________________ खण्ड 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि ___ कहा है : “बहुत सारे कामासक्त लोग परलोक को नहीं मानते थे। वे कहते थे'परलोक तो हमने देखा नहीं, यह रति ( आनन्द ) तो चक्षु-दृष्ट है-आँखों के सामने है। ये काम-भोग हाथ में आए हुए हैं। भविष्य में होने वाले संदिग्ध हैं। कौन जानता है-परलोक है या नहीं? हम लोक-समुदाय के साथ रहेंगे।' ऐसा मान कर बाल-मनुष्य धृष्ट बन जाता है। वह काम-भोग के अनुराग से क्लेश पाता है। _ "फिर वह त्रस तथा स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है और प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही प्राणी-समूह की हिंसा करता है / हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला, छल-कपट करने वाला, चुगली खाने वाला, वेश-परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रकट करने वाला अज्ञानी मनुष्य मद्य और मांस का भोग करता है और यह श्रेय है-ऐसा मानता है। __ "वह शरीर और वाणी से मत्त होता है, धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है / वह राग और द्वेष—दोनों से उसी प्रकार कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग (अलस या केंचुआ) मुख और शरीर दोनों से मिट्टी का।'' ये लोग सम्भवत: भौतिकवादी या सुखवादी विचारधारा अथवा संजयवेलट्ठिपुत्त के संदेहवादी दृष्टिकोण से प्रभावित थे। कुछ श्रमण भी आत्मा और परलोक का अस्तित्व नहीं मानते थे। अजातशत्रु ने भगवान् बुद्ध से कहा- "भन्ते ! एक दिन मैं जहाँ अजितकेशकम्बल था वहाँ 0 / एक ओर बैठ कर० यह कहा-'हे अजित ! जिस तरह 0 / हे अजित 0 / उसी तरह क्या श्रमण भाव के पालन करते 0?' - "ऐसा कहने पर भन्ते ! अजितकेशकम्बल ने यह उत्तर दिया-'महाराज ! न दान है, न यज्ञ है, न होम है, न पुण्य या पाप का अच्छा बुरा फल होता है, न यह लोक है, न परलोक है, न माता है, न पिता है, न आयोनिज (=औपपातिक, देव ) सत्व हैं और न इस लोक में वैसे ज्ञानी और समर्थ श्रमण या ब्राह्मण हैं जो इस लोक और परलोक को स्वयं जान कर या साक्षात् कर (कुछ) कहेंगे। मनुष्य चार महाभूतों से मिल कर बना है / मनुष्य जब मरता है तब पृथ्वी, महापृथ्वी में लीन हो जाती है, जल०, तेज०, वायु० और इन्द्रियाँ आकाश में लीन हो जाती हैं / मनुष्य लोग मरे हुए को खाट पर रख कर ले जाते हैं, उसकी निन्दा, प्रशंसा करते हैं। हड्डियाँ कबूतर की तरह उजली हो (बिखर) जाती हैं और सब कुछ भस्म हो जाता है। मूर्ख लोग जो दान देते हैं, उसका कोई फल नहीं होता। १-उत्तराध्ययन, 5 / 5-10 /