________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमणे 273 [साधु-रूप ऋषियों को देख महानुभाव यक्ष उनके पीछे-पीछे आये। उन्होंने ही तेरे पुत्र को दुष्ट-चित्त तथा क्रोधित देख इस प्रकार बना दिया है ] यक्खा च मे पुत्तं अकंसु एवं त्वं एव मे मा कुद्धो ब्रह्मचारि, तुम्हें व पादे सरणं गतास्मि अन्वागता पुत्तसोकेन भिक्खु // 17 // [ यदि यक्ष मेरे पुत्र पर क्रोधित हुए हैं तो हे ब्रह्मचारी ! तू मुझ पर क्रोधित न हो! हे भिक्षु ! मैं पुत्र-शोक से दुखी हो तुम्हारी ही शरण आई हूँ।] तदेव हि एतरहि च मय्हं मनोपदोसो मम नत्थि कोचि, पुत्तो च ते वेद मदेन मत्तो अत्थं न जानाति अधिञ्च वेदे // 1 // [उस समय और इस समय भी मेरे मन में कुछ द्वेष नहीं है। तेरा पुत्र वेद-मत से मस्त हुआ है। उसने वेद पढ़कर अर्थ नहीं जाना।] अद्धा हवे भिक्खु मुहुत्तकेन मम्मुह्यते व पुरिसस्स सञ्जा एकापराधं खम भूरिपञ, न पण्डिता क्रोध बला भवन्ति // 19 // [भिक्षु ! ऐसा होता ही है कि क्षण भर में मनुष्य की बुद्धि मोह को प्राप्त हो जाती है। हे बहु-प्रज्ञ ! उसके एक दोष को क्षमा करें / पण्डितों का बल क्रोध नहीं है।] . इस प्रकार उसके क्षमा मांगने पर बोधिसत्व ने 'तो यक्षों को भगाने के लिए अमृतऔषध बताता हूँ' कह गाथा कही इदञ्च मय्हं उत्तिट्टपिण्ड मण्डव्यो भुञ्जतु अप्पपञो, यक्खा च ते नं न विहेठयेय्य . पुत्तो चते होहिति सो अरोगो // 20 // [यह मूर्ख मण्डव्य मेरा जूठा-भोजन खाये। उससे इसे यक्ष कष्ट नहीं देंगे और तेरा पुत्र निरोग हो जायगा।] उसने बोधिसत्व की बात सुन सोने का प्याला आगे बढ़ाया-'स्वामी ! अमृतौषध दें'। बोधिसत्व ने जूठी काँजी उसमें डाल कर कहा- "इस में से पहले आधी काँजी अपने पुत्र के मुंह में डाल कर शेष चाटी में पानी से मिला कर बाकी ब्राह्मणों के मुँह में