिन्न हैं। इससे यह फलित होता है कि पजञ्जलि की दृष्टि में श्रमणों को साधनापद्धति प्रतिबिम्बित थी। साध्य जैन-दर्शन के अनुसार मनुष्य का साध्य है-मोक्ष या आत्मोपलब्धि / आत्मा का स्वरूप है-ज्ञान, सम्यक्त्व और वीतरागता। सम्यक्त्व विकृत, ज्ञान आवृत्त और वीतरागता १-विश्वकोष, भाग 13, पृ० 254 / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 १-साधना-पद्धति अप्रकटित होती हैं, तब तक हर व्यक्ति के लिए अपनी आत्मा साध्य होती है और जब सम्यक्त्व मल रहित, ज्ञान अनावृत्त और वीतरागता प्रकट होती है, तब वह स्वयं सिद्ध हो जाती है। साध्य की सिद्धि के लिए जिन हेतुओं का आलम्बन लिया जाता है, उन्हें 'साधन' और उनके अभ्यास क्रम को 'साधना' कहा जाता है। साधन मोक्ष के साधन चार हैं-(१) ज्ञान, (2) दर्शन, (2) चारित्र और (4) तप / ' ज्ञान से सत्य जाना जाता है और दर्शन (सम्यक्त्व) से सत्य के प्रति श्रद्धा होती है, इसलिए ये दोनों सत्य की प्राप्ति के साधन हैं। चारित्र से आने वाले कर्मों का निरोध होता है और तप से पूर्व संचित कर्म क्षीण होते हैं, इसलिए ये दोनों सत्य की उपलब्धि के साधन हैं / ये चारों समुदित रूप से मोक्ष या आत्मोपलब्धि के साधन हैं। साधना मोक्ष के साधन चार हैं, इसलिए उसकी साधना के भी मुख्य प्रकार चार हैं-(१) ज्ञान की साधना, (2) दर्शन की साधना, (3) चारित्र की साधना और (4) तप की साधना। (1) ज्ञान की साधना के पाँच अंग हैं(१) वाचना पढ़ाना। (2) प्रतिपृच्छा--- प्रश्न पूछना। (3) परिवर्तना- पुनरावृत्ति करना। (4) अनुप्रेक्षा- चिन्तन करना। (5) धर्म कथा- धर्म-चर्चा करना। ज्ञान की आराधना करने से अज्ञान क्षीण होता है / ज्ञान-सम्पन्न जीव संसार में विनष्ट नहीं होता। जिस प्रकार धागा पिरोई सूई गिरने पर भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञान-युक्त. जोवन संसार में विलुप्त नहीं होता। इस प्रकार भगवान महावीर ने ज्ञान का उतना ही समर्थन किया, जितना कि चारित्र का। इसलिए जैन-दर्शन को हम केवल ज्ञान-योग का समर्थक नहीं कह सकते। १-उत्तराध्ययन, 28 / 3 / २-वही, 28 // 35 // ३-वही, 29 / 16-24 / ४-वही, 29 / 59 / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन - (2) दर्शन की साधना के 8 अंग हैं (1) निःशंकित / (2) निष्कांक्षित। (3) निर्विचिकित्सा। (4) अमूढ़-दृष्टि / (5) उपबृहण / (6) स्थिरीकरण / (7) वात्सल्य / (8) प्रभावना। दर्शन जैन-संघ के संगठन का मूल आधार रहा है। पहला आधार है-आस्था या अभय / एकसूत्रता का मूल बीज आस्था है। स्वसम्मत लक्ष्य के प्रति आस्थावान् हुए बिना कोई भी प्रगति नहीं कर सकता। लक्ष्य के साथ तादात्म्य हो, यह संगठन की पहली अपेक्षा है। अभय भी ऐसी हो अनिवार्य अपेक्षा है। मन में भय हो तो लक्ष्य को पकड़ा ही नहीं जा सकता और पूर्व गृहीत हो तो उस पर टिका नहीं जा सकता। : भगवान महावीर की दृष्टि में सब दोषों का मूल है हिंसा और हिंसा का मूल है भय / कोई व्यक्ति अभय होकर ही अपने लक्ष्य की ओर स्वतंत्र गति से चल सकता है। . ____संगठन का दूसरा आधार है-लक्ष्य के प्रति दृढ़ अनुराग या वैचारिक स्थिरता। जगत् में अनेक संगठन और उनके भिन्न-भिन्न लक्ष्य होते हैं। स्व-सम्मत लक्ष्य के प्रति दृढ़ अनुराग न हो तो मन कभी किसी को पकड़ना चाहता है और कभी किसी को। विचारों में एक अंधड़ सा चलता रहता है। इस प्रकार व्यक्ति और संगठन दोनों ही स्वस्थ नहीं बन सकते। तीसरा आधार है-स्वीकृत साधनों की सफलता में विश्वास / हर संगठन का अपना साध्य होता है और अपने साधन होते हैं। किसी भी साधन से तब तक साध्य नहीं सधता, जब तक साधक को उसकी सफलता में विश्वास न हो। इस साधन से अमुक साधन की सिद्धि निश्चित होगी-ऐसा माने बिना संगठन का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। संगठन का चौथा आधार-स्तम्भ है-अमूढ़-दृष्टि / दूसरे विचारों के प्रति हमारी सद्भावना हो, यह सही है पर यह सही नहीं कि अपनी नीति से विरोधी विचारों के प्रति हमारी सहमति हो। यदि ऐसा हो तो हमारा दृष्टिकोण विशुद्ध नहीं रह सकता और हमारे संगठन और कार्य प्रणाली का कोई स्वतंत्र रूप भी नहीं रह सकता। संगठन के लिए यह बहुत अपेक्षित है कि उसका अनुयायी विनम्र हो पर 'सब समान हैं' इस अविवेक का समर्थक न हो। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 १-साधना-पद्धति 135 पाँचवाँ आधार है-उपबृहण / संगठन की आत्मा है---गुण या विशेषता। गुण और अवगुण-ये दोनों मनुष्य के सहचारी हैं। गुण की वृद्धि और अवगुण का शोधन करना संगठन के लिए बहुत ही आवश्यक होता है / पर इसमें बहुत सतर्कता बरती जानी चाहिए। अवगण का प्रतिकार होना चाहिए पर उसे प्रसारित कर संगठन के सामने जटिलता पैदा नहीं करनी चाहिए / गुण का विकास करना चाहिए पर उसके प्रति ईर्ष्या या उन्माद न हो, ऐसी सजगता रहनी चाहिए। इसी सूत्र के आधार पर यह विचार विकसित हुआ था कि जो एक साधु की पूजा करता है, वह सब साधुओं की पूजा करता है यानि साधुता की पूजा करता है। जो एक साधु की अवहेलना करता है, वह सब साधुओं की अवहेलना करता है यानि साधुता की अवहेलना करता है। संगठन का छठा आधार है-स्थिरीकरण / अनेक लोगों का एक लक्ष्य के प्रति आकृष्ट होना भी कठिन है और उससे भी कठिन है, उस पर टिके रहना / आन्तरिक और बाहरी ऐसे दबाव होते हैं कि आदमी दब जाता है। शारीरिक और मानसिक ऐसी परिस्थितियाँ होती हैं कि आदमी पराजित हो जाता है / तब वह लक्ष्य को छोड़ कर दूर भागना चाहता है / उस समय उसे लक्ष्य में फिर से स्थिर करना संगठन के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। स्थिरीकरण के हेत अनेक हो सकते हैं। उनमें सबसे बडा हेतु है वात्सल्य और यही सातवाँ आधार है / सेवा और संविभाग इसी सूत्र पर विकसित हुए हैं। भगवान् ने कहा--"असंविभागी को मोक्ष नहीं मिलता। जो संविभाग को नहीं जानता, वह अपने आपको अनगिन बंधनों में जकड़ लेता है, फिर मुक्ति की कल्पना कहाँ ?" इसी सूत्र के आधार पर उत्तरवर्ती आचार्यो ने भगवान् के मुँह से कहलाया कि जो रोगी साधु को सेवा करता है, वह मेरी सेवा करता है और एकात्मता की भाषा में गाया गया"भिन्न-भिन्न देश में उत्पन्न हुए, भिन्न-भिन्न आहार से शरीर बढ़ा किन्तु जैसे ही वे जिन-शासन में आए, वैसे ही सब भाई हो गए !" यह भाईचारा और सेवाभाव ही संगठन की सुदृढ़ आधार-शिला है। - आठवाँ आधार है प्रभावना। वही संगठन टिक सकता है जो प्रभावशाली होता है। लक्ष्य पूर्ति के साधनों को प्रभावशाली बनाए रखे बिना उनकी ओर किसी का झुकाव ही नहीं होता। दूसरों के मन को भावित करने की क्षमता रखने वाले ही संगठन को प्रभावशाली बना सकते हैं। विद्या, कला, कौशल, वक्तृत्व आदि शक्तियों का विकास और पराक्रम सहज ही जन-मानस को प्रभावित कर देता है। संगठन के लिए ऐसे पारगामी व्यक्ति भी सदा अपेक्षित होते हैं। * संगठन के लिए जो आठ आधार भगवान् ने बताए, उनमें से पहले चार वैयक्तिक / हैं। कोई भी व्यक्ति उनसे अपनी आत्मा की सहायता करता है और साथ-साथ संघ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन को भी लाभान्वित करता है। अन्तिम चार से व्यक्ति दूसरों की सहायता कर संघ को शक्तिशाली बनाता है। दर्शन-विहीन व्यक्ति के ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता, चारित्र के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता।' दर्शन सम्पन्न व्यक्ति भव-परम्परा का अंत पा लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान महावीर ने दर्शन को उतना ही महत्त्व दिया, जितना ज्ञान और चारित्र को। इसीलिए हम जैन-दर्शन को केवल श्रद्धा ( या भक्ति ) योग का समर्थक नहीं कह सकते। (3) चारित्र की साधना के पाँच अंग है-- (1) सामायिक / (2) छेदोपस्थापन / (3) परिहारविशुद्धीय। (4) सूक्ष्मसंपराय। (5) यथाख्यात / चारित्र सम्मन्न व्यक्ति स्थिर बनता है। भगवान महावीर ने चारित्र को ज्ञान और दर्शन का सार कहा है। जैन-दर्शन केवल चारित्र-कर्म योग का समर्थक नहीं हैं। (1) तप की साधना के बारह अंग है(१) अनशन / 6 ऊनोदरी। (3) भिक्षाचरी। (4) रस-परित्याग। (5) काय-क्लेश। (6) संलीनता (विविक्त-शयनासन) (7) प्रायश्चित्त / १-उत्तराध्ययन, 28 / 30 / २-वही, 29 / 60 / ३-वही, 28132-33 / ४-वही, 29 / 61 / ५-उत्तराध्ययन 308,30 / ६-उत्तराध्ययन के टिप्पण, 30112,13 का टिप्पण / ७-उत्तराध्ययन के टिप्पण, 30 / 25 का टिप्पण। . Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137 खण्ड: 1, प्रकरण : 7 २-योग ...... (5) विनय / () वैयावृत्त्य। (10) स्वाध्याय / (11) ध्यान / (12) व्युत्सर्ग। जैन-दर्शन अनेकान्तवादी है। इसीलिए वह कोरे तो-योग का समर्थक नहीं है / वह श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र और तप में सामञ्जस्य स्थापित करता है और केवल श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र या तप को मान्यता देने वाले उसकी दृष्टि में अपूर्ण हैं / २-योग जैन योग की अनेक शाखाएं हैं-दर्शन-योग, ज्ञान-योग, चारित्र-योग, तपो-योग, स्वाध्याय-योग, ध्यान-योग, भावना-योग, स्थान-योग, गमन-योग और आतापना-योग। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपो-योग की चर्चा साधना के प्रकरण में की जा चुकी है। स्वाध्याय-योग ज्ञान-योग का ही एक प्रकार है / स्वाध्याय और ध्यान-योग का समावेश तपो-योग में भी होता है। इस प्रकरण में हम भावना, स्थान, गमन और आतापनाइन योगों की चर्चा करेंगे। भावना-योग साधना के प्रारम्भ में प्राचीन जीवन का विघटन और नए जीवन का निर्माण करना होता है। इस प्रक्रिया में भावना का बहुत बड़ा उपयोग है। जिन चेष्टाओं व संकल्पों द्वारा मानसिक विचारों को भावित या वासित किया जाता है, उन्हें 'भावना' कहा जाता है। महर्षि पतञ्जलि ने भावना और जप में अभेद माना है। . भावना के अनेक प्रकार हैं / ज्ञान, दर्शन, चारित्र, भक्ति आदि जिन-जिन चेष्टाओं व अभ्यासों से मानस को भावित किया जाता है, वे सब भावनाएं हैं अर्थात् भावनाएँ असंख्य हैं। फिर भी उनके कई वर्गीकरण मिलते हैं। पाँच महाव्रत की पच्चीस १-पासणाहचरियं, पृ० 460 : भाविज्जइ वासिज्जइ जीए जीवो विसुखचेट्टाए सा भावणत्ति बुच्चइ। . २-पातञ्जल योग, सूत्र 1128 : तज्जपस्तदर्थभावनम् / ३-पासणाहचरियं, पृ० 460 / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन भावनाएं हैं। धर्म और शुक्ल ध्यान की चार-चार अनुप्रेक्षाएँ हैं / 2 वे मिलित रूप में पाठ भावनाएं हैं। ये दोनों आगमकालीन वर्गीकरण हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में बारह भावनाओं का एक वर्गीकरण' और दूसरा वर्गीकरण चार भावनाओं का प्राप्त होता है।४ ___ इन दोनों वर्गीकरणों की सोलह भावनाएँ प्रकीर्ण रूप में आगमों में मिलती हैं, किन्तु इनका वर्गीकृत रूप उत्तरकाल में ही हुआ। __महाव्रतों की भावनाएं उनकी स्थिरता के लिए हैं। प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएं हैं। अहिंसा-महाव्रत (1) ईर्यासमिति / (2) मन-परिज्ञा। (3) वचन-परिज्ञा। ... - (4) आदान-निक्षेप समिति। (5) आलोकित-पान-भोजन / सत्य-महात्रत (1) अनुवीचि-भाषण। त्याख्यान / (3) लोभ-प्रत्याख्यान। (4) अभय (भय-प्रत्याख्यान)। (5) हास्य-प्रत्याख्यान / अचौर्य-महाव्रत . (1) अनुवीचि-मितावग्रह-याचन / . (2) अनुज्ञापित पान-भोजन / (3) अवग्रह का अवधारण / (4) अतिमात्र और प्रणीत पान-भोजन का वर्जन / (5) स्त्री आदि से संसक्त शयनासन का वर्जन / १-उत्तराध्ययन, 31117 / २-स्थानांग, 4 / 12247 / ३-तत्त्वार्थ, 97 / ४-वही, 76 / ५-तत्त्वार्थ, 7 / 3: तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंच। ६-आचारांग, 2 // 3 // 15 // 402 / Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7.... .....२-योग. अपरिग्रह-महाव्रत (1) मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव / (2) मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव / (3) मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्ध में समभाव / (4) मनोज्ञ और अमनोज्ञ रस में समभाव / (5) मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव / धर्म्य-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं- (1) एकत्व, (3) अशरण और (2) अनित्य, (4) संसार / ' शुक्ल-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं (1) अनन्तवर्तिता-भव-परम्परा अनन्त है, (2) विपरिणाम- वस्तु विविध रूपों में परिणत होती रहती है, (3) अशुभ- संसार अशुभ है और (4) अपाय- जितने आश्रव हैं, बन्धन के हेतु हैं, वे सब मूल दोष हैं। इनमें से धर्म्य-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ बारह भावनाओं के वर्ग में संग्रहीत हैं। बारह भावनाएं इस प्रकार हैं(१) अनित्य (7) आश्रव .. (2) अशरण (8) संवर (3) संसार (6) निर्जरा . .. (4) एकत्व (5) अन्यत्व (11) बोधि-दुर्लभ (6) अशुद्धि (12) धर्म चार भावनाएं (1) मैत्री . (2) प्रमोद (3) कारुण्य (4) माध्यस्थ्य इन भावनाओं के अभ्यास से मोह-निवृत्ति होती है और सत्य की उपलब्धि होती (10) लोक १-स्थानांग, 4 / 1 / 247 / - २-वही, 412247 / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन है / भगवान् महावीर ने कहा-"जिसकी आत्मा भावना-योग से शुद्ध है, वह जल में नौका के समान है, वह तट को प्राप्त कर सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।" आगमों में इनका प्रकीर्ण रूप इस प्रकार हैअनित्य-भावना __धीर पुरुष को मुहूर्त-भर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए / अवस्था बीती जा रही है। यौवन चला आ रहा है / 2 . अशरण-भावना सगे-सम्बन्धी तुम्हारे लिए त्राण नहीं हैं और तुम भी उनके लिए त्राण नहीं हो / ' संसार-भावना इस जन्म-मरण के चक्कर में एक पलक-भर भी सुख नहीं है / एकत्व-भावना आदमी अकेला जन्मता है और अकेला मरता है। उसकी संज्ञा, विज्ञान और वेदना भी व्यक्तिगत होती है / अन्यत्व-भावना - काम-भोग मुझसे भिन्न हैं और मैं उनसे भिन्न हूँ। पदार्थ मुझसे भिन्न हैं और मैं उनसे भिन्न हूँ। अशौच-भावना यह शरीर अपवित्र है, अनेक रोगों का आलय है। . :-सूत्रकृताङ्ग, 1115 / 5 : भावणाजोगसुद्धप्पा जले णाशव आहिया / नावा व तीरसंपन्ना सव्वदुक्खा तिउट्टइ // २-(क) आचारांग, 1 / 2 / 1 / (ख) उत्तराध्ययन, 13 // 31 / ३-(क) उत्तराध्ययन, 6 / 3 / (ख) आचारांग, 112 / 1 / ४-उत्तराध्ययन, 19 / 74 / ५-वही, 18:14-15 / ६-सूत्रकृतांग, 2 / 1 / 13 / ७-उत्तराध्ययन, 1027 // Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 . . .. २-योग 141 आश्रव-भावना आश्रव-कर्म-बन्धन के हेतु कार भी हैं, नीचे भी हैं और मध्य में भी हैं।' संवर और निर्जरा भावना नाले बन्द कर देने व अन्दर के जल को उलीच-उलोच कर बाहर निकाल देने पर जैस महातालाब सूख जाता है, वैसे ही आश्रव-द्वारों को बन्द कर देने और पूर्व संचित कर्मों को तपस्या के द्वारा निर्जीण करने पर आत्मा पुद्गल-मुक्त हो जाती है। लोक-भावना जो लोकदर्शी है, वह लोक के अधोभाग को भी जानता है, ऊर्ध्व-भाग को भी जानता है और तिर्यग-भाग को भी जानता है। बोधि-दुर्लभ-भावना ___ जागो ! क्यों नहीं जाग रहे हो ? बोधि बहुत दुर्लभ है / 4 धर्म-भावना धर्म-जीवन का पाथेय है। यात्री के पास पाथेय होता है, तो उसकी यात्रा सुख से सम्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार जिसके पास धर्म का पाथेय होता है, उसकी जीवन यात्राएं सुख से सम्पन्न होती हैं।" मैत्री-भावना सब जीव मेरे मित्र हैं / प्रमोद-भावना तुम्हारा आर्जव आश्चर्यकारी है और आश्चर्यकारी है तुम्हारा मार्दव / उत्तम है तुम्हारी क्षमा और उत्तम है तुम्हारी मुक्ति।' कारुण्य भावना बन्धन से मुक्त करने का प्रयत्ल और चिन्तन / ' १-आचारांग, 115 / 6 / 170 / २-उत्तराध्ययन, 3015-6 / ३-आचारांग, 12 / 5 / ४-सूत्रकृताङ्ग, 112 / 11 / ५-उत्तराध्ययन, 19 / 18-21 / ६-वही, 6 / 2 / ७-बही, 9 / 57 / -वही, 13 / 19 / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययनं . : .. माध्यस्थ्य-भावना ___समझाने-बुझाने पर भी सामने वाला व्यक्ति दोष का त्याग न करे, उस स्थिति में उत्तेजित न होना, किन्तु योग्यता की विचित्रता का चिन्तन करना / ' भावना-योग के द्वारा. वाञ्छनीय संस्कारों का निर्माण कर अवाञ्छनीय संस्कारों का उन्मूलन किया जा सकता है। भावना-योग से विशुद्ध ध्यान का क्रम, जो विच्छिन्न होता है, वह पुनः सध जाता है। स्थान-योग पतञ्जलि के अष्टाङ्ग-योग में तीसरा अङ्ग आसन है। जैन योग में आसन के अर्थ में 'स्थान' शब्द का प्रयोग मिलता है। आसन का अर्थ है 'बैठना'। स्थान का अर्थ है 'गति को निवृत्ति' / स्थिरता आसन का महत्त्वपूर्ण स्वरूप है। वह खड़े रह कर, बैठ कर, और लेट कर तीनों प्रकार से की जा सकती है / इस दृष्टि से आसन की अपेक्षा 'स्थान' शब्द अधिक व्यापक है। स्थान-योग के तीन प्रकार हैं (1) ऊर्ध्व-स्थान, (2) निषीदन-स्थान और (3) शयन-स्थान / ऊर्ध्व-स्थान-योग खड़े रह कर किए जाने वाले स्थानों को 'ऊर्ध्व-स्थान-योग' कहा जाता है। आचार्य शिवकोटि के अनुसार ऊर्ध्व-स्थान के सात प्रकार हैं १-उत्तराध्ययन, 13 / 23 / २-योगशास्त्र, 4 / 122 : आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः / त्रुटितामपि संधत्ते, विशुद्धध्यानसन्ततिम् // ३-ओघनियुक्ति भाज्य, गाथा 152 : उड्ढनिसीयतुयट्टण ठाणं तिविहं तु होइ नायव्वं / ४-मूलाराधना, 3223 : साधारणं सविचारं सणिरुद्धं तहेव वोसटुं। समपाद मेगपादं, गिद्धोलीणं च ठाणाणि // Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 .. २-योग ... 143 (1) साधारण- प्रमार्जित खम्भे आदि के सहारे निश्चल होकर खड़े रहना।' (2) सविचार- जहाँ स्थित हो, वहाँ से दूसरे स्थान में जाकर एक प्रहर, एक दिन आदि निश्चित-काल तक निश्चल होकर खड़े रहना / ' (3) सनिरुद्ध-- जहाँ स्थित हो, वहीं निश्चल होकर खड़े रहना / (4) व्युत्सर्ग- कायोत्सर्ग करना / (5) समपाद- पैरों को समश्रेणि में स्थापित कर (सटा कर) खड़े रहना।" (6) एक पाद- एक पैर पर खड़े रहना / / (7) गृद्धोड्डीन---- उड़ते हुए गीध के पंखों की भाँति बाहों को फैला कर खड़े रहना / .. . . निषीदन-स्थान-योग ___ बैठ कर किए जाने वाले स्थानों को 'निषीदन-स्थान-योग' कहा जाता है। उसके अनेक प्रकार हैं / स्थानांग में पाँच प्रकार की निषद्याएं बतलाई गई हैं १-मूलाराधना, 3 / 223, विजयोदया, वृत्ति : साधारणं-प्रमृप्टस्तंभादिक मुपाश्रित्य स्थानम् / २--वही, 3.223, विजयोदया, वृत्ति: / सविचारं-ससंक्रमं पूर्वरथानात् स्थानान्तरे गत्वा प्रहरदिवसादि परिच्छेदेना वस्थान मित्यर्थः / ३-वही, 23223, विजयोदया, वृत्ति : ___ सणिरुद्धं निश्चलमवस्थानम् / .. ४--वही, 3 / 223, विजयोदया, वृत्ति : वोसटुं-कायोत्सर्गम् / ५-वही, 3 / 223, विजयोदया वृत्ति : समपादो-समौ पादौ कृत्वा स्थानम् / ६-वही, 3 / 223, विजयोदया, वृत्ति : एकपादं-एकेन पादेन अवस्थानम् / ७-वही, 33223, विजयोदया, वृत्ति : गिद्धोलीणं-गृद्धस्योध्वगमन मिव बाहू प्रसार्यावस्थानम्। ८-स्थानांग, 5 / 400 : पंच निसिज्जाओ पं० सं०-उपकुडुती, गोदोहिता समपादपुता पलिका, अद्धपलितंका। ..-.... .... ... . ..... Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / (1) उत्कटुका--- उकडू आसन--पुतों को ऊंचा रख कर पैरों के बल पर बेठना / / (2) गोदोहिका- गाय को दुहते समय बैठने का आसन / 2 एडियों को उठा कर पंजे के बल पर बैठना। .. (3) समपादपुता-पैरों और पुतों को सटा कर भूमि पर बैठना / / (4) पर्यङ्का- पैरों को मोड़ पिंडलियों के आर जाँधों को रख कर बैठना और एक हस्ततल पर दूसरा हस्ततल जमा नाभि के पास रखना। (5) अर्द्ध-पर्यङ्का- एक पैर को मोड़, पिंडली के ऊार जाँघ को रखना और दूसरे पैर के पंजों को भूमि पर टिका कर घुटने को ऊपर की ओर रखना। बृहत्कल्प भाष्य में निषद्या के पाँच प्रकार कुछ परिवर्तन के साथ उपलब्ध होते हैं (1) समपाद पुता। (2) गोनिषधिका- गाय की तरह बैठना / / (3) हस्तिशुण्डिका-पुतों के बल पर बैठ कर एक पैर को ऊंचा रखना। (4) पर्यङ्का। (5) अर्द्ध-पर्यङ्का। १-(क) स्थानांग, 5 // 400 वृत्ति : आसनालग्नपुतः पादाभ्यामस्थित उत्कुटुक स्तस्य या सा उस्कुटुका। (ख) मूलाराधना, 3 / 224, वृत्ति / २-स्थानांग, 1400 वृत्ति : गोर्दोहनं गोदोहिका तद्वद्या याऽसौ गोदोहिका। ३-मूलाराधना, 3 / 224, वृत्ति : गोदोहगा-गोर्दोहे आसन मिव पाणिद्वय मुक्षिप्याग्रपादाम्यामासनम् / ४-स्थानांग, 52400, वृत्ति : समौ-समतया भूलग्नौ पादौ च पुतौ च यस्यां सा समपादपुता। ५-बृहत्कल्प भाज्य, गाथा 5953, वृत्ति : निषद्या नाम उपवेशन विशेषाः, ताः पञ्चविधाः, तद्यया-समपावता गोनिषधिका हस्तिशुण्डि का पर्यकार्धपर्यङ्का चेति / ६-वही, गाथा 5953, वृत्ति : यस्यां तु गोरिवोपवेशनं सा गोनिषधिका। ७-वही, गाथा 5953, वृत्तिः / यत्र पुताभ्यामुपविश्यकं पावमुत्पाटयति सा हस्तिशुण्डिका। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 २-योग 145 ___ इनमें उत्कटिका और गोदोहिका नहीं हैं। उनके स्थान पर हस्तिशुण्डिका और गोनिषद्यका हैं / यह परिवर्तन परम्परा-भेद का सूचक है। ___ स्थानांग, औपपातिक, बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कंध आदि आगमों में वीरासन, दण्डायत, आम्रकुब्जिका तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में वज्रासन, सुखासन, पद्मासन, भद्रासन, शवासन, समपद, मकरमुख, हस्तिशुण्डि, गोनिषद्या, कुक्कुटासन आदि आसन भी उपलब्ध होते हैं।' . (1) वीरासन- कुर्सी पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उस स्थिति में कुर्सी के बिना स्थित रहना। (2) दण्डायत-- दण्ड की भाँति लम्बा हो कर पैर पसार कर बैठना। (3) आम्रकुब्जिका- आम्र-फल की भाँति टेढ़ा होकर बैठना / 2 . (4) वज्रासन- __बाएं पैर को दाई जाँघ पर और दाएं पैर को बाई जाँघ पर रख कर हाथों को वज्राकार रूप में पीछे ले जाकर पैरों - के अंगूठे पकड़ना / यह बद्धपद्मासन जैसी स्थिति है। १-(क) मूलाराधना, 32324-225 : समपलियंकणिसेज्जा, गोदोहिया य उक्कुडिया। मगरमुह हस्थिसुंडी, गोणणिसेज्जद्धपलियंका // वीरासणं च दंडा य,........." (ख) ज्ञानार्णव, 28 / 10: पर्यङ्क मद्धेपयेङ्क, वज्रवीरासनं तथा / सुखारविन्दपूर्वे च, कायोत्सर्गश्च सम्मतः // (ग) योगशास्त्र, 4 / 124 : पर्यवीर-वज्राब्ज-भद्र-दण्डासनानि च। . उत्कटिका गोदोहिका कायोत्सर्गस्तथासनम् // (घ) अमितगति श्रावकाचार, 8 / 45-48 / (ङ) मूलाराधना, अमितगति, 3 / 223-224 : समस्फिगं समस्फिक्कं, कृत्यं कुक्कुटकासनम् / बहुधेत्यासनं साधोः कायक्लेश विधायिनः // कोदण्डलगडादण्ड, शवशय्यापुरस्सरम् / कर्तव्या बहुधा शय्या, शरीरक्लेशकारिणा // २-प्रवचनसारोद्धार, गाथा 584 वृत्ति : आम्रकुब्जो वा आम्रफलवद् वक्राकारेणावस्थितः / ३-योगशास्त्र, 4.127 / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . . (5) सुखासन-बाएं पैर को उसके नीचे और दाएं पैर को जंघा के ऊपर रख कर बैठना। (6) पद्मासन- दाएं पैर को बाई जंघा पर और बाएं पैर को दाई जंघा पर रख कर बैठना। (7) भद्रासन- वृषण के आगे दोनों पाद-तलों को संपुट कर (सीवनी के बाएं भाग में बाएं पैर की एड़ो रख ) दोनों हाथों को कूर्म मुद्रा के आकार में स्थापित कर बैठना / / (8) गवासन-- गाय की तरह बैठना / गोनिषद्या और गवासन एक ही प्रतीत होता है। घेरण्ड संहिता में जो गो-मुखासन का उल्लेख है, वह इससे भिन्न है / अमितगति के अनुसार सावियाँ इसी आसन में बैठ कर साधुओं को वंदन किया करती थीं। (6) समपद- जंघा और कटि-भाग को समरेखा में रख कर बैठना। (10) मारमुख-दोनों पैरों को मगर-मुंह की आकृति में अवस्थित कर बैठना / 5 घेरण्ड संहिता में मकरासन का उल्लेख है / वह औंधे मुख सोकर छाती को भूमि पर टिका दोनों हाथों को फैला उनसे सिर को पकड़ कर किया जाता है। . १-यशस्तिलक, 39 / २-योगशस्त्र, 4 / 130 सम्मुटीकृत्य मुकाने, तलपादो तथोपरि / पाणिरुच्छपिका कुर्यात्, यत्र भद्रासनं तु तत् // 3 अमितगति श्रावकाचार, 8 / 48 : गवासनं जिनरुक्तमार्याणां यतिवंदने। ४-मूलाराधना, 3 / 224, विजयोदया वृत्ति : समपदं-स्फिपिंडसमकरणेनासनम् / ५-वही, 33224, विजयोदया, वृत्ति : मकरस्य मुख मिव कृत्वा पावाववस्थानम् / Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 2 -योग 147 (11) हस्तिशुण्डि-एक पैर को संकुचित कर दूसरे पैर को उस पर फैला कर, हाथी ___ की सँड के आकार में स्थापित कर बैठना / (12) गोनिषद्या- दोनों जंघाओं को सिकोड़ कर गाय की तरह बैठना। (13) कुक्कुटासन-पद्मासन कर दोनों हाथ को दोनों ओर जाँघ और पिंडलियों के बीच डाल दोनों पंजों के बल उत्थित-पद्मासन की मुद्रा में होना / शयन-स्थान-योग __ सो कर किए जाने वाले स्थानों को 'शयन-स्थान-योग' कहा जाता है। बृहत्कल्प में उसके चार प्रकार मिलते हैं। मृतक शयन ( =शवासन ) और ऊर्ध्व शयन-ये दो प्रकार उत्तरवर्ती ग्रन्थों में मिलते हैं / 2 वे इस प्रकार हैं (1) लगण्ड शयन-वक्र-काष्ठ की भाँति एडियों और सिर को भूमि से सटा कर शेष शरीर को ऊपर उठा कर सोना / ' (2) उत्तानशयन-सीधा लेटना। शवासन में हाथ-पाँव अलग रहते हैं, परन्तु इसमें दोनों पाँव मिले रह कर दोनों हाथ बगल में रहते हैं। (3) अधोमुख शयन-औंधा लेटना / ... (4) एक पार्श्व शयन-दाई और बाई करवट लेटना / एक पैर को संकुचित कर दूसरे पैर को उसके जार से ले जाकर फैलाना और दोनों हाथों को लम्बा कर सिर की ओर फैलाना। १-(क) मूलाराधना, 3 / 224, विजयोदया वृत्ति : हस्तिसुंडी-हस्ति हस्तप्रसारणमिव एकं पादं प्रसार्यासनम् / ..(ख) मूलाराधना दर्पण : हस्तिसुंडी-हस्तिहस्तप्रसारणमिव एकं पादं संकोच्य तदुपरि द्वितीथं पादं प्रसार्यासनम् / २-मूलाराधना, 3 / 225: / / ........... उड्ढमाई य लगंडसायी य / उत्ताणोमच्छिय एगपाससाई य मडयसाई य / / - ३-बृहत्कल्प भाज्य, गाथा 5954, वृत्ति : लगण्डं किल-दुःसस्थितं काष्ठम्, तद्वत् कुब्जतया मस्तकपाणिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालगनेनेत्यथः, या तथाविधाभिग्रह विशेषेण शेते सा लगण्डशायिनी। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148. उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . (5) मृतक शयन-शवासन / ' (6) ऊर्ध्व शयन- ऊँचा होकर सोना / (7) धनुरासन- पेट के बल सीधा लेट, दोनों पैरों को कार की ओर उठा, दोनों हाथों से उन्हें पकड़ लेना / पतञ्जलि ने आसन की व्याख्या की है, किन्तु उसके प्रकारों का उल्लेख नहीं किया है / भाष्यकार व्यास ने 13 आसनों का उल्लेख किया है(१) पद्मासन, (6) सोपाश्रय, (11) समसंस्थान, (2) भद्रासन, (7) पर्यङ्क, (12) स्थिरसुख और (3) वीरासन, (8) क्रौंचनिषदन, (13) यथासुख / (4) स्वस्तिकासन, (6) हस्तिनिषदन, (5) दण्डासन, (10) ऊष्ट्रनिषदन आसनों के अर्थ-भेद कुछ आसनों के अर्थ समान हैं तो कुछ एक आसनों के अर्थ समान नहीं हैं / पर्यङ्क, अर्ध-पर्यङ्क, वीरासन, उत्कटिका, हस्तिशुण्डिका, दण्डायत-इन आसनों के अर्थ विभिन्न प्रकार से उपलब्ध होते हैं। अभयदेव सूरि ( वि० सं० की ११वीं शताब्दी) ने पर्यङ्क और अर्द्ध-पर्यङ्क आसन का अर्थ क्रमशः 'पद्मासन' और 'अर्द्ध-पद्मासन' किया है। __ आचार्य हेमचन्द्र ( वि० सं० को 12 वीं शताब्दी) ने पद्मासन को पर्यङ्कासन से भिन्न माना है।४ ___ आचार्य हेमचन्द्र और अमितगति के अनुसार पर्यङ्कासन का अर्थ है-पैरों को मोड़, पिंडलियों के ऊपर जाँघों को रख कर बैठना और एक हस्ततल पर दूसरा हस्ततल जमा १-मूलाराधना दर्पण, 3 / 225 : मडयसाई-मृतकस्येव निश्चेष्टं शयनम् / २-पातञ्जल योगसूत्र, 2 / 46, भाग्य / ३-स्थानांग, 5 / 400, वृत्ति : . पर्यङ्का-जिनप्रतिमानामिव या पद्मासनमिति रूढा, तथा अर्द्धपर्यङ्काऊरावेकपाद निवेशनलक्षणेति / ४-योगशास्त्र, 4 / 125, 129 / Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ट 1, प्रकरण : 7 .. २-योग 146 नाभि के पास रखना।' यह मुद्रा वज्रासन जैसी है। शङ्कराचार्य ने पर्यङ्कासन की अवस्थिति इससे भिन्न मानी है। उनके अनुसार घुटनों को मोड़, हाथों को फैला कर सोना 'पर्यङ्कासन' है / यह मुद्रा सुप्तवज्रासन जैसी है / सुप्तवज्रासन को पर्यङ्कासन माना जाए तो वज्रासन को अर्ध-पर्यङ्कासन माना जा सकता है। किन्तु जैन-आचार्यों का मत इससे भिन्न है। वे वज्रासन की मुद्रा को पर्यङ्कासन और अर्ब-वज्रासन ( एक घुटने को ऊपर रख कर बैठने की मुद्रा ) को अर्ध-पर्यङ्कासन मानते हैं / वीरासन शङ्कराचार्य के अनुसार किसी एक पैर को सिकोड़ घुटने को ऊपर की ओर रख कर और दूसरे पैर के घुटने को भूमि में सटा कर बैठना वीरासन है / बृहत्कल्प भाष्य के अनुसार कुर्सी पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उस स्थिति में कुर्सी के बिना स्थित रहना वीरासन है।" १-(क) योगशास्त्र, 4 / 125 : स्याज्जंघयोरधोभागे, पादोपरि कृते सति / पर्यको नाभिगोत्तान-दक्षिणोत्तर-पाणिकः / / (ख) अभितगति श्रावकाचार, 8 / 46 : वुधैरुपर्यधोभागे, जंघयोरुभयोरपि / समस्तयोः कृते ज्ञेयं, पर्यङ्कासनमासनम् // २-पातञ्जल योगसूत्र, 2 / 47, भाज्यविवरण : आजानुप्रसारितबाहुशयनं पर्यङ्कासनम् / ३-बृहत्कल्प भाज्य, गाथा 5953, वृत्ति : अर्धपर्यङ्का यस्यामेकं जानुमुत्पाटयति / ४-पातञ्जल योगसूत्र, 2147, भाज्यविवरण : कुंचितान्यतरपादमवनिविन्यस्तापरजानुकं वीरासनम् / ५-बृहत्कल्प भाष्य, गाथा 5954, वृत्ति : 'वीरासणं तु सीहासणे व जह मुक्कजण्णुक णिविट्ठो / ' वृत्ति-वीरासनं नाम यथा सिंहासने उपविष्टो भून्यस्तपाद आस्ते तथा तस्यापनयने कृतेऽपि सिंहासन इव निविष्टो मुक्तजानुक इव निरालम्बनेऽपि यद् आस्ते / दुष्करं चैतद्, अतएव वीरस्य-साहसिकस्यासनं विरासनमित्युच्यते / Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 - उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन : अपराजित सूरि ( वि० सं० की 12 वीं शताब्दी ) ने वीरासन का अर्थ 'दोनों जंघाओं में अन्तर डाल कर उन्हें फैला कर बैठना' किया है।' . आचार्य हेमचन्द्र ने बृहत्कल्प भाष्य के अर्थ को मतान्तर के रूप में स्वीकृत किया है / उनका अपना मत यह है -बाएँ पैर को दाई जंघा पर और दाएं पैर को बाई जंघा पर रख कर बैठना वीरासन है। उनके अनुसार इस मुद्रा को कुछ योगाचार्य पद्मासन भी मानते हैं / 4 पं० आशाधरजी (वि० सं० 13 वीं शताब्दी) का अर्थ आचार्य हेमचन्द्र का समर्थन करता है। आचार्य अमितगति का मत यही है। पद्मासन . - आगमोक्त आसनों में पद्मासन का उल्लेख नहीं है। पहले बताया जा चुका है कि अभयदेव सूरि पर्यङ्कासन का अर्थ पद्मासन करते हैं। आगम-काल में पद्मासन के लिए 'पर्यङ्कासन' शब्द प्रचलित रहा हो तो जैन-परम्परा में पद्मासन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान माना जा सकता है। इसका उल्लेख ज्ञानार्णव', अमितगति श्रावकाचार, योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में मिलता है / अमितगति के अनुसार एक जंघा के साथ दूसरी जंघा का समभाग में जो आश्लेष १-मूलाराधना, 3 / 225, विजयोदया वृत्ति : वीरासणं-जंघे वि प्रकृष्टदेशे कृत्वासनम् / २-योगगास्त्र, 4 / 128 : सिंहासनाधिरूढस्यासनापनयने सति / तथैवावस्थितिर्या तामन्ये वीरासनं विदुः / / ३-वही, 41126 : वामोंऽह्रिर्दक्षिणोरूज़, वामोरूपरि दक्षिणः / क्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं स्मृतम् / / ४-वही, 4126 वृत्ति : पद्मासनमित्येके। ५-मूलाराधना दर्पण, 3 / 225 : वीरासणं-ऊरूद्वयोपरि पादद्वयविन्यासः / ६-अमितगति श्रावकाचार, 8 / 47 : ऊर्वोरुपरि निक्षेपे, पादयोविहिते सति / वीरासनं जिरं कर्तुं शक्यं वीरैर्न कातरैः / / ७-ज्ञानाणव, 28 / 10 / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151 खण्ड 1, प्रकरण : 7 . .. २-योग होता है, वह पद्मासन है / ' आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार जंघा के मध्य भाग में दूसरी जंघा का श्लेष करना पद्मासन है। सोमदेव सूरि के अनुसार जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनों से नीचे दोनों पिण्डलियों पर रख कर बैठा जाता है, उसे पद्मासन कहते हैं / शङ्कराचार्य ने पद्मासन का अर्थ किया है-'बाएं पैर को दाई जंघा पर और दाएं और को बाई जंघा पर रख कर बैठना / " ___ गोरक्ष संहिता के अनुसार बाएं ऊरु पर दायाँ पैर और दाएं ऊरु पर बायाँ पैर रख कर दोनों हाथों को पीछे ले जा, दाएं हाथ से दाएं पैर का और बाएं हाथ से बाएं पैर का अंगूठा पकड़ कर बैठना पद्मासन है।" यह बद्ध-पद्मासन का लक्षण है। मुक्त पद्मासन में दोनों हाथों को पीछे ले जाकर अंगूठे नहीं पकड़े जाते। सोमदेव सूरि ने पद्मासन, वीरासन और सुखासन में जो अन्तर किया है, वह बहुत उपयुक्त लगता है / पद्मासन का अर्थ पहले बताया जा चुका है। जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनों के कार के हिस्से पर रख कर बैठा जाता है अर्थात् दाई ऊरु के ऊपर बायाँ पैर १-अमितगति, श्रावकाचार, 8 / 45 : जंघाया जंघ्रया श्लेधे, समभागे प्रकीर्तितम् / पद्मासने सुखाधायि, सुसाध्यं सफलैर्जनः॥ २-योगशास्त्र, 4 / 129 जंघाया मध्यभागे तु, संश्लेषो यत्र जंघया। पद्मासन मिति प्रोक्तं, तदासन विचक्षणैः // ३-उपासकाध्ययन, 39732 : संन्यस्ताभ्यामघोज्रिभ्यामूर्वोपरि युक्तितः / भवेच्च समगुल्फाभ्यां पद्मवीरसुखासनम् // ४-पातञ्जल योगसूत्र, 246, विवरण: तत्र पद्मासनं नाम-सव्यं पादमुपसंहृत्य दक्षिणोरि निदधीत तथैव दक्षिणं, सव्यस्योपरिष्टात् / ५--गोरक्ष संहिता: वामोरूपरि दक्षिगं हि चरणं संस्थाप्य वाम तथाप्यन्योरूपरि तस्य बन्धनविधौ धृत्वा कराभ्यां दृढम् / अंगुठं हृदये निधाय चिबुकं नासाग्रमालोकरे. देतद्व्याधिविनाशकारि यमिनां पद्मासनं प्रोच्यते // Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / ' और बाई ऊरु के आर दायाँ पैर रखा जाता है, उसे 'वीरासन' कहते हैं। जिसमें . पैरों की गाँठ बराबर रहती है, उसे 'सुखासन' कहते हैं।' दण्डायत बृहत्कल्प भाष्य वृत्ति के अनुसार इसका अर्थ है 'दण्ड की भाँति लम्बा होकर पैर पसार कर बैठना।२ आचार्य हेमचन्द्र और आचार्य शङ्कर के अभिमत में यह बैठ कर किया जाने वाला आसन है। उनके अनुसार यह आसन बैठ कर, पैरों को फैला कर टखनों, अंगठों और घुटनों को सटा कर किया जाता है। ___किन्तु अपराजित सूरि ने उसे 'शयनयोग' माना है / उनके अनुसार वह दण्ड की भाँति शरीर को लम्बा कर, सीधा सोकर किया जाता है / 4 वर्तमान में करणीय आसन जैन-परम्परा में कठोर-आसन और सुखासन-दोनों प्रकार के आसन प्रचलित थे, किन्तु विक्रम की सहस्राब्दी के अन्तिम चरण में कुछ आचार्यों की यह धारणा बन गई कि वर्तमानकाल में शारीरिक शक्ति की दुर्बलता के कारण कायोत्सर्ग और पर्यङ्क--ये दो आसन ही प्रशस्त हैं / 5 ... ___आसन तीन प्रयोजनों से किए जाने थे-(१) इन्द्रिय-निग्रह के लिए, (2) विशिष्ट विशुद्धि के लिए और (3) ध्यान के लिए / विशिष्ट विशुद्धि के लिए तथा किंचित् मात्रा में इन्द्रिय-निग्रह के लिए किए जाने वाले आसन उग्र होते इसलिए उन्हें काय-क्लेश तप की १-उपसकाध्ययन, 39732 / २-बृहत्कल्प भाज्य, गाथा 5954, वृत्ति : दण्डस्येवायतं-पादप्रसारणेन दीर्घ यद् आसन तद् दण्डासनम् / ३-(क) योगशास्त्र, 4 / 131 : श्लिष्टांगुली श्लिष्टगुल्फो भूश्लिप्टोर प्रसारयेत् / यत्रोपविश्य पादौ तद्दण्डासनमुदीरितम् // (ख) पातञ्जल योगसूत्र, 2146, माज्य-विवरण : समगुल्फो समांगुठो प्रसारयन् समजानू पादौ दण्डवद्ये नोपविशेत तत् दण्डासनम्। ४-मूलाराधना, 3 / 225, विजयोदया वृत्ति : दण्डवदायतं शरीरं कृत्वा शयनम् / ५-ज्ञानार्णव, 28 / 12 / कायोत्सर्गश्च पर्यः, प्रशस्तं कैश्चिदीरितम् / देहिनां वीर्यवैकल्यात्, कालदोषेण सम्प्रति // Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 २-योग कोटि में रखा गया। ध्यान के लिए कठोर आसन का विधान नहीं है। जिस आसन से मन स्थिर हो, वही आसन विहित है।' जिनसेन ने ध्यान की दृष्टि से शरीर की विषम स्थिति को अनुपयुक्त बतलाया। उन्होंने लिखा-"विषम आसनों से शरीर का निग्रह होता है, उससे मानसिक पीड़ा और विमनस्कता। विमनस्कता की स्थिति में ध्यान नहीं हो सकता। अतः ध्यान-काल में सुखासन ही इष्ट है। कायोत्सर्ग और पर्यङ्क- दो आसन सुखासन हैं, शेष सब विषम आसन हैं / इन दोनों में भी मुख्यतः पर्यङ्क ही सुखासन है / " 2 .... जिनसेन ने ध्यान के लिए सुखासन की उपयुक्तता स्वीकृत की, किन्तु कठोर आसनों को सर्वथा अनुपयुक्त नहीं माना। कायिक दुःखों की तितिक्षा, सुखासक्ति की हानि और धर्म-प्रभावना के लिए उन्होंने काय-क्लेश का समर्थन किया। शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने ध्यान के लिए किसी आसन का विधान नहीं किया। उसे ध्यान करने वाले की इच्छा पर ही छोड़ दिया। अमितगति ने पद्मासन, पर्यङ्कासन, १-(क) ज्ञानार्णव, 28 / 11 : येन येन सुखासीना, विदध्यु निश्चलं मनः / तत्तदेव विधेयं स्यान्मुनिभिर्बन्धु रासनम् // (ख) योगशास्त्र, 4 / 134 : जायते येन येनेह, विहितेन स्थिरं मनः / तत् तदेव विद्यातव्यमासनं ध्यानमासनम् // २-महापुराण 21170-72 : विसंस्थुलासनस्थस्य, ध्रुवं गात्रस्य निग्रहः / तन्निग्रहान्मनःपीडा, ततश्च विमनस्कता // वैमनस्ये च किं ध्यायेत्, तस्मादिष्टं सुखासनम् / कायोत्सर्गश्च पर्यक, स्तोतोऽन्यविषमासनम् // तदवस्थाद्वयस्यैव, प्राधान्यं ध्यायतो यतेः / प्रायस्तत्रापि पल्यंङ्कम्, आमनन्ति सुखासनम् / / ३-वही, 20191: कायासुखतितिक्षार्थ, सुखासक्तेश्च हानये / धर्मप्रभावनार्थञ्च, कायक्लेशमुपेयुषे // Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन वीरासन, उत्कटु कासन और गवासनः-सामान्यतः इतने ही आसन मुमुक्षु के लिए उपयोगी बतलाए। ध्यान के लिए सुखासन होना चाहिए, इस विषय में सभी आचार्य एकमत हैं, किन्तु कठोर आसनों के विषय में एकमत नहीं हैं / 'कालदोषेण सम्प्रति'-इस विचारधारा ने जैसे साधना के अन्य अनेक क्षेत्रों को प्रभावित किया, वैसे ही आसन भी उससे प्रभावित हुए और उनको करने की पद्धति जैन-परम्परा में विलुप्त-सी हो गई। गमन-योग ____ यह स्थान-योग का प्रतिपक्षी है / शक्ति-संचय और आलस्य-विजय के द्वारा इस याग का प्रतिपादन हुआ है / इसके 6 प्रकार हैं (1) अनुसूर्यगमन- तेज धूप में पूर्व से पश्चिम की ओर जाना। (2) प्रतिसूर्यगमन- पश्चिम से पूर्व की ओर जाना। (3) ऊर्ध्वगमन- पश्चिम से पूर्व की ओर जाना। (4) तिर्यसूर्यगमन- सूर्य तिरछा हो, उस समय जाना / (5) अन्यनामगमन- जहाँ अवस्थित हो, वहाँ से दूसरे गाँव में भिक्षार्थ / जाना। (6) प्रत्यागमन- दूसरे गाँव में जाकर वापस आना / आतापना-योग आतापना का अर्थ है 'सूर्य का ताप सहना'। यह सूर्य की रश्मियों या गर्मी को शरीर में संचित कर गुप्त शक्तियों को जगाने की प्रक्रिया है, इसलिए यह योग है। १-अमितगति श्रावकाचार, 8 / 49 : विनयासक्तचित्तानां, कृतिकर्मविधायिनाम् / न कार्यव्यतिरेकेण, परमासनमिष्यते // २-मूलाराधना, 3 / 224 : अणुसूरी पडिसूरी य, उड्ढसूरी य तिरियसूरी य। उभागेण य गमणं, पडिआगमणं च गंतूणं // Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग आतापना-योग तीन प्रकार का है (1) उत्कृष्ट- गर्म शिला आदि पर लेट कर ताप सहना / (2) मध्यम- बैठ कर ताप सहना / .. (3) जघन्य- खड़े रह कर ताप सहना / ' उत्कृष्ट आतापना के तीन प्रकार हैं (1) उत्कृष्ट-उत्कृष्ट- छाती के बल लेट कर ताप सहना / (2) उत्कृष्ट-मध्यम- दाएँ या बाएँ पाश्व से लेट कर ताप सहना / (3) उत्कृष्ट-जघन्य- पीठ के बल लेट कर ताप सहना / .... मध्यम आतापना के तीन प्रकार हैं (1) मध्यम-उत्कृष्ट- पर्यङ्कासन में बैठ कर ताप सहना / (2) मध्यम-मध्यम----- अर्ध-पर्यङ्कासन में बैठ कर ताप सहना / (3) मध्यम-जघन्य- उकडू आसन में बैठ कर ताप सहना / जघन्य आतापना के तीन प्रकार हैं (1) जघन्य-उत्कृष्ट- हस्तिशुण्डिका। एक पैर को प्रसार कर ताप सहना / १-बृहत्कल्प भाज्य, गाथा 5945 : आयावणा य तिविहा, उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा य / उक्कोसा उ निवण्णा, निसण्ण मज्झाट्ठिय जहण्णा // २-वही, गाथा 5946 : तिविहा होइ निवण्णा, ओमत्थिय पास तइयमुत्ताणा। उक्कोसुक्कोसा उक्कोसमज्झिमा उक्कोसगजहण्णा // ३-वही, गाया 5947,48: मझक्कोसा दुहओ वि मज्झिमा मज्झिमा जहण्णा य / ... अहमुक्कोसाऽहममज्झिमा य अहमाहमाचरिमा // 'पलियंक अद्धक्कुडुग भो य तिविहा उ मज्झिमा होइ। तइया उ हस्थिसुंडेगपाद समपादिगा चेव // ४-वही, गाथा 5947-48 / ५-वही, गाथा 5948, वृत्ति : पुताभ्यामुपविष्टस्यैकपादोत्पाटनरूपा। बृहत्कल्प भाज्य, वृत्ति 5953 में हस्तिशुण्डिका को निषद्या का एक प्रकार माना है और जघन्य आतापना में खड़ा रहने का विधान है। वस्तुतः इस आसन में बैठने और खड़ा रहने का मिश्रण है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (2) जघन्य-मध्यम-एक पादिका / ' एक पैर के बल पर खड़े रह कर ताप सहना। (3) जघन्य-जघन्य-समपादिका / 2 दोनों पैरों को समश्रेणि में रख, खड़े-खड़े ताप सहना। तपोयोग .तप के दो प्रकार हैं-बाह्य और आभ्यन्तर / दोनों के छह-छह प्रकार हैं / बाह्यतप के छह प्रकार ये हैं (1) अनशन, (2) अवमौदर्य, (3) भिक्षाचरी ( वृत्ति संक्षेप ), (4) रस-परित्याग, (5) काय-क्लेश और (6) प्रतिसंलीनता (विविक्त-शय्या)। (1) अनशन अनशन के दो प्रकार हैं (1) इत्वरिक- अल्पकालिक और (2) यावत्कथित- मरणकालभावी। . मुनि के लिए आहार करना और न करना दोनों सहेतुक हैं / जब तक अपना शरीर ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में सहायक रहे, उसके द्वारा नए-नए विकास उपलब्ध हों, तब तक वह शरीर का पोषण करे। जब यह लगे कि इस शरीर के द्वारा कोई विशेष उपलब्धि नहीं हो रही है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र का नया उन्मेष नहीं आ रहा है, तब शरीर की उपेक्षा कर दे-आहार का परित्याग कर दे।४ यह सिद्धान्त १-बृहत्कल्प भाज्य, गाथा 5948 ; वृत्ति : उत्थितस्यैकपादेनावस्थानम् / २-वही, गाथा 5948, वृत्ति : __समतलाभ्यां पादाभ्यां स्थित्वा यद् ऊर्ध्वावस्थितैराताज्यते // ३-उत्तराध्ययन, 26 // 31-34 / ४-वही, 4 // 7 // लाभान्तरे जीविय वूहइत्ता पच्छा परिन्नाय मलावधंसी। . . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 157 आमरणभावी अनशन के लिए है। अल्पकालिक अनशन का सिद्धान्त यह है कि इन्द्रियविजय या चित-शुद्धि के लिए जब जैसी आवश्यकता हो, वैसा अनशन करे। इसकी सामान्य मर्यादा यह है कि इन्द्रिय और योग की हानि न हो तथा मन अमंगल चिन्तन न करे, तब तक तपस्या की जाए।' वह आत्म-शुद्धि के लिए है। उससे संकल्प-विकल्प या आर्तध्यान की वृद्धि नहीं होनी चाहिए / (2) अवमौदर्य यह बाह्य-तप का दूसरा प्रकार है / इसका अर्थ है 'जिस व्यक्ति की जितनी आहार मात्रा है, उससे कम खाना।' इसके पाँच प्रकार किए गए हैं (1) द्रव्य की दृष्टि से अवमोदर्य / (2) क्षेत्र की दृष्टि से अवमौदर्य / (3) काल की दृष्टि से अवमौदर्य / (4) भाव की दृष्टि से अवमौदर्य / (5) पर्यव की दृष्टि से अवमौदर्य / औपपातिक में इसका विभाजन इस प्रकार है (1) द्रव्यत: अवमौदर्य। (2) भावतः अवमौदर्य / द्रव्यतः अवमौदर्य के दो प्रकार हैं (1) उपकरण अवमौदर्य और (2) भक्त-पान अवमौदर्य / . . भक्त-पान अवमौदर्य के अनेक प्रकार हैं (1) आठ ग्रास खाने वाला अल्पाहारी होता है। (2) बारह ग्रास खाने वाला अपार्द्ध अवमौदर्य होता है / (3) सोलह ग्रास खाने वाला अर्द्ध अवमौदर्य होता है। (4) चौबीस ग्रास खाने वाला पौन अवमौदर्य होता है। (5) इकतीस ग्रास खाने वाला किंचित् ऊन अवमौदर्य होता है। यह कल्पना भोजन की पूर्ण मात्रा के आधार पर की गई है। पुरुष के आहार की १-मरणसमाधि प्रकीर्णक, 134 : सो हु तबो कायव्वो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ / जेण न इंदियाहाणी, जेण जोगा न हायंति // २-औपपातिक, सूत्र 19 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पूर्ण मात्रा बत्तीस ग्रास और स्त्री के आहार की पूर्ण मात्रा अट्ठाइस ग्रास है।' ग्रास का परिमाण मुर्गी के अण्डे 2 अथवा हजार चावल जितना बतलाया गया है। ___ इसका तात्पर्य यह है कि जितनी भूख हो, उससे एक कवल तक कम खाना भी अवमौदर्य है। __ निद्रा-विजय, समाधि, स्वाध्याय, परम संयम और इन्द्रिय-विजय-ये अवमौदर्य के फल हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह आदि को कम करना भी अवमौदयं है / " (3) भिक्षाचरी (वृत्ति-संक्षेप) यह बाह्य-तप का तीसरा प्रकार है। इसका दूसरा नाम 'वृत्ति-संक्षेप या 'वृत्तिपरिसंख्यान' है / इसका अर्थ है 'विविध प्रकार के अभिग्रहों के द्वारा भिक्षा वृत्ति को संक्षिप्त करना / (4) रस-परित्याग उत्तराध्ययन में रस-परित्याग का अर्थ है--- (1) दूध, दही, घी आदि का त्याग / (2) प्रणीत --स्निग्ध पान-भोजन का त्याग / ' १-मूलाराधना, 3 / 211 / २-औपपातिक, सूत्र 16 / ३-मूलाराधना, दर्पण, पृ० 427 : ग्रासोश्रा वि सहस्रतंदुल मितः / ४-मूलाराधना, अमितगति 211 / ५-औपपातिक, सूत्र 19 / ६-समवायांग, समवाय 6 // ७-मूलाराधना, 3 / 2 / 7 / ८-देखिए-उत्तराध्ययन, 30 / 25 का टिप्पण। ९-उत्तराध्ययन 30 / 26 / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 २-योग 156 औपपांतिक में इसका विस्तार मिलता है। वहाँ इसके निम्नलिखित प्रकार मिलते हैं(१) निर्विकृति विकृति का त्याग। (2) प्रणीत रस-परित्याग- स्निग्ध व गरिष्ठ आहार का त्याग / (3) आचामाम्ल- आम्ल-रस मिश्रित भात आदि का आहार / (4) आयामसिक्थ भोजन- ओसामण में मिश्रित अन्न का आहार / (5) अरस आहार- हींग आदि से संस्कृत आहार / (6) विरस आहार- पुराने धान्य का आहार / (7) अन्त्य आहार- वल्ल आदि तुच्छ धान्य का आहार / (8) प्रान्त्य आहार-- ठण्डा आहार। (8) रुक्ष आहार। इस तप का प्रयोजन है स्वाद विजय / इसीलिए रस-परित्याग करने वाला विकृति, सरस व स्वादु भोजन नहीं खाता / विकृतियाँ नो हैं---- (2) दही, (7) मधु, (3) नवनीत, (5) मद्य और ___ (4) घृत, () माँस / 2 . (5) तेल, इनमें मधु, मद्य, माँस और नवनीत—ये चार महा विकृतियाँ हैं।' जिन वस्तुओं से जीभ और मन विकृत होते हैं—स्वाद-लोलुप या विषय-लोलुप बनते हैं, उन्हें 'विकृति' कहा जाता है / पण्डित आशाधरजी ने इसके चार प्रकार बतलाए हैं (1) गो-रस विकृति- दूध, दही, घृत, मक्खन आदि / .(2) इक्षु-रस विकृति- गुड़, चीनी आदि। (3) फल-रस विकृति- अंगूर, आम आदि फलों के रस / (4) धान्य-रस विकृति- तैल, मांड आदि / 4 १-औपपातिक, सूत्र 19 / २-स्थानांग, 9 / 674 / ३-(क) स्थानांग, 4 / 1 / 274 / / (ख) मूलाराधना, 3 / 213 / ४-सागारधर्मामृत, टीका 5 / 35 / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . __स्वादिष्ट भोजन को भी विकृति कहा जाता है।' इसलिए रस-परित्याग करने वाला शाक, व्यञ्जन, नमक आदि का भी वर्जन करता है। मूलाराधना के अनुसार दूध, दही, घृत, तैल और गुड़-इनमें से किसी एक का अथवा इन सबका परित्याग करना रस-परित्याग है तथा उवगाहिम विकृति (मिठाई) पूड़े, पत्र-शाक, दाल, नमक आदि का त्याग भी रस-परित्याग है / रस-परित्याग करने वाले मुनि के लिए निम्न प्रकार के भोजन का विधान है.-- (1) अरस आहार- स्वाद-रहित भोजन। (2) अन्य वेला कृत-- ठण्डा भोजन / (3) शुद्धोदन- शाक आदि से रहित कोरा भात। (4) रूखा भोजन- घृत-रहित भोजन। (5) आचामाम्ल अम्ल-रस-सहित भोजन। . . (6) आयामौदन- जिसमें थोड़ा जल और अधिक अन्न भाग हो, ऐसा आहार अथवा,ओसामण-सहित भात / (7) विकटौदन- बहुत पका हुआ भात अथवा गर्म जल मिला हुआ भात / जो रस-परित्याग करता है, उसके तीन बातें फलित होती हैं - (1) सन्तोष की भावना, (2) ब्रह्मचर्य की आराधना और (3) वैराग्य / (5) काय-क्लेश काय-क्लेश बाह्य-तप का पाँचवाँ प्रकार है। उत्तराध्ययन 2017 में काय-क्लेश १-सागारधर्मामृत, टीका 5 // 35 / २-मूलाराधना, 3 / 215 / ३-वही, 33216 / ४-मूलाराधना अमितगति 217 : संतोषो भावितः सम्यग् , ब्रह्मचर्य प्रपालितम् / दर्शितं स्वस्य वैराग्यं, कुर्वाणेन रसोज्झनम् // Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 161 का अर्थ 'वीरासन आदि कठोर आसन करना' किया गया है। स्थानांग में काय-क्लेश के सात प्रकार निर्दिष्ट हैं (1) स्थान कायोत्सर्ग, (2) ऊकडू आसन, (3) प्रतिमा आसन, (4) वीरासन, (5) निषद्या, (6) दण्डायत आसन और (7) लगण्डशयनासन / ' औपपातिक में काय-क्लेश के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं (1) स्थान कायोत्सर्ग, (6) आतापना, (2) ऊकडू आसन, (7) वस्त्र-त्याग, (3) प्रतिमा आसन, (8) अकण्डूयन-खाज न करना, (4) वीरासन, (9) अनिष्ठीवन-थूकने का त्याग और (5) निषद्या, (10) सर्वगात्र-परिकर्म-विभूषा का वर्जन / ' आचार्य वसुनन्दि के अनुसार आचाम्ल, निर्विकृति, एक-स्थान, उपवास, बेला आदि के द्वारा शरीर को कृश करना 'काय-क्लेश' है / यह व्याख्या उक्त व्याख्याओं से भिन्न है। वैसे तो उपवास आदि करने में काया को क्लेश होता है, किन्तु भोजन से सम्बन्धित अनशन, ऊतोदरी, वृत्ति-संक्षेप और रस परित्याग-इन चारों बाह्य-तपों से काय-क्लेश का लक्षण भिन्न होना चाहिए, इस दृष्टि से काय-क्लेश की व्याख्या उपवास-प्रधान न होकर अनासक्ति-प्रधान होनी चाहिए। शरीर के प्रति निर्ममत्व-भाव रखना तथा उसे प्राप्त करने के लिए आसन आदि साधना तथा उसकी साज-सज्जा व संवारने से उदासीन रहना----यह काय-क्लेश का मूलस्पर्शी अर्थ होना चाहिए। १-स्थानांग, 73554 / / २-औपपातिक, सूत्र 19 / / . ३-वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक 351 : आयंबिल णिविवयडी एयट्ठाणं छट्ठमाइ खवणेहिं / जं कीरइ तणुतावं कायकिलेसो मुणेयवो // 21 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन द्वितीय अध्ययन में जो परीषह बतलाए गए हैं, उनसे यह भिन्न है। काय-क्लेश स्वयं इच्छानुसार किया जाता है और परीषह समागत कष्ट होता है।' श्रुतसागर गणि के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में धूप में, शीत ऋतु में खुले स्थान में और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे सोना, नाना प्रकार की प्रतिमाएँ और आसन करना 'कायक्लेश' है। (6) प्रतिसंलीनता .. उत्तराध्ययन 308 में बाह्य-तप का छठा प्रकार 'संलीनता' बतलाया गया है और 30 / 28 में उसका नाम 'विविक्त-शयनासन' है / भगवती (25 / 7 / 802) में छठा प्रकार 'प्रतिसंलीनता' है। तस्वार्थ सूत्र (6 / 16) में 'विविक्त-शयनासन' बाह्य-तप का छठा प्रकार है। इस प्रकार कुछ ग्रन्थों में 'संलीनता' या 'प्रतिसंलीनता' और कुछ ग्रन्थों में 'विविक्त-शय्यासन' या 'विविक्त-शय्या' का प्रयोग मिलता है। किन्तु औपपातिक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल शब्द 'प्रतिसंलीनता' है / 'विविक्त-शयनासन' उसी का एक अवान्तर भेद है। प्रतिसंलीनता चार प्रकार की होती है (1) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, (3) योग प्रतिसंलीनता और (2) कषाय प्रतिसंलीनता, (4) विविक्त-शयनासन-सेवन / प्रस्तुत अध्ययन में संलीनता की परिभाषा केवल विविक्त-शयनासन के रूप में की गई, यह आश्चर्य का विषय है। हो सकता है सूत्रकार इसी को महत्त्व देना चाहते हों। तत्त्वार्थ सूत्र आदि उत्तरवर्ती ग्रन्थों में भी इसी का अनुसरण हुआ है। विविक्तशयनासन का अर्थ मूल-पाठ में स्पष्ट है। मूलाराधना के अनुसार जहाँ शब्द, रस, गंध और स्पर्श के द्वारा चित्त विक्षेप नहीं होता, स्वाध्याय और ध्यान में व्याघात नहीं होता, वह विविक्त-शय्या है। जहाँ स्त्री, पुरुष और नपुंसक न हों, वह विविक्त-शय्या है। भले फिर उसके द्वार खुले हों या बंद, १-तत्त्वार्थ, 9 / 16, श्रुतसागरीय वृत्ति : यदृच्छया समागतः परीषहः, स्वयमेव कृतः कायक्लेशः ति परीषहकाय क्लेशयोर्विशेषः। २-वही, 9 / 19, श्रुतसागरीय वृत्ति / ३-औपपातिक, सूत्र 19: से किं तं पडिसलीणया ? पडिसलीणया चउविहा पण्णत्ता, तंजहा-इंदिअपडिसंलीणया कसायपडिसंलीणया जोगपडिसंलोणया विवित्तसयणासणसेवणया। ४-तत्वार्थ सूत्र, 9 / 19 : अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ट 1, प्रकरण : 7 २-योग 163 उसका प्राङ्गण सम हो या विषम, वह गाँव के बाह्य-भाग में हो या मध्य-भाग में, शीत हो या ऊष्ण / विविक्त-शय्या के छह प्रकार ये हैं--(१) शून्य-गृह, (2) गिरि-गुफा, (3) वृक्ष-मूल, (4) आगन्तुक-आगार (=विश्राम-गृह), (5) देव-कुल, अकृत्रिम शिला-गृह और (6) कूट-गृह / विविक्त शय्या में रहने से निम्न दोषों से सहज ही बचाव हो जाता है-(१) कलह, (2) बोल (शब्द बहुलता), (3) झंझा (संक्लेश), (4) व्यामोह, (5) सांकर्य (असंयमियों के साथ मिश्रण), (6) ममत्व तथा (7) ध्यान और स्वाध्याय का व्याघात / ' बाह्य-तप के प्रयोजन (1) अनशन के प्रयोजन (क) संयम-प्राप्ति / (ख) राग-नाश / (ग) कर्म-मल विशोधन / (घ) सध्यान की प्राप्ति / (ङ) शास्त्राभ्यास / (2) अवमौदर्य के प्रयोजन (क) संयम में सावधानता। (ख) वात, पित्त, श्लेष्म आदि दोषों का उपशमन / (ग) ज्ञान, ध्यान आदि की सिद्धि / (3) वृत्तिसंक्षेप के प्रयोजन (क) भोजन सम्बन्धी आशा पर अंकुश / (ख) भोजन सम्बन्धी संकल्प-विकल्प और चिन्ता का नियंत्रण / (4) रस-परित्याग के प्रयोजन (क) इन्द्रिय-निग्रह। (ख) निद्रा-विजय / (ग) स्वाध्याय-ध्यान की सिद्धि / (5) विविक्त-शय्या के प्रयोजन (क) बाधाओं से मुक्ति। (ख) ब्रह्मचर्य सिद्धि / (ग) स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि / १-मूलाराधना, 3 / 228,229,231,232 / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / (6) काय-क्लेश के प्रयोजन (क) शारीरिक कष्ट-सहिष्णुता का स्थिर अभ्यास / (ख) शारीरिक सुख की श्रद्धा से मुक्ति। (ग) जैन-धर्म की प्रभावना।' बाह्य-तप के परिणाम : बाह्य-तप से निम्न बातें फलित होती हैं(१) सुख की भावना स्वयं परित्यक्त हो जाती है। (2) शरीर कृश हो जाता है। (3) आत्मा संवेग में स्थापित होती है / (4) इन्द्रिय-दमन होता है। (5) समाधि-योग का स्पर्श होता है / (6) वीर्य-शक्ति का उपयोग होता है। (7) जीवन की तृष्णा विच्छिन्न होती है। (8) संक्लेश-रहित दुःख-भावना-कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास होता है / (6) देह, रस और सुख का प्रतिबंध नहीं रहता। (10) कषाय का निग्रह होता है। (11) विषय-भोगों के प्रति अनादर- उदासीन-भाव उत्पन्न होता है। (12) समाधि-मरण का स्थिर अभ्यास होता है / (13) आत्म-दमन होता है--आहार आदि का अनुराग क्षीण होता है / (14) आहार-निराशता--आहार की अभिलाषा के त्याग का अभ्यास होता है। (15) अगृद्धि बढ़ती है। (16) लाभ और अलाभ में सम रहने का अभ्यास सधता है / (17) ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। (18) निद्रा-विजय होती है। (16) ध्यान की दृढ़ता प्राप्त होती है। (20) विमुक्ति----विशिष्ट त्याग का विकास होता है / (21) दर्प का नाश होता है। (22) स्वाध्याय-योग की निर्विघ्नता प्राप्त होती है / (23) सुख-दुःख में सम रहने की स्थिति बनती है। (24) आत्मा, कुल, गण, शासन- सबकी प्रभावना होती है / (25) आलस्य त्यक्त होता है / १-तत्त्वार्थ, 9 / 20, श्रुतसागरीय वृत्ति / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : १,प्रकरण :7 २-योग (26) कर्म-मल का विशोधन होता है। (27) दूसरों को संवेग उत्पन्न होता है / (28) मिथ्या-दृष्टियों में भी सौम्य-भाव उत्पन्न होता है। (26) मुक्ति-मार्ग का प्रकाशन होता है। (30) तीर्थङ्कर की आज्ञा की आराधना होती है / (31) देह-लाघव प्राप्त होता है। (32) शरीर-स्नेह का शोषण होता है। (33) राग आदि का उपशम होता है। (34) आहार की परिमितता होने से नीरोगता बढ़ती है / (35) संतोष बढ़ता है। आभ्यन्तर-तप आभ्यन्तर-तप के छह प्रकार निम्नलिखित हैं - (1) प्रायश्चित्त, (2) विनय, (3) वैयावृत्त्य, (4) स्वाध्याय, (5) ध्यान और (6) व्युत्सर्ग। (1) प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त आभ्यन्तर-तप का पहला प्रकार है। उसके दस प्रकार हैं: (1) आलोचना योग्य-- गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना। (2) प्रतिक्रमण योग्य- किए हुए पापों से निवृत्त होने के लिए 'मिथ्या मे दुष्कृतम्'-मेरे सब पाप निष्फल हों-ऐसा कहना, कायोत्सर्ग आदि करना तथा भविष्य में पाप-कर्मों से दूर रहने के लिए सावधान रहना। (3) तदुभय योग्य- पाप से निवृत्त होने के लिए आलोचना और प्रति- ' क्रमण-दोनों करना। (4) विवेक आए हुए अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग करना / चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति के साथ कायोत्सर्ग करना। १-मूलाराधना, 3 / 237-244 / (5) व्युत्सर्ग Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / (6) तप---- उपवास, बेला आदि करना / (7) छेद पाप-निवृत्ति के लिए संयम काल को छेद कर कम कर देना। (8) मूल---- पुनः व्रतों में आरोपित करना--नई दीक्षा देना / (9) अनवस्थापना- तपस्या-पूर्वक नई दीक्षा देना। (10) पारांचिक- भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक नई दीक्षा देना / / तत्त्वार्थ सूत्र (6 / 22) में प्रायश्चित्त के 6 ही प्रकार बतलाए गए हैं, 'पारांचिक' का उल्लेख नहीं है। (2) विनय विनय आभ्यन्तर-तप का दूसरा प्रकार है। स्थानांग ( 71585 ), भगवती (25 / 7 / 802) और औपपातिक (सू० 20) में विनय के 7 भेद बतलाए गए हैं (1) ज्ञान-विनय- ज्ञान के प्रति भक्ति, बहुमान आदि करना। (2) दर्शन-विनय-- गुरु की शुश्रूषा करना, आशातना न करना / (3) चारित्र-विनय--- चारित्र का यथार्थ प्ररूपण और अनुष्ठान करना / (4) मनोविनय-- अकुशल मन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति / (5) वचनयोग---- अकुशल वचन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति / (6) काय-विनय- अकुशल काय का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति / (7) लोकोपचार-विनय- लोक-व्यवहार के अनुसार विनय करना / तत्त्वार्थ सूत्र (8 / 23) में विनय के प्रकार चार ही बतलाए गए हैं-(१) ज्ञानविनय, (2) दर्शन-विनय, (3) चारित्र-विनय और (4) उपचार-विनय / (3) वैयावृत्य (सेवा) वैयावृत्त्य आभ्यन्तर-तप का तीसरा प्रकार है / उसके दस प्रकार हैं (1) आचार्य का वैयावृत्त्य / (2) आध्याय का वैयावृत्त्य / (3) स्थविर का वैयावृत्त्य / (4) तपस्वी का वैयावृत्त्य / (5) ग्लान का वैयावृत्त्य / १-(क) स्थानांग, 101733 / 17801 (ग) औपपातिक, सूत्र 20 / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग (6) शैक्ष का वैयावृत्त्य / (7) कुल का वैयावृत्त्य / (5) गण का वैयावृत्त्य / (6) संघ का वैयावृत्त्य / (10) साधर्मिक (समान धर्म वाले साध-साध्वी) का वैयावृत्त्य / यह वर्गीकरण स्थानांग (10 / 712) के आधार पर है। भगवती (25 / 7 / 802) और औपपातिक (सूत्र 20) के वर्गीकरण का क्रम कुछ भिन्न हैं(१) आचार्य का वैयावृत्त्य (6) स्थविर का वैयावृत्त्य (2) उपाध्याय का वैयावृत्त्य (7) साधर्मिक का वयावृत्त्य (3) शंक्ष का वयावृत्त्य (8) कुल का वैयावृत्त्य (4) ग्लान का वैयावृत्त्य (9) गण का वैयावृत्त्य (5) तपस्वी का वैयावृत्त्य (10) संघ का वैयावृत्त्य तत्त्वार्थ सूत्र (6 / 24) में ये कुछ परिवर्तन के साथ मिलते हैं (1) आचार्य का वैयावृत्त्य (2) उपाध्याय का वैयावृत्त्य (3) तपस्की का वैयावृत्त्य (4) शैक्ष का वैयावृत्त्य (5) ग्लान का वैयावृत्त्य (6) गण (श्रुत स्थविरों की परम्परा का संस्थान') का वैयावृत्त्य / (7) कुल का वैयावृत्त्य ( एक आचार्य का साधु-समुदाय * 'गच्छ' कहलाता है ; एक जातीय अनेक गच्छों को कुल कहा जाता है)। (8) संघ (साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका) का वैयावृत्त्य / १-तत्त्वार्थ, 9 / 24 भाज्यानुसारि टीका : गणः--स्थविरसंततिसंस्थितिः। स्थविरग्रहणेन श्रुतस्थविरपरिग्रहः, न वयसा पर्यायेण वा, तेषां संततिः-परम्परा तस्याः संस्थानं–वर्तनं अद्यापि भवनं संस्थितिः। २-वही, 9 / 24 भाण्यानुसारि टीका : कुलमाचार्यसततिसंस्थितिः एकाचार्यप्रणेयसाधुसमूहो गच्छः, बहूनां गच्छानां एकजातीयानां समूहः कुलम् / ३-वही, 9 / 24 भाष्यानुसारि टीका: संघश्चतुर्विधः-साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाः। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (साधु का वैयावृत्त्य (10) समनोज्ञ का वैयावृत्त्य (समान सामाचारी वाले तथा एक मण्डली में भोजन करने वाले साधु 'समनोज्ञ' कहलाते हैं / ') इस वर्गीकरण में स्थविर और साधर्मिक-ये दो प्रकार नहीं हैं। उनके स्थान पर साधु और समनोज्ञ-ये दो प्रकार हैं / गण और कुल की भाँति संघ का अर्थ भी साधुपरक ही होना चाहिए। ये दसों प्रकार केवल साधु-समूह के विविध पदों या रूपों से सम्बद्ध हैं। __ वैयावृत्त्य (सेवा) का फल तोर्थङ्कर-पद की प्राप्ति बतलाया गया है / 2 व्यावहारिक सेवा ही तीर्थ को संगठित कर सकती है / इस दृष्टि से भी इसका बहुत महत्त्व है / (4) स्वाध्याय स्वाध्याय आभ्यन्तर-तप का चौथा प्रकार है। उसके पाँच भेद हैं-(१) वाचना, (2) प्रच्छना, (3) परिवर्तना, (4) अनुप्रेक्षा और (5) धर्मकथा / 3. तत्त्वार्थ सूत्र (6 / 25) में इनका क्रम और एक नाम भी भिन्न हैं-(१) वाचना, (2) प्रच्छता, (3) अनुप्रेक्षा, (4) आम्नाय और (5) धर्मोपदेश / ___ इनमें परिवर्तना के स्थान में आम्नाय है / आम्नाय का अर्थ है 'शुद्ध उच्चारण पूर्वक बार-बार पाठ करना / परिवर्तना या आम्नाय को अनुप्रेक्षा से पहले रखना अधिक उचित लगता है। आचार्य शिष्यों को पढ़ाते हैं-यह 'वाचना' है / पढ़ते समय या पढ़ने के बाद शिष्य के मन में जो जिज्ञासाएं उत्पन्न होती हैं, उन्हें वह आचार्य के सामने प्रस्तुत करता हैयह 'प्रच्छना' है / आचार्य से प्राप्त श्रुतः को याद रखने के लिए वह बार-बार उसका पाठ करता है-यह 'परिवर्तना' है। परिचित श्रुत का मर्म समझने के लिए वह उसका पर्यालोचन करता है-यह 'अनुप्रेक्षा' है। पठित, परिचित और पर्यालोचित श्रुत का वह उपदेश करता है—यह 'धर्मकथा' है। इस क्रम में परिवर्तना का स्थान अनुप्रेक्षा से पहले प्राप्त होता है। १-तत्त्वाथे, 9 / 24 भाज्यानुसारि टीका : द्वादशविधसम्भोगमाजः समनोज्ञानदर्शनचारित्राणि मनोज्ञानि सह मनोजेः समनोज्ञाः। २-उत्तराध्ययन, 35143 / ३-देखिए-उत्तराध्ययन के टिप्पण, 29 / 18 का टिप्पण / ४-तत्त्वार्थ, 9 / 25, श्रुतसागरीय वृत्ति : अष्टस्यानोच्चार विशेषेण यच्छुद्धं घोषणं पुनः पुनः परिवर्तनं स आम्नाय कथ्यते / Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 166 सिद्धसेन गणि के अनुसार अनुप्रेक्षा का अर्थ है 'ग्रन्थ और अर्थ का मानसिक अभ्यास करना' / इसमें वर्णो का उच्चारण नहीं होता और आम्नाय में वर्णों का उच्चारण होता है, यही इन दोनों में अन्तर है।' अनुप्रेक्षा के उक्त अर्थ के अनुसार उसे आम्नाय से पूर्व रखना भी अनुचित नहीं है। आम्नाय, घोषविशुद्ध, परिवर्तन, गुणन और रूपादान-ये आम्नाय या परिवर्तना के पर्यायवाची शब्द हैं / अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोगवर्णन, धर्मोपदेश-ये धर्मोपदेश या धर्मकथा के पर्यायवाची शब्द हैं / (5) ध्यान साधना-पद्धति में ध्यान का सर्वोपरि महत्त्व रहा है। वह हमारी चेतना की ही एक अवस्था है। उसका अनुसन्धान और अभ्यास सुदूर अतीत में हो चुका था। कोई भी आध्यात्मिक धारा उसके बिना अपने साध्य तक नहीं पहुंच सकती थी / छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि ध्यान के महत्व से परिचित थे। किन्तु छान्दोग्य में उसका विकसित रूप प्राप्त नहीं है। बुद्र ने ध्यान को बहुत महत्त्व दिया था। महावीर की परम्परा में भी उसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त था / योगदर्शन में भी उसका महत्त्व स्वीकृत है। उत्तरवर्ती उपनिषदों में भी उसे बहुत मान्यता मिली है। भारतीय साधना को समग्र धाराओं ने उसे सतत प्रवाहित रखा। चित्त और ध्यान __मन को दो अवस्थाएं हैं-(१) चल ओर (2) स्थिर / चल अवस्था को 'चित्त' और १-तत्त्वार्थ, 9 / 25 भाज्यानुसारि टीका : सन्देहे सति ग्रन्थार्थयोर्मनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा। न तु बहिर्वर्णोच्चारणमनुश्रावणीयम् / आम्नायोऽपि परिवर्तनं उदात्ता दिपरिशुद्धमनुश्रावणीयमभ्यासविशेषः / २-वही, 9 / 25 भाज्यानुसारि टीका : आम्नायो घोषविशुद्धं परिवर्तनं गुणनं रूपादानमित्यथः / * ३-वही, 9 / 25 भाज्यानुसारि टीका : अर्थोपदेशो व्याख्यान अनुयोगवर्णनं धर्मोपदेश इत्यनन्तरम् / / ४-छान्दोग्य उपनिषद्, 7 / 6 / 1-2 : 22 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन स्थिर अवस्था को 'ध्यान' कहा जाता है।' वस्तुत: चित और ध्यान एक ही मन (अध्यवसान) के दो रूप हैं। मन जब गुप्त, एकान या निरुद्ध होता है, तब उसकी संज्ञा ध्यान हो जाती है। भावना, अनुप्रेक्षा और चिंता-ये सब चित्त की अवस्थाएँ हैं / भावना- ध्यान के अभ्यास की क्रिया। अनुप्रेक्षा- ध्यान के बाद होने वाली मानसिक चेष्टा। चिंता सामान्य मानसिक चिन्तन / इनमें एकाग्रता का वह रूप प्राप्त नहीं होता, जिसे ध्यान कहा. जा सके / ध्यान शब्द 'ध्ये चिन्तायाम्' धातु से निष्पन्न होता है / शब्द की उत्पत्ति की दृष्टि से ध्यान का अर्थ चिन्ता होता है, किन्तु प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ उससे भिन्न है। ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं किन्तु चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात् चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना या उसका निरोध करना है। तत्त्वार्थ सूत्र में एकाग्न चिन्ता तथा शरीर, वाणी और मन के निरोध को ध्यान कहा गया है। इससे यह ज्ञात होता है कि जैन-परम्परा में ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ही . नहीं माना गया था। वह मन, वाणी और शरीर-इन तीनों से सम्बन्धित था। इस अभिमत के आधार पर उसकी पूर्ण परिभाषा इस प्रकार बनती है-शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति तथा उनकी निरेजन दशा-निष्प्रकम्प दशा ध्यान है।पतञ्जलि ने ध्यान का सम्बन्ध केवल मन के साथ माना है। उनके अनुसार जिसमें धारणा की गई हो, उस देश में ध्येय-विषयक ज्ञान की एकतानता ( अर्थात् सदृश प्रवाह ) जो अन्य ज्ञानों से अपरामृष्ट हो, को ध्यान कहा जाता है / सदृश प्रवाह का अभिप्राय यह है कि जिस ध्येय विषयक पहली वृति हो, उसी विषय की दूसरी और उसी . विषय की तीसरी हो- ध्येय से अन्य ज्ञान बीच में न हो / 6 पतञ्जलि ने एकाग्रता और निरोध- ये दोनों केवल १-ध्यानशतक 2: जं थिरमझवसाणं तं माणं जं चलं तयं चित्तं / २-वही, 2: तं होज्ज भावणा वा अगुप्पेहा वा अहव चिंता। ३-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1463 : अंतो मुहुतकालं चित्तस्सेगग्गगया हवइ झाणं / ४-तत्त्वार्थ, सूत्र 9 / 27 : उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहुर्तात् / ५-आवश्यक, नियुक्ति 1467-1478 / ६-पातंजल योगदर्शन 32: तत्र पत्ययैकतानता ध्यानम् / Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1. प्रकरण : 7 २-योग 171 चित्त के ही माने हैं। गरुडपुराण में भी ब्रह्म और आत्मा की चिन्ता को ध्यान कहा गया है। बौद्धधारा में भी ध्यान मानसिक ही माना गया है / ध्यान केवल मानसिक ही नहीं, किन्तु वाचिक और कायिक भी है। यह अभिमत जैन आचार्यो का अपना मौलिक है। पतञ्जलि ने ध्यान और समाधि-ये दो अंग पृथक मान्य किए, इसलिए उनके योगदर्शन में ध्यान का रूप बहुत विकसित नहीं हुआ। जैन आचार्यों ने ध्यान को इतने व्यापक अर्थ में स्वीकार किया कि उन्हें उससे पृथक् समाधि को मानने को आवश्यकता ही नहीं हुई। पतञ्जलि की भाषा में जो सम्प्रज्ञात समाधि है, वही जैन योग की भाषा में शुक्लध्यान का पूर्व चरण है।४ पतञ्जलि जिसे असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं, वह जैनयोग में शुक्ल-ध्यान का उत्तर चरण है / " ध्यान से समाधि को पृथक मानने की परम्परा जैन साधना पद्धति के उत्तर काल में स्थिर हुई, ऐसा प्रतीत होता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि जैनों की ध्यान विषयक मान्यता पतञ्जलि से प्रभावित नहीं है। __केवलज्ञानी के केवल निरोधात्मक ध्यान ही होता है, किन्तु जो केवलज्ञानी नहीं हैं उनके एकाग्रतात्मक और निरोधात्मक दोनों ध्यान होते हैं। ध्यान का सम्बन्ध शरीर, वाणी और मन-तीनों से माना जाता रहा, फिर भी उसकी परिभाषा-चित्त की एकाग्रता ध्यान है--इस प्रकार की जाती रही है / भद्रबाहु के सामने यह प्रश्न उपस्थित था--यदि ध्यान का अर्थ मानसिक एकाग्रता है, तो इसकी संगति जैन-परम्परा सम्मत उस प्राचीन अर्थ-शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति या निरेजन दशा ध्यान है के साथ कैसे होगी ?6 / आचार्य भद्रबाह ने इसका समाधान इस प्रकार किया--शरीर में वात, पित्त और कफ-ये तीन धातु होते हैं। उनमें से जो प्रचुर होता है, उसी का व्यपदेश किया जाता १-पातंजल योगदशन, 1118 / . २-गरुडपुराण, अ० 48 : / ब्रह्मात्मचिन्ता ध्यानं स्यात् / ३-विशुद्धिमार्ग, पृ० 141-151 / ४-पातंजल योगदर्शन, यशोविजयजी, 1118 : तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचारकत्ववितर्काविचाराख्यशुक्लध्यानभेदद्वये सम्प्रज्ञातः समाधिवत्यानां सम्यग्ज्ञानात् / ५-वही, यशोविजयजी, 1118 / - ६-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1467 / Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / है-जैसे वायु कुपित है। जहाँ 'वायु कुपित है'-ऐपा निर्देश किया जाता है, उसका अर्थ यह नहीं है कि वहाँ पित्त और श्लेष्मा नहीं हैं। इसी प्रकार मन की एकाग्रता ध्यान है-यह परिभाषा भी प्रधानता की दृष्टि से है / जैसे मन की एकाग्रता व निरोध मानसिक ध्यान कहलाता है, वैसे ही 'मेरा शरीर अकम्पित हो'-यह संकल्प कर जो स्थिर-काय बनता है, वह कायिक ध्यान है / इसी प्रकार संकल्प पूर्वक अकथनीय भाषा का वर्जन किया जाता है, वह वाचिक ध्यान है। जहाँ मन एकाग्र व अपने लक्ष्य के प्रति व्याप्त होता है तथा शरीर और वाणी भी उसी लक्ष्य के प्रति व्याप्त होते हैं, वहाँ मानसिक, कायिक और वाचिक-ये तीनों ध्यान एक साथ हो जाते हैं। जहाँ कायिक या वाचिक ध्यान होता है, वहाँ मानसिक ध्यान भी होता है, किन्तु वहाँ उसकी प्रधानता नहीं होती, इसलिए वह मानसिक ही कहलाता है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि मन सहित वाणी और काया का व्यापार होता है, उसका नाम भावक्रिया है और जो भाव-क्रिया है, वह ध्यान है।५ वाचिक या कायिक ध्यान के साथ मन संलग्न होता है, फिर भी उनका विषय एक होता है, इसलिए उसे अनेकान नहीं कहा जा सकता। वह व्यक्ति जो मन से ध्यान करता है, वही वाणी से बोलता है और उसी में उसकी काया संलग्न होती है। यह उनकी अखण्डता या एकाग्रता है। __ध्यान में शरीर, वाणी और मन का निरोध ही नहीं होता, प्रवृत्ति भी होती है / सहज ही प्रश्न होता है कि स्वाध्याय में मन की एकाग्रता होती है और ध्यान में भी। उस स्थिति में स्वाध्याय और ध्यान ये दो क्यों ? स्वाध्याय में मन की एकाग्रता होती है किन्तु वह घनीभूत नहीं होती इसलिए उसे ध्यान. की कोटि में नहीं रखा जा सकता। ध्यान चित्त की घनीभूत अवस्था है। स्वल्प निद्रा और प्रगाढ़ निद्रा में शुभ या अशुभ ध्यान नहीं होता इसी प्रकार नवोत्पन्न शिशु तथा जिनका चित मूच्छित, अव्यक्त, मदिरापान से उन्मत्त, विष आदि से प्रभावित है, उनके भी ध्यान नहीं होता। ध्यान का अर्थ शून्यता या अभाव नहीं है / अपने आलम्बन में गाढ़ रूप से संलग्न होने के कारण जो निष्प्रक्रम्प हो जाता है, वही चित्त ध्यान कहलाता है। मृदु, अव्यक्त और अनवस्थित चित्त को ध्यान नहीं कहा जा १-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1468,1469 / २-वही, गाथा 1474 / ३-वही, गाथा 1476,1477 / ४-वही, गाथा 1478 / ५-वही, गाथा 1486 / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 173 सकता।' ध्यान चेतना की वह अवस्था है, जो अपने आलम्बन के प्रति एकाग्न होती है अथवा बाह्य-शून्यता होने पर भी आत्मा के प्रति जागरूकता अबाधित रहती है / इसीलिए कहा गया है "जो व्यवहार के प्रति सुषप्त है, वह आत्मा के प्रति जागरूक है।" ____उक्त विवरण से फलित होता है कि चिन्तन-शून्यता ध्यान नहीं और वह चिन्तन भी ध्यान नहीं है, जो अनेकाग्र है। एकाग्र चिन्तन ध्यान है, भाव-क्रिया ध्यान है और चेतना के व्यापक प्रकाश में चित्त विलीन हो जाता है, वह भी ध्यान है। इन परिभाषाओं के आधार पर जाना जा सकता है कि जैन आचार्य जडतामय शून्यता व चेतना को मूछी को ध्यान कहना इष्ट नहीं मानते थे। ध्यान के प्रकार एकाग्र चिन्तन को ध्यान कहा जाता है, इस व्युत्पत्ति के आधार पर उसके चार प्रकार होते हैं--(१) आतं, (2) रौद्र, (:) धर्म्य और (4) शुक्ल / (1) आर्त्त-ध्यान-चेतना की अरति या वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्त्त-ध्यान कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं (क) कोई पुरुष अमनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस (अमनोज्ञ विषय) के वियोग का चिन्तन करता है-यह पहला प्रकार है। (ख) कोई पुरुष मनोज्ञ संयोग से संयुक्त है, वह उस ( मनोज्ञ विषय ) के वियोग न होने का चिन्तन करता है-यह दूसरा प्रकार है। . (ग) कोई पुरुष आतंक- सद्योघाती रोग के संयोग से संयुक्त होने पर उसके वियोग का चिन्तन करता है-यह तीसरा प्रकार है। (घ) कोई पुरुष प्रीतिकर काम-भोग के संयोग से संयुक्त है, वह उसके वियोग न होने का चिन्तन करता है—यह चौथा प्रकार है। आत-ध्यान के चार लक्षण हैं (क) आक्रन्द करना, (ख) शोक करना, (ग) आँसू बहाना और (घ) विलाप करना। १-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1481-1483 / Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (2) रौद्र-ध्यान-चेतना की क्रूरतामय एकाग्र परिणति को 'रौद्र-ध्यान' कहा जाता है / उसके चार प्रकार हैं (क) हिंसानुबन्धी- जिसमें हिंसा का अनुबन्ध---हिंसा में सतत प्रवर्तन हो / (ख) मृषानुबन्धी- जिसमें मृषा का अनुबन्ध-मृपा में सतत प्रवर्तन हो। (ग) स्तेनानुबन्धी---- जिस में चोरी का अनुबन्ध---चोरी में सतत प्रवर्तन हो / (घ) संरक्षणानुबन्धी- जिसमें विषय के साधनों के संरक्षण का अनुबन्ध--- विषय के साधनों में सतत प्रवर्तन हो। ' रौद्र-ध्यान के चार लक्षण हैं (क) अनुपरत दोष- प्रायः हिंसा आदि से उपरत न होना / (ख) बहुदोष- हिंसा आदि की विविध प्रवृत्तियों में संलग्न रहना। (ग) अज्ञानदोष- अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त होना। (घ) आमरणान्तदोष- मरणान्त तक हिंसा आदि करने का अनुताप न होता। ये दोनों ध्यान पापाश्रव के हेतु हैं, इसीलिए इन्हें 'अप्रशस्त' ध्यान कहा जाता है। इन दोनों को एकाग्रता की दृष्टि से ध्यान की कोटि में रखा गया है, किन्तु साधना की दृष्टि से आर्त और रौद्र परिणतिमय एकाग्रता विघ्न ही है / मोक्ष के हेतुभूत ध्यान दो ही हैं--(१) धर्म्य और (2) शुक्ल / इनसे आश्रव का निरोध होता है, इसलिए इन्हें 'प्रशस्त ध्यान' कहा जाता है / (3) धर्म्य-ध्यान-वस्तु-धर्म या सत्य की गवेषणा में परिणत चेतना की एकाग्रता को 'धर्म्य-ध्यान' कहा जाता है / इसके चार प्रकार हैं (1) आज्ञा-विचय- प्रवचन के निर्णय में संलग्न चित्त / .. (2) अपाय-विचय- दोषों के निर्णय में संलग्न चित्त / (3) विपाक-विचय- कर्म फलों के निर्णय में संलग्न चित्त / (4) संस्थान-विचय- विविध पदार्थो के आकृति-निर्णय में संलग्न चित्त / धर्म्य ध्यान के चार लक्षण हैं (क) आज्ञा-रुचि- प्रवचन में श्रद्धा होना। (ख) निसर्ग-रुचि-- सहज ही सत्य में श्रद्धा होना / (ग) सूत्र-रुचि- सूत्र पढ़ने के द्वारा श्रद्धा उत्पन्न होना / (घ) अवगाढ़-रुचि- विस्तार से सत्य की उपलब्धि होना। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 175 धर्म्य ध्यान के चार आलम्बन हैं (क) वाचना-पढ़ाना। (ख) प्रतिप्रच्छना-शंका-निवारण के लिए प्रश्न करना। (ग) परिवर्तना--पुनरावर्तन करना। (घ) अनुप्रेक्षा-अर्थ का चिन्तन करना। धर्म्य ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं (क) एकत्व-अनुप्रेक्षा-अकेलेपन का चिन्तन करना / (ख) अनित्य-अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन करना। (ग) अशरण-अनुप्रेक्षा-अशरण दशा का चिन्तन करना। (घ) संसार-अनुप्रेक्षा---संसार-परिभ्रमण का चिन्तन करना। (4) शुक्ल ध्यान-चेतना की सहज ( उपाधि रहित ) परिणति को 'शुक्ल-ध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं (क) पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी। (ख) एकत्व-वितर्क-अविचारी। (ग) सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाति / (घ) समुच्छिन्न-क्रिय-अनिवृत्ति / ध्यान के विषय में द्रव्य और उसके पर्याय हैं। ध्यान दो प्रकार का होता हैसालम्बन और निरालम्बन / ध्यान में सामग्री का परिवर्तन भी होता है और नहीं भी होता / वह दो दृष्टियों से होता है-भेद-दृष्टि से और अभेद-दृष्टि से। जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियों-नयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्व-श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक दूसरे में संक्रमण किया जाता है, शुक्ल-ध्यान की इस स्थिति को 'पृथकत्व-वितर्क-सविचारी' कहा जाता है। ___जब एक द्रव्य के किसी एक पर्याय का अभेद-दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्वे-श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहाँ शब्द, अर्थ एवं मन-वचन-काया में से एक दूसरे में संक्रमण किया जाता है, शुक्ल-ध्यान की उस स्थिति को 'एकत्व-वितर्कअविचारी' कहा जाता है। ___ जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होता-श्वासोच्छवास जैसी सूक्ष्म-क्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को 'सूक्ष्म-क्रिय' कहा जाता है / इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपाति है। जब सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को 'समुच्छिन्न-क्रिय' कहा जाता है / इसका निवर्तन नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन शुक्ल-ध्यान के चार लक्षण हैं (क) अव्यथ-- क्षोभ का अभाव / (ख) असम्मोह- सूक्ष्म पदार्थ विषयक मूढ़ता का अभाव / (ग) विवेक- शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान / (घ) व्युत्सर्ग- शरीर और उपाधि में अनासक्त भाव / शुक्ल-ध्यान के चार आलम्बन हैं (क) क्षान्ति- क्षमा / (ख) मुक्ति- निर्लोभता / (ग) मार्दव- मृदुता। (घ) आर्जव- सरलता। शुक्ल-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं-- (क) अनन्तवृत्तिता अनुप्रेक्षा- संसार परम्परा का चिन्तन करना / (ख) विपरिणाम अनुप्रेक्षा- वस्तुओं के विविध परिणामों का चिन्तन / (ग) अशुभ अनुप्रेक्षा- पदार्थों की अशुभता का चिन्तन करना। (घ) अपाय अनुप्रेक्षा- दोषों का चिन्तन करना। आगम के उत्तरवर्ती साहित्य में ध्यान चतुष्टय का दूसरा वर्गीकरण भी मिलता है / उसके अनुसार ध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं-(१) पिण्डस्थ, (2) पदस्थ, (3) रूपस्थ और (4) रूपातीत / ___तंत्र-शास्त्र में भी पिण्ड, पद, रूप और रूपातीत- ये चारों प्राप्त होते हैं। दोनों के अर्थ-भेद को छोड़कर देखा जाए तो लगता है कि जैन-साहित्य का यह वर्गीकरण तंत्रशास्त्र से प्रभावित है। ध्यान के विभाग ध्येय के आधार पर किए गए हैं। धर्म-ध्यान के जैसे चार ध्येय १-नवचक्रेश्वरतंत्र: पिण्डं पदं तथा रूपं, रूपातीतं चतुष्टयम् / यो वा सम्यग विजानाति, स गुरुः परिकीर्तितः / पिण्डं कुण्डलिनी-शक्तिः, पदं हंसः प्रकीर्तितः / रूपं बिदुरिति ज्ञेयं, रूपातीतं निरञ्जनम् // २-योगशास्त्र 107 / / आज्ञापायविपाकानां, संस्थानस्य चिन्तनात् / इत्थं वा ध्येयभेदेन, धर्म्य ध्यानं चतुर्विधम् // Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 २-योग 177 बतलाए, वैसे और भी हो सकते हैं। इसी संभावना के आधार पर पिण्डस्थ, पदस्थ आदि भेदों का विकास हुआ / वस्तुतः ये धर्म्य-ध्यान के ही प्रकार हैं। नय-दृष्टि से ध्यान दो प्रकार का होता है-सालम्बन और निरालम्बन / ' सालम्बन ध्यान भेदात्मक होता है। उसमें ध्यान और ध्येय भिन्न-भिन्न रहते हैं। इसे ध्यान मानने का आधार व्यवहार-नय है। पिण्डस्थ ध्यान में भी शरीर के अवयव-सिर, श्र , तालु, ललाट, मुंह, नेत्र, कान, नासाग्न, हृदय और नाभि आदि आलम्बन होते हैं। इसमें धारणाओं का आलम्बन भी लिया जाता है। आचार्य शुभचन्द्र ने इसके लिए पाँच धारणाओं का उल्लेख किया है-3 (1) पार्थिवी- योगी यह कल्पना करे कि एक समुद्र है.-शान्त और गंभीर / उसके मध्य में हजार पंखुड़ी वाला एक कमल है। उस कमल के मध्य में एक सिंहासन है। उस पर वह बैठा है और यह विश्वास करता है कि कषाय क्षीण हो रहे हैं, यह 'पार्थिवी' धारणा है। (2) आग्नेयी- सिंहासन पर बैठा हुआ योगी यह कल्पना करे कि नाभि में सोलह दल वाला कमल है। उसको कणिका में एक महामंत्र 'अहम्' है और उसके प्रत्येक दल पर एक-एक स्वर है / 'अहम्' के एकार से धूमशिखा निकल रही है / स्फुलिंग उछल रहे हैं / अग्नि की ज्वाला भभक रही है। उससे हृदय-स्थित अष्टदल कमल, जो आठ कर्मों का सूचक है, जल रहा है। वह भस्मीभूत हो गया है। अग्नि शान्त हो गई है, यह 'आग्नेयी' धारणा है। (3) मारुती- फिर यह कल्पना करे कि वेगवान् वायु चल रहा है, उसके द्वारा जले हुए कमल की राख उड़ रही है, यह 'मारुती' धारणा है / (4) वारुणी- फिर यह कल्पना करे कि तेज वर्षा हो रही है, बची हुई राख उसके जल में प्रवाहित हो रही है, यह 'वारुणी' धारणा है / (5) तत्त्वरूपवती-- फिर कल्पना करे कि यह आत्मा 'अर्हत्' के समान है, शुद्ध है, अतिशय सम्पन्न है, यह 'तत्त्वरूपवती' धारणा है / हेमचन्द्र ने इसका 'तत्त्वभू' नाम भी रखा है। पदस्थ ध्यान में मंत्र-पदों का आलम्बन लिया जाता है / ज्ञानार्णव (38 / 1-16) और योगशास्त्र (8 / 1-80) में मंत्र-पदों की विस्तार से चर्चा की है। . १-तत्त्वानुशासन, 96 / २-वैराग्यमणिमाला, 34 / ३-ज्ञानार्णव, 37 // 4-30 / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन रूपस्थ ध्यान में 'अर्हत्' के रूप (प्रतिमा) का आलम्बन लिया जाता है। वीतराग का चिन्तन करने वाला वीतराग हो जाता है और रोगी का चिन्तन करने वाला रोगी।' इसीलिए रूपस्थ धयान का आलम्वन वीतराग का रूप होता है। पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ-इन तीनों ध्यानों में आत्मा से भिन्न वस्तुओंपौद्गलिक द्रव्यों का आलम्बन लिया जाता है, इसलिए ये तीनों सालम्बन ध्यान के प्रकार हैं। रूपातीत ध्यान का आलम्बन अमूर्त-प्रात्मा का चिदानन्दमय स्वरूप होता है। इसमें ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता होती है / इस एकीकरण को 'समरसी-भाव' कहा जाता है / यह निरालम्बन ध्यान है / इसे ध्यान मानने का आधार निश्चय-नय है। प्रारम्भ में सालम्बन ध्यान का अभ्यास किया जाता है। इसमें एक स्थूल आलम्बन होता है, अतः इससे ध्यान के अभ्यास में सुविधा मिलती है। जब इसका अभ्यास परिपक्व हो जाता है तब निरालम्बन ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। जो व्यक्ति सालम्बन ध्यान का अभ्यास किए बिना सीधा निरालम्बन ध्यान करना चाहता है, वह वैचारिक पाकुलता से घिर जाता है। इसीलिए आचार्यों ने चेताया कि पहले सालम्बन ध्यान का अभ्यास करो। वह सध जाए तब उसे छोड़ दो, निरालम्बन ध्यान के अभ्यास में लग जाओ।' ध्यान के अभ्यास का यह क्रम प्राय: सर्वसम्मत रहा है-स्थूल से सूक्ष्म, सविकल्प से निवर्किल्प और सालम्बन से निरालम्बन होना चाहिए। ध्यान की मर्यादाएँ ___ ध्यान करने की कुछ मर्यादाएँ हैं / उन्हें समझ लेने पर ही ध्यान करना सुलभ होता है / सभी ध्यान-शास्त्रों में न्यूनाधिक रूप से उनको चर्चा प्राप्त है। जैन-आचार्यों ने भी उनके विषय में अपना अभिमत प्रदर्शित किया है। ध्यानशतक में ध्यान से सम्बन्धित बारह विषयों पर विचार किया गया है। वे (1) भावना, (2) प्रदेश, (3) काल, (4) प्रासन, (5) आलम्बन, (6) क्रम, (7) ध्येय, (8) ध्याता, (6) अनुप्रेक्षा, (10) लेश्या, (11) लिङ्ग और (12) फल / ' पहले हम इन विषयों के माध्यम से धर्म्य-ध्यान पर विचार करेंगे। (1) भावना- ध्यान की योग्यता उसी व्यक्ति को प्राप्त होती है, जो पहले भावना का अभ्यास कर चुकता है / इस प्रसंग में चार भावनाएं उल्लेखनीय हैं १-योगशास्त्र, 9 / 13 / २-ज्ञानसार, 37: योगशास्त्र, 105 / ३-ध्यानशतक, 28,29 / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 176 (1) ज्ञान-भावना- ज्ञान का अभ्यास ; ज्ञान में मन की लीनता, (2) दर्शन-भावना- मानसिक मूढ़ता के निरसन का अभ्यास, (3) चारित्र-भावना- समता का अभ्यास और (4) वैराग्य-भावना- जगत् के स्वभाव का यथार्थ दर्शन, आसक्ति, भय और आकांक्षा से मुक्त रहने का अभ्यास / ' इन भावनाओं के अभ्यास से ध्यान के योग्य मानसिक-स्थिरता प्राप्त होती है। आचार्य जिनसेन ते ज्ञान-भावना के पाँच प्रकार बतलाए हैं-वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तना और धर्म-देशना। दर्शन-भावना के सात प्रकार बतलाए हैं-संवेग, प्रशम, स्थैर्य, अमूढ़ता, अगर्वता, आस्तिक्य और अनुकम्पा / चारित्र-भावना के नौ प्रकार बतलाए हैं—पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ और कष्ट-सहिष्णुता / वैराग्य-भावना के तीन प्रकार बतलाए हैं-विषयों के प्रति अनासक्ति, कायतत्त्व का अनुचिन्तन और जगत् के स्वभाव का विवेचन / 2 . (2) प्रदेश- ध्यान के लिए एकान्त प्रदेश अपेक्षित है। जो जनाकीर्ण स्थान में रहता है, उसके सामने इन्द्रियों के विषय प्रस्तुत होते रहते हैं। उनके सम्पर्क से कदाचित् मन व्याकुल हो जाता है। इसलिए एकान्तवास मुनि के लिए सामान्य मार्ग है, किन्तु जैनआचार्यों ने हर सत्य को अनेकान्त-दृष्टि से देखा, इसलिए उनका यह आग्रह कभी नहीं रहा कि मुनि को एकान्तवासी ही होना चाहिए / भगवान् महावीर ने कहा-“साधना गाँव में भी हो सकती है और अरण्य में भी हो सकती है। साधना का भाव न हो तो वह गाँव में भी नहीं हो सकती और अरण्य में भी नहीं हो सकती।"४ धीर व्यक्ति जनाकीर्ण और विजन दोनों स्थानों में समचित्त रह सकता है। अतः ध्यान के लिए प्रदेश की कोई एकान्तिक मर्यादा नहीं दी जा सकती। अनेकान्त-दृष्टि से विचार किया जाए तो प्रदेश के सम्बन्ध में सामान्य मर्यादा यह है कि ध्यान का स्थान शून्य-गृह, गुफा आदि विजन प्रदेश होना चाहिए / जहाँ मन, वाणी और शरीर को समाधान मिले और जहाँ जीवजन्तुओं का कोई उपद्रव न हो, वह स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त है / 6 १-ध्यानशतक, 30 / २-महापुराण 21 / 96-99 / ३-महापुराण, पर्व 21170-80 / ४-आचारांग 18 / 1 / 14 : गामे वा अदुवा रणे, णेव गामे व रणे धम्ममायाणह / ५-ध्यानशतक, 36 / ६-वही, 37 // Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मकअध्ययन (3) काल- ध्यान के लिए काल की भी कोई एकान्तिक मर्यादा नहीं है। वह सार्वकालिक है-जब भावना हो तभी किया जा सकता है।' ध्यानशतक के अनुसार जब मन को समाधान प्राप्त हो, वही समय ध्यान के लिए उपयुक्त है। उसके लिए दिनरात आदि किसी समय का नियम नहीं किया जा सकता / 2 (4) आसन- ध्यान के लिए शरीर की अवस्थिति का भी कोई नियम नहीं है। जिस अवस्थिति में ध्यान सुलभ हो, उसी में वह करना चाहिए। इस अभिमत के अनुसार ध्यान खड़े, बैठे और सोते- तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है। - 'भू-भाग'-ध्यान किसी ऊँचे आसन या शय्या आदि पर बैठ कर नहीं करना चाहिए। उसके लिए 'भूतल' और 'शिलापट्ट'-ये दो उपयुक्त माने गए हैं। काष्ठपट्ट भी उसके लिए उपयुक्त है। ध्यान के लिए अभिहित आसनों की चर्चा हम 'स्थान-योग' के प्रसंग में कर चुके हैं। समग्रदृष्टि से ध्यान के लिए निम्न अपेक्षाएँ हैं (1) बाधा रहित स्थान, (2) प्रसन्न काल, (3) सुखासन, (4) सम, सरल और तनाव रहित शरीर, . (5) दोनों होठ 'अधर' मिले हुए, (6) नीचे और ऊपर के दाँतों में थोड़ा अन्तर, (7) दृष्टि नासा के अग्न भाग पर टिकी हुई, (8) प्रसन्न मुख, () मुँह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर और (10) मंद श्वास-निश्वास / 5 १-महापुराण, 21181 : न चाहोरात्र सन्ध्यादि-लक्षणः कालपर्ययः / नियतोऽस्यास्ति विध्यासोः, तद्ध्यानं सार्वकालिकम् // २-ध्यानशतक, 38 / ३-ध्यानशतक, 39 ; महापुराण, 21175 / / ४-तत्त्वानुशासन, 92 / ५-(क) महापुराण, 21160-64 : (ख) योगशास्त्र, 4 / 135,136 / (ग) पासनाहचरिय, 206 / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 181 (5) आलम्बन-आर की चढ़ाई में जैसे रस्सी आदि के सहारे की आवश्यकता होती है, वैसे ही ध्यान के लिए भी कुछ आलम्बन आवश्यक होते हैं। इनका उल्लेख 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में किया जा चुका है। (6) क्रम- पहले स्थान (स्थिर रहने) का अभ्यास होना चाहिए। इसके पश्चात् मौन का अभ्यास करना चाहिए। शरीर और वाणी दोनों की गुप्ति होने पर ध्यान (मन की गप्ति) सहज हो जाता है / अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान-साधना के अनेक क्रम हो सकते हैं। (7) ध्येय-ध्यान अनेक हो सकते हैं, उनकी निश्चित संख्या नहीं की जा सकती। ध्येय विषयक चर्चा 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में की जा चुकी है। (5) ध्याता-ध्यान के लिए कुछ विशेष गुणों की अपेक्षाएँ हैं / वे जिसे प्राप्त हों, वही व्यक्ति उसका अधिकारी है। ध्यानशतक में उन विशेष गुणों का उल्लेख इस प्रकार है (1) अप्रमाद- मद्यपान, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा-ये पाँच प्रमाद हैं / इनसे जो मुक्त होता है, (2) निर्मोह- जिसका मोह उपशान्त या क्षीण होता है ओर (3) ज्ञान-सम्पन्न- जो ज्ञान-सम्पदा से युक्त होता है, वही व्यक्ति धर्म्य ... ध्यान का अधिकारी है। सामान्य धारणा यही रही है कि ध्यान का अधिकारी मुनि हो सकता है / रायसेन और शुभचन्द्र५ का भी यही मत है। इसका अर्थ यह नहीं कि गृहस्थ के धर्म्यध्यान होता ही नहीं, किन्तु इसका अभिप्राय यह है कि उसके उत्तम कोटि का ध्यान नहीं होता। धर्म्य-ध्यान की तीन कोटियाँ हो सकती हैं--उत्तम, मध्यम और अवर / उत्तम कोटि का ध्यान अप्रमत्त व्यक्तियों का ही होता है। मध्यम और अवर कोटि का ध्यान शेष व्यक्तियों के हो सकता है। उनके लिए यही सीमा मान्य है कि इन्द्रिय और मन पर .उनका निग्रह होना चाहिए / १-ध्यानशतक, 43 / २-वही, 63 / ३-वही, 63 / ४-तत्त्वानुशासन, 41-45 : ५-ज्ञानार्णव, 4 / 17 / ६-तत्त्वानुशासन, 38: गुप्तेन्द्रियमना ध्याता। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन रायसेन ने अधिकारी की दृष्टि से धर्म्य-ध्यान को दो भागों में विभक्त किया हैमुख्य और उपचार / मुख्य धर्म्य-ध्यान का अधिकारी अप्रमत्त ही होता है। दूसरे लोग औपचारिक धर्म्य-ध्यान के अधिकारी होते हैं।' ध्यान की सामग्री (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ) के आधार पर भी ध्याता और ध्यान के तीन-तीन प्रकार निश्चित किए गए हैंउत्कृष्ट सामग्री उत्कृष्ट ध्याता उत्कृष्ट ध्यान मध्यम सामग्री मध्यम ध्याता मध्यम ध्यान जघन्य सामग्री जघन्य ध्याता . जघन्य ध्यान धर्म्य-ध्यान का अधिकारी अल्पज्ञानी व्यक्ति हो सकता है, किन्तु वह नहीं हो सकता, जिसका मन अस्थिर हो / ध्यान और ज्ञान का निकट से कोई सम्बन्ध नहीं है। ज्ञान व्यग्र होता है-अनेक आलम्बनों में विचरण करता है और ध्यान एकान होता है-एक आलम्बन पर स्थिर होता है / वस्तुतः 'ध्यान' ज्ञान से भिन्न नहीं है, उसी की. एक विशेष अवस्था है। अपरिस्पन्दमान अग्निशिखा की भाँति जो ज्ञान स्थिर होता है, वही 'ध्यान' कहलाता है। ___ जिसका संहनन वज्र की तरह सुदृढ़ होता है और जो विशिष्ट श्रुत (पूर्व-ज्ञान) का ज्ञाता होता है, वही व्यक्ति शुक्ल-ध्यान का अधिकारी है।५ ____ जैन-आचार्यो का यह अभिमत रहा है कि वर्तमान में शुक्ल-ध्यान के उपयुक्त सामग्री-वज्र-संहनन और ध्यानोपयोगी विशिष्ट-ज्ञान प्राप्त नहीं है। उन्होंने ऐदंयुगीन लोगों को धर्म्य-ध्यान का ही अधिकारी माना है।६ (E) अनुप्रेक्षा- आत्मोपलब्धि के दो साधन हैं-स्वाध्याय और ध्यान / कहा गया है कि स्वाध्याय करो, उससे थकान का अनुभव हो तब ध्यान करो। ध्यान से थकान का अनुभव हो, तब फिर स्वाध्याय करो। इस क्रम से स्वाध्याय और ध्यान के अभ्यास से परमात्मा प्रकाशित हो जाता है।" अनुप्रेक्षा स्वाध्याय का एक अंग है। ध्यान की सिद्धि के लिए अनुप्रेक्षाओं का १-तत्त्वानुसाशन, 47 : २-(क) वही, 48,46 / (ख) ज्ञानार्णव, 28 / 29 / ३-महापुराण, 211102 / ४-सर्वार्थसिद्धि, 9 / 27 ; तत्त्वानुशासन, 49 / ५-ध्यानशतक, 64 / ६-तत्वानुशासन, 36 / ७-वही, 81 / Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 २-योग 183 अभ्यास करना नितान्त आवश्यक है। उनके अभ्यास से जिसका मन सुसंस्कृत होता है, वह विषम स्थिति उत्पन्न होने पर भी अविचल रह सकता है, प्रिय और अप्रिय दोनों स्थितियों को समभाव से सह सकता है। धर्म्य-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं / इनका उल्लेख हम 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में कर चुके हैं। (10) लेश्या- विचारों में तरतमता होती है। वे अच्छे हों या बुरे एक समान नहीं होते / इस तरतमता को लेश्या के द्वारा समझाया गया है। यह निश्चित है कि धर्म्य-ध्यान के समय विचार-प्रवाह शुद्ध होता है। शुद्ध बिचार-प्रवाह के तीन प्रकार हैं-तेजस् लेश्या (=पीत लेश्या), पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या।। तेजस् लेश्या से पद्म लेश्या विशुद्ध होती है और पद्म लेश्या से शुक्ल लेश्या विशुद्ध होती है / एक-एक लेश्या के परिणाम भी मंद, मध्यम और तीव्र होते हैं / उत्तराध्ययन में मानसिक विशुद्धि का क्रम समझाते हुए बताया गया है "जो मनुष्य नम्रता से बर्ताव करता है, जो चपल होता है, जो माया से रहित है, जो अकुतूहली है, जो विनय करने में निपुण है, जो दान्त है, जो समाधि-युक्त है, जो उपधान (श्रुत अध्ययन करते समय तप) करने वाला है, जो धर्म में प्रेम रखता है, जो धर्म में दृढ़ है, जो पापभीरु है, जो मुक्ति का गवेषक है -जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह तेजोलेश्या में परिणत होता है। ___ “जिस मनुष्य के क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्त-चित्त है, जो अपनी आत्मा का दमन करता है, जो समाधि-युक्त है, जो उपधान करने वाला है, जो अत्यल्प भाषी है, जो उपशान्त है, जो जितेन्द्रिय है-जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह पद्म लेश्या में परिणत होता है। ."