________________ खण्ड 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 71 ___ "भिक्षुओ, जैसे किसी आदमी के जहर में बुझा हुआ तीर लगा हो। उसके मित्र, रिस्तेदार उसे तीर निकालने वाले वैद्य के पास ले जावें। लेकिन वह कहे- 'मैं तब तक यह तीर नहीं निकलवाऊँगा, जब तक यह न जान लें कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है वह क्षत्रिय है, ब्राह्मण है, वैश्य है वा शूद्र है' ; अथवा वह कहे-'मैं तब तक यह तीर नहीं निकलवाऊँगा, जब तक यह न जान लूँ कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है, उसका अमुक नाम है, अमुक गोत्र है'; अथवा वह कहे- 'मैं तब तक यह तीर नहीं निकलवाऊँगा, जब तक यह न जान लूँ कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है, वह लम्बा है, छोटा है, वा मझले कद का है' ; तो हे भिक्षुओ, उस आदमी को इन बातों का पता लगेगा ही नहीं, और वह यों ही मर जाएगा। ___ "भिक्षुओ, 'संसार शाश्वत हैं'-ऐसा मत रहने पर भी, 'संसार अशाश्वत हैं'-ऐसा मत रहने पर भी, 'संसार सान्त है'- ऐसा मत रहने पर भी, 'संसार अनन्त है'-ऐसा मत रहने पर भी 'जीव वही है जो शरीर है'- ऐसा मत रहने पर भी, 'जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है'-ऐसा मत रहने पर भी 'जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, रोना-पीटना, पीड़ित होना, चिन्तित होना, परेशान होना तो (हर हालत में) है ही और मैं इसी जन्म में-- जीते जी-इन्हीं सबके नाश का उपदेश देता हूँ।"१ __ भगवान महावीर आत्मा और परलोक, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के प्रबल समर्थक थे। उनका युग आत्म-विद्या और परलोक-विद्या की जिज्ञासाओं का युग था। उस समय 'आत्मा है या नहीं' ?, 'परलोक है या नहीं ?, 'जिन या तथागत होंगे या नहीं' ?-ऐसे प्रश्न पूछे जाते थे। कुछ अल्पमति श्रमण इन प्रश्नों के जाल में उलझ भी जाते थे। इसीलिए भगवान् महावीर ने उस मानसिक उलझन को 'दर्शन परीषह' कहा। उन्होंने बताया-'निश्चय हो परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है अथवा मैं ठगा गया हूँ'-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। “जिन हुए थे, जिन हैं और जिन होंगे-ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते हैं'-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे / उत्तराध्ययन में 'परलोक' शब्द का पाँच बार (5 / 11; 1962; 22 / 16; 26 / 50; 34 / 60 ) तथा 'पूर्व-जन्म की स्मृति (=जाति-स्मृति ) का तीन बार (6 / 1,2; 14 / 5; 197,8) उल्लेख हुआ है / प्रकारान्तर से ये विषय बहुत बार चर्चित हुए हैं। ५-स्वर्ग और नरक ___ स्वर्ग और नरक की चर्चा वैदिक-साहित्य में भी रही है। ए० ए० मैकडोनल ने लिखा है १-संयुत्तनिकाय, 2115 ; बुद्ध वचन, पृ० 22-23 / २-उत्तराध्ययन, 2044-45 /