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________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमण 263 कौशाम्बी पहुंचे। गाँव के बाहर एक उद्यान में ठहरे। वहाँ सागरदत्त और बुद्धिल्ल नाम के दो श्रेष्ठी-पुत्र अपने-अपने कुक्कुट लड़ा रहे थे / लाख मुद्राओं की बाजी लगी हुई थी। कुक्कुटों का युद्ध प्रारम्भ हुआ। सागरदत्त के कुक्कुट ने बुद्धिल्ल के कुक्कुट को गिरा डाला। पुनः बुद्धिल्ल के कुक्कुट ने सागरदत्त के कुक्कुट को गिरा दिया। सागरदत्त का कुक्कुट पंगु हो गया। वह बुद्धिल्ल के कुक्कुट के साथ लड़ने में असमर्थ था। सागरदत्त बाजी हार गया / इतने में ही दर्शक के रूप में खड़े वरधनु ने कहा-“यह क्या बात है कि सागरदत्त का कुक्कुट सुजाति का होते हुए भी हार गया ? यदि आपको आपत्ति न हो तो मैं परीक्षा करना चाहता हूँ।" सागरदत्त ने कहा-'महाभाग ! देखो-देखो मेरी लाख मुद्राएँ चली गई। इसका मुझे कोई दुःख नहीं है। परन्तु दुःख इतना ही है कि मेरे अभिमान की सिद्धि नहीं हुई।" वरधनु ने बुद्धिल्ल के कुक्कुट को देखा। उसके पाँवों में लोहे की सूक्ष्म सूइयाँ बंधी हुई थीं / बुद्धिल्ल ने वरधनु को देखा। वह उसके पास आ धीरे से बोला-"यदि तू इन सूक्ष्म सूइयों की बात नहीं बताएगा तो मैं तुझे अर्द्धलक्ष मुद्राएं दूंगा।" वरधनु ने स्वीकार कर लिया। उसने सागरदत्त से कहा-'श्रेष्ठिन् ! मैंने देखा, पर कुछ भी नहीं दीखा / बुद्धिल्ल को ज्ञात न हो इस प्रकार वरधनु ने आँखों में अंगुली के संचार के प्रयोग से सागरदत्त को कुछ संकेत किया / सागरदत्त ने अपने कुक्कुट के पैरों में सूक्ष्म सूइयाँ बाँध दी और बुद्धिल्ल का कुक्कुट पराजित हो गया। उसने लाख मुद्राएं हार दी। अब सागरदत्त और बुद्धिल्ल दोनों समान हो गए। सागरदत्त बहुत प्रसन्न हुआ। उसने वरधनु से कहा-"आर्य। चलो, हम घर चलें !" दोनों घर पहुंचे। उनमें अत्यन्त स्नेह हो गया / एक दिन एक दास-चेट आया। उसने वरधनु को एकान्त में बुलाया और कहा"सूई का व्यतिकर न कहने पर बुद्धिल्ल ने जो तुम्हें अर्द्धलक्ष देने को कहा था, उसके निमित्त से उसने चालीस हजार का यह हार भेजा है।" यों कह कर उसने हार का डिब्बा समर्पित कर दिया / वरधनु ने उसको स्वीकार कर लिया। उसे ले वह ब्रह्मदत्त के . पास गया / कुमार को सारी बात कही और उसे हार दिखाया / हार को देखते हुए कुमार की दृष्टि हार के एक भाग में लटकते हुए एक पत्र पर जा टिकी। उस पर ब्रह्मदत्त का नाम अंकित था। उसने पूछा-"मित्र ! यह लेख किसका है ?" वरधनु ने कहा"कौन जाने ? संसार में ब्रह्मदत्त नाम के अनेक व्यक्ति हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?" वरधनु कुमार को एकान्त में ले गया और लेख को देखा। उसमें यह गाथा अंकित थी पस्थिज्जइ जइ वि जए, जणेण संजोयजणियजत्तेणं / तह वि तुमं चिय धणियं, रयणवई भणइ माणे॥
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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