जो मनुष्य आत्त और रौद्र---इन दोनों ध्यानों को छोड़कर धर्म और शुक्ल.-इन दो ध्यानों में लीन रहता है, जो प्रशान्त-चित्त है, जो अपनी आत्मा का दमन करता है, जो समितियों से समित है, जो गुप्तियों से गुप्त है, जो उपशान्त है, जो जितेन्द्रिय हैजो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह सराग हो या वीतराग, शुक्ल लेश्या में परिणत होता है।" (11) लिङ्ग- सूदूर प्रदेश में अग्नि होती है, उसे आँखों से नहीं देखा जा सकता, किन्तु धूवा देखकर उसे जाना जा सकता है। इसीलिए धूवा उसका लिङ्ग है। ध्यान व्यक्ति की आन्तरिक प्रवृत्ति है, उसे नहीं देखा जा सकता, किन्तु उस व्यक्ति की सत्य विषयक आस्था देखकर उसे माना जा सकता है, इसीलिए सत्य की आस्था उसका लिङ्ग १-उत्तराध्ययन, 34 / 27-32 / Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन है-हेतु है / ' आगमों में इसके चार लिङ्ग (लक्षण) बतलाए गए हैं / 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक देखिए। (12) फल-धर्म्य-ध्यान का प्रथम फल आत्म-ज्ञान है। जो सत्य अनेक तर्कों के द्वारा नहीं जाना जाता, वह ध्यान के द्वारा सहज ही ज्ञात हो जाता है / आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है-“कर्म क्षीण होने पर मोक्ष होता है, कर्म आत्म-ज्ञान से क्षीण होते हैं और आत्म-ज्ञान ध्यान से होता है। यह ध्यान का प्रत्यक्ष फल है / " 2 पारलौकिक या परोक्ष फल के विषय में सन्देह हो सकता है, इसीलिए हमारे आचार्यों ने ध्यान के ऐहिक या प्रत्यक्ष फलों का भी विवरण प्रस्तुत किया है। ध्यान-सिद्ध व्यक्ति कषाय से उत्पन्न होने वाले मानसिक दुःखों-ईर्ष्या, विषाद, शोक, हर्ष आदि से पीड़ित नहीं होता। वह सर्दीगर्मी आदि से उत्पन्न शारीरिक कष्टों से भी पीड़ित नहीं होता। यह तथ्य वर्तमान शोधों से भी प्रमाणित हो चुका है कि बाह्य परिस्थितियों से ध्यानस्थ व्यक्ति बहत कम प्रभावित होता है। अन्तरिक्ष यात्रियों के लिए अत्यधिक सर्दी और गर्मी से अप्रभावित रहना आवश्यक है। इस दृष्टि से योग की प्रक्रिया को अन्तरिक्ष यात्रा के लिए उायोगो समझा गया। इस लक्ष्य की पुर्ति के लिए रूसियों और अमरीकियों ने भारत में आकर योगाभ्यास की अनेक प्रक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त किया। शुक्ल-ध्यान ___ शुक्ल-ध्यान के लिए उपयुक्त सामग्री अभी प्राप्त नहीं है, अत: आधुनिक लोगों के लिए उसका अभ्यास भी संभव नहीं है / फिर भी उसका विवेचन आवश्यक है। उसकी परम्परा का विच्छेद नहीं होना चाहिए। आचार्य हेमचन्द्र की यह मान्यता है।४ इस मान्यता में सचाई भी है। अविच्छिन्न परम्परा से यदा-कदा कोई व्यक्ति थोड़ी बहुत मात्रा में लाभान्वित हो सकता है। अब हम भावना आदि बारह विषयों के माध्यम से शुक्ल-ध्यान का विवेचन करेंगे। भावना, प्रदेश, काल और आसन ये चार विषय धर्म्य और शुक्ल दोनों के समान है / " आलम्बन-आदि दोंनों के भिन्न-भिन्न हैं। १-ध्यानशतक 67 / २-योगशास्त्र 4 / 113: मोक्षः कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत् / ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हितमात्मनः // ३-ध्यानशतक 103,104 / ४-योगशास्त्र 113,4 / ५-ध्यानशतक, 68, वृत्ति / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 185 __ मालम्वन-शुक्ल-ध्यान के पालम्बनों की चर्चा 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में की जा चुकी है। क्रम-शुक्ल-ध्यान करने वाला क्रमशः महद् आलम्बन की ओर बढ़ता है। प्रारम्भ में मन का आलम्बन समूचा संसार होता है / क्रमिक अभ्यास होते-होते वह एक परमाणु पर स्थिर हो जाता है। केवली दशा आते-आते मन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। आलम्बन के संक्षेपीकरण का जो क्रम है, उसे कुछ उदाहरणों के द्वारा समझाया गया है / जैसे समूचे शरीर में फैला हुआ जहर डंक के स्थान में उपसंहृत किया जाता है और फिर उसे बाहर निकाल दिया जाता है, उसी प्रकार विश्व के सभी विषयों में फैला हुआ मन एक परमाणु में निरुद्ध किया जाता है और फिर उससे हटाकर आत्मस्थ किया जाता है। ___ जैसे इंधन समाप्त होने पर अग्नि पहले क्षीण होती है, फिर बुझ जाती है, उसी प्रकार विषयों के समाप्त होने पर मन पहले क्षीण होता है, फिर बुझ जाता है-शान्त हो जाता है। ___ जैसे लोहे के गर्म बर्तन में डाला हुआ जल क्रमशः हीन होता जाता है, उसी प्रकार शुक्ल ध्यानी का मन अप्रमाद से क्षीण होता जाता है / ___महर्षि पतंजलि के अनुसार योगी का चित्त सूक्ष्म में निविशमान होता है, तब परमाणु स्थित हो जाता है और जब स्थूल में निविशमान होता है, तब परम महत् उसका विषय बन जाता है। इसमें परमाणु पर स्थित होने की बात है पर यह स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने के क्रम की चर्चा नहीं है। ध्येय-शुक्ल-ध्यान का ध्येय पृथक्त्व-वितर्क-सविचार और एकत्व-वितर्क-अविचारइन दो रूपों में विभक्त है / पहला भेदात्मक रूप है और दूसरा अभेदात्मक / इनका विशेष अर्थ 'ध्यान के प्रकार' में देखें। ध्याता--ध्याता के लक्षण धर्म्य-ध्यान के ध्याता के समान ही हैं। अनुप्रेक्षा-देखिए 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक / लेश्या-शुक्ल ध्यान के प्रथम दो चरणों में लेश्या शुक्ल होती है, तीसरे चरण में वह परम शुक्ल होती है और चौथा चरण लेश्यातीत होता है / १-ध्यानशतक, 70 / २-पातंजल योगसूत्र, 1140 / ३-ध्यापन शतक, 89 / 24 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन लिङ्ग-शुक्ल ब्यान के चार लिङ्ग (लक्षण) हैं / देखिए 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में / फल-धर्म्य-यान का जो फल बतलाया गया है, वह उत्कृष्ट स्थिति में पहुंच शुक्लध्यान का फल बन जाता है। इसका अंतिम फल मोक्ष है / ध्यान के व्यावहारिक फल के विषय में कुछ मतभेद मिलता है। ध्यान शतक के अनुसार ध्यान से मन, वाणी और शरीर को कष्ट होता है, वे दुर्बल होते हैं और उनका विदारण होता है / इस अभिमत से जान पड़ता है कि ध्यान से शरीर दुर्बल होता है / दूसरा अभिमत इससे भिन्न है। उसके अनुसार ध्यान से ज्ञान, विभूति, आयु, आरोग्य, सन्तुष्टि, पुष्टि और शारीरिक धैर्य-ये सब प्राप्त होते हैं।' एकान्त दृष्टि से देखने पर ये दोनों तथ्य विपरीत जान पड़ते हैं, पर इन दोनों के साथ भिन्न-भिन्न अपेक्षा जुड़ी हुई है। जिस ध्यान में श्रोती भावना या चिन्तन की अत्यन्त गहराई होती है, उससे शारीरिक कृशता हो सकती है। जिस ध्यान में आत्म-संवेदन के सिवाय शेष चिन्तन का अभाव होता है, उससे शारीरिक पुष्टि हो सकती है। ध्यान और प्राणायाम जैन आचार्य ध्यान के लिए प्राणायाम को आवश्यक नहीं मानते। उनका अभिमत है कि तीव्र प्राणायाम से मन व्याकुल होता है। मानसिक व्याकुलता से समाधि का भंग होता है / जहाँ समाधि का भंग होता है, वहाँ ध्यान नहीं हो सकता / समाधि के लिए श्वास को मंद करना आवश्यक है। श्वास और मन का गहरा सम्बन्ध है। जहाँ मन है, वहाँ श्वास है और जहाँ श्वास है, वहाँ मन है। ये दोनों क्षीर नीर की भांति परस्पर घुलेमिले हैं। मन की गति मंद होने से श्वास की और श्वास की गति मंद होने से मन की गति अपने आप मंद हो जाती है। ध्यान और समत्व समता और विषमता का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव है। शरीर सम अवस्थित होता है, तब सारा स्नायु-संस्थान ठीक काम करता है। और वह विषम रूप में स्थित होता है, तब स्नायु-संस्थान की क्रिया अव्यवस्थित हो जाती है। १-ध्यानशतक, 99 / २-तत्त्वानुशासन, 198 / / ३-महापुराण, 21165,66 ४-योगशास्त्र, 22 मनो यत्र मरुत्तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः / अत स्तुल्यक्रियावेतो, संवीतौ क्षीरनीरवत् // Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1. प्रकरण : 7 २-योग 187 शरीर की समता का मन पर असर होता है और मन की समता का चेतना पर असर होता है। चेतना की अस्थिरता मानसिक विषमता की स्थिति में ही होती है। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि स्थितियों से मन जितना विषम होता है, उतनी ही चंचलता होती है। उन स्थितियों के प्रति मन का कोई लगाव नहीं होता, तब वह सम होता है / उस स्थिति में चेतना सहज ही स्थिर होती है / यही अवस्था ध्यान है। इसीलिए आचार्य शुभचन्द्र ने समभाव को ध्यान माना है। आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत है कि जो व्यक्ति समता की साधना किए बिना ध्यान करता है, वह कोरी विडम्बना करता है / ध्यान और शारीरिक संहनन जन-परम्परा में कुछ लोग यह मानने लगे थे कि वर्तमान समय में ध्यान नहीं हो सकता / क्योंकि आज शरीर का संहनन उतना दृढ़ नहीं है जितना पहले था। ध्यान के अधिकारी वे ही हो सकते हैं, जिनका शारीरिक संहनन उत्तम हो। तत्त्वार्थ सूत्र में भी यही बताया गया है कि ध्यान उसी के होता है, जिसका शारीरिक-संहनन उत्तम होता है। यह चर्चा विक्रम की प्रथम शताब्दी के आसपास ही प्रारम्भ हो चकी थी। उसी के प्रति आचार्य कुन्दकुन्द ने अपना अभिमत प्रकट किया था- "इस दुस्सम-काल में भी आत्म-स्वभाव में स्थित ज्ञानी के धर्म्य-ध्यान हो सकता है। जो इसे नहीं मानता, वह अज्ञानी हैं।"४ आचार्य देवसेन ने भी इस अभिमत से सहमति प्रकट की थी। यह चर्चा विक्रम की 10 वीं शताब्दी में भी चल रही थीं। रामसेन ने भी इस प्रसंग पर लिखा है-"जो लोग वर्तमान में ध्यान होना नहीं मानते वे अर्हत्-मत से अनभिज्ञ हैं। उनके अनुसार शुक्ल ध्यान के योग्य शारीरिक संहनन अभी प्राप्त नहीं है, किन्तु धर्म्य-ध्यान के योग्य संहनन आज भी प्राप्त हैं।"६ जन-परम्परा में ध्यान करने की प्रवृत्ति का ह्रास हुआ, उसका एक कारण यह .१-ज्ञानार्णव, 27 / 4 / २-योगशास्त्र, 4 / 112 / समत्वमवलम्च्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् / बिना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते // ३-तत्त्वार्थ सूत्र, 9 / 27 / ४-मोक्खपाहुड, 73-76 / ५-तत्त्वसार, 14 / ६-तत्त्वानुशासन, 82-84 // Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययने मनोवृत्ति भी रही होगी कि वर्तमान समय में हम ध्यान के अधिकारी नहीं हैं। कुछ आचार्यों ने इस मनोवृत्ति का विरोध भी किया, किन्तु फिर भी समय ने उन्हीं का साथ दिया, जो ध्यान नहीं होने के पक्ष में थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि ध्यान के लिए शारीरिक-संहनन की दृढ़ता बहुत अपेक्षित है और वह इसलिए अपेक्षित है कि मन की स्थिरता शरीर की स्थिरता पर निर्भर है। ध्यान का कालमान चेतना की परिणति तीन प्रकार की होती है (1) हीयमान / (2) वर्धमान / (3) अवस्थित / हीयमान और वर्धमान-ये दोनों परिणतियाँ अनवस्थित हैं। जो अनवस्थित हैं, वे ध्यान नहीं हैं / अवस्थित परणति ध्यान है / गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा- “भन्ते ! अवस्थित परिणति कितने समय तक हो सकती है ?" भगवान् ने कहा- "गौतम ! जघन्यत: एक समय तक और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त तक / '' इसी संवाद के आधार पर ध्यान का कालमान निश्चित किया गया। एक वस्तु के प्रति चित्त का अवस्थित परिणाम अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त (48 मिनट) तक हो सकता है। उसके बाद चिन्ता, भावना या अनुप्रेक्षा होने लग जाती है। उक्त काल-मर्यादा एक वस्तु में होने वाली चित्त की एकाग्रता की है / वस्तु का परिवर्तन होता रहे, तो ध्यान का प्रवाह लम्बे समय तक भी हो सकता है। उसके लिए अन्तर्मुहूर्त का नियम नहीं है / ध्यान सिद्धि के हेतु ध्यान-सिद्धि के लिए चार बातें अपेक्षित हैं-(१) गुरु का उपदेश, (2) श्रद्धा, (3) निरन्तर अभ्यास और (4) स्थिर मन / / पतंजलि ने अभ्यास की दृढ़ता के तीन हेतु बतलाए हैं-(१) दीर्घकाल, (2) निरन्तर और (3) सत्कार / " अनेक ग्रन्यों में योग या ध्यान की सिद्धि के हेतुओं की विचारणा की गई है। १-भगवती, 25 / 6 / 770 / २-तत्त्वार्थ सूत्र, 9 / 27 / ३-ध्यानशतक, 4 / ४-तत्त्वानुशासन, 218 / ५-पातंजल योगसूत्र, 1314 / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ट 1, प्रकरण : 7 २-योग सोमदेव सूरी ने वैराग्य, ज्ञानसम्पदा, असंगता, चित्त की स्थिरता, भूख-प्यास आदि की ऊर्मियों को सहना—ये पाँच योग के हेतु बतलाए हैं। ऐसे और भी अनेक हेतु हो सकते हैं पर इसी शीर्षक की प्रथम पंक्ति में निर्दिष्ट चार बातें अनिवार्य रूप से अपेक्षित हैं। ध्यान का महत्व मोक्ष का पथ है-संवर और निर्जरा। उनका पथ है-तप / ध्यान तप का प्रधान अंग है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि ध्यान मोक्ष का प्रधान मार्ग है। वस्त्र, लोह और गीलोभूमि के मल, कलंक और पंक की शुद्धि के लिए जो स्थान जल, अग्नि और सूर्य का है, वही स्थान कर्म-मल की शुद्धि के लिए ध्यान का है / जैसे ईन्धन की राशि को अग्नि जला डालती है और प्रतिकूल पवन से आहत होकर बादल विलीन हो जाते हैं, वैसे ही ध्यान से कर्मों का दहन और विलयन होता है / 3 ऋषिभाषित में बतलाया गया है कि ध्यान-हीन धर्म सिर-हीन शरीर के समान है। जैन-परम्परा में प्राचीन काल से ही ध्यान का इतना महत्व रहा, फ़िर भी पता नहीं ध्यान की परम्परा क्यों विच्छिन्न हुई ? और बाह्य तप के सामने ध्यान क्यों निस्तेज हुआ ? ध्यान की परम्परा विच्छिन्न होने के कारण ही दूसरे लोगों में यह भ्रम बढ़ा कि जैन-धर्म का साधना-मार्ग बहुत कठोर है / यदि ध्यान की परम्परा अविच्छन्न रही होती तो यह श्रम नहीं होता। (6) व्युत्सर्ग - विसर्जन साधना का एक बहुत महत्त्वपूर्ण अंग है। आत्मा अपने आपमें परिपूर्ण है। उसे अपने लिए बाहर से कुछ भी अपेक्षित नहीं है / उसकी अपूर्णता का कारण है—बाह्य का उपादान / उसे रोक दिया जाए व विसर्जित कर दिया जाए तो वह अपने सहज रूप में उदित हो जाती है। वही उसकी पूर्णता है। विसर्जनीय वस्तुएं दो प्रकार की हैं-(१) बाह्य आलम्बन और (2) आन्तरिक वृत्तियाँ / जैन परिभाषा में बाह्य आलम्बन के विसर्जन को 'द्रव्य-व्युत्सर्ग' और आन्तरिक वृत्तियों के विसर्जन को 'भाव-व्युत्सर्ग' कहा गया है।" १-यशस्तिलक, 8140 / २-ध्यानशतक, 97,98 / ३-वही, 101,102 / . ४-इसिभासियाई, 22 / 14 / ५-(क) भगवती, 25 / 7 / 802 / (ख) औपपातिक, 20 / Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन बाह्य आलम्बन की दृष्टि से चार वस्तुएं विसर्जनीय मानी गई हैं-(१) शररी, (2) गण, (3) उपधि और (4) भक्त-पान / (1) शरीर-व्युत्सर्ग- शारीरिक चंचलता का विसर्जन / (2) गण-व्युत्सर्ग- विशिष्ट साधना के लिए गण का विसर्जन / (3) उपधि-व्युत्सर्ग-- वस्त्र आदि उपकरणों का विसर्जन / (4) भक्त-पान-व्युत्सर्ग- भोजन और जल का विसर्जन / आन्तरिक वृत्तियों की दृष्टि से विसर्जनीय वस्तुएं तीन हैं-(१) कषाय, (2) संसार और (3) कर्म। (1) कषाय-व्युत्सर्ग- क्रोध आदि का विसर्जन / (2) संसार-व्युत्सर्ग-- संसार के मूल हेतु राग-द्वेष का विसर्जन / (3) कर्म-व्युत्सर्ग- कर्म पुद्गलों का विसर्जन / उत्तराध्ययन में केवल शरीर-व्युत्सर्ग की परिभाषा की गई है।' इसका दूसरा नाम 'कायोत्सर्ग' है। कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग का अर्थ है 'काया का उत्सर्ग'। प्रश्न होता है आयु पूर्ण होने से पहले काया का उत्सर्ग कैसे हो सकता है ? यह सही है, जब तक आयु शेष रहती है, तब तक काया का उत्सर्ग-त्याग नहीं किया जा सकता, किन्तु यह काया अशुचि है, अनित्य है, दोषपूर्ण है, असार है, दुःख हेतु है, इसमें ममत्व रखना दुःख का मूल है-इस बोध से भेद-ज्ञान प्राप्त होता है। जिसे भेद-ज्ञान प्राप्त होता है, वह सोचता है कि यह शरीर मेरा नहीं है, मैं इसका नहीं हूँ। मैं भिन्न हूँ, शरीर भिन्न है। इस प्रकार का संकल्प करने से शरीर के प्रति आदर घट जाता है। इस स्थिति का नाम कायोत्सर्ग है। एक घर में रहने पर भी पति द्वारा अनादृत पत्नी परित्यक्ता कहलाती है। जिस वस्तु के प्रति जिस व्यक्ति के हृदय में अनादर भावना होती है, वह उसके लिए परित्यक्त होती है / जब काया में ममत्व नहीं रहता, आदर-भाव नहीं रहता, तब काया परित्यक्त हो जाती है। कायोत्सर्ग की यह परिभाषा पूर्ण नहीं है / यदि काया के प्रति होने वाले ममत्व का विसर्जन ही कायोत्सर्ग हो तो चलते-फिरते व्यक्ति के भी कायोत्सर्ग हो सकता है, पर निश्चलता के बिना वह नहीं होता। हरिभद्र सूरि ने प्रवृत्ति में संलग्न काया के परित्याग १-उत्तराध्ययन, 30 // 36 / २-मूलाराधना, 1185 विजयोदया वृत्ति। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 161 को कायोत्सर्ग कहा है। यह भी पूर्ण परिभाषा नहीं है। दोनों के योग से पूर्ण परिभाषा बनती है / कायोत्सर्ग अर्थात् कायिक ममत्व और चंचलता का विसर्जन / कायोत्सर्ग का उद्देश्य कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य है-आत्मा का काया से वियोजन / काया के साथ आत्मा का जो संयोग है, उसका मूल है प्रवृत्ति। जो इनका विसंयोग चाहता है अर्थात् आत्मा के सान्निध्य में रहना चाहता है, वह स्थान, मौन और ध्यान के द्वारा 'स्व' का व्युत्सर्ग करता है। स्थान- काया की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण-काय-गुप्ति मौन- वाणी की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण-वाग-गप्ति ध्यान- मन की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण-मनो-गुप्ति / कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म प्रवृत्ति होती है। शेष प्रवृत्ति का निरोध किया जाता है। . कायोत्सर्ग की विधि और प्रकार शारीरिक अवस्थिति और मानसिक चिन्तनधारा के आधार पर कायोत्सर्ग के नौ प्रकार किए गए हैंशारीरिक अवस्थिति मानसिक चिन्तनधारा (1) उत्सृत-उत्सृत खड़ा धर्म-शक्ल ध्यान (2) उत्सत खड़ा न धर्म-शुक्ल और न आत-रौद्र किन्तु चिन्तन-शून्य दशा (3) उत्सृत-निषण्ण आर्त-रौद्र ध्यान (4) निषण्ण-उत्सत धर्म-शुक्ल ध्यान (5) निषण्ण न धर्म-शुक्ल और न आर्त्त-रौद्र किन्तु चिन्तन-शून्य दशा (6) निषण्ण-निषण्ण बैठा आर्त-रौद्र ध्यान (7) निषण्ण-उत्सृत सोया हुआ धर्म-शुक्ल ध्यान १-आवश्यक, गाथा 779, हारिभद्रीय वृत्ति : करोमि कायोत्सर्गम्-ध्यापारवतः कायस्यपरित्यागमिति भावना। २-योगशास्त्र, 3, पत्र 250 : कायस्य शरीरस्य स्थानमौनध्यानक्रियाव्यतिरेकेण अन्यत्र उच्छ्वसितादिभ्यः क्रियान्तराध्यासमधिकृत्ययउत्सर्गस्त्यागो 'नमो अरहताणं' इति वचनात् प्राक् सकायोत्सर्गः। खडा का Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . (8) निपन्न सोया हुआ न धर्म-शुक्ल और न आर्त्त-रौद्र किन्तु चिन्तन-शून्य दशा (E) निपन्न-निपन्न सोया हुआ आर्त रौद्र ध्यान / ' अमितगति ने कायोत्सर्ग के चार ही प्रकार माने हैं -(1) उत्थित-उत्थित, (2) उत्थित-उपविष्ट, (3) उपविष्ट-उत्थित और (4) उपविष्ट-उपविष्ट / 2 (1) जो शरीर से खड़ा है और धर्म-शुक्ल ध्यान में लीन है, वह शरीर से भी उन्नत है और ध्यान से भी उन्नत है, इसलिए उसका कायोत्सर्ग'उत्यित्त-उत्थित' कहलाता है। (2) जो शरीर से खड़ा है और आर्त्त-रौद्र ध्यान में लीन है, वह शरीर से उन्नत किन्तु ध्यान से अवनत है, इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उत्थित-अविष्ट' कहलाता है। (3) जो शरीर से बैठा है और धर्म-शुक्ल ध्यान में लीन है, वह शरीर से अवनत है किन्तु ध्यान से उन्नत है, इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उपविष्ट-उत्थित' कहलाता है / (4) जो शरीर से बैठा है और आर्त्त-रौद्र ध्यान में लीन है, वह शरीर और ध्यान दोनों से अवनत है ; इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उपविष्ट-उपविष्ट कहलाता है। कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और सोते-तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है / फिर भी खड़ी मुद्रा में उसका प्रयोग अधिक हुआ है / अपराजित सूरि ने लिखा है कि कायोत्सर्ग करने वाला व्यक्ति शरीर से निस्पृह होकर खम्भे की भाँति सीधा खड़ा हो जाए। दोनों बाहों को घुटनों की ओर फैला दे। प्रशस्त-ध्यान में निमग्न हो जाए। शरीर को न अकड़ा कर खड़ा हो और न झुका कर ही। समागत कष्टों और परीषहों को सहन करे / कायोत्सर्ग का स्थान भी एकान्त और जीव-जन्तु रहित होना चाहिए। कायोत्सर्ग के उक्त प्रकार शरीर-मुद्रा और चिन्तन-प्रधाह के आधार पर किए गए हैं, किन्तु प्रयोजन की दृष्टि से उसके दो ही प्रकार होते हैं-चेष्टा कायोत्सर्ग और अभिभव कायोत्सर्ग / १-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1459, 1460 / २-अमितगति, श्रावकाचार, 8 / 57-61 / ३-योगशास्त्र, 3 पत्र 250 / ४-मूलाराधना, 21116, विजयोदया पृ० 278,279 : तत्र शरीरनिम्पृहः, स्थाणुरिवोर्ध्वकायः, प्रलम्बितभुजः, प्रशस्तध्यानपरिणतोऽनुन्नमितानतकायः, परीषहानुपसर्गाश्च सहमानः, तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभि लाषी विविक्ते देशे। ५-आवश्यक, नियुक्ति, गाथा 1452 : सो उसग्गो दुविहो चिट्ठए अभिभवे य नायव्वो। भिक्खायरियाइ पढमो उवसग्गभिमुंजणे बिइओ // Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 . २-योग 193 कायोत्सर्ग का कालमान चेष्टा कायोत्सर्ग का काल उच्छवास पर आधृत है। विभिन्न प्रयोजनों से वह आठ, पच्चीस, सताईस, तीन सौ, पाँच सौ और एक हजार आठ उच्छवास तक किया जाता है। ____ अभिभव कायोत्सर्ग का काल जघन्यत. अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः एक वर्ष का है। बाहुबलि ने एक वर्ष का कायोत्सर्ग किया था।' दोष-शुद्धि के लिए किए जाने वाले कायोत्सर्ग के पाँच विकल्प होते हैं-(१) देवसिक कायोत्सर्ग, (2) रात्रिक कायोत्सर्ग, (3) पाक्षिक कायोत्सर्ग, (4) चातुर्मासिक कायोत्सर्ग और (5) सांवत्सरिक कायोत्सर्ग। ___ छह आवश्यक हैं, उनमें कायोत्सर्ग पाँचवाँ है। कायोत्सर्ग-काल में चतुर्विंशस्तव (चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति) का ध्यान किया जाता है। उसके सात श्लोक और अट्ठाईस चरण हैं। एक उच्छवास में एक चरण का ध्यान किया जाता है / इस प्रकार एक चतुर्विंशस्तव का ध्यान पच्चीस उच्छवासों में सम्पन्न होता है। प्रवचनसारोद्धार और विजयोदया के अनुसार इनका धेय-परिमाण और कालमान इस प्रकार है प्रवचनसारोद्धार चतुर्विंशस्तब श्लोक चरण उच्छवास (1) देवसिक 2 25 . 100 (2) रात्रिक 4 १-(क) योगशास्त्र, 3 पत्र 250 : तत्र चेटाकायोत्सर्गोऽष्ट-पंचविंशति-सप्तविंशति त्रिशति-पंचशती-अष्टोत्तर सहस्रोच्छवासान् यावद् भवति / अभिभवकायोत्सर्गरतु मुर्तीदारग्य संवत्सरं यावद् बाहुबलरिव भवति / - (ख) मूगराधना, 2 / 116, विजयोदया वृत्ति : ____ अन्तर्मुहूर्तः कायोत्सर्गस्य जघन्यः कालः वर्षमुत्कृष्टः / २-योगशास्त्र, 3 / ३-प्रवचतसारोद्धार, 3 / 183-185 : चत्तारि दो दुवालस, वीस चत्ता य हुँति उज्जोया। देसिय राय पक्खिय, चाउम्मासे य वरिसे य॥ पणवीस अद्धतेरस, सलोग पन्नतरी य बोद्धव्वा / सयमेगं पणवीसं, बे बावण्णा य बरिसंमि // सायं सयं गोसद्धं, तिन्नेव सया हवंति पक्वम्मि। पंच य चाउम्मासे, वरिसे अट्ठोत्तरसहस्सा // 25 50 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : उच्छवास 164 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन चतुर्विशस्तव श्लोक चरण (3) पाक्षिक 12 75 (4) चातुर्मासिक 20 125 500 (5) सांवत्सरिक 40 1008 300. 252 1008 चरण . 100 विजयोदया चतुर्विंशस्तव श्लोक उच्छवास (1) देवसिक 4 25 (2) रात्रिक 2 (3) पाक्षिक 12 75 300 300 (4) चातुर्मासिक 16 100 400 . 400 (5) सांवत्सरिक 20 125 500 500 इस प्रकार नेमिचन्द्र और आराजित दोनों आचार्यों की उच्छ्वास संख्या भिन्न रही है। अमितगति श्रावकाचार के अनुसार देवसिक कायोत्सर्ग में 108 तथा रात्रिक कायोत्सर्ग में 54 उच्छवासों का ध्यान किया जाता है और अन्य कायोत्सर्गों में 27 उच्छ्वासों का / 27 उच्छवासों में नमस्कार मंत्र की नौ आवृत्तियाँ की जाती हैं अर्थात् तीन उच्छ्वासों में एक नमस्कार मंत्र पर ध्यान किया जाता है। संभव है प्रयम दो-दो वाक्य एक-एक उच्छ्वास में और पाँचवाँ वाक्य एक उच्छ्वास में / १-मूलाराधना, 11116 विजयोदया वृत्ति : / सायाह्न उच्छ्वासशतकं, प्रत्यूषसि पंचाशत, पशे त्रिंशतानि, चतुर्षु मासेसु चतुःशतानि, पंचशतानि संवतत्सरे उच्छ्वासानाम् // २-अमितगति श्रावकाचार, 8 / 68-69: / अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः, कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे / सान्ध्ये प्रभातिके वार्धमन्यस्तत् सप्तविंशतिः // सप्तविंशतिरुच्छासाः, संसारोन्मूलनक्षमे / सन्ति पंचनमस्कारे, नवधा चिन्तिते सति // Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड 1, प्रकरण : 7 २-योग 165 अमितगति ने एक दिन-रात के कायोत्सर्गों की कुल संख्या अट्ठाईस मानी है।' वह इस प्रकार है (1) स्वाध्याय-काल में 12 (2) वंदना-काल में 6 (3) प्रतिक्रमण-काल में 8 (4) योग-भक्ति-काल में 2 28 पाँच महावतों सम्बन्धी अतिक्रमगों के लिए 108 उच्छवासों का कायोत्सर्ग करने की विधि रही है। कायोत्सर्ग करते समय यदि उच्छ्वासों की संख्या में संदेह हो जाए अथवा मन विचलित हो जाए तो आठ उच्छवासों का अतिरिक्त कायोत्सर्ग करने की विधि रही है / 2 कार के विवरण से सहज ही निष्पन्न होता है कि प्राचीन काल में कायोत्सर्ग मुनि की दिनचर्या का प्रमुख अंग था। उत्तराध्ययन के सामाचारी प्रकरण में भी अनेक बार कायोत्सर्ग करने का उल्लेख है / दशवकालिक चूलिका में मुनि को बार-बार कायोत्सर्ग करने वाला कहा गया है। कायोत्सर्ग का फल ___ कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त के रूप में भी किया जाता है, अत: उसका एक फल हैदोष-विशुद्धि / अपने द्वारा किए हुए दोष का हृदय पर भार होता है। कायोत्सर्ग करने से वह हल्का १-अमितगति श्रावकाचार, 8166-67 : अष्टविंशतिसंख्यामाः, कायोत्सर्गा मता जिनः / अहोरात्रगताः सर्वे, षडावश्यककारिणाम् // स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञैः, वंदनायां षडीरिताः। अष्टौ प्रतिक्रमे योगभक्तौ तौ द्वावुदाहृतौ // २-मूलाराधना, 2 // 116 विजयोदया वृत्ति : प्रत्यूषसि प्राणिवधादिषु पंचस्वतीचारेषु अप्टशतोच्छवासमात्रकालः कायोत्सर्गः। कायोत्सर्गे कृते यदि शंक्यते उच्छ्वासस्य स्खलनं वा परिणामस्य उच्छ्वा. साष्टकमधिकं स्थातव्यम्। ३-उत्तराध्ययन, 26.38-51 / ४-दशवकालिक, चूलिका 27 : अभिक्खणं काउस्सग्गकारी। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन हो जाता है, हृदय प्रफुल्ल हो जाता है। अतः उसका दूसरा फल है-हृदय का हल्कापन / हृदय हल्का होने से ध्यान प्रशस्त हो जाता है, यह उसका तीसरा फल है।' कायोत्सर्ग से शारीरिक और मानसिक तनाव तथा भार भी नष्ट होते हैं / इन सारी दृष्टियों को ध्यान में रख कर उसे सब दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है / 2 . भद्रबाह स्वामी ने कायोत्सर्ग के पाँच फल बतलाए हैं. (1) देह नाड्य शुद्धि-श्लेष्म आदि के द्वारा देह में जड़ता आती है। कायोत्सर्ग से श्लेष्म आदि नष्ट होते हैं, अत: उनसे उत्तपन्न होने वाली जड़ता भी नष्ट हो जाती है। (2) मतिजाड्य शुद्धि-कायोत्सर्ग में मन की प्रवृत्ति केन्द्रित हो जाती है, उससे बौद्धिक जड़ता क्षीण होतो है। (3) सुख-दुःख तितिक्षा-कायोत्सर्ग से सुख और दुःख को सहन करने की क्षमता उत्पन्न होती है। (4) अनुप्रेक्षा-कायोत्सर्ग में स्थित व्यक्ति अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का स्थिरता पूर्वक अभ्यास कर सकता है। (5) ध्यान-कायोत्सर्ग में शुभ-ध्यान का अभ्यास सहन हो जाता है। कायोत्सर्ग के दोष - कायोत्सर्ग से तभी लाभ प्राप्त किया जा सकता है, जब उसकी माधना निर्दोष पद्धति से की जाए। प्रवचनसारोद्धार में उसके 164, योगशास्त्र में 215 और विजयोदया में 166 दोष बतलाए गए हैं। आभ्यन्तर-तप के परिणाम ___ भाष-शुद्धि, चंवलता का अभाव, शल्य-मुक्ति, धार्मिक दृढ़ता आदि प्रायश्चित के परिणाम हैं। १-उत्तराध्ययन, 29 / 12 / २-वही, 26 / 38,41,46,49 / ३-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1462 : देहमइजड्डुसुद्धी, सुहदुक्खतितक्ख य अगुप्पेहा। झायइ य सुहं झाणं, एयगो काउसम्मि // ४-प्रवचनसारोद्धार, गाथा 247-262 / ५-योगशास्त्र, 3 / ६-मूलाराधना, 20116, विजयोदया वृत्ति / ७-तत्त्वाथ, 9 / 22 श्रुतसागरीय वृत्ति। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 ३-बाह्य-जगत् और हम ज्ञान, लाभ, आचार-विशुद्धि, सम्यक् आराधना आदि विनय के परिणाम हैं / 1 . चित्त-समाधि का लाभ, ग्लानि का अभाव, प्रवचन-वात्सल्य आदि विनय के परिणाम हैं। प्रज्ञा का अतिशय, अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्ट संवेग का उदय, प्रवचन की अविच्छिम्नता, अतिचार-विशुद्धि, संदेह-नाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव आदि स्वाध्याय के परिणाम हैं। . कषाय से उत्पन्न ईप्यो, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित न होना, सर्दी, गर्मो, भूख, प्यास आदि शरीर को प्रभावित करने वाले कष्टों से बाधित न होना ध्यान के परिणाम हैं। __निर्ममत्व, निर्भयता, जीवन के प्रति अनासक्ति, दोषों का उच्छेद, मोक्ष-मार्ग में तत्परता आदि व्युत्सर्ग के परिणाम हैं।" ३-बाह्य-जगत् और हम प्रवृति के तीन स्रोत हैं-(१) शरीर, (2) वाणी और (3) मन / इन्हीं के द्वारा हम बाह्य-जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित किए हुए हैं। इन्द्रियों के द्वारा भी हम बाह्यजगत् से सम्पृक्त हैं। बाह्य-जगत् का भी वास्तविक अस्तित्व है और हमारा अस्तित्व भी वास्तविक है / साधना की प्रक्रिया में किसी के अस्तित्व को चुनौती नहीं दी जाती, किन्तु अपने अस्तित्व के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जाती है। उसकी प्रक्रिया को 'गुप्ति' कहा जाता है / उसके द्वारा बाह्य-जगत् के साथ हमारा रागात्मक सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है, ज्ञानात्मक सम्बन्ध विच्छिन होता ही नहीं और उसे करने की आवश्यकता भी नहीं है। गुप्तियाँ तीन हैं-(१) मन-गुप्ति, (2) वचन-गुति और (3) काय-गुप्ति / (1) मन-गुप्ति- राग-द्वेष की निवृत्ति या मन का संवरण / (2) वचन-गुप्ति-असत्य वचन आदि की निवृत्ति या मौन / . . (3) काय-गुप्ति-हिंसा आदि की निवृत्ति या कायिक-क्रिया का संवरण / गुप्ति के द्वारा बाह्य-जगत् के साथ हमारा जो रागात्मक सम्बन्ध है, उसका निवर्तन होता है और बाह्य-जगत् के साथ हमारा जो प्रवृत्यात्मक सम्बन्ध है, उसका भी निवर्तन १-तत्त्वार्थ, 9 / 23 श्रुतसागरीय वृत्ति / २-बहो, 9 / 24 श्रुतसागरीय वृत्ति / ३-वही, 9 / 25 श्रुतसागरीय वृत्ति / ४-ध्यानशतक, 105-106 / ५-तत्वार्थ, 9 / 26 श्रुतसागरीय वृत्ति / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन होता है / एक व्यक्ति रागात्मक चित्तत नहीं करता, यह भो मन-गुप्ति है और शुभ चिन्तन करता है, वहाँ भी मन-गुप्ति है। एक व्यक्ति रागात्मक वचन नहीं बोलता, यह भी वचन-गुप्ति है और शुभ वचन नहीं बोलता है, वहाँ भी वचन-गुप्ति है। एक व्यक्ति रागात्मक गमनागमन नहीं करता, यह भी काय-गुप्ति है, और शुभ गमनागमन करता है, वहाँ भी काय-गुति है। आत्मा और बाह्य-जगत् का सम्बन्ध विजातीय तत्त्व (पौद्गलिक द्रव्य) के माध्यम से बना हुआ है। उसके दो अंग हैं-(१) पुण्य और (2) पाप। इनका सम्बन्ध-निरोध गुप्तियों से होता है। मन-गुप्ति से चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है / एकाग्रता से चित्त का निरोध होता है / वचन-गुप्ति से निर्विचार दशा प्राप्त होती है। वाक् दो प्रकार का होता है-(१) अन्तर्जल्याकार और (2) बहिर्जल्लाकार / मानसिक विचारों की अभिव्यक्ति बहिर्जलाकार वाक से होती है और मानसिक चिन्तन अन्तर्जल्पाकार वाक् के आलम्बन से होता है। अतएव जब तक वचन-गुप्ति नहीं होती अर्थात् अन्तर्जल्लाकार वाक्का निरोध नहीं होता, तब तक निर्विचार दशा-मानसिक चिन्तन से मुक्त दशा या ध्यान की स्थिति प्राप्त नहीं होती।४ काय-गुति से संवर या पापाश्रवों का निरोध होता है।५ वैदिक और बौद्ध दर्शन में मन को बन्ध और मोक्ष का हेतु माना गया। जन-दर्शन उस सिद्धान्त से सर्वथा असहमति प्रकट नहीं करता तो सर्वथा सहमति भी नहीं देता। मन की चंचलता और स्थिरता का शरीर को प्रवृत्ति और अप्रवृत्ति से निकट का सम्बन्ध है / शरीर को स्थिर किए बिना श्वास को स्थिर नहीं किया जा सकता और श्वास को स्थिर किए बिना मन को स्थिर नहीं किया जा सकता। विजातीय तत्त्व का ग्रहण भी शरीर के ही द्वारा होता है, इसलिए बन्ध और मोक्ष की प्रक्रिया में मन को शान्ति और शरीर का भी बहुत महत्त्वपूर्ण योग है। __शब्द पुद्गल द्रव्य का कार्य है। स्पर्श, रस, गंध और रूप पुद्गल द्रव्य के गुण हैं / दृश्य-जगत् समूचा पौद्गलिक है / वह मनोज्ञ भी है और अमनोज्ञ भी है / मनोज्ञ के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है, तब आत्मा पुद्गलाभिमुख बन जाती है और पुद्गलाभिमुख आत्मा ही पुद्गलों से बद्ध होती है। श्रोत्रेन्द्रिय का निग्रह करने से मनोज्ञ शब्दों के प्रति राग-द्वेष उत्सन्न नहीं होता। चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन इन्द्रिय का निग्रह करने से मनोज्ञ रूप, गंध, रस और स्पर्श १-मूलराधना, 118788, विजयोदया वृत्ति / २-उत्तराध्ययन, 29 / 53 / ३-वही, 29 / 25 / ४-वही, 29 // 54 // ५-वही, 29 // 55 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 ४-सामाचारी 166 के प्रति राग तथा अमनोज्ञ रूप, गंध, रस और स्पर्श के प्रति द्वष उत्पन्न नहीं होता। आत्मा पुद्गल विमुख बन जाती है और पुद्गल विमुख आत्मा ही पुद्गलों से विमुक्त होती है। बाह्य-जगत् से हमारा जो पौद्गलिक सम्बन्ध है, वही हमारा बन्धन है और पौद्गलिक सम्बन्ध का जो विच्छेद है, वही हमारी मुक्ति / ' ४-सामाचारी जैन तीर्थङ्कर धर्म को व्यक्तिगत मानते थे, फिर भी उन्होंने उसकी आराधना को सामूहिक बनाया / वीतराग हर कोई व्यक्ति हो सकता था, जो कषाय-मुक्ति की साधना करता ; किन्तु तीर्थङ्कर हर कोई नहीं हो सकता था। वह वही हो सकता, जो तीर्थ की स्थापना करता यानि जनता के लिए साधना का समान धरातल प्रस्तुत करता और साधना के लिए उसे संगठित करता। भगवान् महावीर केवल अर्हत् या वीतराग ही नहीं थे, किन्तु तीर्थङ्कर भी थे। उनका तीर्थ बहुत शक्तिशाली और सुसंगठित था। वे अनुशासन, व्यवस्था और विनय को बहुत महत्त्व देते थे। उनके तीर्थ में हजारों साधुसाध्वियाँ थीं। उनकी व्यवस्था के लिए उनका शासन ग्यारह (या नौ) गणों में विभक्त था। प्रत्येक गण एक गणधर के अधीन होता था / महावीर के ग्यारह गणधर थे / वर्तमान में हमें जो साहित्य, साधनाक्रम और सामाचारी प्राप्त हैं, उसका अधिकांश भाग पाँचवें गणधर सुधर्मा के गण का है। उत्तराध्ययन आदि सूत्रों से जाना जाता है कि महार्वर ने गण की व्यवस्था के लिए दस प्रकार की सामाचारी का विधान किया(१) आवश्यकी-गमन के प्रारम्भ में मुनि को आवश्यकी का उच्चारण करना चाहिए। यह इस बात का सूचक है कि उसका गमनागपन प्रयोजन शून्य नहीं होना चाहिए। (2) निषेधिको- ठहरने के समय मुनि को निषेधिकी का उच्चारण करना चाहिए। यह इस बात का सूचक है कि प्रयोजन पूरा होने पर मुनि को स्थित हो जाना चाहिए। (3) आप्रच्छना- मुनि अपने लिए कोई प्रवृत्ति करे उससे पूर्व आचार्य की स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए। (4) प्रतिप्रच्छना- मुनि दूसरे मुनियों के लिए कोई प्रवृत्ति करे उससे पूर्व उसे आचार्य की स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए। एक बार एक प्रवृत्ति के लिए स्वीकृति प्राप्त की, फिर वही काम करना हो तो उसके लिए दुबारा स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए / १-उत्तराध्ययन, 29 / 62-66 / Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (5) छन्दना- मुनि को जो भिक्षा प्राप्त हो, उसके लिए उसे दूसरे साधुओं को निमंत्रित करना चाहिए। (6) इच्छाकार-एक मुनि को दूसरे मुनि से कोई काम कराना आवश्यक हो तो उसे इच्छाकार का प्रयोग करना चाहिए-कृपया इच्छानुसार मेरा यह कार्य करें--इस प्रकार विनम्र अनुरोध करना चाहिए। सामान्यतः मुनि के लिए आदेश की भाषा विहित नहीं है। पूर्व दीक्षित साधु को बाद में दीक्षित साधु से कोई काम कराना हो तो उसके लिए भी इच्छाकार का प्रयोग आवश्यक है। . (7) मिथ्याकार--किसी प्रकार का प्रमाद हो जाने पर उसकी विशुद्धि के लिए 'मिथ्याकार' का प्रयोग करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि प्रमाद को ढाँकने के लिए मुनि के मन में कोई आग्रह नहीं होना चाहिए, किन्तु सहज सरल भाव से अपने प्रमाद का प्रायश्चित्त होना चाहिए। (8) तथाकार- आचार्य या कोई गुरुजन जो निर्देश दे, उसे 'तथाकार' का उच्चारण कर स्वीकार करना चाहिए। ऐसा करने वाला अपने गुरुजनों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करता है। (E) अभ्युत्थान----मुनि को आचार्य आदि के आने पर खड़ा होना आदि औपचारिक विनय का पालन करना चाहिए। (10) उपसंपदा- अपनेगण में ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विशेष प्रशिक्षण देने वाला कोई न हो, उस स्थिति में अपने आचार्य की अनुमति प्राप्त कर मुनि किसी दूसरे गण के बहुश्रुत आचार्य की सन्निधि प्राप्त कर सकता है / अकारण ही गण परिवर्तन नहीं किया जा सकता।' ५-चर्या चर्या देश-काल के परिवर्तन के साथ परिवर्तित होती रहती है। प्राचीन-काल में साधुओं को चर्या के मुख्य अंग आठ थे-- (1) स्वाध्याय, (5) आहार, (2) ध्यान, (6) उत्सर्ग, (3) प्रतिलेखन, (7) निद्रा और (4) सेवा, (8) विहार। १-उत्तराध्ययन, 17410 / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 7 ५-चर्या 201 जैन श्रमण समय की प्रामाणिकता का बहुत ध्यान रखते हैं / 'काले कालं समायरे'' - सब काम ठीक समय पर करो, यह उनका मुख्य सूत्र था / कालक्रम के अनुसार उनकी दिनचर्या की रूपरेखा इस प्रकार थी-दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में आहार और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय / 2 रात के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में नींद और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय / प्रतिलेखन प्रथम और चतुर्थ प्रहर के प्रारम्भ में किया जाता था।४ विहार और उत्सर्ग भी सामान्यतः तीसरे प्रहर में किए जाते थे। आवश्यकतावश ये कार्य अन्य समय में भी किए जाते थे। सेवा के लिए कोई निश्चित समय नहीं था। जब आवश्यकता होती, तभी वह की जाती। यह निश्चित है कि सेवा को प्राथमिकता दी जाती थी। शिष्य दिन के प्रारम्भ में ही आचार्य से प्रश्न करता-"भन्ते ! आप मुझे सेवा में नियुक्त करना चाहते हैं या स्वाध्याय में ?" आचार्य के सामने सेवाकार्य की आवश्यकता होती तो वे उसे सेवा में नियुक्त कर देते / यह आश्चर्य की बात है कि इस चर्या में धर्मोपदेश का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इसके दो कारण हो सकते हैं--(१) धर्मोपदेश करना हर मुनि का काम नहीं था, इसलिए मुनि की सामान्य चर्या में उसका उल्लेख नहीं किया गया और (2) धर्मोपदेश स्वाध्याय का ही एक अंग है, इसलिए उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया। सेवा की अपेक्षा कदाचित् होती है। आहार, नींद और उत्सर्ग-ये शरीर की अपेक्षाएँ हैं। विहार भी निरन्तर चर्या नहीं है / ध्यान साधना की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण काम है, अतः उसके लिए दो प्रहर का समय निश्चित किया गया। स्वाध्याय के लिए चार प्रहर का समय निश्चित किया, उसका अर्थ यह नहीं है कि जैन श्रमण ध्यान की अपेक्षा स्वाध्याय को अधिक महत्त्व देते थे, किन्तु उसके पीछे एक विशेष दृष्टि थी। उस समय सारा श्रुत कण्ठस्थ था। लिखने की परम्परा नहीं थी। श्रुत-ज्ञान की परम्परा को अविच्छिन्न रखने के लिए स्वाध्याय में समय लगाना अपेक्षित था। १-उत्तराध्ययन, 1131 / २-वही, 26 / 12 / ३-वही, 26 / 18 / ४-वही, 26 / 8,21 // ५-वही, 26 / 9-10 / 26 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ६-आवश्यक कर्म मुनि के लिए प्रतिदिन अवश्य करणीय कर्म हैं (1) सामायिक (2) चतुर्विशस्तव (3) वंदना (4) प्रतिक्रमण (5) कायोत्सर्ग (6) प्रत्याख्यान (1) समता का विकास जीवन की पहली आवश्यकता है। आत्मा की परिणति विषम होती है, तब असत् प्रवृत्तियाँ होती हैं। जब आत्मा की प्रवृत्ति सम होती है, तब असत् प्रवृत्तियाँ अपने आप निरुद्ध हो जाती हैं। इस सम परिणति का नाम ही सामायिक है। (2) प्रमोद भावना का विकास भी बहुत आवश्यक है / जैन-परम्परा में भक्ति का महत्त्व रहा है, किन्तु उसका सम्बन्ध सर्व शक्ति-सम्पन्न सत्ता से नहीं है। वह किसी शक्ति को प्रसन्न करने व उससे कुछ पाने के लिए नहीं की जाती, किन्तु उसका प्रयोजन वीतराग के प्रति होता है। कालचक्र के वर्तमान खण्ड में चौबीस तीर्थङ्कर हुए। वे सब स्वयं वीतराग और वीतराग-धर्म के प्रवर्तक थे। इसलिए उनकी स्तुति आवश्यक में सम्मिलित की गई। सामायिक होने पर ही भक्ति आदि आवश्यक कर्म सफल होते हैं, इसीलिए इनका सामायिक के बाद महत्त्व दिया गया। (3) उद्धत वृत्ति का निवारण भी आवश्यक कर्म है। वंदना करने से उद्धत-भाव नष्ट होता है और अनुकूलता का भाव विकसित होता है। (4) व्रतों में छेद हो जाएँ, उन्हें भरना भी आवश्यक कर्म है / मन चञ्चल है। वह त्यक्त कार्य के प्रति भी आसक्त हो जाता है। उससे व्रत टूट जाते हैं और आश्रव का द्वार खुल जाता है। मन को पुनः स्थिर बना व्रतों का सन्धान करने से आश्रव के द्वार बन्द हो जाते हैं। (5) काया का बार-बार उत्सर्ग करना शारीरिक, मानसिक और आत्मिक-तीनों दृष्टियों से आवश्यक है। (6) आत्मा अपने आपमें परिपूर्ण है। हेय-हेतुओं का प्रत्याख्यान नहीं होता, तभी वह अपूर्ण होती है। उनका प्रत्याख्यान होते-होते क्रमशः उसकी पूर्णता का उदय हो जाता है / इसीलिए प्रत्याख्यान भी आवश्यक कर्म है। १-उत्तराध्ययन, 29 / 8 / Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 ६-आवश्यक कर्म 203 उत्तराध्ययन में प्रत्याख्यान के कुछ विशेष उदाहरण भी प्राप्त होते हैं। उनके नाम और परिणाम इस प्रकार हैंनाम परिणाम (1) संभोग प्रत्याख्यान रस विजय (2) उपधि प्रत्याख्यान वस्त्र विजय (3) आहार प्रत्याख्यान क्षुधा विजय (4) कषाय प्रत्याख्यान सुख-दुःख में सम रहने की शक्ति का विकास (5) योग प्रत्याख्यान आत्म-साक्षात्कार (6) शरीर प्रत्याख्यान पूर्णता की उपलब्धि (7) सहाय प्रत्याख्यान स्वतंत्रता का विकास (8) भक्त प्रत्याख्यान संसार का अल्पीकरण (8) सद्भाव प्रत्याख्यान वीतरागता' - ये प्रत्याख्यान दैनिक आवश्यक कर्म नहीं है, किन्तु विशेष साधना के अंग हैं। १-उत्तराध्ययन, 29 // 33-41 / . .. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : आठवाँ १-धर्म की धारणा के हेतु संसार के मूल बिन्दु दो हैं—(१) जन्म और (2) मृत्यु / ये दोनों प्रत्यक्ष हैं। किन्तु इनके हेतु हमारे प्रत्यक्ष नहीं हैं। इसीलिए उनकी एषणा के लिए हमारे मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। धर्म की विचारणा का आदि-बिन्दु यही है। . जैसे अण्डा बगुली से उत्पन्न होता है और बगुली अण्डे से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है। राग और द्वेष-ये दोनों कर्म-बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म और मृत्यु का मूल हेतु है और यह जन्म-मरण की परम्परा ही दुःख है / ' दुःखवादी दृष्टिकोण ___धर्म की धारणा के अनेक हेतु हैं / उनमें एक मुख्य हेतु रहा है-दुःखवाद / अनात्मवाद के चौराहे पर खड़े होकर जिन्होंने देखा, उन्होंने कहा—संसार सुखमय है। जिन्होंने अध्यात्म की खिड़की से झाँका, उन्होंने कहा-संसार दुःखमय है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, रोग दुःख है, मृत्यु दुःख है, और क्या, यह समूचा संसार ही दुःख है। यह अभिमत केवल भगवान् महावीर व उनके पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों का ही नहीं रहा, महावीर के समकालीन अन्य धर्माचार्यों का अभिमत भी यही था। महात्मा बुद्ध ने इन्हीं स्वरों में कहा था-"पैदा होना दुःख है, बूढ़ा होना दुःख है, व्याधि दुःख है, मरना दुःख है।"3 ___ महावीर और बुद्ध-ये दोनों श्रमण-परम्परा के प्रधान शास्ता थे। उन्होंने जो कहा, वह महर्षि कपिल के सांख्य-दर्शन और पतञ्जलि५ के योगसूत्र में भी प्राप्त है। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि उपनिषद्-परम्परा सुखवादी है और श्रमण-परम्परा दुःखवादी। यदि यह सही है तो सांख्य और योगदर्शन सहज ही श्रमण-परम्परा की परिधि में आ जाते हैं। १-उत्तराध्ययन, 32 // 6-7 / २-वही, 19 / 15 / ३-महावग्ग, 16 / 15 / ४-सांख्य दर्शन, 11H अत्र त्रिविधदुःखात्यन्तमिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः / ५-पातंजल योगसूत्र, 2 / 14-15: ते लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् // परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच दुःखमेव सर्व विवेकिनः // Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : १-धर्म की धारणा के हेतु 205 ___ प्रस्तुत विषय का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो यह फलित होता है कि कोई भी मोक्षवादी-परम्परा सुखवादी नहीं हो सकती / जो संसार को सुखमय मानता है, उसके मन में दु:ख-मुक्ति की आकाँक्षा कैसे उत्पन्न होगी ? दुःख-मुक्ति वही चाहेगा, जो संसार को दुःखमय मानता है। इस विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि दुःखवाद और मुक्तिवाद एक ही विचारधारा के दो छोर हैं। अनिषदों में सुख और आनन्द की धारणा ब्रह्म के साथ जुड़ी हुई है, संसार के साथ नहीं। नारद ने पूछा- "भगवन् ! मैं सुख को जानना चाहता हूँ।" तब सनत्कुमार ने कहा-"जो भूमा है, वह सुख है, अल्प में सुख नहीं है / " नारद ने फिर पूछा"भगवन् ! भूमा क्या है ?" सनत्कुमार ने कहा- "जहाँ दूसरा नहीं देखता, दूसरा नहीं सुनता, दूसरा नहीं जानता, वह भूमा है। जहाँ दूसरा देखता है, दूसरा सुनता है और दूसरा जानता है, वह अल्प है।"१ तैत्तिरीय में ब्रह्म और आनन्द की एकात्मकता बतलाई गई है / जरा,मृत्यु, जन्म, रोग और शोक-ये जहाँ नहीं हैं, वही मोक्ष है और वही आनन्दमय आस्पद है। यह धारणा श्रमण-परम्परा से भिन्न नहीं है। श्रमणों ने मोक्ष को सुखमय माना है। इस अभिमत के अभाव में उनका दृष्टिकोण एकान्तत: निराशावादी हो जाता। कुमारश्रमण केशी ने गौतम से पूछा- "गौतम ! शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित होते हुए प्राणियों के लिए क्षेम, शिव और अनाबाध स्थान किसे मानते हो ?" गौतम ने उत्तर दिया-"मुने ! लोक के शिखर में एक वैसा शाश्वत स्थान है, जहाँ पहुंच पाना बहुत कठिन है और जहाँ नहीं है जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना।" - "स्थान किसे कहा गया हैं"-केशी ने गौतम से कहा। केशी के ऐसा कहने पर गौतम बोले-"जो निर्वाण है, जो अबाध है, सिद्धि, लोकान, क्षेम, शिव और अनाबाध . है, जिसे महान् की एषणा करने वाले प्राप्त करते हैं, भव-प्रवाह का अन्त करने वाले मुनि १-छान्दोग्य उपनिषद्, 7 / 22 / 1;7 / 24 / 1 / २-तैत्तिरीय, 3 / 6 / 1H आनन्दो ब्रह्मति व्यजानात् / ३-(क) छान्दोग्य उपनिषद्, 48 / 8 / 1 : न जरा न मृत्यु न शोकः। (ख) श्वेताश्वतर, 2012 न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययनै जिसे प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाते हैं, जो लोक के शिखर में शाश्वत रूप से अवस्थित हैं, जहाँ पहुंच पाना कठिन है, उसे में 'स्थान' कहता हूँ।" ___ इसी भावना के संदर्भ में मृगापुत्र ने अपने माता-पिता से कहा था-"मैंने चार अन्त वाले और भय के आकर जन्म-मरण रूपी जंगल में भयंकर जन्म-मरणों को सहा है। "मनुष्य जीवन असार है, व्याधि और रोगों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है। इसमें मुझे एक क्षण भी आनन्द नहीं मिल रहा है / "मैंने सभी जन्मों में दुःखमय वेदना का अनुभव किया है। वहाँ एक निमेष का अन्तर पड़े उतनी भी सुखमय वेदना नहीं है / " 2 ___ उसका मन संसार में इसीलिए नहीं रम रहा था कि उसकी दृष्टि में यहाँ क्षण-भर के लिए भी सुख का दर्शन नहीं हो रहा था। बन्धन-मुक्ति की अवस्था में उसे सुख का अविरल स्रोत प्रवाहित होता दीख रहा था। ___ महामुनि कपिल ने चोरों के सामने एक प्रश्न अस्थित किया था-इस दुःखमय संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ / 3 यह प्रश्न निराशा की ओर संकेत नहीं करता, किन्तु इसका इंगित एकान्त सुख की ओर है। भगवान् ने कहा था-पूर्ण ज्ञान का प्रकाश, अज्ञान और मोह का नाश तथा राग और द्वेष का क्षय होने से आत्मा एकान्त सुखमय मोक्ष को प्राप्त होता है। धर्म का आलम्बन उन्हीं व्यक्तियों ने लिया, जो दु:खों का पार पाना चाहते थे।५ उक्त विश्लेषण से यह फलित होता है कि सर्व-दुःख-मुक्ति धर्म करने का प्रमुख उद्देश्य रहा है।६ . परलोकवादी दृष्टिकोण धर्म की धारणा का मुख्य हेतु रहा है-परलोकवादी दृष्टिकोण। परलोकवाद आत्मा की अमरता का सिद्धान्त है। अनात्मवादी आत्मा को अमर नहीं मानते / अतः उनकी धारणा में इहलोक और परलोक--यह विभाग वास्तविक नहीं है। उनके अभिमत में वर्तमान जीवन अतीत और अनागत की श्रृङ्खला से मुक्त है। आत्मवादी धारणा इससे भिन्न है। उसके अनुसार आत्मा शाश्वत है। मृत्यु के पश्चात् उसका अस्तित्व समाप्त १-उत्तराध्ययन, 23 // 80-84 / २-वही, 19646,14,74 / ३-वही, 8 / 1 / ४-वही, 32 / 2 / ५-वही, 14 / 51-52 / ६-वही, 32 / 110-111 / Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 8 1 -धर्म की धारणा के हेतु 207 नहीं होता, केवल उसका रूपान्तरण होता है। वर्तमान जीवन अतीत और अनागत शृङ्खला की एक कड़ी मात्र है। अत: इहलोक जितना सत्य है, उतना ही सत्य है परलोक। ___ भावी जीवन वर्तमान जीवन का प्रतिबिम्ब होता है। इस धारणा से प्रेरित हो यह कहा गया "जो मनुष्य लम्बा मार्ग लेता है और साथ में सम्बल नहीं लेता, वह भूख और प्यास से पीड़ित होकर चलता हुआ दुःखी होता है। "इसी प्रकार जो मनुष्य धर्म किए बिना पर-भव में जाता है, वह व्याधि और रोग से पीड़ित होकर जीवन-यापन करता हुआ दुःखी होता है / ___ "जो मनुष्य लम्बा मार्ग लेता है, किन्तु सम्बल के साथ / वह भूख-प्यास से रहित होकर चलता हुआ सुखी होता है। "इसी प्रकार जो मनुष्य धर्म की आराधना कर पर-भव में जाता है, वह अल्प-कर्म वाला और वेदना-रहित होकर जीवन-यापन करता हुआ सुखी होता है। आचार्य गद्दभालि ने राजा संजय से कहा था- "राजन् ! तू जहाँ मोह कर रहा है, वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चञ्चल है। तू परलोक के हित को क्यों नहीं समझ रहा है ?"2 - धर्म केवल परलोक के लिए ही नहीं, इहलोक के लिए भी है। किन्तु इहलोक की पवित्रता से परलोक पवित्र बनता है, अत: परिणाम की दृष्टि से कहा जाता है कि धर्म से परलोक सुधरता है। इहलोक और परलोक के कल्याण में परस्पर व्याप्ति है / परलोक का कल्याग इहलोक का कल्याण होने पर ही निर्भर है। सचाई तो यह है कि धर्म से आत्मा शुद्ध होती है, उससे इहलोक और परलोक सुधरते हैं, यह व्यवहार की भाषा है। कुछ धार्मिक लोग ऐहिक और पारलौकिक सिद्धियों के लिए धर्म का विधान करते थे, उसका भगवान् महावीर ने विरोध किया और यह स्थापना की कि धर्म केवल आत्मशुद्धि के लिए किया जाए। १-उत्तराध्ययन, 19 / 18.21 / २-वही, 18 / 13 / ३-दशवकालिक, 9 / 4 सूत्र 6 / .. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन महर्षि कणाद के अभिमत में धर्म से अभ्युदय और निःश्रेयस् दोनों सधते हैं।' जैन आचार्य भी इस मान्यता का समय-समय पर समर्थन करते रहे हैं प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दना नन्दनानां / रम्यं रूपं सरसकविताचातुरी सुस्वरत्वम् // नीरोगत्वं गुणपरिचयः सजनत्वं सुबुद्धिः / किन्नु नमः फलपरिणति धर्मकल्पद्रुमस्य // किन्तु वास्तविक दृष्टि से धर्म अभ्युदय का प्रत्यक्ष हेतु नहीं है। वह प्रत्यक्ष हेतु निःश्रेयस् का ही है। अभ्युदय उसका प्रासंगिक परिणाम है। धर्म ऐहिक या पारलौकिक अभ्युदय के लिए नहीं है। उसका मुख्य परिणाम हैआत्मा की पवित्रता / पवित्रता की दृष्टि से धर्म ऐहिक भी है और पारलौकिक भी। पूर्व-चर्चित विषय को निष्कर्ष की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं कि पौद्गलिक अभ्युदय की दृष्टि से धर्म इहलौकिक भी नहीं है और पारलौकिक भी नहीं है। आत्मोदय की दृष्टि से वह इहलौकिक भी है और पारलौकिक भी। धर्म के परिणाम की चर्चा के प्रसंग में परलोक शब्द भविष्य के अर्थ में रूढ़ हो गया है। धर्म से वर्तमान शुद्ध होता है और वह शुद्धि भविष्य को प्रभावित करती है। अधर्म से वर्तमान अशुद्ध बनता है और वह अशुद्धि भविष्य को प्रभावित करती है। जब अरिष्टनेमि को पता चला कि मेरे लिए निरीह पशुओं का वध किया जा रहा है, तब उन्होंने कहा-"यह कार्य मेरे परलोक में कल्याण-कर नहीं होगा।"५ इस प्रकरण में परलोक शब्द भविष्य के अर्थ में रूढ़ है। १-वैशेषिक दर्शन, अध्याय 1, आह्निक 1, सूत्र 2 : यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः / २-शान्तसुधारस, 10 / 7 / ३-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 220-221 : रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य / आस्रवति यत्तु पुण्यं, शुभोपयोगोऽयमपराधः // एकस्मिन् समवायाद्, अत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हि / इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितः // ४-उत्तराध्ययन, 8 / 2017 / 21 / ५-वही, 22 / 19 : जइ मज्झ कारणा एए, हम्मिहिंति बहू जिया। न मे एयं तु निस्सेसं, परलोगे भविस्सई // Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 8 १-धर्म की धारणा के हेतु 206 __ मृत्यु के बाद होने वाला जीवन अज्ञात होता है। उसके प्रति सहज ही विशेष आकर्षण रहता है / यद्यपि धर्म से ऐ हक जीवन विशुद्ध बनता है, फिर भी उसके पार. लौकिक फल का निरूपण करने की सामान्य पद्धति रहो है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विशेष आकर्षण भी रहा है। इसी आकर्षण की भाषा में मृगापुत्र ने कहा था-"जो मनुष्य धर्म की आराधना कर परभव में जाता है, वह सुखी होता है।" __कुछ विद्वान् धर्म को समाज-धारणा की संस्था के रूप में स्वीकार करते हैं। उनका अभिमत है कि परलोकवादी दृष्टिकोण धर्म की श्रद्धा-प्रधान मीमांसा है। उसकी बुद्धिवादी मीमांसा करने पर यही फलित होता है कि वह समाज-धारण के लिए स्थापित किया गया था। महाभारत में भी एक ऐसा उल्लेख मिलता है--"धर्म का विधान लोकयात्रा परिचालन के लिए किया गया।"3 यह त्रिवर्गवादी चिन्तनधारा है / चतुर्वर्गवादी इससे सहमत नहीं हैं। काम, अर्थ और धर्म को मानने वालों के सामने मोक्ष प्रयोज्य नहीं होता। अत: उसकी उपलब्धि के लिए धर्म को प्रयोजन के रूप में मानना उनके लिए अपेक्षित नहीं होता / चतुर-वर्गवादी अन्तिम प्रयोज्य मोक्ष मानते हैं। अतः वे धर्म को समाज-धारणा का हेतु न मान कर मोक्ष की उपलब्धि का हेतु मानते हैं। भगवान् महावीर इसी धारा के समर्थक थे / 4 त्रिवर्ग और चतुर्वर्ग . त्रिवर्ग अथवा पुरुषार्थ का स्पष्ट निर्देश वैदिक वाङ्मय में नहीं पाया जाता। सबसे प्राचीन उल्लेख आपस्तम्ब-धर्म-सूत्रों में मिलता है। पहले मोक्ष नाम के चतुर्थ पुरुषार्थ की स्वतंत्र गणना नहीं की जाती थी। त्रिवर्ग को परिभाषा ही पहले रूढ़ हुई।५ वस्तुत: त्रिवर्ग की मान्यता वैदिक नहीं है। वह लौकिक है / स्थानांग में इहलौकिक व्यवसाय के तीन प्रकार बतलाए गए हैं-(१) लौकिक, (2) वैदिक और (3) सामयिक / 6. १-उत्तराध्ययन, 19 / 21 / २-हिन्दू धर्म समीक्षा, पृ० 44 : ३-महाभारत, शान्तिपर्व 259 / 4 / लोकयात्रार्थमेवेह धर्मस्य नियमः कृतः / ४-उत्तराध्ययन, 3.12 / ५-वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० 102 / ६-स्थानांग, 3333185 / 27 . . Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन लौकिक व्यवसाय के तीन प्रकार हैं (1) अर्थ, (2) धर्म और (3) काम। वैदिक व्यवसाय के तीन प्रकार हैं (1) ऋगवेद, (2) यजुर्वेद और (2) सामवेद / सामयिक व्यवसाय के तीन प्रकार हैं (1) ज्ञान, (2) दर्शन और (3) चारित्र। त्रिवर्ग के लिए यहाँ त्रिविध व्यवसाय का प्रयोग किया गया है। धर्म को लौकिक व्यवसाय माना गया है। इससे स्पष्ट है कि त्रिवर्ग के साथ जो धर्म है, वह मोक्ष-धर्म नहीं किन्तु परम्परागत आचार-धर्म या सामाजिक विधि-विधान है। इस आशय का समर्थन महाभारत के एक पद्यांश से भी होता है-"लोकयात्रार्थमेवेह, धर्मस्य नियमः कृतः।" (महाभारत, शान्तिपर्व, 259 / 4) ___ कुछ विद्वान् महाभारत के उक्त पद्यांश के आधार पर यह स्थापित करने का प्रयल करते हैं कि धर्म समाज धारणा का तत्व है। किन्तु यह सही नहीं है। उक्त पद्यांश का हृदय स्यानांग के लौकिक व्यवसाय के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। महाभारत में धर्म को लोकयात्रार्थ कहा गया है और स्थानांग में लौकिक / यह धर्म समाज-धारणा के लिए है—यह मानने में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती। विचार-भेद वहीं है, जहाँ मोक्ष-धर्म को समाज-धारणा का तत्त्व कहा जाता है तथा उसी उद्देश्य से मोक्ष धर्म की उत्पत्ति बतलाई जाती है। लगता तो यह है कि त्रिवर्ग में जो धर्म है, वह चतुर्विध पुरुषार्थ की मान्यता के पश्चात् मोक्ष-धर्म के अर्थ में समझा जाने लगा है। धर्म से अर्थ और काम प्राप्त होते हैं-यहाँ धर्म का अर्थ परम्परागत आचार, व्यवस्था व विधि-विधान ही होना चाहिए। निर्वाणवाद के उत्कर्षकाल में जब त्रिवर्ग के साथ मोक्ष जुड़ा, चतुर्विध पुरुषार्थ की स्थापना हुई, तब धर्म का अर्थ व्यापक हो गया। वह सामाजिक विधि-विधान व मोक्ष-धर्म---ये दोनों अर्थ देने लगा। मनुस्मृति में त्रिवर्ग के विषय में अनेक धारणाएँ बतलाई गई हैं। कुछ आचार्य मानते Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खडं 1, प्रकरण : 8 1 -धर्म की धारणा के हेतु 211 थे कि धर्म और अर्थ श्रेय है। कुछ मानते थे कि काम और अर्थ श्रेय है। एक मत था धर्म ही श्रेय है। कुछ अर्थ को ही श्रेय मानते थे। मनु ने त्रिवर्ग को श्रेय माना।' यह अभिमत समाज शास्त्र की दृष्टि से परिपूर्ण है। कौटिल्य ने अर्थ को प्रधान माना / धर्म और काम का मूल उनकी दृष्टि में अर्थ ही था। इससे भी धर्म का अर्थ लौकिक आचार ही प्रतीत होता है। महाभारत के अनुसार सन्तानार्थी व्यक्तियों का प्रवृत्ति-धर्म मुमुक्ष लोगों के लिए नहीं है। इसका फलित स्पष्ट है-सन्तानोत्सत्ति का धर्म मोक्ष-धर्म नहीं है / अर्थ से धर्म और काम सिद्ध होते है और धर्म धन से प्रवृत्त होता है-यह मान्यता भी धर्म के उस अर्थ पर आधारित है, जिसका सम्बन्ध मोक्ष से नहीं है। ___ जैन-दर्शन प्रारम्भ से ही निर्वाणवादी रहा है / अत: आध्यात्मिक मूल्यों की दृष्टि से वहाँ धर्म और मोक्ष-ये दो ही पुरुषार्थ मान्य रहे हैं। गृहस्थ सामाजिक मर्यादा से मुक्त नहीं हो सकते, अत: उनके लिए सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से अर्थ और काम-ये दोनों पुरुषार्थ मान्य रहे हैं। किन्तु उनकी व्यवस्था तात्कालिक समाज-शास्त्रों द्वारा की गई। जैन आचार्यों ने लौकिक मान्यता प्राप्त त्रिवर्ग को लौकिक-शास्त्र का ही विषय बतलाया। उन्होंने उसकी व्यवस्था नहीं दी। उन्होंने केवल आध्यात्मिक मूल्यों की चर्चा की और एक मोक्ष-दर्शन के लिए यही अधिकृत बात हो सकती है / एक समाज-शास्त्री के लिए मोक्ष की चर्चा प्रासंगिक हो सकती है, अधिकृत नहीं। इसी प्रकार एक मोक्ष शास्त्री के लिए सामाजिक तत्व-अर्थ और काम की चर्चा प्रासंगिक हो सकती है, अधिकृत नहों। १-मनुस्मृति, 21224 : धर्माथ वुच्यते. श्रेयः, कामार्थों धर्म एव च / अर्थ एवेह वा श्रेयः त्रिवर्ग इति तु स्थितिः // २-कोटिल्य अर्थशास्त्र, 1173 : अर्थ एव प्रधानः इति कोटल्यः अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति / ३-महाभारत, अनुशासन पर्व 115 / 47 : प्रवृत्तिलक्षणो धर्मः, प्रजाणिभिरुदाहृतः। यथोक्तं राजशार्दूल ! न तु तन्मोक्षकाक्षिणाम् // ४-महाभारत, शान्तिपर्व 8 / 17 : अर्थाद्धर्मश्च कामश्च, स्वर्गश्चैव नराधिप / प्राणयात्रापि लोकस्य, बिना ह्यर्थ न सिद्ध्यति // महाभारत, शान्तिपर्व 8 / 12 : पं विमं धममित्याहुर्धनादेष प्रवर्तते / Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 212 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __ अर्थ और काम-ये दोनों समाज-धारणा के मूल अंग हैं। अतः उनको आध्यात्मिक शृङ्खला की कड़ी के रूप में मान्यता नहीं दी गई। वे समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं, ऐसा नहीं माना गया। उन्हीं व्यक्तियों ने उन्हें हेय बतलाया, जो अध्यात्म की भूमिका पर आरूढ़ हुए। समग्र उत्तराध्ययन या समग्र अध्यात्म-शास्त्र में काम और अर्थ की भर्त्सना इसी दृष्टि से की गई / भगवान् ने कहा___ "जो काम से निवृत्त नहीं होता, उसका आत्मार्थ नष्ट हो जाता है। जो काम से निवृत्त होता है, उसका आत्मार्थ सध जाता है।'' . "जैसे किमाक-फल खाने पर उसका परिणाम सुन्दर नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तभोगों का परिणाम सुन्दर नहीं होता।"२ भृगुपुत्रों ने अपने माता-पिता से कहा-"यह सही है कि काम-भोग क्षणिक और अल्प सुख देते हैं, किन्तु परिणाम काल में वे चिरकाल तक बहुत दुःख देते हैं और संसार मुक्ति के विरोधी हैं। इसोलिए हम उन्हें अनर्थों को खान मान कर छोड़ रहे हैं।"3 ____काम और धर्म का यह विरोध आध्यात्मिक जगत् में ही मान्य हो सकता है / इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा___ "हे पार्थिव ! आश्चर्य है कि तुम इस अधुदय-काल में सहज प्राप्त भोगों को त्याग रहे हो और अमाप्त काम-भोगों की इच्छा कर रहे हों-इस प्रकार तुम अपने संकल्प से ही प्रताड़ित हो रहे हो।"४ यह अर्थ सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा "काम-भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं / काम-भोग की इच्छा करने वाले उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं / "5 इस संवाद से यह स्पष्ट है कि धर्म काम की उपलब्धि के लिए नहीं, किन्तु उसका अर्थ है काम-वासनाओं का त्याग। __ काम की भाँति अर्थ भी धर्म से सम्बन्धित नहीं है। भगवान् ने कहा-"धन से कोई व्यक्ति इहलोक या परलोक में त्राण नहीं पा सकता।" भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से १-उत्तराध्ययन, 7 / 25,26 / २-वही, 19 / 17 / ३-वही, 14 / 13 / ४-वही, 951 / ५-वही, 9153 / ६-वही, 4 / 5 / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 8 1 -धर्म की धारणा के हेतु 213 कहा-"जिसके लिए लोग तप किया करते हैं वह सब कुछ-प्रचुर धन, स्त्रियाँ, स्वजन और इन्द्रियों के विषय-तुम्हें यहीं प्राप्त हैं, फिर किसलिए तुम श्रमण होना चाहते हो ?" पुत्र बोले-.-"पिता ! जहाँ धर्म की धुरा को वहन करने का अधिकार है, वहाँ धन, स्वजन और इन्द्रिय-विषय का क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं। हम गुण-समूह सम्पन्न श्रमण होंगे, प्रतिबन्ध-मुक्त होकर गाँवों और नगरों में विहार करने वाले और भिक्षा लेकर जीवन चलाने वाले होंगे।'' इस संदर्भ से यह भी फलित होता है कि अर्थ के लिए धर्म नहीं करना चाहिए। वस्तुत: वह काम और अर्थ की प्राप्ति के लिए नहीं है और उनसे संश्लिष्ट भी नहीं है। जहाँ काम और अर्थ से धर्म का संश्लेष किया जाता है, वहाँ वह घातक बन जाता है। अनाथी मुनि ने सम्राट् श्रेणिक से यही कहा था-"पिया हुआ काल-कूट विष, अविधि से पकड़ा हुआ शस्त्र और नियंत्रण में नहीं लाया हुआ वेताल जैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही यह विषयों से युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है।"२ ___यदि धर्म (मोक्ष-धर्म) समाज-धारणा के लिए होता तो उसका दृष्टिकोण सामाजिक जीवन के महत्वपूर्ण अंग-काम और अर्थ के प्रति इतना विरोधी नहीं होता। और वह है, इससे यह स्वयं प्रमाणित होता है कि मोक्ष-धर्म समाज-धारणा के लिए नहीं है। परिणामवादी दृप्टिकोण धर्म की धारणा का तीसरा हेतु रहा है-'परिणामबादी दृष्टिकोण' / प्रत्येक प्रवृत्ति का निश्चित परिणाम होता है और प्रत्येक क्रिया की निश्चित प्रतिक्रिया होती है। कृत का परिणाम वर्तमान जीवन में भी भुगतना होता है और अगले जीवन में भी। क्योंकि प्राणी कम-सत्य होते हैं-कृत का परिणाम अवश्य भुगतते हैं। उससे बचने का एक मात्र उपाय धर्म है। व्यक्तिगदी दृष्टिकोण ___ धर्म की धारणा का चौथा हेतु रहा है-'व्यक्तिवादी दृष्टिकोण' / प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक जीवन जीता है। फिर भी उसकी आत्मा कभी सामाजिक नहीं बनती। * इसी आशय से चित्र ने ब्रह्मदत्त से कहा था १-उत्तराध्ययन, 14 / 16,17 / २-वही, 2044 / ३-(क) उत्तराध्ययन, 7120 : ___ कम्मसच्चा हु पाणिणो। (ख) वही, 413, 13 / 10 / ४-दशवकालिक, चूलिका 1, सूत्र 18: कडाणं कम्माणं. वेयइत्ता मोक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइता। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन - "उसी के कारण तू महान् अनुभाग (अचिन्त्य-शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और पुण्यफलयुक्त राजा बना है। इसीलिए तू अशाश्वत भागों को छोड़ कर चारित्र की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण कर / "राजन् ! जो इस अशाश्वत जीवन में प्रचुर शुभ अनुष्ठान नहीं करता, वह मृत्यु के मुंह में जाने पर पश्चात्ताप करता है और धर्म की आराधना न होने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है। ___"जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्त काल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। काल आने पर उसके माता-पिता या भाई अंशधर नहीं होते- अपने जीवन का भाग देकर बचा नहीं पाते। . "जाति, मित्र वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दु:ख नहीं बंटा सकते, वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है / क्योंकि कर्म कत्ती के पीछे चलता है। . "यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धन, धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़ कर केवल अपने किए कर्मो को साथ लेकर परभव में जाता है। ___ "उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में जला कर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता (जीविका देने वाले) के पीछे चले जाते हैं।" कृत-कर्मों का परिणाम भी व्यक्ति अकेला भुगतता है। इसी की पुष्टि में कहा गया___ "संसारी प्राणी अपने बन्धु-जनों के लिए जो साधारण कर्म (इसका फल मुझे भी मिले और उनको भी-ऐसा कर्म) करता है, उस कर्म के फल-भोग के समय वे बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते-उसका भाग नहीं बंटाते।"२ जो सत्य की. एषणा करता है, उसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है-"जब मैं अपने द्वारा किए गए कर्मो से छेदा जाता हूँ तब माता-पिता, पुत्र, बन्धु, भाई, पत्नी और पुत्र-ये सभी मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते।"3 ___ समाज व्यक्ति के लिए त्राण होता है किन्तु वह व्यक्ति से अभिन्न नहीं होता इसलिए वह उसे अन्त तक त्राण नहीं दे सकता। धर्म व्यक्ति से अभिन्न होता है, इसलिए वह उसकी अन्तिम त्राण-शक्ति है। इसी संदर्भ में कमलावती ने महाराज इषुकार से कहा था १-उत्तराध्ययन, 13 / 20-25 / २-उत्तराध्ययन, 4 / 4 / ३-वही, 6 / 3 / Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : १-धर्म की धारणा के हेतु 215 ___ "यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाए तो वह भी तुम्हारी इच्छा-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा। "राजन् ! इन मनोरम काम-भोगो को छोड़ कर जब कभी मरना होगा। हे नरदेव ! एक धर्म हो त्राण है। उसके सिवाय दूसरी कोई वस्तु त्राण नहीं दे सकती / / 1 / / अनाथी को किसी भी सामाजिक साधन से त्राण नहीं मिला, तब उन्होंने संकल्प किया "इस विपुल वेदना से यदि मैं एक बार ही मुक्त हो जाऊँ तो क्षमावान, दान्त और आरम्भ का त्याग कर अनगार-वृत्ति को स्वीकार कर लूं।"२ इस संकल्प में वे अपने से अभिन्न हो गए। उनकी वेदना रात-रात में समाप्त हो गई। एकत्व और अत्राणात्मक दृष्टिकोण ___धर्म्य-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ-एकत्व, अनित्य, अशरण और संसार-के चिन्तन से व्यक्ति का धर्म की ओर झुकाव होता है / एकत्व और अत्राणात्मक (या अशरणात्मक) दृष्टिकोण का निरूपण इसी शीर्षक में आ चुका है। उन्हें पृथक किया जाए तो वे धर्म की धारणा के दो स्वतंत्र हेतु-पाँचवाँ और छठा-बन जाते हैं। अनियवादी दृष्टिकोण धर्म की धारणा का सातवाँ हेतु रहा है-'अनित्यवादी दृष्टिकोण' / जिन्हें यह अनुभव हुआ कि जोवन नश्वर है, उन्होंने अनश्वर की प्राप्ति के लिए धर्म का सहारा लिया। भगवान महावीर ने इसी भावना के क्षणों में गौतम से कहा था- “रात्रियाँ बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पान जिस प्रकार गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। "कुश की नोंक पर लटकते हुए ओस-बिन्दु की अवधि जैसे थोड़ी होती है, वैसे ही मनुष्य-जीवन की गति है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रसाद मत कर / ____ "तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और सब प्रकार का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर / "पित्तरोग, फोड़ा, फुसी, हैजा और विविध प्रकार के शीघ्र-घाती रोग शरीर का १-वही, 14 / 39,40 / २-वही, 20132 / ३-उत्तराध्ययन, 20133 / Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन स्पर्श करते हैं, जिनसे यह शरीर शक्ति-हीन और विनष्ट होता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।"१ ___ गद्दभालि मुनि ने राजा संजय से कहा- "जबकि तू पराधीन है, इसलिए सब कुछ छोड़ कर तुझे चले जाना है, तब अनित्य जीव-लोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है?"२ __मृगापुत्र ने अपने माता-पिता से कहा -"यह शरीर अनित्य है, अशुचि से उत्पन्न है, आत्मा का यह अशाश्वत आवास है तथा दुःख और क्लेशों का भाजन है। "इस अशाश्वत शरीर में मुझे आनन्द नहीं मिल रहा है। इसे पहले या पीछे जब कभी छोड़ना है। यह पानी के बुलबुले के समान नश्वर है। ___ "मनुष्य जीवन असार है, व्याधि और रोगों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है, इसमें मुझे एक क्षण भी आनन्द नहीं मिल रहा है।" 3. ___ इस प्रकार अनित्यवादी दृष्टिकोण धर्म की आराधना के लिए महान् प्रेरणा-स्रोत __यह कल्पना भी युक्ति से परे नहीं है कि भगवान् बुद्ध ने अनित्यता का उपदेश जनता को धर्माभिमुख करने के लिए दिया था। आगे चल कर दर्शन-काल में वही 'क्षणभंगुर वाद' नामक दार्शनिक सिद्धान्त के रूप में परिणत हो गया। अनित्यवादी दृष्टिकोण आत्मवादियों के लिए धर्म प्रेरक रहा तो परलोक में विश्वास नहीं करने वाले अनात्मवादी इससे भोग की प्रेरणा पाते रहे हैं। संसार भावना ___ धर्म की धारणा का आठवाँ हेतु रहा है-'संसार भावना' / भृगु-पुत्रों ने अपने पिता से कहा-"यह लोक पीड़ित हो रहा है, चारों ओर से घिरा हुआ है, अमोघा आ रही है / इस स्थिति में हमें मुख नहीं मिल रहा है।" ___"पुत्रो ! यह लोक किससे पीड़ित है ? किससे घिरा हुआ है ? अमोघा किसे कहा जाता है ? मैं जानने के लिए चिन्तित हूँ।" कुमार बोले- "पिता ! आप जाने कि यह लोक मृत्यु से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है और रात्रि को अमोघा कहा जाता है।"५ १-उत्तराध्ययन, 10 / 1,2,26,27 / २-वही, 18 / 12 / ३-वही, 1912-14 / ४-वहां, 55,6 / ५-उत्तराध्ययन, 14 / 21-23 / Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 8 . २-धर्म-श्रद्धा 217 मृगापुत्र ने भी संसार को इसी दृष्टि से देखा था-"जैसे घर में आग लग जाने पर उप घर का जो स्वामी होता है, वह मूल्यवान् वस्तुओं को उससे निकालता है और मून्य-हीन वस्तुओं को वहीं छोड़ देता है, उसी प्रकार यह लोक जरा और मृत्यु से प्रज्वलित हो रहा है। मैं आपकी आज्ञा पाकर उसमें से अपने आपको निकाल लूंगा।"१ यह संसार-चक्र अविरल गति से अनन्त काल तक चलता रहता है / आत्मवादी इस परिम्रमण को अपनी स्वतंत्रता के प्रतिकूल मानता है। उसका अन्त पाने के लिए वह धर्म की शरण में आता है / कुमारश्रमण केशो ने इसी आशय से प्रश्न किया था___“मुने ! महान् जल-प्रवाह के वेग से बहते हुए जीवों के लिए तुम शरण, गति, प्रतिष्ठा और द्वीप किसे मानते हो ?" गौतम बोले-"जल के मध्य में एक लम्बा-चौड़ा महाद्वीप है / वहाँ महान् जल-प्रवाह की गति नहीं है।" "द्वीप किसे कहा गया है"-केशी ने गौतम से कहा। गौतम वोले-"जरा और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है।" २-धर्म-श्रद्धा धर्म की धारणा के आठ हेतुओं का उल्लेख किया जा चुका है। उनके अनुप्रेक्षण से धर्म के प्रति श्रद्धा होती है। जिसे धर्म के प्रति श्रद्धा होती है, वह पौद्गलिक सुखों से विरक्त हो जाता है। विरक्ति को दो भूमिकाएं हैं-(१) अगार-धर्म और (2) अनगारधर्म / प्रारम्भ में सभी लोग गृहस्थ होते हैं / अनगार जन्मना नहीं होता। धर्म की श्रद्धा और वैराग्य का उत्कर्ष होने पर गृहस्थ ही गृहवास को छोड़ कर अनगार बनता है। __भोग और विराग--ये जीवन के दो छोर हैं। जिनमें राग होता है, वे भोग चाहते हैं। जिनका मन विरक्त हो जाता है, वे भोग का त्याग कर देते हैं। ये दोनों भावनाएँ हर युग-मानस को व्याप्त करती रही हैं। ब्रह्मदत्त ने चित्र से कहा था- "हे भिक्षु ! तू नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारी-जनों को परिवृत्त करता हुआ इन भोगों को भोग। यह मुझे रुचता है / प्रव्रज्या वास्तव में ही कष्टकर है।" १-उत्तराध्ययन, 19 / 22,23 / २-वही, 1015-15 / ३-वही, 23 / 65-68 / ४-वही, 29 / 3 / 28 .. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन धर्म में स्थित और उस (राजा) का हित चाहने वाले चित्र मुनि ने पूर्वभव के स्नेहवश अपने प्रति अनुराग रखने वाले काम-गुणों में आसक्त राजा से यह वाक्य कहा-"सब गीत विलाप हैं। सब नृत्य विडम्बना हैं। सब आभरण भार हैं और सब काम-भोग दुःखकर हैं।" मृगापुत्र को भी माता-पिता ने यही समझाने का यत्न किया था-"पुत्र ! तू मनुष्य सम्बन्धो पाँच इन्द्रियों के भोगों का भोग कर। फिर भुक्त-भोगी होकर मुनि-धर्म का आचरण कर।"२ सम्राट श्रेणिक ने अनाथी मुनि को देख कर विस्मय के साथ कहा-"आर्य ! तरुण हो, इस भोग-काल में ही प्रवजित हो गए / चलो, मैं तुम्हारा नाथ बनता हूँ। तुम भोग भोगो, यह मनुष्य-जीवन कितना दुर्लभ है।" 3 उक्त प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि अनुरक्त-मानस ने विरक्त को सदा भोग-लिप्त करने का प्रयल किया है और विरक्त-मानस ने सदा भोग से अलिप्त रहने का प्रयत्न किया है। " यह भोग की अलिप्ति ही अनगार बनने का मुख्य कारण रही है। ३-बाह्य-संगों का त्याग क्यों ? अनगार-जीवन में भोगासक्ति और उसके निमित्तों का भी वर्जन किया जाता है। कुछ लोग ऐसे जीवन को बहुत आवश्यक नहीं मानते थे, किन्तु श्रमण-परम्परा में इसे बहुत महत्त्व दिया गया। जयघोष ने विजयघोष से कहा- "मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं / तू निष्क्रमण कर, जिससे इस संसार-सागर में पड़ रहे आवर्तों से बच जाए।"५ कुछ लोग सोचते हैं कि धर्म की आराधना के लिए आगार और अनगार की भेदरेखा खींचना आवश्यक नहीं। जो ऐसा सोचते हैं उनका मानना है कि विकार से बचने की आवश्यकता है, विषयों-निमित्तों से बचने की आवश्यकता नहीं। एक सीमा तक यह सही भी है। भगवान् ने कहा-"काम-भोग न समता उत्पन्न करते हैं और न विकार। इन्द्रिय और मन के विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द और संकल्प रागी १-उत्तराध्ययन, 13314-16 / २-वही, 19643 / ३-वही, 2018-11 / ४-वही, 19 / 9 / ५-वही, 2 // 38 // Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 8 ३--बाह्य-संगों का त्याग क्यों ? 219 व्यक्ति के लिए ही दु:ख के हेतु बनते हैं, वीतराग के लिए वे किंचित् भी दुःख के हेतु नहीं होते।" विषय अचेतन हैं / वे अपने आप में मनोज्ञ-अमनोज्ञ कुछ भी नहीं हैं / उनमें जिसका प्रिय-भाव होता है, उसके लिए वे मनोज्ञ और जिसका उनमें अप्रिय भाव होता है, उसके लिए वे अमनोज्ञ होते हैं। किन्तु जो उनके प्रति विरक्त होता है, उसके लिए वे मनोज्ञ, अंमनोज्ञ कुछ भी नहीं होते / 2 इस प्रसंग का फलित यह है कि बाह्य-विषय हमारे लिए न दोष-पूर्ण हैं और न निर्दोष / चेतना की शुद्धि हो तो वे उसके लिए निर्दोष हैं और चेतना अशुद्ध हो तो वे भो उसके लिए सदोष बन जाते हैं। दोष का मूल चेतना की परिणति है, बाह्यविषय नहीं। उक्त अभिमत यथार्थ है। उसके आधार पर हमें चेतना को अलिप्त रखने की आवश्यकता है, बाह्य-विषयों से बचने की कोई मुख्य बात नहीं। किन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चेतना अन्तर्जागरण की परिपक्व दशा में ही अलिप्त रह सकती है। __निमित्त उपादान होने पर ही कार्य कर सकता है, अन्यथा नहीं। विकार का उपादान है-राग / वह अव्यक्त रहता है, किन्तु निमित्त मिलने पर व्यक्त हो जाता है। इसलिए जब तक राग क्षीण नहीं होता, तब तक निमित्तों-बाह्य-विषयों से बचाव करना आवश्यक होता है। बचाव की मात्रा सब व्यक्तियों के लिए समान भले न हो, पर उसका अपवाद हर कोई व्यक्ति नहीं हो सकता। इसीलिए ये मर्यादाएं स्थापित की गई: "मित आहार करो।" - "रसों का प्रचुर मात्रा में सेवन मत करो।" ' "रसों का प्रकाम (अधिक मात्रा में) सेवन नहीं करना चाहिए / वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं / जिसकी धातुएँ उद्दीप्त होती हैं, उसे काम-भोग सताते हैं, जसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। "जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर इंधन वाले वन में लगा हुआ दावानल उपशान्त १-उत्तराध्ययन, 32 / 100,101 / २-वही, 321106 / ३-मूलाराधना, 1997, अमितगति : अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः, शुद्धिः संपद्यते बहिः / बाह्य हि कुरुते दोषं, सर्वमन्तरदोषतः // ४-उत्तराध्ययन 32 / 4 / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन - नहीं होता, उसी प्रकार प्रकाम-भोजी ( ठूस-ठूस कर खाने वाले ) की इन्द्रियाग्नि (कामाग्नि) शान्त नहीं होती। इसलिए प्रकाम भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता।"१ "एकान्त में रहो।"२ "स्त्री संसर्ग से बचो।" "जैसे बिल्ली की बस्ती के पास चूहों का रहना अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार स्त्रियों की बस्ती के पास ब्रह्मचारी का रहना अच्छा नहीं होता। .. "तपस्वी श्रमण स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर आलाप, और चितवन को चित्त में रमाकर उन्हें देखने का संकल्प न करे। ___ "जो सदा ब्रह्मचर्य में रत हैं उनके लिए स्त्रियों का न देखना, न चाहना और न चिन्तन करना और न वर्णन करना हितकर है, और वह धर्म-ध्यान के लिए उपयुक्त है। ___"यह ठीक है कि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनियों को विभूषित देवियाँ भी विचलित नहीं कर सकतों, फिर भी भगवान् ने एकान्त हित की दृष्टि से उनके लिए विविक्तवास को प्रशस्त कहा है। "मोक्ष चाहने वाला संसार-भीरु एवं धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में और कोई ऐसा दुस्तर नहीं है, जैसी दुस्तर अज्ञानियों के मन को हरने वाली स्त्रियाँ हैं। ___"जो मनुष्य इन स्त्री-विषयक आसक्तियों का पार पा जाता है, उसके लिए शेष सारी आसक्तियाँ वैसे ही सुतर (सुख से पार करने योग्य) हो जाती हैं, जैसे महासागर का पार पा जाने वाले के लिए गंगा जैसी बड़ी नदी।"3" "ब्रह्मचर्य के दस नियमों का पालन करो।" 4 इस प्रकार और भी अनेक नियम हैं जो निमितों से बचने के लिए बनाए गए थे। समग्र दृष्टि से देखा जाए तो अनगार दीक्षा और क्या है ? वह निमित्तों से बचने की प्रक्रिया ही तो है। ___ इस प्रकार अगार और अनगार जीवन का श्रेणी विभाग बहुत ही मनोवैज्ञानिक है / अगार-जीवन में साधना के विघ्नभून निमित्तों से बचने में जो कठिनाई होती है, उसका पार पा जाना ही अनगार-जीवन है। पहली भूमिका में बाह्य विषयों का त्याग उसकी सुरक्षा के लिए किया जाता है ओर अग्रिम भूमिकाओं में वह सहज स्वभाव हो जाता है / कृत त्याग में स्खलनाएं हो सकती हैं किन्तु सहज स्वभाव में कोई स्खलना नहीं होती। १-उत्तराध्ययन, 32 // 10,11 / २-वही, 32 / 4 / ३-वही, 32 / 13-18 / ४-१६वाँ अध्ययन / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 8 ३-श्रामण्य और काय-क्लेश 221 हम इस बातको सदा याद रखें कि हमारा पहला चरण ही अन्तिम लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता। ४-श्रामण्य और काय-क्लेश कुछ लोगों का अभिमत है कि बाह्य निमित्तों के बचाव की प्रक्रिया में श्रमण-जीवन जटिल बन गया। सहज सुविधाएं नष्ट हो गई, उनका स्थान काय-क्लेश ने ले लिया। क्या यह सच है कि श्रमण-जीवन बहुत ही कठोर है ? हमारे अभिमत मे ऐसा नहीं है। भगवान् पार्श्व और भगवान् महावार-दोनों ने अज्ञानपूर्ण काय-क्लेश का प्रतिवाद किया / अज्ञानी करोड़ों वर्षों के काय-क्लेश से जिस कर्म का क्षोण करता है, उसे ज्ञानी एक क्षण में कर डालता है। यह सही है कि मुनि-जीवन में काय-क्लेश का सर्वथा अस्वीकार नहीं है। फिर भी जितना महत्व संवर, गुति, ध्यान आदि का है, उतना कायक्लेश का नहीं है / कई आचार्यों ने समय-समय पर काय-क्लेश को कुछ अतिरिक्त महत्त्व दिया है, किन्तु जैन वाङ्मय की समग्र चिन्तनधारा में वह प्राप्त नहीं हाता / आचारांग सूत्र में कहा गया है-"काया को कसो, उसे जीर्ण करो", किन्तु वह एकान्त वचन नहीं है। आगम सूत्रों में कुछ मुनियों के कठार तप का उल्लेख है। उसे पढ़ कर सहज ही यह धारणा बन जातो है कि मुनि-जीवन कठोर तपस्या का जीवन है / कुछ विद्वानों का अभिमत है कि जैन-साधना प्रारम्भ में कठार ही थी, फिर बौद्धों की मध्यम प्रतिपदा से प्रभावित हो कुछ मृदु बन गई / बौद्ध धर्म के उत्कर्ष काल में जैनपरम्परा उससे प्रभावित नहीं हुई, यह ता नहीं कहा जा सकता। किन्तु इसे भी अमान्य नहीं किया जा सकता कि जैन-साधना में मृदुता और कठोरता का सामञ्जस्य आरम्भ से हो रहा है। साधना के मुख्य अंग दो हैं-(१) संवर और (2) तपस्या / (1) संवर के पाँच प्रकार हैं-(१) सम्यक्त्व, (2) व्रत, (3) अप्रमाद, (4) * अकषाय और (5) अयोग। इनकी साधना मृदु है-कायक्लेश-रहित है। . (2) तपस्या के बारह प्रकार हैं(१) अनशन, (7) प्रायश्चित्त, (2) ऊोदरी, (8) विनय, (3) भिक्षाचरी, (6) वैयावृत्त्य, (4) रस-परित्याग, (10) स्वाध्याय, (5) काय-क्लेश, (11) ध्यान और (6) प्रतिसंलीनता, (12) व्युत्सर्ग। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / इनमें अनशन-लम्बे उपवासों तथा काय-क्लेशों को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार को कठोर साधना नहीं कहा जा सकता। ये दोनों, तपस्या के प्रथम छह प्रकार जो बहिरंग हैं, के अंग हैं / इनकी तुलना में अन्तरंग तपस्या- अंतिम छह प्रकारों का अधिक महत्त्व है। - दूसरी बात यह है कि काय-क्लेश व दीर्घकालीन उपवासों का मुनि के लिए अनिवार्य विधान नहीं है। यह अपनी रुचि का प्रश्न है। जिन मुनियों की रुचि इनकी ओर अधिक होती है, वे इन्हें स्वीकार करते हैं और जिनकी रुचि ध्यान आदि की ओर होती है, वे उन्हें स्वीकार करते हैं। सब व्यक्तियों की रुचि को एक और मोड़ा नहीं जा सकता। महावत और काय-क्लेश मृगापुत्र के माता-पिता ने कहा-"पुत्र ! मुनि-जीवन का पालन बड़ी कठोर साधन है।" यहाँ कठोर साधना का अभिप्राय काय-क्लेश से नहीं है। अहिंसा का पालन कठोर है--शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रखना सरल काम नहीं है / सत्य का पालन भी कठोर है-सदा जागरूक रहना सरल काम नहीं है। इसी प्रकार अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्रि-भोजन-विरति का पालन भी कठोर है। इस कठोरता का मूल आत्म-संयम है किन्तु कायक्लेश नहीं। ये व्रत यावज्जीवन के लिए थे इसलिए भी इन्हें कठोर कहा गया। यहाँ यह जान लेना प्रासंगिक होगा कि जैन मुनि की दीक्षा यावज्जीवन के लिए होती है, वह बौद्ध-दीक्षा की भाँति अल्पकालिक नहीं होती। ___महाव्रतों की साधना काया को कष्ट देने के लिए नहीं है। उनके द्वारा मुख्य रूप से कायिक, वाचिक और मानसिक संयम सिद्ध होता है। उसको सिद्धि में क्वचित् कायक्लेश प्राप्त हो सकता है पर वह संयम-सिद्धि का मुख्य साधन नहीं है / परीषह और काय-क्लेश मुनि के लिए बाईस प्रकार के परीषहों-कष्टों को सहने का विधान किया गया गया है, किन्तु वह काया को कष्ट देने की दृष्टि से नहीं है। अहिंसा आदि महाव्रतों की पालना करने में जो कष्ट उत्पन्न होते हैं, उन्हें काया को क्लेश देना नहों किन्तु स्वीकृत धर्म में अडिग रहना है। मध्यम प्रतिपदा में विश्वास रखने वाले इस प्रकार के कष्टों से अपने को नहीं बचाते थे। ऐसे कष्टों को शान्तिपूकि सहन करने की प्रेरणा दी जाती १-उत्तराध्ययन 19 / 24 / २-वही, 19 // 35: जावज्जोवमविस्सामो, गुणाणं तु महाभरो। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : ६-श्रामण्य और काय-क्लेश 223 थी। अंगुत्तर-निकाय में बताया गया है-"भिक्षुओ ! यह सीखो कि हम सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, दंश-मशक, वात-आतप, सर्प सम्बन्धी कष्टों, शारीरिक वेदनाओं को सहन करने में समर्थ होंगे।" धुतांग साधना में भी अनेक कष्टों को सहा जाता था। बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा था-"भिक्षुओ ! जिसने कायानुस्मृति का अभ्यास किया है, उसे बढ़ाया है, उस भिक्षु को दस लाभ होने चाहिए। कौन से दस ? ___ "वह अरति-रति-सह ( उदासी के सामने डटा रहने वाला ) होता है। उसे उदासी परास्त नहीं कर सकती। वह उत्सन्न उदासी को परास्त कर विहरता है। "वह भय-भैरव-सह होता है। उसे भय-भैरव परास्त नहीं कर सकता। वह उत्पन्न भय-भैरव को परास्त कर विहरता है। "शीत, उष्ण, भूख-प्यास, डंक मारने वाले जीव, मच्छर, हवा-धूप, रेंगने वाले जीवों के आघात ; दुरुक्त, दुरागत वचनों तथा दुःखदायी, तीव्र, कटु, प्रतिकूल, अरुचिकर, प्राणहर शारीरिक पीड़ाओं को सह सकने वाला होता है।" काय-क्लेश और परीषह की भिन्नता प्राचीन काल से ही मानी जाती रही है। श्रुतसागरगणि ने दोनों का भेद बतलाते हुए लिखा है- "काय-क्लेश अपनी इच्छा के अनुसार किया जाता है और परीषह समागत कष्ट है।" अनेकान्त दृष्टि . . जैन आचार्यों की काय-क्लेश के विषय में अनेकान्तदृष्टि रही है / उन्होंने अपेक्षा के अनुसार उसे महत्त्व भी दिया है और अनपेक्षित काय-क्लेश का विरोध भी किया है। आर्य जिनसेन ने इस अनेकान्तदृष्टि की बड़ी मार्मिक चर्चा की है। उन्होंने भगवान् ऋषभ के प्रसंग में एक चिन्तन प्रस्तुत किया है-"मुमुक्षु को अपना शरीर न तो कृश ही बनाना चाहिए और न प्रवर रसों के द्वारा उसे पुष्टि ही करना चाहिए, किन्तु उसे मध्यममार्ग का अवलम्बन लेना चाहिए-दोष-निवृत्ति के लिए उपवास आदि करने चाहिए और प्राण-संधारण के लिए आहार भी। काय-क्लेश उसी सीमा तक सम्मत है जब तक 'कि मानसिक संक्लेश उत्पन्न न हो। संक्लेश से मन का असमाधान होता है और असमाधान की स्थिति में मुनि धर्म से च्युत हो जाता है। अत: संयम-यात्रा के निर्वाह में विघ्न उपस्थित न हो, वैसे उपस्थित होना चाहिए।"५ १-अंगुत्तरनिकाय, 4 / 16 / 7 / २-विशुद्धिमग्ग, दूसरा परिच्छेद / ३-बुद्धवचन, पृ० 41 / ४-तत्त्वार्थ, 9 / 19 श्रुतसागरीय वृत्ति / ५-महापुराण, 2011-10 / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन यह मध्यम-मार्ग की मान्यता जिनसेन से बहुत पहले ही स्थिर हो चुकी थी। अनेकान्त दृष्टि के साथ-साथ ही इसका उदय हुआ था। उत्तराध्ययन में उसके अनेक बीज प्राप्त हैं / आहार और अनशन-दोनों का ऐकान्तिक विधान नहीं है / छह कारणों से आहार करने की अनुमति दी गई है / वे ये हैं (1) वेदना, (2) वैयावृत्त्य, (3) ईर्या, (4) संयम, (5) प्राणधारण और (6) धर्मचिन्ता। छह कारणों से अनशन करने की अनुमति दी गई है-- (1) आतंक, (2) उपसर्ग, (4) ब्रह्मचर्यधारण, (4) प्राणिदया, (5) तपस्या और (6) शरीर-विच्छेद / ___ इसी प्रकार सरस भोजन का भी एकातिक विधि-निषेध नहीं है। जो दूध, दही आदि सरस आहार करे उगे तपस्या भी करनी चाहिए-आहार और तपस्या का संतुलित क्रम चलना चाहिए / जो ऐसा नहीं करता, वह पाप-श्रमग होता है / आमरण अनशन के लिए भी अनेकान्तिक व्यवस्था है। जब तक ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों का नित नया विकास होता रहे तब तक जीवन का धारण किया जाय, आहार आदि से शरीर को चलाया जाय और जब ज्ञान, दर्शन आदि का लाभ प्राप्त करने की क्षमता न रहे, उस स्थिति में देह का त्याग किया जाय-आहार का प्रत्याख्यान किया जाय / 4 १-उत्तराध्ययन, 26 / 32,33 / २-वही, 26 / 33-34 / ३-वही, 1715 / ४-वही, 417: लाभान्तरे जीविय वूहइत्ता, पच्छापरिन्नाय मलावधंसी। . Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण :8 श्रामण्य और काय-क्लेश 225 __वस्त्र के विषय में भी महावीर का दृष्टिकोण मध्यममार्गी था। उन्होंने सचेल और अचेल-इन दोनों साधना-पद्धतियों को मान्यता दी / (1) कई मुनि जीवन-पर्यन्त सचेल रहते थे। (2) कई मुनि साधना के प्रारम्भ काल में सचेल रहते और उसके परिपक्व होने पर अचेल हो जाते। (3) कई मुनि कभी सचेल रहते, कभी अचेल / हेमन्त में सचेल रहते और ग्रीष्म में अचेल हो जाते / ' वस्त्र मिलने पर सचेल रहते, न मिलने पर अचेल / ' महावीर ने साधुओं को गणों में संगठित भी किया और अकेले रहने की व्यवस्था भी ई / ' उन्होंने गण में रहने वालों के लिए सेवा और सहयोग को प्रोत्साहन दिया और अकेले रहने वालों के लिए सेवा या सहयोग न लेने की व्यवस्था दी / जो मण्डली-भोजन चाहते थे, उनके लिए वैसी व्यवस्था की और मण्डली-भोजन के प्रत्याख्यान को भी महत्त्व दिया / इस प्रकार साधना की व्यवस्था में उनका दृष्टिकोण अनेकान्तस्पर्शी रहा। कार कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं जो महावीर के मध्यम-मार्गी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालते हैं। महावीर का मुकाव यदि काय-क्लेश की ओर होता तो वे यह कभी नहीं कहते कि जो तप और नियम से भ्रष्ट हैं, वे चिर-काल तक अपने शरीर को क्लेश देकर भी संसार का पार नहीं पा सकते / ' उन्होंने काय-क्लेश को वही स्थान दिया, जो स्थान स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए शल्य-चिकित्सा का है / देहाध्यास वास्तव में हो बहुत गहरा होता है / उसकी जड़ों को उखाड़ फेंकने के लिए एक बार देह के प्रति निर्ममत्व होना होता है। रोग उत्पन्न होने १-आचारांग, 1 / 4 / 5 / . . २-उत्तराध्ययन, 2013 / ३-उत्तराध्ययन, 11 / 14; 17 / 17 / ४-वही, 32 / 5 / ५-वही, 29 / 44 / ६-वही, 29 / 40 / ७-वही, 1135 / ८-वही, 29 // 34 // ६-वही, 2041 / 26 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पर औषध द्वारा उसका प्रतिकार न करना, इसी साधना की एक कड़ी है।' इस साधना की मृग-मरीचिका से तुलना की गई है। मृगापुत्र और उसके माता-पिता के संवाद से यह लगता है कि रोग का प्रतिकार न करना श्रमणों को सामान्य विधि थो।' किन्तु दूसरे आगमों में रोग-प्रतिकार करने के उल्लेख भी मिलते हैं। हो सकता है प्रारम्भ में रोग-प्रतिकार का निषेध हो और वाद में उसका विधान किया गया हो / यह भी हो सकता है कि देह-निर्ममत्व की विशेष साधना करने वाले मुनियों के लिए चिकित्सा का निषेध हो, सबके लिए नहीं। संभव है मृगा-पुत्र की विशेष साधना की उत्कट इच्छा को ध्यान में रखकर ही माता-पिता ने ऐसा कहा हो। कुछ भी हो, चिकित्सा के विषय में आगमकारों की एकान्त-दृष्टि नहीं रही। ___ बाईस परीषहों, जो स्वीकृत-मार्ग पर स्थिर रहने और आत्म-शृद्धि के लिए सहन करने योग्य होते हैं, में कुछ परीषह सब मुनियों के लिए नहीं है। * कठोर और मृदुचर्या का प्रश्न आपेक्षिक है। एक व्यक्ति को एक स्थिति में जो कठोर लगता है, वही उसको दूसरी स्थिति में मृदु लगने लगता है और जो मृदु लगता है, वह कभी कठोर लगने लगता है। इसी अनुभूति के संदर्भ में मृगा-पुत्र ने कहा था"जिसकी लौकिक प्यास बुझ चुकी है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है।"3 . १-उत्तराध्ययन, 2 / 32-33 / २-वही, 1975-82 / ३-वही, 19644: इह लोए निप्पिवासस्स नस्थि किंचि वि दुक्करं / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : नवाँ १-तत्वविद्या तत्त्वविद्या हमारे ज्ञान-वृक्ष की वह शाखा है, जिसके द्वारा विश्व के अस्तित्वनास्तित्व की व्याख्या की जाती है। इसके माध्यम से लगभग सभी दार्शनिकों ने दो मुख्य प्रश्नों पर गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया। पहला प्रश्न यह रहा कि विश्व सत्य है 'या मिथ्या ? दूसरा प्रश्न था कि द्रव्य के अस्तित्व का स्रोत एक ही केन्द्र से प्रवाहित हो रहा है या उसके केन्द्र भिन्न-भिन्न हैं ? ... उपनिषद् और सृष्टि . उपनिषदों के ऋषि इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि विश्व सत्य है / उसके अस्तित्व का स्रोत एक हो केन्द्र है। वह ब्रह्म है। उन्होंने यह स्वीकार किया कि जो कुछ है, वह सब ब्रह्म है।' वह एक है, अद्वितीय है / जो नानात्व को देखता है-दो को स्वीकार करता है, वह बार-बार मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐतरेय उपनिषद् में बताया गया है कि सृष्टि से पूर्व एकमात्र आत्मा ही था। दूसरा कोई तत्त्व नहीं था। उसने सोचा लोकों की रचना करूं / इस चिन्तन के साथ उसने लोकों की रचना की। