________________ प्रकरण : नवाँ १-तत्वविद्या तत्त्वविद्या हमारे ज्ञान-वृक्ष की वह शाखा है, जिसके द्वारा विश्व के अस्तित्वनास्तित्व की व्याख्या की जाती है। इसके माध्यम से लगभग सभी दार्शनिकों ने दो मुख्य प्रश्नों पर गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया। पहला प्रश्न यह रहा कि विश्व सत्य है 'या मिथ्या ? दूसरा प्रश्न था कि द्रव्य के अस्तित्व का स्रोत एक ही केन्द्र से प्रवाहित हो रहा है या उसके केन्द्र भिन्न-भिन्न हैं ? ... उपनिषद् और सृष्टि . उपनिषदों के ऋषि इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि विश्व सत्य है / उसके अस्तित्व का स्रोत एक हो केन्द्र है। वह ब्रह्म है। उन्होंने यह स्वीकार किया कि जो कुछ है, वह सब ब्रह्म है।' वह एक है, अद्वितीय है / जो नानात्व को देखता है-दो को स्वीकार करता है, वह बार-बार मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐतरेय उपनिषद् में बताया गया है कि सृष्टि से पूर्व एकमात्र आत्मा ही था। दूसरा कोई तत्त्व नहीं था। उसने सोचा लोकों की रचना करूं / इस चिन्तन के साथ उसने लोकों की रचना की। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आरम्भ में एक मात्र सत् ही था। उसने इच्छा की कि मैं बहुत होकें / इस इच्छा के साथ वह अनेक रूपों में व्यक्त हो गया। . वस्तुतः सत् एक ही है। वही ब्रह्म या आत्मा है / जितना नानात्व है, वह उसी का प्रपंच है। १-(क) छान्दोग्योपनिषद्, 3 / 14 / 1 : सर्व खल्विदं ब्रह्म। (ख) मुण्डकोपनिषद्, 2 / 2 / 11 : ब्रह्म वेदं सबम् / २-छान्दोग्योपनिषद्, 6 / 2 / 2 : एकमेवाद्वितीयम् / ३-बृहदारण्यकोपनिषद्, 4 / 4 / 19 ; कठोपनिषद्, 2 / 1 / 10 : मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति / ४-ऐतरेयोपनिषद्, 1 / 1 / 1-2 / / ५-छान्दोग्योपनिषद्, 6 / 2 / 2-3 /