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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 67 और शुचिवादी थे।' त्रिदण्डी परिव्राजक श्रमण थे-यह निशीथ भाष्य की चूणि में उल्लिखित है / सूत्रकृतांग (1 / 1 / 3 / 8) की वृत्ति से भी उनके श्रमण होने की पुष्टि होती है। मूलाचार में भी तापस, परिव्राजक, एकदण्डी, त्रिदण्डी आदि को 'श्रमण' कहा गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 'स्नान आत्म-शुद्धि का साधन नहीं'-इस विषय में सब श्रमण-संघ एक मत नहीं थे। ३-कर्तृवाद जैन और बौद्ध जगत् को किसी सर्वशक्तिसम्पन्न सत्ता के द्वारा निर्मित नहीं मानते / भगवान महावीर ने कहा- "जो लोग जगत् को कृत बतलाते हैं, वे तत्त्व को नहीं जानते / यह जगत् अविनाशी है—पहले था, है और होगा।"४ बौद्ध-सिद्धान्त में किसी मूल कारण की व्यवस्था नहीं है। बौद्ध नहीं मानते कि ईश्वर, महादेव या वासुदेव, पुरुष, प्रधानादिक किसी एक कारण से सर्व जगत् की प्रवृत्ति होती है। यदि भावों की उत्पत्ति एक कारण से होती तो सर्व जगत् की उत्पत्ति युगपत् होती, किन्तु हम देखते हैं कि भावों का क्रम संभव है।" कुछ श्रमण जगत् को अण्डकृत मानते थे। उनके अभिमतानुसार जब यह जगत् पदार्थ शून्य था तब ब्रह्मा ने जल में एक अण्डा उत्पन्न किया। वह अण्डा बढ़ते-बढ़ते जब फट गया तब ऊर्ध्वलोक और अधोलोक ये दो भाग हो गए। उनमें सब प्रजा उत्पन्न हुई। इस प्रकार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश आदि की उत्पत्ति हुई-- माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे। असो तत्त मकासी य, अयाणंता मुसं वदे // 6 वृत्तिकार के अनुसार त्रिदण्डी आदि श्रमण ऐसा मानते थे / १-मूलाचार, पंचाचाराधिकार, 62, वृत्ति : __परिहत्ता-परिव्राजका एकदण्डीत्रिदण्ड्यादयः स्नानशीलाः शुचिवादिनः / २-निशीथ सूत्र, भाग 2, पृ० 2,3,332 / ३-मूलाचार, पंचाचाराधिकार, 62 / ४-सूत्रकृतांग, 1313339 / ५-बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० 223 / ६-सूत्रकृतांग, 111 / 3 / 8 / ७-वही, 131 // 3 // 8, वृत्ति : श्रमणा:-त्रिदण्डिप्रभृतय एके केचन पौराणिकाः न सर्वे / -
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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