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आरम्भ में एक मात्र सत् ही था। उसने इच्छा की कि मैं बहुत होकें / इस इच्छा के साथ वह अनेक रूपों में व्यक्त हो गया। . वस्तुतः सत् एक ही है। वही ब्रह्म या आत्मा है / जितना नानात्व है, वह उसी का प्रपंच है। १-(क) छान्दोग्योपनिषद्, 3 / 14 / 1 : सर्व खल्विदं ब्रह्म। (ख) मुण्डकोपनिषद्, 2 / 2 / 11 : ब्रह्म वेदं सबम् / २-छान्दोग्योपनिषद्, 6 / 2 / 2 : एकमेवाद्वितीयम् / ३-बृहदारण्यकोपनिषद्, 4 / 4 / 19 ; कठोपनिषद्, 2 / 1 / 10 : मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति / ४-ऐतरेयोपनिषद्, 1 / 1 / 1-2 / / ५-छान्दोग्योपनिषद्, 6 / 2 / 2-3 / Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययने ___ औपनिषदिक दृष्टि का फलित अर्थ यह है कि विश्व का मूल हेतु बह्म है। वही परमार्थ-सत्य है। शेष सब उसी से उत्पन्न है और उसी में विलीन हो जाता है। अत: बाह्य-जगत् असत्य है-परमार्थ-सत्य नहीं है। जो परमार्थ-सत्य है, वह 'एक' है। जो नानात्व है, वह उसी में से उत्पन्न है, अतः वस्तुतः 'एक' ही सत्य है / जो अनेक है, वह सत्य नहीं है। बौद्ध दर्शन और विश्व बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाएं हैं-हीनयान और महायान / हीनयान की दो शाखाएं हैं-वैभाषिक और सौत्रान्तिक-सर्वास्तिवादी हैं। वे जगत् के अस्तित्व को सत्य मानती हैं। महायान की दो शाखाएं-योगाचार और माध्यमिक-जगत् के अस्तित्व को मिथ्या मानती हैं। वैभाषिक और सौत्रान्तिक को दृष्टि में द्रव्य का अस्तित्व आत्म-केन्द्रित है। वह किसी एक ही केन्द्र से प्रवाहित नहीं हो रहा है। योगाचार और माध्यमिक की दृष्टि दार्शनिक युग में विकसित हुई थी। इसीलिए वह तर्कहीन ब्रह्म को मान्य नहीं कर सको। वह औपनिषदिक चिन्तन का अन्तिम रूप बनी। औपनिषदिक चिन्तन था कि ब्रह्म सत्य है और नानात्व असत्य / योगाचार और माध्यमिक शाखाओं का चिन्तन रहा कि सब कुछ असत्य है। जैन दर्शन और विश्व जैन-दृष्टि इन दोनों धाराओं से भिन्न रही। आगम और दार्शनिक-दोनों युगों में उसका रूप-परिवर्तन नहीं हुआ। उसका अपना अभिमत था कि एकत्व भी सत्य है और नानात्व भी सत्य है। अस्तित्व की दृष्टि से सब द्रव्य एक हैं, अत: एकत्व भी सत्य है। उपयोगिता की दृष्टि से द्रव्य अनेक हैं, अत: नानात्व भी सत्य है / जैन आचार्यों ने एकत्व की व्याख्या संग्रह-नय के आधार पर की और नानात्व की व्याख्या व्यवहार-नय के आधार पर / एकत्व और नानात्व की व्याख्या जहाँ निरपेक्ष होती है, वहाँ सत्य का दर्शन खण्डित हो जाता है। निरपेक्ष एकत्व भी सत्य नहीं है और निरपेक्ष नानात्व भी सत्य नहीं है। द नों का सापेक्ष दर्शन ही सत्य का पूर्ण दर्शन है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य आत्म-केन्द्रित हैं / उनके अस्तित्व का स्रोत किसी एक ही केन्द्र से प्रवहमान नहीं है। चेन का अस्तित्व जितना स्वतन्त्र और वास्तविक है, उतना ही स्वतंत्र और वास्तविक अचेतन का अस्तित्व भी है। चेतन और अचेतन की वास्तविक सत्ता ही यह जगत् है। १-उत्तराध्ययन, 36 / 2 / Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 खण्ड 1, प्रकरण : 6 1 -तत्त्वविद्या .. यह जगत् अनादि-अनन्त है / चेतन अचेतन से उत्पन्न नहीं है और अचेतन चेतन से उत्पन्न नहीं है / इसका अर्थ यह है कि जगत् अनादि-अनन्त है। यह व्याख्या द्रव्य-स्पर्शी नय के आधार पर की जा सकती है, किन्तु रूपान्तरस्पर्शी नय की व्याख्या इससे भिन्न होगी। उसके अनुसार यह जगत् सादि-सान्त भी है। इसका अर्थ यह है कि जगत् के घटक तत्त्व अनादि-अनन्त हैं और उनके रूप सांदि-सान्त हैं। जीव अनादि-अनन्त हैं, किन्तु एकेन्द्रिय जीव प्रवाह की दृष्टि से अनादि अनन्त हैं और व्यक्ति की दृष्टि से सादिसान्त हैं / ' इसी प्रकार अजीव भी अनादि-अनन्त हैं किन्तु परमाणु प्रवाह की अपेक्षा अनादि-अनन्त है और व्यक्ति की दृष्टि से सादि-सान्त है / जैन दार्शनिक इस सिद्धान्त में विश्वास नहीं करते कि असत् से सत् उत्पन्न होता है / इसका अर्थ यह है कि जगत् में नए सिरे से कुछ भी उत्सन्न नहीं होता / जो जितना है, वह उतना ही था और उतना ही रहेगा / यह मौलिक तत्त्व को बात है। रूमान्तरण की दृष्टि से असत् से सत् उत्सन्न होता भी है / जो एक दिन पहले असत् होता है, वह आज सत् हो जाता है और जो आज सत् होता है, वह कल फिर असत् हो सकता है। जिसे हम जगत् कहते हैं, उसकी सृष्टि का मूल यह रूपान्तरण हो है / जैन दार्शनिकों के अनुसार जगत् के घटक तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव / शेष सब इनका विस्तार है। संसार में जितने द्रव्य हैं, वे सब इन दा द्रव्यों के ही, भेद-उपभेद हैं / उनमें कुछ ऐसे हैं, जो हमारे लिए दृश्य हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो हमारे लिए दृश्य नहीं हैं / अजीव के पाँच प्रकार हैं अधर्मास्तिकाय- गतितत्त्व। अधर्मास्तिकाय- स्थितितत्व। ... " आकाशास्तिकाय- अवकाशतत्त्व। .. . ... .. काल परिवर्तन का हेतु। पुद्गला स्तिकाय- - संयोग-वियोगशील तत्त्व / मूर्त-अमूत .. ..... भारतीय तत्त्ववेत्ता तीन हजार वर्ष पहले से ही मूर्त और अमूर्त का विभाग मानते रहे हैं। शतपथ बाह्मण में लिखा है कि ब्रह्म के दो रूप हैं-मूर्त और अमूर्त / ' बृहदारण्यक 2 / 3 / 1 में भी यही बात मिलती है। पुराण-साहित्य में भी इस मान्यता की १-वही, 36 / 78-79 / २-वही, 36 / 12-13 / ३-शतपथ ब्राह्मग, 14 / 5 / 3 / 1 / Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन चर्चा हुई है / जैन-आगमों में मूर्त और अमूर्त के स्थान पर रूपी और अरूपी का प्रयोग अधिक मिलता है / इनकी चर्चा भी जितने विस्तार से उनमें हुई है, उतनी अन्यत्र प्राप्त नहीं है / रूपी और अरूपी की सामान्य परिभाषा यह है कि जिस द्रव्य में वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान हों, वह रूपी है और जिसमें ये न हों वह अरूपी है / जीव अरूपी है इसलिए भगु-पुत्रों ने अपने पिता से कहा था-"जीव अमूर्त होने के कारण इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है।" 2 अजीव के प्रथम चार प्रकार अरूपी हैं। पुद्गल रूपी हैं। अरूपी जगत् जनसाधारण के लिए अगम्य है। उसके लिए जो गम्य है, वह पुद्गल जगत् है। उसके चार प्रकार हैं-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु / 4 परमाणु पुद्गल की सबसे छोटी इकाई है / उससे छोटा कुछ भी नहीं है / स्कन्ध उनके समुदाय का नाम है / देश और प्रदेश उसके काल्पनिक विभाग हैं / पुदगल की वास्तविक इकाई परमाणु ही है। परमाणु सूक्ष्म होते हैं, इसीलिए वे रूपी होने पर भी हमारे लिए दृश्य नहीं हैं / इसी प्रकार उनके सूक्ष्म-स्कन्ध भी हमारे लिए अदृश्य हैं। हमारे लिए वही रूपी जगत् दृश्य है, जो स्थूल है। परमाणुवाद जैन-आगमों में परमाणुओं के विषय में अत्यन्त विस्तृत चर्चा की गई है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आगमों का आधा भाग परमाणुओं की चर्चा से सम्बन्धित है। उनके विषय में जैन-दर्शन का एक विशेष दृष्टिकोण है। उसका अभिमत है कि इस संसार में जितना सांयोगिक परिवर्तन होता है, वह परमाणुओं के आपसी संयोग-वियोग और जीव और परमाणुओं के संयोग-वियोग से होता है। इसकी विशद चर्चा हम 'कर्मवाद और लेश्या' के प्रकरण में करेंगे। .... शिवदत्त ज्ञानी ने लिखा है-"परमाणुवाद वैशेषिक दर्शन की ही विशेषता है। उसका प्रारम्भ उपनिषदों से होता है। जैन, आजीवक आदि द्वारा भी उसका उल्लेख किया गया है। किन्तु कणाद ने उसे व्यवस्थित रूप दिया।५ ज्ञानीजी का यह प्रतिपादन प्रामाणिक नहीं है। औपनिषदिक दृष्टि के आदान कारण परमाणु नहीं हैं। उसका उपादान ब्रह्म है। १-विष्णुराण, 1 / 22 / 53 / २-उत्तराध्ययन, 14 / 16 / . ३-वही, 36 / 4 / ४-वही, 36 / 10 / ५-भारतीय संस्कृति, पृ० 229 / Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 6 १-तत्त्वविद्या 231 ___ हरमन जेकोबी ने परमाणु सिद्धान्तों के विषय पर बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से प्रकाश डाला है / उनका अभिमत है-"ब्राह्मगों की प्राचीनतम दार्शनिक मान्यताओं में, जो उपनिषदों में वर्णित हैं, हम अणु सिद्धान्त का उल्लेख तक नहीं पाते हैं और इसलिए वेदान्त सूत्र में, जो उपनिषदों की शिक्षाओं को व्यवस्थित रूप से बताने का दावा करते हैं, इसका खण्डन किया गया है। सांख्य और योग दर्शनों में भी इसे स्वीकार नहीं किया गया है, जो वेदों के समान ही प्राचीन होने का दावा करते हैं, क्योंकि वेदान्त सूत्र भी इन्हें स्मृति के नाम से पुकारते हैं। किन्तु अणु सिद्धान्त वैशेषिक दर्शन का अविभाज्य अंग हैं और न्याय ने भी इसे स्वीकार किया है। ये दोनों ब्राह्मण-परम्परा के दर्शन हैं जिनका प्रादुर्भाव साम्प्रदायिक विद्वानों (पण्डितों) द्वारा हुआ है, न कि देवी या धार्मिक व्यक्तियों द्वारा। वेद-विरोधी मतों, जैनों ने इसे ग्रहण किया है, और आजीविकों ने भी... / हम जैनों को प्रथम स्थान देते हैं क्योंकि उन्होंने पुद्गल के सम्बन्ध में अतीव प्राचीन मतों के आधार पर ही अपनी पद्धति को संस्थापित किया है।" जीव विभाग दार्शनिक विद्वानों ने जीवों के विभाग भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से किए हैं। जैन दार्शनिकों ने उनके विभाग का आधार गति और ज्ञान को माना है / गति के आधार पर जीवों के दो विभाग होते हैं—(१) स्थावर और (2) त्रस / जिनमें गमन करने की क्षमता नहीं है, वे स्थावर हैं और जिनमें चलने की क्षमता है, वे त्रस हैं / स्थावर सृष्टि ___ स्थावर जीवों के तीन विभाग हैं-(१) पृथ्वी, (2) जल और (3) वनस्पति / 3 ये तीनों दो-दो प्रकार के होते हैं-(१) सूक्ष्म और (2) स्थूल / सूक्ष्म जीव समूचे लोक में व्याप्त होते हैं और स्कूल जीव लोक के कई भागों में प्राप्त होते हैं। . .' स्थल पृथ्वी . ..... . . स्थूल पृथ्वी के दो प्रकार हैं-(१) मृदु और (2) कठिन / 5 मृदु पृथ्वी के सात प्रकार हैं १-एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एन्ड एथिक्स, भाग 2, पृ० 199,20.0 / २-उत्तराध्ययन, 36 / 68 / ३-वही, 36 / 69 / ४-वही, 3678,86,100 / ५--वही, 3671 / Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययनं . ... (1) कृष्ण (काली), (2) नील (नीली वा नितशिलोत्पन्न), (3) लोहित (लेट राइट वा लाल), (4) हारिद्र (पीली), (5) शुक्ल (श्वेत), (6) पाण्डु (धूमिल, भूरी); तथा (7) पनकमृतिका (नद्य प, पंक, किट्ट तथा चिकनी दोमट)। यहाँ ये भेद अत्यन्त वैज्ञानिक हैं / ' प्रज्ञापना में भी मृदु पृथ्वी के ये सात प्रकार प्राप्त हैं। कठिन पृथ्वी-भूतल-विन्यास (टरेन) और करंबोपलों (ओरिस) को छत्तीस भागों में विभक्त किया गया है(१) शुद्ध पृथ्वी (19) अंजन ... (2) शर्करा ... (20) प्रवालक-मुंगे के समान रंग वाला . . (3) बालुका- बलुई (21) अभ्रब लुका-अभ्रक की बालु (4) उपल-कई प्रकार की (22) अभ्राटल-अश्रक . शिलाएं और करंबोपल (23) गोमेदक-वैडूर्य की एक जाति (5) शिला (24) रुचक-मणि की एक जाति (6) लवण (25) अंक-मणि की एक जाति (7) ऊप-नौती मिट्टी .. (26) स्फटिक . (8) अयस्-लोहा (2 ) मरकत-पन्ना (8) ताम्र-ताँबा (28) भुजमोचक - मणि की एक जाति (10) पु-जस्त. (26) इन्द्रनील-नीलम (11) सोसक-सीसा (30) चन्दन-मणि की एक जाति (12) रूप्य-चाँदी (31) पुलक-मणि की एक जाति (13) सुवर्ण-सोना (32) सौगन्धिक-माणक की एक जाति (14) वज्र-हीरा (33) चन्द्रप्रभ–मणि की एक जाति (15) हरिताल .... (34) वैडूर्य (16) हिंगुलक (35) जलकान्त-मणि की एक जाति (17) मनःशीला--मैनसिल . (36) सूर्यकान्त-मणि की एक जाति (18) सस्यक-रल की एक जाति वृत्तिकार के अनुसार लोहिताक्ष और मसारगल्ल क्रमश: स्फटिक और मरक्त तथा गेरुक और हंसगर्भ के उपद हैं / वृत्तिकार ने शुद्ध पृथ्वी से लेकर वन तक के चौदह १-उत्तराध्ययन, 3672 / २--कौटलीय अर्थशास्त्र, 11 / 36 / ३-बृहद् वृत्ति, पत्र 689 / Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 6 १-तत्त्वविद्या 233 प्रकार तथा रिताल से लेकर पटल तक के आठ प्रकार स्पष्ट माने हैं / गोमेदक से लेकर शेष पब चौदह प्रकार होने चाहिए, किन्तु अठारह. होते हैं (उतराध्ययन, 3673-76) / इनमें से चार वस्तुओं का दारों में अन्तर्भाव होता है / वृत्तिकार इस विषय में पूर्णरूपेण असंदिग्ध नहीं है कि किसमें किसका अन्तर्भाव होना चाहिए।' स्थूल जल स्थूल जल के पाँच प्रकार हैं (1) शुद्ध उदक, (2) ओस, (3) हरतनु, (4) कुहरा और (5) हिम / स्थूल वनस्पति - स्पूल वनस्पति के दो प्रकार हैं-(१) प्रत्येक शरीरी और (2) साधारण शरीरी।' जिसके एक शरीर में एक जीव होता है, वह 'प्रत्येक शरीरी' कहलाती है। जिसके एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं, वह 'साधारण शरीरी' कहलाती है / प्रत्येक शरीरी वनस्पति के बारह प्रकार हैं (1) वृक्ष, (4) लता, (7) लतावलय, (10) जलज, (2) गच्छ, (5) वल्ली, (8) पर्वग, (11) औषधितृण और (3) गुल्म, (6) तृण, (6) कुहुण, (12) हरितकाय / / - साधारण शरीरी वासति के अनेक प्रकार हैं ; जैसे-कन्द, मूल आदि / त्रस सृष्टि त्रस सृष्टि के छः प्रकार हैं(१) अग्नि, (4) त्रीन्द्रिय, . (2) वायु; (5) चतुरिन्द्रिय और (3) द्वीन्द्रिय, (6). पचेन्द्रिय / / १-बृहद् वृत्ति, पत्र 689 : इह च पृथि ज्यादयश्चतुरंश हरितालादयोऽष्टौ गोमेज्जकादयश्च क्वचित्कस्यचित्कथंचिदन्तर्भावाच्चतुर्दशेत्यमी मीलिताः षट्त्रिंशद् भवन्ति / २-उत्तराध्ययन, 3685 / ३-वही, 36 / 93 / ४-वही, 36 / 94,95 / ५-वही, 36 / 96-99 / ६-वही, 36 / 107,126 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन अग्नि और वायु की गति अभिप्रायपूर्वक नहीं होती, इसलिए वे केवल गमन करने वाले त्रस हैं / द्वीन्द्रिय आदि अभिप्रायपूर्वक गमन करने वाले त्रस हैं / अग्नि और वायु अग्नि और वायु दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं-सूक्ष्म और स्थल / सूक्ष्म जीव समूचे लोक में व्याप्त रहते हैं और स्थूल जीव लोक के अमुक-अमुक भाग में है।' स्थल अग्निकायिक जीवों के अनेक भेद होते हैं, जैसे--अंगार, मुर्मुर, शुद्ध अग्नि, अर्चि, ज्वाला, उल्का, विद्युत् आदि / स्थल वायुकायिक जीवों के भेद ये हैं:-(१) उत्कलिका, (2) मण्ड लिका, (3) धनवात, (4) गुञ्जावात, (5) शुद्धवात और (6) संवर्तकवात / अभिप्रायपूर्वक गति करने वाले त्रस जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भयभीत होना, दौड़ना-ये क्रियाएं हैं और आगति एवं गति के विज्ञाता हैं, वे सब त्रस हैं।४ इस परिभाषा के अनुसार अस जीवों के चार प्रकार हैं--(१) द्वीन्द्रिय, (2) त्रीन्द्रिय, (3) चतुरिन्द्रिय और (4) पंचेन्द्रिय / 5 ये स्थूल ही होते हैं, इनमें सूक्ष्म और स्थूल का विभाग नहीं है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, और चतुरिन्द्रिय जीव सम्मूर्छनज ही होते हैं / पंचेन्द्रिय जोव सम्मूच्छं पज और गर्भज-दोनों प्रकार के होते हैं / गति की दृष्टि से पंचेन्द्रिय चार प्रकार के हैं-(१) नेरयिक, (2) तिर्यञ्च, (3) मनुष्य और (4) देव / पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च तीन प्रकार के होते हैं--(१) जलचर, (2) स्थलचर और (3) खेचर / / जलचर सृष्टि के मुख्य प्रकार मत्स्य, कच्छा, ग्राह, मगर और शुंशुमार आदि हैं।" १-उत्तराध्ययन, 36 / 111,120 / २-वही, 36 / 100,109 / ३-वही, 363118-119 / ४-दशवकालिक, 4 सूत्र 9 / ५-उत्तराध्ययन, 36 / 126 / ६-वही, 363171 / ७-वही, 363172 / Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैल आ खण्ड 1, प्रकरण : 6 १-तत्त्वविद्या 235 स्थलचर सृष्टि की मुख्य जातियाँ दो हैं--(१) चतुष्पद और (2) परिसर्प / ' चतुष्पद के चार प्रकार हैं (1) एक खुर वाले-- अश्व आदि, (2) दो खुर वाले(३) गोल पैर वाले- हाथी आदि और (4) नख-सहित पैर वाले- सिंह आदि / 2 परिसर्प की मुख्य जातियाँ दो हैं (1) भुज परिसर्प- भुजाओं के बल रेंगने वाले। गोह आदि और (2) उरः परिसर्प- छाती के बल रेंगने वाले / सर्प आदि / खेचर सृष्टि की मुख्य जातियाँ चार हैं (1) चर्म पक्षी, (2) रोम पक्षी, (3) समुद्ग पक्षी और (4) वितत पक्षी। यह जीव-सृष्टि की संक्षिप्त रूपरेखा है / देखिए यंत्र १-उत्तराध्ययन, 36 / 179 / २-वही, 36 / 179,180 / ३-वही, 36 / 181 / ४-वही, 36 / 188 / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 ... ___ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . .... स्थावर-सष्टि . 1. पृथिवी ... . 2. जल .... TIR शुद्ध उदक कठिन ओस . हरतनु कुहरा हिम कृष्ण नील लोहित हारिद्र / पाण्डु शुक्ल पनक मृत्तिका शुद्ध पृथिवी शर्करा वालुका उपल शिला लवण ऊष अयस् ताम्र त्रपु सीसक रूप्य सुवर्ण वज्र हरिताल हिंगुलुक मनःशीला सस्यक अंजन प्रवालक अभ्राटल अभ्रवालुका गोमेदक रुचक अंक / स्फटिक मरकत भुतमोवक इटनील बदन पुठक सोविक चन्द्रप्रभ वैडूर्व जजकात सूर्यकान्त Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : १-तत्त्वविद्या ... 237 3. वनस्पति स्थल . - सूक्ष्म . . - प्रत्येक शरीरी साधारण शरीरी . . लतांवलय पवंग कुहुण जलज औषधितृण हरितकाय Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . त्रस-सृष्टि 1. अग्नि 2. वायु 3. द्वीन्द्रिय 4. त्रीन्द्रिय 5. चतुरिन्द्रिय 6. पंचेन्द्रिय १..अग्नि स्थल अंगार मुर्मुर शुद्ध अग्नि अचिं ज्वाला - उल्का विद्युत् 2. वायु सूक्ष्म - उत्कलिका मण्डलिका धनवात गुञ्जावात शृद्धवात संवर्तकवात 3. द्वीन्द्रिय 4. त्रीन्द्रिय नैरयिक तिर्यञ्च रत्न स्थलचर खेचर पंक धम शकरा जलचर स्थलचर बालुका | मत्स्य कच्छा चतुष्पद तम महातम मगर एक खुर वाले शंशुमार दो खुर वाले गोल पर वाले नख-सहित पैर वाले ग्राह चर्म पक्षी परिसर्प रोम पक्षी समुद्ग पक्षी भज परिसर्प वितत पक्षी उरः परिसर्प Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 6 १-तत्त्वविद्या . 236 5. चतुरिन्द्रिय 6. पंचेन्द्रिय मनुष्य वैमानि के कर्मभूमिज अकर्मभूमिज अन्तरद्वीपज भवनपति व्यन्तर ज्योतिष्क भत सूर्य ग्रह असुरकुमार नागकुमार सुपर्णकुमार विद्युत्कुमार अग्निकुमार * द्वीपकुमार दिक कुमार उदधिकुमार वायु कुमार स्तनितकुमार पिशाच यक्ष राक्षस किन्नर किंपुरुष महोरग गन्धर्व नक्षत्र तारा कल्पोपपन्न कल्पातीत सौधर्म ईशान सनाकुमार अनुत्तर ग्रंवेयक महेन्द्र विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित सर्वार्थसिद्ध ब्रह्म .. लान्तक महाशक सहस्रार आनत प्राणत भारण अच्युत अधस्तन मध्यम उपरितन अधस्तन मध्यम उपरितन अधस्तन मध्यम उपरितन Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन दृश्य जगत् और परिवर्तनशील सृष्टि जीत्र दो प्रकार के होते हैं-(१) संसारी और (2) सिद्ध / ' सम्यग दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के द्वारा पौद्गलिक बन्धनों से मुक्त जीव 'सिद्ध' कहलाते हैं। दृश्य जगत् और परिवर्तनशील सृष्टि में उनका कोई योगदान नहीं होता। वे केवल आत्मप्य होते हैं। सृष्टि के विविध रूपों में संपारी जोवों का योगदान होता है। वे शरीरस्य होते हैं, इसलिए पौद्गलिक संयोग-वियोग में रहते हुए नाना रूप धारण करते हैं। सृष्टि की विविधता उन्हों रूपों में से निखार पाती है। . ___ यह मिट्टी क्या है ? पृथ्वी के जीवों का शरीर ही तो है। यह जल और क्या है ? अग्नि, वायु, वनस्पति और जंगम-ये सभी शरीर हैं, जीवित या मृत। हमारे सामने ऐसी कोई भी वस्तु दृश्य नहीं है, जो एक दिन किसी जीव का शरीर न रही हो / शरीर और क्या है ? सूक्ष्म को स्थल बनाने और अदृश्य को दृश बनाने का एक माध्यम है। शरीर और जीव का संयोग सृष्टि के परिवर्तन और संचलन का मुख्य हेतु है / २-कर्मवाद और लेश्या परिस्थिति में ही गुण और दोष का आरोप वे लोग कर सकते हैं, जो आत्मा में विश्वास नहीं करते / आत्मा को मानने वाले लोग आन्तरिक और बह्य दोनों में गणदोष देखते हैं और अन्तिम सच्चाई तो यह है कि आतरिक-विशुद्धि से ही बाहर की विशुद्धि होती है तथा आन्तरिक दोष से हो बाहर में दोष निप्पन्न होता है। अमितगति ने इसी भावभाषा में कहा है अन्तर्विशुद्धतो जन्तोः, शुद्धिः सम्पद्यो बहः / बाह्य हि कुरुते दोषं, सवमान्तरदोषतः // बाहरी परिस्थिति से वे ही व्यक्ति प्रभावित होते हैं, जो विजातीय तत्वों से अधिक सम्पृक्त हैं / जिनका विजातीय तत्त्वों से सम्पर्क कम है, जिनकी चेतना अपने में ही लीन है, वे बाहर से प्रभावित नहीं होते। इसी सत्य को इस भाषा में भी प्रतुत किया ज' सकता है कि जो बाहरी संगों से मुक्त रहता है, उसकी चेतना अपने में लीन रहती है १-उत्तराध्ययन, 36 / 48 / .. . २-मूलाराधना, अमितगति, 1997 / - ३-मूलाराधना, 7.1912 : मंदा हुंति कसाया, बाहिरसंग विजढस्स सव्वस्स / गिण्हह कसायबहुलो, चेव हु सव्वं पि गंथकलिं // Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 6 २-कर्मवाद और लेश्या 241. और उसकी चेतना दूसरे रंगों में रंग जाती है, जो बाहर में विलीन रहता है। सचाई यह है कि अपने को बाह्य में विलीन करने वाला हर जीव बाह्य से प्रभावित होता है और उसकी चेतना बाहर के रंगों से रंगीन रहती है। लेश्या इस रंगीन चेतना का ही एक परिणाम है और कर्म-बन्धन उसी का अनुगमन करता है। कम : चैतन्य पर प्रभाव जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन / इन दोनों में सीधा सम्बन्ध नहीं है / जीव लेश्या के माध्यम से ही पुद्गलों का आत्मीकरण करता है, इसलिए जब वह शुभ प्रवृत्ति में संलग्न रहता है, तब शुभ पुद्गल आत्मीकृत होते हैं, जो पुण्य कहलाते हैं और जब वह अशुभ प्रवृत्ति में संलग्न रहता है, तब अशुभ पुद्गल आत्मीकृत होते हैं, जो पाप कहलाते हैं / जब ये पुण्य-पाप विभक्त किए जाते हैं, तब इनकी आठ जातियाँ बन जाती हैं, जिन्हें आठ कर्म कहा गया है (1) ज्ञानावरण- इससे ज्ञान आवत होता है, इसलिए यह पाप है। (2) दर्शनावरण- इससे दर्शन आवत होता है, इसलिए यह पाप है। (3) मोहनीय-- इससे दृष्टि और चारित्र विकृत होते हैं, इसलिए यह पाप है ! (4) अन्तराय- इससे आत्मा का वीर्य प्रतिहत होता है, इसलिए यह पाप है। (5) वेदनीय-- यह सुख और दुःख की वेदना का हेतु बनता है, इसलिए यह पुण्य भी है और पाप भी है। (6) नाम- यह शुभ और अशुभ अभिव्यक्ति का हेतु बनता है, इसलिए यह पुण्य भी है और पाप भी है। (7) गोत्र- यह उच्च और नीच संयोगों का हेतु बनता है, इसलिए यह पुण्य भी है और पाप भी है। (8) आयुष्य- यह शुभ और अशुभ जीवन का हेतु बनना है, इसलिए यह पुण्य भी है और पाप भी है। जीव पुण्य या पाप नहीं है और पुद्गल भी पुण्य या पाप नहीं है। जीव और पुद्गल का संयोग होने पर जो स्थिति बनती है, वह पुण्य या पाप है। इन पुण्य या पाप कर्मों के द्वारा जीवों में विविध परिवर्तन होते रहते हैं / इस जगत् के नानात्व का कर्म-समूह सर्वोपरि कारण है। कर्मों के पुद्गल सूक्ष्म हैं। उनसे ऐसे रहस्यपूर्ण कार्य घटित होते हैं, जिनकी सामान्य-बुद्धि व्याख्या ही नहीं कर सकती या जिन्हें बहुत सारे लोग ईश्वर की लोला कह कर सन्तोष मानते हैं। यदि हम जीव और कर्म पुद्गलों की संयोगिक प्रक्रियाओं को गहराई से समझ लें तो हम सृष्टि की सहज व्याख्या Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन कर सकते हैं और जटिलताओं से भी बच जाते हैं, जो ईश्वरीय-सृष्टि की व्याख्या में उत्पन्न होती हैं। लेश्या : चेतन और अचेतन के संयोग का माध्यम जितने स्थूल परमाणु स्कन्ध होते हैं, वे सब प्रकार के रंगों और उपरंगों से युक्त होते हैं। मनुष्य का शरीर स्थूल-स्कन्ध है, इसलिए वह भी सब रंगों से युक्त है। वह रंगीन है, इसीलिए बाह्य रंगों से प्रभावित होता है। उनका प्रभाव मनुष्य के मन पर भी पड़ता है। इस प्रभाव-शक्ति के आधार पर भगवान् महावीर ने सब प्राणियों के शरीरों और विचारों को छह वर्गों में विभक्त किया। उस वर्गीकरण को 'लेश्या' कहा जाता है (1) कृष्णलेश्या, (3) कापोतलेश्या, (5) पद्मलेश्या और (2) नीललेश्या, (4) तेजोलेश्या, (6) शुक्ललेश्या / डॉ० हर्मन जेकोबी के अभिमत की समीक्षा ___ डॉ० हर्मन जेकोबी ने लिखा है-"जैनों के लेश्या के सिद्धान्त में और गोशालक के मानवों को छह भागों में विभक्त करने वाले सिद्धान्त में समानता है। इसे पहले पहल प्रो० ल्यूमेन ने पकड़ा, किन्तु इस विषय में मेरा विश्वास है कि जैनों ने यह सिद्धान्त आजीवकों से लिया और उसे परिवर्तित कर अपने सिद्धान्तों के साथ समन्वित कर दिया।" ____ मानवों का छह भागों में विभाजन गोशालक के द्वारा नहीं, किन्तु पूरणकश्यप के द्वारा किया गया था। पता नहीं प्रो० ल्यूमेन और डॉ० हर्मन जेकोबी ने उसे 'गोशालक के द्वारा किया हुआ मानवों का विभाजन' किस आधार पर माना ? पूरणकश्यप बौद्ध-साहित्य में उल्लिखित छह तीर्थङ्करों में से एक हैं। उन्होंने रंगों के आधार पर छह अभिजातियाँ निश्चित की थों (1) कृष्णाभिजाति- क्रूर कर्म वाले सौकरिक, शाकुनिक आदि जीवों का वर्ग, (2) नीलाभिजाति- बौद्ध भिक्षु तथा कुछ अन्य कर्मवादी, क्रियावादी भिक्षुओं का वर्ग, (3) लोहिताभिजाति- एकशाटक निर्ग्रन्थों का वर्ग, (4) हरिद्राभिजाति- श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र, (5) शुक्लाभिजाति- आजीवक श्रमण-श्रमणियों का वर्ग और 1-Sacred Books of the East, Vol. XLV, Introduction. p. XXX. २-अंगुत्तरनिकाय, 6 / 6 / 3, भाग 3, पृ० 93 / ३-दीघनिकाय, 112, पृ० 16,20 / Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : 6 2 -कर्मवाद और लेश्या 243 (6) परमशक्लाभिजाति- आजीवक आचार्य नन्द, वत्स, कृश, सांकृत्य, मस्करी गोशालक आदि का वर्ग।' आनन्द ने गौतम बुद्ध से इन छह अभिजातियों के विषय में पूछा तो उन्होंने इसे 'अव्यक्त व्यक्ति द्वारा किया हुप्रा प्रतिपादन' कहा। इस वर्गीकरण का मुख्य आधार अचेलता है / इसमें वस्त्रों के अल्लीकरण या पूर्णत्याग के आधार पर अभिजातियों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। गौतम बुद्ध ने प्रानन्द से कहा-"मैं भी छह अभिजातियों को प्रज्ञापना करता हूँ(१) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक ( नीच कुल में उत्पन्न ) हो, कृष्ण-धर्म ( पाप ) __करता है। (2) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक हो, शुक्ल-धर्म करता है / (3) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक हो, अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाण को पैदा करता है। (4) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक (ऊँचे कुल में उत्पन्न ) हो, शुक्ल-धर्म ( पुण्य ) करता है। (5) कोई पुरुष शुक्लांभिजातिक हो, कृष्ण-धर्म करता है। (6) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाण को पैदा करता है।" यह वर्गीकरण जन्म और कर्म के आधार पर किया हुआ है। इसमें चाण्डाल, निषाद, आदि जातियों को 'शुक्ल' कहा गया है। कायिक, वाचिक और मानसिक दुश्चरण को 'कृष्ण-धर्म' और उनके सुचरण को 'शुक्ल-धर्म' कहा गया है। निर्वाण न कृष्ण है और न शुक्ल / इस वर्गीकरण का ध्येय यह है कि नीच जाति में उत्पन्न व्यक्ति भी शुक्ल-धर्म कर सकता है और उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति कृष्ण-धर्म भी करता है / धर्म और निर्वाण का सम्बन्ध जाति से नहीं है। .. छह अभिजातियों के इन दोनों वर्गीकरणों का लेश्या के वर्गीकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह सर्वथा स्वतंत्र है। लेश्याओं का सम्बन्ध एक-एक व्यक्ति से है। विचारों को प्रभावित करने वाली लेश्याएं एक व्यक्ति के एक ही जीवन में काल-क्रम से छहों हो सकती हैं। लेश्या का वर्गीकरण छह अभिजातियों की अपेक्षा महाभारत के वर्गीकरण के अधिक निकट है। सनत्कुमार ने दानवेन्द्र वृत्रासुर से कहा-"प्राणियों के वर्ण छह प्रकार के हैं(१) कृष्ण, (2) धूम्र, (3) नील, (4) रक्त, (5) हारिद्र और (6) शुक्ल / इनमें से १-अंगुत्तरनिकाय, 6 / 6 / 3, भाग 3, पृ० 35-63,94 / २-(क) अंगुत्तरनिकाय, 6 / 6 / 3, भाग 3, पृ० 63-94 / (ख) दीघनिकाय, 3 / 10, पृ० 295 / Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन कृष्ण, धम्र और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक सह्य होता है। हारिद्र वर्ण सुखकर और शुक्ल वर्ण अधिक सुखकर होता है।"१ ____ कृष्ण वर्ण की नीच गति होती है। वह नरक में ले जाने वाले कर्मों में आसक्त रहता है / नरक से निकलने वाले जीव का वर्ण धूम्र होता है, यह पशु-पक्षी जाति का रंग है। नील वर्ण मनुष्य जाति का रंग है। रक्त वर्ण अनुग्रह करने वाले देववर्ग का रंग है। हारिद्र वर्ण विशिष्ट देवताओं का रंग है। शुक्ल वर्ण सिद्ध शरीरधारी साधकों का रंग है।२ महाभारत में एक स्थान पर लिखा है--"दुष्कर्म करने वाला मनुष्य वर्ण से परिभ्रष्ट हो जाता है। पुण्य-कर्म से वह वर्ण के उत्कर्ष को प्राप्त होता है / "3 ___'लेश्या' और महाभारत के 'वर्ण-निरूपण' में बहत साम्य है, फिर भी वह महाभारत से गृहीत है, ऐसा मानने के लिए कोई हेतु प्राप्त नहीं है। रंग के प्रभाव की व्याख्या लगभग सभी दर्शन-ग्रन्थों में मिलती है। जैन-आचार्यों ने उसे सर्वाधिक विकसित किया, इस सम्बन्ध में कोई भी मनीषी दो मत नहीं हो सकता। इस विकास को देखते हुए सहज ही यह कल्पना हो जाती है कि जैन-आचार्य इसका प्रतिपादन बहुत पहले से ही करते आए हैं। इसके लिए वे उन दूसरी परम्पराओं के ऋणी नहीं हैं, जिन्होंने इसका प्रतिपादन केवल प्रासंगिक रूप में ही किया है। ___ गीता में गति के कृष्ण और शुक्ल-ये दो वर्ग किए गए हैं। कृष्णगति वाला बारबार जन्म-मरण करता है / शुक्लगति वाला जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है / / ___धम्मपद में धर्म के दो भाग किए गए हैं। वहाँ लिखा है- "पण्डित मनुष्य को कृष्णधर्म को छोड़ शुक्ल-धर्म का आचरण करना चाहिये।"५ पतञ्जलि ने कर्म को चार जातियाँ बतलाई थीं-(१) कृष्ण, (२)शुक्ल-कृष्ण, (3) शुक्ल और (4) अशुक्ल-अकृष्ण। ये क्रमशः अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर हैं। १-महाभारत, शान्तिपर्व, 28033 : षड् जीववर्णाः परमं प्रमाण, कृष्गो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् / रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु, हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम् // २-वही, 280 / 34-47 / ३-वही, 29114-5 / ४-गीता, 8 / 26: शुक्लकृष्णे गती ह्यते, जगतः शाश्वते मते / एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावतते पुनः // ५-धम्मपद, पंडितवग्ग, श्लोक 19 / Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 6. २-कर्मवाद और लेश्या 245 योगी की कर्म-जाति 'अशुक्ल-अकृष्ण' होती है। शेष तीन कर्म-जातियाँ सब जीवों में होती हैं।' उनका कर्म कृष्ण होता है, जिनका चित्त दोष-कलुषित या क्रूर होता है / पीड़ा और अनुग्रह दोनों विद्याओं से मिश्रित कर्म 'शुक्ल-कृष्ण' कहलाता है। ये बाह्यसाधनों के द्वारा साध्य होते हैं। तपस्या, स्वाध्याय और ध्यान में निरत लोगों के कर्म केवल मन के अधीन होते हैं / उनमें बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं होती और न किसी को पीड़ा दी जाती है, इसलिए इस कर्म 'शुक्ल' कहा जाता है / जो पुण्य के फल की भी इच्छा नहीं करते, उन क्षीण क्लेश चरमदेह योगियों के अशुक्ल-अकृष्ण कर्म होता है। ___ श्वेताश्वतर अनिषद् में प्रकृति को लोहित, शुक्ल और कृष्ण कहा गया है। सांख्य कौमुदी के अनुसार रजोगुण से मन मोह-रञ्जित होता है, इसलिए वह लोहित है। सत्त्वगुण से मन मल-रहित होता है, इसलिए वह शुक्ल है। स्वर-विज्ञान में भी यह बताया गया है कि विभिन्न तत्त्वों के विभिन्न वर्ण प्राणियों को प्रभावित करते हैं। उनके अनुसार मूलतः प्राणतत्त्व एक है / अणुओं के न्यूनाधिक वेग या कम्पन के अनुसार उसके पाँच विभाग होते हैं / उनके नाम, रंग, आकार आदि इस प्रकार हैं नाम वेग रंग आकार रस या स्वाद - (1) पृथ्वी अल्पतर पीला चतुष्कोण मधुर (2) जल .. अल्प सफेद या बैंगनी अर्द्धचन्द्राकार कसैला (3) तेजस् तीव्र त्रिकोण चरपरा (4) वायु तीव्रतर नीला या गोल खट्टा आसमानी (5) आकाश तीव्रतम काला या अनेकविन्दु - कड़वा नीलाभ गोल या ( सर्ववर्णक आकार शून्य मिश्रित रंग) - १-पातञ्जल योगसूत्र, 47 / २-वही, 417 भाज्य। ३-श्वेताश्वतर उपनिषद्, 4 / 5 : अजा मेकां लोहितशुक्लकृष्णां, बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः / अजो ह्य को जुषमाणोऽनुशेते, जहात्थेनां भुक्तभोगामजोऽन्यः // ४-सांख्यकौमुदी, पृ० 200 / ५-शिवस्वरोदय, भाषा टीका, श्लोक 156, पृ० 42 : आपः श्वेता क्षितिः पीता, रक्तवर्णो हुताशनः / मारतो नीलजीभूतः, आकाशः सर्ववर्णकः // Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ रंगों से प्राणि-जगत् प्रभावित होता है, इस सत्य की ओर जितने संकेत मिलते हैं, उनमें लेश्या का विवरण सर्वाधिक विशद और सुव्यवस्थित है। लेश्या की परिभाषा और वर्गीकरण का आधार ____ मन के परिणाम अशुद्ध और शुद्ध-दोनों प्रकार के होते हैं। उनके निमित्त भी शुद्ध और अशुद्ध-दोनों प्रकार के होते हैं। निमित्त प्रभाव डालते हैं और मन के परिणाम उनसे प्रभावित होते हैं। इस प्रकार इन दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध है। इसीलिए इन दोनों को 'लेश्या'—निमित्त को द्रव्य-लेश्या और मन के परिणाम को भावलश्या-कहा गया है। निमित बनने वाले पुदगल हैं, उनमें वर्ण भी है, गंध भी है, रस और स्पर्श भी है, फिर भी उनका नामकरण वर्ण के आधार पर हुआ है। मानसिक विचारों की अशुद्धि और शुद्धि को कृष्ण और शुक्लवर्ण के द्वारा अभिव्यक्ति दी जाती रही है। इसका कारण यह हो सकता है कि गंध आदि की अपेक्षा वर्ण मन को अधिक प्रभावित करता है। कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन रंग अशुद्ध माने गए हैं। इनसे प्रभावित होने वाली लेश्याएं भी इसी प्रकार विभक होती हैं। कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन अधर्म लेश्याएं हैं / तेजस्, पद्म और शुक्ल-ये तीन धर्म लेश्याएं हैं। अशुद्धि और शुद्धि के आधार पर छह लेश्याओं का वर्गीकरण, इस प्रकार है(१) कृष्णलेश्या अशुद्धतम क्लिष्टतम (2) नीललेश्या अशुद्धतर क्लिष्टतर (3) कापोतलेश्या अशुद्ध क्लिष्ट (4) तेजसलेश्या शुद्ध-. अक्लिष्ट (5) पद्मलेश्या शुद्धतर अक्लिष्टतर (6) शुक्ललेश्या शुद्धतम अक्लिष्टतम इस अशुद्धि और शुद्धि का आधार केवल निमित्त नहीं है। निमित्त और उपादान दोनों मिल कर किसी स्थिति का निर्माण करते हैं। अशुद्धि का उपादान है-कषाय की तीव्रता और उसके निमित्त हैं-कृष्ण, नील और कापोत रंग वाले पुद्गल / शुद्धि का उपादान है—कषाय को मन्दता और उसके निमित्त हैं-रक्त, पीत और श्वेत रंग वाले पुद्गल / उत्तराध्ययन (34 // 3) में लेश्या का ग्यारह प्रकार से विचार किया गया है १-उत्तराध्ययन, 34 // 56 / २-बही, 34157 / ३-वही, 34 / 3 / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-कर्मवाद और लेश्या 247 (2) नील (4) तेजस् (6) शुक्ल मेघ की तरह कृष्ण अशोक की तरह नील अलसी पुष्प की तरह मटमैला हिंगुल की तरह रक्त हरिताल की तरह पीत शङ्ख की तरह श्वेत। खण्ड 1, प्रकरण : (1) नाम (1) कृष्ण (3) कापोत (5) पद्म (2) वर्ण (1) कृष्ण(२) नील - (3) कापोत(४) तेजस्-- (5) पद्म (6) शुक्ल(३) रस (1) कृष्ण(२) नील(३) कापोत(४) तेजस्(५) पद्म-- (6) शुक्ल-3 (4) गंध (1) कृष्ण(२) नील(३) कापोत(४) तेजस्(५) पद्म(६) शुक्ल तुम्बे से अनन्त गुना कड़वा त्रिकुट (सोंठ, पिप्पल और काली मिर्च) से अनन्त गुना तीखा केरी से अनन्त गुना कसैला पके आम से अनन्त गुना अम्ल-मधुर आसव से अनन्त गुना अम्ल, कसैला और मधुर खजूर से अनन्त गुना मधुर मृत सर्प की गंध से अनन्त गुना अमनोज्ञ सुरभि कुसुम की गन्ध से अनन्त गुना मनोज्ञ १-उत्तराध्ययन, 34 / 3 / २-वही, 34 // 4-9 / ३-वही, 34 / 10-15 / ४-वही, 34 / 16-17 / Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (5) स्पश (1) कृष्ण- गाय की जीभ से अनन्त गुना कर्कश (2) नील(३) कापोत(४) तेजस्- नवनीत से अनन्त गुना मृदु (5) पद्म (6) शुक्ल' - (6) परिणाम (1) कृष्ण- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट (2) नील(३) कापोत(४) तेजस- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट (5) पद्म(६) शुक्ल२. जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट परिणामों के तारतम्य पर विचार करने से प्रत्येक लेश्या के नौ-नो परिणाम होते हैं (1) जघन्य- जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट (2) मध्यम- जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट (3) उत्कृष्ट- जघन्य. मध्यम. उत्कष्ट इसी प्रकार सात परिणामों का जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के त्रिक से गुणन करने पर विकल्पों की वृद्धि होती है / जैसे-६४३=२७, 274381, 8143243 / इस प्रकार मानसिक परिणामों की तरतमता के आधार पर प्रत्येक लेश्या के अनेक परिणमन होते हैं। (7) लक्षण(१) कृष्ण:-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग-इन पाँच आस्रवों में प्रवृत्त होना, मन, वचन और काया का संयम न करना, जीव हिंसा में रत रहना, तीव्र आरम्भ में संलग्न रहना, प्रकृति की क्षुद्रता, बिना विचारे काम करना, क्रूर होना और इन्द्रियों पर विजय न पाना। १-उत्तराध्ययन, 34 / 18-19 / २-वही, 34 / 20 / ३-वही, 34 / 21-22 / Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण :9 २-कर्मवाद और लेश्या 249 नील'- ई, कदाग्रह, छत्पस्दिता, अदिद्या, माया, निर्लजता, गृद्धि प्रद्वेष, शठता प्रमाद, रसले लुपता, मुख की गदेषणा, आरम्भ में रहना, प्रकृति की क्षुद्रता और बिना विचारे काम करना / कापोत'- वाणी की वक्रता, आचरण की वक्रता, काट, अपने दोषों को छाना, मिघ्या दृष्टि, मखोल करना, दुष्ट-वचन बोलना, चोरी करना और मात्सर्य / तेजस्३- नम्र व्यवहार करना, अचाल होना, ऋजुता, कुतूहल न करना, विनय में निपुण होना, जितेन्द्रियता, मानसिक समाधि, तपस्विता, धामिक-प्रेम, धार्मिक दृढ़ता, पाप-रुता और मुक्ति की गवेषगा। पद्म'- क्रोध, मान, माया और लोभ की अल्पता, चित्त की प्रशान्ति, आत्म-नियंत्रण, समाधि, अल्पभाषिता और जितेन्द्रियता / शुक्ल५- धर्म और शुक्ल ध्यान को लीनता, चित की प्रशान्ति, आत्म-नियंत्रण, सम्यक् प्रवृत्ति, मन, वचन और काया का संयम तथा जितेन्द्रियता / ___इस प्रसंग में गोम्मटसार जीवकाण्ड ( गाथा 508-516 ) द्रष्टव्य है / लेश्याओं के लक्षणों के साथ सत्त्व, रजम् और नमस् के लागों की आंशिक तुना होती है / शच, आस्तित्य, शुक्ल-धर्म की रुचि वाली बुद्धि -ये सत्त्वगुण के लक्षण हैं ; बहुत बोलना, मान, क्रोध, दम्भ पोर मातार्य-ये रजोगुण के लक्षग हैं और भय, अज्ञान, निद्रा, आलस्य और विषाद- ये तमोगुण के लक्षण हैं / / .1 उत्तराध्ययन, 34 / 22-24 / २-टही, 34 / 25-26 / ३-वही, 24 / 27-28 / ४-वहो; 34:29-30 / ५-वही, 34 / 13 / 6 अटांगहृदय, शरीरस्थान, 3 / 37,38: सात्विक शौचमास्तिक्यं शुधमरुचिर्मभिः / राजसं बहुभाषित्वं मानक्रुद्दम्भमत्सरम् // तासं भयमज्ञानं, निद्रालस्य विषादिता। इति भूतभयो देह'.....................॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 (2) नील उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (5) स्थान (1) कृष्ण- अरख्या (2) नील - (3) कापोत-- (4) तेजस- " (5) पद्म (6) शुक्ल- " (6) स्थितिलेश्या श्वेताम्बर दिगम्बर जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट (1) कृष्ण अन्तर्मुहुर्त 33 सागर और एक मुहुर्त अन्तर्मुइत 33 सागर पल्योपम के असंख्यातव भाग अधिक दस सागर " - 17 सागर (3) कापोत " पल्पोपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर 7 सागर (4) तेजस् // पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर 2 सागर (5) पद्म " अन्तर्मुइत अधिक दस सागर " 18 सागर (6) शुक्ल " अन्तर्मुइत्तं अधिक 33 सागर " 33 सागर (10) गति (1) कृष्ण- दुर्गतिः / (2) नील(३) कापोत(४) तेजस्- सुगति५ (5) पद्म (6) शुक्ल- , १-उत्तराध्ययन, 34 / 33 / २-बहो, 34 / 34-39 / ३-तत्वार्थ राजवातिक, पृ० 241 / ४-उतराध्ययन, 34 // 56 / ५-वही, 34 // 57 / Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 1, प्रकरण : २-कर्मवाद और लेश्या 251 (11) आयु-लेश्या के प्रारम्भिक और अन्तिम समय में आयु शेष नहीं होता, __किन्तु मध्यकाल में वह शेष होता है। यह नियम सब लेश्याओं के लिए समान है। तत्त्वार्थ राजवार्तिक ( पृ० 238 ) में लेश्या पर सोलह दृष्टियों से विचार किया गया है (1) निर्देश (5) कर्म (6) साधन (13) काल (2) वर्ण (6) लक्षण (10) संख्या (14) अन्तर (3) परिणाम (7) गति (11) क्षेत्र (15) भाव (4) संक्रम (8) स्वामित्व (12) स्पर्शन (16) अल्प-बहुत्व भगवती, प्रज्ञापना आदि आगमों में तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में लेश्या का जो विशद विवेचन किया गया है, उसे देख कर सहज ही यह विश्वास होता है कि जैन-आचार्य लेश्या-सिद्धान्त की प्रस्थापना के लिए दूसरे सम्प्रदायों के ऋणी नहीं हैं। ___ मनुष्य का शरीर पौद्गलिक है / जो पौद्गलिक होता है, उसमें रंग अवश्य होते हैं। इसीलिए संभव है कि रंगों के आधार पर वर्गीकरण करने की प्रवृत्ति चली। महाभारत में चारों वर्गों के रंग भिन्न-भिन्न बतलाए गए हैं / जैसे—ब्राह्मणों का रंग श्वेत, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला और शूद्रों का काला / ' . जैन-साहित्य में चौबीस तीर्थङ्करों के भिन्न-भिन्न रंग बतलाए गए हैं। पद्मप्रभ और वासुपूज्य का रंग लाल, चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त का रंग श्वेत, मुनि सुव्रत और अरिष्टनेमि का रंग कृग, मल्लि और पार्श का रंग नील तया शेष सोलह तीर्थङ्करों का रंग सुनहला था। १-उत्तराध्ययन, 34158-60 / २-महाभारत, शान्तिपर्व, 2885 : गाह्मणानां सितोवर्णः, क्षत्रियाणां तु लोहितः / वैश्यानां पीतको वणः, शूद्राणामसितस्तथा // ३-अमिधान चिन्तामणि, 1149 / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन रंग-चिकित्सा के आधार पर भी लेश्या के सिद्धान्त की व्याख्या की जा सकती है। रंगों की कमी से उत्पन्न होने वाले रोग रंगों की समुचित पूर्ति होने पर मिट जाते हैं। यह उनका शारीरिक प्रभाव है। इसी प्रकार रंगों के परिवर्तन और मात्रा-भेद से मन भी प्रभावित होता है / इस प्रसंग में डॉ० जे० सी० ट्रस्ट की 'अणु और आत्मा' पुस्तक द्रष्टव्य है। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड-२ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : पहला कथानक संक्रमण भगवान महावीर का अस्तित्व-काल ई० पू० छठो-पाँचीं शताब्दी ( 527-455) है। उस समय अनेक मत प्रचलित थे। सभी धर्म-प्रवर्तकों का अपना-अपना साहित्य था। उस साहित्य को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) वैदिक-साहित्य (2) जैन-साहित्य. (3) बौद्ध-साहित्य (4) श्रमण-साहित्य उस समय सभी सम्प्रदाय दो धाराओं में बंटे हुए थे (1) वैदिक (2) श्रमण वैदिक-सम्प्रदाय के अन्तर्गत वेदों का प्रामाण्य स्वीकार करने वाले कई सम्प्रदाय थे। श्रमण-सम्प्रदाय में जैन, बौद्ध, आजोवक, गैरिक, परिव्राजक आदि-आदि थे। वैदिकमान्यता के प्रतिनिधि ग्रन्थ वेद सबसे प्राचीन माने जाते हैं। कालानुक्रम से अनेक ऋषिमहषियों ने 'ब्र ह्मण', 'आरण्यक', 'कल्पसूत्र' आदि को रचनाएं कीं और वैदिक-साहित्य को अपनी उपलब्धियों से समृद्ध किया। भगवान महावीर की वाणी का संग्रह कर जन-आचार्यो' ने उसे 'अङ्ग' और 'अङ्गबाह्य' आगम के रूप में प्रस्तुत किया और इरो 'निग्रन्थ-प्रवचन' की संज्ञा दी। .' महात्मा बुद्ध के उपदेशों को संग्रहीत कर बौद्ध मनीषियों ने उसे 'त्रिपिटक' की संज्ञा दी। ____ भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध से पूर्व जो वैदिकेतर-साहित्य था उसे श्रमणसाहित्य की श्रेणी में रखा गया। प्रो० ई० ल्यूमेन ने इसे 'परिव्राजक-साहित्य' कहा और डॉ. विन्टरनिट्ज़ ने इसे 'श्रम ग-साहित्य' (Ascetic literature) की संज्ञा दी।' g. Some Problems of Indian Literature # 'Ascetic literature of ancient India', p. 21 ( Calcutta University Press 1925 ). Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन इस श्रमण-साहित्य में भगवान् पार्श्व के चौदह पूर्वो' तथा आजीवक आदि श्रमणसम्प्रदायों के साहित्य का समावेश होता है। जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य में इस प्राचीन 'श्रमण-साहित्य' की झाँकी उपलब्ध होती है। डॉ. विन्टरनिटज ने लिखा है- 'जैन-आगम-साहित्य में प्राचीन भारत के श्रमणसाहित्य का बहुत बड़ा भाग सन्दृब्ध है / श्रमग-साहित्य का कुछ अंश बौद्ध-साहित्य तथा महाकाव्य और पुराणों में भी मिलता है।" प्रस्तुत चर्चा ____ उत्तर ध्ययन के ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनकी तुटना बौद्ध साहित्य तथा महाभारत से होती है। पाठक के मन में सहज ही यह प्रश्न उभरता है कि इनमें पहले कौन ? इसका उत्तर प्राप्त करने के लिए सम्बन्धित साहित्य के रचना-काल का निर्णय करना मावश्यक है। बौद्ध परिष (1) प्रथम परिषद बुद्ध-परिनिर्वाण के चौथे मास में हुई। इस सभा को अध्यक्षता महाकाश्यप ने की और राजगृह में वैभारगिरि के उत्तर-भाग में स्थित सप्तपर्णी गुफा में इसकी कार्यवाही चली। इस सभा में भाग लेने वाले क्षुिओं की संख्या 500 के लगभग थी। महाकाश्यप, उपालि तथा आनन्द ने इसमें प्रधान रूप से भाग लिया। इस परिषद् के दो मुख्य परिणाम निष्पन्न हुए १-उपालि के नेतृत्व में 'विन्य' का निश्चय / २-आनन्द के नेतृत्व में 'धम्म' पाठ का निश्चय / (2) दूसरी पषिद् बुद-परिनिर्वाण के 100 वा बाद वैशाली के बालुकाराम में हुई। इसमें मात सो भिक्षुओं ने भाग लिया। इस सभा में विनय-सम्बन्धी दस बातों का निर्णय किया गया और सात सौ भिक्षुओं ने महास्थविर रेवत के नेतृत्व में 'धम्म' का संकटन किया। (3) तीसरी परिषद् बुद्ध-परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद अशोक के समय में पाटलिपुत्र के अशोकाराम में हुई। इसके सभारति तिम्म मोग्गलिपुत्र थे / यह परिषद् 9 महीने तक चली और इसमें बुद्ध-वचनों का संगायन हुआ और तिस्स मागलिपुत्त ने 2. The Jainas in the History of Indian Literature, p. 9: In the sacred texts of the Jainas a great part of the ascetic literature of arcient India is embodied which has also left its traces in Buddhist literature as well as in the Epics and puranas. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2. प्रकरण :1 कथानक संक्रमण 257 'कथावस्तु' नामक ग्रन्थ की रचना की। इस परिषद् की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि बौद्ध-धर्म के व्यापक प्रचार के लिए अनेक प्रचारक संसार के विभिन्न भागों में भेजे गए / यहीं से बौद्ध-धर्म का विदेशों में प्रचार का इतिवृत्त प्रारम्भ हुआ। (4) चौथी परिषद् लंका के राजा वट्टगामणि अभय (ई० पू० 26-17) के समय में हुई। अशोक के समय में महेन्द्र तथा अन्य भिक्षु जिस त्रिपिटक को लंका ले गए थे, उसे ताड़पत्रों पर लेख-बद्ध किया गया / महाभारत का रचना-काल महर्षि व्यास ने अठारह पुराणों की रचना के पश्चात् 'भारत' की रचना की। स्वयं व्यास ने भी इसका उल्लेख किया है। 3 __पारजीटर ने पुराण-काल की मीमांसा करते हुए उसको ईसा पूर्व हवीं शताब्दी से ईसवी सन् की चौथी शताब्दी तक माना है।" यह माना जाता है कि महाभारत-युद्ध ई० पू० 3101 में हुआ था और उसके लगभग एक शताब्दी बाद ही 'भारत' की रचना हो गयी थी। जायसवाल ने महाभारतयुद्ध को ई० पू० 1424 में तथा पारजीटर ने ई० पू० 650 में माना है। मूल 'भारत' में चौबीस हजार श्लोक थे। पाश्चात्य विद्वान् हॉपकिन्स', विन्टरनिट्ज , मेकडोनल१०, विन्सेन्टस्मिथ'', मोनियर १-भरतसिंह उपाध्याय : पालि साहित्य का इतिहास, पृ० 86-100 / २-मत्स्यपुराण, 53170 : अष्टादशपुराणानि, कृत्वा सत्यवतीसुतः / भारताख्यानमखिलं, चक्रे तदुपबृहितम् // ३-महाभारत, आदिपर्व, 1154-64 / 4. Ancient Indian Historical Tradition, p. 334. ५-चिन्तामणि विनायक वैद्य : महाभारत मीमांसा, पृ० 140,152 / ६-देखिए-Ancient Indian Htstorical Tradition, p. 182 तथा Foot note No. 3. ७-महाभारत, आदिपर्व, 13102 : चतुर्विशतिसाहतीं, चक्रे भारतसंहिताम् / उपाख्यानविना तावद्, भारतं प्रोच्यते बुधैः // 8. Cambridge History of India, Vol. 1, p. 258. EUR. History of Indian literature, Vol. 1, p. 465. 20. Sanskrit literature, p. 285-87. 11. Oxford History of India, p. 33. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन विलियम्स' आदि-आदि ने महाभारत का निर्माण-काल ई० पू० 500 से ईसवी सन् की चौथी शताब्दी तक माना है। चिन्तामणि विनायक वैद्य उपलब्ध महाभारत को सौति द्वारा परिवर्द्धित मानते हैं और उसके काल की सीमा ई० पू० 200 से ई० पू० 400 तक मानते हैं / यह माना जाता है कि मूल 'भारत' में औपदेशिक सामग्री नहीं थी। वह एकान्ततः ऐतिहासिक ग्रन्थ था। आज जो उपदेश उसमें संकलित हैं, वह समय-समय पर जोड़ा गया है / उसका मौलिक अंश सारे ग्रन्थ का पाँचवाँ भाग मात्र था। यही मूल 'भारत' है। जैन-आगम अनुयोगद्वार ( ई० सन् पहली शताब्दी) तथा नन्दी (ई० सन् तीसरी या पाँचवी शताब्दी ) में भारत का नाम आया है। भारत का नाम 'जय' भी रहा है-ऐसी भी मान्यता है / / महाभारत के तीन रूप मिलते हैं (1) मूल भारत में 88004 या 12000 श्लोक थे। वैशम्पायन ने चौबीस हजार किए और अन्त में सौति ने शौनक को सुनाया। उस समय शौनक द्वादश वर्षीय यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने सौति से अनेक प्रश्न किए और सौति ने उन प्रश्नों का समाधान किया। उन सभी प्रश्नों और उतरों का इसमें समावेश कर दिया गया। 'भारत' की श्लोक संख्या एक लाख हो गई। (2) रायचौधरी ने यह माना है कि मूल 'भारत' चौबीस हजार श्लोक का था / तदनन्तर उसमें अनेक उपाख्यान, प्रचलित साहित्य की बहुविध सामग्री आदि का प्रक्षेप होता रहा / यह प्रक्षेप लगभग ईसा सन् की पाँचवीं शताब्दी तक होता रहा है। (3) आर० सी० मजूमदार ने माना है कि महाभारत किसी एक व्यक्ति या एक काल की रचना नहीं है। यह ईसा पूर्व दूसरी से चौथो शताब्दी की रचना होनी चाहिए। ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी तक इसमें प्रक्षेप होते रहे हैं / 1-Indian Wisdom, p. 317. २-महाभारत मीमांसा, पृ० 140-152 / ३-महाभारतः (क) 'जयो नामेतिहासोऽयम्' / (ख) प्रथम एवं अन्य अनेक पर्वो का प्रारम्भ इस श्लोक से होता हैनारायणं नमस्कृत्य, नरं चैव नरोत्तमम् / देवी सरस्वतीं व्यासं, ततो जयमुदीरयेत् // ४-महाभारत, आदिपर्व, 181: / अष्टौ श्लोकसहस्राणि, अष्टौ श्लोकशतानि च / अहं वेद्मि शुको वेत्ति, संजयो वेत्ति वा न वा // 4. Studies in Indian Antiquities, p. 281-282. 6. Ancient India, p. 195. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 256 जैन आगम-वाचनाएँ वीर-निर्वाण से लगभग एक सहस्राब्दी के मध्य में आगम-संकलन की पाँच वाचनाएं हुई पहली वाचना-वीर-निर्वाण की दूसरी शताब्दी ( वी० नि० के 160 वर्ष बाद ) में पाटलिपुत्र में बारह वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा। उस समय श्रमण-संघ छिन्न-भिन्न हो गया। अनेक श्रुतधर काल-कवलित हो गए। अन्यान्य अनेक दुविधाओं के कारण यथावस्थित सूत्र-परावर्तन नहीं हो सका / अत: आगम-ज्ञान की शृङ्खला टूट-सी गई / दुर्भिक्ष मिटा / उस काल में विद्यमान अनेक विशिष्ट आचार्य पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए। ग्यारह अङ्ग एकत्रित किए / उस समय बारहवे अङ्ग 'दृष्टिवाद' के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी थे और वे नेपाल में 'महाप्राण-ध्यान' की साधना कर रहे थे। संघ के विशेष निवेदन पर उन्होंने मुनि स्थूलभद्र को बारहवें अङ्ग की वाचना देना स्वीकार किया / स्थलभद्र मुनि अध्ययन में संलग्न हो गए। उन्होंने 'दस पूर्व' अर्थ सहित सीख लिए / 'ग्यारहव पूर्व की वाचना चालू थी / बहिनों को चमत्कार दिखाने के लिए उन्होंने सिंह का रूप बनाया। भद्रबाह ने इसे जान लिया। आगे वाचना बन्द कर दी। फिर विशेष आग्रह करने पर अन्तिम 'चार पूर्वो' की वाचना दी। किन्तु अर्थ नहीं बताया। अर्थ की दृष्टि से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु हुए। स्थूलभद्र शाब्दिक-दृष्टि से चौदह-पूर्वी हुए, किन्तु आर्थी-दृष्टि से दस-पूर्वी ही रहे। ___ दूसरी वाचना-आगम-संकलन का दूसरा प्रयत्न ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के मध्य में हुआ। चक्रवर्ती खारवेल जैन-धर्म का अनन्य उपासक था। उसके सुप्रसिद्ध हाथीगुम्फा अभिलेख में यह उपलब्ध होता है कि उसने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर जैन-श्रमणों का एक संघ बुलाया और मौर्यकाल में जो अङ्ग उच्छिन्न हो गए थे, उन्हें उपस्थित किया। - तीसरी वाचना-आगम-संकलन का तीसरा प्रयत्न वीर-निर्वाण 827 और 840 के मध्यकाल में हुआ। उस काल में बारह वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा। भिक्षा मिलना अत्यन्त दुष्कर हो गया। साधु छिन्न-भिन्न हो गए। वे आहार की उचित गवेषणा में दूर-दूर देशों की ओर चल पड़े। अनेक बहुश्रुत तथा आगमधर मुनि दिवंगत हो गए। भिक्षा की उचित प्राप्ति न होने के कारण आगम का अध्ययन, अध्यापन, धारण और प्रत्यावर्तन सभी अवरुद्ध हो गए / धीरे-धीरे श्रुत का ह्रास होने लगा। अतिशायी श्रुत का नाश हुआ। 1. Journal of the Bihar and Orissa Research Society, Vol. XIII, p. 236. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . अङ्ग और उपाङ्गों का अर्थ से ह्रास हुआ। उसका भी बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया। बारह वर्ष के इस दुर्भिक्ष के बाद श्रमण-संघ स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में मथुरा में एकत्रित हुआ / अनेक-अनेक श्रमण उसमें सम्मिलित हुए। उस समय जिन-जिन श्रमणों को जितना-जितना स्मृति में था, उसका अनुसंधान किया। इस प्रकार 'कालिक सूत्र' और 'पूर्वगत' के कुछ अंश का संकलन हुआ। मथुरा में होने के कारण उसे 'माथुरी वाचना' कहा गया / युग-प्रधान आचार्य स्कन्दिल ने उस संकलित-श्रुत के अर्थ की अनुशिष्टि दी, अतः वह अनुयोग स्कन्दिली वाचना' भी कहलाया। ___ मतान्तर के अनुसार यह भी माना जाता है कि दुर्भिक्ष के कारण किंचिद् भी श्रुत नष्ट नहीं हुआ। उस समय सारा श्रुत विद्यमान था। किन्तु आचार्य स्कन्दिल के अतिरिक्त शेष सभी अनुयोगधर मुनि काल-कवलित हो गए थे। दुर्भिक्ष का अन्त होने पर आचार्य स्कन्दिल ने मथुरा में पुन: अनुयोग का प्रवर्तन किया। इसीलिए उसे 'माथुरी वाचना' कहा गया और वह सारा अनुयोग स्कन्दिल सम्बन्धी गिना गया / ' चौथी वाचना-इसी समय ( वीर-निर्वाण सं० 827-840 ) वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में संघ एकत्रित हुआ। किन्तु श्रमण बीच-बीच में बहुत कुछ भूल चुके थे / श्रुत की सम्पूर्ण व्यवच्छित्ति न हो जाय इसलिए जो कुछ स्मृति में था, उसे संकलित किया / उसे 'वल्लभी वाचना' या 'नागार्जुनीय वाचना' कहा गया। पाँचवीं वाचना-वीर-निर्वाण की दसवीं शताब्दी (980 या 663) में देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वल्लभी में पुनः श्रमण-संघ एकत्रित हुआ। स्मृति-दौर्बल्य, परावर्तन की न्यूनता, धृति का ह्रास और परम्परा की व्यवच्छित्ति आदि-आदि कारणों से श्रुत का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका था। किन्तु एकत्रित मुनियों को अवशिष्ट श्रुत की न्यून या अविक, त्रुटित या अत्रुटित जो कुछ स्मृति थी, उसकी व्यवस्थित संकलना की गई। देवर्द्धिगणी ने अपनी बुद्धि से उसकी संयोजना कर उसे पुस्तकारूढ़ किया। माथुरी तथा वल्लभी वाचनाओं के कंठगत आगमों को एकत्रित कर उन्हें एकरूपता देने का प्रयास किया गया। भगवान् महावीर के पश्चात् एक हजार वर्षों में घटित मुख्य घटनाओं का समावेश यत्र-तत्र आगमों में किया गया। जहाँ-जहाँ समान आलापकों का बार-बार पुनरावर्तन होता था, उन्हें संक्षिप्त कर एक-दूसरे का पूर्ति-संकेत एक-दूसरे आगम में कर दिया गया। यह वाचना वल्लभी नगर में हुई, अतः इसे 'वल्लभी वाचना' कहा गया है / ... १-(क) नंदी चूर्णि, पृ० 8 / (ख) नंदी, गाथा 33, मलयगिरि वृत्ति, पत्र 51 / . Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण:१ कथानक संक्रमण सदृश कथानक बौद्ध-ग्रन्थों, महाभारत तथा जैन-ग्रन्थों में अनेक कथानक आंशिक रूप से समान मिलते हैं / उत्तराध्ययन में ऐसे अनेक कथानक हैं, जो बौद्ध -ग्रन्थों तथा महाभारत में भी उपलब्ध हैं / जैसे (1) उत्तराध्ययन अध्ययन 12 की कथावस्तु जातक 467 में / (2) उत्तराध्ययन अध्ययन 13 की कथावस्तु जातक 468 में / (3) उत्तराध्ययन अध्ययन 14 की कथावस्तु जातक 506 में तथा महाभारत, शान्तिपर्व, अध्ययन 175 एवं 277 में / (4) उत्तराध्ययन अध्ययन 6 की आंशिक तुलना जातक 536 तथा महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय 178 एवं 276 से होती है। अब हम जैन, बौद्ध तथा वैदिक प्रसंगों को अविकल प्रस्तुत करते हुए उनकी समीक्षा करेंगे। हरिकेशबल (अध्ययन 12) मथुरा नगरी में राजा शङ्ख राज्या करते थे। उन्होंने स्थविर मुनियों के पास धर्म सुना। मन वैराग्य से भर गया। वे मुनि बने। कालक्रम से गीतार्थ हुए। एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए हस्तिनापुर आए और भिक्षा के लिए नगर की ओर चले। ग्राम प्रवेश के दो मार्ग थे। एक का नाम हुताशन-मार्ग था। वह अत्यन्त उष्ण और जलते अंगारों जैसा था। उष्णकाल में उस मार्ग से कोई नहीं आ-जा सकता था। जो कोई अनजान में उस मार्ग की ओर चला जाता, वह मर जाता था। मुनि ने निकट के एक मकान के गवाक्ष में बैठे सोमदेव ब्राह्मण से पूछा-"क्या मैं इस मार्ग से चला जाऊं ?" ब्राह्मण यह सोच कर कि इस हुताशन-मार्ग से जाते हुए मुनि को हम जलता देख सकेंगे, कहा-"हाँ, आप इसी मार्ग से जाइए।" .' 'मुनि निश्छल-भाव से उसी मार्ग से चल पड़े। वे लब्धि-सम्पन्न थे। उनके पाद-स्पर्श से मार्ग ठण्डा हो गया / ब्राह्मण ने मुनि को शान्त-भाव से धीरे-धीरे जाते देखा और वह भी उसी मार्ग से चल पड़ा। मार्ग को बर्फ जैसा ठण्डा देख उसने सोचा-अहो ! मैं पापी हूँ। अशुभ संकल्प से मैंने पापाचरण किया है। मुनि महान् हैं। इन्हीं के प्रभाव से यह अग्नि-जैसा मार्ग भी हिम-स्पर्श वाला हो गया है। वह मुनि के समीप गया। भाव-युक्त प्रणाम कर बोला-"भगवन् ! मैं पापी हूँ। मैंने पाप-कर्म किया है / उससे कैसे छुटकारा पा सकता हूँ।" मुनि ने संसार की असारता का उपदेश दिया, कषाय का विपाक बताया, धर्मानुष्ठान के फल का निरूपण किया, निर्वाण-सुख की प्रशंसा की और श्रमण-धर्म एवं Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन उसके आधारभूत सम्यक्त्व की शिक्षा दी। सोमदेव में विरक्ति के भाव जगे। वह मुनि बन गया। उसने धर्म-शिक्षा ग्रहण की और श्रामण्य का पालन करने लगा। किन्तु "मैं उत्तम जातीय हूँ"-यह जाति-गर्व उसमें बना रहा। वह रूप, ऐश्वर्य आदि का भी मद करने लगा। वह नहीं सोचता था कि संसार में ऐसी क्या वस्तु है जिस पर गर्व किया जाय। जो कुछ शुभ या अशुभ होता है, वह सब कर्मों के प्रभाव से होता है। कहा भी है सुरो वि कुक्कुरो होइ, रंको राया वि जायए। दिओ वि होइ मायंगो, संसारे कम्मदोसओ॥ न सा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं / न जाया न मुया जत्थ, सम्वे जीवा अणंतसो॥ -कर्म के प्रभाव से देव कुक्कुर बन जाता है, रंक राजा हो जाता है, ब्राह्मण मातंग हो जाता है। ऐसी कोई भी जाति या योनि नहीं है, ऐसा कोई भी स्थान या कुल नहीं है, जहाँ जीव न मरा हो या उत्पन्न न हुआ हो। , उतमत्तं गुणेहि चेव पाविज्जई ण जाईए। -उत्तमता गुणों से प्राप्त होती है, जाति से नहीं / सोमदेव मर कर देव बना / देवता का आयुष्य पूरा कर वह वहाँ से च्युत हुआ। मृत गंगा नदी के तट पर बलकोट्ट नामक हरिकेश रहते थे। उनके अधिपति का नाम बलकोट्ट था। उसके दो पत्नियाँ थों-गोरी और गंधारी। सोमदेव का जीव गोरी के गर्भ में पुत्र रूप में आया। गोरी ने स्वप्न में वसन्तऋतु और फले-फूले आम वृक्ष को देखा। स्वप्न-शास्त्रियों ने कहा- "तुम एक विशिष्ट पुत्र को जन्म दोगी।" नौ मास बीते / उसने पुत्र को जन्म दिया। पूर्व भव के जाति-भेद के कारण वह अत्यन्त कुरूप और काला था। बलकोट्टों में उत्पन्न होने के कारण उसका नाम 'बल' रखा गया। वह अत्यन्त क्रोधी था। .. वसन्तोत्सव का समय था। सभी लोग उत्सव में मग्न थे। लोग भोज में भोजन कर रहे थे। सुरापान चल रहा था। लोगों ने बालक 'बल' को अप्रियकारी और क्रोधी मान अपने समूह से अलग कर दिया। वह दूर जा खड़ा हो गया और उत्सव को देखने लगा। इतने में ही एक भयंकर सर्प निकला। सहसा सभी उठ खड़े हुए और सर्प को मार डाला / कुछ ही क्षणों बाद एक निर्विष सर्प निकला। लोग भयभीत हो उठे। उसे निर्विष समझ छोड़ दिया / बल ने सोचा-"प्राणी अपने ही दोषों से दुःख पाता है / सर्प Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण सविष था, वह अपने ही दोष से मारा गया। निर्विष सर्प को लोगों ने छोड़ दिया। कहा है भद्दएणेव होयव्वं, पावति भद्दाणि भद्दओ। सविसो हम्मति सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुच्चति // -प्राणी को भद्रक होना चाहिए। भद्रक व्यक्ति को सर्वत्र सुख मिलता है। सर्प सविष होने के कारण मारा जाता है और भेरुंड निर्विष होने के कारण नहीं मारा जाता। नियगुणदोसेहिं संपय-विवयाओ होंति पुरिसाणं / ता उज्झिऊण दोसे, एण्हि पि गुणे पयासेमि // —मनुष्य अपने ही गुणों से संपदाओं को अर्जित करता है और अपने ही दोषों से विपत्तियाँ पाता है / अतः मैं दोषों को छोड़ कर गुणों को प्रकट करूंगा।" चिन्तन आगे बढ़ा। जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। जाति-मद के विपाक का चित्र सामने आया। विरक्ति के भाव उमड़े। साधु के समक्ष धर्म सुना और प्रवजित हो गया। ___ मुनि हरिकेशबल साधु-धर्म को स्वीकार करके घोर तपस्या करने लगे। तपस्या से सारा शरीर सूख गया। एक बार वे वाराणसी पाए / तेंदुक उद्यान में ठहरे। वहाँ 'गंडोतिंदुग' यक्ष का मंदिर था। वह यक्ष मुनि की उपासना करने लगा। एक बार एक दूसरा यक्ष वहाँ आया और गंडीतिदुग यक्ष से पूछा-"आज कल दिखाई नहीं देते ?" उसने कहा-"ये महात्मा मेरे उद्यान में ठहरे हैं। सारा दिन इनकी ही उपासना में बीतता है।" वह आगन्तुक यक्ष मुनि के चरित्र से प्रतिबुद्ध हुआ और बोला-"मित्र ! ऐसे मुनि का सान्निध्य पाकर तुम कृतार्थ हो / मेरे उद्यान में भी कतिपय मुनि ठहरे हैं। चलो, उन्हें वंदना कर आएँ।" दोनों यक्ष वहाँ गए। उन्होंने देखा कि अनेक साधु विकथाएँ कर रहे हैं / कई स्त्री-कथा में, कई जनपद-कथा में आसक्त हैं। उनका मन खिन्न हो गया। वे मुनि हरिकेशबल में अनुरक्त हो गए / कुछ काल बीता। ___ एक बार वाराणसी के राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा यक्ष की पूजा करने अपने दासियों के साथ वहाँ आई / यक्ष की पूजा कर वह प्रदक्षिणा करने लगी। अचानक ही उसकी दृष्टि ध्यानलीन मुनि पर जा टिकी। उनके मैले कपड़े, तपस्या से कृश तथा रूप-लावण्य रहित शरीर को देख उसके मन में घृणा हो आई। आवेश में आ उसने मुनि पर थूक डाला। यक्ष ने यह देखा। उसने सोचा-यह पापिनी है। इसने मुनि की अवहेलना की है। वह यक्ष उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया। कुमारी पागल की तरह बकने लगी। दासियाँ ज्यों-त्यों उसे राजमहल में ले गई। राजा ने कुमारी की अवस्था Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन देखी। वह अत्यन्त विचलित हो गया। उसने उपचार के लिए गारुडिक आदि बुलाए / वैद्य भी आए / उपचार प्रारम्भ हुआ। कुछ भी लाभ नहीं हुआ। तांत्रिक तथा यांत्रिकों ने प्रयास किया। वह भी निष्फल रहा। राजा की आकुलता बढ़ी / यक्ष ने कहा- "इस कुमारी ने साधु की अवहेलना की है। यदि इसका पाणिग्रहण उसी मुनि के साथ किया जाय तो मैं इसे छोड़ सकता हूँ, अन्यथा नहीं।" राजा ने कुमारी के जीवित रहने की आशा से यक्ष की बात स्वीकार कर ली। कुमारी को विवाह के उपयुक्त वस्त्र और आभूषण पहनाए गए। राजा विवाह की समस्त सामग्री ले यक्ष-मन्दिर में पहुंचा। मुनि को वन्दना की और प्रार्थना के स्वरों में कहा-"महर्षे ! मेरी कन्या को स्वीकार करो।" मुनि ने कहा-'राजन् ! मैं मुमुक्षु हूँ। ऐसी बातें यहाँ नहीं करनी चाहिए। जो मुनि एक वसति में स्त्री के साथ भी नहीं रहते, वे भला स्त्री के साथ पाणिग्रहण कैसे करेंगे ? मुनि मोक्ष के इच्छुक होते हैं। वे शाश्वत सुख को चाहते हैं / वे भला स्त्रियों में कैसे आसक्त हो सकते हैं ?" . . कन्या को मुनि-चरणों में छोड़ राजा अपने स्थान पर आ गया। यक्ष का द्वेष उभर आया। उसने मुनि को आच्छन्न कर कभी दिव्य रूप और कभी मुनि रूप बना कर उसे ठगा। वह रात भर ऐसा ही करता रहा। प्रभात हआ। कन्या ने पूर्व-घटित घटना को स्वप्न मात्र माना। वह अकेली अपने पिता के पास पहुंची। रात को सारी बात उनसे कही / यह सुन कर पुरोहित रुद्रदेव ने कहा- "राजन् ! यह ऋषि-पत्नी है। ऋषि के द्वारा त्यक्त होने के कारण वह ब्राह्मण की सम्पति हो जाती है। आप इसे किसी ब्राह्मण को दे दें।" राजा ने उसे ही वह कन्या सौंप दी। वह उसके साथ विषय-भोग करता हुआ रहने लगा। कुछ काल बीता। पुरोहित ने यज्ञ किया। भद्रा को यज्ञ-पत्ती बनाया। उस यज्ञ में भाग लेने के लिए दूर-दूर से विद्वान् बुलाए गए। उन सबके लिए प्रचुर भोजन-सामग्री एकत्रित की गई। उस समय मुनि हरिकेशबल एक-एक मास का तप कर रहे थे। पारणे के दिन वे भिक्षा के लिए घर-घर घूमते हुए उसी यज्ञ-मण्डप में जा पहुँचे।' ___ वह तप से कृश हो गये थे। उनके उपधि और उपकरण प्रान्त ( जीर्ण और मलिन ) थे / उसे आते देख, वे अनार्य (ब्राह्मण) हँसे / जाति-मद से मत्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और अज्ञानी ब्राह्मणों ने परस्पर इस प्रकार कहा "वीभत्स रूप वाला, काला, विकराल और बड़ी नाक वाला, अधनंगा, पांशु-पिशाच १-सुखबोधा, पत्र 173-175 / Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 265 (चुडैल) सा, गले में संकर-दूष्य (उकुरडी से उठाया हुआ चिथड़ा) डाले हुए वह कौन आ रहा है ? "ओ अदर्शनीय मूर्ति ! तुम कौन हो ? किस आशा से यहाँ आए हो ? अधनंगे तुम पांशु-पिशाच (चुडैल) से लग रहे हो / जाओ, आँखों से परे चले जाओ ! यहाँ क्यों खड़े हो ?" ___ उस समय महामुनि हरिकेशबल की अनुकम्पा करने वाला तिन्दुक ( आबनूस) वृक्ष का वासी यक्ष अपने शरीर का गोपन कर मुनि के शरीर में प्रवेश कर इस प्रकार बोला__"मैं श्रमण हूँ, संयमी हूँ, ब्रह्मचारी हूँ, धन व पचन-पाचन और परिग्रह से विरत हूँ। यह भिक्षा का काल है / मैं सहज निष्पन्न भोजन पाने के लिए यहाँ आया हूँ। ___"आपके यहाँ पर यह बहुत सारा भोजन दिया जा रहा है, खाया जा रहा है और भोगा जा रहा है। मैं भिक्षा-जीवी हूँ, यह आपको ज्ञात होना चाहिए। अच्छा ही है कुछ बचा भोजन इस तपस्वी को मिल जाए।" सोमदेव ने कहा-"यहाँ जो भोजन बना है, वह केवल ब्राह्मणों के लिए ही बना है / वह एक-पाक्षिक है-अब्राह्मण को अदेय है। ऐसा अन्न-पान हम तुम्हें नहीं देंगे, फिर यहाँ क्यों खड़े हो ?" ___ यक्ष ने कहा-"अच्छी उपज की आशा से किसान जैसे स्थल (ऊँची भूमि) में बीज वोते हैं, वैसे ही नीची भूमि में बोते हैं। इसी श्रद्धा से (अपने आपको निम्न भूमि और मुझे स्थल तुल्य मानते हुए भी तुम) मुझे दान दो, पुण्य की आराधना करो। यह क्षेत्र है, बीज खाली नहीं जाएगा।" सोमदेव ने कहा- "जहाँ बोए हुए सारे के सारे बीज उग जाते हैं, वे क्षेत्र इस लोक में हमें ज्ञात हैं। जो ब्राह्मण जाति और विद्या से युक्त हैं, वे ही पुण्य क्षेत्र हैं।" - यक्ष ने कहा- "जिनमें क्रोध है, मान है, हिंसा है, झूठ है, चोरी है और परिग्रह है—वे ब्राह्मण जाति-विहीन, विद्या-विहीन और पाप-क्षेत्र हैं। "हे ब्राह्मणो ! इस संसार में तुम केवल वाणी का भार ढो रहे हो। वेदों को पढ़ कर भी उनका अर्थ नहीं जानते। जो मुनि उच्च और नीच घरों में भिक्षा के लिए जाते हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं।" सोमदेव ने कहा-"ओ ! अध्यापकों के प्रतिकूल बोलने वाले साध ! हमारे समक्ष तू क्या बढ़-बढ़ कर बोल रहा है ? हे निर्ग्रन्थ ! यह अन्न-पान भले ही सड़ कर नष्ट हो जाए, किन्तु तुझे नहीं देंगे।" 4 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ... यक्ष ने कहा-"मैं समितियों से समाहित, गुप्तियों से गुप्त और जितेन्द्रिय हूँ। यह एषणीय (विशुद्ध) आहार यदि तुम मुझे नहीं दोगे, तो इन यज्ञों का आज तुम्हें क्या लाभ होगा ?" ... सोमदेव ने कहा-"यहाँ कौन है क्षत्रिय, रसोइया, अध्यापक या छात्र, जो डण्डे और फल से पीट, गलहत्था दे इस निर्ग्रन्थ को यहाँ से बाहर निकाले ?' . ___ अध्यापकों का वचन सुन कर बहुत से कुमार उधर दौड़े। वहाँ आ डण्डों, बेंतों और चाबुकों से उस ऋषि को पीटने लगे। - राजा कौशलिक की सुन्दर पुत्री भद्रा यज्ञ-मण्डप में मुनि को प्रताड़ित होते देख क्रुद्ध कुमारों को शान्त करने लगी। - भद्रा ने कहा- "राजाओं और इन्द्रों से पूजित यह वह ऋषि है, जिसने मेरा त्याग किया। देवता के अभियोग से प्रेरित होकर राजा द्वारा मैं दी गई, किन्तु जिसने मुझे मन से भी नहीं चाहा। "यह वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी है, जिसने मुझे मेरे पिता राजा कौशलिक द्वारा दिए जाने पर भी नहीं चाहा। , "यह महान् यशस्वी है। महान् अनुभाग (अचिन्त्य-शक्ति) से सम्पन्न है / घोर व्रती है। घोर पराक्रमी है। इसकी अवहेलना मत करो, यह अवहेलनीय नहीं है। कहीं यह अपने तेज से तुम लोगों को भस्मसात् न कर डाले ?" - सोमदेव पुरोहित की पत्नी भद्रा के सुभाषित वचनों को सुन कर यक्षों ने ऋषि का वयावृत्त्य (परिचर्या) करने के लिए कुमारों को भूमि पर गिरा दिया। - वे घोर रूप वाले यक्ष आकाश में स्थिर होकर उन छात्रों को मारने लगे। उनके शरीरों को क्षत-विक्षत और उन्हें रुधिर का वमन करते देख भद्रा फिर कहने लगी- "जो इस भिक्षु का अपमान कर रहे हैं, वे नखों से पर्वत खोद रहे हैं, दाँतों से लोहे को चबा रहे हैं और पैरों से अग्नि को प्रताड़ित कर रहे हैं। __ "यह महर्षि आशीविष-लब्धि से सम्पन्न है। उन तपस्वी है। घोर व्रती और घोर पराक्रमी है / जो भिक्षा के समय भिक्षु का वध कर रहे हैं, वे पतंग-सेना की भाँति अग्नि में झंपापात कर रहे हैं। "यदि तुम जीवन और धन चाहते हो तो सब मिल कर सिर झुका कर इस मुनि की शरण में आओ / कुपित होने पर यह समूचे संसार को भस्म कर सकता है।" उन छात्रों के सिर पीठ की ओर झुक गए। उनकी भुजाएँ फैल गई। वे निष्क्रिय हो गए। उनकी आँखें खुली की खुली रह गई। उनके मुंह से रुधिर निकलने लगा। उनके मुँह ऊपर को हो गए। उनकी जीभै ओर नेत्र बाहर निकल आएं। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 267 खण्ड : 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण उन छात्रों को काठ की तरह निश्चेष्ट देख कर वह सोमदेव ब्राह्मण उदास और घबराया हुआ अपनी पत्नी सहित मुनि के पास आ उन्हें प्रसन्न करने लगा-"भन्ते ! हमने जो अवहेलना और निन्दा की उसे क्षमा करें। __"भन्ते ! मूढ़ बालकों ने अज्ञानवश जो आपकी अवहेलना की, उसे आप क्षमा करें। ऋषि महान् प्रसन्नचित्त होते हैं / मुनि कोप नहीं किया करते / " ___ मुनि ने कहा-"मेरे मन में कोई प्रद्वेष न पहले था, न अभी है और न आगे भी होगा। किन्तु यक्ष मेरा वैयावृत्त्य कर रहे हैं / इसीलिए ये कुमार प्रताडित हुए।" सोमदेव ने कहा- "अर्थ और धर्म को जानने वाले भूति-प्रज्ञ ( मंगल-प्रज्ञा युक्त) आप कोप नहीं करते। इसलिए हम सब मिल कर आपके चरणों की शरण ले रहे हैं / . "महाभाग ! हम आपकी अर्चा करते हैं। आपका कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसकी हम अर्चा न करें / आप नाना व्यंजनों से युक्त चावल-निष्पन्न भोजन ले कर खाइए। __ "मेरे यहाँ यह.प्रचुर भोजन पड़ा है। हमें अनुगृहीत करने के लिए आप कुछ खाएँ।” महात्मा हरिकेशवल ने हाँ भर ली और एक मास की तपस्या का पारणा करने के लिए भक्त-पान किया। देवों ने वहाँ सुगन्धित जल, पुष्प और दिव्य धन की वर्षा की। आकाश में दुन्दुभि बजाई और 'अहो दानम्' (आश्चर्यकारी दान)-इस प्रकार का घोष किया। ___ यह प्रत्यक्ष ही तप की महिमा दीख रही है, जाति की कोई महिमा नहीं है / जो ऐसी महान् अचिन्त्य शक्ति से सम्पन्न है, वह हरिकेश मुनि चाण्डाल का पुत्र है। मुनि ने कहा-"ब्राह्मणो ! अग्नि का समारम्भ (यज्ञ) करते हुए तुम बाहर से ( जल से.) शुद्धि की क्या माँग कर रहे हो ? जिस शुद्धि की बाहर से माँग कर रहे हो, उसे कुशल लोग सुदृष्ट (सम्यग्दर्शन) नहीं कहते / __"दर्भ, यूप (यज्ञ-स्तम्भ), तृण, काष्ठ और अग्नि का उपयोग करते हुए, संध्या और प्रातःकाल में जल का स्पर्श करते हुए, प्राणों और भूतों की हिंसा करते हुए, मंद-बुद्धि * वाले तुम बार-बार पाप करते हो।" _____सोमदेव ने कहा- "हे भिक्षो ! हम कैसे प्रवृत्त हों ? यज्ञ कैसे करें? जिससे पापकर्मों का नाश कर सकें। यक्ष-पूजित संयत ! आप हमें बताएँ—कुशल पुरुषों ने सुइष्ट (श्रेष्ठ-यज्ञ) का विधान किस प्रकार किया है ?" . ____ मुनि ने कहा-"मन और इन्द्रियों का दमन करने वाले छह जीव-निकाय की हिंसा नहीं करते ; असत्य और चौर्य का सेवन नहीं करते ; परिग्रह, स्त्री, मान और माया का परित्याग कर के विचरण करते हैं। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . .. "जो पाँच संवरों से सुसंवृत्त होता है, जो असंयम-जीवन की इच्छा नहीं करता, जो काय का व्युत्सर्ग करता है, जो शुचि है और जो देह का त्याग करता है, वह महाजयी श्रेष्ठ यज्ञ करता है।" : सोमदेव ने कहा-"भिक्षो ! तुम्हारी ज्योति कौन-सी है ? तुम्हारा ज्योति-स्थान (अग्नि-स्थान) कौन-सा है ? तुम्हारे घी डालने की करछियाँ कौन-सी हैं ? तुम्हारे अग्नि को जलाने के कण्डे कौन-से हैं ? तुम्हारे इंधन और शान्ति-पाठ कौन-से हैं ? और किस होम से तुम ज्योति को हुत (प्रीणित) करते हो?" मुनि ने कहा-"तप ज्योति है। जीव ज्योति-स्थान है। योग (मन, वचन और काया की सत् प्रवृत्ति) घी डालने की करछियाँ हैं। शरीर अग्नि * जलाने के कण्डे हैं। कर्म इंधन है / संयम की प्रवृत्ति शान्ति-पाठ है। इस प्रकार मैं ऋषि प्रशस्त (अहिंसक) होम करता हूँ।” __ सोमदेव ने कहा-"आपका नद (जलाशय) कौन-सा है ? आपका शान्ति-तीर्थ कौनसा है ? आप कहाँ नहा कर कर्म-रज धोते हैं ? हे यक्ष-पूजित संयत ! हम आपसे जानना चाहते हैं-आप बताइए।" मुनि ने कहा- "अकुलषित एवं प्रात्मा का प्रसन्न-लेश्या वाला धर्म मेरा नद (जलाशय) है। ब्रह्मचर्य मेरा शान्ति-तीर्थ है। जहाँ नहा कर मैं विमल, विशुद्ध और सुशीतल होकर कर्म-रज का त्याग करता हूँ। __“यह स्नान, कुशल पुरुषों द्वारा दृष्ट है। यह महा स्नान है। अतः ऋषियों के लिए यही प्रशस्त है / इस धर्म-नद में नहाए हुए महर्षि विमल और विशुद्ध हो कर उत्तम-स्थान (मुक्ति) को प्राप्त हुए।' -उत्तराध्ययन 12 / 4-47 / मातङ्ग जातक क. वर्तमान कथा उस समय आयुष्मान पिण्डोल-भारद्वाज जेतवन से आकाश-मार्ग से जा बहुत करके कोसाम्बी में उदयन-नरेश के उद्यान में ही दिन बिताने के लिए जाते / पूर्व-जन्म में स्थविर ने राज्य करते हुए दीर्घकाल तक उसी उद्यान में बड़ी मण्डली के साथ सम्पत्ति का मजा लूटा था। वह उस पूर्व (जन्म के) परिचय के कारण वहीं दिन बिताने के लिए रह, फलसमापत्ति सुख में समय बिताते। एक दिन जब वह सुपुष्पित शालवृक्ष के नीचे जाकर बैठे थे, उदयन सप्ताह भर महान पान पी 'उद्यान-क्रीड़ा खेलने के लिए' बड़ी मण्डली के साथ उद्यान पहुंचा और मंगल शिला पर एक स्त्री को गोद में लेटा-लेटा Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2. प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 266 शराब के नशे के कारण सो गया। जो स्त्रियाँ बैठी गा रही थीं उन्होंने वाद्य छोड़े और उद्यान जा फल-फूल चुनने लगों। जब उन्होंने स्थविर को देखा तो जाकर प्रणाम कर बैठों। स्थविर बैठे धर्म-कथा कह रहे थे। उस स्त्री ने भी देह हिलाकर राजा को जगा दिया / उसने पूछा- "वे चण्डालनियाँ कहाँ गई ?" उत्तर दिया- "एक श्रमण को घेर कर बैठी हैं।" वह गुस्सा हुआ और जाकर स्थविर को बुरा भला कहा। फिर 'अच्छा, श्रमण को लाल चीटियों से कटवाता हूँ' कह स्थविर के शरीर पर लाल चींटों का दोना छुड़वा दिया। स्थविर ने आकाश में खड़े हो उसे उपदेश दिया। फिर जेतवन में गन्धकुटी के द्वार पर ही उतरे / तथागत ने पूछा-कहाँ से आये ? वह समाचार कहा। शास्ता ने 'भारद्वाज ! न केवल अभी उदयन प्रवजितों को कष्ट देता है, इसने पूर्वजन्म में दिया ही है' कह उसके प्रार्थना करने पर पूर्वजन्म की कथा कही। ख. अतीत कथा पूर्व समय में वाराणसी में ब्रह्मदत्त के राज्य करने के समय बोधिसत्व नगर के बाहर चाण्डाल-योनि में पैदा हुए। उनका नाम रखा गया मातङ्ग। आगे चल कर बड़े होने पर मातङ्ग-पण्डित नाम से प्रसिद्ध हुए। ___उस समय वाराणसी सेठ की एक लड़की ( दिट्ठमंगलिका ) शकुन मानने वाली थी। वह एक-दो महीने में एक बार बड़ी मण्डली के साथ बाग में उद्यान-क्रीड़ा के लिए जाती। एक दिन बोधिसत्व किसी काम से नगर में जा रहे थे। बोधिसत्व ने नगर में प्रवेश करते समय नगर-द्वार के भीतर दिट्ठमङ्गलिका को देखा। वह एक ओर जा, लग कर खड़ा हुआ। दिट्ठमङ्गलिका ने कनात में से देख कर पूछा--"यह कौन है ?" ..."आयें ! चाण्डाल है।" "न देखने योग्य दृश्य दिखाई देते हैं" कह उसने सुगन्धित जल से आँखें धोई और लौट पड़ी ! उसके साथ आए हुए आदमी गुस्से में भर कर बोले-“रे दुष्ट चाण्डाल ! आज तेरे कारण हमारी मुफ्त की शराब और भोजन जाता रहा।" वे मातङ्ग-पण्डित को हाथों और पाँव से पीट कर बेहोश करके गये। थोड़ी देर में जब उसे होश आया तो उसने सोचा-दिट्ठमङ्गलिका के आदमियों ने मुझ निर्दोष को अकारण पीटा है, अब मुझे दिट्ठमङ्गलिका मिलेगी तभी उलूंगा, नहीं मिलेगी तो नहीं उठूगा / इस प्रकार का दृढ़ निश्चय कर वह जाकर उसके पिता के निवास स्थान के द्वार पर पड़ रहा। उसने पूछा-"क्यों पड़ा है ?" - "और कोई कारण नहीं, मुझे दिट्ठमङ्गलिका चाहिए।" एक दिन बीता, दूसरा, तोसरा, चौथा, पाँचवाँ तथा छठा दिन बीता। बोधिसत्वों का संकल्प पूरा होता ही है, Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन इसलिए सातवें दिन दिट्टमङ्गलिका बाहर कर उसे दे दी गई। वह बोली-"स्वामी उठे। आपके घर चलें।" __ "भद्रे ! तेरे आदमियों ने मुझे अच्छी तरह पीटा है, मैं दुर्बल हूँ। मुझे उठा कर पीठ पर चढ़ा कर ले चल।" उसने वैसा किया और नगरवासियों के सामने ही नगर से निकल चण्डाल-ग्राम को गई। बोधिसत्व ने जाति-भेद की मर्यादा को अक्षुण्ण रखते हुए उसे कुछ दिन घर में रखा। फिर सोचा- "मैं केवल प्रवजित होकर ही इसे श्रेष्ठ लाभ तथा यश प्राप्त करा सकूँगा, और किसो उपाय से नहीं।" उसने उसे बुला कर कहा-"भद्र ! मैं यदि जंगल से कुछ न लाऊंगा तो हमारी जीविका नहीं चलेगी। मेरे आने तक घबराना नहीं। मैं जंगल जाऊंगा।" घर वालों को भी उसने उसका ख्याल रखने के लिए कहा। जंगल पहुंच उसने श्रमण-प्रव्रज्या ग्रहण की और अप्रमादी रह सातवें दिन आठ समापत्तियाँ और पाँच अभि प्राप्त की। 'अब दिट्ठमङ्गलिका का सहारा बन सकूँगा' सोच वह ऋद्धि-बल से जाकर चण्डाल-ग्राम के द्वार पर उतरा और दिट्ठमङ्गलिका के घर के द्वार पर पहुंचा। उसका आना सुनकर वह बाहर निकली और रोने-पीटने लगी-"स्वामी ! मुझे अनाथ करके क्यों प्रत्रजित हो गये ?" ___ "भद्रे ! चिन्ता मत कर / तेरी पूर्व सम्पत्ति से भी अधिक सम्पत्ति वाली बनाऊंगा। लेकिन क्या तू परिषद के बीच में इतना कह सकेगी कि मेरा स्वामी मातङ्ग नहीं है, महा ब्रह्मा है ?" "स्वामी ! हाँ कह सकूँगी।" "तो अब यदि कोई पूछे कि तेरा स्वामी कहाँ है, तो कहना ब्रह्मलोक गया है ? "कब आयेगा ?" पूछे तो उत्तर देना कि आज से सातवें दिन पूर्णिमा के चन्द्रमा को तोड़ कर आयेगा। उसे यह कह वह हिमालय को ही चला गया। दिट्ठमङ्गलिका ने भी वाराणसी में परिषद के बीच जहाँ तहाँ वैसे ही कहा / लोगों ने विश्वास कर लिया"वह महा ब्रह्मा है, इसलिए दिट्ठमङ्गलिका के पास नहीं जाता है, यह ऐसा होगा।" बोधिसत्व ने भी पूर्णिमा के दिन जब चन्द्रमा अपने मार्ग के मध्य में था, ब्रह्मा का रूप धारण कर सारे काशी राष्ट्र तथा बारह योजन की वाराणसी को एक-प्रकाश कर, चन्द्रमा को फोड़ नीचे उतर, वाराणसी के ऊपर तीन बार चक्कर काटा ! वह जनता द्वारा गन्ध माला आदि से पूजित हो चण्डाल-ग्राम की ओर गया। ब्रह्म-भक्तों ने इकट्ठे हो चण्डाल-ग्राम पहुँच, दिवमङ्गलिका का घर शुद्ध वस्त्रों से छा दिया। भूमि को चार प्रकार की सुगन्धियों से लीप दिया। फूल बिखेर दिये। धूनी दी। वस्त्रों का चंदवा तान महाशयन बिछाया। सुगन्धित प्रदीप जला द्वार पर चाँदी के वर्ण की बालू बिखेरी। फूल बिखेरे और ध्वजायें बाँधी। इस प्रकार के अलंकृत घर में बोधिसत्व उतरे Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 271 और अन्दर जाकर थोड़ी देर शय्या पर बैठे। उस समय दिट्ठमङ्गलिका ऋतुवती थी, उसने अंगूठे से उसकी नाभि को छू दिया। उससे उसकी कोख में गर्भ प्रतिष्ठित हो गया। बोधिसत्व ने उसे सम्बोधित कर कहा-"भद्र ! तुझे गर्भ रह गया है। तुझे पुत्र होगा। तू और तेरा पुत्र भी श्रेष्ठ लाभ तथा यश को प्राप्त होंगे। तेरा चरणोदक सारे जम्बुद्वीप के राजाओं के लिए अभिषेक-जल होगा। तेरे नहाने का जल अमृतौषध होगा, जो इसे सिर पर छिड़केंगे वे सर्वदा के लिए रोग मुक्त हो जायेंगे। मनहूस (प्राणी) से बचेंगे। तेरे चरणों में सिर रख कर प्रणाम करने वाले हजार देकर प्रणाम करेंगे, उसी प्रकार सुनाई देने की सीमा के अन्दर खड़े होकर प्रणाम करने वाले सौ देंगे, दिखाई देने की सीमा के अन्दर खड़े होकर प्रणाम करने वाले एक कार्षापण देकर प्रणाम करेंगे। अप्रमादी होकर रहो।" इस प्रकार उसे उपदेश दे, घर से निकल जनता की आँखों के ही सामने ऊपर उठ चन्द्र-मण्डल में प्रवेश किया। ब्रह्म-भक्तों ने इकट्ठे हो खड़े ही खड़े रात बिता दी। प्रातःकाल ही दिट्टमङ्गलिका को सोने की पालकी में बिठा उन्होंने उसे सिर पर उठाया और नगर में ले गये। महाब्रह्मा की भार्या है समझ जनता ने सुगन्धित माला आदि से उसकी पूजा की। जिन्हें चरणों में सिर रख कर प्रणाम करना मिलता वे हजार देते, जो सुनाई देने की सीमा के अन्दर खड़े हो प्रणाम करते वे सौ देते, जो दिखाई देने की सीमा के अन्दर खड़े हो प्रणाम करते वे एक कार्षापण देते। इस प्रकार बारह योजन की वाराणसी में लेकर घूमने से अट्ठारह करोड़ धन प्राप्त किया। फिर नगर की परिक्रमा कर नगर के बीच में महामण्डप बनवाया और कनात तनवा कर बड़े ठाट-बाट के साथ उसे वहाँ बसाया / मण्डप के पास ही सात द्वार-कोठों वाला तथा सात तल्लों वाला प्रासाद बनवाया जाने लगा। भवन निर्माण का बड़ा भारी कार्य आरम्भ हुआ। दिट्ठमङ्गलिका ने मण्डप में ही पुत्र को जन्म दिया। उसके नाम-करण के दिन ब्राह्मणों ने इकट्ठे होकर मण्डप में पैदा होने के कारण मण्डव्य कुमार ही नाम रखा। प्रासाद दस महीने में समाप्त हुआ। तब से वह बड़े 'ऐश्वर्य के साथ रहने लगी। मण्डव्य कुमार भी बड़ी शान के साथ बड़ा होने लगा। ज़ब यह सात-आठ वर्ष का हुआ तभी जम्बुद्वीप में उत्तमाचार्य इकठ्ठ हुए। उन्होंने उसे तीनों वेद पढ़ाये / सोलह वर्ष की आयु होने पर उसने ब्राह्मणों का भोजन बाँध दिया। सोलह हजार ब्राह्मण नियमित भोजन करते। चोथे द्वार-कोठे पर ब्राह्मणों को दान दिया जाता था। ____एक दिन बड़े उत्सव के दिन बहुत-सी खीर पकवाई गई / सोलह हजार ब्राह्मण चौथे द्वार-कोठे में बैठ स्वर्ण-वर्ण घृत तथा मत्रु और खाण्ड से सिक्त खीर खाते थे। कुमार भी सब अलङ्कारों से अलङ्कृत हो, सोने की खड़ाऊँ पर चढ़, हाथ में सोने का दण्डा लिये Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन यह कहता घूम रहा था कि यहाँ मधु दो और यहाँ घृत दो। उस समय मातङ्ग-पण्डित हिमालय के आश्रम में बैठा था। उसने सोचा कि दिट्ठमङ्गलिका के पुत्र का क्या हाल है ? यह देख कि वह अनुचित रास्ते पर जा रहा है उसने सोचा कि में आज ही जान कर माणवक का दमन कर, उससे जिन्हें दान देने से महान् फल होता है उन्हें दान दिला कर आऊंगा। वह आकाश-मार्ग से अनोतप्त-सरोवर पहुंचा, मुख प्रक्षालन आदि किया। फिर मनोशिलातल पर खड़े हो लाल कपड़ा धारण कर, काय-बन्धन बाँधा और पासुकूल. संघाटी पहन, मिट्टी का बरतन ले, आकाश-मार्ग से जा चौथे द्वार-कोठे की दानशाला में ही उतर एक ओर खड़ा हुआ। मण्डव्य ने इधर उधर देखते हुए जब उसे देखा तो सोचा-ऐसा बद-सूरत, यक्ष जैसा यह प्रव्रजित है ! उससे पूछा-यहाँ तू कहाँ से आया है ? उसने उससे बातचीत करते हुए पहली गाथा कही कुतो नु आगच्छसि सम्भवासि ओतल्लको पंसुपिसाचको व सङ्कार चोलं पटिमुच्च कंठे को रे तुवं होहिसि अदक्खिगेय्यो // 1 // [हे चिथड़ेधारी ! हे गंदे वस्त्र वाले ! हे पांसु-पिशाच-सदृश ! तू यह गले में कूड़े के ढेर पर से उठाये वस्त्र पहन कर कहाँ से आया है और कोन है ?] यह सुन बोधिसत्व ने कोमल चित्त से ही उससे बातचीत करते हुए दूसरी गाथा कही अन्नं तव इदं पकतं यसस्सि, तं खञ्जरे मुञ्जरे पिय्यरे च, जानासि त्वं परदत्तूपजीवि, उसिट्टथ पिण्डं लभतं सपाको // 2 // हे यशस्वी ! तेरे घर यह अन्न पका है। उसे (लोग) खा-पी रहे हैं। तू जानता है कि हम दूसरों द्वारा दिया ही खाकर जीने वाले हैं। उठ ! चाण्डाल को भी कुछ भोजन मिले। तब मण्डव्य ने गाथा कही अन्नं मम इदं पकतं ब्राह्मणानं, अत्तत्थाय सद्दहतो मम इदं, अपेहि एस्थ, किं दुध द्वितोसि, न मा दिसा तुम्हं ददन्ति जम्म // 3 // . Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 273 [ मेरे यहाँ जो अन्न पका है वह ब्राह्मणों के लिए है, यह मेरो श्रद्धा के कारण आत्म-हित के लिए है। यहाँ से दूर हट / यहाँ क्या खड़ा है। हे दुष्ट ! मेरे जैसे तुझे दान नहीं देते हैं / ] तब बोधिसत्व ने गाथा कही थले च निन्ने च वपन्ति बीज अनूपखेत्ते फलं आससाना, एताय सद्धाय ददाहि दानं, अप्पेव आराधये दक्खिणेय्ये // 4 // [ जिस प्रकार (कृषक) फल की आशा से ऊंचे स्थल पर भी बीज बोते हैं और नीचे स्थल पर भी। और वे पानी की जगह भी बोते हैं। इसी प्रकार तू भी ऐसी ही श्रद्धा से सबको दान दे / संभव है तू दान-देने योग्यों का (भी) सत्कार कर सके।] तब मण्डव्य ने गोथा कही खेत्तानि मय्हं विदितानि लोके येसाहं बीजानि पति?पेमि, ये ब्राह्मणा जाति मन्तूपपन्ना, तानीध खेत्तानि सुपेसलानि // 5 // [ मैं लोक में जो (दान-) क्षेत्र हैं उन्हें जानता हूँ। उन्हीं में मैं बीज डालता हूँ। जो जाति तथा मन्त्रों से युक्त ब्राह्मण हैं वे ही इस संसार में अच्छे खेत हैं।] तब बोधिसत्त्व ने दो गाथाएँ कहीं जाति मदे च अतिमानिता च, लोभो च दोसो च मदो च मोहो, एते अगुणा येसुव सन्ति सब्बे तानोध खेत्तानि अपेसलानि // 6 // जाति मदो च अतिमानिता च लोभो च दोसो च मदो च मोहो, एते अगुणा येसु न सन्ति सब्बे तानीध खेत्तानि सुपेसलानि // 7 // [ जाति-मद, अभिमान, लोभ, द्वेष, मद तथा मूढ़ता-ये सब अवगुण जिनमें हैं वे इस लोक में अच्छे ( दान-) क्षेत्र नहीं हैं। जाति-मद, अभिमान, लोभ, द्वेष, मद तथा मूढ़ता-ये सब अवगुण जिनमें नहीं हैं, वे ही इस लोक में अच्छे (दान-) क्षेत्र हैं / ] Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन इस प्रकार बोधिसत्व के बार-बार बोलने से उसे क्रोध आ गया। 'यह बहुत बकवास करता है, ये द्वारपाल कहाँ गये, इस चाण्डाल को निकालते नहीं है' कहते हुए उसने गाथा कही कत्थेव भट्ठा उपजोतियो च उपज्झायो अथवा भण्डकुच्छि, इमस्स दण्डं च वधं च दत्वा गले गहेत्वा खलयाथ जम्मं // 8 // ... [ इस प्रकार उपजोति, उपज्झाय तथा भण्डकुच्छि कहाँ चले गये ? इसे दण्ड दे और मारें। इस दुष्ट को गले से पकड़ कर धुन डालें।] वे भी उसकी बात सुन जल्दी से आ पहुंचे और बोले- "देव ! क्या करें?" . "तुमने इस दुष्ट चाण्डाल को देखा।" "देव ! नहीं देखते हैं। यह भी नहीं जानते हैं कि कहाँ से आया ? यह कोई माया-धारी या जादूगर होगा।" "अब क्या खड़े हो ?" "देव ! क्या करें ?" "इसके मुंह को पीट कर तोड़ दो, डण्डों और बाँस की लाठियों से इसकी पीठ उघाड़ दो, मारो, गले से पकड़ कर इस दुष्ट को धुन डालो। यहाँ से निकाल बाहर करो।" ___ अभी जब वे बोधिसत्व तक पहुंचे ही नहीं थे, बोधिसत्व ने आकाश में खड़े हो गाथा कही गिरि नखेन खणसि अयो दन्तेन खादसि जातवेदं पदहसि यो इसिं परिमाससि // 6 // [जो ऋषि को भला-बुरा कहता है, वह नाखून से पर्वत खोदता है, अथवा दाँत से लोहा काटता है अथवा आग को निगलता है / ] . यह गाथा कह बोधिसत्व उस माणवक और ब्राह्मणों के देखते ही देखते आकाश में जा पहुंचे। इस अर्थ को प्रकाशित करने के लिए शास्ता ने गाथा कही इदं वत्वान मातङ्गो इसि सच्चपरकमो अन्तलिक्खस्मि पक्कामि ब्राह्मणानं उविक्खतं // 10 // [ यह कहकर सत्य-पराक्रमी मातङ्ग ब्राह्मणों की आँख के सामने ही आकाश को चला गया।] Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 275 उसने प्राचीन दिशा की ओर जा एक गली में उतर ऐसा दृढ़-संकल्प किया कि उसके पाँव के चिन्ह दिखाई दें। वहाँ पूर्व-द्वार के पास भिक्षाटन करके मिला-जुला भोजन प्राप्त किया और एक शाला में बैठ वह मिला-जुला भोजन खाया / नगर-देवताओं से जब यह सहन न हो सका कि यह राजा हमारे आर्य को दुःख देने वाली बात कहता हैं तो वे आये / बड़े यक्ष ने उसकी गर्दन पकड़ कर मरोड़ी, शेष देवताओं ने शेष ब्राह्मणों की गर्दन पकड़ कर मरोड़ी। बोधिसत्व के चित्त की कोमलता के कारण 'उसका पुत्र है' जान मारा नहीं, केवल कष्ट दिया। मण्डव्य का सिर घूम कर पीठ की ओर हो गया। हाथ-पाँव सीधे होकर खड़े हो गये, आँखें बदल कर मुर्दे के समान हो गई। वह लकड़ी-शरीर होकर गिर पड़ा। शेष ब्राह्मण मुँह से थूक गिराते हुए इधर-उधर लोटते थे। दिद्वमङ्गलिका को सूचना दी गई—आर्थे ! तेरे पुत्र को कुछ हो गया है। वह जल्दी से आई और पुत्र को देख कर बोली-यह क्या ! उसने गाथा कही आवेठितं पिद्वितो उत्तमाङ्ग * बाहं पसारेति अकम्मनेय्यं, सेतानि अक्खीनि कथा मतस्स को मे इयं पुत्तं अकासि एवं // 11 // [ इसका सिर पीठ की ओर घुमा दिया गया है। यह निकम्मी बाहों को फैलाता है। इसकी आँखें मृत व्यक्ति के समान श्वेत हो गई हैं। मेरे पुत्र को ऐसा किसने कर दिया है ? ] ___ वहाँ खड़े हुए लोगों ने उसे बताने के लिए गाथा कही इधागमा समणो रुम्मवासी ओतल्लको पसु पिसाबको व, सङ्कार चोलं परिमुच्च कण्ठे सो ते इमं पुत्तं अकासि एवं // 12 // [यहाँ एक चीथड़ेधारो श्रमण आया। वह गंदे वस्त्र पहने था। वह पंसु-पिशाच सदृश था। वह गले में कूड़े के ढेर से उठाए वस्त्र पहने था। उसी ने तेरे पुत्र का ऐसा हाल किया है। ] उसने यह सुना तो सोचा और किसी की ऐसी सामर्थ्य नहीं है। निस्सन्देह मातङ्ग-पण्डित ही होगा / वह धीर पुरुष मैत्री भावना युक्त है। वह इतने आदमियों को कष्ट पहुंचा कर नहीं जायेगा। 'वह किस ओर गया होगा ?' पूछते हुए उसने गाथा कही Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन कतमं दिसं अगमा भूरिपो अक्खाथ मे माणवा एतमत्थं, गन्त्वान तं पटिकरेमु अञ्चयं अप्पेव नं पुत्तं लभेसु जीवितं // 13 // [वह बहु-प्रज्ञ किस ओर गया है ? हे तरुणो ! मुझे यह बताओ। हम उसके पास जाकर अपना अपराध क्षमा करवावें / सम्भव है हमारे पुत्र को जीवन-लाभ हो जाय।] बहाँ खड़े हुए तरुणों ने उसे इस प्रकार कहा वेहासयं अगमा भूरिपो पथद्धनो पन्नरसे व चन्दो , अपि चापि सो पुरिमं दिसं अगञ्छि सच्चप्पटिओ इसि साधुरूपो // 14 // [ वह बहु-प्रज्ञ आकाश की ओर गया है। पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति वह ( आकाश-) मार्ग के बीचोबीच गया है। और वह साधु-स्वरूप सत्य-प्रतिज्ञ ऋषि पूर्व दिशा की ओर गया है। ] उसने उनकी बात सुन अपने स्वामी को खोजने का निश्चय किया। सोने का कलश और सोने का प्याला लिया, दासियों सहित वह वहाँ पहुंची जहाँ बोधिसत्व ने अपने चरण-चिन्हों के दिखाई देने का दृढ़-संकल्प किया था। उसके अनुसार जा वह जिस समय बोधिसत्व पीढ़े पर बैठ भोजन कर रहे थे, उनके पास पहुंची और प्रणाम करके एक ओर खड़ी हुई। उसने उसे देख थोड़ा भात पात्र में छोड़ा। दिवमङ्गलिका ने स्वर्णकलश से उसे पानी दिया। उसने वहीं हाथ धो मुख-प्रक्षालन किया। उसने यह पूछते हुए कि किसने मेरे पुत्र की शकल बिगाड़ी, गाथा कही आवेठितं पिठितो उत्तमङ्ग बाहं पसारेति अकम्मनेय्यं, सेतानि अक्खी नि यथा नतस्स को मे इमं पुत्तं अकासि एवं // 15 // [ अर्थ ऊपर दिया ही है / ] इसके बाद की गाथाएँ उनके प्रश्नोत्तर हैं यक्खा हवे सन्ति महानुभावा अम्बागता इसयो साधुरूपा, ते दुट्ठचित्तं कुपितं विदित्वा यक्खा हि ते पुतं अकंसु एवं // 16 // Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमणे 273 [साधु-रूप ऋषियों को देख महानुभाव यक्ष उनके पीछे-पीछे आये। उन्होंने ही तेरे पुत्र को दुष्ट-चित्त तथा क्रोधित देख इस प्रकार बना दिया है ] यक्खा च मे पुत्तं अकंसु एवं त्वं एव मे मा कुद्धो ब्रह्मचारि, तुम्हें व पादे सरणं गतास्मि अन्वागता पुत्तसोकेन भिक्खु // 17 // [ यदि यक्ष मेरे पुत्र पर क्रोधित हुए हैं तो हे ब्रह्मचारी ! तू मुझ पर क्रोधित न हो! हे भिक्षु ! मैं पुत्र-शोक से दुखी हो तुम्हारी ही शरण आई हूँ।] तदेव हि एतरहि च मय्हं मनोपदोसो मम नत्थि कोचि, पुत्तो च ते वेद मदेन मत्तो अत्थं न जानाति अधिञ्च वेदे // 1 // [उस समय और इस समय भी मेरे मन में कुछ द्वेष नहीं है। तेरा पुत्र वेद-मत से मस्त हुआ है। उसने वेद पढ़कर अर्थ नहीं जाना।] अद्धा हवे भिक्खु मुहुत्तकेन मम्मुह्यते व पुरिसस्स सञ्जा एकापराधं खम भूरिपञ, न पण्डिता क्रोध बला भवन्ति // 19 // [भिक्षु ! ऐसा होता ही है कि क्षण भर में मनुष्य की बुद्धि मोह को प्राप्त हो जाती है। हे बहु-प्रज्ञ ! उसके एक दोष को क्षमा करें / पण्डितों का बल क्रोध नहीं है।] . इस प्रकार उसके क्षमा मांगने पर बोधिसत्व ने 'तो यक्षों को भगाने के लिए अमृतऔषध बताता हूँ' कह गाथा कही इदञ्च मय्हं उत्तिट्टपिण्ड मण्डव्यो भुञ्जतु अप्पपञो, यक्खा च ते नं न विहेठयेय्य . पुत्तो चते होहिति सो अरोगो // 20 // [यह मूर्ख मण्डव्य मेरा जूठा-भोजन खाये। उससे इसे यक्ष कष्ट नहीं देंगे और तेरा पुत्र निरोग हो जायगा।] उसने बोधिसत्व की बात सुन सोने का प्याला आगे बढ़ाया-'स्वामी ! अमृतौषध दें'। बोधिसत्व ने जूठी काँजी उसमें डाल कर कहा- "इस में से पहले आधी काँजी अपने पुत्र के मुंह में डाल कर शेष चाटी में पानी से मिला कर बाकी ब्राह्मणों के मुँह में Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन डाल / सभी निरोग हो जायेंगे।" इतना कह वह ऊपर उठ कर हिमालय ही चला गया। उसने भी उस प्याले को सिर पर ले "मुझे अमृतोषध मिला है।" कहते हुए घर जाकर पहले पुत्र के मुँह में डाली। यक्ष भाग गया। उसने धूली पोंछते हुए उठ कर पूछा"माँ यह क्या ?" "अपने किये हुए को तू ही जानेगा। आ तात ! अपने दक्षिणा-देने योग्यों का हाल देख / " उसे उन्हें देख कर पश्चात्ताप हुआ। ___तब उसकी माता ने "तात मण्डव्य ! तू मूर्ख है। दान देने के महा-फल स्थान को नहीं पहचानता है। इस तरह के लोग दान-देने योग्य नहीं होते / अब से इन दुश्शीलों को दान मत दे। शीलवानों को दे / " कह ये गाथाएं कहीं मण्डव्य बालोसि परित्तपञ्जो यो पुञखेत्तानं अकोविदो सि, महक्कसावेसु ददासि दानं किलिट्ठ कम्मेसु असञतेसु // 21 // जटा च केसा अजिनानि वत्था जरूदपानं व मुखं परूलहं, पज इमं पस्सथ रूम्मरूपिं न जटाजिनं तायति अप्पपलं // 22 // येसं रागो च दोसो च अविज्जा च विराजिता खीणासवा अरहन्तो तेसु दिन्नं महप्फल // 23 // [हे मण्डव्य ! तू अल्प-बुद्धि है। तू मूर्ख है / तू पुण्य-क्षेत्र नहीं पहचानता है। तू असंयत चित्त-मैल धारी, महान दोषियों को दान देता है। कुछ लोगों की जटाये हैं, केश हैं, अजिनचर्म के वस्त्र हैं, मुँह पुराने कुएं के समान बालों से भरा है। इन चीथड़ेधारी लोगों को देखो। अल्प-प्रज्ञ आदमी की जटा और अजिनचर्म से मोक्ष नहीं होता। जिनके राग, द्वेष तथा अविद्या जाती रही हैं, जो क्षीणास्रव हैं, जो अरहत हैं उन्हें देने में महान् फल है।] इसलिए तात ! अब से इस प्रकार के उपशीलों को दान न दे। लोक में जो आठ समापत्ति-लाभी तथा पञ्च अभिज्ञा प्राप्त धार्मिक श्रमण ब्राह्मण हैं तथा प्रत्येक बुद्ध हैं, उन्हें दान दे। तात! आ अपने कुल के निकटस्थ लोगों को अमृत पिला निरोग करूंगी।" यह कह उसने जूठी काँजी मंगवाई और पानी की चाटी में मिलवा सोलह हजार ब्राह्मणों के मुंह पर छिड़कवाया। एक-एक जना धूली पोंछता हुआ उठ खड़ा हुआ। - ब्राह्मणों ने उन्हें अब्राह्मण बना दिया-इन्होंने चाण्डाल का जूठा पिया है / वे लज्जित होकर वाराणसी से निकले और मेद-राष्ट्र में जा मेद राजा के पास रहने लगे। मण्डव्य वहीं रहने लगा। