________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमण 303 - "राजन् ! अज्ञानियों के लिए रमणीय और दुःखकर काम-गुणों में वह सुख नहीं है, जो सुख कामों से विरक्त, शील और गुण में रत तपोधन भिक्षु को प्राप्त होता है। ___"नरेन्द्र ! मनुष्यों में चाण्डाल-जाति अधम है। उसमें हम दोनों उत्पन्न हो चुके हैं। वहाँ हम चाण्डालों की बस्ती में रहते थे और सब लोग हमसे द्वेष करते थे। ___ "हम दोनों ने कुत्सित चाण्डाल-जाति में जन्म लिया और चाण्डालों की बस्ती में निवास किया। सब लोग हमसे घृणा करते थे। इस जन्म में जो उच्चता प्राप्त हुई है, वह पूर्व-कृत शुभ कर्मो का फल है। "उसी के कारण वह तू महान् अनुभाव (अचिन्त्य-शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और पुण्य-फल युक्त राजा बना है। इसीलिए तू अशाश्वत भोगों को छोड़ कर चारित्रधर्म की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण कर। "राजन् ! जो इस अशाश्वत जीवन में प्रचुर शुभ-अनुष्ठान नहीं करता, वह मृत्यु के मुंह में जाने पर पश्चात्ताप करता है और धर्म की आराधना नहीं होने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है / "जिस प्रकार सिंह हिरण को पकड़ कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। काल आने पर उसके माता-पिता या भाई अंशधर नहीं होतेअपने जीवन का भाग दे कर बचा नहीं पाते। . "ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है। क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है। . "यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धन, धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़ कर केवल अपने किए कर्मों को साथ लेकर सुखद या दुःखद पर-भव में जाता है। ___ "उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में जला कर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता (जीविका देने वाले ) के पीछे चले जाते हैं। '"राजन् ! कर्म बिना भूल किए ( निरन्तर ) जीवन की मृत्यु के समीप ले जा रहे हैं। बुढ़ापा मनुष्य के वर्ण ( सुस्निग्ध कान्ति ) का हरण कर रहा है। पञ्चाल-राज ! मेरा वचन सुन, प्रचुर कर्म मत कर / चक्री ने कहा- "साधो ! तू जो मुझे यह वचन जैसे कह रहा है, वैसे मैं भी जानता हूँ कि ये भोग आसक्तिजनक होते हैं। किन्तु हे आर्य ! हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए वे दुर्जेय हैं। . "चित्र मुने ! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धि वाले चक्रवर्ती (सनत्कुमार) को देख भोगों में आसक्त हो कर मैंने अशुभ निदान (भोग-संकल्प) कर डाला।