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________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ४-आत्मा और परलोक 'आत्मा' शब्द ऋग्वेद-काल (1. 115. 1; 10.107.7) से ही प्रचलित रहा है। किन्तु इसके अर्थ का क्रमशः विकास हुआ है और तब अन्त में उपनिषदों में यह ब्रह्म के समकक्ष परम सत्त्व के रूप में व्याख्यात हुआ है। उदाहरणार्थ बृहदारण्यकोपनिषद् (1 / 1,1) में इसका अर्थ 'शरीर' है, वहीं (312,13) पर यह वैयक्तिक आत्मा को उदृिष्ट करता है फिर परम तत्त्व के अर्थ में तो यह प्रायः आता रहा है।' ___ ए० ए० मैकडोनल ने लिखा है- “ऐसा विश्वास किया जाता है कि अग्नि अथवा 'शवगर्त' (कब्र) केवल मृत शरीर को हो विनष्ट करते हैं, क्योंकि मृत व्यक्ति के वास्तविक व्यक्तित्व को अनश्वर ही माना गया है। यह वैदिक-धारणा उस पुरातन विश्वास पर आधारित है कि आत्मा में शरीर से अपने को अचेतनावस्था तक में अलग कर लेने की शक्ति होती है और व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। इसीलिए एक सम्पूर्ण सूक्त (10, 58) में प्रत्यक्षतः मृतवत् पड़े सुप्त व्यक्ति की आत्मा (मनस्) से, बाहर भ्रमण कर रहे स्थानों से पुनः शरीर में लौट आने की स्तुति की गई है / बाद में विकसित पुनर्जन्म के सिद्धान्त का वेदों में कोई संकेत नहीं मिलता, किन्तु एक ब्राह्मण में यह उक्ति मिलती है कि जो लोग विधिवत् संस्कारादि नहीं करते, वे मृत्यु के बाद पुनः जन्म लेते हैं और बार-बार मृत्यु का ग्रास बनते रहते हैं (शतपथ ब्राह्मण, 10, 4,3) / "2 उपनिषदों से पूर्ववर्ती वैदिक-साहित्य में आत्मा और परलोक के विषय में बहुत विशद चर्चा नहीं है। निर्ग्रन्थ आदि श्रमण-संघ आत्मा को त्रिकालवर्ती मानते थे। पुनर्जन्म के विषय में भी उनकी धारणा बहुत स्पष्ट थी.। भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा-"पुत्रो ! जिस प्रकार अरणी में अविद्यमान अग्नि उत्पन्न होती है, दूध में घी और तिलों में तैल पैदा होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं। शरीर का नाश हो जाने पर उनका अस्तित्व नहीं रहता।"3 तब पुत्र बोले-"पिता ! आत्मा अमूर्त है, इसलिए यह इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता / यह अमूर्त है, इसलिए नित्य है। यह निश्चय है कि आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बन्धन के हेतु हैं और बन्धन ही संसार का हेतु है-ऐसा कहा है।"४ १-वैदिक कोश, पृ० 36 / २-वैदिक माइथोलॉजी (हिन्दी अनुवाद), पृ० 316 / ३-उत्तराध्ययन, 14 / 18 / ४-वही, 14 / 19 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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