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमण 276 उस समय वेत्रवती नगरी के पास वेत्रवती नदी के किनारे जातिमन्त नाम का एक ब्राह्मण प्रव्रजित हुआ। वह 'जाति' के कारण बहुत अभिमानी था। बोधिसत्व उसका अभिमान चूर-चूर करने के लिए वहाँ आ, उसके पास ही नदी के ऊपर की ओर रहने लगे। उसने एक दिन दातुन कर यह संकल्प कर उसे नदी में गिराया कि यह दातुन जाकर जातिमन्त की जटाओं में लगे। जब वह पानी का आचमन करने लगा तो वह जाकर उसकी जटाओं में लगी। उसने यह देख कर कहा-"तेरा बुरा हो ! यह मनहूस कहाँ से ?" इसका पता लगाउँगा' सोच वह पानी के स्रोत के ऊपर गया। वहाँ उसने बोधिसत्व को देख कर पूछा-"क्या जात है ?" "चाण्डाल हूँ।" "तू ने नदी में दातुन गिराई ?" "हाँ, मैंने गिराई।" "तेरा बुरा हो, चाण्डाल मनहूस, यहाँ मत रह, स्रोत के नीचे की ओर रह / उसके नीचे जाकर रहने पर भी उसके गिराये हुए दातुन स्रोत से उलटे जा उसकी जटाओं में लगते / वह बोला-"तेरा बुरा हो। यदि यहाँ रहेगा तो आज से सातवें दिन तेरा सिर सात टुकड़े हो जायगा।" बोधिसत्व ने सोचा-यदि मैं इसके प्रति क्रोध करूँगा तो मेरा शील अरक्षित होगा। मै उपाय से ही इसका अभिमान चूर-चूर करूंगा। उसने सातवें दिन सूर्योदय रोक दिया। मनुष्य क्रोधित हो जातिमन्त तपस्वी के पास पहुंचे और पूछा- “भन्ते ! तुम सूर्योदय नहीं होने देते ?" वह बोला-"यह मेरा काम नहीं है, नदी के किनारे एक चाण्डाल रहता है, यह उसका काम होगा।" आदमियों ने बोधिसत्व के पास पहुँच पूछा-"भन्ते ! तुम सूर्योदय नहीं होने देते?" "आयुष्मानो ! हाँ।" "क्यों ?" "तुम्हारे कुल विश्वस्त तपस्वी ने मुझ निरपराध को शाप दिया है / वह आकर जब मेरे पाँव में गिर कर क्षमा माँगेगा तब सूर्य को मुक्त करूंगा।" वे गये और उसे खींच कर लाये और बोधिसत्व के पैरों में गिरा कर क्षमा मंगवाई और प्रार्थना की-"भन्ते ! सूर्य को मुक्त करें।" "मैं नहीं छोड़ सकता, यदि मैं छोड़ दूंगा तो उसका सिर सात टुकड़े हो जायेगा।" "भन्ते ! क्या करें?" उसने "मिट्टी लाओ" कह मिट्टी का ढेला मँगवाया। फिर “इसे तपस्वी के सिर पर रख तपस्वी को पानी में उतारो" कह तपस्वी को पानी में उतरवा सूर्य को मुक्त किया। सूर्य-रश्मि का स्पर्श होते ही मिट्टी के ढेले के सात टुकड़े हो गये। तपस्वी ने पानी में गोता लगाया। उसका दमन कर बोधिसत्व ने जिज्ञासा की-"सोलह हजार ब्राह्मण कहाँ रहते हैं ?" पता लगा कि मेद-राष्ट्र के पास / उनका दमन करने की इच्छा से वह ऋद्धि से वहाँ पहुंचा और नगर के पास उतर भिक्षापात्र ले नगर में भिक्षाटन के लिए निकला। ब्राह्मणों ने सोचा-यदि यह यहाँ एकाध दिन भी रह गया तो हमें अप्रतिष्ठित कर देगा। उन्होंने शीघ्रता से जाकर राजा को कहा--"एक मायाधर जादूगर आया है / उसे पकड़वायें।" राजा ने “अच्छा" कह स्वीकार किया। बोधिसत्व मिला Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . .. जुला भोजन ले एक दीवार के सहारे एक चबूतरे पर बैठ कर कर खाने लगे। जिस समय ध्यान दूसरी ओर था उस समय भोजन करते हुए ही उसे राजा के आदमियों ने आकर तलवार से मार डाला / वह मर कर ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। ___ इस जातक में बोधिसत्व कोण्ड (?) का दमन करने वाले हुए / वह इस पर निर्भरता (?) में ही मृत्यु को प्राप्त हुए। देवताओं ने क्रोधित हो सारे मेद-राष्ट्र पर गर्म गारे की वर्षा की और राष्ट्र को अराष्ट्र कर दिया। इसीलिए कहा गया है उपहजमाने मेझा मातङ्गस्मि यसस्सिने . सपारिसज्जो उच्छिन्नो मेज्झरनं तदा अहु // 24 // .. [ यशस्वी मातङ्ग के मारे जाने के कारण उस समय मेद-राज्य और उसकी सारी परिषद् मष्ट हो गई।] ___ शास्ता ने यह धर्म-देशना ला, 'न केवल अभी, पहले भी उदयन ने प्रव्रजितों को कष्ट ही दिया है' कह जातक का मेल बैठाया। उस समय मण्डव्य उदयन था / मातङ्गपण्डित तो मैं ही था। -जातक (चतुर्थ खण्ड ) 467 ; मातङ्ग जातक पृ० 583-167 / जैन-कथावस्तु का संक्षिप्त सार चाण्डाल मुनि का यज्ञवाट में भिक्षा के लिए जाना। ब्राह्मणों द्वारा अब्राह्मण को दान का निषेध करना / मनि की शिक्षा। ब्राह्मणों का मुनि के प्रति अशिष्ट व्यवहार / यक्ष द्वारा छात्रों को मूच्छित किया जाना। राजा की पुत्री भद्रा जो यज्ञपत्नी थी, का वहाँ आना। समस्त ब्राह्मण-कुमारों को मुनि का यथार्थ परिचय देना। मुनि की शरण ग्रहण करने की प्रेरणा देना। सोमदेव का मुनि के पास आ क्षमा-याचना कर भोजन लेने की प्रार्थना करना। मुनि द्वारा क्षमा देना, जातिवाद की अयथार्थता का ख्यापन करना, यज्ञ की यथार्थता को समझाना और कर्म-मुक्ति का मार्ग दिखाना। बौद्ध-कथावस्तु का संक्षिप्त सार वाराणसी में मंडव्य कुमार का प्रतिदिन सोलह हजार ब्राह्मणों को भोजन देना। हिमालय के आश्रम में मातङ्ग पण्डित का भिक्षा लेने आना। उसके फटे हुए और गंदे वस्त्र देख कर उसे स्थान से हटाना। मातङ्ग पण्डित का मण्डव्य को उपदेश देना। दान-क्षेत्र की यथार्थता बताना / Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा खण्ड : 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमण 281 मण्डव्य के साथियों द्वारा मातङ्ग का पीटा जाना। नगर-देवताओं द्वारा ब्राह्मणों की दुर्दशा करना / सेठ की कन्या दिट्ठमङ्गलिका का आना, वहाँ की अवस्था को देख कर स्थिति को जान लेना। सोने का कलश और प्याला ले मातङ्ग मुनि के पास जाना—क्षमा-याचना करना। मातङ्ग पण्डित द्वारा ब्राह्मणों के ठीक होने का उपाय करना और दिट्ठमङ्गलिका का सभी ब्राह्मणों को दान-क्षेत्र की यथार्थता बताना / समान गाथाएँ उत्तराध्ययन, अध्ययन 12 मातङ्ग जातक (संख्या 497) श्लोक कयरे आगच्छइ दित्तत्वे काले 'विगराले फोकनासे। ओमचेलए पंसुपिसायभूए संकरदूसं परिहरिय कण्ठे // 6 // कयरे तुमं. इय अदंसणिज्जे काए व आसाइ हमागओ सि / ओमचेलगा पंसुपिसायभूया गच्छ क्खलाहि किमिहं ठिओसि ? // 7 // 1 (पृ० 272 पर उद्धृत) समणो अहं संजओ बम्भयारी विरओ धणपयणपरिग्गहाओ। परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि // 9 // वियरिजइ खजइ भुजई य अन्नं पभूयं भवयाणमेयं / जाणाहि मे जायणजीविणु त्ति सेसावसेसं लभऊ तवस्सी // 10 // 2 (पृ० 272 ,, ,) उवक्खडंभोयण माहणाणं अत्तद्वियं सिद्ध मिहेगपक्खं / न ऊ वयं एरिसमन्नपाणं बाहामु तुझ किमिहं ठिओ सि ? // 11 // 3 (पृ. 273 , ,) Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन :. ... थलेसु बीयाइ ववन्ति कासगा तहेव निन्नेसु य आससाए। एयाए सखाए दलाह मझ आराहए पुग्णमिणं खु खेत्तं // 12 // 4 (पृ. 273 पर उद्धृत) खेत्ताणि अम्हं विइयाणि लोए जहिं पकिण्णा विरुहन्ति पुण्णा। जे माहणा जाइविज्जोववेया ताई तु खेत्ताइं सुपेसलाई // 13 // ___5 (पृ० 273 ,, ,) कोहो य माणो य वहो य जेसिं मोसं अदत्तं च परिग्गहं च / ते माहणा जाइविज्जाविहूणा ताई तु खेत्ताइं सुपावयाई // 14 // तुम्भेत्थ भो भारधरा गिराणं अटुं न जाणाह अहिज्ज वेए। उच्चावयाई मुणिणो चरन्ति ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई // 15 // 6,7 (पृ० 273 ,, ,,) के एत्थ खत्ता उवजोइया वा अज्झावया वा सह खण्डिएहिं / एवं दण्डेण फलेण हन्ता कण्ठम्मि घेत्तूण खलेज्ज जो गं ? // 18 // अमावयाणं वयणं सुणेत्ता उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा। दण्डेहि वित्तेहि कसेहि चेव समागया तं इसि तालयन्ति // 19 // 8 (पृ० 274 ,, ,) गिरिं नहेहिं खणह अयं दन्तेहिं खायह / जायतेयं पाएहि हणह जे भिक्खं अवमन्नह // 26 // 6 (पृ० 274 ,, ,) अवहेडिय पिटिसउत्तमंगे पसारियाबाहु अकम्मचेटे। निम्मेरियच्छे रुहिरं वमन्ते . उदमुहे निम्गयजीहनेत्ते // 29 // . 11 (पृ० 275 ,, ,) 8 2 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमण , 283 पुट्विं च इण्डिं च अणागयं च मणप्पदोसो न मे अस्थि कोइ। जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति तम्हा हु एए निहया कुमारा // 32 // 16-18 (पृ० 276-77 पर उद्धृत) अत्थं च धम्मं च वियाणमाणा तुम्भे न वि कुप्पह भूइपन्ना। तुभं तु पाए सरणं उवेमो समागया सव्वजणेण अम्हे // 33 // 16 (पृ० 277 ,,,) एक विश्लेषण इन समानताओं के अतिरिक्त इन दोनों में काफी अन्तर भी है। मातङ्ग जातक में मातङ्ग-पण्डित की कथा के अतिरिक्त एक और कथा का समावेश किया गया है। पहली कथा में चाण्डाल मातङ्ग-पंडित ब्राह्मणों को शिक्षा देकर सही मार्ग पर लाते हैं और दूसरी कथा में ब्राह्मण मातङ्ग को राजा से मरवा देते हैं। विद्वानों की मान्यता है कि यह दूसरी कथा बाद में जोड़ी गई है। __डॉ० घाटगे का अभिमत है कि जब हम जैन और बौद्ध परम्राओं में प्रचलित इन कथानों की तुलना करते हैं, तब हमें यह ज्ञात होता है कि बौद्ध-परम्परा की कथावस्तु विस्तृत है और उसका कथ्य अनेक विचारों से मिश्रित है / जैन-परम्परा की कथावस्तु बहुत सरल है और कथ्यमात्र को छूने वाली है / लेकिन एक तथ्य ऐसा है जिसके आधार पर यह माना जा सकता है कि जैन-कथावस्तु बौद्ध-कथावस्तु से प्राचीन है। मातङ्ग जातक में प्रतिपाद्य विषय के सूक्ष्म अध्ययन से यह ज्ञात हो जाता है कि ब्राह्मणों के प्रति लेखक की भावनाएं बहुत अधिक उद्धत और कटु हैं जब कि जैन-कथावस्तु में ऐसा नहीं है। बौद्धों की कथावस्तु में ब्राह्मणों को सहज धोखा देना और उन द्वारा किए गए अपराधों के लिए जूठन खाने के लिए प्रेरित करना—ये दो तथ्य उपरोक्त मान्यता को स्पष्ट कर देते हैं / ‘इन्हीं तथ्यों ने दूसरी कथा को इसी जातक में समाविष्ट करने के लिए लेखक को प्रेरित किया होगा और इस प्रकार की भावनाएं साम्प्रदायिक पक्षपातों के आधार पर आगे चल कर पनपी होंगी। उस समय ब्राह्मण जन्मना जाति के आधार पर विशेषताओं 1. Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. 17 (1935, 1936) A few Parallels in Jains and Buddhist works', page 345, by A. M. Ghatage, M. A. :. This must have also led the writer to include the other story in the same Jataka. And such an attitude, must have arisen in later times as the effect of sectarian bias. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 ___ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / को स्वीकार करते थे। इस तथ्य को निराधार बताना ही इन कथाओं का प्रतिपाद्य था। यह तथ्य जैन-कथानक में स्पष्ट प्रतीत होता है और वह भी बहुत अधिक मानवीय और सहानुभूतिपूर्ण विधि से।' चित्र-सम्भूत ( उत्तराध्ययन 13) साकेत नगर में चन्द्रावतंसक राजा का पुत्र मुनिचन्द्र राज्य करता था। राज्य का उपभोग करते-करते उसका मन काम-भोगों से विरक्त हो गया। उसने मुनि सागरचन्द के पास दीक्षा ग्रहण की। वह अपने गुरु के साथ-साथ देशान्तर जा रहा था। एक बार वह भिक्षा लेने गाँव में गया, पर सार्थ से बिछड़ गया और एक भयानक अटवी में जा पहुँचा / वह भूख और प्यास से व्याकुल हो रहा था। वहाँ चार ग्वाल-पुत्र गाएँ चरा रहे थे। उन्होंने मुनि की अवस्था देखी। उनका मन करुणा से भर गया। उन्होंने मुनि की परिचर्या की। मुनि स्वस्थ हुए। चारों ग्वाल-पुत्रों को धर्म का उपदेश दिया। चारों बालक प्रतिबुद्ध हुए और मुनि के पास दीक्षित हो गए। वे सभी आनन्द से दीक्षा-पर्याय का पालन करने लगे। किन्तु उनमें से दो मुनियों के मन में 'मैले कपड़ों के विषय में जुगुप्सा रहने लगी। चारों मर कर देवगति में गए। जुगुप्सा करने वाले दोनों देवलोक से च्युत हो दशपुर नगर में शांडिल्य ब्राह्मण की दासी यशोमती की कुक्षी से युगल रूप में जन्मे। वे युवा हुए। एक बार वे जंगल में अपने खेत की रक्षा के लिए गए। रात हो गई। वे एक वट वृक्ष के नीचे सो गए। अचानक ही वृक्ष के कोटर से एक सर्प निकला और एक को डंस कर चला गया। दूसरा जागा। उसे यह बात मालूम हुई। तत्काल ही वह सर्प की खोज में निकला। वही सर्प उसे भी डॅस गया। दोनों मर कर कालिंजर पर्वत पर एक मृगी के उदर से युगल रूप में उत्पन्न हुए। एक बार दोनों आस-पास चर रहे थे। एक व्याध ने एक ही बाण से दोनों को मार डाला। वहाँ से मर कर वे गंगा नदी के तौर पर एक राजहंसिनी के गर्भ में आए। युगल रूप में जन्मे / वे युवा बने। वे दोनों साथ-साथ घूम रहे थे। एक बार एक मछुए ने उन्हें पकड़ा और गर्दन मरोड़ कर मार डाला। उस समय वाराणसी नगरी में चाण्डालों का एक अधिपति रहता था। उसका नाम ____ 1. Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. 17 (1935-1936) 'A few Parallels in Jain and Buddhist works', page 345, by A. M. Ghatage M. A. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 285 था भूतदत्त / वह बहुत समृद्ध था। वे दोनों हंस मर कर उसके पुत्र हुए। उनका नाम चित्र और सम्भूत रखा गया। दोनों भाइयों में अपार स्नेह था। ___ उस समय वाराणसी नगरी में शङ्ख राजा राज्य करता था। नमुचि उसका मंत्री था। एक बार उसके किसी अपराध पर राजा क्रुद्ध हो गया और वध की आज्ञा दे दी। चाण्डाल भूतदत्त को यह कार्य सौंपा गया। उसने नमुचि को अपने घर में छिपा लिया और कहा--"मंत्रिन् ! यदि आप मेरे तल-घर में रह कर मेरे दोनों पुत्रों को अध्यापन कराना स्वीकार कर लें तो मैं आपका वध नहीं करूंगा।" जीवन की आशा से मंत्री ने बात मान ली। अब वह चाण्डाल के पुत्रों-चित्र और सम्भूत को पढ़ाने लगा। चाण्डाल-पत्नी नमुचि की परिचर्या करने लगी। कुछ काल बीता। नमुचि चाण्डालस्त्री में आसक्त हो गया। भूतदत्त ने यह बात जान ली। उसने नमुचि को मारने का विचार किया। चित्र और सम्भूत दोनों ने अपने पिता के विचार जान लिए / गुरु के प्रति कृतज्ञता से प्रेरित हो उन्होंने नमुचि को कहीं भाग जाने की सलाह दी। नमुचि वहाँ से भागा-भागा हस्तिनापुर में आया और चक्रवर्ती सनत्कुमार का मंत्री बन गया। चित्र और सम्भूत बड़े हुए / उनका रूम और लावण्य आकर्षक था। नृत्य और संगीत में वे प्रवीण हुए। वाराणसी के लोग उनकी कलाओं पर मुग्ध थे। एक बार मदन महोत्सव आया। अनेक गायक-टोलियाँ मधुर-राग में अलाप रही थीं और तरुण-तरुणियों के अनेक गण नृत्य कर रहे थे। उस समय चित्र-सम्भूत की नृत्यमण्डली भी वहाँ आ गई। उनका गाना और नृत्य सबसे अधिक मनोरम था। उसे सुन और देख कर सारे लोग उनकी मण्डली की ओर चले आए। युवतियाँ मंत्र-मुग्ध सी हो गई। सभी तन्मय थे। ब्राह्मणों ने यह देखा। मन में ईर्ष्या उभर आई। जातिवाद की आड़ ले वे राजा के पास गए और सारा वृत्तान्त कह सुनाया। राजा ने दोनों मातङ्गपुत्रों को नगर से निकाल दिया। वे अन्यत्र चले गए। कुछ समय बीता। एक बार कौमुदी-महोत्सव के अवसर पर वे दोनों मातङ्ग-पुत्र 'पुनः नगर में आए। वे मुंह पर कपड़ा डाले महोत्सव का आनन्द ले रहे थे। चलतेचलते उनके मुँह से संगीत के स्वर निकल पड़े। लोग अवाक रह गए। वे उन दोनों के पास आए। आवरण हटाते ही उन्हें पहचान गए। उनका रक्त ईर्ष्या से उबल गया। 'ये चाण्डाल-पुत्र हैं'—ऐसा कह कर उन्हें लातों और चाटों से मारा और नगर से बाहर निकाल दिया। वे बाहर एक उद्यान में ठहरे / उन्होंने सोचा धिक्कार है हमारे रूप, यौवन, सौभाग्य और कला-कौशल को ! आज हम चाण्डाल होने के कारण प्रत्येक वर्ग से तिरस्कृत हो रहे हैं। हमारा सारा गुण-समूह दूषित हो रहा है। ऐसा जीवन जीने से लाभ ही क्या ?' उनका मन जीने से ऊब गया। वे आत्म-हत्या का दृढ़ संकल्प ले Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन .. .. वहाँ से चले / एक पहाड़ पर इसी विचार से चढ़े। ऊपर चढ़ कर उन्होंने देखा कि एक . श्रमण ध्यान-लीन है। वे साधु के पास आए और बैठ गए। ध्यान पूर्ण होने पर साधु ने उनका नाम-धाम पूछा। दोनों ने अपना पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया। मुनि ने कहा"तुम अनेक कला-शास्त्रों के पारगामी हो। आत्म-हत्या करना नीच व्यक्तियों का काम है। तुम्हारे जैसे विमल-बुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए वह उचित नहीं / तुम इस विचार को छोड़ो और जिन-धर्म की शरण में आओ। इससे तुम्हारे शारीरिक और मानसिक सभी दुःख उच्छिन्न हो जाएंगे।" उन्होंने मुनि के वचन को शिरोधार्य किया और हाथ जोड़ कर कहा- "भगवन् ! आप हमें दीक्षित करें।" मुनि ने उन्हें योग्य समझ दीक्षा दी। मुरु-चरणों की उपासना करते हुए वे अध्ययन करने लगे। कुछ समय बाद वे गीतार्थ हुए। विचित्र तपस्याओं से प्रात्मा को भावित करते हुए वे ग्रामानुग्राम विहार करने लगे / एक बार वे हस्तिनापुर आए / नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे / एक दिन मास-क्षमण का पारणा करने के लिए मुनि सम्भूत नगर में गए। भिक्षा के लिए वे घर-घर घूम रहे थे। मंत्री नमुचि ने उन्हें देख कर पहचान लिया। उसकी सारी स्मृतियाँ सद्यस्क हो गई। उसने सोचा-'यह मुनि मेरा सारा वृत्तान्त जानता है। यहाँ के लोगों के समक्ष यदि इसने कुछ कह डाला तो मेरी महत्ता नष्ट हो जाएगी।' ऐसा विचार कर उसने लाठी और मुक्कों से मार कर मुनि को नगर से बाहर निकालना चाहा / कई लोग मुनि को पीटने लगे। मुनि शान्त रहे / परन्तु लोग जब अत्यन्त उग्र हो गए, तब मुनि का चित्त अशान्त हो गया। उनके मुँह से धुंआ निकला और सारा नगर अन्धकारमय हो गया। लोग घबड़ाए / अब वे मुनि को शान्त करने लगे। चक्रवर्ती सनत्कुमार भी वहाँ आ पहुंचा। उसने मुनि से प्रार्थना की—“भन्ते ! यदि हम से कोई त्रुटि हुई हो तो आप क्षमा करें। आगे हम ऐसा अपराध नहीं करेंगे। आप महान् हैं। नगर-निवासियों को जीवन-दान दें।" इतने से मुनि का क्रोध शान्त नहीं हुआ। उद्यान में बैठे मुनि चित्र ने यह सम्वाद सुना और आकाश को धूम्र से आच्छादित देखा। वे तत्काल वहाँ आए और उन्होंने मुनि सम्भूत से कहा- "मुने ! क्रोधानल को उपशान्त करो, उपशान्त करो। महर्षि उपशम-प्रधान होते हैं। वे अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते। तुम अपनी शक्ति का संवरण करो।" मुनि सम्भूत का मन शान्त हुआ। उन्होंने तेजोलेश्या का संवरण किया। अंधकार मिट गया। लोग प्रसन्न हुए। दोनों मुनि उद्यान में लौट गए। उन्होंने सोचा-'हम काय-संलेखना कर चुके हैं, इसलिए अब अनशन करना चाहिए।' दोनों ने बड़े धैर्य के साथ अनशन ग्रहण किया। ___ चक्रवर्ती सनत्कुमार ने जब यह जाना कि मंत्री नमुचि के कारण ही सभी लोगों को संत्रास सहना पड़ा है तो उसने मंत्री को बाँधने का आदेश दिया। मंत्री को रस्सों से बाँध कर मुनियों के पास लाए। मुनियों ने राजा को समझाया और उसने मंत्री को Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 . कथानक संक्रमण 287 मुक्त कर दिया / चक्रवर्ती दोनों मुनियों के पैरों पर गिर पड़ा। रानी सुनन्दा भी साथ थी। उसने भी वन्दना की। अकस्मात् ही उसके केश मुनि सम्भूत के पैरों को छू गए / मुनि सम्भूत को अपूर्व आनन्द का अनुभव हुआ। उसने निदान करने का विचार किया। मुनि चित्र ने ज्ञान-शक्ति से यह जान लिया और निदान न करने की शिक्षा दी, पर सब व्यर्थ / मुनि सम्भूत ने निदान किया-'यदि मेरी तपस्या का फल है तो मैं चक्रवर्ती बन।' ... दोनों मुनियों का अनशन चालू था। वे मर कर सौधर्म देवलोक में देव बने / वहाँ का आयुष्य पूरा कर चित्र का जीव पुरिमताल नगर में एक इभ्य सेठ का पुत्र बना और सम्भूत का जीव काम्पिल्यपुर में ब्रह्म राजा की रानी चुलनी के गर्भ में आया। रानी ने चौदह महास्वप्न देखे / बालक का जन्म हुआ / उसका नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। ... राजा ब्रह्म के चार मित्र थे—(१) काशी देश का अधिपति कटक, (2) गजपुर का राजा कणेरदत्त, (3) कोशल देश का राजा दीर्घ और (4) चम्पा का अधिपति पुष्पचूल। राजा ब्रह्म का इनके साथ अगाध प्रेम था। वे सभी एक-एक वर्ष एक-एक के राज्य में रहते थे। एक बार वे सब राजा ब्रह्म के राज्य में समुदित हो रहे थे। उन्हीं दिनों की बात है, एक दिन राजा ब्रह्म को असह्य मस्तक-वेदना उत्पन्न हुई। स्थिति चिन्ताजनक बन गई / राजा ब्रह्म ने अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को चारों मित्रों को सौंपते हुए कहा- "इसका राज्य तुम्हें चलाना है।" मित्रों ने स्वीकार किया। . कुछ काल बाद राजा ब्रह्म को मृत्यु हो गई / मित्रों ने उसका अन्त्येष्टि-कर्म किया। उस समय कुमार ब्रह्मदत्त छोटी अवस्था में था। चारों मित्रों ने विचार-विमर्श कर कोशल देश के राजा दीर्घ को राज्य का सारा भार सौंपा और बाद में सब अपने-अपने राज्य की ओर चले गए। राजा दीर्घ राज्य की व्यवस्था करने लगा। सर्वत्र उसका प्रवेश होने लगा। रानी चुलनी के साथ उसका प्रेम-बन्धन गाढ़ होता गया। दोनों निःसकोच विषय-वासना का सेवन करने लगे। __रानी के इस दुश्चरण को जान कर राजा ब्रह्म का विश्वस्त मंत्री धनु चिन्ताग्रस्त हो * गया। उसने सोचा-'जो व्यक्ति अधम आचरण में फँसा हुआ है, वह भला कुमार ब्रह्मदत्त का क्या हित साध सकेगा?' उसने रानी चुलनी और राजा दीर्घ के अवैध सम्बन्ध की बात अपने पुत्र वरधनु के द्वारा कुमार तक पहुंचाई / कुमार को यह बात बहुत बुरी लगी। उसने एक उपाय ढूँढ़ा / एक कौवे और एक कोकिल को पिंजरे में बन्द कर अन्तःपुर में ले गया और रानी चुलनी को सुनाते हुए कहा-"जो कोई भी अनुचित सम्बन्ध जोड़ेगा, उसे मैं इसी प्रकार पिंजरे में डाल दूंगा।" राजा दीर्घ ने यह बात सुनी। उसने चुलनी से कहा- "कुमार ने हमारा सम्बन्ध जान लिया है। मुझे कौवा और तुम्हें कोयल मान संकेत दिया है। अब हमें Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन सावधान हो जाना चाहिए।" चुलनी ने कहा- "वह अभी बच्चा है। जो कुछ मन में आता है, कह देता है।" राजा दीर्घ ने कहा-"नहीं, ऐसा नहीं है। वह हमारे प्रेम में बाधा डालने वाला है। उसको मारे बिना अपना सम्बन्ध नहीं निभ सकता।" चुलनी ने कहा-"जो आप कहते हैं, वह सही है, किन्तु उसे कैसे मारा जाए ? लोकापवाद से भी तो हमें डरना चाहिए।' राजा दीर्घ ने कहा-"जनापवाद से बचने के लिए पहले हम इसका विवाह कर दें, फिर ज्यों-त्यों इसे मार देंगे।' रानी ने बात मान ली। एक शुभ-वेला में कुमार का विवाह सम्पन्न हुआ। उसके शयन के लिए राजा दीर्घ ने हजार स्तम्भ वाला एक लाक्षा-गृह बनवाया। इधर मंत्री धनु ने राजा दीर्घ से प्रार्थना की- "स्वामिन् ! मेरा पुत्र वरधनु मंत्री-पद का कार्य-भार संभालने के योग्य हो गया है। मैं अब कार्य से निवृत्त होना चाहता हूँ। राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और छलपूर्वक कहा- "तुम और कहीं जा कर क्या करोगे? यहीं रहो और दान आदि धर्मों का पालन करो।" मंत्री ने राजा की बात मान ली। उसने नगर के बाहर गंगा नदी के तट पर एक विशाल प्याऊ बनाई। वहाँ वह पथिकों और परिव्राजकों को प्रचुर अन्न-पान देने लगा। दान व सम्मान के वशीभूत हुए पथिकों और परिव्राजकों द्वारा उसने लाक्षा-गृह से प्याऊ तक एक सुरंग खुदवाई। राजा-रानी को इस सुरंग की बात ज्ञात नहीं हुई। रानी चुलनी ने कुमार ब्रह्मदत्त को अपनी नववधू के साथ उस लाक्षा-गृह में भेजा। दोनों वहाँ गए। रानी ने शेष सभी जाति-जनों को अपने-अपने घर भेज दिया। मंत्री का पुत्र वरधनु वहीं रहा। रात्रि के दो पहर बीते। कुमार ब्रह्मदत्त गाढ़ निद्रा में लीन था। वरधनु जाग रहा था। अचानक लाक्षा-गृह एक ही क्षण में प्रदीप्त हो उठा। हाहाकार मचा / कुमार जागा और दिगमूढ़ बना हुआ वरधनु के पास आ बोला-"यह क्या हुआ? अब क्या करें ?" वरधनु ने कहा-'यह राज-कन्या नहीं है, जिसके साथ आपका पाणिग्रहण हुआ है। इसमें प्रतिबन्ध करना उचित नहीं है / चलो हम चले।" उसने कुमार ब्रह्मदत्त को एक संकेतित स्थान पर लात मारने को कहा। कुमार ने लात मारी। सुरंग का द्वार खुल गया। वे उसमें घुसे। मंत्री ने पहले ही अपने दो विश्वासी पुरुष सुरंग के द्वार पर नियुक्त कर रखे थे। वे घोड़ों पर चढ़े हुए थे। ज्यों ही कुमार ब्रह्मदत्त और वरधनु सुरंग से बाहर निकले त्यों ही उन्हें घोड़ों पर चढ़ा दिया। वे दोनों वहाँ से चले। पचास योजन दूर जाकर ठहरे। लम्बी यात्रा के कारण घोड़े खिन्न होकर गिर पड़े। अब वे दोनों वहाँ से पैदल चले। चलते-चलते वे कोष्ठ-ग्राम में आए। कुमार ने वरधनु से कहा-"मित्र ! प्यास बहुत जोर से लगी है, मैं अत्यन्त परिश्रान्त हो गया हूँ / वरधनु गाँव में गया। एक नाई को साथ ले, वह लौटा / कुमार का सिर मुंडाया, गेरुए Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमण 286 वस्त्र पहिनाएं और श्रीवत्सालंकृत चार अंगुल प्रमाण पट्ट-बंधन से वक्षस्थल को आच्छादित किया। वरधनु ने भी वेष परिवर्तन किया। दोनों गाँव में गए / एक दास के लड़के ने घर से निकल कर उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। वे दोनों उसके घर गए। पूर्ण सम्मान से उन्हें भोजन कराया। उस गृहस्वामी के बंधुमती नाम की एक पुत्री थी। भोजन कर चुकने पर एक महिला आई और कुमार के सिर पर आखे (अक्षत) डाले और कहा- "यह बंधुमती का पति है।" यह सुन कर वरधनु ने कहा- "इस मूर्ख बटुक के लिए क्यों अपने आपको नष्ट कर रहे हो ?" गृहस्वामी ने कहा-"स्वामिन ! एक बार नैमित्रिक ने हमें कहा था जिस व्यक्ति का वक्षस्थल पट्ट से आच्छादित होगा और जो अपने मित्र के साथ यहाँ भोजन करेगा, वही इस कन्या का पति होगा।" कुमार ने बंधुमती के साथ विवाह किया / दूसरे दिन वरधनु ने कुमार से कहा- "हमें बहुत दूर जाना है / " बंधुमती से प्रस्थान की बात कह वरधनु और कुमार दोनों वहाँ से चल पड़े। एक गाँव में आए / वरधनु पानी लेने गया / शीघ्र ही आ उसने कहा-"कुमार ! लोगों में यह जनश्रुति है कि राजा दीर्घ ने ब्रह्मदत्त के सारे मार्ग रोक लिए हैं, अब हम पकड़े जाएँगे / अतः कुछ उपाय ढूँढ़ना चाहिए।" दोनों राजमार्ग को छोड़, उन्मार्ग से चले। एक भयंकर अटवी में पहुंचे। कुमार प्यास से व्याकुल हो गया। वह एक वट-वृक्ष के नीचे बैठा। वरधनु पानी की टोह में निकला। घूमते-घूमते वह दूर जा निकला। राजा दीर्घ के सिपाहियों ने उसे देख लिया। उन्होंने इसका पीछा किया। वह बहुत दूर चला गया। ज्यों-त्यों कुमार के पास आ उसने चलने का संकेत किया। कुमार ब्रह्मदत्त वहाँ से भागा। वह एक दुर्गम कान्तार में जा पहुंचा। प्यास और भूख से परिक्लान्त होता हुआ तीन दिन तक चलकर कान्तार को पार किया। उसने वहाँ एक तापस को देखा। तापस के दर्शन मात्र से उसे जीवित रहने की आशा हो गई। उसने पूछा- "भगवन् ! आपका आश्रम कहाँ है ?" तापस ने आश्रम का स्थान बताया और उसे कुलपति के पास ले गया। कुमार ने कुलपति को प्रणाम किया। कुलपति ने पूछा-"वत्स ! यह अटवी अपाय बहुल है। तुम यहाँ कैसे आएं ?" कुमार ने सारी बात यथार्थ रूप में उनसे कही। - कुलपति ने कहा-"वत्स ! तुम मुझे अपने पिता का छोटा भाई मानो / यह आश्रमपद तुम्हारा ही है। तुम यहाँ सुखपूर्वक रहो।" कुमार वहीं रहने लगा / काल बीता। वर्षा ऋतु आ गई / कुलपति ने कुमार को चतुर्वेद आदि महत्त्वपूर्ण सारी विद्याएँ सिखाई। ___एक बार शरद् ऋतु में तापस फल, कंद, मूल, कुसुम, लकड़ी आदि लाने के लिए अरण्य में गए। वह कुमार भी कुतूहलवश उनके साथ जाना चाहता था। कुलपति ने उसे रोका, पर वह नहीं माना और अरण्य में चला गया। वहाँ उसने अनेक सुन्दर वनखण्ड देखे / वहाँ के वृक्ष फल और पुष्पों से समृद्ध थे। उसने एक हाथी देखा और गले Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन से भीषण गर्जारव किया। हाथी उसकी ओर दौड़ा। यह देख कुमार ने अपने उत्तरीय को गोल गेंद-सा बना हाथी की ओर फेंका। तत्क्षण ही हाथी ने उस गेंद को अपनी सूंड से पकड़ कर आकाश में फेंक दिया। और भी अनेक चेष्टाएं की। हाथी अत्यन्त कुपित हो गया। कुमार ने उसे छल से पकड़ लिया और अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं से परिश्रान्त कर छोड़ दिया। कुमार उत्पथ से आश्रम की ओर चल पड़ा। वह दिग्मूढ़ हो गया था। इधर-उधर घूमते-घूमते वह एक नगर में पहुंचा। वह नगर जीर्ण-शीर्ण हो चुका था। उसके केवल खण्डहर ही अवशेष थे। वह उन खण्डहरों को आश्चर्य की दृष्टि से देखने लगा। देखते-देखते उसकी आँखें एक ओर जा टिकीं। उसने एक खड्ग और चौड़े मुंह वाला बाँस का कुंडा देखा / उसका कुतूहल बढ़ा। परीक्षा करने के लिए उसने खड्ग से कंडे पर प्रहार किया। एक ही प्रहार में कुंडा नीचे गिर गया। उसके अन्दर से एक मुंड निकला / मनोहर सिर को देख उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। उसने सोचा--धिक्कार है मेरे व्यवसाय को ! उसने अपने पराक्रम की निन्दा की, बहुत पश्चात्ताप किया / उसने एक ओर ऊंचे बंधे हुए पाँव वाले कबंध को देखा / उसकी उत्सुकता और बढ़ी। आगे उसने एक उद्यान देखा। वहाँ एक सप्तभौम प्रासाद था। उसके चारों ओर अशोक-वृक्ष थे। वह धीरे-धीरे प्रासाद में गया। उसने वहाँ एक स्त्री देखी। वह विकसित कमल तथा विद्याधर सुन्दरी की तरह थी। उसने पूछा- “सुन्दरी ! तुम कौन हो ?" सुन्दरी ने समंश्रम कहा-"महाभाग ! मेरा वृत्तान्त बहुत बड़ा है / तुम ही इसका समाधान दे सकते हो / तुम कौन हो ? कहाँ से आए हो ?" कुमार ने कोकिलालाप की तरह मधुर उसको वाणी को सुन कर कहा-"सुन्दरी ! मैं पांचाल देश के राजा ब्रह्म का पुत्र हूँ। मेरा नाम ब्रह्मदत्त है।" इतना सुनते ही वह महिला अत्यन्त हर्षित हुई। आनन्द उसकी आँखों से बाहर झाँकने लगा / वह उठी और उसके चरणों में गिर पड़ी और रोने लगी। कुमार का हृदय दया से भींग गया। 'देवी ! मत रो'-यह कह उसने उसे उठाया और पूछा- "देवी ! तुम कौन हो ?" उसने कहा-"आर्यपुत्र ! मैं तुम्हारे मामा पुष्पचूल राजा की लड़की हूँ। एक बार मैं अपने उद्यान के कुएं के पास वाली भूमि में खेल रही थी। नाट्योन्मत्त नाम का विद्याधर वहाँ आया और मुझे उठा यहाँ ले आया / यहाँ आए मुझे बहुत दिन हो गए हैं / मैं परिवार की विरहाग्नि में जल रही हूँ। आज तुम अचानक ही यहाँ आ गए। मेरे लिए यह अचिंतित स्वर्ण-वर्षा हुई है। अब तुम्हें देख कर मुझे जीने की आशा भी बंधी है।" कुमार ने कहा-"वह महाशत्रु कहाँ है ? मैं उसके बल की परीक्षा करना चाहता हूँ।" स्त्री ने कहा-"स्वामिन् ! उसने मुझे पठित सिद्ध शंकरी नाम की विद्या दी और कहा-इस विद्या के स्मरण मात्र से वह सखि, दास आदि का परिवार के रूप में उपस्थित होकर तुम्हारे आदेश का पालन करेगी। वह तुम्हारे पास आते हुए, शत्रुओं का Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण .. निवारण करेगी। उसे पूछने पर वह मेरी सभी बात बताएगी। मैंने एक बार उसका स्मरण किया। उसने कहा-"यह नाट्योन्मत्त नाम का विद्याधर है। मैं उसके द्वारा यहाँ लाई गई हूँ। मैं अधिक भाग्यवती हूँ। वह मेरा तेज सह नहीं सका। इसलिए वह मुझे इस विद्या निर्मित तथा सफेद और लाल ध्वजा से भूषित प्रासाद में छोड़ गया। मेरा वृत्तान्त जानने के लिए अपनी बहिन के पास अपनी विद्या को प्रेषित कर स्वयं वंशकुंड में चला गया। विद्या को साध कर वह मेरे साथ विवाह करेगा। आज उसकी विद्यासिद्धि होगी। . इतना सुन कर ब्रह्मदत्त कुमार ने पुष्पावती से उस विद्याधर के मारे जाने की बात कही। वह अत्यन्त प्रसन्न हो बोली-"आर्य ! आपने अच्छा किया। वह दुष्ट मारा गया।" दोनों ने गन्धर्व-विवाह किया। कुमार कुछ समय तक उसके साथ रहा। एक दिन उसने देव-वलय का शब्द सुना। कुमार ने पूछा-“यह किसका शब्द है" ? उसने कहा-"आर्यपुत्र ! विद्याधर नाटयोन्मत्त को बहिन खण्डविशाखा उसके विवाह के लिए सामग्री लेकर आ रही है। तुम थोड़ी देर के लिए यहाँ से चले जाओ। मैं उसकी भावना जान लेना चाहती हूँ। यदि वह तुम से अनुरक्त होगी तो मैं प्रासाद के ऊपर लाल ध्वजा फहरा दूंगी अन्यथा सफेद / " कुमार वहाँ से चला गया। थोड़े समय बाद कुमार ने सफेद ध्वजा देखी। वह धीरे-धीरे वहाँ से चल पड़ा और गिरि-निकुञ्ज में आ गया। वहाँ एक बड़ा सरोवर देखा। उसने उसमें डुबकी लगाई। उत्तर-पश्चिम तीर पर जा निकला। वहाँ एक सुन्दर कन्या बैठी थी। कुमार ने उसे देखा और सोचा-अहो ! यह मेरे पुण्य की परिणति है कि यह कन्या मुझे दीख पड़ी। कन्या ने भी स्नेहपूर्ण दृष्टि से कुमार को देखा और वह वहाँ से चली गई। थोड़े ही समय में एक दासी वहाँ आई और कुमार को वस्त्र-युगल, पुष्प-तंबोल आदि भेंट किए और कहा-"कुमार ! सरोवर के समीप जिस कन्या को तुमने देखा था, उसी ने यह भेंट भेजी है और आपको मंत्री के घर में ठहरने के लिए कहा है। आप वहाँ चलें और सुखपूर्वक रहें।" कुमार ने वस्त्र पहिने, अलंकार किया और नागदेव मंत्री के घर पर जा पहुंचा / दासी ने मंत्री से कहा"आपके स्वामी की पुत्री श्रीकान्ता ने इन्हें यहाँ भेजा है। आप इनका सन्मान करें और आदर से यहाँ रखें।" मंत्री ने वैसा ही किया। दूसरे दिन मंत्री कुमार को साथ ले राजा के पास गया / राजा ने उठ कर कुमार को आगे आसन दिया। राजा ने वृत्तान्त पूछा और भोजन से निवृत्त होकर कहा- "कुमार ! हम आपका और क्या स्वागत करें ! कुमारी श्रीकान्ता को आपके चरणों में भेंट करते हैं / " शुभ दिन में विवाह सम्पन्न हुआ। एक दिन कुमार ने श्रीकान्ता से पूछा-"तुम्हारे पिता ने मेरे साथ तुम्हारा विवाह कैसे किया ? मैं तो अकेला हूँ।" उसने कहा-"आर्यपुत्र ! मेरे पिता पराक्रमी हिस्सेदारों द्वारा उपद्रत होकर इस विषम पल्ली में रह रहे हैं। यह नगर-ग्राम आदि को लूट कर Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन दुर्ग में चले आते हैं। मेरी माता श्रीपती के चार पुत्र थे। उनके बाद मैं उत्पन्न हुई। इसलिए पिता का मुझ पर अत्यन्त स्नेह था। जब मैं युवती हुई, तब एक बार पिता ने कहा-"पुत्री ! सभी राजा मेरे विरुद्ध हैं अत: जो घर बैठे ही तुम्हारे लिए उचित वर आ जाए तो मुझे कहना।" इसीलिए मैं प्रतिदिन सरोवर पर जाती हूँ और मनुष्यों को देखती हूँ। आज मेरे पुण्यबल से तुम दीख पड़े / यही सब रहस्य है। ___कुमार श्रीकान्ता के साथ विषय-सुख भोगने लगा। कुछ दिन बीते। एक बार वह पल्लीपति अपने साथियों को साथ ले एक नगर को लूटने गया। कुमार भी उसके साथ था। गाँव के बाहर कमल सरोवर के पास उसने अपने मित्र वरधनु को बैठे देखा। वरधनु ने भी कुमार को पहिचान लिया। असंभावित दर्शन के कारण वह रोने लगा। कुमार के उसे सान्त्वना दी। उसे उठाया। वरधनु ने कुमार से पूछा-"मेरे परोक्ष में तुमने क्या-क्या अनुभव किए हैं ?" कुमार ने अथ से इति तक सारा वृत्तान्त कह सुनाया। कुमार ने कहा- "तुम अपनी भी बात बताओ।" ___ वरधनु ने कहा-"कुमार ! मैं तुम्हें एक वट-वृक्ष के नीचे बैठे छोड़ कर पानी लेने गया था। मैंने एक बड़ा सरोवर देखा। मैं एक दोने में जल भर तुम्हारे पास आ रहा था। इतने में ही महाराज दीर्घ के सन्नद्ध भट्ट मेरे पास आए और बोले---'वरधनु ! ब्रह्मदत्त कहाँ है ?' मैंने कहा- 'मैं नहीं जानता।' उन्होंने मुझे बहुत पीटा, तब मैंने कहा-'कुमार को बाघ ने खा लिया।' भट्टों ने कहा'वह प्रदेश हमें बताओ, जहाँ बाघ ने कुमार को खाया था।' इधर-उधर घूमता हुआ मैं कपट से तुम्हारे पास आया और तुम्हें भाग जाने के लिए संकेत किया। मैंने भी परिव्राजक द्वारा दी गई गुटिका मुंह में रखी और उसके प्रभाव से मैं बेहोश हो गया। मुझे मरा हुआ समझ कर वे भट्ट चले गए। बहुत देर बाद मैंने मुंह से गुटिका निकाली। मुझे होश हो आया। होश आते ही मैं तुम्हारी टोह में निकल पड़ा, परन्तु कहीं भी तुम नहीं मिले। मैं एक गाँव में गया। वहाँ एक परिव्राजक ने कहा-मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूँ / मेरा नाम वसुभाग है। उसने कहा—'तुम्हारे पिता धनु भाग गए / राजा दोघं ने तुम्हारी माता को मातङ्ग के मुहल्ले में डाल दिया।' यह सुन कर मुझे बहुत दुःख हुआ। मैं काम्पिल्यपुर गया और कापालिक का वेश धारण कर उस मातङ्ग वस्ती के प्रधान को धोखा दे माता को ले आया। एक गाँव में मेरे पिता के मित्र ब्राह्मण देवशर्मा के यहाँ माँ को छोड़ कर तुम्हारी खोज में यहाँ आया हूँ।" इस प्रकार दोनों अपने-अपने सुख-दुःख की बातें कर रहे थे। इतने में ही एक पुरुष वहाँ आया। उसने कहा-"महाभाग ! तुम्हें यहाँ से कहीं भाग जाना चाहिए / तुम्हारी खोज करते-करते राजा दीर्घ के मनुष्य यहाँ आ गए हैं।" इतना सुन दोनों कुमार और वरधनु, वहाँ से चल पड़े। गहन जंगलों को पार कर वे Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमण 263 कौशाम्बी पहुंचे। गाँव के बाहर एक उद्यान में ठहरे। वहाँ सागरदत्त और बुद्धिल्ल नाम के दो श्रेष्ठी-पुत्र अपने-अपने कुक्कुट लड़ा रहे थे / लाख मुद्राओं की बाजी लगी हुई थी। कुक्कुटों का युद्ध प्रारम्भ हुआ। सागरदत्त के कुक्कुट ने बुद्धिल्ल के कुक्कुट को गिरा डाला। पुनः बुद्धिल्ल के कुक्कुट ने सागरदत्त के कुक्कुट को गिरा दिया। सागरदत्त का कुक्कुट पंगु हो गया। वह बुद्धिल्ल के कुक्कुट के साथ लड़ने में असमर्थ था। सागरदत्त बाजी हार गया / इतने में ही दर्शक के रूप में खड़े वरधनु ने कहा-“यह क्या बात है कि सागरदत्त का कुक्कुट सुजाति का होते हुए भी हार गया ? यदि आपको आपत्ति न हो तो मैं परीक्षा करना चाहता हूँ।" सागरदत्त ने कहा-'महाभाग ! देखो-देखो मेरी लाख मुद्राएँ चली गई। इसका मुझे कोई दुःख नहीं है। परन्तु दुःख इतना ही है कि मेरे अभिमान की सिद्धि नहीं हुई।" वरधनु ने बुद्धिल्ल के कुक्कुट को देखा। उसके पाँवों में लोहे की सूक्ष्म सूइयाँ बंधी हुई थीं / बुद्धिल्ल ने वरधनु को देखा। वह उसके पास आ धीरे से बोला-"यदि तू इन सूक्ष्म सूइयों की बात नहीं बताएगा तो मैं तुझे अर्द्धलक्ष मुद्राएं दूंगा।" वरधनु ने स्वीकार कर लिया। उसने सागरदत्त से कहा-'श्रेष्ठिन् ! मैंने देखा, पर कुछ भी नहीं दीखा / बुद्धिल्ल को ज्ञात न हो इस प्रकार वरधनु ने आँखों में अंगुली के संचार के प्रयोग से सागरदत्त को कुछ संकेत किया / सागरदत्त ने अपने कुक्कुट के पैरों में सूक्ष्म सूइयाँ बाँध दी और बुद्धिल्ल का कुक्कुट पराजित हो गया। उसने लाख मुद्राएं हार दी। अब सागरदत्त और बुद्धिल्ल दोनों समान हो गए। सागरदत्त बहुत प्रसन्न हुआ। उसने वरधनु से कहा-"आर्य। चलो, हम घर चलें !" दोनों घर पहुंचे। उनमें अत्यन्त स्नेह हो गया / एक दिन एक दास-चेट आया। उसने वरधनु को एकान्त में बुलाया और कहा"सूई का व्यतिकर न कहने पर बुद्धिल्ल ने जो तुम्हें अर्द्धलक्ष देने को कहा था, उसके निमित्त से उसने चालीस हजार का यह हार भेजा है।" यों कह कर उसने हार का डिब्बा समर्पित कर दिया / वरधनु ने उसको स्वीकार कर लिया। उसे ले वह ब्रह्मदत्त के . पास गया / कुमार को सारी बात कही और उसे हार दिखाया / हार को देखते हुए कुमार की दृष्टि हार के एक भाग में लटकते हुए एक पत्र पर जा टिकी। उस पर ब्रह्मदत्त का नाम अंकित था। उसने पूछा-"मित्र ! यह लेख किसका है ?" वरधनु ने कहा"कौन जाने ? संसार में ब्रह्मदत्त नाम के अनेक व्यक्ति हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?" वरधनु कुमार को एकान्त में ले गया और लेख को देखा। उसमें यह गाथा अंकित थी पस्थिज्जइ जइ वि जए, जणेण संजोयजणियजत्तेणं / तह वि तुमं चिय धणियं, रयणवई भणइ माणे॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन -'यद्यपि रत्नवती को पाने के लिए अनेक प्रार्थी हैं, फिर भी रत्नवती तुम्हारे . लिए ही समर्पित है।' __उसने सोचा-मैं इसके भावार्थ को कैसे जानें। दूसरे दिन एक परिवाजिका आई। उसने कुमार के सिर पर आखे तथा फूल डाले और कहा--"पुत्र ! हजार वर्ष तक जीओ।" इतना कह कर वह वरधनु को एकान्त में ले गई और उसके साथ कुछ मंत्रणा कर वापस चली गई। कुमार ने वरधनु को पूछा-"यह क्या कह रही थी ?" वरधनु ने कहा"कुमार ! उसने मुझे कहा कि बुद्धिल्ल ने जो हार भेजा था और उसके साथ जो लेख था उसका प्रत्युत्तर दो।" मैंने कहा- "वह ब्रह्मदत्त नाम से अंकित है।" यह ब्रह्मदत्त है कौन ? उसने कहा-"सुनो ! किन्तु उसे किसी दूसरे को मत कहना / '' उसने आगे कहा "इसी नगरी में श्रेष्ठी-पुत्री रत्नवती रहती है / बाल्यकाल से ही मेरा उस पर अपार स्नेह है / वह युवती हुई / एक दिन मैंने उसे कुछ सोचते हुए देखा। मैं उसके पास गई। मैंने कहा- "पुत्री रत्नवती ! क्या सोच रही है ?" उसके परिजन ने कहा-यह बहुत दिनों से इसी प्रकार उदासीन है। मैंने उसे बार-बार पूछा / पर वह नहीं बोली। तब उसकी सखी प्रियंगुलतिका ने कहा-भगवती ! यह लज्जावश तुम्हें कुछ भी नहीं बताएगी। मैं कहता हूँ-एक बार यह उद्यान में क्रीड़ा करने के लिए गई / वहाँ उसके भाई बुद्धिल्ल श्रेष्ठी ने लाख मुद्राओं की बाजी पर कुक्कुट लड़ाए थे। इसने वहाँ एक कुमार को देखा। उसको देखते ही यह ऐसी बन गई। यह सुन कर मैंने उसको काम-व्यथा (मदन-विकार) जान ली। परिव्राजिका ने स्नेहपूर्वक कहा-"पुत्री ! यथार्थ बात बताओ। तब उसने ज्यों-त्यों कहा-तुम मेरी माँ के समान हो, तुम्हारे सामने अकथनीय कुछ भी नहीं है / प्रियंगुलतिका ने जिसे बताया है, वह ब्रह्मदत्त कुमार यदि मेरा पति नहीं होगा तो मैं निश्चय ही प्राण त्याग दूंगी। यह सुन कर मैंने उससे कहा-धैर्य रखो। मैं वैसा उपाय करूंगी, जिससे कि तुम्हारी कामना सफल हो सके / यह बात सुन कर कुमारी रत्नवती कुछ स्वस्थ हुई। कल मैंने उसके हृदय को आश्वासन देने के लिए कहा-मैंने ब्रह्मदत्त कुमार को देखा है। उसने भी कहा-भगवती ! तुम्हारे प्रसाद से सब कुछ अच्छा होगा। किन्तु उसके विश्वास के लिए बुद्धिल्ल के कथन के मिष से हार के साथ ब्रह्मदत्त नामांकित एक लेख भेज देना / मैंने कल वैसा ही किया।" आगे उस परिवाजिका ने कहा-"मैंने लेख की सारी बात तुम्हें बता दी। अब उसका प्रत्युत्तर दो।" वरधनु ने कहा-मैंने उसे यह प्रत्युत्तर दिया 'बंभवत्तो वि गुरुगुणवरधणुकलिओ त्ति माणिउ भणई। रयणवइं रयणिवई चेदो इव चंदणी जोगो॥ -'वरधनु सहित ब्रह्मदत्त भी रत्नवती का योग चाहता है, जैसे रजनीपति चाँद चाँदनी का।' Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 265 ___ वरधनु द्वारा कही गई सारी बात सुन कर कुमार रत्नवती को बिना देखे ही उसमें तन्मय हो गया / उसको प्राप्त करने के उपाय सोचते-सोचते अनेक दिन बीत गए। ____ एक दिन वरधनु बाहर से आया और सम्भ्रान्त होता हुआ बोला- "कुमार ! इस नगर के स्वामी द्वारा कौशलाधिपति ने हमें ढूँढने के लिए विश्वस्त पुरुषों को भेजा है। इस नगर के स्वामी ने ढूँढना प्रारम्भ कर दिया-ऐसा मैंने लोगों से सुना है।" यह व्यतिकर जान कर सागरदत्त ने दोनों को भोहरे में छपा दिया। रात्रि आई / कुमार ने सागरदत्त से कहा- "ऐसा कोई उपाय करो, जिससे हम यहाँ से निकल जाएँ।" यह सुन कर सागरदत्त उन दोनों को साथ ले, नगरी के बाहर चला गया। कुछ दूर गए। सागरदत्त उनके साथ जाना चाहता था। परन्तु ज्यों-त्यों उसे समझा कर घर भेजा और कुमार तथा वरधनु दोनों आगे चलने लगे। नगर के बाहर पहुंचे। वहाँ एक उद्यान था / उसमें एक यक्षायतन था। वहाँ एक वृक्ष के नीचे एक रथ खड़ा था। वह शस्त्रों से सज्जित था। उसके पास एक स्त्री बैठी थी। कुमार को देख कर वह उठी और आदर-भाव प्रकट करती हुई बोली-"आप इतने समय बाद कैसे आए ?" यह सुन कुमार ने कहा- "भद्र ! हम कौन हैं ?" उसने कहा-"स्वामिन् ! आप ब्रह्मदत्त और वरधनु हैं।" कुमार ने कहा--"तुमने यह कैसे जाना?" उसने कहा- "सुनो ! इसी नगरी में धनप्रवर नाम का सेठ रहता है। उसकी पत्नी का नाम धनसंचया है। उसके आठ पुत्र हैं। मैं उसकी नौवीं सन्तान हूँ। मैं युवती हुई। मुझे कोई पुरुष पसन्द नहीं आया। तब मैंने इस यक्ष की आराधना प्रारम्भ की। यक्ष भी मेरी भक्ति से संतुष्ट हुआ। वह सामने आ बोला-बेटी ! भविष्य में होने वाला चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त कुमार तुम्हारा पति होगा। मैंने पूछा-'मैं उसे कैसे जान सकेंगी ?' यक्ष ने कहा-'बुद्धिल्ल और सागरदत्त के कुक्कुट-युद्ध में जिस पुरुष को देख कर तुम्हें आनन्द हो, उसे ही ब्रह्मदत्त जान लेना।' उसने मुझे जो बताया, वह सब यहाँ मिल गया। मैंने जो हार आदि भेजा, वह आप जानते ही हैं।". यह सुन कर कुमार उसमें अनुरक्त हो गया। वह उसके साथ रथ पर आरूढ़ हुआ और उससे पूछा- "हमें कहाँ जाना चाहिए ?" रत्नवती ने कहा"मगधपुर में मेरे चाचा सेठ धनसार्थवाह रहते हैं। वे हमारा वृत्तान्त जान कर हमारा आगमन अच्छा मार्नेगे / अतः आप वहीं चलें, उसके बाद जहाँ आपकी इच्छा हो।" . रत्नवती के वचनानुसार कुमार मगधपुर की ओर चल पड़ा। वरधनु को सारथी बनाया। ग्रामानुग्राम चलते हुए वे कौशाम्बी जनपद को पार कर गए। आगे चलते हए वे एक गहन जंगल में जा पहुंचे। वहाँ कंटक और सुकंटक नाम के दो चोर-सेनापति रहते थे। उन्होंने रथ और उसमें बैठी हुई अलंकृत स्त्री को देखा। उन्होंने यह भी जान लिया कि रथ में तीन ही व्यक्ति हैं / वे सज्जित होकर आए और उन पर प्रहार करने लगे। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन. कुमार ने भी अनेक प्रकार से प्रहार किए। चोर-सेनापति हार कर भाग गए। कुमार ने रथ आगे बढ़ाया। वरधनु ने कहा- "कुमार ! तुम बहुत परिश्रान्त हो गए हो / कुछ समय के लिए रथ में ही सो जाओ।" कुमार और रत्नवती दोनों सो गए / रथ आगे बढ़ रहा था। वे एक पहाड़ी प्रदेश में पहुंचे। घोड़े थक गए। एक नदी के पास जा, वे रुक गए। कुमार जागा, जंभाई लेकर उठा। आस-पास देखा। वरधनु नहीं दीखा / कुमार ने सोचा–संभव है पानी लाने गया हो। कुछ देर बाद उसने भयाक्रान्त हो वरधनु को पुकारा। कोई उत्तर नहीं मिला। रथ के अगले भाग को देखा। वह लोही से लिपा हुआ था। कुमार ने सोचा-वरधनु मारा गया है। हा! मैं मारा गया। अब मैं क्या करूं ? यह कहते हुए वह रथ में ही मूच्छित हो गिर गया। कुछ समय बीता। होश आया। 'हा, हा, भ्रात वरधनु !' यह कहता हुआ प्रलाप करने लगा। रत्नवती ने ज्योंत्यों उसे बिठाया। कुमार ने कहा-"सून्दरी! स्पष्ट नहीं जान पा रहा है कि क्या वरधन मर गया है या जीवित है ? मैं उसको ढूँढ़ने के लिए पीछे जाना चाहता हूँ।" रत्नवती ने कहा-"आर्यपुत्र ! यह पीछे चलने का अवसर नहीं है। मैं एकाकिनी हूँ। यह भयंकर जंगल है। इसमें अनेक चोर और श्वापद रहते हैं। यहां की सारी घास पैरों से रौंदी हुई है, इसलिए यहाँ पास में ही कोई वस्ती होनी चाहिए।" कुमार ने उसकी बात मान ली। वह मगध देश की ओर चल पडा। उस देश की संधि-संस्थित एक ग्राम में पहुंचा। ग्राम-सभा में बैठे हुए ठाकुर ने उसे प्रवेश करते हुए देखा। उसे विशेष व्यक्ति मान कर बह उठा। उसका सम्मान किया। अपने घर ले गया। रहने के लिए मकान दिया। जब सुखपूर्वक वह बैठ चुका था, तब ठाकुर ने कुमार से कहा-"महाभाग ! तुम बहत ही उद्विग्न दोख रहे हो।" कुमार ने कहा- "मेरा भाई चोरों के साथ लड़ता हुआ न जाने कहाँ चला गया? किस अवस्था को प्राप्त हो गया ? उसे ढूँढ़ने के लिए मुझे जाना चाहिए।" ठाकुर ने कहा-"आप खेद न करें। यदि वह इस अटवी में होगा तो अवश्य ही मिल जाएगा।" ठाकूर ने अपने आदमो भेजे। विश्वस्त आदमी चारों ओर अटवी में गए। वे आकर बोले- "स्वामिन् ! हमें अटवी में कोई खोज नहीं मिली। केवल एक बाण मिला है।" यह सुनते ही कुमार अत्यन्त उद्विग्न हो गया। उसने सोचा-निश्चय ही वरधन मारा गया है। रात आई। कुमार और रत्नवती सो गए। एक प्रहर रात बीती। गाँव में चोर घुसे / लूट-खसोट होने लगी। कुमार ने चोरों का सामना किया। सभी चोर भाग गए। गाँव के प्रमुख ने कुमार का अभिनन्दन किया। प्रात:काल हुआ। ठाकुर ने अपने पुत्र को उनके साथ भेजा / वे चलते-चलते राजगृह पहुंचे। नगर के बाहर एक परिव्राजक का आश्रम था। कुमार रत्नवती को आश्रम में बिठा -- गाँव के अन्दर गया। प्रवेश करते ही उसने अनेक खम्भों पर टिका हुआ, अनेक कलाओं से निर्मित एक धवल भवन देखा। वहां दो सुन्दर कन्याएं बैठी थीं। कुमार को देख कर अत्यन्त अनुराग Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 297 दिखाती हुई दोनों ने कहा-"क्या आप जैसे महापुरुषों के लिए यह उचित है कि भक्ति से अनुरक्त व्यक्ति को भुला कर परिभ्रमण करते रहें ?" कुमार ने कहा-"वह कौन है, जिसके लिए तुम कह रही हो ?" उन्होंने कहा- "कृपा कर आप आसन ग्रहण करें।" कुमार बैठ गया। स्नान किया। भोजन से निवृत्त हुआ। दोनों स्त्रियों ने कहा-"महासत्व ! इसी भरत के वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में शिवमन्दिर नाम का नगर है / वहाँ ज्वलनसिंह नाम का राजा राज्य करता है। उसकी महारानी का नाम विद्युतशिखा है। हम दोनों उनकी पुत्रियाँ हैं / हमारे बड़े भाई का नाम नाट्योन्मत्त है / एक बार हमारे पिता अग्निशिख मित्र के साथ गोष्ठी में बैठे थे। उन्होंने आकाश की ओर देखा। अनेक देव तथा असुर अष्टापद पर्वत के अभिमुख जिनेश्वर देव के वन्दनार्थ जा रहे थे। राजा भी अपने मित्र तथा बेटियों के साथ उसी ओर चल पड़ा / हम सब अष्टापद पर्वत पर पहुंचे। जिनदेव की प्रतिमाओं को वन्दना की। सुगन्धित द्रव्यों से अर्चा की। तीन प्रदक्षिणा कर लौट रहे थे। हमने देखा कि एक अशोक वृक्ष के नीचे दो मुनि खड़े हैं / वे चरणलब्धि सम्पन्न थे। हम उनके पास गए। वन्दना कर बैठ गए। उन्होंने धर्मकथा कही___ 'संसार असार है। शरीर विनाशशील है। जीवन शरद् ऋतु के बादलों की तरह है। यौवन विद्युत् के समान चञ्चल है। भोग किंपाल फल जैसे है। इन्द्रिय-जन्य सुख संध्या के राग की तरह है। लक्ष्मी कुशाग्न पर टिके हुए पानी की बूंद की तरह चञ्चल है। दुःख सुलभ है, सुख दुर्लभ है। मृत्यु सर्वत्रगामी है। ऐसी स्थिति में प्राणी को - मोह का बन्धन तोड़ना चाहिए। जिनेन्द्र प्रणीत धर्म में मन लगाना चाहिए।' परिषद् ने यह धर्मोपदेश सुना। लोग विसर्जित हुए। अवसर देख अग्निशिख ने पूछा-'भगवन् ! इन बालिकाओं का पति कौन होगा?' मुनि ने कहा-'इनका पति भातृ-वधक होगा।' ___ यह सुन राजा का चेहरा श्याम हो गया। हमने पिता से कहा-'तात ! मुनियों ने जो संसार का स्वरूप बताया है, वह यथार्थ है। हमें ऐसा विवाह नहीं चाहिए। हमें ऐसा विषय-सुख नहीं चाहिए।' पिता ने बात मान ली। तब से हम अपने प्रिय भाई की स्नान-भोजन आदि की व्यवस्था में ही चिन्तित रहती हैं। हम अपने शरीर-परिकर्म का कोई ध्यान नहीं रखतीं। - एक दिन हमारे भाई ने घूमते हुए तुम्हारे मामे की लड़की पुष्पवती को देखा। वह उसके रूप पर मुग्ध हो गया और उसे हरण कर यहाँ ले आया। परन्तु वह उसकी दृष्टि सहने में असमर्थ था। अत: विद्या को साधने के लिए गया। आगे का वृत्तान्त आप जानते हैं।' 'हे महाभाग ! उस समय तुम्हारे पास से आ कर पुष्पवती ने हमें भाई का सारा वृत्तान्त सुनाया। उसे सुन कर हमें अत्यन्त शोक हुआ। हम रोने लगीं। पुष्पवती ने 38 . Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन धर्मदेशना दे हमें शान्त किया और संकरी-विद्या से हमारे वृत्तान्त को जान कर उसने कहा---'मुनि के वचन को याद करो। ब्रह्मदत्त को अपना पति मानो। हमने अनुराग पूर्वक मान लिया। पुष्पवती के सफेद संकेत से आप कहीं चले गए। हमने आप को अनेक नगरों व ग्रामों में ढूँढ़ा, पर आप कहीं नहीं मिले। अन्त में हम खिन्न हो यहाँ आई। आज हमारा भाग्य जागा। अतर्कित हिरण्य की वृष्टि के समान आपके दर्शन हुए। हे महाभाग ! पुष्पवती की बात को याद कर आप हमारी आशा पूरी करें।" यह सुन कुमार प्रसन्न हुआ। सारी बात स्वीकार कर ली। उनके साथ गन्धर्व विवाह किया। रात वहीं बिताई / प्रातःकाल हुआ। कुमार ने कहा- "तुम दोनों पुष्पवती के पास चली जाओ। उसके साथ तब तक रहना, जब तक मैं राजा न बन जाऊँ / " दोनों ने बात मान ली। उनके जाने पर कुमार ने देखा कि न वहाँ प्रासाद है और न परिजन / उसने सोचा-यह विद्याधारियों की माया है अन्यथा ऐसा इन्द्रजाल-सा कैसे होता ? कुमार को रत्नवती का स्मरण हो आया और वह उसको ढूँढने आश्रम की ओर चला। वहाँ न तो रत्नवती ही थी और न कोई दूसरा। किसे पूछू, यह सोच उसने इधर-उधर देखा। कोई नहीं मिला / वह उसी की चिन्ता में व्यग्र था कि वहाँ एक पुरुष दीखा / कुमार ने पूछा-"महाभाग ! क्या तुमने अमुक-अमुक आकृति तथा वेष-धारण करने वाली स्त्री को आज या कल कहीं देखा है ?" उसने कहा- "कुमार ! क्या तुम रत्नवती के पति हो ?" कुमार ने कहा-"हाँ!" - उसने कहा-"कल अपराह्न वेला में मैंने उसको रोते देखा था। मैं उसके पास गया और पूछा-'पुत्री ! तुम कौन हो ? कहाँ से आई हो ? दुःख का कारण क्या है ? कहाँ जाना है ?' उसने कुछ कहा। मैंने उसे पहिचान लिया। मैंने कहा-'तुम मेरी धेवती हो। मैंने उसका वृत्तान्त जाना और उसे उसके चाचा के पास ले गया। उसने उसे आदरपूर्वक अपने घर में प्रवेश कराया। इसीलिए अन्वेषण करने पर भी वह तुम्हें नहीं मिली। तुमने अच्छा किया कि यहाँ आ गए।" इतना कह कर उसने कुमार को सार्थवाह के घर ले गया। रत्नवती के साथ उसका पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। वह विषयसुख का भोग करता हुआ वहीं रहने लगा। एक दिन उसे याद हो आया कि आज 'वरधनु का दिन है' यह सोच उसने ब्राह्मणों को भोजन के लिए निमंत्रित किया। संयोगवश वरवनु ब्राह्मण के वेश में भोजन लेने वही आ गया। उसने एक नौकर से कहा-"जाओ! अपने स्वामी से कहो कि यदि तुम मुझे भोजन दोगे तो वह उस परलोकवर्ती के मुँह और पेट में चला जाएगा, जिसके लिए तुमने भोज किया है।" नौकर ने जा कुमार से सारी बात कही। कुमार बाहर आया। उसने ब्राह्मण को पहचान लिया। दोनों ने परस्पर आलिंगन किया। दोनों अन्दर गए। स्नान, भोजन आदि से निवृत्त हो कुमार ने वरधनु से अपना वृत्तान्त पूछा / वरधनु ने कहा Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 269 "उस रात आप दोनों रथ पर सो गए थे / मैं आगे बैठा था। एक चोर घनी झाड़ी में छपा बैठा था। उसने पीछे से बाण मारा। मैं वेदना से पराभूत हो धरती पर गिर पड़ा / आप पर भी कोई आपत्ति न आ जाए, इस लिए मैंने आवाज नहीं की। रथ विलीन हो गया / मैं भी सघन वृक्षों को चीरता हुआ उसी गाँव में पहुंचा, जहाँ आप थे / वहाँ के प्रधान से मैंने आपके विषय की सारी बात जान ली। मुझे अत्यन्त हर्ष हुआ। ज्योंत्यों मैं यहाँ आया / आपसे मिलना हुआ।" दोनों अत्यन्त आनन्द से दिन बिता रहे थे। एक बार दोनों ने विचार कियाकितने दिन तक हम निठल्लेपन-से बैठे रहेंगे। हमें कोई उपाय ढूँढ़ना चाहिए। मधुमास आया। मदनमहोत्सव की वेला में नगर के सारे लोग क्रीड़ा करने उद्यान में गए / कुतूहलवश कुमार और वरधनु-दोनों भी वहीं गए। सभी नर-नारी विविध क्रीड़ाओं में मग्न थे। इतने में ही मदोन्मत्त राज-हस्ती आलान से छूट गया। वह निरंकुश हो दौड़ पड़ा। सभी लोग भयभीत हो गए। भयंकर कोलाहल होने लगा। सभी क्रीड़ागोष्ठियाँ भंग हो गई। इस प्रवृत कोलाहल में एक तरुण स्त्री मतहाथी के भय से. पागल की तरह दौड़ती हुई त्राण के लिए इधर-उधर देख रही थी। हाथी की दृष्टि उस पर पड़ी। चारों ओर हाहाकार होने लगा। स्त्री के परिवार वाले चिल्लाने लगे। कुमार ने यह देखा / वह भयभीत तरुणी के आगे हो, हाथी को हाँका। कुमारी बच गई। हाथी कुमारी को छोड़ कर अत्यन्त कुपित हो, सूड को घुमाता हुआ, कानों को फड़फड़ाता हुआ कुमार की ओर दौड़ा। कुमार ने अपनी चादर को गेंद बना हाथी की ओर फेंका। हाथी ने उसे रोष से अपनी सूड में पकड़ आकाश में उछाल दिया। वह धरती पर जा गिरा। हाथी उसे पुनः उठाने में प्रयत्नशील था कि कुमार शीघ्र ही उसकी पीठ पर जा बैठा और तीखे अंकुश से उस पर प्रहार किया। हाथी उछला। तत्क्षण ही कुमार ने मीठे वचनों से उसे सम्बोधित किया। हाथी शान्त हो गया / लोगों ने यह देखा। चारों ओर से साधुवाद की ध्वनि आने लगी। मंगलपाठकों ने कुंमार का जयघोष किया। हाथी को आलान पर ले जाया गया। कुमार पास ही खड़ा रहा। राजा आया / कुमार को देख वह विस्मित हुआ। उसने पूछा-"यह कौन है ?" मंत्री ने सारी बात बताई / राजा प्रसन्न हुआ। कुमार को साथ ले वह अपने राजमहल में आया। स्नान-भोजन-पान आदि से उसका सत्कार किया। भोजन के पश्चात् राजा ने ' अपनी आठ पुत्रियाँ कुमार को समर्पित की। शुभ मुहूर्त में विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ। कुमार कई दिन वहाँ रहा। एक दिन एक स्त्री कुमार के पास आ कर बोली- "कुमार ! मैं आप से कुछ कहना Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन चाहती हूँ।” कुमार ने कहा- "बोलो।" उस स्त्री ने कहा- "इसी नगरी में वैश्रमण नाम का सार्थवाह रहता है / उसकी पुत्री का नाम श्रमती हैं / मैंने उसको पाला-पोषा है / वह वही बालिका है, जिसकी तुमने हाथी से रक्षा की है। हाथी के संभ्रम से बच जाने पर उसने तुम्हें जीवनदाता मान कर तुम्हारे प्रति अनुरक्ति दिखाई है। तुम्हारे रूप, लावण्य और कला-कौशल को देख कर वह तुम्हारे में अत्यन्त अनुरक्त है / तभी से वह तुम्हें देखती हुई स्तम्भित की तरह, लिखित मूर्ति की तरह, भूमि में गढ़ी कील की तरह, निश्चल और भरी आँखों से क्षण भर वहाँ ठहरी। हाथी का संभ्रम दूर होने पर ज्यों-त्यों उसे घर ले जाया गया। वहाँ भी वह न स्नान करती है, न भोजन ही करती है / वह तब से मौन है। मैं उसके पास गई। उससे कहा-'पुत्री ! तुम बिना कारण ही क्यों अनमनी हो रही हो ? मेरे वचनों की क्यों अवहेलना कर रही हो ?' उसने मुस्कुराते हुए कहा---'माँ ! तुमसे मैं क्या छपाऊँ ? किन्तु लज्जावश मैं चुप हूँ। माँ ! यदि उस कुमार के साथ, जिसने मुझे हाथी से बचाया है, मेरा विवाह नहीं हो जाता, तो मेरा मरना निश्चित है। यह बात सुन मैंने उसके पिता से सारी बात कही। उसने मुझे तुम्हारे पास भेजा है / आप कृपा कर इस बालिका को स्वीकार करें।' कुमार ने स्वीकार कर लिया। शुभ दिन में उसका विवाह सम्पन्न हुआ। वरधनु का विवाह अमात्य सुबुद्धि की पुत्री नन्दा के साथ हुआ। दोनों सुख भोगते हुए वहीं रहने लगे। कई दिन बीते / चारों ओर उनकी बातें फैल गई। वे चलते-चलते वाराणसी पहुंचे। राजा कटक ने जब यह संवाद सुना तव वह बहुत ही प्रसन्न हुआ और पूर्ण सम्मान से कुमार ब्रह्मदत्त का नगर में प्रवेश करवाया। अपनी पुत्री कटकावती से उसका विवाह किया। राजा कटक ने दूत भेज कर सेना-सहित पुष्पचूल को बुला लिया। मंत्री धनु और राजा कणेरुदत्त भी वहाँ आ पहुँचे और भी अनेक राजा मिल गए / उन सबने वरधनु को सेनापति के पद पर नियुक्त कर काम्पिल्यपुर पर चढ़ाई कर दी। घमासान युद्ध हुआ। राजा दीर्घ मारा गया। 'चक्रवर्ती की विजय हुई'—यह घोष चारों ओर फैल गया। देवों ने आकाश से फूल बरसाए / बारहवाँ चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है, यह नाद हुआ। सामन्तों ने कुमार ब्रह्मदत्त का चक्रवर्ती के रूप में अभिषेक किया। - राज्य का परिपालन करता हुआ ब्रह्मदत्त सुखपूर्वक रहने लगा। एक बार एक नट आया। उसने राजा से प्रार्थना की--"मैं आज मधुकरी गीत नामक नाट्य-विधि का प्रर्दशन करना चाहता हूँ।" चक्रवर्ती ने स्वीकृति दे दी। अपराह्न में नाटक होने लगा। उस समय एक कर्मकरी ने फूल-मालाएं ला कर राजा के सामने रखीं। राजा ने उन्हें देखा और मधुकरी गीत सुना। तब चक्रवर्ती के मन में एक विकल्प उत्पन्न हुआ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 'ऐसा नाटक उसने पहले भी कहीं देखा है।' वह इस चिन्तन में लीन हुआ और उसे पूर्वजन्म को स्मृति हो आई। उसने जान लिया कि ऐसा नाटक मैंने सौधर्म देवलोक में पद्मगुल्म नामक विमान में देखा था। इसकी स्मृति मात्र से वह मूच्छित हो कर भूमि पर गिर पड़ा। पास में बैठे हुए सामन्त उठे, चन्दन का लेप किया। राजा की चेतना लौट आई / सम्राट् आश्वस्त हुआ। पूर्वजन्म के भाई की याद सताने लगी। उसकी खोज करने के लिए उसने एक मार्ग ढूँढ़ा। रहस्य को छिपाते हुए सम्राट ने महामात्य वरधनु से कहा-"आस्व दासौ मृगौ हंसो, मातङ्गावमरौ तथा"—इस श्लोकार्द्ध को सब जगह प्रचारित करो और यह घोषणा करो कि इस श्लोक की पूर्ति करने वाले को सम्राट अपना आधा राज्य देगा। प्रतिदिन यह घोषणा होने लगी। यह अर्द्ध श्लोक दूर-दूर तक प्रसारित हो गया और व्यक्ति-व्यक्ति को कण्ठस्थ हो गया। इधर चित्र का जीव देवलोक से च्युत हो कर पुरिमताल नगर में एक इभ्य सेठ के घर जन्मा। युवा हुआ। एक दिन पूर्व-जन्म की स्मृति हुई और वह मुनि बन गया / एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वहीं काम्पिल्यपुर में आया और मनोरम नाम के कानन में ठहरा। एक दिन वह कायोत्सर्ग कर रहा था। उसी समय रहंट को चलाने वाला एक व्यक्ति वहाँ बोल उठा 'आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातङ्गावमरौ तथा / ' मुनि ने यह सुना और उसके आगे के दो चरण पूरा करते हुए कहा'एषा नौः षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः // ' रहंट चलाने वाले उस व्यक्ति ने उन दोनों चरणों को एक पत्र में लिखा और आधा राज्य पाने की खुशी में वह दौड़ा-दौड़ा राज-दरबार में पहुंचा। सम्राट की अनुमति प्राप्त कर वह राज्य सभा में गया और एक ही साँस में पूरा श्लोक सम्राट को सुना डाला / उसे सुनते ही सम्राट् स्नेहवश मूच्छित हो गए। सारी सभा क्षुब्ध हो गई। सभासद् क्रुद्ध हुएं और उसे पीटने लगे। उन्होंने कहा- "तू ने सम्राट को मूच्छित कर दिया। यह कैसी तेरी श्लोक-पूर्ति ?" मार पड़ी, तब वह बोला- "मुझे मत मारो। श्लोक की पूर्ति मैंने नहीं की है।" "तो किसने की है ?'-सभासदों ने पूछा / वह बोला-"मेरे रहंट के पास खड़े एक मुनि ने की है।" अनुकूल उपचार पा कर सम्राट सचेतन हुआ। सारी बात की जानकारी प्राप्त की और वह मुनि के दर्शन के लिए सपरिवार चल पड़ा। कानन में पहुंचा। मुनि को देखा। वन्दना कर विनयपूर्वक उनके १-सुखबोधा, पत्र 1851197 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पास बैठ गया। बिछुड़ा हुआ योग पुनः मिल गया। अब वे दोनों भाई सुख-दुःख के फल-विपाक की चर्चा करने लगे। ____ महान् ऋद्धि-सम्पन्न और महान् यशस्वी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने बहुमान-पूर्वक अपने भाई से इस प्रकार कहा "हम दोनों भाई थे-एक दूसरे के वशवर्ती, परस्पर अनुरक्त और परस्पर हितैषी। ... 'हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हिरण, मृत-गंगा के किनारे हंस और काशी-देश में चाण्डाल थे। - "हम दोनों सौधर्म देवलोक में महान् ऋद्धि वाले देव थे। यह हमारा छठा जन्म है, जिसमें हम एक-दूसरे से बिछड़ गए।" मुनि ने कहा- "राजन् ! तू ने निदानकृत (भोग-प्रार्थना से वध्यमान्) कर्मों का चिन्तन किया। उनके फल-विपाक से हम बिछुड़ गए।" चक्री ने कहा- "चित्र ! मैंने पूर्व-जन्म में सत्य और शौचमय शुभ अनुष्ठान किए थे। आज मैं उनका फल भोग रहा हूँ। क्या तू भी वैसा ही भोग रहा है ?" ___ मुनि ने कहा- "मनुष्यों का सब सुचीर्ण ( सुकृत ) सफल होता है / किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना मुक्ति नहीं होती / मेरी आत्मा उत्तम अर्थ और कामों के पुण्यफल से युक्त है। ___ “सम्भूत ! जिस प्रकार तू अपने को महान् अनुभाग (अचिन्त्य-शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और पुण्य-फल से युक्त मानता है, उसी प्रकार चित्र को भी जान / राजन् ! उसके भी प्रचुर ऋद्धि और धुति थी। ___ "स्थविरों ने जन-समुदाय के बीच अल्पाक्षर और महान् अर्थ वाली जो गाथा गाई, जिसे शील और श्रुत से सम्पन्न भिक्षु बड़े यत्न से अर्जित करते हैं, उसे सुनकर मैं श्रमण हो गया।" - चक्री ने कहा- "उच्चोदय, मधु, कर्क, मध्य और ब्रह्मा-ये प्रधान प्रासाद तथा दूसरे अनेक रम्य प्रासाद हैं / पंचाल देश की विशिष्ट वस्तुओं से युक्त और प्रचुर एवं विचित्र हिरण्य आदि से पूर्ण यह घर है-इसका तू उपभोग कर / .. "हे भिक्षु ! तू नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारीजनों को परिवृत करता हुआ इन भोगों को भोग / यह मुझे रुचता है। प्रव्रज्या वास्तव में ही कष्टकर है।" . धर्म में स्थित और उस (राजा) का हित चाहने वाले चित्र मुनि ने पूर्व-भव के स्नेहवश अपने प्रति अनुराग रखने वाले कामगुणों में आसक्त राजा से यह वचन कहा: "सब गीत विलाप हैं, सब नाट्य विडम्बना हैं, सब आभरण भार हैं और सब काम-भोग दुःखकर हैं। १-सुखबोधा, पत्र 185-197 / Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमण 303 - "राजन् ! अज्ञानियों के लिए रमणीय और दुःखकर काम-गुणों में वह सुख नहीं है, जो सुख कामों से विरक्त, शील और गुण में रत तपोधन भिक्षु को प्राप्त होता है। ___"नरेन्द्र ! मनुष्यों में चाण्डाल-जाति अधम है। उसमें हम दोनों उत्पन्न हो चुके हैं। वहाँ हम चाण्डालों की बस्ती में रहते थे और सब लोग हमसे द्वेष करते थे। ___ "हम दोनों ने कुत्सित चाण्डाल-जाति में जन्म लिया और चाण्डालों की बस्ती में निवास किया। सब लोग हमसे घृणा करते थे। इस जन्म में जो उच्चता प्राप्त हुई है, वह पूर्व-कृत शुभ कर्मो का फल है। "उसी के कारण वह तू महान् अनुभाव (अचिन्त्य-शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और पुण्य-फल युक्त राजा बना है। इसीलिए तू अशाश्वत भोगों को छोड़ कर चारित्रधर्म की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण कर। "राजन् ! जो इस अशाश्वत जीवन में प्रचुर शुभ-अनुष्ठान नहीं करता, वह मृत्यु के मुंह में जाने पर पश्चात्ताप करता है और धर्म की आराधना नहीं होने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है / "जिस प्रकार सिंह हिरण को पकड़ कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। काल आने पर उसके माता-पिता या भाई अंशधर नहीं होतेअपने जीवन का भाग दे कर बचा नहीं पाते। . "ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है। क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है। . "यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धन, धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़ कर केवल अपने किए कर्मों को साथ लेकर सुखद या दुःखद पर-भव में जाता है। ___ "उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में जला कर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता (जीविका देने वाले ) के पीछे चले जाते हैं। '"राजन् ! कर्म बिना भूल किए ( निरन्तर ) जीवन की मृत्यु के समीप ले जा रहे हैं। बुढ़ापा मनुष्य के वर्ण ( सुस्निग्ध कान्ति ) का हरण कर रहा है। पञ्चाल-राज ! मेरा वचन सुन, प्रचुर कर्म मत कर / चक्री ने कहा- "साधो ! तू जो मुझे यह वचन जैसे कह रहा है, वैसे मैं भी जानता हूँ कि ये भोग आसक्तिजनक होते हैं। किन्तु हे आर्य ! हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए वे दुर्जेय हैं। . "चित्र मुने ! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धि वाले चक्रवर्ती (सनत्कुमार) को देख भोगों में आसक्त हो कर मैंने अशुभ निदान (भोग-संकल्प) कर डाला। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __ "उसका मैंने प्रतिक्रमण (प्रायश्चित्त) नहीं किया। उसी का यह ऐसा फल है कि में धर्म को जानता हुआ भी काम-भोगों में मूछित हो रहा हूँ। ___ "जैसे पंक-जल (दलदल) में फंसा हुआ हाथी स्थल को देखता हुआ भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता, वैसे ही काम-गुणों में आसक्त बने हुए हम श्रमण-धर्म को जानते हुए भी उसका अनुसरण नहीं कर पाते।" ___ मुनि ने कहा-"जीवन बीत रहा है। रात्रियाँ दौड़ी जा रही हैं। मनुष्यों के भोग भी नित्य नहीं हैं। वे मनुष्य को प्राप्त कर उसे छोड़ देते है, जैसे क्षोण फल वाले वृक्ष को पक्षी। ___ "राजन् ! यदि तू भोगों का त्याग करने में असमर्थ है, तो आर्य-कर्म कर / धर्म में स्थित हो कर सब जीवों पर अनुकम्पा करने वाला बन, जिससे तू जन्मान्तर में वैक्रियशरीर वाला देव होगा। "तुझ में भोगों को त्यागने की बुद्धि नहीं है। तू आरम्भ और परिग्रह में आसक्त हैं / मैंने व्यर्थ ही इतना प्रलाप किया। तुझे आमंत्रित (सम्बोधित) किया। राजन् ! अब मैं जा रहा हूँ।" पंचाल-जनपद के राजा ब्रह्मदत्त ने मुनि के वचन का पालन नहीं किया। वह अनुत्तर काम-भोगों को भोग कर अनुत्तर नरक में गया। कामना से विरक्त और प्रधान चारित्र-तप वाला महर्षि चित्र अनुत्तर संयम का पालन कर अनुत्तर सिद्ध-गति को प्राप्त हुआ। -उत्तराध्ययन, 13 // 4-35 / चित्तसम्भूत जातक क वर्तमान कथा उनका परस्पर बहुत विश्वास था। सभी कुछ आपस में बाँटते थे। भिक्षाटन के लिए इकट्ठ जाते और इकट्ठे ही वापस लौटते / पृथक्-पृथक् नहीं रह सकते थे। धर्मसभा में बैठे भिक्षु उनके विश्वास की ही चर्चा कर रहे थे / शास्ता ने आ कर पूछा- "भिक्षुओ, बैठे क्या बातचीत कर रहे हो ?" "अमुक बातचीत" कहने पर "भिक्षुओ, इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है यदि यह एक जन्म में परस्पर विश्वासी हैं, पुराने पण्डितों ने तीन-चार जन्मान्तरों तक भी मित्र-भाव नहीं त्यागा" कह पूर्व-जन्म की कथा कही। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 305 ख. अतीत कथा - पूर्व समय अवन्ति राष्ट्र में उज्जेनी में अवन्ति-महाराज राज्य करते थे। उस समय उज्जेनी के बाहर चाण्डालग्राम था। बोधिसत्व ने वहाँ जन्म ग्रहण किया। एक दूसरे प्राणी ने भी उसकी मासी का पुत्र हो कर जन्म ग्रहण किया। उनमें से एक का नाम चित्त था, दूसरे का सम्भूत / उन दोनों ने बड़े होकर चाण्डालवंश धोपन (?) नाम का सीखा। एक दिन उज्जैनी-नगर-द्वार पर शिल्प दिखाने की इच्छा से एक ने उत्तरद्वार पर शिल्प दिखाया, दूसरे ने पूर्व-द्वार पर / ___ उस नगर में दो दुष्ट-मङ्गलिकायें थीं-एक सेठ की लड़की, दूसरी पुरोहित की लड़की। उन दोनों ने बहुत-सा खाद्य-भोज्य लिया और उद्यान-क्रीड़ा के लिए जाने की इच्छा से एक उत्तर-द्वार से निकली तथा दूसरी पूर्व-द्वार से। उन्होंने उन चाण्डाल-पुत्रों को शिल्प दिखाते देखा तो पूछा-ये कौन हैं ? "चाण्डाल-पुत्र / " उन्होंने सुगन्धित जल से आँखें धोई और वहीं से वापस हो गई-न देखने योग्य देखा। जनता ने उन दोनों को पीट कर बहुत पीड़ा पहुँचाई—"रे दुष्ट चाण्डालो ! तुम्हारे कारण हमें मुफ्त की शराब और भोजन नहीं मिला।" जब उन्हें होश आया तो दोनों एक दूसरे के पास गये और एक जगह मिल कर एक दूसरे को दुःख-समाचार कहा और रोये-पीटे। तब उन्होंने सोचा-क्या करें ? तब निश्चय किया- "यह दुःख हमें अपनी 'जाति' के कारण हुआ। हम चाण्डाल-कर्म न कर सकेंगे। 'जाति' छिपाकर ब्राह्मण-विद्यार्थी बन तक्षशिला जा कर शिल्प सीखेंगे / " वे तक्षशिला पहुँचे और धर्म-शिष्य बन कर प्रसिद्ध आचार्य के पास विद्या ग्रहण करने लगे / जम्बूद्वीप में दो 'चाण्डाल' जाति छिपा कर विद्या ग्रहण कर रहे हैं. यह बात कही-सुनी जाने लगी। उन दोनों में से चित्त पण्डित का विद्या-ग्रहण समाप्त हो गया था, सम्भूत का अभी नहीं। एक दिन एक ग्रामवासी ने आचार्य को पाठ करने के लिए निमन्त्रण दिया। उसी दिन रात को वर्षा होकर मार्ग के कन्दरा आदि भर गये। आचार्य ने प्रातःकाल ही चित्त पण्डित को बुलवा कर कहा-"तात ! मैं न जा सकूँगा। तू विद्यार्थियों को साथ ले जा और मङ्गल-पाठ कर अपना हिस्सा खाकर हमारा हिस्सा ले आना।" वह 'अच्छा' कह विद्यार्थियों को साथ लेकर गया। जब तक ब्रह्मचारी-गण स्नान करें तथा मुँह धोयें तब तक आदमियों ने ठंडी होने के लिए खीर परोस कर रख दी। वह अभी ठंडी नहीं हुई थी तभी ब्रह्मचारी आकर बैठ गये। आदमियों ने 'दक्षिणोदक' दे उनके सामने थालियाँ रखीं / सम्भूत ने एकदम मूठ की तरह खीर को ठंडी समझ खीर-पिंड लेकर मुँह मे डाल लिया। उसका मुँह ऐसे जलने लगा मानो लोहे का गर्म गोला मुँह में चला गया हो। वह काँप गया और होश ठिकाने न रख सकने के कारण चित्त पण्डित की ओर देख चाण्डाल-भाषा में बोल पड़ा.-"अरे ! ऐसा है !" उसने भी उसी प्रकार ध्यान न रख Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन .. .. चाण्डाल-भाषा में ही कहा-"निगल, निगल।" ब्रह्मचारियों ने परस्पर एक दूसरे की . ओर देखा-यह क्या भाषा है ? चित्त पण्डित ने मङ्गल-पाठ किया। ब्रह्मचारियों ने (वहाँ से) निकल पृथक्-पृथक् हो जहाँ-तहाँ बैठ भाषा की परीक्षा की और पता लगा लिया कि यह चाण्डाल-भाषा है। तब उन्होंने उन दोनों को पीटा-रे दुष्ट चाण्डालो ! इतने दिन तक 'हम ब्राह्मण हैं' कह कर हमें धोखा दिया। तब एक सत्पुरुष ने "हटो" कह कर उन्हें बचाया और उपदेश दिया-यह तुम्हारी 'जाति' का दोष है, जाओ कहीं प्रव्रजित होकर जीवो। ब्रह्मचारियों ने जाकर आचार्य को कह दिया कि ये चाण्डाल हैं / वे भी जंगल में जा ऋषियों की प्रव्रज्या के ढंग पर प्रवजित हुए। फिर थोड़े ही समय बाद वहाँ से च्युत होकर नेरञ्जरा नदी के किनारे मृगी की कोख में जन्म ग्रहण किया। वे माता की कोख से निकलने के समय से ही इकटे चरते, पृथक्-पृथक् न रह सकते / / एक दिन चर चुकने के बाद सिर से सिर, सींगों से सींग, थोथनी से थोथनी मिलाये खड़े जुगाली कर रहे थे। एक शिकारी ने शक्ति चला एक ही चोट में दोनों की जान ले ली। वहाँ से च्युत होकर नर्मदा के किनारे वह (बाज ?) होकर पैदा हुए। वहाँ भी बड़े होने पर चोंगा चुकने के बाद सिर से सिर, चोंच से चोंच मिलाकर खड़े थे। एक चिड़ीमार ने उन्हें देखा और एक ही झटके में पकड़ कर मार डाला / किन्तु, वहाँ से च्युत होकर चित पण्डित तो कोसम्बी में पुरोहित का पुत्र होकर पैदा हुआ, सम्भूत पण्डित उत्तर पाञ्चाल राजा का पुत्र होकर / नामकरण के दिन से उन्हें अपने पूर्व-जन्म याद आ गये। उनमें से सम्भूत पण्डित को क्रमशः याद न रह सकने के कारण केवल चाण्डाल का जन्म ही याद था, किन्तु चित्त-पण्डित को क्रमशः चारों जन्म याद थे। वह सोलह वर्ष का होने पर (घर से) निकला और ऋषि-प्रवज्या ग्रहण कर ध्यान-अभिज्ञा-लाभी हो ध्यान-सुख का आनन्द लेता हुआ समय बिताने लगा। ___ सम्भूत पण्डित ने पिता के मरने पर छत्र धारण किया। उसने छत्र-धारण के दिन ही मंगल-गीत के रूप में उल्लास-वाक्य के तौर पर दो गाथायें कहीं। उन्हें सुन 'यह हमारे राजा का मङ्गल-गीत है' करके रनिवास की स्त्रियाँ तथा गन्धर्व उसी गीत को गाते थे। क्रमशः सभी नगर-निवासी भी 'यह हमारे राजा का प्रिय गीत है' समझ उसे ही गाने लगे। चित्त पण्डित ने हिमालय में रहते ही रहते सोचा-"क्या मेरे भाई सम्भूत ने अभी छत्र-धारण किया है, अथवा नहीं किया है ?' उसे पता लगा कि धारण कर लिया है। तब उसने सोचा-"अभी नया राज्य है। अभी समझा न सकूँगा। बूढ़े होने पर उसके पास जा, धर्मोपदेश दे उसे प्रवजित करूंगा।" वह पचास वर्ष के बाद जब राजा के लड़के-लड़की बड़े हो गये, ऋद्धि से वहाँ पहुंचे और जा कर उद्यान में उतर, मङ्गल-शिला पर स्वर्ण-प्रतिमा की तरह बैठे। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण उस समय एक लड़का उस गीत को गाता हुआ लकड़ियाँ बटोर रहा था। चित्तपण्डित ने उसे बुलाया / वह आकर प्रणाम करके खड़ा हुआ। उससे पूछा-"तू प्रात:काल से यही एक गीत गाता है / क्या और नहीं जानता ?" "भन्ते ! और भी अनेक गीत जानता हूँ। किन्तु ये हमारे राजा के प्रिय गीत हैं, इसलिए इन्हें ही गा रहा हूँ।" "क्या राजा के विरुद्ध गीत गाने वाला भी कोई है ?" "भन्ते ! कोई नहीं।" "तू राजा के गीत के विरुद्ध गीत गा सकेगा ?" "जानगा तो गा सकूँगा।" "तो तू राजा के दो गीत गाने पर इसे तीन गीत करके गाना। राजा के पास जाकर गाना / राजा प्रसन्न होकर तुझे बहुत ऐश्वर्य देगा।" उन्होंने उसे गीत दे विदा किया / वह शीघ्र माँ के पास गया और सज-सजा कर राजद्वार पर पहुंचा। वहाँ उसने कहलवाया-एक लड़का आपके साथ प्रति-गीत गायेगा। राजा ने कहलवाया-आ जाय / उसने जाकर प्रणाम किया / राजा ने पूछा-'तात ! तू प्रति-गीत गायेगा ?" "हाँ देव ! सारी राज्य-परिषद् इकट्ठी करायें।" जब सारी राज्य-परिषद् इकट्ठी हो गई तब उसने राजासे कहा- "देव ! आप अपना गीत गायें, मैं प्रति-गीत गाऊँगा।" राजा ने दो गाथायें कहीं [ आदमियों के किए हुए सभी कर्म फल देते हैं, किया गया कोई कर्म व्यर्थ नहीं जाता। मैं देखता हूँ कि महानुभाव सम्भूत अपने कर्म से पुण्य-फल को प्राप्त हुआ है // 1 // ] [आदमियों के किये सभी कर्म फल देते हैं। किया गया कोई कर्म व्यर्थ नहीं जाता। कदाचित् चित्त का भी मन मेरे ही मन की तरह समृद्ध होगा // 2 // ] उसके गीत के बाद लड़के ने गाते हुए तीसरी गाथा कही [आदमियों के किए हुए सभी कर्म फल देते हैं, किया गया कोई कर्म व्यर्थ नहीं जाता। हे देव ! यह जानें कि चित्त का मन भी तुम्हारे मन ही की तरह समृद्ध है // 3 // ] यह सुन राजा ने चौथी गाथा कही [ क्या तू चित्त है, अथवा तू ने अपने को चित्त कहने वाले किसी से यह गाथा सुनी है, अथवा तुझे किसी ऐसे आदमी ने जिसने चित्त को देखा कहीं हो यह गाथा कही है ? Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि गाथा अच्छी प्रकार कही गई है। मैं तुझे सौ गाँव देता हूँ // 4 // ] तब लड़के ने पाँचवीं गाथा कही-- - [ मैं चित्त नहीं हूँ। मैंने अन्यत्र से ही सुनी है। (तुम्हारे उद्यान में बैठे हुए एक) ऋषि ने ही मुझे यह सिखाया है कि जाकर राजा के सामने यह गाथा कहो। वह सन्तुष्ट होकर वर दे सकता है // 5 // ] यह सुन राजा ने सोचा वह मेरा भाई चित्त होगा। अभी जाकर उसे देलूँगा। उसने आदमियों को आज्ञा देते हुए दो गाथायें कहीं--- [सुन्दर सिलाई वाले, अच्छे बने हुए रथ जोते जायें। हाथियों को कसो और उनके गले में मालायें (आदि) डालो // 6 // भेरी, मृदङ्ग तथा शङ्ख बजे / शीघ्र यान जोते जायें। आज ही मैं उस आश्रम में जाऊंगा जहाँ जाकर बैठे हुए ऋषि को देखूगा // 7 // ] उसने यह कहा और श्रेष्ठ रथ पर चढ़ शीव्र जाकर उद्यान के द्वार पर रथ छोड़ चित्त-पण्डित के पास पहुंचा। वहाँ प्रणाम कर एक ओर खड़े हो प्रसन्न मन से आठवीं गाथा कही- [परिषद् के बीच में कही हुई गाथा के कारण आज मुझे बड़ा लाभ हुआ। आज मैं शील-व्रत से युक्त ऋषि को देख कर प्रीति-युक्त तथा प्रसन्न हूँ // 8 // ] चित्त-पण्डित को देखने के समय से ही उसने प्रसन्न हो "मेरे भाई के लिए पलंग बिछाओ" आदि आज्ञा देते हुए नौवीं गाथा कही [ आप आसन तथा पादोदक ग्रहण करें। हम आप से अर्घ्य के बारे में पूछ रहे हैं / आप हमारा अर्घ्य ग्रहण करें // 6 // ] ____ इस प्रकार मधुर-स्वागत कर राज्य के बीच में से दो टुकड़े करके देते हुए यह गाथा कही [ तुम्हारे लिए सुन्दर भवन बनायें और नारीगण तुम्हारी सेवा में रहें। मुझ पर कृपा करके मुझे आज्ञा दें। हम दोनों मिलकर यहाँ राज्य करें // 10 // ] उसकी यह बात सुन चित-पण्डित ने धर्मोपदेश देते हुए छः गाथायें कहीं [हे राजन् ! दुष्कर्मों का बुरा फल देखकर और शुभ-कर्मों का महान् विपाक देखकर मैं अपने आपको ही संयत रखूगा-मुझे पुत्र, पशु तथा धन नहीं चाहिए // 11 // ____ प्राणियों का जीवन यहाँ दस दशान्डों का ही है। बिना उस अवधि को पहुँचे हो प्राणी टूटे बाँस के समान सूख जाता है // 12 // Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरणं : 1 कथानक संक्रमण - ऐसी अवस्था में क्या आनन्द, क्या क्रीड़ा, क्या मजा, क्या धन की खोज ? मुझे पुत्र तथा दारा से क्या प्रयोजन ? राजन् ! मैं बन्धन से मुक्त हूँ // 13 // यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मृत्यु मुझे नहीं भूलेगी। जब मृत्यु सिर पर हो तो क्या मजा और क्या धन की खोज // 14 // हे राजन् ! चाण्डाल-योनि आदमियों में निकृष्ट और अधम जाति है। हम अपने पाप-कर्मों के ही कारण पहले चाण्डाल-योनि में उत्पन्न हुए // 15 // अवन्ती में चाण्डाल हुए, नेरअरा के तट पर मृग, नर्मदा के तट पर (?) बाज और आज वही ब्राह्मण-क्षत्रिय // 16 // ] इस प्रकार पूर्व समय की निकृष्ट योनियों का प्रकाशन कर अब इस जन्म के भी आयु-संस्कारों के सीमित होने की बात कह पुण्य की प्रेरणा करते हुए चार गाथाएँ कहीं [अल्पायु प्राणी को ( मृत्यु के पास ) ले जाती है। जरा-प्राप्त के लिए रक्षा का कोई उपाय नहीं है.। हे पञ्चाल ! मेरा यह कहना कर-ऐसे कर्म जिनसे दुःख उत्पन्न हो मत कर ॥१७॥''''''ऐसे कर्म जिनका फल दुःख हो मत कर ॥१८॥"ऐसे कर्म जो चित्त-मैल रूपी धूल से ढंके हों मत कर // 16 // अलायु प्राणी को (मृत्यु के पास) ले जाती है / जरा प्राणी के वर्ण का नाश कर देती है / हे पञ्चाल ! मेरा यह कहना करऐसे कर्म मत कर जो नरक में उत्पत्ति का कारण हो // 20 // ] बोधिसत्व के ऐसा कहते रहने पर राजा ने प्रसन्न हो तीन गाथायें कहीं [हे ऋषि ! जिस तरह से तू कहता है उसी तरह से तेरा यह कहना निश्चयात्मक रूप से सत्य है किन्तु हे भिक्षु ! मेरे पास बहुत काम-भोग ( के साधन ) हैं और उन्हें मेरे जैसा नहीं छोड़ सकता // 21 // :- जिस तरह से दलदल में फंसा हुआ हाथी स्थल दिखाई देने पर भी वहाँ नहीं जा सकता उसी प्रकार मैं भी काम-भोग के दलदल में फंसा हुआ भिक्षु के मार्ग को नहीं ग्रहण कर सकता // 22 // ] [जिस प्रकार माता-पिता पुत्र के सुख की कामना से उसका अनुशासन करते हैं, / उसी प्रकार. भन्ते ! आप मुझे उपदेश दें जिससे मैं आगे सुखी होऊँ // 23 // ] तब उसे बोधिसत्व ने कहा [हे राजन् ! यदि तू इन मानवी काम-भोगों को छोड़ने का साहस नहीं कर सकता तो यह कर कि धार्मिक-कर लिया जाय और तेरे राष्ट्र में अधार्मिक-काम न हो // 24 // तेरे दूत चारों दिशाओं में जाकर श्रमण-ब्राह्मणों को निमन्त्रण देकर लाये / तू अन्नपान, वस्त्र, शयनासन तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं से उनकी सेवा कर // 25 // . प्रसन्नतापूर्वक श्रमण-ब्राह्मणों को अन्न-पान से सन्तुष्ट कर। यथासामर्थ्य दान देने और खाने वाला निन्दा-रहित हो स्वर्ग-लोक को प्राप्त होता है // 26 // Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __हे राजन् ! यदि नारीगण से घिरे होने पर तुझ पर राज-मद सवार हो जाय तो इस . गाथा को मन में करना और परिषद् के सामने बोलना // 27 // खुले आकाश के नीचे सोने वाला प्राणी, चलती-फिरती माता द्वारा दूध पिलाया गया (प्राणी), कुत्तों से घिरा हुआ ( प्राणी ) आज राजा कहलाता है // 28 // ] ___ इस प्रकार बोधिसत्व ने उसे उपदेश देकर 'मैंने तुझे उपदेश दे दिया। अब तू चाहे प्रवजित हो चाहे न हो। मैं स्वयं अपने कर्म के फल को भोगूंगा' कहा और आकाश में उठ कर उसके सिर पर धूलि गिराते हुए हिमालय को ही चले गये। राजा ने भी यह देखा तो उसके मन में वैराग्य पैदा हुआ। उसने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंपा और सेना को सूचित कर हिमालय की ही ओर चला गया। बोधिसत्व को उसका आना ज्ञात हुआ तो ऋषि-मण्डली के साथ आ वह उसे ले कर गये और प्रवजित कर योग-विधि सिखाई। उसने ध्यान लाभ किया। इस प्रकार वे दोनों ब्रह्मलोक गामी हुए। शास्ता ने यह धर्म-देशना 'इस प्रकार भिक्षुओ, पुराने पण्डित तीन-चार जन्मों तक भी परस्पर दृढ़ विश्वासी रहे' कह जातक का मेल बैठाया। उस समय सम्भूत पण्डित आनन्द था / चित्त पण्डित तो मैं ही था। -जातक (चतुर्थ खण्ड) 468, चित्तसम्भूत जातक, पृ० 568-608 / जैन-कथावस्तु का संक्षिप्त सार जैन-परम्परा में वर्णित कथावस्तु का बौद्ध-परम्परा के कथा-वस्तु से बहुत अंशों में समानता है / दोनों के कथा-वस्तु गद्य-पद्य में हैं। उत्तराध्ययन में वर्णित कथा-वस्तु तथा संवाद पद्य में हैं / वे ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति से प्रारम्भ होते हैं / इसमें 35 श्लोक हैं / टीका में सम्पूर्ण कथा है / वह गद्य में है / भाषा साहित्यिक और ललित है। उत्तराध्ययन में निबद्ध कथानक मूल में वहाँ से प्रारम्भ होता है जब दोनों भाई चित्र और सम्भूत ( चित्र पुरिमताल नगर के सेठ के पुत्र के रूप में, मुनि अवस्था में ; तथा सम्भूत ब्रह्म राजा का पुत्र ब्रह्मदत्त के रूप में ) मिलते हैं और सुख-दुःख के फल-विपाक की चर्चा करने लगते हैं / चित्र का जीव मुनि-अवस्था में ब्रह्मदत्त को संसार की असारता, ऐश्वर्य की चंचलता और भोगों की नश्वरता समझाता है और श्रामण्य स्वीकार करने की प्रेरणा देता है। परन्तु जब वह ब्रह्मदत्त को मुनि बनने के लिए असमर्थ पाता है, तब उसे गृहस्थावस्था में रहकर ही धर्म में स्थिर रहने की प्रेरणा देता है परन्तु ब्रह्मदत्त का मन धर्म में नहीं लगता / मुनि चला जाता है / धर्माराधना कर मुनि सिद्ध हो जाता है। ब्रह्मदत्त भोगासक्त हो नरक में ज,ता है। 5, 6 और 7 वें श्लोक में पूर्व-जन्मों का नामोल्लेख हुआ है, किन्तु उनका विस्तार यहाँ नहीं है। टीकाकार ने मिचन्द्र ने सुखबोधा (पत्र 185) में उनके पूर्व के पाँच भवों का विस्तार से वर्णन किया है। जातक के गद्य भाग में उनके Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 311 खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण पूर्व के दो भवों का वर्णन है। इसमें कुछ अन्तर भी है / जैन-कथानक के अनुसार उनके छः भव इस प्रकार हैं(१) दसपुर नगर में शांडिल्य ब्राह्मण की दासी यशोमती के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न / (2) कालिंजर पर्वत पर मृगी की कोख से युगल रूप में उत्पन्न / (3) मृतगंगा के तीर पर हंसी के गर्भ से उत्पन्न / (4) वाराणसी में श्वपाक के पुत्र चित्त-सम्भूत के रूप में उत्पन्न / (5) देवलोक में उत्पन्न / (6) चित्र का जीव पुरिमताल नगर में ईभ्य सेठ के यहाँ पुत्र रूप में और सम्भूत का जीव काम्पिल्यपुर में ब्रह्म राजा की रानी चुलनी के गर्भ में पुत्र रूप से उत्पन्न / बौद्ध-कथावस्तु का संक्षिप्त सार (1) नरेञ्जरा नदी के किनारे मृगी की कोख से उत्पन्न / (2) नर्मदा नदी के किनारे बाज रूप में उत्पन्न / (3) चित्र का जीव कोसाम्बी में पुरोहित का पुत्र और संभूत का जीव पाञ्चाल ___ राजा के पुत्र रूप में उत्पन्न / 2 जातक में दोनों भाई मिलते हैं। चित्र ने सम्भूत को उपदेश दिया / परन्तु सम्भूत का मन भोगों से विरक्त नहीं हुआ। उसके सिर पर धूल गिराते हुए चित्र हिमालय की ओर चला गया। राजा सम्भूत ने यह देखा तो उसके मन में वैराग्य पैदा हुआ और हिमालय की ओर चला गया। चित्र ने उसे योग-विधि सिखाई। उसने ध्यान-लाभ किया। इस प्रकार वे दोनों ब्रह्मलोक गामी हुए। * . १-उत्तराध्ययन, 13 // 5-7 : आसिमो मायरा दो वि, अन्नमन्नवसाणुगा। अन्नमन्नमणरत्ता, अन्नमन्नहिएसिणो॥ वासा दसण्णे आसी, मिया कालिंजरे नगे / हंसा मयंगतीरे, सोवागा कासिभूमिए / / देवाय देवलोगम्मि, आसि अम्हे महिडि ढ़या / इमा नो छट्ठिया जाई, अन्नमन्नेण जा विणा // २-जातक, संख्या 498, चतुर्थ खण्ड, पृ० 600 / Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसी 312 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ... समान गाथाएँ उत्तराध्ययन, अध्ययन 13 चित्त सम्भूत जातक (संख्या 468) श्लोक गाथा दासा दसणे चण्डालाहुम्ह अवन्तीसु मिया कालिंजरे नगे। मिगा ने रजरं पति, हंसा मयंगतीरे उवकुसा नम्मदा तीरे सोवागा कासिभूमिए // 6 // त्यज्ज ब्राह्मण - खत्तिया // 16 // सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं सब्बं नरानं सफलं सुचिणं कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि / न कम्मना किञ्चन मोघमस्थि, अत्थेहि कामेहि य उत्तमे हिं पस्सामि सम्भूतं महानुभावं आया ममं पुण्णफलोववेए // 10 // जाणासि संभूय ! महागुभाग सब्बं नरानं सफलं सुचिण्णं महिड्ढियं पुण्णफलोववेयं / न कम्मना किञ्चन मोघमस्थि, चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं! चित्तं विजानाहि तत्थ एव देव इड्ढी जुई तस्स वि य प्पभूया // 11 // इद्धो मन तस्स यथापि तुम्हं // 3 // महत्थरूवा वयणप्पभूया सुलद्ध लामा बत मे अहोसि गाहागुगीया नरसंघमझे। गाथा सुगीता परिसाय मज्झे, जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया सो हं इसिं सील वतूपपन्न इहज्जयन्ते समणो म्हि जाओ // 12 // दिस्वा पतीतो सुमनो हमस्मि // 8 // उच्चोयए महु कक्के य बम्भे पवेइया आवसहा य रम्मा / इम गिहं चित्तधणप्पभूयं पसाहि पंचालगुणोववेयं // 13 // नट्टेहि गीएहि य वाइएहिं रम्मं च ते आवसथं करोन्तु नारीजणाई परिवारयन्तो नारीगणेहि परिचारयस्सु, भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू ! करोहि ओकासं . अनुग्गहाय मम रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं // 14 // उभो पि इमं इस्सरियं करोम // 10 // उवणिजई जीवियमप्पमायं उपनीयती जीवितं अपमायु वणं जरा हरइ नरस्स रायं। वणं जरा हन्ति नरस्स जीवितो पंचालराया ! वयणं सुणाहि करोहि पञ्चाल मम एत वाक्यं मा कासि कम्माइं महालयाई॥२६॥ मा कासि कम्मं निरयूप पत्तिया // 20 // Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 2, प्रकरण : 1. कथानक संक्रमण '313 अहं पि जाणामि जहेह साह! अद्धा हि सच्चं वचनं तव एतं जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं / यथा इसी भाससि एव एतं भोगा इमे संगकरा हवन्ति कामा च मे सन्ति अनप्परूपा जे वुज्जया अज्जो अम्हारिसेहिं // 27 // ते दुच्चजा मा दिसकेन मिक्खु // 21 // मागो जहा पंकजलावसन्नो नागो यथा पङ्कमज्झे व्यसन्नो बटुं थलं नामिसमेइ तीरं। पस्सं थलं नामिसम्मोति गन्तं एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा एवं पहं कामपङ्के व्यसन्नों म 'भिक्खुणो मग्गमणुष्वयामो // 30 // न भिक्खुनो मगं अनुब्बजामि // 22 // जइ ता सि भोगे चइउं असत्तो न चे तुवं उस्सहसे जनिन्द अज्जाई कम्माई करेहि रायं ! / कामे इमे मानुसके पहात, धम्मे ठिओ सम्वपयाणुकम्पी धम्मं बलिं पहपयस्सु राज तो होहिसि देवो इओ विउव्वी // 32 // अधम्मकारो च ते माहु रट्टे // 24 // एक विश्लेषण - इन दोनों के निरीक्षण से पता चलता है कि उत्तराध्ययन की कथावस्तु विस्तृत है। परन्तु आगे चल कर ज़ब कुमार ब्रह्मदत्त अपने मंत्री-पुत्र वरधनु के साथ घर से निकल कर दूर चला जाता है और जब तक वे दोनों पुन: अपने नगर में नहीं लौट आते तब तक का कथानक बहुत जटिल हो गया है। अवान्तर छोटी-मोटी घटनाओं के कारण कथावस्तु की शृङ्खला को याद रखना अत्यन्त दुष्कर हो जाता है। किन्तु ये सारी अवान्तर घटनाएं कुमार ब्रह्मदत्त से सम्बन्धित रहती हैं और उन सबका अन्त किसी कन्या के साथ पाणिग्रहण से होता है। ___ कुमार ब्रह्मदत्त वरधनु के साथ अपनी नगरी में आता है। राज्याभिषेक होने के पश्चात् भाई की स्मृति हो आती है। दोनों मिलते हैं / मुनि चित्र का जीव धर्माराधना कर मुक्त हो जाता है / कुमार ब्रह्मदत्त (सम्भूत का जीव) भोगों में आसक्त हो नरक में जाता है। - जैन-कथानक में सम्भूत के जीव कुमार ब्रह्मदत्त को नरकगामी बताया है और बौद्ध-परम्परा के सम्भूत को ब्रह्मलोक गामी / यह अन्तर है। . सरपेन्टियर ने माना है कि इन दोनों कथानकों में केवल कथावस्तु का ही साम्य नहीं है, किन्तु उनके पद्यों में भी असाधारण साम्य है।' . 1. The Uttaradhyayana Sutra, p. 45........ ............. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ डॉ० घाटगे ने माना है कि जातक का पद्य-भाग गद्य-भाग से ज्यादा प्राचीन है। गद्य-भाग बहुत बाद का प्रतीत होता है। यह तथ्य भाषा और तर्क के द्वारा सिद्ध हो जाता है / यही तथ्य हमें यह मानने के लिए प्रेरित करता है कि उत्तराध्ययन में संग्रहीत कथावस्तु दोनों में प्राचीन है।' ___ उनकी यह भी मान्यता है कि उत्तराध्ययन के पद्यों में उन दोनों के पूर्व-भवों का कोई उल्लेख नहीं मिलता। जब कि उनका संकेत, केवल दोनों के संलाप में है। जातक में उनके पूर्व-भवों का विस्तार से वर्णन है, जिनको हम अर्वाचीन संशोधन नहीं मान सकते और न यही मान सकते हैं कि उनका समावेश बाद में हुआ है / सूक्ष्म निरीक्षण से हमें यह भी पता चलता है कि अनेक स्थलों पर जातक कथावस्तु का वर्ण्य-विषय कथा के साथ-साथ चलता है और व्यवस्थित है, परन्तु जैन-कथावस्तु में ऐसा नहीं है। इसका कारण है कि जन-कथावस्तु की व्यवस्थापना में परिवर्तन-परिवर्द्धन हुआ है जब कि बौद्धकथावस्तु में ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि उन पर लिखी गई टीकाओं ने उनके गद्य-पद्यों की संख्या निर्धारित कर दी और उन्हें अन्तिम रूप से स्थापित कर दिया ताकि उनमें कोई परिवर्तन न हो / यद्यपि जातक का गद्य-भाग उत्तराध्ययन की रचना-काल से बहुत बाद में लिखा गया था, तो भी उसमें पूर्व-भवों का सुन्दर संकलन हुआ है जब कि जेनकथावस्तु में वह छूट गया है। सरपेन्टियर ने १३वें अध्ययन के प्रथम तीन श्लोकों को अर्वाचीन माना है। परन्तु इसके लिए कोई पुष्ट तर्क उपस्थित नहीं किया है। चूर्णि, टीका आदि व्याख्या-ग्रन्थ इस विषय की कोई ऊहापोह नहीं करते। प्रकरण की दृष्टि से भी ये श्लोक अनुपयुक्त नहीं लगते / इन तीन श्लोकों में उनके जन्म-स्थल, जन्म का कारण और परस्पर मिलन का उल्लेख है। दोनों भाई मिलते हैं और अपने-अपने सुख-दुःख के विपाक का कथन करते हैं / ये श्लोक आगे के श्लोकों से संबद्ध हैं। यह सही है कि ये तीन श्लोक आर्या छन्द में निबद्ध हैं और आगे के श्लोक अनुष्टुप, उपजाति आदि विभिन्न छन्दों में निबद्ध हैं। किन्तु छन्दों की भिन्नता से ये प्रक्षिप्त या अर्वाचीन नहीं माने जा सकते / ___उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्ययन की कथावस्तु हस्तिपाल जातक ( संख्या 506 ) से बहुत अंशों में मिलती है। कथा की संघटना और पात्रों का विवरण जैन-कथा के 2. Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. 17, (1935-1936): A few parallels in Jain and Buddhist works, p. 342, by A. M. Ghatage, M. A.. 2. वही, पृ० 342-343 / 3. The Uttaradhyayana Sutra, p. 326. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण समान ही हैं / महाभारत में भी पिता-पुत्र का एक संवाद है और उसके कई श्लोक उत्तराध्ययन के श्लोकों से अक्षरशः समान हैं। हम सर्वप्रथम तीनों परम्पराओं में प्रचलित कथावस्तु को प्रस्तुत कर उस पर ऊहापोह करेंगे / इषुकार (उत्तराध्ययन, अ० 14) ___ चित्र और सम्भूत, पूर्व-जन्म में, दो ग्वाले मित्र थे। उन्हें साधु के अनुग्रह से सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। वे वहाँ से मर कर देवलोक में गए। वहाँ से च्युत हो कर उन्होंने क्षितिप्रतिष्ठित नगर के एक इभ्य-कुल में जन्म लिया। वे बड़े हुए। चार इभ्य-पुत्र उनके मित्र बने / उन सबने युवावस्था में काम-भोगों का उपभोग किया, फिर स्थविरों से धर्म सुन प्रव्रजित हुए। चिरकाल तक संयम का अनुपालन किया / अन्त में अनशन कर सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में चार पल्य की स्थिति वाले देव बने / दोनों ग्वाल-पुत्रों को छोड़ कर शेष चारों मित्र वहाँ से च्युत हुए। उनमें एक कुरु जनपद के इषुकार नगर में इषुकार नाम का राजा हुआ और दूसरा उसी राजा की रानी कमलावती। तीसरा भृगु नाम का पुरोहित हुआ और चौथा भृगु पुरोहित की पत्नी यशा। बहुत काल बीता / भृगु पुरोहित के कोई पुत्र नहीं हुआ। पति-पत्नी चिन्तित रहने लगे। ____ एक बार उन दोनों ग्वाल-पुत्रों ने, जो अभी देव-भव में थे, अवधिज्ञान से जाना कि वे भृगु पुरोहित के पुत्र होंगे / वे वहाँ से चले / श्रमण का रूप बना भृगु पुरोहित के पास आए। भृगु और यशा दोनों ने वन्दना की। मुनियों ने धर्म का उपदेश दिया। भृगु-दम्पति ने श्रावक के व्रत स्वीकार किए। पुरोहित ने पूछा- "भगवन् ! हमारे कोई पुत्र होगा या नहीं ?' श्रमण युगल ने कहा- "तुम्हें दो पुत्र होंगे, किन्तु वे बाल्यावस्था में ही दीक्षित हो जाएँगे। उनकी प्रव्रज्या में तुम्हें कोई व्याघात उपस्थित नहीं करना होगा। वे दीक्षित हो कर धर्म-शासन की प्रभावना करगे।" इतना कह दोनों श्रमण वहाँ से चले गए। पुरोहित पति-पत्नी को प्रसन्नता हुई। कालान्तर में वे दोनों देव पुरोहितपत्नी के गर्भ में आए / दीक्षा के भय से पुरोहित नगर को छोड़ व्रज गाँव में जा बसा / वहाँ पुरोहित की पत्नी यशा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। वे कुछ बड़े हुए। माता-पिता ने सोचा, ये कहीं दीक्षित न हो जाएँ, अतः एक बार उनसे कहा-"पुत्रो ! ये श्रमण सुन्दर-सुन्दर बालकों को उठा ले जाते हैं और मार कर उनका मांस खाते हैं। उनके पास तुम दोनों कभी मत जाना।" ___एक बार दोनों बालक खेलते-खेलते गाँव से बहुत दूर निकल गए। उन्होंने देखा कि कई साधु उसी मार्ग से आ रहे हैं / भयभीत हो वे एक वृक्ष पर चढ़ गए। संयोगवश साधु भी उसी वृक्ष की सघन छाया में आ बैठे। बालकों का भय बढ़ा। माता-पिता की शिक्षा स्मृति-पटल पर नाचने लगी। साधुओं ने कुछ विश्राम किया / झोली से पात्र Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन निकाले और सभी एक मण्डली में भोजन करने लगे। बालकों ने देखा कि मुनि के पात्रों में मांस जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। साधुओं को सामान्य भोजन करते देख बालकों का भय कम हुआ। बालकों ने सोचा-अहो ! हमने ऐसे साधु अन्यत्र भी कहीं देखे हैं / चिन्तन चला। उन्हें जातिस्मृति-ज्ञान उत्पन्न हुआ। वे नीचे उतरे, मुनियों को वन्दना की और सीधे अपने माता-पिता के पास आ कर बोले--- ___"हमने देखा है कि यह मनुष्य-जीवन अनित्य है, उसमें भी विघ्न बहुत हैं और आयु थोड़ी है / इसलिए घर में हमें कोई आनन्द नहीं है। हम मुनि-चर्या को स्वीकार करने के लिए आपकी अनुमति चाहते हैं।' . उनके पिता ने उन कुमार मुनियों की तपस्या में बाधा उत्पन्न करने वाली बातें कहीं-"पुत्रो ! वेदों को जानने वाले इस प्रकार कहते हैं कि जिनको पुत्र नहीं होता, उनकी गति नहीं होती। ... "पुत्रो ! इसलिए वेदों को पढ़ो। ब्राह्मणों को भोजन कराओ। स्त्रियों के साथ भोग करो। पुत्रों को उत्पन्न करो। उनका विवाह कर, घर का भार सौंप कर फिर अरण्यवासी प्रशस्त मुनि हो जाना।" दोनों कुमारों ने सोच-विचार पूर्वक उस पुरोहित को—जिसका मन और शरीर, आत्म-गुण रूपी इन्धन और मोह रूपी पवन से अत्यन्त प्रज्वलित, शोकाग्नि से संतप्त और परितप्त हो रहा था, जिसका हृदय वियोग की आशंका से अतिशय छिन्न हो रहा था, जो एक-एक कर अपना अभिप्राय अपने पुत्रों को समझा रहा था, उन्हें धन और क्रमप्राप्त काम-भोगों का निमंत्रण दे रहा था—ये वाक्य कहे____ "वेद पढ़ने पर भी वे त्राण नहीं होते / ब्राह्मणों को भोजन कराने पर वे नरक में ले जाते हैं। औरस पुत्र भी त्राण नहीं होते। इसलिए आपने जो कहा, उसका अनुमोदन कौन कर सकता है ? _.. "ये काम-भोग क्षण भर सुख और चिरकाल दुःख देने वाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देने वाले हैं, संसार-मुक्ति के विरोधी हैं और अनर्थों की खान हैं। ... "जिसे कामनाओं से मुक्ति नहीं मिली, वह पुरुष अतृप्ति की अग्नि से संतप्त हो कर दिन-रात परिभ्रमण करता है। दूसरों के लिए प्रमत्त हो कर धन की खोज में लगा हुआ, वह जरा और मृत्यु को प्राप्त होता है। ___"यह मेरे पास है और यह नहीं है, यह मुझे करना है, और यह नहीं करना हैइस प्रकार वृथा बकवास करते हुए पुरुष को उठाने वाला (काल) उठा लेता है। इस स्थिति में प्रमाद कैसे किया जाए ? .., "जिसके लिए लोग तप किया करते हैं, वह सब कुछ-प्रचुर धन, स्त्रियाँ, स्वजन Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 .. कथानक संक्रमण 317 और इन्द्रियों के विषय तुम्हें यही प्राप्त हैं, फिर किसलिए तुम श्रमण होना चाहते हो ?"-पिता ने कहा। पुत्र बोले--"पिता ! जहाँ धर्म की धुरा को वहन करने का अधिकार है / वहाँ धन स्वजन और इन्द्रिय-विषय का क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं / हम गुण-समूह से सम्पन्न श्रमण होंगे, प्रतिबन्ध-मुक्त हो कर गाँवों और नगरों में विहार करने वाले और भिक्षा ले कर जीवन चलाने वाले भिक्षु होंगे।' "पुत्रो ! जिस प्रकार अरणी में अविद्यमान् अग्नि उत्पन्न होती है, दूध में घी और तिल में तेल पैदा होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं / शरीर का नाश हो जाने पर उनका अस्तित्व नहीं रहता"-पिता ने कहा। ___ कुमार बोले-"पिता ! आत्मा अमूर्त है, इसलिए यह इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। यह अमूर्त है, इसलिए नित्य है। यह निश्चय है कि आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बन्धन के हेतु हैं और बन्धन ही संसार का हेतु है-ऐसा कहा है। ___ "हम धर्म को नहीं जानते थे, तब घर में रहे, हमारा पालन होता रहा और मोहवश हमने पाप-कर्म का आचरण किया। किन्तु अब फिर पाप-कर्म का आचरण नहीं करेंगे। "यह लोक पीड़ित हो रहा है, चारों ओर से घिरा हुआ है, अमोघा आ रही है / इस स्थिति में हमें सुख नहीं मिल रहा है।" ___ "पुत्रो ! यह लोक किससे पीड़ित है ? किससे घिरा हुआ है ? अमोघा किसे कहा जाता है ? मैं जानने के लिए चिन्तित हूँ"-पिता ने कहा / कुमार बोले-“पिता ! आप जानें कि यह लोक मृत्यु से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है और रात्रि को अमोघा कहा जाता है। .."जो-जो रात बीत रही है, वह लौट कर नहीं आती। अधर्म करने वाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती हैं। ___“जो-जो रात बीत रही है, वह लौट कर नहीं आती। धर्म करने वाले की रात्रियाँ 'सफल होती हैं।" .."पुत्रो! पहले हम सब एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों का पालन करें. फिर तुम्हारा यौवन बीत जाने के बाद घर-घर से भिक्षा लेते हुए विहार करेंगे"-पिता ने कहा। पत्र बोले-"पिताकल की इच्छा वही कर सकता है. जिसकी मत्य के साथ * मैत्री हो, जो मौत के मुंह से बच कर पलायन कर सके और जो जानता हो-मैं नहीं मरूंगा। "हम प्राज ही उस मुनि-धर्म को स्वीकार कर रहें हैं, जहाँ पहुँच कर फिर जन्म Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . लेना न पड़े / भोग हमारे लिए अप्राप्त नहीं है हम उन्हें अनेक बार प्राप्त कर चुके हैं / राग-भाव को दूर कर श्रद्धा पूर्वक श्रेय की प्राप्ति के लिए हमारा प्रयत्न युक्त है।" ___"पुत्रों के चले जाने के बाद मैं घर में नहीं रह सकता। हे वाशिष्ठि ! अब मेरे भिक्षाचर्या का काल आ चुका है। वृक्ष शाखाओं से समाधि को प्राप्त होता है। उनके कट जाने पर लोग उसे ढूँठ कहते हैं। ___ "बिना पंख का पक्षी, रण-भूमि में सेना-रहित राजा और जल-पोत पर धन-रहित व्यापारी जैसा असहाय होता है, पुत्रों के चले जाने पर मैं भी वैसा ही हो जाता हूँ।" __वाशिष्ठी ने कहा- "ये सुसंस्कृत और प्रचुर शृङ्गार-रस से परिपूर्ण इन्द्रिय-विषय, जो तुम्हें प्राप्त हैं, उन्हें अभी हम खूब भोगें। उसके बाद हम मोक्ष-मार्ग को स्वीकार करेंगे।" पुरोहित ने कहा- "हे भवति ! हम रसों को भोग चुके हैं। वय हमें छोड़ते चला जा रहा है / मैं असंयम-जीवन के लिए भोगों को नहीं छोड़ रहा हूँ। लाभ-अलाभ और सुख-दुःख को समदृष्टि से देखता हुआ मुनि-धर्म का आचरण करूंगा।" वाशिष्ठी ने कहा-"प्रतिस्रोत में बहने वाले बूढ़े हंस की तरह तुम्हें पीछे अपने बन्धुओं को याद न करना पड़े, इसलिए मेरे साथ भोगों का सेवन करो। यह भिक्षाचर्या और ग्रामानुग्राम विहार सचमुच दुःखदायी है।" .. पुरोहित ने कहा- "हे भवति ! जैसे सांप अपने शरीर की केंचुली को छोड़ मुक्तभाव से चलता है, वैसे ही पुत्र भोगों को छोड़ कर चले जा रहे हैं। पीछे मैं अकेला क्यों रहूँ, उनका अनुगमन क्यों न करूं? ____ "जैसे रोहित मच्छ जर्जरित जाल को काट कर बाहर निकल जाते हैं, वैसे ही उठाए हुए भार को वहन करने वाले प्रधान तपस्वी और धीर पुरुष काम-भोगों को छोड़ कर भिक्षाचर्या को स्वीकार करते हैं।" ___ वाशिष्ठी ने कहा- "जैसे क्रौंच पक्षी और हंस बहेलियों द्वारा बिछाए हुए जालों को काट कर आकाश में उड़ जाते हैं, वैसे ही मेरे पुत्र और पति जा रहे हैं / पीछे मैं अकेली क्यों रहूँ ? उनका अनुगमन क्यों न करूं ?" ___'पुरोहित अपने पुत्र और पत्नी के साथ भोगों को छोड़ कर प्रवजित हो चुका हैं'यह सुन राजा ने उसके प्रचुर और प्रधान धन-धान्य आदि को लेना चाहा, तब महारानी कमलावती ने बार-बार कहा "राजन् ! वमन खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती। तुम ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते हो, यह क्या है ? “यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाए तो भी वह तुम्हारी इच्छा-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण:१ कथानक संक्रमण "राजन् ! इन मनोरम काम-भोगों को छोड़ कर जब कभी मरना होगा / हे नरदेव ! एक धर्म ही त्राण है / उसके सिवाय कोई दूसरी वस्तु त्राण नहीं दे सकती। ___ "जैसे पक्षिणी पिंजड़े में आनन्द नहीं मानती, वैसे ही मुझे इस बंधन में आनन्द नहीं मिल रहा है / मैं स्नेह के जाल को तोड़ कर अकिंचन, सरल क्रिया वाली, विषय-वासना से दूर और परिग्रह एवं हिंसा के दोषों से मुक्त हो कर मुनि-धर्म का आचरण करूंगी। "जैसे दवाग्नि लगी हुई है, अरण्य में जीव-जन्तु जल रहे हैं, उन्हें देख राग-द्वेष के वशीभूत हो कर दूसरे जीव प्रमुदित होते हैं, उसी प्रकार काम-भोगों में मूच्छित हो कर हम मूढ़ लोग यह नहीं समझ पाते कि यह समूचा संसार राग-द्वेष की अग्नि से जल ___ "विवेकी पुरुष भोगों को भोग कर फिर उन्हें छोड़ कर वायु की तरह अप्रतिबद्धविहार करते हैं और वे स्वेच्छा से विचरण करने वाले पक्षियों की तरह प्रसन्नतापूर्वक स्वतंत्र विहार करते हैं। . "आर्य ! जो काम-भोग अपने हाथों में आए हुए हैं और जिनको हमने नियंत्रित कर रखा है, वे कूद-फाँद कर रहे हैं। हम कामनाओं में आसक्त बने हुए हैं, किन्तु अब हम भी वैसे ही होंगे, जैसे कि अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ भृगु हुए हैं। "जिस गीध के पास मांस होता है, उस पर दूसरे पक्षी झपटते हैं और जिसके पास मांस नहीं होता, उस पर नहीं झपटते—यह देख कर मैं आमिष (धन, धान्य आदि) को छोड़, निरामिष हो कर विचरूंगी। "गीध की उपमा से काम-भोगों को संसार-वर्धक जान कर मनुष्य को इनसे इसी प्रकार शंकित हो कर चलना चाहिए, जिस प्रकार गरुड़ के सामने सांप शंकित हो कर चलता है। "जैसे बन्धन को तोड़ कर हाथी अपने स्थान (विंध्याटवी) में चला जाता है, वैसे ही हमें अपने स्थान (मोक्ष) में चले जाना चाहिए। हे महाराज इषुकार ! यह पथ्य. है, इसे मैंने ज्ञानियों से सुना है।" राजा और रानी विपुल राज्य और दुस्त्यज्य काम-भोगों को छोड़ निविषय, निरामिष, निःस्नेह और निष्परिग्रह हो गए। धर्म को सम्यक् प्रकार से जान, आर्कषक भोग-विलास को छोड़, वे तीर्थङ्कर के द्वारा उपदिष्ट घोर तपश्चर्या को स्वीकार कर संयम में घोर पराक्रम करने लगे। - इस प्रकार वे सब क्रमशः बुद्ध हो कर धर्म-परायण, जन्म और मृत्यु के भय से उद्विग्न बन गए तथा दुःख के अन्त की खोज में लग गए। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन जिनकी आत्मा पूर्व-जन्म में कुशल-भावना से भावित थी, वे सब-राजा, रान ; ब्राह्मण पुरोहित, ब्राह्मणी और दोनों पुरोहित कुमार अर्हत् के शासन में आ कर दुःख का अंत पा गए—मुक्त हो गए। -उत्तराध्ययन, 14 / 7-53 / हत्थिपाल जातक पूर्व समय में वाराणसी में एसुकारी नाम का राजा था। उसका पुरोहित बचपन से उसका प्रिय सहायक था। वे दोनों अपुत्रक थे। एक दिन उन्होंने सुखपूर्वक बैठे हुए विचार किया, हमारे पास ऐश्वर्य बहुत है, पुत्र अथवा पुत्री नहीं है, क्या किया जाय ? तब राजा ने पुरोहित से कहा- "यदि तुम्हारे घर में पुत्र उत्पन्न होगा, तो मेरे राज्य का स्वामी होगा, यदि मेरे घर में पुत्र पैदा होगा तो तुम्हारे घर की सम्पत्ति का मालिक होगा।" इस प्रकार वे दोनों परस्पर वचन-बद्ध हुए। एक दिन पुरोहित अपनी जमींदारी के गाँव में गया। वापस लौटने पर जब वह दक्षिणद्वार से नगर में प्रवेश कर रहा था तो उसने नगर के बाहर अनेक पुत्रों वाली एक दरिद्र स्त्री को देखा। उसके सात पुत्र थे। सभी निरोघ / एक के हाथ में पकाने की हाँडी थी। एक के हाथ में चटाई। एक आगे-आगे चल रहा था। एक पीछे-पीछे। एक ने अंगुली पकड़ रखी थी। एक गोद में था। एक कन्धे पर बैठा था। उससे पुरोहित ने पूछा- "भद्रे ! इन बच्चों का पिता कहाँ हैं ?' "स्वामी ! इनका कोई एक ही निश्चित पिता नहीं है।" "इस प्रकार के सात पुत्र क्या करने से मिले ?" उसे जब कोई अन्य आधार न दिखाई दिया तो उसने नगर-द्वार स्थित निग्रोध-वृक्ष की ओर संकेत करके कहा- "स्वामी ! इस निग्रोध-वृक्ष पर रहने वाले देवता से प्रार्थना करने से मिले, इसी ने मुझे पुत्र दिए।" पुरोहित ने उसे तो 'तू जा' कह कर विदा किया। तब वह स्वयं रथ से उतर, निग्रोध-वृक्ष के नीचे पहुंचा। उसकी शाखा पकड़ कर हिलाई और बोला- "हे देवपुत्र ! तुझे राजा से क्या नहीं मिलता। राजा प्रति वर्ष हजार (मुद्राओं) का त्याग कर बलि देता है। तू उसे पुत्र नहीं देता। इस दरिद्र स्त्री ने तेरा क्या उपकार किया है कि उसे सात पुत्र दिए हैं। यदि हमारे राजा को पुत्र नहीं देगा, तो आज से सात दिन तुझे जड़ से उखड़वा कर टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा।" इस प्रकार वह वृक्ष-देवता को धमका कर चला गया। उसने इसी प्रकार अगले दिन और फिर अगले दिन लगातार छः दिनों तक धमकी दी। छठे दिन शाखा को पकड़ कर बोला-'हे वृक्ष-देवता! अब आज केवल एक रात शेष रह गई है। यदि मेरे राजा को पुत्र नहीं देगा तो कल तुझे समाप्त कर दूंगा।" वृक्ष-देवता ने विचार कर इस बात की गहराई को Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 321 समझा। इस ब्राह्मण को यदि पुत्र नहीं मिला, तो यह मेरा विमान नष्ट कर देगा, इसे किस प्रकार पुत्र दिया जाय ? उसने चारों महाराजाओं के पास पहुँघ वह बात कही। वे बोले—'हम उसे पुत्र नहीं दे सकते / ' अट्ठाईस यक्ष-सेनापति के पास गया / उन्होंने भी वैसा ही उत्तर दिया। देवराज शक्र के पास जा कर कहा। उसने भी इसे योग्य पुत्र मिलेगा अथवा नहीं ? का विचार करते हुए चार देव-पुत्रों को देखा। वे पूर्व-जन्म में बनारस में जुलाहे हुए थे। उन्होंने जो कुछ कमाया, उसके पाँच हिस्से कर के चार हिस्से खाए और एक-एक हिस्सा इकट्ठा करके दान दिया। वे वहाँ से च्युत हो कर त्रयोत्रिश भवन में पैदा हुए। वहाँ से याम-भवन में। इस प्रकार ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर छः देव-लोकों में सम्पत्ति का उपभोग करते हुए विचरते रहे / उस समय उनकी त्रयोविंश भवन से च्युत होकर यामभवन जाने की बारी थी। शक्र ने उनके पास पहुँच, उन्हें बुलाकर कहा-'मित्रो, तुम्हें मनुष्य-लोक आना चाहिए, वहाँ एसुकारी राजा की पटरानी के गर्भ से जन्म ग्रहण करो।' वे उसका कहना सुनकर बोले-'देव, अच्छा जायेगे। लेकिन हमें राज-कुल से प्रयोजन नहीं है। हम पुरोहित के घर में जन्म ग्रहण कर, कुमार अवस्था में ही प्रवजित होंगे।' शक्र ने 'अच्छा' कहा और उनसे प्रतिज्ञा करा ली। फिर आकर वृक्ष-देवता से वह बात कही। उसने सन्तुष्ट हो शक्र को नमस्कार किया और अपने विमान के प्रति गमन किया। ___ अगले दिन पुरोहित ने भी कुछ मजबूत आदमियों को लिया और कुल्हाड़ी आदि : ले वृक्ष के नीचे पहुंचा। वहाँ जा वृक्ष की शाखा पकड़ बोला- 'हे देवता, आज मुझे याचना करते-करते सातवाँ दिन हो गया। अब तेरा अन्त समय आ पहुँचा / ' तब वृक्षदेवता ने बड़े ठाट-बाट के साथ पेड़ को तने की खोह में से निकलकर उसे मधुर-स्वर से बुलाया और कहा- 'ब्राह्मण, एक पुत्र की बात जाने दो, मैं तुम्हें चार पुत्र दूंगा।' 'मुझे पुत्र नहीं चाहिए, हमारे राजा को पुत्र दे।' 'तुम्हीं को मिलेंगे।' 'तो दो मुझे, और दो राजा को / ' 'राजा को नहीं, चारों तुम्हीं को मिलेंगे और तुमको भी वे केवल मिलेंगे ही, क्योंकि वे घर में न रहकर कुमार अवस्था में ही प्रबजित हो जायेंगे।' 'तुम पुत्र दो, उन्हें प्रव्रजित न होने देने की हमारी जिम्मेवारी है।' वृक्ष-देवता ने उसे वर दे अपने भवन में प्रवेश किया। उसके बाद से देवता का आदर-सत्कार बढ़ गया / ज्येष्ठ देव-पुत्र च्युत होकर पुरोहित की ब्राह्मणी की कोख में आया। नामकरण के दिन उसका नाम हस्तिपाल रखा गया और प्रव्रजित होने से रोके रखने के लिए उसे हाथीवानों को सौंपा गया। वह उनके पास पलने लगा। उसके पदचिह्नों पर आ पड़ने के समान दूसरा च्युत होकर रानी के गर्भ में आया। उसका भी जन्म ग्रहण करने पर अश्वपाल नाम रखा गया। वह साइसों के पास पलने लगा। तीसरे का नाम जन्म होने पर गो-पाल रखा गया। वह ग्वालों के साथ बढ़ने लगा। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन चौथे के पैदा होने पर अज-पाल नाम। वह बकरियाँ चराने वालों के साथ बढ़ने लगा। वे बड़े होने के साथ-साथ सौभाग्यशाली हुए। - उनके प्रवजित होने के डर से राज्य-सीमा से सभी प्रव्रजितों को निकाल दिया गया। सारे काशी-राष्ट्र में एक प्रवजित भी नहीं रह गया। वे कुमार कठोर स्वभाव के थे, जिस दिशा में जाते, उस दिशा में ले जाई जाने वाली भेंट लूट लेते / सोलह वर्ष की आयु होने पर हस्तिपाल के शरीर बल का ख्याल कर राजा और पुरोहित दोनों ने मिलकर सोचा-'कुमार बड़े हो गये। उनके राज्याभिषेक का समय हो गया। अब क्या करना चाहिए। फिर सोचा, अभिषिक्त होने पर और भी उद्दण्ड हो जायेंगे। उन्हें देखकर ये भी प्रवजित हो जायेंगे / इनके प्रवजित होने पर जनता उबल खड़ी होगी। अभी विचार कर लें। बाद में अभिषिक्त करेंगे।' यह सोच, दोनों ने ऋषि-वेष बनाया और भिक्षाटन करते हुए हस्तिपाल कुमार के निवास स्थान पर पहुंचे। कुमार उन्हें देखकर सन्तुष्ट हुआ, प्रसन्न हुआ। उसने पास आकर प्रणाम किया और तीन गाथायें कहीं चिरस्सं वस पस्साम ब्राह्मणं देवण्णिनं, महाजनं भारधरं पंकदंतं रजस्सिरं // 1 // चिरस्सं वत पस्साम इसिं धम्ममुणे रतं, कासायवत्थवसनं वाकचीरं पटिच्छदं // 2 // आसनं उदकं पज्जं पटिगण्हातु नो भवं, अग्घे भवन्तं पुच्छाम, अग्धं कुरुतु नो भवं // 3 // (1) मैं चिरकाल के बाद मलिन-दन्त, भस्मयुक्त, जटाधारी, भारवाही, देव-तुल्य ब्राह्मणों का दर्शन कर रहा हूँ। (2) मैं चिरकाल के बाद, धर्म-रत, काषाय-वर्ण, वल्कल चीरधारो ब्राह्मणों को देख रहा हूँ। (3) आप हमारा आसन, तथा पादोदक ग्रहण करें। हम आपसे यह पूज्य-वस्तु ग्रहण करने की प्रार्थना कर रहे हैं। आप यह पूज्य वस्तु प्रहण करें। इस प्रकार उसने उनसे एक-एक कर के बारी-बारी पूछा। तब पुरोहित बोला'तात, तू हमें क्या समझ कर ऐसा कह रहा है ?' 'हिमाललवासी ऋषिगण / ' Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमण 'तात, हम ऋषि नहीं हैं, यह राजा एसुकारी है और मैं तुम्हारा पिता पुरोहित / ' 'तो, तुमने ऋषि-भेष क्यों बनाया ?' 'तेरी परीक्षा लेने के लिए।' 'मेरी क्या परीक्षा लेते हो ?' 'यदि हमें देख कर प्रबजित न हो, तो हम राज्याभिषिक्त करने के लिए आए है।' 'तात ! मुझे राज्य नहीं चाहिए, मैं प्रव्रजित होऊँगा।' ___ तब उसके पिता ने 'तात हस्तिपाल, यह प्रव्रज्या का समय नहीं है', कह अपने आशय के अनुसार उसे उपदेश देते हुए चार गाथाएँ कहीं अधिच्च वेदे परियेस वित्तं, पुत्ते गेहे तात पति?पेत्वा गन्धे रसे पच्चनुभुत्व सब्बं * अरज्जं साधु, मुनि सो पसत्थो // 4 // 'वेदाध्ययन कर, धनार्जन कर, हे तात ! जो पुत्रों को राज्यादि पर स्थापित कर तथा सभी कामभोगों को भोगकर अरण्य में प्रविष्ट होता है, उसका ऐसा करना साधु है और उस मुनि की प्रशंसा होती है।' तब हस्तिपाल बोला-- वेदा न सच्चा न च वित्तलाभो न. पुत्तलाभेन जरं विहन्ति, गन्धे रसे मुच्चनं आहु सन्तो सकम्मुना होति फल्पपत्ति // 6 // 'न वेद सत्य हैं और न धन-लाभ सत्य है, और न पुत्र-लाभ से ही जरा का नाश होता है / सन्त पुरुषों का कहना है कि गन्ध-रस आदि काम-भोग मूर्छा हैं। अपने किए कर्म से ही फल की प्राप्ति होती है।' - कुमार का कथन सुनकर राजा बोला अद्धा हि सच्चं वचनं तवेतं सकम्मुना होति फलूपपत्ति जिण्णा च माता पितरो च तव यिमे पस्सेय्यं तं वस्स सतं अरोगं // 6 // 'निश्चय से तेरा यह कथन सत्य है कि स्वकर्म से ही फल की प्राप्ति होती है। तेरे * माता-पिता वृद्ध हो गए हैं। वे तुझे सौ वर्ष तक नीरोग देखें / ' Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन यह सुन कुमार ने 'देव ! आप यह क्या चाहते हैं ?' कह दो गाथाएँ कहीं यस्स अस्स सक्खी मरणेन राज जराय मेत्ती नरविरियसेट, यो चापि जज्जा स मरिस्सं कदाचि पस्सेय्युं तं वस्ससतं अरोगं // 7 // यथापि नावं पुरिसोदकन्हि एरेति चे नं उपनेति तीरं... एवम्पि व्याधी सततं जरा च . उपनेन्ति मच्चं वसं अन्तकस्स // 8 // 'राजन् ! जिसकी मृत्यु से मैत्रो हो, हे नरवीर्य श्रेष्ठ ! जिसका जरा के साथ सखाभाव हो और जो यह जानता हो कि मैं कभी नहीं मरूँगा उसी के सौ वर्ष तक नीरोग देखने की बात कही जा सकती है।' 'जिस प्रकार आदमो यदि नौका को पानी में चलाता है, तो वह उसे किनारे पर ले ही जाती है, उसी प्रकार जरा और व्याधि आदमी को मृत्यु के पास ले जाते हैं।' इस प्रकार प्राणियों के जीवन-संस्कार की तुच्छता प्रकट कर, 'महाराज, आप रहें, आपके साथ बातचीत करते ही करते व्याधि-जरा मरण मेरे समीप चले आ रहे हैं, अप्रमादी बन कह रहे हैं' कह, राजा तथा पिता को नमस्कार कर, अपने सेवकों को साथ ले, वाराणसी राज्य को त्यागकर प्रत्रजित होने के उद्देश्य से निकल पड़ा। यह प्रव्रज्या सुन्दर होगी सोच हस्तिपाल कुमार के साथ जनता निकल पड़ी। योजन भर का जुलूस हो गया। उसने उस जन-समूह के साथ गया तट पर पहुंच, गंगा के जल को देख, योगाभ्यास कर ध्यान लाभ किया और तब सोचने लगा-'यहाँ बहुत जनता एकत्र हो जाएगी। मेरे तीनों छोटे भाई, माता-पिता, राजा तथा देवी, सभी अनुयाइयों सहित प्रवजित हो जायेंगे, वाराणसी खाली हो जायगी, इनके आने तक मैं यहीं रहूँ।' वह जनता को उपदेश देता हुआ वहीं रहा। फिर एक दिन राजा और पुरोहित ने सोचा, 'हस्तिपाल कुमार तो राज्य छोड़ कर, लोगों को साथ ले, प्रवजित होने के उद्देश्य से जाकर गंगा-तट पर बैठ गया, हम अश्वपाल की परीक्षा कर उसे ही अभिषिक्त करेंगे।' वे ऋषि-वेष धारण कर उसके भी गृह-द्वार पर पहुंचे। उसने भी उन्हें देख, प्रसन्न हो, पास जाकर 'चिरस्सं व्रत' आदि गाथाएँ कह वैसा ही व्यवहार किया। उन्होंने उसे वैसा ही उत्तर दे अपने आने का कारण बताया। उसने पूछा-'मेरे भाई हस्तिपाल कुमार के रहते उससे पहले मैं ही कैसे श्वेत-छत्र का अधिकारी होता हूँ ?' उत्तर मिला—'तात ! तेरा भाई, 'मुझे राज्य की अपेक्षा नहीं, Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमणे 325 मैं प्रवजित होऊँगा' कह चला गया।' पूछा-'वह इस समय कहाँ है ?' 'गंगा-तट पर !' 'तात ! मेरे भाई ने जिसे थूक दिया, उसकी मुझे जरूरत नहीं है।' 'मूर्ख, तुच्छ-प्रज्ञ प्राणी ही इस क्लेश का त्याग नहीं कर सकते, किन्तु मैं त्याग करूँगा।' इतना कह, राजा तथा पुरोहित को उपदेश देते हुए उसने दो गाथाएँ कहीं पंको च कामा पलिपी च कामा मनोहरा दुत्तरा, मच्चुधेय्या, एतस्मिं पंके पलिपे व्यसज्जा हीनत्तरूपा न तरन्ति पारं // 9 // अयं पुरे लुइं अकासि कम्म स्वायं गहीतो, न हि मोक्ख इतो मे ओलंधिया नं परिरक्खिस्सा मि * मायं पुन लुई अकासि कम्मं // 10 // 'काम-भोग कीचड़ हैं, काम-भोग दलदल हैं, मनोहर हैं, दुस्तर हैं, मरण-मुख हैं / इस कीचड़ में, इस दलदल में फंसे हुए होनात्म लोग तैर कर पार नहीं हो सकते।' _ 'मैंने पूर्व जन्म में रौद्र-कर्म किया। उसका फल अब भोग रहा हूँ। उससे मोक्ष नहीं है। अब मैं वाणी और कर्मेन्द्रियों की रक्षा करूँगा, ताकि फिर मुझसे रौद्र-कर्म न हो।' ____ 'आप रहें, आपके साथ बात करते ही करते व्याधि, जरा, मरण आदि आ पहुंचते हैं' कह, उपदेश दे, योजन-भर जनता को साथ ले, निकल कर हस्तिपाल कुमार के पास पहुँचा। उसने आकाश में बैठ, उसे धर्मोपदेश देते हुए कहा-'भाई ! यहाँ बड़ा जनसमूह एकत्र होगा। अभी हम यहीं रहें।' दूसरे ने भी 'अच्छा' कह स्वीकार किया। ___फिर एक दिन राजा और पुरोहित उसी प्रकार गोपाल-कुमार के घर पहुंचे। उसके द्वारा भी उसी प्रकार स्वागत किए जाने पर उन्होंने अपने आने का कारण कहा। उसने भी अश्वपाल-कुमार की ही तरह अस्वीकार किया। बोला-'मैं चिरकाल से खोए बैल को ढूँढ़ने वाले की तरह प्रव्रज्या को ढूँढता फिर रहा हूँ। बैल के पद-चिह्नों की तरह मुझे वह मार्ग दिखाई दे गया है, जिस पर भाई चला है। अब मैं उसी मार्ग से चलँगा।' - इतना कह, यह गथा कही. गवं न नटुं पुरिसो यथा वने परियेसति राज अपस्समानो, एवं नट्ठो एसुकारी में अत्थो सो हं कथं न गवेसेय्य राज // 21 // 'हे राजन् ! जिस प्रकार वह आदमी जिसका बैल खो गया है और दिखाई नहीं Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . देता, वह जंगल में अपने बैल को खोजता है, उसी प्रकार हे एसुकारी ! मेरा जो प्रव्रज्या रूपी अर्थ नष्ट हो गया, उसे मैं आज कैसे न खोज।' ___वे बोले-'तात गोपाल, एक दो दिन प्रतीक्षा कर / हमारे आश्वस्त होने पर पीछे प्रवजित होना।' उसने, 'महाराज, यह नहीं कहना चाहिए कि आज करने योग्य कार्य कल करूंगा। शुभ-कर्म आज और आज ही करना चाहिए'-कह, शेष गाथाएं कहीं हिय्यो ति हिय्यो ति पोसो परेति (परिहायति ) अनागतं नेतं अस्थीति जत्वा उपन्नछन्दं को पनुदेय्य धीरो // 12 // जो पुरुष कल और परसों करता रहता है, उसका पतन होता है। यह जान कर कि भविष्य-काल है ही नहीं, कौन धीर-पुरुष किसी (कुशल) संकल्प को टालेगा। ___ इस प्रकार गोपाल-कुमार ने दो गाथाओं से धर्मोपदेश दिया। फिर 'आप रहें, आपके साथ बातचीत करते ही करते व्याधि, जरा, मरण आदि आ पहुचते हैं' कह, योजन-भर जनता को साथ ले, निकल कर, दोनों भाइयों के पास ही चला गया। हस्तिपाल ने उसे भी आकाश में बैठकर धर्मोपदेश दिया। __फिर अगले दिन राजा और पुरोहित उसी प्रकार अजपाल कुमार के घर पहुंचे। उसके भी उसी प्रकार आनन्द प्रकट करने पर उन्होंने अपने आने का कारण कह, छत्र धारण करने की बात कही। कुमार ने पूछा-'मेरे भाई कहाँ हैं ?' 'वे हमें राज्य की अपेक्षा नहीं है' कह, श्वेत-छत्र छोड़, तीन योजन अनुयाइयों को साथ ले, निकल, जाकर गङ्गा-तट पर बैठे हैं / ' 'मैं अपने भाइयों के थूक को, सिर पर लिए-लिए नहीं घूमंगा। मैं भी प्रवजित होऊँगा / 'तात ! तू अभी छोटा है।' हमारे हाय का सहारा है / आयु होने पर प्रवजित होना / ' कुमार ने उत्तर दिया-'आप क्या कहते हैं ? क्या ये प्राणी बचपन में भी और बूढ़े होने पर भी नहीं मरते हैं ? यह बचपन में मरेगा और यह बूढ़े होने पर मरेगा-इसका किसी के भी हाथ अथवा पाँव में कोई प्रमाण नहीं। मैं अपना मृत्यकाल नहीं जानता / इसलिए अभी प्रव्रजित होऊँगा।' इतना कह दो गाथायें कहीं' पस्सामि वोह दहरि कुमारिं मतूपमं केतकपुफ्फनेत्तं अभुत्व भोगे पठमे वयस्मिं आदाय मच्चु वजते कुमारिं // 13 // युवा सुजातो सुमुखो सुदस्सनो सामो कुसुम्भपदिकिण्णमस्त्र - हित्वान कामे पटिगच्छ गेहं अनुजान में, पब्वजिस्सामि देव // 14 // . Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 'मैं देखता हूँ कि हास-विलास-युक्त, मस्त, केतक पुष्प के समान विशाल नेत्रों वाली कुमारी को, जिसने काम भोगों को नहीं भोगा है, प्रथम-आयु में ही मृत्यु के कर चल देती है।' ___ 'उसी प्रकार कुलीन, सुन्दर, सुदर्शन, स्वर्ण-वर्ण, तरुण को जिसकी दाढ़ी केसर की तरह बिखरी है, लेकर चल देती है। इसलिए मैं काम-भोगों तथा घर को छोड़कर प्रव्रजित होना चाहता हूँ / आप मुझे अनुज्ञा दें।' इस प्रकार कह, 'और आप रहें, आपके साथ बातचीत करते ही करते व्याधि, जरा मरण आदि आ पहुंचते हैं' कह कर उसने दोनों को प्रणाम किया। फिर योजन भर जनता को अनुयाई बना, निकलकर, गंगा-तट पर ही जा पहुंचा। हस्तिपाल ने उसे भी आकाश में बैठकर धर्मोपदेश दिया। 'बड़ा जन-समूह एकत्र होगा' सुन वह भी वहीं बैंठ गया। फिर अगले दिन पालथी मारे बैठे पुरोहित ने सोचा-मेरे पुत्र प्रवजित हो गए अब मैं अकेला ही मनुष्य रूपी ,ठ हो कर रह गया हूँ। मैं भी प्रवजित होऊँगा। यह सोच उसने ब्राह्मणी के साथ विचार-विमर्श करते हुए यह गाथा कहो साखाहि रुखो लभते समजं पहीनसाखं पन खानुं आहु, पहीनपुत्तस्स ममज्ज होति वासेट्टि भिक्खाचरियाय कालो // 15 // . 'शाखा सहित होने से ही पेड़ को वृक्ष कहते हैं। शाखा-रहित पेड़ ठूठ कहलाता है। हे वासेट्ठि ! इस समय मैं पुत्र-विहीन हूँ। इसलिए यह मेरा प्रवजित होने का समय है।' यह कहकर उसने ब्राह्मणों को बुलबाया। साठ हजार ब्राह्मण इकट्ठे हो गए / उसने उन्हें पूछा- 'तुम क्या करोगे ?' 'और आचार्य तुम ?' 'मैं तो पुत्र के पास प्रव्रजित होऊंगा।' उससे अस्सी-करोड़ धन ब्राह्मणों को सौंपा, योजन-भर ब्राह्मण-जनता को साथ ले, निकलकर पुत्र के ही पास पहुँचा। हस्तिपाल ने उस जन-समूह को भी आकाश में खड़े होकर धर्मोपदेश दिया। ___ फिर अगले दिन ब्राह्मणी सोचने लगी-मेरे चारों पुत्र श्वेत-छत्र छोड़कर प्रबजित होने के लिए चले गए। ब्राह्मण भी पुरोहित-पद और अस्सी करोड़ धन छोड़कर पुत्रों के पास ही गया। मैं यहाँ क्या करूंगी। मैं भी पुत्रों का ही अनुगमन करूंगी। उसने पूर्वकालीन उदाहरण को लाते हुए उल्लास गाथा कही Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन अघस्मि कोञ्चा व यथा हिमच्चये तन्तानि जालानि पदालिय हंसा, गछन्ति पुत्ता च पती च मय्हं साह कथं नानुवजे पजानं // 16 // "जिस प्रकार आकाश में क्रोंच (पक्षी) जाते हैं अथवा जिस प्रकार हिमपात के समय हंस जाल को काटकर चले गए, उसी प्रकार मेरे पुत्र और पति मुझे छोड़ कर चले गए। अब मैं अपने पुत्रों का अनुकरण कैसे न करूँ ?' इस प्रकार उसने 'मैं ऐसी सोचती हुई भी, क्यों न प्रबजित होऊँ ?' सोच, निश्चय करके, ब्राह्मणियों को बुलवाया और पूछा-'तुम क्या करोगी?' 'और आर्ये ! तुम ?' 'में प्रबजित होऊंगी।' 'हम भी प्रबजित होंगी।' उसने वह वैभव छोड़ दिया और योजन-भर अनुयाइयों को साथ ले, पुत्रों के पास ही गई। हस्तिपाल ने उस परिषद् को भी, आकाश में बैठे धर्मोपदेश दिया। फिर अगले दिन राजा ने पूछा-'पुरोहित कहाँ है ?' 'देव ! पुरोहित और उसकी ब्राह्मणी, सारा धन छोड़, दो-तीन योजन अनुयाइयों को साथ ले, पुत्रों के पास ही चले गए।' 'जिसका स्वामी नहीं, ऐसा धन राजा का होता है।' ऐसा सोच राजा ने उसके घर से धन मंगवा लिया। तब राजा की पटरानी ने पूछा-'राजा क्या करता है ?' उत्तर मिला-'पुरोहित के घर से धन मँगवा रहा है।' तब प्रश्न किया--'पुरोहित कहाँ है?' उत्तर मिल'सपत्नीक प्रबज्या के लिए निकल पड़ा है।' यह बात सुनी, तो पटरानी ने सोचा- 'यह राजा ब्राह्मण, ब्राह्मणी तथा चार पुत्रों द्वारा परित्यक्त मल और थूक को, मोह से मूढ़ होने के कारण, अपने घर उठवा कर मंगवा रहा है। इसे उपमा द्वारा समझाऊँगी।' उसने कसाई-घर से मांस मंगवाया, राजांगन में ढेर लगवा दिया, और सीधा-रास्ता छोड़ जाल तनवा दिया। गीध दूर से ही देखकर मांस के लिए उतरे। उनमें जो बुद्धिमान थे, उन्होंने जाल फैला देख सोचा कि भारी हो जाने पर हम सीधे न उड़ सकेंगे। वे खाया हुआ मांस भी छोड़, जाल में न फंस, सीधे उड़कर ही चले गए। किन्तु जो अन्धे-मूर्ख थे, उन्होंने उनका परित्यक्त, वमित मांस खाया और भारी हो जाने के कारण सीधे न उठ सके / वे जाकर जाल में फंस गए। तब एक गीध लाकर रानी को दिखाया गया। उसने उसे लिया और राजा के समीप जाकर बोली, 'महाराज आयें, राजागंन में एक तमाशा देखें।' उसने झरोखा खोला और 'महाराज, इन गोधों को देखें, कह दो गाथाएँ कही- . Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण एते भुत्वा वमित्वा च पक्कमन्ति विहंगमा, ये च भुत्वा न वर्मिसु ते मे हत्थत्थं आगता // 17 // अवमी ब्राह्मणो कामे, ते त्वं पच्चावमिस्ससि, वन्तादो पुरिसो राज न सो होति पसंसियो // 18 // 'इनमें जो खाकर वमन कर दे रहे हैं, वे पक्षी उड़े जा रहे हैं, और जो खाकर वमन नहीं कर सकते, वे मेरे हाथ में आ फंसे / ' 'ब्राह्मण ने जिन काम-भोगों का तिरस्कार किया, उन्हें तू उपभोग करने जा रहा है / हे राजन् ! वमन किए हुए को खाने वाले की प्रशंसा नहीं होती।' __ यह सुन राजा को पश्चात्ताप हुआ। उसे तीनों भव जलते हुए प्रतीत हुए। उसने सोचा कि मुझे आज ही राज्य छोड़ कर प्रवजित हो जाना चाहिए। उसके मन में वैराग्य पैदा हो गया। तब उसने देवी की प्रशंसा करते हुए यह गाथा कही ___पंके व पोसं पलिपे व्यसन्नं बली यथा दुब्बलं उद्धरेय्य, एवं पि मं त्वं उदतारि भोति पञ्चालि गाथाहि सुभासिताहि // 19 // _ 'जैसे कोई बलवान आदमी कीचड़ अथवा दलदल में फंसे किसी दुर्बल मनुष्य का उद्धार कर दे, उसी प्रकार हे पञ्चाली ! तूने सुभाषित गाथाओं द्वारा मेरा उद्धार कर दिया है।' ___ यह कह और उसी क्षण प्रबजित होने की इच्छा से अपने अमात्यों को बुलाकर पूछा-'तुम क्या करोगे ?' 'और देव ! आप ?' 'मैं हस्तिपाल के समीप प्रवजित होऊँगा।' 'देव ! हम भी प्रव्रजित होंगे।' राजा ने बारह योजन के वाराणसी नगर का राज्य छोड़ दिया और घोषणा कर दी कि जिन्हें जरूरत हो वे श्वेत-छत्र धारण करें। वह तोन-योजन अनुयाइयों के साथ कुमार के ही पास पहुँचा। कुमार ने उसकी परिषद को भी आकाश में बैठ धर्मोपदेश दिया। शास्ता ने राजा के प्रवजित होने की बात को प्रकाशित करते हुए यह गाथा कही इदं वत्वा महाराज एसुकारी दिसम्पति / रटुं हित्वान पब्बजि नागो छेत्वा व बंधनं // 20 // 'यह कहकर दिशा-पति महाराज एसुकारी उसी प्रकार राष्ट्र छोड़कर प्रवजित हो गया, जैसे हाथी बन्धन को काट डालता है।' फिर एक दिन नगर में अवशिष्ट जनों ने इकट्ठे हो, राजद्वार पहुँच, देवी को सूचना 42 . Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन करा, राज-भवन में प्रवेश कर, देवी की वन्दना को और एक ओर खड़े हो यह गाथा कही राजा च पब्बज्जं आरोचयित्थ रटुं पहाय नरविरियसेट्ठो, तुवम्पि नो होहि यथेव राजा अम्हे हि गुत्ता अनुसास रज्जं // 21 // 'राजा को प्रव्रज्या अच्छी लगी। वह नरवीर्यश्रेष्ठ राज छोड़ कर चला गया। अब तुम हमारी वैसी ही 'राजा' बन जाओ। हमारे द्वारा सुरक्षित रह कर राज्यानुशासन करो।' उसने जनता का कहना सुन शेष गाथाएँ कहीं-- राजा च पब्बज्ज आरोचयित्थ रष्टुं पहाय नरविरियसेट्ठो अहं पि एका चरिस्सामि लोके हित्वान कामानि मनोरमानि // 22 // राजा च.......................... हित्वान कामानि यथोधिकानि // 23 // अच्चेन्ति काला तरयन्ति रत्तियो वयोगुणा अनुपब्बं जहन्ति, अहं पि एका चरिस्सामि लोके , हित्वान कामानि मनोरमानि // 24 // अच्चेन्तिः हित्वान कामानि ययोधिकानि // 25 // अच्चेन्ति............ सीतिभूता सब्बं अतिच्च संगं // 26 // 'राजा को प्रव्रज्या अच्छी लगो। वह नरवीर्यश्रेष्ठ राज्य छोड़कर चला गया। मैं भी मनोरम काम-भोगों को छोड़कर लोक में अकेली विचरूंगी / ' 'राजा को..... मैं भी नाना प्रकार के काम-भोगों को छोड़कर लोक में अकेली विचरूंगी।' ___ 'काल चला जाता है, रातें गुजर जाती हैं, आयु क्रमानुसार व्यतीत हो जाती है। मैं भी मनोरम काम-भोगों को छोड़ कर लोक में अकेली विचरूंगी।' . Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 'काल चला जाता है...। मैं भी नाना प्रकार के काम-भोगों को छोड़ कर लोक में अकेली विचरूंगी।' ___ 'काल चला जाता है... / मैं भी सारी आसक्तियों को छोड़ शान्त-चित्त हो लोक में अकेली विचरूंगी।' इस प्रकार उसने इन गाथाओं से जनता को धर्मोपदेश दे अमात्य-भार्याओं को बुलवा कर पूछा---'तुम क्या करोगी ?' 'और आर्ये तुम ?' 'मैं प्रवजित होऊँगी।' 'हम भी प्रव्रजित होंगी।' उसने 'अच्छा' कह राजभवन के स्वर्णागार आदि खुलवाये और फिर 'अमुक स्थान पर बड़ा खजाना गड़ा है' सोने की पाटी पर लिखवा कर घोषणा की कि यह दिया ही है (लेने वाले) ले जायें। फिर उस सोने की पट्टी को ऊँचे खम्भे में बंधवा कर नगर में मुनादी करवा, महान् सम्पत्ति छोड़, नगर से निकल पड़ी। उस समय सारे नगर में खलबली मच गई। लोग सोचने लगे.-'राजा और देवी राज्य छोड़ कर प्रव्रजित होने के लिए चले गए, अब हम क्या करें ?' तब लोग भरे-भराये घर छोड़, पुत्रों को हाथ में ले निकल पड़े। तमाम दुकान खुली की खुली रह गई। लौट कर कोई देखने वाला न था। सारा नगर खाली हो गया। देवी भी तीन-योजन अनुयाइयों को लेकर वहीं पहुँची। हस्तिपाल कुमार ने उसके अनुयाइयों को भी आकाश में बैठ धर्मोपदेश दिया / फिर बारह योजन अनुयाइयों को साथ ले हिमवन्त की ओर चल दिया। 'जब हस्तिपाल कुमार बारह योजन की वाराणसी को खाली करके, प्रवजित होने के लिए, जनता को लेकर हिमाचल चला जा रहा है, तो हमारी क्या गिनती है'-सोच सारे काशी राष्ट्र में खलबली मच गई। आगे चलकर तीस योजन अनुयायी हो गए। वह उन अनुयाइयों को ले हिमालय में प्रविष्ट हुआ / शक्र ने ध्यान लगाकर देखा तो उसे पता चला कि हस्तिपाल कुमार अभिनिष्क्रमण कर निकल पड़ा। उसने सोचा, बड़ी भीड़ होगी। निवासस्थान की व्यवस्था होनी चाहिए। शक्र ने विश्वकर्मा को बुलाकर आज्ञा दी—'जा छत्तीस योजन लम्बा और पन्द्रह योजन चौड़ा आश्रम बनाकर उसमें प्रव्रजितों की आवश्यकताएँ लाकर रख।' उसने 'अच्छा' कह स्वीकार किया और गङ्गा-तट पर रमणीय प्रदेश में उक्त लम्बाई-चौड़ाई का आश्रम बना दिया। फिर पर्णशालाओं में पीढे, आसन आदि बिछाकर प्रवजित की सभी आवश्यकताओं की व्यवस्था की। एक-एक पर्णशाला के द्वार पर एक-एक चंक्रमण-भूमि, रात्रि और दिन के लिए, चूना पुता सहारे का पटड़ा, उन-उन जगहों पर नाना प्रकार के सुगन्धित पुष्पों से लदे हुए पुष्प-वृक्ष, एक-एक चंक्रमण-भूमि के सिरे पर एक-एक पानी भरा कुंआ, उसके पास एक-एक फल-वृक्ष / वह (वृक्ष) अकेला ही सभी प्रकार के फल ला देता था। यह सब देव-प्रताप से हुआ। विश्वकर्मा ने आश्रम का निर्माण कर, Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययने / पर्णशालाओं में प्रवजितों की आवश्यकताएं दीवार पर अक्षर लिखे, जो कोई भी प्रवजित होना चाहे, इन प्रवजितों की आवश्यकताओं को ले ले।" फिर अपने प्रताप से भयानक शब्द, मृग, पक्षी, दुर्दर्शनीय अमनुष्यों को दूर करके अपने स्थान को ही चला गया। ___ हस्तिपाल कुमार ने डण्डी-डण्डी जाकर शक के दिए हुए आश्रम में प्रवेश किया और लिखे अक्षरों को देख, सोचा शक्र ने मेरे महान् अभिनिष्क्रमण की बात जान ली होगी। उसने द्वार खोल, पर्णशाला में प्रवेश किया और ऋषियों के ढंग की प्रव्रज्या के चिह्नों को लेकर निकल पड़ा। फिर चंक्रमण-भूमि में उतर, कई बार इधर- उधर जा, सारी जनता को प्रवजित कर, आश्रम का विचार किया। तब तरुण पुत्रों और स्त्रियों को बीच की जगह में पर्णशाला दी, उसके बाद बूढ़ी स्त्रियों को, उसके बाद बाँझ स्त्रियों को, और अन्त में चारों ओर घेर कर पुरुषों को स्थान दिया। तब एक राजा यह सुन कि वाराणसी में राजा नहीं है, आया। उसने सजे-सजाये नगर को देख, राज-भवन में चढ़, जहाँ-तहाँ रत्नों के ढेर देख सोचा, 'इस प्रकार के नगर को छोड़ प्रवजित होने के समय से यह प्रव्रज्या महान् होगी।' उसने एक पियक्कड़ से मार्ग पछा और हस्तिपाल के पास ही चला गया। हस्तिपाल को जब पता लगा कि वह वन के सिरे पर आ पहुँचा है, तो अगवानी कर, आकाश में बैठ धर्मोपदेश दे, आश्रम ला, सभी लोगों को प्रव्रजित किया। इसी प्रकार और भी छः राजा प्रव्रजित हुए / सात राजाओं ने सम्पत्ति छोड़ी। छत्तीस-योजन का प्राश्रम सारा का सारा भर गया। जो काम-वितर्क आदि वितर्कों में से किसी संकल्प को मन में जगह देता, महापुरुष उसे धर्मोपदेश दे ब्रह्म-विहार और योग-विधि बताते। उनमें से अधिकांश ध्यान तथा अभिञा प्राप्त कर तीन हिस्सों में से दो हिस्से ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए। फिर तीसरे हिस्से के तीन हिस्से करके, एक हिस्सा ब्रह्मलोक में पैदा हुआ, एक छः काम-लोगों में, एक ऋषियों की सेवा कर मनुष्य लोक में तीनों कुशल सम्पत्तियों में पैदा हुए। इस प्रकार हस्तिपाल के शासन में न कोई नरक में पैदा हुआ, न कोई पशु होकर पैदा हुआ, न कोई प्रेत होकर पैदा हुआ और न कोई असुर होकर पैदा हुआ। महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय 175 अतिक्रामति कालेऽस्मिन्, सर्वभूतक्षयावहे। किं श्रेयः प्रतिपद्यत, तन्मे बू हि पितामह // 1 // राजा युधिष्ठिर ने पूछा-'पितामह ! समस्त भूतों का संहार करनेवाला यह काल बराबर बीता जा रहा है, ऐसी अवस्था में मनुष्य क्या करने से कल्याण का भागी हो सकता है ? यह मुझे बताइए।' Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संण्ड 2, प्रकरणे : 1 कथानक संक्रमण 333 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / 'पितुः पुत्रेण संवादं तं निबोध युधिष्ठिर ! // 2 // भीष्मजी ने कहा-'युधिष्ठिर ! इस विषय में ज्ञानी पुरुष पिता और पुत्र के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। तुम उस संवाद को ध्यान देकर सुनो।' द्विजातेः कस्यचित् पार्थ !, स्वाध्यायनिरतस्य वै। बभूव पुत्रो मेघावी, मेधावी नाम नामतः // 3 // कुन्तीकुमार ! प्राचीन काल में एक ब्राह्मण थे, जो सदा वेदशास्त्रों के स्वाध्याय में तत्पर रहते थे। उनके एक पुत्र हुआ, जो गुण से तो मेधावी था ही नाम से भी मेधावी था। सोऽब्रवीत् पितरं पुत्रः, स्वाध्यायकरणे रतम् / मोक्षधर्मार्थकुशलो, लोकतत्त्वविचक्षणः // 4 // __ वह मोक्ष, धर्म और अर्थ में कुशल तथा लोकतत्त्व का अच्छा ज्ञाता था। एक दिन उस पुत्र ने अपने स्वाध्याय -परायण पिता से कहा--- धीरः किंस्वित् तात कुर्यात् प्रजानां, क्षिप्रं ह्यायुधं श्यते मानवानाम् / पितस्तदाचक्ष्व यथार्थयोगं, ममानुपूळ येन धर्म चरेयम् // 5 // पुत्र बोला--'पिताजी ! मनुष्यों की आयु तीव्र गति से बीती जा रही है। यह जानते हुए धीर पुरुष को क्या करना चाहिए ? तात ! आप मूझे यथार्थ उपाय का उपदेश कीजिए, जिसके अनुसार मैं धर्म का आचरण कर सकूँ।' . - वेदानधीत्य ब्रह्मचर्येण पुत्र, पुत्रानिच्छेत् पावनार्थ पितृणाम् / अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो, वनं प्रविश्याथ मुनिबुभूषेत् // 6 // पिता ने कहा- 'बेटा ! द्विज को चाहिए कि वह पहले ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करे, फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके पितरों की सद्गति के लिए पुत्र पैदा करने की इच्छा करे। विधिपूर्वक विविध अग्नियों की स्थापना करके यज्ञों का अनुष्ठान करे। तत्पश्चात् वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश करे। उसके बाद मौनभाव से रहते हुए संन्यासी होने की इच्छा करे / ' एवमभ्याहते लोके समन्तात् परिवारिते। अमोघासु पतन्तीषु किं धीर इव भाषसे // 7 // पुत्र ने कहा-'पिताजी! यह लोक जब इस प्रकार से मृत्यु द्वारा मारा जा रहा है, जरा अवस्था द्वारा चारों ओर से घेर लिया गया है, दिन और रात सफलतापूर्वक Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन आयु-क्षय रूप काम कर बीत रहे हैं, ऐसी दशा में भी आप धीर की भाँति कैसी बात कर रहे हैं।' कथमभ्याहतो लोकः, केन वा परिवारितः / अमोघाः काः पतन्तीह, किं नु भीषयसीव माम् // 8 // पिता ने पूछा- 'बेटा ! तुम मुझे भयभीत-सा क्यों कर रहे हो ? बताओ तो सही, यह लोक किससे मारा जा रहा है, किसने इसे घेर रखा है, और यहाँ कौन-से ऐसे व्यक्ति हैं जो सफलतापूर्वक अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं।' मृत्युनाभ्याहतो लोको, जरया परिवारितः। अहोरात्राः पतन्त्येते, ननु कस्मान्न बुध्यसे // 9 // पुत्र ने कहा-'पिताजी ! देखिए, यह सम्पूर्ण जगत् मृत्यु के द्वारा मारा जा रहा है। बुढ़ापे ने इसे चारों ओर से घेर लिया है और ये दिन-रात ही वे व्यक्ति हैं जो सफलतापूर्वक प्राणियों की आयु का अपहरणस्वरूप अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं, इस बात को आप समझते क्यों नहीं हैं ? अमोघा रात्रयश्चापि नित्यमायान्ति यान्ति च / यदाहमेतज्जानामि न मृत्युस्तिप्ठतीति ह।. सोऽहं कथं प्रतीक्षिप्ये जालेनापिहितश्चरन् // 10 // 'ये अमोघ रात्रियाँ नित्य आती हैं और चली जाती हैं। जब मैं इस बात को जानता हूँ कि मृत्यु क्षणभर के लिए भी रुक नहीं सकती और मैं उसके जाल में फंसकर ही विचर रहा हूँ, तब मैं थोड़ी देर भी प्रतीक्षा कैसे कर सकता हूँ ? राव्यां राव्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं यदा। गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा // 11 // 'जब एक-एक रात बीतने के साथ ही आयु बहुत कम होती चली जा रही है, तब छिछले जल में रहनेवाली मछली के समान कौन सुख पा सकता है ? तदैव वन्ध्यं दिवसमिति विद्याद् विचक्षणः / अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम् // 12 // _ 'जिस रात के बीतने पर मनुष्य कोई शुभ कर्म न करे, उस दिन को विद्वान् पुरुष व्यर्थ ही गया समझे। मनुष्य की कामना पूरी भी नहीं होने पातीं कि मौत उसके पास आ पहुँचती है। शपाणीव विचिन्वन्तमन्यत्रगतमानसम् / वृकीवोरणमासाद्य मृत्युरादाय गच्छति // 13 // 'जैसे घास चरते हुए भेड़ों के पास अचानक व्याघ्री पहुँच जाती है और उसे दबोचकर Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 335 चल देती है, उसी प्रकार मनुष्य का मन जब दूसरी ओर लगा होता है, उसी समय सहसा मृत्यु आ जाती है और उसे लेकर चल देती है / अद्यैव कुरु यच्छ यो, मा त्वां कालोऽत्यगादयम् / अकृतेष्वेव कार्येषु, मृत्युः सम्प्रकषति // 14 // 'इसलिए जो कल्याणकारी कार्य हो, उसे आज ही कर डालिए। आपका यह समय हाथसे निकल न जाय, क्योंकि सारे काम अधूरे ही पड़े रह जायेंगे और मौत आपको खींच ले जाएगी। श्वः कार्यमद्य कुर्वीत, पूर्वाह्न चापराह्निकम् / नहि प्रतीक्षते मृत्युः, कृतमस्य न वा कृतम् // 15 // 'कल किया जाने वाला काम आज ही पूरा कर लेना चाहिए। जिसे सायंकाल में करना है, उसे प्रातःकाल में ही कर लेना चाहिए ; क्योंकि मौत यह नहीं देखती कि इसका काम अभी पूरा हुआ या नहीं। को हि जानाति कस्याद्य, मृत्युकालो भविष्यति / अबुद्ध एवाक्रमते, मीनान् मीनग्रहो यथा // 'कौन जानता है कि किसका मृत्युकाल आज ही उपस्थित होगा ? सम्पूर्ण जगत् पर प्रभुत्व रखनेवाली मृत्यु जब किसीको हरकर ले जाना चाहती है तो उसे पहले से निमंत्रण नहीं भेजती है। जैसे मछुए चुपके से आकर मछलियों को पकड़ लेते हैं, उसी प्रकार मृत्यु भी अज्ञात रहकर ही आक्रमण करती है। युवैव धर्मशीलः स्यादनित्यं खलु जीवितम् / कृते. धर्मे भवेत् कीर्तिरिह प्रेत्य च वै सुखम् // 16 // 'अतः युवावस्था में ही सबको धर्मका आचरण करना चाहिए, क्योंकि जीवन निःसन्देह अनित्य है। धर्माचरण करने से इस लोक में कीर्ति का विस्तार होता है और परलोक में भी उसे सुख मिलता है। मोहेन हि समाविष्टः, पुत्रदारार्थमुद्यतः / कृत्वा कार्यमकार्य वा, पुष्टिंमेषां प्रयच्छति // 17 // 'जो मनुष्य मोह में डूबा हुआ है, वही पुत्र और स्त्री के लिए उद्योग करने लगता है और करने तथा न करने योग्य काम करके इन सबका पालन-पोषण करता है। तं पुत्रपशुसम्पन्नं, व्यासक्तमनसं नरम् / सुप्तं व्याघ्रो मृगमिव, मृत्युरादाय गच्छति // 18 // Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . _ 'जैसे सोए हुए मृग को बाघ उठा ले जाता है, उसी प्रकार पुत्र और पशुओं से सम्पन्न एवं उन्हीं में मन को फंसाए रखने वाले मनुष्य को एक दिन मृत्यु आकर उठा ले जाती है। संचिन्वानकमेवैनं, कामानामवितृप्तकम् / व्याघ्रः पशु मिवादाय, मृत्युरादाय गच्छति // 19 // 'जब तक मनुष्य भोगों से तृत नहीं होता, संग्रह ही करता रहता है, तभी तक ही उसे मौत आकर ले जाती है / ठीक वैसे ही, जैसे व्याघ्र किसी पशु को ले जाता है। . इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत् कृताकृतम् / एवमोहासुखासक्तं कृतान्तः कुरुते वशे // 20 // 'मनुष्य सोचता है कि यह काम पूरा हो गया, यह अभी करना है और यह अधूरा ही पड़ा है, इस प्रकार चेष्टाजनित सुखमें आसक्त हुए मानव को काल अपने वश में कर लेता है। कृतानां फलमप्राप्तं, कर्मणां कर्मसंज्ञितम् / शेत्रापणगृहासक्त, मत्युरादाय गच्छति // 21 // 'मनुष्य अपने खेत, दूकान और घर में ही फँसा रहता है, उसके किए हुए उन कर्मों का फल मिलने भी नहीं पाता, उसके पहले ही उस कर्मासक्त मनुष्य को मृत्यु उठा ले जाती है। दुबलं बलवन्तं च, शूरं भोरं जडं कविम् / अप्राप्तं सर्वकामार्थान्, मृत्युरादाय गच्छति // 22 // 'कोई दुर्बल हो या बलवान्, शुरवीर हो या डरपोक तथा मूर्ख हो या विद्वान्, मृत्यु उसको समस्त कामनाओं के पूर्ण होने से पहले ही उसे उठा ले जाती है / मृत्युर्जरा च व्याधिश्च, दुःखं चानेककारणम् / अनुषक्तं यदा देहे, किं स्वस्थ इव तिष्ठसि // 23 // 'पिताजी ! जब इस शरीर में मृत्यु, जरा, व्याधि और अनेक कारणों से होने वाले दुःखों का आक्रमण होता ही रहता है, तब आप स्वस्य-से होकर क्यों बैठे हैं ? जातमेवान्तकोऽन्ताय, जरा चान्वेति देहिनम् / अनुषक्ता द्वयेनैते, भावाः स्थावरजङ्गमाः // 24 // 'देहधारी जीव के जन्म लेते ही अन्त करने के लिए मौत और बुढ़ापा उसके पीछे लग जाते हैं / ये समस्त चराचर प्राणो इन दोनों से बंधे हुए हैं। . Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 337 मृत्योर्वा मुखमेतद् वे, या ग्रामे वसतो रतिः / देवानामेष वै गोष्ठो, यदरण्य मिति श्रुतिः // 25 // 'ग्राम या नगर में रह कर जो स्त्री-पुत्र आदि में आसक्ति बढ़ायी जाती है, यह मृत्यु का मुख ही है और जो वन का आश्रय लेता है, यह इन्द्रियरूपी गौओं को बाँधने के लिए गोशाला के समान है, यह श्रुति का कथन है / निबन्धनी रज्जुरेषा, या ग्रामे वसतो रतिः / छित्त्वैतां सुकृतो यान्ति, नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः // 26 // 'ग्राम में रहने पर वहाँ के स्त्री-पुत्र आदि विषयों में जो आसक्ति होती है, यह जीव को बाँधने वाली रस्सी के समान है। पुण्यात्मा पुरुष ही इसे काट कर निकल पाते हैं / पापी पुरुष इसे नहीं काट पाते। न हिंसयति यो जन्तून्, मनोवाक्कायहेतुभिः / जीवितार्थापनयनैः, प्राणिभि ने स हिंस्यते // 27 // 'जो मनुष्य मन, वाणी और शरीररूपी साधनों द्वारा प्राणियों की हिंसा नहीं करता, उसकी भी जीवन और अर्थ का नाश करने वाले हिंसक प्राणी हिंसा नहीं करते हैं। नं मृत्युसेनामायान्ती, जातु कश्चित् प्रबाधते / ऋते सत्यमसत् त्याज्यं, सत्ये ह्यमतमाश्रितम् // 28 // 'सत्य के बिना कोई भी मनुष्य सामने आते हुए मृत्यु की सेना का कभी सामना नहीं कर सकता ; इसलिए असत्य को त्याग देना चाहिए ; क्योंकि अमृतत्व सत्य में ही स्थित है। तस्मात् सत्यव्रताचारः, सत्ययोगपरायणः / सत्यागमः सदा दान्तः, सत्येनैवान्तकं जयेत् // 29 // 'अत: मनुष्य को सत्यव्रत का आचरण करना चाहिए। सत्य-योग में तत्पर रहना और शास्त्र की बातों को सत्य मान कर श्रद्धापूर्वक सदा मन और इन्द्रियों का संयम करना चाहिए / इस प्रकार सत्य के द्वारा ही मनुष्य मृत्यु पर विजय पा सकता है / अमतं चैव मृत्युश्च, द्वयं देहे प्रतिष्ठितम् / मृत्युमापद्यते मोहात्, सत्येनापद्यतेऽमृतम् // 30 // 'अमृत और मृत्यु दोनों इस शरीर में ही स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। सोऽहं ह्यहिंस्रः सत्यार्थी, कामक्रोधबहिष्कृतः / समदुःखसुखः शेमी, मृत्युं हास्याम्यमर्त्यवत् // 31 // Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ 'अतः अब मैं हिंसा से दूर रह कर सत्य की खोज करूँगा, काम और क्रोध को . हृदय से निकाल कर दु:ख और सुख में समान भाव रखूगा तथा सबके लिए कल्याणकारी बन कर देवताओं के समान मृत्यु के भय से मुक्त हो जाऊँगा / शान्तियज्ञरतो वान्तो, ब्रह्मयज्ञे स्थितो मुनिः / वाङ्मनःकर्मयज्ञश्च, भविष्याम्युदगायने // 32 // 'मैं निवृत्ति-परायण हो कर शान्तिमय यज्ञ में तत्पर रहूँगा, मन और इन्द्रियों को बस में रख कर ब्रह्मयज्ञ (वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय) में लग जाऊँगा और मुनिवृत्ति से रहूँगा। उत्तरायण के मार्ग से जाने के लिए मैं जप और स्वाध्यायरूप वाग्यज्ञ, ध्यानरूप मनोयज्ञ और अग्निहोत्र एवं गुरुशुश्रूषादिरूप कर्मयज्ञ का अनुष्ठान करूँगा। पशुयज्ञैः कथं हिंस्रर्मादृशो यष्टुमर्हति / अन्तवद्भिरिव प्राज्ञः, क्षेत्रयज्ञैः पिशाचवत् // 33 // 'मेरे-जैसा विद्वान् पुरुष नश्वर फल देने वाले हिंसायुक्त पशुयज्ञ और पिशाचों के समान अपने शरीर के ही रक्त-मांस द्वारा किए जाने वाले तामस यज्ञों का अनुष्ठान कैसे कर सकता है ? यस्य वाङ्मनसी स्यातां, सम्यक् प्रणिहिते सदा / तपस्त्यागश्च सत्यं च, स वै सर्वमवाप्नुयात् // 34 // 'जिसकी वाणी और मन दोनों सदा भली-भाँति एकाग्र रहते हैं तथा जो त्याग, तपस्या और सत्य से सम्पन्न होता है, वह निश्चय ही सब कुछ प्राप्त कर सकता है / नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः / नास्ति रागसमं दुःखं, नास्ति त्यागसमं सुखम् // 35 // संसार में विद्या (ज्ञान) के समान कोई नेत्र नहीं है, सत्य के समान कोई तप नहीं है, राग के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। आत्मन्येवात्मना जात, आत्मनिष्ठोऽप्रजोऽपि वा। आत्मन्येव भविष्यामि, न मां तारयति प्रजा // 36 // 'मैं संतान-रहित होने पर भी परमात्मा में हो परमात्मा द्वारा उत्पन्न हुआ हूँ, परमात्मा में ही स्थित हूँ। आगे भी आत्मा में ही लीन हो जाऊंगा। संतान मुझे पार नहीं उतारेगी। नैतादृशं ब्राह्मणस्याति वित्तं, यथैकता समता सत्यता च / शीलंस्थितिर्दण्ड निधानमार्जवं, ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः // 37 // Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमणे 336 'परमात्मा के साथ एकता तथा समता, सत्यभाषण, सदाचार, ब्रह्मनिष्ठा, दण्ड का परित्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकार के सकाम कर्मों से उपरति—इनके समान ब्राह्मण के लिए दूसरा कोई धन नहीं है। किं ते धनैर्बान्धवैर्वापि कि ते, किं ते दारैर्ब्राह्मण यो मरिप्यसि / आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं, पितामहास्ते क्व गताः पिता च // 38 // 'ब्राह्मणदेव पिताजी ! जब आप एक दिन मर ही जायेंगे तो आपको इस धन से क्या लेना है अथवा भाई-बन्धओं से आपका क्या काम है तथा स्त्री आदि से आपका कौनसा प्रयोजन सिद्ध होने वाला है ? आप अपने हृदयरूपी गुफा में स्थित हुए परमात्मा को खोजिए / सोचिए तो सही, आपके पिता और पितामह कहाँ चले गए !' पुत्रस्यैतद् वचः श्रुत्वा यथाकार्षीत् पिता नृप। तथा त्वमपि वर्तस्व सत्यधर्मपरायणः // 39 // भीष्मजी कहते हैं-'नरेश्वर ! पुत्र का यह वचन सुन कर पिता ने जैसे सत्य-धर्म का अनुष्ठान किया था, उसी प्रकार तुम भी सत्य-धर्म में तत्पर रह कर यथायोग्य बर्ताव करो।' जैन-कथावस्तु का संक्षिप्त सार जन-कथावस्तु तथा बौद्ध-कथावस्तु में बहुत साम्य है। सारी कथावस्तु एक ही धुरी पर घूमती-सी प्रतीत होती है। जो कुछ अन्तर है, वह बहुत ही सामान्य है। जन-कथावस्तु के छह पात्र हैं (1) महाराज इषुकार (2) महारानी कमलावती (3) पुरोहित भृगु (4) पुरोहित की पत्नी यशा (5,6) पुरोहित के दो पुत्र पुरोहित के दोनों पुत्र दीक्षा के लिए प्रस्तुत होते हैं। माता-पिता उन्हें ब्राह्मणपरम्परा के अनुसार गार्हस्थ्य-धर्म के अनुशीलन का उपदेश देते हैं और पुत्र संसार की असारता को दिखाते हुए एक दिन प्रवजित हो जाते हैं। माता-पिता भी उनके साथ दीक्षित हो जाते हैं। पुरोहित का कोई उत्तराधिकारी नहीं होने से राजा का मन उसकी धन-सम्पत्ति लेने के लिए ललचा जाता है। रानी उस परित्यक्त धन को वमन से उपमित करती है। राजा का मन विरक्ति से भर जाता है। राजा-रानी दोनों प्रवजित हो जाते हैं। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन बौद्ध-कथावस्तु का संक्षिप्त सार बौद्ध-कथावस्तु के आठ पात्र हैं (1) राजा एसुकारी (2) पटरानी (3) पुरोहित (4) पुरोहित की पत्नी (5) पुत्र हस्तिपाल (6) दूसरा पुत्र अश्वशाल (7) तीसरा पुत्र गोपाल (8) चौथा पुत्र अजपाल न्यग्रोध-वृक्ष के देवता के वरदान से पुरोहित के चार पुत्र उत्पन्न होते हैं। चारो प्रत्रजित होने के लिए प्रस्तुत होते हैं। पिता उनकी परीक्षा करता है। पिता और पुत्रों में संवाद होता है। चारों बारी-बारी से पिता के समक्ष जीवन की नश्वरता, संसार की असारता, मृत्यु की अविकलता और काम-भोगों की मोहकता का प्रतिपादन करते हैं / चारों दीक्षित हो जाते हैं। पुरोहित भी प्रव्रजित हो जाता है। अगले दिन ब्राह्मणी भी प्रवज्या ले लेती है / राजा-रानी भी प्रवजित हो जाते हैं। एक विश्लेषण उत्तराध्ययन की भूमिका में सरपेन्टियर ने लिखा है कि 'यह.कथानक जातक के गद्य भाग से आश्चर्यकारी समानता प्रस्तुत करता है और वस्तुतः यह प्राचीन होना चाहिए। डॉ० घाटगे ने जैन-कथावस्तु को व्यवस्थित, स्वाभाविक और यथार्थ बताया है / उनकी मान्यता है कि जन-कथावस्तु जातक से प्राचीन है। उन्होंने जैन-कथावस्तु की जातक से तुलना करते हुए लिखा है-"जातक में संगृहीत कथावस्तु पूर्ण है और पुरोहित के चारों पुत्रों के जन्म का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करती है। यह वर्णन जैन-कथावस्तु में नहीं है। / 1. The Uttaradhyayana Sutra, Page 332, Foot note No. 2; This legend certainly presents a rather striking resemblance to the prose introduction of the Jataka 509, and must consequently be old. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 341 ___"दूसरा अन्तर पुत्रों की संख्या सम्बन्धी है। जातक में पुरोहित के चार पुत्रों का उल्लेख है और उत्तराध्ययन में केवल दो का / ...जैन-कथावस्तु के अनुसार पुरोहित और राजा के बीच कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता, किन्तु जातक से यह ज्ञात होता है कि पुरोहित चारों पुत्रों की परीक्षा करने के लिए राजा का परामर्श लेता है और (पुरोहित और राजा) दोनों मिल कर दीक्षा ग्रहण सम्बन्धी पुत्रों की इच्छा की परीक्षा करते हैं / जैन-कथावस्तु के अनुसार यह ज्ञात होता है कि जब पुरोहित का सारा कुटुम्ब दीक्षित हो जाता है, तब राजा धर्मशास्त्र के अनुसार उसकी सम्पत्ति पर अधिकार कर लेता है / इसका असर रानी के मन पर पड़ता है और वह साध्वी बनने के लिए प्रस्तुत होती है / राजा को भी दीक्षित होने के लिए प्रेरित करती है। जैन-कथानक का यह तथ्य अधिक स्वाभाविक और यथार्थ है। जातक में ऐसा नहीं है। इसी प्रकार जातक के कथानक में वणित चार पुत्रों का समान चरित्र, पुरोहित को न्यग्नोध वृक्ष-देवता द्वारा चार पुत्रों का वरदान प्राप्त होना, राजा को एक भी पुत्र की प्राप्ति न होना ; जब कि उसे पुत्र-लाभ की अत्यन्त आवश्यकता थी तथा राजा और पुरोहित का सम्बन्ध आदि-आदि तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन-कथावस्तु प्राचीन ही नहीं, किन्तु बहुत सुरक्षित और व्यवस्थित तथा रोचक है।" महाभारत के दो अध्यायों ( शान्तिपर्व, अ० 175 तथा 277 ) में ऐसा वर्णन है, जिससे इस कथावस्तु के अन्तर्गत आए हुए पिता-पुत्र के संवाद की तुलना की जा सकती है। दोनों अध्यायों का प्रतिपाद्य एक है, नामों का भी अन्तर नहीं है। दोनों प्रकरणों (अध्याय 175 तथा 277) में महाराज युधिष्ठिर भीष्म पितामह से कल्याण का मार्ग पूछते हैं और उत्तर देते हुए भीष्म एक ब्राह्मण तथा उसके पुत्र 'मेधावी' के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। पहले प्रकरण में 36 (अथवा दक्षिणात्य के अनुसार 406) श्लोक हैं और दूसरे प्रकरण में 36 श्लोक हैं / दोनों प्रकरणों के श्लोक प्रायः समान हैं, कहीं-कहीं केवल शब्दों का अन्तर है। . उत्तराध्ययन के इस अध्ययन में 53 श्लोक हैं। उनके साथ इन अध्यायों का बहुत साम्य है। पद्यों का अर्थ-साम्य और शब्द-साम्य वस्तुतः विस्मय में डाल देता है। जैन और बौद्ध-कथावस्तु में पिता और पुत्र के साथ-साथ राजा और रानी का भी पूरा प्रसंग आता है और वे सब अन्त में प्रवजित हो जाते हैं। महाभारत के इस संवाद में केवल 2-Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. 17 (1935-1936), 'A few parallels in Jain and Buddhist works', page 343, 344. २-देखिए-महाभारत, शान्तिपर्व (पृष्ठ 4871-4874 तथा 5138-5141) / Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 / उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पिता-पुत्र का ही मुख्य प्रसंग है और अन्त में पुत्र के उपदेश से पिता सत्य-धर्म के अनुष्ठान में उद्यत हो जाता है। ___ महाभारत के इन अध्यायों के सूक्ष्म अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि पिता ब्राह्मणधर्म की बात पुत्र को समझाता है और उसे वेद का अध्ययन करने, गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने, पितरों की सद्गति के लिए पुत्र पैदा करने तथा यज्ञों का अनुष्ठान करने के लिए प्रेरित करता है और तदनन्तर वानप्रस्थ-आश्रम को स्वीकार करने की बात कहता है / किन्तु पुत्र इन सबका निरसन करता है। निरसन-काल में वह जो तथ्य प्रस्तुत करता है, वे श्रमण-परम्परा सम्मत प्रतीत होते हैं / वह कहता है (1) संन्यास के लिए काल की कोई इयत्ता नहीं होनी चाहिए। (2) मध्यम वय में धर्माचरण करना चाहिए। . (3) किए हुए कर्मों का भोग अवश्यम्भावी है। (4) यज्ञ अकरणीय हैं। (5) हिंसायुक्त पशु-यज्ञ तामस यज्ञ हैं। (6) त्याग, तपस्या और सत्य ही शान्ति के मार्ग हैं। (7) त्याग के समान कोई सुख नहीं है। (8) सन्तान पार नहीं उतार सकती। (9) धन और बन्धु त्राण नहीं हैं। (10) आत्मा का अन्वेषण करो। महाभारत के इन अध्यायों के श्लोक तथा जातक के कुछेक श्लोक उत्तराध्ययन के श्लोकों से बहुत समानता रखते हैंउत्तराध्ययन महाभारत हस्तिपाल जातक अध्ययन 14 शान्ति० अ० 175 सं० 506 जाईजरामच्चुभयाभिभूया बहिविहाराभिनिविद्वचित्ता। संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा वळूण ते कामगुणे विरत्ता // 4 // अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे पुत्ते पडिटप्प गिहंसि जाया ! / भोच्चाण भोए सह इस्थियाहिं आरणगा होह मुणी पसत्था // 9 // 1 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 343 5 खण्ड : 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण वेया अहीया न भवन्ति ताणं मुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं / जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं को णाम ते अणुमन्नेज्ज एयं // 12 // 71,18,25,26,36 खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा / संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणस्थाण उ कामभोगा // 13 // इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं / तं एवमेवं लालप्पमाणं हरा हरंति ति कहं पमाए ? // 15 // 20,21,22 धणं पभूयं सह इत्थियाहिं सयणा तहा कामगुणा पगामा। तवं कए तप्पइ जस्स लोगो तं सव्व साहीण मिहेव तुम्भं // 16 // धणेण किं धम्मधुराहिगारे सयणेण वा कामगुणेहि चेव / समणा भविस्सामु गुणोहधारी बहिविहारा अभिगम्म भिक्खं // 17 // 37,38 जहा वयं धम्ममजाणमाणा पावं पुरा कम्ममकासि मोहा / ओरुज्झमाणा परिरक्खियन्ता तं नेव मुज्जो वि समायरामो // 20 // 'अन्माहयंमि ... लोगंमि सम्वओ परिवारिए। अमोहाहिं पडन्तीहिं गिहंसि न रइं लभे // 21 // केण अन्माहओ लोगो? केण वा परिवारिओ ? / का वा अमोहा वुत्ता ? जाया ! चिंतावरो हुमि // 22 // 8 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन मच्चुणाऽभाहओ लोगो जराए परिवारिओ। अमोहा रयणी वुत्ता एवं ताय ! वियाणह // 23 // जा जा वच्चइ रयणी न सा . पडिनियत्तई। अहम्मं - कुणमाणस्स अफला जन्ति राइओ // 24 // जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई / धम्मं च कुणमाणस्स सफला जन्ति राइओ // 25 // 10,11,12 जस्सत्यि मच्चुणा सक्खं जस्स वत्थि पलायणं / जो जाणे न मरिस्सामि सो हु कंखे सुए सिया // 27 // अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो जहिं पवन्ना न पुणब्भवामो। अणागयं नेव य अत्थि किंचि सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं // 28 // .. 15 पुरोहियं तं ससुयं सदारं सोच्चाऽभिनिक्खम्म पहाय भोए। कुडुम्बसारं विउलुत्तमं तं रायं अभिक्खं समुवाय देवी // 37 // 36 वन्तासी पुरिसो रायं ! न सो होइ पसंसिओ। माहणेण परिच्चत्तं धणं आदाउमिच्छसि // 38 // नागो व्व बन्धणं छित्ता अप्पणो वसहिं वए। एवं पत्थं महारायं ! उसुयारि ति मे सुयं // 48 // Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण उत्तराध्ययन के 44, 45 वें श्लोक की ओर संकेत करते हुए सरपेन्टियर ने बताया है कि इन श्लोकों का प्रतिपाद्य जातक के 18 वें श्लोक में प्रतिपादित कथा से ही जाना जा सकता है / वह कथा है___ "पुरोहित का सारा कुटुम्ब प्रत्रजित हो गया। राजा ने यह सुन उसका सारा धन मंगवा लिया। रानी को यह पता लगा। उसने राजा को समझाने के लिए एक उपाय सोचा। उसने कसाई-घर से मांस मंगवाया और उसे राज्याङ्गग में बिखेर दिया। सीधे रास्ते को छोड़, उसके चारों ओर जाल तनवा दिया। मांस को देख कर गीध आए। भर पेट मांस खाए। उनमें जो बुद्धिमान् थे, उन्होंने जाल फैला हुआ देख कर सोचा कि मांस खा कर हम भारी हो चुके हैं। अब हम सीधे नहीं उड़ सकेंगे। उन्होंने खाये हुआ मांस का वमन किया और हल्के हो सीधे उड़ कर चले गए। जाल में नहीं फंसे / किन्तु जो विचारहीन गीध थे, उन्होंने बुद्धिमान् गीधों द्वारा वमित मांस भी खा लिया। वे बहुत भारी हो गए। सीधे उड़ने में असमर्थ थे। वे टेढ़े उड़े और जाल में फंस गए / तब एक गीध ला कर रानी को दिखाया गया। वह उसे ले राजा के समीप गई और बोली-महाराज ! राज्याङ्गग में एक तमाशा देखें। उसने झरोखा खोला और कहा--- महाराज ! इन गीधों को देखें। इनमें जो खा कर वमन कर दे रहे हैं, वे पक्षी उड़ कर चले जा रहे हैं और जी खा कर वमन नहीं कर सकते, वे मेरे हाथ में आ फो।"१ ___ यह प्रसंग यथार्थ लगता है। परन्तु जैन-व्याख्याकारों ने इसका कोई संकेत नहीं दिया / सम्भवतः इसका हेतु परम्परा की विस्मृति है। सरपेन्टियर उत्तराध्ययन के इस अध्ययन के 46 से 53 तक के श्लोकों को मूल नहीं मानते / उनका कथन है कि "ये पाँच श्लोक मूल-कथा से सम्बन्धित नहीं हैं और संभव है कि जैन-कथाकार ने इनका निर्माण कर यहाँ रखा हो।" 2 परन्तु ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है। एक संवाद * मार्कण्डेय पुराण (अध्याय 10) में भी उक्त चर्चा का संवादी एक संवाद आया है। जैमिनी ने पक्षिगण से प्राणियों के जन्म आदि विषयक प्रश्न किए। उसके समाधान में उन्होंने पिता-पुत्र का एक संवाद प्रस्तुत करते हुए कहा १-जातक संख्या 509, पाँचवाँ खण्ड, पृ० 75 / 2-The Uttaradhyana Sutra, page 335. The verses from 49 to the end of the chapter certainly do not belong to original legend. But must have been composed by the Jain author. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __एक नगर में भार्गव नाम का ब्राह्मण रहता था। उसके पुत्र का नाम सुमति था। वह परम धर्मात्मा था। उसने आत्म-धर्म के मर्म को समझ लिया था। एक दिन पिता ने कहा-"पुत्र ! वेदों को पढ़ कर गुरु की शुश्रूषा कर, गार्हस्थ्य-जीवन बीता कर, यज्ञ आदि कर, पुत्रों को जन्म दे कर संन्यास ग्रहण करना, पहले नहीं।"" ____ सुमति ने कहा-"पिता ! जिन क्रियाओं के लिए आप मुझे कह रहे हैं, मैंने उनका अनेक बार अभ्यास किया है। उसी प्रकार अन्यान्य शास्त्रों तथा नाना प्रकार के शिल्पों का भी मैंने बहुत बार अभ्यास किया है / मुझे ज्ञान प्राप्त हो चुका है / वेदों से मुझे क्या प्रयोजन ?2 "पिताजी ! मैं इस संसार-चक्र में बहुत घूमा। अनेक बार अनेक माता-पिता किए / संयोग और वियोग भी मैंने देखा है। अनेक प्रकार के सुख-दु:ख मैंने अनुभव किए हैं। इस प्रकार जन्म-मृत्यु करते-करते मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ है / मैं अपने लाखों पूर्व-जन्म देख रहा हूँ, मुझे मोक्ष को प्राप्त कराने वाला ज्ञान उत्सन्न हो चुका है। उस ज्ञान को प्राप्त कर लेने के पश्चात् ऋग्, यजु, साम आदि वेदों के क्रिया-कलाप मुझे उचित प्रतीत नहीं. होते। मुझे उत्कृष्ट ज्ञान मिल चुका है, मैं निरीह हूँ, वेदों से मुझे क्या प्रयोजन ? इसी उत्कृष्ट ज्ञान की आराधना से मुझे ब्रह्म की प्राप्ति हो जाएगी।"३ . १-मार्कण्डेय पुराण, 10 / 11,12 : वेदानधीत्य सुमते !, यथानुक्रम मादितः / गुरुशुश्रूषणेव्यग्नो, भैक्षान्नकृत भोजनः // . ततो गार्हस्थ्य मास्थाय चेष्ट्वा यज्ञाननुत्तमान् / इष्टमुत्पादयापत्यमाश्रयेथा वनं ततः // २-वही, 10 / 16,17 : तातैतद् बहुशोभ्यस्तं, यत्वयाद्योपदिश्यते / तथैवान्यानि शास्त्राणि, शिल्पानि विविधानि च // उत्पन्लज्ञानबोधस्य, वेदैः किं मे प्रयोजनम् // ३-वही, 10 / 27,28,29: एवं संसार चक्रेस्मिन्, भ्रमता तात ! संकटे / ज्ञान मेतन्मयाप्राप्तं, मोक्षसम्प्राप्तिकारकम् // विज्ञाते यत्र सर्वोऽयमृग्यजुःसामसंहितः। क्रियाकलापो विगुणो, न सम्यक् प्रतिभाति मे॥ तस्मादुत्पन्नबोधस्य, वेदैः किं मे प्रयोजनम् / गुरुविज्ञानतृप्तस्य, निरीहस्य सदात्मनः // Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरणं : 1 कथानक संक्रमणं 347 - पिता ने कहा- "पुत्र ! तू ऐसी बातें क्यों कर रहा है ? मुझे लगता है कि किसी ऋषि या देवता का शाप तुझे लगा है।"१ पुत्र ने कहा-"पिताजी ! पूर्व-जन्म में मैं एक ब्राह्मण था। परमात्मा के ध्यान में मैं सदा लीन रहता था। आत्म-विद्या के विचार मेरे में पूर्ण विकसित हो चुके थे। मैं साधना में रत था। मुझे लाख जन्मों की स्मृति हो आई। जातिस्मरण-ज्ञान की प्राप्ति धर्म-त्रयी में रहे हुए मनुष्य को नहीं होती। मुझे यह ज्ञान पहले से ही प्राप्त है। अब मैं आत्म-मक्ति के लिए प्रयत्न करूँगा।"२ पिता-पुत्र का संवाद आगे चलता है। पुत्र पिता के समक्ष मृत्यु-दशा का वर्णन उपस्थित करता है। यह संवाद उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्ययन से मिलता-जुलता है / इसमें आत्म-ज्ञान की प्रतिष्ठा और वेद-ज्ञान की निरर्थकता को बहुत ही सुन्दर ढंग से समझाया है। विन्टरनिटज ने माना है कि यह बहुत सम्भव है कि यह संवाद बौद्ध अथवा जैन परम्परा का हो और बहुत काल बाद इसे महाकाव्य और पौराणिक-साहित्य में सम्मिलित कर लिया गया हो / किन्तु मुझे लगता है कि यह बहुत प्राचीन काल से प्रचलित श्रमणसाहित्य का अंश रहा होगा और उसी से जैन, बौद्ध, महाकाव्यकारों तथा पुराणकारों ने इसे ग्रहण कर लिया होगा। नमि-प्रव्रज्या उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन 'नमि-प्रव्रज्या' की आंशिक तुलना 'महाजनक जातक' (सं० 536) से होती है। जैन-कथावस्तु - मालव देश के सुदर्शनपुर नगर में मणिरथ राजा राज्य करता था। उसका कनिष्ठ भ्राता युगबाहु था। मदनरेखा युगबाहु की पत्नी थी। मणिरथ ने कपटपूर्वक युगबाहु को मार डाला। मदनरेखा उस समय गर्भवती थी। उसने जंगल में एक पुत्र को जन्म दिया / उस शिशु को मिथिला-नरेश पद्मरथ ले गया। उसका नाम 'नमि' रखा। पद्मरथ के श्रमण बन जाने पर 'नमि' मिथिला का राजा बना / एक बार वह दाहज्वर से आक्रान्त हुआ। छह मास तक घोर वेदना रही / उपचार चला। दाह-ज्वर को शान्त करने के लिए रानियाँ स्वयं चन्दन घिसतीं। एक बार सभी रानियाँ चन्दन घिस रही थीं। उनके हाथों में पहिने हुए कंकण बज रहे थे। उनकी आवाज से 'नमि' खिन्न १-मार्कण्डेय पुराण, 10 // 34,35 / २-वही, 10 // 37,44 / .. 3-The Jainas in the History of Indian Literature, p. 7... Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययने . . . हो उठा। उसने कंकण उतार लेने को कहा। सभी रानियों ने सौभाग्य-चिन्ह स्वरूप एक-एक कंकण को छोड़ कर शेष सभी उतार दिए / ___ कुछ देर बाद राजा ने अपने मंत्री से पूछा-"कंकण का शब्द सुनाई क्यों नहीं दे . रहा है ?" मंत्री ने कहा-"स्वामिन् ! कंकणों के घर्षण का शब्द आपको अप्रिय लगा था, इसलिए सभी रानियों ने एक-एक कंकण रख कर शेष सभी उतार दिए। एक कंकण से घर्षण नहीं होता और घर्षण के बिना शब्द कहाँ से उठे ?" राजा नमि प्रबुद्ध हो गया। उसने सोचा सुख अकेलेपन में है-जहाँ द्वन्द्व है-दो हैं-वहाँ दुःख है / विरक्त-भाव से वह आगे बढ़ा। उसने प्रवजित होने का दृढ़ संकल्प . किया। जब राजर्षि नमि अभिनिष्क्रमण कर रहा था, प्रव्रजित हो रहा था, उस समय मिथिला में सब जगह कोलाहल होने लगा। उत्तम प्रव्रज्या-स्थान के लिए उद्यत हुए राजर्षि से देवेन्द्र ने ब्राह्मण के रूप में आ कर इस प्रकार कहा "हे राजर्षि ! आज मिथिला के प्रासादों और गृहों में कोलाहल से परिपूर्ण दारुण शब्द क्यों सुनाई दे रहे हैं ?" ___ यह अर्थ सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा "मिथिला में एक चैत्य-वृक्ष था, शीतल छाया वाला, मनोरम, पत्र-पुष्प और फलों से लदा हुआ और बहुत पक्षियों के लिए सदा उपकारी। ___ "एक दिन हवा चली और उस चैत्य-वृक्ष को उखाड़ कर फेंक दिया। हे ब्राह्मण ! उसके आश्रित रहने वाले ये पक्षी दुःखी, अशरण और पीड़ित हो कर आक्रन्द कर रहे हैं।" ____ इस अर्थ को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुऐ देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा "यह अग्नि है और यह वायु है / यह आपका मन्दिर जल रहा है / भगवन् ! आप अपने रनिवास की ओर क्यों नहीं देखते ?" यह अर्थ सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा "वे हम लोग, जिनके पास अपना कुछ भी नहीं है, सुखपूर्वक रहते और सुख से जीते है। मिथिला जल रही है, उसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। ___ "पुत्र और स्त्रियों से मुक्त तथा व्यवसाय से निवृत्त भिक्षु के लिए कोई वस्तु प्रिय भी नहीं होती और अप्रिय भी नहीं होती। ___सब बन्धनों से मुक्त 'मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है', इस प्रकार एकत्वदर्शी, गृहत्यागी एवं तपस्वी भिक्षु को विपुल सुख होता है।" Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 . कथानक संक्रमण 346 ____ इस प्रकार नमि और इन्द्र के बीच लम्बा संभाषण हुआ। जब इन्द्र ने देखा कि राजा नमि अपने संकल्प पर अडिग है, तब उसने अपना मूल रूप प्रकट किया और नमि की स्तुति कर चला गया। नमि श्रामण्य में उपस्थित हो गए। बौद्ध-कथावस्तु विदेह राष्ट्र के मिथिला नगर में महाजनक नाम का राजा राज्य करता था। उसके अरिट्ठजनक और पोलजनक नाम के दो पुत्र थे। पिता की मृत्यु के पश्चात् अरिट्ठजनक राजा बना। कालान्तर में दोनों भाइयों में वैमनस्य बढ़ा। पोलजनक प्रत्यन्त-ग्राम में चला गया। वहाँ संगठित हो अपने दल-बल के साथ वह मिथिला पहुंचा और भाई को युद्ध के लिए ललकारा। युद्ध हुआ। अरिटुजनक मारा गया। पति की मृत्यु की बात सुन उसकी पत्नी घर से निकल गई। वह गर्भवती थी। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। पितामह के नाम पर उसका नाम महाजनक कुमार ही रखा। वह बड़ा हुआ। उसने तीनों वेद और सब शिल्प सीख लिए। माँ की आज्ञा ले वह पिता का राज्य लेने मिथिला पहुंचा। राजा पोलजनक मर चुका था। उसके कोई पुत्र नहीं था। कुमार महाजनक राजा बनाया गया। कुमारी सीवली से उसका विवाह हआ। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम दीर्घायु कुमार रखा। एक दिन राजा महाजनक उद्यान देखने गया। वहाँ आम के दो वृक्ष थे। एक पर फल थे, दूसरे पर नहीं / राजा ने एक फल खाया। साथ वाले सभी ने एक-एक फल तोड़ा। सारा वृक्ष फलहीन हो गया। उसकी शोभा नष्ट हो गई। राजा ने लौटते समय देखा-दोनों वृक्ष फल से रहित हैं। उसने माली से पूछा / सारी बात जान कर उसने सोचा-यह दूसरा वृक्ष फल-रहित होने के कारण हरा-भरा खड़ा है। यह फलदार होने से नोचा गया, खसोटा गया। यह राज्य भी फलदार-वृक्ष के समान है / प्रव्रज्या फल-रहित वृक्ष के समान है / जिसके पास कुछ भी है, उसे भय है, जिसके पास कुछ भी नहीं, उसे भय भी नहीं। मैं फलदार-वृक्ष जैसा न रह, फल-रहित वृक्ष जैसा होऊँगा। वह प्रतिबुद्ध हुआ। प्रासाद में रहते हुए भी श्रमण-धर्म का पालन करते-करते उसके चार महीने गुजर गए। प्रव्रज्या की ओर उसका चित्त अत्यधिक झुक गया। घर नरक के समान लगने लगा। उसने सोचा-'यह कब होगा कि मैं इस समृद्ध, विशाल और सम्पत्ति से परिपूर्ण मिथिला को छोड़ कर प्रजित होऊंगा ?' राजा प्रवजित हो गया। रानियों ने रोकने का प्रयास किया। सीवली देवी ने एक उपाय ढूँढ़ निकाला। उसने महासेना रक्षा को बुला कर आज्ञा दी-"तात ! राजा के जाने के रास्तों पर आगे-आगे पुराने घरों तथा पुरानी शालाओं में आग लगा दो। घास-पत्ते इकटे करा कर जहाँ-तहाँ धुआँ करा दो।" उसने वैसा करा दिया। सीवली ने राजा से जा कर कहा Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन "घरों में आग लग गई है। ज्वाला निकल रही है। खजाने जल रहे हैं। सोना, चाँदी, मणि, मुक्ता--सभी जल रहे हैं। हे राजन् ! आप आ कर रोकें।" राजा महाजनक ने कहा सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किञ्चनं / मिथिलाय डयूहमानाय न मे किंचि अडयहथ // 125 // ___ "हमारे पास कुछ नहीं है। हम सुखपूर्वक जीते हैं। मिथिला नगरी के जलने पर मेरा कुछ नहीं जलता। सुसुख बत जीवाम येसं नो नत्थि किंचनं / रटे विलुप्पमानम्हि न मे किंचि अजीरथ // 127 // सुसुख वत जीवाम येसं नो नत्यि किंचनं / पीतिभक्खा भविस्साम देवा आभास्सरा यथा // 12 // "हमारे पास कुछ नहीं। हम सुखपूर्वक जीते हैं। राष्ट्र के उजड़ने से मेरी कुछ हानि नहीं।" "हमारे पास कुछ नहीं। हम सुखपूर्वक जीते हैं / जैसे अभास्वर देवता, वैसे ही हम प्रीति-भक्षक हो कर रहेंगे।" राजा सबको छोड़ आगे चला गया। देवी साथ थी। दोनों बातचीत करते एक नगर-द्वार पर पहुंचे। वहाँ एक लड़की बालू को थाथपा रही थी। उसके एक हाथ में एक कंगन था। दूसरे में दो। एक बज रही थी। दूसरी निःशब्द थी। राजा ने पूछा"हे कुमारिके ! क्या कारण है कि तेरी एक भुजा बजती है, एक नहीं बजती ?' उसने कहा-"मेरे इस हाथ में दो कंगन हैं। रगड़ से शब्द पैदा होता है। दो होने से यही होता है / हे श्रमग! मेरे इस हाथ में एक ही कंगन है। वह अकेला होने से आवाज नहीं करता। दो होने से विवाद होता है, एक किससे विवाद करेगा ? स्वर्ग की कामना करने वाले तुझ को अकेले रहना रुचिकर लगेगा।" 2 ___वे चले गए / एक उसुकार ( वंस-फोड़ ) के यहाँ रुके। वह एक आँख से बाँस को देख रहा था। महाजनक ने पूछा- "हे वंस-फोड़ ! क्या तुझे इस तरह अच्छा दिखाई देता है, जो तू एक आँख को बन्द कर के एक से बाँस के टेढ़ेपन को देखता है ?"3 उसने कहा- "हे श्रमण ! दोनों आँखों से विस्तृत-सा दिखाई देता है। टेढ़ी जगह १-जातक, 539, श्लो० 158 / २-वही, 539, श्लो० 156-161 / ३-वही, 539, श्लो० 165 / Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 351 का पता न लगने से बाँस सीधा नहीं होता, एक आँख को बन्द कर के देखने से टेढ़ापन दीख जाता है, बाँस सीधा हो जाता है।" रानी सीवली ने जाना कि राजा का मन संसार से ऊब चुका है। फिर भी रागवश वह उनके पीछे-पीछे चली जा रही थी। महाजनक ने चलते-चलते रास्ते पर ही गूंज के तिनके से सींक खींच कर कहा-"देवी! देख, अब यह फिर उससे नहीं मिलाया जा सकता। इसी तरह से अब फिर मेरा-तेरा साथ वास नहीं हो सकता।" महाजनक अकेले आगे चले गए। रानी लौट कर मिथिला आई। अपने पुत्र दीर्घायु को राज्य-भार संभला कर स्वयं प्रव्रज्या ग्रहण कर ब्रह्मलोकगामिनी हुई। यह कथा अत्यन्त संक्षेप में दी गई है। सम्पूर्ण कथा के लिए देखिए–महा जनक जातक संख्या 539, पृष्ठ 34-77 तक / __ जैन-कथावस्तु और इस जातक (सं० 536) को कथावस्तु में पूर्ण समानता नहीं है, किन्तु दोनों का प्रतिपाद्य एक-सा ही है। दोनों कथानक इन्हीं विचारों को पुष्ट करते हैं (1) अन्यान्य आश्रमों से संन्यास आश्रम श्रेष्ठ है / (उत्त० ६।४४;जा० 25 115) (2) संतोष त्याग में है, भोग में नहीं। (उत्त० 6 / 48, 46 ; जा० 122) (3) एकाकीपन में सुख है, द्वन्द्व (दो) दुःख का मूल है / ( उत्त० 6 / 16 ; ___ जा० 161, 168) (4) अकिंचनता सुख का साधन है / (उत्त० 6 / 14 ; जा० 125) (5) काम-भोग साधना के विघ्न हैं / (उत्त० 6 / 23 ; जा० 132) . . इनके अतिरिक्त जैन-कथावस्तु के ये और निष्कर्ष हैं (1) प्रात्म-विजय ही परम-विजय है / (उत्त० 6 / 34,35) (2) आत्मा ही दुर्जेय है / (उत्त० 6 / 36) (3) दान से संयम श्रेष्ठ है / (उत्त० 6 / 40) (4) तृष्णा अनन्त है / इसकी पूर्ति नहीं हो सकती / (उत्त० 6 / 48,46) (5) कषाय-त्याग मोक्ष का हेतु है / (उत्त० 6 / 55) दोनों कथावस्तुओं के कई प्रसंग एक-से हैं (1) सम्पत्ति से समृद्ध मिथिला को छोड़ कर प्रवजित होना। (2) मिथिला को जलती हुई दिखला कर प्रव्रज्या से मन हटाने का प्रयत्न करना। (3) मिथिला के जलने पर मेरा कुछ भी नहीं जलता, ऐसे ममत्व-रहित-भाव प्रकट करना। १-जातक, 539, श्लोक 166-167 / Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (4) जैन-कथावस्तु के अनुसार इन्द्र परीक्षा करने आता है और जातक में देवी सीवली परीक्षा करने आती है। (5) जन-कथावस्तु के अनुसार मिथिला नरेश नमि कंकण के शब्दों को सुन प्रतिबुद्ध हुए और बौद्ध-कथावस्तु के अनुसार मिथिला नरेश आम्र-वृक्ष को देख प्रतिबुद्ध हुए। (6) अकेले में सुख है-दोनों का सोचना / सोनक जातक (सं० 526) - इस जातक में भी कुछ ऐसा ही प्रसंग आया है। पुरोहित का पुत्र सोनक मगध नरेश के पुत्र अरिन्दम कुमार का मित्र था। वे राजगृह में रहते थे। उस समय वहाँ मगध का साम्राज्य था। सोनक का मन संन्यास की ओर झुका। वह वहाँ से चल पड़ा। दोनों मित्र अलग-अलग हो गए। चालीस वर्ष बीते / कुमार अरिन्दम वाराणसी का राजा बन गया था। उसे अपने मित्र सोनक की स्मृति हो आई। उसने एक गाथा कही कस्स सुत्वा सतं दम्मि सहस्सं दठु सोनकं / को मे सोनकं अक्खाति सहायं पंसुकीलितं // ___ "किसी को सुन कर कहने वाले को सौ दूंगा, स्वयं देख कर कहने वाले को हजार दूंगा। कौन है जो मुझे मेरे बचपन के मित्र सोनक का समाचार देगा ?" ___ लोगों के मुंह-मुंह पर यह गीत नाचने लगा। एक दिन एक कुमार राजा के पास आया और बोला महं सुत्वा सतं देहि, सहस्सं दट्ट सोनकं / अहं सोनकं आक्खिस्सं, सहायं पंसुकीलितं // "मुझे सुनाने वाले को आप सौ दें, मुझे देखने वाले को हजार दें, मैं तुम्हारे बचपन के मित्र सोनक को बता दूंगा।" बालक ने कहा- "सोनक उद्यान में है।" राजा वहाँ गया। प्रत्येक-बुद्ध सोनक ने आठ श्रमण-भद्र गाथाएँ कहीं। उनमें पाँचवीं गाथा थी पंचम भद्रं अधनस्स अनागारस्स भिक्खुनो। नगरम्हि डरहमानाम्हि नास्स किंचि अडयहथ // "अकिंचन अनागारिक भिक्षु के लिए पाँचवीं आनन्द की बात वह है कि यदि नगर में आग भी लग जाए तो उसका कुछ नहीं जलता।" Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 353 आगे चल कर राजा अपने पुत्र को राज्य दे प्रवजित हो जाता है।' इस जातक से उत्तराध्ययन अध्ययन ह और 13 का आंशिक साम्य है (1) 'नगरी जलने पर मेरा कुछ नहीं जलता'-प्रत्येक-बुद्ध सोनक का यह कथन उत्तराध्ययन के नमि (नौंवाँ अध्ययन) के-'मिथिला के जलने पर मेरा कुछ भी नहीं जलता'-इस कथन से मिलता है। (2) जातक में अरिन्दमकुमार अपने मित्र सोनक को ढूँढने के लिए एक श्लोक प्रचारित करते हैं, दूसरे श्लोक को सुन मित्र-मुनि से मिलते हैं और उनके उपदेश से प्रभावित हो प्रबजित हो जाते हैं। उत्तराध्ययन के १२वें अध्ययन में चित्र और सम्भूत एक जन्म में भाई थे। मर कर देव बने / वहाँ से च्यवन कर भिन्न-भिन्न प्रदेशों में उत्पन्न हुए / एक ब्रह्मदत्त कुमार और दूसरा एक इभ्य का पुत्र / ब्रह्मदत्त कुमार ने भाई की खोज करने के लिए श्लोक का आधा भाग प्रचारित किया और उसे पूरा करने वाले को पारितोषिक देने की घोषणी को। एक रहट वाले ने उसकी पूर्ति की। राजा उसे साथ ले रहट पर आया। मुनि को देख गद्गद् हो गया। मुनि ने उपदेश किया। पर व्यर्थ / मुनि मुक्त हो जाते हैं और राजा नरक में जा गिरता है। माण्डव्य मुनि और जनक महाभारत ( शान्ति पर्व, अध्याय 276 ) में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद आया है / एक बार युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछा-तृष्णा-क्षय का उपाय कौनसा है ? भीष्म ने प्राचीन उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा-राजन् ! एक बार माण्डव्य मुनि ने विदेहराज जनक से भी यही प्रश्न किया था। उसका उत्तर देते हुए राजा जनक ने कहा सुमुख बत जीवामि यस्य मे नास्ति किञ्चन / मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे वह्यति किञ्चन // 4 // "मैं बड़े सुख से जीवन व्यतीत कर रहा हूँ, क्योंकि इस जगत् में कोई भी वस्तु मेरी नहीं है। किसी पर भी मेरा ममत्व नहीं है। मिथिला के प्रदीप्त होने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता।' "जो विवेकी हैं, उन्हें समृद्धि-सम्पन्न विषय भी दुःख रूप ही जान पड़ते हैं। परन्तु अज्ञानियों को तुच्छ विषय भी सदा मोह में डाले रहते हैं। लोक में जो काम जनित सुख है तथा जो स्वर्ग का दिव्य एवं महान् सुख है, वे दोनों तृष्णा-क्षय से होने वाले सुख की सोलहवीं कला की भी तुलना नहीं कर सकते।" १-सोनक जातक, संख्या 529 (जातक भाग 5, पृ० 331-346 ) / Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __ आगे उन्होंने कहा-'धन के बढ़ने के साथ-साथ तृष्णा भी बढ़ती चली जाती है। ममकार ही दुःख का हेतु है / भोग की आसक्ति दुःख बढ़ाती है। जो सबको आत्म-तुला से तोलता है, वह समस्त द्वन्द्वों से छूट कर शान्त और निर्विकार हो जाता है। तृष्णा को छोड़ना अत्यन्त दुष्कर है / जो तृष्णा को छोड़ देता है, वह परम-सुख को पा लेता है।" ___ यह संवाद भी उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन की आंशिक समानता को लिए जनक और भीष्म इसी प्रकार महाभारत (शान्तिपर्व, अ० 178 ) में एक और प्रसंग आया है। एक बार भीष्म ने कहा-धन की तृष्णा से दुःख और उसकी कामना के त्याग से परम-सुख की प्राप्ति होती है। यही बात महाराज जनक ने भी कही है। एक बार जनक ने कहा था अनन्तमिव मे वित्तं यस्य मे नास्ति किञ्चन / मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किञ्चन // 2 // "मेरे पास अनन्त-सा धन-वैभव है, फिर भी मेरा कुछ भी नहीं है। मिथिला के जलने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता।" भीष्म ने आगे कहा-एक बार नहुषनन्दन राजा ययाति ने बोध्य ऋषि से पूछा-महाप्राज्ञ ! शान्ति कैसे मिल सकती है ? कौन-सी ऐसी बुद्धि है, जिसका आश्रय ले कर आप शान्ति और संतोष के साथ विचरते हैं ? बोध्य मुनि ने कहा-मेरे छह गुरु हैं (1) पिङ्गला वेश्या से मैंने आशा के त्याग का मर्म सीखा है। (2) क्रौञ्च पक्षी से मैंने भोगों के परित्याग से सुख मिलता है, यह सीखा है / (3) सर्प से मैंने अनिकेत रहने की शिक्षा पाई है। (4) पपीहे से मैंने अद्रोहवृत्ति की शिक्षा पाई है। (5) बाण बनाने वाले से एकाग्र चित्त रहने का मर्म पाया है। (6) हाथ में पहने हुए एक कंगन से एकाकीपन की शिक्षा ली है। उत्तराध्ययन के इस अध्ययन के निष्कर्षों की उपर्युक्त तथ्यों से बहुत समानता है / एक विश्लेषण महाभारत के अनेक प्रसंगों में जहाँ जनक का संवाद या कथन है वहाँ भीष्म ने-- 'मैं प्राचीन इतिहास के उदाहरण में इस तथ्य को स्पष्ट करता हूँ'—यह कह कर जनक के विचारों का प्रतिपादन किया है।' १-महाभारत, शान्तिपर्व, अ० 178,218,276 / Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 355 जहाँ कहीं जनक या उनके वंश के राजाओं का प्रसंग है, वहाँ आत्मा और शरीर के भेद-ज्ञान की चर्चा', मोक्षतत्त्व का विवेचन, तृष्णा-त्याग', ममत्व-त्याग' आदिआदि की चर्चा है। विष्णु पुराण में उल्लेख है कि मिथिला के सभी नरेश आत्म-वादी होते हैं। . इन तथ्यों से दो फलित सामने आते हैं(१) जनक श्रमण-परम्परा को मानने वाले प्राचीन पुरुष थे। (2) जनक के संवाद जो महाभारत में उल्लिखित हुए हैं, वे ब्राह्मणेतर-परम्परा के हैं और वह परम्परा श्रमण-परम्परा होनी चाहिए। जातकों की तुलना से हमने देखा कि उनमें उल्लिखित कथाएँ जैन-कथावस्तु से निकट हैं / हम पहले यह भी कह चुके हैं कि जातकों का गद्य-भाग अर्वाचीन है / बहुत प्राचीन काल से अनेक उदाहरण और कथानक प्रचलित थे। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार धर्मग्रन्थों ने उसे अपनाया और कुछ एक संशोधन से उसे अपने सिद्धान्तों के अनुसार ढाल कर स्वीकार कर लिया। राइस डेविड्स ने जातकों के विषय में ऊहापोह करते हुए लिखा है कि बौद्ध-साहित्य के नौ विभागों में जातक एक विभाग है। परन्तु यह विभाग आज के जातक से सर्वथा भिन्न था। प्राचीन जातक के अध्ययन से हम दो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाल सकते हैं-एक तो यह है कि प्राचीन जातक का बहुलांश भाग किसो एक ढाँचे में ढला हुआ नहीं था और उसमें कोई पद्य नहीं थे। वे केवल काल्पनिक कथाएँ ( Fables ), उदाहरण ( Parables) और आख्यायिकाएँ ( Legends ) मात्र थे। दूसरी बात यह है कि उपलब्ध जातक केवल प्राचीन जातक के अंश मात्र हैं / 5 राइस डेविड्स ने दस ऐसे जातकों को ढूंढ निकाला है, जिनके सूक्ष्म अध्ययन से यह प्रकट होता है कि वे बुद्ध से पूर्व भी जन-कथाओं के रूप में प्रचलित थे। इन जातकों के विषय में उनका अभिमत यह है-"ये सारे जातक बौद्ध-साहित्य से भी ज्यादा १-महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय 218 / २-वही, शान्तिपर्व, अध्याय 219 / ३-वहो, शान्तिपर्व, अध्याय 276 / ४-वही, शान्तिपर्व, अध्याय 178 / / 5-Buddhist India, page 196, 197. ६-वही, पृ० 195 / वे दस जातक ये हैं--अपन्नक (सं० 1), मखादेव (सं० 9), सुखविहारी (सं० 10), तित्तिर (सं० 37), 'लित (सं० 91), महा-सुदस्सन ( सं० 95), खण्ड-वट्ट (सं० 203 ), मणि-कन्ठ ( सं 253 ), बक ब्रह्म (सं० 405) / Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्राचीन हैं। इनमें से किसी को भी हम केवल बौद्ध-मत का ही नहीं मान सकते। बौद्ध विद्वानों ने अपने-अपने आचार-विचार के अनुसार कुछ परिवर्तन कर उसे अपनाया है। इनमें बहुत सारे तो भारतीय लोक-कथाओं के संग्रह हैं / इनसे जो आचार विषयक बाते प्राप्त होती हैं, वे भी एकान्ततः भारतीय हैं।" इस तथ्योक्ति से भी यह सिद्ध होता है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी से बहुत पूर्व कई कथाएँ प्रचलित थों, जिन्हें तीनों धाराओं ने अपनाया है। जातकों का पद्य-भाग ( जो प्रचलित पद्यों का संग्रह मात्र है ) बहुत विश्वसनीय है, क्योंकि वह उस भाषा में है जो कई शताब्दियों पुरानी है। ___ अन्त में उनकी मान्यता है कि “जातक में वर्णित कथाएँ पद्य-भाग के बिना ही प्रचलित थीं। जब वे बौद्ध-परम्परा में सम्मिलित की गई (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में) तब उनमें प्रचलित पंद्य जोड़ दिए गए। इसलिए सम्भव है कि ये कथाएँ बौद्ध-काल से पूर्व की ही नहीं, किन्तु बहुत प्राचीन हैं / " 3 जातकों का प्रणयन और संकलन मध्यदेश में प्राचीन जन-कथाओं के आधार पर हुआ है / विन्टरनिटज ने भी इसी मत को माना है।५।। . भरतसिंह उपाध्याय का मान्यता है कि जातक तो मूल रूप में केवल गाथाएँ हैं, शेष भाग तो उसकी व्याख्या है।६ समीक्षा पूर्व लिखित कथानकों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर मस्तिष्क पर पहला प्रभाव यह होता है कि एक परम्परा ने दूसरी परम्परा का अनुकरण किया है। किन्तु किसने किसका अनुकरण किया, इसका इतिवृत्त हमें ज्ञात नहीं है। कालक्रम की दृष्टि से विचार करने पर फलित होता है कि जैन और महाभारत के लेखकों ने बौद्धों का अनुकरण किया है। क्योंकि बौद्ध-संगीतियों का समय जैन-वाचनाओं तथा महाभारत की 1-Buddhist India, p. 197. २-वही, पृ० 204 / ३-बही, पृ० 206 / ४-वही, पृ० 172,207,208 / ५-इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृ० 113,114,12-1123 / ६-पाली साहित्य का इतिहास, पृ० 306 / Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : ? कथानक संक्रमण 357 रचना से पूर्ववर्ती है / पर यह सम्भव नहीं है। इस असम्भवता के दो हेतु हैं (1) वाचना-काल में सारे साहित्य का निर्माण नहीं हुआ था, किन्तु उसका संकलन किया गया था, थोड़ा-बहुत निर्मित भी हुआ था। प्रस्तुत कथानक पहले नहीं लिखे गए थे, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। (2) प्रतियों की दुर्लभता। उस समय का वातावरण पारस्परिक तनाव का था। वैसी स्थिति में अपने साहित्य की प्रतियाँ दूसरों को देते, इसकी कल्पना करना कठिन है। बहुत सम्भव यही है कि पूर्ववर्ती श्रमण-साहित्य में प्रचलित कथानकों को जातक, उत्तराध्ययन और महाभारत में अपने ढंग से उद्धृत किया गया है। इनकी शब्दावली में प्राप्त परिवर्तन से यह तथ्य स्पष्ट परिलक्षित होता है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : दूसरा प्रत्येक-बुद्ध मुनि के तीन प्रकार होते है (1) स्वयं-बुद्ध- जो स्वयं बोधि प्राप्त करते हैं / (2) प्रत्येक-बुद्ध- जो किसी एक निमित्त से बोधि प्राप्त करते हैं। (3) बुद्ध-बोधित- जो गुरु के उपदेश से बोधि प्राप्त करते हैं। प्रत्येक-बुद्ध एकाकी विहार करते हैं / वे गच्छवास में नहीं रहते / ' उत्तराध्ययन चार प्रत्येक-बुद्धों का उल्लेख मिलता है (1) करकण्डु- कलिंग का राजा, (2) द्विमुख- पंचाल का राजा, (3) नमि- विदेह का राजा और (4) नग्गति- गंधार का राजा इनका विस्तृत वर्णन टीका में प्राप्त है / ये चारों प्रत्येक-बुद्ध एक साथ, एक हो समय में देवलोक से च्युत हुए, एक साथ प्रवजित हुए, एक ही समय में बुद्ध हुए, एक ही समय में केवली बने और एक साथ सिद्ध हुए। ऋषिभाषित प्रकीर्णक में 45 प्रत्येक-बुद्धों का जीवन-वर्णन है / ऐसा उल्लेख मिलता है कि 20 प्रत्येक-बुद्ध भगवान् नमि के तीर्थ में, 15 भगवान् पार्श्वनाथ के तीर्थ में और 10 भगवान् महावीर के तीर्थ में हुए हैं / 5 किन्तु प्रत्येक-बुद्धों की इस नामावली में इन चार प्रत्येक-बुद्ध मुनियों का नाम नहीं है, यह कुछ आश्चर्य-सा लगता है। करकण्डु बूढ़े बैल को देख कर प्रतिबुद्ध हुआ। १-प्रवचनसारोद्धार, गाथा 525-528 / २-उत्तराध्ययन, 18145 / / ३-सुखबोधा, पत्र 133-145 / ४-उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 270 / ५-श्रीमद्भिः प्रत्येकबुद्धर्भाषितानि श्रीऋषिभाषित सूत्राणि, पृ० 42 (प्रकाशित, सन् 1925, रत्नपुत्र ऋषभदेव केशरीमल ) / पूरे विवरण के लिए देखिए-उत्तरज्झयणाणि (उत्तराध्ययन सानुवाद संस्करण) के नौवें अध्ययन का आमुख, पृ० 105-108 / Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख 32, प्रकरण : 2 प्रत्येक-बुद्ध 356 द्विमुख इन्द्रध्वज को देख कर प्रतिबुद्ध हुआ। नमि एक चूड़ी की नीरवता को देख कर प्रतिबुद्ध हुआ। नग्गति मञ्जरी विहीन आम्र-वृक्ष को देख कर प्रतिबुद्ध हुआ / ' बौद्ध ग्रन्थों में भी इन चार प्रत्येक-बुद्धों का उल्लेख मिलता है / 2 किन्तु इनके जीवन-चरित्र तथा बोधि-प्राप्ति के निमित्तों के उल्लेख में भिन्नता है। बौद्ध-ग्रन्थों में दो प्रकार के बुद्ध बतलाए गए हैं (1) प्रत्येक-बुद्ध और (2) सम्मासम्बुद्ध / जो स्वयं ही बोधि प्राप्त करते हैं, किन्तु जगत् को उपदेश नहीं देते, वे प्रत्येक-बुद्ध कहे जाते हैं। इन्हें उच्च और पवित्र आत्म-दृष्टि पैदा होती है और ये जीवन भर अपनी उपलब्धि का कथन नहीं करते / इसीलिए इन्हें 'मौन-बुद्ध' भी कहा जाता है / ये दो हजार असंख्येय कल्प तक 'पारामी' की साधना करते हैं। ये ब्राह्मण, क्षत्रिय या गाथापति के कुल में उत्पन्न होते हैं। इन्हें समस्त ऋद्धि, सम्पत्ति और प्रतिसम्पदा उपलब्ध होती है। ये कभी बुद्ध से साक्षात् नहीं मिलते। ये एक साथ अनेक हो सकते हैं। बौद्ध टीकाओं में चार प्रकार के बुद्ध बतलाए हैं (1) सब्बस्नुबुद्ध ( सर्वज्ञ-बुद्ध ), (2) पच्चेकबुद्ध (प्रत्येक-बुद्ध ), (3) चतुसच्चबुद्ध ( चतु:सत्य-बुद्ध ) और (4) सुतबुद्ध (श्रुत-बुद्ध ) / इन चार प्रकार के बुद्धों का वर्णन विभिन्न बौद्ध-गन्थों में आया है / अब हम संक्षेप में जैन और बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उन चारों प्रत्येक-बुद्ध मुनियों का जीवन-वृत्त प्रस्तुत कर उन पर मीमांसा करेंगे / १-करकण्डु जैन-ग्रन्थ के अनुसार चम्पा नगरी में दधिवाहन नामका राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम १-सुखबोधा, पत्र 133 : वसहे य इंदकेऊ, वलए अंबे य पुप्फिए बोही। करकंड्ड दुम्मुहस्सा, नमिस्स गंधाररन्नो य // २-कुम्मकार जातक (सं० 408 ) / ३-डिक्शनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग 2, पृ० 294 / ४-वही, पृ० 264 / Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पद्मावती था / वह गणतन्त्र के अधिनेता महाराज चेटक की पुत्री थी। एक बार रानी गर्भवती हुई। उसे दोहद उत्पन्न हुआ। परन्तु वह उसे व्यक्त करने में लज्जा का अनुभव करती रही। शरीर सूख गया। राजा ने बात पूछी। आग्रह किया / तब रानी ने अपने मन की बात कह दी। रानी राजा का वेष धारण कर हाथी पर बैठी। राजा स्वयं उसके मस्तक पर छत्र लगा कर खड़ा था। रानी का दोहद पूरा हुआ। वर्षा आने लगी। हाथी वन की ओर भागा। राजा-रानी घबडाए। राजा ने रानी से वटवृक्ष की शाखा पकड़ने के लिए कहा। हाथी उस वट-वृक्ष के नीचे से निकला। राजा ने एक डाल पकड़ ली। रानी डाल नहीं पकड़ सकी। हाथी रानी को ले आगे भाग गया। राजा अकेला रह गया। रानी के वियोग से वह अत्यन्त दुःखी हो गया। __ हाथी थककर निर्जन वन में जा ठहरा / उसे एक तालाब दिखा। वह प्यास बुझाने के लिए पानी में घुसा। रानी अवसर देख नीचे उतरी और तालाब से बाहर आ गई। वह दिग्मूढ हो इधर-उधर देखने लगी। भयाक्रान्त हो वह एक दिशा की ओर चल पड़ी। उसने एक तापस देखा / उसके निकट जा प्रणाम किया। तापस ने उसका परिचय पूछा। रानी ने सब बता दिया। तापस ने कहा-"मैं भी महाराज चेटक का सगोत्री हूँ। अब भयभीत होने की कोई बात नहीं।" उसने रानी को आश्वत कर, फल भेंट किए। रानी ने फल खाए / दोनों वहाँ से चले। कुछ दूर जाकर तापस ने गाँव दिखाते हुए कहा-"मैं इस हल-कृष्ट भूमि पर चल नहीं सकता। वह दंतपुर नगर दीख रहा है। वहाँ दंतवक्र राजा है। तुम निर्भय हो वहाँ चली जाओ और अच्छा साथ देखकर चम्पापुरी चला जाना।" रानी पद्मावती दंतपुर पहुंची। वहाँ उसने एक. उपाश्रय में साध्वियों को देखा। उनके पास जा वन्दना की। सध्वियों ने परिचय पूछा। उसने सारा हाल कह सुनाया, पर गर्भ की बात गुप्त रख ली। साध्वियों की बात सुन रानी को वैराग्य हुआ। उसने दीक्षा ले ली। गर्भ वृद्धिंगत हुआ। महत्तरिका ने यह देख रानी से पूछा। साध्वी रानी ने सच-सच बात बता दी। महत्तरिका ने यह बात गुप्त रखी। काल बीता / गर्भ के दिन पूरे हुए। रानी ने शय्यातर के घर जा प्रसव किया। उस नवजात शिशु को रत्नकम्बल में लपेटा और अपनी नामांकित मुद्रा उसे पहना श्मशान में छोड़ दिया। श्मशानपाल ने उसे उठाया और अपनी स्त्री को दे दिया। उसने उसका नाम 'अवकीर्णक' रखा। साध्वी-रानी ने श्मशानपाल की पत्नी से मित्रता की। रानी जब उपाश्रय में पहुंची तब साध्वियों ने गर्भ के विषय में पूछा / उसने कहा-मृत पुत्र हुआ था। मैंने उसे फेंक दिया। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 361 खण्ड 2, प्रकरण : 2 प्रत्येक-बुद्ध बालक श्मशानपाल के यहाँ बड़ा हुआ। वह अपने समवयस्क बालकों के साथ खेल खेलते समय कहता- "मैं तुम्हारा राजा हूँ। मुझे कर दो।" एक बार उसके शरीर में सूखी खुजली हो गई। वह अपने साथियों से कहता"मुझे खुजला दो।" ऐसा करने से उसका नाम 'करकण्डु' हुआ। ___ करकण्डु उस साध्वी के प्रति अनुराग रखता था। वह साध्वी मोहवश उसे भिक्षा में प्राप्त लड्डू आदि दिया करती थी। ____ बालक बड़ा हुआ / वह श्मशान की रक्षा करने लगा। वहाँ पास ही बाँस का वन था / एक बार दो साधु उस ओर से निकले / एक साधु दण्ड के लक्षणों को जानता था। उसने कहा - "अमुक-प्रकार का दण्ड जो ग्रहण करेगा, वह राजा होगा।" करकण्डु तथा एक ब्राह्मण के लड़के ने यह बात सुनी / ब्राह्मणकुमार तत्काल गया और उस लक्षण वाले बाँस का दण्ड काटा / करकण्डु ने कहा- "यह बाँस मेरे श्मशान में बढ़ा है, अतः इसका मालिक मैं हूँ।" दोनों में विवाद हुआ। न्यायाधीश के पास गए। उसने न्याय देते हुए करकण्डु को दण्ड दिला दिया। ब्राह्मण कुपित हुआ और उसने चाण्डाल परिवार को मारने का षड्यंत्र रचा। चाण्डाल को इसकी जानकारी मिल गई। वह अपने परिवार को साथ ले काञ्चनपुर चला गया। काञ्चनपुर का राजा मर चुका था। उसके पुत्र नहीं था। राजा चुनने के लिए घोड़ा छोड़ा गया। घोड़ा सीधा वहीं जा रुका, जहाँ चाण्डाल विश्राम कर रहा था। घोड़े ने कुमार करकण्डु की प्रदक्षिणा की और वह उसके निकट ठहर गया / सामन्त आए / कुमार को ले गए / राज्याभिषेक हुआ / वह काञ्चनपुर का राजा बन गया। जब ब्राह्मणकुमार ने यह समाचार सुना तो वह एक गाँव लेने की आशा से करकण्डु के पास आया और याचना की कि मुझे चम्पा-राज्य में एक गाँव दिया जाए। करकण्डु ने दधिवाहन के नाम पत्र लिखा। दधिवाहन ने इसे अपना अपमान समझा। उसने करकण्डु को बुरा-भला कहा। करकण्डु ने यह सब सुन कर चम्पा पर चढ़ाई कर दी। - साध्वी रानी पद्मावती ने युद्ध की बात सुनी। मनुष्य-संहार की कल्पना साकार हो उठी। वह चम्पा पहुँची। पिता-पुत्र का परिचय कराया। युद्ध बन्द हो गया। राजा दधिवाहन अपना सारा राज्य करकण्ड को दे प्रवजित हो गया। करकण्डु गो-प्रिय था / एक दिन वह गोकुल देखने गया। उसने एक पतले बछड़े को देखा। उसका मन दया से भर गया। उसने आज्ञा दी कि इस बछड़े को उसकी माँ का सारा दूध पिलाया जाए और जब यह बड़ा हो जाए तो दूसरी गायों का दूध भी इसे पिलाया जाए / गोपालों ने यह बात स्वीकार की। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . __बछड़ा सुखपूर्वक बढ़ने लगा। वह युवा हुआ। उसमें अपार शक्ति थी। राजा ने देखा / वह बहुत प्रसन्न हुआ। ..... कुछ समय बीता। एक दिन राजा पुन: वहाँ आया। उसने देखा कि वही बछड़ा आज बूढा हो गया है, आँखें गड़ी जा रही हैं, पैर लड़खड़ा रहे हैं और दूसरे छोटे-बड़े बैलों का संघट्टन सह रहा है। राजा का मन वैराग्य से भर गया। संसार की परिवर्तनशीलता का भान हुआ / वह प्रत्येक-बुद्ध हो गया।' बौद्ध-ग्रन्थ के अनुसार __उस समय कलिंग राष्ट्र में दन्तपुर नाम का नगर था / वहाँ करकण्ड नाम का राजा राज्य करता था। एक दिन वह उद्यान में गया। वहाँ उसने एक आम्र-वृक्ष देखा। वह फलों से लदा हुआ था। राजा ने एक आम तोड़ा और वहीं मंगल-शिला पर बैठ उसे खाया। राजा के साथ वाले सभी मनुष्यों ने एक-एक आम तोड़ा। कच्चे आम भी तोड़ लिए गए। वृक्ष फल-विहीन हो गया। __ घूम-फिर कर राजा पुन: उसी वृक्ष के नीचे आ ठहरा / उसने अर देखा। वृक्ष की शोभा नष्ट हो चुकी थी। वह वृक्ष अत्यन्त असुन्दर प्रतीत होने लगा। राजा ने पास में खड़े दूसरे आम्र-वृक्ष की ओर देखा। वह भी फल-हीन था, पर इतना असुन्दर नहीं दीख रहा था / राजा ने सोचा-"यह वृक्ष फल-रहित होने पर भी मुण्ड-मणि पर्वत की तरह सुन्दर लगता है लेकिन यह फल-युक्त होने से ही इस दशा को प्राप्त हुआ है। गृहस्थी भी फल वाले वृक्ष की तरह है / प्रव्रज्या फल-रहित वृक्ष के समान है / धन वाले को सर्वत्र भय है, अकिञ्चन को भय नहीं। मुझे भी फल-रहित वृक्ष की तरह होना चाहिए। विचारों की तीव्रता बढ़ी। फलित-वृक्ष का ध्यान कर वृक्ष के नीचे खड़े ही खड़े वह प्रत्येक-बुद्ध हो गया / "2 २-द्विमुख जैन-ग्रन्थ के अनुसार पाञ्चाल देश में काम्पिल्य नाम का नगर था। वहाँ जय नाम का राजा राज्य करता था। वह हरिकुलवंश में उत्पन्न हुआ था। उसकी रानी का नाम गणमाला था। ___ एक दिन राजा आस्थान मण्डप में बैठा था। उसने दूत से पूछा- "संसार में ऐसी कौन-सी वस्तु है जो मेरे पास नहीं है और दूसरे राजाओं के पास है ?" दूत ने कहा"राजन् ! तुम्हारे यहाँ चित्र-सभा नहीं है / " राजा ने तत्काल चित्रकारों को बुलाया और चित्र-सभा का निर्माण करने की आज्ञा दी। चित्रकारों ने कार्य प्रारम्भ किया। पृथ्वी १-सम्पूर्ण कथानक के लिए देखिये-सुखबोधा, पत्र 133 / २-कुम्भकार जातक (संख्या 408), जातक, चतुर्थ खण्ड, पृ० 37 / Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 2 प्रत्येक-बुद्ध . . को खुदाई होने लगी। पाँचवें दिन एक रत्नमय देदीप्यमान महामुकुट निकला। राजा को सूचना मिली / वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। थोड़े ही काल में चित्र-सभा का कार्य सम्पन्न हुआ। शुभ दिन देख कर राजा ने वहाँ प्रवेश किया और मंगल-वाद्य ध्वनियों के बीच उस मुकुट को धारण किया। उस मुकुट के प्रभाव से उसके दो मुंह दीखने लगे। लोगों ने उसका नाम 'द्विमुख' रखा। काल अतिक्रान्त हुआ। राजा के सात पुत्र हुए, पर एक भी पुत्री नहीं हुई। गुणमाला उदासीन रहने लगी। उसने मदन नामक यक्ष की आराधना प्रारम्भ की। यक्ष प्रसन्न हुा / उसके एक पुत्री हुई। उसका नाम 'मदनमञ्जरी' रखा। उज्जैनी के राजा चण्ड प्रद्योत ने मुकुट की बात सुनी। उसने दूत भेजा। दूत ने द्विमुख राजा से कहा- “या तो आप अपना मुकुट चण्डप्रद्योत राजा को समर्पित करें या युद्ध के लिए तैयार हो जाएँ ?" द्विमुख राजा ने कहा- 'मैं अपना मुकुट तभी दे सकता हूँ जबकि वह मुझे चार वस्तुएँ दे--(१) अनलगिरि हाथी, (2) अग्निभीरु रथ, (3) शिवादेवी और (4) लोहजंघ लेखाचार्य / ___ दूत ने जा कर चण्डप्रद्योत से सारी बात कही। वह कुपित हुआ और चतुरंगिणी सेना ले द्विमुख पर उसने चढ़ाई कर दी। वह सीमा पर पहुँचा। सेना का पड़ाव डाला और गरुड-व्यूह की रचना की। द्विमुख भी अपनी सेना ले सीमा पर आ डटा। उसने सागर-व्यूह की रचना की। ___ दोनों ओर भयंकर युद्ध हुआ। मुकुट के प्रभाव से द्विमुख की सेना अजेय रही। प्रद्योत की सेना भागने लगी। वह हार गया। द्विमुख ने उसे बन्दी बना डाला। - चण्डप्रद्योत कारागृह में बन्दी था। एक दिन उसने राजकन्या मदनमञ्जरी को देखा। वह उसमें आसक्त हो गया। ज्यों-त्यों रात बीती। प्रातःकाल हुआ। राजा द्विमुख वहाँ आया। उसने प्रद्योत को उदासीन देखा। कारण पूछने पर उसने सारी बात कही। उसने कहा-'यदि मदनमञ्जरी नहीं मिली तो मैं अग्नि में कूद कर मर जाऊँगा।" द्विमुख ने अपनी कन्या का विवाह उससे कर दिया। चण्डप्रद्योत अपनी नववधू को साथ ले उज्जनी चला गया। एक बार इन्द्र-महोत्सव' आया। राजा की आज्ञा से नागरिकों ने इन्द्रध्वज की १-इस महोत्सव का प्रारम्भ भरत ने किया था। निशीथचणि (पत्र 1174) में इसको आषाढी पूर्णिमा के दिन मनाने का तथा आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीया वृत्ति (पत्र 359) में कार्तिक पूर्णिमा को मनाने का उल्लेख है। लाड देश में श्रावण पूर्णिमा को यह महोत्सव मनाया जाता था। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन स्थापना की। वह इन्द्रध्वज अनेक प्रकार के पुष्पों, घण्टियों तथा मालाओं से सज्जित किया गया। लोगों ने उसकी पूजा की। स्थान-स्थान पर नृत्य-गीत होने लगे। सारे लोग मोद-मग्न थे। इस प्रकार सात दिन बीते / पूर्णिमा के दिन महाराज द्विमुख ने इन्द्रध्वज की पूजा की। पूजा-काल समाप्त हुआ। लोगों ने इन्द्रध्वज के आभूषण उतार लिए और काष्ठ को सड़क पर फेंक दिया। एक दिन राजा उसी मार्ग से निकला। उसने उस इन्द्रध्वज काष्ठ को मल-मूत्र में पड़े देखा। उसे वैराग्य हो आया। वह प्रत्येक बुद्ध हो पंच-मुष्टि लोच कर प्रवजित हो गया।' बौद्ध-ग्रन्थ के अनुसार उत्तर-पञ्चाल राष्ट्र में कम्भिल नाम का नगर था / वहाँ दुमुख नाम का राजा राज्य करता था। एक दिन वह प्रातःकाल के भोजन से निवृत्त हो, अलंकार पहन कर राज्यांगण की शोभा देख रहा था। उसी समय ग्वालों ने वृज का द्वार खोला। वृषभ व्रज से निकले / कामुकता के वशीभूत हो उन्होंने एक गौ का पीछा किया। काम-मात्सर्य से दो साँड लड़ने लगे। एक नुकोले सोंग वाले साँड़ ने दूसरे साँड़ की जाँघ में प्रहार किया। तोत्र प्रहार से आँत बाहर निकल आई। वहीं उसका प्राणान्त हो गया। राजा ने यह देखा और सोचा-"सभी प्राणी कामुकता के कारण कष्ट पाते हैं। मुझे चाहिए कि मैं इन कष्टदायी कामभोगों को छोड़ दूँ / " उसने खड़े ही खड़े प्रत्येक-बोधि प्राप्त कर ली। ३-नमि जैन-ग्रंथ के अनुसार ___ अवन्ती देश में सुदर्शन नाम का नगर था / वहाँ मणिरथ नाम का राजा राज्य करता था। युगबाहु इसका भाई था। उसकी पत्नी का नाम मदनरेखा था। मणिरथ ने युगबाहु को मार डाला / मदनरेखा गर्भवती थी / वह वहाँ से अकेली चल पड़ी। जंगल में उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसे रत्नकम्बल में लपेट कर वहीं रख दिया और स्वयं शौच-कर्म करने जलाशय में गई। वहाँ एक जलहस्ती ने उसे सूंड से पकड़ा और आकाश में उछाला। विदेह राष्ट्र के अन्तर्गत मिथिला नगरी का नरेश पद्मरथ शिकार करने जंगल में आया। उसने उस बच्चे को उठाया। वह निष्पुत्र था। पुत्र की सहज प्राप्ति पर उसे प्रसन्नता हुई / बालक उसके घर में बढ़ने लगा। उसके प्रभाव से पद्मरथ / १-सुखबोधा, पत्र 135-136 / २-कुम्भकार जातक (सं० 408), जातक, चतुर्थ खण्ड, पृ० 39-40 / Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 2, प्रकरण : 2 प्रत्येक-बुद्ध 365 के शत्रु राजा भी नत हो गए। इसलिए बालक का नाम 'नमि' रखा। युवा होने पर उसका विवाह 1008 कन्याओं के साथ सम्पन्न हुआ। पद्मरथ विदेह राष्ट्र की राज्यसत्ता नमि को सौंप प्रवजित हो गया। एक बार महाराज नमि को दाह-ज्वर हुआ। उसने छह मास तक अत्यन्त वेदना सही। वैद्यों ने रोग को असाध्य बतलाया। दाह-ज्वर को शान्त करने के लिए रानियाँ स्वयं चन्दन घिस रही थीं। उनके हाथ में पहिने हुए कंकण बज रहे थे। उनकी आवाज से राजा को कष्ट होने लगा। उसने कंकण उतार देने के लिए कहा। सभी रानियों ने सौभाग्य-चिह्न स्वरूप एक-एक कंकण को छोड़ कर शेष सभी कंकण उतार दिए / कुछ देर बाद राजा ने अपने मंत्री से पूछा- "कंकण का शब्द क्यों नहीं सुनाई दे रहा है ?" मंत्री ने कहा"राजन् ! उनके घर्षण से उठे हुए शब्द आपको अप्रिय लगते हैं, यह सोचकर सभी रानियों ने एक-एक कंकण के अतिरिक्त शेष कंकण उतार दिए हैं। अकेले में घर्षण नहीं होता। घर्षण के बिना शब्द कहाँ से उठे ?" राजा नमि ने सोचा- "सुख अकेलेपन में है / जहाँ द्वन्द्व है, वहाँ दुःख है।" विचार आगे बढ़ा। उसने सोचा यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊँगा तो अवश्य ही प्रव्रज्या ग्रहण कर लूंगा। उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा थी। राजा इसी चिंतन में लीन हो, सो गया। रात्रि के अंतिम प्रहर में उसने स्वप्न देखा / नन्दीवोष की आवाज से जागा / उसका दाह-ज्वर नष्ट हो चुका था। उसने स्वप्न का चिन्तन किया। उसे जाति-स्मृति हो आई / वह प्रतिबुद्ध हो प्रव्रजित हो गया।' बौद्ध-ग्रन्थ के अनुसार विदेह-राष्ट्र में मिथिला नाम की नगरी थी। वहाँ निमि नाम का राजा राज्य करता था। एक दिन वह गवाक्ष में बैठा हुआ राजपथ की शोभा देख रहा था / उसने देखा एक चील मांस का एक टुकड़ा लिए आकाश में उड़ी। इधर-उधर के गीध आदि पक्षी उसे धेर उससे भोजन छनीने लगे। छीना-झपटी हुई। चील ने मांस का टुकड़ा छोड़ दिया। दूसरे पक्षी ने उसे उठा लिया। गीधों ने उस पक्षी का पीछा किया। उससे छूटा तो दूसरे ने ग्रहण किया। उसे भी उसी प्रकार कष्ट देने लगे। राजा ने सोचा-"जिसजिस पक्षी ने मांस का टुकड़ा लिया, उसे-उसे ही दुःख सहना पड़ा, जिस-जिस ने छोड़ा उसे ही सुख मिला। इन पाँच काम-भोगों को जो-जो ग्रहण करता है, वह दुःख पाता है, जो-जो इन्हें ग्रहण नहीं करता, वह सुख पाता है। ये काम-भोग बहुतों के लिए १-सुखबोधा, पत्र 136-143 / Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन साधारण हैं। मेरे पास 16 हजार स्त्रियाँ हैं। मुझे काम-भोगों को त्याग सुखपूर्वक रहना चाहिए।" खड़े ही खड़े उसने भावना की वृद्धि की और प्रत्येक-बोधि को प्राप्त कर लिया। ४-नग्गति (नगगति') जैन-ग्रंथ के अनुसार गांधार जनपद में पुडवर्द्धन नाम का नगर था / वहाँ सिंहरथ नाम का राजा राज्य करता था। एक बार उत्तरापथ से उसके दो घोड़े भेंट आए। ____ एक दिन राजा और राजकुमार दोनों घोड़ों पर सवार हो उनकी परीक्षा करने निकले। राजा जिस घोड़े पर बैठा था, वह विपरीत शिक्षा वाला था। राजा ज्यों-ज्यों लगाम खींचता त्यों-त्यों वह तेजी से दौड़ता था। दौड़ते-दौड़ते वह बारह योजन तक चला गया। राजा ने लगाम ढोली छोड़ दी। घोड़ा वहीं रुक गया। उसे एक वृक्ष के नीचे बाँध राजा घूमने लगा / फल खा कर भूख शान्त की। रात बिताने के लिए राजा पहाड़ पर चढ़ा / वहाँ उसने सप्तभोप वाला एक सुन्दर महल देखा / राजा अन्दर गया। वहाँ एक सुन्दर कन्या देखो। एक दूसरे को देख दोनों में प्रेम हो गया। राजा ने कन्या का परिचय पूछा, पर उसने कहा-"पहले मेरे साथ विवाह करो, फिर में अपना सारा वृत्तान्त तुम्हें बताऊंगी।" __राजा ने उसके साथ विवाह किया। कन्या का नाम कनकमाला था। रात बीती / प्रातःकाल कन्या ने कथा सुनाई। राजा ने दत्तचित्त हो कथा सुनी। उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। वह एक महीने तक वहीं रहा। एक दिन उसने कनकमाला से कहा-"प्रिये ! शत्रुवर्ग कहीं मेरे राज्य का नाश न कर दें, इसलिए अब मुझे वहाँ जाना चाहिए / तू मुझे आज्ञा दे।" कनकयाला ने कहा"जैसी आपका आज्ञा ! परन्तु आपका नगर यहाँ से दूर है / आप पैदल कैसे चल सकेंगे? मेरे पास प्रज्ञप्ति विद्या है, आप इसे साध लें।" राजा ने विद्या की साधना की। विद्या सिद्ध होने पर उसके प्रभाव से अपने नगर पहुंच गया। राजा को प्राप्त कर लोगों ने महोत्सव मनाया। सामंतों ने राजा से पूर्व वृत्तान्त पूछा / राजा ने सारी बात बताई / सब आश्चर्य से भर गए / १-कुम्भकार जातक ( सं० 408), जातक खण्ड 4, पृ० 39 / २-बौद्ध जातक (सं० 408 ) में इसे नग्गजी और शतपथ ब्राह्मण (8 / 1 / 4 / 10) में नग्नजित् कह कर पुकारा है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 2 प्रत्येक-बुद्ध 367 राजी पाँच-पाँच दिनों से उसी पर्वत पर कनकमाला से मिलने जाया करता था। वह कुछ दिन उसके साय बिता कर अपने नगर को लौट आता। इस प्रकार काल बीतने लगा। लोग कहते-"राजा पर्वत पर है।" उसके बाद उसका नाम 'नग्गति' पड़ा। - एक दिन राजा भ्रमण करने निकला। उसने एक पुष्पित आम्र-वृक्ष देखा / एक मञ्जरी को तोड़ बह आगे निकला। साथ वाले सभी व्यक्तिओं ने मञ्जरी, पत्र, प्रवाल, पुष्प, फल आदि सारे तोड़ डाले। आम्र का वृक्ष अब केवल ठूठ मात्र रह गया। राजा पुनः उसी मार्ग से लौटा। उसने पूछा-"वह आम्र-वृक्ष कहाँ है ?" मंत्री ने अँगुली के इशारे से उस ठूठ की ओर संकेत किया। राजा आम की उस अवस्था को देख अवाक रह गया। उसे कारण ज्ञात हुआ। उसने सोचा-“जहाँ ऋद्धि है, वहाँ शोमा है परन्तु ऋद्धि स्वभावतः चञ्चल होती है / " इन विचारों से वह संबुद्ध हो गया। बौद्ध-ग्रन्थ के अनुसार गांधार राष्ट्र में तक्षशिला नाम का नगर था / वहाँ 'नग्गजी' नाम का राजा राज्य करता था। एक दिन उसने एक स्त्री को देखा। वह एक-एक हाथ में एक-एक कंगन पहने सुगन्धी पीस रही थी। राजा ने देखा, एक-एक कंगन के कारण न रगड़ होती है और न आवाज / इतने में ही उस स्त्री ने दायें हाथ का कंगन बाएँ हाथ में पहन लिया और दायें हाथ से सुगंधी समेटती हुई बाएं हाथ से पीसने लगे। अब एक हाथ में दो कंगन हो गए। आपस के घर्षण से शब्द होने लगा। राजा ने यह सुना / उसने सोचा-"यह कंगन अकेला था तो रगड़ नहीं खाता था, अब दो हो जाने के कारण रगड़ खाता है और आवाज करता है। इसी प्रकार ये प्राणी भी अकेले-अकेले में न रगड़ खाते हैं और न आवाज करते हैं। दो-तीन होने के कारण रगड़ खाते हैं, आवाज करते हैं। मुझे भी चाहिए कि मैं अकेला हो जाऊँ और अपना ही विचार करता रहूँ।" इन विचारों ही विचारों में विपश्यना की वृद्धि करते हुए वह प्रत्येक-बुद्ध हो गया / 2 जैन-कथानक के अनुसार . प्रत्येक बुद्ध का नाम राष्ट्र नगर पिता का नाम वैराग्य का कारण 1. करकण्डु कलिंग कांचनपुर दधिवाहन बूढ़ा बैल 2. द्विमुख पाञ्चाल काम्पिल्य जय इन्द्र-ध्वज 3. नमि विदेह मिथिला युगबाहु एक चूड़ी की निरववता 4. नग्गति गांधार पुण्ड्रवर्धन दृढ़सिंह मंजरी विहीन पाम्र पुरिसपुर वृक्ष १-सुखबोधा, पत्र 141-145 / १-कुम्भकार जातक (सं० 408), जातक, चौथा खण्ड, पृष्ठ 39 / Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन बौद्ध-कथानक के अनुसार प्रत्येक बुद्ध का नाम राष्ट्र नगर पिता का नाम वैराग्य 1. करण्डु (करकण्ड) कलिंग दन्तपुर . फल-विहीन आम्र-वृक्ष 2. दुमुख उत्तर-पांचाल कम्पिल वृषभ की कामुकता. 3. निमि विदेह मिथिला 0 मांस के टुकड़े के लिए पक्षियों की छिनाझपटी 4. नगजी गांधार तक्षशिला . एक बैंगन की नीरवता समीक्षा ___ उपर्युक्त वर्णन से यह ज्ञात हो जाता है कि चारों प्रत्येक-बुद्धों के नामों में और राष्ट्रों में प्रायः समानता है, किन्तु उनके वैराग्य के निमित्तों में व्यत्यय मालूम होता है। जैन-कथानक में वैराग्य का जो निमित्त नग्गति और नमि का है, वह बौद्ध-कथानक में करण्डु और नग्गजी का है। बौद्ध-कथानक में करकण्डु को दंतपुर का राजा बताया है। परन्तु जैन कथानक से यह स्पष्ट है कि करकण्डु की माँ चम्पा से निकल कर दंतपुर पहुंची। वहाँ दंतवक्र नाम का राजा राज्य करता था। वहाँ करकण्डु का जन्म हुआ। आगे चल कर वह कांचनपुर का राजा बना और बाद में चम्पा नगरी का भी राज्य उसे प्राप्त हो गया। कलिंग की राजधानी कांचनपुर थी। दूसरे प्रत्येक-बुद्ध का नाम, प्राकृत भाषा के अनुसार 'दुम्मुह' और पाली के अनुसार 'दुम्मुख' है। विदेह राज्य में दो 'नमि' हुए हैं। दोनों ने अपने अपने राज्य का त्याग कर दीक्षा ग्रहण की। एक तीर्थङ्कर हुए और दूसरे प्रत्येक-बुद्ध / ' उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन में प्रत्येक-बुद्ध नमि का वृत्तान्त है। ___ जैन-कथानक के अनुसार अवन्ती देश के राजा मणिरथ के छोटे भाई 'युगबाहु' थे। जब मणिरथ ने उनकी हत्या कर दी, तब उनकी पत्नी मदनरेखा उस राष्ट्र को छोड़ आगे निकल गई। जंगल में उसने पुत्र को जन्म दिया। उसके नवजात शिशु को मिथिला का नरेश पद्मरथ ले गया। उस बालक का नाम नमि रखा / कालान्तर में उसे विदेह राष्ट्र की राज्यसत्ता सौंप वह मुनि बन गया। इसी प्रकार कुछ काल बीता बाद नमि का बड़ा भाई, जो अवन्ती राष्ट्र का अधिपति था, भी अपने राष्ट्र की राज्यसत्ता नमि को सौंप प्रव्रजित हो गया। अब नमि विदेह और अवन्ती-दोनों राष्ट्रों का अधिपति बन गया। इससे यह स्पष्ट होता है कि पालित-पुत्र होने के कारण नमि पहले विदेह राष्ट्र का अधिपति बना और बाद में अवन्ती का। १-उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 267 / Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 2, प्रकरण : 2 प्रत्येक-बुद्ध 366 जन-कथानक के अनुसार नेमिचन्द्र ने ( सुखबोधा, पत्र 144 ) नग्गति के प्रकरण में गान्धार की राजधानी पुण्डवर्धनपुर माना है और चूर्णि (पृ० 171) तथा शान्त्याचार्य ( बृहद् वृत्ति, पत्र 304 ) ने उसकी राजधानी 'पुरुषपुर' माना है। कथानक के इसी प्रकरण में इसकी राजधानी 'तक्षशिला' है। विद्वानों ने गान्धार देश की तीन राजधानियाँ मानी हैं____पुण्डवर्धन' (पुष्कलावती पुक्खली), तक्षशिला, पुरुषपुर / संभव है ये तीनों नगर भिन्न-भिन्न समय में गान्धार की राजधानियाँ रही हों। यह भी संभव है कि एक ही राज्यकाल में राजधानियों के समय-समय के परिवर्तन से ही भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न उल्लेख हुए हों। चारों प्रत्येक-बुद्धों के कथानक, जो जैन-साहित्य में निबद्ध हैं, बहुत ही विस्तृत और परिपूर्ण हैं। उनमें ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक तथ्यों का सुन्दर गुम्फन है और वे जीवन के अथ से इति तक का सारा वृत्तान्त प्रस्तुत करते हैं / बौद्ध-कथानकों में उनका जीवन नाम मात्र का है, केवल उनके प्रतिबुद्ध होने के निमित्त का वर्णन है / कथानक की सम्पूर्णता की दृष्टि से यह बहुत ही अपर्याप्त है। ___ डॉ. हेमचन्द्रराय चौधरी जातकों में उल्लिखित इन चारों प्रत्येक-बुद्धों को पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु मानते हैं। इसी धारणा के आधार पर उन्होंने इनका काल-निर्णय भी किया है।४ ____ मुनि विजयेन्द्र सूरि ने इस मान्यता का खण्डन करते हुए राय चौधरी की भूल बताई है। विन्टरनिट्ज ने माना है—प्रत्येक बुद्धों की कथाएँ, जो जैन और बौद्ध-साहित्य में प्रचलित हैं, प्राचीन भारत के श्रमण-साहित्य की निधि रही हैं। उत्तराध्ययन की कथाओं के आधार पर करकण्डु और द्विमुख का अस्तित्व भगवान् महावीर के शासन काल में सिद्ध होता है / उसके दो मुख्य आधार हैं १-इसको पहचान 'चारसद्दा' से की जाती है। २-दी डिक्शनरी ऑफ पाली प्रोपर नेम्स, भाग 1, पृ० 983 / . ३-इसकी पहचान 'पेशावर' से की जाती है। ४-पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्शिएण्ट इण्डिया (पाँचवाँ संस्करण) पृ० 147 / ५-तीर्थकर महावीर, भाग 2, पृ० 574 / 6-The Jainas in the History of India Literature, p. 8. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (1) करकण्डु पद्मावती का पुत्र था। वह चेटक राजा की पुत्री और दधिवाहन की पत्नी थी। ये दोनों भगवान् महावीर के समसामयिक थे / 1 (2) द्विमुख की पुत्री मदनमञ्जरी का विवाह उज्जैनी के राजा चण्डप्रद्योत के साथ हुआ था। यह भी भगवान महावीर के समसामयिक थे। चारों प्रत्येक-बुद्ध एक साथ हुए थे, इसलिए उन चारों का अस्तित्व भगवान् महावीर के समय में ही सिद्ध होता है। डॉ० हीरालाल जैन ने करकण्डु का अस्तित्व-काल ई० पू० 800 से 500 के बीच माना है। उक्त अभिमत के अनुसार यदि हम प्रत्येक-बुद्धों का अस्तित्व ई० पू० 500 के आसपास मान लें तो दोनों धाराओं की दूरी समाप्त हो जाती है। प्रथम धारा के अनुसार प्रत्येक-बुद्ध भगवान् पार्श्व के शासन-काल में माने जाते हैं और दूसरी धारा के अनुसार वे भगवान महावीर के शासन-काल में माने जाते हैं। भगवान महावीर दीक्षित हुए उससे पूर्व भगवान् पार्श्व का शासन-काल था / प्रत्येक-बुद्ध भगवान् महावीर की दीक्षा से पूर्व प्रव्रजित हुए हों और उनके शासन काल में भी जीवित रहे हों तो दोनों मान्यताएं सत्य के निकट पहुँच जाती हैं। प्रत्येक-बुद्धों का उल्लेख वैदिक-साहित्य में नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि वे श्रमण-परम्परा के थे। उपनिषद् साहित्य में जनक (या निमि) तथा महाभारत में जनक के रूप में उसी व्यक्ति का उल्लेख हुआ है, जिसका उत्तराध्ययन में 'नमि' के रूप में उल्लेख है। उत्तराध्ययन सूत्र में उनके प्रत्येक-बुद्ध होने का उल्लेख नहीं है। इसका प्रथम उल्लेख उत्तराध्ययन की नियुक्ति में मिलता है। उनके जीवन-वृत्त टोकाओं में मिलते हैं। उनका प्राचीन आधार क्या रहा है, यह निश्चयपूर्वक नहीं बताया जा सकता। बौद्ध-साहित्य में चारों प्रत्येक-बुद्धों का उल्लेख इस तथ्य की ओर ध्यान खींचता है कि वे महावीर के शासन काल से पूर्व प्रव्रजित हो चुके थे। भगवान् पार्श्व की परम्परा श्रमणों की सामान्य परम्परा रही है। भगवान महावीर के काल में निर्ग्रन्थ, आजीवक, शाक्य आदि श्रमण-संघों में भेद बढ़ चुका था। उस स्थिति में भगवान् महावीर के शासन-काल में प्रवजित होने वाले प्रत्येक-बुद्धों का बौद्ध-साहित्य में स्वीकार हो, यह संभव नहीं लगता। इन कारणों से प्रत्येक-बुद्धों का अस्तित्व भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर के शासन का संधि-काल होना चाहिए। १-सुखबोधा, पत्र 133-135 / २-वही, पत्र 136 / ३-करकण्डु चरिअ (मुनि कनकामर कृत) हीरालाल जैन द्वारा संपादित, भूमिका, पृ० 15 / Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : तीसरा भौगोलिक परिचय उत्तराध्ययन सूत्र में अनेक देशों तथा नगरों का भिन्न-भिन्न स्थलों में निर्देश हुआ है / ढाई हजार वर्ष की इस लम्बी कालावधि में कई देशों और नगरों के नाम परिवर्तित हुए, कई मूलतः नष्ट हो गए और कई आज भी उसी नाम से प्रसिद्ध हैं। हमें उन सभी का अध्ययन प्राचीन प्रतिबिम्ब में करना है और वर्तमान में उनकी जो स्थिति है, उसे भी यथासाध्य प्रस्तुत करना है। जो नगर उस समय समृद्ध थे, वे आज खण्डहर मात्र रह गए हैं / पुराने नगर मिटते गए, नए उदय में आते गए। कई नगरों की बहुत छानबीन हुई है परन्तु आज भी ऐसे अनेक नगर हैं जिनकी छानबीन आवश्यक लगती है। आगम के व्याख्या-ग्रन्थों में तथा अन्यान्य जैन-रचनाओं में बहुत कुछ सामग्री विकीर्ण पड़ी है। आवश्यकता है कि उनमें भूगोल सम्बन्धी सारी सामग्नी एकत्र संकलित हो / उत्तराध्ययन में आये हुए देश व नगर (1) मिथिला (6 / 4) (12) गान्धार (18 / 45) (2) कम्बोज (11 / 16) (13) सौवीर (18 / 47) (3) हस्तिनापुर (13 / 1) (14) सुग्रीव नगर (1931) * (4) कम्पिल्ल (13 / 2 ; 18 / 1) (15) मगध (2011) (5) पुरिमताल (13 / 2) (16) कोशाम्बी (2018) (6) दशार्ण (13 / 6) (17) चम्पा (21 / 1) (7) काशी (13 / 6) (18) पिहुंड (21 / 3) ... (8) पाञ्चाल. (13 / 26 ; 18 / 45) (16) सोरियपुर (22 / 1) . (6) इषुकार नगर (14 / 1) (20) द्वारका (22 / 27) (10) कलिंग (18 / 45) (21) श्रावस्ती (23 // 3) (11) विदेह (18 / 45) (24) वाणारसी (25 / 13) विदेह और मिथिला विदेह राज्य की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गंडकी और पूर्व में मही नदी तक थी। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन जातक के अनुसार इस राष्ट्र का विस्तार तीन सौ योजन था।' इसमें सोलह हजार गाँव थे।२ विक्रम की चौथी-पांचवीं शताब्दी के बाद इसका नाम 'तीरहुत' पड़ा, जिसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। विक्रम की १४वीं शताब्दी में रचित 'विविध तीर्थ कल्प' में इसे 'तीरहुत्ति' नाम से पहचाना है। इसी का अपभ्रष्ट रूप 'तिरहुत' आज भी प्रचलित है / __यह एक समृद्ध राष्ट था। यहाँ का प्रत्येक घर 'कदली-वन' से सुशोभित था। खीर यहाँ का प्रिय भोजन माना जाता था। स्थान-स्थान पर वापी, कूप और तालाब मिलते थे। यहाँ को सामान्य जनता भी संस्कृत में विशारद थी। यहाँ के अनेक लोग धर्म-शास्त्रों में निपुण होते थे।४।। __ वर्तमान में नेपाल की सीमा के अन्तर्गत (जहाँ मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिले मिलते हैं) छोटे नगर 'जनकपुर' को प्राचीन मिथिला कहा जाता है।" . सुरुचि जातक से मिथिला के विस्तार का पता लगता है। एक बार बनारस के राजा ने ऐसा निश्चय किया कि वह अपनी कन्या का विवाह एक ऐसे राजपुत्र से करेगा जो एक पत्नी-व्रत धारण करेगा। मिथिला के राजकुमार सुरुचि के साथ विवाह की बातचीत चल रही थी। एक पत्नी-व्रत की बात सुन कर वहाँ के मन्त्रियों ने कहा-'मिथिला का विस्तार सात योजन है / समूचे राष्ट्र का विस्तार तीन सौ योजन है। हमारा राज्य बहुत बड़ा है। ऐसे राज्य में राजा के अन्तःपुर में सोलह हजार रानियाँ अवश्य होनी चाहिए।' मिथिला का दूसरा नाम 'जनकपुरी' था। जिनप्रभ सूरि के समय यह 'जगती' (प्रा० जगई) नाम से प्रसिद्ध थी। इसके पास ही महाराज जनक के भाई 'कनक' का निवास-स्थान 'कनकपुर' बसा हुआ था। यहाँ जैन-श्रमणों की एक शाखा 'मैथिलिया' का उद्भव हुआ था। १-सुरुचि जातक (सं 489), भाग 4, पृ० 521-522 / २-जातक (सं 406), भाग 4, पृ० 27 / ३-विविध तीर्थकल्प, पृ० 32 : .."संपइकाले 'तीरहुत्ति देसो' ति भण्णई / ४-वही, पृ० 32 / ५-दी एन्शियन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० 718 / ६-जातक सं० 489, भाग 4, पृ० 521-522 / ७-विविध तीर्थकल्प, पृ० 32 / ८-कल्पसूत्र, सूत्र 213, पृ० 64 / Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 3 भौगोलिक परिचय 373 भगवान् महावीर ने यहाँ छः चातुर्मास बिताए / 1 आठवें गणधर अकंपित की यह जन्म-भूमि थीं। प्रत्येक-बुद्ध नमि को कङ्कण की ध्वनि से यहीं वैराग्य हुआ था / बाणगंगा और गंडक-ये दो नदियाँ इस नगर को परिवेष्टित कर बहती थी / चौथे निह्नव अश्वमित्र ने वीर निर्वाण के 220 वर्ष पश्चात् 'सामुच्छे दिक-वाद' का प्रवर्तन यहीं से किया था। दशपूर्वधर आर्य महागिरि का यह प्रमुख विहार क्षेत्र था / जैन-आगमों में उल्लिखित दस राजधानियों में मिथिला का नाम है।६।। कम्बोज यह जनपद गान्धार के पश्चिम का प्रदेश था।' डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी ने इसे काबुल नदी के तट पर माना है। कुछ इसे बलुचिस्तान से लगा ईरान का प्रदेश मानते हैं। रायस डेविड्स ने इसे उत्तर-पश्चिम के छोर का प्रदेश माना है और इसकी राजधानी के रूप में द्वारका का उल्लेख किया है। ___ यह जनपद जातीय अश्वों और खच्चरों के लिए प्रसिद्ध था। जैन-आगम-साहित्य तथा आगमेतर-साहित्य में स्थान-स्थान पर कम्बोज के घोड़ों का उल्लेख मिलता है / 10 आचार्य बुद्धघोष ने इसे 'अश्वों का घर' कहा है / 11 पञ्चाल और काम्पिल कनिंघम के अनुसार आधुनिक एटा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद और आस-पास के जिले पञ्चाल राज्य की सीमा के अन्तर्गत आते हैं / 12 पञ्चाल जनपद दो भागों में विभक्त था-(१) उत्तर पंचाल और (2) दक्षिण १-कल्पसूत्र, सूत्र 122, पृ. 41 / २-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 644 / ३-विविध तीर्थकल्प, पृ० 32 / ४-आवश्यक भाष्य, गाथा 131 / ५-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 782 / ६-स्थानांग, 101717 / ७-अशोक (गायकवाड लेक्चर्स), पृ० 168, पद-संकेत 1 / -बौद्ध कालीन भारतीय भूगोल, पृ० 456-457 / / ९-बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० 28 / १०-उत्तराध्ययन, 11 / 16 / ११-सुमंगलविलासिनी, भाग 1, पृ० 124 / १२-देखिए-दी एन्शियन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० 412, 705 / Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पञ्चाल। पाणिनि व्याकरण में इसके तीन विभाग मिलते हैं-(१) पूर्व पञ्चाल, (2) अपर पञ्चाल और (3) दक्षिण पञ्चाल / ' -द्विमुख पञ्चाल का प्रभावशाली राजा था।२ पञ्चाल और लाट देश एक शासन के अधीन भी रहे हैं। बौद्ध-साहित्य में उल्लिखित 16 महाजनपदों में पञ्चाल का उल्लेख है। किन्तु जैन-आगम में निर्दिष्ट 16 जनपदों में उसका उल्लेख नहीं है। कनिंघम ने काम्पिल्ल की पहचान उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में फतेहगढ़ से 28. मील उत्तर-पूर्व, गंगा के समीप में स्थित 'कांपिल' से की है।५ कायमगंज रेलवे स्टेशन से यह केवल पाँच मील दूर है। महाराज द्विमुख इसी नगर में शोभाहीन ध्वजा को देख कर प्रतिबुद्ध हुए। हस्तिनापुर इसकी पहिचान मेरठ जिले के मवाना तहसील में मेरठ से 22 मील उत्तर-पूर्व में स्थित हस्तिनापुर गाँव से की गई है। जैन आगमों में उल्लिखित दस राजधानियों में इसका उल्लेख है और यह कुरुजनपद की प्रसिद्ध नगरी थी। जिनप्रभ सूरि ने इसकी उत्पत्ति का ऊहापोह करते हुए लिखा है-"ऋषभ के सौ पुत्र थे। उनमें एक का नाम 'कुरु' था। उसके नाम से 'कुरु' जनपद प्रसिद्ध हुआ / कुरु के पुत्र का नाम 'हस्ती' था। उसने हस्तिनापुर नगर बसाया। इस नगर के पास गंगा नदी बहती थी। पाली-साहित्य में इसका नाम 'हत्थिपुर' या 'हत्थिनीपुर' आता है। १-पाणिनि व्याकरण, 713 / 13 / २-सुखबोधा, पत्र 135-136 / ३-प्रभावक चरित, पृ० 24 / ४-अंगुत्तरनिकाय, भाग 1, पृ० 213 / ५-दी एन्शियन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० 413 / ६-सुखबोधा, पत्र 135-136 / ७-स्थानांग, 10 / 3 / 719 / ५-विविध तीर्थकल्प, पृ. 27 : हत्यिपुर या हत्थिनीपुर के पाली विवरणों में इसके समीप गंगा के होने का कोई उल्लेख नहीं है। रामायण, महाभारत, पुराणों में इसे गंगा के पास स्थित बताया है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 3 भौगोलिक परिचय 375 पुरिमताल ___ इसकी अवस्थिति के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताएं है / कई विद्वान् इसकी पहचान मानभूम के पास 'पुरुलिया' नामक स्थान से करते है / हेमचन्द्राचार्य ने इसे अयोध्या का शाखानगर माना है। आवश्यक नियुक्ति में विनीता के बहिर्भाग में 'पुरिमताल' नामक उद्यान का उल्लेख हुआ है। वहाँ भगवान् ऋषभ को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था और उसी दिन चक्रवर्ती भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई थी। भरत का छोटा भाई ऋषभसेन 'पुरिमताल' का स्वामी था। जब भगवान् ऋषभ वहाँ आए तब उसने उसी दिन भगवान् के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। विजयेन्द्र सूरि ने इस नगर की पहचान आधुनिक प्रयाग से की है, किन्तु अपनी मान्यता की पुष्टि के लिए कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। उन्होंने इतना मात्र लिखा है कि 'जन-ग्रन्थों में प्रयाग का प्राचीन नाम 'पुरिमताल' मिलता है।'४ सातवाँ वर्षावास समाप्त कर भगवान महावीर कंडाक सन्निवेश से 'लोहार्गला' नामक स्थान पर गए / वहाँ से उन्होंने पुरिमताल की ओर विहार किया। नगर के बाहर 'शकटमुख' नाम का उद्यान था। भगवान् उसी में ध्यान करने ठहर गए। पुरिमताल से विहार कर भगवान् उन्नाग और गोभूभि होते हुए राजगृह पहुँचे। चित्र का जीव सौधर्म कल्प से च्युत हो पुरिमताल नगर में एक श्रेष्ठी के घर में उत्पन्न हुआ। आगे चल कर ये बहुत बड़े ऋषि हुए। जार्ल सरपेन्टियर ने माना है कि 'पुरिमताल' का उल्लेख अन्यत्र देखने में नहीं आता। यह 'लिपि-कर्ता' का दोष संभव है। इसके स्थान पर 'कुरु-पञ्चाल' या ऐसा ही कुछ होना चाहिए। यह अनुमान यथार्थ नहीं लगता। हम ऊपर देख चुके हैं कि १-भारत के प्राचीन जैन तीर्थ, पृ० 33 / २-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित 1133389 : अयोध्याया महापुर्याः, शाखानगर मुत्तमम् / ययौ पुरिमतालाख्यं, भगवानृषभध्वजः // ३-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 342 : उज्जाणपुरिमताले पुरी विणीआइ तत्थ नाणवरे / चक्कुप्पया य भरहे निवेअणं चेव दुहंपि // ४-तीर्थङ्कर महावीर, भाग 1, पृ० 209 / ५-सुखबोधा, पत्र 187 / / ६-दी उत्तराध्ययन, पृ० 328 / Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . . पुरिमताल का अनेक ग्रन्थों में उल्लेख हुआ है। यह अयोध्या का उपनगर था, ऐसा . भगबान् महावीर के विहार-क्षेत्र से प्रतीत होता है। दशार्ण बुन्देलखण्ड में धसान नदी बहती है। उसके आसपास के प्रदेश का नाम 'दसण्ण' दशार्ण है। ___दशार्ण नाम के दो देश मिलते हैं-एक पूर्व में और दूसरा पश्चिम में / पूर्व-दशार्ण मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ जिले में माना जाता है। पश्चिम-दशार्ण में भोपाल राज्य और पूर्व-मालव का समावेश होता है। बनास नदी के पास बसी हुई मृत्तिकावती नगरी दशार्ण जनपद की राजधानी मानी जाती है। कालीदास ने दशार्ण जनपद का उल्लेख करते हुए 'विदिशा' (आधुनिक भिलसा) का उसकी राजधानी के रूप में उल्लेख किया है। - जैन-आगमों में उल्लिखित साढ़े पच्चीस आर्य देशों में 'दशार्ण' जनपद का उल्लेख है। दशार्ण जनपद के प्रमुख नगर दो थे—(१) दशार्णपुर (एलकच्छ, एडकाक्ष-झाँसी से 40 मील उत्तर-पूर्व 'एरच-एरछ' गाँव) और (2) दशपुर ( आधुनिक मंदसौर ) / ___ आर्य महागिरि इसी जनपद में दशार्णपुर के पास गजानपद (दशार्णकूट) पर्वत पर अनशन कर मृत्यु को प्राप्त हुए थे।३ दशार्णभद्र इस जनपद का राजा था। महावीर ने उसे इसी पर्वत पर दीक्षित किया था। काशी और वाणारसी ____ काशी जनपद पूर्व में मगध, पश्चिम में वत्स (वंस), उत्तर में कोशल और दक्षिण में 'सोन' नदी तक विस्तृत था। ___ काशी जनपद की सीमाएं कभी एक-सी नहीं रही हैं। काशी और कोशल में सदा संघर्ष चलता रहता और कभी काशी कोशल का और कभी कौशल काशी का अंग बन जाता था। ई० पू० छठी-पाँचवीं शताब्दी में काशी कोशल के अधीन हो गया था। उत्तराध्ययन सूत्र में हरिकेशबल के प्रकरण में टीकाकार ने बताया है कि हरिकेशबल वाणारसी के तिन्दुक उद्यान में अवस्थित थे। वहाँ कोशलिकराज की पुत्री भद्रा यक्ष १-मेघदुत, पूर्वमेघ, श्लोक 23-24 / २-वृहत्कल्प भाज्य, भाग 3, पृ० 913 / ३-आवश्यक चूर्णि, उत्तरभाग, पृ० 156-157 / Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख ड 2, प्रकरण : 3 भौगोलिक परिचय 377 पूजन के लिए आई।' इस घटना से भी काशी पर कोशल का प्रभुत्व प्रमाणित होता है। काशी राज्य का विस्तार 300 योजन बताया गया है। .. . वाराणसी काशी जनपद की राजधानी थी। यह नगर 'बरना' (बरुणा). और 'असी'-इन दो नदियों के बीच में स्थित था / इसलिए इसका नाम 'वाराणसी' पड़ा। यह नरुक्त नाम है। आधुनिक बनारस गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर गंगा और वरुणा के संगम-स्थल पर है। जैन-आगमोक्त दस राजधानियों में इसका उल्लेख है। यूआन् चुआङ्ग ने वाराणसी को देश और नगर-दोनों माना है। उसने वाराणसी देश का विस्तार चार हजार 'ली' और नगर का विस्तार लम्बाई में 18 'ली' और चौड़ाई में 6 'ली' बताया है।" काशी, कोशल आदि 18 गणराज्य वैशाली के नरेश चेटक की ओर से कणिक के विरुद्ध लड़े थे / 6 काशी के नरेश 'शंख' ने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ली थी। इषुकार (उसुयार) नगर ___ जन-ग्रन्थकारों ने इसे कुरु-जनपद का एक नगर माना है। यहाँ 'इषुकार' नाम का राजा राज्य करता था। उत्तराध्ययन में वर्णित इस नगर से सम्बन्धित कथा का उल्लेख बौद्ध-जातक (सं० 506) में मिलता है। वहाँ 'वाराणसी' नगरी का उल्लेख है और राजा का नाम 'एषुकार' है। राजतरंगिणी ( 7 / 1310, 1312 ) में 'हुशकपुर' नगर का उल्लेख हुआ है। आज भी काश्मीर में 'बारामूल' ( सं० बराह, बराहमूल ) से दो मील दक्षिण-पूर्व में बीहट नदी के पूर्वी किनारे पर 'हुशकार' या 'उसकार' नगर विद्यमान है। 'युयेनशान ने काश्मीर की घाटी में, ईस्वी सन् 631 के सितम्बर महीने में पश्चिम १-सुखबोधा, पत्र 174 / २-धजविहेढ़ जातक (सं० 361), जातक, भाग 3, पृ० 454 / ३-दि एन्शिएन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० 499 / ४-विविध तीर्थकल्प, पृ० 72 / ५-यूान् चुआङ्गस ट्रेवेल्स इन इण्डिया, भाग 2, पृ० 46-48 / .... ६-निरयावलिका, सूत्र 1 / / ७-स्थानांग, 8 / 621 / ८-उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 365 / 48 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन की ओर से प्रवेश किया था। उसने पूजनीय स्थानों की उपासना कर 'हुशकार' में . रात्रि बिताई।" - अबुरिहान ने भी 'उसकार' का उल्लेख कर उसे नदी के दोनों ओर स्थित माना ___ अल्बरूनी का कथन है कि काश्मीर की नदी भेलम 'उसकार' नगर से होती हुई घाटी में प्रवेश करती है। सम्भव है कि यह 'उसकार' नगर ही 'इषुकार-एषुकार' नगर हो। . कलिंग वर्तमान उड़ीसा का दक्षिणी भाग 'कलिंग' कहा जाता है। साढ़े पचीस आर्य-देशों में इसकी गणना की गई है। बौद्ध-ग्रन्थों में उल्लिखित 16 महाजनपदों में इसका उल्लेख नहीं है। यूआन् चुआङ्ग ने कलिंग जनपद का विस्तार पाँच हजार 'ली' और राजधानी का विस्तार बीस 'ली' बताया है। ____कलिंग देश की राजधानी काञ्चनपुर मानी जाती थी। सातवीं शताब्दी से यह नगर भुवनेश्वर' नाम से प्रसिद्ध है। गान्धार ___ इसकी अवस्थिति की चर्चा करते हुए कनिंघम ने लिखा है कि इसका विस्तार पूर्व-पश्चिम में एक हजार 'ली' (166 मील) और उत्तर-दक्षिण में 800 'ली' (133 मील) था। इसके आधार पर यह पश्चिम में लंघान और जलालाबाद तक, पूर्व में सिन्धु तक, उत्तर में स्वात और बुनिर पर्वत तक और दक्षिण में कालबाग पर्वत तक था / इस प्रकार स्वात से झेलम नदी तक का प्रदेश गान्धार के अन्तर्गत था। जैन-साहित्य में गान्धार की राजधानी 'पुण्ड्रवर्धन' का उल्लेख है और बौद्ध-साहित्य में 'तक्षशिला' का। गान्धार उत्तरापथ का प्रथम जनपद था। १-दि एन्शिएन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० 104-105 / २-वही, पृ० 104 / ३-अल्बरूनी'ज इण्डिया, पृ० 207 / ४-यूआन् चुआङ्ग'स ट्रेवेल्स इन इण्डिया, भाग 2, पृ० 198 / ५-वृहत्कल्प सूत्र, भाग 3, पृ० 913 / ६-वि एशिएन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया (सं० 1871), पृ० 48 / Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 3 भौगोलिक परिचय 376 सौवीर . आधुनिक विद्वान् 'सौवीर' को सिन्धु और झेलम नदी के बीच का प्रदेश मानते हैं / ' कुछ विद्वान् इसे सिन्धु नदी के पूर्व में मुल्तान तक का प्रदेश मानते हैं / 'सिन्धु-सौवीर' ऐसा संयुक्त नाम ही विशेष रूप से प्रचलित है। किन्तु सिन्धु और सौवीर पृथक-पृथक राज्य थे। उत्तराध्ययन में उद्रायण को 'सौवीरराज' कहा गया है। टीका से भी उसकी पुष्टि होती है। उसमें उद्रायण को सिन्धु, सौवीर आदि सोलह जनपदों का अधिपति बतलाया गया है / सुग्रीव नगर इस नगर की आधुनिक पहचान ज्ञात नहीं है और प्राचीन-साहित्य में भी इसके विशेष उल्लेख नहीं मिलते / मगध मगध जनपद वर्तमान गया और पटना जिलों के अन्तर्गत फैला हुआ था। उसके उत्तर में गंगा नदी, पश्चिम में सोन नदी, दक्षिण में विन्ध्याचल पर्वत का भाग और पूर्व में चम्पा नदी थी। इसका विस्तार तीन सौ योजन (2300 मील) था और इसमें अस्सी हजार गाँव थे। मगध का दूसरा नाम 'कीकट' था। मगध चरेश तथा कलिंग नरेशों के बीच वमनस्य चलता था।' कौशाम्बी कनिंघम ने इसकी आधनिक पहचान यमुना नदी के बाएँ तट पर, इलाहाबाद से सीधे रास्ते से लगभग 30 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित 'कोसम' गाँव से की है। '१-इण्डिया अज डिस्क्राइब्ड इन अली ट्रेक्ट्स ऑफ बुद्धिज्म एण्ड जैनिज्म, पृ०७०। २-पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्शिएन्ट इण्डिया, पृ० 507, नोट 1 / ३-उत्तराध्ययन, 18048 / ४-सुखबोधा, पत्र 252 / ५-बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० 24 / ६-वही, पृ० 24 / ७-वसुदेवहिण्डी, पृ० 61-64 / ८-दी एन्शिएन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० 454 / Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Si उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन कौशाम्बी और राजगृह के बीच अठारह योजन का एक महा अरण्य था। वहाँ बलभद्र प्रमुख कक्कडदास जाति के पाँच सौ चोर रहते थे। कपिल मुनि द्वारा वे प्रतिबुद्ध हुए। - जब भगवान् महावीर साकेत के 'सुभूमि भाग' नामक उद्यान में विहार कर रहे थे, तब उन्होंने अपने साधु-साध्वियों के विहार की सीमा की / उसमें कौशाम्बी दक्षिण दिशा की सीमा-निर्धारण नगरी थी। कौशाम्बी के आसपास की खुदाई में अनेक शिलालेख, प्राचीन मूर्तियाँ, आयगपट्ट, गुफाएं आदि निकली हैं। उनके सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह क्षेत्र जैन-धर्म का प्रमुख केन्द्र था। कनिंघम ने खुदाई में प्राप्त कई एक प्रमाणों से इसे बौद्धों का प्रमुख केन्द्र माना है। परन्तु कौशाम्बो के जैन-क्षेत्र होने के विषय में सर विन्सेन्ट स्मिथ ने लिखा है-"मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि इलाहाबाद जिले के अन्तर्गत 'कोसम' गाँव में प्राप्त अवशेषों में ज्यादातर जैनों के हैं। कनिंघम ने जो इन्हें बौद्ध अवशेषों के रूप में स्वीकार किया है, वह ठीक नहीं है। निःसन्देह ही यह स्थान जैनों की प्राचीन नगरी 'कौशाम्बी' का प्रतिनिधित्व करता है / इस स्थान पर, जहाँ मन्दिर विद्यमान हैं, वे आज भी महावीर के अनुयायियों के लिए तीर्थ-स्थल बने हुए हैं। मैंने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि बौद्ध-साहित्य की कौशाम्बी किसी दूसरे स्थल पर थी।"3 चम्पा __ यह अंग जनपद की राजधानी थी। कनिंघम ने इसकी पहचान भागलपुर से 24 मील पूर्व में स्थित आधुनिक 'चम्पापुर' और 'चम्पानगर' नामक दो गांवों से की है। उन्होंने लिखा है-"भागलपुर से ठीक 24 मील पर 'पत्थारघाट' है। यहीं या इसके आसपास ही चम्भा की अवस्थिति होनी चाहिए। इसके पास ही पश्चिम की ओर एक १-उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति, पत्र 288-289 / २-बृहत्कल्प सूत्र, भाग 3, पृ० 912 / 3-Journal of Royal Asiatic Society, July, 1894. I feel certain that the remains at kosam in the Allahabad District will prove to be Sain, for the most part and not Buddhist as Cunningham supposed. The village undoubtedly represents the Kausambi of the Jains and the site, where temples exist, is still, a place of pilgrimage for the votaries of Mahavira. I have shown good reasons for believing that the Buddhist Kausambi was a different place. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 3 भौगौलिक परिचय - 381 बड़ा गाँव है, जिसे चम्पानगर कहते हैं और एक छोटा गाँव है जिसे चम्पापुर कहते हैं / संभव है ये दोनों प्राचीन राजधानी 'चम्पा' को सही स्थिति के द्योतक हों।" 1 __फाहियान ने चम्पा को पाटलिपुत्र से 10 योजन पूर्व दिशा में, गंगा के दक्षिण तट पर स्थित माना है / 2 ___स्थानांग (10 / 717 ) में उल्लिखित दस राजधानियों में तथा दीघनिकाय में वर्णित छः महानगरियों में चम्पा का उल्लेख है। महाभारत के अनुसार चम्पा का प्राचीन नाम 'मालिनी' था। महाराज चम्प ने उसका नाम परिवर्तित कर 'चम्पा' रखा। यह भी माना जाता है कि मगध सम्राट् श्रेणिक की मृत्यु के बाद कुमार कूणिक को राजगृह में रहना अच्छा नहीं लगा। उसने एक स्थान पर चम्पक के सुन्दर वृक्षों को देख कर 'चम्पा' नगर बसाया। पिहुंड : . __यह समुद्र के किनारे पर स्थित एक नगर था।' सरपेन्टियर ने माना है कि यह भारतीय नगर प्रतीत नहीं होता। सम्भवतः यह बर्मा का कोई तटवर्ती नगर हो सकता है। जेकोबी ने इसका कोई ऊहापोह नहीं किया है / ___ डॉ० सिलवेन लेवी का अनुमान है कि इसी पिहुंड नगर के लिए खारवेल के शिलालेख में पिहुड (पिथुड), पिहुंडग (पिधुंडग) नाम आया है तथा टालेमी का 'पिटुण्ड्रे' भी पिहुंड का ही नाम है। लेवी के अनुसार इसकी अवस्थिति मैसोलस और मानदसइन दो नदियों के बीच स्थित मैसोलिया का अन्तरिम भाग है। दूसरे शब्दों में गोदावरी और महानदी के बीच का पुलिन (Delta) प्राचीन पिहुंड है। ___ डॉ. विमलचरण लॉ ने लिखा है कि इस नगर की खोज चिकाकोल और कलिंगपटम के अंतरिम भागों में नागावतो (अपर नाम लांगुलिया) नदी के तटीय प्रदेशों में करनी चाहिए। १-दि एन्शिएण्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० 546-547 / २-ट्रेवल्स ऑफ फाहियान, पृ० 65 / ३-महाभारत, 12 // 5 // 134 / ४-विविध तीर्थकल्प, पृ० 65 / ५-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 261 : समुद्दत्तीरे पिहुंडं नाम नगरं। 6-The Uttaradhyayana Sutra, p. 357. ७-ज्योग्राफी ऑफ बुद्धिज्म, पृ० 65 / ८-सम जैन केनोनिकल लिटरेचर, पृ० 146 / Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन सम्राट् खारवेल का राज्याभिषेक ई० पू० 166 के लगभग हुआ। राज्यकाल के ग्यारहवें वर्ष में उसने दक्षिण देश को विजित किया और पियुंड (पृथुदकदर्भपुरी) का ध्वंस . किया।' यह 'पिधुंड' नगर 'पिहुंड' होना चाहिए / सोरियपुर यह कुशावर्त जनपद की राजधानी थी। वर्तमान में इसकी पहचान आगरा जिले में यमुना नदी के किनारे बटेश्वर के पास आए हुए 'सूर्यपुर' या 'सूरजपुर' से की जाती है। सोरिक (सोरियपुर) नारद की जन्मभूमि थी। सूत्रकृतांग में एक 'लोरी' में अनेक नगरों के साथ 'सोरियपुर' का भी उल्लेख हुआ है।४ द्वारका द्वारका की अवस्थिति के विषय में अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं : (1) रायस डेविड्स ने द्वारका को कम्बोज की राजधानी बताया है।" (2) बौद्ध-साहित्य में द्वारका को कम्बोज का एक नगर माना गया है। डॉ० . मललशेखर ने इस कथन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि सम्भव है यह कम्बोज 'कंसभोज' हो, जो कि अन्धकवृष्णिदास पुत्रों का देश था।" (3) डॉ० मोतीचन्द्र ने कम्बोज को पामीर प्रदेश मान कर द्वारका को बदरवंशा से उत्तर में स्थित 'दरवाज' नामक नगर माना है।' (4) घट जातक (सं० 355) के अनुसार द्वारका के एक ओर समुद्र था और दूसरी ओर पर्वत था। डॉ० मललशेखर ने इसी को मान्य किया है। १-भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० 185 / २-कालक-कथासंग्रह, उपोद्घात, पृ० 52 / ३-आवश्यक चूर्णि, उत्तरभाग, पृ० 194 / ४-सूत्रकृतांग वृत्ति, पत्र 119 / 5-Buddhist India p. 28. : Kamboja was the adjoining country in the extreme north-west, with Dvaraka as its capital. ६-पेतवत्थु, भाग 2, पृ. 9 / ७-दि डिक्शनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग 1, पृ० 1126 / ८-ज्योग्राफिकल एण्ड इकोनॉमिक स्टडीज इन दी महाभारत, पृ० 32-40 / ९-दि डिक्शनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग 1, पृ० 1125 / / Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 383 खड 2, प्रकरण : 3 भौगोलिक परिचय (5) भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार द्वारका सौराष्ट्र जनपद का एक नगर था। वर्तमान द्वारिका कस्बे से आगे 20 मील की दूरी पर कच्छ की खाड़ी में एक छोटा-सा टापू है, उसमें एक दूसरी द्वारका बसी हुई है, जिसे 'बेट द्वारिका' कहते हैं / अनुश्रुति है कि यहाँ भगवान कृष्ण सैर करने आया करते थे। द्वारिका और बेट द्वारिका -दोनों नगरों में राधा, रुक्मिणी, सत्यभामा आदि के मन्दिर पाए जाते हैं। (6) कई विद्वानों ने इसकी अवस्थिति पंजाब में मानने की संभावना की है। (7) डॉ० अनन्त सदाशिव अल्तेकर ने द्वारका की अवस्थिति का निर्णय संशयास्पद माना है। उनका कहना है कि प्राचीन द्वारका समुद्र में डूब गई। (8) आधुनिक द्वारकापुरी प्राचीन द्वारका नहीं है। प्राचीन द्वारका गिरनार पर्वत की तलहटी में जूनागढ़ के आसपास बसी होनी चाहिए। (9) पुराणों के अनुसार यह भी माना जाता है कि महाराज रैवत ने समुद्र के बीच में कुशस्थली नगरी बसायी। यह आनर्त जनपद में थी। वही भगवान कृष्ण के समय में 'द्वारका' या 'द्वारवती' नाम से प्रसिद्ध हुई।५।। (10) जैन-साहित्य में उल्लेख है कि जरासन्ध के भय से भयभीत हो हरिवंश में उत्पन्न दशाह वर्ग मथुरा को छोड़ कर सौराष्ट्र में गए। वहाँ उन्होंने द्वारवती नगरी बसाई।६ महाभारत में इसी प्रसंग में कहा गया है कि जरासन्ध के भय से यादवों ने पश्चिम दिशा की शरण ली और रैवतक पर्वत से सुशोभित रमणीय कुशस्थली ( द्वारवती) नगर में जा बसे। कुशस्थली दुर्ग की मरम्मत कराई। . (11) जैन-आगम में साढ़े पचीस आर्य-देशों में द्वारका को सौराष्ट्र जनपद की राजधानी ___के रूप में उल्लिखित किया गया है। यह नगर नौ योजन चौड़ा और बारह १-बौद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ० 487 / २-बॉम्बे गेजेटीअर, भाग 1, पार्ट 1, पृ० 11 का टिप्पण 1 / ३-इण्डियन एन्टिक्वेरी, सन् 1925, सप्लिमेण्ट, पृ० 25 / ४-पुरातत्त्व, पुस्तक 4, पृ० 108 / ५-वायुपुराण, 6 // 27 // ६-दशवकालिक, हारिभद्रीय टीका, पत्र 36 / ७-महाभारत, समापर्व, 14 // 49-51,67 / ८-बृहत्कल्प, भाग 3, पृ० 912,914 / Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / योजन लम्बा था। इसके चारों ओर पत्थर का प्राकार था। ऐसा भी उल्लेख है कि इसका प्राकार सोने का था। इसके ईशान कोण में रेवतक . पर्वत था। इसके दुर्ग की लम्बाई तीन योजन थी। एक-एक योजन पर सेनाओं के तीन-तीन दलों की छावनी थी। प्रत्येक योजन के अन्त में सौ-सौ द्वार थे। इन सब तथ्यों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीन द्वारका रेवतक पर्वत के पास थी। रैवतक पर्वत सौराष्ट्र में आज भी विद्यमान है। संभव है कि प्राचीन . द्वारका इसी की तलहटी में बसी हो और पर्वत पर एक संगीन दुर्ग का निर्माण हुआ हो / __भागवत और विष्णुपुराण में उल्लेख है कि जब कृष्ण द्वारका को छोड़ कर चले गए तब वह समुद्र में डूब गई। केवल कृष्ण का राज-मन्दिर बचा रहा।" जैन-ग्रन्थों में भी उसके डब जाने की बात मिलती है। . जैन-ग्रन्थों में उल्लेख है कि एक बार कृष्ण ने भगवान् अरिष्टनेमि से द्वारका-दहन के विषय में प्रश्न पूछा / उस समय अरिष्टनेमि पल्हव देश में थे। अरिष्टनेमि ने कहा"वारह वर्ष के बाद द्वीपायन ऋषि के द्वारा इसका दहन होगा।" द्वीपायन परिव्राजक ने यह बात लोगों से सुनी। 'मैं द्वारका-दहन का निमित्त न बनें'-यह सोच वह उत्तरापथ में चला गया। काल की गणना ठीक न कर सकने के कारण वह बारहवं वर्षद्वारका में आया। यादवकुमारों ने उसका तिरस्कार किया। निदान-अवस्था में मर कर वह देव बना और उसने द्वारका को भस्म कर डाला। . द्वारवती-दहन से पूर्व एक बार फिर अरिष्टनेमि रैवतक पर्वत पर आए थे। जब द्वारवती का दहन हुआ तब वे पल्हव देश में थे। श्रावस्ती ___ यह कोशल राज्य की राजधानी थी। इसकी आधुनिक पहचान सहेट-महेट से की गई है। इसमें सहेट गोंडा जिले में और महेट बहराइच जिले में है। महेट उत्तर में है १-ज्ञाताधर्मकथा, पृ० 99,101 / २-बृहत्कल्प, भाग 2, पृ० 251 / ३-ज्ञाताधर्मकथा, पृ० 99 / ४-महाभारत, सभापर्व, 14 / 54-55 / ५-भागवत, 11 / 31 / 23 ; विष्णुपुराण, 5 // 27 // 36 / ६-सुखबोधा, पत्र 39-40 / ७-दशवकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र 36-37 / ८-सुखबोधा, पत्र 38 / Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 3 भौगोलिक परिचय 385 और सहेट दक्षिण में / ' यह स्थान उत्तर-पूर्वीय रेलवे के बलरामपुर स्टेशन से पक्की सड़क के रास्ते दस मील दूर है / बहराइच से इसकी दूरी 26 मील है। विद्वान् वी० स्मिथ ने श्रावस्ती को नेपाल देश के खजूरा प्रान्त में माना है। यह स्थान बालपुर के उत्तर दिशा में और नेपालगंज के पास उत्तर-पूर्वीय दिशा में है / __यूप्रान् चुआङ ने श्रावस्ती को जनपद मान कर उसका विस्तार छः हजार ली माना है। उसकी राजधानी के लिए उसने 'प्रासाद नगर' का प्रयोग किया है और उसका विस्तार बीस ली माना है / १-दी एन्शियण्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० 469-474 / २-जरनल ऑफ रायल एशियाटिक सोसाइटी, भाग 1, जन् 1900 / - ३-यूमान् चुड्स ट्रेवेल्स इन इण्डिया, भाग 1, पृ० 377 / 46 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चौथा व्यक्ति परिचय ... इस सूत्र में अनेक व्यक्तियों के नाम उल्लिखित हुए हैं। कई व्यक्ति इतिहास की परिधि में आते हैं और कई प्राग-ऐतिहासिक हैं / उनकी अविकल सूची तथा परिचय नीचे दिया जा रहा है : महावीर (2 / सू० 1) ___ इस अवसर्पिणी-काल में जैन-परम्परा के अंतिम तीर्थङ्कर / नायपुत्त (6 / 17) ____ भगवान् महावीर का वंश 'नाय'--'ज्ञात' था, इसलिए वे 'नायपुत्त' कहलाते थे / कपिल (अध्ययन 8) देखिए.-उत्तरज्झयणाणि, पृ० 65-67 / नमि (अध्ययन ह) देखिए-उत्तरज्झयणाणि, पृ० 105.108 / ' गौतम (अध्ययन 10) इनके पिता का नाम वसुभूति, माता का नाम पृथ्वी और गोत्र गौतम था। इनका जन्म ( ई० पू० 607 ) गोबर-ग्राम (मगध) में हुआ। इनका मूल नाम इन्द्रभूति था। एक बार मध्यम पावापुरी में आर्य सोमिल नाम के एक ब्राह्मण ने विशाल यज्ञ किया। इसमें भाग लेने के लिए अनेक विद्वान् आए। इनमें इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति—ये तीनों भाई भी थे। ये चोदह विद्याओं में पारंगत थे। ___ भगवान् महावीर भी बारह योजन का विहार कर मध्यम पावापुरी पहुंचे और गाँव के बाहर महासेन नामक उद्यान में ठहरे। भगवान् को देख सब का मन आश्चर्य से भर गया। ____ इन्द्रभूति को जीव के विषय में सन्देह था। वे महावीर के पास वाद-विवाद करने आए / उन्हें अपनी विद्वत्ता पर अभिमान था। उन्होंने सोचा यमस्य मालवो दूरे, किं स्यात् को वा वचस्विनः। अपोषितो रसो नूनं, किमजेयं च चक्रिणः / / –यम के लिए मालवा कितना दूर है ? वचस्वी मनुष्य द्वारा कौन-सा रस (शृङ्गार आदि) पोषित नहीं होता ? चक्रवर्ती के लिए क्या अजेय है ? ..., Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रेकरण : 4 व्यक्ति परिचय 37 भगवान् ने जीव का अस्तित्व साधा। इन्द्रभूति ने अपने पाँच सौ शिष्यों सहित भगवान् का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। गौतम भगवान् के प्रथम गणधर थे। ये 50 वर्ष तक गृहस्थ, तीस वर्ष तक छद्मस्थ तथा बारह वर्ष तक केवली पर्याय में रहे और अन्त में अनशन कर 62 वर्ष की अवस्था में (ई० पू० 515 में) राजगृह के वैभारगिरि पर्वत पर मुक्त हो गए। ......... ___ जैन-आगमों में गौतम द्वारा पूछे गए प्रश्न और भगवान् द्वारा दिए गए उत्तरों का सुन्दर संकलन है। हरिकेसबल (अध्ययन 12) देखिए-उत्तरज्झयणाणि, पृ० 141, 142 / कौशलिक (12 / 20) कौशलिक कोशल देश के राजा का नाम है। यहाँ कोशलिक से कौन-सा राजा अभिप्रेत है यह स्पष्ट उल्लिखित नहीं है। कौशलिक पुत्री की घटना वाराणसी में घटित हुई। काशी पर कौशल देश का प्रभुत्व महाकोशल और प्रसेनजित् के राज्यकाल में रहा है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि कौश लिक महाकोशल या प्रसेनजित् के लिए प्रयुक्त है। महाकौशल के साथ कौशलिक राष्ट्र का अधिक निकट सम्बन्ध है / संभव है यहाँ वह उसी के लिए व्यवहृत हुआ हो। भद्रा (12 / 20) महाराज कौशलिक की पुत्री। देखिए-उत्तरज्झयणाणि, पृ० 141, 142 / चुलगी (13 / 1) ___यह काम्पिल्यपुर के राजा 'ब्रह्म' की पटरानी और अन्तिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की. माँ थी। उत्तरपुराण (73 / 287) में इसका नाम 'चूड़ादेवी' दिया गया है। ब्रह्मदत्त (13 / 1) - इसके पिता का नाम 'ब्रह्म' और माता का नाम 'चुलणी' था। इनका जन्मस्थान पाञ्चाल जनपद में कंपिल्यपुर था। महावग्गजातक में भी चूलनी ब्रह्मदत्त को पाञ्चाल का राजा माना है / ये अंतिम चक्रवर्ती थे। आधुनिक विद्वानों ने इनका अस्तित्व काल ई० पू० दसवीं शताब्दी के आस-पास माना है।' चित्र, सम्भूत (अध्ययन 13) देखिए-उत्तराज्यणाणि, पृ० 153-156 / १-केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, भाग 1, पृ० 180 / ....... Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 385 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पुरोहित (14 // 3) पुरोहित का नाम मूल सूत्र में उल्लिखित नहीं है। वृत्ति में इसका नाम भृगु बतलाया गया है। देखिये-सुखबोधा, पत्र 204 / यशा (14 // 3) ___ कुरु जनपद के इषुकार नगर में भृगु पुरोहित रहता था। उसकी पत्नी का नाम यशा था। उसके दो पुत्र हुए / अपने पुत्रों के साथ वह भी दीक्षित हो गई। कमलावती (13 // 3) यह इषुकार नगर के महाराज 'इषुकार' की पटरानी थी। इषुकार (14 // 3) यह कुरु जनपद के इषुकार नगर का राजा था। यह इसका राज्यकालीन नाम था। इसका मौलिक नाम 'सीमंधर' था / अन्त में अपने राज्य को छोड़ यह प्रवजित हुआ। बौद्ध-ग्रन्थकारों ने इसे 'एसुकारी' नाम से उल्लिखित किया है। संजय (18 / 1) देखिए-उत्तरज्झयणाणि, पृ० 221 / गर्दमालि (18 / 16) ये जैन-शासन में दीक्षित मुनि थे। पाञ्चाल जनपद का राजा 'संजय' इनके पास दीक्षित हुआ था। भरत (18 / 34) ये भगवान् ऋषभ के प्रथम पुत्र और प्रथम चक्रवर्ती थे। इन्हीं के नाम पर इस देश का नाम 'भारत' पड़ा। सगर (18 / 35) ये दूसरे चक्रवर्ती थे। अयोध्या नगरी में जितशत्रु नाम का राजा राज्य करता था। वह ईक्ष्वाकुवंशीय था। उसके भाई का नाम सुमित्रविजय था। उसके दो पत्नियाँ थींविजया और यशोमती। विजया के पुत्र का नाम अजित था। वे दूसरे तीर्थङ्कर हुए और यशोमती के पुत्र का नाम सगर था। १-बृहद् वृत्ति, पत्र 394 / २-बृहद् वृत्ति, पत्र 394 / ३-उत्तराध्ययन, 14.49 / ४-हस्तिपाल जातक, संख्या 509 / Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंण्ड 2, प्रकरण : 4 व्यक्तिगत परिचय 386 मघव (18 / 36) श्रावस्ती नगरी के राजा समुद्रविजय को पटरानी भद्रा के गर्भ से इनका जन्म हुआ। ये तीसरे चक्रवर्ती हुए। सनत्कुमार (18 / 37) कुरु-जांगल जनपद में हस्तिनापुर नाम का नगर था। वहाँ कुरुवंश का राजा अश्वसेन राज्य करता था। उसकी भार्या का नाम सहदेवी था। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम सनत्कुमार रखा / ये चौथे चक्रवर्ती हुए / शान्ति (18638) ये हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन के पुत्र थे। इनकी माता का नाम अचिरा देवी था / ये पाँचवें चक्रवर्ती हुए और अन्त में अपना राज्य त्याग कर सोलहवें तीर्थङ्कर हुए। कुन्थु (18 / 36) ये हस्तिनापुर के राजा सूर के पुत्र थे। इनकी माता का नाम श्रीदेवी था। ये छठे चक्रवर्ती हुए और अन्त में राज्य त्याग कर सत्रहवें तीर्थङ्कर हुए। अर (1840) ये गजपुर नगर के राजा सुदर्शन के पुत्र थे। इनकी माता का नाम देवी था। ये सातवें चक्रवर्ती हुए और अन्त में राज्य छोड़ अठारहवें तीर्थङ्कर हुए। महापद्म (18 / 41) कुरु जनपद में हस्तिनापुर नाम का नगर था। वहाँ पद्मोत्तर नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम 'जाला' था। उसके दो पुत्र हुए-विष्णुकुमार और महापद्म / महापद्म नोवें चक्रवर्ती हुए / हरिषेण (18 / 42) काम्पिल्यनगर के राजा महाहरिश की रानी का नाम मेरा था। उनके पुत्र का नाम हरिषेण था। वे दसवें चक्रवर्ती हुए। जय (18 / 33) . __ ये राजगृह नगर के राजा समुद्रविजय के पुत्र थे। इनकी माता का नाम 'वप्रका' था। ये ग्यारहवें चक्रवर्ती हुए / बशार्णभद्र (18 / 44) ये दशार्ण जनपद के राजा थे / ये भगवान महावीर के समकालीन थे / (पूरे विवरण के लिए देखिए-सुखबोधा, पत्र 250, 251) / करकण्ड 18 / 45) . देखिए 'प्रत्येक-बुद्ध'-प्रकरण दूसरा / १-'भरत' से लेकर 'जय' तक के तीर्थङ्करों तथा चक्रवर्तियों का अस्तित्वकाल प्राग-ऐतिहासिक है। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन द्विमुख (18 / 45) देखिए–'प्रत्येक-बुद्ध'-प्रकरण दूसरा / नमि (18 / 45) देखिए–'प्रत्येक-बुद्ध'-प्रकरण दूसरा / नगगति(१८।४५) देखिए–'प्रत्येक-बुद्ध'-प्रकरण दूसरा / उद्रायण (18 / 47) ये सिन्धु-सौवीर जनपद के राजा थे। ये सिन्धु-सौवीर आदि सोलह जनपदों, वीतभय आदि 363 नगरों, महासेन आदि दस मुकुटधारी राजाओं के अधिपति थे। वैशाली गणतंत्र के राजा चेटक की पुत्री 'प्रभावती' इनकी पटरानी थी। काशीराज (18 / 48) इनका नाम नन्दन था और ये सातवें बलदेव थे। ये वराणसी के राजा अग्निशिख के पुत्र थे। इनकी माता का नाम जयन्ती और छोटे भाई का नाम दत्त था। विजय (18 / 46) ये द्वारकावती नगरी के राजा ब्रह्मराज के पुत्र थे। इनकी माता का नाम सुभद्रा था। ये दूसरे बलदेव थे। इनके छोटे भाई का नाम द्विपिष्ठ था। ___ उत्तराध्ययन के वृत्तिकार नेमिचन्द्र ने लिखा है कि "आवश्यक नियुक्ति में इन दो बलदेवों-नन्दन और विजय का उल्लेख आया है। इसलिए हम उसी के अनुसार यहाँ उनका विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यदि ये दोनों कोई दूसरे हों और आगमज्ञ-पुरुष उन्हें जानते हों तो उनकी दूसरी तरह से व्याख्या करें। इस कथन से इतना सष्ट हो जाता है कि सूत्रगत ये दोनों नाम उस समय सन्दिग्ध थे। शान्त्याचार्य ने इन दोनों पर कोई ऊहापोह नहीं किया है। नेमिचन्द्र ने अपनी टीका में कुछ अनिश्चित-सा उल्लेख कर छोड़ दिया है। ... यदि हम प्रकरणगत क्रम पर दृष्टि डाले तो हमें यह लगेगा कि सभी तीर्थङ्करों, चक्रवर्तियों तथा राजाओं के नाम क्रमशः आए हैं। उद्रायण भगवान् महावीर के समय में हुआ था। उनके बाद ही दो बलदेवों-काशीराज नन्दन और विजय का उल्लेख असंगत-सा लगता है। अतः यह प्रतीत होता है कि ये दोनों महावीरकालीन ही कोई राजा होने चाहिए। जिस श्लोक (18 / 48) में काशीराज का उल्लेख है. उसी में 'सेय' शब्द भी आया है। टोकाकारों ने इसे विशेषण माना है। कई इसे नामवाची मानकर 'सेय' राजा की ओर संकेत करते हैं / आगम-साहित्य में भी कहीं 'काशीराज सेय' का १-सुखबोधा, पत्र 256 / Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 4 व्यक्तिगत परिचय 361 उल्लेख ज्ञात नहीं है / भगवान महावीर ने आठ राजाओं को दीक्षित किया था, ऐसा उल्लेख स्थानांग में आया है / ' उसमें 'सेय' नाम का भी एक राजा था। परन्तु वह आमलकल्पा नगरी का राजा था, काशी का नहीं। इसी उल्लेख में 'काशीराज शंख' का भी नाम आया है। तो क्या श्लोकगत काशीराज से 'शंख' का ग्रहण किया जाय ? ___ भगवान महावीर-कालीन राजाओं में 'विजय' नामका कोई राजा दीक्षित हुआ हो-ऐसा ज्ञात नहीं है / पोलासपुर में विजय नाम का राजा हुआ था। उसका पुत्र अतिमुक्तक ( अइमुत्तय ) भगवान के पास दीक्षित हुआ-ऐसा उल्लेख अंतगडदशा में है। परन्तु महाराज विजय के प्रवजित होने की बात वहाँ नहीं है। विजय नाम का एक दूसरा राजा उत्तरपूर्व दिशा के मृगगाम नगर में हुआ था। उसकी रानी का नाम मृगा था / परन्तु वह भी दीक्षित हुआ हो, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। महाबल (1850) ____टीकाकार नेमिचन्द्र ने इनकी कथा विस्तार से दी है। उन्होंने अन्त में लिखा है कि व्याख्या-प्रज्ञप्ति में महाबल की कथा का उल्लेख है। वे हस्तिनापुर के राजा बल के पुत्र थे। उनकी माता का नाम प्रभावती था। वे तीर्थङ्कर विमल के परम्परागत आचार्य धर्मघोष के पास दीक्षित हुए। बारह वर्ष तक श्रामण्य का पालन किया। मर कर ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्युत हो वाणिज्यग्राम में एक श्रेष्ठी के यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। उनका नाम 'सुदर्शन' रखा। ये भगवान महावीर के पास प्रवजित होकर सिद्ध हुए। यह कथा व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार दी गई है। यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि महाबल वही है या अन्य / हमारी मान्यता के अनुसार यह के ई दूसरा होना चाहिए। क्या यह विपाक सूत्र (श्रुत 1 10 3) में वर्णित पुरिमताल नगर का राजा तो नहीं है। किन्तु वहाँ उसके दीक्षित होने का उलेख नहीं है। ___ संभव है कि यह विपाक सूत्र (श्रुत्र 2, अ० 7) में वर्णित महापुर नगर का राजा 'बल का पुत्र महाबल हो। १-स्थानांग, 0621 / -अन्तगडदशा सूत्र. वर्गा ३-विपाक सूत्र, श्रुतस्कन्ध 1, अध्ययन 1 / ४-सुखबोधा, पत्र 259 / Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन .. बलभद्र, मृगा और बलश्री (अध्ययन 19) बलभद्र सुग्रीवनगर (?) का राजा था। उसकी पटरानी का नाम 'मृगा' और पुत्र का नाम 'बलश्री' था। रानी मृगा का पुत्र होने के कारण जनता में वह 'मृगापुत्र' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। देखिए-उत्तरज्झयणाणि पृष्ठ 236, 237 श्रेणिक (2012) ___ यह मगध साम्राज्य का अधिपति था। जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों परम्पराओं में इसकी चर्चा मिलती है। पौराणिक ग्रन्थों में इसकी शिशुनागवंशीय, बौद्ध-ग्रन्थों में हर्यत कुल में उत्पन्न और जैन-ग्रन्थों में वाहीक कुल में उत्पन्न माना गया है / रायचौधरी का अभिमत है कि 'बौद्ध-साहित्य में जो हर्यङ्क कुल का उल्लेख है वह नागवंश का ही द्योतक है। कोवेल ने वे हर्यङ्क का अर्थ 'सिंह' किया, परन्तु इसका अर्थ 'नाग' भी होता है। प्रोफेसर भण्डारकर ने नागदशक में बिम्बिसार को गिनाया है और इन सभी राजाओं का वंश 'नाग' माना है।४ बौद्ध ग्रन्थ महावंश में इस कुल के लिए 'शिशुनाग वंश' लिखा है / 5 जैन-ग्रन्थों में उल्लिखित 'वाहीक कुल' भी नागवंश की ओर संकेत करता है, क्योंकि वाहीक जनपद नाग जाति का मुख्य केन्द्र था। तक्षशिला उसका प्रधान कार्य-क्षेत्र था और यह नगर वाहीक जनपद के अन्तर्गत था। अत: श्रेणिक को शिशुनागवंशीय मानना अनुचित नहीं है। बिम्बिसार शिशुनाग की परम्परा का राजा था-इस मान्यता से कुछ विद्वान् सहमत नहीं हैं। विद्वान् गैगर और भण्डारकर ने सिलोन के पाली वंशानुक्रम के आधार पर बिम्बसार और शिशुनाग को वंश-परम्परा का पृथक्त्व स्थापित किया है। उन्होंने शिशुनाग को बिम्बसार का पूर्वज न मानकर उसे उत्तरवर्ती माना है।६ विभिन्न परम्पराओं में श्रेणिक के विभिन्न नाम मिलते हैं। जैन-परम्परा में उसके दो नाम हैं—(१) श्रेणिक और (2) भंभासार / " नाम की सार्थकता पर ऊहापोह करते १-भागवत महापुराण, द्वितीय र.ण्ड, पृ० 903 / २-अश्वघोष बुद्धचरित्र, सर्ग 11 श्लोक 2 : जातस्य हर्यककुले विशाले...। ३-आवश्यक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र 677 / ४-स्टडीज इन इण्डिया एन्टिक्वीटीज, पृ० 216 / ५-महाबंश, परिच्छो, गाथा 27-32 / ६-स्टडीज इन इण्डियन एन्टिक्वीटीज, पृ० 215-216 / ७-अभिधान चिन्तामणि 33376 / Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : 2, प्रकरण : 4 व्यक्ति परिचय 363 हुए लिखा गया है कि वह श्रेणी का अधिपति था, इसलिए उसका नाम 'श्रेणक' पड़ा। जब श्रेणिक बालक था तब एक बार राजमहल में आग लग गई। श्रेगिक भयभीत हो कर भागा। उस स्थिति में भी वह 'भंभा' को आग की लपटों से निकालना नहीं भूला, इसलिए उसका नाम 'भंभासार' पड़ा। बौद्ध-परम्परा में इसके दो नाम प्रचलित हैं—(१) श्रेणिक और (2) बिम्बिसार / श्रेणिक नामकरण का पूर्वोक्त कारण मान्य रहा है। इसके अतिरिक्त दो कारण और बताए हैं-(१) या तो उसकी सेना महती थी इसलिए उसका नाम 'सेनिय' पड़ा मा (2) उसका गोत्र 'सेनिय' था, इसलिए वह 'श्रेणिक' कहलाया।" ___इसका नाम बिम्बिसार इसलिए पड़ा कि इसके शरीर का मोने जैसा रंग था / / दूसरी बात यह है कि तिब्बत के ग्रन्थों में इसकी माता का नाम 'बिम्बि' उल्लिखित मिलता है। अत: इसे बिम्बिसार कहा जाने लगा। ____ पुराणों में इसे अजातशत्रु, विधिसार' कहा जाता है / अन्यत्र इसे 'विंध्य सेन' और 'सुबिन्दु' भी कहा गया है / १-अभिधान चिन्तामणि, स्वोपज्ञ टीका, पत्र 285 / २--(क) त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र, 10 / 6 / 106-112 / (ख) स्थानांग वृत्ति, पत्र 461 / ३-इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टी, भाग 14, अंक 2, जून 1938, पृ० 415 / . ४-वही, पृ० 415 / * ५-धम्मपाल-उदान टीका, पृ० 104 / ६-पाली इंग्लिश डिक्शनरी, पृ० 110 / ७-इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटी, भाग 14, अंक 2, जून 1938, पृ० 413 / ८-भागवत, द्वितीय खण्ड, पृ० 903 / ह-वही, 12 / 1 / १०-भगवदत्त : भारतवर्ष का इतिहास, पृ० 252 / 50 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन - श्रेणिक के पिता का नाम 'प्रसेनजित'' और माता का नाम 'धारिणी'२ था। श्रेणिक के 25 रानिमों के नाम आगम-ग्रन्थ में उपलब्ध होते हैं। वे इस प्रकार है (1) नन्दा (6) भद्रा (17) कृष्णा - (2) नन्दवती (10) सुभद्रा (18) सुकृष्णा . (3) नन्दुसरा (11) सुजाता (16) महाकृष्णा (4) नन्दिश्रेणिक (12) सुमना (20) वीरकृष्णा (5) मरुय (13) भूतदिन्ना (21) रामकृष्णा . (6) सुमरुय (14) काली (22) पितृसेनकृष्णा (7) महामरुय (15) सुकाली (23) महासेनकृष्णा (8) मरुदेवा (16) महाकाली (24) चेल्लणा' (25) अपतगंधा बौद्ध-ग्रन्थों के अनुसार श्रेणिक के पाँच सौ रानियाँ थीं। पर कहीं भी उनका नामोल्लेख नहीं मिलता। १-आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र 671 / हरिषेणाचार्य ने बृहत्कल कोष (पृ० 78 ) में श्रेणिक के पिता का नाम 'उपश्रेणिक' और माता का नाम 'प्रभा' दिया है। उत्तरपुराण (74 / 4,8 पृ० 471 ) में पिता का नाम 'कूणिक' और माता का नाम 'श्रीमती' दिया है / यह अत्यन्त भ्रामक है।। अन्यत्र पिता का नाम महापद्म, हेमजित, क्षेत्रोजा, क्षेत्प्रोजा भी मिलते हैं। (देखिए-पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्शिएण्ट इण्डिया, पृ० 205) / २-अणुत्तरोववाइयवशा, प्रथम वर्ग / ३-अन्तकृद्दशा, सातवाँ वर्ग। ४-आवश्यक पूर्णि, उत्तराद्ध, पत्र 164 / ५-निशीथ चूर्णि, सभाष्य, भाग 1, पृ० 17 / ६-महावमा, 8 / 1 / 15 / Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . खण्ड 2, प्रकरणे : 4 व्यक्ति परिचय श्रेणिक के अनेक पुत्र थे। अनुत्तरोपपातिक' तथा निरयावलिका में उनके नाम इस प्रकार हैं (1) जाली' (10) अभयकुमार (16) महादुमसेन (28) सुकृष्णकुमार (2) मयाली (11) दीर्घसेन (20) सीह (26) महाकृष्णकुमार (3) उवयाली (12) महासेन (21) सीहसेन (30) वीरकृष्णकुमार (4) पुरिससेण (13) लष्टदंत (22) महासीहसेन (31) रायकृष्णकुमार : (5) वारिसेण (14) मूढ़दन्त (23) पूर्णसेन (32) सेणकृष्णकुमार (6) दीर्घदंत (15) सुद्धदन्त (24) कालीकुमार (33) महासेणकृष्णकुमार (7) लष्टदंत (16) हल्ल (25) सुकालकुमार (34) कूणिक (8) वेहल्ल' (17) दुम (26) महाकालकुमार (35) नंदिसेन" (9) वेहायस (18) दुमसेन (27) महाकृष्ण कुमार ज्ञाताधर्मकथा में श्रेणिक की पत्नी धारिणी से उत्पन्न मेघकुमार का उल्लेख है। इनमें से अधिकांश पुत्र राजा श्रेणिक के जीवन-काल में ही जिन-शासन में प्रवजित हो भगवान् महावीर के जीवन-काल में ही स्वर्गवासी हो गए। जाली आदि प्रथम पाँच कुमारों ने सोलह-सोलह वर्ष तक, तीन ने बारह-बारह वर्ष १-अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रथम वर्ग तथा द्वितीय वर्ग / २-निरयावलिका, 1 / ३-जाली आदि प्रथम सात पुत्र तथा दीर्घसेन से पुण्यसेन तक के तेरह पुत्र (कुल .. 20 पुत्र) धारिणी से उत्पन्न हुए थे (देखिए-अनुत्तरोपपातिक दशा, वर्ग ४-वेहल्ल और बेहायस-ये दोनों चेल्लणा के पुत्र थे। ५-अभयकुमार वेगातट (आधुनिक कृष्णा नदी के तट पर) के व्यापारी की पुत्री नन्दा का पुत्र था (अनुत्तरोपपातिक दशा, वग 1) / बौद्ध-ग्रन्थों में अभय को उज्जैनी की नर्तकी 'पद्मावती' का पुत्र बताया है (डिक्शनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग 1, पृ. 123) / कुछ विद्वान् इसे नर्तकी आम्रपाली का पुत्र बताते हैं (डॉ० ला : ट्राइस इन एन्शिएण्ट इण्डिया, पृ० 328) / ६-कूणिक चेल्लणा का पुत्र था। इसका दूसरा नाम अशोकचन्द्र था। देखिए___ आवश्यक चूर्णि, उत्तरभाग, पत्र 167 / ७-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व 10, सग 6, श्लोक 320 / ८-ज्ञाताधर्मकथा, प्रथम भाग, पत्र 19 / Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन तक और अन्तिम दो ने पांच-पाँच वर्ष तक श्रामण्य का पालन किया। इसी प्रकार . दीर्घसेन अदि 13 कुमारों ने सोलह-सोलह वर्ष तक श्रामण्य का पालन किया। श्रेनिक की अनेक रानियाँ भी भगवान् महावीर के पास दीक्षित हुई थीं। आगम तथा आगमेनर ग्रन्थों में श्रेणिक से सम्बन्धित इतने उल्लेख हैं कि उनके अध्ययन से यह कहा जा सकता है कि वह जैनधर्मावलम्बी था। उसका जीवन भगवान महावीर की जीवन-घटनाओं से इतना संपृक्त था कि स्थान-स्थान पर भगवान को श्रेणिक की बातें कहते पाते हैं। इसके अनेक पुत्र तथा रानियों का जैन-शासन में प्रवजित होना भी इसी ओर संकेत करता है कि वह जैन धर्मावलम्बी था। बौद्ध-ग्रन्थ उसे महात्मा बुद्ध का भक्त मानते हैं। कई विद्वान यह भी मानते हैं कि महाराज श्रेणिक जीवन के प्रवाई में जैन रहा होगा, किन्तु उत्तरार्द्ध में वह बौद्ध बन गया था। इसीलिए जन कथा-ग्रन्थों में उसके नरक जाने का उल्लेख मिलता है। नरक-गमन की बात वस्तु-स्थिति का निरूपण है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह पहले जैन था और बाद में बौद्ध हो गया। नरक-गमन के साथ-साथ भावी तीर्थङ्कर का उल्लेख भी मिलता है। कई यह भी अनुमान करते हैं. कि वह किसी धर्म विशेष का अनुयायी नहीं बना किन्तु जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों के प्रति समभाव रखता था तथा सब में उसका अनुराग था। - कुछ भी हो जैन-साहित्य में जिस विस्तार से उसका तथा उसके परिवार का वर्णन मिलता है, वह अन्यत्र नहीं है। श्रेणिक का सम्पूर्ण जीवन तथा आगामी जीवन का इतिहास जैन-ग्रन्थों में सन्हब्ध है। यदि उसका जैनधर्म के साथ गाढ़ सम्बन्ध नहीं होता तो इतना विस्तृत उल्लेख जैन ग्रन्थों में कभी नहीं मिलता। श्रेगिक के जीवन का विस्तार से वर्णन निरयावलिका में है। इसके भावी तीर्थङ्करजीवन का विस्तार स्थानांग (6 / 3 / 663) की वृत्ति (पत्र 458-468) में है। अनाथी मुनि (2016) ये कौशाम्बो नगरी के रहने वाले थे। इनके पिता बहुत धनाढ्य थे। एक बार १-अगुत्तरोपपातिक दशा, वर्ग 1 / २-वही, 60 2 / ३-कई विद्वान् इनके पिता का नाम 'धनसंचय' देते हैं। इस नामकरण का आधार उतराज्ययन (2018) में आए 'पभूयधणसंचयो' शब्द है, परन्तु यह आधार भ्रामक है। यह शब्द उनके पिता की आढ्यता का द्योतक हो सकता है न कि नाम का। यदि हम नाम के रूप में केवल 'धनसंचय' शब्द लेते हैं, तो 'पभूय' शब्द शेष रह जाता है और अकेले में इसका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। टीकाकार इस विषय में मौन हैं। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 4 व्यक्ति परिचय वचपन में ये नेत्र-रोग से पीड़ित हुए। विपुल-दाह के कारण सारे शरीर में भयंकर वेदना उत्पन्न हुई। चतुष्पाद चिकित्सा कराई गई, पर व्यर्थ / भाई-बन्धु भी उनकी वेदना को बंटा नहीं सके / अत्यन्त निराश हो, उन्होंने सोचा-'यदि मैं इस वेदना से मुक्त हो जाऊँ, तो प्रव्रज्या स्वीकार कर लूँगा।' वे रोग-मुक्त हो गए। माता-पिता की आज्ञा से वे दीक्षित हुए। एक बार राजगृह के मण्डिकुक्षि' चैत्य में महाराज श्रेणिक अनाथी मुनि से मिले / 2 मुनि ने राजा को सनाथ और अनाथ का अर्थ समझाया। राजा श्रेणिक उनसे धर्म की अनुशासना ले अपने स्थान पर लौट गया। मूल ग्रन्थ में 'अनाथी' का नाम नहीं है, किन्तु प्रसंग से यही नाम फलित होता है। पालित (2111) ___ यह चम्पा नगरी का सार्थवाह था। यह श्रमणोपासक था। निर्ग्रन्थ प्रवचन में इसे श्रद्धा थी। यह सामुद्रिक-व्यापार करता था। एक बार यह सामुद्रिक यात्रा के लिए निकला / जाते-जाते समुद्र-तट पर स्थित 'पिहुंड'४ नगर में रुका। वहाँ एक सेठ की लड़की से ब्याह करके लौटा। यात्रा के बीच उसे एक पुत्र हुआ। उसका नाम 'समुद्रपाल' रखा। जब वह युवा बना तब उसका विवाह 64 कलाओं में पारंगत 'रूपिणी' नामक एक कन्या से हुआ। एक बार वध-भूमि में ले जाने वाले चोर को देख कर वह विरक्त हुआ। माता-पिता की आज्ञा ले, वह दीक्षित हुआ और कर्म-क्षय कर मुक्त हो गया। समुद्रपाल (21 / 4) देखिए -'पालित'। रूपिणी (217) देखिए---'पालित' / रोहिणी (22 / 2) यह नौवें बलदेव 'राम' की माता, वसुदेव की पत्नी थी। देवकी (22 / 2) यह कृष्ण की माता और वसुदेव की पत्नी थी। १-दीघनिकाय, भाग 2, पृ० 91 में इसे 'मद्दकुच्छि' नाम से परि त किया है। २-डॉ. राधाकुमुद बनर्जी (हिन्दू सिविलाइजेशन, पृ० 187) म प्उकुक्ष में राजा श्रेणिक के धर्मानुरक्त होने की बात बताते हैं। किन्तु वे अनाथी मुनि के स्थान पर अनगारसिंह (20 / 58) शब्द से भगवान् महा रीर का ग्रहण करते हैं / परन्तु यह भ्रामक है। क्योंकि स्वयं मुनि (अनाथी) अपने मुँह से अपना परिचय देो हैं और अपने को कौशाम्बी का निवासी बताते हैं। देखिए-उत्तराध्ययन, 2018 / ३-देखिए - उत्तराध्धयन, अध्ययन 20 / ४-देखिए-भौगोलिक परिचय के अन्तर्गत 'पिहुंड' नगर / Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन राम (22 / 2) देखिए–'रोहिणी'। केशव (22 / 2) यह कृष्ण का पर्याय नाम है। ये वृष्णिकुल में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम वसुदेव और माता का नाम देवकी था। ये अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे। समुद्रविजय (22 / 63) ये सोरियपुर नगर में अंधककुल के नेता थे। उनकी पटरानी का नाम शिवा था। उसके चार पुत्र थे—(१) अरिष्टनेमि, (2) रथनेमि, (3) सत्यनेमि और (4) दृढनेमि / ' अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थङ्कर हुए और रथनेमि तथा सत्यनेमि प्रत्येक बुद्ध हुए। शिवा (22 / 4) देखिए - 'समुद्रविजय'। अरिष्टनेमि (22 / 4). ये बाईसवें तीर्थङ्कर थे। ये सोरियपुर नगर के राजा समुद्रविजय के पुत्र थे। इनकी माता का नाम शिवा था / ये गौतम गोत्रिय थे। कृष्ण इनके चचेरे भाई थे और आयुष्य में इनसे बड़े थे। राजीमती (22 / 6) ___ यह भोजकुल के राजन्य उग्रसेन की पुत्री थी। इसका वैवाहिक सम्बन्ध अरिष्टनेमि से तय हुआ था। किन्तु विवाह के ठीक समय पर अरिष्टनेमि को वैराग्य हो आया और वे मुनि बन गए / राजीमतो भी, कुछ काल बाद, प्रवजित हो गई। विष्णुपुराण (4 / 14 / 21) के अनुसार उनसेन के चार पुत्रियाँ थीं-कंसा, कंसवती, सुतनु और राष्ट्रपाली। संभव है 'सुतनु' राजीमती का ही दूसरा नाम हो / उत्तराध्ययन (22 / 37) में रथनेमि राजमती को 'सुतनु' नाम से सम्बोधित करते हैं / वासुदेव (22 / 8) कृष्ण का पर्यायवाची नाम है। वसारचक्र' (22 / 11) दस यादव राजाओं को 'दसार' कहा जाता है। वे ये हैं(१) समुद्रविजय (6) अचल (2) अक्षोभ्य (7) धरण (3) स्तिमित (8) पूरण (4) सागर (6) अभिचन्द (5) हिमवान् (10) वसुदेव १-विशेष विवरण के लिए देखिए–'उत्तराध्ययन-टिप्पण', पृ० 160-961 / Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 4 व्यक्ति परिचय 361 रथनेमि (22 / 34) ये अन्धककुल के नेता समुद्र विजय के पुत्र थे और तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि के लघु-भ्राता थे। अरिष्टनेमि के प्रवजित हो जाने पर वे राजीमती में आसक्त हो गए। पर राजीमती का उपदेश सुन कर वे संभल गए और दीक्षित हो गए। एक बार पुन: रैवतक पर्वत पर वर्षां से प्रताड़ित साध्वी राजीमती को एक गुफा में कपड़े सुखाते समय नग्न अवस्था में देख, वे विचलित हो गए / साध्वी राजीमती के उपदेश से वे संभल गए और अपने विचलन पर पश्चात्ताप करते हुए चले गए।' भोजराज (22 / 43) ___ जैन-साहित्य के अनुसार 'भोजराज' शब्द राजीमती के पिता उनसेन के लिए प्रयुक्त है। अन्धकवृष्णि (22 / 43) हरिवंशपुराण के अनुसार यदुवंश का उद्भव हरिवंश से हुआ। यदुवंश में नरपति नाम का राजा था। उसके दो पुत्र थे-(१) शूर और (2) सुवीर / सुवीर मथुरा में राज्य करता था और शूर शौर्यपुर का राजा बना। अन्धक-वृष्णि आदि 'सूर' के पुत्र थे और भोजनकवृष्णि आदि सुवीर के / अन्धकवृष्णि की मुख्य रानी का नाम सुभद्रा था। उसके दस पुत्र हुए-. . (1) समुद्रविजय (6) अचल (2) अक्षोभ्य (7) धारण (3) स्थिमिति सागर (8) पूरण (4) हिमवान् (6) अभिचन्द्र (5) विजय (10) वसुदेव . ये दसों पुत्र दशाह नाम से प्रसिद्ध हुए। अन्धकवृष्णि के दोकन्याएं थीं-(१) कुन्ती और (2) मद्री। भोजकवृष्णि की पत्नी का नाम पद्मावती था। उसके उग्रसेन, महासेन और . * देवसेन२-ये तीन पुत्र हुए / उनके एक गान्धारी नाम की पुत्री भी हुई। अरिष्टनेमि, रथनेमि आदि अन्धकवृष्णि राजा समुद्रविजय के पुत्र थे। कृष्ण आदि अन्धकवृष्णि वसुदेव के पुत्र थे। वैदिक पुराणों में इनकी वंशावली भिन्न-भिन्न प्रकार से दी गई है। १-सुखबोधा, पत्र 277-78 / २-उत्तरपुराण, (70 / 10) में इनका नाम महाद्युतिसेन दिया है। ३-देखिए-हरिवंशपुराण, 18 // 6-16 / ४-उत्तरपुराण, 70 / 101 / Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पूरे विस्तार के लिए देखिए-पारजीटर : एशिएण्ट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडीशन, पृष्ठ 104 -107 / पार्श (23:1) ये जैन-प मरा के तेईसवें तीर्थङ्कर थे। इनका समय ई० पू० आठवीं शताब्दी है / ये भगवान् महावोर से 250 वर्ष पूर्व हुए थे। ये 'पुरुषादानीय' कहलाते थे / कुमार-अनग केशी (23 / 2) ये भगव न् पार्श्वनाथ की परम्परा के चौथे पट्टधर थे। प्रथम पट्टधर आचार्य शुभदत्त हुए। उनके उत्तराधिकारी आचार्य हरिदत्त सूरि थे, जिन्होंने वेदान्त दर्शन प्रसिद्ध आचार्य 'लोहिय' से शास्त्र र्थ कर उनको पाँच सौ शिष्यों सहित दीक्षित किया। इन नवदीक्षित मुनियों ने सौराष्ट्र, तेलंगादि प्रान्तों में विहार कर जैन-शासन को प्रभावना की। तीसरे पट्टधर आच:य रामु रविजय सूरि थे। उनके समय में विदेशी' नामक एक प्रचारक आचार्य ने उज्जा नगरी में महागज जयसेन, उनकी रानी अनंगसुन्दरी और उनके राजकुमार केशो को दीक्षा किया।' ये ही भगवान् महावीर के तीर्थ-काल में पार्श्व-परम्परा के आचार्य थे। आगे चल कर इन्होंने नास्तिक राजा परदेशी को समझाया और उसे जैन-धन में स्थापित किया / - पूरे विवरण के लिए देखिये-उत्तरज्झयणागि, आमुख पृष्ठ 266-302 / बद्धन (23 / 5) ये चौबीसवें तीर्थङ्कर थे। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था / इनका समय ई० पू० छठी शताब्दी था। जयघोष, विजयघोष (2511) वाराणसी नगरी में जयघोष और विजयघोष नाम के दो भाई रहते थे। वे काश्यपगोत्रीय थे। वे यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह-- इन छः कार्यों में रत थे और चार वेदों के ज्ञाता थे। वे दोनों युगलरूप में जन्मे। जयघोष पहले दीक्षित हा। फिर उसने विजयघोष को प्रत्रजित किया। दोनों श्रामण्य की आराधना कर सिद्ध, वुद्ध, मुक्त हुए। गाग्य (27 / 1) ये स्थविर आचार्य गर्ग गोत्र के थे। जब उन्होंने देखा कि उनके सभी शिष्य अविनोत, उद्दण्ड और उच्छृङ्खल हो गये हैं, तब आत्मभाव से प्रेरित हो, शिष्य समुदाय को छोड़ कर, वे अकेले हो गये और आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे। विशेष विवरण के लिए देखिए-उत्तराध्ययन का 27 वाँ अध्ययन / १-समरसिंह, पृ० 75-76 / २-नाभिनन्दनोद्धार प्रबन्ध, 136 / Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचबाँ:प्रकरण १-निक्षेप-पद्धति निक्षेप नियुक्तिकालीन व्याख्या-पद्धति का मुख्य अंग है। शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। उनके अप्रस्तुत अर्थों का अग्रहण और प्रस्तुत अर्थ का बोध निक्षेप के द्वारा ही होता है। अप्रस्तुत अर्थों की व्याख्या में तत् तत् शब्द से सम्बन्धित अनेक ज्ञातव्य बातें प्रस्फुटित होती हैं। इस दृष्टि से निक्षेप-पद्धति का ऐतिहासिक मूल्य भी बहुत है। प्रत्येक शब्द का निक्षेप किया जा सकता है और उससे सम्बन्धित समन्न विषयों की व्याख्या करणीय है, किन्तु नियुक्ति व अन्य व्याख्याओं में इतने निक्षेप प्राप्त नहीं हैं। मुख्य-मुख्य शब्दों के ही निक्षेप बतलाए गए हैं। उनमें से कुछेक शब्दों के निक्षेप यहाँ उदाहरण रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं : १-अंग ___ इसका अर्थ है विभाग। यह चार प्रकार का है-(१) नाम-अंग, (2) स्थापनाअंग, (3) द्रव्य-अंग और (4) भाव-अग। द्रव्य-अंग के छः प्रकार हैं- (क) गन्ध-अंग (ख) औषध-अंग (ग) मच-अंग (घ) आतोच अंग (ङ) शरीर-अंग (च) युद्ध-अंग . (क) गंध-अंग उस समय में नेत्रबाला, प्रियंगु, तमालपत्र, ध्यामक और चातुर्जातिक-सज, इलायची, तेजपत्ता और नागकेसर-इन द्रव्यों को पीस कर एक चूर्ण बनाया जाता था। उसमें चमेली की भावना देने से वह गन्ध-द्रव्य करोड़ मूल्य का अर्थात् बहुमूल्यवान हो जाता था। चार तोला खशखश, चार तोला हाडबेर, एक तोला देवदारु, चार तोला सौंफ, चार तोला तमालपत्र-इन सबको पीस कर मिलाने से एक प्रकार का गन्ध-चूर्ण बनता था। यह चूर्ण वशीकरण के लिए प्रयुक्त होता था। जो व्यक्ति वशीकरण का प्रयोग करना चाहता था, वह इस चूर्ण को लगा स्नान करता और इसीका विलेपन करता था। १-भैषज्यरत्नावली, परिभाषा प्रकरण, श्लोक 19 : स्वगेलापत्रकेत्तुल्यैस्त्रिसुगन्धि नियातकम् / नागकेसरसंयुक्तं, चातुर्जातिकमूच्यते // Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन वह अपने कपड़ों में भी इसी चूर्ण की गन्ध देता था। इतना कर लेने पर वह जिसको वश .. में करने की इच्छा करता, वह व्यक्ति स्वयं उसकी ओर आकृष्ट हो जाता था। राजा चण्डप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता ने राजा उदयन को वश में करने के लिए इसी चूर्ण का प्रयोग किया था। (ख) औषध-अंग ___ पिण्डहरिद्रा, दारुहरिद्रा, इन्द्रयव, सुंठ, पिप्पली, मरीच, आर्द्रा और बेल की जड़इन सात द्रव्यों को एक साथ पीस कर उसमें पानी डाल गुटिका बनाई जाती थी। इस गुटिका के प्रयोग से खुजली, तिमिर रोग, अर्द्धशिरोरोग, समस्त सिर की व्यथा, तीन या चार दिन के अन्तर से आने वाला जर-ये सभी रोग तथा चूहे, सर्प आदि के दंश इस गुटिका से शान्त हो जाते थे। (ग) मद्य-अंग ___ सोलह सेर द्राक्षा, चार सेर' धाय के पुष्प और ढाई सेर इक्षु रस-इनको मिलाकर मद्य बनाया जाता था। (घ) आतोद्य-अंग . मुकुन्दा नाम का वाद्य अकेला ही अपने गम्भीर स्वर के कारण तूर्य का काम कर देता था, इसलिए वह आतोद्य का विशिष्ट अंग माना जाता था। इसकी विशिष्टांगता को समझाने के लिए नियुक्तिकार ने दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं, जैसे-(१) अभिमार नामक वृक्ष का काष्ठ अग्नि-उत्पादक शक्ति के कारण अग्नि का विशिष्ट अंग है और (2) शाल्मली वृक्ष का फूल, बड़ा होने के कारण, अकेला ही बच्चों का मुकुट बन जाता है / (ङ) शरीर-अंग ___ शरीर के अंग आठ हैं-शिर, उर, उदर, पीठ, दो बाहु और दो ऊरु / शरीर के उपांग ग्यारह हैं-कर्ण, नासा, अक्षि, जंघा, हस्त, पाद, नख, केश, श्मश्रु, अङ्गुलि और ओष्ठ / (च) युद्ध-अंग इसके आठ अंग हैं-यान, आवरण, प्रहरण, कौशल, नीति, दक्षता, व्यवसाय और शरीर का आरोग्य / ( इनके विस्तृत वर्णन के लिए देखिए—सभ्यता और संस्कृति के अन्तर्गत युद्ध-प्रकरण) १-बृहद्वृत्ति (पत्र 143) का अभिमत है कि यह मान मागद्य-देश का है। २-उत्तराध्ययन नियुक्ति, तथा 152 / Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 निक्षेप-पद्धति 403 भाव-अंग के दो प्रकार हैं-१-श्रुत-अंग और २-नोश्रुत-अंग। . . . . .. १-श्रुत अंग के बारह प्रकार हैं-(१) आचारांग, (2) सूत्रकृतांग, (3) स्थानांग, (4) समवायांग, (5) भगवती, (6) ज्ञाताधर्मकथा, (7) उपासकदशा, (8) अन्तकृद्दशा, (9) अनुत्तरोपपातिकदशा, (10) प्रश्नव्याकरण, (11) विपाक और (12) दृष्टिवाद / (2) नोश्रुत-अंग के चार प्रकार हैं (1) मानुष्य- मनुष्यता। ( 2 ) धर्मश्रुति- धर्म का श्रवण ( 3 ) श्रद्धा- धर्म करने की अभिलाषा। ( 4 ) वीर्य- तप और संयम में शक्ति / ' इसके छः प्रकार हैं(क) नामकरण (घ) क्षेत्रकरण. (ख) स्थापनाकरण (ङ) कालकरण और (ग) द्रव्यकरण (च) भावकरण द्रव्यकरण इसके दो प्रकार हैं: (1) संज्ञाकरण-जिसकी क्रिया के अनुगत संज्ञा हो, जैसे- 'कटकरण' अर्थात् कट निष्पादक उपकरण, 'अर्थकरण' अर्थात् सिक्का ढालने का ठप्पा। (2) नो-संज्ञाकरण-जिसकी संज्ञा क्रिया के अनुरूप रूढ़ न हो। * क्षेत्रकरण क्षेत्र-आकाश के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता, इसलिए द्रव्यकरण को भी अवकाश को प्रधानता के कारण 'क्षेत्रकरण' कहा जाता है, जैसे-इक्षुक्षेत्रकरण, शालिक्षेत्रकरण, तिलक्षेत्रकरण / १-(क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 144-156 / (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 92,93 / (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र 141-144 / Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययने कालकरण जिस द्रव्य की जितने काल प्रमाण में निष्पत्ति होती है, उसके लिए वह 'कालकरण' . है। जैसे-~भोजन पकाने में एक मुहूर्त लगता है तो भोजन की निष्पत्ति में वही 'कालकरण' है। ज्योतिष के पाँच अंग हैं-(१) तिथि, (2) नक्षत्र, (3) वार, (4) योग और (5) करण / करण का सम्बन्ध काल से है / कालकरण के ग्यारह प्रकार हैं(१) बव (2) बालव (3) कौलव (4) स्त्रीविलोचन (5) गरादि (6) वणिज (7) वृष्टि (8) शकुनि (6) चतुष्पद (10) नाग (11) किंस्तुघ्न इनमें प्रयम सात 'चल' और अन्तिम चार 'ध्रुव' हैं। प्रत्येक का समय चार-चार प्रहर का है। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन रात में 'शकुनि', अमावस्या के दिन में 'चतुष्पद', रात्रि में 'नाग' और प्रतिपदा के दिन 'किंस्तुघ्न'-ये चार करण अवस्थित रूप से होते हैं। भावकरण इसके दो प्रकार हैं-अजीवकरण और जीवकरण / अजीवकरण पाँच प्रकार का है-(१) पाँच प्रकार के वर्ण, (2) पाँच प्रकार के रस, (3) दो प्रकार के गन्ध, (4) आठ प्रकार के स्पर्श और (5) पाँच प्रकार के संस्थान / जीवकरण दो प्रकार का होता है-(१) श्रुतकरण और (2) नोश्रुतकरण / श्रुतकरण के दो भेद हैं-(१) बद्ध और (2) अबद्ध / बद्ध का अर्थ है-श्रुत में निबद्ध। इसके दो प्रकार हैं-(१) निशीथ और (2) भनिशीथ / निशीथ-जिसको एकान्त में पढ़ा जाता है या जिसकी व्याख्या एकान्त में की जाती है। निशीथ के दो प्रकार हैं (1) लौकिक- बृहदारण्यक आदि / (2) लोकोत्तर- निशीथ सूत्र आदि / Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 निक्षेप-पद्धति 405 अनिशीथ के दो प्रकार हैं-- (1) लौकिक- पुराण आदि / (2) लोकोत्तर- आचारांग आदि / अबद्ध के दो प्रकार हैं (1) लौकिक-बत्तीस अडिडया, छत्तीस पच्चड्डिया, सोलह करण और पाँच संस्थान / (2) लोकोत्तर—अर्हत्-प्रवचन में पाँच सौ आदेश अबद्ध हैं / इनका अङ्ग या उपाङ्ग में कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। जैसे (क) मरुदेवा अत्यन्त स्थावर (पूर्वकाल में स्थावरकाय से अनिःसृत ) होकर सिद्ध हुई। (ख) स्वयम्भूरमण समुद्र में मत्स्य और पद्म के वलय-वर्जित सभी संस्थान होते हैं। (ग) विष्णुकुमार महर्षि ने लक्ष योजन प्रमाण की शरीर-विकुर्वणा की थी। (घ) अतिवृष्टि के कारण 'कुणाला' का नाश हुआ और उसके बाद तीसरे वर्ष साकेत नगरी में 'करुड' और 'कुरुड' ( बृहद्वृत्ति के अनुसार 'कुरुड' और 'विकुरुड') नामक मुनियों का मरण हुआ और वे अत्यन्त अशुभ अध्यवसायों के कारण सातवें नरक में गए। (ङ) कुणाला नगरी के विनाश के तेरहवें वर्ष में श्रमण भगवान महावीर को केवल-ज्ञान की निष्पत्ति हुई, आदि आदि / नोश्रुतकरण दो प्रकार का है (1) गुणकरण- __तपःकरण और संयम-करण / ..(2) योजनाकरण- मन, वचन और काया का व्यापार / ' ३-संयोग जिसके साय या जिसमें 'यह मेरा है'-ऐसी बुद्धि होती है, उसे अथवा आत्मा के साथ आठ कर्मों के सम्बन्ध को 'संयोग' कहते हैं। इसके छः प्रकार हैं(१) नाम-संयोग (4) क्षेत्र-संयोग (2) स्थापना-संयोग (5) काल-संयोग (3) द्रव्य-संयोग (6) भाव-संयोग द्रव्य संयोग दो प्रकार का है-(१) संयुक्त द्रव्य-संयोग और (2) इतरेतर द्रव्यसंयोग / इतरेतर द्रव्य संयोग के छः प्रकार हैं। उनमें एक प्रकार है-सम्बन्धन-संयोग / १-(क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 103-108 / (ख) बृहवृत्ति, पत्र 194-205 / Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन संबंधन संयोग चार प्रकार का है (1) द्रव्य-सम्बन्धन संयोग / (2) क्षेत्र-सम्बन्धन संयोग / (3) काल-सम्बन्धन संयोग / (4) भाव-सम्बन्धन संयोग / द्रव्य-सम्बन्धन संयोग तीन प्रकार का है (1) सचित्त द्रव्य सम्बन्धन संयोग(क) द्विपद- पुत्र के संयोग से 'पुत्री' / (ख) चतुष्पद- गाय के संयोग से 'गोमान' / (ग) अपद- आराम ( बगीचे ) के संयोग से 'आरामिका'। पनस के संयोग से 'पनसवान्' / (2) अचित्त द्रव्य-सम्बन्धन संयोग-कुण्डल के संयोग से 'कुण्डली' / (3) मिश्र द्रव्य-सम्बन्धन संयोग- रथ पर चढ़कर जाने वाले को 'रथिक' कहा जाता है। क्षेत्र-सम्बन्धन संयोग दो प्रकार का होता है (1) अनपित (अविशेष)। (2) अर्पित (विशेष) सुराष्ट्र से सम्बन्धित 'सौराष्ट्रक' / मालव से सम्बन्धित 'मालवक' / मगध से सम्बन्धित 'मागध' / काल-सम्बन्धन संयोग के दो प्रकार हैं (1) अनर्पित (2) अर्पित-वसन्तकाल से सम्बन्धित को 'वासन्तिक' कहा जाता है। भाव-सम्बन्धन संयोग दो प्रकार का है (1) आदेश- औदयिक आदि भाव / (2) अनादेश- छः भावों में से कोई एक भाव / ४-पर-संयोग इसके चार प्रकार हैं (1) द्रव्य-बाह्य संयोग- दण्ड के संयोग से 'दण्डी'। (2) क्षेत्र-बाह्य संयोग- अरण्य में पैदा होने वाला 'अरण्यज' और नगर में पैदा होने वाला 'नगरज' कहलाता है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 निरुक्त 407 (1) काल-बाह्य संयोग- दिन में पैदा होने वाला 'दिनज' और रजनी में पैदा होने वाला 'रजनीज' कहलाता है। (2) तदुभय संयोग- (क) द्रव्य क्रोधी-दण्ड रखने वाला क्रोधी होता है। (ख) क्षेत्र क्रोधी-मालव और सुराष्ट्र में रहने ____वाला क्रोधी होता है। (ग) काल क्रोधी-वसन्त में पैदा होने वाला या वसन्त में क्रोधी होता है।' उपर्युक्त निक्षेप में चूर्णिकार और बृहद्वृत्तिकार-दोनों ने बहुत विस्तार से अनेक अवान्तर भेदों का उल्लेख किया है। हमने केवल संक्षेप में उनका विवरण प्रस्तुत किया है। २-निरुक्त निरुक्त का अर्थ है-शब्दों की व्युत्पत्ति-परक व्याख्या। इस पद्धति में शब्द का मूलस्पर्शी अर्थ ज्ञात हो सकता है / आगम के व्याख्यात्मक-साहित्य में इस पद्धति से शब्दों पर बहुत विचार हुआ है। उनकी छान-बीन से शब्द की वास्तविक प्रकृति को समझने में बहुत सहारा मिलता है और अर्थ सही रूप में पकड़ा जाता है। उत्तराध्ययन चूर्णि में अनेक निरुक्त दिये गये हैं। उनका संकलन शब्द-बोध में सहायक है। उत्तराध्ययन चूर्णि के कुछ निरूक्त ये हैं : पण्डित- पापाड्डीनः पण्डितः / (पृ. 28) ऽस्य जातेति पण्डितः / (पृ० 40) क्षुद्र- क्षणतीति क्षुद्रः / / कल्याण-- कल्यं आनयतीति कल्याणम् / (पृ० 41) ववहार- विविहं वा पहरणं विविधो वा अपहारः ववहारः / (पृ० 43) आतुर- अत्यर्थ तरतीत्यातुरः / मेधावी- मेरया धावतीति मेधावी। (पृ० 57) नाग- नास्य किञ्चिदगम्यं नागः / (पृ० 56) . संग्राम- समं असत इति संग्रामः / (पृ० 56) नमन्तं ग्रसतीति संग्रामः / (पृ० 184) १-(क) उत्तराध्ययन चूणि, पृ० 21-24 / (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 20-40 / Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन निगम (पृ० 66) (पृ० 70) (पृ० 72) समणसंजतपाणितृणप्रज्ञा आतप पङ्कफल नात्र करो विद्यते इति नगरम् / नयन्तीति निगमाः। मणं दारयतीति दारुणः। समो सम्वत्थमणो जस्स भवति स समणो। सम्म जतो संजतो। पातेति पिबति वा तेणेति पाणी। तरतीति तृणम् / प्रज्ञायते अनया इति प्रज्ञा / प्रागेव ज्ञायते अनयेति प्रज्ञा। आताप्यते येन स आतपः। तनोत्यसो तन्यते वा तन्तुः / पतन्त्यस्मिन्निति पङ्कः। फलतीति फलम् / दिह्यतीति देहम् / मनसि शेते मनुष्यः। विराजयत्यनेनैव वीरियं / चीयत इति काय: / सज्यते यत्र स सङ्गः / नयनशीलो नैयायिकः / युवति जुषन्ति वा तामिति योनिः / क्षीयते इति क्षेत्रम् / पूरयतीति पूर्वम् / वसन्ति तस्मिन् इति वस्तु / आवर्षतीति वर्षः / दयति इति दासः / मज्जति मज्जन्ति वा तमित मित्रम् / पातयते तमिति पापम् / पासयति पातयति वा पापम् / दानमानक्रियया बघ्नातीति बन्धुः / दीप्यते इति दीपः / मुह्यते येन स मोहः। पद्यते अनेनेति पदम् / (पृ० 72) (पृ० 74) .' (पृ० 74) (पृ० 77) (पृ० 210) (पृ० 76) (पृ० 79) (पृ० 76) (पृ० 83) (पृ० 86) (पृ० 66) (पृ० 66) (पृ० 66) (पृ० 67) (पृ०६८) (पृ० 101) (पृ० 101) (पृ० 101) (पृ० 101) (पृ० 101) मनुष्यवीरिय-- काय-- सङ्गनैयायिकयोनिक्षेत्रपूर्ववस्तुवर्षदासमित्रपाप बन्धु (पृ० 102) (पृ० 110) (पृ० 152) (पृ० 112) (पृ० 114) (पृ० 115) (पृ० 117) दीप Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 निरुक्त . .. 406. जीवित–जीव्यते येन तज्जीवितम् / (पृ०-११७) अश्व- अश्नाति प्रश्नुते वा अध्वानमिति अश्वः। (पृ० 122) स्थावर- तिष्ठन्तीति स्थावराः / .(पृ० 132) मांस- मन्यते स भक्षयिता येनोपमुक्तेन बलवन्तमात्मानमितिमांसम् / (पृ० 133) पुण्य पुणातीति पुण्यम् / ... (पृ. 136) मिक्षाक- भिक्षां आकुरिति भिक्षाकः / (पृ० 138) गृही- धर्मार्थकामान् गृह्णातीति गृही। (पृ. 138) व्रत- वियत इति व्रतम् / (पृ० 138) विव दिव्यति तस्मिन् इति दिवम् / (पृ० 138) पिंडोलग- पिंडेसु दीयमाणेसु ओलंति पिंडोलगा। (पृ० 138) अंग अंग्यते अनेन इति अङ्गम् / (पृ० 136) राति रातीति रातिः / (पृ० 136) छवि छादयति छादयन्ति वा तमिति छिद्यते वासो छविः। (पृ० 139) दीर्घ दीर्यन्ते इति दीर्घः। (पृ० 140) दीर्घते वा दीर्घः / (पृ० 153, 154) एति याति वा तस्मिन् इति आयुः / (पृ० 140) यश अश्नुते लोकेष्विति यशः / (पृ. 140) निग्गंय नास्य ग्रंथो विद्यत इति निम्रन्थः / (पृ० 146) निर्गतो वा ग्रन्थतो निग्गंथो। (पृ० 146) विद्या विद्यत इति विद्या। (पृ० 147) पुरुष पिबति प्रीणाति चात्मानमिति पुरुषः / (पृ० 147) पूर्णो वा सुखदुःखानामिति पुरुषः / (पृ० 147) पुरुषु शयनाद् वा पुरुषः / (पृ० 147) मित्र मेज्जतो मेयन्ति वा तदिति मित्रम् / (पृ० 146) माता मातयति मन्यते वाऽसौ माता / (पृ० 150) मिमीते मिनोति वा पुत्रधर्मानिति माता। (पृ० 150) पिता पाति बिभर्ति वा पुत्रमिति पिता / (पृ० 150) स्नुषा स्नेहेति स्नवन्ति वा तामिति स्नुषा। (पृ० 150) भार्या बिभर्ति भयते वासौ भार्या / (पृ० 150) पुत्र पुनातीति पुत्रः / (पृ० 150) पुनाति पिबति वा पुत्रः / (पृ० 180) आयु Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन : पशु- पश्यतीति पशुः / (पृ० 151). पात्र- पाति जीवानामात्मानं वा तेनेति पात्रम् / (पृ० 152) पिण्ड- पिण्डयति तं इति पिण्डः / पाश- पश्यतीति पाशः / / (पृ० 157) आएस- आएसं जाणतित्ति आइसो आवेसो वा। (पृ० 158) आविशति वा वेश्मनि, तत्र आविशति वा गत्वा इत्याएसा / (पृ० 158) ओदन- उतत्ति उदत्ति वा तमिति ओदनम् / (पृ० 158) अन्न- अङ्गन्ति तस्मिन्निति अङ्गनम् / (पृ० 158) गुरु- गृणातीति गीर्यते वा गुरुः / (पृ० 161) समुद्र- समंताद् अतीव उत्ता पृथिवी सर्वतस्तेनेति समुद्रः / (पृ० 166) धीर- धातीति धीरः / (पृ० 167) निःश्रेयस- नियतं निश्चितं वा श्रेयः निःश्रेयसम् / (पृ० 167) कलह- कलाभ्यो हीयते येन स कलहः / (पृ० 167) आमिष- यत् सामान्यं बहुभिः प्रार्थ्यते तद् आमिषम् / (पृ० 172) मन्यु- मथ्यते इति मन्थः / (पृ० 175) गण्ड- गच्छतीति गण्डम् / (पृ० 176) पेशल- प्रियं करोतीति पेशलः / (पृ० 177) प्रासाद- प्रसीदन्ति अस्मिन् जणस्य नयनमनांसि इति प्रासादः / (पृ० 181) गृह- गृह्णातीति गृहम् / (पृ० 181) मुनि- मनुते मन्यते वा जगति त्रिकालावस्थाभावानिति मुनिः / (पृ० 182) मोपुर- गोभिः पूर्यत इति गोपुरम् / (पृ० 182) धनु- घ्नन्ति तेन धारयन्ति वा धनुः / (पृ० 183) केयण- कीरति तं केयणं / (पृ० 183) अध्या- अत्ति प्राणानित्यध्वा / (पृ० 183) मास- मीयते तमिति मासः / (पृ० 184) घोर- घूर्णते अस्य भयं घोराः / (पृ० 184) घूर्णत इति घोरः / (पृ० 208) मणि- मन्यते इति मणिः / (पृ० 185) रोचते तदिति रूपम् / (पृ० 185) पर्वत- पर्वतीति पर्वतः / (पृ० 185) पृथ्वी- प्रथते पृथति वा तस्यां पृथिवी / (पृ० 185) विष- वेवेष्टि विष्णाति वा विषम् / (पृ० 185) Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 निरुक्त दुम- दोसु मातो दुमो। तीर्थ- तीर्यते तार्यते वा तीर्थम् / विसूचिका–सूचिरिव विदधतीति विसुचिका / आतङ्क- विविधैर्दुःखै विशेषरात्मानमङ्कयतीति आतङ्कः / धन- दधाति धीयते वा धनम् / धीयते धीयन्ते वाऽनेनेति प्राणिन इति धनम् / आलय- आलीयन्ते तस्मिन्नित्यालयः / ग्राम- ग्रसति बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामः / आस- अस्से त्ति अस्सेति असति य आसु पहाति त्ति आसो। कुंजर कु-भूमी तं जरेती कंजरं / हरि- हरति ह्रियते वा हरिः। नाम- नयति नीयते वा नाम / उपधि- उपदधाति तीर्थम् उपधिः / उपकरण-- उपकरोतीत्युपकरणम् / आशा- आशंसन्ति तमित्याशा। पांशु- पश्यति पाशयति वा पांशुः / स्थल- तिष्ठति तस्मिन्निति स्थलम / गिर्- गीयते गिरति गृणाति वा गिरा। बृहति वा अनेनेति ब्रह्म। महान्- महन्ति तमिति महान् / पराक्रम- परतः क्रामतीति पराक्रमः / ' यक्ष- नैति क्षयमिति यक्षाः / गिरि- गृणाति गिरन्ति वा तस्मिन् गिरीः / पनि- पाति तामिति पत्निः / नख- .. न क्षीयन्ति नखाः / अक्षि- अश्नोति इति अक्षिः / पतंग- पंतं पतन्तीति पतंगा। अग्गि- अग्गणं अग्गी। खन्यते तत् खनन्ति वा तत् मुखम् / जिह्वा- जायते जयति जिनति वा जिह्वा / नेत्र- नयतीति नेत्रम् / काष्ठ- कश्यतीति काष्ठम् / 411 (पृ० 187) (पृ० 160) (पृ० 161) (पृ० 161) (पृ० 162) (पृ० 205) (पृ० 163) (पृ० 163) (पृ० 198) (पृ० 166) (पृ० 203) (पृ० 203) (पृ० 204) (पृ० 204) (पृ० 204) (पृ० 204) (पृ० 205) (पृ० 206) (पृ० 207) (पृ० 207) (पृ० 208) (पृ० 208) (पृ० 208) (पृ० 208) (पृ० 208) (पृ० 206) (पृ० 206) (पृ० 206) (पृ० 206) (पृ० 206) (पृ० 209) (पृ० 209) Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन यूप मृग नगहंस श्वपाकसत्यनर- स्थलीभुजङ्गद्विजउरगसत्कारमुखरीस्थविरगणधर- इयति रक्षति वा अर्थः। युवन्ति तेनात्मनः समुच्छ्रितेन यूपा। मृग्यते इति मृगः / न गच्छतीति नगः। हसन्तीति हंसाः। गां गच्छतीति गङ्गा। श्वयति स्वसिति वाचा पुनः पञ्चतीति श्वपाकाः / सद्भ्यो हितं सत्यम् / नृत्यत इति नरः / स्थालायालं स्थली। भुजाभ्यां गच्छतीति भुजङ्गः / दो वारा जाता द्विजाः / उरेण गच्छतीति उरगः / शोभनः कारः सत्कारः। मुखेन अरिमावहतीति मुखरी। . स्थिरीकरणात् स्थविरः / गणं धारयतीति गणवरः / (पृ० 210) (पृ० 211) (पृ० 214) (पृ० 214) (पृ० 214) (पृ० 214) (पृ० 215) (पृ० 215) (पृ० 216) (पृ० 216) (पृ० 226) (पृ० 231) (पृ० 231) (पृ० 236) (पृ० 245) (पृ० 270) (पृ० 270) ३-सभ्यता और संस्कृति उत्तराध्ययन की रचना अनेक-कर्तृक है। उसका रचना-काल वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक का है। इसके मुख्य व्याख्या-ग्रन्थ चार हैं (1) नियुक्ति- द्वितीय भद्रबाहु (विक्रम की छठी शताब्दी)। (2) चूर्णि- गोपालिक महत्तर शिष्य (विक्रम की सातवीं शताब्दी)। (3) बृहद्वृत्ति-वादिवेताल शान्ति सूरि (विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी)। (4) सुखबोधा-नेमिचन्द्रसूरि (विक्रम की बारहवीं शताब्दी)। प्रस्तुत अध्ययन मूल आगम तथा उक्त व्याख्या-ग्रन्थों के आधार पर लिखा गया है। इससे प्रागमकालीन तथा व्याख्याकालीन सभ्यता और संस्कृति के विविध रूप हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 413 खेण्ड 2, प्रकरणं : 5 सभ्यता और संस्कृति राजा और युवराज सामुद्रिक-शास्त्र के अनुसार चक्र, स्वस्तिक, अंकुश आदि चिह्न राजा के लक्षण माने जाते थे। छत्र, चामर, सिंहासन आदि राज-चिह्न थे / राजा सर्वशक्ति-सम्पन्न व्यक्तित्व होता था। सामान्यतः राजा का उत्तराधिकारी उसका ज्येष्ठ पुत्र होता था। यदि ज्येष्ठ पुत्र विरक्त हो जाता तो छोटे पुत्र को राज- सिंहासन दे दिया जाता था। कभी-कभी समझदार व वयःप्राप्त हुए बिना ही राजा लोग अपने पुत्र को युवराज पद दे देते थे। अचलपुर के राजा जितशत्रु ने अपने पुत्र को शिशुवय में ही युवराज बना दिया था / राजकुमार जब दुर्व्यसनों में फंस जाते, तो राजा उन्हें देश-निकाला दे देते थे। उज्जनी का राजपुत्र मूलदेव सभी कलाओं में निपुण था। किन्तु उसे जुआ खेलने का व्यसन था। राजा ने उसे घर से निकाल दिया / शंखपुर के राजा सुन्दर का राजकुमार 'अगडदत्त' था। वह मद्य, मांस, आदि सभी व्यसनों में प्रवीण था / एक बार उसने नगर में कुछ गड़बड़ी पैदा कर दी। राजा ने उसे देश-निकाला दे दिया। कई राजा गोकुल-प्रिय होते थे। राजा करकण्डु के पास अनेक गोकुल थे। उसके पास लम्बे सींगवाला एक गन्ध-वृषभ था।" अन्तःपुर राजाओं के अन्तःपुर में अनेक रानियाँ होतो थीं। वे बारी-बारी से राजा के वास-भवन में जाती थीं। कञ्चनपुर के राजा विक्रमयशा के पाँच सौ रानियाँ थीं। कभी-कभी राजा लोग सुन्दर गृहिणियों को बलात् अपने अन्तःपुर में ले आते थे। एक बार कञ्चनपुर में नागदत्त नामक सार्थवाह की सुन्दर पत्नी विष्णुश्री को राजा ने १-बृहद् वृत्ति, पत्र 489 / २-वही, पत्र 99 / ३-सुखबोधा, पत्र 59 / ४-वही, पत्र 84: रे ! रे ! भणह कुमारं, सिग्धं चिय वज्जिऊण मह विसयं / अन्नत्य कुणसु गमणं, मा भणसु य ज न कहियं ति॥ ५-वही, पत्र 135 / ६-वही, पत्र 142: एगेगा वारएण रएणीय राइणो वासमवणे आगच्छइ / ७-वही, पत्र 239 / Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन अपने अन्तःपुर में रख लिया। नागदत्त ने बहुत अनुनय किया। राजा ने आग्रह नहीं छोड़ा / अन्त में वह अपनी पत्नी के वियोग में मर गया / ' न्याय छोटी-छोटी बातों का मामला राजकुल में ले जाया जाता था। करकण्डु और किसी ब्राह्मण-कुमार के बीच एक बाँस के डण्डे को लेकर झगड़ा हो गया। दोनों राजकुल में उपस्थित हुए। दोनों के तर्क सुनने के बाद राजा ने निर्णय दिया कि बाँस करकण्डु को दे दिया जाए क्योंकि वह उसके द्वारा संरक्षित श्मशान में उगा हुआ है / . .. कर-व्यवस्था उस समय अठारह प्रकार के कर प्रचलित थे। कर वसूल करने वाले को 'सुंकपाल' (सं० शुल्कपाल) कहा जाता था। व्यापारी लोग शुल्क से बचने के लिए अपना माल छिपाते थे। अचल नाम का एक व्यापारी जब पारसकुल से धन कमाकर वेन्यातट आया तो वहाँ के राजा विक्रम को राजी रखने के लिए हिरण्य, सुवर्ण और मोतियों से भरे थाल लेकर वह राजा के पास गया। राजा ने उसे बैठने के लिए आसन दिया। अचल ने कहा-“राजन् ! मैं पारसकुल से आया हूँ। आप मेरा माल जाँचने के लिए व्यक्तियों को भेजे।" राजा अपने पंचजनों के साथ गया। अचल ने अपने जहाजों में माल दिखाया। राजा ने पूछा-"इतना ही है ?" अचल ने कहा"हाँ ! सारा माल बोरों में था।" राजा ने सारा माल तुलवाया। पंचों ने उसे तौला। भार से, पैरों के प्रहार से तथा बाँस के द्वारा छेद करने से उन्हें यह पता लगा कि इस माल के बीच और कोई सार-वस्तु है। राजा ने अपने आदमियों को आदेश दिया कि इस अचल को बाँधो, यह प्रत्यक्ष चोर है। राजा ने सारे बोरे खुलवाए। किसी में सोना, किसी में चाँदी, किसी में मणि-मुक्ता और किसी में प्रवाल निकला। राजा सारे वाहनों को अपने आरक्षकों के अधिकार में देकर चला गया। राजा या जमींदार गाँव में प्रत्येक व्यक्ति से बिना पारिश्रमिक दिए ही काम कराते थे / बारी-बारी से सबको कार्य करना पड़ता था / ' १-सुखबोधा, पत्र 239 / २-वही, पत्र 134 / / ३-बृहद्वृत्ति, पत्र 605 / ४-सुखबोधा, पत्र 71 / ५-वही, पत्र 64-65 / ६-बृहवृत्ति, पत्र 553 / Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति 415 राजा के पुत्र-जन्म और राज्याभिषेक के अवसर पर जनता को कर-मुक्त किया जाता था। अपराध और दण्ड ___ अपराधों में चौर्य-कर्म प्रमुख था। चोरों के अनेक वर्ग यत्र-तत्र कार्यरत रहते थे। लोगों को चोरों का आतंक सदा बना रहता था। राजा चोरों के दमन के लिए सदा प्रयत्नशील रहते थे। चोरों के प्रकार उत्तराध्ययन में पाँच प्रकार के चोरों का उल्लेख है (1) आमोष- धन-माल को लूटने वाले / (2) लोमहार- धन के साथ-साथ प्राणों को लूटने वाले / (3) ग्रन्थेि-भेदक- ग्रन्थि-भेद करने वाले। (4) तस्करः- - प्रतिदिन चोरी करने वाले / ' (5) कण्णुहर- कन्याओं का अपहरण करने वाले / 2 लोमहार बहुत क्रूर होते थे। वे अपने आपको बचाने के लिए लोगों की नृशंस हत्या कर देते थे। गृन्थि-भेदक 'घुर्घरक' (?) तथा विशेष कैंचियों से गाँठों को काटकर धन चुराते थे। - कई चोर धन की तरह स्त्री-पुरुषों को चुरा ले जाते थे। एक बार उज्जनी के सागर सेठ के पुत्र को किसी चोर ने चुराकर मालव के एक रसोइए के हाथ बेच दिया / 4 - चोर इतने निष्ठुर होते थे कि वे चुराया हुआ अपना माल छिपाने के लिए अपने कुटुम्बी जनों को भी मार देते थे। एक चोर अपना सारा धन अपने घर के एक कुएं में रखता था। एक दिन उसकी पत्नी ने देख लिया, तो उसने सोचा, कहीं भेद न खल जाए इसलिए उसने अपनी पत्नी को मार कर कुएं में डाल दिया। उसका पुत्र चिल्लाया। लोगों ने उसे पकड़ लिया। १-उत्तराध्ययन, 9 / 28 ; सुखबोधा, पत्र 149 / २-उत्तराध्ययन, 7.5 / ३-सुखबोधा, पत्र 149 / ४-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 174 : ___ उज्जेणीए सागरस्स सुतो चोरेहिं हरिउं मालवके सूयगारस्स हत्थे विक्कीतो। ५-सुखबोधा, पत्र 81 / Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . . . उस समय के चोर नाना प्रकार की सेंध लगाते थे। उत्तराध्ययन वृत्ति में कई प्रकार की सेंधों का उल्लेख हुआ है-(१) कपिशीर्षाकार, (2) कलशाकृति, (3) नन्दावर्त संस्थान, (4) पद्माकृति, (5) पुरुषाकृति और (6) श्रीवत्स संस्थान / दण्ड-व्यवस्था उस समय दण्ड-व्यवस्था कठोर थी। एक बार वाराणसी के राजा शङ्ख ने किसी अपराध पर अपने मन्त्री नमुची के प्रच्छन्न-वध की आज्ञा दे दो। पोदनपुर के पुरोहित विश्वभूति के दो लड़के थे—कमठ और मरुभूति / एक बार कमठ अपने छोटे भाई की पत्नी में आसक्त हो गया। बात राजा तक पहुंची। राजा ने कमठ के गले में मिट्टी के शरावों की माला पहना, गधे पर बिठा, 'यह अकृत्यकारी है'ऐसी घोषणा करते हुए सारे नगर में घुमा, उसे निर्वासित कर दिया / __एक बार इन्द्र-महोत्सव के उत्सव पर एक राजा ने अपने नगर के सभी नागरिकों को उपस्थित होने के लिए कहा। सभी लोग एकत्रित हुए। किन्तु एक पुरोहित-पुत्र वेश्या के घर में छिप गया। जब राजा को पता लगा तो उसे शूली-वध का दण्ड दिया गया। उसके पिता पुरोहित ने राजा से बहुत अनुनय किया और अपनी सारी सम्पत्ति देने की अर्जी की किन्तु राजा ने उसे नहीं छोड़ा। * अपराधियों को चाण्डालों के मुहल्ले में रहने का भी दण्ड दिया जाता था। चोरों की अतिक्रूरता पर उनके वध का आदेश दिया जाता था। मनुष्यों की हत्या करने पर व्यक्तियों को मरण-दण्ड दिया जाता था। गुप्तचर उस समय छोटे-छोटे राज्य होते थे। प्रत्येक राज्य में गुप्तचर सक्रिय रहते थे। एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते समय 'गुप्तचर' की सम्भावना से साधु भी पकड़ लिए जाते थे। १-बृहद्वृत्ति, पत्र 207 / २-वही, पत्र 215 / ३-सुखबोधा, पत्र 186 / ४-वही, पत्र 286 / ५-बृहद्वृत्ति, पत्र 211 / ६-सुखबोधा, पत्र 191 / ७-बृहद्वृत्ति, पत्र 156 / ८-वही, पत्र 207 / ९-वही, पत्र 122 // Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .एड 2, प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति 427 निःस्वामिक धन निःस्वामिक धन पर राजा का अधिकार होता था। कुरु जनपद के उसुकार नगर के राजा इषुकार ने अपने भृगु पुरोहित के सारे परिवार के प्रवजित हो जाने पर उसका सारा धन अपने खजाने के लिए मँगवाया था।' व्यूह-रचना भारतीय युद्ध-नीति का प्रमुख अङ्ग रहा है। भगवान महावीर के समय में भी वह पद्धति प्रचलित थी। जब उज्जैनी का राजा चण्डप्रद्योत और काम्पिल्य के राजा द्विमुख के बीच में युद्ध हुआ तब उसमें चण्डप्रद्योत ने गरूड-व्यूह और द्विमुख ने सागर-व्यूह की रचना की थी। युद्ध के नौ अङ्ग माने जाते थे (1) यान (4) कौशल (7) व्यवसाय (2) आवरण (5) नीति (8) परिपूर्णाङ्ग शरीर (3) प्रहरण (6) दक्षता (6) आरोग्य -- चूर्णिकार ने इनकी व्याख्या में लिखा है कि यदि युद्ध में यान-वाहन न हों तो बेचारे पैदल सैनिक क्या करेंगे ? यान-वाहन हों और आवरण ( कवच ) न हों तो सेना सुरक्षित कैसे रह सकती है ? आवरण हों और प्रहरण न हों तो शत्रु को पराजित नहीं किया जा सकता। प्रहरण हों और उनको चलाने का कौशल न हो तो युद्ध नहीं लड़ा जा सकता। कौशल होने पर भी युद्ध की नीति (पीछे हटने या आगे बढ़ने ) के अभाव में शत्रु को नहीं जीता जा सकता। नीति के होने पर भी दक्षता ( शीघ्र निर्णायकता ) के बिना सफलता प्राप्त नहीं होती। दक्षता होने पर भी व्यवसाय (कठोर श्रम ) न हो तो युद्ध नहीं लड़ा जा सकता। इन सबका आधारभूत है, शरीर का परिपूर्णाङ्ग और स्वस्थ होना। १-उत्तराध्ययन, 14 // 37 / २-सुखबोधा, पत्र 136 / रइओ गरुडवूहो पज्जोएण, सायरव्यूहो दोमुहेण। ... ३-उत्तराध्ययन नियुक्त, गाथा 154 / / जाणावरणपहरणे जुद्धे कुसलत्तणं च नीई / ..... दक्खत्तं ववसाओ सरीरमारोग्गया चेव // ..... ४-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 93 / Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन युद्ध में पराजित राजाओं के साथ साधारण सैनिक-सा व्यवहार भी कर लिया जाता था। द्विमुख ने चण्डप्रद्योत को बन्दी बना पैरों में बेड़ियाँ डाल दी थीं।' युद्ध में चतुरङ्गिणी सेना का नियोजन किया जाता था। शस्त्र प्रस्तुत सूत्र में अनेक शस्त्रों का नामोल्लेख हुआ है। वे शस्त्र युद्ध में काम आते थे। (1) अपि-तलवार / यह तीन प्रकार की होती थी। असि- लम्बी तलवार / खड्ग-- छोटी तलवार / ऋष्टि3- दुधारी तलवार / (2) भल्ली-एक प्रकार का भाला, बर्थी। (3) पट्टिस- इसके पर्याय-नाम तीन हैं-खुरोपम, लोहदण्ड, तीक्ष्णधार / इनके आधार पर उसका आकार यह बनता है जो खुरपे के आकार वाला लोहदण्ड तथा तीक्ष्ण धार वाला होता है, उसे पटिस कहा जाता है। (4) मुसंडी- यह लकड़ी की बनी होती है और इसमें लोहे के काँटे जड़े हुए होते हैं। (5) शतघ्नी–यान्त्रिक तोपा। इनके अतिरिक्त मुद्गर, शूल, मुशल, चक्र, गदा आदि के नाम भी मिलते हैं। सुरक्षा के साधन नगर की सुरक्षा के लिए जो साधन काम में लिए जाते थे, उनमें से कुछेक के नाम प्रस्तुत सूत्र में मिलते हैं - प्राकार धूलि अथवा इंटों का कोट / गोपुर प्रतोलीद्वार या नगर-द्वार / अट्टालिका प्राकार-कोष्ठक के ऊपर आयोधन स्थान अर्थात् बुर्ज / उत्सूलक खाइयाँ या ऊपर से ढके गर्त / गर्त पानी से भरे रहते थे। १-सुखबोधा, पत्र 136 / बंधिऊण पज्जोओ पवेसिमो नयरं / दिलं चलणे कडयं / २-उत्तराध्ययन 1812 / ३-शेषनाममाला, 148,16 / ४-वृहद्वृत्ति, पत्र 311 // Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डं 2, प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति 416 अन्तर्देशीय व्यापार भारतीय व्यापारी अन्तर्देशीय व्यापार में दक्ष थे। वे किराना लेकर बहुत दूर-दूर तक जाते थ। सार्थवाह-पुत्र अचल यहाँ से वाहनों को भर कर पारसकुल (ईरान) गया। वहां सारा माल बेच कर वेन्यातट पर आया।' चम्पा नगरी का वणिक पालित चम्पा से नौकाओं में माल भर कर रास्ते के नगरों में व्यापार करता हुआ 'पिहुण्ड'२ नगर में पहुंचा। भारत में रत्नों का विशाल व्यापार होता था। विदेशी लोग यहाँ रत्न खरीदने आया करते थे। पारसकुल के व्यापारी भी यहाँ रत्न खड़ीदने आते थे। एक बार एक वणिक के पुत्रों ने विदेशी वणिकों के हाथ सारे रत्न बेच दिये थे। जब व्यापारी दूर देश व्यापार करने जाते तब उन्हें राजा की अनुमति प्राप्त करनी पड़ती थी। चम्मा नगरी के सुवर्णकार कुमारनन्दी ने पंचशैलद्वीप के लिए प्रस्थान की घोषणा से पूर्व वहाँ के राजा की अनुमति प्राप्त की और उसे सुवर्ण आदि बहुमूल्य उपहार प्रदान किये / जो माल दूर देशों से आता था, उसकी जाँच करने के लिए व्यक्तियों का एक विशेष समूह होता था।६ ___ अनेक अमीर लोग मिलजुल कर घृत के घड़ों से गाड़ी भर नगरों में बेचने के लिए जाते थे। बड़े नगरों में कूत्रिकापण होते थे। वहाँ सभी प्रकार की वस्तुएँ प्राप्त होती थीं।। इनकी तुलना आधुनिक कोओपरेटिव स्टोरों से की जा सकती है। व्यापारी लोग बैलों, भैंसों आदि पर माल लाद कर सार्थ के रूप में चलते थे। १-सुखबोधा, पत्र 64 / २-देखिए-भौगोलिक परिचय के अन्तर्गत पिहुण्ड नगर। ३-उत्तराध्ययन, 2112 / ४-बृहद्वृत्ति, पत्र 147 : . रयणाणि विदेसीवणियाण हत्थे विक्कीयाणि / ५-सुखबोधा, पत्र 252 / ६-वही, पत्र 65 / ७-वही, पत्र 51 / -वही, पत्र 73 / ६-हवृत्ति, पत्र 605 // Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ... शिल्पी वर्ग र व्यापारियों का एक वर्ग था 'शिल्पी वर्ग'। शिल्पी वर्ग के लोग नाना प्रकार के . कलात्मक व जीवनोपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते और उन्हें बेचकर अपनी आजीविका चलाते थे। उस समय लुहार वर्ग का कार्य उन्नति पर था। वे लोग खेती-बारी के लिए काम में आने वाले हल, कुदाली आदि तथा लकड़ी काटने के वसूला, फरसा आदि बनाकर बेचते थे। नगरों में स्थान-स्थान पर लुहार की शालाएँ होती थीं। क्षौर-कर्म के लिए नाई. . की दुकाने यत्र-तत्र मिलती थीं। कुम्भकार अनेक प्रकार के कुम्भ तैयार करते थे (1) निष्पावकुट- धान्य भरने के घड़े। (2) तैलकुट तैल के घड़े। - (3) घृतकुट: घी के घड़े। सिक्का वस्तु-विनिमय के साथ-साथ सिक्कों का लेन-देन भी चलता था। उस समय के प्रमुख सिक्के के थे (1) कार्षापण: (2) विंशोपक रुपये का बीसवाँ भाग। (3) काकिणी ताँबे का सबसे छोटा सिक्का। विंशोपक का चोथा भाग तथा रुपए का ८०वाँ भाग। (4) कोड़ी बीस कोड़ियों की एक काकिणी। (5) सुवर्णमाषक छोटा सिक्का। रुपया १-उत्तराध्ययन, 36 / 75 / २-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 37 // ३-बृहद्वृत्ति, पत्र 57 / ४-सुखबोधा, पत्र 73 / ५-बृहवृत्ति, पत्र 209 / / ६-वही, पत्र 276 / ७-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 161 / ८-उत्तराध्ययन, 7 / 11 / ९-वृहद्वृत्ति, पत्र 272 / १०-सुखबोधा, पत्र 124 / Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति 421 दीनार एक बार एक द्रमक ने मजदूरी कर हजार कार्षापण कमाए। उसने एक सार्थवाह के साथ अपने गाँव की ओर प्रस्थान किया। उसने कार्षापण को भुनाया और उससे अनेक काकिणियाँ प्राप्त की। वह रास्ते में भोजन के लिए प्रतिदिन एक-एक काकिणी खर्च करता था। ____ एक बार राजा ने एक कार्पटिक को भोजन कराकर उसे युगलक और दीनार देकर भेजा था। ___एक आभीरी ने एक वणिक से रुपए देकर रुई ली थी। यान-वाहन उस समय मुख्यरूप से यातायात के लिए दो साधन थे- जलमार्ग के लिए नोका और जहाज तथा स्थल मार्ग के लिए शकट-बैलगाड़ी, रथ, हाथी, घोड़ा और ऊँट। __ द्वीपों से जितना व्यापार होता था, वह नौकाओं और जहाजों से होता था। व्यापारी अपना माल भर कर नौकाओं द्वारा दूर-दूर देशों में जाते थे। कभी-कभी रास्ते में नौका टूट जाती और सारा माल पानी में बह जाता। जहाज के वलयमुव में प्रविष्ट होने का बहुत डर रहता था। एक-एक, दो-दो व्यक्तियों की यात्राएं बहुत कम होती थीं। जब कभी बड़े-बड़े सार्थवाह यात्रा में निकलते तब उनके साथ दूसरे व्यक्ति भी हो जाते थे। इस प्रकार एक-एक सार्थवाह के साथ हजारों व्यक्ति चलते थे। इससे रास्ते का भय भी कम रहता था और सब अपने-अपने स्थान पर सुरक्षित पहुँच जाते थे।" शिविका में भी लोग आते-जाते थे। यह पुरुषों द्वारा वहन की जाती थी। राजामहराजा और समृद्ध लोग इसका विशेष उपयोग करते थे।६ अधिकतर लोग पैदल आते-जाते थे। इसीलिए यह पद प्रचलित था-'पंथ समा नत्थि जरा। १-बृहद्वृत्ति, पत्र 276 / २-वही, पत्र 146 : ...जुवलयं वीणारो य दिण्णो। ३-वही, पत्र 209 / ४-सुखबोधा, पत्र 252 / ६-बृहद्वृत्ति, पत्र 277 // ५-वही, पत्र 67 / ७-सुखबोधा, पत्र 17 // Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / आखेट कर्म राजा लोग आखेट-कर्म में बहुत रस लेते थे। जब वे शिकार के लिए जाते तब. चतुरंगिणी सेना से सज्ज होकर, घोड़े पर बैठ प्रस्थान करते थे। मुख्यतः हिरणों. का शिकार किया जाता था।२ उनको पकड़ने के लिए 'पाश' और 'कूटजाल' काम में लिए जाते थे / पक्षियों का शिकार भी किया जाता था। उनको पकड़ने के लिए 'बाज' शिक्षित किए जाते थे। जाल और वज्रलेप का भी उपयोग होता था।४ ____ मछलियाँ पकड़ने का भी बहुत प्रचलन था / उनको पकड़ने के दो साधन थे-बडिश और जाल / जब जाल में मछलियाँ फँस जातीं, तब उसे खींच लिया जाता / बडिश मकर के आकार के होते थे। पशु उस समय कम्पोज देश में आकीर्ण और कन्थक घोड़े बहुत ही प्रसिद्ध थे। आकीर्ण-शील, रूप, बल आदि गुणों से व्याप्त / कन्थक- खरखराहट या शस्त्र-प्रहार से नहीं चौंकने वाले। ये दोनों प्रकार के घोड़े चलने में बहुत तेज होते थे / उत्तराध्ययन में अनेक स्थानों पर 'गलि-अश्व' का भी उल्लेख आता है / वे दुर्विनीत होते थे। उन्हें चलाने या रोकने में भी चाबुक का प्रयोग करना पड़ता था। - युद्धों में व राजा की सवारी के लिए हाथी का उपयोग होता था। राजा लोग अपनी पुत्रियों को विवाह में हाथी और घोड़े भी देते थे। हाथी तान सुनने के रसिक होते थे। हाथी को वश में करने के लिए समुचित शिक्षा दी जाती थी। एक बार एक राजकुमार ने अपने प्रधान हाथी, जो उन्मत्त होकर जन-समूह को अस्त कर रहा था, को शास्त्र-विधि से वश में कर लिया। १-उत्तराध्ययन, 28 / 1,2 / २-वही, 98 / 3 / ३-वही, 16 / 63 / ४-वही, 19065 / ५-वही, 19 / 64 ; बृहद्वृत्ति, पत्र 460 / ६-बृहद्वृत्ति, पत्र 348 / ७-वही, पत्र 40 / ८-सुखबोधा, पत्र 88 / ६-वही, पत्र 247 / १०-वही, पत्र 247 : सत्यमणिएहि करणेहिं नीओ समं / Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति 423 हाथियों को शङ्ख और शृङ्खलाओं से अलंकृत करते थे।' ___ कई व्यक्ति वीणा-वादन में इतने निपुण होते थे कि उनकी वीणा के स्वर को सुनकर हाथी भी झूमने लग जाते / 2 हाथी विभिन्न प्रकार के होते थे। गन्धहस्ती हाथियों में श्रेष्ठ माना जाता था। उसका उपयोग युद्ध-स्थल में किया जाता था। उसके मल-मूत्र में इतनी गन्ध होती थी कि उससे दूसरे सभी हाथी मदोन्मत्त हो जाते थे। वह जिधर जाता, सारी दिशाएं गन्ध से महक उठती थीं। प्रद्योत के पास नलगिरि नाम का ऐसा ही एक हाथी था। राजा लोग अश्ववाहनिका के लिए घोड़ों पर सवार होकर जाते थे। पशुओं का भोजन पशुओं को कण, ओदन और यवस् ( मूंग, उड़द आदि धान्य ) दिए जाते थे / घोड़ों को यवस् और तुष विशेष रूप से दिये जाते थे / चावलों की भूसी अथवा चावल मिश्रित भूसी पुष्टिकारक तथा सुअर का प्रिय भोजन था। .. जनपद जनपद अनेक भागों में विभक्त थे। उनके विभाजन के हेतु थे--(१) कर-पद्धति, (2) व्यवसाय, (3) भौगोलिक स्थिति और (4) प्राकार / १-बृहद्वृत्ति, पत्र 11 / . २-सुखबोधा, पत्र 60 / ३-वही, पत्र 254 तत्थ नलगिरिणा मुत्तपुरीसाणि मुक्काणि / तेण गन्धेण हत्थी उम्मत्ता। तं च विसं गन्धो एइ...। ४-वही, पत्र 103 / ५-उत्तराध्ययन, 71 / ६-सुखबोधा, पत्र 96 / ७-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 27 / Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक-अध्ययन जनपद का मुख्य भाग (1) ग्राम कृषक आदि लोगों का निवास स्थान / (2) नगर कर-मुक्त वस्ती। (3) राजधानी- जनपद का मुख्य नगर / (4) निगम- व्यापारिक नगर / (5) आकर- खान का समीपवर्ती गाँव, मजदूर-बस्ती। (6) पल्ली- बीहड़ स्थान में होने वाली बस्ती, चोरों का निवास स्थान / (7) खेट जिसके रेत का प्राकार हो, वह बस्ती। (8) कर्बट छोटा नगर। (6) द्रोणमुख- जहाँ जल और स्थल दोनों निर्गम और प्रवेश के मार्ग हों / वृत्तिकार ने इस प्रसंग में भृगुकच्छ और ताम्रलिप्ति का उदाहरण प्रस्तुत किया है। (10) पत्तन- (क) जलपत्तन-जलमध्यवर्ती द्वीप। (ख) स्थलपत्तन-निर्जल भू-भाग में होने वाला। वृत्तिकार ने जलपत्तन के प्रसंग में कानन्द्वीप और स्थलपत्तन के प्रसंग में मथुरा का उदाहरण प्रस्तुत किया है। (11) मडंब - जिसके ढाई योजन तक कोई दूसरा गाँव न हो / (12) संबाध जहाँ चारों वर्गों के लोगों का अति मात्रा में निवास हो। (13) आश्रमपद- तापस-निवास। (14) विहार--- जहाँ देवगृह या भिक्षुओं के निवास स्थान विपुल मात्रा में हों। (15) सन्निवेश- यात्रा से आये हुए मनुष्यों के रहने का स्थान / (16) समाज- ऐसा स्थान जहाँ पथिकों का आवागमन अधिक हो / (17) घोष आभीरों की बस्ती। (18) स्कन्धावार- सैनिक छावनी, ऊर्ध्व भू-भाग पर होने वाला सैनिक निवास / (19) सार्थ व्यापारी समूह का विश्राम-स्थान / (20) संवर्त भयभीत लोगों का सुरक्षा-स्थान / ' १-बृहद्वृत्ति, पत्र 605 / Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 425 खण्ड 2, प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति 425 प्रासाद-गृह मकान अनेक प्रकार के होते थे / राजाओं या समृद्ध लोगों के गृह 'प्रासाद' कहलाते थे। वे सात या उससे अधिक मंजिलों के होते थे। उनकी भित्तियाँ सोने-चांदी की होती थीं और खम्भे मणि-मुक्ताओं से अलंकृत किए जाते थे / ' राजप्रासादों के आँगण मणि और रत्नों से जटित होते थे। एक ओर ऐसे प्रासाद तथा धनवानों के गृहों की श्रेणियाँ थीं तो दूसरी ओर निर्धन व्यक्तियों की बस्तियाँ भी थीं। वे बहुत गंदी होती थीं। उनके गृह-द्वार जीर्ण चटाई से ढंके जाते थे। झरोखे वाले मकानों का प्रचलन था। उसमें बैठ कर नगरावलोकन किया जाता था। कई बड़े मकानों में भोहरे भी होते थे। केवल भूमि-गृहों का भी उल्लेख मिलता है। ___ इस सूत्र में पाँच प्रकार के प्रासादों का उल्लेख हुआ है-(१) उच्चोदय, (2) मधु, (3) कर्क, (4) मध्य और (5) ब्रह्म / / 'वर्द्धमानगृह' और 'बालग्गपोइया' का भी उल्लेख मिलता है।" वास्तुसार में घरों के चौंसठ प्रकार बतलाए हैं। उनमें तीसरा प्रकार वर्द्धमान है। जिसके दक्षिण दिशा में मुखवाली गावीशाला हो, उसे 'वर्द्धमान' कहा गया है। बालग्गपोइया का अर्थ है-'चन्द्रशाला' या 'जलाशय में निर्मित लघु प्रासाद / अटवी और उद्यान राजगृह नगर के पास अठारह योजन लम्बी एक महाअटवी थी, जहाँ बलभद्र प्रमुख पाँच सौ चोर निवास करते थे। वे पथिकों को पकड़-पकड़ कर अपने सरदार के पास ले जाते थे। . / १-बृहद् वृत्ति, पत्र 110 / २-वही, पत्र 110 / .३-वही, पत्र 451 / ४-वही, पत्र 60 / ५-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 101 / ६-उत्तराध्ययन, 13 / 13 / ७-वही, 9 / 24 / -वास्तुसार 82, पृ० 38 / -९-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 123 / १०-सुखबोधा, पत्र 125 / Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत सूत्र तथा वृत्ति में अनेक उद्यानों के नाम उल्लिखित हुए हैं (1) काम्पिल्य में- केसर उद्यान (1901) / (2) राजगृह में- मण्डिकुक्षो उद्यान (2012) / (3) श्रावस्ती में- तिन्दुक उद्यान (23 / 4) / कोष्ठक उद्यान (238) / (4) उज्जनी में- स्नपन उद्यान (बृहद् वृत्ति, पत्र 46) / संभव है यह केवल स्नान के लिए ही काम में आता था। . (5) वीतभयनगर में- मृगवन उद्यान (सुखबोधा, पत्र 254) / (6) सेयविया में- पोलास उद्यान (सुखबोधा, पत्र 71) / उद्यानों में वृक्षों से घिरे हुए तथा नागरबेल आदि वल्लियों से आच्छादित मण्डप होते थे। मुनि प्रायः उन मण्डपों में ध्यान करते थे। ___ उद्यानिका महोत्सव धूमधाम से मनाया जाता था। उसमें नगर के सभी नर-नारी गांव के बाहर निश्चित स्थान पर एकत्रित होते थे। वे मस्त हो कर अनेक क्रीडाओं में संलग्न रहते थे। स्त्रियाँ अलग से इकट्ठी हो कर नृत्य और गीतों से महोत्सव मनाती थीं। प्रकृति विश्लेषण - उज्जनी के लोग बहुत विवेकी होते थे। वे सुन्दर-असुन्दर, अच्छे-बुरे को जानने में निपुण थे। मगध के लोग इंगित को समझने में कुशल होते थे। मालव और सौराष्ट्र के लोग क्रोधी होते थे।५।। विवाह विवाह के समय तिथि और मुहूर्त भी देखे जाते थे। विवाह से पूर्व देवमंदिर में वेदिका का पूजन तथा मूर्ति के आगे प्रणमन किया जाता था। कन्या-विक्रय का भी १-सुखबोधा, पत्र 228 / २-वही, पत्र 247 / ३-वही, पत्र 60: अइनिउणो उज्जेणीजणो जाणइ सुंदरासुंबरविसेसं / ४-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 43 : इंगितज्ञाश्च मागधाः। ५-वही, पृ० 24 / ६-सुखबोधा, पत्र 142 / ७-वही, पत्र 141 / Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति 427 प्रचलन था।' जया, विजया, ऋद्धि, वृद्धि आदि औषधियों से संस्कारित पानी से वर को स्नान कराया जाता था और उसके ललाट से मुशल का पर्श करना माङ्गलिक माना जाता था। माता-पिता विवाह से पूर्व अपनी लड़की को यक्ष-मन्दिर में भेजते थे और यह मान्यता प्रचलित थी कि यक्ष के द्वारा उपभुक्त होने पर ही लड़की पति के पास जा सकती है / एक ब्राह्मणी ने अपनी लड़की को विवाह से पूर्व यक्ष-मन्दिर में इसीलिए भेजा था। विवाह के कई प्रकार प्रचलित थे। उनमें स्वयंवर और गन्धर्व-पद्धति भी अनुमोदित थी। स्वयंवर इस पद्धति में कन्या स्वयं अपने वर का चुनाव करती थी। कभी-कभी कन्या वर की खोज में विभिन्न स्थानों पर जाती थी। एक बार मथुरा के राजा जितशत्रु ने अपनी पुत्री निर्वति को इच्छानुसार वर की खोज करने के लिए कहा / वह सेना और वाहन ले कर इन्द्रपुर गई। वहाँ के राजा इन्द्रदत्त के बाईस पुत्र थे। कन्या ने एक शर्त रखते हुए कहा-"आठ रथ-चक्र हैं। उनके आगे एक पुतली स्थापित है। जो कोई उसकी बाई आँख को बाण से बींधेगा, उसी का मैं वरण करूंगी।" राजा अपने पुत्रों को ले कर रंगमंच पर उपस्थित हुआ। बारी-बारी से राजा के सभी पुत्रों ने पुतली को बींधने का प्रयास किया, किन्तु कोई सफल नहीं हो सका / अन्त में राजा का एक पुत्र सुरेन्द्रदत्त, जो मन्त्री की कन्या से उत्पन्न था, रंगमंच पर आग। चारों ओर से हो-हल्ला होने लगा। दो व्यक्ति नंगी तलवार ले कर दोनों ओर खड़े हो गये और कुमार से कहा- यदि तुम इस कार्य में असफल रहे तो हम तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर देंगे। कुमार उनकी चुनौती स्वीकार करते हुए, आगे आया और देखते-देखते पुतली की बाई आँख को बाण से बींध डाला / कुमारों ने उसके गले में वरमाला पहना दी। गन्धर्व-विवाह . विवाह की दूसरी पद्धति थी गंधर्व-विवाह / इसका अर्थ है-'बिना पारिवारिक अनुमति के वर-कन्या का ऐच्छिक विवाह' / गन्धर्व देश की राजधानी पुण्ड्रवधन थी। वहाँ के राजा का नाम सिंहरथ था। एक बार उसे उत्तरापथ से दो घोड़े उपहार में १-सुखबोधा, पत्र 97 / २-वृहद् वृत्ति, पत्र 490 / ३-वही, पत्र 136 / ४-वही, पत्र 148-150 / Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 425 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन मिले / राजा ने उनकी परीक्षा करनी चाही। एक पर राजा स्वयं चढ़ा और दूसरे पर राजकुमार / राजा जिस घोड़े पर सवार हुआ था, वह विपरीत शिक्षा वाला था। ज्योंज्यों उसकी लगाम खींची जाती, त्यों-त्यों वह वेग से दौड़ता था। इस प्रकार वह घोड़ा राजा को ले कर 12 योजन चला गया। अन्त में राजा ने लगाम ढीली कर दी / घोड़ा वहीं रुक गया। घोड़े को वहीं एक वृक्ष से बाँध राजा पर्वत पर दीख रहे सात मंजिले प्रासाद पर चढ़ा और वहाँ एक युवती से गन्धर्व-विवाह कर लिया। पाञ्चाल राजा के पुत्र ब्रह्मदत्त ने अपने मामा पुष्पचूल की लड़की पुष्पावती से गन्धर्व-विवाह किया। क्षितिप्रतिष्ठान नगर के राजा जितशत्रु ने एक दरिद्र चित्रकार की पुत्री कनकमञ्जरी के वाक्कौशल से प्रभावित हो कर गन्धर्व-विवाह कर लिया / यह अन्तर्जातीय-विवाह का भी एक उदाहरण है। पुनर्विवाह की प्रथा भी प्रचलित थी। बहुपत्नी प्रथा . उस समय बहुपत्नी प्रथा भी समृद्धि का अंग समझी जाती थी। राजा व राजकुमार अपने अन्तःपुर में रानियों की अधिकाधिक संख्या रखने में गौरव का. अनुभव करते थे। और यह अन्तःपुर अनेक राजाओं के साथ मित्रतापूर्ण-सम्बन्ध स्थापित हो जाने के कारण उनकी राजनीतिक सत्ता को शक्तिशाली बनाने में सहायक होता था। धनवान् लोग बहुपत्नी प्रथा को धन, संपत्ति, यश और सामाजिक गौरव का कारण मानते थे। चम्पा नगरी का सुवर्णकार कुमारनन्दी ने एक-एक कर पाँच सौ कन्याओं के साथ विवाह किया था। जब कभी वह सुन्दर कन्या को देखता, उससे विवाह कर लेता था। तलाक प्रथा और वैवाहिक शुल्क छोटी-मोटी बातों के कारण पनियों को छोड़ देने की प्रथा थी / १-सुखबोधा, पत्र 141: .....'कओ गंधव विवाहो। . २-वही, पत्र 190 : .....तो सा तेण गंधव्वविवाहेण विवाहिमा। ३-वही, पत्र 142 / ४-उत्तराध्ययन, 13125; 18 / 16 / ५-सुखबोधा, पत्र 142 / ६-वही, पत्र 252 / Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति 426 एक वणिक ने अपनी पत्नी को इसलिए छोड़ दिया कि वह सारा दिन शरीर की साज-सज्जा में व्यतीत करती थी और घर की सार-संभाल में असमर्थ थी।' एक ब्राह्मण-पुत्री ने भी प्रसंग पर यही कहा-"तू दूसरा पति कर ले।" किसी चोर के पास बहुत धन था। उसने यथेच्छ शुल्क दे कर अनेक कन्याओं के साथ विवाह किया था। चम्पा नगरी के सुवर्णकार ने पाँच-पाँच सौ सुवर्ण दे कर अनेक कन्याओं के साथ विवाह किया था। दहेज राजकन्याओं के विवाह में घोड़े, हाथी आदि मी दहेज में दिए जाते थ / वाराणसी के राजा सुन्दर ने अपनी कन्या कमलसेना को हजार गाँव, सौ हाथी, एक लाख पदाति, दस हजार घोड़े और विपुल भण्डार दहेज में दिया।" सौतिया डाह राजाओं के अनेक पत्नियाँ होती थीं। परस्पर एक-दूसरे से ईर्ष्या होना स्वाभाविक था। वे एक-दूसरे के प्रति शिकायत करतीं और समय-समय पर अनेक षड्यंत्र भी रच लेती थीं। क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा जितशत्रु की प्रिय रानी कनकमञ्जरी पर अन्य रानियों ने आरोप लगाया। राजा ने स्वयं उसकी परीक्षा की। किन्तु उसे कोई दोष हाथ नहीं लगा। अन्त में उसने कनकमञ्जरी को पटरानी बना दिया। __कंचनपुर के राजा विक्रमयशा की पाँच सौ रानियों ने राजा की प्रिय रानी विष्णुश्री को ईर्ष्या-द्वेष क्श कार्मणयोग (टोना) कर मार डाला। १-मुखबोधा, पत्र 97 / .. '२-बृहद् वृत्ति, पत्र 137 / ३-वही, पत्र 207 / ४-वही, पत्र 252 / ५-वही, पत्र 88 वरगामाण सहस्सं, सयं गइदाण विउलभंडारं। पाइक्काण य लक्खं, तुरयाणं दससहस्साइं // ६-वही, पत्र 143 / ७-वही, पत्र 239 / Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 उत्तराध्ययन : एक समीक्षालक अध्ययन यवनिका का प्रयोग प्राचीन-काल में बड़े घरों की बहू-बेटियां पुरुषों के समक्ष साक्षात् नहीं आती थीं। जब कभी उन्हें सभाओं में आना-जाना होता, तो वहां एक पर्दा लगाया जाता था। एक ओर पुरुष और दूसरी ओर स्त्रियाँ बैठ जाती थीं। ___पाटलिपुत्र के राजा शकडाल के मंत्री नंद की सातों पुत्रियों को लौकिक काव्य सुनाने के लिए सभा में बुलाया गया। वे आई। उन्हें एक यवनिका के पीछे बिठाया गया और एक-एक को काव्य सुनाने के लिए कहा गया।' वेश्या वेश्याएं नगर की शोभा, राजाओं को आदरणीया और राजधानी की रत्न मानी जाती थीं। उज्जैनी में देवदत्ता नाम की प्रधान गणिका रहती थी। ___ कभी-कभी राजा वेश्याओं को अपने अन्तःपुर में भी रख लेते थे। मथुरा के राजा ने काला नाम की वेश्या को अपने अन्तःपुर में रख लिया था। प्रसाधन गंध, माल्य, विलेपन और स्नान ( सुगंधी द्रव्य ) का प्रयोग प्रसाधन के लिए किया जाता था। केशों को संवारने के लिए कंघी का उपयोग होता था। कई स्त्रियाँ पूरा दिन अपने शरीर की साज-सज्जा में व्यतीत कर देती थीं। प्रायः गृहिणियाँ अपने पति के भोजन कर लेने पर भोजन, स्नान कर लेने पर स्नान तथा अन्यान्य प्रसाधन भी अपने पति के कर लेने पर ही करती थीं। भोजन चावलों से निष्पन्न ओदन और उसके साथ अनेक प्रकार के व्यञ्जन प्रतिदिन के भोजन में काम आते थे। १-सुखबोधा, पत्र 28 / २-वही, पत्र 64 / ३-वही, पत्र 218 / ४-वही, पत्र 120 / ५-उत्तराध्ययन, 20129 / ६-सुखबोधा, पत्र 97 / ७-वही, पत्र 97 / ८-उत्तराध्ययन, 20129 / ९-वही, 12 // 34 / Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2. प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति पूड़े और खाजे उस समय के विशेष मिष्ठान्न थे, जो विशेष अवसरों पर बनाए जाते थ। प्रस्तुत सूत्र ( 12 / 35 ) में जो 'पभूयमन्नं' शब्द आया है, वृत्तिकार ने उसका अर्थ 'पूड़े' और 'खाजे' किया है / / 'घृतपूर्ण' घी और गुड़ से बनाए जाते थे। यह प्रमुख मिष्ठान्न था।' गन्ने चूसने का प्रचलन था। कई लोग गन्नों को कोल्हों में पेर कर रस पीते थे। गन्ने को छील कर उसकी दो-दो अंगुल की गंडेरियाँ बनाई जातीं। उन पर पीसी हुई इलायची डाली जाती और उन्हें कर्पूर से वासित किया जाता था। काँटे से उन्हें थोड़ा काटा जाता था। ईख के साथ कद् बोने का भी प्रचलन था। कद् को लोग गुड़ के साथ मिला कर खाते थे।५ दशपुर में 'इक्षुगृह' का उल्लेख मिलता है। ___ फसल को सूअरों का भय रहता था। कृषक लोग सींग आदि बजा कर अपने-अपने खेतों की रक्षा करते थे। दास प्रथा . . उत्तराध्ययन में दास को भी एक काम-स्कन्ध माना गया है। उसका अर्थ है'कामनापूर्ति का हेतु'। चार काम-स्कन्ध ये हैं-(१) क्षेत्र-वास्तु-भूमि और गृह, (2) हिरण्य-सोना, चाँदी, रत्न आदि, (3) पशु और (4) दासपौरुष / जिस प्रकार क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य ओर पशु क्रीत होते थे, उसी प्रकार दास भी क्रीत होते थे। इनका क्रीत सामग्री के रूप में उपयोग किया जा सकता था। : दास-चेटों की तरह दास-चेटियाँ भी होती थीं। ये अपनी स्वामिनी के साथ यक्षमंदिर में खाद्य, भोज्य, गन्ध, माल्य, विलेपन और पटल ले कर जाती थीं। दासीमह भी मनाया जाता था। उसमें दासियाँ धूम-धाम से मन-बहलाव करती थीं। १-बृहद् वृत्ति, पत्र 369 / २-वही, पत्र 209 / ३-सुखबोधा, पत्र 53 / ४-वही, पत्र 61-62 / ५-वही, पत्र 103 / ६-वही, पत्र 23 / ७-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 98 / ८-उत्तराध्ययन, 3 // 17 // ९-सुखबोधा, पत्र 174 / १०-वही, पत्र 124 / Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन बड़े घरों में दासियाँ भोजन आदि परोसने का कार्य भी करती थीं।' दासों को स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त नहीं था। दास-चेटक भी वेदाध्ययन करते और विशेष शिक्षा के लिए अन्य देशों में जाते थे। कभी-कभी उनकी विद्वत्ता पर मुग्ध हो कर अध्यापक अपनी कन्या उन्हें दे देते थे। रतनपुर के अध्यापक ने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह कपिल नामक दास-चेटक से किया। विद्यार्थी विद्यार्थी विद्याभ्यास के लिए दूसरे-दूसरे नगरों में जाते थे। सम्पन्न लोग उनके . निवास व खान-पान की व्यवस्था करते थे। शंखपुर का राजकुमार, अगडदत्त वाराणसी गया और वहाँ कलाचार्य के पास कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने लगा। __ कौशाम्बी नगरी के ब्राह्मण काश्यप का पुत्र कपिल श्रावस्ती में पढ़ने गया और अपने कलाचार्य की सहायता से अपने भोजन का प्रबन्ध वहां के धनी शालीभद्र के यहाँ किया। विद्यार्थी का समाज में बहुत सम्मान था। जब कोई विद्याध्ययन समाप्त कर घर आते, तब उनका सार्वजनिक सम्मान किया जाता था। दशपुर के सोमदेव ब्राह्मण का लड़का रक्षित जब पाटलिपुत्र से चौदह विद्याएँ सीख कर लौटा तो नगर ध्वजा-पताकाओं से सज्जित किया गया। राजा स्वयं स्वागत करने के लिए सामने गया। उसने रक्षित का सत्कार किया और उसे अग्राहार-उच्चजीविका प्रदान की। नगर के लोगों ने उसका अभिनन्दन किया। वह हाथी पर बैठ कर अपने घर गया। वहाँ भी उसके स्वजनों और मित्रों ने उसका आदर किया। घर चन्दन-कलशों से सजाया गया। वह घर के बाहर उपस्थानशाला में बैठ गया और आगन्तुक लोगों से उपहार स्वीकार करने लगा। उसका घर द्विपद, हिरण्य तथा सुवर्ण आदि से भर गया।६ ब्राह्मण चौदह विद्याओं में पारंगत होते थे। वे चौदह विद्याएँ ये हैं-(१) शिक्षा, (2) कल्प, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) छन्द, (6) ज्योतिष, (7) ऋग्वेद, (8) यजुर्वेद, १-सुखबोधा, पत्र 124 // २-उत्तराध्ययन, 1336 / ३-सुखबोधा, पत्र 243 / ४-वही, पत्र 30 / ५-वही, पत्र 124 / ६-वही, पत्र 23 / Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति (e) सामवेद, (10) अथर्ववेद, (11) मीमांसा, (12) न्याय, (13) पुराण और (14) धर्मशास्त्र / ' बहत्तर कलाओं के शिक्षण का भी प्रचलन थ।।२ व्यसन ___ मानव-स्वभाव की दुर्बलता सदा रही है। उससे प्रभावित मनुष्य व्यसनों के जाल में फंसता रहा है / विलास और अज्ञान ने मनुष्य को सदा इस ओर प्रवृत्त किया है। शंखपुर नगर का राजकुमार अगडदत्त सभी व्यसनों में प्रवीण था। वह मद्य पीता था, जुआ खेलता था, मांस तथा मधु का भक्षण करता था और नट-समूह तथा वेश्यावृन्द से घिरा रहता था। मद्यपान बहुत मात्रा में प्रचलित था। मद्य के अनेक प्रकार थे (1) मधु-. महुआ की मदिरा / (2) मैरेय- सिरका / (3) वारुणी-प्रधान सुरा। (4) मृद्वीका- द्राक्षा की मदिरा। (5) खजूरा- खजूर की मदिरा। क्रूरता और खाद्य-लोलुपता विपुल मात्र में थी। लोग भैंस का मांस खा लेते थे। पितरों को मांस और मदिरा की बलि दी जाती थी। शिवभूति नामक सहस्रमल्ल को राजा ने कहा- "श्मशान में जाकर कृष्ण-चतुर्दशी के दिन बलि देकर आओ।" उसने मदिरा और पशुओं की बलि दी और पशु को वहीं पकाकर खा गया / १-बृहद्वृत्ति, पत्र 523 / २-सुखबोधा, पत्र 218 / ३.-वही, पत्र 84 : - मज्जं पिएइ जूयं रमेइ पिसियं महुं च भक्खेइ / नडपेडय-वेसाविंद-परिगओ भमइ पुरमज्झे // ४-बृहद्वृत्ति, पत्र 654 / ५-वही, पत्र 52 / . ६-सुखबोधा, पत्र 75 : बच्च माइघरे सुसाणे कण्हचउद्दसीए बलिं देहि / सुरा पसुओ य दिण्णो / ... . सो गंतूण माइबलिं दाऊण 'छुहिओ मि' ति तत्थेव सुसाणे तं पसुं पउलेत्ता खाइ। 55 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन मल्ल-विद्या मल्ल-विद्या का व्यवस्थित शिक्षण दिया जाता था। जो व्यक्ति यह विद्या सीखना / चाहता, उसे पहले वमन और विरेचन कराया जाता। कई दिनों तक उसे खाने के लिए पौष्टिक तत्त्व दिए जाते और धीरे-धीरे उसे मल्ल-विद्या का अभ्यास कराया जाता था। मल्ल प्रायः राज्याश्रित रहते थे। स्थान-स्थान पर दंगल होते और जो मल्ल जीतता उसे 'पताका' दी जाती थी। उज्जनी में अट्टण नामका एक मल्ल था। वह दुर्जेय था। वह 'सोपारक' नगर में प्रतिवर्ष जाता और वहाँ के मल्लों को हराकर पंताका ले आता . था।' मल्लयुद्ध तब तक चलता जब तक हार-जीत का निर्णय नहीं हो जाता / एक बार एक राजा ने मल्लयुद्ध आयोजित किया। पहले दिन न कोई हारा, न कोई जीता / दूसरे दिन दोनों सम रहे। तीसरे दिन एक हारा, एक जीता। दंगल में विभिन्न दाँव-पेच भी प्रयुक्त होते थे। एक दिन का दंगल पूरा हो जाने पर मल्लों को दूसरे दिन के लिए तैयार करने के लिए संमर्दक लोग नियुक्त किए जाते थे, जो तेल आदि से मालिश कर मल्लों को तैयार करते थे। कई मल्ल हार जाने पर कुछ महीनों तक रसायन आदि का सेवन कर पुनः बलिष्ठ हो दंगल के लिए तैयार होते थे। रोग और चिकित्सा - उस समय के मुख्य रोग हैं श्वास, खाँसी, ज्वर, दाह, उदरशूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मुशूलख, अरुचि, अक्षिवेदना, खाज, कर्णशूल, जलोदर और कोढ / 5 उस समय चिकित्सा की कई पद्धतियाँ प्रचलित थीं। उनमें आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति सर्वमान्य थी। पंचकर्म-वमन, विरेचन, आदि का भी विपुल प्रचलन था / 6 १-बृहद्वृत्ति, पत्र 192 / २-वही, पत्र 192,163 / ३-वही, पत्र 163 / ४-वही, पत्र 193 / ५-सुखबोधा, पत्र 163 : सासे खासे जरे डाहे, कुच्छिसूले भगंदरे / अरिसा अजीरए ट्ठिी-मुहसूले अरोयए // अच्छिवेयण कंडू य, कन्नवाहा जलोयरे / कोढे एमाइणो रोगा, पीलयंति सरीरिणं॥ ६-उत्तराध्ययन, 158 / Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 5 सभ्यता और संस्कृति . 435 .. चिकित्सा के चार मुख्य पाद माने गए हैं-(१) वैद्य, (2) रोगी, (3) औषधि, और (4) प्रतिचर्या करने वाले।' विद्या और मंत्रों, शल्य-चिकित्सा तथा जड़ी-बूटियों से भी चिकित्सा की जाती थी। इनके विशारद आचार्य यत्र-तत्र सुलभ थे। ___अनाथी मुनि ने मगध सम्राट राजा श्रेणिक से कहा- "जब मैं अक्षि-वेदना से अत्यन्त पीड़ित था तब मेरे पिता ने मेरी चिकित्सा के लिए वैद्य, विद्या और मंत्रों के द्वारा चिकित्सा करने वाले आचार्य, शल्य-चिकित्सक और औषधियों के विशारद आचार्यों को बुलाया था। ___पशु-चिकित्सा के विशेषज्ञ भी होते थे। किसी एक वैद्य ने चिकित्सा कर एक सिंह की आँखें खोल दीं। - वैद्य को प्राणाचार्य भी कहा जाता था। - रसायनों का सेवन करा कर चिकित्सा की जाती थी। मंत्र और विद्या - यह वीर-निर्वाण के छठे शतक की बात है। अंतरंजिया नगरी में एक परिव्राजक रहता था। वह अपने पेट,को लोहे की पट्टी से बाँधे रखता और जम्बू-वृक्ष की एक टहनी को अपने हाथ में लेकर घूमता था। लोग उससे इसका कारण पूछते तो वह कहता-"ज्ञान से पेट फूट न जाए इसलिए पेट को लोहे से बाँधे रखता हूँ और इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में मेरा कोई प्रतिपक्षी नहीं है, इसलिए यह टहनी रखता हूँ।" वह परिव्राजक सात विद्याओं में निपुण था(१) वृश्चिकी (4) मृगी (2) सार्की (5) वराही (3) मूषकी. . (7) सउलिया (शकुनिका-चील) १-उत्तराध्ययन, 20123 ; सखबोधा, पत्र 269 / २-उत्तराध्ययन, 20122 ; सुखबोधा, पत्र 269 / ३-बृहद्वृत्ति, पत्र 462 : केनचिद् भिषजा व्याघ्रस्य चक्षुरुद्घाटितमटव्याम् / ४-वही, पत्र 475 / ५-वही, पत्र 11 / ६-उत्तराध्ययन नियुक्ति, 173 / (6) काकी Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन उसी गाँव में श्रीगुप्त आचार्य भी अनेक विद्याओं में पारंगत थे। वे इनकी प्रतिपक्षी विद्याओं के ज्ञाता थे। वे विद्याएँ ये हैं(१) मयूरी (5) सिंही (2) नकुली (6) उलूकी (3) विडाली (7) ओलावी-बाज / (4) व्याघ्री एक बार परिव्राजक और आचार्य श्रीगुप्त के शिष्य रोहगुप्त में परस्पर इन विद्याओं का प्रयोग हुआ और अन्त में रोहगुप्त की विजय हुई। भूतवादी लोग भी यत्र-तत्र घूमते थे। वे अपने वश में किए हुए भूतों से मनोवाञ्छित कार्य करा सकते थे। एक बार एक नगर में उपद्रव हुआ / तीन भूतवादी राजा के पास आए और बोले"हम आपके नगर का उपद्रव मिटा देंगे।" राजा ने पूछा- "कसे ?" एक भूतवादी ने कहा-"मेरे पास एक मंत्रसिद्ध भूत है। वह सुन्दर रूप बनाकर नगर में घूमेगा। जो उसको एकटक देखेगा, वह मर जाएगा और जो नीचा मुँह कर निकल जाएगा, वह सभी रोगों से मुक्त हो जाएगा।" राजा ने कहा- "मेरे ऐसा भूत नहीं चाहिए।" दूसरे भूतवादी ने कहा- "मेरा भूत विकराल रूप बनाकर अट्टहास करता हुआ, नाचता-गाता हुआ नगर में घूमेगा। उसको देखकर जो उसका उपहास करेगा, उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे और जो उसकी पूजा करेगा, वह रोग-मुक्त हो जाएगा।" राजा ने कहा- "मेरे ऐसा भूत नहीं चाहिए।" ____तीसरे भूतवादी ने कहा- "मेरा भूत समदृष्टि है। कोई उसका प्रिय करे या अप्रिय, वह किसी पर प्रसन्न या नाराज नहीं होता। लोग उसे देखते ही रोग-मुक्त हो जाएंगे।" राजा ने कहा- “यह भूत अच्छा है।" भूतवादी ने उस भूत की सहायता से नगर का सारा उपद्रव मिटा दिया। __ कई व्यक्ति 'संकरी विद्या' में प्रवीण होते थे। इसके स्मरण-मात्र से दास-दासी वर्ग उपस्थित हो जाता था। इनके अतिरिक्त निम्न विद्याएँ प्रचलित थी १--उत्तराध्ययन नियुक्त, 174 / २-देशीनाममाला, 11160 : सेणे ओलयओलावया य.....। ३-बृहद्वृत्ति, पत्र 169 / ४-सुखबोधा, पत्र 5,6 / ५-वही, पत्र 190 / Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण: 5 सभ्यता और संस्कृति (1) छिन्न-विद्या (6) लक्षण-विद्या (2) स्वर-विद्या (7) दण्ड-विद्या (3) भोम-विद्या (5) वास्तु-विद्या (4) अंतरिक्ष-विद्या (6) अंग-स्फुरण-विद्या (5) स्वप्न-विद्या (10) रुत-विद्या मतवाद वह युग धार्मिक मतवादों का युग था। बाह्य वेशों और आचारों के आधार पर भी अनेक मतवाद प्रचलित थे। विरोधी मतवादों के कुछ उदाहण ये हैं १–सेतुकरण (वृक्ष-सिंचन) में धर्म है। २-असेतुकरण में धर्म है। ३-गृहवास में धर्म है। ४-वनवास में धर्म है। ५-मुण्ड होने पर धर्म हो सकता है। ६-जटाधारी होने से धर्म हो सकता है / ७-नग्न रहने से धर्म हो सकता है। ८-वस्त्र रखने से धर्म हो सकता है। तापस उत्तराध्ययन में तापसों के कुछेक प्रकार उल्लिखित हुए हैं। उस समय की सम्प्रदायबहुलता को देखते हुए ये बहुत अल्प हैं। किन्तु इनका आकलन भी उस समय की धार्मिक स्थिति का परिचायक है चीवरधारी- चीवर या वल्कल पहनने वाले। अजिनधारी- चर्म के वस्त्र पहनने वाले। मृगचारिक, उद्दण्डक, आजीवक आदि सम्प्रदाय / जटी जटा रखने वाले। संघाटी चिथरों को जोड़कर पहनने वाले। मुण्डी सिर मुंडाने वाले। शिखी सिर पर शिखा रखने वाले। - १-बृहवृत्ति, पत्र 215,216 / २-उत्तराध्ययन, 221 ; बृहद्वृत्ति, पत्र 419 / ३-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० 138 / Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययने ___एक बार कोडिन्न, दिन्न और सेवाली–तीनों तापस अपने-अपने पाँच-पाँच सौ शिष्यों के साथ अष्टापद पर्वत पर चढ़ने के लिए आए / कोडिन्न एकान्तर तप करता और कन्द-मूल खाता था। दिन्न बेले-बेले की तपस्या करता और भूमि पर गिरे हुए जीर्ण पत्ते खाकर निर्वाह करता था। सेवाली तेले-तेले की तपस्या करता और शैवाल खाकर निर्वाह करता था।' स्थान-स्थान पर शिव, इन्द्र, स्कन्द और विष्णु के मन्दिर होते थे और उनकी पूजा की जाती थी। विकीर्ण पुत्र-प्राप्ति के लिए मंत्र और औषधियों से संस्कृत जल से स्त्री को स्नान कराया जाता था। अमात्य आदि विशेष पद पर रहने वाले व्यक्तियों की वेश-भूषा भिन्न प्रकार की होती थी। उत्सवों के अवसर पर घरों पर ध्वजाएँ फहराई जाती थीं।" सूक्ष्म वस्त्र तथा कम्बल यंत्र से बनाए जाते थे। नदी के किनारे प्रपा बनाने का रिवाज था। ऐसी प्रपाओं में पथिकों तथा परिव्राजकों को अन्न-पानी का दान किया जाता था / " किसी के मरने पर अनेक लौकिक कृत्य किए जाते थे। मृतक के पीछे रोने की. रिवाज थी। शबर जाति के लोग तमाल के पत्ते पहनते थे। - इस प्रकरण के अन्तर्गत सभ्यता और संस्कृति का कुछ लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। ये तथ्य केवल संकेत मात्र हैं। उत्तराध्ययन की टीका सुखबोधा में संग्रहीत प्राकृत कथाओं के आधार पर और भी अनेक तथ्यों पर प्रकाश डाला जा सकता है। १-सुखबोधा, पा 155 // २-उत्तराध्ययन नियुक्ति, 315 / ३-सुखबोधा, पत्र 217 / ४-वही, पत्र 217 / ५-बृहद्वृत्ति, पत्र 147 / ६-उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०९; बृहद्वृत्ति, पत्र 122 / ७-सुखबोधा, पत्र 188 / -वही, पत्र 202 / . ९-बृहद्वृत्ति, पत्र 142H शबरनिवसनं तमालपत्रम् / Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : छठा तुलनात्मक अध्ययन भारतीय जन-मानस श्रमण और वैदिक-दोनों परम्पराओं से प्रभावित रहा है। भारत की सभ्यता और संस्कृति इन परम्पराओं के आधार पर विकसित हुई और फलीफूली। दोनों परम्पराओं में एक ऐसी अनुस्यूति थी, जो भेद में अभेद को प्रोत्साहित करती थी। दोनों परम्पराओं के साधकों ने अनुभूतियाँ प्राप्त की। उनमें कई अनुभूतियाँ समान थीं और कई असमान। कुछ अनुभूतियों का परस्पर विनिमय भी हुआ। इस अध्याय में उन्हीं का एक विहंगावलोकन है। यह देख कर हमें बहुत आश्चर्य होगा कि कतिपय श्लोकों में विचित्र शब्द-साम्य और अर्थ-साम्य है / मूलतः कौन, किस परम्परा का हैयह निर्णय करना कष्टसाध्य है। फिर भी सिद्धान्त के आधार पर हम एक निश्चय पर पहुँच सकते हैं। उदाहरण के लिए उत्तराध्ययन सूत्र में 'कालीपव्वंगसंकासे' 'किस्से धमणिसंतए'—ये पद आएं हैं / बौद्ध-साहित्य में भी इनकी आवृत्ति हुई है। जैनसूत्रों में ये विशेषण ऐसे तपस्वी के लिए आए हैं, जो तपस्या के द्वारा अपने शरीर को इतना कृश बन देता है कि वह काली पर्व के सदृश हो जाता है और उसकी नाड़ियों का जाल स्फुट दीखने लगता है। ये विशेषण यथार्थ हैं क्योंकि ऐसी तपस्या जैन मत में सम्मत रही हैं / बौद्ध-साहित्य में ये पद ब्राह्मण के लक्षण बताते समय तथा सामान्य साधु के लिए प्रयुक्त हुए हैं। परन्तु यहाँ यह शंका होती है कि तपस्या के बिना शरीर इतना कृश नहीं होता और ऐसी कठोर तपस्या बौद्धों को अमान्य रही है। इससे यह लगता है कि उन्होंने ये शब्द जैन या वैदिक धर्म के प्रभाव-काल में स्वीकृत किए हैं। डॉ० विन्टरनित्ज की मान्यता है कि "कथाओं, संवादों और गाथाओं की समानता का कारण यह है कि ये सब बहुत काल से प्रचलित श्रमण-साहित्य के अंश थे और उन्हीं - से जैन, बौद्ध, महाकाव्यकारों तथा पुराणकारों ने इन्हें अपना लिया है।" __यहाँ उत्तराध्ययन के अध्ययन-क्रम से तुलनात्मक सामग्री प्रस्तुत की गई है .१-उत्तराध्ययन, 2 / 3 / २-धम्मपद 26 / 13 ; थेरागाथा 246 / 3-The Jainas in the History of Indian Literature, p. 7. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन नापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए। कोहं असच्चं कुब्वेज्जा, धारेज्जा पियमप्पियं // (1 / 14) अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्य य // (1 / 15) पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा। आवी वा जइ वा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइ वि // (1 / 17) कालीपव्वंगसंकासे, किसे धमणिसंतए / मायन्ने असणपाणस्स, अदीणमणसो चरे // (2 // 3) पुछो य दसमसएहिं, समरेव महामुणी। नागो संगामसीसे वा, सूरो अभिहणे परं // (2 / 10) एग एव चरे लाढे, अभिभूय परीसहे / गामे वा नगरे वावि, निगमे वा रायहाणिए // (2018) असमाणो चरे भिक्खू, नेव कुज्जा परिग्गह। असंसत्तो गिहत्थेहिं, अणिएओ परिव्वए // सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले व एगओ। अकुक्कुओ निसीएज्जा, न य वित्तासए परं / / (2 / 16, 20) स्रोच्चाणं फरुसा भासा, दारुणा गामकण्टगा। तुसिणीओ उवेहेज्जा, न ताओ मणसीकरे // (2 / 25) अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अन्नाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झेज्जा, नाणुतप्पेज्ज पन्नवं // (2 / 36) खेत्तं वत्थं हिरण्णं च, पसवो दासपोरुष / चत्तारि कामखन्धाणि, तत्थ से उववज्जई // (3 / 17) असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं। एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, कण्णू विहिंसा अजया गहिन्ति // (41) Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141. (शान्तिपर्व 287 / 35) (धम्मपद 12 // 3) खण्ड 2, प्रकरण : 6 तुलनात्मक अध्ययन नापृष्टः कस्यचिद् ब्र यान्, नाप्यन्यायेन पृच्छतः / ज्ञानवानपि मेधावी, जडवत् समुपाविशेत् // अत्तानञ्चे तथा कयिरा, यथञमनुसासति / सुदन्तो वत दम्मेथ, अत्ता हि किर दुद्दमो // मा कासि पापकं कम्म, आवि वा यदि वा रहो / सचे च पापकं कम्म, करिस्ससि करोसि वा // काल(ला)पव्वंगसंकासो, किसो धम्मनिसन्थतो। मन्तञ्जू अन्नपाम्हि, अदीनमनसो नरो / अष्टचक्रं हि तद् यानं, भूतयुक्तं मनोरथम् / तत्राद्यौ लोकनाथौ तौ, कृशौ धमनिसंततौ // एवं चीर्णन ..! तपसा, मुनिर्धमनिसन्ततः / पंसकलधरं जन्तं, किसं धमनिसन्थतं / एकं वनस्मि झायन्तं, तमहं ब्रूमि बाह्मणं // (थरीगाथा 247) (थेरगाथा 246,686) (शान्तिपर्व 334 / 11) (भागवत 11 / 18 / 6) (धम्मपद. 26 / 13) फुट्ठो डंसेहि मकसेहि, अरस्मि ब्रहावने / नागो संगामसीसे'व, . सतो तत्राऽधिवासये॥ (थेरगाथा 34,247,687) एक एव चरेन्नित्यं, सिद्ध्यर्थमसहायवान् / सिद्धिमेकस्य संपश्यन्, न जहाति न हीयते // (मनुस्मृति 6 / 42) अनिकेत: परितपन्, वृक्षमूलाश्रयो मुनिः / अयाचकः सदा योगी, स त्यागी पार्थ ! भिक्षुकः // (शान्तिपर्व 12 / 10) पांसुभिः समभिच्छिन्नः, ' शून्यागारप्रतिश्रयः / वृक्षमूलनिकेतो वा, त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः // (शान्तिपर्व 9 / 13) सुत्वा. रुसितो बहुं वाचं, समणाणं पुथुवचनानं / फरुसेन ते न पतिवज्जा, न हि सन्तो पटिसेनिकरोन्ति॥ (सुत्तनिपात, व०८,१४।१८) चक्खूहि नेव लोलस्स, गामकथाय आवरये सोतं / रसे च नानुगिज्झेय्य, न च ममायेय किंचि लोकस्मि // ...... (सुत्त०, व० 8,14 / 8) खेत्तं वत्थं हिरनं वा, गवास्सं दासपोरिसं / थियो बन्धू पुथू कामे, यो नरो अनुगिज्झति // ... (सुत्त०, व० 8,1 / 4) उपनीयति जीवितं अप्पमायु, जरूपनीतस्स न सन्ति ताणा। एतं भयं मरणे पेक्खमाणो, पुञानि कयिराथ सुखावहानि // (अंगुत्तर नि०, पृ० 159) Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4 // 3).. उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक-अध्ययन तेणे जहा सन्धिमुहे गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्ख अतिय // चीराजिणं नगिणिणं, जडीसंघाडिमुण्डिणं / एयाणि वि न तायन्ति, दुस्सीलं परियागयं // जे लक्खण च सुविण च, अंगविजं च जे पउंजन्ति / न हुते समणा वुच्चन्ति, एवं आयरिएहिं अक्खायं // सुहं वसामो जीवामो, जेसि मो नत्थि किंचण। मिहिलाए उज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचण // (5 / 21) (8 / 13) (14) (6 / 34) : जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे / एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ // जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए। तस्सावि संजमो सेओ, अदिन्तस्स वि किंचण // (40) मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु भुंजए / न सो सुयक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं // (6 / 44) (48) सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया // पुढवी साली जवा चेव, हिरणं पसुभिस्सह / पडिपुण्णं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे॥ (49) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 6 तुलनात्मक अध्ययन चोरो यथा सन्धिमुखे गहीतो, सकम्मुना हजति पापधम्मो / एवं पजा पेच्च परम्हि लोके, सकम्मुना हति पापधम्मो // (थेरगाथा 786) न नग्गचरिया न जटा न पंका, नानासका थण्डिलसायिका वा। रजो व जल्लं उक्कुटिकप्पधानं, सोधेन्ति मच्च अवितिण्णकङ्ख // (धम्मपद 10 / 13) आथन्त्रण सुपिनं लक्खणं, नो विदहे अथो पि नक्खत्तं / विरुतं च गब्भकरणं, तिकिच्छं मामको न सेबेय्य // (सुत्त०, व० 8,14 / 13) सुसुखं बत जीवाम ये सं नो नत्थि किंचनं / मिथिलाय डरहमानाय न मे किंचि अडव्हथ // (जातक 536, श्लोक 125; जातक 526, श्लोक 16; धम्मपद 15) सुसुखं बत जीवामि, यस्य मे नास्ति किंचन / मिथिलायां प्रदीप्तायां, न मे दह्यति किंचन // (मोक्षधर्म पर्व, 276 / 2) यो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने / एकं च जेय्यमत्तानं स वे संगामजुत्तमो // (धम्मपद 8 / 4) मासे मासे सहस्सेन यो यजेय सतं सम, एकंच भावितत्तानं मुहुत्तमपि पूजये। सा येव पूजना सेय्यो यं चे वस्ससतं हुतं // यो च वस्ससतं जन्तु अग्गिं परिचरे बने, एकंच भावितत्तानं मुहुत्तमपि पूजये / सा येव पूजना सेय्यो यं चे वस्ससतं हुतं / (धम्मपद 87,8) यो ददाति सहस्राणि गवामश्वशतानि च / अभयं सर्वभूतेभ्यः सदा तमभिवर्तते // (शान्तिपर्व 2985) मासे मासे कुसग्गेन, बालो भुजेथ भोजनं / न सो संखतधम्मानं, कलं अग्घति सोलसिं // (धम्मपद 5 / 11) अटुंगुप्रेतस्स उपोसथस्स, कलं पि ते नानुभवंति सोलसिं॥ (अंगु० नि०, पृ० 221) पर्वतोपि सुवर्णस्य, समो हिमवता भवेत् / नालं एकस्य तद्वित्तं, इति विद्वान् समाचरेत् // (दिव्यावदान, पृ० 224) यत्पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः / सवं तन्नालमेकस्य, तस्माद् विद्वाञ्छमं चरेत् // (अनुशासनपर्व 63 / 40) यत् पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः / नालमेकस्य तत् सर्वमिति पश्यन्न मुह्यति // (उद्योग पर्व 3654) Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययने : एक समीक्षात्मक अध्ययन वोछिन्द सिणेहमप्पणो, कुमुये सारइयं व पाणियं / से सव्वसिणेहवज्जिए, समयं गोयम ! मा पमायए // जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्च नरें नेइ हु अन्तकाले / न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मिसहरा भवंति // (10 / 28) ... (13 / 22) न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइप्रो, न मित्तवग्गा न सुया न बन्धवा। . एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं / / _(13 / 23) (13 / 24) चेच्चा दुपयं. च चउप्पयं च, खेत्तं गिह धणधन्नं च सव्वं / कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा // तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से, चिईगयं डहिय उ पावगेणं। , भज्जा य पुत्ता वि य नायओ य, दायारमन्नं अणुसंकमन्ति // (13 / 25) (13 / 31) अच्चेइ कालो तूरन्ति राइयो, न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी // अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे, पुत्ते पडिट्टप्प गिहंसि जाया ! / भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं, आरण्णगा होह मुणी पसत्था // (14 / 6 वेया अहीया न भवन्ति ताणं, भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं / जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं, को णाम ते अणुमन्नेज्ज एवं // (14 / 12) इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं / तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कह पमाए ? // (14 / 15) धणं पभूयं सह इत्थियाहिं, सयणा तहा कामगुणा पगामा / तवं कए तापइ जस्स लोगो, तं सव साहीणमिहेव तुभं // ... (14 / 16,17) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंण्ड 2, प्रकरण : 6 तुलनात्मक अध्ययन यद् पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः। . एकस्यापि न पर्याप्त, तदित्यवितृष्णां त्यजेत् // (विष्णुपुराण 4 / 10 / 10) उच्छिन्द सिनेहमत्तनो कुमुदं सारदिकं व पाणिना। सन्तिमग्गमेव ब्रहर, निब्बानं सुगतेन देसितं // . (धम्मपद 2013) तं पुत्रपशुसम्पन्नं, व्यासक्तमनसं नरम् / सुप्तं व्याघ्रो मृगमिव, मृत्युरादाय गच्छति // सचिन्वानकमेवन, कामानामवितृप्तकम् / व्याघ्रः पशुमिवादाय, मृत्युरादाय गच्छति // (शान्ति० 175 / 18,16) मृतं पुत्रं दुःखपुष्टं मनुष्या उत्क्षिप्य राजन् ! स्वगृहान्निर्हरन्ति / . तं मुक्तकेशाः करुणं रुदन्ति चितामध्ये काष्ठमिव क्षिपन्ति // (उद्योग० 40 / 15) अग्नौ प्रास्तं तु पुरुष, कर्मान्वेति स्वयं कृतम्। (उद्योग० 40 / 18) अन्यो धनं प्रेतगतस्य भुंक्ते, वयांसि चाग्निश्च शरीरधातून् / द्वाभ्यामयं सह गच्छत्यमुत्र, पुण्षेत पापेन च चेष्ट्यमानः // (उद्योग० 40 / 17) उत्सृज्य विनिवर्वन्ते, ज्ञातयः सुहृदः सुताः / अपुष्पानफलान् वृक्षान् यथा तात पतत्रिणः // (उद्योग० 40 / 17) अनुगम्य विनाशान्ते, निवर्तन्ते ह बान्धवाः / अग्नौ प्रक्षिप्य पुरुष, ज्ञातयः सुहृदस्तथा // (शान्ति० 321174) अच्चयन्ति अहोरत्ता ... ... .... ... ... ... ... / ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... || थेरगाथा (148) वेदानधीत्य ब्रह्मचर्येण पुत्र !, पुत्रानिच्छेत् पावनार्थ पितणाम् / अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो, वनं प्रविश्याथ मुनिळूभूषेत् // (शान्तिपर्व 175 / 6;27716; जातक 506 / 4) वेदा न सच्चा न च वित्तलाभो, न पुत्तलाभेन जरं विहन्ति / गन्धे रमे मुच्चनं आहु सन्तो, सकम्मुना होति फलपपत्ति // (जातक 506 / 6) इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत् कृताकृतम् / एवमीहासुबासक्तं, मृत्युरादाय गच्छति // (शान्ति० 175 / 20) कि ते धनैर्बान्धवैर्वापि कि ते, कि ते दाराह्मण ! यो मरिष्यसि / आत्मानमन्विच्छ गुहं प्रविष्ट, पितामहास्ते क्व गताः पिता च // (शान्ति० 155 // 38) Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (14 / 21) (14 / 22) उत्तराध्ययन : एक समीक्षा अभाहयमि लोगमि सव्वओ' परिवारिए। अमोहाहिं पडन्तीहि, गिहंसि न रई लभे // केण अभाहओ लोगो ? केण वा परिवारिओ ? / का वा अमोहा वुत्ता ? जाया ! चिंतावरो हुमि // मच्चूणाज्भाहओ लोगो, जराए परिवारिओ। अमोहा रयणी वुत्ता, एवं ताय ! वियाणह // जा जा बच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई / अहम्मं कुणमाणस, अफला जन्ति राइओ // जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई / धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ // . . (14 / 23) (14 / 24,25) (14 / 27) (14 / 26) (14 / 38) जस्सत्थि मच्चूणा सक्खं, जस्स वऽत्थि पलायणं / जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया // पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो, वासिठि ! भिक्खायरियाइ कालो। . साहाहि रुक्खो लहए समाहिं, छिन्नाहि साहाहि . तमेव खाणुं // वन्तासी पुरिसो रायं ! न सो होइ पसंसिओ। माहणेण परिच्चत्तं, धणं आदाउमिच्छसि // सामिसं कुललं दिस्स, बज्झमाणं निरामिसं / आमिसं सव्वमुज्झित्ता, विहरिस्सामि निरामिसा // नागो व्व बन्धणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए। एयं पत्थं महारायं ! उसुयारि त्ति मे सुयं // करकण्डू कलिंगेसु, पंचालेसु य दुम्मुहो। नमी राया विदेहेसु, गन्धारेसु य नग्गई // एए नरिन्दवसभा, निक्खन्ता जिणसासणे। पुतै रज्जे ठवित्ताणं, सामण्णे पज्जुवट्ठिया // (14 / 46) (14 / 48) (1845,46) Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 447 खण्ड 2, प्रकरण : 6 तुलनात्मक अध्ययन एवमभ्याहते लोके समन्तात् परिवारिते / अमोघासु पतन्तीषु किं धीर इव भाषसे // (शान्तिपर्व 175 / 727717) कथमभ्याहतो लोकः, केन वा परिवारितः / अमोघाः काः पतन्तीह किं नु भीषयसीव माम् // (शान्तिपर्व 175 / 8,2778) मृत्युनाम्याहतो लोको जरया परिवारितः / अहोरात्राः पतन्त्येते ननु कस्मान्न बुध्यसे // (शान्तिपर्व 17516,277 / 6) अमोघा रात्रयश्चापि नित्यमायान्ति यान्ति च / यदाहमेतज्जानामि न मुत्युस्तिष्ठतीति ह। सोऽहं कथं प्रतीक्षिष्ये जालेनापिहितश्चरन् / राश्यां राश्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं यदा / गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा // (यस्यां रात्र्यां व्यतीतायां न किञ्चिच्छभमाचरेत् / ) तदेव वन्ध्यं दिवसमिति विद्याद् विचक्षणः / / अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम् // (शान्तिपर्व 175 / 10,11,12; शान्तिपर्व (277 / 10,11,12) यस्स अस्स सक्खी मरणेन राज, जराय मेत्तो नरविरियसेछ / यो चापि जज्जा न मरिस्सं कदाचि, पस्सेय्युं तं वस्ससतं अरोगं // (जातक 5067) साखाहि रुक्खो लभते समन्नं, पहीणसाखं पन खानु माहु / पहीणपुत्तस्स ममज्झहोति, वासेठि भिक्खाचरियाय कालो // (जातक 506 / 15) अवमी ब्राह्मणो कामे, ते त्वं पच्चावमिस्ससि / वन्तादो पुरिसो राज, न सो होति पसंसियो // (जातक 509 / 18) सामिषं. कुररं दृष्ट्वा, बध्यमानं निरामिषः / आमिषस्य परित्यागात्, कुररः सुखमेधते // (शान्तिपर्व 1786) इदं वत्वा महाराज एसुकारी दिसम्पति, रष्टुं हित्वान पब्बजि नागो छेत्वा व बन्धनं // " (जातक 506 / 20) करण्डनाम कलिङ्गानं गन्धारानञ्च नग्गजी, निमिराजा विदेहानं पञ्चालानञ्च दुमुक्खो; एते रट्टानि हित्वान पब्बजिंसु अकिञ्चना // (जातक 408 / 5) Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक अध्ययन . (16 / 15) जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य / अहो दुक्खो हु: संसारो, जत्य कीसन्ति जन्तवो // अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दणं वणं // अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य / अप्पा. मित्तममित्तं - च, दुप्पट्ठियसुपट्ठिओ // (20136,37) (20 // 48) (20 / 24) न तं अरी कण्ठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। से नाहिई मुच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो // दुविहं खवेऊण य पुण्णपावं, निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के / तरित्ता समुदं व महाभवोघं, समुद्दपाले अपुणागमं गए // धिरत्थु ते जसोकामी ! जो तं जीवियकारणा। वन्तं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे // अग्निहोत्तमुहा वेया, जन्नट्ठी वेयसां मुहं / नक्खताण मुहं चन्दो, धम्माणं कासवो मुहं // (22 / 42) (25 // 16) (25 / 22) (25 / 23) तपसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे / जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बृम माहणं // कोहा व जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया। मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं // जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा / एवं अलित्तो कामेहि, तं वयं बूम माहणं // म वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बम्भणो। . न मुणी रणवासेणं, कुसचीरेण न तावसो // (25 / 26) *(25 / 26) Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 6 तुलनात्मक अध्ययन जातिपि दुक्खा जरापि दुक्खा , व्याधिपि दुक्खा मरणंपि दुक्खं // (महावग्ग 1 / 6 / 16) अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया / अत्तना व सुदन्तेन, नाथं लभति दुल्लभं // अत्तना व कतं पापं, अत्तनं अत्तसम्भवं / अभिमन्थति दुम्मेधं, वजिरं वस्ममय मणिं // अत्तना व कतं पापं, अत्तना संकिलिस्सति / अत्तना अकतं पापं, अत्तना व विसुज्झति // सुद्धि असुद्धि पच्चत्त', नाओ अझं विसोधये // ......(धम्मपद 12 / 4,5,6) उद्धरेदात्मनात्मानं, नात्मानमवसादयेत् / प्रात्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः // बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः / अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् // (गीता 6 / 5,6) दिसो दिसं यन्तं कयिरा, वेरी वा पन वेरिनं / मिच्छापणिहितं चित्त, पापियो नं ततो करे // (धम्मपदं 3 / 10) . यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्ण, कर्तारमीशं पुरुष ब्रह्मयोनिम् / तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय, निरञ्जनं परमं साभ्यमुपैति // (मुण्डकोपनिषद् 3 // 1 // 3) धिरत्थु तं विसं वन्तं यमहं जीवितकारणा। वन्तं पञ्चावमिस्सामि मतम्मे जीविता वरं // (विसवन्त जातक 69) अग्गिहुत्तमुखा या, सावित्ती छन्दसो मुखं / राजा मुखं मनुस्सानं, नदीनं सागरो मुखं // नक्खत्तानं मुखं चन्दो, आदिच्चो तपतं मुखं / पुझं आकंखमानानं, संघोवे यजतं मुखं // (सुत्तनिपात 33 / 20,21) निघाय दंडं भूतेसु, तसेसु थावरेसु च / यो हन्ति न घातेति, तमहं ब्र मि ब्राह्मणं // (धम्मपद 26 / 23) अकक्कसं विज्ञापनि, गिर सच्चं उदीरये / याय नाभिसजे किंचि, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं // (धम्मपद 26 / 26) वारिपोक्खरपत्ते व, आरग्गेरिव सासपो। यो न लिप्पति कामेसु, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं // (धम्मपद 26 / 16) व मुण्डकेण समणो, अब्बतो अलिकं भणं / इच्छालाभसमापन्नो, समणो किं भविस्सति // Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्भणो। नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो / (25 / 30) कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। बइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा // (25 // 31) खलंका जारिसा जोज्जा, दुस्सीसा वि हु तारिसा। जोइया धम्मजाणम्मि, मुज्जन्ति धिइदुब्बला // न वा लभेज्जा निउण सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा। एक्को वि पावाइ विवज्जयन्तो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो॥ (28) (32 / 5) Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 451 (धम्मपद 19 / 6,11) खण्ड 2, प्रकरण : 6 तुलनात्मक अध्ययन न तेन भिक्खु होति, यावता भिक्खते परे / विस्सं धम्म समादाय, भिक्खु होति न तावता // न मोनेन मुनी होति, मुल्हरूपो अविद्दसु / यो च तुलं व पग्णयह वरमादाय पण्डितो // न तेन अरियो होति, येन पाणानि हिंसति / अहिंसा सब्बपाणानं अरियो'ति पवुच्चति // न जटाहि न गोत्तेहि, न जच्चा होति ब्राह्मणो। मोनाद्धि स मुनिर्भवती, नारण्यवसनान्मुनिः / / (धम्मपद 19 / 13) (धम्मपद 1915) (धम्मपद 26 / 11) (उद्योगपर्व 43 / 35) समितत्ता हि पापानं समणो ति पवुच्चति / (धम्मपद 1910) पापानि परिवज्जेति स मुनी तेन सो मुनी / यो मुनाति उभो लोके मुनी तेन पवुच्चति // (धम्मपद 19 / 14) न जच्चा ब्राह्मणो होति, न जच्चा होति अब्राह्मणो / कम्मुना ब्राह्मणो होति, कम्मुना होति अब्राह्मणो // कस्सको कम्मुना होति,, सिप्पिको होति कम्मुना / वाणिजो कम्मुना होति, पेस्सिको होति कम्मुना // (सुत्तनिपात, महा० 6 / 57,58) न जच्चा वसलो होती, न जच्चा होति ब्राह्मणो / कम्मुना वसलो होति, कम्मुना होति ब्राह्मणो // (सुत्तनिपात, उर० 121,27) चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं, गुणकर्माविभागशः / तस्य कर्तारमपि मां, विड्यकर्तारमव्ययम् // (गीता 4 / 13) ते तथा सिक्खित्ता बाला अज्जमज्जम गारवा / नादयिस्सन्ति उपज्झाये खलूको विय सारथिं // (थेरगाथा 676) सूचे. लभेथ निपकं सहायं, सद्धि चरं साधुविहारिधीरं / अभिभूय्य सब्बानि परिस्सयानि, चरेय्य तेनत्तमनो सतीमा // नो चे लभेथ निपकं सहायं, सद्धि चरं साधुविहारिधीरं / राजाव रठं विजितं पहाय, एको चरे मातंगर व नागो॥ एकस्य चरितं सेय्यो, नत्थि बाले सहायता / एको चरे न च पापानि कायिरा। अप्पोस्सुक्को . मातंगर व नागो॥ (धम्मपद 23 / 6,10,11) अद्धा पसंसाम सहायसंपदं सेट्ठा समा सेवितव्वा सहाया / एते अलद्धा अनवज्जभोजी, एगो चरे खग्गविसाणकप्पो // (सुत्तनिपात्त, उर० 3 / 13) Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन :: जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वष्णेण य भुज्जमाणा। ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे // एविन्दियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणों। ते चेत्र थोवं पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेन्ति किंचि // (32 / 20) (32 / 100) Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 6 तुलनात्मक अध्ययन 453-- 453 - त्रयी धर्ममधर्मार्थ किंपाकफलसंनिभम् / नास्ति तात ! सुखं किञ्चिदत्र दुःखशताकुले // (शांकरभाष्य, श्वेता० उप०, पृ०२३) रागद्वेषवियुक्तस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् / आत्मवश्यविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति // (गीता 2 / 64) ब्राह्मण जयघोष और विजयघोष नाम के दो भाई थे। जयघोष मुनि बन गए / विजयघोष ने यज्ञ का आयोजन किया। मुनि जयघोष यज्ञवाट में भिक्षा लेने गए। यज्ञ-स्वामी ने भिक्षा देने से इन्कार कर दिया और कहा कि यह भोजन केवल बाह्मणों को ही दिया जायगा। तब मुनि जयघोष ने समभाव रखते हुए उसे ब्राह्मण के लक्षण बताए / उत्तराध्ययन के पच्चीसवें अध्ययन में १९वें श्लोक से ३२वें श्लोक तक ब्राह्मणों के लक्षणों का निरूपण है और (28,26,30,31) के अतिरिक्त प्रत्येक श्लोक के अंत में 'तं वयं वम माहणं' ऐसा पद है। इसकी तुलना धम्मपद के ब्राह्मणवर्ग (३६वाँ), सुत्तनिपात के वासेटुसुत्त (35) के २४५वे अध्याय से होती है। धम्मपद के ब्राह्मणवर्ग में 42 श्लोक हैं और उनमें नौ श्लोकों के अतिरिक्त (1,2, 5,6,7,8,10,11,12) सभी श्लोकों का अन्तिम पद 'तमहं ब्रू मि ब्राह्मणं' है। . सुत्तनिपात का 'वासेट्ठ सुत्त' गद्य-पद्यात्मक है। उसमें 63 श्लोक हैं। उनमें 26 श्लोकों (27-45) का अन्तिम चरण 'तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं' है। इसमें कौन ब्राह्मण होता है और कौन नहीं, इन दोनों प्रश्नों का सुन्दर विवेचन है। अन्तिम निष्कर्ष यही है कि ब्राह्मण जन्मना नहीं होता, कर्मणा होता है। महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय 245 में 36 श्लोक हैं। उनमें सात श्लोकों (11, 12,13,14,22,23,24) के अन्तिम चरण में 'तं देवा ब्राह्मणं विदुः' ऐसा पद है। तीनों में ब्राह्मण के स्वरूप की मीमांसा है। उत्तराध्ययन के अनुसार ब्राह्मण (1) जो संयोग में प्रसन्न नहीं होता, वियोग में खिन्न नहीं होता, (2) जो आर्य-वचन में रमण करता है, जो पवित्र है, जो अभय है, (3) जो अहिंसक है, (4) जो सत्यनिष्ठ है, (5) जो अचौर्यव्रती है, (6) जो ब्रह्मचारी है, Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (7) जो अनासक्त है, (8) जो गृहत्यागी है, (8) जो अकिंचन है, (10) जो गृहस्थों में अनासक्त है और (11) जो समस्त कर्मों से मुक्त है, वह ब्राह्मण कहलाता है। धम्मपद तथा सुत्तनिपात के अनुसार ब्राह्मण (1) जिसके पार, अपार और पारापार नहीं है, जो निर्भय है, जो अनासक्त है, . (2) जो ध्यानी है, निर्मल है, आसनबद्ध है. उत्तमार्थी है, (3) जो पाप-कर्म से विरत है, (4) जो सुसंवृत है, (5) जो सत्यवादी है, धर्मनिष्ठ है, (6) जो पंशुकूल (फटे चीथड़ों से बना चीवर) को धारण करता है, (7) जो कुबला, पतला और बसों से मढे शरीर वाला है, (5) जो अकिंचन है, त्यागी है, (E) जो संग और आसक्ति से विरत है, (10) जो प्रबुद्ध है, जो क्षमाशील है, जो जितेन्द्रिय है, (11) जो चरम शरीरी है, (12) जो मेधावी है, मार्ग-अमार्ग को जानता है, (13) जो संसर्ग-रहित है, अल्पेच्छ है, (14) जो अहिंसक है, अविरोधी है, जो सत्यवादी है, जो अचौर्यव्रती है, जो अतृष्ण है, जो निःसंशय है, जो पवित्र है, जी अनुस्रोतनामी है, जो निःक्लेश है, जो प्राणियों की च्युति और उत्पत्ति को जानता है और (15) जो क्षीणाश्रव है, अर्हत् है, जिसके पूर्व, पश्चात् और मध्य में कुछ नहीं है, जो सम्पूर्ण ज्ञानी है-वह ब्राह्मण है। महाभारत के अनुसार ब्राह्मण (1) जो लोगों के बीच रहता हुआ भी असंग होने के कारण सूना रहता है, (2) जो जिस किसी वस्तु से अपना शरीर ढंक लेता है, (3) जो रूखा-सूखा खा कर भी भूख मिटा लेता है, . (4) जो जहाँ कहीं भी सो रहता है, Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___455 खण्ड 2, प्रकरण : 6 तुलनात्मक अध्ययन 455 (5) जो लोकेषणा से विरत है, जिसने स्वाद को जीत लिया है, जो स्त्रियों में आसक्त नहीं होता, (6) जो सम्मान पा कर गर्व नहीं करता, (7) जो तिरस्कार पा कर खिन्न नहीं होता, (8) जिसने सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान दे दिया है, (e) जो अनासक्त है, आकाश की तरह निर्लेप है, (10) जो किसी भी वस्तु को अपनी नहीं मानता, (11) जो एकाकी विचरण करता है, जो शान्त है, (12) जिसका जीवन धर्म के लिए होता, जिसका धर्म हरि (आत्मा) के लिए होता है, जो रात-दिन धर्म में लीन रहता है, (13) जो निस्तृष्ण है, जो अहिंसक है, जो नमस्कार और स्तुति से दूर रहता है, जो सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त है और (14) जिसके मोह और पाप दूर हो गए हैं, जो इहलोक और परलोक के भोगों में आसक्त नहीं होता-वह ब्राह्मण है-ब्रह्मज्ञानी है। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : सातवाँ उपमा और दृष्टान्त उत्तराध्ययन में गंभीर अर्थ भी सरस-सुबोध पद्धति से प्रकटित हुआ है। इस प्रकटन में उपमाओं और दृष्टान्तों का विशिष्ट योग है। यह एक पवित्र धर्म-ग्रन्थ है। किन्तु उपमाओं की बहुलता देख कर ऐसी प्रतीति होती है कि यह काव्य-ग्रन्थ है। इसीलिए संभव है विन्टरनित्ज ने इसे उत्कृष्ट श्रमण-काव्य कहा। मनुष्य-जीवन की तुलना पके हुए दुम-पत्र तथा कुश की नोक पर टिके हुए ओस-बिन्दु से की गई है (10 / 2) / काम-भोगों की तुलना किंपाक फल से की गई है (32 / 20) / ये फल देखने में मनोरम और खाने में मधुर होते हैं। किन्तु इनका परिपाक होता है मृत्यु / कहीं-कहीं उपमा-बोध बहुत सजीव हो उठा है। भृगु पुरोहित अपनी पत्नी से कह : रहा है-"मैं पुत्र-विहीन हो कर वैसा हो रहा हूँ, जैसा पंख-विहीन पंछी होता है" 'पंखाविहूणो व जहेह पक्खी' (14 / 30) साँप जैसे केंचुली को छोड़ कर चला जाता है, वैसे ही पुत्र भोगों को छोड़ कर चले जा रहे हैं (14 / 34) / महारानी कमलावती ने कहा-"जैसे पक्षिणी पिंजड़े में रति नहीं पाती, वैसे ही में इस बन्धन में रति नहीं पा रही हूँ" 'नाहं रमे पक्खि णि पंजरे वा' (14 / 41) ___ अमा की अंधियारी में दीए के सहारे चलने वाले का दीया बुझ जाए, उस समय वह देख कर भी नहीं देख पाता। इसी प्रकार धन से मृढ़ बना व्यक्ति देख कर भी नहीं देख पाता। (45) उपमा और दृष्टान्तों का अविकल संकलन नीचे दिया जा रहा हैउपमाएँ गलियस्से व कसं 1 / 12 कसं व दट्ठमाइण्णे 1 / 12 गलियस्सं व वाहए 1137 भूयाणं जगई जहा 1145 कालीपवंगसंकासे 2 / 3 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 2 / 10 2 / 17 3 / 12 3114 4 // 5 4 // 6 खण्ड २,प्रकरण : 7 . उपमा और दृष्टान्त नागो मंगामसीसे वा पंकभूया उ घयसित्तव्व पावए महासुक्का व दिप्पन्ता दीवप्पणदेव भारुण्डपक्खी च आसे जहा सिक्खियवम्मधारी दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व मट्टियं धुत्ते व कलिना जिए पक्खी पत्तं समादाय कुसग्गमेत्ता बज्झई मच्छिया व खेलंमि तरन्ति अतरं वणिया व निज्जाइ उदगं व थलाओ आसीविसोवमा अबले जह भारवाहए आसे जवेण पवरे जहाइण्णसमारूढे जहा करेणुपरिकिण्णे, कुंजरे सट्ठिहायणे वसहे. जूहाहिवई सीहे मियाण पवरे .. अप्पडिहयबले जोहे जहा से चाउरन्ते चक्कवट्टी महिड्ढिए जहा से सहस्सखे, वज्जपाणी पुरन्दरे जहा से तिमिरविद्धंसे, उत्तिटुन्ते दिवायरे जहा से उडुवई चन्दे जहा से सामाइयाणं कोट्रागारे जहा सा दुमाण पवरा, जम्बू नाम सुदंसणा जहा सा नईण पवरा जहा से नगाण पवरे, सुमहं मन्दरे गिरी जहा से सयंभूरमणे समुद्दगम्भीरसमा 58 . . . 4 // 5 / 10 5 / 16 6 / 15 7 / 24 8.5 86 8 6 / 53 10 // 33 11 / 16 11 / 17 11118 11 / 16 11020 11121 11122 11123 11 / 24 1125 11 / 26 11 / 27 11128 11 / 26 11 / 30 11 / 31 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन अगणिं व पक्खन्द पयंगसेणा जहेह सीहो व मियं गहाय नागो जहा पंकजलावसन्नो जहा य अग्गी अरणीऽसन्तो खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु पंखा विहूणो व्व जहेह पक्खी भिच्चा विहूणो व्व रणे नरिन्दो विवन्नसारो वणिओ व्व पोए जुण्णो व हंसो पडिसोत्तगामी जहा य भोई ! तणुयं भुयंगो, निम्मोयणि हिच्च पलेइ मुत्तो छिन्दत्तु जालं अबलं व रोहिया, मच्छा जहा.... . नहेव कुंचा समइक्कमन्ता, तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा पक्खिणि पंजरे वा गिद्धोवमे उरगो सुवण्णपासे व नागो व्व बन्धणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए विसं तालउडं जहा विसमेव गरहिए अमयं व पूइए विज्जुसंपायचंचलं उम्मत्तो व्व महिं चरे देवे दोगुन्दगे चेव विसफलोवमा फेणबुब्बुयसन्निभे जहा किम्पागफलाणं परिणामो न सुन्दरो गुरुओ लोहमारो व्व आगासे गंगसोउ व्व पडिसोओ व्व दुत्तरो बाहाहि सागरो वालुयाकवले असिधारागमणं अहीवेगन्तदिट्ठीए 12 / 27 13 / 22 13 / 30 14 / 18. 14 / 18 14 / 18 14 / 30 14 / 30 14 / 30 14.33 14 / 34 14/35 14 / 36 14 / 41 14 / 47 14 / 47 14 / 48 16.13 17 / 20 1721 18 / 13 18151 16 / 3 1611 1913 16 / 17 1635 16 / 36 16 // 36 16 / 37 16 // 37 16 / 38 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 7 उपमा और दृष्टान्ते 456 1938 16 / 36 16 / 40 .16 / 41 16 / 42 1950 16 / 53 1656 1957 16 / 63 1664 1665 1966 1967 1986 16087 जवा लोहमया जहा अग्गिसिहा दित्ता जहा दुक्खं भरेउं जे होइ वायस्स कोत्थलो जहा तुलाए तोलेउ, दुक्करं मन्दरो गिरी जहा भूयाहिं तरिउं, दुक्करं रयणागरो महादवग्गिसंकासे महाजन्तेसु उच्छू वा रोज्झो वा जह पाडिआ महिसो विव मिओ वा अवसो मच्छो वा अवसो. सउणो विव वड्ढईहिं दुमो विव कुमारेहिं अयं पिव महानागो व्व कंचुयं रेणुयं व पडे लग्गं वासीचन्दणकप्पो सत्यं जहा परमतिक्खं / इन्दासणिसमा पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे अयन्तिए कूडकहावणे वा राढामणी वेरुलियप्पगासे विसं तु पीयं जह कालकूडं * 'सत्यं जहं कुग्गहीयं वेयाल इव अग्गी विवा कुररी विवा विहग इव देवो दोगुन्दओ जहा सीहो व सद्देण न संतसेज्जा संगामसीसे इव नागराया मेरु व्व 1962 20120 20121 20142 20142 20142 20144 20144 20144 20147 20.50 20160 2117 21 / 14 21 / 17 2111.6 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन सूरिए वन्तलिक्खे 21223 समुहूं व 21 / 24 विज्जुसोयामणिप्पभा 227 सिरे चूडामणी जहा 22 / 10 भमरसन्निभे 22 / 30 मा कुले गन्धणा होमो 22 / 43 वायाविद्धो व्व हढो 22 / 44 . अंकुसेण जहा नागो 22146 चन्दसूरसमप्पभा 23118 जहा चन्दं गहाईया 2517 भासच्छन्ना इवगिणो 25 // 18 अग्गी वा महिओ जहा 25 / 16 जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा 25 / 26 खलंका जारिसा जोज्जा 278 रायवेटिठं व मन्नन्ता 27113 जायपक्खा जहा हंसा 27 / 14 जारिसा मम सीसाउ, तारिसा गलिगद्दहा 27116 उदए व्व तेल्लबिन्दू 282 ओहरियभारो व्य भारवहे 2612 जहा सूई ससुत्ता 2656 जहा महातलायस्स सन्निरुद्ध जलागमे 3015 जहा य अण्डप्पभवा बलागा, अण्डं बलागप्पभा जहा य 3016 दुमं जहा साउफलं व पक्खी 32 / 10 पराइओ वाहिरिवोसहेहिं . 32 / 12 जहा महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाणा 32 / 18 जहा वा पयंगे 32 / 24 जलेण वा पोक्खरिणीपलासं 32 // 34,47,60,73,86,66 हरिणमिगे व मुद्धे 32 // 37 ओसहिगन्धगिद्धे सप्पे बिलाओ विव 32 / 50 बडिसविभिन्नकाए मच्छे जहा 32 / 63 सीयजलावसन्ने गाहमहीए महिसे वरन्ने 3276 करेणुमग्गावहिए व नागे 32 / 86 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रेकरण : 7 उपमा और दृष्टान्त 461 जीमूयनिद्धसंकासा गवलरिगसन्निभा खंजणंजणनयणनिभा नीलाऽसोगसंकासा चासपिच्छसमप्पभा वेरुलियनिद्धसंकासा अयसीपुप्फसंकासा कोइलच्छदसन्निभा पारेवयगीवनिभा हिंगुलुयधाउसंकासा तरुणाइच्चसन्निभा सुयतुण्डपईवनिभा हरियालभेयसंकासा हलिद्दाभेयसन्निभा सणासणकुसुमनिभा संखंककुन्दसंकासा खीरपूरसमप्पभा रययहारसंकासा। दृष्टान्त 344 34 // 4 34 / 4 34 / 5 34 / 5 34.5 34 / 6 346 346 34/7 347 34 / 7 34 / 8 34 / 8 348 34 / 6 346 34 // 114 115 4 / 3 5 / 14,15 71-10 7.11,12 7 / 14-16 7.23 101 1012 11115 14 / 42,43 कुत्ती का दृष्टान्त / सूअर का दृष्टान्त / चोर का दृष्टान्त / गाडीवान् का दृष्टान्त / उरभ्र का दृष्टान्त / कागिणी और आम्र का दृष्टान्त / तीन वणिकों का दृष्टान्त / कुशाग्र बिन्दु का दृष्टान्त / द्रुमपत्र का दृष्टान्त / कुशाग्न बिन्दु का दृष्टान्त / शंख का दृष्टान्त / दवाग्नि का दृष्टान्त / Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन 14 / 44,46 1618-21 16 / 22,23 1977-83 22 / 45 25 / 40,41 32 / 11 32 / 13 32 / 20 पक्षी का दृष्टान्त / पाथेय का दृष्टान्त / जलते हुए घर का दृष्टान्त / मृग का दृष्टान्त। गोपाल का दृष्टान्त / मिट्टी के गोले का दृष्टान्त / दवाग्नि का दृष्टान्त / . बिडाल का दृष्टान्त / किंपाक फल का दृष्टान्त / Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुष्टुप् प्रकरण : आठवाँ छन्दोविमर्श उत्तराध्ययन का अधिक भाग पद्यात्मक है। इसमें 1638 श्लोक हैं। इसमें दोनों प्रकार के छन्द-मात्रावृत्त और वर्णवृत्त व्यवहृत हुए हैं। मात्रावृत्त वर्णवृत्त गाथा उपजाति इन्द्रवज्रा उपेन्द्रवजा वंशस्थ कुछ चरणों में नौ, दस, ग्यारह आदि अक्षर हैं / नवाक्षर वाले कई छन्द हैं, जैसेमहालक्ष्मी, सारंगिका, पाइत्ता, कमल आदि / ' किन्तु उनसे नवाक्षर वाले चरणों की गण-संगति नहीं बैठती है, इसलिए उन्हें गाथा छन्द के अन्तर्गत ही रखा गया है। इसी प्रकार दस, ग्यारह आदि अक्षरों वाले छन्दों से भी चरणों की संगति नहीं है। गाथा छन्द में सबका समावेश हो जाता है, इसलिए हमने उन्हें गाथा की कोटि में रखा है। अध्ययन 1 इसमें 48 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 113,211,2,3 / 1,2,4 / 3 / 5 / 16 / 3;7 / 4, 6 / 1,1111,2,12 / 2,16 / 1; 17 / 3;2012,3,21 / 2,3,22 / 1; 23 / 2;25 / 1; 26 / 1,2; 32 / 1,34 / 3; 42 / 1,3,43 / 1,3,44 / 2945 / 3 उपजाति छन्द-१३,४८ वंशस्थ छन्द-.४७ अनुष्टुप छन्द- उक्त श्लोकों के शेष चरण तथा अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 2 इसमें 46 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 111,2 / 13 / 3 / 10 / 112 / 3 / 18 / 423 / 1,3,35 / 2,38 / 1,40 / 1 अनुष्टुप छन्द- उक्त श्लोकों के अवशिष्ट चरण तथा शेष श्लोक / . १-प्राकृत पैंगलम्, पृ० 216-223 / २-वही, पृ० 224-242 / Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 . उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . . अध्ययन 3 इसमें 20 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 16 // 2,2011 अनुष्टप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 4 ___ इसमें 13 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैउपजाति छन्द-सम्पूर्ण अध्ययन / अध्ययन 5 इसमें 32 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 3 / 18 / 1,10 / 3 / 16 / 3, 16 / 1,2,4;23 / 1:27 / 3 / 26 / 3;30 / 1,31 / 3; 32 / 3 अनुष्टुप् छन्द- उक्त श्लोकों के शेष चरण तथा अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 6 ___ इसमें 17 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा-छन्द- 6 / 4;17 / अनुष्टुप छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 7 इसमें 30 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 2 / 115 // 3,16 / 4 / 16 / 2;2011;24 / 1 अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 8 इसके पद्य गीत-गेय हैं / इनका लक्षण 'उग्गाहा' से कुछ मिलता है।' अध्ययन 9 इनमें 62 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-१,२,३,४,५,७११;६।१,४,१०।३।१२।३।१४।३;२०११;२६।१;२८।३,३६।१, 238 / 2,44 // 3,46 / 1,46 / 1,3,53 / 3:55 / 1,4,56 / 2,56,60,61 / 3; 62 / 4 उपजाति छन्द-४८ अनुष्टुप छन्द- उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / १-प्राकृत पैंगलम्, पृ० 62 / Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :8 छन्दोविमर्श ____ 465 465 अध्ययन 10 चूणि के अनुसार इस अध्ययन में वृत्त हैं, गाथाएँ नहीं हैं। अध्ययन 11 इसमें 32 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाया छन्द-१३,२।४।५।१; 6 / 1,3; 7 / 16 / 3; 1011, 11 / 3; 13 / 1,215 / 1,2 16 / 1,4,17 / 4 / 18 / 1,3,4; 19 / 1,2, 2011,4,21 / 1,3,4,22 / 1,3,4, 23 // 1,3,4,24 / 1,4;25 / 1,3,4,26 / 4; 27 / 1,4;28 / 1,3,4,26 / 1,4; 30.1,3,4 वंशस्थ छन्द-३१ अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 12 इसमें 47 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-४।३,४ उपजाति छन्द-६ से 17; २०से२५; २७से 33, ३५से४७ इन्द्रवज्रा छन्द-१८१६ अनुष्टुप् छन्द-४।१,२ व अवशिष्ट श्लोक / २६वें श्लोक का तीसरा चरण चम्पकमाला . छन्द के सदृश है। अध्ययन 13 . इसमें 35 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-१,२,३,६।१।६।१२८।२;२६।१ इन्द्रवज्रा छन्द-२४ उपजाति छन्द-१० से 15:17 से 23; 25 से 27; 30 से 35 अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण तथा अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 14 __ इसमें 53 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-२२।३।२६।२;४६।४;४७।३,५२।१,५३।१ उपजाति छन्द-१ से 20; 28 से 37,40,41 अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 15 इसमें 16 श्लोक हैं / वे इन्द्रवज्रा की कोटि के वृत्त हैं। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन अध्ययन 16 ___ इसमें 17 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-५।२६।२।११।४।१२।२,४,१७।१ अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 17 - इसमें 21 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-३।३,४,४।१,२,४,५।१,४; 6 / 4;7 / 3,4;8 / 4 / 6 / 2,3,4,10 // 3,4,11 / 3,4; 12 / 4;13 / 1,4,14 / 1,4,15 / 4;1614;1714,18 / 3,4,16 / 3,4. उपजाति छन्द-१;२२०;२१ उपेन्द्रवज्रा छन्द-६।३ अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 18 ___ इसमें 53 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-३।१,४११,३,५३१,६।४; 7 / 18 / 3; 6 / 1,2,3; 1013; 11 / 2; 15 / 2;18 / 3; 19 / 321 / 1,3,4;22 / 3; 23 / 1,3; 2812,4,30 / 4; 31 / 1,3; 33 / 1,2; 34 // 3,35 // 2,3;36 / 4;3711,40 / 2,4134,4331,2,48 / 1,4 अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 19 इसमें 18 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-१।३,४।१,३,५१२,३,६।२;७११,२,४,८।१,३,६।३।१३।३।२८।१।२६।१,३११४; 32 // 3,34 / 3,373339 / 3; 4531,3,4711,3,48 / 3;46 / 3,5112,52 / 3; 53 / 1,54 / 1;55 / 1;56 / 1; 59 / 4; 6013; 62 / 2, 63 / 4; 64 / 1,3,66 / 1; 68 / 2,371 / 2; 72 / 4;73 / 4; 75 / 1; 76 / 1;81383 / 3; 84 / 1;85 / 1; 86 / 2;62 / 4;64 / 1 उपजाति छन्द-१०,६७१ अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / श्लोक-८८ / यह गाथा छन्द की परिगणना में आ सकता है, किन्तु गण गाथा छन्द के अनुरूप नहीं है। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :8 छन्दोविमर्श 5 पम . . . अध्ययन 20 ____ इसमें 60 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 1 / 1 / 19 / 310 / 1,16 / 1,16 / 1,2,2011;21 / 4 / 22 / 1; 2711,2812; 313;33 / 3,35 / 1,45 / 4,54 / 2;56 / 3 . इन्द्रवज्रा छन्द-५५ .. .. उपजाति छन्द-३८ से 53,58 अनष्टप छन्द- उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक। श्लोक-६० मात्रा की दृष्टि से गाथा छन्द की परिगणना में आ सकता है। किन्तु गण गाथा छन्द के अनुरूप नहीं है। . अध्ययन 21 इसमें 24 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द.--- 1 // 32 // 1,4,3 / 1,4 / 1,3,4,6 / 2;10 / 1,3 उपजाति छन्द-११ से 20;22 से 24 २१वाँ श्लोक मिश्रित छन्दों में है। अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक अध्ययन 22 . . . . इसमें 46 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैमाथा छन्द- 112 / 4,3 / 1,4 / 35 / 36 / 1,2;716 / 3,4,10 / 1,3,1111,1211, 3;17 / 1,16 / 120 से 24,25 / 1,3,26 / 3;27 / 4 / 28 / 1,301,2,3; . 3111,32 / 1,3,33 / 4,40 / 1;41 / 1,2,4,43 / 2,4403 ... . अनुष्टुप् छन्द- उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 23 इसमें 86 श्लोकं हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 3 / 49 / 3;17 / 2,4,18 / 3;27 // 1,2,40 / 4;48 / 3,50 / 1,5353;58 / 3; 65 / 3883 अनुष्टुप छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक। अध्ययन 24 ___इसमें 27 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 11,22 / 13 / 1,3,4,4 / 3,6 / 3 / 8 / 4 / 11 / 1,12 / 1;14 / 4 / 15 / 1:162, .. 3,15418 / 3 / 16 / 1,2111,23 / 1,25 / 1,26 / 1,2 अनुष्टुप छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन अध्ययन 25 इसमें 43 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 4 // 351,3,6 / 1;712;6 / 1:11 / 1,13 / 3,201322 / 3 / 26 / 1,4,3011; 34 / 2;35 / 2,37 / 3,38 / 3,36 / 1,40 / 4,43 / 3 अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 26 ___ इसमें 52 श्लोक हैं / उनकः छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 2 / 14 / 15 / 1,3,4,6 / 4 / 11 / 1,3,4,12 / 1,3,4,13 / 4,15 / 3 / 16 / 1, 2,4;17 / 3,4,18 / 1; 3,4,16; 20,21 / 222 / 3,23 / 1,3;24 से 30; 32 से 34;35 / 1,4; 36 / 3;38 / 1, 2,36 / 3;40 / 1,4211,3,43 / 1,3; 44 / 3,481151 / 1,52 / 1 अनुष्टुप् छन्द- उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 27 इसमें 17 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 2 / 3,6 / 210 / 1,2,11 / 3,4,13 / 2;14 / 1 / 15 / 116 / 1,4,17 / 3 अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 28 इसमें 36 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 102,16,17,18 / 1,2,4,16,21 से 27,29,30,32,33 / 2 अनुष्टुप छन्द- उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / श्लोक-२०,२८,३१ मात्रा की दृष्टि से गाथा छन्द की परिगणना में आ सकते हैं, किन्तु गण गाथा छन्द के अनुरूप नहीं है / अध्ययन 26 यह सारा अध्ययन गद्यात्मक है। अध्ययन 30 इसमें 37 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 2,3,6 / 3 / 6 / 1,2,4,10 // 3,4,11,12 / 1,13 / 2,3,4,1551,17,18; 20,2111,2,3,22 से 24;25 / 1:26 / 3,4;27 / 4 / 28 / 1,3,30,3112; 32 // 1,4,33 / 1,2,36 / 3 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड २.प्रकरण: छन्दोविमर्श 466 अनुष्टुप छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / 3 लोक-८,१६ मात्रा की दृष्टि से गाथा छन्द की परिगणना में आ सकते हैं, किन्तु गण गाथा छन्द के अनुरूप नहीं है। अध्ययन 31 इसमें 21 श्लोक हैं / उनका छन्द बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 111,6 / 1;7 / 2;1012,1111,12 / 1,1331,14 / 1 / 15 / 1,16 / 2 अनुष्ट र छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 32 - इसमें 111 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैउपजाति छन्दः-सम्पूर्ण अध्ययन / अध्ययन 33 - इसमें 25 श्लोक हैं। उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द- 41,3,5,6;7 / 1,2,6 / 3 / 11 / 2,13 / 2;14 / 1 / 15 / 2;16 / 1,3,173; 1914;2011;21 / 4 / 22 / 423 / 4 अनुष्टप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 34 इसमें 61 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-१।१२।१,२,४।२,३,५।१,३,७१,३,८।१,३,२५३३;२६।१,४;२८।४२६।२; 30 / 4,3114,32 / 4 / श्लोक-१० से 21,23,33 से 61 गाथा, अनुष्टुप् आदि मिश्रित छन्दों में हैं। अनुष्टुप् छन्द–उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / अध्ययन 35 इसमें 21 श्लोक हैं / उनक छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-११,३,४।३।६।३।६।२;१०१२,११११,१३।३;१४।३,४,१५।३।१६।१,१७१४, 16 / 3,2003 अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन अध्ययन 36 ... इसमें 268 श्लोक हैं / उनका छन्द-बोध इस प्रकार हैगाथा छन्द-१११,२६।३;७।४।८।१,२,६।१:१०।३।११।४।१३।२।१४।२९१५।४।१६।१; . 17118 / 1:16 / 1,200321 / 1,4;22 / 4 / 23 / 4 / 24 / 4 / 25 / 4 / 26 / 4; 27 / 4 / 28 / 4 / 29 / 4; 30 / 4 / 31 / 4;32 / 4; 33 / 1,4;34 / 4;35 / 4;36 / 4; 27 / 4,38 / 4,36 / 4;40 / 4; 41 / 4;45 / 1,46 / 1,4,47 / 3,48 / 25013; 51 / 3,4,52 / 3,4,53 / 3,454 / 4; 56 / 1,58 / 1,3,4,563,4,6013; 65 / 1,66 / 3,66 / 370 / 1,3;72 / 1;73 / 3,4,74 / 3,4,75/3,4,7611, 4;77 / 4;80 / 1,481 / 2,82 / 2,4;84 / 385 / 3,4,86 / 2; 88 / 1,3,4; 862,3,6012,92 / 1,3; 94 / 195 / 1,2,3,97 / 1,3,100 / 2,102 / 4; 103 / 2;10412,4,106 / 1,108 / 3109 / 3113 / 1,3,4,114 / 2,3 115 / 21173 118 / 4;119 / 1,2; 122 / 1,3,4; 123 / 2,3,124 / 2; 126 / 1,4; 127 / 3 / 128 / 1,2; 132 / 4,133 / 2; 134 / 2,3, 136 / 3 138 / 1,22141 / 4; 142 / 2; 143 / 2,3, 145 / 1,3,146 / 3,147 / 3; 148 / 3;149 / 1141 / 4,151 / 1,3,4,152 / 2,3,153 / 2; 155/2,4; 156 / 2,157 / 1:161 / 1,3,162 / 1,4,163 / 4; 164 / 4;165 / 1,3,5; 166 / 1, 167 / 2,3; 168 / 2,4; 171 / 1,2; 172 / 1,4; 175/3, 4; 176 / 3,4,177 / 2,4,176 / 1,2,180 / 1,4; 181 / 1,2,184 / 1,3,4; 185 / 1,4,186 / 1,4,188 / 2,3; 191 / 3,4; 1621,4; 193 / 1,4; 195 / 1; 197 / 1,2, 198 / 2,200 / 1,4; 201 / 1,4,202 / 4,204 / 4; 205 / 1,4,206 / 4;207 / 2,4; 2114,213 / 3; 214 / 2,3,4, 215/1; 222 / 1, 224 / 3; 228 / 4; 229/4; 2301,4; 231 / 1,4; 233 / 1; 234 / 1,236 / 4; 237 / 1; 239 / 3; 240 / 1; 241 / 1,4; 243 / 1,3; 245 / 3; 246 / 2; 249 / 3; 252 / 1,2,3,253 / 1,4,254 / 3,4,256; 257,258H259,266 अनुष्टुप् छन्द-उक्त श्लोकों के शेष चरण व अवशिष्ट श्लोक / श्लोक-२६० से 267 मात्रा की दृष्टि से गाथा छन्द की परिगणना में आ सकतेहैं, किन्तु गण गाथा छन्द के अनुरूप नहीं है / Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : नौवाँ १-व्याकरण-विमर्श आर्ष-साहित्य में अर्वाचीन प्राकृत व्याकरणों की अपेक्षा कुछ विशिष्ट प्रयोग मिलते हैं। उत्तराध्ययन में बृहद् वृत्तिकार ने यत्र-तत्र व्याकरण का विमर्श किया है। जहाँ बृहद्वृत्तिकार का विमर्श प्राप्त नहीं है वहाँ हमने अपनी ओर से उसकी पूर्ति की है। प्रस्तुत विषय नौ भागों में विभक्त है-१-सन्धि, २-कारक, ३-वचन, ४-समास, ५-प्रत्यय, ६-लिङ्ग, ७-क्रिया और अर्द्ध क्रिया, ८-आर्ष-प्रयोग ओर ६-विशेष-विमर्श / १-सन्धि जत्तं 1121 इसमें दो शब्द हैं-'ज' और 'तं'। 'ज' के बिन्दु का लोप और 'त' को द्वित्व करने पर 'जत्तं' (सं० यत् तत्) रूप निष्पन्न हुआ है।' सुइरादवि 7 / 18 यह मंस्कृत-तुल्य सन्धि-प्रयोग है / (सं० सुचिरादपि)। विप्परियासुवेइ 20 / 46 - यह सन्धि का अलाक्षणिक प्रयोग है। (विपरियासं+उवेइ)। (क) ह्रस्व का दीर्धीकरण मणूसा 4 / 2 __ यहाँ एक सकार का लोप और उकार को दीर्घ किया गया है। समाययन्ती 4 / 2 यहाँ 'ती' में इकार दीर्घ है। परत्था 4 / 5 / यहाँ 'त्या' में अकार दीर्घ है। फुसन्ती 4 / 11 यहाँ 'ती' में इकार दीर्घ है। अणेगवासानउया 713 .. यहाँ 'वासा' में अकार दीर्घ है। .१-बृहद् वृत्ति, पत्र 55 // २-वही, पत्र 277 / Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक अध्ययन पउराए 81 ___ यहाँ छन्द की दृष्टि से 'रकार' को दीर्घ किया है। नराहिवा 32 यहाँ 'वा' में अकार दीर्घ है। पुणरावि 10 / 16 यहाँ 'रा' में अकार दीर्घ है। कंटकापहं 10 // 32 यहाँ 'का' में अकार दीर्घ है / यह अलाक्षणिक है।' अन्नमन्नमणूरत्ता 135 यहाँ 'णू' में उकार दीर्घ है। भवम्मी 14.1 यहाँ 'म्मी' में इकार दीर्घ है। वी 1413 यहाँ इकार दीर्घ है। इच्छई 155 यहाँ 'इकार' दीर्घ है।३ अगमाहिसी 11 ___यहाँ 'मा' में अकार दीर्घ है। अम्गीविवा 20147 __यहाँ 'वा' में अकार दीर्घ है।' . जत्था 21117 यहाँ अकार दीर्घ है। मंताजोगं 36 / 264 यहाँ 'ता' में अकार दीर्घ है। (ख) दीर्घ का ह्रस्वीकरण पक्खिणी 14141 यहाँ 'णि' में इकार ह्रस्व है। १-वृहद् वृत्ति, पत्र 313 / २-वही, पत्र 340 / ३-वही, पत्र 415 / ४-दही, पत्र 479 / Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 6 व्याकरण-विमर्श 473 बुद्धपुत्ते 26 / 27 पमाणि यहाँ "णि' में इकार ह्रस्व है / २--कारक (क) विभक्ति विहीन प्रयोग विभक्ति विहीन रूप विभक्ति विहीन रूपों की प्राप्त विभक्तियां / 117 बुद्धपुत्त 1139 भाय भाया 1136 कल्लाण कल्लाणं 2 / 22 भिक्खु भिक्खू 2142 कल्लाण कल्लाणं 41 जीविय / जीवियं 43 मोक्ख मोक्खो 414 संसारमावन्न संसारमावन्ने 47 जीविय जीवियं 10 आउ .. आउम्मि 7 / 30 एव : 82 असिणेह असिणेहे 1036 गाम गामे 12 / 11 भोयण भोयणं 12 / 16 इसि इसिं 12 / 30 खंडिय खंडिये 12 / 37 जाइविसेस जाइविसेसो 12 / 47 उत्तम ठाण उत्तमं ठाणं 13 / 24 सुंदर सुंदरं 13 // 35 संजम संजमं 14 / 2 निविण्ण निधिण्णा .. 143 कुमार कुमारा 14 / 5 पोराणिय पोराणियं 1415 तव तवं तेल्लं - 14.16 इन्दियगेज्झ इन्दियगेज्झे 60 .14 / 16 तेल्ल Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक-अध्ययन पुण्णं 14 / 45 हत्थ हत्थम्मि 159 भोइय भोइया 1716 संजय संजयं 20143 जीविय जोवियं 2043 संजय संजयं 21112 अहिंस अहिंसं 21314 वयजोग वयजोगं 2115 सव्व सव्वं 21115 सव्व सव्वं 24 / 24 उल्लंघणपल्लंघणे उल्लंघने पल्लंघने 25 / 27 मुहाजीवो मुहाजीवों 28 / 17 पुण्ण 28 / 31 निस्संकिय निस्संकियं 28 / 31 निक्कंखिय निक्कंखियं 32 // 14 इंगिय इंगियं 32 / 20 जीविय जीविये . 33 / 11 सोलसविह सोलसविहं . (ख) विभक्ति-व्यत्यय 11 आणुपुब्वि–यहाँ तृतीया के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है / (19)* 1 / 31 कालेण–यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (56) 1133 नाइदूर-यहाँ सप्तमी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है। (56) 2 / 3 अदीणमणसो–यहाँ प्रथमा के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। वृत्तिकार ने इसके दो रूप किये हैं-अदीनमनाः, अदीनमानसः / (84) 24 एसणं- यहाँ चतुर्थी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है / (86) 2 / 24 तेसिं—यहाँ चतुर्थी के स्थान में षष्ठी विभक्ति और एकवचन के स्थान में बहुवचन का प्रयोग हुआ है। (111) * यहाँ से लेकर पूरे प्रकरण की सभी संख्याएँ बृहद् वृत्ति की पत्र-संख्याएँ हैं / Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 6 व्याकरण-विमर्श 475 5 / 1 दुरुत्तरं यहाँ सप्तमी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है। टीकाकार ने इस व्यत्यय के साथ-साथ इसे क्रिया-विशेषण भी माना है / (241) 5 / 11 परलोगस्स–यहाँ पंचमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। (246) 5 / 16 अकाममरणं-यहाँ तृतीया के अर्थ में द्वितीया है / (248) 5 / 16 सव्वेसु भिक्खूसु-) यहाँ षष्ठी के अर्थ में सप्तमो विभक्ति है / (246) 5 / 16 सव्वेसुऽगारिसु५।३२ सकाममरणं- ) / यहाँ तृतीया के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है / (254) 5 // 32 तिण्हमन्नयरं७१२४ कस्स-यहाँ द्वितीया के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। (283) 8 / 2 सिणेहकरेहि-यहाँ सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति है / (260) 88 सव्वदुक्खाणं-यहाँ तृतीया के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है / (263) 6 / 35 अप्पाणं-यहाँ तृतीया के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है / (314) 6 / 54 माया-यहाँ तृतीया के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है / (318) 11 / 6 चउदसहिं ठाणेहिं-यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है। (345) 11 / 8 मित्तेसु-यहाँ चतुर्थी के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है / (346) 11115 भिक्खू-यहाँ सप्तमी के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है / (348) 11331 सुयस्स.. विउलस्स—यहाँ दोनों शब्दों में तृतीया के स्थान पर षष्ठी -विभक्ति है / (353) 12 / 3 जन्नवाडं-यहाँ सप्तमी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है / (358) 12 / 6 अट्टा–यहाँ चतुर्थी के अर्थ में प्रथमा विभक्त है। (360) 12 / 17 मे-यहाँ द्वितीया के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। (360) 12 / 17 -यहाँ चतुर्थी के अर्थ में षष्ठी का प्रयोग हुआ है / (363) 13 / 10 कडाण कम्माण—यहाँ पंचमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। (384) 13 / 26 तस्स-यहाँ पंचमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है / (360) 14 / 4. कामगुणे-यहाँ पंचमी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है / (367) . 14 / 28 जहिं-यहाँ द्वितीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है / (404) 15 / 8 आउरे--यहाँ षष्ठी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है। (417) 15 // 12 तं-यहाँ तृतीया विभक्ति होनी चाहिए। (416) - 182 हयाणीए गयाणीए रहाणीए' पायत्ताणीए-यहाँ तृतीया के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है / (438) 18 / 10 मे-यहाँ द्वितीया के अर्थ में तृतीया विभक्ति है। (436) 18 / 18 महया-यहाँ द्वितीया के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (441) . Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन 1831 पसिणाणं-यहाँ तृतीया के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है / (446) 196 विसएहि-यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (452) 16 / 36 अग्गिसिहा दित्ता-यहाँ द्वितीया के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है / (457) . 1991 यहाँ गौरव आदि शब्दों में पंचमी के स्थान में सप्तमी विभक्ति है / (465) 2041 संपराए---यहाँ षष्ठी के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है / (478) 2046 उत्तमट्ठ-यहाँ सप्तमी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है। (476) 21113 सव्वेहिं भूएहि-यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (485) 21 / 16 माणवेहि-यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (486) .. 21 / 21 परमट्टपएहिं-यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (487) 22 / 8 जा से-'जा' में तृतीया और 'से' में चतुर्थी विभक्ति है / (460) 22149 भोगेसु–यहाँ पंचमी के अर्थ में सप्तमो विभक्ति है / (467) 23 / 3 ओहिनाणसुए-यहाँ तृतीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है / (468) 23 / 5 तेणेव कालेणं-यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (466) 23 / 12 महामुणी- यहाँ तृतीया के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है / (500) 23 / 80 सारीरमाणसे दुक्खे—यहाँ तृतीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है / (510) 25 / 4 तेणेव कालेणं-यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति, है / (523) 258 तेसिं-यहाँ चतुर्थी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। (523) 25 // 18 विज्जामाहणसंपया-यहाँ षष्ठी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (526) 25 / 27 मुहाजीवी-यहाँ द्वितीया के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है / (528) 25 // 32 सव्वकम्म विनिम्मुक्कं-यहाँ प्रथमा के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है / (526) 26 / 7 गुरुपूया-यहाँ सप्तमी के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है। (535) 27 / 14 भत्तपाणे-यहाँ तृतीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है। (553) 30 / 16 सल्ली-यहाँ सप्तमी के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है / (605) 30 / 20 चरमाणो–यहाँ षष्ठी के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है / (605) 30 / 28 एगंतं-यहाँ सप्तमी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है। (608) 3112 असंजमे--यहाँ पंचमी के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है / (612) 31 / 13 गाहासोलसएहिं—यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (614) 31 / 17 भावणाहिं—यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (616) .. 32 / 110 तस्स सव्वस्स दुहस्स-यहाँ तीनों शब्दों में पंचमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है / (639) 33318 आणुपुचि-यहाँ तृतीया के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है / (641) 33 / 18 सव्वेसु वि पएसेसु–यहाँ तृतीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है / (646) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : व्याकरण-विमर्श 477 34144 तेंण-यहाँ पंचमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (656) 34 / 51 तेण-यहाँ पंचमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (660) 34 / 56 दुग्गई—यहाँ सप्तमी के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है / (661) 35 / 2 जेहिं–यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है / (664) 35 // 13 कयविक्कए—यहाँ पंचमी के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है / (667) ३६।२६१।१,२-इनमें तृतीया के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है। (706) ३-वचन (क) वचन-व्यत्यय . (1) बहुवचन के स्थान पर एकवचन 3 / 16 से दसंगेऽभिजायई ___4 / 1 जणे पमत्ते 5 / 28 भिक्खाए वा गिहत्थे वा 12 / 13 जहिं / 12 / 18 जो 1816 दारे य परिरक्खए 21 / 17 पत्ते . 23 / 17 पंचम 23 / 36 पंचजिए . 23150 अगो 24 / 11 आहारोवहिसेज्जाए 36 / 4 अरूवी 36 / 48 तं . 36 / 260 परित्तसंसारी 36 / 262 गुणगाही (2) एकवचन के स्थान पर बहुवचन 12 / 2 उच्चारसमिईसु .. ४-समास 3 / 5 कम्मकिब्बिसा इसका संस्कृत रूप है 'कर्मकिल्बिषाः'। प्राकृत व्याकरण के अनुसार पूर्वापरनिपात करने पर इसका रूप 'किल्बिषकर्माणः' होगा / (183) Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 . उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन 4 / 5 दीवप्पणढे टीकाकार ने इसके दो संस्कृत रूपान्तर दिए हैं-'प्रणष्टदीपः' और 'दीपप्रणष्ट:'। प्राकृत व्याकरण के अनुसार पूर्वापरनिपात की व्यवस्था होने के कारण पहला रूप निष्पन्न होता है और 'आहितान्यादेः' इस सूत्र से दूसरा रूप। (212) 1 / 3 अंतेउरवरगओ यहाँ प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'वर' शब्द का पूर्वनिपात किया गया है / संस्कृत में इसका रूप 'वरान्तःपुरगतः' होगा / (306). 12 / 42 जन्नसिटुं टीकाकार ने इसका संस्कृत रूप 'श्रेष्ठयज्ञ' दिया है / (372) 1313 चित्तवणप्पभूयं यह प्राकृत प्रयोग है / संस्कृत के अनुसार 'पभूय' का प्रागनिपात करने पर इसका रुप 'प्रभूतचित्रधनं' होगा। (386) / 14 / 10 पज्जलणाहिएणं संस्कृत में इसके दो रुप बनते हैं-'प्रज्वलनाधिकेन' और 'अधिकप्रज्वलनेन' / (369) 14 / 41 संताणछिन्ना इसका संस्कृत रूप 'छिन्नसन्तानाः' होगा। (409) 14 / 41 परिग्गाहारम्भनियत्तदोसा प्राकृत के अनुसार 'दोस' शब्द का पूर्वनिपात किया गया है। इसका संस्कृत रूप 'परिग्रहारम्भदोषनिवृत्ताः' होगा। (406) 14 / 52 भावणभाविया इसके संस्कृत रूपान्तर दो होंगे भावनाभाविताः अथवा भावितभावना। (412) 15 / 1 नियाणछिन्ने इसके संस्कृत रूपान्तर दो होंगे निदानछिन्नः अथवा छिन्ननिदानः / (414) १६।सूत्र 1 संयमबहुले - इसके संस्कृत रूपान्तर दो होंगे संयमबहुल: अथवा बहुलसंयमः / (423) Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 6 व्याकरण-विमर्श 479 2215 लक्खणस्सरसंजुओ प्राकृत के अनुसार 'सर' का पूर्वनिपात होकर इसका संस्कृत रूप 'स्वरलक्षणसंयुतः' होगा। (486) 26 / 23 गोच्छगलइयंगुलिओ यहाँ प्राकृत के अनुसार 'अंगुलि' का पूर्वनिपात किया गया है। इसका संस्कृत रूपान्तर 'अंगुलिलातगोच्छकः' होगा। (540) २६।सूत्र४३ सत्तसमइसमत्ते 'समत्त' का पूर्वनिपात होने पर इसका संस्कृत रूप 'समाप्तसत्वसमितिः' होगा। (560) २६।सूत्र५४ मणगुत्ते 'गुत्त' का पूर्वनिपात होने पर इसका इसका संस्कृत रूप 'गुप्तमनाः' होगा / (561) 30 / 25 अट्ठविहगोयरग्गं 'अग्ग' का पूर्वनिपात होने पर इसका संस्कृत रूप 'अष्टविधाग्रगोचरः' ___होगा। (607) 34 / 4 जीमूय निद्धसंकासा प्राकृत के अनुसार 'निद्ध' का पूर्वनिपात किया गया है। इसका संस्कृत रूप 'स्निग्धजीमूतसंकाशा' होगा। (652) 3517 जिब्भादन्ते 'दंत' का पूर्वनिपात होने पर इसका संस्कृत रूप 'दान्तजिह्वः' होगा। (668) ५-प्रत्यय 1146 / 11 सव्वसो . आर्ष प्रयोग के कारण यहाँ 'तस्' प्रत्यय के स्थान में 'शस्' प्रत्यय हुआ है / (45) 1116 दम्मतो आर्ष प्रयोग के कारण यहाँ 'दमितो' (सं० दमितः) के स्थान में 'दम्मतो' हुआ है / (53) 1136 सासं प्राकृत व्याकरण के अनुसार यह 'शास्यमानं' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है / (62) Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन 3 / 18 जसोबले यश और बल को यशस्वी और बली से अभिन्न मानकर मत्वर्थीय प्रत्यय . का लोप किया गया है / (188) 5 / 32 आघायाय यह 'शन' प्रत्यय के अर्थ में आर्ष प्रयोग है / (254) 7 / 30 अबालं यह प्रयोग 'अबालत्तं' के स्थान पर हुआ है। निर्देश्य का भाव-प्रधाम ___ कथन होने के कारण यहाँ अबालत्वं का ग्रहण करना चाहिए / (285) 9 / 35 बज्झओ यहाँ तृतीया के अर्थ में 'तस्' प्रत्यय हुआ है / (314) 6 / 46 विज्जा यह त्वा प्रत्यय का रूप है / (317) 1028 सारइयं सारयं के स्थान पर यह प्रयोग हुआ है / (338,336) 20143 लप्पमाणे प्राकृत व्याकरण के कारण 'लपन्' के स्थान पर यह प्रयोग हुआ . है / (478) 24 / 16 अणुपुव्वसो तृतीया विभक्ति के अर्थ में यहाँ 'शस्' प्रत्यय का प्रयोग है / (518) 2633 अणइक्कमणा यह 'अणइक्कमणं' के स्थान पर प्रयुक्त है (543) 34 / 23 इस श्लोक में 'ईर्ष्या' आदि शब्दों में 'मतु' प्रत्यय का लोप माना गया है / (656) ६-लिङ्ग 16 संसगि यहाँ पुल्लिङ्ग 'संसम्म' के स्थान में स्त्रीलिङ्ग 'संसग्गि' है / (47) 3 / 17 कामखंधाणि यहाँ स्कंध शब्द का नपुंसकलिङ्ग में प्रयोग हुआ है / (188) 512 सुया"ठाणा यहाँ नपुंसकलिङ्ग के स्थान पर पुल्लिङ्ग का प्रयोग हुआ है। (246,247) Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्ड 2, प्रकरण : व्याकरण-विमर्श 481 5 / 26 इस श्लोक में सर्वत्र पुल्लिङ्ग के स्थान में नपुंसकलिङ्ग का निर्देश हुआ है / (252) 6 / 36 इस श्लोक में क्रोध आदि शब्दों में पुल्लिङ्ग के स्थान पर नपुंसकलिङ्ग का निर्देश किया गया है / (314) 13314 भोगाइ इमाइ यहाँ पुल्लिङ्ग के स्थान पर नपुंसकलिंग का निर्देश है। (386) 161 जं विवित्तमणाइन्नं रहियं यहाँ पुल्लिङ्ग के स्थान पर नपुंसकलिंग माना गया है। (428) 18 / 14 दाराणि. ____यहाँ पुल्लिंग के स्थान में नपुंसकलिङ्ग है / (441) 18 / 23 किरियं अकिरियं यहाँ स्त्रीलिंग के स्थान पर नपुंसकलिंग है। 18 / 23 विणयं . यहाँ पुल्लिंग के स्थान पर नपुंसकलिंग है। 1834 कामाई __यहां पुल्लिंग के स्थान पर नपुंसकलिंग है। (448) 23 / 11 इमा वा यहाँ पुल्लिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग है। (466) 24.11 तिन्नि यहाँ स्त्रीलिंग के स्थान पर नपुंसकलिंग है। (516) . . 25221. रागद्दोसभयाईयं यहाँ पुल्लिग के स्थान पर नपुंसकलिंग है / (527) 26026 आरभटा इस श्लोक में आए हुए 'आरभट' आदि शब्दों में रूढ़ि से स्त्रीलिंग किया गया है। (541) : 28028 सुदिट्ठपरमत्थसेवणा, वावन्नकुदसणवज्जणा, सम्मत्तसद्दहणा यहाँ नपुंसकलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग का प्रयोग है। (566) २६।सू०७२ तिन्नि यहाँ पुल्लिङ्ग के स्थान पर नपुंसकलिंग है / (565) , Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक-अध्ययन 30 / 27 ठाणा वीरासणाईया यहाँ नपुंसकलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग है। (607) 3036 छट्ठो सो परिकित्तिओ। टीकाकार ने इन तीनों शब्दों को नपुंसकलिंग मान कर व्याख्या की है और इनको 'तप' का विशेषण माना है / (610) हमने इनको मूल रूप में पुल्लिंग मानकर 'व्युत्सर्ग' के विशेषण माने हैं। 32 / 20 यहाँ नपुंसक के स्थान पर सर्वत्र पुल्लिंग का प्रयोग है / (628) 35 // 12 यहाँ नपुंसक के स्थान पर सर्वत्र पुल्लिंग का प्रयोग है / (666) 36 / 8 यहाँ नपुंसक के स्थान पर सर्वत्र पुल्लिंग का प्रयोग है / (673) ७-क्रिया और अर्द्धक्रिया 226,22 विहन्नई यहाँ कर्मवाच्य के स्थान पर कर्तृवाच्य का प्रयोग हुआ है / (88,110) 2 // 31 लब्भामि यहाँ द्वित्व अलाक्षणिक है। 2 // 33 संचिक्ख यह 'स्था' धातु के 'स्यादि' के प्रथमपुरुष का एकवचन है-संतिष्ठेत् / परन्तु 'अचां सन्धिलोपो बहुलम्' सूत्र से 'एकार' का लोप करने पर ___ 'संचिक्ख' रूप बना है। (120) 2041 उइज्जन्ति यहाँ भविष्यत्काल का व्यत्यय हुआ है। इसका रूप होगा 'उदेष्यन्ति' / (127) 2 / 45 अस्थि यह विभक्ति-प्रतिरूपक निपात है। इसका बहुवचनपरक अर्थ है-'हैं। (132) 2145 अभू-भविस्सई यहाँ बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग हुआ है / (132) 33 गच्छई शान्त्याचार्य (182) ने इसे एकवचन और नेमिचन्द्र' ने बहुवचन माना है। 3 / 6 परिभस्सई यहाँ बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग है। १-सुखबोषा, पत्र 67 // Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : व्याकरण-विमर्श 41 गहिन्ति सौत्रिक नियमों के कारण यह भविष्यत् अर्थ में प्रयुक्त हुआ है / (गमिष्यन्ति, ग्रहीष्यन्ति वा) / (164). 6 / 4 छिंद यहाँ 'यादादि' के स्थान में 'तुवादि' है / (0) 7122 जिच्चं यह 'जीयेत' के स्थान में सौत्रिक प्रयोग है / (282) 7 / 22 संविदे यहाँ 'संवित्ते' के स्थान पर 'संविदे' प्रयोग है / (282) 6 / 18 गच्छसि यह 'गच्छ' के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है / (311) 12 / 5 अब्बवीं यहाँ बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग है / (358) 12 / 17 लहित्थ यह सौत्रिक प्रयोग है / इसका संस्कृत रूप होगा 'लप्स्यध्वे' / (363). 12 / 25 आहु. यहाँ एकवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग है / (366) 12 / 40 चरे यहाँ बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग है / (371) .12 / 44 होमं हुणामी चूर्णिकारने 'हुणामी' को उत्तमपुरुष की क्रिया माना है।' वृहद् वृत्तिकार ने इसे प्रथम पुरुष की क्रिया माना है और अग्नि को गम्य मानकर 'होम' को साधन माना है / (373) 1676 बित यह ते के स्थान पर आर्ष-प्रयोग है / (462) 20115 भवइ यहाँ उत्तम पुरुष के स्थान पर प्रथम पुरुष है / (474) 25 // 38 मा भमिहिसि. यहाँ 'धादि' के अर्थ में भविष्यत् का प्रयोग है / (530) 36 / 54 सिज्झई यहाँ बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग हुआ है। (684) १-जिनदास चूर्णि, पृ० 312 / Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 उत्तराध्ययने : एक समीक्षात्मक अध्ययन ८-आर्ष-प्रयोग 1 / 27 पेहाए __ यहाँ 'ए' अलाक्षणिक है / (58) 2 / 20 सुसाणे यह 'श्मशान' के अर्थ में आर्ष-प्रयोग है। 32 विसंभिया यहाँ बिन्दु अलाक्षणिक है / (181) 48 छन्दं यहाँ बिन्दु अलाक्षणिक है। 5 / 21 परियागयं यह आर्ष-प्रयोग है / यहाँ एक 'यकार' का लोप किया गया है / (250) 6 / 4 सपेहाए इसके संस्कृत रूप दो होंगे-(१) संप्रेक्षया और (2) स्वप्रेक्षया। पहले रूप के अनुसार बिन्दु का लोप है / (264) 76 आगयाएसे . प्राकृत नियमानुसार यहाँ 'आगए' की सप्तमी विभक्ति का लोप कर 'आएस' के साथ संधि की गई है / (275) 6 / 58 लोगुत्तमुत्तमं यहाँ मकार अलाक्षणिक है। 8.3 हियनिस्सेसाए मूल शब्द 'निस्सेयसाए' है / यहाँ 'य' वर्ण का लोप हुआ है / (294) 127 आसा-यहाँ तृतीया के 'एकार' का लोप हुआ है। 12 / 7 इहमागओ सि यहाँ 'मकार' को आगमिक प्रयोग माना है / (356) 13 / 5 इस श्लोक में प्रयुक्त 'अन्नमन्न' शब्द का 'नकार' अलाक्षणिक है / (383) 13 / 7 अन्नमन्नेण यहाँ 'मकार' अलाक्षणिक है / 13 / 28 चित्ता यहाँ आकार अलाक्षणिक है / (360) 17120 रूवंधरे यहाँ 'व' में बिन्दु का निर्देश प्राकृत के कारण हुआ है / (436) 1811 पत्थिवा यहाँ 'वा' में आकार अलाक्षणिक है। (440) . . . Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड २,.प्रकरण : व्याकरण-विमर्श 485 485 1816 हट्टतुटुमलंकिया यहाँ बहुवचन के स्थान में मकार अलाक्षणिक है। 18 // 30 सव्वत्था यहाँ 'त्या' में आकार अलाक्षणिक है / (446) 16 / 27 दंतसोहणमाइस्स यहाँ 'मकार' अलाक्षणिक है। (456) 1966 फरसुमाईहिं / 1967 मुट्ठिमाईहिं / यहाँ मकार अलाक्षणिक है। 2052 चरित्तमायार 21123 अणुतरेनाणघरे यहाँ 'अणुत्तरे' में एकार अलाक्षणिक है / (487) 23 / 25 धम्मं . यहाँ बिन्दु अलाक्षणिक है / (502) 2384 सासयंवासं यहाँ 'सासयं' में बिन्दु अलाक्षणिक है / (511) 25 / 5 भिक्खमट्ठा यहाँ मकार अलाक्षणिक है तथा प्राकृत के कारण 'हा' को दीर्घ और बिन्दु का लोप हुआ है। (523) २६।सू०२३ दीहमद्ध यहाँ मकार अलाक्षणिक है। (585) 30 / 25 भिक्खायरियमाहिया .. यहाँ मकार अलाक्षणिक है और 'भिक्खायरिया' में विभक्ति का लोप है। (607) 30133 आयरियमाइयम्मि यहाँ मकार अलाक्षणिक है / (606). ___36 चक्खुमचक्नु यहाँ मकार अलाक्षणिक है / (642) ९-विशेष-विमर्श 14 - मुहरी यहाँ प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'मुखर' के स्थान पर 'मुहरी' का प्रयोग Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन 2 / 10 समरेव यहाँ 'रकार' अलाक्षणिक है। वास्तव में यहाँ 'सम एव' चाहिए था। . प्रतीत होता है कि लिपिकर्ता के दोष से 'ए' के स्थान पर 'र' लिख दिया गया हो। 2 / 36,15 / 16 अणुक्कसाई इसके संस्कृत रूपान्तर दो बनते हैं-(१) 'अनुत्कशायी' (2) 'अनुकषायी'। 'क' का द्वित्व प्रयोग प्राकृत के अनुसार मानने पर इसका रूप 'अणुक्कसाई' .. होता है / (124) 2040 से मगध देश के अनुसार इसका अर्थ 'अथ' होता था। (126) पहाणाए 'पहाणीए' के स्थान में यह आर्ष-प्रयोग है। 3 / 13 कम्मुणो यह 'कम्मस्स' के स्थान पर अर्धमागधी का प्रयोग है। 3 / 13 पाढवं यह संस्कृत पार्थिव के इकार का लोप किया गया है।' 3 // 14 विसालिसेहिं यह मागधदेशीय भाषा का प्रयोग है / (187) 317 ) दासपोरुषं 65 'पोरुसेय' के स्थान पर 'पोरुस' का प्रयोग सौत्रिक है / (188) 5 / 10 / 10 कायसा यह सौत्रिक प्रयोग है / (246, 264) 5 / 20 गारत्था सौत्रिक प्रयोग के कारण यहाँ आदि के 'अ' का लोप हुआ है / (246) 5 / 21 नगिणिणं जडी ये प्राचीन प्रयोग हैं। इनको उपचार से भाववाची 'नाग्य' और 'जटीत्व' मानकर अर्थ किया गया है / (250) अज्झत्थं यहाँ मूल शब्द 'अज्झत्तत्थं' (सं० अध्यात्मस्थं) है। 'तकार' का लोप करने पर अज्झत्थं रूप निष्पन्न हुआ है। 9 / 55 वाहिं यह आर्ष-प्रयाग है / (318) Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 187 खण्ड 2, प्रकरण : व्याकरण-विमर्श 10 / 1 पंडुयए यह आर्ष-प्रयोग है / इसका संस्कृत रूप है 'पाण्डुरकम्' / (333) 10 / 16 मिलेक्खुया यह 'मिलिच्छा' के स्थान पर अर्धमागधी का प्रयोग है। 10 // 31 देसिय यह प्रयोग 'देसय' (सं० देशकः) के स्थान पर हुआ है / (340) 12 / 6 कयरे यहाँ 'एकार' प्राकृत लक्षण से हुआ है / (358) 12 / 10 जायणजीविणु त्ति यहाँ 'जीविणु' के 'वि' में इकार का प्रयोग आर्ष है / (360) 12 / 24 वेयावडिययाए यहाँ अट्टयाए' में 'या' का प्रयोग स्वार्थ में हुआ है / (365) 17 / 20 विसमेव . यहाँ 'एव' का प्रयोग 'इव' के अर्थ में हुआ है। 18 / 32 ताई यहाँ 'ई' का प्रयोग छन्दपूर्ति के लिए हुआ है और 'ता' को सौत्रिक मान इसको 'तत्' अर्थवाची माना है / (446) 18 / 38 'भारह' . यहाँ प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'त' का 'ह' हुआ है / (448) 1850 अद्दाय __ यह आर्ष-प्रयोग है। 16164 उल्लिओ यहाँ उल्लिहिओ (सं० उल्लिखितः) के स्थान पर आर्ष-प्रयोग है / (460) 1968 महं * * महतीं' के स्थान पर ऐसा प्रयोग हुआ है / (466) 10 / 48 दुरप्पा - यह दुरप्पया (सं० दुरात्मता) के स्थान पर आर्ष-प्रयोग है / (476) 22 / 12 गगणं फुसे यह प्रयोग 'गगणं फुसा' के स्थान पर हुआ है। 22 / 18,16 जिय यह प्रयोग जीव के अर्थ में हुआ है। ह्रस्वीकरण छन्द की दृष्टि से किया गया है। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन 24 / 15 जल्लियं यह 'जल्ल' के स्थान पर आर्ष-प्रयोग है / (517) 25 / 16 वेयसां 'वयाण' के स्थान पर यह मागधी प्रयोग है। 26 // 36,40 देसियं यहाँ देवसिय शब्द के वकार का लोप होने पर 'देसिय' शब्द निष्पन्न हुआ है। २६।सू० 33 अकरणयाए यह अकरणेन के अर्थ में आर्ष-प्रयोग है / (587) २६॥सू० 46 अज्जवयाए यह आर्जवेन के अर्थ में आर्ष-प्रयोग है / (560) 30128 सयणासणसेवणया यह सयणासनसेवन के स्थान पर पार्ष-प्रयोग है। 30 // 31 जे यह यत् के स्थान में आर्ष-प्रयोग है / (609) 30 // 32 आसणदायणं यह आसनदान के अर्थ में आर्ष-प्रयोग है / (606) 32 // 26 अतालिसे यह मागधदेशीय शब्द है / (631) 321102 वइस्से यह द्वेष्य के अर्थ में आर्ष-प्रयोग है / (635) 36 / 171 खहयरा यह खचर के अर्थ में सौत्रिक प्रयोग है / (666) 36 / 180 सणप्पया यह सनरवा के अर्थ में सौत्रिक प्रयोग है / (666) 36 / 204 वाणमन्तर यह व्यन्तर के अर्थ में आर्ष-प्रयोग है / (701) . Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणः दसवाँ परिभाषा-पद आगम-साहित्य में वस्तु-बोध कराने की पद्धतियाँ दो हैं- वर्णनात्मक और प्रकारात्मक / तीसरी पद्धति है-परिभाषात्मक / किन्तु यह क्वचित्-क्वचित् ही मिलती है। उत्तराध्ययन में तीनों पद्धतियाँ प्राप्त हैं। प्रथम दो मुख्य पद्धतियाँ बहु-व्याप्त हैं, इसलिए उनका पृथक निर्देश आवश्यक नहीं लगता। यहाँ हम केवल परिभाषात्मक पद्धति का निर्देश करना चाहेंगे। वह निर्देश-संग्रह स्वयं एक परिभाषा-पद बन जायगा। उसका अध्ययन हमारे अनेक शाखीय अध्ययन में आलोक भरता है, इसलिए उस पद का संकलन यहां उपयोगी होगा। 1. विनीत (1 / 2;11 / 10-13) अणानिद्देसकरे गुरूणमुववायकारए / इंगियागारसंपन्ने से 'विणीए त्ति' बुच्चई // 1 // 2 // 'जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करता है, गुरु की शुश्रूषा करता है, गुरु के इंगित और आकार को जानता है, वह विनीत है।' अह पन्नरसहिं ठाणेहिं सुविणीए त्ति वुच्चई। नीयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले // 11 // 10 // अप्पं चाऽहिक्खिवई पबन्धं च न कुम्बई। मेत्तिज्जमाणो भयई सुयं लद्भु न मज्जई // 11 // 12 // न य पावपरिक्खेवी न य मित्तेसु कुप्पई। अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्लाण भासई // 11 // 12 // कलहडमरवज्जए बुद्धे अभिजाइए / हिरिमं पडिसंलोणे सुविणीए ति वुच्चई // 1 // 13 // _'जो नम्र-व्यवहार करता है, जो चपल और मायावी नहीं होता, जो कुतूहल नहीं करता, जो दूसरों का तिरस्कार नहीं करता, जो क्रोध को टिका कर नहीं रखता, जो मित्र-भाव रखने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है, जो श्रुत प्राप्त कर मद नहीं करता, जो स्खलना होने पर दूसरों का तिरस्कार नहीं करता, जो मित्रों पर क्रोध नहीं करता, जो अप्रिय मित्र की भी एकान्त में प्रशंसा करता है, जो कलह और हाथापाई नहीं करता, जो कुलीन और लज्जालु होता है और जो प्रतिसंलीन होता है, वह विनीत है।' Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन 2. अविनीत (1 / 3;11 / 6-9) आणाऽनिद्देसकरे गुरूणमणुववायकारए। पडिणीए असंबुद्धे 'अविणीए त्ति' वुच्चई // 1 // 3 // 'जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन नहीं करता, जो गुरु की शुश्रूषा नहीं करता, जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है और जो तथ्य को नहीं जानता, वह अविनीत है।' अह चउदसहिं ठाणेहिं वट्टमाणे उ संजए। अविणीए वुच्चई सो उ निव्वाणं च न गच्छइ // 11 // 6 // अभिक्खणं कोही हवइ पबन्धं च पकुव्बई। मेत्तिज्जमाणे वमइ सुयं लभ्रूण मज्जई // 11 // 7 // अवि पावपरिक्खेवी अवि मित्तेसु कुप्पई। सुप्पियस्सावि मित्तस्स रहे भासइ पावगं // 11 // 8 // पइण्णवाई दुहिले थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चई // 11 // 9 // 'जो बार-बार क्रोध करता है, जो क्रोध को टिका कर रखता है, जो मित्र-भाव रखने वाले को भी ठुकराता है, जो श्रुत प्राप्त कर मद करता है, जो किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार करता है, जो मित्रों पर कुपित होता है, जो अत्यन्त प्रिय मित्र की भी एकान्त में बुराई करता है, जो असंबद्ध-भाषी है, जो द्रोही है, जो अभिमानी है, जो सरस आहार आदि में लुब्ध है, जो अजितेन्द्रिय है, जो असंविभागी है और जो अप्रीतिकर है, वह अविनीत है।' 3. शिक्षाशील (11 / 4,5) अह अट्ठहिं ठाणेहिं सिक्खासीले ति बुच्चई / अहस्सिरे सया दन्ते न य मम्ममुदाहरे // 11 // 4 // नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। . अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वुच्चई // 11 // 5 // 'जो हास्य नहीं करता, जो दान्त है, जो मर्म का प्रकाशन नहीं करता, जो चरित्र से हीन नहीं है, जिसका चरित्र कलुषित नहीं है, जो अति लोलुप नहीं है, जो क्रोध नहीं करता, जो सत्य में रत है, वह शिक्षाशील कहा जाता है।' Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 10 परिभाषा-पद 4. भिक्षु ___ देखिए-पन्द्रहवाँ अध्ययन / 5. पाप-श्रमण देखिए-सत्रहवाँ अध्ययन / 6. ब्राह्मण देखिए-२५।१६-२७ / 7. द्रव्य (28 / 6) __ गुणाणमासो दव्वं-'जो गुणों का आश्रय होता है, वह द्रव्य है।' 8. गुण (2816) __एगदव्य सिया गुणा- 'जो किसी एक द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण हैं।' 9. पर्याय (28 / 6,13) लक्षणं पज्जवाणं तु, उमओ अस्सिया भवे // 26 // . 'जो द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित रहते हैं, वे पर्याय हैं।' एमत्तं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव य। संजोगा य विभागा य पज्जवाणं तु लक्खणं // 28 // 13 // 'एकत्व, पृथकत्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग–ये पर्याय के लक्षण हैं।' 10. धर्मास्तिकाय (28 / 9) .' गइलक्खणो उ धम्मो.-'धर्म का लक्षण है गति / ' 11. अधर्मास्तिकाय (2819) अहम्मो ठाणलक्खणो–'अधर्म का लक्षण है स्थिति / ' 12. आकाशास्तिकाय (28 / 9) भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं / / / 'आकाश का लक्षण है अवकाश / वह सब द्रव्यों का भाजन है।' 13. काल (28 / 10) वत्तणालक्खणो कालो-काल का लक्षण है वर्तना।' 14. जीव (28 / 10,11) जीवो उवमोगलक्षणो–'जीव का लक्षण है उपयोग / ' Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एवं जीवस्स लक्खणं // 28 // 11 // 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप, वीर्य और उपभोग–ये जीव के लक्षण हैं।' 15. पुद्गल (28 / 12) सहन्धयारउज्जोओ पहा छायातवे इ वा / वण्णरसगन्धफासा पुगलाणं तु लक्खणं // 'शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श-ये . पुद्गल के लक्षण हैं।' 16. सम्यक्त्व (28 / 15) तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं / भावेणं सद्दहन्तस्स सम्मत्तं तं वियाहियं // ___ 'इन ( जीव, अजीव आदि नौ ) तथ्य-भावों के सद्भाव ( वास्तविक अस्तित्व ) के निरुपण में जो अन्तःकरण से श्रद्धा करता है, उसे सम्यक्त्व होता है। उस अन्तःकरण की श्रद्धा को ही भगवान् ने सम्यक्त्व कहा है।' 17. निसर्ग-रुचि (28 / 17,18) . भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च / सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ / उ निसग्गो // 28 // 17 // 'जो परोपदेश के बिना केवल अपनी आत्मा से उपजे हुए भूतार्थ ( यथार्थ ज्ञान ) से जीव, अजीव, पुण्य, पाप को जानता है और जो आश्रव और संवर पर श्रद्धा करता है, वह निसर्ग-रुचि है।' जो जिण दिटे भावे चउविहे सद्दहाइ सयमेव / एमेव नऽन्नह ति य निसग्गरुइ त्ति नायव्वो // 28 // 18 // 'जो जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशेषित पदार्थों पर स्वयं ही—'यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं है-ऐसी श्रद्धा रखता है, उसे निसर्ग-रुचि वाला जानना चाहिए।' 18. उपदेश-रुचि (28 / 19) एए चेव उ भावे उवइटे जो परेण सद्दहई / छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइ ति नायव्वो॥ _ 'जो दूसरों-छद्मस्थ या जिनके द्वारा उपदेश प्राप्त कर, इन भावों पर श्रद्धा करता है, उसे उपदेश रुचि-वाला जानना चाहिए।' भूयत्थणाहिक Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण :10 परिभाषा-पद 19. आज्ञा-रुचि (28 / 20) रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ। आणाए रीयंतो सो खलु आणारई नाम // _ 'जो व्यक्ति राग, द्वेष, मोह और अज्ञान के दूर हो जाने पर वीतराग की आज्ञा में रुचि रखता है, वह आज्ञा-रुचि है।' 20. सूत्र-रुचि (28 / 21) जो सुत्तमहिज्जन्तो सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं / __ अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइ त्ति नायवो // ___ 'जो अङ्ग-प्रविष्ट या अङ्ग-बाह्य सूत्रों को पढ़ता हुआ सम्यक्त्व पाता है, वह सूत्ररुचि है।' 21. बीज-रुचि (28 / 22) एगेणं अणेगाइं पयाई जो पसरई उ सम्मत्तं / उदए व्व तेल्लबिन्दू सो बीयरुइ त्ति नायव्वो // ___ 'पानी में डाले हुए तेल को बूंद की तरह जो सम्यक्त्व ( रुचि ) एक पद (तत्त्व) से अनेक पदों में फैलता है, उसे बीज-रुचि जानना चाहिए।' 22. अभिगम-रुचि (28 / 23) सो होइ अभिगमरुई सुयनाणं जेण अत्थओ विटुं / एक्कारस' अंगाइं पइण्णग दिट्ठिवाओ य // 'जिसे ग्यारह अङ्ग, प्रकीर्णक और दृष्टिवाद आदि श्रुत-ज्ञान अर्थ-सहित प्राप्त हैं, वह अभिगम-रुचि है।' 23. विस्तार-रुचि (28 / 24) दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणे हि जस्स उवलद्धा। सव्वाहि नयविहीहि य वित्याररुइ ति नायव्वो॥ - 'जिसे द्रव्यों के सब भाव, सभी प्रमाणों और सभी नय-विधियों से उपलब्ध हैं, वह विस्तार-रुचि है।' 24. क्रिया-रुचि (28 / 25) दसणनाणचरिते तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु / जो किरियाभावरुई सो खलु किरियाई नाम // 'दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, गुप्ति आदि क्रियाओं में जिसकी वास्तविक रुचि है, वह क्रिया-रुचि है।' Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन 25. संक्षेप-रुचि (28 / 26) अणभिग्गहियकुदिट्ठो संखेवरुइ त्ति होइ नायव्यो। अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिरो य सेसेसु // 'जो जिन-प्रवचन में विशारद नहीं है और अन्यान्य प्रवचनों का अभिज्ञ भी नहीं है, किन्तु जिसे कुदृष्टि का आग्रह न होने के कारण स्वल्य ज्ञान मात्र से जो तत्त्व-श्रद्धा प्राप्त होती है, उसे संक्षेप-रुचि जानना चाहिए।' 26. धर्म-रुचि (28 / 27) जो अस्थिकायधम्म सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च / सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइ ति नायव्वो // 'जो जिन-प्ररूपित अस्तिकाय-धर्म, श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म में श्रद्धा रखता है, उसे धर्म-रुचि जानना चाहिए।' 27. चारित्र (28 / 33) ___ चयरित्तकरं चारितं। 'जो कर्म संचय को रिक्त करता है, उसे चारित्र कहते हैं।' 28. द्रव्य-अवमौदर्य (30 / 15) जो जस्स उ आहारो तत्तो ओमं तु जो करे। . जहन्नेणेगसित्थाई एवं दव्वेण ऊ भवे // 'जिसका जितना आहार है, उससे कम खाता है, कम से कम एक सिक्थ ( धान्य कण) खाता है और उत्कृष्टतः एक कवल कम खाता है, वह द्रव्य से अवमौदर्य तप होता है।' 29. क्षेत्र-अवमौदर्य (30 / 16-18) गामे नगरे तह रायहाणि निगमे य आगरे पल्ली। खेडे कब्बडदोणमुह पट्टणमडम्बसंबाहे // 30 // 16 // आसमपए विहारे सन्निवेसे समायघोसे य / थलिसेणासन्धारे सत्थे संवट्टकोट्टे य॥३०॥१७॥ वाडेसु व रच्छासु व घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं / कप्पइ उ एवमाई एवं खेत्तेग ऊ भवे // 30 // 18 // Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 10 परिभाषा-पद 465 'ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, खेड़ा, कर्वट, द्रोणमुख, पत्तन, मण्डप, संबाध, आश्रम-पद, विहार, सन्निवेस, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिविर, सार्थ, संवर्त, कोट, पाड़ा, गलियाँ, घर–इनमें अथवा इस प्रकार के अन्य क्षेत्रों में से पूर्व निश्चय के अनुसार निर्धारित क्षेत्र में भिक्षा के लिए जा सकता है। इस प्रकार यह क्षेत्र से अवमौदर्य तप होता।' 30. काल-अवमौदर्य (30 / 20,21) दिवसस्स पोरुसीणं चउण्हं पि उ जत्तिओ भवे कालो। एवं चरमाणो खलु कालोमाणं मुणेयव्यो // 30 // 20 // अहवा तइयाए पोरिसीए ऊणाइ घासमेसन्तो। चउभागूणाए वा एवं कालेण ऊ भवे // 30 // 21 // 'दिवस के चार प्रहरों में जितना अभिग्रह-काल हो उसमें भिक्षा के लिए जाऊँगा, अन्यथा नहीं-इस प्रकार चर्या करने वाले मुनि के काल से अवमौदर्य तप होता है। अथवा कुछ न्यून तीसरे प्रहर ( चतुर्थ भाग आदि न्यून प्रहर ) में जो भिक्षा की एषणा करता है, उसे (इस प्रकार) काल से अवमौदर्य तप होता है।' 31. भाव-अवमौदर्य (30 / 22,23) इत्थी वा पुरिसो वा अलंकिओ वाऽणलंकिओ वा वि / अन्नयरवयत्थो वा अन्नयरेणं व वत्थेणं // 30 // 22 // अन्नेण विसेसेणं वण्णेणं भावमणुमुयन्ते उ / एवं चरमाणो खलु भावोमाणं मुणेययो // 30 // 23 // ___ 'स्त्री अथवा पुरुष, अलंकृत अथवा अनलंकृत, अमुक वय वाले, अमुक वस्त्र वाले– . अमुक विशेष प्रकार की दशा, वर्ण या भाव से युक्त दाता से भिक्षा ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं-इस प्रकार चर्या करने वाले मुनि के भाव से अवमौदर्य तप होता है।' 32. पर्यवचरक (30 / 24) दव्वे खेसे काले भावम्मि य आहिया उ जे भावा। एएहि ओमचरओ पज्जवचरओ भवे भिक्खू // 'द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो पर्याय ( भाव ) कहे गए हैं, उन सबके द्वारा अवमौदर्य करने वाला भिक्षु पर्यवचरक होता है / ' Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक अध्ययन 33. भिक्षा-चर्या (30 / 25) अढविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया // 'आठ प्रकार के गोचरान तथा सात प्रकार की एषणाएँ और जो अन्य अभिग्रह हैं, उन्हें भिक्षा-चर्या कहा जाता है।' 34. रस-विवर्जन (30 / 26) खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं / परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं // 'दूध, दही, घृत, आदि तथा प्रणीत पान-भोजन और रसों के वर्जन को रस-विवर्जन तप कहा जाता है।' 35. काय-क्लेश (30 / 27) ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा / उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायक्लेिसं तमाहियं // 'आत्मा के लिए सुखकर वीरासन आदि उत्कट आसनों का जो अभ्यास किया जाता है, उसे काय-क्लेश कहा जाता है।' 36. विविक्त-शयनासन (30 / 28) एगन्तमणावाए इत्थीपसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया विवित्तसयणासणं // 'एकान्त, अनापात ( जहाँ कोई आता-जाता न हो ) और स्त्री-पशु आदि से रहित शयन और आसन का सेवन करना विविक्त-शयनासन (संलीनता) तप है।' 37. प्रायश्चित्त 30 / 31 आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु दसविहं / जे भिक्खू वहई सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं // 'आलोचनाह आदि जो दस प्रकार के प्रायश्चित्त हैं, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से पालन करता है, उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है।' 38. विनय (30 / 32) अन्मुट्ठाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं / गुरुभत्तिभावसुस्सूसा विणओ एस वियाहिओ // 'अभ्युत्थान (खड़े होना), हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति करना और भावपूर्वक शुश्रूषा करना विनय कहलाता है।' Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 467 खण्ड 2, प्रकरण : 10 परिभाषा-पद 39. वैयावृत्त्य (30 / 33) . . आयरियमाइयम्मि य वेयावच्चम्मि दसविहे / आसेवणं . जहाथाम वेयावच्चं तमाहियं // 'आचार्य आदि सम्बन्धी दस प्रकार के वैयावृत्त्य का यथाशक्ति आसेवन करने को वैयावृत्त्य कहा जाता है।' 40. व्युत्सर्ग (30 / 36) सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे / कायस्स विउस्सग्गो छ8ो सो परिकित्तिओ // 'सोने, बैठने या खड़े रहने के समय जो भिक्षु व्याप्त नहीं होता ( काया को नहीं हिलाता-डुलाता ) उसके काया की चेष्टा का जो परित्याग होता है, उसे व्युत्सर्ग कहा जाता है / वह आभ्यन्तर ता का छठा प्रकार है।' 41 लोक (36 / 2) जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए। ___ 'जो जीव और अजीवमय है, वह लोक है।' 42. अलोक (36 / 2) अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए। 'जो अजीव आकाशमय है, वह अलोक है।' 43. कन्दी भावना (36 / 263) कन्दप्पकोक्कुइयाई तह सोलसहावहासविगहाहिं। . विम्हावेन्तो य परं कन्दप्पं भावणं कुणइ // . . 'काम-कथा करना, हंसी-मजाक करना, शील, स्वभाव, हास्य और विकथाओं के द्वारा दूसरों को विस्मित करना-कन्दी भावना है।' 44. आभियोगी भावना (36 / 264) मन्ताजोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजन्ति / सायरसइडिढहेउं अभिओगं भावणं कुणइ // ... 'सुख, रस और समृद्धि के लिए मंत्र, योग और भूति-कर्म का प्रयोग करना आभियोगी भावना है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . 45. किल्विषिकी भावना (36 / 265) नाणस केवलीणं धम्मायरियल्स संघताहूगं / माई अवग्णवाई किम्बिसियं भावणं कुणइ // 'शान, केवलज्ञानी, धर्माचार्य, संघ और साधुओं की निन्दा करना, माया करनाकिल्विषिकी भावना है।' 46. आसुरी भावना (36 / 266) मणुबरोसपसरो तह य निमित्तंमि होइ पडिसेवि। एएहि कारणेहिं मासुरियं भावणं कुणह // 'क्रोध को बढ़ावा देना, निमित्त बताना-आसुरी भावना है।'. 47. मोही भावना (36 / 267) सत्यग्गहणं विसमक्खणं च जलणं च जलप्पवेसो य। ___ अणायारमण्डसेवा जम्मणमरणाणि बन्धन्ति // 'शास्त्र या विष-भक्षण के द्वारा, अग्नि में प्रविष्ट होकर या पानी में कूद कर आत्म-हत्या करना, मर्यादा से अधिक उपकरण रखना-मोही भावना है।' Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रकरण : ग्यारह्वबाँ सूक्त और शिक्षा-पद सूक्त: विणय मेसेज्जा / 17 विनय की खोज करो। अट्ठजुताणि सिक्खेजा निरटाणि उ वजए / 118 जो अर्थवान् है, उसे सीखो। निरर्थक को छोड़ दो। अणुसासिओ न कुप्पेज्जा / 119 अनुशासन मिलने पर क्रोध न करो। खंति सेविज्ज पण्डिए / 119 क्षमाशील बनो। खुड्डेहिं सह संसग्गि हासं कीडं च वज्जए। 119 ओछे व्यक्तियों का संसर्ग मत करो, हँसी-मखोल मत करो। मा य चण्डालियं कासी। 1110 नीच कर्म मत करो। बहुयं मा य आलवे / 1 / 10 बहुत मत बोलो। :कडं कडेत्ति भासेज्जा अकडं नो कडे ति य / 1111 __किया हो तो ना मत करो और न किया हो तो हाँ मत करो। ना पृट्टो वागरे किंचि पृट्टो वा नालियं वए।१४ बिना पूछे मत बोलो और पूछने पर झूठ मत बोलो। कोहं असच्चं कुवेज्जा / 1 / 14 क्रोध को विफल करो। अप्पा चेव दमेयव्यो। 1115 आत्मा का दमन करो। अप्पा हु खलु दुद्दमो। 1115 ____ आत्मा बहुत दुर्दम है। अप्पा दन्तो सुही होइ / 115 - सुख उसे मिलता है, जो आत्मा को जीत लेता है। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन मायं च वज्जए सया / 1224 कपट मत करो। न सिया तोत्तगवेसए / 1140 - __ चाबुक की प्रतीक्षा मत करो। अदीणमणसो चरे। 203 मानसिक दासता से मुक्त होकर चलो। मणं पिन पओसए / 2011 मन में भी द्वेष मत लाओ। नाणी नो परिदेवए / 2013 ज्ञानी को विलाप नहीं करना चाहिए। न य वित्तासए परं / 2020 दूसरों को त्रस्त मत करो। नाणुतप्पेज्ज संजए / 2030 संयमी को अनुताप नहीं करना चाहिए / रसेसु नाणुगिज्झज्जा / 2039 .. रस-लोलुप मत बनो। सुई धम्मस्सदुलहा / 38 धर्म सुनना बहुत दुर्लभ है। सद्धा परमदुल्लहा / 3 / 9 श्रद्धा परम दुर्लभ है। सोच्चा नेआउयं मग्गं बहवे परिभस्सई / 39 कुछ लोग सही मार्ग को पा कर भी भटक जाते हैं। वोरियं पुण दुलहं / 3.10 क्रियान्विति सबसे दुर्लभ है / सोही उज्जुयभूयस्स / 3 / 12 पवित्र वह है जो सरल है। धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई / 3 / 12 धर्म का वास पवित्र आत्मा में होता है। असंखयं जीविय मा पमायए / 41 जीवन का धागा टूटने पर संधता नहीं, अतः प्रमाद मत करो। जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं / 4.1 बुढ़ापा आने पर कोई त्राण नहीं देता। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा-पद कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि / 4 / 3 ... किए कर्मो को भुगते बिना मुक्ति कहाँ ? .. वित्तण ताणं न लभे पमत्ते। 45 प्रमत्त मनुष्य धन से त्राण नहीं पाता। घोरा मुहत्ता अबलं सरीरं / 4 / 6 ___ समय बड़ा निर्मम है और शरीर बड़ा निर्बल है। छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं / 4 / 8 इच्छा को जीतो, स्वतंत्र बन जाओगे। खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउ। 4 / 10 तुरंत ही सम्भल जाना बड़ा कठिन काम है। अप्पाणरक्खी चरमप्पमत्तो। 4 / 10 ___ आत्मा की रक्षा करो, कभी प्रमाद मत करो। न मे दिट्टे परे लोए चक्खु विट्ठा इमा रई / 5 // 5 परलोक किसने देखा है, यह सुख आँखों के सामने है। अप्पणा सच्चमेसेज्जा / 6 / 2 .. सत्य की खोज करो। मेत्तिं भूएसु कप्पए / 62 सब जीवों के साथ मैत्री रखो। न चित्ता तायए भासा / 6 / 10 भाषा में शरण मत ढूँढ़ो। कम्मसच्चाहु पाणिणो / 7 / 20 किया हुआ कर्म कभी विफल नहीं होता। जायाए घासमेसेज्जा रस गिद्धे न सिया भिक्खाए / 8 / 11 __मुनि. जीवन-निर्वाह के लिए खाए, रस-लोलुप न बने / समयं गोयम ! मा पमायए। 101 . एक क्षण के लिए भी प्रमाद मत कर / मा वन्तं पुणो वि आइए।१०।२९ * वमन को फिर मत चाटो। महप्पसाया इसिणो हवन्ति / 12 / 31 . ऋषि महान् प्रसन्न-चित होते हैं। न हु मुणी कोवपरा हवन्ति / 12331 मुनि कोप नहीं किया करते / Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि / 13320 मुक्ति के लिए अभिनिष्क्रमण करो। कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं / 13123 कर्म कर्ता के पीछे दौड़ता है। मा कासि कम्माइं महालयाई / 13126 असद् कर्म मत करो। वेया अहीया न भवन्ति ताणं / 14.12 वेद पढ़ने पर भी त्राण नहीं होते / धणेण किं धम्मधुराहिगारे। 14.17 धन से धर्म की गाड़ी कब चलती है ? अभयदाया भवाहि य / 18 / 11 अभय का दान दो। अणिच्चे जीव लोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि / 18 / 11 . यह संसार अनित्य है, फिर क्यों हिंसा में आसक्त होते हो ! पडन्ति नरए घोरे जे नरा पावकारिणो। 18025 पाप करने वाला घोर नरक में जाता है। दिव्वं च गई गच्छन्ति चरित्ता धम्ममारियं / 18025 धर्म करने वाला दिव्य गति में जाता है। चइत्ताणं इमं देहं गन्तव्वमवसस्स मे 19.16 __ इस शरीर को छोड़ कर एक दिन निश्चित ही चले जाना है। निम्ममत्तं सुदुक्करं। 19 / 29 ___ ममत्व का त्याग करना सरल नहीं है। जवा लोहमया चेव चावेयव्वा सुदुक्करं / 19 / 38 साधुत्व क्या है, लोहे के चने चबाना है। इह लोए निम्पिवासस्स नत्थि किंचि वि दुक्करं / 19 / 44 ___ उसके लिए कुछ भी दुःसाध्य नहीं है, जिसकी प्यास बुझ चुकी हैं। पडिकम्मं को कुणई अरण्णे मियपक्खिणं ? 1976 जंगली जानवरों व पक्षियों की परिचर्या कौन करता है ? वियाणिया दुक्खविवद्धणं धणं / 1998 धन दुःख बढ़ाने वाला है। माणुस्सं खु सुदुल्लहं / 20311 मनुष्य जीवन बहुत मूल्यवान् है / Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा-पद 503 अप्पणा अणाहो सन्तो कहं नाहो भविस्ससि / 20 / 12 तू स्वयं अनाथ है, दूसरों का नाथ कैसे होगा? न तं मरी कण्ठ छेत्ता करेइ जं से करे अप्पणिया दुरप्पा / 2048 कण्ठ छेदने वाला शत्रु वैसा अनर्थ नहीं करता, जैसा बिगड़ा हुआ मन करता है। पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा / 2115 मुनि प्रिय और अप्रिय सब कुछ सहे / न यावि पूर्य गरहं च संजए। 21115 __मुनि पूजा और गहीं-इन दोनों को न चाहे / मगुन्नए नावणए महेसी / 21120 महर्षि न अभिमान करे और न दीन बने / नेहपासा भयंकरा / 23.43 ___ स्नेह का बन्धन बड़ा भयंकर होता है। न तं तायन्ति दुस्सीलं / 2528 __ दुराचारी को कोई नहीं बचा सकता। विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो / 32016 मुनि के लिए एकान्तवास प्रशस्त होता है। कामाणुगिद्धिप्पमवं खु दुक्खं / 32 / 19 दुःख काम-भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। समलेट ठुकंचणे भिक्ख / 35 / 13 . . भिक्षु के लिए मिट्टी का ढेला और कंचन समान होते हैं। शिक्षा-पद : आणानिद्देसकरे गुरूणमुववायकारए। . इंगियागारसंपन्ने से विणीए ति वुच्चई // 1 // 2 // जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करता है, गुरु की शुश्रुषा करता है, गुरु के इंगित और आकार को जानता है, वह विनीत कहलाता है। आणाऽनिद्देसकरे गुरूणमणुववायकारए। पडिणीए असंबुद्ध अविणीऐ त्ति बुच्चई // 13 // * जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन नहीं करता, गुरु की शुश्रूषा नहीं करता, जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है और तथ्य को नहीं जानता, वह अविनीत कहलाता है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन घर मे अप्पादन्तो संजमेण तवेण य। माहं परेहि दम्मन्तो बन्धणेहि बहेहि य // 1 // 16 // अच्छा यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा का दमन करूं। दूसरे लोग बन्धन और वध के द्वारा मेरा दमन करें-यह अच्छा नहीं है। चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमि य वीरियं // 3 // 1 // इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग दुर्लभ हैं-मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम। जणेण सद्धिं होक्खामि इइ बाले पगम्भई। कामभोगाणुराएणं केसं संपडिवज्जई // 5 // 7 // मैं लोक-समुदाय के साथ रहूँगा-ऐसा मान कर बाल मनुष्य धृष्ट बन जाता है। वह काम-भोग के अनुराग से क्लेश पाता है। अज्झत्यं सव्वओ सव्वं दिम्स पाणे पियायए। न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए // 6 / 6 / / ___ सब दिशाओं से होने वाला सब प्रकार का अध्यात्म ( सुख ) जैसे मुझे इष्ट है, वैसे ही दूसरों को इष्ट है और सब प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है-यह देख कर भय और वैर से उपरत पुरुष प्राणियों के प्राणों का घात न करे। बहिया उड्ढमादाय नावकंखे कयाइ वि / पुव्वकम्मखयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे // 6 // 13 // ऊर्ध्व-लक्षी होकर कभी भी बाह्य (विषयों) की आकांक्षा न करे / पूर्व-कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे / जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्ज कोडीए वि न निट्टियं // 8 / 17 // जैसे लाभ होता है, वैसे ही लोभ होता है / लाभ से लोभ बढ़ता है। दो माशे सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ। जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे। एंगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ // 9 // 34 // जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, इसकी अपेक्षा वह एक अपने आपको जीतता है, यह उसकी परम विजय है। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 505 खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा पद. अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुझण बज्झओ। अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए // 9 // 35 // ___ आत्मा के साथ ही युद्ध कर, बाहरी युद्ध से तुझे क्या लाभ ? आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जीत कर मनुष्य सुख पाता है। पंचिन्दियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च / दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जियं // 9 // 36 // __ पाँच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन--ये दुर्जेय हैं। एक आत्मा को जीत लेने पर ये सब जीत लिए जाते हैं। जो सहस्सं सहस्साणं मासे मासे गवं दए। तस्सावि संजमो सेओ अचिन्तस्स वि किंचण // 9 // 40 // ___ जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गायों का दान देता है, उसके लिए भी संयम ही श्रेय है, भले फिर वह कुछ भी न दे। मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेण तु मुंजए। म सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं // 9 // 44 // ___ जो बाल (अविवेकी) मास-मास तपस्या के अनन्तर कुश की नोक पर टिके उतनासा आहार करता है, फिर भी वह सु-आख्यात धर्म (सम्यक-चारित्र सम्पन्न मुनि) की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होता। सुवण्णरुप्पस्स उ पध्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया // 6 // 48 // कदाचित् सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हो जाएं तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। सल्लंकामा विसं कामा कामा आसीविसोवमा / कामे पत्थेमाणा अकामा जन्ति दोग्गइं // 9 // 53 // __ काम-भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं। काम-भोग की इच्छा करने वाले, उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं / अहे वयइ कोहेणं माणेणं अहमा गई। माया गईपडिग्घाओ लोभाओ दुहओ भयं // 9 // 54 // . मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता है। मान से अधम-गति होती है। माया से सुगति का विनाश होता है। लोभ से दोनों प्रकार का-ऐहिक और पारलौकिक भय होता है। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययय लण वि उत्तमं सुई सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा। मिच्छत्तनिसेवए जणे समयं गोयम ! मा पमायए // 10 // 19 // उत्तम धर्म की श्रुति मिलने पर भी श्रद्धा होना और अधिक दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मिथ्यात्व का सेवन करने वाले होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। धम्म पि हु सद्दहन्तया दुल्लहया काएण फासया। इह कामगुणेहि मुच्छिया समयं गोयम ! मा पमायए // 10 // 20 // उत्तम धर्म में श्रद्धा होने पर भी उसका आचरण करने वाले दुर्लभ हैं। इस लोक में बहुत सारे लोग काम-गुणों में मूच्छित होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। अह पंचहिं ठाणेहिं जेहिं सिक्खा न लम्भई / थम्मा कोहा पमाएणं रोगेणाऽलस्सएण य // 11 // 3 // ___मान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य-इन पाँच स्थानों (हेतुओं) से शिक्षा प्राप्त नहीं होती। अह अट्टहिं ठाणेहिं सिक्खासीले त्ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दन्ते न य मम्ममुदाहरे // 11 // 4 // आठ स्थानों (हेतुओं) से व्यक्ति को शिक्षा-शील कहा जाता है। (1) जो हास्य न करे, (2) जो सदा इन्द्रिय और मन का दमन करे, (3) जो मर्म-प्रकाशन न करे, नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वुच्चई // 11 // 5 // (4) जो चारित्र से हीन न हो, (5) जिसका चारित्र दोषों से कलुषित न हो, (6) जो रसों में अति लोलुप न हो, (7) जो क्रोध न करे, (8) जो सत्य में रत हो-उसे शिक्षा-शील कहा जाता है। अह चउदसहि ठाणेहिं वट्टमाणे उ संजए। अविणीए बुच्चई सो उ निव्वाणं च न गच्छई // 116 // ___चौदह स्थानों (हेतुओं) में वर्तन करने वाला संयमी अविनीत कहा जाता है / वह निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 507 खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा-पद अभिक्खणं कोही हवइ पबन्धं च पकुव्वई / मेत्तिज्जमाणो वमइ सुयं लक्ष्ण मज्जई // 11 // 7 // (1) जो बार-बार क्रोध करता है, (2) जो क्रोध को टिका कर रखता है, (3) जो मित्रभाव रखने वाले को भी ठुकराता है, (4) जो श्रुत प्राप्त कर मद रखता है, अवि पावपरिक्खेवी अवि मित्तेसु कुप्पई। सुप्पियस्सावि मित्तस्स रहे भासइ पावगं // 11 // 8 // (5) जो किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार करता है, (6) जो मित्रों पर कुपित होता है, (7) जो अत्यन्त प्रिय मित्र की भी एकान्त में बुराई करता है, पइण्णवाई दुहिले यद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चई // 11 // 9 // (8) जो असंबद्ध-भाषी होता है, () जो द्रोही है, (10) जो अभिमानी है, (11) जो सरस आहार आदि में लुब्ध है, (12) जो अजितेन्द्रिय है, (13) जो असंविभागी है और . . (14) जो अप्रीतिकर है, वह अविनीत कहलाता है। अह पन्नरस हिं ठाणेहिं सुविणीए त्ति वुच्चई / नीयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले // 11 // 10 // पन्द्रह स्थानों से सुविनीत कहलाता है(१) जो नम्र व्यवहार करता है, (2) जो चपल नहीं होता, (3) जो मायावी नहीं होता, (4) जो कुतूहल नहीं करता, अप्पं चाऽहिक्खिबई पबन्धं च न कुव्वई / मेत्तिज्जमाणो भयई सुयं लद्धं न मज्जई // 11 // 11 // (5) जो किसी का तिरस्कार नहीं करता, (6) जो क्रोध को टिका कर नहीं रखता, Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (7) जो मित्र-भाव रखने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है, (8) जो श्रुत प्राप्त कर मद नहीं करता, नय पावपरिक्खेवी न य मित्तेसु कुप्पई। अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्लाण भासई // 11 // 12 // () जो स्खलना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं करता, (10) जो मित्रों पर क्रोध नहीं करता, (11) जो अप्रिय मित्र की भी एकान्त में प्रशंसा करता है, कलहडमरवज्जए बुद्धे अभिजाइए। हिरिमं पडिसलीणे सुविणीए त्ति वुच्चई // 11 // 13 // (12) जो कलह और हाथापाई का वर्जन करता है, (13) जो कुलीन होता है, (14) जो लज्जावान् होता है और (15) जो प्रति-संलीन (इन्द्रिय और मन का संगोपन करने वाला) होता है-वह बुद्धिमान् मुनि विनीत कहलाता है। बसे गुरुकुले निच्चं जोगवं उवहाणवं। पियंकरे पियवाई से सिक्खं लडुमरिहई // 11 // 14 // जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो समाधियुक्त होता है, जो उपधान (श्रुत अध्ययन के समय तप) करता है, जो प्रिय करता है, जो प्रिय बोलता है, वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। सक्खं खु बीसइ तवोविसेसो न वीमई जाइविसेस कोई। सोवागपुत्ते हरिएससाहू जस्सेरिसा इढि महाणुभागा // 12 // 37 // __ यह प्रत्यक्ष ही तप की महिमा दीख रही है, जाति की कोई महिमा नहीं है। जिसकी ऋद्धि ऐसी महान् (अचिन्त्य शक्ति सम्पन्न) है, वह हरिकेश मुनि चाण्डाल का पुत्र है। किं माहणा ! जोइसमारभन्ता उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा / जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं न तं सुदिटुं कुसला वयन्ति // 12 // 38 // ___ मुनि ने कहा-ब्राह्मणो ! अग्नि का समारम्भ ( यज्ञ ) करते हुए तुम बाहर से (जल से) शुद्धि की क्या माँग कर रहे हो ? जिस शुद्धि की बाहर से माँग कर रहे हो, उसे कुशल लोग सुदृष्ट (सम्यग् दर्शन) नहीं करते / Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा-पद 506 सव्वं विलवियं गीयं सव्वं नर्से विडम्बियं / सव्वे आभरणा भारा सव्वे कामा दुहावहा // 13 // 16 // सब गीत विलाप हैं, सब नृत्य विडम्बना हैं, सब आभरण भार हैं और सब कामभोग दुःखकर हैं। खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्याण उ कामभोगा // 14 // 13 // ये काम-भोग क्षण भर सुख और चिरकाल दुःख देने वाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देने वाले हैं, संसार-मुक्ति के विरोधी हैं और अनर्थों की खान हैं। जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स अफला जन्ति राइशो // 14 // 24 // जो-जो रात बीत रही है, वह लौट कर नहीं आती। अधर्म करने वाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती हैं। जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई। धम्मं च कुणमाणस्स सफला जन्ति राइओ // 14 // 25 // जो-जो रात बीत रही है, वह लौट कर नहीं आती। धर्म करने वाले की रात्रियाँ सफल होती हैं। . मरिहिसि रायं ! जया तया वा मणोरमे कामगुणे पहाय / एको हु धम्मो नरदेव ! ताणं न विज्जई अन्नमिहेह किंचि // 14 // 40 // __ राजन् ! इस मनोरम काम-भोगों को छोड़ कर जब कभी मरना होगा। हे नरदेव ! एक धर्म ही त्राण है / उसके सिवाय कोई दूसरी वस्तु त्राण नहीं दे सकती। देवदाणवगन्धव्वा जक्खरक्खसकिन्मरा। बम्भयारिं नमंसन्ति दुक्करं जे करन्ति तं // 16 // 16 // उस ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर-ये सभी नमस्कार करते हैं, जो दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है। एस धम्मे धुवे निअए सासए जिणदेसिए / सिद्धा सिझन्ति चाणेण सिज्झिस्सन्ति तहापरे // 16 // 15 // ___ यह ब्रह्मचर्य धर्म, ध्रुव, नित्य, शाश्वत और अर्हत् के द्वारा उपदिष्ट है इसका / पालन कर अनेक जीव सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य में भी होंगे। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन सेज्जा दढा पाउरणं मे अस्थि उप्पज्जई भोत्तुं तहेव पाउं। जाणामि जं वट्टइ आउसु ! ति किं नाम काहामि सुएण भन्ते ! // 17:2 // (गुरु के द्वारा अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त होने पर शिष्य कहता है) मुझे रहने को अच्छा उपाश्रय मिल रहा है, कपड़ा भी मेरे पास है, खाने-पीने को भी मिल जाता है। आयुष्मन् ! जो हो रहा है, उसे मैं जान लेता हूँ। भन्ते ! फिर मैं श्रुत का अध्ययन करके क्या करूँगा ? जे के इमे पवइए निदासीले पगामसो। भोच्चा पेच्चा सुहं सुबइ पावसमणि त्ति बुच्चई // 17 // 3 // ___ जो प्रवजित होकर बार-बार नींद लेता है, खा-पी कर आराम से लेट जाता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। आयरियउवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए। ते चेव खिसई बाले पावसमणि ति युच्चई // 17 // 4 // जिन आचार्य और उपाध्याय ने श्रुत और विनय सिखाया उन्हीं की निन्दा करता है, वह विवेक-विकल भिक्षु पाप-श्रमण कहलाता है। बहुमाई पमुहरे थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असं विभागी अचियत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई // 17 // 11 // ___ जो बहुत कपटी, वाचाल, अभिमानी, लालची, इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण न रखने वाला, भक्त-पान आदि का संविभाग न करने वाला और गुरु आदि से प्रेम न रखने वाला होता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। विवादं च उदीरेइ अहम्मे अत्तपन्नहा। बुग्गहे कलहे रत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई // 17 // 12 // ___ जो शान्त हुए विवाद को फिर से उभाड़ता है, जो सदाचार से शून्य होता है, जो कुतर्क से अपनी प्रज्ञा का हनन करता है, जो कदाग्रह और कलह में रक्त होता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। दुखदहीविगईओ आहारेइ अभिक्खणं / अरए य तवोकम्मे पावसमणि त्ति वुच्चई // 17 // 15 // जो दूध, दही आदि विकृतियों का बार-बार आहार करता है और तपस्या में रत नहीं रहता, वह पाप-श्रमण कहलाता है। जया सव्वं परिच्चज्ज गन्तव्बमवसस्स ते / अणिच्चे जीवलोगम्मि किं रज्जम्मि पसज्जसि ? // 18 // 12 // जब कि तू पराधीन है इसलिए सब कुछ छोड़ कर तुझे चले जाना है, तब इस अनित्य जीव-लोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ? Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा-पद जम्मं दुक्खं जरा दुक्ख रोगा य मरणाणि य / अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसन्ति जन्तवो // 19 / 15 / / __ जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है। अहो! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं। समया सव्वभूएसु सत्तु मित्तेसु वा जगे। पाणाइवायविरई जावज्जीवाए दुक्करा // 19 // 25 // विश्व के शत्रु और मित्र-सभी जीवों के प्रति समभाव रखना और यावज्जीवन प्राणातिपात की विरति करना बहुत ही कठिन कार्य है। निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो। समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य // 1989 // ममत्व-रहित, अहंकार-रहित, निर्लेप, गौरव को त्यागने वाला, त्रस और स्थावर सभी जीवों में समभाव रखने वाला (मुनि होता है)। लाभालामे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा / समो निन्दापसंसासु तहा माणवमाणओ // 1990 __लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में सम रहने वाला (मुनि होता है)। अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे नन्दणं वणं // 20 // 36 // मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही कूटशाल्मली. वृक्ष है, आत्मा ही काम-दुधा धेनु है और आत्मा ही नन्दनवन है। अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य / अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पढियसुपट्टिओ // 20 // 37 // ___ आत्मा ही दुःख-सुख की करने वाली और उनका क्षय करने वाली है / सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु है। महिंस सच्चं च अतेणगं च तत्तो य बम्भं अपरिग्गहं च / पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ // 21 // 12 // __ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार कर विद्वान् मुनि वीतराग-उपदिष्ट धर्म का आचरण करे / नाणेणं दंसणेणं च चरित्तेण तहेव य / खन्तीए मुत्तीए वड्ढमाणो भवाहि य // 22 // 26 तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षाँति और मुक्ति से बढ़ो। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक अध्ययन एगे जिए जिया पंच पंच जिए जिया बस / वसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामह // 23 // 36 // एक को जीत लेने पर पाँच जीते गए। पाँच को जीत लेने पर दस जीते गए। दसों को जीत कर मैं सब शत्रुओं को जीत लेता हूँ। सरीरमाहु नाव त्ति जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो जं तरन्ति महे सिणो // 23 // 73 // शरीर को नौका, जीव को नाविक और संसार को समुद्र कहा गया है। मोक्ष की एषणा करने वाले इसे तैर जाते हैं / जरामरणवेगेणं वुज्झमाणाण पाणिणं / धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं // 23 // 6 // ___ जरा और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। जा उ अस्सा विणी नावा न सा पारस्स गामिणी / जा निरस्साविणी नावा सा उ पारस्स गामिणी // 23 // 7 // - जो छेद वाली नौका होती है, वह उस पार नहीं जा पाती। किन्तु जो नौका छेद वाली नहीं होती, वह उस पार चली जाती है। जो न सज्जइ आगन्तुं पव्वयन्तो न सोयई। . रमए अज्जवयणं मि तं वयं बूम माहण // 25 // 20 // जो आने पर आसक्त नहीं होता, जाने के समय शोक नहीं करता, जो आर्य-वचन में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। न वि मुण्डिएण समणो ओंकारेण बम्भणो। न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो // 25 // 29 // __ केवल सिर मूंड लेने से कोई श्रमण नहीं होता, 'ओम्' का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता। समयाए समणो होइ बम्भचेरेण बम्भणो। नाणेण य मुणी होइ तवेणं होइ ताक्सो // 25 // 30 // समभाव की साधना करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की आराधना करने से मुनि होता है, तप का आचरण करने से तापस होता है। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 2, प्रकरण : 11 सूक्त और शिक्षा-पद कम्मुणा बम्मणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा // 25 // 31 // ___ मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है। उवलेवो होइ भोगेसु अभोगी नोवलिप्पई। भोगी भमइ संसारे अभोगी विप्पमुच्चई // 25 // 39 // __ भोगों में उपलेप होता है। अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है / अभोगी उससे मुक्त हो जाता है / खलुंका जारिसा जोज्जा दुस्सीसा वि हु तारिसा। जोइया धम्मजाणम्मि भज्जन्ति . धिइदुबला // 27 // ___ जुते हुए अयोग्य बैल जैसे वाहन को भग्न कर देते हैं, वैसे ही दुर्बल धृति वाले शिष्यों को धर्म-यान में जोत दिया जाता है तो वे उसे भग्न कर देते हैं। नासणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा। अगुणिस्स नस्थि मोक्खो नस्थि अमोक्खस्स निव्वाणं // 28 // 30 // ___ अदर्शनी (असम्यक्त्वी) के ज्ञान (सम्यग् ज्ञान) नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र गुण नहीं होते / अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। अमुक्त का निर्वाण नहीं होता। नाणेण जाणई भावे वंसणेण य सरहे / चरित्तण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई // 28 // 35 // जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से शुद्ध होता है। तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा विवज्जणा बालजणस्स दूरा। समायएगन्तनिसेवणा य सुत्तत्यसंचिन्तणया धिई य // 32 // 3 // ___ गुरु और वृद्धों ( स्थविर मुनियों ) की सेवा करना, अज्ञानी जनों का दूर से ही वर्जन करना, स्वाध्याय करना, एकान्त वास करना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना तथा धैर्य रखना-यह मोक्ष का मार्ग है / आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं / निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोगं समाहिकामे समणे तवस्सी // 32 // 4 // ___ समाधि चाहने वाला तपस्वी श्रमण परिमित और एषणीय आहार की इच्छा करे। जीव आदि पदार्थ के प्रति निपुण बुद्धि वाले गीतार्थ को सहायक बनाए और विविक्त (स्त्री, पशु, नपुंसक से रहित) घर में रहे। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 514 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति / कम्मं च जाईमरणस्स मूलं दुक्खं च जाईमरणं वयन्ति // 32 // 7 // ___ राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है। दुक्ख हयं जस्स न होइ मोहो मोहो हो जस्स न होइ तहा। तण्हा हया जस्स न होइ लोहो लोहो हो जस्स न किंचणाई // 32 // 8 // जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया है। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया। जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का नाश कर दिया। जे इन्दियाणं विसया मणुन्ना न तेसु भावं निसिरे कयाइ। न याऽमणुन्नेसु मणं पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी // 32 // 21 // समाधि चाहने वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के जो मनोज्ञ विषय हैं, उनकी ओर भी मन न करे-राग न करे और जो अमनोज्ञ विषय हैं, उनकी ओर भी मन न. करे-द्वेष न करे। न कामभोगा समयं उवेन्ति न यावि भोगा विगई उवेन्ति / जे तप्पओसी य परिग्गही य सो तेसु मोहा विगई उवेइ // 32 // 101 // काम-भोग समता के हेतु भी नहीं होते और विकार के हेतु भी नहीं होते / जो पुरुष उनके प्रति द्वष या राग करता है, वह तद्विषयक मोह के कारण विकार को प्राप्त होता है। जिणवयणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करेन्ति भावेण / अमला असंकिलिट्ठा ते होन्ति परित्तसंसारी // 36 // 260 // __ जो जिन-वचन में अनुरक्त हैं तथा जिन-वचनों का भाव-पूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असंक्लिष्ट होकर परीत-संसारी (अल्प जन्म-मरण वाले) हो जाते हैं। बालमरणाणि बहुसों अकाममरणाणि चेव य बहूणि। मरिहिन्ति ते वराया जिणवयणं जे न जाणन्ति // 36 // 26 // जो प्राणी जिन-वचनों से परिचित नहीं हैं, वे बेचारे अनेक बार बाल-मरण तथा अकाम-मरण करते रहेंगे। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- _